दिनांंक 7 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।
योग—सूत्र (साधनपाद)
योग—सूत्र (साधनपाद)
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा
यमा:।। 30।।
योग के
प्रथम चरण यम
के अंतर्गत
आते है ये
पांचव्रत:
अहिंसा, सत्य,
अस्तेय,
ब्रह्मचर्य
और अपरिग्रह।
जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना:
सार्वभौमा
महाव्रतम।। 31।।
ये पाँच
व्रत बनाते है
एक महाव्रत जो
कि फैला हुआ
है
जाति, स्थान, समय और स्थिति
की सीमाओं से
परे
संबोधि
की सातों अवस्थाओ
तक।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय,
ब्रह्मचर्य,
अपरिग्रह—ये
पांच व्रत मूल
आधार हैं, बुनियाद
हैं। जितने
गहरे रूप में
संभव हो उन्हें
समझ लेना है, क्योंकि यह
संभावना है कि
यम को निर्मित
करने वाले इन
पाच चरणों को
पूरा किए बिना
ही कोई आगे
बढ़ने लगे।
तुम
ऐसे योगियों
और फकीरों को
संसार भर में
देख सकते हो, जो पहले
चरण के इन
पांच आयामों
को पूरा किए
बिना ही आगे
बढ़ गए हैं। तब
उन्हें शक्ति
तो उपलब्ध हो
जाती है, लेकिन
उनकी शक्ति
हिंसक होती
है। तब वे
शक्तिशाली तो
बहुत होते हैं,
लेकिन उनकी
शक्ति
आध्यात्मिक
नहीं होती। तब
वे एक तरह की
काली विद्या
के जादूगर बन
जाते हैं; वे
दूसरों को
क्षति पहुंचा
सकते हैं। यह
न केवल दूसरों
के लिए खतरनाक
होती है, यह
स्वयं उन व्यक्तियों
के लिए भी
खतरनाक होती
है। यह तुम्हें
नष्ट कर सकती
है; यह
तुम्हें नया
जन्म दे सकती
है। यह निर्भर
करता है। ये
पांच व्रत तो
एक आश्वासन
हैं कि अनुशासन
से जो शक्ति
जगती है, उसका
गलत उपयोग न
हो।
तुम
देख सकते हो 'योगियों'
को जो अपनी
शक्ति का
प्रदर्शन करते
रहते हैं। यह
असंभव है योगी
के लिए, क्योंकि
यदि योगी ने
वास्तव में इन
पांच व्रतों
को पूरा किया
है तो फिर
प्रदर्शन में
उसकी रुचि
नहीं हो सकती;
वह
प्रदर्शन
नहीं कर सकता।
वह फिर कोई
कोशिश नहीं कर
सकता
चमत्कारों का
खेल दिखाने
की—वह उसके
लिए संभव नहीं
है। चमत्कार
उसके आस—पास
घटते हैं, लेकिन
वह उनका कर्ता
नहीं होता।
ये
पांच व्रत
तुम्हारे
अहंकार को
पूरी तरह से मिटा
देंगे। या तो
अहंकार रह
सकता है या ये
पांच व्रत
पूरे हो सकते
हैं। दोनों एक
साथ संभव नहीं
हैं। और इससे
पहले कि तुम
शक्ति के जगत
में प्रवेश
करो—और योग है
शक्ति का जगत, असीम
शक्ति का
जगत—बहुत—बहुत
जरूरी होता है
कि तुम अहंकार
को मंदिर के
बाहर ही छोड़
दो। यदि अहंकार
तुम्हारे साथ
है तो पूरी
संभावना है कि
शक्ति का
दुरुपयोग
होगा। तब सारा
प्रयास ही व्यर्थ
हो जाता है, एक दिखावा
हो जाता है, वस्तुत:
मजाक ही हो
जाता है।
ये
पांच व्रत
तुम्हें
शुद्ध करने के
लिए हैं, ताकि तुम
शक्ति के
अवतरण के लिए
पात्र बन सकी और
शक्ति के
अवतरण से तुम
दूसरों के लिए
एक मंगल और एक
आशीष हो सको।
ये व्रत बहुत
जरूरी हैं।
किसी को
उन्हें छोड़ना
नहीं चाहिए।
तुम छोड़ सकते
हो। असल में
उन्हें छोड़ कर
बढ़ जाना उनमें
से गुजरने की
अपेक्षा
ज्यादा सरल है,
क्योंकि वे
कठिन हैं।
लेकिन तब
तुम्हारा भवन बिना
नींव का
होगा, किसी
भी दिन गिर
जाएगा, किसी
भी दिन ढह
जाएगा; वह
पड़ोसियों की
जान ले सकता
है, शायद
तुम्हें ही
मार डाले। यह
पहली बात है
समझ लेने की।
दूसरी
बात : अभी कल ही
नरेन्द्र ने
एक प्रश्न
पूछा था, एक
महत्वपूर्ण
प्रश्न पूछा
था। उसने कहा,
'संस्कृत
में यम का
अर्थ होता है
मृत्यु और यम का
अर्थ अंतर—
अनुशासन भी
होता है। क्या
इन दोनों
के—मृत्यु और
अंतर—अनुशासन
के—बीच कोई
संबंध है?'
बिलकुल
है। उसे भी
समझ लेना है।
संस्कृत
बड़ी
अर्थगर्भित
भाषा है। असल
में संसार में
दूसरी कोई
भाषा नहीं जो
इतनी
अर्थगर्भित
हो। और
प्रत्येक
शब्द बड़ी
सावधानी और
परिश्रम से निर्मित
किया गया है।
संस्कृत कोई
प्राकृतिक भाषा
नहीं है।
दूसरी सारी
भाषाएं
प्राकृतिक हैं।
संस्कृत शब्द
का अर्थ ही है
निर्मित, परिष्कृत—प्राकृतिक
नहीं। भारत की
प्राकृतिक
भाषा प्राकृत
कहलाती है।
प्राकृत का
अर्थ है
प्राकृतिक. जो
सहज प्रयोग से
बनी। संस्कृत
एक परिष्कृत
घटना है। वह
प्राकृतिक
फूलों के समान
नहीं है, वह
इत्र की भांति
है, परिमार्जित।
बड़ी सावधानी
और सचेतन
प्रयास से
एक—एक शब्द को
निर्मित किया
गया है और उस
पर सोच—विचार
किया गया है
और चिंतन—मनन
किया गया है, जिससे कि
सारी
संभावनाएं
इसमें समाहित
हो जाएं।
इस 'यम' शब्द
को समझ लेना
है। इसका अर्थ
होता है मृत्यु
का देवता, इसका
अर्थ अंतर—
अनुशासन भी
होता है।
लेकिन मृत्यु
और अंतर—
अनुशासन के
बीच ऐसा कौन
सा
महत्वपूर्ण
अंतर्संबंध हो
सकता है? कोई
संबंध दिखाई
नहीं पड़ता, फिर भी
संबंध है।
इस
धरती पर अब तक
दो तरह की
सभ्यताएं रही
हैं—दोनों ही
फणी हैं, दोनों ही
असंतुलित
हैं। अभी तक
ऐसी सभ्यता को
विकसित कर
पाना संभव
नहीं हुआ है
जो कि समग्र हो,
संपूर्ण हो,
अखंड हो।
पश्चिम में अब
कामवासना को
पूरी स्वतंत्रता
मिल रही है; लेकिन तुमने
शायद ध्यान न
दिया
हो—मृत्यु का
दमन हुआ है।
मृत्यु की कोई
बात नहीं करना
चाहता; हर
कोई कामवासना
की ही बात कर
रहा है। तमाम
अश्लील
साहित्य
मौजूद है
कामवासना के
विषय में, प्लेबॉय
जैसी
पत्रिकाएं
हैं—अश्लील, विकृत, बीमार,
न्यूरोटिक,
विक्षिप्त।
कामवासना के
विषय में एक
रुग्णता है
पश्चिम में।
लेकिन मृत्यु
की कोई बात भी नहीं
करता है। यदि
तुम मृत्यु के
विषय में बात
करते हो तो
लोग सोचेंगे
कि तुम विकृत
हों—'क्यों
तुम बात कर
रहे हो मृत्यु
की?' खाओ, पीओ, मौज
करो—यही है
आदर्श।’तुम
मृत्यु को
क्यों ले आते
हो बीच में? उसे बाहर
हटाओ। मत बात
करो इस विषय
में।’
पूरब
में कामवासना
को दबाया गया
है, लेकिन
मृत्यु के
विषय में खुल
कर बातें की
गई हैं। कामुक,
अश्लील, बेहूदे
साहित्य की
तरह ही पूरब
में एक और ही तरह
का अश्लील
साहित्य
मौजूद है। मैं
इसे कहता हूं
मृत्यु का
अश्लील
साहित्य—उतना
ही अश्लील और
रुग्ण जितनी
कि पश्चिम की
अश्लील
पत्रिकाएं
हैं कामवासना
के विषय में।
मैंने देखे हैं
ऐसे शास्त्र.....।
और तुम देख
सकते हो हर
कहीं, करीब—करीब
सारे भारतीय
शास्त्र भरे
पड़े हैं मृत्यु
के अश्लील
विषय से। वे
मृत्यु के
विषय में
अतिशय बातचीत
करते हैं। वे
कामवासना के
विषय में कुछ
नहीं कहते; कामवासना एक
वर्जित विषय
है। वे बात
करते हैं मृत्यु
की।
भारत
के सारे
तथाकथित
महात्मा
मृत्यु के विषय
में बातें
करते रहते
हैं। वे
निरंतर मृत्यु
की ओर इशारा
करते रहते
हैं। यदि तुम
किसी स्त्री
को प्रेम करते
हो तो वे कहते
हैं, 'क्या
कर रहे हो तुम?
स्त्री है
ही क्या? मात्र
एक थैली है
चमड़े की। और
भीतर सब
प्रकार की
गंदी चीजें
हैं।’ और
वे वर्णन करते
हैं सारी गंदी
चीजों का, और
ऐसा लगता है
कि वे इससे
आनंदित होते
हैं! यह रुग्ण
बात है। वे
वर्णन करते
हैं शरीर के
भीतर के
कफ—पित्त और
रक्त—मांस—मज्जा
का; वे
वर्णन करते
हैं अंदर भरे
मल—मूत्र का।’यह है
तुम्हारी
सुंदर
स्त्री।
गंदगी की थैली।
और तुम प्रेम
में पड रहे हो
इस थैली के!
सावधान!'
लेकिन
यह समझने जैसी
बात है : पूरब
में जब वे तुम्हें
सजग करना
चाहते हैं कि
जीवन गंदा है
तो वे स्त्री
को बीच में ले
आते हैं, पश्चिम में
जब वे सजग
करना चाहते
हैं कि जीवन सुंदर
है तो फिर
स्त्री की ही
बात आ जाती
है। जरा देखो
प्लेबॉय
पत्रिका : प्लास्टिक
जैसी लड़कियां,
इतनी
सुंदर। वे इस
दुनिया में
कहीं नहीं हैं;
वे
वास्तविक
नहीं हैं। वे
फोटोग्राफी
के चमत्कार
हैं—और बिलकुल
ठीक अनुपात का
खयाल रखा गया
है, फिर—फिर
संवारा गया
है। और वे बन
जाती हैं आदर्श,
और हजारों
लोग उनके विषय
में
सुंदर—सुंदर
कल्पनाएं करते
हैं और उनके
सपने देखते
हैं।
कामुक
अश्लील
साहित्य
स्त्री के
शरीर पर निर्भर
है और मृत्यु
के अश्लील
ग्रंथ भी
स्त्री के
शरीर पर
निर्भर हैं।
और फिर वे
कहते हैं, 'तुम
प्रेम में पड़
रहे हो? यह
युवती जल्दी
ही बूढ़ी हो
जाएगी। जल्दी
ही यह एक
कुरूप बुढ़िया
हो जाएगी।
सावधान रहना,
और प्रेम
में मत पड़
जाना, क्योंकि
जल्दी ही यह
स्त्री मर
जाएगी; तब
तुम रोओगे और
चीखोगे, और
तब तुम परेशान
होओगे।’ यदि
तुम्हें जीवन
की बात करनी
हो तो स्त्री
का शरीर
चाहिए। यदि
तुम्हें
मृत्यु की बात
करनी हो तो
स्त्री का
शरीर चाहिए।
ऐसा लगता है कि
मनुष्य
निरंतर
स्त्री के
खयाल से ही
जकड़ा हुआ
है—चाहे वे
प्लेबॉय हों
या महात्मा, उससे कुछ
अंतर नहीं
पड़ता है।
लेकिन
क्यों? ऐसा सदा
होता है : जब भी
कोई समाज
कामवासना का दमन
करता है, तो
वह मृत्यु की
चर्चा करता है;
जब भी कोई
समाज मृत्यु
का दमन करता
है, तो कामवासना
की चर्चा करता
है। क्योंकि
मृत्यु और काम
दो ध्रुव हैं
जीवन के।
कामवासना का
अर्थ है जीवन,
क्योंकि
जीवन आता है
उससे। जीवन
आता है कामवासना
से—और मृत्यु
उसका अंत है।
और यदि
तुम एक साथ
दोनों के विषय
में सोचते हो, तो
विरोधाभास
लगता है; तुम
काम और मृत्यु
को संयुक्त
नहीं कर सकते।
कैसे ये
संयुक्त हो सकते
हैं? एक को
याद रखने और
दूसरे को भूलने
की बात ज्यादा
आसान लगती है।
यदि तुम दोनों
को याद रखो तो
तुम्हारे मन
के लिए बड़ा
कठिन होगा
समझना कि कैसे
दोनों बातें
एक साथ हो
सकती हैं—और
वे एक साथ हैं,
उनका
अस्तित्व एक
साथ है। असल
में वे दो
नहीं हैं, बल्कि
एक ही ऊर्जा
है दो
अवस्थाओं
में—सक्रिय और
निष्किय, यिन
और यांग।
क्या
तुमने ध्यान
दिया इस पर? स्त्री
से संभोग करते
हुए चरम शिखर
की एक घड़ी आती
है जहां तुम
घबड़ा जाते हो,
भयभीत हो
जाते हो, कंपने
लगते हो; क्योंकि
काम के परम
शिखर पर
मृत्यु और
जीवन दोनों एक
साथ अस्तित्व
रखते हैं। तुम
जीवन का अनुभव
करते हो उसकी
परम ऊंचाइयों
में और तुम
मृत्यु का भी
अनुभव करते हो
उसकी परम
गहराई में।
ऊंचाई और
गहराई दोनों उपलब्ध
हैं एक ही
क्षण में—वही
है काम के चरम
शिखर का भय।
लोग उसकी
आकांक्षा
करते हैं
क्योंकि वह
जीवन है, और
लोग उससे बचते
हैं क्योंकि
वह मृत्यु है।
वे इसकी
आकांक्षा
करते हैं
क्योंकि वह
सर्वाधिक
सुंदर घड़ियों
में से एक है, आनंदपूर्ण
है, और वे
इससे बचना
चाहते हैं
क्योंकि यह
सर्वाधिक
खतरे की
घड़ियों में से
भी एक है.
