दिनांंक 5 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।
योग—सूत्र (समाधिपाद)
योग—सूत्र (समाधिपाद)
कायेन्द्रियसिद्धिपशुद्धिक्षयात्तपस:।।
43।।
तपश्चर्या
अशुद्धियों
को मिटा देती
है। और इस प्रकार
हुई शरीर तथा
इंद्रियों की
परिपूर्ण शुद्धि
के साथ
शारीरिक और
मानसिक शक्तियों
जाग्रत होती
है।
स्वाध्यायदिष्टदेवतासम्प्रयोग:।।
44।।
स्वाध्याय
द्वारा दिव्यता
के साथ एकत्व
घटित होता है।
समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्।।
45।।
समाधि
का पूर्ण आलोक
फलित होता है, ईश्वर
के प्रति
समर्पण घटित
होने पर।
मनुष्य एक
हिमखंड की
भांति है :
केवल एक
हिस्सा, एक छोटा सा
हिस्सा, दिखाई
पड़ता है सतह
पर; बड़ा
हिस्सा भीतर
छिपा होता है।
या, मनुष्य
वृक्ष की
भांति है—असली
जीवन होता है
जड़ों में, धरती
के नीचे छिपा
हुआ; केवल
शाखाएं दिखाई
पड़ती हैं। यदि
तुम शाखाओं को
काट दो तो नई
शाखाएं उग आएंगी,
क्योंकि शाखाएं
स्रोत नहीं
हैं; लेकिन
यदि तुम जडों
को काट दो तो
वृक्ष नष्ट हो
जाता है।
मनुष्य का
केवल एक
हिस्सा ही
दिखाई पड़ता है
सतह पर; बड़ा
हिस्सा नीचे
छिपा होता है।
और यदि तुम
सोचते हो कि
दिखाई पड़ने
वाला मनुष्य
ही सब कुछ है, तो तुम बड़ी
भूल में हो।
तब तुम चूक
जाते हो
मनुष्य के
पूरे रहस्य को;
और तब तुम
चूक जाते हो
अपने भीतर के
उन द्वारों को
जो तुम्हें
दिव्यता तक ले
जा सकते हैं।
यदि
तुम सोचते हो
कि किसी
व्यक्ति का
नाम जान कर, उसका
परिवार जान कर,
उसका
व्यवसाय जान
कर, कि वह
डाक्टर है कि
इंजीनियर है
कि प्रोफेसर है,
कि उसके
चेहरे—मोहरे
से, उसकी
तस्वीर से
परिचित होकर
तुमने उसे जान
लिया है—तो
तुम बड़े भ्रम
में हो। ये तो
केवल सतह की
प्रतीतियां
हैं। असली
आदमी इन सब से
बहुत—बहुत
गहरे में है।
इस प्रकार तुम
केवल परिचित
हो सकते हो, लेकिन
व्यक्ति को
तुम कभी जान
नहीं पाते।
जहां तक समाज
का संबंध है
इतना काफी है;
इससे
ज्यादा की
जरूरत नहीं है।
यह ऊपर—ऊपर की
सतही जानकारी
काफी है
सांसारिक लेन—देन
के लिए, लेकिन
यदि तुम सच
में ही उस
व्यक्ति को
जानना चाहते
हो, तो
तुम्हें गहरे
उतरना होगा।
और
गहराई में
जाने का
एकमात्र ढंग
यही है कि पहले
तुम स्वयं के
भीतर गहरे
उतरो। जब तक
तुम अपने भीतर
के अज्ञात
रहस्य को नहीं
जान लेते हो, तुम कभी
किसी दूसरे को
न जान पाओगे।
मनुष्य के
रहस्य को
जानने का
एकमात्र ढंग
यही है कि उस
रहस्य को जान
लो जो तुम हो।
पर्तों के
पीछे छिपी
पर्तें हैं।
मनुष्य असीम
है।
यदि
तुम मनुष्य
में गहरे
उतरते चले जाओ
तो परमात्मा
तक पहुंच
जाओगे।
मनुष्य तो
केवल सतह है
सागर की—लहरें।
यदि तुम गहरे
डुबकी लगाओ, तो तुम
अस्तित्व के
केंद्र पर
पहुंच जाओगे।
जिन्होंने
परमात्मा को
जाना है, उन्होंने
उसे किसी विषय
की भांति नहीं
जाना है।
उन्होंने उसे
अपनी आत्यंतिक
अनुभूति, इनरमोस्ट
सब्जेक्टिविटी
की भांति जाना
है।
जिन्होंने
परमात्मा को
जाना है, उनका
कहीं मिलना
नहीं हुआ है
उससे।
उन्होंने उसे
किसी विषय की
भांति नहीं
देखा है; उन्होंने
उसे देखने
वाले की भाति,
अपनी चेतना
की भांति देखा
है।
सिवाय
अपने भीतर, तुम कहीं और
नहीं मिल सकते
परमात्मा से।
वह तुम्हारी
गहराई है; तुम
उसकी सतह हो।
तुम उसकी
परिधि हो; वह
तुम्हारा
केंद्र है। और
जितना ज्यादा
तुम अपने भीतर
उतरते हो, उतने
ज्यादा गहरे
तुम समग्र
अस्तित्व में
भी, दूसरों
में भी उतरते
हो, क्योंकि
केंद्र एक ही
है। परिधिया
तो लाखों हैं,
लेकिन
केंद्र एक है।
समग्र
अस्तित्व एक
बिंदु पर
केंद्रित है—वह
बिंदु है
परमात्मा।
परमात्मा. जो
अंतरात्मा की
आत्यंतिक
गहराई है।
यह एक
महत यात्रा है, एक
तीर्थयात्रा
है—मनुष्य को
जानने की।
पतंजलि के
सूत्र
तुम्हें
संकेत देते
हैं कि कैसे
प्रवेश किया
जाए।
पहला
सूत्र:
कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपस:।
तपश्चर्या
अशुद्धियों
को मिटा देती
है। और इस
प्रकार हुई
शरीर तथा
इंद्रियों की
परिपूर्ण
शुद्धि के साथ
शारीरिक और
मानसिक शक्तियां
जाग्रत होती
हैं।
इससे
पहले कि तुम
इस सूत्र को
समझो, और
बहुत सी बातें
समझ लेनी हैं।
शरीर का बहुत
गलत उपयोग हुआ
है। तुमने
बहुत
अत्याचार
किया है अपने
शरीर के साथ।
तुम अपने शरीर
के रहस्य से
परिचित नहीं
हो। वह केवल
चमड़ी ही नहीं
है, वह
केवल
हड्डियां ही
नहीं है; वह
केवल खून ही
नहीं है। वह
एक जीवंत इकाई
है, एक
अदभुत संरचना
है।
सदियों—सदियों
से मनुष्य
सोचता रहा है
कि खून शरीर
में ऐसे भरा
हुआ है जैसे
किसी बर्तन
में पानी भरा
होता है। अभी
केवल तीन सौ
साल पहले हमें
पता चला कि
खून शरीर में
भरा हुआ नहीं
है, वह
कोई स्थिर चीज
नहीं है—खून
दौड़ता रहता है,
घूमता रहता
है। अभी केवल
तीन सौ साल पहले
हमें पता चला
कि खून दौड़ता
रहता है, वह
एक सक्रिय
शक्ति है। वह
शरीर में भरा
हुआ नहीं है, बल्कि वह
सतत
प्रवाहमान है—इतने
चुपचाप और
इतने निरंतर
रूप से, और
गति इतनी शांत
है, कोई
शोर नही—कि हम
लाखों जन्म
जीए हैं
शरीरों के साथ
और फिर भी हम
रक्त की इस
खूबी के प्रति
सजग नहीं हुए
कि वह दौड़ता
रहता है।
और
बहुत से रहस्य
हैं जो छिपे
हुए हैं। यह
शरीर तो पहली
पर्त है और
बहुत से
शरीरों की, कुल सात
शरीर हैं। यदि
तुम इसी शरीर
में गहरे उतरो
तो तुम्हें पता
चलेगा एक नई
घटना का। इस
स्थूल शरीर के
पीछे एक
सूक्ष्म शरीर
छिपा है। जब
वह सूक्ष्म
शरीर जाग्रत
हो जाता है, तो तुम बहुत
शक्तिशाली हो
जाते हो, क्योंकि
एक नए आयाम की
शक्तियां जाग
जाती हैं। यह
शरीर सोया रह
सकता है
तुम्हारे
बिस्तर पर, और तुम्हारा
सूक्ष्म शरीर
विचरण कर सकता
है। उसके लिए
कोई बाधा नहीं
है। पृथ्वी का
गुरुत्वाकर्षण
उसे प्रभावित
नहीं करता है,
उसके लिए
समय और स्थान
की कोई बाधा
नहीं है। वह
विचरण कर सकता
है, वह
कहीं भी जा
सकता है। उसके
लिए सारा
संसार उपलब्ध
होता है।
स्थूल शरीर के
लिए यह बात
संभव नहीं है।
तुम्हारे
कुछ सपनों में
तो सूक्ष्म
शरीर सचमुच ही
भौतिक शरीर को
छोड़ कर चला
जाता है।
ध्यान की गहरी
अवस्थाओं में
भी तुम्हारा
सूक्ष्म शरीर
तुम्हारे
भौतिक शरीर को
छोड़ देता है।
गहरे
ध्यान
में, कई
बार तुम्हें
ऐसा लगता है
जैसे तुम कुछ
इंच, कुछ
फीट ऊपर उठ गए
हो जमीन से।
जब तुम आंखें
खोलते हो, तो
तुम जमीन पर
ही बैठे होते
हो। तुम सोचते
हो कि तुमने
कल्पना की
होगी। यह सही
नहीं है। गहरे
ध्यान में, सूक्ष्म
शरीर स्थूल
शरीर से कुछ
ऊपर उठ सकता है।
कई बार ऐसा भी
होता है कि
स्थूल शरीर भी
सूक्ष्म शरीर
के साथ ऊपर उठ
जाता है।
यूरोप
में एक स्त्री
है; उसकी
