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मंगलवार, 13 जनवरी 2015

गीता दर्शन--(भाग--5) प्रवचन--123

काम का राम में रूपांतरण—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

अध्‍याय—10
सूत्र
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामास्‍मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्थि कन्दर्प: सर्याणामस्मि वासुकि:।। 28।।
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्
पितृणामर्यमा चास्मि यम: संयमतामहम्।। 29।।
प्रह्वादश्चास्मि दैत्यानां काल: कलयतामहम्
मृगाणां मृगेन्द्रोउहं वैनतेयश्ल पक्षिणाम्।। 3।।
और हे अर्जुन मैं शस्त्रों में वज्र और गौओं में कामधेनु हूं, और संतान की उत्पत्ति का हेतु कामदेव हूं, सर्पों में सर्पराज वासुकि हूं
तथा मैं नागों में शेषनाग और जलचरों में उनका अधिपति वरुण देवता हूं और पितरों में अर्यमा नामक पित्रेश्वर तथा शासन करने वालों में यमराज मैं हूं

और हे अर्जुन मैं दैत्यों में प्रह्लाद और गिनती करने वालों में समय हूं, तथा पशुओं में मृगराज सिंह और पक्षियों में गरूड़ मैं ही हूं
र हे अर्जुन, शस्त्रों में वज्र, गौओं में कामधेनु, और जीवन की उत्पत्ति का हेतु कामदेव मैं हूं।
परसों रात्रि शिव पर बोलते हुए मैंने आपसे कहा था कि 'ऋ' के वे प्रतीक हैं, विनाश की शक्ति वे हैं। साथ ही प्रेम और काम भी उनके जीवन में उतना ही गहरा है।
एक मित्र को चोट लगी होगी इस बात से, तो उन्‍होंने मुझे पत्र लिखा है कि यह आपने ठीक नहीं किया। हमारे पूज्य देव को, महादेव को आपने काम और प्रेम से संयुक्त किया। कल उनका पत्र मिला था, मैं कल चुप रह गया, क्योंकि आज यह सूत्र आने को था। उन्होंने यह भी लिखा है कि शंकर ने तो, शिव ने तो कामदेव को भस्म कर दिया था। कैसे आप उनमें काम की बात कहते हैं? तो पहले उन्हें थोड़ा—सा उत्तर दे दूं और फिर इस सूत्र को समझाने में लगू।
काम को भी भस्म तभी किया जा सकता है, जब काम हो; नहीं तो काम को भस्म नहीं किया जा सकता। भस्म भी हम उसे ही कर सकते हैं, जो मौजूद हो। और मजे की बात तो यह है कि काम को केवल वही भस्म कर सकता है, जिसमें काम इतना प्रगाढ़ हो कि अग्नि बन जाए। छोटे—मोटे काम की वासना वाला आदमी काम को भस्म नहीं कर पाता। काम की भी लपट चाहिए।
और यह दृष्टि, कि काम के होने से कोई देवता अपमानित हो जाता है, अपनी ही नासमझी पर निर्भर है। क्योंकि कृष्‍ण इस सूत्र में कहते हैं कि जीवन की उत्पत्ति का कारण कामदेव मैं हूं। उन मित्र को बड़ी तकलीफ होगी। तब तो शिव ने जिसको भस्म किया होगा वे कृष्‍ण हैं! और उनको तो भारी पीड़ा होगी कि कृष्‍ण अपने ही मुंह से कहते हैं कि मैं कामदेव हूं।
लेकिन सत्यों को समझना हो, तो पीड़ाओं की तैयारी चाहिए। और जो सत्य को समझने की हिम्मत न रखते हों, उन्हें उस तरफ आख ही बंद कर लेनी चाहिए। उस तरफ प्रयास ही नहीं करना चाहिए।
कुछ मौलिक बातें आपसे कहूं तब यह सूत्र आपकी समझ में आ सके। यह सूत्र कठिन मालूम पड़ेगा। इसलिए नहीं कि कठिन है, इसलिए कि हमारी बुद्धि न मालूम कितनी व्यर्थ की धारणाओं से भरी है। और न मालूम कितनी निंदाएं और न मालूम कितने विक्षिप्त खयाल हमारे मन को घेरे हुए हैं।
जीवन की समस्त उत्पत्ति काम से ही है। जगत की सृष्टि भी काम से ही है। सृजन का सूत्र ही काम है। अगर ब्रह्मा ने भी जगत को उत्पन्न किया, तो शास्त्र कहते हैं, कामना पैदा हुई। काम का जन्म हुआ ब्रह्मा में, तो ही उत्पन्न होगा कुछ। इस जगत में जब भी कुछ पैदा होता है, तो पैदा होने का सूत्र ही काम है।
और ऐसा नहीं है कि बच्चे ही जब पैदा होते हैं, तभी काम की शक्ति काम आती है। नहीं, कुछ और भी पैदा होता है— एक कविता पैदा होती है, एक चित्र पैदा होता है, एक मूर्ति निर्मित होती है—जहां भी कोई व्यक्ति कुछ सृजन करता है, तो उसके भीतर जो ऊर्जा, जो शक्ति काम में आती है, वह काम ही है। उत्पत्ति मात्र काम है। सृजन मात्र काम है।
इसलिए जो लोग इस सत्य को बिना समझे काम से शत्रुता में लग जाएंगे, उनका जीवन निष्किय, और उनका जीवन सृजनहीन और उनका जीवन एक लंबी मृत्यु हो जाएगी। काम से ही सब उत्पन्न होता है।
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि काम में ही सब समाप्त हो जाता है। काम के पार जाया जा सकता है। लेकिन वह पार जाना भी काम के ही मार्ग से होता है, वह सृजन भी कामवासना के ही मार्ग से होता है।
कामवासना क्या है और यह कामदेव की धारणा क्या है?
शायद पूरी पृथ्वी पर हिंदू धर्म अकेला धर्म है, जिसने काम को भी अपनी जीवन—दृष्टि में समाहित किया है। यह बड़े साहस की बात है। क्योंकि सामान्यतया धर्म काम के विरोधी हैं। और हम सोच भी नहीं सकते कि कोई ईसाई परम पुरुष कह सके कि मैं कामदेव हूं। हम सोच भी नहीं सकते कि कोई जैन धारणा इस बात की स्वीकृति दे सके ईश्वर को कहने की कि मैं कामदेव हूं। यह असंभव है, सोचना भी असंभव है। लेकिन कृष्‍ण इसे सहजता से कह रहे हैं। और बड़े साहस की बात है।
साहस की इसलिए है कि हम केवल कामवासना के एक ही रूप से परिचित हैं। और इसलिए जब भी कामवासना का खयाल भी हमारे मन में आता है, तो जो चित्र हमारे सामने मौजूद होता है, वह हमारी ही कामवासना के अनुभव का है। हमें कामवासना के दूसरे रूप का कोई पता ही नहीं है।
एक ही ऊर्जा है मनुष्य के भीतर, उसे हम कोई भी नाम दें। अगर वही ऊर्जा नीचे की तरफ प्रवाहित होती है, तो कामवासना और सेक्स बन जाती है। और वही ऊर्जा अगर ऊपर की तरफ प्रवाहित होने लगती है, तो अध्यात्म, कुंडलिनी, हम जो भी नाम देना चाहें। वही ऊर्जा, शक्ति वही है; सिर्फ आयाम, दिशा बदल जाती है।
नीचे की ओर गिरती हो वही शक्ति, तो वासना हो जाती है, ऊपर की ओर उठती हो वही शक्ति, तो आत्मा हो जाती है। नीचे की ओर गिरती हो, तो दूसरों को पैदा करती है, ऊपर की ओर उठने लगे, तो स्वयं को जन्म देती है। नीचे की ओर बहना हो उसे, तो किसी और को आधार बनाना पड़ता है, ऊपर की ओर बहना हो, तो स्वयं ही आधार होना पड़ता है। नीचे की ओर बहती हो काम—ऊर्जा, तो जननेंद्रिय के मार्ग से प्रकृति में लीन हो जाती है; और अगर ऊपर की ओर बहने लगे, तो सहस्रार से लीन होकर ब्रह्म में लीन हो जाती है।
काम—ऊर्जा दो स्थानों से विलीन होती है। या तो जननेंद्रिय से, जो कि पहला चक्र है; और या सहस्रार से, जो अंतिम चक्र है। ये दो छोर हैं आपके व्यक्तित्व के। काम—केंद्र से आप प्रकृति से जुड़े हैं और सहस्रार से आप परमात्मा से जुड़े हैं। लेकिन शक्ति एक ही है। लेकिन हमारी हालत ऐसी है कि जिस आदमी को आग का एक ही परिचय हो, घर जल जाने का, वह सोच भी नहीं सकता कि आग रोटी भी पकाती है, और वह सोच भी नहीं सकता कि रात के अंधेरे में आग प्रकाश भी देती है; और वह सोच भी नहीं सकता कि ठंड से मरते हुए आदमी के लिए आग जीवन भी हो जाती है। जिसका एक ही अनुभव हो कि उसने आग से मकान को जलते और बरबाद होते देखा हो, उसे आग के दूसरे रूपों का कोई भी पता नहीं होता।
हम कामवासना के एक ही रूप को जानते हैं, जिससे हम अपनी जीवन—शक्ति को क्षीण होते देखते हैं। हम एक ही रूप को जानते हैं, जिसके कारण हमारे जीवन में सारी विपत्तियां और सारे उपद्रव खड़े होते हैं। हम एक ही रूप को जानते हैं, जिससे हमारे आस—पास संसार निर्मित होता है। हम एक ही रूप जानते हैं, जिससे क्रोध, लोभ, भय, ईर्ष्या, वैमनस्य, सबका जन्म होता है। हम कामवासना का अधोगामी रूप ही जानते हैं।
इसलिए अगर कोई कहे कि कृष्‍ण भी कामदेव हैं, तो हमें बहुत घबड़ाहट होती है। क्योंकि काम का जो रूप हम जानते हैं, वह सोचकर भी हमें घबड़ाहट होती है। हम तो चाहेंगे कि कृष्य कामवासना के बिलकुल ऊपर हों, बिलकुल दूर हों, उनको छू भी न जाए। यह हमारा ही अनुभव है, जिसके कारण हम ऐसा सोचते हैं। लेकिन कृष्‍ण जब कहते हैं, मैं कामदेव हूं, तो वे कामवासना के दूसरे रूप को भी समाहित कर रहे हैं। वह दूसरा रूप ही हमारी दृष्टि में नहीं है, इसलिए हमें अड़चन और कठिनाई होती है। जैसे काम की शक्ति, सेक्स एनर्जी बाहर की तरफ बहती है, नीचे की तरफ बहती है, दूसरे शरीरों की तरफ बहती है—यह बहाव का एक ढंग है।
और ध्यान रहे, दुनिया में ऐसा कोई भी बहाव नहीं है, जो विपरीत न बह सके। अगर मैं चलकर आपके पास आ सकता हूं तो लौटकर आपसे दूर भी जा सकता हूं। ऐसा कोई भी रास्ता नहीं है, जो एक ही तरफ चलता हो। जिस रास्ते से चलकर आप यहां तक आए हैं, उसी से चलकर आप अपने घर वापस लौट जाएंगे। कोई ऐसा दरवाजा नहीं है, जिससे आप बाहर आते हों और उसी से आप भीतर न जा सकते हों। हर द्वार, हर मार्ग, हर प्रवाह दो आयामों में होता है, दो दिशाओं में होता है। आप पीछे लौट सकते हैं।
कामवासना का हम एक ही द्वार जानते हैं और एक ही रूप, दूसरे की तरफ प्रवाहित होने वाला। और ध्यान रहे, जब भी कोई दूसरे की तरफ प्रवाहित होता है, तो परतंत्र हो जाता है। इसलिए कामवासना गहरे में हमारे लिए एक परतंत्रता है। इसलिए जो लोग भी स्वतंत्र होना चाहते हैं, मुक्त होना चाहते हैं, उनका संघर्ष कामवासना से शुरू हो जाता है।
इस दुनिया में गहरी से गहरी गुलामी सेक्स की गुलामी है। दूसरे आदमी पर निर्भर होना पड़ता है। दूसरा अपने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। दूसरे के इर्द—गिर्द चक्कर काटना पड़ता है, परिक्रमा करनी पड़ती है। एक गहरी गुलामी है।
