केंद्रीभूत होने की कुछ विधियां—प्रवचन—नौवां
सूत्र:
13—या कल्पना करो कि मोर की पूंछ के पंचरंगें वर्तुल
निस्सीम अंतरिक्ष में तुम्हारी पाँच इंद्रियां है।
अब उनके सौंदर्य को भीतर ही धुलने दो।
उसी प्रकार शून्य में या दीवार पर किसी बिंदु के साथ
कल्पना करो, जब तक कि वह बिंदु विलीन न हो जाए।
14—अपने पूरे अवधान को अपने मेरूदंड के मध्य में
कमल तुतु सी कोमल स्नायू में स्थित करो।
और उसमें रूपांतरित हो जाओ।
मनुष्य अपने केंद्र के साथ जन्म लेता है, लेकिन उसे उसकी जानकारी जरा भी नहीं रहती। मनुष्य अपने केंद्र को जाने बिना रह सकता है, लेकिन केंद्र के बिना वह हो नहीं सकता। और यह केंद्र मनुष्य और अस्तित्व के बीच की कड़ी है। यह मूल है, आधार है।
तुम उससे अनभिज्ञ, अनजाने रह सकते हो, केंद्र के होने के लिए उसका ज्ञान जरूरी नहीं है। लेकिन अगर तुम अपने उस केंद्र को नहीं जानते हो, तो तुम्हारा जीवन बिना जड़ों के होगा। तब तुम अपने पैर के नीचे जमीन नहीं पाओगे, तब तुम आधारित नहीं अनुभव करोगे, तब इस जगत में परायापन, अजनबीपन अनुभव होगा, अपनापन नहीं।
निश्चित ही केंद्र तो है, लेकिन उसे न जानने से तुम्हारा जीवन हवा में तिनके की तरह भटकता हुआ मालूम पड़ेगा—लक्ष्यहीन, अर्थहीन, रिक्त। तुम्हें लगेगा कि तुम जीवन के बिना ही जी रहे हो, एक भटकाव हो और महज मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हो। तब तुम जीने को एक क्षण से दूसरे क्षण के लिए स्थगित करते जाओगे। लेकिन वह स्थगन तुम्हें कहीं नहीं पहुंचाएगा। तुम सिर्फ समय काटोगे। और इस कारण किसी गहन निराशा का भाव छाया की तरह तुम्हारा पीछा करेगा।
मनुष्य केंद्र तो अपने साथ लेकर आता है, लेकिन उसका ज्ञान साथ लेकर नहीं आता। वह ज्ञान तो उपलब्ध करना होगा। केंद्र तुम्हारे पास है। केंद्र है, तुम उसके बिना नहीं हो सकते। केंद्र के बिना तुम: जी कैसे सकते हो? तुम अपने और अस्तित्व के बीच—या कहो अपने और परमात्मा के बीच—किसी सेतु के बिना कैसे रह सकते हो? एक गहरे जोड़ बिना तुम जीवित ही नहीं रह सकते। परमात्मा में तुम्हारी जड़ें बहुत गहरी हैं। प्रत्येक क्षण तुम उन्हीं जड़ों के सहारे जीते हो। लेकिन वे जड़ें भूइमगत हैं। वैसे ही जैसे किसी वृक्ष की जड़ें भूमि में छिपी हैं; वृक्ष को अपनी जड़ों का पता नहीं है। तुम्हारी भी जड़ें हैं। वह जड़ों द्वारा अस्तित्व से संबंध ही तुम्हारा केंद्र है।
और जब मैं कहता हूं कि मनुष्य जड़ के साथ पैदा होता है, तो उसका मतलब है कि इस बात की संभावना है कि तुम्हें अपनी जड़ों का ज्ञान भी हो जाए। और अगर तुम्हें तुम्हारी जड़ों का ज्ञान जाए, तुम्हारा वास्तविक जीवन हो जाए। अन्यथा तुम्हारा जीवन एक गहरी नींद है, एक स्वप्न है।
अब्राहम मैसलो जिसे सेल्फ एक्चुअलाइजेशन कहता है वह और कुछ नहीं है, वह तुम्हारे इसी आंतरिक केंद्र के प्रति जागरूक हो जाना है जिस केंद्र के जरिए तुम संपूर्ण सृष्टि से जुड़े हो, संबंधित हो। वह तुम्हारा तुम्हारी जड़ों के प्रति बोधपूर्ण हो जाना है। वह यह जान लेना है कि तुम यहां अकेले नहीं हो, अलग— थलग नहीं हो, कि तुम इस जागतिक संपूर्णता के अंश हो, कि यह जगत परदेश नहीं है, यहां तुम अजनबी नहीं हो, यह तुम्हारा अपना घर है।
लेकिन जब तक तुम अपनी जड़ों को, अपने केंद्र को नहीं पा लेते, यह जगत अजनबी सा बना रहेगा, परदेश सा मालूम पड़ेगा। सार्त्र कहता है कि आदमी मानो इस संसार में फेंक दिया गया है। ही, अगर तुम अपने केंद्र को नहीं जानते हो, तो तुम्हें लगेगा कि तुम इस दुनिया में फेंके गए हो; तुम्हें लगेगा कि तुम परदेशी हो, बाहरी हो और यह संसार तुम्हारा नहीं है और तुम इस संसार के नहीं हो। और तब भय, चिंता और संताप ही हाथ लगेंगे।
संसार में मनुष्य अजनबी की तरह रहे, तो उसे गहरी चिंता, भय, आतंक और संताप अनिवार्य रूप से अनुभव होंगे। तब उसका पूरा जीवन सिर्फ एक कशमकश होगा, एक संघर्ष होगा। और इस संघर्ष में उसकी हार निश्चित है। मनुष्य नहीं जीत सकता, क्योंकि अंश अंशी के विरुद्ध कैसे जीत सकता है?
अस्तित्व के विरोध में तुम सफल नहीं हो सकते। अस्तित्व के साथ होकर तो सफल हो सकते हो, लेकिन विरोध में जाकर नहीं। और वही फर्क है धार्मिक व्यक्ति और अधार्मिक व्यक्ति में। अधार्मिक आदमी अस्तित्व के विरोध में होगा, धार्मिक आदमी को लगेगा कि यह जगत उसका घर है। उसे यह नहीं लगेगा कि उसे यहां फेंक दिया गया है, उसे लगेगा कि वह इस संसार में पला है, बड़ा हुआ है।
इस फेंके जाने और पाले जाने के फर्क को स्मरण रखो। जब सार्त्र कहता है कि आदमी संसार में फेंक दिया गया है, तो यह शब्द ही, यह बात ही कहती है कि तुम यहां के नहीं हो।’फेंके गए' का अर्थ है कि तुम यहां तुम्हारी सहमति के बिना जबर्दस्ती भेजे गए हो। इसलिए यह संसार शत्रु जैसा मालूम पड़ता है। और संताप ही उसका फल हो सकता है।
अगर तुम इस दुनिया में फेंके नहीं गए हो, अगर तुम यहां इसके जैविक अंग की तरह बढ़े हो, तो बात और हो सकती है। वास्तव में बेहतर होगा यह कहना कि तुम अस्तित्व ही हो जो मनुष्य नाम के एक विशेष आयाम में विकसित हुआ है। जगत बहुआयामी है, वह अनेक आयामों में, वृक्षों में, पहाड़ों में, सितारों में, ग्रहों में विकसित होता है। मनुष्य भी विकास का एक आयाम है। जगत अपने को अनेक— अनेक आयामों में प्रकट कर रहा है, अभिव्यक्त कर रहा है। मनुष्य भी उन्हीं आयामों में एक आयाम है जिसकी अपनी ऊंचाई और अपना शिखर है। कोई वृक्ष अपनी जड़ों को नहीं जान सकता है। कोई पशु अपने केंद्र को नहीं जान सकता है। और इस कारण उन्हें चिंता नहीं सताती। अगर तुम्हें अपनी जड़ों का, अपने केंद्र का बोध नहीं है, तो तुम्हें अपनी मृत्यु का बोध भी नहीं हो सकता। मृत्यु मनुष्य के लिए ही है। मृत्यु मनुष्य के लिए है, क्योंकि वह अपनी जड़ों को, अपने केंद्र को, अपनी समग्रता को, जगत से अपने जुड़े होने के प्रति जाग सकता है।
अगर तुम केंद्र के बिना रहते हो, अगर तुम अपने को परदेशी महसूस करते हो, तो संताप में होना लाजिमी है। इसके विपरीत अगर तुम्हें यह अनुभव हो कि यह जगत तुम्हारा घर हे, कि तुम मैं। है, कि तुम में अस्तित्व की संभावना वास्तविक हुई है, कि तुम अस्तित्व के विकास हो, मानो अस्तित्व स्वयं तुम्हारे भीतर से बोध को प्राप्त हुआ है, अगर तुम इस भांति अनुभव करो तो आनंद उसका फल होगा।
