अध्याय
4 : सूत्र 1
ताओ
का स्वरूप
ताओ घड़े की
रिक्तता की
भांति है।
इसके
उपयोग में सभी
प्रकार की पूर्णताओं
से
सावधान
रहना
अपेक्षित है।
यह कितना
गंभीर
है,
कितना अथाह,
मानो यह सभी
पदार्थों
का उदगम या
उनका
सम्मानित
पूर्वज हो!
ताओ
है शून्य, रिक्तता;
घड़े की रिक्तता
की भांति।
कुछ भी
भरा हुआ न हो, तो
ही ताओ उपलब्ध
होता है।
शून्य हो
चित्त, तो
ही धर्म की
प्रतीति होती
है। व्यक्ति
मिट जाए इतना,
कि कह पाए
कि मैं नहीं
हूं, तो ही
जान पाता है
परमात्मा को।
ऐसा समझें।
व्यक्ति होगा
जितना पूर्ण,
परमात्मा
होगा उतना
शून्य; व्यक्ति
होगा जितना
शून्य, परमात्मा
अपनी पूर्णता
में प्रकट
होता है।
ऐसा
समझें। वर्षा
होती है, तो
पर्वत-शिखर
रिक्त ही रह
जाते हैं; क्योंकि
वे पहले से ही
भरे हुए हैं। गङ्ढे और
झीलें भर जाती
हैं, क्योंकि
वे खाली हैं।
वर्षा तो
पर्वत-शिखरों
पर भी होती
है। वर्षा कोई
भेद नहीं
करती। वर्षा
कोई जान कर
झील के ऊपर
नहीं होती।
वर्षा तो
पर्वत-शिखर पर
भी होती है।
लेकिन
पर्वत-शिखर
स्वयं से ही
इतना भरा है
कि अब उसमें
और भरने के
लिए कोई अवकाश
नहीं है, कोई
जगह नहीं है, कोई स्पेस
नहीं है। सब
जल झीलों की
तरफ दौड़ कर
पहुंच जाता
है। उलटी घटना
मालूम पड़ती
है। जो भरा है,
वह खाली रह
जाता है; और
जो खाली है, वह भर दिया
जाता है। झील
का गुण एक ही
है कि वह खाली
है, रिक्त
है। और शिखर
का दुर्गुण एक
ही है कि वह बहुत
भरा हुआ है।
टू मच।
लाओत्से
कहता है, धर्म
है रिक्त घड़े
की भांति। ताओ
यानी धर्म।
धर्म है रिक्त
घड़े की
भांति। और
जिसे धर्म को
पाना हो, उसे
सभी तरह की पूर्णताओं
से सावधान
रहना पड़ेगा।
यह
बहुत अदभुत
बात है--सभी
तरह की पूर्णताओं
से। नहीं कि घड़े में धन
भर जाएगा, तो
बाधा पड़ेगी। घड़े में ज्ञान
भर जाएगा, तो
भी बाधा
पड़ेगी। घड़े
में त्याग भर
जाएगा, तो
भी बाधा
पड़ेगी। घड़े
में कुछ भी
होगा, तो
बाधा पड़ेगी।
घड़ा बस खाली
ही होना
चाहिए।
लेकिन
हम सब तो जीवन
में न मालूम
किन-किन द्वारों
से पूर्ण होने
की कोशिश में
लगे होते हैं।
हमें लगता ही
ऐसा है कि
जीवन इसलिए है
कि हम पूर्ण
हो जाएं। किसी
न किसी माध्यम
से,
किसी न किसी
मार्ग से
पूर्णता
हमारी हो, मैं
पूरा हो जाऊं।
उपदेशक
समझाते हैं, माता-पिता
अपने बच्चों
को कहते हैं, शिक्षक अपने
विद्यार्थियों
को कहता है, गुरु अपने
शिष्यों को
कहते हैं कि
क्या जीवन ऐसे
ही गंवा दोगे?
अधूरे आए, अधूरे ही
चले जाओगे? पूरा नहीं
होना है? पूर्ण
नहीं बनना है?
अकारथ है
जीवन, अगर
पूरे न बने।
कुछ तो पा लो।
खाली मत रह
जाओ।
और
लाओत्से कहता
है कि जिसे
धर्म को पाना
है,
उसे सभी तरह
की पूर्णताओं
से सावधान
रहना पड़ेगा।
नहीं, उसे
पूर्ण होना ही
नहीं है। उसे
अपूर्ण भी
नहीं रह जाना
है। उसे शून्य
हो जाना है।
इसे इस
तरह हम
देखेंगे तो
आसान हो
जाएगा। हम जहां
भी होते हैं, अपूर्ण
होते हैं।
रिक्त हम कभी
होते नहीं, पूर्ण हम
कभी होते
नहीं। हमारा
होना अधूरे में
है। बीच में, मध्य में
है। हम जहां
भी होते हैं, बीच में
होते हैं, अपूर्ण
होते हैं। न
तो एम्पटी
और न परफेक्ट,
इन दोनों के
बीच में--सदा, सभी।
यह
किसी एक
व्यक्ति के
लिए बात नहीं
है। अस्तित्व
में जो भी हैं, वे
सभी मध्य में
होते हैं। एक
तरफ शून्यता
और एक तरफ
पूर्णता, और
बीच में हमारा
होना है।
हमारी सारी
व्यवस्था इस
बीच से पूर्ण
की तरफ बढ़ने
की है। और
लाओत्से का
कहना है, इस
बीच से शून्य
की तरफ जाना
है।
हम
सबकी कोशिश यह
है कि अधूरे
तो हम हैं, अब
हम पूरे कैसे
हो जाएं? भर
कैसे जाएं? हमारे जीवन
की पीड़ा यही
है कि फुलफिलमेंट
नहीं है, कुछ
भराव नहीं है।
प्रेम है, वह
अधूरा है।
ज्ञान है, वह
अधूरा है। यश
है, वह
अधूरा है। कुछ
भी पूरा नहीं
है। कुछ तो
पूरा मिल जाए!
प्रेम ही पूरा
मिल जाए, इतना
भर जाऊं कि और
मांग न रह
जाए। कहीं से
भी हम पूरे हो
जाएं, तो फुलफिलमेंट
हो जाए। लगे
कि हम भी हैं
भरे हुए!
लेकिन
जितना हम
पूर्ण होने की
कोशिश करते
हैं--यह मैं
आपसे कहना
चाहूंगा--जितना
हम पूर्ण होने
की कोशिश करते
हैं,
उतना हमें
अपनी रिक्तता
का बोध जाहिर
होता है, पूर्ण
हम होते नहीं।
इसलिए जो सदी
पूर्णता के प्रति
जितनी आतुर, उत्सुक, अभीप्सु
होती है, वह
सदी उतनी ही एम्पटीनेस
को अनुभव करती
है।
पहली दफा
पश्चिम पूरी
तरह शिक्षित
हुआ है। जमीन
पर,
ज्ञात
इतिहास में, पश्चिम ने
पहली दफे
शिक्षा के
मामले में
बहुत विकास
किया है।
लेकिन साथ ही
मजे की बात है
कि पश्चिम का
मन जितना एम्पटी
अनुभव करता है,
उतना कोई और
मन नहीं करता।
जितना खाली
अनुभव करता
है।
अमरीका
ने पहली दफे
धन के मामले
में उस दूरी
को छुआ है, जिसे
हम पूर्णता के
निकटतम कहें।
निकटतम ही कह
सकते हैं, पूर्ण
तो कभी कुछ
होता नहीं। हम
अपनी पीछे की दरिद्रता
को देखते हैं,
तो लगता है
अमरीका ने धन
को छूने में
बड़ी दूर तक
कोशिश की
है--निकटतम, एप्रॉक्सीमेटली। निकटतम का
मतलब आपके
खयाल में हो
जाना चाहिए।
पूर्ण तो हम
हो नहीं सकते,
सदा बीच में
ही होते हैं, कहीं भी
हों। लेकिन
अतीत से तुलना
करें आदमियों
के और समाजों
की। अब जंगल
में बसा
आदिवासियों
का एक समूह है,
या बस्तर
में बसा हुआ
गरीबों का एक
गांव है, और
न्यूयार्क
है। तो इस
तुलना में
न्यूयार्क
करीब-करीब
पहुंचता है।
सुना
है मैंने, एक
दिन एक बच्चा
अपने घर आया।
बहुत खुशी में
स्कूल से वह
कुछ पुरस्कार
लेकर आया है।
और उसने अपनी
मां को आकर
कहा कि आज
मुझे
पुरस्कार मिला
है, क्योंकि
मैंने एक जवाब
सही-सही दिया।
उसकी मां ने
पूछा, क्या
सवाल था? उस
बेटे ने कहा, सवाल यह था
कि गाय के पैर
कितने होते
हैं? उसकी
मां बहुत
हैरान हुई।
तुमने क्या
जवाब दिया? उसने कहा, मैंने कहा
तीन। उसने कहा,
पागल, गाय
के चार पैर
होते हैं।
उसने कहा, वह
तो मुझे भी अब
पता चल चुका
है। लेकिन
बाकी बच्चों
ने कहा था दो।
सत्य के मैं
निकटतम था, इसलिए
पुरस्कार
मुझे मिल गया
है।
बस
निकटतम का
इतना ही अर्थ
है। अगर धन की
पूर्णता के
कोई निकटतम हो
सकता है, तो
तीन टांगें
अमरीका ने
पैदा कर ली
हैं। वह चार
टांगों के
करीब-करीब है।
चार टांगें
कभी नहीं
होंगी। वे हो
नहीं सकतीं।
ह्यूमन सिचुएशन
में वह संभव
ही नहीं है।
आदमी का होना
अधूरा है।
इसलिए आदमी जो
भी करेगा, वह
पूरा नहीं
होता। अधूरा
करने वाला हो,
तो पूरी कोई
चीज कैसे हो
सकती है! अगर
मैं ही अधूरा
हूं, तो
मैं जो भी
करूंगा, वह
अधूरा होगा।
वह एप्रॉक्सीमेटली
हो सकता है, किसी और की
तुलना में।
तो
अमरीका, धन के
भरने में
करीब-करीब
अमरीका का घड़ा
पूरा का पूरा
भर गया, तीन-चौथाई,
तीन पैर भर
गया। लेकिन आज
अमरीका में
जितनी दीनता
और जितनी हेल्पलेसनेस
और असहाय
अवस्था मालूम
पड़ती है। और
आज अमरीका के
जितने चिंतक
हैं, वे एक
ही शब्द के
आस-पास चिंतन
करते हैं। वह
शब्द है एम्पटीनेस,
मीनिंगलेसनेस। अर्थहीन
है, सब
खाली है, कुछ
भरा हुआ नहीं
है। और भराव
के करीब-करीब
हैं वे! बात
क्या है?