जांच की गई है
वैज्ञानिक
विधियों
द्वारा। गहरे
ध्यान में वह
जमीन से चार
फीट ऊपर उठ
जाती है; सूक्ष्म
शरीर ही नहीं,
बल्कि
स्थूल शरीर भी
ऊपर उठ जाता
है। इसे तथ्य
के रूप में
स्वीकार किया
गया है।
प्राचीन योग—शास्त्रों
में उल्लेख है
कि गहरे ध्यान
में ऐसा होता
है कि सूक्ष्म
शरीर के साथ
स्थूल शरीर
ऊपर उठ सकता
है जमीन से
ऊपर; और
ठीक यही
उल्लेख है कि
बहुत आसानी से
शरीर चार फीट
ऊपर उठ सकता
है।
और
स्थूल शरीर तो
केवल परिधि है, दूसरे
शरीरों की एक
ऊपरी पर्त।
फिर सूक्ष्म
शरीर के पीछे
और— और
सूक्ष्म शरीर
हैं—कुल सात
शरीर हैं। वे
सातो संबंधित
हैं व्यक्ति
की सत्ता के
सात विभिन्न
तलों से।
जितने ज्यादा
तुम अपने अंतस
में प्रवेश
करते हो उतने
ज्यादा तुम
सजग होते हो
कि यह स्थूल शरीर
ही सब कुछ
नहीं है।
लेकिन तुम
दूसरे
सूक्ष्म शरीर
के प्रति तभी
सजग होओगे जब
यह स्थूल शरीर
शुद्ध हो गया
हो।
योग शरीर
को सताने में
विश्वास नहीं
करता है, योग
मैसोचिस्टिक
नहीं है।
लेकिन योग
शरीर की
शुद्धि में
विश्वास करता
है। और कई बार
शरीर की
शुद्धि करना
और उसे सताना
एक समान लग
सकता है। तो
इस भेद को ठीक
से समझ लेना
है।
कोई
व्यक्ति
उपवास करता है, और हो
सकता है वह
केवल स्वयं को
सता रहा हो, हो सकता है
वह अपने शरीर
के विरुद्ध हो—आत्मघाती
हो, स्व—पीड़क
हो। लेकिन फिर
कोई और
व्यक्ति
उपवास करता है,
और हो सकता
है वह शरीर को
सता न रहा हो, और वह स्व—पीड़क
न हो, और वह
किसी भी ढंग
से शरीर को
नष्ट करने की
कोशिश न कर
रहा हो, बल्कि
वह उसे शुद्ध
करने की कोशिश
कर रहा हो।
क्योंकि गहरे
उपवास में
शरीर की कुछ
शुद्धियां
उपलब्ध होती
हैं।
तुम
रोज निरंतर
भोजन किए चले
जाते हो; तुम कभी कोई
विश्राम नहीं
देते शरीर को।
शरीर बहुत सी
मृत कोशिकाएं
इकट्ठी करता
रहता है—वे एक
बोझ बन जाती
हैं। वे न
केवल बोझ और भार
होती हैं, वे
दूषित होती
हैं, वे
जहरीली भी
होती हैं। वे
शरीर को
अशुद्ध कर
देती हैं। जब
शरीर अशुद्ध
होता है, तो
तुम उसके पीछे
छिपे सूक्ष्म
शरीर को नहीं
देख सकते हो।
इस शरीर को
स्वच्छ, पारदर्शी,
शुद्ध होना
चाहिए; तब
अचानक तुम
दूसरी पर्त के
प्रति, सूक्ष्म
शरीर के प्रति
सजग हो जाते
हो। जब
सूक्ष्म शरीर
शुद्ध होता है,
तब तुम
तीसरे शरीर के
प्रति, चौथे
के शरीर प्रति
सजग हो जाते
हो —इसी तरह और—और
शरीरों के
प्रति तुम सजग
हो जाते हो।
उपवास
बड़ी मदद करता
है, लेकिन
बहुत सजग रहने
की आवश्यकता
है इसके प्रति
कि कहीं शरीर नष्ट
न हो रहा हो।
कोई निंदा का
भाव मन में
नहीं होना
चाहिए। और यही
तो समस्या है, क्योंकि
करीब—करीब सभी
धर्मों ने
शरीर की निंदा
की है। उन
धर्मों के
प्रवर्तक
निंदक न थे, वे जहर फैलाने
वाले न थे। वे
प्रेम करते थे
अपने शरीर से।
वे इतना
ज्यादा प्रेम
करते थे शरीर
से कि उन्होंने
उसे हमेशा
शुद्ध रखा।
उनका उपवास एक
शुद्धिकरण था।
फिर आए
अंधानुकरण
करने वाले
अनुयायी, उपवास के
गहन विज्ञान
से अपरिचित।
उन्होंने
बिना समझे—बूझे
उपवास करना
शुरू किया।
उन्होंने
इसका मजा लिया,
क्योंकि मन
हिंसक होता है।
वह दूसरों के
साथ हिंसक
होने का मजा
लेता है, इसमें
वह शक्तिशाली
अनुभव करता है,
क्योंकि जब
भी तुम दूसरों
के प्रति
हिंसक होते हो
तो तुम
शक्तिशाली
अनुभव करते हो।
लेकिन दूसरों
के प्रति
हिंसक होना
खतरनाक है, क्योंकि
दूसरा बदला
लेगा। तो फिर
एक आसान
रास्ता है : अपने
ही शरीर के
प्रति हिंसक
हो जाना।
उसमें कोई
खतरा नहीं
होता। शरीर
प्रतिकार
नहीं कर सकता।
शरीर तुम्हें
नुकसान नहीं
पहुंचा सकता।
तुम अपने शरीर
को मजे से सता
सकते हो; कोई
रोकने वाला भी
नहीं होता। यह
बहुत आसान है।
तुम सता सकते
हो और मजा ले
सकते हो
शक्तिशाली होने
का—कि अब तुम
नियंत्रित
करते हो शरीर
को; शरीर
नियंत्रित
नहीं करता है
तुम्हें।
यदि
तुम्हारा
उपवास
आक्रामक है, हिंसक है,
यदि उसमें
क्रोध और
सताने का भाव
है, तो तुम
असली बात चूक
गए। तुम उसकी
शुद्धि नहीं
कर रहे हो; तुम
उसे नष्ट कर
रहे हो। और
दर्पण को
स्वच्छ करना
एक बात है और
उसे नष्ट करना
बिलकुल दूसरी
बात है। दर्पण
को स्वच्छ
करना बिलकुल
अलग बात है, क्योंकि जब
दर्पण से धूल
पोंछ दी जाती
है, तब वह
स्वच्छ हो
जाता है, तुम
देख पाते हो
उसमें—वह
तुमको
प्रतिबिंबित
करता है।
लेकिन यदि
दर्पण को तुम
नष्ट कर दो, तब कोई संभावना
नहीं रह जाती
उसमें देख
पाने की। यदि
तुम स्थूल
शरीर को नष्ट
कर देते हो, तो तुम
दूसरे शरीर से,
सूक्ष्म
शरीर से
संपर्क की
पूरी संभावना
ही नष्ट कर
देते हो। तो
उसे शुद्ध
करना, लेकिन
उसे नष्ट मत
करना।
और
उपवास क्यों
शुद्ध करता है? क्योंकि
जब भी तुम
उपवास करते हो
तो शरीर के
पास पचाने का
काम नहीं रहता।
उस अवधि में
शरीर मृत
कोशिकाओं को,
विषाक्त
तत्वों को
बाहर फेंकने
का काम कर सकता
है। यह ऐसा ही
है जैसे किसी
दिन, रविवार
या शनिवार, तुम्हारी
छुट्टी होती
है और तुम घर
में होते हो
और तुम दिन भर
सफाई करते हो।
पूरे सप्ताह
तुम कामकाज
में इतने उलझे
थे और इतने व्यस्त
थे कि तुम घर
की सफाई नहीं
कर सके। इसी
तरह जब शरीर
के पास पचाने
को कुछ नहीं
होता, तुमने
कुछ खाया नहीं
होता, तो
शरीर स्वयं को
स्वच्छ करना
शुरू कर देता
है। यह
प्रक्रिया
अपने आप सहज
ढंग से शुरू
हो जाती है और
शरीर उस सब को
बाहर फेंकने
लगता है, जिसकी
जरूरत नहीं है,
जो एक बोझ
की भांति है।
तो
उपवास एक विधि
है शुद्धिकरण
की। कभी—कभी
उपवास करना
सुंदर बात है—कुछ
न करना, कुछ न खाना, बस विश्राम
में रहना।
जितना हो सके
उतना तरल
पदार्थ लेना
और विश्राम
करना, और
शरीर अपने आप
शुद्ध हो
जाएगा। कभी
यदि तुम्हें
लगे कि ज्यादा
लंबे उपवास की
जरूरत है, तो
तुम ज्यादा
दिन तक भी
उपवास कर सकते
हो—लेकिन शरीर
के प्रति गहन
प्रेम में
रहना। और यदि
तुम अनुभव करो
कि उपवास किसी
भी तरह से हानि
पहुंचा रहा है
शरीर को, तो
उसे रोक देना।
यदि उपवास मदद
कर रहा है
शरीर की, तो
तुम ज्यादा
ऊर्जावान
अनुभव करोगे,
तुम ज्यादा
जीवंत अनुभव
करोगे, तुम
ज्यादा युवा,
ज्यादा
शक्तिशाली
अनुभव करोगे।
यही कसौटी है :
यदि तुम्हें
लगे कि तुम
कमजोर हो रहे
हो, यदि
तुम्हें लगे
कि कोई
सूक्ष्म कंपन
हो रहा है
तुम्हारे
शरीर में, तो
सजग हो जाना—अब
बात
शुद्धिकरण की
न रही, अब
बात
विनाशकारी हो
गई है। रोक दो
उसे।
तो
व्यक्ति को
इसका पूरा विज्ञान
सीख लेना होता
है। असल में
किसी ऐसे
व्यक्ति के
निकट रह कर
उपवास करना
चाहिए जो लंबे
समय से उपवास
करता आया हो
और जो पूरी
प्रक्रिया से
भलीभांति
परिचित हो, जो जानता
हो सारे
लक्षणों को.
