दिनांंक 8 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्न—सार:
प्रश्न—सार:
1—कई
बार आपके
प्रवचनों के
दौरान मैं 'छ' खुली
नहीं रख पाता
और एकाग्र
नहीं हो पाता,
और पता नहीं
कहां चला जाता
हूं, और एक
झटके से वापस
लौटता हूं।
कोई स्मृति
नहीं रहती कि
मैं कहां रहा! क्या
मैं कहीं गहरे
उतर रहा हूं
या बस नींद
में जा रहा हूं?
2—आपने
कहा कि पतंजलि
का योग—सूत्र एक
संपूर्ण
शास्त्र है।
लेकिन
इसमें कहीं भी
चुंबन के योग क्यों
नहीं आती है?
3—अपनी
अनुभूतियों
में कैसे कोई
समग्र हो सकता
है,
बिना अतियों
में गए?
4—क्या
आप मुस्कुराते
है—जब हम आपकी
सभा में गंभीर
और लंबे चेहरे
लिए बैठे होते
हैं?
5—आपने
एक बार कहा है
कि मादक द्रव्य
रासायनिक स्वप्न
और काल्पनिक
अनुभव
निर्मित करते है।
लेकिन क्या
योग—साधना और
ध्यान की सब
विधियां भी
केवल
रासायनिक परिवर्तन
ही नहीं करती? फिर मादक
द्रव्यों
में और साधना में
क्या फर्क है?
6—सेल्फ—कांशसनेस—जिसे
आप एक रोग
कहते है—और
सेल्फ—अवेयरनेस
में क्या
फर्क है?
7—श्वास
तो अनुभव है, उसे
देखेंगे कैसे?
8—क्या
साक्षी—भाव एक
ठंडी और भाव
शून्य घटना
होनी चाहिए?
9—आपने
कहा: ध्यान
है मरने की
कला। तो फिर
आप ऐसा कुछ क्यों
नहीं करते कि
हमारी मृत्यु
तत्काल घट
जाए?
10—कहां
से आते है आपके
वचन? और आप उनके
साथ कैसे
संबंधित होते
है?
पहला प्रश्न
:
कई बार
आपके
प्रवचनों के
दौरान मैं
अपनी आंखें
खुली नहीं रख
पाता और
एकाग्र नहीं
हो पाता और पता
नहीं कहां चला
जाता हूं और
फिर एक झटके
के साथ वापस
लौटता हूं।
कोई स्मृति
नहीं रहती कि
मैं कहां रहा।
क्या मैं कहीं
गहरे उतर रहा
हूं या बस
नीदं में जा
रहा हूं?
मन बहुत
सूक्ष्म
विद्युत
तरंगों
द्वारा काम करता
है। उस
यांत्रिक
प्रक्रिया को
समझ लेना है।
अब इस दिशा
में खोज करने
वाले कहते हैं
कि मन चार
अवस्थाओं में
काम करता है।
साधारण
जाग्रत मन काम
करता है अठारह
से लेकर तीस
आवर्तन प्रति
सेकेंड के
हिसाब से—यह
मन की 'बीटा'
अवस्था है।
अभी तुम उसी
अवस्था में हो,
जाग्रत
अवस्था में, दैनंदिन काम
करते हुए।
उससे
ज्यादा गहरे
में है
द्वितीय
अवस्था—'अल्फा'।
कई बार, जब
तुम कुछ नहीं
कर रहे होते, निष्क्रिय
होते हो—बस
विश्राम कर
रहे होते हो
सागर—तट पर, कुछ नहीं कर
रहे होते, संगीत
सुन रहे होते
हो, या
गहरे डूब गए
होते हो
प्रार्थना
में या ध्यान
में—तब मन की
सक्रियता गिर
जाती है.
अठारह से तीस
आवर्तन प्रति
सेकेंड से वह
करीब चौदह से
अठारह आवर्तन
प्रति सेकेंड
तक आ जाती है।
तुम सजग होते
हो, लेकिन
निष्कि्रय
होते हो। एक
गहन विश्राम
तुम्हें घेरे
रहता है।
सारे
ध्यानी जब वे
ध्यान करते
हैं या
प्रार्थना
करते हैं तो
इसी दूसरी लय
में, 'अल्फा'
लय में उतर
जाते हैं।
संगीत सुनते
हुए भी यह घट
सकती है।
वृक्षों को
देखते हुए, चारों तरफ
फैली हरियाली
को देखते हुए
भी यह घट सकती
है। कुछ विशेष
न करते हुए बस
मौन बैठे हुए
भी यह घट सकती
है। और एक बार
तुम जान लेते
हो इसका ढंग, तो तुम मन की
क्रिया को
शिथिल कर सकते
हो; तब
विचार बहुत
भाग—दौड़ नहीं
करते। वे चलते
हैं, वे
होते हैं वहां,
लेकिन वे
बड़ी धीमी गति
से चलते हैं, जैसे बादल
तैर रहे हों
आकाश में—वस्तुत:
कहीं जा नहीं
रहे, बस
तैर रहे हैं।
यह दूसरी
अवस्था, 'अल्फा'
अवस्था, बड़ी
कीमती अवस्था
है।
इस
दूसरी के पीछे
होती है तीसरी
अवस्था, सक्रियता और
भी कम हो जाती
है। वह अवस्था
'थीटा' कहलाती
है—आठ से चौदह
आवर्तन प्रति
सेकेंड। यह वह
अवस्था है
जिससे तुम तब
गुजरते हो जब
तुम्हें रात
नींद आ रही
होती है, उनींदापन
घेरे होता है।
जब तुम शराब
पी लेते हो, तब तुम इसी
तंद्रा से
गुजरते हो। देखना
किसी शराबी को
चलते हुए : वह
तीसरी अवस्था
में होता है।
वह बेहोशी में
चल रहा है।
कहां जा रहा
है वह, उसे
कुछ पता होता
वह क्या रहा
है, कुछ
स्पष्ट बोध नहीं
है। शरीर काम
किए जाता है
यंत्र—मानव की
भांति। मन की
सक्रियता
इतनी धीमी पड़
जाती है कि वह
करीब—करीब
नींद की सीमा
पर ही होता है।
बहुत
गहरे ध्यान
में भी यह बात घटेगी—तुम
'अल्फा'
से 'थीटा'
में उतर
जाओगे। लेकिन
ऐसा केवल बड़ी
गहरी
अवस्थाओं में
ही घटता है।
साधारण
ध्यानी इसका
स्पर्श नहीं
कर प्राते। जब
तुम इस तीसरी
अवस्था को
स्पर्श करने
लगते हो तो
तुम बहुत आनंद
अनुभव करोगे।
और
सारे शराबी
इसी आनंद को
उपलब्ध करने
की कोशिश कर
रहे होते हैं, लेकिन वे
चूक जाते हैं,
क्योंकि
आनंद केवल तभी
संभव है यदि
तुम इस तीसरी
अवस्था में
पूरी सजगता से
उतरते हो—निष्कि्रय
लेकिन सजग।
शराबी उस
अवस्था तक
पहुंचता है, लेकिन वह
बेहोश होता है;
जब वह वहां
पहुंचता है, वह बेहोश
होता है।
अवस्था मौजूद
होती है, लेकिन
वह उसका आनंद
नहीं ले सकता;
उसमें
प्रसन्न नहीं
हो सकता; उसमें
विकसित नहीं
हो सकता। सारे
संसार में सब
तरह के मादक
द्रव्यों के लिए
आकर्षण इसी 'थीटा' अवस्था
के आकर्षण के
कारण है।
लेकिन यदि तुम
रासायनिक
पदार्थों
द्वारा उस तक
पहुंचने की
कोशिश कर रहे
हो तो तुमने
गलत साधन चुना
है। व्यक्ति
को इस अवस्था
तक मन की
सक्रियता को धीमा
करके ही
पहुंचना होगा
और सजग बने
रहना होगा।
फिर
चौथी अवस्था
है; वह 'डेल्टा' कहलाती
है। सक्रियता
अब और कम हो जाती
है. शून्य से
चार आवर्तन
प्रति सेकेंड।
मन करीब—करीब
रुक गया होता
है। ऐसे क्षण
होते हैं जब
वह शून्य—बिंदु
छू लेता है, एकदम रुक
गया होता है।
यहीं तुम गहरी
नींद की
अवस्था में
डूब जाते हो, जब स्वप्न
भी नहीं होते;
और इसे ही
हिंदुओं ने, पतंजलि ने, बौद्धों ने
समाधि कहा है।
पतंजलि ने तो
वस्तुत: समाधि
की यही
व्याख्या की
है : बोध के साथ
गहन निद्रा।
केवल एक शर्त
है कि सजगता
होनी चाहिए।
पश्चिम
में, इधर
अभी बहुत खोज
हुई है इन चार
अवस्थाओं के विषय
में। वे सोचते
हैं कि चौथी
अवस्था में
सजग रहना असंभव
है, क्योंकि
वे सोचते हैं
कि यह
विरोधाभासी
है—सजग होना
और गहरी नींद
में होना।
लेकिन यह
विरोधाभासी
नहीं है। और
एक व्यक्ति ने,
एक बड़े
असाधारण योगी
ने, अब इसे
वैज्ञानिक
ढंग से
प्रमाणित कर
दिया है। उसका
नाम है स्वामी
राम। सन
उन्नीस सौ
सत्तर में में
त्रिनगर
इंस्टीटधूट
की
प्रयोगशाला
में उसने
वैज्ञानिकों
से कहा कि वह
मन की चौथी
अवस्था में
जाएगा—संकल्पपूर्वक।
लोगों ने कहा,
'यह असंभव
है, क्योंकि
चौथी अवस्था
केवल तभी होती
है जब तुम गहरी
नींद में होते
हो और संकल्प
काम नहीं करता
और तुम सजग
नहीं होते।’ लेकिन
स्वामी राम ने
कहा, 'मैं
करके दिखाऊंगा।’
वैज्ञानिक
विश्वास करने
के लिए राजी न
थे, वे
शंका से भरे
थे, लेकिन
फिर भी
उन्होंने
प्रयोग करके
देखा।
स्वामी
राम ने ध्यान
करना आरंभ
किया। धीरे—
धीरे, कुछ
मिनटों के
भीतर ही वह
करीब—करीब सो
गया।’ई ई
जी' रेकॉर्ड्स
ने, जो
उसके मन की
तरंगों को
अंकित कर रहे
थे, दिखाया
कि वह चौथी
अवस्था में था,
मन की
क्रिया करीब—करीब
रुक गई थी।
फिर भी
वैज्ञानिकों
को भरोसा न
आया, क्योंकि
शायद वह सो
गया हो, तब
तो कुछ सिद्ध
हुआ नहीं; असली
बात यह है कि
वह सजग है या
नहीं। फिर
स्वामी राम
वापस लौट आए
अपने ध्यान से,
और उसने
सारी बातचीत
जो उसके आस—पास
चल रही थी, वह
सब बतलाई—और
उनसे ज्यादा
अच्छी तरह
बतलाई जो पूरी
तरह जागे हुए
थे।
किसी
वैज्ञानिक
प्रयोगशाला
में पहली बार
कृष्ण के
प्रसिद्ध वचन
प्रमाणित हुए।
कृष्ण गीता
में कहते हैं, 'या निशा
सर्वभूतायाम्
तस्याम्
जागर्ति संयमी—जो
सब के लिए
गहरी निद्रा
है, योगी
वहां भी जागा
रहता है।’ पहली
बार यह बात
वैज्ञानिक
सिद्धात की
भांति प्रमाणित
हुई। गहरी
नींद में होना
और सजग होना
संभव है, क्योंकि
नींद घटित
होती है शरीर
में, नींद
घटित होती है
मन में, लेकिन
साक्षी आत्मा
कभी सोती नहीं।
जब तुम शरीर—मन
की यांत्रिक—व्यवस्था
के साथ तादात्म्य
हटा लेते हो, जब तुम
सक्षम हो जाते
हो देखने में
कि शरीर में, मन में क्या
चलता है, तो
तुम सोते नहीं
: शरीर सो
जाएगा, तुम
सजग बने रहोगे।
तुम्हारे
भीतर कहीं
गहरे में कोई
केंद्र पूरी
तरह जागा
रहेगा।
अब, यह प्रश्न : 'कई बार आपके
प्रवचनों के
