अध्याय
81
स्वर्ग
का ढंग
सच्चे
शब्द
कर्ण-मधुर
नहीं होते हैं; कर्ण-मधुर
शब्द सच्चे
नहीं होते।
सज्जन
विवाद नहीं
करता है; जो
विवाद करता है,
वह सज्जन
नहीं।
बुद्धिमान
व्यक्ति बहुत
बातें नहीं
जानता है;
जो
बहुत बातें
जानता है, वह
बुद्धिमान
नहीं।
संत
अपने लिए
संग्रह नहीं
करते।
वे
दूसरे लोगों
के लिए जीते
हैं, और
स्वयं समृद्ध
होते जाते हैं;
वे
दूसरों को दान
देते हैं, और
स्वयं बढ़ती
प्रचुरता को
उपलब्ध होते
हैं।
स्वर्ग
का ताओ
आशीर्वाद
देता है, लेकिन
हानि नहीं करता।
संत
का ढंग संपन्न
करता है, लेकिन
संघर्ष नहीं
करता।
मनुष्य
जैसा है वैसा
एक झूठ है, एक
गहरा असत्य, एक
मिथ्यात्व, एक वंचना; पर्त दर
पर्त झूठ और
झूठ। जैसे
प्याज को कोई छीले, और
हर पर्त के
बाद नयी पर्त
निकलती आए, ऐसे मनुष्य
का झूठ है।
गहरी झूठ की
आदत है।
सत्य
अपने आप में न
तो कर्ण-मधुर
है और न कठोर; न
तो मीठा है न
कड़वा। लेकिन
मनुष्य इतना
असत्य है; इस
कारण सत्य के
शब्द सदा ही
कठोर मालूम
पड़ेंगे।
तुम्हारे
असत्य के
कारण। सत्य तो
निष्पक्ष है।
सत्य का कोई
स्वाद नहीं
है। सत्य तो स्वादातीत
है। लेकिन
तुम्हें
स्वाद आएगा, तुम पर
निर्भर
करेगा। अगर
तुम सच्चे हो
तो सत्य से
ज्यादा
कर्ण-मधुर और
कुछ भी नहीं।
अगर तुम झूठ
हो, जैसे
कि तुम बड़ी
मात्रा में हो,
तो सत्य हर
जगह से चोट
करेगा, चुभेगा,
कांटे जैसा
मालूम पड़ेगा।
इसे
ठीक से समझ
लेना, तो ही
लाओत्से के
वचन समझ में आ
सकेंगे।
अन्यथा भूल हो
सकती है।
जिस
व्यक्ति ने
अपने
व्यक्तित्व
के झूठ का परित्याग
कर दिया, जो
सहज और सरल हो
गया, उसके
लिए सत्य तो
अमृत जैसा
मालूम होगा।
उसके लिए बस
सत्य ही पीने
जैसा लगेगा।
वह वर्षों प्यासा
रह सकता है।
जैसे चातक की
कथा है कि
स्वाति की
बूंद की
प्रतीक्षा
करता है।
सरोवर भरा है
जल से, लेकिन
स्वाति की
बूंद की
प्रतीक्षा
करता है। ऐसे
ही बहुत ज्ञान
भरा रहे सब
तरफ, लेकिन
सत्य का खोजी,
सत्य की
बूंद की
प्रतीक्षा
करता है। वही
है अमृत, वही
बूंद बनेगी
मोती उसके
हृदय में जाकर,
उसी बूंद से
उसके मोक्ष का
द्वार
खुलेगा।
सत्य
अपने आप में न
तो मीठा है न
कड़वा। जो सत्य
को उपलब्ध हो
गया है, जो
सत्य हो गया
है, उसे न
तो सत्य मीठा
मालूम पड़ेगा न
कड़वा। सत्य तो
उसके होने के ढंग
में एक हो
जाएगा। उसका
कोई स्वाद ही
न आएगा। स्वाद
तो उसका आता
है जो हमसे
विजातीय हो, हमसे भिन्न
हो। तुम्हें
अपना ही स्वाद
आता है? अपना
क्या स्वाद!
सत्य को जो
उपलब्ध हो गया
है उसे सत्य
का कोई भी
स्वाद न आएगा;
उसे पता ही
न रहेगा कि
सत्य क्या है,
असत्य क्या
है। वह तो भूल
ही जाएगा, संसार
क्या है, मोक्ष
क्या है। ये
तो सब सपने हो
जाएंगे, जो
टूट गए। वह
नींद तो मिट
गई। जो सत्य
में जाग गया
है, सपनों
के स्वाद उसके
खो ही जाएंगे।
लेकिन
तुम जागे नहीं, तुम
गहन निद्रा
में हो। इसलिए
जो भी जगाएगा
वह कड़वा मालूम
पड़ेगा। जो भी जगाएगा!
क्योंकि नींद
को तुमने बड़ा
मधुर मान रखा
है। तो जो भी
तुम्हारी
नींद तोड़ेगा
वही दुश्मन
मालूम पड़ेगा।
सुबह कभी
तुम्हें उठना
हो पांच बजे
तो तुम कह कर
सोते हो कि
मुझे उठा
देना। तुम ही
कह कर सोते हो
कि उठा देना, और सुबह
पांच बजे जब
तुम्हें कोई
उठाने लगता है
तो शत्रु जैसा
मालूम पड़ता
है। नींद बड़ी
मधुर लग रही
है तुम्हें, और झूठ बड़े
प्यारे लग रहे
हैं। झूठ को
ही तुमने अपने
चारों तरफ
बसाया है। वही
तुम्हारा घर है।
वही तुम्हारी
दुनिया है।
उसके टूटने
में लगता है
तुम ही टूट
जाओगे। नींद
टूटने में ऐसा
लगता है तुम
टूट रहे हो।
जागरण
का तो कोई पता
नहीं है, नींद
का ही पता है।
उसी नींद में
मीठे सपने भी देखे
हैं। माना कि
दुखद स्वप्न
भी देखे हैं, लेकिन आदमी
दुख-स्वप्नों
को तो भूलता
चला जाता है; मीठे
स्वप्नों को
याद रखता है।
दुख को तो
स्मृति के
बाहर कर देता
है; सुख की
शृंखला को
संजो लेता है।
उसी की याद में
जो सुख अतीत
में पाया, और
उसी की आशा
में कि
फिर-फिर उसी
सुख को भविष्य
में पाऊंगा, आदमी चाहता
है सोया रहे।
तो जो भी जगाएगा
वह शत्रु
मालूम पड़ेगा।
सुबह की अजान,
मस्जिद से
उठती हुई, कर्ण-मधुर
नहीं मालूम
होगी, कड़वापन लगेगा। कड़वापन
तुम्हारे
कारण। ऐसा ही
समझो कि बहुत
दिन तुम बीमार
रहे हो; बुखार
से अभी-अभी
उठे हो।
मिष्ठान्न भी
मीठा नहीं
लगता।
तुम्हारी जीभ
अस्वस्थ है।
मिठाई की
मिठास, मिठास
और मिठाई में
कम, तुम्हारी
जीभ पर निर्भर
है।
तुम
उदास हो; आकाश
में पूर्णिमा
का चांद निकला
हो, वह भी
उदास लगता है।
लगता है रो
रहा है
जार-जार। अगर
तुम बहुत दुखी
हो--कोई मर गया
है, प्रीतम
से छूट गए हो, कोई
दुर्घटना घटी
है--लगेगा कि
चांद से आंसू
टपक रहे हैं।
फूल कुम्हलाए
हुए दिखाई
पड़ेंगे।
वृक्षों में
सन्नाटा होगा
उदासी का। तुम
जैसे होते हो
वही व्याख्या
तुम्हारे
चारों तरफ फैल
जाती है। फिर
प्रीतम घर लौट
आया है; तो
अमावस की रात
भी पूर्णमासी
से ज्यादा उजाली
मालूम पड़ेगी;
सूखे कुम्हलाए
फूलों में भी
नये जीवन का
आविर्भाव
दिखाई पड़ेगा;
सूख गए
पत्ते हरे
मालूम
पड़ेंगे। जब तुम्हारे
भीतर सावन है
तो सब तरफ
सावन हो जाता
है। जब
तुम्हारे
भीतर मरुस्थल
है, सब तरफ
मरुस्थल हो
जाता है।
क्योंकि तुम
केंद्र हो
तुम्हारे जगत
के। और तुमसे
ही व्याख्या उठती
है।
तो जब
लाओत्से कहता
है कि सत्य
शब्द
कर्ण-मधुर
नहीं होते, और
कर्ण-मधुर
शब्द सत्य
नहीं होते, तो तुम से
कुछ कह रहा
है। यह सत्य
के संबंध में वह
कुछ भी नहीं
कह रहा है; क्योंकि
सत्य के संबंध
में तो कुछ भी
कहा नहीं जा
सकता। वह
स्वयं ही कहता
है पहले सूत्र
में ताओ तेह
किंग के कि जो
कहा जा सके वह
सत्य नहीं है;
जो नहीं कहा
जा सके वही
सत्य है। तो
सत्य के संबंध
में तो
लाओत्से कुछ
भी नहीं कह
रहा है, तुम्हारे
संबंध में कह
रहा है। तुम
इतने झूठ हो
गए हो कि
तुम्हें सत्य
का स्वाद ही
खो गया है।
तुम इतने
विपरीत चले गए
हो कि सत्य
तुम्हें निकट
नहीं मालूम
पड़ता, दूर
मालूम पड़ता
है। दूर ही
नहीं मालूम
पड़ता, दुश्मन
मालूम पड़ता
है।
मैंने
सुना है कि
बर्नार्ड शॉ
से उसके एक
विरोधी ने कहा
कि तुम मेरे
संबंध में
झूठी बातों का
प्रचार बंद
करो,
अन्यथा
मुझसे बुरा
कोई भी न होगा!
बर्नार्ड शॉ
ने कहा, रुको,
पहले ठीक से
सोच लो। अभी
मैं तुम्हारे
संबंध में
झूठी बातों का
प्रचार कर रहा
हूं, अगर
मैं सत्य
बातों का
प्रचार करने
लगूं तब?
