अध्याय—7
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि।। 23।।
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि।। 23।।
परंतु
उन
अल्पबुद्धि
वालों का वह
फल नाशवान है
तथा वे
देवताओं को
पूजने वाले
देवताओं को प्राप्त
होते हैं और
मेरे भक्त
मेरे को ही
प्राप्त होते
हैं।
कामनाओं
से प्रेरित
होकर की गई
प्रार्थनाएं
जरूर ही फल
लाती हैं।
लेकिन वे फल
क्षणिक ही होने
वाले हैं; वे फल थोड़ी
देर ही टिकने
वाले हैं। कोई
भी सुख सदा
नहीं टिक सकता,
न ही कोई
दुख सदा टिकता
है। सुख और
दुख लहर की तरह
आते हैं और
चले जाते हैं।
देवताओं
की पूजा से जो
मिल सकता है, वह क्षणिक
सुख का आभास
ही हो सकता
है। वासनाओं
के मार्ग से
कुछ और ज्यादा
पाने का उपाय
ही नहीं है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, लेकिन जो
मेरे निकट आता
है--और उनके
निकट आने की
शर्त है, वासनाओं
को छोड़कर, विषयासक्ति
को छोड़कर--वह
उसे पाता है, जो नष्ट
नहीं होता, जो खोता
नहीं, जो
शाश्वत है।
इसलिए
उन्होंने दो
बातें इस सूत्र
में कही हैं।
अल्पबुद्धि
वाले लोग!
अल्पबुद्धि
वाले लोग कौन
हैं? अल्पबुद्धि
वाले लोग वे
हैं, जो कि
अपने ही हाथों,
बहुत बड़े
मूल्य पर बहुत
छोटी चीज
खरीदने को राजी
हो जाते हैं।
बहुत बड़े
मूल्य पर बहुत
छोटी चीज
खरीदने को
राजी हो जाते
हैं।
प्रार्थना से
तो मिल सकता
है परम सत्य, लेकिन वे
मांग लेते हैं
कुछ क्षुद्र
वस्तुएं।
प्रार्थना से
मिल सकता है
परम जीवन, लेकिन
वे मांग लेते
हैं शरीर की
कुछ जरूरतें।
निश्चित
ही, अल्पबुद्धि
हैं इस कारण।
और इसलिए भी
अल्पबुद्धि
हैं कि जो भी
वे मांगते हैं,
वह मिल भी
जाए, तो भी
मांग का कोई
अंत नहीं
होता। जो वे
पाना चाहते
हैं, पा
लें, तब भी
वे उतने ही
अतृप्त, उतने
ही दीन और
उतने ही अधूरे
होते हैं, जितना
मिलने के पहले
थे।
मांगना
ही हो, तो
उसे मांग लेना
चाहिए, जिसे
मांगकर
फिर और कोई
मांग शेष न रह
जाए। पाना ही
हो, तो उसे
पा लेना चाहिए,
जिसे पाकर
तृप्ति हो
जाती है, और
पाने की दौड़ समाप्त
हो जाती है।
लेकिन
अल्पबुद्धि
लोग दूर तक
नहीं देख
पाते।
विस्तीर्ण, जीवन के
पूरे पहलू को
नहीं समझ
पाते। क्षणिक
उनकी बुद्धि
होती है। अभी
जो लगता है
जरूरी, वह
मांग लेते
हैं।
बुद्धिमान
वही है, जो
जीवन की परम
आवश्यकता को
मांगता है।
सुनी
है हम सबने
कथा, बहुत
प्यारी और
मधुर है।
नचिकेता अपने
पिता के पास
बैठा है। पिता
ने किया है
बड़ा यज्ञ।
ब्राह्मणों
को दान कर रहे
हैं वे। पिता
ने नचिकेता से
कहा है, मैं
अपना सब दान
कर दूंगा।
छोटा बच्चा है,
और छोटे
बच्चों से
कभी-कभी जो
सवाल उठते हैं,
वे बड़े गहरे
और आत्यंतिक
होते हैं। वह
बैठा हुआ है
पास में, जब
ब्राह्मणों
को दान दिया
जा रहा है। और
नचिकेता का
पिता पुरानी
बूढ़ी गाएं दे
रहा है, जिनसे
दूध मिलने को
नहीं। इस तरह
की चीजें दे रहा
है, जिनकी
अब कोई जरूरत
नहीं रही। तो
नचिकेता बार-बार
पूछता है कि
मैं भी तो
आपका हूं न, तो मुझे कब
दान देंगे? मुझे किसे
दान देंगे? क्योंकि कहा
आपने कि मैं
अपना सब कुछ
दे डालूंगा।
मैं भी
तुम्हारा
बेटा हूं न!
पिता
को क्रोध आ
जाता है। वह
क्रोध में
कहता है कि
तुझे भी दे
दूंगा; घबड़ा
मत। लेकिन
तुझे मृत्यु
को, यम को
दे दूंगा।
नचिकेता, मानकर कि यम
को दान कर दिया
गया, यम के
द्वार पर
पहुंच जाता
है। लेकिन यम
घर के बाहर
है। तो वह तीन
दिन भूखा बैठा
रहता है, फिर
यम आते हैं।
उसका तीन दिन
भूखा बैठा
रहना, उस
छोटे-से बच्चे
का, और
इतनी सरलता से
मृत्यु के
द्वार पर
स्वयं आ जाना!
क्योंकि यम का
अनुभव तो यही
है कि वह जिसके
द्वार पर जाता
है, वही घर
छोड़कर भागता
है। यम के
द्वार पर आने
वाला यह पहला
ही व्यक्ति है,
जो खुद
खोजबीन करके
आया। और फिर
यह देखकर कि यम
घर पर नहीं है,
भूखा-प्यासा
बैठा है। तो
यम कहते हैं
कि तू कुछ
मांग ले, तू
वरदान ले ले।
मैं तुझ पर
प्रसन्न हुआ
हूं। मैं तुझे
हाथी-घोड़े, धन-दौलत, सुंदर
स्त्रियां, राज्य--सब
तुझे दूंगा।
नचिकेता
कहता है, लेकिन
जो धन आप
देंगे, उससे
मुझे तृप्ति
मिल पाएगी, ऐसी, जो
कभी नष्ट न हो?
वह यम उदास
होकर कहता है,
ऐसी तो कोई
तृप्ति धन से
कभी नहीं
मिलती, जो
समाप्त न हो।
वे जो
स्त्रियां आप
मुझे देंगे, उनका
सौंदर्य सदा
ठहरेगा? यम
कहता है कि
कुछ भी इस जगत
में सदा ठहरने
वाला नहीं है।
वह जो आप मुझे
लंबी उम्र
देंगे, क्या
उसके बाद फिर
आप मुझे लेने
न आएंगे? तो
यम कहता है, यह तो असंभव
है। कितनी ही
हो लंबी उम्र,
अंत में तो
मैं आऊंगा
ही। वह जो बड़ा
राज्य आप मुझे
देंगे, क्या
उसे पाकर मैं
वह पा लूंगा, ऋषियों ने
जो कहा है कि
जिसे पा लेने
से सब पा लिया
जाता है? यम
कहता है, उससे
तो कुछ भी
नहीं मिलेगा,
क्योंकि
बड़े-बड़े
सम्राट वह सब
पा चुके हैं
और फिर भी
दीन-हीन मरे
हैं। तो
नचिकेता कहता
है, ये
चीजें फिर मैं
न लूंगा। मुझे
तो इतना ही
बता दें कि
मृत्यु का राज
क्या है, ताकि
मैं अमृत को
जान सकूं।
नचिकेता
को बहुत
समझाता है यम।
यम बहुत बुद्धिमान
है। मृत्यु से
ज्यादा
बुद्धिमान
शायद ही कोई
हो। अनंत उसका
अनुभव है जीवन
का। हर आदमी
की नासमझी का
भी मृत्यु को
जितना पता है, उतना किसी
और को नहीं
होगा।
क्योंकि जिंदगीभर
दौड़-धूप करके
हम जो इकट्ठा
करते हैं, मृत्यु
उसे बिखेर
जाती है। और
एक बार नहीं, हजार बार
हमारा इकट्ठा
किया हुआ मौत
बिखेर देती
है। हम फिर
दुबारा मौका
पाकर, फिर
वही इकट्ठा
करना शुरू कर
देते हैं।
आदमी की
नासमझी का
जितना पता मौत
को होगा, उतना
किसी और को
नहीं है। इतने
लोगों की
नासमझी से
गुजरकर मौत
समझदार हो गई
हो, तो
आश्चर्य
नहीं। लेकिन
यह बच्चा बहुत
अडिग है। वह
कहता है कि
मुझे तो वही
बता दें, जिससे
अमृत को जान
लूं। मृत्यु
को समझा दें
मुझे। और आप
तो मृत्यु को
जानते ही हैं,
आप मृत्यु
के देव हैं।
आप नहीं बताएंगे,
तो मुझे कौन
बताएगा!
बुद्धिमान
होगा नचिकेता, कृष्ण के
अर्थों में।
हम बुद्धिमान
नहीं हो सकते;
हम
अल्पबुद्धि
हैं। खयाल
रखें, कृष्ण
कह रहे हैं, अल्पबुद्धि;
बुद्धिहीन
भी नहीं कह
रहे हैं।
बुद्धिहीन भी नहीं
कह रहे हैं, अल्पबुद्धि।
अगर
मनुष्य
बिलकुल
बुद्धिहीन हो, तब तो कोई
संभावना नहीं
रह जाती।
बुद्धि तो है;
बहुत छोटी
है। बड़ी हो
सकती है, विकसित
हो सकती है।
जो बीज की तरह
है, वह
वृक्ष की तरह
हो सकती है।
जो आज बहुत
छोटी है, वह
कल विराट बन
सकती है।
कहते
हैं, अल्पबुद्धि
है आदमी। दुख
तो नहीं चाहता
आदमी, नहीं
तो बुद्धिहीन
होता। सुख
चाहता है, लेकिन
अल्पबुद्धि
है। क्योंकि
ऐसा सुख चाहता
है, जो अंत
में दुख ही
लाता है, और
कुछ लाता
नहीं।
अल्पबुद्धि
कहना प्रयोजन
से है। और अगर
इस बात को हम
ठीक से समझें, तो हम सभी
अल्पबुद्धि
मालूम
पड़ेंगे। हमने
जो भी चाहा, जो भी मांगा,
जो भी खोजा,
जीवन के
मंदिर में
हमने जो भी
प्रार्थनाएं
की हैं, वे
हमारी सब ऐसी
प्रार्थनाएं
हैं, जैसे
कोई रेत पर
मकान बनाए; ताश के
पत्तों का घर
बनाए; कागज
की नावें बनाएं,
और सोचे कि
सागर में
यात्रा पर
निकल जाएगा। कागज
की नाव पर कोई
बैठकर सागर की
यात्रा पर जा
रहा हो, तो
हम उसे क्या
कहेंगे?