दौरान मैं
अपनी आंखें
खुली नहीं रख
पाता..।’
मत
कोशिश करो
उन्हें खुली
रखने की। यदि
तुम किसी गहरी
लय में उतर
रहे हो तो
डूबो उसमें।
क्योंकि जब
तुम मुझे सुन
रहे हो, तब यदि तुम
एकाग्र होने
की कोशिश करते
हो, तो तुम
पहली अवस्था
में रहोगे, 'बीटा' में
रहोगे, क्योंकि
मन सक्रिय
रहता है। उसकी
चिंता मत लेना।
जो मैं कह रहा
हूं वह इतना
महत्वपूर्ण
नहीं है जितना
तुम्हारा
स्वयं में
गहरे डूबना
महत्वपूर्ण
है। असल में
जो मैं कह रहा
हूं वह
तुम्हें अपने
अंतस में
ज्यादा गहरे
उतरने की
तैयारी ही है।
तो यदि तुम
कुछ सुनने में
चूक जाते हो
तो चिंता मत
लेना—तुम बाद
में टेप से
सुन सकते हो।
और यदि तुम
उसे न भी सुनो,
तो कुछ अंतर
नहीं पड़ता।
यदि आंखें
बंद होती हों, तो बंद हो
जाने देना।
केवल एक बात
याद रखनी है :
वह यह है कि
सजग रहना। आंखों
को बंद हो
जाने देना। असल
में और ज्यादा
सजग हो जाना, क्योंकि
जितने ज्यादा
तुम गहरे
उतरते हो मन में,
उतनी
ज्यादा सजगता
की जरूरत होगी।
तुम गहरे
डुबकी लगा रहे
होते हो चेतना
में। लेकिन
तुम सो भी
सकते हो : तब
तुम प्रवचन भी
चूक गए और
भीतर देखना भी
चूक गए। तो
व्यर्थ हुआ यहां
होना।
'कई
बार आपके
प्रवचनों के
दौरान मैं
अपनी आंखें
खुली नहीं रख
पाता...।’
कोई
जरूरत नहीं है।
बंद कर लेना आंखें।
बस भीतर सजग
रहना—ज्यादा
सजग रहना।
'... और
पता नहीं कहा
खो जाता हूं।
और फिर एक
झटके से वापस
लौटता हूं।’
वही है
तीसरी अवस्था, 'थीटा'।
यदि तुम दूसरी
अवस्था में, 'अल्फा' में
हो, तो तुम
जानते रहोगे
कि तुम कहां
हो और कोई झटका
महसूस नहीं
होगा। सरलता
से तुम पहली
अवस्था से
दूसरी तक जा
सकते हो, ' थीटा'
से ' अल्फा'
तक बड़ी
सरलता से जा
सकते हो, क्योंकि
अंतर केवल
सक्रियता और
निष्क्रियता
का ही है—तुम
सजग रहते हो।
लेकिन जब तुम
दूसरी से
तीसरी अवस्था
में जाते हो, तब अंतर बड़ा
गहरा होता है।
साधारण रूप से
अब तुम जा रहे
हो जाग्रत
अवस्था से
निद्रा में।
तब यदि तुम
वापस लौटते हो,
तो तुम एक
झटके के साथ
लौटते हो और
तुम्हें स्मरण
नहीं रहता है—इसीलिए
तुम नहीं जानते
कि तुम कहां
रहे।
'कोई
स्मृति नहीं
रहती कि मैं
कहां रहा।’
यदि
तुम्हें नींद
ही आई होती, तो
तुम्हें
स्मृति रहती।
यदि तुम सपना
देख रहे थे, तो तुम्हें
स्मृति रहेगी
सपने की। यदि
तुम सपना नहीं
देख रहे थे, तो तुम्हें
स्मृति रहेगी
कि तुम सोए थे
और कोई सपना
नहीं आया। या तो
विधायक रूप से
तुम सपना याद
या नकारत्मक
रूप से तुम
याद रखोगे कि कोई
सपना नहीं आया
और बहुत गहरी
नींद आई; लेकिन
यदि वह नींद
होती तो
तुम्हें याद
रहता।
इसीलिए
तो सुबह तुम
याद रखते हो
कि रात बहुत सपने
देखे, या
किसी दिन तुम
कहते हो, 'मैं
बहुत गहरी नींद
सोया, कोई
सपने नहीं
देखे।’ ये
दोनों ही
स्मृतियां
हैं—एक विधायक
है, एक
नकारात्मक है।
यदि सपने होते
हैं, तो
विधायक
स्मृति होगी—कुछ
हो रहा था, कुछ
चल रहा था।
यदि कोई सपना
नहीं देखा तो
तुम्हें बस शांतिपूर्ण
स्मृति रहेगी
कुछ न होने की,
कि कुछ नहीं
घटा। लेकिन
इतना तुम्हें
याद रहेगा कि
कुछ नहीं घटा
और कोई सपना
मेरे मन से
नहीं गुजरा और
नींद सच में
ही गहरी थी, बहुत गहरी
थी, कहीं
कोई तरंग भी
नहीं थी।
लेकिन
तुम्हें याद
रहेगा और तुम
कहोगे, 'मैं
बड़ा आनंदित था।’
लेकिन
यदि तुम नींद
में नहीं
बल्कि ध्यान
की गहरी अवस्था
में उतर जाते
हो—वे एक जैसी
ही होती हैं, करीब—करीब
मिलती—जुलती
लगती हैं—तब
तुम कोई बात
याद नहीं रख
पाओगे।
क्योंकि जब
तुम ध्यान की
गहरी अवस्था
में, 'थीटा'
में उतरते
हो, या कई
बार तुम चौथी
अवस्था में भी
उतर सकते हो, 'डेल्टा' में,
तो कहीं कोई
स्मृति न होगी;
क्योंकि
तुम ऐसी गहराई
में उतर रहे
होते हो, जो
मन का हिस्सा
नहीं, कहीं
ऐसी जगह गति
कर रहे होते
हो जहां
स्मृति काम
नहीं करती, कहीं अज्ञात
पगडंडी पर चल
रहे होते हो।
तुम किसी बड़े
राजपथ पर नहीं
चल रहे होते, तुम अपने
अचेतन अंतस के
जंगल में चल
रहे होते हो : अनजाना—
अज्ञात मार्ग,
कोई नक्शे
नहीं, कोई
सोच—विचार काम
नहीं करता—कोई
सिद्धात लागू
नहीं होते
वहां। तब तुम
झटके के साथ
वापस आओगे
जैसे कि तुम
कहीं खो गए थे।
तुम फिर से
बाहर के राजपथ
पर लौट आओगे
झटके के साथ, जहां कि मील
के पत्थर लगे
हैं और हर चीज
साफ—सुथरी है
और नक्शा पास
में है—और तुम
समझ सकते हो
कि तुम कहां
हो।
तुम
नींद में नहीं
उतर रहे हो, वरना तो
तुम जान लोगे,
क्योंकि
तुम नींद को
जानते हो।
बहुत जन्मों
से तुम नींद
में उतरते रहे
हो; तुम
पूरी तरह
परिचित हो इस
घटना से। यदि
तुम साठ साल
जीते हो, तो
बीस साल नींद में
जाते हैं। यह
कोई साधारण
घटना नहीं है।
साठ साल का
जीवन, बीस
साल नींद में
जाते हैं.
प्रतिदिन, तुम्हारे
समय का एक
तिहाई हिस्सा
नींद में जाता
है। तुम जानते
हो यह बात, तुम
अच्छी तरह
जानते हो इसे।
और ऐसा केवल
एक ही जन्म
में नहीं है, लाखों—लाखों
जन्मों से तुम
सोते आ रहे हो,
प्रत्येक
जन्म के एक
तिहाई हिस्से
में तुम सोए
रहे हो। असल
में दूसरी और
कोई क्रिया
नहीं जो इतना
समय लेती हो।
कोई अन्य एक
क्रिया इतना
ज्यादा समय
नहीं लेती है।
न तो तुम
प्रेम करते हो
आठ घंटे, और
न ही तुम भोजन
करते हो आठ
घंटे, और न
ही तुम ध्यान करते
हो आठ घंटे।
नींद
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
बात है। कैसे
तुम असहजता रह
सकते हो इसके
प्रति? हो
सकता है कि कम
सजग होओ, लेकिन
तो भी तुम सजग
हो—स्मृति काम
करेगी।
लेकिन
तुम परिचित
मार्ग से कहीं
अनजानी राह में
जा रहे हो, जहां कि
तुम कभी गए
नहीं हो।
इसीलिए तुम
झटके के साथ
लौटते हो। कोई
अज्ञात
तुम्हारी
अंतस सत्ता को
छू रहा है।
इसीलिए तुम
निर्णय नहीं
कर पा रहे हो
कि 'मैं
गहरे उतर रहा
हूं या बस
नींद में जा
रहा हूं।’ प्रसन्न
होओ। यदि तुम
निर्णय कर
सकते, तो
यह नींद होती, तो तुम
पहचान लेते, तो यह नींद
होती। यदि तुम
नहीं पहचान पा
रहे हो, तो
कहीं पार का
कुछ और भी तुम
में और तुम
कहीं अज्ञात
को स्पर्श कर
रहे हो।
प्रसन्न
होओ, आनंदित
होओ, और
घटने दो उसे।
एक दिन यह
संभव हो जाता
है कि तुम बार—बार
अज्ञात में
उतरते हो, और
तब तुम परिचित
हो जाते हो उस
क्षेत्र से।
तब चाहे कोई
सामान्य
नक्शे न भी हो,
लेकिन
तुम्हारे पास
अपना नक्शा
होता है। कम
से कम तुम
जानते हो कि
तुम कहां जा
रहे हो।
इसलिए
करना केवल
इतना ही है : जब
तुम अपनी आंखें
बंद करते हो
तो ज्यादा सजग
हो जाना, क्योंकि
बहुत सजगता की
जरूरत होगी।
ज्यादा गहरे
अंधकार में
ज्यादा
प्रकाश की जरूरत
होगी। तो
ज्यादा सजग हो
जाना और जैसे—जैसे
तुम कहीं
उतरने लगते हो,
अज्ञात में—सजगता
बनाए रखने की
कोशिश करना।
धीरे—
धीरे, तुम
कुशल हो जाते
हो। और फिर
रात जब तुम
सोते हो, तो
फिर आजमाना
इसे—बस इसका
अभ्यास करना।
जब तुम नींद
में उतरने लगो,
तब भीतर सजग
रहना और देखते
रहना कि क्या
हो रहा है। एक
दिन तुम
देखोगे : नींद
उतर आई है, नींद
ने तुम्हें
घेर लिया है, सजगता फिर
भी मौजूद है।
यह दिन
सुंदरतम दिन
होता है
जिंदगी का। जब
तुम सजग रह कर
गहरी नींद में
उतरते हो तो
तुम चौथी अवस्था
में, 'डेल्टा'
में उतर
जाते हो। वह
तुम्हारे
अंतस का गहनतम
केंद्र है।
निश्चित
ही तुम्हें
अर्जित करना
होता है इसे, तुम्हें
सीखना होता है
इसे, तुम्हें
पात्र होना
पड़ता है इसका।
साधारणतया यह
नहीं घटती। यह
मन की साधारण
अवस्था नहीं
है; यह बड़ी
असाधारण
अवस्था है मन
की। इसीलिए
कृष्ण ने
घोषणा कर दी
थी पांच हजार
वर्ष पहले, और पांच
हजार वर्ष तक
इसके लिए कोई
वैज्ञानिक प्रमाण
उपलब्ध नहीं
था—यह केवल एक
दर्शन—सिद्धात
लगता था: 'या
निशा
सर्वभूतायाम्
तस्याम्
जागर्ति संयमी।’
पांच हजार
वर्ष बाद अब
कुछ
वैज्ञानिक
प्रमाण उपलब्ध
हो रहे हैं।
तुम भी इस
अनुभव में उतर
सकते हो, और
जब यह
तुम्हारी
अपनी समझ का
वैज्ञानिक
प्रमाण बन
जाता है, तब
एक क्रांति
घटित होती है।
दूसरा
प्रश्न :
आपने
कहा कि पतंजलि
का योग— सूत्र
एक संपूर्ण
शास्त्र है
लेकिन कहीं भी
उन्होंने
चुंबन के योग
की बात नहीं
की है क्या आप
इसे समझा सकते
हैं?
