अध्याय 2 :
सूत्र 1
सापेक्ष
विरोधों की
उत्पत्ति
जब
पृथ्वी के
प्राणी सुंदर
के सौंदर्य से
परिचित होते
हैं,
तभी
से कुरूप की
पहचान शुरू
होती है।
और
जब वे शुभ से
परिचित होते
हैं,
तभी
उन्हें इस बात
का बोध होता
है कि अशुभ
क्या है।
सौंदर्य
से परिचित
होते ही, सौंदर्य
की प्रतीति
होते ही, इस
बात की खबर
मिलती है कि
कुरूप का
परिचय हो गया।
शुभ का बोध
अशुभ के बोध
के बिना असंभव
है।
लाओत्से
ने अपने प्रथम
सूत्रों में
जो बात कही है, उसे
एक नए आयाम से
पुनः दोहराया
है। लाओत्से
यह कह रहा है, जो व्यक्ति
सुंदर को
अनुभव करता है,
वह बिना
कुरूप का
अनुभव किए
सुंदर को
अनुभव न कर
सकेगा। जिस
व्यक्ति के मन
में सौंदर्य
की प्रतीति
होती है,
उस व्यक्ति के मन में उतनी ही कुरूपता की प्रतीति भी होगी। असल में, जिसे कुरूप का कुछ भी पता नहीं है, उसे सौंदर्य का भी कोई पता नहीं होगा। जो व्यक्ति शुभ होने की कोशिश करता है, उसके मन में अशुभ की मौजूदगी जरूर ही होगी। जो अच्छा होना चाहता है, वह बुरा हुए बिना अच्छा न हो सकेगा।
उस व्यक्ति के मन में उतनी ही कुरूपता की प्रतीति भी होगी। असल में, जिसे कुरूप का कुछ भी पता नहीं है, उसे सौंदर्य का भी कोई पता नहीं होगा। जो व्यक्ति शुभ होने की कोशिश करता है, उसके मन में अशुभ की मौजूदगी जरूर ही होगी। जो अच्छा होना चाहता है, वह बुरा हुए बिना अच्छा न हो सकेगा।
लाओत्से
का खयाल था--और
महत्वपूर्ण
खयाल है--कि
जिस दिन से
लोगों ने जाना
कि सौंदर्य
क्या है, उसी
दिन से जगत से
वह सहज
सौंदर्य खो
गया, जिसमें
कुरूपता का
अभाव था। और
जब से लोगों
ने समझा कि
शुभ क्या है, तभी से शुभ
की वह सहज
अवस्था खो गई,
जब कि लोगों
को अशुभ का
कोई पता ही न
था।
इसे हम
ऐसा समझें।
यदि हम मनुष्य
के पुरातन, अति
पुरातन में
प्रवेश करें,
यदि मनुष्य
की प्रथम
सौम्य, सरल
और प्राकृतिक,
नैसर्गिक
अवस्था का
खयाल करें, तो हमें
वहां सौंदर्य
का बोध नहीं
मिलेगा। लेकिन
साथ ही वहां
कुरूपता के
बोध का भी
अभाव होगा।
वहां हमें
ईमानदार लोग
नहीं मिलेंगे,
क्योंकि
बेईमानी वहां
संभव नहीं थी।
वहां हमें चोर
खोजे से
नहीं मिलेंगे,
क्योंकि
साधु वहां
नहीं होता था।
लाओत्से
यह कह रहा है
कि यह सारा
जीवन हमारा सदा
ही द्वंद्व से
निर्मित होता
है। अगर किसी
समाज में लोग
बहुत ईमानदार
होने के लिए
आतुर हों, तो
वे केवल इस
बात की खबर
देते हैं कि
वह समाज बहुत
बेईमान हो गया
है। अगर किसी
समाज में
मां-बाप अपने
बच्चों को
सिखाते हों कि
सच बोलना धर्म
है, तो
जानना चाहिए
कि उस समाज ने
जीवन की जो
सहज सच्चाई है,
वह खो दी है,
और उस समाज
में असत्य
बोलना
व्यवहार बन
गया है।
लाओत्से
यह कह रहा है
कि हम उसी बात
पर जोर देते
हैं,
जिससे
विपरीत पहले
ही मौजूद हो
गया होता है।
अगर हम बच्चों
से कहते हैं, झूठ मत बोलो,
तो उसका
अर्थ इतना ही
है कि झूठ
काफी जोर से
प्रचलित है।
अगर हम उनसे
कहते हैं, ईमानदार
बनो, तो
उसका मतलब
इतना ही है कि
बेईमानी ने घर
कर लिया है।
लाओत्से
के पास कथा है
कि कनफ्यूशियस
मिलने गया था।
कनफ्यूशियस, इस
पृथ्वी पर जो
नैतिक विचारक
हुए हैं, उनमें
श्रेष्ठतम
है। नैतिक
विचारक, धार्मिक
नहीं! कनफ्यूशियस
कोई धार्मिक
विचारक नहीं
है, नैतिक
विचारक, मॉरल
थिंकर। कनफ्यूशियस
उन लोगों में
से है, जिन्होंने
सिर्फ, मनुष्य
कैसे अच्छा हो,
इस संबंध
में गहनतम
चिंतन और
विचार किया
है।
स्वभावतः, कनफ्यूशियस लाओत्से से
मिलने गया, यह सुन कर कि
लाओत्से बहुत
बड़ा धार्मिक
व्यक्ति है, तो मैं
लाओत्से से
प्रार्थना
करूं कि तुम
भी लोगों को
समझाओ कि वे
अच्छे कैसे हो
जाएं, ईमानदार
कैसे हो जाएं,
चोरी क्यों
न करें, कैसे
चोरी से बचें,
कैसे अचोर
बनें, कैसे
क्रोध छोड़ें,
कैसे
क्षमावान
बनें, हिंसा
कैसे मिटे, अहिंसा कैसे
आए, तुम भी
लोगों को
समझाओ।
तो कनफ्यूशियस
लाओत्से से
मिलने गया।
लाओत्से अपने झोपड़े के
बाहर बैठा है।
कनफ्यूशियस
ने कहा, लोगों
को समझाओ कि
वे अच्छे कैसे
हो जाएं।
लाओत्से ने
कहा, जब तक
बुराई न हो, तब तक लोग
अच्छे कैसे हो
सकेंगे? बुराई
होगी तो ही
लोग अच्छे हो
सकेंगे। तो
मैं तो यह
समझाता हूं कि
बुराई कैसे न
हो, अच्छे
की मैं फिक्र
नहीं करता
हूं। मैं तो
वह स्थिति
चाहता हूं, जहां अच्छे
का भी पता
नहीं चलता है
कि कौन अच्छा
है।
कनफ्यूशियस की
समझ में कुछ
भी न पड़ा। कनफ्यूशियस
ने कहा, लोग
बेईमान हैं, उन्हें
ईमानदारी समझानी
है। लाओत्से
ने कहा कि जिस
दिन से तुमने
ईमानदारी की
बात की, उसी
दिन से
बेईमानी प्रगाढ़
हो गई है। मैं
वह दिन चाहता
हूं जहां लोग
ईमानदारी की
बात ही नहीं
करते।
कनफ्यूशियस की
फिर भी समझ
में न आया।
किसी नैतिक
चिंतक की समझ
में न आएगा यह
सूत्र।
क्योंकि
नैतिक चिंतक
ऐसा मानता है
कि बुराई और
भलाई विपरीत
चीजें हैं; बुराई
को काट दो, तो
भलाई बच
रहेगी।
लाओत्से
ऐसा मानता है
कि बुराई और
भलाई एक ही चीज
के दो पहलू
हैं। तुम एक
को न काट
पाओगे। अगर
फेंको तो
दोनों को फेंक
दो;
बचाओगे तो दोनों बच
जाएंगी। अगर
तुमने चाहा कि
भलाई बच जाए, तो बुराई
पीछे से मौजूद
रहेगी।
क्योंकि भलाई बुराई
के बिना बच
नहीं सकती। और
तुमने चाहा कि
हम ईमानदार को
आदर दें, तो
तुम तभी दे
पाओगे, जब
बेईमान मौजूद रहें।
यह
बहुत समझने
जैसी बात है।
सच में ही अगर
कोई बेईमान न
रह जाए, तो
ईमानदार का
कोई आदर होगा?
कोई चोर न
रह जाए, तो
साधु की कोई
प्रतिष्ठा
होगी? इसका
अर्थ यह हुआ
कि अगर साधु
को
प्रतिष्ठित रहना
हो, तो चोर
को बनाए ही
रखना पड़ेगा।
और जीवन के
रहस्यों में
एक यही है कि
साधु निरंतर
चोर के खिलाफ
बोल रहा है, लेकिन उसे
पता नहीं है
कि चोर की वजह
से ही वह पहचाना
जाता है। चोर
की वजह से ही
वह है। असाधु नहीं,
तो साधु खो
जाएगा। साधु
का अस्तित्व
असाधु के आस-पास
ही हो सकता है,
उसके बीच
में ही हो
सकता है।
लाओत्से
कहता है, धर्म
तो तब था
दुनिया में, जब साधु का
पता ही नहीं
चलता था।
लाओत्से की बात
बहुत गहरी है।
वह यह कहता है,
धर्म तो तब
था दुनिया में,
जब साधु का
कोई पता ही
नहीं चलता था।
जब शुभ का कोई
खयाल ही नहीं
था कि अच्छाई
क्या है। जब
कोई समझाता ही
नहीं था कि
सत्य बोलना
धर्म है। जब
कोई किसी से
कहता ही नहीं
था कि हिंसा
पाप है। जिस
दिन अहिंसा को
बनाओगे पुण्य,
जिस दिन
सत्य को कहोगे
धर्म, उसी
दिन उनसे
विपरीत गुण
अपनी पूरी
सामर्थ्य से
मौजूद हो जाते
हैं।
लाओत्से
ने कनफ्यूशियस
से कहा कि तुम
सब भले लोग
शांत हो जाओ, तुम
दुनिया में
भलाई की बातें
बंद करो। और
तुम पाओगे कि
अगर तुम भलाई को
बिलकुल छोड़ने
में समर्थ हो,
तो बुराई
छूट जाएगी।
लेकिन कनफ्यूशियस
नहीं समझ
पाएगा। न
गांधी समझ
पाएंगे। न कोई
और नैतिक
व्यक्ति समझ
पाएगा। वह
कहेगा, यह तो
और बुरा हो
जाएगा। हम
किसी तरह भलाई
को समझा-बुझा
कर, पकड़ कर,
श्रम-चेष्टा
करके, बचा
कर रखते हैं।
और लाओत्से यह
कह रहा है कि तुम
भलाई को बचाते
हो, साथ ही
बुराई बच जाती
है। ये दोनों
संयुक्त हैं।
इनमें से एक
को बचाना संभव
नहीं है। या
तो दोनों
बचेंगे या
दोनों हटा
देने पड़ेंगे।
लाओत्से
कहता है, धर्म
की अवस्था वह
है, जहां
दोनों नहीं रह
जाते। इसको वह
कहता था, सरल
ताओ, स्वभाव
का, धर्म
का जगत। इसे
वह कहता था, मनुष्य अगर
अपने पूरे
स्वभाव में आ
जाए, तो न
वहां बुराई है,
न वहां भलाई
है। वहां ऐसा
मूल्यांकन
नहीं है, वैल्युएशन नहीं है।
वहां न निंदा
है, न
प्रशंसा है।
वहां न कुछ
सुंदर है, न
कुछ कुरूप है।
वहां चीजें
जैसी हैं वैसी
हैं।
इसलिए
अक्सर ऐसा
होता है, जो
व्यक्ति
जितना
सौंदर्य के
बोध से भर
जाता है, उतनी
कुरूपता उसे
पीड़ित करने
लगती है।
क्योंकि
संवेदनशीलता
एक साथ ही
बढ़ती है।
मैंने कहा कि
ऐसा होना
सुंदर है, तो
उससे विपरीत
सब कुरूप हो
जाएगा। मैंने
जरा सा भी तय
किया एक पक्ष
में कि दूसरे
पक्ष में भी
उतना ही तय हो
जाता है।
तो
लाओत्से कहता
है,
व्हेन दि पीपुल ऑफ
दि अर्थ आल नो
ब्यूटी ऐज
ब्यूटी, जब
पृथ्वी के लोग
पहचानने लगते
हैं कि सौंदर्य
यह रहा, यह
है सौंदर्य, जब वे
सौंदर्य को
सौंदर्य कहने
लगते हैं, देयर
एराइजेज
दि रिकग्नीशन
ऑफ अग्लीनेस,
उसी क्षण वह
जो कुरूप है, वह जो विरूप
है, उसकी
प्रत्यभिज्ञा
शुरू हो जाती
है, उसकी
पहचान शुरू हो
जाती है।
व्हेन दि पीपुल
ऑफ दि अर्थ आल
नो दि गुड ऐज
गुड, और जब
शुभ को शुभ
पहचानने लगते
हैं पृथ्वी के
लोग, देयर एराइजेज
दि रिकग्नीशन
ऑफ ईविल, वहीं अशुभ
की पहचान शुरू
हो जाती है।
बड़ा
कठिन सूत्र
है। इसका अर्थ
यह है कि अगर
पृथ्वी पर हम
चाहते हैं कि
सौंदर्य हो, तो
सौंदर्य को
सौंदर्य की
तरह पहचानना
उचित नहीं है।
पहचानना ही
उचित नहीं है,
क्योंकि
पहचानने में
कुरूप के
मूल्य का
उपयोग करना