कृष्ण
वही हमसे कह
रहे हैं। हम
सब कागज की
नावों पर जीवन
में यात्रा
करते हैं।
हमारी नावें सपनों
से ज्यादा
नहीं। और
हमारे भवन ताश
के पत्तों के
घर हैं। और सब, रेत पर
हमारे
हस्ताक्षर हैं।
हवा के झोंके
आएंगे और सब
बुझ जाएगा, और सब मिट
जाएगा।
अल्पबुद्धि
हैं हम। पर
बुद्धि हम में
है, अल्प ही
सही। बीज ही
सही, पोटेंशियलिटी
ही सही। हम
इतना तो तय है
कि सुख चाहते
हैं। हां, इतना
तय नहीं है कि
सुख क्या है, वह हम नहीं
समझ पाए हैं।
सुख
चाहते हैं, यह तय है।
सुख चाहकर
भी दुख पाते
हैं, यह
हमारा अनुभव
है। लेकिन सुख
की चाह हमारे
भीतर है, वह
बुद्धिमानी
की सूचक है।
लेकिन
अत्यल्प बुद्धि
की सूचक है।
क्योंकि फिर
जो हम करते
हैं, उससे
दुख हाथ में
आता है। शायद
हम ठीक से
नहीं देख पाते
कि सुख क्या
है और दुख क्या
है।
यह
बहुत मजे की
बात है। जो
व्यक्ति भी
थोड़ी दूर तक
सोचेगा, वह
हमेशा ऐसे सुख
को चुन लेगा, जो बाद में
दुख बन जाए।
और जो व्यक्ति
दूर तक सोचेगा,
वह ऐसे दुख
को चुनेगा,
जो बाद में
सुख बन जाए।
भोग और
तपश्चर्या का
इतना ही फर्क
है। भोगी, आज जो सुख
मालूम पड़ता है,
उसे चुन
लेता है; कल
वह दुख हो
जाता है।
तपस्वी, आज
जो दुख मालूम
पड़ता है, उसे
चुनता है, लेकिन
कल वह सुख हो
जाता है।
और यह
बड़े मजे की
बात है, जो
दुख को चुन
सकता है आज, वह कल सुख का
मालिक हो सकता
है। और जो सुख
को ही चुन
सकता है आज, कल वह सिवाय
दुख के गङ्ढों
के और किन्हीं
चीजों को
उपलब्ध नहीं
होगा। सुख पर
जिसकी नजर है,
वह दुख में
पड़ जाएगा।
उसकी नजर बहुत
ओछी है, बहुत
पास ही वह
देखता है।
इतने पास
देखता है कि
आगे के रास्ते
का कुछ पता
नहीं चलता।
दूर-दृष्टि
चाहिए; दूर
तक देखने की
सामर्थ्य
चाहिए। और अगर
हम जरा भी दूर
देख पाएं, तो
हम जिन्हें
सुख मानकर
चलते हैं, उनकी
खोज में हम
अपने जीवन को
नष्ट नहीं
करेंगे।
सुना
है मैंने कि
एक अमेरिकी
फिल्म
निर्माता नई
अभिनेत्री की
तलाश में था।
अपने एक कवि
मित्र को पकड़
लाया, जिसकी
सौंदर्य के
संबंध में बड़ी
सुरुचि थी, जो सौंदर्य
का पारखी था, और जिसने
सुंदरतम
स्त्री को
खोजकर विवाह
किया था।
सौंदर्य पर
उसने कविताएं
लिखी थीं और
सौंदर्य पर
शास्त्र लिखे
थे। एस्थेटिक्स
पर उसकी बड़ी
प्रसिद्ध
किताबें थीं।
उस फिल्म निर्माता
ने सोचा कि इस
मित्र कवि को
ले चलूं; वह
एक नई
अभिनेत्री की
तलाश में था।
एक
विश्व
सौंदर्य
प्रतियोगिता
हो रही थी, जहां
दुनियाभर से
कोई तीन दर्जन
सुंदर युवतियां
पुरस्कार
लेने आई थीं।
तो उसने कहा
अपने मित्र को
कि तुम बैठकर
एक-एक स्त्री
को ठीक से देखते
जाना और जो
स्त्री
तुम्हें ठीक
जंच जाए, मुझे
इशारा कर देना,
तो मैं उसे
अपनी नई फिल्म
के लिए प्रमुख
पात्र बना
लूं।
लेकिन
फिल्म
निर्माता बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया। पहली
ही सुंदर
युवती आई; सभी
स्त्रियां एक
से एक ज्यादा
सुंदर थीं; एक-एक
राष्ट्र से
चुनकर भेजी गई
थीं। पहली स्त्री
सामने आई--बगल
में कवि बैठा
था--अर्धनग्न,
करीब-करीब
नग्न। कवि ने
उसे देखा और
कहा, फूः। वह बहुत
हैरान हुआ; निर्माता
बहुत हैरान
हुआ। उसने
इतनी सुंदर स्त्री
देखी नहीं थी।
पर कवि ने कहा,
फूः। वह स्त्री
चली गई, दूसरी
स्त्री आई। और
भी सुंदर थी।
पर कवि ने कहा,
फूः। वे तीन
दर्जन
स्त्रियां
सामने से जो
गुजरती गईं और
वह एक ही काम करता
रहा, फूः! फूः!
वह
चित्र
निर्माता तो
बहुत घबड़ा
गया। और जब तीनों
दर्जन
स्त्रियां
निकल गईं, तो उसने
पूछा, आश्चर्य,
मैं तो
तुम्हें लाकर
बड़ी मुश्किल
में पड़ गया। कोई
भी स्त्री
पसंद नहीं
पड़ी! जो भी
स्त्री तुमने
देखी, कहा,
फूः। तो क्या
मतलब है
तुम्हारा? क्या
चाहते हो तुम?
क्या
मापदंड है
तुम्हारा?
उस कवि
ने कहा, यू
हैव मिसअंडरस्टुड
मी सर; आप
मुझे गलत
समझे। आई वाज़
नाट सेइंग
फूः-फूः
टु दीज
गर्ल्स। आई वाज़ सेइंग
फूः टु
माई वाइफ।
यह मैं इन
लड़कियों के
लिए फूः-फूः
नहीं कह रहा
था; यह तो
मैं अपनी
पत्नी के लिए फूः-फूः कर रहा
था।
पर
उसने कहा कि
पत्नी का इससे
क्या संबंध? तो उसने कहा,
जब मैंने
पत्नी को पहली
दफा देखा था, तो वह भी ऐसी
ही अतीव
सुंदरी मालूम
पड़ी थी। फिर
जैसे-जैसे पास
आई, सब फूः-फूः
सिद्ध हो गया।
तो मैं जानता
हूं कि यह सब
जो रूपरेखा
दिखाई पड़ रही
है, यह
पीछे फूः-फूः
सिद्ध हो जाने
वाला है। अब
इस जगत में
दुबारा शरीर
की रेखाएं
मुझे आकर्षित
न कर पाएंगी।
अब दुबारा
शरीर का
अनुपात मेरे
लिए सौंदर्य न
बन सकेगा। एक
ही अनुभव ने
मुझे बहुत कुछ
कह दिया है।
निश्चित
ही, यह कवि
सौंदर्य का
पारखी रहा हो
या न रहा हो, अल्पबुद्धि
नहीं था।
अल्पबुद्धि
होता, तो
सोचता कि एक
पत्नी सुंदर
दिखाई पड़ी, फिर सुंदर
नहीं सिद्ध
हुई, तो
जरूरी तो नहीं
है कि दूसरी
स्त्री सुंदर
दिखाई पड़े और
सुंदर सिद्ध न
हो। दूसरी
स्त्री सुंदर
सिद्ध हो सकती
है। यही हमारा
तर्क है।
अल्पबुद्धि
का तर्क यही
है कि कोई
फिक्र नहीं, एक मकान सुख
न दे पाया, तो
दूसरा देगा।
कोई फिक्र
नहीं, एक
पद पर शांति न
मिली, तो
और दूसरे पद
पर मिलेगी।
कोई फिक्र
नहीं, छोटी
तिजोड़ी
भर गई पूरी, फिर भी मन न
भरा; शायद
बड़ी तिजोड़ी
भर जाए, तो
मन भर जाए।
अल्पबुद्धि
का तर्क है कि
वह एक अनुभव
को जीवन की
चिरस्थायी निधि
नहीं बना
पाता। वह अपने
को धोखा दिए
चला जाता है।
वह कहता है, नहीं, कोई
बात नहीं; यह
अनुभव गलत हुआ,
दूसरा
अनुभव ठीक
होगा, तीसरा
अनुभव ठीक
होगा, चौथा
अनुभव ठीक
होगा।
लेकिन
इस जगत में एक
अनुभव, उससे
मिलते-जुलते
सारे अनुभव की
खबर दे जाता है।
पर उसके लिए
बहुत दूर तक
देखने वाली
दृष्टि, मेधा
चाहिए।
अल्पबुद्धि
नहीं, गहरी
दृष्टि चाहिए,
महाबुद्धि
चाहिए। तब एक
अनुभव समस्त
अनुभवों के
लिए मार्ग बन
जाता है, द्वार
बन जाता है।
लेकिन
बहुत कठिन है।
अगर आपके हाथ
में एक रुपया
आया और आपके
हाथ में कुछ न
आया, तो आप यह
मानने को कभी
राजी न होंगे
कि दूसरा आएगा
और कुछ न आएगा,
तीसरा आएगा
और कुछ न
आएगा। आपका मन
धोखा दिए चला
जाएगा। वह
कहेगा, एक
से नहीं मिला;
तो वह कहेगा,
दूसरा पाने
की शीघ्रता
करो। दूसरे से
नहीं मिला, तो तीसरा
पाने की
शीघ्रता करो।
बस, मन
इतना ही कहेगा,
और तेजी से दौड़ो, और
तेजी से दौड़ो;
कभी तो वह
दिन आ जाएगा, जब उतने
रुपए हाथ में
होंगे, जब
तृप्ति हो
जाए।
लेकिन
कभी लौटकर
इतिहास में भी
तो लोगों से
पूछें कि वह
तृप्ति कभी आई?
अशोक
युद्ध पर गया
था।
अल्पबुद्धि
आदमी नहीं था।
कलिंग के
युद्ध पर लड़ा।
एक लाख आदमी
मारे गए। अशोक
के पहले भी
सम्राट लड़े
हैं, बाद में
भी लड़ते रहे
हैं, सदा
लड़ते रहेंगे।
लेकिन जो अशोक
को दिखाई पड़ा,
वह पहले के
सम्राटों को
भी कभी दिखाई
नहीं पड़ा, बाद
के सम्राटों
को भी कभी
दिखाई नहीं
पड़ा।
अशोक
कलिंग के
युद्ध से वापस
लौटा, जीतकर
लौटा था, लेकिन
उदास लौटा।
जीतकर दुनिया
में बहुत कम
लोग हैं, जो
उदास लौटते
हैं। जीतकर तो
आदमी प्रसन्न
होकर लौटता है,
अल्पबुद्धि
का लक्षण है
वह। जब कोई
जीतकर प्रसन्न
होकर लौटे, तो समझना कि
वह
अल्पबुद्धि
है। और जब कोई
हारकर
प्रसन्न लौट
आए, तो
समझना कि वह
अल्पबुद्धि
नहीं है।
जीतकर कोई
उदास लौटे, तो समझना कि
वह
अल्पबुद्धि
नहीं है। और
जीतकर कोई
हंसता हुआ
लौटे, तो
समझना कि वह
अल्पबुद्धि
है।
अशोक
उदास लौट आया।
उसे नाम ही
उसके
माता-पिता ने
अशोक इसलिए
दिया था कि वह
कभी उदास नहीं
होता था; सदा
प्रफुल्लित
था, चियरफुल था। उसे नाम
ही इसलिए दिया
था कि वह सदा
आनंदित और
प्रफुल्लित
रहता था।
लेकिन इतने
बड़े राज्य को
जीतकर लौटा है,
कलिंग की
विजय करके
लौटा है, और
उदास लौटा आया
है! चिंता फैल
गई है। उसके
मित्रों ने
पूछा, इतने
उदास हो
जीतकर! हार
जाते तो क्या
होता? स्वभावतः,
अल्पबुद्धि
के लिए यह
सवाल उठा
होगा। जीतकर
इतने उदास हो,
हार जाते तो
क्या होता!
