प्रश्न—सार:
1—आपके शिष्य अचानक
संबोधि को
उपलब्ध होंगे, या चरण दर
चरण विकास के
द्वारा
संबुद्ध होंगे?
2—क्या अज्ञान
के कारण किए
कर्मों के लिए
भी व्यक्ति उत्तरदायी
होता है?
3—रामकृष्ण
ने भोजन का
उपयोग शरीर
में रहने के
लिए खूंटी की
भांति किया।
आप शरीर में
बने रहने के
लिए किस खूंटी
का उपयोग करते
हैं?
4—आपने कहा कि
काम—वृत्ति
पर एकाग्रता
ले आने से व्यक्ति
संबुद्ध हो
सकता है।
लेकिन क्या
काम—वृति पर
एकाग्रता ले
आने से व्यक्ति
का अहंकार नहीं
बढ़ता?
5—कृपा
करके संयम और
संबोधि के भेद
को हमें समझाएं।
6—एक
शराबी की
दूसरे से
गुफ्तगू: आपकी
शराब सबसे
मधुर और मीठी है।
7—क्या
कभी आप झूठ
बोलते है?
पहला
प्रश्न:
भगवान
आपके शिष्य
अचानक संबोधि
को उपलब्ध होगे
या धीरे— धीरे
चरण दर चरण
विकास के
द्वारा
सबुद्ध होंगे?
आपका
मार्ग— विहीन
मार्ग
प्रत्येक
व्यक्ति के
लिए है या केवल
कुछ थोड़े से भ
लोगों के लिए
ही है?
पहली बात जो
समझ लेने जैसी
है वह यह है कि
यह शब्द 'उपलब्धि' आध्यात्मिक
नहीं है। यह
तुम्हारे
लालच का ही एक
हिस्सा है।
उपलब्ध होने
का विचार ही
सांसारिक है।
फिर तुम चाहे
सम्मान पाना
चाहो या धन या
पद या परमात्मा
या निर्वाण, उससे कुछ
अंतर नहीं
पड़ता। उपलब्ध
होने की आकांक्षा
ही सांसारिक
है, वह
पदार्थ के जगत
का ही अंग है।
आध्यात्मिक
क्रांति केवल
तभी संभव है
जब हम उपलब्ध
होने के इस
लालच को भी
गिरा देते हैं, जब कुछ होने
का, कुछ
पाने का विचार
ही छूट जाता
है। हम वही
हैं। हम वहीं
हैं ही, इसलिए
उपलब्ध होने
के लालच में
मत पड़ो। हम
जिसे पाने की
कोशिश कर रहे
हैं, उसके
अतिरिक्त हम
कभी कुछ और थे
ही नहीं।
परमात्मा
तो अभी भी इस
क्षण हमारे
भीतर विद्यमान
है —स्वस्थ और
प्रसन्न है।
क्योंकि
परमात्मा
हमसे या जीवन
से अलग नहीं है।
लेकिन हमारा
अपना लोभ ही
समस्या है; और हमारे
लोभ के कारण
ही इस पृथ्वी
पर शोषण करने
वाले लोग
हमेशा रहे हैं,
जो उपलब्ध
होने का मार्ग
दिखाते हैं।
मेरा
पूरा प्रयास, मेरा
पूरा जोर यहां
इसी बात के
लिए है कि
तुम्हें इस
बात का बोध हो
जाए कि जो
पाना है वह
पहले से ही तुममें
मौजूद है।
किसी उपलब्धि
का तो कोई
प्रश्न ही
नहीं उठता।
भविष्य का कोई
सवाल ही नहीं
है। जैसे ही
हम उपलब्धि की
भाषा में
सोचने लगते हैं,
तो भविष्य
सामने आ जाता
है। और यह भी
एक तरह कि आकांक्षा
ही है। इसका
मतलब है कि हम
वह हो जाना
चाहते हैं जो
कि हम हैं नहीं
— और ऐसा होना
संभव भी नहीं
है। हम वही हो
सकते हैं जो
कि हम पहले से
हैं।
कुछ
होना या हो
जाना, एक
स्वप्न है,
होना ही
सत्य है।
लेकिन हमारे
इस लोभ के
कारण ही कुछ
लोग हमें बताते
हैं कि उपलब्ध
कैसे होना है —और
हम स्वीकार कर
लेते हैं। हम
स्वीकार
इसलिए
नहीं करते कि
वे जो कह रहे
हैं वह सत्य है, बल्कि
इसलिए
स्वीकार करते
हैं, क्योंकि
वे हमारे लोभ
को, लालच
को बढ़ावा दे
रहे होते हैं।
अगर
तुम यह सीखना
चाहते हो, जानना
चाहते हो तो
मेरे निकट आओ
अपने लोभ को जाने
दो। लोभ को बिदा
होने दो। अभी
इसी क्षण लोभ
को जाने दो।
इसे स्थगित
नहीं करना है।
ऐसा मत सोचो
कि 'ही, हम
भविष्य में एक
न एक दिन लोभ
को गिरा देंगे।’
नहीं, लोभ
को समझने की
कोशिश करो। और
लोभ के पीछे
छिपी हुई पीड़ा
क्या होती है,
इसके पीछे
चला आने वाला
नर्क कैसा
होता है, इसे
जानने —समझने
की कोशिश करो।
अगर
तुम यह देख
लेते हो और
जान लेते हो
कि लोभ से
नर्क और पीड़ा
ही मिलती है, तो फिर
क्यों कल? फिर
इसी
अंतर्दृष्टि
और समझ के साथ
ही लोभ मिट
जाता है। सच
तो यह है, तुम
ही लोभ को
नहीं छोड़ना
चाहते हो, वरना
वह तो स्वयं
ही गिर जाता
है।
और जब
उपलब्धि का
विचार ही
मूढ़तापूर्ण
है, तो
फिर यह पूछने
में भी क्या
सार है कि
संबोधि अचानक
मिलेगी या
धीरे — धीरे
क्रमिक रूप से
मिलेगी? फिर
यह सभी बातें
अप्रासंगिक
हो जाती हैं।
तुम
वही हो —इसे
अपना सतत
स्मरण बनने दो।
क्षण भर के
लिए भी यह मत
भूलो कि तुम
परमात्मा हो, तुम परम
शक्ति हो।
स्त्री —पुरुष
की भाषा में
सोचना छोड़ो!
ऐसी व्यर्थ की
बातों को भूल
जाओ। स्मरण
रहे कि तुम
परमात्मा हो,
परम शक्ति
हो। इससे कम
पर कभी राजी
मत होना।
तो
मुझे
तुम्हारी गलत
धारणाओं को
मिटा डालना है।
वै गलत
धारणाएं तुम
में जरूरत से
ज्यादा भर दी
गयी हैं —आध्यात्मिकता
के नाम पर
सदियों —सदियों
से उन्हें
बेचा जाता रहा
है।
मैं
तुमसे एक कथा
कहना चाहूंगा
एक
कैथोलिक
युवती और एक
यहूदी युवक एक
दूसरे के
प्रेम में पड़
गए। लेकिन उन
दोनों के धर्म
और उनके कायदे
—कानून और
विश्वास अलग—
अलग थे।
आयरिश
कैथोलिक मां
ने अपनी बेटी
को सलाह दी कि
वह 'उस
युवक को अपने
धर्म से
परिचित करवाए।
उसे बताए कि
कैथोलिक होने
का क्या मजा
है और कैसा
आनंद है। उस
युवती की मां
ने कहा कि
सबसे पहले तो
उस युवक को
कैथोलिक बनाओ।’
युवती
ने अपनी मां
की सलाह के
अनुसार ऐसा
किया भी। वह
उस युवक को
अपना धर्म
सिखाती रही और
इसी बीच विवाह
की तिथि भी तय
हो गयी। विवाह
से एक दिन
पहले वह युवती
अपने घर आकर
जोर —जोर से
रोने लगी और
अपनी मा से
बोली, 'हमारा
विवाह टूट गया।’
मां ने
पूछा, 'क्यों?
क्या तुमने
उस युवक के
दिमाग में
अपने धर्म के
विचार ठूंस —ठूंसकर
नहीं भरे थे?'
इस पर
वह युवती अपनी
मां से बोली, 'मुझे ऐसा
लगता है कि
मैंने थोड़ा
जरूरत से ज्यादा
उसे अपने धर्म
की शिक्षा दे
दी। अब तो वह
युवक पादरी
होना चाहता है।’
आध्यात्मिकता
के सौदागर
सदियों —सदियों
से उपलब्ध होने
की धारणा
तुमको बेचते
चले आ रहे हैं।
धर्म के नाम
पर उन्होंने
तुम्हारा
शोषण किया है।
इसे ठीक से
समझ लेना। हम
वही हो सकते
हैं, जो
हम हैं, इसके
अतिरिक्त और
कुछ भी होने
की हमारी
संभावना नहीं
है। यह एक
शाश्वत सत्य
है, और यह
प्रत्येक
व्यक्ति को
अस्तित्व का
दिया हुआ उपहार
है। तो
आध्यात्मिकता
किसी प्रकार
की उपलब्धि नहीं
है, बल्कि
वह तो एक बोध
है, एक
स्मृति है। हम
उसे भूल गए
हैं, हमें
उसका विस्मरण
हो गया है —बस
इतनी सी बात
है। तुम भी
परमात्मा को
भूल गए हो, बस
इतनी सी बात
है। लेकिन
परमात्मा
हमेशा हमारे
भीतर
विद्यमान है।
और इसी
प्रश्न में
पूछा है कि 'आपका
मार्ग —विहीन
मार्ग
प्रत्येक
व्यक्ति के
लिए है या कुछ
थोड़े से
दुर्लभ लोगों
के लिए है?'
केवल
दुर्लभ लोगों
के लिए! लेकिन
प्रत्येक व्यक्ति
स्वयं में
बेजोड़ है, दुर्लभ
ही है, अनूठा
है। क्योंकि
मैंने आज तक
एक भी ऐसा
आदमी नहीं देखा
जो अनूठा न हो,
बेजोड़ न हो।
मुझे कभी भी
साधारण पुरुष
या साधारण
स्त्री नहीं
मिली। मैंने
बहुत खोजने की
कोशिश की, बहुत
लोगों को देखा,
क्योंकि
मेरे पास बहुत
लोग आते हैं, मुझे तो
हमेशा बेजोड़
और अनूठे लोग
ही मिले हैं, एकदम अनूठे
लोग ही मिले
हैं।
परमात्मा
कभी भी एक
जैसे दो
व्यक्ति नहीं
बनाता, वह दोहराता
नहीं है, रिपीट
नहीं करता।
उसका सृजन
मौलिक है —वह
कार्बन —कॉपी
नहीं बनाता है।
वह कभी भी एक
जैसे दूसरे
व्यक्ति की
रचना नहीं
करता।
परमात्मा का
सामान्य या
साधारण आदमी
बनाने में तो
भरोसा ही नहीं
है। वह तो
केवल असाधारण
और बेजोड़
लोगों का ही
सृजन करता है।
थोड़ा
इसे समझने की
कोशिश करना।
क्योंकि समाज
हमारे ऊपर
निरंतर यह
धारणा आरोपित
करता रहता है
कि तुम तो एक
सामान्य से
व्यक्ति हो।
इसी कारण कुछ
थोड़े से लोग
स्वयं को
असामान्य सिद्ध
करने की कोशिश
में लगे रहते हैं।
और इसे वे
केवल तभी
सिद्ध कर सकते
हैं जब वे दूसरे
लोगों को
सामान्य
सिद्ध कर दें।
अब जैसे
राजनीतिज्ञ
हैं —वे कभी
मान ही नहीं
सकते कि
प्रत्येक
व्यक्ति अनूठा
और बेजोड़ होता
है। अगर सभी
लोग बेजोड़ हैं, तो फिर वे
प्रधानमंत्री
या
राष्ट्रपति
के रूप में
क्या कर रहे
हैं? तब तो
वे मूर्ख ही —मालूम
होंगे। लेकिन
वे अनूठे लोग
हैं, चुने
हुए लोग हैं, बाकी तो सभी
सामान्य और
साधारण हैं, भीड़ — भाड़ है।
उनका अहंकार
स्वयं को
असाधारण
सिद्ध करने के
साथ ही एक और
बात सिद्ध कर
देता है कि
बाकी लोग साधारण
हैं।
और वे
यह भी कहते
हैं कि तुमको
अपनी
असाधारणता
सिद्ध करके
दिखलानी ही
होगी! फिर
धनवान बनो, या
राकफेलर हो
जाओ, या
राजनीति में
पद हासिल कर
लो, निक्सन
बन जाओ या
फोर्ड हो जाओ,
या फिर कम
से कम कोई बड़े
कवि ही हो जाओ,
इजरा पाउंड
या क्यूमिग्ज
बन जाओ, या
बड़े चित्रकार,
पिकासो या
वानगाग बन जाओ,
या कोई बड़े
अभिनेता बन
जाओ —बस कुछ
बनकर दिखला दो,
अपने को
असाधारण
सिद्ध करके
दिखला दो।
जीवन के किसी
भी क्षेत्र
में कुछ तो बन
जाओ, स्वयं
को विशिष्ट तो
सिद्ध करके
दिखला दो। बस,
अपनी
प्रतिभा, अपनी
विशिष्टता, अपनी
योग्यता को
किसी भाति
प्रमाणित
करके दिखला दो।
और फिर जो लोग
स्वयं को किसी
भी ढंग से
असाधारण
सिद्ध करके
नहीं दिखा
पाते हैं, वे
जनसाधारण लोग
हैं, लेकिन
प्रत्येक
व्यक्ति
असाधारण और
विशिष्ट है।
लेकिन
मैं तुमको
कहना चाहूंगा
कि प्रत्येक व्यक्ति
विशिष्ट और
असाधारण रूप
में ही जन्म लेता
है। इसे
प्रमाणित या
सिद्ध करने की
कोई जरूरत
नहीं है। और
जो व्यक्ति
इसे प्रमाणित
या सिद्ध
करना
चाहते हैं, वे केवल
इस बात की खबर
दे रहे होते
हैं कि उन्हें
अपने अनूठेपन
पर भरोसा नहीं
है। थोड़ा इसे
समझने की
कोशिश करो।
केवल हीन —
भावना से
ग्रस्त
व्यक्ति, जिनके
भीतर हीन —
भावना गहरे में
बैठी है, स्वयं
को श्रेष्ठ
सिद्धन्कर३
की चेष्टा करते
हैं। हीन—
भावना
व्यक्ति को
प्रतियोगी
होने में मदद
देती है और
स्वयं को
श्रेष्ठ
प्रमाणित
करने के लिए
प्रेरित करती
है ताकि
व्यक्ति यह
सिद्ध कर सके
कि वह श्रेष्ठ
है। लेकिन
मौलिक —रूप से,
प्रत्येक
व्यक्ति अनूठा
ही पैदा होता
है —और इसे
प्रमाणित
करने की या
सिद्ध करने की
कोई आवश्यकता
भी नहीं है।
अगर
तुम्हें
कविता रचने
में सच में ही
आनंद मिलता है
तो इस सृजन से
आनंदित हो
लेना, लेकिन
इसे अपना
अहंकार मत बना
लेना। अगर
तुम्हें
पेंटिंग
बनाना अच्छा
लगता है तो पेंटिंग
बनाना, लेकिन
इसे अपना
अहंकार मत बना
लेना। तुम
थोड़ा इन
चित्रकारों
को, कवियों
को ध्यान से
देखो, वे
इतने अधिक
अहंकार से भरे
हुए दिखाई
देते हैं कि
लगभग पागल ही
मालूम होते
हैं। इनको
क्या हुआ है? चित्र बनाना,
कविता की
रचना करना
इनके लिए आनंद
नहीं है।
कविता रचने को
या चित्र
बनाने को वे
मंजिल पर पहुंचने
की सीढ़ियों की
भांति उपयोग
करते हैं, ताकि
फिर वे यह
घोषणा कर सकें
कि मैं
असाधारण हूं, अनूठा हूं, और तुम
साधारण ही हो।
इन्हीं
बीमार लोगों
के कारण ही तो
और ये रुग्ण
लोग हैं, इन्हें मनो —चिकित्सा
की आवश्यकता
है। सभी
राजनेताओं को,
सभी सत्ता
के लिए
लालायित
लोगों को और
अहंकार की
यात्रा पर
चलने वाले
लोगों को मनो —चिकित्सा
की आवश्यकता
है। ऐसे लोगों
को पागलखाने
में होना
चाहिए।
क्योंकि उनकी
रूग्ण
प्रतियोगी
प्रवृत्ति और
स्वयं को
विशेष सिद्ध
करने के उनके
विक्षिप्त प्रयास
के कारण, दूसरे
लोगों को लगता
है कि वे तो
कुछ भी नहीं हैं,
वे विशिष्ट
नहीं हैं, वे
तो व्यर्थ हैं
—उन्हें तो बस
ऐसे ही जीना
है और ऐसे ही
मर जाना है।
धारणा
जो कि तुम में
बहुत गहरे धंस
गई है यह बहुत
ही खतरनाक, जहरीली
और विषाक्त है।
इसे स्वयं के
भीतर से उखाड़कर
फेंक दो।
लेकिन
ध्यान रहे, जब मैं
कहता हूं कि
तुम अनूठे हो,
विलक्षण हो,
तो मेरा
अभिप्राय
किसी
तुलनात्मकता
से नहीं है।
मैं यह नहीं
कह रहा कि तुम
किसी दूसरे से
ज्यादा अनूठे
हो। जब मैं
कहता हू कि
तुम अनूठे हो,
बेजोड़ हो, तो मैं ऐसा
निरपेक्ष
अर्थों में कह
रहा हूं —मैं
किसी के संबंध
में, या
तुलना के रूप
में नहीं कह
रहा हूं। मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
तुम दूसरे की
अपेक्षा अधिक
अनूठे हो। तुम
बस अनूठे हो।
जितना कोई
दूसरा
व्यक्ति
अनूठा है, उतने
ही तुम भी
अनूठे हो —तुम
उतने ही अनूठे
और अद्वितीय
हो, जितना
तुम्हारा
पड़ोसी। अनूठा
होना
तुम्हारा
स्वभाव है।
तुमने
पूछा है 'क्या आपका
मार्ग विहीन
मार्ग
प्रत्येक
व्यक्ति के
लिए है या
केवल थोड़े से
दुर्लभ लोगों
के लिए ही है?'