इसलिए जो लोग भी मुक्ति की दिशा में चलते हैं, उनका मन अगर वितृष्णा से भर जाता हो कामवासना से, तो आश्चर्य नहीं है; तर्कयुक्त है, स्वाभाविक है। लेकिन शत्रुता से भर जाने से कुछ भी न होगा। और लड़ने से भी कुछ न होगा।
मजे की बात है! अगर मुझे स्त्री आकर्षित करती है या पुरुष आकर्षित करता है या कोई मुझे आकर्षित करता है, तो लड़ने वाला, जो मुझे आकर्षित करता है, उससे भागेगा। लेकिन मैं कहीं भी भाग जाऊं, जो मेरे भीतर आकर्षित होता था, वह मेरे साथ ही रहेगा। मैं एक स्त्री को छोड्कर भाग सकता हूं, एक पुरुष को छोड्कर भाग सकता हूं लेकिन जो भी मेरे भीतर प्रवाहित होता था नीचे की ओर, वह मेरे साथ ही चला जाएगा। वह अ को छोड़ देगा तो ब पर आकर्षित होगा, ब को छोड़ देगा तो स पर आकर्षित होगा। और मैं यह भी कर सकता हूं कि सबको छोड्कर निपट जंगल में बैठ जाऊं, तो मेरी कल्पना में ही मैं उन सबको पैदा करना शुरू कर दूंगा, जो मेरे आकर्षण के बिंदु बन जाएंगे।
स्त्रियों को छोड्कर भाग जाने से कोई स्त्रियों से मुक्त नहीं होता। स्त्रियों के बीच रहकर कभी मुक्त हो भी जाए, भागकर तो मुक्त होना बहुत मुश्किल हो जाता है। क्योंकि जिससे हम भागते हैं, वह हमारा पीछा करता है कल्पना में।
और ध्यान रहे, कोई भी स्त्री वस्तुत: इतनी सुंदर नहीं है, जितनी कल्पना में सुंदर हो जाती है। न कोई पुरुष इतना सुंदर है, जितना कल्पना में सुंदर हो जाता है। कल्पना कहीं फ्रस्ट्रेट ही नहीं होती, कल्पना को कहीं विषाद का क्षण ही नहीं आता! वास्तविक अस्तित्व में तो हम सब विषाद को उपलब्ध हो जाते हैं।
जो शरीर कल बहुत सुंदर मालूम पड़ता था, दो दिन बाद साधारण मालूम पड़ने लगेगा। चार दिन बाद उससे ही घबड़ाहट होने लगेगी। पंद्रह दिन के बाद उससे भागने का मन भी होने लगेगा। लेकिन कल्पना में ऐसा क्षण कभी नहीं आता। कल्पना बड़ी सुगंधित है। कल्पना के शरीरों से न पसीना बहता है। न कल्पना के शरीरों से दुर्गंध आती है। न कल्पना के शरीर झगड़ते हैं, लड़ते हैं। कल्पना के शरीर तो आपकी ही कल्पनाएं हैं, आपको कभी भी दुख नहीं देते। लेकिन वास्तविक शरीर तो दुख देंगे। वास्तविक व्यक्ति तो दुख देंगे। वास्तविक व्यक्तियों के बीच तो कलह और संघर्ष होगा।
इसलिए जो लड़ने में लग जाएगा, वह भागेगा। लेकिन जो समझने में लगेगा, वह अपनी धारा को बदलेगा, भागेगा नहीं। दूसरे से भागने का कोई प्रयोजन नही है। मेरी ही शक्ति जो दूसरे की तरफ प्रवाहित होती है, वह मेरी तरफ प्रवाहित होने लगे, यह है सवाल।
और जब काम की ऊर्जा अपनी तरफ बहनी शुरू होती है, स्व की तरफ बहनी शुरू होती है, पर की तरफ नहीं, तब हमें कामवासना का वास्तविक अर्थ और प्रयोजन पता चलता है। तब हमें पता चलता है कि जिसे हमने जहर समझा था, वह अमृत हो जाता है। और तब हमें पता चलता है कि जिसे हमने परतंत्रता समझा था, वही हमारी स्वतंत्रता बन जाती है। और तब हमें पता चलता है कि जिसे हमने नर्क का द्वार समझा था, वही हमारी मुक्ति का द्वार भी है।
जब कृष्‍ण कहते हैं, मैं कामदेव हूं तो इस सारी दृष्टि को सामने रखकर कह रहे हैं।
काम की ऊर्जा हमारी शक्ति का नाम है। हम जो भी हैं, काम की ऊर्जा के संघट हैं। अगर हमारी ऊर्जा बाहर बहती रहे, तो बिखर जाती है, दूर फैलती चली जाती है। अगर यही ऊर्जा भीतर आने लगे, तो संगठित होने लगती है, इंटीग्रेट होने लगती है, क्रिस्टलाइज होने लगती है, केंद्रित होने लगती है। और धीरे— धीरे जब सारी बाहर जाने वाली ऊर्जा स्वयं पर ही आकर इकट्ठी हो जाती है, तो जो क्रिस्टलाइजेशन, जो सेंटरिग, जो केंद्रीयता हमारे भीतर पैदा होती है, वही हमारी आत्मा का अनुभव है।
जिस व्यक्ति की कामवासना बाहर भटकती जाती है, उसका अनुभव संसार का अनुभव है, आत्मा का अनुभव नहीं। और जिस व्यक्ति की ऊर्जा भीतर इकट्ठी होती जाती है, संगठित होती चली जाती है, अंतत: एक ऐसा बिंदु निर्मित हो जाता है वज की भांति, जो बिखर नहीं सकता। उस अनुभव के साथ ही हम पहली दफा आत्मा के जगत में प्रवेश करते हैं या ब्रह्म के जगत में प्रवेश करते हैं। लेकिन वह भी सृजन है, अपना ही सृजन। वह भी जन्म है, अपना ही जन्म।
बुद्ध के पास जब कोई भिक्षु आता था, तो वे उससे पूछते थे, तेरी उम्र कितनी है? एक भिक्षु आया बुद्ध के पास और बुद्ध ने उससे पूछा, तेरी उम्र कितनी है? उसने कहा, केवल चार दिन!
उम्र उसकी कोई सत्तर वर्ष मालूम होती थी। बुद्ध थोडे चौंके, और लोग भी चौंके। बुद्ध ने दुबारा पूछा कि कहीं कुछ भूल—चूक सुनने— समझने में हो गई है, तेरी उम्र कितनी है? उस आदमी ने कहा कि मैं पुन: कहता हूं मेरी उम्र है चार दिन। बुद्ध ने कहा, तुम कोई व्यंग्य करते हो? मजाक करते हो?
उसने कहा कि नहीं, चार दिन पहले ही आपको सुनते क्षण में मुझे अपने होने का पहली दफा पता चला, वही मेरा जन्म है। उसके पहले तो मैं था ही नहीं। संसार था, मैं नहीं था। मैं तो अभी चार दिन पहले पहली दफे हुआ हूं। और अभी बहुत कमजोर हूं एक छोटे शिशु की तरह हूं। अभी आपके सहारे की मुझे जरूरत है। अभी आपकी छाया की मुझे जरूरत है। अभी मैं बिखर सकता हूं। अभी बहुत कोमल तंतु हूं। लेकिन जन्म मेरा अभी चार दिन पहले हुआ है।
उस दिन बुद्ध ने कहा था, भिक्षुओ, आज से हमारे भिक्षुओं की उम्र को नापने की यही व्यवस्था होगी। तुम अपनी उस उम्र को छोड़ देना, जब तुम नहीं थे। तुम उसी उम्र को गिनना, जब से तुम हुए हो। जिस दिन तुम अपने को जानो, उसी दिन को समझना तुम्हारा जन्म। माता—पिता ने तुम्हारे जिसको जन्म दिया था, वह तुम नहीं हो।
माता—पिता एक शरीर को जन्म देते हैं। लेकिन स्वयं को जन्म देना हो, तो स्वयं ही देना पड़ता है। यह जन्म घटित होता है, जब काम की ऊर्जा भीतर की ओर प्रवाहित होनी शुरू होती है।
यह सारा जगत आज विक्षिप्त है। मनस्विद कहते हैं— फ्रायड या जुग या एडलर— वे कहते हैं कि यह सारी विक्षिप्तता का निन्यानबे प्रतिशत कारण कामवासना है। वे ठीक ही कहते हैं। लेकिन उनका निदान तो ठीक है, उनका इलाज ठीक नहीं है। उनकी डायग्नोसिस बिलकुल सही है, लेकिन वे जो दवाएं बताते हैं, वे ठीक नहीं हैं।
उनका खयाल है, यह सारा मनुष्य इतना पीड़ित है, यह अतिशय कामुकता के कारण। इतनी कलह और इतनी ईर्ष्या और इतना संघर्ष और इतना लोभ, इस सबके भीतर अगर हम प्रवेश करना शुरू करें, तो निश्चित ही केंद्र पर कामवासना मिलेगी। तो फ्रायड कहता है कि यह कामवासना को ठीक से तृप्त करने का उपाय न हो, तो आदमी विक्षिप्त होता चला जाएगा। तो कामवासना को ठीक से तृप्त होने का उपाय होना चाहिए।
यह भी थोड़ी दूर तक ठीक है। लेकिन कामवासना को तृप्त करने के कितने ही उपाय किए जाएं, आदमी कामवासना की तृप्ति से कभी भी शांत नहीं होता। हो नहीं सकता। कामवासना को रूपांतरित किए बिना आदमी कभी भी शांत नहीं हो सकता। एक ट्रांसफामेंशन चाहिए।
यह कामवासना जो बाहर की तरफ दौड़ती है, इसकी कितनी ही तृप्ति का उपाय किया जाए, कोई तृप्ति उपलब्ध नहीं होती। बल्कि एक और नया खतरा पश्चिम में फ्रायड को मानकर फलित हुआ है। और वह यह कि पचास साल पहले, फ्रायड के पहले पश्चिम में खयाल था लोगों को कि कामवासना तृप्त हो जाएगी, तो लोग बड़े शांत, संतुष्ट हो जाएंगे। क्योंकि अगर उसी की अतृप्ति से बेचैनी है, तो तृप्ति से शांति हो जाएगी।
लेकिन आज अमेरिका में उसे तृप्त करने की सर्वाधिक सुविधाएं उपलब्ध हो गई हैं, संभवत: पृथ्वी पर कहीं भी नहीं थीं। सब तरह की स्वतंत्रता, एक परमिसिव सोसाइटी, सब तरह से मुक्त करने वाला समाज पैदा हो गया है। लेकिन अनूठा अनुभव हुआ। अतृप्तियां पुरानी अपनी जगह हैं, और एक नई अतृप्ति पैदा हो गई है। वह है, कामवासना की व्यर्थता का बोध। पुरानी अतृप्ति में कम से कम एक आशा थी कि कभी कहीं कोई कामवासना तृप्त होगी, तो मन शांत हो जाएगा। अब वह भी आशा न रही। अतृप्ति पुरानी अपनी जगह खड़ी है, एक नई अतृप्ति, और ज्यादा गहरी, कि यह कामवासना ही बिलकुल व्यर्थ है, स्थूटायल है। इसमें कुछ होने वाला नहीं है।
आज पश्चिम का आदमी ऐसी बेचैनी में है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। वह रहेगा, क्योंकि फ्रायड का वक्तव्य अधूरा है। फ्रायड के साथ बुद्ध को और कृष्ण को और महावीर को भी जोड़ना अनिवार्य है। फ्रायड का निदान बिलकुल ठीक है, लेकिन फ्रायड का उपचार ठीक नहीं है।
कृष्ण या बुद्ध या महावीर कामवासना को रूपांतरित करने की व्यवस्था देते हैं। और जब कामवासना रूपांतरित होती है, तो फिर उसको कामवासना न कहकर हम कामदेव कहते हैं।
इस फर्क को आप समझ लें।
जब तक कामवासना नीचे की तरफ बहती है, तब तक कामवासना एक राक्षस की तरह होती है, एक दानव की तरह। चूसे चली जाती है आदमी को। पीए चली जाती है। उसकी सारी शक्तियों को खींचे चली जाती है। उसे रुग्ण और दीन और दरिद्र किए चली जाती है। खोखला कर देती है भीतर से। सब सत्य खिंच जाता है, फिंक जाता है, और आदमी धीरे— धीरे एक चली हुई कारतूस की तरह हो जाता है। मरने के पहले ही आदमी मर जाता है।