अशोक
ने कहा, युद्ध
अब असंभव है, एक अनुभव
काफी सिद्ध
हुआ। अब नहीं
युद्ध कर सकूंगा,
अब नहीं
जीतने जा
सकूंगा।
क्योंकि
कितनी कामना
की थी कि
कलिंग को जीत
लूंगा, तो
इतना आनंद
मिलेगा।
लेकिन कलिंग
हाथ में आ गया,
आनंद तो हाथ
में नहीं आया।
हालांकि मेरा
मन फिर धोखा
दे रहा है कि
अभी और भी
जीतने को जगह
पड़ी है, उनको
भी जीत लो।
लेकिन इस मन
की अब दुबारा
नहीं मानूंगा।
मानकर देख
लिया एक बार; एक लाख
आदमियों की
लाशें बिछा
दीं। सिर्फ
खून बहा; हाथ
में खून के
दाग लगे। करुण
चीत्कारें
सुनाई पड़ीं; रोना; और
न मालूम कितने
घरों के दीए
बुझ गए। और इस
मन ने मुझे
कहा था, आनंद
मिलेगा; वह
मैं भीतर खोज
रहा हूं, वह
मुझे कहीं
मिला नहीं।
लाखों लोग मर
गए, लाखों
परिवार उजड़
गए, और जिस
सुख के लिए इस
मन ने मुझे
कहा था, उसकी
रेखा भी मुझे
दिखाई नहीं
पड़ती। युद्ध समाप्त
हो गया; मेरे
लिए अब कोई
युद्ध नहीं
है।
और उसी
दिन से अशोक
ने भिक्षु की
तरह रहना शुरू
कर दिया। उसने
कहा कि जब
युद्ध मेरे
लिए नहीं है, तो अब
सम्राट होने
का कोई अर्थ
नहीं रहा। वह
तो युद्ध के
साथ जुड़ा हुआ
भाव
था--सम्राट
होने का।
एच.जी.वेल्स
ने विश्व इतिहास
में लिखा है
कि दुनिया में
बहुत सम्राट
हुए, लेकिन
अशोक जैसा
चमकता हुआ
तारा विश्व के
इतिहास में
दूसरा नहीं
है। कारण है
उसका। महाबुद्धि
है। और उसके
महाबुद्धि
होने की बात
क्या है? राज
क्या है? राज
यह है कि
युद्ध के एक
अनुभव ने उसे
मन का पूरा
रहस्य समझा
दिया।
आपने
कितनी बार
क्रोध किया है, लेकिन क्रोध
का रहस्य आप
समझ पाए? कितनी
बार कामवासना
में उतरे हैं,
कामवासना
का रहस्य समझ
पाए? कितनी
बार प्रेम
किया है, प्रेम
का रहस्य समझ
पाए? कितनी
बार घृणा की
है, घृणा
का रहस्य समझ
पाए?
नहीं, रोज वही
करते रहे हैं,
लेकिन हाथ
में कोई भी
निष्पत्ति, कोई भी कनक्लूजन
नहीं है। हाथ
खाली का खाली
है, और कल
आप फिर बच्चे
जैसा ही
व्यवहार
करेंगे। अल्पबुद्धि
है चित्त।
कृष्ण
कहते हैं, अल्पबुद्धि
लोग सुख की
मांग करते हैं
देवताओं से।
देवताओं से ही
की जा सकती है
मांग सुख की।
सुख भी उन्हें
मिल जाते हैं,
लेकिन
क्षणभंगुर
सिद्ध होते
हैं। हां, जो
मेरे पास आता
है, परम
ऊर्जा के
द्वार पर जो
आता है, वह
अनंत आनंद का
मालिक हो जाता
है।
अगर
प्रभु के
द्वार पर ही
जाना हो, तो
क्षुद्र
वासना लेकर मत
जाना। वासना
पूरी भी हो
जाए, तो भी
कुछ हाथ नहीं
लगने वाला है।
प्रभु के
द्वार पर तो
खाली होकर
जाना, बिना
कोई वासना
लिए। प्रभु से
तो यही कहते
जाना कि जो
तूने दिया है,
वह जरूरत से
ज्यादा है।
सुना
है मैंने कि
एक भिखारी एक
वृद्ध महिला
के सामने हाथ
फैलाकर भीख
मांग रहा है। लंगड़ा है, घसिट रहा है। उस
वृद्ध महिला
को बहुत दया आ
गई है और उसने
कहा कि दुख
होता है
तुम्हें
देखकर; पीड़ा
होती है
तुम्हें
देखकर।
परमात्मा न
करे, कोई लंगड़ा हो।
लेकिन फिर भी
मैं तुमसे
कहती हूं कि
लंगड़े ही हो न,
परमात्मा
को धन्यवाद दो,
क्योंकि
अंधे होते तो
और मुसीबत
होती।
उस
आदमी ने कहा
कि आप ठीक
कहती हैं। जब
मैं अंधा होता
हूं, तो लोग
नकली सिक्का
मेरे हाथ में
पकड़ा देते हैं!
लंगड़ा
होना भी उसके
लिए एक काम था, अंधा होना
भी एक काम था।
उसने कहा, आप
बिलकुल ठीक
कहती हैं।
अंधे होने में
बड़ी मुसीबत
होती है, लोग
नकली सिक्के
पकड़ा देते हैं।
इसीलिए तो
मैंने अंधा
होना बिलकुल
बंद कर दिया।
अब मैं लंगड़े
होने से ही
काम चलाता हूं।
उस
वृद्ध स्त्री
को खयाल भी न
रहा होगा, कल्पना भी न
रही होगी।
उसने तो कहा
था इस खयाल से
कि वह आदमी
शायद अपने
लंगड़ेपन में
भी प्रभु को
धन्यवाद दे
पाए। लंगड़ा
भी प्रभु को धन्यवाद
दे सकता है।
काश, जो
उसे मिला है, वह दिखाई पड़
जाए।
लेकिन
हम सब उस
भिखारी जैसे
ही हैं। जो
हमें मिला है, उसके लिए हम
धन्यवाद नहीं
दे पाते। जो
नहीं मिला है,
उसकी
शिकायत कर
पाते हैं। उस
आदमी ने कहा
कि ठीक कहती
है तू; क्योंकि
जब मैं अंधा
होता हूं, तो
लोग नकली
सिक्के हाथ
में रख देते
हैं!
नकली
भी कोई हाथ
में रखता है, इसका भी
धन्यवाद हो
सकता है। पर
उसके लिए बड़ी दूर-दृष्टि,
उसके लिए
बड़ी
महाबुद्धि
चाहिए। इतना
भी क्या कम है
कि किसी ने
नकली सिक्का
भी आपके हाथ
में रखा! यह भी
कहां जरूरी था?
इसकी भी
शिकायत करने कहां
जा सकते हैं? उसने हाथ पर
खाली हाथ भी
रखा, तो भी
क्या कम है!
क्योंकि वह न
रखता तो कोई
सवाल तो न था।
लेकिन
जिंदगी हमारी
ऐसी ही है। जो
हमें मिला है, उसका हमें
कोई भी स्मरण
नहीं है। जो
हमें नहीं
मिला है, उसका
हमें बहुत
तीव्र बोध है।
वह कांटे की
तरह छाती में
चुभता रहता
है। धार्मिक
आदमी ऐसी
प्रार्थना
करने नहीं
जाता मंदिर
में, जिसमें
कुछ मांगता
हो। इस बात का
धन्यवाद देने
जाता है कि जो
तूने दिया है,
वह मेरी
सामर्थ्य से
भी ज्यादा है।
और जो
उसने दिया है, उसका हमने
उपयोग क्या
किया है? कभी
आपने सोचा? आपको आंखें
दी हैं, आंखों
से आपने ऐसा
क्या देखा है,
जो आप न
देखते तो कुछ
हर्जा हो जाता?
कभी इस पर
सोचा है!
परमात्मा ने
आपको आंखें दी
हैं। आपने इन
आंखों से ऐसा
क्या देखा है,
जो न देखते
तो कुछ हर्जा
हो जाता? शायद
ही आपको याद
आए। उसने आपको
कान दिए हैं। ऐसा
क्या सुना है,
जो न सुनते
तो कोई हर्जा
हो जाता? उसने
आपको हाथ दिए
हैं। ऐसा आपने
क्या स्पर्श किया
है, जो
स्पर्श न किया
होता तो कुछ
आप खो देते? उसने आपको
पैर दिए हैं।
आपने ऐसी कौन
सी तीर्थयात्रा
की है, जो
कि अगर पैर न
होते और आप न
कर पाते, तो
प्राणों में
कसक रह जाती?