बर्नार्ड
शॉ यह कह रहा
है कि ये तो
झूठी बातें हैं
तुम्हारे
संबंध में, ये
इतना दुख दे
ही हैं; अगर
सत्य बातों का
प्रचार करूं
तो कितना दुख
न देंगी! तुम
मेरी अनुकंपा
अनुभव करो कि
मैं तुम्हारे
संबंध में
सत्य बातें
नहीं कह रहा
हूं।
तुम्हारे
संबंध में कोई
झूठ कह देता
है। अगर वह सच
में ही झूठ है
तो तुम परेशान
नहीं होते। उसमें
कोई सचाई होगी, तभी
तुम परेशान
होते हो। अगर
उसमें बिलकुल
ही सचाई न हो
तो परेशानी
होती ही नहीं।
उसमें जितनी
ज्यादा सचाई
होगी उतनी
परेशानी बढ़ती
जाती है।
तुम
बेईमान हो और
कोई बेईमान कह
देता है। तो तुम
तलवार निकाल
कर खड़े हो
जाते हो, क्योंकि
यह तो जीवन का
सवाल हो गया।
हो तुम बेईमान,
और अगर यह
बात फैल गई कि
बेईमान हो तो
बेईमानी करने
की सुविधा
क्षीण हो
जाएगी।
बेईमानी तो तभी
तक कर सकते हो
जब तक लोग
मानते हैं कि
तुम ईमानदार
हो। लोग जब तक
मानते हैं
ईमानदार हो
तभी तक तो
बेईमानी की
गुंजाइश है।
बेईमानी के
अपने पैर नहीं
हैं; वह भी
ईमानदारी के
कंधों पर बैठ
कर चलती है। झूठ
के अपने कोई
पैर नहीं हैं;
वह भी सत्य
का सहारा लेता
है। तो अगर
कोई तुमसे कह
दे कि तुम
झूठे हो, अगर
तुम सच में ही
झूठे हो तो
तुम उबल पड़ोगे,
भयंकर
क्रोध का जन्म
होगा। वह
क्रोध ही बता
रहा है कि
सत्य ने चोट
की। और अगर वह
झूठ ही था बिलकुल
तो तुम हंस कर
निकल जाते।
इसलिए
तो संतों को
तुम गाली देते
हो,
वे हंस कर
निकल जाते
हैं। इसलिए
नहीं कि तुम कुत्ते
हो और वे हाथी
हैं, कि भौंकते
रहें कुत्ते,
हाथी कोई
फिक्र नहीं
करता। नहीं, यह तो बड़े
अहंकार की
भावना हो गई।
वे सिर्फ इसलिए
हंस कर निकल
जाते हैं कि
बात में कोई
बल ही नहीं है;
क्रोध के
लायक मामला ही
नहीं है; हंसने
योग्य ही है।
और तुम पर
उन्हें दया
आती है कि तुम
कैसे झूठ में
पड़े हो।
सत्य
चोट करता है, क्योंकि
तुम झूठे हो।
सत्य कड़वा
लगता है, क्योंकि
तुम झूठे हो।
जिसने भी
हिम्मत की तुमसे
सत्य कहने की
उससे ही
तुम्हारी
दुश्मनी बन जाएगी।
ऐसा
हुआ। मेरे एक
परिचित थे, ख्यातिनाम व्यक्ति थे,
सेठ गोविंद
दास। संसद के
सदस्य थे पचास
वर्षों से।
दुनिया में
कोई आदमी इतने
लंबे समय तक
किसी संसद का
सदस्य नहीं
रहा। कोई सौ
किताबों के
लेखक थे। जीवन
भर राजनीति और
साहित्य में
बिताया था।
फिर उनके लड़के
की मृत्यु हो गई।
लड़का
मध्यप्रदेश
में उपमंत्री
था। और उससे
उन्हें बड़ी
आशाएं थीं, बड़ी महत्वाकांक्षाएं
थीं। उसकी
मृत्यु जैसे
उनकी ही
महत्वाकांक्षा
की मृत्यु थी।
बड़े दुखी हो
गए, आत्महत्या
की बात सोचने
लगे। और पहली
दफा साधु-संतों
के पास जाना
शुरू किया।
उसी
दुख की घड़ी
में वे मेरे
पास भी आ गए।
मुझसे कहने
लगे कि मैं
आचार्य तुलसी
के पास गया था, जैन
मुनि, प्रसिद्ध
जैन मुनि, और
उनसे जब मैंने
कहा कि मेरे
बेटे की
मृत्यु हो गई
है, आप कुछ
खोज कर बताएं
कि उसका जन्म
हो गया या नहीं,
तो
उन्होंने आंख
बंद की और वे
ध्यान में लीन
हो गए। और फिर
उन्होंने कहा
कि आप बड़े
सौभाग्यशाली
हैं, आपका
बेटा तो
स्वर्ग में
देवता हो गया।
बड़े
प्रसन्न मेरे
पास आए। कहने
लगे,
आदमी तो यह
है आचार्य
तुलसी। बड़े
साधु-संन्यासी
देखे, बाकी
ऐसा गहरा खोजी
नहीं देखा।
मैंने उनसे कहा
कि मैं एक
संन्यासी को
जानता हूं जो
स्वर्ग-नरक के
संबंध में
तुलसी जी से
बहुत आगे है।
आप उनके पास
जाएं। कभी आप
इलाहाबाद
जाएं तो वहां
एक स्वामी राम
हैं उनसे आप
मिलें। उनका
अन्वेषण
स्वर्ग-नरक
में तुलसी जी
से बहुत आगे
है। तुलसी जी
तो अभी सिक्खड़
हैं।
जरूर
कहा कि जाऊंगा।
गए। राम
स्वामी को
मैंने खबर कर
दी थी कि भई क्या-क्या
कहना।
उन्होंने आंख
बंद की। आंख
ही बंद नहीं
की,
बड़े हाथ-पैर
फड़फड़ाए, और चिल्लाए,
और चीखे,
और खड़े हुए।
सेठ जी बहुत
प्रभावित हुए
कि यह तो
तुलसी जी ने
भी नहीं किया
था। फिर
उन्होंने बिलकुल
उसी भावदशा
में कहा, एक
ग्राम है
जबलपुर के पास,
सालीवाड़ा ग्राम उसका
नाम है। सेठ
जी चौंके।
उनका ही गांव
है छोटा; खेती-बाड़ी
और बगीचा वहां
है। सालीवाड़ा!
और वहां एक
पीपल का वृक्ष
है बड़ा
प्राचीन। तब तो
पक्का हो गया,
यह आदमी बड़ा
गहरा है। है
वृक्ष वहां।
उसी वृक्ष पर
तुम्हारा
लड़का प्रेत
होकर रहने लगा
है। बहुत
धक्का लगा।
प्रेत? और
राम ने कहा, थोड़ा
सोच-समझ कर
जाना, क्योंकि
खतरनाक प्रेत
हो गया है।
क्योंकि
राजनीतिक जब
मरते हैं तो
खतरनाक प्रेत
होते ही हैं।
कभी राजनीतिक
को स्वर्ग
जाते सुना?
सेठ जी
की सब आस्था
डगमगा गई। इस
आदमी पर भरोसा
न आया कि यह भी
कोई साधु है!
और फिर कहा उस
स्वामी ने, और
जबलपुर में एक
मंदिर है, गोपालदास जी का
मंदिर। वह सेठ
जी का ही पुश्तैनी
मंदिर है।
वहां भी
तुम्हारा
लड़का रोज शाम
को छह बजे आता
है, पूजा
में सम्मिलित
होने।
लौट कर
आए। बिलकुल
उदास हो गए
थे। लड़का मरा
था,
उससे भी
ज्यादा दुखी
होकर लौटे।
कहने लगे, यह
कहां भेज दिया
आपने! यह आदमी
तो दुष्ट है।
और यह सच नहीं
हो सकता, यह
बात बिलकुल
झूठ है। यह
मैं मान ही
नहीं सकता।
तुलसी जी बिलकुल
ठीक हैं।
मैंने
कहा,
आप थोड़ा
सोचो। तुलसी
जी के ठीक
होने का आपके
लिए कोई
प्रमाण है? आपकी वासना
के, आपकी
महत्वाकांक्षा
के अनुकूल है।
आपका बेटा और
स्वर्ग में
पैदा न हो, यह
हो ही कैसे
सकता है!
अहंकार की
तृप्ति होती
है। यहां भी
आप चाहते थे
मुख्य मंत्री हो
जाए, यहां
भी आप सोचते
थे कि
जवाहरलाल के
बाद जगमोहन
दास के अलावा
कोई आदमी भारत
में है ही
नहीं काम का।
तो जवाहरलाल
के बाद अगर
भारत में समझ
होगी तो
जगमोहन दास, उनका लड़का
ही
प्रधानमंत्री
होना चाहिए।
वह यहां नहीं
हो पाया तो अब
कम से कम
स्वर्ग में
पैदा हो जाए। और
मैंने कहा, अगर दोनों
में कोई सच हो
सके तो यह राम
स्वामी ही सच
हो सकता है, क्योंकि
लड़का मरा
राजनीति के
तनाव में ही।
चौबीस घंटे की
कलह और संघर्ष
और राजनीति का
उपद्रव और
दांव-पेंच, वही उसे ले
डूबा। स्वर्ग
जाने की अगर
इन सबको
सुविधा है तो
साधु-संत कहां
जाएंगे?
मैंने
कहा,
तुलसी जी से
फिर पूछना कि
अगर
राजनीतिज्ञ
स्वर्ग में
देवता होने
लगे तो
तुम्हारा
क्या होगा? तुम कहां
जाओगे? कोई
जगह ही नहीं
बचती फिर।
नहीं, न तो
तुलसी जी सच
हैं और न कोई
राम स्वामी सच
हैं। राम स्वामी
तो निश्चित
झूठ थे वह तो
मेरे कहे से
उन्होंने सब
किया था।
लेकिन तुम वही
सुनना चाहते
हो जो
तुम्हारे
अहंकार को, तुम्हारे
झूठ को
परिपुष्ट
करे।
फिर वे
कभी राम
स्वामी के पास
दोबारा नहीं
गए। वे लोगों
को कहते रहे, वह
भी कोई साधु!
बहुत दुष्ट
प्रकृति का
आदमी है। मेरा
तो लड़का मर
गया, और
उसने इस तरह
की बातें
कहीं। मगर डर
के मारे वे सालीवाड़ा
जाना बंद कर
दिए। और गोपालदास
जी के मंदिर
भी सुबह जाने
लगे शाम की
बजाय। क्योंकि
शाम को, हो
न हो कहीं सच
हो यही। भीतर
तो डर। लेकिन
राम स्वामी के
खिलाफ जब तक
वे जिंदा
रहे--अब तो वे
भी चले गए--वे
जब भी मुझे
मिलते तो उनके
खिलाफ जरूर
कुछ कहते।
सत्य
और असत्य का
बड़ा सवाल नहीं
है। तुम जहां हो, उसे
जो परिपुष्ट
करे वह मधुर
लगता है।
तुम्हारी जो
मनोकामना है
उसे जो
परिपुष्ट करे
वह मधुर लगता
है, वह
मीठा लगता है,
वह अपना
लगता है। जो
तुम्हारी धारणा
को तोड़े वह
शत्रु लगता है;
बात कड़वी
लगती है।
तुम्हारी
जड़ों को हिलाए
उसे तुम कैसे
मित्र मान
सकते हो? वह
तो मृत्यु
जैसा मालूम
होता है।
इसीलिए तो तुमने
जहर दिया सुकरातों
को, सूलियों पर चढ़ाया
तुमने क्राइस्टों
को, पत्थर
मारे बुद्धों
को; और चालबाजों
को तुमने पूजा
है, झूठों
को तुमने पूजा
है।
लेकिन
इसमें कुछ
असंगति नहीं; गणित
साफ है। तुम
झूठे हो; तुम
झूठों को ही
पूज सकते हो।
तुलसी जी ने
होशियारी की।
आंख बंद करके
जो बात
उन्होंने
बताई कि
तुम्हारा
लड़का स्वर्ग
में पैदा हो
गया है, यह
बड़ी होशियारी
की बात है। यह
राजनीतिक
दांव-पेंच है।
तुम जो चाहते
थे वह कह
दिया।
तुम जो
चाहते हो वह
ठीक हो ही
नहीं सकता; तुम
ठीक नहीं हो।
इसलिए सत्य
कड़वा लगता है।
लाओत्से
के वचन को हम
समझने की
कोशिश करें।
"सच्चे
शब्द
कर्ण-मधुर
नहीं होते।'
क्योंकि
तुम असत्य हो; और
तुम्हारे
कानों में
इतने असत्य
भरे हैं कि
सत्य का पहले
तो प्रवेश का
ही उपाय नहीं।
सत्य को तुम
भीतर ही न
जाने दोगे। क्योंकि
वह तुम्हें
डगमगा देगा, वह तूफान की
तरह आएगा, आंधी
की तरह आएगा; तुम्हारे
सारे जीवन को
ध्वस्त कर
देगा। तो सत्य
को तुम पहले
तो सुनते ही
नहीं। अगर
भूल-चूक से
सुन लिया तो
तुम उसकी
व्याख्या
अपने हिसाब से
कर लेते हो।
फिर तुम
व्याख्या में
उसे लीप-पोत
देते हो।
तुम्हारी
व्याख्या ऐसी
है जैसे कि कड़वी
गोली किसी को
देनी हो तो
शक्कर चढ़ा दी।
तो तुम
व्याख्या कर
लेते हो कड़वे
सत्यों की, और
व्याख्या
करके तुम
निश्चिंत हो
जाते हो। या तो
तुम सुनते
नहीं, या
सुनते हो तो
गलत सुनते हो।
और अगर इन
दोनों बातों
को तोड़ कर कोई
व्यक्ति
तुम्हारे
भीतर सत्य को
पहुंचा दे तो
वह व्यक्ति
प्रीतिकर नहीं
मालूम होता।
गुरु कभी
प्रीतिकर
मालूम नहीं हो
सकता। गुरु तो
तभी प्रीतिकर
मालूम होगा जब
तुम मिटने को
तैयार हो
जाओगे।
मेरे
पास इतने लोग
आते हैं; उनमें
तीन कोटियों
के लोग हैं।
एक वे हैं जो इसलिए
आते हैं कि
मैं उनकी
मान्यताओं को
पुष्ट कर दूं।
वे मेरे पास
आते ही नहीं; वे अपनी
मान्यताओं की
पुष्टि के लिए
आते हैं। वे
जो मानते हैं,
अगर मैं भी
कह दूं कि ठीक
है, तो
उनके चित्त की
प्रसन्नता
देखने जैसी
होती है। उनका
अहंकार पुष्ट
हुआ। वे गीता
के भक्त थे, और मैंने
गीता की
प्रशंसा कर दी;
तत्क्षण
मैं उनके लिए
ज्ञानी हो
जाता हूं। मैं
ज्ञानी हो
जाता हूं, क्योंकि
वे ज्ञानी हैं,
और गीता में
उनकी श्रद्धा
है और मैंने
भी कह दी बात।
मैंने उनकी ही
बात कह दी।