के आदमी को खालीपन का अनुभव होता है, जैसे भीतर कुछ भी नहीं है। वह खालीपन कुछ और नहीं है, कामवासना ने सारी शक्तियों को अपशोषित कर लिया है। जवान आदमी को भरापन मालूम पड़ता है। वह भरापन भी कुछ नहीं है, वह भरापन भी कामवासना का ही भराव है। बूढ़े और जवान आदमी में उतना ही फर्क है, जितना भरी हुई कारतूस में और चल गई कारतूस में है। और कोई ज्यादा फर्क नहीं है। न तो जवान भरा हुआ है, न का खाली है। भ्रांति उस ऊर्जा की वजह से हो रही है। भरे आदमी तो केवल वे ही हैं, जिनकी काम—ऊर्जा ऊपर की तरफ प्रवाहित होनी शुरू होती है। उन्हीं के लिए फुलफिलमेंट है, उन्हीं के लिए आप्तता है।
जिस दिन कामवासना ऊपर की तरफ प्रवाहित होती है, उस दिन कामदेव हो जाती है। इसलिए शायद हम अकेली कौम हैं जमीन पर, जिन्होंने कामवासना को भी देवता की स्थिति दी है। उसको भी देव कहने की हिम्मत जुटाई है। लेकिन वह रूपांतरित है; ऊपर उठ गया है। दूसरे से संबंध छूट गया है। शक्ति अपने ही भीतर प्रवाहित होने लगी है, अपने ही अंतस्तल में। अंतर्यात्रा पर निकल गई है।
कृष्‍ण कहते हैं, मैं कामदेव हूं समस्त जीवन के सृजन का मूल आधार मैं हूं।
और कामदेव कहने की क्या जरूरत! वे कोई और देवताओं का नाम भी ले सकते थे। देवों में कामदेव का ही नाम लेने का प्रयोजन भी है। क्योंकि कामदेव के ऊपर जो उठ जाए...। मैंने पहले आपसे कहा, काम—राक्षस। ऐसा हम करें शब्द का प्रयोग, नीचे की तरफ बहती काम—ऊर्जा। फिर कामदेव, ऊपर की तरफ बहती हुई काम— ऊर्जा। कामदेव के भी ऊपर जो उठ जाए, वह देवताओं से पार हो जाता है।
बाहर की तरफ बहती ऊर्जा, काम—राक्षस। भीतर की ओर बहती हुई ऊर्जा, कामदेव। और कहीं भी बहती हुई ऊर्जा नहीं, ठहरी हुई ऊर्जा, न बाहर, न भीतर, समस्त गति को खो दिया हो ऊर्जा ने, ठहर गई ऊर्जा, थिर हो गई ऊर्जा, जैसे कि दीये की ली ठहर जाए, हवा का कोई झोंका न हो; उस स्थिति में आदमी कामदेव के भी ऊपर उठ जाता है।
इसलिए साधक को पहले दूसरे की परेशानी रहती है कि दूसरा खींचता है। फिर अंतिम परेशानी आती है कि स्वयं का खिंचाव है। उसके भी पार जाकर, द्वंद्व के पार आदमी हो जाता है।
जो व्यक्ति कामदेव के पार हो जाता है, वह देवताओं के पार हो जाता है। इसलिए हमने, बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो कथाएं कहती हैं कि समस्त देवता उनके चरणों में सिर रखकर मौजूद हुए। क्या हो गया बुद्ध को कि देवता उनके चरणों में सिर रखें! क्योंकि देवता, कितने ही ऊपर हों, कामदेव के ऊपर नहीं होते। लेकिन जब कोई व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होता है, तो वह काम के अंतिम रूप से
ऊपर चला जाता है। फिर देवता भी नीचे पड़ जाते हैं। फिर देवता भी बुद्ध को नमस्कार करने आते हैं।
बुद्ध को अंतिम क्षण में, या महावीर को अंतिम क्षण में, या जीसस को अंतिम क्षण में, जो आखिरी संघर्ष है, जो आखिरी पार होना है, वह काम ही है। काम के जो पार हो गया, वह देवत्व के पार हो गया। वह फिर भगवत्ता में सम्मिलित हो गया।
तीन कोटियां हैं। मनुष्य हम उसे कहें, जिसकी कामवासना नीचे की ओर बहती है। देव हम उसे कहें, जिसकी कामवासना ऊपर की ओर बहती है या भीतर की ओर बहती है। भगवान हम उसे कहें, जिसकी कामवासना बहती नहीं— न बाहर न भीतर, न नीचे न ऊपर। ये तीन कोटियां हैं।
इसलिए बुद्ध को हम भगवान कहते हैं। भगवान कहने का कुल कारण इतना है कि अब वे देव के भी पार हैं।
कृष्‍ण कहते हैं, मैं देवताओं में कामदेव हूं। अगर देवताओं में ही मुझे खोजना हो, तो तुम काम में खोजना। क्योंकि काम ही सृजन का मौलिक आधार है। जगत में जो भी घटता है, सुंदर, शुभ, सत्य, वह सब काम की ऊर्जा का ही प्रतिफलन है। चाहे कोई गीत पैदा होता हो सुंदर, चाहे कोई चित्र बनता हो सुंदर, और चाहे कोई व्यक्तित्व निर्मित होता हो सुंदर, वह सब काम—ऊर्जा का ही फैलाव है। इस जगत में जो भी सुंदर है और शुभ है, वह सब काम की ऊर्जा की ही लहरें हैं।
हमने ही अकेले पृथ्वी पर ऐसे मंदिर बनाए, खजुराहो, कोणार्क, जहां हमने भीतर परमात्मा को स्थापित किया और भित्ति—चित्रों पर काम के अनूठे—अनूठे चित्र खोदे। असंगत मालूम पड़ता है। खजुराहो के मंदिर में प्रवेश करें, तो घबड़ाहट मालूम होती है। मंदिर, जहां प्रभु को स्थापित किया है भीतर, उसकी भित्ति, उसकी दीवालों पर संभोग के, मैथुन के, काम के चित्र खुदे हैं, स्तुतियां निर्मित हैं! और ऐसी मूर्तियां पृथ्वी पर किसी ने कभी नहीं बनाईं। बाप बेटी के साथ मंदिर में प्रवेश करने में घबड़ाता है। भाई भाई के साथ जाने में डरेगा। बेटा मां के साथ मंदिर में जाने में भयभीत होगा। इस भय और डर के कारण शायद हम कहेंगे कि ये मंदिर ठीक नहीं बने, गलत बने हैं।
गांधीजी के एक भक्त थे, पुरुषोत्तमदास टंडन। उनका सुझाव था गांधीजी को कि इन मंदिरों पर मिट्टी ढांककर इनको दाब देना चाहिए। गांधीजी को भी बात तो जँचती थी कि ढांक दिए जाएं ये मंदिर; ये भारतीय संस्कृति को विकृत करते हुए मालूम पड़ते हैं।
जिनको भारतीय संस्कृति का कोई पता नहीं है, उन्हीं को ऐसा लगेगा। लेकिन नहीं हो सका वह, क्योंकि खजुराहो जगत—ख्याति का मंदिर है और भारत का टूरिज्म का बड़ा धंधा खजुराहो और कोणार्क जैसे मंदिरों पर निर्भर है। अगर बाहर से पर्यटक देखने न आते हों इन मंदिरों को, और इन मंदिरों की जगत—ख्याति न हो, तो हमने जरूर इन पर मिट्टी ढांक दी होती, इनको पूर दिया होता, इनको मिटा दिया होता।
इतना हमें क्यों डर लगता है? मां अपने बेटे के साथ इस मंदिर में जाने में भयभीत क्यों होती है? क्योंकि हम जीवन के तथ्यों को स्वीकार नहीं करते। हम जीवन के तथ्यों को झुठलाते हैं; हम बेईमान हैं। जीवन की सीधी सचाइयों के प्रति हम बहुत बेईमान हैं। नहीं तो बात ही क्या है? जब कोई मां बनती है किसी बेटे की, तभी काम— ऊर्जा के कारण बनती है। जब कोई बाप बनता है किसी बेटे का, तो काम—ऊर्जा के कारण बनता है।
लेकिन काम—ऊर्जा के प्रति हमने इस तरह के छिपाव खड़े किए हैं कि हम दुनिया में बात ही नहीं होने देते। जो मौलिक है सत्य, उसको हम ऐसे छिपाते हैं, जैसे वह घटता ही नहीं है। उस घबड़ाहट के कारण ये मंदिर हमें प्रवेश करने में डर पैदा करवाते हैं।
यह मंदिर बहुत सत्य है। सत्य, नग्न रूप से सत्य है। और विचार करके इसे निर्मित किया गया है। दीवाल के बाहरी हिस्सों पर कामवासना के चित्र हैं। और मंदिर इस बात का प्रतीक है कि जब तक तुम्हारा मन दीवाल के बाहर के चित्रों में लीन हो, तब तक भीतर प्रवेश नहीं हो सकेगा। जिस दिन तुम्हें बाहर मंदिर की दीवाल पर खुदे हुए मैथुन के गहन चित्र जरा भी आकर्षित न करें, उसी दिन तुम भीतर आना, उसी दिन तुम परमात्मा के मंदिर में प्रवेश कर सकोगे।
संसार इस मंदिर के बाहर खुदे हुए चित्रों की परिधि है। और जब तक किसी का मन कामवासना में डोल रहा है, तब तक वह मंदिर में प्रवेश नहीं हो सकता। और कामवासना में डोलने के दो ढंग हैं। या तो कामवासना के लिए डोल रहा हो, या कामवासना से भयभीत होकर डरकर डोल रहा हो।
जो आदमी इस मंदिर के पास जाता है और आंखें गड़ाकर इन चित्रों को देखने लगता है, वह भी उनसे उलझा है, और जो इन चित्रों को देखकर आंखें नीची करके दुबककर अंदर घुस जाता है, वह भी इन्हीं चित्रों से उलझा हुआ है। जो आदमी इन चित्रों के पास से ऐसे गुजर जाता है, जैसे चित्र हों ही न, वही आदमी मंदिर में प्रवेश के योग्य है। कामवासना से जो पार नहीं जाता, वह मंदिर में प्रवेश नहीं पा सकता है।
लेकिन कामवासना का विरोध करके कोई कभी पार नहीं गया है। इस जगत में समझने के अतिरिक्त पार जाने का कोई भी उपाय नहीं है। लड़ते हैं नासमझ, जानते हैं समझदार। और जानना ताकत है। ज्ञान शक्ति है।
बेकन ने कहा है, नालेज इज पावर। सभी अर्थों में सही है। जहां भी ज्ञान है, वहीं शक्ति है। और जिस चीज का हमें ज्ञान है, हम उसके मालिक हो सकते हैं। और जिसका हमें ज्ञान नहीं है, हम उससे चाहे भयभीत हों, चाहे पराजित हों, चाहे उसके गुलाम रहें, चाहे उससे डरकर भागते रहें, हम उसके मालिक कभी भी न हो सकेंगे।
आकाश में बिजली कौंधती है, आज हम उसके मालिक हो गए हैं। वैसे ही ठीक कामवासना और भी बड़ी बिजली है, जीवंत बिजली है, उसके भी मालिक होने का उपाय है। लेकिन मालिक केवल वे ही हो सकते हैं, जो उसके प्रति भी सदभाव रखकर चलें।
जब कृष्ण कहते हैं, मैं कामदेव हूं, तो सदभाव रखा जा सकता है। तब कोई विरोध, तब कोई निंदा का सवाल नहीं है। तब यह भी शक्ति परमात्मा की है, और इस शक्ति का कैसे अधिकतम उपयोग हो सके, और कैसे यह शक्ति जीवन के लिए मंगलदायी हो जाए, और कैसे यह शक्ति हमारी मृत्यु का कारण न बने, वरन परम जीवन में प्रवेश का द्वार हो जाए, इसकी दिशा में मेहनत की जा सकती है।
सिर्फ अकेले हिंदुस्तान ने एक विज्ञान को जन्म दिया जिसका नाम तंत्र है। एक पूरे विज्ञान को जन्म दिया, जिसके माध्यम से काम की ऊर्जा ऊर्ध्वगामी हो जाती है। और जिसके अंतिम प्रयोगों से काम—ऊर्जा थिर हो जाती है, उसका प्रवाह समाप्त हो जाता है। कृष्‍ण कहते हैं, मैं कामदेव हूं।
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि कोई कामवासना में पड़ा रहे। काम को भी दिव्य बनाना है, तभी यह कृष्‍ण के कामदेव की बात समझ में आएगी। उसे भी दिव्यता देनी है।
हमारा तो काम पशुता से भी नीचे चला जाता है, दिव्यता तो बहुत दूर की बात है। पशुओं की कामवासना में भी एक तरह की स्वच्छता है। और पशुओं की कामवासना में भी एक तरह की सरलता है, एक निर्दोष भाव है। आदमी की कामवासना में उतना निर्दोष भाव भी नहीं है। आदमी की कामवासना, लगती है, पशुओं से भी नीचे गिर जाती है। क्या कारण होगा?