जगत के साथ जैविक एकता का अनुभव आनंद लाता है और उसके साथ शत्रुता की प्रतीति संताप पैदा करती है। लेकिन जब तक तुम अपने केंद्र को नहीं जानते तब तक तुम्हें यही लगेगा कि तुम फेंके गए हो और यह जीवन तुम पर लाद दिया गया है।
हम जिन सूत्रों की यहां चर्चा करेंगे वे इसी केंद्र से संबंधित हैं। यह केंद्र है, लेकिन मनुष्य उससे अनजान है। लेकिन विज्ञान भैरव तंत्र और उसकी केंद्र से संबंधित विधियों में प्रवेश के पहले दो—तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
एक कि जब आदमी जन्म लेता है, तो वह एक विशेष स्थान से, एक विशेष चक्र से, केंद्र से जुड़ा होता है। वह नाभि—केंद्र है। जापानी इसी को हारा कहते हैं। उससे उनका शब्द हाराकिरी बना है, जिसका अर्थ आत्मघात होता है। शब्दशः हाराकिरी का अर्थ है, हारा को, केंद्र को नष्ट करना। हारा केंद्र है और उसे मिटाना हाराकिरी कहलाता है।
लेकिन एक अर्थ में हम सबने हाराकिरी की हुई है। हमने केंद्र को नष्ट तो नहीं किया है, लेकिन हम उसे भूल अवश्य बैठे हैं। या कहना चाहिए कि हमने उसको कभी स्मरण नहीं किया, वह है और हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। लेकिन हम हैं कि उससे दूर ही दूर भटक रहे हैं। तो जब बच्चा पैदा होता है तो वह नाभि—केंद्र में, हारा में केंद्रित होता है। वह हारा के द्वारा जीता है। एक बच्चे को श्वास लेते हुए देखो, उसका नाभि—केंद्र ऊपर—नीचे हो रहा है। वह पेट से श्वास लेता है, वह पेट से जीता है, सिर और हृदय से नहीं। लेकिन धीरे—धीरे वह वहा से दूर हटेगा। सबसे पहले वह जो दूसरा केंद्र विकसित करेगा, वह हृदय होगा— भाव का केंद्र। वह प्रेम सीखेगा, उसे प्रेम मिलेगा और दूसरा केंद्र विकसित होगा। यह केंद्र असली केंद्र नहीं है, यह उप—उत्पत्ति है।
इसलिए मनस्विद कहते हैं कि यदि एक बच्चे को प्रेम न दिया जाए, तो वह प्रेम करने में कभी समर्थ नहीं होगा। अगर एक बच्चे को अप्रेम की स्थिति में पाला जाए, जहां सब कुछ ठंडा—ठंडा हो, न कोई प्रेम देने वाला हो न ऊष्मा देने वाला हो, तो वह अपने जीवन में किसी को भी प्रेम करने में समर्थ नहीं होगा। क्योंकि उसके प्रेम का केंद्र ही विकसित नहीं होगा। मां—बाप का प्रेम, परिवार, समाज उस केंद्र को विकसित करते हैं। वह केंद्र एक उप—उत्पत्ति है; तुम उसे साथ लेकर नहीं पैदा होते हो। इसलिए अगर उसे विकसित करने में सहायता न दी जाए, तो वह विकसित ही न होगा।
अनेक—अनेक लोग उस प्रेम—केंद्र के बिना रह जाते हैं। वे प्रेम की बात किए जाते हैं, वे यह मानते भी हैं कि वे प्रेम करते हैं, लेकिन जब उनके पास वह केंद्र ही नहीं है, तो वे प्रेम कैसे करेंगे! प्रेम करने वाली मां पाना कठिन है, बहुत कठिन है। और प्रेमपूर्ण पिता पाना तो दुर्लभ ही है। वैसे सभी मां—बाप सोचते हैं कि वे प्रेम कर सकते हैं। यह उतना आसान नहीं है। प्रेम एक कठिन, बहुत कठिन उपलब्धि है। और अगर एक बच्चे को प्रेम न मिला, तो वह खुद कभी प्रेम करने में समर्थ नहीं होगा।
यही कारण है कि पूरी मनुष्यता प्रेम के बिना जीती है। तुम बच्चे पैदा किए जाते हो, लेकिन तुम उन्हें प्रेम का केंद्र देना नहीं जानते हो। बल्कि इसके विपरीत, जैसे—जैसे कोई समाज सभ्य होता है, वैसे—वैसे वह बच्चे पर एक तीसरा केंद्र लादने लगता है। वह बुद्धि का केंद्र है, मस्तिष्क का केंद्र है।
नाभि—केंद्र मौलिक है, बच्चा उसके साथ पैदा होता है। वह उप—उत्पत्ति नहीं है। उसके बिना जीवन असंभव है, इसलिए वह दिया जाता है। दूसरा केंद्र उप—उत्पत्ति है। अगर बच्चे को प्रेम दिया जाए तो वह उसका उत्तर देता है। उस उत्तर में एक केंद्र विकसित होता है। वह हृदय—केंद्र है। तीसरा केंद्र बुद्धि का है, तर्क का, मस्तिष्क का। शिक्षा, तर्कशास्त्र और प्रशिक्षण के द्वारा तीसरे केंद्र का विकास होता है। इसलिए यह भी उप—उत्पत्ति है।
हम सामान्यत: तीसरे केंद्र पर रहते हैं। दूसरा केंद्र करीब—करीब अनुपस्थित है। अगर वह उपस्थित भी है, तो वह सक्रिय नहीं है। और अगर वह सक्रिय भी है, तो मरे—मराए ढंग से सक्रिय है। लेकिन तीसरा केंद्र, मस्तिष्क, हमारे जीवन का बुनियादी ढंग हो जाता है, क्योंकि सारा जीवन इसी केंद्र पर निर्भर रहता है। यह केंद्र उपयोगितावादी है; बुद्धि, तर्क और विचार के लिए तुम्हें उसकी जरूरत है। इसलिए देर—अबेर हरेक आदमी मस्तिष्क—प्रधान हो जाता है, वह अपनी खोपड़ी में जीने लगता है।
मस्तिष्क, हृदय और नाभि, ये तीन केंद्र हैं। नाभि—केंद्र मौलिक है और साथ आता है। हृदय—केंद्र का विकास किया जा सकता है और कई कारणों से उसको विकसित करना अच्छा है। बुद्धि को भी विकसित करना जरूरी है, लेकिन उसे हृदय की कीमत पर कभी नहीं विकसित करना चाहिए। क्योंकि अगर हृदय की कीमत पर बुद्धि का विकास किया जाए, तो बीच की कड़ी खो जाती है। उस हालत में मस्तिष्क से फिर सीधे नाभि—केंद्र में आना नहीं हो सकेगा। विकास का क्रम बुद्धि से अस्तित्व की ओर और अस्तित्व से आत्मा की ओर है।
इसे हम इस तरह समझें।
नाभि—केंद्र होने में है, हृदय—केंद्र भाव में है और मस्तिष्क—केंद्र जानने में है। जानना होने से सर्वाधिक दूरी पर है। भाव होने के निकट है। इसलिए अगर तुम्हारा भाव—केंद्र न रहे, तो बुद्धि और होने के, आत्मा के बीच सेतु निर्मित करना कठिन होगा, बहुत कठिन होगा। इसी वजह से मस्तिष्क में जीने वाले व्यक्ति की बजाय प्रेम करने वाला व्यक्ति अधिक आसानी से 'जगत हमार घर है' की प्रतीति को उपलब्ध हो सकता है।
पश्चिमी संस्कृति ने बुनियादी रूप से मस्तिष्क—केंद्र पर बल दिया है। यही कारण है कि पश्चिम में मनुष्य को लेकर बहुत चिंता होने लगी है। यह चिंता उसके बेघर, रिक्त और जड़ें—विहीन होने की स्थिति को लेकर है।
सिमोन वेल ने एक पुस्तक लिखी है, दि नीड फॉर रूट्स—जड़ों की जरूरत। पश्चिम का मनुष्य जड़ों से उखड़ा हुआ अनुभव करता है, जड़—विहीन महसूस करता है। कारण यह है कि केवल मस्तिष्क —केंद्र रह गया है। हृदय प्रशिक्षित नहीं हुआ, वह नदारद है।
हृदय की धड़कन हृदय नहीं है; वह तो शारीरिक क्रिया है। अपने हृदय की धड़कन को सुनकर यह मत समझ लेना कि तुम्हारे पास हृदय है। हृदय कुछ और ही चीज है। हृदय का अर्थ है भाव की क्षमता और होने को, आत्मा का अर्थ है किसी चीज के साथ एकात्मक होने की क्षमता।
धर्म का संबंध आत्मा से है, काव्य का संबंध हृदय से है और दर्शन तथा विज्ञान का संबंध मस्तिष्क से है। हृदय और मस्तिष्क के केंद्र परिधि केंद्र हैं; वे असली केंद्र नहीं हैं, झूठे हैं। असली तो नाभि—केंद्र है, हारा केंद्र। उसे फिर से कैसे उपलब्ध किया जाए?
