प्रश्न-सार:
01-समझ
के बाद भी
क्रांति
क्यों घटती
नहीं?
02-अक्रिया
साधेंगे
तो पुरुषार्थ
का क्या होगा?
03-शून्य
की पूर्णता
कैसे मिलेगी?
04-घड़ा
शून्य होगा तो
घड़ा भी मिट
जाएगा न?
05-मन
को खाली कैसे
किया जाए?
प्रश्न:
लाओत्से
कहते हैं कि
समझ, अंडरस्टैंडिंग,
काफी है; समझ के साथ
ही क्रांति
घटित हो जाती
है। हमें ऐसा
लगता है कि
कोई बात पूरी
समझ में आती
तो है, लेकिन
कोई क्रांति
उससे घटित
नहीं होती।
इसका कारण
क्या है, कृपया
समझाइए!
लाओत्से
कहता है, बात
समझ में आ जाए,
तो करने को
कुछ बाकी नहीं
रह जाता। समझ
ही फिर करवा
देती है, जो
करने योग्य
है। और जो
करने योग्य
नहीं है, वह
गिर जाता है, झड़ जाता है, जैसे सूखे
पत्ते वृक्ष
से गिर जाएं।
जो न करने
योग्य है, उसे
रोकने के लिए
कुछ नहीं करना
पड़ता; जो
करने योग्य है,
उसे करने के
लिए कुछ नहीं
करना पड़ता। जो
करने योग्य है,
वह होने
लगता है; जो
न करने योग्य
है, वह
नहीं होना
शुरू हो जाता
है।
यह समझ
क्या चीज है? क्योंकि
पूछते हैं कि
समझ में आता
हुआ मालूम पड़ता
है, लेकिन
जिस क्रांति
की बात कहता
है लाओत्से, वह तो घटित
नहीं होती। तो
इससे दो ही मतलब
हो सकते हैं:
या तो लाओत्से
जो कहता है, वह गलत कहता
है; और या
फिर जिसे हम
समझ समझ लेते
हैं, वह
समझ नहीं है।
लाओत्से
तो गलत नहीं
कहता।
लाओत्से तो
इसलिए गलत
नहीं कहता कि
उसने जो कहा
है,
वह अकेले
उसने ही नहीं
कहा है; इस
पृथ्वी पर
जितने भी
जानने वाले
लोग हुए हैं, उन सबने वही
कहा है।
जिन्हें
लाओत्से का
पता भी नहीं
है--चाहे
यूनान में
सुकरात कहता
हो, तो यही
कहता है; चाहे
बुद्ध कहते
हों भारत में,
यही कहते
हैं--जहां भी
कभी कोई जानने
वाले ने कुछ
कहा है, उसने
यही कहा है कि
समझ काफी है।
इसमें
कई बातें हैं, वे
खयाल में ले
लें। और तब यह
समझ में आ
सकेगा कि अगर
क्रांति घटित
नहीं होती, तो जिसे हम
समझ समझ रहे
हैं, वह
समझ नहीं है।
पहली
बात तो यह है
कि जो गलत है, वह
हमसे क्यों
होता है? जो
सही है, वह
हमसे क्यों
नहीं होता? इसके पीछे
कारण नासमझी
है या कोई और? अगर नासमझी
ही कारण है, तो समझ से
मिट जाएगा।
अगर नासमझी से
भी अलग कोई
कारण है, तो
समझ से नहीं
मिटेगा। असली
सवाल यही है
कि जो हमसे
होता है, उसमें
हमारा अज्ञान
ही कारण है, तब तो ज्ञान
से मिट जाएगा।
इस
कमरे में से
मैं निकलता
हूं और दीवार
में मेरा सिर
टकराता है।
इसका कारण कमरे
में अंधेरे का
होना ही अगर
है,
तो प्रकाश
होते से ही यह
सिर का टकराना
रुक जाएगा।
रुक ही जाना
चाहिए। अगर
प्रकाश हो
जाने पर भी
मैं वैसा ही
टकराता हूं
दीवार से, जैसा
अंधेरे में
टकराता था, तो उसके
मतलब दो ही
हुए। उसका या
तो मतलब यह हुआ
कि प्रकाश हुआ
नहीं है; मैंने
समझा है, है
नहीं। और या
उसका यह अर्थ
हुआ कि दीवार
से टकराने का
कोई संबंध
अंधेरे से न
था। कोई और ही बात
थी, अंधेरे
और प्रकाश से
कोई लेना-देना
न था।
अगर और
कोई बात है, जो
ज्ञान से भी
नहीं मिटती, तो फिर तो
कभी नहीं
मिटेगी। जो
चीज ज्ञान से
नहीं मिट सकती
है, फिर वह
किस चीज से
मिटेगी? फिर
उसे कौन मिटाएगा?
क्योंकि
ज्ञान से ऊपर
हमारे भीतर
कुछ भी नहीं है।
ज्ञान से
श्रेष्ठ
हमारे भीतर
कुछ भी नहीं है।
अगर ज्ञान से
भी नहीं मिटता
है कुछ, तो
हम कहते हैं, कर्म से
मिटेगा। तो
कर्म कौन
करेगा? वह
तो अज्ञानी
करेगा कर्म। अगर
ज्ञान से नहीं
मिटता है, तो
अज्ञानी के
कर्म से कैसे
मिटेगा?
लेकिन
यह सवाल ठीक
है। क्योंकि
समझ,
हमें लगती
है कि हो गई
पूरी; और
फिर भी
क्रांति घटित
नहीं होती। वह
ट्रांसफार्मेशन,
वह
रूपांतरण
नहीं होता।
तो अब
यह समझना
पड़ेगा कि समझ
भी दो तरह की
हो सकती है।
एक समझ, जो
सिर्फ प्रतीत
होती है, एपरेंटली मालूम पड़ती
है कि समझ है।
हमारे पास समझ
का एक यंत्र
है--बुद्धि।
बुद्धि के
द्वारा हम
किसी भी चीज
को तर्कयुक्त
रूप से समझ
सकते हैं। अगर
ठीक तर्कबद्ध
विचार
प्रस्तुत
किया जाए, उसमें
कोई तर्क की
भूल न हो, तो
बुद्धि समझ लेती
है कि ठीक है, समझ में आ
गया। लेकिन
बुद्धि की समझ
से रूपांतरण
नहीं होता, क्रांति
नहीं होती।
क्योंकि
बुद्धि बहुत
छोटा सा
हिस्सा है
व्यक्तित्व
का; और
व्यक्तित्व
बहुत बड़ी बात
है। और बुद्धि
जिसे समझ लेती
है, उसका
यह अर्थ नहीं
है कि आपका
व्यक्तित्व, आपका प्राण,
आप उसे समझ
गए।
इस सदी
के पहले तक
पश्चिम को यह
खयाल नहीं था
साफ-साफ कि
जिसे हम
मनुष्य की
बुद्धि कहते
हैं,
उससे नौ
गुनी ताकत का
अचेतन मन, अनकांशस
माइंड भीतर
बैठा हुआ है।
आपको मैंने समझाया
कि क्रोध बुरा
है, आपकी
समझ में आ
गया। लेकिन
जिस बुद्धि की
समझ में आया, उसने कभी
क्रोध किया ही
नहीं है। उस
बुद्धि के
पीछे जो नौ
हिस्से पर्त
हैं अचेतन के,
अनकांशस के,
क्रोध वहां
से आता है।
ऐसा
समझ लें कि
मैं एक मकान
में रहता हूं।
दरवाजे पर एक
पहरेदार खड़ा
है। उस बेचारे
ने कभी क्रोध
किया नहीं है।
और जब भी
दरवाजे पर कोई
उपद्रव होता
है,
तो वह घर के
भीतर जो मालिक
रहता है, वह
बंदूक लेकर
दरवाजे पर आकर
उपद्रव करता
है। और जब भी
कोई उपदेशक
समझाने आता है,
तो उस
पहरेदार को
पकड़ कर समझाता
है कि क्रोध बहुत
बुरी चीज है, झगड़ा वगैरह नहीं
करना चाहिए।
वह कहता है कि
मेरी भी समझ
में आता है। मैं
भी देखता हूं
कि जब उपद्रव
होता है, वह
मालिक भीतर से
आता है, तो
भारी खून-खराबा
हो जाता है।
मैं बिलकुल
समझता हूं; मेरी समझ
में बिलकुल
आता है।
मगर यह
उपदेशक को पता
नहीं है कि
जिसको वह समझा
रहा है, उसने
कभी उपद्रव
किया नहीं; और जिसने
उपद्रव किया
है, इस पहरेदार
से उसका कोई कम्युनिकेशन
नहीं है। इससे
कभी उसकी
मुलाकात ही
नहीं होती। और
जब वह मालिक
बंदूक लेकर
आता है, तब
यह पहरेदार
हाथ-पैर जोड़
कर, सिर
झुका कर उसके
चरणों में पड़
जाता है, क्योंकि
वह मालिक है।
और जब वह चला
जाता है, तब
पहरेदार अपनी
कुर्सी पर बैठ
कर झपकी खाता
रहता है और
सोचता है कि
बहुत बुरी बात
है, क्रोध
होना नहीं
चाहिए।
आप जिस
बुद्धि से समझ
रहे हैं, अगर
हम आपके मन के
दस खंड कर दें,
तो एक खंड
समझ का है और
नौ खंड अंधेरे
में पड़े हैं।
जीवन का सारा
उपद्रव
अंधेरे खंडों
से आता है। जब
आपके भीतर
कामवासना
पैदा होती है,
तो आपके उन
नौ हिस्सों से
आती है। और जब
ब्रह्मचर्य
की आप किताब
पढ़ते हैं, तो
वह एक हिस्सा
पढ़ता
है--पहरेदार।
आप ब्रह्मचर्य
की किताब पढ़
कर रख देते
हैं, बिलकुल
जंच जाती है
कि बात बिलकुल
ठीक है। लेकिन
उस जंचने
से कुछ नहीं
होता। जब वे
भीतर के नौ
हिस्से कामवासना
से भरते हैं, तब इस एक
हिस्से की कोई
ताकत नहीं है।
वे इसको एक
तरफ हटा कर
बाहर आ जाते
हैं।
इसके
जिम्मे एक ही
काम है कि जब
वक्त मिले, तो
समझने का काम
करे; और जब
फिर वक्त मिले,
तो
पश्चात्ताप
करे। यह जो एक
हिस्सा मन है,
इसकी कोई
सुनवाई नहीं
है।
ध्यान रहे
कि मन में
जितना गहरा
हिस्सा होता
है,
उतना
ताकतवर होता
है। परिधि पर,
सर्कमफरेंस पर ताकत
नहीं होती; ताकत सेंटर
में होती है।
जिसको हम
बुद्धि कहते
हैं, वह
हमारी सर्कमफरेंस
है, परिधि
है, घर के
बाहर का
परकोटा है; वहां कोई खजाने
नहीं रखता। खजाने तो
उस तिजोरी में
दबे होते हैं,
जो घर का
भीतरी से
भीतरी अंतरंग
है। तो हमारे जीवन
की ऊर्जा तो
अंतरंग में
छिपी है। और
बुद्धि हमारे
दरवाजे पर खड़ी
है। इसी
बुद्धि से पढ़ते
हैं, इसी
बुद्धि से
सुनते हैं, इसी बुद्धि
से समझते हैं।
तो
लाओत्से जब
कहता है, समझ
में आ जाए तो
रूपांतरण हो
जाता है, तो
वह कह रहा है, उस सेंटर की
समझ में आ
जाए--वह जो
आपके भीतर, अंतरस्थ
बैठा हुआ, अंतिम,
मालिक है, उसकी समझ
में आ जाए--तो
क्रांति हो
जाती है।
अब
हमारी कठिनाई
भी स्वाभाविक
है,
वास्तविक
है, कि
हमें लगता है
समझ में आ गया,
फिर
क्रांति तो
होती नहीं। हम
वहीं के वहीं
खड़े रह जाते
हैं। और इस
तथाकथित समझ
से और एक
उपद्रव शुरू
होता है। वह
उपद्रव यह
होता है कि अब
हम द्वैत में
बंट जाते हैं।
मन भीतर से
कुछ करवाता है,
हम कुछ करना
चाहते हैं। वह
कभी होता
नहीं। होता
वही है, जो
भीतर से आता
है। और फिर
आखिर में
पश्चात्ताप
और दीनता और
हीनता मन को पकड़ती है।
और अपनी ही
आंखों में
आदमी गिरता
चला जाता है।
उसे लगता है
कि मैं कुछ भी
नहीं हूं, किसी
कीमत का नहीं
हूं।
तो यह
जो समझ है
हमारी, लाओत्से
इसके संबंध
में नहीं कह
रहा है। यह इंटलेक्चुअल
जो
अंडरस्टैंडिंग
है, यह
धोखा है समझ
का। यह ऐसा ही
है, जैसे
कोई कहे कि
अगर वृक्ष को
जल मिल जाए, तो उसमें
फूल आ जाते
हैं। हम जाकर
वृक्ष के पत्तों
पर जल छिड़क
आएं। फिर फूल
न आएं, तो
हम कहें कि
हमने तो जल छिड़का,
फूल नहीं आए;
जाहिर है कि
जिसने कहा था,
गलत था। और
या फिर हमने
जो जल छिड़का,
वह जल न था।
स्वभावतः
हमारे सामने
सवाल उठेगा, फूल तो नहीं
आए।
लेकिन
जिसने कहा था, वृक्ष
को जल मिल जाए
तो फूल आ जाते
हैं, उसने
कहा था वृक्ष
की जड़ों को, रूट्स को। यह मजे
की बात है कि
वृक्ष के
पत्ते को आप जल
दें, तो
जड़ों तक नहीं
पहुंचता; जड़ों
को जल दें, तो
पत्ते तक पहुंच
जाता है।
क्योंकि
पत्तों के पास
कोई यंत्र
नहीं है कि जल
को रूट्स
तक पहुंचा दे,
जड़ों तक
पहुंचा दे जल
को। जड़ों के
पास यंत्र है।
जड़ें केंद्र
हैं वृक्ष की,
पत्ते तो
परिधि हैं।
इसलिए पत्ते
रहें कि गिर जाएं,
नॉन-एसेंशियल
हैं। दूसरे
पत्ते आ
जाएंगे। लेकिन
जड़ें चली जाएं,
तो दूसरी
जड़ें लाना
बहुत मुश्किल
है, असंभव
है।
तो दो
बात समझ लें।
एक तो यह कि
जिसको आप समझ
कहते हैं, वह
केवल तार्किक,
शाब्दिक, बौद्धिक है;
आंतरिक
नहीं, आत्मिक
नहीं, समग्र
नहीं। आपके
प्राणों तक वह
जाती नहीं। और
इसलिए
रूपांतरण
नहीं होता।
बात बिलकुल
समझ में आ
जाती है, और
आप वहीं के
वहीं खड़े रह
जाते हैं, कहीं
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
तो अब
क्या करें? वह
समझ हम कैसे
लाएं जो समझ
जड़ों तक जाए?