पूर्ण
आदमी हो नहीं
सकता; अपूर्ण
होना उसकी
नियति है।
आदमी के होने
का ढंग ऐसा है
कि वह अपूर्ण
ही होगा, कहीं
भी हो। और
अपूर्ण चित्त
की आकांक्षा
पूरे होने की
होती है। वह
भी मनुष्य की
नियति है, वह
भी उसके भाग्य
का हिस्सा है
कि अपूर्णता
चाहती है कि
पूर्ण हो जाए।
अपूर्णता में
पीड़ा मालूम
पड़ती है, हीनता
मालूम पड़ती है,
दीनता
मालूम पड़ती
है। लगता है, पूरे हो
जाएं। तो पूरे
होने की कोशिश
अपूर्णता से
पैदा होती है।
और अपूर्णता
से जो भी पैदा
होगा, वह
पूर्ण हो नहीं
सकता। वह
बाइ-प्रॉडक्ट
अपूर्णता की
होगी।
अब मैं
ही तो पूर्ण
होने की कोशिश
करूंगा, जो कि
अपूर्ण हूं।
मेरी कोशिश
अपूर्ण होगी।
मैं जो फल लाऊंगा,
वह अपूर्ण
होगा।
क्योंकि फल और
प्रयास मुझसे निकलते
हैं। मुझसे
बड़े नहीं हो
सकते मेरे
कृत्य। मेरा कर्म
मुझसे बड़ा
नहीं हो सकता।
मेरी उपलब्धि
मुझसे पार
नहीं जा सकती।
मेरी सब
उपलब्धियां मेरी
सीमा के भीतर
होंगी। कोई
संगीतज्ञ
अपने से अच्छा
नहीं गा सकता।
और न कोई
गणितज्ञ अपने से
बेहतर सवाल हल
कर सकता है।
या कि कर सकता
है? हम जो
हैं, हमारा
कृत्य उससे ही
निकलता है। हम
अपने से बेहतर
नहीं हो सकते;
हालांकि हम
अपने को अपने
से बेहतर करने
की सब चेष्टा
में लगे होते
हैं। इससे
विषाद पैदा होता
है। चेष्टा
बहुत होती है,
परिणाम तो
कुछ आता नहीं।
परिणाम में
वही अपूर्णता,
वही
अपूर्णता खड़ी
रहती है।
घूम-घूम कर
हमारी अपने से
ही मुलाकात हो
जाती है।
दौड़ते हैं इस
कोशिश में कि कभी
कोई पूर्ण मिल
जाएगा। लेकिन
खोजने वाला जब
अपूर्ण हो, तो जिसे वह
पाएगा, वह
अपूर्ण ही
होने वाला है।
हम अपने से
ज्यादा कुछ भी
नहीं पा सकते।
यह
स्थिति है।
मध्य में हम हैं--अपूर्ण, अधूरे।
अधूरे मन की
आकांक्षा है
कि भर जाऊं, पूरा हो
जाऊं।
अपूर्णता से
वासना पैदा
होती है पूर्ण
होने की। यह
ध्यान रहे, पूर्णता में
पूर्ण होने की
वासना नहीं
पैदा हो सकती,
क्योंकि
कोई अर्थ न
होगा।
अपूर्णता में
पूर्ण होने की
वासना पैदा
होती है। वासना
हमेशा विपरीत
होती है। जो
हम होते हैं, वासना उससे
विपरीत होती
है। हम गरीब
होते हैं, तो
अमीर होने की
वासना होती
है। हम रुग्ण
होते हैं, तो
स्वस्थ होने
की वासना होती
है। हम अधूरे
हैं, तो
पूरे होने की
वासना होती
है।
वासना
बिलकुल ही
तर्कयुक्त है, क्योंकि
अधूरे मन में
पूरे होने का
खयाल पैदा
होगा। बिलकुल
तर्कयुक्त है
वासना, लेकिन
परिणति कभी
नहीं होने
वाली है।
क्योंकि
अपूर्ण कभी
पूर्ण नहीं हो
सकता--किसी
प्रयास से, किसी चेष्टा
से, कैसे
ही अभ्यास से,
किसी साधना
से। क्योंकि
सब साधनाएं, सब अभ्यास, सब प्रयास
अपूर्ण से ही
निकलेंगे। और
अपूर्ण की छाप
उन पर लगी रहेगी।
और अगर अपूर्ण
आदमी पूर्ण
उपलब्ध को कर
ले, तो वह
अपूर्ण था ही
नहीं। अपूर्ण
होने का कोई अर्थ
ही नहीं रहा।
यह
स्थिति है। और
मनुष्य की
सारी की सारी
दौड़--आयाम कोई
भी हो, दिशा
कोई भी
हो--पूर्ण
होने की है।
लाओत्से कहता
है, शून्य
हो जाओ। और
लाओत्से कहता
है, पूर्ण
होने के किसी
भी खयाल से
बचना।
क्योंकि वही
जाल है; वही
है उपद्रव, जिसमें नष्ट
होता है आदमी।
इसलिए समझा
लेना अपने को,
समझ जाना कि
पूर्ण होने के
किसी उपद्रव
में मत पड़ना।
शून्य हो जाओ।
और मजा यह है
कि जो शून्य
हो जाता है, वह पूर्ण हो
जाता है।
क्योंकि
शून्य जो है, वह इस जगत
में पूर्णतम
संभावना है।
ऐसा
समझें, एक
घड़ा भरा हो, तो क्या आप
ऐसी कल्पना कर
सकते हैं घड़े
के भरे होने
की कि एक बूंद
पानी उसमें और
न जा सके? न
कर सकेंगे।
घड़ा बिलकुल
भरा है। आप
कहते हैं, पूरा
भरा है। लेकिन
अगर एक बूंद
पानी भी मैं
उसमें डाल दूं,
तो कहना
पड़ेगा, अधूरा
था। आप घड़े
के कितने ही
भरे होने की
कल्पना करें,
वह पूर्ण
नहीं होगी।
उसमें एक बूंद
पानी अभी बन
सकता है।
नानक
अपनी
यात्राओं में
एक गांव के
बाहर ठहरे थे।
और एक फकीर, जिसकी
पूर्णता के
संबंध में बड़ी
खबर थी, वह
पहाड़ी पर अपने
आश्रम में जो
एक किले के
भीतर था, उसमें
था। नानक रुके
थे, लोगों
ने कहा कि वह
व्यक्ति
पूर्णता को
उपलब्ध हो गया
है। नानक ने
खबर भिजवाई कि
मैं भी मिलना
चाहूंगा और
जानना
चाहूंगा, कैसी
पूर्णता! तो
उस फकीर ने एक
प्याले में पानी
भर कर--पूरा
पानी भर कर, एक बूंद
पानी और न जा
सके--नानक को
नीचे भिजवाया
भेंट कि मैं
इस तरह पूर्ण
हो गया हूं।
नानक ने एक
छोटे से फूल
को उसमें तैरा
दिया और वापस
लौटा दिया।
छोटे फूल को
उस प्याली में
डाल दिया और
वापस लौटा
दिया।
वह
फकीर दौड़ा
हुआ आया, पैरों
पर गिर पड़ा।
उसने कहा, मैं
तो सोचता था, पूर्ण हो
गया हूं।
नानक
ने कहा, आदमी
पूर्ण होने की
कोशिश में जो
भी करे, उसमें
जगह खाली रह
ही जाती है।
एक फूल तो
तैराया ही जा
सकता है। और
एक फूल कोई
छोटी बात नहीं
है।
अगर हम घड़े को
पूरा भरे होने
की भी कल्पना
करें, तो भी एक
बूंद पानी तो
उसमें डाला ही
जा सकता है।
लेकिन समझें
कि घड़ा बिलकुल
खाली है। क्या
और खाली कर सकेंगे?
नहीं; घड़ा
बिलकुल खाली
है। अगर उस
फकीर ने एक
खाली घड़ा भेज
दिया होता, तो नानक
मुश्किल में
पड़ जाते।
क्योंकि उसको
और खाली करना
मुश्किल हो
जाता। और भरे
को और भरा जा
सकता है, खाली
को और खाली
नहीं किया जा
सकता।
इसलिए
भराव में कभी
पूर्णता नहीं
होती, और खाली
में सदा
पूर्णता हो
जाती है। जो एम्पटीनेस
है, वह परफेक्ट
हो सकती है; जो रिक्तता
है, वह
पूर्ण हो सकती
है। इसलिए
मनुष्य के
अस्तित्व में
एक ही पूर्णता
है संभव, और
वह है पूर्ण
रिक्तता, पूरा
खाली हो जाना।
लाओत्से
कहता है, ताओ
है खाली घड़े
की भांति, भरे
घड़े की
भांति नहीं।
खाली घड़े
की भांति। और
इसलिए जिसे भी
ताओ की या
धर्म की उत्सुकता
है, उस
यात्रा पर जो
जाने को आतुर
हुआ है, उसे
सभी तरह की पूर्णताओं
के प्रलोभन से
बचना चाहिए।
सभी तरह के
प्रलोभन!
अहंकार
पूरे होने की
कोशिश करेगा।
अहंकार की सारी
साधना यही है
कि पूर्ण कैसे
हो जाऊं! और ताओ
तो उसे मिलेगा, जो
खाली हो जाए; जहां अहंकार
बचे ही नहीं।
आदमी
रिक्त हो सकता
है। उसके भी
कारण हैं। जो हमारे
पास नहीं है, शायद
उसे न पाया जा
सके; लेकिन
जो हमारे पास
है, उसे
छोड़ा जा सकता
है। जो हमारे
पास नहीं है, उसे शायद न
पाया जा सके; क्योंकि उस
पर हमारा क्या
बस है! लेकिन
जो हमारे पास
है, उसे
छोड़ा जा सकता
है। उस पर
हमारा बस पूरा
है।
मैंने
कहा,
आदमी है बीच
में। इस तरफ
शून्य है, उस
तरफ पूर्ण है।
आदमी है अधूरा।
कुछ उसके पास
है, कुछ
उसके पास नहीं
है। अब दो
उपाय हैं। जो
उसके पास नहीं
है, वह भी
उसके पास हो
जाए, तो वह
पूर्ण हो जाए।
और एक उपाय यह
है कि जो उसके
पास है, वह
भी छोड़ दे, तो
वह शून्य हो
जाए। लेकिन जो
हमारे पास
नहीं है, वह
हमारे पास हो,
यह जरूरी
नहीं है। यह
हमारे हाथ में
नहीं है।
लेकिन जो
हमारे पास है,
वह छोड़ा जा
सकता है। वह
हमारे हाथ में
है। उसके लिए
किसी से भी
पूछने जाना
नहीं पड़ेगा।
अब यह
बहुत मजे की
बात है। अगर
पूर्ण होना है, तो
परमात्मा से
प्रार्थना
करनी पड़ेगी।
तब भी नहीं हो
सकते। और अगर
शून्य होना है,
तो किसी
परमात्मा की
सहायता की
जरूरत न पड़ेगी।
आप काफी हो।
कोई मांग नहीं
करनी पड़ेगी।
इसलिए
जिन धर्मों ने
शून्य होने की
व्यवस्था की, उनमें
प्रार्थना की
कोई जगह नहीं
है। जिन धर्मों
ने शून्य होने
की व्यवस्था
की, जैसे
बुद्ध ने या
लाओत्से ने, उनमें
प्रार्थना की
कोई जगह नहीं
है। प्रेयर का
कोई मतलब ही
नहीं है।
क्योंकि
मांगना हमें
कुछ है ही
नहीं, तो
क्या
प्रार्थना
करनी है!
