अध्याय 2 :
सूत्र 2
इस
प्रकार
अस्तित्व और
अनस्तित्व
मिल कर एक-दूसरे
के
भाव
को जन्म देते
हैं; असरल और सरल
एक-दूसरे के
भाव
की
सृष्टि करते
हैं; विस्तार
और संक्षेप
एक-दूसरे की
आकृति
का
निर्माण करते
हैं; उच्चता
और नीचता का
भाव एक-दूसरे
के
विरोध पर
अवलंबित हैं; संगीत
के स्वर और
ध्वनियां
परस्पर
संबद्ध होकर
ही समस्वर
बनती हैं, और
पूर्वगमन
एवं
अनुगमन
से ही क्रम के
भाव की
उत्पत्ति
होती है।
जो
विरोधी है, जो
विपरीत है, वही संगी भी
है, वही
साथी भी। जो
शत्रु है, जो
दुश्मन है, वही मित्र
भी है, वही
सगा भी।
लाओत्से
विरोधी को
विरोधी नहीं
देखता, दूर
को दूर नहीं
मानता, विपरीत
को विपरीत
नहीं।
लाओत्से का
कहना है, सब
दूरियां
निकटता से ही
तौली जाती
हैं। और सब निकटताएं
दूरियों
का ही छोटा
रूप हैं।
शुभ्र रेखा
खींचनी हो, तो अंधेरी, काली पृष्ठभूमि
की जरूरत पड़ती
है।
इसलिए
जो कहता है कि
सफेद काले के
विरोध में है, वह
गलत कहता है; क्योंकि
सफेद को उभार
कर दिखाने के
लिए काले का
ही उपयोग करना
पड़ता है। जो
कहता है कि
सुबह रात को
नष्ट कर देती
है, वह
भ्रांत है; सच तो यही है
कि सुबह रात
से ही जन्म
पाती है।
जिन
चीजों को हम
विरोध में
देखते हैं, लाओत्से
उन्हें संयोग
में देखता है।
पूरा गेस्टाल्ट,
देखने का
ढंग लाओत्से
का, हमसे
विपरीत है। हम
जहां चीजों
में तनाव देखते
हैं, वहां
लाओत्से
आकर्षण देखता
है। जहां हम
देखते हैं
सुस्पष्ट रूप
से कि कोई
हमें मिटाने
का उपाय कर
रहा है, वहां
लाओत्से कहता
है, उसके
बिना हम हो ही
न सकेंगे। वह
जो हमें मिटाने
का उपाय कर
रहा है, उसके
बिना हमारे
होने की कोई
संभावना नहीं
है। इसे वह
उदाहरण के लिए
एक-एक चीज में
लेता है।
वह
कहता है, अगर
दो न होंगे, तो एक के
होने की कोई
जगह न रह
जाएगी। गणित
का एक उदाहरण
वह ले रहा है।
गणितज्ञ
स्वीकार करते
हैं कि अगर हम
एक की संख्या
को बचाना चाहें,
तो हमें दो
के बाद की
सारी संख्याएं
बचानी
पड़ेंगी। अगर
हम दो के बाद
की सारी संख्याओं
को मिटा डालें,
तो एक में
कोई भी अर्थ न
रह जाएगा। एक
में जो भी अर्थ
है, वह दो
के कारण ही
है।
सोचें
हम,
अगर एक
अकेला आंकड़ा
हो हमारे पास,
तो उसमें
क्या अर्थ
होगा? व्हाट
इट विल मीन? उसमें कोई
भी अर्थ नहीं
होगा। वह
अर्थहीन होगा।
उसमें जो अर्थ
आता है, वह
तो दोत्तीन-चार,
वह नौ तक जो
फैला हुआ
विस्तार है, उसी से आता
है। अगर हम एक
के बाद की सारी
संख्याएं
हटा दें, तो
एक अर्थहीन हो
जाएगा।
लाओत्से
कहता है, एक दो
से अलग नहीं
है, दो का
ही हिस्सा है।
वह कहता है, अगर हम
ऊंचाई को हटा
दें, तो
नीचाई क्या
होगी? अगर
हम
पर्वत-शिखरों
को मिटा दें, तो खाइयां
कहां बचेंगी?
कैसे बचेंगी?
यद्यपि
खाइयां
विपरीत मालूम
पड़ती हैं
पर्वत के शिखर
से। पर्वत का
शिखर मालूम
होता है आकाश
को छूता हुआ; खाइयां
मालूम होती
हैं पाताल को
छूती हुई। पर लाओत्से
कहता है, खाइयां
बनती हैं
पर्वत के निकट
पर्वत के ही
कारण। असल में,
खाई पर्वत
के शिखर का ही
दूसरा हिस्सा
है, उसका
ही दूसरा पहलू
है। एक को हम
मिटाएंगे, दूसरा
मिट जाएगा।
अगर हम शिखर
बचाना चाहें,
खाइयां
मिटाना चाहें,
तो शिखर न
बचेंगे।
हम सदा
ऐसा ही देखते
हैं कि खाई
उलटी है, शिखर
उलटा है।
लाओत्से
कहता है, खाई
ही शिखर का
आधार है; शिखर
ही खाई का
जन्मदाता है।
वे दोनों
संयुक्त हैं;
उन्हें अलग
करने का उपाय
नहीं है।
लाओत्से कहता
है, जिसे
हम अलग न कर
सकें, उसे
विपरीत क्यों
कहें? जिसे
हम अलग न कर
सकें, उसे
विपरीत क्यों
कहें?
नेपोलियन
का एक जन्मजात
शत्रु मर गया
था। तो नेपोलियन
की आंख में
आंसू आ गए।
पास कोई मित्र
बैठा था, उसने
पूछा कि आपको
प्रसन्न होना
चाहिए कि आपका
जन्मजात
शत्रु मर गया!
नेपोलियन
ने कहा, यह
मैंने कभी
सोचा ही नहीं
था। लेकिन आज
जब मेरा
जन्मजात
शत्रु मर गया
है, जिससे
मेरी सदा की
शत्रुता थी और
जिससे कभी मित्रता
की कोई आशा न
थी, तो आज
जब वह मर गया
है, तब मैं
पाता हूं कि
मेरा कुछ
हिस्सा कम हो
गया। अब मैं
वही कभी न हो
सकूंगा, जो
उसकी मौजूदगी
में था।
नेपोलियन
को यह जो
प्रतीति है, यह
लाओत्से की
धारणा को
स्पष्ट
करेगी। नेपोलियन
कहता है, मेरे
शत्रु के मर
जाने से
मुझमें भी कुछ
मर गया, जो
उसकी बिना
मौजूदगी के अब
कभी न हो
सकेगा। मैं
कुछ कम हो गया।
मुझमें कुछ था,
जो उसी की
वजह से था। आज
वह नहीं है, तो मेरे
भीतर भी वह
बात नहीं रह
गई।
तो
इसका तो यह
अर्थ हुआ कि
शत्रु भी आपको
बनाते हैं, मित्र
ही नहीं। और
शत्रुओं के
बिना भी आप कम
हो जाएंगे, खाली हो
जाएंगे।
लाओत्से
कहता है, जगत
में विपरीत
कुछ भी नहीं
है; विपरीत
केवल दिखाई
पड़ता है।
बीमारी
स्वास्थ्य के
विपरीत नहीं
है। और अगर हम
मेडिकल साइंस
से पूछें, तो
वह भी कहेगी
कि बीमारी भी
स्वास्थ्य का
ही हिस्सा है।
बीमार होने के
लिए भी स्वस्थ
होना जरूरी
है। हम स्वस्थ
हुए बिना
बीमार भी नहीं
हो सकते।
इसलिए मरा हुआ
आदमी बीमार
नहीं हो सकता।
और इसलिए
अक्सर ऐसा हो जाता
है कि एक उम्र
के बाद मौत भी
मुश्किल हो जाती
है। क्योंकि
मरने के लिए
भी जितना
स्वास्थ्य
चाहिए, अगर
उतना भी आदमी
के पास न बचा
हो, तो बड़ी
मुश्किल हो
जाती है।
अक्सर अस्सी
और नब्बे के
पार मौत बड़ी
सरक-सरक कर
आती है।
लुकमान
ने कहा है कि
अगर आदमी कभी
बीमार न पड़ा हो, तो
पहली ही
बीमारी में
समाप्त हो
जाता है। क्योंकि
वह इतना जीवंत
होता है कि
पहली बीमारी
ही मौत बन
सकती है। जो
आदमी
बहुत-बहुत
बीमार पड़ा हो,
वह इतनी
जल्दी नहीं
मरता है। मरने
के लिए, तत्क्षण
मर जाने के
लिए, बहुत
जीवंत
स्वास्थ्य
चाहिए।
ये
उलटी बातें
दिखाई पड़ती
हैं। हम तो
स्वास्थ्य के
विपरीत देखते
हैं बीमारी
को। लेकिन अगर
हम भीतर से भी
देखें, तो भी
हमें पता
चलेगा कि
बीमारी
स्वास्थ्य की रक्षा
का उपाय है।
जब आप बीमार
होते हैं, तो
आपका शरीर
स्वास्थ्य की
रक्षा के लिए
जो कठिन
चेष्टा कर रहा
है, वही
आपकी बीमारी
है। एक आदमी
को बुखार आ
गया है। बुखार
कुछ भी नहीं
है सिवाय इसके
कि शरीर स्वस्थ
रहने की इतनी
चेष्टा कर रहा
है कि उत्तप्त
हो गया है, गर्म
हो गया है; इतना
लड़ रहा है
स्वस्थ होने
के लिए कि
बीमार हो गया
है।
अस्तित्व
में बीमारी और
स्वास्थ्य एक
ही चीज के दो
हिस्से हैं।
और जितने भी
विरोध हैं, जितनी
भी
विपरीतताएं
हैं, लाओत्से
के हिसाब से
वे कोई भी
विपरीत नहीं
हैं। अगर कोई
आदमी सोचता हो
कि अपमानित
मैं कभी न
होऊं, तो
वह ध्यान रखे,
वह
सम्मानित कभी
न हो सकेगा।
जिसे
सम्मानित होना
है, उसे
अपमानित होने
की तैयारी
रखनी पड़ती है।
और जो
सम्मानित
होता है, वह
बहुत तरह के
अपमान से गुजर
कर ही हो पाता
है। तो
लाओत्से कहता
है कि अगर
किसी को
अपमानित न
होना हो, तो
उसे एक काम
करना चाहिए, सम्मानित
होने की
चेष्टा नहीं
करनी चाहिए। फिर
उसे कोई
अपमानित न कर
सकेगा।
लाओत्से
ने कहा है कि
मैं सदा वहां
बैठा, जहां से
मुझे कोई उठा
न सकता था।
मैं आखिरी जगह
बैठा; जहां
लोग जूते
उतारते थे, वहां मैं
बैठा।
क्योंकि कोई
अगर मुझे उठा
कर भी फेंकता,
तो उससे और
ज्यादा
फेंकने को कोई
जगह न थी। मेरा
कभी कोई अपमान
नहीं कर सका
है, लाओत्से
ने कहा है, क्योंकि
मैंने कभी
सम्मान नहीं
चाहा। सम्मान
चाहा कि अपमान
आएगा। अपमान
की तैयारी न
हो, तो
सम्मान का कोई
उपाय नहीं है।
जो ऊंचा होना चाहेगा,
वह नीचे
गिरेगा। और
जिसे नीचे
गिरने में डर
हो, उसे
ऊंचे उठने की
कोशिश में
नहीं पड़ना
चाहिए। और जिसे
नीचे गिरने की
हिम्मत हो, वह मजे से
ऊपर उठ सकता
है।
लाओत्से
यह कह रहा है
कि वह जो
विपरीत है, उससे
हम बचना चाहते
हैं, तो हम
भूल में
पड़ेंगे, तो
हम कठिनाई में
पड़ जाएंगे। या
तो दोनों से बच
जाओ, या
दोनों की
तैयारी हो।
अस्तित्व
द्वैत है। जिस
अस्तित्व को
हम जानते हैं,
जहां हम
जीते हैं, जो
हमारे मन का
जगत है, वह
द्वैत है।
वहां
प्रत्येक चीज
ऐसे ही सम्हाली
गई है, जैसे
कोई
आर्किटेक्ट
किसी दरवाजे
पर आर्क बनाता
है। असल में, आर्किटेक्ट
का नाम ही
आर्क बनाने से
शुरू हुआ। जो
आर्क बना सकता
है, वही
आर्किटेक्ट
है। दरवाजे पर
जो आर्क होती
है, उसकी
कला सिर्फ
इतनी है कि हम
उसमें विपरीत ईंटें लगा
देते हैं।
गोल--आधी ईंटें
एक तरफ रुख; आधी ईंटें
दूसरी तरफ
रुख। कुछ और
नहीं होता।
लेकिन विपरीत ईंटें बड़े
से बड़े भवन को
सम्हाल लेती
हैं ऊपर। विपरीत
ईंटें
एक-दूसरे को
दबाती हैं, एक-दूसरे से संघर्षरत
हो जाती हैं।
उनके संघर्ष
में शक्ति
उत्पन्न होती
है; वही
शक्ति पूरे
भवन को सम्हाल
लेती है।
कोई
सोच सकता है
कि जब विपरीत
ईंटों में
इतनी शक्ति है, तो
हम एक ही रुख
वाली, एक
ही तरफ को
झुकी हुई ईंटें
लगा दें तो और
भी अच्छा
होगा। लेकिन
तब आर्क नहीं
बनेगा और भवन
उठेगा नहीं।
विपरीत ईंटों
से बनता है
तोरण-द्वार।
फिर कितनी ही
बड़ी भवन की
क्षमता और
शक्ति और वजन
को उठाया जा
सकता है।
पूरे
जीवन का द्वार, पूरे
जीवन का आधार
विपरीत पर है।
जहां भी कोई चीज
है, तत्काल
उसको
सम्हालने
वाली विपरीत
चीज वहां खड़ी
है। चाहे स्त्री
हो और पुरुष; चाहे ऋण
विद्युत हो और
धन विद्युत; चाहे आकाश
हो और पृथ्वी;
चाहे अग्नि
हो या
जल--चारों तरफ
जीवन का सारा
आयोजन विपरीत
को एक-दूसरे
के विपरीत खड़ा
करके, सहारा
देकर निर्माण
का है। विपरीत
सहयोगी है। वे
जो ईंटें
उलटी लगी हैं,
दुश्मन
नहीं हैं, वे
मित्र हैं।
उनकी
विपरीतता ही
आधार है।
इसलिए
लाओत्से कुछ
उदाहरण लेता
है। वह कहता है, सो
इट इज़ दैट
एक्झिस्टेंस
एंड
नॉन-एक्झिस्टेंस
गिव बर्थ
दि वन टु दि
आइडिया ऑफ दि
अदर।
अस्तित्व अनस्तित्व
का खयाल देता
है; अनस्तित्व
अस्तित्व का
खयाल देता है।
ऐसा समझें, जीवन मृत्यु
का खयाल देती
है, मृत्यु
जीवन का खयाल।
न तो हम सोच
सकते हैं, अस्तित्व
कभी ऐसा होगा
जब अनस्तित्व
न रह जाए। न हम
सोच सकते हैं
कि जीवन कभी
ऐसा होगा कि
मृत्यु न रह
जाए। जीवन
होगा तो
मृत्यु होगी
ही। मृत्यु के
बिना जीवन के
होने का कोई
भी उपाय नहीं।
यह
लाओत्से
क्यों कहता है? यह
इसलिए कहता है
कि अगर यह समझ
में आ जाए, तो
आपके मन में
एक अपूर्व
स्वीकृति का
भाव आ जाएगा।
तब आप मृत्यु
से भयभीत न
रहेंगे। तब आप
जानेंगे, वह
जीवन का
अनिवार्य अंग
है। तब मृत्यु
को भी स्वीकार
और स्वागत
करने की
क्षमता होगी।
तब आप जानेंगे,
जब जीवन को
चाहा, तभी
मृत्यु भी चाह
ली गई है। जब
मैंने जीवन की
तरफ पैर उठाए,
तब मैं
मृत्यु की तरफ
चला ही गया
हूं। तब आप जानेंगे
कि अकेले जीवन
को बचाने की
बात मूढ़तापूर्ण
है, स्टुपिड है। जीवन
बचेगा ही
मृत्यु के
साथ। अगर मैं
चाहता हूं
जीवन, तो
मृत्यु को भी
चाहूं। और अगर
मैं नहीं
चाहता हूं
मृत्यु को, तो जीवन को
भी न चाहूं।
और
दोनों ही
स्थितियों
में अपूर्व
ज्ञान उत्पन्न
होता है। या
तो कोई
व्यक्ति जीवन
और मृत्यु को
दोनों ही
चाहना छोड़ दे, तो
भी परम वीतरागता
को उपलब्ध हो
जाता है। और
या जीवन और
मृत्यु को एक
साथ चाह ले और
भेंट कर ले, तो भी परम वीतरागता
को उपलब्ध हो
जाता है। या
तो द्वंद्व
छोड़ दिया जाए,
या द्वंद्व
पूरा का पूरा
अंगीकार कर
लिया जाए, तो
आप द्वंद्व के
बाहर हो जाते
हैं।
लेकिन
हमारा मन ऐसा
होता है, एक को
बचा लें और
दूसरे को छोड़
दें। मन कहता
है, जीवन
बचाने जैसा है,
मृत्यु छोड़
देने जैसी है।
मन कहता है, प्रेम बचाने
जैसा है, घृणा
छोड़ देने जैसी
है। मन कहता
है, मित्र
बच जाएं, शत्रु
छूट जाएं। मन
कहता है, सम्मान
मिले, अपमान
न मिले। मन
कहता है, स्वास्थ्य
तो हो, बीमारी
कभी न आए। मन
कहता है, जवानी
तो हो, बुढ़ापा न आए। मन कहता
है, सुख तो
बचे, दुख
से बचना हो
जाए।
और जब
मन ऐसे चुनाव
करता है, तभी
जीवन एक संकट
और एक चिंता
और एक व्यर्थ
का तनाव हो
जाता है। इस
दो में से एक
को चुनना ही दुख
है। या तो
दोनों को छोड़
दें या दोनों
को स्वीकार कर
लें, तो
परम आनंद की
और परम तृप्ति
की अवस्था पैदा
होती है।
लाओत्से
यह दिखाना
चाहता है कि
तुम चाहे कुछ
भी करो, चाहे
तुम पकड़ो, चाहे
तुम छोड़ो,
द्वंद्व को
पृथक-पृथक
नहीं किया जा
सकता। वे संयुक्त
हैं। संयुक्त
भी हम कहते
हैं भाषा में,
वे एक ही
हैं। वे एक ही
चीज के दो छोर
हैं। ऐसा ही, जैसे कोई
आदमी सोच ले
कि श्वास मैं
भीतर तो ले
जाऊं, लेकिन
बाहर न निकालूं।
तो वह आदमी
मरेगा।
क्योंकि जिसे
हम बाहर की श्वास
कहते हैं, बाहर
जाने वाली
श्वास, वह
और भीतर जाने
वाली श्वास एक
ही श्वास के
दो नाम हैं।
या तो दोनों
को ही छोड़ दो, या दोनों को
बचा लो। एक को
बचाने और एक
को छोड़ने की
सुविधा नहीं
है। लाओत्से
ये सारे
उदाहरण इसलिए
लेता है।
वह
कहता है, "अस्तित्व,
अनस्तित्व
मिल कर
एक-दूसरे के
भाव को जन्म
देते हैं।'
वे
संगी हैं, साथी
हैं, शत्रु
नहीं।
एक-दूसरे के
विपरीत नहीं,
जोड़ा हैं।
"असरल और सरल
एक-दूसरे के
भाव की सृष्टि
करते हैं।'
अगर
कोई सरल होना
चाहे, चेष्टा
करे, जैसा
कि साधु करते
हैं सरल होने
की चेष्टा, और इसलिए
साधु जितनी
सरल होने की
चेष्टा करते हैं,
उतने ही
जटिल और कांप्लेक्स
हो जाते हैं।
सरल होने की
कोई चेष्टा
करेगा, तो
जटिल हो
जाएगा। हां, यह हो सकता
है कि सरल
होने में वह
दो वस्त्र बचा
ले, लंगोटी
बचा ले, एक
बार भोजन करने
लगे, झाड़
के नीचे सोने
लगे, यह सब
हो सकता है, लेकिन फिर
भी सरलता नहीं
होगी। झाड़ के
नीचे सोना
इतना प्रयोजन
और इतनी
आयोजना से है,
झाड़ के नीचे
सोना इतनी
व्यवस्था और
अनुशासन से है,
झाड़ के नीचे
सोना इतने
अभ्यास से है कि
इस अभ्यास के
पीछे जो चित्त
है, वह
जटिल हो जाएगा,
वह कठिन हो
जाएगा।
सरलता
का अर्थ ही
यही है कि महल
के भीतर भी
व्यक्ति ऐसे
ही सो जाए, जैसे
झाड़ के नीचे।
हमें
एक तरह की
कठिनता दिखाई
आसानी से पड़
जाती है। अगर
हम एक सम्राट
को,
जो महलों
में रहने का
आदी रहा हो, कीमती
वस्त्र जिसने
पहने हों, आज
अचानक उसे
लंगोटी लगा कर
खड़ा कर दें, तो उसे बड़ी
कठिनाई होगी।
लेकिन कभी
आपने सोचा कि
जो लंगोटी
लगाने का आदी
होकर झाड़ के
नीचे बैठा रहा
हो, उसे आज
हम सिंहासन पर
बैठा कर कीमती
वस्त्र पहना
दें, तो
कठिनाई कुछ कम
होगी?
