दिनांक
22 अगस्त,1971;
प्रथम
पर्युषण
व्याख्यानमाला
,
पाटकर
हाल,
बम्बई
धम्म-सूत्र
: १ (अहिंसा)
धम्मो
मंगलमुक्किट्ठं,
अहिंसा
संजमो तवो।
देवा
वि तं
नमंसन्ति,
जस्स
धम्मे सया मणो
।।
धर्म
सर्वश्रेष्ठ
मंगल है। (कौन-सा
धर्म?) अहिंसा,
संयम और
तपरूप धर्म।
जिस मनुष्य का
मन उक्त धर्म
में सदा
संलग्न रहता
है, उसे
देवता भी
नमस्कार करते
हैं।
धर्म
मंगल है।
कौन-सा धर्म? अहिंसा,
संयम और तप।
अहिंसा धर्म
की आत्मा है।
कल अहिंसा पर
थोड़ी बातें
मैंने आपसे
कहीं, थोड़े
और आयामों से
अहिंसा को समझ
लेना जरूरी
है।
हिंसा
पैदा ही क्यों
होती है? हिंसा
जन्म के साथ
ही क्यों जुड़ी
है? हिंसा
जीवन की
पर्त-पर्त पर
क्यों फैली है?
जिसे हम
जीवन कहते हैं,
वह हिंसा का
ही तो विस्तार
है।ऐसा क्यों
है?
पहली
बात,
और अत्यधिक
आधारभूत-- वह
है जीवेषणा।
जीने की जो
आकांक्षा है,
उससे ही
हिंसा जन्मती
है। और जीने
को हम सब आतुर
हैं। अकारण भी
जीने को आतुर
हैं। जीवन से
कुछ फलित भी न
होता हो, तो
भी जीना चाहते
हैं। जीवन से
कुछ न भी
मिलता हो, तो
भी जीवन को
खींचना चाहते
हैं। सिर्फ
राख ही हा थ
लगे जीवन में
तो भी हम जीवन
को दोहराना
चाहते हैं।
विन्सेंट
वानगाग के
जीवन पर एक
बहुत अदभुत किताब
लिखी गयी है।
और किताब का
नाम है-- लस्ट
फार लाइफ, जीवेषणा।
अगर महावीर के
जीवन पर कोई
किताब लिखनी
हो तो लिखना
पड़ेगा, "नो
लस्ट फार लाइफ'। जीवेषणा
नहीं। जीने का
एक पागल, अत्यंत
विक्षिप्त
भाव है हमारे
मन में। मरने
के आखिरी क्षण
तक भी हम जीना
ही चाहते हैं।
और यह जो जीने
की कोशिश है, यह जितनी
विक्षिप्त
होती है उतना
ही हम दूसरे के
जीवन के मूल्य
पर भी जीना
चाहते हैं।
अगर ऐसा
विकल्प आ जाए
कि सारे जगत
को मिटाकर भी,
मुझे बचने
की सुविधा हो
तो मैं राजी
हो जाऊंगा।
सबको विनाश कर
दूं, फिर
भी मैं बच
सकता होऊं तो
मैं सबके
विनाश के लिए
तैयार हो
जाऊंगा।
जीवेषणा की इस
वि िक्षप्तता
से ही हिंसा
के सब रूप
जन्मते हैं।
मरने की आखिरी
घड़ी तक भी
आदमी जीवन को
जोर से पकड़े रहना
चाहता है।
बिना यह पूछे
हुए कि किसलिए?
जीकर भी क्या
होगा? जीकर
भी क्या
मिलेगा?
मुल्ला
नसरुद्दीन को
फांसी की सजा
हो गयी थी। जब
उसे फांसी के
तख्ते के पास
ले जाया गया
तो उसने तख्ते
पर चढ़ने से
इनकार कर
दिया। सिपाही
बहुत चकित
हुए।
उन्होंने कहा
कि क्या बात
है?
उसने
कहा कि
सीढ़ियां बहुत
कमजोर मालूम
पड़ती हैं। अगर
गिर जाऊं तो
तुम्हारे
हाथ-पैर
टूटेंगे कि
मेरे! फांसी
के तख्ते पर
चढ़ना है।
सीढ़ियां
कमजोर हैं, मैं
इन सीढ़ियों पर
नहीं चढ़ सकता।
नयी सीढ़ियां लाओ।
उन
सिपाहियों ने
कहा-- पागल हो
गये हो!
मरनेवाले
आदमी को क्या
प्रयोजन है?
नसरुद्दीन
ने कहा-- अगले
क्षण का क्या
भरोसा! शायद
बच जाऊं, तो
लंगड़ा होकर
मैं नहीं बचना
चाहता हूं। और
एक बात पक्की
है कि जब तक
मैं मर ही
नहीं गया हूं,
तब तक मैं
जीने की कोशिश
करूंगा।
सीढ़ियां नयी चाहिये।
नयी
सीढ़ियां
लगायी गयीं, तब
वह चढ़ा। फिर
भी बहुत
संभलकर चढ़ा।
जब उसके गले
में फंदा लगा
ही दिया गया, और मजिसटरेट
ने कहा--
नसरुद्दीन, तुझे कोई
आखिरी बात तो
नहीं कहनी है?
नसरुद्दीन
ने कहा, "यस, आई हेव टु से
समथिंग। दिस
इज गोइंग टु
बी ए लेसन टु
मी। यह जो
फांसी लगायी
जा रही है, यह
मेरे लिए एक
शिक्षा सिद्ध
होगी।'
मजि*सटरेट
समझा नहीं।
उसने कहा कि
अब शिक्षा से
भी क्या फायदा
होगा ?
नसरुद्दीन
ने कहा कि अगर
दोबारा जीवन
मिला तो जिस
वजह से फांसी
लग रही है, वह
काम मैं जरा
संभलकर
करूंगा। दिस
इज गोइंग टु
बी ए लेसन टु
मी। गले में
फंदा लगा हो
तो भी आदमी
दूसरे जीवन के
बाबत सोच रहा
होता है।
दूसरा जीवन
मिले तो इस
बार जिस भूल चूक
से पकड़े गये
हैं और फांसी
लग रही है वह
भूल चूक नहीं
करनी है-- ऐसा
नहीं-- संभलकर
करनी है। तोदिस
इज गोइंग टु
बी ए लेसन टु
मी।
ऐसा ही
हमारा मन है।
किसी भी कीमत
पर जीना है। महावीर
यही पूछते हैं
कि जीना क्यों
है?
बड़ा गहन
सवाल उठाते
हैं। शायद
जिन्होंने
पूछा है, जगत
क्यों है? जिन्होंने
पूछा है, सृष्टि
किसने रची है?
जिन्होंने
पूछा है, मोक्ष
कहां है? ये
सवाल इतने
गहरे नहीं
हैं। ये सवाल
बहुत ऊपरी
हैं। महावीर
पूछते हैं, जीना ही
क्यों हैं? व्हाय दिस
लस्ट फार लाइफ?
और इसी
प्रश्न से
महावीर का
सारा चिंतन और
सारी साधना निकलती
है।
तो
महावीर कहते
हैं,
यह जीने की
बात ही पागलपन
है। यह जीने
की आकांक्षा
ही पागलपन है।
और इस जीने की
आकांक्षा से
जीवन बचता हो,
ऐसा नहीं है;
केवल
दूसरों के
जीवन को नष्ट
करने की दौड़
पैदा होती है।
बच जाता तो भी
ठीक था। बचता
भी नहीं है।
कितना ही चाहो
कि जीऊं, मौत
खड़ी है और आ
जाती है।
कितने लोग इस
जमीन पर हमसे
पहले जीने की
कोशिश कर चुके
हैं। आखिर अंततः
मौत ही हाथ
लगती है। तो
महावीर कहते
हैं, जीवन
का इतना
पागलपन कि हम
दूसरे को
विनष्ट करने
को तैयार हैं
और अंत में
मौत ही हाथ
लगती है।
महावीर कहते
हैं-- ऐसे जीवन
के पागलपन को
मैं छोड़ता हूं
जिससे दूसरों
के जीवन को
नष्ट करने के
लिए मैं तैयार
होता और अपने
को बचा भी
नहीं पाता। जो
व्यक्ति
जीवेषणा छोड़
देता है वही
अहिंसक हो
सकता है।
क्योंकि जब
मुझे कोई
आग्रह ही नहीं
है कि जीऊं ही,
तब मैं किसी
का विनाश करने
के लिए तैयार
नहीं हो सकता।
इसलिए महावीर
की अहिंसा के
प्राण में
प्रवेश करना
हो, तो वह
प्राण है--
जीवेषणा का
त्याग। इसका
यह अर्थ नहीं
है कि महावीर
मरने की
आकांक्षा
रखते हैं। यह
भ्रांति हो
सकती है।
फ्रायड
ने इस सदी में
मनुष्य के
भीतर दो आकांक्षाओं
को पकड़ा है।
एक तो जीवेषणा
और एक
मृत्यु-एषणा।
एक को वह कहता
है,
इरोज, जीवन
की इच्छा। और
एक को कहता है,
थानाटोस, मृत्यु की
इच्छा। वह
कहता है कि जब
जीवन की इच्छा
रुग्ण हो जाती
है तो मृत्यु
की इच्छा में बदल
जाती है। यह
बात ठीक है।
लोग
आत्महत्याएं भी
तो करते हैं।
तो क्या
महावीर राजी होंगे?
आत्महत्या
करने वाले को
कहेंगे कि ठीक
है तू! अगर
जीवेषणा गलत
है तो फिर
मृत्यु की
आकांक्षा और
मृत्यु को
लाने की कोशिश
ठीक होनी
चाहिए? फ्रायड
कहता है-- जिन
लोगों की
जीवेषणा
रुग्ण हो जा
ती है वे फिर
मृत्यु-एषणा
से भर जाते
हैं। फिर वे
अपने को मारने
में लग जाते
हैं। आदमी
आत्महत्या
करता हुआ
दिखाई तो पड़ता
है। लेकिन
फ्रायड को
उतनी गहरी समझ
नहीं है जितनी
महावीर को है।
महावीर कहते
हैं-- आत्महत्या
करनेवाला भी
जीवेषणा से ही
पीड़ित है।
इसे
थोड़ा समझना
पड़ेगा।
कभी
आपने किसी
आदमी को इस
भांति
आत्महत्या करते
देखा है, जिसकी
जीवेषणा नष्ट
हो गयी हो? नहीं।
मैं चाहता हूं
एक स्त्री
मुझे मिले और
नहीं मिलती तो
मैं
आत्महत्या के
लिए तैयार हो
जाता हूं। अगर
वह मुझे मिल
जाए तो मैं
आत्महत्या के
लिए तैयार
नहीं हूं। मैं
चाहता हूं कि
एक बहुत बड़ी
प्रतिष्ठा और
यश और इज्जत
के साथ जीऊं।
मेरी इज्जत खो
जाती है, मेरी
प्रतिष्ठा
गिर जा ती है--
मैं
आत्महत्या करने
को तत्पर हो
जाता हूं।
मुझे वह
प्रतिष्ठा
वापस लौटती हो,
मुझे वह
इज्जत फिर
वापस मिलती हो
तो मैं आखिरी
किनारे से मौत
के वापस लौट आ
सकता हूं। धन
खो जाता है
किसी का, पद
खो जाता है
किसी का तो वह मरने
को तैयार है।
इसका अर्थ
क्या है?