हमारी
सारी शिक्षा
और दीक्षा एक
ही समझ की है, यह
तथाकथित जो
समझ है। गणित
सीखते हैं इसी
बुद्धि से; भाषा सीखते
हैं इसी बुद्धि
से। काम चल
जाता है। काम
इसलिए चल जाता
है कि आपके
भीतर के
केंद्र का कोई
विपरीत गणित
नहीं है; नहीं
तो काम नहीं
चलता। आपके इनरमोस्ट
सेंटर का अपना
अगर कोई
मैथेमेटिक्स
होती, तो
आपके
स्कूल-कालेज
सब दो कौड़ी
हो जाते।
लेकिन उसके
पास कोई
मैथेमेटिक्स
नहीं है। इसलिए
आप स्कूल में
गणित सीख लेते
हैं; भीतर
से कोई विरोध
नहीं होता। आप
दो और दो चार जोड़ते
रहें, जोड़ते रहें; भीतर
कोई कहने वाला
नहीं कि दो और
दो पांच होते
हैं। अगर भीतर
का मन कहने को
होता कि दो और
दो पांच होते
हैं, तो
सारी यूनिवर्सिटीज
कचरे में पड़
जातीं, आप दो
और दो चार
नहीं जोड़
पाते। जब भी जोड़ने
जाते, पांच
लिखते।
इसलिए
विश्वविद्यालय
सफल है
कामचलाऊ
दुनिया के
लिए। क्योंकि
गणित हमारी
ईजाद है, भाषा
हमारी ईजाद है;
जो भी हम
सिखा रहे हैं
स्कूल में, वह आदमी की
ईजाद है। अगर
हम आदमी को न
सिखाएं, तो
वह आदमी में
होगा ही नहीं।
अगर हम एक
बच्चे को भाषा
न सिखाएं, तो
वह बच्चा अपने
आप भाषा नहीं
बोल पाएगा।
लेकिन एक
बच्चे को
क्रोध सिखाने
की जरूरत नहीं
है; वह
अपने आप क्रोध
सीख लेगा। अगर
हम एक बच्चे को
गणित न सिखाएं,
तो दुनिया
में कोई उपाय
नहीं है कि वह
गणित सीख ले।
लेकिन सेक्स या
कामवासना
सिखाने के लिए
किसी
विद्यापीठ की जरूरत
नहीं पड़ेगी।
उसे जंगल में
डाल दो, खड्ड
में, वहां
भी वह सीख
लेगा। सीख
लेने का सवाल
नहीं है; वह
भीतर से आएगा।
तो
इसका मतलब यह
हुआ कि जीवन
में जो चीज भी
भीतर से आती
है,
उसी के
मामले में
अड़चन में पड़ते
हैं आप। जो
भीतर से नहीं
आती, बाहर
की है, उसमें
अड़चन में नहीं
पड़ते। आप कोई
भी भाषा सीख
लेते हैं। वह
ऊपर का काम है,
भीतर का मन
उसके विरोध
में नहीं है।
चल जाता है।
तो स्कूल, कालेज,
विश्वविद्यालय
आपको जो
शिक्षा देते
हैं, मन का
ऊपरी हिस्सा
ट्रेंड कर
देते हैं वे।
कठिनाई तब
शुरू होती है,
जब आप
जिंदगी को
भीतर से बदलना
चाहते हैं, तब भी इसी
ऊपरी हिस्से
का उपयोग करते
हैं। बस वहीं
अड़चन हो जाती
है।
सोचते
हैं,
क्रोध न
करूं। यह आप
उसी हिस्से से
सीखते हैं, जिससे गणित
सीखा था। यह
क्रोध का
मामला बहुत दूसरा
है, गणित
का मामला बहुत
दूसरा है।
गणित आदमी की
ईजाद है, क्रोध
अगर किसी की
ईजाद है तो वह
प्रकृति की है,
आदमी की
नहीं। इसी से
हम समझ का काम
लाते हैं, तब
अड़चन हो जाती
है और काम
नहीं होता। अब
उस भीतर तक
समझ को ले
जाना हो, तो
उसकी
प्रक्रिया
है।
प्रक्रिया का
अर्थ यह हुआ
कि आपको यह
समझ भी कैसे
मिली है? यह
भी एक
प्रशिक्षण है
आपको। यह आपको
एक बीस-पच्चीस
साल के
प्रशिक्षण के
द्वारा यह
संभव हुआ है
कि दो और दो
चार होते हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन अचानक
अपने रास्तों
पर देखा गया
कि बहुत
शानदार कपड़े
पहने हुए है, हाथ
में हीरे की
अंगूठी लगाई
हुई है। लोग
चकित हुए।
लोगों ने घेर
लिया कि
मुल्ला, क्या
हुआ? उसने
कहा कि एक
लाटरी हाथ लग
गई। पर कैसे
लगी? मुल्ला
ने कहा कि तीन
रात तक लगातार
सपना देखा, जिसमें मुझे
सात का आंकड़ा
दिखाई पड़ता
था। तीन रात!
तो मैंने सोचा,
सात तिया
अट्ठाइस।
मैंने नंबर
लगा दिया। पर
लोगों ने कहा,
अरे मुल्ला,
क्या कह रहे
हो, सात
तिया अट्ठाइस!
सात तिया
इक्कीस होते
हैं। मुल्ला
ने कहा, होते
होंगे, लेकिन
लाटरी
अट्ठाइस पर
मिली। यानी
इससे कोई...लाटरी
मिल गई
अट्ठाइस पर।
दो और
दो चार की भी
ट्रेनिंग है।
दो और दो चार ऐसी
कोई बात नहीं
है कि आपके
भीतर से आ गई
है। उसकी
ट्रेनिंग है।
सीखना पड़ता है, सीख
कर हल हो जाता
है। अब यह जो
अंतरस्थ मन है,
इस तक समझ
को पहुंचाने
के लिए भी
प्रक्रियाओं से
गुजरना पड़े।
लाओत्से
ने जब ये
बातें कही हैं, तब
आदमी बहुत सरल
था। अब बहुत
से फर्क पड़ गए
हैं, जो
मैं आपको खयाल
दिला दूं, जिससे
अड़चन है।
लाओत्से ने जब
ये बातें कही
हैं, आदमी
बहुत सरल था।
उसकी इंटलेक्चुअल
ट्रेनिंग
नहीं थी, उसकी
कोई बौद्धिक
पर्त नहीं थी।
लाओत्से बोल रहा
था गांव के
ग्रामीण जनों
से। वे
सीधे-सादे लोग
थे। उनके पास
कोई बौद्धिक
खजाना नहीं
था। प्रकृति
के सीधे करीब
थे, निर्दोष
थे। लाओत्से
उनसे बोल रहा
था। लाओत्से
अगर आपसे बोले,
तो सबसे
पहला सवाल यही
होगा, जो
विजय ने पूछा
है। यही सवाल
होगा कि समझ
में तो हमारे
आपकी बात आ
गई...। लाओत्से
जिनसे बोल रहा
था, वे यह
सवाल कभी नहीं
उठाए।
लाओत्से और च्वांगत्से
के हजारों
संस्मरणों
में यह सवाल
एक आदमी ने
नहीं उठाया है
कि हमारी समझ
में तो आ गया, लेकिन
जिंदगी नहीं
बदलती। हां, यह सवाल
बहुत लोगों ने
उठाया है कि
हमारी समझ में
नहीं आता।
समझाएं!
फर्क
समझ रहे हैं? यह
सवाल उठाते
हैं बहुत लोग
कि हमारी समझ
में नहीं आया,
आप फिर से
समझा दें! तो
लाओत्से फिर
से समझाएगा।
एक बार ऐसा
हुआ कि एक
आदमी रोज सुबह
आया, इक्कीस
दिन तक आया।
और रोज सुबह
आकर वह कहता लाओत्से
से कि तुमने
जो कहा था, वह
मैं भूल गया।
तुमने जो कल
कहा था, फिर
से समझा दो।
एक दिन, दो
दिन, तीन
दिन, चार
दिन। फिर
लाओत्से के एक
शिष्य मातसु
को हैरानी
हुई। उसने उस
आदमी को जब
पांचवें दिन
फिर आते देखा,
तो उसने
उसको झोपड़े
के बाहर रोका
और कहा कि
क्या मामला है?
उसने
कहा,
वह मैं भूल
गया। वह जो कल
समझाया था, मैं फिर
समझने आया
हूं।
तो
उसने कहा, तू
भाग जा, अब
तू भीतर मत
जा। क्योंकि
एक पागल तू है,
और दूसरा
पागल हमारे
पास लाओत्से
है। तू अगर
जिंदगी भर भी
आता रहा, तो
वह समझाता
रहेगा। पांच
दिन से, चार
दिन से मैं भी
देख रहा हूं
कि तू वही का
वही सवाल ले
आता है और वह
वही का वही
सवाल समझाने बैठ
जाता है।
जब यह
बात ही चल रही
थी मातसु
के साथ, तभी
लाओत्से बाहर
आ गया। और
उसने कहा, आ
गया भाई! अंदर
आ जा। भूल गया,
फिर से सुन
ले!
वह
इक्कीस दिन
रोज आ रहा है। बाईसवें
दिन नहीं आया।
तो कहानी कहती
है कि लाओत्से
उसके घर पहुंच
गया। कहा, क्या
तबीयत खराब है?