पड़ता है। अगर
कोई आपसे पूछे,
सौंदर्य
क्या है? तो
आप यही कहेंगे
न कि जो कुरूप
नहीं है। सौंदर्य
को पहचानने
में बिना
कुरूप के कोई
उपाय नहीं है।
अगर कोई आपसे
पूछे कि साधु
कौन है? तो
आप यहीं
कहेंगे न कि
जो असाधु नहीं
है। साधु को
पहचानने में
असाधु को
परिभाषा के
भीतर लाना
पड़ता है। और
सौंदर्य की
पहचान में
कुरूपता की
सीमा-रेखा
बनानी पड़ती
है।
तो
लाओत्से कहता
है,
सौंदर्य को
सौंदर्य की
तरह जब नहीं
पहचाना जाता--सौंदर्य
तो होता ही है,
लेकिन जब
उसे कोई
पहचानता
नहीं--जब कोई
उस पर लेबल
नहीं लगाता, नाम नहीं
देता कि यह
रहा सौंदर्य,
जब सौंदर्य
अनाम है, तब
कुरूपता पैदा
नहीं होती। और
जब कोई शुभ को शुभ
का नाम नहीं
देता, शुभ
को कोई सम्मान
नहीं मिलता, शुभ को कोई
आदर नहीं देता,
शुभ को कोई
पहचानता भी
नहीं, तब
अशुभ का कोई
उपाय नहीं है।
द्वंद्व के
बाहर भी एक
शुभ है, द्वंद्व
के बाहर भी एक
सौंदर्य है।
पर उस सौंदर्य
को सौंदर्य
नहीं कहा जा
सकता, और
उस शुभ को शुभ
नहीं कहा जा
सकता। उसे कुछ
कहने का उपाय
नहीं है। उस
संबंध में मौन
ही रह जाना
एकमात्र उपाय
है।
लाओत्से
ने कहा, कनफ्यूशियस वापस जाओ! और
तुम नैतिक लोग
ही इस जगत को
विकृत करने
वाले हो। यू
आर दि मिस्चीफ
मेकर्स।
तुम जाओ। तुम
कृपा करो, किसी
को शुभ बनाने
की तुम कोशिश
मत करो। क्योंकि
तुम्हारे शुभ
बनाने की
कोशिश से लोग
सिर्फ अशुभ
में उतरेंगे।
बहुत
संभावना तो यह
है कि बाप जब
बेटे से पहली बार
कहता है कि
सत्य बोलना
धर्म है, तब
बेटे को पता
भी नहीं होता
कि सत्य क्या
है और असत्य
क्या है। जब
पहली बार बाप
अपने बेटे से
कहता है, झूठ
बोलना पाप है,
तब तक बेटे
को पता भी
नहीं होता कि
झूठ क्या है।
और बाप का यह
कहना कि झूठ
बोलना पाप है,
बेटे में
झूठ के प्रति
पहले आकर्षण
का जन्म होता
है। अगर उसके
पहले बेटे ने
झूठ भी बोला
है, तो झूठ
जान कर नहीं
बोला है। अगर
उसके पहले बेटे
ने झूठ भी
बोला है, तो
झूठ जान कर
नहीं बोला है,
झूठ की कोई
प्रत्यभिज्ञा
नहीं है उसे।
झूठ की कोई
पाप की रेखा
उसके मन पर
नहीं खिंच
सकती, जब
तक
प्रत्यभिज्ञा
न हो। लेकिन
अब, अब डिस्टिंक्शन,
अब भेद शुरू
होगा। अब वह
जानेगा कि
क्या सत्य है
और क्या झूठ
है। और जैसे
ही वह जानेगा
क्या सत्य है
और क्या झूठ
है, वैसे
ही चित्त की
सहजता नष्ट
होती है और
द्वंद्व का
जन्म होता है।
लेकिन
हम सब तरफ
द्वंद्व
निर्मित कर
लेते हैं। और
हम खयाल भी
नहीं कर पाते, हम
सोचते हैं, भले के लिए
ऐसा करते हैं।
लाओत्से
बहुत
क्रांतिकारी
है इस दृष्टि
से। वह कहता
है,
यही है
बुराई, यही
है बुराई। हम
जब भी बुराई
को जन्म देते
हैं तो भलाई
के बहाने देते
हैं। असल में,
बुराई को
सीधा जन्म
दिया नहीं जा
सकता। जब भी हम
बुराई को जन्म
देते हैं, भलाई
के बहाने देते
हैं। हम भलाई
को ही बनाने जाते
हैं और बुराई
निर्मित होती
है। बुराई को कोई
सीधा निर्मित
नहीं करता।
एक
आदिवासी है, आदिम
है, जंगल
में रहता है।
उसे हमारे
जैसा सौंदर्य
का बोध नहीं
है। उसे हमारे
जैसा कुरूपता
का भी बोध
नहीं है। उसे
यह भेद ही नहीं
है। वह प्रेम
कर पाता है; कुरूप और
सौंदर्य को
बीच में लाने
की उसे जरूरत
नहीं पड़ती। हम
जिसे कुरूप
कहेंगे, वह
उसे भी प्रेम
कर पाता है।
हम जिसे सुंदर
कहेंगे, वह
उसे भी प्रेम
कर पाता है।
उसका प्रेम
कोई सीमा नहीं
बांधता।
सुंदर को ही
प्रेम मिलेगा,
ऐसा नहीं; कुरूप को
नहीं मिलेगा,
ऐसा नहीं।
वह सब को
प्रेम कर पाता
है। सुंदर और
कुरूप की
धारणा विकसित
नहीं है।
हम
धारणा विकसित
करते हैं। हम
सुंदर और
कुरूप को अलग
करते हैं। और
तब बड़े मजे की
बात है कि हम सुंदर
को भी प्रेम
नहीं कर पाते
हैं। जो बड़े मजे
की बात है वह
यह है कि बिना
धारणा के वह
आदिम आदमी
कुरूप को भी
प्रेम कर पाता
है,
जिसे हम
कुरूप कहें।
लेकिन हम
धारणा को
विकसित करके
सुंदर को भी
प्रेम नहीं कर
पाते हैं। पहले
हम सोचते हैं
कि सुंदर को
हम प्रेम कर
पाएंगे, इसलिए
हम कुरूप को
अलग करते हैं
और सुंदर को अलग
करते हैं। फिर
सुंदर को भी
हम प्रेम नहीं
कर पाते हैं।
क्योंकि
द्वंद्व से
भरा हुआ चित्त
प्रेम करने
में असमर्थ
है। और सुंदर
और कुरूप का
द्वंद्व है। और
जिसे आपने
सुंदर कहा है,
वह कितनी
देर सुंदर
रहेगा?
यह
बहुत मजे की
बात है कि
जिसको आपने
कुरूप कहा है, वह
सदा के लिए
कुरूप हो
जाएगा। और
जिसको आपने
सुंदर कहा है,
वह दो दिन
बाद सुंदर
नहीं रह
जाएगा। हाथ
में क्या
पड़ेगा? यह
कभी आपने खयाल
किया? जिसको
आपने कुरूप
कहा है, वह
स्थायी हो गया
उसका। उसकी
कुरूपता सदा
के लिए तय हो
गई। लेकिन
जिसको आपने
सुंदर कहा है,
दो दिन बाद
उसे आप सुंदर
न कह पाएंगे।
उसका सौंदर्य
खो जाएगा। तब
अंततः ऐसे द्वंद्वग्रस्त
मन के हाथ में
सौंदर्य
बिलकुल नहीं
पड़ेगा, कुरूपता
ही कुरूपता
इकट्ठी हो
जाएगी।
और एक
आदिम चित्त है, जो
भेद नहीं करता,
कुरूप और
सौंदर्य की
कोई रेखा नहीं
बांटता। हम
जिसे कुरूप
कहें, उसे
भी प्रेम कर
पाता है। और
चूंकि प्रेम
कर पाता है, इसलिए सभी
उसके लिए
सुंदर हो जाता
है।
ध्यान
रहे,
हम उसे
प्रेम करते
हैं, जो
सुंदर है। दो
दिन बाद
सौंदर्य पिघल
जाएगा और बिगड़
जाएगा। परिचय
से, परिचित
होते ही
सौंदर्य का जो
अपरिचित रस था,
वह खो
जाएगा।
सौंदर्य का जो
अपरिचित आकर्षण
और आमंत्रण था,
वह विलीन हो
जाएगा। हम उसे
प्रेम करते
हैं, जो
सुंदर है। दो
दिन बाद
सौंदर्य खो
जाएगा। फिर
प्रेम कहां
टिकेगा? आदिम
मनुष्य प्रेम
करता है, और
जिसे प्रेम
करता है, उसे
सौंदर्य दे
देता है।
भेद आप
समझ लेना। हम
सुंदर को
प्रेम करते
हैं। सुंदर दो
दिन बाद खो
जाएगा। प्रेम
कहां टिकेगा? आदिम
मनुष्य प्रेम
करता है पहले,
और जिसे
प्रेम करता है,
उसमें
सौंदर्य को
पाता है। और
प्रेम की खूबी
है, अगर वह
स्वयं पर
निर्भर हो तो
रोज बढ़ता चला
जाता है और
किसी और चीज
पर निर्भर हो
तो रोज घटता चला
जाता है। अगर
मैंने इसलिए प्रेम
किया कि आप
सुंदर हैं, तो प्रेम
रोज घटेगा।
लेकिन अगर
मैंने सिर्फ इसलिए
प्रेम किया कि
मुझे प्रेम
करना है, तो
आपका सौंदर्य
रोज बढ़ता
जाएगा। प्रेम
अगर अपने
पैरों पर खड़ा
होता है, तो
विकासमान है।
और प्रेम अगर
किसी के कंधे
का सहारा लेता
है, तो आज
नहीं कल लंगड़ा
होकर गिर
जाएगा।
लेकिन
फिर भी यह हम
कह रहे हैं, इसलिए
हमें सौंदर्य
और कुरूप शब्द
का प्रयोग करना
पड़ता है। आदिम
चित्त को
सौंदर्य और
कुरूप शब्द का
कोई बोध नहीं
है। करीब-करीब
आदम चित्त
वैसा है जैसे
एक मां के दो
बेटे हैं, एक
जिसे लोग
सुंदर कहते
हैं और एक जिसे
लोग सुंदर
नहीं कहते
हैं। लेकिन
मां के लिए उनके
सौंदर्य में
कोई भी भेद
नहीं है। एक
बेटा कुरूप
नहीं है, दूसरा
बेटा सुंदर
नहीं है।
दोनों बेटे
हैं, इसलिए
दोनों सुंदर
हैं। उनका
सौंदर्य उनके
बेटे होने से
निकलता है।
मां का प्रेम
प्राथमिक है।
उस प्रेम से
उनका सुंदर
होना निकलता
है।
आदिम
चित्त, जिसकी
लाओत्से बात
कर रहा है, सरल
स्वभाव में
जीने वाला
चित्त, द्वंद्व
और भेद के
बाहर है।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
बुराई जरूर मिटानी है;
लेकिन जब तक
तुम भलाई को
बचाना चाहते
हो, तुम
बुराई को न
मिटा सकोगे।
असाधु दुनिया
से जरूर विदा
करने हैं, लेकिन
जब तक तुम
साधु का
जय-जयकार किए
चले जाओगे, तब तक तुम
असाधु को विदा
नहीं कर सकते।
अब
इसके भीतर
बहुत गहरा जाल
है। साधु भी
इसमें ही रस
लेगा कि समाज
में असाधु
हों। इसलिए जब
समाज में
ज्यादा असाधु
होंगे, तो
साधु में
ज्यादा रौनक
दिखाई पड़ेगी।
क्योंकि इनकी
वह निंदा कर
सकेगा, इनको
गाली दे सकेगा,
इनको बदलने
के अभियान चला
सकेगा, इनको
ठीक करने के
लिए श्रम कर
सकेगा। उसको
काम मिलेगा, वह कुछ कर
रहा है। लेकिन
अगर एक समाज
ऐसा हो कि जिसमें
कोई असाधु न
हो, तो
साधु के नाम
से जिनकी
अस्मिता और
अहंकार परिपुष्ट
होते हैं, वे
एकदम ही
नपुंसक और
व्यर्थ हो
जाएंगे, उनको
खड़े होने की
जगह भी नहीं
मिलेगी।
अब यह
बहुत उलटा है, लेकिन
और मजे का भी
है कि साधु का
अहंकार तभी परिपुष्ट
हो सकता है, जब उसके
आस-पास असाधुओं
का समाज हो।
यह ठीक वैसा
ही है कि एक
धनी आदमी को
मजा तभी आ
सकता है, जब
आस-पास गरीबी
से गरीबी में
डूबे हुए लोग
हों। एक बड़े
महल का रस तभी
है, जब
चारों तरफ झोपड़े
बने हों।
अन्यथा महल का
कोई भी रस
नहीं है। महल
का रस महल में
नहीं है। वह
जो झोपड़े
में पीड़ा है, उसमें
निर्भर है। और
साधु का रस भी
साधुता में
नहीं है, वे
जो असाधु चारों
तरफ खड़े हैं, उनकी तुलना
में जो अहंकार
को बल मिलता
है, उसमें
है।
लाओत्से
कहता है, दोनों
को ही छोड़ दो; हम तो धर्म
उसे कहते हैं,
जहां न शुभ
रह जाता, न
अशुभ। इसलिए
आमतौर से जो
धर्म की
व्याख्या की
जाती है: शुभ
धर्म है!