वह
केवल दुर्लभ
लोगों के लिए
ही है, लेकिन
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
आप में दुर्लभ
है।
मैं
तुम से एक कथा
कहना चाहूंगा
एक
बहुत ही खराब
स्वभाव का
राजा था। वह
राजा इस बात
को बर्दाश्त
नहीं कर सकता
था कि कोई
व्यक्ति उससे
अधिक श्रेष्ठ
है
वह
जरूर कोई
शुद्ध
राजनेता रहा
होगा —शुद्धतम
जहर रहा होगा।
........तो
जैसा कि विशेष
अवसरों पर
होता ही था, उसने
राज्य भर के
सभी पंडितो को
आमंत्रित
किया और उनसे
यही उसने पूछा
हम दोनों में
से कौन ज्यादा
महान है, मैं
या परमात्मा
भू:
क्योंकि
जब कोई
व्यक्ति
अहंकार के
मार्ग पर चल
पड़ता है तो
अंततः उसकी
लड़ाई
परमात्मा के
विरुद्ध
प्रारंभ हो
जाती है — और यह
अंतिम लड़ाई
होती है।
अंतिम होना भी
परमात्मा के
विरुद्ध होता
है, क्योंकि
एक न एक दिन यह
समस्या उठने
ही वाली है. कि
श्रेष्ठ कौन
है, परमात्मा
या मैं? फ्रेडरिक
नीत्शे ने कहा
है, मैं
परमात्मा में
भरोसा नहीं
करता, क्योंकि
अगर मैं
परमात्मा पर
भरोसा करने लग
तो मैं हमेशा
परमात्मा से
नीचे रहूंगा—हमेशा
नीचे ही
रहूंगा, तब
तो श्रेष्ठ
होने की कोई
संभावना ही न
रहेगी। इसलिए
नीत्शे कहता
है, 'परमात्मा
की धारणा को
गिरा देना ही
ठीक है।’ नीत्शे
का कहना है, कि दो एक
जैसे श्रेष्ठ
व्यक्तित्व
मैं और
परमात्मा
कैसे
अस्तित्व रख
सकते हैं?' यह
दुष्ट राजा
जरूर
नीत्शेवादी
रहा होगा।
बेचारे
पंडित—पुरोहित
भय के मारे
कांपने लगे —क्योंकि
वे जानते थे
कि अगर वे कह
दें कि परमात्मा
श्रेष्ठ है, तो तुरंत
उनको मृत्यु —दंड
की सजा दे दी
जाएगी, उन्हें
मार दिया जाएगा,
उनकी हत्या
कर दी जाएगी।
चूंकि पंडितो
का धंधा ही
चालाकी का है
तो उन्होंने
राजा से थोड़ा
समय मांगा और
इस तरह से
अपनी पुरानी
आदत के अनुसार
वे अपने — अपने
पदों से चिपके
ही रहे। लेकिन
उन कुछ पंडितो
में से कुछ
ऐसे लोग भी थे
जो परमात्मा
को भी नाराज
नहीं करना चाहते
थे, इसलिए
कुछ पंडित
बहुत दुखी भी
थे। जब उन
पंडितो में जो
सबसे वृद्ध
पंडित था, उसने
उन्हें
विश्वास
दिलाया कि 'इसे मुझ पर
छोड़ दो, कल
मैं राजा से
बात करूंगा।’
दूसरे
दिन जब
राजदरबार लगा, तो वह
वृद्ध पंडित
अपने दोनों
हाथ जोड़कर, माथे पर
सफेद भभूत
लगाकर शांत
मुद्रा में
दरबार में
पहुंचा। वह
अपना सिर
झुकाकर जोर —जोर
से इन शब्दों
का उच्चारण
करने लगा 'ओ
सर्वशक्तिमान,
निस्संदेह
आप ही महान हो '
—राजा ने
अपनी लंबी
मूंछें शान से
मरोड़ी — 'आप
ही महान
सम्राट हो, आप हमें
राज्य के बाहर
निकाल सकते
हैं, लेकिन
परमात्मा
हमें अपने
राज्य के बाहर
नहीं निकाल
सकता।
क्योंकि उसका
राज्य तो सब
जगह है इसलिए
उसके राज्य से
बाहर जाने को
कहीं कोई जगह
ही नहीं है।’
परमात्मा
से अलग होने
का, उसके
राज्य से बाहर
जाने की कहीं
कोई जगह ही नहीं
है। यही
व्यक्ति की
अद्वितीयता
है, उसका
अनूठापन है —और
यही सभी की
अद्वितीयता
और अनूठापन है।
परमात्मा के
अतिरिक्त और
कुछ होने का
कोई उपाय ही
नहीं है। यही
व्यक्ति की
अद्वितीयता
और उसका
अनूठापन है, और यही सभी
का अनूठापन है।
स्वयं
का सम्मान करो
और दूसरों का
भी सम्मान करो।
जिस क्षण हम
स्वयं को
श्रेष्ठ
सिद्ध करने में
लग जाते हैं, हम स्वयं
का ही अपमान
करने लगते हैं,
क्योंकि
स्वयं को
श्रेष्ठ
सिद्ध करने का
प्रयास ही यह
दर्शाता है कि
हम यह मानते
हैं कि हम अद्वितीय
और अनूठे नहीं
हैं —इसीलिए
इसे सिद्ध
करने का
प्रयास करते
हैं — और इस तरह
से हम दूसरों
का भी असम्मान
करते हैं।
अपना
सम्मान करो, दूसरों
का भी सम्मान
करो, क्योंकि
कहीं गहरे में
हम एक —दूसरे
से अलग नहीं
हैं। हम एक —दूसरे
के साथ जुड़े
हुए हैं, हम
एक हैं। हम एक—दूसरे
के सहयोगी हैं।
हम छोटे —छोटे
द्वीपों की
तरह नहीं है, हम परमात्मा
के विशाल
महाद्वीप हैं।
दूसरा
प्रश्न:
पतंजलि
कहते हैं कि
व्यक्ति
अज्ञान के
कारण अज्ञान
एकत्रित करता
चला जाता है
कर्मों को संचित
करता चला जाता
है। और हम आप
से सुनते आए
हैं कि जब तक
व्यक्ति एक सुनिश्चित
क्रिस्टलाइजेशन
को नहीं
उपलब्ध हो
जाता है तब तक
वह अपने
कर्मों के लिए
उत्तरदायी
नहीं होता है—
इसके विपरीत
कर्ता तो
परमात्मा
होता है वही उत्तरदायी
भी होता है।
कृपया
क्या आप इन
विरोधाभासी
जैसी दिखने
वाली बातों को
स्पष्ट
करेंगे?