कि यदि उपवास
से नुकसान हो
रहा है तो
कैसा लगेगा, यदि नुकसान
नहीं हो रहा
है तो कैसा
लगेगा। ठीक
उपवास के बाद
तुम एक नयापन,
एक युवापन,
ज्यादा
स्वच्छ, ज्यादा
निर्भार, ज्यादा
प्रसन्न
अनुभव करोगे,
और शरीर
बेहतर ढंग से
काम करने
लगेगा, क्योंकि
अब वह निर्भार
है।
लेकिन
उपवास की
जरूरत केवल
तभी होती है
यदि तुम गलत
ढंग से भोजन
करते रहे हो।
यदि तुम गलत
ढंग से भोजन
नहीं करते रहे
हो, तो
उपवास की कोई
जरूरत नहीं है।
उपवास की
जरूरत केवल
तभी होती है, जब तुमने
कुछ गलत किया
होता है शरीर
के साथ—और हम सभी
गलत ढंग से
भोजन लेते हैं।
मनुष्य
भटक गया है।
कोई जानवर
मनुष्य की
भांति भोजन
नहीं करता है, प्रत्येक
जानवर का अपना
भोजन होता है।
यदि तुम
भैंसों को ले
जाओ बगींचे
में और उन्हें
वहां छोड़ दो, तो वे सिर्फ
एक खास तरह का
घास ही खाएंगी।
वे हर चीज और
कोई भी चीज
नहीं खाने
लगेंगी—वें
बहुत चुन कर
खाती हैं।
अपने भोजन के
प्रति उनकी एक
सुनिश्चित
संवेदनशीलता
होती है।
मनुष्य
बिलकुल भटक
गया है, अपने
भोजन के प्रति
वह बिलकुल
संवेदनशील
नहीं है। वह
हर चीज खाता
रहता है। असल
में तुम कोई
ऐसी चीज नहीं
खोज सकते जो
मनुष्य
द्वारा कहीं न
कहीं खाई न
जाती हो। कुछ
स्थानों में
चींटियां खाई
जाती हैं, कुछ
स्थानों में
सांप खाए जाते
हैं, कुछ
स्थानों में
कुत्ते खाए
जाते हैं।
मनुष्य हर चीज
खाता है।
मनुष्य तो बस
विक्षिप्त है।
वह नहीं जानता
कि किस चीज का
उसके शरीर के
साथ मेल बैठता
है और किस चीज
का मेल नहीं
बैठता। वह
बिलकुल उलझा
हुआ है।
स्वभावत:
मनुष्य को
शाकाहारी
होना चाहिए, क्योंकि
उसका पूरा
शरीर
शाकाहारी
भोजन के लिए
बना है।
वैज्ञानिक भी
इस तथ्य को
स्वीकार करते
हैं कि मनुष्य—शरीर
का सारा ढांचा
यही बताता है
कि मनुष्य को
मांसाहारी
नहीं होना
चाहिए।
मनुष्य आया है
बंदरों से।
बंदर
शाकाहारी हैं—पक्के
शाकाहारी हैं।
यदि डार्विन
की बात सच है
तो मनुष्य को
शाकाहारी
होना चाहिए।
अब कई
तरीके हैं यह
निर्णय करने
के कि जानवरों
की कोई
प्रजाति
शाकाहारी है
या मांसाहारी.
यह निर्भर
करता है अंतड़ियों
पर, अंतड़ियों
की लंबाई पर।
मांसाहारी
जानवरों की आत
बहुत छोटी
होती है। चीता,
शेर—उनकी आत
बहुत छोटी
होती है, क्योंकि
मांस पहले से
ही पचाया हुआ
भोजन है। उसे
पचाने के लिए
लंबी आत नहीं
चाहिए। पचाने
का काम तो
जानवर ने ही
पूरा कर दिया
है। अब तुम खा
रहे हो जानवर
का मांस। वह
पचाया हुआ ही
है, लंबी
आत की जरूरत
नहीं है।
मनुष्य की आत
बहुत लंबी है.
इसका अर्थ हुआ
कि मनुष्य
शाकाहारी
प्राणी है।
लंबी पाचन—क्रिया
चाहिए, और
बहुत कुछ
व्यर्थ होता
है जिसे बाहर
फेंकना होता
है।
तो यदि
आदमी
मांसाहारी
नहीं है और वह
मांस खाता है, तो शरीर
बोझिल हो
जाएगा। पूरब
में, सभी
गहरे
ध्यानियों ने—बुद्ध,
महावीर—उन्होंने
मांसाहार न
करने पर बहुत
जोर दिया है।
अहिंसा की
धारणा के कारण
नहीं—वह गौण
है। लेकिन इस
कारण कि यदि
तुम सच में ही
गहरे ध्यान
में उतरना
चाहते हो तो
तुम्हारे शरीर
को निर्भार
होने की जरूरत
है, स्वाभाविक
और
प्रवाहापूर्ण
होने की
जरूरत
है। तुम्हारा
शरीर हलका
होना चाहिए; और
मांसाहारी का
शरीर बहुत
बोझिल होता है।
कभी
ध्यान देना कि
क्या होता है
जब तुम मांस खाते
हो : जब तुम
किसी पशु को
मारते हो तो
क्या होता है
उसे जब वह मरता
है? निश्चित
ही, कोई
नहीं मरना
चाहता। जीवन
स्वयं को जारी
रखना चाहता है,
पशु
स्वेच्छा से
तो मर नहीं
रहा है। अगर
कोई तुम्हारी
हत्या करे, तो तुम शाति
से तो मर नहीं
जाओगे। यदि एक
सिंह छलांग
लगा दे तुम पर
और मार डाले तुमको,
तो
तुम्हारे मन
पर क्या
गुजरेगी? वैसी
ही तकलीफ सिंह
को होती है जब
तुम सिंह को मारते
हो। यंत्रणा,
भय, मृत्यु,
पीड़ा, चिंता,
क्रोध, हिंसा,
उदासी—ये
सारी चीजें
घटित होती हैं
जानवर को।
उसके सारे
शरीर में
हिंसा पीड़ा, यंत्रणा फैल
जाती है। सारा
शरीर विषाक्त
तत्वों से, जहर से भर
जाता है। शरीर
की सारी
ग्रंथियां
जहर छोड़ देती
हैं। क्योंकि
जानवर बड़ी
पीड़ा में मर
रहा होता है।
और फिर तुम
खाते हो उस
मांस को—उस
मांस में वे
सब जहर मौजूद
हैं जो जानवर
ने छोड़े हैं।
सारी बात
जहरीली है।
फिर वे सारे
जहर तुम्हारे
शरीर में चले
आते हैं।
और वह
मांस जिसे तुम
खा रहे हो, किसी
जानवर के शरीर
का मांस है।
वहां उसका कोई
सुनिश्चित
उद्देश्य था।
एक विशिष्ट
ढंग की चेतना
थी उस जानवर
के शरीर में।
तुम जानवर की
चेतना की
तुलना में
ज्यादा ऊंचे
तल पर हो, और
जब तुम जानवर
का मांस खाते
हो तो
तुम्हारा शरीर
जानवर के
निम्न तल पर आ
जाता है। तब तुम्हारी
चेतना और
तुम्हारे
शरीर के बीच
एक दूरी पैदा
हो जाती है, एक तनाव
पैदा हो जाता
है, एक
बेचैनी होने
लगती है।
तो
तुम्हें वही
चीजें खानी
चाहिए जो
स्वाभाविक
हैं—तुम्हारे
लिए
स्वाभाविक
हैं—फल, मेवा, सब्जियां,
जितना हो
सके खाओ ये सब।
और मजे की बात
यह है कि तुम
इन चीजों को
अपनी जरूरत से
ज्यादा नहीं
खा सकते। जो
कुछ भी
स्वाभाविक
होता है वह
सदा तुम्हें तृप्ति
देता है, क्योंकि
वह तुम्हारे
शरीर को पोषण
देता है, तुम्हें
सुखद अनुभूति
देता है। तुम
तृप्त अनुभव
करते हो। यदि
कोई बात
अस्वाभाविक
है तो वह
तुम्हें कभी
तृप्ति की
अनुभूति नहीं
देती।
आइसक्रीम
खाते चले जाओ :
तुम कभी तृप्त
अनुभव नहीं
करते। असल में
जितना तुम
खाते हो, उतना
ही तुम्हें
लगता है कि और
खाओ। वह भोज्य
पदार्थ नहीं
है। तुम्हारे
मन को धोखा
दिया जा रहा
है। अब तुम
शरीर की
आवश्यकता के
अनुसार नहीं
खा रहे हो; तुम
बस स्वाद के
लिए खा रहे हो।
जीभ निर्णायक
हो गई है।
जीभ
निर्णायक
नहीं होनी
चाहिए। वह पेट
के बारे में
कुछ भी नहीं
जानती है। वह
शरीर के बारे
में कुछ भी