लाओत्से
कहेगा, नहीं।
मंगल धर्म है! लाओत्से
कहेगा, नहीं।
सत्य धर्म है!
लाओत्से
कहेगा, नहीं।
क्योंकि जहां
सत्य है, वहां
असत्य
उपस्थित हो
गया। और जहां
शुभ है, वहां
अशुभ ने पैर
रख दिए। और
जहां मंगल है,
वहां अमंगल
मौजूद रहेगा।
लाओत्से कहता
है, जहां
दोनों नहीं
हैं, द्वंद्व
जहां नहीं है,
जहां चित्त
निर्द्वंद्व
है, जहां
चित्त अद्वैत
में है, जहां
इंच भर फासला
पैदा नहीं हुआ,
वहां धर्म
है। तो धर्म
लाओत्से के
लिए द्वंद्वातीत
है, ट्रांसेनडेंटल है, पार।
जहां न अंधेरा
है, न
उजाला है। अगर
लाओत्से से हम
कहें कि
परमात्मा
प्रकाश-स्वरूप
है, तो वह
इनकार करेगा।
वह कहेगा, फिर
अंधेरे का
क्या होगा? फिर अंधेरा
कहां जाएगा? फिर
तुम्हारा
परमात्मा सदा
ही अंधेरे में
घिरा रहेगा।
क्योंकि जो भी
प्रकाश है, वह अंधेरे
में घिरा रहता
है।
ध्यान
रखना, जो भी
प्रकाश है, वह अंधेरे
में घिरा रहता
है। अंधेरे के
बिना प्रकाश
नहीं हो सकता।
इसलिए प्रकाश
की एक छोटी सी
बाती जलाओ, और अंधेरे
का एक सागर
चारों तरफ उसे
घेरे रहता है।
उसके बीच में
ही वह प्रकाश
की बाती जलती
है। अगर चारों
तरफ से अंधेरा
हट जाए, तो
प्रकाश की
बाती तत्काल
खो जाएगी, दीन-हीन
हो जाएगी, वह
कहीं नहीं रह
जाएगी।
लाओत्से
कहेगा, नहीं,
परमात्मा
प्रकाश नहीं।
परमात्मा तो
वहां है, जहां
प्रकाश और
अंधकार दोनों
नहीं हैं, जहां
द्वैत और दुई
नहीं हैं।
नैतिक
चिंतन और
धार्मिक
चिंतन का यही
बुनियादी
फासला है।
नैतिक चिंतन
सदा जीवन को
दो हिस्सों
में बांटता
है। एक को
करता है
निंदित, एक को
देता है सम्मान।
और जिसको
सम्मान देता
है, उसको
बढ़ावा देता है,
पुरस्कार
देता है।
जिसकी निंदा
करता है, उसको
अपमानित करता
है, उसको
दीन करता है।
पर
आपने कभी सोचा
कि इस पूरी की
पूरी स्ट्रेटेजी
में राज क्या
है?
इस
नीतिशास्त्र
की सारी की
सारी
व्यवस्था में
राज क्या है? सीक्रेट
क्या है?
सीक्रेट
है अहंकार। हम
कहते हैं, चोर
बुरा है, निंदित
है, अपमानित
है। तो हम
लोगों के
अहंकार को यह
कहते हैं कि
अगर तुम चोरी
करते हुए पकड़े
गए तो
तुम्हारी बड़ी
अप्रतिष्ठा
होगी, अपमान
पाओगे, दो कौड़ी के रह
जाओगे। लोग
तुम्हें बुरी
दृष्टि से देखेंगे।
अगर चोरी न
करोगे, तो
सम्मान
पाओगे। लोग फूलमालाएं
पहनाएंगे
और रथयात्राएं
निकालेंगे।
लोग सम्मान
करेंगे, तुम्हारे
नाम की
प्रतिष्ठा
होगी, तुम
यश पाओगे; इस
लोक में ही
नहीं, परलोक
में भी यश
पाओगे, स्वर्ग
के दावेदार बनोगे। और
अगर बुरा किया,
तो नर्क में
सड़ोगे, पाप और
ग्लानि में।
पर हम कर क्या
रहे हैं? अगर
इन दोनों के
बीच हम देखें,
तो हम कर
क्या रहे हैं?
बुरे
आदमी के
अहंकार को हम
चोट पहुंचा
रहे हैं और
भले आदमी के
अहंकार की हम
पूर्ति कर रहे
हैं। और हम सब
को यही सिखा
रहे हैं कि
अपने अहंकार
की पूर्ति
चाहते हो तो
अच्छे बनो।
अगर बुरे बने
तो अहंकार को
नुकसान
पहुंचेगा।
नीतिशास्त्र
का सारा ढांचा
अहंकार पर खड़ा
हुआ है। और
बड़े मजे की
बात यह है कि
हमें यह कभी खयाल
में नहीं आता
कि अहंकार के
ढांचे पर नीतिशास्त्र
खड़ा कैसे हो
सकता है? अहंकार
से ज्यादा
अनैतिक और
क्या होगा? लेकिन सारी
व्यवस्था
नीति की
अहंकार पर खड़ी
है।
लाओत्से
जब यह कह रहा
है,
तो वह
अहंकार के
पूरे ढांचे को
गिरा रहा है।
वह कह रहा है
कि हम
शुभ-अशुभ को
स्वीकार नहीं
करते, हम
पाप-पुण्य को
स्वीकार नहीं
करते। हम तो
वह चित्त-दशा
चाहते हैं, जहां द्वैत
का भाव ही
नहीं है।
लेकिन वहां
अहंकार का भी
भाव नहीं रह
जाएगा।
धर्म
निरहंकार
स्थिति है, और
नीति अहंकार
पर ही खड़ी हुई
व्यवस्था है।
हमारा
सारा उपक्रम, बच्चे
से लेकर बूढ़े
तक, अहंकार
के ही आस-पास
घूमता है। हम
बच्चों को स्कूल
में कहते हैं,
प्रथम आओ, अन्यथा
अपमानित हो।
प्रथम आते हो,
तो सम्मान
है। अच्छे अंक
पाते हो, तो
सम्मान है। कम
अंक पाए, तो
अपमान है। फिर
वही खेल हम
जारी रखते हैं
पूरे जीवन
में। बूढ़े को
भी हम यही
कहते हैं कि
अगर अच्छा
किया, तो
ज्यादा अंक
पाओगे, स्वर्ग
मिलेगा।
अच्छा नहीं
किया, नर्क
जाओगे, अंक
कम मिलेंगे।
पराजित हो
जाओगे, अपमानित
हो जाओगे। इस
जगत में भी
पृथ्वी पर नाम
नहीं मिलेगा,
परलोक में
भी नाम को खोओगे।
पर नाम ही!
अहंकार
के ही आधार पर
हम जो नीति
खड़ी करते हैं, वह
नैतिक नहीं हो
पाती है। और
तब, तब
सारी नीति की
व्यवस्था के
नीचे अनीति का
गहन विस्तार
होता चला जाता
है। क्योंकि प्रत्येक
व्यक्ति, जो
कुशल है अपने
को नैतिक
दिखाने में, वह नैतिक
होने की चिंता
छोड़ देता है।
क्योंकि असली
सवाल तो नाम
का है, यश
का है, अस्मिता
का है--लोग
क्या कहेंगे?
अगर
मैं चोरी करता
हूं और नहीं
पकड़ा जाता, तो
मैं अचोर
बना रहता हूं।
और नीति ने भी
यही कहा था कि
लोग बुरा
कहेंगे। लोग
कहें बुरा कि
परमात्मा कहे
बुरा, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। कोई
बुरा कहेगा, किसी के
सामने मैं
अपमानित
होऊंगा। अगर
मैं चोरी करके
और किसी की भी
पकड़ में नहीं
आता हूं, तो
मैं चोरी भी
कर लेता हूं, अहंकार भी
बचा लेता हूं।
तो हर्ज क्या
है? मैं
बेईमानी भी कर
लेता हूं और
अपनी इज्जत भी
बचा लेता हूं,
तो हर्ज
क्या है? इसलिए
नैतिकता
घूम-फिर कर
अंततः
प्रवंचना सिद्ध
होती है। और
जो लोग कुशल
हैं, बुद्धिमान
हैं, वे
अनैतिक होने
के कुशल मार्ग
खोज लेते हैं
और नैतिक
दिखावे की
व्यवस्था कर
लेते हैं। वे
दिखाई पड़ते
हैं कुछ और, हो जाते हैं
कुछ और।
लाओत्से
कहता है, हम इस
नैतिकता में
भरोसा नहीं
करते हैं।
पश्चिम
में जब पहली
बार उपनिषदों
की खबर पहुंची, उन्हें
भी बड़ी चिंता
हुई। क्योंकि
उपनिषद भी लाओत्से
के ही निकट
हैं।
उपनिषदों में
कहीं नहीं कहा
गया है कि
चोरी मत करो, कि हिंसा मत
करो।
उपनिषदों ने
कोई इस तरह का
उपदेश नहीं
दिया है। तो
पश्चिम तो
ईसाइयत के टेन
कमांडमेंट्स
से परिचित था।
व्यभिचार मत
करो, चोरी
मत करो, झूठ
मत बोलो, ये
तो धर्म के
आधार हैं। और
जब उपनिषद
पहली दफे
अनुवादित हुए,
या लाओत्से
का ताओ तेह
किंग पहली दफे
अनुवादित हुआ,
तो पश्चिम
के लोगों ने
कहा, ये
पूरब के लोग
तो अनैतिक
मालूम होते
हैं। ये इनके
महर्षि हैं!
इसमें एक भी
शब्द धर्म का
नहीं है।
क्योंकि धर्म
का मतलब यह है
कि समझाओ लोगों
को कि चोरी मत
करो, बेईमानी
मत करो, धोखा
मत दो। यह तो
इनमें कहीं भी
नहीं कहा गया
है। ये किस
तरह के
धर्मशास्त्र
हैं!
