अदेखि—देखिबा—प्रवचन—चौथा
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्न
सार:
__विचार
की ऊर्जा भाव
में कैसे
रूपांतरित
होती है?
__मैं प्रभु
से कुछ मांगना
चाहता हूं
क्या मांग?
__गोरखनाथ
पंडितों के
खिलाफ क्यों
हैं?
__एक ओर आप
कहते हैं कि
जो भी करो
समग्रता से
करो और दूसरी
ओर आप कहते
हैं कि किसी
चीज की अति मत करो,
मध्य में
रहो। क्या इस
विरोधाभास को
दूर करने की
अनुकंपा करेंगे?
__विरह के
संबंध में कुछ
कहें।
__गोरखनाथ की
मूल शिक्षा क्या
है?
__ईश्वर—अस्तित्व
का प्रमाण
क्या है?
पहला
प्रश्न :
विचार
की ऊर्जा भाव
में कैसे
रूपांतरित
होती है?
चैतन्य
कीर्ति! चित्त
की दो
अवस्थाएं हैं।
एक—आदोलित, तरंगायित,
चंचल, वही
विचार है।
दूसरी—शांत, तरंग—शून्य,
मौन, थिर;
वही भाव—समाधि
है। जैसे झील
तरंगों से भरी
हो, तो
विचार; और
झील शात हो, निस्तरंग हो,
तो भाव।
चित्त दोनों
अवस्थाओं में
हो सकता है।
साधारणत:
चित्त विचार
की अवस्था में
है,
क्योंकि
वासना की
हवाएं बह रही
हैं। झील
तरंगित होती
है हवाओं के
कारण। हवाओं
के थपेड़े झील
को डांवांडोल
कर जाते हैं।
ऐसे ही चित्त
तरंगित होता
है वासना की
हवाओं के कारण—यह
पाऊं वह पाऊं,
ऐसा हो जाऊं
वैसा हो जाऊं।
वह जो भीतर
निरंतर कुछ
होने की, कुछ
पाने की तीव्र
ज्वाला जल रही
है, वही
तरंगित करती
है। जैसे ही
वासना चली
जाती है, हवाएं
बंद हो गयीं, झील शांत हो
गयी, भाव सम्हल
गया।
इसलिए
समस्त
ज्ञानियों ने
कहा है : वासना
को समझ लो, सब
समझ में आ
जायेगा।
क्योंकि
जिसने वासना
को समझ लिया, उसने अपने
भीतर
विक्षिप्तता
के पैदा होने
का मूल कारण
समझ लिया। और
जिसे समझ में
आ गया है मूल
कारण, वह
उसे फिर सहयोग
नहीं देगा।
कौन पागल होना
चाहता है! कौन
विचार की
उधेड़बुन, आपाधापी
में पड़ा रहना
चाहता है! कौन
झेलना चाहता
है रोग विचार
का!
विचार
रोग है
क्योंकि
निरंतर
बेचैनी है, अशांति,
तनाव है।
विचार संताप
है। विचार के
कारण ही तो
आनंद नहीं
अनुभव हो रहा
है। आनंद
अनुभव हो जाये
उसी क्षण, जिस
क्षण विचार
विदा हो जाये।
और विचार तब
तक विदा न
होगा जब तक
वासना की हवाएं
बहती हैं।
तुम
पूछते. विचार
की ऊर्जा भाव
में कैसे
रूपांतरित
होती है?
वासना
को समझो। तुम
जो हो, उससे ही
राजी हो जाओ; वासना विदा
हो गयी। तुम
जैसे हो, उससे
ही संतुष्ट हो
जाओ। और की
मांग न हो। जो
है, परम
आह्लादकारी
है। जैसा है, उससे भिन्न
होने की कोई आवश्यकता
नहीं। तो इसी
क्षण, देखो
कहा गये
विचार! भाव
सम्हल गया...।
धीरे— धीरे
भाव का रस
अनुभव होगा।
और जब भाव का
रस अनुभव होगा
तो कौन विचार
में जाना
चाहेगा! जिसका
फूलों से
संबंध जुड़ने
लगा वह फिर
कीटों की तलाश
नहीं करता।
लेकिन
यह पूरा समाज, यह
भीड़, ये
लोग, तुम्हारे
भीतर वासना को
उत्तेजित
करते हैं।
बचपन से ही
वासना की
दीक्षा दी
जाती है, महत्वाकाक्षा
सिखाई जाती है।
बाप भी चाहता
है बेटा कुछ
हो जाये— धन
कमाये, पद
कमाये, यश—प्रतिष्ठा...
घर का नाम, कुल
का नाम उजागर
करे—पकड़ाई
तुमने वासना।
छोटे—छोटे
बच्चे
जिन्हें हम
स्कूल भेजते
हैं, हम
वासना की
दीक्षा लेने
भेज रहे हैं।
पच्चीस वर्ष,
जीवन का एक
तिहाई हिस्सा,
हम लोगों को
महत्वाकाक्षा
सिखाते हैं!
कैसे तुम
प्रथम हो जाओ,
कैसे
दूसरों को
पीछे छोड़ दो।
चाहे कुछ भी
कीमत चुकानी
पड़े, चाहे
जीवन ही खो
जाये इस दौड़
में, मगर
दौड़ कर आगे हो
जाना...। मरना
तो आगे जाकर
मरना, पीछे
मत रह जाना।
जीसस
के वचन पर
विचार करो.
धन्यभागी हैं
वे जो अंतिम
हैं,
क्योंकि वे
ही मेरे प्रभु
के राज्य में
प्रथम होंगे;
और जो प्रथम
हैं, वे
अंतिम पड़
जायेंगे।
महत्वाकांक्षी
प्रभु के
राज्य से
जुड़ेगा कैसे? उसने
तो नरक से
अपना नाता बना
लिया। फिर
जीवन— भर की
आपाधापी के
बाद, न
मालूम कितने
घाटों का गंदा
पानी पीने के
बाद, न
मालूम कितने
रास्तों की
धूल— धवांस से
लद जाने के
बाद, जब
जिंदगी का
सूरज अस्त
होने लगता है,
और जब लगता
है कि हाथ कुछ
लगा नहीं, खाली
के खाली रह
गये; दौड़े
बहुत, पहुंचे
नहीं कहीं—तब
पश्चात्ताप
घेरता है। तब
मन सोचता है
अब समाधि कैसे
पा लें; अब
परमात्मा को
कैसे पा लें।
और फिर
तुम्हें मन ने
धोखा दिया; वही पाने की
भाषा..। अब
तुम्हें नयी
महत्वाकांक्षा
पकड़ेगी। इस
महत्वाकाक्षा
का रूप भर
धार्मिक है, ढंग भर
धार्मिक है; इसकी आत्मा
तो वही की वही
है। तुम चाहे
धन चाहो चाहे
धर्म, पद
चाहो चाहे
परमात्मा, जब
तक चाह है तब
तक हवाएं बहती
रहेंगी और
चित्त तरंगित
होता रहेगा।
जो धन चाहता
है उसके चित्त
में धन के
विचार उठते
हैं; जो
परमात्मा
चाहता है उसके
मन में
परमात्मा के
विचार उठते
हैं—लेकिन
विचार तो जारी
रहेंगे। इससे
क्या फर्क
पड़ता है कि
विचार किसके
हैं, धन के
हैं कि धर्म
के हैं? धार्मिक
विचार हो कि
अधार्मिक
विचार हो, विचार
विचार है। और
जहां विचार है
वहा अशांति है।
इसलिए
मैं तुम्हें
धार्मिक
विचार नहीं
सिखा रहा हूं।
मैं तुम्हें
निर्विचार की
दीक्षा दे रहा
हूं। आमतौर से
यही चल रहा है
मंदिर—मस्जिदों
में : जो लोग
सांसारिक
विचारों से भरे
हैं,
उन्हें हम
कैसे
आध्यात्मिक
विचारों से भर
दें, बस...।
मगर क्या फर्क
पड़ता है? रोग
का नाम
धार्मिक रख
लिया, अच्छा—प्यारा
नाम रख लिया, इससे क्या
फर्क पड़ता है?
जब
तक तुम कुछ भी
होना चाहते हो, जब
तक तुम भविष्य
में कुछ होने
की आकांक्षा
रखते हो, जब
तक तुम कल के
प्रति आतुर हो,
आकाक्षी हो,
अभीष्ठ हो,
तब तक तुम
अशांत रहोगे।
विचार की धारा
बहती रहेगी।
और विचार की
धारा बहती
रहेगी?इr तुम
परमात्मा से
टूटे रहोगे।
मैं
तुमसे यह कह
रहा हूं कि
धार्मिक
विचार भी परमात्मा
के और
तुम्हारे बीच
उतनी ही बड़ी
बाधा है जितनी
सांसारिक
विचार की।
विचार बाधा है, निर्विचार
मिलन है।
गोरख
ने कहा है:
अदेखि
देखिबा देखि
विचारिबा
अदिसिटि
राषिबा चीया।
पाताल
की गंगा
ब्रह्मंड
चढाइबा तहां
बिमल बिमल जल
पीया।।
जो
नहीं दिखाई
पड़ता उसे
देखना है, तो
साधारण आंखें
काम न दे
सकेंगी। जो
नहीं विचार
में आता उसका
अनुभव करना है,
तो विचार की
प्रक्रिया
साथ न दे
सकेगी।
अदेषि
देषिबा।
जो
दिखाई नहीं पड़ता
उसे देखना है, तो
आंख बंद करके
देखना होगा।
वह दिखाई तो
पड़ता ही नहीं
है; आंख
खोलकर तो जो
दिखाई पड़ता है
वह संसार है।
अदेषि
देषिबा देषि
विचारिबा!
फिर
उसे देखकर ही
नहीं रह जाना
है,
उसे देखकर
अपने अंतरतम
में प्रविष्ट
कराना है। उसे
सूझना है, बूझना
है। तो जो
दिखाई पड़ जाये
उतने से ही
काम हल नहीं
हो जाता। जो
झलक मिल जाये,
वह हमारी
आत्म—अवस्था
में सम्मिलित
हो जानी चाहिए।
जो झलक मिले, वह बिजली की
कौंध जैसी न
हो कि आयी और
गयी—हमारे
भीतर जलते हुए
एक शाश्वत
दीये की भांति
हो, जिसका
प्रकाश बना ही
रहे, बना
ही रहे।
अदिसिटि
राषिबा चीया।
वह
जो अदृश्य है
उसमें अपने
चित्त को
डुबाना है। और
अपने चित्त
में अदृश्य को
सम्हालना है।
पाताल
की गंगा
ब्रह्मंड
चढाइबा!
और
वह जो ऊर्जा
की गंगा है, जो
नीचे की तरफ
बही जा रही है—वासना
में, कामना
में, महत्वाकांक्षा
में; जो
संसार की तरफ
प्रवाहित है..।
पाताल
की गंगा
ब्रह्मंड
चढाइबा!
वह
जो नीचे की
तरफ जा रही है—पाताल
की तरफ, नर्क
की तरफ—उसे
ऊपर की तरफ ले
जाना है, उसे
ऊर्ध्वगमन
देना है।
तहां
बिमल— बिमल जल
पीया।
और
एक बार तुम
चढ़ने लगे ऊपर
की तरफ, ऊर्ध्वगामी
हुए, ऊध्वरइतस,
तो फिर खूब
विमल रस, फिर
अमृतरस को
पीयो।
परमात्मा को
बैठ जाने दो
हृदय में, तुम
बैठ जाओ
परमात्मा के
हृदय में, फिर
पीयो खूब
अमृतरस!
परमात्मा
हृदय में
बैठता ही तब
है जब चित्त
निस्तरंग
होता है।
ऐसा
ही समझो झील
है,
पूर्णिमा
की रात है, आकाश
में बड़ा
प्यारा चांद
है, बडा
सुंदर समा है;
लेकिन झील
तरंगित है तो
चांद का
प्रतिबिंब झील
में नहीं बैठ
पाता, टूट—टूट
जाता है, बिखर—बिखर
जाता है, बनाओ—बनाओ
और बिखर जाता
है। पूरे झील
पर चांद के
टुकड़े—टुकड़े
फैल जाते हैं।
चांदी फैल
जाती है झील
पर, मगर
चांद का
प्रतिबिंब
नहीं बन पाता।
फिर झील शात
हो गयी, हवाएं
अब नहीं बहती,
अब सन्नाटा
है, अब झील
ध्यानमग्न हो
गयी, अब
झील समाधिस्थ
हो गयी—अब
चांद का
प्रतिबिंब
बनता है। अब
चांद पूरा का
पूरा झील में
बैठ गया।
ऐसी
ही घटना घटती
है। परमात्मा
तो चारों तरफ
मौजूद है।
पूर्णिमा तो
है ही, क्योंकि
परमात्मा एक
क्षण को भी
अनुपस्थित
नहीं हो रहा
है। पूरा चांद
निकला ही हुआ
है, सिर्फ
तुम्हारे
चित्त की झील
तरंगित है। तो
तुम्हारे
भीतर
परमात्मा का
प्रतिबिंब नहीं
बन पाता, तुम
उसे अपने भीतर
नहीं सम्हाल
पाते। वह
तुम्हारे
गर्भ में
प्रविष्ट
नहीं हो पाता है;
टूट—टूट जाता
है, बिखर—बिखर
जाता है; पारे
की तरह छिटक—छिटक
जाता है।
जितनी मुट्ठी
बांधते हो
उतनी मुश्किल
होती जाती है।
भाव
की अवस्था का
अर्थ होता है :
चित्त निर्मल हुआ, शांत
हुआ। अब नहीं
बहती वासना की
तरंगें। अब न
कुछ पाना है, न कुछ होना
है। बैठे रहे
चुप मौन...। इस
विश्राम की
अवस्था में
तल्ला जो
मौजूद था वह
भीतर झलकने
लगता है। चांद
बाहर ही नहीं
होता फिर, चांद
भीतर भी आ
जाता है। और
तब पीयो खूब..
बिमल—बिमल रस
पीया!
इहां
ही आछै इहां
ही अलोप। इहां
ही रचिलै तीन
त्रिलोक?
आछै
संगै रहै का।
ता कारणि अनंत
सिधा
जोगेश्वर
हूवा
गोरख
कहते हैं कि
अनंत साधकों
ने,
खोजनेवालो
ने इस तरह
सिद्धि पायी।
इस तरह सिद्ध
योगेश्वर हुए।
किस तरह? इहा
ही आछे, इहां
ही अलोप! जिसे
तुम खोज रहे
हो वह यहीं
छिपा है। कहां
जाते हो? इहां
ही आछे इहां
ही अलोप!
जिसे
तुम खोजने दूर—दूर
की यात्रा
करते हो, काशी
और कैलाश, कुरान
और पुराण... और
जिसको तुम
पत्थरों में
पूजते हो और
शब्दों में
तलाशते हो, वह बिलकुल
यहीं मौजूद है,
अभी, तुम्हारी
श्वास—श्वास
में, तुम्हारी
आंख के सामने
है। तुम कहीं
भी आंख फेरो, वहीं मौजूद
है। इहां ही
आछे इहां ही
अलोप। यहीं
मौजूद है और
यहीं छिपा है।
और छिपा है, इसका यह
अर्थ नहीं है
कि तुमसे
छिपने की
कोशिश कर रहा
है। छिपा है
इसलिए अलोप १
इसलिए, क्योंकि
तुम्हारी आंखों
पर विचार का
परदा पड़ा है।
तुम अपने
विचारों से
भरे हो, देखने
की सुविधा कहा
है? तुम
तरंगायित हो।
इहां
ही रचिलै तीन
त्रिलोक!