क्योंकि मृत्यु
अपना द्वार खोल
देती है
इसमें।
एक सजग
व्यक्ति
तुरंत देख
लेगा कि
मृत्यु और काम
एक ही ऊर्जा
हैं; और
एक समग्र
संस्कृति, एक
संपूर्ण
संस्कृति, एक
अखंड
संस्कृति, दोनों
को ही स्वीकार
करेगी। वह
एकागी न होगी,
वह न एक अति
पर जाएगी और न
दूसरी से
बचेगी। प्रत्येक
क्षण तुम जीवन
और मृत्यु
दोनों ही हो।
इसे समझ लेने
का मतलब है द्वैत
के पार चले
जाना। और योग
का सारा
प्रयास यही है
: द्वैत का
अतिक्रमण
कैसे हो।
यम
अर्थपूर्ण है
क्योंकि जब
कोई व्यक्ति
मृत्यु के
प्रति सजग हो
जाता है केवल
तभी आत्म—अनुशासन
का जीवन संभव
हो पाता है।
यदि तुम केवल काम—ऊर्जा
के प्रति, जीवन के
प्रति सजग हो,
और तुम
मृत्यु से बच
रहे हो, भाग
रहे हो, उसके
प्रति अपनी आंखें
बंद रखते हो, उसे सदा
पीछे धकेलते
हो, उसे
अचेतन में
फेंक देते हो,
तो तुम
आत्म— अनुशासन
का जीवन
निर्मित नहीं
करोगे।
किसलिए करोगे?
तब
तुम्हारा
जीवन भोग का जीवन
होगा—खाओ, पीओ,
मौज करो।
इसमें कुछ गलत
नहीं है।
लेकिन स्वयं
में यह पूरी
बात नहीं है।
यह मात्र एक
हिस्सा है, और जब तुम
हिस्से को
समग्र की
भांति ले लेते
हो, तो तुम
चूक जाते
हो—तुम बुरी
तरह चूक जाते
हो।
जानवरों
को मृत्यु का
कोई बोध नहीं
है; इसलिए
पतंजलि के लिए
कोई संभावना
नहीं कि वे
पशुओं को
शिक्षा दें, क्योंकि कोई
भी जानवर
तैयार नहीं
होगा आत्म— अनुशासन
सीखने के लिए।
जानवर पूछेगा,
'क्यों? किसलिए?'
केवल जीवन
ही है, मृत्यु
नहीं है, क्योंकि
जानवर को बोध
नहीं है कि वह
मरेगा। यदि
तुम सजग होते
हो कि तुम्हें
मरना है, तो
तुम तुरंत ही
जीवन के विषय
में
पुनर्विचार करने
लगते हो। तब
तुम चाहोगे कि
मृत्यु जीवन में
समाहित हो
जाए।
जब
मृत्यु
समाहित हो
जाती है जीवन
में तो यम पैदा
होता है :
अनुशासन का
जीवन। तब तुम
जीते हो, लेकिन तुम
सदा मृत्यु के
स्मरण सहित
जीते हो। तुम
चलते हो, लेकिन
तुम सदा जानते
हो कि तुम बढ़
रहे हो मृत्यु
की ओर। तुम
आनंद मनाते हो,
लेकिन तुम
अच्छी तरह
जानते हो कि
ऐसा सदा न रहेगा।
मृत्यु
तुम्हारी
छाया बन जाती
है; तुम्हारे
अस्तित्व का
हिस्सा, तुम्हारे
परिप्रेक्ष्य
का हिस्सा बन
जाती है।
तुमने समाहित
कर लिया मृत्यु
को—अब आत्म—
अनुशासन संभव
होगा। अब तुम
सोचोगे, 'कैसे
जीएं?' क्योंकि
अब जीवन ही
लक्ष्य नहीं.
मृत्यु भी उसका
हिस्सा है।
कैसे जीएं? ताकि तुम
सुंदरता से जी
सको और
सुंदरता से मर
भी सको। कैसे
जीएं? ताकि
न केवल जीवन
आनंद का एक
परम शिखर बन
जाए, बल्कि
मृत्यु भी उच्चतम
शिखर हो जाए, क्योंकि
मृत्यु जीवन
का परम शिखर
है।
इस ढंग
से जीओ कि तुम
समग्रता से
जीने में सक्षम
हो जाओ और तुम
समग्रता से
मरने में भी
सक्षम हो जाओ; यही आत्म—
अनुशासन का
कुल अर्थ है।
आत्म— अनुशासन
दमन नहीं है; यह है
सुनिदशित
जीवन; ऐसा
जीवन जिसमें
एक दिशा हो।
यह है मृत्यु
के प्रति
पूर्णत: सचेत
और सजग जीवन।
तब तुम्हारे
जीवन की नदी
के दो किनारे
होते हैं—जीवन
और मृत्यु, और चैतन्य
की नदी इन
दोनों के बीच
प्रवाहित होती
है। जो भी
जीवन के एक
हिस्से
मृत्यु को अस्वीकार
करके जीने का
प्रयास कर रहा
है, वह एक
ही किनारे के
साथ बहने का
प्रयास कर रहा
है; उसके
चैतन्य की नदी
समग्र
नहीं हो सकती।
उसमें कुछ
अभाव होगा; किसी
बहुत सुंदर
बात को वह चूक
जाएगा। उसका
जीवन सतही
होगा। उसमें
कोई गहराई न
होगी। मृत्यु
के बिना कोई
गहराई नहीं होती।
और यदि
तुम दूसरी अति
पर चले जाते
हो, जैसा
कि भारतीयों
ने किया
है—उन्होंने
निरंतर रहना
शुरू कर दिया
है मृत्यु के
साथ—वे घबडाए
हुए हैं, भयभीत
हैं, प्रार्थना
कर रहे हैं; प्रयास में
लगे हैं कि
कैसे मृत्यु
से बच जाएं, कैसे अमर हो
जाएं—तब वे
बिलकुल ही
जीना बंद कर देते
हैं। वह बात
भी एक पागलपन
है। वे भी बहेंने
एक ही किनारे
के साथ; उनका
जीवन भी एक
दुखद घटना
रहेगी।
पश्चिम
दुखी है, पूरब दुखी
है—क्योंकि एक
समग्र जीवन
अभी तक संभव
नहीं हुआ है।
क्या यह संभव
है कि तुम एक
सुंदर
काम—जीवन जीओं,
मृत्यु के
स्मरण सहित? क्या प्रेम
करना और गहनता
से प्रेम करना
संभव है—
भलीभांति
जानते हुए कि
तुम्हें मरना
है और तुम्हारी
प्रिया को
मरना है? यदि
यह संभव है, तो एक समग्र
जीवन संभव है।
तब तुम एकदम
संतुलित होते
हो; तब तुम
संपूर्ण होते
हो। तब तुम
में किसी चीज की
कमी नहीं होती;
तब तुम
तृप्त होते हो;
एक गहन
तृप्ति
तुम्हें भर
देती है।
'यम' का
जीवन एक
संतुलित जीवन
है। पतंजलि के
ये पांच व्रत
तुम्हें
संतुलन देने
के लिए हैं।
लेकिन तुम
उन्हें गलत
समझ सकते हो
और तुम फिर एक
दूसरी तरह का
असंतुलित
जीवन निर्मित
कर सकते हो।
योग जीवन के
भोग के
विरुद्ध नहीं
है, योग है
संतुलन। योग
कहता है, 'भरपूर
जीओ, लेकिन
सदा तैयार रहो
मरने के लिए
भी।’ यह
बात
विरोधाभासी
मालूम पड़ती
है। योग कहता
है, ' आनंद
मनाओ। लेकिन
ध्यान रहे, यह तुम्हारा
घर नहीं है, यह रात भर का
पड़ाव है।’ कुछ
गलत नहीं है।
यदि तुम
धर्मशाला में
ठहरे हो और
आनंद मना रहे
हो और
पूर्णिमा की
रात है, तो
कुछ गलत नहीं
है। इसका आनंद
लो, लेकिन
धर्मशाला को
अपना घर मत
मान लेना, क्योंकि
कल हम चल
देंगे। हम
धन्यवाद
देंगे रात के
इस पड़ाव के
लिए, हम
अनुगृहीत
होंगे—अच्छा
था जब तक वह
रहा, लेकिन
उसके हमेशा
बने रहने की
मांग मत करना।
यदि तुम माग
करते हो कि
इसे हमेशा—हमेशा
रहना चाहिए, तो यह एक अति
है; यदि
तुम बिलकुल
आनंदित नहीं
होते क्योंकि
यह सदा तो
रहने वाला
नहीं, तो
यह एक दूसरी
अति हो जाती
है। और दोनों
ही ढंग से तुम
अधूरे ही रहते
हो।
यदि
तुम मुझे
समझने की
कोशिश करो तो
मेरा सारा
प्रयास यही है
: तुम्हें
संपूर्ण और
समग्र बनाना, जिससे कि
सारी
विपरीतताए खो
जाएं और एक
समस्वरता
पैदा हो। मैं
नहीं चाहता कि
तुम नीरस हो जाओ।
साधारण भोग का
जीवन उबाऊ
होता है।
साधारण योग का
जीवन भी
एकस्वर का, नीरस होता
है। जो जीवन
सारे
विरोधाभास
अपने में समाए
होता है, जिसमें
बहुत सारे
स्वर होते हैं
लेकिन फिर भी
एक समस्वरता
होती है, वह
जीवन एक
समृद्ध जीवन
होता है। और
वही समृद्ध
जीवन, मेरे
देखे, योग
है।
और ये
पांच व्रत
तुम्हें जीवन
से तोड़ देने
के लिए नहीं
हैं, वे
तुम्हें जीवन
से जोड्ने के
लिए हैं। इस
बात को अच्छे
से स्मरण रख
लेना है, क्योंकि
बहुत से लोगों
ने इन पांच
व्रतों का
उपयोग स्वयं
को जीवन से
तोड़ लेने के
लिए किया है।
वे इसलिए नहीं
हैं—वें हैं
इससे ठीक
विपरीत बात के
लिए।
उदाहरण
के लिए पहला
व्रत है—अहिंसा।
लोगों ने इसका
उपयोग स्वयं
को जीवन से
तोड़ लेने के
लिए किया, क्योंकि
वे सोचते हैं
कि यदि तुम
जीवन में रहे,
तो कुछ न
कुछ हिंसा
होगी ही। भारत
में जैन हैं; वे विश्वास
करते हैं
अहिंसा में।
वही है उनका संपूर्ण
धर्म। तुम जरा
देखो किसी जैन
मुनि को. वह हर
चीज से भागता
है, क्योंकि
सब ओर वह
हिंसा की
संभावना पाता
है। जैनों ने
किसी भी तरह
की खेती करना
बंद कर दिया—बागबानी,
खेती—बाड़ी—क्योंकि
यदि खेती करते
हैं, खेत
में जुताई
करते हैं, तो
हिंसा होगी ही;
क्योंकि
तुम्हें
पेडू—पौधे कांटने
होंगे और हर
पौधे में जीवन
होता है। तो
जैन पूरी तरह
बाहर हो गए
खेती—बाड़ी के
काम से।
युद्ध
में वे जा
नहीं सकते थे, क्योंकि
वहां हिंसा होगी।
उनके सभी
तीर्थंकर
योद्धा थे; वे सब
क्षत्रिय थे।
महावीर और
दूसरे सभी
तीर्थंकर, वे
सब क्षत्रिय
थे, लेकिन
उनके सारे
अनुयायी
दुकानदार हैं,
व्यापारी
हैं! क्या हुआ?
