दिनांंक 6 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्न—सार:
प्रश्न—सार:
1—क्या
कुछ लोग
दूसरों की
उपेक्षा अधिक
मूढ़ होते है?
2—आत्म—विश्लेषण
और आत्म—स्मरण
के बीच क्या
फर्क है?
3—अब
प्रवचन के
दौरान कई बार
आप दबी—दबी
हंसी हंसते है?
4—विजय
आनंद की एक
फिल्म की
सफलता के लिए
क्या आपने आर्शीवाद
दिया था?
5—आत्म—स्मरण
ओर साक्षी के
बीच क्या भेद
है?
6—कुछ समय
तक शुद्ध
चेतना का
अनुभव करने के
बाद
क्या
फिर नीचे
गिरना संभव है?
7—बुद्ध
की तरह क्याजीसस
भी स्वार्थी
थे?
जीसस का
क्या अर्थ है
इस कथन से : ‘जिसे
मेरे पीछे आना
है,
उसे पहले
स्वयं को
इंकार करना
होगा?’
8—जीवन की
समस्याओं के
आधार में मेरे
मन का कितना
हिस्सा है?
मेरी
जिम्मेदारी
क्या है?
9—क्या
छोटे बच्चों
को आभा—मंडल
दिखाई देता है?
10—बुद्धत्व
को उपलब्ध
लोगों में
पुरूषों की
अपेक्षा
स्त्रियों
की संख्या
इतनी कम क्या
है।
पहला
प्रश्न :
क्या
कुछ लोग
दूसरों की
अपेक्षा अधिक
मूड होते हैं?
मन मात्र मूढ़
है। जब तक तुम
मन के पार
नहीं जाते, तुम
मूढ़ता के पार
नहीं जाते; जैसा मन है, वह मूढ़ है।
और मन दो
प्रकार के
होते हैं :
बहुत जानने
वाला मन और कम
जानने वाला मन।
लेकिन दोनों
ही मूढ़ हैं।
बहुत जानकारी
वाले मन को
बुद्धिमान
माना जाता है,
लेकिन वह
बुद्धिमान
होता नहीं। कम
जानकारी वाला
मन मूढ़ माना
जाता है, लेकिन
दोनों ही मूढ़
हैं।
अपनी
मूढ़ता में भी
तुम बहुत कुछ
जान सकते हो; तुम बहुत
जानकारी
इकट्ठी कर
सकते हो; तुम
शास्त्रों का
बड़ा बोझ लिए
चल सकते हो, तुम
प्रशिक्षित
कर सकते हो मन
को, संस्कारित
कर सकते हो मन
को; तुम
बहुत कुछ
कंठस्थ कर
सकते हो, तुम
करीब—करीब
एनसाइक्लोपीडिया
ब्रिटानिका
बन सकते हो।
लेकिन इन बातों
से तुम्हारी
मूढ़ता में कोई
अंतर नहीं
पड़ता है। असल
में अगर तुम्हारा
मिलना किसी
ऐसे व्यक्ति
से हो जो मन के
पार जा चुका
हो—तो
तुम्हारी
मूढ़ता ज्यादा
स्पष्ट होगी
उनकी अपेक्षा
जिनके पास कोई
जानकारी नहीं
है, जो कुछ
नहीं जानते
हैं। केवल
ज्यादा जानना
ही ज्ञानी
होना नहीं है,
और केवल कम
जानना ही कु
होना नहीं है।
मूढ़ता
एक तरह की
नींद है, एक गहरी
बेहोशी है।
तुम कुछ बातें
किए चले जाते
हो, नहीं
जानते हुए कि
तुम क्यों कर
रहे हो। तुम
हजारों जाल
निर्मित करते
रहते हो, नहीं
जानते हुए कि
क्यों कर रहे
हो। तुम जीवन
से गुजरते हो
गहन निद्रा
में। वह
निद्रा मूढ़ता
है। मन के साथ
तादात्म्य
बना लेना
मूढ़ता है। यदि
तुम्हें
स्मरण आ जाता
है, यदि
तुम सजग हो
जाते हो और मन
के साथ
तुम्हारा तादात्म्य
खो जाता है, यदि तुम मन
नहीं रहते, यदि तुम मन
का अतिक्रमण
कर जाते हो, तो प्रज्ञा
का आविर्भाव
होता है।
प्रज्ञा एक
तरह का जागरण
है। सोए हुए
तुम मूढ़ होते
हो। जागते ही
मूढ़ता खो जाती
है : पहली बार
समझ का, प्रज्ञा
का जन्म होता
है।
बिना
अपने को जाने
भी बहुत कुछ
जान लेना संभव
है; लेकिन
तब वह सब
जानना मूढ़ता
का ही हिस्सा
है। ठीक इससे
विपरीत बात भी
संभव है.
स्वयं को जानना—और
कुछ भी न
जानना। लेकिन
स्वयं को
जानना
पर्याप्त है
बुद्धिमान
होने के लिए; और वह
व्यक्ति जो
स्वयं को
जानता है वह हर
परिस्थिति
में विवेक से
काम करेगा। वह
प्रतिसंवेदन
करेगा। उसका
प्रतिसंवेद
कोई
प्रतिक्रिया
न होगी; वह
अतीत से नहीं
आएगा। वह
वर्तमान में
जीएगा; वह
अभी और यहीं
जीएगा।
मूढ़ मन
सदा अतीत
स्मृति से काम
करता है।
प्रज्ञा का
अतीत से कोई
संबंध नहीं
होता।
प्रज्ञा होती
है सदा
वर्तमान में।
मैं तुम से एक
प्रश्न पूछता
हूं अगर
तुम्हारी
प्रज्ञा से
उसका उत्तर
आता है, तुम्हारी
स्मृति से
उत्तर नहीं
आता, तो
तुम मूढ़ नहीं
हो। लेकिन यदि
उत्तर स्मृति
से आता है, प्रज्ञा
से नहीं—तो
तुम प्रश्न को
देखते भी नहीं।
असल में
प्रश्न की तो
तुम्हें
फिक्र ही नहीं
होती; तुम्हारे
पास तो अपना
रेडीमेड
उत्तर होता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन के
विषय में
कहानी है कि
एक बार सम्राट
उसके गाव में
आने वाला था।
सम्राट से
मिलने में गाव
वाले बहुत
घबडाए हुए थे, तो उन सब
ने नसरुद्दीन
से कहा, 'आप
हमारे
प्रतिनिधि
हैं। हम मूढ़
हैं, अज्ञानी
हैं। केवल आप
ही बुद्धिमान
हैं यहां, तो
कृपा करके
स्थिति को
सम्हाले, क्योंकि
दरबारी तौर—तरीकों
का हमें कुछ
पता नहीं है, और सम्राट यहां
पहली बार आ
रहा है।’ नसरुद्दीन
ने कहा, 'निश्चित
ही, मैंने
बहुत से
सम्राटों को
देखा है और
मैं बहुत से
दरबारों में
गया हूं। कोई
चिंता मत करो।’
लेकिन
दरबारियों को
भी चिंता थी
गांव की, तो वे आए कि
जरा देखें
क्या स्थिति
है। जब
उन्होंने
पूछा कि उनका
प्रतिनिधित्व
कौन करेगा, तो गांव
वालों ने कहा,
'मुल्ला
नसरुद्दीन
हमारा
प्रतिनिधि है।
वह हमारा नेता
है, हमारा
मार्गदर्शक
है, गाव का
समझदार आदमी
है।’
तो
उन्होंने
मुल्ला
नसरुद्दीन को
कहा, 'तुम्हें
बहुत फिक्र
करने की जरूरत
नहीं। सम्राट
सिर्फ तीन ही
प्रश्न पूछने
वाले हैं।
पहला प्रश्न
होगा
तुम्हारी
उम्र के बारे
में।
तुम्हारी
उम्र क्या है?'
नसरुद्दीन
ने कहा, 'सत्तर साल।’
'तो याद रखना।
बहुत ज्यादा
चकित मत हो
जाना चकाचौंध
से, सम्राट
से और राज
दरबारियों से।
जब सम्राट
पूछे कि
तुम्हारी
उम्र क्या है,
कह देना
सत्तर साल—न
एक शब्द ज्यादा
कहना न एक
शब्द कम, वरना
तुम मुश्किल
में पड़ सकते
हो। फिर वे
पूछेंगे कि
तुम कितने समय
से गांव की मस्जिद
में काम कर
रहे हो? तुम
कितने समय से
मौलवी हो यहां?
तो ठीक—ठीक
बता देना।
कितने दिनों
से काम कर रहे
हो तुम?'
उसने
कहा, 'तीस
साल से।’
बस, ऐसे ही
प्रश्न। फिर
सम्राट आया।
जिन लोगों ने
नसरुद्दीन को
तैयार किया था
उन्होंने ही
सम्राट को भी
तैयार किया था,
सम्राट से
कहा था, 'इस
गांव के लोग
बड़े सीधे —सादे
हैं और उनका
नेता कुछ मूढ़
मालूम पड़ता है,
तो कृपया और
कुछ न पूछें।
ये रहे
प्रश्न...।’
लेकिन
सम्राट भूल
गया। तो 'तुम कितने
साल के हो?' पूछने
से पहले उसने
पूछ लिया, 'कितने
साल से तुम यहां
मौलवी हो?'
अब
नसरुद्दीन के
पास तो तय
उत्तर थे।
उसने कहा, 'सत्तर
साल।’
सम्राट
थोड़ा उलझन में
दिखाई पड़ा
क्योंकि यह आदमी
सत्तर साल से
ज्यादा का
लगता नहीं, तो क्या
यह जन्म से ही
मौलवी है! फिर
उसने कहा, ' आश्चर्य
है मुझे। तो
फिर तुम्हारी
उम्र क्या है?'
नसरुद्दीन
ने कहा, 'तीस
साल।’ क्योंकि
यही तय हुआ था
कि पहले उसे
कहना है, 'सत्तर
साल', फिर
उसे कहना है, 'तीस साल।’
सम्राट
ने कहा, 'क्या तुम
पागल हो?'
नसरुद्दीन
ने कहा, 'महाराज, हम
दोनों पागल हैं—अपने—अपने
ढंग से। आप
गलत प्रश्न
पूछ रहे हैं—और
मुझे ठीक
उत्तर देने
हैं। यही है
समस्या। मैं
बदल नहीं सकता,
क्योंकि वे
लोग यहां
मौजूद हैं, जिन्होंने
मुझे तैयार
किया है। वे
मेरी ओर देख
रहे हैं। मैं
बदल नहीं सकता,
और आप गलत
प्रश्न पूछ
रहे हैं। हम
दोनों अपने—
अपने ढंग से
पागल हैं। मैं
विवश हूं ठीक
उत्तर देने के
लिए—यह मेरा
पागलपन है।
यदि पहले से
ही उत्तर
तैयार न होते
तो मैंने ठीक
उत्तर दिए
होते आपको, लेकिन अब
मुश्किल है।
और आप गलत
प्रश्न पूछ
रहे हैं, गलत
क्रम में पूछ
रहे हैं!'
ऐसा
होता है मूढ़
मन के साथ।
निरंतर अपने
पर ध्यान देना
: मुल्ला
नसरुद्दीन
तुम्हारा
हिस्सा है। जब
भी तुम किसी
प्रश्न का
रेडीमेड
उत्तर देते हो, तो तुम फु
ढंग से व्यवहार
कर रहे हो।
स्थिति भिन्न
हो सकती है, प्रसंग भी
अलग हो सकता
है, संदर्भ
नया हो सकता
है, और तुम
अतीत से ही
काम कर रहे हो।
वर्तमान
में जीओ। बिना
तैयारी के जीओ।
वर्तमान की
सजगता से जीओ; अतीत से
मत जीओ। तब
तुम मूड नहीं
हो।।
अब तुम
समझ सकते हो
कि मैं क्यों
कहता हूं कि मन
मूढ़ है :
क्योंकि मन
केवल अतीत है।
मन है संचित
अतीत। जीवन तो
निरंतर बदल
रहा है। मन
नहीं बदलता—वह
मृत
स्मृतियों से, मृत
जानकारियों
से दबा रहता
है। संदर्भ हर
घड़ी बदल रहा
है, प्रश्न
हर घड़ी बदल
रहा है, सम्राट
हर घड़ी बदल
रहा है—और तुम
बंधे—बंधाए
उत्तर लिए
बैठे हो। तुम
हमेशा
मुश्किल में
पड़ोगे; मूढ़
मन हमेशा
मुश्किल में
पड़ता है, परेशान
होता है। और
किसी कारण से
नहीं, केवल
इसी कारण से
कि वह बहुत
ज्यादा तैयार
होता है, बहुत
निश्चित होता
है।
प्रत्येक
क्षण बिना
किसी तैयारी
के रहो। तब
तुम निर्दोष
होते हो, तब तुम
निर्भार होते
हो। जब भी
तुम्हारे पास
पहले से तैयार
उत्तर होता है
तो तुम प्रश्न
को ठीक—ठीक
सुनते ही नहीं।
इससे पहले कि
तुम प्रश्न
सुनो, उत्तर
पहले से ही मन
में तैयार
होता है; तो
उत्तर
तुम्हारे और
प्रश्न के बीच
खड़ा हो जाता
है। इससे पहले
कि तुम
परिस्थिति को
भलीभांति समझ पाते,
तुम
प्रतिक्रिया
करने लगते हो।
मन है
अतीत, मन
है स्मृति—इसीलिए
मन मूढ़ है—सभी
मन। तुम गांव
के ग्रामीण हो
सकते हो, शायद
संसार के बारे
में बहुत
ज्यादा नहीं
जानते। तुम
पूना
यूनिवर्सिटी
के प्रोफेसर
हो सकते हो, बहुत ज्यादा
जानते हो।
उससे कुछ अंतर
नहीं पड़ता।
असल में कई
बार ऐसा होता
है कि ग्रामीण
ज्यादा
बुद्धिमान
होते हैं, क्योंकि
वे कुछ नहीं
जानते।
उन्हें
निर्भर रहना
पड़ता है
बुद्धिमत्ता
पर। वे अपनी
जानकारी पर
निर्भर नहीं
रह सकते; उनके
पास कोई
जानकारी होती
ही नहीं। यदि
तुम सजग हो, तो तुम देख
सकते हो
ग्रामीण के
भोले — भालेपन
को। वह बच्चों
जैसा होता है।
बच्चे
ज्यादा
बुद्धिमान
होते हैं बडों
की अपेक्षा, बच्चे
ज्यादा
बुद्धिमान
होते हैं
बूढ़ों की अपेक्षा।
इसीलिए तो
बच्चे इतनी
सरलता से सब
कुछ सीख सकते
हैं। वे
ज्यादा
बुद्धिमान
होते हैं। अभी
मन मौजूद नहीं
होता। वे
मनविहीन होते
हैं। वे अतीत
को नहीं ढोते,
उनके पास वह
होता ही नहीं।
ने सीधे —सीधे
देखते हैं, विस्मय—विमुग्ध
होते हैं—हर
चीज के प्रति।
वे सदा देखते
हैं
परिस्थिति को।
असल में उनके
पास कुछ और
होता नहीं
देखने के लिए—कोई
रेडीमेड
तैयार उत्तर
नहीं होते। कई
बार बच्चे
इतने सुंदर और
जीवंत ढंग से
उत्तर देते
हैं कि उस ढंग
से ज्यादा
उम्र के व्यक्ति
नहीं दे सकते।
ज्यादा उम्र
वालों के पास
हमेशा मन
मौजूद होता है
उत्तर देने के
लिए। उनके पास
एक नौकर है, एक यंत्र है,
एक बायो—कंप्यूटर
है, और वे
उस पर निर्भर
रहते हैं।
जितनी ज्यादा
तुम्हारी
उम्र होती
जाती है, उतने
ज्यादा तुम
मूढ़ होते जाते
हो!