कभी—कभी आकस्मिक रूप से, लेकिन यह दुर्लभ है, तुम अपने हारा के निकट पहुंच जाते हो। वह क्षण बहुत गहरे आनंद का क्षण हो जाता है। उदाहरण के लिए काम—कृत्य में तुम कभी—कभी हारा के पास चले जाते हो, क्योंकि काम—कृत्य में तुम्हारा मन, तुम्हारी चेतना अधोगामी हो जाती है। तुम अपने सिर को छोड्कर नीचे उतरते हो। इसलिए गहन संभोग में कभी—कभी तुम अपने हारा के निकट पहुंच जाते हो।
इसीलिए तो काम—कृत्य का इतना आकर्षण है, इतना आग्रह है। यह काम—कृत्य नहीं है जो आनंद देता है, यह आनंद हारा से आता है। कामवासना में उतरते हुए तुम हारा से होकर गुजरते हो, तुम हारा को स्पर्श करते हो।
लेकिन आधुनिक आदमी के लिए वह भी असंभव हो गया है, क्योंकि उसके लिए कामवासना भी मानसिक कृत्य बन गयी है। उसका काम मस्तिष्क में समा गया है, वह उसके संबंध में सोचता है। यही कारण है कि यौन को लेकर इतनी फिल्में, इतने उपन्यास, इतना साहित्य, अश्लील साहित्य निर्मित हो रहे हैं। मनुष्य यौन के बारे में सोचता है। लेकिन वह एक बेहूदगी है। यौन एक अनुभव है, तुम उसके बारे में सोच नहीं सकते। और अगर उसके बारे में सोचने लगे तो उसका अनुभव अधिकाधिक कठिन होता जाएगा। क्योंकि कामवासना सिर की बात ही नहीं है। वहां बुद्धि की जरूरत नहीं है।
लेकिन आधुनिक आदमी जितना ही काम—कृत्य में गहरे उतरने में अपने को अक्षम पाता है उतना ही अधिक वह उसके बारे में विचार करने लगता है। यह एक दुष्टचक्र बन जाता है और वह जितना ही विचार करता है उतना ही उसका यौन मानसिक होता जाता है। तब यौन व्यर्थ हो जाता है।
पश्चिम में यौन व्यर्थ हो चला है। एक पुनरुक्ति, एक ऊब हो गया है। उससे कुछ मिलता नहीं; बस तुम एक पुरानी आदत को दोहराए चले जाते हो। और अंत में निराशा हाथ लगती है, तुम ठगे गए महसूस करते हो। क्यों? क्योंकि हकीकत में चेतना नीचे केंद्र पर नहीं उतरती है। और हारा से होकर गुजरने में ही आनंद का अनुभव होता है।
जो भी कारण हो, जब भी तुम हारा से होकर गुजरते हो तुम आनंदित अनुभव करते हो। लड़ाई के मैदान में एक योद्धा कभी—कभी इस हारा से होकर गुजरता है। लेकिन आधुनिक योद्धा को यह नसीब नहीं होता। वह तो योद्धा ही नहीं है। किसी सोए नगर पर बम फेंकने वाला व्यक्ति योद्धा नहीं है, क्षत्रिय नहीं है, अर्जुन नहीं है।
कभी—कभी मृत्यु के कगार पर खड़ा व्यक्ति भी अपने हारा पर फेंक दिया जाता है। तलवार से लड़ने वाले योद्धा के लिए मृत्यु प्रतिपल मौजूद, किसी भी क्षण वह, समाप्त हो सकता है। और तलवार चलाते हुए तुम सोच—विचार नहीं कर सकते। अगर सोचोगे, तो
समाप्त हो जाओगे। बगैर सोच—विचार के उस क्षण कृत्य करना है। क्योंकि विचार में समय लगता है। तलवार चलाते हुए तुम सोच—विचार नहीं कर सकते। अगर सोचोगे, तो दूसरा जीतेगा और तुम समाप्त हो जाओगे। सोचने का समय नहीं है। और मन को समय की जरूरत है। और क्योंकि सोचने का समय नहीं है और सोचने का अर्थ मृत्यु है, इसलिए चेतना सिर से उतरकर सीधे हारा पर चली आती है। इसलिए योद्धा को भी आनंद का अनुभव होता है।
यही कारण है कि युद्ध में लोगों को इतना आकर्षण है, इतना चाव है। यौन और युद्ध, दोनों आकर्षक हैं और कारण एक है—तुम हारा से होकर गुजरते हो। किसी भी खतरे में तुम हारा से होकर गुजरते हो।
नीत्से कहता है कि खतरे में जीओ। क्यों? क्योंकि खतरे में तुम हारा पर फेंक दिए जाते हो। उस स्थिति में तुम सोच—विचार नहीं कर सकते, मन से कुछ नहीं कर सकते, तुम्हें तुरंत और तत्क्षण कुछ करना है।
एक सांप गुजरता है। अचानक तुम सांप को देखते हो और कूद जाते हो। उस समय यह सोच—विचार नहीं चल सकता है कि सांप है तो क्या करें। तर्क—वितर्क के लिए गुंजाइश ही वहां नहीं है। तुम अपने मन में विवाद नहीं करते कि सांप है और सांप खतरनाक होता है और इसलिए मुझे कूदना चाहिए। ऐसी कोई तार्किक विचारणा वहा नहीं होती। अगर तुम तर्क करोगे, तो तुम जीवित ही नहीं रहोगे। तर्क नहीं, सहज और स्वस्फूर्त कृत्य चाहिए। कृत्य पहले है और विचार पीछे। कूद जाने के बाद तुम विचार करते हो।
सामान्य जीवन में, जहां खतरा नहीं है, तुम पहले सोचते हो और तब कृत्य करते हो। खतरे में पूरी प्रक्रिया उलटी हो जाती है—पहले कर्म, तब विचार। और यह जो विचार—शून्य कर्म है वही तुम्हें तुम्हारे मूल केंद्र पर, हारा पर फेंक देता है। इसीलिए खतरे का इतना आकर्षण है।
तुम बहुत तेजी में अपनी कार चला रहे हो। तेज, और तेज। अचानक एक स्थिति आती है जब कि प्रत्येक क्षण खतरे से भरा होता है। किसी भी क्षण तुम्हारा जीवन समाप्त हो सकता है। अधर में लटके हुए उस क्षण में, जब जीवन और मृत्यु दोनों एक—दूसरे के इतने पास—पास होते हैं और तुम इन दो सन्निकट बिंदुओं के ठीक बीच में होते हो तब मन ठहर जाता है और तुम हारा पर फिंक जाते हो। तेज और तेज कार चलाने का आकर्षण इसी में है। या तुम जुआ खेल रहे हो और तुमने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया है। वहां भी मन ठहर जाता है। वहां भी खतरा है। अगले क्षण तुम भिखारी हो जा सकते हो। तब मन काम नहीं करता है और तुम हारा पर पहुंच जाते हो।
खतरों का आकर्षण इसीलिए है कि खतरे में तुम्हारी दैनंदिन सामान्य चेतना काम नहीं करती है। खतरा गहराई में ले जाता है, उसमें तुम्हारे मन की जरूरत नहीं रह जाती, उसमें तुम अ—मन को उपलब्ध होते हो। उसमें तुम हो, सचेतन भी हो, लेकिन विचार नहीं होता है। वह क्षण ध्यान का क्षण होता है।
सच तो यह है कि जुए में जुआरी इसी ध्यानपूर्ण स्थिति की खोज करता है। लड़ाई में, कुश्ती में, दंगल में, युद्ध में मनुष्य खतरों के माध्यम से ध्यानपूर्ण स्थिति को ही खोज रहा है। तुम्हारे भीतर अचानक आनंद का विस्फोट होता है। तुम्हारे भीतर आनंद की वर्षा हो जाती है।
लेकिन ये आकस्मिक घटनाएं हैं। पर एक चीज निश्चित है कि जब भी तुम आनंदित अनुभव करते हो तब तुम हारा के निकट हो। यह बात असंदिग्ध है, चाहे कारण जो भी हो। कारण प्रासंगिक नहीं है। जब भी तुम मूल केंद्र के निकट होते हो तुम आनंद से भर जाते हो।
ये सूत्र आयोजित ढंग से, वैज्ञानिक रीति से हारा में, केंद्र में केंद्रित होने की विधियों से संबंध रखते हैं। आकस्मिक या क्षणिक नहीं, स्थायी रूप से केंद्रित होने के उपाय हैं वे। उनके जरिए तुम हारा में सतत निवास कर सकते हो। वे तुम्हें केंद्रस्थ कर देंगे। ये सूत्र इन्हीं उपायों से संबंधित हैं।
अब हम पहला सूत्र लेंगे जो बिंदु से, केंद्र से संबंधित है। सूत्र इस प्रकार है:
या कल्पना करो कि मयूर की पूछ के पंचरंगे वर्तुल निस्सीम अंतरिक्ष में तुम्हारी पांच इंद्रियां हैं। अब उनके सौदर्य को भीतर ही घुलने दो। उसी प्रकार शून्य में या दीवार पर किसी बिंदु के साथ कल्पना करो जब तक कि वह बिंदु विलीन न हो जाए। तब दूसरे के लिए तुम्हारी कामना सच हो जाती है।