ये बातें
तुम्हें
विरोधाभासी
मालूम होती
हैं। इन
विरोधाभासी
जैसी दिखने
वाली बातों को
स्पष्ट करने
की जगह मैं
तुम्हें
स्पष्ट करना
चाहूंगा। मैं
तुम्हें पूरी
तरह से .साफ
करना चाहूंगा
कि तुम वहा
बचो ही नहीं।
तब तुमको कहीं
कोई
विरोधाभास
दिखायी नहीं
पड़ेगा।
विरोधी
बातें हमें
बुद्धि के
द्वारा ही
दिखायी पड़ती
हैं। जब
बुद्धि बीच
में नहीं आती
और दृष्टि साफ
—स्वच्छ, शुद्ध होती
है—जब चेतना
में विचार की
कोई तरंग नहीं
उठती, हम
संयम की
अवस्था में
होते हैं, पूर्णरूप
से खाली होते
हैं—तब हमको
कभी कहीं कोई
विरोधाभास
दिखाई नहीं पड़ेगा।
तब सभी विरोधी
बातें एक—दूसरे
की पूरक मालूम
होंगी। और वे
एक—दूसरे की
पूरक होती भी
हैं। लेकिन
हमारे मन को
प्रशिक्षण
बुद्धिजीवियों
के द्वारा, तार्किक
लोगों के
द्वारा और
अरस्तू जैसे
लोगों के
द्वारा मिला
है। हमको
चीजों को एक—दूसरे
के विपरीत
बांटना
सिखाया गया है—दिन
और रात, जीवन
और मृत्यु, अच्छा और
बुरा, परमात्मा
और शैतान, पुरुष
और स्त्री—अलग
— अलग खानों
में विभक्त
करना सिखाया
गया है।
तो अगर
मैं यह कहूं
कि प्रत्येक
स्त्री के भीतर
पुरुष छिपा है
और प्रत्येक
पुरुष के भीतर
स्त्री छिपी
है, तो
तुम तुरंत कह
उठोगे, 'ठहरो,
यह तो एक —दूसरे
के विरोधी बात
है, यह तो
एक—दूसरे के
विपरीत बात है।
पुरुष कैसे
स्त्री हो
सकता है, और
स्त्री कैसे
पुरुष हो सकती
है? पुरुष
पुरुष है और
स्त्री
स्त्री है—एकदम
सीधी साफ तो
बात है।’
लेकिन
ऐसा नहीं है।
क्यौंकि जीवन
अरस्तुगत
तर्क में
विश्वास नहीं
करता है, या जीवन
अरस्तू के
तर्क से नहीं
चला करता है, जीवन अरस्तू
के तर्क से
कहीं अधिक
विशाल है, कहीं
अधिक विराट है।
पुरुष और
स्त्री एक
दूसरे के पूरक
हैं, विरोधी
नहीं।
क्या
तुमने ताओ का
प्रतीक—यिन और
यांग —देखा है? दो
विपरीतताए एक—दूसरे
में घुल —मिल
रही होती हैं,
एक —दूसरे
में विलीन हो
रही होती हैं
दिन मिल रहा है
रात से, रात
मिल रही है
दिन में, जीवन
मिल रहा है
मृत्यु में, मुत्यु मिल
रही है जीवन
में। और यही
सत्य भी है।
जीवन और
मृत्यु का कोई
अलग — अलग
अस्तित्व
नहीं है, वे
एक —दूसरे से
पृथक नहीं हैं।
उनके बीच कहीं
कोई अंतराल
नहीं है, कोई
गैप या खाली
स्थान नही है।
जीवन ही
मृत्यु बन जाता
है, और
मृत्यु ही फिर
से जीवन बन
जाती है।
कभी
समुद्र के पास
चले जाना और
वहां पर किसी
लहर को उठते
हुए देखना। जब
लहर उठती है
तो एक खाली
गड्डा बन जाता
है, लहर
ऊपर—नीचे चलती
है। तो उस लहर
के ऊपर —नीचे
उठने के बीच
खाली गड्डा
बनता है। तो
वह लहर और
गड्डा अलग —
अलग नहीं हैं।
जब कोई विराट
पर्वत होता है,
तो उसके साथ
—साथ ही उतनी
ही विशाल घाटी
भी होती है।
घाटी और पर्वत
अलग— अलग नहीं हैं।
घाटी और कुछ
नहीं है, केवल
कहीं पर्वत
ऊपर हो गया है
और कहीं नहीं।
और ऐसे ही
पर्वत और कुछ
नहीं है, घाटी
कहीं नीचे रह
गई है, ऊपर
चोटी की ओर
नहीं बढ़ पायी
है।
पुरुष
और स्त्री, या ऐसी ही
दूसरी अन्य
विपरीत बातें
केवल देखने
में ही बस, परस्पर
विपरीत
दिखायी पड़ती
हैं। जब एक
बार तुम इस
सत्य को देख
लोगे, जान
लोगे तो फिर
तुम हमेशा—हमेशा
के लिए यह जान
लोगे कि मुझे
विरोधाभासी ढंग
से बात कहनी
पड़ती है तो
केवल इसीलिए
क्योंकि मुझे
संपूर्ण अस्तित्व
की, समग्र
की बात कहनी
है। और जब मैं
कुछ भी कहता
हूं? तो उस
समय केवल एक
हिस्से की ही
बात कही जाती
है, दूसरा
हिस्सा तो छूट
ही जाता है तो
मुझे उस छूटे
हुए हिस्से की
भी बात तुमसे
कहनी होती है।
जब मैं उस
दूसरे हिस्से
की बात करता हूं, तो तुम कह
उठते हो, 'ठहरें,
आप तो
विरोधाभासी
बातें कर रहे
हैं।’
चूंकि
भाषा तो अभी
भी अरस्तु के
समय की ही चली
आ रही है, और मुझे
नहीं लगता है
कि कभी गैर —
अरस्तुगत
भाषा की भी
कोई संभावना
है। ऐसा होना
बहुत कठिन है,
क्योंकि
हमें अपने
उद्देश्यों
की प्राप्ति के
लिए चीजों को
दो भागों में
बाटना ही पड़ता
है —काले और
सफेद में
स्पष्ट रूप से
बांटना ही पड़ता
है। काला और
सफेद हमें
एकदम अलग — अलग
दिखायी पड़ते
हैं, लेकिन
जीवन तो
इंद्रधनुष की
भांति है —सभी
रंगों का जोड़,
सभी रंगों
से भरपूर।
संभव है किसी
का एक पक्ष
मासेद तो, और
दूसरा पक्ष
काला हो, लेकिन
बीच में और भी
कई सोपान हैं,
जो कि
परस्पर जुड़े
हुए है। जीवन
सभी रंगों का
जोड़ है, जीवन
इंद्रधनुषी
है। अगर हम
बीच के
सोपानों को
सीस देंगे, तो चीजें
हमें परस्पर
विरोधी दिखाई
पड़ने लगेंगी।
यह हमारी
दृष्टि ही है
जो कि अभी तक
स्वच्छ नहीं हुई
है, साफ
नहीं हुई है।
अभी धुंधली ही
है।
मैंने
सुना है कि एक
दिन ऐसा हुआ:
एक
शराबी जन्म —
मृत्यु के
रजिस्ट्रेशन
आफिस में जा
घुसा — 'सज्जनों,'
वह हिचकी
लेते हुए बोला,
'मैं जुड़वां
बच्चों का नाम
रजिस्टर करना
चाहता हूं।’
रजिस्ट्रार
ने पूछा, ' आप सज्जनों
शब्द का उपयोग
क्यों कर रहे
हैं? क्या
आप नहीं देख
रहे हैं कि
मैं यहां
बिलकुल अकेला
हूं?'
नए बने
पिता ने
डगमगाते हुए
हांफते —हांफते
कहा, ' आप
अकेले हो? तब
तो शायद यही
उचित होगा कि
मैं फिर से
अस्पताल जाऊं
और वहां जाकर
ठीक से देखूं।’
शायद
वे जुड़वां न
हों, वहां
एक ही बच्चा
हो। यह हमारी
अपनी ही
मूर्च्छा है,
जो जीवन के
प्रति विकृत
दृष्टि दे
देती है। और
फिर तुमको
हमेशा मेरी बातों
में
विरोधाभास ही
दिखाई पड़ता
रहेगा। ही, मेरी बातों
में
विरोधाभास है,
लेकिन वह
विरोधाभास
केवल ऊपर—ऊपर
से ही है।
गहरे में मेरी
बातें एक
दूसरे से जुड़ी
हुई हैं।
अब हम
विशेष रूप से
विरोधाभास की
बात करें:
'पतंजलि
कहते हैं कि
व्यक्ति
अज्ञान के
कारण अज्ञान
एकत्रित करता
चला जाता है, कर्मों को
संचित करता
चला जाता है।
और हम आप से
सुनते आए हैं
कि जब तक
व्यक्ति एक
सुनिश्चित क्रिस्टलाइजेशन
को नहीं
उपलब्ध हो
जाता है, तब
तक वह अपने
कर्मों के लिए
उत्तरदायी
नहीं होता है —इसके
विपरीत, कर्ता
तो परमात्मा
होता है, वही
उत्तरदायी भी
होता है।’
ये
दोनों मार्ग
विरोधाभासी
मालूम होते
हैं। एक तो यह कि
हम सब कुछ ही
परमात्मा पर
छोड़ दें —लेकिन
समग्ररूप से, पूर्णरूप
से। तब हम
किसी बात के
लिए
जिम्मेवार
नहीं होते।
लेकिन स्मरण
रहे, समर्पण
पूरी तरह से
होना चाहिए; समग्र रूप
से समर्पण भाव
होना चाहिए।
तब अगर कुछ
अच्छा भी होता
है, तो
परमात्मा ही
उसे करने वाला
होता है; अगर
कुछ बुरा होता
है, तब तो
निस्संदेह
परमात्मा ने
ही किया होता
है।
तो
टोटैलिटी, समग्रता
का हमेशा
ध्यान रहे। तो
एक दिन वही
समग्रता
तुमको
रूपांतरित कर
देगी। तो
होशियारी मत
दिखाना, चालाकी
मत चलना, क्योंकि
इस बात की
हमेशा
संभावना रहती
है कि जो कुछ
भी हमको अच्छा
नहीं लगता है,
उसके लिए हम
परमात्मा को
उत्तरदायी
ठहरा देते हैं।
जिस बात से भी
हमको अपराध
भाव पकड़ता है,
उसका
उत्तरदायित्व
हम परमात्मा
पर डाल देते हैं।
और जिन बातों
से हमारे
अहंकार की
वृद्धि होती
है, हमारे
अहंकार को
बढ़ावा मिलता
है, तब हम
कहते हैं, यह
मैंने किया है।
हो सकता है
प्रकट रूप से
ऐसा न भी कहें,
लेकिन अपने
अंतर्तम में
हम यही कहते
हैं। अगर कोई
अच्छी कविता
लिखेंगे, तो
हम कहेंगे, मैं हू इस
कविता को
लिखने वाला
कवि। अगर कोई
सुंदर चित्र
बनाएंगे, तो
हम कहेंगे, मैं हूं
चित्रकार, मैंने
इसे बनाया है।
और जब नोबल
पुरस्कार मिल
रहा हो तो हम
यह न कहेंगे
कि यह नोबल
पुरस्कार
परमात्मा को
दे दो। हम
तुरंत कह
उठेंगे, ही,
मैं तो इसकी
प्रतीक्षा ही
कर रहा था—यह
पुरस्कार
मुझे देर से
मिल रहा है, लोगों ने
मुझे पहचानने
में देर कर दी—यह
पुरस्कार
मुझे बहुत देर
से मिल रहा है।
जब
बर्नार्ड शा
को नोबल
पुरस्कार
दिया गया, तो
बर्नार्ड शा
ने उसे लेने
से इनकार कर
दिया।
उन्होंने कहा,
'मैंने बहुत
समय तक
प्रतीक्षा की।
अब यह
पुरस्कार
मेरी
प्रतिष्ठा के
अनुकूल नहीं
है।’ बर्नार्ड
शा बड़े से बड़े
अंहकारियों
में से एक था—अब
यह पुरस्कार
मेरी प्रतिष्ठा
के अनुकूल
नहीं है। जब
मैं युवा था, तब मैं इस
पुरस्कार के
लिए लालायित
था, तब मैं
नोबल
पुरस्कार
मिलने के सपने
देख रहा था।
अब तो मैं
वृद्ध हो चुका
हूं, अब
मुझे इस
पुरस्कार की
आवश्यकता
नहीं है। अब
तो वैसे ही
पूरे संसार
में मेरी
ख्याति हो गयी
है। लोगों से
मुझे इतनी
प्रशंसा, इतना
गौरव मिला है
कि अब मुझे
किसी नोबल
पुरस्कार की
कोई जरूरत
नहीं है। अब
नोबल
पुरस्कार के
मिलने से मुझे
कुछ और अधिक
सम्मान तो मिल
नहीं जाएगा।’
जब
बर्नार्ड शा
ने पुरस्कार
लेने से इनकार
कर दिया, तो उन पर
चारों ओर से
दबाव डाला गया
कि वह
पुरस्कार को
अस्वीकार न
करें, इससे
नोबल प्राइज
कमेटी का बड़ा
अपमान हो जाएगा—तब
कहीं जाकर
बर्नार्ड शा
ने नोबल
प्राइज को स्वीकार
किया। और फिर
जैसे ही
बर्नार्ड शा
को पुरस्कार
मिला, तुरंत
उन्होंने उस
पुरस्कार में
मिली धनराशि
को एक संस्था
को अनुदान में
दे दिया। इससे
पहले कभी भी
किसी ने उस
संस्था का नाम
तक न सुना था '। बर्नार्ड
शा स्वयं ही
उस संस्था के
एकमात्र सदस्य
थे और साथ ही
उस संस्था के
अध्यक्ष भी थे।
और जब
बाद में उनसे
पूछा गया कि
आपने ऐसा क्यों
किया? क्या
बात थी? तो
जानते हो
बर्नार्ड शा
ने क्या कहा।
बर्नार्ड शा
ने कहा, 'जब
किसी को नोबल
पुरस्कर मिल
जाता है, तो
एक बार ही
उसका नाम
समाचार —पत्रों
की सुर्खियों
में आता है।
जब मैंने उसे
अस्वीकार
किया, तो
अगले दिन फिर
से मेरा नाम
सुर्खियों
में था। और जब
मैंने उसे
स्वीकार कर
लिया, तो
दूसरे दिन फिर
से मेरा
नाम
सुर्खियों
में था। फिर
जब पुरस्कार
में मिली
धनराशि मैंने
अनुदान में दे
दी, तो
मेरा नाम फिर
से सुर्खियों
में आ गया।
मैंने वह
धनराशि स्वयं
को ही अनुदान
में दे दी थी, तो फिर से
मेरा नाम
सुर्खियों
में था। मैंने
उसका जितना
उपयोग हो सकता
था, उसका
पूरा उपयोग कर
लिया।’
बर्नार्ड
शा इस अवसर को
चूका नहीं, उसने
उसका पूरी तरह
से रस निचोड़
लिया।
तो
संभावना इसी
बात की है कि
तुम्हारा
अहंकार चुनाव
किए चला जाएगा।
इसे खयाल में
ले लें. जब भी
तुम में अपराध
भाव जागेगा, तो तुम
उसके लिए
परमात्मा को
ही उत्तरदायी
ठहराओगे। और
जब भी कुछ
अच्छा होगा, तो तुम
कहोगे कि 'ही
मैं ही हूं, मैंने ही
किया है यह।’ तो फिर
अच्छा हो या
बुरा, उसे
पूरा का पूरा
परमात्मा के
चरणों में चढ़ा
सको, इसकी
आवश्यकता
होती है।
अब, थोड़ा इस
बात पर ध्यान
दो, क्योंकि
यह अलग मार्ग
है, यह
मार्ग पतंजलि
का, महावीर
का, बुद्ध का
है। पतंजलि
कहते हैं कि
सारा
उत्तरदायित्व
तुम्हारा है—पूरा
उत्तरदायित्व
तुम्हारा ही
है। पतंजलि का
किसी
परमात्मा
इत्यादि में
भरोसा नहीं है।
इस दृष्टि से
पतंजलि
वैज्ञानिक
हैं। वे कहते
हैं, परमात्मा
भी एक विधि है
निर्वाण पाने
की, मोक्ष
पाने की, संबोधि
को उपलब्ध
होने की।
परमात्मा भी
एक मार्ग है —बस
एक मार्ग ही
है, मंजिल
नहीं।
इस
मामले में
पतंजलि बुद्ध
और महावीर की
तरह हैं, जिन्होंने
परमात्मा को
पूरी तरह से
अस्वीकार कर
दिया है।
उन्होंने कहा,
'कोई
परमात्मा
इत्यादि नहीं
है। परमात्मा
की कोई जरूरत
भी नहीं है, केवल आदमी
ही हर बात के
लिए
उत्तरदायी है।’
लेकिन
हर बात के लिए।
केवल अच्छी
बातें ही नहीं, बल्कि
बुरी बातों के
लिए भी मनुष्य
स्वयं ही
उत्तरदायी है।
अब थोड़ा इसे
समझना, क्योंकि
यह दोनों
विरोधाभासी
दिखाई पड़ने वाली
बातें परस्पर
एक दूसरे से
जुड़ जाती हैं।
दोनों की ही
मांग .समग्रता
की है, वही
उन्हें
जोड्ने वाली
अंतर्धारा है।
सच में ही
समग्रता अपना
कार्य करती है
: या तो सभी कुछ
परमात्मा को
समर्पित कर दो,
या फिर पूरा
उत्तरदायित्व
अपने कंधों पर
ले लो, इससे
कुछ अंतर नहीं
पड़ता है।
महत्वपूर्ण
बात जो है वह
यह है कि तुम
टोटल हो या
नहीं।
इसलिए
जो कुछ भी करो, समग्रता
के साथ, टोटैलिटी
के साथ करो और
यही समग्रता
एक दिन तुम्हारी
मुक्ति बन
जाएगी। टोटल
हो जाना, समग्र
हो जाना ही
मुक्त हो जाना
है।
तो ये
दोनों बातें
परस्पर
विरोधी मालूम
होती हैं, लेकिन
विरोधी हैं
नहीं। दोनों
के आधार में
एक ही बात है—टोटैलिटी,
समग्रता।
दो
प्रकार के लोग
होते हैं, इसीलिए
दो प्रकार की
विधियों की
आवश्यकता है।
स्त्री—मन के
लिए समर्पण
करना, झुक
जाना, त्याग
करना बहुत
आसान होता है।
पुरुष—मन के
लिए झुकना, समर्पण करना,
त्याग करना
बहुत कठिन है।
इसलिए पुरुष—मन
को पतंजलि
चाहिए, एक
ऐसा मार्ग
जहां पूरा का
पूरा
उत्तरदायित्व
व्यक्ति का ही
होता है।
स्त्री—मन को
चाहिए
श्रद्धा, समर्पण
का मार्ग
चाहिए—नारद का,
मीरा का, चैतन्य का, जीसस का
मार्ग। सभी
कुछ परमात्मा
का है उसी का
राज्य सब ओर
है, उसकी
मर्जी पूरी हो,
सभी कुछ
उसका है। जीसस
कहते हैं 'मैं
परमात्मा का
बेटा हूं। 'जब जीसस
कहते हैं, 'परमात्मा
पिता है और
मैं उसका बेटा
हूं 'तो
उनका यही मतलब
है, जैसे
कि बेटा और
कुछ नहीं पिता
की चेतना का
ही फैलाव होता
है, उसी
भांति मैं भी
हूं।
स्त्री
—मन को, ग्राहक
मन को, निष्किय
मन को पतंजलि
से कोई विशेष
मदद नहीं मिल
सकती है, उसे
तो प्रेम की
बात, प्रेम
का मार्ग
चाहिए—ऐसा
मार्ग चाहिए
जहां कि स्वयं
को पूरी तरह
मिटाया जा सके,
पूरी तरह से
मिटना हो जाए,
स्वयं को
पूर्णरूप से
समर्पित किया
जा सके।
स्त्री —मन
मिटना चाहता
है, विलीन
हो जाना चाहता
है। लेकिन
पुरुष —मन के
लिए पतंजलि ही
ठीक हैं।
दोनों ही अपनी
— अपनी जगह हैं,
क्योंकि
अतत: दोनों
हैं तो मन ही; और पूरी
मनुष्य जाति
इन दो रूपों
में विभक्त है।
तुमको
विरोधाभास
इसलिए दिखायी
पड़ता है, क्योंकि तुम
पूरे के पूरे
मन को नहीं
समझ सकते।
लेकिन इन
दोनों
मार्गों
द्वारा—चाहे
इनमें से कोई
भी मार्ग चुनो,
चाहे कोई सा
भी मार्ग चुनो,
अंततः तुम
टोटल हो जाओगे,
समग्र हो
जाओगे, और
शनै: —शनै:
समग्र मन खिल
उठेगा।
तीसरा
प्रश्न:
प्यारे
भगवान
रामकृष्ण ने
भोजन का उपयोग
शरीर में रहने
के लिए खूंटी
की भांति किया।
क्या शरीर में
बने रहने के
लिए केवल
करुणा का आकर्षण
ही पर्याप्त
नहीं होता है?