नहीं जानती है।
जीभ का केवल
एक काम है :
भोजन का स्वाद
लेना।
स्वभावत:, जीभ को
सजग रहना होता
है, केवल
यह देखना होता
है कि कौन सा
भोजन शरीर के लिए
ठीक है—मेरे
शरीर के लिए—और
कौन सा भोजन
मेरे शरीर के
लिए ठीक नहीं
है। वह दरवाजे
पर बैठा
चौकीदार है; वह मालिक
नहीं है। और
यदि दरवाजे पर
बैठा चौकीदार
मालिक बन जाए,
तो हर चीज
गड़बड़ा जाती है।
अब
विज्ञापन
करने वाले
भलीभांति
जानते हैं कि
जीभ के साथ धोखाधड़ी
की जा सकती है, नाक के
साथ धोखाधड़ी
की जा सकती है।
और वे कोई
मालिक नहीं
हैं। शायद
तुम्हें पता
भी न होगा, संसार
में बहुत खोज
चलती है भोजन
के संबंध में।
और वे कहते
हैं कि यदि
तुम्हारी नाक
बिलकुल बंद कर
दी जाए, और
तुम्हारी आंखें
बंद कर दी
जाएं, और
फिर तुम्हें
प्याज दे दिया
जाए खाने के
लिए, तो
तुम नहीं बता
सकते कि तुम
क्या खा रहे
हो। तुम प्याज
और सेव के बीच
कोई भेद नहीं
कर सकते यदि
नाक पूरी तरह
बंद हो।
क्योंकि आधा
स्वाद तो आता
है गंध से, आधा
निर्णय होता
है नाक के
द्वारा, और
आधा निर्णय
होता है जीभ
के द्वारा—और
ये दोनों
निर्णायक हो
जाते हैं। अब
वे जानते हैं
कि आइसक्रीम
पौष्टिक आहार
है या नहीं
सवाल इसका
नहीं है, लेकिन
एक फ्लेवर
होना चाहिए, कुछ
केमिकल्स
होने चाहिए जो
जीभ को स्वाद
दें। लेकिन वे
शरीर की जरूरत
नहीं हैं।
आदमी उलझ गया
है— भैंसों की
अपेक्षा कहीं
ज्यादा उलझ
गया है। तुम
भैंसों को
राजी नहीं कर
सकते
आइसक्रीम खाने
के लिए! कभी
प्रयोग करना।
तो
स्वाभाविक
भोजन... और जब
मैं कहता हूं 'स्वाभाविक'
तो मेरा
मतलब है जिसकी
जरूरत है
तुम्हारे शरीर
को। एक शेर की
जरूरत अलग है;
उसे
जानवरों को
मार कर खाना
है। यदि तुम
शेर का मांस
खाते हो, तो
तुम हिंसक हो
जाओगे, फिर
वह हिंसा कहां
निकलेगी? तुम्हें
मानव—समाज में
रहना है न कि
किसी जंगल में।
तब तुम्हें
हिंसा को
दबाना पड़ेगा।
तब एक दुष्चक्र
शुरू हो जाता
है।
जब तुम
हिंसा को
दबाते हो, तो क्या
होता है? जब
तुम क्रोधित,
हिंसक
अनुभव करते हो
तो तुम्हारी
ग्रंथियां जहर
छोड़ देती हैं
शरीर में, क्योंकि
वही जहर ऐसी
अवस्था
निर्मित कर
देता है कि
तुम सचमुच
हिंसक हो सकते
हो और किसी को
मार सकते हो।
ऊर्जा आ जाती
है तुम्हारे
हाथों में, ऊर्जा आ
जाती है तुम्हारे
दांतो में—ये
दो स्थल हैं
जिनके द्वारा
जानवर हिंसा
करते हैं।
मनुष्य आया है
जानवरों से।
तो जब तुम
क्रोधित होते
हो, तब
ऊर्जा बहती है—वह
हाथों में और दांतो
में, जबड़ों
में आ जाती है।
लेकिन तुम
रहते हो
मनुष्य—समाज
में और
क्रोधित होना
सदा लाभकारी
नहीं होता। तुम
रहते हो सभ्य
समाज में, और
तुम जानवर की
भांति व्यवहार
नहीं कर सकते।
यदि तुम जानवर
की भांति व्यवहार
करते हो, तो
तुम्हें उसका
बहुत ज्यादा
मूल्य चुकाना
पड़ेगा—और तुम
तैयार नहीं हो
उतना मूल्य
चुकाने के लिए।
तो तुम क्या
करोगे? तुम
क्रोध को दबा
लेते हो हाथों
में; तुम
क्रोध को दबा
लेते हो अपने
दांतो में—तुम
एक झूठी
मुस्कुराहट
ऊपर से ओढ़
लेते हो। और
तुम्हारे दांतो
में, मसूढ़ों
में क्रोध
इकट्ठा होता
रहता है।
मैंने
स्वाभाविक
मसूढ़ों वाले
लोग बहुत कम
देखे हैं।
लोगों के
मसूढे
स्वाभाविक
नहीं होते—अवरुद्ध
होते हैं, सख्त होते
हैं, क्योंकि
बहुत ज्यादा
क्रोध इकट्ठा
होता है उनमें।
यदि तुम किसी
व्यक्ति के
मसूढे दबाओ, तो क्रोध
प्रकट हो सकता
है। हाथ
असुंदर हो
जाते हैं। वे
खो देते हैं
सुडौलता, वे
खो देते हैं
लोच, क्योंकि
बहुत ज्यादा
क्रोध इकट्ठा
हो जाता है वहां।
जो लोग गहरी
मालिश का काम
करते रहे हैं,
वे जानते
हैं कि जब
हाथों को
दबाया जाता है,
मालिश की
जाती है हाथों
की, तो
व्यक्ति
क्रोधित होने
लगता है। कोई
कारण नहीं
होता। तुम
मालिश कर रहे
हो व्यक्ति की
और अचानक वह क्रोधित
अनुभव करने
लगता है। यदि
तुम उसके
मसूढे दबाओ, तो वह
व्यक्ति फिर
क्रोधित हो
जाता है। वहां
क्रोध इकट्ठा
है।
ये
शरीर की
अशुद्धियां
हैं : उन्हें
निर्मुक्त
करना पड़ता है।
यदि तुम
उन्हें
निर्मुक्त
नहीं करते तो
शरीर बोझिल
रहेगा। योग के
ऐसे आसन हैं
जो शरीर में
हर प्रकार के
जहर को
निर्मुक्त कर
देते हैं। योग
की क्रियाएं
उन्हें
निर्मुक्त कर
देती हैं; और योगी
के शरीर की एक
अपनी ही
संवेदनशीलता
होती है। योग
के आसन दूसरे
व्यायाम से
बिलकुल भिन्न
हैं। वे
तुम्हारे
शरीर को
शक्तिशाली
नहीं बनाते; वे
तुम्हारे
शरीर को
ज्यादा
लोचपूर्ण, नमनीय
बनाते हैं। और
जब तुम्हारा शरीर
ज्यादा
लोचपूर्ण
होता है, तो
तुम एक अलग ही
ढंग से
शक्तिशाली
होते हो. तुम
ज्यादा युवा
होते हो। वे
तुम्हारे
शरीर को
ज्यादा तरल
बनाते हैं, ज्यादा
प्रवाहपूर्ण
बनाते हैं।
शरीर में कोई
अवरोध नहीं
रहता।
संपूर्ण शरीर
एक जैविक इकाई
की भांति काम
करता है। वह
बाजार के शोर
की भांति नहीं
होता; वह
आर्केस्ट्रा
की भांति होता
है। गहरी
लयबद्धता
होती है भीतर,
कोई
ग्रंथियां
नहीं होतीं, तब शरीर
शुद्ध होता है।
योग के आसन
अदभुत रूप से
मदद दे सकते
हैं।
हर कोई
अपने पेट में
बहुत कुछ दबाए
हुए है, क्योंकि
केवल वही जगह
है शरीर में
जहां कि तुम बातों
को दबा सकते
हो। और तो कोई
जगह नहीं है।
यदि तुम किसी
बात को दबाना
चाहते हो तो
उसे पेट में
ही दबाना पड़ता
है। यदि तुम
रोना चाहते हो—तुम्हारी
पत्नी मर गई
है, कि
तुम्हारी
प्रेमिका मर
गई है, कि
तुम्हारा
मित्र मर गया
है—लेकिन रोना
अच्छा नहीं
मालूम पड़ता।
ऐसा लगता है
जैसे कि तुम
कमजोर प्राणी
हो—एक स्त्री
के लिए रो रहे
हो। तो तुम
उसे दबा लेते
हो। लेकिन
कहां ले जाओगे
तुम उस रोने
को? स्वभावत:,
तुम्हें
उसे पेट में
दबाना पड़ता है।
केवल वही जगह
है शरीर में, एकमात्र
खाली जगह, जहां
तुम दबा सकते
हो।
यदि
तुम पेट में
दबा लेते हो..
