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बुधवार, 17 सितंबर 2014

आत्म पूजा उपनिषद--प्रवचन-03

(निर्वासना अज्ञात के लिए द्वार)-ओशो


बंबईदिनांक 17 फरवरी, 1972, रात्रि 
प्रवचन—तीसरा  

सर्व कर्म निराकरण आवाहन।

      सब कर्मों के कारण की समाप्ति ही आवाहन है।

      धर्म कोई कर्म-कांड नहीं है, कोई शास्त्र-विधि नहीं है। वास्तव में, जब कोई धर्म मृत हो जाता है, वह कर्म-कांड हो जाता है। धर्म का मृत शरीर ही कर्म-कांड हो जाता है, परन्तु सब जगह कर्म-कांड ही पाया जाता है। यदि आप धर्म को खोजने जाएं, तो आप कर्म-कांड ही पाएंगे। ये सारे नाम--हिंदू, मुसलमान, ईसाई--ये धर्मों के नाम नहीं हैं। ये विशेष कर्म-कांडो के नाम हैं। कर्म-कांड से मेरा तात्पर्य है कि कुछ बाहर की ओर किया जाए ताकि आंतरिक क्रांति पैदा हो सके। यह ओर किया जाए ताकि आंतरिक क्रांति पैदा हो सके। यह विश्‍वास, कि कोई बाह्य क्रिया आंतरिक क्रांति उत्पन्‍न कर सकती है, कर्म-कांडो को जन्म देता है। यह विश्‍वास क्यों पैदा होता है? यह इसलिए पैदा होता है, क्योंकि यह एक बिलकुल प्राकृतिक घटना है। 

जब कभी आंतरिक क्रांति होती है, जब कभी अंतस में परिवर्तन होता है, जब कभी भीतर रूपांतरण होता है, तो उसके पीछे-पीछे बहुत सी बाह्य बातें व चिन्ह प्रकट होते हैं। ये बाहरी चिन्ह अपरिहार्य हैं क्योंकि अंतस में जो होता है, वह बाहर से जुड़ा होता है। भीतर ऐसा कुछ भी घटित नहीं हो सकता, जो कि बाह्य को प्रभावित न करे। उसका प्रभाव होगा, परिणाम होंगे, परछाइयाँ बनेंगी, बाह्य व्यवहार पर भी। यदि आप भीतर क्रोध अनुभव करते हैं, तो आपका शरीर विशेष भाव-भंगिमा बनाने लगता है। यदि आप भीतर शांति का अनुभव करते हैं, तो आपका शरीर दूसरी भाव-भंगिमा बनाने लगता है। जब भीतर शांति होती है, तो शरीर इस शांति को, उस आंतरिक शांति, को व स्थिरता को कई प्रकार से प्रदर्शित करता है। परन्तु यह सदैव द्वितीय बात है, प्राथमिक नहीं बाह्य परिणामस्वरूप है, यह कारण नहीं हैं।
           
      यदि बुद्ध अभी यहां हों, तो हम यह नहीं देख सकते कि उनके भीतर क्या हो रहा है। परन्तु हम यह देख सकते हैं और देखेंगे कि उनके बाहर क्या हो रहा है। बुद्ध के स्वयं के लिए भीतर जो है कारण है और बाह्य है परिणाम। हमारे लिए, बाह्य पहले होगा देखने को और तब अंतस के बारे में अनुमान लगाया जाएगा। इसलिए दर्शकों के लिए बाह्य, द्वितीय आधारभूत बन जाता है, प्राथमिक बन जाता है। हम कैसे जान सकते हैं कि बुद्ध की अंतश्‍चेतना में क्या हो रहा है? हम उनके शरीर को देख सकते हैं उनके चलने-फिरने को, उनके हाव-भावों को। वे सब अंतस से संबंधित हैं। वे कुछ दर्शाते हैं, परन्तु वे कारण की तरह नहीं, वरन परिणाम स्वरूप हैं।
           
      यदि आंतरिक है, तो बाह्य भी पीछे-पीछे आएगा। इसका उल्टा ठीक नहीं है। यदि बाह्य है तो अनिवार्य नहीं है कि उसका अनुगमन करेगा। कोई जरूरी नहीं! उदाहरण के लिए यदि मैं क्रोध में हूं, तो मेरा शरीर क्रोध प्रकट करेगा, परन्तु मैं अपने शरीर में क्रोध दिखला सकता हूं बिना भीतर बिलकुल भी क्रोधित हुए। एक अभिनेता यही कर रहा है। वह अपनी आंखों से क्रोध प्रकट कर रहा है, हाथों से क्रोध प्रकट कर रहा है। वह प्रेम व्यक्त कर रहा है। भीतर बिना जरा भी प्रेम अनुभव किए। वह भय प्रकट कर रहा है, उसका सारा शरीर कांप रहा है, हिल रहा है, परन्तु भीतर कोई भय नहीं। बाह्य हो सकता है बिना आंतरिक के। हम उसे आरोपित कर सकते हैं। कोई कारण, आधार, आवश्‍यकता अथवा अनिवार्यता नहीं है कि अंतस बाह्य का अनुगमन करे। बाह्य हमेशा अंतस का अनुगमन करता है, परन्तु इसका उल्टा कभी नहीं होता। कर्म-कांड इसी
भ्रम के कारण पैदा होता है।
           
      हम बुद्ध को सिद्धासन में बैठे देखते हैं--जो कि शरीर के लिए एक बहुत ही विश्राम की स्थिति हैं। यह आसान आंतरिक शांति के परिणाम स्वरूप आया है। चेतना इतनी स्थिर हो गई है कि शरीर उसका अनुगमन करता है और शरीर, साथ-साथ जो सबसे अधिक आराम का आसान हो कसता है, ले लेता है। हमारे लिए शरीर पहली चीज है, जो कि खयाल में आता है। वस्तुतः बात बिलकुल विपरीत है--क्योंकि बुद्ध मुक्ति को प्राप्त हुए, यह आसन आया। यह आसन कारण नहीं है। इसलिए आप इस आसन का अभ्यास कर सकते हैं। आप इस आसन में अभ्यस्त हो सकते हैं। परन्तु मुक्ति के लिए प्रतीक्षा न करें। आसन तो होगा, परन्तु मुक्ति नहीं आएगी।
      कोई प्रार्थना कर रहा है। उसके हाथ उपर उठे हुए हैं, अथवा उसका सिर अज्ञात के चरणों में झुका हुआ है। यह बाहरी आसन आता है। जब भीतर समर्पण घटित होता है, जब भीतर कोई शून्य को अनुभव करता है, जब कोई ऐसा अनुभव करता है कि वह उस असीम में विलय हो रहा है, तो यह आसन अपने से आता है। आप आसन की नकल कर सकते है, परन्तु उससे समर्पण नहीं आएगा।
     
      और जब मैं यह कहता हूं कि यह आसन आता है, तो इसका यह अर्थ नहीं होता है कि सब के साथ ही यह आसन होगा। प्रत्येक व्यक्ति की भिन्‍नताएं होंगी। यह निर्भर करेगा संस्कृति पर, संस्कार पर, जलवायु पर। क्या आएगा, यह बहुत सी बातों पर निर्भर करेगा। उदाहरण के लिए, यदि बुद्ध भारत में पैदा न हों और ऐसी संस्कृति में, ऐसे समाज में पैदा हो जहां कि कोई भी जमीन पर नहीं बैठता हो, तो क्या आप सोचते हैं कि उन्हें ज्ञान उपलब्ध नहीं होगा! वह उपलब्ध होगा कुर्सी में। हां, जब कुर्सी में बैठे होंगे, तो वे दूसरी ही तरह से बैठे होंगे। जब उन्हें ज्ञान उपलब्ध होगा, तो वे बिलकुल आराम की स्थिति में होंगे। परन्तु बाहरी रूप से यह आराम की स्थिति सिद्धासन से भिन्‍न होगी।
     
      महावीर को मुक्ति एक बिलकुल ही विचित्र आसन में उपलब्ध हुई। उसे गोदुग्ध आसन कहते हैं--वह आसन, जिसमें एक ग्वाला गाय दुहता है। आसन में महावीर को मोक्ष का ज्ञान हुआ। इसके पहले भी और इसके बाद भी कभी किसी ने इस आसन में मुक्ति प्राप्त नहीं की। वे गाय नहीं दुह रहे थे। तब फिर यह आसन क्यों आया? जरूर इसका संबंध महावीर की शारीरिक आदतों से है। हो सकता है कि इसका संबंध उनके पिछले जन्मों से हो। ऐसा क्यों घटित हुआ, कुछ भी पता नहीं। परन्तु मूल बात यही है कि बाह्य बातें अंतर-घटना आए का अनुगमन करती हैं।
     
      वे कोई स्थिर नियम नहीं हैं। व्यक्ति-व्यक्ति में वे भिन्‍न होते हैं। यह कई बातों पर निर्भर करता है। परन्तु समाज एक अनिवार्य संबंध अनुभव करने लगता है, एक कार्य कारण का संबंध बाहरी वे भीतर वस्तुओं में, तब कर्म कांड का जन्म होता है। कर्म-कांड का मतलब होता है कि हम बाहर कुछ करेंगे और भीतर कुछ होगा। यह एक सबसे बड़ी भांति है जो संभव है और यह भांति प्रत्येक धर्म को नष्ट कर देती है। प्रत्येक धर्म अंततः एक कोरा कर्म-कांड बन कर रह जाता है। इस उपनिषद में, यह जो कर्म-कांड वाली हमारी समझ है उसको पूरी तरह से मना किया गया है, परन्तु उसका निषेध बड़े ही विधायक ढंग से किया गया है। इसलिए एक बात बड़ी स्पष्टता से समझ लेना है। जहां तक भारतीय चिंतन का संबंध है, उपनिषदों का जन्म एक बहुत ही क्रांतिकारी युग में हुआ था। वेदों के खिलाफ एक बड़ा भारी विद्रोह उठ खड़ा हुआ। ओर जब
मैं वेदों के विषय में कहता हूं तो मेरा आशय है वेदों के इर्द-गिर्द जो कर्म-कांड का ढांचा खड़ा हो गया था,
उससे।
     
