प्रेम
करते हुए
प्रेम ही हो
जाओ—प्रवचन—सातवां
सूत्र:
10— प्रिय
देवी, प्रेम किए
जाने के क्षण
में प्रेम में
ऐसे
प्रवेश
करो जैसे कि
वह नित्य
जीवन हो।
11— जब
चींटी के
रेंगने की
अनुभूति हो तो
इंद्रियों के
सब
द्वार बंद कर
दो। तब!
12— जब किसी
बिस्तर या
आसन पर हो तो
अपने को
वजनशून्य
हो जाने दो—मन
के पार।
मनुष्य का
अपना एक
केंद्र है, लेकिन वह
उस केंद्र से
बाहर—बाहर, दूर—दूर
जीता है। और
इसी से आंतरिक
तनाव, सतत
अशांति और
संताप पैदा
होते हैं। तुम
वहा नहीं होते
हो जहां होना
चाहिए; तुम
अपने सम्यकत्व
में, सही
संतुलन में
नहीं होते, तुम संतुलन
से दूर जा
पड़ते हो। और
यह संतुलन से,
केंद्र से
दूर जा पड़ना
सब मानसिक
तनावों का
आधार है, कारण
है।
और वही
तनाव यदि
अतिशय हो जाए
तो तुम पागल
हो जाते हो।
पागल आदमी वह
है जो पूरी
तरह अपने आप से
बाहर हो गया
है।
आत्मज्ञान को
उपलब्ध
व्यक्ति पागल
से ठीक उलटा
है, वह
स्वयं में
केंद्रित है।
तुम
दोनों के बीच
में हो। तुम
अपने से पूरी
तरह बाहर नहीं
गए हो, और
तुम अपने
केंद्र पर भी
नहीं हो। तुम
बस अधर में
डोलते हो। कभी
तुम उससे दूर,
बहुत दूर
निकल जाते हो,
और तब ऐसे
क्षण आते हैं
जब तुम
अस्थायी तौर
से पागल हो
जाते हो।
जब
क्रोध में, कामवासना
में या किसी
भी चीज में
तुम अपने से बहुत
दूर निकल जाते
हो तो तुम
अस्थायी रूप
से पागल हो
जाते हो। तब
तुममें और
पागल आदमी में
कोई फर्क नहीं
है। फर्क इतना
ही है कि वह
वहां स्थायी
रूप से रुक गया
है और तुम
वहां कुछ देर
के मेहमान हो।
तुम वापस आ
जाओगे। जब तुम
क्रोध में हो
तो वह भी पागलपन
है, लेकिन
वह स्थायी
नहीं है।
लेकिन दोनों
में, पागल
में और तुममें
गुण का नहीं, मात्रा का
फर्क है। गुण
दोनों का समान
है।
इसलिए
तुम कभी
पागलपन के पास
सरक जाते हो
और कभी आराम
की, पूरे
विश्राम की
हालत में अपने
केंद्र को भी
छू लेते हो।
वे आनंद के
क्षण हैं। वे
भी घटित होते
हैं। तब तुम
ठीक बुद्ध के
समान हो, कृष्ण
के समान हो, लेकिन वह भी
अस्थायी है, क्षणिक है।
वहां भी तुम टिकोगे
नहीं। सच तो
यह है कि जिस
क्षण तुमने यह
जाना कि तुम
आनंदित हो, तुम आनंद से
च्युत हो गए।
वह इतना
क्षणजीवी है
कि आनंद को
पहचानते ही
आनंद विदा हो
जाता है।
और हम
इन दो
स्थितियों के
बीच डोलते
रहते हैं। लेकिन
यह डोलना
खतरनाक है। खतरनाक
है, क्योंकि
तब तुम अपना
स्वरूप, निशिचत
स्वरूप नहीं
निर्मित कर सकते।
तब तुम नहीं
जानते कि मैं
कौन हूं। अगर
तुम निरंतर
पागल होने और
केंद्रित
होने के बीच
डोलते रहे, अगर यह आना—जाना
निरंतर जारी
रहा, तो
तुम्हारा ठोस
स्वरूप नहीं
निर्मित होगा;
तुम्हारा
रूप तरल होगा।
तब तुम नहीं
जानते कि मैं
कौन हूं।
यह
बहुत कठिन है।
और यही कारण
है कि अगर
आनंद के क्षण
आने वाले हों
तो तुम भयभीत
हो जाते हो।
और इसलिए तुम
अपने को दोनों
स्थितियों के
कहीं बीच में
स्थिर कर लेने
की चेष्टा करते
हो। इसी को हम
सामान्य
मनुष्य समझते
हैं, वह न
कभी क्रोध में
अपने पागलपन
को छूता है और न
कभी वह समग्र
स्वतंत्रता
को, समाधि
को स्पर्श
करता है। वह
एक थिर ढांचे
से इधर—उधर
नहीं सरकता
है। इसलिए
सामान्य
मनुष्य वास्तव
में इन
बिंदुओं के
बीच ठहरा हुआ
मुर्दा मनुष्य
है।
यही
कारण है कि जो
विशिष्ट लोग
हैं, बड़े
कलाकार, चित्रकार,
कवि, वे
सामान्य नहीं
समझे जाते; वे बहुत तरल
हैं। वे कभी
केंद्र को छू
लेते हैं और
कभी
विक्षिप्त भी
हो जाते हैं।
वे इन बिंदुओं
के बीच बड़ी
तेजी के साथ
गति करते हैं।
स्वभावत: उनका
तनाव भारी है,
उनका संताप
बड़ा है।
उन्हें दो दुनियाओं
के बीच सतत
अपने को एक से
दूसरी में
बदलते रहना
है। इसलिए वे
समझते हैं कि
उनका कोई
निश्चित
स्वरूप नहीं
है। कोलिन
विलसन के
शब्दों में वे
अपने को बाहरी
आदमी, आउटसाइडर मानते हैं।
तुम्हारी
सामान्यता की
दुनिया के लिए
वे बाहरी लोग
हैं।
इन चार
ढंग के लोगों
को समझ लेना
यहां अच्छा रहेगा।
पहला है
सामान्य आदमी, जिसकी
निश्चित और
ठोस पहचान है।
जो जानता है
कि मैं कौन
हूं कि
चिकित्सक हूं
कि अभियंता हूं
कि
प्राध्यापक
हूं कि संत
हूं। वह जानता
है कि वह कौन
है और वह उस
स्थान से हटता
नहीं है। वह
अपनी पहचान से,
अपनी
प्रतिमा से
चिपका रहता
है।
दूसरे
वे लोग हैं, जिनकी
प्रतिमा तरल
है—कवि, कलाकार,
चित्रकार, गायक। वे नहीं
जानते कि हम
कौन हैं। कभी
वे महज
सामान्य होकर
रहते हैं, कभी
वे पागल होते
हैं और कभी उस
समाधि को भी
छू लेते हैं
जिसे बुद्ध
छूते हैं।
और
तीसरे हैं, जो
स्थायी रूप से
पागल हैं। वे
अपने से बाहर
चले गण्न्म
हैं और कभी घर
लौटकर नहीं
आते। उन्हें
यह भी याद
नहीं कि उनके
घर हैं।
और
चौथे वे हैं, जो अपने
घर पहुंच गए
हैं—बुद्ध, क्राइस्ट, कृष्ण।
यह
चौथी श्रेणी, घर
पहुंचने
वालों की
श्रेणी
बिलकुल
विश्रांति
में होती है; उनकी चेतना
में कोई तनाव,
कोई
प्रयत्न, कोई
कामना नहीं
रहती। एक शब्द
में, उनमें
होने की दौड़
नहीं रहती, वे कुछ होना
नहीं चाहते।
वे हैं, वे
हो गए हैं।
कुछ होना नहीं
है। वे अपने
अस्तित्व के
साथ, अपने
होने के साथ
पूरी तरह राजी
हैं। वे जो भी हैं
उसके साथ पूरी
तरह राजी हैं।
वे उसे बदलना
नहीं चाहते, वे कहीं और
जाना नहीं
चाहते। उनका
कोई भविष्य नहीं
है। यही क्षण
उनके लिए
शाश्वत है।
कोई चाह न रही,
कोई वासना न
रही।
उसका
यह अर्थ नहीं
है कि बुद्ध
खाते नहीं हैं, बुद्ध
सोते नहीं
हैं। वे खाते
भी हैं, वे सोते
भी हैं, लेकिन
ये उनकी
वासनाएं नहीं
हैं। बुद्ध इन
वासनाओं को फैलाएंगे
नहीं; वे
कल नहीं
खाएंगे, वे
आज खाएंगे।
इसे
स्मरण रखो।
तुम सदा. कल
में खाते हो, तुम सदा
भविष्य में
खाते हो। और
या तुम अतीत
में खाते हो।
बीते कल में।
शायद ही कभी तुम
आज खाते हो।
आज तुम खा रहे
हो और
तुम्हारा मन
कहीं और गति
करता रहेगा।
जब तुम सोने
की तैयारी कर
रहे होगे, तुम
कल में खाने
लगोगे, या
अतीत की कोई
स्मृति आ धमकेगी।
बुद्ध
आज खाते हैं।
वे इसी क्षण
में जीते हैं।
वे अपने जीवन
को भविष्य में
प्रक्षेपित
नहीं करते
हैं। उनके लिए
कोई भविष्य
नहीं है। और
जब भविष्य आता
है तो वर्तमान
की तरह आता
है। वह सदा आज
है। वह सदा अब
है। बुद्ध भी
खाते हैं, लेकिन
याद रहे, वे
मन में नहीं
खाते हैं।
उनके लिए भोजन
मानसिकता नहीं
है।
तुम तो
मन में ही खाए
चले जाते हो।
यह बेहूदा है, क्योंकि
मन खाने के
काम के लिए
नहीं है।
तुम्हारे सभी
केंद्र
अस्तव्यस्त
हो गए हैं।
तुम्हारे
शरीर—मन की
सारी
व्यवस्था खिचड़ी
बन गई है। वह
विक्षिप्त हो
गई है। बुद्ध
भी भोजन करते
हैं, पर उस
बाबत सोच—विचार
नहीं करते। और
यही बात हर
क्षेत्र में लागू
होती है।
इसलिए
खाते समय
बुद्ध उतने ही
सामान्य हैं
जितने तुम हो।
यह मत समझना
कि बुद्ध भोजन
नहीं करते हैं
या तेज धूप
में उन्हें
पसीना नहीं
आता और सर्द
हवा में
उन्हें सर्दी
नहीं लगती। वे
भी सर्दी
अनुभव करेंगे, लेकिन वे
सदा वर्तमान
में अनुभव
करेंगे, भविष्य
में नहीं।
उन्हें कुछ
होना नहीं है।
और यदि होना
नहीं है तो
तनाव भी नहीं
है। इसे ठीक
से समझ लो।
अगर कुछ होना
नहीं है तो
तनाव कैसा?
