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शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

दीया तले अंधेरा--(सूफी-कथा) प्रवचन--05

मृत्यु के सतत स्मरण से अमृत की उपलब्धि—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 25 सितंबर, 1974.
श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!
एक दरवेश समुद्र-यात्रा पर था। परिपाटी के अनुसार सभी यात्री एक-एक कर उसके पास गये और उससे नेक सलाह मांगी। दरवेश ने सबको एक ही बात कही:
'मृत्यु के प्रति होश रखो, जब तक मृत्यु को जान ही न लो।' दरवेश-ध्यान का एक सूत्र था यह। लेकिन किसी मुसाफिर को भी यह बात रास नहीं आई।
थोड़ी देर बाद समुद्र में भयानक तूफान उठा। समूचे जहाज में त्राहि-त्राहि मच गई। नाविक और यात्री, सभी घुटनों पर झुक गये और ईश्वर से जहाज को बचाने की प्रार्थना करने लगे। लेकिन इस आतंक के बीच भी दरवेश अनुद्विग्न और शांत बैठा रहा।
फिर समुद्र भी शांत हुआ। तब एक सहयात्री ने दरवेश से पूछा, 'क्या आपने नहीं देखा कि इस खौफनाक तूफान के दरम्यान हमारे और मौत के बीच एक तख्ते से ज्यादा मजबूत कुछ भी नहीं था?'
'हां, मैं जानता था,' दरवेश ने उत्तर में कहा, 'कि समुद्र में ऐसा सदा रहता है। लेकिन जब मैं जमीन पर था, तब भी बराबर देखा किया कि आम जिंदगी में हमारे और मृत्यु के बीच इससे भी कम बचाव है।'

भगवान! इस सूफी बोध-कथा पर प्रकाश डालने की कृपा करें।




नुष्य की पूरी सभ्यता दो चीजों का दमन करती रही है--एक यौन और दूसरी मृत्यु। काम पहला छोर है जीवन का, मृत्यु दूसरा छोर है। दोनों को भुलाने की कोशिश चलती रही है, जैसे कि दोनों न हों। और करीब-करीब आदमी ऐसे ही जीता है जैसे जीवन में यौन और मृत्यु नहीं है। इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। यौन भी जीवन को घेरे रहता है और मृत्यु भी घेरे रहती है। फर्क इतना ही पड़ता है कि उन दोनों का उपयोग करके तुम परम सत्य को, जीवन की परम धारा को जानने में समर्थ हो सकते थे, उससे वंचित रह जाते हो।
दोनों के दमन का कारण क्या है? और ऐसा एक सभ्यता ने नहीं किया, करीब-करीब सभी सभ्यताओं में, सभी समाजों में, सभी सदियों में किया गया है। समझने की थोड़ी कोशिश करें।
यौन के साथ ही मृत्यु जुड़ी है। इस पृथ्वी पर केवल वे ही मरते हैं, जो यौन के द्वारा पैदा होते हैं। पृथ्वी पर दो तरह का जीवन है। एक तो जीवन है जो अयौनज, जो यौन से पैदा नहीं होता। जैसे अमीबा है; बहुत छोटा सा, एक कोष्ठ का प्राणी है। अमीबा बिना कामवासना के पैदा होता है। इसलिए अमीबा की कोई साधारण मृत्यु नहीं होती। अमीबा के जीवन का ढंग समझें। अमीबा सिर्फ भोजन करता जाता है, एक-कोष्ठी है। कोई और इंद्रियां नहीं हैं, बस शरीर है। शरीर से ही वह भोजन को आत्मसात करता रहता है। एक सीमा आती है, जब शरीर इतना बड़ा हो जाता है कि अमीबा को उस शरीर को खींचना मुश्किल हो जाता है, असंभव हो जाता है, तब अमीबा के बीच में दरार पड़ने लगती है और शरीर दो हिस्सों में बंट जाता है। दो अमीबा हो जाते हैं एक की जगह। फिर दोनों भोजन में लग जाते हैं और जब भी फिर भोजन इतना ज्यादा हो जाता है शरीर में कि अमीबा खींच नहीं सकता, तब फिर दो में विभाजित हो जाता है। ऐसा अमीबा कभी मरता नहीं। उसके पैदा होने का ढंग यौन नहीं है। वह बचा ही रहेगा, जब तक कि मारा ही न जाए, नष्ट ही न किया जाए। और फिर भी तुम एक को नष्ट कर दो, तो भी उसके आधे शरीर के आधे हिस्से सदा बचे रहेंगे। और अमीबा की कोई उम्र नहीं है। वैज्ञानिक कहते हैं, लाख साल, दो लाख साल, दस लाख साल, कितना ही अमीबा जी सकता है। मृत्यु स्वाभाविक नहीं है। मार डालो, तो मर जायेगा; लेकिन अपने आप मौत नहीं घटती। प्रकृति से मौत नहीं आती।
मनुष्य यौनज है। पशु, पक्षी, पौधे सब यौनज हैं। इनकी एक सीमा है जीवन की। एक सीमा पर वे मरते हैं। वैज्ञानिक कहते हैं; यौन के साथ मृत्यु का प्रवेश होता है। यौन एक शक्ति देता है। यौन एक शक्ति है। सेक्स जीवन की ऊर्जा है। जब बच्चा पैदा होता है, तो एक विशिष्ट शक्ति लेकर जन्मता है। वह शक्ति सत्तर साल में, अस्सी साल में, पचास साल में चुक जायेगी। जब वह चुक जायेगी, तो बच्चे को मरना होगा। यह शक्ति, जो बच्चा लेकर पैदा होता है, इसकी एक सीमा है।
यौन के साथ मृत्यु जुड़ी है। जो भी पैदा हुआ है, वह मरेगा। और मरना कोई भी नहीं चाहता। मिटना कोई भी नहीं चाहता। मिटने की बात ही दुखद मालूम पड़ती है। चाहे तुम्हारा जीवन कितना ही कष्टपूर्ण क्यों न हो, चाहे तुम्हारा जीवन सिवाय नर्क के कुछ और न हो, तो भी तुम मरना न चाहोगे। सड़क पर बैठा हुआ भिखारी है, हाथ-पैर कटे हैं, कोढ़ है, शरीर के बचने की कोई उम्मीद नहीं, फिर भी बचने की आशा है। गल रहा है, नाली में पड़ा है, कीड़े की तरह जी रहा है, फिर भी मरना नहीं चाहता।
मृत्यु के मुकाबले हम कैसा भी जीवन चुनने को राजी हैं। कितना ही बुरा, कितना भी कष्टपूर्ण, लेकिन मृत्यु को चुनने को राजी नहीं हैं। क्यों? क्योंकि जीवन कितना ही बुरा हो, आशा बनी रहती है, कल ठीक हो जायेगा। आज नाली में हूं, कल महल। आज शरीर अस्वस्थ, कल स्वस्थ होगा। जीवन में कल बना रहता है, आशा बनी रहती है, भविष्य बना रहता है। मृत्यु के साथ कल समाप्त हुआ, भविष्य नष्ट हुआ, समय मिट गया। अब कोई उपाय नहीं। मैं बचा रहूं, ऐसी जीवेषणा है। ऐसी तुममें ही है, ऐसा नहीं; पौधे में, पक्षी में, पशु में, सभी में है। जहां जीवन है, वहां बचने की आकांक्षा है। जहां जीवन, वहां जीवेषणा है। अगर जीवेषणा न हो, तो तुम जी ही न सकोगे। सांस भी क्यों लोगे? जीवेषणा धक्के देती है। और जिलाये रखती है। दौड़ते हो, कमाते हो, सब तरह के उपद्रव उठाते हो और ना कुछ के लिए। परिणाम में कुछ हाथ नहीं आता।
परिणाम करीब-करीब ऐसा है, कि मैंने सुना है कि एक अदालत में एक आदमी को हत्या के जुर्म में पकड़ा गया। फांसी की उसे सजा हुई। घटना अमरीका की है। जहां अब उन्हें फांसी तो नहीं देते, बिजली की कुर्सी पर बिठा कर मृत्यु देते हैं। मजिस्ट्रेट दयालु था। उसने निर्णय देने के पहले अपराधी को पूछा, 'इसके पहले कि मैं निर्णय दूं, मैं इस मुकदमे और कारवाई को सब भांति न्यायपूर्ण, दयापूर्ण बनाना चाहता हूं। तो तुमसे एक सवाल पूछता हूं, ताकि यह कहने को न रह जाये कि तुमसे पूछा न गया, तुम्हारा मंतव्य न लिया गया; मैं तुमसे पूछता हूं कि तुम ए. सी. या डी. सी. कौन सी बिजली पसंद करोगे?'