      वे एक मृत कर्म-कांड थे। प्रत्येक बात एक कर्म-कांड बन गई थी। धर्म कोई गहरी बात नहीं थी। वह कोई चेतना से व उसके रूपांतरण से संबंधित नहीं थी। वह केवल कुछ बातें करने से प्रयोजन रखती थी। यदि आप यह करोगे, तो आपको यह मिलेगा। यदि आप वह करोगे, तो आपको वह मिलेगा। और हर एक कर्म-कांड स्थिर था, जैसे कि वह कोई विज्ञान हो। यह प्रार्थना करो और वर्षा होगी। वह प्रार्थना करो और आपका दुश्‍मन मारा जाएगा। यह प्रार्थना करो और आप विजय प्राप्त करेंगे। यह करो और ऐसा होगा। और इसको ऐसा बतलाया जाता था जैसे कि वह कोई विज्ञान हो। इस कर्म-कांड के ढांचे ने भारतीय मनीषा की प्रगति करती हुई चेतना का हनन कर डाला। एक क्रांति उसके पीछे आई। उसका आना अनिवार्य था। उसने दो रूप लिए।
     
      एक निषेधात्मक था--जैन व बौद्ध चिंतन-धाराओं का आविर्भाव। इन दो चिंतन धाराओं ने एक बहुत ही निषेधात्मक मोड़ लिया। उन्होंने कहा कि सब कर्म-कांड अर्थहीन हैं, व्यर्थ हैं, इसलिए सब कर्म-कांडो को बंद कर देना चाहिए। यह एक पूरी तरह निषेधात्मक विचार था। उपनिषद भी कर्म-कांडो के विरुद्ध थे, परन्तु उन्होंने एक बहुत ही विधेयात्मक रुख लिया। उन्होंने कहा कि कर्म-कांड निरर्थक नहीं हैं, परन्तु आप उनका गलत अर्थ समझते हैं।
     
      यह सूत्र यज्ञ से संबंधित है तथा आवाहन से। आवाहन का अर्थ होता है कि इसके पहले कि आप कोई पूजा करें, आप यज्ञ करें या कोई प्रार्थना करें, सबसे पहले आप उस अर्थ होता है उनको बुलाना, उनको निमंत्रण देना। जहां तक ऐसा है, अच्छा है। आप प्रार्थना कर सकते हैं, जब तक कि आप निमंत्रण नहीं देते हैं? आप समर्पण कैसे कर सकते हैं, जब तक कि आप आवाहन नहीं करते।
     
      अतः दो रीतियां हैं। निषेधात्मक रीति यह है कि सब व्यर्थ है, क्योंकि कोई देवता नहीं हैं। दूसरी बात यह कि उनका कोई नाम नहीं है यदि वे हैं तो भी। तीसरी बात यह है कि यदि उनका नाम अगर कुछ है, फिर भी वे कोई प्रतिसंवेदन नहीं करेंगे क्योंकि जो कुछ भी आप कर रहें हैं वह मात्र एक रिश्‍वत है, एक स्तुति है। क्या तुम सोचते हो कि तुम अपनी स्तुति से प्रार्थनाओं से, रिश्‍वत से उनका आवाहन कर सकते हो? और यदि आप सोचते हैं कि आप उन्हें बुला सकते हैं, आवाहन कर सकते हैं, उन्हें निमंत्रित कर सकते हैं, तब फिर वे इसके योग्य नहीं, क्योंकि यदि आप उन्हें रिश्‍वत दे सकते हैं, तो वे भी आपके जैसे ही हुए। भाषा वही है और वही लेबल भी। इसलिए वे इसके योग्य नहीं। बुद्ध ने कह है--कोई देवता नहीं है, और यदि वे हैं भी तो भी वे मनुष्यों से उपर नहीं हैं। आप उन्हें फुसला सकते हैं, आप उन्हें रिश्‍वत दे सकते हैं अपनी
स्तुति से। आप उन्हें कुछ करने के लिए अथवा न करने के लिए बाध्य कर सकते हैं। इसीलिए वे आपसे उपर नहीं हुए। तब उन्हें बुलाया जा सकता है। उपनिषदों ने दूसरा ही रुख लिया। वे कहते हैं कि देवता गण हैं, और उनका आवाहन संभव है। परन्तु वे इस आवाहन को गहन अर्थ देते हैं। वे कहते हैं कि सब कर्मों के कारण की समाप्ति ही आवाहन है। वे किसी भी चीज के लिए मना नहीं करते। वे एक नया ही अर्थ देते हैं और कर्म-कांड अकर्म-कांड बन जाते हैं। वे कहते हैं, सचमुच, आवाहन संभव है परन्तु आवाहन का तात्पर्य होता है सब कर्मों के कारण का समाप्त हो जाना। वे वही बात कहते हैं जो कि बुद्ध कहते हैं।
     
      बुद्ध निषेध करते हैं। वे कहे हैं कि कोई आवाहन नहीं है। केवल एक ही मार्ग है कि तृष्णा-रहित हो जाया जाए। इसलिए किसी से भी किसी मदद के लिए मत कहो। कोई तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता। मात्र बिना चाह के हो जाएं और आप निर्वाण को उपलब्ध हो जाएंगे, आनंद को, शांति को, उस आत्यंतिक को पा लेंगे। इसलिए किसी की मदद न मांगें। किसी का आवाहन न करें। केवल अच्छा-रहित हो जाएं। और यह बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि जो देवता को निमंत्रण दे रहा है वह इसलिए दे रहा है, क्योंकि उसकी कोई इच्छा है। वह कुछ चाहता है--धन, यश, विजय का कुछ और चीज। वह देवता को बुला रहा है, किसी वस्तु के लिए प्रार्थना कर रहा है। इसलिए बुद्ध कहते हैं कि आप एक अच्छा से दूसरी इच्छा पर दौड़ रहे हैं। और यह इच्छाओं के पीछे दौड़ना ही दुख है। और आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता, जब तक कि आप लालसा
रहित नहीं हो जाते।
     
      सब कर्मों के कारण का समाप्त हो जाना, इसका अर्थ होता है--चाह-रहित हो जाना। किसी भी कर्म का क्या कारण होता है? आप इतने कर्मों में क्यों पड़े हैं? क्यों है यह लगातार दौड़? क्या है कारण? कारण है, लालसा। इसलिए बहुत ही काव्यात्मक ढंग से उपनिषद कर्म-कांड को मना करते हैं और फिर भी नाम को मना नहीं करते। वे कर्म कर्म-कांड का तो निषेध करते हैं, परन्तु उनकी आत्मा को नहीं।
     
      बुद्ध असफल हो गए, क्योंकि एक निषेधात्मक चित्त लंबे समय तक सफल नहीं हो सकता। वह बहुत प्रभावित करने वाला हो सकता है, क्योंकि नकारात्मक ढंग बहुत जोर से चोट करता है। वह बहुत तर्कपूर्ण हो सकता है, क्योंकि ना कहना बहुत बड़ी तरकीब है तार्किक होने के लिए। वास्तव में, जब कभी आप ना कहना चाहते हैं, आपको तर्क की आवश्‍यकता होती है। यदि आप हां कहना चाहते हैं, तो आपको किसी तर्क की कोई आवश्‍यकता नहीं। आप बिना किसी कारण के हां कह सकते हैं, परन्तु आप बिना तर्क के ना नहीं कह सकते। जैसे आप ना कहते हैं, तर्क की जरूरत होती है। इसलिए न सदैव तर्कपूर्ण होता हैं। एक आधुनिक तर्कनिष्ठ, डि बोनो कहता है कि तर्क का उद्देश्य ना कहना होता है एक बड़े ही तार्किक ढंग से। तर्क का उद्देश्य ही ना कहना है और फिर कारण, प्रमाण जुटा देना है ना कहने के लिए। बुद्ध ने ना कहा। उसने भारी प्रभाव किया। उनकी पहुंच तर्कपूर्ण, बुद्धिगत थी। हर बड़ी भरी-पूरी थी, परन्तु फिर भी भारतीय भूमि में उनकी जड़े नहीं ज़मीं। वे जल्दी ही उखड़ गए। और यह एक बड़ा ही विचित्र तथ्य है। उन्हें चीन, जापान, बर्मा व लंका में सब जगह, भूमि मिली: परन्तु भार में नहीं मिली। परन्तु बौद्ध साधुओं को अपनी त्रुटि मालूम पड़ गई जब उन्होंने भारत छोड़ा। ना ही उनकी भूल थी। इसलिए उन्होंने नकारात्मक रुख का फिर कभी भी उपयोग नहीं किया: जहां कहीं भी वे गए वे विधेयात्मक हो कर गए। इसलिए इन्होंने चीन में हां कहना शुरू किया, लंका में हां कहा, जहां भी वे फिर गए सफल हुए।
     