क्या हुआ? उस आदमी ने
कहा, समझ
में आ गया। और
कुछ? उसने
कहा कि कुछ
नहीं; मैं
दूसरा आदमी हो
गया।
लेकिन
फर्क आप समझ
रहे हैं? अगर
हम इक्कीस दफा
जाते लाओत्से
के घर पर, तो
हम समझने न
जाते। हम कहते,
समझ में तो
पहले दिन ही आ
गया, जिंदगी
नहीं बदली। वह
आदमी यह कहता
ही नहीं है कि
जिंदगी नहीं
बदली।
क्योंकि वह
आदमी यह कहता
है कि आप कहते हो,
समझ में आ
जाएगा तो
जिंदगी बदल ही
जाएगी, वह
बात खतम हो
गई। अब समझ
में ही आ जाए।
बुद्ध
जब भी बोलते
थे--तो अभी जब
बुद्ध के ग्रंथों
को संपादित
किया गया है, तो
बड़ी हैरानी
हुई, क्योंकि
बुद्ध एक-एक
पंक्ति को तीन
बार से कम दोहराते
नहीं थे। तीन
बार कहेंगे।
अब तीन बार छापो,
तो नाहक तीन
गुनी किताब हो
जाती है। और
पढ़ने वाले को
भी कठिनाई
होती है। तो
राहुल सांकृत्यायन
ने जब पहली
दफा हिंदी में
विनय पिटक का
पूरा संग्रह
किया, तो
हर पंक्ति के
बाद निशान
लगाए
उन्होंने। और निशान
बाहर सूची बना
दी, फिर से
वही, उसका
निशान है; फिर
से वही, उसका
निशान है; फिर
से वही, डिट्टो। पूरी
किताब निशान
से भरी हुई
है। क्या, बात
क्या थी? बुद्ध
क्यों इतना
दोहरा रहे हैं?
अगर
समझाना हो, तो
तर्क देना
पड़ता है। और
अगर भीतर तक
पहुंचाना हो,
तो उस
पुराने जमाने
में लोग इतने
सरल थे कि उसे
केवल बार-बार
दोहराने से वह
मंत्र बन जाता,
वह सजेस्टेबल
हो जाता, और
भीतर प्रवेश
कर जाता था।
सिर्फ बार-बार
दोहराना काफी
था। जितनी बार
दोहराया जाए,
उतना भीतर
प्रवेश करने
लगता है।
लेकिन
बुद्धि तो एक
ही दफे में
समझ जाती है, इसलिए
दुबारा
दोहराने की
जरूरत नहीं रह
जाती। अगर दुबारा
दुहराओ, तो वह आदमी
कहेगा, आप
क्यों हमारा
समय जाया कर
रहे हैं! समझ
गए, अब
दूसरी बात
करिए।
आज भी
जो लोग
अनकांशस
माइंड के साथ
काम करते हैं, वे
सिवाय
दोहराने के और
कुछ नहीं
करते। जैसे कि
अभी पेरिस में
कुछ वर्षों
पहले एमाइल
कुए नाम
का एक बहुत
बड़ा मनोवैज्ञानिक
था, जिसने
लाखों लोगों
को ठीक किया।
पर वह एक ही बात
दोहराता था कि
तुम बीमार
नहीं हो! अब वह
घंटे भर लिटाए
है उस आदमी को
और दोहरा रहा
है कि तुम
बीमार नहीं
हो! तुम बीमार
नहीं हो!
वह
आदमी कह सकता
है कि समझ गए
एक दफा, अब
इसको बार-बार
कहने का क्या
प्रयोजन है? पर एमाइल
कुए कहता
है कि तुमसे
मुझे मतलब
नहीं है। तुम
तो समझ गए, तुम
तो पहले ही
समझ रहे हो।
तुम्हारे जो
भीतर, गहरे
और गहरे में, वहां तक! वह
दोहराए चला
जाएगा। थोड़ी
देर में यह
ऊपर की जो
बुद्धि है--जो
यह ऊपर की
बुद्धि है, यह नए में रस
लेती है, पुराने
में रस नहीं
लेती--यह थोड़ी
देर में कहेगी
कि ठीक है, सुन
लिया, सुन
लिया, सुन
लिया। यह सो
जाएगी।
हिप्नोसिस का
कुल इतना ही
मतलब है; यह
सो जाएगी। यह
ऊपर की जो
बुद्धि है, ऊब जाएगी।
यह परेशान हो
जाएगी कि क्या
कहे चले जा
रहे हो कि तुम
बीमार नहीं
हो! यह थोड़ी
देर में सो जाएगी।
लेकिन कुए कहता
चला जाएगा। और
जब यह सो
जाएगी, तो
इसके पीछे की
जो पर्त है, वह सुनने
लगेगी। थोड़ी
देर में वह भी
ऊब जाएगी, वह
भी सो जाएगी।
तो उसके पीछे
की जो पर्त है,
वह सुनने
लगेगी। और यह कुए
दोहराए चला
जाएगा। यह तब
तक दोहराए चला
जाएगा, जब
तक आपके भीतरी
केंद्र तक यह
खबर न पहुंचा
दे कि तुम
बीमार नहीं
हो। और अगर यह
भीतरी केंद्र
तक खबर पहुंच
जाए, वह
केंद्र अगर
मान ले कि मैं
बीमार नहीं
हूं, तो
बीमारी
समाप्त हो गई।
अब
इसके लिए
मंत्रों का, ध्यान
का, तंत्र
का, न
मालूम
कितना-कितना
आयोजन करना
पड़ा! बाद में करना
पड़ा, जब कि
लोग ज्यादा सोफिस्टीकेटेड
हो गए।
लाओत्से के
वक्त में कोई
जरूरत न थी। लाओत्से
के वक्त तक
कोई जरूरत न
थी। लोग सरल
थे। और उनके
अंतरस्थ मन का
द्वार इतना
खुला था और
बुद्धि का कोई
पहरेदार न था
कि कोई भी बात
लाओत्से जैसा
आदमी कहता, तो वह भीतर
प्रवेश कर जाती।
इस सब का
इंतजाम था।
लाओत्से के
पास जाता ही
कोई तब था, जब
वह श्रद्धा
करने को राजी
हो। लाओत्से
के पास अगर
कोई जाता और
तर्क करने को
उत्सुक होता,
तो लाओत्से
कहता कि अभी
तू फलां गुरु
के पास जा, थोड़े
दिन वहां रह!
अभी
मैं एक सूफी
फकीर का जीवन
पढ़ता था।
अजनबी, एक
सूफी फकीर था।
गांव का एक
बहुत बड़ा
पंडित, एक
बड़ा व्याकरण
का ज्ञाता
अजनबी को
सुनने आया, तो उसने
देखा कि वह
व्याकरण
वगैरह जानता
नहीं, ठीक
से भाषा उसे
आती नहीं। तो
उस पंडित ने
कहा कि पहले
तो लोगों को, जिनको आप
समझा रहे हैं,
ठीक से भाषा
समझाइए, व्याकरण समझाइए।
प्रारंभ से ही
प्रारंभ
करिए। यह आप
क्या कर रहे
हैं? आप
इतनी ऊंची
बातें कर रहे
हैं! लेकिन न
भाषा का
ठिकाना, न
व्याकरण का।
तो उस
सूफी फकीर ने
कहा कि तू रुक
जा यहां। उस फकीर
के चमत्कारों
की बड़ी कथाएं
थीं। वह पंडित
रुक गया। सूफी
ने उससे कहा
कि बाहर झोपड़े
के जो कुत्ते
और बिल्लियां
सांझ को
इकट्ठे होते
हैं,
तू उनको
व्याकरण
सिखाना शुरू
कर दे।
उसे
लगा तो कि यह
पागलपन की बात
है;
लेकिन यह
फकीर कह रहा
है। और यह
चमत्कारी है,
शायद कोई
राज होगा।
शायद ये
कुत्ते और
बिल्लियां
साधारण न हों,
कुछ खूबी के
हों। या फिर
इसका कोई मतलब
होगा। शायद
इन्हें
सिखाते-सिखाते
मुझे कुछ
सीखने को मिल
जाए। बात तो
कुछ होगी ही, रहस्य इसमें
कुछ होगा ही।
उसने बेचारे
ने सिखाना
शुरू कर दिया।
सरल से
सरल पाठ
सिखाता था, लेकिन
कुत्ते-बिल्ली
थे कि नहीं
सीखते थे। छह महीने
बीत गए, वह
भी थक गया।
फकीर कई बार
पूछा कि कोई
प्रगति? कोई
प्रगति तो
नहीं हो रही
है। फकीर ने
कहा, बिलकुल
प्रारंभ से ही
प्रारंभ किया
है न? बिलकुल
प्रारंभ से ही
प्रारंभ किया
है! इससे और
आगे प्रारंभ
भी नहीं होता
कुछ। कुछ भी
सिखा पाए? उसने
कहा कि एक कदम
ही नहीं उठ
रहा आगे। उस
फकीर ने कहा, क्या, कठिनाई
क्या है? उस
पंडित ने कहा,
वे भाषा ही
नहीं जानते
हैं, बोलना
ही नहीं
जानते। बोलना
जानते हों, तो मैं
व्याकरण भी
सिखा दूं।
वह
फकीर कहने लगा
कि मैं जिस
दुनिया की
बातें कर रहा
हूं,
तुझे उस
दुनिया की न
भाषा का पता
है और न व्याकरण
का पता है।
तुझे उसका पता
हो, तो मैं
भी शुरू कर
सकता हूं।
तेरे साथ भी
शुरू कर सकता
हूं।
पुराने
युगों में यह
नियमित
व्यवस्था थी
कि गुरु अगर
देखता कि कोई
तर्क करने आ
गया,
तो उसे उस
जगह भेज देता,
जहां तर्क
ही चलता था।
ताकि वह तर्क
से थक जाए, परेशान
हो जाए। और
इतना ऊब जाए
कि एक दिन आकर
वह कहे कि
तर्क बहुत कर
लिया, कुछ
मिला नहीं; अब कोई ऐसी
बात कहें, जिससे
कुछ हो जाए।
तब
लाओत्से जैसे
आदमी बोलते
हैं।
एक
सूफी फकीर के
बाबत...। दो
फकीर सामने
रहते हैं। एक
फकीर का शिष्य
है,
वह अपने
गुरु को आकर
कहता है कि
सामने वाला जो
सूफी है, यह
आपके बाबत
बहुत गलत-सलत
बातें
प्रचारित
करता है। यह
कुछ गंदी-गंदी
बातें भी आपके
संबंध में गढ़ता
है, अफवाहें
उड़ाता
है। आप इसे
ठीक क्यों
नहीं कर देते?
कुछ बोलते
क्यों नहीं? तो उस फकीर
ने कहा, तू
ऐसा कर, तू
उसी से जाकर
पूछ कि राज
क्या है! पर
ऐसे जल्दी मत
पूछना, क्योंकि
कीमती बातें
अजनबियों को
नहीं बताई
जाती हैं। और
राहगीर चलते
आकर कुछ पूछ
लें, तो
उनको उत्तर जो
दिए जाते हैं,
वे रास्ते
की ही कीमत के
होते हैं। तो
उसने कहा, मैं
क्या करूं? कहा कि साल
भर उसकी सेवा
कर; निकट
पहुंच। और जब
आंतरिकता बन
जाए, तब
किसी दिन क्षण
का खयाल रख कर,
समय का बोध
रख कर, अवसर
खोज कर उससे
पूछना।
तो साल
भर उसने सेवा
की। बहुत
निकटस्थ हो
गया,
आत्मीय हो
गया। एक दिन
पैर दाब रहा
था रात, तब
उसने अपने
गुरु को पूछा
कि आप गालियां
देते हैं, सामने
वाले गुरु के
खिलाफ सब कुछ
कहते हैं, इसका
राज क्या है? तो उसने कहा,
तू पूछता है,
किसी को
बताना मत। मैं
उसका शिष्य
हूं। और राज
बताने की
मनाही है, तू
जाकर उसी से
पूछ ले। पर ये
बातें
अजनबियों को
नहीं बताई
जाती हैं, राह
चलतों को नहीं
बताई जाती
हैं। जरा निकट
हो जाना।
उसने
कहा,
अच्छी
मुसीबत में
पड़े! हम
तुम्हें
दुश्मन समझ कर
साल भर मेहनत
किए, तुम
शिष्य निकले!