उतनी
ही कठिनाई
होगी। ज्यादा
भी हो सकती है!
ज्यादा भी हो
सकती है, क्योंकि
महल में रहने
के लिए विशेष
अभ्यास नहीं
करना पड़ता, झाड़ के नीचे
रहने के लिए
विशेष अभ्यास
करना पड़ता है।
सुंदर वस्त्र
पहनने के लिए
कोई आयोजना और
साधना नहीं
करनी पड़ती, निर्वस्त्र
होने के लिए
साधना और आयोजना
करनी पड़ती है।
तो वह जो
निर्वस्त्र
खड़ा है, उसे
अगर अचानक हम
वस्त्र दे दें,
तो हमारे
वस्त्रों से
वह बड़ा ही
कष्ट पाएगा। उसके
भीतर कठिनाई
होगी।
डायोजनीज, एक
फकीर, सुकरात
से मिलने गया
था। सुकरात
बहुत सरल व्यक्ति
था--वैसा सरल
व्यक्ति, जिसने
सरलता को साधा
नहीं है।
क्योंकि
जिसने साधा, वह तो जटिल
हो गया। सरलता
भी साध कर लाई
जाए, कल्टीवेट करनी पड़े, तो जटिल हो
जाती है।
सुकरात
सरल व्यक्ति
था। उसने
सरलता को कभी
साधा नहीं था।
उसने असरलता
के विपरीत
किसी सरलता को
कभी पकड़ा नहीं
था। डायोजनीज
जटिल था। उसने
सरलता को साधा
था। वह अक्सर
नग्न रहता, या
अगर कभी कपड़े
भी पहनता, तो
चिथड़ों
से जोड़ कर
पहनता। अगर
कभी नए कपड़े
उसे कोई भेंट
कर देता, तो
उनको पहले काट
कर, टुकड़े
करवा कर, पुनः
जुड़वा कर,
तभी उन्हें
पहनता। अगर
कोई नए कपड़े
भेंट कर देता,
तो पहले
उन्हें गंदे
करता, सड़ाता,
खराब करता,
फिर चिथड़े
बनाता, फिर
उन्हें
जोड़ता। सरलता
का अभ्यासी
था।
सुकरात
को मिलने आया।
सुकरात से
उसने कहा, तुम्हें
इन इतने सुंदर
वस्त्रों में
देख कर मुझे
लगता है, कैसे
तुम साधु हो? कैसी
तुम्हारी
सरलता? सुकरात
हंसने लगा और
उसने कहा, हो
सकता है, सरल
मैं न होऊं; हो सकता है, तुम जो कहते
हो, वह ठीक
है।
डायोजनीज
नहीं समझ पाया
होगा कि सरल
व्यक्ति का यह
लक्षण है। तो डायोजनीज
ने कहा कि तुम
खुद ही
स्वीकार करते
हो?
यही तो
मैंने लोगों
से कहा था कि
सुकरात सरल आदमी
नहीं है। तुम
खुद भी
स्वीकार करते
हो, मुहर
लगाते हो मेरी
बात पर? सुकरात
ने कहा, तुम
कहते हो, तो
इनकार करने का
मैं कोई कारण
नहीं पाता हूं;
असरल ही होऊंगा। डायोजनीज
खिलखिला कर
हंसने लगा।
जब वह
उतर रहा था
नीचे, तो
सुकरात का
शिष्य प्लेटो
उसे द्वार पर
मिला। उसने प्लेटो से
कहा कि सुनो, तुम्हारे
गुरु ने लोगों
के सामने
स्वीकार की है
यह बात कि वह
सरल नहीं है।
प्लेटो ने
नीचे से ऊपर
तक देखा और
कहा कि
तुम्हारे फटे चिथड़ों
में जो छेद
हैं,
उनमें से
सिवाय अहंकार
के और कुछ भी
दिखाई नहीं
पड़ता है। तुम
कृपा करके
नंगे कभी मत
होना, नहीं
तो सिवाय
अहंकार के कुछ
भी दिखाई नहीं
पड़ेगा।
तुम्हारे छेद
में से सिर्फ
अहंकार ही
दिखाई पड़ता
है। प्लेटो
ने कहा, तुम
समझ ही नहीं
पाए, यही
तो सरल आदमी
का लक्षण है
कि तुम उससे
कहने जाओ कि
तुम सरल नहीं
हो तो वह
स्वीकार कर
लेगा। और
तुम्हारी यह
घोषित सरलता
बड़ी असरल
है, बहुत
जटिल है।
सरलता
अगर सचेष्ट है, तो
जटिल हो जाती
है। और जटिलता
भी अगर
निश्चेष्ट है,
तो सरल हो
जाती है।
असली
सवाल द्वंद्व
के बीच चुनाव
का नहीं है। जब
भी हम दो में
से किसी एक को
चुनते हैं, तो
बड़ी मजे की
बात यह है, कि
उससे विपरीत
तत्काल मौजूद
हो जाता है।
अगर हमने
अहिंसा साधी,
तो हमारे
भीतर हिंसा का
तत्व तत्काल
मौजूद हो जाता
है। इसलिए जो
भी अहिंसा साधेगा,
वह बहुत
सूक्ष्म रूप
से हिंसक हो
जाएगा। उसकी हिंसा
को पहचानना
मुश्किल होगा,
लेकिन वह
हिंसक हो
जाएगा। जो
ब्रह्मचर्य साधेगा, वह बहुत
गहरे तल पर
कामातुर हो
जाएगा।
विपरीत के
बिना हम कुछ
साध ही नहीं
सकते। क्योंकि
साधने के लिए
विपरीत से
लड़ना पड़ता है।
और मजे
की बात है, जिससे
हम लड़ते हैं, उस जैसे ही
हम हो जाते
हैं। एक बार
यह तो हो सकता
है कि मित्र
का आप पर कोई
प्रभाव न पड़े,
लेकिन यह
नहीं हो सकता
कि शत्रु का
प्रभाव न पड़े।
मित्र से तो
आप अप्रभावित
भी रह सकते
हैं, लेकिन
शत्रु से
अप्रभावित
रहना असंभव
है। शत्रु का
तो संस्कार
पड़ेगा ही। अगर
किसी ने तय किया
कि मैं हिंसा
का शत्रु हूं,
तो वह कितनी
ही अहिंसा साध
ले, भीतर
गहरे में वह
हिंसक ही बना
रहेगा। और
किसी ने अगर
निर्णय लिया
कि मैं
निरहंकारी
होकर रहूंगा,
अहंकार
पोंछ डालूंगा,
तो डायोजनीज
जैसी हालत
होगी; चिथड़ों के छेदों से
सिवाय अहंकार
के कुछ भी
दिखाई नहीं
पड़ेगा।
लाओत्से
कह रहा है, "असरल और सरल
एक-दूसरे के
भाव की सृष्टि
करते हैं।'
अगर
आपको यह पता
चल गया है कि
आप सरल हैं, तो
आप जानना कि
आप असरल
हो चुके हैं।
अगर आपको यह
खयाल आ गया कि
मैं अहिंसक
हूं, तो आप
जानना कि आपकी
हिंसा पुष्ट
हो चुकी है। अगर
आप कहने लगे
कि मैं
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हो
गया हूं, तो
आप जानना कि
आप अब्रह्मचर्य
की खाई में
गिर गए हैं।
अगर आपने कहीं
घोषणा की कि
मैंने ईश्वर
को पा लिया है,
तो आप पक्का
समझ लेना कि
आपका हाथ
ईश्वर पर से
छिटक गया है।
ये जो घोषणाएं
हैं, ये घोषणाएं
हम विपरीत के
लिए ही तो कर
रहे हैं। और
विपरीत से बचा
नहीं जा सकता।
इसलिए सरलता
अघोषित होती
है। होती है, जिसमें होती
है, उसे भी
उसका पता नहीं
होता।
इसे
ऐसा समझें। जब
आप स्वस्थ
होते हैं, तो
आपको
स्वास्थ्य का
कोई पता नहीं
होता।
स्वास्थ्य का
पता सिर्फ
बीमार आदमी को
होता है। बड़ी
उलटी लगती है
बात, पर
ऐसा ही सत्य
है। अगर आप
बिलकुल
स्वस्थ हैं, तो आपको
स्वास्थ्य का
पता ही नहीं
होता। बीमारी
खटकती है, तो
स्वास्थ्य का
पता चलता है।
बीमारी
दरवाजा ठकठकाती
है, तो
स्वास्थ्य का
पता चलता है।
सिर्फ बीमार
लोग शरीर के
प्रति बोध से
भरे होते हैं,
स्वस्थ
आदमी को शरीर
का बोध नहीं
होता। इसलिए आयुर्वेद
में तो स्वस्थ
आदमी का लक्षण
है विदेह
भाव--दि फीलिंग
ऑफ
बॉडीलेसनेस।
वही आदमी
स्वस्थ है, जिसे बॉडी
का, शरीर
का पता नहीं
चलता। अगर पता
चलता है, तो
वह बीमार है।
असल
में,
जिस हिस्से
में आपको पता
चलता है, शरीर
का वह हिस्सा
बीमार होता
है। अगर आपको
पता चलता है
कि पेट है, तो
उसका मतलब पेट
बीमार है।
आपको पता चलता
है कि सिर है, तो उसका
अर्थ है कि
सिर बीमार है।
आपको कभी सिर
का पता चला है?
हेडेक के बिना हेड
का कोई पता
नहीं चलता।
अगर थोड़ा भी
पता चलता है, तो उसी
मात्रा में हेडेक
मौजूद है।
स्वास्थ्य तो
सहज स्थिति है;
उसका कोई
पता नहीं
चलता।
जिस
दिन कोई
व्यक्ति सच
में सरल हो
जाता है, उसे
पता ही नहीं
चलता कि वह
सरल है। वह
इतना सरल हो
जाता है कि
दूसरे उससे
आकर कहें कि
तुम असरल
मालूम पड़ते हो,
तो वह
स्वीकार कर
लेगा। वह इतना
प्रभु को उपलब्ध
हो जाता है कि
दूसरे उससे
आकर कहें कि
तुम्हें कुछ
पता ही नहीं, तो उसके लिए
भी राजी हो
जाएगा। वह
इतना अहिंसक
हो जाता है कि
उसे खयाल ही
नहीं होता कि
मैं अहिंसक
हूं। क्योंकि
खयाल तो सिर्फ
हिंसक को ही
हो सकता है।
"विस्तार
और संक्षेप
एक-दूसरे की
आकृति का निर्माण
करते हैं।'
विस्तार
बड़ी बात मालूम
पड़ती है, संक्षेप
छोटी बात
मालूम पड़ती है;
ब्रह्मांड
बहुत बड़ी बात
है और छोटा सा
अणु बहुत छोटी
बात है। लेकिन
अणु-अणु मिल
कर ब्रह्मांड
का निर्माण
करते हैं।
अणुओं को हटा
लें, ब्रह्मांड
शून्य हो
जाएगा। बूंद
को हटा लें, सागर रिक्त
हो जाएगा।
हालांकि सागर
को कभी पता
नहीं कि बूंद
ही उसका
निर्माण करती
है। और अगर
बूंद और सागर
की चर्चा हो, तो बूंद को
सागर स्वीकार
भी नहीं करेगा
कि तू मुझे
निर्माण करती
है। यद्यपि
बूंद-बूंद ही
मिल कर सागर
बनता है। सागर
बूंदों के जोड़
के अतिरिक्त
और कुछ भी
नहीं है। और
अगर बूंद-बूंद
से जुड़ कर सागर
बनता है, तो
बूंद भी छोटा
सागर ही है।
बूंद को अन्य
कुछ कहना उचित
नहीं; छोटा
सागर है। तभी
तो बूंद-बूंद
मिल कर बड़ा सागर
बन जाता होगा।
तो अगर
हम ऐसा कहें
तो भूल न होगी
कि बूंद छोटा सागर
है,
सागर बड़ी
बूंद है। यही
सत्य के करीब
है कि सागर
बड़ी बूंद है
और बूंद छोटा
सागर है। जिसे
हम विस्तार
कहते हैं, जिसे
हम विराट कहते
हैं, जिसे
हम ब्रह्मांड
कहते हैं, वह
भी अणु ही है।
और जिसे हम
अणु कहते हैं,
वह भी
ब्रह्मांड ही
है।
उपनिषदों
के ऋषियों ने
कहा है कि
पिंड और ब्रह्मांड
में भेद नहीं
जाना, छोटे
में और बड़े
में अंतर नहीं
पाया, ना-कुछ
और सब कुछ को
एक ही जैसा
देखा।
लाओत्से
कहता है कि यह
जो हमें
इतना-इतना भेद
दिखाई पड़ता है, यह
सारा का सारा
भेद भ्रांति
है।
अगर हम
वैज्ञानिक से
पूछें, तो वह
भी लाओत्से की
इस बात से
राजी होगा। और
यह जान कर आप
हैरान होंगे
कि पश्चिम के
कुछ नवयुवक
वैज्ञानिक
लाओत्से में
बहुत उत्सुक
हैं। और इस
संबंध में भी
चिंतना चलती
है वैज्ञानिकों
में कि क्या
कभी लाओत्से
को आधार बना
कर किसी नए
विज्ञान का
जन्म हो सकेगा?