      हां में एक बड़ा जादुई रहस्य छिपा है सफलता का। हो सकता है बुद्धि को प्रभावित नहीं करे। वह हृदय के प्रभावित करता है, और आखिर में हृदय की जीत होती है--बुद्धि की कभी नहीं। वास्तव में बुद्धि कभी नहीं जीतती अंततः। आप किसी को तर्क से चुप कर सकते हैं, परन्तु आप उसे बदल नहीं सकते। आप उसका परिवर्तन कभी नहीं कर सकते। यहां तक कि वह आपके विरुद्ध कुछ भी न कहे, तो भी वह अपने मन में अपनी ही बात के प्रति आश्‍वस्त रहेगा। इसलिए बुद्ध ने बहुत प्रयत्न किया--ना के साथ--सब जगह ना जो कुछ भी वे कह रहे थे, वह वही था जो उपनिषद कह रहे थे। वह जरा भी भिन्‍न नहीं था। केवल उन्होंने जो विधि चुनी थी, वह ना की थी, और हो सकता है कि उसका कारण यह यहां हो कि वे एक क्षत्रिय थेएक लड़नें वाले। और एक लड़नें वाला सिपाही ना के साथ जीता है।
     
      उपनिषद ब्राह्मणों के द्वारा आए। वे भिखारी थे और एक भिखारी हां के साथ जीता है। यहां तक कि यदि आप ना भी कर दें, एक वास्तविक भिखारी, एक प्रामाणिक भिखारी आपको आशीर्वाद देगा। वह समग्र रूप से हां के साथ जीता है। वही उसका रहस्य है। वह ना का उपयोग नहीं कर सकता। और एक सेनानी, एक क्षत्रिय हां का उपयोग तभी कर सकता है, जब कि वह हार जाए, परन्तु वह अपने दिल से कभी हां नहीं कहेगा। वह ना कहना जारी रखेगा। सारे जैन तीर्थकर क्षत्रिय थे। बुद्ध भी क्षत्रिय थे। उन दोनों ही ने नकारात्मक ढंग अपनाया।
     
      उपनिषद विधेयात्मक हां पर आधारित हैं। वे हां कहने वाले हैं। यहां तक कि यदि उन्हें ना भी कहना हो, तो वे इस ढंग से कहेंगे कि हां का उपयोग हो सके। वास्तव में, यह उपनिषद कह रहा है कि कोई आवाहन नहीं है, कोई इनवोकेशन नहीं है, परन्तु ना का उपयोग नहीं किया गया। वे उसे हां में बदल देते हैं। वे कहते हैं, सर्व कर्म निराकरण आवाहन--सब कर्मों के कारण की समाप्ति ही आवाहन है। यह वेदों के पंडितों के आवाहन से जरा भी संबंधित नहीं। यह उनसे जरा भी जुड़ा हुआ नहीं है। यह संतों की विद्रोही शिक्षा से संबंधित है, जो कहती है कि तृष्णा-रहित हो जाना ही आत्यंतिक शुद्धता की स्थिति है। और जब तक आप शुद्ध नहीं होते, आप प्रभु को कैसे निमंत्रित कर सकते हैं? सचमुच, शुद्ध होना ही निमंत्रण है। जिस क्षण भी आप शुद्ध हो जाते हैं, जिस क्षण भी हृदय पवित्र हो जाता है, परमात्मा का आगमन हो जाता है। मात्र शुद्ध
होना ही निमंत्रण है। इसलिए पुकारें नहीं, परमात्मा के लिए चिल्लाएं नहीं। बस केवल पवित्र हो जाएं, और वह आ जाता है।
     
      इस शुद्धता को कैसे उपलब्ध करें, और क्यों हैं हम अशुद्ध? भारतीय मनीषी हमेशा ही इच्छा और अनिच्छा की भाषा में सोचता रहा है। वस्तुतः जो कुछ हम हैं, उसे एक लालसा में संक्षिप्त किया जा सकता है। जो कुछ भी हम हैं, वह सब अपनी इच्छा के कारण से हैं। यदि हम दुखी हैं, यदि हम दासता में हैं, यदि हम अज्ञानी हैं, यदि हम अंधकार में डूबे हैं, यदि जीवन एक लंबी मृत्यु है, तो वह केवल इच्छा के कारण है। क्यों है वह दुख? क्योंकि हमारी इच्छा पूरी नहीं हुई। इसलिए यदि आपको कोई इच्छा नहीं है, तो आप निराश कैसे होंगे? यदि आप निराश होना चाहते हैं, तो और अधिक इच्छा करें, बस और आप निराश हो जाएंगे। यदि आप और दुखी होना चाहते हैं, तो अधिक अपेक्षा करें, अधिक लालसा करें, और अधिक आकांक्षा से भरें और आप और भी अधिक दुखी हो जाएंगे। यदि आप दुखी होना चाहते, तो फिर कोई इच्छा न करें। यही आंतरिक जगत के काम करने का गणित है। इच्छा ही दुख को उत्पन्‍न करती है। यदि लालसा
असफल हो जाए, तो वह अनिवार्यतः दुख को नि£मत करती है। परन्तु यदि इच्छा सफल भी हो जाए, तो भी वह दुख को ही जन्म देती है, क्योंकि तब आप जैसे ही सफल होते हैं, आपकी लालसा आगे बढ़ गई होती है। वह और अधिक की मांग करती है।
     
      वास्तव में, इच्छा सदैव ही आपसे आगे रहती है। जहां कहीं भी आप होंगे, इच्छा आप से आगे होगी और आप कभी भी उस बिंदु को नहीं पहुंच पाएंगे, जहां कि आप और आपकी इच्छा मिल सकें। इच्छा का केंद्र सदा ही भविष्य में होता है, वर्तमान में कभी भी नहीं। आप सदैव ही वर्तमान में होते हैं और इच्छा सदा ही भविष्य में होती है। जहां कहीं भी और जब कभी भी आप होते हैं, तो आप वर्तमान में होते हैं, और इच्छा सदैव ही भविष्य में होती है। वह बस क्षितिज की भांति होती है। आप देखते हैं कि बस कुछ ही मील दूर पर आकाश पृथ्वी को छू रहा है, और इतना ही वास्तविक है। परन्तु आगे बढ़ें और जाकर देखें उस जगह जहां पर आसमान पृथ्वी को छूता है जितना आप आगे जाते हैं, क्षितिज भी उतना ही आगे बढ़ जाता है। दूसरी सदैव वही रहती है।
     
      वास्तव में, वह कहीं छूता नहीं। वह छूना: वह संबंध की रेखा मात्र एक भ्रम है, झूठ है। इसलिए जब आप उस क्षितिज को खोजने जाएंगे तो आप उसे कहीं भी नहीं पाएंगे। वह सदैव वहां होगा, परन्तु आप उससे कभी भी नहीं मिल जाएंगे। आप इसी भ्रम में रह सकते हैं कि क्षितिज वहां पर है, बस थोड़ा ही अंतर और पार करना है। आप सारी पृथ्वी का चक्कर लगा सकते हैं और अपने घर लौट सकते हैं, परन्तु आप क्षितिज को कहीं भी नहीं पाएंगे। परन्तु भ्रांति बनी रह सकती है।
     
      इच्छा भी क्षितिज की भांति है। ऐसा प्रतीत होता है कि दूरी ज्यादा नहीं--जरा ही प्रयत्न और, जरा ही तेजी और, वह बिलकुल पास ही है। परन्तु आप वहां कभी नहीं पहुंचते। वह सदैव ही पास है और अंतर सदैव वही रहता है। कितना ही दौड़े आप, दूसरी सदैव ही वही की वही है।

      क्या कभी भी कोई इच्छा पूरी हुई? दूसरों से न पूछो, स्वयं अपने से पूछो। क्या कभी भी आपकी कोई लालसा पूरी हुई? परन्तु हम इतना भी सोचने के लिए नहीं ठहरते। हमारे पास वक्त ही नहीं है अतीत के बारे में सोचने के लिए: भविष्य के ख़्यालों में हम इस तरह खोए हैं। हम क्षितिज पर पहुंचने की इतनी जल्दी में हैं कि कौन सोचे कि हम कितनी ही बार इस क्षितिज को चूक चूके हैं। जल्दी इतनी है और जीवन इतना छोटी है, और दौड़ना है, दौड़ते जाना है।
     
      क्या आपने कभी भी कुछ भी इच्छा से पाया है या सदैव निराशा ही हाथ लगी है? राख हाथ में बचती है और तो कुछ भी नहीं। परन्तु कोई भी हाथ में राख को नहीं देखता। कोई भी निराशा को नहीं देखता। आंखें फिर दूर क्षितिज की ओर लग जाती है। यह क्षितिज पर आंखों का गड़ जाना ही सब कर्मों का कारण है। और कर्म हमारा पूर्ण नहीं होता: क्योंकि हमारे सारे कर्म पागल कैसे हैं। यदि वहां कोई क्षितिज ही नहीं है तो फिर आपकी सब दौड़ पागल की सी है। इसलिए इच्छा ही सारे कर्म की कारण है, सारे दुख की, सारी अशुद्धता की और हमारे सारे अज्ञान की।
     