तो
पश्चिम में
पहला जो
संपर्क हुआ
पूरब के गहन
विचार का तो
पश्चिम के
लोगों को लगा
कि ये सब अनैतिक
सिद्धांत
हैं।
जैसे-जैसे
गहराई बढ़ी समझ
की,
और पश्चिम
और निकट आया, और गहरे गया,
वैसे
उन्हें पता
चला कि ये
अनैतिक नहीं
हैं। एक नई
उन्हें धारणा,
एक नई कैटेगरी
बनानी पड़ी, अतिनैतिक की। तीन
कोटियां
बनानी पड़ीं:
अनैतिक, इम्मॉरल; नैतिक, मॉरल;
और अतिनैतिक,
एमॉरल या ट्रांसमॉरल।
धीरे-धीरे
खयाल में आया
कि ये शास्त्र
न तो नैतिक
हैं, न
अनैतिक हैं।
ये नीति की
बात ही नहीं
करते। ये किसी
और ही रहस्य
की बात कर रहे
हैं, जो
नीति के पार
चला जाता है।
ये शास्त्र ही
धर्मशास्त्र
हैं।
यह
बहुत मजे की
बात है, नास्तिक
भी नैतिक हो
सकता है। और
अक्सर आस्तिक
से ज्यादा
नैतिक होता
है। क्योंकि
आस्तिक की तो
नैतिकता भी एक
सौदा है। वह
अपनी नैतिकता से
भी कुछ पाने
के पीछे पड़ा
है--मोक्ष
मिलेगा, स्वर्ग
मिलेगा, पुण्य
मिलेगा, अच्छा
जन्म
मिलेगा--वह
कुछ पाने के
पीछे पड़ा है।
उसकी नैतिकता
एक बार्गेनिंग
है। वह जानता
है कि थोड़ी
तकलीफ मैं उठा
रहा हूं तो
ज्यादा सुख पा
लूंगा। लेकिन
नास्तिक की नैतिकता
तो शुद्ध
नैतिकता है।
कोई बार्गेन
भी नहीं है, क्योंकि आगे
कोई जन्म नहीं
है। नास्तिक
जान रहा है कि
अच्छा भी करने
वाला मर जाएगा
और मिट्टी में
मिल जाएगा और
बुरा करने
वाला भी मर
जाएगा और
मिट्टी में
मिल जाएगा।
कोई पुण्य-फल
नहीं मिलने
वाला है। फिर
भी नास्तिक
अगर नैतिक है,
तो निश्चित
ही उसकी
नैतिकता
आस्तिकता से
ज्यादा मूल्य
की है। उसकी
नैतिकता
ज्यादा शुद्ध
है। उसमें कोई
सौदा नहीं, कोई अपेक्षा
नहीं, कोई
आकांक्षा
नहीं, कोई
पुण्य-फल का
सवाल नहीं, कोई
फलाकांक्षा
का उपाय नहीं।
क्योंकि न कोई
परमात्मा है,
जो फल देगा;
न कोई कर्म
की व्यवस्था
है, जो फल
देगी; न
कोई भविष्य है,
न कोई नया
जन्म है।
आखिरी है यह
बात! अगर मैं
झूठ बोलूं, तो भी
मिट्टी में
मिल जाऊंगा;
सच बोलूं, तो भी
मिट्टी में
मिल जाऊंगा।
कोई फल नहीं
मिलने वाला
है। और
नास्तिक अगर नैतिक
हो पाए, तो
निश्चित ही
आस्तिक से
उसकी नैतिकता
गहरी है।
नास्तिक
नैतिक हो सकता
है। नास्तिक
को नैतिक होने
में कोई कठिनाई
नहीं है।
लेकिन
नास्तिक
धार्मिक नहीं हो
सकता है। और
जो आस्तिक
सिर्फ नैतिक
है,
वह नास्तिक
से भी
गया-बीता है।
धार्मिक हो
आस्तिक, तभी
उसकी
आस्तिकता का
कोई मूल्य है।
अन्यथा उसकी
आस्तिकता
नास्तिक की
नैतिकता से भी
नीची है।
क्योंकि वह
कुछ कर रहा है
कुछ पाने के
लिए।
अगर
आस्तिक को पता
चल जाए कि
नहीं कोई
परमात्मा है, तो
उसकी नैतिकता
अभी डगमगा
जाए। आस्तिक
को पता चल जाए
कि नहीं कोई
पुनर्जन्म है,
उसकी
नैतिकता अभी
डगमगा जाए।
आस्तिक को पता
चल जाए कि
कानून बदल गया,
और जो लोग
सच बोलते हैं
वे नर्क जाने
लगे, जो
लोग झूठ बोलते
हैं वे स्वर्ग
जाने लगे, वह
अभी झूठ बोलने
लगेगा।
नास्तिक
को फर्क नहीं
पड़ेगा। आपका
ईश्वर रहे न
रहे,
नर्क-स्वर्ग
में बदलाहट हो
जाए, नास्तिक
को कोई फर्क
नहीं पड़ेगा।
क्योंकि वे उसके
आधार नहीं
हैं। उनके
कारण वह नैतिक
नहीं है। वह
नैतिक है तो
इसलिए कि वह
कहता है कि
नैतिक होने
में सुख है।
मेरा विवेक कहता
है नैतिक होने
को, इसलिए
मैं नैतिक
हूं। और कोई
प्रयोजन नहीं
है। मैं अपने
को ज्यादा
स्वच्छ और
शांत पाता हूं,
इसलिए
नैतिक हूं। और
कोई प्रयोजन
नहीं है।
आस्तिक
तो तभी आस्तिक
होता है, जब वह
धार्मिक हो।
नैतिक होने से
नहीं होता। नैतिक
तो नास्तिक भी
हो जाता है, और आस्तिक
से बेहतर हो
जाता है।
लाओत्से
आस्तिकता का
आधारभूत
सूत्र कह रहा
है। वह यह कह
रहा है कि तुम
द्वंद्व में
मत बांटो जीवन
को;
दोनों के
पार हटो।
हमारे
मन में फौरन डर
पैदा होगा।
हमारे मन में, जो
कि हम नीति से
बंधे हैं, हमारे
मन में डर
पैदा होगा कि
अगर दोनों के
पार हुए, तो
अनैतिक हो
जाएंगे।
तत्काल जो
लाओत्से की बात
सुन कर खयाल
में आएगा, वह
यह आएगा, अगर
दोनों के पार
हुए तो फिर
चोरी क्यों न
करें? हमारे
मन में सवाल
उठेगा, अगर
दोनों ही छोड़
देने हैं, तो
दुनिया बुरी
हो जाएगी।
क्योंकि हम
अच्छे तो
ऊपर-ऊपर से
हैं, बुराई
सब भीतर भरी
है। अगर हमने
जरा भी शिथिलता
की, तो
अच्छाई तो टूट
जाएगी, बुराई
फैल जाएगी। यह
भय हमारे भीतर
का वास्तविक
भय है।
लेकिन
लाओत्से कहता
है कि जो
अच्छाई के भी
पार जाने को
तैयार है, वह
बुराई में
गिरने को कभी
तैयार नहीं
होगा। जो
अच्छाई तक को
छोड़ने को
तैयार है, उसे
तुम बुराई में
कैसे गिरा
पाओगे? असल
में, सब
बुराइयों में
गिरने का कारण
भी अहंकार होता
है। और हमने
अहंकार को ही
अच्छाई में चढ़ने की
सीढ़ी बनाई है।
और वही बुराई
में गिरने का
कारण है।
लाओत्से
कहता है कि जो
अच्छाई तक में
चढ़ने को
उत्सुक नहीं
है,
वह बुराई
में गिरने को
राजी नहीं
होगा। और जो अच्छाई
में चढ़ने
को उत्सुक है,
उसे बुराई
में गिरने को
कभी भी
फुसलाया जा
सकता है। क्षण
भर, और वह
नीचे गिर
जाएगा। अगर
उसको ऐसा दिखाई
पड़े कि बुराई
अच्छाई से
ज्यादा फल दे
सकती
है--क्योंकि
फल के कारण ही
वह अच्छाई कर
रहा है--अगर
उसे ऐसा दिखाई
पड़े कि बुराई
से अहंकार ज्यादा
तृप्त होगा
बजाय अच्छाई
के, तो वह
अभी बुराई में
चला जाएगा।
क्योंकि वह अच्छाई
में भी अहंकार
के लिए ही गया
है।
लाओत्से
कहता है, जो
अच्छाई और
बुराई दोनों
के पार चला
जाता है, उसके
गिरने का भी
कोई उपाय नहीं,
उसके उठने
का भी कोई
उपाय नहीं। वह
पहाड़ों पर भी
नहीं चढ़ता,
वह खाइयों
में भी नहीं
उतरता। वह
जीवन की समतल
रेखा पर आ
जाता है। उस
समतल रेखा का
नाम ऋत, उस
समतल रेखा का
नाम ताओ। जहां
इंच भर वह
नीचे भी नहीं
गिरता, ऊपर
भी नहीं उठता।
उस समतल रेखा
का नाम धर्म।
तो
लाओत्से कहता
है कि मैं
तुमसे नहीं
कहता कि तुम
बुराई छोड़ो, मैं
तुमसे नहीं
कहता कि तुम
अच्छाई पकड़ो,
मैं तुमसे
कहता हूं, तुम
यह समझो कि
अच्छाई और
बुराई एक ही
चीज के दो नाम
हैं। तुम यह
पहचानो कि ये
दोनों
संयुक्त
घटनाएं हैं।
और जब तुम यह
पहचान लोगे ये
दोनों
संयुक्त हैं,
तो तुम इन
दोनों के पार
हो सकोगे।
इसे हम
कुछ और तरह से
समझ लें तो
शायद खयाल में
आ जाए।
एक फूल
के पास आप खड़े
हैं। क्या
जरूरी है यह
कहना कि उसे
सुंदर कहें? क्या
जरूरी है यह
कहना कि उसे
कुरूप कहें? और क्या
आपके कहने से
फूल में कोई
अंतर पड़ता है?
आपके कहने
से फूल में
कोई भी अंतर
नहीं पड़ता। लेकिन
आपके कहने से
आप में जरूर
अंतर पड़ता है।
अगर आप सुंदर
कहते हैं, तो
आपका फूल के
प्रति
व्यवहार और हो
जाता है। अगर
आप कुरूप कहते
हैं, तो
आपका फूल के
प्रति
व्यवहार और हो
जाता है। आपके
कहने से फूल
में अंतर नहीं
पड़ता, लेकिन
आप में अंतर
पड़ता है।
और सच
में ही क्या
है आधार कहने
का कि फूल
सुंदर है? क्या
है क्राइटेरियन?
कौन सा है
तराजू जिससे
आप नापते हैं
कि फूल सुंदर
है? बड़ी
कठिनाई में
पड़ेंगे, अगर
कोई पूछे कि
क्यों? तो
क्या है आधार?
गहरे
से गहरा आधार
यही होगा कि
मुझे पसंद
पड़ता है।
लेकिन आपकी
पसंदगी
सौंदर्य का
कोई नियम है? कुरूप
का क्या होगा
आधार? कि
मुझे पसंद
नहीं पड़ता है।
लेकिन आपकी
नापसंदगी को
परमात्मा ने
नियम बनाया है
कि वह कुरूप
हो गई चीज जो
नापसंद है? पसंद और
नापसंद क्या
खबर देती हैं?
आपके बाबत
खबर देती हैं,
फूल के बाबत
कोई भी खबर
नहीं देतीं।
क्योंकि मैं
उसी फूल के
पास खड़े होकर
दूसरी पसंदगी
जाहिर कर सकता
हूं। फूल फिर
भी फूल रहेगा।
कोई उसे कुरूप
कह जाए, कोई
उसे सुंदर कह
जाए, कोई
कुछ न कहे, फूल
फूल रहेगा। और
हजार लोग फूल
के पास से निकल
कर हजार
वक्तव्य दे
जाएं, तो
भी फूल फूल
रहेगा। फिर वे
वक्तव्य
किसके संबंध
में खबर देते
हैं? फूल
के संबंध में
या देने वाले
के संबंध में?
अगर हम
ठीक से समझें
तो सभी
वक्तव्य देने
वाले के संबंध
में खबर देते
हैं। अगर मैं
कहता हूं, यह
फूल सुंदर है।
तो इसको ठीक
से कहना हो तो
ऐसा कहना
पड़ेगा कि मैं
इस तरह का
आदमी हूं कि
यह फूल मुझे
सुंदर मालूम
पड़ता है। मगर
जरूरी नहीं है
कि शाम को भी
यह फूल मुझे
सुंदर मालूम
पड़े; शाम
को यह कुरूप
मालूम पड़ सकता
है। तब मुझे
कहना पड़ेगा, अब मैं ऐसा
आदमी हो गया
हूं कि यह फूल
मुझे कुरूप
मालूम पड़ता
है। लेकिन यह
कल सुबह फिर
सुंदर मालूम
पड़ सकता है।
ये सौंदर्य और
कुरूप, ये आब्जेक्टिव
हैं, विषयगत
हैं, वस्तुगत
हैं या सब्जेक्टिव
फीलिंग्स
हैं? ये
हमारी आंतरिक,
मानसिक
भावनाएं हैं
या वस्तु का
स्वरूप हैं?
ये
हमारी मानसिक
भावनाएं हैं।
मानसिक
भावनाओं को
फूल पर आरोपित
कर देना
न्यायसंगत
नहीं है। आप
कौन हैं फूल
पर आरोपित हो
जाने वाले? कौन
सा अधिकार है?