निश्चित
ही, के
यही सोचते हैं
कि वे बहुत
बुद्धिमान हो
गए हैं, क्योंकि
उन्हें बहुत
से उत्तर पता
हैं। लेकिन
यदि यही
बुद्धिमत्ता
है तो फिर
कंप्यूटर तो
सर्वाधिक
बुद्धिमान
व्यक्ति
होंगे! तब तुम्हें
कोई जरूरत
नहीं बुद्ध और
जीसस और जरथुस्त्र
के विषय में
सोचने की, बिलकुल
भी नहीं।
कंप्यूटर
ज्यादा
बुद्धिमान
होंगे
क्योंकि वे
ज्यादा जानते
होंगे। वे सब
कुछ जान सकते
हैं, उनमें
प्रत्येक
जानकारी भरी
जा सकती है।
और वे बेहतर
ढंग से काम
करेंगे, क्योंकि
वे यंत्र हैं।
नहीं, बुद्धिमत्ता
का जानकारी से
कोई भी संबंध
नहीं है। उसका
संबंध है
सजगता से, प्रज्ञा
से, समझ से।
ज्यादा सजग
होओ। फिर तुम
मन की जकड़ में
नहीं रहते।
फिर तुम मन का
उपयोग कर सकते
हो जब उसकी
जरूरत हो।
लेकिन मन
तुम्हारा
उपयोग नहीं
करता। फिर मन
मालिक नहीं
रहता—तुम
मालिक होते हो,
और मन सेवक
होता है। जब
भी तुम्हें
जरूरत होती है
सेवक की तुम
उसे बुला लेते
हो, लेकिन
तुम
नियंत्रित
नहीं होते, तुम
प्रभावित
नहीं होते मन
के द्वारा।
सामान्यतया
तो मन की
स्थिति ऐसी है
जैसे कि कार
चला रही हो
ड्राइवर को।
कार कहती है, 'इधर जाओ,'
और ड्राइवर
को मानना पड़ता
है। कई बार
ऐसा होता है :
ब्रेक फेल हो
जाते हैं, पहिया
ठीक काम नहीं
करता, तुम
जाना चाहते हो
दक्षिण और कार
जाती है उत्तर
की ओर। सारी
व्यवस्था
अस्तव्यस्त
हो जाती है।
यह एक
दुर्घटना है।
लेकिन
दुर्घटना एक
सामान्य बात
हो गई है मानव—मन
के लिए।
निरंतर ही यह
होता है कि
तुम कहीं जाना
चाहते हो और
मन कहीं और
जाता है। तुम
जाना चाहते थे
मंदिर और मन
सोच रहा था
थिएटर जाने की, और तुम
स्वयं को
थिएटर में
पाते हो। तुम
शायद घर से
चले होओगे
मंदिर जाने के
लिए, प्रार्थना
करने के लिए।
और बैठे होते
हो तुम थिएटर
में—क्योंकि
कार उसी ओर
जाना चाहती थी,
और तुम विवश
होते हो।
बुद्धिमत्ता
है मालकियत—अपने
ऊपर मालकियत।
शरीर है एक
यंत्र, मन है एक
यंत्र. तुम
मालिक हो। कोई
तुमको चलाता
नहीं, मन
तुम्हारी
आज्ञा से चलता
है। यह है
बुद्धिमत्ता।
तो अगर
तुम पूछते हो, 'क्या कुछ
लोग दूसरों की
अपेक्षा अधिक
मूढ़ होते हैं?'
यह निर्भर
करता है। मेरे
देखे, कुछ
बहुत जानने
वाले मूढ़ हैं,
कुछ कम
जानने वाले
मूढ़ हैं। ये
दो साधारण
कोटियां हैं,
क्योंकि
तीसरी कोटि
इतनी अनूठी है
कि तुम उसे कोटि
नहीं कह सकते।
बहुत दुर्लभ,
कभी—कभार, कोई बुद्ध
होता है :
बुद्ध होते
हैं
विवेकपूर्ण, प्रज्ञावान।
लेकिन फिर वे
विद्रोही
मालूम होते
हैं क्योंकि
वे तुम्हारे
अनुकूल नहीं
पड़ते; तुम्हारे
बंधे—बंधाए
उत्तर नहीं
देते। वे
राजपथ पर नहीं
चलते; उनका
अपना ही पथ
होता है। वे
अपना रास्ता
स्वयं बनाते
हैं।
बुद्धिमत्ता
सदा अपना
अनुसरण करती
है, वह
किसी दूसरे का
अनुसरण नहीं
करती।
बुद्धिमत्ता
अपना रास्ता
स्वयं बनाती
है। केवल मूढ़
व्यक्ति
अनुसरण करते
हैं।
यदि
तुम यहां मेरे
साथ हो तो तुम
यहां दो ढंग
से हो सकते हो।
तुम
बुद्धिमत्तापूर्ण
ढंग से यहां
हो सकते हो
मेरे साथ : तब
तुम सीखोगे
मुझ से, लेकिन तुम
मेरा अनुसरण न
करोगे। तुम
अनुसरण करोगे
तुम्हारी
अपनी समझ का।
लेकिन यदि तुम
मूढ़ हो, तो
तुम सीखने की
फिक्र नहीं
करते. तुम
केवल मेरा
अनुसरण करते
हो। वह बात
आसान, कम
जोखम की, कम
खतरनाक, ज्यादा
सुरक्षित, निरापद
मालूम पड़ती है,
क्योंकि
तुम सदा मुझ
पर
जिम्मेवारी
डाल सकते हो।
लेकिन यदि तुम
सुरक्षित—निरापद
ढंग चुनते हो,
तो तुम
मृत्यु को चुन
रहे हो। तुम
जीवन को नहीं
चुन रहे हो।
जीवन खतरनाक
और असुरक्षित
होता है।
बुद्धिमत्ता
सदा जीवन को
चुनेगी—किसी
भी कीमत पर, चाहे कुछ भी
दाव पर लगाना
पड़े, क्योंकि
केवल वही
एकमात्र ढंग
है जीवंत होने
का।
बुद्धिमत्ता
गुणवत्ता है
सजगता की। सजग
व्यक्ति मूढ़
नहीं होते।
दूसरा
प्रश्न :
आत्म—विश्लेषण
और आत्म—स्मरण
के बीच क्या
फर्क है?
बहुत बड़ा
फर्क है। आत्म—विश्लेषण
है स्वयं के
विषय में
सोचना। आत्म—स्मरण
है बिलकुल न
सोचना. आत्म—स्मरण
है स्वयं के
प्रति सजग
होना। भेद
सूक्ष्म है
लेकिन फिर भी
बड़ा है।
पश्चिमी
मनोविज्ञान
जोर देता है
आत्म—विश्लेषण
पर और पूरब का
मनोविज्ञान
जोर देता है
आत्म—स्मरण पर।
जब तुम
आत्म—विश्लेषण
करते हो, तो तुम क्या
करते हो? उदाहरण
के लिए तुम
क्रोधित हो, तो तुम
सोचने लगते हो
क्रोध के विषय
में—कैसे यह
उत्पन्न होता
है। तुम
विश्लेषण
करने लगते हो
कि यह क्यों
उत्पन्न हुआ।
तुम निर्णय
करने लगते हो
कि यह अच्छा
है या बुरा।
तुम तर्क
बिठाने लगते
हो कि तुम्हें
इसलिए क्रोध
आया क्योंकि
स्थिति ही ऐसी
थी। तुम क्रोध
को लेकर सोच—विचार
करते हो। तुम
क्रोध का
विश्लेषण
करते हो।
लेकिन
ध्यान का
केंद्र—बिंदु
क्रोध रहता है, 'आत्म' नहीं।
तुम्हारी
सारी चेतना
क्रोध पर
केंद्रित हो जाती
है। तुम देखते
हो, विश्लेषण
करते हो, मनन
करते हो, चिंतन
करते हो। यह
हिसाब लगाने
की कोशिश करते
हो कि इससे
कैसे बचें, कि क्या
करें कि फिर
क्रोध न आए! यह
सोचने की प्रक्रिया
है। तुम
निर्णय लोगे
कि यह बुरा है,
क्योंकि यह
विनाशकारी है।
तुम
प्रतिज्ञा
करोगे कि मैं
फिर यही गलती
कभी नहीं
करूंगा। तुम
इस क्रोध पर
संकल्प
द्वारा
नियंत्रण करने
की कोशिश
करोगे।
इसीलिए
पश्चिमी
मनोविज्ञान
विश्लेषणात्मक
हो गया है—वह
विश्लेषण
करता है, तोड़ता
है।
पूरब
का जोर क्रोध
पर नहीं है।
पूरब का जोर
है अंतस चेतना
पर। जब
तुम्हें
क्रोध आए तो
सजग हो जाना, बहुत होश
से भर जाना—सोचना
नहीं, क्योंकि
सोचना नींद का
हिस्सा है।
तुम गहरी नींद
में सोए—सोए
भी सोच सकते
हो, सजगता
की कोई जरूरत
नहीं होती।
असल में तुम
निरंतर सोचते
रहते हो जरा
भी सजग हुए
बिना। सोचना
जारी रहता है—हमेशा।
जब तुम रात
गहरी नींद सोए
होते हो, तब
भी सोचना जारी
रहता है; मन
अपना भीतरी
वार्तालाप
जारी रखता है।
यह यंत्रवत
चलता रहता है।
पूरब
का
मनोविज्ञान
कहता है, 'सजग रहो।
क्रोध का
विश्लेषण मत
करो, उसकी
कोई जरूरत
नहीं है। बस
उसे देखते रहो,
लेकिन
देखना सजगता
के साथ। सोचने
मत लगना।’ असल
में यदि तुम
सोचने लगते हो,
तो सोचना
क्रोध को
देखने में एक
बाधा बन जाएगा।
तब सोच —विचार
ढंक लेगा
क्रोध को। तब
सोच—विचार
बादल की भांति
उसे आच्छादित
कर लेगा, स्पष्टता
खो जाएगी।
बिलकुल मत
सोचो।
निर्विचार
अवस्था में
रहो, और
केवल देखते
रहो।
जब
तुम्हारे और
क्रोध के बीच
विचार की हलकी
सी तरंग भी
नहीं बचती तो
क्रोध से
साक्षात्कार
होता है। तुम
उसका
विश्लेषण
नहीं करते।
तुम उसके
स्रोत तक
पहुंचने की
फिक्र नहीं
करते, क्योंकि
स्रोत है अतीत
में। तुम उसके
बारे में कोई
निर्णय नहीं
लेते, क्योंकि
जिस क्षण तुम
कोई निर्णय
लेते हो, सोचना
शुरू हो जाता
है। तुम कोई
प्रतिज्ञा
नहीं करते कि
मैं ऐसा नहीं
करूंगा, क्योंकि
प्रतिज्ञा
तुम्हें
भविष्य में ले
जाती है।
सजगता के साथ
तुम क्रोध की
भाव—दशा में
रहते हो—एकदम
अभी और यहीं।
तुम्हें उसे
बदलने में कोई
रुचि नहीं
होती, तुम्हें
उसके बारे में
सोचने में कोई
रुचि नहीं
होती।
तुम्हें रुचि
होती है उसे
सीधे—सीधे, प्रत्यक्ष
रूप से देखने
में। तब यह
आत्म—स्मरण है।
और यही
इसका सौंदर्य
है कि यदि तुम
क्रोध को ठीक
से देख लो, तो वह
तिरोहित हो
जाता है। न
केवल इस क्षण
क्रोध
तिरोहित हो
जाता है तुम्हारे
भर आख देखने
से उसका खो
जाना तुम्हें
कुंजी दे जाता
है कि संकल्प
का उपयोग करने
की कोई जरूरत
नहीं। भविष्य
के लिए निर्णय
लेने की कोई
जरूरत नहीं, और उसके मूल—स्रोत
तक जाने की
कोई जरूरत
नहीं जहां से
वह आता है। वह
बात ही व्यर्थ
है। अब
तुम्हारे हाथ
कुंजी आ जाती
है. देखते रहो
क्रोध को, और
क्रोध मिट
जाता है। और
यह देखना
हमेशा
तुम्हारे हाथ
में है। जब भी
क्रोध आए, तुम
देख सकते हो; तब यह देखना
और— और गहरा
होता जाता है।
देखने की
तीन अवस्थाएं
हैं। पहली, जब क्रोध
आकर जा चुका
होता है। तुम
बस पूंछ देखते
हो जाते हुए—हाथी
तो निकल गया
होता है, केवल
पूंछ होती है।
क्योंकि जब
क्रोध था, तो
असल में तुम
इतने ग्रस्त
थे उससे कि
तुम उसे देख
नहीं सकते थे।
जब क्रोध करीब—करीब
जा चुका होता
है, निन्यानबे
प्रतिशत खो
चुका होता है—केवल
एक प्रतिशत, उसका अंतिम
हिस्सा खो रहा
होता है, विलीन
हो रहा होता
है कहीं सुदूर
क्षितिज पर—तब
तुम उसके
प्रति
होशपूर्ण
होते हो : यह है
सजगता की पहली
अवस्था। ठीक
है, लेकिन
पर्याप्त
नहीं।
दूसरी
अवस्था है जब
हाथी ही मौजूद
होता है, पूंछ मात्र
नहीं : जब
स्थिति अपने
शिखर पर होती
है। तुम सचमुच
ही क्रोध के
शिखर पर होते
हो—उबल रहे
होते हो, भभक
रहे होते हो—तब
तुम सजग हो
जाते हो।
फिर एक
तीसरी अवस्था
है. क्रोध अभी
आया नहीं है, अभी आने—आने
को है—पूछ
नहीं, बल्कि
सिर दिख रहा
है। वह बस प्रवेश
कर ही रहा
होता है
तुम्हारी
चेतना के क्षेत्र
में और तुम
सजग हो जाते
हो—तब हाथी
प्रवेश ही
नहीं कर पाता।
तुमने पैदा
होने से पहले
ही मार दिया
जानवर को। यह
है संतति—निरोध।
घटना घटी ही
नहीं, तो
वह कोई चिह्न
नहीं छोड़ती।
यदि
तुम उसे बीच
में रोकते हो, तो सिर तो
प्रवेश कर ही
चुका, आधी
घटना तो घट ही
चुकी। वह कुछ
न कुछ प्रभाव
छोड़ जाएगी तुम
पर—कोई निशान,
कोई बोझ, कोई घाव—तुम
खरोंच अनुभव
करोगे। चाहे
तुम अब इसका
पूरा असर न भी
होने दो, तो
भी वह प्रवेश
कर चुका है।
यदि तुम पूंछ
को देखते हो, तब तो सारी
घटना घट ही
चुकी होती है।
ज्यादा से
ज्यादा तुम
पछता सकते हो;
और पछताना
है सोच—विचार।
फिर तुम शिकार
हो जाते हो मन
के।
एक सजग
व्यक्ति कभी
नहीं पछताता।
पछताने में
कोई सार भी
नहीं है, क्योंकि
सजगता जैसे—जैसे
और गहरी होती
है, तो वह
पूरी
प्रक्रिया को
शुरू होने से
पहले ही रोक
सकता है। तो
पछताने की
जरूरत ही क्या
है? और ऐसा
नहीं कि वह
उसे रोकने का
प्रयास करता है—यही
है उसका
सौंदर्य—वह
केवल उसे
देखता है। जब
तुम देखते हो
किसी भाव—दशा
को, किसी
परिस्थिति को,
किसी भावना
को, अनुभूति
को, विचार
को—जब तुम
पूरी सजगता से
देखते हो—तो
वह देखना प्रकाश
की भांति होता
है. अंधकार खो
जाता है।
आत्म—विश्लेषण
और आत्म—स्मरण
के बीच बहुत
फर्क है। मैं
आत्म—विश्लेषण
के पक्ष में
नहीं हूं। असल
में आत्म—विश्लेषण
थोड़ा रुग्ण है
यह अपने घाव
उघाड़ने जैसा
है। इससे मदद
न मिलेगी।
इससे घाव
भरेंगे नहीं।
वस्तुत: इसका
उलटा ही असर
होगा : यदि तुम
अपने घाव में
अंगुली डालते
रहो तो घाव
हमेशा हरा रहेगा।
आत्म—विश्लेषण
ठीक नहीं है।
आत्म—विश्लेषण
करने वाले
व्यक्ति सदा
विकृत होते हैं, बीमार
होते हैं। वे
बहुत ज्यादा
सोचते रहते
हैं। आत्म—विश्लेषण
करने वाले लोग
बंद होते हैं।
वे अपने घावों
से और अपनी
पीड़ा से और
अपनी चिंता, उद्विग्नता
से खेलते रहते
हैं—और तब
पूरा जीवन ही
एक समस्या
मालूम पड़ता है,
जिसका कोई
हल नजर नहीं
आता। हर चीज
समस्या मालूम
पड़ती है आत्म—विश्लेषण
करने वाले
व्यक्ति को।
कुछ भी बात
होती है, वह
समस्या बन
जाती है!
