दिनांंक 3 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।
'योग—सूत्र (साधनपाद)
'योग—सूत्र (साधनपाद)
शौचात्स्वाङ्गजुगुप्सा
परैरसंसर्ग:।।
40।।
जब
शुद्धता
उपलब्ध होती
है, तब
योगी में
स्वयं के शरीर
के प्रति एक जुगुप्सा
और दूसरों के
साथ शारीरिक
संपर्क में
आने के प्रति
एक अनिच्छा
उत्पन्न होती
है।
सत्वशुद्धिसौमनस्यैकग्रयैन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि
च।। 41।।
मानसिक
शुद्धता से
उदित होती है—प्रफुल्लता,
एकाग्रता की
शक्ति,
इंद्रियों पर
नियंत्रण और
आत्म—दर्शन की
योग्यता।
संतोषादनुत्तमसुखलाभ:।।
42।।
संतोष
से उपलब्ध
होता है परम
सुख।
अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य और
अंतस की
प्रामाणिकता
से शुद्धता आती
है। ये बातें
कोई नैतिक
धारणाएं नहीं
हैं पतंजलि के
लिए; इसे
सदा स्मरण
रखना। पश्चिम
में ये बातें
नैतिक
धारणाओं की
भांति सिखाई
गई हैं, पूरब
में आंतरिक
स्वास्थ्य की
भांति सिखाई
गई हैं, नैतिक
धारणाओं की
भांति नहीं।
पश्चिम में वे
परोपकार की
भांति सिखाई
गई हैं, पूरब
में उनमें
परोपकार जैसी
कोई बात नहीं
है—यह बिलकुल
स्वार्थ की
बात है। यह
तुम्हारा आंतरिक
स्वास्थ्य है।
ये बातें
तुम्हें एक
शुद्धि देती
हैं, और उस
शुद्धि से
असंभव संभव हो
जाता है, अनुपलब्ध
उपलब्ध हो जाता
है। शुद्धि
द्वारा
तुम्हारे
भीतर की
स्थूलता खो जाती
है। तुम
सुकोमल, सूक्ष्म
और सौम्य हो
जाते हो।
शुद्धता
अस्तित्व के
लिए भेजा एक
निमंत्रण है
कि तुम उसके
अवतरण के लिए
तैयार हो... और
एक दिन सागर
उमड़ आता है, और उतर जाता
है बूंद में।
जब ये
बातें नैतिक
धारणाओं की
भांति सिखाई
जाती हैं, जैसा कि
पश्चिम में—या
भारत में भी
जैसा कि
महात्मा
गांधी सिखाते आए
हैं—तब उनकी
पूरी
गुणवत्ता बदल
जाती है। जब
तुम कहते हो, 'तुम्हें
अहिंसक होना
चाहिए, क्योंकि
हिंसा दूसरों
को चोट
पहुंचाती है।
किसी को चोट
मत पहुंचाओ।
मानवता एक परिवार
है, और
दूसरों को चोट
पहुंचाना पाप
है।’ तो
तुमने सारी
बात को एक
बिलकुल ही अलग
आयाम में मोड़
दिया।
पतंजलि
कहते हैं, 'अहिंसक
होओ : क्योंकि
यह बात
तुम्हें
शुद्ध करती है।
किसी को चोट
मत पहुंचाओ—किसी
को चोट
पहुंचाने के
बारे में सोचो
भी मत—क्योंकि
जैसे ही तुम उस
ढंग से सोचते
हो तुम भीतर
अशुद्धता में
गिर जाते हो।’
बात दूसरे
की नहीं है, बात
तुम्हारी है।
निश्चित ही जब
कोई अहिंसक
होता है तो
दूसरे लोगों
को इससे लाभ
मिलता है, लेकिन
वह लक्ष्य
नहीं है
अहिंसक होने
का। वह तो
केवल एक उप—उत्पत्ति
है, एक
छाया मात्र है।
यदि तुम
इसलिए अहिंसक
हो कि कहीं
दूसरों को चोट
न पहुंचे, तो तुम
वस्तुत:
अहिंसक नहीं
हो। तुम एक
अच्छे
सामाजिक
नागरिक हो, सुसभ्य हो, लेकिन धर्म
की कोई घटना
नहीं घटी है
तुम्हारे भीतर।
तुम्हारी
अहिंसा
तुम्हारे और
दूसरों के बीच
एक
सौहार्दपूर्ण
वातावरण का
काम करेगी। तुम्हारा
जीवन थोड़ा
ज्यादा शात हो
जाएगा, लेकिन
ज्यादा शुद्ध
न होगा, क्योंकि
लक्ष्य से
पूरी
गुणवत्ता बदल
जाती है। किसी
दूसरे को
बचाने का
लक्ष्य नहीं
है; दूसरा
बच जाता है, वह बात गौ''। है।
लक्ष्य है
शुद्ध होने का,
ताकि तुम
परम शुद्धता
को जान सको।
पूरब
के धर्म
स्वार्थी हैं, क्योंकि
वे जानते हैं
कि अन्यथा
होने का कोई उपाय
नहीं है, और
जब कोई
स्वार्थी
होता है तो
दूसरे बहुत
लाभान्वित
होते हैं। असल
में सच्चा
परोपकार, प्रामाणिक
परोपकार गहन
स्वार्थ से ही
आता है। ये
विपरीत नहीं
हैं, ये
विरोधाभासी
नहीं हैं.
परोपकार के फूल
केवल उस अंतस
में खिलते हैं
जो गहन रूप से
स्वार्थी
होता है।
स्वार्थी
होना एकदम
स्वाभाविक
बात है। लोगों
पर इससे
विपरीत होने
की जबरदस्ती
करना उन्हें
अस्वाभाविक
बनाना है, और
जो भी
अस्वाभाविक
है वह
परमात्मा का
ढंग नहीं है।
जो भी
अस्वाभाविक
है वह दमन बन
जाएगा; वह
तुममें कोई
शुद्धता न
लाएगा।
तो इसे
स्मरण रखना है
: यह कोई नैतिक
लक्ष्य नहीं
है। असल में
पूरब में
नैतिकता कभी
लक्ष्य नहीं
रही; वह
धर्म की छाया
है। जब धर्म
घटता है, तो
नैतिकता अपने
ऊपर घटती है—उसके
बारे में
चिंता करने की
कोई जरूरत
नहीं रहती
व्यक्ति को, वह अपने आप
आती है।
पश्चिम में
नैतिकता
लक्ष्य की
भांति सिखाई जाती
है—असल में
धर्म की भांति
सिखाई जाती है।
पूरब के
शास्त्रों
में 'टेन
कमांडमेंट्स'—दस आज्ञाओं
जैसी कोई चीज
नहीं, ऐसी
कोई आशाएं
पूरब में नहीं
हैं।
जीवन
को
कमांडमेंट्स, आज्ञाओं
के अनुसार
नहीं जीना
चाहिए, वरना
तो तुम गुलाम
हो जाओगे। और
अगर तुम
गुलामी से
स्वर्ग भी
पहुंच जाते हो,
तो
तुम्हारा
स्वर्ग कोई
स्वर्ग न होगा,
गुलामी
उसका एक
हिस्सा होगी।
स्वतंत्रता, मुक्ति
तुम्हारे
विकास का एक
अभिन्न अंग
होनी चाहिए।
तो ये हैं
स्वास्थ्य के,
शुद्धि के
उपाय। वे तुम्हें
शुद्ध करते
हैं, वे
तुम्हें आंतरिक
स्वास्थ्य
देते हैं।
जब
शुद्धता
उपलब्ध होती
है— पतंजलि
कहते है— तब
योगी में
स्वयं के शरीर
के प्रति एक
जुगुप्सा और
दूसरों के साथ
शारीरिक
संपर्क में
आने के प्रति
एक अनिच्छा
उत्पन्न
होती है।
'जुगुप्सा' शब्द के साथ थोड़ी
कठिनाई है।
सारे
अनुवादों में
इसे घृणा, 'डिसगस्ट'
कहा गया है।
यह 'डिसगस्ट'
नहीं है, घृणा नहीं
है; घृणा
शब्द ही गलत
है। यह घृणा
शब्द ही
घृणास्पद है।
और
योगी के विषय
में सोचना कि
उसमें घृणा
उत्पन्न होती
है अपने शरीर
के लिए, यह बात ही
अविश्वसनीय
है, क्योंकि
योगियों ने तो
अपने शरीर का
ऐसा ध्यान रखा
है जैसा ध्यान
कभी किसी ने
नहीं रखा। वे
अपने शरीर को
इतने खयाल से
सम्हालते हैं,
जितना कोई
कभी नहीं
सम्हालता है।
उनके पास
सुंदर शरीर
होते हैं, बड़े
सुंदर और
सुडौल।
महावीर या
बुद्ध को देखो—कितनी
सुंदर काया है
उनकी! मानो
पदार्थ में
दिव्य संगीत
उतर आया हो।
नहीं, यह
बात संभव नहीं।
घृणा एक गलत
शब्द है, पहली
बात यह समझ
लेनी है।
'जुगुप्सा' का अर्थ
घृणा नहीं है।
अर्थ बड़ा कठिन
है, मुझे
स्पष्ट करना
होगा तुमको।
तीन तरह के
लोग होते हैं।
एक जो पागलों
की तरह अपने