तनाव
का तो अर्थ ही
यह है कि तुम
वह होना चाहते
हो जो नहीं
हो। तुम क हो
और ख बनना
चाहते हो। तुम
गरीब हो और
धनी बनना
चाहते हो। तुम
कुरूप और रूपवान
होना चाहते
हो। या तुम मूढ़
हो और
बुद्धिमान
होना चाहते
हो। जो भी चाह
हो, जो
भी वासना हो, उसका रूप
यही है—क ख
बनना चाहता
है। यानी तुम
जो भी हो उससे
संतुष्ट नहीं हो।
संतोष के लिए
कुछ अन्यथा
जरूरी है।
चाहने वाले मन
की वही स्थायी
संरचना है। और
जब तुम उसे पा
लोगे तो मन
फिर कहेगा कि
यह काफी नहीं
है, कुछ और
चाहिए।
मन सदा
आगे ही चलता
जाता है। जो
भी तुम्हें मिल
जाता है, व्यर्थ हो
जाता है। जिस
क्षण मिलता है,
उसी क्षण
व्यर्थ हो
जाता है। यही
वासना है।
बुद्ध ने उसे
तृष्णा कहां
है। यही कुछ
और होना है।
तुम एक जीवन
से दूसरे जीवन
में गति करते
हो, एक
संसार से
दूसरे संसार
में भटकते हो।
और यह सिलसिला
जारी रहता है।
यह अंतहीन
जारी रह सकता
है। इसका कोई
अंत नहीं है।
चाह का, चाहना
का कोई अंत
नहीं है।
लेकिन
अगर कुछ होने
की बात न रहे।
अगर तुम उसे, जो तुम हो,
समग्रता
में स्वीकार
करते हों—कुरूप
या सुंदर, बुद्धिमान
या मूर्ख, धनी
या दरिद्र, जो भी तुम हो,
उसे यदि
उसकी पूर्णता
में स्वीकार
करते हो—तो
कुछ होने की
बात समाप्त हो
जाती है। और
तब तनाव नहीं
रहता। तब तनाव
रह ही नहीं
सकता। और तब
संताप भी
समाप्त हो
जाता है। तब
तुम चैन में
हो, चिंता
में नहीं। और
यह आकांक्षारहित
मन जो है, वही
आत्मा में
केंद्रित
होता है।
इसके
बिलकुल दूसरे
छोर पर पागल
आदमी है। उसका
कोई स्व नहीं
रहा, वह
कुछ होने की
चाह भर है। वह
भूल गया है कि
वह कौन है। क
पूरी तरह भूल
गया है और वह
बस ख होने की
चेष्टा में
लगा है। उसे
पता नहीं है कि
वह कौन है, उसे
बस अपनी
इच्छित मंजिल का
पता। वह यहां
अभी नहीं रहता;
वह कहीं और रहता
है। इसी वजह से
'वह'
हमें पागल
मालूम पड़ता
है। क्योंकि
तुम अपनी
दुनिया में
रहते हो और वह
अपने सपनों की
दुनिया में रहता
है। वह
तुम्हारी
दुनिया का
हिस्सा नहीं
रहा, वह
कहीं अन्यत्र
रहता है। वह यहां
और अभी के
अपने यथार्थ
को पूरी तरह
भूल बैठा है।
अपने साथ वह
अपने आसपास के
संसार को भी
भूल बैठा है, जो कि
वास्तविक है।
वह एक
अवास्तविक झूठी
दुनिया में
रहता है। उसके
लिए वही एकमात्र
वास्तविकता
है।
बुद्धपुरुष इसी
क्षण अपनी
आत्मा में वास
करते हैं।
पागल आदमी
उनके ठीक
विपरीत है। वह
कभी भी यहां
और अभी में
नहीं रहता है।
वह अपने में
नहीं है, वह सदा कही
होने में, दूर
क्षितिज में
वास करता है।
इसर्लिए ध्यान
रहे कि पागल
आदमी
तुम्हारे
विपरीत नहीं
है, वह
बुद्ध के
विपरीत है। और
यह भी स्मरण
रहे कि बुद्ध
भी तुम्हारे
विपरीत नहीं
हैं, पागल
के विपरीत
हैं। तुम
दोनों के बीच
में हो, तुम
दोनों की खिचड़ी
हो। तुममें
पागलपन भी है
और तुममें
समाधि के क्षण
भी हैं। तुम दोनों
की मिलावट हो।
कभी—कभी
तुम्हें
अचानक ही
केंद्र की झलक
मिल जाती है।
यह तब होता है
जब तुम शिथिल
होते हो। और
तुम्हारे
शिथिल होने के, विश्राम
में होने के
क्षण होते
हैं।
तुम
प्रेम में हो।
कुछ क्षण के
लिए तुम्हारा
प्रेमी या
तुम्हारी
प्रेमिका
तुम्हारे साथ
है। यह
तुम्हारी बडे
दिनों की चाह
थी, इसके
लिए तुमने
लंबे प्रयत्न
किए थे और फलत:
तुम्हारी
प्रेमिका
तुम्हारे साथ
है। तब एक क्षण
के लिए मन
तिरोहित हो
जाता है।
प्रेमिका के
साथ होने के
लिए तुमने बड़ी
चेष्टा की है।
मन उसके लिए
तड़पता रहा है,
तड़पता रहा
है और मन उस
प्रेमिका के
बारे में
सोचता रहा है।
और अब प्रेमिका
पास में है और
मन अचानक
सोचना बंद कर
देता है।
पुराना
सिलसिला जारी
नहीं रह सकता।
तुम प्रेमिका
को चाह रहे थे,
प्रेमिका
मिल गई। मन
रुक जाता है।
प्रेमिका
के मिलने के
क्षण में चाह
समाप्त हो जाती
है। और तुम
शिथिल हो जाते
हो और अचानक
तुम अपने ऊपर
फेंक दिए जाते
हो। और जब तक
कोई प्रेमी
तुम्हें
तुम्हारे ऊपर
न फेंक दे, तब तक वह
प्रेम नहीं
है। जब तक तुम
अपनी प्रेमिका
की उपस्थिति
में स्वयं
नहीं हो जाते
हो, तब तक
वह प्रेम नहीं
है। अगर
प्रेमी या
प्रेमिका की
उपस्थिति में
मन काम करना
बंद नहीं करे
तो वह प्रेम
नहीं है।
कभी—कभी
ऐसा होता है
कि मन ठहर
जाता है और
चाह नहीं रहती।
प्रेम चाह—शून्य
है। इसे समझने
की कोशिश करो।
तुम प्रेम को
चाह सकते हो, लेकिन
प्रेम स्वयं
चाह—शून्य है।
जब प्रेम घटित
होता है, चाह
नहीं रह जाती।
मन चुप, शांत
और शिथिल हो
जाता है। अब
कुछ होना नहीं
है, अब
कहीं जाना
नहीं है।
लेकिन
यह कुछ क्षणों
के लिए ही
होता है, अगर यह होता
है। अगर तुमने
सचमुच किसी को
प्रेम किया है
तो ऐसा कुछ
क्षणों के लिए
हो सकता है।
यह एक चोट है, आघात है। मन
काम नहीं कर
सकता, क्योंकि
सारा काम
व्यर्थ हो
गया। जिसे
चाहते थे वह
सामने हो तो
मन को कुछ और
करने को नहीं
रह जाता। कुछ
क्षणों के लिए
सारा संयंत्र
बंद हो जाता
है और तुम
अपने में ठहर
जाते हो।
तुमने अपना
केंद्र छू
लिया, अपना
होना पा लिया,
और तुम अपने
को शिवत्व
के उदगम पर
खड़े पाते हो।
आनंद तुम्हें
भर जाता है, एक सुगंध
तुम्हें घेर
लेती है। और
अचानक तुम
वहीं आदमी
नहीं रह जाते
हो जो तुम थे।
यही कारण है
कि प्रेम इतना
रूपांतरण
लाता है। अगर
तुम प्रेम में
हो तो तुम इसे
छिपा नहीं सकते।
वह असंभव है।
अगर तुम प्रेम
में हो तो वह व्यक्त
होगा।
तुम्हारी आंखें
, तुम्हारा
चेहरा, तुम्हारे
चलने का ढंग, तुम्हारे
बैठने का ढंग,
सब कुछ
प्रेम को
प्रकट करेगा।
क्योंकि तुम
वही आदमी नहीं
रहे। चाहने
वाला मन नहीं
रहा, तुम
कुछ क्षणों के
लिए बुद्ध
जैसे हो गए।
पर यह अधिक
देर तक नहीं
चलेगा, क्योंकि
यह आघात है।
जल्दी ही मन
फिर से सोचने
के कुछ ढंग, कुछ बहाने
खोज
निकालेगा।
उदाहरण के लिए,
मन सोचना
शुरू कर देगा
कि मंजिल तो
मिल गई, प्रेम
तो पा लिया, फिर क्या? अब आगे क्या
करना है? और
तब भविष्य—चिंतन
शुरू होता है,
तर्क शुरू
होता है। तुम
सोचने लगते हो
कि आज तो
प्रियजन को पा
लिया, लेकिन
क्या कल भी
ऐसा ही रहेगा?