क्या फर्क पड़ता है, जिसे मरना है, कि ए. सी. बिजली से मारा गया, कि डी. सी. बिजली से मारा गया? मृत्यु दोनों अर्थों में घटेगी। क्या फर्क पड़ता है कि तुम सड़क पर मरे, या महल में मरे? सिंहासन पर मरे, या भिक्षापात्र लिए हुए मरे? ए. सी. और डी. सी. से कोई फर्क नहीं पड़ता। मृत्यु घटेगी। भिखारी भी कंप रहा है, सम्राट भी कंप रहे हैं। मिटने का भय है।
एक ही तो भय है। और वह है कि मैं मिट न जाऊं। बाकी सभी भय उसी के आसपास पैदा होते हैं। धन के खोने का भय है, क्योंकि धन बचाता है। बिना धन के कैसे बचूंगा? मित्र के खोने का भय है, क्योंकि मित्र संकट में साथ देगा, बचायेगा। अकेला कैसे बचूंगा? सभी चीजों का, जहां-जहां तुम्हें भय है, वहां-वहां जानना कि भय के पीछे मृत्यु छिपी है। हर भय के पीछे मृत्यु का चेहरा है। आदमी इतना भयभीत है कि वह यह भूलना चाहता है कि मैं मरूंगा।
इसलिए हम मरघट गांव के बाहर बनाते हैं। मौत जिंदगी के बीच में है, मरघट गांव के बाहर। मौत बाजार में है, मरघट बाहर। मौत हर घड़ी सामने है, मरघट को हमने छिपा रखा है दूर। वहां कोई नहीं जाता। जब मजबूरी में किसी मित्र को, प्रियजन को, विदा करने जाते हैं, तब भी हम वहां से जल्दी भागना चाहते हैं। वहां छाती कंपती है। वहां डर लगता है। रात को वहां से कोई निकलता नहीं। अकेले में वहां से कोई गुजरता नहीं। भूत-प्रेत का डर नहीं है वह। मरघट को देख कर अपनी मौत याद आती है, वह प्रतीक है मृत्यु का, कि सभी को यहीं आ जाना होगा। आज नहीं कल, देर अबेर, मैं भी यहीं आऊंगा। मेरे प्रियजन, मित्र मुझे यहां पहुंचा जायेंगे और जल्दी भागेंगे। यहां रुकना न चाहेंगे। जैसा मैंने किया है, वैसा ही वे भी करेंगे।
मृत्यु को हम छिपाते हैं। राह से लाश निकलती हो, मृत्युयात्रा निकलती हो, तो बच्चों को मां भीतर बुला लेती है, द्वार बंद कर देती है। मृत्यु का पता न चले। क्यों? जो है, उसे छिपाने से क्या लाभ होगा। और जो है, उसे तुम छिपा कैसे पाओगे? कितना ही छिपाओ, कहीं न कहीं से मौत दिखाई ही पड़ेगी।
तो फिर, हमने छोटे इंतजाम के साथ बड़े इंतजाम भी किए हैं। बड़े इंतजाम भी किए हैं, कि हर डरने वाला मानता है कि आत्मा अमर है। इसलिए नहीं कि उसे पता है। इसलिए भी नहीं कि उसे कोई अनुभव है। इसलिए भी नहीं कि किसी गुरु के सत्संग में उसने सीखा है। न! सिर्फ इसलिए कि हृदय भयभीत है और भय सहारे चाहता है। यह सिद्धांत बड़ा सहारा देता है कि आत्मा अमर है। शरीर ही मरेगा, आत्मा अमर है। मैं तो बचूंगा। मेरे मिटने का कोई कारण नहीं है। तो हम मरघट छिपाते हैं, मृत्यु छिपाते हैं और फिर आखिरी उपाय यह करते हैं भरोसे का भीतर कि मैं तो मरूंगा नहीं। यह तो घर है, छूट जायेगा। मैं तो यात्री हूं, ठहरा हूं, आगे चला जाऊंगा
यह तुम्हें पता होता, तब दूसरी बात थी। यह तुम्हें पता नहीं है। और जिन्हें पता होता है उन्हें तभी पता होता है, जब वे मृत्यु का भय छोड़ देते हैं। और तुम तो मृत्यु के भय के कारण ही इस सिद्धांत को पकड़े बैठे हो, कि आत्मा अमर है। जलेगी लाश, मैं नहीं जलूंगा। शरीर छिद जायेगा बाणों से, मैं नहीं छिदूंगा। भय के कारण तुम यह सूत्र दोहराए चले जाते हो। भय के कारण ही तुम धर्म को पकड?े हुए हो। और धर्म तो उन्हें ही मिलता है, जो अभय को उपलब्ध हो जाते हैं। इसलिए बड़ी कठिनाई है।
दुनिया में दो तरह के धार्मिक हैं। एक तो वह धार्मिक, जो अभय के कारण धर्म को उपलब्ध हुआ है। जिसने अभय के कारण झांक कर देख लिया मृत्यु में और पाया कि अमृत छिपा है। और दूसरे, भय के कारण घुटने टेके हुए, मंदिर-मस्जिदों में प्रार्थना करते हुए लोग। वे भी धार्मिक हैं। दिखाई पड़ते हैं, लेकिन उनके घुटने भय के कारण झुके हैं। वे परमात्मा से प्रार्थना कर रहे हैं कि 'हमें बचाना'। उन्हें अभी पता ही नहीं है कि परमात्मा उनके भीतर ही छिपा है। जिससे वे प्रार्थना कर रहे हैं वह प्रार्थना करने वाले में ही छिपा है। उससे क्या प्रार्थना करनी है? वह तुम्हीं हो, जिसके सामने तुम घुटने टेक कर झुके हो।
घुटने टेकने से कुछ भी न होगा, भीतर मुड़ने से कुछ होगा। घुटने मोड़ने से कुछ न होगा, चेतना मोड़ने से कुछ होगा। हाथ जोड़ने से कुछ भी न होगा, भीतर बंटे हुए प्राण को जोड़ना पड़ेगा। हाथ जोड़कर हम नमस्कार करते हैं, वह सिर्फ प्रतीक है। ऐसा ही भीतर तुम्हारा खंड-खंड मन जुड़ जाए; और जैसा मैंने कल कहा कि बांया हाथ दांये मस्तिष्क का प्रतीक है, दांया हाथ बांये मस्तिष्क का प्रतीक है।
हम हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं। उस नमस्कार का गहरा अर्थ है कि तुम्हारे भीतर दांये और बांये मस्तिष्क एक हो जायें। खंड न रह जाएं। विभाजन, द्वंद्व, द्वैत, चला जाए। तुम भीतर जुड़ जाओ। उस जोड़ को ही योग कहा है। योग का अर्थ परमात्मा से जुड़ जाना नहीं। योग का अर्थ, अपने भीतर जुड़ जाना। जैसे ही तुम जुड़े, तुम परमात्मा हो गये।
एक तो अभय से व्यक्ति उपलब्ध होगा ज्ञान को, कि आत्मा अमर है। और एक भयभीत आदमी भय के कारण इस सिद्धांत को पकड़ लेता है। यह सिद्धांत सुरक्षा देता है, आश्वासन देता है, सांत्वना देता है, डर को कम करता है।
मृत्यु के भय के कारण हमने मृत्यु को छिपाया है। मृत्यु के भय के कारण हमने मृत्यु को टाला, बीच में पर्दे खड़े किए। और जब हमने मृत्यु को छिपाया, तभी हमें समझ में आ गया कि यौन को भी छिपाना पड़ेगा। क्योंकि वे दोनों एक ही चीज के दो छोर हैं। इसलिए सारी दुनिया में सेक्स सप्रेशन, कामवासना का दमन शुरू हुआ। क्योंकि यह बात बहुत सीधा साफ तर्क है। अगर डंडे का एक छोर तुम्हें पता है, तो दूसरे छोर पर जाने का मन होगा। तुम चाहोगे कि दूसरे छोर का भी पता लगा लो। अगर डंडे का एक छोर भूलता है, तो दोनों ही छोर भूल जाना उचित है। एक याद रहा, तो दूसरे की याद दिलायेगा। एक को अगर तुम न भूल सके, तो दूसरे को भी तुम विस्मृत न कर पाओगे।
इससे तुम्हें समझ में आ जायेगा कि सारी दुनिया कामवासना के दमन में इतनी उत्सुक क्यों है? और खास कर वे लोग, जिन्हें तुम धार्मिक कहते हो। वे लोग बहुत ज्यादा उत्सुक हैं कामवासना के दमन में। उस दमन के पीछे राज यही है कि जिन्हें तुम धार्मिक कहते हो, वे भीरु लोग हैं। वे मौत से डरे हैं, इसलिए ब्रह्मचर्य की बातें कर रहे हैं। वे मौत से डरे हैं, इसलिए कामवासना को नष्ट करने में लगे हैं। उनका तर्क तो साफ है, गणित सीधा है, कि अगर दूसरे छोर से बचना है, तो पहले छोर को नष्ट कर दो। तो दोनों चीजों से छुटकारा हो जायेगा।
लेकिन आंख बंद करने से, शुतुर्मुर्ग की तरह रेत में सिर गड़ा लेने से सत्य से कोई बच नहीं सकता। सत्य को तो आंख खोल कर देखना ही होगा। और मजा तो यह है कि जितनी तुम आंख बंद करते हो, उतनी मुसीबत में पड़ते हो। जितनी आंख खोलते हो, उतनी ही मुसीबत से छुटकारा हो जाता है।
मृत्यु भूल जाए, इसलिए यौन को भुलाने की हमने कोशिश की। मरघट में छिपा दिया मौत को गांव के बाहर। रात के अंधेरे में छिपा दिया है कामवासना को। तुम दिन में बाजार में चलते हुए लोगों को, कालेज में पढ़ते-पढ़ाते लोगों को, नेताओं को, सोच भी नहीं सकते कि इनके जीवन में कोई कामवासना होगी। सब साफ-सुथरा मालूम पड़ता है। कहीं कोई बात नहीं दिखाई पड़ती। अगर हम लोगों का बाहर का ही जीवन देखें...।
बर्ट्रेंड रसेल ने कहीं लिखा है, अगर मंगल से कोई यात्री आये और एक दिन अध्ययन करके लौट जाए, तो उसे पता ही नहीं चलेगा कि लोगों के जीवन में कामवासना है। देखेगा लोग बाजार में जाते हैं, दूकान करते हैं, बातचीत करते हैं, किताब पढ़ते हैं, पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं, मुर्दों को दफनाते हैं, सब करते हैं, लेकिन जन्म कैसे होता है जीवन का, यह बात उसे अपरिचित रह जायेगी। क्योंकि उसे तो हमने बिलकुल छिपाकर रखा है। किसी को पता न चले, ऐसा छिपा कर रखा है। कामवासना को छिपाया है, ताकि मृत्यु दिखाई न पड़े। और एक को भी तुमने उघाड़ा, तो दूसरा उघड़ आता है।