शरीर के प्रेम
में होते हैं;
वस्तुत: वे
शरीर से
आविष्ट होते
हैं। विशेषकर
स्त्रियां—बहुत
शरीर से बंधी
होती हैं।
देखना किसी
स्त्री को :
जितनी खुश वह
दर्पण के सामने
होती है उतनी
खुश वह किसी
और वक्त नहीं होती—नार्सिस्टिक,
आत्म—मोह से
ग्रस्त।
घंटों वे खड़ी
रह सकती हैं
दर्पण के सामने—आविष्ट! कुछ गलत
नहीं है दर्पण
के सामने खड़े
होने में, लेकिन बस
वहीं जमे रहना
घंटों तक
पागलपन जैसा मालूम
पड़ता है।
यह है
पहला प्रकार, जो
निरंतर
ग्रस्त होता
है शरीर से—इतना
ज्यादा
ग्रस्त कि वह
भूल जाता है
कि शरीर से
पार भी उसका
अस्तित्व है।
शरीर के पार
का तत्व भुला
दिया जाता है,
वह मात्र
शरीर हो जाता
है। वह शरीर
का मालिक नहीं
होता है; शरीर
मालिक होता है
उसका। यह है
पहली प्रकार
का व्यक्ति।
दूसरी
प्रकार का
व्यक्ति पहले
के ठीक विपरीत
होता है : वह भी
शरीर से
आविष्ट होता
है—उलटी दिशा
में। वह शरीर
के विरुद्ध
होता है, उसके प्रति
घृणा से भरा
होता है. उसने
तोड़ दिया है
दर्पण। वह
लाखों ढंग से
अपने शरीर को
सताता रहता है,
वह घृणा
करता है शरीर
से। पहला
व्यक्ति उससे
प्रेम करता है
पागल की भांति;
दूसरा
दूसरी अति पर
चला जाता है—वह
घृणा करता है
उससे। वह
आत्महत्या कर
लेना चाहता है।’
तुम
देख सकते हो
दूसरे प्रकार
के लोगों को, वे शायद
योगी होने का
दिखावा कर रहे
होंगे, लेकिन
वे योगी नहीं
हैं। योगी
घृणा नहीं कर
सकता है। यह
किसी चीज से
घृणा करने का
प्रश्न नहीं
है. योगी घृणा
ही नहीं कर
सकता।
क्योंकि घृणा
से अशुद्धता
पैदा होती है।
यह किसी दूसरे
को या किसी
चीज को या
अपने शरीर को
घृणा करने का
प्रश्न नहीं
है. घृणा का
विषय चाहे कुछ
भी हो, घृणा
अशुद्धता
पैदा करती है।
योगी अपने
शरीर को घृणा
नहीं कर सकता
है। लेकिन तुम
इस तरह के
विकृत योगी
देख सकते हो बनारस
की गलियों में
जो लेटे हुए
हैं काटो पर
या लोहे की
नुकीली कीलों
पर, अपने
शरीर को सता
रहे हैं। यह
एकदम विपरीत
अति पर है उस
स्त्री से जो
कि दर्पण के
सामने खड़ी मजा
ले रही है।
फिर
उपवास है :
उपवास अपने आप
में अच्छी बात
हो सकती है, बुरी बात
हो सकती है।
यह निर्भर
करता है। उपवास
एक ढंग हो
सकता है शरीर
को सताने का; तो यह बुरी
बात है, तो
यह हिंसा है।
मेरे देखे ऐसा
ही है : जो लोग
दूसरों के
प्रति हिंसक
नहीं हैं, जिन्होंने
दूसरों के
प्रति हिंसा
को दबा लिया
है और अहिंसक
हो गए हैं—उनकी
हिंसा नया रुख
ले लेती है : वे
अपने शरीर पर
ही हिंसा
निकालने लगते
हैं। विकृत
लोगों की
कथाएं हैं
जिन्होंने
अपनी आंखें
फोड़ लीं ताकि
वे सुंदर
स्त्रियों को
न देख सकें।
ऐसी बहुत सी
कथाएं हैं
लोगों की—और
कोई इक्की—दुक्की
कथाएं नहीं
हैं, हजारों
कथाएं हैं।
रूस
में क्रांति
से पहले एक
संप्रदाय था, हजारों
उस संप्रदाय
के मानने वाले
थे, जिन्होंने
अपनी
जननेंद्रियाँ
काट दीं—शरीर
से अतिशय घृणा
करने के कारण।
वे बच्चे नहीं
पैदा कर सकते
थे। लेकिन फिर
अनुयायियों
की संख्या
कैसे बढ़े? क्योंकि
प्रत्येक
संस्था को
इसमें रस होता
है। तो वे
कठिनाई में थे।
तो वे बच्चों
को गोद ले
लेते और उनकी
जननेंद्रिया
काट देते—अपने
ही शरीर के
प्रति एक
अपराधपूर्ण
कृत्य।
ईसाइयत
में ऐसे
संप्रदाय हुए
हैं जिनकी
एकमात्र
प्रार्थना थी
रोज सुबह अपने
को कोडे मारना।
और जो अपने
शरीर पर इतने
ज्यादा कोड़े
मारता कि वह
नीला पड़ जाता, उसे सबसे
महान संत समझा
जाता था—तमाम
शरीर
लहूलुहान हो
जाता और खून
बहने लगता।
ऐसा लिखा जाता
था बड़े संतो
की जीवन—कथाओं
में कि सुबह
उन्होंने
अपने शरीर पर
कितने कोड़े
मारे —सौ, कि
दो सौ, कि
तीन सौ....।
जैसे
भारत में जैन
मुनि अपने दिन
गिनते रहते हैं
कि साल में
कितने दिन
उन्होंने
उपवास किया—सौ
दिन, पचास
दिन, कितने
दिन। सबसे बड़ा
मुनि वह होता
है, जो
उपवास ही करता
रहा है—अपने
शरीर को करीब—करीब
भूखा ही रखता
है।
ईसाइयत
में ऐसे फकीर
हुए हैं जिनके
जूतो में
कीलें ठुंकी
रहतीं। जो
चुभती रहतीं
उनके पैरों
में; और
वे चलते उन जूतो
को पहने हुए
और वे अपने
पैरों में
हमेशा घाव बनाए
रहते। खून बह
रहा होता, मवाद
भर गया होता—वे
बड़े संत माने
जाते थे!
अगर
कोई धर्म को
वैज्ञानिक
दृष्टि से
देखे तो नब्बे
प्रतिशत धर्म
रुग्ण मालूम
होगा। इन
लोगों को
मानसिक
चिकित्सा की
जरूरत थी। ये
लोग धार्मिक न
थे, बिलकुल
नहीं थे।
इन्हें
धार्मिक कहना
नितांत मूढ़ता
है. ये तो स्वाभाविक
भी न थे; ये
विक्षिप्त थे।
ये दो
साधारण
प्रकार हैं, और फिर इन
दोनों के बीच—एकदम
ठीक मध्य में—तीसरा
प्रकार है, जिसके लिए
पतंजलि 'जुगुप्सा'
शब्द का
प्रयोग करते
हैं। उसे अपने
शरीर से घृणा
भी नहीं होती
है और वह देह
से ग्रस्त भी
नहीं होता है।
वह एक गहन
संतुलन में
होता है। वह
शरीर का खयाल
रखता है, क्योंकि
शरीर एक
माध्यम है। वह
शरीर को
पवित्र वस्तु
के रूप में
समझता है, सम्हालता
है। शरीर
पवित्र है—परमात्मा
ने उसे बनाया
है; और जो
भी परमात्मा
ने बनाया है, वह अपवित्र
कैसे हो सकता
है? वह
मंदिर है, उसकी
निंदा नहीं
करनी है। न ही
उसके पीछे
इतने पागल हो
जाना है कि
तुम खो ही जाओ
उसमें।
मंदिर
प्रतिमा नहीं
है; मंदिर
गर्भगृह नहीं
है। गर्भगृह
तो वह अंतरस्थ
केंद्र है
जिसके लिए मंदिर
है। तुम्हें
मंदिर की
दीवारों को
नहीं पूजने
लगना है, लेकिन
उसके विरोध
में हो जाने
की भी कोई
जरूरत नहीं है—कि
तुम मंदिर को
ही नष्ट करने
लगो।
एक गहन
अतादात्म्य
चाहिए।
तुम्हें
जानना है : 'मैं शरीर
में हूं लेकिन
शरीर के पार
हूं। मैं शरीर
में हूं लेकिन
मैं शरीर नहीं
हूं। मैं शरीर
में हूं लेकिन
उसमें ही
सीमित नहीं हूं।
मैं शरीर में
हूं लेकिन मैं
उसके पार हूं।’
शरीर एक
बंधन नहीं
होना चाहिए।
निश्चित ही, वह एक आश्रय
है, और एक
सुंदर आश्रय
है। व्यक्ति
को उसके प्रति
अनुगृहीत
होना चाहिए; उससे लड़ने
की कोई जरूरत
नहीं है। उससे
लड़ना एकदम
मूढ़ता भरी और
बचकानी बात है।
उसका उपयोग
करना चाहिए—और
ठीक से उपयोग
करना चाहिए।
'जुगुप्सा' का अर्थ है...
