ओशो
अष्टावक्र
के सूत्र ऐसे
नहीं है कि
पूरा शास्त्र
समझें तो काम
के होंगे। एक
सूत्र भी पकड़
लिया तो
पर्याप्त
है। अष्टावक्र
की सारी चेष्टा
है: रोशनी।
आँख खोलकर देख
लो। थोड़े
शांत बैठकर
देख लो। थोड़े
निश्चल मन
होकर देख लो। कहीं
कुछ बंधन नहीं
है। वासना
नहीं है।.....
'जीवन
तो जैसा है
वैसा ही रहेगा।
वैसा ही रहना
चाहिए। हां, इतना फर्क
पड़ेगा... और वही
वस्तुत: आमूल
क्रांति है।
आमूल का मतलब
होता है : 'मूल
से'।... आमूल
क्रांति का
अर्थ होता है :
जो अब तक सोये—सोये
करते थे, अब
जाग कर करते
हैं। जागने के
कारण जो गिर
जाएगा, गिर
जाएगा; जो
बचेगा, बचेगा—लेकिन
न अपनी तरफ से
कुछ बदलना है,
न कुछ
गिराना, न
कुछ लाना।
साक्षी है मूल।
'मैं वस्तुत:
तुम्हें
मुक्त कर रहा
हूं। मैं
तुम्हें
क्रांति से भी
मुक्त कर रहा
हूं। मैं
तुमसे यह कह
रहा हूं: ये सब
कुछ करने की
बातें ही नहीं
है। तुम जैसे
हो — भले
हो, चंगे
हो, शुभ हो,
सुंदर हो।
तुम इसे
स्वीकार कर लो।
तुम जीवन की
सहजता को
व्यर्थ की
बातों से विकृत
मत करो।
विक्षिप्त
होने के उपाय
मत करो, पागल
मत बनो।
ओशो
शुष्कपर्णवत
जियो—(प्रवचन—पहला)
दिनांक
11 जनवरी 1977;
श्री
ओशो आश्रम,
पूना।
अष्टावक्र
उवाच:
निर्वासनो
निरालंब:
स्वच्छंदो
मुक्तबंधन:।
क्षिप्त:
संसारवातेन
चेष्टते
शुष्कपर्णवत्।।197।।
असंसारस्य
तु क्यापि न
हषों न
विषादता।
स
शीतलमना
नित्यं विदेह
इव सजते।।198।।
कुत्रापि
न
जिहासाऽस्ति
नाशो वापि न
कुत्रचित्।
आत्मारामस्य
धीरस्य
शीतलाच्छतरात्मन।।199।।
प्रकृत्या
शन्यचित्तस्य
कुर्वतोऽस्य
यदृच्छया।
प्राकृतस्येव
धीरस्य न मानो
नावमानता।।2००।।
कृतं
देहेन कमेंदं
न मया
शुद्धरूपिणा।
इति
चितानुरोधी
यः
कुर्वन्नपि
करोति न।।2०1।।
अतद्वादीव
कुरुते न
भवेदपि
बालिश:।
जीवम्मुक्यतसुखीश्रीमान्ससरन्नपिशोभते।।2०2।।
नानाविचारसुश्रांतो
धीरो
विश्रातिमागत:।
न
कल्पते न
जानाति न श्रृणोति
न पश्यति।।2०3।।
निर्वासनो
निरालंब:
स्वच्छंदो
मुक्तबंधन:।
क्षिप्त:
संसारवातेन
चेष्टते
शुष्कपर्णवत्।।
इन छोटी
सी दो
पंक्तियों
में ज्ञान की
परम व्याख्या
समाहित है। इन
दो पंक्तियों
क्रो भी कोई
जान ले और जी
ले तो सब हो
गया। शेष करने
को कुछ बचता
नहीं।
अष्टावक्र के
सूत्र ऐसे
नहीं हैं कि