उसके ही शिष्य
हो! वहीं वापस जाना
पड़ेगा।
दो साल
गुरु की पुनः
सेवा की लौट
कर। एक क्षण सुबह
स्नान कराते
वक्त--कोई
नहीं था, गुरु
को वह स्नान
करा रहा
था--पूछा कि आज
मुझे बता दें,
यह राज क्या
है?
तो
उसके गुरु ने
कहा कि वह
मेरा ही शिष्य
है। और उसे
वहां इसलिए रख
छोड़ा है कि वह
मेरे संबंध
में गलत बातें
उड़ाता
रहे। जिनको उन
गलत बातों पर
भरोसा आ जाए, वे
ताकि मेरे पास
न आ सकें, वे
गलत लोग हैं।
उनके साथ मेरा
समय नष्ट न
हो। मेरा समय
कीमती है। मैं
उन्हीं पर
खर्च करना चाहता
हूं, जो सत्य
की तलाश में
आए हैं। और जो
अफवाहों से
लौट सकते हैं,
उनकी कोई
तलाश नहीं है।
वह आदमी अपना
है। और उसने
इतनी सेवा की
है मेरी इन
बीस वर्षों
में, जिसका
हिसाब नहीं
है। सैकड़ों
फिजूल के
लोगों से उसने
मुझे बचाया
है।
यह
नियमित
व्यवस्था थी।
और जब कोई
श्रद्धा से भर
जाए--श्रद्धा
से भरने का
अर्थ है, जब
कोई हृदय को
सीधा खोलने को
तैयार है।
अभी साइकोलॉजिस्ट
या साइकोएनालिस्ट
क्या कर रहे
हैं?
वे इतना ही
कर रहे हैं।
एक मरीज पर
तीन साल तक साइकोएनालिसिस
चलती है। कोच
पर लिटाया है
मरीज को; घंटों,
हजारों
घंटों, उससे
चर्चा होती है।
मरीज कहता
जाता है, चिकित्सक
सुनता जाता
है। किसलिए?
वह सिर्फ
इसलिए कि
कहते-कहते, कहते-कहते
मरीज, बुद्धि
की ऊपरी बातें
थोड़े दिन में
चुक जाएंगी, तब वह भीतर
की बातें कहना
शुरू कर देता
है। फिर वे भी
चुक जाती हैं,
तो और
आंतरिक बातें
कहने लगता है।
ओपनिंग हो जाती
है। वर्ष भर
निरंतर
चिकित्सक के
पास कहते-कहते,
कहते-कहते
वह आंतरिक
चीजों को बाहर
निकालने लगता
है। और जब
चिकित्सक
देखता है कि
अब वे चीजें
बाहर निकलने
लगीं जो बहुत
गहरी हैं, तब
वक्त आया, यह
आदमी सजेस्टेबल
हुआ, इसको
अब कोई सुझाव
डाला जा सकता
है। अब इसके भीतर
का दरवाजा खुल
गया, अब
इसके भीतर कोई
बीज डाल दिया
जाए, तो
वृक्ष बन
जाएगा।
समझ का
अर्थ है, आपके
भीतरी तल तक
पहुंच जाए कोई
बात। लेकिन तर्क
कभी न पहुंचने
देगा। और हम
तर्क से ही
समझना चाहते
हैं। और तर्क
ही उपद्रव है;
वही
पहरेदार है।
वह कहता है, पहले मुझे
समझाओ। अगर
मुझे समझाओ, तो मैं
मालिक से मिला
दूं। और अगर
मुझे ही नहीं
समझा पाते हो,
तो मैं
मालिक से क्या
मिलाऊं? और फिर
कठिनाई यह है
कि जब वह समझ
जाता है, तो
वह समझता है, समझ गए, मालिक
हो गए।
फिर वह
देखता है, समझ
तो हो गई, लेकिन
कुछ हल नहीं
होता।
क्योंकि कोई,
जिसको हम
बुद्धि कहते
हैं, उसके
पास कोई भी
शक्ति नहीं
है। जिसको हम
कहें कोई भी
फोर्स टु एक्ट,
बुद्धि के
पास नहीं है।
और फोर्स टु
एक्ट जो है, शक्ति काम
करने की, वह
बुद्धि के
पीछे किसी और
छिपे तल में
है। इसलिए यह
व्यवधान पड़ता
है।
तो अगर
उस तक पहुंचना
है,
तो फिर अगर
नहीं पहुंचता
सीधा--किसी को
पहुंच जाता हो,
तब तो कोई
सवाल
नहीं--अगर
नहीं पहुंचता
सीधा, तो
पहले इस
बुद्धि के
पहरे को तोड़ने
के लिए उपाय
करने पड़ते
हैं। कुछ
ध्यान करना
पड़े; इस
बुद्धि के
पहरे को तोड़ना
पड़े। और ध्यान
की कोई ऐसी
प्रक्रिया
उपयोग में
लानी पड़े, जो
आपको
निर्बुद्धि
बना दे, इररेशनल बना दे।
जैसे
मैं जो ध्यान
का प्रयोग
करता हूं, वह
बिलकुल
बुद्धिहीन
है। तो
बुद्धिमान
उसको देख कर
ही भाग जाएगा।
वह कहेगा, यह
क्या हो रहा
है कि लोग नाच
रहे हैं, चिल्ला
रहे हैं, कूद
रहे हैं। पागल
हैं! लेकिन जो
आदमी नाच रहा है,
कूद रहा है,
वह बुद्धि
के तल से नीचे
उतर गया।
क्योंकि बुद्धि
तो सेंसस
का काम करती
है। वह कहती
है, क्यों
हंस रहे हो? अभी कोई
हंसने की बात
ही नहीं। पहले
हंसने की बात
तो होने दो, फिर हंसना।
कहती है, क्यों
रो रहे हो? अभी
कोई रोने की
बात ही नहीं।
क्यों कूद रहे
हो? कोई
जमीन में आंच
लगी है, आग
लगी है कि तुम
कूद रहे हो! ये
क्यों घूंसे
तान रहे हो
हवा में? पहले
किसी को गाली
देने दो, फिर
घूंसा उठाना।
बुद्धि पूरे
समय यह कह रही
है कि जो तुम
कर रहे हो, वह
तर्कयुक्त
हो। लेकिन
जिंदगी में
कभी भी कुछ
तर्कयुक्त
किया है? जब
किसी से प्रेम
हो जाएगा, तब
बुद्धि कहां
होगी? और
जब किसी से
क्रोध हो
जाएगा, तब
बुद्धि कहां
होगी? और
जब किसी को
मारने का मन
हो जाएगा या
मरने का मन हो
जाएगा, तब
बुद्धि कहां
होगी? तो
जिंदगी की
जहां असली
जरूरतें हैं,
वहां तो
बुद्धि होगी
नहीं। और उन
गहरे बिंदुओं
तक आप कभी उतर
न पाएंगे, बुद्धि
की बात मान कर
चलेंगे तो।
ध्यान
के सब प्रयोग
आपकी बुद्धि
की पर्त को तोड़ने
के प्रयोग
हैं! वह आपकी
एक दफा पर्त
टूट जाए, तो आप
एकदम सरल हो
जाते हैं। और
जब आप सरल हो
जाते हैं, तो
आपके पास एक
अंतर्दृष्टि
होती है, जहां
से चीजें साफ
दिखाई पड़ती
हैं। तब यह
सवाल कभी नहीं
उठता कि मेरी
समझ में आ गया
और क्रांति
नहीं हुई। समझ
में आ जाना ही
क्रांति है।
टु नो इज़
टु बी ट्रांसफार्म्ड।
नालेज इज़ ट्रांसफार्मेशन।
यह सवाल फिर
नहीं उठता।
लेकिन
यह उठता है।
और मैं यह
नहीं कहता कि
गलत उठता है।
हम जैसे हैं
आज,
उसमें यह
सवाल उठेगा।
हम दो हिस्सों
में बंटे हुए
हैं। जिस
हिस्से से
समझते हैं, उसका कोई
संबंध नहीं है
उस हिस्से से,
जिससे करते
हैं। करने का
हिस्सा अलग, समझने का
हिस्सा अलग।
घर डिवाइडेड
है, दो टुकड़ों
में बंटा हुआ
है। जिसके हाथ
में ताकत है
करने की, वह
समझने नहीं
आता; जिसके
हाथ में करने
की कोई ताकत
नहीं है, वह
समझने आता है।
इन दोनों के
बीच कभी कोई
मेल नहीं
होता। अब
इसमें क्या
किया जाए?
इसमें
एक ही उपाय है
कि आप इस
समझने की जो
पर्त है, इसको
तोड़ कर थोड़ा
नासमझी की
दुनिया में
उतरें; और
थोड़ा नासमझ
होकर देखें।
तो आपके इन
दोनों
विभाजनों के
बीच की दीवार
धीरे-धीरे
गिरेगी और आप
दोनों में
आना-जाना आपका
शुरू हो
जाएगा। और तब
आप
इंटिग्रेटेड
होंगे, इकट्ठे
होंगे, एक
होंगे। और वह
जो एक आदमी है,
वह जो भी
समझ लेता है, वही उसकी
जिंदगी में
फलित हो जाता
है।
हम दो
हैं। और इसलिए
हमारा जो सवाल
है,
वह
जिंदगी-जिंदगी
तक उलझता चला
जाता है। और
हर जिंदगी के
बाद ज्यादा
उलझ जाएगा, क्योंकि
विभाजन बढ़ता
ही चला जाता
है। इस विभाजन
को कहीं से
तोड़ें।
पिछले
आबू के शिविर
में एक मित्र--पढ़े-लिखे, बड़े
सरकारी एक पद
पर--वे देखने
आए थे। दो दिन
तो वे देख रहे
थे। मुझ से
आकर कहा कि यह
तो मैं न कर पाऊंगा।
यह जो लोग कर
रहे हैं, यह
मैं न कर
पाऊंगा। तो
मैंने कहा कि
यह आप कैसे
कहते हैं कि न
कर पाएंगे? करके देख कर
कह रहे हैं, बिना करे कह
रहे हैं? या
सिर्फ इस भय
से कह रहे हैं
कि भीतर डर है
कि हो तो यह भी
मुझसे जाएगा?
किस वजह से
कह रहे हैं?
वे कुछ
थोड़े डरे।
पत्नी उनके
साथ थी, उसकी
तरफ देखा।
मैंने उनकी
पत्नी को कहा
कि तुम जाओ।
तुम्हारे
सामने शायद वे
अपनी बुद्धिमानी
न छोड़ पाएं।
तुम हटो। वे
कहने लगे, डर
से ही कह रहा
हूं। मुझे भी
ऐसा लगता है
कि अगर मैं भी
कूद पडूं, तो
बहुत उपद्रव मचाऊंगा।
फिर
मैंने कहा, उसे
मचाओ। एक
दफे उसे मचा
कर देखो। तुम
अपनी नई ही
सूरत से
परिचित
होओगे। वही
तुम्हारी
असली सूरत है।
वक्त-बेवक्त
पर वह निकल कर
बाहर आ जाती
है। लेकिन तब
तुम उसके
मालिक नहीं हो
सकते। क्योंकि
वह क्षण भर को
आती है, फिर
छिप जाती है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, क्रोध
जो है, वह टेम्प्रेरी
मैडनेस
है--टेम्प्रेरी!
है तो मैडनेस
पूरी, टेम्प्रेरी है। थोड़ी
देर रहती है, इसलिए आपको
पता नहीं
चलता। फिर
निकल गई। परमानेंट
हो जाए, आप
पागल हो गए।
लेकिन जो टेम्प्रेरी
है, वह कभी
भी परमानेंट
हो सकता है।
मैंने
उनसे कहा, आप
करें।
उन्होंने
कहा,
हिम्मत जुटाऊं,
कोशिश
करूं।
मैंने
कहा,
कोशिश-हिम्मत
की बात नहीं
है। आप तो आंख
पर पट्टी बांध
कर और खड़े हो
जाएं। और जब
आने लगे, तब
भूल जाएं कि
आप बड़े
अधिकारी हैं
और बड़े पढ़े-लिखे
हैं और समझदार
हैं।
तीसरे
दिन वे कूद
रहे थे। वह
दूसरा ही
व्यक्तित्व
था। लौट कर
उन्होंने
मुझे कहा कि
मैं इतना हलका
हो गया हूं कि
उड़ जाऊं। इतना
हलका हो गया हूं!
