दिनांंक 8 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्न—सार:
प्रश्न—सार:
1—ऐसा
क्यों है कि
करने में तो
तनाव रहता ही
है न करने में
भी तनाव रहता
है?
2—कृपा
करके क्या आप
मुझे वचन
देंगे कि इस
जीवन में मैं
जागने से
चूकूंगा नहीं—और
आप मेरे अंतिम
गुरु होंगे?
3—क्या
सभी मन एक ही
तत्व से बने
होते है—मूढता
से?
4—आपके
आश्रम की व्यवस्था
केवल स्त्रियों
के हाथ में क्यों
है?
5—आप
आनंदबांट रहे
है,
लेकिन इस
दुःखी
दुनियां में
लेने वाले
इतने कम क्यों
है?
पहला
प्रश्न :
रोज—
रोज सुबह आपको
सुनते हुए
भीतर डूबने और
देखने की
जरूरत के
विचार से मैं
पूरी तरह भर
जाता हूं
वस्तुत: मैं
उस कुत्ते की
भांति अनुभव
करता हूं जो
अपनी ही पूछ
को पकड़ने का
प्रयास कर रहा
हो : जितनी
ज्यादा वह
कोशिश करता है
उतनी ही कम संभावना
होती है सफलता
की। लेकिन प्रयास
छोड़ने की
कोशिश ने भी
कुछ ज्यादा
मदद नहीं की
है क्योंकि
ज्यादा सचेत
और होशपूर्ण
होना भी एक
सूक्ष्म
क्रिया बन
जाता है और
मैं वापस उसी
ढर्रे पर
पहुंच जाता
हूं!
अच्छी बात है
कि तुम सजग हो
रहे हो कि न तो
कुछ करना मदद
कर सकता है और
न ही न करना, क्योंकि तुम्हारा
न करना भी एक
सूक्ष्म
क्रिया है। इस
सजगता के साथ
एक नया द्वार
खुल जाएगा—किसी
भी दिन, किसी
भी क्षण। जब
तुम न कुछ
करते हो और न
कुछ नहीं करते
हो, जब
केवल तुम होते
हो, जब तुम
केवल हो—न तो
कर्ता और न ही
अकर्ता, क्योंकि
अकर्ता भी
कर्ता ही है—द्वैत
तिरोहित हो
जाता है, तब
अचानक तुम
पाते हो कि
तुम घर में ही
हो सदा से; तुमने
उसे कभी छोड़ा
ही नहीं है, तुम कहीं
बाहर कभी गए
ही नहीं हो।
तब कुत्ता
अनुभव करता है
कि पूंछ को
पकड़ने की कोई
जरूरत नहीं; पूछ तो पहले
से ही उससे
जुड़ी है। पूंछ
का पीछा करने
की कोई जरूरत
नहीं, क्योंकि
पूंछ तो पहले
से ही कुत्ते
के पीछे है।
लेकिन
व्यक्ति को
कुछ करना पड़ता
है—कुछ न करने
तक पहुंचने के
लिए। फिर
व्यक्ति को
कुछ न करने को
साधना होता है
अंतस सत्ता तक
पहुंचने के
लिए। और हर
चीज मदद करती
है। असफलताएं, निराशाए
भी मदद करती
हैं—हर चीज
मदद करती है।
अंततः जब तुम
पहुंचते हो, तुम समझ
जाते हो कि हर
चीज ने मदद की।
भटकाव ने, खाई—खड्डों
में गिरने ने,
पुराने
जालों में
उलझने ने—हर
चीज ने मदद की;
कोई चीज
व्यर्थ नहीं
जाती है। और
हर चीज एक
सीढ़ी बन जाती
है किसी दूसरी
चीज के लिए।
अभी कल
मैं स्वामी
अगेहानंद भारती
का एक लेख
पढ़ता था। उसने
जिक्र किया है
कि एक बार
उसने रविशंकर
से पूछा कि
जार्ज हैरीसन
सितार कैसी
बजा लेता है? रविशंकर
ने कुछ देर
सोचा और फिर
कहा, 'वह
उसे पकड़ता
बिलकुल ठीक है।’
लेकिन
यह भी एक बड़ी
शुरुआत है।
यदि तुम सितार
सीखना चाहते
हो, तो
सितार को ठीक
से
पकड्ना जैसे
कि उसे पकड़ना
चाहिए, एक अच्छी
शुरुआत है; वह भी एक
उपलब्धि है।
इसलिए हंसो मत।
रविशंकर ने
प्रशंसा की है
जार्ज हैरीसन
की, कि वह
सितार ठीक से
पकड़ता है।
पहले
तो तुम कर्ता
बनोगे। उसे
अच्छी तरह से
करना, यही
असली बात है।
यदि तुम उसे
ठीक से नहीं
करते तो
तुम्हें फिर—फिर
आना होगा, क्योंकि
कोई चीज अधूरी
नहीं छोड़ी जा
सकती; उसे
पूरा करना
होता है। असल
में तुम्हें
इतनी पूरी तरह
से हताश हो जाना
होता है कि
तुम फिर कभी
लौटते नहीं
कुछ करने पर।
फिर करना है
अक्रिया को, और इतने
संपूर्ण रूप
से करना है कि
वह बात भी समाप्त
हो जाती है।
और तब लौटने
के लिए कहीं
कोई मार्ग
नहीं बचता।
तुम पीछे जा
नहीं सकते यदि
हर चीज पूरी
तरह जी ली गई
है; केवल
अधूरे अनुभव
तुम्हें वापस
बुलाते रहते हैं।
अधूरे
अनुभवों में
एक चुंबकीय
शक्ति होती है; वे पूरा
किए जाने की
मांग करते हैं।
इसीलिए तुम
बार—बार उसी
चक्कर में पड़
जाते हो। तुम
अधपके रह जाते
हो। एक अनुभव
पका नहीं होता—बौद्धिक
रूप से तुम
उसे समझने
लगते हो, लेकिन
पूरे प्राणों
से नहीं—और
तुम आगे बढ़
जाते हो। यह
बात मदद न
करेगी।
तुम्हारे
संपूर्ण
अस्तित्व को
समझ में आना चाहिए
कि 'यह बात
व्यर्थ है।’ इसलिए नहीं
कि मैं ऐसा
कहता हूं—वह
बात मदद नहीं
करेगी—बल्कि
इसलिए कि
तुम्हारा
पूरा
अस्तित्व कहता
है, 'यह बात
व्यर्थ है।
क्या कर रहे
हो तुम? यह
बिलकुल बेकार
है।’
तब
करना—कुछ न
करने को। वह
भी करना ही है, इसीलिए
मैं कहता हूं 'करना।’ बहुत
सूक्ष्म बात
है। पहले तो
है स्थूल
हिस्सा जब तुम
कुछ करते हो।
दूसरी बात
सूक्ष्म है; जल्दी ही
तुम जान लोगे
कि यह फिर वही
है, तुम
फिर कुछ कर
रहे हो। तुम
कोशिश कर रहे
हो न करने की, लेकिन कोशिश
मौजूद है और
प्रयास मौजूद
है। तुम्हारा
प्रयास न करना
भी एक प्रयास
है। लेकिन तुम
बौद्धिक रूप
से समझ सकते
हो जो मैं कह
रहा हूं उसका सवाल
नहीं है।
तुम्हें
अनुभव करना
होता है उसे।
तो गुजरी
उसमें से, जानो
उसे। अनुभव के
द्वारा
परिपक्वता
आनी चाहिए—तब
एक दिन स्थूल
और सूक्ष्म
दोनों ही
बातें तिरोहित
हो जाती हैं।
अचानक तुम
वहां होते हो—जहां
न कुछ करने को
है और न ही कुछ
न करने को है।
फिर
तुम क्या
करोगे? तुम बस
होओगे। पूंछ
के पीछे दौड़ने
की कोई जरूरत
नहीं। अब
कुत्ता जानता
है कि पूंछ
उसकी है। अब
कुत्ता बुद्ध
हो गया है।
यही बुद्धत्व
है।
दूसरा
प्रश्न:
दर्शन
में या आपके
प्रवचनों के
दौरान मैं उस
चमत्कार से
अभिभूत हो
उठता हूं जो
आप हैं और फिर
मैं सोचता हूं
कि जरूर ऐसा
ही अहसास तब
रहा होगा जब मैं
बुद्ध के
क्राइस्ट के
और अन्य
गुरुओं के चरणों
में बैठा—और
असफल हुआ।
क्या आप कृपया
मुझे वचन देने
कि आप इसे
सुनिश्चित
करने में कोई
कसर नहीं
छोड़ेने कि आप
मेरे अंतिम गुरु
होगे?
यह तुम पर
निर्भर करता
है। मैं कोई
कसर नहीं
छोडूंगा, लेकिन उससे
बहुत ज्यादा
मदद न मिलेगी—बुद्ध
ने भी कोई कसर
नहीं छोड़ी थी,
न ही जीसस
ने कोई कसर
छोड़ी थी। कोई
गुरु कभी कोई
कमी नहीं रखता—लेकिन
कोई गुरु
तुमको
बुद्धत्व दे
नहीं सकता है।
जब तक तुम्हीं
नहीं समझ जाते,
कुछ नहीं
किया जा सकता
है।
कई बार
गुरु का
प्रयास ही तुम
में प्रतिरोध
भी निर्मित कर
सकता है। मैं
ऐसा बहुत बार
अनुभव करता
हूं। यदि मैं
बहुत ज्यादा
तुम्हारे लिए
कोशिश करता
हूं तो तुम
भागने लगते हो
मुझ से। यदि
मैं बहुत
ज्यादा कोशिश
करता हूं कुछ
करने की, तो तुम
भयभीत हो जाते
हो। मुझे
तुम्हें छोटी
मात्राएं
देनी पड़ती हैं—तुम्हारे
पचाने की
क्षमता के
अनुसार।
तो यह
तुम पर निर्भर
करता है। यदि
तुम चाहते हो
तो सब कुछ
संभव है; लेकिन कहीं
गहरे में तुम
चाहते ही नहीं।
यही तो समस्या
है तुम बदलना नहीं
चाहते। तुम
कहते हो कि
तुम सबुद्ध
होना चाहते हो,
तुम कहते हो
कि तुम्हारे
लिए यह सड़ी—गली
जिंदगी खत्म
हो चुकी और
तुम इसे
रूपांतरित
करना चाहते हो।
लेकिन क्या यह
सचमुच ही
तुम्हारे लिए
समाप्त हो
चुकी है? क्या
तुमने सच में
उसके साथ अपना
लेन—देन
समाप्त कर लिया
है? क्या
कहीं गहरे में
तुम्हारे
भीतर अभी भी
कोई इच्छा
छिपी नहीं
बैठी है—कोई
आशा जो अभी भी
जीवित है, कोई
बीज जो किसी
भी क्षण
प्रस्फुटित
हो सकता है
दूसरे जीवन
में?