यह घटना इस सदी में घटी है। सिग्मंड फ्रायड ने कामवासना को उघाड़ना शुरू किया। क्योंकि उस लगा, मनुष्य की बीमारियों का नब्बे प्रतिशत कारण कामवासना का दमन है। क्योंकि उसने देखा पागलखानों में बैठे हुए लोगों को, उनमें नब्बे प्रतिशत लोग कामवासना के ही रोग से ग्रसित और पीड़ित थे। और उसने अध्ययन किया उन दस प्रतिशत लोगों का भी, जो कामवासना से ग्रसित नहीं दिखाई पड़ते--ऊपर से। बहुत गहरी खोज-बीन करने पर कहीं गहरे अचेतन में, रोग उनका भी वही है। सारी विक्षिप्तता काम ऊर्जा के गलत मार्गों पर चले जाने से पैदा होती है।
फ्रायड से लोग बहुत नाराज हुए। शायद मनुष्य जाति के इतिहास में इतनी नाराजगी कभी किसी आदमी के प्रति नहीं रही जितनी फ्रायड के प्रति रही। जीसस को लोगों ने सूली चढ़ाई, लेकिन फिर भी वे इतने नाराज न थे। सुकरात को जहर दिया, फिर भी इतने नाराज न थे। फ्रायड से लोग जितने नाराज रहे, उतना आज तक मनुष्य जाति के इतिहास में किसी आदमी से नाराज नहीं रहे। क्योंकि इसने बड़ा गहरा घाव छू दिया। इसने कामवासना को उघाड़ कर रख दिया। सारी दुनिया में विरोध हुआ फ्रायड का। लेकिन तथ्यों का विरोध करने से तथ्य मारे नहीं जा सकते। जितना विरोध हुआ, उतने ही तथ्य सिद्ध हुए। जितना विरोध हुआ, उतना ही पता चला कि वह ठीक है। और यह भी पता चला कि तुम्हारे विरोध में जो जोश-खरोश था वह इसीलिए था कि उसने तुम्हारा घाव छू दिया था। तुम छिपाना चाहते थे, उसने उघाड़ दिया था। उसने बड़ी गहरी बातें खोजीं और उसने पाया कि पूरा जीवन मनुष्य का कामवासना से भरा है। बचपन से लेकर, ठीक पैदा होने के क्षण से...।
हम सोचते थे कि बच्चे के जीवन में कोई कामवासना नहीं है, वह बिलकुल निर्दोष है, पवित्र है। लेकिन हमारी धारणा गलत है। पहले दिन का बच्चा भी कामवासना से भरा है। यह स्वाभाविक भी है। क्योंकि कामवासना से ही जो पैदा हुआ है, वह कामवासना से कैसे न भरा होगा? गंगा गंगोत्री पर भी जल से तो भरी ही होगी। कितनी ही छोटी हो, बाद में जल से तो नहीं भर जायेगी। जल तो लेकर ही चलेगी। जल तो जीवन की धारा है। तो बच्चा जब कामवासना से पैदा हुआ है, तो कामवासना से भरा होगा। हां, उसकी कामवासना अभी स्वच्छ है। अभी तुम उसे विकृत नहीं कर पाये। इसलिए मैं उसे कहता हूं, वह पवित्र है। इसलिए नहीं कि वह कामवासना से नहीं भरा है। बल्कि इसलिए कि अभी समाज उसे विकृत नहीं कर पाया। उसकी कामवासना शुद्ध है। गंगोत्री पर शुद्ध जल है अभी। और नदियों का कूड़ा-कबाड़, रास्ते की यात्रा में आई हुई सारी नालियां, गंदे नाले अभी उससे नहीं मिले। अभी वह बड़ी नदी नहीं बनी है। अभी स्रोत पर है। अभी सब शुद्ध और साफ है।
बच्चे की कामवासना बिलकुल शुद्ध और साफ है। और बच्चा उतना ही कामातुर है, जितना कि बूढ़ा। उसकी कामातुरता के ढंग अलग हैं। क्योंकि कामातुरता धीरे-धीरे विकसित होगी, परिपक्व होगी। बच्चे की कामवासना उसके होंठों में केंद्रित है। जैसे-जैसे वह बड़ा होगा, वैसे-वैसे कामवासना गहरी होगी। होंठ से लेकर जननेंद्रिय तक आने में चौदह वर्ष लग जायेंगे। और जो लोग भी किसी भांति इस कामवासना को जननेंद्रिय तक आने से रोक लेंगे, उनकी कामवासना होंठों में केंद्रित रह जायेगी। तब वे ज्यादा खायेंगे, सिगरेट पीयेंगे, पान चबायेंगे। यह सारा जो उपद्रव पैदा होगा, वह कामवासना होंठों में रह गई, वह बचकाने रह गये। उनकी वासना की ठीक यात्रा न हो पाई। गंगोत्री पर तो सब ठीक था, लेकिन गंगा का रास्ता भटक गया। धीरे-धीरे वासना गहरी होगी और जननेंद्रिय तक आयेगी।
इसीलिए चुंबन का और संभोग का बड़ा गहरा संबंध है। वे दो छोर हैं। होंठ एक छोर, जननेंद्रिय दूसरा छोर। और इन दोनों के बीच, जब लहर की भांति वासना उठती है, तो पूरा देहत्तंत्र कंपित होता है। यह पूरा देहत्तंत्र कंपित होता हो और वासना का विसर्जन जननेंद्रिय से हो, तो काम । यह पूरा तंत्र कंपित होता हो और वासना विसर्जित जननेंद्रिय से न हो, नीचे की तरफ न जाये, ऊपर की तरफ जाये, तो कुंडलिनी। वासना शरीर में भटक जाये और शरीर के द्वार से खो जाये बाहर, तो यौन।
यही वासना तरंगित होकर ऊपर की तरफ उठने लगे, उर्ध्वगामी हो जाये, अंतर्मुखी हो जाये और शरीर से बाहर न खोये, बल्कि केंद्र की तरफ चली जाए, इसकी धारा उलटी हो जाए, तो बस यही कामवासना परमात्मा की खोज बन जाती है। इसी कामवासना से तुम बच्चों को जन्म देते हो, इसी कामवासना से तुम अपने जन्म को उपलब्ध हो सकते हो; तब तुम्हारा नया जीवन होगा। लेकिन खेल तो इसी वासना का है।
लेकिन हम बच्चों को झुठलाते हैं। हम उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं कि बिलकुल निर्दोष हैं, और हम कोशिश करते हैं कि निर्दोष ही बने रहें। इस निर्दोष बनाने की चेष्ठा में झूठ का जन्म होता है। फ्रायड ने जब यह झूठ तोड़ा, तो उसका बड़ा विरोध हुआ और लगा कि यह आदमी कोई राक्षस ही है, शैतान का अवतार है। यह सारे धर्म नष्ट कर देगा। शुद्ध, पवित्र बच्चों तक में यह वासना बता रहा है। और फ्रायड ने कहा कि न केवल बच्चे में, सभी में--मां में भी बेटे के प्रति वासना है। और जो मां सच में ही विकृत नहीं हुई है, जब बच्चा उसके स्तन से दूध पीयेगा, तो वैसा ही आनंद पायेगी जैसा संभोग में पाती है। अगर मां का शरीरत्तंत्र खराब नहीं किया गया है समझाकर, बुझाकर, दमन से, तो बच्चा जब दूध पीयेगा, तब उसके शरीर में वैसी ही तरंगें उठेंगी, वैसी ही आनंद की लहरें आयेंगी, जैसी संभोग में आती हैं। और इसी से कभी-कभी मां घबड़ाती भी है और मां बेचैन होती है। वह बच्चे को दूर भी करती है स्तन से। और ईसाइयत ने तो करीब-करीब बच्चों को स्तन से दूर कर दिया है। क्योंकि ईसाइयत कामवासना के भयंकर विरोध में है।
जब फ्रायड ने ये सारे तथ्य उघाड़े, तो बड़ी कठिनाई हुई। लेकिन फ्रायड को भी पता नहीं था कि वह कैसी यात्रा पर निकल गया है। जो खोज है, वह कहां ले जायेगी! वह खोज मरने के पहले फ्रायड को मृत्यु पर ले गई। यौन से तो उसने शुरू किया; उसको उसने 'इरोज' कहा है। जो कामवासना की शक्ति है, उसको उसने 'इरोज' कहा है--कामऊर्जा, काम की गहरी वृत्ति।
मरने के पहले उसे धीरे-धीरे खयाल में आने लगा, कि एक और वृत्ति है मनुष्य में, वह मृत्यु की है। उसको उसने 'थानाटोज' कहा है। एक तो जन्म देने की वृत्ति है। और एक मर जाने की वृत्ति है। वह उस पर भी पहुंच गया, दूसरे छोर पर भी। तो फ्रायड ने कहा, आदमी के भीतर द्वंद्व है इरोज और थानाटोज का। कामवासना और मृत्युवासना। वह ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहा, इसीलिए दूसरी वासना पर उतनी गहरी खोज नहीं कर पाया, जितनी कि पहली वासना पर कर पाया।
जो मैं बताना चाह रहा हूं वह यह है कि जो भी व्यक्ति कामवासना के प्रति सचेत होगा, वह आज नहीं कल मृत्यु के प्रति भी सचेत हो जाएगा...और इससे विपरीत घटा मनुष्य-जाति के इतिहास में। मृत्यु के भय के कारण हमने मृत्यु को तो छिपाया ही, यौन को भी छिपा डाला। और जीवन में तथ्यों को छिपाने से कभी कोई सत्य तक नहीं पहुंचता। वे तथ्य चाहे कितने ही कुरूप हों, कितने ही भयंकर हों, वे मन को कितने ही कंपाते हों, भूकंप लाते हों, तूफान लाते हों, उनका सामना करना ही होगा।  उनके प्रत्यक्ष से ही तुम सबल होओगे, अभय को उपलब्ध होओगे।