कहां
की तुम बातें
कर रहे हो कि
और कहीं आगे
कोई लोक है? यहीं
तीनों लोक हैं।
नर्क भी यहीं
है, पृथ्वी
भी यहीं, स्वर्ग
भी यहीं। सब
तुम्हारी
दृष्टि की बात
है। इधर
दृष्टि बदली
कि उधर सृष्टि
बदली।
जो
आदमी विचार
में जी रहा है, वह
नर्क में जी
रहा है। जो
आदमी भाव में
जी रहा है, वह
स्वर्ग में जी
रहा है। जो
दोनों के मध्य
में अटका है, वह पृथ्वी
पर।
इस
पृथ्वी पर
अधिक लोग नर्क
में जी रहे
हैं। तुम यह
मत सोचो कि
नर्क कहीं
पाताल में है।
भूलो पुरानी
व्यर्थ की
बकवासें। अगर
खोदते चले
जाओगे जमीन को
तो पाताल में
तो अमरीका है, नर्क
नहीं है। और
अमरीका के भी
लोग यही सोचते
हैं कि नीचे।
तुम हो नीचे! —यह
पुण्यभूमि
भारत! अगर
अमरीका खोदता
ही चला जाये
तो यहा निकल
आयेंगे, पूना
में। तुमको
पाकर बड़े
हैरान होंगे। 'शैतान
इत्यादि कहौ
हैं, आग
कहां जल रही
है, कड़ाहे
कहां हैं?'
जमीन
गोल है। नीचे
यही पृथ्वी है।
इसलिए नीचे—ऊपर
की भाषा को
प्रतीक समझो।
नीचे का अर्थ
जमीन के नीचे
नहीं है। और
ऊपर का अर्थ
आकाश में मत
देखने लगो।
नीचे का अर्थ
है विचार। ऊपर
का अर्थ है
भाव। नीचे का
अर्थ है
विक्षिप्तता।
ऊपर का अर्थ
है विमुक्तता।
और दोनों के
मध्य में
पृथ्वी है।
जो
लोग नर्क में
जी रहे हैं वे
दुख पा रहे
हैं,
बहुत दुख पा
रहे हैं; अभी
पा रहे हैं, इसी क्षण पा
रहे हैं! करो
क्रोध और तुम
नर्क में
प्रविष्ट हो
गये... जलने लगी
आग। किस आग का
विचार कर रहे
हो, और कौन—से
कड़ाहे चाहिए?
क्रोध
जितना गला
देता है और
जितना जला
देता है, और
क्या जलायेगा?
होने लगे
दग्ध, डूबने
लगे जहर में।
कड़वाहट फैलने
लगी प्राणों
पर। और करो
प्रेम, करुणा
और उठने लगे
ऊपर; ऊर्ध्वगमन
शुरू हुआ, खुले
द्वार स्वर्ग
के!
आकाश
में नहीं है
स्वर्ग! ऊपर
कहते हैं इसलिए
कि वह ऊपर की
अवस्था है, तुम्हारी
चेतना की ऊपरी
से ऊपरी
अवस्था का नाम
है। भाव
तुम्हारी
श्रेष्ठतम
अवस्था है—तुम्हारे
भीतर का
गौरीशंकर!
लेकिन
लोग सोचते हैं
कि गौरीशंकर
पर कुछ है।
इसलिए कैलाश
पर तीर्थ बन
गया है। तीर्थ
तुम्हारे
भीतर है, तुम्हारे
भीतर है कैलाश।
तुम्हारी
चेतना जब परम
शात होती है
तो गौरीशंकर
बन जाती है।
ऊंचे से ऊंचा
हिमालय भी
तुमसे नीचे पड़
जाता है। तुम
उड़ने लगे आकाश
में, तुम
आकाश हो गये!
और जब तुम
नीचे गिरते हो
तो नर्क हो
जाते हो।
दोनों के मध्य
में पृथ्वी है।
अधिकतम
लोग नर्क में
जी रहे हैं, बहुत
थोड़े—से लोग
पृथ्वी पर जी
रहे हैं, और
बहुत विरले
लोग स्वर्ग का
अनुभव कर रहे
हैं। और सब
अभी है यहीं
है। गोरख का
वचन बहुत
अदभुत है :
इहां
ही रचिलै तीन
त्रिलोक!
रच
लो यहीं, जो भी
तुम्हें करना
हो, जो भी
तुम्हें
बनाना हो, जहां
भी जीना हो; यह तुम्हारे
जीवन की शैली
पर निर्भर है।
आछै
संगै रहै
जूवा!
यहीं
तुम्हारे
भीतर, तुम्हारे
शून्य में सब
छिपा है।
तुम्हारे
सहस्रार में
सब छिपा है।
यहीं आलोकों
का आलोक छिपा
है, प्रकाशों
का प्रकाश!
इसी शून्य में
परमात्मा विराजमान
है। इसमें जो
डूबा, वह
सिद्ध हुआ, योगेश्वर हुआ।
आछै
संगै रहै जूवा।
अपने
ही भीतर के
शून्य से
संबंध बना लो।
ता
कारणि अनंत
सिधा
जोगेश्वर
द्या और उतने
ही कारण से, बस
उतने ही कारण
से, अपने
शून्य से
संबंध बना
लेने से, अनेक—
अनेक लोग योग
की परम अवस्था—निर्विकल्प
समाधि कों—उपलब्ध
हो गये हैं।
भक्त उसी को भाव—समाधि
कहते हैं।
दूसरा
प्रश्न :
मैं
प्रभु से कुछ
मांगना चाहता
हूं क्या मांगूं?
मांगने
की बात शोभा
की बात नहीं।
प्रभु के
द्वार पर
भिखमंगे होकर
मत जाना। बिन
मांगे मोती
मिलें, मतो
मिले न ऋ। और
ऐसा नहीं है
कि नहीं
मिलेगा; मगर
नहीं
मांगनेवाले
को मिलता है।
मांगनेवाले
लौटा दिये
जाते हैं।
मंगनों का कौन
स्वागत करता
है? परमात्मा
के द्वार के
पहरेदार कह
देते है—आगे
बढ़ों! मागने
वालों से लोग
परेशान हैं।
एक
यहूदी मरा, जिंदगी—
भर प्रार्थना
में ही समय
बिताया। खूब
चिल्ला—चिल्लाकर
प्रार्थना
करता था
सिनेगाग में
जाकर। रात
सोता तो भी
चिल्लाकर
प्रार्थना
करता। नींद
खुल जाती बीच
में तो भी
चिल्लाकर
प्रार्थना
करता—सुन ले
परमात्मा!
उसके सामने ही
एक नास्तिक था,
जिसने कभी
प्रार्थना न
की और कभी
मंदिर न गया।
सोचता था
यहूदी दिल में—धार्मिक
था, सोचता
था—कि बच कर लो
दो—चार दिन
मजा और फिर
पड़ोगे नर्क
में, फिर
भुगतोगे। और
प्रसन्न होता
था, कि हम
होंगे स्वर्ग
में; इतनी
की हैं
प्रार्थनाएं,
इतना पुण्य
कमाया है। तुम
पड़े होओगे
नर्क में। अभी
कर लो चार दिन
मजा—मौज, बजा
लो खूब
बांसुरी; मगर
यह चार दिन की
चांदनी है, फिर अंधेरी
रात। ऐसा मन
ही मन में
सोचता, और
और जोर से
प्रार्थना
करता।
प्रार्थना
में अपने लिये
तो स्वर्ग
मांगता ही था,
साथ में
सामने
रहनेवाले
नास्तिक के
लिये नर्क भी
मांगता था।
संयोग की बात,
दोनों एक ही
दिन मरे।
देवता लेने
आये, धार्मिक
को नर्क की
तरफ ले चले।
वह बहुत
चिल्लाया कि
यह क्या कर
रहे हो? और
अधार्मिक को
स्वर्ग की तरफ
ले चले। उसने
कहा यह अन्याय
हो रहा है।
जिंदगी भर
मेरे साथ
अन्याय हुआ और
अब भी अन्याय
हो रहा है। तब
भी मैं परेशान
रहा, मगर
मैंने सब तरह
से धीरज रखा
कि कोई बात
नहीं, झेल
लें, चार
दिन की परेशानी
है, फिर तो
स्वर्ग है। और
इस भोगी को
तुम स्वर्ग ले
जा रहे हो!
जरूर कुछ भूल—चूक
हो गयी है।
आज्ञा लाये
होओगे मुझे
स्वर्ग ले
जाने की, तुम्हारी
चिट्ठी तो
देखें! ले चले
उसे, कुछ
भूल हो रही है
तुमसे।
मगर
उन्होंने कहा
: कोई भूल नहीं
हो रही है।
अगर तुम्हें
ज्यादा
परेशानी हो तो
हम दोनों को
परमात्मा के
सामने ले चलें।
उसने
कहा कि जरूर
ले चलो, वहां
निर्णय हो
जायेगा।
परमात्मा के
सामने जाकर
उसने फिर
चिल्लाया, पुरानी
आदत थी।
परमात्मा ने
कहा : अब तो मैं
तुम्हारे
सामने हूं अब
क्यों चिल्ला
रहे हो? क्या
चाहते हो?
उसने
कहा : कुछ भूल
हो गयी है, ले
जाना है मुझे
स्वर्ग में और
ले जा रहे हैं
इस दुष्ट को।
और यह तो भोगी
है। और यह तो
जिंदगी— भर
गलत काम करता
रहा।
प्रार्थना
इसने कभी की
नहीं; मैं
सदा
प्रार्थना
करता रहा, मुझे
नर्क क्यों ले
जाया जा रहा
है?
परमात्मा
ने कहा : तेरी प्रार्थनाओं
के कारण। तू
मेरा सिर खा
गया। अब तुझे
यहां स्वर्ग
में बसाकर और
अपनी जान की
मुसीबत लेनी
है,
बला लेनी है?
तेरी
प्रार्थनाओं
का यह फल है।
इस आदमी को
बसा रहा हूं
इसलिए कि यह
बांसुरी बजाता
है, राग—रंग
में रहता है; इससे स्वर्ग
में थोड़ी—सी
रौनक आयेगी। तेरे
बसाने से तो
रौनक आयेगी
नहीं; थोड़ी—बहुत
है, वह भी
चली जायेगी।
तुम
मांगोगे
प्रभु से कुछ
तो क्या
मांगोगे? कुछ
क्षुद्र ही
मांगोगे।
अच्छा तो हो
कि न मांगो।
अगर न मांगने
की क्षमता
जुटा सको तो
श्रेष्ठतम है।
अगर मलना ही
हो तो सिर्फ
प्रभु को
मांगो, और
कुछ न मांगो।
नंबर दो की
बात है वह। मन
माने ही नहीं,
मन को आदत
ही मांगने की
पड़ गयी हो, बिना
मांगे चित्त
राजी ही न हो, काटा चुभता
रहे, तो
फिर प्रभु को
ही मांग लो।
रहीम
ने कहा है—
कहा
करौं बैकुंठ
लै,
कल्पवृक्ष
की छांह।
रहिमन
ढाक सुहावनो, जो
गल प्रीतम बाह।।
क्या
करूंगा लेकर
तुम्हारा
बैकुंठ? और
क्या करूंगा
कल्पवृक्ष की
छाह?
रहिमन
ढाक सुहावनो!
यह
ढाक का कुरूप—सा
वृक्ष भी खूब
सुहावना है; बस
एक काम हो
जाये—
जो गल
प्रीतम बांह!
तुम्हारे
गले में मेरा
हाथ हो, मेरे
गले में
तुम्हारा हाथ
हो, फिर
इसी ढाक के
नीचे स्वर्ग
बस गया। फिर
क्या करेंगे
कल्पवृक्ष और
बैकुंठ का? फिर यहीं
बैकुंठ है!
तो
अगर मांगना ही
हो तो उसे
मांगो; बस
उससे ज्यादा
कुछ न मांगना।
अगर मांगना ही
हो तो इतना
मांगो कि मुझ
अपात्र को
स्वीकार कर लो।
अगर मांगना ही
हो तो इतना ही
कि मुझे शरण
दे दो, कि
मेरा समर्पण
स्वीकार हो, अस्वीकार न
हो। जैसे
प्रेमी
प्रेयसी से
मांगता है, या प्रेयसी
प्रेमी से
मांगती है।
परमात्मा
के द्वार पर
प्रेमी की तरह
जाओ,
भिखमंगे की
तरह नहीं।
मानिनी
सब कुछ निछावर
चरण पर तेरे—
वरण कर
पुण्यतम क्षण
है!
खोल दे
निज नयन —पाटल
युग —युगों
से स्निग्ध उर
— तल,
वेदना
बन जाये यमुना
—
एक
सुधि की सांस
से गल;
रागिनी, सुर
—लय निछावर
भजन पर तेरे —
ध्वनन
कर पुण्यतम
क्षण है!
वरण कर
पुण्यतमं
क्षण है!
आज
बंदी —सा बना
है
धड़कनों
की आह का स्वर
अधर का
संगीत खोया —
कहरती —सी
है लहर;
मानिनी, मन
—प्राण नूपुर —झनन
पर तेरे —
किरण
कर पुण्यतम
क्षण है!
वरण कर
पुण्यतम क्षण
है!
आज
स्वप्निल —सा
पुरातन
एक
अभिनव मधुर
नूतन,
विगत —
आगत सब लिये —
थिरकन —
भरे तेरे
सुकंकण;
रगिनी, मृदु
नेह अर्पित
मिलन पर तेरे—
सृजन
कर पुण्यतम
क्षण है!
मानिनी, सब
कुछ निछावर
चरण पर तेरे —
वरण कर
पुण्यतम क्षण
है!
जैसे
कोई प्रेमी
अपनी प्रेयसी
के चरणों पर
सब रख दे, जैसे
कोई प्रेयसी
अपने प्रेमी
के चरणों पर
सब रख दे — ऐसा
परमात्मा से
संबंध जोडो!
लेने—देने का
नहीं, दाव—पेंच
का नहीं, आकांक्षाओं,
अभीप्साओं का
नहीं।
मांगो
मत,
मांगने से
प्रार्थना
गंदी हो जाती
है।
प्रार्थना को
मुक्त रहने दो।
मांग से मुक्त,
तो ही
प्रार्थना
आकाश में उड़
पाती है; नहीं
तो मांग के
पत्थर भारी हो
जाते हैं।
प्रार्थना को
पृथ्वी पर ही
गिरा देते हैं;
आकाश तक
नहीं उठ पाती।
मांगोगे क्या?
तुम्हारा
मन ही तो
मांगेगा न! मन
से मुक्त होना
है। उसकी मांग
की पूर्ति
चाहोगे तो मन
से मुक्त कैसे
होओगे? मांगोगे
क्या? मांग
भी तो एक
विचार है न? विचार के ही
बाहर जाना है
और विचार की
ही पूर्ति
मांगोगे, तो
बाहर कैसे
जाओगे? मांगो
मत, मौन हो
जाओ। उसके
सामने मौन
निवेदन
पर्याप्त है।
बह जाओ उसके
चरणों में
गंगाजल जैसे।
धो दो उसके
चरण अपने जीवन
से, बस
इतना काफी है।
और मिलता है
बहुत, बिन
मांगे मिलता
है। मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि मिलता
नहीं; मगर
मिलता उसी को
है जो मांगता
नहीं।
मांगनेवाले
को नहीं मिलता।
मांगनेवाला
अपनी मांग के
कारण ही अड़चन
खड़ी कर देता
है।
फिर
भी,
न सम्हाल
सको तो मैं
कहता हूं कुछ
मांग लेना—परमात्मा
को मांग लेना।
या कुछ...