      कारण की समाप्ति, अच्छा की समाप्ति ही आवाहन है। यदि आप इच्छा करना बंद कर दें, तब दौड़ नहीं होगी--किसी चीज के पीछे दौड़ नहीं, भीतर कोई गति नहीं, कोई लहर नहीं--मात्र एक शांत चेतना की झील--एक बिना लहर की शांत, निष्कंप झील। उपनिषद कहते हैं, ऐसी चेतना की स्थिति ही आवाहन है। परन्तु क्या इसका तात्पर्य यह है कि जब इच्छा उठनी बंद हो जाती है, तो क्या सारे काम भी रुक जाते हैं? हमने कृष्ण को चलते हुए देखा है, बहुत कुछ करते हुए देखा है। हमने बुद्ध को बहुत कुछ करते हुए देखा है, ज्ञान की उपलब्धि के बाद भी। तो फिर क्या आशय है सब कर्मों का कारण की समाप्ति से? इसका मतलब सब कर्मों के कारण की समाप्ति नहीं है। इसका आशय है कारण का अभाव हो जाना। इच्छा लुप्त हो जाती है और जब अच्छा नहीं होती है, तो सारे कर्म एक बिलकुल भिन्‍न ही गुण को प्राप्त करते हैं। जब कोई इच्छा नहीं होती, तो कर्म एक खेल हो जाता है, जिसमें कि कोई पागलपन नहीं होता, जिसके पीछे कोई विक्षिप्तता नहीं बचती, कोई खयाली पुल बांधने को नहीं होते। वह एक खेल हो जाता है, एक
प्रफुल्लता। वास्तव में, आधुनिक मनोवैज्ञानिक का कहना है कि यही एक कसौटी है कि कोई पागल है या नहीं। एक विक्षिप्त आदमी खेल नहीं सकता। यहां तक कि जब वह खेल रहा होता है, तब भी वह इतना गंभीर हो जाता है कि खेल भी एक काम हो जाता है। असली समझदारी इसमें है कि काम को भी खेल में रूपांतरित कर लिया जाए। जब कोई लालसा नहीं होती, तो आप खेल सकते हैं और फिर जब उसमें से कुछ भी न निकलता हो तो कोई निराशा नहीं होगी, क्योंकि कुछ भी आशा नहीं की गई थी। खेल अपने में काफी था। यही भेद है काम और खेल में।
     
      काम कभी भी अपने में पर्याप्त नहीं है वह सदैव किसी परिणाम की प्राप्ति के लिए है। अंततः परिणाम ही असली मूल्य है और काम सिर्फ साधन है। आप कुछ पाने के लिए काम करते हैं। कोई भी कर्म के लिए कर्म नहीं करता। इसलिए कर्म वर्तमान में है और परिणाम सदैव भविष्य में हैं। वह सब परिणाम पर निर्भर है। कर्म अपने आप में एक बोझ है, जिस ढोना है क्योंकि अंत में उससे कुछ पाने की अच्छा है। यदि आप बिना कर्म के अंत को उपलब्ध कर सकें तो फिर आप कभी भी कोई काम नहीं करेंगे।

      खेल का एक बिलकुल भिन्‍न ही आयाम है। वह बिलकुल ही विपरीत है। वास्तव में, वहां उपलब्ध करने के लिए कोई परिणाम नहीं होता: खेल सिर्फ खेल के लिए होता है। परन्तु हम इतने विक्षिप्त हो गए हैं कि हम खेल के लिए तो कभी खेल नहीं सकते। इसलिए हम खेल के द्वारा भी कुछ परिणाम प्राप्त करना चाहते हैं--कुछ जीतना--मान, मैडल, टॉफी, कुछ भी। कुछ न कुछ अवश्‍य चाहिए अंत में पाने को। इसलिए वास्तव में प्रौढ़ कभी खेलते नहीं केवल बच्चे खेलते हैं जिनके पास पाने को कुछ भी नहीं होता। इसीलिए बच्चों के खेल में निर्दोषिता है और सुंदरता है। बात अपने में पर्याप्त है।
     
      जब एक बच्चा खेल रहा होता है, तो वह पूरी तरह उसमें खो गया होता है। उसकी थोड़ी भी लालसा नहीं होती, यहां तक कि कहीं भी अन्यत्र दौड़ने की या जाने की। तनिक सी भी चेतना उसके पास नहीं होती, सब कुछ उसी में समाया होता है। बच्चा खुद एक खेल हो गया होता है, समग्ररूपेण संलग्न, यहां और अभी में पूरी तरह डूबा। उसके पार कुछ भी नहीं होता। यह एक कर्म है बिना किसी भी कारण के, बिना किसी भी इच्छा के। इसीलिए हमने इस संसार को प्रभु का सृजन नहीं कहा: परन्तु कहा एक लीला, प्रभु की लीला, खेल।
     
      निर्माण कोई अच्छा शब्द नहीं है वह कुरूप है। वह कुरूप है। वह कुरूप है, क्योंकि आपने कुछ निर्मित किया किसी वस्तु के लिए। केवल परमात्मा ही खेल रहा है--बच्चे की तरह खेल रहा है, मन में बिना किसी भी परिणाम की इच्छा के। खेल स्वतः में आनंदपूर्ण है। इसलिए यह कहना कि सब कर्मों के कारण की समाप्ति ही आवाहन है, इसका आशय है एक बच्चे की भांति हो जाना--निर्दोष, पवित्र, बिना किसी भी इच्छा के। तब जानिए आपने सच्चा आवाहन किया है तब आपने पुकारा है, निमंत्रित किया है।
     
      अब आपका आवाहन अस्वीकार नहीं किया जा सकता: वह इतना प्रामाणिक है, इतना सच्चा है। वास्तव में, अब आपको आवाहन की आवश्‍यकता ही नहीं और परमात्मा वहां होगा। आपको परमात्मा को पुकारने की कोई आवश्‍यकता नहीं और परमात्मा वहां होगा: क्योंकि अब आपने वह स्थिति उत्पन्‍न कर दी है, जिसमें परमात्मा स्वतः बहेगा, नीचे उतरेगा। आपने ऐसी स्थिति नि£मत कर दी है, हृदय की शुद्धता इच्छा-रहितता के द्वारा। यही आवाहन है, बाकी सब मात्र इच्छा है, कर्म है। जीसस कहते हैं की जब तक आप बच्चे की तरह नहीं हो जाते, आप प्रभु के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते। बच्चे की तरह! क्या तात्पर्य है इसका? इसका अर्थ है कि आप खेल सकते हैं--कि आप कर्म करने के योग्य हैं बिना किसी लालसा के।
     
      हमारे लिए यह समझ में नहीं आने वाली बात है। कैसे हम काम कर सकते हैं बिना इच्छा के? इसके विपरीत को ले लें। क्या आप बिना कर्म के इच्छा कर सकते हैं। आप इच्छा कर सकते हैं। आप बिना कान किए इच्छा कर सकते हैं। इस तरह इच्छा अकेली बिना कर्म के हो सकती है। प्रत्येक इच्छा कर रहा है। कितनी ही इच्छाएं हैं बिना किसी कर्म के। इस तरह लालसा हो सकती है बिना कर्म के यह हमारा अनुभव है। फिर इसके विपरीत क्यों नहीं हो सकता? कर्म भी हो सकता हैं बिना इच्छा के। यदि इच्छा कर्म से अलग हो सकती है, तो कर्म इच्छा से अलग क्यों नहीं हो सकता? वह भी संभव है। जब इच्छा नहीं होती, कम बंद नहीं हो जाता: वह केवल भिन्‍न हो जाता है। उसकी सुगंध दूसरी हो जाती है। उसका आंतरिक गुण भिन्‍न
हो जाता है। विक्षिप्तता अब नहीं होती। और इसी क्षण, वर्तमान अर्थपूर्ण होता है--न कि भविष्य।

      इसलिए इसे हृदयंगम कर लें--यदि भविष्य बहुत अर्थपूर्ण है, तो फिर आप आवाहन नहीं कर सकते। यदि वर्तमान ही केवल महत्वपूर्ण है और भविष्य कहीं भी नहीं है, तो आपने आवाहन किया है। भविष्य ही बंधन है, क्योंकि बिना भविष्य के आप इच्छा नहीं कर सकते। इच्छा के लिए स्थान चाहिए जिसमें कि वह चले। वह वर्तमान में नहीं चल सकती, वर्तमान में कोई स्थान नहीं है। कैसे आप अभी इच्छा कर सकते हैं? आप केवल कल में इच्छा कर सकते हैं। वस्तुतः भविष्य नि£मत ही हमारी इच्छाओं के कारण होते हैं। भविष्य है ही नहीं, भविष्य का कोई अस्तित्व नहीं है।
     
      साधारणतः हम कहते हैं कि समय के तीन भाग होते हैं--अतीत, वर्तमान और भविष्य। वस्तुतः समय एक ही है और वह है वर्तमान। अतीत वह है, जो है नहीं। भविष्य वह है, जो नहीं है अभी। वे दोनों ही नहीं हैं। अतीत का मात्र इतना तात्पर्य होता है कि वे इच्छाएं जो मृत हो गई हैं। भविष्य का अर्थ होता है, वे इच्छाएं जो अभी जीवंत हैं। और वर्तमान ही आपके अतीत से व आपके भविष्य से अस्पृष्ट है।
     
      इसलिए वास्तव में, अतीत और भविष्य समय के भाग नहीं हैं, बल्कि मन के हिस्से हैं। समय वर्तमान है मन है अतीत और भविष्य। मन के दो भाग हैं--अतीत व भविष्य और समय का केवल एक--वर्तमान। इसीलिए मन व समय कभी नहीं मिलते वे मिल ही नहीं सकते, क्योंकि मन का कोई वर्तमान नहीं होता और समय का कोई अतीत व भविष्य नहीं होता। यदि पृथ्वी पर कोई मन नहीं हो, तो क्या कोई अतीत अथवा भविष्य होगा? केवल वर्तमान होगा। फूल सचमुच खिलेंगे। किंतु वर्तमान में। ये वृक्ष वस्तुतः उगेंगे, लेकिन वर्तमान में। कोई अतीत वे भविष्य नहीं होंगे। आदमी के साथ बल्कि मन के साथ ही अतीत व भविष्य आते हैं।
     
      यदि आप एक बच्चे की ओर देखें, तो उसका कोई अतीत नहीं है। कैसे हो सकता है? इसलिए वह बोझ से दबा हुआ नहीं है, क्योंकि अतीत ही बोझ बन जाता है।
     