किससे
प्रार्थना करनी
है! जो हमारे
पास है, उसे
छोड़ देंगे; और झंझट खतम
हो जाती है।
जो
हमारे पास
नहीं है, उसे
मांगना
पड़ेगा। उसमें
किसी के द्वार
पर हाथ जोड़ कर
खड़ा होना
पड़ेगा। उसके
लिए कुछ करना
पड़ेगा।
अब
इसमें और
देखने जैसी
बात है। जो
हमारे पास नहीं
है,
उसे पाने
में समय की
जरूरत लगेगी।
टाइम विल बी नीडेड।
क्योंकि जो
हमारे पास
नहीं है, वह
आज ही नहीं
मिल जाएगा। कल
मिलेगा, परसों
मिलेगा, अगले
जन्म में मिलेगा--कब
मिलेगा--समय
लगेगा। लेकिन
जो मेरे पास
है, वह इसी
वक्त छोड़ा जा
सकता है, इंसटैनटेनियसली। उसके लिए
समय की कोई भी
जरूरत नहीं
है। कल छोडूंगा,
परसों
छोडूंगा, यह
सब बेकार की
बात है।
क्योंकि जो
मेरे पास है, उसे मैं अभी
छोड़ सकता हूं।
और अगर कल पर
टालता हूं, तो मेरे
सिवाय और कोई
जिम्मेवार
नहीं है। लेकिन
जो मेरे पास
नहीं है, अगर
वह मुझे अभी न
मिले, तो
मैं ही
जिम्मेवार
नहीं हूं।
क्योंकि मैं सारी
कोशिश कर लूं,
तब भी न
मिले।
क्योंकि हजार
चीजों पर
निर्भर होगा
कि वह मुझे
मिले कि न
मिले।
आप तो
चाह सकते हैं
कि आकाश आपके
आंगन में आ
जाए। आप तो
चाह सकते हैं
कि सूरज आपके
घर में बैठे।
पर आपकी चाह
ही है, चाह ही
सकते हैं; यह
होगा कि नहीं,
यह हजार
बातों पर
निर्भर
करेगा। यह
अकेले आप पर
निर्भर नहीं
करेगा। इसके
लिए सहारे
मांगने पड़ेंगे।
लाओत्से
ने प्रार्थना
के लिए कोई
जगह नहीं है।
लाओत्से कहता
है,
कोई सवाल ही
नहीं है; तुम्हारे
पास जितना है,
उतना छोड़
दो।
एक और
मजे की बात
है। और यह
पूरा गणित समझ
लेने जैसा है।
मेरे पास दस
रुपए हैं। समझ
लें कि लाख
रुपया अगर परफेक्शन
मान लिया जाए, पूर्णता
मान ली जाए।
मेरे पास दस
रुपए हैं और लाख
रुपया पूर्णता
का अंक है, तो
मुझे बड़ी लंबी
यात्रा करनी
है। और आपके
पास अगर नब्बे
हजार रुपए हैं,
तो आपको बड़ी
छोटी यात्रा
करनी है। और
अगर आपके पास
सिर्फ पांच
रुपए की कमी
है लाख में, तो आपकी
यात्रा तो
बहुत निकट है।
और मेरी यात्रा
उतनी ही दूर
है, मेरे
पास पांच रुपए
हैं या दस
रुपए हैं। अगर
हम पूर्णता की
तरफ चलें, तो
हम सब एक ही
जगह नहीं हैं।
देन वी आर नॉट ईक्वल।
किसी के पास
पांच रुपए, किसी के पास
दस, किसी
पर दस हजार, किसी पर
पचहत्तर हजार,
किसी पर
नब्बे हजार, किसी पर
निन्यानबे
हजार, किसी
पर निन्यानबे
हजार नौ सौ
निन्यानबे।
तो बड़ा फासला
है। पूर्णता
का अगर हम
ध्येय रखें, तो आदमी
समान नहीं
हैं।
लेकिन
आपके पास
निन्यानबे
हजार नौ सौ
निन्यानबे
रुपए हैं और
मेरे पास एक
रुपया है; अगर
शून्यता की
तरफ जाना है, हम दोनों एक
ही साथ जा
सकते हैं। ईक्वलिटी
पूरी है। मैं
एक रुपया छोड़
दूं, आप अपने
रुपए छोड़ दें।
मैं शून्य हो जाऊंगा, आप शून्य हो
जाएंगे।
सिर्फ शून्य
की तरफ जो यात्रा
है, वह
मनुष्य को ईक्वलिटी
में खड़ा कर
सकती है।
अन्यथा नहीं
कर सकती।
तो जो परफेक्शन ओरिएंटेड सोसायटीज
हैं--सभी
हैं--वे कभी
समान नहीं हो
सकती हैं। सिर्फ
शून्य की तरफ
जिन समाजों की
यात्रा है, वे
समान हो सकती
हैं। क्योंकि
शून्य के
समक्ष, आपके
पास पंचानबे
हजार हैं, इससे
फर्क न पड़ेगा।
और मेरे पास
पांच रुपए हैं,
इससे फर्क न
पड़ेगा। मैं
पांच रुपए छोड़
कर वहीं पहुंच
जाऊंगा, जहां आप पंचानबे
हजार छोड़ कर
पहुंचेंगे।
कुछ ऐसा न
होगा कि आपको
बड़ा शून्य मिल
जाएगा और मुझे
छोटा मिलेगा। हमारी
रिक्तता
बराबर होगी।
जिस घड़े
में पूरा पानी
भरा था, वह
भी उलट कर
खाली हो
जाएगा। मेरे घड़े में एक
ही बूंद थी, वह भी उलट कर
खाली हो
जाएगा। मेरे घड़े के
खालीपन में और
आपके घड़े
के खालीपन में
कोई हायरेरकी
नहीं होगी। बस
हम खाली
होंगे।
लेकिन
पूर्णता की
अगर दृष्टि हो, तो
समानता असंभव
है। असंभव है।
और फिर यात्रा
अलग-अलग होगी।
और कब पूरी
होगी, नहीं
कहा जा सकता।
समय की जरूरत
पड़ेगी। और जिस
धर्म को पाने
में समय की
जरूरत पड़े, वह धर्म समय
से कमजोर होता
है, स्वभावतः।
जिस धर्म को
पाने के लिए
शर्त हो यह कि
इतना समय
लगेगा, वह
धर्म बेशर्त न
रहा, अनकंडीशनल
न रहा। उस
धर्म की शर्त
हो गई कि इतना
समय लगेगा।
अगर
ठीक से समझें, तो
वह धर्म
टाइम-प्रॉडक्ट
हो गया, समय
से उत्पन्न
हुआ। और जो
समय से
उत्पन्न होता
है, वह
कालातीत नहीं
होता। जिस चीज
को समय के
द्वारा पैदा
किया जाता है,
वह समय में
ही नष्ट हो
जाती है।
ध्यान रखें, जो चीज समय
के भीतर
जन्मती है, वह समय के
भीतर ही मर
जाती है।
जिसका एक छोर
समय में है, उसका दूसरा
छोर समय के
बाहर नहीं हो
सकता।
लेकिन
शून्यता
तत्क्षण हो
सकती है--इसी
वक्त, अभी। यह तत्क्षण
कहना भी गलत
है। असल में, शून्यता
क्षण के बाहर
घटित होती है।
भराव समय के
भीतर होता है;
रिक्तता
समय के बाहर
होती है।
रिक्त होते ही
समय के बाहर
हैं आप। और
रिक्त होने के
लिए समय की
कोई जरूरत
नहीं है।
इसलिए
अगर लाओत्से
के पास कोई
जाकर पूछे कि
मैंने बहुत
पाप किए हैं, बहुत
बुराइयां
की हैं, मैं
बहुत बुरा
आदमी हूं, मेरी
मुक्ति में
कितनी देर
लगेगी? तो
लाओत्से कहता
है, अभी हो
सकती है, यहीं
हो सकती है।
लाओत्से कह
सकता है, अभी
हो सकती है, यहीं हो
सकती है।
क्योंकि वह
कहता है, सवाल
यह नहीं है।
तुम्हें कुछ
होना नहीं है;
तुम जो हो, उसको भी छोड़
देना है।
इसलिए
लाओत्से ने
कोई खयाल नहीं
दिया इस बात का
कि कितने जन्म
तुम्हें
लगेंगे, कितना
वक्त लगेगा।
नहीं, लाओत्से
कहता है, अभी
और यहीं।
इसलिए
लाओत्से ने
जिस निर्वाण की
बात की है, वह
सडन
एनलाइटेनमेंट
है। अभी हो
सकता है।
इसमें क्षण भी
गंवाने की
जरूरत नहीं
है। हां, तुम्हीं
न चाहते होओ, तो बात अलग
है। और कोई
बाधा नहीं है।
लाओत्से कहता
है, और कोई
बाधा नहीं है।
तुम्हीं न
चाहो, तो
बात अलग है।
और कोई बाधा
नहीं है। और
सब बहाने हैं।
यह
समझना बहुत
कठिन होगा मन
को कि मोक्ष
को रोकना भी
हमारा बहाना
है। निर्वाण
को न पाना भी
हमारी तरकीब
है। कोई पाप
नहीं रोक रहा
है। सिर्फ हम
नहीं चाहते; और
इसलिए हम एक्सप्लेनेशंस
खोजते हैं कि
किन-किन वजह
से रुक रहा है
मोक्ष।
लाओत्से
की दृष्टि में
समय का कोई
व्यवधान नहीं
है। अभी हो
जाएं खाली; यहीं
खोल दें मुट्ठी।
लाओत्से
यह भी कहता है
कि भराव कभी
भी शांत नहीं
हो सकता। आधा
घड़ा भरा है, आवाज
होती है; पौना
घड़ा भरा है, आवाज होती
है। लाओत्से
कहता है, कितना
ही घड़ा भरा हो,
आवाज होती
ही रहेगी।
सिर्फ खाली
घड़ा शांत हो जाता
है। क्यों?