और एक
बहुत कीमती
विचारक और
गणितज्ञ ने एक
किताब लिखी
है: ताओ और
विज्ञान।
लाओत्से
के विचार से
क्या और तरह
के विज्ञान का
जन्म नहीं
होगा?
होगा!
क्योंकि
पश्चिम का जो
विज्ञान
निर्मित हुआ
है,
वह उस
यूनानी धारणा
के ऊपर खड़ा है,
जो विपरीत
को स्वीकार
करती है।
पश्चिम का
सारा विज्ञान एरिस्टोटेलियन
है, अरस्तू
के सिद्धांत
पर खड़ा है। और
लाओत्से से बड़ा
विरोधी
अरस्तू का
दूसरा नहीं
है। अगर हम ठीक
से समझें तो
दुनिया में दो
ही विचार हैं:
एक अरस्तू का
और एक लाओत्से
का। पूरब का
सारा विचार
लाओत्से का
विचार है और
पश्चिम का
सारा विचार
अरस्तू का। तो
इन दोनों के
थोड़े भेद को
हम खयाल में ले
लें, तो
बात आसानी से
समझ में आ
जाएगी।
अरस्तू
कहता है कि
अंधेरा
अंधेरा है, प्रकाश
प्रकाश; दोनों
विपरीत हैं, दोनों का
कोई मिलन
नहीं। और वह
कहता है, प्रत्यक्ष
को प्रमाण
क्या? जलाओ
दीया, और
अंधेरा मिट
जाता है; बुझाओ
दीया, और
अंधेरा आ जाता
है। अंधेरा तब
आता है, जब
प्रकाश नहीं
होता। प्रकाश
जब होता है, तब अंधेरा
मिट जाता है।
तो अरस्तू
कहता है कि अंधेरा
अंधेरा है, प्रकाश
प्रकाश है; दोनों में
कोई मेल नहीं।
अरस्तू का
पूरा सिद्धांत,
उसका पूरा
का पूरा
तर्कशास्त्र
एक बुनियाद पर
खड़ा है। और वह
यह है कि ए इज़
ए, बी इज़
बी; एंड ए
कैन नॉट बी
बी। अ अ है, ब
ब है; और अ
कभी ब नहीं हो
सकता।
लाओत्से का
पूरा सिद्धांत
अगर हम अरस्तू
की भाषा में
बनाना चाहें तो
वह यह है कि ए इज़ ए एंड आल्सो बी; एंड ए कैन
नॉट रिमेन
ए विदाउट बिकमिंग
बी। अ अ है और ब
भी; और अ अ
नहीं रह सकता
बिना ब बने।
अरस्तू का सिद्धांत
ठोस धारणा का
है; लाओत्से
का सिद्धांत
तरल, लिक्विड धारणा का
है।
लाओत्से
कहता है, चीजें
इतनी तरल हैं
कि अपने
विपरीत में बह
जाती हैं। खाई
शिखर बन जाती
है, शिखर
खाई बन जाता
है। कल जहां
खाई थी, आज
वहां शिखर है।
आज जहां शिखर
है, कल
वहां खाई हो
जाएगी। जीवन
मृत्यु बन
जाती है, मृत्यु
से पुनः जीवन
आविष्कृत हो
जाता है। जवानी
बुढ़ापा
बनती जाती है,
बूढ़े नए
बच्चों में
जन्म लेते चले
जाते हैं। नहीं,
अंधेरा
अंधेरा नहीं
है, प्रकाश
प्रकाश नहीं
है। अंधेरा
प्रकाश का ही धीमा
रूप है, और
प्रकाश
अंधेरे का ही
प्रखर रूप है।
लाओत्से
और
अरस्तू--ऐसा
निर्णायक
स्थिति है जगत
में।
तो
पश्चिम के
वैज्ञानिक
सोचते हैं इस
दिशा में कि
अगर कभी
लाओत्से को
आधार बना कर
विज्ञान विकसित
हो,
तो दूसरा ही
डायमेंशन
होगा। अभी तो
अरस्तू को मान
कर विज्ञान
विकसित हुआ।
पश्चिम का
पूरा विज्ञान
ग्रीक विचार
पर खड़ा है।
अरस्तू पिता
है। अरस्तू ने
जो सिद्धांत
दिए, उन्हीं
का फैलाव दो
हजार साल में
हुआ है। अरस्तू
और आइंस्टीन
अलग-अलग नहीं,
एक ही
शृंखला के
हिस्से हैं।
तर्क वही है; सोचने का
ढंग वही है।
लाओत्से
तो बिलकुल
विपरीत है।
अगर लाओत्से कभी
विज्ञान का
आधार बने तो
दूसरी ही
साइंस पैदा
होगी, जिसका
हम कल्पना भी
नहीं कर सकते
कि उसकी दृष्टि
क्या होगी।
अगर--इसको
उदाहरण से
समझें--अगर अरस्तू
की बात सही है,
तो हम
मृत्यु को
नष्ट करके
जीवन को बचा
सकेंगे।
बल्कि जितना
हम मृत्यु को
नष्ट करेंगे,
जीवन उतना
ही ज्यादा
बचेगा। और अगर
हम किसी दिन
मृत्यु को
बिलकुल ही
नष्ट कर दें, तो परम जीवन
बचेगा, जीवन
ही जीवन
बचेगा।
लाओत्से के
हिसाब से स्थिति
उलटी है। अगर
हमने मृत्यु
को नष्ट किया,
तो हम जीवन को
नष्ट कर
देंगे। और अगर
मृत्यु
बिलकुल नष्ट हो
गई, तो
जीवन बिलकुल
शून्य हो
जाएगा।
अब इसे
हम देखें कि
वस्तुतः घटना
क्या घटी है? यह
बड़े मजे की
बात है कि
हमने जितनी
बीमारियां
नष्ट कीं, आदमी
का स्वास्थ्य
उतना कम हुआ
है। आदमी का
स्वास्थ्य
अच्छा नहीं
हुआ है बीमारियां
घटने से।
लाओत्से के
जमाने का आदमी
जितना स्वस्थ
था, उतने
स्वस्थ हम
नहीं हैं।
हालांकि
लाओत्से के
जमाने में
बीमारियों से
लड़ने के इतने
उपाय नहीं थे,
जितने
हमारे पास
हैं।
आज भी
जंगल का
आदिवासी है, उसके
पास बीमारी से
लड़ने के बहुत
उपाय नहीं हैं।
बीमारियां बहुत
हैं, उपाय
बिलकुल नहीं
हैं। स्वस्थ
वह हमसे बहुत
ज्यादा है। और
स्वास्थ्य के
उसके इतने
प्रमाण हैं कि
हैरानी होती
है। अफ्रीकी
जंगल में आज भी
जो असभ्य कौमें
हैं, उनके
शरीर पर बनाया
गया कैसा भी
घाव बिना किसी
इलाज के
अड़तालीस घंटे
में भर जाता
है। बिना किसी
इलाज के! कुल्हाड़ी
मार दी है पैर
पर, अड़तालीस
घंटे में घाव
भर जाएगा।
वैज्ञानिक कहते
हैं कि उनका
स्वास्थ्य
अपूर्व है।
वही स्वास्थ्य
की इतनी ऊर्जा,
वही वाइटेलिटी
चौबीस घंटे
में किसी भी
तरह के घाव को
भर देती है--बिना
किसी इलाज के!
और या जो इलाज
हैं, वे
बिलकुल इलाज
नहीं हैं। कोई
पत्ता बांध
लिया है, कुछ
कर लिया है, उससे कोई
लेना-देना
नहीं है। उसका
कोई साइंटिफिक
संबंध नहीं है,
पत्ते से उस
घाव के भरने
का। पत्ता तो
सिर्फ बहाना
है, शरीर
ही घाव को भर
लेता है।
अफ्रीका
के जंगल के
आदिवासी के
पास बीमारियां
बहुत हैं
चारों तरफ; इलाज
का कोई उपाय
नहीं है, मेडिसिन
की कोई समझ
नहीं है, कोई
मेडिकल कालेज
नहीं है, कोई
चिकित्सक
नहीं है; फिर
भी स्वास्थ्य
अपूर्व है।
लाओत्से
सही हो सकता
है। लाओत्से
कहता है, तुम
जितना
बीमारियां
खत्म करने में
लगोगे, उतना
ही तुम
स्वास्थ्य भी
समाप्त कर
लोगे। क्योंकि
यह जगत द्वैत
पर निर्भर है,
तुम एक तरफ
की ईंटें गिराओगे, दूसरी तरफ
की विपरीत ईंटें
तत्काल गिर
जाएंगी। और अब
पश्चिम का
वैज्ञानिक भी
इस पर सोचने
लगा है कि
लाओत्से की
बात में
सच्चाई हो
सकती है।
कहानी
है पुरानी कि
लाओत्से को
मानने वाला एक
बूढ़ा अपने
जवान बेटे के
साथ--बूढ़े की
उम्र है कोई
नब्बे वर्ष--अपने
जवान बेटे के
साथ,
दोनों अपने बगीचे में,
जहां बैल या
घोड़े जोतना
चाहिए, पानी
के मोट में
दोनों जुत कर
और पानी खींच
रहे हैं। कनफ्यूशियस
वहां से
गुजरता है। कनफ्यूशियस
और लाओत्से
में वैसा ही
विपरीत भेद है,
जैसा अरस्तू
और लाओत्से
में। कनफ्यूशियस
एरिस्टोटेलियन
है और उसके
सोचने का ढंग
अरस्तू जैसा
है। इसलिए
पश्चिम कनफ्यूशियस
को बहुत
सम्मान दिया
पिछले तीन सौ
वर्षों में।
लाओत्से का
सम्मान अब बढ़
रहा है, अब
खयाल में आया
है, क्योंकि
विज्ञान बड़ी
अजीब हालत में
पड़ गया और बड़ी मुश्किल
में पड़ गया।
कनफ्यूशियस
गुजरता है बगीचे
के पास से।
देखता है, नब्बे
साल का बूढ़ा, अपने तीस
साल के जवान
बेटे को, दोनों
जुते हैं,
पसीने से
तरबतर हो रहे
हैं, पानी
खींच रहे हैं।
कनफ्यूशियस
को दया आई।
उसने कहा, पागल,
तुम्हें
पता नहीं
मालूम होता
है। बूढ़े के
पास जाकर उसने
कहा कि
तुम्हें पता
है कि अब तो शहरों
में हमने घोड़ों
से या बैलों
से पानी
खींचना शुरू
कर दिया है! तुम
क्यों जुते
हुए हो इसके
भीतर?
उस
बूढ़े ने कहा, जरा
धीरे कहो, मेरा
जवान बेटा न
सुन ले। कनफ्यूशियस
बहुत हैरान
हुआ। उसने कहा,
जरा थोड़ी
देर से आना, जब मेरा
बेटा घर भोजन
करने चला जाए।
जब
बेटा चला गया, कनफ्यूशियस वापस आया और
उसने कहा, तुमने
बेटे को क्यों
न सुनने दिया?
उस
बूढ़े ने कहा
कि मैं नब्बे
साल का हूं और
अभी तीस साल
के जवान से लड़
सकता हूं।
लेकिन अगर मैं
अपने बेटे को
घोड़े जुतवा
दूं,
तो नब्बे
साल की उम्र
में मेरे जैसा
स्वास्थ्य
उसके पास फिर नहीं
होगा। घोड़ों
के पास होगा, मेरे बेटे
के पास नहीं
होगा। यह बात
तुम मत कहो।
मेरा बेटा सुन
ले तो उसका
जीवन नष्ट हो
जाए। हमें पता
चल गया है, हमें
पता चल गया है
कि शहरों में
घोड़े जुतने
लगे हैं। और
हमें यह भी
पता चल गया है
कि मशीनें भी
बन गई हैं जो
पानी को कुएं से
खींच लें। और
हमारा बेटा
चाहेगा कि
मशीनों से
खींच ले।
लेकिन जब
मशीनें कुएं
से पानी खींचेंगी,
तो बेटा
क्या करेगा? उसके शरीर
का क्या होगा?
उसके
स्वास्थ्य का
क्या होगा?
हम एक
तरफ जो करते
हैं,
तत्काल
उसका दूसरी तरफ
परिणाम होता
है। और
लाओत्से सही
है, तो
परिणाम बहुत
भयंकर होता
है।
उदाहरण
के लिए, हम
गहरी नींद
सोना चाहते
हैं। तो जो
आदमी गहरी
नींद सोना
चाहता है, वह
विश्राम का
प्रेमी है। और
जो विश्राम का
प्रेमी है, वह श्रम न
करेगा। और जो
श्रम न करेगा,
वह गहरी
नींद न सो
सकेगा।
लाओत्से कहता
है, श्रम
और विश्राम
संयुक्त हैं।
अगर तुम विश्राम
चाहते हो, तो
गहरा श्रम करो;
इतना श्रम
करो कि
विश्राम उतर
आए तुम्हारे
ऊपर।
लेकिन
हम अरस्तू के
ढंग से
सोचेंगे, तो
विश्राम और
श्रम तो
विपरीत हैं।
अगर मैं विश्राम
का प्रेमी हूं
और गहरी नींद
लेना चाहता
हूं, तो
मैं दिन भर
आराम से बैठा
रहूं। लेकिन
जो दिन भर
आराम से बैठा
रहेगा, रात
का आराम उसका
नष्ट हो
जाएगा।
क्योंकि विश्राम
के लिए श्रम
के द्वारा
अर्जन करना
पड़ता है। इट हैज टु बी
अर्न्ड।
विश्राम में
जाना है, तो
श्रम में
अर्जन करना
पड़ेगा। और या
फिर बिना
विश्राम के
राजी रहना
पड़ेगा।
तो यह
बड़े मजेदार
घटना घटती है
कि जो विश्राम
का प्रेमी है, वह
दिन भर
विश्राम करता
है, रात की
नींद खो देता
है। और जितनी
रात की नींद खोता
है, दूसरे
दिन उतना ही
विश्राम करता
है कि अब नींद
की कमी पूरी
कर ले। जितनी
कमी पूरी करता
है, उतनी
रात की नींद
नष्ट होती चली
जाती है। एक दिन
वह पाता है, एक चक्कर
में पड़ गया है,
जहां
विश्राम
असंभव हो जाता
है।
लाओत्से
कहता है, विश्राम
चाहते हो तो
उलटी तरफ जाओ,
श्रम करो।
क्योंकि श्रम
और विश्राम
विपरीत नहीं,
सहयोगी, संगी
हैं, साथी
हैं। जितना
गहरा श्रम
करोगे, उतने
गहरे विश्राम
में चले
जाओगे। और
इससे उलटा भी
सही है, जितने
गहरे विश्राम
में जाओगे, दूसरे दिन
उतनी ही बड़ी
श्रम की
क्षमता लेकर जगोगे।
अगर यह खयाल आ
जाए, तो
लाओत्से
कहेगा कि सवाल
विपरीत को
नष्ट करने का
नहीं है, सवाल
विपरीत के
उपयोग करने का
है।
अरस्तू
कहता है कि
प्रकृति
बीमारियां
देती है, तो
प्रकृति से लड़ो।
इसलिए पश्चिम
का पूरा
विज्ञान
प्रकृति से संघर्ष
है। सारी भाषा
लड़ाई की है।
रसेल ने एक किताब
लिखी है: कांक्वेस्ट
ऑफ
नेचर--प्रकृति
पर विजय। यह
सारा संघर्ष
की भाषा है।
लाओत्से
हंसेगा।
लाओत्से कहेगा, तुम्हें
पता ही नहीं
है कि तुम
प्रकृति के एक
हिस्से हो।
तुम विजय पा
कैसे सकोगे? जैसे मेरा
हाथ मेरे ऊपर
विजय पाने
निकल जाए, तो
क्या होगा? जैसे मेरा
पैर सोचने लगे
कि मुझ पर
विजय पा ले, तो क्या
होगा? मूढ़ता होगी।
लाओत्से कहता
है, प्रकृति
पर विजय नहीं
पाई जा सकती, क्योंकि तुम
प्रकृति हो।
और जो विजय
पाने चला है, वह प्रकृति
का ही हिस्सा
है। विजय पाने
की कोशिश में
तुम सिर्फ
तनाव से भर
जाओगे, संताप
से भर जाओगे।
प्रकृति को जीओ, विजय
पाने मत जाओ।
प्रकृति से लड़
कर तुम उसके राज
मत पूछो, प्रकृति
से प्रेम करो,
उसमें डूबो,
वह अपने राज
खोल देती है।
अगर
किसी दिन
लाओत्से के
ऊपर साइंस का
पूरा ढांचा, स्ट्रक्चर
खड़ा हो, तो
साइंस बिलकुल
दूसरी होगी।
लड़ने की भाषा
में नहीं होगी,
सहयोग की
भाषा में
होगी। कांफ्लिक्ट
नहीं, कोआपरेशन! संघर्ष
नहीं, सहयोग!