मन ने काम
शुरू कर दिया।
और जिस क्षण
मन काम करने
लगा, तुम
कुछ होने के
चक्र में वापस
आ गए।
और कभी—कभी
तो कोई
व्यक्ति
प्रेम के बिना
ही, सिर्फ
थकावट के कारण
सोचना बंद कर
देता है। उस
दशा में भी
आदमी अपने पर फिंक जाता
है। जब तुम
अपने से दूर
नहीं होते हो
तो अपने में
होते हो। चाहे
उसका कारण कुछ
भी हो। जब कोई
समग्र रूप से
थक जाता है, जब सोचने या
चाहने को भी
जी नहीं करता,
जब आशा से
भी परे पूरी
तरह निराश हो
जाता है, तब
वह अचानक अपने
को अपने घर
में आया पाता
है। अब वह
कहीं भी नहीं
जा सकता। सब
दरवाजे बंद हो
गए, आशा
तिरोहित हो —
गई। और उसकी
सारी चाह भी
गई—कुछ होने
की चाह।
पर यह
अधिक देर तक
नहीं चलेगा।
क्योंकि मन का
एक संयंत्र है
जो थोड़ी देर
के लिए मृत
होकर फिर
जीवित हो जाता
है। क्योंकि
तुम निराशा
में नहीं जी
सकते, तुम
कोई आशा फिर
पकड़ लोगे। तुम
कामना के बिना
नहीं जी सकते,
तुम कोई न
कोई कामना
पैदा कर लोगे।
लेकिन जिस स्थिति
में अचानक मन
काम करना बंद
कर देता है, तुम अपने को
अपने केंद्र
पर पाते हो।
तुम छुट्टी
मना रहे हो, किसी जंगल
में या पहाड़
पर या समुद्र—तट
पर हो। वहां
अचानक
तुम्हारा लीक—लीक
चलने वाला मन,
दिनचर्या
वाला मन काम
करना बंद कर
देगा। वहा
दफ्तर. नहीं
है, वहां
पत्नी नहीं है,
वहां पति
नहीं है।
अचानक एक नई
स्थिति आ गई।
और मन को
उसमें
नियोजित होने
में, उसमें
फिर से काम
करने के लिए
समय चाहिए।
जरा देर के
लिए मन
अनियोजित
अनुभव करता
है। स्थिति ही
इतनी नई है कि
तुम शिथिल हो
जाते हो, और
तुम अपने
केंद्र पर
होते हो। इन
क्षणों में
तुम बुद्ध हो
जाते हो।
लेकिन
वे क्षण क्षण
ही होंगे। फिर
वे क्षण
तुम्हारा
पीछा करने लगेंगे
और तुम उन्हें
बार—बार
दुहराना
चाहोगे।
लेकिन याद रहे
कि वे सहज ही
घटित हुए थे, इसलिए
तुम उन्हें
दुहरा नहीं
सकते। और
जितना तुम
उन्हें
दुहराना चाहोगे
उतना ही उनका
आना असंभव हो
जाएगा।
यही
बात सब के साथ
घटित हो रही
है। तुम किसी
को प्रेम करते
थे, और
पहली मुलाकात
में मन कुछ
क्षणों के लिए
ठहर गया था।
फिर तुमने
विवाह रचा
लिया। किसलिए?
उन्हीं
सुंदर क्षणों
को बार—बार
दुहराने के
लिए। लेकिन जब
वे घटित हुए
थे तब तुम
विवाहित नहीं
थे। और अब वे
क्षण विवाह
में घटित होने
वाले नहीं
हैं। क्योंकि
पूरी स्थिति बदल
गई।
जब दो
व्यक्ति
पहली दफा
मिलते है तब
पूरी स्थिति
नई होती है।
इसमें उनके मन
काम नहीं कर
सकते हैं। वे
इस नई स्थिति
से इतने
अभिभूत होते
हैं, वे
इस नए अनुभव
से, इस नए
जीवन से, इस
नई खिलावट से
इतने भरे होते
हैं! और तब मन
फिर सक्रिय हो
जाता है और
तुम सोचने
लगते हो : यह कितना
सुंदर क्षण
है। मैं रोज—रोज
दुहराना
चाहता हूं
इसलिए मुझे
विवाह कर लेना
चाहिए।
मन सब
कुछ नष्ट कर देगा।
विवाह यानी
मन। प्रेम सहज
है, विवाह
हिसाब है।
विवाह करना
गणित का काम
है। तब तुम उन
क्षणों का
इंतजार करोगे,
लेकिन वे
फिर कभी न
आएंगे। यही
कारण है कि
सभी विवाहित
स्त्री—पुरुष
निराश होते
हैं। वे अतीत
में घटे कुछ
क्षणों की
प्रतीक्षा
करते हैं। वे
फिर क्यों
नहीं घटित
होते?
वे
नहीं घटित
होंगे, क्योंकि
पूरी स्थिति
बदल गई। अब
तुम नए नहीं रहे,
अब वह सहजता,
वह
स्वाभाविकता
नहीं रही; प्रेम
अब एक
दिनचर्या
बनकर रह गया
है। अब हर चीज
की अपेक्षा है,
हर चीज
मांगी जा रही
है। प्रेम अब
कर्तव्य बन गया
है, खेल न
रहा। आरंभ में
वह खेल था, अब
कर्तव्य है।
और कर्तव्य वह
आनंद नहीं दे
सकता जो खेल
देता है। यह
असंभव है।
तुम्हारे मन ने
सारा उपद्रव
रचा है। अब
तुम अपेक्षा
किए जाओगे। और
जितनी
अपेक्षा
करोगे उतनी ही
उसके घटने की
संभावना कम
होगी।
विवाह
में ही नहीं, ऐसा
सर्वत्र होता
है। तुम किसी
गुरु के पास
जाते हो। यह
अनुभव नया है।
उसकी सन्निधि,
उसके शब्द,
उसकी जीवन—चर्या,
सब नए हैं।
और अचानक
तुम्हारा मन
ठहर जाता है।
तब तुम सोचते
हो : यही
व्यक्ति है
मेरे लिए, मुझे
रोज ही इसके
पास जाना
चाहिए। तब तुम
उससे विवाहित
हो जाते हो।
फिर धीरे—
धीरे निराशा
आती है, क्योंकि
तुमने इसे
कर्तव्य बना
लिया, दिनचर्या
बना लिया। अब
वे ही अनुभव
नहीं होंगे।
तब तुम सोचते
हो कि इस आदमी
ने तुम्हें
धोखा दिया या
तुम किसी तरह
मूर्ख बनाए
गए। तब तुम सोचते
हो कि शुरू के
अनुभव बिलकुल
काल्पनिक थे।
मैं सम्मोहित
हो गया था या
कुछ हुआ था।
यह वास्तविक
नहीं था।
यह
वास्तविक था।
तुम्हारे
दिनचर्या
वाले मन ने, लीक—लीक
चलने वाले मन
ने उसे झूठा
कर दिया। और
तब मन उसकी
अपेक्षा करने
लगता है।
लेकिन जब यह
अनुभव पहली
बार आया था तब
तुम अपेक्षा
नहीं करते थे।
तुम उसके पास
बिना किसी
अपेक्षा के आए
थे। जो कुछ
घटित हो रहा
था, तुम
उसे ग्रहण
करने को राजी
थे। अब तुम हर
रोज अपेक्षा
से आते हो, बंद
मन से आते हो।
यह घटित नहीं
होगा। यह सदा
खुले मन में
घटता है, यह
सदा नई स्थिति
में आता है।
इसका
यह अर्थ नहीं
है कि तुम्हें
रोज अपनी स्थिति
बदलनी है।
इसका इतना ही
अर्थ है कि
अपने मन को
कोई ढांचा मत
बनाने दो। तब
तुम्हारी
पत्नी रोज नई
होगी, तब
तुम्हारा पति
रोज नया होगा।
लेकिन मन को
अपेक्षाओं का
ढंग—ढांचा मत
बनाने दो, मन
को भविष्य में
मत सरकने दो।
तब तुम्हारा
गुरु रोज नया
रहेगा, तब
तुम्हारा
मित्र रोज नया
रहेगा।
दुनिया
में मन के
सिवाय सब कुछ
नया है। मन ही
एक चीज है जो
पुरानी है। मन
सदा पुराना
है। रोज एक
नया सूरज उगता
है, वह
पुराना सूरज
नहीं है। चांद
नया है, दिन,
रात, फूल,
वृक्ष, सब
कुछ नया है—एक
मन के सिवाय।
मन सदा पुराना
है। याद रहे, सदा।
क्योंकि मन को
सदा अतीत की, संचित अनुभव
की, प्रक्षेपित
अनुभव की
जरूरत पड़ती
है। मन को
अतीत चाहिए और
जीवन को
वर्तमान। जीवन
सदा आनंदित है,
मन कभी
नहीं। और जब
तुम अपने मन
को प्रवेश देते
हो, दुख
प्रवेश कर
जाता है।
ये सहज, स्वतःस्फूर्त
क्षण फिर नहीं
दुहरेंगे।
तब क्या किया
जाए? फिर
विश्राम की
अवस्था में
निरंतर कैसे
रहा जाए? ये
तीन विधियां
उसके लिए ही
हैं। ये तीन
विधियां
विश्राम के
भाव से, स्नायुओं
को शिथिल करने
से संबंध रखती
हैं। अपने
होने में, स्व
में थिर कैसे
रहा जाए? कुछ
होने की दौड़
से कैसे बचा
जाए?
यह
कठिन है, श्रमसाध्य
है; लेकिन
ये विधियां
मदद कर सकती
हैं। ये
विधियां
तुम्हें
तुम्हारे ऊपर
फेंक देंगी।
शिथिल
होने की पहली
विधि:
प्रिय
देवी प्रेम
किए जाने के
क्षण में
प्रेम में ऐसे
प्रवेश करो
जैसे कि वह
नित्य जीवन हो।
शिव
प्रेम से शुरू
करते हैं।
पहली विधि
प्रेम से
संबंधित है।
क्योंकि
तुम्हारे
शिथिल होने के
अनुभव में
प्रेम का
अनुभव निकटतम
है। अगर तुम
प्रेम नहीं कर
सकते हो तो
तुम शिथिल भी
नहीं हो सकते।
और अगर तुम
शिथिल हो सके
तो तुम्हारा
जीवन
प्रेमपूर्ण
हो जाएगा।
एक
तनावग्रस्त
आदमी प्रेम
नहीं कर सकता
है। क्यों? क्योंकि
तनावग्रस्त
आदमी सदा
उद्देश्य से,
प्रयोजन से
जीता है। वह
धन कमा सकता
है, लेकिन
प्रेम नहीं कर
सकता।
क्योंकि
प्रेम प्रयोजन—रहित
है। प्रेम कोई
वस्तु नहीं
है। तुम उसे
संगृहीत नहीं
कर सकते, तुम
उसे बैंक—खाते
में नहीं रख
सकते हो। तुम
उससे अपने
अहंकार की
पुष्टि नहीं
कर सकते हो।
सच तो यह है कि
प्रेम सब से
अर्थहीन काम
है; उससे
आगे उसका कोई
अर्थ नहीं है,
उससे आगे
उसका कोई
प्रयोजन नहीं
है। प्रेम अपने
आप में जीता
है, किसी
अन्य चीज के
लिए नहीं।
तुम धन
कमाते हो—किसी
प्रयोजन से।
वह एक साधन
है। तुम मकान
बनाते हो—किसी
के रहने के
लिए। वह भी एक
साधन है। प्रेम
साधन नहीं है।
तुम क्यों
प्रेम करते हो? किसलिए प्रेम करते
हो?