आप
कहेंगे, कभी
तो ऐसा हो
सकता है कि घड़ा
बिलकुल ही भरा
हो और आवाज न
हो।
लेकिन
लाओत्से नहीं
मानता।
लाओत्से कहता
है कि घड़ा भरा
हो,
तो एक बात
तय हो गई कि दो
चीजें हैं:
घड़ा है, और
जो चीज भरी
है। और जहां
द्वैत है, वहां
पूर्ण शांति
नहीं हो सकती।
इसको
ठीक से समझ
लें। जहां घड़े
में कुछ भरा
है,
वहां घड़ा है
और कुछ भरा
है। तो वहां
द्वैत कायम
रहेगा। इसलिए
पूर्णता को
उत्सुक आदमी
द्वैत से भरा रहेगा,
द्वंद्व से
भरा रहेगा, कांफ्लिक्ट जारी
रहेगी। सिर्फ
शून्य में खड़ा
हुआ आदमी कांफ्लिक्ट
के बाहर होगा,
क्योंकि
दूसरा बचता ही
नहीं है। घड़ा
खाली है, आवाज
कौन करेगा? कोई टकराने
को भी नहीं
है। घड़े
में कुछ है ही
नहीं; घड़ा
अकेला है।
ध्यान रहे, अद्वैत में
ही शांति संभव
है, क्योंकि
टकराने को कोई
नहीं है। जहां
दो हैं, वहां
टकराव होता ही
रहेगा।
अब यह
बहुत मजे की
बात है और
इसकी अपनी
तर्क-सरणी है।
जब भी आप अपने
को किसी चीज
से भरेंगे, तो
पक्का आप समझ
लेना कि वह आप
न होंगे जिससे
आप भरेंगे,
वह कुछ और
होगा। वह चाहे
धन हो, यश
हो, ज्ञान
हो, त्याग
हो, भगवान
हो, कुछ भी
हो। ध्यान रहे,
जिससे भी आप
अपने को भरेंगे,
वह आप न
होंगे। कुछ और
होगा। समथिंग एल्स। और
दूसरे से भर
कर कहीं शांत
हो सकते हैं?
अब यह
तो पक्का समझ
में आता है न
कि घड़ा घड़े
से ही कैसे
अपने को
भरेगा! पानी
से भरेगा, तेल
से भरेगा, दूध
से भरेगा, जहर
से, अमृत
से भर लेगा; बाकी भरेगा
किसी और से।
अब घड़ा घड़े
से ही कैसे
अपने को भरेगा?
घड़े को अगर घड़ा
ही होना है, तो शून्य
होना ही उसका
उपाय है। अगर घड़े को
सिर्फ घड़े
से ही भरा
होना है, तो
शून्य होना ही
उसकी विधि है।
नहीं तो घड़ा किसी
और से भर
जाएगा। वह नाम
कुछ भी रख
लेगा; नाम
रखने से अंतर
नहीं पड़ता।
हमको धोखा
जरूर होता है
कि नाम रख
लेने से अंतर
पड़ जाता है।
लिंकन
के पास एक
बहुत बड़ा
धर्मशास्त्री
मिलने गया था।
तो वह बड़ी-बड़ी
बातें कर रहा
था--ईश्वर, स्वर्ग,
नर्क! लिंकन
ने कहा कि मैं
यह पूछना
चाहता हूं कि
ये सिर्फ नाम
ही तो नहीं
हैं? उसने
कहा कि नहीं, नाम नहीं
हैं। लिंकन ने
कहा, इसे
छोड़ें। मैं एक
बात पूछूं,
गाय के
कितने पैर
होते हैं? उसने
कहा कि यह भी कोई
पूछने की बात
है! कहां मैं
मोक्ष, परमात्मा,
स्वर्ग-नर्क
की बात कर रहा
हूं और आप गाय
के पैर पूछते
हैं? फिर
भी लिंकन ने
कहा, कृपा
करके। उसने
कहा कि यह कोई
बात है, गाय
के चार पैर
होते हैं।
लिंकन ने कहा,
अगर हम गाय
की पूंछ को भी
एक पैर कहें, पैर मान लें,
तो गाय के
कितने पैर
होते हैं? उसने
कहा कि फिर
पांच पैर होते
हैं।
लिंकन
ने कहा, यहीं
तुम्हारी
गलती है। तुम
चाहे पूंछ को
पैर कहो, तो
भी पूंछ पैर
नहीं हो जाती।
तुम्हारे
कहने से क्या
होगा? तुम्हारे
कहने से क्या
पूंछ पैर हो
जाएगी? तुम
पूंछ भला कहो,
तख्ती लगा
दो, फिर भी
पूंछ पैर नहीं
हो जाती। पूंछ
पूंछ ही होती
है। तुम्हारे
लेबल से कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
क्योंकि पैर
सिर्फ नाम
नहीं है, पैर
कुछ काम है।
वह पूंछ नहीं
कर सकती। तुम
नाम कितना ही
दे दो उसको।
हम
नामों के भ्रम
में बहुत रहते
हैं। आदमी के बड़े
से बड़े भ्रम
जो हैं, वे लेबलिंग
और नाम के
हैं।
सूफियों
की एक कहानी
है कि एक
गिलहरी एक
वृक्ष के नीचे
बैठी है और एक लोमड़ी
गुजरती है। तो
वह लोमड़ी
गिलहरी से
कहती है कि
नासमझ, मुझे
देख कर भी तू
भाग नहीं रही
है! तुझे पता
है, मैं लोमड? हूं, तुझे
अभी दो टुकड़े
कर सकती हूं।
गिलहरी
ने कहा कि कोई
प्रमाणपत्र
है?
हैव यू गॉट
एनी
सर्टिफिकेट? तुम लोमड़ी
हो, इसका
कोई लिखित
प्रमाणपत्र
है?
लोमड़ी
बड़ी हैरानी
में पड़ी, क्योंकि
ऐसा गिलहरियों
ने कभी पूछा
ही नहीं था।
यह बड़ी अनहोनी
घटना थी।
गिलहरी भाग
जाती थी लोमड़ी
को देख कर।
किसी गिलहरी
ने कभी कोई यह
जुर्रत ही
नहीं की थी कि लोमड़ी से
पूछे कि कोई
प्रमाणपत्र
है तुम्हारे
पास? यह
कैसे हम मानें
कि तुम लोमड़ी
हो, कुछ
लिखित है? लोमड़ी
को पसीना आ
गया, यह
कभी ऐसा
इतिहास में
नहीं हुआ था।
उसने कहा, तू
ठहर, मैं
अभी
प्रमाणपत्र
लेकर आती हूं।
वह
सिंह के पास
गई और उसने
कहा कि कृपा
करो एक लिखित
प्रमाणपत्र
दो। इज्जत बेइज्जत
हुई जाती है।
एक साधारण सी
गिलहरी मुझसे--यह
उसके मन में
चल रहा
है--इज्जत
बेइज्जत हुई
जाती है। एक
साधारण सी
गिलहरी। यह
उसने सिंह से
नहीं कहा।
उसने इतना ही
कहा कि मुझे
प्रमाणपत्र
दे दो। मन में
उसके यह चल
रहा है कि हद
हो गई। हद हो
गई,
ऐसा कभी
इतिहास में भी
नहीं सुना था।
सिंह
ने उसे लिख कर
एक
प्रमाणपत्र
दिया। वह लेकर
वापस लौटी।
गिलहरी अपनी
जगह बैठी थी।
उसने प्रमाणपत्र
पढ़ कर सुनाया, जहां
सिंह ने चर्चा
की थी कि यह लोमड़ी
है और बहुत
खतरनाक जानवर
है, और
गिलहरी को इससे
सावधान होना
चाहिए, और
इस तरह की
बातें नहीं
करनी चाहिए।
उसने यह प्रिफेस,
यह भूमिका
सुन कर ही
गिलहरी तो
नदारद हो गई।
उसने सोचा कि
है तो पक्का।
वह तो भाग गई।
लेकिन लोमड़ी
पढ़ने में इतनी
तल्लीन हो गई
थी और खुद की
प्रशंसा पढ़ने
में इतने
धीरे-धीरे पढ़
रही थी कि उसने
जब पूरा पढ़
पाई
प्रमाणपत्र, तब देखा कि
गिलहरी जा
चुकी है।
वह
वापस लौटी। जब
वह पहुंची
सिंह के पास, तो
देख कर हैरान
हुई कि एक
हिरण वहां खड़ा
हुआ था और वह
सिंह से कह
रहा था, कोई
लिखित
प्रमाणपत्र
है आपके पास? हम कैसे मान
लें कि आप
सिंह हो? लोमड़ी
ने कहा, हद
हो गई! अब यह
सिंह बेचारा
क्या करेगा? हम तो खैर
प्रमाणपत्र
ले गए।
सिंह
ने उस हिरण से
कहा कि देख, अगर
मुझे भूख लगी
हो, तो
तुझे
प्रमाणपत्र
लेने की
फुर्सत भी
नहीं मिलेगी।
सिद्ध हो
जाएगा। और अगर
मुझे भूख न
लगी हो, तो
आई डोंट
केयर। इससे
कोई मतलब ही
नहीं है कि तू मानता
है मुझे सिंह
कि नहीं
मानता। अगर
मुझे भूख नहीं
लगी, तो
मैं तेरी
चिंता नहीं
करता कि तू
क्या मानता
है। और अगर
मुझे भूख लगी
है, तो
तुझे फुर्सत
भी न मिलेगी
इस बात की
फिकर करने की
कि मैं कौन
हूं।
लोमड़ी ने
कहा कि महाराज, यह
मुझसे क्यों न
कहा? मुझे
क्यों सर्टिफिकेट
दे दिया? एक
साधारण सी
गिलहरी, मैं
भी उसको ठीक
कर देती। सिंह
ने कहा, लेकिन
तूने मुझे
बताया ही नहीं
था कि गिलहरी
ने
सर्टिफिकेट
मांगा है। मैं
तो समझा कि सम स्टुपिड
ह्यूमन बीइंग,
कोई मूढ़
आदमी ने मांगा
होगा। इधर कुछ
देर से ये
जंगली जानवर
भी आदमी की
बेवकूफी में
पड़ने लगे हैं,
सर्टिफिकेट
मांगते हैं।
आदमी
की बुनियादी नासमझियों
में से नेमिंग, लेबलिंग, नामकरण
बुनियादी नासमझियों
में से है।
नाम देकर बड़ी
सुविधा हो
जाती है। आदमी
कहता है, मैं
परमात्मा से
अपने को भर
रहा हूं। तब
वह भूल जाता
है कि यह
द्वैत है। यह
भी द्वैत है।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता कि
किससे तुम भर
रहे हो। एक
बात तय है कि
तुम घड़े
हो और किसी से
भरे जा रहे
हो। वह संसार
है, कि
परमात्मा है,
कि प्रेम है,
कि
प्रार्थना है,
इससे कोई
अंतर नहीं
पड़ता। तुम
नहीं हो। तुम
तो भरने वाले
हो, या
जिसमें भरा जा
रहा है, वह
हो। फिर जो भी
भरा जा रहा है,
उसका कोई भी
नाम हो--उसको
संसार न कह कर
मोक्ष कहने
लगेंगे, तो
फर्क नहीं
पड़ने वाला
है--द्वैत
जारी रहेगा।
असल
में,
दूसरे से ही
हम भरे जा
सकते हैं। अगर
अपना ही होना,
शुद्ध अपने
ही होने में
थिर होना है, तो सिवाय
शून्य होने के
और कोई उपाय
नहीं है।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
"ताओ है
रिक्त घड़े
जैसा। इसके
उपयोग में सभी
प्रकार की पूर्णताओं
से सावधान
रहना
अपेक्षित है।'
इसके
उपयोग में, अगर
धर्म का उपयोग
करना है, तो
पूर्णता के
उपद्रव से, समस्त पूर्णताओं
से सावधान
रहना
अपेक्षित है।
यह भी थोड़ा
सोचने जैसा
है। उपयोग
शब्द के भीतर
थोड़ा उतरें तो
खयाल में
आएगा।
धर्म
अगर कुछ है तो
जीवन का परम
उपयोग है, वह
जीवन की
आत्यंतिक
अर्थवत्ता
है। अगर ताओ का
या धर्म का
उपयोग करना है,
तो एक ही
सूचन देता है
लाओत्से कि
समस्त तरह की पूर्णताओं
से, पूर्णता
की आकांक्षा से
सावधान रहना।
और धर्म का
उपयोग शुरू हो
जाएगा।
क्योंकि जैसे
ही कोई
व्यक्ति
शून्य होता है,
वैसे ही
धर्म सक्रिय
हो जाता है, डायनैमिक हो
जाता है। और
जैसे ही कोई
व्यक्ति भर
जाता है
किन्हीं
चीजों से, धर्म
अक्रिय हो
जाता है, बोझ
से भर जाता है,
दब जाता है।
नष्ट तो होता
नहीं धर्म।
इस
कमरे में खाली
जगह है, एम्पटी स्पेस है।
इस कमरे में
लाकर हम सामान
भर दें, इतना
सामान भर दें
कि कमरे में
इंच भर जगह न
रह जाए। इसका
क्या अर्थ हुआ?