      एक बूढ़ा आदमी सदैव बोझ से दबा है। एक अतीत है--लंबा अतीत--कितनी ही इच्छाएं हैं मेरी हुई, कितनी ही निराशाएं हैं, कितने ही क्षितिज हैं जो नहीं मिले, कितने ही इंद्र-धनुष हैं जो टूट गए। उसका एक लंबा अतीत है और वह केवल उससे दबा है। एक बूढ़ा आदमी हमेशा अतीत के बारे में सोच रहा है, याद कर रहा है और बार-बार अपनी अतीत की स्मृतियों में डूब रहा है। एक बूढ़ा आदमी धीरे-धीरे भविष्य का भूलने लगता है क्योंकि भविष्य का अर्थ है मृत्यु और कुछ नहीं, इसलिए अब वह भविष्य में देखने का प्रयत्न नहीं करता। वह पीछे देखना शुरू करता है। एक बच्चा सदैव आगे देखता है, पीछे कभी भी नहीं क्योंकि पीछे कुछ भी देखने के लिए नहीं है। बूढ़े के लिए भविष्य में केवल मृत्यु है और कुछ भी नहीं है।
     
      एक युवा आदमी वर्तमान में है। इसलिए एक युवा आदमी बच्चों को नहीं समझ पाता और वह एक बूढ़े आदमी को भी नहीं समझ पाता। वे दोनों ही उसे मूर्ख दिखते हैं। बच्चे उसे मूर्ख दिखते हैं क्योंकि वे व्यर्थ ही अपना समय नष्ट कर रहे हैं खिलौनों से खेलते हुए। एक बूढ़ा आदमी मृतवत दिखलाई पड़ता है, व्यर्थ की चिंताओं के कारण। एक युवा आदमी यथार्थतः नहीं समझ पाता: क्योंकि वह देख ही नहीं पाता कि बूढ़े को क्या हो गया है--कि अब वह केवल एक अतीत है। ऐसा होता है।
     
      वे सब दूसरे को मूर्ख समझते हैं। बच्चे युवा एवं वृद्धों को नहीं समझ सकते। युवा बच्चों और वृद्धों को नहीं समझ सकते। और वृद्ध युवकों और बच्चों को नहीं समझ सकते। क्यों? क्योंकि उनकी समय की समझ भिन्‍न है--इसलिए उनकी भाषा भी।
     
      परन्तु प्रत्येक युवा बूढ़ा होगा, और प्रत्येक बच्चा युवा होगा और हर एक बूढ़ा कभी जवान था और एकबच्चा था, और मन चलता है, चलता चला जाता है इसी तरह। बच्चों में उसका एक बड़ा वस्तुतः स्थान होता है, जिसमें कि वह चल सकता है, बूढ़े मन के पास कोई स्थान नहीं होता, जिसमें कि वह चल सके। परन्तु यह एक मन की गति है, न कि समय की।
     
      हम सोचते हैं कि समय चलता है। वस्तुतः हम चल रहे हैं। हम मात्र चलते चले जाते हैं। समय बिलकुल ही नहीं चलता। समय वर्तमान है। समय सदैव यहीं और अभी है वह तो हमेशा ही यही और अभी था। वह सदैव ही यही और अभी होगा। हम चलते चले जाते हैं हम अतीत से भविष्य में यात्रा करते हैं और हमारे लिए समय मात्र एक सेतु की तरह है--अतीत से भविष्य में जान के लिए, एक इच्छा से दूसरी इच्छा में जाने के लिए। समय मात्र एक पथ है हमारे लिए। समय केवल मार्ग है एक इच्छा से दूसरी में जाने के लिए। यदि इच्छाएं समाप्त हो जाएं, तो आपकी गति रुक जाएगी और यदि आपकी गति रुक जाती है, तो आप समय से भेंट करेंगे, अभी और यही, और वह भेंट ही द्वार है। वह मुलाकात ही द्वार है, वह मिलन ही आवाहन है।

      किंतु जब उपनिषद कहते हैं--कारण की समाप्ति, तो क्या उनका आशय है कि इच्छा न करना? यह बहुत स्वाभाविक है हमारे मन के लिए इस प्रकार से बातों का अर्थ करना। यदि उपनिषद यह कहते हैं कि सब कर्मों के कारण की समाप्ति, तो इसका अर्थ है एक इच्छा-शून्यता की स्थिति। इसे खयाल करें--इच्छा-शून्यता की स्थिति। परन्तु हमारा मन इसे इच्छा न करना अनुवाद करेगा। यदि आपने इच्छा न करना--यह अर्थ लिया, तो फिर आप चूक गए, क्योंकि जब आप इच्छा न करना। अनुवाद करेगा। यदि आपने इच्छा न करना--यह अर्थ लिया, तो फिर आप चूक गए, क्योंकि जब आप इच्छा न करेंगे, तब भी इच्छा पर जोर देगा। आप प्रभु के आवाहन की इच्छा कर सकते हैं, आप शुद्ध होने की इच्छा कर सकते हैं, पवित्र बनने की, निर्दोष होने की, बच्चों की भांति होने की इच्छा कर सकते हैं--उस खेल की स्थिति में पहुंचने के लिए। इस तरह आपका मन कह सकता है कि यदि आप प्रभु के राज्य में प्रवेश करना चाहते हों तो इच्छा न
करो। यह भी इच्छा है। इस तरह इच्छा काम करती है। यदि आप प्रभु के राज्य में प्रवेश चाहते हों, यदि आप ज्ञान चाहते हों, यदि आप प्रभु से मिलन चाहते हों, तो इच्छा न करें। यही तर्क है इच्छा का। यह न करो यदि आप वह चाहते हो। यह करो यदि आप वह चाहते हो। इसलिए जब मैं इच्छा-शून्यता की स्थिति की बात करता हूं, तो मेरा अर्थ उस आज्ञा से नहीं, जो कि कहती हो?इच्छा न करो।
     
      तब मेरा क्या आशय है? यह जटिल है, उलझन पूर्ण है, इसे समझना। मेरा क्या तात्पर्य है जब मैं कहता हूं--ए स्टेट ऑफ डिजायरलेसनेस--एक निर्वासना की स्थिति? इसका अर्थ हैः इस इच्छा को समझना, इन इच्छाओं की भ्रांति को समझना, इच्छाओं की निरर्थकता को समझना, इच्छाओं की अर्थहीनता को समझना और उसकी सारी मूर्खता को समझना। बस इसे समझें कि इच्छा ने क्या किया है, इच्छा क्या कर सकती है, इच्छा क्या कर रही है। इच्छा को समझें, और यदि आप इसे समग्रता से समझ लें, तो आप इच्छा रहित हो जाएंगे। वह निर्वासना आपकी समझ से निकलेगी। वह कोई आपके कर्म से नहीं आएगी। न करें भी एक कर्म ही है। ऐसा जो अनुवाद है, वह बहुत अनावश्‍यक समस्याएं खड़ी करता है।
     
      अतः मैंने ऐसे लोग देखे हैं जो कहते हैं। लोभ न करें, यदि आप परमात्मा को पाना चाहते हैं। परन्तु वे इसे नहीं देख पाते कि यह भी एक लालच है और पहले से भी बड़ा। यह बहुत ही असाधारण और अनुपम लालच है। कोई परमात्मा को पाना चाहता है, इसलिए उसे लालची नहीं होना चाहिए। तो लालच का क्या अर्थ होता है? लालची न होने का अर्थ होता है इच्छा न करना, लालसा न करना। परन्तु आप परमात्मा की लालसा कर रहे हैं, मोक्ष की लालसा कर रहे है, इसलिए लालची न हों। यदि आप परमात्मा को पाना चाहते हैं, तो फिर कुछ और न पाएं। कुछ भी न पाए, कुछ भी न रखें। यदि पाना चाहते हैं, तो त्यागें। परन्तु ऐसा त्याग एक कदम बनता है पाने का, इसलिए यह मात्र एक उपाय है।
     
      वास्तव में, जब तक आप इस पाने की लालसा को ही न छोड़ें, आप कभी भी प्रौढ़ नहीं होंगे। इसलिए इसे इस प्रकार देखें--एक बच्चा पैदा होता है, और उसकी चित्त की पहली दशा होती है पाने की। बच्चा सब कुछ पा रहा है--दूध, भोजन, प्रेम। वह कुछ दे नहीं रहा है। वह सिर्फ ले रहा है। यह चित्त की बहुत ही अप्रौढ़ता की स्थिति है--सिर्फ पाना। और जब एक वृद्ध आदमी मात्र पाने का प्रयत्न कर रहा है, तो वह मात्र एक अप्रौढ़ आदमी ही है अब भी। यह बच्चे के लिए तो उचित भी है कि वह मात्र पाता ही रहे और पाने की दशा में रहे। वह सब कुछ पाता ही रहता है। बच्चा सोच भी नहीं सकता कि देने का क्या अर्थ होता है। इसलिए जब आप बच्चे से कहते हैं--अपना खिलौना इस लड़के को दे दो--तो वह तुम्हारी बात समझ ही नहीं पाता कि तुम्हारा क्या आशय है। भाषा अनजानी है, देने की भाषा अज्ञात है। वह तो केवल ले सकता
है।
     
      इसलिए आपको बच्चे को उसकी भाषा में समझाना पड़ता है। आपको कहना पड़ता है, यह खिलौना इस लड़के को दे दो, और मैं तुम्हें अधिक प्यार दूंगा। अब आपको देने को भी पाने की भाषा में कहना पड़ता है। यदि तुम नहीं दोगे, तो हम तुम्हें प्रेम नहीं देंगे। अतः बच्चा सीखना आरंभ करता है कि यदि तुम पाना चाहते हो, तो देना सीखो। देना अधिक पाने के लिए एक कदम बन जाता है। यही मनोदशा हमारी सदैव बनी रहती है, हम मात्र अप्रौढ़ बने रहते हैं। हम पाने की ही दशा में बने रहते हैं। यदि कभी-कभी हमें देना होता है, तो वह भी कुछ पाने के लिए ही।
     
