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सोमवार, 22 सितंबर 2014

गीता दर्शन (भाग--3) प्रवचन--082

आध्यात्मिक बल—(प्रवचन—पच्‍चीस) 
अध्याय –7

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।। 10।।
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।। 11।।

हे अर्जुन, तू संपूर्ण भूतों का सनातन कारण मेरे को ही जान। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूं।
और हे भरत श्रेष्ठ, मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल अर्थात सामर्थ्य हूं, और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अनुकूल काम हूं।
रमात्मा स्वयं अपना परिचय देना चाहे, तो निश्चित ही बड़ी कठिन बात है। आदमी भी अपना परिचय देना चाहे, तो कठिन हो जाती है बात। और परमात्मा अपना देना चाहे, तो और भी कठिन हो जाती है।
एक तो इसलिए कठिन हो जाती है कि परमात्मा भी अपना स्वयं परिचय दे, तो सदा ही अधूरा होगा; पूरा नहीं हो सकता। अस्तित्व इतना विराट है, और शब्द इतने छोटे पड़ जाते हैं। परमात्मा भी कहना चाहे, तो कहकर पाएगा कि जो कहना था, वह नहीं कहा जा सका है। कहना चाहा था, वह छूट गया है। और जो कहा गया है, वह बहुत दूर की खबर लाता है।

कृष्ण को भी वैसी ही कठिनाई है। और जब भी किसी व्यक्ति के भीतर से परमात्मा ने स्वयं को अभिव्यक्त किया है, तब सदा ही ऐसी ही कठिनाई हुई है। कृष्ण की पीड़ा हम समझ सकते हैं। वे जो उदाहरण ले रहे हैं, वे जिन बातों के सहारे समझाने चल रहे हैं, वे बातें बहुत साधारण हैं। लेकिन इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं, कोई विकल्प नहीं। आदमी से बात करनी हो, तो आदमी की भाषा में ही बात करनी पड़ेगी।
इशारे करते हैं। इशारों से ज्यादा नहीं है यह बात। और जो आदमी इशारे को पकड़ लेगा, वह भटक जाएगा। और हम सबकी आदत इशारों को पकड़ने की है। हम मील के पत्थरों को छाती से लगाकर बैठ जाते हैं, यह सोचकर कि यह मंजिल हुई। हालांकि हर मील का पत्थर, केवल एक तीर का इशारा है आगे की तरफ, कि मंजिल आगे है।
और मैं चांद को अंगुली से बताऊं, तो बहुत डर है कि अंगुली पकड़ ली जाए और चांद समझ ली जाए। यद्यपि अंगुली चांद नहीं है; लेकिन अंगुली चांद की तरफ इशारा कर सकती है। लेकिन यह इशारा उसी की समझ में आएगा, जो अंगुली को छोड़ दे और भूल जाए, और चांद की तरफ देखे। और मैंने अंगुली उठाई चांद की तरफ, और आपने सोचा कि शायद मैं अंगुली उठा रहा हूं, तो अंगुली में कुछ होगा। और आप मेरी अंगुली से अटक गए, तो आप चांद तक कभी भी न पहुंच पाएंगे।
अंगुली चांद को बताती है, चांद नहीं है। उसे छोड़ ही देना पड़ेगा। उसे भूल ही जाना पड़ेगा। उसे तो बिलकुल पीछे छोड़कर जब आंख आकाश की तरफ उठेगी, वहां तो कोई अंगुली न होगी, वहां तो चांद होगा।
तो कृष्ण ये जो बातें कह रहे हैं, वे अंगुलियां हैं। अधूरे इशारे हैं, आंशिक। उनमें सूचना है। जो उनको पकड़ लेगा, वह खतरे में पड़ेगा। जो उनको छोड़ देगा, उनके ऊपर उठेगा, पार जाएगा, वह इशारे को समझने में समर्थ हो सकता है।
कल रात्रि भी उन्होंने कुछ इशारे किए। उसमें एक इशारा छूट गया था, वह भी हम बात कर लें।
उन्होंने कहा, पुरुषों में मैं पुरुषत्व हूं।
पुरुषों में पुरुषत्व, पुरुष नहीं। पुरुषत्व क्या है? यह संस्कृत का शब्द बहुत कीमती है। और इस शब्द की थोड़ी-सी पर्तों को उघाड़ना जरूरी है।
हम सभी जानते हैं कि पुर कहते हैं नगर को, बस्ती को। जिन्होंने पुरुष शब्द का उपयोग किया है, उन्होंने कहा है कि यह आदमी तो एक नगर है, एक पुर है। और इसके भीतर एक मालिक बस रहा है, वह पुरुष है। इस नगरी के भीतर जो छिपा है, वह।
तो पुरुष से अर्थ, स्त्री के विपरीत जो है, वैसा नहीं है। पुरुष का अर्थ मेल नहीं है। पुरुष तो स्त्री के भीतर भी है। स्त्री और पुरुष, जैसा हम प्रयोग करते हैं, ये तो नगर की खबर देते हैं। स्त्री की बस्ती अलग है, उसका शरीर अलग है। और जिसे हम पुरुष कहते हैं, उसकी भी बस्ती अलग है और शरीर अलग है। लेकिन भीतर जो बस रहा है पुरुष, उस नगर के बीच में जो बस रहा है मालिक, वह एक है।
इसलिए कई को यह खयाल हो सकता है कि कृष्ण ने स्त्रियों की जरा भी बात न कही। कुछ तो कहना था कि स्त्रियों में मैं कौन! ज्यादती मालूम पड़ती है। सबकी बात कर रहे हैं, और स्त्री कोई छोटी घटना नहीं है कि उसकी बात छोड़ी जा सके। जिसे हम पुरुष कहते हैं, उससे तो थोड़ी बड़ी ही घटना है। क्योंकि जीवन के इस सृजन में पुरुष तो सांयोगिक है, एक्सिडेंटल है; स्त्री आधारभूत है।
लेकिन कृष्ण ने स्त्री की बात नहीं की, जानकर, क्योंकि पुरुष में स्त्री सम्मिलित हो गई है। अगर नगर की बात करते, तो फासला था स्त्री और पुरुष का। वे तो उसकी बात कर रहे हैं, जो नगर के बीच में बसा है। स्त्री के भीतर भी वह पुरुष है; पुरुष के भीतर भी वह पुरुष है।
फिर भी पुरुष की बात नहीं कर रहे हैं। कह रहे हैं, पुरुषों में पुरुषत्व। जैसे कि हजारों फूल को निचोड़कर हम थोड़ा-सा इत्र बना लें। ऐसा ही समस्त पुरुष जहां-जहां हैं, उनके भीतर जो पुरुषत्व है, वह जो निचोड़ है, वह जो इत्र है, वह मैं हूं।
यह भी सोचने जैसा है। क्योंकि जब हम कहते हैं पुरुष, तो एक पर्टिक्युलर, एक विशेष व्यक्तित्व का खयाल आता है। जब हम कहते हैं पुरुषत्व, तो युनिवर्सल, सार्वभौम सत्य का खयाल आता है। जब हम कहते हैं पुरुष, तो सीमा बनती है; और जब हम कहते हैं पुरुषत्व, तो असीम हो जाता है।
यूनान में प्लेटो ने जिसे आइडिया कहा है, प्रत्यय कहा है। पुरुषत्व एक प्रत्यय है, एक आइडिया है। जब हम कहते हैं प्रेमी, तो एक सीमा बन जाती है। लेकिन जब हम कहते हैं प्रेम, तो सब सीमाएं टूट जाती हैं, तब असीम हो जाता है सब। जब हम कहते हैं पुरुष, तो एक रेखा खिंच जाती है चारों ओर। जब हम कहते हैं पुरुषत्व, तो विराट आकाश की तरह सब विस्तीर्ण हो जाता है।
पुरुषत्व की कोई सीमा नहीं है। पुरुष आएंगे और जाएंगे, पुरुष बनेंगे और मिटेंगे। पुरुषत्व तो शाश्वत है। शक्लें बदलेंगी, घर बदलेंगे, नगर बसेंगे और उजड़ेंगे। आज आपका एक नाम है, पिछले जन्म में दूसरा था, अगले जन्म में और तीसरा होगा। कितने-कितने पुरुष होने का आपको खयाल पैदा होगा कि मैं यह हूं, मैं यह हूं, मैं यह हूं। लेकिन भीतर वह जो निर्गुण, वह जो भीतर निराकार है, वह एक है।
इसलिए भी कहा पुरुषत्व। जब हम लहरों की बात करते हैं, तो अक्सर डर होता है कि सागर कहीं भूल न जाए। कृष्ण यह कह रहे हैं कि लहरों में मैं सागर। लहर भला दिखाई पड़ती हो, लेकिन सिर्फ दिखाई पड़ती है, एपियरेंस है, सिर्फ एक आभास है। सत्य तो सागर है, जो नीचे है।
बड़ी मजे की बात है, सागर के किनारे जाएं, तो लहरें ही दिखाई पड़ती हैं, सागर कभी दिखाई नहीं पड़ता। अक्सर आप कहते हैं कि मैं सागर के दर्शन करके आ रहा हूं। लेकिन गलत कहते हैं। कहना चाहिए, लहरों के दर्शन करके आ रहा हूं। सागर तो दिखाई नहीं पड़ता। दिखाई तो लहरें पड़ती हैं। फिर भी आप कहते हैं कि सागर का दर्शन करके आ रहा हूं। इसी खयाल से कि लहर की क्या गिनती करनी! लहर तो आप देख भी नहीं पाए और मिट गई होगी, और दूसरी बन गई। जो मिट गई लहर, उसमें भी जो था, और जो बन गई लहर, उसमें भी जो है--हालांकि वह आपको दिखाई नहीं पड़ा है। लेकिन आप खबर यही देते हैं कि मैं सागर के दर्शन करके आ रहा हूं।
तो कृष्ण लहरों की बात नहीं कर रहे हैं; वे सागर की बात कर रहे हैं। वे पुरुषों की बात नहीं कर रहे, पुरुषत्व की बात कर रहे हैं। जिसके ऊपर सारा खेल निर्मित होता है। एक रूप, दूसरा रूप, हजार रूप वह पुरुषत्व लेता चला जाता है; और फिर भी अरूप है। न मालूम कितने आकार बनते हैं और विसर्जित होते हैं, फिर भी वह निराकार है।
तो पुरुषों में मैं पुरुषत्व हूं!
