दिनांक
23 सितंबर, 1974.
श्री
ओशो आश्रम,
पूना।
भगवान!
किसी
पुराने समय
में मूसा के
गुरु खिद्र ने
चेतावनी दी कि
एक खास तारीख
के बाद दुनिया
के सारे पानी
का गुण बदल
जायेगा और उसे
पीनेवाले
पागल हो
जायेंगे।
केवल वे ही
लोग सही-सलामत
रहेंगे जो
थोड़ा पानी अलग
बचा कर रख
लेंगे और उसे
ही पीयेंगे।
केवल
एक व्यक्ति ने
खिद्र की
चेतावनी पर
ध्यान दिया।
उसने थोड़ा
पानी बचाकर रख
लिया।
निश्चित
तिथि के बाद
वही हुआ जो
खिद्र ने कहा था।
और इस एक आदमी
को छोड़ कर
गांव के सभी
लोग पागल हो
गये। लेकिन जब
उसने लोगों से
बातचीत की, तब उसे पता
चला कि सब उसे
ही पागल समझते
हैं।
धीरे-धीरे
उसके लिये
पागलों के बीच
अपना अकेलापन
असह्य हो गया
और उसने भी
नया पानी पी
लिया। फिर तो
वह यह भी भूल
गया कि उसने
कुछ शुद्ध जल बचा
रखा था। और
गांव के लोग
कहने लगे कि
वह जो एक पागल
था उनके बीच, वह भी
स्वस्थ हो गया
है।
सूफियों
की इस कथा के
पूर्व कुछ
आधारभूत
बातें समझ
लेनी चाहिए।
पहली बात:
समाज भीड़ के
मनोविज्ञान
से जीता है।
समाज में सत्य
की चिंता किसे
भी नहीं।
दूसरों से
सहमति बनी रहे
इसकी ही चिंता
है। समाज के
साथ व्यक्ति
कैसे
समायोजित रहे, एडजस्टेड रहे, इसकी
ही चिंता है।
समाज झूठ हो
तो व्यक्ति को
भी झूठ हो
जाना पड़ता है।
व्यक्ति बहुत
अकेला है।
समाज बड़ा है।
और जब तक समाज
से बड़े का
सहारा न मिले,
तब तक इसके
अतिरिक्त कोई
उपाय भी नहीं
कि समाज के
साथ सहमत रहा
जाये।
केवल
वे ही लोग
समाज के पार
उठ पाते हैं
जिन्हें
परमात्मा का
सहारा मिल
जाता है; क्योंकि
तब उन्होंने
विराट और अनंत
के साथ अपना
संबंध जोड़
लिया। तब
उन्होंने सागर
से संबंध जोड़
लिया। नदी से
संबंध टूट भी
जाये, डबरे से संबंध
टूट भी जाये, तो कोई अंतर
नहीं पड़ता।
परमात्मा
में प्रविष्ट
होते ही
व्यक्ति समाज
से मुक्त हो
पाता है।
अन्यथा समाज
बहुत बड़ी घटना
है। चारों तरफ
वे ही लोग
हैं। उनसे जरा
भी तुम भिन्न
हुए कि तुम
पागल हो। उनसे
जरा भी तुम
अन्य हुए कि
तुम नासमझ हो।
जेम्स थरबर की एक
बहुत
प्रसिद्ध कथा
है कि सांपों
के देश में एक
बार एक
शांतिप्रिय
नेवला पैदा हो
गया। नेवलों
ने तत्क्षण
उसे शिक्षा
देनी शुरू की
कि सांप हमारे
दुश्मन हैं।
पर उस नेवले
ने कहा, 'क्यों?
मेरा
उन्होंने अब
तक कुछ भी
नहीं बिगाड़ा।'
पुराने नेवलों
ने कहा, 'नासमझ,
तेरा न बिगाड़ा
हो, लेकिन
वे सदा से
हमारे दुश्मन
हैं। उनसे
हमारा विरोध
जातिगत है।' पर उस
शांतिप्रिय नेवले ने
कहा, 'जब
मेरा
उन्होंने कुछ
नहीं बिगाड़ा
तो मैं क्यों
उनसे शत्रुता पालूं।'
खबर
फैल गई नेवलों
में कि एक गलत
नेवला पैदा हो
गया है, जो सांपों का
मित्र और नेवलों
का दुश्मन है।
नेवले के
बाप ने कहा, 'यह लड़का
पागल है।' नेवले
की मां ने कहा,
'यह लड़का
बीमार है।' नेवले के भाइयों
ने कहा, 'यह
लड़का, यह
हमारा भाई
बुजदिल है।' समझाया बहुत
उसे कि यह
हमारा फर्ज है,
राष्ट्रीय
कर्तव्य है, कि हम सांपों
को मारें।
हम इसीलिए
हैं। इस
पृथ्वी को सांपों
से खाली कर
देना है, क्योंकि
उन के कारण ही
सारी बुराई
है। सांप ही
शैतान हैं। उस
शांतिप्रिय नेवले ने
कहा, 'मैं
तो इसमें कोई
फर्क नहीं
देखता। सांपों
को भी मैं
देखता हूं, मुझे उन में
कोई शैतान
नहीं दिखाई
पड़ता। उनमें
भी संत हैं और
शैतान हैं, जैसे हम में
भी संत और
शैतान हैं।'
खबर
फैल गई कि वह
नेवला
वस्तुतः सांप
ही है। सांपों
की तरह रेंगता
है। और उससे
सावधान रहना।
क्योंकि शक्ल
उसकी नेवले
की है और
आत्मा सांप की
है। बड़े-बूढ़े
इकट्ठे हुए, पंचायत की
और उन्होंने
आखिरी बार
कोशिश की नेवले
को समझाने की
कि 'तू
पागलपन मत कर।'
उस नेवले
ने कहा, 'लेकिन
सोचना-समझना
तो जरूरी है।'
एक नेवला
भीड़ में से
बोला, 'सोचना-समझना
गद्दारी है।'
दूसरे नेवले
ने कहा, 'सोचना-समझना
दुश्मनों का
काम है।'
फिर जब
वे उसे न समझा
पाये तो उस नेवले
को उन्होंने
फांसी दे दी।
जेम्स थरबर
ने अंतिम वचन
इस कहानी में
लिखा है, कि
यह शिक्षा
मिलती है कि
अगर तुम अपने
दुश्मनों के
हाथ न मारे
गये, तो
अपने मित्रों
के हाथ मारे
जाओगे। मारे
तुम जरूर
जाओगे।
ऐसी ही
स्थिति
प्रत्येक
मनुष्य की है।
तुम जब पैदा
होते हो, तब
तुम परमात्मा
से जुड़े पैदा
होते हो।
क्योंकि उसके
बिना कोई जीवन
नहीं है। तब
तुम शुद्धतम
स्रोत से जुड़े
हो। अभी तुमने
वह जल नहीं पीया,
जिसको पीने
से आदमी पागल
हो जाता है।
वह जल समाज की
शिक्षा, सभ्यता,
संस्कृति
है। वह जल, जो
समाज बड़ी
जल्दी तुम्हें
पिलायेगा।
और एक बार
तुमने वह जल
पी लिया तो
तुम भूल ही जाओगे
कि तुम्हारे
भीतर शुद्ध जल
का झरना भी कल-कल
नाद कर रहा
है।
इसलिए
समाज जल्दी से
उत्सुकता
लेता है बच्चों
को शिक्षित
करने की।
शिक्षित करने
की इतनी उत्सुकता
क्यों? अगर
बच्चा थोड़े
दिन अशिक्षित
रह जाये...।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
सात वर्ष की
उम्र तक बच्चा
अपने जीवन का
पचास प्रतिशत
ज्ञान सीख लेता
है। फिर पूरे
जीवन शेष पचास
प्रतिशत ही सीखता
है।
इसलिए
मां-बाप, धर्म,
संप्रदाय, धर्मगुरु
जल्दी से
बच्चे की
गर्दन पकड़ते
हैं। उसका
खतना करेंगे
मुसलमान, यहूदी।
हिंदू उसे
जनेऊ पहनायेंगे,
यज्ञोपवीत
संस्कार
करेंगे।
जल्दी ही उसे
भीड़ का हिस्सा
बनाने की
उत्सुकता है।
ईसाई उसका बप्तिस्मा
करेंगे।
आदमी
किसी को भी
स्वीकार
नहीं। अकेला, खालिस आदमी
सभी को
अस्वीकार है।
या तो हिंदू, या मुसलमान,
या ईसाई, या जैन, या
कोई और। तीन
सौ पागलपन हैं
जमीन पर। तीन
सौ धर्म हैं।
और इन
धर्मों को मैं
पागलपन कहता
हूं। क्योंकि
धर्म जब तीन
सौ होंगे तो
पागलपन ही
होगा। धर्म तो
एक ही हो सकता
है, तभी
पागलपन नहीं
होगा। और उस
शुद्ध धर्म का
झरना न तो
पंडित से
मिलता है, न
मौलवी से, न
चर्च से, न
मंदिर से। उस
शुद्ध धर्म का
झरना
तुम्हारे
भीतर है और उस दिन
तुम्हें मिल
जायेगा, जिस
दिन समाज के
द्वारा पिलाये
गये जहर से
तुम मुक्त हो
जाओगे। बच्चा
पैदा होता है
तब उस झरने से
भरा है। इसलिए
बच्चे की आंखों
में संतत्व
होता है।
बच्चे की
आंखों में वह
झलक होती है
अनंत की। और
जब भी कोई
ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाता है तो
फिर उसकी
आंखों में वही
बच्चों जैसी
झलक आ जाती
है। वर्तुल
पूरा हो जाता
है।
जीसस
ने कहा है, जो बच्चों
की तरह हैं, वे ही केवल
प्रभु के
राज्य में
प्रवेश कर
सकेंगे। ठीक
ही कहा है।
लेकिन समाज
तुम्हें
बच्चों की तरह
नहीं रहने
देता। काटता
है, छांटता है, सुधारता
है, बनाता
है। समाज राजी
नहीं है कि
परमात्मा ने तुम्हें
जैसा बनाया
वैसे तुम ठीक
हो। समाज परमात्मा
से स्वयं को
ज्यादा
समझदार समझता
है। वह
तुम्हारे अंग
काटेगा, तुम्हारी
बुद्धि छांटेगा,
तुम्हारे
ऊपर नियंत्रण बिठायेगा।
समाज तुम्हें
जंगल के वृक्ष
की तरह नहीं
छोड़ता। वह उस बागवान की
तरह है जो
तुम्हें सब
तरफ से काट कर
रूप-रंग देगा।
बागवान
कहता है कि यह
सौंदर्य है।
वृक्ष की
आत्मा कटती है,
वृक्ष के
प्राण तड़फते
हैं, बागवान का सौंदर्य
निर्मित होता
है।
तुम भी
कटे हुए वृक्ष
हो। सब तरफ से
छांट दिए गये
हो। जो छांट
दिया गया है, वह भी
परमात्मा ने
तुम्हें दिया
था, लेकिन
पंडितों ने, पुरोहितों
ने छीन लिया।
और अगर तुम
जरा भी, लीक
से यहां से
वहां हुए, कि
तुम पागल हो।
पश्चिम
में
मनोवैज्ञानिक
बड़ा गहरा काम
कर रहे हैं।
और वे इस खोज
पर, इस
निष्कर्ष पर
पहुंचे हैं कि
पागलखानों
में जो लोग
बंद हैं उनमें
से अधिक लोग
पागल नहीं
हैं। उनमें से
अधिक लोग
सिर्फ लीक से
हट गये हैं, इसलिए पागल
समझे जा रहे
हैं। आर. डी.