अगर मुझे इसे
कहना हो तो
मैं कहूंगा :
योगी का मोह—
भंग हो जाता
है शरीर के
प्रति। घृणा
नहीं होती, केवल मोह—
भंग होता है।
वह नहीं सोचता
कि शरीर
द्वारा, आत्मा
जिस आनंद को
खोज रही है, वह संभव है।
नहीं। लेकिन
वह इसके
विपरीत भी
नहीं सोचता कि
शरीर को नष्ट
करके वह आनंद
संभव है। नहीं,
वह द्वैत को
गिरा देता है।
वह शरीर में
मेहमान की
भांति रहता है
और वह शरीर को
मंदिर समझता
है।
'जब
शुद्धता
उपलब्ध होती
है, तब
योगी में
स्वयं के शरीर
के प्रति एक
जुगुप्सा और
दूसरों के साथ
शारीरिक
संपर्क में
आने के प्रति
एक अनिच्छा
उत्पन्न होती
है।’
जब तुम
शरीर में बहुत
ज्यादा जीते
हो, तब
तुम सदा
उत्सुक होते
हो दूसरे
शरीरों के संपर्क
में आने के
लिए, दूसरों
के शरीरों से
संपर्क बनाने
की एक कामना
होती है। इसे
तुम प्रेम
कहते हो।
यह
प्रेम नहीं है, यह केवल
कामना है।
क्योंकि शरीर
अकेला नहीं जी
सकता। वह
दूसरे शरीरों
से संबंधित
होकर ही जी
सकता है।
एक
बच्चा मां के
गर्भ में होता
है; नौ
महीने मां का
शरीर बच्चे के
शरीर को पोषित
करता है।
बच्चे का शरीर
बढ़ता है मां
के शरीर से, जैसे कि
वृक्ष से
शाखाएं फूटती
हैं। जब बच्चा
बड़ा होता है, तो निश्चित
ही वह गर्भ से
बाहर आ जाता
है, लेकिन
फिर भी गहन
रूप से जुड़ा
रहता है। मां
के स्तन से
जुड़ा रहता है
बच्चा—केवल
दूध ही नहीं
ग्रहण करता—शरीर
की ऊष्मा भी
पाता है, जो
कि एक शारीरिक
जरूरत है।
और अगर
बच्चे को मां
की ऊष्मा नहीं
मिलती, तो वह कभी
स्वस्थ नहीं
हो सकता। उसका
शरीर सदा
बीमार रहेगा।
शायद उसे सब
कुछ मिल रहा
हो जो शरीर के
लिए जरूरी है—भोजन,
दूध, विटामिन—लेकिन
यदि स्त्री की
ऊष्मा उसे न
मिले. और वह भी
बड़े
प्रेमपूर्ण
ढंग से, क्योंकि
अगर तुम किसी
व्यक्ति के
प्रति प्रेमपूर्ण
नहीं हो तो
गरमी तो संभव
है, वह
पहुंच सकती है
तुम्हारे
शरीर से दूसरे
व्यक्ति तक, लेकिन वह
ऊष्मा नहीं है।
प्रेम
द्वारा गरमी
ऊष्मा बन जाती
है। उसका आयाम
गुणात्मक रूप
से अलग होता
है। वह केवल
गरमी नहीं है, वरना तो
तुम बच्चे को
पहुंचा सकते
हो गरमी। अब
तो बहुत से
प्रयोग किए गए
हैं. बच्चे को
उचित तापमान
के कमरे में
रखा जाता है—लेकिन
उससे मदद नहीं
मिलती। मां का
शरीर प्रेम की
सूक्ष्म
तरंगें
प्रेषित करता
है : अपनेपन की,
प्रेम की, इस अहसास की
कि उसका होना
अर्थपूर्ण है।
ये बातें
बच्चे के लिए
पोषण का काम
करती हैं।
इसीलिए
निरंतर
व्यक्ति जीवन
भर तलाश में
रहेगा—अन्वेषण
करेगा, खोजेगा—स्त्री
के शरीर को; और स्त्री
जीवन भर खोजती
रहेगी पुरुष
के शरीर को।
विपरीत लिंग
के प्रति एक
आकर्षण होता
है, क्योंकि
शरीरों की
ध्रुवताएं
मदद देती हैं;
वे ऊर्जा
देती हैं। यह
विपरीत
ध्रुवता ही एक
तनाव और एक
ऊर्जा देती है।
तुम बढ़ते हो
उसके द्वारा;
तुम
शक्तिशाली
बनते हो उसके
द्वारा।
यह
स्वाभाविक है, इसमें
कुछ गलत नहीं
है। लेकिन जब
कोई शुद्ध हो
जाता है—अहिंसा,
अपरिग्रह, सत्य के
द्वारा जब कोई
शुद्ध हो जाता
है—तो जितना
कोई व्यक्ति
शुद्ध हो जाता
है, उतना
ही चेतना का
फोकस शरीर से
आत्मा की ओर
मुड़ जाता है।
आत्मा नितांत
अकेली हो सकती
है।
इसीलिए
जो व्यक्ति
बहुत ज्यादा
जुड़ा होता है शरीर
से, वह
कभी मुक्त
नहीं हो सकता।
वह जुड़ाव ही उसे
बहुत तरह के
बंधनों में, कारागृहों
में ले जाएगा।
तुम किसी
स्त्री को
प्रेम करते हो,
तुम किसी
पुरुष को
प्रेम करते हो,
लेकिन गहरे
में तुम
प्रतिरोध भी
करते हो—क्योंकि
प्रेमी भी एक
बंधन होता है।
प्रेम —संबंध
तुम्हें पंगु
कर देता है।
वह तुम्हें
तृप्त भी करता
है, पंगु
भी करता है।
तुम उसके बिना
नहीं रह सकते,
और तुम उसके
साथ भी नहीं
रह सकते।
यही
सारे
प्रेमियों की
समस्या है। वे
अलग भी नहीं
रह सकते और
साथ भी नहीं
रह सकते। जब
वे अलग होते
हैं, तो
एक—दूसरे के
बारे में
सोचते हैं, जब वे साथ
होते हैं, तो
लड़ते हैं एक —
दूसरे से। ऐसा
क्यों होता है?
सीधी—साफ
बात है। जब
तुम उस स्त्री
के साथ नहीं
होते जिसे तुम
प्रेम करते हो
और जो तारे:
प्रेम करती है, तो तुम उस
ऊष्मा की भूख
अनुभव करने
लगते हो जो प्रवाहित
होती है
स्त्री के शरीर
से। और जब तुम
अपनी
प्रेमिका के
साथ होते हो
तो तुम भूखे
नहीं रहते, तुम खूब
तृप्त होते हो।
और जल्दी ही
तुम्हारा मन
भर जाता है।
जल्दी ही तुम
ऊब जाते हो।
अब तुम अलग
होना चाहते हो,
दूर होना
चाहते हो और
अकेले होना
चाहते हो।
सारे
प्रेमी, जब साथ होते
हैं, तो
सोचते हैं, 'कैसा सुंदर
होगा अकेले
रहना!' और
जब वे अलग
होते हैं, अकेले
होते हैं, तो
देर—अबेर वे
दूसरे की
जरूरत अनुभव
करने लगते हैं
और कल्पना
करने लगते हैं
और सपने देखने
लगते हैं, 'कैसा
सुंदर होगा
साथ रहना!'