नहीं, पैर किसी
तीर्थ तक नहीं
पहुंचे, आंखें
किसी दृश्य को
नहीं देख पाईं,
कान ने कोई
अमृत नहीं
सुना। और ऐसा
नहीं है कि अमृत
चारों तरफ
मौजूद नहीं है,
और ऐसा भी
नहीं है कि
तीर्थ बहुत
दूर है, और
ऐसा भी नहीं
है कि वह
दृश्य दिखाई न
पड़ जाए, जिसे
देख लेने पर
आंखें सार्थक
हो जाती हैं; वह भी निकट
है।
पर जो
हमें मिला है, हम उसकी तरफ
ध्यान ही नहीं
देते, उपयोग
की तो बात दूर
है। उपयोग का
तो कोई सवाल नहीं
है। हम उस पर
ध्यान ही नहीं
देते। हम उसे मांगते
चले जाते हैं,
जो नहीं
मिला है।
हमारी सारी
प्रार्थनाएं,
जो नहीं
मिला है, उसकी
मांग है। पूरी
हो जाएंगी वे
मांग, कृष्ण
कहते हैं, लेकिन
फिर भी वह
अल्पबुद्धि
है आदमी, क्योंकि
थोड़ी ही देर
में वह फिर
पाएगा कि वे सब
सुख जो पाए थे,
खो गए।
प्रार्थना
तो वही सार्थक
है, जो वहां
पहुंचा दे, जिसे मिलने
पर फिर खोना
नहीं है; जिसके
मिलन में फिर विछोह
नहीं है। पर
वह देवताओं की
पूजा से नहीं,
वह तो परम
सत्ता की तरफ
समर्पण से
संभव है।
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं
मन्यन्ते
मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो
ममाव्ययमनुत्तमम्।।
24।।
नाहं
प्रकाशः सर्वस्य
योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति
लोको मामजमव्ययम्।।
25।।
बुद्धिहीन
पुरुष मेरे अनुत्तम
अर्थात जिससे
उत्तम और कुछ
भी नहीं है, ऐसे अविनाशी
परम भाव को
अर्थात
अजन्मा अविनाशी
हुआ भी अपनी
माया से प्रकट
होता हूं, ऐसे
प्रभाव को
तत्व से न
जानते हुए
मन-इंद्रियों
से परे मुझ सच्चिदानंदघन
परमात्मा को
मनुष्य की
भांति जन्म कर
व्यक्तिभाव
को प्राप्त
हुआ मानते
हैं।
तथा
अपनी योगमाया
से छिपा हुआ
मैं सबके
प्रत्यक्ष
नहीं होता
हूं। इसलिए ये
अज्ञानी
मनुष्य मुझ जन्मरहित
अविनाशी
परमात्मा को
तत्व से नहीं
जानते हैं।
दो
बातें इस
सूत्र में
कृष्ण कह रहे
हैं। एक, साकार
शरीर में मैं
खड़ा हूं, आकार
लिया है। जो
नहीं जानते
हैं, वे
सोचते हैं, मेरा आकार
ही मैं हूं।
वे मेरे भीतर
छिपे निराकार
को नहीं देख
पाते हैं। रूप
लिया है
मैंने। जिनके
पास देखने की
आंखें नहीं
हैं, सोचने
के लिए मेधा
नहीं है, वे
मेरे रूप को
ही देख पाते
हैं। उस अरूप
को, जो
भीतर छिपा है,
उससे
अपरिचित रह
जाते हैं।
मेरा वह
सच्चिदानंद
रूप है जो, मेरा
वह जो
सच्चिदानंद
स्वभाव है, वह उनकी
आंखों से ओझल
रह जाता है।
इसे
थोड़ा समझ लेना
जरूरी है।
पहली
बात, परमात्मा
जब भी प्रकट
होगा, तब
रूप में प्रकट
होगा, आकार
में प्रकट
होगा। प्रकट
होने का अर्थ
है, रूपायित
होना, टु
बी इन दि
फार्म। प्रकट
होने का अर्थ
ही होता है, रूप लेना।
प्रकट होने का
अर्थ ही होता
है, आकार
लेना। प्रकट
होने का अर्थ
होता है, सीमा
में खड़े होना।
प्रकट होने का
अर्थ है, पृथ्वी
पर, शरीर
में, देह
में
अभिव्यक्त
होना। लेकिन
हमें बड़ी कठिनाई
होती है।
यह
बल्ब है बिजली
का, जलता है।
बिजली प्रकट
नहीं हो सकती
है बिना इस
बल्ब के। बल्ब
का तो रूप
होगा, आकार
होगा; बिजली
का कोई रूप और
आकार नहीं है।
वह आदमी नासमझ
है, जो
बल्ब को बिजली
समझ ले। लेकिन
वह नासमझ भी तर्क
दे सकता है।
वह डंडा उठाकर
टयूब के ऊपर
पटक दे, तो
टयूब फूट जाए
और बिजली बंद
हो जाए। तो वह
कहे कि देखो, मैंने कहा
था न कि यह
बल्ब ही बिजली
है। मारा डंडा,
टूट गया
बल्ब; नहीं
बची बिजली।
फिर भी
हम जानते हैं
कि बल्ब बिजली
नहीं है। बल्ब
पूरी तरह बना
रहे और बिजली
जा सकती है; और बल्ब
पूरी तरह मिट
जाए, तो भी
बिजली रहती
है। बल्ब केवल
अभिव्यक्त होने
की व्यवस्था
है, मैनिफेस्टेशन है। जब भी
किसी शक्ति को
प्रकट होना हो,
तो रूप और
आकार के
अतिरिक्त कोई
मार्ग नहीं है।
कृष्ण
कहते हैं, जो नासमझ
हैं, वे
मेरी देह को
ही समझ लेते
हैं कि यह मैं
हूं।
इन नासमझों
में दो तरह के
लोग हैं। एक
तो वे नासमझ, जो कृष्ण को
प्रेम करने
लगेंगे, लेकिन
वे कृष्ण की
देह को ही
प्रेम करते
चले जाएंगे।
वे कृष्ण को, वह जो अरूपी
भीतर छिपा है,
उसको नहीं
देख पाएंगे।
और एक वे
नासमझ, जो
दुश्मन हो
जाएंगे। वे
कहते रहेंगे
कि यह आदमी तो शरीरधारी
है, यह
भगवान कैसे हो
सकता है? यह
आदमी उठता है,
बैठता है, सोता है, भूख
लगती है, खाना
खाता है। यह
भगवान कैसे हो
सकता है?
उन
दोनों की
बुद्धि में
बहुत भेद नहीं
है। जो कृष्ण
को प्रेम
करेंगे, वे
इस शरीर को ही
भगवान मान
लेंगे। फिर वे
कृष्ण की
मूर्ति बना
लेंगे, फिर
वे उस कृष्ण
की मूर्ति को
सुबह दातुन कराएंगे, पानी पिलाएंगे,
स्नान करवाएंगे,
फिर वे उस
कृष्ण की
मूर्ति को शयन
करवाएंगे;
दोपहर को
द्वार बंद
करके बिस्तर
पर लिटाएंगे;
फिर उस
मूर्ति को
कपड़े पहनाएंगे।
फिर यह
सब चलेगा। इस
बात को भूल
जाएंगे कि जिस
कृष्ण का हमने
आविर्भाव
देखा था, वह
यह मूर्ति
नहीं है। वह
आविर्भाव तो
अमूर्त का था;
इस मूर्ति
से हुआ था, इस
रूप में हुआ
था। इस मूर्ति
का उपयोग किया
जा सकता है।
इस मूर्ति के
प्रति
श्रद्धा भी
प्रकट की जा
सकती है।
लेकिन इसी
मूर्ति के
आस-पास जो
घूमने लगे, और अमूर्त
को भूल जाए, वह नासमझ
है।
एक तो
नासमझी यह है, जो प्रेमी
कर लेता है।
दूसरी नासमझी
यह है कि लोग
पूछेंगे कि
भगवान कैसे
हैं! धूप पड़ती
है, तो
पसीना आता है;
दौड़ें,
तो सांस चढ़
जाती है; थक
जाते हैं, तो
इन्हें भी
नींद आती है।
हम आदमियों
जैसे ही हैं।
इसलिए हम कैसे
स्वीकार करें
कि ये भगवान
हैं? वह एक
दूसरा वर्ग है
जो कहेगा, हम
स्वीकार नहीं
कर सकते। उसकी
भी नासमझी वही
है, जो उस
भक्त की है, जो आकार में
देख रहा है।
वह भी आकार
में देख रहा
है।
कृष्ण
कहते हैं, निराकार को
जो देख पाए, वही
बुद्धिमान
है। असल में
बुद्धि की
परीक्षा ही यही
है कि वह
निराकार को
देख पाए। आकार
को तो निर्बुद्धि
भी देख पाता
है। आकार को
देखने में कोई
बुद्धिमत्ता
नहीं है। आकार
तो सभी को
दिखाई पड़ता
है। वह जो
नहीं दिखाई
पड़ता है, वह
जो पीछे छिपा
खड़ा है, उसे
जो देख पाए, उसे जो
पहचान पाए, वही
बुद्धिमान
है। लेकिन
कृष्ण में ही
कोई निराकार
को देख लेगा, यह संभव
नहीं है, जब
तक वह सब जगह
निराकार को
देखना शुरू न
कर दे।
जब आप
एक वृक्ष को
देखते हैं, तो आपको
आकार ही दिखाई
पड़ता है। आपको
वह जीवन ऊर्जा,
जो वृक्ष के
भीतर बहती है
और आकार लेती
है, वह
आपको दिखाई
नहीं पड़ती। जब
एक फूल खिलता
है, तो
आकार ही दिखाई
पड़ता है। उस
फूल के भीतर
जो ऊर्जा
खिलती है और पंखुड़ियों
में फैलती है,
और जिस
शक्ति के कारण
पंखुड़ियां
बंद थीं और
खुल जाती हैं,
उस शक्ति को
आप नहीं देख
पाते। जब एक
बीज टूटता है,
तो आप बीज
को देखते हैं;
लेकिन जो
उसके भीतर भरा
था और टूटना
चाहता था, और
तोड़ दिया बीज
को और बाहर
आया, वह
आपको नहीं
दिखाई पड़ता।
हम
देखते ही आकार
को हैं सब
तरफ। जब हम सब
तरफ आकार को
देखते हैं, तो यह संभव
नहीं है कि
विशेष रूप से
कृष्ण या क्राइस्ट
या मोहम्मद के
संबंध में हम
आकार को न
देखें और
निराकार को
देख लें। आकार
को देखने की
हमारी जड़बद्ध
आदत है। हम जो
चौबीस घंटे
देखते हैं, वही हम
कृष्ण में भी
देख पाएंगे।
हम दूसरी बात
न देख पाएंगे।
सुना
है मैंने, एक जहाज पर, पानी के
जहाज पर
बहुत-से
यात्री हैं और
एक जादूगर भी
है। और एक
तोता भी है एक
आदमी के पास।
वह जादूगर समय
काटने के लिए
जहाज के
यात्रियों को बिठाकर
कुछ ट्रिक्स,
कुछ अपना
काम दिखाता है,
कुछ हाथ की सफाइयां
दिखाता है।
लेकिन वह तोता
भी उसी जादूगर
के गांव का है
और जादूगर के
घर के सामने
का ही है। जब
भी वह जादूगर
कुछ दिखाता है,
तो वह तोता
जोर से
चिल्लाता है,
फोनी फोनी; सब झूठ है, सब झूठ है; सब तरकीब है,
सब हाथ की
सफाई है। जब
भी जादूगर कभी
कुछ दिखाता है,
वह तोता
जरूर
चिल्लाता है
कि सब हाथ की
सफाई है, सब
धोखा है।
सावधान!
फिर
जहाज डूब जाता
है। एक बड़ा
तूफान आया और
जहाज डूब गया।
संयोग की बात, एक लकड़ी के पटिए को
जादूगर पकड़कर
अपने को बचाने
की कोशिश करता
है। वह तोता
भी उसी लकड़ी
के पटिए
पर आकर बैठ
गया है। अब वे
दोनों ही
समुद्र में चलते
हैं। दो दिन
तक जादूगर भी
गुस्से में
उससे नहीं
बोला, क्योंकि
वह उससे
दुश्मनी कर
रहा था रोज।
और तोता भी दो
दिन तक नहीं
बोला।
क्योंकि उसकी
भी हिम्मत न
पड़ी कहने की।
लेकिन दो दिन
बाद उसने कहा
जादूगर से, अच्छी बात
है। माना कि
तुम बड़े
बुद्धिमान
हो। लेकिन जरा
यह तो बताओ कि
उस जहाज का
तुमने क्या
किया?
वह
समझा कि कोई ट्रिक की
है; इसी की
शरारत है। उस
तोते ने समझा
कि इसी की कोई
शरारत है, हरकत
है। लेकिन दो
दिन तक उसने
देखा कि ऐसी
कैसी ट्रिक
कि दो दिन हो
गए, अभी तक
वह जहाज नहीं
लौटा! उसने
कहा कि माना
कि तुम बड़े
बुद्धिमान हो,
लेकिन कृपा
करके अब इतना
तो बता दो कि
उस जहाज का
क्या किया?