लैंग इस समय
पश्चिम का बड़े
से बड़ा मनस्विद
है। उसका कहना
है कि पागलखानों
में बहुत से
तो ऐसे लोग बंद
हैं कि अगर
उन्हें मौका
मिलता तो वे
संतत्व को
उपलब्ध हो
जाते। या बड़ी
महान प्रतिभा
की उनमें
संभावना थी।
लेकिन अड़चन
वहां पैदा हो
गई कि वे लीक
से हटने लगे।
प्रतिभाशाली
सदा लीक से
हटता है।
सिर्फ जड़बुद्धि
लीक पर चलता
है।
कबीर
ने कहा है, 'सीहों के
नहीं लेहड़े
संतों की नहीं
जमात।'
कोई
सिंह भीड़ में
नहीं चलते, सिर्फ भेड़ें
चलती हैं। और
संतों का तुम
समाज न पाओगे।
संत अकेला
चमकता है।
जितनी
असाधारण
प्रतिभा का व्यक्ति
होगा, उतना
ही लीक से
उतरेगा। उतना
ही समाज उससे
बदला लेगा।
तुम बुद्धुओं
के पीछे चल
सकते हो, बुद्धिमानों के पीछे
नहीं।
तुम्हारे सब
नेता वैसे
हैं। वे तुम्हीं
जैसे हैं।
तुम्हारे
जैसे ही पागल।
तुम्हारी
जैसी ही
धारणाओं में
बंधे। तुम से
भी ज्यादा
शायद बंधे।
यही उनकी अपील
है।
मैंने
सुना है, एक
पागलखाने में
पुराने
डाक्टर की
बदली हुई और
एक नया डाक्टर
आया।
पागलखाने के
सारे अंतेवासियों
ने बड़ा
स्वागत-समारोह
किया, फूल-मालायें पहनायीं, फूल फेंके।
बड़े आनंदित
हुए, नाचे।
डाक्टर भी
थोड़ा चिंतित
हुआ। क्योंकि
और भी पागलखानों
में वह रह
चुका था। इतना
आनंद पागलों
ने कभी न मनाया
था। और डाक्टर
से पागल नाराज
रहते हैं। तो
उसने पूछा
पागलों के
मुखिया से कि 'इतनी खुशी
की क्या बात
है?' तो
उसने कहा कि 'आप बिलकुल
हम जैसे लगते
हैं। पहला जो
डाक्टर था वह
बिलकुल पागल
था। और आप
बिलकुल हम
जैसे लगते
हैं। आपको
देखकर ही कोई
कह देगा कि आप
भी अंतेवासी
हैं। इसलिये
हम बड़ा आनंद
मना रहे हैं।'
पागल, पागल को ही
नेता चुन
लेगा। मूढ़,
मूढ़ के पीछे
चलेगा।
क्योंकि सब से
बड़ी कठिनाई
तुम्हें तब
होती है, जब
तुम्हें ऐसा
लगता है कि
तुम गलत हो।
और प्रतिभाशाली
व्यक्ति
तुम्हें सदा
कहेगा कि तुम गलत
हो। उससे बचने
का एक ही उपाय
है कि जितनों को
वह गलत कहता
है वह भीड़
इकट्ठी हो
जाये और उसकी
गर्दन दबा दे।
इसलिये सुकरात
को तुम जहर
पिलाते हो, जीसस को
सूली लगाते हो,
बुद्धों पर
पत्थर फेंकते
हो। वह कारण
है उसके पीछे।
वह तुम्हारी
आत्मरक्षा का
उपाय है। क्योंकि
अगर इन
आदमियों को
छुट्टा रहने
दिया जाये, स्वतंत्र
रहने दिया
जाये, तो
आज नहीं कल
तुम्हारे
नीचे जो
आत्मविश्वास
की जमीन है, वह खींच
लेंगे।
तुम्हें
संदिग्ध कर
देंगे।
सोच-विचार
गद्दारी है।
सोच-विचार
दुश्मनों का
काम है। जिसको
तुम
बुद्धिमान
कहते हो वह
वही आदमी है, जो लकीर का
फकीर है। जो
परंपरा से
चलता है। जो अतीत
से इंच भर
यहां-वहां नहीं
जाता। जो
सिर्फ एक
पुनरुक्ति
है। जो बासा है,
उधार है, वस्तुतः
मुर्दा है।
तुम्हारे
नेताओं में और
तुममें बहुत
फर्क नहीं
होता।
मैंने
सुना है, पता
नहीं कहां तक
सच है!
मोरारजी
देसाई जब उपप्रधान
मंत्री थे तो
एक बार बीमार
पड़े। बेहोश हो
गये। बड़े से
बड़े चिकित्सक
को दिखाया
अहमदाबाद
में। उसने कहा,
'तत्क्षण
दिल्ली ले
जाना पड़ेगा।
यह होश यहां वापिस
नहीं लौट
सकेगा।' जल्दी
से हवाई जहाज
का इंतजाम
किया गया।
एअरपोर्ट, मोरारजी
लाये गये।
चिकित्सक
परेशान है।
हवाई जहाज
तैयार है, लेकिन
घंटा भर हो
गया और कोई
मंत्री जी को चढ़ाता नहीं।
उसने पूछा
अधिकारियों
से कि 'देर
क्यों हो रही
है? यहां
जीवन-मरण का
सवाल है।' उन्होंने
कहा, 'हम भी
जानते हैं, लेकिन फूलमालायें
नहीं आ पाईं।'
उस
चिकित्सक ने
कहा, 'तुम
पागल हो गए हो?
यह वक्त फूलमालाओं
का है? इसी
वक्त मंत्री
जी को हवाई
जहाज पर चढ़ाया
जाये।' मोरारजी
भाई ने आंखें खोलीं और
कहा, 'कुछ
हर्ज नहीं है।
थोड़ी देर
इंतजार कर
लेने दें, वैसे
भी फूल मेरी
तबीयत को बहुत
रास आते हैं।'
जिस
तरह के अहंकार
से तुम भरे हो
उसी तरह के अहंकार
से तुम्हारे
नेता भरे हैं।
वही तुम्हारे
और उनके बीच
संबंध है। जिस
तरह की विक्षिप्तता
तुममें है, उसी तरह की
विक्षिप्तता
तुम्हारे
गुरु में है।
वही तुम्हारे
और उसके बीच
सेतु है।
इसलिए
जब बुद्ध
पुरुष पैदा
होते हैं तब
तुम्हारी
पहली
प्रतिक्रिया
उनके विरोध
में होती है।
तुम उन पर
हंसते हो। तुम
सब तरह से
सिद्ध करने का
उपाय करते हो
कि इनका दिमाग
खराब हो गया
है। क्योंकि
दो ही बातें
हो सकती हैं, या तो ये
पागल हैं और
या फिर तुम
पागल हो। और
स्वयं को पागल
समझना अत्यंत
कठिन है।
क्योंकि अहंकार
पूरा का पूरा
गिरता है। कोई
पागल स्वयं को
पागल नहीं
समझता--कोई
पागल! बड़े से
बड़ा पागल भी
स्वयं को
बिलकुल ठीक समझता
है।
और
ध्यान रहे, जो पागल यह
समझ ले कि मैं
पागल हूं, समझ
लेना उसका
पागलपन गया।
वह रात टूट
गई। वह सपना
अब चल नहीं
सकता।
क्योंकि यह
बड़ी बुद्धिमानी
की घटना है यह
समझ लेना कि
मैं पागल हूं।
सुकरात ने कहा
है, ज्ञानी
का लक्षण है
पहला कि वह
समझ ले कि मैं
अज्ञानी हूं।
स्वस्थ
व्यक्ति का
पहला लक्षण ही
यह है कि वह
समझ ले कि
मुझमें
पागलपन है।
एच. जी.
वेल्स एक
कहानी कहा
करते थे। वे
कहते थे, 'एक
दफा मैं ट्रेन
में सवार हुआ
और एक आदमी
मेरे पास बैठा
था। वह इतना
उदास था कि
मुझे पूछना ही
पड़ा कि इतनी
उदासी क्यों?
क्या परेशानी
है? वह ऐसा
मुर्दे की तरह
बैठा था कि
जैसे अब मरा, अब मरा। तो
उस आदमी ने
अपना दुख
रोया। उसका दुख
यह था कि उसने
कहा कि अब मैं
क्या बताऊं,
किसको कहूं?
मेरी पत्नी
पागल हो गई है
और वह अपने को
मुर्गी समझने
लगी है। और
चौबीस घंटे 'कुकडूं कूं, कुकडूं कूं' किया
करती है। उसका
'कुकडूं कूं' मेरे
सिर में घूमता
रहता है रात
दिन। तो एच. जी. वेल्स
ने उसको कहा
कि 'भाई, इसमें इतने
परेशान होने
की जरूरत
नहीं। किसी अच्छे
मनोविश्लेषक
को दिखा लो, ठीक हो
जायेगी। इससे
भी बड़ी
बीमारियां
ठीक हो जाती
हैं।'
उसने
और भी उदास हो
कर कहा, 'साहब,
वह तो ठीक
है कि ठीक हो
जायेगी, लेकिन
हमें अंडों की
जरूरत भी रहती
है।'
अब
पागल कौन? कोई पागल
अपने को पागल
नहीं समझता।
सभी पागल दूसरे
को पागल समझते
हैं। जिस दिन
तुमने समझ लिया
कि मैं पागल
हूं, तुम्हारे
जीवन में
क्रांति की
किरण आनी शुरू
हुई। जिस दिन
तुमने समझ
लिया कि मैं
अज्ञानी
हूं...क्योंकि
सभी अज्ञानी
अपने को
ज्ञानी समझते
हैं। जिस दिन
तुमने समझ
लिया कि मैं
भटका हुआ
हूं...क्योंकि
कोई भी नहीं
भटक सकता इसको
समझने के बाद।
उसी दिन तुम
ठीक रास्ते पर
आ गये।
लेकिन
समाज दूध के
साथ जहर
पिलाता है। वह
सब अनजाने चल
रहा है। जिस
ढांचे में बाप
है, मां है, समाज है, गुरु
है, उसी
ढांचे में
बच्चे को वे ढालेंगे।
बिना इस बात
की फिक्र किए,
कि वह ढांचा
बुनियादी रूप
से गलत था। इस
जमीन को गौर
से देखो। अगर
ये ढांचे गलत
न हों तो क्यों
इतनी जरूरत है
युद्धों की? हर दस वर्ष
में एक
महायुद्ध
जरूरी हो जाता
है। करोड़ों
लोग जब तक
मारे न जायें
हर दस वर्ष
में, तब तक
आदमियत को चैन
नहीं। और
बेहूदा
कारणों से
मारे जाते
हैं। ऐसे कारण
कि तुम भी अगर
थोड़े होश में
आओगे तो
हंसोगे।
एक
डंडे पर कपड़ा
लटका रखा है, उसको झंडा
कहते हो। उसको
किसी ने झुका
दिया, इसमें
युद्ध हो सकता
है। कपड़े का
टुकड़ा है। इसमें
लाखों लोग मर
सकते हैं।
तुमने एक
मंदिर बना रखा
है, वहां
एक भगवान की
प्रतिमा तुम
बाजार से खरीद
लाये हो, उसे
स्थापित कर दी,
किसी ने
उसको फोड़
दिया, दंगे
हो जायेंगे।
छोटे बच्चे भी
इतने बचकाने
नहीं। उनकी
गुड्डी तोड़ दो
तो थोड़ा
शोरगुल
करेंगे, फिर
भूल जायेंगे।
लेकिन
तुम्हारे
दंगे जीवन भर
चलेंगे।
जन्मों-जन्मों
चलेंगे। पीढ़ी
दर पीढ़ी दोहराये
जायेंगे, क्योंकि
किसी ने मंदिर
तोड़ दिया है।
परमात्मा
का कोई मंदिर
तोड़ा जा सकता
है? यह सारा
अस्तित्व
उसका मंदिर
है। तुम्हारे
मंदिर तोड़े जा
सकते हैं, जो
तुमने बनाये
हैं। क्योंकि
वे परमात्मा
के मंदिर नहीं
हैं। जो तोड़ा
जा सकता है
उससे ही सिद्ध
हो गया कि वह
परमात्मा का
नहीं है।
परमात्मा का
तो कुछ भी
तोड़ा नहीं जा
सकता। जो
बनाया जा सकता
है वह तोड़ा जा
सकता है।
बनाने में ही
तुमने भूल की
थी, इसीलिए
तो तोड़ दिया
गया है।
कोई
मस्जिद में आग
लगा देता है, और मुहम्मद
परेशान रहे
जिंदगी भर
समझाने में कि
परमात्मा का
कोई आवास नहीं
है, वह सभी
जगह है। उसका
कोई नाम नहीं
है, कोई
रूप नहीं है, कोई मूर्ति
नहीं है।
लेकिन मस्जिद,
मंदिर से
भिन्न नहीं
है। वहां मूर्ति
तो नहीं है, लेकिन
मस्जिद ही
मूर्ति हो गई।
और पागलपन हमारा
ऐसा है कि अगर
तुम मूर्ति
बनाओ तो तुम
काफिर हो, पापी
हो, अज्ञानी
हो। यह बात
यहां तक पहुंच
गई कि अगर मुहम्मद
का कोई चित्र
बना ले, तो
उसकी जान खतरे
में। मुहम्मद
का कोई चित्र
छाप दे तो
उपद्रव हो जायेंगे।
क्योंकि
मूर्ति नहीं
है कोई।
परमात्मा
की मूर्ति
नहीं है, मुहम्मद
की तो हो सकती
है। परमात्मा
निराकार है, मुहम्मद
निराकार नहीं
हैं। उनका तो
चित्र हो सकता
है। लेकिन
नहीं, जब
पागलपन चढ़ता
है तो अति पर
जाता है।
बचपन
से जो बाप का
धर्म है, मां
का धर्म है, परिवार का
धर्म है, वह
बच्चे को
पिलाया
जायेगा।
पिलाने के ढंग
इतने सूक्ष्म
हैं कि पता भी
नहीं चलता। वह
उस मंदिर ले
जाया जायेगा
जहां वे जाते
रहे हैं। लेकिन
कोई यह नहीं
सोचता कि इन
मंदिरों के
कारण दुनिया
में शांति आई,
या अशांति
बढ़ी?
पर
सोचना-विचारना
गद्दारी है।
सोचना-विचारना
दुश्मनों का
काम है। कोई
यह नहीं सोचता
कि इन
शास्त्रों के
कारण
मनुष्यता एक
हुई, या टूटी?