ऐसे लोग मुझसे
आकर कहते हैं
कि आपने जो
कहा वह हमारी
ही बात कह दी; चित्त
प्रसन्न हो
गया; बड़े
आनंदित जा रहे
हैं।
ऐसा
मौका कम ही आ
पाता है। ऐसे
लोगों को मैं
आनंदित नहीं
भेजता।
क्योंकि वह तो
गलती हो जाएगी।
यह तो गलत तरह
का आनंद होगा।
यह तो दवा न
होगी, जहर
होगा। इनके
अहंकार को तो
तोड़ना है। और
अगर इनके
अहंकार में
गीता की
बुनियाद रखी
है तो गीता को
भी तोड़ना
जरूरी है, ताकि
इनका अहंकार
गिर जाए। अगर
इन्होंने अपने
अहंकार को
कृष्ण के
सहारे खड़ा कर
रखा है तो कृष्ण
को भी खींच
लेना जरूरी है,
ताकि इनका अहंकार
गिर जाए।
एक
मित्र कुछ ही
दिन पहले आए।
आते ही से हाथ
जोड़ कर कहा कि
और सब ठीक है, आप
कभी रामायण पर
बोलें। आए थे
मुझे सुनने
को। रामायण के
भक्त हैं।
मैंने कहा, राम में
मेरा कोई लगाव
नहीं। इसलिए
नहीं कि राम
में मेरा कोई
लगाव नहीं है।
जैसे ही मैंने
कहा राम में
मेरा कोई लगाव
नहीं, उनके
चेहरे पर
अंधेरे बादल
घिर गए। और
मैंने कहा, तुलसीदास होंगे
अच्छे कवि, लेकिन उनके
संतत्व में
मेरा भरोसा
नहीं। पैर के
नीचे से जमीन
खिसक गई; फिर
दोबारा उनके
मुझे दर्शन ही
न हुए। आए थे यहां
रुकने दस दिन
कि हां
सुनेंगे।
लेकिन दूसरे दिन
सुबह वे दिखाई
ही नहीं पड़े।
सांझ मिल कर ही
निबटारा हो
गया।
वे आए
थे सुनने कि
मैं राम की
प्रशंसा
करूं। राम की
प्रशंसा में
मुझे कोई
दिक्कत नहीं
है,
लेकिन
मुसलमान से
करता हूं मैं
राम की प्रशंसा,
राम के भक्त
से नहीं करता।
लोग मुझसे
पूछते हैं, यह लाओत्से
पर आप किसलिए
बोल रहे हैं? तो मैं कहता
हूं, यहां
कोई चीनी नहीं
है इसलिए। अगर
चीन जाऊं तो
लाओत्से पर
भूल कर नहीं
बोलूंगा।
क्योंकि वहां
लाओत्से के
आधार पर
अहंकार खड़े हो
गए हैं। वहां
तो लोग बड़े
प्रसन्न
होंगे कि ठीक;
उनकी ही बात
को मैं ठीक कह
रहा हूं।
इसे
थोड़ा समझ लें।
यह मेरा गणित
थोड़ा समझ में
आ जाए तो अच्छा।
न कुछ
लेना-देना है
लाओत्से से, न
कुछ लेना-देना
है कृष्ण से।
अगर सवाल है
कुछ तो मेरे
और तुम्हारे
बीच है।
तुम्हें
तोड़ना है।
तुम्हारे
अहंकार को
गिराना है। और
जो-जो सहारे
तुमने ले रखे
हैं वे भी
हटाने
पड़ेंगे। नहीं
कि वे सहारे
गलत थे, बल्कि
उन सहारों से
तुमने एक गलत
अहंकार खड़ा कर
लिया था।
इसलिए कभी हटाऊंगा
और कभी जमाऊंगा।
क्योंकि कभी
मुझे लगेगा कि
कोई ऐसा आदमी
आ गया, कोई
जैन आ जाए, तो
मैं राम की
प्रशंसा करता
हूं। गहरे में
सवाल इस तरह
के आदमी के
साथ यह होता
है कि वह जो
मानता है उसकी
परितृप्ति हो
जाए, उसका
अहंकार भर जाए;
मैंने भी
हां भर दी, मैंने
भी प्रमाण
पत्र दे दिया
कि वह ठीक है।
जब राम का
भक्त कहता है
राम पर कुछ
बोलें, तो
वह यह नहीं कह
रहा है कि राम
से उसको कुछ
लेना-देना है,
वह यह कह
रहा है कि
मेरी जो
मान्यताएं हैं
उनको तृप्त
करें, मेरी
मान्यताओं पर
जल सींचें।
राम से कोई
मतलब नहीं है।
मेरे अहंकार
को थोड़ा और
बढ़ा दें कि
मैं लौट कर
जाकर कह सकूं
कि मैं सदा
ठीक था, सदा
ही ठीक था।
मैं और तर्क
और प्रमाण
जुटा लूं अपने
ठीक होने के।
नहीं
ऐसी भूल मैं
नहीं करता।
ऐसा आदमी अगर
बहुत
हिम्मतवर हो
तो ही मेरे
पास टिक सकता
है,
नहीं तो भाग
जाएगा। उसके
बचने का कोई
उपाय नहीं।
बहुत साहसी हो
कि अपने
अहंकार को
टूटता देख सके
और रुक जाए, तो ही रुक
पाएगा। लेकिन
तो ही रुके तो
कोई अर्थ है।
तुम्हारे
अहंकार को बचा
कर तुम्हें
मैंने रोक भी
लिया अपने पास
तो तुम्हारी
भीड़ को इकट्ठा
करके क्या करूंगा?
तुम्हारी
भीड़ नहीं
चाहिए, तुम्हारा
निरहंकार भाव
चाहिए। एक भी
व्यक्ति मेरे
पास हो, लेकिन
निरहंकार की
भाव-दशा में
हो, तो जो
मैं चाहता
हूं--जो परम
फूल मुक्ति
का--वह उसमें
खिल सकता है।
दूसरी
तरह के लोग
हैं जो इस आशा
में मेरे पास
आते हैं, उनकी
कोई
मान्यताएं
नहीं हैं, वे
मान्यताओं की
तलाश में आते
हैं, कि
कुछ भरोसे के
लिए मिल जाए, कुछ विश्वास
करने को सहारा
मिल जाए। वे
डगमगा रहे
हैं। शायद
शिक्षा ने, आधुनिक जगत
ने उन्हें
ठीक-ठीक आधार
नहीं दिए मान्यताओं
के, धर्म
की ठीक-ठीक
शिक्षा नहीं
हो पाई बचपन
में, तो
उनका अहंकार
थोड़ा
डांवाडोल है,
संदिग्ध
है। वे आते
हैं इस तलाश
में कि मैं उनके
अहंकार को
असंदिग्ध कर
दूं, उन्हें
कुछ
मान्यताएं दे
दूं। उनके पास
मान्यताएं
नहीं हैं, वे
मेरे पास
मान्यता लेने
आते हैं।
वे भी
गलत लोग हैं।
क्योंकि मैं
किसी को
मान्यता देना
नहीं चाहता।
मैं तुम्हें
ज्ञान देना
चाहता हूं, मान्यता
नहीं।
मान्यता तो
झूठ है।
मान्यता का तो
अर्थ है: जो
तुम नहीं
जानते उसे मान
लिया; जिसे
नहीं देखा उसे
स्वीकार कर
लिया; जिसका
कोई स्वाद
नहीं लिया उस
पर उधार भरोसा
कर लिया। किसी
और की आंख से
देखने का नाम
मान्यता है।
वे चाहते हैं
कि मेरी आंख
से देखना हो
जाए। मेरी आंख
से तुम कैसे
देख सकोगे? तुम अपनी ही
आंख से देख
सकोगे। और
मेरी आंख से अगर
देखा तुमने तो
तुम्हारी आंख
अंधी हो जाएगी।
और तुम्हें
मैं अंधा नहीं
बनाना चाहता,
मैं
तुम्हें तुम्हारी
आंख देना
चाहता हूं।
विश्वास नहीं,
मान्यता
नहीं, बोध!
दूसरी
तरह का
व्यक्ति उतना
कठिन नहीं
जितना पहली
तरह का
व्यक्ति।
लेकिन वह भी
हैरान होता है।
वह आया था
अपनी
मान्यताओं को
मजबूत करने, और
उसके पास जो
थोड़ी-बहुत
संदिग्ध
मान्यताएं थीं
वे भी मैं तोड़
डालता हूं।
फिर एक
तीसरी तरह का
व्यक्ति है, जिसकी
न कोई मान्यता
है, न जो
किसी मान्यता
की तलाश में
आया है। वही
सत्य का खोजी
है। उसके लिए
सत्य बिलकुल
कर्ण-मधुर
होगा। उस पर
माधुर्य की
वर्षा हो
जाएगी। उसके
चारों तरफ
काव्य की धुन
बजने लगेगी।
उसे मैं एक
गीत की तरह
लपेट लूंगा
चारों तरफ से।
तत्क्षण उसके
भीतर नये का
आविर्भाव
होने लगेगा।
उसके भीतर के
मंदिर की घंटियां
बजने लगेंगी,
अर्चना के
दीये जल
जाएंगे, धूप
से सुगंध उठने
लगेगी। अगर
तुम शून्य
होकर आए हो तो
सत्य मधुर
लगेगा, अति
मधुर लगेगा।
उससे मीठा
कहीं कुछ है? तुम पर निर्भर
है, कैसे
तुम आए हो।
तीसरी
तरह का आदमी
तो बहुत
मुश्किल
कभी-कभी आता
है। दूसरी तरह
के लोगों को
थोड़ी कम मेहनत
से तीसरी तरह
का आदमी बनाया
जा सकता है।
पहली तरह के
लोगों को बड़ी
मुश्किल से
तीसरी तरह का
आदमी बनाया जा
सकता है। पहले
तो वे रुकते
ही नहीं, बनाने
का मौका नहीं
देते; भाग
जाते हैं।
उनकी मान्यता
को जरा चोट
लगी कि वे
भागे। वे
छुईमुई हैं।
तुमने
एक पौधा देखा
होगा, लजनू। उसको छू दो,
बस उसकी पंखुड़ी
बंद हो जाती
हैं एकदम, सब
पत्ते बंद हो
जाते हैं। वह
बिलकुल
मुर्दे की तरह
हो जाता है।
ऐसे ही पहली
तरह के लोग
हैं--छुईमुई।
उनकी मान्यता
को छू दो कि बस
समाप्त; वे
बंद हो गए।
फिर तुमसे
उनका कोई
लेना-देना न रहा।
फिर वे कभी
तुम्हारी तरफ
आंख उठा कर न
देखेंगे।
उनकी आंख बंद
हो गई। तुम
उनके लिए रहे नहीं,
वे
तुम्हारे लिए
न रहे। सब
सेतु टूट गए।
इस तरह का
आदमी सबसे
ज्यादा
अधार्मिक
आदमी है। और
इसी तरह के
लोग मंदिर-मस्जिदों
में अड्डा जमा
कर बैठे हैं।
तो बड़ी
दुर्घटना घट
गई है।
अधार्मिक
धार्मिक
स्थलों में
अड्डा जमा लिए
हैं।
दूसरी
तरह का आदमी
मध्य बिंदु
में है। वह
धार्मिक भी हो
सकता है, अधार्मिक
भी हो सकता
है। अगर कोई
उसकी मान्यताएं
मजबूत कर दे
और नयी
मान्यताएं दे
दे, तो वह
मंदिरों में
सम्मिलित हो
जाएगा। वह भी
अधार्मिक हो
जाएगा। और अगर
वह सौभाग्य से
किसी ऐसे
व्यक्ति के
पास पहुंच जाए
जो उसकी
डगमगाती हुई
मीनारों को
बिलकुल गिरा
दे, खाली
कर दे, नग्न
और शून्य, चित्त
में कोई धारणा
न रह जाए, तभी
तो तुम सत्य
के निकट आ
सकोगे। शून्य
चित्त हो तो
सत्य अमृत की
वर्षा है; भरा
हुआ चित्त हो
तो सत्य बड़ा
दुखदायी है।
पर
लाओत्से ठीक
ही कह रहा है।
क्योंकि
शून्य चित्त
तो कभी करोड़
में एकाध का
होता है। वह
अपवाद है। उसे
नियम के भीतर
लेने की जरूरत
नहीं है। वह
तो केवल नियम
को ही सिद्ध
करता है।
"सच्चे
शब्द
कर्ण-मधुर
नहीं होते।'
कैसा
दुर्भाग्य है
कि सच्चे शब्द
कर्ण-मधुर नहीं
होते! कैसा
दुर्भाग्य है
कि कर्ण-मधुर
शब्द सच्चे
नहीं होते!
होना तो इससे
उलटा ही चाहिए
कि झूठ कड़वा
हो। लेकिन
तुमने खूब
अभ्यास कर लिया
है झूठ का। अभ्यास
से कड़वी
चीजें भी मधुर
लगने लगती
हैं।
पहली
दफा तुम
सिगरेट पीना
शुरू करते हो; कड़वी
है। खांसी आती
है; आंख
में आंसू आ
जाते हैं; जरा
भी स्वाद नहीं
आता। अभ्यास
करना पड़ता है।
थोड़े ही दिनों
में तुम
अभ्यस्त हो
जाते हो। तिक्त
कड़वापन
खो जाता है; मधुर मालूम
पड़ने लगता है
धुएं का पीना।
शराब तुम पीना
शुरू करते हो,
तिक्त है।
फिर अभ्यास की
जरूरत है। एक
बार अभ्यास हो
गया तो शराब
में बड़ी
मधुरिमा
मालूम होने
लगती है; भागे
चले जा रहे हो
मधुशाला की
तरफ।
झूठ का
अभ्यास हो जाए
तो मधुर लगने
लगता है। और
झूठ का लंबा
अभ्यास है। इस
जन्म में भी
बहुत लंबा
अभ्यास है। और
पिछले जन्मों
की लंबी
यात्रा है।
उसमें झूठ ही
परिपोषित
किया गया है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
के घर मैं एक
दिन मेहमान
था। उसकी
पत्नी अमीर घर
की लड़की है।
और जैसा अमीर
घर की लड़कियां
होती हैं, एक
तो पत्नियां
वैसे ही
उपद्रव, गरीब
घर की हों तो
भी, अमीर
घर की पत्नी
तो फिर बहुत
उपद्रव। वह हर
छोटी बात में
याद दिला देती
है मुल्ला को
कि यह शानदार
मकान न होता
अगर मेरे बाप
के पास पैसे न
होते; यह
कार न खड़ी
होती पोर्च
में अगर मेरे
बाप के पास
पैसे न होते; जिस कुर्सी
पर आराम से
बैठे हो यह
कुर्सी घर में
न होती, भीख
मांग रहे होते,
अगर मेरे
बाप के पास
पैसे न होते।
मैं मेहमान था।
भोजन की थाली
लग गई थी, और
उसने अपना राग
छेड़ दिया
कि यह चांदी
की थालियों
में भोजन चल
रहा है, अगर
मेरे बाप के
पास पैसे न
होते तो
मुल्ला तुम
भीख मांगते!