और फिर
वह बहुत
ज्यादा भीतर
जीने लगता है; वह बाहर
नहीं जीता।
संतुलन खो
जाता है।
आत्म—विश्लेषण
करने वाले लोग
जीवन से भाग
जाते हैं और
हिमालय चले
जाते हैं। वे
विकृत हैं
बीमार हैं, रोगग्रस्त
हैं। स्वस्थ
व्यक्ति में
एक संतुलित
गति होती है. वह
भीतर भी जा
सकता है, वह
बाहर भी जा
सकता है। उसके
लिए भीतर—बाहर
की कोई समस्या
नहीं होती।
असल में वह आंतरिक
जीवन और बाहरी
जीवन को
बांटता ही
नहीं। उसका
प्रवाह मुक्त
होता है, उसकी
गति मुक्त
होती है। जब
जरूरत होती है
तो वह भीतर
मुड़ जाता है।
जब जरूरत होती
है तो वह बाहर
आ जाता है। वह
बाहरी संसार
के विरुद्ध
नहीं होता, वह भीतरी
संसार के पक्ष
में नहीं होता।
भीतर और बाहर
ठीक अंदर जाती
और बाहर जाती श्वास
की भांति होने
चाहिए दोनों की
जरूरत है।
आत्म—विश्लेषक
बहुत सोच—विचार
में उलझ जाते
हैं, बहुत
भीतर बंद हो
जाते हैं। वे
बाहर जाने में
डरते हैं, क्योंकि
जब भी वे बाहर
जाते हैं, चारों
तरफ समस्याएं
हैं, तो वे
बंद होकर बैठ
जाते हैं। वे
झरोखों, खिड़कियों
से रहित गुफा
बन जाते हैं।
और फिर
समस्याएं ही
समस्याएं हैं—मन
बनाए चला जाता
है समस्याएं
और वे उनको
सुलझाने की
कोशिश करते
रहते हैं!
आत्म—विश्लेषण
करने वाले
आदमी की पागल
होने की बहुत
संभावना होती
है।
अंतर्मुखी
व्यक्ति
बहिर्मुखी
व्यक्तियों की
अपेक्षा
ज्यादा पागल
होते हैं। यदि
तुम पागलखाने
में जाओ तो तम
पाओगे कि वहां
निन्यानबे
प्रतिशत लोग
अंतर्मुखी
हैं, आत्म—विश्लेषक
हैं, और
बहुत से बहुत
एक प्रतिशत ही
बहिर्मुखी
हैं।
बहिर्मुखी
लोगों को
चीजों की
भीतरी अवस्था
की फिक्र नहीं
होती। वे सतत
पर जीते हैं।
वे सोचते ही
नहीं कि
समस्याएं हैं।
वे सोचते हैं
कि जीवन मजा
करने के लिए है।
खाओ, पीओ
और मौज करो—यही
उनका कुल धर्म
है, इसके
अलावा कुछ भी
नहीं है।
तुम
बहिर्मुखी
व्यक्तियों
को सदा ही
अंतर्मुखी
व्यक्तियों
की अपेक्षा ज्यादा
स्वस्थ
पाओगे क्योंकि
कम से कम उनका
संपर्क तो
होता है समग्र
के साथ।
अंतर्मुखी
सारा संपर्क
खो देता है
समग्र के साथ।
वह जीता है
अपने सपनों
में। वह श्वास
बाहर नहीं
छोड़ता। जरा
सोचो, यदि
तुम श्वास
बाहर न आने दो,
तो बीमार पड़
जाओगे, क्योंकि
भीतर गई श्वास
सदा ताजी न
रहेगी। कुछ
पलों के भीतर
ही वह बासी पड
जाएगी, कुछ
पलों में ही वह
आक्सीजन खो
देगी, जीवन
खो देगी। कुछ
पलों में ही
वह चुक जाएगी—और
तब तुम बासी
हवा में, मृत
हवा में जीओगे।
तुम्हें बाहर
जाना होगा
जीवन के नए
स्रोत खोजने
के लिए ताजी
हवा पाने के
लिए। तुम्हें
सतत बाहर से
भीतर, भीतर
से बाहर गति
करते रहना
होगा।
मेरे
देखे, यदि
तुम
अंतर्मुखी और
बहिर्मुखी के
बीच चुनना चाहते
हो, तो मैं
तुम से कहूंगा
कि बहिर्मुखी
चुनना। वह कम
बीमार है—सतह
पर जीता है, सत्य को
बिलकुल नहीं
जान सकता, लेकिन
कम से कम पागल
तो नहीं होता।
अंतर्मुखी
जान सकता है
सत्य को, लेकिन
वह सौ में से
एक संभावना है।
निन्यानबे
प्रतिशत
संभावना तो
यही है कि वह
पागल हो जाएगा।
मैं
गतिशील जीवन
के पक्ष में
हूं। जीवन में
एक लयबद्धता
होनी चाहिए :
तुम बाहर जाओ, तुम भीतर
आओ, और
कहीं भी रुकना
नहीं। केवल
सजग रहना।
स्मरण बनाए
रखना। सतत
स्मरण बना रहे।
जब तुम बाहर
के संसार में
हो, तब भी स्मरण
बना रहे। और
जब तुम अपने
भीतर होओ, तब
भी स्मरण बना
रहे। होश को
सदा जगाए रखना,
रोशन रखना,
जीवंत रखना।
सजगता की लौ
खो न जाए—बस
यही असली बात
है। फिर बाजार
में रहो कि मठ
में रहो—तुम
कभी जीवन में
चूकोगे नहीं।
तुम जीवन की
आत्यंतिक
गहराई को
उपलब्ध हो जाओगे।
वह
आत्यंतिक
गहराई है
परमात्मा।
परमात्मा
गतिशीलता है।
बाहर और भीतर, अंतर्मुखी
और बहिर्मुखी
दोनों ही—लेकिन
होशपूर्ण।
तीसरा
प्रश्न :
अब कभी—
कभी आप प्रवचन
के दौरान
हंसते हैं!
मैं जरूर
ज्यादा
आध्यात्मिक, ज्यादा
धार्मिक हो
रहा होऊंगा; क्योंकि
जितना तुम
धर्म में गहरे
उतरते हो, उतना
ही तुम जीवन
को गैर—गंभीर
ढंग से लेते
हो। तुम हंसते
हो, मुस्कुराते
हो। तब जीवन
कोई बोझ नहीं
रहता। तब
तुम्हारा
पूरा जीवन एक
मुस्कुराहट
हो जाता है; वह कोई
गंभीर बात
नहीं रहती।
लेकिन
पूरे संसार
में तथाकथित
धार्मिक व्यक्ति
लोगों को बहुत
गंभीर होना
सिखाते रहे
हैं—लटके हुए, उदास
चेहरे। यह
रुग्णता है, स्वास्थ्य
नहीं। तुम तो
हंसी को अपनी
प्रार्थना
बना लेना। खूब
जी भर कर
हंसना। हंसी
तुम्हारी
बंधी ऊर्जाओं
को जितना
निर्मुक्त
करती है उतना
और कोई चीज
नहीं करती।
हंसी तुम्हें
जितना
निर्दोष
बनाती है उतना
और कोई चीज
नहीं बनाती।
हंसी तुम्हें
जितना बच्चों
जैसा बनाती है
उतना और कोई
चीज नहीं
बनाती। बच्चे
हंसते हैं और
खिलखिलाते
हैं और मुस्कुराते
हैं। निश्चित
ही वे रोते भी
हैं, लेकिन
उनका रोना
सुंदर होता है।
तो रोओ
और हंसो, और इन्हें
तुम्हारी
प्रार्थना
बनने दो।
मंदिर जाओ तो
शब्दों का
उपयोग मत करो।
चर्च जाओ तो
फिक्र मत करो
प्रार्थना के
स्वीकृत, अधिकृत
पाठ की। ऐसा
कुछ है नहीं; कोई प्रार्थना
अधिकृत नहीं
है। तुम अपनी
प्रार्थना
निर्मित करो।
यदि रोने का
भाव हो, तो
रोओ। आंसू
किन्हीं भी
शब्दों की
अपेक्षा
ज्यादा अर्थपूर्ण
होते हैं; वे
तुम्हारे
हृदय की खबर
लाते हैं। वे
ज्यादा
प्रार्थनापूर्ण,
ज्यादा
सुंदर, ज्यादा
अर्थपूर्ण
होते हैं।
शब्द मुर्दा
होते हैं। आंसू
जीवंत होते
हैं, ताजा
होते हैं—तुम
से बह रहे
होते हैं, तुम्हारी
गहराई से आ
रहे होते हैं।
या फिर हंसो.