उसके लिए
पतंजलि को
अमरीकी के रूप
में जन्म लेना
होगा। केवल
तभी वे चुंबन
के योग के
विषय में लिख
सकते हैं। ऐसी
मूढ़ बातें
केवल अमरीका
में चलती हैं, और कहीं
नहीं सेक्स का
योग, चुंबन
का योग—किसी
भी चीज का योग—भोजन
पकाने का योग!
लेकिन
तुम्हें थोड़ी
प्रतीक्षा
करनी पड़ेगी, कोई न कोई
मूढ़ जरूर
लिखेगा।
तीसरा
प्रश्न :
अपनी
अनुभूतियों
में कैसे कोई
समग्र हो सकता
है— बिना
अतियों में गए?
चिंता
मत करो। बस
समग्र होओ, और तुम
कभी अति पर न
जाओगे।
साधारणतया
यदि तुम इस
विषय में
सोचते हो, तो
ऐसा लगता है
कि यदि तुम
समग्र होओ, तो तुम अति
में चले जाओगे।
क्योंकि तुम
नहीं जानते कि
समग्रता क्या
है। समग्रता सदा
ध्यान में घटती
है। वह मध्य
की घटना है। क्योंकि
समग्रता
संतुलन है।
अति पर वह कभी
नहीं घटती; अति पर तुम
कभी समग्र
नहीं हो सकते।
इसे समझने की
कोशिश करो।
तुम
किसी को प्रेम
करते हो. तुम
अतिशय प्रेम में
हो सकते हो, लेकिन वह
समग्रता नहीं
होगी, क्योंकि
प्रेम का एक
और हिस्सा है,
वह है घृणा।
तो तुम एक अति
पर जा सकते हो,
जो है प्रेम;
यह एक अति
है। फिर कभी—कभी
तुम उसी
व्यक्ति को
घृणा कर सकते
हो। तुम दूसरी
अति पर चले
जाते हो और
तुम पूरी तरह घृणा
कर सकते हो—या
ऐसा तुम्हें
लगता है कि
तुम पूरी तरह
घृणा में हो—लेकिन
वह भी एक
हिस्सा ही है।
पूरी घटना है
प्रेम—घृणा
दोनों की। यदि
तुम एक को
चुनते हो तो
तुमने एक अति
चुन ली है।
मेरा
बायां हाथ और
मेरा दायां
हाथ—वे दोनों
जुड़े हैं मुझ
से। यदि मैं
बाएं को चुनता
हूं तो मैं
बाईं तरफ झुक
जाता हूं। यदि
मैं दाएं को
चुनता हूं तो
मैं दाईं तरफ
झुक जाता हूं।
और जब मैं
किसी को नहीं
चुनता, तो मैं मध्य
में होता हूं।
तब दोनों हाथ
मेरे हैं, लेकिन
मैं उनमें से
किसी एक का
नहीं हूं। यदि
तुम घृणा को
चुनते हो, तो
तुमने एक
हिस्सा चुना।
यदि तुम प्रेम
को चुनते हो, तो तुमने
दूसरा हिस्सा
चुना।
और यही
मुसीबत है :
यदि तुम घृणा
को चुनते हो, तो देर—अबेर
तुम प्रेम करोगे।
यदि तुम शत्रु
को बहुत समय
तक घृणा करते
रहते हो, तो
तुम प्रेम में
पड़ोगे। यदि
तुम बहुत समय
तक मित्र से
प्रेम करते
रहते हो, तो
तुम घृणा करने
लगोगे।
क्योंकि कोई
बहुत समय तक
एक अति पर
नहीं रह सकता
है। इसीलिए
प्रेमी लड़ते—झगड़ते
हैं और शत्रु
भी गहरे में
प्रेमी होते
हैं। वे शत्रु
के बिना नहीं
रह सकते; वे
भी एक—दूसरे
का सहारा होते
हैं। यह
विपरीत ढंग का
प्रेम है—लेकिन
है प्रेम ही।
क्या
घटता है जब
कोई समग्र
होता है? प्रेम और
घृणा, दोनों
होते हैं। और
जब प्रेम और
घृणा दोनों
होते हैं, तो
वे एक—दूसरे
को काट देते
हैं, और एक
तीसरी
गुणवत्ता
पैदा होती है,
जिसे बुद्ध
ने करुणा कहा
है। करुणा के
विपरीत कुछ
नहीं है। या
तुम कह सकते
हो, 'जब
घृणा वाला
हिस्सा नहीं
होता, केवल
तभी प्रेम
संपूर्ण होता
है।’ लेकिन
तब प्रेम मध्य
में होता है।
जो कुछ भी तुम
इसे कहना चाहो,
सवाल उसका
नहीं है, लेकिन
एक गहन संतुलन
घटता है।
विपरीतताए एक—दूसरे
को काट देती
हैं; वे
बराबर शक्ति
की होती हैं।
वे एक—दूसरे
को काट देती
हैं और तुम
संतुलन में
रहते हो।
संतुलन है
समग्रता। तब
तुम अपनी
समग्रता में
संबंधित होते
हो।
जब
बुद्ध में
करुणा पैदा
होती है, तो कुछ पीछे नहीं
छूट जाता। वे
समग्र रूप से
करुणा में
बहते हैं। जब
जीसस प्रेम
करते हैं, तो
वे समग्र रूप
से
प्रेमपूर्ण
होते हैं।
लेकिन जब तुम
प्रेम करते हो,
तब
तुम्हारा एक
हिस्सा घृणा
करने के लिए
तैयार हो रहा
होता है। जब
तुम घृणा करते
हो, तब
तुम्हारा एक
हिस्सा प्रेम
करने के लिए
तैयार हो रहा
होता है। तुम
बंटे हुए हो—एक
बंटा हुआ
व्यक्तित्व
सदा अतियों
में डोलता
रहता है।
समग्रता आती
है अनबंटे मन
से, अखंड
मन से : तुम
सीधे खड़े होते
हों—मध्य में,
पूरे
संतुलित—न तो
इधर झुकते हो
न उधर। उस
अकंप क्षण में
तुम समग्रता
को उपलब्ध
होते हो।
उपनिषदों
के पास इसके
लिए एक खास
शब्द है। वे
इसे कहते हैं, 'नेति—नेति।’
वे कहते हैं,
'न यह, न
वह'—विपरीतताओं
खड़े होओ।
विपरीतताओ को
परिपूरक बना
लेना। उन
दोनों को एक—दूसरे
को संतुलित
करने देना।
तुम
चुनावरहित
रहना। इसीलिए
कृष्णमूर्ति
निरंतर एक
शब्द पर जोर दिए
जाते हैं—'चुनावरहित
सजगता'—क्योंकि
जैसे ही तुम
चुनते हो, तुम
अति को चुन
लेते हो।
सारे
चुनाव अति के
चुनाव हैं।
तुम किसी न
किसी चीज के
विरुद्ध कुछ
चुनते हो। जब
भी तुम कहते
हो, 'यह
सुंदर है', तुमने
किसी चीज की
असुंदर की तरह
निंदा कर दी
होती है।
अन्यथा कैसे
कह सकते हो
तुम कि 'यह
सुंदर है'? इस
कथन में कि यह
सुंदर है, यह
कथन छिपा होता
है कि कुछ
असुंदर है, कुरूप है।
जिस क्षण तुम
कहते हो, 'यह
आदमी संत है', तुमने किसी
की पापी के
रूप में निंदा
कर दी होती है।
यदि
पापी खो जाएं
तो संत भी खो
जाएंगे। संत
कैसे हो सकते
हैं यदि पापी
न हों? संतो
के होने के
लिए पापी
जरूरी हैं।
पापी भी खो
जाएंगे यदि
संत न रहें।
कौन कहेगा
उनको पापी? कैसे निर्णय
करोगे तुम कि
कोई पापी है? एक बेहतर
मनुष्यता में
न कोई संत
होगा, न
कोई पापी होगा,
क्योंकि पूरी
बात संतुलित
होगी गहरे रूप
में। पापी और
पुण्यात्मा
एक—दूसरे के
विपरीत हैं; वे एक साथ
अस्तित्व
रखते हैं।
कई बार, जब मैं
भारत में
भ्रमण करता था,
बहुत
स्थानों पर
बहुत लोग मुझ
से एक प्रश्न
बार—बार पूछते
थे। प्रश्न
बहुत उचित और
प्रासंगिक
जान पड़ता है।
वे मुझ से
पूछते थे, 'ऐसा
क्यों है कि
भारत में इतने
सारे संत हुए,
और फिर भी
देश इतना
अनैतिक है?'
मैं
उनसे कहता कि
ऐसा
स्वाभाविक है।
जब कोई देश
इतने सारे संतो
को पैदा करता
है तो उसे
उतनी ही
संख्या में पापी
पैदा करने
पड़ते हैं, वरना
संतुलन नहीं
रहेगा। जब कोई
देश इतने सारे
तीर्थंकर—चौबीस
तीर्थंकर, इतने
अवतार—चौबीस
अवतार, इतने
बुद्ध—चौबीस
बुद्ध पैदा
करता है; तो
पापी कहां
जाएंगे? और
कोई बुद्ध यहां
कैसे हो सकते
हैं यदि तमाम
पापियों की
भीड़ न हो? बुद्ध
होते हैं
पापियों के
महासागर में;
और कोई ढंग
नहीं है। एक
बुद्ध के होने
के लिए लाखों
पापी चाहिए।
असल में
उन्हीं
पापियों के
कारण वे इतने
सबुद्ध दिखाई
पड़ते हैं.
तुलना चाहिए।
ब्लैक—बोर्ड
की काली
पृष्ठभूमि पर
तुम सफेद
खड़िया से
लिखते हो, वह
इतना उभर कर
दिखाई पड़ता है—और
भी सफेद—सामान्य
सफेद से
ज्यादा सफेद
दिखाई पड़ता है।
सफेद दीवार पर
लिखो सफेद चाक
से, तो कुछ
पता नहीं चलता।
जब मनुष्यता
सच में ही
प्रौढ़ होगी, संतुलित
होगी, तब
कोई बुद्ध न
होंगे : वह
सफेद दीवार पर
सफेद खड़िया से
लिखने जैसा
होगा। उन्हें
पहचानने के
लिए बड़ी
अंधकारपूर्ण
मनुष्यता
चाहिए। इसलिए
अगर तुम मुझसे
पूछते हो, तो
मैं ऐसे संसार
की आशा करता
हूं जहां किसी
बुद्ध की कोई
जरूरत नहीं
होगी—चीजें
इतनी संतुलित
होंगी।
यही
लाओत्से बार—बार
कहते हैं, 'ऐसा समय
था अतीत में
जब कोई संत न
थे —क्योंकि
कोई पापी न थे।’
ऐसा समय था
अतीत में जब
चीजें इतनी
स्वाभाविक थीं
और इतनी संतुलित
थीं कि का गलत
है और क्या
सही है—ऐसी
कोई धारणा न
थी। लाओत्सु
कहते हैं, 'सही
की धारणा के
साथ ही गलत
प्रवेश कर
जाता है।’ विपरीतताएं
साथ—साथ होती
हैं। वे साथ—साथ
आती हैं; वे
साथ शान चलती
हैं। वे एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं, एक
ही के दो रूप
हैं।
यदि
तुम चुनते हो, तो तुम एक
छोर को चुनते
हो और संतुलन नहीं
चुना जा सकता।
तुम्हें
चुनावरहित
रहना पड़ेगा, तो संतुलन
आता है—न यह, होता है
नेति— नेति।’ अचानक तुम संतुलन
को उपलब्ध हो
जाते हो, मध्य
में आ जाते हो,
और
अस्तित्व की
सारी महिमा
तुम पर बरस
जाती है। तुम
तृप्त हो जाते
हो।
यह
प्रश्न
महत्वपूर्ण
लगता है, लेकिन है
नहीं : ' अपनी
अनुभूतियों
में कैसे कोई
समग्र हो सकता
है—बिना
अतियों में गए?'