शरीर
को चाहिए साथ, और
तुम्हारी
अंतरतम आत्मा
को चाहिए
स्वात। यह है
समस्या।
तुम्हारी
आत्मा अकेली
हो सकती है—हिमालय
के उत्तुंग
शिखर की भांति।
तुम्हारी
आत्मा एकांत
में विकसित
होती है।
लेकिन
तुम्हारे
शरीर को जरूरत
होती है संग—साथ
की। शरीर को
चाहिए भीड़, ऊष्मा, क्लब,
सभाएं, संस्थाएं;
जहां भी तुम
बहुत से लोगों
के साथ होते
हो, शरीर
को अच्छा लगता
है। भीड़ में
तुम्हारी
आत्मा दीन—हीन
अनुभव करती है,
क्योंकि वह
स्वात में
विकसित होती
है, लेकिन
तुम्हारा
शरीर अच्छा
अनुभव करता है
भीड़ में।
स्वात में
तुम्हारी
आत्मा अच्छा
अनुभव करती है,
लेकिन शरीर
भूख अनुभव
करने लगता है
संबंध के लिए।
और
जीवन में अगर
तुम इसे ठीक
से नहीं समझ
लेते, तो
तुम व्यर्थ ही
बहुत दुख पाते
हो। अगर तुम
इसे समझ लेते
हो, तो तुम
एक लय बना
लेते हो : तुम
शरीर की
आवश्यकता
पूरी करते हो
और तुम आत्मा
की आवश्यकता
भी पूरी करते
हो। कभी तुम
संबंधों में
जीते हो, कभी
तुम संबंधों से
हट जाते हो।
कभी तुम संग—साथ
में जीते हो
और कभी तुम
अकेले जीते हो।
कभी तुम उड़ा
शिखर हो जाते
हों—इतने
अकेले कि
दूसरे का
विचार भी
मौजूद नहीं होता।
एक लय होती है।
लेकिन
जब कोई स्वात
को उपलब्ध हो
जाता है और चेतना
का फोकस बदल
चुका होता है
वही तो सारा
प्रयास है योग
का : कैसे फोकस
बदले शरीर से
आत्मा पर, पदार्थ
से अपदार्थ पर,
दृश्य से
अदृश्य पर, शात से
अज्ञात पर—संसार
से परमात्मा
पर। कुछ भी कह
लो इसे तुम, उससे कुछ
अंतर नहीं
पड़ता। यह है
फोकस का बदलना।
जब फोकस पूरी
तरह बदल जाता
है, तो
योगी इतना
सुखी होता है
अपने स्वात
में, इतना
आनंदित होता
है, कि
शरीर की जो
सामान्य चाह
होती है
दूसरों के साथ
होने की वह भी
धीरे— धीरे
तिरोहित होने
लगती है।
जब
शुद्धता
उपलब्ध होती
है, तब
योगी में एक
मोह— भंग
उत्पन्न होता
है अपने शरीर
के प्रति अब वह
जानता है कि
जो स्वर्ग वह
खोजता आया है,
वह शरीर के
द्वारा नहीं
पाया जा सकता
है। जिस आनंद
की वह कल्पना
करता रहा है, वह शरीर के
द्वारा नहीं
संभव है। यह
शरीर के लिए
असंभव है
सीमित के
द्वारा तुम असीम
तक पहुंचने की
कोशिश कर रहे
हो। पदार्थ के
द्वारा तुम
शाश्वत को
पाने की, अमृत
को पाने की
कोशिश कर रहे हो।
कुछ
गलत नहीं है
शरीर में, तुम्हारा
प्रयास ही
बेतुका है।
शरीर के प्रति
क्रोधित मत
होओ; शरीर
ने तुम्हारा
कुछ नहीं
बिगाड़ा है। यह
ऐसे ही है
जैसे कोई आंखों
से सुनने की
कोशिश कर रहा
हो। अब आंखों
की तो कोई
गलती नहीं है आंखें
बनी हैं देखने
के लिए, न
कि सुनने के
लिए। शरीर बना
है पदार्थ से,
वह अपदार्थ
से बना नहीं
है। वह बना है
नश्वर से, वह
अनश्वर नहीं
हो सकता है।
तुम असंभव की
मांग कर रहे
हो। असंभव की
मांग मत करो।
यही है
मोह— भंग होने
का अर्थ : योगी
सहज ही यह बोध
पा लेता है कि
शरीर द्वारा
क्या संभव है
और क्या संभव
नहीं है। जो
संभव है वह
ठीक; जो
संभव नहीं है
उसकी वह मांग
ही नहीं करता।
वह क्रोधित
नहीं होता
शरीर पर। वह
घृणा नहीं
करता शरीर से।
वह हर तरह से
देखभाल करता
है उसकी, क्योंकि
शरीर सीढ़ी बन
सकता है, द्वार
बन सकता है; वह मंजिल
नहीं बन सकता,
लेकिन फिर
भी वह द्वार
बन सकता है।
मोह—
भंग उसके अपने
शरीर के प्रति—और
जब यह मोह— भंग
घटित होता है
तब एक अनिच्छा
उत्पन्न होती
है दूसरों के
साथ शारीरिक
संपर्क में
आने के प्रति।
तब दूसरों के
साथ शारीरिक
संपर्क में
आने की
आवश्यकता धीरे—
धीरे शिथिल पड़
जाती है। असल
में यही है वह
क्षण जब तुम
कह सकते हो कि
व्यक्ति गर्भ
के बाहर आया—उसके
पहले नहीं।
कुछ
लोग कभी गर्भ
के बाहर नहीं
आते। मरते
क्षण भी
दूसरों की
मौजूदगी की, संपर्क
की, संबंध
बनाने की उनकी
जरूरत बनी ही
रहती है। वे
गर्भ के बाहर
नहीं आए।
शारीरिक रूप
से तो वे बहुत
पहले ही बाहर
आ गए हैं—व्यक्ति
अस्सी—नब्बे
वर्ष का हो
सकता है। तो
नब्बे वर्ष
पहले वह आ गया
था गर्भ के
बाहर, लेकिन
इन नब्बे
वर्षों में भी
वह संबंधों
में जीता रहा—खोजता
रहा, उत्सुक
रहा शारीरिक
संपर्क के लिए।
अपने
स्वप्नों में
वह फिर—फिर
उसी खो गए
गर्भ में ही
जीया। ऐसा कहा
जाता है कि जब
भी कोई आदमी
किसी स्त्री
के प्रेम में
पडता है—वह
सोचे चाहे कुछ
भी, सवाल
उसका नहीं है—वह
फिर गर्भ में
उतर रहा होता
है। और शायद
यह सच है—मैं
कहता हूं 'शायद'
क्योंकि यह
परिकल्पना
अभी
वैज्ञानिक
रूप से सिद्ध
नहीं हुई है—कि
स्त्री—शरीर
में प्रविष्ट
होने का इतना
आकर्षण, कामवासना
का इतना प्रबल
आकर्षण, शायद
गर्भ में फिर
से प्रविष्ट
होने का एक
सञ्जीटघूट है।
कामवासना
संभवत: एक
तलाश है कि
कैसे गर्भ में
फिर से
प्रविष्ट हों।
और मनुष्य ने
जो भी ढंग
खोजे हैं अपने
शरीर को सुख
देने के, मनस्विद
कहते हैं कि
वह कोशिश करता
है बाहर एक
गर्भ निर्मित
करने की। किसी
सुखद कमरे को
देखना. अगर वह
सच में ही सुखद
है तो जरूर
कुछ न कुछ
गर्भ से मिलता—जुलता
होगा—ऊष्मा, नरम, कोमल,
मखमली—मां
की त्वचा का
वह अंत—स्पर्श।
तकिए, गद्दे—कोई
भी चीज
तुम्हें सुखद
आराम की अनुभुति
केवल तभी देती
है, जब वह
किसी न किसी
ढंग से गर्भ
से मिलती—जुलती
है।
अब
पश्चिम में
उन्होंने
छोटे —छोटे
टैंक बनाए हैं, गर्भ जैसे।
उन टैंकों में
कुनकुना पानी
भरा रहता है, ठीक उसी
तापमान पर
जितना कि मां
के गर्भ का तापमान
होता है। गहन
अंधेरे में
व्यक्ति
तैरता है उस
टैंक में, पूरे
विश्राम में,
अंधेरे में—बिलकुल
गर्भ की तरह।
वे उन्हें ' ध्यान—टैंक'
कहते हैं।
उससे बहुत मदद