खूब दिल खोल
कर हंसों
मंदिर के
देवता के साथ।
तालमुद
में कहा गया
है.. और तालमुद
एक अदभुत ग्रंथ
है। गीता है, बाइबिल
है, कुरान
है—सारे ग्रंथ
गंभीर हैं।
तालमुद बहुत
अदभुत है।
तालमुद में
कहा गया है, 'ईश्वर उन
लोगों से
प्रेम करता है
जो दूसरों को
हंसाते हैं।’
तुम कल्पना
नहीं कर सकते
ऐसे
धर्मग्रंथ की
जो यह कहे, 'ईश्वर
उन लोगों से
प्रेम करता है
जो दूसरों को
हंसाते हैं।’
वे असली संत
हैं।
यदि
तुम लोगों को
गंभीर बनाते
हो तो तुम
पापी हो।
संसार पहले से
ही बहुत बोझिल
है; कृपा
करके इसे और
बोझिल मत बनाओ।
थोड़ी हंसी—खुशी
बिखेरो। जहां
भी तुम हो, वहां
हंसी की एक
तरंग निर्मित
करो। थोड़ा और
मुस्कुराओ और
दूसरों की मदद
करो मुस्कुराने
में। यदि सारा
संसार
खिलखिला कर
हंस सके, तो
युद्ध विदा हो
जाएं, क्योंकि
युद्ध
संचालित किए
जाते हैं
गंभीर व्यक्तियों
द्वारा; अदालतें
विदा हो जाएं,
क्यों अदालतें
चलती हैं
गंभीर
व्यक्तियों
द्वारा।
इसीलिए
तो यदि तुम
किसी अदालत
में हंस दो तो
यह अपराध माना
जाता है। कोई
अदालत इसकी
आज्ञा नहीं
देती—तुम
अपमान कर रहे
हो अदालत का।
प्रत्येक को
गंभीर रहना
पड़ता है। जरा
देखो अदालतो
में बैठे जजों
की तरफ : वे
कितने
मूढ़तापूर्ण ढंग
से गंभीर
दिखाई पड़ते
हैं! थोड़ी
हंसी उन्हें
मदद देगी
ज्यादा
न्यायसंगत
होने में, मनुष्य
को। ज्यादा
गहरे से समझने
में। उनकी
उदासीनता, उनका
ठंडापन न्याय
नहीं कर सकता
है, क्योंकि
ठंडापन
अमानवीय होता
है। थोड़ी सी
ऊष्मा..।
लेकिन
जज डरता है।
यदि अदालत में
खड़ा चोर हंसने
लगे, और
जज भी शामिल
हो जाए उसमें,
और सारी
अदालत हंसने
लगे—तो जज
डरता है।
क्योंकि तब
मामला बहुत
मानवीय हो
जाएगा; और
इस हंसते हुए
चोर को चार—पांच
साल के लिए
जेल में डाल
देना कठिन हो
जाएगा। किसी
बड़ी बात के
लिए नहीं—उसने
कुछ पैसे ही
चुराए हैं।
उसने थोड़ी सी
माया चुरा ली
है, और जज
शायद वेदांती
हो। तो उसने
थोड़ा भ्रम
चुराया है—पैसे,
हीरे—जवाहरात—और
उसे जेल में
डाल देना!
बेजान हीरों
के लिए एक
जीवंत प्राणी
को पांच साल
के लिए फेंक
देना अंधेरे
में सड़ने के
लिए! या किसी
गहरे क्रोध में,
आवेश में, किसी पागलपन
में शायद उसने
हत्या कर दी
हो। जज भी कई
बार हत्या
करने की सोचते
रहते हैं। ऐसा
आदमी खोजना
कठिन है जिसने
कई बार अपने
जीवन में किसी
की हत्या करने
की बात न सोची
हो। यह विचार
आ जाना मानवीय
है।
मैं
नहीं कह रहा
हूं कि जाओ और
किसी की हत्या
कर दो, और
मैं नहीं कह
रहा हूं कि
जजों को माफ
कर देना चाहिए
हत्या करने
वालों को, नहीं।
लेकिन थोड़ी
हंसी मदद देगी।
एक व्यक्ति की
हत्या हो गई
है : यदि जज
थोड़ा हंस सके
और अदालत में
बैठे लोग भी
थोडा हंस सकें
जज के साथ, तो
उसके लिए कठिन
होगा अपराधी
को फांसी की
सजा देना।
क्योंकि वह भी
हत्या है, और
कैसे तुम कोई
व्यवस्था
निर्मित कर
सकते हो जब एक
हत्या के लिए
अदालत दूसरी
हत्या का निर्णय
दे? शायद
इस आदमी को
मनोचिकित्सा
की जरूरत है।
शायद इस आदमी
को किसी मठ
में जाकर दो
साल तक ध्यान
करने की जरूरत
है। लेकिन
फांसी नहीं—क्योंकि
फांसी.. यदि
हत्या करना
बुरा है, तो
न्याय के नाम
पर हत्या करना
भी बुरा है; यह अच्छा
नहीं हो सकता।
लेकिन
जज बड़े गंभीर
होते हैं; राजनीतिज्ञ
बड़े गंभीर
होते हैं—ससार
का सारा बोझ
उनके कंधों पर
है! संसार में हर
जगह वे सोचते
रहते हैं : 'माओत्से—तुंग
के बाद कौन?' जैसे कि
माओत्से—तुंग
के पहले संसार
था ही नहीं।
संसार बहुत
सुखी था। असल
में संसार
ज्यादा सुखी
हो जाएगा यदि
सारे माओत्से—तुंग
विलीन हो जाएं।
मैं
इधर एक पुस्तक
पढ़ रहा था, बड़ी
अदभुत पुस्तक
है। लेखक कहता
है कि भारत
बहुत पहले
स्वतंत्र हो गया
होता यदि
गांधी न होते।
मैं थोड़ा चकित
हुआ, लेकिन
फिर मैंने
उसके तर्क को
समझा और मुझे
लगा कि वह ठीक
कहता है।
गांधी ने बात—बात
पर मुसीबत खड़ी
की—जिद्दी, अड़ियल—सारे
राजनीतिज्ञ
ऐसे होते हैं।
बड़ी मुसीबत
खड़ी की
उन्होंने।
उन्होंने कभी
किसी चीज पर
समझौता नहीं
किया। उनके
अपने रंग—ढंग
थे, जिन्ना
के अपने रंग—ढंग
थे। वे समझौता
नहीं कर सकते
थे। दोनों
जिद्दी थे, अड़ियल थे—पत्थर
की तरह। ऐसा
लगता है कि
लेखक के पास
एक
अंतर्दृष्टि
है जब वह कहता
है कि भारत और
पहले
स्वतंत्र हो गया
होता यदि कोई
गांधी और कोई
जिन्ना न होते।
और यदि
तथाकथित धर्म
न होते तो भारत
कभी परतंत्र न
होता। यदि
राजनीतिज्ञ
समाप्त हो
जाएं संसार से, तो पूरा
संसार
स्वतंत्र हो
जाए; स्वतंत्रता
के लिए लड़ने
की जरूरत ही न
रहे. पूरा
संसार
स्वतंत्र ही
होगा। यदि
पंडित—पुरोहित
विदा हो जाएं
और ये गंभीर
चर्च—जो जीवन
की बजाय
मृत्यु जैसे
ज्यादा लगते हैं—अगर
ये विदा हो
जाएं और नृत्य
के, आनंद
के, समाधि
के मंदिर
निर्मित हों,
तो संसार
ज्यादा
धार्मिक होगा।
तो जब
तुम कहते हो, ' अब, कभी—कभी,
आप प्रवचन
के दौरान
हंसते हैं।’ तो मुझे
लगता है कि
मैं जरूर
ज्यादा
धार्मिक हो
रहा होऊंगा।
वरना और तो
कोई कारण
दिखाई नहीं
पड़ता।
चौथा
प्रश्न :
विजय
आनंद को सौ
प्रतिशत
पक्का था कि
उसकी फिल्म 'जान
हाजिर है' बहुत
सफल होगी क्योंकि
उसके गुरु
उसकी आशातीत
सफलता के लिए
भविष्यवाणी
कर चुके थे।
फिल्म असफल हो
गई क्या
गुरुजी कृपा
करके इसे स्पष्ट
करेने मूत्र —
प्रश्न है 'स्टारडस्ट'
पत्रिका से।
पहली तो बात :
विजय आनंद
इतना मूढ़ नहीं
कि मुझ से ऐसे
प्रश्न पूछे।
वह कभी अपने
काम के बारे
में कोई बात
नहीं करता।
उसने फिल्म 'जान
हाजिर है' के
बारे में कभी
कुछ पूछा नहीं
और मैंने कभी
कुछ कहा नहीं।
मैं तो यह भी
नहीं जानता कि
उसने 'जान
हाजिर है' नाम
की कोई फिल्म
बनाई है!
लेकिन इन
लोगों ने, स्टारडस्ट
के संपादक—मंडल
ने जरूर कोई
सपना देखा है।
उन्होंने
सपना देखा है,
और अपने
सपने में ही
उन्होंने
शायद मुझे यह
कहते हुए सुना
है, 'विजय, तुम्हारी
फिल्म बहुत
सफल होगी।’ फिर भी
उन्होंने
मेरी बात को
गलत समझा। मैंने
उनके सपने में
उस फिल्म के
बहुत सफल होने
की बात
लाओत्सु की
भाषा में कही
होगी।
लाओत्सु
कहता है, 'क्योंकि
बहुत थोड़े से
लोग मुझे
समझते हैं, इसलिए मैं
सफल हूं।’
तो यदि
इस ढंग से
समझो तो परम
सफलता का अर्थ
है कि कोई
देखने नहीं
जाता फिल्म।
क्योंकि भीड़
इतनी मूढ़ है
कि वह समझ ही
नहीं सकती उसे; यह
सम्मानजनक है,
यह परम
सफलता है। जब
भीड़ जाती है
किसी फिल्म को
देखने, तो
वह फिल्म असफल
है, बेकार
है। वह
मूढ़तापूर्ण
होनी ही चाहिए;
वरना वहैरे
वह आकर्षित
करेगी इतने
मूढ़ों को?
मैंने
कुछ भी नहीं
कहा है, लेकिन यदि
उन्होंने कुछ सुन
लिया है अपने
सपनों में, तो उन्होंने
मुझे गलत समझा
है। यदि वह
असफल हुई है, तो यही परम
सफलता है।
उसमें जरूर
कुछ न कुछ
होगा जो
साधारण मन के
पार का होगा।
यही है परम
सफलता।
हिटलर
सफल नहीं है; भीड़ ने
पूजा उसको।
भीड़ की पूजा
बताती है कि
उसका संबंध
भीड़ के साथ था।
वह एक साधारण
मूढ़ व्यक्ति
था। लाओत्सु
है परम सफल :
कोई नहीं जाता
उसके पास, किसी
ने नहीं सुना
उसके बारे में—स्व
खबर भी नहीं
सुनी। उसके
आने—जाने का
भी किसी को
पता नहीं चलता।
वह था परम सफल,
और वह जानता
था यह बात। वह
ताओ —तेह—किंग
में कहता है : 'मैं
महिमावान हूं
क्योंकि बहुत
थोड़े से लोग
ही मुझे समझ
सकते हैं।
सारा संसार
मुझे गलत
समझता है; इसीलिए
मैं महिमावान
हूं।’ बात
जितनी गहरी और
नाजुक होती है,
उतनी ही वह
कम समझी जाएगी;
ज्यादा
संभावना तो
गलत समझे जाने
की है।
मेरा
एक बहुत ही
अदभुत
व्यक्ति से
मिलना हुआ। वे
संन्यासी थे।
जब मैं छोटा
था तो वे मेरे
गांव आया करते
थे और हमारे
घर पर ठहरा
करते थे। एक
बात के कारण
ही मेरा उनसे
बहुत लगाव हो
गया था. जब भी
उनके प्रवचन
के दौरान लोग
तालियां बजाते, तो वे
मेरी तरफ
देखते और कहते,
'रजनीश, कुछ
न कुछ गलत कह
दिया है, वरना
लोग तालियां
क्यों बजा रहे
हैं? लोग
केवल तभी ताली
बजाते हैं जब
कुछ गलत हो, क्योंकि वे
गलत हैं।’ जब
कोई ताली नहीं
बजाता और कोई
नहीं समझता कि
वे क्या कह
रहे हैं, जब
हर कोई ऐसे
दिखाई पड़ता
जैसे अपना समय
नष्ट कर रहा
हो, तो वे
घर आते और
कहते, 'रजनीश,
मैंने जरूर
कोई महत्वपूर्ण
बात कही। देखा
तुमने, कोई
कुछ नहीं
समझा!'
भीड़ के
साथ सफलता
असफलता है।
पांचवां
प्रश्न :
आत्म—
स्मरण और
साक्षी के बीच
क्या भेद है?
अभी मैंने
तुम से आत्म—विश्लेषण
और आत्म—स्मरण
के बीच के भेद
की चर्चा की।
अब आत्म—स्मरण
और साक्षी के
बीच का भेद।
ही, इनमें भी
बहुत भेद है.
