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रविवार, 11 जनवरी 2015

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--3) प्रवचन--57

आसन और प्राणायाम के आत्‍यंतिक रहस्‍य(प्रवचनस्‍त्रहवां)

दिनांंक  7सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।
योग—सूत्र (साधनपाद)
स्‍थिरसुखमासनम्।। 46।।

स्‍थिर और सुखपूर्वक बैठना आसन है।

प्रयत्‍नशैथिल्‍यानन्‍तसमापत्‍तिभ्‍याम्।। 47।।

प्रयत्न की शिथिलता और असीम पर ध्यान से आसन सिद्ध होता है।

ततो द्वन्‍द्वनभिधात: ।। 48।।

जब आसन सिद्ध हो जाता है, तब द्वंदों से उत्‍पन्‍न
अशांति की समाप्‍ति होती है।

तस्‍मिन्‍सति श्‍वासप्रश्‍वासयोर्गतिविच्‍छेद: प्राणायाम।। 49।।

आसन की सिद्धि के बाद का चरण है प्राणायाम।
यह सिद्धि होती है श्‍वास और प्रश्‍वास पर कुंभक करने से,
या अचानक श्‍वास को रोकने से।


बाह्मभ्‍यन्‍तरस्‍व्‍म्‍भवृतिर्देशकालसंख्‍याभि: परिदृष्‍टो दीर्धसूक्ष्‍म:।। 50।।

उपरोक्‍त प्राणायामों की अवधि आवृति देश,
काल और संख्‍या के अनुसार ज्‍यादा लंबी और सूक्ष्‍म होती है।

बाह्माभ्‍यन्‍तरविषयाक्षेपी चतुर्थ:।। 51।।

प्राणायाम का चौथा प्रकार आंतरिक होता है और
वह प्रथम तीन के पार जाता है।


भी कल ही मैं एक पुरानी भारतीय कहानी, एक लकड़हारे की कहानी पढ रहा था। कहानी इस प्रकार है एक का लकड़हारा जंगल से लौट रहा था। एक बड़ा भारी लकड़ियों का गट्ठर अपने सिर पर रखे हुए था। वह बहुत बूढ़ा था, थक गया था—न केवल रोज—रोज के काम—काज से थक गया था—जीवन से ही थक गया था। जीवन का कोई बहुत मूल्य न रह गया था उसके लिए। जीवन एक थकान भरी पुनरुक्ति था। रोज—रोज वही सुबह जंगल जाना, दिन भर लकड़ियां काटना, फिर सांझ गट्ठर लेकर आना शहर में। और कुछ उसे याद न था; यही उसका कुल जीवन था। वह ऊब गया था। जीवन उसके लिए बेकार था; उसके लिए जीवन में कोई अर्थ नहीं रह गया था। विशेषकर उस दिन वह बहुत थका हुआ था, पसीना बह रहा था, सांस लेना भी मुश्किल हो रहा था, गट्ठर का बोझ उठाए वह किसी तरह घसिट रहा था।
अकस्मात, जैसे जिंदगी का बोझ फेंक रहा हो, उसने अपना गट्ठर नीचे पटक दिया। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में एक घड़ी आती है, जब व्यक्ति सारा बोझ फेंक देना चाहता है। केवल सिर पर रखा वह लकड़ी का गट्ठर ही नहीं, वह तो केवल प्रतीक है, उसके साथ वह पूरा जीवन ही फेंक देता है। वह घुटनों के बल गिर पड़ा जमीन पर, आकाश की तरफ उसने आंखें उठाई और कहा, 'हे मौत! तू हर आदमी को आती है, लेकिन तू मुझे क्यों नहीं आती? और कितने दुख देखने हैं मुझे? अभी और कितने बोझ ढोने हैं मुझे? क्या मुझे काफी सजा नहीं मिल चुकी है? और मैंने ऐसा क्या गलत किया है?'
उसे अपनी आंखों पर भरोसा न आया—अचानक, मौत प्रकट हो गई। उसे भरोसा न आया। उसने चारों तरफ देखा, बहुत चकित रह गया। जो वह कह रहा था, वैसा उसका इरादा बिलकुल नहीं था। और उसने कभी ऐसा सुना भी नहीं था कि तुम बुलाओ मृत्यु को और मृत्यु आ जाए।
और मृत्यु ने कहा, 'क्या तुमने मुझे बुलाया?'
वह बूढ़ा अचानक सारी थकान, सारी ऊब, मुर्दा पुनरुक्ति भरी जिंदगी की सब बात भूल गया। वह उछल पड़ा और उसने कहा, 'ही —ही, मैंने बुलाया था तुम्हें। क्या तुम इस गट्ठर को उठवाने में जरा मेरी मदद करोगी? यहां किसी को मदद के लिए आस—पास न देख कर मैंने तुम्हें बुलाया था।
ऐसी घड़ियां होती है जब तुम थक जाते हो। ऐसी घड़ियां होती है जब तम मर जाना चाहते हो। लेकिन मरना एक कला है, इसे सीखना पड़ता है। और जीवन से थकने का अर्थ सच में ही यह नहीं होता कि गहरे में जीवन के प्रति तुम्हारी लालसा मिट चुकी हो। तुम शायद थक गए हो किसी एक ढंग के जीवन से, लेकिन तुम जीवन मात्र से नहीं थके हो। हर कोई थक जाता है जीवन के एक ही ढांचे से—वही उबाऊ दिनचर्या, वही रोज का थकान भरा चक्कर, फिर—फिर वही बात, एक पुनरुक्ति—लेकिन तुम जीवन से ही नहीं थके होते। और यदि मौत आ जाए तो तुम भी वही करोगे जो उस लकड़हारे ने किया। उसने एकदम मनुष्य की भांति व्यवहार किया। उस पर हंसो मत। बहुत बार तुमने भी सोचा है कि खतम करें इस अंतहीन बकवास को। किसलिए चलाए रहें इसे? लेकिन यदि मृत्यु अचानक तुम्हारे सामने आ जाए तो तुम तैयार न होओगे।
केवल योगी ही मरने के लिए तैयार हो सकता है, क्योंकि केवल योगी ही जानता है कि स्वेच्छा—मृत्यु से, मृत्यु को स्वेच्छा से स्वीकार करने से अनंत जीवन का द्वार खुल जाता है। केवल योगी जानता है कि मृत्यु एक द्वार है; वह अंत नहीं है। असल में वह शुरुआत है। असल में उसके पार खुलता है भगवत्ता का अनंत विस्तार। असल में उसके पार तुम पहली बार सच में प्रामाणिक रूप से जीवंत होते हो। न केवल तुम्हारा शारीरिक हृदय धड़कता है, बल्कि तुम ही धड़कते हो। न केवल तुम बाहरी चीजों का सुख लेते हो, तुम भीतर के आनंद में भी डुबकी लगाते हो। मृत्यु के द्वार से सनातन जीवन, शाश्वत जीवन प्रवेश करता है।
प्रत्येक व्यक्ति मरता है, लेकिन तब मृत्यु तुम्हारा चुनाव नहीं होती, तब तो मृत्यु जबरदस्ती थोपी गई होती है तुम पर। तुम्हारी मर्जी नहीं होती है : तुम प्रतिरोध करते हो, तुम चीखते—चिल्लाते हो, तुम रोते हो; तुम थोड़ी देर और रुके रहना चाहते हो इस धरती पर, इस शरीर में। तुम भयभीत होते हो। तुम अंधेरे के सिवाय, अंत के सिवाय और कुछ नहीं देख पाते। प्रत्येक व्यक्ति बिना मर्जी के मरता है, लेकिन तब मृत्यु द्वार नहीं होती है। तब तो तुम भयभीत होकर आंखें बंद कर लेते हो।
जो लोग योग के मार्ग पर हैं, उनके लिए मृत्यु एक स्वैच्छिक घटना है, वे सहर्ष स्वीकार करते हैं उसे। वे आत्मघाती नहीं हैं; वे जीवन—विरोधी नहीं हैं; वे विराट जीवन के पक्ष में हैं। वे विराट जीवन के लिए अपने क्षुद्र जीवन को छोड़ते हैं। वे अपना अहंकार छोड़ते हैं ज्यादा बड़ी आत्मा के लिए। वे अपनी आत्मा भी छोड़ देते हैं परमात्मा के लिए। वे सीमित को छोड़ते हैं असीमित के लिए। और यही तो विकास है : जो तुम्हारे पास है उसे छोड़ते जाना उसके लिए जो कि संभव ही तभी होता है जब तुम खाली होते हो, जब तुम्हारे पास कुछ नहीं होता है।
पतंजलि की सारी कला यही है कि कैसे उस अवस्था को उपलब्ध हो जाओ जहां तुम स्वेच्छापूर्वक मर सको, प्रसन्नतापूर्वक, बिना किसी प्रतिरोध के समर्पण कर सको। ये सूत्र तैयारी हैं, तैयारी हैं मरने के लिए और तैयारी हैं विराट जीवन के लिए।