मिलती है. व्यक्ति
बहुत ही शात
अनुभव करता है,
एक आंतरिक
आनंद का अनुभव
होता है—तुम
फिर से बच्चे
हो गए होते हो।
बच्चा
गर्भ में एक
सुनिश्चित
तापमान के
द्रव में
तैरता है। उस
द्रव में सागर
के पानी के
सारे लवण होते
हैं। उसी कारण
वैज्ञानिक इस
निष्कर्ष पर
पहुंचे कि
मनुष्य का
विकास
मछलियों से
हुआ होगा—क्योंकि
अभी भी गर्भ
में वही सागर
का वातावरण बनाए
रखना पड़ता है।
सारी
सुखद चीजें
गहरे में गर्भ
जैसी ही होती
हैं। और जब भी
तुम लेटे होते
हो स्त्री के
साथ, आलिंगनबद्ध,
तब तुम्हें अच्छा
लगता है।
प्रत्येक
पुरुष, चाहे
वह कितनी ही
उम्र का हो, फिर से बच्चा
बन जाता है; और प्रत्येक
स्त्री, चाहे
कितनी ही छोटी
हो, फिर
मां बन जाती
है। जब भी वे
प्रेम में
पड़ते हैं, तो
स्त्री मां की
भूमिका करने
लगती है और
पुरुष बच्चे
जैसा व्यवहार
करने लगता है।
एक युवा
स्त्री भी मां
बन जाती है और
एक वृद्ध पुरुष
भी बच्चा बन
जाता है।
योगी
में यह
आकांक्षा
तिरोहित हो
जाती है। और
इस आकांक्षा
के जाते ही, वह
वस्तुत: फिर
से जन्म लेता
है। हमने भारत
में उसे कहा
है—द्विज। यह
दूसरा जन्म है,
असली जन्म।
अब उसे किसी
दूसरे की
जरूरत न रही; वह एक
अलौकिक
प्रकाश हो गया
है। अब वह उठ
सकता है धरती
से ऊपर; अब
वह उड़ सकता है
आकाश में। अब
वह धरती से
बंधा हुआ नहीं
होता। वह बन
गया होता है
फूल—असल में
फूल भी नहीं, क्योंकि फूल
भी धरती से
जुड़ा होता है—वह
बन गया होता
है फूल की
सुवास।
पूर्णरूपेण
मुक्त। वह
आकाश में उड़ता
है—धरती में
उसकी जड़ें
नहीं होतीं।
दूसरों के
शरीरों के
संपर्क में
आने की उसकी इच्छा
तिरोहित हो
जाती है।
मानसिक
शुद्धता से
उदित होती है—
प्रफुल्लता
एकाग्रता की
शक्ति
इंद्रियों पर
नियंत्रण और
आत्म— दर्शन
की योग्यता।
ऐसा
व्यक्ति बहुत
आनंदित होता
है—ऐसा
व्यक्ति जिसे
अब कोई जरूरत
नहीं दूसरों के
संपर्क में
आने की—इतना
आनंदित होता
है अपनी
मुक्ति में, इतना
प्रफुल्ल
होता है, इतना
उत्सवमय होता
है, उसका
प्रत्येक
क्षण एक
प्रगाढ़
उल्लास का क्षण
होता है।
जितने अधिक
तुम बंधे होते
हो शरीर में, उतने ज्यादा
उदास होओगे
तुम, क्योंकि
शरीर स्थूल है।
शरीर पदार्थ
है, बोझिल
है। जितने
ज्यादा तुम
पार चले जाते
हो शरीर के, उतने ज्यादा
तुम हलके हो
जाते हो।
जीसस
ने अपने
शिष्यों को
कहा है, 'आओ मेरे
पीछे। मेरा
बोझ हलका है। वे
सब जो भारी
बोझ तले दबे
हैं, आएं, मेरे पीछे
आएं। मेरा भार
हलका है; निर्भार
हूं मैं।’
'मानसिक
शुद्धता से
उदित होती है—प्रफुल्लता.....।’
यदि
तुम उदास हो, यदि तुम
सदा
विषादग्रस्त
हो, यदि
तुम सदा दुखी
हो, तो
सीधे—सीधे
तुम्हारे दुख
के लिए कुछ
नहीं किया जा सकता
है। और जो कुछ
भी किया जाएगा,
वह व्यर्थ
सिद्ध होगा।
पूरब ने समझ
ली है यह बात
कि यदि तुम
उदास, दुखी
और निराश हो, सदा ही भारी
बोझ लिए चल
रहे हो, तो
यह कोई रोग
नहीं है, यह
केवल रोग का
लक्षण है। रोग
यह है कि तुम
गहरे में शरीर
से बंधे हो।
तो
सवाल यह नहीं
है कि
तुम्हारे
अंधकार को
कैसे दूर किया
जाए और कैसे
तुम्हें सुखी
किया जाए; सवाल
इसका नहीं है।
सवाल इसका है
कि शरीर में
तुम्हारे
तादात्म्य को
तोड्ने में
तुम्हें कैसे
मदद मिले, कैसे
तुम्हारी मदद
की जाए कि
तुम्हारा
शरीर के साथ
तादात्मय और—
और कम होता
जाए।
रोज मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, 'हम
उदास हैं, दुखी
हैं। रोज सुबह
ऐसा लगता है
कि फिर एक
निराश दिन शुरू
हुआ। किसी
भांति हम
स्वयं को
बिस्तर से
बाहर घसीटते
हैं; कोई
आशा नहीं होती।
हम जानते हैं,
हमने
जिंदगी जीयी
है.. वही
पुनरुक्ति है
दुखों की! तो
करें क्या? क्या आप
हमें कोई उपाय
बता सकते हैं
जिससे कि हम
स्वयं को
उदासी के बाहर
ला सकें?’
सीधे —सीधे
तो कुछ भी
नहीं किया जा
सकता, केवल
परोक्ष रूप से
ही कुछ किया
जा सकता है।
यह लक्षण है; यह कारण
नहीं है। और
अगर तुम लक्षण
का इलाज करते
हो तो रोग
मिटेगा नहीं।
पश्चिमी
मनोविज्ञान
लक्षणों का
इलाज करता रहा
है, और
योग वह
मनोविज्ञान
है जो कारण का
इलाज करता है।
पश्चिमी
मनोविज्ञान
लक्षणों को
देखता है : जो
कुछ तुम कहते
हो, वह
तुम्हारे
संबंध में एक
लक्षण है, वे
उसे ही पकड़
लेते हैं और
वे उसे मिटाने
में लग जाते
हैं। वे सफल
नहीं हुए हैं।
पश्चिमी
मनोविज्ञान
एक प्रवंचना,
एक पूर्ण
असफलता ही
सिद्ध हुआ है।
लेकिन
अब वह इतना
बड़ा व्यवसाय
हो गया है कि
मनोवैज्ञानिक
इस विषय में
कुछ कह नहीं
सकते। उनका
पूरा जीवन इस
पर निर्भर है—उनकी
बड़ी—बड़ी
तनख्वाहें...
और उनका
व्यवसाय
सर्वाधिक सफल
व्यवसायों
में से एक है।
वे इस सचाई को
स्वीकार नहीं
कर सकते। और
वे भलीभांति
जानते हैं कि
वे किसी की
मदद नहीं कर
पाए हैं।
ज्यादा से
ज्यादा वे
खींच सकते हैं
थोड़ा समय और, ज्यादा
से ज्यादा वे
आशा बंधा सकते
हैं, ज्यादा
से ज्यादा वे
तुम्हारी मदद
करते हैं अपने
दुखों के साथ
समायोजन
बनाने में, लेकिन उससे
कोई बदलाहट
नहीं होती।
जैसे—जैसे समय
बीतता है, व्यक्ति
दुख के साथ
राजी हो जाता
है, व्यक्ति
दुख को
स्वीकार कर
लेता है।
व्यक्ति
ज्यादा चिंता
नहीं करता उस
विषय में, लेकिन
बदलता कुछ भी
नहीं।
अब वे
यह जानते हैं।
लेकिन अब
मनोविज्ञान
इतना बड़ा
व्यवसाय हो
गया है, और हजारों
व्यक्ति उस पर
जी रहे हैं—और
वह निश्चित ही
बहुत सफल
व्यवसाय है, बहुत से
न्यस्त
स्वार्थ जुड़े
हुए हैं उसमें—कि
कहेगा कौन कि
यह सारी बात
एक धोखा है, एक प्रवंचना
है; किसी
को कोई मदद
नहीं मिली है?