पूरा शास्त्र
समझें तो काम
के होंगे। एक
सूत्र भी पकड़
लिया तो
पर्याप्त है।
एक—एक सूत्र
अपने में पूरा
शास्त्र है।
इस छोटे से
लेकिन अपूर्व
सूत्र को
समझने की कोशिश
करें।
'वासनामुक्त,
स्वतंत्र, स्वच्छंदचारी
और बंधनरहित
पुरुष
प्रारब्धरूपी
हवा से
प्रेरित होकर
शुष्क पत्ते
की भांति
व्यवहार करता
है।’
लाओत्सु
के जीवन में
उल्लेख है : कि वर्षों
तक खोज में
लगा रह कर भी
सत्य की कोई
झलक न पा सका।
सब चेष्टाएं
कीं,
सब प्रयास,
सब उपाय, सब निष्फल
गए। थक कर
हारा—पराजित
एक दिन बैठा
है—पतझड़ के
दिन हैं—वृक्ष
के नीचे। अब न
कहीं जाना है,
न कुछ पाना
है। हार पूरी
हो गई। आशा भी
नहीं बची है।
आशा का कोई तंतु—जाल
नहीं है जिसके
सहारे भविष्य
को फैलाया जा सके।
अतीत व्यर्थ
हुआ, भविष्य
भी व्यर्थ हो
गया है, यही
क्षण बस काफी
है। इसके पार
वासना के कोई
पंख नहीं कि
उड़े। संसार तो
व्यर्थ हुआ ही,
मोक्ष, सत्य,
परमात्मा
भी व्यर्थ हो
गए हैं। ऐसा
बैठा है
चुपचाप। कुछ
करने को नहीं
है। कुछ करने
जैसा नहीं है।
और तभी एक
पत्ता सूखा
वृक्ष से गिरा।
देखता रहा
गिरते पत्ते
को— धीरे— धीरे,
हवा पर
डोलता वृक्ष
का पत्ता नीचे
गिर गया। हवा
का आया अंधड़, फिर उठ गया
पत्ता ऊपर, फिर गिरा।
पूरब गई हवा
तो पूरब गया, पश्चिम गई
तो पश्चिम गया।
और
कहते हैं, वहीं
उस सूखे पत्ते
को देख कर
लाओत्सु
समाधि को
उपलब्ध हुआ।
सूखे पत्ते के
व्यवहार में
ज्ञान की किरण
मिल गई।
लाओत्सु ने
कहा, बस
ऐसा ही मैं भी
हो रहूं। जहां
ले जायें
हवाएं चला
जाऊं। जो
करवाए
प्रकृति, कर
लूं। अपनी
मर्जी न रखूं।
अपनी
आकांक्षा न
थोपूं। मेरी निजी
कोई आकांक्षा
ही न हो। यह जो
विराट का खेल
चलता, इस
विराट के खेल
में मैं एक
तरंग मात्र की
भांति
सम्मिलित हो
जाऊं। विराट
की योजना ही
मेरी योजना हो
और विराट का संकल्प
ही मेरा
संकल्प। और
जहां जाता हो
यह अनंत, वहीं
मैं भी चल
पडूं; उससे
अन्यथा मेरी
कोई मंजिल
नहीं। डुबाए
तो डूबूं
उबारे तो
उबरूं। डुबाए
तो डूबना ही
मंजिल; और
जहां डुबा दे
वहीं किनारा।
और
कहते हैं, लाओत्सु
उसी क्षण परम
ज्ञान को
उपलब्ध हो गया।
यह
सूत्र, पहला
सूत्र
अष्टावक्र का—निर्वासनो।
हिंदी में
अनुवाद किया
गया
वासनामुक्त।
उतना ठीक नहीं।
निर्वासना का
अर्थ होता है,