क्योंकि आत्म—स्मरण
में जोर है 'आत्म' पर।
आत्म—विश्लेषण
में जोर है
विचार पर, अनुभूति
पर, भावना
पर, भावावेग
पर—क्रोध पर, कामवासना पर
या ऐसी ही
अन्य बातों पर—और
स्वयं को भुला
दिया जाता है।
आत्म—स्मरण
में अपना
स्मरण रखा
जाता है और सारी
ऊर्जा अपने पर
केंद्रित हो
जाती है, और
तुम बस देखते
हो भीतर की
भाव—दशा को, स्थिति को, अनुभूति कों—तुम
सोचते नहीं
उसके विषय में,
क्योंकि
सोचने में तो
देखना खो जाता
है, दृष्टि
की शुद्धता खो
जाती है।
साक्षी
एक कदम और आगे
की बात है।
साक्षी में ' आत्म' भी
गिरा देना
होता है; केवल
स्मरण बचता है।
ऐसा नहीं कि 'मैं' स्मरण
करता हूं।’मैं'
साक्षी का
हिस्सा नहीं
है। मात्र
स्मरण! साक्षी
है स्वयं का
साक्षी होना।
आत्म—स्मरण
शुरुआत है, साक्षी अंत
है। आत्म—स्मरण
में तुम देखते
हो क्रोध को—स्वयं
में केंद्रित,
स्वयं में स्थिर—मन
में उठती
तरंगों को
देखते हो।
लेकिन जब तुम
देखते हो मन
को, तो
धीरे— धीरे मन
खो जाता है।
जब मन खो जाता
है और वहां
शून्य होता है
तब एक कदम आगे
बढ़ा जा सकता
है : अब तुम
देखते हो
स्वयं को। अब
वही ऊर्जा जो
क्रोध को देख
रही थी, कामवासना
को, ईर्ष्या
को देख रही थी,
वह मुक्त हो
जाती है—क्योंकि
ईर्ष्या, क्रोध
और काम खो
चुके होते हैं।
अब वही ऊर्जा
तुम्हारी
अपनी तरफ मुड़
जाती है।
जब वही
ऊर्जा देखती
है 'स्वयं'
की तरफ, तो
'स्वयं' भी खो जाता
है; तब
केवल स्मरण
बचता है। वह
स्मरण ही
साक्षी है।
साक्षी में
कहीं कोई 'केंद्र'
नहीं होता।
क्रोध को 'तुम'
देखते हो; लेकिन जब
तुम स्वयं को
देखते हो, तो
तुम फिर 'तुम'
नहीं रह
जाते : केवल एक
विराट, असीम,
अनंत
साक्षी होता
है। शुद्ध
चेतना होती है—असीम
और अनंत, लेकिन
कहीं कोई
केंद्र नहीं
होता है।
यह बात
ठीक से समझ
लेनी है।
गुरजिएफ ने
जीवन भर आत्म—स्मरण
की विधि पर
काम किया
क्योंकि
पश्चिम में
साक्षी की बात
करना करीब—करीब
असंभव ही है, क्योंकि
पश्चिम जीता
रहा है आत्म—विश्लेषण
में। तमाम
ईसाई मठ हैं, जो आत्म—विश्लेषण
सिखाते आए हैं।
गुरजिएफ ने
कुछ ऐसी बात
कही जो आत्म—विश्लेषण
से हट कर थी; उसने उसे
आत्म—स्मरण
कहा। वह चाहता
था कि साक्षी
की बात भी
सामने रखे, लेकिन ऐसा
हो न सका
क्योंकि
साक्षी केवल
तभी संभव है
जब आत्म—स्मरण
जड़ें पकड़ चुका
हो; उससे
पहले साक्षी
संभव नहीं है।
आत्म—स्मरण के
पकने से पहले
साक्षी की बात
करना किसी काम
का न होगा; बिलकुल
व्यर्थ होगा।
उसने बहुत
प्रतीक्षा की,
लेकिन वह
साक्षी की बात
नहीं सामने रख
सका।
पूरब
में हमने
दोनों का
उपयोग किया है।
असल में हमने
तीनों का
उपयोग किया है
: आत्म—विश्लेषण
बहुत साधारण
धार्मिक
लोगों के लिए था, उनके लिए
जो गहरे नहीं
जाना चाहते, जो गहरे जाना
चाहते हैं, उनके लिए
आत्म—स्मरण है,
और जो इतने
गहरे जाना
चाहते हैं कि
खो जाएं गहराई
में, उनके
लिए साक्षी है।
साक्षी अंतिम
है। उसके पार
कुछ नहीं है।
तुम साक्षी के
साक्षी नहीं
हो सकते, क्योंकि
वह भी साक्षी
होना होगा। तो
साक्षी के पार
जाने की कोई
संभावना नहीं
है. तुम अंत पर
आ गए। साक्षी
जगत का अंत है।
तो
आत्म—विश्लेषण
से बढ़ो आत्म—स्मरण
की ओर, और
प्रतीक्षा
करो कि किसी
दिन आत्म—स्मरण
से साक्षी की
ओर बढ़ सको।
लेकिन यह बात
ध्यान रहे कि
आत्म—स्मरण
लक्ष्य नहीं
है। वह सेतु
के रूप में
अच्छा है, लेकिन
तुम्हें उसे
पार कर जाना
है, तुम्हें
उसके पार चले
जाना है।
छठवां
प्रश्न :
क्या
यह संभव है कि
कोई साधक कुछ
समय के लिए शुद्ध
चेतना की
स्थिति में
रहे और फिर
वापस गिर जाए?
नहीं, यह
संभव नहीं है।
लेकिन ऐसा
होता है कि
तुम्हें
शुद्ध चैतन्य
की एक झलक
मिलती है;
तुम
उसमें
प्रविष्ट
नहीं हुए होते।
यह ऐसा ही है
जैसे तुम
सैकड़ों मील की
दूरी से हिमालय
के शिखरों को
देखते हो। तुम
उन तक अभी
पहुंचे नहीं
हो, तो
भी तुम उन्हें
बहुत दूर से
देख सकते हो।
तुम शिखरों को
देख सकते हो; तुम्हें
उनका सौंदर्य आंदोलित
कर सकता है।
तुम खोल सकते
हो अपनी खिड़की
और दूर चांद
को देख सकते
हो, और
किरणें छू
सकती हैं
तुम्हें और
तुम प्रकाशित
हो सकते हो, तुम्हें
गहरी अनुभूति
हो सकती है।
लेकिन इस झलक
से तुम बार—बार
गिरोगे।
जब
शुद्ध चैतन्य
उपलब्ध हो
जाता है—दूर
से मिली झलक
नहीं, बल्कि
तुम प्रविष्ट
हो चुके होते
हो उसमें—तो
फिर तुम उसे
नहीं खो सकते।
एक बार वह
उपलब्ध हो
जाता है तो
हमेशा—हमेशा
के लिए उपलब्ध
हो जाता है।
तुम उससे बाहर
नहीं आ सकते।
क्यों? क्योंकि
जिस क्षण तुम
उसमें प्रवेश
करते हो, तुम
मिट जाते हो। तो
कौन बाहर आएगा?
बाहर आने के
लिए कम से कम
तुम्हें तो
होना चाहिए।
लेकिन शुद्ध
चैतन्य में
प्रवेश करते
ही अहंकार
एकदम मिट जाता
है, 'स्व' पूरी तरह
तिरोहित हो
जाता है। तो
कौन आएगा
वापस!
झलक
में तुम नहीं
मिटते; तुम मौजूद
रहते हो। तुम
एक झलक ले
सकते हो और
फिर बंद कर
सकते हो आंखें।
तुम एक झलक ले
सकते हो और
फिर बंद कर
सकते हो खिड़की।
वह झलक स्मृति
बन जाएगी, वह
तुम्हें
पुकारेगी, तुम्हारा
पीछा करेगी।
वह तुम्हारे
सपनों में
आएगी। कई बार,
अचानक, तुम्हें
एक गहन
अभीप्सा होगी
उस झलक को
पाने की, लेकिन
वह सदा—सदा की
उपलब्धि नहीं
हो सकती। झलक
केवल झलक है।
अच्छी है, सुंदर
है, लेकिन
उसी पर रुक मत
जाना; क्योंकि
वह शाश्वत
नहीं है। वह
बार—बार खो
जाएगी—क्योंकि
तुम अभी भी
बचे हो।
जब भी
कोई झलक मिले, तो बढ़
जाना शिखरों
की ओर, चल
देना चांद की
ओर—चांद के
साथ एक हो
जाना। जब तक
तुम मिट नहीं
जाते तुम वापस
गिरोगे, तुम्हें
वापस आना होगा
संसार में, क्योंकि
अहंकार घुटन
अनुभव करेगा
झलक के साथ।
अहंकार को
मृत्यु जैसा
भय पकड़ेगा। वह
कहेगा, 'बंद
करो खिड़की।
बहुत देख लिया
तुमने चांद को।
अब मूढ़ता मत
करो। पागल मत
बनो, लूनाटिक
मत बनो।’ लूनाटिक
का अर्थ है चांदमारा।
यह शब्द आया
है कार से, चांद
से। पागलों को
लूनाटिक कहते
हैं, चांदमारा,
स्वप्नदर्शी—दूर
के सपनों की
सोचने वाला।
तो
तुम्हारा मन, तुम्हारा
अहंकार कहेगा,
'लूनाटिक मत
बनो। अच्छा है,
कभी—कभी
खिड़की खोल लो
और देख लो
चांद को, लेकिन
उससे आविष्ट
मत हो जाओ।
संसार
प्रतीक्षा कर
रहा है
तुम्हारी।
तुम पर
जिम्मेवारियां
हैं, जिन्हें
पूरा करना है।’
और अहंकार
तुम्हें राजी
कर लेगा, फुसला
लेगा, बुला
लेगा संसार की
तरफ; क्योंकि
अहंकार केवल
संसार में बना
रह सकता है।
जब भी संसार
के पार की कोई
झलक तुम्हें
पकड़ती है, तो
अहंकार भयभीत
हो जाता है, आतंकित हो
जाता है, डर
जाता है। वह
बात मौत जैसी
लगती है।
यदि उस
झलक को तुम
अपनी स्थायी
जीवन—शैली
बनाना चाहते
हो, अपनी
अंतस सत्ता
बनाना चाहते
हो तो तुम्हें
यात्रा करनी
पड़ेगी, दूरी
को मिटाना
होगा, अंतराल
को पार करना
होगा।
तुम्हें
विकसित होना
पड़ेगा। एक बार
तुम शुद्ध
चैतन्य को
उपलब्ध हो
जाते हो, तब
फिर उससे बाहर
गिरना नहीं
होता। वह है
वापस न होने
की अवस्था।
तुम केवल भीतर
जाते हो; तुम
बाहर कभी नहीं
आते। वहां कोई
बाहर आने का
द्वार नहीं है;
केवल एक ही
द्वार है—प्रवेश
द्वार।
सातवां
प्रश्न :
आपने
कहा कि बुद्ध
स्वार्थी थे
क्या जीसस भी
स्वार्थी थे? यदि ऐसा
है तो उनके इस
कथन का क्या
अर्थ है : 'यदि
किसी को मेरे
पीछे आना है
तो उसे स्वयं
को इनकार करना
होगा उठाओ
अपना क्रॉस और
आओ मेरे पीछे।'
हां, जीसस भी
स्वार्थी हैं;
अन्यथा
संभव ही नहीं
है। जीसस, कृष्ण,
जरथुस्त्र,
बुद्ध—सभी
स्वार्थी हैं;
क्योंकि
इतनी करुणा है
उनमें! वह
संभव नहीं है
यदि वे आत्म—केंद्रित
न हों। वह
संभव नहीं है
यदि उन्होंने
अपना आनंद
उपलब्ध न कर
लिया हो। पहली
तो बात, आनंद
पास में होना
चाहिए; केवल
तभी कोई बांट
सकता है। और
उन्होंने खूब बांटा—इतना
बांटा कि कई
सदियां बीत गई
हैं, लेकिन
वे अभी भी
बांट रहे हैं।
यदि
तुम प्रेम
करते हो जीसस
को, तो
अचानक तुम
उनकी करुणा से
भर जाते हो।
उनका प्रेम अब
भी बह रहा है।
शरीर मिट चुका
है, लेकिन
उनका प्रेम
नहीं मिटा है।
वह जगत की एक
शाश्वत घटना
बन गया है। वह
सदा उपलब्ध
रहेगा। जब भी
कोई तैयार
होगा, ग्रहणशील
होगा, तो
उनका प्रेम
बहेगा। लेकिन
यह इसीलिए
संभव है
क्योंकि वे
अपने मूल—स्रोत
को उपलब्ध
हुए. वे
निश्चित हां
स्वार्थी हैं।
तो फिर
इस कथन का
क्या अर्थ है, क्योंकि
ये शब्द तो
विरोधाभासी
मालूम पड़ते हैं
: 'यदि किसी
को मेरे पीछे
आना है तो उसे
स्वयं को इनकार
करना होगा...।’ हां, यह
विरोधाभासी
लगता है। यदि
मैं सत्य हूं
तो ये शब्द
मेरे विपरीत
लगते हैं।
मेरा
कथन सत्य है
और उनका कथन
भी मेरे
विपरीत नहीं
है।
विरोधाभास
केवल बाह्य
प्रतीति है, क्योंकि
जीसस कह रहे
हैं. 'यदि
तुम स्वयं को
उपलब्ध होना
चाहते हो तो
तुम्हें
स्वयं को खोना
पड़ेगा, यही
मार्ग है।’ तो जब जीसस
कहते हैं, 'यदि
किसी को मेरे
पीछे आना है
तो उसे स्वयं
को इनकार करना
होगा...।’ तो
इसीलिए कहते
हैं क्योंकि
यही मार्ग है
अपने तक आने
का। तुम स्वयं
को केवल तभी
उपलब्ध हो
सकते हो जब तुम
इनकार कर देते
हो अपने
अहंकार को।
तुम स्वयं को
तभी उपलब्ध हो
सकते हो जब
तुम पूरी तरह
मिट जाते हो।
जीसस
कहते हैं, 'यदि तुम
चिपकते हो
जीवन से, तो
तुम खो दोगे
उसे। यदि तुम
तैयार हो उसे
खोने के लिए, तो वह सदा—सदा
तुम्हारे साथ
रहेगा, तुम
अनंत जीवन को
उपलब्ध हो
जाओगे।’
जब
पानी की बूंद
गिर जाती है
सागर में, तो वह
स्वयं को खो
देती है—इनकार
कर देती है
स्वयं को—और
सागर बन जाती
है। वह ना—कुछ
खोती है और पा
लेती है सागर
को, वह
अपनी सीमाएं
गिरा देती है।
जब जीसस कहते
हैं, 'यदि
किसी को मेरे
पीछे आना है, तो उसे
स्वयं को
इनकार करना
होगा..।’ तो
यह सागर कह
रहा है बूंद
से, 'आओ, छोड़ो
अपनी सीमाएं,
ताकि तुम भी
सागर हो सको।’
और यह सबसे
बड़ा स्वार्थ
है—सागर हो
जाना।
एक
बूंद बड़ी
परोपकारी
होती है, लेकिन वह
बूंद ही बनी
रहती है—
क्षुद्र, सीमित,
पीड़ित।
लगता है जैसे
वह स्वार्थी
हो, वह
होती नहीं।
यदि तुम जाकर
देखो संसार के
स्वार्थी
लोगों को, तो
तुम उन्हें सच
में स्वार्थी
नहीं पाओगे।
वे मूड हैं, स्वार्थी
नहीं।
असली
स्वार्थी
व्यक्ति
प्रज्ञावान
हो जाते हैं।
असली
स्वार्थी
व्यक्ति तो वे
हैं जो प्रयास
करते हैं निर्वाण
की उपलब्धि के
लिए, जो
प्रयास करते
हैं परमात्मा
को पाने के
लिए, जो
प्रयास करते
हैं मोक्ष
पाने के लिए—मुक्ति,
स्वतंत्रता
पाने के लिए।
वे हैं असली
स्वार्थी
व्यक्ति; वे
नहीं जो संसार
में स्वार्थी
माने जाते हैं,
क्योंकि वे
कोशिश कर रहे
हैं धन इकट्ठा
करने की। वे
बिलकुल मूढ़
हैं, स्वार्थी
नहीं। ऐसा
सुंदर शब्द मत
उपयोग करो
उनके लिए। वे
मूढ़ हैं।
क्यों
तुम उनको
स्वार्थी
कहते हो? वे धन
इकट्ठा करते
रहते हैं और
अपनी आत्मा
बेचते रहते
हैं। वे एक
बड़ा घर बना
लेते हैं और
वे स्वयं
खोखले, रिक्त
हो जाते हैं।
उनके पास बड़ी
कार होती है
और कोई आत्मा
नहीं होती। और
तुम उन्हें
स्वार्थी
कहते हो? वे
सबसे ज्यादा
निःस्वार्थी
लोग हैं।
उन्होंने
कौड़ियों में
अपनी आत्मा
बेच दी है।
ऐसा
हुआ. एक आदमी
रामकृष्ण के
पास बहुत से
सोने के
सिक्के लेकर
आया, और
वह उन सिक्कों
को रामकृष्ण को
अर्पित करना
चाहता था।
रामकृष्ण
ने कहा, 'मैं सोना
छूता नहीं।
इन्हें वापस
ले जाओ।’
वह
आदमी बड़ा
प्रभावित हुआ।
उसने कहा, ' आप
कितने
निःस्वार्थी
हैं!'