कोई भी
अधिकार नहीं
है। पर हम सब
आरोपित कर रहे
हैं अपने को।
फूल के
पास एक दिन
खड़े होकर
देखें, न
कहें सुंदर, न कहें
कुरूप। इतना
ही काफी है कि
फूल है। खड़े
रहें चुपचाप,
सम्हालें अपनी
पुरानी आदत को
जो तत्काल कह
देती है सुंदर
या कुरूप। रुकें
जजमेंट से, निर्णय न
लें, खड़े
रहें। उधर रहे
फूल, इधर
रहें आप, बीच
में कोई
निर्णय न हो
कि सुंदर कि
कुरूप।
और
थोड़े दिन के
अभ्यास से जिस
दिन यह संभव
हो जाएगा कि
आपके और फूल
के बीच में
कोई भावधारा
न रहे, कोई
निर्णय न रहे,
उस दिन आप
फूल के एक नए
सौंदर्य का
अनुभव करेंगे,
जो सौंदर्य
और कुरूप के
पार है। उस
दिन फूल का
आविर्भाव
आपके सामने नया
होगा। उस दिन
आपकी कोई
मानसिक धारणा
नहीं होगी। उस
दिन आपकी
पसंद-नापसंद
नहीं होगी। उस
दिन आप बीच
में नहीं
होंगे। फूल ही
खिला होगा अपनी
पूर्णता में।
और जब फूल
अपनी पूर्णता
में खिलता है,
हमारे किसी
बिना मनोभाव
की बाधा के, तब उसका एक
सौंदर्य है, जो सुंदर और
कुरूप दोनों
के पार है।
ध्यान रखना, जब मैं कह
रहा हूं कि
उसका एक अपना
सौंदर्य है, जो हमारी
धारणाओं के
पार है।
लाओत्से
कहता है, उसे
हम कहते हैं
सौंदर्य, जहां
कुरूपता का
पता ही नहीं
है। लेकिन तब
सौंदर्य का भी
पता नहीं होता,
जैसे
सौंदर्य को हम
जानते हैं।
एक
वृक्ष है। आप
राह से गुजरे
हैं और वृक्ष
की शाखा वर्षा
में आपके ऊपर
गिर पड़ी है।
तब आप ऐसा तो
नहीं कहते कि
वृक्ष ने बहुत
बुरा किया; वृक्ष
बहुत शैतान है,
कि दुष्ट है,
कि हिंसक है;
कि वृक्ष की
इच्छा आपको
नुकसान
पहुंचाने की
थी; कि अब
आप वृक्ष से
बदला लेकर
रहेंगे।
नहीं, आप
कुछ भी नहीं
कहते। आप
वृक्ष के
संबंध में कोई
निर्णय ही
नहीं लेते। आप
वृक्ष के
संबंध में
निर्णय-शून्य
होते हैं। तब
रात वृक्ष की
गिरी हुई शाखा
आपकी नींद में
चिंता नहीं
बनती। तब
महीनों आप
उससे बदला
कैसे लें, इसमें
व्यतीत नहीं
करते।
क्योंकि आपने
कोई निर्णय न
लिया कि शुभ
हुआ कि अशुभ
हुआ, वृक्ष
ने बुरा किया
कि भला किया।
आपने यह सोचा
ही नहीं कि
वृक्ष ने कुछ
किया। संयोग
की बात थी कि
आप नीचे थे और
वृक्ष की शाखा
गिर पड़ी। वृक्ष
को आप कोई दोष
नहीं देते।
लेकिन
एक आदमी एक
लकड़ी आपको मार
दे। लकड़ी तो
दूर की बात है, एक
गाली मार दे।
लकड़ी में तो
थोड़ी चोट भी
रहती है, गाली
में तो कोई
चोट भी नहीं
है। खाली शब्द
कैसे घाव कर
पाते होंगे? लेकिन
तत्काल मन
निर्णय लेता
है कि बुरा
किया उसने, कि भला किया,
कि बदला
लेना जरूरी हो
गया। अब चिंता
पकड़ेगी।
अब चित्त
घूमेगा आस-पास
उस गाली के।
अब महीनों
नष्ट हो सकते
हैं; सालों
नष्ट हो सकते
हैं; पूरा
जीवन भी लग
सकता है उस
काम में। पर
कहां से
शुरुआत हुई? उस आदमी के
गाली देने से
शुरुआत हुई, कि आपके
निर्णय लेने
से शुरुआत हुई,
यह समझने की
बात है।
अगर आप निर्णय
न लेते और आप
कहते, संयोग
की बात कि मैं
निकट पड़ गया
और तुम्हारे मुंह
में गाली आ गई,
जैसे कि मैं
पास से गुजरता
था और वृक्ष
की शाखा गिरी,
संयोग की
बात कि मैं
पास से गुजरता
था और तुम्हारे
मुंह में गाली
आ गई। मैं कोई
निर्णय नहीं
लेता कि शुभ
हुआ कि अशुभ हुआ;
संयोग हुआ।
अगर सच में ही
मैं वृक्ष की
शाखा की तरह
इसे भी संयोग
की भांति देख पाऊं और
बुरे और भले
का निर्णय न
लूं, तो
क्या यह मेरे
मन में चिंता
बन पाएगी? क्या
यह गाली घाव
बन जाएगी? क्या
इसके आस-पास
मुझे जीवन का
और समय नष्ट
करना पड़ेगा? क्या मुझे
गालियां बनानी
पड़ेंगी और
देनी पड़ेंगी?
और क्या
गालियां देकर
मुझे और
गालियां
निमंत्रण
करवानी
पड़ेंगी? नहीं,
यह बात
समाप्त हो गई।
मैंने कुछ
बुरे-भले का निर्णय
न लिया। एक
तथ्य था, जाना
और बढ़ गया।
लाओत्से इसे
शुभ कहता है।
अब
ध्यान रखना, इसमें
बहुत बारीक
फासले हैं।
जीसस कहेंगे
कि जो
तुम्हारे गाल
पर एक चांटा
मारे, दूसरा
गाल उसके
सामने कर
देना।
लाओत्से कहेगा,
ऐसा मत
करना। जीसस
कहेंगे, जो
गाल पर
तुम्हारे एक
चांटा मारे, दूसरा उसके
सामने कर
देना। लेकिन
लाओत्से कहेगा,
अगर दूसरा
तुमने उसके
सामने किया, तो तुमने
निर्णय ले
लिया, तुमने
निर्णय ले
लिया। एंड यू
हैव रिएक्टेड,
और तुमने
प्रतिक्रिया
भी कर दी।
माना कि तुमने
गाली नहीं दी,
लेकिन
चांटा तुमने
मार दिया; तुमने
दूसरा गाल
सामने किया न!
जीसस
कहते हैं, अपने
शत्रु को भी
प्रेम करना।
लाओत्से
कहेगा, नहीं,
ऐसा मत
करना।
क्योंकि
तुमने प्रेम भी
प्रकट किया, तो भी इतना
मान लिया कि
वह शत्रु है।
लाओत्से की
बात बहुत-बहुत
पार है।
लाओत्से
कहेगा, शत्रु
को प्रेम करना,
तो शत्रु तो
मान ही लिया।
फिर तुमने
क्या किया, शत्रु को
गाली दी, घृणा
की, या
प्रेम किया, ये दूसरी
बातें हैं।
लेकिन एक बात
तय हो गई कि वह
शत्रु है।
नसरुद्दीन के
जीवन में एक
उल्लेख है कि
वह अपने छोटे
भाई को चांटा
मार दिया है।
और उसका पिता
उससे कहता है, नसरुद्दीन,
कल ही तू
बाइबिल में पढ़
रहा था कि
अपने शत्रु को
भी प्रेम करना
चाहिए।
नसरुद्दीन ने
कहा,
वह मैं पढ़
रहा था; लेकिन
यह मेरा भाई
है, मेरा शत्रु
नहीं है। मैं
बिलकुल मानता
हूं। लेकिन यह
मेरा शत्रु है
ही नहीं।
शत्रु
की स्वीकृति, लाओत्से
कहेगा, निर्णय
हो गया। और
तुमने यह मान
लिया कि इस आदमी
ने बुरा किया
है। इसलिए
इसको बुराई से
जवाब नहीं
देना है, भलाई
से जवाब देना
है।
जीसस
कहते हैं कि
बुराई का जवाब
भलाई से दो।
लेकिन बुराई
उसने की है, यह
निर्णय तो कर
लिया। फिर
जवाब तुम भलाई
से देते हो, यह नैतिक
हुआ, धार्मिक
न हुआ।
लाओत्से
कहेगा, जवाब
ही नहीं देते
हो, क्योंकि
तुम निर्णय ही
नहीं लेते हो।
तुम कहते हो, ऐसा हुआ, बात
समाप्त हो गई।
इसके आगे तुम
चिंतन ही नहीं
चलाते हो, विचार
की रेखा ही
नहीं उठने
देते हो। एक
आदमी ने चांटा
मारा, बात
समाप्त हो गई,
घटना पूरी
हो गई। तुम इस
घटना से कुछ
शुरुआत नहीं
करते अपने मन
में। कुछ भी, कि इसने
बुरा किया कि
अच्छा किया, कि दोस्त था,
कि मित्र था,
कि शत्रु था;
कौन है, कौन
नहीं है; मैं
क्या करूं, क्या न करूं;
तुम कोई
चिंतन का
सूत्रपात
नहीं करते हो।
यह घटना पूरी
हो गई, दरवाजा
बंद हो गया, अध्याय
समाप्त हुआ।
तुम उसे इति
कर देते हो; दि एंड कर
देते हो। बात
समाप्त हो गई।
तथ्य पूरा हो
गया। तुम उसे
खींचते नहीं
मन में। तो लाओत्से
कहता है, तुम
धार्मिक हो।
अगर
तुमने इतना भी
निर्णय किया
कि यह बुरा
हुआ,
अब मैं क्या
करूं, तो
तुम धर्म से
च्युत होते
हो। भेद ही
धर्म से च्युत
हो जाना है।
निर्णय ही
धर्म से नीचे
गिर जाना है।
लाओत्से
की समस्त
चेष्टा, चित्त
की जो बंधी
हुई आदत है
चीजों को दो
में तोड़ लेने की,
उससे आपको
सजग करना है; कि चित्त दो
में तोड़ पाए, उसके पहले
आप जाग जाना।
इसके पहले कि
चित्त चीजों
को दो करे, आप
जाग जाना। वह
दो न कर पाए।
उसने दो कर
लिया, तो
फिर आप कुछ भी
करो, फिर
आप कुछ भी करो,
चित्त ने एक
बार दो कर
लिया तो आप
फिर चक्कर के बाहर
न हो पाओगे।
दो करने के
पहले जाग
जाना।
इसलिए
वह सौंदर्य और
शुभ,
दो बातों को
उठाता है। दो
ही हमारे
बुनियादी भेद
हैं। सौंदर्य
के भेद पर
हमारा सारा एस्थेटिक्स,
सौंदर्य-शास्त्र
खड़ा होता है।
और शुभ और
अशुभ के भेद
पर हमारी ईथिक्स,
हमारा पूरा
नीति-शास्त्र
खड़ा होता है।
लाओत्से कहता
है, इन
दोनों में
धर्म नहीं है।
इन दोनों के
पार! प्रीतिकर-अप्रीतिकर,
रुचिकर-अरुचिकर,
सुंदर-असुंदर,
शुभ-अशुभ, अच्छा-बुरा,
श्रेयस्कर-अश्रेयस्कर,
ये सारे भेद
के पार धर्म
है।
लाओत्से
न कहेगा, क्षमा
कर देना धर्म
है। लाओत्से
कहेगा, तुमने
क्षमा की तो
तुमने
स्वीकार किया
कि क्रोध आ
गया। नहीं, जब क्रोध
उठता हो या
क्षमा उठती हो,
तब तुम चौंक
कर सजग हो
जाना कि अब
विपरीत का द्वंद्व
उठता है।
इसलिए
लाओत्से को हम
क्षमावान न कह
सकेंगे। अगर
लाओत्से से हम
पूछेंगे कि
तुम सबको
क्षमा कर देते
हो?
तो लाओत्से
कहेगा, मैंने
कभी किसी पर
क्रोध ही नहीं
किया।
लाओत्से को अगर
किसी ने गाली
दी है, तो
हमें लगेगा कि
उसने क्षमा कर
दिया, क्योंकि
वह कुछ भी
नहीं बोला, अपनी राह
चला गया। पर
हमारी भूल है।
लाओत्से से हम
पूछेंगे तो वह
कहेगा, नहीं,
मैंने
क्रोध ही नहीं
किया; क्षमा
का तो सवाल ही नहीं
उठता। क्षमा
तो तभी संभव
है, जब
क्रोध हो जाए।
और जब क्रोध
ही हो गया, तो
फिर क्या
क्षमा होगी? फिर सब
लीपापोती है।
फिर सब पीछे
से इंतजाम है,
मलहम-पट्टी
है। लाओत्से
कहता है, हमने
क्रोध ही न
किया। इसलिए
क्षमा करने की
झंझट में हम
पड़े ही नहीं।
वह तो दूसरा
कदम था, जो
क्रोध कर लिया
होता, तो
करना पड़ता।
लाओत्से
का गहरे से
गहरा जोर इस
बात पर है कि जहां
द्वंद्व उठे, उसके
पहले ही सजग
हो जाना और
निर्द्वंद्व
में ठहरना, द्वंद्व में
मत उतरना।
प्रश्न:
भगवान
श्री, जैसे
कल आपने
कैथार्सिस, फुट पिलो
बीटिंग के
जरिए क्रोध-निवृत्ति
का प्रयोग
बताया, वैसे
काम, लोभ, मोह और
अहंकार की
निवृत्ति के
लिए कौन से
प्रयोग किए
जाएं, कृपया
इन बातों पर
दृष्टि
डालिए।
काम, क्रोध,
लोभ, मोह,
अहंकार!