लड़ाई पर वे
जा नहीं सकते;
सेना में
भरती वे हो
नहीं सकते।
इसलिए वे योद्धा
तो बन नहीं
सकते, क्योंकि
हिंसा होगी।
वे किसान नहीं
बन सकते, क्योंकि
कृषि में
हिंसा होगी।
और कोई भी
शूद्र होना
नहीं चाहता, कोई भी अछूत
होना नहीं
चाहता और
दूसरे लोगों के
टायलेट और
दूसरे लोगों
के घर कोई साफ
करना नहीं
चाहता—कोई
नहीं चाहता यह
सब; इसलिए
शूद्र वे बन
नहीं सकते। और
वे ब्राह्मण
भी नहीं बन
सकते थे, क्योंकि
उनका पूरा
धर्म ही एक
विद्रोह था
ब्राह्मणों
के विरुद्ध।
तो एकमात्र
संभावना जो बची
वह यह कि वे
केवल वैश्य हो
जाएं।
ऐसे
जैन मुनि हैं
जो श्वास लेने
तक में घबड़ाते
हैं, क्योंकि
श्वास लेने
में जीवाणु
मरते हैं। बहुत
छोटे—छोटे जीवाणु
घूम रहे हैं
हवा में। हवा
भरी पड़ी है जीवाणुओं
से, बहुत
सूक्ष्म
जीवाणुओं से;
तुम देख
नहीं सकते
उन्हें खुली आंख
से। जब तुम
श्वास लेते हो,
वे मर जाते
हैं; जब
तुम श्वास
छोड़ते हो, तब
तुम्हारी
बाहर आती गरम
श्वास उन्हें
मार देती है।
तो वे श्वास
लेने में भी भयभीत
हैं। रात्रि
में वे चल
नहीं सकते, क्योंकि
शायद अंधेरे
में कहीं कोई
कीड़ा हो.. तो
हिंसा हो जाए।
वर्षा—ऋतु में
वे कहीं जा
नहीं सकते।
वर्षा—ऋतु में
बहुत से
कीट—पतंगे और
बहुत सी
मक्खियां, बहुत
से कीड़े—मकोड़े
पैदा हो जाते
हैं, और हर
कहीं जीवन धड़क
रहा होता है।
यदि तुम गीली
जमीन पर चलते
हो तो ऐसी
संभावना है...।
कहा जाता है
कि जैन मुनि
को रात सोते
हुए करवट भी
नहीं बदलनी
चाहिए
क्योंकि तुम
करवट बदलो और
हो सकता है
कुछ कीट—पतंगे
मर जाएं; तो
तुम्हें एक ही
करवट सोना
चाहिए। यह है
अति पर जाना।
यह है
बेतुकेपन तक
बात को खींचना।
तो स्मरण रखना, लोगों ने
अहिंसा का
उपयोग किया है
जीवन के विरुद्ध।
और अहिंसा का
अर्थ होता है
जीवन के प्रति
इतना गहन
प्रेम कि तुम
मार न सको : तुम
इतना गहन
प्रेम करते हो
जीवन से कि
तुम किसी को
भी चोट नहीं
पहुंचाना
चाहोगे। यह एक
गहन प्रेम है,
निषेध नहीं।
निश्चित
ही, जीवित
रहने में थोड़ी
हिंसा तो जरूर
होगी, लेकिन
वह हिंसा नहीं
है, क्योंकि
तुम वैसा
इच्छापूर्वक
नहीं कर रहे हो।
इसलिए ध्यान
रहे, हिंसा
तब होती है जब
तुम जान कर
उसे करते हो।
यदि मैं सांस
लेता हूं तो
मैं ऐच्छिक
रूप से सांस
नहीं ले रहा
हूं। श्वास अपने
आप चल रही
है—तुम नहीं
ले रहे हो
सांस; तुम
नहीं हो
कर्ता। तुम
कोशिश करो न
लेने की, और
तुमको पता चल
जाएगा। केवल
क्षण भर को
तुम रोक सकते
हो, और वह
तेजी से आती
है भीतर और
तेजी से जाती
है बाहर। यह
होता है, तुम
इसके लिए
जिम्मेवार
नहीं हो। भोजन
है, वह
तुम्हें लेना
ही पड़ेगा। जो
कुछ भी तुम
खाओगे, वह
एक तरह की
हिंसा ही
होगी। यदि तुम
वृक्षों से फल
तोड़ते हो, तो
तुम चोट
पहुंचाते हो
वृक्षों को।
जैनों
ने मांस न
खाने की
शुरुआत की।
अच्छी है बात—क्योंकि
उससे बचा जा
सकता है।
जिससे बचा जा
सके, वह
सुंदर है। फिर
वे भयभीत हो गए
वृक्षों के फल
खाने से, क्योंकि
यदि तुम फल
तोड़ते हो तो
वृक्ष को चोट
लगती है। तो
करो क्या? प्रतीक्षा
करो—जब फल पक
जाए और गिर
जा।! धरती पर।
वह भी अच्छा
है, कुछ
गलत नहीं।
लेकिन फल गिर
भी जाता है
धरती पर तो भी
उसमें लाखों
बीज होते
हैं—और
प्रत्येक बीज
वृक्ष बन सकता
था, और
प्रत्येक
वृक्ष में फिर
संभावना थी
लाखों फलों
की। तो तुम खा
रहे हो उन
सारी
संभावनाओं को—तुम
हिंसा कर रहे
हो!
तुम
किसी भी
सिद्धात को
पागलपन तक
खींच सकते हो; और तब
केवल एक
संभावना बचती
है—आत्महत्या
करने की।
लेकिन वह भी
हिंसा है. तुम
मार रहे हो स्वयं
को। न केवल
स्वयं को, तुम्हारे
रक्त में सात
लाख जीवाणु
हैं, वे मर
जाएंगे यदि
तुम
आत्महत्या
करते हो। तो जाओ
कहां—आत्महत्या
तक भी संभव
नहीं।
यह तो
बड़ा निरर्थक
जीवन हो जाएगा, चिंतित, तनावपूर्ण।
और तुम सुखी, शांत और मौन
जीवन की खोज
में निकले थे;
और यह जीवन
इतना
तनावपूर्ण हो
जाएगा और इतना
व्यथित.। तुम
देख सकते
हो—जरा जाओ, देखो जैन
मुनियों के
चेहरों की ओर।
तुम कभी उनके
चेहरों को
आनंदित न
पाओगे—असंभव
है। यदि तुम
इतने भय में
जीते हो कि हर
चीज गलत मालूम
पड़ती है, तो
तुम अपराध ही
अपराध से घिर
जाते हो, और
कुछ भी नहीं।
और जो कुछ भी
तुम करते हो
वह करीब—करीब
पाप ही होता
है—एक शब्द
बोलना भी पाप
है, क्योंकि
जब तुम बोलते
हो, तब
ज्यादा गरम
वायु बाहर आती
है मुंह से; वह मार
डालती है
हजारों छोटे
—छोटे
जीवाणुओं को।
तुम पानी पीते
हो और तुम
जीवाणुओं को
मारते हो, तुम
बच नहीं सकते।
तो करो क्या?
पतंजलि
जीवन के विरोध
में नहीं हैं; वे
प्रेमी हैं।
जो जानते हैं,
वे कभी भी
जीवन के विरोध
में नहीं
होते। तो अहिंसा
का इतना ही
अर्थ है कि
जीवन को
बहुत—बहुत प्रेम
करो—मेरे देखे,
अहिंसा
प्रेम है—जीवन
को इतना अधिक
प्रेम करो कि
तुम किसी को
चोट न पहुंचाना
चाहो, बस
इतना ही।
लेकिन फिर भी
जीने में ही
बहुत सी बातें
होंगी जिन पर
तुम्हारा कोई
वश नहीं है। उन्हें
लेकर चिंतित
मत होना, अन्यथा
तुम पागल हो
जाओगे। कोई
फिक्र मत करना
उनकी। केवल एक
बात ध्यान में
रखना कि तुमने
किसी को
जान—बूझ कर
कष्ट नहीं
पहुंचाया है।
और यदि
तुम्हें किसी
को मजबूरी में
कष्ट पहुंचाना
भी पड़ता है तो
भी तुम में
भाव प्रेम का
ही होता है।
तुम
किसी वृक्ष के
पास जाते हो
और यदि
तुम्हें
तोड़ना ही पड़ता
है फल क्योंकि
तुम्हें भूख लगी
है और तुम मर
जाओगे अगर तुम
फल न तोड़ो, तो
धन्यवाद करना
वृक्ष का। पहले
वृक्ष की अनुमति
लेना कि 'मैं
यह फल ले रहा
हूं। यह
ज्यादती है, लेकिन मैं मर
रहा हूं और
मेरी मजबूरी
है। लेकिन मैं
बहुत सारे
तरीकों से
सेवा करूंगा
तुम्हारी।
मैं चुकाऊंगा
कीमत। मैं
तुम्हें पानी
दूंगा, मैं
तुम्हारी
देख — भाल
करूंगा; मैं
जो भी ले रहा
हूं तुम्हें
लौटा
दूंगा—उससे
कहीं ज्यादा
ही लौटा दूंगा।’
जीवन
को प्रेम करो, जीवन को
सहायता दो, जीवन को
सहारा दो—प्रत्येक
जीवंत चीज के
प्रति आशीष
बनो। और यदि
तुम्हें कुछ
ऐसा करना पड़े,
जिससे कि
तुम्हें लगता
है बचा जा सकता
था, तो
पहली बात, उससे
बचना। यदि
उससे बचा न जा
सकता हो, तो
कोशिश करना
उसे वापस लौटाने
की, कोशिश
करना
प्रतिदान की।
और
बहुत अंतर
पड़ता है। अब
तो वैज्ञानिक
भी कहते हैं
कि अंतर पड़ता
है। यदि तुम
वृक्ष की अनुमति
लेते हो तो
वृक्ष को चोट
नहीं लगती। अब
वह अनधिकार
हस्तक्षेप
नहीं है, अब अनुमति
ले ली गई है।
असल में वृक्ष
को अच्छा लगता
है कि तुम आए।
वृक्ष आनंदित
होता है कि वह
जरूरत में
किसी की मदद
कर सका। वृक्ष
समृद्ध होता
है कि तुम आए
और वृक्ष कुछ
बांट सका। फल
तो वैसे भी
गिर ही जाते।
वृक्ष बांट
सका किसी के
साथ—तुमने न
केवल अपनी मदद
की, तुमने
वृक्ष की भी
मदद की चेतना
में विकसित
होने में।
अहिंसक
होने का अर्थ
है हितैषी
होना, सब
की मदद
करना—अपनी भी
और दूसरों की
भी। यह है यम
का प्रथम
आयाम। प्रेम
है पहला आत्म—
अनुशासन।
किसी
ने संत
अगस्तीन से
पूछा, 'मैं
बिलकुल
बेपढा—लिखा
आदमी हूं और
मैं नहीं जानता
कि क्या करूं
और क्या न करूं।
और हजारों
शास्त्र हैं
और लाखों
सिद्धात हैं
और मैं भ्रम
में पड़ा हूं
क्योंकि कोई
कुछ कहता है, कोई और उसके
एकदम विपरीत
कहता है—और
मेरी कुछ समझ
में नहीं आता
कि क्या करूं
और क्या न
करूं। आप महान
व्यक्ति हो, बहुत
बुद्धिमान, संत : बस एक
शब्द बता दें
मुझे, जिससे
कि बिना किसी
भ्रम के मैं
उसी पर चल
सकूं।’
संत
अगस्तीन एक
कुशल उपदेशक
था। वह घंटों
बोल सकता था, लेकिन
किसी ने भी
संपूर्ण धर्म
को एक शब्द
में नहीं पूछा
था। उसने अपनी
आंखें बंद कर
लीं, ध्यान
किया, क्योंकि
कठिन थी बात, और फिर उसने
अपनी आंखें
खोलीं और कहा,