कृपया
व्यक्तिगत
प्रश्न पूछने
के लिए मुझे माफ
करें। क्या आप
बताएंगे कि आप
शरीर में बने
रहने के लिए
किस खूंटी का
उपयोग करते
हैं?
पहली तो बात, करुणा
पर्याप्त
नहीं है।
क्योंकि
करुणा अपने आप
में इतनी
विशुद्ध, इतनी
पवित्र होती
है कि उसके
द्वारा कोई
खूंटी बनाना
संभव नहीं है।
करुणा इतनी
निर्मल, इतनी
पवित्र, इतनी
विशुद्ध होती
है कि पृथ्वी
की गुरुत्वाकर्षण
शक्ति उस पर
कोई काम नहीं
कर सकती है।
इसलिए पृथ्वी
पर बने रहने
के लिए व्यक्ति
को किसी
पदार्थ का ही
सहारा लेना
पड़ेगा। शरीर
को भौतिक
पदार्थ चाहिए
ही, क्योंकि
शरीर पृथ्वी
का ही हिस्सा
है। जब कोई
व्यक्ति मरता
है तो पदार्थ
पृथ्वी में
मिल जाता है —मिट्टी
मिट्टी में
मिल जाती है।
तो शरीर में
बने रहने के
लिए मात्र
करुणा ही पर्याप्त
नहीं होती है।
सच तो
यह है जिस दिन
व्यक्ति में
करुणा का जन्म
होता है, व्यक्ति
शरीर छोड़ने के
लिए तैयार हो
जाता है।
करुणा
व्यक्ति को एक
अलग ही आकर्षण
—शक्ति की ओर
खींचती है—वह
आकर्षण कहीं
असीम से, किसी
ऊंचाई से, ऊपर
से आता है। तो
जब करुणा का
जन्म होता है,
तो व्यक्ति
किसी परम
ऊंचाई की ओर
खिंचने लगता
है। उसके लिए
शरीर में बने
रहना लगभग
असंभव ही हो जाता
है। नहीं, अगर
इस धरती पर
बने रहना है
तो इतनी
परिशुद्धता
काम न देगी।
पृथ्वी से और
शरीर से जुड़े
रहने के लिए
थोड़ी अशुद्धि,
थोड़ी
अपवित्रता
चाहिए ही, कुछ
भौतिक चाहिए ही।
भोजन इसके लिए
एकदम ठीक है।
भोजन पृथ्वी
का ही अंग है, भोजन पदार्थ
का ही रूप है।
तो इस पृथ्वी
के
गुरुत्वाकर्षण
से बंधे रहने के
लिए भोजन
व्यक्ति को
वजन दे सकता
है।
इसीलिए
बुद्धत्व को
उपलब्ध लोगों
ने इस पृथ्वी
पर बने रहने
के लिए अलग—
अलग चीजों का
उपयोग अलग —
अलग' ढंग
से किया है, लेकिन शुद्ध
करुणा का
उपयोग नहीं
किया जा सकता
है। सच तो यह
है, शुद्ध
करुणा तो और—
और
ऊर्ध्वगामी
होने में, और—
और ऊपर उठने
में मदद करती
है। इसलिए मैं
तुमसे एक शब्द
कहना चाहूंगा.
और वह है
प्रसाद।
गुरुत्वाकर्षण
नीचे की ओर
खींचता
है और परमात्मा
का प्रसाद ऊपर
की ओर खींचता
है। जिस क्षण
व्यक्ति
करुणा से
आपूरित होता
है, करुणा
से लबालब भरा
होता है;
तो उस पर
परमात्मा का
प्रसाद काम
करने लगता है
उस पर
परमात्मा का
प्रसाद बरसने
लगता है। तब
व्यक्ति इतना
भार—विहीन हो
जाता है कि
लगभग वह उड़ने
की स्थिति में
आ जाता है, वह
उड़ने लगता है।
नहीं, इसलिए
ऐसा कोई
पेपरवेट
चाहिए जो दबाव
डाल सके और वह
पृथ्वी से
जुड़ा रह सके।
रामकृष्ण
ने ऐसा ही
किया; उनका
पेपरवेट उनका
भोजन था। वे
एकदम भार —विहीन
हो गए थे, पृथ्वी
का
गुरुत्वाकर्षण
उन पर काम
नहीं कर सकता
था. उन्हें
पृथ्वी से
जुड़े रहने के
लिए किसी
खूंटी की
आवश्यकता थी,
ताकि
गुरुत्वाकर्षण
अपना काम करता
रहे।
अब तुम
मुझसे पूछ रहे
हो
मैं
तुम से एक कथा
कहना चाहूंगा
:
चार
धार्मिक
व्यक्ति आपस
में कोई गुप्त
वार्तालाप कर
रहे थे, और उस
वार्तालाप
में वे अपने —
अपने अवगुणों
की चर्चा कर
रहे थे।
रब्बी
ने कहा, 'मुझे पोर्क
पसंद है।’
प्रोटेस्टेंट
धर्म—पुरोहित
ने कहा, 'मैं बार्बन
की एक बोतल एक
दिन में पी
जाता हूं।’
पादरी
ने स्वीकार
किया, 'मेरी
एक गर्ल —फ्रेंड
है।’
फिर वे
सब बेपटिस्ट
धर्म पुरोहित
की ओर आतुरता
से देखने लगे
कि अब वह क्या
बताएगा। उसने
लापरवाही से
कंधे उचका दिए
: 'कौन
मैं? मुझे
गपशप करना
पसंद है।’
यही
मेरा उत्तर भी
है —मुझे गपशप
करना पसंद है।
यही मेरा
पेपरवेट है। यहां
जो प्रवचन चल
रहे हैं, और कुछ नहीं
बस गपशप ही तो
हैं। अगर इससे
तुम्हारे
अहंकार पर चोट
पड़ती है, तो
इन्हें तुम अस्तित्व
की गपशप कह
सकते हो, दिव्य
की, परमात्मा
की गपशप कह
सकते हों—लेकिन
फिर भी ये
प्रवचन गपशप
ही हैं।
चौथा
प्रश्न:
मैं
विनम्रतापूर्वक
एक प्रश्न
करना चाहता हूं
और साथ ही
निष्ठायूर्वक
यह आशा करता
हूं कि कल आप
इसका उत्तर
जरूर देंगे
मैं सिंगापुर
से आया हूं और
जल्दी ही वापस
चला जाऊंगा।
आज
सुबह आपने कहा
कि अहंकार ही
सबसे बड़ी बाधा
है और केवल अहंकार
पर विजय
प्राप्त कर
लेने से या
अहंकार का
अतिक्रमण
करने से ही हम
अपने
वास्तविक
स्वभाव को
उपलब्ध हो
सकते हैं फिर
बाद में आप ने
कहा कि काम—
वृत्ति पर
एकाग्रता ले
आने से
व्यक्ति
सबुद्ध हो
सकता है। क्या
आपको ऐसा नहीं
लगता है कि ये
दोनों कथन परस्पर
विरोधी हैं
क्योंकि अगर
कोई व्यक्ति कामवासना
पर या काम—
वृत्ति पर
एकाग्र होता
है तो वह
कर्ता हो जाता
है और अहंकारी
बन जाता है?
हम तो
सोचते हैं कि
कामगत
इच्छाओं से
मुक्त होकर ही
हमें लक्ष्य
की प्राप्ति
हो सकती है मेरी
विनम्र
प्रार्थना है
कि आप इस विषय
पर प्रकाश
डालेंगे और
मेरे मन की
भ्रांतियों
को मिटाएंगे।
यह प्रश्न
जरूर किसी
भारतीय का
होगा। यह
प्रश्न है : पी.
गंगाराम का।
मैं
चाहूंगा. कि
तुम भी इसे
खयाल में ले
लो कि ऐसा प्रश्न
भारतीय का ही
हो सकता है, क्योंकि
यह प्रश्न
भारतीय मन के
सारे गुणधर्मों
को प्रगट कर
देता है। अब
इस प्रश्न की
एक —एक बात को
देखने का
प्रयास करना।
'मैं
विनम्रतापूर्वक
एक प्रश्न
करना चाहता हूं
और साथ ही
निष्ठापूर्वक
यह आशा करता
हूं कि आप कल
इसका उत्तर जरूर
देंगे..।’
इन सब बातों
की जरा भी
जरूरत नहीं है।
लेकिन भारतीय
मन बहुत
औपचारिक है, भारतीय
मन ईमानदार
नहीं रह गया
है। वह सीधा
और सरल नहीं
है। भारतीय मन
हमेशा स्वयं
को सिद्धांतो
और शब्दों के
पीछे छिपाए
रहता है। वह
लगता जरूर
विनम्र है, लेकिन ऐसा
है नहीं। क्योंकि
विनम्र मन तो
सीधा और सरल
होता है।
तुम्हें अपने
को किन्हीं
औपचारिकताओं
या शिष्टाचार
के पीछे नहीं
छिपाना है—कम
से कम यहां तो
ऐसा करने की
जरा भी
आवश्यकता नहीं
है।
परमात्मा
कोई
औपचारिकता
नहीं है, और जीवन की
समस्याओं को
सुलझाने के
लिए शिष्टाचार
से, किसी
भी ढंग से, किसी
भी तरह की कोई
मदद मिलने
वाली नहीं है।
इससे
तुम्हारी
समस्या और
परेशानी ही
बढ़ेगी।
'आज
सुबह आपने कहा
कि अहंकार ही
सबसे बड़ी बाधा
है, और
केवल अहंकार
पर विजय
प्राप्त कर
लेने से या
अहंकार का
अतिक्रमण
करने से ही हम
अपने वास्तविक
स्वभाव को
उपलब्ध हो सकते
हैं।’
पहली
तो बात, तुमने कुछ
ऐसा सुन लिया
है जो मैंने
कहा ही नहीं
है। यह भी
भारतीय मन की
आदत है।
भारतीय मन के
लिए जो कुछ
कहा जाता है
उसे ही सुन
पाना कठिन
होता है। उसके
मन में पहले
से ही अपने
विचार भरे
होते है, सच
तो यह है ढेर
से 'विचार
भरे रहते हैं।
उसके पास अपना
दर्शन, अपना
धर्म, अपनी
बडी भारी
प्राचीन
परंपरा, और
इसी तरह का
बहुत व्यर्थ
का कूड़ा—कचरा
भरा हुआ है, और फिर वह
सभी को अपने
ही व्यर्थ के
कूडे —कचरे
में मिलाए चला
जाता है।
अब, मैंने तो
तुम से कहा था
कि व्यक्ति
रूपांतरित हो
सकता है, लेकिन
यह तो नहीं
कहा कि विजित
हो सकता है।
अब ये
सज्जन कह रहे
हैं कि ' आपने कहा कि
अहंकार ही
बाधा है, और
केवल उस पर
विजय पाकर ही
या उसका
अतिक्रमण करके
ही।’
वे
पर्यायवाची
नहीं हैं।
किसी भी चीज
पर विजय पाना
दमन करना है 'विजय
प्राप्त कर
लेना।’ किसी
के ऊपर कुछ भी
जबर्दस्ती आरोपित
कर देना हिंसा
है, फिर
चाहे वह हम
स्वयं ही
क्यों न हों।
यह तो फिर
स्वयं के साथ
ही संघर्ष
करना है। और
जब भी संघर्ष
उठ खडा होता
है तो अहंकार
का अतिक्रमण
संभव नहीं है,
क्योंकि
अहंकार तो
संघर्ष के बल
पर ही जिंदा रहता
है। तो विजय
से अहंकार कभी
हारता नहीं है।
जितना अधिक
जीतने का
प्रयास करो, उतना ही
अधिक व्यक्ति
अहंकारी हो
जाता है।
निस्संदेह, अब जो
अहंकार होगा
वह धार्मिक
अहंकार होगा,
पवित्र
होगा। और
ध्यान रहे, जितना
अहंकार
पवित्र बनता
चला जाता है, उतना ही
अधिक वह
सूक्ष्म और
खतरनाक होता
चला जाता है।
तब वह शुद्ध
जहर बन जाता
है।
तो
किसी भी चीज
पर विजय
प्राप्त कर
लेना कोई रूपांतरण
नहीं है। तो
फिर क्या भेद
है?