आदमी-आदमी
के बीच दीवाल
किसकी है? शास्त्रों
की दीवाल है।
कोई नहीं
पूछता, कि
तुम्हारे
धर्मों ने
तुम्हें जोड़ा
या अलग किया? सब धर्म तोड़
दिए हैं आदमी
को--खंड-खंड।
एक धर्म में
भी पचास खंड
हो जाते हैं।
कैथलिक ईसाई,
प्रोटेस्टेंट ईसाई के
उतने ही खिलाफ
हैं, जितने
हिंदू के
खिलाफ हैं; हिंदू से भी
ज्यादा खिलाफ
हैं। सारे
धर्म कहते हैं,
प्रेम करो।
सारे धर्म
कहते हैं, 'भाईचारा,
बंधुत्व, मित्रता।
सारी पृथ्वी
उसकी ही है, एक ही पिता
है, सब
उसके पुत्र
हैं।'
लेकिन
यह सब बातचीत
रह जाती है।
ये कहने वाले तलवारें
उठा लेते हैं
और वे यह भी
कहते हैं कि बिना
तलवार उठाये
शांति कैसे
होगी? वे
कहते हैं लड़ना
तो पड़ेगा ही, तभी शांति
होगी। शांति
के लिए युद्ध
करना जरूरी हो
जाता है। कोई
भी नहीं पूछता
कि हम युद्ध
तो करते रहे, शांति अब तक
क्यों न आई?
कोई
तीन हजार साल
में पंद्रह
हजार युद्ध
हुए। पांच
युद्ध
प्रतिवर्ष! और
क्या चाहते हो? हिसाब लगाते
हैं इतिहासविद
तो वे कहते
हैं, ऐसा
दिन खोजना
मुश्किल है जब
कहीं न कहीं
युद्ध न चल
रहा हो जमीन
पर। कभी
वियतनाम हो, कभी कोरिया
हो, कभी इजराइल
हो, कभी
काश्मीर हो, कभी बांगला
देश हो। युद्ध
कहीं न कहीं
चलना ही
चाहिए। आदमियत
कभी भी स्वस्थ
नहीं। कभी पैर
बीमार, कभी
सिर बीमार, कभी हाथ
बीमार, कहीं
न कहीं आपरेशन
चल ही रहा है।
लेकिन कोई नहीं
पूछता कि इस
पूरी संस्कृति
में कहीं कोई
जहर के बीज
होंगे।
और फिर
जब युद्ध नहीं
भी चलता, तब
छोटे युद्ध तो
चल ही रहे
हैं। वे घर-घर
में चल रहे
हैं।
एक
स्कूल में एक
शिक्षक ने एक
बच्चे से पूछा
कि 'तुम बताओ,
तुम्हें
बड़े से बड़े
युद्ध का कुछ
पता है कौन सा?'
तो उस लड़के
ने कहा, 'बता
तो देते, लेकिन
बताने की
मनाही है।' शिक्षक ने
कहा, 'पागल!
किसने मनाही
की? इतिहास
इसीलिए तो पढ़ाया
जा रहा है।' तो उसने कहा
कि 'बड़े से
बड़ा युद्ध तो
मेरी मां और
पिता के बीच चलता
है। मगर किसी
को आप कहना
मत।'
बड़े
युद्ध तो
दिखाई पड़ते
हैं, लेकिन
छोटे-छोटे
युद्ध प्रतिपल
चल रहे हैं।
सारी जमीन
प्रतिपल कलह
से भरी है।
प्रेम के नाम
पर भी घृणा और
कलह है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
से कोई पूछ
रहा था कि कभी
तुम्हें अपने
विवाह की तिथि
और साल भूलता
तो नहीं? उसने
कहा, 'कभी
नहीं। दुख की
बात भुलाओ
तो भी भूलती
नहीं। सुख भूल
जायेगा, दुख
कभी नहीं
भूलता।'
प्रेम
दुख हो गया
है। और कोई भी
नहीं पूछता कि
कहीं न कहीं
हमारे जीवन की
संरचना में
कोई मौलिक
गलती है, जिसके
कारण सब गलत
हो जाता है।
कुछ भी ठीक
नहीं मालूम
पड़ता। और
जिनको तुम ठीक
कहते हो, उनका
भी ठीक होना
कितना ठीक है?
आदमी काम
करता है, दूकान
जाता है, बाजार
जाता है, सम्हालता
है घर-द्वार।
क्या तुम
सोचते हो, इतने
से पक्का हो
गया कि वह
स्वस्थ है, पागल नहीं? तब तुम उसे
क्रोध में
देखो, तो
तुम पाओगे वह
पागल है।
मनस्विद
कहते हैं
क्रोध अस्थाई
पागलपन है। और
दिन में कम से
कम दो चार दस
दफा हरेक को पकड़ता है। कितनी
देर लगेगी
स्थाई पागलपन
आने में? उदास
आदमी को देखो।
और फिर तुम
अपने
मस्तिष्क की
अगर जांच करो
तो तुम बहुत
हैरान हो
जाओगे, कि
वहां क्या
चलता है! तुम
वहां पाओगे सब
तरह के पागल
मौजूद हैं।
तुम्हारे
भीतर जो चलता
रहता है वह
बहुत हैरानी
का है। तुम उस
तरफ देखते ही
नहीं। कभी आधा
घंटा मन में
जो चलता है
उसे लिख डालो।
जैसा चलता है
वैसा ही। फिर
तुम अपने
निकटतम मित्र
को भी बताने
को राजी न
होओगे कि यह
मेरे भीतर
चलता है।
इसलिए
भीतर की तरफ
हम देखते नहीं, क्योंकि
वहां पागलपन
मालूम पड़ता
है। तुम में और
पागल में कोई
गुणात्मक भेद
नहीं है।
सिर्फ परिमाणात्मक
भेद है।
डिग्री का
थोड़ा सा अंतर
है। तुम अट्ठानबे
डिग्री पर हो,
वह सौ
डिग्री पर
पहुंच गया।
उबल रहा है, भाप बन रहा
है।
आदमी
खोजना
मुश्किल है, जो स्वस्थ
हो।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं बहुत
मुश्किल है
स्वस्थ आदमी
खोजना, जो
मानसिक रूप से
परम स्वस्थ
हो। शरीर से
स्वस्थ तो लोग
मिल जायेंगे,
क्योंकि
शरीर का
स्वास्थ्य
कोई बड़ी
गुणवत्ता
नहीं है। सारे
पशु स्वस्थ
हैं। शरीर का
स्वास्थ्य
पाशविकता का
हिस्सा है।
लेकिन मन का
स्वास्थ्य
बुद्धत्व है।
वह मुश्किल
है। कभी करोड़ों
वर्षों में
एकाध दो लोग
उतने स्वस्थ
हो पाते हैं
कि उन्हें
हमें
तीर्थंकर, अवतार
और भगवान कहना
पड़ता है। कहना
हमें इसीलिए
पड़ता है, अन्यथा
कोई जरूरत
नहीं है--अगर
बहुत लोग
स्वस्थ होते
मानसिक रूप से,
तो क्या
जरूरत किसी को
अवतार कहने की,
बुद्ध कहने
की, तीर्थंकर
कहने की? कोई
जरूरत नहीं
है। वे इतने
कम हैं, कि
उंगलियों पर
गिने जा सकें।
उन्हें हमें
आदमियों से
अलग करना पड़ता
है।
यह बड़ी
दुखद घटना है।
यह सहज होनी
चाहिए कि सभी
आदमी भगवत्ता
को उपलब्ध
हों। यह
कभी-कभी होना
चाहिए कि कोई
आदमी चूक जाये, न उपलब्ध हो
पाये, बीमार
हो। सोचो उस
जमीन को, जिसमें
सभी लोग
अस्पताल में
हों और
अस्पताल के
बाहर--घर, कभी
कोई एकाध आदमी
हो। कैसी वह
दुनिया होगी?
ऐसी ही
अभी मन की
दृष्टि से
हालत है।
लेकिन कोई
नहीं सोचता।
जब एक नया
बच्चा पैदा
होता है तो एक
नई दुनिया की
शुरुआत हो
सकती है। पर
हमारा पुराना
मन उसे भी
जल्दी लीप-पोत
कर हमारे साथ
राजी कर देता
है। हमारे
अहंकार हैं।
बाप चाहेगा
बेटा मेरे
जैसा हो; बिना
इसकी फिक्र
किए कि मैंने
क्या पा लिया
है, जो मैं
बेटे को बरबाद
करने की
तैयारी कर रहा
हूं? मैं
तो था मेरे
जैसा, क्या
मिला? परिवार
के लोग चाहते
हैं बेटा
हमारे जैसा हो,
हमारा प्रतीक
रहे। हम तो न
रहेंगे लेकिन
हमारा नाम बेटे
में रहे।
लेकिन क्या है
तुम्हारे नाम
में? अगर
जरा खोज-बीन
करोगे तो
मुश्किल में
पड़ोगे।
एक नया
आदमी धनपति हो
गया। जब वह
धनपति हो गया तो
उसने एक बड़े इतिहासविद
को शोधकार्य
में लगाया, कि मेरी
वंशावली का
पता लगाओ, ताकि
मैं वंश-वृक्ष
बना सकूं।
मैंने पूछा उस
धनपति को कुछ
महीनों बाद कि
'वह इतिहासविद
कुछ कर पाया? उसने खोज की?'
उदास, उस धनपति ने
कहा, 'हां।
उसने खोज थोड़ी
ज्यादा कर ली।
और अब मुझे उसे
रुपये देने पड़
रहे हैं चुप
रहने के लिए।
क्योंकि जो
उसने पता
लगाया है, वह
तो बड़ा खतरनाक
है। कोई
हत्यारा था
पीछे, कोई जेलखाने
में पड़ा सड़ा,
कोई पागल
था। यह सब पता
लगाया है
उसने। और अब मुझे
उसे रुपये
देने पड़ रहे
हैं कि तू चुप
रह।'
पहले
रुपये दे रहा
था खोज करने
के लिए। तुम
भी अगर खोज
करने जाओगे
अपने वंशावली
की, तो उन सब
अपराधों को
पाओगे जो आदमी
ने किए हैं।
क्योंकि पूरी
मनुष्यता के
तुम वंशज हो।
तुम आते हो
मनुष्यता की
एक लहर की
भांति। विचार
करना जरूरी है
कि नये बच्चे
को जब हम
ज्ञान दे रहे
हैं, तो हम
सोच कर दें।
और अगर अज्ञान
गलत मालूम हो,
और हमारे
पास देने को
कुछ न हो, तो
हम बच्चे को
हाथ जोड़ कर
माफी मांग लें,
कि हमारे
पास देने को
कुछ नहीं, तू
खुद ही खोजना।
जहर से
तो खाली पात्र
दे देना बेहतर
है। यही सब इस
कथा में है।
अब हम
इस कथा के
एक-एक हिस्से
को समझने की
कोशिश करें।
और सूफियों ने
बहुत जानकर यह
कहानी लिखी
है।
किसी
पुराने समय
में मूसा के गुरु
खिद्र ने
चेतावनी दी कि
एक खास तारीख
के बाद दुनिया
के सारे पानी
का गुण बदल
जायेगा और उसे
पीनेवाले
पागल हो
जायेंगे।
केवल वे ही
लोग सही सलामत
रहेंगे जो
थोड़ा पानी अलग
बचा कर रख
लेंगे और उसे
ही पीयेंगे।
केवल एक
व्यक्ति ने
खिद्र की
चेतावनी पर
ध्यान दिया।
पहली
बात, भगवान भी
आ जाये आकाश
से उतर कर, और
तुमसे कहे, तो करोड़ों
में से एक
उसकी बात पर
ध्यान देगा। तुम
सुन लोगे, अनसुनी
कर दोगे।
क्योंकि उसकी
बात पर ध्यान
देना
तुम्हारे
पूरे जीवन की
व्यवस्था को
बदलने की
तैयारी पर ही
संभव हो सकता
है।
लोग
हंसे होंगे।
उन्होंने कहा, क्या पागलपन
की बात है!