महावीर
कहते हैं-- यह
मृत्यु-एषणा
नहीं है। यह केवल
जीवन का इतना
प्रबल आग्रह
है कि मैं
कहता हूं-- मैं
इस ढंग से ही
जीऊंगा। अगर
यह ढंग मुझे नहीं
मिलता तो मर
जाऊंगा। इसे
थोड़ा ठीक से
समझें। मैं
कहता हूं, मैं
इस स्त्री के
साथ ही
जीऊंगा। यह
जीने की
आकांक्षा
इतनी आग्रहपूर्ण
है कि इस
स्त्री के
बिना मैं नही
जीऊंगा। मैं
इस धन, मैं
इस भवन, मैं
इस पद के साथ
ही जीऊंगा।
अगर यह पद और
धन नहीं है तो
मैं नहीं
जीऊंगा। यह
जीने की
आकांक्षा ने
एक विशिष्ट
आग्रह पकड़
लिया है। वह
आग्रह इतना
गहरा है कि वह
अपने से
विपरीत भी जा
सकता है। वह
आग्रह इतना
गहरा है कि
अपने से
विपरीत भी जा
सकता है। वह
मरने तक को
तैयार हो सकता
है, लेकिन
गहरे में जीवन
की ही
आकांक्षा है।
इसलिए
महावीर इस जगत
में अकेले
चिंतक हैं, जिन्होंने
कहा कि मैं
तुम्हें मरने
की आज्ञा भी
दूंगा, अगर
तुममें
जीवेषणा
बिलकुल न हो।
सिर्फ अकेले
विचारक हैं
सारी पृथ्वी
पर और सिर्फ
अकेले धार्मिक
चिंतक हैं
जिन्होंने
कहा कि मैं
तुम्हें मरने
की भी आज्ञा
दूंगा, अगर
तुममें जीवन
की आकांक्षा
बिलकुल न हो।
लेकिन जिसमें
जीवन की
आकांक्षा
नहीं है वह
मरना क्यों
चाहेगा। मरने
की चाह के
पीछे जीवन की
आकांक्षा ही होती
है। उलटे
लक्षणों से
बीमारियां
नहीं बदल जाती
हैं, जरूरी
नहीं है।
आज से
सौ साल पहले
चिकित्सा
शास्त्रों
में ऐलोपेथी
की एक बीमारी
का नाम था, वह
सौ साल में खो
गया है। उसका
नाम था
ड्राप्सी। अब
उस बीमारी का
नाम मेडिकल
किताबों में
नहीं है।
हालांकि उस
बीमारी के
मरीज अब भी
अस्पतालों
में हैं, वे
नहीं खो गये।
मरीज तो हैं, लेकिन वह
बीमारी खो गयी
है। वह बीमारी
इसलिए खो गयी
कि पाया गया
कि वह बीमारी
एक नहीं है, वह सिर्फ
सिम्प्टोमैटिक
है। ड्राप्सी
उस बीमारी को
कहते थे
जिसमें मनुष्य
के शरीर का
तरल हिस्सा
किसी एक अंग
में इकट्ठा हो
जाता है। जैसे
पैरों में
सारी तरलता
इकट्ठी हो गयी
या पेट में
सारा तरल
द्रव्य इकट्ठा
हो गया। सब
पानी भर गया
है, सब
तरलता पेट में
इकट्ठी हो गयी
है। सारा शरीर
सूखने लगा और
पेट बढ़ने लगा
और सारी तरलता
पेट में आ
गयी। उसको
ड्राप्सी
कहते थे। अगर
अस्पताल में
जाएं और एक
आदमी के दोनों
पैरों में तरल
द्रव्य
इकट्ठा हो गया,
और एक आदमी
के एब्डामन
में सारा तरल
द्रव्य इकट्ठा
हो गया, तो
लक्षण एक है।
सौ साल तक यही
समझा जाता था,
बीमारी एक
है। लेकिन
पीछे पता चला
कि यह तरल द्रव्य
इकट्ठे होने
के अनेक कारण
हैं।
बीमारियां अलग-अलग
हैं। यह हृदय
की खराबी से
भी इकट्ठा हो
सकता है। यह
किडनी की
खराबी से भी
इकट्ठा हो सकता
है। और जब
किडनी की
खराबी से
इकट्ठा होता
है तो बीमारी
दूसरी है और
जब हृदय की
खराबी से इकट्ठा
होता है तो
बीमारी दूसरी
है। इसलिए वह
ड्राप्सी की
बीमारी जो थी,
नाम, वह
समाप्त हो
गया। अब
पच्चीस
बीमारियां
हैं, उनके
अलग-अलग नाम
हैं। यह भी हो
सकता है, लक्षण
बिलकुल एक से
हों और बीमा
री एक हो। और यह
भी हो सकता है
कि बीमारियां
दो हों, और
लक्षण बिलकुल
एक हों।
लक्षणों से
बहुत गहरे
नहीं जाया जा
सकता।
महावीर
ने "संथारा' की
आज्ञा दी।
महावीर ने कहा
है-- किसी
व्यक्ति की
अगर जीवन की
आकांक्षा
शून्य हो गयी
हो तो मैं
कहता हूं, वह
मृत्यु में
प्रवेश कर
सकता है।
लेकिन उन्होंने
कहा है कि वह
भोजन छोड़ दे, पानी छोड़
दे। भोजन और
पानी छोड़कर भी
आदमी नब्बे दिन
तक नहीं मरता--
कम से कम
नब्बे दिन जी
सकता है, साधारण
स्वस्थ आदमी
हो तो। और जिस
व्यक्ति की जीवन
की आकांक्षा
चली गयी हो, वह असाधारण
रूप से स्वस्थ
होता है।
क्योंकि हमारी
सारी
बीमारियां
जीने की
आकांक्षा से
पैदा होती
हैं। तो नब्बे
दिन तक तो वह
मर नहीं सकता।
महावीर ने
कहा-- वह पानी
छोड़ दे, भोजन
छोड़ दे, लेट
जाए, बैठा
रहे।
आत्महत्याएं
जितनी भी की
जाती हैं क्षणों
के आवेश में
की जाती हैं।
क्षण भी खो जाए
तो आत्महत्या
नहीं हो सकती
।
क्षण
का एक आवेश
होता है। उस
आवेश में आदमी
इतना पागल
होता है कि
कूद पड़ता है
नदी में। आग
लगा लेता है।
शायद आग लगाकर
जब शरीर जलता
है तब पछताता
है। लेकिन तब
हाथ के बाहर
हो गयी होती
है बात। जहर
पी लेता है।
अगर जहर फैलने
लगता है, और
तड़फन होती है,
तब पछताता
है। लेकिन तब
शायद हाथ के
बाहर हो गयी
है बात।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर आत्महत्या
करनेवाले को
हम क्षणभर के
लिए भी रोक
सकें तो वह
आत्महत्या
नहीं कर
पाएगा।
क्योंकि उतनी
मैडनेस की जो
तीव्रता है वह
तरल हो जाती
है, विरल
हो जाती है, क्षीण हो
जाती है।
महावीर
कहते हैं कि
मैं आज्ञा
देता हूं
ध्यानपूर्वक
मर जाने की।
तुम भोजन-पानी
सब छोड़ देना
नब्बे दिन।
अगर उस आदमी
में जरा सी भी
जीवेषणा होगी
तो भाग खड़ा
होगा, लौट
आएगा। अगर
जीवेषणा
बिलकुल न होगी
तो ही नब्बे
दिन वह रुक
पाएगा।
नब्बे
दिन लंबा समय
है। मन एक ही
अवस्था में नब्बे
दिन रह जाए, यह
आसान घटना
नहीं है।
नब्बे क्षण
नहीं रह पाता।
सुबह सोचते थे
मर जाएंगे, शाम को
सोचते हैं कि
दूसरे को मार
डालें। मन नब्बे
दिन इसलिए
फ्रायड को
मानने वाले
मनोवैज्ञानिक
कहेंगे कि
महावीर में
कहीं न कहीं
सुसाइडल तत्व
है, कहीं न
कहीं आत्म हत्यावादी
तत्व है।
लेकिन मैं
आपसे कहता
हूं-- नहीं है।
असल में जिस
व्यक्ति में
जीवेषणा ही
नहीं है उसके
मरने की एषणा
भी नहीं होती
। मृत्यु की एषणा
जीवेषणा का
दूसरा पहलू
है-- विरुद्ध
नहीं है, उसी
का अंग है विरुद्ध
नहीं है, उसी
का अंग है।
इसलिए महावीर
ने कोई मृत्यु
की चेष्टा
नहीं की।
जिसकी जीवन की
चेष्टा ही न रही
हो, उसकी
मृत्यु की
चेष्टा भी
नहीं रह जाती।
महावीर कहते
हैं कि एक
हिस्से को हम
फेंक दें, दूसरा
हिस्सा उसके
साथ ही चला
जाता है।
संथारा का
महावीर का
अर्थ है--
आत्महत्या
नहीं, जीवेषणा
का इतना खो
जाना कि पता
ही न चले और व्यक्ति
शून्य में लीन
हो जाए।
आत्महत्या की
इच्छा नहीं, क्योंकि
जहां तक इच्छा
है, वहां
तक जीवन की ही
इच्छा होगी।
इसे
ठीक से समझ
लें। डिजायर
इज आलवेज
डिजायर फार द
लाइफ-- आलवेज।
मृत्यु की कोई
इच्छा ही नहीं
होती। मृत्यु
की इच्छा में
ही जीवन की
इच्छा भी छिपी
होती है, जीवन
का कोई आग्रह
छिपा होता है।
तो महावीर कोई
आत्मघाती
नहीं हैं।
उतना बड़ा आत्मज्ञानी
नहीं हुआ, आत्मघाती
होने का सवाल
नहीं है।
लेकिन
यह बात जरूर
सच है कि
महावीर के
विचार में
बहुत से
आत्मघाती
उत्सुक हुए, बहुत
से आत्मघाती
महावीर से
आकर्षित हुए।
और उन
आत्मघातियों
ने महावीर के
पीछे एक परंपरा
खड़ी की जिससे
महावीर का कोई
भी संबंध नहीं
है। ऐसे लोग
जरूर उत्सुक
हुए महावीर के
पीछे जिनको
लगा कि ठीक है,
मरने की
इतनी सुगमता
और कहां
मिलेगी। और
मरने का इतना
सहयोग और कहां
मिलेगा। और
मरने की इतनी
सुविधा और
कहां मिलेगी।
इसलिए महा वीर
के पीछे ऐसे
लोग जरूर आये
जिनका चित्त
रुग्ण था, जो
मरना चाहते
थे। जीवन की
आकांक्षा के
त्याग से वे
महावीर के करीब
नहीं आये, मरने
की आकांक्षा
के कारण वे
महावीर के
करीब आ गये।
लक्षण बिलकुल
एक से हैं, लेकिन
भीतर व्यक्ति
बिलकुल अलग
थे। और जो मरने
की इच्छा से
आये, वे
महावीर की
परंपरा में
बहुत अग्रणी
हो गये। स्वभावतः
जो मरने को तैयार
है उसको नेता
होने में कोई
असुविधा नहीं
होती। और क्या
असुविधा हो
सकती है। जो
मरने को तैयार
है वह पंक्ति
में आगे कभी
भी खड़ा हो सकता
है, किसी
भी पंक्ति
में। और जो
अपने को सताने
को तैयार है
वह लगा कि बड़ा
त्यागी है।
ध्यान
रहे,
इससे
महावीर के
विचार को आज की
दुनिया में
पहुंचने में
बड़ी कठिनाई हो
रही है।
क्योंकि
महावीर का
विचार मा लूम
होता है, मैसोचिस्ट
है, अपने
को सतानेवाला
है, पीड़क--
आत्मपीड़क है।
लेकिन महावीर
की देह को देखकर
ऐसा नहीं लगता
कि इस आदमी ने
अपने को सताया
होगा। महावीर
की
प्रफुल्लता
देखकर ऐसा नहीं
लगता कि इस
आदमी ने अपने
को सताया
होगा। महावीर
का खिला हुआ
कमल देखकर ऐसा
नहीं लगता कि
इस आदमी ने
अपनी जड़ों के
साथ ज्यादती
की होगी। मैं
मानता हूं कि
महावीर
रंचमात्र भी
आत्मपीड़क नहीं
हैं। लेकिन
महावीर के
पीछे
आत्मपीड़कों की
परंपरा
इकट्ठी हुई, यह जरूर सच
है। जो अपने
को सता सकते
थे या सताने
के लिए उत्सुक
थे और बहुत
लोग उत्सुक
हैं, ध्यान
रखना आप।
इस जगत
में दो तरह की
हिंसाएं हैं--
दूसरे को सताने
के लिए उत्सुक
लोग और एक और
तरह की हिंसा
है,
अपने को
सताने के लिए
उत्सुक लोग।
अपने को सताने
में भी कुछ
लोगों को इतना
ही मजा आता है
जितना दूसरे
को सताने में।
बल्कि सच पूछा
जाए तो दूसरे
को सताने में
आपको कभी इतना
अधिकार नहीं
होता, इतनी
सुविधा और
स्वतंत्रता
नहीं होती
जितनी अपने को
सताने में
होती है। कोई
विरोध ही करनेवाला
नहीं होता। आप
दूसरे को
कांटे पर
लिटाएं तो वह
अदालत में मुकदमा
चला सकता है।
आप खुद को
कांटों पर
लिटा लें तो
कोई मुकदमा
नहीं चल सकता
है, ना !