रूपांतरण
समझ से आता है, और विजय
संघर्ष के
द्वारा
प्राप्त होती
है। व्यक्ति
लड़ता है, झगड़ता
है, दूसरे
को जबर्दस्ती
झुकाने की
कोशिश करता है,
दूसरे की
छाती के ऊपर
चढ़कर बैठ जाता
है, उसके
लिए कुश्ती
लड़ता है, वह
किसी भी तरह
विजय प्राप्त
कर लेना चाहता
है। लेकिन
उसमें अहंकार
तो पहले से ही
मौजूद रहता है,
और इस तरह
से व्यक्ति एक
तरह के जाल
में उलझता चला
जाता है। अब
उसे छोड़ा भी
नहीं जा सकता,
क्योंकि
जिस क्षण तुम
उसे छोड़ोगे, वह फिर तुम
पर सवार हो
जाएगा।
तो जो
अहंकारी
व्यक्ति अपने
अहंकार को
हराने का
प्रयास करता
है, वह
विनम्र हो
जाएगा, लेकिन
अब उसकी
विनम्रता में
भी, अहंकार
होगा। और तुम
विनम्र
व्यक्तियों
से ज्यादा बड़े
अहंकारी नहीं
खोज सकते। वें
कहते हैं, 'हम
तो कुछ भी
नहीं हैं, 'लेकिन जरा
उनकी आंखों
में झांककर
देखना। वे
कहते हैं, 'हम
तो आपके चरणों
की धूल हैं, लेकिन जरा
उनकी आंखों
में झांककर
देखना, जरा
देखना कि वे
क्या कह रहे
हैं।’
मैं
तुमसे एक कथा
कहना चाहूंगा
रोगी
ने शिकायत की, 'डाक्टर,
मेरे सिर
में बहुत
भयंकर दर्द हो
रहा है। आप
इसके लिए कुछ
कर सकते हैं?'
डाक्टर
ने पूछा, 'क्या आप
बहुत ज्यादा
सिगरेट पीते
हैं?'
रोगी
ने उत्तर दिया, 'नहीं।
मैं तो सिगरेट
छूता तक नहीं।
फिर शराब भी
कभी नहीं पीता
हूं और बीस
साल से किसी
स्त्री के साथ
भी नहीं रहा
हूं।’
डाक्टर
ने कहा ' 'ऐसी बात है, तो इसी कारण
तुम्हारा सिर
बहुत ज्यादा
कस गया है।’
जबर्दस्ती
करने से यही
होगा—तुम्हारा
सिर बहुत
ज्यादा कस
जाएगा और
हमेशा सिर में
दर्द रहेगा।
सभी
तथाकथित
धार्मिक
व्यक्तियों
के साथ ऐसा ही
होता है। वे
अत्यधिक जड़, ढोंगी, असहज और
अप्रामाणिक
हो जाते हैं।
अगर उनको
क्रोध भी आता
है, तो ऊपर
से वे
मुस्कुराए
चले जाते हैं।
निस्संदेह, उनकी
मुस्कुराहट
नकली और झूठी
होती है। इस
तरह से वे
अपने क्रोध को
जोर—जबर्दस्ती
से गहरे अचेतन
में धकेल देते
हैं; और
व्यक्ति
जिसका भी दमन
करता है वही
जीवन में
फैलता चला
जाता है, फिर
वही उसकी जीवन—शैली
बन जाती है।
तब फिर ऐसा
होता है कि एक
तथाकथित
धार्मिक आदमी
क्रोधित होने
के अपराध से
तो बच सकता है,
ऊपर से
देखने पर वह
क्रोधित
दिखाई नहीं
देता, लेकिन
फिर क्रोध ही
उसकी जीवन —शैली
बन जाता है।
फिर शायद उसे
क्रोध करते
हुए कभी नहीं
देखा जा सके, लेकिन उसके
व्यवहार से यह
अच्छी तरह
अनुभव किया जा
सकता है कि वह
सदा क्रोध में,
गुस्से में
ही रहता है।
फिर क्रोध
उसकी नस —नस
में और खून
में बहने लगता
है। जो कुछ भी
वह करता है, अहंकार की
एक अंतर्धारा
उसके
प्रत्येक
कृत्य में
दिखाई देती है।
असल में जिस —जिस
चीज पर
व्यक्ति विजय
पाता है, वह
उनसे अधिक ही
जुड़ जाता है।
और अपनी जीत
को सिद्ध करने
के लिए या
उसके बचाव के
लिए वह कुछ न
कुछ करता ही
रहता है। वह
हमेशा उसके
बचाव करने की
कोशिश में ही
लगा रहता है।
नहीं, विजय से,
जीत से
अतिक्रमण
संभव नहीं है।
अतिक्रमण का
तो अपना ही
सौंदर्य है, किसी पर भी
जबर्दस्ती
विजय पाना
कुरूप है। जब
व्यक्ति
अतिक्रमण
करता है, तब
वह अहंकार की
सारी मूढ़ताओं
को समझ लेता
है, उसकी
जड़ता को जान
लेता है। वह
अहंकार के
द्वारा दिखाए
गए झूठे भ्रम —जालों
को और अहंकार
की खोखली
आकांक्षाओं
को समझ लेता
है। और अगर
अहंकार का यह
रूप दिखाई पड़
जाए, तो
फिर अहंकार
अपने से ही
मिट जाता है।
फिर ऐसा नहीं
कि हम अहंकार
को छोड़ते हैं,
क्योंकि
अगर हम अहंकार
को छोड़ेंगे, तो हम दूसरे
ढंग से अहंकार
को जीने
लगेंगे। और यह
भी हमारा
अहंकार ही
होगा कि 'मैंने
अपने अहंकार
को स्वयं मिटा
दिया।’ अहंकार
तो स्वयं की
ही समझ से
बिदा होता है।
और समझ आग के
समान कार्य
करती है, उसमें
अहंकार जलकर
राख हो जाता
है।
और
ध्यान रहे, यह हम
कैसे जानेंगे
कि हमने
अहंकार पर
विजय पायी है
या अहंकार का
अतिक्रमण
किया है। अगर
अहंकार पर
विजय पायी है,
तो व्यक्ति
विनम्र हो
जाता है। और
अगर अहंकार का
अतिक्रमण
किया है तो न
तो व्यक्ति
अहंकारी होगा
और न ही
विनम्र होगा।
क्योंकि तब
पूरी बात ही
बदल जाती है।
अहंकारी
व्यक्ति ही
विनम्र हो
सकता है। जब
अहंकार ही
नहीं बचा, तो
विनम्र कैसे
हो सकते हो? फिर कैसी
विनम्रता? फिर
विनम्र होने
को भी कौन
बचेगा? तब
तो पूरी बात
ही बदल जाती
है।
तो जब
कभी अहंकार पर
जबर्दस्ती
विजय पायी जाती
है, तो
वह विनम्रता
बन जाता है।
जब अहंकार का
अतिक्रमण
होता है, तो
व्यक्ति उस
जाल से मुक्त
हो जाता है —वह
न तो विनम्र
ही होता है और
न ही अहंकारी
रह जाता है।
तब वह सीधा—सरल,
सच्चा और
प्रामाणिक
होता है।
व्यक्ति किसी
भी तरह की अति
पर नहीं जाता,
व्यक्ति
मध्य में ठहर
जाता है।
किसी
भी तरह की अति
अहंकार का ही
हिस्सा है।
पहले हम सोचते
हैं कि 'मैं सब से
अच्छा आदमी
हूं।’ फिर
हम सोचने लगते
हैं कि 'मैं
सब से ज्यादा
विनम्र हूं, मुझसे
ज्यादा विनमा
कोई भी नहीं।’
पहले हम यह
बढ़ा—चढ़ाकर
बताने की
कोशिश करते
हैं कि 'मैं
कुछ हूं मैं
विशिष्ट हूं।’
फिर यह
बताने की
कोशिश करते
हैं कि 'मैं
कुछ भी नहीं
हूं लेकिन यही
कुछ न होना
मेरी
विशिष्टता है।’
पहले तो हम
चाहते हैं कि
संसार हमारी
विशिष्टता को
पहचान कर
प्रशंसा करे।
फिर जब लगता
है कि ऐसा
नहीं हो रहा
है क्योंकि दूसरे
भी इसी
प्रतियोगिता
में सम्मिलित
हैं, और
किसी को किसी
के विशिष्ट
होने से कुछ
लेना—देना
नहीं है।
दूसरे भी
विशिष्ट हैं
और वे अपने —
अपने ढंग से
चल रहे हैं।
और जब ऐसा
लगने लगता है
कि यह
प्रतियोगिता
तो बहुत कठिन
है, और
विशिष्ट होने
से बात बनने
वाली नहीं है,
तब हम दूसरा
रास्ता
अपनाते हैं —ज्यादा
चालाक, ज्यादा
होशियारी से
भरा मार्ग
अपनाते हैं।
हम कहना
प्रारंभ करते
हैं, 'मैं
कुछ भी नहीं हूं, मैं तो ना—कुछ
हूं।’ लेकिन
कहीं गहरे में
हम प्रतीक्षा
करते रहते हैं
कि अब तो लोग
मेरे इस ना—कुछ
होने को
पहचानेंगे और
मुझे
सम्मानित करेंगे।
लोग आएंगे और
कहेंगे, 'आप
बड़े महान संत
हैं। आपने
अपने अहंकार
को पूरी तरह
मिटा दिया है,
आप बहुत
विनम्र हैं।’
और भीतर ही
भीतर हम
मुस्कुराके, अहंकार खूब
फूलेगा और
संतुष्ट होगा
और तब हम कहेंगे,
'अच्छा, तो
सम्मान देने
वाले आ ही गए।’
ध्यान
रहे, किसी
भी चीज पर
विजय प्राप्त
कर लेना उसका
अतिक्रमण
नहीं है।
'आज
सुबह आपने कहा
कि अहंकार ही
सबसे बड़ी बाधा
है, और
केवल अहंकार
पर विजय
प्राप्त कर
लेने से या
अहंकार का
अतिक्रमण
करने से ही हम।’
विजय
और अतिक्रमण
के बीच 'या' शब्द
का उपयोग कभी
मत करना, क्योंकि
वे दोनों अलग—
अलग घटनाएं
हैं, नितांत
भिन्न घटनाएं
हैं।
'……हम
अपने
वास्तविक
स्वभाव को
उपलब्ध हो
सकते हैं।’
'फिर
बाद में आपने
कहा कि काम —वृत्ति
पर एकाग्रता
ले आने से।’
मैंने
ऐसा कभी नहीं
कहा। मैंने
संयम कहा—केवल
'एकाग्रता'
की बात नहीं
की। संयम तो
एकाग्रता, ध्यान,
समाधि, आनंद
का जोड़ है —उसमें
तो सभी कुछ
समाहित है। इस
तरह से तुमको
जो सुनना होता
है, वह तुम
सुन लेते हो।
मुझे एक ही
बात को कई — कई
बार दोहराना
पड़ता है, तो
भी तुम चूकते
ही चले जाते
हो।
अगर
तुम्हें कल का
स्मरण हो, तो मैंने 'संयम' शब्द
को बार —बार
दोहराया था, और मैंने यह
समझाने की
कोशिश की कि
इसका क्या मतलब
होता है। इसका
मतलब केवल
एकाग्रता ही
नहीं होता।
एकाग्रता तो
संयम का पहला
चरण है। दूसरा
चरण ध्यान है।
ध्यान में
एकाग्रता गिर
जाती है। उसे
गिराना ही
होता है, क्योंकि
जब आगे की
सीडी पर कदम
रखना हो तो
पीछे की सीढ़ी
पर रखा कदम
उठाना ही पड़ता
है, अन्यथा
आगे कदम कैसे
बढ़ाओगे? जब
आगे की
सीढ़ियां चढ़नी
हों, तो
पीछे की कई
सीढ़ियां
छोड़नी भी पड़ती
हैं। पहला
सोपान दूसरे
सोपान के आने
तक स्वयं ही
छूट जाता है, एकाग्रता
ध्यान में गिर
जाती है।
धारणा ध्यान
में समा जाती
है। और फिर
आता है तीसरा
चरण. समाधि, आनंद। जब
ध्यान भी छूट
जाता है, तब
व्यक्ति
समाधि को
उपलब्ध हो
जाता है। और
इन तीनों
अवस्थाओं को
ही संयम के
नाम से पुकारा
जाता है।
जब
व्यक्ति काम —वासना
पर संयम ले
आता है, तो
ब्रह्मचर्य
फलित होता है —लेकिन
केवल
एकाग्रता से
ब्रह्मचर्य
फलित नहीं
होता है।
'फिर
बाद में आपने
कहा कि काम—वृत्ति
पर एकाग्रता
ले आने से
व्यक्ति
सबुद्ध हो
सकता है।’
हां, किसी
आवेग पर संयम
ले आने से, व्यक्ति
उससे मुक्त हो
सकता है।
क्योंकि
समाधि की
गहराई से
प्रज्ञा का
आविर्भाव
होता है —और
केवल प्रज्ञा
ही व्यक्ति को
मुक्त कर सकती
है। और
प्रज्ञावान
को जरूरत ही
नहीं होती कि
वह अपना बचाव
करे या उससे
बचकर दूर भागे।
फिर व्यक्ति
उसका सामना कर
सकता है। सभी
तरह की
समस्याएं मिट
जाती हैं, विलीन
हो जाती हैं
प्रज्ञा की
अग्नि में सभी
प्रकार की
समस्याएं
जलकर राख हो
जाती हैं।
हां, तब अगर हम
काम —वृत्ति
पर संयम ले
आएं तो काम—वृत्ति
की इच्छा
तिरोहित हो
जाएगी। और फिर
यह कोई काम—इच्छा
को पराजित
करना नहीं है,
हम उसका
अतिक्रमण कर
लेते हैं, उसके
पार चले जाते
हैं।
'क्या
आपको ऐसा नहीं
लगता है कि यह
दोनों कथन परस्पर
विरोधी हैं...?'