मुल्ला ने कहा,
अब मैं सच
बात कह ही दूं,
अब बहुत हो
गया। मैं
तुझसे कहता
हूं कि अगर तेरे
बाप के पास
पैसे न होते
तो तू भी यहां
न होती, टेबल
और कुर्सी का
तो सवाल ही
नहीं है। तेरे
बाप के पास
पैसे न होते
तो तू भी यहां
न होती। हमने
कोई तुझसे
विवाह नहीं
किया, तेरे
बाप के पैसों
से विवाह किया
है।
प्रेम
तो झूठ है। सौ
में
निन्यानबे
मौके पर कभी
पैसे के लिए
है,
कभी
प्रतिष्ठा के
लिए है, कभी
चमड़ी के लिए
है, और कभी
बहुत क्षुद्र
बातों के लिए
है, जिनका
तुम हिसाब ही
न लगा सकोगे
कि कैसा पागलपन
है! पैसे के
लिए बहुत मौकों
पर प्रेम का
आवरण खड़ा हो
जाता है।
प्रतिष्ठा के
लिए, पद के
लिए, कुलीनता
के लिए, बड़ा
घर, बड़े
संबंधी, आर्थिक
लाभ, कभी
स्त्री की
चमड़ी सुंदर है
इसलिए; वह
भी ऊपर-ऊपर है,
क्योंकि
स्त्री चमड़ी
नहीं है, चमड़ी
से बहुत
ज्यादा है। और
चमड़ी तो भूल
जाएगी दो दिन
बाद; रोज
तो भीतर की
आत्मा के साथ
रहना पड़ेगा।
कभी आंखों के
लिए कि आंखें
सुंदर हैं। लेकिन
कहीं आंखों के
साथ रहने से
कुछ काम चला
है! कि कभी नाक
का आकार, कि
कभी वाणी की
मधुरता, और
कभी-कभी और भी
क्षुद्र
बातों के लिए
प्रेम का आवरण
खड़ा हो जाता
है, स्त्री
का चलने का
ढंग, कि
उसके मुड़ने
का ढंग, कभी
बहुत छोटी-छोटी
बातों के लिए।
लेकिन तुम इन
सबको प्रेम का
आवरण दे देते
हो। छोटी
बातें बड़ी
मालूम होने
लगती हैं।
लेकिन यह आवरण
टूटेगा, जब
तक कि प्रेम
ही न हो।
और
प्रेम अकारण
है;
प्रेम का
कोई कारण नहीं
है। न तो नाक
का झुकाव, न
आंख का
मछलियों जैसा
होना; कोई
कारण नहीं है
प्रेम का।
प्रेम अकारण भावदशा है;
अतक्र्य।
तुम यह नहीं
बता सकते कि
क्यों। क्यों
का अगर उत्तर
दे सको तो
तुम्हारा
प्रेम झूठा
है। तुम क्यों
का उत्तर खोजो,
और खोजो, और न पा सको, तो तुम्हारा
प्रेम सच्चा
है। तुम कहो
कि क्यों तो
कुछ भी नहीं
मिलता, कारण
तो कुछ भी
नहीं मिलता, बस हृदय है
कि बहा जाता
है। अगर तुम
कारण बता सको
कि इस कारण से
प्रेम है, तो
प्रेम नहीं
है। कारण ही
महत्वपूर्ण
है, धन, पद,
प्रतिष्ठा,
कुछ भी नाम
हो उसका। और
आज नहीं कल
चुक जाएगा। कारण
सदा चुक जाते
हैं। कारण
शाश्वत नहीं
हो सकते; कारण
तो क्षणभंगुर
जीवन है उनका।
अकारण प्रेम
शाश्वत हो
सकता है। वही
प्रेम है। फिर
जिससे तुमने प्रेम
किया है, उसका
शरीर भी छूट
जाए तो भी
प्रेम नहीं
छूटता।
अभी
मैं जैकुलिन
के चित्र देख
रहा था। दूसरा
पति मर गया, ओनासिस।
लेकिन जैकुलिन
के चेहरे पर
कोई उदासी और
दुख नहीं है। ओनासिस की
संपत्ति ही
कारण रही होगी
प्रेम का। और कैनेडी से
भी प्रेम नहीं
रहा होगा, क्योंकि
इधर कैनेडी
मरा नहीं कि
उधर नयी
साज-सज्जा, नये विवाह
का आयोजन हो
गया। शायद
आयोजन पहले से
ही तैयार था।
शायद कैनेडी
से भी प्रेम
इसीलिए लगा
लिया होगा कि कैनेडी की
बड़ी
संभावनाएं
थीं भविष्य
में, कभी न
कभी वह आदमी प्रेसिडेंट
होने ही वाला
था। उसमें
प्रतिभा थी, दौड़ थी, गति
थी, महत्वाकांक्षा
थी, अदम्य
महत्वाकांक्षा
थी। शायद उस
अदम्य महत्वाकांक्षा
के कारण ही यह
स्त्री कैनेडी
के प्रेम में
पड़ गई होगी।
फिर धन था
अपार। कैनेडी
मरा नहीं कि ओनासिस।
और ओनासिस
तो बूढ़ा आदमी
था; उनहत्तर
साल का होकर
मरा। फासला
लंबा है। जैकुलिन
पैंतालीस साल
की है। कुछ इस
बूढ़े से प्रेम
के कारण विवाह
न किया होगा।
दुनिया के
थोड़े से संपत्तिशालियों
में एक था ओनासिस;
उसकी
संपत्ति से
प्रेम किया
होगा। इधर ओनासिस
मरा नहीं कि
सारे अमरीका
में चर्चा
शुरू है कि अब
कौन? जैकुलिन किसके साथ
विवाह करने
वाली है? और
देर न लगेगी।
और अब तो देर
करने का समय
भी नहीं है; पैंतालीस
साल की है।
जल्दी ही करनी
पड़ेगी; नहीं
तो समय गुजर
जाएगा।
सारी
प्रेम की कथा
के पीछे अक्सर
कुछ और ही छिपा
होता है।
तुम्हारी
मित्रता के
पीछे कुछ और
ही छिपा होता
है। तुम्हारी
मुस्कुराहट
के पीछे कुछ
और ही छिपा
होता है। कोई
भी चीज सरल
नहीं मालूम
पड़ती कि तुम
सिर्फ
मुस्कुरा रहे
हो,
पीछे कुछ भी
नहीं है; कि
तुम सिर्फ
प्रेम कर रहे
हो, पीछे
कुछ भी नहीं
है; कि तुम
किसी के प्रति
मित्रता का
हाथ बढ़ा दिए
हो अकारण, पीछे
कुछ भी नहीं
है।
जिस
दिन तुम सच
होने शुरू हो
जाओगे, जब
तुम्हारा
प्रत्येक
कृत्य अपने आप
में समग्र
होगा और उसके
पार कुछ भी न
होगा, तब
तुम्हें सत्य
बड़ा कर्ण-मधुर
मालूम पड़ेगा;
उससे
ज्यादा
प्यारा कुछ भी
नहीं है। तुम
उसे आलिंगन कर
लोगे। उससे
सुंदर कुछ भी
नहीं है। उससे
संगीतपूर्ण
कुछ भी नहीं
है।
लेकिन
तुम्हारे विसंगीत
में,
तुम्हारे
भीतर के
कोलाहल में, तुम्हारे
कपट के जाल
में जब संगीत
की किरण आती
है, तो
तुम्हारे
कारण संगीत की
किरण संगीत की
किरण नहीं
मालूम पड़ती, उपद्रव मालूम
पड़ती है। तुम
अंधकार के
इतने आदी हो
गए हो कि जब
प्रकाश
तुम्हारे
द्वार आता है
तो तुम आंख
बंद कर लेते
हो, तुम तिलमिला
जाते हो।
तुम्हारी
तिलमिलाहट
प्रकाश के कारण
नहीं है, तुम्हारी
तिलमिलाहट
लंबे दिनों तक
अंधकार में
रहने के कारण
है।
"सच्चे
शब्द
कर्ण-मधुर नहीं
होते; कर्ण-मधुर
शब्द सच्चे
नहीं होते।'
ऐसे
बनने की कोशिश
करना कि सत्य
तुम्हें कर्ण-मधुर
हो सके। और तब
तक समझना कि
यात्रा करनी है
जब तक सत्य
कर्ण-मधुर न
हो जाए। चाहे
कितना ही
काटता हो, चाहे
आरे की तरह
तुम्हारी
आत्मा को
टुकड़े-टुकड़े
कर देता हो, तो भी तुम अपने
को इस योग्य
बनाते जाना कि
सत्य प्रीतिकर
लगे। क्योंकि
उसी प्रीति से
तो परमात्मा
तक पहुंचने का
सेतु बनेगा।
और अगर
असत्य
कर्ण-मधुर
लगता है, और
जानते हो कि
असत्य है...।
कोई
तुमसे कह देता
है,
अहा, कितने
सुंदर हो! और
तुम्हें खुद
ही शक है, आईने
में तुमने खुद
ही शक्ल बहुत
बार देखी है।
तुम खुद भी
नहीं कह सकते
इतने विश्वास
से कि अहा, कितने
सुंदर हो।
लेकिन दूसरे
पर तुम भरोसा
कर लेते हो।
असत्य कितना
सुंदर मालूम
पड़ता है! और
असत्य को जब
तक तुम सुंदर
मालूम करते हो,
सुखद, प्रीतिकर,
तब तक तुम
कैसे सत्य से
संबंध जोड़ पाओगे?
तब तो जोड?ना बिलकुल
मुश्किल है।
असत्य
तुम्हें लूट
ही लेगा, असत्य
तुम्हें बुरी
तरह दबा
डालेगा। और
तुम धीरे-धीरे
इतने झूठ हो
जाओगे कि तुम
यह भरोसा भी न
ला सकोगे कि
सत्य जैसी कोई
चीज होती है।
"सज्जन
विवाद नहीं
करता।'
विवाद
तो वे ही करते
हैं जिन्हें
अपने सत्य पर
भरोसा नहीं
है। विवाद तो
पैदा ही तब होता
है जब तुम
दूसरे के
सामने कुछ
सिद्ध करना चाहते
हो। लेकिन यह
बड़ा जटिल है।
जब भी तुम दूसरे
के सामने कुछ
सिद्ध करना
चाहते हो तो
असलियत में
तुम दूसरे के
माध्यम से
अपने सामने
कुछ सिद्ध
करना चाहते
हो। तुम
संदिग्ध हो।
हिंदू सिद्ध
करना चाहता है
हिंदू धर्म
सर्वश्रेष्ठ
है। यह
संदिग्ध है
आदमी। यह तर्क
का जाल फैला
कर अपने को
भरोसा दिलाना
चाहता है। और
दूसरे को दिला
पाए या न दिला
पाए,
अपने को तो
दिला ही लेगा।
दूसरे के
सामने हम सिद्ध
करने की कोशिश
करते हैं, ताकि
दूसरे की आंखों
में देख लें
कि हमारा तर्क
सार्थक है, तो हमें भी
खयाल आ जाए।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
एक रास्ते से
गुजर रहा है।
उसकी
रंग-बिरंगी पोशाक
और उसके चलने
का ढंग, कुछ
आवारा बच्चे
उसके पीछे हो
लिए हैं। कोई कंकड़ मार
रहा है; कोई
मजाक कर रहा
है। उनसे
छुटकारा पाने
के लिए मुल्ला
नसरुद्दीन
ने कहा कि
सुनो, तुम्हें
खबर है कि आज
राजमहल में
भोज दिया जा रहा
है सारे नगर
को! बच्चे साथ
हो लिए। वे
भूल गए कंकड़-पत्थर
फेंकना; वे
बात गौर से
सुनने लगे।
बच्चे बात गौर
से सुनने लगे,
मुल्ला भी
गरमा गया; बातचीत
में ज्यादा
गरमी आ गई; वाचाल
हो गया; भोजनों
की चर्चा करने
लगा कि
कैसे-कैसे, क्या-क्या
बन रहा है महल
में आज, और
तुम यहां क्या
कर रहे हो! बात
में जोश आ गया,
जैसा कि
बोलने वालों
को अक्सर आ
जाता है। बोलने
से गरमी बढ़ती
है। और अगर
सुनने वाले
उत्सुक दिखाई
पड़ें तो बुखार
और बढ़ता है।
जब बुखार तेजी
से हो जाता है
तो सन्निपात।
फिर बोलने
वाला कुछ भी
बोलता है।
इतनी उसने जोर
से चर्चा की
और इतनी प्रगाढ़ता
से भोजनों का
विवरण दिया कि
उसकी खुद की
जीभ में लार
आने लगी।
बच्चे
तो उसे छोड़ कर
भागे महल की
तरफ। जब बच्चे
भागने लगे आगे
की छाया में, और
दूर खोने लगे
सड़क पर, तो
मुल्ला भी
दौड़ने लगा। एक
बार उसने अपने
आपसे कहा, यह
क्या कर रहा
है नसरुद्दीन!