रामकृष्ण
हंसे और
उन्होंने कहा, 'निःस्वार्थी
और मैं? मैं
तो बहुत
स्वार्थी
आदमी हूं।
इसीलिए तो मैं
सोना छूता नहीं।
मैं इतना कु
नहीं। तुम हो
निःस्वार्थी।
तुमने स्वयं
को बेच दिया
है सोने के
सिक्कों के
लिए।’
कौन है
स्वार्थी? जो अपनी
आत्मा बेच
देता है सोने
के सिक्कों के
लिए वह
स्वार्थी है?
या जो संसार
की हर चीज छोड़
देता है अपनी
आत्मा उपलब्ध
करने के लिए
वह स्वार्थी
है? संसार
में लोग स्वयं
को खो देते
हैं और पाते कुछ
भी नहीं, और
तुम उन्हें
स्वार्थी
कहते हो। वे
निःस्वार्थी
लोग हैं, मूढ़
लोग हैं। फिर
बुद्ध हैं, जीसस हैं, कृष्ण हैं—वे
परम महिमा को,
परम आनंद को
उपलब्ध हुए।
बुद्ध ने कहा
है, '''मैं
श्रेष्ठतम
समाधि को
उपलब्ध हुआ हूं, परम समाधि
को उपलब्ध हुआ
हूं।’ और
तुम उन्हें
निःस्वार्थी
कहते हो? जो
परम आनंद को
उपलब्ध हुए
हैं, तुम
उन्हें
निःस्वार्थी
कहते हो? तुम
ने एक सुंदूर
शब्द को विकृत
कर दिया है।
जीसस
ठीक कहते हैं, 'यदि किसी
को मेरे पीछे
आना है तो उसे
स्वयं को
इनकार करना
होगा।’ क्योंकि
वही एकमात्र
ढंग है स्वयं
को उपलब्ध होने
का। वे
स्वार्थ सिखा
रहे हैं।’और
वह अपना क्रॉस
उठाए और आए
मेरे पीछे।’ क्योंकि वही
एकमात्र ढंग
है
पुनरुज्जीवित
होने का।
यदि
तुम नया जीवन
चाहते हो तो
तुम्हें मरना
होगा। यदि तुम
पुनरुज्जीवित
होना चाहते हो, तो
तुम्हें
उठाना ही होगा
अपना क्रॉस।
पदार्थ के
संसार में
सूली चढ़ जाओ
और तुम पुनरुज्जीवित
हो उठोगे
अध्यात्म के
जगत में। अतीत
के प्रति क्षण—
क्षण मरते जाओ,
ताकि तुम
वर्तमान में
क्षण— क्षण
पुनरुज्जीवित
हो सको।
मरना
एक कला है, एक
मूलभूत कला है।
और जो मरना
जानते हैं, वे ही जीना
जानते हैं। जो
व्यक्ति
भयभीत हैं
मरने से, भयभीत
हैं मृत्यु से
और मिटने से, वे अक्षम हो
जाते हैं जीने
में, क्योंकि
मृत्यु जीवन
का ही हिस्सा
है।
जब
जीसस कहते हैं, 'उठाओ
अपना क्रॉस और
आओ मेरे पीछे।'
तो वे कह
रहे हैं, 'मरने
के लिए तैयार
हो जाओ यदि
तुम शाश्वत
जीवन पाना
चाहते हो।' यह स्वार्थ
है।
और जब
जीसस जैसे लोग
कहते हैं, 'मेरे
पीछे आओ', तो
तुम उनको गलत
समझोगे। जब
कृष्ण गीता
में अर्जुन से
कहते हैं, 'सर्व
धर्मान्
परित्यज्य
मामेकं शरणं
व्रज—मुझ एक
की शरण में आ
जाओ।’ तो
वे क्या कह
रहे हैं? क्या
ये लोग
अहंकारी हैं?
वे कहते हैं,
'आओ, मेरे
पीछे आओ।’
असल
में जब जीसस
कहते हैं, 'आओ, मेरे
पीछे आओ', तो
वे कह रहे हैं,
'मैं
तुम्हारी
आत्यंतिक
आत्मा हूं।’ जब कृष्ण
कहते हैं, 'समर्पण
करो मुझे', तो
वे इस बाहरी
कृष्ण के
प्रति समर्पण
करने के लिए
नहीं कह रहे
हैं। वे कह
रहे हैं : 'तुम्हारी
गहराई में मैं
छिपा हुआ हूं।
जब तुम मेरे
प्रति
समर्पित होते
हो, तो मैं
सिर्फ एक
बहाना हूं
समर्पण के लिए।
पहुंचोगे तो
तुम अपनी
सत्ता के
अंतरतम केंद्र
पर। मेरे पीछे
आओ, ताकि
तुम अपने
आत्यंतिक
केंद्र को
उपलब्ध हो सको।
मैं उस
आत्यंतिक
केंद्र को
उपलब्ध हो
चुका हूं।’ वे जीसस का
या कृष्ण का
अनुसरण करने
के लिए नहीं
कह रहे हैं।
वे कह रहे हैं,
'समर्पण करो,'
क्योंकि
समर्पण में
तुम स्वयं ही
कृष्ण, जीसस
हो जाओगे। और
यह परम
स्वार्थ है।
लेकिन
यह 'स्वार्थ'
शब्द निंदित
हो गया है। जब
कोई कहता है, 'स्वार्थी मत
बनो', तो
उसने निंदा कर
दी होती है।
मैं फिर उस
सुंदर शब्द को
शुद्ध करना
चाह रहा हूं।
मैं कोशिश कर
रहा हूं उसे
उसकी मूल
महिमा तक लाने
की। वह शब्द
तो हीरे जैसा
है, चाहे
वह कीचड़ में
ही क्यों न
पड़ा हो। उसे
साफ किया जा
सकता है और
धोया जा सकता
है। और यदि
तुम मुझे
समझते हो तो
तुम पाओगे कि
जब तुम सच में
ही स्वार्थी
हो, केवल
तभी तुम
निःस्वार्थी
हो सकते हो।
मैं तुम्हें
स्वार्थी
होना सिखाता
हूं क्योंकि
मैं चाहता हूं
कि तुम
निःस्वार्थी
होओ।
आठवां
प्रश्न:
बाहरी
घटनाओं, जैसे कि
मृत्यु धोखा
देना इत्यादि
में मेरे मन
का कितना
हिस्सा है? इन बातों के
लिए मैं कैसे
जिम्मेवार
हूं?
तुम
जिम्मेवार
नहीं हो इन बातों
के लिए। यदि
कोई आदमी मर
जाता है, तो तुम उसकी
मृत्यु के लिए
जिम्मेवार
नहीं हो; लेकिन
जिस ढंग से
तुम मृत्यु की
व्याख्या
करते हो, उसके
लिए तुम
जिम्मेवार हो।
जब कोई धोखा
देता है
तुम्हें, तो
तुम उसके धोखा
देने के लिए
जिम्मेवार
नहीं हो। कैसे
जिम्मेवार हो
सकते हो तुम? लेकिन तुम
उसे धोखा कह
रहे हो; शायद
वह धोखा न हो।
उसे धोखा कहना
तुम्हारी
व्याख्या है,
और उस व्याख्या
के लिए तुम
जिम्मेवार हो।
तुम
उसे मृत्यु
कहते हो. यदि
तुम्हारी मां
मरती है, तुम उसे
मृत्यु कहते
हो और तुम
दुखी होते हो।
तुम इसलिए
दुखी नहीं
होते क्योंकि
मां मर गई है।
तुम दुखी होते
हो क्योंकि
तुम सोचते हो
कि यह मृत्यु
है। यदि तुम
जीवन को समझो
तो तुम जानोगे
कि कहीं कोई
मृत्यु नहीं
है। तब मां की
मृत्यु होगी—मां
की मृत्यु तो
कभी न कभी
होनी ही है—लेकिन
तुम दुखी नहीं
होओगे। उसने
पुराना शरीर
बदल लिया है।
असल में यह
घड़ी तो आनंद
मनाने की है।
क्योंकि उसे
कैंसर था या
टी .बी. थी, बुढ़ापा
था और हजारों
बीमारियां
थीं, और वह
खींच रही थी।
तुम इसे
मृत्यु कहते
हो? मैं
इसे कहता हूं
नए में प्रवेश
के लिए पुराने
शरीर को छोड़
देना। क्यों
दुखी होना
इसके लिए? इसके
लिए तो
प्रसन्न होना
चाहिए और
आनंदित होना
चाहिए।
तो यह
निर्भर करता
है व्याख्या
पर, और
व्याख्या
तुम्हारी
जिम्मेवारी
है। कोई तुमको
धोखा दे देता
है। लेकिन कौन
कह रहा है कि
यह धोखा है? उदाहरण के
लिए :
तुम्हारा पति,
तुम्हारी
पत्नी, तुम्हारा
प्रेमी तुमसे
अलग हो जाता
है। तुम इसे
धोखा कहते हो,
यह
तुम्हारी
व्याख्या है।
शायद तुम बहुत
मालकियत का
भाव रखते थे।
उसने तुम्हें
धोखा नहीं
दिया है; वह
केवल अपने को
बचाने की
कोशिश कर रहा
है। तुम बहुत
मालकियत जमा
रहे थे, तुम
बहुत चिपके
हुए थे। तुम
उसकी गर्दन को
कस कर पकड़े
हुए थे। तुम
उसकी
स्वतंत्रता
की हत्या कर
रहे थे। उसने
तो केवल अपना
जीवन बचाने की
कोशिश की, तुमको
धोखा नहीं
दिया। वह किसी
और स्त्री की
तरफ आकर्षित
हुआ होगा इस
आशा में कि
शायद कहीं और
प्रेम का फूल
खिल सके।
लेकिन तुमने
उसे मजबूर
किया; और
अब तुम कहते
हो कि धोखा
हुआ! तुमने
सारी परिस्थिति
निर्मित की
जिसमें यह बात
घटी; और अब
तुम इसे धोखा
कहते हो!
जरा
ध्यान देना, सजग होना,
देखना कि
क्यों ऐसा हुआ।
अगर तुम इतना
पीछे न पड़े
होते, तो
शायद वह न
भागा होता।
तुम्हारा
पीछे पड़े रहना
उसे पागल किए
दे रहा था। या
तुम्हारा
पीछे पड़े रहना
उसे
संवेदनहीन बना
रहा था।
केवल
दो ही ढंग हैं
परेशान करने
वाली पत्नी या
परेशान करने
वाले पति के
साथ रहने के।
एक, जो
कि करीब—करीब
सभी पति करते
हैं, कि
संवेदनहीन हो
जाओ। तुम घर
में आते हो; तुम अपने को
कठोर कर लेते
हो। वह
बड़बड़ाती रहती
है, तुम
परवाह ही नहीं
करते। तुम
अपना अखबार
पढते रहते हो।
वह क्या कह
रही है, तुम
सुनते ही नहीं।
लेकिन
तब तुम अपने को
ही धोखा दे
रहे हो, क्योंकि
जितने ज्यादा
तुम
संवेदनहीन
होते हो, उतने
ही तुम कम
प्रेमपूर्ण
होओगे। जितने
ज्यादा
संवेदनहीन
होते हो तुम, उतनी ही कम
संभावना होती
है प्रार्थना
की, उतनी
ही कम संभावना
होती है जीवंत
होने की। तुम
पहले से ही
मुर्दा होते
हो। तुम अपने
प्राणों को ही
धोखा दे रहे
हो। बेहतर है
स्त्री से दूर
हट जाना—स्वयं
को बचाने के
लिए और उसे भी
अवसर देना समझ
पाने के लिए।
तो दूसरा ढंग
है—दूर हट
जाना।
यदि
पति अपने को
धोखा दिए जाता
है, तो
पत्नी कहती है
कि वह बड़ा
निष्ठावान है।
वह धोखा दे
रहा है अपने
को। और कोई
जिम्मेवार
नहीं है किसी
दूसरे के जीवन
के लिए। तुम यहां
अपने लिए हो; मैं यहां
मेरे लिए हूं।
यहां कोई किसी
की अपेक्षाएं
पूरी करने के
लिए नहीं है।
मुझे जीना है
अपना जीवन; तुम्हें
जीना है
तुम्हारा
जीवन। यदि मैं
विकसित होता —हूं
तुम्हारे साथ,
यदि हम साथ—साथ
विकसित हो
सकते है—तो
ठीक है, हम
साथ—साथ रह
सकते हैं।
लेकिन यदि तुम
मेरी हत्या
करना शुरू कर
दो और मैं
तुम्हें जहर
देने लग र तो
बेहतर है कि
हम अलग हो
जाएं; क्योंकि
अलग होना दो
जीवन बचा लेगा,
दो कैदियों
को मुक्त कर
देगा। यह कोई
धोखा नहीं है।
धोखा
एक ही है. और वह
है अपने को
धोखा देना। और
कोई धोखा नहीं
है। यदि तुम
परेशान करने
वाली, मालकियत
जमाने वाली
पत्नी के साथ
या पति के साथ
बिना किसी
प्रेम के रहना
जारी रखते हो,
तो तुम अपनी
ही संभावना को
नष्ट कर रहे
हो।
तालमुद
में कहा गया
है कि ईश्वर
तुम से पूछेगा.
'मैंने
तुम्हें
प्रसन्न होने
के इतने अवसर
दिए। तुमने
क्यों खो दिए?'