नहीं, मैं ऐसा
नहीं समझता।
तुम एकदम उलझे
हुए आदमी हो, और यह उलझाव
तुम्हारे ही सिद्धांतो
और तुम्हारी
ही विचारधारा
के कारण पैदा
हुआ है। सिद्धांत
हमेशा ही
उलझाने वाले होते
हैं।
तुम
हमेशा अपने सिद्धांतो
और शास्त्रों
की आडू में
सुनने —समझने
की कोशिश करते
हो। और ऐसे एक
भी भारतीय को
खोज पाना बहुत
कठिन है जो
सीधे —सीधे
कुछ सुनने की
कोशिश करे।
उसके भीतर तो
भगवद्गीता, और वेद, और उपनिषद
के श्लोक चल
रहे होते हैं।
भारतीय लोग
तोता—रटंत हो
गए हैं। वे
किसी बात को
बिना समझे ही
दोहराए चले
जाते हैं, क्योंकि
अगर समझ हो तो
फिर किसी तरह
की कोई भगवद्गीता
की जरूरत ही
नहीं रह जाती
है।
अगर
स्वयं की समझ
हो तो व्यक्ति
का अपना ही दिव्य
गीत जन्म लेने
लगता है, वह अपना ही
गीत गाता है।
तब स्वयं की
निजता से ही
कुछ जन्मने
लगता है।
कृष्ण ने अपनी
बात कही, तुम
वैसा ही क्यों
करना चाहते हो?
क्यों
कृष्ण की
अनुकृति बनना
चाहते हो, क्यों
उनका अनुसरण
करते हो? और
इस तरह नकल
करके तुम एक
अनुकृति
मात्र बनकर रह
जाओगे। सभी
भारतीय, लगभग
सभी भारतीय बस
दूसरों का
अनुकरण ही करते
रहते हैं, उनके
चेहरे नकली
हैं, वे
मुखौटे लगाए
हुए हैं। और
भारतीय लोग
यही माने चले
जा रहे हैं कि
उनका देश बड़ा
धार्मिक है।
जब कि ऐसा
नहीं है। भारत
दुनिया के
सबसे होशियार—चालाक
देशों में से
एक है।
'क्या
आपको ऐसा नहीं
लगता कि यह
दोनों कथन
परस्पर
विरोधी हैं, क्योंकि अगर
कोई व्यक्ति
कामवासना पर
या काम —वृत्ति
पर एकाग्र
होता है तो वह
कर्ता हो जाता
है और अहंकारी
बन जाता है?'
यह
तुमसे किसने
कहा कि अगर
तुम कामवासना
पर संयम ले आओ
तो कर्ता हो
जाओगे? संयम का
अर्थ है
साक्षी हो
जाना, विशुद्ध
रूप से साक्षी
हो जाना। जब
तुम साक्षी हो
जाते हो, तो
कर्ता नहीं रह
सकते हो। जब
तुम काम—वृत्ति
को ठीक से देख —समझ
लेते हो तो
फिर तुम कैसे
कर्ता बने रह
सकते हो? जब
तुम काम —वृत्ति
को साक्षी भाव
से देख लेते
हो, तो तुम
उससे अलग हो
जाते हो।
दृश्य
द्रष्टा से
अलग हो जाता
है। तुम यहां
मुझे देख रहे
हो। निश्चित
ही तुम अलग हो
और मैं अलग
हूं। मैं
तुम्हें देख
रहा हूं. तुम
मेरी दृष्टि
के घेरे में
आए विषय हो और
मैं अपनी
दृष्टि का, उस देखने
वाली क्षमता
का साक्षी हूं।
तुम अलग हो, मैं अलग हूं।
ज्ञात
ज्ञाता से
भिन्न होता है, द्रष्टा
दृश्य से
भिन्न होता है।
और जब किसी
आवेग पर संयम
आ जाता है —तो
चाहे वह आवेग
काम का हो, लोभ
का हो, या
अहंकार का हो —हम
उससे कहीं अलग
हो जाते हैं, क्योंकि अब
हम उसे देख
सकते हैं। तब
वह आवेग विषय—वस्तु
की भांति वहा
मौजूद होता है
—और हम भी
मौजूद होते
हैं, लेकिन
हम उसको देखने
वाले द्रष्टा
हो जाते हैं।
तो कैसे हम
कर्ता बन सकते
हैं?
कोई
व्यक्ति जब
साक्षी भाव खो
जाता है तभी
कर्ता बनता है; वह विषय—वस्तु
के साथ
तादात्म्य
स्थापित कर
लेता है। वह
समझता है, यह
काम का आवेग
मुझ से जुड़ा
है, यह मैं
ही हूं। शरीर
में उठ रही
भूख, यह
मेरी है, यह
मैं ही हूं।
अगर हम भूख को
ध्यान से
देखें, तो
वह भूख शरीर
में होती है, शरीर की ही
होती है, हम
उस भूख से
कहीं दूर होते
हैं।
कभी इस
प्रयोग को
करके देखना।
जब तुम्हें
भूख लगे तो बस
बैठ जाना, आंखें
बंद कर लेना
और भूख को
ध्यान से
देखते रहना।
जब भूख के साथ
तुम्हारा
तादात्म्य
स्थापित हो
जाता है, उसी
क्षण
साक्षीभाव खो
जाता है, और
तुम कर्ता बन
जाते हो।
साक्षी
होने की समस्त
कला ही यही है
कि जिस—जिस
चीज को हम
पकड़े हुए हैं
उनसे स्वयं को
अलग जानने में
वह हमारी मदद
करे।
नहीं, संयम के
साथ कर्ता का
अस्तित्व ही
नहीं हो सकता।
संयम के साथ
तो कर्ता मिट
जाता है, खो
जाता है। और
इस बात का बोध
हो जाता है कि
मैंने तो कभी
कुछ किया ही
नहीं है —चीजें
अपने से घटित
होती हैं, लेकिन
मैंने कुछ
नहीं किया।
मैं कर्ता
नहीं हूं। मैं
तो शुद्ध
साक्षी हूं? देखने वाला
हूं? विटनेस
हूं। और यही
समस्त धर्मों
का अंतिम सत्य
है।
'.……हम
तो सोचते हैं
कि कामगत
इच्छाओं से
मुक्त हो कर
ही हमें
लक्ष्य की
प्राप्ति हो
सकती है..।’
इसी से
सारी समस्या
खड़ी हो रही है, क्योंकि
तुम्हारे पास
पहले से कुछ
बनी बनाई धारणा
और विचार
विद्यमान हैं —तुम
'सोचते' हो। अगर
तुम्हारे पास
अपने कुछ
विचार और सिद्धांत
हैं, तो
उन्हें आचरण
में उतार लो
और तब तुम
उनकी व्यर्थता
को पहचान
सकोगे। और वे
विचार और सिद्धांत
कितने समय से
तुम्हारे साथ
हैं, तुम
अभी भी उनसे
थके और ऊबे
नहीं हो? उन
धारणाओं और
विचारों के
रहते
तुम्हारा हुआ क्या?
कौन सा
रूपांतरण
तुममें घटित
हो गया? कौन
सी मुक्ति
तुमको मिल गयी?
थोड़ी समझ का
और बुद्धि .का
उपयोग करो।
थोड़ा इसे
देखने की
कोशिश करो. कि
तुम जिन विचारों
को जीवनभर
ढोते रहे हो
उनसे हुआ क्या?
वे सब विचार
तुम्हारे
भीतर कूड़े —कचरे
की तरह पड़े
हुए हैं, उनसे
कुछ भी तो
नहीं हुआ। अब
तो अपने भीतर
की सफाई करो।
यहां
मैं तुम्हें
किन्हीं
विचारों से, सिद्धांतो
से और
विकल्पों से
नहीं भरना
चाहता हूं।
मेरा संपूर्ण
प्रयास तुम
कैसे शून्य हो
जाओ, कैसे
तुम पूरी तरह
मिट जाओ, इसके
लिए है।
तुम्हारा मन
पूरी तरह मिट
जाए और तुम अ —मन
की अवस्था को
उपलब्ध हो जाओ,
तुम्हारे
पास एकदम साफ —सुथरी
दृष्टि हो, बस इतना ही
मेरा प्रयास
है।
मेरा
किसी
विचारधारा या सिद्धांत
में कोई
विश्वास नहीं
है, और न
ही मैं चाहता
हूं कि तुम
किसी
विचारधारा या सिद्धांत
को पकड़कर बैठ
जाओ। सभी सिद्धांत,
और विचार
अवास्तविक
हैं, झूठे
हैं। और मैं
कहता हूं सभी
विचारधाराएं—उसमें
मेरी भी
विचारधारा
सम्मिलित है।
क्योंकि कोई
सी भी
विचारधाराएं
तुम्हें सत्य
तक नहीं ले जा
सकती हैं।
सत्य तो केवल
तभी जाना जा
सकता है जब
तुम्हारे मन
में सत्य के
लिए पहले से
कोई बनी बनायी
धारणा न हो।
सत्य
हमेशा मौजूद
है, और
हम इतने अधिक
विचारों से, धारणाओं से
भरे होते हैं
कि हम उसे
चूकते ही चले
जाते हैं।
मुझे सुनते
समय अगर तुम
अपनी धारणाओं
को बीच में
लाकर सुनते हो,
तब तो तुम
और भी अधिक
उलझते चले
जाओगे।
तो
मेहरबानी
करके, जब
तुम यहां
मौजूद हो तो
कुछ देर के लिए
अपने विचारों
को उठाकर थोड़ा
एक तरफ रख
देना। बस, केवल
मुझे सुनने की
कोशिश करना।
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
जो कुछ मैं कह
रहा हूं उस पर
तुम विश्वास
कर लो। मैं कह
रहा हूं,
बस सुनना, थोड़ा
मुझे मौका
देना, और
फिर बाद में
जितना मर्जी
सोच—विचार कर
लेना। लेकिन
होता क्या है.
मैं कहता कुछ हूं, और
तुम्हारे मन
में कुछ और ही
चलता रहता है।
अपने भीतर
चलते हुए टेप
को बंद करो।
सारे पुराने
टेप्स बंद कर
दो, अन्यथा
तुम मुझे न
समझ पाओगे कि
मैं क्या कह रहा
हूं।
और असल
में मैं बहुत
ज्यादा कह भी
नहीं रहा हूं, बल्कि
इसके विपरीत
मेरा यहां पर
होना कुछ कह
रहा है। मेरा
बोलना तो बस
तुम्हारे साथ यहां
होने का एक
बहाना है।
तो अगर
तुम अपने
विचारों को
थोड़ा एक तरफ
रख सको मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि उन्हें
हमेशा के लिए
एक तरफ रख दो, या
उन्हें फेंक
दो —बस उन्हें
एक ओर हटाकर
मुझे सुनो, अगर उसके
बाद तुम्हें
लगे कि
तुम्हारे
विचार ज्यादा
ठीक हैं, तो
फिर तुम
उन्हें वापस
ले आना। लेकिन
मेरे बोलने को
और अपने
विचारों को
मिलाओ मत।
मैं
तुमसे एक कथा
कहना चाहूंगा
एक
यहूदी, जो अत्यंत
वृद्ध था, अपने
बेटे से मिलने
अमेरिका गया।
उस वृद्ध पिता
को यह देखकर कि
उसका बेटा
यहूदी नियमों
की परवाह ही
नहीं करता है,
बड़ा धक्का
लगा। वह कहने
लगा, 'तुम
भोजन के संबंध
में अपने जो
नियम हैं उनका
पूरा पालन
नहीं करते हो?'
'पापा,
मुझे
रेस्टोरेंटों
में भोजन करना
पड़ता है, और
कोशेर के
मुताबिक चलना—कुछ
आसान
नहीं
है।
'तो
कम से कम तुम
सैब्बथ तो
पूरा करते हो
न?'
'मुझे
अफसोस है पापा,
यहां
अमेरिका में
उसे निभाना भी
बहुत कठिन है।’
वृद्ध
ने
तिरस्कारपूर्ण
ढंग से कहा, 'अच्छा
बेटे, मुझे
यह तो बताओ, क्या तुम
अभी भी खतना
की रस्म
सम्हाले हुए
हो?'
इसी
भांति वृद्ध
मन काम करता
रहता है। अपने
मन को उठाकर
एक ओर रख दो, केवल तभी
तुम मुझे समझ
सकोगे। वरना
तो मुझे समझ
पाना असंभव है।
पांचवां
प्रश्न:
कल
आपने संयम को
एकाग्रता
ध्यान और
समाधि के जोड़
के रूप में
विश्लेषित
किया। कृपा
करके संयम और
संबोधि के भेद
को हमें समझाएं
ऐसा
क्यों है कि
पतंजलि ने तो
कभी रेचन के
.संबंध में
कुछ कहा ही
नहीं जब कि आप
तो रेचन पर
बहुत जोर दिए
चले जाते हैं
पू
आत्मिक
शक्तियों के
गलत उपयोग के
लिए किए जाने
वाले मुख्य
प्रतिकार के
विषय में
कृपया कुछ समझाएं।
कोई
व्यक्ति कैसे
जान सकता है
कि वह
प्रारब्ध कर्म
को भाग्य को
अनकिया कर रहा
है या कि वह नए
कर्मों की
उत्पत्ति कर
रहा है?