वासनाशून्य
वासनामुक्त
नहीं।
क्योंकि
मुक्त में तो
फिर भाव आ गया
कि जैसे कुछ
चेष्टा हुई है।
मुक्त में तो
भाव आ गया, जैसे
कुछ संयम साधा
है। मुक्त में
तो भाव आ गया
अनुशासन का, योग का, विधि—विधान
का। मुक्त का
तो अर्थ हुआ, जैसे कि बंधन
थे और उनको
तोड़ा है। जैसे
कि कारागृह
वास्तविक था
और हम बाहर
निकले हैं।
नहीं, वासनाशून्य—निर्वासनो।
वासना—रहित; मुक्त नहीं,
वासनाशून्य।
जिसने वासना
को गौर से
देखा और पाया
कि वासना है
ही नहीं। ऐसे
वासना के अभाव
को जिसने
अनुभव कर लिया
है। फर्क को
समझ लेना। फर्क
बारीक है।
यहीं
योग और सांख्य
का भेद है।
यहीं साधक और
सिद्ध का भेद
है। साधक कहता
है,
साधूंगा, चेष्टा
करूंगा; बंधन
है, गिराऊंगा,
काटूंगा, लडूंगा।
उपाय से होगा।
विधि—विधान, यम—नियम, ध्यान—
धारणा—विस्तार
है प्रक्रिया
का; उससे
तोड़ दूंगा
बंधन को।
सिद्ध
की घोषणा है
कि बंधन है
नहीं। उपाय की
जरूरत नहीं है।
आंख खोल कर
देखना भर
पर्याप्त है।
जो नहीं है
उसे काटोगे
कैसे?
तो
दुनिया में दो
तरह के लोग
हैं. एक, संसार
में बंधन है
ऐसा मान कर
तडूफ रहे हैं।
एक, संसार
का बंधन तोड़ना
है ऐसा मान कर
लड़ रहे हैं।
और बंधन नहीं
है। ऐसा समझो
कि रात के
अंधेरे में
राह पर पड़ी
रस्सी को सांप
समझ लिया है।
एक है, जो
भाग रहा है; पसीना—पसीना
है। छाती धड़क
रही है, घबड़ा
रहा है कि
सांप है।
भागो! बचो! और
दूसरा कहता है,
घबड़ाओ मत।
लकड़ियां लाओ,
मारो। एक
भाग रहा है, एक सांप को
मार रहा है।
दोनों ही भ्रांति
में हैं।
क्योंकि सांप
है नहीं; सिर्फ
दीया जलाने की
बात है। न
भागना है, न
मारना है।
रोशनी में दिख
जाए कि रस्सी
पड़ी है तो तुम
हंसोगे।
अष्टावक्र
की सारी
चेष्टा तीसरी
है रोशनी। आंख
खोल कर देख लो।
थोड़े शांत बैठ
कर देख लो।
थोड़े निश्चल—मन
होकर देख लो।
कहीं कुछ बंधन
नहीं है।
वासना है नहीं, प्रतीत
होती है। फिर
प्रतीति को :
गर सच मान
लिया तो दो
उपाय हैं : संसारी
हो जाओ या
योगी हो जाओ; भोगी हो जाओ
या योगी हो
जाओ। भोगी हो
गए तो भागो
सांप को मान
कर; तड़फो।
योगी हो गए तो
लड़ो।
अष्टावक्र
कहते हैं, इन
दोनों के बीच
में एक तीसरा
ही मार्ग है, एक अनूठा ही
मार्ग है—न
भोग का, न
त्याग का; देखने
का, द्रष्टा
का, साक्षी
का। जागो!