दुनिया के धर्मों ने दोनों का उपयोग किया है--वास्तविक धर्मों ने। क्योंकि एक तो धर्म है जो बाजार में चलता है; मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा वाला धर्म है। एक धर्म है, जो नानक, कबीर, बुद्ध, महावीर--उनके साथ ही समाप्त हो जाता है। एक तो धर्म है, जो तुमने अपने हिसाब से अपने योग्य बना रखा है। जो सांत्वना से ज्यादा नहीं है। और एक धर्म है, खोज। जहां प्राण दांव पर लगाने पड़ते हैं।
उस धर्म की मैं बात कर रहा हूं, जहां प्राण दांव पर लगाने पड़ते हैं। तो उस धर्म में दो तरह के धर्म हैं। एक तो तांत्रिक, जो कामवासना के तथ्य से खोज शुरू करेगा। क्योंकि जब जीवन के सत्य को जानना है, तो जीवन जहां से उदगमित होता है, उसके सत्य को जानना होगा। अगर एक वैज्ञानिक को पदार्थ के सत्य को जानना है, तो वह विश्लेषण करता है और पदार्थ के अंतिम परमाणु को पकड़ता है। क्योंकि वहीं से पता चलेगा। जिस चीज को भी खोजना हो, उसकी अंतर्धारा में प्रवेश करना जरूरी है। तो एक तरह का धर्म है जो तंत्र से शुरू होता है, ताकि जीवन की आखिरी बुनियाद को पकड़ लिया जाए। वहीं से हम परमात्मा का द्वार खोज सकेंगे। दूसरा धर्म दूसरी यात्रा कर सकता है। वह है, मृत्यु की खोज से। तो या तो कामवासना की गहरी खोज करो, या मृत्यु की गहरी खोज करो--दो ही द्वार हैं। या तो जन्म, या मृत्यु; ये दोनों द्वार हैं परमात्मा में प्रवेश के। और दोनों से तुम डरे हुए हो। इसलिए तुम कहीं भी नहीं पहुंच पाते। तुम मध्य को पकड़े हो और दोनों छोर से डरे हुए हो।
यह सूफी जो कथा है, यह मृत्यु के स्मरण की विधि के संबंध में है। सूफी मृत्यु के छोर से सत्य की खोज किए हैं। जैसा तंत्र, कामवासना के छोर से सत्य की खोज किया है। ऐसे ही सूफी, मृत्यु के छोर से सत्य की खोज किए हैं। या तो वहां से शुरू करो, जहां से जीवन आविर्भूत होता है, या वहां से शुरू करो, जहां जीवन विलीन होता है। जिससे जीवन आता है उसे खोजो, या जिसमें जीवन जाता है उसे खोजो। या तो वर्तुल का प्रथम चरण या वर्तुल का अंतिम चरण। या तो यह छोर, या वह छोर। दोनों के बीच में तो तुम पकड़े हो; दोनों छोरों से तुम भयभीत हो।
अब इस कथा को समझने की कोशिश करो। क्योंकि सूफी मृत्यु पर ध्यान करते हैं। वे कहते हैं, परमात्मा पर ध्यान करने से क्या होगा? जिसका तुम्हें पता ही नहीं है, उसका तुम ध्यान भी कैसे करोगे? तुम नाम जप सकते हो, लेकिन तुम भी जानते हो कि वह नाम तुम्हारी ही ईजाद है। तुम परमात्मा की प्रतिमा भी बना सकते हो, लेकिन तुम भी जानते हो कि वह तुमने ही बनाई है।
नहीं; नाम जपने और प्रतिमायें बनाने से कुछ भी न होगा। तुम्हारे भीतर जो इस समय जीवन की धारा बह रही है, उसके छोरों को खोज लो, क्योंकि हर छोर पर परमात्मा मौजूद है। या तो पहले दिन, या अंतिम दिन। परमात्मा यानी जीवन का विराट-सत्य। उससे ही तुम आये, उसी में तुम जाओगे। छोर पर पकड़ने की कोशिश करो।

एक दरवेश समुद्र-यात्रा पर था।
दरवेश, सूफी फकीर को कहते हैं। यह बड़ा सम्मानित शब्द है। इसका अर्थ है, जो परमात्मा के लिए भिखारी हो गया--फकीर। जिसकी आकांक्षा सिवाय परमात्मा के और कुछ भी नहीं मांगती। जिसका भिक्षापात्र कुछ और स्वीकार नहीं करता, सिवाय परमात्मा के। जिसके जीवन में एक ही धुन सतत बज रही है। एकतारे की भांति जिसका एक ही तार एक ही आवाज देता रहता है...परमात्मा की। जो न धन चाहता है, न पद चाहता है। जो न यश चाहता है, न प्रतिष्ठा चाहता है। न जो सम्मान चाहता है, न जो जीवन चाहता है। जो एक ही चीज चाहता है, कि उसको पा लूं जिससे मैं आया हूं और जिसमें मैं चला जाऊंगा। जो परम सत्य का भिखारी है। दरवेश का अर्थ है, जिसके भिक्षापात्र में परमात्मा से कम कुछ स्वीकार न होगा। वह उसी को मांगने निकला है। जिसने अपनी सारी आकांक्षाओं को जोड़कर एक ही अभीप्सा बना ली।
तुम्हारी आकांक्षायें अनंत हैं। छोटे-छोटे कणों की भांति हैं, तिनकों की भांति हैं। दरवेश की एक ही आकांक्षा है। उसने सभी आकांक्षाओं के तिनकों को जोड़ कर एक रस्सी बना ली है। उस रस्सी का नाम, अभीप्सा है। उसकी बस एक ही अभीप्सा है कि जो है उसे जान लूं। सत्य को जान लूं। वह सत्य का भिखारी है।
एक दरवेश समुद्र-यात्रा पर था। परिपाटी के अनुसार सभी यात्री एक-एक करके उसके पास गये और नेक सलाह मांगी।
परिपाटी के अनुसार तुम गुरुओं के पास जाते हो। परिपाटी के अनुसार तुम साधु के चरणों में झुकते हो। परिपाटी के अनुसार तुम संन्यासी से पूछते हो नेक सलाह, कुछ सद-उपदेश, पर परिपाटी के अनुसार! यह तुम्हारी अपनी आकांक्षा नहीं है। ऐसा सभी लोग करते रहे हैं। करना औपचारिक नियम है, इसलिए तुम करते हो। मंदिर तुम जाते हो, मस्जिद जाते हो, परिपाटी के अनुसार। यह तुम्हारी अपनी निजी प्रेरणा नहीं, यह भी उधार है।
वेश्या के घर तुम जाते हो, तब तुम परिपाटी के अनुसार नहीं जाते। तब तो पूरी परंपरा विपरीत है। परिपाटी विरोध कर रही है, सभी खिलाफ हैं। तुम अपनी निजी अभीप्सा से जाते हो। लेकिन जब तुम मंदिर जाते हो, तब तुम परिपाटी के अनुसार जाते हो। तब तुम परंपरा के कारण जाते हो।
और ध्यान रहे, तुम वहीं पहुंचोगे जहां तुम अपने कारण जाते हो। दूसरों के कारण तुम जहां जाते हो, वह जाना ही झूठ है। इस झूठ से अपने को बचाना। इसीलिए तो कितनी बार तुम मंदिर गये और कभी मंदिर नहीं पहुंचे। कितनी बार साधुओं के चरणों में झुके और कभी नहीं झुके। तुम्हारा अहंकार खड़ा ही रहा। वह झुकना एक झूठ था। कितनी बार तुमने शास्त्र पढ़ा, एक शब्द तुम्हारे भीतर न गया। और जिसकी प्यास ही न हो, उसे तुम पीओगे कैसे? और जब भूख ही न लगी हो, तो तुम भोजन कैसे करोगे? और पचाना तो असंभव है। और बिना भूख अगर तुमने भोजन भी कर लिया तो वमन होगा। उससे कुछ लाभ न होगा, हानि ही होगी। उससे तुम्हारा खून नहीं बनेगा। तुम परिपुष्ट न होओगे। उससे तुम्हारा बोझ बढ़ सकता है, लेकिन तुम्हारी मुक्ति उससे करीब न आयेगी।
परिपाटी के अनुसार सभी यात्री एक-एक करके दरवेश के पास गये और नेक सलाह मांगी।
मुसलमान मुल्कों में, जहां भी दरवेश आ जाये, तो लोग झुककर उससे सलाह मांगते हैं कि कुछ हम अज्ञानियों को दे दो।
इस बात को ठीक से समझ लेना कि यह अगर तुम अपने कारण मांगते हो, तो तुम्हें मिलेगा। अगर तुम यह सिर्फ परंपरा के कारण मांगते हो, तो तुम्हें नहीं मिलेगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि दरवेश नहीं देगा। दरवेश तो देगा। वह तो उसे भी देता है, जो मांगता है; जो नहीं मांगता है, उसे भी देता है। उसके देने में कोई शर्त नहीं है, लेकिन तुम्हें नहीं मिलेगा। वह देगा, तो भी नहीं मिलेगा। क्योंकि तुम उसे लोगे ही नहीं, तुम सुन लोगे ऊपर-ऊपर। भीतर तुम कहीं और होओगे। वह बीज तो तुम पर फेंकेगा, लेकिन वह बीज तुम्हारे हृदय में न पड़ेगा। क्योंकि हृदय तो तुम तभी खोलते हो, जब तुम प्यास से भरते हो, अभीप्सा से भरते हो। तभी तुम्हारा हृदय चातक की भांति मुंह खोलकर चांद की तरफ देखता है। जब तुम चातक की भांति किसी सदगुरु के पास होते हो, तो ही उसकी वर्षा की बूंद तुम्हारे भीतर जायेगी और मोती बनेगी। अन्यथा वह देता रहेगा और तुम्हें नहीं मिलेगा। उसके देने के कारण कभी-कभी तुम्हें यह भ्रांति भी होगी कि तुम्हें मिल गया है।
गुरु के देने से शिष्य को नहीं मिलता, शिष्य के लेने से मिलता है। इसलिए गुरु के पास रहकर बहुत बार यह मन में भ्रम पैदा हो जाता है कि काफी मिल रहा है। क्योंकि वह तुम्हें देता हुआ दिखाई पड़ता है। लेकिन तुम ऐसे पात्र हो, जिसमें पेंदी नहीं है। वह डालता जाता है और तुम्हारे भीतर सब बहता चला जाता है। वह पेंदी तो तभी होती है, तुम सम्हालते उसे तभी हो, जब समझते हो, 'यह हीरा है, इसे बचाना है। यह मेरे से भी ज्यादा कीमती है।' जब तुम उसे छाती के अंतस्तल में छिपा लेते हो, तब वह बीज बनता है। उस बीज से तुम रूपांतरित होते हो।