 स्थिर सुखम् आसनम्।
स्थिर और सुखपूर्वक बैठना आसन है।

 पतंजलि के योग को बहुत गलत समझा गया है, उसकी बहुत गलत व्याख्या हुई है। पतंजलि कोई व्यायाम नहीं सिखा रहे हैं, लेकिन योग ऐसा मालूम पड़ता है जैसे वह शरीर का व्यायाम मात्र हो। पतंजलि शरीर के दुश्मन नहीं हैं। वे तुम्हें शरीर को तोड़ना—मरोड़ना नहीं सिखा रहे हैं। वे तुम्हें शरीर का सौंदर्य सिखा रहे हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि एक सुंदर शरीर में ही एक सुंदर मन हो सकता है; और केवल सुंदर मन में ही सुंदर आत्मा संभव है; और केवल सुंदर आत्मा में ही परमात्मा उतर सकता है। एक एक कदम सौंदर्य में गहरे उतरना होता है। शरीर के सौंदर्य, शरीर के प्रसाद को ही वे आसन कहते हैं। वे कोई मैसोचिस्ट नहीं हैं। वे तुम्हें अपने शरीर को सताना नहीं सिखा रहे हैं। वे शरीर के जरा भी विरुद्ध नहीं हैं। वे कैसे हो सकते हैं शरीर के विरुद्ध? वे जानते हैं कि शरीर ही बुनियाद है। वे जानते हैं कि अगर तुम शरीर को चूक जाते हो, यदि तुम शरीर को प्रशिक्षित नहीं करते, तो और ऊंचा प्रशिक्षण संभव न होगा।
शरीर एक वाद्य—यंत्र की भाति है। उसके तार ठीक कसे होने चाहिए; केवल तभी उससे अदभुत संगीत पैदा होगा। यदि वाद्य—यंत्र ही ठीक स्थिति और ठीक व्यवस्था में नहीं है, तो कैसे तुम कल्पना कर सकते हो कि उससे मधुर संगीत उठेगा त्र केवल शोरगुल ही होगा। शरीर एक वीणा है।
'स्थिर सुखम् आसनम्।
आसन को स्थिर और सुखद होना चाहिए। तो कभी अपने शरीर को तोड्ने —मरोड़ने की कोशिश मत करना, और कभी उन आसनों के लिए कोशिश मत करना जो सुखद नहीं हैं।
पश्चिम के लोगों के लिए जमीन पर बैठना, पद्यासन में बैठना कठिन है, उनके शरीर इसके लिए प्रशिक्षित नहीं हैं। तो इस बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। पतंजलि कोई भी आसन तुम पर जबरदस्ती थोपना नहीं चाहते। पूरब में लोग जन्म से ही जमीन पर बैठते हैं, छोटे—छोटे बच्चे जमीन पर बैठते हैं। पश्चिम में, सर्द मुल्कों में कुर्सियां चाहिए; जमीन बहुत ठंडी होती है। लेकिन इस बारे में चिंतित होने की कोई जरूरत नहीं है। यदि तुम पतंजलि की व्याख्या पर ध्यान दो कि आसन क्या है, तो तुम समझ जाओगे. उसे स्थिर और आरामदेह होना चाहिए।
यदि तुम कुर्सी में स्थिर और आराम से बैठ सकते हो, तो बिलकुल ठीक है—पद्यासन में बैठने का प्रयत्न जरूरी नहीं है और व्यर्थ ही शरीर को इसके लिए सताने की जरूरत नहीं है। असल में, यदि पश्चिम का व्यक्ति पदासन में बैठने की कोशिश करे तो उसके शरीर को अभ्यास करने में छह महीने लगते हैं; और वह परेशान हो जाता है। कोई जरूरत नहीं है इसकी। पतंजलि किसी तरह तुम्हें फुसला नहीं रहे हैं—किसी तरह का कोई जोर नहीं डाल रहे हैं तुम पर—शरीर को सताने के लिए। तुम जबरदस्ती बैठ सकते हो किसी कठिन आसन में, लेकिन तब पतंजलि के अनुसार यह आसन न होगा।
आसन ऐसा होना चाहिए कि तुम अपने शरीर को भूल सको। आरामदेह होने का मतलब क्या है? जब तुम भूल जाते हो अपने शरीर को, तब तुम आराम में होते हो। जब तुम्हें बार—बार याद आती है शरीर की, तब तुम आराम में नहीं हो। तो चाहे तुम कुर्सी पर बैठो चाहे जमीन पर बैठो, सवाल उसका नहीं है। आराम में रहो, क्योंकि यदि तुम शारीरिक रूप से आराम में नहीं हो, तो तुम दूसरी धन्यताओं की आकांक्षा नहीं कर सकते जो ज्यादा गहरी पर्तों से संबंधित हैं; यदि पहली पर्त चूक जाती है, तो दूसरी सब पर्तें बंद रहती हैं। यदि तुम सच में ही प्रसन्न और आनंदित होना चाहते हो, तो एकदम प्रथम से ही आनंदित होना प्रारंभ करना। जो व्यक्ति भीतर के आनंद की तलाश में है उसके लिए शरीर का आराम एक मूलभूत आवश्यकता है।
'स्थिर और सुखपूर्वक बैठना आसन है।
और जब भी आसन सुखद होता है तो वह स्थिर होगा ही। यदि आसन आरामदेह न हो तो तुम बेचैनी अनुभव करते हो। यदि आसन आरामदेह न हो तो तुम हिलते—डुलते रहते हो। यदि आसन सचमुच आरामदेह है, तो क्या जरूरत है अशांत होने की और बेचैन होने की—और बार—बार हिलने—डुलने की?
और ध्यान रहे, जो आसन तुम्हारे लिए आरामदेह है, हो सकता है कि वह तुम्हारे पड़ोसी के लिए आरामदेह न हो, तो कृपया अपना आसन किसी अन्य व्यक्ति को मत सिखाने लगना। प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है। जो चीज तुम्हारे लिए सुखद हो सकती है शायद वह दूसरे के लिए सुखद न हो।
प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर अनूठी आत्मा है। तुम्हारे अंगूठे की छाप तक अनूठी है, बेजोड़ है। तुम संसार भर में कोई दूसरा आदमी नहीं खोज सकते जिसके अंगूठे का निशान बिलकुल तुम्हारे जैसा हो। और न केवल आज. तुम पूरे पिछले इतिहास में ऐसा व्यक्ति नहीं खोज सकते जिसके अंगूठे का निशान तुम्हारे जैसा हो। और जो जानते हैं, वे कहते हैं, भविष्य में भी ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा जिसके अंगूठे का निशान तुम्हारे जैसा हो। अंगूठे का निशान कोई खास बात नहीं है, कोई महत्व नहीं है उसका, लेकिन फिर भी वह बेजोड़ है। इससे पता चलता है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक अनूठी आत्मा है। यदि तुम्हारे अंगूठे का निशान भी दूसरे से इतना अलग है, तो तुम्हारा शरीर, तुम्हारा पूरा शरीर जरूर ही अलग होगा।
तो कभी किसी दूसरे की बात मत सुनना। तुम्हें अपना आसन ढूंढ लेना है। इसे सीखने के लिए किसी शिक्षक के पास जाने की जरूरत नहीं; सुख की तुम्हारी अपनी अनुभूति ही शिक्षक है। और यदि तुम प्रयोग करो—तो कुछ दिन उन सभी आसनों को आजमा लेना जिनकी तुम्हें जानकारी है, सभी तरह से बैठ कर देख लेना। एक दिन तुम पा लोगे, ढूंढ लोगे अपना आसन। और जिस क्षण तुम्हें अपना आसन मिल जाएगा तुम्हारे भीतर की हर चीज शांत और मौन हो जाएगी। और दूसरा कोई तुम्हें नहीं बता सकता है, क्योंकि कोई नहीं जान सकता तुम्हारे शरीर की समस्वरता को कि वह किस आसन में एकदम स्थिर और आराम में होगी।
तो अपना आसन ढूंढ लेना, अपना योग पहचान लेना। और कभी बंधे —बंधाए नियमों का अनुसरण मत करना, क्योंकि नियम औसत के लिए बने होते हैं। वे बिलकुल ऐसे होते हैं जैसे कि पूना में एक लाख व्यक्ति हैं. कोई पांच फीट है, कोई पांच फीट पांच इंच है, कोई साढ़े छह फीट है। एक लाख व्यक्ति हैं : तुम उनकी ऊंचाई नाप लो और फिर तुम एक लाख व्यक्तियों की कुल ऊंचाई में एक लाख से भाग दे दो, तो तुम्हें औसत ऊंचाई मिल जाएगी। वह हो सकती है चार फीट आठ इंच या ऐसी ही कुछ। फिर तुम जाओ और खोजो औसत व्यक्ति को —तुम कभी न पाओगे उसे। औसत व्यक्ति कहीं होता नहीं।औसत' संसार की सबसे झूठी बात है। कोई व्यक्ति औसत नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है; कोई औसत नहीं है। औसत गणित की दुनिया की बात है—वह सत्य नहीं है, वह वास्तविक नहीं है।
सारे नियम औसत के लिए बने होते हैं। वे अच्छे हैं किसी विशेष बात को समझने के लिए,