जैसा शब्दों
से लगता है, उससे ऐसा
प्रतीत होता
है, जैसे
बहुत सी
बीमारियां
आदमी के
आस-पास हैं। सचाई
यह नहीं है।
इतनी
बीमारियां
नहीं हैं, जितने
नाम हमें
मालूम हैं।
बीमारी तो एक
ही है। ऊर्जा
एक ही है, जो
इन सब में
प्रकट होती
है। अगर काम
को आपने दबाया,
तो क्रोध बन
जाता है। और
हम सबने काम
को दबाया है, इसलिए सबके
भीतर क्रोध
कम-ज्यादा
मात्रा में इकट्ठा
होता है। अब
अगर क्रोध से
बचना हो, तो
उसे कुछ रूप
देना पड़ता है।
नहीं तो क्रोध
जीने न देगा।
तो अगर आप लोभ
में क्रोध की
शक्ति को
रूपांतरित कर
सकें तो आप कम
क्रोधी हो
जाएंगे; आपका
क्रोध लोभ में
निकलना शुरू
हो जाएगा। फिर
आप आदमियों की
गर्दन कम
दबाएंगे, रुपए
की गर्दन पर
मुट्ठी बांध
लेंगे।
एक बात
खयाल में ले
लेनी जरूरी है
कि मनुष्य के
पास एक ही
ऊर्जा है, एक
ही इनर्जी है।
हम उसके
पच्चीस
प्रयोग कर सकते
हैं। और अगर
हम विकृत हो
जाएं तो वह
हजार धाराओं
में बह सकती
है। और अगर
आपने एक-एक
धारा से लड़ने
की कोशिश की
तो आप पागल हो
जाएंगे, क्योंकि
आप एक-एक से
लड़ते भी
रहेंगे और मूल
से आपका कभी
मुकाबला न
होगा।
तो
पहली बात तो
यह समझ लेनी
जरूरी है कि
मूल ऊर्जा एक
है आदमी के
पास। और अगर
कोई भी
रूपांतरण, कोई
भी ट्रांसफार्मेशन
करना है, तो
मूल ऊर्जा से
सीधा संपर्क
साधना जरूरी
है। उसकी
अभिव्यक्तियों
से मत उलझिए।
सुगमतम
मार्ग यह है
कि आपके भीतर
इन चार में से
जो सर्वाधिक
प्रबल हो, आप
उससे शुरू
करिए। अगर
आपको लगता है
कि क्रोध
सर्वाधिक
प्रबल है आपके
भीतर, तो
वह आपका चीफ करेक्टरिस्टिक
हुआ।
गुरजिएफ
के पास जब भी
कोई जाता, तो
वह कहता कि
पहले
तुम्हारी खास
बीमारी मैं
पता कर लूं; तुम्हारी
खास बीमारी
क्या है? तुम्हारा
खास लक्षण
क्या है?
और हर
आदमी का खास
लक्षण है।
किसी का खास
लक्षण लोभ है।
किसी का खास
लक्षण क्रोध
है। किसी का
खास लक्षण काम
है। किसी का
खास लक्षण भय
है। किसी का
खास लक्षण
अहंकार है।
लक्षण हैं।
अपना खास
लक्षण पकड़
लें। और सबसे
लड़ने मत जाएं।
सबसे लड़ने मत
जाएं, खास
लक्षण पकड़
लें। वह खास
लक्षण आपके
मूल स्रोत से
जुड़ी हुई सबसे
बड़ी धारा है।
अगर वह क्रोध
है, तो
क्रोध को पकड़
लें। अगर वह
काम है, तो
काम को पकड़
लें। और उस
खास लक्षण पर
सजगता का
प्रयोग करना शुरू
करें, और
कैथार्सिस
का। जैसा
मैंने कल
क्रोध के लिए आपको
कहा कि एक
तकिए पर भी
प्रयोग एक
मित्र कर रहे
हैं और बड़े
परिणाम हैं।
जो भी
आपके भीतर खास
लक्षण हो, उस
पर दो काम
करें। पहला
काम तो यह है
कि उसकी पूरी
सजगता बढ़ाएं।
क्योंकि
कठिनाई यह है
सदा कि जो
हमारा खास
लक्षण होता है,
उसे हम सबसे
ज्यादा छिपा
कर रखते हैं।
जैसे क्रोधी
आदमी सबसे
ज्यादा अपने
क्रोध को छिपा
कर रखता है, क्योंकि वह
डरा रहता है, कहीं भी
निकल न जाए।
वह उसको छिपाए
रखता है। वह
हजार तरह के
झूठ खड़े करता
है अपने
आस-पास, ताकि
क्रोध का
दूसरों को भी
पता न चले, उसको
खुद को भी पता
न चले। और अगर
पता न चले, तो
उसे बदला नहीं
जा सकता।
तो
पहले तो सारे
के सारे पर्दे
हटा लें और
अपनी स्थिति
को ठीक समझ
लें कि यह
मेरी खास
लक्षणा है।
दूसरा, इसके
साथ सजग होना
शुरू करें।
जैसे क्रोध आ
गया। तो जब
क्रोध आता है
तो तत्काल
हमें खयाल आता
है उस आदमी का,
जिसने
क्रोध
दिलवाया; उसका
खयाल नहीं आता,
जिसे क्रोध
आया। अगर आपने
मुझे क्रोध
दिलवाया, तो
मैं आपके
चिंतन में पड़
जाता हूं, अपने
को बिलकुल भूल
जाता हूं; जब
कि असली चीज
मैं हूं, जिसे
क्रोध आया।
जिसने क्रोध
दिलवाया, उसने
तो सिर्फ निमित्त
का काम किया।
वह तो गया। वह
तो जरा सी चिनगारी
फेंक गया और
मेरी बारूद जल
रही है। और
उसकी चिनगारी
बेकार हो जाती,
अगर मेरे
पास बारूद न
होती। लेकिन
मैं अपने जलते
हुए बारूद के
भवन को नहीं
देखता, अब
मैं उसकी
चिनगारी को
देखता हूं। और
सोचता हूं कि
जितनी आग मुझमें
जल रही है, वह
आदमी फेंक
गया।
वह
आदमी नहीं
फेंक गया इतनी
आग,
वह तो
चिनगारी ही
फेंक गया। यह
आग तो मेरी
बारूद है, जो
जल कर इतना
बड़ा रूप ले
रही है। यह
इतनी आग वह आदमी
नहीं फेंक
गया। उसको पता
भी नहीं होगा।
हो सकता है, अनजाने ही
फेंक गया हो।
उसको खयाल भी
न हो कि आप जल
रहे हैं घर
में।
आप इस
सारी आग को उस
आदमी पर
आरोपित करते
हैं। और इसलिए
जब आप उस पर
नाराज होते
हैं,
तो उसकी समझ
में भी नहीं
आता कि इतनी
तो कोई बात भी
न थी। उसकी भी
समझ में नहीं
आता, यह
इसलिए हमेशा
कठिनाई होती
है। क्योंकि
आप जितनी
आरोपित करते हैं,
वह आपकी है।
इसलिए
वह भी चौंकता
है कि इतनी तो
कोई बात भी नहीं
कही थी आपसे, आप
इतने पागल हुए
जा रहे हैं!
उसकी समझ के
बाहर होता है।
जिस पर भी
आपने कभी
क्रोध किया है,
आपको पता
होगा कि उसकी
समझ के बाहर
पड़ा है कि इतने
क्रोध की तो
कोई बात ही न
थी। आप पर भी किसी
ने क्रोध किया
है, तो आप
भी यही सोचते
हैं कि इतनी
तो बात ही न
थी। बात जरा
सी थी, आप
इतना बड़ा कर
रहे हैं।
लेकिन एक
नेचुरल फैलेसी
है, एक सहज
भ्रांति है, और वह यह है
कि जितनी आग
मुझमें जलती
है, मैं
समझता हूं
आपने जलाई। आप
चिनगारी
फेंकते हैं, बारूद मेरे
पास तैयार है।
वह बारूद पकड़
लेती है आग
को। और कितनी
बढ़ जाएगी, कहना
कठिन है।
और जब
भी हमें क्रोध
पकड़ता है, तो
हमारा ध्यान
उस पर होता है,
जिसने
क्रोध शुरू
करवाया है।
अगर आप ऐसा ही
ध्यान रखेंगे,
तो क्रोध के
कभी बाहर न हो
सकेंगे। जब
कोई क्रोध
करवाए, तब
उसे तत्काल भूल
जाइए; और
अब इसका स्मरण
करिए, जिसको
क्रोध हो रहा
है। और ध्यान
रखिए, जिसने
क्रोध करवाया
है, उसका
आप कितना ही
चिंतन करिए, आप उसमें
कोई फर्क न
करवा पाएंगे।
फर्क कुछ भी
हो सकता है, तो इसमें हो
सकता है जिसे
क्रोध हुआ है।
तो जब
क्रोध पकड़े, लोभ
पकड़े, कामवासना
पकड़े--जब
कुछ भी पकड़े--तो
तत्काल आब्जेक्ट
को छोड़ दें।
एक स्त्री को
देख कर मन
कामातुर हो
गया है, एक
पुरुष को देख
कर मन कामातुर
हो गया है; ध्यान
रखिए, वही
घटना घट रही
है, उसने
तो सिर्फ
चिनगारी दी, शायद उसे
पता भी न हो।
और क्रोध के
मामले में तो
थोड़ी चेष्टा
भी होती है
दूसरे की तरफ
से, काम के
मामले में तो
अक्सर चेष्टा
भी नहीं होती
दूसरे की तरफ
से। एक स्त्री
रास्ते से
गुजर रही है, और आपके मन
में काम पकड़
गया। तब भी आप
उसका ही चिंतन
करने में लग
जाते हैं। तब
भी आप नहीं
देखते कि भीतर
की ऊर्जा, जिसमें
काम की लपट
पकड़ रही है, वह क्या है? इस भांति हम
चूक जाते हैं
स्वयं को
जानने से, स्वयं
के निरीक्षण
से। और स्वयं
का निरीक्षण न
हो, तो
जीवन में कोई
रूपांतरण
नहीं हो सकता।
तो जब
काम पकड़े, तत्काल
बाहर को भूल
जाएं, आब्जेक्ट को भूल जाएं,
विषय को भूल
जाएं। जिसने
काम पकड़ाया,
क्रोध पकड़ाया,
लोभ पकड़ाया,
उसे तत्काल
भूल जाएं। और
तत्काल ध्यान
करें भीतर, कि मेरे
भीतर क्या हो
रहा है? दबाएं
न भीतर; जो
हो रहा है, उसे
पूरा होने
दें। कमरा बंद
कर लें। जो हो
रहा है, उसे
पूरा होने
दें। उसको
जितना साफ
करके देख सकें,
उतना बेहतर
है।
क्रोध
भीतर आ रहा है, तो
चिल्लाएं, कूदें, फांदें,
बकें, जो करना है, कमरा बंद कर
लें। अपने
पूरे पागलपन
को पूरा अपने
सामने करके
देख लें।
क्योंकि
दूसरों ने तो कई
बार आपका यह
पागलपन देखा;
आप ही बच गए
हैं देखने से।
दूसरे तो इसका
काफी मजा ले
चुके हैं।
दूसरों को
आपने काफी रस
दिया। आप ही
बच गए हैं इस
घटना को देखने
से। और आपको पता
तब चलता है, जब यह सब
घटना जा चुकी
होती है, नाटक
समाप्त हो गया
होता है। तब
बैठे हुए अपने
घर में, पीछे
स्मृति में
उसको देखते
हैं। तब राख
ही रह गई होती
है; आग तो
नहीं रहती।
और
ध्यान रखिए, राख
से आग का कोई
भी पता नहीं
चलता है। राख
का कितना ही
बड़ा ढेर घर में
लगा हो, उससे
आग के छोटे से
अंगारे का भी
पता नहीं चलता
है। और जिस
आदमी ने आग न
देखी हो, वह
राख को देख कर
कोई निष्कर्ष
ही नहीं ले
सकता कि आग
क्या है। कोई कनक्लूजन
संभव नहीं है।
कोई
तर्कशास्त्र
राख से आग तक नहीं
ले जा सकता कि
आग क्या है।
अनुमान भी
नहीं लग सकता,
इनफरेंस भी नहीं हो
सकता। और आप
जब भी अपने
क्रोध को देखते
हैं, तब
राख की तरह
देखते हैं। जब
सब जा चुका तब
राख का ढेर रह
जाता है, आप
बैठे उस पर
पछता रहे हैं।
नहीं, उससे
कोई फायदा न
होगा। जब आग
जलती है पूरी,
तब उसे
देखें। और उसे
देखने में
आसानी पड़ेगी,
अगर उसको
अभिव्यक्त
करें। और
ध्यान रखिए, जब आप दूसरे
पर अभिव्यक्त
करते हैं, तब
आप पूरी
अभिव्यक्ति
कभी नहीं कर
पाते। अगर मैं
अपनी पत्नी पर
नाराज होता
हूं या पति पर
नाराज होता
हूं, या
पिता पर या
बेटे पर या
भाई पर, तो लिमिटेशंस
हैं नाराजगी
के। क्योंकि
कोई पत्नी
इतनी नहीं है
कि मैं पूरा
क्रोध उस पर
कर पाऊं।
एक सीमा है।
एक सीमा तक
क्रोध करूंगा,
बाकी पी जाऊंगा।
पूरा तो नहीं
कर सकता हूं।
आज तक किसी ने
भी पूरा क्रोध
नहीं किया है।
बाप भी जब
छोटे से बेटे
पर करता
है--हालांकि बेटे
की कोई
सामर्थ्य
नहीं, बाप
चाहे तो उसकी
गर्दन तोड़
दे--वह भी पूरा
नहीं कर पाता।
पच्चीस
सीमाएं बीच
में खड़ी हो
जाती हैं।
थोड़ा-बहुत कर
पाते हैं; तो
करने का मजा
भी नहीं आ
पाता, और
पीड़ा भी आ
जाती है। उसको
देख भी नहीं
पाते पूरा।
इसलिए कल फिर
करेंगे, परसों
फिर करेंगे, और सदा
अधूरा
करेंगे।
अगर
क्रोध को पूरा
देखना हो, तो
अकेले में
करके ही पूरा
देखा जा सकता
है। तब कोई
सीमा नहीं
होती। इसलिए
मैंने वह जो
पिलो
मेडिटेशन, वह
जो तकिए पर
ध्यान करने की
प्रक्रिया
कुछ मित्रों
को करवाता हूं,
वह इसलिए कि
तकिए पर पूरा
किया जा सकता
है।
जिस
मित्र का मैं
कल कह रहा था, आज
उसके साथी ने
मुझे आकर खबर
दी है कि आज तो
चाकू निकाल कर
उसने तकिए को
चीर-फाड़
डाला है। यह
तो मैंने कहा
भी नहीं था।
हमें एकदम
हंसी आएगी कि
तकिए को कोई
चाकू से कैसे चीरेगा-फाड़ेगा?