यदि तुम
समग्र हो, तो
तुम अति पर
नहीं होओगे; यदि तुम
किसी अति पर
हो, तो तुम
समग्र नहीं
होओगे। समग्र
और संतुलित
होने की कोशिश
करो, और
अतियां अपने
आप खो जाएंगी।
वे तुम्हारे
चुनाव के कारण
हैं, क्योंकि
तुम चुनते हो,
इसलिए वे
हैं।
चुनी
मत। मत कहो कि 'यह अच्छा
है'' और मत
कहो कि 'वह
बुरा है।’ सजग
रहो, बस
इतना ही। मत
कहो कि 'यह
संत है और वह
पापी है।’ सजग
रहो, बस
इतना ही—और
समग्र को
स्वीकार करो।
पापी भी है, संत भी है; अस्तित्व
दोनों को
स्वीकार करता
है। तुम भी
स्वीकार करो
दोनों को।
पापी के लिए
कोई निंदा न
हो, संत के
लिए कोई
प्रशंसा न हो;
तुम
चुनावरहित हो
जाओ। उस
चुनावरहितता
में तुम
संतुलित हो
जाओगे, और
तुम समग्र हो
जाओगे।
चौथा
प्रश्न :
क्या
आप
मुस्कुराते
है— जब हम आपकी
सभा में गंभीर
होते हैं और
लंबे चेहरे
लिए बैठे होते
हैं?
और मैं कर भी
क्या सकता
हूं!
पांचवां
प्रश्न :
आपने
एक बार कहा कि
मादक द्रव्य
रासायनिक स्वप्त
निर्मित करते
है— काल्पनिक
अनुभव। और
कृष्णमूर्ति
कहते हैं कि
सारी योग—
साधनाएं और
सारी ध्यान—
विधियां मादक
द्रव्यों
जैसी ही हैं—
वे भी
रासायनिक
परिवर्तन
पैदा करती हैं
और अनुभव घटित
होते हैं
कृपया इस विषय
पर कुछ कहें।
कृष्णमूर्ति
ठीक कहते हैं।
बहुत कठिन है
इसे समझना, लेकिन वे
ठीक कहते हैं।
सारे अनुभव
रासायनिक
परिवर्तन
द्वारा ही होते
हैं—सारे
अनुभव, बिना
किसी अपवाद के।
चाहे तुम एल
एस डी लो या
तुम उपवास करो,
दोनों
प्रकार से
शरीर
रासायनिक
परिवर्तन से गुजरता
है। चाहे तुम
मारिजुआना लो
या तुम कोई
विशेष प्राणायाम,
कोई श्वास
का अभ्यास करो,
दोनों
प्रकार से
शरीर
रासायनिक
परिवर्तन से
गुजरता है।
इसे
समझने की
कोशिश करो। जब
तुम उपवास
करते हो, तो क्या
होता है? तुम्हारे
शरीर में कुछ
रासायनिक
तत्वों की कमी
हो जाती है, क्योंकि
प्रतिदिन
भोजन द्वारा
उनकी पूर्ति करनी
होती है। यदि
तुम उन
रासायनिक
तत्वों की पूर्ति
नहीं करते, तो शरीर में
वे रासायनिक
तत्व कम हो
जाते हैं। तब
रासायनिक
तत्वों का
साधारण
संतुलन, खो
जाता है; और
क्योंकि
उपवास से एक
असंतुलन
निर्मित हो जाता
है तो तुम कुछ
बातें अनु_Bt 'करने लग
सकते हो।
यदि
तुम काफी लंबे
समय तक उपवास करो, तो
तुम्हें कई
भ्रम होने
लगेंगे। यदि
तुम इक्कीस
दिन या ज्यादा
दिन का उपवास
रखो, तो यह
निर्णय करना
कठिन हो जाएगा
कि जो तुम देख
रहे हो, वह
वास्तविक है
या काल्पनिक,
क्योंकि
इसके लिए एक
खास रासायनिक
तत्व चाहिए और
वह कम हो जाता
है।
साधारणतया, यदि
तुम्हें
कृष्ण अचानक
मिल जाएं रास्ते
पर तो पहला जो
विचार उठेगा
वह यही कि तुम
जरूर
दृष्टिभ्रम
में पड़ गए हो; कोई भ्रम हो
रहा है; कोई
सपना देख रहे
हो। तुम अपनी आंखें
मलोगे और तुम
देखोगे चारों
तरफ, या
तुम किसी और
से पूछोगे, 'यहां आओ।
जरा देखो।
क्या तुम मेरे
सामने खड़े
किसी कृष्ण
जैसे व्यक्ति
को देख रहे हो?'
लेकिन यदि
तुम इक्कीस
दिन तक उपवास
करो, तो
वास्तविकता
और स्वप्न के
बीच का भेद खो
जाता है। तब
यदि कृष्ण
दिखाई पड़ते
हैं, तो
तुम विश्वास
कर लेते हो कि
वे सच में खड़े
हैं।
क्या
तुमने छोटे
बच्चों को
देखा? वे
वास्तविकता
और स्वप्न के
बीच भेद नहीं
कर पाते। रात
वे स्वप्न
देखते हैं
किसी खिलौने
का, और
सुबह वे रोते
हैं—'कहां
गया मेरा
खिलौना?' वह
खास रसायन जो
निर्णय लेने
में तुम्हारी
मदद करता है, वह अभी नहीं
बना होता है
बच्चे में; जब वह बनेगा
केवल तभी
बच्चा
वास्तविक और
काल्पनिक के
बीच भेद करने
के योग्य होगा।
जब तुम
शराब पी लेते
हो, तब
भी वह निर्णय
करने वाला
रसायन नष्ट हो
जाता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने बेटे को
समझा रहा था, एक
शराबघर में
बैठे हुए वह
उसे समझा रहा
था कि कब शराब
पीना बंद कर
देना चाहिए।
तो उसने कहा, 'देखो, उस
कोने में देखो।
जब तुम्हें दो
की बजाय चार
आदमी दिखने
लगें तब समझ
लेना कि शराब
पीना बंद करने
का और घर जाने
का वक्त हुआ।’
लेकिन बेटे
नै कहा, 'डैडी,
वहां दो
आदमी नहीं हैं,
सिर्फ एक
आदमी बैठा हुआ
है।’
तो
डैडी पहले से
ही धुत हैं!
जब तुम
शराब पीते हो
तो क्या होता
है? एक
रासायनिक
परिवर्तन
होता है। जब तुम
एल एस डी लेते
हो तो क्या
होता है? या
मारिजुआना या
ऐसी ही दूसरी
चीजें लेते हो
तो क्या होता
है? एक
रासायनिक
परिवर्तन
होता है और
तुम ऐसी चीजें
देखने लगते हो,
जिन्हें
तुमने कभी
नहीं देखा
होता है।
तुम्हें कुछ बातों
की अनुभूति
होने लगती है;
तुम बहुत
संवेदनशील हो
जाते हो।
और यही
मुसीबत है :
तुम किसी
शराबी को शराब
छोड़ने के लिए
राजी नहीं कर
सकते, क्योंकि
वास्तविकता
बड़ी नीरस और
सपाट लगती है।
जब वह
वास्तविकता
को अपने
रासायनिक
तत्वों द्वारा,
रासायनिक
परिवर्तन
द्वारा देखता
है, तब
वृक्ष ज्यादा
हरे दिखते हैं
और फूलों में
ज्यादा सुगंध
मालूम होती है।
इसीलिए
क्योंकि वह
प्रक्षेपण कर
सकता है; वह
अपना एक
काल्पनिक
संसार
निर्मित कर
सकता है। अब
तुम उससे कहते
हो, 'बंद
करो यह सब।
तुम्हारे
बच्चे परेशान
हो रहे हैं, तुम्हारी
पत्नी दुखी हो
रही है; तुम्हारी
नौकरी छूटी जा
रही है! बंद करो
यह सब।’ लेकिन
वह बंद नहीं
कर सकता, क्योंकि
उसे एक
काल्पनिक
संसार की झलक
मिल गई है, वह
झलक बहुत
सुंदर मालूम
होती है। अब
यदि वह पीना
बंद कर दे, तो
संसार बहुत
रूखा—सूखा, बहुत साधारण
मालूम पड़ता है।
वृक्ष उतने
हरे नहीं
दिखाई पड़ते और
फूलों की सुगंध
उतनी मोहक नहीं
मालूम पड़ती; वह पत्नी भी—जिसे
सुखी करने की
सीख तुम दे
रहे हो
उसको—वह भी
बड़ी साधारण, रोजमर्रा की,
मुर्दा सी
चीज मालूम
पड़ती है। जब
वह किसी मादक
द्रव्य के
प्रेम में
पड़ता है, तो
वही पत्नी
क्लियोपैट्रा,
संसार की
सर्वाधिक
सुंदर स्त्री
मालूम पड़ती है।
वह एक भ्रम
में जीवन जीता
है।
सारे
अनुभव
रासायनिक हैं—बिना
किसी अपवाद के।
जब तुम तेज
सांस लेते हो, तो
तुम्हारे
शरीर में
आक्सीजन की
मात्रा बढ़ जाती
है, कार्बन
डायआक्साइड
की मात्रा कम
हो जाती है।
ज्यादा
आक्सीजन भीतर
के रासायनिक
तत्वों को बदल
देती है। तुम
ऐसी चीजें
अनुभव करने
लगते हो
जिन्हें
तुमने पहले
कभी अनुभव न
किया था। यदि
तुम तेजी से
गोल घूमते हो,
जैसा कि
दरवेश
नृत्यों में
घूमते हैं तेज
लट्टू की तरह,
तो शरीर
बदलता है; रासायनिक
तत्व बदलते
हैं तेज घूमने
से। तुम
चकराया हुआ
अनुभव करते हो,
एक नया
संसार खुल
जाता है।
सारे
अनुभव
रासायनिक हैं।
जब तुम भूखे
होते हो, तो संसार
अलग दिखाई
पड़ता है। जब
तुम्हारा पेट
भरा होता है, तुम तृप्त
होते हो, तब
संसार अलग ही
मालूम पड़ता है।
गरीब आदमी का
संसार अलग
होता है और
अमीर आदमी का
संसार अलग
होता है। उनके
रासायनिक
तत्वों में
भेद होता है।
बुद्धिमान
व्यक्ति का
संसार अलग
होता है, और
एक मूठ
व्यक्ति का
संसार अलग
होता है। उनके
रासायनिक
तत्व भिन्न
होते हैं।
स्त्री का
संसार अलग
होता है, पुरुष
का संसार अलग
होता है। उनके
रासायनिक
तत्व भिन्न
होते हैं।
जब कोई
कामवासना की
दृष्टि से
प्रौढ़ होता है, चौदह या
पंद्रह वर्ष
की उम्र में, तो एक अलग ही
संसार प्रकट
होता है, क्योंकि
उसके खून में
नए रसायन बह
रहे होते हैं।
सात साल के
बच्चे से यदि
तुम बात करो
कामवासना की
या आर्गाज्य
की, तो वह
सोचेगा कि तुम
मूढ़ हों—'क्या
बेकार की बातें
कर रहे हो? '—क्योंकि वे
रसायन
प्रवाहित
नहीं हो रहे
हैं; वे
हार्मोन्स
मौजूद नहीं
हैं रक्त में।
लेकिन चौदह—पंद्रह
वर्ष की
अवस्था आते—आते
आंखें नए
रासायनिक
तत्वों से भर
जाती हैं—एक
साधारण
स्त्री अचानक