यदि
तुम ध्यान
दोगे तो तुम
समझोगे कि
इच्छा है, आकांक्षा
है, एक आशा
है कि शायद
तुमने सारा
जीवन नहीं
जाना है, कि
शायद कहीं कुछ
बाकी है जिसे
तुम चूक रहे
हो, कि
शायद आनंद तो
मिल सकता था
लेकिन तुमने
दस्तक नहीं दी
सही द्वार पर।
यह सब चलता
रहता है। तुम
आते हो मेरे
पास, लेकिन
तुम आधे—आधे
मन से आते हो।
यह कोई आना
नहीं है; यह
आना बिलकुल ही
आना नहीं है।
केवल लगता है
कि तुम मेरे
पास आते हो, लेकिन तुम
आते कभी नहीं।
मैं
वचन देता हूं
कि मैं कोई
कमी नहीं
रखूंगा, लेकिन क्या
तुम यहां हो? क्या तुम
मेरे पास हो, निकट हो? तुम
बहुत होशियार
और चालाक हो, जब तुम निकट
भी होते हो तो
तुम हजारों
तरीकों से
बचाए रखते हो
स्वयं को।
उदाहरण
के लिए, तुम्हारे
प्रश्न, तुम्हारे
व्यवहार भी, बचावपूर्ण
होते हैं। और
तुम जानते
नहीं कि तुम
किसे बचा रहे
हो। मैं जानता
हूं तुम में
से एक को, एक
बहुत कंजूस
स्त्री—वह
यहां आई है
बुद्धत्व
पाने के लिए।
लेकिन वह जब
से यहां आई है,
तब से
प्रश्न पूछे
जा रही है.
आश्रम के पास
इतनी कीमती
कार क्यों है?
मैं इतनी
कीमती घड़ी
क्यों पहनता
हूं?
उसे
कार से या घड़ी
से क्या लेना—देना
है? केवल
ऐसे ही प्रश्न
क्यों उठ रहे
हैं उसके मन में?
उसकी अपनी
कंजूसी बचाव
कर रही है।
मैं जानता हूं
वह पक्की
कंजूस है और
जब तक उसकी
कंजूसी की आदत
टूटती नहीं, वह विकसित
नहीं हो सकती
है।
यह बात
मेरे निर्णय
की है कि कौन
सी कार लेनी है
और कौन सी
नहीं। और मेरे
अपने कारण हैं, और तुम
नहीं समझ सकते
मेरे कारणों
को। मैं उसका
उपयोग कभी
नहीं करता, लेकिन वह है
मेरे पास। बस
वह है। लेकिन
इस कार ने
चमत्कार किया;
इसने बहुत
सी चीजें बदल
दीं। कुछ
कंजूस मुझे
घेरे रहते थे,
मारवाड़ी, और वे मुझे
छोड़ते न थे।
मैंने यह कार
क्या खरीदी, वे सब चले गए!
वे बस चले ही
गए; उन्होंने
मुड़ कर भी
नहीं देखा। दो
संभावनाएं
थीं; या तो
उन्हें अपनी
कंजूसी छोड़नी
पड़ती, तो
वे यहां रुक
सकते थे; या
फिर उन्हें
मुझे छोड़ना
पड़ता। और जब
से वे गए हैं, आश्रम का
माहौल बदल गया
है। गंदे थे
वे लोग। लेकिन
मैं किसी को
जाने के लिए
कह नहीं सकता।
मुझे कोई उपाय
करना पड़ता है।
उस कार ने
अपने मूल्य से
ज्यादा का काम
किया। किंतु
तुम जानते नहीं।
लेकिन
तुम्हें इन
चीजों की
फिक्र करने की
जरा भी जरूरत
नहीं है।
गुरजिएफ
कहा करता था, जब भी कोई
आता तो वह
कहता, 'अपना
सारा पैसा
मुझे दे दो।’ बहुत से
लोगों ने उसे
केवल इसी कारण
छोड़ दिया; क्योंकि
वे तो
आध्यात्मिक
गुरु के पास
आए थे और वह
उनके पैसे
हड़पने के चक्कर
में है। लेकिन
जो टिक गए वे
रूपांतरित हो
गए। ऐसा नहीं
कि गुरजिएफ को
पैसे से कुछ
लेना—देना था,
उसे तो उनकी
कंजूसी
तोड्ने में
रुचि थी, क्योंकि
अगर तुम कंजूस
हो तो तुम
विकसित नहीं हो
सकते। कंजूस
व्यक्ति की
सारी चेतना
सिकुड़ जाती है।
कंजूसी
कब्जियत है, रोग है
तुम्हारी
अंतस सत्ता का,
तुम विकसित
नहीं हो सकते,
तुम बांट
नहीं सकते, तुम प्रवाह
नहीं हो सकते।
कंजूसी मन का
एक पागलपन है;
हर चीज कठोर
हो जाती है।
और पैसा ही
ईश्वर हो जाता
है। तुम्हें
सच्चा ईश्वर
देने के लिए
तुम्हारे झूठे
ईश्वर को तोड़
देना है। तो
पहली बात
गुरजिएफ पैसे
के विषय में
पूछेगा।
उससे
प्रश्न पूछना
भी कोई आसान न
था जैसा कि तुम्हारे
लिए आसान है
मुझ से पूछ
लेना। वह एक
प्रश्न के सौ
डालर मांगता
था, मतलब
एक प्रश्न के
हजार रुपए। और
क्या पता, वह
'ही' कहे
कि 'न'—अब
यदि तुम्हें
फिर कोई
प्रश्न पूछना
है तो फिर
हजार रुपए दो।
जब उसने अपनी
पहली किताब आल
एंड एवरीथिंग
लिखी तो वह
उसे प्रकाशित
न करता था।
शिष्य उसके
पीछे पड़े थे : 'प्रकाशित
कराएं इसको; यह एक महान
पुस्तक है।’ वह कहता, 'जरा
ठहरो।’ वह
लोगों से
पाडुलिपि
देखने के भी
एक हजार डालर
ले लेता—केवल
पांडुलिपि
देखने के।
क्या
कर रहा था वह? और उसे
बिलकुल रुचि न
थी पैसे में :
एक हाथ से वह लेता
और दूसरे हाथ
से वह दे देता।
वह गरीब आदमी
की भांति मरा,
और उसने
लाखों डालर
इकट्ठे कर लिए
होते यदि उसे
पैसे में रुचि
होती, लेकिन
उसके पास कुछ
भी नहीं था—जब
वह मरा तो एक
डालर भी उसके
पास नहीं मिला।
कहां गया सारा
पैसा? वह
किसी से लेता
और किसी को दे
देता—वह मात्र
एक मार्ग था
पैसे के
प्रवाहित
होने के लिए।
जैसे
ही वह लोगों
से पैसे
मांगता, लोग उसे छोड़
कर चले जाते।
और वह मेरे
जैसा नहीं था,
वह तो सब मांगता—'जो कुछ भी है
तुम्हारे पास,
सब दे दो।
समर्पित हो
जाओ।’ लेकिन
जिन्होंने
समर्पण किया,
वे आनंदित
हुए; वे
पूर्णरूपेण
रूपांतरित
हुए। वह
शुरुआत हो
जाती थी। वह
एक जगह थी
जहां से हर
चीज बदल जाती
थी। उस
व्यक्ति के
लिए, जो
बहुत ज्यादा
जुड़ा होता
पैसे से, यह
एक बहुत बड़ी
बात थी—सब कुछ
दे देना।
ऐसा हुआ
एक बार : एक
स्त्री, एक बड़ी
संगीतकार आई
उसके पास और
उसने उसके सारे
गहने मांग लिए।
वह सच में
गहरी आस्था
रखती थी उसमें;
उसने तुरंत
वे सब गहने दे
दिए। शाम को
उसके सब गहने
लौटा दिए गए।
लेकिन केवल
उसके ही गहने
नहीं थे, गुरजिएफ
ने कुछ और भी
गहने रखवा दिए
थे थैले में—उसके
अपने गहनों से
कहीं ज्यादा
मूल्यवान। वह
कुछ समझ न सकी
कि हुआ क्या!
फिर
पंद्रह दिन
बाद ही एक
दूसरी स्त्री
आई, एक
बड़ी धनवान
स्त्री, और
गुरजिएफ ने
उससे भी सब
मांगा—सभी
गहने और सब
पैसा और हर
चीज—रख दो
थैले में सब
और दे दो उसको;
केवल तभी वह
काम शुरू करेगा।
वह स्त्री डर
गई। उसने कहा,
'मैं
सोचूंगी और
मैं कल उत्तर
दूंगी।’
फिर
उसने उस
संगीतकार
स्त्री के
बारे में सुना।
वह गई उसके
पास और पूछा, 'क्या हुआ
था?' उसने
पूरी बात बताई।
तब तो वह खुश
हो गई। तब तो
यह अच्छा है, एक अच्छा
सौदा है : 'थोड़े
से गहने देने होते
हैं और करीब—करीब
दुगुने वापस
मिल जाते हैं।’
तुरंत रात
को ही—वह अगले
दिन तक भी
नहीं रुकी—तुरंत
उसने सारे
गहने रख दिए
थैले में, दे
दिए गुरजिएफ
को। वे गहने
कभी वापस न
मिले। स्त्री
ने प्रतीक्षा
की और
प्रतीक्षा की,
लेकिन वे
कभी उसे वापस
न मिले।
ऊपर—ऊपर
से तुम नहीं
समझ सकते कि
क्या हो रहा
है। जिस
स्त्री ने
समर्पण किया
था, उसे
पैसे से मोह न
था; तो
उससे लेने में
कुछ सार न था।
गुरजिएफ ने
उसे और गहने
रख कर लौटा
दिए। दूसरी
स्त्री ने धन
दिया था सौदे
की भांति, वह
बंधी थी धन से।
धन लौटाया
नहीं जा सकता
था। लेकिन वह
दूसरी स्त्री
भी रूपांतरित
हुई उस सारी
घटना को समझ
कर कि वे गहने
क्यों नहीं
लौटाए गए।
तो
फिक्र मत करना।
मैं क्या करता
हूं और क्या
नहीं करता हूं—वह
तुम्हारे सोच—विचार
की बात नहीं
है, वह
तुम्हारी
चिंता का विषय
नहीं है।
तुम्हारी
अपनी ही
चिंताएं
जरूरत से
ज्यादा हैं; तुम्हारी
अपनी ही
समस्याएं
काफी हैं।
मेरी फिक्र मत
करो। मेरे
अपने तरीके
हैं। और मुझे
सलाह देने की
कोशिश मत करो—
भूल ही जाओ वह
बात। केवल
अपने विषय में
ही सोचो कि
तुम यहां
क्यों हो। और
तुम छोटी—छोटी
बातो के कारण चूक
सकते हो, क्योंकि
वे बातें
तुम्हारी
दृष्टि को
अवरुद्ध कर
देंगी।’ऐसा
क्यों?' और 'वैसा क्यों?'