'तो तुम जाओ
और प्रेम करो।
यदि तुम प्रेम
करते हो तो सब
ठीक है।’
अहिंसा
का अर्थ है
प्रेम। यदि
तुम प्रेम
करते तो सब
ठीक हो जाता
है। यदि तुम
प्रेम नहीं
करते, तो
चाहे तुम
अहिंसक भी हो
जाओ तो बेकार
है। और क्यों
पतंजलि इसे
पहला यम, पहला
अनुशासन कहते
हैं? प्रेम
पहला अनुशासन
है, आधार
है। यदि तुम
में कोई भाव
भी बच रहता है
दूसरों को चोट
पहुंचाने का,
तो जब तुम
शक्तिशाली
होओगे तो
खतरनाक हो
जाओगे। वही
बचा हुआ जरा
सा भाव खतरा
बन जाएगा। तुम
में लेश मात्र
भाव नहीं बचना
चाहिए किसी को
चोट पहुंचाने
का; और वह
प्रत्येक
व्यक्ति में
होता है।
और तुम
हजारों—लाखों
ढंग से चोट
पहुंचाते हो—और
तुम ऐसे—ऐसे
तरीकों से चोट
पहुंचाते हो
कि कोई बचाव
भी नहीं कर
सकता है। कई
बार तुम ' अच्छे' तरीकों
से चोट
पहुंचाते
हो—अच्छे
कारणों से, अच्छे
बहानों' से।
तुम किसी
व्यक्ति से
कुछ कहते हो
जो शायद ठीक
भी है और तुम
कहते हो, 'मैं
सच कह रहा हूं '
लेकिन भीतर
गहरे में
इच्छा होती है
उस सच द्वारा
दूसरे को चोट
पहुंचाने की।
तब सच झूठ से
बदतर होता है।
उसे न कहना
ठीक है। यदि
तुम अपने सत्य
को प्रीतिकर
और सुखद और
सुंदर नहीं
बना सकते, तो
बेहतर है उसे
कहो ही मत। और
सदा अपने भीतर
देखना कि तुम
ऐसा किस लिए
कह रहे हो। गहरे
में इच्छा
क्या है? क्या
तुम सत्य के
नाम पर दूसरे
को चोट
पहुंचाना
चाहते हो? तब
तुम्हारा
सत्य पहले से
ही विषाक्त है
: वह धार्मिक
नहीं है, वह
नैतिक नहीं
है—वह पहले से
ही अनैतिक है।
छोड़ो ऐसा
सत्य।
मैं
कहता हूं तुम
से, झूठ
भी अच्छा है
यदि वह प्रेम
से जन्मा हो, और सत्य
बुरा है अगर
वह केवल चोट
पहुंचाने के लिए
बोला गया है।
ये कोई
मुर्दा
सिद्धात नहीं
हैं। तुम्हें
उन्हें समझना
होगा और
तुम्हें उस
कुशलता को सीखना
है कि उनका
उपयोग कैसे
करना होता है।
मैंने देखा है
लोगों को
अच्छे सिद्धांतों
को बुरे
कारणों के लिए
उपयोग करते
हुए, अच्छा
जीवन बुरे
कारणों के लिए
जीते हुए। तुम
बड़े महात्मा
हो सकते हो
केवल अहंकार
की तुष्टि के
लिए; तब
तुम्हारी
धार्मिकता एक
पाप है। तुम
चरित्रवान हो
सकते हो केवल
गौरवान्वित
अनुभव करने के
लिए, कि
तुम एक
चरित्रवान
व्यक्ति हो।
इससे तो बेहतर
था कि तुम
बिना चरित्र
के होते; कम
से कम यह
अहंकार तो न
होता। यदि
चरित्र केवल
अहंकार का
पोषण ही है तो
वह
चरित्रहीनता
से बदतर है।
तो सदा भीतर
गहरे में
झांकना, अपने
अस्तित्व में
भीतर देखना कि
तुम क्या कर रहे
हो, कि तुम
क्यों कर रहे
हो। और सतही
निष्कर्षों
से कभी संतुष्ट
मत हो जाना—वे
तो हजारों
होते हैं और
तुम यकीन दिला
सकते हो स्वयं
को कि तुम ठीक
थे।
तुम घर
आते हो। तुम
क्रोध में हो, क्योंकि
आफिस में बीस
ने ठीक
व्यवहार नहीं
किया
तुम्हारे
साथ। कोई बीस
कभी ठीक
व्यवहार नहीं
करता।
क्योंकि वह
बीस है इसलिए
कुछ भी वह
करता है, बुरा
ही लगता है, खराब ही
मालूम पड़ता
है। क्योंकि
भीतर तो तुम कुढ़ते
रहते हो कि
तुम नीचे हो
दूसरा ऊपर है।
तुम्हें नीचे
होने की
सच्चाई से
नफरत होती है,
इसलिए जो
कुछ भी कहा
जाता है वह
बुरा लगता है।
लेकिन तुम
प्रतिक्रिया
नहीं कर सकते,
वह बात जरा
मंहगी पड़ेगी।
तुम क्रोध से
भरे हुए आते
हो घर और
बच्चे की
पिटाई करने
लगते हो। और तुम
कहते हो, '.. क्योंकि
तुम बुरे
लड़कों के साथ
खेल रहे थे।’
बच्चा
तो रोज ही
खेलता है बुरे
लड़कों के साथ।
और कौन हैं ये
बुरे लड़के? क्योंकि
उन बुरे लड़कों
की माताएं भी
अपने बच्चों
को पीट रही
हैं, क्योंकि
वे खेल रहे
हैं तुम्हारे
बुरे बेटे के
साथ। कौन हैं
ये बुरे लड़के?
लेकिन तुम
तो तर्क बैठा
रहे होते हो।
क्रोध मौजूद
है, उबल
रहा है। तुम
उसे उलीच देना
चाहते हो किसी
पर। और
निश्चित ही, केवल कमजोर
व्यक्ति पर ही
निकाला जा
सकता है उसे।
बच्चे इस
दृष्टि से बड़े
उपयोगी हैं।
पिता क्रोध
में है, तो
वह पीट देता
है बच्चे को; मां क्रोध
में है, वह
पीट देती है
बच्चे को; शिक्षक
क्रोधित होता
है, वह पीट
देता है बच्चे
को। और हर कोई
छोटे बच्चों
पर उन चीजों
को निकाल रहा
होता है, जिन्हें
किसी दूसरे पर
नहीं निकाला
जा सकता है।
मेरे
देखे, यदि
किसी दंपति के
बच्चे न हों
तो ज्यादा
संभावना होती
है तलाक की।
यदि उनके
बच्चे होते
हैं, तो कम
संभावना होती
है तलाक की।
क्योंकि जब भी
पत्नी
क्रोधित होती
है पति पर, तो
वह पीट सकती
है बच्चों को;
जब भी पति
नाराज होता है
पत्नी से, तो
वह पीट सकता
है बच्चों को।
बच्चे एक
थैरेपी की
भांति हैं। वे
मदद करते हैं,
वे अदभुत
रूप से मदद
करते हैं।
इसीलिए पूरब
में जहां एक
दंपति के अनेक
बच्चे होते
हैं, तलाक
नहीं होता।
पश्चिम में अब
यह कठिन है, वैवाहिक
जीवन असंभव हो
रहा है, क्योंकि
बच्चे नहीं
होते। उनकी
जरूरत होती है
एक गहन थैरेपी
के रूप में।
वे एक जोड्ने
वाली कड़ी होते
हैं; वे
मदद देते हैं
रेचन में।
खयाल
रहे, कभी
भी किसी बुरे
कारण के लिए
अच्छी बात मत
करना, क्योंकि
वह बात अच्छी
नहीं रहती और
तुम धोखा ही
दे रहे होते
हो।
अहिंसा
है पहली
बात—प्रेम सदा
पहली बात है।
और यदि तुम
सीख लेते हो
कि प्रेम कैसे
करना है, तो तुम सब
सीख लेते हो।
धीरे— धीरे
वही प्रेम
तुम्हारे
चारों ओर का
एक आभा—मंडल
बन जाता है : जहां
कहीं तुम जाते
हो, एक
प्रसाद
तुम्हारे साथ
रहता है; जहां
भी तुम जाते
हो, आनंद
की भेंट साथ
लिए जाते हो, तुम बांटते
हो अपने प्रेम
को।
अहिंसा
कोई
नकारात्मक
बात नहीं है; वह प्रेम
की एक विधायक
अनुभूति है।
अहिंसा शब्द
नकारात्मक
है। शब्द
नकारात्मक है
क्योंकि लोग
हिंसक हैं, और हिंसा
उनके
व्यक्तित्व
में इतनी
विधायक घटना
बन गई है कि
किसी नकारात्मक
शब्द की जरूरत
है उसे नकार
देने के लिए।
लेकिन केवल
शब्द
नकारात्मक है;
घटना
विधायक है : वह
है प्रेम।
'अहिंसा,
सत्य......।’
सत्य
का अर्थ
है—प्रामाणिकता, सच्चे
रहना, झूठ
में न जीना, मुखौटों का
उपयोग न करना,
जो भी
तुम्हारा
वास्तविक
चेहरा हो उसे
प्रकट करना, चाहे कुछ भी
कीमत चुकानी
पड़े।
ध्यान
रहे, इसका
यह अर्थ नहीं
कि तुम्हें
दूसरों के
मुखौटे
उतारने हैं, यदि वे
प्रसन्न हैं
अपने झूठ के
साथ तो यह उनके
निर्णय की बात
है। जाकर किसी
का मुखौटा मत
उतार देना, क्योंकि लोग
इसी ढंग से
चलते हैं। वे
सोचते हैं कि
उन्हें
प्रामाणिक
होना है; उसका
मतलब वे समझते
हैं कि उन्हें
जाकर नग्न कर
देना है
प्रत्येक
व्यक्ति को—'क्यों तुम
छिपा रहे हो
अपना शरीर? इन कपड़ों की
कोई जरूरत
नहीं।’
नहीं, कृपा
करके ध्यान
रखना : स्वयं
के प्रति
सच्चे रहना।
तुम्हें
संसार में
किसी दूसरे का
सुधार करने की
कोई जरूरत
नहीं। यदि तुम
स्वयं विकसित
हो सकते हो, तो पर्याप्त
है। सुधारक मत
बनना और
दूसरों को सिखाने
की कोशिश मत
करना और
दूसरों को
बदलने की
कोशिश मत
करना। यदि तुम
बदल गए, तो
उतना संदेश
पर्याप्त है।
प्रामाणिक
होने का अर्थ
है : अपने अंतस
के प्रति
सच्चे रहना।
कैसे रहें
सच्चे? तीन बातें
ध्यान में ले
लेनी हैं।
पहली, किसी
की मत सुनो कि
वे तुम्हें
क्या होने के
लिए कहते हैं;
सदा अपने
अंतस की आवाज
को सुनो कि
तुम क्या होना
चाहते हो।
अन्यथा
तुम्हारा
पूरा जीवन व्यर्थ
हो जाएगा।
तुम्हारी मां
चाहती है कि
तुम इंजीनियर
बनो; तुम्हारे
पिता तुम्हें
डाक्टर बनाना
चाहते हैं; और तुम खुद
कवि बनना
चाहते हो। तो
करो क्या? निश्चित
ही मां ठीक
कहती है, क्योंकि
वह बात ज्यादा
फायदे की है, आर्थिक रूप
से ज्यादा काम
की बात है
इंजीनियर होना।
पिता भी ठीक
कहते हैं कि
डाक्टर बन जाओ;
यह उपयोगी है
बाजार में।
बाजार में
इसकी कीमत है।’कवि? क्या
तुम पागल हो
गए हो? क्या
तुम बुद्धि
गंवा बैठे हो?'