कहीं ऐसा हुआ
है? कहीं
ऐसा हो सकता
है? कभी
पहले नहीं हुआ
तो अब क्यों
होगा? लोग
अतीत से जीते
हैं और सोचते
हैं भविष्य
सिर्फ अतीत की
पुनरुक्ति
होगी। इसलिए
लोग कहते हैं
अनुभव इकट्ठा
करो, अनुभव
से जीयो।
अनुभव से जो
जीयेगा, उसका
अर्थ ही यह
होता है, कि
वह अतीत के ही
आधार पर
भविष्य को
पुनरुक्त करेगा।
मैं तुमसे
कहता हूं बोध
से जीयो, अनुभव से
नहीं।
क्योंकि
अनुभव तो मरा
हुआ है। वह
अतीत का है।
बोध सदा
वर्तमान का
है। जो हो चुका
है वह अब कभी न
होगा। जिंदगी
प्रतिपल बदल रही
है। गंगा बही
जाती है, सूरज
जला जाता है, सब बदलता
जाता है और
तुम अनुभव से
जीते हो। और अनुभव
का मतलब अतीत।
और अतीत को जब
तुम भविष्य पर
लगाते हो, वर्तमान
पर लगाते हो, तभी चूक हो
जाती है।
जिस
घटना से
तुम्हें
अनुभव मिला, वह घटना
दुबारा होगी
नहीं। इस
दुनिया में
दुबारा कुछ भी
नहीं होता।
यहां
पुनरुक्ति तो
है ही नहीं।
यहां प्रतिपल
नया है। जैसे
हर कोंपल नई
है और हर सुबह
की ओस नई है, ऐसा हर क्षण
यहां नया है।
इस नये में
पुराने का तुम
जो कचरा ले
आते हो, उसी
से उपद्रव
होता है। तुम
भी नये हो
जाओ। और तुम
भी कोंपल की
तरह नये, बोधपूर्ण
रहो। तब तुम्हारा
जो भी
प्रत्युत्तर
होगा जीवन को,
वह सही
होगा।
पंडित
और ज्ञानी में
यही फर्क है।
पंडित अतीत के
अनुभव से जीता
है। ज्ञानी
सिर्फ बोध से
जीता है, ज्ञान
से नहीं। जाग
कर जीता है।
अतीत को साथ लेकर
नहीं चलता, कि उससे
हिसाब लगाये।
झेन फकीरों की
एक मीठी कथा
है। दो मंदिर
थे एक गांव
में। दोनों
मंदिर के पुजारियों
में विरोध था
जैसा कि होता
है। दोनों एक
दूसरे के
खिलाफ पीढ़ी
दर पीढ़ी
से दुश्मन थे।
न कभी मिलते
थे। रास्ते पर
भी एक दूसरे
से मिल जायें, तो बच कर
निकल जाते थे।
लेकिन दोनों
पुजारियों के
पास दो छोटे
लड़के थे जो उनकी
सेवा में थे।
बाजार से
सामान लाना, सब्जी खरीद
लाना, दौड़
धूप के काम!
बच्चे, बच्चे
हैं। बूढ़ों को
भी बिगाड़ने
में देर लग जाती
है। उन बच्चों
को भी पुरोहित
कहते थे कि देखो,
दूसरे
मंदिर के
बच्चे के साथ
खेलना मत।
लेकिन बच्चे,
बच्चे हैं।
बिगड़ने में
समय लगता है। वे
कभी-कभी
रास्ते पर मिल
जाते थे तो दो
बात भी कर
लेते थे।
एक दिन
पहले मंदिर का
बच्चा वापिस
आया। वह उदास
था और उसने
अपने गुरु को
कहा कि आज बड़ी
मुश्किल हो
गई। मैं जा
रहा था रास्ते
पर, चौराहे
पर दूसरे
मंदिर का लड़का
मिला। मैंने उससे
पूछा, 'कहां
जा रहे हो?' तो
उसने कहा, 'जहां
हवा ले जाये।'
तो फिर मैं
कुछ भी न सोच
पाया कि अब
मैं क्या कहूं?
उसने तो बड़ी
पहेली कह दी।
गुरु
बहुत नाराज
हुआ कि पहले
तो तूने भूल
की पूछ कर।
क्योंकि उन
अज्ञानियों
से पूछना
क्या! और जब
मैं यहां
मौजूद हूं, तो जो भी
पूछना हो
मुझसे पूछ। और
पूछ कर तूने
सिद्ध किया कि
हम अज्ञानी
हैं। हम सदा उत्तर
देते हैं।
पूछते हम कभी
नहीं। अब पूछ
ही लिया, तो
उसे हराना
जरूरी है। तू
हार कर लौटा
है। ऐसा कभी
हुआ नहीं। इस
मंदिर का
कण-कण विजेता
है। यहां सारी
कथा विजय की
है। हम हारे
कभी नहीं। कल
उसे हराना
पड़ेगा तुझे।
कल फिर पूछना,
'कहां जा
रहे हो?' और
वह जब कहे, 'हवा
जहां ले जाये',
तो कहना, 'और अगर हवा न
चल रही हो, सब
बंद हो, फिर
क्या करोगे?' उसका मुंह
बंद करना
जरूरी है।
यही
उत्तर है
धार्मिकों
का--मुंह बंद
कर देना दूसरों
का। लड़का
उत्सुकता से
जल्दी उठकर
चौराहे पर
दूसरे दिन खड़ा
हो गया। आया
दूसरे मंदिर
का लड़का। उसने
पूछा, 'कहां
जा रहे हो?' उसने
कहा, 'जहां
पैर ले जायें।'
बड़ी
मुसीबत हो गई!
उत्तर तैयार
था, लेकिन
स्थिति बदल
गई। बंधे
उत्तर...लोगों
की यही दशा
होती है हर
वक्त। उनका
उत्तर तैयार
है, और
स्थिति रोज
बदलती है।
उत्तर कहीं नहीं
बैठता। सब जगह
अड़चन आ जाती
है।
लौटा
दुख में और
उसने कहा, 'वह लड़का
बेईमान है। कल
कुछ कहा, आज
बदल गया।' गुरु
ने कहा, ''उस
मंदिर के लोग
सदा के बेईमान
हैं, इसीलिए
हम कहते हैं
उनसे बात ही
मत करना। वे भरोसे
के नहीं हैं।
हम जिस उत्तर
पर अटल हैं, उस पर अटल
रहते हैं।
उनका कोई
भरोसा नहीं है
जब जैसा देखा,
बदल गये।
उनकी स्थिति
तो गिरगिट
जैसी है। अवसरवादी
हैं, अपारचुनिस्ट हैं, मगर
हराना जरूरी
है। तो कल फिर
पूछना, 'कहां
जा रहे हो?' वह
लड़का कहेगा, 'जहां पैर ले
जायें।' तो
कहना, 'और
अगर लंगड़े हो
गये, फिर
क्या करोगे?' उसका मुंह
बंद करना हर
हालत में
जरूरी है।''
बस!
पंडित एक
दूसरे का मुंह
बंद करने में
लगे रहते हैं।
वह लड़का फिर
जाकर और भी
जल्दी खड़ा हो गया।
आया, उधर से
दूसरे मंदिर
का लड़का। पूछा
इसने, 'कहां
जा रहे हो?' उसने
कहा, 'बाजार
सब्जी लेने जा
रहे हैं।' अब
कोई उत्तर की
संगति न रही।
न पैर, न
हवा। वह लौटा
बहुत दुख में।
उसने अपने
गुरु से कहा
कि 'इसका
मुंह बंद करना
मुश्किल है।
क्योंकि मैं तैयार
उत्तर ले जाता
हूं। और वह
बदल जाता है।'
जिंदगी
भी ऐसी ही बदल
रही है
प्रतिपल। और
तुम तैयार
उत्तर ले कर
उसके पास जाते
हो। तुम अगर जिंदगी
को चूक रहे हो, तो तुम्हारे
तैयार
उत्तरों के
कारण चूक रहे
हो। परमात्मा
का अगर द्वार
बंद है, तो
तुम्हारे
ज्ञान के कारण
बंद है। तुम
अपने ज्ञान को
हटाओ और
तुम उसे पाओगे
वह सामने खड़ा
है। लेकिन तुम
चाहते हो, धनुषबाण लेकर खड़े
होओ। क्योंकि
हम तो
रामचंद्र जी
का उत्तर पकड़े
बठे हैं।
कि मुंह पर
बांसुरी बजाओ
रख कर।
क्योंकि हम तो
कृष्ण के भक्त
हैं।
तुम
होओ भक्त!
जिंदगी न
कृष्ण को
मानती है, न राम को, न
बुद्ध को। ये
सब जिंदगी में
पैदा हुए हैं।
जिंदगी इनके
किसी के ढांचे
को नहीं
मानती। वह रोज
बदलती जाती
है। जिंदगी पुररुक्त नहीं
होती। कृष्ण
एक बार; दुबारा
नहीं होते।
जिंदगी बासी
नहीं होती। जिंदगी
रोज नये को
पैदा करती है।
अब वे दुबारा मोर-मुकुट
बांध कर खड़े न
होंगे और तुम
मोर-मुकुट
वाले कृष्ण की
प्रतीक्षा कर
रहे हो। तुम थकोगे, मरोगे,
मिटोगे। वे
कृष्ण अब
आयेंगे नहीं।
वह बात चूक गई।
अब हो सकता है
वे टाई वगैरह
बांध कर खड़े
हों। तुम चूक
जाओगे। तुम
कहोगे, 'टाई
और कृष्ण? कभी
नहीं।'
लेकिन
क्या अड़चन है? मोर-मुकुट
बांध सकते हो,
टाई नहीं? मोर-मुकुट
कुछ बेहतर है
टाई से? लेकिन
मोर-मुकुट
परंपरागत
उत्तर है। समझ
में आता है।
एक
गांव में मैं
गया था, वहां
दंगा हो गया।
वहां दंगा हो
गया, क्योंकि
कालेज के लड़के
एक नाटक खेल
रहे थे। नाटक
एक मजाक था, लेकिन लोग मूढ़ हैं और
मजाक को भी
नहीं समझ
पाते। मूढ़
का लक्षण ही
यही है कि वह
मजाक को
बिलकुल ही नहीं
समझ पाते।
नाटक था
मॉडर्न
रामलीला।
मजाक ही था, एक व्यंग
था। लेकिन झगड़ा
हो गया।
क्योंकि
रामचंद्र जी
टाई वगैरह
बांधे, पैंट-कोट
पहने खड़े थे
नाटक में। और
सीता जी सिगरेट
पी रही थीं। झगड़ा हो
गया। वहीं
दंगा-फसाद हो
गया। वहीं कुर्सियां
तोड़ डाली गईं।
मंच पर लोग चढ़
गये, उन्होंने
कहा कि अपमान
हो गया।
बड़ी
हैरानी की बात
है! शास्त्रों
में लिखा है
कि विष्णु
स्वर्ग में बैठे
तांबूल चर्वण
करते रहते
हैं। वह
चलेगा। पान खायें, चलेगा।
मोर-मुकुट
बांधें, चलेगा।
क्योंकि वह
उत्तर हमारा
सुना हुआ है। इतनी
बार दोहराया
गया, कि हम
भूल ही
गये--जरा
मोर-मुकुट
बांध कर चौखट्टे
पर खड़े हो जाओ
कैसा पता चलता
है! लोग
समझेंगे, पागल
हो गये।
जिंदगी
रोज बदल जाती
है। और
तुम्हारे
उत्तर कभी
नहीं बदलते।
तुम जिंदगी से
रोज चूक जाते
हो। तुम्हारा
कहीं मेल ही
नहीं होता।
अगर परमात्मा
तुम्हें नहीं
मिल रहा है, तो तुम्हारे
बंधे हुए
उत्तरों की
वजह से। और जब
भी तुम्हें
कोई नया उत्तर
दिया जायेगा,
तुम सुनोगे
नहीं।
क्योंकि तुम
इतने पुराने
से भरे हो!
मूसा
के गुरु खिद्र
ने चेतावनी दी
कि एक घड़ी आ रही
है जब दुनिया
का सारा पानी
अपना गुणधर्म
बदल देगा। जो
भी उसे पीयेगा, पागल हो
जायेगा। और
जिसको पागलपन
से बचना है, वह इस पानी
को बचा ले। एक
आदमी ने सुनी।
आदमी
हैरानी का रहा
होगा। वैसे ही
आदमी बनो, तो ही
तुम्हारी
जिंदगी में
कुछ घट सकता
है। नये की
सुनो। नये की गुनो। नये
को पहचानो।
लेकिन
उसके लिए नयी
आंख चाहिए, नया हृदय
चाहिए।
पुराना हृदय,
पुरानी आंख,
नये को कैसे
पहचानेगी?
और इसीलिए
तुम चूक जाते
हो। और
परमात्मा सदा
नया अवतरण है।
प्रतिपल वह
नया होकर आ
रहा है। उसकी
कला चुक नहीं
गई है। जिनकी
कला चुक जाती
है, वे ही
पुराने को
दोहराते हैं।
परमात्मा
अनंत कला है।
वह कभी नहीं
चुकेगा। उसे
पुराने को दोहराने
की जरूरत न
पड़ेगी। वह रोज
नये को जन्माता
जायेगा। पुराने
को तो तभी
दोहराते हो जब
तुम और कुछ नहीं
कर पाते।
तुम्हारी
प्रतिभा चुक
जाती है, उसकी
प्रतिभा चुकी
नहीं। वह नये
कृष्ण बनायेगा।
नये राम
बनायेगा। नये
बुद्धों को
जन्म देगा। वह
रोज नया करेगा
और नये को
सुनने की क्षमता
ही उससे मिलन
का द्वार
बनेगी।
एक
आदमी ने सुना।
केवल
एक व्यक्ति ने
खिद्र की
चेतावनी पर
ध्यान दिया।
बाकी
लोगों ने भी
सुना तो होगा...