और प्रत्येक
व्यक्ति ने दबाई
हैं बहुत तरह
की भावनाएं—प्रेम
की, कामवासना
की, क्रोध
की, उदासी
की, रोने
की, हंसने
की भी। तुम
हंस भी नहीं
सकते खुल कर।
वह असभ्यता
मालूम पड़ती है,
अभद्रता
मालूम पड़ती है—तो
तुम
सुसंस्कृत
नहीं हो।
तुमने हर चीज
दबाई है। इसी
दमन के कारण
ही तुम गहरी
श्वास नहीं ले
सकते, तुम्हें
उथली श्वास
लेनी पड़ती है।
क्योंकि यदि
तुम गहरी
श्वास लेते हो,
तो दमन से
हुए घाव फिर
उभरेंगे। तुम
भयभीत हो। हर
कोई भयभीत है
पेट में उतरने
से।
प्रत्येक
बच्चा जब पैदा
होता है, तो वह पेट से
श्वास लेता है।
देखना किसी
सोए हुए बच्चे
को. पेट ऊपर—नीचे
होता है—छाती
से नहीं लेता
वह श्वास। कोई
बच्चा छाती से
श्वास नहीं
लेता है, बच्चे
पेट से श्वास
लेते हैं। वे
अभी बिलकुल
स्वाभाविक
होते हैं, कोई
चीज दबाई नहीं
गई है। उनके
पेट खाली होते
हैं और उस
खालीपन का एक
सौंदर्य होता
शरीर में।
जब पेट
में बहुत
ज्यादा दमन
इकट्ठा हो
जाता है, तो शरीर दो
भागों में बंट
जाता है—निम्न
और उच्च। तब
तुम अखंड नहीं
रहते; तुम
दो हो जाते हो।
निम्न भाग
निंदित
हिस्सा होता
है। एकत्व खो
जाता है, द्वैत
आ जाता है
तुम्हारे
अस्तित्व में।
अब तुम सुंदर
नहीं हो सकते,
तुम
प्रसादपूर्ण
नहीं हो सकते।
तुम एक की जगह
दो शरीर लिए
रहते हो। और
उन दोनों के
बीच सदा एक
दूरी रहेगी।
तुम सुंदर ढंग
से चल नहीं
सकते, तुम्हें
घसीटना पड़ता
है अपनी टांगों
को। असल में
यदि शरीर एक होता
है, तो
तुम्हारी
टलें तुम्हें
लेकर चलती हैं।
यदि शरीर दो
में बंटा हुआ
है, तो
तुम्हें
घसीटना पड़ता
है अपनी टांगों
को। तुम्हें
ढोना पड़ता है
अपने शरीर को।
वह बोझ जैसा
लगता है। तुम
आनंदित नहीं
हो सकते उससे।
तुम टहलने का
आनंद नहीं ले
सकते, तुम
तैरने का आनंद
नहीं ले सकते,
तुम तेज
दौड़ने का आनंद
नहीं ले सकते—क्योंकि
शरीर एक नहीं
है। इन सभी
गतियों के लिए
और उनसे
आनंदित होने
के लिए, शरीर
को फिर से
अखंड करने की
जरूरत है। एक
अखंडता फिर से
निर्मित करनी
जरूरी है : पेट को
पूरी तरह
शुद्ध करना
होगा।
और पेट
की शुद्धि के लिए
बहुत गहरी
श्वास चाहिए, क्योंकि
जब तुम गहरी
श्वास भीतर
लेते हो और गहरी
श्वास बाहर
छोड़ते हो, तो
पेट उस सब को
बाहर फेंक
देता है जो वह
ढो रहा होता
है। श्वास
बाहर फेंकने
में पेट स्वयं
को निर्मुक्त
करता है।
इसीलिए
प्राणायाम का,
गहरी श्वास
का इतना महत्व
है। श्वास
छोड़ने पर जोर
होना चाहिए, ताकि जो चीज
भी पेट
अनावश्यक रूप
से ढो रहा है, निर्मुक्त
हो जाए।
और जब
पेट दमित
भावनाओं से
मुक्त हो जाता
है, तो
यदि तुम्हें
कब्ज रहती है
तो अचानक गायब
हो जाएगी। जब
तुम भावनाओं
को दबा लेते
हो पेट में, तो कब्जियत
रहेगी, क्योंकि
पेट कठोर हो
जाता है। गहरे
में तुम रोक
रहे होते हो
पेट को; तुम
उसे स्वतंत्र
रूप से गति
नहीं करने
देते। इसलिए
यदि भावनाओं
का दमन किया
गया है, तो
कब्ज होगी ही।
कब्ज एक
मानसिक रोग
ज्यादा है
शारीरिक रोग
की अपेक्षा।
वह शरीर की
अपेक्षा मन से
ज्यादा
संबंधित है।
लेकिन
ध्यान रहे, मैं मन और
शरीर को दो
में नहीं बांट
रहा हूं। वे
एक ही घटना के
दो पहलू हैं।
मन और शरीर दो
चीजें नहीं
हैं। असल में 'मन और शरीर' कहना ठीक
नहीं. इसे 'मनोशरीर'
कहना
ज्यादा ठीक
होगा।
तुम्हारा
शरीर एक
साइकोसोमैटिक
घटना है। मन
शरीर का
सूक्ष्म भाग
है और शरीर मन
का स्थूल भाग
है। और वे
दोनों एक—दूसरे
को प्रभावित
करते हैं; वे
साथ—साथ चलते
हैं। यदि तुम
मन में कुछ
दबा रहे हो, तो शरीर में
ग्रंथियां
बननी शुरू हो
जाएंगी। यदि
मन निर्भार हो
जाता है तो
शरीर भी हलका
हो जाता है।
इसीलिए मेरा
रेचन पर इतना
जोर है। रेचन
एक
शुद्धिकारक
प्रक्रिया है।
ये सब
तप के अंतर्गत
आते हैं.