परमात्मा को
मांगने की
आकांक्षा ही न
जगती हो, क्योंकि
बहुत मुश्किल
से परमात्मा
को मांगने की आकांक्षा
जगती है। वह
तो जिसके भीतर
प्रेम जग आया
है, वह
परमात्मा को
मांग सकता है।
मगर अधिक
लोगों के भीतर
प्रेम ही नहीं
है, वे धन
मांग सकते हैं,
पद मांग
सकते हैं, प्रतिष्ठा
मांग सकते हैं,
इस तरह की
बातें। लंबी
उम्र मांग
सकते हैं, स्वास्थ्य
मांग सकते हैं;
इस तरह की
चीजें ही मांग
सकते हैं।
अगर
तुम्हारे
भीतर प्रेम हो
तो परमात्मा
को मांग लेना; अगर
ध्यान हो तो
कुछ मांगना ही
मत। ध्यान तो
ऊंचे से ऊंचा
शिखर है : कुछ
मांगना ही मत।
चुप रह जाना—मौन,
अवाक, उसके
समक्ष
आश्चर्यविमुग्ध,
रहस्यलीन, लवलीन, तल्लीन...।
मिलेगा बहुत,
पूरा
परमात्मा बरस
पड़ेगा तुम पर।
उसके आशीष ही
आशीष फूलों की
तरह तुम्हें
लबालब भर
देंगे। लेकिन
अगर मौन रहने
की क्षमता अभी
न हो और कुछ न
कुछ तरंग उठती
ही हो तो फिर
परमात्मा को
मागना; वह
प्रेमी की
तरंग है। वह
नंबर दो है।
और अगर अभी
प्रेम भी न
जगा हो तो फिर
तीसरा सुझाव
है :
मुस्कुराता
हुआ दीप मैं
बन सकूं
स्नेह
इतना हृदय में
भरो आज तुम!
मोतियों
से न रीती रहे आंख
यह
रागिनी
कंठ में खो न
जाए कहीं
भय
मुझे है तिमिर
की घनी छांह
में
ज्योति
धुंधली स्वयं
हो न जाए कहीं,
जिंदगी
में खिंची है
परिधि मौत की
डगमगाता
हुआ हर कदम चल
रहा,
एक पल
की मनुज की
हंसी को यहां
डबडबाता
हुआ हर नयन छल
रहा,
चांदनी—सा
मधुर हास
बिखरा सकु
प्राण!
उल्लास इतना
भरों आज तुम!
मुस्कुराता
हुआ दीप मैं
बन सकूं
स्नेह
इतना हृदय में
भरो आज तुम!
फूल
कुछ झर रहे
हैं धरा पर
अरे
नव कली
का न घूंघट
हटाओ अभी,
हंस
सकें साथ ही
मुस्कुरा
घूमकर;
डाल के
फूल यों
मुस्कुराओ
अभी;
आवरण
रश्मि का फूल
पर डाल दो
नव कली
के नयन
मुस्कुरा तो
सकें
हो नए
राग का ही
सृजन कुछ घड़ी
मुक्त
मन से अधर
गुनगुना तो
सकें
मैं
गरल पी सकूं
गीत गा—गा
यहां
जीभ पर
बूंद मधु की
धरो आज तुम!
मुस्कुराता
हुआ दीप मैं
बन सकु
स्नेह
इतना हृदय में
भरो आज तुम!
तो
पहला : मांगना
ही मत कुछ। वह
ध्यान, वह
भाव, वह
निर्विचार
दशा है। दो :
मांगो तो
प्रभु को
मांगना। तुम
स्वीकृत हो
सकी, ऐसी
अनुकंपा
मांगना।
लेकिन उतना
प्रेम न जागा
हो तो इतना ही
मांगना कि
मेरा हृदय
प्रेम से भर
जाए।
मुस्कुराता
हुआ दीप मैं
बन सकूं
स्नेह
इतना हृदय में
भरी आज तुम
मैं
गरल पी सकूं
गीत गा—गा
यहां
जीभ पर
बूंद मधु की
धरो आज तुम!
इससे
नीचे मत गिरना।
इससे नीचे गये
तो प्रार्थना
बिलकुल ही
भ्रष्ट हो गयी, प्रार्थना
ही न रही।
तीसरा
प्रश्न :
गोरखनाथ
पंडितों के
खिलाफ क्यों
हैं?
और
क्या करें? पंडित
का अर्थ होता
है : पढ़ा—लिखा
तोता। राम—नाम
जप लेता है
तोता, इससे
राम—नाम उसके
हृदय में थोड़े
ही होता है।
गीता भी दोहरा
सकता है, गायत्री
भी पढ़ सकता है,
कुरान की
आयत भी कंठस्थ
कर सकता है; लेकिन इससे
उसका प्राण
थोड़े ही भीगता
है। पत्थर की
तरह पड़ा रहेगा
नदी में, मगर
भीगेगा थोड़ी
है। तोता राम—राम
भी जपे तो तुम
सोचते हो उसके
प्राण में राम—नाम
है?
ऐसी
ही दशा पंडित
की है। पंडित
खुद धोखा खा
रहा है, दूसरों
को धोखा दे
रहा है। अनुभव
तो कुछ नहीं
हुआ। प्राणों
में कोई स्वाद
नहीं उतरा, कोई मधु—बूंद
नहीं भरी, कोई
फूल नहीं खिला;
लेकिन उधार बातें
कंठस्थ हो गयी
हैं, उन्हें
दोहरा रहा है।
और दोहरा—दोहरा
कर अकड़ रहा है।
गोरखनाथ
ने ही विरोध
नहीं किया है, समस्त
ज्ञानियों ने
विरोध किया है;
क्योंकि
पांडित्य
ज्ञान का
दुश्मन है; पांडित्य
ज्ञान का धोखा
है, प्रवंचना
है, विडंबना
है। पांडित्य
से कोई ज्ञानी
नहीं होता, सिर्फ
अज्ञान ढंक
जाता है, अज्ञान
मिटता नहीं।
जैसे दीये की
बात करने से
अंधेरा नहीं
मिटता, ऐसे
ही ब्रह्म की
चर्चा से कोई
अंतरज्योति
नहीं जग जाती।
न तो भोजन की
चर्चा से भूख
मिटती है; भोजन
से मिटती है।
और पंडित
चर्चा में ही
लीन हो गया है।
और भूल ही गया
है कि भोजन
पकाना भी है।
पंडित
पाकशास्त्रों
को ढोता रहता
है। हजार
पाकशास्त्र
रखे हों तो भी
एक रूखी—सूखी
रोटी से उनका
ज्यादा मूल्य
नहीं है, कम
ही मूल्य है, क्योंकि
रूखी—सूखी
रोटी पेट
भरेगी, मांस—मज्जा
बनेगी। संतों
की वाणी चाहे
उतनी अलंकृत न
हो; नहीं
है, गोरख
की भी वाणी
बहुत अलंकृत
नहीं है; सीधे—सादे
दो टूक शब्द
हैं, साफ—सुथरे
हैं, आभूषणों
से लदे नहीं
हैं। शायद
पंडित की भाषा
ज्यादा
परिमार्जित
हो, सुसंस्कृत
हो। संस्कृत
शब्द का अर्थ
ही होता है
परिमार्जित।
तुम
यह जानकर
हैरान होओगे
कि बुद्ध
लोकभाषा में
बोले। महावीर
लोकभाषा में
बोले। गोरख
लोकभाषा में
बोले। कबीर, नानक,
दादू
लोकभाषा में
बोले। किसी ने
संस्कृत का उपयोग
नहीं किया।
कारण? कारण
साफ है।
संस्कृत अब
सिर्फ
पंडितों की
भाषा रह गयी
थी। अब
संस्कृत
लोगों के जीवन
से संबंधित ही
नहीं थी। अब
तो पंडित
चालबाजी के
कारण संस्कृत
का उपयोग कर
रहा था।
चालबाजी क्या
है? —उस
भाषा का उपयोग
करो, जिसको
लोग न समझते
हों। तुम जब
ऐसी भाषा का
उपयोग करोगे
जिसे लोग नहीं
समझते, तो
लोगों को कभी
पता नहीं
चलेगा कि तुम
जानते भी हो
कि नहीं। तुम
ऊलजलूल बकते
रही, तुम
व्यर्थ की
बकवास करते
रहो, और
लोग बड़ी
श्रद्धा से
सुनेंगे।
उनकी समझ में
ही नहीं आ रहा
है। और जब
लोगों के समझ
में नहीं आता
तो वे सोचते हैं.
जरूर कोई गहन—गंभीर
बात कही जा
रही होगी, इसलिए
समझ में नहीं
आ रही।
सत्य
सीधा—साफ होता
है;
सीधा, अत्यंत
सीधा होता है,
एकदम समझ
में आ जाता है।
सत्य को समझने
के लिये बहुत
दाव—पेंच नहीं
लगाने पड़ते।
असत्य बहुत जटिल
होता है। तुम
देखते हो न, डाक्टर से
दवा लिखवाने
जाते हो तो वह
हिंदी या
मराठी में, या अंग्रेजी
में नहीं
लिखता; वह
लैटिन और
ग्रीक में
लिखता है नाम
दवा के। लैटिन
और ग्रीक में
लिखने का कारण
है कि तुम्हारी
समझ में नहीं
आता। और
डाक्टर की
लिखावट देखी
है? वह ऐसा
लिखता है कि
दोबारा उसको
खुद भी पढ़ना
पड़े तो अटक
जाये। मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने गांव में
अकेला पढ़ा—लिखा
आदमी है। एक
ग्रामीण उससे
पत्र लिखवाने
आया। मुल्ला
ने कहा कि
नहीं लिख
सकूंगा, आज
नहीं लिख
सकूंगा, कम—से—कम
आठ दिन नहीं
लिख सकूंगा।
मेरे अंगूठे
में बहुत दर्द
है, पैर के
अगंठे में
बहुत दर्द है।
उस
आदमी ने कहा.
मुल्ला, होश
की बातें करो।
पैर के अगंठे
की जरूरत ही
क्या है? पत्र
हाथ से लिखना
है।
मुल्ला
ने कहा : तुम
समझते ही नहीं
तो बीच में मत
बोलो। लिख तो
मैं दूंगा, फिर
पढ्ने कौन
जायेगा? मेरा
लिखा मैं ही
पढ़ सकता हूं और
कभी—कभी तो
मैं ही अटक
जाता हूं। ऐसा
भी हुआ एक दिन
एक आदमी पत्र
लिखवाने आया.।
अब
यह बड़े मजे की
बात हुई, पहले
पत्र लिख देगा,
पत्र
जायेगा, फिर
दूसरे गांव
पढ्ने जायेगा
उसे, क्योंकि
दूसरा कोई पढ़
नहीं सकता। एक
आदमी पत्र
लिखवा रहा था।
सारा पत्र
लिखवाने के बाद.........
अपनी प्रेयसी
को पत्र लिखवा
रहा था... लंबा
पत्र लिखवाने
के बाद उसने
कहा कि
नसरुद्दीन अब
एक बार पूरा
पढ़ दो कि मेरा
दिल तृप्त हो
जाये कि जो
लिखवाना था
लिखवा दिया।
नसरुद्दीन
ने कहा : यह
मुसीबत की बात
है। उसने कहा :
क्यों क्या
हर्जा है
पढ्ने में? नसरुद्दीन
ने कहा : पहली
तो बात यह है
कि पत्र मेरे
नाम नहीं लिखा
गया है तो मैं
कैसे पढ सकता
हूं? ग्रामीण
ने कहा. यह बात
तो कानून की
है। यह बात
जंचती है। हौ,
ठीक कह रहे
हो कि पत्र तो
तुम्हारे नाम
लिखा ही नहीं
है तो तुम पढ़
कैसे सकते हो।
मुल्ला
ने कहा : समझे!
एक तो पत्र
मेरे नाम लिखा
नहीं गया है।
और फिर हम
क्यों फिक्र
करें, यह तो
उनकी चिंता है
जिनके नाम
लिखा गया है, अब वे समझें;
पढ़ सकें पढ़े,
न पढ़ सकें न
पढ़ें।
डाक्टर
लिखता है
लैटिन और
ग्रीक में और
वह भी इस तरह
से लिखता है
कि पढ़ा न जा
सके।
मैंने
सुना है, एक
डाक्टर ने अपने
एक मरीज को
निमंत्रण
भेजा कि मेरी
लड़की का विवाह
है कल सांझ
भोजन पर
आमंत्रित हों।
उसने पत्र
देखा, वह
समझा कि कोई
प्रस्किपान
भेजा है
डाक्टर ने। वह
गया केमिस्ट
की दुकान पर
और केमिस्ट ने
जल्दी से
मिक्यचर भी
बनाकर दे दिया।
वह दो दिन
मिक्यचर पीया;
तब डाक्टर का
फोन आया कि
भाई तुम आये
नहीं, लड़की
की शादी भी हो
गयी, मैंने
पत्र भी भेजा
था। तब सारा
राज खुला।
केमिस्ट भी
पढ़े या न पढ़े, जल्दी से
मिक्यचर तो
बना ही देता
है। वह लैटिन
या ग्रीक में
लिखने का कारण
है; नहीं
तो तुम
केमिस्ट को
जाकर पंद्रह
रुपये नहीं
चुकाओगे। समझो
कि उस पर लिखा
हो अजवाइन का
सत्त, अब
तुम पंद्रह
रुपये नहीं
चुका सकते।
अजवाइन का
सत्त, तुम
कहोगे चार
पैसे का
पंद्रह रुपये
मांग रहे हो!
लेकिन लैटिन
में कोई बड़ा
ही अपरिचित
शब्द लिखा है,
पंद्रह
नहीं कोई पचास
भी मांगे तो
चुकाने पड़ेंगे।
तुम्हें पता
ही नहीं है कि
अजवाइन का
सत्त है।
संस्कृत
उपयोग की जाती
रही पंडितों
के द्वारा, ताकि
लोग छू रखे जा
सकें। ऐसा इसी
देश में नहीं
हुआ, पोप
और पादरी
लैटिन और
ग्रीक का
उपयोग करते रहे
हैं—पुरानी
भाषाओं का
उपयोग, जो
मर चुकी हैं, जिनमें अब
कोई जीवन नहीं
रह गया है, लोग
जिन्हें जानते
नहीं। संत तो
सीधी—साधी बात
बोलते हैं, लोकभाषा में
बोलते हैं।
तुम जो भाषा
समझते हो, वही
बोलते हैं।
अपना अनुभव
लोगों तक
पहुंचाना है
तो वही भाषा
बोलनी चाहिए,
जो लोग
समझते हैं; लेकिन जिनके
पास अनुभव
नहीं है, पहुंचाने
को कुछ है ही
नहीं, उनके
लिए तो यही
उचित है कि वे
ऐसी भाषा
बोलें कि कोई
समझे न। समझ
गये तो पकड़े
जायेंगे।
पंडित
उधार है, बासा
है। उसने
परमात्मा को
स्वयं नहीं
देखा है। ही, उसने
शास्त्र पढ़े
हैं जिनमें
परमात्मा की
चर्चा है।
उसने तर्क
किया है, विचार
किया है, सोचा
है; ध्याया
नहीं, अनुभव
नहीं किया है।
इसलिए विरोध
है। विरोध में
कोई पंडित की
दुश्मनी नहीं
है, पंडित
पर करुणा है।
उसे भी चेताना
है, उसे भी
जगाना है।
गोरख
का वचन है
पढ़ि
देखि पंडिता,
रहि देखि
सारं।
अपणीं
करणीं उतरिबा
पारं।।
किसी
पंडित से कह
रहे हैं : पडि
देखि पंडिता।
देख लिया पढ़—पढ़
कर,
अब जरा करके
देख ले।
रहि
देखि सारै! अब
जरा सार को
रहकर भी देख
ले। एक बात
तुझसे कहे
देता हूं :
अपणी
करणीं उतरिबा
पारं।
करेगा
तो ही पार
उतरेगा।
अपणी
करणीं उतरिबा
पारं!