ये सारे सूत्र, भीतर के केंद्र को कैसे पाया जाए, इससे संबंधित हैं। उसके लिए जो बुनियादी तरकीब, जो बुनियादी विधि काम में लायी गयी है वह यह है कि तुम अगर बाहर कहीं भी, मन में, हृदय में या बाहर की किसी दीवार में एक केंद्र बना सके और उस पर समग्रता से अपने अवधान को केंद्रित कर सके और उस बीच समूचे संसार को भूल सके और एक वही बिंदु तुम्हारी चेतना में रह जाए, तो तुम अचानक अपने आंतरिक केंद्र पर फेंक दिए जाओगे। यह कैसे काम करता है, इसे समझो।
तुम्हारा मन एक भगोड़ा है, एक भाग—दौड़ ही है। वह कभी एक बिंदु पर नहीं टिकता है। वह निरंतर कहीं जा रहा है, गति कर रहा है, पहुंच रहा है। लेकिन वह कभी एक बिंदु पर नहीं टिकता है। वह एक विचार से दूसरे विचार की ओर, अ से ब की ओर यात्रा करता रहता है, लेकिन कभी वह अ पर नहीं टिकता है, कभी वह ब पर नहीं टिकता है। वह निरंतर गतिमान है।
यह याद रहे कि मन सदा चलायमान है। वह कहीं पहुंचने की आशा तो करता है, लेकिन कहीं पहुंचता नहीं है। वह पहुंच नहीं सकता है। मन की संरचना ही गतिमय है। मन केवल गति करता है। वह मन का अंतर्भूत स्वभाव है। गति ही उसकी प्रक्रिया है। अ से ब को, ब से स को, वह चलता ही चला जाता है।
अगर तुम अ या ब या किसी बिंदु पर ठहर गए तो मन तुमसे संघर्ष करेगा। वह कहेगा कि आगे चलो। क्योंकि अगर तुम रुक गए, तो मन तुरंत मर जाएगा। वह गति में रहकर ही जीता है। मन का अर्थ ही प्रक्रिया है। अगर तुमने गति नहीं की, तुम रुक गए, तो मन अचानक समाप्त हो जाएगा। वह नहीं बचेगा, केवल चेतना बचेगी।
चेतना तुम्हारा स्वभाव है। मन तुम्हारा कर्म है, चलने जैसा। इसे समझना कठिन है, क्योंकि हम समझते हैं कि मन कोई ठोस, वास्तविक वस्तु है। वह नहीं है। मन महज एक क्रिया है। यह कहना बेहतर होगा कि यह मन नहीं, मनन है। चलने की तरह यह एक प्रक्रिया है। चलना प्रक्रिया है, अगर तुम रुक जाओ, तो चलना समाप्त है। तुम तब नहीं कह सकते कि चलना बैठना है। तुम रुक जाओ, तो चलना समाप्त है। तुम रुक जाओ, तो चलना कहां है? चलना बद। पैर हैं, पर चलना नहीं है। पैर चल सकते है, लेकिन अगर रुक जा, चलना नहीं होगा।
चेतना पैर जैसी है, वह तुम्हारा स्वभाव है। मन चलने जैसा है, वह एक प्रक्रिया है। जब चेतना एक जगह से दूसरी जगह जाती है तब वह प्रक्रिया मन है। जब चेतना अ से ब और ब से स को जाती है तब यह गति मन है। अगर तुम गति को बंद कर दो, तो मन नहीं रहेगा। तुम चेतन हो, लेकिन मन नहीं है। जैसे पैर तो हैं, लेकिन चलना नहीं है। चलना क्रिया है, कर्म है; मन भी क्रिया है, कर्म है।
अगर तुम कहीं रुक जाओ तो मन संघर्ष करेगा, मन कहेगा, बढ़े चलो। मन हर तरह से तुम्हें आगे या पीछे या कहीं भी धकाने की चेष्टा करेगा। कहीं भी सही, लेकिन चलते रहो। अगर तुम जिद्द करो, अगर तुम मन की नहीं मानना चाहो, तो वह कठिन होगा। कठिन होगा, क्योंकि तुमने सदा मन का हुक्म माना है। तुमने कभी मन पर हुक्म नहीं किया है, तुम कभी उसके मालिक नहीं रहे। तुम हो नहीं सकते, क्योंकि तुमने कभी अपने को मन से तादात्म्यरहित नहीं किया है। तुम सोचते हो कि तुम मन ही हो। यह भूल कि तुम मन ही हो मन को पूरी स्वतंत्रता दिए देती है। क्योंकि तब उस पर मालकियत करने वाला, उसे नियंत्रण में रखने वाला कोई न रहा। तब कोई रहा ही नहीं, मन ही मालिक रह जाता है।
लेकिन मन की यह मालकियत तथाकथित है। वह स्वामित्व झूठा है। एक बार प्रयोग करो और तुम उसके स्वामित्व को नष्ट कर सकते हो। वह झूठा है। मन महज गुलाम है जो मालिक होने का दावा करता है। लेकिन उसकी यह दावेदारी इतनी पुरानी है, इतने जन्मों से उसने मालकियत का दावा किया है कि मालिक भी मानने लगा है कि गुलाम ही मालिक है। वह एक महज विश्वास है, धारणा है। तुम उसके विपरीत प्रयोग करके देखो और तुम्हें पता चलेगा कि यह धारणा सर्वथा निराधार थी।
यह पहला सूत्र कहता है : 'या कल्पना करो कि मोर की पूंछ के पंचरंगे वर्तुल निस्सीम अंतरिक्ष में तुम्हारी पांच इंद्रियां हैं। अब उनके सौंदर्य को भीतर ही घुलने दो।’
भाव करो कि तुम्हारी पांच इंद्रियां पांच रंग हैं और वे पांच रंग समस्त अंतरिक्ष को भर रहे हैं। सिर्फ कल्पना करो कि तुम्हारी पंचेंद्रिया पांच रंग हैं, सुंदर—सुंदर रंग, सजीव रंग और वे अनंत आकाश में फैले हैं। और तब उन रंगों के बीच भ्रमण करो, उनके बीच गति करो और भाव करो कि तुम्हारे भीतर एक केंद्र है जहां ये रंग मिलते हैं। यह मात्र कल्पना है, लेकिन यह सहयोगी है। भाव करो कि ये पांचों रंग तुम्हारे भीतर प्रवेश कर रहे हैं और किसी बिंदु पर मिल रहे हैं।
ये पांचों रंग सच ही किसी बिंदु पर मिलेंगे और सारा जगत विलीन हो जाएगा। तुम्हारी कल्पना में पांच ही रंग हैं, जैसे मोर की पूंछ में पांच रंग हैं। और तुम्हारी कल्पना के रंग आकाश को भर देंगे, तुम्हारे भीतर गहरे उतर जाएंगे, किसी बिंदु पर मिल जाएंगे।
किसी भी बिंदु से काम चलेगा, लेकिन हारा बेहतर रहेगा। भाव करो कि सारा जगत रंग ही रंग हो गया है और वे रंग तुम्हारे नाभि—केंद्र पर, तुम्हारे हारा के बिंदु पर मिल रहे हैं। उस बिंदु को देखो, उस बिंदु पर अवधान को एकाग्र करो और तब तक एकाग्र करो जब तक वह बिंदु विलीन न हो जाए। वह विलीन हो जाता है, क्योंकि वह भी कल्पना है। याद रहे कि केंद्रीभूत होने की जो कुछ भी हमने किया है सब कल्पना है। अगर तुम उस पर एकाग्र होओ, तो तुम अपने केंद्र पर स्थित हो जाओगे। तब विलीन हो जाएगा, तुम्हारे लिए संसार नहीं रहेगा।
इस ध्यान में केवल रंग है। तुम समूचे संसार को भूल गए हो, तुम सारे विषयों को भूल गए हो। तुमने केवल पांच रंग चुने हैं। कोई पांच रंग चुन लो। यह ध्यान खासकर उनके लिए है, जिनकी दृष्टि पैनी है, जिनकी रंग की संवेदना गहरी है। यह सबके लिए सहयोगी नहीं होगा। यदि तुम्हारे पास चित्रकार की दृष्टि नहीं है, रंगों की संवेदना नहीं है, यदि तुम रंगों की कल्पना नहीं कर सकते हो, तो यह कठिन है।
तुमने देखा होगा कि तुम्हारे सपने रंगहीन होते हैं। सौ में सिर्फ एक व्यक्ति रंगीन सपने देखता है। शेष सिर्फ स्याह और सफेद रंग देखते हैं। क्यों? क्यों सारा जगत रंगीन है और तुम्हारे सपने रंगहीन हैं? अगर तुममें से किसी को सपने रंगीन होते हों, तो यह ध्यान उसके लिए है। अगर कोई कभी—कभी भी रंगीन सपने देखता है, तो यह ध्यान उसके काम का है। यह उसका ध्यान है।
और जो आदमी रंग के प्रति संवेदनहीन है उसको तुम कहो कि समूचे आकाश को रंग से भरा होने की कल्पना करो, तो वह यह कल्पना नहीं कर पाएगा। वह यदि कल्पना करने की कोशिश भी करेगा, वह लाल रंग की सोचेगा भी, तो लाल शब्द को देखेगा, लेकिन उसे कल्पना में लाल रंग दिखाई नहीं पड़ेगा। वह हरा शब्द तो कहेगा, शब्द भी वहां होगा, लेकिन हरियाली वहा नहीं होगी।
तो तुम अगर रंग के प्रति संवेदनशील हो, तो इस विधि का प्रयोग करो। पांच रंग हैं। समूचा जगत पांच रंग है, और वे रंग तुममें मिल रहे हैं। तुम्हारे भीतर कहीं गहरे में वे पांचों रंग मिल रहे हैं। उस बिंदु पर चित्त को एकाग्र करो और एकाग्र करो। उससे हटो नहीं, उस पर डटे रहो। मन को मत आने दो। रंगों के संबंध में, हरे, लाल और पीले रंगों के बारे में विचार मत करो। सोचो ही मत। बस, उन्हें अपने भीतर मिलते हुए देखो, उनके बारे में विचार मत करो। अगर तुमने विचार किया, तो मन प्रवेश कर गया। सिर्फ रंगों से भर जाओ, उन रंगों को अपने भीतर मिलने दो और तब उस मिलन—बिंदु पर अवधान को केंद्रित करो। सोचो मत। एकाग्रता सोचना नहीं है, विचारणा नहीं है, मनन नहीं है।