सिर्फ सम्मान
मिल सकता है!
आप दूसरों को
भूखा मारें तो
आप झंझट में
पड़ सकते हैं; आप अपने को
भूखा मारें तो
जुलूस निकल
सकता है, शोभायात्रा
निकल सकती है।
लेकिन
ध्यान रखें, सताने
का जो रस है वह
एक ही है। और
महावीर कहते
हैं जो अपने
को सता रहा है,
वह भी दूसरे
को ही सता रहा
है; क्योंकि
वह अपने में
दो हिस्से कर
लेता है। वह
शरीर को सताने
लगता है जो कि
वस्तुतः
दूसरा है। यह
शरीर, जो
मेरे आसपास है,
उतना ही
दूसरा है मेरे
लिये, जितना
आपका शरीर जो
जरा दूर है।
इसमें भेद
नहीं है। यह
शरीर मेरे
निकट है, इसलिए
मैं नहीं हूं।
और आपका शरीर
जरा दूर है तो
तू हो गया! मैं
आ पके शरीर को
कांटे चुभाऊं
तो लोग कहेंगे,
यह आदमी
दुष्ट है। और
मैं अपने शरीर
को कांटे चुभाऊं
तो लोग कहेंगे,
यह आदमी महातयागी
है।
लेकिन
शरीर दोनों ही
स्थिति में
दूसरा है। यह
मेरा शरीर
उतना ही दूसरा
है जितना आपका
शरीर। सिर्फ फर्क
इतना है कि
मेरे शरीर को
सताते वक्त
कोई कानून
बाधा नहीं
बनेगा, कोई
नैतिकता बाधा
नहीं बनेगी।
इसलिए जो होशियार
हैं, कुशल
हैं वे सताने
का मजा अपने
ही शरीर को
सताकर लेते
हैं। लेकिन
सताने का मजा
एक ही है।
क्या है मजा? जिसको हम
सता पाते हैं,
लगता है
उसके हम मालिक
हो गये हैं, उसके हम
स्वामी हो गये
हैं। जिसको हम
सता पाते हैं--
जिसकी हम
गर्दन दबा
पाते हैं, लगता
है हम उसके
स्वामी हो गये
हैं। महावीर
के पीछे
मैसोचिस्ट
इकट्ठे हो गये।
उन्हीं ने
महावीर की
पूरी परंपरा
को विषाक्त
किया, जहर
डाल दिया।
कारण
तो था, क्योंकि
महावीर का
कारण कुछ और
था, लेकिन
इन्हें वह
कारण अपील
किया, जंचा।
कारण यह था कि
महावीर कहते
थे कि जब तक मैं
जीवन के लिए
पागल हूं तब
तक मैं देख न
पाऊंगा
अंधेपन में कि
मैं दूसरे के
जीवन को नष्ट
करने के लिए
भी आतुर हो गया
हूं। और जीवन
के लिए पागल
होना व्यर्थ
है क्योंकि
असंभव है।
जीवन को बचाया
नहीं जा सकता।
जन्म के साथ
ही मृत्यु
प्रवेश कर
जाती है। इसलिए
जो इम्पासिबल
है, उसके
पीछे सिर्फ
पागलपन है-- जो
असंभव है उसके
पीछे सिर्फ पागलपन
खड़ा होता है।
मृत्यु होगी
ही। वह उसी
दिन तय हो गयी,
जिस दिन
जीवन हुआ।
इसलिए महावीर
कहते हैं, जीवन
के लिए इतनी
आकांक्षा ही
हिंसा बन जाती
है। इसे समझना
है। इसे समझते
ही जीवेषणा
शून्य होने
लगती है और जब
जीवेषणा
शून्य होने
लगती है तो
मृत्यु की
इच्छा पैदा नहीं
होती, मृत्यु
का स्वीका र
पैदा होता है।
इनमें भेद है।
मृत्यु
की इच्छा तो
पैदा होती है
जीवेषणा को चोट
लगे तब, और
मृत्यु का
स्वीकार पैदा
होता है जब
जीवेषणा
क्षीण हो तब, शांत हो तब।
महावीर
मृत्यु को
स्वीकार करते
हैं। मृत्यु
को स्वीकार
करना अहिंसा
है। मृत्यु को
अस्वीकार
करना हिंसा
है। और जब मैं
अपनी मृत्यु
को अस्वीकार
करता हूं तो
मैं दूसरे की
मृत्यु को
स्वीकार करता
हूं। और जब
मैं अपनी
मृत्यु को
स्वीकार करता
हूं तो मैं
सबके जीवन को
स्वीकार करता
हूं। यह एक
सीधा गणित है।
जब मैं अपने
जीवन को स्वीकार
करता हूं तो मैं
दूसरे के जीवन
को इनकार करने
के लिए तैयार
हूं। और जब
मैं अपनी
मृत्यु को
परिपूर्ण भा व
से स्वीकार
करता हूं कि
ठीक है, वह
नियति है, तब
मैं किसी के
जीवन को चोट
पहुंचाने के
लिए जरा भी
उत्सुक नहीं
रह जाता। उसके
जीवन को भी चोट
पहुंचाने के
लिए जरा भी
उत्सुक नहीं
रह जाता जो
मेरे जीवन को
चोट पहुंचाए।
क्योंकि मेरे
जीवन को चोट
पहुंचाकर
ज्यादा से ज्यादा
वह क्या कर
सकता है? मृत्यु!
जो कि होने ही
वाली है। वह
सिर्फ निमित्त
बन सकता है।
वह कारण नहीं
है। महावीर
कहते हैं कि
अगर तुम्हारी
कोई हत्या भी
कर जाए तो वह
सिर्फ निमित्त
है, वह
कारण नहीं है।
कारण तो
मृत्यु है, जो जीवन के
भीतर ही छिपी
है। इसलिए उस
पर नाराज होने
की भी कोई
जरूरत नहीं
है। ज्यादा से
ज्यादा
धन्यवाद दिया
जा सकता है।
जो होने ही
वाला था, उसमें
वह सहयोगी हो
गया। वह होने
ही वाला था। एक
बार हमें यह
खयाल में आ
जाए कि जो
होने ही वाला
है, तो हम
फिर किसी पर
नाराज नहीं हो
सकते।
महावीर
कहते हैं, मृत्यु
का अंगीकार।
और बड़े मजे की
बात है, मृत्यु
का अंगीकार
इसलिए नहीं कि
मृत्यु कोई महत्वपूर्ण
चीज है।
मृत्यु का
अंगीकार ही इसलिए
कि मृत्यु
बिलकुल ही
गैर-
महत्वपूर्ण
चीज है। जब जीवन
ही
गैर-महत्वपूर्ण
है तो मृत्यु
महत्वपूर्ण
कैसे हो सकती
है। जब जीवन
तक
गैर-महत्वपूर्ण
है तो मृत्यु
का क्या मूल्य
हो सकता है।
ध्यान रहे, मृत्यु का
उतना ही आपके
मन में मूल्य
होता है जितना
जीवन का मूल्य
होता है। मृत्यु
को जो मूल्य
मिलता है वह
रिफलेक्टेड
वैल्यू है। आप
जीवन को कितना
मूल्य देते
हैं उतना
मृत्यु को
मूल्य देते
हैं।
अगर आप
कहते हैं--
जीना ही है
किसी कीमत पर, तो
आप कहेंगे--
मरना नहीं है
किसी कीमत पर।
यह साथ चलेगा।
आप कहते हैं--
चाहे कुछ भी
हो जाए, मैं
जीऊंगा ही तो
फिर आप यह भी
कह सकते हैं
कि चाहे कुछ
भी हो जाए, मैं
मरूंगा नहीं।
आप जितना जीवन
को मूल्य देते
हैं उतना ही
मूल्य मृत्यु
में स्थापित
हो जाता है।
और ध्यान रहे,
जितना
मूल्य मृत्यु
में स्थापित
हो जाता है, उतना ही आप
मुश्किल में
पड़ जाते हैं।
महावीर कहते
हैं-- जीवन में
कोई मूल्य ही
नहीं है तो
मृत्यु का भी
मूल्य समाप्त
हो जाता है।
और जिसके चित्त
में न जीवन का
मूल्य है, और
न मृत्यु का, क्या वह
आपको मारने
आएगा? क्या
वह आपको सताने
में रस लेगा? क्या वह
आपको समाप्त
करने में
उत्सुक होगा?