परिपाटी के अनुसार वे फकीर के पास गये। उन्होंने नेक सलाह मांगी। दरवेश ने सब को एक ही बात कही।
सभी सदगुरु एक ही बात सभी को कहते हैं। दूसरी बात ही कहने को नहीं है। सत्य बहुत तो नहीं है। तो तुम चाहे महावीर के पास जाओ, नेक सलाह मांगो, चाहे बुद्ध के पास, चाहे जरथुस्त्र के पास, चाहे कृष्ण के पास, चाहे मुहम्मद के पास; बात तो एक ही है। भाषा अलग होगी, प्रतीक अलग होंगे, ढंग अलग होंगे, कहने की व्यवस्था अलग होगी, लेकिन बात तो एक ही है। एक ही कहने जैसा है।
दरवेश ने सभी को एक ही सलाह दी। एक ही बात कही और वह बात यह थी कि मृत्यु के प्रति होश रखो, जब तक मृत्यु को जान ही न लो।
यह सूत्र है। इसे एक क्षण को मत भूलो, कि मृत्यु है। क्योंकि जब तुम मृत्यु को भूलते हो, तभी तुम भटकते हो। जैसे ही तुम मृत्यु को भूले, कि तुम्हारे जीवन में गलत प्रवेश कर जाता है। सोचो! तुम किसी से लड़ रहे हो, गालियां दे रहे हो, अपमान कर रहे हो, छुरा उठाकर छाती में भोंकने जा रहे हो और तभी तुम्हें कोई कहे, कि क्षण भर बाद तुम्हारी मृत्यु है। क्या होगा? हाथ ढीला पड़ जायेगा, छुरा नीचे गिर जाएगा। शायद जिसे तुम मारने जा रहे थे उससे तुम क्षमा मांगोगे और कहोगे, 'क्षमा कर दो। मेरे मरने का वक्त आ गया है।'
तुम अभी धन कमा रहे थे, तुम पागल हुए जा रहे थे और किसी ने बताया कि क्षण भर बाद मर जाओगे। सब महत्वाकांक्षा खो गई। अब धन में कोई सार न रहा। अब धन मिट्टी से बदतर हो गया। अब तुमे इसे ढोना न चाहोगे। अभी तुम पद की यात्रा कर रहे थे, कि बड़े से बड़े पद तक पहुंच जाऊं। अचानक खबर आ गई मृत्यु की, सब यात्रा बंद हो गई। मृत्यु के स्मरण के साथ ही जीवन दूसरा हो जाता है।
तुम्हारा जीवन गलत है क्योंकि मृत्यु का स्मरण नहीं है। तब तुम व्यर्थ में उलझे रहते हो। तब तुम क्षुद्र सी बातों में बड़ा समय लगाते हो। तब कंकड़-पत्थर बीनते हो, उनसे तिजोड़ी भरते रहते हो। जैसे ही मृत्यु का स्मरण आयेगा, तुम्हारे जीवन का सारा मूल्यांकन बदल जायेगा, वैल्युएशन बदल जायेगा। मृत्यु की स्मृति में क्या सार्थक है, वही बचेगा। जो व्यर्थ है, वह खो जायेगा। मृत्यु को भूले तो व्यर्थ को पकड़ते रहोगे। ऐसा लगता है, सदा रहना है। कूड़ा-कर्कट भी इकट्ठा करते रहते हो। मृत्यु का पता चला, तो याद आता है कि सदा तो रहना नहीं है। तो तुम्हारे झगड़ों का कितना मूल्य है? अदालती मुकदमों का कितना मूल्य है? तुम्हारे पत्नी-बच्चों का कितना मूल्य है? अपने-पराये में क्या फर्क है? जैसे ही तुम्हें मृत्यु का स्मरण आता है, घर घर नहीं रह जाता, केवल प्रतीक्षालय हो जाता है।
रेलवे स्टेशन पर, एयरपोर्ट पर तुम बैठे हो वेटिंगरूम में। वह तुम्हारा घर नहीं है। कोई अगर वहां कचरा भी फेंक दे, तो तुम बैठे देखते रहते हो। तुम यह भी नहीं कहते कि 'उठाओ यह कचरा। घर गंदा कर दिया।' तुम किसी से वहां झगड़ते भी नहीं। किसी का पैर भी तुम्हारे पैर पर पड़ जाये, तो तुम जानते हो धक्कमधुक्की है, लोग जा रहे हैं, आ रहे हैं। कोई तुम्हारा घर नहीं है। अभी लोग जा रहे हैं, घड़ी भर बाद तुम्हारा भी समय आ जायेगा और तुम भी चले जाओगे।
जैसे ही मृत्यु का स्मरण आता है, जीवन एक प्रतीक्षालय हो गया। वहां बसने को तुम नहीं हो, वहां थोड़ी देर का विश्राम है। वह पड़ाव है। वह मंजिल नहीं है, वहां से जाना ही होगा। और जहां से जाना है, वहां की बातों में कितना अर्थ? जहां से जाना है, वहां की क्षुद्र समस्याओं में उलझने का क्या सार!
दरवेश ने कहा, 'मृत्यु के प्रति होश रखो, जब तक मृत्यु को जान ही न लो।
और तब तक यह होश रखना होगा, जब तक मृत्यु से साक्षात्कार न हो जाये। तुम तो उलटा कर रहे हो। मृत्यु की तरफ पीठ किए हुए हो, भाग रहे हो, कि कहीं साक्षात्कार न हो जाये; कहीं मृत्यु सामने न मिल जाये। दरवेश कह रहा है कि तुम उसका सामना ही कर लो। क्योंकि जैसे ही तुम उसे देख लोगे, भय से मुक्त हो जाओगे। फिर उसे कोई भय नहीं है जिसने मृत्यु को देख लिया। क्यों?
क्योंकि जिस दिन मृत्यु देख ली जाती है, उस दिन देखने वाला मृत्यु से अलग हो जाता है। दृश्य और द्रष्टा अलग हो जाते हैं। तब मृत्यु भी इस जगत की एक घटना हो जाती है और तुम साक्षी हो जाते हो। जब तुम मृत्यु को ठीक से देख लेते हो, तुम अमृत हो जाते हो। मृत्यु का साक्षात्कार मनुष्य को अमरत्व दे देता है।
इसलिए मैं तुम्हें एक सूत्र देता हूं; मैं निरंतर कहता हूं कि संभोग को अगर तुम देख लो, तो समाधि। मृत्यु को अगर तुम देख लो, तो अमृत। संभोग से अगर तुम डर-डरे, भागे-भागे रहे तो तुम्हें समाधि की कोई झलक कभी न मिलेगी। मृत्यु से तुम भयभीत रहे, तो तुम्हें अमृत का कभी कोई पता न चलेगा। मृत्यु सीढ़ी है अमृत के दर्शन की। संभोग सीढ़ी है समाधि की झलक की। और जैसे ही समाधि की झलक मिली, संभोग व्यर्थ हुआ। और जैसे ही अमृत दिखाई पड़ा, मृत्यु गई। फिर तुम मरने वाले नहीं हो।
लेकिन तब यह सिद्धांत न होगा, यह तुम्हारी अपनी प्रतीति होगी। अपनी प्रतीति ही काम पड़ती है। सिद्धांत दूसरों से मिलते हैं, प्रतीति अपनी होती है। तब तुम्हें विनष्ट करने का कोई उपाय नहीं। एटम बम भी गिरता हो, तो भी तुम नहीं मरोगे। तुम मर ही नहीं सकते। जीवन शाश्वत है। रूप बदलते हैं, घर बदलते हैं, वस्त्र बदलते हैं, आकार बदलते हैं, लेकिन जो आकारों के भीतर छिपा निराकार है, वह सदा वही है।
ये घाट न होंगे तुम्हारी नदी के, दूसरे घाट होंगे। ये लोग न होंगे तुम्हारी नदी के किनारे, दूसरे लोग होंगे। लेकिन नदी सदा बहती रहती है। सागर में भी खो कर नदी खोती थोड़ी है! फिर बादल बन जाती है, फिर गंगोत्री पर बरस जाती है, फिर धारा बहने लगती है--एक वर्तुल है जीवन का--उसका कोई अंत नहीं है।
'मृत्यु का तब तक होश रखो, जब तक मृत्यु को जान ही न लो।' ऐसा उस दरवेश ने कहा।
यह दरवेश ध्यान का सूत्र है।
यह सभी ध्यान का सूत्र है। या तो कामवासना पर ध्यान को गड़ाओ, वहां से तुम्हें राज मिलेगा, वहां से कुंजी मिलेगी। या मृत्यु में ध्यान को गड़ाओ, वहां से तुम्हें राज मिलेगा, वहां से कुंजी मिलेगी। उन्हीं दो छोरों से छलांग लगती है, वहीं तट है; वहां से तुम सागर में कूद सकते हो।
लेकिन किसी मुसाफिर को यह बात रास न आई।
गये थे नेक सलाह मांगने को और यह आदमी उल्टी-सीधी बातें करने लगा। मृत्यु की बात तुम किसी से भी कहो तो किसी को रास नहीं आती। किसी से यह कहो कि तुम मरोगे, रास नहीं आता। हालांकि इससे बड़ा सत्य कोई भी नहीं है। जीवन में और सभी संदिग्ध है, मृत्यु भर असंदिग्ध है; और सभी अनिश्चित है, मृत्यु भर निश्चित है। पर जो सबसे ज्यादा निश्चित है, कोई सुनने को राजी नहीं है। लोग ज्योतिषी को हाथ दिखाते हैं, जन्मकुंडली बताते हैं, वह इसलिए नहीं कि वह बताये कि 'तुम मरोगे।' और वही केवल निश्चित है, बाकी तो...बाकी कुछ भी निश्चित नहीं है। जब तुम ज्योतिषी को हाथ दिखाते हो तो यह पूछ रहे हो कि 'कितना जीऊंगा?'...'कब मरूंगा?' यह नहीं पूछ रहे हो। ज्योतिषी भी कुशल है, वह तुम्हें खुशी के समाचार देता है, वह तुमसे कहता है, 'बहुत लंबी उम्र है।'
मुल्ला नसरुद्दीन एक ज्योतिषी को हाथ दिखा रहा था। उसने कहा कि, 'तुम्हें सुंदर स्त्री मिलेगी। और स्त्री ही नहीं मिलेगी साथ में बड़ा दहेज भी मिलेगा लाखों-करोड़ों का।' नसरुद्दीन बड़ा खुश हो गया। उसने कहा, 'बात बड़ी ऊंची कही। लेकिन यह तो बताओ, मेरी पत्नी और बच्चों का क्या होगा?' वे पहले ही से शादीशुदा हैं! प्रसन्न बहुत हुए यह बात जान कर। लेकिन तब उन्हें याद आया कि यह तो बिलकुल ठीक कहा, लेकिन मेरे पत्नी-बच्चों का क्या होगा? पत्नी-बच्चों को छोड़ने को तैयार!