इसलिए
मैं
निर्वासना का
अनुवाद
वासनायुक्त न
करूंगा।
निर्वासना
में जो
व्यक्ति है वह
वासनामुक्त है
यह सच है, लेकिन
अनुवाद 'वासनामुक्त'
करना ठीक नहीं।
क्योंकि वह
भाषा योगी की
है—वासनामुक्त।
वासनाशून्य, वासनारिक्त,
निर्वासना—जिसने
जान लिया कि
वासना नहीं है।
जाग कर देखा
और पाया कि
कारागृह नहीं
है; नहीं
था, नहीं
हो सकता है।
जैसे रात सपना
देखा था—पड़े
थे कारागृह
में, हथकड़ियां
पड़ी थीं, और
सुबह आंख खुली।
जाना कि झूठ
था सब। जाना
कि सपना था।
अपना ही माना
था। अपना ही
निर्मित किया
था।
लेकिन
लोग सपनों में
खो जाते हैं।
अपने सपनों की
तो छोड़ो, दूसरों
के सपनों में
खो जाते हैं।
अपना पागलपन
प्रभावित
करता है यह तो
ठीक ही है, दूसरा
भी पागल हो
रहा हो तो तुम
आवेष्टित हो जाते
हो।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने एक मित्र
के साथ, कड़ी
धूप है और
वृक्ष की छाया
में बैठा है।
झटके से उठ कर
बैठ गया और
कहने लगा कि
प्रभु करे कभी
वे दिन भी आएं।
आएंगे जरूर।
देर है, अंधेर
तो नहीं है।
जब अपना भी
महल होगा, सुंदर
झील होगी, घने
वृक्षों की
छाया होगी।
विश्राम
करेंगे
वृक्षों की
छाया में। झील
पर तैरेंगे।
और ढेर की ढेर
आइसक्रीम!
मित्र
भी उठ कर बैठ
गया। उसने कहा, एक
बात बड़े मियां,
अगर मैं आऊं
तो आइसक्रीम
में मुझे भी
भागीदार बनाओगे
या नहीं? मुल्ला
ने कहा, इतना
ही कह सकते
हैं कि अभी
कुछ न कह सकेंगे।
अभी कुछ नहीं
कह सकते। अभी
तुम बात मत
उठाओ। उस आदमी
ने कहा, चलो
छोड़ो
आइसक्रीम।
वृक्ष की छाया
में तो
विश्राम करने
दोगे, झील
पर तो तैरने
दोगे। मुल्ला
सोच में पड़
गया। उसने कहा
कि नहीं, अभी
तो इतना ही कह
सकते हैं कि
अभी हम कुछ
नहीं कह सकते।
वह
आदमी बोला, अरे
हद हो गई!
वृक्षों की
छाया में
विश्राम भी न
करने दोगे? नसरुद्दीन
ने कहा, आदमी
कैसे हो? आलस्य
की भी सीमा
होती है। अरे,
अपनी
कल्पना के
घोड़े दौड़ाओ, मेरे घोड़ों
पर क्यों सवार
होते हो? न
कोई महल है, न कोई झील है,
अपने घोड़े
भी नहीं दौड़ा
सकते? इसमें
भी उधारी? इसमें
भी तुम मेरे
घोड़ों पर सवार
हो रहे हो?
आदमी
पर खुद की
कल्पना तो चढ़
ही जाती है, दूसरों
की भी चढ़ जाती
है। आदमी इतना
बेहोश है। तुम
पर अपनी
महत्वाकाक्षा
तो चढ़ ही जाती
है, दूसरे
की
महत्वाकांक्षा
भी चढ जाती है।
महत्वाकाक्षी
के पास बैठो, कि तुम्हारे
भीतर भी महत्वाकाक्षा
सरसरी लेने
लगेगी।
संक्रामक है।
हम बेहोश हैं।
निर्वासना
का अर्थ होता
है : अब कल्पना
के रंग चढ़ते
नहीं। अब आकांक्षाएं
प्रभावित
नहीं करतीं।
अब
महत्वाकांक्षाओं
के झूठे
सतरंगे महल
प्रभाव नहीं
लाते। टूट गए
वे इंद्रधनुष।
कितने ही
रंगीन हों, जान
लिए गए, पहचान
लिए गए। झूठे
थे।
अपनी ही आंखों
का फैलाव थे।
अपनी ही वासना
की तरंगें थे।
कहीं थे नहीं; और
हम नाहक ही
उनके कारण
सुखी और दुखी
होते थे।
निर्वासना
का अर्थ है :
वासना नग्न
देख ली गई और
पाई नहीं गई।
शून्य हो गया
चित्त।
निर्वासनो
निरालंब:।
निरालंब
के लिए हिंदी
में अनुवाद
किया जाता है :
स्वतंत्र; वह
भी ठीक नहीं
है। निरालंब
का अर्थ होता
है निराधार।
स्वतंत्र में
थोड़ी भनक है
लेकिन सच नहीं
है, पूरी—पूरी
नहीं।
स्वतंत्र का
अर्थ होता है.