कवि
अनादृत
व्यक्ति हैं, कोई
उन्हें नहीं
चाहता। उनकी
कोई जरूरत
नहीं है।
काव्य के बिना
संसार चल सकता
है। काव्य के
खो जाने से
कोई तकलीफ न
होगी। लेकिन
यह संसार इंजीनियरों
के बिना नहीं
चल सकता; संसार
चलाने के लिए
बहुत
इंजीनियरों
की जरूरत है।
यदि तुम्हारी
जरूरत है, तो
तुम मूल्यवान
हो; यदि
तुम्हारी
जरूरत नहीं है,
तो
तुम्हारा कोई
मूल्य नहीं
है।
लेकिन
यदि तुम कवि
होना चाहते हो
तो कवि हो जाओ।
तुम शायद
भिखारी
रहोगे। ठीक है।
तुम कविता
करके बहुत
धनवान नहीं हो
सकते—फिक्र मत
करो, क्योंकि
हो सकता है
तुम बड़े
इंजीनियर बन
जाओ और शायद
तुम बहुत धन
भी कमा लो, लेकिन
तुम्हें कभी
कोई तृप्ति न
होगी। तुम सदा
प्यासे रहोगे;
तुम्हारे
प्राण कवि
होने के लिए
तड़पते रहेंगे।
मैंने
सुना है कि एक
बड़े
वैज्ञानिक, एक नोबल
पुरस्कार
विजेता सर्जन
से पूछा गया, 'जब आपको
नोबल
पुरस्कार
मिला, तब
आप खुश नहीं
दिखाई पड़ रहे
थे। क्या बात
है?' उसने
कहा, 'मैंने
तो सदा नर्तक
बनना चाहा था।
पहली तो बात
यह कि मैं
सर्जन कभी
बनना ही नहीं
चाहता था। और
अब न केवल मैं
सर्जन हो गया
हूं मैं बहुत
सफल सर्जन हो
गया हूं और यह
एक बोझ है। और
मैं तो केवल
नर्तक होना
चाहता था—और
मैं एक मामूली
सा नर्तक
हूं—यही मेरी
पीड़ा है, मेरा
संताप है। जब
भी मैं किसी
को नृत्य करते
देखता हूं तो
मैं बहुत दुखी
होता हूं बहुत
पीड़ा अनुभव
करता हूं। इस
नोबल पुरस्कार
का मैं क्या
करूंगा? यह
मेरे लिए कोई
नृत्य तो नहीं
हो सकता है; यह मुझे
नृत्य नहीं दे
सकता है।’
ध्यान
रखना, अपनी
भीतर की आवाज
के प्रति
सच्चे रहना।
हो सकता है यह
तुम्हें खतरे
में ले जाए; तो जाना
खतरे में, लेकिन
भीतर की आवाज
के प्रति
सच्चे रहना।
तो एक संभावना
है कि किसी
दिन तुम उस
अवस्था तक
पहुंच जाओगे जहां
तुम आंतरिक
तृप्ति के साथ
नृत्य कर सको।
सदा ध्यान
रखना, पहली
बात है
तुम्हारी
अंतस सत्ता, और दूसरों
को तुम्हें
प्रभावित और
नियंत्रित मत
करने देना। और
ऐसे बहुत हैं.
हर कोई तैयार है
तुम पर
नियंत्रण
करने के लिए; हर कोई
तैयार है
तुम्हें
सुधारने के
लिए; हर
कोई तैयार है
तुम्हें बिना
मांगे सलाह
देने के लिए।
हर कोई
तुम्हें
तुम्हारे
जीवन के लिए
निर्देश दे
रहा है।
निर्देश
तो तुम्हारे
भीतर ही मौजूद
है; तुम
उसका नक्शा
साथ लिए चलते
हो।
प्रामाणिक
होने का अर्थ
है स्वयं के
प्रति सच्चे
होना। यह बहुत
खतरनाक बात है;
विरले
व्यक्ति ही
ऐसा कर सकते
हैं। लेकिन जब
भी लोग ऐसा
करते हैं तो
उन्हें बहुत
मिलता है। वे
एक ऐसा
सौंदर्य पा
लेते हैं, ऐसा
प्रसाद, ऐसी
संतुष्टि—जिसकी
तुम कल्पना भी
नहीं कर सकते।
यदि प्रत्येक
व्यक्ति इतना
हताश दिखाई
देता है तो
कारण यही है
कि कोई अपनी
भीतर की आवाज
को नहीं सुन
रहा है।
तुम
किसी लड़की से
शादी करना
चाहते थे, लेकिन वह
लड़की मुसलमान
थी और तुम
हिंदू ब्राह्मण
हो। तुम्हारे
माता—पिता ने
इजाजत नहीं दी।
समाज स्वीकार
नहीं करेगा; यह बात
खतरनाक थी।
लड़की गरीब थी
और तुम अमीर
हो। तो तुमने
विवाह कर लिया
किसी अमीर
स्त्री से, हिंदू
ब्राह्मण
स्त्री से, जो स्वीकार
किया गया सब
के
द्वारा—लेकिन
तुम्हारे
हृदय द्वारा
नहीं। तो अब
तुम एक असुंदर
जीवन जीते हो।
अब तुम किसी
वेश्या के पास
जाते हो।
लेकिन
वेश्याएं भी
तुम्हारे काम
न आएंगी।
तुमने बेकार
गंवाया अपना
पूरा जीवन।
तुमने व्यर्थ
किया अपना
पूरा जीवन।
सदा
भीतर की आवाज
को ही सुनना, और किसी
बात को मत
सुनना।
हजारों
प्रलोभन हैं तुम्हारे
चारों ओर, क्योंकि
बहुत से लोग
अपनी— अपनी
चीजों को बेच रहे
हैं। एक बड़ा
बाजार है यह
संसार और हर
किसी को अपनी
चीज तुम्हें
बेच देने में
रुचि है, हर
कोई सेल्समैन
है। यदि तुम
बहुत से
सेल्समैनों
की बातें
सुनते हो तो
तुम पागल हो
जाओगे। किसी
की मत सुनो, अपनी आंखें
बंद कर लो और
भीतर की आवाज
को सुनो। यही
है ध्यान.
भीतर की आवाज
को सुनना। यह
पहली बात है।
फिर
दूसरी बात—यदि
तुमने पहली
बात पूरी कर
ली है, केवल
तभी दूसरी
संभव है—कोई
मुखौटा कभी मत
ओढो। यदि तुम
क्रोधित हो, तो क्रोधित
हो। खतरा है
इसमें, तो
भी मुस्कुराओ
मत, क्योंकि
वह झूठ हो
जाना है।
लेकिन
तुम्हें
सिखाया गया है
कि जब क्रोध
आए तो
मुस्कुराओ।
तब तुम्हारी
मुस्कुराहट
झूठी हो जाती
है, एक
मुखौटा हो
जाती है।
मात्र एक
व्यायाम ओंठों
का, और कुछ
भी नहीं। हृदय
तो क्रोध से
भरा है, विषाक्त
है और ओंठ
मुस्कुरा रहे
हैं—तुम एक नकली
आदमी हो जाते
हो।
फिर एक
दूसरी बात भी
होती है : जब
तुम सच में
मुस्कुराना
चाहते हो, तब भी तुम
मुस्कुरा
नहीं सकते।
तुम्हारा
सारा भीतरी
ढांचा उलट—पुलट
हो जाता है।
क्योंकि जब
तुम क्रोधित होना
चाहते थे तो न
हुए; जब
तुम घृणा करना
चाहते थे तो
तुमने न की।
अब तुम प्रेम
करना चाहते हो,
तो अचानक
तुम पाते हो
कि भीतरी
रचना—तंत्र
काम ही नहीं
करता। अब तुम
मुस्कुराना चाहते
हो, तो
तुम्हें
जबरदस्ती
मुस्कुराना
पड़ता है। तुम्हारा
हृदय हंसी से
भरा हुआ है और
तुम जोर से
हंसना चाहते
हो, लेकिन
तुम हंस नहीं
सकते। कोई चीज
हृदय में घुटने
लगती है, गले
में कुछ फंसने
लगता है।
मुस्कुराहट
आती ही नहीं, और यदि आ भी
जाए तो वह बडी
दबी—दबी और
मरियल सी
मुस्कुराहट
होती है। वह
तुम्हें आंदोलित
नहीं करती।
तुम जोर से
खिलखिलाते
नहीं। वह तुमसे
एक आभा की तरह
विकीरित नहीं
होती।
इसलिए
जब तुम
क्रोधित होना
चाहो, तो
हो जाना
क्रोधित। कुछ
गलत नहीं है
क्रोधित होने
में। यदि तुम
हंसना चाहते
हो, तो
हंसना। कुछ बुराई
नहीं है जोर
से हंसने में।
धीरे— धीरे
तुम पाओगे कि
तुम्हारा
पूरा शरीर, भीतर की
पूरी
व्यवस्था
बिना अवरोध के
काम कर रही
है। जब वह ठीक
से काम करती
है तो उसके
आस—पास एक
गुनगुनाहट
होती है। जैसे
कि कार में जब
हर चीज ठीक
काम कर रही
होती है, तो
एक गुनगुनाहट
होती है। जो
ड्राइवर कार
से
प्रेमपूर्वक
परिचित होता
है वह जानता
है कि अब हर
चीज ठीक काम
कर रही है; एक
तालमेल है, यंत्र—व्यवस्था
ठीक से काम कर
रही है।
तुम
जान सकते हो; जब भी
किसी व्यक्ति
का रचना—तंत्र
ठीक काम कर रहा
होता है, तब
तुम उसके
चारों ओर की
गुनगुनाहट को
सुन सकते हो।
वह चलता है, लेकिन उसके
चलने में एक
नृत्य होता
है। वह बोलता
है, लेकिन
उसके शब्दों
में एक काव्य
होता है। वह देखता
है तुम्हारी
ओर, और वह
सच में देखता
है; उसका
देखना
कुनकुना—कुनकुना
नहीं होता, ऊष्मापूर्ण
होता है। जब
वह छूता है
तुम्हें, तो
सचमुच छूता है
तुम्हें। तुम
अनुभव कर सकते
हो उसकी ऊर्जा
को अपने शरीर
में प्रवाहित
होते हुए; एक
जीवन—तरंग
तुम्हें छू
रही होती है।
क्योंकि उसकी
भीतरी रचना
ठीक—ठीक काम
कर रही होती
है।
तो
मुखौटे मत
ओढ़ना; अन्यथा
तुम
विकृतियां
निर्मित कर
लोगे अपनी संरचना
में—ग्रंथियां
निर्मित कर
लोगे।
तुम्हारे
शरीर में बहुत
सी ग्रंथियां
हैं। जो
व्यक्ति
क्रोध का दमन
करता है, उसके
मसूढे सख्त हो
जाते हैं।
सारा क्रोध
मसूढ़ों में
इकट्ठा हो
जाता है। उसके
हाथ कुरूप हो
जाते हैं।
उनमें किसी
नृत्यकार
जैसी लोचपूर्ण
भंगिमा नहीं
होती। नहीं हो
सकती, क्योंकि
क्रोध
अंगुलियों
में इकट्ठा हो
जाता है।
ध्यान रहे, क्रोध के
निकलने के दो
स्थल हैं। एक
है दात, दूसरा
है अंगुलियां
: क्योंकि
सारे जानवर जब
क्रोधित होते
हैं तो वे
तुम्हें कांटते
हैं दांतों से
या वे तुम्हें
चीरना—फाड़ना
शुरू कर देते
हैं हाथों से।
तो नाखून और
दात दो स्थल
हैं जहां से
कि क्रोध
निकलता है।
मेरा
अपना खयाल है
कि जहां भी
क्रोध को बहुत
ज्यादा दबाया
जाता है, वहा लोगों
को दांतों की
तकलीफ होती है,
उनके दात
खराब हो जाते
हैं। क्योंकि
बहुत ज्यादा
ऊर्जा होती है
और कभी
निकलती
नहीं। और जो
भी क्रोध को
दबाता है, वह खाएगा
ज्यादा, क्रोधित
व्यक्ति सदा
ज्यादा
खाएंगे, क्योंकि
दांतों को कोई
न कोई व्यायाम
चाहिए।
क्रोधित
व्यक्ति
सिगरेट
ज्यादा
पीएंगे।
क्रोधित
व्यक्ति बातें
ज्यादा
करेंगे, वे
पागलपन की हद
तक बातें कर
सकते हैं, क्योंकि
जबड़ों को किसी
न किसी तरह का
व्यायाम चाहिए
ताकि ऊर्जा
थोड़ी निकल
जाए। और
क्रोधी व्यक्तियों
के हाथ
गांठदार और
कुरूप हो जाते
हैं। यदि
ऊर्जा निकल
जाती, तो
वे हाथ सुंदर
हो सकते थे।
जब भी
तुम कुछ दबाते
हो, तो
शरीर में कोई
हिस्सा कठोर
हो जाता है, उस भाव
विशेष से मेल
खाता हुआ
हिस्सा कठोर
हो जाता है। यदि
तुम रोते नहीं,
तो
तुम्हारी आंखें
चमक खो देंगी।
क्योंकि आंसू
जरूरी हैं; वे बहुत
जीवंत घटना
हैं। जब
कभी—कभार तुम
रोते हो, सचमुच
ही तुम उस
रोने में डूब
जाते हो—पूरे
हृदय से रो
लेते हो—और आंसू
बहने लगते हैं
तुम्हारी आंखों
से, तो
तुम्हारी आंखें
धुल जाती हैं।
तुम्हारी आंखें
फिर से ताजी, युवा और
कुंआरी हो
जाती हैं।
इसीलिए
स्त्रियों की आंखें
ज्यादा सुंदर
होती हैं, क्योंकि
वे अभी भी रो
सकती हैं।
पुरुष ने अपनी
आंखों की चमक
खो दी है, क्योंकि
उनके पास गलत
धारणा है कि
पुरुषों को रोना
नहीं चाहिए।
यदि कोई छोटा
लड़का भी रोता
है तो दूसरे
लोग, यहां
तक कि मां—बाप
भी कहते हैं, 'क्या कर रहे
हो तुम? क्या
लड़कियों जैसे
रो रहे हो?' कितनी
नासमझी चल रही
है! क्योंकि
ईश्वर ने तो तुम्हें—स्त्री—पुरुष
दोनों को—एक
जैसी अश्रु
—ग्रंथियां दी
हैं। यदि
पुरुष को रोना
नहीं होता, तो
अश्रु—ग्रंथियां
ही न दी
होतीं।
सीधा—साफ गणित
है। पुरुष में
उसी अनुपात
में
अश्रु—ग्रंथियां
क्यों हैं
जितनी स्त्री
में हैं?