इस सूत्र में भी उन्होंने कुछ बातें कही हैं, और कुछ कीमती बातें कही हैं। कहा है, वासना से रहित, काम से रहित वीरों का वीर्य हूं। वासना से रहित, कामना से रहित वीरत्व हूं, वीरता हूं।
आदमी वासना में डूबकर बड़े वीरता के कार्य कर सकता है। लेकिन कृष्ण कह रहे हैं कि मनुष्य के भीतर वह जो वीर्य की ऊर्जा घटित होती है, मैं तब वह हूं, जब वहां काम न हो, वासना न हो।
आपको खयाल दिलाना चाहूंगा। महावीर का जन्म का नाम वर्द्धमान था। बाद में दिया गया नाम, महावीर। और महावीर नाम दिया गया, उस वीरता की वजह से, जिसकी कृष्ण चर्चा कर रहे हैं। महावीर किसी से लड़े नहीं। लड़ने की बात दूर, पांव फूंककर रखा कि कोई चींटी न दब जाए। किसी से कोई स्पर्धा न की, किसी से कोई प्रतियोगिता न की। कैसी वीरता है उनकी?
अगर महावीर को हम देखेंगे, तो उनके चारों तरफ कोई भी तो घटना घटती हुई मालूम नहीं पड़ती, जिसमें कि वीरता का पता चलता हो। न युद्ध के मैदान पर लड़ते हैं, न तलवारों-भालों के बीच में खड़े होते हैं। कैसे वीर होंगे! लेकिन इस मुल्क ने उनको महावीर कहा। इस मुल्क ने इस सूत्र की वजह से महावीर कहा। वासना बिलकुल नहीं है, फिर एक वीर्य का नव उदय हुआ है। उस वीर्य को हम थोड़ा पहचानें कि वह कैसा है।
महावीर साधना में लगे। कठोर तपश्चर्या में डूबे। भूल गए जगत को, याद रखा अपने को ही। नग्न खड़े होते थे गांव के बाहर। लोग सताने लगे।
एक दिन सुबह ऐसी घटना हुई। एक ग्वाले ने आकर अपनी गायों को वहां चराने के लिए छोड़ा। फिर उसे कुछ काम आ गया, तो उसने खड़े हुए महावीर से कहा कि सुनो! जरा मेरी गायों को देखते रहना, मैं अभी लौटकर आता हूं। जल्दी में था; उसने यह भी फिक्र न की कि यह नग्न खड़ा हुआ साधु कुछ बोला नहीं। या सोचा होगा कि मौन सम्मति का लक्षण है; चला गया।
दोपहर जब वापस लौटा, तो महावीर तो अपने दूसरे ही लोक में थे। लौटा, तब तक गाएं चरती हुई दूर निकल गई थीं। महावीर से बहुत पूछा, वे कुछ न बोले। आंख बंद किए खड़े थे, खड़े रहे। सोचा कि या तो यह आदमी पागल है, या चालाक है। गाएं या तो चोरी चली गईं; इस आदमी का हाथ है कुछ। और या फिर यह आदमी पागल है, या गूंगा है, या बहरा है।
वह गायों को ढूंढ़ने गया, जंगलभर में घूम आया, लेकिन गाएं न मिलीं। और जब सांझ महावीर के पास से निकलता था, तो गाएं चरकर लौट आई थीं और महावीर के पास वापस बैठी हुई थीं। तब तो पक्का शक हो गया। सोचा कि यह आदमी बेईमान है। मुझे धोखा दिया। गायों को छिपाए रहा। अब रात में लेकर निकल जाएगा।
उसने महावीर को गालियां दीं। मारा। कान में लकड़ियों की खूंटियां ठोंक दीं। क्योंकि यह देखकर कि तू समझ रहा है कि तू बहरा है; सुनता नहीं। तो हम तेरे बहरेपन को पूरा किए देते हैं! कान में उसने खूंटियां ठोंक दीं। खून, लहूलुहान, महावीर के कान से खून बहने लगा। वह खूंटियां ठोंककर अपनी गायों को लेकर चला गया।
मीठी कथा है कि देवता पीड़ित और परेशान हुए। और इंद्र ने आकर महावीर से कहा कि क्षमा करें! हमें आज्ञा दें, ताकि हम आपकी रक्षा कर सकें। ऐसा दुबारा न हो, अन्यथा बदनामी हमारी होगी कि भले लोग जमीन पर थे और महावीर के कान में खूंटियां ठोंक दी गईं! हमें आज्ञा दें।
महावीर ने आंख खोली और कहा, वह ग्वाला भी अपने ढंग से मुझे विचलित करने आया था; तुम अपने ढंग से मुझे विचलित करने आए हो। मुझे छोड़ दो मुझ पर। जो भी होना है, मुझ अकेले पर होने दो। जन्मों-जन्मों बहुत तरह के साथ मैंने लिए, सब साथ व्यर्थ गए। अब मैं अकेला हूं। जन्मों-जन्मों न मालूम कितने कंधों पर हाथ रखे, और सोचा कि वे साथी बनेंगे; कोई साथी कभी बना नहीं। अब मैं अकेला हूं।
अब यह वीर्य, यह वीरता दिखाई नहीं पड़ेगी बाहर किसी युद्ध के मैदान में। लेकिन युद्धों में जो वीर हैं, वे बच्चे हैं। महावीर की वीरता यह है कि वे कहते हैं, अब संगी और साथी न बनाऊंगा। अब अकेला काफी हूं। जन्मों-जन्मों बहुत संगी-साथी बनाए, सब व्यर्थ हो गए। पाया आखिर में कि अकेला हूं। अब मुझे तुम अकेला ही होने दो। और एक तरह से वह विचलित करने आया था; तुम दूसरी तरह से विचलित करने आए हो।
इंद्र ने कहा, आप हमें गलत न समझें। हम आपको विचलित करने नहीं; सिर्फ रक्षा करने आए हैं।
महावीर ने कहा कि जिन्होंने भी मेरे लिए सदा वचन दिए रक्षा करने के और जिन्होंने कहा, हम रक्षा करेंगे, वे ही थोड़े दिन में मेरे कारागृह बन गए। जिन्होंने भी कहा था कि हम रक्षा करेंगे, जिन्होंने भी कहा था कि हम साथ देंगे, संगी बनेंगे, दुख से बचाएंगे, आखिर में मैंने पाया कि वे ही मेरे दुख के कारण बने, और वे ही मेरे कारागृह की दीवालें बने। अब नहीं। अब मैं अकेला काफी हूं। अब सुख हो कि दुख, मैं अकेला काफी हूं। तुम मुझे मुझ पर छोड़ दो।
महावीर ने कहा है, एक ही वीरता है इस पृथ्वी पर, अकेले होने का साहस--दि करेज टु बी अलोन
बहादुर से बहादुर आदमी भी अकेला नहीं हो सकता। कम से कम तलवार तो साथ में रखता ही है। इसलिए जिसके हाथ में तलवार देखें, समझ लेना कि भीतर कायर छिपा है। नहीं तो तलवार किसके लिए! महावीर नग्न खड़े हैं; हाथ में एक लकड़ी का टुकड़ा भी नहीं है।
कृष्ण कहते हैं, जिसकी वासना हट गई, जिसका काम हट गया, उसमें मैं वीर्य हूं। उसमें मैं बल हूं। उसका मैं बल हूं।
इसमें एक बात और समझ लेने जैसी है। जहां भी कामवासना है, वहां वीर होना उसी तरह आसान है, जैसे किसी आदमी को शराब पिला दी जाए और लड़ने को भेज दिया जाए। नशे में बहादुर हो जाना आसान है, क्योंकि नशे में आदमी मूर्च्छित होता है। इसलिए हाथियों को जब युद्ध पर भेजते हैं, तो शराब पिलाकर भेजते हैं। क्योंकि मरने का खयाल ही नहीं रह जाता; होश ही नहीं रह जाता।
कामवासना भी एक जहर है, एक इंटाक्सिकेंट है। और जब आप कामवासना से भरते हैं, तो कामवासना से भरा हुआ आदमी आग लगे मकान में प्रवेश कर सकता है।
तुलसीदास की कहानी हम सबने सुनी है। कामवासना से भरा हुआ आदमी नदी में मुर्दे को हाथ का सहारा लगाकर पार हो गया। उसे पता न चला कि मुर्दा है! उसने समझा कि कोई लकड़ी का टुकड़ा है, इसके सहारे मैं पार हो जाऊं।
तुलसीदास बरसा की अंधेरी रात में छज्जे से लटके हुए सांप को रस्सी समझकर ऊपर चढ़ गए! रस्सी दिखाई पड़ी; सांप दिखाई न पड़ा। आंखें अंधी थीं। वासना ही क्या जो अंधा न कर जाए!
कोई कह सकता है कि बड़े बहादुर रहे होंगे तुलसीदास। सांप को पकड़कर चढ़ गए; कम बहादुर हैं! लेकिन तुलसीदास नहीं चढ़े सांप को पकड़कर। सांप को पकड़कर वासना चढ़ी। और वासना अंधी है। उसमें कोई बहादुरी नहीं होती। तुलसीदास नहीं चढ़े सांप को पकड़करतुलसीदास को सांप दिख जाता, तो भाग खड़े होते। वह दिखाई नहीं पड़ा। आंखें अंधी थीं। जब आंखें खुलीं, तब पता चला कि क्या किया है!