चौबीस
घंटे, वर्षों
से वह तोता
जादूगर के घर
के सामने उसके
हाथ की सफाइयां
देख रहा था।
उसके सोचने का
एक ढंग बना।
फिर जहाज पर
भी वह हाथ की सफाइयां
देख रहा था।
उसके सोचने का
एक ढंग
निश्चित हो गया
था। वह यह सोच
ही नहीं पाया
तोता कि जहाज
डूब गया। उसने
समझा कि इसी
की शरारत है।
इसी ने कोई ट्रिक,
कोई हाथ की
सफाई दिखलाई
है। इसलिए दो
दिन तक वह चुप
रहा कि कब तक
यह हाथ की
सफाई दिखलाता
रहेगा। आखिर थोड़ी-बहुत
देर में जहाज
प्रकट होगा, तब मैं चिल्लाऊंगा,
फोनी! फोनी!
सब झूठा है।
लेकिन वह मौका
आया नहीं दो
दिन में।
हम सब
के भी मन की
आदतें हैं, सोचने के
ढंग हैं। बंध
जाते हैं। जब
पत्थर में
नहीं दिखता
कुछ, तो
मूर्ति में
नहीं दिखेगा।
पत्थर में
दिखे, तो
मूर्ति में भी
दिख जाएगा।
कोई कहता हो
कि पत्थर में
तो मुझे पत्थर
ही दिखता है
और मूर्ति में
भगवान दिखते
हैं, तो
झूठ कहता है।
कोई अगर कहता
हो कि मेरे
बेटे में तो
मुझे शरीर ही
दिखता है, मेरी
पत्नी में
मुझे शरीर
दिखता है, मेरे
पिता में मुझे
शरीर दिखता है
और राम में मुझे
भगवान दिखते
हैं, तो
गलत कहता है।
यह नहीं हो
सकता। यह संभव
नहीं है।
क्योंकि एक
बार राम के
शरीर में अगर
निराकार
दिखाई पड़ जाए,
तो सभी
शरीरों में
दिखाई पड़ना
शुरू हो
जाएगा।
दिखाई
पड़ जाए, तो
बात खुल गई।
वह हमारा पुराना
तर्क टूट गया।
वह हमारे
पुराने देखने
का ढांचा, व्यवस्था
मिट गई। अब
हमने नए ढंग
से चीजों को देखा।
अब हमें आकार
दिखाई पड़ेगा,
लेकिन आकार
के पीछे
निराकार सदा
ही छिपा हुआ मालूम
पड़ेगा। उसका
एहसास होगा, उसकी एक
छाया हर आकार
का पीछा
करेगी।
किसी
व्यक्ति को हम
गले मिलाएं, हड्डियां ही
गले मिलेंगी,
लेकिन फिर
हम भीतर से
जानेंगे कि
कुछ और निराकार
भी मिल रहा
है। तब वह
आत्मा का मिलन
बन जाएगा।
कृष्ण
कहते हैं, बुद्धिहीन
जो हैं, वे
मेरे शरीर को
ही देख पाते, रूप को ही
देख पाते, आकार
को ही देख
पाते। वे मेरी
निराकार
विभूति का
अनुभव नहीं कर
पाते। और उस
निराकार में
ही मैं छिपा
हूं; वही
मैं हूं।
अब यह
कठिनाई है।
अभिव्यक्त
होने की
कठिनाइयां
हैं। सबसे बड़ी
कठिनाई यह है
कि अभिव्यक्त
होते ही आकार
लेना पड़ेगा।
आकार के बिना
कोई अभिव्यक्ति
संभव नहीं है।
अगर
मुझे बोलना है, तो शब्द का
उपयोग करना
पड़ेगा। लेकिन
शब्द का उपयोग
करते ही डर यह
है कि अर्थ
आपके पास
पहुंचे ही
नहीं, सिर्फ
शब्द पहुंच
जाए। जैसा कि
रोज होता है; शब्द ही
पहुंच जाते
हैं, अर्थ
नहीं
पहुंचता।
अर्थ तो पीछे
पड़ा रह जाता है।
अर्थ निराकार
है; शब्द
साकार है।
जब मैं
एक शब्द बोलता
हूं, आपके पास
शब्द जाकर
आपकी मेमोरी
में, आपकी
स्मृति के
बैंक में जमा
हो जाता है।
आप समझे कि
समझ गए; शब्द
पास आ गया; अब
आप उसका उपयोग
कर सकते हैं।
कोई चाहे तो
आप बता सकते
हैं कि मैं
क्या-क्या
बोला।
आप बता
भी दें कि मैं
क्या-क्या
बोला, तब भी
जरूरी नहीं है
कि आप वह समझ
गए हों, जो
मैंने बोला
है। क्योंकि
वह अर्थ है, वह पीछे
छिपा पड़ा है।
उस अर्थ को
जानने के लिए निराकार
की पकड़ चाहिए।
अब
बोलना है, तो शब्द का
उपयोग करना
पड़ेगा; और
जो बोलना है, वह निःशब्द
है। कठिनाई है,
अड़चन है, मुसीबत है।
लेकिन ऐसा
तथ्य है; जीवन
का ऐसा तथ्य
है। यहां सभी
चीजें जब भी
प्रकट होंगी,
रूप लेंगी।
रूप लेते ही
रूप दिखाई
पड़ेगा, अरूप
छिप जाएगा। वह
अरूप नहीं
दिखाई पड़े, तो हमारे
जीवन में
भागवत चैतन्य
का कोई संस्पर्श
नहीं हो पाता
है।
कृष्ण
कहते हैं, मुझ
सच्चिदानंद
को जानना हो, तो रूप से
आंखें उठानी
पड़ें, आकार
से ऊपर उठना
पड़े, शरीर
के पार झांकने
की कोशिश करनी
पड़े। यह कहीं
से भी शुरू की
जा सकती है।
जरूरी नहीं है
कि कोई कृष्ण
के पास ही जाए,
क्योंकि अब
कैसे जाएंगे
कृष्ण के पास!
कहीं से भी
शुरू कर सकते
हैं। एक
गेस्टाल्ट है
मस्तिष्क
में। हम जिस
ढंग की देखने
की आदत से बंध
गए हैं, उसी
तरह देखे चले
जाते हैं।
हमें दूसरी
चीज दिखाई
नहीं पड़ती।
हम सब
कंडीशंड हैं।
एक मजबूत
यंत्र की तरह
हमारा मन काम
करता है।
कृष्ण इस
यंत्र को
तोड़ने के लिए
कह रहे हैं।
वे कह रहे हैं
कि कोई भी
प्रेमी, कोई
भी भक्त, जो
मुझे जानना
चाहता हो, उसे
मेरे
सच्चिदानंद
रूप की, अरूप
की, निराकार
की दिशा में
खोज करनी
चाहिए। मेरे
रूप पर मत रुक
जाना। मेरे
शब्द पर मत
रुक जाना। मेरे
शरीर पर मत
ठहर जाना।
थोड़ा हटना, ट्रांसेंड
करना, पार,
थोड़े ऊपर
उठकर जाने की
कोशिश करना।
बुद्ध
मर रहे हैं; आखिरी क्षण
है। कोई उनसे
पूछता है कि
आप मरने के
बाद कहां
जाएंगे? तो
बुद्ध कहते
हैं, तो
फिर तुम मुझे
समझ नहीं पाए।
क्योंकि मैं
जीते जी ही
कहीं नहीं
गया। निश्चित
ही, कठिनाई
हो गई होगी
पूछने वाले
को। उसने कहा,
कैसी आप बात
करते हैं! कई
गांव तो मैं
आपके पीछे गया
हूं! कई
यात्राओं पर
तो मैं
सम्मिलित रहा
हूं। बुद्ध ने
कहा, तू
भला गया हो, लेकिन मैं
तुझसे कहता
हूं कि मैं
अपने जीवन में
कहीं नहीं
गया। यात्रा
मैंने कभी की
ही नहीं।
मजाक
समझी होगी, कि बुद्ध
मजाक कर रहे
हैं। उनके
चेहरे की तरफ देखा
होगा। लेकिन
वे मजाक नहीं
कर रहे हैं।
बुद्ध ने कहा,
मैं हंसता
नहीं। मजाक
नहीं करता।
मैं अपने जीवन
में कहीं गया
नहीं। और जो
गया, वह
मैं नहीं हूं।
यह शरीर चलता
था; तूने
इसी को देखा
है। इसके भीतर
एक अचल भी बैठा
हुआ है; जो
बिलकुल नहीं
चलता, वह
तूने नहीं
देखा है।
जापान
में एक फकीर
हुआ, रिंझाई।
उसने एक दिन
सुबह--बुद्ध
का भक्त है, रोज बुद्ध
की प्रार्थना
करता है, पूजा
करता है, फूल
चढ़ाता है,
मूर्ति के
सामने सिर
टेकता है--एक
दिन सुबह अपने
भिक्षुओं को
इकट्ठा करके
कहा कि मैं
तुमसे कहता
हूं कि यह
बुद्ध नाम का
आदमी कभी हुआ
ही नहीं। चौंके
वे। समझे कि
कुछ मस्तिष्क
में खराबी तो
नहीं आ गई! तीस
साल से देखते
हैं इस आदमी
को बुद्ध के चरणों
में सिर रखते;
आज अचानक
इसको क्या हो
गया! उन्होंने
कहा, क्या
कहते हैं आप?
रिंझाई
ने कहा, बुद्ध
नाम का आदमी न
कभी हुआ, न
इस जमीन पर
कभी चला, न
कभी बोला। ये
सब शास्त्र
झूठे हैं।
उन्होंने कहा,
हमें थोड़ा
समझाएं, अन्यथा
हम मुश्किल
में पड़ गए
हैं। रिंझाई
ने कहा कि मैं
तुमसे कहता
हूं, मैं
भी कभी नहीं
हुआ। मैं भी
कभी नहीं
बोला। मैं भी
कभी नहीं चला।
ये सब बातें
झूठी हैं। तब उन्हें
थोड़ा-सा भरोसा
आया कि वह
आदमी क्या कह रहा
है। तो
उन्होंने
पूछा कि आप
कहना क्या
चाहते हैं?