क्योंकि पशुओं की कामवासना उनकी शुद्ध शारीरिक घटना है। और आदमी की कामवासना शारीरिक कम और मानसिक ज्यादा है। मानसिक होने से विकृत है। मानसिक होने से विकृत है, सेरिब्रल होने से विकृत है। एक आदमी संभोग में उतरे, यह निर्दोष हो सकता है। लेकिन एक आदमी बैठकर और संभोग का चिंतन करे, यह विकृत है, यह बीमार है।
तीन संभावनाएं हैं। या तो कामना, काम की शक्ति, प्रकृत हो, नेचुरल हो। अगर नीचे गिर जाए, तो विकृत हो जाए, अननेचुरल हो जाए। अगर ऊपर बढ़ जाए, तो संस्कृत हो जाए, सुपरनेचुरल हो जाए। प्रकृत कामवासना दिखाई पड़ती है पशुओं में, पक्षियों में। इसलिए नग्न पक्षी भी हमारे मन में कोई परेशानी पैदा नहीं करता। लेकिन कुछ लोग इतने रुग्ण हो सकते हैं कि नग्न पशु—पक्षी भी परेशानी पैदा करें।
अभी मैंने सुना है कि लंदन में की औरतों के एक क्लब ने एक इश्तहार लगाया हुआ है। और उसमें कहा है कि सड़क पर कुत्तों को भी नग्न निकालने की मनाही होनी चाहिए।
अब बूढ़ी स्त्रियों को सडक पर नग्न कुत्तों के निकलने में क्या एतराज होगा? इस एतराज का संबंध कुत्तों से कम, इन स्त्रियों से ज्यादा है। इनके मन में कहीं कोई गहरा विकार है। वही विकार प्रोजेक्ट होता है।
हम बच्चे को देखते हैं नग्न, तो तकलीफ नहीं होती। बड़े आदमी को नग्न या बड़ी स्त्री को नग्न देखते हैं, तो पीड़ा क्या होती है? वह पीड़ा कोई विकार है। वह नग्न व्यक्ति में है, ऐसा नहीं, वह हमारे भीतर है।
आदिवासी हैं, उनकी स्त्रियां अर्द्धनग्न हैं, करीब—करीब नग्न हैं, लेकिन किसी को कोई विकार पैदा होता मालूम नहीं होता। और हमारी स्त्रियां इतनी ढंकी हुई हैं, जरूरत से ज्यादा ढंकी हुई हैं, बल्कि इस ढंग से ढंकी हुई हैं कि जहां—जहां ढांकने की कोशिश की गई है, वहीं—वहीं उघाड़ने का इंतजाम भी किया गया है। हमारा ढांकना उघाड़ने की एक व्यवस्था है। हम ढांकते हैं, लेकिन उस ढांकने में बीमारी है। इसलिए जो—जो हम ढांकते हैं, उसे हम दिखाना भी चाहते हैं। तो ढांकने से भी हम दिखाने का इंतजाम कर लेते हैं।
हमारी ढंकी हुई स्त्री भी रुग्ण मालूम पड़ेगी। एक आदिवासी नग्न स्त्री भी रुग्ण मालूम नहीं पड़ेगी। वह प्रकृत है, पशुओं जैसी प्रकृत है।
एक और नग्नता भी है। एक पशुओं की नग्नता है, एक हमारी नग्नता है — कपड़ों में ढंकी। एक महावीर की नग्नता भी है। महावीर भी नग्न खड़े हैं। लेकिन उनकी नग्नता से किसी को कोई बेचैनी नहीं मालूम पड़ेगी। और अगर बेचैनी मालूम पड़े, तो जिसे मालूम पड़ती है, वही जिम्मेवार होगा। महावीर की नग्नता फिर बच्चे जैसी हो गई, फिर इनोसेंट हो गई। अब महावीर की नग्नता में, आदमी के ढंके होने से ऊपर जाने की स्थिति आ गई। अब ढांकने को भी कुछ न बचा। अगर हम महावीर से पूछें कि आप नग्न क्यों खड़े हैं? तो वे।_र कहेंगे, जब ढांकने को कुछ न बचा, तो ढांकना भी क्या है!
हम ढांक क्या रहे हैं? हम अपने शरीर को नहीं ढांक रहे हैं। अगर बहुत गौर से हम समझें, तो हम अपने मन को ढांक रहे हैं। और चूंकि शरीर कहीं खबर न दे दे हमारे मन की, इसलिए हम शरीर को ढांके हुए बैठे हैं। लेकिन जब कोई डर ही न रहा हो, शरीर की तरफ से कोई खबर मिलने का उपाय न रहा हो, क्योंकि मन में ही कोई उपाय न रहा हो, तो महावीर नग्न होने के अधिकारी हो जाते हैं।
तीन संभावनाएं हैं। अगर कामवासना विकृत हो जाए, जैसी कि आज जगत में हो गई है.. .एकदम विकृत मालूम पड़ती है, और चारों तरफ से घेरे हुए है हमें। चाहे आप फिल्म देख रहे हों, तो भी कामवासना अनिवार्य है। चाहे आप अखबार पढ़ रहे हों, चाहे आप किताब पढ़ रहे हों, चाहे कहानी पढ़ रहे हों, और यह तो छोड़ दें, अगर आप साधु—संतों के प्रवचन भी सुन रहे हों, तो भी कामवासना अपना निषेधात्मक रूप प्रकट करती रहती है।
यह बहुत मजे की बात है कि मैंने बहुत—सी किताबें देखी हैं उन लोगों की भी जिन्होंने पोर्नोग्राफी, जिन्होंने अश्लील साहित्य लिखा है, और स्त्री—पुरुषों के अंगों की नग्न चर्चा की है। उन साधु—संतों की किताबें भी मैंने देखी हैं, जिन्होंने स्त्री—पुरुषों के अंगों की चर्चा की है निंदा के लिए। लेकिन बड़े मजे की बात है, कोई पोनोंग्राफर इतने रस से चर्चा नहीं कर पाता, जितने साधु—संत कर पाते हैं। इतना रस नहीं मालूम पड़ता। कोई अश्लील लिखने वाला इतने रस से चर्चा नहीं करता।
यह विकृत रस है। भीतर दमन है, भीतर दबाया है, जबरदस्ती की है, वह पीछे से निकलता है।
झेन कथा है एक। दो फकीर, एक का और एक युवा, एक नदी के पास से गुजरते हैं। का फकीर आगे है; भिक्षु है बौद्ध। एक युवा लड़की खड़ी है नदी के किनारे। और वह उस के से कहती है कि मुझे नदी के पार जाना है, और मैं डरती हूं। और उस के का मन हुआ कि हाथ से सहारा देकर नदी पार करा दे। लेकिन यह सोचा उसने कि हाथ का सहारा दे दे, कि भीतर वासना पूरी तरह खड़ी हो गई। वह घबड़ा गया। लड़की से नहीं, अपने से घबड़ा गया। आंखें नीची कर लीं और नदी पार हो गया।
नदी के उस पार जाकर उसे खयाल आया कि मैं तो का आदमी हूं और मेरा अपने ऊपर संयम है, इसलिए लड़की का हाथ मैंने नहीं पकड़ा। हमारे सब संयम इसी तरह के कमजोर हैं। लेकिन मेरे पीछे जो युवा संन्यासी आ रहा है, कहीं वह इस भूल में न पड़ जाए, जिसमें मैं पड़ा जा रहा था, पड़ते—पड़ते बचा, बाल—बाल बचा। लौटकर उसने देखा, तो उसकी तो छाती बैठ गई। वह युवा संन्यासी उस लड़की को कंधे पर बिठाकर नदी पार कर रहा है!
उस लड़के ने, उस युवा संन्यासी ने लड़की को किनारे के पार उस तरफ छोड़ दिया। फिर वे दोनों अपने आश्रम की तरफ चलने लगे। मीलभर का रास्ता, के ने एक शब्द भी नहीं बोला। आग जल रही है उसके भीतर। द्वार पर मोनेस्ट्री के, आश्रम के द्वार पर उसने रुककर उस युवक से कहा कि याद रखो, तुमने जो पाप किया है, वह मुझे गुरु को जाकर बताना ही पड़ेगा।
उस युवक ने पूछा, कौन सा पाप! कैसा पाप! उस के ने कहा, उस लड़की को कंधे पर बिठालना। वह युवा संन्यासी हंसने लगा। उसने कहा, मैं तो उसे कंधे से नदी के उस पार उतार भी आया, आप उसे अभी भी कंधे पर लिए हुए हैं! यू आर स्टिल कैरीइंग हर। अभी भी आप उसे खींच रहे हैं!