लेकिन उनका अनुसरण बिलकुल मत करना, अन्यथा तुम बेचैनी अनुभव करोगे। चार फीट आठ इंच
औसत ऊंचाई है! अब तुम हो पांच फीट के, चार इंच ज्यादा हैं—काट कर कम करो! बड़ी बेचैनी होती है। तब तुम ऐसे चलते हो, जिससे तुम औसत दिखाई पड़ो : तुम भद्दे दिखोगे, अष्टावक्र मालूम पड़ोगे। तुम ऊंट जैसे हो जाओगे, हर कहीं से आड़े —तिरछे। जो व्यक्ति औसत का अनुसरण करने की कोशिश करता है वह चूकेगा।
औसत एक गणितीय घटना है, और गणित कहीं अस्तित्व नहीं रखता समग्र अस्तित्व में। वह केवल मनुष्य—मन की ईजाद है। यदि तुम अस्तित्व में गणित को खोजने की कोशिश करो तो तुम उसे कहीं नहीं पाओगे। इसीलिए गणित एकमात्र पूर्ण विज्ञान है, क्योंकि वह नितांत असत्य है। केवल असत्य के साथ ही तुम परिपूर्ण हो सकते हो। वास्तविकता तुम्हारे नियमों की, निर्धारित व्यवस्थाओं की फिक्र नहीं करती। वास्तविकता अपने ढंग से चलती है। गणित एक पूर्ण विज्ञान है, क्योंकि वह बौद्धिक है, मनुष्य—निर्मित है। यदि मनुष्य खो जाए पृथ्वी से, तो गणित सबसे पहले खो जाएगा। बाकी दूसरी चीजें तो बनी रह सकती हैं, लेकिन गणित नहीं बच सकता।
सदा स्मरण रहे, सारे नियम और अनुशासन औसत के लिए हैं; और औसत कोई है नहीं। और औसत होने की कोशिश मत करना; कोई हो भी नहीं सकता। व्यक्ति को अपना रास्ता खोजना होता है। औसत को जानना—समझना, उससे मदद मिलेगी, लेकिन उसे नियम मत बना लेना। समझने के लिए उसका उपयोग कर लेना। बस समझ लेना उसे, और भूल जाना उसके विषय में। उससे थोड़ा इशारा मिल सकता है, लेकिन सुनिश्चित समझ नहीं मिल सकती। वह एक अस्पष्ट नक्यो जैसी बात होगी, एकदम सही नहीं। वह नक्यग़ तुम्हें केवल कुछ संकेत दे सकता है, लेकिन तुम्हें अपनी अनुभूति के हिसाब से चलना पड़ता है। तुम कैसा अनुभव करते हो, यही बात निर्णायक है। इसीलिए पतंजलि यह परिभाषा देते हैं, ताकि तुम अपनी अनुभूति से चल सको।
'स्थिर सुखम् आसनम्।
इससे बेहतर कोई और व्याख्या नहीं हो सकती आसन की : 'आसन को स्थिर और सुखद होना चाहिए।असल में मैं इसे दूसरे ढंग से कहना चाहूंगा—और संस्कृत के सूत्र की व्याख्या दूसरे ढंग से हो सकती है—आसन वही है जो स्थिर और सुखद हो। स्थिर सुखम् आसनम्. जो स्थिर और सुखद हो वही आसन है। और यही ज्यादा सही अनुवाद है। जिस क्षण तुम 'चाहिए' बीच में ले आते हो, चीजें कठिन हो जाती हैं। संस्कृत के सूत्र में कहीं कोई 'चाहिए' नहीं है। लेकिन अनुवाद में वह आ जाता है। मैंने पतंजलि के बहुत से अनुवाद देखे हैं। वे सब यही कहते हैं. 'आसन को स्थिर और सुखद होना चाहिए।संस्कृत का मूल पाठ कहता है—स्थिर सुखम् आसनम्—कहीं कोई 'चाहिए' नहीं है। स्थिर सुखम् आसनम्—खत्म हो जाती है बात। स्थिर हो, सुखद हो, वही आसन है। यह 'चाहिए' क्यों जोड़ा गया है? क्योंकि हम इसमें से नियम बना लेना चाहते हैं। यह तो एक सीधी—सादी परिभाषा है—एक इंगित है, एक इशारा है। यह कोई नियम नहीं है।
और सदा स्मरण रहे कि पतंजलि जैसे व्यक्ति कभी नियम नहीं देते; वे इतने मूढ़ नहीं हैं। वे केवल इशारे देते हैं, संकेत देते हैं। तुम्हें संकेत का अर्थ अपने अंतस में खोलना पड़ता है। तुम्हें अनुभव करना है उसे, समझना है और प्रयोग करना है उसे, तब तुम नियम तक पहुंचोगे। लेकिन वह नियम केवल तुम्हारे लिए होगा—किसी और के लिए नहीं।
यदि लोग इस बात पर ध्यान रख सकें, तो यह संसार बहुत ही सुंदर संसार होगा—कोई किसी को कुछ करने के लिए मजबूर नहीं कर रहा होगा; कोई किसी दूसरे को अनुशासित करने की कोशिश नहीं कर रहा होगा। क्योंकि तुम्हारा अनुशासन तुम्हारे लिए ठीक रहा होगा, वह किसी दूसरे के लिए जहर हो सकता है। जरूरी नहीं है कि तुम्हारी औषधि सबके लिए औषधि हो। उसे दूसरों को मत देना। लेकिन मूढ़ व्यक्ति सदा नियमों द्वारा जीते हैं।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक बड़े चिकित्सक के पास चिकित्सा—विज्ञान सीख रहा था। वह ध्यान से देखता अपने डाक्टर को ताकि कुछ चूक न जाए। जब डाक्टर मरीजों को देखने के लिए जाता, तो मुल्ला साथ हो लेता। एक दिन मुल्ला बड़ा हैरान हुआ। डाक्टर ने नब्ज पकड़ी मरीज की, अपनी आंखें बंद कीं, थोड़ी देर चुप रहा और फिर कहा, 'तुमने बहुत आम खाए हैं।
मुल्ला हैरान रह गया। कैसे नब्ज देख कर वह पता लगा सका? उसने कभी नहीं सुना था कि कोई नब्ज देख कर पता लगा सकता हो कि तुमने आम खाए हैं। वह उलझन में पड़ गया। घर लौटते समय उसने पूछा, 'गुरु जी, कृपया मुझे थोड़ा समझाएं। कैसे आप बता सके...?'
डाक्टर हंसा, उसने कहा, 'नब्ज देख कर पता नहीं चल सकता, लेकिन मैंने मरीज के बिस्तर के नीचे झांका तो वहां बहुत से आम थे—कुछ बिना खाए हुए और कुछ खाए हुए। तो मैंने अनुमान लगा लिया, वह एक अनुमान की बात थी।
फिर एक दिन डाक्टर बीमार था तो मुल्ला को जाना पड़ा मरीजों को देखने। वह एक नए मरीज के घर गया। उसने उसकी नब्ज पकड़ी, अपनी आंखें बंद कीं, थोड़ा सोच—विचार किया—ठीक पुराने डाक्टर की भांति ही—और फिर उसने कहा, 'तुमने बहुत घोड़े खाए हैं!'
मरीज ने कहा, 'क्या कहते हो! क्या आप पागल हो गए हो?'
मुल्ला बहुत उलझन में पड़ गया। वह बहुत बेचैन और उदास घर आया।
के डाक्टर ने पूछा, 'क्या हुआ?'
उसने कहा, 'मैंने भी बिस्तर के नीचे देखा था। घोड़े की जीन और दूसरी कई चीजें वहां थीं—घोड़ा भर नहीं था—तो मैंने सोचा, इसने घोड़े खाए होंगे।
ऐसे ही मूढ़ मन नकल करता रहता है। मूढ़ मत बनो। इन सूत्रों को इशारों की तरह समझो। उन्हें हिस्सा बनने दो अपनी समझ का, लेकिन उनकी नकल करने की कोशिश मत करो। उन्हें गहरे उतरने दो अपने भीतर, ताकि वे तुम्हारी समझ बन जाएं; और फिर तुम खोज लेना अपना मार्ग। गहरी शिक्षा हमेशा परोक्ष होती है।
कैसे उपलब्ध हो यह आसन? कैसे मिले यह स्थिरता? पहले ध्यान दो कि शरीर कब सुख में होता है। यदि तुम्हारा शरीर गहन सुख में, गहन विश्राम में होता है, अच्छा अनुभव कर रहा होता है, एक स्वास्थ्य घेरे होता है तुमको : तो वही निर्णय का मापदंड होना चाहिए, वही कसौटी होनी चाहिए। और यह खड़े हुए संभव है, यह बैठे हुए संभव है, यह लेटे हुए संभव है। यह कहीं भी संभव है, क्योंकि यह आंतरिक अनुभूति है सुख की, आराम की।
और जब तुम इसे उपलब्ध तुम इसे उपलब्‍ध हो जाते हो तो तुम नहीं चाहते हिलाना—डुलना, क्‍योंकि जितना ज्यादा, तुम हिलते —डुलते हो उतना ज्यादा तुम चूकोगे इसे। यह एक सुनिश्चित अवस्था में घटित होता है। यदि तुम हिलते—डुलते हो, तो तुम इससे हट जाते हो; तुम इसे डावाडोल कर देते हो।
और सुख की स्वाभाविक इच्छा होती है प्रत्येक व्यक्ति की—और योग सर्वाधिक स्वाभाविक है—यह सबकी स्वाभाविक इच्छा है सुख में होने की, आराम में होने की। और जब भी तुम आराम में नहीं होते तो तुम बदलना चाहोगे उस स्थिति को—यह स्वाभाविक है। तो सदा अपने भीतर की सहज—स्वाभाविक अनुभूति को सुनना। वह करीब—करीब हमेशा सही होती है।