अपने ही आधार
पर, अपने
ही तंत्र पर।
निरालंब का
अर्थ होता है;
जिसका कोई
आधार नहीं—न
अपना, न
पराया। आधार
ही नहीं; जो
निराधार हुआ।
अष्टावक्र
कहते हैं कि
जब तक कुछ भी
आधार है तब तक
डगमगाओगे।
बुनियाद है तो
भवन गिरेगा।
देर से गिरे, मजबूत
होगी बुनियाद
तो; कमजोर
होगी तो जल्दी
गिरे, लेकिन
आधार है तो
गिरेगा।
सिर्फ
निराधार का
भवन नहीं
गिरता। कैसे
गिरेगा, आधार
ही नहीं! आधार
है तो आज नहीं
कल पछताओगे, साथ—संग
छूटेगा।
सिर्फ
निराधार नहीं
पछताता। है ही
नहीं, जिससे
साथ छूट जाए, संग छूट जाए।
कोई हाथ में
ही हाथ नहीं।
परमात्मा
तक का आधार मत
लेना; ऐसी
अष्टावक्र की
देशना है।
क्योंकि
परमात्मा के
आधार भी
तुम्हारी
कल्पना के ही
खेल हैं। कैसा
परमात्मा? किसने
देखा? कब
जाना? तुम्हीं
फैला लोगे।
पहले संसार का
जाल बुनते रहे,
निष्णात हो
बड़ी कल्पना
में; फिर
तुम परमात्मा
की प्रतिमा
खड़ी कर .लेते
हो। पहले
संसार में
खोजते रहे, संसार से
चूक गए नहीं
मिला। नहीं
मिला क्योंकि
वह भी कल्पना
का जाल था, मिलता
कैसे? अब
परमात्मा का
कल्पना—जाल
फैलाते हो। अब
तुम कृष्ण को
सजा कर खड़े हो।
अब उनके मुंह
पर बांसुरी रख
दी है। गीत
तुम्हारा है।
ये कृष्ण भी
तुम्हारे हैं,
यह बांसुरी
भी तुम्हारी,
यह
गुनगुनाहट भी
तुम्हारी। ये
मूर्ति तुम्हारी
है और फिर इसी
के सामने
घुटने टेक कर
झुके हो। ये
शास्त्र
तुमने रच लिए
हैं और फिर इन
शास्त्रों को
छाती से लगाए
बैठे हो। ये
स्वर्ग और नरक,
और यह मोक्ष
और ये इतने
दूर—दूर के जो
तुमने बड़े
वितान ताने
हैं, ये
तुम्हारी ही
आकांक्षाओं
के खेल हैं।
संसार से थक
गए लेकिन
वस्तुत: वासना
से नहीं थके
हो। यहां से
तंबू उखाड़
दिया तो मोक्ष
में लगा दिया
है। स्त्री के
सौंदर्य से ऊब
गए, पुरुष
के सौंदर्य से
ऊब गए तो
अप्सराओं के
सौंदर्य को
देख रहे हो।
या राम की, कृष्ण
की मूर्ति को
सजा कर
श्रृंगार कर
रहे हो। मगर
खेल जारी है।
खिलौने बदल गए,
खेल जारी है।
खिलौने बदलने
से कुछ भी
नहीं होता।
खेल बंद होना
चाहिए।
अष्टावक्र
कहते हैं, 'निर्वासनो,
निरालंब:।’
जिसकी
वासना गिर गई
उसका आश्रय भी
गिर गया। अब
आश्रय कहां
खोजना है? वह
खड़े होने को
जगह भी नहीं
मांगता। वह इस
अतल अस्तित्व
में शून्यवत
हो जाता है।
वह कहता है
मुझे कोई आधार
नहीं चाहिए।
आधार
का अर्थ ही है
कि मैं बचना
चाहता हूं मुझे
सहारा चाहिए।