रिंझाई
ने कहा कि आज
मुझे पता चला
कि चलना केवल
शरीर का है, बोलना केवल
शरीर का है।
भूख, प्यास,
नींद शरीर
की है। वह जो
भीतर है, उसे
कभी भूख नहीं
लगती, नींद
नहीं आती। वह
कभी चलता नहीं,
बैठता नहीं,
उठता नहीं।
वह कभी जन्म
नहीं लेता, वह कभी मरता
नहीं। वह इन
सारी घटनाओं
के पार है। ये
सारी घटनाएं
आकार के भीतर
हैं और वह निराकार
है।
दूसरे
दिन सुबह वह
फिर बुद्ध के
चरणों में सिर
रखे पड़ा था।
तो उन
भिक्षुओं ने
पूछा कि अब आप
यह क्या कर
रहे हैं? जो
कभी हुआ ही
नहीं, उसके
चरणों में सिर
क्यों रखे हुए
हैं? रिंझाई
ने कहा कि
कहां का सिर? कौन रखे हुए
है? वह भी
नहीं हुआ कभी,
जो सामने है;
और यह जो
सामने पड़ा हुआ
है, यह भी
कभी नहीं हुआ।
अरूप
की खोज करनी
पड़ेगी। और
सबसे सरल है
कि अपने भीतर
शुरू करें।
दूसरे के पास
जाकर अरूप को
खोजना बहुत
कठिन होगा।
अपने भीतर
आसानी से खोज
हो सकती है। कभी
आंख बंद करके
भीतर देखने की
कोशिश किया
करें कि क्या
मैं शरीर के
रूप में बंधा
हूं? कभी आंख
बंद करके
कोशिश करें कि
मेरी सीमा क्या
है? और आप
बहुत हैरान हो
जाएंगे। अगर
आप तीन महीने
एक छोटा-सा
प्रयोग करें,
तो यह सूत्र
आपको खुल
जाएगा। तीन
महीने आधा
घंटा रोज आंख
बंद करके यही
केवल सोचें कि
मेरी सीमा
कहां है?
आज
सोचेंगे तो
आपको शरीर ही
अपनी सीमा
मालूम पड़ेगी।
लेकिन पंद्रह
दिन से ज्यादा
नहीं लगेगा कि
आपको एक अदभुत
अनुभव होना
शुरू हो
जाएगा। कभी
शरीर बहुत बड़ा
होता हुआ
मालूम पड़ेगा, कभी बहुत
छोटा होता हुआ
मालूम पड़ेगा,
सिर्फ
पंद्रह दिन के
भीतर। कभी
लगेगा, शरीर
पहाड़ जैसा हो
गया और सीमा
बड़ी हो गई। और
कभी लगेगा, शरीर चींटी
जैसा हो गया, सीमा बड़ी
छोटी हो गई।
घबड़ा मत जाना,
क्योंकि
बहुत घबड़ाहट
का अनुभव होता
है।
जब
पहली दफा सीमा
का भाव टूटता
है, तो फ्लक्चुएशन
होता है। कभी
लगता है, बहुत
बड़ा हो गया; कभी लगता है,
बिलकुल
छोटा हो गया।
अगर आप पीछे
पड़े ही रहे, तो एक महीना
पूरा
होते-होते
अचानक कभी-कभी
ऐसे क्षण आ
जाएंगे, जब
लगेगा कि शरीर
है ही नहीं--न
छोटा, न
बड़ा। और तब
आपको पहली दफा
पता चलेगा कि
मेरी कोई सीमा
नहीं। मैं हूं,
और सीमा कोई
भी नहीं है।
अपने ही भीतर
अगर तीन महीने
इस प्रयोग को
करें, तो
आप असीम की और
निराकार की
छोटी-सी झलक
को पा लेंगे।
और जिस
दिन आप अपने
भीतर जान
लेंगे, उस
दिन आप दूसरे
के भीतर भी
जान लेंगे।
क्योंकि हम
दूसरे के भीतर
जो भी जानते
हैं, वह
अनुमान है, इनफरेंस है। ज्ञान
तो अपने भीतर
होता है, दूसरे
की तरफ तो
अनुमान होता
है।
आपको
पता है कि जब
आप क्रोध में
होते हैं, तो आंखें
लाल हो जाती
हैं, मुट्ठी
भिंच जाती है।
तो दूसरा आदमी
अगर क्रोध में
न भी हो--जैसा
कि फिल्म का एक्टर या
नाटक का पात्र
क्रोध में
नहीं
होता--आंखें
लाल कर लेता
है, मुट्ठी
भींच लेता है;
आप समझ जाते
हैं कि यह
क्रोध में है।
भीतर क्रोध
बिलकुल नहीं
होता।
क्योंकि
आपको पता है
कि जब आप
मुट्ठी बांधते
हैं और आंखें
मींचते हैं, और दांत
दबाते हैं, और लहू उतर
आता है, चेहरा
लाल हो जाता
है, तब आप
जानते हैं कि
आप क्रोध में
हैं। फिल्म का
अभिनेता या
नाटक का पात्र
वही करके
दिखला रहा है;
आप समझ जाते
हैं कि वह
क्रोध में है।
क्रोध आपका
अनुमान है। वह
है नहीं क्रोध
में। लेकिन जो-जो
घटना क्रोध
में घटती है, वह घट रही है;
आप अनुमान
कर लेते हैं।
दूसरे
के बाबत हम
अनुमान करते
हैं। ज्ञान तो
अपने ही बाबत
होता है।
अपने
भीतर निराकार
की थोड़ी-सी
खोज हो...। कई
तरह से हो
सकती है। जैसे
मैंने कहा कि
शरीर की सीमा
का चिंतन करें, मनन करें, मेडिटेट आन
इट; ध्यान
करें। तीन
महीने में
आपकी सीमा खो
जाएगी और आपके
असीम का अनुभव
हो जाएगा।
अगर
इसमें कठिनाई
मालूम पड़े, तो शरीर की
उम्र, अपनी
उम्र का भीतर
अनुभव करें कि
मेरी उम्र कितनी
है? तो अभी
आज आप बैठेंगे,
तो पता
लगेगा कि
चालीस साल है,
तो चालीस
साल है। लेकिन
यह असली पता
नहीं है। यह
तो सिर्फ आदत
है रोज की कि
आप चालीस साल
के हैं।
पंद्रह दिन
बैठकर देखने
पर आप
डांवाडोल होने
लगेंगे। कभी
लगेगा कि छोटा
बच्चा हो गया,
और कभी
लगेगा कि
बिलकुल बूढ़ा
हो गया, यह फ्लक्चुएशन
शुरू हो
जाएगा।
एक
महीना पूरा
होते-होते
आपके भीतर यह
सफाई हो जाएगी
कि न मैं
बच्चा हूं, न मैं बूढ़ा
हूं, न मैं
जवान हूं। तीन
महीने प्रयोग
करने पर आप
पाएंगे कि आप
अजन्मा हैं; आपका कभी
कोई जन्म नहीं
हुआ। और आप
अमृत हैं; आपकी
कोई मृत्यु
नहीं हो सकती।
कहीं
से भी शुरू
करें, किसी
भी आकार से
शुरू करें, और
धीरे-धीरे आप
निराकार में
उतर जाएंगे।
ध्यान का अर्थ
है, आकार
से निराकार की
तरफ यात्रा।
कृष्ण
वही कह रहे
हैं। ज्ञान का
अर्थ है, आकार
से निराकार की
तरफ यात्रा।
जो
बुद्धिहीन है, वह आकार में
अटक जाता है।
जो बुद्धिमान
है, वह
निराकार में
डुबकी लगा
लेता है। और
एक बार निराकार
की झलक मिल
जाए, तो इस
जगत में सब
आकार मिट जाते
हैं और निराकार
ही रह जाता
है। और जहां
निराकार है, वहां आनंद
है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, वह मेरा
सच्चिदानंद
स्वरूप है, वहां सत, चित,
आनंद, तीनों
का वास है।
लेकिन
निराकार में
है। आकार में
अगर खोजने जाएंगे, तो आकार में
सत नहीं
मिलेगा, मिलेगा
असत।
सत का
अर्थ होता है, एक्झिस्टेंस,
अस्तित्व। असत का
अर्थ होता है,
आभास; दिखता
है कि है, और
नहीं है। अगर
आकार में
खोजने जाएंगे,
तो चित नहीं
मिलेगा। चित
का अर्थ होता
है, कांशसनेस,
चैतन्य।
आकार में
खोजने जाएंगे,
तो जड़
मिलेगा, चैतन्य
नहीं मिलेगा।
और तीसरा तत्व
है, आनंद।
आकार में
खोजने जाएंगे,
तो सुख
मिलेगा, दुख
मिलेगा, आनंद
नहीं मिलेगा।
आनंद तो
निराकार में
मिलेगा।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, मेरे
सच्चिदानंद
स्वरूप को वे
बुद्धिमान जान
पाते हैं, जो
मेरे आकार और
आकृति में
नहीं उलझ
जाते। जो पेनिट्रेट
कर जाते हैं, जो पार चले
जाते हैं, गहरे
उतर जाते हैं
और निराकार को
खोज लेते हैं।
यह
निराकार
हमारे चारों
तरफ सब तरह से
मौजूद है; यहीं मौजूद
है। लेकिन हम
सबको आकार
दिखाई पड़ते
हैं। हमारी
सिर्फ आदत है
देखने की।
इसे
ऐसा समझें कि
एक आदमी अपने
घर के भीतर
बैठा है। कभी
घर के बाहर
नहीं गया।
खिड़की से आकाश
को देखता है।
तो उसे आकाश
निराकार
दिखाई पड़ेगा
कि साकार?
उसे
साकार दिखाई
पड़ेगा।
क्योंकि
खिड़की का ढांचा
आकाश पर बैठ
जाएगा। वह जो
खिड़की का
पैटर्न है, वह जो खिड़की
का चौखटा है, आकाश उतना
ही मालूम
पड़ेगा, जितना
खिड़की का
चौखटा है। और
अगर वह आदमी
अपने घर के
बाहर कभी न
गया हो, तो क्या
वह सोच सकेगा
कि यह जो चौखट
दिखाई पड़ रही है,
मेरे मकान
की है, आकाश
की नहीं! कभी
नहीं सोच
सकेगा। इसके
लिए बाहर जाना
जरूरी है।
हम
अपने मकान के
बाहर कभी नहीं
गए। शरीर के
भीतर हैं। और
हर चीज पर
चौखट है।
हमारी आंख की
चौखट चीजों को
आकार दे देती
है। कान की चौखट
चीजों को आकार
दे देती है।
हमारी
इंद्रियां
आकार का
निर्माण करती
हैं। और हम
अपने शरीर के
बाहर कभी नहीं
गए। शरीर के
भीतर से ही सब
चीजें देखते
हैं। और
इंद्रियां
आकार देती हैं
हरेक चीज को।
एक दफा हम
शरीर के बाहर
जाकर देख लें, तो भी काम हो
जाए।
तो
आपको एक दूसरा
प्रयोग भी
कहता हूं। वह
भी अगर संभव
हो सके, तो
जैसे मैंने दो
प्रयोग आपको
कहे, एक
प्रयोग और
आपको कहता
हूं। वह भी एक
रास्ता है कि
आप घर के बाहर
जाकर देख लें।
आप
पंद्रह दिन तक
आधा घंटा रोज, पड़ जाएं
जमीन पर
मुर्दे की
भांति और एक
ही बात सोचते
रहें कि मैं
मर गया। कठिन
पड़ेगा। खुद ही
को डर लगेगा।
बीच में एकाध
दफे कह देंगे
कि नहीं-नहीं;
ऐसा नहीं; मैं जिंदा
हूं!