 प्रयत्न की शिथिलता और असीम पर ध्यान से आसन सिद्ध होता है।

 सुंदर शब्द हैं, बड़े सूचक और सांकेतिक हैं. प्रयत्न शैथिल्य—प्रयास की शिथिलता—पहली बात है, यदि तुम आसन की सिद्धि चाहते हो, जिसे पतंजलि आसन कहते हैं सुखद और स्थिर। शरीर इतनी गहन स्थिरता में होता है कि कोई चीज हिलती—डुलती नहीं; शरीर इतने आराम में होता है कि उसे हिलाने—डुलाने की इच्छा बिलकुल खो जाती है; तुम आराम की अनुभूति से आनंदित होने लगते हो, शरीर एकदम अकंप हो जाता है।
और तुम्हारी भाव—दशा के बदलने से शरीर बदलता है; शरीर के बदलने से तुम्हारी भाव—दशा बदलती है। क्या तुमने कभी ध्यान दिया! तुम किसी थिएटर में जाते हो कोई फिल्म देखने. क्या तुमने ध्यान दिया कि कितनी बार तुम अपने बैठने का ढंग बदलते हो? क्या तुमने कोशिश की इन बातों के आपसी संबंध को देखने की? अगर पर्दे पर कोई बहुत सनसनीखेज सीन चल रहा होता है, तो तुम नहीं बैठे रह सकते कुर्सी पर आराम से टिके हुए। तुम सीधे बैठ जाते हो; तुम्हारी रीढ़ सीधी हो जाती है। अगर कुछ उबाऊ बात चल रही होती है और तुम उत्तेजित नहीं होते, तो तुम शिथिल रहते हो। अगर कुछ बहुत ही अप्रीतिकर सीन चल रहा होता है, तो तुम बार—बार अपना बैठने का ढंग बदलते हो। अगर सच में कोई सुंदर बात वहां चल रही होती है, तो तुम्हारी आख का झपकना तक रुक जाता है; उतनी गति भी बाधा हो जाती है। कोई गति नहीं होती, तुम बिलकुल स्थिर हो जाते हो, अकंप, जैसे कि शरीर हो ही नहीं।
तो आसन की सिद्धि में पहली बात है. प्रयास की शिथिलता, जो इस संसार की सर्वाधिक कठिन बातों में से एक है। वैसे सरलतम है, लेकिन फिर भी कठिनतम हो गई है। यदि तुम उसे समझ लेते हो तो बहुत सरल है, यदि तुम नहीं समझते तो बहुत कठिन है। यह किसी अभ्यास की बात नहीं है; यह समझ की बात है।
पश्चिम में एमाइल कुए ने एक विशिष्ट नियम खोजा है जिसे वह ली आफ रिवर्स इफेक्ट कहता है—'विपरीत प्रभाव का नियम'। वह मनुष्य—मन की सर्वाधिक आधारभूत बातों में से एक है। कुछ चीजें हैं जिन्हें यदि तुम करना चाहते हो, तो कृपया उन्हें करने की कोशिश मत करना, अन्यथा विपरीत प्रभाव होगा।
उदाहरण के लिए, तुम्हें नींद नहीं आ रही है. तो प्रयास मत करना नींद लाने का। यदि तुम प्रयास करते हो, तो नींद और मुश्किल हो जाएगी। यदि तुम बहुत ज्यादा प्रयास करते हो तो नींद असंभव हो जाएगी, क्योंकि प्रत्येक प्रयास नींद के विपरीत है। नींद तभी आती है जब कोई प्रयास
नहीं होता। जब तुम्हें नींद की कोई फिक्र नहीं होती, तुम बस अपने तकिए पर लेटे होते हो, बस आनंद लेते हो तकिए की शीतलता का या कंबल की उष्मा का, उस अंधेरे मखमली वातावरण का जो तुम्हें घेरे हुए है। तुम बस विश्राम में होते हो—और कुछ नहीं। तुम नींद के विषय में सोच तक नहीं रहे होते। कुछ चित्र गुजरते हैं मन से. तुम उन्हें तटस्थ भाव से देखते हो, उनमें भी कोई बहुत ज्यादा रस नहीं होता है तुम्हें, क्योंकि यदि रस पैदा हो जाए तो नींद खो जाती है। बस तुम उनसे अलग बने रहते हो, लेटे रहते हो, विश्राम कर रहे होते हो, कोई लक्ष्य नहीं होता—और नींद आ जाती है।
अगर तुम कोशिश करने लगो कि नींद आनी ही चाहिए, तो जब यह 'चाहिए' बीच में आ जाता है तो बात करीब—करीब असंभव हो जाती है। तब तुम सारी रात जागते रह सकते हो। और यदि तुम्हें नींद आ भी जाती है, तो केवल इसीलिए कि प्रयास द्वारा तुम थक जाते हो। और जब कोई प्रयास नहीं रहता—क्योंकि तुमने सब कुछ कर लिया होता है और तुम हार कर सब छोड़ देते हो—तब नींद आ जाती है।
एमाइल कुए ने अभी इसी सदी में ही 'विपरीत प्रभाव का नियम' खोजा। पतंजलि इसे करीब पांच हजार वर्ष पहले ही जानते थे। वे कहते हैं—प्रयत्न शैथिल्य—प्रयास की शिथिलता। तुमने ठीक उलटी बात सोची होती कि बहुत प्रयास करना होगा आसन सिद्ध करने के लिए। और पतंजलि कहते हैं, 'यदि तुम बहुत ज्यादा प्रयास करते हो, तो यह संभव नहीं होगा। अप्रयास में ही यह घटता है।
सारे प्रयास छूट जाने चाहिए पूरी तरह से, क्योंकि प्रयास संकल्प का ही हिस्सा है और संकल्प समर्पण के विपरीत है। यदि तुम कुछ 'करने' की कोशिश करते हो, तो तुम परमात्मा को नहीं करने दे रहे हो। जब तुम समर्पण कर देते हो, जब तुम कह देते हो, 'ठीक है; तेरी मर्जी पूरी हो। अगर तुम भेज रहे हो नींद को, बिलकुल ठीक। अगर तुम नहीं भेज रहे हो नींद को, वह भी ठीक। मेरी कोई शिकायत नहीं; मैं कोई शिकायत नहीं— करता। तुम बेहतर जानते हो। अगर मेरे लिए नींद जरूरी है तो भेज दो। अगर जरूरी नहीं है तो बिलकुल ठीक—मत भेजो। कृपया, मेरी मत सुनो! तुम्हारी मर्जी पूरी होनी चाहिए।इसी भांति कोई प्रयास को छोड़ता है।
अप्रयास एक अदभुत घटना है। एक बार तुम यह जान लेते हो तो लाखों —लाखों बातें तुम्हारे लिए संभव हो जाती हैं। प्रयास से मिलता है बाजार; अप्रयास से मिलता है परमात्मा। प्रयास से तुम कभी नहीं पहुंच सकते निर्वाण तक—तुम नई दिल्ली पहुंच सकते हो, लेकिन निर्वाण तक नहीं। प्रयास से तुम संसार की वस्तुएं पा सकते हो; वे कभी बिना प्रयास के नहीं मिलती, इसे याद रखना। यदि तुम ज्यादा धन की तलाश में हो, तो मेरी मत सुनना, क्योंकि तब तुम बहुत नाराज होओगे मुझ पर कि इस आदमी ने मेरी पूरी जिंदगी बरबाद कर दी। यह कहता था, 'प्रयास करना छोड़ो, और बहुत सी बातें संभव हो जाएंगी,' और मैं बैठा हूं और इंतजार कर रहा हूं और धन आ ही नहीं रहा है! और कोई नहीं आ रहा है निमंत्रण लेकर कि आइए और कृपा करके राष्ट्रपति बन जाइए देश के!
कोई नहीं आएगा। ये मूढ़ताएं प्रयास द्वारा प्राप्त करनी होती हैं। यदि तुम राष्ट्रपति बनना चाहते हो तो तुम्हें इसके लिए बड़ा विक्षिप्त प्रयास करना पड़ता है। जब तक तुम पूरी तरह पागल न हो जाओ, तुम कभी किसी देश के राष्ट्रपति न बनोगे। ध्यान रहे, तुम्हें ज्यादा पागल होना पड़ता है दूसरे प्रतिद्वाद्वियों की अपेक्षा, क्योंकि तुम अकेले नहीं हो। बड़ी प्रतियोगिता है; दूसरे कई और भी कोशिश कर रहे हैं। असल में प्रत्येक व्यक्ति कोशिश कर रहा है उसी जगह पहुंचने की। बड़े कठिन प्रयास की जरूरत है। और सौम्य ढंग से, सज्जनता से मत करना प्रयास, अन्यथा तुम हार जाओगे। कोई सौम्यता—सज्जनता काम नहीं आती वहां। कठोर, हिंसक, आक्रामक होना पड़ता है। इसकी फिक्र नहीं कि तुम दूसरों के साथ क्या कर रहे हो। बस, अपने लक्ष्य पर डटे रहना है। यदि दूसरे मरते भी हों तुम्हारी सत्तागत राजनीति की खातिर, तो मरने दो उन्हें। प्रत्येक व्यक्ति को सीढ़ी बना लो—एक साधन। लोगों के सिरों पर पैर रख कर बढ़ते जाओ; केवल तभी तुम राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बन सकते हो। और कोई उपाय नहीं है।
संसार के मार्ग हैं हिंसा और संकल्प के मार्ग। यदि तुम शिथिल कर देते हो संकल्प को, तो तुम हटा दिए जाओगे; कोई छलांग लगा कर तुम्हारे ऊपर चढ़ जाएगा। तुम साधन बना दिए जाओगे।
यदि तुम संसार के मार्गों पर सफल होना चाहते हो, तो कभी मत सुनना पतंजलि जैसे लोगों की, तो बेहतर है मैक्यावेली को, चाणक्य को पढना—जो चालाक हैं, संसार के सर्वाधिक चालाक व्यक्ति हैं। वे तुम्हें बताएंगे कि कैसे सब का शोषण करना और किसी को अपना शोषण नहीं करने देना। कैसे निर्दयी होना—बिना किसी करुणा के, एकदम कठोर। केवल तभी तुम पा सकते हो सत्ता, प्रतिष्ठा, धन—संसार की तमाम चीजें। लेकिन यदि तुम कुछ पारलौकिक अनुभूति पाना चाहते हो, तो एकदम विपरीत बात चाहिए—अप्रयास चाहिए, प्रयास—शून्यता चाहिए, विश्रांति चाहिए।
बहुत बार ऐसा हुआ है.। राजनीति की दुनिया के, धन की, बाजार की दुनिया के बहुत से मित्र हैं मेरे। वे आते हैं मेरे पास और वे कहते हैं, 'हमें किसी भांति शांत होना सिखा दें। हम आराम से नहीं बैठ सकते, शांत नहीं बैठ सकते!' एक मंत्री आया करते थे मेरे पास, और उनकी एक ही समस्या थी, 'मैं शांत नहीं हो सकता। मेरी मदद करें।
मैंने उनसे कहा, 'अगर सच में ही शाति पाना चाहते हो तो तुम्हें राजनीति छोड़नी होगी। यह मंत्रीपद नहीं चल सकता शांत होने के साथ। यदि तुम शांत होते हो, तो तुम मंत्री न रहोगे। तो तुम निर्णय कर लो। मैं तुम्हें शांत होना सिखा सकता हूं लेकिन फिर नाराज मत होना, क्योंकि ये दोनों बातें एक साथ संभव नहीं हैं। तो पहले अपनी राजनीति से छुटकारा पा लो, फिर आना मेरे पास।
उन्होंने कहा, 'ऐसा संभव नहीं। मैं तो शांत इसीलिए होना चाहता हूं ताकि मैं और मेहनत कर सकूं और मुख्यमंत्री बन सकूं। मन के इन तनावों और हमेशा की चिंताओं के कारण मैं ज्यादा मेहनत नहीं कर पाता। और दूसरे—वे लगे ही रहते हैं! वे बड़े प्रतियोगी हैं, और बाजी मेरे हाथ से निकली जा रही है। मैं राजनीति छोड़ने के लिए नहीं आया हूं।