पर उसने कहा
कि बात में
जरूर कुछ
मामला होना ही
चाहिए, नहीं
तो बच्चे इतने
जल्दी भरोसा
नहीं कर सकते थे।
कौन जाने भोज
दिया ही जा
रहा हो? हर्ज
भी क्या है? देख तो लेना ही
चाहिए चल कर।
खुद ही
झूठ को गढ़ा
था। तुम खयाल
करो,
ये
कहानियां
केवल
कहानियां
नहीं हैं।
तुमने बहुत से
झूठ गढ़े
थे; फिर
धीरे-धीरे
तुमने खुद ही
उन पर विश्वास
कर लिया। जब
तुम दूसरे को
विश्वास दिला
देते हो तो
तुम्हें खुद
विश्वास आ
जाता है।
दूसरे के चेहरे
में तुम अपनी
तस्वीर देख
लेते हो, और
भरोसा आ जाता
है कि ठीक
होना ही
चाहिए। दुनिया
में जो लोग
दूसरे के
सामने कुछ
सिद्ध करने
में लगे रहते
हैं वे वे ही
लोग हैं जिनके
भीतर अभी कुछ
भी सिद्ध नहीं
हो पाया है।
"सज्जन
विवाद नहीं
करता।'
सज्जन
वक्तव्य देता
है। कह देता
है जो उसे ठीक
लगता है। वह
किसी विवाद के
लिए उत्सुक
नहीं है, वह
कुछ सिद्ध
करने को
उत्सुक नहीं
है। वह कोई तर्क,
वह कोई वकील
नहीं है, वह
कोई वकालत
नहीं कर रहा
है किसी
सिद्धांत की।
अपने अनुभव की
बात कह देता
है।
उपनिषद
जब पहली दफा
पश्चिम में
अनुवादित हुए तो
अनुवाद करने
वाले बड़े चकित
हुए कि
उपनिषदों में
कोई तर्क नहीं
हैं,
सिर्फ स्टेटमेंट
हैं, वक्तव्य
हैं। उपनिषद
कहते हैं, ब्रह्म
है; तुम भी
ब्रह्म हो।
मगर कोई तर्क
नहीं देते; कोई सिलोजिज्म
कोई अरस्तू के
ढंग का कि
क्यों ऐसा है।
इसके लिए कोई
प्रमाण नहीं
देते।
वक्तव्य देते
हैं; सीधे-सादे
वक्तव्य हैं।
जानना हो, तुम
भी जान लो।
बाकी उपनिषद
का ऋषि सिद्ध
करने की कोई
कोशिश नहीं कर
रहा है। जब
भीतर सब सिद्ध
हो जाता है तो
कौन फिक्र
करता है किसी
के सामने
सिद्ध करने की?
तो एक
तो वे लोग हैं
जो दूसरों के
सामने सिद्ध करके
अपने को भरोसा
दिलाना चाहते
हैं। और दूसरे
वे लोग हैं
जिन्होंने
अनुभव कर लिया, खुद
सिद्ध हो गए।
अब वे किसी के
सामने कुछ सिद्ध
नहीं करना
चाहते हैं।
और मजा
यह है कि जो
दूसरे को
चेष्टा करते
हैं सिद्ध
करने की, खुद
चाहे धोखे में
पड़ जाएं, दूसरे
को कभी धोखा
नहीं दे पाते।
तुमने कभी
कोशिश की कि
जब भी तुम
तर्क से किसी
को समझाने की
कोशिश करते हो,
तो यह हो
सकता है तुम
उसका मुंह बंद
कर दो--तर्क तीखा
प्रहार है; किसी का
मुंह बंद कर
सकता
है--लेकिन
क्या तुमने
कभी यह पाया
कि तर्क से
तुमने कभी
किसी दूसरे पर
विजय कर ली हो,
दूसरे के
हृदय को जीत
लिया हो? मुंह
बंद कर सकते
हो। मुंह बंद
करने से कहीं
हृदय जीता
जाता है? वह
आदमी कसमसाएगा।
वह आदमी भीतर
से तो जानता
ही है कि
मामला गलत है।
सिर्फ तुम
तर्क दे रहे
हो। और तर्क
तो गलत से गलत
बात के लिए भी
दिए जा सकते
हैं। तर्क को कोई
चिंता ही नहीं
है कि तुम किसके
लिए दे रहे
हो। तर्क तो
वेश्या है। वह
किसी के भी
साथ जाने को
तैयार है।
इसलिए तो कहा
जाता है कि
वकील और
वेश्या
स्वर्ग नहीं
जा सकते। किसी
के संगी-साथी
नहीं हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन अपने
वकील के घर
गया। और उसने
जाकर विस्तार
से,
एक मुकदमा
उस पर चलने वाला
है, उसकी
सारी बात कही।
सारी बात कह
कर उसने कहा कि
क्या खयाल है
आपका जीत
सकूंगा या
नहीं? वकील
ने कहा कि जीत
सौ प्रतिशत
निश्चित है; इसमें तो
कोई मामला ही
नहीं है। तुम
जीते ही हुए
हो, बस
थोड़ा अदालत से
गुजरना है, प्रक्रिया
से। अन्यथा
तुम जीते ही
हुए हो। मुल्ला
ने नमस्कार की
और चलने लगा।
वकील ने कहा, कहां जाते
हो, मेरी
फीस? और
सारा इंतजाम?
उसने कहा, कोई जरूरत
नहीं है। यह
तो मैंने
विपक्षी की तरफ
से सारी बात
कही थी। अब
लड़ने की कोई
जरूरत ही नहीं।
यह तो मेरे
विरोधी की तरफ
से मैंने मामला
पेश किया था।
और तुम कहते हो
कि सौ प्रतिशत
जीत, तो
मामला खतम ही
है। हार ही
जाना बेहतर, अदालत तक
जाने की जरूरत
क्या है?
लेकिन नसरुद्दीन
गलत है। वकील
तो हर हालत
में यही कहता; तुम
अपना मुकदमा
रखते तो भी
कहता कि सौ
प्रतिशत जीत
है; वकील
तो हर हालत
में कहेगा कि
जीत है। और
ऐसा भी नहीं
है कि जीत
नहीं हो सकती;
सिर्फ बड़ा
वकील चाहिए।
अदालत सत्य और
असत्य के बीच
थोड़े ही
निर्णय करती
है, छोटे
वकील और बड़े
वकील के बीच
निर्णय करती
है। कोई अदालत
दुनिया में
कैसे सत्य और
असत्य का निर्णय
कर सकेगी? अदालतों
का काम है
सत्य और असत्य
का निर्णय? समाधि में
ही तय हो सकता
है कि क्या
सत्य और क्या
असत्य। अदालत
कैसे करेगी? अदालत तो
इतना ही कर
सकती है कि
किसकी तरफ से
बड़ा वकील लड़
रहा है, किसकी
तरफ से छोटा
वकील लड़ रहा
है। कौन
ज्यादा फीस दे
सकता है, वह
सत्य होकर
निकल आता है।
कौन कम फीस दे
सकता है, वह
असत्य हो जाता
है। अमीर जीत
जाता है; गरीब
हार जाता है।
वकील पर
निर्भर है, तर्क पर
निर्भर है कि
तुम कितना
मंहगा और सुसंस्कृत
तर्क खरीद
सकते हो, बस।
तर्क का कोई
पक्ष नहीं है,
किसी के भी
साथ हो लेता
है।
सज्जन
विवाद नहीं
करता, क्योंकि
सज्जन का तर्क
पर भरोसा नहीं
है, अनुभव
पर भरोसा है।
इसे
थोड़ा ठीक से
समझ लो। पंडित
का तर्क पर
भरोसा है; पंडित
तर्क देता है।
वह सिद्ध कर
सकता है कि ईश्वर
है या नहीं।
ऐसे ही पंडित
और दूसरे
पंडितों को
पैदा कर देते
हैं जो
नास्तिकों के
पंडित हैं।
क्योंकि जब
तुम तर्क देते
हो कि ईश्वर है,
तुम ईश्वर
को अदालत में
खड़ा कर दिए।
अब नास्तिक भी
तर्क दे सकता
है, बड़े
तर्क दे सकता
है। कभी तुमने
सुना कि कोई आस्तिक
किसी नास्तिक
को तर्क से
आस्तिक बना पाया
हो? या कभी
कोई नास्तिक
किसी आस्तिक
को तर्क से नास्तिक
बना पाया हो?
तर्क
से बदलाहट
होती ही नहीं, हृदय
अछूता रह जाता
है। सारी
बदलाहट हृदय
की है, भाव
की है।
तुम्हारा
हृदय प्रेम से
जीता जाता है,
तर्क से
नहीं। तर्क तो
तुम्हारे
हृदय के पास भी
न पहुंच पाएगा,
फटक भी न
पाएगा पास।
सज्जन
तुम्हें
जीतता है अपने
होने से। उसका
व्यक्तित्व
ही उसका एकमात्र
तर्क है। उसका
होना ही
एकमात्र प्रमाण
है।
मेस्टर
एकहार्ट हुआ, जर्मनी
का एक बहुत
बड़ा
रहस्यवादी
संत। एक तर्कनिष्ठ
पंडित उसके
पास गया और
उसने कहा, एकहार्ट,
मैंने सुना
है कि तुम
ईश्वर में
भरोसा करते हो।
तुम मेरे
सामने सिद्ध
करो, मैं
तुम्हें
चुनौती देता
हूं! एकहार्ट
ने कहा, चुनौती
हम स्वीकार करते
हैं, लेकिन
हमारे सिद्ध
करने के ढंग
अलग-अलग हैं।
तुम बातचीत
करोगे, मैं
मौन बैठूंगा;
तुम बुद्धि
का फैलाव
करोगे, मैं
हृदय को बहाऊंगा।
तो कह नहीं
सकता कि हमारा
मेल कहीं हो
पाएगा कि नहीं
हो पाएगा।
क्योंकि हम
अलग-अलग तरह
के लोग हैं।
मेरा होना ही
प्रमाण है ईश्वर
का। मेरी तरफ
देखो! मेरी
आंखों में
झांको! क्या
तुम्हें मेरी
आंखों में
वैसी झील
दिखाई पड़ती है
जिसका कोई अंत
न हो? अगर
दिखाई पड़ती है
तो परमात्मा
के बिना यह
कैसे हो सकता
है? मेरे
पास आओ। मेरे
हाथ को अपने
हाथ में ले
लो। अनुभव
करो। क्या कोई
प्रेम
तुम्हारी तरफ
बह रहा है
अकारण? अगर
अनुभव कर सको
तो बिना
परमात्मा के
यह कैसे हो
सकता है? मैं
प्रार्थना
करने
बैठूंगा। तुम
बैठो, देखो,
आंख से
अपूर्व आंसू
बहते हैं आनंद
के। तुम मेरे
आंसुओं को
समझो। क्या
बिना गहन
प्रेम के यह संभव
है? क्या
बिना गहरी
विरह-वेदना के
यह संभव है? अगर
परमात्मा न हो
तो इतने विराट
प्रेम की प्यास
मुझमें कैसे
हो सकती है? तुम मुझे
जानो, शायद
तुम पहचान लो।
लेकिन तर्क
मेरे पास कोई
भी नहीं। मैं
ही तर्क हूं।
संत
स्वयं तर्क
है। और जो संत
को समझ सकते
हैं उनके लिए
परमात्मा एक
सिद्धांत हो
जाता है। क्योंकि
संत ही असंभव
है बिना
परमात्मा के।
संत प्रमाण हो
जाता है। संत
इस पृथ्वी के
गहन अंधकार
में उस महा-प्रकाशवान
की छोटी सी
किरण है। माना
कि मिट्टी का
दीया है, मगर
ज्योति उसी
परमात्मा की
है। और अगर
तुम मिट्टी के
दीये में जलती
ज्योति को
पहचान लो तो आकाश
के महासूर्यों
में भरोसा आ
जाएगा।
लेकिन
संत विवाद
नहीं करता।
विवाद तो
हिंसा है, असज्जन
का लक्षण है।
विवाद
जबरदस्ती है
तुम्हें
दबाने की।
विवाद
हिंसात्मक
आक्रमण है तुम्हारे
ऊपर। विवाद का
अर्थ है कि
मैं सिद्ध करके
रहूंगा और
तुम्हें
झुकना पड़ेगा।
विवाद तलवार
है, सूक्ष्म,
शब्दों की,
तर्क की, लेकिन है
तलवार। और तुम
विवाद के
सामने अगर झुक
गए, अगर
तुमने ऐसे
तर्क मान लिए
जिन्हें
तुम्हारा
हृदय इनकार
करता था तो
तुम भटक
जाओगे। तुम आस्तिक
भी हो सकते हो
तर्क मान कर, तब भी तुम
आस्तिक न हो
पाओगे।
क्योंकि
आस्तिकता का
कोई संबंध ही
तर्क से नहीं
है। तुम
नास्तिक भी हो
सकते हो।
दोनों बराबर
हैं। आस्तिक
और नास्तिक
में जरा भी
फर्क नहीं है।
अगर तुमने
तर्क के कारण,
विचार के
कारण
आस्तिकता और
नास्तिकता को
चुन लिया, तुम
में कोई बहुत
फर्क नहीं है।
तुम एक ही नदी के
दो किनारे हो।
फर्क
तो उस आदमी
में है जिसने
तर्क के कचरे
को एक तरफ
फेंक दिया, और
हृदय की पुकार
सुनी, आह्वान
सुना अपनी ही
गहराइयों का।
धरातल पर, सतह
पर जो हो रहा
था उसकी चिंता
छोड़ दी विचार
की तरंगों की,
गहन में
उतरा, भीतर
की पुकार सुनी,
और उस भीतर
की पुकार के
सहारे चलने
लगा। वही आस्तिक
है। लेकिन
उसको आस्तिक
कहना भी ठीक
नहीं है; क्योंकि
वह नास्तिक के
विरोध में
नहीं है। वस्तुतः
वह
आस्तिकता-नास्तिकता
के पार हो गया,
क्योंकि
तर्क के पार
हो गया।
"सज्जन
विवाद नहीं
करता।'
वह कुछ
भी सिद्ध करने
के लिए उत्सुक
नहीं है। अगर
उसका होना ही
काफी प्रमाण
नहीं है तो वह
चिंता नहीं
करता।
क्योंकि जब
उसका होना ही
प्रमाणित
नहीं कर सकता
तो और क्या
प्रमाणित
करेगा?