अगर
व्यक्ति की
मृत्यु का समय
सुनिश्चित है
तो इसका मतलब
तो यह हुआ कि
उसे समय से
पहले मरने की
भी
स्वतंत्रता
नहीं है और न
ही उसे अपनी
जीवन— अवधि
बढ़ाने की भी
कोई
सबसे पहले 'कृपया
संयम और परम
संबोधि के भेद
को समझाएं।’
संबोधि
की तो फिकर ही
मत करना। और
उसे समझाने का
या उसकी
व्याख्या
करने का तो
कोई उपाय भी
नहीं है। अगर
तुम्हें सच
में ही संबोधि
में रस है, तो मैं
तुम्हें
संबोधि देने
के लिए भी
तैयार
हूं; लेकिन
संबोधि की
परिभाषा, उसकी
व्याख्या आदि
के विषय में
कुछ मत पूछो।
संबोधि की
व्याख्या
करने की
अपेक्षा, तुम्हें
संबोधि दे
देना कहीं
ज्यादा आसान
होगा—क्योंकि
उसकी कितनी भी
व्याख्या करो
पूरी न होगी, उसकी कोई
व्याख्या की
नहीं जा सकती
है। कोई कभी
उसकी
व्याख्या
नहीं कर पाया
है। संयम' की
व्याख्या की
जा सकती है, क्योंकि
.संयम विधि है।
संबोधि की
व्याख्या
नहीं की जा
सकती, क्योंकि
संबोधि संयम
के द्वारा
घटित होती है।
संयम
तो ऐसे है
जैसे बीज को
बो दिया और
फिर उसमें
पौधा आया और
पौधे को पानी
से सींचा, फिर पौधे
की सुरक्षा का
खयाल रखा—संयम
तो इसी भांति
है। फिर एक
दिन वृक्ष पर
फूल खिल उठते
हैं। फूलों के
विषय में कुछ
कहना कठिन है।
फूलों के
खिलने से पहले
तो सब कहा जा
सकता है, क्योंकि
वे सभी बातें
मात्र
विधियां हैं,
टेक्यीक्स
हैं।
मैं
तुमसे
टेक्यीक के
विषय में, विधियों
के विषय में
तो बात कर
सकता हूं। अगर
तुम उन
टेक्यीक्स और
विधियों का
अनुसरण करते
हो, तो एक
दिन तुम
संबोधि को
उपलब्ध हो
जाओगे।
संबोधि तो अभी
इसी क्षण भी
घटित हो सकती
है, अगर
तुम स्वयं को
पूरी तरह से
छोड़ देने के
लिए राजी हो
जाओ। जब मैं
कहता हूं कि
स्वयं को पूरी
तरह से छोड़ देने
के लिए, तो
मेरा उससे
क्या
अभिप्राय है?
मेरा उससे
अभिप्राय है,
पूरी तरह से
समर्पण कर
देना।
अगर
तुम मुझे
अनुमति दो, तो
तुम्हें
संबोधि इसी पल,
इसी क्षण
घटित हो सकती
है, क्योंकि
मेरे अंदर
संबोधि का
दीया जल रहा
है। वह ली
तुम्हारे
भीतर भी उतर
सकती है, लेकिन
तुम ऐसा होने
नहीं देते हो।
तुम अपनी
चारों ओर से
इतनी अधिक सुरक्षा
किए हुए बैठे
हो —जैसे कि
तुम्हारा कुछ
खोने वाला है।
मेरे देखे, तुम्हारे
पास खोने के
लिए कुछ भी
नहीं है।
तुम्हारे पास
खोने को कुछ
है नहीं, लेकिन
तुम सुरक्षा
के ऐसे सख्त
उपाय किए बैठे
हो जैसे न
जाने कितने
खजाने
तुम्हारे
भीतर छिपे हुए
हैं और अगर
तुमने अपने
हृदय को खोल
दिया तो उन
खजानों की
चोरी हो जाएगी।
और वहां कुछ
भी नहीं है—वही
मात्र अंधकार
है, और न
जाने कितने —कितने
जन्मों का
कूड़ा—कचरा
वहां पड़ा हुआ
है।
अगर
तुम मेरे
प्रति खुल सको, अगर तुम
मुझे सुलभ हो
सको, तुम
समर्पण कर सको,
और जब तक
शिष्य गुरु के
प्रति
समर्पित नहीं
हो जाता है, गुरु के
प्रति समर्पण
नहीं कर देता,
तब तक उसका
गुरु के साथ
संपर्क नहीं
हो पाता, गुरु
के साथ तार
नहीं जुड़ पाता
है। और समर्पण
पूरा होना
चाहिए, फिर
पीछे कुछ भी
बच नहीं रहना
चाहिए। अगर
तुम संबोधि के
लिए तैयार हो,
तो फिर
व्यर्थ समय मत
गंवाना अपने
को पूर्णरूप
से समर्पित कर
देना। मुझे
पूरी तरह से
सुलभ हो जाना।
यह
थोड़ा कठिन है।
हमें लगता है
कि अगर समर्पण
कर दिया तो सब
खो जाएगा। ऐसा
लगता है कि हम
जा कहां रहे
हैं? ऐसा
लगता है जैसे
हमारे सारे
खजाने खो रहे
हैं। और पास
में कुछ है
नहीं—कोई खजाना
नहीं है —खोने
के लिए कुछ है
नहीं। और जो
भीतर का खजाना
है उसका तो
खोने का कोई
उपाय ही नहीं।
और जो खो सकता
है वह तुम
नहीं हो, जो
नहीं खो सकता
है वही तुम हो।
सभी तरफ से
खुले होने से
तुम जो कुछ खो
दोगे वह तुम्हारा
अहंकार होगा।
तुम कुछ खो
दोगे, लेकिन
तुम स्वयं को
नहीं खो सकते
हो। सच तो यह
है, सभी
प्रकार का
व्यर्थ का
कूड़ा—कचरा
खोकर पहली बार
तुम अपने
प्रामाणिक
अस्तित्व को
सच्चे स्वरूप
को उपलब्ध
होगे।
इसलिए
संबोधि के
विषय में मत
पूछना। बुद्ध
ने कहा है, 'बुद्ध
पुरुष केवल
मार्ग का
संकेत दे सकते
हैं। मार्ग के
विषय में कोई
भी नहीं बतला
सकता है।’
मैं
तुम्हें पानी
तक ले जा सकता हूं, लेकिन
तुम मुझसे यह
मत पूछना कि
जब पानी से प्यास
बुझती है तो
कैसा अनुभव
होता है। उसे
मैं कैसे बता
सकता हूं? पानी
यहां उपलब्ध
है। फिर क्यों
न पानी का
स्वाद ले लो? क्यों न
पानी को पी लो?
मुझे पीकर
तुम अपनी
प्यास को बुझा
सकते हो। और
तब तुम जानोगे
कि पानी क्या
है, पानी
को पीकर कैसा
अनुभव होता है।
पानी का स्वाद
तो लिया जा
सकता है, लेकिन
उसकी
व्याख्या
नहीं की जा
सकती। यह ठीक
वैसे ही है
जैसे प्रेम
होता है अगर
तुम कभी किसी
के प्रेम में
पड़े हो, तो
तुम जानते
होंगे कि
प्रेम क्या
होता है।
लेकिन अगर कोई
तुमसे पूछे कि
प्रेम क्या है?
तो तुम उलझन
में पड़ जाओगे,
तुम कोई उत्तर
न दे सकोगे।
अगस्टीन
का प्रसिद्ध
कथन है 'मैं जानता
हूं कि समय
क्या है, लेकिन
जब कोई मुझसे
पूछता है कि
समय क्या है, तो मैं नहीं
जानता कि क्या
कहूं?' हम
भी जानते हैं
कि समय क्या
है। और अगर
कोई हमसे पूछे
समय क्या है, तो उसके
विषय में बता
पाना कठिन
होगा।
मैंने
एक महान
उपन्यासकार
लिओ टालस्टाय
के बारे में
सुना है कि एक
बार— जब वह
लंदन में था, और उसे
अंग्रेजी
ज्यादा नहीं
आती थी, और वह
जानना चाहता
था कि समय
क्या हुआ है।
तो उसने एक
सज्जन से पूछा,
'प्लीज टेल
मी व्हाट इज
टाइम?' वह
अंग्रेज अपने
कंधे उचकाकर
बोला, 'जाकर
किसी
दार्शनिक से
पूछो।’
व्हाट
इज टाइम? तुम कह सकते
हो, 'व्हाट
इज दि टाइम?' लेकिन तुम
यह नहीं कह
सकते, 'व्हाट
इज टाइम?' हम
समय को जानते
हैं, हम
उसे अनुभव
करते हैं, क्योंकि
हम समय में
जीते हैं। समय
हमेशा
विद्यमान है
और समय लगातार
गुजर रहा है, गुजर रहा है।
व्यक्ति समय
में ऐसे जीता
है जैसे मछली
पानी में जीती
है, लेकिन
फिर भी मछली
यह नहीं बता
सकती कि पानी
क्या है।
मैंने
ऐसी एक कथा भी
सुनी है कि एक
दार्शनिक
किस्म की मछली
बहुत चिंतित
और परेशान थी, क्योंकि
उसने सागर के
विषय में बहुत
दार्शनिक
बातें सुन रखी
थीं —और उसने
कभी सागर देखा
नहीं था, वह
कभी सागर के
संपर्क में
आयी न थी।
इसलिए वह
हमेशा सागर के
बारे में ही
सोचती रहती थी।
एक बार राजा
मछली आई और
उसने उस मछली
को ठीक से देखा
तो उसे लगा कि
जरूर इस मछली
के साथ कहीं कुछ
गड़बड़ है, यह
मछली बहुत
चिंतित और
परेशान मालूम
हो रही है। तो
उस राजा मछली
ने पूछा, तुम्हें
क्या हो गया
है? तुम्हारे
साथ क्या गलत
हो गया है? पूछने
पर वह मछली
बोली, 'मैं
बहुत चिंतित
और परेशान हूं, क्योंकि
मैं जानना
चाहती हूं कि
सागर क्या है,
कैसा है? मैंने सागर
के विषय में
बहुत कुछ सुना
है, लेकिन
मेरा कभी उससे
मिलना नहीं
हुआ है।’ और
उस मछली की यह
बात सुनकर वह
राजा मछली जोर
से हंस पड़ी और
बोली, 'अरे
मूढ़, तू
उसी में तो है,
तू सागर में
ही तो है!'
लेकिन
जब कोई चीज
हमारे एकदम
निकट होती है, या कहें
कि हम उसी में
होते हैं, तो
उसे पहचानना
कठिन होता है।
फिर कभी हमारा
उससे मिलना
नहीं होता। हम
समय में जीते
हैं, लेकिन
समय के साथ
हमारा मिलना
कभी नहीं होता,
क्योंकि
समय को पकड़ा
नहीं जा सकता।
उसकी
व्याख्या
करना असंभव है।
हम
परमात्मा में
ही हैं, इसलिए
परमात्मा की
व्याख्या
करना बहुत
कठिन है। हमें
संबोधि मिली
ही हुई है, बस
थोड़ा सा भीतर
मुड़कर देखने
की बात है।
थोड़ी सी साफ —सुथरी
दृष्टि, स्वयं
से पहचान, और
स्मृति की बात
है। इसीलिए
मैं कहता हूं
कि मैं तो
तैयार हूं तुम्हें
संबोधि दे
देने के लिए
क्योंकि
संबोधि तो
मौजूद है ही।
संबोधि के लिए
करने को कुछ
है नहीं।
अगर
तुम मुझे थोड़ी
देर के लिए
तुम्हारा हाथ
पकड़ने दो—तो
बस इतना
पर्याप्त है।
दूसरी
बात:
पूछी है — 'ऐसा क्यों
है कि पतंजलि
ने तो कभी
रेचन के संबंध
में कुछ कहा
ही नहीं, जब
कि आप तो रेचन
पर बहुत जोर
दिए चले जाते
हैं?'
इस बात
को मैं तुम से
एक कथा के
माध्यम से
कहना चाहूंगा.
एक
लड़खड़ाते हुए
शराबी ने अपने
पास से गुजरते
आदमी को रोका
और उससे समय
पूछा। उस आदमी
ने अपनी घड़ी
देखी और समय बता
दिया।
वह
शराबी तो चकित
और विस्मय —विमुग्ध
होकर अपना सिर
हिलाने लगा, और नशे
में झूमता हुआ
बोला, 'मुझे
तो कुछ समझ
में ही नहीं आ
रहा है, सारी
रात मुझे अलग—
अलग उत्तर ही
मिलते रहे हैं।’
सारी
रात! जब तुम
मेरे और
पतंजलि के
विषय में कुछ
सोच—विचार
आरंभ करो, तो पांच
हजार वर्षों
के भेद को
खयाल में रखना।
और तब सारी
रात तुम्हें
अलग— अलग
उत्तर मिलते
रहेंगे? जब
पतंजलि इस
पृथ्वी पर
मौजूद थे, तो
उस समय आदमी
बिलकुल अलग ही
ढंग का था। उस
समय मनुष्य
जाति बिलकुल
ही अलग तरह की
थी। उस समय
रेचन की कोई
जरूरत न थी।
लोग नैसर्गिक
थे, स्वाभाविक
थे, सहज थे,
सरल थे और
बच्चों के
समान भोले —
भाले थे। किसी
बच्चे को रेचन
की कोई जरूरत
नहीं होती, केवल अधिक
उम्र के लोगों
को ही रेचन की
आवश्यकता
होती है।
बच्चे के पास
किसी प्रकार
का लोभ, मोह,
क्रोध या
अन्य किसी
प्रकार की कोई
ग्रंथि नहीं
होती, उसके
भीतर अभी कुछ
संगृहीत नहीं
हुआ है।
कभी
किसी बच्चे को
देखना। जब कोई
बच्चा क्रोध
में होता है
तो वह पूरी तरह
से क्रोध में
होता है—वह
क्रोध में
चीजें
फेंकेगा, कूदेगा, चीखेगा,
चिल्लाका।
और जब उसका
क्रोध ठंडा हो
जाएगा, तो
वह फिर से
मुस्कुराने
लगेगा और
क्रोध को पूरी
तरह से भूल
जाएगा—इस तरह
से उसका रेचन
हो जाता है
यही उसके रेचन
का ढंग है। जब
वह प्रेम से
भरा होता है, तो वह
तुम्हारे
करीब आएगा, तुम से लिपट
जाएगा और
प्यार करने
लगेगा। और जब
बच्चा प्रेम
करता है, या
कुछ भी करता
है, तो कभी
भी किसी
प्रकार के
शिष्टाचार, रीति—रिवाज
और ऐसी
किन्हीं बातों
की कोई फिकर
नहीं करता। और
हम भी बच्चे
की बात की
ज्यादा फिकर
नहीं करते और
यह कह कर टाल
देते हैं कि
अभी तो वह
बच्चा है, बड़ा
नहीं हुआ है, अभी उसमें
समझ नहीं है —यही
इसका मतलब है
कि बच्चा अभी
विषाक्त नहीं
हुआ है, अभी
वह शिक्षित नहीं
हुआ है, अभी
वह किसी
प्रकार के
बंधनों में
नहीं बंधा है।
जब भी
कोई बच्चा
रोना—चीखना—चिल्लाना
चाहता है तो
वह रोता —चीखता—चिल्लाता
है। वह पूरी
स्वतंत्रता
में जीता है, इसलिए तो
उसे किसी
प्रकार के
रेचन की कोई
आवश्यकता
नहीं होती। वह
हर क्षण अपना
रेचन करता ही
रहता है, वह
अपने भीतर
किसी प्रकार
की कोई ग्रंथि
का निर्माण
नहीं
करता, वह कुछ भी
संग्रह नहीं
करता है।
लेकिन एक का
आदमी? पचास,
साठ या
सत्तर वर्ष के
बाद वही बच्चा
का हो जाएगा, तब तक वह
अपने भीतर
बहुत सा कूड़ा—कचरा
इकट्ठा कर
चुका होगा। जब
उसे गुस्सा
आएगा, क्रोध
आएगा, वह
क्रोध न कर
सकेगा।
कई बार
ऐसी
परिस्थितियां
होती हैं जब
व्यक्ति
क्रोध करना तो
चाहता है, लेकिन कर
नहीं सकता—उस
समय क्रोध
करना
परिस्थिति के
अनुकूल नहीं होता
है, या
उसके लिए
आर्थिक रूप से
खतरनाक हो
सकता है। जब
बीस डाटता—डपटता
भी है तो भी
तुम्हें ऊपर से
मुस्कुराना
पड़ता है। वैसे
अगर तुम्हारा
वश चले, तो
तुम उसे मार
डालो, लेकिन
फिर भी ऊपर से
तुम
मुस्कुराते
चले जाते हो।
फिर भीतर उठ
रहा था जो
क्रोध उसका
क्या होगा? वह दब जाएगा,
उसका दमन हो
जाएगा।
सामाजिक
जीवन में ऐसा
ही होता है।
पतंजलि के समय
में लोग आदिम
अवस्था में थे, वे अधिक
सभ्य नहीं हुए
थे। अगर तुम
आदिवासी
क्षेत्रों
में जाकर देखो,
जहां आदिम
जनजातिया अभी
भी रहती हैं, तो स्मरण
रहे उन्हें
अभी भी सक्रिय
ध्यान की आवश्यकता
नहीं है। वे
तुम पर
हंसेंगे, वे
कहेंगे, क्या?.