ज्योतिषी जानता है, तुम्हें कौन सी बातें प्रीतिकर हैं। तुमसे वह वही कहता है, जो तुम चाहते हो। वही तुम्हें बता देता है। भरोसा बढ़ाने के लिए एक दो ऐसी बातें भी कहता है, जो तुम नहीं चाहते। वे सिर्फ भरोसा बढ़ाने के लिए; ताकि तुम्हें ऐसा न लगे कि वह अच्छी-अच्छी बातें ही कर रहा है। एक दो बातें ऐसी भी कहता है, जो तुम्हें ठीक न लगेंगी। बाकी सब अच्छी बातें कहता है। ज्योतिषी तुम्हारी आशाओं पर जीता है। जिसे खुद अपना पता नहीं है, वह तुम्हारे जीवन और भविष्य के संबंध में बताता है।
मैंने सुना है कि दो ज्योतिषी एक गांव में रहते थे। दोनों सुबह गांवों में जब निकलते यात्रा पर, तो रास्ते पर मिलते, एक दूसरे को हाथ दिखाते कि 'बोलो भाई! आज धंधा कैसा चलेगा?' एक दूसरे को हाथ दिखाकर धंधे पर चले जाते।
तुम्हारे जैसे ही! जो अंधेरे में पड़े हैं, उनके पास जाकर तुम हाथ दिखा रहे हो। तुम्हारी वासना बिलकुल अंधी मालूम पड़ती है। पर तुम चाहते हो कोई भरोसा दे दे, कि घटेगा, सब ठीक रहेगा। जो भी तुम्हें भरोसा दे देता है, तुम उसी के चरण पकड़ लेते हो।
लेकिन दरवेश, संन्यासी, सदगुरु, वे तुम्हें भरोसा नहीं दिलाना चाहते। वे तो तुम्हारे भरोसे तोड़ना चाहते हैं। क्योंकि वे सभी गलत हैं। तुमने तिनके पकड़ रखे हैं डूबने के डर से। और तिनकों से कोई कभी बचा नहीं। तुम कागज की नावों में चल रहे हो। और तुम गुरु के पास जाओगे, वह तुम्हारी नाव डुबा देगा। तुम्हें दुश्मन लगेगा, कि इस आदमी ने मेरी नाव डुबा दी। लेकिन उसने तुम्हारी नाव डुबाई यही बताने को कि यह नाव तो डूबने ही वाली है। कब तक तुम इसमें भटके रहोगे? उस नाव को खोजो, जो कभी नहीं डूबती। और उसको तुम तभी खोजोगे जब डूबने वाली नाव से तुम्हारी छुटकारा हो जाये।
छोटे बच्चे को शोभा देता है, कागज की नावें बहाता रहे। लेकिन आखिरी उम्र तक, बुढ़ापे तक तुम कागज की नावें बहाते हो। तुम्हारा सारा जीवन का चित्र कागज की नावों से बना है। अखबार में तुम्हारा नाम बड़े अक्षरों में छप जाए, तुम कितने प्रसन्न होते हो! कागज की नाव। लोग कहने लगे कि 'तुम बड़े अच्छे हो,' तुम कैसे पुलकित होते हो...कागज की नाव!
शब्द तो कागज से भी गये बीते हैं। कागज की नाव भी थोड़ी देर बहे, प्रशंसा की नाव तो उतनी भी देर नहीं बहेगी। तुमसे कोई बिलकुल ही अतिशयोक्ति प्रशंसा भी करे, तो भी तुम राजी हो जाते हो। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि आदमी खुशामद को पहचान क्यों नहीं पाता है? कोई तुम्हें मक्खन लगा रहा हो, तो सारी दुनिया पहचान लेती है, लेकिन तुम नहीं पहचान पाते। क्या कारण है? तुम किसी बुद्धू से बुद्धू आदमी को भी जाकर कहो कि 'तुमसे ज्यादा बुद्धिमान कोई आदमी नहीं है,' वह भी मान लेता है।
क्या कारण है? क्योंकि हर आदमी अपने अहंकार का बड़ा कागजी विस्तार किए बैठा है। तुम कितनी ही प्रशंसा करो, वह उससे छोटा है, जितना विस्तार उसने कर रखा है उससे बड़ा तुम कभी नहीं...इसलिए खुशामद चलती है। इसलिए लोग खुशामद से एक दूसरे को प्रभावित कर लेते हैं। क्योंकि तुम कितनी ही प्रशंसा करो, तुम्हारी प्रशंसा छोटी पड़ेगी। उससे ज्यादा वह आदमी अपनी पहले ही कर चुका है। वह अपने भीतर-भीतर कर रहा था, उसने कभी किसी से कहा नहीं था। तुमने कहकर उसकी परिपुष्टि कर दी। कागज की नावों पर आदमी यात्रा करता रहता है।
वे सभी लोग तो बहुत भयभीत हो गये होंगे। क्योंकि एक तो समुद्र की यात्रा--खतरनाक मामला। पुराने जमानों की कहानी है जब कि नाव अकसर डूब जाती है, बजाय पहुंचने के। जब कि नाव पर चढ़ना खतरे से खाली न था। तब सिर्फ दुस्साहसी लोग नाव पर चढ़ते थे। कमजोर आदमी नाव पर चढ़ते ही नहीं थे। क्योंकि नाव का मतलब पक्का नहीं था कि पहुंचेगी या नहीं पहुंचेगी। नाव छोटी थी, कमजोर थी, समुद्र भयंकर था, विकराल था। और इस आदमी से नेक सलाह मांगी थी। चाहा होगा कि आशीर्वाद दो कि 'ठीक से पहुंच जायेंगे। नाव डूबेगी नहीं। बिलकुल घबड़ाओ मत, मैं मौजूद हूं।' और यह आदमी उलटा फिजूल की बात उठा दिया। मौत से तो खुद ही डरे थे, इसने और घाव पर उंगली रख दी। अब इधर कोई मौत की चर्चा करने की जरूरत थी? इसने बेचैनी पैदा कर दी होगी, कि मौत पर ध्यान रखो, जब तक मृत्यु को जान ही न लो। ये नाव पर चढ़ने वाले यात्री वैसे ही डरे होंगे, कि मौत न हो जाये। खुश हुए होंगे देखकर फकीर को कि चलो एक ईश्वर का प्यारा साथ--बचायेगा
तुम अगर गुरु के पास भी जाते हो, तो बचने के लिए जाते हो। मिटने के लिए नहीं जाते। और गुरु तुम्हें मिटा सकता है, बचा नहीं सकता। क्योंकि वह मिटाना ही बचाने का एकमात्र उपाय है।
बड़ी अपशगुन की बात कही। कहा कि मृत्यु का ध्यान रखो, होश रखो, जब तक जान ही न लो। किसी मुसाफिर को यह बात रास न आई। यह बात अपशगुन की थी। यह करनी ही न थी।
और थोड़ी ही देर बाद समुद्र में भयानक तूफान उठा।
और तब तो उन मुसाफिरों को पक्का हो गया होगा कि यह आदमी गलत ही आदमी है। इसके ही वचन का यह परिणाम है। इसने आते ही गलत बात कह दी।
आदमी इतना भयभीत है कि जिसका हिसाब नहीं। तुम्हारा रास्ता बिल्ली काट जाए, तो तुम घर लौट आते हो। इतने डरते हो, कहीं अपशगुन न हो जाए! मगर अब तो लौटने का कोई उपाय न था। जहाज पर सवार हो गये थे।
एक वैज्ञानिक समझा रहा था एक सभा में कि आदमी हो कर अंधविश्वासों से मुक्त हो जाओ। जानवर भी अंधविश्वास नहीं करते तो तुम तो आदमी हो। एक बूढ़ी स्त्री खड़ी हो गई और उसने कहा कि 'माफ करिए। अगर चूहे के रास्ते को बिल्ली काट जाए, तो चूहा वापस लौट जाता है कि नहीं?' वह बूढ़ी औरत समझ रही है कि चूहा भी अंधविश्वास के कारण वापिस लौट जाता है, कि रास्ता...।
चूहे का भय तो वास्तविक है, लेकिन आदमी होकर तुम क्यों लौट जाते हो? पर डर है। शायद चूहे से ही सीखा होगा लोगों ने, बिल्ली से डरना।
जब आ गई, चारों तरफ मौत मालूम होने लगी, तूफान उठा भयानक, त्राहि-त्राहि मच गई।
नाविक और यात्री सभी घुटनों पर झुक गये और ईश्वर से जहाज को बचाने की प्रार्थना करने लगे।
हम ईश्वर से हमेशा बचने की प्रार्थना करते हैं। इसलिए हमारी प्रार्थनायें उस तक नहीं पहुंच सकतीं।
ये प्रार्थनायें ऐसे हैं जैसे बीज बचने की प्रार्थना कर रहा हो। और बड़ी कृपा है परमात्मा की कि वह तुम्हारी प्रार्थना सुनता नहीं। क्योंकि तुम बच जाओगे तो तुम सड़ जाओगे। तुम बीज हो; अभी तुम वृक्ष नहीं हो। बीज की तरह तो तुम्हारा मिटना ही कल्याण है। अगर बीज बच गया तो कभी भी वृक्ष न हो पायेगा। तुम्हें पता ही नहीं कि तुम क्या मांग रहे हो। तुम कह रहे हो, 'मुझे बचाओ।' तुम्हीं रोग हो। तुम्हीं, तुम्हारे कारागृह हो। तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारा कोई दुश्मन नहीं है। तुम्हीं बाधा हो। और तुम प्रार्थना कर रहे हो कि मुझे बचाओ।
तो जो गुरु तुम्हें बचाते हैं, तुम उनके पीछे लाखों की संख्या में जाते हो। कोई ताबीज बांट रहा है, कोई राख दे रहा है, क्योंकि वे तुम्हें बचा रहे हैं। और तुम्हें पता नहीं है कि गुरु तुम्हें मिटायेगाबचायेगा कैसे? वह ताबीज कैसे देगा? ताबीज का अर्थ ही क्या होता है? तुम जैसे हो अगर बच गये, तो इससे बड़ा कोई दुर्भाग्य नहीं।