ये
किताबें डूब
जायेंगी। ये
कागज की नावें
हैं;
इनको लेकर
सागर में मत
उतर जाना। यह
मत कहना कि
हमने वेद से
बनायी है यह
नाव। यह काम
नहीं आयेगी, यह कागज की
नाव है, यह
डूब ही जायेगी।
यह खुद भी
डूबेगी, तुझे
भी डुबायेगी।
और खतरा यह है
कि तू लोगों
को समझा रहा
है, उन
सबको भी
डुबायेगी। तू
खुद अंधा है
और सोचता है
दूसरे अंधों
को मार्ग दिखा
रहा हूं। अंधा—
अंधा ठेलिया
दोई कूप पड़त।
वे दोनों कुएं
में गिर गये
हैं।
पडि
देखि पंडिता।
कहते
हैं : देख तो
चुका तू पढ़—पढ़
कर,
मिला क्या,
सार क्या
पाया? अब
रहि देखि सारै।
अब हमारी सुन।
अब जरा जीवन
में उतरने दे।
अब जरा जीवन
से जुड़ने दे।
अब विचार ही
विचार मत कर
समाधि के संबंध
में, क्योंकि
समाधि के
संबंध में
विचार से क्या
होगा, अब
तो निर्विचार
हो, समाधि
को उतरने दे!
रहि देखि सार!
अपणी
करणीं उतरिबा
पारं!
और
करेगा, उससे
उतरेगा।
जानेगा, उससे
उतरेगा। उसी
की नाव बनेगी
जो पार ले
जायेगी। और
दूसरों की
नावें काम
नहीं आतीं। इस
जगत में कोई
उधार शान काम
नहीं आता।
उधार ज्ञान तो
सिर्फ अज्ञान
को ढांक लेता
है।
बेद
कतेब न पाखी
वाणी सब ढंकी
तलि आणी।
गगनि
सिषर महि सबद
प्रकास्या।
तहं बूझै अलष
बिनाणी
गोरख
कहते हैं :
सत्य का, ब्रह्म
का, ठीक—ठीक
निर्वचन न वेद
कर पाये, न
किताबी
धर्मों की किताबें
कर पायीं—न
कुरान, न
बाइबिल, न
कोई और। कोई
वाणी नहीं कर
पायी उसका
निर्वचन। ये
सब तो उसे
उल्टे
आच्छादन के
नीचे ले आये।
इन्होंने तो
उसे छिपा लिया।
इन्हीं
किताबों में
डूब गया, खो
गया सत्य। ये
तो उस पर आवरण
बन गये हैं।
इनके द्वारा
सत्य का
आविष्कार
नहीं होता।
इनके द्वारा
सत्य का
आविष्कार
रुकता है, बाधा
पड़ती है। वह
तो शून्य
समाधि में ही
जाना सकता है।
वहीं बूझो!
तहं
बूझै अलख
बिनाणी!
जो
असली खोजी है
ज्ञान का, जो
असली
विज्ञानी है,
वह वहीं
खोजता है—शून्य
में, समाधि
में। गोरख
कहते हैं :
कहणि
सुहेली रहणि
दुहेली कहणि
रहणि बिन थोथी।
पढ्या—
क्या सूआ
बिलाई खाया
पंडित के हाथि
रह गयी पोथी
कहणि
सुहेली! कहना
बहुत सरल है।
रहणि दुहेली।
रहना बहुत
कठिन है।
कहणि
रहणि बिन थोथी
।
और
जो तुम कहते
हो बिना रहे, बिना
जीये, बिना
अनुभव से, वह
बिलकुल थोथी
बकवास है।
पढ्या—
क्या सूआ
बिलाई खाया
तुम
क्या सोचते हो
कि बिल्ली पढ़े—लिखे
सुए को छोड़
देगी, इसीलिए
कि राम—राम जप
रहा है सुआ? कि छोड़ो भगत
जी हैं, कि
देखो कैसा राम—राम
जप रहे हैं, कैसी राम—राम
की चदरिया
पहने बैठे
हैं! छोड़ो भी, भगत को तो
छोड़ो। लेकिन
बिल्ली
छोड़ेगी नहीं,
बिल्ली
जानती है कि
जपते रहो राम—राम,
पहने रहो
चदरिया, इससे
क्या फर्क
पड़ता है, हो
तो तोते ही!
बिल्ली
छोड़ेगी नहीं।
पढ्या—
क्या सूआ
बिलाई खाया
बिल्ली
तो पढ़े—लिखे
सुए को भी खा
जाती है। ऐसे
ही मौत
तुम्हें खा
जायेगी। मौत
बिल्ली की तरह
आयेगी और तुम
पढ़े—लिखे तोते
हो;
इससे
ज्यादा कुछ भी
नहीं हो। तुम
खाये जाओगे, मौत तुम्हें
छोड़ नहीं देगी।
पंडित
के हाथ रह गयी
पोथी!
और
जब बिल्ली
हमला करेगी, मौत
जब तुम्हारी
गर्दन
दबायेगी तब
हाथ में सिर्फ
पोथी रह
जायेगी।
बिलकुल थोथी,
पंडित के
हाथ रह गयी
पोथी। कुछ और
नहीं रहेगा, सब भूल जायेगा;
सब पढ़ा—गुना
व्यर्थ हो
जायेगा। मौत
जब हमला करती
है तब तो जो
जाना है वही
काम आयेगा।
जिसने जाना है
वह मौत को
देखकर हंसेगा।
मंसूर
हंसा था जोर
से। लोगों ने
पूछा कि हम तो
तुम्हें मार
रहे हैं, तुम
हंसते क्यों
हो? मंसूर
ने कहा कि मैं
इसलिए हंसता
हूं कि तुम
जिसे मार रहे
हो वह मैं
नहीं हूं और
मैं जो हूं तुम
उसे छू भी
नहीं सकते, मारना तो
बहुत दूर।
नैनं
छिदति
शस्त्राणि, कृष्ण
कहते हैं। न
ही शस्त्र छेद
सकते हैं उसे।
नैनं दहति
पावक:! और न आग
उसे जला सकती
है।
मंसूर
ने कहा इसलिए
मैं हंस रहा
हूं कि यह भी खूब
मजा रहा! तुम
कहते थे कि
मारेंगे
मैसूर
तुम्हें, अब
तुम मार किसी
और को रहे हो; वह मैं हूं
नहीं। तुम
मेरा हाथ काट
रहे हो, हाथ
मैं नहीं हूं।
तुमने मेरे
पैर काट दिये,
पैर मैं
नहीं हूं। अब
तुम मेरी
गर्दन भी काट
दोगे, मैं
तुमसे कहे
जाता हूं कि
मैं गर्दन
नहीं हूं मैं तो
भीतर बैठा
साक्षी हूं
इसको तुम कैसे
काटोगे? कोई
शस्त्र छेद
नहीं सकता और
कोई आग जला
नहीं सकती।
यह
अनुभव की बात
है। पढ़ा—लिखा
तोता यह नहीं
कह सकता। पढ़ा—लिखा
तोता तो
गिड़गिड़ाने
लगता है; भूल
जाता है राम—नाम,
बिल्ली की
स्तुति गाने
लगता है—कि
माई छोड़, कि
हो गयी भूल, अब आज से
तेरी ही पूजा—प्रार्थना
करूंगा, कहां
के राम—राम
में पड़ा रहा!
कथणी
कथै सो सिष
बोलिये वेद
पहै सो नाती।
रहणी
रहै सो गुरु
हमारा हम रहता
का साथी।
कहते
हैं गोरख.
कथनी कथै सो
सिष बोलिये।
जो
सिर्फ सुनी—सुनाई
बातें कह रहा
है वह तो
विद्यार्थी
है,
ज्ञानी
नहीं है, ज्यादा
से ज्यादा
विद्यार्थी
है; ठीक है,
पढ़ रहा है, लिख रहा है।
कथणी
कथै सो सिष
बोलिये वेद
पहै सो नाती।
और
यह कथनी भी
अगर उसने किसी
गुरु से सुनी
हो और बोल रहा
हो,
तो ही शिष्य
है, तो
विद्यार्थी
का दर्जा है
उसका। और अगर
यह भी कुछ मरे
गुरुओं की, किन्हीं
पुरानी
कब्रों को
खोदकर वेदों
में से निकाल
लाया हो, तब
तो शिष्य भी
नहीं है; और
भी गया—बीता
है, तो और
भी नीचे रखो
उसको।
वेद
पढ़े सो नाती।
शिष्य
तो बेटा है।
शिष्य का मतलब
कि जो सदगुरु
के पास से
सुनकर दोहरा
रहा है। माना
कि उसने अभी
स्वयं नहीं जाना
है,
लेकिन
जाननेवाले
स्रोत के निकट
है, स्रोत
से बहुत दूर
नहीं है। जैसे
कोई गोरख के
पास बैठकर
सुने और
दोहराये, तो
गोरख कहते हैं
यह
विद्यार्थी
है, यह
मेरा बेटा है।
यह आज नहीं कल
मुझमें लीन हो
जायेगा।
स्रोत के पास
है, छूट
नहीं पायेगा,
भाग नहीं
पायेगा। चलो
अभी दोहराता
है दोहराने दो,
धीरे— धीरे
पकड़ में आ
जायेगा।
पहुंचा तो पकड़
ही लिया है, जल्दी हाथ
भी पकड़ लिया
जायेगा। इसकी
बुद्धि तो पकड़
में आ गयी है, जल्दी ही
इसका भाव भी
पकड़ में आ
जायेगा; हृदय
पर भी हाथ
पहुंच
जायेंगे।
लेकिन
जो वेद को
दोहरा रहा हो, किताबों
में से पढ़ा हो,
सदगुरु के
पास भी न हो, जीवंत गुरु
के पास भी न हो,
वह तो और भी
गया—बीता है।
वह तो बेटा भी
नहीं; वह
तो नाती समझो।
वेद
पहै सो नाती।
वह
तो और दूर हो
गया न! उससे
नाता दूर का
हो गया।
रहणी
रहै सो गुरु
हमारा।
और
गोरख कहते हैं
: जो रह रहा है स्वयं, वह
गुरु है। उसे
तो हम गुरु—
भाव से पूजते
हैं।
रहणी
रहै सो गुरु
हमारा हम रहता
का साथी।
और
हम तो उसके ही
साथी हैं, उसके
ही संगी हैं—जो
जी रहा है
सत्य को; जैसा
है वैसा ही जी
रहा है; जो
नग्न सत्य को
जी रहा है।
फिर चाहे
कितनी ही अडचन
हो, कितनी
ही बाधा आये, सूली लगे कि
सिंहासन मिले,
अतर नहीं
उसे—सत्य को
जी रहा है।
निंदा आये, अपमान आये
कि प्रशंसा, सफलता कि
विफलता, कोई
भेद नहीं पड़ता—जों
सत्य को जीये
जा रहा है।
हम
रहता का साथी...
रहता
हमरा गुरु
बोलिये, हम
रहता का चेला।
मन
मानै तो सगि
फिरै नहितर
फिरै अकेला।
गोरख
स्वातंव्व के
पक्षपाती हैं।
वे कहते हैं :
सहज भाव से जो
घटे वही करना।
अगर गुरु के
पास रहने में
आनंद आता हो
सहज तो साथ
रहना और अगर
अकेले विचरण
करने में आनंद
आता हो तो
अकेले विचरना, क्योंकि
परमात्मा सब
जगह मौजूद है।
लेकिन सहज
आनंद को मत
खोना, उसको
कसौटी समझना।
जहां तुम सहज
हो सको, वहीं
होने में सार
है।
रहता
हमरा गुरु
बोलिये हम
रहता का चेला
यही
भाव तुम्हारे
भीतर रहे कि
जो जी रहा है
सत्य को वही
हमारा गुरु हो।
पंडित नहीं, कोई
बुद्धपुरुष।
बड़ी—बड़ी
उपाधियों
वाला नहीं, गहरी समाधि
वाला।
रहता
हमरा गुरु बोलिये
हम रहता का
चेला।
यही
भाव रहे कि हम
उसके ही पास
डूब जायें, उसके
ही चरणों में—जों
जीता हो सत्य
को।
मन
मानै तो सीग
फिरै..
और
फिर रस आये
साथ रहने में
तो गुरु के
साथ रहे।
क्योंकि गुरु
से जो स्वाद
मिल गया है वह
छूटनेवाला
नहीं है।
मन
मानै तो सगि
फिरै नहितर
फिरै अकेला।
कोई
फिक्र नहीं है, अकेले
घूमो फिर जगत
में, एकाकी
घूमों, कोई
अंतर नहीं
पड़ता। एक बार
लेकिन किसी
मूलस्रोत से
स्वाद ले लो।
तुम्हारे कंठ
में कुछ
बूंदें पड़
जायें सत्य की,
समाधि की
थोड़ी—सी भनक आ
जाये। थोड़ी—सी
उस बांसुरी की
टेर तुम्हें
सुनाई पड़ जाये,
फिर सब ठीक
है। फिर अकेले
रहो, सत्संग
करो, गुरु
के पास रहो कि
दूर रहो, सब
बराबर है।
लेकिन एक बार
जलते दीये के
पास आना जरूरी
है,
ताकि
तुम्हारी
बुझी ज्योति
जल जाये। फिर
कोई सदा पास
रहना आवश्यक
भी नहीं है।
मन
मानै तो सेमी
फिरै नहितर
फिरै अकेला।
ज्ञान
मुक्ति है।
ज्ञान
स्वतंत्रता
है। ज्ञान
जीवंत अनुभव
है। पांडित्य
थोथी बातें
हैं।
गोरख
या ज्ञानियों
का विरोध
पंडितों से
इसलिए नहीं है
कि कोई
दुश्मनी है; बल्कि
इसलिए है कि
वे खुद भी
धोखा खा रहे
हैं और दूसरों
को भी धोखा दे
रहे हैं।
अनुकंपा के
कारण है, ताकि
दूसरे जागे और
पंडित भी जागे।
चौथा.
प्रश्न :
एक
ओर आप कहते
हैं कि जो भी
करो उसे
समग्रता से करो
और दूसरी ओर
कहते हैं कि
किसी चीज की
अति मत करो
मध्य में रहो।
क्या इस
विरोधाभास को
दूर करने की
अनुकंपा करेगे?
आनंद
मैत्रेय!