"बुद्धिमान
व्यक्ति बहुत
बातें नहीं
जानता; जो
बहुत बातें
जानता है वह
बुद्धिमान
नहीं है।'
बुद्धिमान
व्यक्ति एक ही
बात जानता है; उसका
सारा जानना एक
का ही जानना है।
वह हजार ढंग
से वही कहता
है, वह एक
ही कहता है।
उसका स्वर एक
है। वाद्य वह
कोई भी चुने, कभी वीणा पर बजाए, कभी
बांसुरी पर, कभी सितार
को छेड़े, कभी तबले पर,
मृदंग पर।
लेकिन उसका
स्वर एक है, उसका गीत एक
है। वह गाता
एक ही बात है।
मैं तुमसे रोज
बोलता हूं, और ऐसा रोज
बोलता रह सकता
हूं अनंत काल
तक। मगर मैंने
तुमसे एक बात
छोड़ कर दूसरी
बात नहीं कही
है। बहुत-बहुत
द्वारों से
मैं तुम्हें
एक ही द्वार
पर ले आया
हूं।
बहुत-बहुत
शब्दों से एक
निशब्द की तरफ
ही इशारा किया
है।
लाओत्से
कहता है, बुद्धिमान
आदमी बहुत
बातें नहीं जानता।
वह एक को ही
जान लेता है; क्योंकि उस
एक को ही जान
लेने से सब
जान लिया जाता
है।
उद्दालक
का बेटा
श्वेतकेतु घर
लौटा तो उसके
पिता ने पूछा, तू
क्या-क्या जान
कर लौटा है? तो उसने कहा,
सब जान कर
लौटा हूं।
ज्योतिष, गणित,
व्याकरण, भाषा, भूगोल,
इतिहास, पुराण,
वेद, स्मृतियां,
श्रुतियां;
सभी जान कर
लौटा हूं। बाप
ने कहा, तूने
वह एक जाना या
नहीं जिसको
जान लेने से
सब जान लिया
जाता है? श्वेतकेतु
बहुत अकड़ से
आया था, सब
जान कर आया था,
प्रमाणपत्र
लेकर आया था
गुरुकुल से।
गुरुओं ने बड़ी
प्रशंसा की थी,
क्योंकि
बड़ा
प्रतिभाशाली
व्यक्ति था।
स्मृति उसकी
अपार थी; वेद
कंठस्थ हो गए
थे। सोचा था
बाप बहुत
प्रभावित
होगा। और बाप
ने एक अजीब सा
सवाल पहले ही
क्षण में पूछ
लिया कि बेटा
जमीन पर गिर
गया, अहंकार
टूट गया। कहा
कि नहीं, उस
एक को तो जान
कर नहीं आया
जिसको जानने
से सब जान
लिया जाता है।
सब जान कर आया
हूं; एक का
मुझे कोई भी
पता नहीं है।
गुरुओं ने उसकी
बात ही नहीं
की। यह सवाल
ही वहां नहीं
उठा। तो बाप
ने कहा, वापस
जा। सब जानने
से क्या होगा?
यह तो सब
असार है। तू
तो एक को ही
जान कर लौट।
उस एक को ही
जान लेने से
सब जान लिया
जाता है।
वापस
लौट गया
श्वेतकेतु एक
को जानने।
लाओत्से
कहता है, "बुद्धिमान
व्यक्ति बहुत
बातें नहीं
जानता है; जो
बहुत बातें
जानता है वह
बुद्धिमान
नहीं है।'
बहुत
के जानने का
आग्रह ही
इसलिए होता है
कि तुम एक से
चूक रहे हो।
एक को पा लोगे, तृप्त
हो जाओगे; जानने
की प्यास ही
बुझ जाएगी।
इसलिए बहुत
बातें जानते
हो, जानने
की चेष्टा
करते हो, और
जान लें, और
जान लें, क्योंकि
प्यास मिटती
नहीं।
तुम्हारा
ज्ञान, जिसको
तुम ज्ञान
कहते हो, कितना
ही पीए चले
जाओ, कंठ
सूखता ही चला
जाता है; प्यास
मिटती नहीं।
प्यास नहीं
मिटती तो मन
होता है और पीयो,
और पीयो।
शायद
पर्याप्त
नहीं पी रहे
हैं। इसलिए
आदमी ज्ञान को
इकट्ठा करता
चला जाता है।
वह
ज्ञान का सागर
हो सकता है, लेकिन
प्यास न
मिटेगी।
क्योंकि सागर
से कहीं प्यास
मिटी है? प्यास
के लिए तो
छोटा सा एक का
झरना चाहिए।
बड़े से बड़ा
सागर भी प्यास
न बुझा सकेगा।
वह बहुत खारा
है। तुम सब
जान लो, सागर
जैसा
तुम्हारा
ज्ञान हो जाए
विस्तीर्ण, फिर भी तुम
प्यासे
रहोगे।
तृप्ति तो
उसके झरने से
मिटती है, तृप्ति
तो उसके झरने
से होती है; वह एक का
झरना है। उस
एक को ही
उपनिषद
ब्रह्म कहते
हैं, उस एक
को ही लाओत्से
ताओ कहता है।
उस एक को तुम
जो भी नाम
देना चाहो दे
दो, परमात्मा
कहो, निर्वाण
कहो, सत्य
कहो, पर वह
एक है। और वह
एक तुमसे दूर
नहीं; तुम्हारे
भीतर है।
असल
में,
जो स्वयं को
जान लेता वह
सब जान लेता।
क्योंकि
स्वयं सबका
सार-संचित है;
स्वयं के
भीतर सारा
ब्रह्मांड
छिपा है छोटे
से पिंड में।
अनंत आकाश
समाया है
तुम्हारे
छोटे से हृदय
में। वह
बीज-रूप है, यह विराट
वृक्ष-रूप है।
बीज को जिसने
जान लिया उसने
पूरे वृक्ष को
जान लिया।
क्योंकि बीज
में सारा
ब्लू-प्रिंट
है, पूरे
वृक्ष की
एक-एक पत्ती
छिपी है। अभी
प्रकट नहीं
हुई है, छिपी
है। तुम्हारे
भीतर सारा
ब्रह्मांड
छिपा है।
इसलिए उपनिषद
कहते हैं, तत्वमसि। वह तुम ही
हो।
यह
श्वेतकेतु जब
गुरु के पास
गया तब यह वचन
बोला गया।
श्वेतकेतु
वापस लौटा और
उसने गुरु से कहा--उदास
होकर, चिंतित
होकर--इतना सब
सीखा, लेकिन
पिता प्रसन्न
न हुए और
उन्होंने एक
सवाल किया जिसका
मैं जवाब न दे
पाया।
उन्होंने
पूछा, उस
एक को जाना
जिसको जानने
से सब जान
लिया जाता है?
गुरु
ने कहा, तत्वमसि श्वेतकेतु।
वह तू ही है
श्वेतकेतु, जिस एक की
तेरे पिता ने
बात उठाई।
अच्छा हुआ तू
वापस लौट आया,
क्योंकि हम
उस एक का
इशारा तभी कर
सकते हैं जब कोई
प्यासा होकर
आए। इसके पहले
तूने और सबके
जानने के लिए
चेष्टा की, जिज्ञासा की,
वह तूने
जाना। अब तू
एक की
जिज्ञासा
लेकर आया; अब
तू उसे भी जान
लेगा। लेकिन
वह तू ही है।
इसलिए कहीं और
नहीं जाना है,
भीतर जाना
है। किसी और
से नहीं पूछना
है, भीतर
डूबना है। अब
शास्त्र बेकार
हैं, उच्छिष्ठ हैं। अब
वेदों में कुछ
सार नहीं, क्योंकि
वह तो निशब्द
है, वहां
तो मौन में
उतरना है।
बुद्धिमान
एक को जानता
है,
और एक को
जान कर सबको
जान लेता है।
बुद्धिहीन अनेक
को जानता है, और अनेक को
जान-जान कर एक
को भी खो देता
है। एक साधे
सब सधे। और
जिसने एक को
साध लिया उसने
सब साध लिया।
और जिसने अनेक
को साधना चाहा
वह तीनत्तेरह
बांट हो गया, वह खंड-खंड
हो गया। वह
अनेक के साथ
अनेक हो गया।
इसीलिए तो तुम
एक भीड़ हो।
अभी तुम्हारे
भीतर
व्यक्तित्व
नहीं। एक नहीं
तो
व्यक्तित्व
कैसे होगा? तुम तो एक
भीड़ हो। बहुत
तरह के लोग
तुम्हारे
भीतर हैं।
सुना
है मैंने कि
बायजीद जब
अपने गुरु के
पास गया, तो
जैसे ही गुरु
के झोपड़े
में प्रविष्ट
हुआ और कहा कि
मैं अब सब छोड़
कर आ गया हूं
आपके चरणों
में, अब और
प्यासा न रखें,
अब मुझे
तृप्त कर दें,
बायजीद के
गुरु ने ऐसा
चारों तरफ
देखा। सन्नाटा
था, और कोई
न था, बायजीद
खड़ा था। और
गुरु ने कहा, तू आ गया वह
तो ठीक, लेकिन
यह भीड़ क्यों
साथ लेकर आया
है? वहां
कोई था ही न।
बायजीद ने लौट
कर पीछे देखा खुद
भी कि कोई भीड़
है? आस-पास
कोई भी न था।
बायजीद ने कहा,
कैसी भीड़? मैं बिलकुल
अकेला आया
हूं। बायजीद
के गुरु ने
कहा, आंख
बंद कर और भीड़
को पाएगा। और
कहते हैं बायजीद
ने आंख बंद की
और भीड़ को
पाया।
क्योंकि
तुम अभी एक
नहीं हो, बहुत
हो। पत्नी के
सामने
तुम्हारा कोई
और चेहरा है; ग्राहक के
सामने दुकान
पर तुम्हारा
कोई और चेहरा
है; बेटे
के सामने
तुम्हारा कोई
और चेहरा है।
नौकर के सामने
तुम्हारी अकड़
ही और। अमीर को
देख कर तुम
कैसी पूंछ
हिलाने लगते
हो; गरीब
को देख कर
कैसे अकड़ जाते
हो। तुम्हारे
कितने चेहरे
हैं! तुम्हारे
कितने रूप
हैं! यह भीड़ है
तुम्हारे
भीतर।
तुम्हारे
भीतर अभी एक
स्वर तो बजा
ही नहीं। तुम
हो कौन? तुम
अभी पूछोगे
मैं कौन हूं, उत्तर न
पाओगे।
क्योंकि बहुत
उत्तर
मिलेंगे। कोई
कहेगा कि तुम फलाने के
बेटे हो; तुम
फलाने के
बाप हो; तुम
उसके पति हो; तुम इसके
नौकर हो, उसके
मालिक हो। तुम
पूछोगे मैं
कौन हूं, हजार
उत्तर आएंगे
भीतर।
उत्तरों से
घाटी गूंज
उठेगी। उनमें
से कोई भी
उत्तर सही
नहीं है।
क्योंकि एक ही
तुम हो सकते
हो।
न तो
तुम किसी के
पति हो, और न
किसी के मित्र,
न किसी के
शत्रु। इन
सबको छोड़ो।
तुम अपने में
क्या हो? ये
तो दूसरों से
संबंध हैं; यह तुम्हारा
होना नहीं है।
यह तुम्हारा
अस्तित्व
नहीं है, तुम्हारा
स्वरूप नहीं
है। ये तो
नाटक में मिले
तुम्हें
अभिनय हैं।
कभी बाप हो, कभी बेटे हो,
कभी मित्र
हो, कभी
शत्रु हो, ठीक
है; लेकिन
ये तुम नहीं
हो। तुम्हारा
मौलिक स्वरूप
क्या है--जो
तुम जन्म के
पहले थे? जो
तुम मरने के
बाद होओगे? जो तुम
समाधि के
एकांत में
होओगे वह तुम
कौन हो? जो
उस एक को जान
लेता है, जो
जान लेता है