ज्ञानी ने तो
जान लिया कि
मैं हूं कहा? जो
है, है ही।
उसके लिए कोई
सहारे की
जरूरत नहीं है।
यह जो मेरा
मैं है इसको
सहारे की
जरूरत है
क्योंकि यह है
नहीं। बिना
सहारे के न
टिकेगा। यह
लंगड़ा—लूला है;
इसे बैसाखी
चाहिए।
निरालंब
का अर्थ होता
है : अब मुझे
कोई बैसाखी नहीं
चाहिए। अब
कहीं जाना ही
नहीं है, कोई
मंजिल न रही
तो बैसाखी की
जरूरत क्या? पैर भी नहीं
चाहिए। अब कोई
यान नहीं चाहिए।
अब तो डूबने
की भी मेरी
तैयारी है
उतनी ही, जितनी
उबरने की। अब
तो जो करवा दे
अस्तित्व, वही
करने को तैयार
हूं। तो अब
नाव भी नहीं
चाहिए। अब
डूबते वक्त
ऐसा थोड़े ही, कि मैं
चिल्लाऊंगा
कि बचाओ।
ज्ञानी
तो डूबेगा तो
समग्रमना डूब
जाएगा। डूबते
क्षण में एक
क्षण को भी
ऐसा भाव न
उठेगा कि यह
क्या हो रहा
है?
ऐसा नहीं
होना चाहिए।
जो हो रहा है, वही हो रहा
है। उससे
अन्यथा न हो
सकता है, न
होने की कोई
आकांक्षा है।
फिर आश्रय
कैसा?
तुम
परमात्मा का
आश्रय किसलिए
खोजते हो, कभी
तुमने खयाल
किया? कभी
विषण किया? परमात्मा का
भी आसरा तुम
किन्हीं
वासनाओं के
लिए खोजते हो।
कुछ अधूरे रह
गए हैं स्वभू
तुमसे तो किए
पूरे नहीं
होते, शायद
परमात्मा के
सहारे पूरे हो
जाएं। तुम तो
हार गए; तो
अब परमात्मा
के कंधे पर
बंदूक रख कर
चलाने की
योजना बनाते
हो। तुम तो थक
गए और गिरने
लगे; अब
तुम कहते हो, प्रभु अब तू सम्हाल।
असहाय का
सहारा है तू।
दीन का दयाल
है तू। पतित—पावन
है तू। हम तो
गिरे। अब तू
सम्हाल।
लेकिन
अभी सम्हलने
की आकांक्षा
बनी है। इसे
अगर गौर से
देखोगे तो
इसका अर्थ हुआ, तुम
परमात्मा की
भी सेवा लेने
के लिए तत्पर
हो अब। यह कोई
प्रार्थना न
हुई। यह परमात्मा
के शोषण का
नया आयोजन हुआ।
वासना
तुम्हारी है,
वासना की
तृप्ति की
आकांक्षा
तुम्हारी है।
अब तुम
परमात्मा का
भी सेवक की
तरह उपयोग कर
लेना चाहते हो।
अब तुम चाहते
हो, तू भी
जुट जा मेरे
इस रथ में।
मेरे खिंचे
नहीं खिंचता,
अब तू भी
जुट जा। अब तू
भी जुते तो ही
खिंचेगा।
हालांकि तुम
कहते बड़े
अच्छे शब्दों
में हो। लफ्फजी
सुंदर है।
तुम्हारी
प्रार्थनाएं, तुम्हारी
स्तुतियां
अगर गौर से
खोजी जाएं तो तुम्हारी
वासनाओं के
नये—नये आडंबर
हैं। मगर तुम
मौजूद हो।
तुम्हारी
स्तुति में
तुम मौजूद हो।
और तुम्हारी
स्तुति
परमात्मा की
स्तुति नहीं,
परमात्मा
की खुशामद है,
ताकि किसी