तब मैंने कहा, 'तो कृपया, मेरे पास मत आइए। भूल जाइए मेरे बारे में। राजनीति में ही रहिए। सचमुच थक जाइए, ऊब जाइए। पहले पूरी बात को जी लीजिए, फिर आइए मेरे पास।
शांत होना एक बिलकुल ही अलग आयाम है—ठीक विपरीत आयाम है। तुम संसार में सफल होते हो संकल्प के साथ। नीत्से ने एक किताब लिखी है, 'दि विल टु पावर।संसार मैं सफलता का यही सूत्र है. विल टु पावर। पतंजलि का मार्ग नहीं है 'विल टु पावर', वह है समग्रता के प्रति समर्पण। पहली बात है. 'प्रयत्न शैथिल्य'—अप्रयास। तुम्हें तो बस विश्राम में होना है। बहुत प्रयास मत करना इस विषय में; अनुभूति को ही काम करने देना। संकल्प को मत ले आना बीच में कैसे तुम आराम को जबरदस्ती थोप सकते हो अपने ऊपर? यह असंभव है। तुम विश्राम में हो सकते हो यदि तुम सहजता से शिथिल हो जाओ। तुम उसे जबरदस्ती नहीं ला सकते।
कैसे तुम जबरदस्ती ला सकते हो प्रेम को? यदि तुम किसी व्यक्ति से प्रेम नहीं करते, तो नहीं करते। क्या कर सकते हो तुम? तुम कोशिश कर सकते हो, दिखावा कर सकते हो, जबरदस्ती कर सकते हो अपने साथ, लेकिन एकदम विपरीत परिणाम होगा। यदि तुम कोशिश करते हो किसी व्यक्ति से प्रेम करने की तो तुम उससे और घृणा करने लगोगे। तुम्हारे प्रयत्नों का एकमात्र परिणाम यही होगा कि तुम घृणा करने लगोगे उस व्यक्ति से, क्योंकि तुम बदला लोगे। तुम कहोगे, 'यह कैसा अजीब व्यक्ति है, क्योंकि मैं तो इतनी कोशिश कर रहा हूं प्रेम करने की और कुछ घटता ही नहीं!' तुम उसे जिम्मेवार ठहराओगे। तुम उसे अपराधी ठहराओगे, जैसे कि वही कर रहा है कुछ।
वह कुछ नहीं कर रहा है। प्रेम संकल्प से नहीं हो सकता, प्रार्थना संकल्प से नहीं हो सकती, आसन संकल्प से नहीं हो सकता। तुम्हें इनकी अनुभूति में उतरना पड़ता है। अनुभूति एकदम अलग बात है संकल्प से।
बुद्ध संकल्प के मार्ग से बुद्ध नहीं बन सके। उन्होंने लगातार छह वर्ष तक प्रयत्न किया संकल्प से। वे संसारी व्यक्ति थे, राजकुमार की भांति शिक्षा—दीक्षा हुई थी उनकी। सम्राट बनने का प्रशिक्षण मिला था उन्हें। उन्हें जरूर वही सब सिखाया गया होगा जो चाणक्य ने कहा है।
चाणक्य भारत का मैक्यावेली है, और कुछ ज्यादा ही चालाक है मैक्यावेली से, क्योंकि भारतीय चित्त की एक खूबी है—एकदम जड़ों तक जाने की। यदि वे बुद्ध होते हैं, तो सच में वे बुद्ध होते हैं। यदि वे चाणक्य होते हैं, तो तुम मुकाबला नहीं कर सकते उनके साथ। जहां भी वे उतरते हैं, वे एकदम जड़ों तक उतरते हैं। मैक्यावेली थोड़ा बचकाना है चाणक्य के सामने। चाणक्य परम शिखर है।
तो बुद्ध को जरूर शिक्षा दी गई होगी; प्रत्येक राजकुमार को तैयार किया जाता है। मैक्यावेली की सब से महत्वपूर्ण पुस्तक का नाम है : 'दि प्रिंस'। बुद्ध को सिखाए गए होंगे संसार के ढंग; उनको जीना था सांसारिक व्यक्तियों के बीच। उन्हें अपना साम्राज्य सम्हालना था। और फिर वे सब छोड़ कर चले गए। लेकिन महल छोड़ कर चले जाना आसान है, राज्य छोड़ कर चले जाना आसान है, मन के प्रशिक्षण को छोड़ना कठिन है।
छह वर्ष तक उन्होंने संकल्प द्वारा परमात्मा को पाने का प्रयास किया। उन्होंने वह सब किया जो किसी मनुष्य के लिए संभव है—वह भी किया जो मनुष्य के लिए संभव नहीं है। उन्होंने सब कुछ किया, उन्होंने कुछ भी अनकिया नहीं छोड़ा। लेकिन कुछ भी नहीं हुआ। जितनी ज्यादा उन्होंने कोशिश की, उतना ही दूर उन्होंने अपने को पाया। असल में जितना ज्यादा संकल्प उन्होंने किया और जितने कठिन प्रयास किए, उतना ही उन्होंने अनुभव किया कि वे दूर हैं—परमात्मा कहीं नहीं है। कुछ उपलब्धि नहीं हुई।
फिर एक शाम उन्होंने सब छोड़ दिया। उसी रात वे बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए। उसी रात
घटित हुआ 'प्रयत्न शैथिल्य'—प्रयास की शिथिलता। वे संकल्प द्वारा बुद्ध नहीं हुए, वे बुद्ध हुए जब  उन्होंने समर्पण किया, जब उन्होंने सारा प्रयास छोड़ दिया।
मैं तुम्हें ध्यान सिखाता हूं और मैं तुम से कहता रहता हूं 'हर संभव प्रयास करो जो कि तुम कर सकते हो,' लेकिन सदा स्मरण रहे, हर संभव प्रयास पर यह जोर केवल इसीलिए है ताकि तुम्हारा संकल्प बिखर जाए, ताकि तुम्हारा संकल्प हार जाए और संकल्प के साथ जुड़ा सपना टूट जाए। तुम संकल्प से इतने थक जाओ कि एक दिन तुम गिर पड़ो, तुम हार कर सब छोड़ दो। उसी दिन तुम सबुद्ध हो जाते हो। लेकिन जल्दी मत करना, क्योंकि तुम बिना प्रयास किए हुए ही सब प्रयास छोड़ सकते हो, वह बात मदद न करेगी। उससे कोई मदद न मिलेगी। वह एक चालबाजी होगी। और तुम परमात्मा से नहीं जीत सकते चालबाजी द्वारा। तुम्हें बहुत निर्दोष होना होगा। बुद्धत्व अपने आप घटित होता है।
ये सीधी—साफ परिभाषाएं हैं। पतंजलि नहीं कह रहे हैं, 'ऐसा करो।वे तो बस मार्ग दिखा रहे हैं। यदि तुम समझ लेते हो उसे, तो वह प्रभावित करने लगेगा तुमको, तुम्हारे मार्ग को, तुम्हारे अंतस को। आत्मसात करो उसको। उसे गहरे उतरने दो अपने में। उसे बहने दो अपने रक्त में। उसे बनने दो मांस—मज्जा। बस इतना ही। भूल जाओ पतंजलि को। ये सूत्र रटने के लिए नहीं हैं। इन्हें स्मृति में रख लेने की जरूरत नहीं है, इन्हें प्राणों में उतारने की जरूरत है। तुम्हारे संपूर्ण अस्तित्व को समझ में आनी चाहिए बात, बस इतना काफी है। फिर भूल जाना इन बातों को। वे अपना काम शुरू कर देती हैं।
'प्रयत्न की शिथिलता और असीम पर ध्यान से आसन सिद्ध होता है।
दो बातें। पहली बात. प्रयास को शिथिल करना, उसे जबरदस्ती मत थोपना, उसे सहज होने देना। वह नींद जैसा है; उसे सहज होने देना। वह बहने जैसा है; होने देना उसको.। उसे जबरदस्ती थोपना मत; अन्यथा तुम उसकी हत्या कर दोगे। और दूसरी बात : जब शरीर विश्राम में उतर रहा हो, गहन विश्राम में थिर हो रहा हो, तो तुम्हारा मन केंद्रित होना चाहिए असीम पर।
मन बहुत कुशल है सीमित के साथ। यदि तुम धन के विषय में सोचते हो, तो मन कुशल है, यदि तुम सत्ता के विषय में, राजनीति के विषय में सोचते हो, तो मन कुशल है। यदि तुम शब्दों के विषय में, दर्शन के, सिद्धांतो के विषय में, धारणाओं के विषय में सोचते हो, तो मन कुशल है—ये सब सीमित बातें हैं। लेकिन यदि तुम परमात्मा के विषय में सोचते हो, तो अचानक मन ठिठक जाता है, एक शून्य आ जाता है। तुम क्या सोच सकते हो परमात्मा के विषय में?
यदि तुम कुछ भी सोच सकते हो, तो फिर वह परमात्मा परमात्मा नहीं है; वह सीमित हो गया। यदि तुम परमात्मा का विचार करते हो कृष्ण के रूप में, तो वह परमात्मा नहीं है; तब कृष्ण वहां हो सकते हैं अपनी बांसुरी बजाते हुए, लेकिन सीमा आ गई। यदि तुम परमात्मा का विचार करते हो क्राइस्ट के रूप में, तो तुम चूक गए। वह परमात्मा न रहा, तुमने एक सीमा दे दी। सुंदर है छवि, लेकिन असीम के सौंदर्य की तुलना में कुछ भी नहीं है।
दो प्रकार के परमात्मा हैं। पहला, धारणा का परमात्मा. ईसाई परमात्मा, हिंदू परमात्मा, मुसलमान परमात्मा। और दूसरा, अस्तित्वगत परमात्मा, धारणागत नहीं. वह असीम है। यदि का मुसलमान परमात्मा के विषय में सोचते हो तो तुम मुसलमान होओगे, लेकिन धार्मिक नहीं। यदि तुम ईसाई परमात्मा के विषय में सोचते हो, तो तुम ईसाई होओगे, लेकिन धार्मिक नहीं। अगर तुम परमात्मा का सीधा साक्षात करते हो तो ही तुम धार्मिक होओगे—फिर तुम हिट' नहीं रहते, मुसलमान नहीं रहते, ईसाई नहीं रहते।
और वह परमात्मा कोई धारणा नहीं है। धारणा तो एक खिलौना है जिससे तुम्हारा मन खेलता है। वास्तविक परमात्मा तो बड़ा विराट है। तब परमात्मा खेलता है तुम्हारे मन के साथ न कि तुम्हारा मन खेलता है परमात्मा के साथ। तब परमात्मा तुम्हारे हाथ का खिलौना नहीं होता; तुम एक खिलौना होते हो परमात्मा के हाथ में। सारी बात बदल जाती है। अब तुम नियंत्रण नहीं करते—नियंत्रण तुम्हारे हाथ से छूट जाता है, अब परमात्मा तुम्हें चलाता है। इसके लिए सही शब्द है 'आविष्ट होना, ' असीम द्वारा आविष्ट होना, संचालित होना।
फिर यह बात तुम्हारे मन के पर्दे पर किसी चित्र की भांति नहीं रहती। नहीं, वहां कोई चित्र नहीं होता। एक विराट शून्यता होती है—और उस विराट शून्यता में तुम खो रहे होते हो। न केवल परमात्मा की परिभाषा खो जाती है, सीमाएं खो जाती हैं; जब तुम असीम के संपर्क में आते हो, तो तुम भी अपनी सीमाएं खोने लगते हो। तुम्हारी सीमाएं भी धुंधली— धुंधली हो जाती हैं। तुम्हारी सीमाएं खोने लगती हैं, ज्यादा लोचपूर्ण हो जाती हैं; तुम आकाश में धुएं की भाति विलीन होने लगते हो। एक घड़ी आती है, तुम देखते हो स्वयं को—और तुम वहां नहीं होते।
तो पतंजलि दो बातें कहते हैं : अप्रयास और चैतन्य का असीम पर केंद्रित होना। इस भांति तुम आसन सिद्ध करते हो। और यह केवल शुरुआत है, यह केवल शरीर है। व्यक्ति को और गहरे उतरना होता है।