उपवास; स्वाभाविक
भोजन; गहरी
श्वास; योग
के आसन; सहज—स्वाभाविक
लोचपूर्ण
जीवन, कम
से कम दमन; शरीर
को सुनना; शरीर
की समझ से
चलना।’तपश्चर्या
अशुद्धियों
को मिटा देती
है।’
इन्हें
मैं
तपश्चर्या
कहता हूं।’तपश्चर्या'
का मतलब
शरीर को सताना
नहीं है। इसका
मतलब है शरीर
में ऐसी जीवंत
अग्नि. का निर्माण
करना जिससे
शरीर शुद्ध हो
जाए। जैसे
तुमने सोना
डाल दिया हो
अग्नि में—तो
वह सब जो सोना
नहीं होता, जल जाता है; केवल शुद्ध,
खरा सोना बच
रहता है।’तपश्चर्या
अशुद्धियों
को मिटा देती
है। और इस
प्रकार हुई
शरीर तथा
इंद्रियों की
परिपूर्ण
शुद्धि के साथ
शारीरिक और
मानसिक शक्तियां
जाग्रत होती
हैं।’
जब
शरीर शुद्ध हो
जाता है, तब तुम
पाओगे कि बड़ी
अदभुत
शक्तियां
जाग्रत हो रही
हैं, तुम्हारे
सामने नए आयाम
खुल रहे हैं।
अचानक नए
द्वार, नई
संभावनाएं
खुल जाती हैं।
शरीर में बड़ी
शक्ति छिपी है।
जब वह
निर्मुक्त
होती है, तो
तुम भरोसा न
कर पाओगे कि
शरीर में इतनी
शक्ति छिपी थी।
और प्रत्येक
इंद्रिय के
पीछे एक
सूक्ष्म इंद्रिय
होती है। आंखों
के पीछे एक
सूक्ष्म
दृष्टि होती
है —एक
अंतर्दृष्टि।
जब आंखें
शुद्ध होती
हैं, निर्मल
होती हैं, तो
तुम चीजों को
केवल वैसा ही
नहीं देखते
जैसी कि वे
सतह पर दिखाई
देती हैं। तुम
उनको गहराई
में देखने
लगते हो। एक
नया ही आयाम
खुल जाता है।
अभी तो
जब तुम किसी
व्यक्ति को
देखते हो, तो तुम
उसके आभा —मंडल
को नहीं देखते; तुम केवल
उसके शरीर को
देखते हो। इस
भौतिक शरीर के
चारों ओर एक
लक्ष्म आभा —
मंडल तो है। एक
धीमा प्रकाश
छाया रहता है
शरीर के चारों
तरफ। और
प्रत्येक
व्यक्ति का
आभा—मंडल अलग
रंग का होता
है। जब
तुम्हारी आंखें
स्वच्छ हो
जाती हैं, तो
तुम उस आभा—मंडल
को देख सकते
हो, और आभा—मंडल
को देख कर तुम
उस व्यक्ति के
बारे में बहुत
कुछ जान सकते
हो, जो तुम
किसी और ढंग
से नहीं जान
सकते। और वह
व्यक्ति
तुम्हें धोखा
नहीं दे सकता
है, धोखा
देना असंभव है,
क्योंकि
उसका आभा—मंडल
उसके भीतर के
भाव को प्रकट
कर देता है।
कोई
आता है
बेईमानी के, झूठ के
आभा—मंडल के
साथ और
तुम्हें
भरोसा दिलाना
चाहता है कि
वह बड़ा
ईमानदार आदमी
है। आभा—मंडल
धोखा नहीं दे
सकता है, क्योंकि
वह आदमी आभा—मंडल
को नियंत्रित
नहीं कर सकता।
यह बात संभव
नहीं है। झूठ
का आभा—मंडल
अलग रंग का
होता है।
ईमानदार आदमी
के आस—पास छाए
प्रकाश का रंग
अलग होता है।
शुद्ध
व्यक्ति का
आभा—मंडल
बिलकुल शुभ्र
होता है।
जितना ज्यादा
अशुद्ध होता
है व्यक्ति, उतनी
शुभ्रता कम
होती जाती है
और अंधेरा
बढ़ता जाता है।
जो व्यक्ति
नितांत झूठा
होता है, उसका
आभा—मंडल
बिलकुल काला
होता है।
बेचैन
व्यक्ति का
आभा—मंडल
बदलता रहता है,
वह एक जैसा
नहीं रहता।
यदि तुम कुछ
मिनट उसे
देखते रहो, तो तुम
पाओगे कि आभा—मंडल
बदल रहा है।
वह व्यक्ति
भ्रमित है, उलझा हुआ है।
उसे स्वयं भी
पक्का पता
नहीं है कि वह
क्या है। उसका
आभा—मंडल
बदलता रहता है।
ध्यानी
व्यक्ति के
आभा—मंडल की
बड़ी शांतिमय
गुणवत्ता
होती है; एक शाति, एक
शीतलता छाई
रहती है उसके
आस—पास। ऐसा
व्यक्ति जो
बहुत चिंतित
होता है, अशांत
होता है, तनावग्रस्त
होता है, उसके
आभा—मंडल में
भी वही तत्व
होते हैं। जो
व्यक्ति बहुत
तनावग्रस्त
है, वह
कोशिश कर सकता
है मुस्कुराने
की, चेहरा
कुछ का कुछ
बनाने की, मुखौटा
ओढ़ने की, लेकिन
जब वह
तुम्हारे पास
आएगा तो उसका
आभा—मंडल
असलियत को
प्रकट कर देगा।
और ऐसा
ही कानों के
साथ भी होता
है। जैसी आंखों
की एक गहन
अंतर्दृष्टि
होती है, वैसे ही
कानों के पास
श्रवण की
गुणवत्ता
होती है। तब
तुम किसी
व्यक्ति के
शब्दों को
नहीं सुनते, बल्कि उलटे
तुम उसके
संगीत को
सुनते हो। तुम
उन शब्दों पर
ध्यान नहीं
देते जिनका वह
प्रयोग करता
है, बल्कि
भाव पर ध्यान
देते हो, उसकी
आवाज की लय पर
ध्यान देते हो—ध्यान
देते हो आवाज
की आंतरिक
गुणवत्ता पर,
जो बहुत कुछ
कहती है जिसे
शब्द छिपा
नहीं सकते, बदल नहीं
सकते। वह
व्यक्ति शायद
बहुत विनम्र
होने की कोशिश
कर रहा हो, लेकिन
उसकी ध्वनि
में कठोरता
होगी। वह
व्यक्ति शायद
बहुत शालीनता
प्रकट कर रहा
हो, लेकिन
उसकी ध्वनि
उसकी
अशालीनता को
प्रकट कर देगी।
हो सकता है वह
आदमी कोशिश कर
रहा हो अपनी
दृढ़ता दिखाने
की, लेकिन
उसकी ध्वनि
उसकी झिझक को
प्रकट कर देगी।
और यदि
तुम ध्वनि को
सुन सकते हो, और यदि
तुम आभा—मंडल
को देख सकते
हो, और यदि
तुम अपने निकट
आए व्यक्ति के
अंतस की गुणवत्ता
को अनुभव कर
सकते हो, तो
तुम बहुत सी बातों
में सक्षम हो
जाते हो। और
वे बातें बड़ी
सरल हैं। जब
तपश्चर्या की
शुरुआत होती
है तब वे
जाग्रत होने
लगती हैं।
फिर और
भी गहरी
शक्तियां हैं, जिन्हें
योग
सिद्धियां
कहता है—जादुई
शक्तियां, अद्भुत
शक्तियां। वे
चमत्कार जैसी
लगती हैं, क्योंकि
हम उनकी
प्रक्रिया को
नहीं समझते, कि वे कैसे
काम करती हैं।
जब तुम पूरी
प्रक्रिया को
समझ लेते हो, तो वे
चमत्कार नहीं
लगती। असल में
चमत्कार जैसा
कुछ होता ही
नहीं। जो भी
होता है किसी
नियम के
अनुसार होता
है। लेकिन जब
नियम का पता
नहीं चलता, तो तुम उसे
चमत्कार कह
देते हो। जब
नियम का पता
चल जाता है तो
चमत्कार मिट
जाता है। अभी—अभी
भारत के गांवों
में टेलीविजन
पहुंचा। पहली
बार, गांव
वालों ने
इंदिरा गांधी
को देखा
टेलीविजन के
डिब्बों में,
जैसा कि
गांव वाले
उन्हें कहते
हैं—'तस्वीर
वाले डिब्बे।’
उन्हें
भरोसा ही न
आया। असंभव।
उन्होंने
चारों तरफ
चक्कर काट कर
देखा डिब्बों
के आस—पास; उन्होंने
हर तरफ से
देखा! कैसे
इंदिरा गांधी
छिपी है इस
डिब्बे में? चमत्कार है!
अविश्वसनीय
रूप से
चमत्कार है!
लेकिन एक बार
तुम समझ लेते
हो नियम को तो
बात बड़ी आसान
हो जाती है।
सारे
चमत्कार
नियमों के पता
न होने के
कारण चमत्कार
लगते हैं। योग
कहता है कि
संसार में
कहीं कोई
चमत्कार नहीं
होते।
क्योंकि 'चमत्कार'
का मतलब है
कोई ऐसी चीज
जो नियम के
विरुद्ध है, जो संभव
नहीं है।
सार्वभौमिक
नियम के
विरुद्ध होने
की कोई संभावना
कैसे हो सकती
है? ऐसी
कोई संभावना
नहीं है। ही, यह हो सकता
है कि लोगों
को नियम मालूम
न हो।
जैसे—जैसे
तुम ज्यादा
गहरे उतरते हो
शुद्धता में और
पूर्णता में, सिद्धियां
संभव हो जाती
हैं। उदाहरण
के लिए, यदि
तुम स्थूल
शरीर से अपने
सूक्ष्म शरीर
को, एस्ट्रल
बॉडी को बाहर
ला सको तो तुम
बहुत सी बातें
कर सकते हो, जो कि
चमत्कार जैसी
लगेंगी। तुम
लोगों से
मिलने जा सकते
हो। वे तुमको
देख सकते हैं,
लेकिन वे
तुमको छू नहीं
सकते। तुम
उनसे बात भी
कर सकते हो
अपने सूक्ष्म
प्रक्षेपण, एस्ट्रल
प्रोजेक्शन
द्वारा। तुम
स्वस्थ कर
सकते हो लोगों
को। यदि तुम
सच में ही
शुद्ध हो, तो
केवल
तुम्हारा
संस्पर्श, हाथों
का स्पर्श, और चमत्कार
हो जाएगा।
स्वास्थ्य
देने वाली एक
शक्ति छाई
रहेगी
तुम्हारे
चारों ओर—जहां
भी तुम जाओगे,
लोग ठीक
होने लगेंगे।
ऐसा नहीं कि
तुम कुछ करते
हो। वह
शुद्धता ही..