वासना में तुम
उसे संलग्न कर
लो; ताकि
उसके सहारे
कुछ पूरा हो
जाए जो अकेले—अकेले
नहीं हो सका।
मेरे
पास लोग आ
जाते हैं, वे
कहते हैं कि
संन्यास दे
दें। मैं
पूछता हूं
किसलिए? वे
कहते हैं, अपने
से तो कुछ
नहीं पा सके; अब आपके
सहारे.. .मगर
पाकर रहेंगे।
जीवन को ऐसे
ही थोड़े चले
जाने देंगे।
पाने
की दौड़ कायम
है। नहीं पा
सके तो साधन
बदल लेंगे, सिद्धात
बदल लेंगे, शास्त्र बदल
लेंगे, लेकिन
पाकर रहेंगे।
हिंदू
मुसलमान हो
जाते हैं, मुसलमान
ईसाई हो जाते
हैं, ईसाई
बौद्ध हो जाते
हैं—पाकर
रहेंगे।
शास्त्र बदल
लेंगे, साधन
बदल लेंगे, लेकिन पाकर
रहेंगे।
ज्ञानी
वही है, जिसने
जाग कर देखा
कि पाने को
यहां कुछ नहीं
है। जिसे हम
पाने चले हैं
वह पाया हुआ
है। फिर आश्रय
की भी क्या
खोज! फिर आदमी
निराश्रय, निरालंब
होने को तत्पर
हो जाता है।
उस निरालंब
दशा का नाम ही
संन्यास है।
निर्वासनो
निरालंब:
स्वच्छंदो.......।
और
जो स्वयं के
छंद को उपलब्ध
हो गया है।
इस
शब्द को खूब—खूब
समझ लेना; क्योंकि
इस शब्द के
साथ बड़ा
अनाचार हुआ है।
शब्द भी हैं
संसार में
जिनके साथ बड़ा
अनाचार हो
जाता है।
स्वच्छंद उन
शब्दों में से
एक है, जिक्के
साथ लोगों ने
बड़ा
दुर्व्यवहार
किया है।
स्वच्छंद
का लोग अर्थ
ही करते हैं, स्वेच्छाचारी।
स्वच्छंद का
लोग अर्थ ही
करते हैं, उच्छृंखल।
ऐसा
भाषाकोशों
में देखोगे तो
मिल जाएगा।
स्वच्छंद बड़ा
प्यारा शब्द
है। इसका अर्थ
उच्छृंखल
नहीं होता।
इसका अर्थ
इतना ही होता
है : जिसने
अपने भीतर के
छंद को पा
लिया, गीत
को पा लिया।
जो स्वयं के
छंद को उपलब्ध
हो गया। जो अब
किसी और का
गीत गाने में
उत्सुक नहीं।
जो शरीर का
गीत भी गाने
में उत्सुक
नहीं, मन
का गीत भी
गाने में
उत्सुक नहीं;
जिसने
स्वयं के गीत
को पा लिया।
जिसने अपने
अंतर्तम के
गीत को पा
लिया। जिसे
अंतर्तम की लय
उपलब्ध हो गई।
जो अब उस लय के
साथ नाच रहा
है।
हममें
से कुछ शरीर
का गीत गा रहे
हैं। दुखी हम
होंगे ही।
क्योंकि वह
हमारा गीत
नहीं। हममें
से कुछ शरीर
की ही वासनाओं
को पूरा करने
में लगे हैं।
वे कभी पूरी
नहीं होतीं।
वे कभी पूरी
हो नहीं सकतीं।
क्योंकि शरीर
का स्वभाव
क्षणभंगुर है।
आज भूख लगती
है,
भर दो पेट, कल फिर भूख
लगेगी। कोई एक
दफा पेट भर
देने से भूख
थोड़े ही मिट
जाएगी! भूख तो
फिर—फिर लगेगी।
आज प्यास है, पानी पी लो, फिर घड़ी भर