चाहे सिनेमागृह में जाएं, तो एक रूप है वासना का। और मंदिर में जाकर चर्चा सुनें, तो यह खींचने वाला रूप है वासना का। लेकिन सब तरफ वासना घेरे हुए है। सब तरफ वासना घेरे हुए है। यह तो रुग्ण मालूम होती है अवस्था; पशु से भी नीचे गिर गई अवस्था मालूम पड़ती है।
इससे ऊपर उठा जा सकता है। लेकिन उठने के लिए पहली ध्यान रखने की बात जरूरी जो है, वह यह है कि जो भी इससे लड़ने लगेगा, वह ऊपर नहीं उठ पाएगा। क्योंकि जिससे हम लड़ते हैं, उसमें हमारा रस निर्मित होता है। आप अपने मित्र को भी भूल सकते हैं; शत्रु को भूलना इतना आसान नहीं है। मित्र को भूल जाने में इतनी कठिनाई नहीं है, मित्र भूल ही जाते हैं, समय भुला देता है। लेकिन शत्रु! शत्रु को भुलाना बहुत मुश्किल है।
जिससे आप लड़ते हैं, उससे चौबीस घंटे लड़ना पड़ता है। और एक बड़ी कीमिया की बात है भीतरी कि जिससे आप बहुत दिन तक लड़ते हैं, आप उसके जैसे ही हो जाते हैं। किसी से भी लड़कर देखें आप। अगर दों—चार साल किसी दुश्मन से आपकी दुश्मनी चल जाए, तो चार साल के बाद आप पाएंगे कि आप अपने दुश्मन जैसे हो गए।
दो मित्र भी इतने एक से नहीं होते, जितने दो शत्रु अंत में एक से हो जाते हैं। क्योंकि जिससे लड़ना पड़ता है, उसकी ही तरकीबें काम में लानी पड़ती हैं। और जिससे लड़ना पड़ता है, उसी की भाषा काम में लानी पड़ती है। और जिससे लड़ना पड़ता है, उसका सत्संग भी करना पड़ता है। और जिससे लड़ना पड़ता है, चौबीस घंटे चेतना में उसका भाव बना रहता है।
इसलिए कामवासना से लड़ने वाले लोग एक बहुत मानसिक व्यभिचार में पड़ जाते हैं। भीतर व्यभिचार चलने लगता है। उनके सपने विकृत हो जाते हैं।
अगर हम साधुओं के सपने देखें, तो हम बहुत घबड़ा जाएं। वैसे सपने कारागृहों में बंद अपराधी भी नहीं देखते हैं। सपने! अगर हम सपनों में प्रवेश कर सकें, तो हमें बहुत घबड़ाहट होगी। अच्छे आदमी बुरे सपने देखते हैं। बुरे आदमी इतने बुरे सपने नहीं देखते। कोई कारण नहीं है देखने का। बुरा वे दिन में ही कर लेते हैं, रात में करने को बचता नहीं। अच्छा आदमी जो दिनभर रोक लेता है..। कभी आपने उपवास किया हो, तो रात में आपको राजमहल में भोजन का निमंत्रण मिलेगा ही, जाना ही पड़ेगा। वह जो आपने दिन में रोक लिया है, वह रात सपने में आपका मन पूरा करेगा।
आप यह मत सोचना कि सपना है, इसका क्या मूल्य?
सपना भी आपका है, किसी और का नहीं है। और सपना आपसे पैदा होता है। जैसे आपसे कर्म पैदा होता है, वैसे ही स्वप्न भी आपसे पैदा होता है। अगर मैं एक आदमी की हत्या करता हूं दिन में, तो मैं उतना ही जिम्मेवार हूं जितना मैं हत्या करने का सपना देखूं तब। अदालत मुझे नहीं पकड़ेगी, वह दूसरी बात है। लेकिन सपना भी मुझमें ही पैदा होता है, जैसे कर्म मुझमें पैदा होता है। कर्म भी मेरा है, स्वप्न भी मेरा है।
और मजा यह है कि कर्म तो मैं किसी दूसरे से भी करवा सकता हूं सपना मैं किसी दूसरे से नहीं दिखवा सकता। मैं किसी की हत्या करवाना चाहूं तो एक आदमी को भी रख सकता हूं लेकिन मेरा सपना मैं ही देख सकता हूं दूसरा नहीं देख सकता, नौकर नहीं रखे जा सकते। इसका मतलब यह हुआ कि कर्म से भी गहरा संबंध सपने का मुझसे है। सपने के लिए तो मैं निपट जिम्मेवार हूं। और कोई जिम्मेवार नहीं है।
यह जो हमारे चित्त की रुग्णता पैदा होती है, वह है दमन, संघर्ष, वैमनस्य, शत्रुता, अज्ञान से भरा हुआ।
कामवासना कामदेव बन जाती है, अगर हम शांत, मौन, प्रेम से उस ऊर्जा को समझने की कोशिश करें, जो हमारे भीतर वासना बन गई है। और फिर उसे ऊपर उठा ले जाने का विज्ञान है। उसको बदलने का इंच—इंच शास्त्र है। फिर हम उसे बदलना शुरू करें।
कभी दो—चार छोटे प्रयोग करें, आप चकित हो जाएंगे। जब भी आपको कामवासना उठे, तब आप अपना ध्यान तत्क्षण सहस्रार के पास ले जाएं। आख बंद कर लें, और अपने ध्यान को दोनों आंखों को ऊपर ले जाएं और अनुभव करें कि आपकी चेतना खोपड़ी के छप्पर से लग गई है। एक सेकेंड, और आप अचानक पाएंगे कि वासना तिरोहित हो गई। जब भी वासना उठे, तब तत्क्षण अपनी चेतना को खोपड़ी के पास ले जाएं, और आप पाएंगे, वासना तिरोहित हो गई। कितनी ही प्रगाढ़ वासना उठी हो, एक क्षण में विलीन हो जाएगी। क्योंकि वासना को चलने के लिए आपकी चेतना के सहयोग की जरूरत है।
और जो लोग इस तरह जीना शुरू कर देते हैं, कि उनकी चेतना धीरे— धीरे— धीरे सतत ऊपर की ओर प्रवाहित रहने लगती है, उनमें वासना पैदा होनी बंद हो जाती है। और अंततः चेतना की डोर को पकड़कर वासना की ऊर्जा ऊपर चढ़ने लगती है। और जिस दिन वासना ऊपर चढ़ती है, उस दिन जीवन में जैसे आनंद का अनुभव होता है, वैसा हजारों संभोगों में भी नहीं हो सकता। क्योंकि हर संभोग शक्ति को खोना है और हर समाधि शक्ति को पाना है।
नीचे उतरना, अपनी चेतना के तल को भी नीचे गिराना है। ऊपर उठना, अपनी चेतना के तल को भी ऊपर उठाना है। और जितने हम ऊपर उठते हैं और जितने हम हल्के होते हैं, उतने गहन आनंद में प्रवेश होता है।
जिस दिन कोई व्यक्ति अपनी खोपड़ी के पार भी अपनी चेतना को ले जाने में समर्थ हो जाता है, उस दिन उसे अनंत आनंद की उपलब्धि होती है।
इसे हम ऐसा समझ सकते हैं, जब कोई व्यक्ति अपनी ऊर्जा को काम—केंद्र से नीचे गिराता है, तब उसे सुख का आभास होता है, और जब कोई व्यक्ति अपनी काम—ऊर्जा को सहस्रार से आकाश में तिरोहित करता है, तब उसे आनंद का अनुभव होता है।
इसलिए कृष्‍ण कहते हैं, मैं कामदेव हूं। समस्त जन्म, समस्त सृजन मेरे ही द्वारा है। मैं ही हूं।
यह जीवन को स्वीकार करने का अदभुत सूत्र है।
अल्वर्ट श्वीत्वर ने संभवत: इस सदी का हिंदू धर्म के ऊपर सबसे गहरा क्रिटिसिज्म, सबसे गहरी आलोचना लिखी है। अल्वर्ट श्वीत्वर इस सदी के दो—चार विचारशील लोगों में एक था। और उसके विचार का मूल्य है, और उसकी आलोचना विचारणीय है। उसने कहा है कि हिंदू धर्म लाइफ निगेटिव है, जीवन को अस्वीकार करता है, जीवन का निषेध करता है, जीवन का शत्रु है, जीवन को स्वीकार नहीं करता।
निश्चित ही श्वीत्वर को कुछ भूल हो गई है। और श्वीत्वर की भूल का कारण है। क्योंकि श्वीत्वर गांधी को पढ़कर समझता है कि वे हिंदू धर्म के प्रतीक हैं। श्वीत्वर महावीर और बुद्ध को पढ़कर समझता है कि वे हिंदू धर्म के प्रतीक हैं। श्वीत्वर को अगर हिंदू धर्म समझना है, तो उसे कृष्‍ण को पढ़ना चाहिए। न तो महावीर और न बुद्ध और न गांधी, ये हिंदू धर्म के प्रतीक नहीं हैं। और इनको पढ़ने से ऐसा वहम पैदा हो सकता है, ऐसा भय पैदा हो सकता है कि जीवन का निषेध है, जीवन का विरोध है। कृष्ण को पढ़ने पर पता चलेगा कि जीवन का इतना समग्र स्वीकार कहीं और संभव नहीं है। कृष्ण कहते हैं, मैं कामदेव हूं।
काम की जहां स्वीकृति हो गई, वहां जीवन स्वीकार हो जाता है। और जहां काम की अस्वीकृति हुई, वहां जीवन का अस्वीकार हो जाता है।
बड़े मजे की बात है। श्वीत्वर ईसाई है। ईसाइयत ज्यादा जीवन निषेधक है। ईसाइयत में जीवन का ज्यादा विरोध है। ईसाइयत में काम, सेक्स पाप है। मूल पाप है, महापाप है। और श्वीत्वर ईसाई है और फिर वह देख पाता है कि हिंदू धर्म जीवन निषेधक है, तो वह गांधी को समझने चल पड़ता है, तो भूल होगी। भूल इसलिए होगी कि गांधी पर जो प्रभाव हैं जीवन निषेध के, वे रस्किन और टाल्सटाय के द्वारा ईसाइयत से आए हुए प्रभाव हैं।
एक बहुत मजे की घटना पश्चिम में घटी है कि पश्चिम ने जीवन के विरोध का सबसे बड़ा प्रयोग किया था ईसाइयत के द्वारा। ईसाइयत में भयंकर विरोध है। हम राम के साथ सीता को खड़ी कर सकते हैं, और राम को भगवान मान सकते हैं। हम कृष्‍ण के साथ गोपियां नाचती हों, तो बिना एतराज किए कृष्ण को भगवान मान सकते हैं। ईसाइयत नहीं मान सकती। ईसाइयत तो मानती ही है कि कामवासना ही इस जगत में पाप का कारण है। इसलिए कामवासना से हट जाना है। और हट जाने का मतलब गहरा दमन है।
दो हजार साल में ईसाइयत ने पश्चिम में कामवासना का इस बुरी तरह दमन किया कि आज उस दमन का प्रतिफल पश्चिम में आ रहा है। जब कोई चीज बहुत दबाई जाती है, तो उसका प्रतिकार और रिएक्यान और प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है। ईसाइयत ने जिस चीज को खूब दबाया था जोर से, आज वह जोर से फैलकर पैदा हो गई है। आज पश्चिम में जो वासना का खुला खेल है, उसमें जिम्मेवार पश्चिम के आज के लोग कम और दो हजार साल के वे लोग ज्यादा हैं, जिन्होंने वासना को बिलकुल दबाने का पागलपन से भरा हुआ आग्रह किया।
श्‍वीत्‍ज की आलोचना अनुचित है। लेकिन उसके कारण है, क्योंकि ऐसे लोग भारत में जरूर हुए हैं, जो जीवन निषेधक हैं। लेकिन भारत की मूल धारा जीवन निषेधक नहीं है। भारत की मूल धारा जीवन को उसकी समग्रता में स्वीकार करती है, उसकी पूर्णता में स्वीकार करती है। जीवन जैसा है, भारत उसको अंगीकार करता है और फिर अंगीकार के द्वारा उसे रूपांतरित करता है।
इस भेद को ठीक से समझ लें। आप किसी चीज से लड़ सकते हैं बदलने के लिए, आप किसी चीज को स्वीकार कर सकते हैं बदलने के लिए। स्वीकार करके जो बदलाहट है, वह गहरी होती है। लड़कर जो बदलाहट है, वह गहरी नहीं होती। क्योंकि जिससे आप लड़ते हैं, उसे आप समझ ही नहीं पाते। समझने के लिए मैत्री चाहिए। कामवासना से भी मैत्री चाहिए।