आंखों
को जरूरत है
रोने की, आंसुओ की, और बहुत ही
सुंदर बात है
यदि तुम पूरे
हृदय से रो
सको और आंसू
बहा सको।
ध्यान रहे, यदि तुम रो
नहीं सकते
पूरे हृदय से,
तो तुम हंस
भी नहीं सकते,
क्योंकि वह
दूसरा छोर है।
जो लोग हंस
सकते हैं, वे
रो भी सकते
हैं; जो
लोग रो नहीं
सकते, वे
हंस भी नहीं
सकते। और
तुमने कभी
ध्यान दिया
होगा बच्चों
की इस बात पर :
यदि वे जोर से
और ज्यादा देर
तक हंसते हैं
तो उनके आंसू
आ जाते हैं।
क्योंकि
दोनों चीजें
जुड़ी हुई हैं।
गांवों में
मैंने सुना है
माताएं
बच्चों से
कहती हैं : 'बहुत
ज्यादा मत
हंसो, वरना
तुम रोने
लगोगे।’ वस्तुत:
सच है बात, क्योंकि
घटना अलग नहीं
है—वही ऊर्जा
विपरीत ध्रुव
की ओर चली
जाती है।
तो
दूसरी बात :
मुखौटे मत पहनना, सच्चे
रहना—किसी भी
मूल्य पर।
और
तीसरी बात
प्रामाणिकता
के संबंध में :
सदा वर्तमान
में
रहना—क्योंकि
सारा झूठ
प्रवेश करता
है या तो अतीत
से या फिर
भविष्य से। जो
बीत चुका वह
बीत चुका—उसकी
फिक्र मत
करना। और उसे किसी
बोझ की भांति
मत ढोना :
अन्यथा वह
तुम्हें
वर्तमान के
प्रति
प्रामाणिक न
होने देगा। और
जो अभी घटा
नहीं, वह
तो अभी घटा ही
नहीं—भविष्य
के लिए
अनावश्यक रूप
से चिंतित मत
होना; अन्यथा
वह वर्तमान
में आ जाएगा
और उसे नष्ट
कर देगा।
वर्तमान के
प्रति सच्चे
रहना, और
तब तुम
प्रामाणिक
होओगे। यहीं
और अभी होना प्रामाणिक
होना है। कोई
अतीत नहीं, कोई भविष्य
नहीं : यही
क्षण है सब
कुछ, यही
क्षण है
संपूर्ण
शाश्वतता।
ये तीन
बातें, और तुम उसे
उपलब्ध हो
जाते हो, जिसे
पतंजलि सत्य
कहते हैं। तब
जो कुछ भी तुम
कहोंगे, सच
होगा।
साधारणत: तुम
सोचते हो कि
तुम्हें सच
कहने के लिए
सजग रहना होता
है। मैं यह
नहीं कह रहा
हूं। मैं यह
कह रहा हूं :
तुम
प्रामाणिकता निर्मित
करो—फिर जो
कुछ भी तुम
कहते हो, वह
सच होगा। एक
प्रामाणिक
व्यक्ति झूठ
नहीं बोल सकता
है; वह जो
भी कहता है, सच होगा।
योग
में हमारी एक
परंपरा
है—शायद
तुम्हारे लिए
इस पर विश्वास
करना भी संभव
न हो; मैं
विश्वास करता
हूं क्योंकि
मैंने इसे जाना
है, मैंने
इसे अनुभव
किया है : यदि
एक सच्चा
प्रामाणिक
व्यक्ति झूठ
भी बोल दे, तो
वह झूठ सच हो
जाएगा, क्योंकि
प्रामाणिक
व्यक्ति झूठ
बोल नहीं सकता।
इसीलिए
पुराने
शास्त्रों
में कहा गया
है, 'यदि
तुम प्रामाणिकता
का अभ्यास कर
रहे हो, तो
किसी के
विरुद्ध कुछ
कहने के प्रति
सजग रहना—क्योंकि
वह सच हो सकता
है।’ हमारे
पास बहुत सी
कथाएं हैं
महान ऋषियों
की, जिन्होंने
क्रोध में कुछ
कह दिया, लेकिन
वे इतने
प्रामाणिक थे
कि..।
तुमने
सुना होगा
दुर्वासा का
नाम—स्व महान
ऋषि, प्रामाणिक
व्यक्ति, लेकिन
यदि वह कुछ कह
दे, तो उसे
वह स्वयं भी
वापस नहीं ले
सकता। यदि वह शाप
दे देता है
किसी को, तो
वह शाप पूरा
होगा ही। यदि
वह कह दे, 'तुम
कल मर जाओगे।’
तो तुम कल
मर ही जाओगे, क्योंकि
प्रामाणिकता
के उस स्रोत
से झूठ का आना
संभव ही नहीं
है। पूरा
अस्तित्व
समर्थन करता
है प्रामाणिक
व्यक्ति का।
और फिर वह
व्यक्ति भी
उसे वापस नहीं
ले सकता।
सुंदर
है बात।
इसीलिए लोग
महान ऋषियों
के पास उनका
आशीर्वाद
पाने के लिए
जाते हैं : यदि
वे आशीष दे
दें, तो
बात होकर
रहेगी। यही है
अर्थ, और
कुछ भी नहीं।
वे जाते हैं
और मांगते हैं
आशीष। यदि ऋषि
आशीष दे देता
है, तो
उन्हें चिंता
नहीं रहती; अब बात पूरी
होगी ही, क्योंकि
एक प्रामाणिक
व्यक्ति झूठ
कैसे कह सकता
है! यदि वह झूठ
भी हो, तो
भी सच होने ही
वाला है। तो
मैं नहीं कहता,
'सच बोलो।’ मैं कहता
हूं 'प्रामाणिक
रही और जो भी
तुम कहते हो, सच होगा।’
तीसरा
है अस्तेय, अचौर्य—चोरी
न करना, ईमानदारी।
मन बड़ा चोर
है। बहुत
तरीकों से वह
चोरी करता है।
हो सकता है
तुम लोगों की
चीजें न चुराते
हो। लेकिन तुम
विचारों को
चुरा सकते हो।
मैं तुमसे
कहता हूं कोई
बात; तुम
बाहर जाते हो
और तुम दिखाते
हो कि वह
तुम्हारा ही
विचार है। तो
तुमने उसे चुराया
है, तुम
चोर हो। शायद
तुम्हें पता
भी नहीं होगा
कि तुम क्या
कर रहे हो।
पतंजलि
कहते हैं, 'अचौर्य
की अवस्था में
रहना।’ ज्ञान,
चीजें—कुछ
भी चुराना
नहीं चाहिए।
तुम्हें मौलिक
होना चाहिए और
सदा सजग रहना
चाहिए कि 'ये
चीजें मेरी
नहीं हैं।’ खाली रहो, वह बेहतर है,
लेकिन अपने
घर को चुराई
हुई चीजों से
मत भर लेना।
क्योंकि यदि
तुम चोरी करते
रहते हो, तो
तुम सारी
मौलिकता खो
दोगे। तब तुम
कभी न खोज
पाओगे
तुम्हारा
अपना आकाश.
तुम भर जाओगे
दूसरों की
धारणाओं से, विचारों से,
बातों से।
और अंततः वे
किसी मूल्य की
सिद्ध नहीं
होतीं। केवल
वही मूल्यवान
है, जो कि
तुम से आता
है। असल में
केवल वही
तुम्हारा है
जो तुम से आता
है, और कुछ
भी नहीं। तुम
चुरा तो सकते
हो, लेकिन
तुम उसका आनंद
नहीं ले सकते।
एक चोर
कभी निश्चित
नहीं होता, हो नहीं
सकता—उसे सदा
पकड़े जाने का
भय होता है।
और यदि उसे
कोई न भी पकड़
पाए, तो भी
वह तो जानता
ही है कि वह
चीज उसकी नहीं
है। यह बात एक
निरंतर बोझ
बनी रहती है
उसके हृदय पर।
पतंजलि
कहते हैं, 'चोर मत
बनो—किसी भी
ढंग से, किसी
भी आयाम से।’ ताकि
तुम्हारी
मौलिकता का
फूल खिल सके। स्वयं
को चुराई हुई
चीजों और
विचारों
द्वारा, दर्शन—सिद्धांतों
द्वारा, धर्मों
द्वारा मत
बोझिल करना।
खिलने देना अपने
अंतर—आकाश के
फूल को।
चौथा
है
ब्रह्मचर्य।
इसका अर्थ
किया जाता रहा
है
काम—निग्रह।
यह बात ठीक
नहीं, क्योंकि
ब्रह्मचर्य
एक व्यापक
शब्द है, बहुत
विराट शब्द
है।
काम—निग्रह
बहुत संकीर्ण
बात है; वह
एक हिस्सा है
इसका, लेकिन
पूरी बात नहीं
है।
ब्रह्मचर्य
शब्द का अर्थ
है—'ब्रह्म
जैसी चर्या।’
इस शब्द का
ही अर्थ है
ईश्वर की
भांति जीवन, ईश्वरीय
जीवन।
निश्चित
ही, ईश्वरीय
जीवन में
कामवासना
तिरोहित हो
जाती है। लेकिन
ब्रह्मचर्य
कामवासना के
विरुद्ध नहीं
है। यदि वह
कामवासना के
विरुद्ध है तो
कामवासना कभी
तिरोहित नहीं
हो सकती।
ब्रह्मचर्य
रूपांतरण है
ऊर्जा का : यह
कामवासना के
विरुद्ध नहीं
है, बल्कि
यह पूरी ऊर्जा
को काम—केंद्र
से हटा कर उच्चतर
केंद्रों तक
ले जाने की
बात है। जब यह
ऊर्जा
व्यक्ति के
सातवें
केंद्र तक, सहस्रार तक
पहुंचती है, तब
ब्रह्मचर्य
घटित होता है।
यदि वह पहले
ही केंद्र में,
मूलाधार
में बनी रहती
है, तो
कामवासना
होती है। जब
वह सातवें
केंद्र पर पहुंचती
है, तो
समाधि होती
है। एक ही
ऊर्जा यात्रा
करती है। यह
उसके विरुद्ध
होने की बात
नहीं; उलटे
यह एक कला है
कि इसका उपयोग
कैसे किया जाए।
जो
व्यक्ति
कामवासना में
डूबा है, वह आत्मघाती
है। वह अपनी
ही ऊर्जा को
नष्ट कर रहा
है। वह उस
आदमी की भांति
है जो बाजार
जाता है, अपने
हीरे दे देता
है और
कंकड़—पत्थर
खरीद लेता
है—और प्रसन्न
होकर घर लौट
आता है कि
उसने कोई बड़ा
सौदा किया।
कामवासना में
तुम इतना
छुद्र पाते
हो—एक छोटी सी
लहर
प्रसन्नता
की। और तुम
इतनी ऊर्जा खो
देते हो! वही
ऊर्जा
तुम्हें असीम
आनंद दे सकती
है, लेकिन
तब उसे ऊंचे
उठना होता है।
तो
कामवासना को
रूपांतरित
करना है—उसके
विरुद्ध मत हो
जाना। यदि तुम
उसके विरुद्ध
हो, तो
तुम उसका
रूपांतरण
नहीं कर सकते;
क्योंकि जब
तुम किसी चीज
के विरोध में
होते हो, तो
तुम उसे समझ
नहीं सकते।
समझने के लिए
बड़ी सहानुभूति
चाहिए। यदि
तुम विरोध में
हो, तो तुम
कैसे
सहानुभूति रख
सकते हो। जब
तुम शत्रुता रखते
हो किसी चीज
के प्रति, तो
तुम निरीक्षण
भी नहीं कर
सकते। तुम अलग
हट जाना चाहते
हो अपने शत्रु
से; तुम
बचना चाहते हो
शत्रु से।
अपनी
कामवासना के
साथ
मैत्रीपूर्ण
रहना, क्योंकि
वह तुम्हारी
ऊर्जा है; उसमें
बड़ी