इसलिए सुनना पर्याप्त
नहीं है। कान
से सुना होगा।
एक कान से आया
होगा, दूसरे
कान से निकल
गया होगा।
उनमें कई
पंडित भी
होंगे, जिन्होंने
सुना होगा और
कुछ अर्थ
निकाला होगा।
उन्होंने कहा
होगा, 'यह
तो प्रतीक है।
कहीं पानी
बदलता है? इसका
कुछ मतलब है।
इस मतलब में
कुछ राज है।' उन्होंने
बड़े शास्त्र
रचे होंगे, लेकिन पानी
नहीं बचाया
होगा।
उन्होंने
चेतावनी की
व्याख्या की
होगी।
उन्होंने
चेतावनी पर
बड़े-बड़े
सिद्धांत रचे
होंगे, लेकिन
पानी नहीं
बचाया होगा।
पंडित
ऐसा ही है। वह
दूसरे को
समझाने में
जीवन गंवा
देता है और जो
वह दूसरे को
समझा रहा है, कभी अपनी
जिंदगी में
नहीं उतारता।
और वही कसौटी
है। क्योंकि
जिसको तुम
बहुमूल्य
समझते हो दूसरे
के लिए, उसे
तुम इतना
मूल्यवान भी
नहीं समझते कि
अपनी जिंदगी
में उतारो।
पिरहो
नाम का यूनान
में एक
दार्शनिक
हुआ। वह लोगों
को समझाता था, 'जीवन असार
है। और
आत्महत्या
एकमात्र उपाय
है।' वह
खुद तिरान्नबे
साल तक जीया।
आत्महत्या
नहीं की उसने।
और बड़े मजे से
जीया। उससे
बुढ़ापे में
किसी ने पूछा
कि, 'पिरहो,
जिंदगी से
तुम समझाते हो
कि जिंदगी
बेकार है और
आत्महत्या एक मात्र
उपाय है, और
तुम्हारी
मानकर हमने
सुना कई लोगों
ने आत्महत्या
भी कर ली।
तुमने क्यों
नहीं की?' उसने
कहा कि 'मेरी
मजबूरी है।
मुझे समझाने
के लिए लोगों
को, रुके
रहना पड़ा।
नहीं तो
समझाता कौन?'
पंडित
तुम्हें
समझाता है, परमात्मा तक
पहुंचो।
वह परमात्मा
तक नहीं जाता
है। तुम्हें
समझाने के लिए
रुका रहता है।
तुम्हें
समझाना परमात्मा
तक जाने से
ज्यादा
मूल्यवान है?
नहीं, वह
कभी इसे
मूल्यवान ही
नहीं समझता।
वह जो भी कह
रहा है, वह
व्यवसाय है।
वह भी शोषण की
विधि है। उसे
खुद भी कभी
पक्का नहीं
जंचा। तुम अगर
पंडित के हृदय
में खोजोगे,
तो संदेह
छिपा हुआ
पाओगे। वह
दूसरों को
समझाता होगा
श्रद्धा, उसके
भीतर तुम
संदेह का कीड़ा
पाओगे, जो
उसके भीतर की
आत्मा को
काटता रहता
है।
सुना
बहुत लोगों ने
होगा, लेकिन
एक ने ध्यान
दिया। और
जिसने ध्यान
दिया वही केवल
बचेगा।
बहुतों ने
विचार किया
होगा, ध्यान
एक ने दिया।
ध्यान
और विचार में
फर्क है।
विचार का अर्थ
है, तुम
विस्तार में
चले जाते हो।
विश्लेषण में
चले जाते हो।
ध्यान का अर्थ
है, एक चीज
पर तुम एकाग्र
हो जाते हो।
तुम्हारी सारी
जीवन-ऊर्जा
वहीं लग जाती
है। दांव लग
जाता है।
ध्यान का अर्थ
है, तीर की
तरह तुम एक ही
निशाने की तरफ
चलने लगते हो।
विचार का अर्थ
है, हजार
चीजें चारों
तरफ हो जाती
हैं। तुम
खंड-खंड होकर
सोचने लगते
हो। क्या ठीक,
क्या नहीं
ठीक! क्या
करना, क्या
नहीं करना!
समझो
कि तुम्हारे
घर में आग लगी
हो और कोई
तुमसे कहे कि
घर में आग लगी
है। तुम इस पर
विचार करोगे
या ध्यान? तुम अगर
विचार करोगे,
तो जलोगे।
क्योंकि
विचार में समय
लगेगा और आग
तुम्हारे लिए
नहीं रुकेगी।
जो ध्यान देगा
वह झट से
छलांग लगा कर
बाहर जायेगा।
विचार फिर भी
किया जा सकता
है, लेकिन
ध्यान निरंतर कृत्य
बन जाता है।
और विचार
कृत्य से बचाव
बन जाता है।
कभी-कभी तो
ऐसा होता है
कि तुम कृत्य से
बचने के लिए
विचार करते
रहते हो। और
तुम कहते हो
जब तक निर्णय
न कर लें, तब
तक कृत्य को
कैसे उतारें?
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, 'संन्यास
का विचार चल
रहा है। सोच
रहे हैं, छलांग
लेनी है, अभी
समय लगेगा।' मैं उनसे
पूछता हूं कि
मृत्यु तुमसे
पूछ कर न आयेगी,
किसी भी
क्षण आ
जायेगी। तुम
मृत्यु से यह
न कह सकोगे कि
जरा रुको, मैं
संन्यास के
लिए सोच रहा
हूं, मैं
संन्यास ले
लूं फिर मरूं;
न तो जन्म
तुमसे पूछ कर
आता है, न मृत्यु
तुमसे पूछ कर
आती है। न
प्रेम तुमसे
पूछ कर आता है;
घट जाता है,
अचानक तुम
पाते हो किसी
व्यक्ति के
प्रेम में पड़
गये हो।
संन्यास
को तुम सोच
रहे हो। जो भी
महत्वपूर्ण है
उस पर ध्यान
दिया जाता है, सोचा नहीं
जाता। जो
महत्वहीन है,
उसको ही लोग
सोचते हैं।
सोचना, स्थगित
करने की तरकीब
है, पोस्टपोन करने की
तरकीब है, टालने
की तरकीब है।
तुम सोचने की
बात ही तब उठाते
हो, जब तुम
टालना चाहते
हो। तुम क्रोध
के लिए नहीं
सोचते कि कल
करूंगा, सोच
कर करूंगा।
अभी करते हो।
ध्यान तुम
कहते हो, 'सोचेंगे।'
तुम्हें
किसी की हत्या
करनी हो, तो
तुम तत्क्षण
करते हो।
क्योंकि तुम
भी जानते हो
एक क्षण अगर
चूक गये, फिर
शायद न कर
पाओगे।
क्योंकि वह
क्षण क्रोध का
फिर आये, न
आये। लेकिन
अगर दान देना
हो, तो तुम
कहते हो, 'सोचेंगे।'
और तुम भी
भलीभांति
जानते हो कि
यह क्षण भी चूक
जायेगा।
मार्क ट्वेन ने लिखा
है अपने
संस्मरण में, 'एक चर्च में
मैं गया। जो
पुरोहित बोल
रहा था वह
इतना अदभुत
बोल रहा था कि
पांच मिनट
सुनने के बाद
मुझे लगा कि
दस डालर मेरी
जेब में हैं, दान करके जाऊंगा।
यह चर्च देने
जैसा है।
'व्याख्यान
चलता रहा, लेकिन
मेरे भीतर एक
नई उलझन चलने
लगी कि दस
देना जरूरी है? पांच
से काम नहीं
चल जायेगा? जैसे ही
मैंने सोच
लिया कि दस
देना है, वैसे
ही व्याख्यान
से मेरा संबंध
टूट गया और भीतर
एक धारा चलने
लगी कि पांच
से भी चल
जायेगा? और
अभी कुछ कहा
तो है नहीं
किसी को। किसी
को पता भी
नहीं है। पांच
ही दे देंगे।
तो कोई ऐसा
थोड़ी है, पांच
क्या कम है?'
आधा
व्याख्यान
होते-होते
मार्क ट्वेन
ढाई पर आ गया।
खत्म
होते-होते
उसने सोचा कि
एक डालर भी
कौन देता है? यहां जो लोग
देनेवाले हैं;
कोई चौथाई
डालर देगा, कोई आधा
डालर देगा। एक
डालर सब से
बड़ा दान होगा।
एक काफी है।
और जब
दान-पात्र आया
तो मार्क ट्वेन
ने लिखा है कि
मैंने अपना
डालर तो डाला
ही नहीं, एक
डालर उसमें से
उठा लिया।
मैंने सोचा, कौन देख रहा
है? और इस
आदमी ने एक
घंटा खराब
किया मेरा। एक
घंटा
व्याख्यान
दिया, एक
घंटा मेरा
खराब किया। एक
डालर लेकर घर
आ गया।
तुम
जिस चीज पर भी
कहते हो, 'सोचेंगे';
जरा गौर
करना, तुम
टाल रहे हो।
और क्षण होते
हैं जीवन में
कृत्य के। जब
तुम एक शिखर
पर होते हो, जहां से
कृत्य फलित
होता है।
क्योंकि
कृत्य तभी
फलित होता है,
जब
तुम्हारी
पूरी
जीवन-ऊर्जा एक
शिखर पर केंद्रित
हो जाती है; तभी कृत्य
फलित होता है।
इसलिए क्रोध
तुम उसी वक्त
करते हो।
क्योंकि अगर
यह शिखर खो
गया, फिर
कल तुम न कर
पाओगे। इसलिए
ज्ञानियों ने
कहा है, बुराई
को स्थगित
करना, सोचना;
और भलाई पर
ध्यान देना, और करना।
बुराई को कहना,
कल करेंगे।
भलाई को कहना,
अभी! इसी
क्षण! उसमें
क्षण भी मत
खोना। अगर तुम
यह नियम मान
लो...।
इससे
उलटा नियम तुम
मान ही रहे
हो। उसका ही
तुम्हारा
जीवन परिणाम
है, कि बुराई
को तुम
तत्क्षण करते
हो। भलाई को
तुम कल पर
टालते हो। पाप
आज करते हो, पुण्य अगले
जन्म में। पाप
अभी, पुण्य
बुढ़ापे में।
किसी के प्राण
लेना हो तो आज,
और
प्रार्थना
करनी हो तो
कल। वह कल कभी
नहीं आता।
पापी का
जीवन--यह उसका
सूत्र है:
बुराई अभी, भलाई कल।
परमात्मा का
जीवन: भलाई
अभी, बुराई
कल। जो कल पर
छोड़ा वह कभी
नहीं होता। कल
पर छोड़ने की
कुशलता विचार
है; कि
सोचेंगे।
सोचने में समय
लगेगा, त्वरा
चली जायेगी, क्षण खो
जायेगा, तुम
भूमि पर आ
जाओगे।
भावावेश खो
जायेगा।
एक
आदमी ने ध्यान
दिया। ध्यान
का अर्थ है, इस बात ने
उसे ऐसा पकड़
लिया, कि
पूरा जीवन
दांव पर है।
उसने कुछ सोचा
नहीं।
उसने
कुछ पानी बचा
कर रख लिया।
निश्चित तिथि
के बाद वही
हुआ, जो खिद्र
ने कहा था। और
इस एक आदमी को
छोड़ कर गांव
के सभी लोग
पागल हो गये।
लेकिन जब उसने
लोगों से
बातचीत की, तब उसे पता
चला कि सब उसे
ही पागल मानते
हैं।
स्वाभाविक
है। जहां सभी
पागल हों, वहां
बुद्धिमान
होना बड़ा
खतरनाक है।
जहां सभी
बीमार हों, वहां स्वस्थ
होना खतरा
लेना है। जहां
सभी अंधे हों,
वहां आंखें
मुसीबत में डालेंगी।
क्योंकि जहां
सभी एक जैसे
हैं और तुम
पृथक, भीड़
तुम्हें पागल
करेगी। और भीड़
बड़ी है। बहुमत
उसका है। तुम
अकेले हो।
सिद्ध करने का
कोई उपाय भी
नहीं है।
सिद्ध तुम
किसके सामने
करोगे? किसको
समझाओगे?
वहां समझने
वाला भी कोई
नहीं है। लोग
हंसेंगे और वे
कहेंगे, 'देखो
पागल को।'
ऐसा ही
घट रहा है
पूरे जीवन
में। जिस भीड़
से तुम घिरे
हो, वह भीड़
अपने को ठीक
समझती है। अगर
तुम जरा लीक से
यहां-वहां हटे,
तो वह
तुम्हें पागल
समझती है।
बड़ी
प्रसिद्ध कथा
है, कि ऐसा
हुआ कि एक
सम्राट को एक
चालबाज आदमी
ने कहा, कि
मैं तुम्हें
देवताओं के
वस्त्र लाकर
दे सकता हूं।
देवताओं के
वस्त्र कभी
पृथ्वी पर आये
नहीं थे। उस
सम्राट ने कहा
कि जो भी खर्च
करना हो, किया
जाये। यह
ऐतिहासिक बात
है। मैं अकेला
पहला आदमी
होऊंगा जिसको
देवताओं के
वस्त्र मिले।
तुम लेकर आओ।
उस आदमी ने
कहा, 'कई
करोड़ों का खर्च
है। आना-जाना,
यह यात्रा
लंबी और
रिश्वत! वहां
भी कोई ऐसे नहीं
मिल जायेंगे।
द्वारपाल, और
फिर द्वारपाल
से लेकर
देवताओं तक
पहुंचना।
बहुत रिश्वत!