विरोधाभास
नहीं है। थोड़ा
'समग्रता' शब्द पर
विचार करो।
कुछ और शब्द
इस सिलसिले
में सोचो—संतुलन,
समाधि, समन्वय,
सम्यकत्व, समता, संबोधि,
समवेत, समग्रता।
इन सब का जन्म
हुआ है एक
छोटी—सी धातु
से—'सम'।
सम का अर्थ
होता है शांत।
उसी से समता
बनता है, उसी
से समन्वय
बनता है, उसी
से संबोधि, उसी से
समाधि। वही सम
समग्रता में
मौजूद है।
समग्रता
अति पर नहीं
होती, समग्रता
कभी अति नहीं
होती; क्योंकि
सम अवस्था तो
मध्य में ही
होती है। तो
जब मैं कहता
हूं समग्रता
से करो, तो
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
अतिपूर्वक
करो। तुम्हें
ऐसा खयाल आ
सकता है।
तुम्हें लगता
है कि जब हम
समग्रता से
करेंगे तो अति
हो जायेगी।
अगर अति हो
गयी तो
समग्रता से
चूक गये।
समग्रता से
चूकने के दो
उपाय हैं—बायें
जाओ या दायें
जाओ। दोनों ही
स्थिति में
समग्रता से
चूक गये।
अब
जैसे कि मैंने
कहा कि भोजन
समग्रता से
करो और अति न
हो;
इन दोनों
में
विरोधाभास
नहीं है। जो
समग्रता से
भोजन करेगा, वह ठीक उस
वक्त रुक
जायेगा जब
शरीर कह देगा
बस। और शरीर
हमेशा मध्य
में बस कह
देता है। न तो
भूख लगी हो तो
शरीर कहेगा बस
और न तुम अतिशय
भरते जाओ तो
शरीर चुप
रहेगा, नहीं
कहेगा बस। अगर
तुम भूखे हो, शरीर कहेगा—
थोड़ा और। अगर
तुमने ज्यादा
खाना शुरू कर
दिया, शरीर
कहेगा—बस अब
नहीं, अब
और नहीं।
शरीर
कभी अति नहीं
करता, अति
करता है मन।
इस बात को
समझने की
कोशिश करो।
इसलिए कोई पशु
अति नहीं करता,
नहीं तो
पशुओं की क्या
हालत होती!
उनके पास तो कोई
उपदेश
देनेवाला
नहीं है। उनको
कोई महात्मा
गांधी और अन्य
महात्मा
इत्यादि तो
मिले हुए नहीं
हैं कि देखो
ज्यादा घास मत
खा जाना, कि
आज उपवास कर
लो, आज
एकादशी है।
लेकिन कोई पशु
तुमने देखा है
ज्यादा खाते?
जंगल में
जाकर जरा गौर
करो, कोई
पशु तुम्हें
दिखाई पड़ता है
जिसको तुम कह
सको कि यह
ज्यादा खा गया
है? कोई
पशु ऐसा दिखाई
पड़ता है जो
उपवास कर रहा
हो?
मन
नहीं है तो
अति नहीं है।
पशु उतना ही
लेता है जितना
शरीर को जरूरी
है;
वही लेता है
जो जरूरी है।
तुम अपनी गाय
को छोड़ दो घास
से भरे मैदान
में, वह
वही घास चुन
लेती है जो
उसके शरीर को
रास आता है।
बाकी घास छोड़
देती है। तुम
बकरी को छोड़
दो जंगल में, वह अपने काम
की बात चुन
लेती है, अपने
काम की
पत्तियां चुन
लेती है, बाकी
सब छोड़ देती
है। कौन कह
रहा है उसे कि
इस पत्ती को
मत खा? हरी
तो यह भी
दिखाई पड़ती है।
स्वाद इसमें
भी हो सकता है,
है ही, कुछ
न कुछ स्वाद।
लेकिन नहीं; जो उसके
शरीर को रास
पड़ता है, जो
उसकी प्रकृति
के अनुकूल है,
जो उसकी
प्रकृति को सम—
अवस्था में
रखता है, वही
चुन लेती है।
यह सहज हो रहा
है। मन नहीं
है वहां।
मन
उपद्रव करता
है। मन ही
तुम्हें
ज्यादा खिला
देता है।
क्योंकि मन
कहता है कि हो
जाये एक कचौड़ी
और,
स्वादिष्ट
है। शरीर को
सुनो तो पेट
कह रहा है कि
बस करो, अब
कृपा करो, अब
ज्यादा हो
जायेगा। मगर
शरीर की मन
सुनने नहीं
देता। और
तुम्हें
अक्सर समझाया
गया है कि
शरीर तुम्हारा
दुश्मन है।
शरीर
तुम्हारा
दुश्मन नहीं,
मन
तुम्हारा
दुश्मन है। और
जिन्होंने
तुम्हें
समझाया है कि
शरीर
तुम्हारा
दुश्मन है, उन्होंने
बड़ी गलत बात
समझा दी है।
उनके कारण मन
को तो तुमने
मित्र मान
लिया है, शरीर
को दुश्मन मान
लिया है। शरीर
तो सहज
प्राकृतिक है,
मन में हैं
सारे विकार, सारे उपद्रव।
मन सुनता ही
नहीं है। मन
कहता है, स्वाद
थोड़ा और ले
लें, हो
जाये थोड़ा और,
क्या फर्क
पड़ता है, जरा
तकलीफ होगी
पेट को तो हो
लेगी। पेट तो
कह रहा है कि
बस, लेकिन
पेट की तुम
सुनते नहीं हो।
और तुम्हारे
तथाकथित साधु
पेट को गाली
देते हैं।
समझो
मन को! मन अति
करवाता है।
शरीर तो सदा
ठीक समय पर
जवाब दे देता
है। वह तो एक
इंच ऊपर नहीं
जाने देगा, नीचे
नहीं जाने
देगा। लेकिन
आदमी का मन
बड़ा धोखेबाज
है। मैंने अभी
सुना है कि
गंगा में पूर
आया, किसी
गांव में
प्रांत के
मुख्यमंत्री
गये।
उन्होंने
इंजीनियरों
से कहा कि बात
क्या है हालत
क्या है, खतरे
के निशान को
पानी छू रहा
है! तो
मुख्यमंत्री
ने कहा कि 'भाई,
खतरे के
निशान को थोड़ा
ऊपर क्यों
नहीं कर देते?
कम—से—कम
खतरे का निशान
तो न छुए। 'जैसे
कि खतरे के
निशान को ऊंचा
कर देने से
तुम गंगा को
धोखा दे लोगे,
कि किसको
धोखा दे रहे
हो? मगर
यही हो रहा है।
मन यही कर रहा
है। मन ऐसी ही
मूढ़तापूर्ण
बातें कर रहा
है।
और
मन तुमसे अति
करवा देता है।
वह कहता है, खतरे
का निशान जरा
ऊन्मर कर दो।
मत सुनो शरीर
की, शरीर
में क्या रखा
है, शरीर
तो अंधा है, शरीर को
बुद्धि क्या
है? एक दिन
ज्यादा खिला
देता है मन, फिर दूसरे
दिन तकलीफ
होती है तो मन
कहता है अब उपवास
करो—कि महीने
में एक दिन तो
उपवास करना ही
चाहिए, कि
सप्ताह में एक
दिन तो उपवास
स्वास्थ्य के
लिए बहुत
अच्छा है। अब
उपवास करो।
शरीर तब भी
कहता है कि
भाई भूख लगी
है भोजन लो; तब मन कहता
है उपवास करो।
धीरे—धीरे मन
की ये उल्टी—सीधी
गतिविधिया
शरीर की
सूक्ष्म
संवेदना को नष्ट
कर देती हैं।
फिर शरीर कुछ
नहीं बोलता।
जब उसकी सुनी
नहीं जाती तो
धीरे— धीरे
मूक हो जाता
है। इस मूक
शरीर के साथ
तुम अतियां कर
लेते हो।
मनोवैज्ञानिकों
ने प्रयोग
किये हैं और
बड़े हैरानी के
निष्कर्ष हाथ
आये हैं। मनोवैज्ञानिकों
ने प्रयोग
किये हैं कि
छोटे बच्चों
को अगर भोजन
के पास बिठा
दिया जाये तो
तुम सोचते हो
कि वे ज्यादा
खा लेंगे। तुम
गलत खयाल में
हो,
वे ज्यादा
नहीं खाते।
ज्यादा उनके
मां—बाप खिला
देते है—कि और
खाओ, कि
खाओ थोड़े तगड़े—तडंग
होना है, कि
थोड़े मस्त तो
दिखो, यह
क्या हालत है?
जरा और खाओ!
मां बैठी है
छाती पर कि और
खाओ, कि
थोड़ा और।
बच्चा किसी
तरह रो रहा है,
खा रहा है।
तुम देखोगे कई
बच्चों को
रोते। उसका
शरीर कह रहा
है कि नहीं।
उसका शरीर कह
रहा है बाहर
चलो, जरा
कूदो, उछलो,
वृक्षों पर
चढ़ो। और उसको
खिलाया जा रहा
है। डाक्टर तो
बता देते हैं
कि हर तीन
घंटे में बच्चे
को दूध पिलाना
है। बच्चा
पीता ही नहीं
है, और वह
मुंह फेर—फेर
लेता है; मगर
मां है कि दूध
पिला रही है, क्योंकि तीन
घंटे हो गये।
ये औसत नियम
काम के नहीं
हैं। जब बच्चे
को भूख लगेगी,
वह रोयेगा,
वह खुद खबर
देगा। घड़ी
देखने की कोई
जरूरत नहीं है,
बच्चे के
पास अपने भीतर
शरीर की घड़ी
है। मगर उसकी
घड़ी को तुम
खराब किये दे
रहो हो। और सब
बच्चों को अलग—अलग
भूख लगेगी।
कोई को चार
घंटे में
लगेगी, कोई
को तीन घंटे
में, किसी
को दो घंटे
में भी लगेगी।
अब बड़ी अड़चन
हो गयी, एक
नियम बना लिया—औसत
नियम।
औसत
नियम से
सावधान रहना।
औसत नियम ऐसा
होता है जैसे यहां
पांच सौ आदमी
बैठे हैं।
हमने सबकी
ऊंचाई निकाल
ली और सब की
संख्या गिन ली।
सब की ऊंचाई
जोड़ ली, फिर
उसमें पांच सौ
का भाग दे
दिया। समझो
ऊंचाई आयी चार
फीट साढ़े तीन
इंच—औसत ऊंचाई।
अब यह चार फीट
साढ़े तीन इंच
का कोई भी
नहीं होगा
यहां, शायद
ही कोई हो।
क्योंकि
इसमें कई छोटे
बच्चे हैं जो
दो ही फीट के
हैं और कोई छह
फीट के सज्जन
हैं। मगर
दोनों को मेल
कर दो तो चार—चार
फीट औसत ऊंचाई
हो गयी। चार
फीट का कोई भी
नहीं; न तो
छह फीट वाला
आदमी चार फीट
का है न दो फीट
वाला बच्चा
चार फीट का है।
मगर छह फीट
वाले एक आदमी
और दो फीट
वाले बच्चे को
जोड़ दिया, आठ
फीट हो गये, दो का भाग दे
दिया, चार
फीट औसत आ गया।
अब झंझट हुई, अब बच्चे को
खींचो, चार
फीट का करो, तब वह औसत
होगा! अब छह
फीट के आदमी
को काटो, या
कहो कि जरा
पैर सिकोड़ो, कि जरा सिर
को अंदर लो।
कछुए की तरह
अपने अंग अंदर
करो, तुम
जरा ज्यादा हो।
यूनान
में कथा है
प्रोक्रेस्टीज
की। वह एक
सम्राट था। वह
बड़ा भयानक
सम्राट था।
उसके अपने
हिसाब थे। बड़ा
गणितज्ञ था
प्रोक्रेस्टीज।
वह गणित से
जीता था। उसके
घर किसी का
मेहमान होना, उससे
लोग डरते थे।
उसके घर कोई
मेहमान नहीं
होना चाहता था।
क्योंकि उसके
पास एक सोने
का पलंग था—बहुमूल्य
हीरे—जवाहरातों
से जड़ा; उसी
पर सुलाता था
अपने
मेहमानों को।
और उसके साथ
खतरा यह था कि
अगर मेहमान
लंबा हो तो वह
काट देता उसके
हाथ—पैर, क्योंकि
पलंग तो कीमती
है। पलंग तो
बड़ा किया नहीं
जा सकता, छोटा
किया नहीं जा
सकता, इतनी
जल्दी हो भी
नहीं सकता।
मगर मेहमान को
तो छोटा—बड़ा
किया जा सकता
है। और अगर
कोई छोटा होता
पलंग से तो
उसके दो पहलवान
आकर उसको खींच—खींच
कर लंबा करने
की कोशिश
करते! उसके घर
कोई ठहरता
नहीं था।
यह
कहानी
अर्थपूर्ण है।
मगर यह सभी
गणितज्ञों की
कहानी है। सब
बच्चों का भाग
दे दिया, किसी
को चार घंटे
में भूख लगती
है, किसी
को तीन घंटे
में, किसी
को दो घंटे
में, किसी
को ढाई घंटे
में, किसी
को पौने तीन
घंटे में। सब
का भाग दे
दिया, हिसाब
निकाला, तीन
घंटे में सबको
भूख लगती है।
अब बस तीन
घंटे से बैठे
हैं। बैठे हैं
प्रोक्रेस्टीज!
अब वह घड़ी देख
रहे हैं कि
तीन घंटे हो
जायें, दूध
पिलाओ। उसको
दो घंटे में
लगती है, वह
दो घंटे में
रो रहा है, मगर
अभी घड़ी में
तीन घंटे नहीं
हुए, रोते
रही बच्चू!
तुम धीरे—
धीरे उसके
शरीर की सहज—संवेदना
को नष्ट कर
दोगे। धीरे—
धीरे वह भी
घड़ी देखने
लगेगा कि कब
भूख लगती है, क्योंकि घड़ी
से भूख लगती
है।
तुम्हारी
हालत यही हो
गयी है। अगर
तुम्हें बारह
बजे रोज भोजन
मिलता है, तुम
देखते हो घड़ी
में बारह बज
गये कि भूख लग
गयी; भूख
लगी हो कि न
लगी हो। हो
सकता है, घड़ी
रात बंद हो
गयी हो। बारह
उसमें बजे हों
रात— भर से।
अभी ग्यारह ही
बजे हों, मगर
घड़ी में बारह
बजे देखकर
एकदम भूख लग
आती है। यह
भूख झूठी है।
इस झूठी भूख
को सुनकर तुम
जो भोजन कर
रहे हो वह शरीर
के साथ
अत्याचार है।
भूख तो लगेगी,
उसको घड़ी
देखने की
जरूरत नहीं है;
शरीर की
अपनी भीतरी
घड़ी है।
वैज्ञानिकों
ने इस बात की
खोज की है कि
शरीर घड़ी से
चल रहा है।
उसी हिसाब से
तो स्त्रियों
को ठीक
अट्ठाईस दिन
में मासिक
धर्म आ जाता
है। शरीर के
भीतर अपनी घड़ी
है। उसी के
अनुसार
तुम्हें ठीक
वक्त पर भूख
लग जाती है।
उसी के अनुसार
तुम्हें ठीक
वक्त पर नींद
आ जाती है।
उसी के अनुसार
इशारे मिल
जाते हैं कि
पेट भर गया, बस
अब रुक जाओ।
तुम अगर शरीर
की मानकर चलो
तो कभी अति
नहीं होगी। न
तुम ज्यादा
खाओगे, न
तुम कम खाओगे।
और समग्रता
होगी, आनंद
होगा। तुम
जितना भी
खाओगे उसमें
पूरा आनंद
होगा, तुम
पूरे डूबकर उस
स्वाद को लोगे,
क्योंकि
स्वाद भी
परमात्मा है।
अन्न ब्रह्म!