हम कितना
मूल्य किसी
चीज को देते
हैं, उस पर
ही निर्भर
करता है सब।
सुना
है मैंने कि
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
अंधेरी रात
में एक गांव
के पा स से
गुजरता है।
चार चोरों ने
उस पर हमला कर
दिया। वह जी
तोड़कर लड़ा, वह
इस बुरी तरह
लड़ा कि अगर वे
चार न होते तो
एकाध की हत्या
हो जाती। वे
चार थोड़ी ही
देर में अपने
को बचाने में
लग गये, आक्रमण
तो भूल गये।
फिर भी चार
थे।
बामुश्किल
घंटों की लड़ाई
के बाद किसी
तरह मुल्ला पर
कब्जा कर
पाये। और जब
उसकी जेब
टटोली तो केवल
एक पैसा मिला।
वे बहुत हैरान
हुए कि मुल्ला
अगर एकाध आना
तुम्हारे
खीसे में रहता
तो हम चारों
की जान की कोई
खैरियत न थी।
एक पैसे के
लिए तुम इतना
लड़े! हद कर दी।
हमने तुम जैसा
आदमी नहीं
देखा। चमत्कार
हो तुम!
मुल्ला
ने कहा कि
उसका कारण है।
पैसे का सवाल नहीं
है। आइ डोंट
वांट टु
एक्सपोज़ माइ
पर्सनल
फाइनैंशियल
पोजिशन टु
क्वाइट स्ट्रेंजर्स।
मैं बिलकुल
अजनबियों के
सामने अपनी माली
हालत प्रगट
नहीं करना चाहता
हूं,
और कोई कारण
नहीं है। जान
लगा देता। यह
सवाल माली
हालत के प्रगट
करने का है, और तुम
अजनबी। सवाल
पैसे का नहीं
है; सवाल
पैसे के मूल्य
का है। एक
पैसा है कि
करोड़, यह
सवाल नहीं है।
अगर पैसे का
मूल्य है तो
एक में भी
मूल्य है और
करोड़ में भी
मूल्य है। और अगर
करोड़ में
मूल्य है तो
एक में भी
मूल्य होगा।
सुना
है मैंने कि
मुल्ला एक
अजनबी देश में
गया,
एक अपरिचित
देश में गया।
एक लि*फट में
सवार होकर जा
रहा है। एक
अकेली सुंदर
औरत उसके साथ
है। उसने उस
स्त्री से कहा
कि क्या खयाल
है? सौ
रुपये में
सौदा पट सकता
है?!
उस
स्त्री ने
चौंककर देखा।
उसने कहा कि
ठीक है।
मुल्ला
ने कहा-- पांच
रुपये का क्या
खयाल है?
उस
स्त्री ने
कहा-- तुम
समझते क्या हो
तुम मुझे
समझते क्या हो?
मुल्ला
ने कहा-- दैट वी
हैव
डिसाइडेड।
नाउ दि क्वेश्चन
इज आफ दि
वैल्यू--प्राइज।
यह तो हमने तय
कर लिया है कि
कौन हो तुम, यह
तो मैंने सौ
रुपये पूछकर
तय कर लिया, अब हम कीमत
तय कर रहे
हैं। अगर सौ
रुपये में स्त्री
बिक सकती है
तो अब यह सवाल
ही नहीं है कि
पांच रुपये
में क्यों
नहीं बिक सकती?
वह तय हो
गया कि तुम
कौन हो। उसके
बाबत कोई चर्चा
करने की जरूरत
नहीं है। अब
हम तय कर लें, अब मैं अपनी
जेब पर खयाल
कर रहा हूं, मुल्ला ने
कहा, कि
अपने पास पैसे
कितने हैं?
यह
हमारी हमारी
जिंदगी में जो
भी मूल्य है, वह
करोड़ का है या
एक पैसे का, यह सवाल
नहीं है। धन
का मूल्य है
तो फिर एक पैसे
में भी मूल्य
है और करोड़
में भी मूल्य
है। मूल्य ही
नहीं है, तो
फिर पैसे में
भी नहीं है और
करोड़ में भी
नहीं है। और
अगर एक पैसे
में जितना
मूल्य है, फिर
उसके खोने में
उतनी ही पीड़ा
है। वह पीड़ा भी
उतनी ही
मूल्यवान है।
अगर जीवन ही
निर्मूल्य है
तो मृत्यु में
क्या रह जाता
है! और अगर जीवन
ही निर्मूल्य
है तो जीवन से
संबंधित जो
सारा विस्तार
है, उसमें
क्या मूल्य रह
जाता है!
जिसके लिए
जीवन ही
निर्मूल्य है,
उसके लिए धन
का कोई मूल्य
होगा ? क्योंकि
धन का सारा
मूल्य ही जीवन
की सुरक्षा के
लिए है! जिसके
लिए जीवन ही
निर्मूल्य है,
उसके लिए
महल का कोई
मूल्य होगा? क्योंकि महल
का सारा मूल्य
ही जीवन की
सुरक्षा के
लिए है। जिसके
लिए जीवन का
कोई मूल्य
नहीं, उसके
लिए पद का कोई
मूल्य होगा? क्योंकि पद
का सारा मूल्य
ही जीवन के
लिए है।
जीवन
का मूल्य
शून्य हुआ कि
सारे विस्तार
का मूल्य
शून्य हो जाता
है। सारी माया
गिर जाती है।
और जब जीवन का
ही मूल्य न
रहा तो मृत्यु
का क्या मूल्य
होगा! क्योंकि
मृत्यु में
उतना ही मूल्य
था,
जितना जीवन
में हम डालते
थे। जितना
लगता था कि
जीवन को बचाऊं,
उतना ही
मृत्यु से
बचने का सवाल
उठता था। जब जीवन
को बचाने की
कोई बात न रही
तो मृत्यु हो
या न हो, बराबर
हो गया। जिस
दिन मेरे जीवन
का कोई मूल्य
नहीं रह जाता
उस दिन मेरी मृत्यु
शून्य हो जाती
है। और महावीर
कहते हैं कि
उसी दिन अमृत
के द्वार
खुलते हैं--
महाजीवन के, परम जीवन के,
जिसका कोई
अंत नहीं है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं-- अहिंसा
धर्म का प्राण
है। उसी से
अमृत का द्वार
खुलता है। उसी
से,
हम उसे जान
पाते हैं
जिसका कोई अंत
नहीं, जिसका
कोई प्रारंभ
नहीं, जिस
पर कभी कोई
बीमारी नहीं
आती और जिस पर
कभी दुख और
पीड़ा नहीं
उतरती।
जहां
कोई संताप
नहीं, जहां
कोई मृत्यु
कभी घटित नहीं
होती, जहां
अंधकार की
किरण को उतरने
की कोई सुविधा
नहीं, जहां
प्रकाश ही
प्रकाश है। तो
महावीर को
मृत्युवादी
नहीं कहा जा
सकता और उनसे
बड़ा अमृत का
तलाशी नहीं है
कोई। लेकिन
अमृत की तलाश
में उन्होंने
पाया है कि
जीवेषणा सबसे
बड़ी बाधा है।
क्यों
पाया है? जीवेषणा
इसलिए बाधा है
कि जीवेषणा के
चक्कर में आ प
वास्तविक
जीवन की खोज
से वंचित रह
जाते हैं।
जीने की इच्छा
और जीने की
कोशिश में आप
पता ही नहीं
लगा पाते कि
जीवन क्या है।
मुल्ला
भागा जा रहा
है एक गांव
में। उसे
व्याख्यान
देना है। एक
आदमी उससे
रास्ते में
पूछता है कि
मुल्ला, उस
मस्जिद में धर्म
के संबंध में
बोलने जा रहे
हो, ईश्वर
के संबंध में?
ईश्वर के
संबंध में
तुम्हारा
क्या विचार है?
मुल्ला
कहता है-- अभी
विचार करने की
फुरसत नहीं, अभी
मैं
व्याख्यान
देने जा रहा
हूं। आइ हेव
नो टाइम टु
थिंक नाउ। अभी
मैं
व्याख्यान
देने जा रहा
हूं। अभी
बकवास में मत
डालो मुझे।
बोलने
की फिक्र में
अकसर आदमी सोचना
भूल जाते हैं।
दौड़ने के
इंतजाम में
अकसर आदमी
मंजिल भूल
जाते हैं।
कमाने की
चिंता में
अकसर आदमी भूल
जाते हैं, किसलिए?
जीने की
कोशिश में खयाल
ही नहीं आता
कि क्यों? सोचते
हैं कि पहले
कोशिश तो कर
लें, फिर
क्यों की तलाश
कर लेंगे।
किसलिए बचा
रहे हैं, यह
खयाल ही मिट
जाता है। जो
बचा रहे हैं
उसमें ही इतने
संलग्न हो
जाते हैं कि
वही "एंड अनटु
इटसेल्फ', अपना
अपने में ही
अंत बन जा ता
है।
एक
आदमी धन
इकट्ठा करता
चला जाता है।
पहले वह शायद
सोचता भी रहा
होगा कि
किसलिए? फिर
धन इकट्ठा
करना ही ल*य हो
जाता है। फिर
उसे याद ही
नहीं रहता कि
किसलिए। फिर
वह मर जा ता है
इकट्ठा करते-करते।
वह नहीं बता
सकता कि
किसलिए
इकट्ठा कर रहा
था। वह इतना
ही कह सकता था
कि अब इकट्ठा करने
में मजा आने
लगा था। अब
जीने में ही
मजा आने लगा
था। अब किसलिए
जीना था--
क्यों जीना
था-- जीवन क्या
था? यह सब
चूक जाता है।
महावीर
कहते हैं--
जीवेषणा जीवन
की वास्तविक तलाश
से वंचित कर
देती है। और
जीवेषणा
सिर्फ मरने से
बचने का
इंतजाम बन
जाती है-- अमृत
को जानने का
नहीं, मरने से
बचने का। हम
सब डिफेंस की
हालत में लगे
हैं, चौबीस
घंटे। मर न
जाएं, बस
इतनी ही कोशिश
है। सब कुछ
करने को तैयार
हैं कि मर न
जाएं। लेकिन
जीकर क्या करेंगे?