लेकिन ऐसा
होना ही था, क्योंकि लक्षण
नहीं बदले जा
सकते हैं। तुम
उन पर रंग—रोगन
कर सकते हो, लेकिन गहरे
में चीजें
वैसी ही बनी
रहती हैं। तुम
उन्हें नया
नाम दे सकते
हो, नए
लेबल दे सकते
हो; उससे
कुछ अंतर नहीं
पड़ता है।
कारण
को ही बदलना
है। और कारण
यह है. तुम उसी
अनुपात में
दुखी रहोगे जितने
तुम शरीर से
बंधे रहोगे।
जितने तुम
शरीर से मुक्त
होते हो, उसी अनुपात
में तुम
आनंदित होते
हो। शरीर से
मुक्त होने के
साथ ही आनंद
बढ़ता जाता है।
जब तुम शरीर
से पूरी तरह
मुक्त हो जाते
हो तो तुम
आकाश में
तैरती सुगंध
हो जाते हो।
तुम परम आनंद
को उपलब्ध हो
जाते हो—जिस
आनंद की. जीसस
बात करते हैं,
जिस धन्यता
की जीसस बात
करते हैं, जो
बुद्ध का
निर्वाण है।
महावीर ने इसे
एकदम ठीक नाम
दिया; वे
इसे 'कैवल्य'
कहते हैं।
तुम
पूर्णरूपेण
स्वतंत्र
होते हो और
अकेले होते हो।
अब किसी चीज
की जरूरत न
रही; तुम
स्वयं में
पर्याप्त हो।
यही है लक्ष्य।
लेकिन लक्ष्य
केवल तभी पाया
जा सकता है, जब तुम बड़ी
सजगता से आगे
बढ़ो और
लक्षणों में उलझो
नहीं।
किसी
को बुखार है, शरीर गरम
हो जाता है, टेम्प्रेचर
बढ़ जाता है—यह
एक लक्षण है।
टेम्प्रेचर
चाहे एक सौ
तीन हो, एक
सौ चार हो या
एक सौ पांच हो,
यह एक लक्षण
है, शरीर
के ताप का
इलाज मत करने
लगना। तुम
टेम्प्रेचर
कम कर सकते हो :
तुम व्यक्ति को
ठंडे पानी के
फव्वारे के
नीचे खड़ा कर
सकते हो, बर्फ
के ठंडे पानी
से नहला सकते
हो। शुरू—शुरू
में ऐसा भी लग
सकता है कि
कुछ मदद मिल
रही है। लेकिन
ध्यान रहे, इससे बीमारी
दूर नहीं होगी,
शायद बीमार
ही चल बसे।
बीमार मर सकता
है—क्योंकि
बुखार एक
लक्षण है।
बुखार इतना ही
बताता है कि
शरीर के भीतर
बड़ी लड़ाई चल
रही है—प्राकृतिक
लड़ाई। शरीर के
तत्व संघर्ष
कर रहे हैं, इसीलिए गरमी
निर्मित हो
रही है।
इसीलिए बुखार
है। शरीर
बेचैन है।
गृहयुद्ध छिड़
गया है शरीर
के भीतर। शरीर
के कुछ तत्व
लड़ रहे हैं
दूसरे तत्वों
से, बाहरी
तत्वों से। वे
संघर्ष कर रहे
हैं, संघर्ष
के कारण ही
गरमी पैदा हो
रही है।
गरमी
तो केवल एक
सूचना है कि
भीतर संघर्ष
चल रहा है।
संघर्ष को ठीक
करना है, न कि
टेम्प्रेचर
को।
टेम्प्रेचर
तुम्हें
संदेश देने के
लिए है : 'अब
तुम्हें कुछ
करना चाहिए; चीजें मेरी
शक्ति के बाहर
जा चुकी हैं।’
शरीर
तुम्हें एक
संकेत दे रहा
है. 'चीजें
अब मेरी शक्ति
के बाहर हैं; मैं कुछ
नहीं कर सकता।
कुछ करो।
डाक्टर के पास
जाओ, चिकित्सक
के पास जाओ।
मदद लो उनकी; अब यह बात
मेरी शक्ति के
बाहर है। जो
भी किया जा
सकता था मैंने
कर लिया, अब
और कुछ नहीं
किया जा सकता
है। संघर्ष
आरंभ हो गया
है।’
तो
लक्षण का इलाज
कभी मत करना
और समय मत
गंवाना लक्षण
के इलाज में; सदा कारण
को देखना।
और
पतंजलि जो कह
रहे हैं वह
कोई
परिकल्पना
नहीं है, वह कोई
सिद्धात नहीं
है। योग सिद्धांतो
में विश्वास
नहीं करता। और
पतंजलि कोई
दार्शनिक
नहीं हैं, वे
अंतर्जगत के
वैज्ञानिक
हैं। और जो
कुछ भी वे कह
रहे हैं, वे
इसलिए कह रहे
हैं क्योंकि
लाखों—लाखों
योगियों ने
उसे अनुभव
किया है।
निरपवाद रूप
से ऐसा ही है।
साधारण
जीवन में भी
यदि तुम ध्यान
दो तो तुम पाओगे
कि जब भी तुम
आनंद अनुभव
करते हो, तो तुम शरीर
को भूल जाते
हो। जब भी कोई
आनंदित होता
है, वह
अपने शरीर को
भूल जाता है, और जब भी कोई
दुखी होता है
तो वह अपने
शरीर को नहीं
भूल सकता।
असल
में आयुर्वेद
में
स्वास्थ्य की
परिभाषा सबसे
अर्थपूर्ण है, सबसे
महत्वपूर्ण
है; संसार
के किसी भी
अन्य
चिकित्सा—वितान
ने ऐसी
परिभाषा नहीं
की है। असल
में पश्चिमी
चिकित्सा—विज्ञान
के पास
स्वास्थ्य की
कोई परिभाषा
ही नहीं है।
ज्यादा से
ज्यादा वे कह
सकते हैं. 'जब कोई रोग
नहीं होता, तब तुम
स्वस्थ होते
हो।’ लेकिन
यह कोई
परिभाषा न हुई
स्वास्थ्य की।
कैसी है यह
परिभाषा, जब
स्वास्थ्य की
परिभाषा करने
के लिए तुम्हें
रोग को बीच
में लाना पड़ता
है? तुम
कहते हो, 'जब
कोई रोग नहीं
होता, तब
तुम स्वस्थ
होते हो।’ यह
एक नकारात्मक
परिभाषा हुई,
विधायक
नहीं।
आयुर्वेद
कहता है कि जब
तुम देह को
भूल जाते हो, तब तुम
स्वस्थ होते
हो। यह बड़ी
सुंदर बात है।
विदेह : जब तुम
अनुभव नहीं
करते शरीर को—तुम
शरीर को
बिलकुल भूल
जाते हो।
तुम
इसे देख सकते
हो सिर केवल
तभी अनुभव
होता है, जब सिर में
दर्द होता है।
वरना तो कौन
परवाह करता है
सिर की? तुम
कभी सजग नहीं
होते सिर के
प्रति।
सिरदर्द से
सिर का पता
चलता है, अन्यथा
तो तुम बिना
सिर के होते
हो। और अगर
तुम निरंतर
स्मरण रखते हो
अपने सिर का, तो जरूर कुछ
गड़बड़ है। जब
श्वास ठीक चलती
है तब तुम
बिलकुल सजग
नहीं होते
उसके प्रति।
लेकिन जब कुछ
गड़बड़ हो जाती
है—दमा, ब्रॉन्काइटिस—कुछ
गड़बड़ हो जाती
है, तब तुम
सजग होते हो।
सांस लेने में
तकलीफ होती है,
आवाज होती
है और तुम उसे
भूल नहीं सकते।
जब तुम्हारी
टांगें दुखती
हैं, तब
तुम जानते हो
कि वे हैं। जब
कहीं कोई
तकलीफ होती है,
केवल तभी
तुम सचेत होते
हो। अगर हर
चीज ठीक से
काम कर रही
होती है, तो
तुम शरीर को
भूल जाते हो।
यह
स्वास्थ्य की
परिभाषा है.
जब तुम शरीर
को पूरी तरह
भूल जाते हो, तब तुम
स्वस्थ हो। और
कौन शरीर को
पूरी तरह भूल
सकता है? केवल
योगी ही।
हमारे
पास तीन शब्द
हैं : रोगी, भोगी, योगी।
रोगी : वह जो
बीमार है।
भोगी. वह जो
शरीर से
आविष्ट है। और
योगी : वह जो
शरीर के पार
जा चुका है।
भोगी कभी—कभार
योग के कुछ
क्षणों को
उपलब्ध होगा,
जिन क्षणों
में वह शरीर
को भूल जाएगा।
उसके जीवन का
निन्यानबे
प्रतिशत संबंधित
होगा 'रोगी'
के संसार से;
जीवन का
केवल एक
प्रतिशत, बहुत
दुर्लभ
घड़ियां, जब
वह योगी हो
जाएगा।
कई बार
हर चीज ठीक
काम कर रही
होती है, ठीक से एक
लयबद्धता में
चल रही होती
है—बिलकुल ऐसे
ही जैसे कि
कोई सुंदर, बिलकुल ठीक
काम कर रही
कार आवाज करती
है, गुनगुनाती
है, उसी
तरह तुम्हारी
सारी बाहरी—
भीतरी संरचना
ठीक समस्वरता
से गुनगुना
रही होती है
सुदरतापूर्वक—तो
कभी—कभार ऐसा
होता है भोगी
को। रोगी को
कभी —नहीं
होता, योगी
को सदा ही
होता है। रोगी
रुग्ण
व्यक्ति है; भोगी ग्रसित
है और जा रहा
है रोगी की
तरफ, देर— अबेर
बीमार होगा और
मरेगा, और
योगी. योगी वह
है जो शरीर के
पार चला गया
है, वह
जीता है शरीर
के पार—वह
आनंदित होता
है। रोगी कभी
आनंदित नहीं
होता, भोगी
कभी—कभार
आनंदित होता
है, योगी
सदा आनंदित
होता है। आनंद
उसका स्वभाव
हो जाता है, बिना किसी
प्रकट कारण के
वह आनंदित
रहता है।
तुम्हारी
अवस्था एकदम
उलटी है : बिना
किसी प्रकट
कारण के तुम
दुखी रहते हो।
यदि कोई तुम
से पूछे, 'क्यों तुम
इतने दुखी हो?'