क्या इसका
यह अर्थ हुआ
कि पहले जो
खाली जगह थी, वह नष्ट हो
गई? क्या
हम उसे नष्ट
करने में सफल
हो गए? या
इसका यह मतलब
है कि पहले जो
खाली जगह थी, वह छोड़ कर इस
कमरे के बाहर
हट गई और कमरा
भर गया? इस
कमरे के बाहर
खाली जगह जा
नहीं सकती।
क्योंकि खाली
जगह कोई चीज
नहीं है कि
चली जाए। और
जाएगी कहां? बाहर खाली
जगह पहले से
ही काफी मौजूद
है। इस कमरे
की खाली जगह
को सम्हालने
के लिए कहीं
भी तो कोई जगह
नहीं है इस
अंतरिक्ष में,
जहां यह इस
कमरे की इतनी
खाली जगह अगर
बाहर निकल जाए,
तो यह कहां रुकेगी?
खाली
जगह को आप
नष्ट कैसे
करेंगे? फिर
दूसरा उपाय यह
है कि नष्ट हो
गई होगी; हमने
सामान भर दिया,
खाली जगह
नष्ट हो गई।
लेकिन नष्ट
कोई चीज हो
सकती है, खालीपन
नष्ट नहीं हो
सकता। वस्तु
नष्ट हो सकती
है, शून्य
नष्ट नहीं हो
सकता। शून्य
का मतलब ही यह
है कि जो नहीं
है। उसको नष्ट
कैसे करिएगा?
नष्ट करने
के लिए किसी
चीज का होना
जरूरी है।
तो आप
इस कमरे को
कितना ही भर
दें,
ठोस सीमेंट
से बंद कर दें
पूरा का पूरा,
तो भी खाली
जगह यहीं की
यहीं होगी। न
नष्ट हो सकती
है, न बाहर
जा सकती है।
तो क्या फिर
हमें खाली जगह
किसी दिन इस
कमरे में लानी
हो--रहने का मन
हो जाए, इस
कमरे में बसना
हो, बैठना
हो, सोना
हो--तो हम क्या
करेंगे, खाली
जगह कहीं बाहर
से लाएंगे?
खाली जगह
पैदा करने के
लिए कुछ मैन्युफैक्चर
करेंगे? खाली
जगह को पैदा
करने के लिए
कोई कारखाना बनाएंगे?
नहीं, सिर्फ
इस कमरे में
जो चीज भरी है,
उसे बाहर कर
देंगे। खाली
जगह अपनी जगह
ही रहेगी। चीज
खाली जगह को
सिर्फ छिपा
देती है। आप
हटा देंगे
वस्तुओं को, खाली जगह
प्रकट हो
जाएगी।
हम भी
ऐसे ही हैं।
खालीपन हमारा
स्वभाव है। वह
हमारा धर्म
है। वह ताओ
है। हम उसमें
भरते जाते हैं
चीजें। इतना
भर लेते हैं
कि वह खाली
जगह दब जाती
है। दब जाती
है,
ऐसा कहना
पड़ता है। दबा
तो हम उसको
नहीं सकते। लेकिन
अप्रकट हो
जाती है, दिखाई
नहीं पड़ती, अदृश्य हो
जाती है। क्या
करें अब?
लाओत्से
कहता है, यह
पूरे होने की
जो आकांक्षा
है, इससे
सावधान रहना।
और पूरे होने
की आकांक्षा छोड़
देना। तो पूरे
होने के लिए
जो इंतजाम
तुमने घर में
कर रखा है, वह
तुम खुद ही
उठा कर फेंक
दोगे। वह तो
इंतजाम है
सिर्फ पूरे
होने का। और
जिस दिन उसे
उठा कर फेंक
दोगे और भीतर
रिक्तता
उपलब्ध होगी,
उसी दिन ताओ
में स्थिति हो
जाती है।
और ताओ
बड़ा सक्रिय है, बहुत
डायनैमिक
फोर्स है
शून्य। और उस
शून्य का बड़ा
उपयोग है। असल
में, उपयोग
ही शून्य का
होता है।
उपयोग का अर्थ
है कि जैसे ही
कोई व्यक्ति
शून्य हो
जाता। जो
अधूरापन था, उसने फेंक
दिया। पूर्ण
होने की कोशिश
न की, क्योंकि
पूर्ण होने की
कोशिश में
चीजें बढ़ानी
पड़ती थीं।
उसने चीजें
उठा कर फेंक
दीं। उसने
पूर्ण होने का,
मकान बनाने
का खयाल ही
छोड़ दिया। अब
जब वह अपूर्ण
नहीं रहा, तो
उसे क्या
कहिएगा? अपूर्णता
का सब इंतजाम
उसने उठा कर
फेंक दिया, अब वह
अपूर्ण नहीं
रहा। अब उसे
क्या कहिएगा?
शून्य
तो हम सिर्फ
इसलिए कहते
हैं ताकि
दृष्टि शून्य
होने की तरफ
लग जाए। जिस
दिन कोई व्यक्ति
अपने भीतर से
सब साज-सामान
फेंक देता है, पूर्ण
होने की सब
योजनाएं, प्लानिंग
फेंक देता है,
सब इंतजाम
छोड़ देता है, खाली हो
जाता है, उस
दिन पूर्ण हो
जाता है।
अपूर्णता से
मुक्त हो जाना
पूर्ण हो जाना
है।
यह अलग
परिभाषा हुई।
अपूर्णता को
विकसित करके, छांट-छांट
कर पूर्ण होने
की जो कोशिश
है, वह एक।
और एक
अपूर्णता को
छोड़ कर खड़े हो
जाने पर जो
शेष रह जाती
है स्थिति, वह दो। वह भी
पूर्ण है।
और वह
पूर्णता फिर
आपकी नहीं है।
क्योंकि आप तो, जो
चीजें छोड़ीं,
उसी में बह
जाएंगे। वह
पूर्णता फिर
समष्टि की है,
वह पूर्णता
फिर सर्व की
है। वह
पूर्णता फिर
परमात्मा की
है। और यह
परमात्मा बड़ा
सक्रिय है। और
इस परमात्मा
से सारा सृजन
है, सारी क्रिएटिविटी
है। चाहे बीज
में अंकुर
फूटता हो और
चाहे आकाश में
एक तारा
निर्मित होता
हो और चाहे एक
फूल खिलता हो
और चाहे एक
व्यक्ति पैदा
होता हो--यह सारा
विराट का जो
आयोजन है, उसी
परम शून्य से
है। वह शून्य महासक्रियशाली
है। उस शून्य
में बड़ी ऊर्जा
है। हम अपने
ही हाथ दीन बन
जाते हैं
पूर्ण होने की
कोशिश में।
शून्य होते ही
हम परम
सौभाग्यशाली
हो जाते हैं, परम धन के
मालिक हो जाते
हैं।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
इसके उपयोग
में सभी
प्रकार की पूर्णताओं
से सावधान
रहना
अपेक्षित है।
यह कितना
गंभीर है! यह
शून्य! यह
शून्य कितना
गंभीर है! यह
शून्य कितना
अथाह है, मानो
यह सभी
पदार्थों का
उदगम हो!
जिससे सभी कुछ
पैदा हुआ हो, जिससे सभी
कुछ निकला हो,
जिससे सभी
कुछ जन्मा हो।
जैसे यह
सम्मानित पूर्वज
है, सब का
पिता है, सब
की जननी है, सब का
उदगम-स्रोत
है।
लेकिन
बड़े अदभुत
शब्द उसने
उपयोग किए हैं, जो
कि
कंट्राडिक्टरी
मालूम पड़ेंगे,
विरोधाभासी
मालूम
पड़ेंगे।
क्योंकि पहले
तो वह कहता है,
रिक्त घड़ा
है धर्म। और
फिर कहता है, कितना अथाह
है!
अब थाह
तो हम हमेशा
चीजों की लेते
हैं। शून्य नदी
को आप अथाह न
कह सकेंगे।
भरी हुई नदी
को,
बहुत भरी
हुई नदी को
कहेंगे, अथाह
है। बहुत होगा
पानी, नाप
में न अटता
होगा, तो
कहेंगे, अथाह
है। सूनी नदी
को, जिसमें
जल ही न हो, कोई
अथाह कहेगा, तो पागल
कहेंगे।
लाओत्से
उसी नदी को
अथाह कह रहा
है,
जहां जल है
ही नहीं।
क्यों? बहुत
मजेदार है।
लाओत्से कहता है
कि जिसमें जल
है, उसे
तुम चाहे न
नाप पा रहे हो,
वह नापा जा
सकता है। इट
कैन बी मेजर्ड,
मेजरेबल है। कितनी
ही तकलीफ पड़े,
लेकिन इम्मेजरेबल
नहीं है, अथाह
नहीं है। थाह
तो मिल ही
जाएगी। थोड़ी
और दूर होगी, थोड़ी और दूर
होगी, थाह
तो होगी ही।
क्योंकि
वस्तु अथाह
नहीं हो सकती।
हां, वह
नदी अथाह हो
सकती है, जिसमें
जल न हो।
क्योंकि अब
तुम कैसे नापोगे?