 ततो द्वन्द्वानभिघात:।
जब आसन सिद्ध हो जाता है तब द्वंद्वों से उत्पन्‍न अशांति की समाप्ति होती है।

 जब शरीर सच में ही सुख में होता है, विश्रांत होता है, शरीर की लौ कैप नहीं रही होती स्थिर होती है, कोई गति नहीं होती—अचानक जैसे समय रुक गया हो, कोई हवा न चल रही हो; प्रत्येक चीज थिर और शांत हो और शरीर में कोई उत्पेरणा न हो हिलने —डुलने की, वह थिर हो, गहनरूप से संतुलित, शांत, मौन, अपने स्वभाव में स्थित. उस अवस्था में सभी द्वंद्व समाप्त हो जाते हैं और द्वंद्वों के कारण उत्पन्न अशांति समाप्त हो जाती है।
क्या तुमने ध्यान दिया कि जब भी तुम्हारा मन अशांत होता है तो तुम्हारा शरीर भी अशांत और बेचैन होता है, तुम चुपचाप नहीं बैठ सकते? या जब भी तुम्हारा शरीर बेचैन होता है तो तुम्हारा मन मौन नहीं हो सकता? वे दोनों जुड़े हैं। पतंजलि अच्छी तरह से जानते हैं कि शरीर और मन दो चीजें नहीं हैं, तुम शरीर और मन, दो में बंटे हुए नहीं हो। शरीर और मन एक ही चीज है। तुम साइकोसोमैटिक हो; तुम मनोशरीर हो। शरीर केवल प्रारंभ है तुम्हारे मन का और मन तुम्हारे शरीर के अंतिम छोर के सिवाय और कुछ भी नहीं है। दोनों एक ही घटना के दो पहलू हैं; वे दो नहीं हैं। तो जो कुछ भी शरीर में घटता है वह मन को प्रभावित करता है और जो कुछ भी मन में घटता है वह शरीर को प्रभावित करता है। वे साथ—साथ चलते हैं।
इसलिए शरीर पर इतना जोर है, क्योंकि अगर तुम्हारा शरीर विश्राम में नहीं है, तो तुम्हारा मन भी शांत नहीं हो सकता। और शरीर के साथ शुरू करना ज्यादा आसान होता है, क्‍योंकि वह सब से बाहरी पर्त है। मन के साथ शुरू करना कठिन होता है। बहुत से लोग मन के साथ प्रारंभ करने का प्रयास करते हैं और असफल होते हैं, क्योंकि उनका शरीर सहयोग नहीं देता। हमेशा अच्छा होता है क, , ग से प्रारंभ करना, और धीरे— धीरे कम में आगे बढ़ना। शरीर सबसे पहली बात है, बिलकुल प्रारंभिक है। व्यक्ति को शरीर से प्रारंभ करना चाहिए। यदि तुम शरीर की शांत अवस्था को उपलब्ध हो जाते हो, तो अचानक तुम पाओगे कि मन स्थिर हो रहा है।
मन हमेशा बाएं—दाएं डोलता रहता है। मन बाप—दादों के जमाने की पुरानी घड़ी के पेंडुलम जैसा है—दाएं से बाएं, बाएं से दाएं डोलता रहता है। और यदि तुम पेंडुलम को ध्यान से देखो तो तुम अपने मन के विषय में बहुत कुछ जान सकते हो। जब पेंडुलम बाईं तरफ जा रहा होता है, तो प्रकट में वह बाईं तरफ जा रहा होता है, किंतु असल में वह दाईं तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी कर रहा होता है। जब आंखें कहती हैं कि पेंडुलम बाईं तरफ जा रहा है, तो बाईं ओर की वह गति ही पेंडुलम के फिर से दाईं ओर जाने के लिए एक शक्ति, एक मोमेंटम पैदा कर देती है। और जब वह दाईं तरफ जा रहा होता है तो वह बाईं ओर जाने के लिए शक्ति इकट्ठा कर रहा होता है।
तो जब भी तुम प्रेम में पड़ते हो, तब तुम घृणा करने की शक्ति इकट्ठी कर रहे होते हो। जब तुम घृणा करते हो तो तुम प्रेम करने की शक्ति इकट्ठी कर रहे होते हो। जब तुम सुखी अनुभव कर रहे होते हो, तब तुम दुखी होने के लिए ऊर्जा इकट्ठी कर रहे होते हो। जब तुम दुखी अनुभव कर रहे होते हो, तब तुम सुखी होने की शक्ति इकट्ठी कर रहे होते हो। इसी भांति मन डोलता रहता है।
मैंने सुना है कि जब भारत सन उन्नीस सौ सैंतालीस में स्वतंत्र हुआ, तो दिल्ली में एक सुंदर हाथी था। स्वतंत्रता से पहले हाथी का उपयोग किया जाता था विवाह की शोभायात्राओ में और ऐसे ही दूसरे समारोहों में, लेकिन स्वतंत्रता के बाद राजनैतिक दलों ने भी हाथी का उपयोग करना आरंभ कर दिया अपने समारोहों के लिए, जुलूसों के लिए, विरोध—प्रदर्शनों के लिए। उस हाथी में थोड़ी गड़बड़ थी। उसकी बाईं ओर की टांगें थोड़ी छोटी थीं, इसलिए जब वह हाथी चलता था तो बाईं तरफ झुका रहता था।
कम्मुनिस्ट बड़े खुश थे, सोशलिस्ट बड़े खुश थे—यह हाथी तो लेफ्टिस्ट है, वामपंथी है। तो वे उस हाथी को किराए पर लेने के लिए उसके मालिक को पैसे देते, और वे ताली बजाते, और उनके अनुयायी फूल बरसाते हाथी पर। वस्तुत: ऐसा ही तो होना चाहिए हाथी—वामपंथी। निश्चित ही, हाथी के लिए चलना कठिन था, लेकिन कौन परवाह करता है हाथी की? हाथी के लिए चलना कठिन था क्योंकि दो टांगें छोटी थीं और सारा बोझ बाईं टांगों पर पड़ रहा था। हाथी बहुत भारी होता है; कठिन था चलना। मनों बोझ उठाना पड़ता। लेकिन फूलों की बौछार, फूलमालाएं और उसका सम्मान किया जाता, और तस्वीरें छपती अखबारों में. कि यह रहा कम्युनिस्ट हाथी।
यह देख कर कि कम्मुनिस्ट और सोशलिस्ट और दूसरे वामपंथियों के पास एक सुंदर हाथी है, दक्षिणपंथियों ने भी अपने जुलूसों और समारोहों का समय आने पर उस हाथी को किराए पर लिया—यह न जानते हुए कि यह वामपंथी हाथी है। लेकिन जब हाथी चला दक्षिणपंथियों के साथ तो वे बहुत नाराज हुए। यह हाथी तो उनके विरुद्ध था. उसे तो दाईं तरफ झुके रहना चाहिए। उन्‍होंने पुराने जूते, टमाटर, केले के छिलके, और तमाम सड़ी—गली चीजें फेंकनी शुरू कर दो। संक्षिप्‍त में कहा जाए, तो उन्होंने उसे वी. आई .पी. सत्कार दिया। वे बहुत क्रोधित थे। उन्हें उसके मालिक पर भी क्रोध आया, और उन्होंने मालिक से कहा, अगली बार जब हम इसे किराए पर लें, तो तुम ठीक इंतजाम करना।
तो मालिक ने इंतजाम किया, क्योंकि उसकी रोटी—रोजी चलती थी हाथी से; वही उसकी एकमात्र कमाई थी। तो उसने बड़े—बड़े जूते बनवाए। फिर जब भी दक्षिणपंथियों का जुलूस निकलता तो वह उसे बड़े—बड़े जूते पहना देता, और हाथी दाईं तरफ झुक जाता; और जब वामपंथियों का जुलूस निकलता, तो वह जूते उतार देता। किसी ने हाथी की चिंता नहीं की।
एक दिन हाथी गिर गया, ठीक कनॉट—प्लेस में ही गिर गया, क्योंकि जूतो के साथ इतने बोझ को उठाना बहुत ज्यादा हो गया। और बहुत तकलीफदेह था यह—यह 'आसन' नहीं था। उसका चलना बहुत मुश्किल था। वह गिर पड़ा और मर गया।
यही स्थिति है तुम्हारे मन की भी. निरंतर एक अति से दूसरी अति में डोलता रहता है. बाईं ओर, दाईं ओर; दाईं ओर, बाईं ओर। मध्य में कभी नहीं। और मध्य में होना वस्तुत: 'होना' है। दोनों अतियां बोझिल होती हैं, क्योंकि तुम आराम में नहीं हो सकते। आराम होता है मध्य में, क्योंकि मध्य में बोझ नहीं होता। ठीक—ठीक मध्य में तुम निर्भार होते हो। बाईं ओर झुको, और बोझ हो जाता है। दाईं ओर झुको, और बोझ हो जाता है। और बढ़ते ही चलो. तो जितना ज्यादा तुम मध्य से दूर जाते हो, उतना ही ज्यादा बोझ बढ़ता जाता है। तुम मर जाओगे किसी दिन किसी कनॉट—प्लेस में!
मध्य में रही। धार्मिक व्यक्ति न वामपंथी होता है और न दक्षिणपंथी। धार्मिक व्यक्ति अतियों में नहीं जीता है। वह अतियों में जीने वाला व्यक्ति नहीं होता है। और जब तुम ठीक मध्य में होते हो—तुम्हारा शरीर और तुम्हारा मन दोनों ही—तो सारे द्वैत खो जाते हैं, क्योंकि सारे द्वैत हैं तुम्हारे डोलते रहने के कारण, तुम निरंतर इस ओर से उस ओर डोलते रहते हो।
'ततो द्वन्द्वानभिघात।
'जब आसन सिद्ध हो जाता है, तब द्वंद्वों से उत्पन्न अशांति की समाप्ति होती है।
और जब कहीं कोई द्वैत नहीं बचता, तब कैसे तुम तनावपूर्ण रह सकते हो? कैसे तुम परेशानी में रह सकते हो? कैसे तुम संघर्ष में रह सकते हो? जब तुम्हारे भीतर दो होते हैं, तो संघर्ष होता है। वे दो लड़ते ही रहते हैं, और वे तुम्हें विश्राम में कभी न रहने देंगे। तुम्हारा घर बंटा हुआ होता है, तुम सदा शीतयुद्ध में जीते हो। तुम बुखार में जीते हो। जब यह द्वैत तिरोहित हो जाता है, तो तुम शांत, केंद्रस्थ, मध्य में स्थिर हो जाते हो।
बुद्ध ने अपने मार्ग को कहा है, 'मज्‍झिम निकाय' —मध्य मार्ग। वे अपने शिष्यों से कहा करते थे, 'केवल एक बात ध्यान रखने की है. सदा मध्य में रहो; अतियों पर मत जाओ।
संसार भर में अतियां हैं। कोई निरंतर स्त्रियों के पीछे दौड़ रहा है—रोमियो, मजनू—निरंतर भाग रहा है स्त्रियों के पीछे। और फिर किसी दिन वह सारी भाग—दौड़ से थक जाता है। तब वह छोड़ देता है संसार और वह संन्यासी हो जाता है। और फिर वह हर किसी को स्त्रियों के विरुद्ध समझाता

 रहता है, और फिर वह कहता रहता है. 'स्त्री नरक का द्वार है। सचेत रहो। स्त्री ही फांसी है।' जब भी तुम किसी संन्यासी को स्त्री के विरुद्ध बोलते हुए पाओ, तो तुम समझ सकते हो कि वह पहले जरूर रोमियो रहा है। वह स्त्री के बारे में कुछ नहीं कह रहा है; वह अपने अतीत के बारे में कुछ कह रहा है। अब एक अति समाप्त हो गई, वह दूसरी अति की तरफ जा रहा है।
कोई पागल है धन के पीछे। और बहुत हैं धन के पीछे पागल, एकदम आविष्ट, जैसे कि उनका पूरा जीवन धन के अंबार इकट्ठे करने के लिए ही हो। लगता है कि उनके यहां होने का एकमात्र अर्थ इतना ही है कि जब उनकी मृत्यु हो तो वे धन के अंबार छोड़ जाएं—दूसरों से बड़े अंबार! वही उनके जीवन का कुल अर्थ मालूम पड़ता है। जब ऐसा आदमी थक जाता है तो वह सिखाने लगता है, ' धन दुश्मन है।जब भी तुम किसी को यह कहते हुए सुनो कि धन दुश्मन है, तो तुम समझ सकते हो कि यह आदमी जरूर धन के पीछे पागल रहा होगा। अभी भी वह पागल ही है—दूसरी अति पर है।
एक ठीक संतुलित व्यक्ति किसी चीज के विरुद्ध नहीं होता है, क्योंकि वह किसी चीज के पक्ष में नहीं होता है। यदि तुम मेरे पास आओ और पूछो, 'क्या आप धन के विरोधी हैं?' मै केवल अपने कंधे बिचका सकता हूं। मैं धन के विरोध में नहीं हूं क्योंकि मैं कभी उसके पक्ष में नहीं था। धन एक साधन है, एक उपयोगिता है, विनिमय का एक माध्यम है—उसके पीछे पागल होने की कोई जरूरत नहीं है। यदि वह तुम्हारे पास है तो उसका उपयोग कर लो। यदि वह तुम्हारे पास नहीं है तो उसके न होने का मजा लो। यदि तुम्हारे पास धन है तो धन का उपयोग करो। यदि तुम्हारे पास धन नहीं है तो उसके न होने का आनंद लो। संतुलित व्यक्ति यदि महल में है, तो वह महल का सुख लेता है। यदि महल न हो तो वह झोपड़ी का आनंद लेता है। कैसी भी स्थिति हो, वह प्रसन्न और संतुलित रहता है। न तो वह महल के पक्ष में होता है और न वह, उसके विरोध में होता है। जो व्यक्ति पक्ष में या विरोध में होता है, वह असंतुलित है, वह संतुलित नहीं है।
बुद्ध अपने शिष्यों से कहा करते थे, 'बस संतुलित रहो, और सब कुछ अपने आप सध जाएगा। मध्य में रही।और यही पतंजलि कहते हैं जब वे आसन के विषय में कह रहे हैं। बाह्य आसन है शरीर से संबंधित; आंतरिक आसन है मन से संबंधित। दोनों जुड़े हुए हैं। जब शरीर मध्य में होता है, विश्राम में होता है, थिर होता है, तो मन भी मध्य में होता है—शांत और मौन होता है। जब शरीर शांत होता है, तो शरीर— भाव तिरोहित हो जाता है, जब मन विश्राम में होता है, तो मन तिरोहित हो जाता है। तब तुम केवल आत्मा होते हो, इंद्रियातीत, जो न शरीर है और न मन।

 आसन की सिद्धि के बाद का चरण है प्राणायाम। यह सिद्ध होता है श्वास और प्रश्वास पर कुंभक करने से या अचानक श्वास को रोकने से।