यह
तुम्हारे
सोचने की बात
नहीं है। मुझे
सब पता है कि
क्या हो रहा
है। और मैं जो
भी कदम उठाता हूं, बहुत सोच—समझ
कर उठाता हूं।
और अपनी
जिंदगी में
मैं अपने किए
पर कभी पछताया
नहीं हूं—वही
करने जैसा था।
लेकिन
वह महिला तो
बस कार के
संबंध में या
मकान के संबंध
में, हजार
बातो के संबंध
में पूछती
रहती है। और
वह बहुत धनी
महिला है, वस्तुत:
जरूरत से
ज्यादा धनी है—असल
में वह अपने
धन के बारे
में भयभीत है।
वह अपनी
कंजूसी का
बचाव कर रही
है। और वह
सोचती है कि
वह बड़े संगत
सवाल पूछ रही
है। लेकिन अगर
वह यहां रुकी
रही तो मैं
उसका सुरक्षा—कवच
तोड़ दूंगा।
सवाल सिर्फ यह
है कि क्या
उसके पास इतना
साहस है कि वह
कुछ दिन यहां
रुक सके? और
उसकी कंजूसी
को तोड़ना ही
होगा, क्योंकि
उसे तोड़े बिना
वह कभी विकसित
नहीं होगी।
यदि उसे सचमुच
भय लगता है तो
वह चली जाए, जितनी जल्दी
हो सके यहां
से चली जाए, क्योंकि
जल्दी ही
भागने की
संभावना भी न
रह जाएगी।
ऐसे
सवाल पूछो जो
तुम्हारे
विकास से
संबंधित हों—तुम्हारे
सवाल, जो
तुम्हारे गहन
प्राणों से उठ
रहे हों और जो
उत्तर के लिए
प्यासे हों।
तीसरा
प्रश्न:
क्या
सभी मन एक ही
तत्व से बने
है—मूढ़ता से?
हां; मन मूढ़ है।
ऐसा कोई मन
नहीं जो
बुद्धिमान हो।
मन बुद्धिमान
हो नहीं सकता;
मन ही मूढ़ता
है। ‘मूढ़
मन' ऐसा
कहना ठीक नहीं
है; यह एक
पुनरुक्ति
हुई, क्योंकि
'मूढ़ता' और 'मन' दोनों का
अर्थ एक ही
होता है।
मन
क्यों मूढ़ता
है? क्योंकि
मन और कुछ
नहीं सिवाय
अतीत के, धूल
के, जिसे
कि तुमने
रास्ते की
यात्रा में
इकट्ठा कर
लिया है।
पर्तें ही
पर्तें हैं
धूल की। यह
धूल तुम्हारी
बुद्धिमानी
को ढांक देती
है। ऐसे ही
जैसे धूल से
ढंका दर्पण.
मन धूल है; चेतना
दर्पण है। जब
सारी धूल साफ
हो जाती है, तो
बुद्धिमत्ता
प्रकट हो जाती
है : जब कोई मन नहीं
होता तो तुम
बुद्धिमान
होते हो; जब
मन होता है तो
तुम मूढ़ होते
हो।
निश्चित
ही, दो
प्रकार के मूढ़
होते हैं—अज्ञानी
मूढ़ और ज्ञानी
मूड; वे
मूढ़ जो कुछ
नहीं जानते और
वे मूढ़ जो
बहुत ज्यादा
जानते हैं। और
ध्यान रहे, दूसरा
प्रकार
ज्यादा
खतरनाक होता
है पहले से, क्योंकि
दूसरे प्रकार
के दर्पण पर
ज्यादा धूल
होती है पहले
की अपेक्षा।
अज्ञानी
ज्यादा आसानी
से विकसित हो
सकता है पंडित
की अपेक्षा, उस आदमी की
अपेक्षा जो
समझता है कि
वह जानता है।
यह विचार ही
कि वह जानता
है, एक
बाधा बन जाता
है। मन
बुद्धिमत्ता
नहीं, अ—मन
है
बुद्धिमत्ता।
मन एक अवरोध
है।
इसे
समझने की
कोशिश करो। मन
है अतीत अनुभव, जिससे
तुम गुजर चुके,
जो मृत है—मन
मृत अंश है
तुम्हारी
सत्ता का। पर
तुम उसे उठाए
फिरते हो। वह
तुम्हें
वर्तमान में
नहीं होने
देता; वह
तुम्हें अभी
और यहीं नहीं
होने देता। वह
तुम्हें
बुद्धिमान
नहीं होने
देता। इससे
पहले कि तुम
प्रतिसंवेदन
करो, वह
प्रतिक्रिया
करना शुरू कर
देता है।
उदाहरण
के लिए यदि
मैं पूछूं
किसी व्यक्ति
से, 'क्या
ईश्वर है? क्या
ईश्वर का
अस्तित्व है?'
यदि वह मन
से उत्तर देता
है तो वह मूढ़
है। यदि वह
कहता है, 'हा,
ईश्वर है', क्योंकि
उसका पालन—पोषण
हुआ है इस ढंग
से—उसे सिखाया
गया है, संस्कारित
किया गया है
कि ईश्वर है; वह कह देता
है, 'हां, ईश्वर है'; लेकिन यह
कोई
विवेकपूर्ण
उत्तर न हुआ।
वह जानता नहीं
है; किसी
और ने, दूसरों
ने उसे बताया
है। वे भी
नहीं जानते थे,
किसी और ने,
किन्हीं और
लोगों ने
उन्हें बताया
था। उसने सुन
ली है अफवाह
और वह विश्वास
करता है उस
अफवाह में।
नहीं, वह
बुद्धिमान
नहीं है। वह
इतना बुद्धिमान
भी नहीं है कि
समझे कि वह
क्या कह रहा है।
या कोई
आदमी कह सकता
है, 'नहीं,
ईश्वर नहीं
है', क्योंकि
उसका पालन—पोषण
कम्मुनिस्ट
परिवार में या
रूस में या चीन
में हुआ है।
वह भी वही मूड
मन है—संस्कार
बदल गए, लेकिन
मूढ़ता वैसी ही
है। वह जानता
है कि ईश्वर
नहीं है—बिना
जाने हुए ही!
उसने खोजा
नहीं है; उसने
तलाशा नहीं है।
उसने कोई
छानबीन नहीं
की है।
लेकिन
यदि किसी
बुद्धिमान
व्यक्ति से
पूछा जाए—बुद्धिमान
व्यक्ति से
मेरा मतलब उस
व्यक्ति से है
जो मन के
द्वारा नहीं
देखता है, जो मन को
एक ओर रख देता
है। तुम पूछो
उससे, 'क्या
ईश्वर है?' तुम
कोई उत्तर न
पाओगे। एक
बुद्धिमान
व्यक्ति
ज्यादा से
ज्यादा कह सकता
है, 'मैं
नहीं जानता।’
जब तुम कहते
हो, 'मैं
नहीं जानता', तो तुम थोड़ी
बुद्धिमत्ता
प्रकट करते हो,
एक संभावना
प्रकट करते हो।
बहुत छोटी
होती है, लेकिन
वह विकसित हो
सकती है और
बड़ी घटना बन
सकती है। या
फिर वह
व्यक्ति
कहेगा, 'मैंने
खोजा नहीं।
मैंने सुना है
लोगों को बहुत
कुछ कहते हुए,
लेकिन मैं
जानता नहीं।
जहां तक मेरा
संबंध है मैं
दोनों में से
किसी बात को
नहीं जानता
हूं है या
नहीं है, कुछ
नहीं जानता
हूं। दोनों
बातें असंभव
लगती हैं; मैं
कुछ नहीं कह
सकता।’
यह है
बुद्धिमत्ता, और यह
आदमी जान सकता
है किसी दिन, क्योंकि ऐसी
बुद्धिमत्ता
द्वारा खोज की
संभावना है।
यदि तुम सिद्धांतो
से, मतो से
भरे हो, शास्त्रों
के बोझ से दबे
हो, तो तुम
कभी
बुद्धिमान न
हो पाओगे; तुम
सदा ही मूढ़
रहोगे।
मन है
अतीत—जीवंत पर
छाई हुई मृत
चीज। जैसे कोई
बादल तुम्हें
घेरे हुए हो :
उसके पार तुम
देख नहीं सकते, दृष्टि
साफ नहीं होती,
हर चीज
धुंधली—धुंधली
होती है। इस
बादल को विदा
हो जाने दो।
बिना उत्तरों
के रहो : बिना
निष्कर्षों
के, बिना
दर्शन—सिद्धांतो
के, बिना
धर्मों के रहो।
खुले रहो, पूरी
तरह खुले रहो,
अत्यंत
संवेदनशील
रहो, और
सत्य घटित हो
सकता है
तुम्हें।
खुले हुए होना
है बुद्धिमान
होना। यह
जानना कि तुम
नहीं जानते, बुद्धिमान
होना है; यह
जानना कि अ—मन
से द्वार
खुलता है, बुद्धिमान
होना है।
अन्यथा, मन
मूढ़ता ही है।
चौथा
प्रश्न :
आपने
कहा कि आपने
ऐसी कोई
स्त्री कभी
नहीं देखी जो
सच में
बुद्धिमान हो।
लेकिन ऐसा
कैसे है कि
आश्रम में
स्त्रियां ही
सारी
व्यवस्था
संभाल रही हैं?