जो नहीं है,
उसे नापने
का कोई उपाय
नहीं है। जो
है, वह
नापा जा सकता
है। इसलिए जल
वाली नदी कभी
अथाह नहीं हो
सकती; निर्जल
नदी अथाह हो
जाएगी।
लाओत्से
कहता है, घड़ा
कितना ही भरा
हो, अथाह
नहीं होगा; खाली घड़ा
अथाह है। खाली
घड़ा अथाह है, क्योंकि जो
शून्य है, उसको
नापने का उपाय
नहीं है। उसके
नापने की कोई
मेजरमेंट की
विधि, व्यवस्था,
तराजू, कोई
नाप, कोई
गज, कुछ भी
नहीं है। एक
छोटे से शून्य
को भी नहीं नापा
जा सकता, और
एक बड़े विराट
जगत को भी
नापा जा सकता
है।
हिंदू
दर्शन के पास
एक शब्द है, माया।
माया का मतलब
होता है, जो
मापा जा सकता
है, दैट
व्हिच इज़ मेजरेबल।
माया का मतलब
इल्यूजन नहीं
होता, माया
का मतलब भ्रम
नहीं होता।
माया का मतलब
होता है, जो
मापा जा सकता
है, जो मेय
है, मेजरेबल है। जो मेय
है, वह
माया है। और
चूंकि नापा जा
सकता है, इसलिए
इल्यूजन है।
माया का अर्थ
नहीं होता भ्रम।
जो नापा जा
सकता है, वह
सत्य नहीं है।
क्योंकि सत्य
अमाप है, वह
इम्मेजरेबल
है, वह
अमेय है। उसको
हम माप न
सकेंगे।
लाओत्से
कहता है, "कितना
अथाह!'
अब इसे
भी थोड़ा सोचने
जैसा है।
क्योंकि
लाओत्से जैसे
व्यक्ति
रत्ती भर शब्द
भी व्यर्थ
नहीं बोलते
हैं;
इंच भर भी
वाणी अकारण
नहीं होती है।
क्योंकि बड़ी
मुश्किल से
बोलते हैं।
बोलना कोई
लाओत्से जैसे
व्यक्ति के
लिए कोई सुख
नहीं है। बड़ी
पीड़ा है, बड़ी
कठिनाई है।
क्योंकि जो
कहने चलते हैं
वे, वह कहने
के बिलकुल
बाहर है।
उसमें एक भी
शब्द वे ऐसा
उपयोग नहीं
करते।
अब
इसमें बड़ा
मजेदार है।
लाओत्से कहता
है,
कितना अथाह!
कितना नहीं
कहना चाहिए।
कितना नहीं
कहना चाहिए, क्योंकि
कितने में माप
शुरू हो जाता
है। कितना
शब्द माप की
सूचना देने
लगता
है--कितना
अथाह! फिर
लाओत्से
क्यों कितने
का उपयोग करता
होगा? अगर
लाओत्से इतना
कहे कि अथाह, तो
तर्कयुक्त
मालूम पड़ेगा।
लेकिन कहता है,
कितना अथाह!
कितने में तो
माप की शुरुआत
हो जाती है।
पर
लाओत्से एक
शब्द अकारण
नहीं बोलता।
फिर से सोच
लें। अगर
लाओत्से कहे
अथाह, तो माप
हो गया। अगर
लाओत्से कहे
अथाह, दिस
वर्ल्ड इज़
इम्मेजरेबल।
तो कोई भी कह
सकता है, यू
हैव मेजर्ड।
अगर
मैं यह कहूं
कि अथाह है यह
जगत,
तो इसका
मतलब हुआ कि
मैंने तो कम
से कम नाप-जोख कर
ली; मैं तो
कोने तक पहुंच
गया; मैंने
तो पूरा देख
डाला, और
लौट कर कहा, अथाह है।
मैं जल में
गया और मैंने
लौट कर कहा, अथाह है। दो
ही बातें हो
सकती हैं। या
तो मैं यह
कहूं कि मैं
थाह तक नहीं
पहुंच पाया।
तो मुझे अथाह
कहने का हक
नहीं है। मुझे
इतना ही कहना चाहिए
कि मैं थाह तक
नहीं पहुंच
पाया। क्योंकि
हो सकता है, जहां तक मैं
गया, उसके
एक हाथ नीचे
ही थाह हो।
नदी के बाहर
आकर मैं कहता
हूं, अथाह।
तो दो ही
बातें हो सकती
हैं। या तो
मैं पहुंच
नहीं पाया थाह
तक। तब मुझे
अथाह कहना नहीं
चाहिए। मुझे
इतना ही कहना
चाहिए कि जहां
तक मैं गया, वहां तक थाह
न थी, बस।
आगे हो सकती
है। आगे का
मैं कुछ कह
नहीं सकता। और
या इसका यह
मतलब हुआ कि
मैं आखिर तक
पहुंच गया और
मैंने पाया कि
अथाह है।
लेकिन यह
एब्सर्ड है।
अगर मैं आखिर
तक पहुंच गया,
तो मैं थाह
तक पहुंच गया।
और लौट कर अगर
मैं कहता हूं
कि मैं बिलकुल
आखिर तक देख
कर आ रहा हूं, थाह नहीं है,
यह तो
बिलकुल गलत
बात है।
क्योंकि आखिर
तक तुमने देखा
कैसे अगर थाह
नहीं है? अगर
तुम पहुंच गए
आखिर तक, तो
थाह है।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
कितना अथाह!
अथाह को भी
सीधा नहीं
देता है वक्तव्य।
क्योंकि सीधे
देने में तो
लगेगा, नापा
जा चुका। कम
से कम लाओत्से
ने तो नापा। कम
से कम लाओत्से
को तो पता चल
गया कि अथाह
है। लेकिन
लाओत्से कहता
है, कितना
अथाह! इसमें
लाओत्से इतना
ही कहता है, कितना ही नापो,
कितना ही नापो, नापते
ही चले
जाओ--कितना
अथाह! तुम
नापते हो, और
नाप के बाहर।
तुम नापते हो,
और नाप के
बाहर। तुम
जहां तक
पहुंचते हो, वहीं से
आगे। तुम जहां
तक पहुंच जाते
हो, वहीं
किनारा नहीं।
जहां तक पहुंच
जाते हो, वहीं
थाह नहीं
मिलती।
अनंत-अनंत तरह
से तुम जाकर
देखते हो और
पाते हो, कितना
अथाह! अथाह को
भी सीधा नहीं
कह देता। सीधा
कहने में तो
बात नापी हुई
हो जाएगी।
इस
कारण बहुत से
वक्तव्य
कंट्राडिक्टरी
टर्म्स
में दिए जाते
हैं,
विरोधी टर्म्स
में दिए जाते
हैं। अथाह
सीधा कह देने
से थाह वाला
शब्द हो जाता
है; नापा-जोखा
हो जाता है।
कितना अथाह!
और तब अथाह में
भी लेयर्स
हो जाती हैं।
तब अथाह में
भी मल्टी डायमेंशंस
हो जाते हैं, बहुआयाम हो जाते
हैं। अकेला
अथाह कहने से
वन डायमेंशनल
शब्द है।
कितना अथाह
कहने से मल्टी
डायमेंशनल हो
गया।
महावीर
से तुलना में
खयाल में आ
सकेगा।
महावीर
जब भी बोलते
हैं,
तब वे सिर्फ
अनंत नहीं
कहते सत्य को।
वे कहते हैं अनंतानंत।
जब भी वे कहते
हैं, सत्य
कैसा, तो
वे यह नहीं
कहते कि अनंत,
इनफिनिट। वे कहते
हैं, इनफिनिटली इनफिनिट,
अनंत-अनंत।
कोई उनसे
पूछने लगा कि
यह क्या बात
है? अनंत
कहने से काम
चल जाएगा।
दो-दो अनंत जोड़ने
से क्या मतलब?
और गलत
भी है दो-दो
अनंत जोड़ना, क्योंकि
अनंत तो एक ही
हो सकता है।
अगर दो अनंत
होंगे, तो
एक-दूसरे की
सीमा बना
देंगे। अगर इस
जगत में हम
कहें कि दो
अनंत हैं, तो
दोनों ही अनंत
न रह जाएंगे; दोनों सांत
हो जाएंगे।
क्योंकि दो
एक-दूसरे की
सीमा...। अनंत
का तो मतलब यह
है कि जिसका
कोई अंत नहीं।
लेकिन जहां से
दूसरा शुरू
होगा, वहां
से पहले का
अंत हो जाएगा।
अनंत तो एक ही
हो सकता है।
इसलिए
महावीर के
पहले तक अनंत
शब्द का सीधा
उपयोग चलता
था। उपनिषद
अनंत का उपयोग
करते हैं।
लेकिन अनंत वन
डायमेंशनल है।
और महावीर को
लगा कि अनंत
कहने से नाप
हो जाती है, जैसे
कि पता चल गया,
जैसे कि जान
लिया गया। जो
आदमी कहता है
अनंत, जैसे
उसे पता हो
गया, उसे
मालूम है।
तो
महावीर कहते
हैं,
अनंतानंत। इतना अनंत
है कि अनंत
कहने से भी
चुकता नहीं।
हमें उसके ऊपर
और--अनंत
स्क्वायर, अनंत-अनंत।
इतना अनंत है
कि अनंत कहने
से नहीं चुकता,
तो इनफिनिट
स्क्वायर। तब
मल्टी
डायमेंशनल हो
गया, बहुआयामी
हो गया। और यह
बहुआयामी जब
भी कोई शब्द
होता है, तो
बड़ा जीवंत हो
जाता है; और
जब एक आयामी
होता है, तो
मुर्दा हो
जाता है।
लाओत्से कह
सकता था, अथाह;
लेकिन वह
कहता है, कितना
अथाह! वह
अनंत-अनंत
जैसे शब्द का
प्रयोग कर रहा
है।
वह
कहता है, "कितना
गंभीर!'
शून्य
और गंभीर!
शून्य तो
बिलकुल खाली
होगा; उसमें
कैसी गंभीरता?
शून्य तो
बिलकुल खाली
होगा; उसमें
कैसी गंभीरता?
नदी में
बहुत जल है, तो हम कहते
हैं, कैसा
गंभीर प्रवाह!