तुम अनंत
शक्तियों के
माध्यम हो
जाते हो।
लेकिन
तुम्हें भीतर
की ओर मुड़ना
है, तुम्हें
अपने
आत्यंतिक
केंद्र को खोज
लेना है।
'तपश्चर्या
अशुद्धियों
को मिटा देती
है। और इस
प्रकार हुई
शरीर तथा
इंद्रियों की
परिपूर्ण
शुद्धि के साथ
शारीरिक और
मानसिक शक्तियां
जाग्रत होती
हैं।’
और सब
से बड़ी शक्ति
जो तुम में
जाग्रत होती है
वह है
मृत्युविहीनता
की। ऐसा नहीं
है कि
तुम्हारे पास
कोई सिद्धात
है, कोई
शास्त्र है, कोई दर्शन
है इस बात का
कि तुम अमर हो।
नहीं, अब
तुम्हारे पास
एक अनुभूति है।
अब यह
तुम्हारा
अनुभव है—अब
तुम इसे जानते
हो। अब यह बात
कोई सिद्धात
नहीं है; यह
तुम्हारा
अपना अनुभव है
कि कहीं कोई
मृत्यु नहीं
है। यह शरीर
बिखर जाएगा
अपने तत्वों
में, लेकिन
तुम्हारी
चेतना नहीं
बिखर सकती है।
मन छूट जाएगा,
विचार छूट
जाएंगे, शरीर
बिखर जाएगा
अपने तत्वों
में—लेकिन 'तुम', वह
साक्षी बना
रहेगा।
तुम
जानते हो यह, क्योंकि
अब तुम देख
सकते हो अपने
शरीर को दूर
खड़े होकर, अलग
हट कर। तुम
अपने शरीर को
देख सकते हो
अपने से अलग।
तुम शरीर के
बाहर आ सकते
हो लगे र उसको
देख सकते हो।
तुम अपने शरीर
के आस—पास
चक्कर लगा
सकते हो। अब
तुम जानते हो कि
जब तुम मरोगे
तो शरीर पीछे
पड़ा रह जाएगा,
लेकिन तुम
नहीं। अब तुम
देख सकते हो मन
को यंत्र की
भांति काम
करते हुए, एक
बायो—कंप्यूटर
की भांति काम
करते हुए। तुम
द्रष्टा हो—तुम
मन नहीं हो।
अब शरीर और मन
अपना काम करते
रहते हैं, लेकिन
तुम उनसे
तादात्म्य
नहीं बनाते।
यह
सबसे बड़ा
चमत्कार है जो
किसी मनुष्य
को घट सकता है :
कि उसे यह बोध
हो जाए कि वह
मृत्यु के पार
है। तब मृत्यु
का भय मिट
जाता है, और मृत्यु
के भय के
मिटते ही सारे
भय मिट जाते हैं।
और जब सारे भय
मिट जाते हैं,
तो प्रेम का
उदय होता है।
जब कहीं कोई
भय नहीं रह
जाता, तो
प्रेम पैदा
होता है, केवल
तभी प्रेम
पैदा होता है।
कैसे प्रेम
खिल सकता है
भय से जकड़े
हुए मन में? तुम मित्र
बना सकते हो, तुम संबंध
निर्मित कर
सकते हो, लेकिन
तुम भय के
कारण ही संबंध
बनाते हो—अपने
को भुलने के
लिए, स्वयं
को संबंध में
डुबो देने के
लिए। वह कोई
प्रेम नहीं है।
प्रेम तो तभी
होता है, जब
तुम मृत्यु के
पार चले जाते
हो। दोनों
बातें एक साथ
नहीं हो
सकतीं. यदि
तुम भयभीत हो
मृत्यु से तो
कैसे तुम
प्रेम कर सकते
हो त्र: उस भय
के कारण तुम
कोई संबंध बना
सकते हो, लेकिन
वह संबंध भय
पर ही आधारित
होगा।
इसीलिए
निन्यानबे
प्रतिशत
धार्मिक
व्यक्ति
प्रार्थना
करते हैं, लेकिन
उनकी प्रार्थना
सच्ची
प्रार्थना
नहीं है। वह
प्रेम से नहीं
उठती, वह
भय से आती है।
उनका
परमात्मा से
संबंध भय के
कारण है। केवल
कभी—कभार, कोई
एक प्रतिशत
धार्मिक
व्यक्ति ही
मृत्यु के पार
उठ पाते हैं।
तब जो
प्रार्थना
जन्मती है वह
भय से नहीं
उठती, वह
उठती है प्रेम
से, अहोभाव
से, कृतज्ञता
से।
स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोग:।
स्वाध्याय
के द्वारा
दिव्यता के
साथ एकत्व घटित
होता है।
यह बहुत
महत्वपूर्ण
सूत्र है. 'स्वाध्याय
के द्वारा
दिव्यता के
साथ एकत्व घटित
होता है।’
व्यक्ति
को अपना
अध्ययन करना
होता है—वही
एकमात्र ढंग
है दिव्यता तक
पहुंचने का।
पतंजलि नहीं
कहते कि मंदिर
जाओ। वे नहीं
कहते कि चर्च
जाओ। वे नहीं
कहते कि कोई
धार्मिक
अनुष्ठान करो।
नहीं, दिव्यता
के साथ एक
होने का वह
ढंग नहीं है।
स्वयं में जाओ—स्वाध्याय,
स्वयं का
अध्ययन—क्योंकि
'वह' तुम
में छिपा है, तुम्हारे
भीतर छिपा है।’वह' तुम्हारा
अंतरतम
केंद्र है।
तुम मंदिर हो,
भीतर उतरो।
अध्ययन करो
अपना। तुम एक
अदभुत घटना हो—देखो,
जानो स्वयं
को। उस सब का
अध्ययन करो जो
तुम हो। और
जिस दिन तुम
अपने को पूरी
तरह जान लेते
हो, 'वह' प्रकट
हो जाएगा।’वह'
तुम में ही
छिपा है, तुम्हारे
भीतर छिपा है।
वह तुम ही हो—अपने
आत्यंतिक
प्राणों में।
तो अपना
अध्ययन करना।
इस 'अध्ययन' का वही अर्थ
है जो गुरजिएफ
के 'आत्म—स्मरण'
का अर्थ है।
पतंजलि के
स्वाध्याय का
मतलब वही है
जिसे गुरजिएफ
ने 'सेल्फ—रिमेंबरिंग'
कहा है।
स्वयं का
स्मरण बनाए
रखना और
ध्यानपूर्वक
देखते रहना।
तुम लोगों के
साथ कैसे
संबंधित होते
हो—ध्यान
.देना इस बात
पर। संबंध एक
दर्पण है। तुम
अजनबियों से
किस तरह
संबंधित होते
हो, जिन
लोगों को तुम
जानते हो, उनके
साथ कैसे
संबंधित होते
हो? तुम
अपने नौकर के
साथ किस तरह
का व्यवहार
करते हो; तुम
अपने मालिक के
साथ किस तरह
का व्यवहार
करते हो? बस,
देखते रहना
सब। प्रत्येक
संबंध
को एक
दर्पण, एक प्रतिछबि
की भांति
उपयोग करना।
और ध्यान देना
कि कैसे तुम
अपने मुखौटे
बदलते हो।
अपने लोभ को
देखना, अपनी
ईर्ष्या, अपने
वैमनस्य को
देखना, अपने
भय को देखना, अपनी
चिंताओं को, अपने
मालकियत
जमाने के ढंग
को देखना—बस
देखते रहना और
सजग रहना।
कुछ
करने की जरूरत
नहीं है। यही
इस सूत्र का
सौंदर्य है।
पतंजलि नहीं
कहते कि कुछ
करो। वे कहते
हैं, 'स्वयं
का अध्ययन करो।’
वही अध्ययन,
वही सजगता
काम करेगी। जब
तुम अपनी
संपूर्ण अंतस
सत्ता का
साक्षात्कार
करोगे तो एक
रूपांतरण
घटित होगा।
तो
देखना अपने को
विभिन्न भाव—दशाओं
में : जब तुम
उदास हो, तो देखना; जब तुम
निराश हो, तो
देखना; जब
तुम बहुत
ज्यादा भरे हो
आशाओं से, तो
देखना; आकांक्षा
है, हताशा
है, तो
देखना; हजारों
भाव—दशाएं हैं,
देखते रहना।
हर भाव—दशा को
भीतर झांकने
का झरोखा बना
लेना। जीवन के
सभी रंगों में
अपने को देखना।
जब तुम अकेले
हो, तो
देखना। जब तुम
अकेले नहीं हो,
तो देखना।
पहाड़ पर हो, अकेले हो, तो देखना।
फैक्टरी जाते
हो, आफिस
जाते हो, तो
देखना कि तुम
कहां बदलते हो,
कैसे बदलते
हो।
यदि
तुम देखते
रहते हो... कभी
क्षण भर को
शिथिल नहीं
होने देना है
इस देखने को।
बुद्ध ने कहा
है, 'जब
तुम अपने
बिस्तर में
सोने जाओ—देखते
रहना। जब तुम
नींद में उतर
रहे हो तो
देखते रहना कि
कैसे तुम्हें
नींद घेर रही
है।’ देखते
ही रहना। किसी
भी चीज को
बिना देखे मत
जाने देना।
यही आत्म—स्मरण,
यही
स्वाध्याय, सब कर देगा।
तुम्हें
पूछने की कोई
जरूरत नहीं कि
'मैं देखने
के बाद क्या
करूं?' कुछ
करने की जरूरत
नहीं रह जाती।
जब तुम पूरी
तरह से देख
लेते हो अपनी
घृणा को, तो
वह खो जाती है।
और यही
है कसौटी : जो
खो जाता है
देखने से, वह पाप है;
और जो
विकसित होता
है देखने से, वह पुण्य है।
यही एकमात्र
परिभाषा मैं
तुमको दे सकता
हूं। मैं नहीं