वह नहीं
पूछेगा, 'तुमने
कौन—कौन से
पाप किए?' वह
पूछेगा, 'तुमने
प्रसन्न
होने के
कितने अवसर
खोए? तुम
जवाबदेह
होओगे उनके
लिए।’ यह
बात बहुत
सुंदर है : 'तुम
केवल उन
अवसरों के लिए
जवाबदेह
होओगे जो तुम्हें
उपलब्ध थे और
तुम ने खो दिए।’
तो
ईमानदार रहना
स्वयं के
प्रति—वही
एकमात्र
ईमानदारी है
जिसकी जरूरत
है—और फिर हर
बात ठीक ही
होगी। यदि तुम
स्वयं के
प्रति
ईमानदार हो तो
तुम सदा ढूंढ
लोगे साथी, जीवन—साथी,
जिसके साथ
तुम विकसित
होते हो, अन्यथा
अलग हो जाना। इसमें
कुछ बुरा नहीं
है। और यह
तुम्हारे
साथी के लिए
भी अच्छा है, क्योंकि यदि
तुम विकसित
नहीं हो रहे
हो, तो तुम
बदला लोगे।
यही तो करते
हैं प्रत्येक
पति—पत्नी।
यदि
तुम विकसित
नहीं हो रहे
हो और तुम बंद, कैदी
अनुभव करते हो,
तो तुम
दूसरे से बदला
लेने लगते हो,
क्योंकि उस
दूसरे के कारण
तुम बंधन में
हो, उस
दूसरे के कारण
तुम कारागृह
में हो। तब
तुम क्रोधित
रहोगे, लगातार
क्रोधित
रहोगे।
तुम्हारा
पूरा जीवन
क्रोध से भर
जाएगा। और तुम
प्रेम नहीं कर
सकते ऐसी हालत
में। कैसे कोई
प्रेम कर सकता
है अपने
कारागृह को? चाहे वह कारागृह
कोई भी हो—तुम्हारी
पत्नी, तुम्हारा
पति, तुम्हारे
पिता, तुम्हारी
मां, तुम्हारा
गुरु—उससे कुछ
अंतर नहीं
पड़ता है।
यदि
तुम यहां हो
और तुम बंधन
अनुभव करते हो, तो भाग
जाओ—जितनी
जल्दी भाग सको
भाग जाओ—मेरे
आशीर्वाद
तुम्हारे साथ
हैं। क्योंकि
उस ढंग से यहां
रहना खतरनाक
है। तुम्हें
मेरे प्रति
श्रद्धालु
नहीं होना है।
पहली श्रद्धा
होनी चाहिए
अपने प्रति; शेष सब गौण
है। यदि तुम
बंधन अनुभव
करते हो—अवरुद्ध,
पंगु—तो भाग
निकलना। एक पल
की भी
प्रतीक्षा मत
करना, और
कभी पीछे मुड़
कर मत देखना।
कहीं और खोजना।
जीवन विराट है,
अनंत है।
तुम्हें कोई
और मिल सकता
है जो
तुम्हारे
ज्यादा
अनुकूल हो और
जो तुम्हारे
लिए बंधन न हो,
मुक्ति हो।
जाओ वहां।
खोजो। सदा
खोजते रहो।
अन्यथा यदि
तुम यहां अटका
हुआ अनुभव कर
रहे हो, सोच
रहे हो कि तुम
बंधन में हो, तो तुम
मुझसे बदला
लोग। तुम
दिखाओगे जैसे
कि तुम शिष्य
हो, लेकिन
तुम शत्रु बन
जाओगे। और
किसी न किसी
दिन तुम फूट
पड़ोगे।
सभी
संबंधों में
यह बात स्मरण
रखने की है कि
इस जीवन में
तुम आए हो
सीखने के लिए, विकसित
होने के लिए
ज्यादा
बुद्धिमान
होने और सजग
होने के लिए।
यदि कोई बात
पंगु करती है,
तो उसी
अवस्था में
बने रहना पाप
है। आगे बढ़ो।
इस ढंग से तुम
अधिक
प्रेमपूर्ण
जगत निर्मित करोगे।
लेकिन
ठीक उलटी बात
सिखाई गई है :
यदि तुम्हें अपनी
पत्नी से
प्रेम नहीं है, तो भी
प्रेम करो उसे।
और कोई नहीं
पूछता, 'कैसे
कोई किसी को
प्रेम कर सकता
है यदि उसे प्रेम
नहीं है?' हो
सकता है, शुरू
में प्रेम रहा
हो, फिर वह
मिट गया।
लेकिन
तुम्हें
सिखाया जाता
है कि प्रेम
कभी मिटता
नहीं है। यह
भी नितांत
मूढ़ता की बात
है। हर चीज जो
है, मिट
सकती है। हर
चीज जो जन्म
लेती है, मर
सकती है। हर
चीज जो आरंभ
होती है, समाज
हो सकती है।
तो
प्रामाणिक
रहना और सजग
रहना। यदि
प्रेम समाप्त
हो चुका हो, तो उस
स्त्री के साथ
रहना पाप है।
तब यदि तुम
सोते हो उस
स्त्री के साथ
तो तुम पापी
हो। तब यह एक
तरह से
वेश्यावृत्ति
है। स्त्री
तुम्हारे साथ
रहती है
क्योंकि कहीं
और जाने की
जगह नहीं है।
अब वह
तुम्हारे साथ
केवल
इसलिए है
क्योंकि
आर्थिक रूप से
वह तुम पर
निर्भर है।
लेकिन
फिर
वेश्यावृत्ति
क्या है? वह आर्थिक
सौदा ही है।
अब प्रेम तो
रहा नहीं। यदि
तुम किसी
वेश्या के पास
जाते हो और वह
तुम्हारे
प्रेम में पड़
जाती है और
पैसे लेने से
इनकार कर देती
है, तो फिर
वह वेश्या न
रही। वेश्या
का जन्म होता
है पैसे के
साथ। जब प्रेम
की बजाए पैसा
जोड़ता है दो
व्यक्तियों
को, तो वह
वेश्यावृत्ति
है।
यदि
तुम बिना
प्रेम के किसी
स्त्री के साथ
रहते हो और
स्त्री बिना
प्रेम के
तुम्हारे साथ
रहती है, केवल एक
आर्थिक
व्यवस्था है—कि
मुश्किल होगी;
किधर जाओ, क्या करो, बड़ी
असुरक्षा है!
तो चिपके रहो,
और नाराज
होओ, एक—दूसरे
की जिंदगी
नर्क बना दो, और लगातार
लड़ते—झगड़ते
रही लेकिन फिर
भी साथ रहो, यह तुम्हारा
कर्तव्य है—तुम
बहुत खतरनाक
व्यक्ति हो।
और इस
वेश्यावृत्ति
से किस प्रकार
के बच्चे पैदा
होंगे? तुम केवल
स्वयं को ही नष्ट
नहीं कर रहे, तुम आने
वाली पीढ़ियों
को भी नष्ट कर
रहे हो। वे
बच्चे
तुम्हारे बीच
बड़े होंगे—दों
व्यक्ति
निरंतर लड—झगड़
रहे हैं, निरंतर
संघर्ष में रह
रहे हैं। और
जो बच्चे पैदा
होंगे, सदा
संघर्ष में
रहेंगे। उनका
एक हिस्सा मां
से संबंधित
रहेगा, एक
हिस्सा पिता
से, और
गहरे में
निरंतर एक गृह—युद्ध
छिड़ा रहेगा।
वे सदा
द्वंद्व में
रहेंगे।
जब तुम
आते हो मेरे
पास और कहते
हो, 'मैं
उलझन में हूं...।’ अभी कुछ
दिन पहले एक
संन्यासी आया
और उसने कहा, 'मैं समर्पण
करना चाहता
हूं लेकिन मैं
समर्पण नहीं
भी करना
चाहता!' अब
क्या करो इस
आदमी के साथ?
और वह कहता
है, 'मेरी
मदद करें।’ वह समर्पण
करना चाहता है
और समर्पण
नहीं भी करना
चाहता है। एक
हिस्सा कहता
है, 'समर्पण
करो', एक
हिस्सा कहता
है, 'नहीं'। यह है
खंडित
व्यक्तित्व, स्कीजोफ्रेनिक।
लेकिन करीब—करीब
प्रत्येक
व्यक्ति ऐसी
ही स्थिति में
है। कहा से
आता है यह
खंडित
व्यक्तित्व?
यह
खंडित
व्यक्तित्व
सदा संघर्ष
में रहने वाले
माता—पिता से
आता है। बच्चा
कई बार मां
जैसा अनुभव
करता है, क्योंकि वह
दोनों को
अनुभव करता है।
वह संसार में
दोनों के
द्वारा आया है।
उसके शरीर के
आधे कोशाणु
पिता से संबंध
रखते हैं; आधे
कोशाणु मां से
संबंध रखते
हैं। अब वे
द्वंद्व में
रहते हैं। वह
निरंतर
गृहयुद्ध में
रहेगा; वह
कभी चैन से न
बैठेगा, शांत
न होगा। कुछ
भी वह करेगा, एक हिस्सा
कहता रहेगा, 'व्यर्थ है
यह। मत करो
ऐसा।’ यदि
मां वाला
हिस्सा कहता
है, 'करो', तो पिता
वाला हिस्सा
कहता है, 'नहीं'। शायद बहुत
जोर से न भी
कहे। पिता कभी
बहुत जोर से
नहीं कहते, लेकिन पिता
वाला हिस्सा 'नहीं' में
सिर हिलाएगा।
यदि पिता वाला
हिस्सा कहता
है, 'हां', तो मां वाला
हिस्सा कहता
है—निश्चित ही
बहुत जोर से
कहता है—'नहीं'।
मुल्ला
नसरुद्दीन का
बेटा एक लड़की
के प्रेम में
पड़ गया। वह घर
आया। उसने
नसरुद्दीन से
पूछा—चुपके से
अकेले में
पूछा उससे—कि
क्या करें? पिता ने
उसके कान में
फुसफुसा कर
कहा, 'यदि
तुम सच में ही
उस लड़की से
प्रेम करते हो
तो जाओ और
अपनी मां से
कहना कि
पिताजी ने मना
किया है, कि
पिताजी तो इस
बात के बिलकुल
खिलाफ हैं। और
तुम्हारी मां
के सामने मैं
कहूंगा, ऐसा
कभी नहीं होने
दूंगा मैं। तब
तो सुनिश्चित
ही है कि
तुम्हारा
विवाह हो जाएगा।’
बड़ी
राजनीति चलती
है। और
प्रत्येक
संवेदनशील
बच्चा जिंदगी
की चालबाजिया
सीख लेते
है, और फिर वह
उन्हें पूरे जीवन
भर चलता रहेगा।
वह खंडित
रहेगा, और
जब भी वह किसी
स्त्री
को घर
लाएगा, तो वह पिता
की भूमिका
निभाना शुरू
कर देगा और स्त्री
मां की
श्रइमका
निभाने लगेगी।
और यही कहानी
चलती रहती है...
और संसार और—और
पागलपन में
उतरता जाता है।
यह
सारी व्यर्थ
की बकवास
इसीलिए निर्मित
हो गई है
क्योंकि
तुम्हें गलत
बातें सिखाई
गई हैं। मैं
तुम्हें केवल
एक
जिम्मेवारी
सिखाता हूं :
वह है
तुम्हारे
अपने जीवन के
प्रति
जिम्मेवारी।
यह बात बड़ी
खतरनाक लगेगी।
यह ऐसी लगेगी
जैसे कि मैं
अराजकता
फैलाने की, अव्यवस्था
फैलाने की
कोशिश कर रहा
हूं। ऐसा मैं
कुछ नहीं कर
रहा हूं।
अराजकता तो
तुमने पहले से
ही बनाई हुई
है, उसमें
और अराजकता
नहीं लाई जा
सकती। मैं
कोशिश कर रहा
हूं एक
व्यवस्था
लाने की, लेकिन
स्वतंत्रता
से आई
व्यवस्था, अंतर—
अनुशासन के
रूप में आई
व्यवस्था—बाहर
से थोपी गई, जबरदस्ती
लादी हुई व्यवस्था
नहीं।
नौवां
प्रश्न :
क्या
बच्चों को आभा—
मंडल दिखाई
देते हैं?
हां, लेकिन
केवल तब तक
दिखाई देते
हैं जब तक
उन्होंने
बोलना शुरू
नहीं किया
होता। जब
बच्चा बोलने
लगता है तो
चीजें खोने
लगती हैं।
बोलते ही
बच्चा समाज का
हिस्सा बन
जाता है। जब
तक बच्चा चुप
रहता है, बोलना
नहीं सीखा
होता, तब
तक बच्चा वह
सब चीजें
देखता है
जिन्हें कोई
संत देखता है,
जिन्हें
कोई बुद्ध
पुरुष देखता
है। ठीक उसी
तरह ही देखता
है। बच्चा
करीब—करीब संत
ही होता है।
लेकिन वह केवल
एक समय तक ही
ऐसा रहता है।
यदि बच्चा छह
महीने तक, नौ
महीने तक, एक
साल तक नहीं
बोलता—तो उस
समय तक बच्चा
आभा—मंडल
देखेगा, अनुभव
करेगा गहराई
से। जब बच्चा
बोलना शुरू कर
देता है, तो
वह बच्चा फिर
बच्चा नहीं
रहता। फिर
बच्चा संसार
का हिस्सा हो
जाता है; भाषा
के, बुद्धि
के, मन के
संसार का
हिस्सा हो
जाता है। तब
धीरे— धीरे वे
गुण तिरोहित
होने लगते हैं।
भारत
में हमारे पास
एक मान्यता है, और बड़ी
सच्ची बात
छिपी है उसमें।
भारत में ऐसा
कहा जाता है
कि छह महीने
तक बच्चे को
पिछले जन्म की
स्मृति रहती
है। यह बात सच
है, क्योंकि
छह महीने तक
बच्चा बहुत
शांत और मौन रहता
है और उसका
बोध बहुत गहरा
होता है। फिर
रोज—रोज संसार
और— और ज्यादा
जुड़ता जाता है
उसके साथ—हम
सिखाते हैं
उसे, संस्कारित
करते हैं उसे—तो
बच्चा समाज का
हिस्सा
ज्यादा हो
जाता है और अस्तित्व
से उसका संबंध
टूटता जाता है।
बच्चा संसार
में खो जाता
है। यही है
आदम का गिरना.