तो हम कहते
हैं-- पहले
मरने का बचाव
हो जाए, फिर
सोच लेंगे।
मृत्यु से
बचने की कोशिश
अमृत से बचाव
हो जाती है।
जीवन बचाने की
कोशिश, जीवन
के वास्तविक
रूप को, परम
रूप को जानने
में रुकावट हो
जाती है। महावीर
मृत्युवादी
नहीं हैं।
महावीर इस
जीवेषणा की
दौड़ से रोकते
ही इसीलिए हैं
ताकि हम उस
परम जीवन को
जान सकें जिसे
बचाने की कोई
जरूरत ही नहीं
है, जो बचा
ही हुआ है।
जिसे कोई मिटा
नहीं सकता, क्योंकि
उसके मिटने का
कोई उपाय ही
नहीं है। उस
जीवन को जानकर
व्यक्ति अभय हो
जाता है। और
जो अभय हो
जाता है, वह
दूसरे को
भयभीत नहीं
करता।
हिंसा
दूसरे को
भयभीत करती
है। आप अपने
को बचाते हैं, दूसरे
में भय पैदा
करके। आप
दूसरे को दूर
रखते हैं
फासले पर।
आपके और दूसरे
के बीच में
अनेक तरह की
तलवारें आप
अटका रखते
हैं। और
जरा-सा ही
किसी ने आपकी
सीमा का
अतिक्रमण
किया कि आपकी
तलवार उसकी
छाती में घुस
जाती है।
अतिक्रमण न भी
किया हो, आप
अगर शंकित हो
गये और सोचा
कि अतिक्रमण
किया है, तो
भी तलवार घुस
जाती है।
व्यक्ति भी
ऐसे ही जीते
हैं, समाज
भी ऐसे ही जीते
हैं।रा*षटर भी
ऐसे ही जीते
हैं। इसलिए
सारा जगत
हिंसा में
जीता है, भय
में जीता है।
महावीर कहते
हैं-- सिर्फ
अहिंसक ही अभय
को उपलब्ध हो
सकता है। और
जिसने अभय नहीं
जाना है वह
अमृत को कैसे
जानेगा? भय
को जाननेवा ला
मृत्यु को ही
जानता रहता
है।
तो
महावीर की
अहिंसा का
आधार है, जीवेषणा
से मुक्ति। और
जीवेषणा से
मुक्ति मृत्यु
की एषणा से भी
मुक्ति हो
जाती है। और
इसके साथ ही
जो घटित होता
है चारों तरफ,
हमने उसी को
मूल्यवान समझ
रखा है।
महावीर एक चींटी
पर पैर नहीं
रखते हैं, इसलिए
नहीं कि
महावीर बहुत
उत्सुक हैं
चींटी को बचाने
को। महावीर
इसलिए चींटी
पर पैर नहीं
रखते-- सांप पर
भी पैर नहीं
रखते, बिच्छू
पर भी पैर
नहीं रखते--
क्योंकि
महावीर अब
अपने को बचाने
को बहुत
उत्सुक नहीं
हैं। उत्सुक
ही नहीं हैं।
अब उनका किसी
से कोई संघर्ष
न रहा, क्योंकि
सारा संघर्ष
इसी बात में
था कि मैं अपने
को बचाऊं। अब
वे तैयार हैं--
जीवन तो जीवन,
मृत्यु तो
मृत्यु, उजाला
तो उजाला, अंधेरा
तो अंधेरा। अब
वे तैयार हैं।
अब कुछ भी आये
वे तैयार हैं।
उनकी
स्वीकृति परम
है।
इसलिए
मैंने कहा कि
बुद्ध ने जिसे
तथाता कहा है, महा
वीर उसे ही
अहिंसा कहते
हैं। लाओत्से
ने जिसे टोटल
ऐक्सैप्टिबि
िलटी कहा है
कि मैं सब करता
हूं स्वीकार,
उसे ही
महावीर ने
अहिंसा कहा
है। जिसे सब
स्वीकार है, वह हिंसक
कैसे हो
सकेगा। हिंसक
न होने का कोई निषेध
कारण नहीं है,
विधायक
कारण है, क्योंकि
सब स्वीकार
है। इसलिए
निषेध का कोई
कारण नहीं है।
किसी को मिटाने
के लिए तैयारी
करने का कोई
कारण नहीं है।
हां, अगर
कोई
िमटाने आता
हो तो महावीर
उसके लिए
तैयार हैं। इस
तैयारी में भी
ध्यान रखें कि
कोई प्रयत्न
नहीं है
महावीर का, कि वे
संभलकर तैयार
हो जाएंगे कि
ठीक है मारो।
इतना प्रयत्न
भी भीतर जीवन
का ही प्रश्न
है। महावीर
इतना संभलकर
भी तैयार नहीं
होंगे, वे
खड़े ही रहेंगे
जैसे वे थे ही
नहीं, अनुपस्थित
थे।
इसके
एक हिस्से पर
और खयाल कर
लेना जरूरी
है। जितने जोर
से हम अपने को
बचाना चाहते
हैं,
हमारा
वस्तुओं का
बचाव उतना ही
प्रगाढ़ हो जाता
है। जीवेषणा
"मेरे' का
फैलाव बनती
है। यह मेरा
है, यह
पिता मेरे हैं,
यह मां मेरी
है, यह भाई
मेरा है, यह
पत्नी मेरी है,
यह मकान
मेरा है, यह
धन मेरा है-- हम
"मेरे' का
एक जाल खड़ा
करते हैं अपने
चारों तरफ। वह
इसलिए खड़ा
करते हैं कि
उस पहरे के
भीतर ही हमारा
"मैं' बच
सकता है। अगर
मेरा कोई भी
नहीं तो मैं
निपट अकेला
बहुत भयभीत हो
जाऊंगा। कोई
मेरा है तो
सहारा है, से*फटी
है, सुरक्षा
है। इसलिए
जितनी ज्यादा
चीजें आप इकट्ठी
कर लेते हैं, उतने आप
अकड़कर चलने
लगते हैं।
लगता है जैसे
अब आपका कोई
कुछ बिगाड़ न
सकेगा। एक चीज
भी आ पके हाथ
से छूटती है, तो किसी
गहरे अर्थो में
आपको मृत्यु
का अनुभव होता
है। अगर आपकी
कार टूट जाती
है तो सिर्फ
कार नहीं
टूटती, आपके
भीतर भी कुछ
टूटता है।
आपकी पत्नी
मरती है तो
पत्नी नहीं
मरती, पति
के भीतर भी
कुछ गहन मर
जाता है। खाली
हो जाती है
जगह। असली
पीड़ा पत्नी के
मरने से नहीं
होती है। असली
पीड़ा "मेरे' के फैलाव के
कम हो जाने से
होती है। एक
जगह और टूट
गयी। एक एक
मोर्चा
असुरक्षित हो
गया, एक
जगह पहरा कम
हो गया, वहां
से खतरा अब आ
सकता है।
एक
मित्र हैं
मेरे। पत्नी
मर गयी है
उनकी। तो
पत्नी की
तस्वीरें सारे
मकान में, द्वार-दरवाजे
पर सब जगह लगा
रखी हैं। किसी
से
मिलते-जुलते
नहीं, तस्वीरें
ही देखते रहते
हैं। उनके
किसी मित्र ने
मुझसे कहा, ऐसा प्रेम
पहले नहीं
देखा। अदभुत
प्रेम है। मैंने
कहा, प्रेम
नहीं है। वह
आदमी अब डरा
हुआ है। अब
कोई भी दूसरी
स्त्री उसके
जीवन में
प्रवेश कर सकती
है। और ये
तस्वीरें
लगाकर अब वह
पहरा लगा रहा
है।
उन्होंने
कहा-- आप कैसी
बात करते हैं?
मैंने
कहा-- मैं
चलूंगा, मैं
उन्हें जानता
हूं।
और जब
मैंने उन
मित्र को कहा--
सच बोलो, सोचकर
बोलो, ठीक
से विचार करके
बोलो। अब तुम
दूसरी स्त्रियों
से भयभीत तो
नहीं हो?
उन्होंने
कहा-- आपको यह
कैसे पता चला? यही
डर है मेरे मन
में कि कहीं
मैं अपनी
पत्नी के
प्रति
विश्वासघाती
सिद्ध न हो
जाऊं। इसलिए
उसकी याद को
चारों तरफ
इकट्ठी करके
बैठा हुआ हूं।
किसी स्त्री से
मिलने में भी
डरता हूं।
आदमी
का मन बहुत
जटिल है। और
अब यह हवा भी
चारों तरफ फैल
गयी है कि
पत्नी के
प्रति इतना
प्रेम है कि
जो दो साल
पहले पत्नी मर
गयी,
उसको वह
जिलाये हुए
हैं अपने मकान
में। यह हवा
भी उनकी
सुरक्षा का
कारण बनेगी।
यह हवा भी उन्हें
रोकेगी। यह
प्रतिष्ठा भी
रोकेगी।
पर
मैंने उन
मित्र के
मित्र को कहा
था कि ज्यादा
देर नहीं
चलेगी यह
सुरक्षा। जब
असली पत्नी
नहीं बचती, तो
ये तस्वीरें
कितनी देर
बचेंगी?
अभी
मुझे
निमंत्रण
पत्र आया है
कि उनका विवाह
हो रहा है। यह
ज्यादा दिन
नहीं बच सकता।
इतना भयभीत
आदमी ज्यादा
दिन नहीं बच
सकता। इतना असुरक्षित
आदमी ज्यादा
दिन नहीं बच
सकता।
वस्तुओं
पर,
व्यक्तियों
पर जो हम "मेरे'
का फैलाव
करते हैं, महा
वीर उसको भी
हिंसा कहते
हैं। महावीर
परिग्रह को
हिंसा कहते
हैं। महावीर
का वस्तुओं से
कोई विरोध
नहीं है, और
न महावीर को
इससे कोई
प्रयोजन है कि
आपके पास कोई
वस्तु है या
नहीं। महावीर
का इससे जरूर
प्रयोजन है कि
आपका उससे
कितना मोह है।
कितना उसको आप
पकड़े हुए हैं,
कितना आपने
उस वस्तु को
अपनी आत्मा
बना लिया है।
यह
मुल्ला
नसरुद्दीन
बड़ा प्यारा
आदमी है। इसके
जीवन में बहुत
अदभुत घटनाएं
हैं। एक होटल
में ठहरा हुआ
है। छोड़ रहा
है होटल, नीचे
टैक्सी में सब
सामान रख आया
है, तब उसे
खयाल आया कि
छाता कमरे में
भूल आया है।
सीढ़ियां चढ़कर
वापस आया, चार
मंजिल होटल।
वापस पहुंचा
तो देखा कि
कमरा तो किसी
नवविवाहित
जोड़े को दे
दिया जा चुका
है। दरवाजा
बंद है, अंदर
कुछ बात चलती
है। छाता बिना
लिये जा नहीं
सकता और अभी
यह जो बात
चलती है, उसको
भी बिना सुने
नहीं जा सकता।
की-होल पर, चाबी
के छेद पर कान
लगाकर सुना।
युवक अपनी पत्नी
से कह रहा है, तेरे ये
सुंदर बाल, ये आकाश में
घिरी हुई
घटाओं की तरह
बाल, ये
किसके हैं, देवी, ये
बाल किसके हैं?
देवी
ने कहा, तुम्हारे।
और किसके?