कहता कि यह
पाप है और वह
पुण्य है।
नहीं, पाप
और पुण्य को
बतलाया नहीं
जा सकता है।
जो विकसित
होता है देखने
से—पुण्य है; जो खो जाता
है देखने से—पाप
है। क्रोध खो
जाएगा देखने
से; प्रेम
विकसित होगा।
घृणा खो जाएगी;
करुणा
बढ़ेगी। हिंसा
खो जाएगी, प्रार्थना
बढ़ेगी; जो
खो जाता है
देखने से, वह
पाप है। उसके
प्रति कुछ और
करने की जरूरत
नहीं होती। बस
उसे देखना और
वह खो जाता है।
वह ऐसे खो
जाता है जैसे
जब तुम प्रकाश
ले आते हो
किसी अंधेरे
कमरे में तो
अंधेरा खो
जाता है। वह
कमरा नहीं खो
जाता, अंधकार
खो जाता है।
तुम
नहीं खो जाओगे
देखने से। असल
में देखने से
तुम और प्रकट
हो जाओगे।
केवल अंधेरा
खो जाएगा :
क्रोध का
अंधेरा, मालकियत का
अंधेरा, ईर्ष्या
का अंधेरा—वह
सब खो जाएगा।
केवल तुम्हीं
बचोगे अपनी
मौलिक
शुद्धता में।
केवल
तुम्हारा
अंतर— आकाश
बचेगा—खाली, शून्य।
'स्वाध्याय
के द्वारा
दिव्यता के
साथ एकत्व घटित
होता है।’
कुछ और
नहीं चाहिए—केवल
सजगता चाहिए।
समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्।
समाधि
का पूर्ण आलोक
फलित होता है—
ईश्वर के
प्रति समर्पण
घटित होने पर।
और जब
तुमने स्वयं
का अध्ययन कर
लिया है, जब तुमने
स्वयं को जान
लिया है—तो
समर्पण। तब
समर्पण बहुत
सहज हो जाता
है। तब वह कोई
प्रयास नहीं
रहता। अभी यदि
तुम समर्पण
करना चाहो, तो वह एक
प्रयास होगा;
और फिर भी
वह समग्र नहीं
होगा। यदि
बिलकुल अभी
तुम समर्पण
करना चाहते हो,
तो कैसे तुम
समर्पण कर
सकते हो जब
भीतर घृणा मौजूद
है? कैसे
तुम समर्पण कर
सकते हो जब
भीतर ईर्ष्या
मौजूद है? कैसे
तुम समर्पण कर
सकते हो जब
भीतर हिंसा
मौजूद है? नहीं,
समर्पण
केवल तभी संभव
है, जब तुम
पूरी तरह
शुद्ध हो।
कैसे
तुम परमात्मा
के सामने जा
सकते हो और
अपनी घृणा, हिंसा, ईर्ष्या—वैमनस्य
को उसके चरणों
में अर्पित कर
सकते हो? नहीं।
केवल जब तुम
शुद्ध होते हो,
एक शुद्धता
का फूल—तब तुम
प्रविष्ट
होते हो मंदिर
में और उसके
चरणों में चढ़ा
देते हो।
तुम्हें
समर्पण के
योग्य होना
होता है, क्योंकि
समर्पण बहुत
बड़ी बात है।
उसके पार कुछ
नहीं बचता है।
तुम अपने
संकल्प और
प्रयास से
समर्पण नहीं
कर सकते, क्योंकि
संकल्प और
प्रयास का
संबंध अहंकार
से है। अहंकार
समर्पण नहीं
कर सकता है।
जब तुम स्वयं
का अध्ययन
करते हो, देखते
हो स्वयं को, तो अहंकार
तिरोहित हो
जाता है। तुम
तो बचते हो, लेकिन कोई 'मैं' नहीं
बचता। तुम एक
विराट शून्य
होते हो, जिसमें
कहीं कोई 'मैं'
नहीं होता
है। एक अनंत—
असीम
अस्तित्व
होता है, लेकिन
कोई 'मैं' नहीं होता
है। शुद्ध
चेतना होती है,
लेकिन
अहंकार नहीं
होता। तब
समर्पण संभव
है।’समाधि
का पूर्ण आलोक
फलित होता है—ईश्वर
के प्रति
समर्पण घटित
होने पर।’
समाधि
का पूर्ण आलोक
फलित होता है
तुम प्रकाश ही
हो जाते हो।
हर चीज खो
जाती है। तुम
एक शुद्ध
ऊर्जा होते हो; और
प्रकाश
शुद्धतम
ऊर्जा है। अब
वैज्ञानिक, भौतिक—शास्त्री,
कहते हैं कि
यदि कोई चीज
प्रकाश की गति
से चले, तो
वह प्रकाश बन
जाएगी। यदि
ईंट को प्रकाश
की गति से
फेंका जाए, तो ईंट खो
जाएगी। वह
प्रकाश बन
जाएगी।
क्योंकि उस
गति पर चीजें
मिट जाती हैं,
केवल ऊर्जा
ही बचती है।
अभी पता लगा
है, इसी
शताब्दी में
पता लगा है कि
इस बात की
संभावना है कि
सभी पदार्थ
प्रकाश में, ऊर्जा में
परिवर्तित हो
सकते हैं।
पदार्थ धीमी
गति वाली
ऊर्जा है; प्रकाश
तीव्र गति
वाली ऊर्जा है।
अहंकार
एक भौतिक
पदार्थ है, वह धीमी
गति वाली
ऊर्जा है। जब
उसे तुम
समर्पित कर
देते हो, तो
तुम्हें
प्रकाश की गति
उपलब्ध होती
है। फिर तुम
कोई ठोस वस्तु
नहीं रहते : तब
तुम निर्भार
ऊर्जा होते हो।
और निर्भार
ऊर्जा की कोई
सीमा नहीं
होती; वह
असीम होती है।
और निर्भार
ऊर्जा की
परिभाषा किसी
और ढंग से नहीं
की जा सकती है,
उसे कहने का
एकमात्र ढंग
यही है कि वह
प्रकाश है।
बाइबिल कहती
है, 'ईश्वर
प्रकाश है।’ कुरान कहता
है, 'ईश्वर
प्रकाश है।’ उपनिषद कहते
हैं, 'ईश्वर
प्रकाश है।’ तुम प्रकाश
हो जाते हो।
'समाधि
का पूर्ण आलोक
फलित होता है—ईश्वर
के प्रति
समर्पण घटित
होने पर।’
पहले
स्वाध्याय से
बढ़ना, ताकि
तुम भीतर के
ईश्वर का
साक्षात्कार
कर सको। फिर
समर्पण कर
देना उसके
प्रति। पूरे
के पूरे जैसे
तुम हो—उसके
प्रति
समर्पित हो
जाना। और
ध्यान रहे कि
वह समर्पण कोई
प्रयास नहीं होता
है, इसलिए
इसकी फिक्र मत
करना कि
समर्पण कैसे
करें। तुम
स्वाध्याय की
फिक्र करना; समर्पण तो
छाया की भांति
पीछे चला आता
है। समर्पण की
कोई विधि नहीं
होती। जब तुम
जान लेते हो
स्वयं को, तो
तुम जान लेते
हो कि कैसे
झुक जाएं और
समर्पित हो
जाएं।
परमात्मा के
चरणों में
समर्पित होकर
तुम स्वयं
परमात्मा हो
जाते हो।
अस्तित्व के
साथ संघर्ष
में तुम एक
कुरूप अहंकार
बने रहते हो।
अस्तित्व के
प्रति
समर्पित होकर
तुम अस्तित्व
के साथ एक हो जाते
हो। समर्पण, लेट—गो परम
मंत्र है।
लेकिन
तुम्हारे मन
में लोभ उठ
सकता है : 'फिर
प्रतीक्षा
क्यों करूं? फिर क्यों न
मैं अभी
समर्पण कर दूं?'
तुम अभी
समर्पण नहीं
कर सकते।
तुम्हीं तो
बाधा हो, तो
तुम कैसे
समर्पण कर सकते
हो? जब 'तुम'
नहीं होते,
तो समर्पण
होता है। यदि
तुम हो, तो
समर्पण संभव
नहीं है। तुम
नहीं करोगे
समर्पण; तुम्हारा
खो जाना ही
समर्पण होगा।
तुम बाहर जाते
हो एक द्वार
से; दूसरे
द्वार से
समर्पण
प्रवेश करता
है। तुम और
समर्पण एक साथ
नहीं हो सकते।
तो
खयाल में ले लेना
: तुम समर्पण
नहीं कर सकते
हो। अपने को
देखना, अपना अध्ययन
करना, ताकि
तुम और—और
शुद्ध होते
जाओ—इतने
शुद्ध हो जाओ
कि करीब—करीब
मिट ही जाओ, केवल एक
शुद्धता, एक
सुवास बचे—तो
समर्पण घटित
होता है।
इस
सूत्र में
पतंजलि केवल
इतना ही कह
रहे हैं कि
समाधि का
पूर्ण आलोक
फलित होता है—ईश्वर
के प्रति
समर्पण घटित
होने पर। वे
यह नहीं कह
रहे हैं कि
समर्पण कैसे
किया जाए। वे
यह नहीं बता
रहे हैं कि
समर्पण करना
ही होता है।
वे तो बस
संकेत कर रहे
हैं एक घटना
की तरफ।
स्वाध्याय से
तुम
साक्षात्कार
करोगे ईश्वर का।
यदि तुमने
स्वाध्याय
किया है, तो तुम
मंदिर में
प्रवेश कर
जाते हो, तुम्हें
साक्षात्कार
होता है ईश्वर
का, और फिर
कोई समस्या
नहीं रहती।
जिस घड़ी तुम 'उसका' साक्षात्कार
करते हो, समर्पण
घटित होता है।
यह करने की
बात नहीं है, ऐसा होता है।
आज इतना
ही।
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