रूपांतरित हो
जाती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
छुट्टियों
में पहाड़ पर
जाया करता था।
कभी वह पंद्रह
दिन के लिए
जाता और दस
दिन में ही
वापस आ जाता।
बीस ने उससे
पूछा, 'बात
क्या है? तुमने
पंद्रह दिन की
छुट्टी मांगी
थी, और तुम
पांच दिन पहले
ही लौट आए!' और
कई बार वह दो
हफ्ते की
छुट्टी लेता
और चार हफ्तों
के बाद आता।’तो बात क्या
है?' बीस ने
पूछा।
मुल्ला
ने कहा, 'इसमें एक
गणित है। पहाड़
पर मेरा एक
बंगला है और
एक बुढ़िया, बड़ी ही
बदसूरत
स्त्री उस
बंगले की देख—
भाल करती है।
वही मेरी
कसौटी है : जब
वह बदसूरत
स्त्री मुझे खूबसूरत
दिखाई देने
लगती है, तब
मैं भाग खड़ा
होता हूं। तो
कभी आठ दिन के
बाद, कभी
दस दिन के बाद.।
वह बहुत
बदसूरत और
भयंकर है।
सोचा भी नहीं
जा सकता कि वह
सुंदर लग सकती
है। लेकिन जब
मैं उसके बारे
में सोचने
लगता हूं और
वह मेरे सपनों
में आने लगती
है और मुझे
लगने लगता है
कि वह सुंदर
है, तो मैं
समझ लेता हूं
कि अब वापस घर
जाने का समय आ
गया है; वरना
खतरा है।
इसीलिए कुछ
पक्का नहीं
रहता। यदि मैं
स्वस्थ होता
हूं तो यह बात
जल्दी अनुभव
में आ जाती है—सात
दिन के भीतर
ही। यदि मैं
स्वस्थ नहीं
होता, तो
दो हफ्ते लगते
हैं। यह
रासायनिक तत्वों
पर निर्भर
करता है।
सारे
अनुभव
रासायनिक हैं।
लेकिन एक भेद
समझ लेना है।
दो ढंग हैं।
एक ढंग है रासायनिक
पदार्थों को
बाहर से शामिल
कर लेने का—इंजेक्शन
द्वारा, धूम्रपान
द्वारा, खाने—पीने
से। वे चीजें
बाहर से आती
हैं; वे
बह्म कल्पित चीजें
हैं। यही तो
मादक द्रव्य
के आदी तमाम
लोग संसार भर
में कर रहे
हैं। दूसरा ढंग
है उपवास या
श्वास द्वारा
शरीर को बदलने
का। यही पूरब
के सभी योगी
करते रहे हैं।
वे दोनों एक
ही मार्ग पर
हैं; अंतर
बहुत थोड़ा है।
अंतर यही है
कि मादक
द्रव्य लेने
वाले लोग बाहर
से मादक
द्रव्य लेते
हैं, वे
जबरदस्ती कुछ
आरोपित करते
हैं शरीर के
जैविक—रसायन
में, और
योगी बिना कुछ
बाहर से डाले
अपने शरीर का
ही संतुलन
बदलने का
प्रयास करते
हैं। लेकिन जहां
तक मेरा संबंध
है, दोनों
एक समान हैं।
लेकिन
यदि तुम्हें
अनुभवों में
रस है, तो
मैं तुमसे
योगियों का
मार्ग चुनने
को कहूंगा, तुम ज्यादा
स्वतंत्र
रहोगे। और उस
ढंग से तुम
कभी भी किसी
व्यसन के आदी
न होओगे। और
उस ढंग से
तुम्हारा
शरीर अपनी
शुद्धता, अपना
स्वाभाविक
संतुलन कायम
रखेगा। और उस
ढंग से कम से
कम, तुम
कानून के
प्रति अपराधी
नहीं होओगे—किसी
पुलिस, किसी
अदालत की कोई
संभावना नहीं
है। और उस ढंग
से तुम आसानी
से बाहर आ
सकते हो—यह
सबसे
महत्वपूर्ण
बात है।
यदि
तुम शरीर में
बाहर से
रासायनिक
तत्व डालते हो, तो तुम
उन्हें छोड़
नहीं सकते।
छोड़ना रोज और—और
कठिन होता
जाएगा। असल
में तुम और—और
निर्भर होते
जाओगे। इतने
निर्भर हो
जाओगे कि तुम
जीवन की पुलक,
जीवन का
पूरा आकर्षण खो
दोगे, और
वह मादक
द्रव्य का
अनुभव ही
तुम्हारा
पूरा जीवन बन
जाएगा, जीवन
का पूरा
केंद्र हो
जाएगा।
यदि
तुम योग के
मार्ग पर चलते
हो, शरीर
के रसायन में
आए आंतरिक
परिवर्तनों
द्वारा बढ़ते
हो, तो तुम
कभी निर्भर
नहीं होओगे, और तुम
हमेशा उनके
पार जाने में
सक्षम रहोगे।
क्योंकि धर्म
का मूल तत्व
ही है अनुभवों
के पार जाना।
चाहे तुम
सुंदर रंग
अनुभव करते
हो.. .एल एस डी द्वारा
निर्मित
सतरंगे
इंद्रधनुष—या
तुम योग—साधनाओं
द्वारा
स्वर्ग अनुभव
करते हों—मौलिक
रूप से कोई
अंतर नहीं है।
असल में जब
तुक तुम सभी
अनुभवों के
पार नहीं हो
जाते, सभी
विषयगत
अनुभवों के
पार नहीं हो
जाते, जब
तक तुम उस जगह
नहीं आ जाते
जहां केवल
साक्षी बचता
है और कोई
अनुभव नहीं
होता अनुभव
करने के लिए, केवल अनुभव
करने वाला
बचता है—तब तक
तुमने धर्म के
जगत में
प्रवेश नहीं
किया है।
तो
कृष्णमूर्ति
ठीक कहते हैं।
लेकिन जो लोग
उनको सुन रहे
हैं, वे
गलत समझ रहे
हैं। उनको
सुनने वाले
सोचते हैं कि
सारे अनुभव
व्यर्थ हैं।
निश्चित ही
अंततः
तुम्हें छोड़
देना है उन्हें,
लेकिन इससे
पहले कि तुम
उन्हें छोड़
सको, तुम्हें
उन्हें अनुभव
करना होगा। वे
सीढ़ी की भांति
हैं सीढ़ी को
छोड़ना पड़ता है,
लेकिन पहले
ऊपर चढ़ना भी
पड़ता है। केवल
तभी छोड़ा जा
सकता है उसे, जब कोई उसे
पार कर लेता
है।
सारे
अनुभव बचकाने
हैं, लेकिन
परिपक्व होने
के लिए
तुम्हें उनसे
गुजरना पड़ता
है।
सच्चा
धार्मिक
अनुभव, अनुभव होता
ही नहीं। धार्मिक
अनुभव
सामान्य
अनुभव की तरह
नहीं होता है।
वह केवल
साक्षी होना
है, जहां
परिचित—अपरिचित,
ज्ञेय—
अज्ञेय सब
तिरोहित हो
जाता है। केवल
साक्षी, केवल
शुद्ध चैतन्य
बचता है। उस
शुद्धता में
कोई 'अनुभव'
की अशुद्धि
नहीं होती—न
तुम जीसस को
देखते हो, न
तुम बुद्ध को
देखते हो,
न तुम कृष्ण
को देखते हो।
इसीलिए
झेन गुरु कहते
हैं, 'यदि
तुम्हें
बुद्ध कहीं
मिल जाएं
मार्ग पर, तो
उन्हें तुरंत
मार डालना।’ बुद्ध के
अनुयायी ही
कहते हैं, 'यदि
तुम्हें
बुद्ध, मिल
जाए कहीं
मार्ग पर, तो
उन्हें तुरंत मार
डालना!' बड़ी
साहस की बात
है! क्यों? क्योंकि
बुद्ध इतने
महिमावान हैं
कि तुम स्वप्न
के प्रलोभन
में पड़ सकते
हो। और फिर
तुम आंखें बंद
किए बुद्ध को
देखते हुए और
कृष्ण को बांसुरी
बजाते देखते
हुए अपने
सपनों में खोए
रह सकते हो।
तुम शायद बहुत
धार्मिक सपना
देख रहे हो, लेकिन फिर
भी वह सपना ही
है, सत्य
नहीं है।
सत्य
है तुम्हारा
चैतन्य। बाकी
हर चीज का
अतिक्रमण
करना है। यदि
तुम इसे याद
रख सको, तो तुम्हें
सभी अनुभवों
से गुजरना है ,'लेकिन
तुम्हें उनके
पार जाना है।
लेकिन
यदि तुम्हारा
अनुभवों में
बहुत ज्यादा
रस है, जैसा
कि प्रत्येक
व्यक्ति को है—वह
विकास का
हिस्सा है—तो
मादक
द्रव्यों की
अपेक्षा योग—साधना
को चुनना
बेहतर है। वे
ज्यादा
सूक्ष्म हैं;
वे ज्यादा
परिष्कृत हैं।
तुम्हें
पता होना
चाहिए कि भारत
सभी मादक द्रव्यों
पर प्रयोग कर
चुका है।
अमरीका तो
बिलकुल नया—नया
है इन चीजों
की दुनिया में।
ऋग्वेद के
सोमरस से लेकर
गांजे तक, भारत ने
सब पर प्रयोग
किया है और
पाया है कि यह केवल
समय गंवाना है।
तो भारत ने
फिर योग—साधना
पर प्रयोग किए।
फिर, बहुत
बार, बुद्ध—महावीर
जैसे लोग उस
अवस्था तक
पहुंचे जहां
उन्होंने
पाया कि योग—साधनाएं
भी व्यर्थ हैं;
उन्हें भी
छोड़ देना पड़ता
है।
तो
कृष्णमूर्ति
कोई नई बात
नहीं कह रहे
हैं। यही सारे
बुद्ध
पुरुषों का
अनुभव है।
लेकिन ध्यान
रहे, कोई
अनुभव तभी
तुम्हारा
अनुभव बन सकता
है, जब
तुमने उसे
जीया हो। कोई
और उसे दे
नहीं सकता है
तुमको, वह
उधार नहीं
पाया जा सकता
है। यदि तुम
अभी भी बचकाने
हो और तुम्हें
लगता है कि
तुम्हें
अनुभवों की
जरूरत है, तो
बेहतर है
उन्हें योग—साधना
द्वारा पाना।
अंततः तो
उन्हें भी छोड़
देना पड़ता है।
लेकिन यदि
तुम्हें एल एस
डी और
प्राणायाम के बीच
चुनना हो, तो
प्राणायाम को
चुनना बेहतर
है। तुम कम
निर्भर होओगे
और तुम ज्यादा
सक्षम होओगे
पार जाने में,
क्योंकि तब
तुम सजगता
नहीं खोओगे।
एल एस डी में
सजगता बिलकुल
खो जाएगी।
हमेशा
श्रेष्ठ को
चुनना। जब भी
संभव हो, और तुम
चुनना ही
चाहते हो, तो
श्रेष्ठ को
चुनना। एक
क्षण आएगा जब
तुम कुछ चुनना
नहीं चाहोगे—तब
आती है
चुनावरहितता।
छठवां
प्रश्न :
मैं
सेल्फ—कांशसनेस—
जिसे कि आप
रोग कहते है—और
सेल्फ—
अवेयरनेस
सेल्फ— रिमेंबरिग
साक्षी की
अनुभूति में
भेद नहीं कर
पा रहा हूं।
हां, सेल्फ—कांशसनेस
एक रोग है और
सेल्फ—अवेयरनेस
स्वास्थ्य है।
तो भेद क्या
है, क्योंकि
शब्द तो एक
जैसे ही मालूम
पड़ते हैं?