क्योंकि मैं
नहीं चाहता कि
आश्रम बुद्धि
द्वारा चले।
मैं चाहता हूं
कि यह हृदय
द्वारा
संचालित हो।
मैं नहीं
चाहता कि यह
पुरुष—मन
द्वारा चले।
मैं चाहता हूं
कि यह स्त्री—हृदय
द्वारा
संचालित हो।
क्योंकि मेरे
देखे स्त्रैण
होने का मतलब
है खुले होना, ग्राहक
होना।
स्त्रैण होने
का मतलब है
पैसिव होना।
स्त्रैण होने
का मतलब है
स्वीकार— भाव।
स्त्रैण होने
का मतलब है
प्रतीक्षा
करना।
स्त्रैण होने
का मतलब है
शीघ्रता और
तनाव में न
होना; स्त्रैण
होने का मतलब
है
प्रेमपूर्ण
होना। हां, आश्रम का
संचालन
स्त्रियों के
हाथ में है, क्योंकि मैं
चाहता हूं कि
आश्रम हृदय द्वारा
संचालित हो।
मैंने
कहा कि मैंने
ऐसी कोई
स्त्री कभी
नहीं देखी जो
सच में
बुद्धिमान हो।
मेरा मतलब है 'बौद्धिक';
वह
बुद्धिमत्ता
नहीं जिसकी
मैं अभी बात
कर रहा था। वह
बुद्धिमत्ता
न तो पुरुष
होती है और न
स्त्रैण। वह
बुद्धिमत्ता
अ—मन की होती
है। मन है
पुरुष, मन
है स्त्री—अ—मन
इनमें से कुछ
नहीं है। अ—मन
का कोई लिंग
नहीं है। अ—मन
एक खुलापन है,
खुला आकाश
है। वहा सारे
द्वैत
तिरोहित हो
जाते हैं।
पुरुष—स्त्री,
यिन—यांग, विधायक—नकारात्मक,
अस्तित्व—
अनस्तित्व—सारे
द्वैत खो जाते
हैं अ—मन के
साथ।
लेकिन
इससे पहले कि
वह अ—मन
उपलब्ध हो, यदि
तुम्हें
चुनना हो कोई
मन, तो
पुरुष—मन की
बजाय स्त्रैण—मन
चुनना
क्योंकि
पुरुष—मन के
साथ
आक्रामकता
जुड़ी है।
संसार में
रहने के लिए
अच्छा है वह; यदि तुम
संसार में सफल
होना चाहते हो
तो पुरुष—मन
की जरूरत है :
आक्रामक, जुझारू,
सदा लड़ने —झगड़ने
को तैयार, सदा
प्रतियोगिता
में उतरने को
तैयार, मरने—मारने
और हत्या करने
को सदा तैयार—हिंसात्मक,
ईर्ष्यालु,
सदा सतर्क।
और ऐसे संसार
में रहने के
लिए यह ठीक है
जहां प्रत्येक
व्यक्ति
शत्रु है और
हर कोई वही
पाना चाह रहा
है जिसे पाने
की तुम कोशिश
कर रहे हो... और
बड़ा संघर्ष है।
तो यदि
तुम इस संसार
में सफल होना
चाहते हो, तो पुरुष—मन
चाहिए। यदि
तुम भीतर के
संसार में सफल
होना चाहते हो,
तो स्त्रैण—मन
चाहिए। लेकिन
वह केवल
शुरुआत है, स्त्रैण—मन
केवल एक
शुरुआत है। वह
अ—मन की ओर
जाने की एक
सीडी है। असली
बात यही है.
पुरुष—मन स्त्रैण—मन
की अपेक्षा
थोड़ा ज्यादा
दूर है अ—मन से।
इसीलिए
स्त्रैण—मन
रहस्यमय
मालूम पड़ता है।
असल
में तुम किसी
स्त्री को
जीवन भर प्रेम
कर सकते हो, लेकिन
तुम कभी उसे
समझ न पाओगे।
वह एक रहस्य
ही बनी रहेगी।
उसके व्यवहार
के संबंध में
कोई
भविष्यवाणी नहीं
हो सकती। वह
विचारों की
अपेक्षा भाव—दशाओं
से अधिक जीती
है। वह मौसम
की भांति अधिक
है यंत्र की
भांति कम।
सुबह बदलियां
छाई होती हैं
और दोपहर
बदलियां छंट
जाती हैं और
धूप निकल आती
है। स्त्री को
प्रेम करके
देखो और तुम
जान जाओगे।
सुबह बादल
घिरे होते हैं
और वह उदास
होती है, और
शीघ्र ही, प्रत्यक्ष
में कुछ खास
हुआ भी नहीं
होता, और
बादल छंट जाते
हैं और फिर
धूप निकल आती
है और वह
गुनगुना रही
होती है।
पुरुष
के लिए बिलकुल
बेबूझ है यह
बात। क्या—क्या
बेतुकी बातें
चलती रहती हैं
स्त्री में? हां, तुम्हें
बेतुकी लगती
हैं क्योंकि
पुरुष के लिए
चीजों की
तर्कसंगत
व्याख्या
होनी चाहिए।’क्यों उदास
हो तुम?' तो
स्त्री सरलता
से कह देती है,
'बस मुझे
उदासी पकड़ती
है।’ पुरुष
यह बात नहीं
समझ सकता। कोई
कारण होना
चाहिए उदास
होने का। बस, ऐसे ही उदास
हो जाना? 'तुम
खुश क्यों हो?'
स्त्री
कहती है, 'बस
वह खुशी अनुभव
कर रही है।’ वह भाव—दशाओं
द्वारा जीती
है।
निश्चित
ही, पुरुष
के लिए कठिन
है स्त्री के
साथ जीना।
क्यों? क्योंकि
यदि चीजें
तर्कसंगत हों,
तो चीजें
संभाली जा
सकती हैं। यदि
चीजें एकदम
बेबूझ हों—चीजें
अनायास, अकारण
आ जाएं और चली
जाएं—तो कोई
तालमेल
बिठाना बहुत
कठिन हो जाता
है। कोई पुरुष
कभी किसी
स्त्री के साथ
तालमेल नहीं
बैठा पाया।
अंततः वह
समर्पण कर
देता है, अंततः
वह तालमेल
बैठाने का
पूरा प्रयास
ही छोड़ देता
है।
पुरुष—मन
ज्यादा दूर है
अ—मन से; वह ज्यादा
यंत्रवत है, ज्यादा
तर्कपूर्ण है,
ज्यादा
बौद्धिक है—सिर
में ज्यादा
जीता है।
स्त्रैण—मन
ज्यादा निकट
है, ज्यादा
स्वाभाविक है,
ज्यादा
अतार्किक है—हृदय
के ज्यादा
निकट है। और
हृदय से नीचे
नाभि में
उतरना कहीं
ज्यादा आसान
है जहां कि अ—मन
का अस्तित्व
है।
सिर
स्थान है
बुद्धि का; हृदय
स्थान है
प्रेम का, अंतर्भाव
का; और नाभि
के ठीक नीचे, नाभि के दो
इंच नीचे, वह
केंद्र है
जिसे जापानी
हारा कहते हैं।
वह केंद्र है
अ—मन का—जहां
जीवन और
मृत्यु मिलते
हैं, जहां
सारे द्वैत खो
जाते हैं।
तुम्हें सिर
से नीचे हारा
में उतरना है।
बच्चा
पैदा होता है, तो वह
हारा से जीता
है। मां के
गर्भ में
बच्चा हारा से
जीता है : उसका
कोई मन नहीं
होता, कोई
विचार नहीं
होते। वह
जीवंत होता है—पूर्णत:
जीवंत होता है—असल
में वह फिर
कभी उतना
जीवंत न होगा
जितना वह गर्भ
में होता है।
फिर बच्चा
पैदा होता है।
तो भी कुछ
महीने वह हारा
से ही जीता है।
कभी
किसी बच्चे को
सोए हुए देखना
: वह पेट से
सांस लेता है, छाती से
सांस नहीं
लेता; छाती
तो बिलकुल
शांत रहती है।
सांस एकदम
हारा तक जाती
है और हारा पर
चोट करती है।
वह हारा से
जीता है।
इसीलिए
प्रत्येक
बच्चा इतना
निर्दोष जान
पड़ता है। यदि
तुम फिर हारा
में थिर हो
सको तो तुम
फिर निर्दोष
हो जाओगे, एक
निर्मल दर्पण
हो जाओगे।
स्त्रैण—मन
लक्ष्य नहीं
है—स्त्रैण—मन
ज्यादा निकट
है अ—मन के।
इसीलिए
लाओत्सु जोर
दिए जाते हैं 'अक्रिया
में जीओ।
प्रतीक्षा
करो।
धैर्यपूर्ण
होओ। जल्दी मत
करो और
आक्रामक मत
होओ।’ क्योंकि
सत्य को जीता
नहीं जा सकता
है। तुम केवल
उसके प्रति
समर्पण कर
सकते हो।
तो
आश्रम
स्त्रियों
द्वारा ही
संचालित होगा, जब तक कि
मैं ऐसे लोग न
ढूंढ लूं जो अ—मन
को उपलब्ध हों।
जब अ—मन को
उपलब्ध
व्यक्ति
मौजूद होंगे
तो स्त्री—पुरुष
का कोई प्रश्न
ही न रहेगा; तब आश्रम अ—मन
के
व्यक्तियों
द्वारा
संचालित होगा।
तब एक अलग
प्रकार की
प्रज्ञा काम
करती है। असल
में केवल तब
ही प्रज्ञा
काम करती है :
वह केवल
बौद्धिक समझ
नहीं होती; वह एक समग्र
अस्तित्व से
आती है।
पांचवां
प्रश्न:
यहां
पूना में आपके
साथ मेरा जीवन
बिना मेरे
किसी प्रयास
के बहुत अधिक
समृद्ध हो गया
है। इसके लिए
मैं बहुत गहन
रूप से
अनुगृहीत हूं
लेकिन यह
अदभुत औषधि
केवल मुट्टी
भर लोगों के लिए
ही क्यों
उपलब्ध है जब
कि सारा संसार
मर रहा है?