तब हम और ही
ढंग से
सोचेंगे। और जो
आदमी संघर्ष
की भाषा में
सोचता है, उसका
तर्क वही है
कि अ अ है, ब
ब है; इसलिए
अगर अ को पाना
है, तो ब को हटाओ, तो
अ बढ़ जाएगा।
अगर
स्वास्थ्य
पाना है, तो
बीमारी से लड़ो।
बीमारी हटा डालो, तो
स्वास्थ्य बढ़
जाएगा। नहीं।
पढ़ता
था मैं रथ्सचाइल्ड
का संस्मरण।
उसने अपना
पूरा मकान एयरकंडीशंड
किया है। उसका
पोर्च भी एयरकंडीशंड
है। कार भीतर
आती है, तो
दरवाजा आटोमेटिक
खुलता है; कार
बाहर जाती है,
तो आटोमेटिक
बंद हो जाता
है। एयरकंडीशंड
कार है। उसमें
बैठ कर वह
अपने दफ्तर के
एयरकंडीशंड
पोर्च में
उतरता है, फिर
अपने एयरकंडीशंड
दफ्तर में चला
जाता है। फिर
उसको पच्चीस
बीमारियां
आनी शुरू होती
हैं। फिर
चिकित्सक
उससे कहते हैं
कि तुम दो
घंटे गर्म
पानी के टब
में बैठे रहो।
फिर वह दो
घंटे गर्म
पानी के टब
में बैठ कर
पसीना
निकलवाता है।
फिर
उसको खयाल आता
है कि यह मैं
क्या कर रहा
हूं?
एयरकंडीशंड करके सारी
व्यवस्था मैं
पसीने को रोक
रहा हूं। फिर
पसीने को रोक
कर, दो
घंटे टब में
बैठ कर पसीने
को निकाल रहा
हूं। फिर
पसीना ज्यादा
निकल गया, गर्मी
मालूम पड़ती है,
इसलिए एयरकंडीशंड
में बैठ कर
अपने को ठंडा
कर रहा हूं।
फिर ज्यादा
ठंडा हो गया, फिर पसीना
नहीं निकला, बीमार पड़ता
हूं, तो
फिर...यह मैं कर
क्या रहा हूं?
करीब-करीब, संघर्ष
की जो भाषा है,
वह ऐसे ही
द्वंद्व में
डाल देती है।
लाओत्से
कहता है कि
जिसको हम
विपरीत कहते
हैं,
वह विपरीत
नहीं है। और
अगर ठंडक का
मजा लेना है, तो धूप का
मजा लिए बिना
नहीं लिया जा
सकता है। यह
उलटी दिखाई
पड़ती है बात, लेकिन मैं
भी कहता हूं
कि लाओत्से
ठीक कहता है।
अगर ठंडक का
मजा लेना है, तो धूप का
मजा लिए बिना
नहीं लिया जा
सकता है। और
जिसने पसीने
का सुख नहीं
लिया, वह
शीतलता का सुख
न ले पाएगा।
जिसने पसीने
का सुख नहीं
लिया, उसके
लिए शीतलता भी
बीमारी हो
जाएगी। और
जिसने बहते
हुए पसीने का
आनंद लिया है,
वही ठंडी
शीतलता में
बैठ कर शीतलता
का भी आनंद ले
पाएगा। असल
में जो गर्म
होना नहीं
जानता, वह
ठंडा नहीं हो
पाएगा। ये
विपरीत नहीं
हैं, ये
संयुक्त हैं।
और दोनों का
संयोग ही जीवन
का संगीत है।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
"उच्चता और
नीचता का भाव
एक-दूसरे के
विरोध पर अवलंबित
हैं; संगीत
के स्वर और
ध्वनियां
परस्पर
संबद्ध होकर
ही समस्वर
बनती हैं।'
संगीत
के
स्वर--विपरीत
स्वर, विरोधी
स्वर--संयुक्त
होकर, लयबद्ध
होकर, श्रेष्ठतर
संगीत को जन्म
देते हैं।
जिसको हम हार्मनी
कहते हैं, संगीत
की लय कहते
हैं, वह
विपरीत
स्वरों का
जमाव है। जब
हम शोरगुल करते
हैं तब भी हम
उन्हीं
ध्वनियों का
उपयोग करते
हैं, जिन
ध्वनियों का
उपयोग हम
संगीत के पैदा
करने में करते
हैं। फर्क
क्या होता है?
शोरगुल में
वे ही
ध्वनियां
अराजक होती
हैं, कोई
तालमेल नहीं
होता उनमें।
संगीत में वे
ही ध्वनियां तालयुक्त
हो जाती हैं; एक-दूसरे के
साथ सहयोग में
बंध जाती हैं।
इस
मकान को गिरा
कर हम ईंटों
का ढेर लगा
दें,
तो भी
पदार्थ तो यही
होगा, ईंटें यही होंगी।
फिर इन्हीं
ईंटों का
फैलाव करके हम
एक सुंदर मकान
बना लेते हैं।
स्वर और
ध्वनियां तो
वही हैं, जो
बाजार के
शोरगुल में
सुनाई पड़ती
हैं। वे ही
स्वर हैं, वे
ही ध्वनियां
हैं। संगीत
में क्या होता
है? हम
उनकी अराजकता
को हटा देते
हैं, उनकी
आपस की कलह को
हटा देते हैं,
और विपरीत
के बीच भी
मैत्री
स्थापित कर
देते हैं। वे
ही स्वर, वे
ही ध्वनियां
अपूर्व संगीत
बन जाती हैं।
और अगर कोई
सोचता हो कि
हम एक ही तरह
के स्वर से
संगीत पैदा कर
लेंगे, तो
वह पागल है।
एक ही तरह के
स्वर से संगीत
पैदा नहीं
होगा। संगीत
के लिए अनेक
स्वर चाहिए, विभिन्न
स्वर चाहिए; विपरीत, विरोधी
दिखने वाले
स्वर चाहिए; तभी संगीत
निर्मित
होगा।
यह जो
हमारे मन में
बचपन से ही
बैठी हुई एरिस्टोटेलियन
धारणा है, उससे
मुक्त हुए
बिना लाओत्से
को समझना बहुत
कठिन है।
हमारे मन में
सदा ही यही
बात है कि हम, चीजों को
देखने का
हमारा जो
गेस्टाल्ट है,
हमारा जो
ढंग है, वह
सदा विपरीत
में है। हम कहीं
भी कुछ देखते
हैं, तो
तत्काल
विपरीत की
भाषा में उसे
तोड़ कर सोचते
हैं--कहीं भी!
अगर एक
व्यक्ति आपकी
आलोचना कर रहा
है, तो आप
तत्काल सोचते
हैं वह शत्रु
है। लेकिन वह
मित्र भी हो
सकता है। और
जो जानते हैं,
वे कहेंगे,
मित्र है।
कबीर तो कहते
हैं, निंदक
नियरे राखिए,
आंगन-कुटी छवाय। वह
जो तुम्हारी
निंदा करता हो,
उसको तो
अपने ही पास
में आंगन-कुटी
छाप कर, अच्छी
जगह बना कर
पास ही ठहरा
लो। क्योंकि
वह ऐसी-ऐसी
काम की बातें
कहेगा कि जो
हो सकता है तुमसे
कोई भी न कहे।
कम से कम जो
तुम्हारे
मित्र हैं, वे कभी न
कहेंगे। वह
ऐसी बातें कह
सकता है, जो
तुम्हें अपने
आत्मदर्शन
में उपयोगी हो
जाएं। वह ऐसी
बातें कह सकता
है, जो
तुम्हें
स्वयं से
मिलाने में
मार्ग बन जाएं।
उसे तो अपने
पास ही ठहरा
लो।
अब
कबीर लाओत्से
की बात कह रहे
हैं। वह जो
तुम्हारी
निंदा कर रहा
है,
उसके प्रति
भी शत्रुता का
भाव न लो। कोई
जरूरत नहीं
है। उसकी
निंदा का भी
उपयोग हो सकता
है। उसकी
निंदा भी एक
समस्वर संगीत
बन सकती है।
लेकिन हम उलटे
लोग हैं! निंदा
की तो बात
दूसरी, अगर
कोई आकर अचानक
हमारी
प्रशंसा करने
लगे, तो भी
हम चौंकते हैं
कि कोई गड़बड़
होगी। नहीं तो
कोई किसी की
प्रशंसा करता
है! जरूर कोई
मतलब होगा।
खुशामद के पीछे
जरूर कोई मतलब
होगा।
प्रशंसा कर
रहा है, तो
जरूर अब कुछ न
कुछ मांग
करेगा। या तो
कर्ज लेने आया
होगा, या
पता नहीं आगे
क्या बात
निकले!
प्रशंसा सुन कर
भी हम चौंक
जाते हैं, निंदा
की तो बात
बहुत दूर है।
लाओत्से...जीवन
को देखने की
जो हमारी
व्यवस्था है, एक
व्यवस्था तो
यह है कि हम
सारे जगत की
शत्रुता में
खड़े हैं।
बीमारी भी
दुश्मन है, मौत भी
दुश्मन है, बुढ़ापा भी दुश्मन
है। आस-पास के
लोग भी दुश्मन
हैं, प्रकृति
भी दुश्मन है,
समाज भी
दुश्मन है।
सारा जगत, सारा
परमात्मा
हमारे खिलाफ
लगा हुआ है।
और एक हम हैं।
इस सारे संघर्ष
को पार करके
हमें जीना है।
एक तो यह
गेस्टाल्ट
है। एक तो यह
ढंग है।
और
दूसरा ढंग यह
है कि चांद, तारे
और आकाश और
पृथ्वी और
परमात्मा और
समाज और पशु
और पक्षी और
वृक्ष और पौधे
और सब--बीमारी भी,
दुश्मन भी,
मौत भी--मेरे
साथी हैं, संगी
हैं। सब मेरे
जीवन के
हिस्से हैं।
उन सब के साथ
ही मैं हूं।
मैं उनके बिना
न हो पाऊंगा।
यह दूसरा
गेस्टाल्ट
है। यह जिंदगी
का दूसरा ढंग
है।
निश्चित
ही,
पहले ढंग का
अंतिम परिणाम
चिंता होगी, एंग्जाइटी होगी। अगर
सारी दुनिया
से लड़ना ही
लड़ना है, चौबीस
घंटे, सुबह
से सांझ तक
लड़ना ही लड़ना
है, तो
जिंदगी आनंद
नहीं हो सकती।
और लड़ कर भी
मरना ही
पड़ेगा।
रोज-रोज हारना
ही पड़ेगा।
क्योंकि लड़ कर
भी कौन जीता
है? मौत तो
आएगी, बुढ़ापा आएगा ही, बीमारी
आएगी ही; लड़-लड़
कर भी सब
आएगा। और हम
लड़ते ही
रहेंगे, और
यह सब आता ही
रहेगा, तो
इसका अंतिम
परिणाम क्या
होगा? हम
सिर्फ खोखले
हो जाएंगे और
चिंता के
सिवाय हमारे
भीतर कोई
अस्तित्व
नहीं रह
जाएगा।
पश्चिम
के विज्ञान के
चिंतन ने
करीब-करीब ऐसी
हालत पैदा कर
दी है। हर चीज
से लड़ना है, सब
चीज से भयभीत
होना है।
क्योंकि जब
लड़ना है, तो
भयभीत होगे।
और जब लड़ना है,
तो हर एक के
विपरीत
सुरक्षा का
आयोजन करना
है। हिटलर
शादी नहीं
किया इसीलिए,
कि शादी कर
ले, तो कम
से कम एक
स्त्री तो
कमरे में सोने
की हकदार हो
जाएगी। और रात
वह गर्दन दबा
दे!
अगर
सारी दुनिया
से ही संघर्ष
है...। फ्रायड
के हिसाब से, पति-पत्नी
के बीच जो
संबंध है, वह
एक कलह है, एक
कांफ्लिक्ट।
वह अरस्तू के
विचार का
फैलाव है सब
पूरा पश्चिम
का चिंतन! पति
और पत्नी के
बीच जो संबंध
है, फ्रायड
उसे कहता है, ए सेक्सुअल
वार। वह कोई
प्रेम वगैरह
नहीं है। वह
सिर्फ एक
काम-युद्ध है,
जिसमें पति
पत्नी को डामिनेट
करने की कोशिश
में लगा है, पत्नी पति
को डामिनेट
करने की कोशिश
में लगी है।
जो होशियार
हैं, वे इस
अधिकार की और डामिनेशन
की कोशिश को
शिष्ट ढंगों
से करते हैं।
जो गंवार हैं,
वे सीधा
लट्ठ उठा कर
संघर्ष कर रहे
हैं। बाकी संघर्ष
है।
यह एक
गेस्टाल्ट है, जिसमें
सभी संबंध ऐसे
हो जाएंगे।
ऐसा नहीं कि
प्रकृति और
मनुष्य का
संबंध ही
विकृत होगा।
जब संबंध
विकृत होने की
दृष्टि होगी,
तो कोई भी
संबंध नहीं
बचेगा। बाप और
बेटे के बीच
तब संघर्ष है।
तुर्गनेव
की किताब है
बहुत
प्रसिद्ध: फादर्स
एंड संस--पिता
और पुत्र।
जिसमें तुर्गनेव
ने यह कहा है
कि पिता और
पुत्र के बीच
निरंतर संघर्ष
है। कोई संबंध
नहीं है सिवाय
संघर्ष के।
बेटा जो है, वह बाप का
हकदार है; इसलिए
बाप को हटाने
की कोशिश में
लगा है। वह जगह
छोड़ दे, बेटा
उसकी जगह बैठ
जाए।
यह एक
गेस्टाल्ट
है। देखेंगे
तो दिखाई पड़
जाएगा कि बेटा
बाप को हटाने
की कोशिश में
लगा है, कि
हटो, एक
चाबी दो, दूसरी
चाबी दो, तीसरी
चाबी दो। अब
तुम घर बैठो, अब रिटायर
हो जाओ, अब
दुकान पर
बैठने दो, दफ्तर
में बैठने दो।
बेटा एक कोशिश
में लगा है।
बाप एक कोशिश
में लगा है
पैर जमा कर कि
जब तक बन सके, तब तक वह
वहीं खड़ा रहे,
बेटे को न
घुस जाने दे।
इसे ऐसा देखने
में कोई कठिनाई
नहीं है। ऐसा
देखा जा सकता
है; ऐसा
है। जैसी हमने
जिंदगी बनाई
है, जिस
ढंग से, उसमें
ऐसा है।
और बड़ी
मजेदार बात है
कि बाप बेटे
को बड़ा कर रहा
है,
पाल रहा है,
पोस रहा है।
और सिर्फ
इसीलिए कि वह
उसकी जगह छीन
लेगा कल। उसको
शिक्षित कर
रहा है, सिर्फ
इसलिए कि कल
वह उसके
खाते-बही पर
कब्जा कर
लेगा। उसको
बीमारी से बचा
रहा है, उसको
शिक्षित कर
रहा है, उसको
बड़ा कर रहा है,
इसलिए कि कल
वह चाबी छीन
लेगा। मां
बेटे की शादी
करने के पीछे
पड़ी है। कल
उसकी पत्नी आ
जाएगी और वह
पत्नी सब
छीनना शुरू कर
देगी। और तब
कलह शुरू होगी।
और वह कलह
जारी रहेगी।
गेस्टाल्ट
क्या है हमारे
देखने का?
अगर हम
जीवन को एक
कलह,
एक कांफ्लिक्ट,
एक संघर्ष,
एक स्ट्रगल
की भाषा में
देखते हैं, तो
धीरे-धीरे
जीवन के सब
पर्तों पर और
सब संबंधों
में संघर्ष हो
जाएगा। तब
व्यक्ति
अकेला बचता है
और सारा जगत
उसके विपरीत
शत्रु की तरह
खड़ा है। सारा
जगत प्रतिस्पर्धा
में, और
अकेला मैं बचा
हूं।
स्वभावतः, इतने
बड़े जगत के
खिलाफ
प्रतिस्पर्धा
में खड़े होकर
सिवाय चिंता
के पहाड़ के और
क्या मिलेगा?