कृष्ण कहते हैं, मैं कामदेव हूं। वे यह कहते हैं कि यह पूरा जीवन मुझसे ही पैदा होता है। यह जीवन का सारा खेल मेरा ही खेल है। और यह सब दिव्य हो सकता है। इसलिए अपने को इससे संयुक्त करते हैं।
सर्पों में वासुकि हूं नागों में शेषनाग, जलचरों में वरुण देवता हूं पितरों में पित्रेश्वर तथा शासन करने वालों में यमराज हूं।
यह प्रतीक बहुत कीमती है; वैसा ही, जैसा कामदेव, वैसा ही यमराज। इसे हम थोड़ा समझ लें।
शासन करने वालों में यमराज, मृत्यु का दूत, मृत्यु का शासक! शासन करने वालों में कृष्ण को कोई और न सूझा! बड़े शासक हो गए हैं। पृथ्वी ने बड़े शासक देखे हैं। स्वर्ग भी शासकों को जानता है। लेकिन कृष्‍ण को यमराज क्यों शासकों में श्रेष्ठ मालूम पड़ा? कुछ कारण हैं।
एक, इस जगत में मृत्यु के सिवाय और कुछ भी निश्चित नहीं है। इस जगत में अगर कोई एक चीज सुनिश्चित है, एकोल्युटली सर्टेन, तो वह मृत्यु है। बाकी सब चीजें अनिश्चित हैं। हो भी सकती हैं, न भी हों। मृत्यु होगी ही। मृत्यु न हो, ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता।
जीवन में बाकी सब हेजार्ड है, सब अनिश्चित है। जीवन में सब ऐसा है, जैसे कोई कागज की नाव समुद्र की लहरों पर कहीं भी डोल रही हो। कहीं भी जा सकती है; पूरब भी जा सकती है, पश्चिम भी जा सकती है, बड़ी लहरों पर, छोटी लहरों पर। यह नाव कहीं भी डोल सकती है। तरंगों के हाथ में सब अनिश्चित है। एक बात सुनिश्चित है कि यह नाव कागज की डूबेगी। उतनी बात निश्चित है। और वह निश्चय बदला नहीं जा सकता। मृत्यु सर्वाधिक सुनिश्चित तथ्य है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, शासकों में मैं यमराज हूं। क्योंकि उसके शासन में जरा भी शिथिलता नहीं है, जरा भी अपवाद नहीं है। सब चीजों में अपवाद हो सकता है; उसके शासन में अपवाद नहीं है। उसका शासन निरपवाद है। कानून वहां पूरा है, उसमें रत्तीभर फर्क नहीं है।
दूसरी बात, एक आदमी अमीर हो सकता है, एक गरीब हो सकता है। एक आदमी बुद्धिमान हो सकता है, एक आदमी बुद्धिहीन हो सकता है। एक आदमी सुंदर हो सकता है, एक आदमी असुंदर हो सकता है। हम चेष्टा करके कल सारी संपत्ति बांट दें, सभी आदमियों के पास बराबर संपत्ति हो जाए, तब भी दो बराबर संपत्ति वाले आदमियों का सुख बराबर नहीं होता। हम संपत्ति बांट दें, तो हम संपत्ति को भूल जाएंगे, सौंदर्य पीड़ा देने लगेगा। बुद्धि पीड़ा देगी। कोई ज्यादा बुद्धिमान होगा, कोई कम बुद्धिमान होगा।
जीवन में समानता असत्य है, होती ही नहीं। सोशलिज्म एक सपना है, जो कभी पूरा नहीं होता, और न कभी पूरा हो सकता है। लेकिन एक सुखद सपना है। देखने में मजा आता है। समाजवाद कभी पूरा नहीं हो सकता है जीवन में, क्योंकि जीवन असमानता है। सब तरह से जीवन असमान है। दो व्यक्ति जरा भी समान नहीं हैं। प्रकृतिगत एक—एक व्यक्ति अलग—अलग असमान है। सिर्फ जगत में एक ही सोशलिज्म निश्चित है, वह मृत्यु का समाजवाद है। मृत्यु के समक्ष सब समान है।
जीवन में सब असमान है, मृत्यु के समक्ष सब समान है। गरीब और अमीर, बुद्धिमान और मूढ़, सुंदर और असुंदर, सफल और असफल, स्त्री और पुरुष, बच्चे और बूढ़े, काले और गोरे, नीग्रो और अंग्रेज, कोई भी—मृत्यु इस जगत में अब तक पाई गई एकमात्र सोशलिस्टिक डिक्टेटरशिप है, एकमात्र समाजवादी तंत्र उसी के पास है। वहां सब समान है।
मृत्यु सबको समान कर देती है। उसका शासन पक्षपात नहीं मानता। अमीर यह नहीं कह सकता कि थोड़ी देर रुक, क्योंकि मैं अमीर हूं। अभी थोड़ी देर से आना, क्योंकि इस वक्त मेरी पार्टी हुकूमत में है! अभी फुरसत नहीं मिलने की, क्योंकि अभी मैं मिनिस्टर हूं। नहीं, यह कोई भी उपाय नहीं है। गरीब भिखारी हो कि सम्राट हो, हारा—पराजित आदमी हो कि विजेता हो, मृत्यु के समक्ष पक्षपात नहीं है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, शासकों में मैं यमराज। न कोई पक्षपात है, न कोई अनिश्चितता है; न कोई भेदभाव है, न कोई अपवाद है। मृत्यु अनूठी घटना है।
और मुझे ऐसा लगता है कि अगर हम किसी दिन सच में ही सफल हो जाएं पूर्ण समाजवाद लाने में— हो नहीं सकते— हो जाएं, सब कुछ समान कर दें, तो यह पृथ्वी मरघट के जैसी लगेगी, जिंदगी के जैसी नहीं। क्योंकि अगर हम सब समान करने में सफल हो जाएं, तो जिंदगी मौत जैसी मालूम पड़ेगी। मौत ही समान हो सकती है। जिंदगी के होने का ढंग ही असमानता है, इनइक्यालिटी। चेष्टा करके हम कुछ—कुछ इंतजाम कर सकते हैं, लेकिन वे इंतजाम झूठे होंगे।
वे इंतजाम ऐसे ही होंगे, जैसे यहां बैठे सारे लोगों के चेहरे पर मैं नीला रंग पोत दूं तो एक अर्थ में समानता आ गई कि सभी के पास नीले चेहरे हैं। लेकिन उस नीले रंग के पीछे चेहरों की पृथकता कायम रहेगी। और उस नीले रंग के पीछे भी कोई सुंदर होगा और कोई कुरूप होगा, और कोई का होगा और कोई जवान होगा। बस, नीला रंग भर एक थोपा हुआ ऊपर से समान हो जाएगा।
हम आर्थिक समानता दुनिया पर थोप सकते हैं, लेकिन भीतर सब असमान होगा। असल में समानता एक थोपी हुई चीज है, क्योंकि व्यक्ति न समान पैदा होते, न समान जीते; बस समान मरते हैं।
मृत्यु का शासन इस अर्थ में, शायद किसी भी और शासन से तुलना नहीं किया जा सकता।
कृष्‍ण ने कहा कि तथा शासन करने वालों में मैं यमराज हूं।
तो मुझसे पक्षपात नहीं चाहा जा सकता, इसका अर्थ हुआ यह। इसका अर्थ हुआ कि जो परमात्मा से पक्षपात मांग रहे हैं, वे पागल हैं। पक्षपात नहीं मिल सकता। जो परमात्मा से प्रार्थनाएं कर रहे हैं कि उनके लिए अपवाद बना दिया जाए, वे गलती पर हैं। कोई अपवाद नहीं हो सकता।
हम सब इसी कोशिश में लगे हैं कि परमात्मा हमारे लिए अपवाद हो। सबके साथ कुछ भी करे, हमें छोड़ दे। सबके पाप माफ करे न करे, हमारे माफ कर दे। हम ऐसे हिसाब में लगे हैं कि सबको तो उनके पापों का दंड ठीक से मिले और हमारे पाप हमें क्षमा कर दिए जाएं, क्योंकि हम गंगास्नान कर आए हैं! या हम रोज पूजा करते हैं, कि हम रोज माला फेरते हैं। हम कुछ रिश्वत दे रहे हैं। हम एक नारियल चढ़ा देते हैं। हम फूल रख आते हैं परमात्मा के चरणों में। हम कुछ रिश्वत दे रहे हैं। हम उसे फुसला रहे हैं कि मेरे साथ कुछ जरा अपनेपन का खयाल करो। मुझ पर कुछ पक्षपात करो। कुछ मेरे साथ अपवाद करो। सबके नियम मुझ पर मत लगाना।
नहीं, यह कुछ भी नहीं हो सकता। कृष्‍ण कहते हैं, शासन करने वालों में मैं यमराज हूं। नियम पूरा होगा, पूरा किया जाएगा। नियम बिलकुल तटस्थ है।
महावीर ने तो बड़ी मजे की बात की है। महावीर ने इसीलिए कहा कि नियम चूंकि इतना तटस्थ है, परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है, नियम काफी है। महावीर ने परमात्मा की जरूरत ही अस्वीकार कर दी। उन्होंने कहा, परमात्मा की कोई जरूरत नहीं।
थोड़ा सोचने जैसा है। महावीर ने कहा कि नियम इतना शाश्वत है, इतना अचल है कि नियम काफी है। परमात्मा की बीच में क्या जरूरत है? नियम अपना काम करता रहेगा। जो बुरा करेगा, वह बुरा पाएगा। जो पहाड़ से कूदेगा, वह नीचे टकराकर मर जाएगा। जो जमीन की कशिश का खयाल नहीं रखेगा, उसके पैर टूट जाएंगे। जो भोजन नहीं करेगा, वह मर जाएगा। जैसे ये नियम शाश्वत हैं, वैसे ही जीवन का अंतरस्थ नियम भी शाश्वत है।
इसलिए महावीर ने कहा, भगवान को, परमात्मा को बीच में क्यों रखना! क्योंकि परमात्मा को बीच में रखने से अड़चन होगी। अड़चन यह होगी कि या तो परमात्मा यह कहेगा कि नियम तो पूरा होगा, मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूं। तब वर्चुअली उसका होना न होना बराबर है। और अगर परमात्मा को होना है, तो वह कहेगा, कोई फिक्र नहीं, तू मेरा भक्त है, तो तुझे मैं माफ किए देता हूं दूसरे को माफ नहीं करूंगा; तो अन्याय होगा।
तो महावीर ने कहा, परमात्मा को बीच में रखने से उपद्रव होगा, क्योंकि परमात्मा और नियम, दो के बीच तकलीफ होगी। अगर परमात्मा नियम बदल ही नहीं सकता, तो उसका होना न होना बराबर है। और अगर वह नियम बदल सकता है, तो जिंदगी बिलकुल बेकार है। क्योंकि उसका मतलब यह हुआ कि जो सच बोलता है, वह भी नर्क में पड़ सकता है, अगर परमात्मा उसके पक्ष में न हो। और जो झूठ बोलता है, वह भी स्वर्ग में जा सकता है, अगर परमात्मा उसके पक्ष में हो।
इसलिए महावीर ने तो कहा, नियम काफी है। पर महावीर ने नियम को ही परमात्मा मान लिया।
कृष्‍ण भी वही कह रहे हैं। कृष्‍ण कह रहे हैं कि तू खयाल रखना अर्जुन, मैं शासन करने वालों में यमराज हूं। न कोई अपवाद हो सकता है, न कोई भेद हो सकता है, न कोई रियायत हो सकती है, न कोई सुविधा हो सकती है। नियम तो पूरा लाग होगा। और उतनी ही सख्ती से लागू होगा, जैसे मौत लागू होती है। उसमें कोई भेद— भाव नहीं किया जा सकता। नियम का अर्थ ही खो जाता है, जब उसमें भेद— भाव किया जाता है।
तो कृष्ण कहते हैं, यमराज हूं मैं। मृत्यु की तरह सुनिश्चित मेरा शासन है।
और हे अर्जुन, मैं दैत्यों में प्रह्लाद और गिनती करने वालों में समय हूं। पशुओं में मृगराज, पक्षियों में गरुड़ हूं।
ये दो छोटे प्रतीक और समझ लेने जैसे हैं।