यह सदा से ही, सदियों—सदियों
से एक
महत्वपूर्ण
प्रश्न रहा है।
बुद्ध पुरुष
होते हैं; वे
सब लुटाते हैं
जो कि वे लुटा
सकते हैं, अपने
अस्तित्व को
बांटने को
तैयार रहते
हैं, लेकिन
लगता है किसी
को जरूरत ही
नहीं है! और सबको
जरूरत है। हर
व्यक्ति
बीमार है, और
बुद्ध पुरुष
मौजूद हैं, औषधि सामने
है, लेकिन
लगता है औषधि
में किसी को
कोई रुचि ही
नहीं है। तो
जरूर कोई कारण
होगा।
यह
मेरे देखने
में आया है कि
सुख में रुचि
लेना बहुत
कठिन बात है, स्वास्थ्य
में रुचि लेना
अत्यंत कठिन
बात है। लोगों
की एक विकृत
रुचि होती है
रुग्णता के लिए
और लोगों का
एक रुग्ण मोह
होता है दुख
के साथ।
इसीलिए तुम
सदा तैयार
रहते हो दुखी
होने के लिए।
किसी तैयारी
की कोई जरूरत
नहीं होती, कोई पतंजलि
नहीं चाहिए
कोई आठ चरण
नहीं चाहिए दुखी
होने के लिए।
हर कोई तैयार
होता है छलांग
लगा देने को। जहां
तक दुखी होने
का प्रश्न है,
हर कोई
लाओत्सु का
अनुसरण करता
है और कोई कभी नहीं
पूछता कि
कैसे! मेरे
पास कोई नहीं
आता और पूछता
कि दुखी कैसे
हों? हर
कोई जानता है।
तुम्हें दुखी
होना किसी ने
नहीं सिखाया
है—किसी ने
नहीं, बिलकुल
भी नहीं। तुम
यह बात अपने
आप जान लेते
हो। तुम तो
पहले से ही
इसमें
सिद्धहस्त
होते हो।
जरूर
कोई गहरा
न्यस्त
स्वार्थ होगा
इसके पीछे।
क्यों लोग
दुखी होना
चाहते हैं? जब मैं 'चाहते' शब्द
का प्रयोग
करता हूं तो
मेरा यह मतलब
नहीं है कि वे
जान—बूझ कर
ऐसा चाहते हैं।
वे तो कहेंगे
कि वे नहीं
चाहते. 'कौन
चाहता है दुखी
होना?' वे
सुखी होना
चाहते हैं।
लेकिन बात
वैसी नहीं है—वे
चिपकते हैं दुख
से। वे कहते
हैं कि वे सुख
चाहते हैं, लेकिन वे
चिपकते हैं
दुख से। वे
कहते हैं कि
उन्हें आनंद
की आकांक्षा
है, लेकिन
जो कुछ भी वे
करते हैं, वह
दुख ही
निर्मित करता
है। और यह कोई
नई बात नहीं
है; वे ऐसा
जन्मों—जन्मों
से कर रहे हैं।
फिर—फिर वे
वही करते हैं—और
फिर वे दुखी
हो जाते हैं।
और वे कहते
हैं कि उन्हें
आनंद चाहिए।
जरूर
कोई न कोई
न्यस्त
स्वार्थ है।
मैं तुमसे कुछ
बातें कहना
चाहूंगा, क्योंकि
संभवत: वे
सहायक सिद्ध
होंगी। जब तुम
दुखी होते हो
तो सारे संसार
की निंदा करना
आसान होता है,
हर किसी
पर
जिम्मेवारी
थोप देना आसान
होता है। जब
तुम दुखी होते
हो, तो
तुम अपने निकट
के लोगों का
शोषण कर सकते
हो—क्योंकि
तुम दुखी हो, और उनकी
जिम्मेवारी
है कि वे
तुम्हें सुखी
करें! जब तुम
दुखी होते हो,
तो तुम सबसे
ध्यान की मांग
कर सकते हो :
मैं बीमार हूं;
मैं दुखी
हूं।
तुम्हारा
मिलना हुआ
होगा
हाइपोकानड्रिआक
लोगों से, रोग के
भ्रम में रहने
वाले लोगों से,
जो अपनी
बीमारी की और
अपने रोगों की
ही बातें करते
रहते हैं। और
वे इतना बढ़ा—चढ़ा
कर बताते हैं
कि सच में
इतनी बड़ी
बीमारी होती
भी नहीं।
लेकिन यदि तुम
कहो कि 'तुम
बढ़ा—चढ़ा कर कह
रहे हो', तो
वे बहुत बुरा
अनुभव करते
हैं। असल में
वे इस विचार
में ही बहुत
रस लेते हैं कि
वे इतने बीमार
हैं। वे एक
डाक्टर से
दूसरे डाक्टर
के पास जाते
हैं, केवल
अपनी कथा
सुनाने के लिए।
जो बीमारी
उन्हें है
उसमें कोई मदद
नहीं कर सकता
उनकी—यह वे
भलीभांति
जानते हैं।
कोई भी उतना
समझदार नहीं
है; किसी
को कुछ पता
नहीं है। और
ऐसी असाधारण
बीमारी है
उन्हें कि वे
पहले से ही
जानते हैं कि
कोई मदद नहीं
कर सकेगा।
जब वे
निरंतर बात कर
रहे होते हैं
अपनी बीमारी
की तो वे क्या
कर रहे हैं? यह ऐसा ही
है जैसे कि
कोई अपने घाव
उघाड़—उघाड़ कर
तुम्हें दिखा
रहा हो और घाव
में
अंगुलियां डाल
रहा हो और सता
रहा हो स्वयं
को। वह मांग
कर रहा है
सहानुभूति
पाने की, ध्यान
पाने की।
और
बच्चा बचपन से
ही सीख जाता
है तरकीब।
सारा समाज, एकदम
शुरू से— ही, गलत हो जाता
है। जब भी
बच्चा बीमार
होता है तो
मां—बाप
ज्यादा ध्यान
देते हैं। जब
भी वह दुखी
होता है तो
सारा परिवार
जिम्मेवारी
अनुभव करता है
और वह बच्चा
एक छोटा—मोटा
तानाशाह बन
जाता है। जब
बच्चा बीमार
होता है तो वह
अपनी शर्तें
मनवा सकता है।
वह जिद कर
सकता है कि
शाम को यह
खिलौना लाना
होगा, और
कोई न नहीं कह
सकता—क्योंकि
वह बीमार है।
लेकिन जब वह
स्वस्थ होता
है तो कोई
उसकी परवाह
नहीं करता; जब वह ठीक
होता है तो
कोई उसके पास
नहीं आता और कोई
उसके पास नहीं
बैठता। जब वह
बीमार होता है
तो पिता आते
हैं—महान पिता,
इतने
महत्वपूर्ण
व्यक्ति, कि
छोटा बच्चा
सुख अनुभव
करता है; अब
वह तुमसे
ज्यादा
महत्वपूर्ण
हो जाता है।
तुम बिस्तर के
करीब बैठे
उसके
स्वास्थ्य के
बारे में पूछ—ताछ
करते हो। फिर
डाक्टर आते
हैं, बड़े
डाक्टर, जाने—माने
डाक्टर; पड़ोसी
आते हैं, मां
निरंतर बात कर
रही होती है
उसकी बीमारी
को लेकर। वह
केंद्र बन
जाता है सारे
परिवार का, और परिवार
ही कुल संसार
होता है उस
बच्चे के लिए।
सारा संसार
उसके आस—पास
घूमता है : वह
बन जाता है
सूर्य और सब
चीजें ग्रह बन
जाती हैं। उसे
लगता है, क्या
मजा आ रहा है!