उसके साथ भी
वही समादर, वही
पूज्यभाव, वही
पूजा जो मंदिर
में होती है, अन्न के साथ
भी होनी चाहिए,
भोजन के साथ
भी होनी चाहिए,
जीवन की
सारी
प्रक्रियाओं
में होनी
चाहिए।
जब
मैं तुम से
कहता हूं कि
समग्रता से
जीयो तो मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
अति कर जाओ, मैं
यही कह रहा
हूं कि अगर
समग्रता से
जीना है तो सम
को ध्यान में
रखना होगा। और
सम अनति है, मध्य है।
इसलिए
समग्रता में
जीना और अति न
करना इसमें कोई
भी विरोध नहीं
है। ये एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
पांचवां
प्रश्न :
विरह
के संबंध में
कुछ कहें।
विरह
के संबंध में
कुछ भी नहीं
कहा जा सकता; विरह
को अनुभव किया
जा सकता है।
क्योंकि विरह
शब्दों में
नहीं आता, आसुरों
में आता है।
और विरह बोलता
नहीं, मौन
है, मूक है।
विरह रोता है,
विरह जागता
है; विरह
बोलता नहीं।
विरह
के संबंध में
कुछ भी कहा
नहीं जा सकता, लेकिन
जिसने भी
प्रेम को जाना
है वह विरह की
अनुभूति से
गुजरने लगेगा।
तुम प्रेम को
जानो, विरह
तो उसके साथ
आयेगा। जितना
गहन प्रेम
होगा उतनी ही
विरह—अवस्था
गहरी हो
जायेगी।
विरह
का अर्थ यह
होता है कि
हमारा जो वास्तविक
स्वरूप है, वही
हम से चूक गया
है, वही
हमें नहीं मिल
रहा है। जो
हमारा केंद्र
है वही हम से
छिटक गया है, और हम परिधि
पर घूम रहे
हैं कोल्ह के
बैल की तरह।
हमें अपनी
आत्मा का ही
अनुभव नहीं हो
रहा है। हम
देखते तो हैं
पदार्थ को, लेकिन
परमात्मा
हमें दिखाई
नहीं पड़ रहा
है। और वही
मालिक है।
मालिक खो गया
है, नौकर—चाकर
दिखाई पड़ रहे
हैं। मंदिर की
दीवालें समझ
में आ रही हैं,
मंदिर की
मूर्ति पहचान
में नहीं आती।
लेकिन यह तो
प्रेम जगेगा
तब, तभी यह
प्रतीति होनी
शुरू होगी।
प्रेम की पहली
प्रतीति विरह
है और प्रेम
की अंतिम प्रतीति
मिलन है।
प्रेम पहले
पीड़ा की तरह
शुरू होता है
और आनंद की
तरह पूर्ण
होता है। विरह
होगा तो खोज
शुरू होती है।
विरह होगा तो
मिलन की
अभीप्सा जगती
है। विरह का
अर्थ है हमें
जैसे होना
चाहिए हम वैसे
नहीं है; कुछ
चूका—चूका है,
कुछ खाली—खाली
है।
इसे
देखो, हर एक व्यक्ति
खाली—खाली है।
कौन है यहां
भरा हुआ। कभी—कभी
कोई गोरख, कोई
कबीर, कोई
नानक भरा हुआ
होता है, बाकी
लोग बिलकुल
खाली—खाली हैं—खाली
बर्तन। इसलिए
तो खूब आवाज
कर रहे हैं।
खाली बर्तन को
जैसे याद आ
जाये भरेपन की।
खाली बर्तन
जैसे भरे
बर्तन को
देखकर इस
अभीप्सा से भर
जाए कि मैं कब
भरूंगा! और
बिना भरे कैसे
शांति होगी, कैसे आनंद
होगा? इस
भरेपन की
आकांक्षा से
विरह का जन्म
होता है।
वेदना
मेरी अधर तक आ
गयी,
कुछ कह न
पायी!
कट गये
हैं पंख, पंछी
गिर गया नभ से
धरा पर
कसकते
हैं घाव, फिर
भी कुछ नहीं
लाया गिरा पर
तुम
बताओ, क्या
मरण की वेदना
वरदान बनती
या
अधूरी साध
निश्च्छल
प्यार का
अभिमान बनती
रागिनी
खुल कर मलय
में हंस गयी, कुछ
कह न पायी।
वेदना
मेरी अधर तक आ
गयी,
कुछ कह न
पायी।
बज उठे
हैं तार, कंपित
राग हंसते
मुग्ध मन से
खोल
गोपन भाव रखती
सामने भोले
नयन से
लाज का
घूघट हटाकर
झांकते
प्यारे सपन—से
जो
छिपे थे
विस्मरण के
कफन में बिखरे
रुदन से
प्राण
की कोकिल सिहर
कर रह गयी, कुछ
कह न पायी
वेदना
मेरी अधर तक आ
गयी,
कुछ कह न
पायी।
पर
नशीले नयन—नभ
में अश्रुओं
के घन घुमड़ते।
साधना
की सेज पर ये
रात—दिन दुख—सुख
विहंसते।
कल्पनाएं
मिट गयीं, पर
आह भर पायी
कभी ना
लुट
गया सर्वस्व, फिर
भी सांस कह
पायी कभी ना
भोर की
सुकुमार
कलिका खिल गयी
कुछ कह न पायी!
वेदना
मेरो अधर तक आ
गयी,
कुछ कह न
पायी!
विरह
की वेदना बड़ी
मौन वेदना है।
और'
मइrाऐन
होती है तभी
तो गहरी हो
पाती है।
बोलने से तो
बात उथली हो
जाती है। न
कहो तो बड़ी
कीमती है; कह
दो, दो
कौड़ी की हो
गयी। कहते हैं
न, बंधी
मुट्ठी लाख की
और खुली तो
खाक की। विरह
चुपचुप रोता
है, गुपचुप
रोता है।
प्रार्थना
बतानी नहीं
होती। उसका
कोई प्रदर्शन
नहीं करना
होता। उसकी
कोई डुंडी
नहीं पीटनी
होती। इसलिए
मंदिरों में
जहा तुम घंटे
बजाकर, शोरगुल
मचाकर
प्रार्थना
शुरू कर देते
हो, वहां
विरह नहीं है;
वहां सिर्फ
एक आयोजन है, सिर्फ एक
औपचारिकता
निभा रहे हो।
और तुमने खयाल
किया, अगर
दर्शक मौजूद
हों मंदिर में
तो प्रार्थना करनेवाला
बड़ी देर तक
प्रार्थना
करता है, खूब
जोर—जोर से
प्रार्थना
करता है।
मंजीरे पीटता
है, ढोल
पीटता है। अगर
कोई न हो, प्रार्थना
करनेवाला
अकेला हो, जल्दी—जल्दी
करके, कह—सुनाकर
किसी तरह पूरा
करके भाग खड़ा
होता है।
तुम
प्रार्थना
परमात्मा से
कर रहे हो कि
देखनेवालों
को,
कि दिखावे
के लिए? तुम
नाच रहे हो
उसके सामने, या लोगों के
सामने? अगर
तुम्हारे मन
में जरा भी रस
है कि लोगों
को पता चल
जाये कि देखो
मैं कैसी
प्रार्थना कर
रहा हूं कैसी
गहरी भक्ति
में उतर रहा
हूं तो तुम प्रार्थना
परमात्मा के
सामने नहीं कर
रहे हो, तुम
तमाशा कर रहे
हो। तुम बाजार
में खड़े हो।
और तुम अहंकार
को ही भर रहे
हो।
विरह
तो चुप—चुप
रोता है, गुप—चुप
रोता है। और
जितना गुप—चुप
रोये उतना ही
गहरा और
दूरगामी उसकी
पहुंच होती है।
चांद
तो घर आ गया है, और
तुम जाने कहां
हो?
एक
दीपक ने दसों
दीपक जलाये
एक
दूरी से विहग
घर लौट आये;
मैं
स्वयं को एक
मेला लग रही
हूं
आंख
में सुकुमार
सपने डगमगाये
प्राण
यह घबरा गया
है,
और तुम जाने
कहां हो?
चांद
तो घर आ गया है, और
तुम जाने कहां
हो?
रात—रानी
गंध के स्वर
फूंकती है
प्राण
में उन्मन
पिकी—सी कूकती
है;
क्या
कहूं मैंने
हृदय पाया अजब
है
जिंदगी
हर बार यूं ही
चूकती है;
मधु
मुझे नहला गया
है,
और तुम जाने
कहां हो?
चांद
तो घर आ गया है, और
तुम जाने कहां
हो?
कंठ
में संगीत
बैठा
बुदबुदाता
ओंठ पर
आता न, पीछे
लौट जाता;
पायलों
में एक कंपन—सा
विलय है
आरती
में दीप रह—रह झिलमिलाता;
रूप रस
बरसा गया है, और
तुम जाने कहां
हो?
चांद
तो घर आ गया है, और
तुम जाने कहां
हो?
परमात्मा
की तलाश ऐसी
उठती है जब
हृदय में, जैसे
कोई प्रेयसी
प्रेमी को
पुकारे कि
सावन आ गया, कि मेघ घिर
गये, कि
कोयलें
पुकारने लगीं,
कि मोर नाच
उठे—और तुम
जाने कहा हो?... कि सब तरफ
फूल भर गये, कि सब तरफ
झूले तन गये, और सब तरफ
राग—रंग उठ
आया—और तुम
जाने
कहा हो?
और—चांद तो घर
आ गया है और
तुम जाने कहौ
हो? जब
किसी को ऐसा
अभाव लगने
लगता है
परमात्मा का
भीतर, तो
विरह उत्पन्न
होता है।
विरह
अनुभूति है।
इसकी कोई व्याख्या
नहीं हो सकती।
जानो तो जानो, जीयो
तो जानो। विरह
कोई सिद्धात
नहीं है।
समझने—समझाने
का कोई उपाय
नहीं है। और
कठिनाई यह हो
गयी है कि
हमारी आंखों
के आंसू सूख
गये हैं, और
हमारा हृदय
प्रेम से
बिलकुल खाली
हो गया है।
हमें सिखाया
गया है अप्रेम।
हमें दीक्षा
दी गयी है
कठोर होने की।
हमें कहा गया
है जिंदगी
संघर्ष है; इसमें जितने
कठोर होओगे, जितने
पाषाणवत, उतने
ही सफल हो
सकोगे। हमें
सब तरफ से यही
सुझाया गया है
कि यहां लोगों
के सिरों की
सीढ़ियां
बनानी हैं, तो ही
महत्वाकांक्षा
के शिखरों तक
पहुंच सकोगे। हृदय
को करो कठोर
और बढ़ जाओ।
फिर दूसरों को
मिटाना पड़े तो
मिटाओ।
दूसरों की
लाशें बिछानी
पड़े तो बिछाओ।
यह
पूरा का पूरा
समाज सदियों
से हिंसा से
जी रहा है; अहिंसा
की तो सब
बकवास है, बातचीत
है। यहां
अहिंसक भी
अहिंसक नहीं
है; यहां
अहिंसक भी
छिपा हुआ
हिंसक है। यहां
अहिंसा के
पीछे भी सब
तरह की हिंसा
का आयोजन है।
यहां: अहिंसा
भी लड़ने का एक
उपाय है। तुम
जरा मजा देखो!
अहिंसा भी
लड़ने का एक
उपाय है!
महात्मा
गांधी की
इसलिए
प्रशंसा की
जाती है कि
उन्होंने
अहिंसा को
अस्त्र बना
दिया, लड़ने
का एक उपाय
बना दिया।
प्रशंसा नहीं
होनी चाहिए; इसके कारण
ही निंदा होनी
चाहिए।
अहिंसा को भी
अस्त्र बना
दिया! कुछ तो
छोड़ देते, जो
अस्त्र न बनता।
तुमने
प्रेम की भी
तलवार ढाल ली।
तुमने शांति
के भी छुरे
बना लिये।
अहिंसा का भी
अस्त्र!
अहिंसा को भी
लड़ने का एक ढंग
बना लिया। मगर
लड़ाई जारी रही।
लड़ने में
हिंसा है, तो
अहिंसा कैसे
लड़ने का साधन
हो सकती है? तो अहिंसा
नाम ही नाम
होगी; भीतर
तो हिंसा ही
हिंसा होगी।
यह कोई अहिंसा
नहीं है। लोग
सोचते हैं कि
महात्मा
गांधी ने
बुद्ध और महावीर
के आगे कदम
उठा दिया। गलत
बात है। बुद्ध
और महावीर की
बड़ी क्राति पर
पानी फेर दिया।
अहिंसा को भी
लड़ने की विधि
बना ली; जैसे
कि लड़ने की
विधि का ही
मूल्य है जगत
में। सब चीज
लड़ने की विधि
है—प्रेम भी
लड़ने का ही एक
उपाय है।
प्रेम भी करो
तो इसलिए ताकि
जीत सको।
अहिंसा भी
इसीलिए ताकि
दूसरे को दबा
सको। अब एक
आदमी अगर
तुम्हारे घर
के सामने
उपवास करके
बैठ जाता है
कि मैं मर
जाऊंगा अगर
मेरी न मानी, तो तुम
सोचते हो यह
अहिंसा है?
अगर मेरी न
मानी तो मैं
मर जाऊंगा! यह
तो हिंसा है, यह तो सीधी
धमकी है। यह
तो ब्लैकमेल
है। यह आदमी
तो साफ धमकी
दे रहा है कि
मैं मर जाऊंगा।
यह तुम्हारी
मनुष्यता को
लज्जित करने
की कोशिश कर
रहा है। यह कह
रहा है. याद
रखो, जिंदगी—
भर फिर
पछताओगे; तुमने
ही मुझे मारा।
इसी
पूना में यह
घटना घटी।
महात्मा
गांधी ने
उपवास किया
डाक्टर
अंबेदकर के
विरोध में।
क्योंकि
डाक्टर
अंबेदकर
चाहते थे कि
शूद्रों को, हरिजनों
को अलग
मताधिकार
प्राप्त हो
जाये। काश, डाक्टर
अंबेदकर जीत
गये होते तो
जो बदतमीजी सारे
देश में हो
रही है वह
नहीं होती।
अंबेदकर ठीक
कहते थे कि
जिन हिंदुओं
ने इतने दिन
तक शूद्रों के
साथ अमानवीय
व्यवहार किया,
उनके साथ हम
क्यों रहें? क्या
प्रयोजन है? जिनके
मंदिरों में
हम प्रविष्ट
नहीं हो सकते,
जिनके कुओं
से हम पानी
नहीं पी सकते,
जिनके साथ
हम उठ—बैठ
नहीं सकते, जिन पर
हमारी छाया पड़
जाये तो जो
अपवित्र हो जाते
हैं—उनके साथ
हमारे होने का
अर्थ क्या है?
उन्होंने
तो हमें त्याग
ही दिया है, हम क्यों
उन्हें पकड़े
रहें?
यह
बात इतनी सीधी—साफ
है,
इसमें दो मत
नहीं हो सकते।
लेकिन
महात्मा गाधी
ने उपवास कर दिया।
वे अहिंसक थे,
उन्होंने
अहिंसा का
युद्ध छेड़
दिया! उन्होंने
उपवास कर दिया
कि मैं मर
जाऊंगा, अनशन
कर दूंगा। यह
तो बड़ी संघातक
हानि हो
जायेगी
हिंदुओं की।
हरिजन तो
हिंदू हैं और
हिंदू ही
रहेंगे। उनका
लंबा उपवास, उनका गिरता
स्वास्थ्य, अंबेदकर को
अंततः झुक
जाना पड़ा।
अंबेदकर राजी
हो गये कि ठीक
है, मत दें
अलग मताधिकार।
और इसको
गांधीवादी
इतिहासज्ञ
लिखते हैं—अहिंसा
की विजय! अब यह
बड़ी हैरानी की
बात है इसमें
अहिंसक कौन है?