प्रेम
अपना लक्ष्य
आप है। यही
कारण है कि
हिसाब—किताब
रखने वाला मन, तार्किक
मन, प्रयोजन
की भाषा में
सोचने वाला मन
प्रेम नहीं कर
सकता। और जो
मन प्रयोजन की
भाषा में सोचता
है वह
तनावग्रस्त
होगा। क्योंकि
प्रयोजन
भविष्य में ही
पूरा किया जा
सकता है, यहां
और अभी नहीं।
तुम एक
मकान बना रहे
हो, तुम
उसमें अभी ही
नहीं रह सकते।
पहले बनाना होगा।
तुम भविष्य
में उसमें रह
सकते हो, अभी
नहीं। तुम धन
कमाते हो, बैंक
बैलेंस
भविष्य में
बनेगा, अभी
नहीं। अभी
साधन का उपयोग
कर सकते हो, साध्य
भविष्य में
आएंगे।
प्रेम
सदा यहां है
और अभी है।
प्रेम का कोई
भविष्य नहीं
है। यही वजह
है कि प्रेम
ध्यान के इतने
करीब है। यही
वजह है कि
मृत्यु भी
ध्यान के इतने
करीब है। क्योंकि
मृत्यु भी यहां
और अभी है, वह
भविष्य में
नहीं घटती।
क्या
तुम भविष्य
में मर सकते
हो? वर्तमान
में ही मर
सकते हो। कोई
कभी भविष्य में
नहीं मरा। भविष्य
में कैसे मर
सकते हो? या
अतीत में कैसे
मर सकते हो? अतीत जा
चुका, वह
अब नहीं है।
इसलिए अतीत
में नहीं मर
सकते। और
भविष्य अभी
आया नहीं है, इसलिए उसमें
कैसे मरोगे?
मृत्यु
सदा वर्तमान
में होती है।
मृत्यु, प्रेम और
ध्यान, सब
वर्तमान में
घटित होते
हैं। इसलिए
अगर तुम मृत्यु
से डरते हो तो
तुम प्रेम
नहीं कर सकते।
अगर तुम
मृत्यु से
भयभीत हो तो
तुम ध्यान नहीं
कर सकते। और
अगर तुम ध्यान
से डरे हो तो
तुम्हारा
जीवन व्यर्थ
होगा। किसी
प्रयोजन के
अर्थ में जीवन
व्यर्थ नहीं
होगा, वह
व्यर्थ इस
अर्थ में होगा
कि तुम्हें
उसमें किसी
आनंद की
अनुभूति नहीं
होगी। जीवन
अर्थहीन
होगा।
इन
तीनों कों—प्रेम, ध्यान और
मृत्यु कों—स्थ
साथ रखना अजीब
मालूम पड़ेगा।
वह अजीब है नहीं।
वे समान अनुभव
हैं। इसलिए
अगर तुम एक में
प्रवेश कर गए
तो शेष दो में
भी प्रवेश पा
जाओगे।
शिव
प्रेम से शुरू
करते हैं : 'प्रिय
देवी, प्रेम
किए जाने के
क्षण में
प्रेम में ऐसे
प्रवेश करो
जैसे कि वह
नित्य जीवन हो।’
इसका
क्या अर्थ है? कई
चीजें। एक, जब तुम्हें
प्रेम किया
जाता है तो
अतीत समाप्त
हो जाता है और
भविष्य नहीं
है। तुम
वर्तमान के
आयाम में गति
कर जाते हो, तुम अब में
प्रवेश कर
जाते हो। क्या
तुमने कभी
किसी को प्रेम
किया है? यदि
कभी किया है
तो जानते हो
कि उस क्षण मन
नहीं होता है।
यही
कारण है कि
तथाकथित
बुद्धिमान
कहते हैं कि
प्रेमी अंधे
होते हैं, मनःशून्य और पागल
होते हैं।
वस्तुत: वे सच
कहते हैं। प्रेमी
इस अर्थ में
अंधे होते हैं
कि भविष्य पर अपने
किए का हिसाब
रखने वाली आंख
उनके पास नहीं
होती। वे अंधे
हैं, क्योंकि
वे अतीत को
नहीं देख
पाते।
प्रेमियों को
क्या हो जाता
है?
वे अभी
और यहीं में
सरक आते हैं, अतीत और
भविष्य की
चिंता नहीं
करते, क्या
होगा इसकी
चिंता नहीं
लेते। इस कारण
वे अंधे कहे
जाते हैं। वे
हैं। जो गणित
करते हैं उनके
लिए वे अंधे
हैं, और जो
गणित नहीं
करते उनके लिए
आंख वाले हैं।
जो हिसाबी
नहीं हैं वे
देख लेंगे कि
प्रेम ही असली
आंख है, वास्तविक
दृष्टि है।
इसलिए
पहली चीज कि
प्रेम के क्षण
में अतीत और भविष्य
नहीं होते
हैं। तब एक
नाजुक बिंदु
समझने जैसा
है। जब अतीत
और भविष्य
नहीं रहते तब
क्या तुम इस
क्षण को
वर्तमान कह
सकते हो? यह वर्तमान
है दो के बीच, अतीत और
भविष्य के बीच;
यह सापेक्ष
है। अगर अतीत
और भविष्य
नहीं रहे तो
इसे वर्तमान
कहने में क्या
तुक है! वह
अर्थहीन है।
इसीलिए शिव
वर्तमान शब्द
का व्यवहार
नहीं करते; वे कहते हैं,
नित्य
जीवन। उनका
मतलब शाश्वत
से है—शाश्वत
में प्रवेश
करो।
हम समय
को तीन
हिस्सों में
बांटते हैं—
भूत, वर्तमान
और भविष्य। यह
विभाजन गलत है,
सर्वथा गलत
है। केवल भूत
और भविष्य समय
है, वर्तमान
समय का हिस्सा
नहीं है।
वर्तमान
शाश्वत का
हिस्सा है। जो
बीत गया वह
समय है, जो
आने वाला है
समय है। लेकिन
जो है वह समय
नहीं है, क्योंकि
वह कभी बीतता
नहीं है। वह
सदा है। अब सदा
है। वह सदा यहां
है। यह अब शाश्वत
है।
अगर
तुम अतीत से
चलो तो तुम
कभी वर्तमान
में नहीं आते।
अतीत से तुम
सदा भविष्य में
यात्रा करते हो।
उसमें कोई क्षण
नहीं आता जो वर्तमान
हो। तुम अतीत से
सदा भविष्य में
गति करते रहते
हो। और
वर्तमान से
तुम और वर्तमान
में गहरे
उतरते हो, अधिकाधिक
वर्तमान में।
यही नित्य
जीवन है।
इसे हम
इस तरह भी कह
सकते हैं।
अतीत से
भविष्य तक समय
है। समय का
अर्थ है कि
तुम समतल भूमि
पर और
सीधी रेखा में
गति करते हो।
या हम उसे
क्षैतिज कह
सकते हैं। और
जिस क्षण तुम
वर्तमान में
होते हो, आयाम बदल
जाता है, तुम्हारी
गति
ऊर्ध्वाधर, ऊपर—नीचे हो
जाती है। तुम
ऊपर, ऊंचाई
की ओर जाते हो या
नीचे गहराई की
ओर जाते हो।
लेकिन तब
तुम्हारी गति
क्षैतिज या
समतल नहीं
होती।
बुद्ध
और शिव शाश्वत
में रहते हैं, समय में
नहीं।
जीसस
से पूछा गया
कि आपके प्रभु
के राज्य में क्या
होगा? जो
पूछ रहा था वह
समय के बारे
में नहीं पूछ
रहा था। वह
जानना चाहता
था कि वहा उसकी
वासनाओं का
क्या होगा, वे कैसे
पूरी होंगी? वह पूछ रहा
था कि क्या
वहां अनंत
जीवन होगा या वहा
मृत्यु भी
होगी, क्या
वहां दुख भी
रहेगा और छोटे
और बड़े लोग भी होंगे।
जब उसने पूछा
कि आपके प्रभु
के राज्य में
क्या होगा तब
वह इसी दुनिया
की बात पूछ
रहा था।
और जीसस
ने उत्तर में कहां—यह
उत्तर झेन संत
के उत्तर जैसा
है—'वहां
समय नहीं होगा।’
जिस
व्यक्ति को यह
उत्तर दिया
गया था उसने
कुछ नहीं समझा
होगा। जीसस ने
इतना ही कहां—वहां
समय नहीं
होगा। क्यों?
क्योंकि
समय क्षैतिज
है और प्रभु
का राज्य ऊर्ध्वगामी
है। वह शाश्वत
है। वह सदा
यहां है।
उसमें प्रवेश
के लिए
तुम्हें समय
से हट भर जाना
है।
तो
प्रेम पहला
द्वार है।
इसके द्वारा
तुम समय के
बाहर निकल
सकते हो। यही
कारण है कि हर
आदमी प्रेम
चाहता है, हर आदमी
प्रेम करना
चाहता है। और
कोई नहीं जानता
है कि प्रेम
को इतनी महिमा
क्यों दी जाती
है? प्रेम
के लिए इतनी
गहरी चाह
क्यों है? और
जब तक तुम यह
ठीक से न समझ
लो, तुम न
प्रेम कर सकते
हो और न पा
सकते हो।
क्योंकि इस
धरती पर प्रेम
गहन से गहन
घटना है।
हम
सोचते हैं कि
हर आदमी, जैसा वह है, प्रेम करने
को सक्षम है।
वह बात नहीं
है। और इसी
कारण से तुम प्रेम
में निराश
होते हो।
प्रेम एक और
ही आयाम है।
यदि तुमने
किसी को समय
के भीतर प्रेम
करने की कोशिश
की तो
तुम्हारी
कोशिश
हारेगी। समय के
रहते प्रेम
संभव नहीं है।
मुझे
एक कथा याद
आती है। मीरा
कृष्ण के
प्रेम में थी।
वह गृहिणी थी—एक
राजकुमार की
पत्नी। राजा
को कृष्ण से
ईर्ष्या होने
लगी। कृष्ण थे
नहीं, वे
शरीर से
उपस्थित नहीं
थे। कृष्ण और
मीरा की
शारीरिक
मौजूदगी में
पांच हजार
वर्षों का फासला
था। इसलिए
यथार्थ में
मीरा कृष्ण के
प्रेम में
कैसे हो सकती
थी? समय का
अंतराल इतना
बड़ा था।
एक दिन
राणा ने मीरा
से पूछा, तुम अपने
प्रेम की बात
किए जाती हो, तुम कृष्ण
के आसपास
नाचती—गाती हो,
लेकिन
कृष्ण हैं
कहां? तुम
किसके प्रेम
में हो? किससे
सतत बातें किए
जाती हो?