तुम अगर सचमुच रंगों से भर जाओ और तुम एक इंद्रधनुष, एक मोर ही बन जाओ और तुम्हारा आकाश रंगमय हो जाए, तो उससे तुम्हें एक सौंदर्य—बोध होगा, गहरा, गहरा सौंदर्य—बोध। लेकिन उसके संबंध में विचार मत करो, यह मत कहो कि यह सुंदर है। विचारणा में मत चले जाओ। उस बिंदु पर एकाग्र होओ जहां ये रंग मिल रहे हैं और एकाग्रता को बढ़ाते जाओ, गहराते जाओ। वह विलीन हो जाएगा, क्योंकि वह मात्र कल्पना है। अगर तुम वहां एकाग्रता को गहराते हो, तो कल्पना नहीं टिक सकती; वह विलीन हो जाएगी।
संसार पहले ही विलीन हो चुका है, सिर्फ रंग रह गए थे। वे रंग तुम्हारी कल्पना थे और वे काल्पनिक रंग एक बिंदु पर मिल रहे थे। वह बिंदु भी काल्पनिक था। अब गहरी एकाग्रता से वह बिंदु भी विलीन हो जाएगा। अब तुम कहां रहोगे? अब तुम कहां हो? तुम अपने केंद्र में स्थित हो जाओगे। विषय कल्पना के द्वारा विलीन हुए हैं। और अब कल्पना एकाग्रता के द्वारा विलीन होगी। और विषयी की तरह केवल तुम बचोगे। विषयगत जगत भी विलीन हो चुका; तब तुम शुद्ध चेतना की भांति वहां रहोगे।
इसलिए सूत्र कहता है : 'शून्य में या दीवार में किसी बिंदु पर......।’
यह सहयोगी होगा। अगर तुम रंगों की कल्पना नहीं कर सकते, तो दीवार पर किसी बिंदु से काम चलेगा। कोई भी चीज एकाग्रता के विषय के रूप में ले लो। अगर वह आंतरिक हो, अंतस का हो तो बेहतर।
लेकिन फिर दो तरह के व्यक्तित्व होते हैं। जो लोग अंतर्मुखी हैं उनके लिए उनके भीतर ही सब रंगों के मिलने की धारणा आसान है। लेकिन जो बहिर्मुखी लोग हैं वे भीतर की धारणा नहीं बना सकते। वे बाहर की ही कल्पना कर सकते हैं, उनका चित्त बाहर ही यात्रा करता है। वे भीतर नहीं गति कर सकते, उनके भीतर कोई आंतरिकता नहीं है।
अंग्रेज दार्शनिक डेविड झूम ने कहा है, जब भी मैं भीतर जाता हूं वहां मुझे कोई आत्मा नहीं मिलती। जो भी मिलता है वे बाहर के प्रतिबिंब हैं—कोई विचार, कोई भाव। कभी किसी आंतरिकता का दर्शन नहीं होता, सदा बाहरी जगत ही वहा प्रतिबिंबित मिलता है। यह श्रेष्ठतम बहिर्मुखी चित्त है। और डेविड ह्यूम सर्वाधिक बहिर्मुखी चित्त वालों में एक है।
इसलिए अगर तुम्हें भीतर कुछ धारणा के लिए न मिले और तुम्हारा मन पूछे कि यह आंतरिकता क्या है, तो अच्छा है कि दीवार पर किसी बिंदु का प्रयोग करो।
लोग मेरे पास आते हैं और पूछते हैं कि भीतर कैसे जाया जाए? उनके लिए यह समस्या है। क्योंकि अगर तुम बहिर्गामिता ही जानते हो, तुम्हें अगर बाहर—बाहर गति करना ही आता है, तो तुम्हारे लिए भीतर जाना कठिन होगा। और अगर तुम बहिर्मुखी हो, तो भीतर इस बिंदु का प्रयोग मत करो, उसे बाहर करो। नतीजा वही होगा। दीवार पर एक बिंदु बनाओ और उस पर चित्त को एकाग्र करो। लेकिन तब खुली आख से एकाग्रता साधनी होगी। अगर तुम भीतर केंद्र बनाते हो, तो बंद आंखों से एकाग्रता साधनी है।
दीवार पर बिंदु बनाओ और उस पर एकाग्र होओ। असली बात एकाग्रता के कारण घटती है, बिंदु के कारण नहीं। बाहर है या भीतर, यह प्रासंगिक नहीं है। यह तुम पर निर्भर है। अगर दीवार पर देख रहे हो, एकाग्र हो रहे हो, तो तब तक एकाग्रता साधो, जब तक वह बिंदु विलीन न हो जाए।
इस बात को खयाल में रख लो : 'जब तक बिंदु विलीन न हो जाए।’
पलकों को बंद मत करो, क्योंकि उससे मन को फिर गति करने के लिए जगह मिल जाती है। इसलिए अपलक देखते रहो, क्योंकि पलक के गिरने से मन विचार में संलग्न हो जाता है। पलक के गिराने से अंतराल पैदा होता है और एकाग्रता नष्ट हो जाती है। इसलिए पलक झपकना नहीं है।
तुमने बोधिधर्म के विषय में सुना होगा। मनुष्य के पूरे इतिहास में जो बड़े ध्यानी हुए हैं वह उनमें से एक था। उसके संबंध में एक प्रीतिकर कथा कही जाती है। वह बाहर की किसी वस्तु पर ध्यान कर रहा था। उसकी आंखें झपक जाती थीं और ध्यान टूट—टूट जाता था। तो उसने अपनी पलकों को उखाड़कर फेंक दिया। बहुत सुंदर कथा है कि उसने अपनी पलकों को उखाड़कर फेंक दिया और फिर ध्यान करना शुरू किया। कुछ हफ्तों के बाद उसने देखा कि केंद्रीभूत होने की जहां उसकी पलकें गिरी थीं उस स्थान पर कोई पौधे उग आए है।
यह घटना चीन के पहाड़ पर घटित हुई थी। उस पहाड़ नाम था टा था। इसलिए जो पौधे वहां उग आए थे उनका नाम टी पड़ा। और यही कारण है कि चाय जागरण में सहयोगी होती है। इसलिए जब तुम्हारी पलकें झपकने लगें और तुम नींद में उतरने लगो, तो एक प्याली चाय पी लो। वे बोधिधर्म की पलकें हैं। इसी वजह से झेन संत चाय को पवित्र मानते हैं। चाय कोई मामूली चीज नहीं है। वह पवित्र है, बोधिधर्म की आख की पलक है।
जापान में तो वे चायोत्सव करते हैं। प्रत्येक परिवार में एक चायघर होता है जहां धार्मिक अनुष्ठान के साथ चाय पी जाती है। वह पवित्र है। और बहुत ही ध्यानपूर्ण मुद्रा में चाय पी जाती है। जापान ने चाय के इर्द—गिर्द बड़े सुंदर अनुष्ठान निर्मित किए हैं। वे चायघर में ऐसे प्रवेश करते हैं जैसे वे किसी मंदिर में प्रवेश करते हों। तब चाय तैयार की जाएगी और हरेक व्यक्ति मौन होकर बैठेगा और समोवार के उबलते स्वर को सुनेगा। उबलती चाय का, उसके वाष्प का गीत सब सुनेंगे। वह कोई अदना वस्तु नहीं है, बोधिधर्म की आख की पलक है। और चूंकि बोधिधर्म खुली आंखों से जागने की कोशिश में लगा था, इसलिए चाय सहयोगी है। और चूंकि यह कथा टा पर्वत पर घटित हुई इसलिए वह टी कहलायी।
सच हो या न हो, यह कहानी सुंदर है। अगर तुम बाहर एकाग्रता साध रहे हो, तो अपलक देखना जरूरी है। समझो कि तुम्हारे पलकें नहीं हैं। पलकों को उखाड़ फेंकने का यही अर्थ है। तुम्हें आंखें तो हैं, लेकिन उनके ऊपर झपने को पलकें नहीं हैं। और तब तक एकाग्रता साधो जब तक बिंदु विलीन नहीं हो जाता।
बिंदु विलीन हो जाता है। अगर तुम लगे रहे, अगर तुमने संकल्प के साथ मन को चलायमान नहीं होने दिया, तो बिंदु विलीन हो जाता है। अगर तुम उस बिंदु पर एकाग्र थे और तुम्हारे लिए संसार में इस बिंदु के अलावा कुछ भी नहीं था, अगर सारा संसार पहले ही विलीन हो चुका था और यही बिंदु बचा था और यह बिंदु भी विदा हो गया, तो अब चेतना कहीं और गति नहीं कर सकती, उसके लिए जाने को कहीं न रहा; सारे आयाम बंद हो गए। अब चित्त अपने ऊपर फेंक दिया जाता है, अब चेतना अपने आप में लौट आती है। और तब तुम केंद्र में प्रविष्ट हो गए।
तो चाहे भीतर हो या बाहर, तब तक एकाग्रता साधो जब तक बिंदु विसर्जित नहीं होता। यह बिंदु दो कारणों से विसर्जित होगा। अगर वह भीतर है, तो काल्पनिक है और इसलिए विलीन हो जाएगा। और अगर यह बाहर है, तो वह काल्पनिक नहीं असली है, तुमने दीवार पर बिंदु बनाया है और उस पर अवधान को एकाग्र किया है, तो यह बिंदु क्यों विलीन होगा? भीतर के बिंदु का विलीन होना तो समझा जा सकता है, क्योंकि वह वहा था नहीं, तुमने उसे कल्पित कर लिया था। लेकिन दीवार पर तो वह है, वह क्यों विलीन होगा?