यह क्या कर
रहे हो तुम? यह सब करने
की जरूरत क्या
है? जब
दिनभर का
कार्य समाप्त
हो जाता है, तौ रात्रि
को वे नाचते
हैं, गाते
हैं और सारी
रात नृत्य में
डूबे रहते हैं।
रात को बारह, एक बजे तक, वे नाचते
रहते हैं। ढोल
की थाप पर वे
सहज, प्राकृतिक
रूप से नृत्य
की ऊर्जा में
आनंद के साथ
डूबे रहते हैं।
और फिर बाद
में वृक्षों
के नीचे सो
जाते हैं। और
दिनभर वे काम
क्या करते
हैं. लकड़ियां
काटना, तब
फिर कैसे भीतर
क्रोध
एकत्रित हो
सकता है? वे
किसी आफिस में
क्लर्क तो हैं
नहीं। वे अभी
भी सभ्य नहीं
हुए हैं। वे
जीवन को उसकी
सहजता और
सरलता में ही
जीते हैं।
लकड़ी काटते —काटते
उनके भीतर की
पूरी हिंसा
विलीन हो जाती
है, वे
अहिंसक हो
जाते हैं —उन्हें
अहिंसा की
शिक्षा के लिए
किसी महावीर की
आवश्यकता
नहीं है।
अहिंसक होने
के लिए उन्हें
किसी जैन—दर्शन
या सिद्धांत
की भी कोई
आवश्यकता
नहीं है।
हां, एक
व्यापारी को
अहिंसा के
दर्शन की आवश्यकता
है इसीलिए
सारे जैन लोग
व्यापारी हैं।
बस, गद्दी
पर बैठे —बैठे
ऊपर से
मुस्कुराते
रहना। और
करोगे भी क्या
और अगर फिर
तुम हिंसक हो
जाओ तो —क्या
बड़ी बात है।
तब स्वयं पर
नियंत्रण
रखने के लिए
अहिंसा का दर्शन
चाहिए होता है।
वरना बिना
किसी कारण के
दूसरे की गर्दन
तुम क्यों
पकड़ोगे।
लेकिन जब कोई
आदमी लकड़ियां
काटता है., तो
उसे अहिंसा के
सिद्धांत की,
अहिंसा के
दर्शन की
जरूरत ही नहीं
होती है। जब
शाम को थककर
वह घर लौटता
है तो वह
हिंसा को पूरी
तरह फेंक चुका
होता है, वह
अहिंसक होकर
घर वापस—लौटता
है।
इसीलिए
पतंजलि रेचन
की बात ही
नहीं करते हैं।
उस समय उसकी
कोई जरूरत
नहीं थी। उस
समय समाज
बिलकुल आदिम
और सरल अवस्था
में जी रहा था।
लोग बालकों
जैसे निर्दोष
थे, लोग
बिना किसी दमन
के जी रहे थे।
रेचन की
आवश्यकता तो
तब होती है जब
मनुष्य का मन
दमित होने
लगता है। समाज
जितना ज्यादा
दमित होगा, उतनी ही
अधिक रेचन की
विधियों की
आवश्यकता होगी।
तब भीतर के
दमन को बाहर
लाने के लिए
कुछ न कुछ तो
करना ही पड़ेगा।
और मैं
तुम से कहना
चाहता हूं कि
अपना क्रोध किसी
दूसरे पर
फेंकने की
अपेक्षा कहीं
ज्यादा अच्छा
होगा सक्रिय
ध्यान करना।
क्योंकि अगर
तुम अपना
क्रोध किसी
दूसरे पर
फेंकते हो, तो
तुम्हारे
संचित
कर्मों में
वृद्धि होती
चली जाएगी।
अगर सक्रिय
ध्यान में तुम
सभी प्रकार के
दमित भावों का, दमित
आवेगों का
रेचन कर देते
हो, तो
तुम्हारे
संचित कर्म
खाली हो जाते
हैं। तब तुम
अपना क्रोध
किसी दूसरे की
तरफ नहीं फेंकते।
तब फिर अगर
तुम क्रोधित
भी होते हो तो
बस क्रोधित ही
होते हो —किसी
व्यक्ति
विशेष के
प्रति
क्रोधित नहीं
होते हो। रेचन
करते समय तुम
चीखते —चिल्लाते
हो —लेकिन
किसी व्यक्ति
विशेष के
विरोध में
नहीं। और रेचन
करते समय तुम
जब रोते हो, तो बस रोते
हो। और रेचन
करते समय रोना,
चीखना—चिल्लाना,
क्रोधित
होना, तुमको
स्वच्छ कर
जाता है और इस
कारण फिर
भविष्य में
किसी भी
प्रकार के
कर्मों की कोई
श्रृंखला
निर्मित नहीं
होती।
तो
पतंजलि संयम
के विषय में
जो कुछ कहते
हैं, मैं
रेचन को भी संयम
के अंतर्गत ही
रखूंगा।
क्योंकि मुझे
पतंजलि की
चिंता नहीं है,
मुझे
तुम्हारी
चिंता है —और
मैं तुम्हें
खूब अच्छे से
जानता हूं।
अगर तुम भीतर
के दमित भावों
को, आवेगों
को बाहर आकाश
में नहीं
फेंकोगे, तो
फिर तुम कहीं
न कहीं, किसी
न किसी पर तो
फेंकोगे ही, और फिर उससे
कर्मों की एक
श्रृंखला
निर्मित होती
चली जाएगी।
आने
वाले भविष्य
में रेचन
व्यक्ति के
लिए आवश्यक हो
जाएगा।
क्योंकि आदमी
जितना सभ्य
होता चला
जाएगा, उतनी ही
रेचन की
आवश्यकता
होगी।
तीसरी
बात: 'आत्मिक
शक्तियों के
गलत उपयोग के
लिए किए जाने
वाले मुख्य प्रतिकार
के विषय में
कृपया कुछ
समझाएं।’
आत्मिक
शक्तियों के
गलत उपयोग का
एकमात्र प्रतिकार
प्रेम है; अन्यथा
शक्ति कोई सी
भी हो, विकृत
ही करती है।
सभी तरह की
शक्तिया
विकृत करती
हैं। फिर वह
शक्ति चाहे धन
की हो, या
पद —प्रतिष्ठा,
आदर, मान
—सम्मान की हो,
या सत्ता की
राजनीति की
शक्ति हो, या
मानसिक शक्ति
हो —उससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। जब भी
व्यक्ति
शक्तिशाली
होता है, उसके
हाथ में किसी
भी प्रकार की
शक्ति होती है
तो अगर
प्रतिकार के
रूप में उसके
पास प्रेम नहीं
है, तो
उसकी शक्ति
दूसरों के लिए
संकट बनने ही
वाली है, अभिशाप
बनने वाली है;
क्योंकि
शक्ति की ताकत,
व्यक्ति को
अंधा बना देती
है। प्रेम
दृष्टि को
खोलता है, प्रेम
दृष्टि को साफ
कर देता है.
प्रेमपूर्ण व्यक्ति
के ज्ञान
चक्षु एकदम
साफ हो जाते
हैं। शक्ति
व्यक्ति को
अंधा बना देती
है।
मैं
तुम से एक कथा
कहना चाहूंगा
एक धनी
आदमी था, लेकिन साथ
में वह कंजूस
भी था। वह कभी
भी किसी जरूरत
मंद की मदद
नहीं करता था।
उसका जो रब्बी
था उसने उससे
कहा कि वह एक
निर्धन
परिवार की मदद
करे, उन्हें
भोजन और
दवाइयों
इत्यादि की
जरूरत है।
लेकिन उस
कंजूस धनवान
ने मदद करने
से इनकार कर
दिया।
रब्बी
ने उसके हाथ
में एक दर्पण
दिया और उससे
कहा, 'इस
दर्पण में
देखो।
तुम्हें इस
दर्पण में
क्या दिखायी
पड़ रहा है?'
वह
कंजूस बोला, 'मुझे
इसमें अपना
चेहरा ही
दिखायी दे रहा
है, और तो
कुछ भी दिखायी
नहीं दे रहा
है।’
रब्बी
ने फिर कहा, 'अब जरा
इस खिड़की में
से देखो।
तुम्हें वहां
क्या दिखायी
पड़ रहा है?'
वह
कंजूस बोला, 'मुझे कुछ
पुरुष और कुछ
स्त्रियां
दिखायी दे रही
हैं। प्रेम
में डूबा हुआ
एक जोड़ा भी
दिखायी पड़ रहा
है। और कुछ
बच्चे खेलते
हुए दिखायी दे
रहे हैं।
लेकिन आप
मुझसे यह सब
क्यों पूछ रहे
हैं?'
रब्बी
ने कहा, 'तुमने अपने
ही प्रश्न का
उत्तर दिया है,
खिड़की के
पार तुमने
जीवन को देखा,
दर्पण में
तुम ने स्वयं
को देखा।
खिड़की की तरह
दर्पण भी शीशे
का बना होता
है, लेकिन
उसके पीछे
चांदी का लेप
चढाया होता है।
जैसे यह चांदी
की चमक जीवन
को देखने नहीं
देती है, दृष्टि
को ढांक लेती
है, और तुम
केवल अपने
स्वार्थ को ही
देख पाते हो, ऐसा ही कुछ
तुम्हारे
चांदी के
सिक्कों ने, और तुम्हारे
धन ने किया है।
तुम्हारी
दृष्टि से
पूरा ओझल हो
गया है, इस
कारण तुम केवल
अपने ही विषय
में सोचते हो,
और स्वयं को
ही देखते हो।’
उस धनी
आदमी ने अपना
सिर झुका लिया।
वह बोला, ' आप ठीक कहते
हैं। मुझे
सोने —चांदी
ने अंधा बना
दिया था।’
तो सभी
तरह की
शक्तियां
हमें अंधा बना
देती हैं। फिर
चाहे वह सोना
हो या चांदी
हो, या
चाहे फिर वह
आत्मिक शक्ति
हो, कुछ भी
हो, सभी
शक्तियां
हमें अंधा बना
देती हैं। तब
हम केवल अपने
ही स्वार्थ देखते
हैं।
इसीलिए
पतंजलि का जोर
इस बात पर है
कि जैसे ही संयम
उपलब्ध हो, तत्कण
मैत्री और
प्रेम का
आविर्भाव
होने देना।
संयम के बाद
पहली बात
प्रेम का
आविर्भाव
होने देना
जिससे
संपूर्ण
ऊर्जा प्रेम
का प्रवाह बन
जाए, बाटने
का उत्सव बन
जाए। तो फिर
जो कुछ भी हो
तुम्हारे पास,
तुम उसे
बांटते चले
जाना। तब किसी
भी प्रकार की
शक्ति के गलत
उपयोग की कोई
संभावना ही
नहीं रह जाएगी।
छठवां
प्रश्न:
भगवान
एक शराबी की
दूसरे से
गुफ्तगू आपकी
शराब सबसे
मधुर और मीठी
है।
यह प्रश्न है
पूर्णिमा का।
मुझे केवल एक
ही बात कहनी
है पूर्णिमा, मैंने तो
तुझे सिर्फ
एपीटाइजर ही
दिया है। शराब
तो अभी
प्रतीक्षा ही
कर रही है —तैयार
हो जाओ।
एपीटाइजर से
ही नशे में मत
डूब जाना।
जो कुछ
मैं तुमसे कह
रहा हूं वह तो
केवल एपीटाइजर
है।
अंतिम
प्रश्न:
प्यारे
भगवान क्या
कभी आप झूठ
बोलते हैं?
मैं एक झूठ
हूं? और
पूर्ण झूठ हूं
—और, यह जो
कह रहा हू यह
भी एक झूठ ही
है।
आज
इतना ही।
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