अब वह ऐसी
तरकीब सीख रहा
है, जिसके
कारण वह
जिंदगी भर
पीड़ा पाएगा—बड़ी
खतरनाक तरकीब
सीख रहा है।
यदि
मेरी बात
मानने को
तैयार हों तो
मैं मां—बाप
से कहूंगा कि
जब बच्चा
बीमार या दुखी
हो तो बहुत
ज्यादा ध्यान
मत दें उसे, बल्कि जब
वह खुश और
स्वस्थ हो तो
ध्यान दें। जब
बच्चा खुश हो
तो उसे अनुभव
होने दें कि
वह परिवार का
केंद्र है। जब
वह बीमार हो
तो उसे एक ओर
बैठने दें, औषधि दें
उसे, लेकिन
उसे अनुभव
होने दें कि
वस्तुत: कोई
उसके लिए
परेशान नहीं
है। वह सबसे
अलग— थलग है।
यह बात बहुत
कठोर मालूम
पड़ती है—जो
मैं कह रहा
हूं बहुत कठोर
मालूम पड़ता है—लेकिन
मैं कहता हूं
तुमसे कि यदि
तुम पूरी बात
को समझो तो
यही करुणा है।
क्योंकि तुम्हारी
साधारण
दयालुता
द्वारा तो वह
बच्चा जीवन भर
दुख पाएगा।
केवल इसी जन्म
में नहीं—यह
बात गहरे उतर
जाती है—बहुत—बहुत
जन्मों में वह
यही बात
दोहराएगा।
जीवन में जब
भी तुम्हें
किसी का ध्यान
चाहिए होगा—और
हर किसी को
चाहिए ध्यान,
क्योंकि
ध्यान अहंकार
के लिए भोजन
है। केवल एक
बुद्ध पुरुष
को ही ऐसा
ध्यान पाने की
जरूरत नहीं रह
जाती—क्योंकि
उनमें अहंकार
ही नहीं होता
तो भोजन की
आवश्यकता भी
नहीं होती—अन्यथा
तो हर किसी को
जरूरत होती है
ध्यान पाने की।
और जब भी
तुम्हें
ध्यान चाहिए
होता है, तो
तुम क्या
करोगे? तुम
केवल एक ही
तरकीब जानते
हो : दुखी होना,
बीमार होना।
नब्बे
प्रतिशत
बीमारियां
पहले मन में
जन्म लेती हैं, अचेतन
में पैदा होती
हैं। पत्नी
साधारणत:
तुम्हारी
परवाह नहीं
करती : बल्कि
उलटे जब तुम
आफिस से आते
हो, तो वह
प्रतीक्षा कर
रही होती है
लड़ने की या कि उसने
तुम्हारे
धोने के लिए
प्लेटें रख
छोड़ी होती हैं।
लेकिन जब तुम
बीमार होते हो
तो वह
तुम्हारे पास
ही बैठी रहती
है। तुम्हारा
खयाल रखती है।
छोटी—छोटी बातो
का भी ध्यान
रखती है। वह
लड़ती—झगड़ती
नहीं—तुम्हें
अच्छा लगता है।
यह सच
में ही एक
विकृत अवस्था
है : कि जब तुम
ठीक नहीं होते
तो तुम ठीक
अनुभव करते हो
और जब तुम ठीक
होते हो तो
तुम ठीक अनुभव
नहीं करते।
लेकिन यही
हालात हैं।
यदि पत्नी
बीमार है, तो पति
महाराज चले
आते हैं फूल
लेकर और
आइसक्रीम
लेकर। जब वह
ठीक—ठाक होती
है, तो वे
उसकी ओर देखते
भी नहीं—वे
अपना अखबार
खोल कर पढ़ने
लगते हैं।
तो हर
कोई दुखी होने
का खेल खेलता
रहता है। तुम
सुखी होना
चाहते हो, लेकिन जब
तक तुम दुख से
अपने न्यस्त
स्वार्थ नहीं
तोड़ लेते, तुम
सुखी नहीं हो
सकते। और
तुम्हें सुखी
करना किसी
दूसरे की
जिम्मेवारी
नहीं है, इसे
ध्यान में रख
लेना। कोई
दूसरा
तुम्हें सुखी
नहीं कर सकता
है। यह
तुम्हारा
अपना विकास है,
अपनी सजगता
है, अपनी
ऊंची उठती
ऊर्जा है जो
तुम्हें आनंद
देती है।
लेकिन
तुम्हें गहन
अचेतन के काम
करने के ढंग को
समझ लेना है—कि
तुम बातें तो
करते हो सुख
की, लेकिन
आकांक्षा
करते हो दुख
की।
इसीलिए.....और
जो कुछ तुम
चाहते हो वह
घटता है! यह
संसार सच में
एक जादूनगरी
है। यदि तुम
दुख चाहते हो, तो दुख
मिलेगा। यदि
तुम सुख चाहते
हो तो सुख
मिलेगा—क्योंकि
तुम्हीं हो
निर्णायक
तत्व, तुम्हीं
हो उस सब के
आधार जो तुमको
घटता है। यही
है कर्म का
कुल सिद्धात:
जो कुछ भी तुम
चाहते हो, तुम
जो आकांक्षा
करते हो, वह
घटित होता है।
यदि तुम दुखी
हो तो इसीलिए
क्योंकि तुम
चाहते हो वैसा।
मैं फिर कठोर
मालूम पड़ता
हूं। क्यों? क्योंकि तुम
मेरे पास
सांत्वना
पाने के लिए आते
हो। मुझे
तुमसे कहना
चाहिए, 'तुम
दुखी हो
क्योंकि सारा
संसार
तुम्हारे विरुद्ध
षड्यंत्र रच
रहा है।’ तब
तुम्हें
अच्छा लगता; लेकिन तब
मैं तुम्हारी
मदद नहीं कर
रहा हूं तब
मैं तुम्हारी
बीमारी को बढ़ा
रहा हूं; मैं
तुम्हें और भी
विक्षिप्त कर
रहा हूं।
नहीं; तुम्हारे
सिवाय और कोई
जिम्मेवार
नहीं है तुम्हारे
दुख के लिए।
और यह हमेशा
सच है। इसमें
कोई अपवाद
नहीं है। यह
बहुत
वैज्ञानिक
बात है—एकदम
वैज्ञानिक, नियमगत. तुम
जिम्मेवार हो।
इस बात को
अपने मन में
गहरे उतर जाने
देना कि केवल
तुम्हीं
जिम्मेवार हो।
जब भी तुम
दुखी होते हो,
परेशान
होते हो, उदास
होते हो, तो
ठीक से समझ
लेना कि
तुम्हीं
निर्मित कर
रहे हो उसे। और
यदि तुम
निर्मित करना
ही चाहते हो, तो फिर ठीक
है, आनंद
लो उसका। फिर
सुख की आकांक्षा
मत करो। फिर
बस शांति से
उसका आनंद लो.
उदास होओ, दुखी
होओ, बन
जाओ अंधेरी
रात। मैं नहीं
कह रहा हूं कि
तुम्हें दिन
ही होना चाहिए;
कोई जरूरत
नहीं है। यदि
तुम अंधेरी
रात बनना चाहते
हो तो अंधेरी
रात बनो—लेकिन
फिर आकांक्षा
मत करना दिन
की। मुश्किल
तब पैदा होती
है जब तुम
चिपकते हो रात
से और आकांक्षा
करते हो दिन
की।
तुम
मेरे पास आते
हो और मैं
देखता हूं।
तुम आकांक्षा
करते हो शांति
की—और मैं
देखता हूं.
तुम चिपक रहे
होते हो शोरगुल
से, विचारों
से, चिंतन—मनन
से। तुम आकांक्षा
करते हो शांति
की और तुम
चिपक रहे होते
हो उन चीजों
से जो तुम्हें
शात न होने
देंगी। तो
पहले साफ कर
लेना अपने
भीतर के जंजाल
को।
लोगों
को जरूरत है, उन्हें
सदा से जरूरत
है, लेकिन
वे आएंगे नहीं
क्योंकि शायद
वे भयभीत हैं।
बहुत से लोग
आते हैं मेरे
पास, और कई
बार वे उस
आनंद से भयभीत
होते हैं जो
उनके भीतर
विकसित हो रहा
होता है—क्योंकि
वह बहुत
अपरिचित
मालूम होता है।
एक बार
ऐसा हुआ, जार्ज
बर्नार्ड शॉ
एक आदमी की
खूब निंदा कर
रहा था। एक
मित्र जो
जार्ज
बर्नार्ड शॉ
और दूसरे व्यक्ति,
दोनों को
अच्छी तरह
जानता था, उसने
जार्ज
बर्नार्ड शॉ
से कहा, 'मैं
जानता हूं कि
आप उस व्यक्ति
को बिलकुल नहीं
जानते; और
आप उसकी इतनी
निंदा कर रहे
हैं और उसकी
इतनी आलोचना
कर रहे हैं—और
मैं जानता हूं
कि आपका उससे
कोई परिचय भी
नहीं है! आप
बिलकुल
परिचित नहीं
हैं! तो यदि आप
सच में ही
जानना चाहते
हैं उस आदमी को,
तो क्या मैं
उसे ले आऊं और
परिचय करा दूं
आपसे?' जार्ज
बर्नार्ड शॉ
ने कहा, 'नहीं—नहीं,
क्योंकि
यदि आप परिचय
करा देंगे तो
शायद मैं उसे
पसंद करने लग!'
यही
अड़चन है। लोग
दुखी हैं, लेकिन
तुम उन्हें
मेरे पास लाते
हो तो संभावना
है उनके शात
हो जाने की—यही
भय है।
संभावना है
उनके आनंदित
हो जाने की—यही
भय है। इसलिए
मेरे पास आने
की बजाय वे
मेरे विरुद्ध बातें
करेंगे। वे
किसी और को
समझाने के लिए
मेरे विरुद्ध
बातें नहीं कर
रहे होते हैं;
वे अपने को
समझाने के लिए
ही मेरे विरुद्ध
बातें कर रहे
होते हैं, ताकि
उन्हें जरूरत
ही न रहे मेरे
पास आने की।
मन बहुत चालाक
है और
तुम्हारे साथ
चालाकी करता
रहता है। और
जब तक तुम
पूरी तरह जाग
नहीं जाते, तुम मन के इस
झमेले से बाहर
नहीं आ सकते।
छठवां
प्रश्न:
यदि
लाओत्सु और
पतंजलि आज
मिलें तो क्या
वे आत्मिक—विकास
संबंधी अपनी
शिक्षाओं को
समन्वित कर सकेंगे? यदि उनके
बुद्धत्व के
बीच कोई भेद
नहीं है तो उनकी
शिक्षाओं में
इतना भेद
क्यों है? और
आप से पहले
युगों— युगों
में ऐसा कोई
गुरु क्यों
नहीं हुआ
जिसने कि
पिछले बुद्ध
पुरुषों की
सारी
शिक्षाओं को
जोड़ा और
संश्लेषित
किया हो?
प्रश्न तीन
हिस्सों में
है। पहला
हिस्सा है : 'यदि
लाओत्सु और
पतंजलि आज
मिलें तो क्या
वे आत्मिक—विकास
संबंधी अपनी
शिक्षाओं को
समन्वित कर सकेंगे?'
यदि वे
मिलते हैं तो
वे समन्वित
करने के लिए कुछ
न पाएंगे—हर
चीज समन्वित
ही है। वे गले
मिलेंगे, हाथ में हाथ
लेकर बैठेंगे,
लेकिन
बोलेंगे नहीं।
वे ऐसा ही कर
रहे होंगे
कहीं स्वर्ग
में; क्योंकि
हर चीज
समन्वित ही है।
समस्या
तुम्हारे लिए
है, उनके
लिए नहीं।
समस्या उनके
लिए है जो
मार्ग पर हैं;
उनके लिए
नहीं है जो
मंजिल पर
पहुंच गए हैं,
क्योंकि
मंजिल पर सब
मार्ग मिल
जाते हैं।
मंजिल एक है; मार्ग अनेक
हैं। एक मार्ग
पर चलते हुए
तुम अनुभव
करते हो कि दूसरा
किसी और मार्ग
पर यात्रा कर
रहा है। लेकिन
मंजिल पर
पहुंच कर तुम
अचानक पाते हो
कि हर कोई एक
ही मंजिल पर
पहुंचता है।
सत्य एक ही है।
इसलिए
किसी समन्वय
का कोई प्रश्न
नहीं उठता।
किसी
संश्लेषण की
कोई जरूरत
नहीं होती, हर चीज
पूर्णरूपेण
संश्लिष्ट है।
उनके बीच हंसी—मजाक
चल सकता है या
वे मजे से चाय
पी सकते हैं, लेकिन कोई
दार्शनिक
चर्चा न होगी—इतना
पक्का है। वे
ताश खेल सकते
हैं या ऐसी ही
कोई दूसरी गैर—गंभीर
चीज, लेकिन
कोई बौद्धिक
विचार—विमर्श
न होगा।
मैं
सदा सोचता हूं
कि स्वर्ग में, जहां
मुक्त पुरुष
हैं, वे
क्या करते
होंगे? वे
जरूर ताश
खेलते होंगे,
शतरंज—निरर्थक
चीजें। और
क्या करोगे
तुम वहां? खेलोगे।
और खेल में
कोई
प्रतियोगिता
नहीं है वहा, क्योंकि
प्रतियोगिता
तो गंभीर हो
जाती है। खेल
तो बस खेल है।
तुम मजा लेते
हो उसका छोटे
बच्चों की
भांति।
प्रश्न
का दूसरा
हिस्सा है : 'यदि उनके
बुद्धत्व के
बीच कोई भेद
नहीं है तो उनकी
शिक्षाओं में
इतना भेद
क्यों है?'