शब्द
एक जैसे लग
सकते हैं, लेकिन जब
मैं उनका
उपयोग करता
हूं या पतंजलि
उनका उपयोग
करते हैं, तो
हमारा अर्थ एक
ही नहीं होता।
सेल्फ—काशंसनेस
में जोर है 'सेल्फ' पर,
अहं पर।
सेल्फ—अवेयरनेस
में जोर है अवेरनैस
पर, सजगता
पर। तुम दोनों
के लिए एक ही
शब्द सेल्फ—काशंसनेस
का उपयोग क्यों
करते हो। यदि
जोर 'सेल्फ'
पर है, तो
वह रोग है।
यदि जोर
'कांशसनेस'
पर है, तो
वह स्वास्थय
है, सूक्ष्म
है, लेकिन
बहुत बड़ा है।’
सेल्फ—काशंसनेस
एक रोग है
क्योंकि तुम
निरंतर अपने
बारे में
सोचते रहते हो—कि
लोग मेरे विषय
में क्या सोच
रहे हैं? वे मुझे क्या
मान रहे हैं? उनकी क्या
राय है? वे
मुझे पसंद
करते हैं या
नहीं? वे
मुझे स्वीकार
करते हैं या
नहीं? वे
मुझे प्रेम
करते हैं या
नहीं? हमेशा
'मुझे', 'मैं',
यही अहंकार
केंद्र पर
रहता है। यह
एक रोग है।
अहंकार सब से
बड़ा रोग है।
और यदि
तुम अपना फोकस, अपने
ध्यान का
केंद्र बदल
देते हो—तो 'सेल्फ' से
हट कर केंद्र
हो जाता है 'कांशसनेस' पर। अब
तुम्हें
चिंता नहीं
रहती कि लोग
मुझे अस्वीकार
करते हैं या
स्वीकार करते
हैं। उनकी राय
क्या है, इसका
कुछ महत्व
नहीं रहता। अब
तुम प्रत्येक
स्थिति में
होशपूर्ण
रहना चाहते हो।
चाहे वे अस्वीकार
करें या
स्वीकार करें,
चाहे वे
प्रेम करें या
घृणा करें, चाहे वे
तुम्हें पापी
कहें या संत
कहें, कुछ
महत्व नहीं
होता इस बात
का। वे क्या
कहते हैं, उनकी
राय क्या है, यह उनका
अपना मामला है
और यह उनकी
अपनी समस्या
है। तुम तो बस
प्रत्येक
अवस्था में
सजग रहने का
प्रयास करते
हो।
कोई
आता है, तुम्हारे
सामने झुकता
है; वह
मानता है कि
तुम संत हो।
तुम कुछ फिक्र
नहीं करते कि
वह क्या कहता
है, वह
क्या मानता है।
तुम केवल सजग
रहते हो, तुम
पूरी तरह सजग
रहते हो, ताकि
वह तुम्हें
बेहोशी में न
खींच सके, बस
इतना ही। और
फिर कोई आता
है और
तुम्हारा
अपमान कर देता
है और एक फटा—पुराना
जूता तुम पर
फेंक देता है :
तुम फिक्र नहीं
करते कि वह
क्या कर रहा
है। तुम तो बस
सजग रहने का
प्रयास करते
हो, ताकि
तुम
अस्पर्शित
रहो—वह
तुम्हें डांवाडोल
न कर सके। आदर
हो या निंदा, असफलता हो
या सफलता, तुम
वैसे के वैसे
बने रहते हो।
तुम्हारी
सजगता से तुम
ऐसी शांत
अवस्था को उपलब्ध
हो जाते हो जो
किसी भी तरह
से डांवाडोल नहीं
की जा सकती है।
तुम दूसरों के
मूल्यांकन से
मुक्त हो जाते
हो।
धार्मिक
व्यक्ति और
राजनीतिक
व्यक्ति के बीच
यही भेद है।
राजनीतिक
व्यक्ति
सेल्फ—कांशस
होता है, उसका ध्यान
होता है 'मैं'
पर। वह
हमेशा लोगों
की राय की
फिक्र करता है।
वह लोगों के
मत पर, वोटों
पर निर्भर
होता है।
अंततः भीड़ ही
मालिक है और
निर्णायक है।
धार्मिक
व्यक्ति अपना
मालिक होता है,
कोई उसके
लिए निर्णायक
नहीं हो सकता।
वह तुम्हारे
वोटों पर या
तुम्हारे
मूल्यांकनों
पर, तुम्हारे
मतो पर निर्भर
नहीं होता।
यदि तुम उसके
पास आते हो, तो ठीक। यदि
तुम उसके पास
नहीं आते, तो
भी ठीक। कोई
समस्या नहीं
होती इससे। वह
स्वयं में
आनंदित होता
है।
अब मैं
तुम से एक बड़ी
ही
विरोधाभासी
बात कहना चाहूंगा—विरोधाभासी
केवल मालूम
पड़ती है, वैसे है वह
सीधा—साफ सत्य—जों
लोग सेल्फ—कांशस
होते हैं, अपने
प्रति बहुत
चिंतित होते
हैं, उनकी
कोई आत्मा
नहीं होती।
इसीलिए वे
अपने बारे में
इतने चिंतित
होते हैं, भयभीत
होते हैं—कोई
भी छीन सकता
है उनकी आत्मा।
उनके पास होती
ही नहीं आत्मा।
वे मालिक नहीं
होते। उनकी
आत्मा, उनका
व्यक्तित्व
उधार होता है,
दूसरों के
सहारे होता है।
कोई
मुस्कुराता
है — और उनके
व्यक्तित्व
को सहारा मिल
जाता है। कोई
अपमान कर देता
है—एक सहारा
हट जाता है और
उनका ढांचा
हिल जाता है।
कोई क्रोधित
होता है—और हम
भयभीत हो जाते
हैं। यदि
प्रत्येक
व्यक्ति
क्रोध करने
लगे, तो
कहां जाएंगे
वे! क्या होगा
उनका! उसके व्यक्तित्व,
उनकी पहचान
टूट जाती है।
यदि प्रत्येक
व्यक्ति
मुस्कुराता
है और कहता है,
'आप महान है
तो आप महान हो
जाते हैं!
जो लोग
सेल्फ—कांशस
होते हैं, राजनीतिक
लोग.. और जब मैं
कहता हूं 'राजनीतिक
लोग' तो
मेरा मतलब
उन्हीं से
नहीं है जो
राजनीति में
हैं। वे सब जो
किसी न किसी
ढंग से दूसरों
पर निर्भर हैं—राजनीतिक
हैं। उनकी कोई
आत्मा नहीं
होती है। भीतर
सब खाली होता
है। वे सदा
भयभीत रहते
हैं अपने
खालीपन से।
कोई भी उन्हें
उनके खालीपन
की याद दिला
सकता है—कोई
भी! एक कुत्ता
भी उन्हें
उनके खालीपन
की याद दिला
सकता है!
जो
व्यक्ति
धार्मिक होता
है, सेल्क—कांशस
होता है—जोर
है कांशसनेस
पर, चैतन्य
पर—उसकी आत्मा
होती है, प्रामाणिक
आत्मा होती है।
तुम उस आत्मा
को डावाडोल
नहीं कर सकते।
तुम उसे बढ़ा
नहीं सकते, तुम उसे
डिगा नहीं
सकते। उसने
उपलब्ध किया
है उसको। यदि
सारा संसार
उसके विरुद्ध
हो जाए, तो
भी उसकी आत्मा
उसके साथ होगी।
यदि सारा
संसार उसका
अनुसरण करे, तो उसकी
आत्मा में कुछ
जुड़ेगा नहीं,
कुछ बढ़ेगा
नहीं। नहीं, बाहर से कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। उसके
पास एक
प्रामाणिक
सत्य होता है—उसके
भीतर एक
केंद्र होता
है।
राजनीतिक
व्यक्ति में
कोई केंद्र
नहीं होता है।
वह एक झूठा
केंद्र
निर्मित करने
का प्रयास करता
है। वह कुछ
तुम से उधार
लेता है, कुछ किसी
दूसरे से लेता
है, कुछ
किसी और से
लेता है...। इस तरह
व्यवस्था
जमाता रहता है
वह। एक झूठा
व्यक्तित्व, बहुत से
लोगों की राय
पर खड़ा ढांचा.
वही है उसकी
पहचान। यदि
लोग उसे भुला
दें, तो वह
खो जाएगा, वह
कहीं का न
रहेगा; वस्तुत:
वह कुछ भी
नहीं रह जाएगा।
अभी
तुम देखते हो!
एक आदमी
राष्ट्रपति
हो जाता है, तो अचानक
वह कुछ हो
जाता है। फिर
वह नहीं रहता
राष्ट्रपति, तो वह ना—कुछ
हो जाता है।
तब सारे
समाचारपत्र
भूल जाते हैं
उसको। उन्हें
केवल तभी उसकी
याद आएगी जब
वह मर जाएगा।
वह भी कहीं
कोने में
उल्लेख होगा।
वे उसे याद
करेंगे
भूतपूर्व
राष्ट्रपति
के रूप में—व्यक्ति
के रूप में नहीं—भूतपूर्व
पदधारी के रूप
में। क्या
तुमने
राधाकृष्णन
के साथ नहीं
देखा क्या हुआ?
क्या तुम
नहीं देख रहे
हो कि वी. वी
गिरि के साथ क्या
हो रहा है? कहां
हैं गिरि? क्या
हुआ? बस
व्यक्ति गायब
ही हो जाता है!