शरीर और मन के बीच श्वास एक सेतु है। ये तीनों बातें समझ लेनी हैं। आसन में थिर शरीर, असीम में विलीन होता मन और श्वास का सेतु जो कि उन्हें जोड़ता है, ये तीनों चीजें एक सम्यक लय में होनी चाहिए। क्या तुमने कभी ध्यान दिया है? यदि नहीं, तो अब ध्यान देना कि जब भी तुम्‍हारा मन बदलता है, तो श्वास बदल जाती है। इसके विपरीत बात भी सच है कि यदि तार श्वाश का ढंग बदलो तो मन बदल जाता है।
जब तुम कामवासना से आविष्ट होते हो तो तुमने ध्यान दिया कि कैसे श्‍वास लेते हो तुम? तुम बहुत अराजक, अस्तव्यस्त, उत्तेजित ढंग से श्वास लेते हो। यदि तुम उसी ढंग से श्वास लेते रहो तो तुम जल्दी ही थक जाओगे, निढाल हो जाओगे। वह तुम्हें जीवन न देगी; असल में उस ढंग से तुम जीवन खो रहे हो। जब तुम शांत और मौन होते हो, अच्छा अनुभव करते हो—अचानक किसी सुबह की शांति में या शाम तारों की ओर देखते हुए, कुछ न करते हुए, छुट्टी के दिन, बस विश्राम करते हुए—देखना, ध्यान देना श्वास पर। वह बहुत धीमी चलती है। तुम उसे अनुभव भी नहीं करते कि वह चल भी रही है या नहीं। जब तुम क्रोधित होते हो, तो ध्यान देना। श्वास तुरंत बदल जाती है। जब तुम प्रेम से भरे होते हो, तो ध्यान देना। प्रत्येक भाव—दशा के साथ श्वास की लय भिन्न होती है। श्वास एक सेतु है। जब तुम्हारा शरीर स्वस्थ होता है, तो श्वास अलग ढंग से चलती है। जब तुम्हारा शरीर अस्वस्थ होता है तो श्वास अलग ढंग से चलती है। जब तुम पूर्णरूपेण स्वस्थ होते हो तो तुम बिलकुल भूल जाते हो श्वास को। जब तुम पूरी तरह स्वस्थ नहीं होते तो श्वास पर बार—बार तुम्हारा ध्यान जाता है, कुछ गड़बड़ है।
'आसन की सिद्धि के बाद का चरण है प्राणायाम।
प्राणायाम का अर्थ 'श्वास पर नियंत्रण' नहीं है। यह प्राणायाम शब्द की ठीक व्याख्या नहीं है। प्राणायाम का अर्थ श्वास पर नियंत्रण बिलकुल नहीं है। इसका अर्थ है प्राण—ऊर्जा का विस्तार। प्राण—आयाम : प्राण का अर्थ है श्वास में छिपी प्राण—ऊर्जा, और आयाम का अर्थ है असीम विस्तार। यह 'श्वास पर नियंत्रण' नहीं है।
यह शब्द 'नियंत्रण' थोड़ा भद्दा है, क्योंकि यह 'नियंत्रण' शब्द ही तुम्हें कर्ता की अनुभूति देता है—संकल्प आ जाता है। प्राणायाम बिलकुल अलग बात है। प्राण—ऊर्जा का विस्तार—इस ढंग से श्वास लेना कि तुम अस्तित्व की श्वास के साथ एक हो जाते हो; इस ढंग से श्वास लेना कि तुम अलग से श्वास नहीं ले रहे, तुम समग्र के साथ श्वास ले रहे हो।
प्रयोग करके देखना। कई बार ऐसा होता है : दो प्रेमी साथ—साथ बैठे हैं हाथ में हाथ लिए—यदि वे सच में ही प्रेम में होते हैं तो वे अचानक पाते हैं कि वे एक साथ श्वास ले रहे हैं, वे अलग— अलग श्वास नहीं ले रहे हैं। जब स्त्री श्वास भीतर लेती है, तब पुरुष भी श्वास भीतर लेता है। जब पुरुष श्वास बाहर छोड़ता है, तब स्त्री भी श्वास बाहर छोड़ती है। प्रयोग करके देखना। कभी अचानक सजग होकर देखना। यदि तुम अपने मित्र के साथ बैठे हो, तो तुम साथ—साथ श्वास ले रहे होओगे। यदि कोई दुश्मन बैठा है और तुम उससे पीछा छुड़ाना चाहते हो—या कोई उबाने वाला बैठा है और तुम उससे छुटकारा पाना चाहते हो, तो तुम अलग— अलग श्वास लोगे; तुम्हारी श्वास आपस में बिलकुल लयबद्ध न होगी।
किसी वृक्ष के पास बैठना। यदि तुम शांत हो, आनंदित हो, आह्लादित हो, तो अचानक तुम पाओगे कि वृक्ष, आश्चर्य की बात है, उसी ढंग से श्वास ले रहा है, जिस ढंग से तुम श्वास ले रहे हो। और एक घड़ी आती है जब तुम अनुभव करते हो कि तुम समग्र के साथ श्वास ले रहे हो। तुम समग्र की श्वास के साथ लयबद्ध हो जाते हो। तुम फिर लड़ नहीं रहे होते, संघर्ष नहीं कर रहे होते, तुम समर्पित होते हो कि अलग श्‍वास लेने की जरूरत नहीं रह जाती है।
गहन प्रेम में लोग साथ—साथ श्वास लेते हैं। घृणा में ऐसा कभी नहीं होता। मेरी ऐसी अनुभूति है कि अगर तुम किसी के प्रति विरोध रखते हो तो चाहे वह हजारों मील दूर क्यों न हो—यह एक अनुभूति ही है क्योंकि इसके लिए कोई वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है, लेकिन किसी दिन संभावना है वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध होने की—लेकिन मेरी अत्यंत गहन अनुभूति है कि यदि तुम किसी के प्रति विरोध रखते हो, तो चाहे वह अमरीका में हो और तुम भारत में हो, तुम अलग—अलग श्वास लोगे; तुम एक साथ श्वास नहीं ले सकते। और हो सकता है तुम्हारा प्रेमी चीन में हो और तुम यहां पूना में हो—हो सकता है तुम्हें पता भी न हो कि तुम्हारा प्रेमी कहां है—लेकिन तुम साथ—साथ ही श्वास लोगे। ऐसा ही होना चाहिए, और मैं जानता हूं कि ऐसा ही है। लेकिन कोई वैज्ञानिक प्रमाण उपलनg नहीं है। इसीलिए मैं कहता हूं कि यह मेरी अनुभूति है। किसी दिन कोई वैज्ञानिक इसके लिए प्रमाण भी जुटा देगा।
कुछ प्रमाण हैं जो संकेत देते हैं। उदाहरण के लिए. रूस में टेलीपैथी पर कुछ प्रयोग चलते हैं। इस टेलीपैथी के प्रयोग में दो व्यक्ति, बहुत दूर, सैकड़ों मील दूर होते हैं. एक व्यक्ति संदेश भेजता है, दूसरा व्यक्ति संदेश ग्रहण करता है। निश्चित समय पर, कोई बारह बजे दोपहर, पहला व्यक्ति संदेश भेजना शुरू करता है। वह त्रिभुज का आकार बनाता है, उस पर चित्त को एकाग्र करता है और संदेश भेजता है कि 'मैंने त्रिभुज बनाया है।और दूसरा व्यक्ति उसे ग्रहण करने की कोशिश करता है। बस खुला रहता है, अनुभव करता है, संवेदनशील रहता है—क्या संदेश आ रहा है। और वैज्ञानिकों ने निरीक्षण किया है कि यदि वह त्रिभुज को पकड़ पाता है, तो वे दोनों एक ही ढंग से श्वास ले रहे होते हैं; यदि वह चूक जाता है त्रिभुज को तो वे एक ही ढंग से श्वास नहीं ले रहे होते हैं।
श्वास की गहन लयबद्धता में कोई सेतु तुम्हें जोड़ता है; तुम एक हो जाते हो, क्योंकि श्वास जीवन है। तब अनुभूति दूसरे तक पहुंच सकती है, विचार दूसरे तक पहुंच सकते हैं।
यदि तुम किसी संत से मिलने जाओ तो सदा उसकी श्वास पर ध्यान देना। और यदि तुम एक संवाद अनुभव करते हो, उसके साथ एक गहन प्रेम अनुभव करते हो, तो फिर अपनी श्वास पर भी ध्यान देना। तुम अचानक अनुभव करोगे कि तुम उसके जितने ज्यादा पास आते हो, तुम्हारी भाव—दशा, तुम्हारी श्वास उसके साथ मेल खाने लगती है। जाने या अनजाने, सवाल उसका नहीं है; लेकिन यह होता है।
यह मेरा अनुभव रहा है. यदि मैं देखता हूं कि कोई आया है और वह श्वास के विषय में कुछ भी नहीं जानता है और वह मेरी श्वास की लय में श्वास लेने लगता है तो मैं जान लेता हूं कि वह संन्यासी होने वाला है, और मैं संन्यास के लिए उससे पूछता हूं। यदि मुझे लगता है कि वह मेरी श्वास की लय में श्वास नहीं ले रहा है, तो मैं संन्यास की बात भूल ही जाता हूं तो मुझे प्रतीक्षा करनी होगी। और कई बार मैंने आजमाया है, केवल प्रयोग करने के लिए मैंने पूछ लिया, और वह व्यक्ति कहता है, 'नहीं, मैं तैयार नहीं हूं।मैं जानता था यह बात कि वह तैयार नहीं है — बस जांच ने के लिए ही पूछता हूं कि मेरी अनुभूति ठीक है या नहीं, कि क्या वह मेरे साथ संवाद मैं है? जब तुम संवाद में होते हो, तो तुम साथ —साथ श्वास लेते हो। यह अपने आप होता है; कुछ अज्ञात नियम काम करते हैं।
प्राणायाम का मतलब है : समग्र के साथ श्वास लेना—यह है मेरा अनुवाद; 'श्वास का नियंत्रण' नहीं। प्राणायाम है समग्र के साथ श्वास लेना, इसमें नियंत्रण कहीं आता ही नहीं! यदि तुम नियंत्रण करते हो, तो कैसे तुम समग्र के साथ श्वास ले सकते हो? तो 'प्राणायाम' को 'श्वास का नियंत्रण' कहना गलत है। सच्चाई इसके ठीक विपरीत है।
प्राणायाम है समग्र के साथ श्वास लेना—शाश्वत और समग्र की श्वास के साथ एक हो जाना। तब तुम विस्तार पाते हो। तब तुम्हारी जीवन—ऊर्जा फैलती चली जाती है पेड़ों और पहाड़ों और आकाश और सितारों के साथ। तब एक घड़ी आती है, जब तुम बुद्ध हो जाते हों—तुम पूरी तरह खो जाते हो। अब तुम श्वास नहीं लेते, समग्र श्वास लेता है तुम में। अब तुम्हारी श्वास और समग्र की श्वास अलग नहीं होती। वे एक होती हैं। इतनी एक होती हैं कि अब यह कहना व्यर्थ होता है कि 'यह मेरी श्वास है।
'आसन की सिद्धि के बाद का चरण है प्राणायाम। यह सिद्ध होता है श्वास और प्रश्वास पर कुंभक करने से, या अचानक श्वास को रोकने से।
जब तुम श्वास भीतर लेते हो, तो एक घड़ी आती है जब श्वास पूरी तरह भीतर होती है और कुछ क्षणों के लिए श्वास ठहर जाती है। ऐसा ही तब होता है जब तुम श्वास बाहर छोड़ते तो। तुम श्वास बाहर छोड़ते हो, जब श्वास पूरी तरह बाहर होती है, तब फिर कुछ क्षणों के लिए श्वास ठहर जाती है। उन घड़ियों में तुम्हारा मृत्यु से साक्षात्कार होता है, और मृत्यु से साक्षात्कार परमात्मा से साक्षात्कार है। मैं फिर से दोहरा दूं : मृत्यु से साक्षात्कार परमात्मा से साक्षात्कार है। क्योंकि जब तुम मिट जाते हो, परमात्मा अवतरित होता है तुम में। केवल सूली के बाद ही पुनर्जीवन होता है। इसीलिए मैं कहता हूं : पतंजलि मरने की कला सिखा रहे हैं।
जब श्वास ठहर जाती है; जब श्वास न बाहर जाती है न भीतर आती है, तब तुम ठीक उसी अवस्था में होते हो जहां तुम मृत्यु की घड़ी में होओगे। एक पल को तुम्हारा मृत्यु से साक्षात्कार हो जाता है—श्वास ठहर गई होती है। पूरा 'विज्ञान भैरव तंत्र' इस प्रक्रिया पर आधारित है, क्योंकि यदि तुम प्रवेश कर सको उस अंतराल में, तो वही द्वार है। लेकिन वह बहुत सूक्ष्म और संकरा है।
जीसस ने बार—बार कहा है, 'मेरा मार्ग संकरा है—सीधा है, लेकिन संकरा है, बहुत संकरा है।कबीर ने कहा है, 'दो नहीं गुजर सकते साथ—साथ, केवल एक ही गुजर सकता है।
इतना संकरा है मार्ग कि यदि तुम्हारे भीतर भीड़ है, तो तुम नहीं गुजर सकते। यदि तुम दो में भी बंटे हुए हो—बाएं और दाएं—तो भी तुम नहीं गुजर सकते। यदि तुम एक हो, एक समस्वरता, एक अखंडता, तो तुम गुजर सकते हो। संकरा है मार्ग। सीधा है, निश्चित ही; वह कोई आड़ा—तिरछा नहीं है। वह सीधा जाता है परमात्मा के मंदिर की तरफ, लेकिन बहुत संकरा है।
तुम अपने साथ किसी को नहीं ले जा सकते। तुम अपने साथ अपनी चीजें नहीं ले जा सकते। तुम अपना ज्ञान नहीं ले जा सकते। तुम अपना त्याग नहीं ले जा सकते। तुम अपनी प्रेमिका को नहीं ले जा सकते, अपने बच्चों को नहीं ले जा सकते। तुम किसी को नहीं ले जा सकते। असल में तुम अपना अहंकार भी नहीं ले जा सकते—स्वयं को भी नहीं ले जा सकते! 'तुम्हीं' गुजरोगे वहां से, लेकिन तुम्हारे शुद्धतम अस्तित्व के अतिरिक्त बाकी हर चीज छोड़ देनी होती है द्वार पर।
हां, संकरा है मार्ग। सीधा है, लेकिन संकरा है।
और यही क्षण हैं मार्ग को देख लेने के. जब श्वास भीतर जाती है और ठहर जाती है पल भर को; जब श्वास बाहर जाती है और ठहर जाती है पल भर को। इन अंतरालों के प्रति, इन क्षणों के प्रति और— और सजग होना। इन अंतरालों के द्वारा परमात्मा तुम में प्रवेश करता है मृत्यु की भांति।
मुझ से कोई कह रहा था, 'पश्चिम में हमारे पास यम के समानांतर कोई शब्द नहीं है—यम अर्थात मृत्यु का देवता।और वह मुझ से पूछ रहा था, ' आप मृत्यु को देवता क्यों कहते हैं? मृत्यु तो दुश्मन है। मृत्यु को देवता क्यों कहा गया है? यदि मृत्यु को शैतान कहा जाए तो ठीक है। लेकिन आप इसे देवता क्यों कहते हैं?' मैंने कहा कि हम इसे बहुत सोच—समझ कर देवता कहते हैं. क्योंकि मृत्यु द्वार है परमात्मा का। असल में मृत्यु ज्यादा गहरी है जीवन की अपेक्षा—उस जीवन की अपेक्षा जिसे तुम जीवन जानते हो। वह जीवन नहीं जिसे मैं जानता हूं। तुम्हारी मृत्यु ज्यादा गहरी होती है तुम्हारे जीवन से, और जब तुम मृत्यु से गुजरते हो, तो तुम्हें वह जीवन मिलेगा जिसका तुमसे या मुझ से या किसी से कोई लेना—देना नहीं है। यह समग्र का जीवन है। इसीलिए मृत्यु को देवता कहा है। एक पूरा उपनिषद है, कठोपनिषद : वह पूरी कथा, पूरा उपनिषद यही है कि एक छोटा बच्चा मृत्यु के पास जाता है—जीवन का रहस्य सीखने के लिए। असंगत लगती है बात, बिलकुल असंगत लगती है। जीवन का रहस्य सीखने के लिए मृत्यु के पास क्यों जाना? विरोधाभास मालूम पड़ता है, लेकिन सच्चाई यही है। यदि तुम जीवन को जानना चाहते हों—वास्तविक जीवन कों—तो तुम्हें पूछना होगा मृत्यु से, क्योंकि जब तुम्हारा तथाकथित जीवन समाप्त होता है, केवल तभी वास्तविक जीवन सक्रिय होता है।
'आसन की सिद्धि के बाद का चरण है प्राणायाम। यह सिद्ध होता है श्वास और प्रश्वास पर कुंभक करने से......।
तो जब तुम श्वास भीतर लेते हो, तो उसे थोड़ी देर रोकना, ताकि 'द्वार' अनुभव किया जा सके। जब तुम श्वास बाहर छोड़ते हो, तो उसे थोड़ी देर बाहर रोकना, ताकि तुम ज्यादा आसानी से अनुभव कर सको उस शून्य अंतराल को; तुम्हारे पास थोड़ा ज्यादा समय होता है।
'... या अचानक श्वास को रोकने से।
या, कभी श्वास को अचानक रोक देना। रास्ते पर चलते हुए उसे रोक देना—स्व अचानक झटका, और मृत्यु प्रवेश कर जाती है। कभी भी, किसी भी समय तुम अचानक रोक सकते हो श्वास को, कहीं भी—उसी श्वास के रुकने में मृत्यु प्रवेश कर जाती है।