संभावनाएं
छिपी हैं। वह
ईश्वर है—अपरिष्कृत।
कामवासना
अनगढ़ समाधि
है। वह
रूपांतरित हो
सकती है, वह
परिवर्तित हो
सकती है, वह
परिष्कृत हो
सकती है।
संपूर्ण योग
मार्ग है—निम्न
को उच्चतर में
रूपांतरित
करने का, परिवर्तित
करने का। सारी
कला यही है कि
लोहे को सोने
में कैसे बदला
जाए। योग
कीमिया है, तुम्हारे आंतरिक
जगत की कीमिया
है।
ब्रह्मचर्य
का अर्थ है :
काम—ऊर्जा को
समझने की
कोशिश, यह समझने की
कोशिश कि कैसे
वह तुम्हारे
भीतर गतिशील
होती है; यह
समझने की
कोशिश कि सच
में आनंद आता
कहां से है—वह
संभोग से आता
है? काम—ऊर्जा
की
निर्मुक्ति
से आता है? या
कहीं और से
आता है? यदि
तुम सजग होकर
देखो, तो
जल्दी ही तुम
जान लोगे और
देख लोगे कि
वह कहीं और से
आ रहा है। जब
तुम सभोगरत
होते हो, तो
एक धक्का लगता
है सारे शरीर
को। एक झटका
लगता है, क्योंकि
इतनी सारी
ऊर्जा
निर्मुक्त
होती है; सारा
शरीर कैप जाता
है झटके से।
उस झटके में विचार
ठहर जाते हैं।
वह बिलकुल
बिजली के झटके
की भांति होता
है।
कोई
व्यक्ति पागल
हो जाता है; तुम
मनोचिकित्सक
के पास जाते
हो और वह उसे
बिजली के झटके
देता है।
क्यों? क्योंकि
यदि बिजली का
झटका दिया जाए,
तो पल भर के
लिए जब झटका
गुजरता है
दिमाग से तो हर
चीज ठहर जाती
है। उदाहरण के
लिए, तुम
मुझे सुन रहे
हो। फिर भी
विचार चल रहे
होंगे। यदि
अचानक यहां एक
बम फूट जाए :
तुरंत कहीं
कोई विचार न
रहेगा। क्षण
भर को झटका
इतना ज्यादा
हो जाएगा कि
सारी बाहरी—
भीतरी संरचना
काम करना बंद
कर देगी। बिजली
का झटका मदद
देता है पागल
व्यक्तियों
को, क्योंकि
झटका एक गैप
देता है। झटके
के बाद उन्हें
याद नहीं रहता
कि वे इसके
पहले क्या थे।
यदि वे उससे
पहले सोच रहे
होते हैं कि
वे घोड़ा बन गए
हैं—पागल
व्यक्ति कुछ
भी बन सकते
हैं—यदि वे
झटके के पहले
सोच रहे होते
हैं कि वे
घोड़ा बन गए
हैं तो झटके
के बाद उन्हें
याद नहीं रहता
कि वे किस
विचार से
ग्रस्त थे। अब
एक नया वर्तुल
शुरू हो जाता
है। झटका मदद
करता है।
काम—ऊर्जा
भी
विद्युत—ऊर्जा
है। सभी
ऊर्जाएं विद्युत—ऊर्जाएं
हैं, और
काम—ऊर्जा
जैविक—विद्युत
है। वह आती है
तुम्हारे
शरीर से।
क्या
तुमने स्वीडन
की एक स्त्री
के बारे में
सुना है? उसके शरीर
में कहीं कुछ
गड़बड़ हो गई
है। वह पांच
कैंडल का बल्व
हाथ में लेती
है और बल्व जल
उठता है। पांच
कैंडल का बल्व
जल सकता है
उसके हाथ में।
लेकिन ऐसा मत
सोचने लगना कि
बहुत अच्छा
होगा यदि यह
तुम्हें भी घट
जाए। वह
मुसीबत में है,
क्योंकि
उसका पति उसे
छूता है तो
उसे झटका लगता
है। उस स्त्री
से कोई प्रेम
नहीं कर सकता।
ऐसा झटका
लगेगा कि व्यक्ति
सदा के लिए
भूल जाएगा
स्त्रियों
को। अब मामला
अदालत में है,
क्योंकि
ऐसे किसी
मामले का कोई
उल्लेख नहीं है
और कोई कानून
नहीं है : पति
ने तलाक मांगा
है क्योंकि यह
स्त्री इतने
झटके दे रही
है उसे कि वह
भयभीत हो गया
है। कुछ गड़बड़
हो गई है उसकी
शारीरिक
संरचना
में—स्व
शार्ट—सर्किट!
तो
कामोत्तेजना
में तुम ऊर्जा
निर्मित करते हो; कामवासना
का विचार, कल्पना,
इच्छा
द्वारा तुम
ऊर्जा
निर्मित करते
हो। वह ऊर्जा
सरकती है
मूलाधार की ओर,
काम—केंद्र
की ओर, वहा
इकट्ठी हो
जाती है। फिर
जब ऊर्जा एक
सीमा से
ज्यादा
इकट्ठी हो
जाती है तब
अचानक विस्फोट
होता है—सारे
शरीर को झटका
लगता है; फिर
एक शाति उतर
आती है। बहुत
मंहगी है यह
शाति। तुम
मूल्यवान
जीवन—ऊर्जा खो
रहे हो—व्यर्थ
में ही।
अब एक
वैज्ञानिक, जो बड़ा
प्रसिद्ध है
और बड़ा खतरनाक
है भविष्य के
लिए—उसका नाम
है
देलगादो—उसने
एक छोटा सा यंत्र
बनाया है; तुम
उसे जेब में
रख सकते हो।
उसे मस्तिष्क
में तुम्हारे
काम—केंद्र से
जोड़ा जा सकता
है जहां से
शरीर का
काम—केंद्र
नियंत्रित
होता है—एक तार
तुम्हारे
मस्तिष्क के
काम—केंद्र से
इस यंत्र तक
जुड़ा रहता है।
तुम उसे जेब
में रख सकते
हो. जब भी तुम
सेक्स का आनंद
लेना चाहो, तुम बटन को
दबाओ। वह
बैटरी से झटका
देता है मस्तिष्क
के काम—केंद्र
को; तुम्हें
बड़ा सुख मिलता
है। यह बड़ा
अच्छा है, लेकिन
खतरनाक है
यह—खतरनाक
इसलिए है क्योंकि
तब तुम रुकोगे
नहीं, तुम
दबाते ही
जाओगे बटन!
ऐसा
हुआ। देलगादो
ने प्रयोग
किया चूहों पर, एक दर्जन
चूहों पर, और
उसने
इलेक्ट्रोड
रख दिए उनके
मस्तिष्क में।
बटन ठीक सामने
ही था उनके, और उसने
उन्हें सिखा
दिया कि कैसे
उसे
दबाना
है। वे पागल
हो गए। एक
घंटे में छह
हजार बार! जब
तक कि वे
बेहोश होकर
गिर न पड़े, उन्होंने
एक न सुनी
देलगादो की।
वे बस दबाते ही
रहे बटन।
देलगादो कहता
है यदि ऐसा
संभव हो जाए
मनुष्य के लिए
तो कोई भी
स्त्रियों
में रुचिन
लेगा; किसी
स्त्री को
पुरुषों में
रुचि न रहेगी,
क्योंकि यह
तो सब उपद्रव
से छुटकारा
है!
अभी कल
ही मैं पढ़ रहा
था मारपा का
वाक्य कि 'स्त्री
उपद्रव की जड़
है।’ वह
है। यह यंत्र
बहुत
सुविधाजनक
है। कोई झंझट नहीं।
पुरुष भी
उपद्रव की जड़
है, क्योंकि
जब भी दोनों
मिलते हैं, दो उपद्रवी
ही मिलते हैं।
यह यंत्र बड़ा
सुविधाजनक है,
लेकिन बड़ा
खतरनाक भी है,
क्योंकि वे
चूहे. जाते ही
नहीं खाने की
तरफ, पानी
की तरफ। वे
सोते भी नहीं।
और कोई मंहगा
आयोजन नहीं
है—केवल बिजली
का खेल है।
वैसा
ही कुछ घट रहा
होता है, जब तुम
संभोग कर रहे
होते हो
स्त्री से या
पुरुष से।
पूरी बात
बचकानी है।
तुम हंसते हो
चूहों पर। लेकिन
क्या तुम
स्वयं पर हंसे
हो? यदि
तुम स्वयं पर
नहीं हंसे, तो तुम्हें
चूहों पर नहीं
हंसना
चाहिए—यह ठीक नहीं
है। अपने मन
को देखो. चूहा
वहां मौजूद है,
निरंतर
स्वप्न
निर्मित कर
रहा है।
ब्रह्मचर्य
है : पूरी बात
को समझ लेना
कि क्या घट
रहा है। और
यदि झटकों
द्वारा तुम
थोड़े शांत हो
जाते हो और
तुम थोड़ी सी
झलक
प्रसन्नता की
पा लेते हो—तो
वह शाश्वत
नहीं हो सकती
है। वह केवल
क्षणिक ही हो
सकती है। और
जल्दी ही
ऊर्जा खो
जाएगी और फिर
तुम हताश हो
जाओगे। नहीं, कुछ और
तलाशना है और
खोजना है—कुछ
शाश्वत, कुछ
सनातन, जिससे
कि तुम हमेशा
आनंदपूर्ण
रहो। वैसा
झटकों से नहीं
हो सकता है; वह केवल
ऊर्जा के
रूपांतरण
द्वारा ही हो
सकता है।
जब वही
ऊर्जा ऊपर की
ओर गतिमान
होती है तो
तुम ऊर्जा के
एक बांध बन
जाते हो। वह
है ब्रह्मचर्य।
तुम ऊर्जा
संचित करते
हो। जितनी
अधिक ऊर्जा
तुम संचित
करते हो, उतनी वह
ऊंची उठती
है—बांध की
भांति ही।
होगी वर्षा, और पानी का
तल और— और ऊंचा
होता जाएगा।
लेकिन यदि
कहीं छिद्र है,
तो पानी का
तल ऊंचा नहीं
उठ पाएगा।
कामवासना छिद्र
है तुम्हारे
अस्तित्व
में। यदि
छिद्र नहीं है,
तो ऊर्जा का
तल और ऊंचा, और—और ऊंचा
उठता चला जाता
है, और एक
घड़ी आती है—तब
वह गुजरता है
बहुत से केंद्रों
से। पहले वह
आता है हारा
तक, मूलाधार
से उठ कर वह
आता है दूसरे
केंद्र तक। उस
केंद्र पर
तुम्हें
अमरता की
अनुभूति होती है;
तुम सजग हो
जाते हो कि
कुछ है जो कभी
मरता नहीं है।
भय तिरोहित हो
जाता है।
क्या
तुमने ध्यान
दिया कि जब भी
तुम भयभीत
होते हो, तो कोई चीज
ठीक तुम्हारी
नाभि पर चोट
करती है? वही
है मृत्यु का
और अमरत्व का
केंद्र। जब
ऊर्जा गुजरती
है उस केंद्र
से, आ जाती
है उस तल तक, तब तुम
अमरत्व अनुभव
करते हो। यदि
कोई तुम्हें
मार भी डाले, तो तुम
जानते हो कि
तुम्हें नहीं
मारा जा रहा
है. 'न
हन्यते
हन्यमाने
शरीरे—शरीर को
मारने से आत्मा
नहीं मरती।’
फिर
ऊर्जा और ऊपर
उठती है—तीसरे
केंद्र पर पहुंचती
है। तीसरे
केंद्र पर तुम
बहुत शांत
होने लगते हो।
क्या तुमने
कभी ध्यान
दिया कि जब भी तुम
शांत होते हो, तो तुम
पेट द्वारा
श्वास लेने
लगते हो—न कि
छाती द्वारा?