लेकिन जब
जिंदा आदमी को
चीर-फाड़
सकते हैं हम, तब हंसी
नहीं आती, तो
तकिए को
चीरने-फाड़ने
में कौन सी
कठिनाई है? और जब एक
आदमी जिंदा
आदमी को भी
चीरता-फाड़ता
है, तब भी
जो रस है वह
चीरने-फाड़ने
का है, आदमी
से कुछ
लेना-देना
नहीं है। वह
तकिए में भी
उतना ही रस आ
जाता है। और
तकिए में रस
ज्यादा आ जाता
है, क्योंकि
तकिए पर कोई
भी सीमा
बांधने की
जरूरत नहीं
है।
तो
अपने कमरे में
बंद हो जाएं
और अपने मूल, जो
आपकी बीमारी
है, उसको
जब प्रकट होने
का मौका हो, तब उसे
प्रकट करें।
इसको
मेडिटेशन
समझें, इसको
ध्यान समझें।
उसे पूरा
निकालें।
उसको आपके
रोएं-रोएं में
प्रकट होने
दें।
चिल्लाएं, कूदें, फांदें,
जो भी हो
रहा है उसे
होने दें। और
पीछे से देखें,
आपको हंसी
भी आएगी।
हैरानी भी
होगी। यह मैं
कर सकता हूं, यह जान कर भी
चकित होंगे
आप। मन को
विस्मय भी पकड़ेगा
कि यह मैं
कैसे कर रहा
हूं? और
अकेले में? कोई होता, तब भी ठीक
था।
एक-दो
दफे तो आपको
थोड़ी सी
बेचैनी होगी, तीसरी
दफे आप पूरी
गति में आ
जाएंगे और
पूरे रस से कर
पाएंगे। और जब
आप पूरे रस से
कर पाएंगे, तब आपको एक
अदभुत अनुभव
होगा कि आप कर
भी रहे होंगे
बाहर और बीच
में कोई चेतना
खड़ी होकर देखने
भी लगेगी।
दूसरे के साथ
यह कभी होना
मुश्किल है या
बहुत कठिन है।
एकांत में यह
सरलता से हो जाएगा।
चारों तरफ
क्रोध की
लपटें जल रही
होंगी, आप
बीच में खड़े
होकर अलग हो
जाएंगे।
और एक
दफा इस तरह
अलग होकर अपने
क्रोध को किसी
ने देख लिया, एक
दफा इस तरह
खड़े होकर किसी
ने अपनी
कामवासना को
देख लिया, लोभ
को देख लिया, भय को देख
लिया, तो
उसके जीवन में
एक ज्ञान की
किरण फूटनी
शुरू हो
जाएगी। वह एक
अनुभव को
उपलब्ध हुआ।
उसने अपनी एक
ऊर्जा को
पहचाना। और अब
इस ऊर्जा के
द्वारा उसे
धोखा नहीं
दिया जा सकता।
जिस ऊर्जा को
हम पहचान लेते
हैं, हम
उसके मालिक हो
जाते हैं। जिस
शक्ति को हम
जान लेते हैं,
उसके हम
मालिक हो जाते
हैं। और जिस
शक्ति को हम
नहीं जानते, हम उसके
गुलाम होते
हैं।
तो आप
तकिए को अपनी
प्रेयसी भी
समझ सकते हैं।
आप तकिए को
कोहिनूर का
हीरा भी समझ
सकते हैं। आप
तकिए को अपना
दुश्मन भी समझ
सकते हैं, जिसके
सामने आप
थर-थर कांप
रहे हैं और
भयभीत हो रहे
हैं। इससे कोई
सवाल नहीं है
कि आप क्या...।
आपका जो लक्षण
हो, उस
लक्षण को
पहचान लें।
और उसे
पहचान लेने
में कठिनाई
नहीं है।
क्योंकि वह
चौबीस घंटे
आपके पीछे लगा
हुआ है। वह आप भलीभांति
जानते हैं कि
आपका मूल
लक्षण क्या है।
एक ही होता है
एक आदमी में
मूल लक्षण, बाकी
सब चीजें उससे
जुड़ी होती
हैं। अगर
उसमें कामवासना
मूल है, तो
क्रोध, लोभ
सब सेकेंडरी
होंगे। अगर वह
लोभ भी करेगा,
तो
कामवासना की
पूर्ति के
लिए। अगर वह
क्रोध भी
करेगा, तो
कामवासना की
पूर्ति के
लिए। अगर वह
भयभीत भी होगा,
तो
कामवासना में कोई
बाधा न पड़ जाए
इसलिए।
प्राइमरी, प्राथमिक
कामवासना
होगी, बाकी
सब सेकेंडरी
हो जाएंगे।
अगर
क्रोध आपका
मूल है, तो आप
किसी को प्रेम
भी करेंगे तो
इसीलिए ताकि
आप क्रोध कर
पाएं। आपकी
कामवासना सेकेंडरी
हो जाएगी, नंबर
दो की हो
जाएगी। वैसा
आदमी लोगों से
प्रेम करेगा
इसलिए कि उन
पर क्रोध कर
सके। पर उसका
मूल क्रोध हो
जाएगा। वैसा
आदमी लोभ भी
करेगा, पैसा
भी कमाएगा
तो इसीलिए, ताकि जब वह
क्रोध करे तो
उसके पास ताकत
हो। यह उसे
चाहे पता हो
या न हो पता, उसके पास धन
बढ़ता जाएगा, उसी मात्रा
में उसकी
क्रोध की
क्षमता बढ़ती
जाएगी। और
जिन-जिन के
ऊपर उसके धन
की ताकत होगी,
उनकी गर्दन
वह बिलकुल दबा
देगा। वैसा
आदमी अगर पद
की इच्छा
करेगा तो
इसीलिए कि पद
पर पहुंच कर
वह क्रोध को
पूरी तरह कर
पाए। कई बार
दिखाई नहीं
पड़ता कि क्रोध
कितना छिपा
रहता है।
विंस्टन
चर्चिल की एक
लड़की ने शादी
की एक ऐसे युवक
से,
जिसको
चर्चिल नहीं
चाहता था कि
वह शादी करे।
बहुत क्रोध था
मन में, पी
गया। शादी हो
गई। उस युवक
को कभी उसने
कहा भी नहीं
कि मेरे मन
में क्रोध है।
उस बेचारे को कुछ
पता भी नहीं।
वह चर्चिल को
पापा-पापा कह
कर बात करता
रहता। लेकिन
चर्चिल को जब
भी वह पापा कहता
था, तो आग
लग जाती थी।
यह आदमी उसे
पापा कहे, उसे
बिलकुल
बरदाश्त के
बाहर था।
दूसरे
महायुद्ध के
बाद एक दिन वह
आया हुआ था दामाद।
और उसने
चर्चिल से
पूछा कि पापा, आप
इस समय दुनिया
का सबसे बड़ा
राजनीतिज्ञ
किसको मानते
हैं?
फिर
उसे उसने पापा
कहा,
तो उसे बहुत
बेचैनी हो गई।
उसने कहा कि
मैं मुसोलिनी
को सबसे बड़ा
राजनीतिज्ञ
मानता हूं। तो
जरा उसका
दामाद हैरान
हुआ। क्योंकि
चर्चिल अपने
दुश्मन को और मुसोलिनी
को कहेगा! और
जब कि दुनिया
में बड़े लोग
थे। रूजवेल्ट
था और स्टैलिन
थे और हिटलर
थे; तब मुसोलिनी
पर एकदम से
नजर जाएगी उसकी!
और चर्चिल खुद
कोई मुसोलिनी
से कम आदमी
नहीं था, ज्यादा
ही आदमी था।
तो
उसने पूछा, मैं
समझा नहीं कि
आप मुसोलिनी
को क्यों...?
तब
चर्चिल एकदम
चौंका, पर
उसने कहा कि
जाने भी दो।
पर उसके दामाद
ने जिद्द पकड़ी कि
नहीं, मुझे
बताइए कि
क्यों? तो
उसने कहा, अब
तू नहीं मानता
तो मैं कहता
हूं। मैं मुसोलिनी
को इसलिए बड़ा
राजनीतिज्ञ
कह पाया, क्योंकि
उसमें इतनी
हिम्मत थी कि
अपने दामाद को
गोली मार दे।
और कोई कारण
नहीं है
उसमें। उस
वक्त मेरे मन
में तुझे गोली
मारने का एकदम
हो रहा था, कि
पापा जब तू
कहता है, पापा,
तब मुझे
लगता है कि
गोली मार दूं।
लेकिन आई हैव
नॉट दि गट्स।
मुसोलिनी
में गट्स
थे, अपने
दामाद को उसने
गोली मार दी।
इसलिए उसको मैं
बड़ा भारी आदमी
मानता हूं।
मुझमें उतने गट्स नहीं
हैं।
हमारे
दिमाग में
पर्तें हैं।
छिपाए चले
जाते हैं, दबाए
चले जाते हैं।
कभी उखड़ आती
हैं, कभी
निकल आती हैं,
कभी दिखाई
पड़ जाती हैं।
कभी जीवन भर
भी हम छिपाए
चले जाते हैं।
कई दफे ऐसा भी
होता है कि
आदमी समझता है
कुछ और मुझमें
ज्यादा है, कुछ होता और
ज्यादा है।
तो
पहचान पहली तो
जरूरी यह है
कि अपना थोड़ा
निरीक्षण
करें। एक
महीने डायरी
रखें। रोज
लिखें कि आप रोज
क्या कर रहे
हैं सर्वाधिक?
तीन
बातों से
पहचान करें।
सर्वाधिक
पुनरावृत्ति
किस वृत्ति की
होती है? लोभ
की, काम की,
भय की, क्रोध
की, किसकी?
सर्वाधिक
आवृत्ति
किसकी होती है
चौबीस घंटे में?