जब तुम किसी
पद पर होते हो,
तो तुम सभी
समाचारपत्रों
के मुख्यपृष्ठों
पर रहते हो।
तुम
महत्वपूर्ण
नहीं हो—पद
महत्वपूर्ण
है।
इसीलिए
वे सब लोग जो
भीतर गहरे में
दीन—हीन होते
हैं, किसी
पद की तलाश
में रहते हैं;
वे खोजते
हैं लोगों के
वोट, लोगों
की प्रशंसा।
इस ढंग से वे
एक आत्मा
निर्मित कर
लेते हैं—निश्चित
ही एक झूठी आत्मा।
मनस्विद
इस समस्या में
गहरे उतरे हैं।
वे कहते हैं :
जो लोग
श्रेष्ठ
दिखने की
कोशिश करते
हैं, वे
हीन—ग्रंथि से
पीड़ित होते
हैं; और जो
सच में ही
श्रेष्ठ होते
हैं, वे इस
बात की जरा भी
चिंता नहीं
करते। वे इतने
श्रेष्ठ होते
हैं कि उन्हें
पता भी नहीं
होता कि वे
श्रेष्ठ हैं।
केवल एक हीन
व्यक्ति ही
सजग हो सकता
है इसके प्रति
कि वह महान है—और
वह बहुत
संवेदनशील
होता है इस
बारे में। अगर
तुम उसे एक
संकेत भी दो
कि 'तुम इतने
महान नहीं हो
जितना कि तुम
सोचते हो', तो
वह क्रोधित हो
जाएगा। केवल
एक वास्तविक
श्रेष्ठ
व्यक्ति ही
अंतिम
व्यक्ति के
रूप में पीछे
खड़ा हो सकता
है। सारे
हीनता से
पीड़ित लोग आगे
की तरफ भागते
हैं, क्योंकि
यदि वे पीछे
होते हैं, तो
वे 'ना—कुछ'
मालूम होते
हैं। उन्हें जल्दी
आगे पहुंचना
है! उन्हें
राजधानी में
होना है।
उन्हें धन के
अंबार
चाहिए।
उन्हें बड़ी
कार चाहिए।
उन्हें सब कुछ
चाहिए। जिन
लोगों में
हीनता की
ग्रंथि होती
है, वे
हमेशा अपनी
श्रेष्ठता
चीजों द्वारा
प्रमाणित
करने की कोशिश
में रहते हैं।
मैं
इसे
संक्षिप्त
में कह दूं :
जिन लोगों के
पास कोई आत्मा
नहीं होती वे
उसे चीजों
द्वारा पाने
का प्रयास करते
हैं—पद से, प्रतिष्ठा
से, नाम से,
ख्याति से।
कभी—कभी तो
ऐसा भी होता
है अमरीका में
एक आदमी ने सात
आदमियों की
हत्या कर दी।
वे सातों के
सातों आदमी
उसके लिए
अपरिचित थे।
उससे अदालत
में पूछा गया,
'तुमने ऐसा
क्यों किया?' उसने कहा, 'मैं
प्रसिद्ध
नहीं हो सकता
था, तो
मैंने सोचा कम
से कम मैं
बदनाम तो हो
सकता हूं।
लेकिन मैं कुछ
तो हो जाऊं।
और मैं खुश
हूं कि मेरी
फोटो अखबारों
में मुखपृष्ठों
पर आई है
हत्यारे के
रूप में। अब
आप जो चाहें
सजा मुझे दे
सकते हैं। अब
मैं अनुभव करता
हूं कि मैं 'कुछ' हूं।
और अदालत
चिंतित है, सरकार
चिंतित है, और लोग
घबडाएं हुए
हैं, और
समाचारपत्र
चर्चा कर रहे
हैं मेरे बारे
में—मैं
कल्पना कर
सकता हूं कि
प्रत्येक
होटल में, रेस्तरां
में, हर
कहीं लोग मेरे
बारे में बात
कर रहे होंगे।
कम से कम एक
दिन के लिए तो
मैं प्रसिद्ध
हो गया, सब
लोग मेरे बारे
में जान गए।’
सारे
राजनीतिज्ञ
हत्यारे हैं।
तुम इसे नहीं
देख सकते, क्योंकि
कहीं भीतर
गहरे में तुम
भी राजनीतिज्ञ
हो। अभी— अभी
मुजीबुर्रहमान
की हत्या कर
दी गई, अभी
कुछ ही दिन
पहले तक वह
राष्ट्रपिता
था। और
राष्ट्रपिता
बनने के लिए
उसने इतना
उपद्रव किया।
उसने बहुतो की
हत्या की—या
उसने ऐसी
स्थिति पैदा
कर दी जिसमें
बहुत लोगों की
हत्या हुई। अब
उसे उसके अपने
ही साथियों ने
मार डाला।
उसका पूरा
मंत्रिमंडल
फिर सत्ता में
है और जिन
लोगों ने उसकी
हत्या का
षड्यंत्र रचा—अब
वे
राष्ट्रपति
और
प्रधानमंत्री
और मंत्री हैं।
और वे सभी
उसके साथी थे,
और कोई कुछ
नहीं कह रहा
है उनके
विरुद्ध। कोई
भी उनके विरोध
में कुछ नहीं
कह रहा है। यह
संसार बिलकुल
अविश्वसनीय
मालूम पड़ता
है! अब वे हैं
बड़े आदमी। और
शायद उसी
मंत्रिमंडल
का ही कोई
व्यक्ति अब
मुश्ताक अहमद
को मारने की
साजिश कर रहा हो।
सारे
राजनीतिज्ञ
हत्यारे हैं, क्योंकि
उन्हें
तुम्हारी
फिक्र नहीं
होती। उन्हें
फिक्र होती है
उनकी अपनी महत्वाकांक्षा
की. उन्हें
कुछ बनना है।
अगर हत्या से
उनकी महत्वाकांक्षा
पूरी होती हो,
तो ठीक है।
अगर हिंसा से
उनकी
महत्वाकांक्षा
पूरी होती हो,
तो ठीक है।
मैं
अभी कुछ दिन
पहले एक किताब
पढ़ रहा था।
मैं विश्वास न
कर सका उस बात
पर, लेकिन
वह सच है। मैं
एक किताब पढ़
रहा था लेनिन
के विषय में।
किसी ने उसे
बीथोवन का
संगीत सुनने
के लिए निमंत्रित
किया। उसने
मना किया, और
उसने बहुत जोर
से मना किया, एकदम दृढ़ता
से। वस्तुत:
वह करीब—करीब
गुस्से में आ
गया मना करने
में। वह आदमी
जिसने उसे
निमंत्रित
किया था, हैरत
में पड़ गया कि
वह इतने क्रोध
में क्यों आ गया।
उसने कहा, 'लेकिन
आप इतने नाराज
क्यों हो रहे
हैं? बीथोवन
के संगीत की
गणना तो संसार
के महानतम
संगीतो में
होती है।’ लेनिन
ने कहा, 'होती
होगी, लेकिन
सारा अच्छा
संगीत क्रांति
के विरुद्ध है,
क्योंकि वह
तुम्हें इतना
गहरा संतोष
देता है, वह
तुम्हें शांत
कर देता है।
मैं सब संगीत
का विरोधी
हूं।
यदि
संगीत फैलता
है संसार में, तो क्रांतिया
मिट जाएंगी।
उसकी बात में
बल है। लेनिन
सभी
राजनीतिज्ञों
के बारे में
एक सच कह रहा
है। वे नहीं
पसंद करते की
संसार में
महान संगीत हो;
वे नहीं पसंद
करेंगे कि
संसार में
श्रेष्ठ
काव्य हो; वे
नहीं पसंद
करेंगे कि
संसार में
गहरे ध्यानी
हों; वे
नहीं पसंद
करेंगे कि
संसार में
सुखी, आनंदमग्न
व्यक्ति हों,
नहीं—क्योंकि
फिर क्रांतियों
का क्या होगा?
युद्धों का
क्या होगा? उन सब
मूढ़ताओं का
क्या होगा जो
संसार में
चलती रहती हैं
ई
जरूरत
है कि लोग सदा
अशांत रहें, केवल तभी
वे राजनेताओं
की याद करते
हैं। यदि लोग
संतुष्ट हैं,
तृप्त हैं,
प्रसन्न
हैं, तो
कौन परवाह
करता है
राजधानियों
की? लोग
भूल जाएंगे
उन्हें। वे
नाचेंगे, और
संगीत
सुनेंगे, और
ध्यान करेंगे।
वे क्यों
चिंता करेंगे
राष्ट्रपति
फोर्ड की और 'इसकी' और 'उसकी'? उन बातों
में कुछ रस
नहीं रहता।
लेकिन लोग जब
संतुष्ट नहीं
होते, शांत
नहीं होते, तो वे
दूसरों के
व्यक्तित्व
को सहारा दिए
चले जाते हैं,
क्योंकि
यही एकमात्र
उपाय है जिससे
वे दूसरों का
सहारा पा सकते
हैं अपने
व्यक्तित्व
के सहारे के
लिए।
तो इसे
स्मरण रखना
सेल्फ—कांशसनेस—जोर
है 'सेल्फ'
पर—एक रोग
है, गहन
रोग है। इससे
छुटकारा पाना
है। सेल्फ—कांशसनेस—जोर
है 'कांशसनेस'
पर, चैतन्य
पर—तब यह
संसार की सबसे
स्वस्थ, सबसे
पवित्र बात है,
क्योंकि यह
संबंध रखती है
स्वस्थ
व्यक्तियों
से, जिन्होंने
अपना केंद्र
पा लिया है।
वे बोधपूर्ण
हैं, सजग
हैं। वे रिक्त
नहीं हैं, वे
तृप्त हैं।
सातवां
प्रश्न:
कैसे कोई
श्वास को देखे
जब कि वह
दिखाई नहीं
पड़ती बल्कि
अनुभव होती है? जरूरी
नहीं है कि
देखने का अर्थ
आंखों से
देखना ही हो—वह
अनुभूति भी हो
सकती है। असल
में यह
अनुभूति ही है,
क्योंकि
कैसे तुम अपनी
श्वास को देख
सकते हो गु:
तुम उसे अनुभव
करते हो, उसके
स्पर्श को अनुभव
करते हो। जब
श्वास अपने
मार्ग से
गुजरती है, तब तुम उसका
स्पर्श अनुभव
करते हो।
देखने की कोई
बात नहीं है।
सजग रहने की
बात है कि वह
भीतर जा रही
है, कि
वह पहुंच गई
बिलकुल
तुम्हारे
अंतरतम केंद्र
तक, कि अब
वह रुक गई, कि
अब वह लौट कर
बाहर आ रही है।
उतार और चढ़ाव :
अब वह बाहर गई,
पूरी तरह
बाहर चली गई, रुक गई; फिर
वापस आने लगी।
वह पूरा
वर्तुल— भीतर
आना, बाहर
जाना, भीतर
आना, बाहर
जाना—तुम्हें
सजग रहना पड़ता
है। यदि तुम
उसे अनुभव
करते हो, तो
वही सजगता है—लेकिन
उसे अनुभव
करने में चूक
नहीं होनी
चाहिए। यदि
तुम एक घंटे
रोज यह कर सको,
तो
तुम्हारा
पूरा जीवन बदल
जाएगा।
और
ध्यान रहे, यदि तुम
अपनी श्वास को
बदलते नहीं हो,
तो कोई
रासायनिक
परिवर्तन
नहीं हो रहा
है तुम में।
यही पतंजलि और
बुद्ध में भेद
है। पतंजलि की
विधियां
तुम्हारी
रासायनिक
व्यवस्था को
बदलेंगी; बुद्ध
की विधि तुम्हारी
रासायनिक
व्यवस्था को
बिलकुल नहीं
छुएगी।
स्वाभाविक
श्वास—जैसी कि
वह है—तुम केवल
ध्यान देते हो,
अनुभव करते
हो, देखते
हो। उसे बिना
देखे भीतर —बाहर
नहीं होने
देते हो, बस
इतना ही। उसे
बदलते नहीं।
उसे वैसी ही
रहने देते हो जैसी
वह है। बस एक
बात जोड़ देते हो
कि तुम उसके साक्षी
हो जाते हो।
यदि
तुम एक घंटे
भी यह प्रयोग
करते हो तो
तुम्हारा
पूरा जीवन
रूपांतरित हो
जाएगा—और बिना
ही किसी
रासयनिक
परिर्वतन के
तुम होगा उसके
पार का अनुभव,
एक
अनुभवातीत
चैतन्य हो जाओगे।
तुम सबुद्धों
को जानोगे ही
नहीं, तुम
स्वयं ही सबुद्ध
हो जाओगे। और
यही स्मरण
रखने योग्य
बात है :
बुद्धों को देखने
का कोई महत्व
नहीं है—जब तक
कि तुम स्वयं
बुद्ध न हो
जाओ।
आठवां
प्रश्न :
क्या
साक्षी— भाव
एक ठंडी भाव—
शून्य घटना
होनी चाहिए?