तीव्र वासना के क्षण में आप मूर्च्छित होते हैं, बेहोश होते हैं। बेहोशी में बल का कोई अर्थ नहीं है। पागल होते हैं। पागलपन में बल का कोई अर्थ नहीं है।
इसलिए कृष्ण उसे काट देते हैं। वे कहते हैं, कामवासना को छोड़कर, बलवानों का मैं बल हूं।
और भी एक बात कहते हैं, इसी संदर्भ में। यह भी कहते हैं कि जो धर्म से भरा है, उसकी मैं कामवासना भी हूं। ये उलटे दिखाई पड़ेंगे वक्तव्य। बलवान के लिए कहा, जो कामवासना से रहित है, उसका मैं बल हूं। लेकिन तब सवाल उठ सकता है कि फिर यह कामवासना का क्या होगा? कृष्ण कहते हैं, कामवासना भी मैं हूं, उसकी, जो धर्म से भरा है। इसका क्या अर्थ होगा? धर्म से भरी कामवासना का क्या अर्थ होगा?
जैसे ही व्यक्ति के जीवन में धर्म उतरता है, वैसे ही कामवासना वासना नहीं रह जाती। वैसे ही काम, सेक्स, यौन, यौन नहीं रह जाता। इसे थोड़ा समझना जरूरी है।
कुछ ऐसा है कि जिस व्यक्ति के जीवन में धर्म का अवतरण हुआ, उस व्यक्ति के जीवन का सभी कुछ धार्मिक हो जाता है। धर्म इतना डुबाने वाला है कि सिर्फ आपकी बुद्धि को ही डुबाएगा, ऐसा नहीं; सिर्फ आपके हृदय को ही डुबाएगा, ऐसा नहीं; आपके शरीर को भी डुबा लेगा। धर्म इतनी बड़ी घटना है कि घटे तो आप पूरे के पूरे उसमें डूब जाएंगे। आपकी कामवासना कहां बचेगी! वह भी उसमें डूब जाएगी। कहना चाहिए कि धर्म का अमृत ऐसा है कि अगर जहर की बूंद भी उसमें पड़ जाए, तो अमृत हो जाएगी।
हमें समझना बहुत कठिन होगा। हमारी सामान्य समझ तो यह कहती है कि वह सारा का सारा अमृत जहर हो जाएगा, अगर एक बूंद जहर की पड़ गई। क्योंकि जहर से ही हम परिचित हैं; अमृत से हम परिचित नहीं हैं। हमने जहर ही जाना है; हमने अमृत जाना नहीं है। सच बात तो यह है कि अमृत की कसौटी और परीक्षा ही यही है कि वह जहर को अमृत बना पाए। अन्यथा उसकी कोई कसौटी नहीं, कोई परीक्षा नहीं।
धर्म की कसौटी ही यही है कि आपके भीतर जो जहर है, वह अमृत हो जाए। आपके भीतर जो यौन है, जो वासना है, कामना है, वह भी राम-अर्पित हो जाए, वह भी प्रभु-समर्पित हो जाए। वह ऊर्जा भी ब्रह्म की ऊर्जा बन जाए।
क्या होता होगा? जब कोई व्यक्ति धर्म से भरता होगा, तो उसकी कामवासना की गति क्या होती होगी? उसकी कामवासना की गति आमूल बदल जाती है।
अभी आप कामवासना से भरते हैं अचेत होकर, मूर्च्छित होकर, विक्षिप्त होकर। निर्णय करते हैं हजार बार कि कामवासना से बचूंगा, बचूंगा, बचूंगा! और आप निर्णय करते रहते हैं, और भीतर वासना संगृहीत होती चली जाती है। और एक क्षण आता है, आपके निर्णय का पत्थर उठाकर फेंक दिया जाता है और वासना का झरना फूट पड़ता है। फिर कल से आप पछताएंगे और फिर पछताकर यही करेंगे कि फिर वासना को दबाकर इकट्ठा करेंगे। और फिर वह वक्त आएगा कि आपका संकल्प तोड़कर वासना पुनः बह उठेगी।
अभी वासना का हम पर हमला होता है, वी आर दि विक्टिम्स। अगर इसे ठीक से समझें, तो हम वासना के मालिक नहीं हैं, शिकार हैं। वासना हमें पकड़ लेती है भूत-प्रेत की भांति; और हमसे कुछ करा डालती है, जो कि शायद हमने अपने होश में कभी न किया होता। और जब हम होश में आते हैं, तो पछताते हैं, दुखी और पीड़ित होते हैं कि हमने ऐसा सोचा, ऐसा किया! लेकिन फिर वही होता है।
हम वासना के हाथ में धागे बंधी हुई गुड्डियों की तरह हैं, जो नाचते हैं। प्रकृति हम से काम लेती है। हम प्रकृति के गुलाम हैं। प्रकृति आज्ञा देती है, और हम काम में लग जाते हैं।
धर्म से भरे हुए व्यक्ति को प्रकृति आज्ञा देना बंद कर देती है। असल में जो व्यक्ति धर्म को उपलब्ध होता है, प्रकृति की आज्ञा-सीमा के बाहर हो जाता है। प्रकृति उसे कोई भी आज्ञा नहीं दे सकती। और एक नई घटना घटती है कि धर्म को उपलब्ध व्यक्ति प्रकृति को आज्ञा देने लगता है। एक आमूल रूपांतरण होता है।
जब तक हम अधर्म में जीते हैं, तब तक प्रकृति हमें आज्ञा देती है; हम गुलामों की तरह होते हैं। हम चलाए जाते हैं, चलते नहीं। हम खींचे जाते हैं, चलते नहीं। हम धकाए जाते हैं, हम चलते नहीं। हमारी जिंदगी हमारी वृत्तियों का जबर्दस्ती दबाव है। न तो आपने कभी क्रोध किया है; क्रोध करवाया गया है। न आपने कभी कामवासना की है; कामवासना करवाई गई है। आप सिर्फ एक विक्टिम हैं, एक शिकार हैं। चारों तरफ से आपको धक्के दिए जा रहे हैं।
जैसे हवा में पत्ता कंपता है। बाएं हवा बहती है, तो बाएं; और दाएं बहती है, तो दाएं। वह पत्ता भी शायद मन में सोचता होगा कि अब बाएं बहुत थक गया, अब जरा दाएं बहूं। जब हवा दाएं चलने लगती है, तब वह सोचता होगा, अब दाएं चलूं। वैसे ही आप सोचते हैं कि मैं क्रोध कर रहा हूं; कि मैं वासना से भर रहा हूं।
नहीं; आप सिर्फ भरे जाते हैं। आप बिलकुल हेल्पलेस विक्टिम, असहाय शिकार हैं।
धर्म से भरा हुआ व्यक्ति प्रकृति के ऊपर उठता है, वह प्रकृति को आज्ञा देना शुरू करता है। वैसे व्यक्ति के जीवन में कामवासना वासना नहीं रह जाती। हां, वैसे व्यक्ति के जीवन में यदि काम की कोई घटना भी घटे--जैसे कि कुछ घटनाएं घटी हैं--तो उनके कारण बहुत ही दूसरे होते हैं।
जैसे जीसस के बाबत कहा जाता है कि वह क्वांरी मरियम से पैदा हुए। यह उदाहरण मैं दे रहा हूं, ताकि आपकी समझ में आ सके कृष्ण की बात। जीसस के बाबत कहा जाता है, वे क्वांरी मरियम से, वर्जिन मैरी से पैदा हुए। अब क्वांरी लड़की से कोई कैसे पैदा होगा?