फिर
जिस चीज की
आवृत्ति
सर्वाधिक
होती है, साथ
में यह भी
देखें: उसमें,
उसकी
आवृत्ति में
सर्वाधिक रस
आता है? और
यह भी देखें
कि रस के होने
के दो ढंग हैं:
उसमें मजा भी
आ सकता है, उसमें
पश्चात्ताप
भी हो सकता
है। लेकिन
दोनों हालत
में रस होता
है।
फिर
तीसरी बात यह
देखें कि वह
वृत्ति अगर
आपसे बिलकुल
काट दी जाए, तो
आपका
व्यक्तित्व
जैसा पुराना
था, वैसा
ही रहेगा कि
बिलकुल बदल
जाएगा।
क्योंकि जो
आपका चीफ करेक्टर
है, उसके
बदलने से आपका
पूरा
व्यक्तित्व
दूसरा हो
जाएगा। आप सोच
ही न पाएंगे
कि मैं कैसा
होऊंगा, अगर
आप उस हिस्से
को काट दें।
एक
पंद्रह दिन
डायरी रखें।
और पंद्रह दिन
पूरे चौबीस
घंटे का
हिसाब-किताब
रख कर निकालें
नतीजा कि क्या
है बात। एक पर
आप पहुंच
जाएंगे, जो
प्राइमरी
होगा। और तब
उस आधारभूत
वृत्ति के
प्रति सजग
हों। और जब भी
वह वृत्ति जगे,
तब एकांत
में उसकी
अभिव्यक्ति
का दर्शन करें,
साक्षी
बनें। उसकी
कैथार्सिस भी
हो जाएगी, उसका
रेचन भी होगा,
उसकी पहचान
भी बढ़ेगी।
और आप अपने
संबंध में
ज्यादा मालिक
अनुभव करने
लगेंगे।
इस
प्रक्रिया से
गुजरने के लिए
अगर लाओत्से की
बात खयाल में
रखेंगे, तो और
सरलता हो
जाएगी। अगर आप
क्रोध को
सिर्फ इसलिए
जानना चाहते
हैं कि क्रोध
से मैं कैसे मुक्त
हो जाऊं, तो
आपको जानने
में बहुत
कठिनाई
पड़ेगी।
क्योंकि
मुक्त होने का
जो भाव है, उसमें
आपने भेद
निर्मित कर
लिया। आप
मानने लगे कि
अक्रोध बहुत
अच्छी चीज है,
क्रोध बुरी
चीज है; काम
बुरी चीज है, अकाम अच्छी
चीज है; लोभ
बुरी चीज है, अलोभ अच्छी
चीज है; अगर
आपने ऐसा भेद
खड़ा किया, तो
आपको जानने
में बड़ी
कठिनाई
पड़ेगी। और अगर
आप किसी तरह
पार भी हुए, तो वह पार
होना सप्रेशन
ही होगा, दमन
ही होगा।
अगर
लाओत्से की
बात खयाल में
रखें, क्रोध
से अक्रोध को जोड़ने की
कोई भी जरूरत
नहीं है। यह
भी सोचने की
कोई जरूरत
नहीं है कि
क्रोध बुरा
है। अभी तो
हमें यही पता
नहीं कि क्रोध
क्या है। बुरे
का निर्णय हम
क्यों करें? बुरे का
निर्णय उधार
है। दूसरे लोग
कहते हैं कि
क्रोध बुरा है,
सुन लिया
है। हम भी
कहते हैं, क्रोध
बुरा है; और
किए चले जाते
हैं।
नहीं, निर्णय
छोड़ें। क्रोध
क्या है, इसे
ही जानें। अभी
जल्दी न करें
कि बुरा है, अच्छा है।
कौन जाने? बिलकुल
निष्पक्ष
होकर क्रोध को
पता लगाने जाएं।
अगर आप
निष्पक्ष
होकर गए, तो
क्रोध अपने
भीतर दबी हुई
सारी पर्तों
को आपके सामने
प्रकट कर
पाएगा। अगर आप
कह कर गए, मान
कर कि बुरा है,
तो उसके
गहरे हिस्से
दबे रह जाएंगे,
वे आपके
सामने प्रकट न
होंगे। उनके
प्रकट होने के
लिए आपके चित्त
का बिलकुल ही
निष्पक्ष
होना जरूरी
है। क्योंकि
आपने दबाया ही
इसलिए है कि
बुरा है; इसीलिए
तो दबाया। अभी
भी मान रहे
हैं कि बुरा है,
तो दबाए चले
जाएंगे।
इसलिए एक बड़ी
अदभुत और दुर्भाग्यपूर्ण
घटना घटती है
कि जो लोग क्रोध
से जितना बचना
चाहते हैं, उतने क्रोधी
हो जाते हैं।
क्योंकि बचने
के लिए दबाना
पड़ता है। और
मुक्त होने के
लिए जानना जरूरी
है। और जानना
दबाए हुए
चित्त में
असंभव है।
निष्पक्ष
होकर जाएं।
इतना ही जान
कर जाएं, आकाश
में जैसे
बिजली कौंधती
है, न बुरी,
न भली; बादल
गरजते हैं, न बुरे, न
भले; ऐसे
ही भीतर क्रोध
की चमक है, लोभ
की धाराएं
बहती हैं, कामवासना
की ऊर्जा
सरकती है; ये
सब है। ये
शक्तियां हैं,
इन्हें
देखने जाएं, निष्पक्ष मन
से। कोई
दुर्भाव लेकर
नहीं, कोई
निर्णय लेकर
नहीं। कभी भी कनक्लूजन
से शुरू न
करें, नहीं
तो आप कनक्लूजन
तक कभी न
पहुंचेंगे।
कभी भी
निष्कर्ष से
शुरू न करें, निष्कर्ष को
अंत में आने
दें।
नहीं
तो आपकी हालत
वैसी हो जाती
है,
जैसे स्कूल
का बच्चा
किताब को उलटा
कर पहले पीछे
देख लेता है, उत्तर क्या
है। और एक दफा
उत्तर दिख गया
तो बहुत
मुसीबत हो
जाती है।
उत्तर
दिखने की
जरूरत ही नहीं
है। आपको तो
प्रोसेस करना
चाहिए, प्रक्रिया
करनी चाहिए।
उत्तर आएगा।
उत्तर पहले
देख लिया, तो
फिर उत्तर
लाने की इतनी
जल्दी हो जाती
है कि
प्रक्रिया
करने की
सुविधा नहीं
रहती। और हम सब
उत्तर लिए
बैठे हैं। हम
सबने किताब
उलटा कर देख
ली है। या
हमारे सब
बाप-दादे उलटी
किताब ही
हमारे हाथ में
दे देते हैं; कि पहले
उत्तर मिल
जाता है, पीछे
प्रोसेस का
पता चलता है।
और कभी
प्रोसेस का
पता ही नहीं
चलता, क्योंकि
जिनको उत्तर
पता है, वे
सोचते हैं, जब उत्तर ही
पता है तो
प्रोसेस का
क्या करना?
आपको
पता ही है कि
क्रोध बुरा है, आपको
पता ही है कि
कामवासना
बुरी है।
अभी आठ
दिन पहले एक
मित्र आए।
उन्होंने कहा
कि मैंने आपको
अभी गीता में
सुना, तो मुझे
बहुत अच्छा
लगा, इसलिए
आया हूं। पहले
आपको मैंने
कामवासना के ऊपर
सुना, तो
मुझे इतना
बुरा लगा कि
मैंने आना छोड़
दिया था।
मैंने आना छोड़
दिया था
बिलकुल। गीता
सुनी तो बहुत
अच्छी लगी, तो मैं आया
हूं।
मैंने
कहा,
कहिए, क्या
तकलीफ है?
तो
तकलीफ यही है
कि कामवासना
मन को बुरा
सताती है। तो
मैंने कहा, मैं
आपसे बात न
करूंगा, नहीं
तो आपको फिर
बुरा लगेगा।
आप गीता पढ़ो
और अपना
रास्ता निकालो।
कैसे
अदभुत लोग हो!
मैंने कहा, दरवाजे
के बिलकुल
बाहर हो जाओ
और दुबारा
यहां मुझसे
कामवासना के
संबंध में
पूछने मत आना।
गीता के संबंध
में कुछ पूछना
हो तो आना।
क्योंकि जो
अच्छा लगता है,
वही पूछो।
कामवासना
है समस्या, पर
उसके संबंध
में जानने में
भी डर लगता है।
इसलिए जो जनाए,
वह दुश्मन
मालूम पड़ता
है। गीता से
तो कुछ बनता-बिगड़ता
नहीं। मजे से
सुनो और घर
चले जाओ। वह
जिंदगी को
कहीं छूती
नहीं। उससे
अपना कोई
लेना-देना नहीं।
बाहर हम खड़े
रहते हैं, गीता
की धारा अलग
बह जाती है।
मैंने
कहा कि तुम
आदमी कैसे हो? और
यह एक आदमी का
मामला नहीं
है। न मालूम
कितने लोगों
को मैं जानता
हूं, जिनका
प्रश्न वह...।
लेकिन इसकी
स्वीकृति भी तो
नहीं होनी
चाहिए मन में
कि यह मेरा
प्रश्न है।
इसको
वह मुझसे कहने
लगे कि यह
प्राइवेट मैं
आपसे पूछता
हूं,
निजी आपसे
पूछता हूं, इसको पब्लिक
में कहने की कोई
जरूरत नहीं
है।
मैंने
कहा,
जिस तरह
तुम्हें निजी
यह सवाल है, ऐसा सबका यह
निजी सवाल है।
और सभी पब्लिक
में गीता
सुनना चाहते
हैं। तो निजी
मैं एक-एक
आदमी को क्या
और कहां बताता
फिरूंगा?
और जो असली
तुम्हारी
समस्या है, वह तुम
उठाने तक में
डरते हो। और
जो तुम्हारी
समस्या नहीं
है, उसको
सुनने में मजा
लेते हो। तो
हजारों साल बीत
जाते हैं और
आदमी वैसे का
वैसा बना रहता
है।
अपनी
समस्या को पकड़ें, निष्कर्ष
पहले से लेकर
मत जाएं।
निष्कर्ष से जो
शुरू करेगा, वह निष्कर्ष
पर कभी नहीं
पहुंचता।
समस्या से शुरू
करें।
निष्कर्ष
हमें पता नहीं
है, यह मान
कर शुरू करें।
हमें मालूम
नहीं कि क्रोध
अच्छा है कि
बुरा है, सुंदर
है कि असुंदर
है--है। अब हम
इसे पूरा जान लें
कि क्या है?
और बड़े
मजे की बात यह
है,
जो पूरा जान
लेता है, वह
मुक्त हो जाता
है। और जो
मुक्त होना
चाहता है, वह
पूरा जान नहीं
पाता। यह जो
कठिनाई है, यह खयाल में
ले लें। जो
मुक्त होना
चाहता है, उसने
निष्कर्ष
पहले ले लिया
कि बुरा है।
अब वह
प्रक्रिया से
गुजरने का
सवाल ही नहीं।
वह कहता है, वह तो मुझे
मालूम ही है
कि बुरा है; अब इतना ही
बता दीजिए कि
मुक्त कैसे हो
जाऊं! और
मुक्त होने की
एक ही
प्रक्रिया है,
पूर्ण बोध।
और वह कहता है
कि मुझे तो
बोध है ही कि
बुरा है। तब
वह पूर्ण बोध
की प्रक्रिया
से नहीं
गुजरता।
तो आप
प्रक्रिया से गुजरें, उसका
पूर्ण बोध
लें। दूसरे के
उधार
निष्कर्ष से
बचें। बुद्ध
कहते हों, महावीर
कहते हों--कोई
भी कहता
हो--मैं कहता
हूं, उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता कि बुरा
है या भला है।
आप निष्कर्ष न
लें। आप बिना
निष्कर्ष के,
निष्पक्ष, अनप्रेज्युडिस्ड,
बिना किसी
धारणा के भीतर
प्रवेश कर
जाएं। और देखें
कि क्या है? क्या है
क्रोध? क्रोध
से ही जानें
कि क्रोध क्या
है; आप
पूर्व-धारणा
को उस पर न थोपें।
और जिस दिन आप
क्रोध को उसकी
परिपूर्ण
नग्नता में, उसकी
परिपूर्ण
विकरालता में,
उसकी
परिपूर्ण आग
में और जहर
में जान लेंगे,
उसी दिन आप
पाएंगे, आप
अचानक बाहर हो
गए हैं, क्रोध
है ही नहीं।
और ऐसा
किसी भी
वृत्ति के साथ
किया जा सकता
है। यह वृत्ति
से कोई फर्क
नहीं पड़ता, प्रक्रिया
एक ही होगी।
बीमारी एक ही
है, उसके
नाम भर अलग
हैं।
आज
इतना ही।
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