और चिंता के
बाद भी विजय
का कोई उपाय
नहीं है, क्योंकि
पराजय ही होने
वाली है। बुढ़ापा
आएगा ही, मौत
आएगी ही, सब
डूब ही जाएगा।
चाहे बाप
कितना ही लड़े,
बेटे को दे
ही जाना
पड़ेगा। चाहे
सास कितनी ही लड़े,
बहू के हाथ
में शक्ति
पहुंच ही
जाएगी। और
चाहे गुरु
कितना ही
संघर्ष करे, शिष्य आज
नहीं कल उसकी
जगह बैठ ही
जाएगा।
बायजीद
ने एक सूत्र
लिखा है। लिखा
है कि जिन-जिन
को मैंने
धनुर्विद्या
सिखाई, उनका
आखिरी निशाना
मैं ही बना।
जिन-जिन ने
सीख ली
धनुर्विद्या,
बस वे आखिरी
निशाना मुझे
ही बनाने लगे।
वह ठीक
ही कहा है! अगर
गुरु और
विद्यार्थी के, शिष्य
के बीच संघर्ष
है, तो यही
होगा। यही
होगा कि गुरु
विद्यार्थी
को इसीलिए
तैयार कर रहा
है कि कल
विद्यार्थी
उसको हटाएगा।
यह
सारी जिंदगी
एक संघर्ष है
दूसरे को
हटाने के लिए।
और सब तरफ
दुश्मन हैं, कोई
मित्र नहीं।
जो मित्र
मालूम पड़ते
हैं, वे
थोड़े कम
दुश्मन हैं, बस इतना ही।
थोड़े अपने
वाले दुश्मन
हैं, इतना
ही। कुछ लोग
जरा दूर के
दुश्मन हैं, कुछ जरा पास
के दुश्मन
हैं। जो पास
के हैं, जरा
खयाल रखते
हैं। जरा दूर
के हैं, बिलकुल
खयाल नहीं
रखते। बाकी
दुश्मनी
स्थिर है।
लाओत्से
एक दूसरे
गेस्टाल्ट को
प्रस्तावित करता
है। और
लाओत्से ने
जिस तरह से
उसे रखा है, काश
वह कभी आदमी
की समझ में आ
सके, तो हम
एक दूसरी ही
संस्कृति और
दूसरे ही जगत
का निर्माण कर
लें। वह कहता
है, तुम
अलग हो ही
नहीं। इसलिए
शत्रुता का
सवाल कहां? तुम व्यक्ति
हो ही नहीं।
क्योंकि
व्यक्ति तुम
सिर्फ इसीलिए
दिखाई पड़ रहे
हो कि तुम्हें
समष्टि का कोई
पता नहीं।
लेकिन जहां भी
व्यक्ति है, वहां समष्टि
से जुड़ा है।
व्यक्ति हो ही
नहीं सकता
समष्टि के
बिना। तुम हो
इसलिए कि और
सब हैं। वह जो
वृक्ष दरवाजे
पर खड़ा है, वह
भी तुम्हारे
होने में
भागीदार है।
लाओत्से
ने कहा है
अपने एक शिष्य
को जो, सामने
के वृक्ष से
कुछ पत्ते
तोड़ने भेजा है
उसे किसी ने, वह पूरी
शाखा तोड़ कर
लिए जा रहा
है। तो लाओत्से
उसे रोकता है
और कहता है, तुझे पता
नहीं पागल, कि यह वृक्ष
अधूरा हुआ, तो तू भी कुछ
कम हुआ। यह
यहां सामने
खड़ा था पूरा
का पूरा, तो
हम कुछ और
अर्थों में
हरे थे। आज
इसका घाव
हमारे भीतर भी
घाव बन गया।
हम
इतने अलग नहीं
हैं;
हम सब जुड़े
हैं। हमने
पृथ्वी पर से
वृक्ष काट डाले।
लाओत्से तो एक
शाखा के तोड़ने
पर यह कह रहा
है। हमने सारे
के सारे वृक्ष
काट डाले; सारे
जंगल गिरा
दिए। अब हमको
पता चल रहा है
कि गलती हो
गई। जंगल हमने
काटे इसलिए कि
हमने सोचा
जंगल मनुष्य
का दुश्मन है।
क्योंकि जंगल
में मनुष्य को
डर था। जंगली
जानवर थे, भय
था, घबड़ाहट थी। जंगल
काट-काट कर
हमने जमीन साफ
करके अपने नगर
बसा लिए। हम
यह भूल ही गए
कि हमारे
नगरों में जो
पानी गिरता था,
वह जंगल के
बिना नहीं
गिरेगा; कि
हमारे नगरों
पर जो हवाएं
बहती थीं, वे
जंगल के बिना
नहीं बहेंगी;
कि हमारे
नगरों पर जो
शीतलता छा
जाती थी, वह
बिना जंगलों
के नहीं छाएगी;
कि हम जंगल
सब काट
डालेंगे, तो
नगर हमारे सब उजड़
जाएंगे।
अब आज
सारे यूरोप
में मूवमेंट
है,
आंदोलन है।
और वह आंदोलन
इसलिए है कि
वृक्ष अब न
काटे जाएं; एक पत्ता भी
काटना सख्त
जुर्म है।
क्योंकि आदमी
गिर जाएगा, अगर वृक्ष
गिर गए।
तो
लाओत्से ढाई
हजार साल पहले
एक डाल के
टूटने पर कहता
है कि तुझे
पता नहीं पागल, हम
कुछ कम हो गए
हैं। वह वृक्ष
हमारा हिस्सा
था, हमारे
अस्तित्व का।
जैसे
कि एक तस्वीर
में से, एक
पेंटिंग में
से किसी ने एक
कोने में एक
वृक्ष को अलग
कर लिया हो, तो तस्वीर
वहीं नहीं रह
जाती, तस्वीर
कुछ और हो
जाती है! एक
छोटा सा बुरुश,
रंग की एक
छोटी सी रेखा
एक तस्वीर को
पूरा बदल देती
है। जरा सा
इशारा! अगर
हमने जरा सा
एक वृक्ष एक
पेंटिंग में
से निकाल लिया,
तो पेंटिंग
वही नहीं रह
जाती है।
क्योंकि टोटल,
उसका समग्र
रूप और हो
जाता है। सारा
संबंध बदल
जाता है। आकाश
के और झोपड़े
के बीच में जो
वृक्ष खड़ा था,
वह अब नहीं
है। अब आकाश
और झोपड़े
निपट नंगे
होकर खड़े हो
जाते हैं।
हमने
काट डाले
वृक्ष। हमने
सोचा कि हम
आदमी के रहने
के लिए अच्छी
जगह बना
लेंगे। हमने
जानवर मिटा
डाले, हमने
कुछ जानवरों
की जातियां
बिलकुल
समाप्त कर
दीं। अब
इकोलॉजी--यह
जो मूवमेंट
चलता है, इकोलॉजी
कहलाता
है--उसका कहना
है कि हमने
जो-जो चीज कमी
कर ली है, उस
सब का परिणाम
आदमी को भोगना
पड़ रहा है।
जंगल में जो
पक्षी गीत
गाते हैं, वे
भी हमारे
हिस्से हैं।
और जिस दिन
जंगल में कोई
पक्षी गीत
नहीं गाएगा,
उस दिन हम
प्रकृति का जो
संगीत है, उसमें
एक व्याघात
उत्पन्न कर
रहे हैं। उस
व्याघात के
बाद हमारे
चित्त उतने
शांत न रह
जाएंगे, जितने
उस संगीत के
साथ थे। पर
हमें खयाल
नहीं आता। क्योंकि
बड़ा है; आदमी
बहुत छोटे
अपने घर में, अपने कोने
में जीता है।
उसे पता नहीं
कि आकाश में
बादल चलते हैं
अब या नहीं
चलते, वृक्षों
पर फूल आते
हैं कि नहीं
आते, वसंत
में पक्षी गीत
गाते हैं कि
नहीं गाते।
पिछले
तीन वर्ष पहले
इंग्लैंड में
एक किताब छपी:
दि साइलेंट
स्प्रिंग--मौन
वसंत। पिछले
तीन वर्ष पहले
इंग्लैंड के
वसंत में
अचानक हैरानी
का फर्क आ गया।
लाखों पक्षी
अचानक वसंत के
मौसम में
वृक्षों से
गिरे और मर
गए। लाखों!
ढेर लग गए
रास्तों पर
पक्षियों के।
पूरा, पूरा
वसंत मौन हो
गया। और बड़ी
मुश्किल हुई
कि क्या हुआ? क्या बात हो
गई? रेडिएशन
पर इंग्लैंड
में जो प्रयोग
चलते थे और एटामिक
इनर्जी के जो
प्रयोग चलते
थे, उनकी
कुछ भूल-चूक
से वैसा हुआ।
लेकिन
इंग्लैंड उस
वसंत के बाद
फीका हो गया!
अब इंग्लैंड
में वैसा वसंत
नहीं आएगा
कभी। गाने
वाले
पक्षियों का
बड़ा हिस्सा
एकदम समाप्त
हो गया। उसको रिप्लेस
करना मुश्किल
है।
लेकिन
अगर वैसा वसंत
न आएगा, तो हम
सोचेंगे, क्या
हमें फर्क
पड़ता है? हमारी
दूकान में
क्या फर्क
पड़ेगा? हमारे
दफ्तर में
क्या फर्क
पड़ेगा? नहीं
पक्षी गाएंगे।
काश, जिंदगी
इतनी अलग-अलग
होती! इतनी
अलग-अलग नहीं
है। वहां सब
संयुक्त है, सब जुड़ा है।
अरबों प्रकाश
वर्ष दूर भी
अगर कोई तारा
नष्ट हो जाता
है, तो इस
पृथ्वी पर कुछ
कमी हो जाती
है। अगर कल चांद
मिट जाए, तो
इस पृथ्वी पर
फर्क हो
जाएगा! आपके
सागर में लहरें
न उठेंगी;
आपकी
स्त्रियों का
मासिक धर्म
अव्यवस्थित
हो जाएगा; वह
अट्ठाइस दिन
में नहीं आएगा
फिर। वह चांद
की वजह से
अट्ठाइस दिन
में आता है।
सब कुछ और हो जाएगा।
एक छोटा सा
अंतर और सारी
चीजों की
स्थिति बदल
जाती है।
लाओत्से
कहता था कि
चीजें जैसी
हैं,
उन्हें
वैसा रहने दो।
स्वीकार करो,
वे साथी हैं।
विपरीत को भी
मत हटाओ।
जो बिलकुल
दुश्मन मालूम
पड़ता है, उसे
भी बसा रहने
दो। उसे भी
बसा रहने दो, क्योंकि
प्रकृति का
जाल गहन है, रहस्यपूर्ण
है। भीतर सब
चीजें जुड़ी
हैं। तुम्हें
पता नहीं, तुम
एक हटा कर
क्या उपद्रव
कर लोगे।
अब जब
इकोलॉजी की
चर्चा सारी
दुनिया में
चलनी शुरू हुई
है और समझ बढ़ी
है आदमी की, तो
ऐसा पता चलना
शुरू हुआ कि
हम कितनी तरह
से जुड़े हुए
हैं, कहना
बहुत मुश्किल
है! बहुत
मुश्किल है
कहना कि हम
कितनी तरह से
जुड़े हुए हैं!
उदाहरण के लिए,
अगर हम
जंगलों को काट
डालते हैं, वृक्षों को
हटा लेते हैं,
तो वृक्ष जो
हमारे लिए
जीवन का तत्व
इकट्ठा करते
हैं, वह
विलीन हो जाता
है।
वृक्ष
सूरज की
किरणों को
रूपांतरित
करते हैं, उसको
इस योग्य
बनाते हैं कि
वह हमारे शरीर
में जाकर पच
जाए। सीधी
सूरज की किरण
हमारे शरीर में
नहीं पच
पाएगी। वृक्ष
ही उसे पीकर
ट्रांसफार्म
करते हैं और
हमारे भोजन के
योग्य बनाते
हैं। वृक्ष
जमीन से
मिट्टी को
खींचते हैं और
भोजन निर्मित
कर देते हैं।
आप कभी सोचते
भी नहीं कि
सब्जी आप खा
रहे हैं, वह
जिन वृक्षों
ने उसे
निर्मित किया
है, अगर वे
निर्मित न
करते, तो
नीचे सिर्फ
मिट्टी का ढेर
होता। वह
मिट्टी का ढेर
सब्जी बन गई
है, वह
सब्जी बन कर
आपके पचने के
योग्य हो गई
है।
आप
पूरे चौबीस
घंटे अपने
श्वास को बाहर
फेंक रहे हैं
और आक्सीजन को
पचा रहे हैं
और कार्बन डाय
आक्साइड को
बाहर निकाल
रहे हैं।
वृक्ष सारी कार्बन
डाय
आक्साइड को
पीकर आक्सीजन
को बाहर निकाल
रहे हैं। अगर
पृथ्वी पर
वृक्ष कम हो
जाएंगे, तो आप
कार्बन डाय
आक्साइड बाहर
निकालेंगे, आक्सीजन कम
होती जाएगी
रोज-रोज। एक
दिन आप पाएंगे,
जीवन शांत
हो गया, क्योंकि
आक्सीजन देने
वाले वृक्ष कट
गए।
लाओत्से
को तो पता भी
नहीं था
आक्सीजन का।
लाओत्से को
पता भी नहीं
था कि वृक्ष
क्या कर रहे
हैं। फिर भी
वह कहता है कि
चीजें सब जुड़ी
हैं,
तुम अकेले
नहीं हो। और
जरा भी तुमने
हेर-फेर किया,
तो तुम में
भी हेर-फेर हो
जाएगा। एक इंटीग्रेटेड
एक्झिस्टेंस
है, एक
संयुक्त
अस्तित्व है।
उसमें
अनस्तित्व भी
जुड़ा है।
उसमें मृत्यु
भी जुड़ी है।
उसमें बीमारी
भी जुड़ी है।
उसमें सब
संयुक्त है।
लाओत्से कहता
है कि इन सबके
बीच अगर सहयोग
की धारणा
हो--विजय की
नहीं, साथ
की, संग
होने की, एकात्म
की--तो जीवन
में एक संगीत
पैदा होता है।
वही संगीत ताओ
है, वही
संगीत धर्म है,
वही संगीत
ऋत है।
लगता
है ऐसा कि
इकोलॉजी की
समझ हमारी
जितनी बढ़ेगी, लाओत्से
के बाबत हमारी
जानकारी गहरी
होगी। क्योंकि
जितना हमें
पता चलेगा, चीजें जुड़ी
हैं, वह
उतना ही हमें
बदलाहट करने
की जल्दी छोड़नी
पड़ेगी।
अब अभी
मैं देख रहा
था कि सिर्फ
साठ वर्षों में, आने
वाले साठ
वर्षों में, जिस मात्रा
में हम समुद्र
के पानी पर
तेल फेंक रहे
हैं--हजार तरह
से, फैक्टरियों के जरिए, जहाजों
के जरिए--जिस
मात्रा में हम
समुद्र के सतह
पर तेल फेंक
रहे हैं, साठ
वर्ष अगर इसी
तरह जारी रहा,
तो किसी
युद्ध की
जरूरत न होगी,
सिर्फ वह
तेल समुद्र के
पानी पर फैल
कर हमें मृत
कर देगा।
क्योंकि
समुद्र का
पानी सूर्य की
किरणों को
लेकर कुछ जीवनत्तत्व
पैदा करता है,
जिनके बिना
पृथ्वी पर
जीवन असंभव हो
जाएगा। वह
नवीनतम खोज
है। और जब
समुद्र की सतह
पर तेल की
पर्त हो जाती
है, तो वह
तत्व पैदा
होना बंद हो
जाता है।
अब हम
साबुन की जगह डिटरजेंट
पाउडर का
उपयोग कर रहे
हैं। अभी
इकोलॉजी की
खोज कहती है
कि सिर्फ पचास
साल अगर हमने
साबुन की जगह
धुलाई के नए
जो पाउडर हैं, उनका
उपयोग किया, तो किसी
महायुद्ध की
जरूरत नहीं
होगी; आदमी
उनका उपयोग
करके ही मर
जाएगा। साबुन,
जब आप कपड़े
को धोते हैं, तो मिट्टी
में जाकर
पंद्रह दिन
में रि-एब्जार्ब्ड
हो जाता है; पंद्रह दिन
में साबुन फिर
प्रकृति में
विलीन हो जाता
है। लेकिन डिटरजेंट
पाउडर को
विलीन होने
में डेढ़
सौ वर्ष लगते
हैं। डेढ़
सौ वर्ष तक वह
मिट्टी में
वैसा ही पड़ा
रहेगा; विलीन
नहीं हो सकता।
और पंद्रह
वर्ष के बाद
वह पायजनस
होना शुरू हो
जाएगा। और डेढ़
सौ वर्ष तक वह
नष्ट नहीं हो
सकता। उसका
मतलब हुआ कि
एक सौ पैंतीस
वर्ष तक वह
जहर की तरह
मिट्टी में
पड़ा रहेगा। और
सारी दुनिया
जिस मात्रा में
उसका उपयोग कर
रही है, वैज्ञानिक
कहते हैं, पचास
साल और पूरी
की पूरी
पृथ्वी पर जो
भी पैदा होता
है, वह सब
विषाक्त हो
जाएगा। आप
पानी पीएंगे,
तो जहर
पीएंगे। और आप
सब्जी
काटेंगे, तो
जहर काटेंगे।
लेकिन
इसकी हमें समझ
नहीं होती कि
चीजें किस तरह
जुड़ी हैं।
साबुन मंहगी
पड़ती है, डिटरजेंट पाउडर
सस्ता पड़ता
है। ठीक है, बात खतम हो
गई। सस्ता
पड़ता है, इसलिए
हम उसका उपयोग
कर लेते हैं।
जो भी हम कर
रहे हैं, वह
संयुक्त है।
और जरा सा, इंच
भर का फर्क
बहुत बड़े फर्क
लाएगा।
लाओत्से
किसी भी फर्क
के पक्ष में
नहीं था। लाओत्से
कहता था, जीवन
जैसा है, स्वीकार
करो। विपरीत
को भी स्वीकार
करो, उसका
भी कोई रहस्य
होगा। मौत आती
है, उसे भी
आलिंगन कर लो,
उसका भी कोई
रहस्य होगा।
तुम लड़ो
ही मत, तुम
झुक जाओ, यील्ड
करो। तुम चरण
पर पड़ जाओ
जीवन के; तुम
समर्पित हो
जाओ। तुम
संघर्ष में मत
पड़ो।
और
लाओत्से कहता
था,
अगर तुम
समर्पण में पड़
जाओ, तो
तुम्हारे
जीवन में
चिंता का लेश
मात्र भी पैदा
नहीं होता है।
समर्पित मन को
कैसी चिंता? जिसने
प्रकृति से
शत्रुता नहीं
पाली, उसको
कैसी चिंता? जो लड़ने ही
नहीं जा रहा
है, उसे
हारने का डर
कैसा? उसकी
विजय
सुनिश्चित
है। हार ही
उसकी विजय है।
लाओत्से सरेंडरिंग
के लिए, समर्पण
के लिए ये
सारे सूत्र कह
रहा है।
अंतिम
सूत्र वह कहता
है,
"और पूर्वगमन
एवं अनुगमन से
ही क्रम के
भाव की
उत्पत्ति होती
है।'
जो
पहले चला गया
और जो पीछे
आएगा, उससे ही
हम क्रम
निर्मित करते
हैं। अगर पहले
जाने वाला न
जाए, तो
पीछे आने वाला
नहीं आएगा।
इसे ऐसा समझें
कि घर में एक
वृद्ध गुजर
गया। हम कभी
इसे जोड़ते
नहीं कि घर
में बच्चे के
जन्म के लिए
जरूरी है कि
वृद्ध गुजर
जाए! लेकिन जब
घर में वृद्ध
गुजरता है, तो हम
रोते-चिल्लाते
हैं। और जब घर
में बच्चा पैदा
होता है, हम
बैंड-बाजे
बजाते हैं!