क्योंकि
शांति का
केंद्र ठीक
नाभि के ऊपर
है। नाभि के
नीचे मृत्यु
का
और
अमरत्व का
केंद्र है; नाभि के
ऊपर शांति का
और तनावों का
केंद्र है।
यदि कोई ऊर्जा
नहीं होती, तो तुम तनाव
अनुभव करोगे;
यदि कोई
ऊर्जा नहीं
होती तो तुम
भय अनुभव
करोगे। यदि
वहां ऊर्जा
होती है, तो
तनाव तिरोहित
हो जाता है; तुम बहुत
विश्रामपूर्ण,
निस्तरंग, शांत, मौन,
प्रकृतस्थ
अनुभव करते
हो।
फिर
ऊर्जा उठती है
चौथे केंद्र
तक, हृदय—केंद्र
तक। वहां
प्रेम उदित
होता है। ठीक
अभी तो तुम
प्रेम नहीं कर
सकतेग और जिसे
तुम प्रेम
कहते हो, वह
सिवाय
कामवासना के
और कुछ नहीं
है। प्रेम' केवल सुंदर
आवरण है। यह
शब्द
तुम्हारे
अनुरूप नहीं
है—हो नहीं
सकता है।
प्रेम केवल तब
संभव होता है
जब ऊर्जा हृदय
के चौथे
केंद्र तक पहुंच
जाती है।
अचानक ही तुम
प्रेममय होते
हो—संपूर्ण
अस्तित्व के
प्रेम में
होते हो, प्रत्येक
चीज के प्रेम
में होते हो, तुम प्रेम
ही होते हो।
फिर
ऊर्जा आती है
पांचवें
केंद्र तक, गले में
आती है। वह
केंद्र है मौन
का केंद्र—मौन,
सोच—विचार,
वाणी। वाणी
और मौन—दोनों
हैं वहां। अभी
तो तुम्हारा
गला केवल
बोलने का ही
काम करता है।
वह नहीं जानता
कि मौन कैसे
रहना होता है,
कैसे उतरना
होता है मौन
में। जब ऊर्जा
वहा पहुंचती
है, तो
अचानक तुम मौन
हो जाते हो।
ऐसा नहीं है
कि तुम कोई
प्रयास करते
हो, ऐसा
नहीं है कि
तुम अपने साथ
जबरदस्ती
करते हो मौन
होने के
लिए—तुम स्वयं
को मौन, मौन
से भरा हुआ
पाते हो। यदि
तुम्हें
बोलना भी हो, तो तुम्हें
प्रयास करना
पड़ता है। और
तुम्हारी
आवाज मधुर हो
जाती है। जो
कुछ भी तुम
कहते हो, वह
काव्य हो जाता
है—तुम्हारे
शब्दों में एक
जीवंतता होती
है। और
तुम्हारे
शब्द मौन
संजोए होते
हैं अपने
आस—पास।
वस्तुत:
तुम्हारा मौन
तुम्हारे
शब्दों की
अपेक्षा अधिक
मुखर हो जाता
है।
फिर
ऊर्जा उठती है
छठवें केंद्र
तक, तीसरी
आंख तक। वहां
तुम अनुभव
करते
हो—प्रकाश, सजगता, चेतना।
वही है जगह
जहां नींद
घटित होती है,
सम्मोहन
घटित होता है।
क्या तुमने
किसी सम्मोहन
करने वाले को
ध्यान से देखा
है? वह
तुम्हें एक बिंदु
पर टकटकी लगा
कर देखने को
कहता है। जब
तुम अपनी
दोनों आंखों
को एक बिंदु
पर स्थिर कर
देते हो, तो
तुम्हारी
तीसरी आंख सो
जाती है। वह
एक तरकीब है
तीसरी आंख को
सुला देने की।
जब
ऊर्जा तीसरी आंख
तक पहुंचती है, तुम बहुत
प्रकाश से भरा
हुआ अनुभव
करते हो, सारा
अंधकार
तिरोहित हो
जाता है, असीम
प्रकाश घिर
जाता है
तुम्हारे
चारों ओर। वस्तुत:
तब तुम में
कोई छाया नहीं
बचती। तिब्बत
में एक बहुत
पुरानी कहावत
है. 'जब
योगी बोध को
उपलब्ध होता
है तो उसके
शरीर की छाया
नहीं पड़ती।’ इसे अक्षरश:
मत मान
लेना—शरीर तो
छाया बनाएगा ही।
लेकिन भीतर
क्योंकि बहुत
प्रकाश है हर
जगह—बिना
स्रोत का
प्रकाश है..। यदि
प्रकाश किसी
स्रोत से आता
है तो छाया
बनेगी ही; बिना
स्रोत का
प्रकाश है. तो
कहीं कोई छाया
नहीं बन सकती।
और अब
जीवन का एक
अलग ही अर्थ
और आयाम होता
है। तुम चलते
हो धरती पर, लेकिन
तुम अब धरती
के नहीं हो, जैसे कि तुम
उड़ रहे होते
हो। तुम आ गए
बुद्धत्व के
निकटतम। अब
बहुत निकट है
बगीचा; आने
लगी सुगंध। इस
जगह, पहली
बार, तुम
सक्षम होते हो
बुद्ध को
समझने में।
इससे पहले
धीरे— धीरे
थोड़ी— थोड़ी
समझ आशिक—रूप
से घटित होती
है तुम्हें, लेकिन पूरी
समझ घटित नहीं
होती। लेकिन
इस जगह तुम
करीब होते हो,
एकदम करीब
होते हो द्वार
के। मंदिर आ
गया; एक
दस्तक—और
द्वार खुल
जाएगा और तुम
बुद्ध हो जाओगे।
अब, इतने
करीब और इतने
निकट तुम पहली
बार अनुभव करते
हो कि समझ
क्या है!
और फिर
ऊर्जा उठती है
सातवें
केंद्र तक, सहस्रार
तक। वहा वह बन
जाती है
ब्रह्मचर्य, दिव्य जीवन।
फिर तुम
मनुष्य न रहे।
फिर तुम ईश्वर
हो जाते हो।
तुमने
भगवत्ता, दिव्यता
उपलब्ध कर ली
होती है। यह
है ब्रह्मचर्य।
और फिर
है अपरिग्रह।
और केवल
ब्रह्मचर्य
के बाद ही, जब तुम
परम तृप्ति को
उपलब्ध हो
जाते हो, तुम
मालिक होते हो
संसार के—बिना
किसी मालकियत
के। लेकिन धीरे—
धीरे तुम्हें
स्वयं को
तैयार करना
होता है
अपरिग्रह के
लिए। किसी पर
मालकियत मत
करो, क्योंकि
जब भी तुम
मालकियत करते
हो, तो तुम
इतना ही
दिखाते हो कि
तुम भिखारी
हो। जब भी तुम
मालकियत
जमाने की
कोशिश करते हो,
तो तुम इतना
ही दिखाते हो
कि तुम उसके
मालिक नहीं हो;
अन्यथा
किसी प्रयास
की जरूरत ही
नहीं है। तुम मालिक
हो। उसके लिए
कुछ करने की
आवश्यकता नहीं
है।
उदाहरण
के लिए. तुम
किसी व्यक्ति
से प्रेम करते
हो। यदि तुम
उस व्यक्ति पर
मालकियत
जमाने की
कोशिश करते हो, तो तुम
प्रेम नहीं
करते। और तुम
उसके प्रेम के
संबंध में भी
सुनिश्चित
नहीं हो, इसीलिए
तुम सुरक्षा
के सारे उपाय
करते हो; हर
तरकीब से, चालाकी
से, होशियारी
से उसे घेरते
हो, ताकि
वह तुम्हें
छोड़ न सके।
लेकिन तुम
प्रेम की
हत्या कर रहे
हो। प्रेम
स्वतंत्रता
है; प्रेम
स्वतंत्रता देता
है; प्रेम
स्वतंत्रता
में जीता
है—प्रेम
मौलिक रूप में
स्वतंत्रता
है। तुम नष्ट
कर दोगे सारी बात।
यदि तुम सचमुच
ही प्रेम करते
हो तो मालकियत
जमाने की कोई
जरूरत नहीं, तुम इतने
गहरे में
मालिक हो कि
कुछ और की
जरूरत क्या है?
तुम
दावेदार मत
बनो; दावा
बहुत संकुचित
मालूम पड़ेगा।
जब तुम सच में
मालिक होते हो,
तो तुम
अपरिग्रही हो
जाते हो।
लेकिन
व्यक्ति को
स्वयं को
तैयार करना
पड़ता है। तो
होशपूर्ण
रहो। किसी चीज
पर मालकियत
जमाने की
कोशिश मत करो।
ज्यादा से
ज्यादा उपयोग
कर लो, और
अनुगृहीत होओ
कि तुम्हें
उपयोग करने
दिया गया, लेकिन
मालकियत मत
बनाओ।
परिग्रह
कृपणता है; और कृपण
व्यक्ति का
फूल नहीं खिल
सकता। कृपण व्यक्ति
सदा ही एक
प्रकार की
आध्यात्मिक
कब्जियत का
शिकार होता है,
रुग्ण होता
है। तुम्हें
खुला होना
चाहिए, बांटना
चाहिए। जो कुछ
तुम्हारे पास
है, बाँटो
उसे; और वह
बढ़ेगा—जितना
बांटो उतना वह
बढ़ता है। देते
जाओ, और
तुम निरंतर
फिर— फिर भर
दिए जाते हो।
स्रोत शाश्वत
है; कृपण
मत बनो। और जो
कुछ भी
है—प्रेम, समझ—जों
कुछ भी है, बांटो।
अपरिग्रह का
अर्थ होता है
बांटना।
लेकिन
तुम नासमझ हो
सकते हो, जैसे कि
बहुत लोग हैं।
वे सोचते हैं,
'घर छोड़ दो, जंगल चले
जाओ, क्योंकि
तुम उस घर में
कैसे रह सकते
हो यदि तुम्हारी
उस पर मालकियत
नहीं है?'
तुम
मजे से रह
सकते हो घर
में; उस
पर मालकियत
जमाने की कोई
जरूरत नहीं
है। तुम जंगल
में रहोगे तो
क्या तुम जंगल
पर मालकियत कर
लोगे? यदि
तुम जंगल में
बिना मालकियत
के रह सकते हो
तो समस्या
क्या है? तो
तुम घर में या
दुकान में
बिना मालकियत
के क्यों नहीं
रह सकते?
मूढ़ हैं जो
कहते हैं, 'अपने
पत्नी—बच्चों
को छोड़ दो, भाग
जाओ, क्योंकि
अपरिग्रह का अभ्यास
करना।’
मूढ़
हैं वे। कहां
जाओगे तुम? तुम कहीं
भी जाओगे तो
जहां भी जाओगे,
तुम्हारा
परिग्रह का
भाव तुम्हारे
साथ रहेगा।
कुछ अंतर नहीं
पड़ेगा। तो
जहां भी तुम
हो, बस
समझो, और
मालकियत को
गिरा दो। कुछ
गलत नहीं है
तुम्हारी
पत्नी में—मत
कहो 'मेरी'
पत्नी। बस 'मेरा' गिरा
दो। कुछ गलत
नहीं है
तुम्हारे
बच्चों में—सुंदर
बच्चे हैं, परमात्मा के
बच्चे हैं।
तुम्हें एक
अवसर मिला है
उनकी सेवा
करने का और
उन्हें प्रेम
करने का—उपयोग
कर लो इसका, लेकिन मत
कहना 'मेरा'। वे आए हैं
तुमसे, लेकिन
वे तुम्हारे
नहीं हैं। वे
भविष्य के हैं,
वे संबंध
रखते हैं
संपूर्ण से।
तुम एक मार्ग,
एक माध्यम
बने, लेकिन
तुम मालिक नहीं
हो।
. तो
क्या जरूरत है
कहीं भागने की?
जहां भी तुम
हों—वहीं रहो।
वहीं रहो जहां
भी ईश्वर ने
तुम्हें रखा
है और जीओ
अपरिग्रह में,
और अचानक ही
तुम खिलने
लगोगे—ऊर्जाए
बहने लगेंगी;
तुम एक
अवरुद्ध घटना
नहीं रह जाओगे;
तुम एक
प्रवाह बन
जाओगे। और
प्रवाह सुंदर
होता है।
अवरुद्ध होकर
और बंद होकर
जीने का मतलब है—कुरूप
और मृत हो
जाना।
ये
पांच आंतरिक
आत्म— अनुशासन
आधारभूत
आवश्यकताएं
हैं।
.......जाति
स्थान समय या
स्थिति की
सीमाओं से
परे......।
चाहे
तुम आज पैदा
हुए हो या तुम
पांच हजार वर्ष
पहले पैदा हुए
हो, उससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। भारत
में ऐसे
धर्मोपदेशक
हैं जो कहते
हैं, 'इस
कलियुग में
तुम संबुद्ध
नहीं हो सकते!'
और पतंजलि
कहते हैं : '... जाति,
स्थान, समय
या स्थिति की
सीमाओं से
परे...।’ तुम जहां
भी हो संबुद्ध
हो सकते हो।
समय से
कुछ अंतर नहीं
पड़ता।
होशपूर्ण
होने की बात
है। स्थान का
महत्व नहीं
है। चाहे तुम
हिमालय में हो
या बाजार में, उससे कुछ
अंतर नहीं
पड़ता।
परिस्थिति
महत्वपूर्ण
नहीं है—चाहे
तुम गृहस्थ हो
या संन्यासी हो।
न जाति—वर्ग
का महत्व
है—चाहे तुम
समृद्ध हो या
दरिद्र, शिक्षित
हो या
अशिक्षित, ब्राह्मण
हो या शूद्र, हिंदू हो या
मुसलमान, ईसाई
हो या
यहूदी—कोई बात
महत्वपूर्ण
नहीं है, क्योंकि
गहरे में तुम
एक हो।
सतह पर
बहुत सी
भिन्नताएं हो
सकती हैं, लेकिन वे
केवल सतह पर
ही होती हैं; केंद्र
अछूता ही रहता
है। केंद्र की
शुद्धता को पा
लेना है। वही
लक्ष्य है।
आज
इतना ही।
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