"ये
तेरी आंखें, मछलियों की
तरह चंचल', उस
पुरुष ने पूछा,
"ये किसकी
हैं? देवी,
ये आंखें
किसकी हैं?'
उस
स्त्री ने कहा, तुम्हारी,
और किसकी?
मुल्ला
कुछ बेचैन
हुआ। उसने कहा, ठहरो
भाई! देवी, मुझे
पता नहीं भीतर
कौन है, लेकिन
जब छाते का
नंबर आये तो
खयाल रखना, मेरा है।
उसकी
बेचैनी
स्वाभाविक
है। आएगा ही
छाते का नंबर।
सारी
जिंदगी
उठते-बैठते, क्या
मेरा है इसकी
फिक्र है--
कहीं कोई और
तो उस "मेरे' पर कब्जा
नहीं कर रहा
है? कहीं
कोई और तो उस
"मेरे' का
मालिक नहीं बन
रहा है? सवाल
यह बड़ा नहीं
है कि यह
वस्तु किसकी
हो जाएगी।
वस्तु किसी की
नहीं होती है।
महावीर कहते हैं
कि वस्तु किसी
की नहीं होती
है। उसे कभी
पता नहीं चलता
कि वह किसकी
है। तुम लड़ते
हो, मरते
हो, समाप्त
हो जाते हो, वस्तुएं
अपनी जगह पड़ी
रह जाती हैं।
वही जमीन का
टुकड़ा , जिसको
आप अपना कह
रहे हैं, कितने
लोग उसे अपना
कह चुके हैं।
कभी हिसाब किया
है, कितने
लोग उसके
दावेदार हो
चुके हैं और
जमीन के टुकड़े
को जरा भी पता
नहीं। दावेदार
आते हैं और
चले जाते हैं
और जमीन का
टुकड़ा अपनी
जगह पड़ा रहता
है। दावे सब
काल्पनिक हैं,
इमेजिनरी
हैं।
आप ही
दावा करते हैं, आप
ही दूसरे
दावेदारों से
लड़ लेते हैं, मुकदमे हो
जाते हैं, सिर
खुल जाते हैं,
हत्याएं हो
जाती हैं। वह
जमीन का टुकड़ा
अपनी जगह पड़ा
रहता है। जमीन
के टुकड़े को
पता भी नहीं
है। या अगर
पता होगा तो
पता दूसरे ढंग
से होगा। जमीन
का टुकड़ा कहता
होगा, यह
आदमी मेरा है।
जो आदमी कह
रहा है, यह
जमीन मेरी है,
अगर जमीन को
कोई पता होगा
तो जमीन का
टुकड़ा कहता
होगा, यह आदमी
मेरा है। कौन
जाने, जमीनों
में मुकदमे
चलते हों। आपस
में संघर्ष हो
जाता हो कि यह
आदमी मेरा है,
तुमने कैसे
कहा कि मेरा
है। अगर कोई
जमीन को पता
होता होगा तो
उसको अपनी
मालकियत का
पता होता
होगा। ध्यान
रहे, हम
सबको अपनी
मालकियत का
पता है। और
मालकियत के
लिए हम इतने
उत्सुक हैं कि
अगर जिंदा
आदमी के हम
मालिक न हो
सके तो हम उसे
मारकर भी
मालिक होना
चाहते हैं।
और
हमारे जीवन की
अधिक हिंसा
इसीलिए है। जब
एक पति एक
स्त्री का
मालिक होता है, उसे
पत्नी बना
लेता है तो
उसमें स्त्री
तो करीब-करीब
नब्बे
प्रतिशत मर ही
जाती है। बिना
मारे मालिक
होना मुश्किल
है। क्योंकि
दूसरा भी
मालिक होना
चाहता है। अगर
वह जिंदा रहेगा
तो वह मालिक
होने की कोशिश
करेगा।
इसलिए
अब ध्यान रखें, भविष्य
में स्त्री पर,
पुरुषों पर
मालकियत की
संभावना कम
होती जाती है।
अगर
स्त्रियों को
समानता का हक
दिया तो पत्नी
बच नहीं सकती।
पत्नी तभी तक
बच सकती थी जब
तक स्त्री को
कोई हक नहीं
था। उसको
बिलकुल ही मार
डालते तो ही
पत्नी बच सकती
थी। वह बिलकुल
नकार हो जाती
तो ही पति हो
सकता है। अब
जब उसे बराबर करेंगे
तो पति होने
का उपाय नहीं।
अब मित्र होने
से ज्यादा की
संभावना नहीं
रह जाएगी।
क्योंकि
दोनों अगर
समान हैं तो
मालकियत कैसे
टिक सकती है? लेकिन
समानता भी
टिकानी बहुत
मुश्किल है।
डर तो यह है कि
स्त्री
ज्यादा दिन
समान नहीं
रहेगी। थोड़े
दिन में पुरुष
को आंदोलन
चलाना पड़ेगा कि
हम स्त्रियों
के समान हैं।
यह ज्यादा दिन
नहीं चलेगा।
क्योंकि स्त्री
बहुत दिन
असमान रह ली।
यह तो पहला
कदम है समान
होने का। अब
इसके ऊपर जाने
का दूसरा कदम,
वह उठना
शुरू हो गया
है। बहुत
जल्दी जगह-जगह
पुरुष जुलूस
निकाल रहे
होंगे, घेराव
कर रहे होंगे
कि पुरुष
स्त्रियों के
समान हैं, कौन
कहता है कि हम
उनसे नीचे
हैं।
समानता
ज्यादा देर
टिक नहीं
सकती।
क्योंकि जहां
मालकियत और
जहां हिंसा
गहन है वहां
किसी न किसी
को असमान होना
ही पड़ेगा, किसी
न किसी को
नीचे होना ही
पड़ेगा। मजदूर
लड़ेगा, पूंजीपति
को नीचे कर
देगा। कल
पाएगा कि कोई
और ऊपर बैठ
गया है। इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। महावीर
कहते हैं, जब
तक जगत में
मालकियत की
आकांक्षा है--
यानी जीवेषणा
जब इतनी पागल
है कि वह बिना
मालिक हुए राजी
नहीं होती-- तब
तक दुनिया में
कोई समानता संभव
नहीं है।
इसलिए
महावीर
समानता में
उत्सुक नहीं
हैं,
अहिंसा में
उत्सुक हैं।
वे कहते हैं--
अगर अहिंसा
फैल जाए तो ही
समानता संभव
है। मालकियत
का रस ही टूट
जाए, तो ही
दुनिया से
मालकियत
मिटेगी, अन्यथा
मालकियत नहीं
मिट सकती है।
सिर्फ मालिक
बदल सकते हैं।
मालिक बदलने
से कोई फर्क
नहीं पड़ता।
बीमारी अपनी
जगह बनी रहती
है। उपद्रव अपनी
जगह बने रहते
हैं। हिंसा का
जो वास्तविक हमारे
जीवन में
क्रियमान रूप
है, वह
मालकियत है।
महावीर
ने जब महल
छोड़ा तो हमें
लगता है-- महल
छोड़ा, धन छोड़ा,
परिवार
छोड़ा। महावीर
ने सिर्फ
हिंसा छोड़ी।
अगर गहरे में
जाएं तो
महावीर ने
सिर्फ हिंसा
छोड़ी। यह सब
हिंसा का फैला
व था। ये
पहरेदार जो
दरवाजे पर खड़े
थे, वे
पत्थर की मजबूत
दीवारें जो
महल को घेरे
थीं, यह धन
और ये
तिजोरियां--
ये सब आयोजन
थे हिंसा के।
यह मेरे और
तेरे का भेद, यह सब आयोजन
था हिंसा का।
महावीर जिस
दिन खुले आकाश
के नीचे आकर
नग्न खड़े हो
गये, उस
दिन कहा कि अब
मैं हिंसा को
छोड़ता हूं, इसलिए सब
सुरक्षा
छोड़ता हूं। इसलिए
सब आक्रमण के
उपाय छोड़ता
हूं। अब मैं
निहत्था, निशस्त्र,
शून्यवत
भटकूंगा इस
खुले आकाश के
नीचे। अब मेरी
कोई सुरक्षा
नहीं, अब
मेरा कोई
आक्रमण नहीं,
अब मेरी कोई
मालकियत कैसे
हो सकती है।
अहिंसक की कोई
मालकियत नहीं
हो सकती। अगर
कोई अपनी लंगोटी
पर भी मालकियत
बताता है कि
यह मेरी है--
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता कि
महल मेरा है
कि लंगोटी
मेरी है। वह
मालकियत
हिंसा है। इस
लंगोटी पर भी
गर्दनें कट
सकती हैं। और
यह मालकियत
बहुत सू*म
होती चली जाती
है--धन छोड़
देता है एक
आदमी, लेकिन
कहता है, धर्म,
यह मेरा है।
मेरे
एक मित्र अभी
एक जैन साधु
के पास गये
होंगे-- अभी
एक-दो दिन पहले।
मैं महावीर के
संबंध में
क्या कह रहा
हूं,
मित्र ने
उन्हें बताया
होगा। उन साधु
ने कहा कि कोई
और महावीर
होंगे, वे
उनके होंगे, वे हमारे
महावीर नहीं
हैं। वे जिस
महावीर के संबंध
में बोल रहे
हैं वे हमारे
महावीर नहीं
हैं।
मालकियत
बड़ी सूक्ष्म
है। महावीर तक
पर भी मालकियत
है। हिंसा हम
वहां तक नहीं
छोड़ेंगे-- यह
धर्म मेरा है, यह
शास्त्र मेरा
है, यह
सिद्धांत
मेरा है-- रस
आता है, रस
किसको आता है
भीतर? जहां-जहां
"मेरा' है
वहां-वहां
हिंसा है। जो
"मेरे' को
सब भांति छोड़
देता है-- धन पर
ही नहीं, धर्म
पर भी, महावीर
और कृष्ण और
बुद्ध पर भी--
जो कहता है कि मेरा
कुछ भी नहीं
है। और ध्यान
रहे, जिस
दिन कोई कह
पाता है, मेरा
कुछ भी नहीं, उसी दिन "मैं
कौन हूं', इसे
जान पाता है।
इसके पहले
नहीं जान
पाता। इसके
पहले "मेरे' के फैलाव
में उलझा रहता
है, परिधि
पर। इसलिए
"मैं' के
के*नदर पर कोई
पता नहीं चलता
है।
इसे
ऐसा समझ लें, अहिंसा
सूत्र है
आत्मा को
जानने का।
क्योंकि "मेरे'
का जब सारा
भाव गिर जाता
है तो फिर मैं
ही बचता हूं
फिर, कोई
और तो बचता
नहीं। निपट
मैं, अकेला
मैं।और तभी
जान पा ता हूं,
क्या हूं, कौन हूं, कहां
से हूं, कहां
के लिए हूं।
तब सारे द्वार
रहस्य के खुल जाते
हैं।
महावीर
ने अकारण ही
अहिंसा को परम
धर्म नहीं कह
दिया है। परम
धर्म कहा है
इसलिए कि उस
कुंजी से सारे
द्वार खुल
सकते हैं, जीवन
के रहस्य के। एक
और तीसरी
दृष्टि से
अहिंसा को समझ
लें तो अहिंसा
का खयाल हमारा
स्पष्ट और
पूरा हो जाए।
महावीर
ने कहा है कि
सब हिंसा
आग्रह है। यह
अति सूक्ष्म
बात है। आनागरह
हिंसा है, अनाग्रह
अहिंसा है। और
इसी कारण
महावीर ने जिस
विचार-सरणी को
जन्म दिया है,
उसका नाम है
"अनेकांत'।
वह अहिंसा के
विचार का जगत
में फैलाव है।
अनेकांत की
दृष्टि जगत
में कोई दूसरा
व्यक्ति नहीं
दे सका।
क्योंकि
अहिंसा की दृष्टि
को कोई दूसरा
व्यक्ति इतनी
गहनता में समझ
ही नहीं सका।
समझा ही नहीं
सका। अनेकांत
महावीर से
पैदा हुआ उसका
कारण है कि
महावीर की अहिंसा
की दृष्टि को
जब उन्होंने
विचार के जगत
पर लगाया, वस्तुओं
के जगत पर
लगाया तो
परिग्रह फलित
हुआ। जीवन के
जगत पर लगाया
तो मृत्यु का
वरण फलित हुआ।
और जब विचार
के जगत पर
लगाया-- जो कि
हमारा बहुत
सूक्ष्म
संग्रह है, विचार
का जगत। धन
बहुत स्थूल
संग्रह है, चोर उसे ले
जा सकते हैं।
विचार बहुत
सू*म संग्रह
है, चोर
उसे नहीं चुरा
सकते। फिलहाल
अभी तक तो नहीं
चुरा सकते। यह
सदी पूरे
होते-होते चोर
आपके विचार
चुरा सकेंगे।
क्योंकि आपके
मस्तिष्क को
आपके बिना
जाने पढ़ा जा
सकेगा। और
क्योंकि आपके
मस्तिष्क से
कुछ हिस्से भी
निकाले जा सकते
हैं, जिनका
आपको पता ही
नहीं चलेगा।
और आपके
मस्तिष्क के
भीतर भी इलेक्ट्रोड
रखे जा सकते
हैं, और
आपसे ऐसे
विचार करवाये
जा सकते हैं
जो आप नहीं कर
रहे, लेकिन
आपको लगेगा कि
मैं कर रहा
हूं।
अभी
अमरीका में डा.