नहीं, ऐसा नहीं
चलेगा। कहते
रहें, मैं
मर गया, मैं
मर गया। इसको
मंत्र की तरह
भाव करते
रहें। पंद्रह
दिन में आप
अचानक पाएंगे
कि कई बार आपको
ऐसा लगेगा कि
थोड़ा-सा आप
शरीर के बाहर
गए। कभी बाहर
निकल गए हैं, कभी भीतर आ
गए हैं। कभी
बाहर गए हैं, कभी भीतर आ
गए हैं।
एक
महीना पूरा
होते-होते आप
इस स्थिति में
आ जाएंगे कि
आपको कई बार
अपने शरीर को
बाहर से देखने
का मौका मिल
जाएगा। एक
क्षण को आप
देखेंगे कि
शरीर पड़ा है
मुर्दे की
तरह। आप पड़े
हैं। घबड़ाकर
आप फिर भीतर
चले जाएंगे।
तीन
महीने आप
प्रयोग करते
रहें और आप उस
स्थिति में आ
जाएंगे कि
बराबर बाहर
खड़े होकर अपने
शरीर को देख
पाएं कि यह
पड़ा है शरीर।
और एक
दफा आप अगर
अपने शरीर के
बाहर होकर
अपने शरीर को
देख पाएं, उस वक्त जरा
लौटकर चारों
तरफ देखना, सब निराकार
दिखाई पड़ेगा,
कहीं कोई
आकार नहीं है।
क्योंकि सब
आकार शरीर की
इंद्रियों के
चौखटों का
आकार है।
आंख का
आकार है, इसलिए
आंख निराकार
नहीं देख
सकती। कान का
आकार है, इसलिए
कान निराकार
को नहीं सुन
सकता। हाथ का
आकार है, इसलिए
हाथ निराकार
को कैसे
स्पर्श करे!
शरीर
के बाहर, आउट
आफ दि बाडी
एक्सपीरिएंस,
आपको खबर दिलाएगा
कि सब निराकार
है। उस दिन के
बाद आपकी
जिंदगी दूसरी
हो जाएगी।
कृष्ण
जो भी ये कह
रहे हैं, ये
योग के गहरे
प्रयोगों की
तरफ इशारे
हैं। निराकार
को जो देख ले, वही
बुद्धिमान
है। आकार में
जो उलझा रह
जाए, वह
बुद्धिहीन
है।
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि
चार्जुन।
भविष्याणि च
भूतानि
मां तु
वेद न कश्चन।।
26।।
और
हे अर्जुन, पूर्व में
व्यतीत हुए और
वर्तमान में
स्थित तथा आगे
होने वाले सब
भूतों को मैं
जानता हूं, परंतु मेरे
को कोई भी
श्रद्धा-भक्तिरहित
पुरुष नहीं
जानता है।
मैं
जानता हूं, कृष्ण कहते
हैं, वह जो
पीछे हुआ वह, जो अभी हो
रहा है वह, जो
आगे होगा
वह--मैं सब
जानता हूं।
इस सब
जानने का अर्थ
यह है--यह
थोड़ी-सी कठिन
बात है, थोड़ी
समझ लेनी
चाहिए--इस सब
जानने का अर्थ
यह है कि
कृष्ण जैसी
निराकार
चेतना के
समक्ष समय
जैसी कोई चीज
नहीं होती।
वर्तमान, अतीत
और भविष्य हम
लोगों की
धारणाएं हैं।
जैसे ही कोई
निराकार को
जान लेता है, समय की सब
सीमाएं गिर
जाती हैं। और
एक इटरनल नाउ, सब
चीजें अभी हो
जाती हैं। न
कोई अतीत होता
है, न कोई
भविष्य होता
है, न कोई
वर्तमान होता
है। समय का
क्षण ठहर जाता
है।
अगर
ठीक से समझें, तो हम
निरंतर कहते
हैं कि समय जा
रहा है, समय
बीत रहा है।
स्थिति उलटी
है। समय तो
अपनी जगह खड़ा
है, हम जा
रहे होते हैं,
हम चल रहे
होते हैं।
हमारी स्थिति
करीब-करीब वैसी
है, जैसी
ट्रेन में कभी
छोटा बच्चा
पहली दफा बैठता
है, तो उसे
लगता है कि
पास के वृक्ष
पीछे जा रहे
हैं। ट्रेन
चलती है आगे
की तरफ, बच्चा
ही आगे जा रहा
है, लेकिन खिड़कियों
से पीछे की
तरफ भागते हुए
वृक्ष दिखाई
पड़ते हैं। और
पता लगता है
कि वृक्ष पीछे
जा रहे हैं।
हम सब
कहते हैं कि
समय जा रहा
है। लेकिन
असलियत बिलकुल
उलटी है। हम
जा रहे हैं; समय अपनी
जगह खड़ा है।
इसे थोड़ा
समझना पड़ेगा।
समय
अपनी ही जगह
खड़ा है। समय
कहीं नहीं
जाता। समय
जाएगा कैसे? जाएगा कहां?
कल निकल गया,
अब वह कहां
जाएगा? कहीं
अस्तित्व में
कोई जगह होनी
चाहिए न! कल जो
बीत गया, वह
कहां इकट्ठा
होगा? और कल
जो अभी नहीं
आया है, वह
कहां से आ रहा
है? आने के
लिए उसे कहीं
होना चाहिए; और जाने के
लिए भी कहीं
पहुंच जाना
चाहिए। इसका
तो मतलब यह
होगा कि पीछे
एक अतीत
इकट्ठा हो रहा
है करोड़ों, अरबों, खरबों
वर्षों का। सब
इकट्ठा होगा
वहां। और आगे,
भविष्य आगे
है, वह चला
आ रहा है।
यह
नहीं हो सकता।
न तो भविष्य आ
रहा है, न
अतीत चला गया
है। सिर्फ हम
गुजर रहे हैं।
जैसे एक आदमी
रास्ते से
गुजर रहा है।
लेकिन ट्रैफिक,
वन वे
ट्रैफिक है।
क्योंकि हम
समय में पीछे
नहीं जा सकते
हैं, इसलिए
हमें लगता है
कि जो चला गया,
वह खो गया।
चूंकि हम समय
में आगे छलांग
नहीं लगा सकते
हैं, इसलिए
हमें लगता है
कि भविष्य अभी
आया नहीं है।
भविष्य आ चुका
है उतना ही; भविष्य
मौजूद है।
मैं
निकल रहा हूं
एक रास्ते से।
आगे का मकान मुझे
दिखाई नहीं पड़
रहा है अभी, लेकिन वह
अपनी जगह
मौजूद है।
थोड़ी देर बाद
मैं उसके
सामने पहुंचूंगा।
वह मुझे दिखाई
पड़ेगा। पीछे
का मकान, जो
थोड़ी देर पहले
मुझे दिखाई
पड़ता था, अब
दिखाई नहीं पड़
रहा; वह खो
गया। लेकिन खो
कहीं नहीं गया;
वह अपनी जगह
मौजूद है।
समय
चलता नहीं, समय की चलने
की धारणा
ट्रेन में
गुजरने जैसी धारणा
है, जैसे
वृक्ष चलते
हुए मालूम पड़ते
हैं। आदमी
चलता है, समय
नहीं चलता है।
इसलिए
कृष्ण जब कहते
हैं, मैं सब
जानता हूं, वह जो पीछे, वह जो आगे, वह जो अभी; उसका कुल
मतलब यह है कि
कृष्ण जैसे
आदमी को उस परम
चेतना की
स्थिति में, उस समाधि की
दशा में, वर्तमान,
अतीत, भविष्य
का फासला गिर
जाता है।
समझें
कि मैं एक
बहुत बड़े दरख्त
पर ऊपर बैठ
गया हूं। आप दरख्त के
नीचे बैठे
हैं। मैं आपसे
चिल्लाकर
कहता हूं कि
एक बैलगाड़ी
रास्ते पर आ
रही है। आप
कहते हैं, मुझे नहीं
दिखाई पड़ती; भविष्य में
होगी। लेकिन
मुझे दिखाई
पड़ती है। मैं
थोड़ा आपसे
ऊंचाई पर बैठा
हुआ हूं। मैं
कहता हूं, भविष्य
में नहीं है, वर्तमान में
है। बैलगाड़ी
आ गई है
रास्ते पर। आप
कहते हैं, कहीं
नहीं दिखाई
पड़ती। अभी
नहीं आई है; भविष्य में
है।
फिर
थोड़ी देर में बैलगाड़ी
आपके सामने आ
जाती है। आप
कहते हैं, आ गई।
वर्तमान हो
गई। फिर थोड़ी
देर बाद बैलगाड़ी
आगे निकल जाती
है। आप कहते
हैं, अतीत
हो गई; अब
दिखाई नहीं
पड़ती। लेकिन
मैं आपसे ऊपर
के दरख्त
से कहता हूं
कि अभी भी
वर्तमान है; दिखाई पड़ती
है।
जितनी
चेतना की
ऊंचाई होगी, उतना ही
वर्तमान, अतीत
और भविष्य का
फासला गिरता
जाएगा। और जिस
दिन कृष्ण
जैसी परम
ऊंचाई होती है
चेतना की, उस
दिन सब चीजें
जो हो गईं, दिखाई
पड़ती हैं; सब
चीजें जो होने
वाली हैं, दिखाई
पड़ती हैं; सब
चीजें जो हो
रही हैं, दिखाई
पड़ती हैं।
इस
अनुभव के आधार
पर ही समस्त
ज्योतिष का
विकास हुआ था।
लेकिन अब तो
बाजार में कोई
चार आने देकर
ज्योतिषी को
दिखा रहा है।
वह बेचारा कुछ
बहुत नहीं बता
सकता। उसे कुछ
पता नहीं है।
ज्योतिष
का सारा विकास
समाधिस्थ
चेतना से हुआ
था। उन लोगों
को, जिनको
समय के सब
फासले मिट गए
थे, जिन्हें
सब दिखाई पड़
रहा था।
ज्योतिष
ज्योतिर्मय
चेतना के
अनुभव से
निकला था।
कृष्ण
कहते हैं, मुझे सब
दिखाई पड़ता
है। लेकिन जो
अज्ञानी हैं,
वे मुझे
नहीं देख पा
रहे हैं, मैं
उन सबको देख
रहा हूं।
अब
कृष्ण को
भलीभांति
दिखाई पड़ रहा
है कि कौरव
हार जाएंगे।
यह बैलगाड़ी
कृष्ण के लिए
सामने आ गई
है। अर्जुन को
दिखाई नहीं पड़
रहा है कि
कौरव हार
जाएंगे कि
पांडव जीत
जाएंगे। यह
दुर्योधन को
भी नहीं दिखाई
पड़ रहा है कि
कौरव हार
जाएंगे और
पांडव जीत
जाएंगे। अब यह
अर्जुन भी डरा
है कि पता
नहीं हम हार न
जाएं! अभी
कौरव भी इस
खयाल में हैं
कि हम जीत
लेंगे, क्योंकि
शक्ति हमारे
पास ज्यादा
है। एक आदमी वहां
मौजूद था, उस
महाभारत के
युद्ध में, जिसे पता था
कि क्या होने
वाला है और
क्या होगा।
कृष्ण
का अर्जुन से
यह कहना कि तू
भाग मत, बहुत
दूर की
जानकारियों
से जुड़ा हुआ
है। कृष्ण का
यह कहना कि तू
सोच रहा है, जिन्हें तू
मारेगा, मैं
तुझसे कहता
हूं, समय
ने उन्हें