तुम खुद ही सोचो, एक बार विचार करो भीतर कि तुम जैसे हो, अगर ऐसे ही सदा के लिए बच गये तो कैसी मुसीबत न हो जायेगी! राजी हो, जैसे हो इससे ही? कोई तृप्ति हो गई है इससे? कोई ऐसा संगीत भीतर पैदा हुआ है कि अब यह सदा बजता रहेगा तो तुम प्रसन्न रहोगे? कुछ भी तो तुम्हारे हाथ में नहीं है। कूड़ा-करकट तुम्हारी आत्मा पर है। दीनता-दरिद्रता के सिवाय तुमने कुछ जाना नहीं है। भीतर सिवाय आंसुओं के और कुछ भी नहीं। मुस्कुराहटें सब तुम्हारी झूठी हैं। नाचे तुम कभी भी नहीं हो। नाच तुम सकते कैसे हो? ऐसा तुम्हें कुछ मिला नहीं जिसके कारण तुम नाचो।
वह मीरा कह सकती है, 'पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे।' क्योंकि पग घुंघरू तभी बंधते हैं जब कृष्ण मिल जाए; जब जीवन का परम सत्य मिल जाये। तुम जैसे हो, अगर बच गये तो इससे बड़ा कोई अभिशाप न होगा, और यही तुम मांग रहे हो। खलील जिब्रान ने कहीं कहा है कि परमात्मा बड़ा कृपालु है कि आदमी की प्रार्थनायें नहीं सुनता। क्योंकि सुन ले और राजी हो जायेगा, अच्छा, चलो ठीक है।
इसलिए समझदार व्यक्ति परमात्मा से यह नहीं कहता कि मेरी प्रार्थना पूरी करना, वह उससे कहता है, 'जो तेरी मर्जी, वह तू पूरी करना। क्योंकि हम तो यह भी नहीं जानते, क्या मांगें? हम तो गलत ही मांगेंगे, क्योंकि हम गलत हैं। हमारी तो मांग भी उपद्रव होगी।' और तुम्हारे पूरे जीवन की कथा यही है कि जो तुमने मांगा, वह तुम्हें मिल गया। फिर तुम उससे परेशान हो रहे हो। न मिलता तो रोते; मिल गया तो रो रहे हो। और तुम कभी गौर करके नहीं देखते।
मैंने सुना है, एक बड़ी प्राचीन, तिब्बत में कहानी है। एक आदमी यात्रा से लौटा है--लंबी यात्रा से। अपने मित्र के घर ठहरा और उसने मित्र से कहा रात, यात्रा की चर्चा करते हुए, कि एक बहुत अनूठी चीज मेरे हाथ लग गई है। और मैंने सोचा था कि जब मैं लौटूंगा तो अपने मित्र को दे दूंगा, लेकिन अब मैं डरता हूं, तुम्हें दूं या न दूं। डरता हूं इसलिए कि जो भी मैंने उसके परिणाम देखे वे बड़े खतरनाक हैं। मुझे एक ऐसा ताबीज मिल गया है कि तुम उससे तीन आकांक्षायें मांग लो, वे पूरी हो जाती हैं। और मैंने तीन खुद भी मांग कर देख लीं। वे पूरी हो गई हैं और अब मैं पछताता हूं कि मैंने क्यों मांगीं? मेरे और मित्रों ने भी मांग कर देख लिए हैं, सब छाती पीट रहे हैं, सिर ठोक रहे हैं। सोचा था तुम्हें दूंगा, लेकिन अब मैं डरता हूं, दूं या न दूं।
मित्र तो दीवाना हो गया। उसने कहा, 'तुम यह क्या कहते हो; न दूं? कहां है ताबीज? अब हम ज्यादा देर रुक नहीं सकते। क्योंकि कल का क्या भरोसा?' पत्नी तो बिलकुल पीछे पड़ गई उसके कि निकालो ताबीज। उसने कहा कि 'भई, मुझे सोच लेने दो। क्योंकि जो परिणाम, सब बुरे हुए।' उसके मित्र ने कहा, 'तुमने मांगा ढंग से न होगा। गलत मांग लिया होगा।'
हर आदमी यही सोचता है कि दूसरा गलत मांग रहा है, इसलिए मुश्किल में पड़ा। मैं बिलकुल ठीक मांग लूंगा। लेकिन कोई भी नहीं जानता कि जब तक तुम ठीक नहीं हो, तुम ठीक मांगोगे कैसे? मांग तो तुमसे पैदा होगी। नहीं माना मित्र, नहीं मानी पत्नी। उन्होंने बहुत आग्रह किया तो ताबीज देकर मित्र उदास चला गया। सुबह तक ठहरना मुश्किल था। दोनों ने सोचा, क्या मांगें? बहुत दिन से एक आकांक्षा थी कि घर में कम से कम एक लाख रुपया हो। तो पहला लखपति हो जाने की आकांक्षा थी। और लखपति तिब्बत में बहुत बड़ी बात है। तो उन्होंने कहा, वह पहली आकांक्षा तो पूरी कर ही लें, फिर सोचेंगे। तो पहली आकांक्षा मांगी कि लाख रुपया।
जैसे ही कोई आकांक्षा मांगोगे, ताबीज हाथ से गिरता था झटक कर। उसका मतलब था कि मांग स्वीकार हो गई। बस, पंद्रह मिनट बाद दरवाजे पर दस्तक पड़ी। खबर आई कि लड़का जो राजा की सेना में था, वह मारा गया और राजा ने लाख रुपये का पुरस्कार दिया। पत्नी तो छाती पीट कर रोने लगी कि यह क्या हुआ? उसने कहा कि दूसरी आकांक्षा इसी वक्त मांगो कि मेरा लड़का जिंदा किया जाए। बाप थोड़ा डरा। उसने कहा कि यह अभी जो पहली का फल हुआ...पर पत्नी एकदम पीछे पड़ी थी कि देर मत करो कहीं वे दफना न दें, कहीं लाश सड़-गल न जाए, जल्दी मांगो। तो दूसरी आकांक्षा मांगी कि लड़का हमारा वापिस लौटा दिया जाए। ताबीज गिरा। पंद्रह मिनट बाद दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। लड़के के पैर की आहट थी। उसने जोर से कहा, 'पिताजी।' आवाज भी सुनाई पड़ी, पर दोनों बहुत डर गये। इतने जल्दी लड़का आ गया? बाप ने बाहर झांक कर देखा, वहां कोई दिखाई नहीं पड़ता। खिड़की में से देखा, वहां कोई दिखाई नहीं पड़ता, कोई चलता-फिरता मालूम होता है।
वह लड़का प्रेत होकर वापिस आ गया। क्योंकि शरीर तो दफना दिया जा चुका था। पत्नी और पति दोनों घबड़ा रहे हैं, कि अब क्या करें? दरवाजा खोलें कि नहीं? क्योंकि तुमने भला कितना ही लड़के को प्रेम किया हो, अगर वह प्रेत होकर आ जाए तो हिम्मत पस्त हो जायेगी। बाप ने कहा, 'रुक अभी एक आकांक्षा और मांगने को बाकी है।' और उसने ताबीज से कहा, 'कृपा कर और इस लड़के से छुटकारा। नहीं तो अब यह सतायेगा जिंदगी भर। यह प्रेत अगर यहां रह गया घर में...इससे छुटकारा करवा दे।' और पति आधी रात गया ताबीज देने अपने मित्र को वापिस। और कहा कि, 'इसे तुम कहीं फेंक ही दो। अब किसी को भूल कर मत देना।'
तुम्हारी पूरी जिंदगी की कथा इस ताबीज की कथा में छिपी है। जो तुम मांगते हो वह मिल जाता है। नहीं मिलता है तो तुम परेशान होते हो। मिल जाता है, फिर तुम परेशान होते हो। गरीब दुखी दिखता है, अमीर और भी दुखी दिखता है। जिसकी शादी नहीं हुई वह परेशान है, जिसकी शादी हो गई है वह छाती पीट रहा है, सिर ठोंक रहा है। जिसको बच्चे नहीं हैं वह घूम रहा है साधु-संतों के सत्संग में, कि कहीं बच्चा मिल जाए। और जिनको बच्चे हैं, वे कहते हैं, कैसे इनसे छुटकारा होगा। यह क्या उपद्रव हो गया। तुम्हारे पास कुछ है तो तुम रो रहे हो; तुम्हारे पास कुछ नहीं है तो तुम रो रहे हो। और मौलिक कारण यह है कि तुम गलत हो। इसलिए तुम जो भी चाहते हो, वह गलत ही चाहते हो।
फकीर ने मृत्यु की बात कहीं उन लोगों से, जो जीना चाहते थे। समुद्र में भयंकर तूफान, त्राहि-त्राहि मच गई, लोगों के घुटने झुक गये और ईश्वर से जहाज को बचाने की प्रार्थना करने लग गये। फकीर बड़ा हैरान हुआ होगा। अभी-अभी नेक सलाहें दी थीं, कि मृत्यु का ध्यान करना और मृत्यु सामने खड़ी है और तुम जीवन की आकांक्षा कर रहे हो!
सभी फकीर हैरान होते हैं। तुम्हें जो भी सिखाओ, क्षण भर बाद तुम उससे उलटा करते हो। सलाहें ली नहीं जातीं। परंपरा के कारण लोग मांगने चले जाते हैं।
लेकिन इस आतंक के बीच दरवेश अनुद्विग्न और शांत बैठा रहा।
इससे शुभ अवसर और क्या होगा कि मृत्यु चारों तरह खड़ी थी और वह द्रष्टा हो गया होगा? वह देखता रहा होगा--कि मौत चारों तरफ घट रही है। सब तरफ मौत है, तूफान है, सागर है। उसने कोई प्रार्थना न की बचाने की। उसने तो धन्यवाद दिया होगा कि अच्छा अवसर दिया। एक परिस्थिति, जिसमें मैं पूरी तरह जाग सकता हूं।
धार्मिक व्यक्ति परमात्मा को धन्यवाद देता है। अधार्मिक प्रार्थना करता है। धार्मिक की प्रार्थना सदा धन्यवाद है। अधार्मिक की प्रार्थना सदा मांग है, कुछ दो। और धार्मिक की प्रार्थना सदा यह है कि तूने इतना दिया है कि मैं अनुगृहीत हूं। अब और क्या मांगना है?