शिक्षाएं
भिन्न हैं
लेकिन शिक्षक
नहीं। शिक्षक
एक ही है।
शिक्षाएं
भिन्न हैं
क्योंकि
विद्यार्थी
भिन्न हैं, शिष्य
भिन्न हैं।
पतंजलि एक अलग
तरह के लोगों
से बात कर रहे
थे—तुम्हें
ठीक से समझ
लेनी है यह
बात—लाओत्सु
एक अलग तरह के
लोगों से बात
कर रहे थे।
भारत
में रहस्यवाद
भी बहुत
तर्कसंगत
घटना है। भारत
बहुत वैचारिक
देश है : वह उन
बातो पर भी
विचार करता है
जिन पर विचार
नहीं किया जा
सकता, वह
उसके विषय में
भी सिद्धात
बनाता है जिसे
कि सिद्धांतबद्ध
नहीं किया जा
सकता; वह
उसको भी
परिभाषित
करता है जिसे
परिभाषित नहीं
किया जा सकता।
सारे भारतीय
शास्त्र भरे
पड़े हैं इससे।
वे कहते
रहेंगे, 'ईश्वर
को परिभाषित
नहीं किया जा
सकता है'—और
वे परिभाषित
करेंगे। और वे
कहेंगे, 'सत्य
अपरिभाष्य है'—और यह कह कर
उन्होंने
परिभाषा कर दी
होती है उसकी;
उन्होंने
उसका एक लक्षण
तो बता ही
दिया कि वह अपरिभाष्य
है। वे कहेंगे,
'ईश्वर के
विषय में कुछ नहीं
कहा जा सकता
है'—और
तुरंत वे कह
देंगे, 'वह
तुम्हारे
भीतर ही है' या 'उसी
ने रचा है सब
कुछ' या 'वह
सर्वव्यापी।’
भारत
एक चिंतनशील
देश है। उसका
चिंतन से बड़ा
लगाव है। वह
चिंतन में
इतना रस लेता
है कि उसकी
वजह से वह
लगभग
अव्यावहारिक
हो गया है।
लोग खूब सोचते—विचारते
रहे। और बस वे
सोचते रहे, सोचते ही
रहे, और
फलत:
अव्यावहारिक
हो गए—करीब—करीब
अकर्मण्य।
भारत ने कोई
वैज्ञानिक
टेक्यॉलॉजी
पैदा नहीं की।
यदि
व्यावहारिक
मस्तिष्क हो
तो वह कुछ
करने में रस
लेता है। भारत
एक
अव्यावहारिक
चिंतक देश है;
वह बस सोचता
ही रहता है। लगता
है जीवन का
कुल काम केवल
इतना ही है——सोचना!
लाओत्सु
के समय चीन
बिलकुल भिन्न
था, और
वे शिष्य जो
उसके पास
इकट्ठे हुए
थे...।
और यह
कोई नई परंपरा
नहीं थी जिसे
कि लाओत्सु प्रवर्तित
कर रहा था। यह
लाओत्सु से कम
से कम पांच
हजार वर्ष
पहले से चली
आई थी। यह
बहुत प्राचीन
परंपरा थी।
चीन उन दिनों
एक गैर—वैचारिक
देश था.
विचारशील कम
था और
ध्यानशील ज्यादा
था। उसका
विचार से, सिद्धांतो
से, दार्शनिकता
से कोई संबंध
न था। चीन ने
सुंदर दर्शन
नहीं दिए हैं
संसार को—
भारत ने दिए
हैं। करीब—करीब
दुनिया के सभी
दर्शन जो तुम
जानते हो, उनके
बीज तुम भारत
में पाओगे।
कभी—कभी
बहुत अदभुत
घटनाएं घटती
हैं। तुम
संसार के किसी
ऐसे दर्शन की
कल्पना नहीं कर
सकते जिसका
समानांतर
भारत में न हो।
जिस पर कहीं
भी विचार हुआ
है, उस
पर भारत में
पहले ही विचार
हो चुका है।
विचार में तुम
भारतीयों का
मुकाबला नहीं
कर सकते। आज
के भारतीय
नहीं—मैं आज
के भारतीयों
की बात नहीं
कर रहा हूं।
वे तो केवल
खंडहर हैं
बीते ऐश्वर्य
के। असली भारत
का तो अब कोई
अस्तित्व ही
नहीं है।
बुद्ध का भारत,
पतंजलि, वेदों
और उपनिषदों
का भारत, वह
बिलकुल खो गया
है। वे विचार
करते रहे और
विचार करते
रहे और
उन्होंने
संसार के विषय
में अदभुत सिद्धांतो
की रचना की, लेकिन वे
प्रायोगिक न
थे, वे
व्यावहारिक न
थे।
चीन
बिलकुल अलग था।
उन्हें सिद्धांतो
में कोई रुचि
न थी; बल्कि
उन्हें जीने
में रुचि थी।
उन्हें विचार
करने की
अपेक्षा होने
में अधिक रुचि
थी। और
लाओत्सु है
परम शिखर।
जब
बोधिधर्म चीन
गया, तो
ये दो धाराएं
मिली—लाओत्सु
का ध्यान और
बुद्ध का
ध्यान। वे दो
धाराएं मिलीं,
और एक
सुंदरतम घटना
का जन्म हुआ, झेन। उसमें
गुणवत्ता है
बुद्ध की और
उसमें गुणवत्ता
है लाओत्सु की।
वह न तो
बुद्धवादी है
और न ताओवादी
है; वह
दोनों ही है।
वह इस धरती पर
हुई बड़ी से
बड़ी क्रॉस—ब्रीडिंग
है।
पतंजलि
बहुत
तर्कसंगत हैं, तर्कसंगत
हैं अध्यात्म
के जगत में।
एक—एक कदम वे
आगे बढ़ते हैं;
वे
वैज्ञानिक
हैं। वे
संतुष्ट कर
सकते थे किसी
आइंस्टीन को,
किसी विटगिन्स्टीन
को या कि रसेल
को। लाओत्सु
आइंस्टीन को
संतुष्ट नहीं
कर सकते थे, वे रसेल को
या विटगिन्स्टीन
को संतुष्ट
नहीं कर सकते
थे, क्योंकि
वे अतर्कसंगत
मालूम पड़ते।
वें बिलकुल
पागलपन की बात
कर रहे थे।
लेकिन पतंजलि
ने बड़े से बड़े
वैज्ञानिक को
संतुष्ट कर
दिया होता, क्योंकि वे
बहुत
वैज्ञानिक
ढंग से बोलते
थे और बहुत कम
से आगे बढ़ते
थे, एक—एक
कदम, बीच
की कड़ी को
स्पष्ट करते
हुए।
तो
शिक्षाएं
भिन्न हैं
क्योंकि
पतंजलि पैदा हुए
थे भारत में, बोल रहे
थे भारतीयों
से—बहुत
मननशील देश।
लाओत्सु बोल
रहे थे
ध्यानियों से;
चीन उन
दिनों बड़ा
ध्यानी देश था।
दोनों बोल रहे
थे अलग—अलग
लोगों से, अलग—अलग
तरह के शिष्य
उनके आस—पास
इकट्ठे हुए थे।
तो शिक्षाएं
भिन्न होती
हैं क्योंकि
शिक्षाएं
सीखने वालों
के लिए होती
हैं। शिक्षक
भिन्न नहीं
होते। यदि
पतंजलि अकेले
हों और
लाओत्सु
अकेले हों तो
वे दोनों
बिलकुल एक
समान होंगे।
लेकिन यदि पतंजलि
अपने शिष्यों
के साथ हों, और लाओत्सु
अपने शिष्यों
के साथ हों, तो वे अलग
होंगे। यदि
पतंजलि और
लाओत्सु मौन
हों, तो वे
एक जैसे ही
होंगे, लेकिन
यदि वे किसी
से बोलते हैं
तो वे अलग होंगे।
शिक्षक को
शिष्य के
हिसाब से
बोलना होता है—उसकी
समझ, उसकी
क्षमता, उसकी
बुद्धि, उसके
संस्कार के
हिसाब से
बोलना होता है।
उसे अपनी
शिक्षा को
शिष्य के स्तर
तक ले आना होता
है; अन्यथा
वह शिक्षक
नहीं है।
इसीलिए
शिक्षाओं में
भेद है।
और एक
और बात : दो तरह
के लोग होते
हैं। एक, जो कि बहुत
साहसी होते
हैं और छलांग
लगा सकते हैं;
असल में कहना
चाहिए कि
दुस्साहसी
होते हैं—सोचते—विचारते
नहीं। एक खास
भाव — दशा में
वे छलांग लगा
सकते हैं; वे
परिणाम आदि की
चिंता नहीं
करते। फिर
दूसरी तरह का
व्यक्ति है—वह
हिचकता है; हर तरह से
पक्का कर लेगा
परिणाम के
बारे में, केवल
तभी वह आगे
बढ़ेगा।
पतंजलि का
आकर्षण उनके
लिए है जो
छलांग के पहले
ही आश्वस्त
होना चाहते
हैं। लाओत्सु
उनके लिए हैं
जो किसी
परिणाम की
फिक्र नहीं
करते, वे
छलांग के लिए
तैयार ही होते
हैं। इन दो
प्रकार के
लोगों के लिए
दो प्रकार की
शिक्षाएं हैं,
लेकिन
शिक्षक समान
ही होते हैं।
और तीसरा
हिस्सा. 'और आप से
पहले युगों—युगों
में ऐसा कोई
गुरु क्यों
नहीं हुआ
जिसने कि
पिछले बुद्ध
पुरुषों की
सारी
शिक्षाओं को जोड़ा
और संश्लेषित
किया हो?'