वह एक विशेष कारण से विलीन होता है। अगर तुम किसी बिंदु पर चित्त को एकाग्र करते हो, तो यथार्थ में वह बिंदु विसर्जित नहीं होता, तुम्हारा मन ही विसर्जित होता है। अगर तुम किसी बाह्य बिंदु पर एकाग्र हो रहे हो, तो मन की गति बंद हो जाती है। और मन गति के बिना नहीं जी सकता है। वह रुक जाता है, वह मर जाता है। और जब मन रुक जाता है, तो तुम बाहर की किसी भी चीज के साथ संबंधित नहीं हो सकते हो। तब अचानक सभी सेतु टूट जाते हैं, क्योंकि मन ही तो सेतु है।
जब तुम दीवार पर, किसी बिंदु पर मन को एकाग्र कर रहे हो, तो तुम्हारा मन क्या करता है? वह निरंतर तुमसे बिंदु तक और बिंदु से तुम तक उछलकूद करता रहता है। एक सतत उछलकूद की प्रक्रिया चलती है। जब मन विचलित होता है, तो तुम बिंदु को नहीं देख सकते। क्योंकि तुम यथार्थ आख में से नहीं, मन से और आख से बिंदु को देखते हो। अगर मन वहां न रहे, तो आंखें काम नहीं कर सकतीं। तुम दीवार को घूरते रह सकते हो, लेकिन बिंदु नहीं दिखाई पड़ेगा। क्योंकि मन न रहा, सेतु टूट गया। बिंदु तो सच है, वह है। इसलिए जब मन लौट आएगा, तो फिर उसे देख सकोगे। लेकिन अभी नहीं देख सकते, अभी तुम बाहर गति नहीं कर सकते। अचानक तुम अपने केंद्र पर हो।
यह केंद्रस्थता तुम्हें तुम्हारे अस्तित्वगत आधार के प्रति जागरूक बना देगी, तब तुम जानोगे कि कहां से तुम अस्तित्व के साथ संयुक्त हो, जुड़े हो। तुम्हारे भीतर ही वह बिंदु है जो समस्त अस्तित्व के साथ जुड़ा हुआ है, जो उसके साथ एक है। और जब एक बार इस केंद्र को जान गए, तो तुम घर आ गए। तब यह संसार परदेश नहीं रहा और तुम परदेशी नहीं रहे। तब यह जगत तुम्हारा घर है, तब तुम संसार के हो गए। तब किसी संघर्ष की, किसी लड़ाई की जरूरत न रही। तब तुम्हारे और अस्तित्व के बीच शत्रुता न रही, अस्तित्व तुम्हारी मां हो गई। यह अस्तित्व ही है जो तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हुआ और बोधपूर्ण हुआ है। यह अस्तित्व ही है जो तुम्हारे भीतर प्रस्फुटित हुआ है। यह अनुभूति, यह प्रतीति, यह घटना, और फिर दुख नहीं रहेगा। तब आनंद कोई घटना नहीं है—ऐसी घटना, जो आती है और चली जाती है—तब आनंद तुम्हारा स्वभाव है। जब कोई अपने केंद्र में स्थित होता है, तो आनंद स्वाभाविक है। तब कोई आनंदपूर्ण हो जाता है।
फिर धीरे— धीरे उसे यह बोध भी जाता रहता है कि वह आनंदपूर्ण है। क्योंकि बोध के लिए विपरीत का होना जरूरी है। अगर तुम दुखी हो, तो आनंदित होने पर तुम्हें आनंद की अनुभुति होगी। लेकिन जब दुख नहीं है, तो धीरे—धीरे तुम दुख को पूरी तरह भूल जाते हो। और तब तुम अपने आनंद को भी भूल जाते हो। और जब तुम अपने आनंद को भी भूलते हो तभी तुम सच में आनंदित हो। तब वह स्वाभाविक है। जैसे तारे चमकते हैं, नदियां बहती हैं, वैसे ही तुम आनंदपूर्ण हो। तुम्हारा होना ही आनंदमय है। तब यह कोई घटना नहीं है, तब तुम ही आनंद हो।
दूसरे सूत्र के साथ भी यही तरकीब, यही वैज्ञानिक आधार, यही प्रक्रिया काम करती है:
अपने पूरे अवधान को अपने मेरुदंड के मध्य में कमल— तंतु सी कोमल स्नायु में स्थित करो। और इसमें रूपांतरित हो जाओ।
इस सूत्र के लिए, ध्यान की इस विधि के लिए तुम्हें अपनी आंखें बंद कर लेनी चाहिए। और अपने मेरुदंड को, अपनी रीढ़ की हड्डी को देखना चाहिए, देखने का भाव करना चाहिए। अच्छा हो कि किसी शरीर—शास्त्र की पुस्तक में या किसी चिकित्सालय या मेडिकल कालेज में जाकर शरीर की संरचना को देख—समझ लो, तब आख बंद करो और मेरुदंड पर अवधान लगाओ। उसे भीतर की आंखों से देखो और ठीक उसके मध्य से जाते हुए कमल—तंतु केंद्रीभूत होने की जैसे कोमल स्नायु का भाव करो।
'और इसमें रूपांतरित हो जाओ।’
और अगर संभव हो तो इस मेरुदंड पर अवधान को एकाग्र करो और तब भीतर से, मध्य से जाते हुए कमल—तंतु जैसे स्नायु पर एकाग्र होओ। और यही एकाग्रता तुम्हें तुम्हारे केंद्र पर आरूढ़ कर देगी। क्यों?
मेरुदंड तुम्हारी समूची शरीर—संरचना का आधार है। सब कुछ उससे संयुक्त है, जुड़ा हुआ है। सच तो यह है कि तुम्हारा मस्तिष्क इसी मेरुदंड का एक छोर है। शरीर—शास्त्री कहते हैं कि मस्तिष्क मेरुदंड का ही विस्तार है। तुम्हारा मस्तिष्क मेरुदंड का विकास है। और तुम्हारी रीढ़ तुम्हारे सारे शरीर से संबंधित है, सब कुछ उससे संबंधित है। यही कारण है कि उसे रीढ़ कहते हैं, आधार कहते हैं।
इस रीढ़ के अंदर एक तंतु जैसी चीज है, लेकिन शरीर—शास्त्री इसके संबंध में कुछ नहीं कह सकते। यह इसलिए कि यह पौदगलिक नहीं है। इस मेरुदंड में, इसके ठीक मध्य में एक रजत—रब्यू है, एक बहुत कोमल नाजुक स्नायु है। शारीरिक अर्थ में वह स्नायु भी नहीं है। तुम उसे काट—पीट कर नहीं निकाल सकते, वह वहां नहीं मिलेगा। लेकिन गहरे ध्यान में वह देखा जाता है। वह है, लेकिन वह अपदार्थ है, अवस्तु है। वह पदार्थ नहीं, ऊर्जा है। और यथार्थत: तुम्हारे मेरुदंड की वही ऊर्जा—रन्न तुम्हारा जीवन है। उसके द्वारा ही तुम अदृश्य अस्तित्व के साथ संबंधित हो। वही दृश्य और अदृश्य के बीच सेतु है। उस तंतु के द्वारा ही तुम अपने शरीर से संबंधित हो, और उस तंतु के द्वारा ही तुम आत्मा से संबंधित हो।
तो पहले तो मेरुदंड की कल्पना करो, उसे मन की आंखों से देखो। और तुम्हें अदभुत अनुभव होगा। अगर तुम मेरुदंड का मनोदर्शन करने की कोशिश करोगे, तो यह दर्शन बिलकुल संभव है। और अगर तुम निरंतर चेष्टा में लगे रहे, तो कल्पना में ही नहीं, यथार्थ में भी तुम अपने मेरुदंड को देख सकते हो।
मैं एक साधक को इस विधि का प्रयोग करवा रहा था। मैंने उसे शरीर—संस्थान का एक चित्र देखने को दिया, ताकि वह उसके जरिए अपने भीतर के मेरुदंड को मन की आंखों से देखने में समर्थ हो सके। उसने प्रयोग शुरू किया और सप्ताह भर के अंदर आकर उसने मुझसे कहा, आश्चर्य की बात है कि मैंने आपके दिए चित्र को देखने की कोशिश की, लेकिन अनेक बार वह चित्र मेरी आंखों के समाने से गायब हो गया और एक दूसरा मेरुदंड मुझे दिखाई दिया। यह मेरुदंड चित्र वाले मेरुदंड जैसा नहीं था। तो मैंने उस साधक से कहा कि अब तुम सही रास्ते पर हो। अब चित्र को बिलकुल भूल जाओ और उस मेरुदंड को देखा करो जो तुम्हारे लिए दृश्य हुआ है।
मनुष्य भीतर से अपने शरीर—संस्थान को देख सकता है। हम इसको देखने की कोशिश नहीं करते, क्योंकि वह दृश्य डरावना है, वीभत्स है। जब तुम्हें तुम्हारे रक्त—मांस और अस्थिपंजर दिखाई पड़ेंगे, तो तुम भयभीत हो जाओगे। इसलिए हमने अपने मन को भीतर देखने से बिलकुल रोक रखा है। हम भी अपने शरीर को उसी तरह बाहर से देखते हैं जिस तरह दूसरे लोग उसे देखते हैं।
यह वैसा ही है जैसे तुम इस कमरे को इसके बाहर जाकर देखो, तुम सिर्फ इसकी बाहरी दीवारों को देखोगे। फिर तुम भीतर आ जाओ और देखो, तब तुम्हें भीतरी दीवारें दिखाई देंगी। तुम तो सिर्फ बाहर से अपने शरीर को इस तरह देखते हो जिस तरह कोई दूसरा आदमी उसे देखता हो। भीतर से तुमने अपने शरीर को नहीं देखा है। हम देख सकते हैं, लेकिन इस भय के कारण वह हमारे लिए आश्चर्य की चीज बना है।
भारतीय योग की पुस्तकें शरीर के संबंध में ऐसी बातें बताती हैं जो नए वैशानिक शोध से हूबहू सही साबित हुई हैं। लेकिन विज्ञान यह समझने में असमर्थ है कि योग को इनका पता कैसे चला? वह इन्हें कैसे जान सका? शल्य—चिकित्सा और मानव—शरीर का जान बहुत हाल की घटनाएं हैं। इस हालत में योग इन सारी स्नायुओं को, सभी केंद्रों को, शरीर के पूरे आंतरिक संस्थान को कैसे जान गया? जो अत्यंत हाल की खोजें हैं, आश्चर्य कि वे उन्हें भी जानते थे। उन्होंने उनकी चर्चा की है, उन पर काम किया है। योग को शरीर की बुनियादी और महत्वपूर्ण चीजों के विषय में सब कुछ मालूम रहा है। लेकिन योग चीर—फाड़ नहीं करता था, फिर उसे उसकी इतनी सारी बातें कैसे पता चलीं?