मैं कौन हूं, उसने सब जान
लिया।
इसलिए
हम ज्ञानी को
सर्वज्ञ कहते
हैं। सर्वज्ञ
का यह मतलब मत
समझना जैसा कि
समझ लिया जाता
है। लोग
बिलकुल लिटरल
शब्दों को पकड़
लेते हैं।
महावीर के लिए
कहा गया है
शास्त्रों
में कि वे
सर्वज्ञ हैं।
तो जैनों ने
बिलकुल ऐसा
पकड़ लिया है
कि जैसे अगर
महावीर से तुम
पूछो कि
साइकिल का
पंचर कैसे
जोड़ा जा सकता
है तो वे बता
देंगे।
सर्वज्ञ! कि तुम्हारी
कार बिगड़ गई
हो तो वे मेकेनिक
का काम कर
देंगे; कि
तुम्हें
बुखार चढ़ा है
तो वे प्रिस्क्रिप्शन
दवाई का लिख
देंगे।
सर्वज्ञ
का यह मतलब
नहीं है।
सर्वज्ञ का
इतना ही मतलब
है कि जिसने
स्वयं को जाना
उसने सब जान लिया
जो जानने
योग्य है। कोई
साइकिल का
पंचर जोड़ने
की कला जानने
योग्य बात है? उसकी
उपयोगिता
होगी; सत्य
उसमें कुछ भी
नहीं है।
उपादेयता
होगी; लेकिन
आत्यंतिक कोई
भी सार उसमें
नहीं है।
महावीर ने सब
जान लिया, इसका
केवल इतना
अर्थ है कि एक
को जान लिया
जिसमें सब
छिपा है।
लेकिन इसका यह
मतलब नहीं है
कि तुम उनसे
कुछ भी पूछोगे
तो जान लिया।
लेकिन
जैनों ने ऐसी
हवा उड़ाई
कि महावीर
सर्वज्ञ हैं, और
वे सब जानते
हैं।
बुद्ध
ने बड़ी मजाक
की है फिर।
बुद्ध का मजाक
सार्थक है।
बुद्ध ने महावीर
की मजाक नहीं
की है, जैनों
की ही मजाक की
है। लेकिन
महावीर की
मजाक करना पड़ी,
क्योंकि ये
जैन अपनी मूढ़ता
को महावीर के
सर्वज्ञ के
सहारे सम्हाल
रहे हैं।
महावीर की
सर्वज्ञता
इनकी मूढ़ता
के लिए आधार
बन रही है। तो
बुद्ध ने बड़ी
गहरी मजाक की
है। और बुद्ध
ने कहा है कि
कोई-कोई कहते
हैं कि
ज्ञात-पुत्र
महावीर सर्वज्ञ
है, लेकिन
मैंने यह भी
सुना है कि
ज्ञात-पुत्र
महावीर
कभी-कभी ऐसे
मकान के सामने
भीख मांगने
खड़े हो जाते
हैं जिसमें
वर्षों से कोई
नहीं रहता।
कैसी
सर्वज्ञता? यह भी पता
नहीं कि इस घर
में कोई रहता
ही नहीं, वर्षों
से खाली पड़ा
है, उसके
सामने भीख
मांगने खड़े हो
जाते हैं। यह
कैसी
सर्वज्ञता? राह पर चलते
हैं, अंधेरा
होता है सुबह
का, सोए
कुत्ते की
पूंछ पर पैर
पड़ जाता है।
जब कुत्ता
भौंकता है तब
पता चलता है
कि कुत्ता है।
यह कैसी सर्वज्ञता?
बुद्ध
महावीर का
मजाक नहीं कर
रहे हैं।
क्योंकि
बुद्ध कैसे
महावीर का
मजाक कर सकते
हैं?
वह तो अपना
ही मजाक होगा।
जैनों का मजाक
कर रहे हैं।
वे यह कह रहे
हैं, कैसे मूढ़ हो तुम!
देखते भी नहीं
कि महावीर ऐसे
घर के सामने
भी भीख मांगते
हैं जहां कोई
नहीं है, फिर
तुम सर्वज्ञ
कहे जा रहे हो!
सर्वज्ञ
का अर्थ इतना
है कि जिसने
स्वयं को जान
लिया उसने जो
जानने योग्य
है वह सब जान
लिया। ये तो
सब न जानने
योग्य बातें
हैं। इनको जान
कर भी क्या
होगा?
बुद्धिमान
व्यक्ति बहुत
बातें नहीं
जानता, एक को
ही जान लेता
है, सार को
पकड़ लेता है।
सूफियों
में कहानी है
कि एक सम्राट
यात्रा को गया।
लौटते समय
उसने अपनी
पत्नियों को
लिखा--उसकी एक
हजार पत्नियां
थीं--कि मैं आ
रहा हूं, तो
तुम सब खबर
भेजो कि
तुम्हारे लिए
क्या ले आऊं।
तो किसी ने
हीरे-जवाहरातों
के बहुमूल्य आभूषण
मांगे; किसी
ने स्वर्ण के
बहुमूल्य
पात्र बुलवाए;
किसी ने
अनूठी सुगंधियों
को लाने के
लिए लिखा; अलग-अलग,
हजार पत्नियां
थीं। सम्राट
ने उनके पत्र
देखे और फाड़
कर फेंकता
गया। सिर्फ एक
पत्नी ने लिखा
था कि तुम घर
वापस लौट आओ, यही भेंट है;
और कुछ
चाहिए नहीं।
तुम आ गए, सब
आ गया।
ज्ञानी
परमात्मा को
मांगता है।
अज्ञानी और सब
मांगता है; परमात्मा
से भी मांगता
है तो और सब
मांगता है।
ज्ञानी सिर्फ
एक को जान
लेना चाहता
है। एक आ गया, सब आ गया।
प्रीतम आ गया,
सब आ गया।
और भेंट की
बात ही बेहूदी
है।
तो उस
पत्नी ने कहा, तुम्हें
पा लिया, सब
पा लिया। क्या
इसका मतलब यह
हुआ कि सम्राट
के आ जाने से
हीरे-जवाहरातों
के आभूषण आ
जाएंगे, कि
स्वर्ण-कलश आ
जाएंगे, कि
सारी दुनिया
की संपदा आ
जाएगी?
नहीं, यह
मतलब नहीं
हुआ। अगर ऐसा
तुम समझे तो
गलत समझे।
लेकिन जिसके
हृदय में
प्रेम है, उसके
लिए सब आ गया।
हीरे-जवाहरात
आ गए; स्वर्ण-कलश
आ गए। प्रेमी
के आने में सब
आ गया। तुम्हें
दिखाई भी न
पड़ेगा, तुम्हें
तो सिर्फ
प्रेमी आता
दिखाई पड़ेगा,
हाथ खाली
दिखाई
पड़ेंगे।
लेकिन जिसके
हृदय में
प्रेम है उसके
लिए सब आ गया।
कुछ पाने
योग्य और बचा
ही न। लाने की
कोई जरूरत न
थी। तुम आ गए, सब आ गया।
बुद्धिमान
एक को जान
लेता है; निर्बुद्धि
अनेक के पीछे दौड़ता, भटकता
और पागल हो
जाता है। अनेक
के पीछे दौड़ोगे
तो पागल हो ही
जाओगे। बहुत
सी नावों में
एक साथ यात्रा
कैसे करोगे? बहुत दिशाओं
में कैसे
चलोगे? एक
की खोज वाला
धीरे-धीरे, धीरे-धीरे
शांत होकर
विमुक्त हो
जाता है; अनेक
की खोज वाला
धीरे-धीरे
अशांत
होते-होते विक्षिप्त
हो जाता है।
विक्षिप्तता
और विमुक्तता
ये दो छोर
हैं। मध्य में
खड़े हो तुम।
अगर अनेक की
खोज की तो
विक्षिप्तता
की तरफ बढ़ते
जाओगे, पागल
होओगे ही। वह
तार्किक
निष्कर्ष है।
अगर एक की खोज
की तो पागलपन
मिटता जाएगा।
शांत हो जाओगे,
प्रफुल्लित
हो जाओगे, खिल
जाओगे। एक
मेधा प्रकट
होगी, एक
प्रतिभा का
प्रकाश आने
लगेगा।
जैसे-जैसे एक
की तरफ बढ़ोगे
वैसे-वैसे
संगठित होने
लगोगे।
जैसे-जैसे एक
के पास
पहुंचोगे
वैसे-वैसे भीड़
छंटने
लगेगी; तुम
भी एक होने
लगोगे।
क्योंकि समान
ही समान को
जान सकता है।
जब तुम एक हो
जाओगे तभी तुम
एक को जान
पाओगे। जब तुम
अनेक हो जाओगे
तभी तुम अनेक
के साथ संबंध
बना पाओगे।
अनेकता विक्षिप्तता
में ले जाएगी।
एकता
विमुक्ति है।
"संत
अपने लिए
संग्रह नहीं
करते। दूसरों
के लिए जीते
हैं, और
स्वयं समृद्ध
होते जाते
हैं। दूसरों
को दान देते
हैं, और
स्वयं बढ़ती
प्रचुरता को
उपलब्ध होते
हैं।'
संत
अपने लिए
संग्रह नहीं
करते, क्योंकि
अपने लिए जीते
नहीं।
दो तरह
के जीने के
ढंग हैं। एक
तो अपने लिए
जीने का ढंग
है जो तुम
जानते हो। और
इसीलिए परेशान
हो। अपने लिए
जो जी रहा है
वह सारी
दुनिया की
शत्रुता में जीएगा। सब
दुश्मन हैं।
जो अपने लिए
जी रहा है, शत्रुता
उसका आधार है।
जो अपने लिए
जी रहा है वह
जी ही न पाएगा;
शत्रुता
में ही उसका
जीवन नष्ट हो
जाएगा। एक दूसरा
ढंग है: दूसरे
के लिए जीना।
जो दूसरे के लिए
जीता है
मित्रता उसका
आधार है। अब
कोई डर ही न
रहा किसी से
कुछ। कोई
दूसरा छीन ही
नहीं सकता; हम दूसरे के
लिए ही जी रहे
हैं। महावीर
ने कहा है: मित्ति
मे सब्ब भुए सू, वैरं मज्झ न केणई।
मेरी मित्रता
है सबसे, सारे
भूमंडल से--सब्ब
भुए सू।
और वैर मेरा
किसी से भी
नहीं। कोई
कारण ही न रहा
वैर का।
महत्वाकांक्षा
न रही; स्वयं
के लिए जीने
का पागलपन न
रहा। वासना की
जगह करुणा
जीवन का सूत्र
हो गया। वासना
का मतलब है छीनो;
करुणा का
मतलब है दो।
बड़ी
पुरानी
भारतीय कथा है
कि देव, दानव
और मानव तीनों
प्रजापति के
पास उपस्थित हुए
ठीक सृष्टि के
प्रारंभ में
और उन्होंने
कहा, हमें
उपदेश दें हम
क्या करें?
प्रजापति
ने कुछ उपदेश
नहीं दिया, जोर
से निनाद
किया: दो, दो,
दो। यह तो
निनाद दो, दो,
दो, दानवों
ने नहीं सुना,
केवल
देवताओं ने
सुना।
वस्तुतः
प्रजापति ने दो,
दो, दो, दान-दान-दान
ऐसा कहा न था, सिर्फ इतना
ही कहा था: द, द, द।
देवताओं ने
सुना द; निश्चित
अर्थ है: दान, दो। मानवों
ने, मनुष्यों
ने सुना द--दमन,
दबाओ। अपने
अनुसार ही तो
सुना जाएगा।
प्रजापति ने
तो जैसे द, द,
द, जैसे
छोटे बच्चे उदघोष कर
दें ऐसा उदघोष
किया। दानवों
ने क्या समझा?
उन्होंने
समझा
दुष्टता। द, उन्होंने
व्याख्या की
दुष्टता, क्रूरता,
छीनो, सताओ।
देवताओं ने
समझा: दो, दान,
करुणा।
मनुष्यों ने
सोचा: दबाओ
अपनी वासनाओं को,
इच्छाओं को,
दमन, संयम।
हम वही सुनते
हैं जो हम हैं;
जो कहा जाता
है वह नहीं
सुनते। वह हम
सुन भी कैसे
सकेंगे?