हालांकि हम
कभी इस जोड़ को
नहीं देख पाते
कि घर से एक
वृद्ध का जाना
एक बच्चे के
लिए जगह खाली
करने का आयोजन
मात्र है। जो
पहले गया है, वह पीछे आने
वाले के लिए
जरूरी है।
हम
वृद्ध को भी
रोक लेना
चाहते हैं और
बच्चे को भी
बुला लेना
चाहते हैं। ये
दोनों संभव
नहीं हो सकते।
कभी सोचें कि
एक घर में अगर दोत्तीन-चार
पीढ़ियों तक
बूढ़े न मरें, तो
उस घर में
क्या हो? उस
घर में बच्चे
पैदा होते से
ही पागल हो
जाएं। इधर पैदा
हुए कि उधर
पागल हुए! अगर
चार-पांच पीढ़ी
के वृद्ध
मौजूद हों घर
में, तो
बच्चों का
जीना असंभव
है। एक ही पीढ़ी
के वृद्ध काफी
मुश्किल कर
देते हैं। और
अगर चार-पांच पीढ़ी के
वृद्ध होंगे
तो दोत्तीन
पीढ़ी के
वृद्धों की तो
कोई कीमत ही
नहीं होगी, उनके पीछे
वाले बैठे
होंगे। और वे
इतने अनुभवी
होंगे कि
बच्चों को
सीखने ही न
देंगे। वे इतना
जानते होंगे
कि बच्चे को
जानने का उपाय
न रह जाएगा।
वे इतनी सख्ती
से बच्चे की
गर्दन पर बैठ
जाएंगे कि
बच्चे को
हिलने का मौका
न रह जाएगा।
बच्चे पैदा
होते से ही
पागल हो
जाएंगे।
वृद्ध
का विदा होना
जरूरी है, ताकि
बच्चे आ सकें।
और बच्चे
आएंगे, तो
वृद्ध विदा
होते रहेंगे।
लाओत्से
कहता है, सब
क्रम बंधा हुआ
है। इधर जवानी
आती है, तो
बचपन का जाना
जरूरी है। इधर
बुढ़ापा
आता है, तो
जवानी का जाना
जरूरी है। और
यह सब संयुक्त
है। हम इसमें
भी हिस्से
बांट लेते हैं।
और हम कहते
हैं, इतना
हमें पसंद है,
यह बच जाए, जवानी बच
जाए।
बर्नार्ड
शॉ बूढ़ा जब हो
गया,
कोई
बर्नार्ड शॉ
से पूछा है कि
क्या खयाल हैं
तुम्हारे अब?
तो
बर्नार्ड शॉ
ने बहुत
हैरानी की बात
कही। बर्नार्ड
शॉ ने कहा, जब
मैं जवान था, तो मैं
सोचता था, सदा
जवान रह जाऊं!
बूढ़ा होकर
मुझे पता चला
कि परमात्मा
ने जवानों पर
शक्ति देकर
व्यर्थ ही शक्ति
को गंवाया है।
इतनी ताकत
बूढ़ों को दी
होती, तो
अनुभव के साथ
मजा आ जाता।
जवानों को
देकर, बिलकुल
गैर-अनुभवी
लोगों को ताकत
देकर, व्यर्थ
गंवा दिया।
लेकिन
अनुभव के बढ़ने
के साथ ताकत
कम हो जाती है।
गैर-अनुभवी के
पास ताकत
ज्यादा होती
है,
इस प्रकृति
का कुछ राज
है। बच्चा
सर्वाधिक शक्तिशाली
होता है; बूढ़ा
सर्वाधिक
कमजोर हो जाता
है। अगर हमारे
हाथ में
हो--जैसा
बर्नार्ड शॉ
ने सुझाव
दिया--अगर
हमारे हाथ में
हो, तो हम
ऐसा कहें, बच्चे
को बिलकुल
कमजोर होना
चाहिए, उसके
पास कोई ताकत
नहीं होनी
चाहिए। ताकत
तो बूढ़े के
पास होनी
चाहिए, उसके
पास अनुभव है।
लेकिन कोमल
गैर-अनुभवी बच्चे
के पास ताकत
है, फैलने
की, बढ़ने
की, विकसित
होने की। और
अनुभवी बूढ़े
के पास कोई ताकत
नहीं है। बात
क्या है?
बात
कुछ
महत्वपूर्ण
है। असल में, अनुभव
के इकट्ठे
होने का अर्थ
ही मृत्यु का
पास आना है।
अनुभव के
इकट्ठे होने
का अर्थ ही मृत्यु
का पास आना
है। अनुभव के
इकट्ठे होने
का अर्थ ही है
कि जीवन का
काम पूरा हो
गया, अब आप
विदा होते
हैं। और जब
जीवन का काम
पूरा हो गया, विश्वविद्यालय
से बाहर
निकलने का
वक्त आ गया--जीवन
के
विश्वविद्यालय
से--तो आपके
पास ताकत की
कोई जरूरत
नहीं है। कब्र
में जाने के
लिए किसी ताकत
की कोई जरूरत
नहीं है। आप
चले जाएंगे।
गैर-अनुभवी के
लिए ताकत की
जरूरत है, क्योंकि
अनुभव बिना
ताकत के नहीं
मिल सकेगा।
भूल-चूक करनी
पड़ेगी, भटकना
पड़ेगा, गिरना-उठना
पड़ेगा।
गैर-अनुभवी के
पास ताकत है।
अनुभवी के पास
कोई ताकत नहीं
है, क्योंकि
अब उसे
भूल-चूक भी
नहीं करनी
पड़ती। अब उसको
पक्का बंधा
हुआ रास्ता
मालूम है। वह
उसी पर चलता
है। वह लीक
इधर-उधर नहीं
हिलता। वह भूल
नहीं करता, वह झंझट में
नहीं पड़ता, वह सदा ठीक
ही करता है।
उसको ज्यादा
ताकत की भी
जरूरत नहीं
है।
बच्चे
के पास ज्यादा
ताकत है।
क्योंकि अभी
पूरा विस्तार
अनुभव का खुला
पड़ा है। अभी
सीखने उसे
जाना है। तो
गैर-अनुभवी के
पास ताकत है, क्योंकि
अनुभव के लिए
ताकत की जरूरत
है। अनुभवी के
पास ताकत नहीं
है, क्योंकि
अनुभवी के लिए
अब मृत्यु के
सिवा और कुछ
शेष नहीं बचा
है।
पर
जीवन के इस
क्रम को हम उलटाने
की बहुत कोशिश
करते हैं। हम
कोशिश करते
हैं कि बेटे
को हम अनुभव
दे दें, उसके
समय के पहले
अनुभव दे दें।
उसके अनुभव के
पहले हम अपना
अनुभव उसे दे
दें। वह कभी
संभव नहीं हो
पाता। वह कभी
संभव नहीं हो
सकता है। क्योंकि
हमें खयाल
नहीं, प्रकृति
की जो अपनी
लयबद्ध
व्यवस्था है,
जिसमें एक
क्रम है; जिसमें
पहले गया हुआ
पीछे आने वाले
से जुड़ा है; जिसमें पीछे
आने वाला पहले
जाने वाले से
जुड़ा है।
लेकिन हमें
उसका कोई बोध
नहीं है।
एक
व्यक्ति मेरे
पास आए और
मुझे श्रद्धा
दे,
तो मैं आशा
करता हूं कि
अब वह रोज
मुझे श्रद्धा
दे। अब मैं
गलती करता
हूं। अब मैं
गलती करता हूं,
क्योंकि
जिस व्यक्ति
ने मुझे
श्रद्धा दी, बहुत
संभावना पैदा
कर ली उसने कि
कल वह मुझे
अश्रद्धा दे।
अश्रद्धा का
पूर्ण, पूर्णता
कब होगी? क्योंकि
जीवन तो
विपरीत से मिल
कर बना है।
जिसने मुझे
श्रद्धा दी, वह मुझे
अश्रद्धा भी
देगा। अगर
लाओत्से की समझ
गहरी हो, तो
लाओत्से
जानता है कि
जिससे तुमने
श्रद्धा ली, उससे
अश्रद्धा
लेने की
तैयारी रखना।
लेकिन हम? जिसने
हमें श्रद्धा
दी, उससे
हम और श्रद्धा
रखने की
तैयारी रखते
हैं! तब हम
कठिनाई में
पड़ते हैं। और
जिसने हमें
अश्रद्धा दी,
उससे हम
अपेक्षा रखते
हैं कि और
अश्रद्धा देगा,
हालांकि वह
अपेक्षा भी
इतनी ही गलत
है। जिसने हमें
अश्रद्धा दी,
वह आज नहीं
कल हमें श्रद्धा
देने की
तैयारी
करेगा।
क्योंकि
विपरीत
संयुक्त हैं।
एक
यहूदी फकीर की
कहानी मैं सदा
कहता रहा हूं।
एक यहूदी हसीद, उसने
एक किताब लिखी
है। हसीद
क्रांतिकारी
फकीर हैं। और
यहूदी
पुरोहित वर्ग
उनके विपरीत है,
जैसा कि सदा
होता है। इस
हसीद ने एक
किताब लिखी और
अपने प्रधान
यहूदी
पुरोहित के
पास भेजी।
जिसके हाथ
भेजी, उससे
कहा कि तू
देखना, वह
क्या व्यवहार
करते हैं! कुछ
बोलना मत, तुझे
कुछ करना नहीं
है; सिर्फ
देखना, साक्षी
रहना।
उसने
जाकर किताब
दी। तो जो बड़ा
पुरोहित था, वह
और उसकी पत्नी
दोनों बैठे थे
सांझ अपने बगीचे
में। उसने
किताब दी और
उसने कहा कि
फलां-फलां
हसीद फकीर ने
यह किताब भेजी
है। उसने
मुश्किल से हाथ
में ले पाया
था, जैसे
ही सुना कि
हसीद ने भेजी
है, उसने
जोर से किताब
फेंक दी सड़क
की तरफ और कहा,
ऐसी
अपवित्र
किताब को मैं
हाथ भी न
लगाना चाहूंगा।
उसकी
पत्नी ने कहा, लेकिन
इतने कठोर
होने की जरूरत
क्या है? घर
में इतनी
किताबें हैं,
इसको भी रख
दिया होता! और
फेंकना भी था
तो इस आदमी के
चले जाने पर
फेंक सकते थे।
ऐसा असंस्कृत
व्यवहार करने
की जरूरत क्या
है? रख
देते, किताबें
इतनी रखी हैं,
एक किताब और
रख जाती। और
फेंकना ही था,
तो पीछे कभी
भी फेंक देते।
इतनी जल्दी
क्या थी!
यह उस
आदमी ने खड़े
होकर सुना।
उसके मन में
खयाल आया कि
पत्नी भली है।
लौट कर उसने
अपने गुरु को
कहा कि
पुरोहित तो
बहुत दुष्ट
आदमी मालूम होता
है। उसको तो
कभी आप अपने
में उत्सुक कर
पाएंगे, इसकी
कोई आशा नहीं
है। लेकिन उसकी
पत्नी कभी आप
में उत्सुक हो
सकती है।
उस
फकीर ने कहा, पहले
पूरी कथा तो
कहो; तुम
व्याख्या मत
करो। हुआ क्या?
उसने
कहा,
हुआ इतना ही
कि पुरोहित ने
तो किताब लेकर
ऐसे फेंक दी, जैसे जहर
हो। और कहा कि
फेंको इसे, यहां मैं
हाथ भी नहीं
लगाऊंगा।
इतनी अपवित्र को
मैं छू भी
नहीं सकता। और
उसकी पत्नी ने
कहा कि ऐसी जल्दी
क्या थी? रख
देते, घर
में बहुत
किताबें थीं,
पड़ी रहती।
और फेंकना था
तो पीछे फेंक
देते। इतना
अशिष्ट होने
की कोई
आवश्यकता
नहीं है।
हसीद
कहने लगा, वह
फकीर कहने लगा,
कि कभी
पुरोहित से तो
हमारा संबंध
भी बन जाए, उसकी
पत्नी से कभी
न बन सकेगा।
उस फकीर ने
कहा, पुरोहित
से हमारा कभी
संबंध बन ही
जाएगा। जो इतनी
घृणा से भरा
है, वह
कितनी देर
इतनी घृणा से
भरा रहेगा? आखिर प्रेम
प्रतीक्षा
करता होगा, वह लौट
आएगा। लेकिन
जो इतनी
उपेक्षा की
बात कह रही है
कि रख देते, पड़ी रहती, इनडिफरेंट,
पीछे फेंक
देते, कोई
हर्जा न था, शिष्टाचार
का तो खयाल
रखो, उस
स्त्री का
हमारे प्रति
कोई भी भाव
नहीं है; न
घृणा का, न
प्रेम का।
उससे हमारा
संबंध बहुत
मुश्किल है।
लेकिन
पुरोहित से
हमारा संबंध
बन ही जाएगा।
तुम देखोगे
कि पुरोहित अब
तक किताब उठा
कर पढ़ रहा
होगा। तुम जाओ
वापस।
उसने
कहा,
क्या बात
करते हैं! वह पढ़ेगा कभी?
तुम
वापस जाओ, तुम
व्याख्या मत
करो। तुम जाकर
फिर देखो।
लौट कर
उसने देखा, द्वार
बंद हैं।
खिड़की से झांका,
पुरोहित वह
किताब लेकर पढ़
रहा है।
जीवन
ऐसा है! उसमें
जो गाली दे
जाता है, वह
प्रेम करने की
क्षमता जुटा
कर ले जाता
है। उसमें जो
प्रेम प्रकट
कर जाता है, वह गाली
देने की
क्षमता जुटा
कर ले जाता
है। विपरीत
संयुक्त है।
जो आदर करता
है, वह
अनादर करने की
क्षमता
इकट्ठी करने
लगता है। जो
अनादर करता है,
वह क्षमा
मांगने के लिए
उत्सुकता
इकट्ठी करने
लगता है। अगर
कोई जीवन को
ऐसा देख पाए, तब न मित्र
मित्र, न
शत्रु शत्रु!
तब चीजें एक
विराट पैटर्न
में, एक
विराट ढांचे
में दिखाई
पड़ने लगती हैं,
एक
गेस्टाल्ट
में दिखाई
पड़ने लगती
हैं।
तब अगर
कोई मेरे पास
आता है, तो
मैं जानता हूं
कि दूर जाएगा।
जब कोई मुझसे दूर
जाता है, तो
मैं जानता हूं
पास आएगा।
लेकिन न पास
आने वाले पर
कोई चिंता
लेने की जरूरत
है, न दूर
जाने वाले पर
कोई चिंता
लेने की जरूरत
है। जीवन का
ऐसा नियम है।
जब कोई जन्मता
है, तो
मरने के लिए; और जब कोई
मरता है, तो
जन्मने
के लिए। ऐसा
जीवन का नियम
है। इस विराट
नियम के वैपरीत्य
को अगर हम एक
ही व्यवस्था
का लयबद्ध, छंदबद्ध रूप
समझ लें, तो
लाओत्से को
समझना आसान हो
जाएगा। इस
सूत्र का यही
अर्थ है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, आधुनिक
विज्ञान ने
मनुष्य-जाति
को प्रकृति से
दूर करके जीवन
के अनेक
आयामों को
विकसित कर लिया
है। कृपया
बताएं कि
वैज्ञानिक
जीवन-प्रणाली
की जटिलता के
साथ ताओ-युग
के सहज जीवन
का संतुलन आज
किस प्रकार स्थापित
किया जाए?