      मन की शुद्धता का अर्थ होता है पाने की इच्छा का बिलकुल अभाव--मात्र देना। वही प्रौढ़ चित्त है। एक बच्चा, एक अप्रौढ़ चित्त सदैव पाने में रहता है। एक बुद्ध, एक जीसस सदैव देने में होते हैं। वह दूसरा छोर है--दे रहे हैं। कुछ भी पाने को नहीं, परन्तु फिर भी दे रहे है क्योंकि देना एक खेल है, एक आनंद है अपने में। जब मैं कहता हूं इच्छा को समझो, तो मेरा आशय है--पाने की समझो और देने को समझो। समझो कि तुम्हारी जो स्थिति है वह है पाने की, पाने की और पाने की, और कभी भी तुम भरे-पूरे नहीं हो पाओगे, क्योंकि इसका कोई अंत नहीं है।
     
      इसे समझे--क्या मिला तुम्हें इस सतत शाश्‍वत पाने से? क्या पाया आपने? आप जितने गरीब कभी पहले थे वैसे ही आज है। उतने ही भिखारी हैं, जितने पहले कभी थे, बल्कि ज्यादा ही। जितना अधिक तुम्हें मिलता है, उतने ही बड़े भिखारी तुम हो जाते हो और उतनी ही अधिक पाने की आकांक्षा बढ़ जाती है। अतः आप पाने से सिर्फ और अधिक पाना ही सीखते हो। कहां पहुंचे आप? क्या पाया आपने? इस विक्षिप्त व सतत पाने की क्या उपलब्धि हुई? कुछ भी तो नहीं? यदि आप इसे समझ जाएं, तो इसकी समझ ही रूपांतरण हो जाता है। पाना गिर जाता है, और उसके गिरने के साथ, एक नया आयाम खुलता है और आप देना प्रारंभ करते हैं। और यही विरोध है सबसे बड़ा--कि आपने तब पाने से कुछ भी नहीं पाया: परन्तु जब आप देते हैं, तो निरंतर पाते हैं, परन्तु वह पाना आपके पाने से संबंधित नहीं है जरा भी। देना ही अपने में एक भारी
उपलब्धि है, एक गहरी परिपूर्णता है।
     
     
      परन्तु जब मैं यह कहता हूं, मुझे डर है कि आप फिर इसकी व्याख्या इस तरह करेंगे कि यदि तुम्हें पाना है वह परिपूर्णता, तो तुम्हें इस सतत पाने की अभिलाषा को छोड़ना पड़ेगा। इसे समझ लें, व्याख्या न करें। आपका मन किसी भी बात को विकृत कर सकता है। उसने हर बात को विकृत कर दिया। वह एक बुद्ध को विकृत कर देता है, वह एक कृष्ण को विकृत कर देता है, वह एक जीसस को विकृत कर देता है, वह एक जरथुस्त्र को बिगाड़ देता है, यह विकृत करता ही चला जाता है। वे कुछ कहते हैं और आप उसकी कुछ और व्याख्या करते हैं। तब वह एक बिलकुल अलग ही बात हो जाती है--बिलकुल ही भिन्‍न, यहां तक कि समग्ररूपेण विरोधी बात।
     
      इच्छा की समझ ही इच्छा-शून्यता बन जाती है। इच्छा को, वासना को जानना ही इच्छा का अभाव हो जाना। है। इसलिए गहरे जाए, गहराई से समझें। कोई भी कदम जल्दी में न उठाएं और तब एक शुद्धता की खोज होती है जो कि सदैव ही वहां है, जो कि सदा से ही वहां है। हृदय पहले से ही शुद्ध है, परन्तु केवल इच्छाओं से ढका, धूएं से ढका: और आप गहरे नहीं देख सकते।
     
      यही आवाहन हैः यदि आप शुद्ध हैं, तो आपने आवाहन किया है। अतः शुद्ध हों, और परमात्मा का आवाहन हो जाएगा। इसके अलावा कुछ भी नहीं चाहिए: यहां तक कि परमात्मा में किसी विश्‍वास की भी जरूरत नहीं। आपको किसी विश्‍वास की आवश्‍यकता नहीं है कि परमात्मा की शक्ति है। आपको किसी में कोई विश्‍वास रखना जरूरी नहीं। उसकी कोई जरूरत नहीं। बस शुद्ध हों और आप जान जाएंगे कि परमात्मा कोई विश्‍वास नहीं, वह एक ज्ञान है, एक जानना है।
     
      परन्तु जब मैं शुद्धता की बात करता हूं, तो फिर आप मुझे गलत समझ सकते हैं। शुद्धता शब्द के साथ हमारे बड़े नैतिकता के अर्थ जुड़ें हैं। हम कहते हैं कि एक आदमी बड़ा पवित्र है, क्योंकि वह नैतिक है। एक आदमी बड़ा शुद्ध है, क्योंकि वह चोर नहीं है। एक आदमी बड़ा पवित्र है, क्योंकि वह बेईमान नहीं है, एक आदमी पवित्र है, क्योंकि वह समाज के अनुसार जीता है। परन्तु यदि समाज स्वयं ही अपवित्र है, तो उसके नियमों के अनुसार रह कर आप कैसे पवित्र हो सकते हैं? और यदि समाज स्वयं ही बेईमान है, तो आप उसका अनुकरण कर के भी कैसे ईमानदार हो सकते हैं? यदि सारी नींव और ढांचा ही अनैतिक है, तो उसके अनुसार अपने को बनाना सर्वाधिक अनैतिकता का काम है, जो कि संभव हो सकता है। अतः वस्तुतः जितना ही अधिक कोई व्यक्ति नैतिक होता जाता है, उतना ही वह समाज के विरुद्ध होता है जाता है,
क्योंकि वह अपने को उसके अनुसार नहीं बना सकता। जीसस को सूली पर लटकाया हाता है, क्योंकि वे तालमेल नहीं बिठा पाते। वे नैतिक हो जाते हैं, क्योंकि पूरा समाज ही अनैतिक है। एक सुकरात को जहर दे दिया जाता है। क्यों? क्योंकि वस्तुतः नैतिक व्यक्ति एक अनैतिक समाज में नहीं जी सकता।

      और जब कभी कोई अनैतिक समाज किसी आदमी को आदर देता है और कहता है कि वह नैतिक, तो इसका मतलब होता है कि उसने तालमेल बिठा लिया, और कुछ नहीं--बस उसने अपने को समाज के अनुसार मोड़ लिया। जो कुछ भी समाज ने कहा, वह उसको मानता है। वास्तव में, वह मात्र मृत हो सकता है। उसकी अपनी कोई आत्मा नहीं हो सकती। वह कुछ कर नहीं सकता। वह मात्र अनुकरण करता है। वह बहुत नैतिक हो जाता है। अतः शुद्धता से हमारा अर्थ बहुत कुछ नैतिकता से होता है।
     
      शुद्धता का अर्थ होता है निर्दोषता, और जितने भी लोग जिन्हें कि हम नैतिक कहते हैं, बड़े चालाक लोग हैं। वे निर्दोष बिलकुल भी नहीं हैं। क्योंकि यदि आप सोचते हैं कि चोर होना बुरा है और चोर होना कोई आदर की बात नहीं अथवा चोर होने से आपको नर्क में सड़ना पड़ेगा, अथवा चोर नहीं हो कर आप स्वर्ग को उपलब्ध करेंगे, तब फिर आप बड़े चालाक और हिसाब-किताब लगाने वाले आदमी हैं। आप चोर नहीं हैं अपनी चालाकी और हिसाब-किताब के कारण से। और यह भी हो सकता है कि जो व्यक्ति चोर है और कैद की यातना भोग रहा है कम चालाक और कम हिसाब लगाने वाला हो। इसीलिए वह दुख भोग रहा है, वह चोर बन गया है। आप ज्यादा चालाक है, ज्यादा हिसाब लगाने वाले हैं, इसलिए आप ज्यादा नैतिक तो हैं, परन्तु शुद्ध बिलकुल नहीं।
     
      शुद्धता का अर्थ होता हैः निर्दोषता। निर्दोषता का अर्थ होता है, एक हिसाब-किताब न रखने वाला चित्त। मेरा मतलब यह है कि कोई आदमी चोर हो। एक निर्दोष आदमी चोर कैसे हो सकता है? यदि वह हिसाब नहीं लगा, सकता, तो फिर वह कैसे चोर हो सकता है? चोर होने के लिए भी हिसाब-किताब की जरूरत पड़ती है। चोर न होने के लिए भी हिसाब लगाने की जरूरत होती है। एक निर्दोष व्यक्ति न तो नैतिक होता है और न अनैतिक। वह तो मात्र निर्दोष होता है। वह निर्दोषता ही शुद्धता है।

      जीसस को निंदित किया गया कितनी ही ऐसी बातों से जो कि समाज ने अनैतिक मान रखी थी। एक वेश्‍या उनको अपने घर आने के लिए निमंत्रित करती है वे चले जाते हैं। और सारा गांव अफवाहों से भर जाता है कि जीसस एक वेश्‍या के घर चले गए। वे क्यों गए? एक नैतिक आदमी एक वेश्‍या के घर कभी भी नहीं जा सकता। और यही बात आप भी सोचेंगे? क्यों जीसस उसके घर चले गए? क्या जरूरत थी? और चले ही नहीं गए, सारी रात उसके घर रहे भी। वे वहां सोए भी और सुबह जैसा कि एक नैतिक गांव में हो सकता है, हुआ। अब कोई उनके विरुद्ध हो जाते हैं। यहां तक कि उनके मित्र चले गए हैं। और सारा गांव उनके सामने खड़ा हो जाता है और उनसे पूछता है कि वे वेश्‍या के घर क्यों गए थे? और तुम कैसे निश्‍चित करते
हो और कैसे इस बात का न्याय करते हो, और क्या हैं तुम्हारा मापदंड?
     