सम्राट ने कहा,
'कुछ भी हो, कुछ भी खर्च
हो, एक ही
बात खयाल रखना,
घोखा देने की
कोशिश मत
करना। नहीं तो
जिंदगी से हाथ
धोओगे।' उसने कहा, 'धोखे का कोई
सवाल नहीं है।
इसी महल में
मुझे कमरा दे
दिया जाये, चारों तरफ
पहरा लगा दिया
जाये।'
महल
में कमरा दे
दिया गया।
चारों तरफ
पहरा लगा दिया
गया। धोखे का
कोई कारण नहीं
था। निश्चित
तिथि पर वह
आदमी बाहर
आया। एक बड़ी
खूबसूरत पेटी
ले कर आया।
दरबार में
पेटी रखी।
सारे दरबारी
इकट्ठे हैं।
राजधानी में
बड़ा शोरगुल
है। लोग
इकट्ठे हैं। भीड़ों पर
भीड़ टूट रही
है। महल की
तरफ रास्ते
भरे हुए हैं।
सारी राजधानी
भर गई है
देखनेवालों
से। देवताओं
के वस्त्र!
उसने राजा की पगड़ी ली, पेटी में
हाथ डाला।
खाली हाथ बाहर
निकाला और कहा,
'यह देवताओं
की पगड़ी।
लेकिन एक बात
कह दूं, जब
मैं चलने लगा,
तो देवताओं
ने कहा, ये
साधारण
वस्त्र नहीं
हैं। केवल
उन्हीं को दिखलाई
पड़ेंगे जो
अपने ही बाप
से पैदा हुए
हों।'
हाथ
खाली था। पगड़ी
उसमें थी
नहीं। राजा ने
गौर से भी
देखा कि पगड़ी
है नहीं, लेकिन
अब झंझट है।
उसने झट से पगड़ी
ली और कहा, 'अहा!
कैसी सुंदर पगड़ी!' जो
थी ही नहीं, सिर पर रख
ली। सारे
दरबारी
तालियां
बजाने लगे।
एक-एक को
दिखाई पड़ा कि पगड़ी तो
नहीं है।
लेकिन जब सब
ताली बजा रहे
हों, सब को
दिखाई पड़ रही
है, तो हम
क्यों झंझट
में पड़ें?
यही सब
की दशा थी। पगड़ी
किसी को दिखाई
न पड़ी, लेकिन
सभी ने सोचा, कि बाकी सब
को दिखाई पड़
रही है तो
सिर्फ मैं ही नाहक
अपने पिता और
अपने वंश के
संबंध में
क्यों
गलतफहमी का
कारण बनूं? लोग एक
दूसरे से
बढ़-बढ़ कर
तालियां
बजाने लगे। और
एक दूसरे से
बढ़-बढ़ कर
प्रशंसा करने
लगे। कोई पीछे
न खड़ा रहा
क्योंकि कहीं
शक न हो जाये, कि यह आदमी
पीछे क्यों
खड़ा है? कुछ
बोलता क्यों
नहीं? लोग
चुप भी न रह
सके क्योंकि
कहना जरूरी
है। जोर से
कहना जरूरी
है। और जब
सबने प्रशंसा
की, तो
राजा ने कहा, 'हो न हो, मेरा
ही जन्म
संदिग्ध है।
मगर अब कुछ
करना ठीक
नहीं। चुपचाप पगड़ी पहन
लेना ठीक है।'
पगड़ी
उसने पहन ली, जो थी ही
नहीं। यही सभी
वस्त्रों का
हुआ। वह चालाक
आदमी उसके
वस्त्र ले कर
पेटी में
डालता गया।
क्योंकि वे भी
कीमती थे और
बचाना जरूरी
थे। और खाली
हाथ बाहर आता।
कोट आया, कमीज
आया, और
अंत में आखिरी
वस्त्र भी
उसका चला गया।
राजा बिलकुल
नंगा खड़ा है
और दरबार ताली
पीट रहा--'इससे
सुंदर वस्त्र
कभी देखे नहीं
गये।'
और उस
चालबाज आदमी
ने कहा कि 'अब
रथ तैयार किया
जाये, क्योंकि
करोड़ों लोग
इकट्ठे हैं।
और सभी वस्त्र
देखने को आतुर
हैं।' और
उस चालबाज
आदमी ने गांव
में डुंडी
पिटवा दी,
कि ये
वस्त्र
साधारण
वस्त्र नहीं
हैं। ये केवल
उन्हीं को
दिखाई पड़ेंगे,
जो अपने ही
बाप से पैदा
हुए हैं।
सभी
अपने बाप से
पैदा हुए हैं।
नंगा राजा रथ
पर सवार गांव
में निकला और
भीड़ पागल हो
रही है। वस्त्रों
की प्रशंसा कर
रही है। सिर्फ
एक बच्चा, जो अपने बाप
के कंधे पर
बैठकर आ गया
था, उसने
अपने बाप से
कहा, 'मुझे
तो राजा नंगा
दिखाई पड़ता
है।'
बाप ने
कहा, 'चुप
नासमझ! अगर
किसी ने सुन
लिया, तो
मुसीबत होगी।
ये वस्त्र ऐसे
हैं, कि जब
तू बड़ा हो
जायेगा तब
दिखाई पड़ेंगे।
तू अभी बच्चा
है।' सिर्फ
उस एक बच्चे
को राजा नंगा
दिखाई पड़ा। उसको
ही सत्य दिखाई
पड़ा। लेकिन
बाप ने कहा, 'तू बड़ा हो
जायेगा तो
तुझे भी दिखाई
पड़ेगा। घबड़ा
मत। जल्दी मत
कर। यह अनुभव
से दिखाई पड़ता
है।'
सभी
बाप अपने
बेटों से यही
कह रहे हैं, 'अनुभव से
दिखाई पड़ेगा!'
बेटे को
दिखाई पड़ता है,
पत्थर की
मूर्ति; बाप
कहता है, 'भगवान।'
राजा नंगा
है, बाप
कहता है 'वस्त्र
पहने हुए हैं।'
बाप झुकता
है, बेटे
को भी झुकाता
है। 'झुको,
नमस्कार
करो, यह
भगवान हैं।' बेटा इंकार
भी करना चाहता
है। उसका
इंकार सही भी
है, क्योंकि
उसे वही दिखाई
पड़ता है जो है,
कि यहां
सिर्फ मूर्ति
है, खिलौने
के सामने
झुकाया जा रहा
है। लेकिन बाप
कहता है, 'अनुभव
से तुझे भी
दिखाई पड़ेगा।'
और इसको भी
अनुभव से
दिखाई पड़ने
लगेगा। दिखाई इसलिए
पड़ने लगेगा, क्योंकि
अनुभव का केवल
इतना ही मतलब
है कि चालबाज
हो जायेगा। और
यह भी समझ
लेगा कि इसमें
इंकार करने
में झंझट है।
भीड़ झूठ मानती
है तो भीड़ का
झूठ मान लेना
उचित है। भीड़
जो कहती है
उसके साथ चलने
में सुविधा
है।
असत्य
भी
सुविधापूर्ण
है, अगर भीड़
मानती है।
सत्य की तरफ
इशारा करना
अपने लिए
असुविधा पैदा
करनी है।
क्योंकि भीड़
ने शर्तें लगा
रखी हैं। अगर
तुम कहो कि
मंदिर में रखी
हुई मूर्ति
सिर्फ पत्थर
है, तो लोग
कहेंगे, 'तुम
नास्तिक हो।
तुम अपने बाप
से पैदा नहीं
हुए हो। तुम सड़ोगे
नर्क में।' और भीड़
तुम्हें हजार
तरह की झंझटें
पैदा करेगी।
तुम्हें कुंए
से पानी न
पीने देगी।
तुम्हें साथ
बैठ कर भोजन न
करने देगी।
तुम्हारे
विवाह में मुसीबत
आयेगी।
तुम्हारे
बच्चों के
विवाह न हो सकेंगे।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं कि 'आपकी
बातें तो ठीक
लगती हैं।
लेकिन मैं जैन
हूं। मैं
ज्यादा अभी आ
नहीं सकता, क्योंकि
मुझे लड़की की
शादी करनी है।
शादी हो जाये,
फिर मुझे
कोई डर नहीं।
फिर मैं आऊंगा।
लेकिन अभी
लड़की की शादी
करनी है। अगर
ज्यादा आया
गया और लोगों
को संदेह हो
गया, तो
मुझे लड़की की
शादी करने में
मुसीबत हो
जायेगी।'
तुम्हारा
धर्म
तुम्हारी
सुविधा है, या तुम्हारा
सत्य?...सुविधायें!
और जो
सुविधायें
खोज रहा है, उसे सत्य
कभी न मिलेगा।
क्योंकि
पहली तो
असुविधा यह है
सत्य की कि
तुम अकेले पड़
जाओगे। तुम
सत्य की
दुनिया में
कोई प्रतिस्पर्धा
न पाओगे। वहां
तुम बिलकुल
अकेले होओगे।
वहां कोई
तुम्हारे साथ दौड़ता हुआ
न मिलेगा। वह
एकांगी
पगडंडी है। वह
कोई राजपथ
नहीं है। वहां
बहुत नहीं
जाते, क्योंकि
बहुत सुविधा
के लिए जीते
हैं।
वह एक
अकेला आदमी जो
स्वस्थ था, पागल हो
गया। क्योंकि
भीड़ ने उसे
कहा कि 'तुम
पागल हो।
तुम्हारा
दिमाग, मालूम
होता है खराब
हो गया।' और
निश्चित ही
भीड़ ने कहा, जाना होगा
कि खिद्र की
चेतावनी झूठी
थी। कोई भी
पागल नहीं
हुआ।
ऐसा
समझो कि यहां
हम बैठे हैं।
चारों तरफ
चीजें हैं।
अगर परमात्मा
किसी चमत्कार
से सभी चीजों
को समान
अनुपात में
छोटा या बड़ा
कर दे, हमें
पता नहीं
चलेगा। समझ लो,
कि अभी
जो-जो...तुम्हारी
ऊंचाई छह फीट
है, वह तीन
फीट हो जाए
एकदम। लेकिन
तुम्हारी
अकेले की नहीं,
आसपास बैठे
सब लोगों की, मकान की, तुम
जिस गज से
नापते हो उसकी,
सब चीजें
आधी हो जायें
अभी, तो
किसी को भी
पता नहीं
चलेगा कि कुछ
फर्क हो गया।
कैसे पता
चलेगा? वृक्ष
भी आधे हो
जायेंगे, मकान
आधा हो जायगा।
अगर तुम छः
इंच के भी हो
जाओ इसी वक्त,
और सब चीजें
तुम्हारे साथ
छः इंच की हो
जायें, तुम्हें
पता नहीं
चलेगा। अगर
तुम चींटियों
जैसे हो जाओ, और सभी
चीजें उसी
अनुपात में
छोटी हो जायें,
तुम्हें
कभी पता नहीं
चलेगा।
क्योंकि पता
चलने के लिए
विपरीत चाहिए।
कोई चीज
पुराने ढंग से
रह गई हो, वह
चाहिए।
सारी
भीड़ पागल हो
गई। और भीड़ ने
कहा होगा, 'देखो। वह
खिद्र कहता था,
लोग पागल हो
जायेंगे, अगर
यह पानी पीओगे।
तारीख भी आ गई,
और हमने
पानी भी पीया,
और हम पागल
नहीं हुए। वह
खिद्र गलत है।'
यही
तुम भी कह रहे
हो। तुम कहते
हो, बुद्ध ने
कहा है, ऐसा
करोगे तो पागल
हो जाओगे।
कहां हम पागल
हुए? महावीर
कहते हैं, ऐसा
करो, तो
नर्क में सड़ोगे।
ऐसा हम कर रहे
हैं और नर्क
में नहीं सड़
रहे हैं। और
मैं तुमसे
कहता हूं, तुम
सड़ रहे
हो। मैं तुमसे
कहता हूं, तुम
पागल हो गये
हो। लेकिन
तुम्हारे चारों
तरफ उसी तरह
के लोग हैं
इसलिए कोई
फर्क नहीं
पड़ता। सबकी
ऊंचाई बराबर
है। जो
उन्होंने कहा
है, वह ठीक
हो रहा है।
लेकिन
तुम्हें पता
नहीं चल सकता।
तुम अकेले होओ,
तो पता चले।
सिर्फ
एक आदमी को
पता चला, कि
वह पागल हो
गया है--जो कि
पागल नहीं हुआ
था। उसे भर
अड़चन हुई, कि
अब क्या करूं!