अंबेदकर
अहिंसक है। यह
देखकर कि गाधी
मर न जायें, वह अपनी जिद
छोड़े। इसमें
गांधी हिंसक
हैं।
उन्होंने
अंबेदकर को
मजबूर किया
हिंसा की धमकी
देकर कि मैं
मर जाऊंगा।
इसको
थोड़ा समझना, अगर
तुम दूसरे को
मारने की धमकी
दो तो यह हिंसा,
और खुद को
मारने की धमकी
दो तो यह
अहिंसा; इसमें
भेद कहां है? एक आदमी
तुम्हॉरी
छाती पर छुरा
रख लेता है और कहता
है निकालो जेब
में जो कुछ हो—यह
हिंसा। और एक
आदमी अपनी
छाती पर छुरा
रख लेता है वह
कहता है
निकालो जो कुछ
जेब में हो, अन्यथा मैं
मार लूंगा
छुरा। तुम
सोचने लगते हो
कि दो रुपट्टी
जेब में हैं, इसके पीछे
इस आदमी का
मरना! भला—चंगा
आदमी है, एक
जीवन का खो
जाना.. तुम दो
रुपये
निकालकर दे दिये
कि भइया, तू
ले ले, और
जा। दो रुपये
के पीछे जान
मत दे। इसमें
कौन अहिंसक है?
मैं तुमसे
कहता हूं :
डाक्टर
अंबेदकर
अहिंसक हैं, गांधी नहीं।
मगर कौन इसे
देखे, कैसे
इसे समझा जाये?
इसमें लगता
ऐसे है, अहिंसा
की विजय हो
गयी; अहिंसा
हार गयी, इसमें
हिंसा की विजय
हो गयी। गांधी
हिंसक
व्यवहार कर
रहे हैं। जो
तर्क नहीं दे
सकता, वह
इस तरह के
व्यवहार करता
है।
स्त्रियां
सदा से यह
करती रही हैं
घर में।
तुम्हें
मालूम है? स्त्री
पति को नहीं
मारती, खुद
को पीट लेती
है; मगर वह
कोई अहिंसा है?
पति को मार
नहीं सकती, क्योंकि पति
परमात्मा है।
पतियों ने ही
ऐसा समझाया है
कि पति
परमात्मा है।
पति को तो मार
नहीं सकती, अब क्या करे?
और मारने का
भाव उठ रहा है,
पिटाई करने
की इच्छा हो
रही है। और
पति को मार
नहीं सकती अपने
को पीट लेती
है या अपने
बच्चों को पीट
देती है। अब
बच्चे को कुछ
पता ही नहीं
है, वह
बेचारा अपना
हिसाब—किताब
कर रहा था
बैठा। उसकी
पिटाई क्यों
हो रही है, उसको
कुछ समझ में
ही नहीं आ रहा।
यह अहिंसक
पिटाई हो रही
है! यह पति का
परिपूरक है।
ये पति पीटे
जा रहे हैं, प्रतीकवत।
यह उन्हीं का
बेटा है, आधा
तो कम—से—कम है
ही पति, कर
दो इसकी पिटाई।
अगर बेटा न
मिले तो पत्नी
खुद को मार
लेगी।
पुरुष
को गुस्सा आ
जाये तो हत्या
कर देता है; स्त्री
को गुस्सा आ
जाये तो दवाई
की गोलियां खाकर,
नींद की
गोलियां खाकर
सो जाती है।
और पुरुष को
गुस्सा आ जाये
तो हिंसा करता
है, हत्या
करता है; स्त्री
को क्रोध आ
जाये तो
आत्महत्या
करती है। मगर
ये दोनों ही
हिंसाएं हैं;
एक स्त्रैण
हिंसा है, एक
पुरुषगत
हिंसा है।
गांधी
की स्त्रैण
हिंसा को
अहिंसा कहने
का कोई कारण
नहीं है।
सिर्फ
स्त्रैण
हिंसा है, सिर्फ
कमजोर की
हिंसा है। एक
ताकतवर की
हिंसा, एक
कमजोर की
हिंसा; मगर
इसमें अहिंसा
कोई भी नहीं
है। बुद्ध और
महावीर की
अहिंसा का राज
कुछ और ही है।
लेकिन हमने तो
अहिंसा का भी
अस्त्र बना
लिया। यह समाज
हिंसा से भरा
है। यह
प्रत्येक को
कठोर होने की
शिक्षा देता
है—पाषाणवत हो
जाओ। हृदय को
सुखा लो।
क्योंकि हृदय
अगर भीगा रहा,
गीला रहा, तो तुम जगत
में जीत न
पाओगे। आसुओ
को सुखा लो, क्योंकि आंसू
नामर्दगी है;
मर्द कहीं
रोते हैं? स्त्रैण
मत बनो!
तुम्हारे
आंसू सूख गये, तुम्हारा
प्रेम सूख
गया! अब तुम जी
रहे हो सिर्फ
खोपड़ी में, तुम्हारे
हृदय में धड़कन
नहीं होती।
इसलिए
तुम्हें विरह
का कोई अनुभव
नहीं हो सकता
है। विरह के
लिए पहले
प्रेम का
अनुभव जरूरी
है। विरह के
लिए थोड़ा अपने
हृदय में उतरी।
फिर से अपने
हृदय को गजने
दो। फिर से
देखो फूलों को,
पत्तों को,
चांद—तारों
को, लोगों
को। फिर से
छोटे बच्चे की
तरह अपने भाव
को गति दो, गतिमान
करो। हटा दो
पत्थर बीच में
पाषाणता के, कठोरता के, महत्वाकांक्षा
के, हिंसा
के, और फिर
से आंखों को
गीली करो। फिर
से रोना सीखो।
कभी
किसी गुलाब के
फूल को खिला
देखकर रोये हो? नहीं
रोये, तो
गलत बात है।
गुलाब का फूल
खिला और तुम
रोये भी नहीं!
तुम इतना भी न
कर सके कि दो आंसू
टपकाते आनंद
के! कि कोयल
पुकारी है और
तुम रोये हो? कि पपीहे ने
पी पुकारा, पिया को
पुकारा, तुम्हारे
भीतर कोई
पुकार नहीं
उठती! तुम ऐसे
ही चले जाते
हो बहरे!
संगीत कोई
छेडू देता है,
रोये हो 2:
कल
एक छोटी—सी
संन्यासिनी, जरा—सी
लड़की
शक्तिपात के
लिए आयी। बार—बार
लिख रही थी कि
मेरे सिर पर
भी हाथ रखें, मेरी भी
शक्ति को
जगायें।
देखती थी, और
संन्यासी आते
हैं, उनके
सिर पर मैं
हाथ रखता हूं
उनके भीतर
ऊर्जा का
प्रवाह होता
है। छोटी
बच्ची है, अभी
तो ध्यान भी
उसने किया
नहीं है। अभी
तो मां—बाप ने
संन्यास लिया,
तो उसने भी
संन्यास ले
लिया है।
लेकिन उसके
भीतर भाव की
तरंग थी तो
मैंने कहा ठीक
है, तू आ।
और मैं भी
चकित हुआ, जब
उसकी ऊर्जा
प्रवाहित
होने लगी। पास
में ही मनीषा
बैठी थी, मनीषा
तो इतनी आनंद—विभोर
हो गयी उस
बच्ची की
ऊर्जा को
प्रवाहित
होते देखकर कि
रोने लगी, अपने
आंसू नहीं रोक
पायी। वे आनंद
के आंसू हैं।
इस छोटी—सी
बच्ची में जो
घट रहा है, एक
कमल खिल रहा
है। इस कमल को
खिलते देखकर
तुम आनंद से
रोओगे नहीं, तुम्हारी आंखें
गीली नहीं हो
जायेंगी?
आकाश
में उड़ते
पक्षी को
देखकर
तुम्हें अपने
भीतर मुक्त
होने की कामना
नहीं जगती? पिंजड़े
में बंद पक्षी
को देखकर
तुम्हें अपनी स्थिति
की याद नहीं
आती? किसी
रूखे—सूखे
वृक्ष को
देखकर
तुम्हें अपना
बोध नहीं होता
कि ऐसा ही मैं
हो गया हूं।
तुम कभी अपने
लिए रोये हो; दूसरों के
लिए रोये हो? तुम्हारे
भीतर कभी
प्रेम को
तुमने बहाव
दिया है, प्रवाह
दिया है?. तो
तुम विरह समझ
सकोगे।
प्रेम
को जगाओ। और
मैं जानता हूं
कि तुम
परमात्मा के
प्रेम में
एकदम नहीं पड़
सकते। तुमने
अभी पृथ्वी का
प्रेम भी नहीं
जाना, तुम
स्वर्ग का
प्रेम कैसे
जान पाओगे? इसलिए मैं
निरंतर कह रहा
हूं कि मेरा
संदेशे प्रेम
का है। पृथ्वी
के प्रेम को
तो जानो, तो
फिर वही प्रेम
तुम्हें
परमात्मा के
प्रेम की तरफ
ले चलेगा। अभी
तो तुमने
प्रेम को जाना
ही नहीं।
पृथ्वी का
प्रेम नहीं
जाना, किसी
स्त्री का
प्रेम नहीं
जाना, किसी
पुरुष का
प्रेम नहीं
जाना, किसी
मित्र का
प्रेम नहीं
जाना; प्रेम
से वंचित हो
तुम, तुम
कैसे
परमात्मा का
प्रेम जानोगे?
और अक्सर यह
भ्रांति
प्रचलित है कि
इस संसार में
अगर प्रेम
किया तो
परमात्मा से
वंचित रह जाओगे।
न मालूम किन
नासमझों ने यह
बात तुम्हें
समझाई है!
तुमने अगर इस
संसार में
प्रेम नहीं
किया तो तुम
परमात्मा के
प्रेम में कभी
पड़ोगे ही नहीं।
जो उथले—उथले
नहीं तैरा वह
सागर में कैसे
तैरेगा? जो
मानवीय
संबंधों के
छोटे—छोटे
नाते—रिश्तों
में नहीं डूबा,
वह उस परम
रिश्ते में
कैसे डूबेगा?
वह तो बड़ा
गहरा सागर है!
तैरना तो
किनारे पर सीखना
होता है, जहा
पानी उथला हो,
ताकि डूबो
भी तो मर न जाओ,
जहा कि डूब
न सको। ही, तैरना
आ जाये फिर
जाओ, फिर
दूर—दूर सागर
तैसे। फिर कोई
अंतर नहीं
पड़ता। नीचे
कितना पानी
गहरा है, तैरनेवाले
को कोई अंतर
नहीं पड़ता।
मील— भर गहरा
हो कि दस मील
गहरा हो, कोई
अंतर नहीं
पड़ता।
तैरनेवाला तो
तैरना जानता
है, बात
समाप्त हो गयी।
लेकिन न तैरनेवाले
को अंतर पड़ता
है, पानी
उथला है कि
गहरा है। गहरा
डुबा देगा।
उथले में
सीखना होता है।
मेरे
देखे, मेरे
लेखे—संसार
परमात्मा का
उथला रूप है।
यह उसका
किनारा है।
संसार
परमात्मा का
किनारा है। इस
किनारे पर थोड़ा
तैरो, थोड़ा
प्रेम करो।
इसी प्रेम से
तुम भीगोगे, आर्द्र
होओगे, गीले
होओगे। यही
प्रेम
तुम्हें
स्वाद देगा, यद्यपि यह
प्रेम
तुम्हें पूरा
तृप्त नहीं करेगा।
यही इस प्रेम
की खूबी है, यह तुम्हें
स्वाद देता है
लेकिन तृप्त
नहीं करता। यह
तुम्हें झलक
देता है, लेकिन
भूख नहीं भरती,
पेट नहीं
भरता। वस्तुत:
इसकी झलक के
कारण तुम्हें
पहली दफा भूख
पैदा होती है।
तुम्हें
अनुभव आता है
कि ऐसा भी हो
सकता है।
एक
स्त्री और एक
पुरुष का मिलन
अत्यंत गहन
प्रेम में
क्षण— भर का ही
होता है, लेकिन
उस क्षण— भर
में कोई झरोखा
खुलता है। उस
झरोखे से समय
मिट जाता है, काल मिट
जाता है, दूरियां
मिट जाती हैं।
मैं—तू का भाव
मिट जाता है।
क्षण भर को!
मगर उस क्षण—
भर में' ही
वर्षा हो जाती
है एक अपूर्व
शाश्वत आनंद
की! फिर क्षण—
भर के बाद बड़ी
अंधेरी रात है।
फिर विछोह है
और बड़ी पीड़ा
है। पहले से
ज्यादा पीड़ा!
क्योंकि पहले
तो पता न था, इस आनंद का
यह झरोखा खुला
न था। बंद
कमरे में रहे
थे, बंद
कमरा ही जाना
था। तुलना के
लिए कोई उपाय
न था। अब तो
खुला हुआ आकाश
देख लिया, आकाश
के तारे देख
लिये, अब
तो दूर—दूर
विस्तीर्ण
नीलिमा देख ली
आकाश की। आकाश
में उड़ते
पक्षी देख
लिये। झरोखा
बंद हो गया, लेकिन अब
उसकी याद
सताती है। अब
यह घर तुम्हें
ज्यादा दिन
कैद में नहीं
रख सकेगा; आज
नहीं कल, तुम
पंख पसारोगे।
तुम उस झरोखे
से उड़ जाओगे।
मनुष्यों
का प्रेम, पृथ्वी
का प्रेम, झरोखा
खोलता है
परमात्मा का।
और दोहरी घटना
घटती है
सामान्य
प्रेम में : एक तरफ
आनंद के क्षण
आते हैं, दूसरी
तरफ दुख की, विषाद की
घड़ियां आती
हैं। आनंद
कहता है ऐसा
ही सदा के लिए
हो जाये, यह
क्षण शाश्वत
हो जाये। मगर
कोई मानवीय
संबंध शाश्वत
नहीं हो सकता,
क्षण— भंगुर
ही होता है।
फिर पीछे विषाद
आता है। तभी
तो आदमी समाधि
की तलाश में
निकलता है; उस परम
प्यारे की
तलाश में
निकलता है, जिससे
आलिंगन एक बार
हुआ तो हुआ; जिससे मिलन
हुआ तो हुआ, सदा के लिये
हो गया।
मगर
जिसने घूंट—
भर शराब न पी, वह
मधुशाला की
तलाश में
क्यों
निकलेगा?
इस पृथ्वी की
शराब को घूंट—
भर शराब समझो,
ताकि तुम
परमात्मा की
मधुशाला में
जाने के लिए
आतुर होने लगो,
दीवाने
होने लगो। तो
तुम्हें
प्रेम समझ में
आये, विरह
समझ में आये, और किसी दिन
सौभाग्य की
घड़ी में मिलन
भी समझ में
आये। पर
शब्दों से
समझने का उपाय
नहीं।
छठवां
प्रश्न :
गोरखनाथ
की मूल शिक्षा
क्या है?