      यह कोई गणना करने वाला व्यक्ति नहीं है। वे कहते हैं कि वे तय नहीं कर सकते कि कौन वेश्‍या है और कौन नहीं। वे निर्वाण नहीं कर सकते। कैसे वे निर्णय करें? और वे कौन होते हैं निर्णय करने वाले? यह एक निर्दोष आदमी है, एक पवित्र व्यक्ति। परन्तु इसको सूली मिली: क्योंकि आप यह नहीं सोच सकते कि वे पवित्र हैं। कैसे वे पवित्र हो सकते हैं, जब कि एक रात वे वेश्‍या के घर सो चुके हैं! सच, मन इतना अनैतिक और अशुद्ध है। हम किसी और आयाम की बात सोच ही नहीं सकते जो कि शुद्धता की हो।

      और यही वेश्‍या बाकी बचती है, जब कि जीसस को सूली दी जाती है। हर एक छोड़कर चला गया है वहां कोई भी नहीं बचा है। केवल यही वेश्‍या, मेग्दलीनी, वहां खड़ी है--अकेली वही। कोई भी शिष्य वहां नहीं है, कोई भी अनुयायी नहीं है वहां। वे सब भाग खड़े हुए, क्योंकि वहां खड़ा रहना भी खतरनाक था। वे भी सूली पर लटकाए जा सकते थे। केवल यह वेश्‍या ही वहां खड़ी हुई थी। और यह वेश्‍या ही जीसस के शरीर को सूली पर से नीचे उतारने में मदद करती है। इसलिए यह प्रश्‍न बहुत महत्वपूर्ण है कि कौन वेश्‍या? और यह अच्छा था जीसस के लिए कि वे उस वेश्‍या के घर ठहरे। क्योंकि केवल यह गरीब स्त्री ही बची आखिर में। क्या है नैतिकता और क्या अनैतिकता?जहां तक धर्म का संबंध है निर्दोषता काफी है। वह बच्चों
जैसी निर्दोषता ही शुद्धता है। वह शुद्धता ही आवाहन बन जाती है।
     
      हमने हर बात को विकृत कर दिया है--हर शब्द को बिगाड़ दिया है। हर एक शब्द कुरूप हो गया है। जब आप कहते हैं कि कोई आदमी शुद्ध है, तो आपका क्या मतलब होता है? जरा पता लगाएं और आप बड़ी विकृत चीजें। पाएंगे। आपका क्या मतलब होता है शुद्धता से? निर्दोषता! कभी नहीं, क्योंकि निर्दोषिता खतरनाक हो सकती है। निर्दोषिता आपके ढांचे में फिट नहीं बैठेगी। सच, वह ठीक नहीं बैठेगी। कैसे बैठ सकती है? आप उसको फुसला नहीं सकते आप उसको जबरदस्ती नहीं बिठा सकते आप उसको रिश्‍वत नहीं दे सकते। और समाज निर्भर करता है जबरदस्ती पर, रिश्‍वत पर फुसलाने पर, सजा पर, दंड पर, भय पर, लालच पर। इसलिए हम कहते हैं कि यदि तुम यह करोगे, तो तुम्हें यह मिलेगा।
     
      कितने ही लोगों ने बुद्ध से पूछा, यदि हम आपका अनुगमन करें तो हमें क्या मिलेगा? और बुद्ध कहते हैं--कुछ भी नहीं। तो फिर हम इस आदमी का अनुगमन कैसे करें? हम सदैव कुछ पाने के लिए निकलते हैं। यहां तक कि बुद्ध से भी हम कुछ पाना ही चाहते हैं। भले--ही मात्र आश्‍वासन। यदि आप आश्‍वासन दें, तो हम यह करें। तब हमें यह तर्कसंगत लगता है, कुछ संगति है। बुद्ध कहते हैं, शुद्ध हो जाओ, और तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा। तो फिर हम क्यों शुद्ध हो? इससे तो अच्छा है अशुद्ध होना, कम से कम हमें कुछ तो मिल रहा है! बुद्ध कहते हैं--तुम्हें कुछ भी नहीं मिल रहा है, तुम सिर्फ मिलने के भ्रम में हो और तुम्हें कभी भी कुछ नहीं मिलेगा।

      इसलिए मैं कहता हूं: मात्र शुद्ध हों और पाने को भूल ही जाएं, क्योंकि जब तक आप पाने को भूल नहीं जाते, आप शुद्ध नहीं हो सकते। यदि आपको कुछ पाना है, तो आपको चालाक व हिसाब लगाने वाला होना पड़ेगा। आपको हिंसक होना पड़ेगा। आपको लालची होना पड़ेगा और आपको सदैव भविष्य में होना पड़ेगा--वर्तमान में कभी भी नहीं। आप कभी भी घर पर नहीं हो सकते, आप हमेशा कहीं और होते हैं, दूसरे गांव में, सदा यात्रा पर निकले हुए।
     
      शुद्ध होने का मतलब है इच्छा रहित होना, एक गहरी समझ इस बात की जो कुछ भी हम कर रहे हैं, सब बेकार है। जो कुछ भी हम हैं सबका सब बेकार है। जिस क्षण भी यह शुद्धता होती है, आवाहन हो जाता है। तब आपने पुकार लिया: तब आपने निमंत्रण दिया और बुलाया। तब आपका निमंत्रण अस्तित्व की गहरी पर्त में प्रवेश पा गया। अब आप अचानक पाते हैं कि आपको किसी ने पकड़ लिया, कोई आपके भीतर आ गया। अब आपके भीतर कुछ ऐसा आ गया जो कि आपसे अधिक हैं। कुछ असीम, विराट कुछ ज्यादा शक्तिशाली आ गया है और आप पर छा गया है और आप भर गए हैं। यह भर जाना ही आवाहन है।
     
      सचमुच, आपको खुला होना चाहिए अन्यथा यह भरना घटित नहीं होगा। एक निर्दोष चित्त सदैव खुला होता है एक चालाक मन सदैव ही बंद होता है। एक चालाक मन हमेशा सुरक्षा करने की स्थिति में होता है। एक चालाक मन सदा दुश्‍मनी, स्पर्धा की भाषा में सोचता है क्योंकि यदि आपको कुछ भी पाना हो तो आपको प्रतियोगी होना पड़ता है। हर एक को पाना है, और आपको भी पाना है। तब आपको सबका प्रतियोगी बनना ही पड़ता है और प्रतियोगिता बड़ी कठिन है। इसलिए आपको हिंसक होना पड़ता है, चालाक, बंद, सुरक्षा में होना पड़ता है। आप परमात्मा से नहीं भर सकते। आप इतने तंग, इतने बंद हैं कि प्रवाह आप तक नहीं आ सकता।
     
      एक शुद्ध मन, एक इच्छा रहित हृदय प्रतियोगी नहीं होता, भविष्यगत नहीं होता, किसी के विरुद्ध नहीं होता, किसी के पक्ष में नहीं होता, कोई गणना नहीं करता, कुछ पाने को इच्छा नहीं करता, उसे कुछ भी उपलब्ध करने को नहीं होता। एक शुद्ध मन यहां और अभी होता है--खुला, बिना किसी सुरक्षा के। जब मैं कहता हूं: बिना किसी सुरक्षा के, तो मेरा मतलब है कि यदि मृत्यु भी आए तो भी आप खुले हैं। यदि आप मृत्यु के लिए नहीं हैं, तो आप परमात्मा के लिए भी खुले नहीं हो सकते। यदि आप मृत्यु से भयभीत है, तो आप परमात्मा से भी डर जाएंगे।
     
      यदि मन निर्दोष है तो आप एक बच्चे की भांति होंगे, तो कि सांप से खेल सकता है। अब वह दोनों के लिए खुला है, मृत्यु आए और वह खुला है वह मृत्यु से खेल सकता है। परमात्मा आए और वह खुला है वह परमात्मा से भी खेल सकता है। मृत्यु व परमात्मा किसी सूक्ष्म तरीके से एक हैं। यदि आप मृत्यु के लिए खुले नहीं हैं तो आप परमात्मा के लिए खुले नहीं हो सकते और एक ऐसा व्यक्ति, जो कि इच्छाओं से संबंधित है, सदैव ही मृत्यु से भयभीत रहता है।

      आप इस संबंध को ठीक से देख लें। एक व्यक्ति, जो कि इच्छाओं से जुड़ा है, इच्छा करता है कुछ पाने की, वह सदैव ही मृत्यु से डरता है। क्यों? क्योंकि इच्छा भविष्य में है और मृत्यु भी भविष्य में है। और ऐसा हो सकता है कि मृत्यु पहले आ जाए और इच्छा पूरी न हो। इसे स्मरण रखें। इच्छा कभी भी वर्तमान में नहीं होती। मृत्यु भी कभी वर्तमान में नहीं होती। कोई भी वर्तमान में नहीं मरा। क्या आप अभी और यहीं मृत्यु से भयभीत हो सकते हैं? नहीं, क्योंकि या तो आप जीवित हो सकते हैं या मृत। यदि आप अभी और यहीं जीवित हो सकते हैं, तो मृत्यु नहीं है। और यदि आप मर ही चुके हैं, तो फिर कोई डर शेष नहीं है। अतः आप मृत्यु से भयभीत केवल भविष्य में हो सकते हैं। इच्छाओं की योजना भविष्य के लिए होती है और मृत्यु
सब कुछ छिन्‍न-भिन्‍न कर सकती है, इसलिए हम मृत्यु से भयभीत होते हैं।
     