ग्रीन और
दूसरे लोगों
ने जानवरों की
खोपड़ी में इलेक्ट्रोडरखकर
जो प्रयोग
किये हैं वे
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
हैं। एक घोड़े
की या एक सांड
की खोपड़ी में इलेक्ट्रोडरख
दिया है। वह इलेक्ट्रोड
रखने के बाद
वायरलेस से
उसकी खोपड़ी के
भीतर के
स्नायुओं को
संचालित किया
जा सकता है, जैसा
चाहें। और डा.
ग्रीन के ऊपर
हमला करता है
वह सांड। वे
लाल छतरी लेकर
उसके सामने
खड़े हैं और
हाथ में उनके
ट्रांजिस्टर है
छोटा-सा, जिससे
उसकी खोपड़ी को
संचालित
करेंगे। वह
दौड़ता है पागल
की तरह। लगता
है कि हत्या
कर डालेगा।
सैकड़ों लोग
घेरा लगाकर
खड़े हैं। वह
बिलकुल आ जाता
है-- वह सामने आ
जाता है। और
वह बटन दबाता है
अपने
ट्रांजिस्टर
की। वह ठंडा
हो जाता है, वह वापस लौट
जाता है।
यह
आदमी के साथ
भी हो सकेगा।
इसमें कोई
बाधा नहीं रह
गयी है।
वैज्ञानिक
काम पूरा हो
गया है। कुछ
कहा नहीं जा
सकता कि
तानाशाही
सरकारें हर
बच्चे की
खोपड़ी में
बचपन से ही रख
दें। फिर कभी
उपद्रव नहीं।
एक बटन दबायी
जाए,
पूरा मुल्क
एकदम जय-जयकार
करने लगे।
मिलिट्री के दिमाग
में तो यह रखा
ही जाएगा। तब
बटन दबा दी और
लाखों लोग मर
जाएंगे बिना
भयभीत हुए, कूद जाएंगे
आग में बिना
चिंता किये।
और उनको लगेगा
कि वे ही कर
रहे हैं।
हालांकि यह
पहले से भी
किया जा रहा
है, लेकिन
करने के ढंग
पुराने थे, मुश्किल के
थे।
एक
आदमी को
समझाना पड़ता
है कि अगर तू
देश के लिए
मरेगा तो
स्वर्ग
जाएगा। इसको
बहुत समझाना पड़ता
है,
तब उसकी
खोपड़ी में
घुसता है।
हालांकि यह भी
घुसाना ही है।
इसमें कोई
मतलब नहीं है।
इसको भी बचपन
से गाथाएं
सुना-सुनाकर
राष्ट्रभक्ति
की और जमानेभर
के पागलपन की,
इसके दिमाग
को तैयार किया
जाता है। फिर एक
दिन वर्दी
पहनाकर इससे
कवायद करवायी
जाती है
दो-चार साल
तक। इसकी
खोपड़ी में
डालने का यह
उपाय भी इलेक्ट्रोडही
है, लेकिन
यह पुराना है,
बैलगाड़ी के
ढंग से चलता
है। फिर एक
दिन यह आदमी
जाता है और मर
जाता है युद्ध
के मैदान में
छाती खोलकर और
सोचता है कि
यह "मैं' मर
रहा हूं, और
सोचता है कि
यह बलिदान
"मैं' दे
रहा हूं, और
सोचता है, ये
विचार "मेरे' हैं। यह देश
मेरा और यह
झंडा मेरा है।
और ये सब बातें
इसके दिमाग
में किन्हीं
और ने रखी
हैं। जिन्होंने
रखी हैं वे
राजधानियों
में बैठे हुए
हैं। वे कभी
किसी युद्ध पर
नहीं जाते।
ठीक है, इतनी
परेशानी करने
की क्या जरूरत
है, जब इलेक्ट्रोडरखने
से आसानी से
काम हो जाएगा।
अड़चन कम होगी,
भूल-चूक कम
होगी। बहुत
जल्दी विचार
की संपदा पर
भी चोर पहुंच
जाएंगे। खतरे
वहां हो
जाएंगे, लेकिन
अब तक कम से कम
विचार की
संपदा बहुत
सू*म रही है।
महावीर
कहते हैं कि
विचार की
संपदा को भी
मेरा मानना
हिंसा है।
क्योंकि जब भी
मैं किसी विचार
को कहता हूं
"मेरा', तभी
मैं सत्य से
च्युत हो जाता
हूं। और जब भी
मैं कहता हूं
कि यह मेरा विचार
है, इसलिए
ठीक है-- और हम
सभी यह कहते
हैं, चाहे
हम कहते हों
प्रगट, चाहे
न कहते हों।
जब हम कहते
हैं कि यही
सत्य है, तो
हम यह नहीं
कहते कि जो
मैं कह रहा
हूं वह सत्य
है, तब हम
यह कहते हैं
कि जो कह रहा
है वह सत्य
है। मैं सत्य
हूं तो मेरा
विचार तो सत्य
होगा ही-- मैं
सत्य हूं, तो
मेरा विचार
सत्य होगा।
जितने विवाद
हैं इस जगत
में वे सत्य
के विवाद नहीं
हैं।
िजतने विवाद
हैं वे सब "मैं'
के विवाद
हैं। जब आप
किसी से विवाद
में पड़ जाते
हैं और कोई
बात चलती है
और आप कहते
हैं यह ठीक है,
और दूसरा
कहता है यह
ठीक नहीं है, तब जरा भीतर
झांककर देखना
कि थोड़ी देर
में ही आपको
पक्का पता चल
जाएगा कि अब सवाल
विचार का नहीं
है। अब सवाल
यह है कि मैं ठीक
हूं कि तुम
ठीक हो? महावीर
ने कहा कि यह
बहुत सू*म
हिंसा है।
इसलिए महावीर
ने अनेकांत को
जन्म दिया है।
महावीर
से अगर कोई
आकर बिलकुल
महावीर के
विपरीत भी बात
कहे तो महावीर
कहते थे, यह भी
ठीक हो सकता
है। बहुत
हैरानी की बात
है, यह
आदमी अकेला था
इस लिहाज से, पूरी पृथ्वी
पर। ज्ञात
इतिहास के पास
यह अकेला आदमी
है जो अपने
विरोधी से भी
कहेगा, यह
भी ठीक हो
सकता है-- ठीक
उससे, जो
बिलकुल
विपरीत बात
कह रहा है।
महावीर कहते
हैं कि आत्मा
है, और जो
आदमी आकर
कहेगा-- आत्मा
नहीं है, कोई
चार्वाक की
विचार-सरणी को
माननेवाला
आकर महावीर को
कहेगा-- आत्मा
नहीं है तो
महावीर यह
नहीं कहते हैं
कि तू गलत है।
महावीर कहते
हैं, यह भी
हो सकता है, यह भी सही हो
सकता है।
इसमें भी सत्य
होगा।
क्योंकि
महावीर कहते
हैं कि ऐसी तो
कोई भी चीज
नहीं हो सकती
कि जिसमें
सत्य का कोई
अंश न हो, नहीं
तो वह होती ही
कैसे। वह है।
स्वप्न भी सही
है। क्योंकि
स्वप्न होता
तो है, इतना
सत्य तो है
ही। स्वप्न
में क्या होता
है, वह
सत्य न हो, लेकिन
स्वप्न होता
है, इतना
तो सत्य है ही,
उसका
अस्तित्व तो
है ही। असत्य
का तो कोई
अस्तित्व
नहीं हो सकता।
तो महावीर
कहते हैं जब
एक आदमी कह
रहा है कि
आत्मा नहीं है,
तो इस न
होने में भी
कुछ सत्य तो
होगा ही ।
इसलिए
महावीर ने
किसी का विरोध
नहीं किया-- किसी
का। इसका अर्थ
यह नहीं था कि
महावीर को कुछ
पता नहीं था।
कि महावीर को
यह पता नहीं
था कि सत्य
क्या है।
महावीर को
सत्य का पता
था। लेकिन
महावीर का
इतना
अनाग्रहपूर्ण
चित्त था कि
महावीर अपने
सत्य में
विपरीत सत्य
को भी
समाविष्ट कर
पाते थे।
महावीर कहते
थे,
सत्य इतनी
बड़ी घटना है
कि यह अपने से मुल्ला
को जिस दिन से
तनख्वाह
मिलने लगी, सम्राट बहुत
हैरान हुआ--
सम्राट जो भी
कहता, मुल्ला
कहता-- बिलकुल
ठीक, एकदम
सही, यही
सही है।
सम्राट के साथ
खाने पर बैठा
था। कोई सब्जी
बनी थी।
सम्राट
ने कहा--
मुल्ला, सब्जी
बहुत
स्वादिष्ट
है।
मुल्ला
ने कहा-- यह
अमृत है, स्वादिष्ट
होगी ही। मुल्ला
ने बहुत बखान
किया उस सब्जी
का। जब इतना बखान
किया कि
सम्राट ने
दूसरे दिन भी
बनवा ली।
लेकिन दूसरे
दिन उतनी
अच्छी नहीं
लगी।
तीसरे
दिन रसोइये ने
देखा कि इतनी
अमृत जैसी चीज, तो
उसने तीसरे
दिन भी बना
दी। सम्राट ने
हाथ मारकर
थाली नीचे
गिरा दी और
कहा कि क्या बदतमीजी
है, रोज-रोज
वही सब्जी!