"संत
अपने लिए
संग्रह नहीं
करते।'
इसलिए नहीं
कि संग्रह
बुरा है, बल्कि
इसलिए कि
संतों ने अपने
अनुभव से जाना
है कि जितना
तुम संग्रह
करोगे उतना ही
तुम दीन होते
चले जाओगे, दरिद्र हो
जाओगे, जितना
तुम दोगे उतने
ही समृद्ध हो
जाओगे। असल में,
तुम उसी चीज
के मालिक होते
हो जिसे तुम
दे सकते हो।
तुमने कभी देकर
देखा कि देते
वक्त कैसी
परितृप्ति
होती है! जैसी
लेते वक्त कभी
नहीं होती। और
छीनते वक्त तो
हो ही कैसे
सकती है? जब
तुम किसी की
जेब से कुछ
निकालते हो, तो तुम चाहे
हीरा भी निकाल
लो, लेकिन
परितृप्ति
नहीं हो सकती।
भीतर एक बेचैनी
होती है, भीतर
पूरे प्राण
आकुल होते
हैं। कुछ तुम
कर रहे हो जो
तुम्हारी
प्रकृति के
विपरीत है; अन्यथा
बेचैनी क्यों?
परेशानी
क्यों?
अगर
तुम अपनी
बेचैनी के
इंगित को भी
समझ लो तो तुम
समझ जाओगे कि
कुछ तुम्हारी
प्रकृति के प्रतिकूल
हो रहा है।
लेकिन तुम
साधारण सी चीज
किसी को भेंट
दे देते
हो--किसी
मित्र को, किसी
के विवाह में,
किसी के
जन्मदिन पर, या अकारण
किसी गरीब को
कुछ दे देते
हो, राह
चलते भिखारी
को दो पैसे दे
देते हो--देते
वक्त तुमने
देखा, एक
बड़ी गहरी
परितृप्ति, एक परितोष
तुम्हें घेर
लेता है। जैसे
स्वाभाविक
है। जैसे दान
स्वाभाविक है,
स्वभाव के अनुकूल
है; और
छीनना स्वभाव
के प्रतिकूल
है।
अगर
तुम्हें दान
देते वक्त
परितृप्ति न
मालूम हो तो
समझना कि
तुमने दान गलत
कारणों से दिया।
अन्यथा
परितृप्ति
होगी ही। अब
कोई राजनेता आ
गया कि चुनाव
में आपकी
सहायता की
जरूरत है।
देना तुम
चाहते नहीं, लेकिन
अगर न दो तो यह
आदमी कभी न
कभी बदला ले
सकता है, कहीं
जीत गया चुनाव
तो फिर झंझट
खड़ी करेगा, तो दे देना
अच्छा है। तो
होशियार आदमी
दोनों पार्टियों
के
उम्मीदवारों
को दे देते
हैं। तुम शांत
रहो, क्योंकि
तुमसे शैतान
होने की
संभावना है, तुम कभी भी
शैतानी कर
सकते हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
से मैंने पूछा
कि तुम्हारे
इलाके से दो
आदमी चुनाव
में खड़े हुए
हैं;
दोनों में
से तुम किसको
अच्छा समझते
हो? उसने
कहा कि दोनों
एक-दूसरे से
ज्यादा बुरे
हैं। दोनों
एक-दूसरे से
ज्यादा बुरे
हैं; लेकिन
परमात्मा का
धन्यवाद, शुक्र
अल्लाह का
उसने कहा कि
केवल दो में
से एक ही चुना
जा सकता है।
नहीं तो और
मुसीबत होती।
शुक्र अल्लाह
का कि दो में
से एक ही चुना
जा सकता है।
यही एक आशा
है। बाकी
दोनों एक-दूसरे
से बुरे हैं।
राजनेता
आ जाता है, उसको
भी देना पड़ता
है, मुस्कुरा
कर देना पड़ता
है। लेकिन
भीतर तुम्हें
बेचैनी मालूम
होती है, सुख
नहीं मालूम
होता। राह पर
एक भिखमंगा
मांगने खड़ा हो
जाता है। चार
आदमी क्या
कहेंगे देख कर
अगर तुम न
दोगे--कि दो
पैसे न दिए!
अरे कंजूस, इतना कंजूस
कि दो पैसे न
निकले, और गिड़गिड़ा
रहा था
भिखमंगा! और भिखमंगे
बड़ा शोर मचाते
हैं, ताकि
और लोग भी देख
लें, पैर
पकड़ लेते हैं,
इज्जत का
सवाल बना देते
हैं। तो दो
पैसे तुम देते
हो; लेकिन
परितोष नहीं
होता।
परितोष
तो तभी होगा
जब तुम हृदय
से देते हो, और
कोई कारण देने
का नहीं है।
अगर कारण है
तो वह दान ही न
रहा; वह भी
धंधे का
हिस्सा है, सौदा है। वह
भी बाजार में
प्रतिष्ठा खरीद
रहे हो दो
पैसे देकर भिखमंगे
को। उसको तुम
मूल और ब्याज
से वसूल करके
रहोगे। इसी
बाजार से वसूल
करोगे। इसी
राजनेता को जिसको
तुमने हजार
रुपये दे दिए
हैं चुनाव में
लड़ने के लिए, तुम दस हजार
के लाइसेंस
निकलवा कर
रहोगे। सब सौदा
है।
लेकिन
दान सौदा नहीं
है। दान का
अर्थ है: दे
दिया, और देने
में इतना पा
लिया कि अब
इसके आगे पाने
का कोई सवाल
ही नहीं उठता;
जितना दिया
उससे ज्यादा
देने में ही
पा लिया।
संत
संग्रह नहीं
करते, क्योंकि
उन्हें एक कला
आ गई है। वह
कला है, वे
देकर इतना पा
लेते हैं कि
रोक कर उसको
गंवाने को वे
राजी नहीं।
दूसरे के लिए
जीते हैं, क्योंकि
उन्होंने यह
जाना कि जितना
तुम दूसरे के
लिए जीते हो
उतना ही
तुम्हारा
जीवन परमात्ममय
होता जाता है।
परमात्मा
अपने लिए नहीं
जीता, इसीलिए
तो कहीं दिखाई
नहीं पड़ता।
कभी वृक्ष के
लिए जीता है
तो वृक्ष
दिखाई पड़ता है;
कभी झरने के
लिए जीता है
तो झरना दिखाई
पड़ता है; कभी
फूल के लिए
जीता है तो
फूल खिल जाता
है; कभी
आदमी के लिए
जीता है तो
आदमी प्रकट
होता है।
परमात्मा को
तुम सीधा कहीं
न पा सकोगे, क्योंकि वह
अपने लिए जीता
ही नहीं।
इसीलिए
तो मुसीबत है।
नास्तिक
पूछता है, कहां
है? दर्शन
करवा दो!
उसका
दर्शन नहीं
करवाया जा
सकता। अगर वह
अपने लिए जीता
होता तो उसका
पता-ठिकाना अब
तक हमने लगा
लिया
होता--कहां
रहता है? क्या
करता है? वह
जीता है सबके
लिए; जीता
है सब में। सब
होकर जीता है।
उसका अपना अलग
होना नहीं है;
फूल में, पत्ते में, पहाड़ में, चांदत्तारों में, जहां
है वही है।
जिस
दिन तुम
समझोगे इस राज
को कि
परमात्मा सब में
जी रहा है उस
दिन तुम पाओगे
कि संत होने
की एक ही कला
है कि तुम भी
सब में जीना
शुरू कर दो। जितना-जितना
तुम अपने में
कम जीओगे, उतना
ही उतना पाओगे
महाजीवन
तुम पर उतरने
लगा।
वे
दूसरों के लिए
जीते हैं; स्वयं
समृद्ध होते
चले जाते हैं
लेकिन। संग्रह
नहीं करते, जीते हैं
दूसरे के लिए,
और स्वयं
समृद्ध होते
चले जाते हैं।
यह
समृद्धि, जिसे
तुम समृद्धि
कहते हो, वह
नहीं है। और
तुम जिसे
समृद्धि कहते
हो उसे संत
समृद्धि कहते
ही नहीं।
तुम्हारी
संपत्ति को
संत विपत्ति
कहते हैं।
तुम्हारी संपदा
विपदा है। संत
एक भीतरी
समृद्धि से
जीता है। उसकी
प्रचुरता
आंतरिक है। वह
भीतर से भरा
हुआ जीता है।
आपूर, ऊपर
से बहता हुआ
जीता है। उसकी
संपदा आंतरिक
है। और जितना
ही वह बांटता
है, यह
संपदा बढ़ती
जाती है। बाहर
की संपदा को
बांटो, घटेगी;
भीतर की
संपदा को रोको,
घटेगी।
बाहर की संपदा
को बांटो, समाप्त
हो जाएगी; भीतर
की संपदा को
बांटो, बढ़ती
चली जाएगी।
"दूसरों
को दान देते
हैं, और
स्वयं बढ़ती
प्रचुरता को
उपलब्ध होते
हैं। स्वर्ग
का ताओ
आशीर्वाद
देता है, लेकिन
हानि नहीं
करता। संत का
ढंग संपन्न
करता है, लेकिन
संघर्ष नहीं
करता।'
वह जो
परमात्मा का
आत्यंतिक
नियम है ताओ, ऋत,
वह
आशीर्वाद
देता है, हानि
नहीं करता। और
अगर हानि होती
है तो तुम्हारे
अपने कारण
होती है। तुम
आशीर्वाद को
भी अभिशाप में
बदलने में बड़े
कुशल हो। तुम
अभिशाप को भी
झेलते हो और
आशीर्वाद को
भी अभिशाप बना
लेते हो।
लेकिन
परमात्मा की
तरफ से कोई
अभिशाप नहीं
आता। अगर
तुम्हारा
जीवन अभिशप्त
हो तो समझ
लेना कि तुम
परमात्मा के
विपरीत जी रहे
हो, तुम
अपने ढंग से
जीने की कोशिश
कर रहे हो, तुम
संघर्ष कर रहे
हो, और
तुम्हारे
भीतर एक रेसिस्टेंस
है, तुम
परमात्मा की
धारा में बह
नहीं रहे।
लाओत्से
से किसी ने
पूछा कि तूने
परमात्मा को पाया, सत्य
को, ताओ को,
कैसे? कैसे
तुझे बोध हुआ?
तो कहते हैं,
लाओत्से ने
कहा कि मैंने
एक वृक्ष के
ऊपर से एक
सूखे पत्ते को
गिरते देखा।
पतझड़ के
दिन रहे होंगे, लाओत्से
टिका बैठा रहा
होगा वृक्ष से,
शांत, मौन
देखता रहा
होगा प्रकृति
को। टूटा एक
पत्ता वृक्ष
से, गिरने
लगा नीचे। हवा
ने कभी उसे
बाएं उड़ाया
तो बाएं चला
गया, हवा
ने कभी दाएं
झुकाया तो
दाएं झुक गया।
पत्ते ने कोई
संघर्ष न किया,
वह हवा से लड़ा ही
नहीं। वृक्ष
से टूटने के
समय भी उसने
कोई जिद न की
कि मैं जुड़ा
ही रहूं; चुपचाप
टूट गया। पीछे
उसने घाव भी न
छोड़ा वृक्ष
में। शायद
वृक्ष को पता
भी न चला हो कि
कब सूखा पत्ता
जराजीर्ण
पुराना होकर
गिर गया, पक
गया और गिर
गया। हवा ने
नीचे गिरा
दिया तो पत्ता
जमीन पर पड़
गया; फिर
हवा का झोंका
आया तो पत्ता
आकाश में उड़
गया।
लाओत्से
ने कहा, उसी
दिन से मैं उस
सूखे पत्ते
जैसा हो गया, अपना संघर्ष
छोड़ दिया; हवा
जहां ले जाए।
मेरी अपनी कोई
मंजिल न रही, उसकी मंजिल
को ही मैंने
अपनी मंजिल
बना लिया। और
मुझे कुछ पता
नहीं कि उसकी
मंजिल क्या है,
लेकिन होगी
कोई। अपनी
नियति को
मैंने अलग न
बांटा, मैंने
अपने को
अलग-थलग खड़ा न
किया; मैं
नदी की धार
में बहने लगा।
धार जहां ले
जाए वहीं जाने
लगा। और
तत्क्षण सब
रूपांतरित हो
गया।
संघर्ष
सत्य को पाने
का मार्ग नहीं
है। समर्पण!
और जैसे ही
तुम समर्पित
हो,
अचानक तुम
पाते हो, सब
तरफ से उसके
आशीर्वाद
बरसने लगे। वे
सदा से बरस
रहे थे, लेकिन
तुम उलटे जा
रहे थे, और
तुम उन्हें
अभिशाप में
रूपांतरित कर
रहे थे। तुम
अगर जीवन में
दुखी हो तो
जानना कि परमात्मा
के विपरीत चल
रहे हो।
क्योंकि
परमात्मा दुख
जानता ही
नहीं। दुख
तुम्हारी जिद्द
है। दुख
परमात्मा की
नियति से अपनी
नियति अलग बनाने
की चेष्टा का
परिणाम है।
समग्र से पृथक
होने की जो
तुम्हारी
धारणा है वही
तुम्हारा नरक
है। समग्र के
साथ तुम एक हो
गए, स्वर्ग
का द्वार खुल
गया।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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