मीरा कृष्ण
के साथ बातें
करती थी, गाती
थी, हंसती
थी, लड़ती थी। वह पागल
मालूम पड़ती थी।
हमारी आंखों में
वह पागल थी।
राणा ने कहां,
क्या तुम
पागल हो गई हो?
तुम्हारे कृष्ण
कहां हैं? किसे
प्रेम करती हो?
किससे
बातें करती हो?
मैं यहां
मौजूद हूं और
तुम क्या मुझे
बिलकुल भूल गई
हो?
मीरा
ने कहां, कृष्ण यहां
हैं, तुम
नहीं हो।
क्योंकि
कृष्ण शाश्वत
हैं, तुम
नहीं। वे यहां
सदा होंगे। सदा
थे, वे
यहीं हैं। तुम
यहां नहीं
होंगे, तुम
यहां नहीं थे।
एक दिन तुम
यहां नहीं थे,
किसी दिन
फिर यहां नहीं
होओगे। इसलिए
मैं कैसे
विश्वास करूं
कि इन दो अनस्तित्वों
के बीच तुम
यहां हो? दो
अनस्तित्वों
के बीच
अस्तित्व
क्या संभव है?
राणा
समय में है, लेकिन
कृष्ण शाश्वत
में हैं। तुम
राणा के निकट
हो सकते हो, लेकिन दूरी
नहीं मिटाई जा
सकती। तुम दूर
ही रहोगे। और
समय में तुम
कृष्ण से बहुत—बहुत
दूर हो सकते
हो, तो भी
तुम उनके निकट
हो सकते हो।
वह आयाम ही और है।
मैं
अपने सामने
देखता हूं और
वहां दीवार है; फिर मैं
अपनी 'आंखों
को आगे बढ़ाता
हूं और वहां
आकाश है। जब
तुम समय में
देखते हो तो
वहां दीवार
है। और जब तुम
समय के पार
देखते हो तो
वहां खुला
आकाश है, अनंत
आकाश।
प्रेम
अनंत का द्वार
खोल देता है—अस्तित्व
की शाश्वतता
का द्वार।
इसलिए अगर तुमने
कभी सच में
प्रेम किया है
तो प्रेम को
ध्यान की विधि
बनाया जा सकता
है। यह वही
विधि है : 'प्रिय देवी,
प्रेम किए
जाने के क्षण
में प्रेम में
ऐसे प्रवेश
करो जैसे कि
वह नित्य जीवन
हो।’
बाहर—बाहर
रहकर प्रेमी
मत बनो, प्रेमपूर्ण
होकर शाश्वत
में प्रवेश
करो। जब तुम
किसी को प्रेम
करते हो तो
क्या तुम वहां
प्रेमी की तरह
होते हो? अगर
होते हो तो
समय में हो, और तुम्हारा
प्रेम झूठा है,
नकली है।
अगर तुम अब भी
वहा हो और
कहते हो कि मैं
हूं तो
शारीरिक रूप
से नजदीक होकर
भी आध्यात्मिक
रूप से
तुम्हारे बीच
दो ध्रुवों की
दूरी कायम
रहती है।
प्रेम
में तुम न रहो, सिर्फ
प्रेम रहे, इसलिए प्रेम
ही हो जाओ।
अपने प्रेमी
या प्रेमिका
को दुलार करते
समय दुलार ही
हो जाओ। चुंबन
लेते समय
चूमने वाले या
ये जाने वाले
मत रहो, चुंबन
ही बन जाओ।
अहंकार को
बिलकुल भूल
जाओ, प्रेम
के कृत्य में
घुल—मिल जाओ।
कृत्य में
इतने गहरे समा
जाओ कि कर्ता
न रहे।
और अगर
तुम प्रेम में
नहीं गहरे उतर
सकते तो खाने
और चलने में
गहरे उतरना
कठिन होगा, बहुत
कठिन होगा।
क्योंकि
अहंकार को
विसर्जित
करने के लिए
प्रेम सब से
सरल मार्ग है।
इसी वजह से
अहंकारी लोग
प्रेम नहीं कर
पाते हैं। वे
प्रेम के बारे
में बातें कर
सकते हैं, गीत
गा सकते हैं, लिख सकते
हैं, लेकिन
वे प्रेम नहीं
कर सकते।
अहंकार प्रेम
नहीं कर सकता
है।
शिव
कहते हैं, प्रेम ही
हो जाओ। जब
आलिंगन में हो
तो आलिंगन हो
जाओ, चुंबन
हो जाओ। अपने
को इस पूरी
तरह भूल जाओ
कि तुम कह सको
कि मैं अब
नहीं हूं केवल
प्रेम है। तब
हृदय नहीं धड़कता
है, प्रेम
ही धडकता
है। तब खून
नहीं दौड़ता
है, प्रेम
ही दौड़ता है।
तब आंखें नहीं
देखती हैं, प्रेम ही
देखता है। तब
हाथ छूने को
नहीं बढ़ते, प्रेम ही
छूने को बढ़ता
है। प्रेम बन
जाओ और शाश्वत
जीवन में प्रवेश
करो।
प्रेम
करते हुए
प्रेम अचानक
तुम्हारे
आयाम को बदल
देता है। तुम
समय से बाहर
फेंक दिए जाते
हो, तुम
शाश्वत आमने—सामने
खड़े हो जाते हो
। प्रेम गहरा
ध्यान बन सकता
है— गहरे से गहरा।
और कभी—कभी
प्रेमियों ने
वह जाना है जो
संतों ने भी नहीं
जाना। कभी—कभी
प्रेमियों ने
उस केंद्र को
छुआ है जो
अनेक योगियों
ने नहीं छुआ।
लेकिन
जब तक तुम
अपने प्रेम को
ध्यान में
रूपांतरित
नहीं करते तब
तक यह एक झलक
ही होगी। तंत्र
का अर्थ ही है
प्रेम का
ध्यान में
रूपांतरण। अब
तुम समझ सकते
हो कि तंत्र
क्यों प्रेम
और कामवासना
के संबंध में
इतनी बात करता
है। क्यों? क्योंकि
प्रेम वह
सरलतम स्वाभाविक
द्वार है जहां
से तुम इस
संसार का, इस
क्षैतिज आयाम
का अतिक्रमण
कर सकते हो।
शिव को
अपनी प्रिया
देवी के साथ
देखो। उन्हें ध्यान
से देखो! वे दो
नहीं मालूम
होते हैं, वे एक ही
हैं। यह एकता
इतनी गहरी है
कि प्रतीक बन
गई है। हम
सबने शिवलिंग
देखे हैं। यह
लैंगिक
प्रतीक है, शिव के लिंग
का प्रतीक।
लेकिन वह
अकेला नहीं है,
वह देवी की
योनि में
स्थित है।
पुराने दिनों
के हिंदू बड़े
साहसी थे। अब
जब तुम
शिवलिंग देखते
हो तो याद
नहीं रहता कि
यह एक लैंगिक
प्रतीक है। हम
भूल गए हैं, हमने चेष्टापूर्वक
इसे पूरी तरह
भुला दिया है।
प्रसिद्ध
मनोवैज्ञानिक
कै ने अपनी
आत्मकथा में, अपने
संस्मरणों
में एक मजेदार
घटना का उल्लेख
किया है। वह
भारत आया और
कोणार्क
देखने को गया।
कोणार्क के
मंदिर में
शिवलिंग हैं।
जो पंडित उसे
समझाता था
उसने शिवलिंग
के सिवाय सब कुछ
समझाया। और वे
इतने थे कि
उनसे बचना
मुश्किल था।
का तो सब
जानता था, लेकिन
पंडित को
सिर्फ चिढ़ाने
के लिए पूछता
रहा कि ये
क्या हैं? तो
पंडित ने आखिर
कै के कान में कहां
कि मुझे यहां
मत पूछिए, मैं
पीछे आपको
बताऊंगा। यह
गोपनीय है।
जुंग मन
ही मन हंसा
होगा। ये हैं
आज के हिंदू!
फिर बाहर आकर
पंडित ने कहां
कि दूसरों के
सामने आपका
पूछना उचित न
था। अब मैं
बताता हूं। यह
गुप्त चीज है।
और तब फिर
उसने जुंग के
कान में कहां
कि वे हमारे
गुप्तांग
हैं।
जुंग
जब यहां से
वापस गया तो
वहां वह एक
महान विद्वान
से मिला, पूर्वीय
चिंतन, मिथक
और दर्शन के
विद्वान, हेनरिख
जिमर से। वा
ने यह किस्सा
जिमर को
सुनाया। जिमर
उन थोड़े से
मनीषियों में
था जिन्होंने
भारतीय चिंतन में
डूबने की
चेष्टा की है।
और वह भारत का,
उसकी
विचारणा का, जीवन के
प्रति उसके
अतार्किक
रहस्यवादी
दृष्टिकोण का
प्रेमी था। जब
उसने कं
से यह सुना तो
वह हंसा और
बोला, बदलाहट
के लिए यह
अच्छा है।
मैंने बुद्ध,
कृष्ण, महावीर
जैसे महान
भारतीयों के
बारे में सुना
है। तुम जो
सुना रहे हो
वह किसी महान
भारतीय के
संबंध में
नहीं, भारतीयों
के संबंध में
कुछ कहता है।
शिव के
लिए प्रेम
महाद्वार है।
और उनके लिए
कामवासना
निंदनीय नहीं
है। उनके लिए
काम बीज है और
प्रेम उसका
फूल है। और
अगर तुम बीज
की निंदा करते
हो तो फूल की भी
निंदा अपने आप
हो जाती है।
काम प्रेम बन
सकता है। और
अगर वह कभी
प्रेम नहीं
बनता है तो वह पंगु
हो जाता है।
पंगुता की
निंदा करो, काम की नहीं।
प्रेम को
खिलना चाहिए।
काम को प्रेम
बनना चाहिए।
और अगर यह
नहीं होता है तो
यह काम का दोष
नहीं है, यह
दोष तुम्हारा है।
काम को
काम नहीं रहना
है, यही
तंत्र की
शिक्षा है।
उसे प्रेम में
रूपांतरित
होना ही
चाहिए। और
प्रेम को भी
प्रेम ही नहीं
रहना है, उसे
प्रकाश में, ध्यान के
अनुभव में, अंतिम, परम
रहस्यवादी
शिखर में
रूपांतरित
होना चाहिए।
प्रेम को रूपांतरित
कैसे किया जाए?