बड़ी
छोटी, संक्षिप्त
हसिबा
खेलिबा रहिबा
रंग काम क्रोध
न करिबा संग?
हसिबा
खेलिबा गाइबा
गीत। दृढ़ करि
राखी अपना चीत?
यही
मेरी शिक्षा
भी है : हसिबा
खेलिबा रहिबा
रंग।
रंग
से रही! मस्ती
में,
मौज में, आनंद में।
इतना
परमात्मा ने
दिया है, नाचो,
गुनगुनाओ, गाओ!
धन्यवाद
का गीत उठना
चाहिए
तुम्हारे
हृदय से; वही
प्रार्थना है।
हसिबा
खेलिबा रहिबा
रंग।
हंसो।
अगर न हंस सको
तो समझना तुम
कभी धार्मिक न
हो सकोगे।
तुम्हारे
तथाकथित साधु—संत
तो हंसी भूल
कर बैठे हैं।
हंस ही नहीं
सकते, हंसने
में गुनाह है,
पाप है।
इसलिए तुम
अपने साधु—संतों
के साथ ज्यादा
देर नहीं रह
सकते। बस गये,
जल्दी से
पैर छुए, नमस्कार
किए, चले।
चौबीस घंटे रह
जाओ तो
तुम्हें
कठिनाई पता
चले।
तुम्हारी भी
हंसी छिन जाये।
साधु—संतों के
पास जाकर लोग
गंभीर हो जाते
हैं। साधु—संतों
के पास जाकर
लोग अकड़ जाते
हैं—रूखे हो
जाते हैं, गंभीर,
अति गंभीर!
हंसी तो गुनाह
मालूम होगी।
और सुनो, ये
परम साधु गोरख
क्या कहते हैं
: हसिबा खेलिबा..!
हंसो और खेलो।
जीवन को अभिनय
से ज्यादा मत
समझो, खेल
समझो, लीला
समझो।
हसिबा
खेलिबा रहिबा
रंग!
और
ऐसे रहो, रंग
से रहो। मौज
तुम्हारा
जीवन हो, मौज
तुम्हारी
शैली हो।
काम
क्रोध न करिबा
संग। और तभी
तुम पाओगे काम—क्रोध
अपने से छूटने
लगे,
उन्होंने
तुम्हारा संग
छोड़ दिया।
छोड़ना भी न
पड़ेगा।
क्योंकि
तुम्हारी
सारी ऊर्जा
हंसने में, खेलने में, गीत गाने
में, प्रार्थना
में, मस्ती
में, नाचने
में लग गयी; वही ऊर्जा
काम—क्रोध में
लगती थी, अब
फुर्सत कहां
है? जिसका
धन हीरे—जवाहरात
खरीदने लगा, उसका धन अब
कूड़ा—करकट तो
नहीं खरीदेगा!
अब तुम्हारी
ऊर्जा का आयाम
बदला।
हसिबा
खेलिबा रहिबा
रंग। काम—
क्रोध न करिबा
संग
हसिबा
खेलिबा गाइबा
गीत
उठने
दो गीत! गीत
तुम्हारी
श्वास—श्वास
में होना
चाहिए तो ही
तुम धार्मिक
हो पाओगे।
धर्म काव्य है, महाकाव्य
है। धर्म गद्य
नहीं है, पद्य
है। धर्म जीवन
को गाने की
कला है। धर्म
संगीत है और
नृत्य।
दृढ
करि राखी अपना
चीत। गाओ गीत
और गीत में
अपने चित्त को
दृढ़ हो जाने दो, जम
जाने दो, लग
जाने दो बैठक—और
सब हो जायेगा।
शेष सब अपने
से हो जायेगा।
शेष परमात्मा
कर लेगा, तुम
इतना करो।
सबदहि
ताला सबदहि
कूजी सबदहि
सबद जगाया।
सबदहि
सबद सूपरचा
हूआ सबदहि सबद
समाया।
उसी
महासंगीत से
सब पैदा हुआ
है। परमात्मा
परमध्वनि है—ओंकार, एक
ओंकार सतनाम।
ओम का नाद
परमात्मा।
सबदहि ताला
सबदहि कूजी।
इसलिए उस परम
शब्द में ही
ताला है, उसी
परम शब्द में
कुंजी भी है।
संगीत का ही
ताला है, संगीत
की ही कुंजी
है। छंद का ही
ताला है, छंद
की ही कुंजी
है। तुम्हारे
भीतर मौन
संगीत उठ आये,
मौन गीत जग
जाये—शब्द—शून्य,
शब्द—रिक्त—शुद्ध
संगीत जग जाये,
बस कुंजी
मिल गयी!
सबदहिं
सबद जगाया!
और
यही तो गुरु
के पास घटता
है। गुरु अपनी
वीणा छेड़ देता
है,
अपना शब्द
छेड़ देता है, तुम्हारे
भीतर सोये हुए
शब्द में
झंकार पड़ती है।
तुम्हारे
भीतर भी शब्द
में
प्रतिध्वनि
उठने लगती है।
सबदहि
सबद जगाया
सबदहि
सबद सुपरचा
हुआ
और
गुरु के संगीत
में डूबकर, गुरु
के शब्द में
डूबकर, गुरु
की मूल ध्वनि
में डूबकर
अपना भी परिचय
हुआ।
सबदहिं
सबद सुपरचा
हुआ सबदहि सबद
समाया
और
फिर संगीत, जीवन
का सारा संगीत
उस महासंगीत
में लीन हो जाता
है।
शब्द
है संसार।
शब्द का अर्थ
है : संगीत
प्रगट हुआ।
शून्य है
परमात्मा।
शून्य का अर्थ
है : शब्द
वापिस अपने
मूलस्रोत में
समा गया। मगर
नाचो, गाओ।
हसिबा
खेलिबा रहिबा
रंग। काम—
क्रोध न करिबा
संग
हसिबा
खेलिबा गाइबा
गीत। दृढ़ करि
राखी अपना चीत।
आखिरी
प्रश्न :
ईश्वर—
अस्तित्व का
प्रमाण क्या
है?
कोई
प्रमाण नहीं
है,
या
प्रत्येक चीज
प्रमाण है।
तर्क की
दृष्टि से तो
कोई प्रमाण
नहीं, क्योंकि
परमात्मा
तर्कातीत है।
न तो तर्क से
कोई सिद्ध कर
सकता है उसे, न असिद्ध कर
सकता है। और
खयाल रखना, जो तर्क से
सिद्ध हो सकता
है वह तर्क से असिद्ध
भी हो सकता है।
परमात्मा
न तो सिद्ध
होता है न
असिद्ध होता
है। परमात्मा
तो बस है।
शायद यह कहना
भी ठीक नहीं
कि परमात्मा
है। क्योंकि
परमात्मा है, ऐसा
कहने से
पुनरुक्ति—दोष
लगता है। 'है'
ही तो
परमात्मा है।
जो है वही
परमात्मा है।
तो जब हम कहते
हैं वृक्ष है,
यह ठीक है
कहना; क्योंकि
एक दिन वृक्ष
नहीं हो
जायेगा; और
एक दिन नहीं
था, फिर
नहीं हो
जायेगा। होना
सिर्फ बीच में
हुआ। इसलिए
वृक्ष है, आदमी
है, मकान
है; लेकिन
परमात्मा है,
यह कहना ठीक
नहीं, क्योंकि
परमात्मा न तो
कभी 'नहीं'
था और न कभी 'नहीं' होगा।
इसलिए जिस
अर्थ में हम 'है' का
प्रयोग करते
हैं, उस
अर्थ में
परमात्मा के
लिये नहीं
किया जा सकता।
परमात्मा तो 'है' का ही
दूसरा नाम है।
वृक्ष है, अर्थात
वृक्ष
परमात्मा में
है। मनुष्य है
अर्थात
मनुष्य
परमात्मा में
श्वास ले रहा
है। जब
परमात्मा
अपनी श्वास
वापिस ले लेगा,
मनुष्य
नहीं हो
जायेगा। जब
परमात्मा
अपनी हरियाली
वापिस ले लेगा,
वृक्ष नहीं
हो जायेगा।
तो
एक अर्थ में
कोई प्रमाण
नहीं—तर्क के
अर्थ में; अस्तित्व
के अर्थ में
उसका ही
प्रमाण है सब
तरफ। ये खड़े
वृक्ष, यह
गिरती धूप, यह पक्षियों
की आवाज, यह
मेरा तुमसे बोलना,
यह
तुम्हारा
यहां चुप, मौन,
आनंदमग्न
हो सुनना—इस
सब में प्रमाण
है। सुनते हो
यह आवाज
पक्षियों की,
प्रमाण ही
प्रमाण है!
लेकिन तुम
शायद तर्क की दृष्टि
से प्रमाण
चाहते हो, वैसा
कोई प्रमाण
नहीं है।
अरे, ये
किसने बीने
शूल, बिछाई
किसने ये
कलियां?
यह किस
वंशी की तान
कि
जिसके स्वर—स्वर
से ले ताल
अचानक
थिरक उठा जीवन?
यह किन
अधरों का गान,
फूटते
जिसके बेसुध
रागों से,
उल्लास—
भरे निर्झर
अनगिन?
यह कौन
अछूता सुमन
बीनने
जिसका मदिर
पराग,
भाग
आईं
भ्रमरावलिया?
प्राण, ये
किसने बीने
शूल, बिछाई
किसने ये
कलियां?
यह
कैसी पागल
प्यास,
मांगना
जिसने सीखा
नहीं,
न कुछ
भी पाने का
उल्लास?
यह अजब
अनोखी आस,
खोजती
खोकर खोने
हेतु,
निराशा
में पलता
विश्वास?
यह
कैसी लुटी
बहार,
खोजती
आई जो मधुमास,
बन गई
मन की
रंगरलियां।
आह, ये
किसने बीने
शूल, बिछाई
किसने ये
कलियां?
यह किस
जीवन का तिमिर,
खोजता
आया मेरे पास,
स्नेह
की ज्योति सहज
ही घिर?
ये
किसके सपने
बधिर,
नहीं
जो सुनें पराई
बात
नित्य
आते नयनों में
तिर?
यह
कैसी ज्वाला
उठी,
जलाने
आई है जो आज,
प्यार
की शत
दीपावलियां?
बता दो किसने
बीने शूल, बिछाई
किसने ये
कलियां?
पूछते
हो प्रमाण?
अरे, ये
किसने बीने
शूल, बिछाई
किसने ये
कलियां?
कौन
रंग रहा है ये
रंग,
कौन चितेरा!
कौन भरता है
रंग
इंद्रधनुषों
में! कौन
रंगता है रंग
तितलियों
क्ए। परों
में! कौन भरता
है गीत कोकिल
के कंठों में!
कौन तुम्हारे
भीतर श्वास ले
रहा है! कौन
तुम्हारे भीतर
धड़क रहा है!
कौन है
तुम्हारा
जीवन! और तुम पूछते
हो प्रमाण
परमात्मा का?
यह सब
परमात्मा है।
परमात्मा है,
परमात्मा
के अतिरिक्त
और कुछ भी
नहीं है। 'जो
है' उसका
ही परमात्मा
दूसरा नाम है।
मैं
परमात्मा को
और अस्तित्व
को अलग— अलग
नहीं तोड़ता।
पुराने
धर्मों ने यह
भूल की थी; इस
भूल का बडा
दुष्परिणाम
हुआ। पुराने
धर्म संसार को
तोड़ देते हैं
परमात्मा से
अलग, फिर
सवाल उठता तै
उसका प्रमाण
कहां है? स्वाभाविक
सवाल है।
संसार तो है
नहीं
परमात्मा, फिर
परमात्मा
कहां है? फिर
अड़चन खड़ी होती
है। फिर आकाश
में हाथ उठाने
पड़ते हैं। ये
हाथ झूठे हैं।
मैं
तुमसे कहता
हूं :
परमात्मा
अस्तित्व है; इससे
पार नहीं है, इसी में
छिपा है, इसी
में गुंथा है।
यही खोजो, अभी
खोजो। तुम
पत्ते—पत्ते
में उसके
हस्ताक्षर
पाओगे। तुम
पत्थर—पत्थर
में उसे छिपा
हुआ पाओगे।
जीसस का वचन
है : उठाओ
पत्थर को और
तुम मुझे छिपा
पाओगे। तोड़ो
लकड़ी को और
तुमने मुझे
तोड़ दिया।
बता दो
किसने बीने
शूल,
बिछाई
किसने ये
कलियां?
और
तुम प्रमाण
पूछ रहे हो? और
प्रमाण
देनेवाले लोग
हुए हैं। और
उनके सब
प्रमाण
व्यर्थ हैं।
कोई प्रमाण
कारगर नहीं है।
अब तक जितने
प्रमाण दिये
गये हैं
परमात्मा के,
सब दो कौड़ी
के हैं। जैसे
कोई कहता है
कि हर चीज को
बनानेवाला
होना चाहिए; इतना बड़ा
जगत् तो इसका
बनानेवाला
कोई होगा। मगर
उसका प्रमाण
आत्मघात कर
लेगा, नास्तिक
के सामने जाते
ही हाथ—पैर
उसके लंगड़ा
जायेंगे।
क्योंकि
नास्तिक कहता
है, अगर हर
बनाई गयी चीज
का बनानेवाला
होना चाहिए, अगर संसार
को बनाने के
लिए परमात्मा
चाहिए तो फिर
परमात्मा को
किसने बनाया?
बस उसने
अटका दी
तुम्हारी
फांसी!
परमात्मा को किसने
बनाया है? तुम
नाराज होने
लगे कि नहीं, परमात्मा को
किसी ने नहीं
बनाया। तो
नास्तिक कहता
है, जब
परमात्मा
बिना बनाये हो
सकता है तो
संसार क्यों
नहीं हो सकता?
टूट गया
तर्क, पोचा
निकला।
तुम
कहते हो कि
जैसे कुम्हार
घड़े को बनाता
ऐसा उस
कुंभकार ने इस
संसार को
बनाया। लेकिन
कुम्हार को भी
कोई बनाता है
न, या कि
कुम्हार बिना
बनाया होता है?
अब फंसे
मुश्किल में।
तो तुम्हारे
उस बड़े
कुम्हार को
किसने बनाया?
ये
प्रमाण कुछ
काम नहीं आते।
ये बच्चों को
समझाने की
बातें हैं, इनसे
कोई जीवन—क्रातिया
नहीं होतीं।
इसलिए मैं
प्रमाण नहीं
देता, मैं
तो अनुभव देता
हूं। मैं तो
कहता हूं आओ
मेरे पास, बैठो
गुप—चुप। गाओ,
नाचो। और
किसी दिन
अचानक तुम
पाओगे, कौंध
गयी उसकी
बिजली। कब
कौंध जाये, कुछ कहा
नहीं जा सकता।
उसकी कोई
भविष्यवाणी
भी नहीं हो
सकती। अनायास
आता है वह
अतिथि, अचानक
द्वार पर खड़ा
हो जाता है।
जिस क्षण
तुम्हारी
पात्रता होती
है, जिस
क्षण तुम
निर्मल होते
हो, शांत
होते हो, उसी
क्षण घटना घट
जाती है। फिर
कोई प्रमाण
नहीं चाहना
पड़ता, फिर
तुम स्वयं ही
प्रमाण हो
जाते हो।
तुम्हारा
अनुभव ही
प्रमाण हो
सकता है, और
कोई चीज
प्रमाण नहीं
हो सकती।
बता दो
किसने बीने
शूल,
बिछाई
किसने ये
कलियां?
आज
इतना ही
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