सच तो यह है कि शरीर को देखने—जानने का एक दूसरा ही रास्ता है, वह उसे अंदर से देखना है। अगर तुम भीतर एकाग्र हो सको, तो तुम अचानक अंदरूनी शरीर को, उसके भीतरी रेखा—चित्र को देखने लगोगे।
यह विधि उन लोगों के लिए उपयोगी है जो शरीर से जुड़े हैं। अगर तुम भौतिकवादी हो, अगर तुम सोचते हो कि तुम शरीर के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो, तो यह विधि तुम्हारे बहुत काम की होगी। अगर तुम चार्वाक या मार्क्स के मानने वाले हो, अगर तुम मानते हो कि मनुष्य शरीर के अलावा कुछ नहीं है, तो तुम्हें यह विधि बहुत सहयोगी होगी। तो तुम जाओ और मनुष्य के अस्थि—संस्थान को देखो।
तंत्र या योग की पुरानी परंपराओं में वे अनेक तरह की हड्डियों का उपयोग करते थे। अभी भी तांत्रिक अपने पास कोई न कोई हड्डी या खोपड़ी रखता है। दरअसल वह भीतर से एकाग्रता साधने का उपाय है। पहले वह उस खोपड़ी पर एकाग्रता साधता है, फिर आंखें बंद करता है और अपनी खोपड़ी का ध्यान करता है। वह बाहर की खोपड़ी की कल्पना भीतर करता जाता है और इस तरह धीरे— धीरे अपनी खोपड़ी की प्रतीति उसे होने लगती है। उसकी चेतना केंद्रित होने लगती है।
वह बाहरी खोपड़ी, उसका मनोदर्शन, उस पर ध्यान, सब उपाय हैं। और अगर तुम एक बार अपने भीतर केंद्रीभूत हो गए, तो तुम अपने अंगूठे से सिर तक यात्रा कर सकते हो। तुम भीतर चलो, वहा एक बड़ा ब्रह्मांड है। तुम्हारा छोटा शरीर एक बड़ा ब्रह्मांड है।
यह सूत्र मेरुदंड का उपयोग करता है, क्योंकि मेरुदंड के भीतर ही जीवन—रज्जु छिपा है। यही कारण है कि सीधी रीढ़ पर इतना जोर दिया जाता है, क्योंकि अगर रीढ़ सीधी न रही तो तुम भीतरी रज्जु को नहीं देख पाओगे। वह बहुत ही नाजुक है, बहुत सूक्ष्म है। वह ऊर्जा का प्रवाह है। इसलिए अगर तुम्हारी रीढ़ सीधी है, बिलकुल सीधी, तभी तुम्हें उस जीवन—रज्जु की झलक मिल सकेगी।
लेकिन हमारे मेरुदंड सीधे नहीं हैं। हिंदू बचपन से ही मेरुदंड को सीधा रखने का उपाय करते हैं। उनके बैठने, उठने, चलने और सोने तक के ढंग सीधी रीढ़ पर आधारित थे। और अगर रीढ़ सीधी नहीं है तो उसके भीतरी तत्वों को देखना बहुत कठिन होगा। वह नाजुक है, सूक्ष्म है और वास्तव में पौदागलिक नहीं है। वह अपौदगलिक है, वह शक्ति है। इसलिए जब मेरुदंड बिलकुल सीधा होता है तो वह रज्जुवत शक्ति देखने में आती है।
'और इसमें रूपांतरित हो जाओ।’
और अगर तुम इस रज्जु पर एकाग्र हुए, तुमने उसकी अनुभूति और उपलब्धि की, तब तुम एक नए प्रकाश से भर जाओगे। वह प्रकाश तुम्हारे मेरुदंड से आता होगा। वह तुम्हारे पूरे शरीर पर फैल जाएगा, वह तुम्हारे शरीर के पास भी चला जाएगा।
और जब प्रकाश शरीर के पार जाता है तब प्रभामंडल दिखाई देते हैं। हरेक आदमी का प्रभामंडल है। लेकिन साधारणत: तुम्हारे प्रभामंडल छाया की तरह हैं जिनमें प्रकाश नहीं होता। वे तुम्हारे चारों ओर काली छाया की तरफ फैले होते हैं। और वे प्रभामंडल तुम्हारे प्रत्येक मनोभाव को अभिव्यक्त करते हैं। जब तुम क्रोध में होते हो तो तुम्हारा प्रभामंडल रक्त—रंजित जैसा हो जाता है, उसमें क्रोध लाल रंग में अभिव्यक्त होता है। जब तुम उदास, बुझे—बुझे, हतप्रभ होते हो तो तुम्हारा प्रभामंडल काले तंतुओं से भरा होता है, मानो तुम मृत्यु के निकट हो—सब मृत और बोझिल। और जब यह मेरुदंड के भीतर का तंतु उपलब्ध होता है तब तुम्हारा प्रभामंडल सचमुच में प्रभामंडित होता है।
इसलिए बुद्ध, महावीर, कृष्ण या क्राइस्ट महज सजावट के लिए प्रभामंडल से नहीं चित्रित किए जाते हैं; वे प्रभामंडल सच में होते हैं। तुम्हारा मेरुदंड प्रकाश विकीरित करने लगता है। भीतर तुम बुद्धत्व को प्राप्त होते हो, बाहर तुम्हारा सारा शरीर प्रकाश—शरीर हो उठता है, और तब उसकी प्रभा बाहर भी फैलने लगती है। इसलिए किसी बुद्धपुरुष के लिए किसी से यह पूछना जरूरी नहीं है कि तुम क्या हो। तुम्हारा प्रभामंडल सब बता देगा। और जब कोई शिष्य बुद्धत्व प्राप्त करता है तो गुरु को पता हो जाता है, क्योंकि प्रभामंडल सब प्रकट कर देता है।
मैं तुम्हें एक कहानी बताऊं। एक चीनी संत, हुई को, जब पहले—पहले अपने गुरु के पास पहुंचा तो गुरु ने कहा कि तुम किसलिए आए हो? तुम्हें मेरे पास आने की जरूरत नहीं थी। हुई शो की समझ में कुछ नहीं आया, उसने सोचा कि अभी गुरु द्वारा स्वीकृत होने की उसकी पात्रता नहीं है। लेकिन गुरु कुछ और ही चीज देख रहा था, वह उसके फैलते हुए प्रभामंडल को देख रहा था। गुरु कह रहा था कि अगर तुम मेरे पास नहीं भी आओ तो भी देर—अबेर यह घटना घटने ही वाली है। तुम उसमें ही हो, इसलिए मेरे पास आने की जरूरत न थी।
लेकिन हुई को ने प्रार्थना की कि मुझे अस्वीकार न करें। तो गुरु ने उसे प्रवेश दिया और कहा कि आश्रम के पिछवाड़े में जो रसोईघर है उसमें जाकर काम करो। और फिर दूसरी बार मेरे पास मत आना। जब जरूरत होगी, मैं ही तुम्हारे पास आ जाऊंगा।
हुई नेंग को कोई ध्यान करने को नहीं बताया गया, न कोई शास्त्र पढ़ने को कहा गया। उसे कुछ भी नहीं सिखाया गया। उसे बस रसोईघर में रख दिया गया। वह एक बहुत बड़ा आश्रम था, जिसमें कोई पांच सौ भिक्षु रहते थे। उनमें पंडित, विद्वान, ध्यानी, योगी, सब थे। और सब साधना में लगे थे। लेकिन हुई नेंग केवल चावल साफ करता था और रसोई के भीतर काम करता था। और इस. तरह बारह वर्ष बीत गए। हुई को इस बीच गुरु के पास दुबारा नहीं गया, कयोंकि इजाजत नहीं थी। वह प्रतिक्षा करता रहा, प्रतीक्षा करता रहा। वह सिर्फ प्रतीक्षा ही करता रहा और लोग उसे महज नौकर समझते थे। कोई उस पर ध्यान भी नहीं देता था। उस आश्रम में पंडितों और ध्यानियों की कमी नहीं थी। उनके बीच एक चावल कूटने वाले की क्या बिसात होती!
और फिर एक दिन गुरु ने घोषणा की कि मेरी मृत्यु निकट है और मैं अब चाहता हूं कि किसी को अपना उत्तराधिकारी बनाऊं। इसलिए जो समझते हों कि वे बुद्धत्व को प्राप्त हैं, वे चार पंक्तियों की एक कविता रचे जिसमें वे वह सब व्यक्त कर दें जो उन्होंने सीखा है। गुरु ने यह भी कहा कि जिसकी कविता में सच में बुद्धत्व व्यक्त होगा, उसे मैं अपना उत्तराधिकारी चुनूंगा।
उस आश्रम में एक महापंडित था। इसलिए उस प्रतियोगिता में किसी ने भाग नहीं लिया। सब यही सोचते थे कि महापंडित जीतेगा। वह शास्त्रों का बड़ा ज्ञाता था, सो उसने चार पंक्तियां लिखीं। उन चार पंक्तियों में उसने लिखा. 'मन एक दर्पण की तरह ड़ै, जिस पर धूल जम जाती है। धूल को साफ कर दो और सत्य अनुभव में आ जाता है, बुद्धत्व प्राप्त हो जाता है।’
लेकिन यह महापंडित भी डरता था, क्योंकि गुरु को पता था कि कौन ज्ञानोपलब्ध है, कौन नहीं। यद्यपि महापंडित ने जो लिखा था वह सुंदर था, सब शास्त्रों का सार—निचोड़ था।’मन दर्पण की तरह है, जिस पर धूल जम जाती है। धूल को पोंछ दो और तुम ज्ञानोपलब्ध हो।’ यही तो सब वेदों का सार था। लेकिन पंडित डरता था कि यह उसने शास्त्रों से लिया था, इसमें उसका अपना कुछ नहीं था। इसलिए वह सीधे गुरु के पास नहीं गया। वह रात के अंधेरे में गुरु के झोपड़े पर गया और उसकी दीवार पर वे चार पंक्तियां लिख दीं। उसने नीचे हस्ताक्षर भी नहीं किया। उसने सोचा कि अगर गुरु ने उन्हें स्वीकृति दी तो मैं कहूंगा कि मैंने लिखा है और अगर गुरु ने उन्हें ठीक नहीं कहा तो चुप रह जाऊंगा।
लेकिन गुरु ने स्वीकृति दे दी। सुबह उन्होंने हंसते हुए कहा कि ठीक है, जिस आदमी ने यह कविता लिखी है वह ज्ञानी है। समूचे आश्रम में उसकी चर्चा होने लगी। सब तो जानते ही थे कि किसने लिखा है। वे चर्चा करने लगे, प्रशंसा करने लगे। वे पंक्तियां तो सुंदर थीं। सचमुच सुंदर थीं।
इसी चर्चा में लगे कुछ भिक्षु रसोईघर में पहुंचे। वे चाय पीते थे और चर्चा करते थे। हुई नेंग उन्हें चाय पिला रहा था। उसने सब बात सुनी। जब वे चार पंक्तियां उसने सुनी तब वह हंसा। इस पर किसी ने उससे पूछा कि तुम क्यों हंस रहे हो? तुम तो कुछ जानते नहीं, बारह वर्षों से तुम चौके में काम कर रहे हो, तुम क्यों हंस रहे हो?