      कोई भी पशु मृत्यु से भयभीत नहीं है, क्योंकि किसी भी पशु की भविष्य के लिए कोई योजना नहीं होती। इसके अलावा कोई भी दूसरा कारण नहीं है--भविष्य के लिए कोई योजना नहीं। भविष्य नहीं है, अतः मृत्यु नहीं है। मृत्यु से क्यों भयभीत हों, यदि भविष्य के लिए कोई योजना नहीं है? मृत्यु से कुछ भी छिन्‍न-भिन्‍न नहीं होगा। जितनी बड़ी योजनाएं होती हैं, उतना ही अधिक भय होता है। मृत्यु, वास्तव में, इस बात का भय नहीं है कि आप मर जाएंगे बल्कि इस बात का भय है कि आप अपरिपूर्ण ही मर जाएंगे और यह संभव नहीं है कि इच्छाओं को परिपूर्णता तक ले जाया जा सके और मृत्यु कभी भी आ सकती है।

      यदि मैं अपरिपूर्ण ही मरता हूं, तो सचमुच भय है। मैं अभी तक अपरिपूर्ण हूं। मैंने एक क्षण भी परिपूर्णता का नहीं जाना, और मृत्यु आ सकती है। अंत मैं निरर्थक ही जीया। जिंदगी बेकार गई, बिना किसी शिखर के, बिना एक भी क्षण सत्य, शांति, सौंदर्य, मौन के जाने। मैं सिर्फ एक अर्थहीन निष्प्रयोजनता में जीया, और मृत्यु किसी भी क्षण आ सकती है। तब मृत्यु एक भय बन जाती है। यदि मैं परिपूर्ण हूं, यदि मैंने वह जाना है जो कि जीवन किसी को अवगत करा सकता है, यदि मैंने वह जाना है जो कि वस्तुतः जीवंत है, यदि मैंने एक भी क्षण सौंदर्य का, प्रेम का, परिपूर्णता का जाना है तो फिर मृत्यु का भय कहां है? कहां है भय? मृत्यु आ सकती है वह कुछ भी छिन्‍न-भिन्‍न नहीं कर सकती। वह कुछ भी नहीं कर सकती। मृत्यु सिर्फ भविष्य को गड़बड़ कर सकती है। मेरे लिए अब भविष्य नहीं है। मैं इसी क्षण भरा हुआ हूं। तब मृत्यु कुछ
नहीं कर सकती। मैं उसे स्वीकार कर सकता हूं। यहां तक कि वह आनंद भी साबित हो सकती है। इसलिए वह, जो कि मृत्यु के लिए खुला है, परमात्मा के लिए, भी खुला हो सकता है। खुला होने का मतलब होता है अभय। निर्दोषता आपको खुलापन, निर्भयता, एक जीते न जा सकने की स्थिति बिना किसी भी सुरक्षा के प्रबंध के दे देती है। वही आवाहन है।

      और यदि आप ऐसे क्षण में हैं तब कि मृत्यु भी यदि आए तो आप उसका स्वागत कर सकते हैं, उसे गले लगा सकते हैं, उसका आतिथ्य कर सकते हैं तो फिर आपने परमात्मा का आवाहन किया है। अब मृत्यु कभी भी नहीं आ सकती: केवल परमात्मा ही आ सकता है--मृत्यु में भी केवल परमात्मा ही आ सकता है--मृत्यु में भी केवल परमात्मा होगा। मृत्यु अब वहां नहीं होगी, केवल परमात्मा ही होगा।

      मारपा--एक तिब्बती रहस्यवादी मर रहा है। हर एक रो रहा है और मारपा चिल्लाता है, रुको! ऐसे शुभ अवसर पर तुम क्यों रो रहे हो? मैं परमात्मा से मिलने जा रहा हूं। वह अभी और यहां है। और वह हंसता है, और मुस्कुराता है और अंतिम गीत गाता है, और हर एक रोता जा रहा है क्योंकि परमात्मा वहां किसी को भी दिखलाई नहीं पड़ता है।

      मारपा कहता है--परमात्मा यहां और अभी है और तुम क्यों रो रहे हो? इतना आनंदोत्साह मनाने का अवसर!

      इतना शुभ अवसर! गाओ और नाचो और खुशियां मनाओ! मारपा अपने मित्र से मिलने जा रहा है। परमात्मा बस अभी और यहीं है। मैंने लंबी प्रतीक्षा की है और अब वह क्षण आया है। तुम क्यों रो रहे हो? मारपा को समझ में नहीं आता कि क्यों रो रहे हैं। वे भी नहीं समझ पाते कि मारपा गीत क्यों गा रहा है? क्या वह पागल हो गया है? हां, सचमुच, वह हमारे लेखे पागल ही हो गया है। मृत्यु वहां खड़ी है और ऐसा लगता है कि वह पागल हो गया है। मारपा कुछ और देख रहा है। मारपा वस्तुतः मनुष्य जाति में एक सर्वाधिक खिला हुआ व्यक्ति था।

      जब मारपा अपने गुरु के पास आता है। गुरु कहता है, श्रद्धा ही कुंजी है। तब मारपा कहता है--तो फिर मुझे मेरी श्रद्धा की परीक्षा का उपाय बताओ। यदि श्रद्धा ही कुंजी है तो मेरी श्रद्धा की परीक्षा का कोई उपाय बताओ। वे एक पहाड़ी पर बैठे थे और गुरु ने कहा, कूद जाओ। और मारपा कूद जाता है। यहां तक कि गुरु भी सोचता है कि वह मर जाएगा। कई अनुयायी वहां मौजूद हैं और वे भी सोचते हैं कि वह पागल हो गया है और उन्हें उसकी एक ही का पता नहीं चलेगा।

      वे सब दौड़ कर नीचे जाते हैं और मारपा वहां पर बैठा हुआ है और गाना गा रहा है और नाच रहा है। अतः गुरु पूछता है कि क्या हुआ? ऐसा लगता है कि वह एक घटना संयोग था। गुरु भी अपने मन में चुपचाप सोचता है कि वह कोई घटना संयोग था: ऐसा असंभव है। ऐसा कैसे हो सकता है? यह एक संयोग की बात है। मुझे किसी दूसरी तरह से इसकी परीक्षा लेनी पड़ेगी? गुरु ने कितने ही ढंग से उसकी परीक्षा ली। गुरु उसे एक जलते हुए मकान में जाने के लिए कहता है। वह भीतर चला जाता है और वह बाहर निकल आता है बिना लपटों में झुलसे हुए। उसे समुद्र में कूदने के लिए कहा जाता है और वह कूद जाता है।

      कितनी ही परीक्षाएं ली जाती हैं और अब गुरु नहीं कह सकता कि यह मात्र घटना संयोग है। इसलिए वह मारपा से पूछता है--तुम्हारा गुप्त रहस्य क्या है? मारपा कहता है--मेरा गुप्त रहस्य। आपने कहा था कि श्रद्धा ही कुंजी है और मैंने आपकी बात मान ली।

      गुरु कहता है, अब रुक जाओ, क्योंकि डर है, कुछ भी हो सकता है। अतः मारपा कहता है, अब कुछ भी हो सकता है, क्योंकि मैंने मात्र आपका शब्द पकड़ लिया था। अब मैं आपका शब्द नहीं पकड़ सकता, यदि आप स्वयं ही निश्‍चित नहीं हैं। मैंने सोचा था कि श्रद्धा ही कुंजी है, परन्तु अब यह काम न पड़ेगी, इसलिए कृपया दुबारा मुझे कोई आज्ञा न दें। अगली बार मैं मर जाउंगा, इसलिए फिर से मुझे कोई आज्ञा न दें! यही शुद्धता है, बच्चों जैसी पवित्रता तिब्बत में, मारपा को वफादार मारपा के नाम से जाना जाता है। यह एक बच्चों जैसी श्रद्धा है।

      अतः कहानी कहती है कि मारपा अपने गुरु का भी गुरु बन गया। उसका गुरु उसके सामने झुका और बोला--अब वह श्रद्धा की कुंजी मुझे दो, क्योंकि मुझमें कोई श्रद्धा नहीं है। मैं तो सिर्फ बात कर रहा था। मैंने केवल सुना है कि श्रद्धा ही कुंजी है, इसलिए मैं तो सिर्फ बात कर रहा था। अब वह तुम मुझे दो। अतः मारपा अपने गुरु का भी गुरु हो गया।

      मारपा का मन शुद्ध, निर्दोष व हिसाब न लगाने वाला है। एक भी क्षण गणना करने का या चालाकी करने का नहीं है। उसे इतना भी नहीं देखना है कि खाई कितनी गहरी है। वह गुरु से इतना भी नहीं पूछता है--क्या मैं आपकी बात को शब्दों में लूं अथवा यह मात्र एक प्रतीकात्मक है अथवा आप कोई रहस्य की भाषा में कुछ कह रहे हैं? क्या मैं कूद ही जाउं वास्तव में, या आप किसी आंतरिक छलांग की बात कर रहे हैं? बिना किसी हिसाब के, चालाकी के वह कूद जाता है। गुरु कहता है, कूद जाओ और वह कूद जाता है। दोनों के बीच अंतराल नहीं है। एक क्षण का भी अंतराल पड़ा और आपने हिसाब लगाया।

      ऐसी ही अंतराल-रहित शुद्धता आपको खोलती है। आप एक खुला द्वार हो जाते हैं। वही आवाहन है।
आज इतना ही
ओशो
बंबई, दिनांक 17 फरवरी, 1972, रात्रि 

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