ज्ञान का फल
चख लिया जाता है।
ज्ञान के
श्रृक्ष का फल
तब चखा जाता
है जब बच्चा
बोलना शुरू
करता है।
फिर
दोबारा अगर
तुम उस
निर्दोषता को
पाना चाहते हो, उसे फिर
आविष्कृत
करना चाहते हो,
तो तुम्हें
मौन सीखना
होगा—इसीलिए
तो मौन के लिए,
ध्यान के
लिए इतना
ज्यादा जोर है।
तुम्हें फिर
भाषा को भूलना
होगा। भीतर की
सब बातचीत, भीतर का
सारा शोरगुल
बंद करना होगा।
तुम्हें फिर
निर्दोष, भाषाविहीन
होना होगा—भीतर
कोई शब्द न
रहें, शुद्ध
अंतस सत्ता
मात्र रह जाए,
फिर से तुम
बच्चे हो जाओ।
स्मरण रखना, जीसस बार—बार
कहते हैं, 'जो
बच्चों की
भांति हैं
केवल वही प्रवेश
करेंगे मेरे
प्रभु के
राज्य में।’
अंतिम
प्रश्न:
ऐसा
क्यों है कि
बुद्धत्व को
उपलब्ध
पुरुषों की
अपेक्षा
बुद्धत्व को
उपलब्ध
स्त्रियों का
हमें बहुत कम
पता है?
इसका
बुनियादी
कारण यह है कि
आत्मप्रशंसा
में पुरुष
बहुत कुशल हैं, स्त्रियां
नहीं। बहुत
स्त्रियां
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुई
हैं।
बुद्धत्व को
उपलब्ध
स्त्रियों की
संख्या ठीक
उतनी ही है
जितनी कि
पुरुषों की—इससे
अन्यथा हो
नहीं सकता, क्योंकि
अस्तित्व एक
संतुलन रखता
है—लेकिन
स्त्रियां
बहुत चर्चा
नहीं करतीं।
वे ज्यादा
शेखी नहीं
बघारतीं। यदि
वे उपलब्ध हो
जाती हैं तो
वे उसका आनंद
लेती हैं। वे
उसे लेकर
ज्यादा
शोरगुल नहीं
करतीं।
पुरुष
बिलकुल अलग
तरह के होते
हैं। यदि वे
कुछ पा लेते
हैं, तो
वे बहुत शोर
मचाते हैं इस
बात को लेकर; वे इस विषय
में खूब चर्चा
करते हैं। और
समाज चलता है
पुरुषों
द्वारा। जब
कोई पुरुष
बुद्धत्व को
उपलब्ध होता
है, तो
बाकी पुरुष
खूब विज्ञापन
करते हैं इस
बात का। जब
कोई स्त्री
बुद्धत्व को
उपलब्ध होती
है, तो कोई
फिक्र नहीं
करता, क्योंकि
समाज
स्त्रियों से
नहीं चलता है।
वे शासक नहीं
हैं।
पुरुष
मूल रूप से
ज्यादा
बहिर्मुखी
होता है
स्त्री की
अपेक्षा।
स्त्री स्वयं
में सीमित
रहती है, या ज्यादा
से ज्यादा
अपने परिवार
तक सीमित रहती
है। उसे चिंता
नहीं होती
वियतनाम की, उसे चिंता
नहीं होती
रिचर्ड
निक्सन की—इतने
दूर की बात
उसके लिए कोई
महत्व नहीं
रखती। वह आने
वाले पीढ़ियों
की, और
तमाम बातों की
कोई चिंता
नहीं करती। वह
अपने घर में
प्रसन्न रहती
है, वही
उसका अपना
छोटा सा संसार
होता है। असल
में वह चाहती
ही नहीं कि
कोई दखलंदाजी
करे। वह अपने
संसार में
रहना चाहती है।
जब कोई
स्त्री
बुद्धत्व को
उपलब्ध होती
है, तब
फिर उसका ढंग वही
होता है : वह
सारे संसार को
उपदेश देने
नहीं जाती। वह
बात उसके
स्वभाव में ही
नहीं होती। वह
शिष्य नहीं
बनाती, संगठित
धर्म निर्मित
नहीं करती। वह
बात उसके लिए
स्वाभाविक
नहीं है। वह
खुश होती है, वह आनंदित
होती है। वह
नाच सकती है, वह गा सकती
है। लेकिन वह
अपने घर में
शाति से रहती
है। वह कोई
चिंता नहीं
लेती संसार की।
स्त्री गुरु
नहीं बनती।
जितने पुरुष
बुद्धत्व को
उपलब्ध होते
हैं, उतनी
ही स्त्रियां
भी उपलब्ध
होती हैं।
लेकिन स्त्री
में गुरु बनने
के गुण नहीं
होते। यह बात
समझने जैसी है।
स्त्री
में पूरे गुण
हैं शिष्य
बनने के।
समर्पण उसके
लिए आसान है।
समर्पण
स्वाभाविक है; स्त्रैण
चित्त का
हिस्सा है।
समर्पण आसान
है; समर्पण
सरल है।
स्त्री एक
अच्छी शिष्य
हो सकती है।
और तुम सदा
पाओगे : जहां
चार शिष्य
होंगे, उनमें
तीन
स्त्रियां
होंगी। सारे
संसार में यही
अनुपात होता
है। महावीर के
पास चालीस
हजार शिष्य थे—उनमें
तीस हजार
स्त्रियां
थीं। यही
अनुपात रहा है
बुद्ध के निकट।
तुम जरा जाओ
किसी चर्च में,
मंदिर में,
और गिन लो
संख्या—तुम
सदा तीन और एक
का अनुपात
पाओगे। असल
में सभी धर्म
स्त्रियों
द्वारा ही
चलते हैं, लेकिन
वे शिष्य होती
हैं।
समर्पण
उनके लिए आसान
है, क्योंकि
समर्पण पैसिव
है। यदि तुम
किसी स्त्री
के चरणों में
समर्पण कर दो
तो वह घबड़ाहट
और बेचैनी
अनुभव करेगी।
यदि कोई पुरुष
आकर गिर उसके चरणों
में, तो वह
कभी प्रेम न
कर पाएगी इस
पुरुष से। वह
व्यक्ति
पुरुष जैसा
नहीं लगता।
करके
देखो, जरा
पीछे पड़ जाओ
किसी स्त्री
के। जितना
ज्यादा तुम
उसके पीछे
भागते हो, और
जितनी ज्यादा
तुम विनती
करते हो, और
जितना ज्यादा
तुम उसके
चरणों में
गिरते हो—उतना
ही ज्यादा
उसके लिए
समर्पण करना
असंभव होगा।
स्त्री को कोई
ऐसा पुरुष
चाहिए जिसके
प्रति वह
समर्पण कर सके—कोई
जो पौरुषेय हो।
स्त्री का
व्यक्तित्व
निष्किय है, पुरुष का
व्यक्तित्व
सक्रिय है.
यिन और यांग।
वे एक—दूसरे
के परिपूरक
हैं।
स्त्री
के लिए समर्पण
बहुत आसान है।
वह उसके
स्वभाव का
हिस्सा है।
लेकिन समर्पण
को स्वीकार
करना उसके लिए
बहुत कठिन है—और
गुरु को
स्वीकार करना
होता है
शिष्यों का
समर्पण। तो
बहुत थोड़ी
स्त्रियां
गुरु हुई हैं—बहुत
ही कम। लेकिन
मुझे सदा
संदेह रहा है
कि उन
स्त्रियों
में जरूर थोड़े
पुरुष
हार्मोन्स
रहे होंगे। वे
पूरी तरह
स्त्रियां
नहीं रही
होंगी।
भारतीय
इतिहास में एक
उदाहरण है :
जैनों के चौबीस
तीर्थंकरों
में एक स्त्री
थी, मल्लीबाई
उसका नाम था।
लेकिन जैनों
का एक
सर्वाधिक
रूढ़िवादी
संप्रदाय, दिगंबर
संप्रदाय, वे
उसे स्त्री
नहीं मानते।
वे उसका नाम 'मल्लीबाई' नहीं लिखते,
वे उसका नाम
'मल्लीनाथ'
लिखते हैं।
वह पुरुष का
नाम है, वह
स्त्री का नाम
नहीं है।
मैंने बहुत
सोच—विचार
किया इस बात
पर कि ऐसा
क्यों है! फिर
मैंने अनुभव
किया कि
दिगंबर ठीक
कहते हैं। वह
स्त्री केवल
नाम को ही
स्त्री रही
होगी, अन्यथा
वह पुरुष ही
थी। तीर्थंकर
हो जाना, यह
बड़ी गैर—स्त्रैण
बात है। लाखों
व्यक्तियों
को और उनके
समर्पण को
स्वीकार करना
इतनी
अस्त्रियोचित
बात है कि वह
स्त्री केवल
शारीरिक रूप
से ही स्त्री
रही होगी।
उसका अंतस
पुरुष का था।
तो
दिगंबर ठीक
कहते हैं।
श्वेतांबर
कहते हैं कि
वह स्त्री थी।
वे ज्यादा
यथार्थ कह रहे
हैं लेकिन फिर
भी सही नहीं
हैं। ज्यादा
तथ्यात्मक—लेकिन
ज्यादा ठीक
नहीं। वे तथ्य
की सूचना दे
रहे हैं। और
कई बार तथ्य
सच नहीं होते।
कई बार तथ्य
बड़े भ्रामक
होते हैं; और कई बार
तथ्य इतना
ज्यादा झूठ कह
सकते हैं कि
काल्पनिक
कथाएं झेंप
जाएं। यह एक
तथ्य है—कि यह
मल्लीबाई एक
स्त्री थी—लेकिन
सच्चाई यह
नहीं है।
दिगंबरों के
पास ठीक आधार
है। उन्होंने
इस तथ्य को
भुला दिया कि
वह स्त्री थी;
उन्होंने
उसे पुरुष के
रूप में माना
है। उसका
संपूर्ण
अस्तित्व
जरूर पुरुष
जैसा रहा होगा।
ऐसा
बहुत कम होता
है। राजनीति
में, धर्म
में, जब भी
कोई स्त्री
सफल होती है
तो वह स्त्रैण
होने की
अपेक्षा
पुरुष जैसी
ज्यादा होती
है।
लक्ष्मीबाई
हो या जोन ऑफ
आर्क, वे
स्त्रियों
जैसी नहीं जान
पड़ती। केवल
शरीर, बाह्य
आवरण ही
स्त्री का
होता है। भीतर
पुरुष होता है।
इसीलिए
उनके विषय में
ज्यादा पता
नहीं है, क्योंकि जब
तक तुम गुरु न
बनो, तो
कैसे लोग
तुम्हें
जानेंगे? तुम्हारा
बुद्धत्व, तुम्हारा
प्रकाश भीतर
ही रहता है।
तुम दूसरों को
राह नहीं
दिखाते; दूसरों
को कभी पता ही
नहीं चलता इस
बारे में।
लेकिन मेरी
समझ यह है कि
प्रकृति में
सदा एक संतुलन
रहता है।
संसार
में
स्त्रियों की
उतनी ही
संख्या है, जितनी
पुरुषों की।
जीवशास्त्रियो
को बहुत
आश्चर्य भी है
कि ऐसा कैसे
होता है! कैसे
प्रकृति इसे व्यवस्थित
करती है! कैसे
प्रकृति
जानती है कि वही
अनुपात चाहिए—समान
अनुपात।
पुरुषों और
स्त्रियों की
संख्या सदा
बराबर होती है।
किसी को लड़कियां
ही लड़कियां
पैदा होती हैं,
किसी को
लड़के ही लड़के
पैदा होते हैं,
लेकिन यदि तुम
सारी पृथ्वी
को देखो तो
स्त्रियों की
कुल संख्या
करीब उतनी ही
रहती है जितनी
पुरुषों की।
जब
बच्चे पैदा
होते हैं, तो सौ
लड़कियों के
पीछे एक सौ
पंद्रह लड़के
पैदा होते हैं।
क्योंकि
प्रकृति
जानती है कि
लड़के कमजोर
होते हैं; थोड़े
मर ही जाएंगे।
तो विवाह की
उम्र तक उनकी
संख्या बराबर
हो जाएगी।
लड़कियां
ज्यादा
जिद्दी होती
हैं; ज्यादा
मजबूत होती
हैं। लड़कियां
ज्यादा
शक्तिशाली
होती हैं। वे
कम बीमार पड़ती
हैं। उनके पास
ज्यादा
सहनशक्ति
होती है बहुत
सी बातों के
लिए; वे
परेशानियां
झेल सकती हैं।
यह तो पुरुष
का अहंकार है
जो कहता रहता
है, 'हम
ज्यादा
शक्तिशाली
हैं।’ शारीरिक
शक्ति पुरुष
में ज्यादा हो
सकती है; लेकिन
सहनशक्ति
ज्यादा नहीं
होती है—क्योंकि
एक सौ पंद्रह
में से पंद्रह
लड़के मर जाते
हैं और चौदह
वर्ष की
अवस्था तक
संख्या बराबर
हो जाती है : सौ
लड़के, सौ
लड़कियां।
प्रकृति
किसी न किसी
तरह संतुलन
करती रहती है।
जब युद्ध होता
है, तो
युद्ध के बाद
ज्यादा लड़के
पैदा होते हैं,
लड़कियां कम
पैदा होती हैं,
क्योंकि
युद्ध में
ज्यादा पुरुष
मरते हैं। यह
एक बड़ी अदभुत
घटना मालूम
पड़ती है—अविश्वसनीय!
कैसे होता है
यह? युद्ध
में—दूसरा
महायुद्ध हुआ,
पहला
महायुद्ध हुआ—दोनों
युद्धों में
देखा गया और
पाया गया कि
युद्ध के बाद
ज्यादा लड़के
पैदा हुए, उनकी
संख्या बढ़ गई,
और लड़कियां
कम पैदा हुईं।
क्योंकि
युद्ध में
पुरुष ज्यादा
मरते हैं और उनकी
कमी को पूरा
करना होता है।
यही
बात
आध्यात्मिक
जागरण में भी
है. उतनी ही स्त्रियां
बुद्धत्व को
उपलब्ध होती
हैं, जितने
पुरुष।
संतुलन बना
रहता है।
लेकिन
स्त्रियों को
ज्यादा कोई
जानता नहीं, क्योंकि वे
कभी गुरु नहीं
बनतीं; या
यदि कभी—कभी
वे गुरु बन भी
जाती हैं, तो
यह बहुत
दुर्लभ घटना
होती है।
आज
इतना ही।
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