पहले ही मार
डाला है। मैं
उनकी लाशें
देख रहा हूं।
तुझे नहीं
दिखाई पड़ता, मैं देख रहा
हूं कि वे
युद्ध के
मैदान पर लाश
होकर पड़े हैं।
दो दिन बाद
तुझे भी दिखाई
पड़ेगा; बैलगाड़ी तेरे सामने
आ गई होगी। तू
समझता है, तू
मारेगा। मैं
कहता हूं कि
विधि ने
उन्हें समाप्त
कर दिया है; तू केवल
निमित्त
होगा।
कृष्ण
कहते हैं, मैं देख रहा
हूं दूर तक, चारों तरफ, आगे और पीछे,
लेकिन फिर
भी मेरे
आस-पास सैकड़ों
लोग हैं, जो
मुझे नहीं देख
रहे हैं।
पहाड़
की ऊंचाई से नीचाइयों
की तरफ देखना
आसान है, नीचाइयों से
ऊंचाइयों की
तरफ देखना
कठिन है।
जितने हम नीचे
होते हैं, उतनी
हमारी चेतना नैरोड, संकीर्ण
हो जाती है; जितने हम
ऊंचे होते हैं,
उतनी
विस्तीर्ण हो
जाती है।
तो
कृष्ण को तो
देखना आसान है
कि वे देख लें
सबको। लेकिन
सब को देखना
कठिन है कि वे
कृष्ण को देख
लें। हां, जो कृष्ण की
थोड़ी-सी भी
झलक देख ले, वह समर्पण
के लिए राजी
हो जाएगा।
क्योंकि वह देखेगा
कि पास में एक
विराट खड़ा है।
और तब वह अपने
छोटे-से
अहंकार और
अपनी छोटी-सी
बुद्धि से
नहीं जीएगा;
तब वह
समर्पण करके
जीना शुरू कर
देगा। और जब वह
समर्पण करके जीएगा, तब
वह जानेगा; तब वह
जानेगा कि जो
कहा गया था, वही हुआ है।
जो कहा गया था,
वही हो रहा
है। अन्यथा
कुछ होता नहीं
है। अन्यथा
कुछ भी नहीं
होता है।
जीसस
को जिस रात
पकड़ा गया, तो जीसस के
मित्रों ने
कहा, हमें
खबर मिली है
कि दुश्मन पकड़ने
आ रहे हैं।
अच्छा हो कि
हम यहां से
भाग जाएं। तो
जीसस
मुस्कुराए।
वह
मुस्कुराहट
अब तक समझ के
बाहर है।
क्योंकि जीसस किसलिए
मुस्कुराए
होंगे? मैं
कहता हूं, इसलिए
कि जीसस जानते
हैं, पकड़ा
जाना जरूरी है;
होने ही
वाला है; इसलिए
भागने का कोई
अर्थ नहीं है।
मुस्कुराए होंगे
इसलिए कि ये
जो मित्र
बेचारे चिंता
से कह रहे हैं,
इन्हें कुछ
पता नहीं है।
जो होने वाला
है, होगा।
फिर
जीसस पकड़े
गए। तो मित्रों
ने कहा, हमने
कहा था, आपने
न सुना। फिर
वे
मुस्कुराए।
क्योंकि उन्हें
पता है कि जो
होने वाला है,
वह हो रहा
है। कहना भी
तुम्हारा
जरूरी था; मेरा
सुनना भी
जरूरी था; और
यह पकड़ा जाना
भी जरूरी था।
फिर
उनमें से एक
ने कहा कि
चाहे जान रहे, चाहे जाए, मैं तो आपके
साथ रहूंगा।
जीसस ने कहा, तुझे पता
नहीं; सुबह
सूरज के उगने
के पहले तक तू
तीन दफे मुझे इनकार
कर चुका होगा।
अभी आधी रात
है, सूरज
के उगने तक तू
तीन दफे मुझे
इनकार कर चुका
होगा। उसने
कहा, आप
कैसी बातें
करते हैं! मैं
अपनी जान लगा
दूंगा आपके
लिए। मैं
इनकार करूंगा?
जीसस
मुस्कुराए।
क्योंकि उस
बेचारे को पता
नहीं उसका भी
कि वह क्या कर
सकता है सुबह
तक। लेकिन
जीसस को दिखाई
पड़ रहा है कि
वह क्या
करेगा।
फिर
जीसस को पकड़कर
दुश्मन ले
चले। बाकी
शिष्य तो भाग
गए; वह एक
शिष्य पीछे हो
लिया, जिसने
कहा था, मैं
आखिरी दम तक
साथ रहूंगा। दुश्मनों
ने देखा कि
कोई एक अजनबी
आदमी साथ में
है। कौन है यह?
उन्होंने
अपनी मशालें
उसके चेहरे की
तरफ कर दीं।
उसको पकड़ लिया
और कहा कि तू
कौन है? तू
जीसस का साथी
तो नहीं है? उसने कहा, कौन जीसस!
मैं तो
पहचानता ही
नहीं।
जीसस
ने पीछे की
तरफ देखा, मुस्कुराए
और कहा, अभी
सूरज नहीं
उगा। और ऐसा
तीन बार हुआ।
फिर थोड़ी देर
बाद रास्ते पर
वे आए। और
सैनिक आए और उन्होंने
कहा, यह
आदमी कौन है, जो बीच में
चल रहा है? अजनबी
मालूम पड़ता
है। फिर
उन्होंने उसे
पकड़ा। उसने
कहा, मुझे
क्यों पकड़ते
हो? मैं
परदेसी हूं।
तुम जीसस के
साथी हो? उसने
कहा, कौन
जीसस! मैं
पहचानता भी
नहीं। जीसस
फिर मुस्कुराए
और उन्होंने
जोर से कहा, देख! अभी
सुबह नहीं
हुई। ऐसा तीन
बार रात में उसने
इनकार किया।
जीसस
को पता है, क्या होने
वाला है, क्या
होगा। इसलिए
जो बहुत गहरे
जीसस को पहचानते
हैं, वे
जीसस की
मृत्यु को
कहते हैं, क्राइस्ट
ड्रामा। वे
कहते हैं, उसको
कोई ज्यादा
गंभीरता से
लेने की जरूरत
नहीं है; जीसस
के लिए तो वह
नाटक से
ज्यादा नहीं
था। क्योंकि
जब पहले से ही
पता हो, तो
मामला नाटक हो
जाता है।
कृष्ण
के लिए भी
युद्ध नाटक से
ज्यादा नहीं
था। इसलिए कई
लोगों को
कठिनाई होती
है कि इस
युद्ध में वे
इतनी प्रेरणा
दे रहे हैं!
अर्जुन को
रोकते नहीं!
गांधीजी
को बड़ी तकलीफ
थी, कि इतना
बड़ा युद्ध, इतनी हिंसा
करवा देंगे!
गांधी को बहुत
प्रेम था गीता
से, लेकिन
फिर भी गीता
पचती नहीं थी
उनके मन को कहीं।
गहरे में तो
चोट लगती थी, क्योंकि है तो
युद्ध का
मामला।
अहिंसा तो
नहीं है कहीं
भी। और हिंसा
की इतनी सहज
स्वीकृति
किसी दूसरे आदमी
ने कभी दी
नहीं है। तो
फिर गांधी के
पास एक ही
उपाय था, या
तो गीता को
छोड़ दें, या
गीता की ऐसी
व्याख्या कर
लें कि मन में
जम जाए।
तो
उन्होंने एक
तरकीब निकाल
ली। और वह तरकीब
उन्होंने यह
निकाल ली कि
यह युद्ध कभी
हुआ नहीं। यह
तो
प्रतीकात्मक, सिंबालिक युद्ध है; यह कभी हुआ
नहीं। यह तो
आदमी में बुरी
शक्तियों और
अच्छी
शक्तियों का
युद्ध है।
कुरुक्षेत्र
पर कभी कोई
युद्ध हुआ
नहीं। तब उनके
मन को थोड़ी
राहत मिली। यह
तो आसुरी और सदवृत्तियों
का संघर्ष है।
सच में कभी
युद्ध हुआ
नहीं। जब गांधी
को यह
व्याख्या पकड़
ली उन्होंने
मन में, तब
उनको राहत
मिली।
लेकिन
यह बात झूठ
है। यह युद्ध
हुआ है। इस
युद्ध के होने
के ऐतिहासिक
प्रमाण हैं।
और यह युद्ध
प्रतीकात्मक
नहीं है, यह
युद्ध
वास्तविक
तथ्य है। फिर
कृष्ण कैसे इस
वास्तविक
युद्ध में
अर्जुन को
धक्का दे रहे
हैं?
असल
में अर्जुन को
जो नहीं दिखाई
पड़ता है, वह
कृष्ण को
दिखाई पड़ता
है। यह युद्ध
होकर रहेगा।
यह युद्ध
नियति है, यह
डेस्टिनी है।
इस युद्ध से
बचा नहीं जा
सकता; यह
होगा ही। सारी
ऐतिहासिक
शक्तियां जिस जगह
ले आई हैं, वहां
यह युद्ध होकर
रहेगा। इसलिए
अब सवाल यह नहीं
है कि युद्ध
हो या न हो।
सवाल यह है कि
युद्ध पर
अर्जुन जाए, तो किस भाव
को लेकर जाए।
वह परमात्मा
के प्रति
समर्पित होकर
युद्ध करे कि
अहंकार से भरा
होकर युद्ध
करे, असली
सवाल इतना ही
है।
कृष्ण
कहते हैं, मुझे तो सब
दिखाई पड़ता है,
लेकिन जो
नहीं जानते, उन्हें मैं
बिलकुल दिखाई
नहीं पड़ता
हूं।
वहीं
लोग खड़े होंगे, जो कृष्ण को
सारथी से
ज्यादा न
समझते रहे
होंगे। सारथी
थे ही वे, जहां
तक आकार का
संबंध है।
अर्जुन के घोड़ों
को सांझ जाकर
नदी पर पानी
पिलाकर, उनकी
सफाई कर लाते
थे। घोड़ों
को दिनभर हांकते थे,
सांझ उनकी
सेवा करते थे।
सारथी तो वे
थे ही। उस
युद्ध में
बहुत सारथी
थे। उनसे कुछ
विशेष स्थान
उनका न रहा
होगा। जो नहीं
देख सकते थे, उनको तो
सारथी ही
दिखाई पड़ा
होगा।
लेकिन
जो देख सकते
थे, उनको तो,
उनको जो
दिखाई पड़ा होगा,
वह निराकार
है। जो देख
सकते थे, उन्हें
वे परम
परमात्मा
दिखाई पड़े। जो
नहीं देख सकते
थे, अंधे
थे, उन्हें
तो ठीक है, एक
आदमी थे। आदमी
थे ही, आकार
था। आकार था
निश्चित।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, आंख हो
निराकार को
खोजने की, तो
ही मुझे कोई
देख पाता है।
शेष
हम कल बात
करेंगे।
लेकिन
उठेंगे नहीं।
कीर्तन हम
करें। क्योंकि
कीर्तन से
संभावना है कि
आकार थोड़ा
टूटे और निराकार
की थोड़ी
दृष्टि
उपलब्ध हो।
कोई
उठेगा नहीं।
थोड़ा पानी
गिरेगा, उसको
आनंद से लें।
परमात्मा
थोड़ा पानी
भेजता है, उसको
आनंद से लें।
thank you guruji
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