कृत्य
हो जाओ और
कर्ता को भूल
जाओ। प्रेम
करते हुए
प्रेम, महज प्रेम
हो जाओ। तब यह
तुम्हारा
प्रेम, मेरा
प्रेम या किसी
अन्य का प्रेम
नहीं है। तब
यह मात्र
प्रेम है। जब
कि तुम नहीं
हो, जब कि
तुम परम स्रोत
या धारा के
हाथ में हो।
जब तुम प्रेम
में हो तो तुम
प्रेम में
नहीं हो, प्रेम
ने ही तुम्हें
आत्मसात कर
लिया है। तुम तो
अंतर्धान हो
गए हो, मात्र
प्रवाहमान
ऊर्जा बनकर रह
गए हो।
इस युग
का एक महान
सृजनात्मक
मनीषी, डी. एच .लारेंस,
जाने—अनजाने
तंत्रविद
था। पश्चिम
में वह पूरी
तरह निंदित
हुआ। उसकी
किताबें जप्त
हुईं। उस पर
अदालतों में
अनेक मुकदमे
चले, सिर्फ
इसलिए कि उसने
कहां कि काम—ऊर्जा
ही एकमात्र
ऊर्जा है और
अगर तुम उसकी
निंदा करते हो,
उसका दमन
करते हो, तो
तुम जगत के
खिलाफ हो। और
तब तुम कभी भी
इस ऊर्जा की
परम खिलावट को
नहीं जान
पाओगे। और
दमित होने पर
यह कुरूप हो
जाती है। और
यही दुश्चक्र
है।
पुरोहित, नीतिवादी,
तथाकथित
धार्मिक लोग,
पोप, शंकराचार्य
और दूसरे लोग
काम की सतत
निंदा करते
हैं। वे कहते
हैं कि यह एक
कुरूप चीज है।
और जब तुम
इसका दमन करते
हो तो यह
सचमुच कुरूप
हो जाती है।
और तब वे कहते
हैं कि देखो, जो हम कहते
थे वह सच
निकला। तुमने
ही इसे सिद्ध
कर दिया। तुम
जो भी कर रहे
हो वह कुरूप
है, और तुम
जानते हो कि
वह कुरूप है।
लेकिन
काम स्वयं में
कुरूप नहीं है, पुरोहितों
ने उसे कुरूप
कर दिया है।
और जब वे इसे
कुरूप कर चुकते
हैं तब वे सही
साबित होते
हैं। और जब वे
सही साबित
होते हैं तो
तुम उसे कुरूप
से कुरूपतर
किए देते हो।
काम तो
निर्दोष
ऊर्जा है; तुम
में प्रवाहित
होता जीवन है,
जीवंत
अस्तित्व है।
उसे पंगु मत
बनाओ। उसे उसके
शिखरों की
यात्रा करने
दो। उसका अर्थ
है कि काम को
प्रेम बनना
चाहिए। फर्क
क्या है?
जब
तुम्हारा मन
कामुक होता है
तो तुम दूसरे
का शोषण कर
रहे हो। दूसरा
मात्र एक
यंत्र होता है
जिसे
इस्तेमाल
करके फेंक
देना है। और
जब काम प्रेम
बनता है तब
दूसरा यंत्र
नहीं होता, दूसरे का
शोषण नहीं
किया जाता, दूसरा सच
में दूसरा
नहीं होता। जब
तुम प्रेम करते
हो तो यह स्व—केंद्रित
नहीं है; उस
हालत में तो
दूसरा ही
महत्वपूर्ण
होता है, अनूठा
होता है। तब
तुम एक—दूसरे
का शोषण नहीं
करते, तब
दोनों एक गहरे
अनुभव में
सम्मिलित हो
जाते हो, साझीदार
हो जाते हो।
तुम शोषक और
शोषित न होकर
एक—दूसरे को
प्रेम की और
ही दुनिया में
यात्रा करने
में सहायता
करते हो। काम
शोषण है, प्रेम
एक भिन्न जगत
में यात्रा
है।
अगर यह
यात्रा
क्षणिक न रहे, अगर यह
यात्रा
ध्यानपूर्ण
हो जाए, अर्थात
अगर तुम अपने
को बिलकुल भूल
जाओ और प्रेमी
— प्रेमिका
विलीन हो जाएं
और केवल प्रेम
प्रवाहित होता
रहे, तो
शिव कहते हैं — 'शाश्वत जीवन
तुम्हारा है।’
शिथिल
होने की दूसरी
विधि :
जब चीटी
के लेने की
अनुभूति हो तो
इंद्रियों के
द्वार बंद कर
दो। तब!
यह बहुत सरल
दिखता है, लेकिन
उतना सरल है
नहीं। मैं इसे
फिर पड़ता हूं
: 'जब चींटी
के रेंगने की
अनुभूति हो तो
इंद्रियों के
द्वार बंद कर
दो। तब!' यह
एक उदाहरण
मात्र है।
किसी भी चीज
से काम चलेगा।
इंद्रियों के
द्वार बंद कर
दो जब चींटी के
रेंगने की
अनुभूति हो।
और तब—तब घटना
घट जाएगी। शिव
कह क्या रहे
हैं?
तुम्हारे
पांव में काटा
गड़ा है, वह दर्द
देता है, तुम
तकलीफ में हो।
या तुम्हारे
पांव पर एक
चींटी रेंग
रही है।
तुम्हें उसका
रेंगना महसूस
होता है, और
तुम अचानक उसे
हटाना चाहते
हो। किसी भी
अनुभव को ले
सकते हो।
तुम्हें घाव
है जो दुखता
है। तुम्हारे
सिर में दर्द
है, या
कहीं शरीर में
दर्द है। विषय
के रूप में
किसी से भी
काम चलेगा।
चींटी का
रेंगना
उदाहरण भर है।
शिव
कहते हैं 'जब चींटी
के रेंगने की
अनुभूति हो तो
इंद्रियों के
द्वार बंद कर
दो।’
जो भी
अनुभव हो, इंद्रियों
के सब द्वार
बंद कर दो।
करना क्या है?
आंखें बंद कर
लो और सोचो कि
मैं अंधा हूं
और देख नहीं
सकता। अपने
कान बंद कर लो और
सोचो कि मैं
सुन नहीं
सकता। पांच
इंद्रियां
हैं, उन सब
को बंद कर दो।
लेकिन उन्हें
बंद कैसे करोगे?
यह
आसान है।
क्षणभर के लिए
श्वास लेना
बंद कर दो, और
तुम्हारी सब
इंद्रियां
बंद हो
जाएंगी। और जब
श्वास रुकी है
और इंद्रियां
बंद हैं, तो
रेंगना कहां
है? चींटी
कहां है? अचानक
तुम दूर, बहुत
दूर हो जाते
हो।
मेरे
एक मित्र हैं, वृद्ध
हैं। वे एक
बार सीढ़ी से
गिर पडे।
और डाक्टरों
ने कहां कि अब
वे तीन महीनों
तक खाट से
नहीं हिल
सकेंगे। तीन
महीने
विश्राम में
रहना है। और
वे बहुत अशांत
व्यक्ति थे, पड़े रहना
उनके लिए कठिन
था। मैं
उन्हें देखने गया।
उन्होंने कहां
कि मेरे लिए
प्रार्थना
करें और मुझे
आशीष दें कि
मैं मर जाऊं, क्योंकि तीन
महीने पड़े
रहना मौत से
भी बदतर होगा।
मैं पत्थर की
तरह कैसे पड़ा
रह सकता हूं? और सब कहते
हैं कि हिलिए
मत।
मैंने
उनसे कहां, यह अच्छा
मौका है। आंखें
बद
करें और सोचें
कि मैं पत्थर
हूं मूर्तिवत।
अब आप हिल
नहीं सकते।
आखिर कैसे
हिलेंगे! आंखें
बंद
करें और पत्थर
की मूर्ति हो
जाएं। उन्होंने
पूछा कि उससे
क्या होगा? मैंने कहां
कि प्रयोग तो
करें। मैं यहां
बैठा हूं। और
कुछ किया भी
नहीं जा सकता
है। जैसे भी
हो आपको यहां
तीन महीने पड़े
रहना है।
इसलिए प्रयोग
करें।
वैसे
तो वे प्रयोग
करने वाले जीव
नहीं थे, लेकिन उनकी
यह स्थिति ही
इतनी असंभव थी
कि उन्होंने कहां
कि अच्छा मैं
प्रयोग
करूंगा, शायद
कुछ हो। वैसे
मुझे भरोसा
नहीं आता कि
सिर्फ यह
सोचने से कि
मैं पत्थरवत
हूं कुछ होने वाला
है। लेकिन मैं
प्रयोग
करूंगा। और
उन्होंने
किया।
मुझे
भी भरोसा नहीं
था कि कुछ
होने वाला है।
क्योंकि वे
आदमी ही ऐसे
थे। लेकिन कभी—कभी
जब तुम असंभव
और निराश
स्थिति में
होते हो तो
चीजें घटित
होने लगती
हैं। उन्होंने
आंखें बंद कर
लीं। मैं
सोचता था कि
दो—तीन मिनट
में वे आंखें खोलेंगे
और कहेंगे कि
कुछ नहीं हुआ।
लेकिन उन्होंने
आंखें नहीं खोलीं।
तीस मिनट गुजर
गए। और मैं
देख सका कि वे
पत्थर हो गए
हैं। उनके
माथे पर के
सभी तनाव
विलीन हो गए।
उनका चेहरा
बदल गया। मुझे
कहीं और जाना
था, लेकिन
वे आंखें बंद किए
पड़े थे। और वे
इतने शांत थे
मानो मर गए
थे। उनकी
श्वास शांत हो
चली थी। लेकिन
क्योंकि मुझे जाना
था, इसलिए
मैंने उनसे कहां
कि अब आंखें खोलें
और बताएं कि
क्या हुआ।
उन्होंने
जब आंखें खोलीं
तब वे एक
दूसरे ही आदमी
थे। उन्होंने कहां, यह तो
चमत्कार है।
आपने मेरे साथ
क्या कर दिया?