भीतर से न
मालूम कितनी
बीमारी बाहर
निकल गई है।
और अब मैं
आपकी बात
ज्यादा ठीक से
समझ सकूंगा कि
आप क्या कह
रहे हैं।
तो हमारे
दिमाग पर जो
बैठा हुआ एक
पहरा है
तथाकथित
समझदारी का, उसे
तोड़ना पड़े तो
आपके भीतर वह
समझ आ सकेगी।
तो पहले यह
तथाकथित समझ
को तोड़ने के
लिए कुछ करें।
जुन्नैद
नाम का सूफी
फकीर था। उसके
पास कोई साधक
आता,
तो पहले
उससे वह कोई
पागलपन
करवाता। कोई
पागलपन
करवाता! उससे
कहता कि जाओ
बाजार में, सड़क पर खड़े
हो जाओ और
लोगों से कहो
कि जो मुझे एक
जूता मारेगा,
उसको मैं एक
आशीर्वाद
दूंगा! और जो
जूता मुझे नहीं
मारेगा, सम्हल
कर जाए, एक
अभिशाप! वह
आदमी कहता, आप यह क्या
कह रहे हैं? पर वह कहता, पहले तुम एक
बस्ती का
चक्कर लगाओ; फिर हमारीत्तुम्हारी
बात हो सकेगी।
तुमसे हमारा
मामला नहीं
चलेगा। तुम
जरा दो-चार-दस
जूते खाकर आओ।
फिर--इसको गिर
जाने दो, जो
तुम्हारे ऊपर
बैठा है--फिर
जरा हम भीतर
से सीधी-सीधी
बात हो सकेगी।
समझ की
भीतरी गहराई
के लिए कहता
है लाओत्से। वह
ठीक कहता है
कि डालो
कांटा समझ का, तो
क्रांति की
मछली पकड़ में
आएगी। लेकिन
आप अपने घर की
बालटी में
बैठे हैं
कांटा डाले।
उसमें नहीं
आएगी। आपको
खुद ही पता है
कि इस बालटी में
कोई मछली ही
नहीं है। आप
जिस बुद्धि
में पकड़ने
चल रहे हैं
क्रांति को, वहां कोई
क्रांति नहीं
है। जिसको आप
बुद्धि कहते
हैं, वह सब
से ज्यादा
कन्फरमिस्ट
हिस्सा है, सब से
ज्यादा आर्थोडाक्स
हिस्सा है
आपके
व्यक्तित्व
का। वहां कुछ
पकड़ में नहीं
आएगा।
उससे
गहरे में, जहां
जीवन की धारा
बहती है, जहां
तरलता है, जहां
चीजें जन्म
लेती हैं, अराजकता
है जहां, जहां
केऑस है
अस्तित्व का;
भीतर गहरे
में, जहां
हृदय में, जहां
सारी ऊर्जा
उठती है; जहां
से काम आता है,
क्रोध आता
है, प्रेम
आता है, घृणा
आती है, दया,
करुणा आती
है--वहां। यह
गणित और भाषा
जहां चलती है,
वहां से
नहीं; यह
भूगोल और
इतिहास जहां
पढ़ा जाता है, वहां से
नहीं; केमिस्ट्री
और फिजिक्स
की जानकारी
जहां से होती
है, वहां
से नहीं। जहां
से प्रेम पैदा
होता है, जहां
से घृणा पैदा
होती है, जहां
जीवन के मूल
स्रोत बहते
हैं, वहां
जब कांटा डलता
है समझ का, तो
क्रांति की
मछली पकड़ में
आती है। उसके
बिना नहीं आती
है।
अब अगर
कभी हजार में
कोई एकाध ऐसा
सरल आदमी होता
है,
तो तत्काल
हो जाता है।
आज तो वह हालत
कम होती चली
जाएगी। आज तो
हमें कुछ उपाय,
कुछ डिवाइस
करनी पड़ेगी, जिससे
तोड़ें। पहले
तोड़ें, फिर
भीतर प्रवेश
हो सकता है।
और तब, तब
समझ और
क्रांति दो
चीजों के नाम
नहीं हैं, एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
दूसरा
सवाल पूछा है:
कि लाओत्से
अगर कहता है, कुछ
न करो, तो
पुरुषार्थ का
क्या होगा?
क्या
तुम समझते हो, कुछ
न करना कोई
छोटा-मोटा
पुरुषार्थ है?
कुछ न
करना इस जगत
में सबसे बड़ा
पुरुषार्थ
है। न करने की
ताकत इस जगत
में सबसे बड़ी
मालकियत है।
करना तो बच्चे
भी कर लेते हैं।
करने में कोई
बड़ा
पुरुषार्थ
नहीं है। करना
तो बिलकुल सहज, साधारण
सी घटना है।
जानवर भी कर
रहे हैं। न करना
तो बहुत बड़ी
बात है। तो यह
मत सोचना कि
लाओत्से जब
कहता है कि न
करो, इन-एक्टिविटी,
तो इससे तो
पुरुषार्थ
खतम हो जाएगा।
समर्पण
जो है, वह सबसे
बड़ा संकल्प है।
अब यह बहुत
उलटा, खयाल
में आता नहीं
है न हमें।
हमें लगता है
कि समर्पण, किसी के
चरणों में सिर
रख दिया, तो
हम तो मिट गए।
लेकिन पता है
कि किसी के
चरणों में सिर
रखना साधारण
आदमी की
हैसियत की बात
नहीं है! और
किसी के चरणों
में सचमुच सिर
रख देना, पूरी
तरह अपने को
छोड़ देना, उसकी
ही सामर्थ्य
की बात है जो
पूरी तरह अपना
मालिक हो। छोड़ोगे
कैसे? सिर
पैर पर रख
देने से थोड़े
ही रख जाता है!
इतनी मालकियत
भीतर हो कि कह
पाएं कि ठीक, छोड़ते हैं
पूरा। लेकिन
छोड़ेगा कौन? आप छोड़ सकते
हैं? जो
क्रोध नहीं
छोड़ सकता, जो
सिगरेट पीना
नहीं छोड़ सकता,
वह पूरा छोड़
देगा स्वयं को?
एक
आदमी सिगरेट
पीना छोड़ता है, तो
वह कहता है, हम बड़ा
पुरुषार्थ कर
रहे हैं। वह
भी छूटती नहीं।
तो पूरा अपने
को समर्पित
करना! वह छोटा
पुरुषार्थ
नहीं है; बड़े
से बड़ा
पुरुषार्थ
है। अंतिम
पुरुषार्थ है।
उसके आगे और
कोई पुरुषार्थ
नहीं है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि आप कहते
हैं कि कोई
चीज पूर्ण
नहीं हो सकती।
तो फिर शून्य
की पूर्णता भी
कैसे मिलेगी?
शून्य
की पूर्णता
आपको अगर पानी
होती, तब तो वह
भी न मिल
सकती। वह है!
वह है! आप
सिर्फ भरने का
उपाय न करें, आप अचानक
पाएंगे कि आप
शून्य हैं।
पूर्णता तो इस
जगत में कोई
भी नहीं हो सकती।
आदमी के किए
कुछ भी नहीं
हो सकती।
मुल्ला
नसरुद्दीन
पर एक दफा
सुलतान, जिसके
घर वह काम
करता था, नाराज
हो गया। और
उसने कहा, यू
आर ए परफेक्ट
डोप; तुम
बिलकुल पूर्ण
गधे हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने कहा, डोंट फ्लैटर
मी, नोबडी इज़ परफेक्ट!
खुशामद मत करो,
कोई है ही
नहीं पूर्ण।
पूर्ण गधा भी
कैसे हो सकता
हूं! खुशामद
मत करो मेरी
बेकार, कोई
पूर्ण है ही
नहीं।
पूर्णता
तो कोई भी
नहीं हो सकती।
लेकिन शून्यता
अगर आपको लानी
होती, तो वह भी
पूर्ण नहीं हो
सकती थी।
लेकिन शून्यता
आपका स्वभाव
है। वह आपको
लानी नहीं है,
वह है। हां,
आप चाहें तो
इतना कर सकते
हैं कि जो है, उसको ढांक
सकते हैं, छिपा
सकते हैं, भूल
सकते हैं। फारगेटफुलनेस
हो सकती है, बस। मिटा तो
नहीं सकते, भूल सकते
हैं। विस्मरण
कर सकते हैं।
शून्यता की
पूर्णता आपको
पानी नहीं है।
आपको सिर्फ
पूर्ण होने के
सब प्रयास छोड़
देने हैं। और
आप पाएंगे कि
शून्य हो गए।
उन्हीं
मित्र ने पूछा
है कि घड़ा
शून्य होगा, तो
घड़ा भी मिट
जाएगा न!
अब
इसमें समझने
जैसा है कि
लाओत्से
किसको घड़ा कहता
है और आप
किसको घड़ा
कहते हैं। हम
दोनों की भाषा
में फर्क है।
हम कहते हैं
मिट्टी की
दीवार को घड़ा।
और जब हम बाजार
से खरीद कर
लाते हैं, तो
हम वह जो चार
पैसे चुका कर
आते हैं, वह
जो मिट्टी की
दीवार
कुम्हार ने
बनाई है, उसके
ही चुका कर
आते हैं। घड़े
का हमारे लिए
मतलब है, वह
जो मिट्टी की
दीवार है। और
लाओत्से का
मतलब है, वह
जो मिट्टी की
दीवार के भीतर
खालीपन है, वह है घड़ा।
और लाओत्से
कहता है कि हम
तो वह घड़ा खरीद
कर लाते हैं।
यह मिट्टी की
दीवार तो केवल
सीमा है; वह
जो भीतर शून्य
है, वह है
घड़ा। घड़ा तो
वही है। उस
शून्य की यह
सिर्फ
सीमा-रेखा है।
और यह
सीमा-रेखा भी
इसीलिए रखनी
पड़ती है हमें, क्योंकि
हमें घड़े
को भरना है।
अगर खाली ही
रखना हो, तो
इस सीमा-रेखा
की कोई जरूरत
नहीं है।
खयाल
करें, इस
सीमा-रेखा को
हमें क्यों
बनाना पड़ता है?
यह कुम्हार
इस शून्य के
चारों तरफ यह
मिट्टी का एक
गोल घेरा
क्यों बनाता
है? ताकि
हम कुछ भर
सकें।
क्योंकि
शून्य में तो
कुछ न भरा जा
सकेगा। तो
शून्य को
चारों तरफ से
घेर देते हैं
पदार्थ से, ताकि फिर
भरा जाए। भरा
तो जाएगा
शून्य में ही,
लेकिन फिर
उसमें तलहटी
बनानी पड़ेगी।
नहीं तो वह
गिर जाएगा।
इसलिए घड़े
की दीवार
बनाते हैं, क्योंकि
भरना है।
लेकिन
अगर खाली ही
करना है, तो आप
बाजार में घड़ा
खरीदने
जाएंगे? क्योंकि
हमें घड़ा खाली
करना है! खाली
घड़ा कोई खरीदने
जाएगा? खाली
घड़े को
कोई सम्हाल कर
रखेगा?