अब तक
कोई जरूरत न
थी, अब
जरूरत है।
अतीत में
संसार बंटा
हुआ था, संसार
बहुत बड़ा था।
लोग अपने—अपने
देशों की सीमाओं
में रहते थे।
शिक्षाएं एक—दूसरे
के प्रभाव में
न आती थीं एक
मुसलमान जीता
था मुसलमान की
भांति, उसे
कुछ पता न था
कि वेद क्या
कहते हैं; एक
हिंदू जीता था
हिंदू की
भांति, वह
कभी न जानता
कि जरथुस्त्र
ने क्या कहा
है। लेकिन अब
संसार बहुत
छोटा हो गया
है, एक
ग्लोबल विलेज;
संसार बहुत
सिकुड़ गया है।
अब हर कोई हर
किसी चीज के
बारे में
जानता है। एक
ईसाई केवल
ईसाई ही नहीं
है, वह
जानता है कि
गीता क्या
कहती है; वह
जानता है कि
कुरान क्या
कहती है। अब
भ्रम पैदा हो
गया है; क्योंकि
कुरान कुछ
कहती है, गीता
कुछ कहती है, बाइबिल कुछ
और ही कहती है।
अब प्रत्येक
को पता है आस—पास
की हर चीज।
लोग एक देश से
दूसरे देश
जाते रहते हैं,
एक शिक्षक
से दूसरे
शिक्षक के पास
यात्रा करते
रहते हैं। यहां
बहुत से हैं
जो कई
शिक्षकों के
पास रह चुके
हैं; अब वे
भ्रमित हैं।
इसलिए
अब एक बड़े
संश्लेषण की
जरूरत है।
भविष्य में
धर्म अलग— अलग
नहीं रह
पाएंगे। नहीं, यह बात
असंभव हो
जाएगी। मैं तो
एक नए मंदिर
की नींव रख
रहा हूं—जो
चर्च भी होगा,
मस्जिद भी
होगा, गुरुद्वारा
भी होगा। मैं
उस धार्मिक
व्यक्ति का
आधार रख रहा
हूं जो न ईसाई
होगा, न
हिंदू होगा, न मुसलमान
होगा—केवल
धार्मिक होगा।
अब समय पक गया
है एक बड़े
संश्लेषण के
लिए; ऐसा
पहले कभी न
हुआ था।
बुद्ध
उन लोगों से
बोल रहे थे जो
मुसलमान न थे।
जीसस उन लोगों
से बोल रहे थे
जो यहूदी थे, जीसस ऐसे
बोलते हैं
जैसे कि
यहूदियों के
अतिरिक्त और
कोई है ही
नहीं। वे यहूदियों
से बोल रहे थे।
लेकिन मैं
किससे बोल रहा
हूं? यहां
यहूदी हैं, ईसाई हैं, मुसलमान हैं,
जैन हैं, बौद्ध हैं, सिक्ख हैं—सब
हैं। तुम यहां
संसार का एक
लघु रूप हो।
जल्दी ही, जैसे—जैसे
लोग एक—दूसरे
को ज्यादा
समझेंगे, भिन्नताएं
खो जाएंगी। जब
कोई ईसाई गीता
को सच में ही
समझेगा तो
गीता और
बाइबिल के बीच
का भेद खो
जाएगा; एक
संवाद
निर्मित होगा।
इसीलिए
मैं कोशिश कर
रहा हूं सारी
धर्म —पद्धतियों
और सारे
गुरुओं पर
बोलने की, ताकि एक आधार
निर्मित हो
सके। उस आधार
पर खड़ा होगा
भविष्य का
मंदिर, भविष्य
का धार्मिक व्यक्ति। वह ईसाई
नहीं होगा।
असल में
भविष्य में
यदि कोई ईसाई
हुआ तो वह थोड़ा
दकियानूसी मालूम
पड़ेगा, और
यदि कोई हिंदू
हुआ तो वह कुछ
नासमझ मालूम
पड़ेगा, और
यदि कोई तब भी कहे
कि वह मुसलमान
है तो वह
समसामयिक
नहीं होगा—एक
मृत व्यक्ति
होगा। भविष्य
उस धर्म का है
जिसमें कि सारे
धर्म समाहित
हो जाएंगे और
सम्मिलित हो जाएंगे
और घुल—मिल
जाएंगे।
इसीलिए
अतीत में इसकी
कोई जरूरत न
थी। अब इसकी
जरूरत है। अब
मनुष्य एक बड़े
संक्रांति—बिंदु
से गुजर रहा
है। ऐसा होता
है कि पच्चीस
सौ साल बाद
मनुष्यता एक
मोड़ लेती है; एक
वर्तुल पूरा
होता है। मनुष्य—चेतना
ने एक करवट ली
थी बुद्ध के
समय में। अब
पच्चीस सौ साल
बीत गए हैं और
वह मोड़ फिर आ
गया है। जो
सजग हैं वे
सर्वाधिक
लाभान्वित
होंगे उस मोड़
से, क्योंकि
वे उपयोग कर
सकते हैं उस
उमड़ते ज्वार का।
वे यात्रा कर
सकते हैं उस
ऊंचे ज्वार पर;
वे सरलता से
घर पहुंच सकते
हैं। जब
समुद्र उतार
पर होता है तो
किनारे पर
पहुंचना कठिन
होता है। जब
समुद्र ज्वार
पर होता है तो
लहरें अपने आप
जा रही होती
हैं किनारे की
ओर—तुम अपनी
नाव लहरों में
छोड़ देते हो
और वे तुम्हें
ले जाती हैं।
इन
पच्चीस
वर्षों के
भीतर ही
इतिहास के सब
से महत्वपूर्ण
संक्रांति—कालों
में से एक काल
आने वाला है
और मनुष्य—चेतना
एक मोड़ लेगी।
यदि उस घड़ी
तुम तैयार
होते हो और
ध्यानमय होते
हो तो बहुत
कुछ संभव है
जो कि फिर
पच्चीस सौ साल
तक संभव न
होगा। पतंजलि
के युग में एक
मोड़ आया था; पतंजलि
हुए बुद्ध से
पच्चीस सौ साल
पहले। ऐसा सदा
ही हुआ है।
यह ऐसे
ही है जैसे
पृथ्वी सूर्य
का एक चक्कर पूरा
करती है एक
निश्चित अवधि
में, वैसे
ही पूरी
मनुष्य—चेतना
एक वर्तुल में
बढ़ती है और एक
निश्चित अवधि,
पच्चीस सौ
साल में अपने
मूल स्रोत तक
आ जाती है। वह
संक्रांति का
क्षण निकट है।
वह बहुत आमूल रूपांतरकारी
बन सकता है।
यदि तुम एक
समन्वय को
उपलब्ध हो, तो तुम उस
घड़ी का उपयोग
कर पाओगे। यदि
तुम समन्वय को
उपलब्ध नहीं
हो—तुम
मुसलमान बने
रहते हो, क्रिश्चियन
बने रहते हो—तो
तुम पुराने ही
रहते हो, तुम
अतीत ही रहते
हो। तुम 'यहां'
नहीं होते;
तुम
वर्तमान में नहीं
होते।
तुम्हें
वर्तमान में
लाने के लिए, तुम्हें
यह समझने में
सक्षम बनाने
के लिए कि शीघ्र
ही क्या घटने
वाला है, इसीलिए
संश्लेषण का
यह मेरा सारा
प्रयास है।
अंतिम
प्रश्न:
आप
भलीभांति
जानते हैं कि
हमारे पास
केवल मन की
आवाज ही है
फिर आपका क्या
अर्थ है हमें
यह कहने में
कि अपने अंतस
की आवाज सुनो
और उसी के
अनुसार चलो? क्या
शून्य की भी
कोई आवाज होती
है?
हां, शून्य की
अपनी आवाज
होती है।
शाब्दिक
अर्थों में तो
वह कोई आवाज
नहीं होती; वह केवल एक
अंतःप्रेरणा
होती है। वह
कोई ध्वनि
नहीं है, वह
मौन है। कोई
कहता नहीं कुछ
करने के लिए, तुम्हें बस
प्रेरणा होती
है कुछ करने
की। भीतर की
आवाज सुनने का
अर्थ है. हर
चीज को आंतरिक
शून्यता के
ऊपर छोड़ देना।
फिर वह
तुम्हें
मार्ग दिखाती
है। यदि तुम
शून्य चित्त
से कुछ करते
हो तो तुम सदा
सम्यक होते हो।
यदि तुम में आंतरिक
शून्यता है
तो कोई बात
गलत न होगी, कोई बात गलत
हो नहीं सकती।
आंतरिक
शून्यता में
कुछ कभी गलत
नहीं होता। तो
यह पक्की
कसौटी है
सम्यक होने की,
सदा सम्यक
होने की।
हां, शून्यता
की एक अपनी
आवाज होती है,
मौन का एक
अपना संगीत
होता है, शांति
का एक अपना
नृत्य होता है;
लेकिन
तुम्हें
पहुंचना होगा
उस तक।
मैं
नहीं कह रहा
हूं कि मन की
सुनो। असल में
मन तुम्हारा
नहीं है। जब
मैं कहता हूं : 'अपनी
आवाज सुनो', तो मेरा
मतलब है कि वह
सब गिरा दो जो
समाज ने तुम्हें
दिया है।
तुम्हारा मन
समाज ने दिया
है। तुम्हारा
मन तुम्हारा
नहीं है। वह
है समाज, संस्कार;
वह समाज से
मिला है।
शून्यता
तुम्हारी है,
मन
तुम्हारा
नहीं है। मन
हिंदू है, मुसलमान
है, ईसाई
है; मन है
कम्मुनिस्ट, गैर—कम्युनिस्ट,
पूंजीवादी।
शून्यता कुछ
भी नहीं है।
उस शून्यता
में तुम्हारे
अस्तित्व का
कुआंरापन
होता है। उसको
सुनो।
जब मैं
कहता हूं उसको
सुनो, तो
मेरा यह मतलब
नहीं है कि
कोई वहां
तुमसे बोल रहा
है। जब मैं
कहता हूं उसको
सुनो, तो
मेरा मतलब है
उसके प्रति
उपलब्ध रहो, अपने पूरे
प्राणों से
सुनो उसे; और
वह तुम्हें
ठीक दिशा देगा।
और वह कभी
किसी को गलत
दिशा नहीं
देता।
शून्यता से जो
कुछ आता है, सुंदर होता
है, सत्य
होता है, शुभ
होता है, एक
शुभाशीष होता
है।
आज इतना
ही।
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