मैंने कहां,
मैंने कुछ
भी नहीं किया।
उन्होंने फिर कहां
कि आपने जरूर
कुछ किया, क्योंकि
यह तो चमत्कार
है। जब मैंने
सोचना शुरू
किया कि मैं
पत्थर जैसा
हूं तो अचानक
यह भाव आया कि
यदि मैं अपने
हाथ हिलाना भी
चाहूं तो उन्हें
हिलाना असंभव
है। मैंने कई
बार अपनी आंखें
खोलनी चाहीं, लेकिन
वे पत्थर जैसी
हो गई थीं और
नहीं खुलीं।
और उन्होंने कहां,
मैं चिंतित
भी होने लगा
कि आप क्या
कहेंगे, इतनी
देर हुई जाती
है। लेकिन मैं
असमर्थ था। मैं
तीस मिनट तक
हिल नहीं सका।
और जब सब गति
बंद हो गई तो
अचानक संसार
विलीन हो गया
और मैं अकेला
रह गया। अपने
आप में गहरे
चला गया। और
उसके साथ दर्द
भी जाता रहा।
उन्हें
भारी दर्द था।
रात को ट्रैंक्येलाइजर
के बिना
उन्हें नींद
नहीं आती थी।
और वैसा दर्द
चला गया।
मैंने उनसे
पूछा कि जब
दर्द विलीन हो
रहा था तो
उन्हें कैसा
अनुभव हुआ।
उन्होंने
बताया कि पहले
तो लगा कि
दर्द है, पर कहीं दूर
पर है, किसी
और को हो रहा
है। और तब
धीरे— धीरे, धीरे— धीरे
वह दूर और दूर
जाने लगा और
फिर लापता हो
गया। कोई दस
मिनट तक दर्द
नहीं था।
पत्थर के शरीर
को दर्द कैसे
हो सकता है?
यह
विधि कहती है. 'इंद्रियों
के द्वार बंद
कर दो।’
पत्थर
की तरह हो
जाओ। जब तुम
सच में संसार
के लिए बंद हो
जाते हो तो
तुम अपने शरीर
के प्रति भी
बंद हो जाते
हो, क्योंकि
तुम्हारा
शरीर
तुम्हारा
हिस्सा न होकर
संसार का
हिस्सा है। जब
तुम संसार के
प्रति बिलकुल
बंद हो जाते
हो तो अपने
शरीर के प्रति
भी बंद हो गए।
और तब, शिव
कहते हैं, तब
घटना घटेगी।
इसलिए
शरीर के साथ
इसका प्रयोग
करो। किसी भी
चीज से काम चल
जाएगा, रेंगती
चींटी ही
जरूरी नहीं
है। नहीं तो
तुम सोचोगे कि
जब चींटी
रेंगेगी तो
ध्यान
करेंगे। और
ऐसी सहायता
करने वाली चींटियां
आसानी से नहीं
मिलती हैं।
इसलिए किसी से
भी चलेगा। तुम
अपने बिस्तर
पर पड़े हो और
ठंडी चादर
महसूस हो रही
है, उसी
क्षण मृत हो
जाओ। अचानक
चादर दूर होने
लगेगी, विलीन
हो जाएगी। तुम
बंद हो, मृत
हो, पत्थर
जैसे हो, जिसमें
कोई भी रंध्र
नहीं है, तुम
हिल नहीं
सकते।
और जब
तुम हिल नहीं
सकते तो तुम
अपने पर फेंक
दिए जाते हो, अपने में
केंद्रित हो
जाते हो। और
तब पहली बार
तुम अपने
केंद्र से देख
सकते हो। और
एक बार जब
अपने केंद्र
से देख लिया
तो फिर तुम
वही व्यक्ति
नहीं रह जाओगे
जो थे।
शिथिल
होने की तीसरी
विधि.
जब
किसी बिस्तर
या आसान पर हो
तो अपने को
वजनशून्य हो
जाने दो—पन के
पार।
तुम यहां बैठे
हो; बस
भाव करो कि
तुम वजनशून्य
हो गए, तुम्हारा
वजन न रहा।
तुम्हें
पहले
लगेगा कि कहीं
यहां—वहां वजन
है। लेकिन वजनशून्य
होने का भाव
जारी रखो। वह
प्रेम करते
हुए आता है।
एक क्षण आता
है जब तुम
समझोगे कि तुम
वजनशून्य हो, वजन नहीं
है। और जब वजन नहीं
रहा तो तुम शरीर
नहीं रहे। क्योंकि
वज़न शरीर का
है, तुम्हारा
नहीं। तुम तो वजनशून्य
हो।
इस
संबंध में बहुत
से प्रयोग किए
गए हैं। कोई
मरता है तो
संसार भर में
अनेक
वैज्ञानिकों
ने मरते हुए
व्यक्ति का
वजन लेने की
कोशिश की है।
अगर कुछ फर्क हुआ, अगर मरने
के पूर्व
ज्यादा वजन था
और मरने के बाद
कम वजन रहा तो
वैज्ञानिक कह
सकते हैं कि
कुछ चीज शरीर
से बाहर निकली
है, कोई
आत्मा या कुछ
अब वहा नहीं
है। क्योंकि
विज्ञान के
लिए कुछ भी
बिना वजन के
नहीं है।
सब
पदार्थ के लिए
वजन बुनियादी
है। सूर्य की
किरणों का भी
वजन है। वह
अत्यंत कम है, न्यून है,
उसको मापना
भी कठिन है; लेकिन
वैज्ञानिकों
ने उसे भी
मापा है। अगर
तुम पांच वर्ग
मील के
क्षेत्र पर
फैली सब सूर्य—किरणों
को इकट्ठा कर
सको तो उनका
वजन एक बाल के
वजन के बराबर
होगा। सूर्य—किरणों
का भी वजन है, वे तौली गई
हैं। विज्ञान
के लिए कुछ भी
वजन के बिना
नहीं है। और
अगर कोई चीज
वजन के बिना
है तो वह
पदार्थ नहीं,
अपदार्थ
है। और
विज्ञान
पिछले बीस—पच्चीस
वर्षों तक
विश्वास करता
था कि पदार्थ के
अतिरिक्त कुछ
नहीं है।
इसलिए जब कोई
मरता है और
कोई चीज शरीर छोड़कर
बाहर जाती है
तो वजन में
फर्क पड़ना
चाहिए।
लेकिन
यह फर्क कभी न
पड़ा, वजन
वही का वही
रहा। कभी—कभी
थोड़ा बढ़ा ही
है। और वही
समस्या है।
जिंदा आदमी का
वजन कम हुआ, मुर्दे का
ज्यादा। उससे
उलझन बढ़ी, क्योंकि
वैज्ञानिक तो
यह पता लेने
चले थे कि क्या
मरने पर वजन
घटता है। तभी
तो वे कह सकते
हैं कि कुछ
चीज बाहर गई।
लेकिन यहां तो
लगता है कि
कुछ चीज अंदर
ही आई। आखिर
हुआ क्या?
वजन
पदार्थ का है, लेकिन
तुम पदार्थ
नहीं हो। अगर वजनशून्यता
की इस विधि का
प्रयोग करना
है तो तुम्हें
सोचना चाहिए;
सोचना ही
नहीं, भाव
करना चाहिए कि
तुम्हारा
शरीर वजनशून्य
हो गया है।
अगर तुम भाव
करते ही गए, भाव करते ही
गए कि तुम वजनशून्य
हो, तो एक
क्षण आता है
जब तुम अचानक
अनुभव करते हो
कि तुम वजनशून्य
हो गए। तुम वजनशून्य
हो ही, इसलिए
तुम किसी समय
भी अनुभव कर
सकते हो। सिर्फ
एक स्थिति
पैदा करनी है
जिसमें तुम
फिर अनुभव करो
कि तुम वजनशून्य
हो। तुम्हें
अपने को
सम्मोहन—मुक्त
करना है।
तुम्हारा
सम्मोहन क्या
है? सम्मोहन
यह है कि
तुमने
विश्वास किया
है कि मैं
शरीर हूं और
इसलिए वजन
अनुभव करते
हो। अगर तुम
फिर से भाव
करो, विश्वास
करो कि मैं
शरीर नहीं हूं
तो तुम वजन अनुभव
नहीं करोगे।
यही सम्मोहन—मुक्ति
है कि जब तुम
वजन अनुभव
नहीं करते तो
तुम मन के पार
चले गए।
शिव
कहते हैं. 'जब किसी
बिस्तर या आसन
पर हो तो अपने
को वजनशून्य
हो जाने दो—मनके
पार।' तब
बात घट जाएगी।
मन का
भी वजन है, प्रत्येक
आदमी के मन का
वजन है। एक
समय कहां जाता
था कि जितना
वजनी
मस्तिष्क हो
उतना
बुद्धिमान
होता है। और
आमतौर से यह
बात सही' है,
लेकिन हमेशा
सही नहीं है। क्योंकि
कभी—कभी छोटे मस्तिष्क
के भी महान व्यक्ति
हुए है। और महामूर्ख
मस्तिष्क भी
वजनी हुए हैं।
लेकिन
सामान्यतया
यह सच है कि जब
तुम्हारे पास
मन का बड़ा
संयंत्र है तो
तुम ज्यादा
वजनी होते हो।
मन का
भी वजन है।
लेकिन चेतना वजनशून्य
है। और इस
चेतना को
अनुभव करने के
लिए तुम्हें वजनशून्य
अनुभव करना
होगा। इसलिए
प्रयोग करो। चलते
हुए, बैठे
हुए सोए हुए
प्रयोग करो।
कुछ
बातें। कभी—कभी
मुर्दों का
वजन क्यों बढ़
जाता है? ज्यों ही
चेतना शरीर को
छोड़ती है कि
शरीर असुरक्षित
हो जाता है, बहुत सी
चीजें उसमें
प्रवेश कर जा
सकती हैं। तुम्हारे
कारण वे
प्रवेश नहीं
करती थीं। एक
शव में अनेक
तरंगें प्रवेश
कर सकती हैं, तुममें नहीं
कर सकतीं। तुम
वहा थे, शरीर
जीवित था, वह
अनेक चीजों से
बचाव कर सकता
था। यही कारण
है कि तुम एक