मुल्ला
ने कहा-- जहर
है। सम्राट ने
कहा-- लेकिन मुल्ला
तुम तीन दिन
पहले कहते थे
कि अमृत है। मुल्ला
ने कहा-- मैं
आपका नौकर हूं, सब्जी
का नहीं।
तनख्वाह तुम
देते हो कि
सब्जी देती है?
सम्राट
ने कहा-- लेकिन
इसके पहले जब
तुम आये थे मुझसे
मिलने, तब
तुम अपने को
ही सही कहते
थे।
मुल्ला
ने कहा-- तब तक
मैं बिन-बिका
था,
तब तक तुम
कोई तनख्वाह
नहीं देते थे।
और जिस दिन
तुम तनख्वाह
नहीं दोगे, याद रखना, सही तो मैं
ही हूं, यह
तो सिर्फ
तनख्वाह की
वजह से मैं
कहे चले जा रहा
हूं।
यह
हमारा जो मन
है,
हमारी जो
अस्मिता
है--महावीर
कहते हैं--
दूसरा भी सही
है, दूसरा
भी सही हो
सकता है।
तुमसे विरोधी
भी सत्य को
लिए है। आग्रह
मत करो, अनाग्रह
हो जाओ। आग्रह
ही मत करो।
इसलिए महावीर
ने कोई
सिद्धांत का
आग्रह नहीं
किया। और महावीर
ने जितनी तरल
बातें कही हैं
उतनी तरल बातें
किसी दूसरे
व्यक्ति ने
नहीं कहीं
हैं। इसलिए
महावीर अपने
हर वक्तव्य के
सामने "स्यात'
लगाते थे, वे कहते थे, परहैप्स।
अभी आ पका तो
विचार उन्हें
पता भी नहीं
है, लेकिन
अगर आप उनसे
पूछते कि
आत्मा है? तो
महावीर कहते,
स्यात, परहैप्स।
क्योंकि वे
कहते, हो
सकता है, कोई
इसके विपरीत
हो उसे चोट
पहुंच जाए। आप
पूछते कि
मोक्ष है? तो
महावीर कहते,
स्यात! ऐसा
नहीं कि
महावीर को पता
नहीं है। महावीर
को पता है कि
मोक्ष है।
लेकिन महावीर
को यह भी पता
है कि अहिंसक
वक्तव्य
"स्यात' के
साथ ही हो
सकता है--
नान-वायलेंट
असरशन। असत्य--
यह भी पता है
और महावीर को
यह भी पता है
कि स्यात कहने
से शायद आप
समझने को
ज्यादा आसानी
से तैयार हो
जाएं। जब
महावीर कहें
कि हां, मोक्ष
है, तो
महावीर जितने
अकड़कर कहेंगे
मोक्ष है, तत्काल
आपके भीतर अकड़
प्रतिध्वनित
होती है। वह
कहती है, कौन
कहता है--"नहीं
है'। संघर्ष
"मैं' का
शुरू हो जाता
है। सारे
विवाद "मैं' के विवाद
हैं। महावीर
अनाग्रह
वक्तव्य दिये हैं--
सब वक्तव्य
अनाग्रह से
भरे हैं।
इसलिए पंथ
बनाना बहुत
मुश्किल हुआ ।
अगर कोई
गौशालक के पास
जाता, महावीर
के
प्रतिद्वंद्वी
के पास, तो
गौशालक कहता--
महावीर गलत
हैं, मैं
सही हूं। वही
आदमी महा वीर
के पास आता तो
महावीर कहते--
गौशालक सही हो
सकता है। अगर
आप भी होते तो
आप गौशालक के
पीछे जाते कि
महावीर के? आप गौशालक
के पीछे जाते
कि यह आदमी कम
से कम निश्चित
तो है, साफ
तो है, उसे
पता तो है। यह
महावीर कहता
है-- गौशालक
भी शायद सही हो
सकता है। अभी
उनको खुद ही
पक्का नहीं
है। खुद ही
साफ नहीं है।
इनके पीछे
अपनी ना व
क्यों बांधनी
और डुबानी! ये
कहां जा रहे
हैं, शायद
जा रहे हैं कि
नहीं जा रहे
हैं! शायद
पहुंचेंगे कि
नहीं
पहुंचेंगे!
इसलिए
महावीर के पास
अत्यंत
बुद्धिमान
वर्ग ही आ सका--
बुद्धिमान
मैं कहता हूं
उन
व्यक्तियों
को,
जो सत्य के
संबंध में
अनाग्रहपूर्ण
हैं। जिन्होंने
समझा महावीर
के साहस को।
जिन्होंने देखा
कि यह बहुत
साहस की बात
है, वे ही
महावीर के पास
आ सके। लेकिन
जैसे-जैसे समय
बीतता है, जो
लोग पीछे आते
हैं वे सोचकर
नहीं आते, वे
जन्म की वजह
से पीछे आते
हैं। वे आग्रहपूर्ण
हो जाते हैं।
और उनके आग्रह
खतरनाक हो जा
ते हैं।
एक
बहुत बड़े जैन
पंडित मुझे
मिलने आये थे।
उन्होंने
स्यातवाद पर
किताब लिखी है, इस
अनेकांत पर
किताब लिखी
है। मैं उनसे
बात कर रहा
था। मैं उनसे
बात करता रहा।
मैंने उनसे
कहा कि स्यातवाद
का तो अर्थ ही
होता है कि
शायद ठीक हो, शायद ठीक न
हो।
उन्होंने
कहा-- हां।
फिर
थोड़ी बातचीत
आगे बढ़ी। जब
वे भूल गये तो
मैंने उनसे
पूछा लेकिन
स्यातवाद तो
पूर्ण रूप से
ठीक है या
नहीं, एब्सल्यूटली?
उन्होंने
कहा--
एब्सल्यूटली
ठीक है, पूर्णरूप
से ठीक है। स्यातवाद
पर किताब
लिखनेवाला
आदमी भी कहता
है कि
स्यातवाद
पूर्णरूप से
ठीक है। इसमें
कोई गलती नहीं
है, इसमें
कोई भूल हो ही
नहीं सकती। यह
सर्वज्ञ की
वाणी है।
महावीर को
मानने वाला
कहता है-- सर्वज्ञ
की वाणी है, इसमें कोई
भूल-चूक है
नहीं, यह
बिलकुल ठीक
है--एब्सल्यूटली,
पूर्णरूपेण,
निरपेक्ष।
और
महावीर
जिंदगीभर
कहते रहे कि
पूर्ण सत्य की
अभिव्यक्ति
हो ही नहीं
सकती। जब भी
हम सत्य को
बोलते हैं, तभी
वह अपूर्ण हो
जाता है--
बोलते ही
अपूर्ण हो जाता
है। वक्तव्य
देते ही
अपूर्ण हो
जाता है। कोई
वक्तव्य
पूर्ण नहीं हो
सकता। क्योंकि
वक्तव्य की
सीमाएं हैं--
भाषा है, तर्क
है, बोलनेवाला
है, सुननेवाला
है-- ये सब
सीमाएं हैं।
जरूरी नहीं है
कि जो मैं
बोलूं, वही
आप सुनें।
जरूरी नहीं है
कि जो मैं
जानूं वही मैं
बोल पाऊं, और
जरूरी नहीं है
कि जो मैं बोल
पाऊं वह वही
हो जो मैं
बोलने की
कोशिश कर रहा
हूं। यह जरूरी
नहीं है।
तत्काल
सीमाएं लगनी
शुरू हो जा ती
हैं क्योंकि
वक्तव्य समय
की धारा में
प्रवेश करता
है और सत्य
समय की धारा के
बाहर है।
ऐसे ही
जैसे हम एक
लकड़ी को पानी
में डालें तो
वह तिरछी
दिखाई पड़ने
लगे,
बाहर
निकालें तो
सीधी हो जाए।
महावीर कहते
हैं ठीक जैसे
ही हम भाषा
में किसी सत्य
को डालते हैं,
वह तिरछा
होना शुरू हो
जाता है। भाषा
के बाहर निकालते
हैं, शुद्ध
शून्य में ले
जाते हैं वह
पूर्ण हो जाता
है। लेकिन
जैसे ही
वक्तव्य देते
हैं वैसे ही-- इसलिए
महावीर कहते
हैं-- कोई भी
वक्तव्य
स्यात के बिना
न दिया जाए।
कहा जाए कि
शायद सही है।
यह
अनिश्चय नहीं
है,
यह केवल
अनाग्रह है।
यह
अन-सर्टेंनिटी
नहीं है। यह
कोई ऐसा नहीं
है कि महावीर
को पता नहीं है।
महावीर को पता
है लेकिन इतना
ज्यादा पता है,
इतना साफ
पता है कि यह
भी उन्हें पता
चलता है कि
वक्तव्य
धुंधला हो
जाता है। महावीर
की अहिंसा का
जो अंतिम
प्रयोग है, वह
अनाग्रहपूर्ण
विचार है।
विचार भी मेरा
नहीं है, तभी
अनाग्रहपूर्ण
हो जाएगा। जिस
विचार के साथ
आप लगा देंगे
मेरा, उसमें
आग्रह जुड़
जाएगा। न धन
मेरा है, न
मित्र मेरे
हैं, न
परिवार मेरा
है, न
विचार मेरा है,
न यह शरीर
मेरा है, न
यह जीवन, जिसे
हम कहते हैं, यह मेरा है--
यह कुछ भी
मेरा नहीं है।
जब इन सब "मेरे'
से हमारा
फासला पैदा हो
जाता है, गिर
जाते हैं ये
"मेरे', तब
मैं ही बच रह
जाता हूं--
अलोन, अकेला।
और जो वह
अकेला मैं का
बच जाना है, उसकी
प्रक्रिया है,
अहिंसा।
अहिंसा प्राण
है, संयम
सेतु है और तप
आचरण है। कल
हम संयम पर
बात करेंगे।
आज
इतना ही।
लेकिन
अभी कोई जाए
न। संन्यासी
महावीर के स्मरण
में धुन करते
हैं, उसमें
सम्मिलित
हों।
thank you guruji
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