नदी में दो
तरह के प्रवाह
होते हैं। एक
छिछला प्रवाह
होता है; छोटी-मोटी
नदियों में
होता है। कंकड़-पत्थर
दिखाई पड़ते
रहते हैं, पर
नदी शोरगुल
बहुत करती है।
बित्ता भर
पानी होता है,
लेकिन
शोरगुल बहुत
होता है। उसको
कहते हैं छिछला
प्रवाह; गंभीर
नहीं। नदी
शोरगुल बहुत
करती है, बातचीत
बहुत करती है।
फिर एक
नदी है कि
इतना गहरा है
जल कि नीचे
अगर चट्टानें
भी पड़ी हों, तो
उनसे भी नदी
की छाती पर
कोई उथल-पुथल
पैदा नहीं
होती। नदी बहती
भी है, तो
पता नहीं चलता
तट पर खड़े
होकर कि बह
रही है। बहना
भी इतना
सायलेंट है।
तब कहते हैं, नदी की धारा
बड़ी गंभीर; आवाज भी
नहीं है जरा।
लाओत्से
कहता है, कितना
गंभीर! वहां
तो कोई जल की
धारा ही नहीं
है; सब
शून्य है।
पर वही
कारण है।
लाओत्से
कहेगा, कितने
ही धीमे बहती
हो नदी, तुम्हारे
कान पकड़ पाते
हों कि न पकड़
पाते हों, जहां
प्रवाह होगा
वहां शोर तो
होगा ही। कम
होगा, सूक्ष्म
होगा। न सुनाई
पड़े, ऐसा
होगा। लेकिन
जहां प्रवाह
है, वहां
घर्षण है। और
जहां घर्षण है,
वहां शोर
है। तो
लाओत्से कहता
है, सिर्फ
शून्य ही गंभीर
हो सकता है, क्योंकि
वहां कोई शोर
नहीं होगा।
वहां कोई प्रवाह
ही नहीं है।
वहां कोई
घर्षण नहीं
है। कहीं जाना
नहीं है, कहीं
आना नहीं है।
सब चीजें अपने
में थिर हैं।
तो
कहता है, कितना
गंभीर! कितना
गहरा!
लेकिन
कितना जोड़ता
है। और जोड़ने
का कारण है कि
कोई भी शब्द
उथला न हो जाए; और
कोई भी शब्द
ऐसी खबर न दे
कि बात पूरी
हो गई। इस
शब्द पर बात
पूरी हो गई, ऐसी खबर न
दे। सब शब्द
आगे की यात्रा
को खोलते हों;
कोई शब्द क्लोजिंग
न हो, सब
शब्द ओपनिंग
हों। लाओत्से
जैसे लोगों के
सारे शब्द ओपन
होते हैं।
उनके हर शब्द
से और कहीं द्वार
खुल जाता है; आगे के लिए खुलाव
मिलता है।
पंडित जब
बोलता है, उसके
सब शब्द क्लोज्ड
होते हैं; उसका
कोई शब्द आगे
के लिए इशारा
नहीं देता। उसका
शब्द चारों
तरफ सीमा खींच
देता है, और
कहता है, यह
रहा सत्य!
जानकारी, तथाकथित
ज्ञान कहता है,
यह रहा
सत्य!
वास्तविक ज्ञान
इशारे करता
है। और ऐसे
इशारे करता है
जो फिक्स्ड
नहीं हैं, गतिमान
हैं।
इशारे
भी दो तरह के
हो सकते हैं।
एक इशारा जो कि
थिर होता है, फिक्स्ड होता है।
अगर कोई चांद
को बताए फिक्स्ड
इशारे से, तो
थोड़ी देर में
चांद तो हट
चुका होगा, इशारा वहीं
रह जाएगा। अगर
किसी को सच
में ही चांद
को बताए रखना
है, तो
अंगुली को
बदलते जाना
पड़ेगा, इशारे
को जीवंत होना
पड़ेगा, और
चांद के साथ
उठना पड़ेगा।
लाओत्से
जैसे लोग सत्य
को कोई मृत
इकाई नहीं मानते, कोई
डेड यूनिट
नहीं मानते।
डायनैमिक, लिविंग
फोर्स मानते
हैं। एक जीवंत
प्रवाह है। तो
उनके सब इशारे
जीवंत हैं।
उनका हाथ उठता
ही चला जाता
है।
कितना!
इस कितने में
कहीं सीमा
नहीं बनती; यह
कितना सब
इतनों के पार
चला जाता है।
और एक डेप्थ
और एक इशारा
जो सदा
ट्रांसेंड
करता है शब्द
को। महावीर जब
कहते हैं
अनंत-अनंत, तब भी उस
शब्द में इतना
ट्रांसेंडेंस
नहीं है, जितना
लाओत्से कहता
है, कितना! ट्रांसेंडेंस
और भी ज्यादा
है, अतिक्रमण
और भी ज्यादा
है। क्योंकि
महावीर अनंत
शब्द को फिर
से दोहरा देते
हैं:
अनंत-अनंत! लेकिन
शब्द फिर फिक्स्ड
सा हो जाता
है। शब्द की
ध्वनि भी फिक्स्ड
हो जाती है; एक सीमा बन
जाती है। ऐसा
लगता है कि
शब्द की सीमा
है, परिभाषा
है; समझ
पाएंगे।
लेकिन जब कोई
कहता है, कितना
अथाह! तो वह
कितना जो है, उसकी कोई
सीमा नहीं
बनती।
लाओत्से
कहता है, "कितना
गंभीर, कितना
अथाह, मानो
यह सभी
पदार्थों का
उदगम हो।'
वह भी
कहता है मानो, एज
इफ। सत्य
को जिन्हें
बोलना है, उन्हें
एक-एक पांव
सम्हाल कर
रखना होता है।
वह यह नहीं
कहता कि सभी
पदार्थों की
जननी है।
वाहिंगर ने
एक किताब लिखी
है: दि फिलासफी
ऑफ एज इफ।
अदभुत किताब
है। पश्चिम ने
पिछले सौ
वर्षों में जो
दस-पांच कीमती
किताबें पैदा
कीं,
उसमें वाहिंगर
की किताब है, दि फिलासफी
ऑफ एज इफ।
वह कहता है कि
जगत में
जिन्होंने भी
कहा, सत्य
ऐसा है, उन्होंने
गलत कहा।
क्योंकि आदमी
इतना ही कह सकता
है, एज इफ।
इससे ज्यादा
आदमी कहे, तो
सीमाओं के पार
जाता है। वह
आदमी की
अस्मिता है और
अहंकार है।
तो वाहिंगर
नहीं कहता कि
गॉड क्रिएटेड
दि वर्ल्ड; वह
कहता है, एज
इफ गॉड क्रिएटेड
दि वर्ल्ड।
यानी दुनिया
इतनी खूबसूरत
है कि मानो
ईश्वर ने बनाई
हो। क्योंकि
कौन और बनाएगा?
वाहिंगर यह नहीं
कहता कि ईश्वर
ने बनाई यह
दुनिया, मैं
सिद्ध कर
दूंगा।
क्योंकि वाहिंगर
कहता है कि यह
मैं सिद्ध
करूंगा, जो
इस दुनिया का
एक हिस्सा
हूं! तो फिर
कोई असिद्ध भी
कर देगा। और अगर
मैं हकदार हूं
सिद्ध करने का,
तो कोई
हकदार है
असिद्ध करने
का। अगर इस
जगत का एक
हिस्सा कह
सकता है ईश्वर
है और प्रमाण
जुटा सकता है,
तो दूसरा
हिस्सा कह
सकता है कि
नहीं है और
प्रमाण जुटा
सकता है। और
जब कोई कहता है
नहीं है, तो
हमें यह नहीं
कहना चाहिए कि
वह सीमा के
बाहर जा रहा
है; क्योंकि
है वाले ने
यात्रा शुरू
करवा दी, वह
सीमा के बाहर
चला गया।
इस जगत
में पहले सीमा
के बाहर
आस्तिक चले
गए। उन्होंने
जो वक्तव्य
दिए,
वे मनुष्य
की सीमा के
बाहर हैं।
नास्तिकों ने तो
सिर्फ उनका
अनुगमन किया।
एक आदमी कहता
है, मैं
सिद्ध करता
हूं कि ईश्वर
है। यह बाहर
हो गई बात।
ईश्वर को भी
तुम्हारे
सिद्ध करने की
जरूरत पड़ती है?
वाहिंगर
कहता है कि
नहीं, इतना ही
कह सकता हूं
मैं, जितना
सोचता हूं, जितना खोजता
हूं, तो
पाता हूं, एज
इफ गॉड क्रिएटेड
दि वर्ल्ड।
मानो कि...। कोई
गणित का सत्य
नहीं है यह; वह कहता है, यह मेरे
हृदय का भाव
है, ऐसा
मुझे लगता है
कि मानो। एक
छोटे से फूल
को भी देखता
हूं, तो वह
कहता है, मुझे
ऐसा लगता है
कि मानो किसी
ईश्वर ने इसे
निर्मित किया
होगा। मेरा मन
नहीं होता
मानने का कि
यह यों ही
पत्थर के बीच
जमीन से फूट
आया है। इसलिए
मैं कहता हूं,
एज इफ।
लाओत्से
कहता है, मानो
वह जो अथाह, गंभीर, कितना
अथाह, कितना
गंभीर वह जो
शून्य है, वह
जो घड़ा है
रिक्त, उससे
ही सब
पदार्थों का
जन्म हुआ हो।
यह एज इफ, यह
मानो जोड़ देना
बड़ा मूल्यवान
है। यह लाओत्से
की बहुत
सेंसिटिविटी
का, बहुत
संवेदनशील
चित्त का
लक्षण है।
यानी वक्तव्य
इतना
संवेदनशील है,
यों ही नहीं
बोल दिया गया
है। किसी
विवाद की गर्मी
में नहीं कहा
गया है, कुछ
सिद्ध करने की
चेष्टा में
नहीं कहा गया
है, किसी
को कनविंस
करने के लिए
नहीं कहा गया
है। उदगार है,
ऐसा लगा है।
ऐसा अनुभव हुआ
है, ऐसी
प्रतीति बनी
है, ऐसा
अहसास है।
इसलिए
लाओत्से ने
कहीं कहा है...।
उसके शिष्यों
ने बहुत से
वक्तव्य
लाओत्से के
इकट्ठे किए हैं।
च्वांगत्से
कहता है, लाओत्से
ने कहीं कहा
है कि जितना
बड़ा ज्ञानी, उतना ही
ज्यादा
झिझकता है।
अज्ञानी बिना
झिझके
वक्तव्य दे
देते हैं--बड़े
वक्तव्य, जो
हमारे ओंठों
पर शोभा भी न
दें--कि जगत को
परमात्मा ने
बनाया। यह
वक्तव्य
परमात्मा से
बड़ा कर देता
है वक्तव्य
देने वाले को।
कि यह कृत्य
पाप है। कौन
सा कृत्य पाप
है, कौन सा
कृत्य पुण्य
है, बड़ा
अनिर्णीत है।
और जो जानता
है, वह हेजिटेट
करेगा, वह झिझकेगा, वह वक्तव्य
देने से
बचेगा।
जीसस
ने कहा है, जज
यी नॉट, तुम तो
निर्णय ही मत
करो। जज यी
नॉट दैट यी
शुड नॉट
बी जज्ड, तुम निर्णय
ही मत लो, नहीं
तुम्हारा
निर्णय होगा
फिर। किसी दिन
तुम झंझट में
पड़ोगे।
तुम
निर्णय ही मत
लो। क्योंकि
चीजें बहुत
जटिल हैं और
बहुत रहस्यपूर्ण
हैं। क्या है
पाप?