तुम अपने
कंधे बिचका
दोगे। तुम
नहीं जानते कि
क्यों! तुमने
इसे मान ही लिया
है कि यही
मेरे जीवन का
ढंग है—दुखी
रहना। असल में
यदि तुम किसी
दुखी व्यक्ति
को देखते हो
तो तुम कभी
नहीं पूछते, 'क्यों तुम
दुखी हो?' तुम
स्वीकार कर
लेते हो। जब
तुम किसी
व्यक्ति को
प्रसन्न, बहुत
प्रसन्न
देखते हो, तो
तुम पूछते हो,
'बात क्या
है? क्यों
तुम इतने
प्रसन्न हो? क्या हुआ है?'
दुख
स्वीकृत है, दुखी होना
स्वीकृत है।
प्रसन्नता
इतनी दुर्लभ
हो गई है, इतनी
असाधारण, कि
ऐसा लगता है
कि यह सच हो ही
नहीं सकती।
ऐसा
होता है, लोग मेरे
पास आते हैं.
जब वे ध्यान
शुरू करते हैं,
और यदि वे
त्वरा से
ध्यान में
उतरते हैं, तो चीजें
बदलने लगती
हैं। जब वे आए
थे, तब वे
दुखी थे, उदास
थे; फिर
कोई झरना फूट
पड़ता है—आनंद
बरसने लगता है।
वे विश्वास
नहीं कर पाते
इस पर। वे
दौड़े आते हैं
मेरे पास और
वे कहते हैं, 'क्या हो गया
है? अचानक
मैं बहुत
आनंदित अनुभव
कर रहा हूं।
क्या मैं
कल्पना कर रहा
हूं?' वे
विश्वास नहीं
कर पाते कि यह
बात सच हो
सकती है। मन
कहता है, 'तुम
जरूर कल्पना
कर रहे होओगे।
तुम, इतने
दुखी व्यक्ति,
और तुम
आनंदित हो? असंभव है।’ वे आते हैं
मेरे पास और
वे कहते हैं, 'क्या हम
कल्पना कर रहे
हैं, या
आपने
सम्मोहित कर
दिया है हमको?'
जब वे
दुखी थे तब
उन्होंने कभी
नहीं सोचा कि
शायद किसी ने उन्हें
सम्मोहित कर
दिया है। जब
वे दुखी थे तब
उन्होंने कभी
नहीं सोचा कि
शायद यह उनकी
कल्पना है।
लेकिन जब वे
प्रसन्नता
अनुभव करते
हैं —प्रसन्नता
इतनी दुर्लभ
घटना हो गई है, इतनी
अविश्वसनीय
हो गई —है कि वे
पूछते हैं,
क्या यह सच
है पर?’
अंग्रेजी
में तुम्हारे पास
एक मुहावरा है, 'टू गुड
टु बी टू'; तुम्हारे
पास ऐसा कोई
मुहावरा नहीं
है—'टू बैड
टु बी टू'।
दूसरे
मुहावरे को
ज्यादा
प्रचलित होना
चाहिए। लेकिन 'गुड' पर
तो विश्वास ही
नहीं आता है; इसीलिए यह
मुहावरा है : 'टू गुड टु बी
टू'। इस
मुहावरे को
पूरी तरह भुला
देना चाहिए।
जब कोई कुछ
बुरी बात कहे
तो तुम्हें
कहना चाहिए, 'टू बैड टु बी
टू' इस पर
विश्वास नहीं
किया जा सकता
है। तुमने
जरूर कल्पना
कर ली होगी।
लेकिन नहीं, ऐसा नहीं है।
दुख तो बहुत
स्वाभाविक
मालूम पड़ता है;
आनंद बहुत
अस्वाभाविक
लगता है।
'मानसिक
शुद्धता से
उदित होती है—प्रफुल्लता,
एकाग्रता
की शक्ति..।’
लोग
शरीर से जुड़े
रह कर ही
एकाग्रता
पाने की कोशिश
करते हैं; तब
एकाग्रता बड़ी
कठिन बात हो
जाती है, करीब—करीब
असंभव ही हो
जाती है। तुम
एक क्षण को भी
एकाग्र नहीं
हो सकते। मन
डांवाडोल
रहता है; हजारों
विचार चलते
रहते हैं, और
इससे पहले कि
तुम्हें पता
चले, तुम
कहीं और चले
गए होते हो :
दिवास्वप्न
शुरू हो जाता
है। जब भी तुम
किसी चीज पर
एकाग्र होना
चाहते हो, करीब—करीब
असंभव हो जाता
है। लेकिन
कारण यही है
कि तुम शरीर
से बहुत ज्यादा
बंधे हुए हो।
यदि तुम शरीर
के माध्यम से
देखते हो, तो
एकाग्रता
संभव नहीं है।
यदि तुम शरीर
के पार से
देखते हो, तो
एकाग्रता बड़ी
आसान बात होती
है।
ऐसा हुआ, विवेकानंद
एक बड़े
विद्वान के
साथ ठहरे हुए
थे। उसका नाम
था देवसेन, बहुत बड़ा
विद्वान, जिसने
संस्कृत
शास्त्रों का
पश्चिमी
भाषाओं में
अनुवाद किया।
देवसेन उपनिषदों
के अनुवाद में
संलग्न था—और
वह सर्वाधिक
गहरे
अनुवादकों
में से एक था।
एक नई पुस्तक
प्रकाशित हुई
थी।
विवेकानंद ने
पूछा, 'क्या
मैं इसे देख
सकता हूं? क्या
मैं इसे पढ़ने
के लिए ले
सकता हूं?' देवसेन
ने कहा, 'हां—हां,
जरूर ले
सकते हो।
मैंने इसे
बिलकुल नहीं
पढ़ा है।’
कोई
आधे घंटे बाद
विवेकानंद ने
पुस्तक लौटा दी।
देवसेन को तो
भरोसा न हुआ; इतनी बड़ी
पुस्तक पढ़ने
के लिए तो कम
से कम एक सप्ताह
चाहिए; और
अगर तुम उसे
ठीक से पढ़ना
चाहते हो, तब
तो और भी समय
चाहिए। और यदि
तुम सच में ही
समझना चाहते
हो उसको, कठिन
है पुस्तक, तब तो और भी
समय चाहिए।
उसने कहा, 'क्या
आपने पूरा पढ़
लिया इसे? क्या
आपने सच में
ही पढ़ा इसे? या कि बस यूं
ही इधर—उधर
निगाह डाली है?'