 उपरोक्त प्राणायामों की अवधि और आवृत्ति देश काल और संख्या के अनुसार ज्यादा लंबी और सूक्ष्म होती जाती है।

 इन अंतरालों का जितना ज्यादा तुम अभ्यास करते हो, उतना ज्यादा विस्तीर्ण होता है द्वार; तुम उसे उतना ज्यादा अनुभव करने लगते हो। इसे हिस्सा बना लेना अपने जीवन का। जब भी तुम कुछ नहीं कर रहे हो, तो श्वास को भीतर लेना—रोक लेना। अनुभव करना उसे वहां; वहीं कहीं द्वार है। वहां अंधेरा है; टटोलना होगा तुम्हें। द्वार तुरंत ही नहीं मिल जाता है, तुम्हें टटोलना होगा—लेकिन तुम पा लोगे।
और जब भी तुम श्वास को रोकोगे, तुरंत ही विचार ठहर जाएंगे। प्रयोग करके देखना। अचानक रोक देना श्वास. और तुरंत प्रवाह रुक जाता है और विचार ठहर जाते हैं, क्योंकि विचार और श्वास दोनों संबंधित हैं जीवन से—इस तथाकथित जीवन से। दूसरे जीवन में, दिव्य जीवन में, श्वास की जरूरत नहीं है। तुम जीते हो, श्वास की कोई जरूरत नहीं होती, तुम जीते हो, विचारों की कोई जरूरत नहीं होती। विचार और श्वास भौतिक संसार का हिस्सा हैं। निर्विचार, निःश्वास—वे शाश्वत जीवन का हिस्सा हैं।

 प्राणायाम का चौथा प्रकार आंतरिक होता है और वह प्रथम तीन के पार जाता है।

 पतंजलि कहते हैं. ये प्राणायाम के तीन प्रकार हैं— भीतर रोकना, बाहर रोकना, अचानक रोकना। और चौथा प्रकार है—जो आंतरिक है।
इस चौथे प्रकार पर बुद्ध ने बहुत जोर दिया है, वे इसे कहते हैं, 'अनापानसतीयोग'। वे कहते हैं, 'कहीं भी श्वास को रोकने की कोशिश मत करना। बस श्वास की पूरी प्रक्रिया को देखते रहना।श्वास भीतर जाती है—तुम देखना, एक भी श्वास चूकना मत। श्वास भीतर जाती है—तुम देखते रहना। फिर एक ठहराव आता है—जब श्वास भीतर जा चुकी होती है तो एक पल के लिए ठहरती है—उस ठहराव को देखना। कुछ करना मत; बस देखते रहना। फिर श्वास चल देती है बाहर की यात्रा पर—देखते रहना। जब श्वास पूरी तरह बाहर होती है तो फिर एक क्षण के लिए ठहरती है—उसको भी देखना। फिर श्वास भीतर आती है, बाहर जाती है, भीतर आती है, बाहर जाती है—तुम बस देखना। यह चौथा प्रकार है. केवल देखते रहने से ही तुम श्वास से अलग हो जाते हो।
जब तुम श्वास से अलग हो जाते हो, तब तुम विचारों से अलग हो जाते हो। असल में शरीर में श्वास की प्रक्रिया मन में विचारों की प्रक्रिया के समानांतर ही है। विचार चलते हैं मन में; श्वास चलती है शरीर में। वे समानांतर शक्तियां हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पतंजलि भी इसकी ओर संकेत करते हैं, यद्यपि उन्होंने जोर नहीं दिया है चौथे प्राणायाम पर। वे केवल संकेत करते हैं इसकी ओर, लेकिन बुद्ध ने तो अपना पूरा ध्यान चौथे प्राणायाम पर ही केंद्रित कर दिया। वे प्रथम तीन की बात ही नहीं करते। संपूर्ण बौद्ध ध्यान चौथे प्राणायाम पर ही आधारित है।
'प्राणायाम का चौथा प्रकार'—जो कि साक्षी होना है—' आंतरिक होता है और वह प्रथम तीन के पार जाता है।
लेकिन पतंजलि बहुत वैज्ञानिक हैं। वे चौथे प्राणायाम का कभी उपयोग नहीं करते, फिर भी वे कहते हैं कि वह तीनों के पार है। हो सकता है कि पतंजलि के पास उतने विकसित शिष्यों का समूह न रहा हो, जैसा बुद्ध के पास था। पतंजलि जरूर उन लोगों पर काम कर रहे होंगे जो शरीर के साथ ज्यादा जुड़े थे, और बुद्ध उन लोगों पर काम कर रहे थे जो मन के साथ ज्यादा जुड़े थे। पतंजलि कहते हैं कि चौथा प्राणायाम बाकी तीनों के पार है, लेकिन वे स्वयं कभी उसका उपयोग नहीं करते।
पतंजलि योग के विषय में जो भी कहा जा सकता है वह सब कहते जाते हैं। इसीलिए मैं कहता हूं कि वे योग के अल्फा और ओमेगा हैं—आदि और अंत हैं। उन्होंने एक भी बात नहीं छोड़ी है। पतंजलि के योग—सूत्रों में कुछ भी जोड़ा—घटाया नहीं जा सकता है।
केवल दो ही व्यक्ति हैं संसार में जिन्होंने अकेले पूरा विज्ञान निर्मित किया है। एक है पश्चिम में अरस्तू जिसने तर्कशास्त्र का पूरा विज्ञान निर्मित किया—अकेले ही—किसी का भी सहयोग नहीं रहा। और इन दो हजार वर्षों में कोई चीज उसमें जुड़ी नहीं, संशोधित नहीं हुई; वह वैसा का वैसा है। वह इतना परिपूर्ण है। दूसरे हैं पतंजलि, जिन्होंने योग का पूरा विज्ञान निर्मित किया—जो कई गुना, लाख गुना ज्यादा विराट है तर्कशास्त्र से—अकेले ही पूरा विज्ञान निर्मित किया! और उसमें कुछ भी जोड़ा—घटाया नहीं जा सकता। वह बिलकुल वैसा ही है। और मैं इसकी कोई संभावना नहीं देखता कि आगे भी कभी उसमें कुछ जोड़ा जा सकता है। योग—सूत्र में पूरा विज्ञान मौजूद है—संपूर्ण, अपनी पराकाष्ठा पर।

 आज इतना ही।







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