मैं दैत्यों में प्रह्लाद हूं! प्रह्लाद जन्मा तो दैत्यों के घर में। लेकिन घर में जन्मने से कुछ भी नहीं होता। घर बंधन नहीं है। प्रह्लाद दैत्य के घर में जन्मता है और परम भक्ति को उपलब्ध हो जाता है। शायद दैत्यों के घर में जो नहीं जन्मे हैं, वे भी इतनी भक्ति को उपलब्ध नहीं हो पाते। प्रह्लाद जैसा भक्त खोजना बिलकुल मुश्किल है।
यह बड़े मजे की बात है। दैत्य के घर में जन्मा हुआ बच्चा परम भक्त हो गया, और सदगृहस्थों, सज्जनों और देवताओं के घर में जन्मे बच्चे भी प्रह्लाद के मुकाबले एक नहीं टिक पाते। इससे कुछ बातें निकलती हैं।
एक, आप कहां पैदा होते हैं, किस परिस्थिति में, यह बेमानी है, इररेलेवेंट है। लेकिन हम सब यही रोना रोते रहते हैं कि परिस्थिति ऐसी है, क्या करें? परिस्थिति ही ऐसी है, मैं कर क्या सकता हूं? और अभी तो इस सदी में यह रोना इतना भयंकर हो गया है कि अब किसी को कुछ करने का सवाल ही नहीं है।
एक आदमी चोर है, तो इसलिए चोर है, क्योंकि परिस्थिति ऐसी है। और एक आदमी हत्या करता है, तो मनोवैज्ञानिक कहते हैं, वह क्या कर सकता है! उसकी बचपन से सारी अपब्रिगिग, उसका पालन—पोषण जिस ढंग से हुआ है, उसमें वह हत्या ही कर सकता है! सब कुछ परिस्थिति पर निर्भर है।
मार्क्स ने कहा है, आदमी तय नहीं करता समाज को, समाज तय करता है आदमी को। आदमी निर्माण नहीं करता परिस्थितियों का, परिस्थितियां निर्माण करती हैं आदमी का।
ध्यान रखें, धर्म और धर्म के विरोध में जो भी धारणाएं हैं, उनके बीच यही फासला है। धर्म कहता है, आदमी निर्माण करता है सब कुछ, परिस्थिति का और अपना। और धर्म के विपरीत जो धारणाएं हैं, वे कहती हैं, आदमी कुछ निर्माण कर नहीं सकता, परिस्थितियां सब निर्माण करती हैं, अपना भी और आदमी का भी।
इसलिए मार्क्स कहता है, परिस्थिति बदलो, तो आदमी बदल जाएगा। इसलिए सारी दुनिया में कम्युनिज्म परिस्थिति बदलने की कोशिश में लगा है कि आदमी बदल जाए।
धर्म कहता है, परिस्थिति कितनी ही बदलो, आदमी नहीं बदलेगा। आदमी को बदलो, तो परिस्थिति बदल जा सकती है। आदमी ज्यादा कीमती है, चेतना ज्यादा मूल्यवान है। परिस्थिति जड़ है। आदमी मालिक है।
और इसलिए कृष्ण कहते हैं, राक्षस दैत्यों के घर में पैदा हुआ, दैत्यों में प्रह्लाद मैं हूं।
सारी परिस्थिति विपरीत थी। सारी परिस्थिति विपरीत थी। वहां भक्त होने का कोई उपाय न था। उपाय ही न था, और प्रह्लाद इतना गहरा भक्त हो सका।
दूसरी बात आपसे कहता हूं जब विपरीत परिस्थिति हो, तब ऊपर से जो विपरीत दिखता है, उसका अगर उपयोग करना आता हो, तो वह अनुकूल हो जाता है। असल में विपरीत परिस्थिति बन जाती है चुनौती। अगर प्रहाद को कहीं अच्छे आदमी के घर में पैदा कर देते, तो शायद इतना बड़ा भक्त न हो पाता। और कभी—कभी ऐसा भी होता है कि अच्छे आदमियों के बच्चे इसीलिए बिगड़ जाते हैं कि अच्छे आदमी अच्छे होने की चुनौती नहीं देते, बुरे होने की चुनौती देते हैं।
गांधी का बड़ा लड़का मुसलमान हो गया था, गांधी की वजह से। आदमी अच्छे थे, एकदम अच्छे थे। लेकिन अच्छे होने पर इतना आग्रह था कि उनके बड़े लड़के हरिदास के मन में यह आग्रह गुलामी जैसा मालूम होने लगा। यह मत खाओ, वह मत पीयो। इतने वक्त सोओ, इतने वक्त उठो। सारी जिंदगी जकड़ दी।
वह जकड़न इतनी भारी हो गई कि उस पूरे के पूरे को तोड़कर। हरिदास भाग खड़ा हुआ। जैसे प्रह्लाद भाग खड़ा हुआ अपने बाप से, वैसे हरिदास भाग खड़ा हुआ अपने बाप से। हरिदास अब्‍दुल्ला गांधी हो गया, मुसलमान हो गया। मांस खाने लगा, शराब पीने लगा। कसम खा ली कि ब्रह्ममुहूर्त में उठना ही नहीं, चाहे कुछ भी हो जाए। नींद भी खुल जाए, तो भी नहीं उठना। रात देर से ही सोना है, इसका नियम बना लिया। वह जो—जो गांधी ने थोपा था, उस— उस के विपरीत चला गया।
ध्यान रखना आप, आपका बहुत अच्छा होना कहीं आपके बच्चों के लिए विपरीत चुनौती न हो जाए। इसलिए अच्छे घरों में अच्छे बच्चे पैदा नहीं हो पाते। बुरे घरों में अक्सर अच्छे बच्चे पैदा हो पाते हैं। अच्छे घरों में अच्छे बच्चे पैदा नहीं हो पाते। अच्छे बाप अच्छे बच्चे पैदा करने में बड़े असमर्थ सिद्ध होते हैं।
उसका कुल रहस्य इतना है कि वे इतने जोर से अच्छाई थोपते हैं ?, कि अगर बच्चा बुद्ध हो तो ही मान सकता है, और बुद्ध हो तो बहुत आगे नहीं जाता। थोड़ा बुद्धिमान हो, रिबेलियस हो जाता है, बगावती हो जाता है। उसका भी अपना अहंकार है, अपनी अस्मिता है। अगर बहुत ज्यादा दबाव डाला, तो एक सीमा के बाद या तो आदमी टूट ही जाता है, तो मिट जाता है; और या फिर भाग खड़ा होता है, विपरीत यात्रा पर निकल जाता है।
शायद प्रह्लाद के लिए भी सहयोगी हुआ पिता का होना। इससे जो मैं मतलब निकालना चाहता हूं वह यह कि आप कभी यह मत कहना कि परिस्थिति बुरी है, इसलिए मैं अच्छा नहीं हो पा रहा हूं। सच तो यह है कि परिस्थिति बुरी हो, तो अच्छे होने की संभावना ज्यादा होनी चाहिए, क्योंकि चुनौती है।
हां, अगर कोई आदमी मुझसे कहे कि परिस्थिति इतनी अच्छी है कि मैं अच्छा नहीं हो पा रहा, तो मुझे तर्कयुक्त मालूम पड़ता है। ठीक कह रहा है। बेचारा क्या कर सकता है? परिस्थिति इतनी अच्छी है, अच्छा हो भी कैसे सकता है!
लेकिन जब कोई आदमी कहता है कि परिस्थिति बुरी है, इसलिए अच्छा नहीं हो पा रहा है, तो वह सिर्फ अपनी नपुंसकता, अपनी इंपोटेंस घोषित कर रहा है। उसका मतलब यह है कि वह कुछ भी नहीं हो सकता। जब परिस्थिति इतनी विपरीत है, तब भी अगर तुम अकड़कर खड़े नहीं हो सकते उसके विरोध में, तो तुम कभी भी खड़े नहीं हो सकोगे।
इसका यह मतलब हुआ कि जिसके पास समझ हो, वह विपरीत परिस्थिति को भी अनुकूल बना लेता है। और जिसके पास नासमझी हो, वह अनुकूल परिस्थिति को भी खो देता है।
कृष्‍ण कहते हैं, मैं प्रह्लाद हूं दैत्यों में।
प्रह्लाद से ज्यादा खिला हुआ, शांत और मौन और निर्दोष फूल कहां है? लेकिन दैत्यों के बीच में! पर ऐसे यह उचित ही है। कमल भी खिलता है, तो कीचड़ में! और कमल यह नहीं चिल्लाता फिरता कि कीचड़ में मैं कैसे खिलूं बहुत गंदी कीचड़ नीचे भरी पड़ी है! कमल खिल जाता है। उसी कीचड़ से रस खींच लेता है, उसी कीचड़ से सुगंध खींच लेता है। उसी कीचड़ से रंग खींच लेता है। और उस कीचड़ के पार हो जाता है। न केवल उस कीचड़ के पार हो जाता है, बल्कि उस पानी के भी पार हो जाता है जिससे प्राण पाता है। खिलता है खुले आकाश में।
हम सोच भी नहीं सकते कि कमल और कीचड़ में कोई बाप— बेटे का संबंध है, कमल और कीचड़ में कोई उत्पत्ति और जन्म का संबंध है। कमल और कीचड़ को एक साथ रखिए, समझ में भी नहीं आएगा कि इन दोनों के बीच कोई सेतु, कोई श्रृंखला है।
लेकिन कीचड़ ही कमल है। और हर कीचड़ से कमल हो सकता है। कीचड़ के लिए बैठकर जो रोता रहता है, वह नाहक ही अपने आलस्य के लिए कारण खोज रहा है। कीचड़ से कमल हो जाते हैं। और जिंदगी में जहां भी कीचड़ हो, समझ लेना कि यहां भी कोई न कोई कमल खिल सकता है। कोई भी कीचड़ हो, समझ लेना, कमल खिल सकता है। यह कमल के खिलने का अवसर है।
लेकिन हम सब ऐसे लोग हैं, हम खिलना ही नहीं चाहते। खिलने में शायद श्रम मालूम पड़ता है, मेहनत मालूम पड़ती है। हम जो हैं, वही रहना चाहते हैं। इसलिए हम इस तरह के तर्क खोज लेते हैं, जिन तर्कों के आधार से हम जो हैं, वही बने रहने में सुविधा मिलती है।
हम कहते हैं, क्या कर सकते हैं, परिस्थिति अनुकूल नहीं है! सब तरफ विरोध है, सब तरफ प्रतिकूलता है, बढ़ने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए हम नहीं बढ़ पा रहे हैं। ऐसे तो हम शिखर पर पहुंच सकते थे, सुमेरु पर्वत के शिखर पर बैठ सकते थे, लेकिन परिस्थिति ही नहीं है।
परिस्थिति कभी भी नहीं होगी। परिस्थिति कभी भी नहीं थी। जो परिस्थिति के पार नहीं उठ सकता, वह किसी भी परिस्थिति में इसी रोने को लेकर बैठा रहेगा।
कृष्‍ण कहते हैं, मैं प्रह्लाद हूं दैत्यों में।
जहां ईश्वर का नाम लेने की भी मनाही थी, वहां प्रहाद केवल नाम के ही सहारे ईश्वर को पा लिया। इसे थोड़ा समझें, क्योंकि हमें तो कोई मनाही नहीं है। जितनी मौज हो लें, रोज अपनी कुर्सी पर बैठ जाएं और ईश्वर का नाम लेते रहें।
बड़े मजे की बात है! प्रह्लाद ईश्वर के नाम से पा लिया। और आप काफी लेते रहते हैं। लोग अपने बच्चों का नाम ईश्वर पर इसीलिए रख लेते हैं—किसी का नाम राम, किसी का नारायण—कि दिनभर बुलाते रहें। लेकिन बुलाने का परिणाम यह होता है कि नारायण को चांटा भी लगाना पड़ता है, गाली भी देनी पड़ती है। ये सब परिणाम होते हैं, और कुछ नहीं होता।
नाम तो लोग रखते थे भगवान पर बच्चों का इसलिए कि दिन में अकारण ही, अनायास ही, बिना वजह के भगवान का नाम आ जाए। लेकिन जो फल होता है, वह कुल इतना ही होता है कि नारायण नाहक पिटते हैं, नाहक गाली खाते हैं! और धीरे— धीरे जब नारायण को गाली देने की भी क्षमता आ जाती है, तो फिर असली नारायण भी मिल जाएं, तो गाली ही निकलेगी। आदतें हैं।
लेकिन प्रह्लाद को तो कोई अवसर भी न था, भगवान के नाम के लेने की मनाही थी। उस बीच वह आदमी भगवान के नाम के ही सहारे जीवन को इतनी उत्कृष्टता पर ले जा सका, इसका कारण क्या होगा?