संतुलन
स्थापित करने
की बात नहीं
है। लाओत्से और
आधुनिक
विज्ञान के
बीच संतुलन
स्थापित करने
की बात नहीं
है। लाओत्से
की दृष्टि अगर
खयाल में आ
जाए,
तो बिलकुल
ही नवीन
विज्ञान का
जन्म होगा।
बिलकुल नए विज्ञान
का जन्म होगा।
लाओत्से की
दृष्टि पर एक
नए ही विज्ञान
का जन्म होगा,
क्योंकि
पूरे जीवन की
दृष्टि ही और
है। अरस्तू के
आधार पर जो
विज्ञान
विकसित हुआ है,
वह विज्ञान
बहुत अधूरा, अज्ञानी है।
उसने जीवन के
इतने छोटे से
हिस्से को
समझने की
कोशिश की है, और पूरे
हिस्से को छोड़
दिया है। कहना
चाहिए, वह
बचकाना है, चाइल्डिश है। उसने
समग्र को
देखने का कोई
प्रयास अभी तक
नहीं किया है।
लेकिन
अभी तक कर भी
नहीं सकता था।
अब उसे करना पड़ेगा।
अणु-शस्त्र के
खोज लेने के
बाद,
अणु-ऊर्जा के
विकास के बाद
विज्ञान को
अपनी पुरानी
समस्त आधारशिलाओं
पर
पुनर्विचार
करने को मजबूर
हो जाना पड़ा
है। क्यों? क्योंकि अगर
विज्ञान जैसा
अभी तक बढ़ रहा
था, अब कहे
कि हम ऐसे ही
आगे बढ़ेंगे,
तो सिवाय
मनुष्य-जाति
के अंत के कुछ
और रास्ता
नहीं है। तो
विज्ञान को
अपनी पूर्व-धारणाओं
को फिर से
सोचना पड़ रहा
है कि कहीं
कोई बुनियादी
भूल है, कहीं
कोई गलती हो
रही है, कि
हम इतनी मेहनत
करते हैं और
परिणाम बुरे
आते हैं!
चेष्टा हम
इतनी करते हैं
जिसका कोई
हिसाब नहीं, और परिणाम
विपरीत आते
हैं! सारे
श्रम का फल दुख
ही होता है! तो
विज्ञान को
अपनी पूर्व
धारणाओं पर
पुनः विचार
करना पड़ रहा
है। और उसमें
जो भूल कभी
पकड़ में आएगी,
वह अरस्तू
के साथ हो गई
भूल है। और तब
जीवन के साथ
संघर्ष का
विज्ञान नहीं,
जीवन के साथ
सहयोग का
विज्ञान!
अब
इसमें फर्क
होंगे। सारी
आधारशिला बदल
जाएगी। जीवन
के साथ संघर्ष
का विज्ञान
सोचता ही
विनाश करने की
भाषा में है।
समझ
लें--उदाहरण
लें,
तो जल्दी
आसानी हो
जाए--समझ लें
कि मच्छर हैं,
मलेरिया
आता है। तो एरिस्टोटेलियन
दिमाग सोचेगा
कि मच्छरों को
खतम कर दो, तो
मलेरिया नहीं
आएगा। विनाश
की भाषा फौरन
खयाल में आएगी,
मच्छरों को
नष्ट कर दो, मलेरिया
नहीं आएगा।
लेकिन
मच्छरों के
होने से कुछ
और भी आ रहा हो
सकता था; वह
भी रुक जाएगा।
मच्छरों की
मौजूदगी कुछ
और भी कर रही
हो सकती थी; वह भी रुक
जाएगा। पर
उसका पता तो
देर से लगेगा।
शायद तब लगे, जब तक कि
मच्छर न बचें।
और तब मच्छर
को रिप्लेस
करने के लिए
हमें कुछ और
उपाय करना
पड़े!
लाओत्से
के सामने अगर
सवाल आएगा कि
मच्छर है, हम
क्या करें? तो लाओत्से
इस भाषा में
नहीं सोचेगा
कि मच्छर को
नष्ट कर दो।
दो ढंग हो
सकते हैं
मच्छर के साथ
सहयोग करने
के। या तो
आदमी के शरीर
को बदला जाए
कि मच्छर
नुकसान न
पहुंचा पाए।
मच्छर को
विनाश करने की
कोई जरूरत
नहीं है। या
मच्छर के शरीर
को बदला जाए
कि मच्छर
मित्र हो जाए,
शत्रु न रह
जाए। ये दोनों
बातें हो सकती
हैं।
अगर
लाओत्से के
ढंग से सोचा
गया होता तो
यही होता कि
हम कोई
सामंजस्य
खोजते। अगर
मच्छर को बिलकुल
मारा जा सकता
है,
तो इसमें
कौन सी कठिनाई
है कि मच्छर
को विषरहित
किया जा सके? अगर मच्छर
को मारा जा
सकता है, विषरहित किया जा
सकता है, तो
इसमें कौन सी
कठिनाई है कि
मनुष्य के
रेजिस्टेंस
को बढ़ाया जा
सके? लाओत्से
तो पसंद करेगा
कि मनुष्य का
रेजिस्टेंस
बढ़ा दिया जाए।
दो
उपाय हैं। धूप
पड़ रही है
बाहर। तो एक
रास्ता तो यह
है कि मैं
छाता लगा कर
जाऊं। तब मैं
धूप को दुश्मन
मान कर रोक रहा
हूं। और एक
रास्ता यह है
कि मैं शरीर
को ऐसा बलिष्ठ
करके जाऊं कि
धूप मुझे पीड़ा
न दे पाए।
लाओत्से
कहेगा कि उचित
है कि शरीर को
बलिष्ठ करके
जाओ;
और तब धूप
तुम्हें मित्र
मालूम पड़ेगी।
क्योंकि न
इतनी धूप पड़ती,
न तुम इतना
शरीर को
बलिष्ठ करके
जाते। शरीर को
ऐसा बलिष्ठ
करके जाओ कि
धूप शत्रु
मालूम न पड़े।
धूप तो कमजोर
शरीर को शत्रु
मालूम पड़ रही
है।
यह जो
हमारा, हम
जिस ढंग से
सोचते हैं, उस पर
निर्भर करता
है कि हम कोई
सहयोग का मार्ग
खोजें। जीवन
और हमारे बीच
सहयोग
स्थापित हो।
संघर्ष
अंततः हमें
आत्मघात में
ले जाएगा। क्योंकि
संघर्ष हम
कहां तक
करेंगे? जो भी,
संघर्ष की
भाषा यह है कि
जो भी हमें
नुकसान पहुंचाता
हुआ मालूम पड़े,
उसे समाप्त
करो। अगर हम
मच्छरों को
समाप्त करते
हैं, और कल
हमें लगता है
कि चीनी हमें
नुकसान
पहुंचाते
मालूम पड़ते
हैं, तो हम
उन्हें क्यों
समाप्त न करें?
परसों हमें
लगता है कि
भारतीय
नुकसान
पहुंचाते
मालूम पड़ते
हैं, हम
उन्हें
समाप्त क्यों
न करें? जो
भाषा है युद्ध
की, वह सब
जगह लागू
होगी। जो भी
नुकसान
पहुंचाता मालूम
पड़ता है, उसे
समाप्त करो।
अमरीका सोचे,
रूस को
समाप्त करो; रूस सोचे, अमरीका को
समाप्त करे।
लेकिन एटामिक
खोज के बाद
रूस और अमरीका, दोनों
के दिमाग में
एक बात साफ हो
गई कि समाप्त
करने की भाषा
अब न चलेगी।
क्योंकि अब
कोई भी किसी
को समाप्त करे,
तो इस आशा
में नहीं कर
सकता कि हम
बचेंगे। हां,
दस मिनट का
फर्क पड़ेगा
समाप्त होने
में। बस इससे
ज्यादा फर्क
नहीं पड़ेगा।
जो शुरू करेगा,
वह दस मिनट
बाद समाप्त
होगा। जो
आक्रामक होगा,
वह दस मिनट
बाद समाप्त
होगा। जो डिफेंसिव
होगा, वह
दस मिनट पहले
समाप्त हो
जाएगा। लेकिन
घोषणा करने को
भी वक्त नहीं
मिलेगा कि हम
जीत गए हैं।
तब रूस और अमरीका
के मस्तिष्क
में भी पिछले
दस वर्षों में
निरंतर एक
खयाल आया है
कि सहयोग की
भाषा में सोचें।
संघर्ष की
भाषा का अब
कोई अर्थ नहीं
है। साथी होकर
को-एक्झिस्टेंस
की भाषा में
सोचें, सह-अस्तित्व
की भाषा में
सोचें।
मगर
आदमी ही
सह-अस्तित्व
की भाषा में
सोचे तो नहीं
होगा।
सह-अस्तित्व
की पूरी भाषा!
फिर हम प्रकृति
की तरफ भी वही
भाषा होनी
चाहिए। फिर
बीमारियों की
तरफ भी वही
भाषा होनी
चाहिए। फिर हर
चीज की तरफ
वही भाषा होनी
चाहिए।
लाओत्से की भाषा
सह-अस्तित्व
की भाषा
है--समग्र के
प्रति। और ऐसा
नहीं हो सकता
कि हम कहें कि
हम सिर्फ फलां
आदमी के प्रति
हमारा
सह-अस्तित्व का
भाव है, बाकी
में हम संघर्ष
जारी रखेंगे।
यह नहीं हो सकता।
क्योंकि अगर
हमने बाकी के
साथ संघर्ष जारी
रखा, तो हम
तलाश रखेंगे
मौके की कि
कभी इस आदमी
को भी समाप्त
कर दें तो
झंझट से मुक्त
हो जाएं।
नए
विज्ञान का
जन्म
होगा--लाओत्से
की समझ के अनुसार।
और लाओत्से की
समझ जो है, अगर
ठीक से हम
समझें, तो
लाओत्से का
मतलब होता है
पूरब का
मस्तिष्क, दि
ईस्टर्न
माइंड।
लाओत्से की
समझ का अर्थ
होता है पूर्वीय
मन, पूरब
के सोचने का
ढंग यह है। अरस्तू
का मतलब होता
है पश्चिम के
सोचने का ढंग।
इसे
ऐसा अगर हम
कहें, पश्चिम
के सोचने के
ढंग का अर्थ
होता है तर्क,
पूरब के
सोचने के ढंग
का अर्थ होता
है अनुभूति।
एक विज्ञान अब
तक जो खड़ा हुआ
है, वह आब्जेक्टिव
है, वस्तु
की खोज-बीन से
खड़ा हुआ है।
लाओत्से के साथ,
योग के साथ,
पतंजलि और
बुद्ध के साथ
कभी कोई
विज्ञान खड़ा होगा,
तो वह
मनुष्य के मन
की खोज से
होगा, वस्तु
की खोज से
नहीं।
संतुलन
नहीं हो पाएगा, समन्वय
भी नहीं हो
पाएगा। हां, लाओत्से का
विज्ञान अगर
निर्मित होना
शुरू हो जाए, तो आधुनिक
विज्ञान जो आज
तक विकसित हुआ
है, उसमें
धीरे-धीरे
आत्मसात हो
जाएगा।
क्योंकि यह
सिर्फ खंड है।
यह एक टुकड़ा
है। अनुभूति
का विज्ञान
विराट होगा।
उसमें यह
टुकड़ा समाविष्ट
हो सकता है।
और समाविष्ट
होकर यह अपनी
सार्थकता पा
लेगा।
समाविष्ट
होकर इसका
जो-जो दंश है, वह नष्ट हो
जाएगा, इसमें
जो-जो मूल्यवान
है, वह उभर
आएगा।
और
पश्चिम में
बहुत लक्षण
दिखाई पड़ने
शुरू हो गए, जिनसे
साफ होता है
कि कई तरफ से
हमला शुरू हुआ
है। लाओत्से
कई तरफ से
प्रवेश करता
है। लाओत्से
का मतलब पूरब।
अब जैसे कि
अमरीका का एक वस्तुशिल्पी,
आर्किटेक्ट
है, राइट।
उसने जो नए
मकान बनाए हैं,
वे लाओत्सियन
हैं। उसके नए
मकान की जो
सारी-सारी
योजना है, वह
यह है कि मकान
ऐसा होना
चाहिए कि वह
आस-पास के
जमीन के टुकड़े,
आस-पास के
पहाड़ के टुकड़े,
आस-पास के
वृक्षों से
पृथक न हो, उनका
एक हिस्सा हो।
तो अगर
राइट मकान
बनाएगा और एक
बड़ा वृक्ष आ
जाएगा, तो वृक्ष
को नहीं
काटेगा, मकान
को काटेगा। वह
कहेगा, मकान
आदमी के हाथ
की बनाई चीज
है, यह कट
सकता है। अगर
इस बीच, कमरे
के बीच में
वृक्ष आ जाएगा,
तो राइट
उसको बचाने की
कोशिश करेगा,
चाहे इस
कमरे को थोड़ा
तोड़ना-फोड़ना
पड़े। वृक्ष नहीं
तोड़ा जा सकता;
वृक्ष यहीं
रहेगा। इस बैठकखाने
में भी वृक्ष
की पींड़
रहेगी और बैठकखाने
को ऐसा बनाएगा
कि वृक्ष की पींड़ के
साथ उसका एक
तालमेल, एक
संगति, एक
संगीत बन जाए।
तो
राइट ने जो
मकान बनाए हैं, वे
प्रकृति के
हिस्से हैं।
अगर दूर से
उन्हें देखें,
तो पता भी
नहीं चलेगा कि
मकान है।
क्योंकि लाओत्से
कहता है, ऐसा
मकान, जो
दिखाई पड़ जाए,
वायलेंट है। वायलेंट
है ही। अब
जैसे कि यह
तुम्हारा वुडलैंड
का मकान है, अब यह वायलेंट
है। अगर
छब्बीस मंजिल
ऊंचा मकान
जाएगा, तो
वृक्ष कहां रह
जाएंगे? पहाड़
कहां रह
जाएंगे? आदमी
कहां रह जाएगा?
वह सब खो
जाएगा। मकान
नंगा खड़ा हो
जाएगा।
बेतुका! उसका
कोई
को-एक्झिस्टेंस
नहीं होगा। वह
अकेला ही खड़ा
हो जाएगा अपनी
अकड़ से।
वृक्ष
उसको छाते हों, पहाड़
उससे स्पर्श
करते हों, नदियां
उसके पास आवाज
करती हों।
आदमी उसके पास
से गुजरे तो
ऐसा न लगे कि
मकान दुश्मन
है; आदमी
उसके पास से
गुजरे तो नाचीज
न हो जाए, ऐसा
न लगे कि कीड़ा-मकोड़ा है।
अपनी ही बनाई
चीज के सामने
आदमी कीड़ा-मकोड़ा
हो जाए, तो
खतरनाक उसके
परिणाम हैं।
राइट
जो मकान बनाता
है,
वे मकान ऐसे
हैं कि उन
मकानों में बगीचे
भीतर चले
जाएंगे, लॉन
भीतर प्रवेश
कर जाएगा, छतों
पर वृक्ष हो
जाएंगे, घास-पात
उग आएगी तो
उसको उखाड़
कर नहीं फेंका
जाएगा। मकान
ऐसा होगा कि
जैसे प्रकृति
में अपने आप
उग आया हो--इट हैज ग्रोन।
ऐसा नहीं कि
हमने बना दिया,
थोप दिया
ऊपर से। जैसे
वृक्ष उगते
हैं, ऐसा
मकान भी उगा
है।
राइट
का बहुत
प्रभाव हुआ है
अमरीका में और
यूरोप में।
क्योंकि उसके
मकान में एक
और ही सौंदर्य
है। उसके मकान
की छाया में
एक और ही रस
है। उसके मकान
में बैठना
प्रकृति से
टूटना नहीं है, प्रकृति
में ही होना
है।
तो
हजार रास्तों
से पश्चिम के
मन में लाओत्सियन
खयाल प्रवेश
कर रहे
हैं--हजार
रास्तों से।
नया
कवि है। तो
नया कवि तुक नहीं
बांध रहा है, व्याकरण
की चिंता नहीं
कर रहा है।
क्योंकि लाओत्से
कहता है, हवाएं
जब बहती हैं, तो तुमने
कभी सुना कि
उन्होंने
व्याकरण की फिक्र
की हो? और
जब बादल गरजते
हैं, तो
तुमने कभी
सुना कि वे
कोई तुक बांधते
हों? फिर
भी उनका अपना
एक छंद है; छंदहीन
छंद है।
तो
सारे पश्चिम
पर,
सारी
दुनिया पर
काव्य उतर रहा
है, जो
छंदहीन है।
जिसमें एक
आंतरिक लय है,
लेकिन ऊपरी बिठाव
नहीं है।
जिसमें
तुकबंदी नहीं
है, मात्रा
नहीं हैं, शब्दों
की तौल नहीं
है। लेकिन फिर
भी भीतर एक बहाव
है, एक
प्रवाह है, एक धारा है।
और उस धारा
में एक संगीत
है।
पश्चिम
में चित्रकार
चित्र बना रहे
हैं। ऐसे चित्रकार
हैं कुछ, जिन्होंने
अपने चित्रों
पर फ्रेम
लगानी बंद कर
दी है।
क्योंकि
फ्रेम कहीं तो
नहीं होती सिवाय
आदमी की बनाई
हुई चीजों के।
आकाश में कोई फ्रेम
नहीं है। सूरज
निकलता है फ्रेमलेस,
उसमें कहीं
कोई फ्रेम
नहीं है। तारे
बिना फ्रेम के
हैं। फूल खिलते
हैं, वृक्ष
होते हैं, सब
एंडलेस
एक्सटेंशन
है। कहीं कोई
चीज खतम होती
नहीं मालूम
पड़ती। सब
चीजें चलती ही
चली जाती हैं।
बढ़ते चले जाओ,
चलती चली
जाती हैं।
तो
चित्रकार बना
रहे हैं चित्र, जिन
पर फ्रेम नहीं
लगा रहे हैं।
वे कहते हैं, हम फ्रेम न
लगाएंगे, क्योंकि
फ्रेम आदमी का
बिठाया हुआ
हिस्सा है।
चित्र के भीतर
सब आ जाना
चाहिए, ऐसा
भी जरूरी नहीं
है।
लाओत्से
के अनुसार
पेंटिंग पैदा
हुई थी चीन में।
ताओ चित्रकला
अलग ही
चित्रकला है।
क्योंकि
लाओत्से जैसा
आदमी जब भी
होता है, तो
उसकी दृष्टि
को लेकर सब
दिशाओं में
काम शुरू होता
है। तो
लाओत्से के
अनुसार चित्र
बनने शुरू हुए
थे। उन
चित्रों का
मजा ही और था!