अगर
भरना नहीं है, तो
दीवार बेकार
हो गई। उसका
कोई प्रयोजन,
उसका
प्रयोजन ही
भरने के लिए
था। तो जैसे
ही कोई
व्यक्ति सूना
रहने के लिए
राजी हो गया, रिक्त रहने
के लिए राजी
हो गया, शरीर
की जो दीवार
है, वह छूट
जाती है। उसी
को हम पुनः
देह का निर्मित
न होना कहते
हैं। इसे ऐसा
समझ लें कि
हमारे भीतर एक
शून्य है, जो
हमारी आत्मा
है। और हमारा
शरीर एक घड़ा
है--दीवार
मिट्टी की। जब
तक हमें भरना
है अपने को, किन्हीं
इच्छाओं को
पूरा करना है,
कहीं
पहुंचना है, कुछ पाना है,
कोई यात्रा
करनी है, कोई
लक्ष्य है, कोई वासना
है, कोई
इच्छा है, तब
तक बार-बार
कुम्हार
हमारे घड़े
को बनाता चला
जाएगा।
बुद्ध
को जिस दिन
ज्ञान हुआ, बुद्ध
ने कहा, हे
मेरे मन के
कुम्हार, अब
तुझे घड़ा
बनाने की
जरूरत न
पड़ेगी। यह
आखिरी बार। और
तुझे धन्यवाद
देता हूं, तूने
मेरे लिए बहुत
घड़े
बनाए। हे राज,
अब तुझे
मेरे लिए घर न
बनाना पड़ेगा।
क्योंकि अब तो
रहने वाले की
मर्जी ही रहने
की न रही। अब मेरे
लिए किसी घर
की कोई जरूरत
न पड़ेगी।
हर बार, हमारी
वासना जो भरने
की है, उसी
की वजह से हम
शरीर निर्मित
करते हैं। और
जिस दिन हम
शून्य होने को
राजी हो
जाएंगे, उसी
दिन फिर इस
शरीर को बनाने
की कोई जरूरत
न रह जाएगी।
लेकिन
जो भूल हम घड़े
के साथ करते
हैं,
वही भूल
अपने साथ करते
हैं। घड़े
की दीवार को
समझते हैं घड़ा
है, अपनी
दीवार को
समझते हैं मैं
हूं। न भीतर
के शून्य को
हम कभी
पहचानते कि
कौन है और न घड़े
के भीतर के
शून्य को
पहचानते कि
कौन है। वह जो घड़े के
भीतर आकाश है,
वही है
मूल्यवान।
क्योंकि उसी
में चीजें समाएंगी।
आप जब बाजार
से खरीद कर
लाते हैं, तो
असली में उसी
शून्य के लिए
खरीद कर लाते
हैं। लेकिन
चूंकि भरने की
आतुरता है, इसलिए दीवार
अनिवार्य
होती है।
इसलिए कुम्हार
आपकी सेवा
करके दीवार
बना देता है।
यह जो
शून्य होने का
समर्पण हो जाए, तो
फिर कोई दीवार
न बचेगी, कोई
घड़ा न बचेगा।
और घड़े के
गिर जाने से
और तो कुछ
नहीं होने
वाला है। भीतर
का जो आकाश था घड़े का, वह
बाहर के आकाश
से एक हो
जाएगा। बीच
में कोई व्यवधान
नहीं है, कोई
बैरियर नहीं
है, कोई
बाधा नहीं है।
वह जो छोटी सी
आत्मा है घिरी
हुई घड़े
के भीतर, वह
परमात्मा के
साथ एक हो
जाएगी। उसे हम
मोक्ष कहें, निर्वाण
कहें, या
कुछ और कहना
चाहें तो
कहें। फिर घड़े
की कोई जरूरत
नहीं है। घड़े
की जरूरत भरने
के लिए है।
इसलिए जब आपको
कुछ भरना होता
है, तब आप
घड़ा खरीद कर
लाते हैं; भरना
ही नहीं होता,
तो कोई घड़ा
नहीं खरीदता।
जब भरना होता
है कुछ, तो
हम शरीर की
मांग करते हैं;
और जब भरना
ही नहीं होता,
तो शरीर का
कोई सवाल ही
नहीं है।
लाओत्से
कह रहा है कि
वह शून्य आपको
पैदा नहीं
करना है। आप
तो सिर्फ घड़ा
ही पैदा करते
हैं। कुम्हार
भीतर के शून्य
का निर्माण
नहीं करता; सिर्फ
शून्य के
चारों तरफ एक
दीवार का
निर्माण करता
है। इसलिए फिर
चार पैसे में
मिल जाता है।
नहीं तो उतना शून्य
तो आप सारी
मनुष्य-जाति
की संपत्ति
लगा दें, तो
भी नहीं मिल
सकता। वह जो घड़े के
भीतर जो खाली
आकाश है, सारी
मनुष्य-जाति
की सब संपत्ति
और सब प्राण लग
जाएं, तो
भी हम उतना सा
खाली आकाश
पैदा नहीं कर
सकते हैं। वह
तो है ही।
कुम्हार उसको
पैदा नहीं करता,
कुम्हार तो
एक सिर्फ घड़े
की दीवार
निर्मित करता
है; मिट्टी
का एक घेरा
बना देता है।
आप
मिट्टी के घड़े
को उठा कर
जहां भी ले
जाइए, आप इस
भ्रम में मत
रहना कि वही
आकाश उसके
भीतर रहता है,
जो कुम्हार
के घर था। आप घड़े को
लेकर चलते हैं,
आकाश बदलता
चलता है। आपके
घड़े का
आकाश साथ थोड़े
ही चला आता
है। सिर्फ घड़ा
आप कहीं भी ले
जाइए, इतना
पक्का है कि
इतना आकाश
उसमें कहीं भी
होगा। कहीं भी
घड़े को फोड़ दें, वह आकाश परम
आकाश में लीन
हो जाता है।
इसलिए
बुद्ध ने एक
बहुत कीमती
बात कही, जो
नहीं समझी जा
सकी। और कीमती
बातें नहीं
समझी जा सकती
हैं। बुद्ध ने
कहा, तुम
यह भी मत
सोचना कि
तुम्हारे
भीतर वही आत्मा
चलती है।
इसलिए बुद्ध
को नहीं समझा
जा सका। जैसे
मैंने कहा कि
कुम्हार ने
घड़ा बनाया; घड़े
को आप बाजार
से लेकर चले; आप एक इंच
हटते हैं कि
दूसरा आकाश उस
घड़े के
भीतर प्रवेश
करता है; आप
घर आते हैं, तब दूसरा
आकाश, आपके
घर का आकाश
उसमें प्रवेश
करता है। आप
वही आकाश लेकर
नहीं आते।
लेकिन आपको
मतलब भी नहीं
है आकाश से, आपको भरने
से मतलब है।
कौन सा आकाश, कोई भी आकाश
काम देगा।
बुद्ध
ने जब यह बात
कही,
तो बहुत
कठिन हो गई।
क्योंकि हम सब
को खयाल रहा
है कि एक
आत्मा हमारे
भीतर बैठी है,
वही आत्मा।
बुद्ध कहते
हैं, नहीं,
वह तो तुम
यात्रा करते
जाते हो और
आत्मा बदलती
चली जाती है।
तुम तो घड़े
हो, यात्रा
करते हुए; आत्मा
तो भरा हुआ
आकाश है।
इसलिए
बुद्ध ने कहा
कि जैसे दीया
सांझ हम जलाते
हैं,
सुबह
बुझाते हैं, तो कहते हैं,
वही दीया
बुझा दो जो
सांझ जलाया
था। कहने में
ठीक है। लेकिन
सांझ जो
ज्योति जलाई
थी, वह कभी
की बुझ चुकी।
प्रतिपल
दूसरी ज्योति
उसकी जगह आती
चली जाती है।
इसीलिए तो
धुआं बनता है।
पिछली ज्योति
धुआं होकर उड़
जाती है, दूसरी
ज्योति उसके
पीछे चली आती
है। मगर इतनी तेजी
से आती है
पिछली ज्योति
और पहली
ज्योति के
जाने और दूसरे
के आने में
इतना कम
अंतराल है कि
हमें दिखाई
नहीं पड़ता कि
एक ज्योति चली
गई और दूसरी आ
गई। मगर सुबह
जब आप बुझाते
हैं, तो
बुद्ध कहते
हैं, अगर
ठीक कहना हो
तो इतना ही
कहो कि उस
ज्योति को
बुझा दो, जो
हमने सांझ जलाई
थी उसकी जगह
जो अब जल रही
हो। संतति हो
उसकी, उसकी
धारा में बह
रही हो। वही
ज्योति तो अब
नहीं बुझाई जा
सकती, वह
तो बुझ गई कई
दफा।
मगर
फिर भी यह
ज्योति उसी
शृंखला में बह
रही है। तो
बुद्ध कहते
हैं,
आत्मा एक
शृंखला है। ए सिरीज ऑफ एक्झिस्टेंसेस,
यूनिट ऑफ
एक्झिस्टेंस
नहीं। इकाई
नहीं। एक
शृंखला। आप
पिछले जन्म
में जो आत्मा
आपके पास थी, ठीक वही
आत्मा आपके
पास नहीं है, सिर्फ उसी
धारा में है।
निश्चित ही, मेरे पास और
आपके पास जो
आत्मा है, वे
अलग हैं।
लेकिन भेद दो
सीरीज का है।
इसको
समझ लें। दो
दीए हमने
जलाए। रात भर
दीए जलते रहे।
दोनों की
ज्योति बुझती
चली गईं। सुबह
जब हम एक दीए
को बुझाते हैं, अ
को, तो ब
नहीं बुझ
जाएगा। और अ
और ब के बीच
फासला है, फर्क
है। फिर भी अ
वही नहीं है, जो सांझ
हमने जलाया
था। और तब भी अ
ब नहीं है। ध्यान
रहे, अ वही
नहीं है जो
हमने सांझ
जलाया था। अगर
हम सांझ जलाने
वाली ज्योति
को कहें अ एक, तो सुबह जिस
दीए को बुझा
रहे हैं, वह
है अ एक हजार।
अगर हम ब को
कहें ब एक, तो
सुबह जिस दीए
को बुझा रहे
हैं, वह है
ब एक हजार। ब
की शृंखला
अपनी है, अ
की शृंखला
अपनी है।
हमारे
जन्म की धारा
शृंखला है।
बुद्ध ने पहली
दफा इस जगत को
जीवंत, प्रवाहमान
आत्मा का भाव
दिया--डायनैमिक,
रिवर-लाइक,
सरित-प्रवाह
जैसी। जिस दिन
भी घड़ा टूटेगा,
उस दिन वही
आत्मा मुक्त
नहीं होगी, जिसने
मुक्ति चाही
थी। उसी
शृंखला में
कोई चेतना की
धारा मुक्त
होगी। शृंखला
एक है। इकाई नहीं
है, प्रवाह
है। और अब जब
कि वैज्ञानिक
पदार्थ के जगत
में भी इस
सत्य के करीब
पहुंच रहे
हैं। क्योंकि
वे कहते हैं, अब एटम कहना
ठीक नहीं, ईवेंट
कहना ठीक है।
अब! अब यह कहना
कि अणु है, गलत
है। घटना, अणु
नहीं। और अब
यह कहना कि
वस्तु है, ठीक
नहीं
है--वस्तु-प्रवाह,
बहाव, क्वांटम!
लाओत्से
कहता है, शून्य
हो जाओ। तो
जैसे ही शून्य
होने की घटना घटेगी,
वैसे ही घड़ा
व्यर्थ हो
जाएगा। फिर भी
घड़ा थोड़े दिन
जी सकता है, क्योंकि घड़े
के अपने नियम
हैं। आप एक घर
में घड़ा ले आए,
भरने लाए थे,
लेकिन घर
लाते-लाते आप
बदल गए और अब
आप नहीं भरना
चाहते। तो
आपके नहीं भरने
भर से घड़ा
नहीं फूट
जाएगा। घड़े
का अपना
अस्तित्व है। घड़े को आप
रख दें, खाली
वह रखा रहेगा,
रखा रहेगा,
जीर्ण-शीर्ण
होगा, टूटेगा।
दस वर्ष
लगेंगे, गिरेगा।
जिस दिन आपने
तय किया कि अब घड़े में
कुछ नहीं भरना
है, एक बात
पक्की हो गई
कि अब दुबारा
आप घड़ा खरीद कर
न लाएंगे।
लेकिन यह घड़ा
जो आप खरीद कर
ले आए हैं, यह
घड़ा आपके
निर्वासना
होने से ही
नहीं टूट जाएगा।
इसकी अपनी
धारा रहेगी; इसका मोमेंटम
अपना है।
इसलिए
बुद्ध को
ज्ञान हुआ
चालीस वर्ष की
उम्र में, मरे
तो वे अस्सी
वर्ष की उम्र
में। चालीस
साल घड़ा तो
था। महावीर को
ज्ञान हुआ कोई
बयालीस साल की
उम्र में, मरे
तो वे भी कोई
चालीस साल
बाद। तो चालीस
साल तक घड़ा तो
था। लेकिन अब
घड़ा गैर-भरा
था। और अब सिर्फ
प्रतीक्षा थी
कि घड़ा अपने
ही नियम से
बिखर जाए, टूट
जाए।
कोई
पूछ सकता है, हम
घड़े को फोड़ तो
सकते हैं! जब
भरना ही नहीं
है, तो फोड़
कर फेंक दें।
कोई पूछ सकता
है। और ठीक
सवाल है कि एक घड़े को मैं
खरीद कर लाया;
अब भरना ही
नहीं है, तो
फोड़ कर
फेंक दूं। तो
बुद्ध या
महावीर फिर
चालीस साल
क्यों जीते
हैं? जब कि
शून्य हो गया
सब, अब कुछ
वासना न रही, अब ये चालीस
साल क्यों
जीते हैं?