इसका कारण यह है कि जीवन की जो डायनेमिक्स, जीवन का जो गत्यात्मक रूप है, वह हम नहीं समझते हैं। अगर आपको भी बंद कर दिया जाए एक कोठरी में और सख्त मनाही कर दी जाए कि राम का नाम मत लेना, तब आपके हृदय की बहुत गहराई से राम का नाम आएगा। क्योंकि यह आपकी स्वतंत्रता की घोषणा होगी। और आपको बिठाया जाए और कहा जाए कि लो राम का नाम! जैसा कि मां—बाप बिठाल रहे हैं बच्चों को ले जा ले जाकर कि लो राम का नाम! बच्चे जबरदस्ती ले रहे हैं, कहीं कोई गहराई पैदा नहीं होती। कहीं कोई गहराई नहीं पैदा होती। जीवन की गत्यात्मकता बड़ी उलटी है।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन को बचपन से ही उसके घर के परिवार के लोग उलटी खोपड़ी मानते थे। अगर उसकी मां को कहना हो कि भोजन कर लो, तो कहना पड़ता था कि आज उपवास करो! अगर उसकी मां को कहना पड़ता हो कि बाहर खेलने मत जाओ, तो कहना पड़ता था कि आज बाहर ही खेलो; भीतर मत आओ! जो भी करवाना हो, उससे उलटी आज्ञा देनी पड़ती थी।
नसरुद्दीन बड़ा हो गया। यह आशा उलटी जारी रही। फिर वह अठारह साल का जिस दिन हुआ, उस दिन उसका बाप और नसरुद्दीन दोनों अपने गधों को लेकर नदी पार हो रहे थे छोटे—से पुल से। नसरुद्दीन —का जो गधा था, उस पर शक्कर लदी थी और शक्कर का झोला बाईं तरफ बुरी तरह झूल रहा था। और ऐसा लगता था कि अब बोरा गिरा, नदी में अब गिरा— बाईं तरफ। बाप को बोरा हटवाना था दाईं तरफ। तो बाप ने कहा, बेटे नसरुद्दीन, बोरा दाईं तरफ गिर रहा है, बाईं तरफ जरा सरका दे। उलटी खोपड़ी था!
लेकिन उस दिन नसरुद्दीन ने बाईं तरफ ही सरका दिया। बोरा तो गिरा, बोरे के साथ गधा भी नदी में गिर गया। बाप ने कहा कि नसरुद्दीन, यह कैसा उलटा चरित्र! आज तूने यह क्या किया! नसरुद्दीन ने कहा, आपको पता नहीं, मैं अठारह साल का हो गया, अडल्ट! अब मैंने बचपन की आदतें बदल दी हैं। अब मैं समझ जाऊंगा कि तुम जो कह रहे हो, उससे उलटा नहीं करूंगा; तुम्हारा जो मतलब है भीतर, उसका उलटा करूंगा। अब मैं अडल्ट हो गया हूं। तुम जो कह रहे हो, उसका उलटा, तुमने बचपन में मुझे काफी धोखा दे लिया। अब मैं समझ गया हूं। अब तुम्हारा जो मतलब है भीतर, उसका उलटा करूंगा। अब तुम जरा सोच—समझकर !? आशाएं देना।
आदमी का डायनेमिक्स, आदमी के जीवन की गति जो है, वह पोलेरिटीज में होती है, ध्रुवीयता में होती है, वैपरीत्य में होती है। हम सब विपरीत की तरफ झुकते चले जाते हैं।
यह प्रहाद की घटना विचारणीय है। इसलिए अपने बच्चों पर अच्छाई जबरदस्ती मत थोपना। नहीं तो बच्चे बुराई की तरफ हट जाएंगे। इसलिए बहुत डेलिकेट है मामला। इतना ही डेलिकेट, जैसी नसरुद्दीन के बाप को मुसीबत हुई। इसका यह मतलब नहीं है कि आप बुराई थोपना बच्चे पर। बहुत डेलिकेट है, नाजुक है। अच्छाई थोपना मत। और अच्छाई को खिलने में सहयोग देना, थोपना मत। बुराई की इतने जोर से निंदा मत करना कि बुराई में रस पैदा हो जाए। निंदा से रस पैदा होता है। बुराई का इतना निषेध मत करना कि निमंत्रण बन जाए।
किसी दरवाजे पर लिख दो कि यहां झांकना मना है, फिर कोई महात्मा भी वहां से बिना झांके नहीं निकल सकता। झांकना ही पड़ेगा। और अगर महात्मा चले गए बिना झांके, तो फिर किसी बहाने उनको लौटना पड़ेगा। और अगर हिम्मत न पड़ी कि कहीं भक्तगण देख न लें कि वहां झांककर देखते हो, जहां झांकना मना है, तो रात सपने में वे जरूर वहां आएंगे। उस पट्टी को झांकना ही पड़ेगा। वह मजबूरी, वह आब्सेशन हो जाता है।
बुराई को ऑब्सेशन मत बना देना। भलाई को इतना मत थोपना कि उसके विपरीत भाव पैदा हो जाए।
इसलिए बच्चे को बड़ा करना एक बहुत डेलिकेट बात है, बहुत नाजुक बात है। और अब तक आदमी सफल नहीं हो पाया है। बच्चे को ठीक से बड़ा करने में आदमी अभी भी असफल है। अभी भी शिक्षा की सारी व्यवस्थाएं गलत हैं। क्योंकि बहुत नाजुक मामला है। और उस नाजुकपन को समझने में बड़ी कठिनाई है। बड़ी से बड़ी कठिनाई तो यह है कि हमें इस बात का खयाल ही नहीं है कि आदमी के भीतर गति कैसे पैदा होती है?
यह प्रह्लाद के भीतर जो गति पैदा हुई, यह प्रह्लाद के पिता की वजह से पैदा हुई। और चूंकि वह दैत्यों के घर में पैदा हुआ था, इसलिए जब विपरीत चला, तो ठीक दैत्यों से उलटा सारे भक्तों को पार कर गया।
कृष्‍ण कहते हैं, मैं प्रह्लाद हूं दैत्यों में।
और गिनती करने वालों में समय हूं टाइम।
यह आखिरी बात हम खयाल में ले लें।
समय के कुछ लक्षण हैं। एक, कि आपको एक क्षण से ज्यादा कभी नहीं मिलता; कभी नहीं। आपके हाथ में एक क्षण ही होता है, बस। जब एक क्षण निकल जाता है, तब दूसरा मिलता है। जब दूसरा निकल जाता है, तब तीसरा मिलता है। आपके हाथ में दो क्षण एक साथ कभी नहीं होते।
समय भी बड़ा कैलकुलेटर है। समय से ज्यादा ठीक गिनती करने वाला कोई भी नहीं दिखाई पड़ता। एक—एक व्यक्ति को एक—एक क्षण से ज्यादा कभी नहीं मिलता, कोई इसमें धोखा नहीं दे सकता। कोई कितना ही बड़ा महायोगी हो, और कोई कितना ही बड़ा धनी हो, और कोई कितना ही बड़ा ज्ञानी हो, कितना ही बड़ा वैज्ञानिक हो, वह समय को डिसीव नहीं कर सकता कि उससे दो क्षण एक साथ ले ले। बस, एक ही क्षण हाथ में आता है।
कभी आपने रेत की घड़ी देखी है? रेत की घड़ी में से रेत का एक—एक दाना नीचे गिरता रहता है। उसमें तो कभी भूल हो सकती है, क्योंकि आदमी की बनाई हुई घड़ी है और रेत के दाने छोटे—बड़े भी होते हैं। तो कभी कोई दो दाने भी गिर सकते हैं। लेकिन समय की घड़ी में से कभी भी दो दाने नहीं गिरते। एक ही क्षण आपके हाथ में होता है, नपा—तुला। और पूरी जिंदगी!
तो कृष्‍ण कहते हैं कि मैं समय हूं गिनती करने वालों में।
इससे ज्यादा सूक्ष्म गिनती किसी की भी नहीं है। और हिंदू दृष्‍टि से एक—एक व्यक्ति के क्षण गिने हुए हैं। कोई भी व्यक्ति अपने हुए क्षण से ज्यादा नहीं जी सकता। हिंदू हिसाब से जिंदगी की स पिछली जिंदगी के कर्मों से नियत होती है। मैंने जो पिछले किया है, वह मेरी इस जिंदगी के समय को तय करता है। मैं समय तो तय कर चुका हूं।
इसलिए ऐसा भी होता है, जैसे बुद्ध को शान हुआ, तब वे स्थिति को पहुंच गए कि उसके बाद जीने का कोई भी कारण न था। कोई भी कारण नहीं था। बुद्ध को जीने का क्या कारण! वासना न रही, तो जीने का कोई कारण न रहा। लेकिन चलीस साल जीना पडा।
बुद्ध से किसी ने पूछा कि आप अब क्यों जी रहे हैं? क्‍योंकि कुछ आपको करना है, न कुछ पाना है। जो पाना था पा लिया, करना था कर लिया। अब कुछ भी बचा नहीं शेष। आप पूर्ण गए, तो अब आप क्या कर रहे हैं?
तो बुद्ध ने कहा कि वह पिछले जन्म में जो उम्र पा ली है, पूरा करना पड़ेगा। वह चालीस साल मुझे जीना पड़ेगा। क्यो समय न तो एक क्षण कम करता है, और न एक क्षण ज्यादा, मुझे पूरा करना पड़ेगा। तो चालीस साल अब मैं जीऊं—गा।
यह जीना वैसे ही है जैसे कि आपने साइकिल पर पैडिल मारा, फिर आप पैडिल रोक दिए, लेकिन साइकिल थोड़ी दूर आगे च जाएगी। मोमेंटम! इतनी देर जो आपने साइकिल को पैडिल ' साइकिल ने थोड़ी शक्ति अर्जित कर ली। अब आप पैडिल न मारे, तो साइकिल एकदम से नहीं रुकेगी, थोड़ी दूर चली जाएगी।
बुद्ध कहते हैं कि अब मैं जो अर्जित कर लिया हूं जन्मों—जन्मों वह चालीस साल की गति अभी काम करेगी, यह शरीर का चलता रहेगा। उसमें क्षणभर कम—ज्यादा नहीं किया जा सकता इसलिए कृष्य कहते हैं, गिनती करने वालों में मैं समय हूं क्षण ज्यादा हो सकता है, न कम हो सकता है। न एक क्षण से ज्‍यादा किसी को मिल सकता है, न एक खोए हुए क्षण को वापस पाया सकता है। समय का गणित बिलकुल पक्का है।
यह कुछ कारण से कृष्‍ण कह रहे हैं अर्जुन से। ये प्रतीक ऐसे ही नहीं चुन लिए हैं। अर्जुन को यही खयाल है कि इनको मैं —मार डालूंगा, ये जो दुश्मन इकट्ठे हैं। कृष्‍ण कह रहे हैं, मैं समय हूं गिनती करने वालों में। एक क्षण पहले तू किसी को मार नहीं सकता और एक क्षण ज्यादा जिलाने का कोई उपाय नहीं है। जो मरेंगे, उनका समय चुक गया था। जो बचेंगे, उनका समय बचा था। तू केवल निमित्त है। इससे ज्यादा तू नहीं है।
आज इतना ही
पांच मिनट रुकेकीर्तन में सम्मिलित हों और फिर जाएं

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