और उस आदमी ने
वही किया, जो
साधारण
बुद्धिमान
आदमी करेगा।
उसने नया पानी
पी लिया, ताकि
असुविधा मिट
जाये। इसलिए
बगावती बेटे भी
देर-अबेर
परेशान होकर
पानी पी लेते
हैं और समाज
के साथ हो
जाते हैं। एक
उम्र होती है
तब थोड़ी सी
बगावत करते
हैं, फिर
ठंडे हो जाते
हैं।
तुम
देखो, अमरीका
में हिप्पी
हैं, बीटनिक हैं, तुम
उनमें कभी भी
तीस साल के
ऊपर न पाओगे।
बस! तीस साल के
करीब हुए कि
वे वापस समाज
में लौट जाते
हैं। उसी समाज
में, जिसकी
बगावत की थी।
तब तक उनको भी
अकल आ जाती है
कि यह पागलपन
है। और पूरा
समाज हमें
पागल समझ रहा
है। वे लौट
जाते हैं। तीस
साल के बाद
हिप्पी कहां
जाते हैं।
अठारह उन्नीस
के करीब
हिप्पी पैदा
होता है; तीस
के करीब विदा
हो जाता है।
सत्तर साल का
हिप्पी दिखाई
नहीं पड़ता।
क्या मामला है?
सभी
अपनी जवानी
में क्रांति
के जोश से
भरते हैं। फिर
जैसे-जैसे समझ
आती है--समझ का
मतलब, जैसे-जैसे
सुविधा की अकल
आती है, तो
जिस बच्चे को
दिखाई पड़ा कि 'राजा नंगा
है,' वह भी
कहता है कि
नहीं, मेरी
भूल थी। राजा
वस्त्र सुंदर
पहने हुए है। उसके
कंधे पर भी
उसका बेटा कभी
कहेगा कि 'राजा
नंगा है।' वह
कहेगा नासमझ,
ठहर, मैं
अनुभव से कहता
हूं कि उम्र
बढ़ने पर कपड़े
दिखाई पड़ने लगते
हैं।
ऐसा
सदियों से
चलता रहा है।
हर बेटा कंधे
पर एक बार
जरूर कहता है।
क्योंकि
बच्चे के पास
नई आंख होती
है। उसे तुम
अभी झुठला
नहीं पाते। वह
सच्चा, सीधा,
साफ-साफ कह
देता है।
इसलिए बच्चे
बड़ी असुविधा पैदा
करते हैं। तुम
भी जानते हो, बच्चे घर
में असुविधा
पैदा करते
हैं। तुम उन्हें
समझाते हो, सच बोलना।
और फिर तुम
उनसे कहते हो
कि कोई घर आने
वाला है, तुम
उनको कह देना
कि घर नहीं
हैं। बच्चे की
समझ के बाहर
हो जाता है कि
मामला क्या है?
एक बाप
ने अपने बेटे
को कहा कि अगर
कोई पूछे, 'पिताजी घर
पर हैं?' तो
तू पहले पूछना,
'आप कौन? मित्र
हैं? मित्र
हैं, ऐसा
कहे तो कहना, आइये भीतर।
अगर कहे कि
मैं इंश्योरेन्स
का आदमी हूं, बीमा के लिए
आया हूं, तो
कहना, बाहर
गये हैं। कब
लौटेंगे कुछ
पता नहीं।'
बेटा
बाहर बैठा था।
एक आदमी आया।
उसने पूछा, 'पिताजी घर
हैं?' उसने
कहा, 'आप
कौन हैं? मित्र
हैं, या इंश्योरेन्स
के आदमी?' उसने
कहा, 'मैं
दोनों हूं।' बेटे ने कहा,
'तब ठीक।
आइये, घर
के भीतर बैठें,
अभी बाहर
गये हैं, कब
लौटेंगे कुछ
पता नहीं।' क्या करे
बेटा आखिर!
जिंदगी
को तुम झुठलाओगे
तो भी तो समय
लगेगा। बच्चे
बड़े होंगे तब
तक समझ
पायेंगे।
लेकिन बीच में
एक घड़ी आती है
जब बच्चे सभी
को बेचैनी
देते हैं।
क्योंकि वे
सभी सीधी और
सच्ची बात कह
देते हैं।
उन्हें वही
दिखाई पड़ता है
कि राजा नंगा
है और कपड़े
बिलकुल नहीं
दिखाई पड़ते।
तुम उन्हें
सजा देते हो, मारते हो, पीटते हो।
तुम्हारी
सारी सजा यह
है, क्योंकि
उनकी आंखें
अभी धुंधली
नहीं हैं। अभी
वे देख सकते
हैं सीधा। अभी
ताजा जल उनके
भीतर बह रहा
है। अभी
उन्होंने
तुम्हारा जल
नहीं पीया।
अभी तुम्हारे
कुंए पर
उन्होंने
पानी नहीं पीया
है। अभी वे
परमात्मा के
कुंए पर पानी
पी रहे हैं।
अभी उनके जीवन
में सभी कुछ
सच्चा है। वे
क्रोध भी करते
हैं तो उसमें
एक सच्चाई है।
वे प्रेम भी
करते हैं तो
उसमें एक सच्चाई
है। तुम क्रोध
भी करते हो तो
भी सच्चाई का
पक्का नहीं
है। झूठा हो, दिखावे के
लिए कर रहे
हो। प्रेम भी
करते हो, उसमें
प्रामाणिकता
नहीं है।
क्योंकि वह भी
व्यवसाय हो।
एक
महिला मुझसे
कह रही थी कि 'मुझे
पति को तलाक
देना है।' तो
मैंने उससे
पूछा, 'तुमने
उनमें कुछ तो
देखा होगा जब
शादी की; और
इतनी जल्दी
तलाक?' तो
उन्होंने कहा,
'हां, कुछ
देख कर ही
शादी की थी, लेकिन अपनी
वह विशेषता अब
वे खर्च कर
चुके हैं।'
पैसा
देख कर शादी
की थी! वह
विशेषता खर्च
कर चुके हैं।
अब कोई रस
नहीं है। पैसा
प्रेम से बड़ा है
चालाक आदमी
को। सत्य से
बड़ी सुविधा
है। यही तो
मतलब होता है
पैसे
का--सुविधा।
प्रेम का मतलब
सत्य।
एक
आदमी को सुनाई
पड़ा। उसने
ध्यान दिया।
वह बच गया, लेकिन
मुसीबत में
पड़ा। जिनने
नहीं सुना वे
मुसीबत में न
पड़े, यह
ऊपर से दिखाई
पड़ रहा है।
लेकिन तुम
चाहे भीड़ के
साथ कितने ही
चलते रहो भेड़ों
की तरह, तुम
मुसीबत में
हो। मुसीबत
पता चले, या
न चले। इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता कि सबको
कैंसर हो जाये,
और तुम्हें
कैंसर हो, तो
कैंसर की
तकलीफ न होगी।
सिर्फ तुम
समझोगे कि यह
बीमारी
साधारण है।
सभी को होती
है।
मनाली, कुल्लू-मनाली के
एरिया में
नब्बे
प्रतिशत
लोगों को सुजाक
है। मगर किसी
को कोई अड़चन
नहीं है
क्योंकि सभी
को है। जिनको
नहीं है वही
कुछ हैरानी के
हैं। जन्म के
साथ ही जैसे
सुजाक चल रहा
है। अमरीका
में, दक्षिण
अमरीका में एक
छोटी सी घाटी
है, जहां पंचान्नबे
प्रतिशत
बच्चे अंधे हो
जाते हैं।
क्योंकि एक मक्खी
है जिसके
काटने से आंख
खराब हो जाती
है। तो अंधापन
स्वाभाविक
है। जब पहली
दफा उस घाटी
के लोगों को
पता चला कि
बड़ी जमीन है, जहां सभी की
आंखें हैं, उन्होंने
विश्वास न
किया।
उन्होंने कहा,
'यह बात गलत
है। यह हो ही
नहीं सकता।'
ऐसी
कथा है उस
घाटी में कि
पुराने समय
में जब कि लोग
समझदार थे, जब कोई
बच्चा आंखवाला
पैदा हो जाता
था, तो
उसकी आंखें फोड़ देते
थे। क्योंकि
दो तीन
प्रतिशत आदमी आंखवाले
हों, तो
उनको अड़चन ही
आयेगी। अंधों
की पूरी जमात
में वे उपद्रव
का कारण
होंगे। कुछ
गलती हो गई।
हम भी
यही करते हैं।
अगर एक छः
अंगुली का
बच्चा पैदा हो
जाये, हम
उसका ऑपरेशन
कर देते हैं।
कारण क्या है?
कारण कुल
इतना है, कि
हम पांच
अंगुली के हैं,
वह छः
अंगुली का है।
जरूर कोई गड़बड़
है। जो भीड़ का
है वह नियम है।
जो भीड़ से
भिन्न है वह
गड़बड़ है। भीड़
अपने को सत्य
मानती है, अपने
से भिन्न को
असत्य मानती
है।
उस
आदमी ने वही
किया, जो
साधारण
बुद्धिमान
करता है।
लेकिन मैं कहता
हूं, साधारण
बुद्धिमान!
साधारण
बुद्धिमान
सिर्फ अनुभवी
है। साधारण
बुद्धिमान
वास्तविक बोधपूर्ण
नहीं है। उसने
वही किया जो
तुम सबने किया
है। उसने पानी
पी लिया।
धीरे-धीरे
उसके लिए
पागलों के बीच
अपना अकेलापन
असह्य हो गया
और उसने भी
नया पानी पी
लिया। फिर तो
वह यह भी भूल
गया कि उसने
कुछ शुद्ध जल
बचा रखा है।
और गांव के
लोग कहने लगे
कि वह जो एक
पागल था उनके बीच, वह भी
स्वस्थ हो गया
है।
पागल
होते ही
स्वस्थ हो
गया! और उसे भी
भूल गया कि
मैंने जल बचा
रखा है।
यही
सूफी इस कथा
से कहना चाहते
हैं, कि तुम
चाहे कितने ही
पागल हो गये
हो, तुमने
भी जल बचा रखा
है। वह
तुम्हारे भीतर
है। तुमने
बाहर का जल पी
लिया है।
तुम्हारे
भीतर का जल
समाप्त नहीं
हो गया है।
समाज ने तुम्हें
आच्छादित कर
लिया, लेकिन
तुम्हारे
भीतर का झरना
अभी भी शुद्ध
बह रहा है। वह
कभी अशुद्ध
नहीं होता।
लेकिन तुम बिलकुल
भूल गये हो।
तुम
भूल ही गए हो
कि तुम हिंदू
नहीं हो, मुसलमान
नहीं हो, ईसाई,
जैन, बौद्ध
नहीं हो। तुम
भूल ही गये हो
कि तुम स्त्री
नहीं हो, पुरुष
नहीं हो। तुम
भूल ही गये हो
कि शरीर नहीं
हो, मन
नहीं हो। यह
सब तुम्हें
सिखा दिया गया
है। तुम भूल
ही गये हो कि
धन से सुविधा
मिल जाये, परम-धन
न मिलेगा। तुम
भूल ही गये हो
कि यश से
कितनी ही फूलमालायें
तुम्हारे ऊपर
बरस जायें, सब फूल
जल्दी ही सूख
जायेंगे।
जीवन की असली
सुगंध वहां
नहीं है। और
तुम भूल ही
गये हो कि तुम्हारे
पास कितने ही
सोने के आभूषण
इकट्ठे हो जायें,
अंततः वे
सभी आभूषण
जंजीरें
सिद्ध होते
हैं। और देह
के लिए तुम कुछ
भी करो, सभी
खो जायेगा; क्योंकि देह
ही खो जाती
है। पर समाज
ने सब तुम्हें
सिखा दिया है।
समाज ने सब
तरह की
भ्रांतियां
तुम्हें दे दी
हैं। समाज
तुम्हें
धक्के दिए
जाता
है--महत्वाकांक्षा!
और कमाओ, इतने से
क्या होगा?
किसी
ने एण्ड्रू
कारनेगी, अमेरिका के
एक बहुत बड़े अरबपति से
पूछा कि पुरुष
के जीवन की
बड़े से बड़ी
सफलता क्या है?
तो एण्ड्रू
कारनेगी
ने कहा, 'पुरुष
के जीवन की
सफलता यह है
कि वह इतनी
कमाई कर ले कि
उसकी पत्नी
खर्च न कर
पाये।' सुनकर
आदमी हैरान
हुआ। उसने ऐसी
परिभाषा की अपेक्षा
न की थी। तो
उसने पूछा, 'और फिर
स्त्री की
सफलता क्या है?'
तो एण्ड्रू
कारनेगी
ने कहा, 'ऐसे
आदमी को खोज
लेना, जो
इतना कमाये कि
पत्नी खर्च न
कर पाये।' यह
स्त्री की
सफलता!