नहीं, साक्षी— भाव
ठंडी घटना
नहीं होती, लेकिन शीतल
होती है। ठंडी
नहीं—बल्कि
शीतल। और भेद
बड़ा है। जब
कोई बात ठंडी,
भाव—शून्य
होती है, तो
तुम उसकी तरफ
उदासीन भाव से
देख रहे होते
हो, परवाह
नहीं कर रहे
होते, तटस्थ
होते हो।
शीतलता अलग
बात है : तुम
उसकी ओर
ध्यानपूर्ण होते
हो, तुम
तटस्थ नहीं
होते, लेकिन
तुम्हारा मोह
भी नहीं होता।
तुम आविष्ट
नहीं होते; तुम उसके
प्रति व्यग्र
नहीं होते; तुम
उत्तेजित
नहीं होते।
यदि तुम इन दो
अतियों से बच
सको—उदासीनता
से और
उत्तेजना से—तो
एक शीतलता, एक शांत—शीतल,
समग्र
अनुभूति
तुम्हें घेर
लेती है।
साक्षी
होने का मतलब
भाव—शून्य
होना नहीं है।
असल में यदि
तुम भाव—शून्य
हो तो फिर तुम
साक्षी नहीं
रह गए; तुम
उदासीन हो गए।
तुम देख नहीं
रहे हो। और
तुम भलीभांति
जानते हो कि
या तो तुम
ठंडे हो सकते
हो या तुम गरम
हो सकते हो।
शीतलता ठीक
मध्य में होती
है। शीतलता न
तो गरम होती
है और न ठंडी, वह इन दोनों
के बीच का
मध्यबिंदु है।
तुम सजग हो, लेकिन
उत्तेजित
नहीं हो। तुम
ध्यानपूर्वक
देख रहे हो, उदासीन नहीं
हो, लेकिन
तुम उससे
उद्वेलित
नहीं होते।
कठिन
है बात, क्योंकि तुम
दो ही
अनुभूतियों
को जानते हो—ठंडी
और गरम। तुम
तीसरी
अनुभूति को
बिलकुल नहीं
जानते हो, क्योंकि
तुम एक अति से
दूसरी अति में
डोलते रहते हो।
या तो तुम
घृणा करते हो
किसी से या
प्रेम करते हो।
करुणा. तुम
नहीं जानते कि
वह क्या है।
करुणा एक शब्द
मात्र है, एक
अर्थहीन शब्द
मालूम पड़ता है।
वह शीतल शब्द
है।
अगर
तुम बुद्ध के
पास आते हो, तो वे
तुम्हारा
स्वागत
करेंगे, लेकिन
वह स्वागत कोई
जोशीला
स्वागत न होगा—वह
भाव—शून्य भी
नहीं होगा। वह
एक शांत
स्वागत होगा।
वे स्वागत
करेंगे
तुम्हारा
पूरे हृदय से,
लेकिन वे
उत्तेजित
नहीं होंगे।
ऐसा नहीं होगा
कि यदि तुम न
आते तो वे
उदास हो जाते
तुम्हारे न
आने से। नहीं,
वे सदा की
भांति आनंदित
रहते। यदि तुम
आते हो तो वे
प्रसन्न हैं;
यदि तुम
नहीं आते हो
तो भी वे
प्रसन्न हैं।
उनकी
प्रसन्नता
अपरिवर्तित
रहती है, इसीलिए
वह शीतल होती
है।
जब
तुम्हारा
मित्र आता है
तुमसे मिलने, तुम
उत्तेजित हो
जाते हो। और
ध्यान रहे, तुम बहुत
समय तक
उत्तेजित
नहीं रह सकते,
क्योंकि
उत्तेजना
थकाती है।
जल्दी ही तुम
सोचने लगते हो,
'कब जाएगा
यह आदमी!' पहले
तुम उत्तेजित
हो जाते हो; फिर तुम भाव—शून्य
हो जाते हो।
पहले तुम
प्रसन्न हो
जाते हो
क्योंकि
मित्र आया है,
और फिर तुम प्रसन्न
होते हो जब वह
चला जाता है।
बुद्ध
आनंदित ही रहते
हैं—मित्र आया
है या नहीं, उससे कोई
लेना—देना
नहीं है। उनके
आनंद में कोई
परिवर्तन
नहीं होता। वे
शांत हैं। और शांत
प्रेम का अपना
सच में ही एक
बड़ा अदभुत अनुभव
है—कठिन है
बात क्योंकि तुम्हारा
मन शांत प्रेम
शुन्य व्याख्या
'तटस्थ' की भांति
करेगा। शांत
प्रेम से
तुम्हारी कोई
पहचान नहीं है;
तुम केवल
ठंडेपन को
जानते हो।
तुम्हें
लगेगा कि
बुद्ध ठंडे
हैं, तटस्थ
हैं। वे ठंडे
नहीं हैं। सभी
बुद्ध पुरुष शांत
होते हैं। शांत
होते हैं
इसलिए तुम
उन्हें
डावाडोल नहीं
कर सकते—किसी
भी ढंग से; तुम
उन्हें सुखी
नहीं कर सकते;
तुम उन्हें
दुखी नहीं कर
सकते; वे शांत
होते हैं, थिर
होते हैं, क्योंकि
वे केंद्रस्थ
होते हैं।
नौवां
प्रश्न:
आप
हमें ऐसा कुछ
क्यों नहीं दे
देते जो हमें
तुरंत इसी पल
बिना किसी
पीड़ा के मिटा
दे बजाय इसके
कि हम इस अंतहीन
मालूम होती
पीड़ा से
गुजरें?
मैं वही दे
रहा हूं तुम
को, लेकिन
तुम सुनते ही
नहीं। सवाल
इसका नहीं है
कि मैं वह
नहीं दे रहा
हूं तुम्हें।
मैं तुम्हें
अंतिम जहर दे
रहा हूं। वह
तुम्हें
तत्क्षण मार
देगा, लेकिन
तुम मुझे
सुनते ही नहीं।
तुम सोचते
रहते हो कि
कुछ गलत है, तुम सोचते
रहते हो कि
तुम गलत हो, और कभी—कभी
तुम्हारी
इच्छा भी होती
है कि कैसे इस
झंझट से छूटें?
कैसे इसके
पार जाएं? लेकिन
तुम्हारे
बहुत न्यस्त
स्वार्थ हैं।
तुम सोचते
जरूर हो, 'कैसे
इसके पार जाएं?'
लेकिन तुम
चाहते नहीं हो
पार जाना। जहर
तो मैं दे
सकता हूं
तुमको। जो मैं
तुम्हें सिखा
रहा हूं वह
मरने की कला
ही है। लेकिन
तुम्हें मैं
जबरदस्ती जहर
नहीं दे सकता
हूं; वरना
अदालत है—मैं
मुश्किल में
पडूगा। तो मैं
बस उसे
तुम्हारे
सामने रख देता
हूं; फिर
लेना तो
तुम्हें ही है।
और वहीं तुम
चूक जाते हो।
तुम
चाहते हो कि
जबरदस्ती कोई
तुम्हें दे दे।
तुम चाहते हो
कि कोई और
तुम्हें पिला
दे। और यह
मृत्यु किसी
और के द्वारा
जबरदस्ती नहीं
लाई जा सकती
है। जिस
मृत्यु की मैं
बात कर रहा
हूं वह
तुम्हारी
इच्छा से होनी
चाहिए, तुम्हारी
मर्जी से होनी
चाहिए।
तुम्हें पूरे
हृदय से उसका
स्वागत करना
होगा। मैं तुम
पर जबरदस्ती
थोप नहीं सकता।
यदि तुम तैयार
हो, तो वह
घटेगी, यदि
तुम तैयार
नहीं हो, तो
वह नहीं घटेगी।
मेरी तरफ से
मैं सदा तैयार
हूं। यदि तुम
तैयार हो मरने
के लिए तो मैं
तैयार हूं
तुम्हारी मदद
करने के लिए।
लेकिन
तुम तैयार
नहीं हो मरने
के लिए। भीतर
तुम सोचते
रहते हो कि इस
मृत्यु के बाद
भी 'तुम'
बचोगे। तुम
ध्यान करते हो,
लेकिन तुम
इस ढंग से
ध्यान करते हो
कि तुम इसके
बाद बच सको.
तुम इसका
उपयोग एक विधि
की भांति करते
हो। तुम्हारा
मूल केंद्र
अछूता रहता है;
तुम सदा
सचेत रहते हो
इसके लिए।
लेकिन यदि तुम
इसे मृत्यु की
भांति करो—ध्यान
मृत्यु की
भांति करो—तो
तुम्हें
मिटना होगा।
कोई और ही
प्रकट होगा
इससे, 'तुम'
नहीं। तुम
तो मिट जाओगे।
एक नई अंतस
सत्ता जन्म
लेगी तुम से—ताजी,
युवा, कुंआरी।
तुम उसे पहचान
भी न पाओगे।
एक अंतराल आ
जाएगा; तुम
मिट गए पूरी
तरह, कुछ
नया उदित हुआ—और
उन दोनों का
एक—दूसरे से
कोई संबंध
नहीं होता।
बहुत
कठिन है इसे
समझना। वह न?। जीवन
तुम में ही
छिपा है, लेकिन
वह खोल जिसने
उसे ढंका हुआ
है, बहुत
कठोर है। तुम
बीज की भांति
हो : भीतर गहरे
में सब छिपा
है, पूरा
वृक्ष छिपा
है—फूल और फल, और सब है।
लेकिन बीज का
खोल बहुत कड़ा
है। खोल राज़ी
नहीं है मिटने
के लिए। यदि
खोल मिटे तो
वृक्ष पैदा
हो।
और
वृक्ष बिलकुल
भिन्न होता है
उस खोल से, उसका कुछ
लेना—देना
नहीं उससे।
खोल केवल एक
सुरक्षा है, एक आवरण है—लेकिन
आवरण बहुत
महत्वपूर्ण
हो गया है।
तुम्हारा
अहंकार
बिलकुल खोल की
भांति है। यदि
अहंकार मरता
है, तो
तुम विकसित
होओगे—तुम
परमात्मा हो
जाओगे।
अहंकार के साथ
तुम पीड़ित और
दुखी रहोगे।
बिना अहंकार
के तुम परम
आनंदित होओगे।
लेकिन तुम इसे
जानते नहीं; खोल ने कभी
कुछ सुना नहीं
इस विषय में।
और तुम मुझे
सुनते रहते हो
खोल के, कवच
के भीतर से ही।
इसीलिए तुम
मुझसे कहते
रहते हो, 'हमें
कुछ दे दें
मरने के लिए!' लेकिन तुम
ऐसा चाहते
नहीं।
मैं
मरने की ही
व्यवस्था दे
रहा हूं
प्रतिपल। असल
में मैं और
कुछ भी नहीं
दे रहा हूं।
धर्म का
संपूर्ण
विज्ञान
मृत्यु का
विज्ञान है।
वह तुम्हें
सिखाता है कि
कैसे पूरी तरह
मरा जाए, ताकि कुछ भी
बाकी न बचे।
पूरा खोल धरती
में मिट जाए, घुल जाए, और
वृक्ष पैदा हो
जाए।
लेकिन
क्या तुम
सोचते हो कि
कोई और
तुम्हारे लिए
यह करेगा? वह संभव
नहीं।
तुम्हें
आत्महत्या
करनी है; कोई
और तुम्हारी
हत्या नहीं कर
सकता है। इसे
याद रखना। यह
शब्द 'आत्महत्या'
बहुत सुंदर
है। मैं शरीर
की हत्या की
बात नहीं कर
रहा हूं; मैं
मन की हत्या
की बात कर रहा
हूं—अहंकार की
हत्या की बात
कर रहा हूं।
अ—मन हो
जाओ, निरहंकार
हो जाओ, और
सारा
अस्तित्व
उपलब्ध हो
जाता है। तुम
इसे लाखों
जन्मों से
अपने भीतर लिए
चल रहे हो। वह
तुम्हारे
भीतर मौजूद ही
है। बीज वहां
मौजूद ही है, बस ठीक जमीन
मिल जाए और
खोल टूटने
लगती है... और फिर
वृक्ष प्रकट
होता है अपनी
पूरी महिमा और
अपने पूरे
सौंदर्य के
साथ।
अंतिम
प्रश्न:
आपके
वचन कहां से
आते हैं और
आपका उनके साथ
क्या संबंध है?
कोई भीतर नहीं
है जो उनके
साथ संबंध
बनाए। वे
शून्य से
प्रकट होते
हैं। कोई भीतर
व्यवस्था
नहीं कर रहा
है। मैं भीतर
नहीं हूं उनकी
व्यवस्था
बिठाने के लिए।
तुम प्रश्न
पूछते हो और
शून्य से
उत्तर आता है।
वे शब्द मेरे
नहीं हैं।
प्रश्न
तुम्हारा है; उत्तर
मेरा नहीं है।
प्रश्न
तुम्हारे मन
से आता है; उत्तर
किसी मन से
नहीं आ रहा है।
मन का उपयोग
किया जा रहा
है उसे तुम तक
पहुंचाने के
लिए, लेकिन
वह मन से नहीं
आ रहा है। मन
केवल माध्यम
है, स्रोत
नहीं है।
आज इतना
ही
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