उन चित्रों
में फ्रेम
नहीं है। उन
चित्रों में
चीजें शुरू और
अंत नहीं
होतीं।
जिंदगी में
कहीं कोई चीज
शुरू और अंत
नहीं होती। सब
चीजें एंडलेस,
बिगनिंगलेस हैं। सिर्फ
हम जो चीजें
बनाते हैं, वे शुरू
होती हैं और
अंत होती हैं।
तो लाओत्से के
जो चित्रकार
चित्र बनाते
हैं, वे
कहीं से भी
शुरू हो सकते
हैं, कहीं
भी समाप्त हो
सकते हैं।
नई
चित्रकला में
वह बात प्रवेश
कर रही है। नई कथा
में वह बात
प्रवेश कर रही
है। कथा कहीं
से भी शुरू
होती है। पुरानी
कथा देखिए। एक
था राजा--वहीं
से शुरू होती
थी। एक बिगनिंग
थी। और एक अंत
था कि विवाह
हो गया, फिर
वे दोनों सुख
से रहने लगे।
बस यहां सब
चीजें इस
फ्रेम के बीच
में पूरी होती
थीं। नई कथा कहीं
से भी शुरू
होती है; नई
कथा कहीं भी
पूरी हो जाती
है। सच पूछा
जाए, तो नई
कथा पूरी होती
नहीं, शुरू
होती नहीं, एक फ्रैगमेंट
है। क्योंकि लाओत्सियन
जो खयाल है, वह यह है कि
हम कुछ भी
कहें, वह
एक फ्रैगमेंट
होगा। वह पूरा
नहीं हो सकता।
हम खुद ही
पूरे नहीं
हैं। सब चीजें
खंड ही हैं।
तो खंड ही
रहने दो, फिर
उनको पूर्ण
करने की नाहक
चेष्टा मत दिखलाओ।
अन्यथा
विकृति होती
है, कुरूप
हो जाता है
सब।
काव्य
में,
चित्र में,
संगीत में,
स्थापत्य
में, मूर्ति
में, विज्ञान
में सब तरफ से
पूरब का मन
प्रवेश कर रहा
है। पश्चिम
बहुत आक्रांत
है, पश्चिम
बहुत भयभीत है।
हरमन हेस ने
कहीं लिखा है
कि पश्चिम को
पता चलेगा
शीघ्र कि
तुमने पूरब के
ऊपर हमला करके
जो विजय पा ली
थी, वह
बहुत थोड़े दिन
की सिद्ध हुई।
लेकिन जिस दिन
पूरब अपनी
पूरी
अंतर-भावनाओं
को लेकर हमला
कर देगा, उस
दिन उनकी विजय
स्थायी हो
सकती है।
तुमने जो विजय
पा ली थी, वह
बहुत ऊपरी ही
सिद्ध होने
वाली थी, क्योंकि
वह बंदूक के
कुंदे पर थी।
लेकिन अगर कभी
पूरब अपने
पूरे अनुभव को,
जो उसने
हजारों
वर्षों में
पाला है, लेकर
हमला करेगा...।
निश्चित ही, उसका हमला
भी और तरह का
होगा।
क्योंकि
अनुभूति हमला
नहीं करती, चुपचाप न
मालूम किस
कोने से
प्रवेश कर
जाती है। वह
प्रवेश कर रही
है।
पश्चिम
आक्रांत है।
और पश्चिम को
यह बात रोज-रोज
अनुभव हो रही
है कि उसके
मापदंड हिल
रहे हैं। उसने
जो तय किया था, वह
कंप रहा है।
और पूरब बड़े
जोर से, जैसे
आकाश में
अचानक बादल छा
जाएं, ऐसा
छाता जा रहा
है। वह धीरे-धीरे
पूरे पश्चिम
को घेर लेगा।
स्वाभाविक भी
है, क्योंकि
पश्चिम की
पूरी पकड़, ठीक
से हम समझें, तो बहुत
ऊपरी है, सुपरफीशियल है, सतह
पर है। और सतह
पर है, इसीलिए
पश्चिम जल्दी
सफल हो सका।
पूरब की सारी
पकड़ इतनी
आत्मगत और
गहरी है कि
जल्दी सफल नहीं
हो सकता।
ध्यान
रहे,
मौसमी फूल
चार महीने में
लग जाते हैं, दो महीने
में लग जाते
हैं। स्थायी
फूल लगाने हों
तो वर्षों
लगते हैं।
पूरब की पकड़
गहरी है। इसलिए
बहुत, हजारों
वर्ष लगते हैं,
तब कहीं
पूरब की एकाध
धारणा विजय
पाती है। पश्चिम
की धारणाएं
बहुत ऊपरी
हैं। सौ वर्ष
में एक धारणा
विजय पा सकती
है और अस्त हो
सकती है। लेकिन
पूरब
प्रतीक्षा कर
सकता है। पूरब
बहुत प्रतीक्षा
कर सकता है, और मौका देख
सकता है कि जब
मौका आएगा और
पश्चिम पराजय
के किनारे खड़ा
हो गया है और
पराजय के किनारे
खड़ा है, तब
पूरब ने जो
जाना है, वह
वापस फैल जा
सकता है।
लाओत्से पूरब
की अंतरतम
प्रज्ञा है, दि इनरमोस्ट
विजडम! जो
सारभूत है
पूरब का, वह
लाओत्से में
छिपा है।
संतुलन
नहीं होगा, समन्वय
नहीं होगा।
लाओत्से की
धारणा पर एक
नए विज्ञान का
जन्म हो सकता
है। और जल्दी
होगा। क्योंकि
बहुत सी बातें
हैं, जो कि
आपके खयाल में
एकदम से नहीं
आ सकतीं। जैसे
यूक्लिड की ज्यामेट्री
पश्चिम का
आधार थी अब
तक। सारे
विज्ञान के नीचे
जो गणित का
फैलाव था, वह
यूक्लिडियन
था। और कोई
सोच भी नहीं
सकता था कि
नॉन-यूक्लिडियन
ज्यामेट्री
उसको बदल
देगी। कभी कोई
नहीं सोच सकता
था। लेकिन
पिछले डेढ़
सौ वर्षों में
यूक्लिड के
आधार हिल गए
और उसकी जगह
नॉन-यूक्लिडियन
ज्यामेट्री
आ गई। अब नॉन-यूक्लिडियन
ज्यामेट्री
बिलकुल लाओत्सियन
है। कोई जानता
नहीं है कि वह लाओत्सियन
है, वह
बिलकुल लाओत्सियन
है।
यूक्लिड
कहता है, दो
समानांतर
रेखाएं कहीं
नहीं मिलती
हैं। नॉन-यूक्लिडियन
ज्यामेट्री
कहती है कि दो
समानांतर
रेखाएं मिली
ही हुई हैं।
तो अब लाओत्सियन
सूत्र जो है
न--मिली ही हुई
हैं! तुम्हारे
खींचने की
कमजोरी है कि
तुम आखिर तक
नहीं खींचते,
अन्यथा वे
मिल जाएंगी।
तुम खींचे चले
जाओ, एक
वक्त आएगा, वे मिल
जाएंगी। तुम
बहुत निकट
देखते हो, दूर
नहीं देखते।
लेकिन दूर
निकट का
हिस्सा है। और
अब स्वीकार
करना पड़ रहा
है कि अगर कोई
भी तरह की दो
समानांतर
पैरेलल
रेखाएं
अंतहीन बढ़ाई जाएं,
तो मिल
जाएंगी।
यूक्लिड
कहता है कि
किसी भी
वर्तुल, किसी
भी सर्किल का
कोई खंड स्ट्रेट
लाइन नहीं हो
सकता। कैसे
होगा? एक वर्तुल
है। उसका हम
एक टुकड़ा
तोड़ें, तो
वह घूमा ही
हुआ होगा, स्ट्रेट नहीं हो
सकता। नॉन-यूक्लिडियन
ज्यामेट्री
कहती है कि सब स्ट्रेट
लाइन भी किसी
बड़े वर्तुल का
हिस्सा हैं।
कितनी ही सीधी
रेखा खींचो, अगर तुम
दोनों तरफ
खींचते चले
जाओगे, बड़ा
वर्तुल
निर्मित हो
जाएगा।
और अब
स्वीकार करना
पड़ रहा है कि
वह बात ठीक है।
क्योंकि इस
पृथ्वी पर हम
कोई भी सीधी
रेखा खींचें, चूंकि
पृथ्वी गोल
है...। अगर मैं
इस कमरे में, यह हमारा
कमरा बिलकुल
सीधा दिखाई पड़
रहा है न! यह
रेखा बिलकुल
सीधी है।
लेकिन पृथ्वी
गोल है, तो
यह रेखा सीधी
हो नहीं सकती।
यह गोल पृथ्वी
का, बहुत
बड़ा गोल है, उसका एक
छोटा सा खंड
है। अगर हम
किसी भी सीधी
रेखा को
खींचते ही चले
जाएं दोनों
तरफ, तो
अंत में
वर्तुल
निर्मित हो
जाएगा। इसका
मतलब हुआ कि
सब सीधी
रेखाएं
वर्तुल के खंड
हैं। और
यूक्लिड कहता
था कि कोई
वर्तुल का खंड
सीधी रेखा
नहीं हो सकता।
यूक्लिड
की ज्यामेट्री
की जगह नॉन-यूक्लिडियन
ज्यामेट्री
आ गई है।
पिछले
दो सौ वर्षों
में पश्चिम की
साइंस का जो
बुनियादी
आधार था, वह था सर्टेंटी,
निश्चयात्मकता।
क्योंकि
विज्ञान अगर
निश्चय न हो, तो फिर
काव्य में और
विज्ञान में
फर्क क्या है?
विज्ञान को
बिलकुल
निश्चित होना
चाहिए, तभी
विज्ञान है।
लेकिन अभी
पिछले पंद्रह
वर्षों से नया
सिद्धांत आया
है: अनसर्टेंटी,
अनिश्चय।
क्योंकि जैसे
ही हमने अणु
को तोड़ा और इलेक्ट्रान
तक पहुंचे, वैसे ही
हमको पता चला
कि इलेक्ट्रान
का जो व्यवहार
है, वह अनसर्टेन
है। उसके बाबत
निश्चित नहीं
कहा जा सकता
कि वह क्या
करेगा।
इलेक्ट्रान का
व्यवहार जो है, आदमी
जैसा है। अगर
आदमी सच्चा हो,
तो आदमी के
बाबत भी नहीं
कहा जा सकता
कि वह क्या
करेगा। हां, झूठे
आदमियों के
बाबत कहा जा
सकता है कि वे
क्या करेंगे।
वे सुबह उठ कर
क्या करेंगे,
बराबर कहा
जा सकता है।
दोपहर क्या
करेंगे, बराबर
कहा जा सकता
है। शाम क्या
करेंगे, कहा
जा सकता है।
सांझ क्या
करेंगे, कहा
जा सकता है।
उनका पूरा
भविष्य लिखा
जा सकता है कि
ये तीन दफे
क्रोध करेंगे
दिन में, छह
दफे सिगरेट
पीएंगे, सात
दफे यह करेंगे,
वह सब कहा
जा सकता है।
लेकिन आथेंटिक
आदमी के बाबत
कल का नहीं
कहा जा सकता
कि वह क्या
करेगा। कल
सुबह क्या
करेगा, नहीं
कहा जा सकता।
रात वह आथेंटिक
आदमी उठ कर और
सोई हुई
यशोधरा को छोड़
कर चला जाएगा, यह
नहीं कहा जा
सकता। सोच भी
नहीं सकती थी
यशोधरा कि यह
आदमी जो रात
साथ सोया था, एक दिन का
बच्चा था अभी
पैदा हुआ, यह
चुपचाप रात
नदारद हो
जाएगा! यह
उसकी कल्पना
के भी भीतर
नहीं आ सकता
था। कोई कारण
ही नहीं दिखाई
पड़ता था कि यह
आदमी कल सुबह
अचानक नदारद हो
जाएगा।
आथेंटिक, प्रामाणिक
आदमी
अनिश्चित
होगा।
अनिश्चित अर्थात
स्वतंत्र
होगा।
निश्चित
अर्थात गुलाम
होगा।
हम
सोचते थे, पदार्थ
तो निश्चित ही
होगा, क्योंकि
पदार्थ तो
पदार्थ है।
लेकिन अब पदार्थ
रहा नहीं, अब
पदार्थ ऊर्जा
है, इनर्जी
है। और इनर्जी
अनिश्चित है।
इसलिए पिछले
पंद्रह
वर्षों में जो
विज्ञान की गहनतम खोज
है, वह है:
प्रिंसिपल ऑफ अनसर्टेंटी।
अब अगर
विज्ञान भी अनसर्टेन
है, तो
काव्य में और
विज्ञान में
अंतर क्या
रहेगा?
आइंस्टीन
ने अपने अंतिम
दिनों में कहा
है कि बहुत
शीघ्र वह वक्त
आएगा कि
वैज्ञानिकों
के वक्तव्य मिस्टिक्स
के वक्तव्य
मालूम पड़ने
लगेंगे कि ये
कोई रहस्यवादियों
के वक्तव्य
हैं। और एडिंगटन
ने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि जब मैंने
सोचना शुरू
किया था, तो
मैं सोचता था,
जगत एक
वस्तु है; और
अब जब मैं
अपना जीवन
समाप्त कर रहा
हूं, तो
मैं कह सकता
हूं, जगत
एक वस्तु नहीं,
एक विचार
है। इट रिजेंबल्स
मोर ए थॉट दैन
ए थिंग।
अब
विचार और
वस्तु में बड़ा
फर्क है। और
वैज्ञानिक
कहें कि जगत
एक विचार जैसा
मालूम पड़ता है, वस्तु
जैसा नहीं, तो फिर जिन
ऋषियों ने कहा
कि जगत एक
ब्रह्म है, कुछ फर्क
रहा? जिन
ऋषियों ने कहा,
जगत एक
आत्मा है, जगत
एक चैतन्य है।
तो अगर
एडिंगटन कहता
है, गणितज्ञ,
वैज्ञानिक
कहता है कि
जगत एक विचार
जैसा मालूम
पड़ता है, वस्तु
जैसा नहीं! तो
एडिंगटन के
वक्तव्य में और
ऋषियों के
वक्तव्य में
फासला नहीं रह
जाता।
विज्ञान
जगह-जगह से
टूट रहा है, उसका
घर गिर रहा
है। और यह सदी
पूरी
होते-होते विज्ञान
का भवन
धीरे-धीरे
विनष्ट हो
जाएगा। और
उसकी जगह एक
बहुत नई जीवन-चेतना
ले लेगी। और
वह जीवन-चेतना
सहयोग की, विराट
के साथ एक
होने की! वह
जीवन की जो
धारा होगी, ब्रह्मवादी होगी, वस्तुवादी नहीं।
समन्वय
नहीं होगा
दोनों के बीच।
यह खंड तो टूटेगा
और गिरेगा। और
विराट का
अभ्युदय इसके
भीतर से हो
सकता है। होना
चाहिए। होने
की पूरी
संभावना है।
आज
इतना ही।
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