लेकिन हो सकता है। अगर कृष्ण के सूत्र को समझें, तो हो सकता है। मैरी, वह जीसस की मां, किसी कामवासना से भरकर अगर संभोग में न उतरी हो, वरन जीसस की आत्मा को जन्म देने के लिए ही अपने शरीर की प्रकृति को उसने आज्ञा दी हो, तो वह क्वांरी है।
और आपसे मैं कहूं कि आप जब किसी बच्चे को जन्म देते हैं, तब भी आपको पता नहीं होता कि उस बच्चे की आत्मा आपके चारों तरफ मंडरा रही है और आपको प्रेरित कर रही है कि आप उसे जन्म दें। लेकिन आप बेहोश हैं। उसके लिए प्रकृति आपको धक्के दिलाती है और बच्चे का जन्म करवाती है।
लेकिन कामवासना जिस दिन धर्म से रूपांतरित होती है, उस दिन आप सचेत रूप से एक आत्मा से बात कर पाते हैं, जो आपके द्वारा जन्म लेना चाहती है। और अगर आप जन्म देना चाहते हैं, तो आप अपने शरीर को आज्ञा देते हैं कि वह वासना में उतरे, वह काम-कृत्य में उतरे। लेकिन यह आज्ञा होती है। और इसलिए इसमें बुनियादी फर्क है।
जब आप कामवासना में उतरते हैं, तो आप बेहोश होते हैं। और जब ऐसा व्यक्ति कभी कामवासना में उतरता है, तो बिलकुल होश में होता है। वह अपने शरीर का उपयोग एक उपकरण, एक यंत्र की भांति कर रहा होता है। मालिक होता है। शरीर उसका उपयोग नहीं कर रहा होता है।
तो कृष्ण कहते हैं, मैं कामवासना भी हूं, लेकिन उनकी, जो धर्म से भरे हैं।
जीवन ने बहुत-से सत्य खोज लिए थे, जो धीरे-धीरे बार-बार खो जाते हैं, उनमें से एक सत्य यह भी था। इस संदर्भ में एक बात आपको कहना चाहूंगा।
आज सारी पृथ्वी पर संतति निरोध का आंदोलन है। सब जगह, किसी भी तरह आने वाले बच्चों को रोकना है। लेकिन एक ही उपाय मालूम पड़ता है और वह यह कि हमारे शरीर में कुछ फर्क किया जाए। और कोई उपाय नहीं मालूम पड़ता। एक ही उपाय मालूम पड़ता है कि हमारे शरीर की ग्रंथियां काट डाली जाएं, या शरीर में ऐसे रासायनिक द्रव्य डाले जाएं, या ऐसा इंतजाम किया जाए, कि आने वाली आत्मा जो हमारे भीतर प्रवेश करती है, वह अवसर न पा सके और प्रवेश न कर पाए।
यह बड़ी असहाय स्थिति है। इससे अन्यथा नहीं हो सकता क्या? लेकिन आदमी को देखकर नहीं कहा जा सकता है कि हो सकता है। दूसरी बात भी हो सकती है।
कृष्ण के इस सूत्र से वह बात दूसरी निकलती है। हम व्यक्तियों को इतना सचेतन बना सकते हैं--शरीर को बदलकर नहीं, उनकी चेतना को बदलकर--कि जब कोई आत्मा उनसे निवेदन करे कि वे जन्म देने वाले बनें, तो वे इनकार कर सकें; या जरूरत हो, तो जन्म दे सकें।
इस संबंध में मैं आपसे यह भी कहना चाहता हूं कि हजारों वर्ष तक भारत ने इसका प्रयोग किया है। इस बात के सैकड़ों प्रमाण हैं। इस बात का प्रयोग किया गया है। इस प्रयोग की पूरी की पूरी साइंस विकसित की गई थी।
जैसे कि आपने अगर महावीर या बुद्ध का जीवन पढ़ा हो, तो इस मुल्क ने एक पूरा का पूरा ड्रीम एनालिसिस, एक स्वप्न-विज्ञान निर्मित किया था। फ्रायड ने तो अभी-अभी स्वप्न के लक्षणों को समझना शुरू किया है। वह भी समझ अभी बहुत बालपन की है। वह अभी बहुत गहरी नहीं है।
लेकिन जैन परंपरा कहती है कि जब तीर्थंकर किसी मां के गर्भ में प्रवेश करता है, तो इस-इस तरह के स्वप्न इस-इस समय पर उस मां को आने शुरू होते हैं। वह इस बात की खबर है कि तीर्थंकर की कोटि की आत्मा उस मां के गर्भ में प्रवेश करना चाहती है। वे स्वप्न सूचनाएं हैं। उन स्वप्नों से खबर मिलती है कि कोई एक विराट आत्मा मां के भीतर प्रवेश करना चाहती है। वे स्वप्न जो हैं, सिंबालिक मैसेजेस हैं।
और यह बड़े मजे की बात है कि जैनों के चौबीस तीर्थंकर बहुत लंबे फासले पर हुए; अंदाजन कम से कम दस हजार साल का फासला--कम से कम; इससे ज्यादा हो सकता है--लेकिन उनकी माताओं को आने वाले स्वप्नों का क्रम एक है। वे स्वप्न सूचक हैं। वे इस बात की खबर दे रहे हैं कि इनकार मत कर देना। क्योंकि जो व्यक्ति पैदा होने वाला है, वह तुम्हें सिर्फ मार्ग बना रहा है, लेकिन इस जगत के लिए बहुत काम का है, उसको इनकार मत कर देना। वह कोई साधारण आत्मा नहीं, जो तुमसे आ रही है।
और बुद्ध के मामले में तो यह भी जाहिर था कि बुद्ध जिससे भी जन्म लेंगे, वह मां जन्म देकर तत्काल मर जाएगी; जी न सकेगी। क्योंकि बुद्ध जैसे व्यक्तित्व को जन्म देना!
हम जानते हैं, साधारण बच्चे को जन्म देने में कितनी प्रसव-पीड़ा होती है। साधारण बच्चे को जन्म देने में कितनी प्रसव-पीड़ा होती है। लेकिन शरीर को ही पीड़ा होती है। बुद्ध जैसे व्यक्ति को जन्म देने में आत्मा तक प्रसव-पीड़ा का प्रवेश होता है। वह कोई छोटी घटना नहीं है। एक बहुत महान घटना, एक विराट घटना घट रही है शरीर के भीतर।
तो यह जाहिर थी बात कि बुद्ध की मां जन्म देने के बाद बचेगी नहीं। फिर भी बुद्ध की मां राजी थी। क्योंकि बुद्ध जैसा व्यक्ति पैदा होता है, यह सौभाग्य छोड़ने जैसा नहीं है। और कहा जाता है कि देवताओं ने बुद्ध की मां को न मालूम कितनी-कितनी तरह से राजी किया। और कहा कि इनकार मत कर देना। क्योंकि जो व्यक्ति आ रहा है, वह करोड़ों के जीवन को प्रकाशमान कर देगा। उसके लिए इतना कष्ट झेलने की तैयारी रखना।
बुद्ध ने घोषणा की है कि दो हजार साल बाद मैं पुनः एक नए रूप में, मैत्रेय के रूप में पृथ्वी पर उतरूंगा। दो हजार साल पूरे हो गए, लेकिन मैत्रेय को ठीक गर्भ नहीं मिल पा रहा है। इसलिए एक अड़चन खड़ी हो गई है। इसलिए जो लोग जीवन की गहराइयों से संबंधित हैं, उनकी इस वक्त सबसे बड़ी बेचैनी यही है कि कोई मां मैत्रेय को ग्रहण करने के लिए तैयार हो जाए। लेकिन कोई मां पृथ्वी पर दिखाई नहीं पड़ती है।
बुद्ध का वचन खाली न जाए, इसलिए और तरह के प्रयोग भी किए गए। वे भी असफल हो गए। कोई गर्भ देने वाली मां नहीं मिलती है, तो कोशिश यह की गई कि किसी व्यक्ति के शरीर में, जीवित व्यक्ति के शरीर में ही बुद्ध की आत्मा को प्रवेश करा दिया जाए। और एक ही शरीर से दोनों आत्माएं काम कर लें। यह आत्मा जो मौजूद है, सिकुड़ जाए और उस आत्मा को जगह दे दे। वे प्रयोग भी सफल नहीं हो सके। कृष्णमूर्ति के साथ भी वही प्रयोग किया गया था; वह सफल नहीं हो सका।
एक और गहरे तल पर गर्भ का विज्ञान सोचा, समझा और पहचाना गया था। कृष्ण उसी की बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि जिस दिन धर्म से भरा हुआ होता है चित्त, उस दिन काम की वासना भी मैं ही हूं।


प्रश्न:

भगवान श्री, बुद्धिमानों में बुद्धि और संपूर्ण भूतों का सनातन कारण, इसे भी स्पष्ट करने की कृपा करें।


संपूर्ण भूतों का सनातन कारण!
कारण दो तरह के होते हैं। एक तो, जिन्हें हम कारण कहते हैं। हम कहते हैं, पानी भाप बन गया। कारण? क्योंकि गर्मी मिल गई। हम कहते हैं, आदमी मर गया। क्यों? कारण? क्योंकि हृदय की धड़कन बंद हो गई। ये कारण नहीं हैं वस्तुतः। ये तो अस्थायी, ऊपर, सतह पर घटने वाली घटनाओं का तारतम्य हैं। यह वैसा ही झूठ है, जैसे कि कोई आदमी दो घड़ियां अपने घर में लगा ले...।
डेविड ह्यूम, एक अंग्रेज विचारक, इसकी बात हमेशा किया करता था। क्योंकि वह कार्य-कारण के सिद्धांत के बड? खिलाफ था। वह कहता था कि तुम कहते हो, पानी गर्म करने से भाप बन गया, मेरी समझ में नहीं आता! मैंने तुम्हें गर्म करते भी देखा, आग जलाते भी देखा, पानी को भाप बनते भी देखा, लेकिन मैं यह अभी तक नहीं देख पाया कि गर्म करने से पानी कब भाप बना! गर्मी देखी, आग देखी, भाप बनते देखा पानी। लेकिन पानी गर्मी से कब भाप बना, यह मैंने देखा नहीं अभी तक।
आप कहते हैं, हृदय की धड़कन बंद हो गई, इसलिए यह आदमी मर गया। ह्यूम कहेगा कि यह भी हमने देखा कि धड़कन बंद हो गई, और यह भी हमने देखा कि आदमी मर गया। लेकिन फिर भी मैंने वह घटना नहीं देखी कि हृदय की धड़कन बंद होने से मर गया। उन दोनों के बीच का संबंध मैंने नहीं देखा।
ह्यूम कहा करता था कि एक आदमी अपने घर में दो घड़ियां बना सकता है। ऐसी घड़ियां बना सकता है कि एक घड़ी में बारह बजे और दूसरी घड़ी में बारह का घंटा बजे। इसमें कोई कठिनाई तो नहीं है। एक घड़ी में सात बजे, दूसरे में सात का घंटा बजे। एक में आठ बजे और दूसरे में आठ का घंटा बजे। फिर कोई आदमी, जो घड़ी को न जानता हो, पीछे से वह उस घर में आ जाए, तो वह सोचेगा कि जब इस घड़ी में सात बजते हैं, तो सात बजने के कारण उस घड़ी में सात का घंटा बजता है। जब कि उनमें कोई भी संबंध नहीं है ऊपर से। हम जिनको कारण कहते हैं, वे ऐसे ही ऊपर से जुड़ी हुई घटनाएं हैं।
इसलिए कृष्ण ने इतना ही नहीं कहा कि सब भूतों का कारण; कहा, सनातन कारण--दि अल्टिमेट काज--आखिरी, प्रथम, अंतिम, अनादि।
अगर हम एक-एक कारण को खोजने जाएं, तो जगत में अनंत कारण हैं। हर चीज के अनंत कारण हैं। और एक चीज भी एक कारण से नहीं होती, मल्टी-काजल होती है, अनेक कारण से होती है।
आप सड़क पर जा रहे हैं और एक कार आपसे आकर टकरा गई, तो आप जानते हैं, कितने कारण होते हैं? हजार कारण होते हैं।
आप रास्ते पर जिस भांति जा रहे थे, अगर घर से पत्नी से लड़कर न चले होते, तो शायद इस भांति न चल रहे होते, जैसे चल रहे थे। लेकिन पत्नी आपसे न लड़ती, अगर बच्चा स्कूल से वक्त पर घर आ गया होता। बच्चा स्कूल से वक्त पर घर आ सकता था, लेकिन रास्ते में मित्र मिल गए।
वह जो आदमी चलाकर आ रहा है कार और आपसे टकरा गया है, वह भी शायद न टकराता, लेकिन किसी ने उसे शराब पिला दी है। मित्रों ने आग्रह किया। मित्र आग्रह करने से नहीं बच सकते थे, क्योंकि यह मित्र पहले उनको कई दफा आग्रह करके पिला चुका था।
और आप पीछे हटते चले जाएं, तो शायद सड़क पर जो आज आपको एक कार आकर टकराकर लग गई है, इसके पीछे आपको उतने ही कारण मिल जाएंगे, जितने जगत में हो सकते हैं, सब। इस छोटी-सी घटना के पीछे यह पूरा जगत कारणों का एक जाल बिछाकर खड़ा होगा। अगर आप थोड़ा भीतर उतरते जाएं, उतरते जाएं, तो आप घबड़ा जाएंगे, और आप कहेंगे कि बस, अब खोज करनी बेकार है। इस खोज का कहीं अंत नहीं हो सकता। यह तो कारणों का जाल है।
कृष्ण इन कारणों की बात नहीं कर रहे। वे कह रहे हैं, एक कारण, सनातन कारण। सनातन कारण का अर्थ होता है, यह सब मुझसे निकला और मुझमें लीन होगा। यह सब मुझसे आया और मुझमें वापस लौट जाएगा--सब। सनातन कारण का अर्थ होता है, मेरे बिना कुछ भी नहीं हो सकता है। अगर मैं नहीं हूं, तो कुछ भी नहीं है। मैं हूं, तो सब है। मेरे हटते ही सब शून्य हो जाएगा। मेरी नजर फिरी कि सब शून्य हो जाएगा। सब मेरा खेल है। सनातन कारण का अर्थ होता है, जिससे सब चीजें आती हैं, और जिसमें वापस लौट जाती हैं। बीच में जो कारणों का जाल है, उससे कोई संबंध नहीं है।
हम सब ऊपर के कारणों को देखते हैं, इसलिए मुश्किल में पड़ते हैं। अर्जुन भी ऊपर के कारण देखने वाला है। वह कह रहा है, मैं इनको छुरा मारूंगा, तो ये मर जाएंगे।
कृष्ण कहते हैं, तू फिक्र मत कर, क्योंकि मैं जानता हूं। ये मेरी वजह से जी रहे हैं। और जब तक मैं जी रहा हूं, ये कोई मर सकते नहीं। तू बेफिक्री से युद्ध कर। मैं तुझे सनातन कारण कहता हूं। तेरे छुरे मारने से ये मरने वाले नहीं हैं; और न तेरे छुरे के बचने से ये बचने वाले हैं। इनका होना और न होना मुझ पर निर्भर है, मैं सनातन कारण हूं।
अगर यह बात ठीक से समझ ली जाए कि परमात्मा सभी चीजों का सनातन कारण है, तो आप कर्ता बनने के मोह से गिर जाएंगे। वह कर्ता बनने का मोह फिर न रह जाएगा। आप कहेंगे, ठीक है। जो हो रहा है, ठीक है। जो हो जाए, ठीक है। जो न हो, ठीक है। और जिस दिन आप इतनी सरलता से सब स्वीकार कर लेंगे, उस दिन आपके भीतर अहंकार को खड़े होने की कोई जगह न रह जाएगी।
परमात्मा सनातन कारण है, ऐसा बोध आपके कर्तापन को गिरा जाएगा, मिटा जाएगा, धूल में डाल जाएगा। और कर्तापन का बोध गिर जाए, तो ही हम परमात्मा की दिशा में एक कदम ऊपर उठते हैं। और ध्यान रहे, आलसी हम ऐसे हैं कि परमात्मा अगर कहे कि एक कदम जरा-सा उठा लो, तो भी हम कदम नहीं उठाते।
सुना है मैंने, एक गांव में एक आदमी से गांव परेशान हो गया था। परेशान इसलिए हो गया था कि न तो वह कमाता, न कुछ पैदा करता। फिर गांव यह भी नहीं देख सकता था कि वह भूखा मरता रहे। तो गांव को उसे देना पड़ता था। वह अपने वृक्ष के नीचे, या अपने झोपड़े में पड़ा रहता था। वृक्ष के नीचे भी मुहल्ले के लोग उसे ले आते थे, तो आ जाता था। और वृक्ष के पास से, बाहर से उसको झोपड़े के भीतर लोग ले जाते थे, तो चला जाता था। अगर किसी दिन पड़ोस के लोग उसको झोपड़े के बाहर न निकालते, तो वह झोपड़े के भीतर से ही नाराजगियां जाहिर करता था।
फिर गांव परेशान हो गया, और गांव ने सोचा कि इस आदमी को कब तक ढोएंगे? फिर अकाल पड़ा और गांव ने सोचा कि अब तो इसको जिंदा या मुर्दा दफना देना चाहिए। वैसे इसके जीने से कोई फर्क भी नहीं पड़ता। पर उन्होंने सोचा, क्या वह राजी होगा? उन्होंने कहा, चलकर हम देख लें।
वे गांव के लोग उसके पास गए और उससे पूछा कि हमने यह तय किया है कि हम तुम्हें दफना दें। क्योंकि तुम्हारे होने, न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। एक दिन तो दफनाना ही पड़ेगा, जब तुम मरोगे। लेकिन हमारे लिए तुम मरे ही जैसे हो। और तुम्हारे लिए भी, जीते हुए हो, ऐसा हमारा अनुभव नहीं। क्या तुम राजी हो?
उसने कहा, मैं राजी हो सकता हूं। लेकिन मरघट तक ले कौन चलेगा? मुझे कोई दिक्कत नहीं है। बाकी ले जाना तुम्हीं को पड़ेगा। उन्होंने कहा, हमने तो यह सोचा भी नहीं था कि तुम इतने जल्दी राजी हो जाओगे!
उन्होंने अर्थी बनाई। उस आदमी को अर्थी पर रखा। वे उसको लेकर चले। वह आदमी अर्थी में लेट गया। थोड़े वे भी चिंतित हुए। इतना भरोसा न था उसका।
गांव में कोई परदेशी आया हुआ था। उसे यह खबर मिली कि गांव में कौन-सी घटना घट रही है कि जिंदा आदमी को लोग ले जा रहे हैं दफनाने! उसने बीच रास्ते पर आकर रोका कि भाइयो, यह क्या कर रहे हो? उन्होंने कहा, हम परेशान हो गए हैं। अब और कोई उपाय नहीं बचा। हम इसे जिंदा ही दफनाने जा रहे हैं। हमारे पास न दाना है इसको देने को, न अनाज है। उस आदमी ने कहा, रुको। अगर तुम मेरी मानो, तो मैं सालभर के लिए अनाज इसको दिए देता हूं। तुम इसे छोड़ दो।
इसके पहले कि गांव के लोग कुछ बोलते, अर्थी से आवाज आई कि पहले बात साफ हो जानी चाहिए। अनाज साफ-सुथरा है न? नहीं तो पीछे कौन झंझट करेगा! पहले कुछ निर्णय करें गांव के लोग, अर्थी से आवाज आई, साफ कर लेना। अनाज साफ-सुथरा है? एक, और दूसरी बात कि ये लोग मुझे यहीं छोड़कर चले जाएंगे, तो मुझे घर कौन पहुंचाएगा?
जिस आदमी के बाबत यह कहानी है, वह एक सूफी फकीर था। वह कोई साधारण आदमी नहीं था। जब उसकी अर्थी नीचे उतारी और अजनबी आदमी ने जब उसकी यह बात सुनी, तो उसने सोचा कि आदमी तो असाधारण है, उसके दर्शन करने चाहिए। उसको देखा तो उस अजनबी ने कहा, हैरान करते हो तुम मुझे!
तो उस आदमी ने कहा कि तुम थोड़ा मेरी आंखों में झांककर समझ पा रहे हो, इसलिए मैं तुमसे राज की बात कहता हूं। ये सारे लोग समझते हैं कि मैं आलसी हूं। लेकिन मैं उस यात्रा पर निकल गया, जो कठिनतम है। और ये सारे लोग समझते हैं कि बड़े श्रमी हैं। लेकिन ये जो भी कर रहे हैं, दो कौड़ी का कर रहे हैं। तुम सोचते होगे कि मैं एक कदम घर जाने को राजी नहीं। मैं तुमसे कहता हूं, ये भी कोई अपने असली घर जाने को एक कदम राजी नहीं। और जिस घर तुम मुझे ले जा रहे हो, वह मेरा कोई असली घर नहीं है। इसलिए मैं कब्र में भी जाने को राजी हूं। क्योंकि मेरे लिए कब्र और वह घर बराबर है। और जिस शरीर को बचाने की तुम बात कर रहे हो, इसलिए मैंने पूछा कि अनाज साफ-सुथरा है न! क्योंकि इसको बचाने के लिए इतनी मेहनत करने की मैं कोई जरूरत नहीं समझता। लेकिन मैं एक और घर को बचाने में लगा हूं। और मैं तुमसे कहता हूं कि तुम सब अलाल हो। और तुम सब समझते हो कि मैं अलाल हूं। और ध्यान रखो, तुम मुझे जिंदा दफना रहे हो। जब तुम दफना दिए जाओगे, तब मैं तुम्हें बताऊंगा। तब तुम मुझसे मिलना। और तब मैं तुम्हें बताऊंगा कि असली आलसी कौन था।
पता नहीं, उस गांव के लोग समझे या नहीं समझे, लेकिन आपसे मैं कहता हूं, एक कदम भी हम उस दिशा में उठाने की हिम्मत नहीं करते हैं।
तो कृष्ण कह रहे हैं, सनातन हूं मैं कारण। इसीलिए कह रहे हैं ताकि आपको बस एक ही कदम उठाने को बाकी रह जाए। वह एक कदम, कि आप कर्ता नहीं हैं, परमात्मा कारण है। अगर आप सब छोड़ पाएं उस सनातन कारण पर...।
लेकिन हम सनातन कारण पर नहीं छोड़ते। किसी आदमी ने गाली दे दी, तो हम क्रोध से भर जाते हैं। जरा पैर में चोट लग गई, तो हम परेशान हो जाते हैं। अगर हम सनातन कारण को देख पाएं--जो उस पत्थर के पीछे भी है, और मेरे पीछे भी; और जो गाली देने वाले के भी पीछे है, और मेरे पीछे भी; और कांटे के पीछे है, और मेरे दर्द के पीछे भी; अगर हम उस सनातन कारण को देख पाएं, जो सुख के पीछे भी है और दुख के पीछे भी; जन्म में भी और मृत्यु में भी; सम्मान में और अपमान में भी--अगर वह सनातन हमें दिख जाए, तो हमारी उत्तेजना का जगत तत्काल शांत हो जाए। फिर उत्तेजना का कोई कारण नहीं है।
उत्तेजना के सब कारण तात्कालिक हैं। जिसे अनुत्तेजना के जगत में प्रवेश करना है शांति के, उसे सनातन कारण को स्मरण कर लेना चाहिए।
और कृष्ण कहते हैं, बुद्धिमानों की मैं बुद्धि।
बुद्धिमानों की बुद्धि! सभी बुद्धिमानों में बुद्धि नहीं होती। अधिक बुद्धिमानों में तो केवल संग्रह होता है सूचनाओं का, शास्त्रों का। जरूरी नहीं कि बुद्धिमान में बुद्धि भी हो।
एक मित्र को कल ही पत्र लिख रहा था। तो उसे मैंने एक कहानी लिखी है, वह मैं आपसे कहूं।
उसे मैंने लिखा है, एक सम्राट का बेटा था, जो मूढ़ था। और सम्राट परेशान हो गया। बुद्धिमानों से सलाह ली, तो उन्होंने कहा कि यहां तो कोई उपाय नहीं है। दूर देश किसी और राजधानी में एक विश्वविद्यालय है, वहां भेजो। भेज दिया गया।
वर्षों की शिक्षा के बाद बेटे ने खबर भेजी कि अब मैं बिलकुल निष्णात हो गया, दीक्षित हो गया। सब शिक्षा मैंने पा ली। अब मुझे वापस लौटने की आज्ञा दे दी जाए। सम्राट ने उसे वापस बुला लिया। सम्राट भी खुश हुआ। वह सभी शास्त्रों का ज्ञाता होकर आ गया। वह ज्योतिष भी जानता है। वह भविष्यवाणी भी कर सकता है। वह लोगों के पीछे अतीत में भी देख सकता है। उन दिनों जो-जो विज्ञान था, वह सब जानकर आ गया।
सम्राट बहुत खुश हुआ। उसने देश के सभी बुद्धिमानों को स्वागत के लिए बुलाया। अपने बेटे के स्वागत का समारंभ किया। बड़े-बड़े बुद्धिमान आए। एक बूढ़ा भी आया। उस बूढ़े ने उस बेटे से कई सवाल पूछे। पूछा कि तुमने क्या-क्या अध्ययन किया? तो वह करिक्युलम लाया था अपने विश्वविद्यालय का। उसने निशान लगा रखे थे कि मैंने क्या-क्या पढ़ा। उसने सब बताया।
परीक्षा के लिए बूढ़े ने--क्योंकि उसने कहा कि मैं अदृश्य चीजों को भी देख पाता हूं, उनका भी अंदाज लगा पाता हूं, उनका भी अनुमान कर पाता हूं--उस बूढ़े ने बातचीत करते-करते अपने हाथ का छल्ला निकालकर अपनी मुट्ठी में अंदर कर लिया। बंद मुट्ठी उस लड़के के सामने की और कहा कि मुझे बताओ, इस मुट्ठी के भीतर क्या है?
उस लड़के ने एक सेकेंड आंख बंद की और कहा कि एक ऐसी चीज है जो गोल है और जिसमें बीच में छेद है। बूढ़ा हैरान हुआ। बूढ़े ने समझा कि लड़का सचमुच ही बुद्धिमान होकर लौट आया है। सब शास्त्र उसने जान लिए हैं। फिर भी उसने एक सवाल और पूछा कि कृपा करके उस चीज का नाम भी तो बताओ!
तो उस युवक ने आंखें बंद कीं, बहुत देर तक नहीं खोलीं। और फिर कहा कि मैंने जो शास्त्रों का अध्ययन किया, उसमें नाम बताने का कहीं भी कोई आधार नहीं मिलता है। फिर भी मैं अपने कामन सेंस से, अपनी बुद्धि से कहता हूं कि आपके हाथ में गाड़ी का चाक होना चाहिए।
वह जो बेचारा पहले बताया था, वह शास्त्र था। अब जो बता रहा है, वह खुद है!
उस बुद्धिमान ने अपने मन में ही सोचा, उसने अपने मन में ही कहा कि यू कैन एजुकेट ए फूल, बट यू कैन नाट मेक हिम वाइज--मूढ़ को भी शिक्षित किया जा सकता है, लेकिन बुद्धिमान नहीं बनाया जा सकता।
सभी बुद्धिमानों में बुद्धि होती है, इस भ्रम में मत पड़ना। अधिक बुद्धिमानों में बुद्धि का सिर्फ धोखा होता है; उधार होता है।
कृष्ण कहते हैं, बुद्धिमानों में बुद्धि!
यह जो बुद्धि है, जिसके लिए कृष्ण जोर देते हैं, जिसे विजडम कहते हैं, प्रज्ञा। जरूरी नहीं है कि बुद्धिमान बहुत कुछ जानता हो। यह जरूरी नहीं है। क्योंकि बहुत कुछ जानने वाला जरूरी रूप से बुद्धिमान नहीं होता। लेकिन बुद्धिमान जो जानता है, वह उसके जीवन को एक फूल की तरह खिला जाता है।
एक और इस तरह की कहानी आपसे कहूं, जो खयाल में आ जाए। एक वृद्ध बुद्धिमान के संबंध में बड़ी खबर थी। एक विश्वविद्यालय के दो युवकों ने सोचा--पिछली कहानी में विश्वविद्यालय के युवक की परीक्षा बूढ़े ने की; इस कहानी में बूढ़े की परीक्षा दो विश्वविद्यालय के युवकों ने की। उन्होंने सुना है कि उस आदमी के पास जाओ, तो वह कुछ भी बता देता है। आपका नाम भी बता देता है। जैसे मुट्ठी में बंद चीज को बूढ़े ने जानना चाहा था, खबर थी कि वह बूढ़ा भी बता देता है; वह बड़ा बुद्धिमान है।
तो वे दोनों युवक एक कबूतर को अपने कोट के भीतर छिपाकर आए हैं। और उस बूढ़े के सामने आकर कहा, क्या आप बता सकते हैं कि हमारे कोट के भीतर क्या है? उसने कहा, मैं बता सकता हूं। वे तैयारी करके आए थे। हाथ भीतर रखा था। उन्होंने पूछा, क्या आप बता सकते हैं कि वह जिंदा है या मुर्दा?
उन्होंने सोचा था कि अगर वह कहे जिंदा, तो अंदर ही गर्दन मरोड़कर बाहर निकालना है। अगर वह कहे मुर्दा, तो जिंदा बाहर निकाल देना है। गर्दन पर हाथ था मजबूत।
बूढ़े ने एक क्षण आंख बंद की और कहा, इट डिपेंड्स। उसने कहा कि यह कई बातों पर निर्भर करेगा कि वह जिंदा है कि मुर्दा। उन्होंने कहा, क्या मतलब? उस बूढ़े ने कहा कि अगर मैं कहूं, वह जिंदा है, तो गर्दन दबाई जा सकती है। अगर मैं कहूं, वह मुर्दा है, तो उसे ऐसे ही बाहर निकाला जा सकता है। लेकिन तुम्हारी मैं फिक्र छोड़ता हूं; कबूतर की फिक्र करता हूं। मैं कहता हूं, वह मुर्दा है। बाहर निकालो। क्योंकि कबूतर न मर जाए नाहक। बूढ़े ने कहा कि मेरी तुम फिक्र छोड़ो। कबूतर की फिक्र करता हूं। मैं कहता हूं, वह मुर्दा है। बाहर निकालो
यह विजडम है। यह बहुत और बात है। यह बुद्धि और बात है। यह केवल जानकारी नहीं है; यह जीवन के रहस्य का बोध है। यह केवल संग्रह नहीं है ऊपर से; यह भीतर से आया हुआ आविर्भाव है। यह अंतःजागरण है, अंतःस्फूर्ति है। यह कुछ ऐसा नहीं है कि कल जो मैंने जाना था, उस पर निर्भर है। बल्कि आज भी मेरी चेतना जाग रही है और देख रही है; और जो कहेगी, वह मैं जानूंगा।
बुद्धिमान, तथाकथित बुद्धिमान, अतीत के ज्ञान पर निर्भर होते हैं--दूसरों के, खुद के। वस्तुतः बुद्धि सदा सजग वर्तमान में जीती है--अभी, जागरूक, जैसे दर्पण। जो सामने आ जाता है, दिखाई पड़ जाता है।
कृष्ण कहते हैं, बुद्धिमानों की बुद्धि हूं मैं।
बुद्धिमत्ता नहीं, बुद्धिमानी नहीं, नालेज नहीं, ज्ञान नहीं--बुद्धि, इंटेलिजेंसइंटलेक्ट नहीं, इंटेलिजेंस; सिर्फ बुद्धि। हम जो-जो जानकारियां भर लेते हैं...। फर्क समझ लें, थोड़ा बारीक है।
एक कमरा है आपके पास। उसमें आप फर्नीचर भर लेते हैं। कभी आपने खयाल किया कि जितना फर्नीचर भरते जाते हैं, कमरा उतना छोटा होता जाता है! क्योंकि कमरे का मतलब ही जगह है। अंग्रेजी का शब्द अच्छा है, रूम। उसका मतलब होता है, जगह, स्थान। तो जितना आप फर्नीचर भरते जाते हैं, कमरा कम होता चला जाता है। इसलिए बड़े आदमियों के कमरे दिखाई ही बड़े पड़ते हैं, होते गरीबों से भी छोटे हैं। चीजें तो बढ़ती जाती हैं।
मैं अभी एक बहुत अमीर के घर में ठहरा हुआ था। तो उन्होंने कमरे में इतनी चीजें भर दी हैं कि वे उसमें कैसे अंदर आते-जाते हैं, मुझे कुछ पता नहीं। मुझे उसमें प्रवेश कराने लगे, मैंने कहा कि आप मुझे बाहर ही रहने दो। इतनी चीजें हैं! यह रूम तो है ही नहीं। यह तो कबाड़खाना है। जो भी आता है, खरीदकर ले आते हैं और रखते चले जाते हैं! पैसा पास है। पैसे के साथ बुद्धि जरूरी रूप से आती हो, ऐसा नहीं है। तो जितने माडल हो सकते हैं फर्नीचर के, सब उसी कमरे में इकट्ठे हैं!
कमरे में आप जब फर्नीचर भर देते हैं, तो कमरा छोटा हो जाता है। बुद्धि में जितनी आप सूचनाएं भर देते हैं, बुद्धि छोटी हो जाती है। बुद्धि तो रूम है, बुद्धि तो एक स्पेस है, खाली जगह है।
बुद्धिमान वह है, जो अपनी बुद्धि को सदा खाली, और ताजी, और सजग रखता है। भर नहीं लेता सिर्फ। भरकर तो सब बासा हो जाता है। कुछ नहीं भरता; खाली रखता है; ताजी रखता है; खुली रखता है। सूचनाएं जितनी इकट्ठी हो जाती हैं भीतर, उतनी ही बुद्धि की कम जरूरत पड़ने लगती है। क्योंकि आप सूचनाओं से ही काम चला लेते हैं।
कृष्ण कहते हैं, बुद्धिमानों में मैं बुद्धि हूं।
वह खाली जगह, वह स्पेस। उपनिषदों में जिसे इनर स्पेस आफ दि हार्ट कहा है--हृदय की अंतर्जगह, अंतर्गुहा। हृदय में एक जगह है, जो बिलकुल खाली है। और जो व्यक्ति उस खाली जगह में खड़ा हो जाए, वह परमात्मा के मंदिर में प्रवेश कर जाता है।
तो यहां बुद्धि से मतलब इंटलेक्ट का नहीं है। यहां बुद्धि से मतलब चालाकी का नहीं है। यहां बुद्धि से मतलब दो और दो चार जोड़ लेने का नहीं है। यहां बुद्धि से मतलब है, उस भीतर के अंतर-आकाश में खड़े हो जाने का, जो बिलकुल खाली है, शून्य है। उस शून्य में जो खड़ा है, वही बुद्धिमान है। क्योंकि उस शून्य में खड़े होकर ही सत्य का दर्शन उपलब्ध होता है।
कृष्ण कहते हैं, बुद्धिमानों में मैं बुद्धि हूं।

प्रश्न:

भगवान श्री, एक छोटा-सा प्रश्न है। कल आपने दिव्य व्यक्तित्व में अर्थात योगी में मैं तेजस हूं, इसकी चर्चा की। पिछले श्लोक में कहे गए, मैं तपस्वियों में तप हूं, इसका भी अर्थ स्पष्ट करने की कृपा करें।


मैं तपस्वियों में तप हूं। तपश्चर्या नहीं। शब्द तो दोनों एक से हैं। लेकिन तपश्चर्या का जोर होता है कृत्य पर, एक्ट पर। और तप का जोर होता है आंतरिक उपलब्धि पर।
एक तपस्वी है, तपश्चर्या कर रहा है। जो वह तपश्चर्या करता है, वह तो बाहरी कृत्य है, वह तो बाह्य कृत्य है--कि उपवास करता है, कि प्राणायाम करता है, कि आसन करता है, कि धूप में खड़ा होता है, कि शीत में खड़ा होता है--वह तो बाहरी कृत्य है, एक्ट है। और यह भी हो सकता है कि वह यह सब करता रहे, और भीतर कोई भी तप फलित न हो। क्योंकि यह कोई अज्ञानी भी कर सकता है, कोई अहंकारी भी कर सकता है, कोई एक्जीबिशनिस्ट, जिसको प्रदर्शन का शौक है, वह भी कर सकता है।
और अगर आप अपने तपश्चर्या करने वाले लोगों में खोजबीन करने जाएं, तो सौ में से नब्बे एक्जीबिशनिस्ट मिलेंगे, जो अपने प्रदर्शन को उत्सुक हैं। और जब भी प्रदर्शन करना हो, तो इस तरह के काम बहुत अच्छे होते हैं।
राबर्ट रिप्ले ने एक घटना लिखी है। कि रिप्ले युवक था, और प्रसिद्ध होना चाहता था। लेकिन प्रसिद्ध होने के लिए उसके पास कोई सीढ़ी न थी। न तो वह किसी मिनिस्टर का रिश्तेदार था; न किसी धनी का भाई-भतीजा था; न किसी यूनिवर्सिटी में प्रवेश के लिए पैसे थे उसके पास। उसके पास कुछ भी नहीं था; लेकिन प्रसिद्ध होना था।
तो उसने गांव के एक बहुत कुशल विज्ञापनदाता से जाकर पूछा कि मुझे प्रसिद्ध होना है, मैं क्या करूं? कोई ऐसी सरल तरकीब बताओ, क्योंकि मेरे पास कोई सहारा नहीं है, कोई सीढ़ी नहीं है, सीधा प्रसिद्ध हो जाऊं। उसने कहा, इसमें कौन-सी बड़ी बात है! तू इधर आ, मेरे पास आ। वह अंदर गया और एक उस्तरा उठाकर लाया। और उसने रिप्ले की आधी खोपड़ी के बाल छांट दिए। आधे बाल अलग कर दिए। रिप्ले ने कहा, यह आप क्या कर रहे हैं? उसने कहा, तू घबड़ा मत। दो दिन में तुझे प्रसिद्ध किए देता हूं। उसने कहा, लेकिन आप कर क्या रहे हैं?
आधे बाल उसने साफ कर दिए और आधी खोपड़ी पर लिख दिया राबर्ट रिप्ले! तेरा नाम, तू जा। पूरे गांव में घूम आ। पर उसने कहा, इसमें बड़ा डर लगता है। उसने कहा, डर मत। अगर तू इतना भी नहीं कर सकता, तो फिर अब मैं क्या करूं! तुझे मैं मिनिस्टर का भतीजा नहीं बना सकता। किसी धनपति से अचानक तेरा कोई रिश्ता जुड़वा नहीं सकता। यूनिवर्सिटी में दाखिला मैं करवा नहीं सकता। पर तू मेरी मान।
रिप्ले ने लिखा है कि पहले तो बड़ी हिम्मत जुटाई। फिर किसी तरह निकला। लेकिन सच, दो दिन में सब अखबारों में मेरे फोटो छप गए। और जहां से निकल जाता, वहां लोग काम-धंधा बंद करके बाहर आ जाते। और दो दिन में पूरे गांव में लोग मुझे जान गए। न केवल गांव में, बल्कि गांव के बाहर खबरें पहुंचने लगीं। राजधानी तक खबरें पहुंचने लगीं। और कुछ मैंने किया नहीं था, सिर्फ बाल काट लिए थे।
फिर रिप्ले ने कहा, फिर तो ट्रिक मेरे हाथ लग गई। फिर तो मैं जिंदगीभर ऐसे ही काम करता रहा।
उसने पूरे अमेरिका की यात्रा उलटे चलकर की। सारी दुनिया में खबर हुई और कहा गया कि इतिहास का पहला मनुष्य है, जिसने अमेरिका की यात्रा उलटे चलकर की। एक आईना बांध लिया सामने और चल पड़ा! जुलूस चलता था साथ में।
रिप्ले ने लिखा है, लेकिन मेरी जिंदगी बेकार में गई; भीड़ को इकट्ठा करने में गई। एक्जीबिशनिस्ट माइंड! प्रदर्शनकारी मन!
तो तपश्चर्या बहुत कुछ तो प्रदर्शन होती है। अगर आप किसी तपस्वी की बहुत पूजा वगैरह करते हों, तो जरा पूजा वगैरह पंद्रह दिन के लिए हालीडे पर छोड़ दें, बंद कर दें। पंद्रह दिन में तपस्वी भाग जाएगा। क्योंकि जब देखेगा, कोई पूछता नहीं, कोई फिक्र नहीं करता, कोई पैर नहीं दबाता, कोई फूल नहीं चढ़ाता, कोई कुछ नहीं करता। अब क्या मतलब है! भागो इस गांव से; कहीं और जाओ।
तपश्चर्या तो अहंकार की तृप्ति भी हो सकती है। तप क्या है? तप तो सारभूत है। कृत्य नहीं है, आत्मा है। तप का अर्थ है, जब कोई व्यक्ति दुख को दुख नहीं मानता। और ध्यान रखना, दुख को दुख न मानना बहुत बड़ा तप नहीं है। दूसरी बात आपसे कहता हूं, जब कोई व्यक्ति सुख को सुख नहीं मानता है।
दुख को दुख न मानना बहुत बड़ी बात नहीं है, क्योंकि हम सभी चाहते हैं कि दुख दुख न हो। लेकिन सुख को भी जो सुख नहीं मानता। दुख को दुख नहीं मानता; सम्मान को सम्मान नहीं मानता; अपमान को अपमान नहीं मानता; जीवन को जीवन नहीं मानता; मृत्यु को मृत्यु नहीं मानता--तब उसके भीतर एक नए जीवन का संचार शुरू होता है। उसके भीतर तप नाम का तत्व पैदा होता है। उसके भीतर क्रिस्टलाइजेशन--गुरजिएफ ने जो शब्द प्रयोग किया है, क्रिस्टलाइजेशन--कि वह क्रिस्टल बन जाता है उसके भीतर एक।
तप का ठीक अर्थ वही है। तप का अर्थ है, वह व्यक्ति पहली दफे भीतर आत्मवान बनता है। जब तक दुख आपको हिला देता है, आप दुख से कमजोर हैं। सुख हिला देता है, सुख से कमजोर हैं। कोई एक फूल की माला गले में डाल देता है और आप कंप जाते हैं, तो आप फूल की माला से कम कीमती हैं। आपकी कीमत बहुत ज्यादा नहीं है।
मैंने सुना है कि एक करोड़पति एक तालाब में गिर गया था। अनेक लोग खड़े होकर देख रहे थे। एक अजनबी आदमी भी भीड़ में था, वह चिल्लाया कि तुम खड़े होकर क्यों देख रहे हो? आदमी मर रहा है! उसे कुछ पता नहीं था कि वह आदमी कौन है। वह बेचारा कूद पड़ा। उस करोड़पति को, बड़ी मुश्किल से, अपनी जान को जोखिम में डालकर, बचाकर बाहर लाया। जब वह होश में आया धनपति, तो उसने कहा, बहुत-बहुत धन्यवाद। खीसे में उसने हाथ डालकर कुछ खोजा, फिर एक नया पैसा निकालकर उस आदमी को भेंट किया।
सारी भीड़ चिल्लाने लगी कि इसीलिए तो हममें से कोई कूदकर नहीं बचा रहा था। आदमी देखते हैं! एक नया पैसा! उस आदमी ने जिंदगी, जान लगा दी; जोखम में डाला अपने को; और यह एक पैसा उसको इनाम दे रहा है!
एक और आदमी, एक फकीर इस बीच उस भीड़ के पास आकर खड़ा हो गया था। उसने कहा, नाराज मत होओ। नो वन नोज दि वेल्यू आफ हिज लाइफ मोर दैन हिमसेल्फ, उसकी जिंदगी की कीमत उसके सिवाय और किसको ज्यादा मालूम हो सकती है! वह बिलकुल ठीक दे रहा है। एक नया पैसा! वह अपनी जिंदगी की कीमत ही चुका रहा है। और किसी की जिंदगी का कोई सवाल नहीं है। अगर मर जाता, तो एक नए पैसे का नुकसान हो रहा था दुनिया में। और तो कोई खास नुकसान नहीं था।
उस फकीर ने कहा, नाराज मत होओ। उसके सिवाय कोई भी नहीं जानता कि उसकी जिंदगी की असली कीमत कितनी है। वह ठीक आंक रहा है।
असल में हमारे भीतर हमारी कोई कीमत ही क्या है? असल में हम ही कहां हैं? बीइंग कहां है? हमारे भीतर आत्मा जैसी चीज कहां है?
गुरजिएफ जब कहता है क्रिस्टलाइज्ड, तो उसका मतलब है कि भीतर कुछ पैदा हुआ। और वह पैदा तभी होता है, जब सुख और दुख की संवेदनाएं छूती नहीं। वह पैदा तभी होता है, जब अनुकूल-प्रतिकूल बराबर हो जाता है। वह पैदा तभी होता है, जब द्वंद्वों के बीच में थिरता और समता आती है। समत्व ही तप है।
कठिन है। तपश्चर्या बहुत आसान है; तप बहुत कठिन है।
कृष्ण कहते हैं, तपस्वियों में तप।
वे अनेक-अनेक मार्गों से खबर दे रहे हैं कि मुझे तू कहीं से भी पहचान, और कहीं से भी खोज। बहुत हैं द्वार मेरे। बहुत हैं मार्ग। लेकिन अगर तू कहीं से भी दृश्य को छोड़कर अदृश्य में उतर सके--तपश्चर्या दृश्य है, तप अदृश्य है--अगर तू कहीं से भी दृश्य को छोड़कर अदृश्य में उतर सके; अगर कहीं से भी रूप को छोड़कर अरूप में; आकार को छोड़कर निराकार में; व्यर्थ को छोड़कर सारभूत में अगर तू जा सके कहीं से भी...।
तो सब तरफ से वे बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, कहीं से भी तेरी समझ में आ जाए।
फिर देअर आर मोमेंट्स, कुछ क्षण होते हैं जीवन में, जब समझ पकड़ में आती है। सदगुरु जो है, उसे निरंतर खयाल रखना पड़ता है कि कभी-कभी ऐसा क्षण आता है।
क्योंकि हमारा चित्त फ्लक्चुएशन में है। हमारा चित्त कभी एक जगह नहीं है। कभी नीचे खाई छूता है, कभी ऊपर शिखर छू लेता है। हमारा चित्त पूरे वक्त नीचे-ऊंचे होते जा रहा है। हमारा चित्त कभी एक तल में नहीं है। सुबह हम नर्क में होते हैं; सांझ हम स्वर्ग में हो जाते हैं। घड़ीभर पहले हम रोते हैं; घड़ीभर बाद हंसी के फूल खिल जाते हैं। हमारा चित्त पूरे वक्त नीचे-ऊंचे हो रहा है।
कृष्ण जैसे व्यक्ति को स्मरण रखना पड़ता है। बहुत-बहुत बार वही-वही बात कहनी पड़ती है, अलग अलग रूपों में। पता नहीं अर्जुन का चित्त कब पीक पर हो, कब शिखर पर हो! और जब वह शिखर पर हो, तभी बात छुएगी। जब वह नीचे घाटी में होगा, तब कोई बात छुएगी नहीं, बात ऊपर से निकल जाएगी। इसलिए बहुत पुनरुक्ति भी करनी पड़ती है।
अनेक लोग गीता के इस हिस्से को पढ़ते हैं, तो वे सोचते हैं कि यह कृष्ण क्या कहे चले जा रहे हैं! यह एक या दो दफे कह देना काफी था। यह बार-बार क्या कह रहे हैं कि मैं इसमें यह, और उसमें वह। एक दफा कह देते कि मैं सनातन कारण हूं; बात तो पूरी हो गई। यह क्यों बार-बार कहे चले जा रहे हैं!
यह बार-बार इसलिए कहे चले जा रहे हैं कि पता नहीं वह क्षण अर्जुन के मन का कब हो, जब प्रवेश मिल जाए। द्वार सदा बंद होते हैं, कभी खुले होते हैं। और जब खुले होते हैं, तब प्रवेश हो जाता है। कब खुले होते हैं, कहना कठिन है। एकदम कठिन है।
इसलिए पुराने गुरु अपने शिष्यों को सदा पास रखने की कोशिश करते थे। पता नहीं कब, किस क्षण में...।
एक सूफी फकीर बायजीद तो कभी दिन में शिक्षा ही नहीं देता था। रात जब सब शिष्य सो जाते, तब वह घूमता रहता। शिष्यों के पास आकर उनकी हृदय की धड़कनें सुनता। शायद उनके सपनों में झांकता। शायद उनके विचारों की पर्तों में उतरता। और जब कभी पाता कि कोई शिष्य उस गहराई में है या उस ऊंचाई में, जहां बात प्रवेश कर सकती है, तो तत्काल उसे उठा लेता और कहता, सुन! और सुनाना शुरू कर देता।
उसके शिष्य कई बार कहते भी उससे कि आप भी क्या पागलपन करते हैं! हम दिनभर बैठे रहते हैं तुम्हारे पास। और यह क्या हिसाब आपने निकाला है कि कभी रात दो बजे उठा लिया! कभी रात तीन बजे उठा लिया!
तो बायजीद कहता कि मैं जानता हूं कि कब तुम सुन पाओगे! कब! तुम जब बैठे होते हो, तब जरूरी नहीं कि तुम वहां मौजूद भी हो। तुम जब मुझे देखते होते हो, तब जरूरी नहीं कि तुम भीतर भी मुझे ही देख रहे हो। किसी और को देखते होओ! तुम्हारे कान जब मेरी तरफ लगे होते हैं, तब जरूरी नहीं कि तुम मुझे सुनो। तुम न मालूम क्या सुन रहे होओ! मैं उस क्षण की तलाश में होता हूं, जब मैं पाऊं कि हां, ठीक! अब उस जगह तुम हो, जहां मेरी बात तुम तक पहुंच पाएगी।
एक तो रास्ता यह है जो बायजीद का है। दूसरा रास्ता कृष्ण का है। युद्ध के मैदान पर इसका तो कोई उपाय नहीं था जो बायजीद ने किया। तो कृष्ण बहुत बार, बहुत बार, वही-वही बात, अलग-अलग ढंग, अलग-अलग मार्ग से कहे चले जाते हैं। इस आशा में कि कहीं से द्वार खुला मिल जाए। बाएं नहीं मिलता हवा को मार्ग, चलो दाएं घूमें। दाएं न मिले, तो और कहीं घूमें। आगे से नहीं मिलता, तो पीछे के द्वार से मिल जाए।
कृष्ण की हवा अर्जुन के घर के चारों तरफ घूम रही है कि कहीं कोई द्वार, कहीं कोई खिड़की, कहीं कोई रंध्र भी मिल जाए, तो प्रवेश कर जाए। इसलिए वे बार-बार कहे चले जाते हैं।

आज इतना ही।

पर उठेंगे नहीं, क्योंकि इतनी देर में हो सकता है कोई रंध्र, कोई खिड़की आपके भीतर थोड़ी-सी खुली हो। तो एकदम जल्दी न उठ जाएं, नहीं तो बंद हो जाएगी।
इधर ये कीर्तन हमारे संन्यासी करेंगे, तो आपकी खिड़की को जरा थोड़ी देर, पांच मिनट, जितना खुला रख सकें, रखें। शायद यह हवा आपके भीतर जाए, और जो कृष्ण अर्जुन को कह रहे थे, वह आपको भी सुनाई पड़ सके।
और बैठे ही न रहें। ताली बजाएं। धुन में साथ दें। डोलें। आनंदित हों।


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