पर इन
सफलताओं की
दौड़ में सभी
असफल हो जाते
हैं। तुम ही
खाली नहीं हो, तुम्हारे
राष्ट्रपति, तुम्हारे
प्रधानमंत्री,
तुम्हारे
सम्राट, सब
खाली हैं।
पूछो निक्सन
को, क्या
बचा? सिर्फ
रुग्णता, बेचैनी,
परेशानी!
पूछो हेलसिलासी
को, क्या
बचा? पचास
वर्ष का
सम्राट, हाथ
क्या लगा? निंदा,
अपमान!
जो आज
प्रशंसा करते
हैं, वे ही कल
पत्थर फेंकते
हैं। पहले दिन
ही सावधान हो
जाना। जब
प्रशंसा करनेवाले
लोग आयें, तभी
हाथ जोड़ लेना।
क्योंकि
जिसने
प्रशंसा की, वह कभी न कभी
पत्थर फेंक कर
बदला लेगा।
ध्यान रखना, जिसने
तुम्हारी
प्रशंसा की वह
तुम्हें कभी क्षमा
न कर पायेगा।
वह तुमसे बदला
लेगा। जब तक पत्थर
न फेंक देगा
तब तक उसके
भीतर बेचैनी
रहेगी। पत्थर
फेंक कर हिसाब
किताब बराबर
हो गया। फूल पहनाये, पत्थर फेंक
दिए, मामला
निपट गया।
दिया था, वापिस
ले लिया।
अन्यथा खटकता
रहेगा, कोई
चीज कमी मालूम
पड़ती रहेगी।
जिसकी तुम प्रशंसा
करते हो आज, कल तुम उसकी
निंदा करते
हो।
फिर भी
लोग दौड़े जा
रहे हैं
प्रशंसा के
लिए। किनसे तुम
प्रशंसा पाना
चाहते हो? जो खुद पागल
हैं, उनकी
प्रशंसा पाकर
भी क्या करोगे?
वे
तुम्हारा
शोरगुल मचायें
उससे भी क्या
होगा? जो
जीवन में खुद
धनहीन हैं, जिनके भीतर
सिवाय गरीबी
के और कुछ भी
नहीं है, जिनके
भीतर सिवाय
दुख के और कुछ
भी नहीं है, उनकी फूलमालाओं
में उनका दुख
ही आयेगा, और
क्या आएगा? लेकिन
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता। तुम
अंधे ही नहीं
हो; तुम
अंधे से भी
बुरी हालत में
हो।
मैंने
सुना है कि
बड़े महाकवि मिल्टन ने
अंतिम जीवन
में शादी की।
जब वे अंधे हो
गये, तब शादी
की। आंखवाले
आदमी भी ठीक पत्नियां
नहीं खोज पाते,
तो अंधे ने
कैसी खोजी
होगी, हम
समझ ही सकते
हैं। और
साधारण गणित
से जीने वाले
लोग भी चूक
जाते हैं, तो
कविता से जीने
वाला तो
निश्चित चूका
होगा।
एक
उपद्रवी
स्त्री घर में
उठा लाया।
जिंदगी भर
शांति से बीती
थी, आंखें
फूट कर मुसीबत
हो गई। बड़ी
कर्कशा, उपद्रवी,
मारे-पीटे
भी। और अंधा
आदमी! सोचा था
यह कि अंधा हो
गया हूं, कोई
साथी चाहिए।
साथी की तलाश
में अक्सर लोग
शत्रु को खोज
कर घर आ जाते
हैं। एक मित्र
बहुत दिन बाद
मिलने आये।
उन्होंने
पत्नी नहीं
देखी थी। देखी
पहली दफा, तो
मिल्टन
से बोले, गुलाब
का फूल है।
ऐसी सुंदर
पत्नी! मिल्टन
ने कहा, 'फूल
है या नहीं, गुलाब का है
या नहीं, मैं
अंधा हूं, देख
नहीं पाता।
लेकिन कांटे
मुझे जरूर
चुभते हैं।'
पर तुम
अंधे से भी
गये बीते हो।
तुम्हें
कांटे भी नहीं
चुभ रहे।
तुम्हारी
आंखें तो चली
ही गई हैं, तुम्हारी
स्पर्श की
क्षमता भी खो
गई है। तुम जहां
खड़े हो, वहां
कुछ भी नहीं
है। लेकिन फिर
भी तुम समझ रहे
हो कि कुछ
तुमने कमा
लिया, कुछ
तुमने पा
लिया। और यह
वहम तुम्हें
चारों तरफ खड़े
हुए लोग दे
रहे हैं। तुम
बिलकुल नंगे खड़े
हो, लेकिन
लोग कह रहे, 'अहा! कैसे
सुंदर वस्त्र
तुमने पहने
हुए हैं।'
उस
कहानी के राजा
तुम्हीं हो।
बिलकुल नग्न
खड़े हो। नग्न
आये हो, नग्न
जी रहे हो, नग्न
मरोगे। लेकिन
बीच में बड़े
वहम पालोगे,
कि यह पा
लिया, वह
पा लिया, इतना-इतना
साम्राज्य
बना लिया, इतनी
तिजोड़ी
भर ली। और सब
व्यर्थ!
क्योंकि
जो मृत्यु छीन
ले, वह
संपत्ति नहीं
है। जो मृत्यु
न छीन पाये
वही संपत्ति
है। जो मृत्यु
छीन ले वह विपत्ति
थी। तुम उसे
संपत्ति
समझते थे, वह
तुम्हारी भूल
थी। जो मृत्यु
न छीन पाये
वही संपत्ति
है। वह
तुम्हारे साथ
जायेगी, अनंत
यात्रा पर
तुम्हारी
होगी। बस, वही
एक साथी है।
और उसे
पाना हो, तो
भीतर के जल की
तरफ वापिस लौटना
जरूरी है।
लेकिन तुम भूल
ही गये हो, कि
वह जल वहां
है। तुम कुएं
की तलाशें कर
रहे हो। तुम
गंदा जल पी
रहे हो। तुम न
मालूम किन-किन
के सामने भिक्षापात्र
लिए खड़े हो कि 'मैं प्यासा
हूं।' और
तुम्हारी
प्यास न बुझेगी।
विषाक्त जल से
प्यास नहीं
बुझ सकती।
तुम्हारी
प्यास तो तभी बुझेगी, जब तुम भीतर
के अनंत स्रोत
से पीओगे।
जीसस
एक कुएं पर
गये और
उन्होंने कहा, 'मुझे प्यास
लगी है,' और
एक महिला पानी
भरती थी। पर
उस महिला ने
कहा कि 'क्षमा
करें। तुम
परदेसी मालूम
पड़ते हो और
मैं तुम्हें
जल न दे
सकूंगी।
क्योंकि मैं
शूद्र जाति की
हूं।' जीसस
ने कहा, 'तू
फिक्र मत कर।
क्योंकि मेरे
लिए कोई
जातियां नहीं
हैं, कोई
शूद्र, कोई
ब्राह्मण
नहीं है। तू
मुझे जल दे और
इसके उत्तर
में तुझे मैं
ऐसा जल दूंगा
कि उसे जो भी पी
लेता है उसकी
प्यास सदा को
बुझ जाती है।'
वे किस
जल की बात कर
रहे हैं? ऐसा
जल, जो जो
भी पी लेता है,
उसकी प्यास
सदा को बुझ
जाती है। वह
जल तुम्हारे
भीतर बह रहा
है। जीसस उसे
देंगे नहीं, सिर्फ इशारा
करेंगे।
बुद्ध ने कहा
है, 'बुद्ध-पुरुष
देते नहीं, सिर्फ इशारा
करते हैं।' क्योंकि जो
देने को है वह
तो तुम्हारे
पास है। वह तो
मिला ही हुआ
है।
इस
सूफी कथा का
मर्म इतना ही
है कि तुम
समाज के कुएं
से पी कर पागल
हो गये हो।
तुम भीड़ के
साथ खड़े होकर
भटक गये हो।
तुम खो ही गये
हो। तुम्हें
पता ही नहीं
है कि तुम कौन
हो! भीड़ ने जो
नाम दिया, वही तुम
समझते हो
तुम्हारा नाम
है। भीड़ ने जो प्रशंसा
दी, वही
समझते हो
तुम्हारा
अहंकार है।
भीड़ ने निंदा
दी, तो तुम
समझते हो तुम
पापी हो। फूल पहनाये, तो तुम
समझते हो तुम
महात्मा हो।
बस, भीड़ जो
करती है, वही
तुम समझते हो।
और भीड़
किनकी है? भीड़ तुम
जैसे ही भटके
हुए लोगों की
है। भीड़ से ही
क्या होगा!
हजार भटके हुए
मिलकर भी तो
सत्य को नहीं
बना सकते। दो
गलत मिलकर एक
ठीक तो नहीं
हो जाता। तुम करोड़ भी
गलत मिल जाओ, तो गलती करोड़
गुना हो जाती
है। करोड़
असत्य मिल कर
भी एक सत्य
निर्मित नहीं
होता। यह सूफी
कथा कहती है, तुमने भी
बचाया है वह
जल। वह
तुम्हारे
भीतर है। उसे
लेकर तुम पैदा
हुए थे।
क्या
है वह जल? उस
जल का नाम
ध्यान है।
इसीलिए वह
आदमी बचा सका,
जिसने
ध्यान दिया।
तुम भी उसे
खोज ले सकते
हो, अगर
ध्यान दो।
थोड़े से
ध्यानपूर्ण
होने की जरूरत
है।
ध्यानपूर्ण
होने का अर्थ
है, विचार
न रह जायें मन
में। मन के
आकाश में बदलियां
विचार की
समाप्त हो
जायें। नीला
गगन रह जाये, शून्य गगन
रह जाये। वह
ध्यान है। उस
ध्यान में
तत्क्षण
वर्षा हो जाती
है। वह जल
तुम्हें मिलने
लगेगा जो
तुम्हारी
संपदा है, जिसे
कोई मृत्यु
नहीं छीन सकती,
जिसे तुम
जन्म के पहले
से लेकर आये
हो; जो तुम
हो।
ध्यान
आत्मा है, विचार मन
है। विचार
उधार है, बाहर
से है। मन
दूसरों ने
दिया है, आत्मा
परमात्मा से
मिली है। उसको
खोज लो। उसका
स्वाद
तुम्हारे
जीवन में पकड़
जाये, फिर
तुम्हें भीड़ न
भटका सकेगी।
भीड़ कितनी ही
बड़ी हो, परमात्मा
विराट है। उस
एक के सहारे
को पाकर फिर
तुम इस भीड़ के
विपरीत भी चले
जाओ, तो
तुम्हें
चिंता न होगी।
तुम इससे अलग
भी हो जाओ, तो
तुम्हें
चिंता न होगी।
तुम राजपथ छोड़
दोगे, पगडंडी
पकड़ोगे।
परमात्मा तक
कोई राजपथ
नहीं जाता, कोई हाईवे
नहीं जाता, पगडंडियां
जाती हैं।
और
पगडंडियां भी
ऐसी कि एक
आदमी चलता है, फिर हजारों
साल बाद कोई
दूसरा चलता
है। इसलिए किसी
दूसरे की
पगडंडी भी
तुम्हें मिल
नहीं सकती।
खुद ही चलना
पड़ता है, खुद
ही बनानी पड़ती
है। चल चल कर
रास्ता बनता है।
ध्यान कर करके
रास्ता बनता
है। और जिस
दिन जल स्रोत
मिल जाता है, उस दिन तुम
हैरान होओगे
कि कैसे इतने
दिन तुम पागलों
के साथ राजी
थे। कैसे तुम
इतने दिन तक इन
पागलों जैसा
व्यवहार करते
थे। कैसे
तुमने राजा के
वस्त्र देखे,
जो वहां थे
ही नहीं।
यह भीड़
तुम्हारा
बंधन और
तुम्हारा
कारागृह है।
संन्यास
का इतना ही
अर्थ है--समाज
के पार हो
जाओ।
समाज
छोड़ कर भाग
जाने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। लेकिन
समाज जो भी कर
रहा है वह खेल
रह जाये--अभिनय!
नाटक! उसमें
गंभीरता खो
जाये। तुम
यहीं रहो, ठीक बाजार
में बैठे रहो,
लेकिन समाज
से मुक्त हो
जाओ। कोई
पत्नी को छोड़
कर भाग जाने
की जरूरत नहीं
है। भागते
नासमझ हैं।
समझदार तो
जहां हैं वहीं
रूपांतरित हो
जाते हैं।
क्योंकि झरना
तुम्हारे
भीतर है, हिमालय
में नहीं।
दूकान पर, बाजार
में, जहां
तुम हो, वहीं
रहो। सिर्फ
भीड़ से
तुम्हारा
धीरे-धीरे छुटकारा
हो जाये।
तुम्हारी
आंखें निर्मल
ध्यान से भर
जायें। समाज
ने जो तुम्हें
दिया है वह
तुम्हारे ऊपर
आच्छादित न रह
जाये।
परमात्मा ने
जो तुम्हें
दिया है उसकी
धुन तुम्हारे
भीतर बजने लगे,
यही इस कथा
का मर्म है।
आज
इतना ही।
ओशो प्रणाम
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