क्या है
पुण्य? यहां
पुण्य पाप बन
जाता है; यहां
पाप पुण्य बन
जाते हैं।
यहां जो पाप
की तरह शुरू
होता है, उसमें
पुण्य के फूल
खिल जाते हैं।
यहां जो पुण्य
की तरह यात्रा
शुरू करता है,
पाप की
मंजिल पर
पहुंच जाता
है। यहां जो
अभी उजाला है,
थोड़ी देर
में अंधेरा हो
जाता है। अभी
जो अंधेरा था,
वह थोड़ी देर
में उजाला हो
जाता है। अभी
सुबह थी, सांझ
हो गई। अभी जो
सुंदर था, वह
कुरूप हो गया
है। क्या है
सुंदर?
नसरुद्दीन से
उसकी पत्नी
पूछ रही है एक
दिन कि इधर
कुछ दिनों से
मुझे शक होता
है कि तुमने
मुझ पर प्रेम कम
कर दिया है।
क्या मैं
तुमसे पूछ
सकती हूं कि
जब मैं बूढ़ी
हो जाऊंगी, तब
भी तुम मुझे
प्रेम करोगे?
नसरुद्दीन ने कहा कि पूजूंगा, तेरे चरणों
की धूल सिर पर
लगाऊंगा।
लेकिन ठहर, तू अपनी मां
जैसी तो न हो
जाएगी? अगर
तेरी मां जैसी
हो जाए, तो
हाथ जोड़ लूं।
तू ऐसी ही तो
रहेगी न!
किसको
सौंदर्य
कहेंगे हम? किसको
जवानी? जवानी
का हर कदम
बुढ़ापे में
पड़ता चला जाता
है। किसको
सौंदर्य कहते
हैं? हर
सौंदर्य की
लहर थोड़ी ही
देर में कुरूप
हो जाती है।
यहां चीजें
रहस्यपूर्ण
हैं, संयुक्त
हैं, विभाजित
नहीं हैं। जगत
ऐसा नहीं है
कि हम कह सकें,
यह अंधेरा
है और यह
उजाला है; जगत
ऐसा है कि सब
धुंधलका है, सांझ है। न
कह सकते उजाला
है; न कह
सकते अंधेरा
है।
लाओत्से
कहता है, झिझकते
हैं वे, जो
ज्ञानी हैं।
और लाओत्से के
सभी वक्तव्य
झिझक से भरे
हुए हैं, बहुत
हेजिटेटिंग
हैं। अज्ञानी पढ़ेगा, तो
उसको लगेगा, शायद पता
नहीं होगा
लाओत्से को।
नहीं तो ऐसा क्यों
कहना कि मानो
कि। अगर मालूम
है, तो कहो;
नहीं मालूम
है, तो
कहो। साफ बात
करो। नहीं
मालूम, तो
कह दो कि हमें
पता नहीं कि
जगत कहां से
पैदा हुआ; मालूम
है, तो कहो
कि इससे पैदा
हुआ। ऐसा
क्यों कहते हो,
मानो कि!
इससे
तुम्हारे
अज्ञान का पता
चलता है।
असल
में,
अज्ञानी
चीजों के
रहस्य को कभी
नहीं देख पाते।
फिक्स्ड
कंसेप्ट में
आसानी पड़ती
है। कह दिया
कि यह आदमी
पापी है, बात
खतम हो गई।
लेकिन पापी
पुण्य कर सकते
हैं। कह दिया,
यह आदमी पुण्यात्मा
है, बात
खतम हो गई।
लेकिन
पुण्यात्मा
पाप कर सकता है।
तो क्या मतलब
तुम्हारे
कहने से हुआ? अगर
पुण्यात्मा
पाप कर सकता
है और अगर
पापी पुण्य कर
सकता है, तो
तुम्हारे
लेबल लगाने
खतरनाक हैं।
क्यों लगाए? कोई मतलब न
था उनका।
पर
हमें सुविधा
हो जाती है, हम
निश्चिंत हो
जाते हैं। कैटेगराइज
कर लेते हैं; एक-एक खाने
में रख दिया
आदमियों को
उठा कर, निश्चिंत
हो गए!
हालांकि
हमारी वजह से
कुछ रुकता
नहीं; हमारी
वजह से कुछ
फर्क नहीं
पड़ता; जिंदगी
गतिमान रहती
है।
लाओत्से
बहुत हेजिटेटिंग
है। और जगत
में बहुत थोड़े
से लोग हुए हैं, जो
लाओत्से जैसे हेजिटेटिंग
हैं।
हिंदुस्तान
में सिर्फ
बुद्ध के पास
इतना हेजिटेशन
है। लेकिन वह
भी इतना नहीं।
क्यों? क्योंकि
मैंने कल आपसे
कहा कि बुद्ध
ने कह दिया, इन सवालों
के मैं जवाब न
दूंगा। यह भी
काफी सुनिश्चित
बात हो गई। एक
सुनिश्चित
बात तो यह है
कि ये जवाब
हैं; एक
सुनिश्चित
बात यह हो गई
कि इनके जवाब
ही नहीं हैं।
बट दि आंसर इज़
डेफिनिट,
इनके जवाब
नहीं हैं। कोई
अनिश्चय नहीं
है मामले में।
लाओत्से
कहता है, मानो
कि। हाइपोथेटिकल
है, कल्पना
करो कि, दौड़ाओ अपनी भावना
को, शायद
तुम्हें खयाल
में आ जाए, जैसे
इसी शून्य से
सब पैदा हुआ
है।
हुआ है, इसी
शून्य से पैदा
हुआ है; लेकिन
इसे
सुनिश्चित
रूप से कह
देना कि इसी
शून्य से पैदा
हुआ है, अतिक्रमण
है, ट्रेसपासिंग है।
क्योंकि तब
शून्य इतना
छोटा हो गया
कि हमने उसको
सामने रख कर
देख लिया कि
इसी से सब पैदा
हुआ है। शून्य
बहुत छोटा हो
गया, विराट
न रहा। अथाह न
रहा, गहरा
न रहा, असीम
न रहा, बहुत
छोटा हो गया।
हमने अपने
सामने रख लिया
अपनी
प्रयोगशाला
की टेबल पर, और कहा कि
इसी से सब
पैदा हुआ है।
यह रहा शून्य,
इससे सब
पैदा हुआ है। मिस्ट्री
न रही, रहस्य
न रहा बात
में।
लाओत्से
कहता है, मानो
कि जैसे यही
हो जननी!
लाओत्से
से लोग अगर
पूछें कि
ईश्वर है? तो
लाओत्से नहीं
कोई हां-न में
जवाब देता।
लाओत्से जैसे
लोग ईश्वर की
इतनी सन्निधि
में जीते हैं
कि हां-न में
जवाब नहीं दे
सकते हैं।
नसरुद्दीन पर
एक मुकदमा चला
है एक अदालत
में। और
मजिस्ट्रेट
ने कहा है कि नसरुद्दीन, तुम
लफ्फाज
हो, तुम
शब्दों को ऐसे
टर्न देते हो
कि हमें बड़ी कठिनाई
होती है। तुम
हां और न में
जवाब दो। नहीं
तो यह मुकदमा
कभी खतम न
होगा। तुम ऐसी
गोल-मोल बातें
कर देते हो कि
हम उसमें
घूमते हैं और
कहीं पहुंचते
नहीं। तुम हां
और न में जवाब
दो, तो ही
हल हो सकता
है।
नसरुद्दीन ने
कहा कि लेकिन
जो भी बातें
जवाब देने
योग्य हैं, वे
हां और न में
नहीं दी जा
सकती हैं। और
जो बातें जवाब
देने योग्य
नहीं हैं, वे
हां और न में
दी जा सकती
हैं। फिर
तुमने मुझे
कसम खिलाई
सत्य बोलने की,
वह वापस ले
लो! फिर मैं
हां और न में
जवाब दे
दूंगा। तुमने
मुझे कसम
दिलाई सत्य
बोलने की, आई
एम ऑन ओथ! और
सत्य ऐसा नहीं
है कि हां और न
में जवाब दिया
जा सके।
मजिस्ट्रेट
ने कहा, अच्छा
तो तुम कोई एक
ऐसा उदाहरण दो,
जिसका जवाब
हां और न में न
दिया जा सके।
नसरुद्दीन ने
कहा कि मैं
पूछता हूं
महानुभाव, आपने
अपनी पत्नी को
पीटना बंद कर
दिया? हैव
यू स्टॉप्ड
बीटिंग योर
वाइफ? आप
हां और न में
जवाब दे दें।
मजिस्ट्रेट
थोड़ी दिक्कत
में पड़ा। अगर
वह कहे हां, तो
उसका मतलब वह
पीटता था पहले;
अगर वह कहे
न, तो उसका
मतलब वह अभी
पीट रहा है।
नसरुद्दीन ने
कहा,
कहिए, क्या
खयाल है? मेरी
ओथ हटा लें, सच बोलने की
झंझट मुझ पर न
हो, तो मैं
हां और न में
जवाब दे सकता
हूं। लेकिन बहुत
चीजें हैं, नसरुद्दीन ने कहा, जिनका
हां और न में
कोई जवाब नहीं
हो सकता है।
और
ईश्वर जहां
आता है, वहां
तो हां और न
बिलकुल बेकार
हो जाते हैं।
वहां नास्तिक
भी मूढ़ और
आस्तिक भी मूढ़
हो जाते हैं।
वहां हां और न
में जवाब देने
वाले निपट मूढ़
हैं। वहां
चीजें बहुत
तरल हो जाती
हैं, और
एक-दूसरे में
प्रवेश कर
जाती हैं।
इसलिए
लाओत्से
बहुत-बहुत
झिझकता हुआ
कहता है, मानो
कि इसी शून्य
से सब पैदा
हुआ हो।
शेष
कल। दो सूत्र
बचे हैं, तो
दो दिन में
सूत्र हो
जाएंगे; और
तीसरा दिन एक
और हमारे पास
बचेगा, तो
जो भी आपके
सवाल इस बीच
हुए हों, वे
तीसरे दिन।
तो
अपने-अपने सब
सवाल तैयार कर
लें, जिसको
भी पूछना हो।
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