किसी ने इसके पहले इस भिक्षु को हंसते भी नहीं देखा था। वह तो महामूढ़ समझा जाता था, जिसे बात करनी भी नहीं आती थी। उसने कहा कि मैं लिखना नहीं जानता हूं और मैं ज्ञानी भी नहीं हूं लेकिन वे चार पंक्तियां गलत हैं। अगर कोई व्यक्ति मेरे साथ आए तो मैं चार पंक्तियां बना दूंगा और वह उन्हें दीवार पर लिख दे। मैं लिखना नहीं जानता हूं।
एक भिक्षु मजाक में उसके साथ हो लिया। उनके पीछे एक भीड़ भी वहा आ गई। हुई नेंग ने लिखाया. 'कैसा दर्पण, कैसी धूल? न कोई मन है, न कोई दर्पण है। धूल जमेगी कहां? और जो यह जान लेता है वह धर्म को उपलब्ध हो जाता है।' लेकिन जब गुरु आया तो उसने कहा कि यह गलत है। हुई नेंग ने उसके पैर छुए और वह रसोई घर को लौट गया।
रात में जब सब सोए थे। गुरु हुई नेंग के पास आया और कहा, तुम सही हो, लेकिन मैं यह बात उन मूर्खों के सामने नहीं कह सकता था। वे विद्वान मूर्ख हैं। और अगर मैं कहता कि तुम मेरे उत्तराधिकारी हुए तो वे तुम्हें मार डालते। तुम मेरे उत्तराधिकारी हो। लेकिन यह बात दूसरों से मत कहो। तुम यहां से भाग जाओ। जिस दिन तुम यहां आए थे उसी दिन मैं जान गया था कि तुम उत्तराधिकारी हो। तुम्हारा प्रभामंडल बढ़ रहा था। इसीलिए तुम्हें कोई ध्यान नहीं दिया गया, उसकी जरूरत न थी। तुम ध्यान में ही थे। और बारह वर्षों के मौन ने, जिसमें तुमने कुछ नहीं किया, ध्यान भी नहीं, तुम्हें तुम्हारे चित्त से सर्वथा मुक्त, कर दिया है और तुम्हारा प्रभामंडल पूर्ण हो चला है। तुम पूर्णचंद्र हो गए हो। लेकिन यहां से निकल जाओ, अन्यथा वे लोग तुम्हें मार डालेंगे। तुम यहां बारह वर्षों से हो और निरंतर तुमसे प्रकाश विकीरित हो रहा है। लेकिन कोई उसे नहीं देख सका, यद्यपि हर कोई दिन में तीन—चार दफे रसोईघर में आता रहा है। यही वजह है कि मैंने तुम्हें यहां रखा था। कोई तुम्हारे प्रभामंडल को नहीं देख सका। तुम भाग ही जाओ।
जब मेरुदंड का यह तंतु देख लिया जाता है, उपलब्ध होता है, तब तुम्हारे चारों ओर एक प्रभामंडल बढ़ने लगता है।’इसमें रूपांतरित हो जाओ।’ उस प्रकाश से भर जाओ और रूपांतरित हो जाओ। यह भी केंद्रित होना है, मेरुदंड में केंद्रित होना।
अगर तुम शरीरवादी हो तो यह विधि तुम्हारे काम आएगी। अगर नहीं तो यह कठिन है। तब भीतर से शरीर को देखना कठिन होगा। यह विधि पुरुषों की बजाय स्त्रियों के लिए ज्यादा कारगर होगी। स्त्रियां ज्यादा शरीरवादी हैं। वे शरीर में अधिक रहती हैं और कल्पनाशील भी होती हैं। शरीर का मनोदर्शन उनके लिए आसान हो सकता है। स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा शरीर—केंद्रित हैं। लेकिन जो कोई भी शरीर को महसूस कर सकता है, जो कोई भी आख बंद कर भीतर से शरीर को देख सकता है, उसके लिए यह विधि बहुत सहयोगी होगी।
पहले अपने मेरुदंड को देखो, फिर उसके बीच से जाती हुई रजत—रज्जु को। पहले तो वह कल्पना ही होगी, लेकिन धीरे—धीरे तुम पाओगे कि कल्पना विलीन हो गई है और तुम्हारा चित्त मेरुदंड पर एकाग्र हो गया है। और तब तुम अपने ही मेरुदंड को देखोगे। और जिस क्षण तुम आंतरिक तत्व को देखोगे, अचानक तुम्हें तुम्हारे भीतर प्रकाश का विस्फोट अनुभव होगा।
कभी—कभी यह घटना प्रयास के बिना भी घटती है। यह होता है। फिर तुम्हें कहूं किसी गहरे संभोग के क्षण में यह होता है। तंत्र जानता है कि गहरे काम—कृत्य में तुम्हारी सारी ऊर्जा रीढ़ के पास इकट्ठी हो जाती है। असल में गहरे काम—कृत्य में रीढ़ बिजली छोड़ने लगती है। कभी—कभी तो ऐसा होगा कि रीढ़ को छूने से तुम्हें धक्का लगेगा। और अगर संभोग गहरा हो, प्रेमपूर्ण हो, लंबा हो, अगर दो प्रेमी प्रगाढ़ प्रेमालिंगन में हों, शात और निश्चल, एक—दूसरे को भरते हुए, तो घटना घटती है। कई बार ऐसा हुआ है कि अंधेरा कमरा अचानक रोशनी से भर जाता है और दोनों शरीरों को एक नीला प्रभामंडल घेर लेता है।
ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं। तुम्हारे अनुभव में भी ऐसा हुआ होगा कि अंधेरे कमरे में गहरे प्रेम में उतरने पर तुम्हारे दो शरीरों के चारों ओर एक रोशनी सी हो गई है और फैलकर पूरे कमरे में भर गई है। कई बार ऐसा हुआ है कि किसी दृश्य कारण के बिना ही कमरे की मेज पर से अचानक उछलकर गिर गई है। और अब मनस्विद बताते है कि गहरे काम—कृत्य में बिजली की तरंगें छूटती हैं और उसके कई प्रभाव और परिणाम हो सकते हैं। चीजें अचानक गिर सकती हैं, हिल सकती हैं, टूट सकती हैं। ऐसे प्रकाश के फोटो भी लिए गए हैं। लेकिन यह प्रकाश सदा मेरुदंड के इर्द—गिर्द इकट्ठा होता है।
तो कभी—कभी काम—कृत्य के दौरान भी तुम जाग सकते हो, अगर तुम अपने मेरुदंड के बीच से जाती हुई रजत—रज्जु को देख सको। तंत्र को यह बात भलीभांति पता है और उसने इस पर काम भी किया है। तंत्र ने इस उपलब्धि के लिए संभोग का भी उपयोग किया है। लेकिन उसके लिए काम—कृत्य को सर्वथा भिन्न ढंग का होना पड़ेगा, उसका गुण धर्म भिन्न होगा। उस हालत में काम—कृत्य किसी तरह निबट लेने की, महज स्खलन के द्वारा छुट्टी पा लेने की, झट—पट उससे गुजर जाने की बात नहीं रहेगी, तब वह एक शारीरिक कर्म नहीं रहेगा। तब वह एक गहरा आध्यात्मिक मिलन होगा, योग होगा। तब यथार्थ में वह दो देहों के द्वारा दो आंतरिकताओ का, दो आत्माओं का एक—दूसरे में प्रवेश होगा।
इसलिए मेरा सुझाव है कि जब तुम गहरे काम—कृत्य में होओ तो इस विधि को प्रयोग में लाओ। वह आसान हो जाएगी। यौन को भूल जाओ। जब गहरे आलिंगन में उतरो, बस भीतर रहो और दूसरे व्यक्ति को भी भूल जाओ। भीतर जाओ और अपने मेरुदंड को देखो। उस समय मेरुदंड के पास अधिक ऊर्जा प्रवाहित होती है, इसलिए यह देखना आसान होगा। और उस समय रजत—रज्जु भी ज्यादा दृश्य होती है, क्योंकि तुम शात होते हो और तुम्हारा शरीर विश्राम में होता है। प्रेम गहरे से गहरा विश्राम है, लेकिन हमने उसे भी तनाव बना लिया है। हमने उसे एक चिंता, एक बोझ में बदल लिया है।
प्रेम की ऊष्मा में, जब तुम भरे— भरे और शिथिल हो, आंखें बंद कर लो। सामान्यत: पुरुष आंखें बंद नहीं करते, स्त्रियां करती हैं। इसलिए मैंने कहा कि पुरुषों की बजाय स्त्रियां अधिक शरीरवादी हैं। काम—कृत्य के गहरे आलिंगन में उतरने पर स्त्रियां आंखें बंद कर लेती हैं। दरअसल वे खुली आंखों से प्रेम नहीं कर सकती हैं। आंखों के बंद रहने पर वे भीतर से शरीर को अधिक महसूस कर पाती हैं।
तो आंखें बंद कर लो और शरीर को महसूस करो। विश्राम में उतर जाओ और मेरुदंड पर चित एकाग्र करो। और यह सूत्र बहुत सरल ढंग से कहता है : 'इसमें रूपांतरित हो जाओ।’ तुम इसके द्वारा रूपांतरित हो जाओगे।
आज इतना ही।
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