विवेकानंद
ने कहा, 'मैंने
भलीभांति
अध्ययन किया
है इसका।’
देवसेन
ने कहा, 'मैं विश्वास
नहीं कर सकता।
आप मुझ पर एक
कृपा करें।
मुझे पढ़ने दें
यह पुस्तक, और फिर मैं
आपसे पुस्तक
के संबंध में
कुछ प्रश्न
पूछूंगा।’
देवसेन
ने सात दिन तक
पुस्तक पढ़ी, उसका
अध्ययन किया;
और फिर उसने
कुछ प्रश्न
पूछे और
विवेकानंद ने
एकदम ठीक
उत्तर दिए, जैसे कि वे
उस पुस्तक को
जीवन भर. पढ़ते रहे
हों। देवसेन
ने लिखा है
अपने
संस्मरणों
में : मेरे लिए
असंभव थी यह
बात और मैंने
पूछा कि 'कैसे
संभव है यह?' तो
विवेकानंद ने
कहा, 'जब
तुम शरीर द्वारा
अध्ययन करते
हो तो एकाग्रता
संभव नहीं है।
जब तुम शरीर
में बंधे नहीं
होते, तो
तुम किताब से
सीधे—सीधे
जुड़ते हो
तुम्हारी
चेतना सीधे—सीधे
स्पर्श करती
है। तुम्हारे
और किताबें के
बीच कोई बाधा
नहीं होता: तब
आधा घंटा भी
पर्याप्त
होता है। तुम
उसका
अभिप्राय, उसका
सार आत्मसात
कर लेते हो।’
यह
बिलकुल ऐसे ही
है : जब कोई
छोटा बच्चा
पढ़ता है—वह
बड़े शब्द नहीं
पढ़ सकता है; उसे शब्दों
को छोटे—छोटे
हिस्सों में
तोड़ना पड़ता है।
वह पूरा वाक्य
नहीं पढ़ सकता
है। जब तुम
पढ़ते हो तो
तुम पूरा
वाक्य पढ़ते हो।
अगर तुम तेज
पढ़ने वाले हो,
तो तुम पूरा
पैराग्राफ पढ़
सकते हों—झलक
भर—और पढ़ जाते
हो उसे।
तो एक
संभावना है, अगर शरीर
कोई दखलंदाजी
नहीं कर रहा है,
तो तुम पूरी
किताब पढ़ सकते
हो एक नजर भर
डालते हुए। और
यदि तुम शरीर
से पढ़ते हो, तो तुम भूल
सकते हो। अगर
तुम शरीर को
एक ओर हटा कर
पढ़ते हो, तो
फिर उसे स्मरण
रखने की कोई
जरूरत नहीं
होती; तुम
उसको नहीं
भूलोगे—क्योंकि
तुमने समझ
लिया होता है
उसे।
शुद्ध
शरीर वाले, शुद्ध
चेतना वाले, शुद्धता से
आपूरित
व्यक्ति में
एकाग्रता की शक्ति
उदित
होती
है।
'.. इंद्रियों
पर नियंत्रण...।’
ये
परिणाम हैं, ध्यान
रहे। उनका
अभ्यास नहीं
किया जा सकता
है; यदि
तुम अभ्यास
करते हो तो
तुम कभी
उन्हें उपलब्ध
नहीं होओगे।
वह सब अपने आप
होता है। यदि
आधारभूत कारण
हटा दिया जाता
है, अगर
तुम शरीर के
साथ
तादात्म्य
नहीं बनाए रहते,
तब घटता है
इंद्रियों पर
नियंत्रण। तब
वे तुम्हारे
नियंत्रण में
होती हैं। तब
यदि तुम सोचना
चाहते हो, तो
तुम सोचते हो,
अगर तुम
नहीं सोचना
चाहते हो, तो
तुम मन से कह
देते हो, 'ठहरो'। यह एक
यांत्रिक
प्रक्रिया है
जिसे तुम चला
सकते हो और
बंद कर सकते
हो।
लेकिन
कुशलता चाहिए।
और यदि तुम
पूरी तरह कुशल
नहीं हो और
तुम मालिक
होने की कोशिश
करते हो, तो तुम अपने
लिए ज्यादा
उलझन और
मुसीबत पैदा कर
लोगे। और तुम
बार—बार
हारोगे, और
इंद्रियां ही मालिक
बनी रहेंगी।
उन्हें जीतने
का ढंग यह
नहीं है।
उन्हें जीतने
का ढंग यह है
कि शरीर के
साथ तुम अपना
तादात्म्य
हटा लो।
तुम्हें
जानना है कि
तुम शरीर नहीं
हो; और
फिर तुम्हें
जानना है कि
तुम मन नहीं
हो। तुम्हें
उन सब का
साक्षी होना
है जो—जो
तुम्हें घेरे
हुए है। शरीर
है पहला
वर्तुल; फिर
है मन—दूसरा
वर्तुल; फिर
है हृदय—तीसरा
वर्तुल। और
फिर इन तीनों
वर्तुलों के
पीछे है
केंद्र—तुम।
यदि तुम स्वयं
में केंद्रित
हो, तो ये
तीनों पर्तें
तुम्हारा
अनुसरण
करेंगी। यदि
तुम स्वयं में
केंद्रित
नहीं हो, तो
तुम्हें उनका
अनुसरण करना
पड़ेगा।
'…..इंद्रियों
पर नियंत्रण
और आत्म—दर्शन
की योग्यता।’
और यही
है ढंग योग्य
होने का, स्वयं को
जानने की
पात्रता
हासिल करने का।
हर कोई आत्म—बोध
को उपलब्ध
होना चाहता है,
लेकिन कोई
अनुशासन से
नहीं गुजरना
चाहता—कोई
पकना नहीं
चाहता। हर कोई
चाहता है कि
कोई चमत्कार
हो जाए।
लोग
आते हैं मेरे
पास और वे
कहते हैं, 'क्या आप
हमें
आशीर्वाद
नहीं दे सकते,
ताकि हम
आत्म —ज्ञानी
हो जाएं?'
अगर यह
बात इतनी ही
आसान होती कि
मेरे आशीर्वाद
से काम चल
जाता, तो
मैने सारे संसार
को आशीर्वाद
दे दिया होता।
एक —एक
व्यक्ति को
अलग— अलग
आशीर्वाद
देने की फिक्र
क्या करनी? थोक के भाव
ही दे दो
आशीर्वाद, और
सारा संसार
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो जाए।
तो बुद्ध ने
पहले ही
आशीर्वाद दे
दिया होता, महावीर ने
आशीर्वाद दे
दिया होता—बात
खतम हो गई
होती। सारे
लोग संबुद्ध
हो गए होते!
लेकिन
ऐसा नहीं हो
सकता। कोई
नहीं दे सकता
तुम्हें
आशीर्वाद; तुम्हें
अर्जित करना
होता है
आशीर्वाद।
तुम्हें
गुजरना होता
है गहरे
अनुशासन से, तुम्हें
बदलना होता है
अपने अंतस का
फोकस; तुम्हें
बनना होता है
सक्षम; तुम्हें
बनना होता है
सम्यक माध्यम।
अन्यथा कई बार
ऐसा हुआ है कि
सांयोगिक रूप
से कोई उस परम
घटना के सामने
आ जाता है, लेकिन
वह बहुत
घबड़ाने वाली
बात हो जाती
है और उसने
किसी की कोई
मदद नहीं की
है। उससे
तुम्हारा
पूरा
व्यक्तित्व
डावाडोल हो सकता
है—तुम शायद
पागल ही हो
जाओ। यह
बिलकुल ऐसे है
जैसे एक
शक्तिशाली
विद्युत— धारा
तुम में अचानक
दौड़ जाए जिसके
लिए तुम तैयार
नहीं हो—हर
चीज गड़बड़ा
जाएगी। यहां
तक कि फ्यूज
भी उड़ सकता है—तुम
मर सकते हो।
तो
तुम्हें
शुद्धता
उपलब्ध करनी
होती है; शरीर के साथ,
मन के साथ
अतादात्म्य
उपलब्ध करना
होता है; तुम्हें
साक्षीभाव की
एक सुनिश्चित
स्थिति
उपलब्ध करनी
होती है। केवल
तभी, केवल
उसी अनुपात
में, आत्म—ज्ञान
संभव होता है।
तुम इसे मुफ्त
में नहीं पा
सकते।
तुम्हें इसका
मूल्य चुकाना
होता है—और
मूल्य चुकाना
होता है आंतरिक
बदलाहट
द्वारा। ऐसा
नहीं है कि
तुम इसका
मूल्य धन से
चुका सकते हो,
कोई ऐसी चीज
मदद न देगी
तुम्हें
मूल्य चुकाना
होता है अपनी आंतरिक
बदलाहट
द्वारा।
'…..और
आत्म—दर्शन की
योग्यता।’
संतोष
से उपलब्ध
होता है परम
सुख।
और यह
शुद्धता अंतत:
संतोष ले आती
है। यह शब्द
सर्वाधिक गढ़
शब्दों में से
एक है; तुम्हें
इसे ठीक से
समझ लेना है; इसे अनुभव
करना है, इसे
आत्मसात करना
है।
संतोष
का अर्थ है :
जैसी भी
स्थिति है, तुम बिना
किसी शिकायत
के उसे
स्वीकार कर
लेते हो। असल
में तुम न
केवल उसे बिना
किसी शिकायत
के स्वीकार
करते हो, तुम
बहुत धन्यवाद
के साथ उसका
आनंद मनाते हो।
यह क्षण अपने
आप में
संपूर्ण है।
जब
तुम्हारा मन
कहीं दौड़ता
नहीं, जब
तुम किसी और
समय या कहीं
किसी और स्थान
की इच्छा नहीं
करते, जब
तुम किसी और
ढंग से
अस्तित्व की
मांग नहीं करते,
जब तुम किसी
भी चीज की
मांग नहीं
करते, जब
मांगना मात्र
गिर चुका होता
है; तुम बस
अभी और यहीं
होते हो, आनंदित
होते हो, जैसे
पक्षी
चहचहाते हैं
वृक्षों पर, फूल खिलते
हैं वृक्षों
में, चांद—तारे
घूमते हैं, हर चीज ऐसे
स्वीकृत होती
है जैसे कि
यही है सब कुछ,
संपूर्ण, सर्वश्रेष्ठ,
कोई और
सुधार इसमें
संभव नहीं है;
जब भविष्य
छूट जाता है, जब कल खो
जाता है—तो
संतोष उपलब्ध
होता है। जब 'अभी' होता
है एकमात्र
समय, शाश्वतता,
तो संतोष
उपलब्ध होता
है। और उसी
संतोष में
पतंजलि कहते
हैं 'परम
सुख होता है।’
'संतोष
से उपलब्ध
होता है परम
सुख।’
इसलिए
संतोष है योगी
का अनुशासन; वह
संतुष्ट रहता
है। अगर कोई
बात तुम्हें
असंतुष्ट
नहीं कर सकती,
अगर कोई बात
तुम्हें
बेचैन नहीं कर
सकती, अगर
कोई बात
तुम्हें अपने
केंद्र से
नहीं हटा सकती—तो
परम सुख उमड़
आता है।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें