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मंगलवार, 16 सितंबर 2014

तंत्र--सूत्र (भाग-1) प्रवचन--05

अवधान, शिव—नेत्र और आत्‍मोपलब्‍धि–प्रवचन—पांचवां

सूत्र:

5—    भृकुटियों के बीच अवधान को स्‍थिर कर विचार
को मन के सामने करो। फिर सहस्‍त्रार तक रूप
को श्‍वास—तत्‍व से, प्राण से भरने दो।
वहां वह प्रकाश की तरह बरसेगा।
     
6    सांसारिक कामों में लगे हुए,
अवधान को दो श्‍वासों के बची टिकाओ।
इस अभ्‍यास से थोड़े ही दिनों में नया जन्‍म होगा।
     
      7—    ललाट के मध्‍य में सूक्ष्‍म श्‍वास, प्राण को टिकाओ।/
जब वह सोन के क्षण में ह्रदय तक पहुंचेगा तब
स्‍वप्‍न और स्‍वयं मृत्‍यु पर अधिकार हो जाएगा।
     
8—    आत्‍यंतिक भक्‍तिपूर्वक श्‍वास के दो संधि—स्‍थलों
पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।

     
9—    मृतवत लेटे रहो। क्रोध से क्षुब्‍ध होकर उसमें ठहरें
रहो। या पुतलियों को धुमाएं बिना एक टक घूरते रहो।
या कुछ चूसो और चूसना बन जाओ।

यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक पाइथागोरस जब अध्यात्म के एक गुह्य विद्यालय में प्रवेश पाने के लिए मिस्र गए, तब उन्हें प्रवेश नहीं मिला। और पाइथागोरस किसी भी समय में पैदा हुए सर्वश्रेष्ठ मनीषियों में एक थे। वे यह बात समझ न सके; उन्हें बहुत हैरानी हुई। बार—बार उन्होंने प्रवेश के लिए कोशिश की। और हर बार उन्हें कहां गया कि जब तक आप उपवास और प्राणायाम के एक विशेष प्रशिक्षण से नहीं गुजरेंगे, प्रवेश नहीं मिलेगा।
कहते हैं कि पाइथागोरस ने कहां कि मैं यहां ज्ञान के लिए आया हूं किसी प्रशिक्षण के लिए नहीं!
लेकिन विद्यालय के अधिकारियों ने कहां कि जब तक आप बदलेंगे नहीं, हम ज्ञान नहीं दे सकते। असल में हम शान में नहीं, वास्तविक अनुभव में उत्सुक हैं। और वह ज्ञान नहीं है जो जीया और अनुभव नहीं किया गया है। इसलिए आपको चालीस दिनों के उपवास से गुजरना ही होगा, जिसके दरम्यान एक खास ढंग से श्वास लेनी होगी।
कोई और रास्ता न था, इसलिए पाइथागोरस को इस प्रशिक्षण से गुजरना ही पड़ा। चालीस दिन के उपवास, प्राणायाम और सजगता के बाद उन्हें प्रवेश मिला।
कहते हैं कि पाइथागोरस ने कहां, आप पाइथागोरस को प्रवेश नहीं दे रहे हैं। मैं अब दूसरा ही आदमी हूं। दुबारा मेरा जन्म हुआ है। और आप सही थे और मैं गलत था, क्योंकि मेरा पूरा दृष्टिकोण बौद्धिक था। अब वह बुद्धि से हृदय में उतर आया है। अब मैं चीजों को अनुभव कर सकता हूं। इस प्रशिक्षण के पहले मैं सिर्फ बुद्धि से, मस्तिष्क से समझता था, अब मैं भाव से, हृदय से समझता हूं। सत्य अब मेरे लिए धारणा नहीं, जीवन है। सत्य अब तत्व—मीमांसा नहीं रहेगा, बल्कि अस्तित्वगत अनुभव होगा।
वह क्या प्रशिक्षण था जिससे वे गुजरे?
यही पांचवीं विधि थी जो पाइथागोरस को दी गई थी। दी तो गई थी मिस्र में, लेकिन '' विधि भारतीय है।

 पांचवीं श्वास विधि:

भृकुटियों के बीच अवधान को स्थिर कर विचार को मन के सामने करो। फिर सहस्रार तक रूप को श्वास— तत्व से प्राण से भरने दो वहां वह प्रकाश की तरह बरसेगा।

ही विधि थी जो पाइथागोरस को दी गई थी। पाइथागोरस इसे लेकर यूनान वापस गए, और वे पश्चिम के समस्त रहस्यवाद के आधार बन गए। पश्चिम में अध्यात्मवाद के वे पिता हैं। यह विधि बहुत गहरी विधियों में से एक है। इसे समझने की कोशिश करो।
'भृकुटियों के बीच अवधान को स्थिर कर......।
आधुनिक शरीर—शास्त्र कहता है, वैज्ञानिक शोध कहती है कि दो भृकुटियों के बीच जो ग्रंथि है वह शरीर का सबसे रहस्यपूर्ण भाग है। जिसका नाम पाइनिअल ग्रंथि है। यही तिब्बतियों की तीसरी आंख है और यही शिवनेत्र है—तंत्र के शिव का त्रिनेत्र। दो आंखों के बीच एक तीसरी आंख भी है, लेकिन यह सक्रिय नहीं है। यह है, और यह किसी भी समय सक्रिय हो सकती है। निसर्गत यह सक्रिय नहीं है। इसको सक्रिय करने के लिए इसके संबंध में तुम को कुछ करना पड़ेगा। यह अंधी नहीं है, सिर्फ बंद है। यह विधि तीसरी आंख को खोलने की विधि है।
'भृकुटियों के बीच अवधान को स्थिर कर...।
आंखें  बंद कर लो और फिर दोनों आंखों को बंद रखते हुए भौंहों के बीच में दृष्टि को स्थिर करो—मानो कि दोनों आंखों से तुम देख रहे हो। और समग्र अवधान को वहीं लगा दो। यह विधि एकाग्र होने की सबसे सरल विधियों में से है। शरीर के किसी दूसरे भाग में इतनी आसानी से तुम अवधान को नहीं उपलब्ध हो सकते। यह ग्रंथि अवधान को अपने में समाहित करने में कुशल है। यदि तुम इस पर अवधान दोगे तो तुम्हारी दोनों आंखें  तीसरी आंख से सम्मोहित हो जाएंगी। वे थिर हो जाएंगी, वे वहां से नहीं हिल सकेंगी। यदि तुम शरीर के किसी दूसरे हिस्से पर अवधान दो तो वहां कठिनाई होगी। तीसरी आंख अवधान को पकड़ लेती है, अवधान को खींच लेती है। अवधान के लिए यह चुंबक का काम करती है।
इसलिए दुनिया भर की सभी विधियों में इसका समावेश किया गया है। अवधान को प्रशिक्षित करने में यह सरलतम है, क्योंकि इसमें तुम ही चेष्टा नहीं करते, यह ग्रंथि भी तुम्हारी मदद करती है। यह चुंबकीय है। तुम्हारे अवधान को यह बलपूर्वक खींच लेती है।
तंत्र के पुराने ग्रंथों में कहां गया है कि अवधान तीसरी आंख का भोजन है। यह भूखी है, जन्मों—जन्मों से भूखी रही है। जब तुम इसे अवधान देते हो यह जीवित हो उठती है। इसे भोजन मिल गया है। और जब तुम जान लोगे कि अवधान इसका भोजन है, जान लोगे कि तुम्हारे अवधान को यह चुंबक की तरह खींच लेती है, तब अवधान कठिन नहीं रह जाएगा। सिर्फ सही बिंदु को जानना है।
इसलिए आंख बंद कर लो और अवधान को दोनों आंखों के बीच में घूमने दो और उस बिंदु को अनुभव करो। जब तुम उस बिंदु के करीब होगे, अचानक तुम्हारी आंखें  थिर हो जाएंगी। और जब उन्हें हिलाना कठिन हो जाए तब जानो कि सही बिंदु मिल गया।
'भृकुटियों के बीच अवधान को स्थिर कर विचार को मन के सामने करो।
अगर यह अवधान प्राप्त हो जाए तो पहली बार एक अदभुत बात तुम्हारे अनुभव में आएगी। पहली बार तुम देखोगे कि तुम्हारे विचार तुम्हारे सामने चल रहे हैं, तुम साक्षी हो जाओगे। जैसे कि सिनेमा के पर्दे पर दृश्य देखते हो, वैसे ही तुम देखोगे कि विचार आ रहे हैं। और तुम साक्षी हो। एक बार तुम्हारा अवधान त्रिनेत्र—केंद्र पर स्थिर हो जाए, तुम तुरंत विचारों के साक्षी हो जाओगे।
आमतौर से तुम साक्षी नहीं होते, तुम विचारों के साथ तादात्म्य कर लेते हो। यदि क्रोध है तो तुम क्रोध हो जाते हो। यदि एक विचार चलता है तो उसके साक्षी होने की बजाय तुम विचार के साथ एक हो जाते हो, उससे तादात्म्य करके साथ—साथ चलने लगते हो। तुम विचार ही बन जाते हो, विचार का रूप ले लेते हो। जब कामवासना होती है तब तुम कामवासना बन जाते हो, जब क्रोध उठता है तब क्रोध बन जाते हो, और जब लोभ उठता है तब लोभ ही बन जाते हो। कोई भी विचार तुम्हारे साथ एकात्म हो जाता है और उसके और तुम्हारे बीच दूरी नहीं रहती।
लेकिन तीसरी आंख पर स्थिर होते ही तुम एकाएक साक्षी हो जाते हो। तीसरी आंख के जरिए तुम साक्षी बनते हो। इस शिवनेत्र के द्वारा तुम विचारों को वैसे ही चलते देख सकते हो जैसे आसमान पर तैरते बादलों को, या राह पर चलते लोगों को देखते हो।
जब तुम अपनी खिड़की से आकाश को या राह चलते लोगों को देखते हो तब तुम उनसे तादात्म्य नहीं करते। तब तुम अलग होते हो, मात्र दर्शक रहते हो—बिलकुल अलग। वैसे ही अब जब क्रोध आता है तब तुम उसे एक विषय की तरह देखते हो। अब तुम यह नहीं सोचते कि मुझे क्रोध हुआ, तुम यही अनुभव करते हो कि तुम क्रोध से घिरे हो, क्रोध की एक बदली तुम्हारे चारों ओर घिर गई। और जब तुम खुद क्रोध नहीं रहे तब क्रोध नपुंसक हो जाता है। तब वह तुमको नहीं प्रभावित कर सकता, तब तुम अस्पर्शित रह जाते हो। क्रोध आता है और चला जाता है, और तुम अपने में केंद्रित रहते हो।
यह पांचवीं विधि साक्षीत्व को प्राप्त करने की विधि है।
'भृकुटियों के बीच अवधान को स्थिर कर विचार को मन के सामने करो।
अब अपने विचारों को देखो, विचारों का साक्षात्कार करो।
'फिर सहस्रार तक रूप को श्वास—तत्व से, प्राण से भरने दो। वहा वह प्रकाश की तरह बरसेगा।
जब अवधान भृकुटियों के बीच शिवनेत्र के केंद्र पर स्थिर होता है, तब दो चीजें घटित होती हैं। एक कि तुम एकाएक साक्षी बन जाते हो।
और यही चीज दो ढंगों से हो सकती है। एक, तुम साक्षी हो जाओ तो तुम तीसरी आंख पर थिर हो जाते हो। साक्षी हो जाओ, जो भी हो रहा हो उसके साक्षी रहो। तुम बीमार हो, शरीर में पीड़ा है, तुम को दुख और संताप है, जो भी हो, तुम उसके साक्षी रहो, जो भी हो, उससे तादात्म्य न करो। बस साक्षी रहो—दर्शक भर। और यदि साक्षीत्व संभव हो जाए तो तुम तीसरे नेत्र पर स्थिर हो जाओगे।
इससे उलटा भी हो सकता है। यदि तुम तीसरी आंख पर स्थिर हो जाओ, तो साक्षी हो जाओगे। ये दोनों एक ही बात हैं।
इसलिए पहली बात तीसरी आंख पर केंद्रित होते ही साक्षी आत्मा का उदय होगा।
अब तुम अपने विचारों का सामना कर सकते हो। और दूसरी बात और अब तुम श्वास—प्रश्वास की सूक्ष्म और कोमल तरंगों को भी अनुभव कर सकते हो। अब तुम श्वसन के रूप को ही नहीं, उसके तत्व को, सार को, प्राण को भी समझ सकते हो।
पहले तो यह समझने की कोशिश करें कि 'रूप' और 'श्वास—तत्व' का क्या अर्थ है। जब तुम श्वास लेते हो, तब सिर्फ वायु की ही श्वास नहीं लेते। वैज्ञानिक तो यही कहते हैं कि तुम वायु की ही श्वास लेते हो, जिसमें आक्सीजन, हाइड्रोजन तथा अन्य तत्व रहते हैं। वे कहते हैं कि तुम वायु की श्वास लेते हो।
लेकिन तंत्र कहता है कि हवा तो मात्र वाहन है, असली चीज नहीं। असल में तुम प्राण की श्वास लेते हो। हवा तो माध्यम भर है, प्राण उसका सत्य है, सार है। तुम न सिर्फ हवा की, बल्कि प्राण की श्वास लेते हो।
आधुनिक विज्ञान अभी नहीं जान सका है कि प्राण जैसी कोई वस्तु भी है। लेकिन कुछ शोधकर्ताओं ने कुछ रहस्यमयी चीज का अनुभव तो किया है। श्वास में सिर्फ हवा ही हम नहीं लेते, यह बहुत से आधुनिक शोधकर्ताओं ने अनुभव किया है। विशेषकर एक नाम उल्लेखनीय है, वह है जर्मन मनोवैज्ञानिक विलहेम रेख का, जिसने इसे आरगेन एनर्जी या जैविक ऊर्जा का नाम दिया। वह प्राण ही है। वह कहता है कि जब आप श्वास लेते हैं, तब हवा तो मात्र आधार है, पात्र है, जिसके भीतर एक रहस्यपूर्ण तत्व है, जिसे आरगेन या प्राण या एलेन वाइटल कह सकते हैं। लेकिन वह बहुत सूक्ष्म है। वास्तव में वह भौतिक नहीं है, पदार्थगत नहीं है। हवा भौतिक है, पात्र भौतिक है, लेकिन उसके भीतर से कुछ सूक्ष्म, अलौकिक तत्व चल रहा है।
इसका प्रभाव अनुभव किया जा सकता है। जब तुम किसी प्राणवान व्यक्ति के पास होते हो, तो तुम अपने भीतर किसी शक्ति को उगते देखते हो। और जब किसी बीमार के पास होते हो, तो तुमको लगता है कि तुम चूसे जा रहे हो, तुम्हारे भीतर से कुछ निकाला जा रहा है। जब तुम अस्पताल जाते हो, तब थके— थके क्यों अनुभव करते हो? वहां चारों ओर से तुम चूसे जाते हो। अस्पताल का पूरा माहौल बीमार होता है और वहां सब किसी को अधिक प्राण की, अधिक एलेन वाइटल की जरूरत है। इसलिए वहा जाकर अचानक तुम्हारा प्राण तुमसे बहने लगता है। जब तुम भीड़ में होते हो, तो तुम घुटन महसूस क्यों करते हो? इसलिए कि वहां तुम्हारा प्राण चूसा जाने लगता है। और जब तुम प्रातःकाल अकेले आकाश के नीचे या वृक्षों के बीच होते हो, तब फिर अचानक तुम अपने में किसी शक्ति का, प्राण का उदय अनुभव करते हो। प्रत्येक को एक खास स्पेस की जरूरत है। और जब वह स्पेस नहीं मिलता है, तो तुमको घुटन महसूस होती है।
विलहेम रेख ने कई प्रयोग किए। लेकिन उसे पागल समझा गया। विज्ञान के भी अपने अंधविश्वास हैं। और विज्ञान बहुत रूढ़िवादी होता है। विज्ञान अभी भी नहीं समझता है कि हवा से बढ़कर कुछ है; वह प्राण है। लेकिन भारत सदियों से उस पर प्रयोग कर रहा है।
तुमने सुना होगा—शायद देखा भी हो—कि कोई व्यक्ति कई दिनों के लिए भूमिगत समाधि में प्रवेश कर गया, जहां हवा का कोई प्रवेश नहीं था। 1880 में मिस्र में एक आदमी चालीस वर्षों के लिए समाधि में चला गया था। जिन्होंने उसे गाड़ा था वे सभी मर गए, क्योंकि वह 1920 में समाधि से बाहर आने वाला था।
1920 में किसी को भरोसा नहीं था कि वह जीवित मिलेगा। लेकिन वह जीवित था और उसके बाद भी वह दस वर्षों तक जीवित रहा। वह बिलकुल पीला पड़ गया था, परंतु जीवित था। और उसको वहां हवा मिलने की कोई संभावना नहीं थी।
 डाक्टरों ने तथा दूसरों ने उससे पूछा कि इसका रहस्य क्या है? उसने कहां, हम नहीं जानते; हम इतना ही जानते हैं कि प्राण कहीं भी प्रवेश कर सकता है, और वह है। हवा वहा नहीं प्रवेश कर सकती, लेकिन प्राण कर सकता है।
एक बार तुम जान जाओ कि श्वास के बिना भी कैसे तुम प्राण को सीधे ग्रहण कर सकते हो, तो तुम सदियों तक के लिए भी समाधि में जा सकते हो।
तीसरी आंख पर केंद्रित होकर तुम श्वास के सार तत्व को, श्वास को नहीं, श्वास के सार तत्व प्राण को देख सकते हो। और अगर तुम प्राण को देख सके, तो तुम उस बिंदु पर पहुंच गए जहां से छलांग लग सकती है, क्रांति घटित हो सकती है।
सूत्र कहता है. 'सहस्रार तक रूप को प्राण से भरने दो।
और जब तुम को प्राण का एहसास हो, तब कल्पना करो कि तुम्हारा सिर प्राण से भर गया है। सिर्फ कल्पना करो, किसी प्रयत्न की जरूरत नहीं है। और मैं बताऊंगा कि कल्पना कैसे काम करती है। जब तुम त्रिनेत्र—बिंदु पर स्थिर हो जाओ तब कल्पना करो, और चीजें आप ही और तुरंत घटित होने लगती हैं।
अभी तुम्हारी कल्पना भी नपुंसक है। तुम कल्पना किए जाते हो और कुछ भी नहीं होता। लेकिन कभी—कभी अनजाने साधारण जिंदगी में भी चीजें घटित होती हैं। तुम अपने मित्र की सोच रहे हो और अचानक दरवाजे पर दस्तक होती है। तुम कहते हो कि सांयोगिक था कि मित्र आ गया। कभी तुम्हारी कल्पना संयोग की तरह भी काम करती है।
लेकिन जब भी ऐसा हो, तो याद रखने की चेष्टा करो और पूरी चीज का विश्लेषण करो। जब भी लगे कि तुम्हारी कल्पना सच हुई है, तुम भीतर जाओ और देखो। कहीं न कहीं तुम्हारा अवधान तीसरे नेत्र के पास रहा होगा। दरअसल यह संयोग नहीं है। यह वैसा दिखता है, क्योंकि गुह्य विज्ञान का तुमको पता नहीं है। अनजाने ही तुम्हारा मन त्रिनेत्र—केंद्र के पास चला गया होगा। और अवधान यदि तीसरी आंख पर है तो किसी घटना के सृजन के लिए उसकी कल्पना काफी है।
यह सूत्र कहता है कि जब तुम भृकुटियों के बीच स्थिर हो और प्राण को अनुभव करते हो, तब रूप को भरने दो। अब कल्पना करो कि प्राण तुम्हारे पूरे मस्तिष्क को भर रहा है—विशेषकर सहस्रार को जो सर्वोच्च मनस केंद्र है। उस क्षण तुम कल्पना करो और वह भर जाएगा। कल्पना करो कि वह प्राण तुम्हारे सहस्रार से प्रकाश की तरह बरसेगा, और वह बरसने लगेगा। और उस प्रकाश की वर्षा में तुम ताजा हो जाओगे, तुम्हारा पुनर्जन्म हो जाएगा, तुम बिलकुल नए हो जाओगे। आंतरिक जन्म का यही अर्थ है।
यहां दो बातें हैं। एक, तीसरी आंख पर केंद्रित होकर तुम्हारी कल्पना पुंसत्व को, शुद्धि को उपलब्ध हो जाती है। यही कारण है कि शुद्धता पर, पवित्रता पर इतना बल दिया गया है। इस साधना में उतरने के पहले शुद्ध बनें।
तंत्र के लिए शुद्धि कोई नैतिक धारणा नहीं है। शुद्धि इसलिए अर्थपूर्ण है कि यदि तुम तीसरी आंख पर स्‍थिर हुए तुम्हारा मन अशुद्ध रहा, तो तुम्हारी कल्पना खतरनाक सिद्ध हो सकती है—तुम्हारे लिए भी और दूसरों के लिए भी। यदि तुम किसी की हत्या करने की सोच रहे हो, उसका महज विचार भी मन में है, तो सिर्फ कल्पना से उस आदमी की मृत्यु घटित हो जाएगी। यही कारण है कि शुद्धता पर इतना जोर दिया जाता है।
पाइथागोरस को विशेष उपवास और प्राणायाम से गुजरने को कहां गया, क्योंकि यहां बहुत खतरनाक भूमि से यात्री गुजरता है। जहां भी शक्ति है, वहां खतरा है। यदि मन अशुद्ध है तो शक्ति मिलने पर आपके अशुद्ध विचार शक्ति पर हावी हो जाएंगे।
कई बार तुमने हत्या करने की सोची है; लेकिन भाग्य से वहां कल्पना ने काम नहीं किया। यदि वह काम करे, यदि वह तुरंत वास्तविक हो जाए तो वह दूसरों के लिए ही नहीं तुम्हारे लिए भी खतरनाक सिद्ध होगी। क्योंकि कितनी ही बार तुमने आत्महत्या की भी सोची है। अगर मन तीसरी आंख पर केंद्रित है तो आत्महत्या का विचार भी आत्महत्या बन जाएगा। तुमको विचार बदलने का समय भी नहीं मिलेगा। वह तुरंत घटित हो जाएगी।
तुमने किसी को सम्मोहित होते देखा होगा। जब कोई सम्मोहित किया जाता है, तब सम्मोहनविद जो भी कहता है, सम्मोहित व्यक्ति तुरंत उसका पालन करता है। आदेश कितना ही बेहूदा हो, तर्कहीन हो, असंभव ही क्यों न हो, सम्मोहित व्यक्ति उसका पालन करता है। क्या होता है?
यह पांचवीं विधि सब सम्मोहन की जड़ में है। जब कोई सम्मोहित किया जाता है, तब उसे एक विशेष बिंदु पर, किसी प्रकाश पर या दीवार पर लगे किसी चिह्न पर या किसी भी चीज पर या सम्मोहक की आंख पर ही अपनी दृष्टि केंद्रित करने को कहां जाता है। और जब तुम किसी खास बिंदु पर दृष्टि केंद्रित करते हो, उसके तीन मिनट के अंदर तुम्हारा आंतरिक अवधान तीसरी आंख की ओर बहने लगता है, तुम्हारे चेहरे की मुद्रा बदलने लगती है। और सम्मोहनविद जानता है कि कब तुम्हारा चेहरा बदलने लगा। एकाएक चेहरे से सारी शक्ति गायब हो जाती है। वह मृतवत हो जाता है, मानो गहरी तंद्रा में पड़ा हो। जब ऐसा होता है, सम्मोहक को उसका पता हो जाता है। उसका अर्थ हुआ कि तीसरी आंख अवधान को पी रही है। आपका चेहरा पीला पड़ गया है, पूरी ऊर्जा त्रिनेत्र—केंद्र की ओर बह रही है।
अब सम्मोहित करने वाला तुरंत जान जाता है कि जो भी कहां जाएगा, वह घटित होगा। वह कहता है कि अब तुम गहरी नींद में जा रहे हो, और तुम तुरंत सो जाते हो। वह कहता है कि अब तुम बेहोश हो रहे हो, और तुम बेहोश हो जाते हो। अब कुछ भी किया जा सकता है। अब अगर वह कहे कि तुम नेपोलियन या हिटलर हो गए हो तो तुम हो जाओगे। तुम्हारी मुद्रा बदल जाएगी। आदेश पाकर तुम्हारा अचेतन उसको वास्तविक बना देता है। अगर तुम किसी रोग से पीड़ित हो तो रोग को हटने का आदेश दिया जा सकता है, और रोग दूर हो जाएगा। या कोई नया रोग भी पैदा किया जा सकता है।
यही नहीं, सड़क पर से एक कंकड़ उठाकर अगर सम्मोहनविद तुम्हारी हथेली पर रख दे और कहे कि यह अंगारा तो तुम तेज गर्मी महसूस करोगे और तुम्हारी हथेली जल जाएगी—मानसिक तल पर नहीं, वास्तव में ही। वास्तव में तुम्हारी चमड़ी जल जाएगी और तुमको जलन महसूस होगी। क्या होता है? अंगारा नहीं, बस एक मामूली कंकड़ है, वह भी ठंडा, फिर यह जलना कैसे संभव होता है?
तुम तीसरी आंख पर केंद्रित हो और सम्मोहनविद तुमको सुझाव देता है और वह सुझाव वास्तविक हो जाता है। यदि सम्मोहनविद कहे कि अब तुम मर गए, तो तुम तुरंत मर जाओगे। तुम्हारी हृदय—गति रुक जाएगी, रुक ही जाएगी।
यह होता है त्रिनेत्र के चलते। त्रिनेत्र के लिए कल्पना और वास्तविकता दो चीजें नहीं हैं। कल्पना ही तथ्य है। कल्पना करें और वैसा हो जाएगा। स्वप्न और यथार्थ में फासला नहीं है। स्वप्न देखो और वह सच हो जाएगा।
यही कारण है कि शंकर ने कहां कि यह संसार परमात्मा के स्वप्न के सिवाय और कुछ नहीं है—यह परमात्मा की माया है। यह इसलिए कि परमात्मा तीसरी आंख में बसता है—सदा, सनातन से। इसलिए परमात्मा जो स्वप्न देखता है, वह सच हो जाता है। और यदि तुम भी तीसरी आंख में थिर हो जाओ तो तुम्हारे स्वप्न भी सच होने लगेंगे।
सारिपुत्र बुद्ध के पास आया। उसने गहरा ध्यान किया। तब बहुत चीजें घटित होने लगीं, बहुत तरह के दृश्य उसे दिखाई देने लगे। जो भी ध्यान की गहराई में जाता है उसे यह सब दिखाई देने लगता है। स्वर्ग और नरक, देवता और दानव, सब उसे दिखाई देने लगे। और वे ऐसे वास्तविक थे कि सारिपुत्र बुद्ध के पास दौडा गया और बोला कि ऐसे—ऐसे दृश्य दिखाई देते हैं। बुद्ध ने कहां, वे कुछ नहीं हैं, मात्र स्वप्‍न हैं।
लेकिन सारिपुत्र ने कहां कि वे इतने वास्तविक हैं कि मैं कैसे उन्हें स्वप्न कहूं? जब एक फूल दिखाई पड़ता है, वह फूल किसी भी फूल से अधिक वास्तविक मालूम पड़ता है। उसमें सुगंध है। उसे मैं छू सकता हूं। अभी जो मैं आपको देखता हूं वह उतना वास्तविक नहीं है, आप जितना वास्तविक मेरे सामने हैं, वह फूल उससे अधिक वास्तविक है। इसलिए कैसे मैं भेद करूं कि कौन सच है और कौन स्वप्न?
बुद्ध ने कहां, अब चूंकि तुम तीसरी आंख में केंद्रित हो, इसलिए स्वप्न और यथार्थ एक हो गए हैं। जो भी स्वप्न तुम देखोगे सच हो जाएगा।
और इससे ठीक उलटा भी घटित हो सकता है। जो त्रिनेत्र पर थिर हो गया, उसके लिए स्‍वप्‍न यथार्थ हो जाएगा और यथार्थ स्‍वप्‍न हो जाएगा। क्योंकि जब तुम्हारा स्‍वप्‍न सच हो जाता है तब तुम जानते हो कि स्वप्‍न और यथार्थ में बुनियादी भेद नहीं है।
इसलिए जब शंकर कहते हैं कि सब संसार माया है, परमात्मा का स्‍वप्‍न है, तब यह कोई सैद्धांतिक प्रस्तावना या कोई मीमांसक वक्तव्य नहीं है। यह उस व्यक्ति का आंतरिक अनुभव है जो शिवनेत्र में थिर हो गया है।
अत: जब तुम तीसरे नेत्र पर केंद्रित हो जाओ तब कल्पना करो कि सहस्रार से प्राण बरस रहा है, जैसे कि तुम किसी वृक्ष के नीचे बैठे हो और फूल बरस रहे हैं, या तुम आकाश के नीचे हो और कोई बदली बरसने लगी, या सुबह तुम बैठे हो और सूरज उग रहा है और उसकी किरणें बरसने लगी हैं। कल्पना करो और तुरंत तुम्हारे सहस्रार से प्रकाश की वर्षा होने लगेगी। यह वर्षा मनुष्य को पुनर्निर्मित करती है, उसको नया जन्म दे जाती है। तब उसका पुनर्जन्म हो जाता है।

छठवीं श्वास विधि:

सांसारिक कामों में लगे हुए अवधान को दो श्वासों के बीच टिकाओ। इस अभ्यास से थोड़े ही दिनों में नया जन्म होगा।

'सांसारिक कामों में लगे हुए अवधान को दो श्वासों के बीच टिकाओ.।
श्वासों को भूल जाओ और उनके बीच में अवधान को लगाओ। एक श्वास भीतर आती है। इसके पहले कि वह लौट जाए, उसे बाहर छोड़ा जाए, वहा एक अंतराल होता है।सांसारिक कामों में लगे हुए, अवधान को दो श्वासों के बीच टिकाओ। इस अभ्यास से थोड़े ही दिनों में नया जन्म होगा।
लेकिन इसको लगातार करना है, यह छठी विधि निरंतर करने की है। इसलिए कहां गया है, 'सांसारिक कामों में लगे हुए।जो भी तुम कर रहे हो, उसमें अवधान को दो श्वासों के अंतराल में थिर रखो। लेकिन काम—काज में लगे हुए ही इसे साधना है।
ठीक ऐसी ही एक दूसरी विधि की चर्चा हम कर चुके हैं। अब फर्क इतना है कि इसे सांसारिक कामों में लगे हुए ही करना है। उससे अलग होकर इसे मत करो। यह साधना ही तब करो जब तुम कुछ और काम कर रहे हो।
तुम भोजन कर रहे हो, भोजन करते जाओ और अंतराल पर अवधान रखो। तुम चल रहे हो, चलते जाओ और अवधान को अंतराल पर टिकाओ। तुम सोने जा रहे हो, लेटो और नींद को आने दो, लेकिन तुम अंतराल के प्रति सजग रहो।
पर काम—काज में क्यों? क्योंकि काम—काज मन को डावाडोल करता है। काम—काज में तुम्हारे अवधान को बार—बार बुलाना पड़ता है। तो डांवाडोल न हों; अंतराल में घिर रहें। काम—काज भी न रुके, चलता रहे। तब तुम्हारे अस्तित्व के दो तल हो जाएंगे. करना और होना। अस्तित्व के दो तल हो गए. एक करने का जगत और दूसरा होने का जगत। एक परिधि है और दूसरा केंद्र। परिधि पर काम करते रहो, रुको नहीं; लेकिन केंद्र पर भी सावधानी से काम करते रहो। क्या होगा?
तुम्हारा काम—काज तब अभिनय हो जाएगा, मानो तुम कोई पार्ट अदा कर रहे हो। उदाहरण के लिए, तुम किसी नाटक में पार्ट कर रहे हो, तुम राम बने हो या क्राइस्ट बने हो। यद्यपि तुम राम या क्राइस्ट का अभिनय करते हो, तो भी तुम स्वयं बने रहते हो। केंद्र पर तुम जानते हो कि तुम कौन हो और परिधि पर तुम राम या क्राइस्ट का या किसी का पार्ट अदा करते रहते हो। तुम जानते हो कि तुम राम नहीं हो, राम का अभिनय भर कर रहे हो। तुम कौन हो तुमको मालूम है। तुम्हारा अवधान तुममें केंद्रित है। और तुम्हारा काम परिधि पर जारी है।
यदि इस विधि का अभ्यास हो तो पूरा जीवन एक लंबा नाटक बन जाएगा। तुम एक अभिनेता होगे, अभिनय भी करोगे और सदा अंतराल में केंद्रित रहोगे। जब तुम अंतराल को भूल जाओगे, तब तुम अभिनेता नहीं रहोगे, तब तुम कर्ता हो जाओगे। तब वह नाटक नहीं रहेगा, उसे तुम भूल से जीवन समझ लोगे।
यही हम सबने किया है। हर आदमी सोचता है कि वह जीवन जी रहा है। यह जीवन नहीं है, यह तो एक रोल है, एक पार्ट है, जो समाज ने, परिस्थितियों ने, संस्कृति ने, देश की परंपरा ने तुमको थमा दिया है। और तुम अभिनय कर रहे हो। और तुम इस अभिनय के साथ तादात्म्य भी कर बैठे हो। उसी तादात्म्य को तोड्ने के लिए यह विधि है।
कृष्ण के अनेक नाम हैं। कृष्ण सबसे कुशल अभिनेताओं में से एक हैं। वे सदा अपने में थिर हैं और खेल कर रहे हैं। लीला कर रहे हैं और बिलकुल गैर—गंभीर हैं। गंभीरता तादात्म्य से पैदा होती है।
 यदि नाटक में तुम सच ही राम हो जाओ तो अवश्य समस्याएं खड़ी होंगी। जब—जब सीता की चोरी होगी, तो तुमको दिल का दौरा पड़ सकता है और पूरा नाटक बंद हो जाना भी निश्चित है। लेकिन अगर तुम बस अभिनय कर रहे हो तो सीता की चोरी से तुमको कुछ भी नहीं होता है। तुम अपने घर लौटोगे और चैन से सो जाओगे। सपने में भी खयाल न आएगा कि सीता की चोरी हुई।
जब सचमुच सीता चोरी गई थी तब राम स्वयं रो रहे थे, चीख रहे थे और वृक्षों से पूछ रहे थे कि सीता कहां हैं? कौन उसे ले गया? लेकिन यह समझने जैसी बात है। अगर राम सच में रो रहे हैं और पेड़ों से पूछ रहे हैं, तब तो वे तादात्म्य कर बैठे, तब वे राम न रहे, ईश्वर के अवतार न रहे। यह स्मरण रखना चाहिए कि राम के लिए उनका वास्तविक जीवन भी अभिनय ही था। जैसे दूसरे अभिनेताओं को तुमने राम का अभिनय करते देखा है, वैसे ही राम भी अभिनय कर रहे थे—निसंदेह एक बड़े रंगमंच पर।
इस संबंध में भारत के पास एक बहुत सुंदर कथा है। मेरी दृष्टि में यह कथा अदभुत है। संसार के किसी भी भाग में ऐसी कथा नहीं मिलेगी। कहते हैं कि वाल्मीकि ने राम के जन्म के पहले ही रामायण लिख दी। राम को केवल उसका अनुगमन करना पड़ा। इसलिए वास्तव में राम का पहला कृत्य भी अभिनय ही था। उनके जन्म के पहले ही कथा लिख दी गई थी, इसलिए उन्हें केवल उसका अनुगमन करना पड़ा। वे और क्या कर सकते थे! वाल्मीकि जैसा व्यक्ति जब कथा लिखता है, तब राम को अनुगमन करना होगा। इसलिए एक तरह से सब कुछ नियत था। सीता की चोरी होनी थी, और युद्ध का लड़ा जाना था।
यदि यह तुम समझ सको तो नियति या भाग्य के सिद्धांत को भी समझ सकते हो। इसका बड़ा गहरा अर्थ है। और अर्थ यह है कि यदि तुम समझ जाते हो कि तुम्हारे लिए यह सब कुछ नियत है तो जीवन नाटक हो जाता है। अब यदि तुमको राम का अभिनय करना है तो तुम कैसे बदल सकते हो? सब कुछ नियत है, यहां तक कि तुम्हारा संवाद भी, डायलाग भी। अगर तुम सीता से कुछ कहते हो तो वह किसी नियत वचन का दोहराना भर है।
यदि जीवन नियत माना जाए, तो तुम उसे बदल नहीं सकते। उदाहरण के लिए, एक विशेष दिन को तुम्हारी मृत्यु होने वाली है, यह नियत है। और तुम जब मरोगे तब रो रहे होगे, यह भी निश्चित है। और फलां—फलां लोग तुम्हारे पास होंगे, यह भी तय है। और यदि सब कुछ नियत है, तय है, तब सब कुछ नाटक हो जाता है। यदि सब कुछ निश्चित है तो उसका अर्थ हुआ कि तुम केवल उसे अंजाम देने वाले हो। तुमको उसे जीना नहीं है, उसका अभिनय करना है।
यह विधि, छठी विधि, तुमको एक साइकोड्रामा, एक खेल बना देती है। तुम दो श्वासों के अंतराल में थिर हो और जीवन परिधि पर चल रहा है। यदि तुम्हारा अवधान केंद्र पर है तो तुम्हारा अवधान परिधि पर नहीं है, परिधि पर जो है वह उपावधान है, वह कहीं तुम्हारे अवधान के पास घटित होता है। तुम उसे अनुभव कर सकते हो, उसे जान सकते हो, पर वह महत्वपूर्ण नहीं है। यह ऐसा है जैसे तुमकी नहीं घटित हो रहा है।
मैं इसे दोहराता हूं यदि तुम इस छठी विधि की साधना करो तो तुम्हारा समूचा जीवन ऐसा हो जाएगा जैसे वह तुमको न घटित होकर किसी दूसरे व्यक्ति को घटित हो रहा है।

 सातवीं श्वास विधि:

ललाट के मध्य में सूक्ष्म श्वास ( प्राण) को टिकाको। जब वह सोने के क्षण में हृदय तक पहुंचेगा तब स्वप्न और स्वयं मृत्यु पर अधिकार हो जाएगा।

तुम अधिकाधिक गहरी पर्तों में प्रवेश कर रहे हो।
'ललाट के मध्य में सूक्ष्म श्वास (प्राण) को टिकाओ।
अगर तुम तीसरी आंख को जान गए हो तो तुम ललाट के मध्य में स्थित सूक्ष्म श्वास को, अदृश्य प्राण को जान गए, और तुम यह भी जान गए कि वह ऊर्जा, वह प्रकाश बरसता है।जब वह सोने के क्षण में हृदय तक पहुंचेगा'—जब यह वर्षा तुम्हारे हृदय तक पहुंचेगी—'तब स्वप्न और स्वयं मृत्यु पर अधिकार हो जाएगा।
इस विधि को तीन हिस्सों में लो। एक, श्वास के भीतर जो प्राण है, जो उसका सूक्ष्म, अदृश्य, अपार्थिव अंश है, उसे तुमको अनुभव करना होगा। यह तब होता है, जब तुम भृकुटियों के बीच अवधान को थिर रखते हो। तब यह आसानी से घटित होता है। अगर तुम अवधान को अंतराल में टिकाते हो, तो भी घटित होता है, मगर उतनी आसानी से नहीं। यदि तुम नाभि—केंद्र के प्रति सजग हो, जहां श्वास आती है और छूकर चली जाती है, तो भी यह घटित होता है, पर कम आसानी से। उस सूक्ष्म प्राण को जानने का सबसे सुगम मार्ग है, तीसरी आंख में थिर होना। वैसे तुम जहां भी केंद्रित होगे, यह घटित होगा। तुम प्राण को प्रभावित होते अनुभव करोगे।
यदि तुम प्राण को अपने भीतर प्रवाहित होता अनुभव कर सको तो तुम यह भी जान सकते हो कि कब तुम्हारी मृत्यु होगी। यदि तुम सूक्ष्म श्वास को, प्राण को महसूस करने लगे तो मरने के छह महीने पहले से तुम अपनी आसन्न मृत्यु को जानने लगते हो। कैसे इतने संत अपनी मृत्यु की तिथि बता देते हैं? यह आसान है। क्योंकि यदि तुम प्राण के प्रवाह को जानते हो तो जब उसकी गति उलट जाएगी तब उसको भी तुम जान लोगे। मृत्यु के छह महीने पहले प्रक्रिया उलट जाती है। प्राण तुम्हारे बाहर जाने लगता है। तब श्वास इसे भीतर नहीं ले जाती, बल्कि उलटे बाहर ले जाने लगती है—वही श्वास!
तुम इसे नहीं जान पाते हो, क्योंकि तुम उसके अदृश्य भाग को नहीं देखते, केवल वाहन को ही देखते हो। और वाहन तो एक ही रहेगा! अभी श्वास प्राण को भीतर ले जाती है और वहां छोड़ देती है। फिर वाहन बाहर खाली वापस जाता है। और प्राण से पुन: भरकर भीतर जाता है। इसलिए याद रखो कि भीतर आने वाली श्वास और बाहर जाने वाली श्वास, दोनों एक नहीं हैं। वाहन के रूप में तो पूरक श्वास और रेचक श्वास एक ही हैं, लेकिन जहां पूरक प्राण से भरा होता है, वहीं रेचक उससे रिक्त रहता है। तुमने प्राण को पी लिया और श्वास खाली हो गई।
जब तुम मृत्यु के करीब होते हो, तब उलटी प्रक्रिया चालू होती है। भीतर आने वाली श्वास प्राणविहीन आती है, रिक्त आती है, क्योंकि तुम्हारा शरीर अस्तित्व से प्राण को ग्रहण
करने में असमर्थ हो जाता है। तुम मरने वाले हो, तुम्हारी जरूरत न रही। पूरी प्रक्रिया उलट जाती है। अब जब श्वास बाहर जाती है, तब प्राण को साथ लिए बाहर जाती है।
 इसलिए जिसने सूक्ष्म प्राण को जान लिया वह अपनी मृत्यु का दिन भी तुरंत जान सकता है। छह महीने पहले प्रक्रिया उलटी हो जाती है।
यह सूत्र बहुत—बहुत महत्वपूर्ण है।
'ललाट के मध्य में सूक्ष्म श्वास (प्राण) को टिकाओ। जब सोने के क्षण में वह हृदय तक पहुंचेगा तब स्वप्न और स्वयं मृत्यु पर अधिकार हो जाएगा।
जब तुम नींद में उतर रहे हो तभी इस विधि को साधना है, अन्य समय में नहीं। ठीक सोने का समय इस विधि के अभ्यास के लिए उपयुक्त समय है।
तुम नींद में उतर रहे हो, धीरे — धीरे नींद तुम पर हावी हो रही है। कुछ ही क्षणों के भीतर तुम्हारी चेतना लुप्त होगी, तुम अचेत हो जाओगे। उस क्षण के आने के पहले तुम अपनी श्वास और उसके सूक्ष्म अंश प्राण के प्रति सजग हो जाओ और उसे हृदय तक जाते हुए अनुभव करो। अनुभव करते जाओ कि यह हृदय तक आ रहा है, हृदय तक आ रहा है। प्राण हृदय से होकर तुम्हारे शरीर में प्रवेश करता है, इसलिए यह अनुभव करते ही जाओ कि प्राण हृदय तक आ रहा है। और इस निरंतर अनुभव के बीच ही नींद को आने दो। तुम अनुभव करते जाओ और नींद को आने दो, नींद को तुमको अपने में समेट लेने दो।
यदि यह संभव हो जाए कि तुम अदृश्य प्राण को हृदय तक जाते देखो और नींद को भी, तो तुम अपने सपनों के प्रति भी सजग हो जाओगे। तब तुमको बोध रहेगा कि तुम स्‍वप्‍न देख रहे हो। आमतौर से हम नहीं जानते हैं कि हम स्वप्न देख रहे हैं। जब तुम सपना देखते हो तो तुम समझते हो कि यह यथार्थ ही है। वह भी तीसरी आंख के कारण ही संभव होता है। क्या तुमने किसी को नींद में देखा है? उसकी आंखें  ऊपर चली जाती हैं और तीसरी आंख में स्थिर हो जाती हैं। यदि नहीं देखा है तो देखो।
तुम्हारा बच्चा सोया है, उसकी आंखें  खोलकर देखो कि उसकी आंखें  कहां हैं। उसकी आंख की पुतलियां ऊपर को चढ़ी हैं और त्रिनेत्र पर केंद्रित हैं। मैं कहता हूं कि बच्चों को देखो, सयानों को नहीं। सयाने भरोसे योग्य नहीं हैं, क्योंकि उनकी नींद गहरी नहीं होती। वे सोचते भर हैं कि सोए हैं। बच्चों को देखो। उनकी आंखें  ऊपर को चढ़ जाती हैं।
इसी तीसरी आंख में थिरता के कारण तुम अपने सपनों को सच मानते हो। तुम यह नहीं समझ सकते कि वे सपने हैं। वह तुम तब जानोगे, जब सुबह जागोगे। तब तुम जानोगे कि मैं स्‍वप्‍न देख रहा था। लेकिन वह तो बाद का खयाल है। स्‍वप्‍न में तुम नहीं समझ सकते कि यह स्वप्न है। यदि समझ जाओ तो दो तल हो गए—स्वप्न है और तुम सजग हो जागरूक हो। जो नींद में स्‍वप्‍न के प्रति जाग सके, उसके लिए यह सूत्र चमत्कारिक है।
यह सूत्र कहता है 'स्वप्न पर और स्वयं मृत्यु पर अधिकार हो जाएगा।
यदि तुम स्वप्न के प्रति जागरूक हो जाओ तो तुम दो काम कर सकते हो। एक कि तुम स्वप्न पैदा कर सकते हो। आमतौर से तुम स्वप्न नहीं पैदा कर सकते। आदमी कितना नपुंसक



है! तुम स्‍वप्‍न भी नहीं पैदा कर सकते। अगर तुम कोई खास स्‍वप्‍न देखना चाहो तो नहीं देख

सकते; यह तुम्‍हारे हाथ नहीं है। मनुष्य कितना शक्‍ति हीन है। स्‍वप्‍न भी उससे नहीं निर्मित किए जा सकते। तुम स्वप्‍नों के शिकार भर हो, उनके स्रष्टा नहीं। स्वप्न तुम में घटित होता है, तुम कुछ नहीं कर सकते हो। न तुम उसे रोक सकते हो, न उसे पैदा कर सकते हो।
लेकिन अगर तुम यह देखते हुए नींद में उतरी कि हृदय प्राण से भर रहा है, निरंतर हर श्वास में प्राण से स्पर्शित हो रहा है तो तुम अपने स्वप्‍नों के मालिक हो जाओगे। और यह मालकियत बहुत अनूठी है, दुर्लभ है। तब तुम जो भी स्वप्न देखना चाहो, देख सकते हो। ठीक सोने के समय भाव करो कि मैं यह स्‍वप्‍न देखना चाहता हूं और तुम वह स्वप्न देख लोगे। और सोते समय कहो कि मैं फलां स्‍वप्‍न नहीं देखना चाहता और वह स्वप्न कभी तुम्हारे मन में प्रवेश नहीं कर सकेगा।
लेकिन अपने स्वप्‍नों के मालिक बनने का क्या प्रयोजन है? क्या यह व्यर्थ नहीं है? नहीं, यह व्यर्थ नहीं है। एक बार तुम स्वप्नों के मालिक हो गए तो दुबारा तुम कभी स्वप्न नहीं देखोगे। वह व्यर्थ हो गया। जरूरत नहीं रही। जैसे ही तुम अपने स्‍वप्‍नों के मालिक हो जाते हो, स्‍वप्‍न बंद हो जाते हैं, उनकी जरूरत नहीं रह जाती है। और जब स्‍वप्‍न बंद होते हैं, तब तुम्हारी नींद का गुणधर्म ही और होता है। वह गुणधर्म वही है, जो मृत्यु का है।
मृत्यु गहन नींद है। अगर तुम्हारी नींद मृत्यु की तरह गहरी हो जाए तो उसका अर्थ है कि सपने विदा हो गए। सपने नींद को उथली बना देते हैं। सपनों के चलते तुम सतह पर ही घूमते रहते हो। सपनों में उलझे रहने के कारण तुम्हारी नींद उथली हो जाती है। और जब सपने नहीं रहते, तब तुम नींद के सागर में उतर जाते हो, उसकी गहराई छू लेते हो। वही मृत्यु है।
इसलिए भारत ने सदा कहां है कि नींद छोटी मृत्यु है, और मृत्यु लंबी नींद है। गुणात्मक रूप से दोनों समान हैं। नींद दिन—दिन की मृत्यु है, मृत्यु जीवन—जीवन की नींद है। प्रतिदिन तुम थक जाते हो, तुम सो जाते हो। और दूसरी सुबह तुम फिर अपनी शक्ति और अपनी जीवंतता को वापस पा लेते हो। तुम मानो फिर से जन्म लेते हो। वैसे ही सत्तर या अस्सी वर्ष के जीवन के बाद तुम पूरी तरह थक जाते हो। अब छोटी अवधि की मृत्यु से काम नहीं चलेगा, अब तुमको बड़ी मृत्यु की जरूरत है। उस बड़ी मृत्यु या बड़ी नींद के बाद तुम बिलकुल नए शरीर के साथ पुनर्जन्म लेते हो।
और एक बार यदि तुम स्वप्न—शून्य नींद को जान जाओ और उसमें बोधपूर्वक रहो तो फिर मृत्यु का भय जाता रहेगा। कोई कभी नहीं मर सकता, मृत्यु असंभव है। अभी एक दिन पहले मैं कहता था कि केवल मृत्यु निश्चित है, और अब कहता हूं कि मृत्यु असंभव है। कोई कभी नहीं मरा है। कोई कभी मर नहीं सकता। संसार में यदि कुछ असंभव है तो वह मृत्यु है। क्योंकि अस्तित्व जीवन है। तुम फिर—फिर जन्मते हो, लेकिन नींद ऐसी गहरी है कि पुरानी पहचान भूल जाते हो। तुम्हारे मन से स्मृतियां पोंछ दी जाती हैं।
इसे इस तरह सोचो। मान लो कि आज तुम सोने जा रहे हो। और कोई ऐसा यंत्र बन गया है—शीघ्र ही बनने वाला है—जो कि जैसे टेपरेकार्डर के फीते से आवाज पोंछ दी जाती है, वैसे ही मन से स्मृति को पोंछ डालता है। क्योंकि स्मृति भी एक गहरी रेकार्डिंग है। देर—अबेर हम ऐसा यंत्र निकाल लेंगे जो तुम्हारे सिर में लगा दिया जाएगा और जो तुम्हारे दिमाग को पोंछकर बिलकुल साफ कर देगा। तो कल सुबह तुम वही आदमी नहीं रहोगे जो सोने गया था। क्योंकि तुमको याद नहीं रहेगा कि कौन सोने गया था। तब तुम्हारी नींद मृत्यु जैसी हो जाएगी। एक गैप आ जाएगा। तुमको याद नहीं रहेगा कि कौन सोया था। यहां यहीं चीज स्वाभाविक ढंग से घट रही है। जब तुम मरते हो और फिर जन्म लेते हो तब तुमको याद नहीं रहता कि छ मरा। तुम फिर से शुरू करते हो।
इस विधि के द्वारा पहले तो तुम स्‍वप्‍नों के मालिक हो जाओगे। उसका अर्थ हुआ कि सपने आना बंद हो जाएंगे। या यदि तुम खुद सपने देखना चाहोगे तो सपना देख भी सकते हो। लेकिन तब वह ऐच्छिक सपना होगा। वह अनिवार्य नहीं रहेगा, वह तुम पर लादा नहीं जाएगा, तुम उसके शिकार नहीं होगे। और तब तुम्हारी नींद का गुणधर्म ठीक मृत्यु जैसा हो जाएगा। तब तुम जानोगे कि मृत्यु भी नींद है।
इसलिए यह सूत्र कहता है. 'स्‍वप्‍न और स्वयं मृत्यु पर अधिकार हो जाएगा।
तब तुम जानोगे कि मृत्यु एक लंबी नींद है—और सहयोगी है, और सुंदर है। क्योंकि वह तुमको नवजीवन देती है, वह तुमको सब कुछ नया देती है। फिर तो मृत्यु भी समाप्त हो जाती है; स्वप्न के शेष होते ही मृत्यु समाप्त हो जाती है।
मृत्यु पर नियंत्रण पाने, अधिकार पाने का दूसरा अर्थ भी है। अगर तुम समझ लो कि मृत्यु नींद है तो तुम उसको दिशा दे सकते हो। अगर तुम अपने सपनों को दिशा दे सकते हो तो मृत्यु को भी दे सकते हो। तब तुम चुनाव कर सकते हो कि कहां पैदा हों, कब पैदा हों, किससे पैदा हों और किस रूप में पैदा हों। तब तुम अपने जन्म के भी मालिक हो गए।
बुद्ध की मृत्यु हुई। मैं उनके अंतिम जन्म के पूर्व के जन्म की चर्चा कर रहा हूं, जब वे बुद्ध नहीं हुए थे। मरने के पूर्व उन्होंने कहां 'मैं अमुक मां—बाप से पैदा होऊंगा; ऐसी मेरी मा होगी, ऐसे मेरे पिता होंगे, और मेरी मां मेरे जन्म के बाद ही मर जाएगी। और जब मैं जनूंगा, मेरी मां ऐसे—ऐसे सपने देखेगी।न सिर्फ तुमको अपने स्‍वप्‍नों पर अधिकार होता है, दूसरे के स्‍वप्‍न पर भी अधिकार हो जाता है। सो बुद्ध ने उदाहरण के तौर पर बताया कि जब मैं मा के पेट में होऊंगा, तब मेरी मां ये—ये स्‍वप्‍न देखेगी। और जब कोई इस क्रम से इन स्वप्नों को देखे, तब समझना कि मैं जन्म लेने वाला हूं।
और ऐसा हुआ। बुद्ध की माता ने उसी क्रम से सपने देखे। वह क्रम सारे भारत को पता था, विशेषकर उनको जो धर्म में, जीवन की गहन चीजों में और उसके गुह्य पथों में उत्सुक थे। पता था, इसलिए उन स्‍वप्‍नों की व्याख्या हुई। स्‍वप्‍नों की व्याख्या करने वाला पहला आदमी फ्रायड नहीं था, और न उसकी व्याख्या में गहराई थी। पहला वह केवल पश्चिम के लिए था।
तो बुद्ध के पिता ने स्‍वप्‍नों के व्याख्याकारों को, उस जमाने के फ्रायडों और जुगों को तुरंत बुलवाया और उनसे पूछा, इस क्रम का क्या अर्थ है? मुझे डर लगता है, ये सपने अदभुत हैं और एक ही कम से आ रहे हैं। एक ही तरह के सपने क्रम से, बारी—बारी से आ रहे हैं। मानो कोई एक ही फिल्म को बार—बार देखता हो। क्या हो रहा है?
और व्याख्याकारों ने बताया कि आप एक महान आत्मा के पिता होने जा रहे हैं, वह बुद्ध होने वाला है। लेकिन आपकी पत्नी को संकट है, क्योंकि जब ऐसे बुद्ध जन्म लेते है, तब मां का जीना कठिन हो जाता है। बुद्ध के पिता ने कारण पूछा। व्याख्याकारों ने कहां कि हम यह नहीं बता सकते, लेकिन जो आत्मा पैदा होने वाली है, उसका ही वक्तव्य है कि उसके जन्म लेने पर उसकी मां की मृत्यु होगी।
बाद में बुद्ध से पूछा गया कि आपकी माता की मृत्यु तुरंत क्यों हुई? उन्होंने कहां कि एक बुद्ध को जन्म देना इतनी बड़ी घटना है कि उसके बाद और सब कुछ व्यर्थ हो जाता है। इसलिए मा जीवित नहीं रह सकती। उसे नया जीवन शुरू करने के लिए फिर से जन्म लेना होगा। एक बुद्ध को जन्म देना ऐसा परम अनुभव है, ऐसा शिखर है कि मां उसके बाद नहीं बची रह सकती। इसलिए मां की मृत्यु हुई।
बुद्ध ने अपने पिछले जीवन में कहां था कि मैं उस समय जन्म लूंगा, जब मेरी मां एक तालवृक्ष के नीचे खडी होगी। और वही हुआ। बुद्ध का जब जन्म हुआ, तब उनकी मां तालवृक्ष के नीचे खड़ी थीं। और बुद्ध ने यह भी कहां था, जब मेरी मां तालवृक्ष के नीचे खड़ी होगी, तब मैं जन्म लूंगा और तुरंत मैं सात कदम चलूंगा। यह—यह पहचान होगी, जो बताए देता हूं ताकि तुम जान सको कि बुद्ध का जन्म हुआ है। और बुद्ध ने सब कुछ का इंगित दिया था।
और यह केवल बुद्ध के लिए ही सही नहीं है। यही जीसस के लिए सही है, यही महावीर के लिए सही है, यही और भी कई अन्यों के लिए सही है। प्रत्येक जैन तीर्थंकर ने अपने पिछले जन्म में भविष्यवाणी की थी कि उनका जन्म किस तरह होगा। उन्होंने भी स्वप्नों के क्रम बताए थे, उन्होंने भी प्रतीक बताए थे, और कहां था कि किस तरह सब कुछ घटित होने वाला है।
तुम दिशा दे सकते हो। एक बार तुम अपने स्वप्नों को दिशा देने लगो तो सब कुछ को दिशा दे सकते हो। क्योंकि यह संसार स्‍वप्‍नों का ही बना हुआ है। और स्‍वप्‍नों का ही यह जीवन बना है। इसलिए जब तुम्हारा अधिकार सपने पर हुआ तब सब कुछ पर हो गया।
यह सूत्र कहता है. 'स्वयं मृत्यु पर।
तब कोई व्यक्ति अपने को एक विशेष तरह का जन्म भी दे सकता है, विशेष तरह का जीवन भी दे सकता है।
हम लोग तो शिकार हैं। हम नहीं जानते हैं कि क्यों जन्मते हैं और क्यों मरते हैं। कौन हमें चलाता है और क्यों? कोई कारण नहीं दिखाई देता है। सब कुछ अराजकता, संयोग जैसा है। ऐसा इसलिए है कि हम मालिक नहीं हैं। एक बार मालिक हो जाएं तो फिर ऐसा नहीं रहेगा।

 आठवीं श्वास विधि:

आत्यंतिक भक्तिपूर्वक श्वास के दो संधि— स्थलों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।

न विधियों के बीच जरा—जरा भेद है, जरा—जरा अंतर है। और यद्यपि विधियों में वे जरा—जरा से हैं, तो भी तुम्हारे लिए वे भेद बहुत हो सकते हैं। एक अकेला शब्द बहुत फर्क पैदा करता है।

'आत्यंतिक भक्तिपूर्वक श्वास के दो संधि—स्थलों पर केंद्रित होकर.।
भीतर आने वाली श्वास का एक संधि—स्थल है जहां वह मुड़ती है और बाहर जाने वाली श्वास का भी एक संधि—स्थल जहां वह मुड़ती है। इन दो संधि—स्थलों—जिनकी चर्चा हम कर चुके हैं—के साथ यहां जरा सा भेद किया गया है। हालांकि यह भेद विधि में तो जरा सा ही है, लेकिन साधक के लिए बड़ा भेद हो सकता है। केवल एक शर्त जोड़ दी गई है—'आत्यंतिक भक्तिपूर्वक,' और पूरी विधि बदल जाती है।
इसके प्रथम रूप में भक्ति का सवाल नहीं था। वह मात्र वैज्ञानिक विधि थी। तुम प्रयोग करो और वह काम करेगी। लेकिन लोग हैं जो ऐसी शुष्क वैतानिक विधियों पर काम नहीं करेंगे। इसलिए जो हृदय की ओर झुके हैं, जो भक्ति के जगत के हैं, उनके लिए जरा सा भेद किया गया है : 'आत्यंतिक भक्तिपूर्वक श्वास के दो संधि—स्थलों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।
अगर तुम वैज्ञानिक रुझान के नहीं हो, अगर तुम्हारा मन वैज्ञानिक नहीं है, तो तुम इस विधि को प्रयोग में लाओ।
'आत्यंतिक भक्तिपूर्वक'—प्रेम—श्रद्धा के साथ—'श्वास के दो संधि—स्थलों पर केंद्रित होकर जाता को जान लो।
यह कैसे संभव होगा?
भक्ति तो किसी के प्रति होती है, चाहे वे कृष्ण हों या क्राइस्ट। लेकिन तुम्हारे स्वयं के प्रति, श्वास के दो संधि—स्थलों के प्रति भक्ति कैसी होगी? यह तत्व तो गैर— भक्ति वाला है। लेकिन व्यक्ति—व्यक्ति पर निर्भर है।
तंत्र का कहना है कि शरीर मंदिर है। तुम्हारा शरीर परमात्मा का मंदिर है, उसका निवास—स्थान है। इसलिए इसे मात्र अपना शरीर या एक वस्तु न मानो। यह पवित्र है, धार्मिक है। जब तुम एक श्वास भीतर ले रहे हो तब तुम ही श्वास नहीं ले रहे हो, तुम्हारे भीतर परमात्मा भी श्वास ले रहा है। तुम चलते—फिरते हो—इसे इस तरह देखो—तुम नहीं, स्वयं परमात्मा तुममें चल रहा है। तब सब चीजें पूरी तरह भक्तिपूर्ण हो जाती हैं।
अनेक संतों के बारे में कहां जाता है कि वे अपने शरीर को प्रेम करते थे, वे उसके साथ ऐसा व्यवहार करते थे, मानो वे शरीर उनकी प्रेमिकाओं के रहे हों।
तुम भी अपने शरीर को यह व्यवहार दे सकते हो। उसके साथ यंत्रवत व्यवहार भी कर सकते हो। वह भी एक रुझान है, एक दृष्टि है। तुम इसे अपराधपूर्ण, पाप— भरा और गंदा भी मान सकते हो। और इसे चमत्कार भी समझ सकते हो, परमात्मा का घर भी समझ सकते हो। यह तुम पर निर्भर है।
यदि तुम अपने शरीर को मंदिर मान सको तो यह विधि तुम्हारे काम आ सकती है ' आत्यंतिक भक्तिपूर्वक।इसका प्रयोग करो। जब तुम भोजन कर रहे हो तब इसका प्रयोग करो। यह न सोचो कि तुम भोजन कर रहे हो, सोचो कि परमात्मा तुममें भोजन कर रहा है। और तब परिवर्तन को देखो। तुम वही चीज खा रहे हो, लेकिन तुरंत सब कुछ बदल जाता है। अब तुम परमात्मा को भोजन दे रहे हो। तुम स्नान कर रहे हो, कितना मामूली सा काम है। लेकिन दृष्टि बदल दो, अनुभव करो कि तुम अपने में परमात्मा को स्नान करा रहे हो। तब यह विधि आसान होगी।
'आत्यंतिक भक्तिपूर्वक श्वास के दो संधि—स्थलों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।'

नौवीं विधि:

मृतवत लेट रहो। क्रोध से क्षुब्ध होकर उसमें ठहरे रहो। या पुतलियों को घुमाए बिना एकटक घूरते रहो। या कुछ चूसो और चूसना बन जाओ।

'मृतवत लेट रहो।
प्रयोग करो कि तुम एकाएक मर गए हो। शरीर को छोड़ दो, क्योंकि तुम मर गए हो। बस कल्पना करो कि मैं मृत हूं, मैं शरीर को नहीं हिला सकता हूं, आंख भी नहीं हिला सकता हूं मैं चीख भी नहीं सकता हूं, मैं रो भी नहीं सकता हूं, मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूं, मैं मरा हुआ हूं। और तब देखो कि कैसा लगता है। लेकिन अपने को धोखा मत दो। तुम शरीर को थोड़ा हिला सकते हो। नहीं, हिलाओ नहीं। यदि मच्छर भी आ जाए तो भी शरीर को मृत ही समझो। यह सबसे अधिक उपयोग की गई विधि है।
रमण महर्षि इसी विधि से ज्ञान को उपलब्ध हुए थे। लेकिन यह उनके इस जन्म की विधि नहीं थी। इस जन्म में तो अचानक सहज ही यह उन्हें घटित हो गई। लेकिन जरूर उन्होंने किसी पिछले जन्म में इसकी सतत साधना की होगी। अन्यथा सहज कुछ भी घटित नहीं होता है। प्रत्येक चीज का कार्य—कारण संबंध रहता है।
तो जब वे केवल चौदह या पंद्रह वर्ष के थे, एक रात अचानक रमण को लगा कि मैं मरने वाला हूं। उनके मन में यह बात बैठ गई कि मृत्यु आ गई है। वे अपना शरीर भी नहीं हिला सकते थे। उन्हें लगा कि मुझे लकवा मार गया है। फिर उन्हें अचानक घुटन महसूस हुई और वे जान गए कि उनकी हृदय—गति बंद होने वाली है। और वे चिल्ला भी नहीं सके, बोल भी नहीं सके कि मैं मर रहा हूं।
कभी—कभी किसी दुःस्वप्न में ऐसा होता है कि जब तुम न चिल्ला पाते हो और न हिल पाते हो। जागने पर भी कुछ क्षणों तक तुम कुछ नहीं कर पाते हो। यही हुआ। रमण को अपनी चेतना पर तो पूरा अधिकार था, लेकिन अपने शरीर पर बिलकुल नहीं। वे जानते थे कि मैं हूं चेतन हूं सजग हूं; लेकिन मैं मरने वाला हूं। और यह निश्चय इतना घना था कि कोई विकल्प भी नहीं रहा। इसलिए उन्होंने सब प्रयत्न छोड़ दिए। उन्होंने आंखें  बंद कर लीं और मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगे।
धीरे— धीरे उनका शरीर सख्त हो गया। शरीर मर गया। लेकिन एक समस्या उठ खड़ी हुई। वे जान रहे थे कि शरीर नहीं है, लेकिन मैं तो हूं। वे जान रहे थे कि मैं जीवित हूं और शरीर मर गया है। फिर वे उस स्थिति से वापस आए। सुबह में शरीर भी स्वस्थ था। लेकिन वही आदमी नहीं लौटा था जो मृत्यु के पूर्व था, क्योंकि उसने मृत्यु को जान लिया था।
अब रमण ने एक नए लोक को देख लिया था, चेतना के एक नए आयाम को जान लिया था। उन्होंने घर छोड़ दिया। उस मृत्यु के अनुभव ने उन्हें पूरी तरह बदल दिया। और वे इस युग के बहुत थोड़े से प्रबुद्ध पुरुषों में हुए।
और यही विधि है जो रमण को सहज घटित हुई। लेकिन तुमको यह सहज ही नहीं घटित होने वाली है। लेकिन प्रयोग करो तो किसी जीवन में यह सहज हो सकती है। प्रयोग करते हुए भी यह घटित हो सकती है। और यदि नहीं घटित हुई तो भी प्रयत्न कभी व्यर्थ नहीं जाता है। यह प्रयत्न तुम में रहेगा, तुम्हारे भीतर बीज बनकर रहेगा। कभी जब उपयुक्त समय होगा और वर्षा होगी, यह बीज अंकुरित हो जाएगा।
सब सहजता की यही कहानी है। किसी काल में बीज बो दिया गया था, लेकिन ठीक समय नहीं आया था और वर्षा नहीं हुई थी। किसी दूसरे जन्म और जीवन में समय तैयार होता है, तुम अधिक प्रौढ़, अधिक अनुभवी होते हो, और संसार से उतने ही निराश होते हो, तब
किसी विशेष स्थिति में वर्षा होती है और बीज फूट निकलता है।
'मृतवत लेट रहो। क्रोध से क्षुब्ध होकर उसमें ठहरे रहो।
निश्चय ही जब तुम मर रहे हो तो वह कोई सुख का क्षण नहीं होगा। वह आनंदपूर्ण नहीं हो सकता, जब तुम देखते हो कि तुम मर रहे हो। भय पकड़ेगा, मन में क्रोध उठेगा, या विषाद, उदासी, शोक, संताप, कुछ भी पकड़ सकता है। व्यक्ति—व्यक्ति में फर्क होगा।
सूत्र कहता है : क्रोध से क्षुब्ध होकर उसमें ठहरे रहो, स्थिर रहो।
अगर तुमको क्रोध घेरे तो उसमें ही स्थित रहो; अगर उदासी घेरे तो उसमें भी। भय, चिंता, कुछ भी हो, उसमें ही ठहरे रहो, डटे रहो। तुम मर गए हो, फिर क्या कर सकते हो? इसलिए वैसे के वैसे स्थिर रहो। जो भी मन में हो, उसे वैसा ही रहने दो, क्योंकि शरीर तो मर चुका है।
यह ठहरना बहुत सुंदर है। अगर तुम कुछ मिनटों के लिए भी ठहर गए तो पाओगे कि सब कुछ बदल गया। लेकिन हम हिलने लगते हैं। यदि मन में कोई आवेग उठता है तो शरीर हिलने लगता है। उदासी आती है तो भी शरीर हिलता है। इसे आवेग इसीलिए कहते हैं कि यह शरीर में वेग पैदा करता है। मृतवत महसूस करो और आवेगों को शरीर हिलाने की इजाजत मत दो। वे भी वहा रहें और तुम भी ठहरे रहो—स्थिर, मृतवत। कुछ भी हो, पर हलचल नहीं हो, गति नहीं हो। बस, ठहरे रहो।
'या पुतलियों को घुमाए बिना एकटक घूरते रहो।
यह—या पुतलियों को घुमाए बिना एकटक घूरते रहो—मेहर बाबा की विधि थी। वर्षों वे अपने कमरे की छत को घूरते रहे, निरंतर ताकते रहे। वर्षों वे जमीन पर मृतवत पड़े रहे और पुतलियों को, आंखों को हिलाए बिना छत को एकटक देखते रहे। ऐसा वे लगातार घंटों बिना कुछ किए घूरते रहते थे, टकटकी लगाकर देखते रहते थे।
आंखों से घूरना अच्छा है, क्योंकि उससे तुम फिर तीसरी आंख में स्थिर हो जाते हो। और एक बार तुम तीसरी आंख में घिर हो गए तो चाहने पर भी तुम पुतलियों को नहीं घुमा सकते। वे भी थिर हो जाती हैं—अचल।
मेहर बाबा इसी घूरने के जरिए उपलब्ध हो गए। और तुम कहते हो कि इन छोटे—छोटे अभ्यासों से क्या होगा! लेकिन मेहर बाबा लगातार तीन वर्षों तक बिना कुछ किए छत को घूरते रहे थे। तुम सिर्फ तीन मिनट के लिए ऐसी टकटकी लगाओ और तुमको लगेगा कि तीन वर्ष गुजर गए। तीन मिनट भी बहुत लंबा समय मालूम पडेगा। लगेगा कि समय ठहर गया है और घड़ी बंद हो गई है। लेकिन मेहर बाबा घूरते ही रहे, घूरते ही रहे। धीरे— धीरे विचार मिट गए, गति बंद हो गई और मेहर बाबा मात्र चेतना रह गए। वे मात्र घूरना बन गए, टकटकी बन गए। और तब वे आजीवन मौन रह गए। टकटकी के द्वारा वे अपने भीतर इतने शांत हो गए कि उनके लिए फिर शब्द—रचना असंभव हो गई।




 मेहर बाबा अमेरिका में थे। वहां एक आदमी था जो दूसरों के विचार को, मन को पढ़ना जानता था। और वास्तव में वह आदमी दुर्लभ था—मन के पाठक के रूप में। वह तुम्हारे सामने बैठता, आंखें  बंद कर लेता और कुछ ही क्षणों में वह तुम्हारे साथ ऐसा लयबद्ध हो जाता कि तुम जो भी मन में सोचते, वह उसे लिख डालता था। हजारों बार उसकी परीक्षा ली गई थी, और वह सदा सही साबित हुआ था। तो कोई उसे मेहर बाबा के पास ले आया। वह बैठा और विफल रहा। और यह उसकी जिंदगी की पहली विफलता थी। और एक ही। और फिर हम यह भी कैसे कहें कि यह उसकी विफलता हुई!
वह आदमी घूरता रहा, घूरता रहा, और तब उसे पसीना आने लगा। लेकिन एक शब्द भी उसके हाथ नहीं लगा। हाथ में कलम लिए बैठा रहा और फिर बोला—किस किस्म का आदमी है यह! मैं नहीं पढ पाता हूं क्योंकि पढ़ने के लिए कुछ है ही नहीं। यह आदमी तो बिलकुल खाली है। मुझे यह भी याद नहीं रहता कि कोई यहां बैठा है। आंख बंद करने के बाद मुझे बार—बार यह देखने के लिए आंखें  खोलनी पड़ती हैं कि यह व्यक्ति यहां है कि यहां से हट गया है। मेरे लिए एकाग्र होना भी कठिन हो गया, क्योंकि ज्यों ही मैं आंख बंद करता हूं कि मुझे लगता है कि धोखा दिया जा रहा है, वह व्यक्ति यहां से हट गया है। मेरे सामने कोई भी नहीं है। और जब मैं आंख खोलता हूं तो उनको सामने ही पाता हूं। वह तो कुछ भी नहीं सोच रहा है।
उस टकटकी ने, सतत टकटकी ने मेहर बाबा के मन को पूरी तरह विसर्जित कर दिया था।
'या पुतलियों को घुमाए बिना एकटक घूरते रहो। या कुछ चूसो और चूसना बन जाओ।यहां जरा सा रूपांतरण है। कुछ भी काम दे देगा। तुम मर गए, यही काफी है।
'क्रोध से क्षुब्ध होकर उसमें ठहरे रहो।
केवल यह अंश भी एक विधि बन सकता है। तुम क्रोध में हो; लेटे रहो और क्रोध में स्थित रहो, पड़े रहो। इससे हटो नहीं, कुछ करो नहीं। स्थिर पडे रहो।
कृष्णमूर्ति इसी की चर्चा किए चले जाते हैं। उनकी पूरी विधि इस एक चीज पर निर्भर है 'क्रोध से क्षुब्ध होकर उसमें ठहरे रहो।यदि तुम क्रुद्ध हो तो क्रुद्ध होओ और क्रुद्ध रहो, उससे हिलो नहीं, हटो नहीं। और अगर तुम वैसे ठहर सको तो क्रोध चला जाता है। और तुम दूसरे आदमी होकर उससे निकलोगे। और एक बार तुम क्रोध को उससे आंदोलित हुए बिना देख लो तो तुम उसके मालिक हो गए।
'या पुतलियों को घुमाए बिना एकटक घूरते रहो। या कुछ चूसो और चूसना बन जाओ।यह अंतिम विधि शारीरिक है और प्रयोग में सुगम है। क्योंकि चूसना पहला काम है जो कि कोई बच्चा करता है। चूसना जीवन का पहला कृत्य है। बच्चा जब पैदा होता है तब वह पहले रोता है। तुमने यह जानने की कोशिश नहीं की होगी कि बच्चा क्यों रोता है। सच में वह रोता नहीं है, वह रोता हुआ मालूम पड़ता है। वह सिर्फ हवा को पी रहा है, चूस रहा है। अगर वह नहीं रोए तो मिनटों के भीतर वह मर जाएगा। क्योंकि रोना हवा लेने का पहला प्रयत्न है। जब वह पेट में था, बच्चा श्वास नहीं लेता था। बिना श्वास लिए वह जीता था। वह वही प्रक्रिया कर रहा था, जो भूमिगत समाधि लेने पर योगीजन करते हैं। वह बिना श्वास लिए प्राण 'को ग्रहण कर रहा था—मां से शुद्ध प्राण ही ग्रहण कर रहा था।
यही कारण है कि मां और बच्चे के बीच जो प्रेम है, वह और प्रेम से सर्वथा भिन्न होता है। क्योंकि शुद्धतम प्राण दोनों को जोड़ता है। अब ऐसा फिर कभी नहीं होगा। उनके बीच एक सूक्ष्म प्राणमय संबंध था। मां बच्चे को प्राण देती थी, बच्चा श्वास तक नहीं लेता था।
लेकिन जब वह जन्म लेता है, तब वह मां के गर्भ से उठाकर एक बिलकुल अनजानी दुनिया में फेंक दिया जाता है। अब उसे प्राण या ऊर्जा उस आसानी से उपलब्ध नहीं होगी, उसे स्वयं ही श्वास लेनी होगी। उसकी पहली चीख चूसने का पहला प्रयत्न है। उसके बाद वह मां के स्तन से दूध चूसेगा। ये बुनियादी कृत्य हैं जो तुम करते हो। बाकी सब काम बाद में आते हैं। जीवन के वे बुनियादी कृत्य हैं, और प्रथम कृत्य। उनका अभ्यास भी किया जा सकता है। यह सूत्र कहता है : 'या कुछ चूसो और चूसना बन जाओ।
किसी भी चीज को चूसो। हवा को ही चूसो, लेकिन तब हवा को भूल जाओ और अना ही बन जाओ। इसका अर्थ क्या हुआ? तुम कुछ चूस रहे हो, इसमें तुम चूसने वाले हो, चोषण नहीं। तुम चोषण के पीछे खड़े हो। यह सूत्र कहता है कि पीछे मत खड़े रहो, कृत्य में भी सम्मिलित हो जाओ और चोगा बन जाओ।
किसी भी चीज से तुम प्रयोग कर सकते हो। अगर तुम दौड़ रहे हो तो दौड़ना ही बन जाओ और दौडने वाले न रहो। दौडना बन जाओ, दौड़ बन जाओ और दौड़ने वाले को भूल जाओ। अनुभव करो कि भीतर कोई दौडने वाला नहीं है, मात्र दौड़ने की प्रक्रिया है। वह प्रक्रिया तुम हो—सरिता जैसी प्रक्रिया। भीतर कोई नहीं है, भीतर सब शांत है। और केवल यह प्रक्रिया है।
चूसना, चोषण अच्छा है। लेकिन तुमको यह कठिन मालूम पड़ेगा, क्योंकि हम इसे बिलकुल भूल गए हैं। यह कहना भी ठीक नहीं है कि बिलकुल भूल गए हैं, क्योंकि उसका विकल्प तो निकालते ही रहते हैं। मां के स्तन की जगह सिगरेट ले लेती है और तुम उसे चूसते रहते हो। यह स्तन ही है, मां का स्तन, मां का चुचुक। और जो गर्म धुआं निकलता है वह मां का गर्म दूध है।
इसलिए छुटपन में जिनको मां के स्तन के पास उतना नहीं रहने दिया गया, जितना वे चाहते थे, वे पीछे चलकर धूम्रपान करने लगते हैं। यह विकल्प है। और विकल्प से भी काम चल जाएगा। इसलिए अगर तुम सिगरेट पीते हो तो धूम्रपान ही बन जाओ। सिगरेट को भूल जाओ, पीने वाले को भूल जाओ और धूम्रपान ही बने रहो।
एक विषय है जिसे तुम चूसते हो, एक विषयी है जो चूसता है, और उनके बीच चूसने की, चोगा की प्रक्रिया है। तुम चोषण बन जाओ, प्रक्रिया बन जाओ। इसे प्रयोग करो। पहले कई चीजों से प्रयोग करना होगा और तब तुम जानोगे कि तुम्हारे लिए क्या चीज सही है।
तुम पानी पी रहे हो। ठंडा पानी भीतर जा रहा है। तुम पीना बन जाओ। पानी न पीओ। पानी को भूल जाओ, अपने को भूल जाओ, अपनी प्यास को भी, और मात्र पीना बन जाओ। प्रक्रिया में ठंडक है, स्पर्श है, प्रवेश है, और पीना है—वही सब बने रहो।
क्यों नहीं? क्या होगा? यदि तुम चोषण बन जाओ तो क्या होगा?
यदि तुम चोगा बन जाओ तो तुम निर्दोष हो जाओगे—ठीक वैसे जैसे प्रथम दिन


जन्मा हुआ शिशु होता है। क्योंकि वह प्रथम प्रक्रिया है। एक तरह से आप पीछे की ओर यात्रा

करेंगे। लेकिन उसकी ललक, लालसा भी तो है। आदमी का पूरा अस्‍तित्‍व उस स्तनपान के लिए तड़पता है। उसके लिए वह कई प्रयोग करता है, लेकिन कुछ भी काम नहीं आता। क्योंकि वह बिंदु ही खो गया है। जब तक तुम चूसना नहीं बन जाते, तब तक कुछ भी काम नहीं आएगा। इसलिए इसे प्रयोग में लाओ।
एक आदमी को मैंने यह विधि दी थी। उसने कई विधियां प्रयोग की थीं। तब वह मेरे पास आया। उससे मैंने कहां, यदि मैं समूचे संसार से केवल एक चीज ही तुम्हें चुनने को दूं तो तुम क्या चुनोगे? और मैंने तुरंत उसे यह भी कहां कि आंख बंद करो और इस पर तुम कुछ भी सोचे बिना मुझे बताओ। वह डरने लगा, झिझकने लगा। तो मैंने कहां, न डरो और न झिझको; मुझे स्पष्ट बताओ। उसने कहां, यह तो बेहूदा मालूम पड़ता है। लेकिन मेरे सामने एक स्तन उभर रहा है। और यह कहकर वह अपराध— भाव अनुभव करने लगा। तो मैंने कहां, मत अपराध अनुभव करो। स्तन में गलत क्या है? सर्वाधिक सुंदर चीजों में स्तन एक है, फिर अपराध— भाव क्यों?
लेकिन उस आदमी ने कहां, यह चीज तो मेरे लिए ग्रस्तता बन गई है। इसलिए अपनी विधि बताने के पहले आप कृपा कर यह बताएं कि मैं क्यों स्त्रियों के स्तनों में इतना उत्सुक हूं? जब भी मैं किसी स्त्री को देखता हूं, पहले उसका स्तन ही मुझे दिखाई देता है। शेष शरीर उतने महत्व का नहीं रहता।
और यह बात केवल उसके साथ ही लागू नहीं है। प्रत्येक के साथ, प्राय: प्रत्येक के साथ यह लागू है। और यह बिलकुल स्वाभाविक है, क्योंकि मां का स्तन ही जगत के साथ आदमी का पहला परिचय बनता है। यह बुनियादी है। जगत के साथ पहला संपर्क मां का स्तन बनता है। यही कारण है कि स्तन में इतना आकर्षण है, स्तन इतना सुंदर लगता है, उसमें एक चुंबकीय शक्ति है।
वह चुंबकीय शक्ति तुम्हारे अचेतन से आती है। वह पहली चीज है जिसके साथ तुम संपर्क में आए। और यह संपर्क मधुर था, बहुत मधुर। यह सुंदर लगा। इसी ने भोजन दिया, शक्ति दी, प्रेम दिया, सब कुछ दिया। यह संपर्क कोमल, ग्रहणशील और निमंत्रण जैसा था। और यह मनुष्य के मन में सदा वैसा ही बना रहा है।
इसलिए मैंने उस व्यक्ति से कहां कि अब मैं तुमको विधि दूंगा। और यही विधि थी जो मैंने उसे दी : 'किसी चीज को यो और चूसना बन जाओ।मैंने बताया कि आंखें  बंद कर लो और अपनी मां का स्तन याद करो या और कोई स्तन जो तुम्हें पसंद हो, कल्पना करो और ऐसे चूसना शुरू करो कि यह असली स्तन है। शुरू करो।
उसने चूसना शुरू किया। तीन दिन के अंदर वह इतनी तेजी से, पागलपन के साथ चूसने लगा और वह इसके साथ इतना मंत्र—बद्ध सा हो गया कि उसने एक दिन आकर मुझसे कहां, 'यह तो समस्या बन गई है। सात दिन मैं चूसता ही रहा हूं। और यह इतना सुंदर है और इसमें ऐसी गहरी शांति पैदा होती है।और तीन महीने के अंदर उसका चोषण एक मौन मुद्रा बन गया। तुम होंठों से समझ नहीं सकते कि वह कुछ कर रहा है। लेकिन अंदर में चूसना जारी था। सारा समय वह चूसता रहता। यह जप बन गया।
तीन महीने बाद उसने मुझसे कहां, 'कुछ अनूठा मेरे साथ घटित हो रहा है। निरंतर कुछ मीठा द्रव सिर से मेरी जीभ पर बरसता है। और यह इतना मीठा और शक्तिदायक है कि मुझे किसी और भोजन की जरूरत नहीं रही। भूख समाप्त हो गई है और भोजन मात्र औपचारिक हो गया है। परिवार में समस्या न बने, इसलिए मैं दूध लेता हूं। लेकिन कुछ मुझे मिल रहा है जो बहुत मीठा है, बहुत जीवनदायी है।
मैंने उसे यह विधि जारी रखने को कहां।
तीन महीने और। और वह एक दिन नाचता हुआ, पागल सा मेरे पास आया, और बोला, 'चूसना तो चला गया, लेकिन अब मैं दूसरा ही आदमी हूं। अब मैं वही नहीं हूं जो आपके पास आया था। मेरे लिए कोई द्वार खुल गया है। कुछ टूट गया है और कोई आकांक्षा शेष नहीं रही। अब मैं कुछ भी नहीं चाहता—न परमात्मा, न मोक्ष। अब जो है, जैसा है, ठीक है। मैं उसे स्वीकारता हूं और आनंदित हूं।
इसे प्रयोग में लाओ। किसी चीज को यो और चूसना बन जाओ। यह बहुतों के लिए उपयोगी होगा, क्योंकि यह इतना आधारभूत है।
आज इतना ही।





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