अगर हम
बुद्ध और
महावीर से
पूछें, तो वे
कहेंगे कि
फोड़ना भी एक
वासना है।
इतनी भी वासना
न रही कि अब घड़े
को भी फोड़
दें। अब जो हो
रहा है, होगा।
वह भी वासना
है, क्योंकि
कुछ करना
पड़ेगा न। घड़े
को फोड़ने
के लिए कुछ
करना पड़ेगा।
वह करना भी, घड़े
के प्रति अभी
किसी तरह का
लगाव बाकी रह
गया है, इसकी
खबर है। अभी घड़े से
संबंध जारी
है। यू आर इन
रिलेशनशिप!
अभी तुम घड़े
को फोड़ते हो; अभी तुम घड़े
को मानते हो।
अभी घड़े
से कोई संबंध,
लेन-देन
जारी है।
नहीं, तो
बुद्ध या
महावीर कहते
हैं कि ठीक है,
हम खाली हो
गए, अब घड़ा
आयु-कर्म से, जो उसकी आयु
है, जैसा
हमने मांगा था
पिछले जन्म
में कि ऐसा
घड़ा मिल जाए
कि अस्सी साल
रहे। बाजार
खरीदने गए थे,
कुम्हार से
कहा था, ऐसा
घड़ा दो कि दस
साल चल जाए।
चुकाए दाम, दस साल चलने
वाला घड़ा ले
आए। लेकिन
पांच साल में
ज्ञान हुआ और
लगा कि कुछ
नहीं भरना है।
पर यह घड़े
का अभी आयु-कर्म
पांच साल का
शेष है। हमने
ही चुकाया था
उसके लिए।
इसको फोड़ेंगे
भी नहीं। इसको
चलने देंगे।
इससे कोई
दुश्मनी भी
नहीं है। यह
जब गिर जाएगा
अपने आप, तो
गिर जाएगा।
इसको बचाने की
भी कोई चेष्टा
नहीं होगी।
इसलिए
बुद्ध को दिया
गया है भोजन, वह
विषाक्त है, वे चुपचाप
कर गए। मुंह
में कड़वा
मालूम पड़ा, जहर था
बिलकुल। पीछे
लोगों ने कहा
कि आपने कैसा
पागलपन किया!
आप जैसा
बुद्धिमान, आप जैसा सजग
पुरुष, कि
जो रात सोते
में भी जागता
है, उसे
पता न पड़ा हो
जहर पीते वक्त,
यह हम नहीं
मान सकते हैं।
बुद्ध ने कहा,
पूरा पता पड़
रहा था। पहला
कौर मुंह में
रखा था, तभी
जाहिर हो गया
था। विषाक्त
था, जहर
था।
तो थूक
क्यों न दिया? मना
क्यों न किया?
और कौर
क्यों ले लिए?
बुद्ध
ने कहा, वह
जिसने खाना
बनाया था, उसे
पीड़ा होती।
उसे अकारण
पीड़ा होती; उसे अकारण
दुख होता। वह
बहुत दीन और
गरीब था। उसकी
हंडी में
सब्जी भी इतनी
ही थी, मेरे
लायक। और वह
इतना आनंदित
था कि उसके
आनंद को
विषाक्त करने
का कोई भी तो
कारण नहीं था।
पर
लोगों ने कहा, आप
यह क्या कह
रहे हैं! आपकी
मृत्यु घटित
हो सकती है।
तो
बुद्ध ने कहा, मैं
तो उसी दिन मर
गया अपनी तरफ
से, जिस
दिन वासना
क्षीण हुई, जिस दिन
तृष्णा
समाप्त हुई।
आयु-कर्म है।
वह घड़ा जब तक
चल जाए!
तो अगर
इस घर में रखे घड़े को कोई
आकर डंडे से
फोड़ता होगा, तो
भी नहीं
रोकेगा। फोड़ने
भी नहीं जाएगा;
इसे कोई
डंडे से फोड़ता
होगा, तो
भी नहीं
रोकेगा। पर यह
आखिरी है, क्योंकि
अब दुबारा घड़ा
खरीदने इस तरह
की चेतना नहीं
जाती। दुबारा
उसका जन्म नहीं
है। जन्म-मरण
से मुक्ति का
इतना ही अर्थ
है कि जिसने
शून्य होने का
तय कर लिया, अब उसे पुनः घड़ों को
खरीदने का
प्रयोजन नहीं
रह गया है।
एक
सवाल और ले
लें।
कोई
पूछता है, मन
ही एक बाधा है,
उसके कारण
ही स्वयं का
साक्षात्कार
नहीं हो पाता।
इस मन को कैसे
खाली किया जाए?
सदा
ही हम ऐसा
सवाल पूछते
हैं। सवाल गलत
है। और गलत
होने की वजह
से जो भी
उत्तर मिलते
हैं,
वे हमारे
काम नहीं
पड़ते। ठीक
सवाल पूछना
बड़ी मुश्किल
बात है। ठीक
जवाब पाने से
ज्यादा मुश्किल
है! क्योंकि
ठीक सवाल उठ
जाए, तो
ठीक जवाब बहुत
दूर नहीं
होता।
हम सदा
यही पूछते हैं
कि मन को कैसे
रोका जाए? कैसे
शून्य किया
जाए?
नहीं, हमें
पूछना सिर्फ
इतना ही चाहिए
कि मन को कैसे
न भरा जाए? हाऊ
नॉट टु फिल
इट! हम पूछते
हैं, हाऊ
टु एम्पटी
इट? उसे
कैसे खाली
करें? पूछना
चाहिए कि कैसे
हम इसे न भरें?
क्योंकि
खाली तो वह है
ही। जिसको आप
खाली करने के
लिए पूछ रहे
हैं, वह
खाली है। खाली
आपको करना ही
नहीं है। आपकी
इतनी कृपा
काफी होगी कि
आप न भरें।
लेकिन
हम सदा पूछते
हैं,
कैसे खाली
करें? और
तब हम ऐसी
विधियां खोज
लाते हैं, जो
और भरने वाली
सिद्ध होती
हैं। क्योंकि
आप कुछ भी
करेंगे, पूछते
हैं, कैसे
खाली करें? तो आप कुछ और
साज-सामान ले
आएंगे खाली
करने का; उसको
भी इसी में भर
लेंगे। नहीं,
पूछें कि
कैसे हम न
भरें?
हम
चौबीस घंटे भर
रहे हैं। और
मजा यह है कि
यह भराव
करीब-करीब ऐसा
है कि अगर हम
दस मिनट भी न
भरें, तो
हजारों साल
हमने जो भरा
है, वह
खाली हो जाए।
यह मामला ऐसा
है कि जिसमें
हम भर रहे हैं,
वह शून्य
है। चूंकि हम
सतत भरते हैं,
इसलिए भरे
होने का भ्रम
बना रहता है।
अगर हम दस
मिनट को भी
रुक जाएं और न
भरें, तो
वह जो
जन्मों-जन्मों
का भरा है, वह
नीचे गिर जाए
और घड़ा खाली
हो जाए अभी।
क्योंकि नीचे बॉटमलेस
है। आपका जो
मन है, उसमें
नीचे कोई
तलहटी नहीं
है।
मगर
सतत भरते रहते
हैं। वह
करीब-करीब ऐसा
है,
जैसा कि आटे
की चक्की वाला
ऊपर से गेहूं
डालता जाता है
और नीचे से
आटा गिरता चला
जाता है। अब
वह कहता है, इस आटे को कैसे
रोकें? वह
यह नहीं पूछता
कि वह गेहूं
को डालना कैसे
बंद करें? वह
गेहूं
डालता चला
जाता है उधर
से और इधर से
कहता है, इसको
कैसे रोकें!
अब वह इसको
रोकने की
कोशिश करता है,
तो और झंझट
होती है।
क्योंकि वह गेहूं
पीछे से डाला
जा रहा है। तो
एक पांच मिनट
रोक दो, तुम्हें
इस आटे को
रोकने के लिए
कुछ न करना
पड़ेगा। यह
चक्की अपने से
खाली हो
जाएगी।
असली
सवाल यह है कि
हम कैसे भर
रहे हैं, उसे
जरा देख लें।
चौबीस घंटे भर
रहे हैं। एक दिन
ऐसा नहीं जाता
जिस दिन हम नई
वासनाएं
निर्मित न
करते हों। अगर
आप पुरानी
वासनाओं के
साथ ही रुक
जाएं एक दिन, तो उसी दिन
आप पाएं कि
खाली हो गए।
कल आपने जो-जो
वासनाएं की
थीं, कृपा
करके चौबीस
घंटे उतने पर
रुक जाइए। यह
कोई बहुत बड़ा
मामला नहीं है
कि कल जितना
किया था वासना,
उतने पर ही रुकूंगा।
कल अगर दस
रुपए चाहे थे,
तो दस रुपए
आज ही
चाहूंगा। आज
भी दस ही
चाहूंगा, कल
पर रुक जाता
हूं।
तो ये
चौबीस घंटे
में आप
मुश्किल में
पड़ जाएंगे; और
पाएंगे, खाली
होने लगे। अगर
आपको दस रुपए
की चाह बचानी
है, तो आज
आपको बीस
चाहने पड़ेंगे,
तो बचेगी।
आपको आज चाह
जारी रखनी
पड़ेगी, उसको
पोषण देना
पड़ेगा, उसे
बढ़ाते रहना
पड़ेगा, उकसाते
रहना पड़ेगा।
उसको भोजन और
खाद और पानी
देते रहना
पड़ेगा।
अगर आप
एक क्षण भी
रुके, तो यह
करीब-करीब
मामला ऐसा है,
जैसे कोई
साइकिल चलाता
है, पैडल
रोके कि गिरे।
पिछले पैडल पर
ही रुक जाएं, ज्यादा देर
साइकिल चलने
वाली नहीं है।
चढ़ाव पर
हुए, तो
उसी वक्त गिर
जाएगी; उतार
पर हुए, तो
थोड़ी दूर चल
सकती है। मगर
गिरेगी। कांसटेंट
पैडलिंग
जरूरी है
साइकिल चलाने
के लिए।
करीब-करीब मन के
चक्र को चलाने
के लिए भी कांसटेंट
पैडलिंग।
उसमें एक क्षण
की भी रुकावट
खतरनाक है, साइकिल गिर
जाएगी।
रोज हम
नई वासना
निर्मित करते
हैं,
रोज। किसी
का कपड़ा
दिखाई पड़ा, वासना
निर्मित हुई।
कोई मकान
दिखाई पड़ा, वासना
निर्मित हुई।
किसी का चेहरा
दिखाई पड़ा, वासना
निर्मित हुई।
हिलते-डुलते
भी नहीं जरा, जरा
हिले-डुले कि
वासना
निर्मित हुई।
उठे-बैठे कि
वासना
निर्मित हुई।
इस पर
सजग हों। भरने
के मामले में
सजग हों। खाली
की फिक्र छोड़
दें। खाली
आपसे न हो
सकेगा। खाली
कभी किसी से
नहीं हुआ।
भरने की भर
फिक्र छोड़ें।
और एक दिन आप
अचानक पाएंगे
कि भरना बंद है
और नीचे से
आटा आना चक्की
से बंद हो गया
है,
वह खाली पड़ी
है। भरने का
खयाल रखें, कहां-कहां
से भर रहे हैं!