बार बीमार पड़े
कि यह एक लंबा
सिलसिला हो
जाता है। एक
के बाद दूसरी
बीमारी आती चली
जाती है। एक
बार बीमार
होकर तुम
अरक्षित हो जाते
हो, हमले
के प्रति खुल
जाते हो; प्रतिरोध
जाता रहता है।
तब कुछ भी
प्रवेश कर सकता
है। तुम्हारी
उपस्थिति
शरीर की रक्षा
करती है।
इसलिए कभी—कभी
मृत शरीर का
वजन बढ़ सकता
है। क्योंकि
जिस क्षण तुम
उससे हटते हो,
उसमें कुछ
भी प्रवेश कर
सकता है।
दूसरी
बात है कि जब
तुम सुखी होते
हो तो तुम वजनशून्य
अनुभव करते
हो। और दुखी
होकर वजनी
अनुभव करते
हो। लगता है
कि कुछ
तुम्हें नीचे
को खींच रहा है।
तब
गुरुत्वाकर्षण
बहुत बढ़ जाता
है। दुख की
हालत में वजन बढ जाता
है। जब तुम
सुखी हो तो
हलके होते हो; तुम ऐसा
अनुभव करते
हो। क्यों? क्योंकि जब
तुम सुखी हो, जब तुम आनंद
का क्षण अनुभव
करते हो, तो
तुम शरीर को
बिलकुल भूल
जाते हो। और
जब उदास, दुखी,
विपन्न हो
तो शरीर को
नहीं भूल सकते;
तुम उसका
भार अनुभव
करते हो। वह
तुम्हें नीचे खींचता
है, जमीन
की तरफ खींचता
है, मानो
तुम जमीन में
गड़े हो। सुख
में तुम निर्भार
होते हो; शोक
में, विषाद
में वजनी हो
जाते हो।
इसलिए
गहरे ध्यान
में, जब
तुम अपने शरीर
को बिलकुल भूल
जाते हो, तुम
जमीन से ऊपर
हवा में उठ
सकते हो।
तुम्हारे साथ
तुम्हारा
शरीर भी ऊपर
उठ सकता है।
कई बार ऐसा
होता है।
बोलीविया में
वैज्ञानिक एक
स्त्री का
निरीक्षण कर
रहे हैं।
ध्यान करते
हुए वह जमीन
से चार फीट
ऊपर उठ जाती
है। अब तो यह
वैज्ञानिक
निरीक्षण की
बात है। उसके
अनेक फोटो और
फिल्म लिए जा
चुके हैं।
हजारों
दर्शकों के
सामने वह
स्त्री अचानक
ऊपर उठ जाती
है। उसके लिए
गुरुत्वाकर्षण
व्यर्थ हो
जाता है। अब
तक इस बात की
सही व्याख्या
नहीं की जा
सकी है कि
क्यों होता
है। लेकिन वही
स्त्री गैर—ध्यान
की अवस्था में
ऊपर नहीं उठ
सकती। या अगर
उसके ध्यान
में बाधा हो
जाए तो भी वह
ऊपर से झट नीचे
आ जाती है।
क्या होता है?
ध्यान
की गहराई में
तुम अपने शरीर
को बिलकुल भूल
जाते हो और तादात्मय
टूट जाता है।
शरीर बहुत
छोटी चीज है
और तुम बहुत बड़े
हो। तुम्हारी
शक्ति
अपरिसीम है।
म् तुम्हारे
मुकाबले में
शरीर तो कुछ
भी नहीं है।
यह तो ऐसा ही
है कि जैसे एक
सम्राट ने
अपने गुलाम के
साथ
तादात्म्य
स्थापित कर
लिया है। इसलिए
जैसे गुलाम
भीख मांगता है, वैसे ही सम्राट
भी भीख मांगता
है.। जैसे
गुलाम रोता है,
वैसे ही
सम्राट भी
रोता है। और
जब गुलाम कहता
है कि मैं ना—कुछ
हूं तो सम्राट
भी कहता है कि मैं
ना—कुछ हूं। लेकिन
एक बार सम्राट
अपने
अस्तित्व को
पहचान ले, पहचान
ले कि वह
सम्राट है और
गुलाम बस
गुलाम है, सब
कुछ बदल
जाएगा। अचानक
बदल जाएगा।
तुम वह
अपरिसीम
शक्ति हो जो
क्षुद्र शरीर
से एकात्म हो
गई है। एक बार
यह पहचान हो
जाए, तुम
अपने स्व को
जान लो, तो
तुम्हारी वजनशून्यता
बढ़ेगी और
शरीर का वजन
घटेगा। तब तुम
हवा में उठ
सकते हो, शरीर
ऊपर जा सकता
है।
ऐसी
अनेक घटनाएं
हैं जो अभी
साबित नहीं की
जा सकी हैं।
लेकिन वे
साबित होंगी।
क्योंकि जब एक
स्त्री चार
फीट ऊपर उठ
सकती है तो
फिर बाधा नहीं
है, दूसरा
हजार फीट ऊपर
उठ सकता है।
तीसरा अनंत अंतरिक्ष
में पूरी तरह
जा सकता है। सैद्धातिक
रूप से यह कोई
समस्या नहीं
है। चार फीट
ऊपर उठे कि
चार सौ फीट कि
चार हजार फीट,
इससे क्या
फर्क पड़ता है।
राम
तथा कई अन्य
के बारे में
कथाएं हैं कि
वे सशरीर
विलीन हो गए
थे। उनके मृत
शरीर इस धरती
पर कहीं नहीं
पाए गए।
मोहम्मद
बिलकुल विलीन
हो गए थे, सशरीर ही
नहीं, अपने
घोड़े के भी
साथ। ये कहानियां
असंभव मालूम
पड़ती हैं, पौराणिक
मालूम पड़ती
हैं, लेकिन
जरूरी नहीं है
कि वे मिथक ही
हों। एक बार
तुम वजनशून्य
शक्ति को जान
जाओ तो तुम
गुरुत्वाकर्षण
के मालिक हो
गए। तुम उसका
उपयोग भी कर
सकते हो, यह
तुम पर निर्भर
है। तुम सशरीर
अंतरिक्ष में विलीन
हो सकते हो।
लेकिन
हमारे लिए वजनशून्यता
समस्या
रहेगी।
सिद्धासन की
विधि, जिस
में बुद्ध
बैठते हैं, वजनशून्य
होने की
सर्वोत्तम
विधि है। जमीन
पर बैठो, किसी
कुर्सी या
अन्य आसन पर
नहीं। मात्र
जमीन पर बैठो।
अच्छा हो कि
उस पर सीमेंट
या कोई और कृत्रिमता
नहीं हो। जमीन
पर बैठो कि
तुम प्रकृति
के निकटतम
रहो। और अच्छा
हो कि तुम
नंगे बैठो, जमीन पर
नंगे बैठो—बुद्धासन
में, सिद्धासन
में।
वजनशून्य
होने के लिए
सिद्धासन
सर्वश्रेष्ठ
आसन है। क्यों? क्योंकि
जब तुम्हारा
शरीर इधर—उधर
झुका होता है
तो तुम ज्यादा
वजन अनुभव करते
हो। तब
तुम्हारे
शरीर को
गुरुत्वाकर्षण
से प्रभावित
होने के लिए
ज्यादा
क्षेत्र है।
यदि मैं इस
कुर्सी पर
बैठा हूं तो
मेरे शरीर का
बड़ा क्षेत्र
गुरुत्वाकर्षण
से प्रभावित
होता है। जब
तुम खड़े हो तो
प्रभाव—
क्षेत्र कम हो
जाता है।
लेकिन बहुत
देर तक खड़ा
नहीं रहा जा
सकता। महावीर
सदा खड़े—खड़े
ध्यान करते थे,
क्योंकि उस
हालत में शरीर
गुरुत्वाकर्षण
का न्यूनतम
क्षेत्र
घेरता है।
तुम्हारे पैर
भर जमीन को
छूते हैं। जब
तुम पांव पर
खड़े हो तो
गुरुत्वाकर्षण
तुम पर
न्यूनतम
प्रभाव करता
है। और गुरुत्वाकर्षण
ही वजन है।
पांवों
और हाथों को
बांधकर
सिद्धासन में
बैठना ज्यादा
कारगर होता है, क्योंकि
तब तुम्हारी आंतरिक
विद्युत एक
वर्तुल बन
जाती है। रीढ़
सीधी रखो। अब
तुम समझ सकते
हो कि सीधी
रीढ़ रखने पर
इतना जोर
क्यों दिया
जाता है।
क्योंकि सीधी
रीढ़ से कम से
कम जगह घेरी
जाती है। तब
गुरुत्वाकर्षण
का प्रभाव कम
रहता है। आंखें
बंद
रखते हुए अपने
को पूरी तरह
संतुलित कर लो,
अपने को
केंद्रित कर
लो। पहले दाईं
ओर झुककर गुरुत्वाकर्षण
का अनुभव करो, फिर बाई और झुककर
गुरुत्वाकर्षण
का अनुभव करो।
आगे को झुककर भी
गुरूत्वाकर्षण
का अनुभव करो।
तब उस
केंद्र को
खोजो जहां
गुरुत्वाकर्षण
या वजन कम से
कम अनुभव होता
है। और उस स्थिति
में थिर हो
जाओ।
और तब शरीर
को भूल जाओ और
भाव करो कि
तुम वज़न नहीं
हो, तुम वज़न
शून्य हो। फिर
इस वजनशून्यता
का अनुभव करते
रहो। अचानक
तुम वजनशून्य
हो जाते हो, अचानक तुम
शरीर नहीं रह
जाते हो, अचानक
तुम शरीरशून्यता
के एक दूसरे
ही संसार में
होते हो।
वजनशून्यता शरीरशून्यता
है। तब तुम मन
का भी अतिक्रमण
कर जाते हो।
मन भी शरीर का
हिस्सा है, पदार्थ
का हिस्सा है।
पदार्थ का वजन
होता है, तुम्हारा
कोई वजन नहीं
है। इस विधि का
यही आधार है।
किसी
भी एक विधि को
प्रयोग में
लाओ। लेकिन
कुछ दिनों तक उसमें
लगे रहो, ताकि
तुम्हें पता
हो कि वह तुम्हारे
लिए कारगर है
या नहीं।
आज इतना
ही।
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