वह शांत, इस आतंक के बीच अनुद्विग्न बैठा रहा।
फिर समुद्र शांत हुआ, तब एक सहयात्री ने दरवेश से पूछा, 'क्या आपने नहीं देखा कि इस खौफनाक तूफान के दरम्यान हमारे और मौत के बीच एक तख्ते से ज्यादा मजबूत और कुछ भी नहीं था?'
यह नाव का तख्ता ही था एकमात्र। जरा भूल-चूक, सागर जरा और पागल, कि तख्ता उलट जाता और हम गये थे। मौत बिलकुल करीब थी। तख्ते का फासला था। हाथ बढ़ा और मिल जाती। क्या आपने नहीं देखा?
दरवेश ने कहा, 'हां, मैं जानता था कि समुद्र में ऐसा सदा रहता है। एक तख्ता ही रहता है, जो फासला है, लेकिन जब मैं जमीन पर था, तक भी बराबर देखा किया कि आम जिंदगी में हमारे और मृत्यु के बीच इससे भी कम बचाव है।'
समुद्र में तो ऐसा होता ही है कि एक तख्ता होता है। जिंदगी में उतना भी नहीं है। फासला है ही नहीं तुम्हारे और मौत के बीच। मौत से तुम हर घड़ी सटे खड़े हो।
क्यों? क्या मतलब है इसका? इसका मतलब है, शरीर से तुम सटे खड़े हो। शरीर मरणधर्मा है। तुम में और शरीर में रत्तीभर फासला नहीं है। और शरीर मृत्यु है, वह मरेगा। किसी भी क्षण मर सकता है। मरना उसका स्वभाव है। वस्तुतः मौत घट ही चुकी है। वह मरा ही हुआ है और उसी से तुम सटे खड़े हो। तो सागर में तो कम से कम लकड़ी का एक तख्ता था, लेकिन आम जिंदगी में उतना तख्ता भी नहीं है।
मृत्यु के प्रति जो जागेगा, वह शरीर के प्रति भी जागेगा। क्योंकि शरीर और मृत्यु एक ही अर्थ रखते हैं। जैसे ही तुम शरीर के प्रति जागोगे, मृत्यु के प्रति जागोगे। वैसे ही फासला होना शुरू हो जायेगा। और फासला इतना बड़ा है कि उससे बड़ा कोई दूसरा फासला नहीं हो सकता।
तुम अमृत हो, शरीर मृत्यु है। फासला और इससे ज्यादा बड़ा क्या होगा? तुम शाश्वत हो, शरीर क्षणिक है। तुम सदा से हो, सदा रहोगे, शरीर अभी है, अभी नहीं हो जायेगा। तुम चैतन्य हो, शरीर मिट्टी है। शरीर दीया है मिट्टी का, तुम ज्योति हो। फासला बहुत बड़ा है। अनंत फासला है। इससे बड़ा कोई चमत्कार नहीं है दुनिया में कि यह फासले कैसे पूरे हो गये हैं? पदार्थ और परमात्मा का मिलना कैसे घटित हुआ है? यह बड़े से बड़ा चमत्कार है। लेकिन जैसे तुम खड़े हो आंख बंद किए, दीये के तले अंधेरे में, वहां फासला बिलकुल नहीं है।
और फकीर ने ठीक ही कहा कि आम जिंदगी में, मौत में और तुम में इंच भर का फासला नहीं है। फिर भी तुम मजे से चलते हो, जैसे कि मौत है ही नहीं। अगर लोगों को देखो तो तुम्हें लगेगा मौत है ही नहीं। कोई मरने के खयाल से नहीं भरा है। आखरी क्षण तक भी आदमी जिंदगी के खयाल से भरा रहता है। आखिरी क्षण तक बचने की कोशिश करता है। आखरी कण को भी पकड़ता है सहारे की तरह। और जिंदगी में कुछ भी नहीं है पकड़ने जैसा। न उससे कुछ मिला है, न कुछ मिल सकता है। जो भी मिला है, वह भी दुख सिद्ध हुआ है। वह ताबीज भयंकर है।
एक सहयात्री ने पूछा यह भी, बाकी सहयात्री फिर न आये। क्योंकि यह आदमी वैसे ही खतरनाक है। हो सकता है कि इसी के अपशगुन वचन के कारण यह तूफान उठा। तो भले लोग थे कि उन्होंने इस फकीर को उठाकर नहीं फेंक दिया। क्योंकि यह चुपचाप खड़ा था और प्रार्थना नहीं कर रहा था। बड़े सज्जन लोग रहे होंगे। या इतने भूल गये होंगे घबड़ाहट और भय में कि इसकी उन्हें याद न रही होगी कि यह आदमी ऐसे ही खड़ा है। नहीं तो वे कहते कि 'तुम प्रार्थना नहीं कर रहे हो? नास्तिक मालूम होते हो और फकीर बने बैठे हो। और जब सब खतरे में हैं, तो तुम तो परमात्मा के सबसे ज्यादा निकट हो। तुम्हारी आवाज जल्दी सुनी जायेगी। प्रार्थना करो।' उन्होंने जर्बदस्ती इसके घुटने टिकवाये होते। या इसे उठाकर समुद्र में फेंका होता कि यह गलत आदमी सवार है, इसी की वजह से नाव मुसीबत में पड़ गई। और फिर, इसने आते ही मौत की बात कह दी थी।
शायद घबड़ाहट में वे इसे भूल गये। फिर दुबारा वे इसके पास न आये होंगे। क्योंकि इस आदमी से सांत्वना नहीं मिल सकती। इस आदमी से वे बचने लगे होंगे। एक सहयात्री ने सिर्फ इतना कहा कि क्या आपने देखा कि मौत और हम कितने करीब थे? फकीर ने कहा कि मैं तो यही देख रहा हूं सब जगह, कि मौत और हम बिलकुल करीब हैं। और यही तो मैं कहता हूं कि मौत के प्रति सजग रहो...सतत। सुबह उठकर जानो कि यह आखिरी दिन होगा। सांझ सोते वक्त जानो कि यह आखिरी रात है। काश, तुम इस सजगता को थोड़ा सा सम्हाल लो, तो तुम पाओगे, तुम्हारे जीवन में ऐसा रस बरसने लगा मौत की सजगता से।
रात सोते वक्त अगर तुम्हारे मन में यह खयाल हो कि यह रात आखिरी होगी, धन्यवाद दे दो परमात्मा को--जो उसने दिया। संसार के मित्रों, प्रियजनों को धन्यवाद दे दो मन में...जो उन्होंने तुम्हारे लिए किया। क्योंकि हो सकता है, सुबह तुम न उठो और धन्यवाद का समय न मिले। इस रात को आखिरी मान कर सो जाओ। अगर तुम इस रात को आखिरी मान कर सो सकते हो, तुम्हारी नींद का गुण धर्म बदल जायेगा। क्योंकि अगर यह आखिरी है, तो सपने नहीं आयेंगे। सपने का क्या अर्थ है? वह तो तैयारी है कल के जीवन की। अगर यह आखिरी है, तो तुम ऐसे सो जाओगे जैसे परमात्मा की गोद में सो गये। सुबह उठने का कोई ख्याल नहीं तो तनाव क्या? कल तो तनाव है। कल के कारण ही तो मन में बेचैनी है। इसलिए कल जब बहुत काम होता है, तो तुम रात सो नहीं पाते। अब कल तो होने वाला नहीं है। यह रात आखिरी हो सकती है। और एक न एक दिन तो ऐसी रात आयेगी, जो आखिरी होगी। बिना धन्यवाद दिये मत चले जाना। क्योंकि फिर पछताने से कुछ भी न होगा। तो हर रात ही कर लो। क्योंकि कोई पक्का पता नहीं, कौन सी रात यह होगा।
रात सोते समय आखिरी रात है। सब को धन्यवाद दे दो। जिनसे क्रोध किया हो, उनसे क्षमा मांग लो। जिन्होंने तुम्हारे लिए कुछ किया हो, उन्हें धन्यवाद दे दो। जिन्होंने कुछ भी न किया हो, कम से कम उन्होंने तुम्हारा कुछ बुरा नहीं किया, उन्हें भी धन्यवाद दे दो। जिन्होंने तुम्हारा बुरा किया हो, जिनके प्रति मन में द्वेष, घृणा, क्रोध हो, उनसे भी क्रोध, घृणा का संबंध तोड़ लो। क्योंकि जब शरीर ही न बचेगा, तो क्या नाता, क्या रिश्ता! अपने-पराये से मुक्त हो जाओ। और चुपचाप सो जाओ, जैसे यह आखिरी रात है। तुम्हारी रात का गुणधर्म बदल जायेगा।
शरीर सोया रहेगा, तुम्हारे भीतर कोई जागेगा। दीये के नीचे का अंधेरा जो है, वह धीरे-धीरे मिटने लगेगा। सुबह जब उठो तो पहला काम परमात्मा को धन्यवाद दो, कि एक दिन और तूने दिया। बस, प्रसन्नता से, इस अनुग्रह भाव से इसे स्वीकार कर लो। रात फिर आखिरी मान कर सो जाओ। प्रत्येक पल को धन्यवाद से स्वीकार करो और प्रत्येक पल को अंतिम मान कर विदाई का क्षण भी समझ लो। यह तुम्हारे जीवन का सूत्र बन जाए। तुम जल्दी ही पाओगे, तुम और हो गये, नये हो गये। तुम्हारे भीतर कोई दूसरा ही जन्म गया।
इस बात के लिए ही उस फकीर ने कहा था, 'मृत्यु के प्रति होश रखो, जब तक मृत्यु को जान ही न लो।'       
मृत्यु का स्मरण एक दिन अमृत का दर्शन बन जाता है।

आज इतना ही।



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