पहले सजग हों;
जल्दी न
करें रोकने की;
पहले सजग
हों कि
कहां-कहां से
भरते हैं!
किस-किस भांति
भरते हैं! और
आदमी ऐसा है
कि आखिरी दम तक
भरे जाता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
को एक पागल
कुत्ते ने काट
लिया। दो-चार
दिन उन्होंने
कोई फिक्र ही
न की। लोगों
ने कहा भी कि पागल
कुत्ते का
मामला है, जाकर
डाक्टर को
दिखा लो। जब
दिखाया, तब
तक जहर फैल
चुका था।
चिकित्सकों
ने बैठक की और
उन्होंने कहा
कि नसरुद्दीन
को सीधा-सीधा
कह देना जरूरी
है। कह दिया
कि हाइड्रोफोबिया
हो गया। अब
सीमा के बाहर
है। पागल होकर
आप रहोगे।
बहुत देर कर
दी आने में।
सोचा
था,
नसरुद्दीन घबड़ा
जाएगा। नसरुद्दीन
ने कहा, कोई
हर्ज नहीं। एक
कलम-कागज ले
आओ। कलम-कागज!
सोचा डाक्टर
ने कि शायद
वसीयत लिखता
होगा; या
सोचा कि शायद
मित्रों को, पत्नियों को
चिट्ठी-पत्री
लिखता होगा।
लेकिन चेहरे
पर कोई चिंता
नहीं है, कोई
घबड़ाहट
नहीं है।
कागज-कलम दे
दिया। नसरुद्दीन
जब लिखने लगा,
तो घंटे भर
तक सिर न
उठाया।
डाक्टर भी
हैरान हुआ कि
कितना लिख रहा
है! जब लिख कर
सिर उठाया, डाक्टर ने
पूछा, क्या
वसीयत लिख रहे
हैं इतनी बड़ी?
या पत्र लिख
रहे हैं घर?
नसरुद्दीन ने
कहा कि नहीं, मैं
उन लोगों के
नाम लिख रहा
हूं, जिनको
काटूंगा।
पागल हो जाऊंगा
न! लिस्ट बना
रहा हूं। एक
दफा पागल हो
गए, फिर
लिस्ट न बना
पाए। जब पागल
होने ही जा
रहे हैं! और
उसने डाक्टर
से कहा, डोंट फील जेलस,
यू विल नॉट
बी डिप्राइव्ड।
तुम्हारा नाम
इसमें मैंने
रखा है। पहला
नंबर
तुम्हारा ही
रखा है।
यह जो नसरुद्दीन
है,
यह आदमी के
भीतर की बड़ा
ठीक खबर देने
वाला आदमी है।
अगर पागल
कुत्ता काट
जाए, तो
पहले यही खयाल
आएगा कि किसको
काटें। अब जो हो
गया, हो
गया। किसको
काटें? मरते
दम तक वासना
निर्मित होती
चली जाती है।
क्या कर लेना
है अब? उसकी
योजना बना लो;
वह लिस्ट
तैयार कर रहा
है। वक्त रहते
लिस्ट तो
तैयार कर लो।
भरने
की तरफ खयाल
रखें कि हम
प्रतिपल भर
रहे हैं। और
जितना सजग हो
जाएंगे भरने
के प्रति, उतना
ही धीरे-धीरे
पाएंगे कि
भरना बिलकुल
फिजूल है।
जिंदगी भर भर
कर तो भर नहीं
पाए! अनेक जन्मों
भर कर नहीं भर
पाए! इधर से
भरते हैं, इधर
से सब निकल
जाता है।
लेकिन भरने का
भ्रम कभी
छूटता नहीं, क्योंकि
भरने पर हम
ध्यान ही नहीं
देते।
नसरुद्दीन की
एक कहानी और।
फिर मैं बात
पूरी करूं। एक
युवक उसके पास
आया है और
उसने कहा कि
कैसे कहते हो नसरुद्दीन
कि मन को खाली
करें? कैसे? नसरुद्दीन ने कहा कि
अभी तो मैं
कुएं पर पानी
भरने जा रहा
हूं, तू
मेरे पीछे आ, और बीच में
सवाल मत
पूछना। अगर
सवाल पूछा, तो भगा
दूंगा। लौट कर
जवाब दूंगा।
नसरुद्दीन ने
दो बालटियां
उठाईं और
भागा कुएं पर।
वह युवक
साथ-साथ गया। नसरुद्दीन
ने एक बालटी
तो रखी कुएं
के पाट पर।
युवक थोड़ा हैरान
हुआ,
जब उसने
बालटी को रखा
जाते देखा।
देखा कि उसमें
कोई नीचे
तलहटी थी ही
नहीं। खाली
ड्रम था। दोनों
तरफ कुछ न था।
पर उसने कहा
कि इस मूरख ने
कहा है कि बीच
में सवाल न
पूछना। फंस
गए! यह तो कभी
भरने वाली
नहीं है। अब
बुरे फंस गए।
और जब तक, यह
बोलता है, भर
न जाए, घर न लौटूं, तब
तक सवाल-जवाब
कुछ होगा
नहीं। और यह
कब भरेगी? यह
भर ही नहीं
सकती। मगर
उसने सोचा, थोड़ा तो
साहस रखो। एक
मिनट, दो
मिनट देखो तो,
यह करता
क्या है।
नसरुद्दीन ने
नीचे बालटी
डाली। पानी
खींच कर उस
खाली ड्रम में
डाला। जब तक
उन्होंने
डाला, तब तक वह
निकल गया।
उन्होंने
दूसरी बालटी
नीचे डाली। दोत्तीन
बालटी निकल
चुकीं।
उस
युवक ने कहा
कि ठहरो
महानुभाव, अब
मुझे पूछना भी
नहीं है। अगर
आप जवाब भी
देते हों लौट
कर, हमको
पूछना नहीं
है। लेकिन एक
सलाह आपको दे
दें।
नसरुद्दीन ने
कहा कि चुप!
अक्सर मैं
देखता हूं कि
जो लोग सीखने
आते हैं, वे
जल्दी से
सिखाना शुरू
कर देते हैं।
यू केम एज
ए डिसाइपल
एंड नाऊ यू
हैव बिकम
मास्टर। अब
तुम हमको एडवाइस
दे रहे हो।
गुस्ताख, इस
तरह की बात
दुबारा नहीं
करना। खड़ा रह
अपनी जगह पर!
उस
आदमी ने कहा
कि लेकिन यह
भरेगी कब, जरा
खयाल तो करिए!
आप तीन बालटियां
डाल चुके हैं।
कुछ भी पानी
एक बूंद नहीं
बचा है।
नसरुद्दीन ने
कहा कि दुनिया
में जब कोई भी
खयाल नहीं कर
रहा है, तो
मैंने ही ठेका
लिया है गलत
बातों का खयाल
करने का? जन्म-जन्म
से भर रहे हैं
लोग, और
नहीं भरा। और
खयाल नहीं कर
रहे हैं। तो
हमने तो अभी
तीन ही बालटी
डाली हैं। ऐसा
तो कुछ...। तू
चुप रह!
वह
थोड़ी देर और
खड़ा रहा। नसरुद्दीन
ने और दस-पांच बालटियां डालीं।
उसने कहा कि
थोड़ा तो खयाल
करिए। एक सीमा
होती है। जरा
ऊपर नजर तो
डालिए।
नसरुद्दीन ने
कहा कि मुझे
इससे प्रयोजन
नहीं है कि
बालटी भरती है
या नहीं भरती है।
मैं अपना
पुरुषार्थ
पूरा करके
रहूंगा। हम भर
कर रहेंगे। हम
बालटी से
पूछने नहीं
जाएंगे। हम तो
भर कर रहेंगे।
हमारा काम
भरना है। बालटी
न भरेगी? देखें,
कैसे नहीं
भरती है!
उस
युवक ने कहा, मैं
जाता हूं, नमस्कार!
वह चला गया।
लेकिन
रात उसे नींद
न आई कि यह
आदमी! क्या
मतलब रहा होगा
इसका? बार-बार
जितना सोचा, उतना उसे
लगा कि भूल हो
गई। थोड़ा
रुकना था। पता
नहीं, वह
अभी भी भर रहा
है या क्या कर
रहा है? वह
तो जैसे ही वह
आदमी गया था, नसरुद्दीन अपने घर
अपनी बालटी
लेकर चले गए
थे। वह आधी रात
उठ कर कुएं पर
पहुंचा, देखा
कि जा चुका
है। नसरुद्दीन
के घर पहुंचा,
देखा कि वह
सो रहा है।
उसे उठाया और
कहा कि क्या
हुआ? वह
बालटी भरी कि
नहीं?
नसरुद्दीन ने
कहा,
पागल, वह
तेरे लिए रखी
थी।
हम
अपने मन को भर
रहे हैं
जन्मों-जन्मों
से। और जन्मों
को छोड़ दें, क्योंकि
इतना पुराना
है, वह
हमें भूल गया।
इस जन्म में
भी हम भर रहे
हैं। कभी खयाल
किया कि जिस
चीज से आपने
भरा है, उसमें
से रत्ती भर
भी भीतर बचा
है? कितनी
बार क्रोध
किया, कितना
बचा है? कितनी
बार भोग किया,
कितना बचा
है? क्या-क्या
किया, उसमें
से बचा क्या
है? आपकी
संपदा क्या है
उसमें से? बालटी
खाली है। और
हम पूछते हैं
कि बालटी को
खाली कैसे करें?
मजा यह है
कि बालटी खाली
है। वह भरी ही
नहीं है। आपको
खाली करने की
जरूरत नहीं
है। कृपा करके
आप उसे भरने
की जो पागलपन
में लगे हैं, देख ही नहीं
रहे हैं खाली
बालटी की तरफ,
कुएं में
डाल रहे हैं, भर रहे हैं, डाल रहे
हैं...।
जैसे नसरुद्दीन
किसी से पूछे
कि यह जो ड्रम
रखा है कुएं
के पाट पर, इसको
खाली कैसे
करें, वैसे
ही हमारा
पूछना है। मन
भरा कहां है? किसको खाली
करने की बात
है? मन
खाली है।
लेकिन इतने
जोर से हम
भरते चले जाते
हैं कि पता ही
नहीं चलता कि
यह मन खाली
है।
इस भरने
पर थोड़ा ध्यान
रखें। और
जो-जो भरा हो
अब तक और कुछ
भी न भर पाया
हो,
उससे थोड़े
सजग हों। एक
चौबीस घंटे के
लिए कोई राजी
हो जाए कि
नहीं भरूंगा!
वह पाएगा, यह
मन सदा से
खाली है, इसमें
कभी कुछ भरा
ही नहीं जा
सका है।
तो
उलटा मत
पूछें। गलत
सवाल न उठाएं।
गलत सवाल गलत
जवाबों में ले
जाते हैं। ठीक
सवाल ठीक जवाब
में ले जाता
है। ठीक सवाल
यह है कि हम जो
भर रहे हैं, यह
कैसे न भरें?
और
कैसे न भरें
का इतना ही
मतलब है, थोड़ा
सजग हो जाएं।
अगर आपको पता
चल जाए कि यह ड्रम
दोनों तरफ से
टूटा है, तो
फिर आप भरेंगे?
हाथ से
बालटी छूट
जाएगी; हंसेंगे
और घर लौट
जाएंगे।
उस
शून्य को लाना
नहीं है, वह
शून्य हमारे
भीतर है।
चमत्कार तो यह
है कि हमने उस
शून्य को भी
भरा हुआ जैसा
बना रखा है। ऐसा
लगता है कि सब
भरा हुआ है।
इस भ्रम के
प्रति जागना
पर्याप्त है।
कुछ
और सवाल रह गए
हैं। अगली बार
जब बैठक होगी
तब उनको चर्चा
कर लेंगे।
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