बाद प्यास लगेगी।
आज कामवासना
जगी है, कामवासना
में डूब लो, फिर घड़ी भर
बाद कामवासना
जगेगी।
शरीर
का स्वभाव
क्षणभंगुर है।
वहा तृप्ति
कभी स्थिर हो
नहीं सकती।
अतृप्ति वहां
बनी ही रहेगी।
लाख तुम करो
उपाय, तुम्हारे
उपाय से कुछ न
होगा। शरीर का
स्वभाव नहीं
है।
यह
तो ऐसे ही है जैसे
कोई आदमी आग
को ठंडा करने
में लगा हो; कि
रेत से तेल
निचोड़ने में
लगा हो। तुम
कहोगे पागल है।
आग कहीं ठंडी
हुई? आग का
स्वभाव गर्म
होना है। कि
रेत से कहीं
तेल निचुड़ा? रेत में तेल
है ही नहीं।
पागल मत बनी।
शरीर
से जो तृप्ति
की आकांक्षा
कर रहा है वह नासमझ
है। उसने शरीर
के स्वभाव में
झांक कर नहीं
देखा। शरीर
क्षणभंगुर है।
बना ही
क्षणभंगुर से
है। भंगुरता
शरीर का
स्वभाव है।
जिन—जिन चीजों
से मिला है वे
सभी चीजें
बिखरने को तत्पर
हैं;
बिखरेगी।
शाश्वत जब तक
न हो तब तक
तृप्ति कहा? सनातन न
मिले तब तक
सुख कहा?
नहीं, शरीर
के छंद को
जिसने अपना
छंद मान लिया,
जिसने ऐसा
गलत तादात्मय
किया वह
भटकेगा, वह
रोएगा, वह
तड़फेगा। और
शरीर के छंद
को अपना छंद
मान लिया तो
अपना छंद जो
भीतर गज रहा
है अहर्निश, सुनाई ही न
पड़ेगा। शरीर
के नगाड़ों में,
बैंड—बाजों
में, क्षणभंगुर
की चीख—पुकार
में, शोरगुल
में, बाजार
में, वह जो
भीतर अहर्निश
बज रही वीणा
स्वयं की, वह
सुनाई ही न
पड़ेगी।
वह
सुर बड़ा धीमा
है। वह सुर
शोरगुल वाला
नहीं है। उसे
सुनने के लिए शांति
चाहिए; निश्चल
चित्त चाहिए;
मौन
अवधारणा
चाहिए; निगूढ़
वासनाशून्यता
चाहिए। आना—जाना
न हो, आपाधापी
न हो, भाग—दौड़
न हो; बैठ
गए हो, कुछ
करने को न हो, ऐसी
निष्क्रिय
दशा में, ऐसे
शात प्रवाह
में उसका
आविर्भाव
होता है।
फूटती है भीतर
की किरण। आती
है सुगंध। जब
आती है तो खूब
आती है। एक
बार द्वार—दरवाजा
खुल जाए तो रग—रग
रोआं—रोआं
आनंदित हो
उठता है।
उस
भीतर के गीत
के फूटने का
नाम है
स्वच्छंद।
स्वच्छंद का
अर्थ है : जो
अपने गीत से
जीता। न तो
समाज के गीत
से जीता, न
राष्ट्र के
गीत से जीता।
राष्ट्रगीत
उसका गीत नहीं।
समाज का गीत
उसका गीत नहीं।
संप्रदाय, मंदिर,
मस्जिद, पंडित—
पुरोहित उसका
गीत नहीं।
ये
तो दूर की
बातें हैं, अपने
शरीर की भी लय
में लय नहीं
बांधता। शरीर
को कहता है, तू ठीक, तेरा
काम ठीक। भूख
लगे, रोटी
ले। प्यास लगे,
पानी ले।
लेकिन इतना
मैंने जान
लिया कि तेरे
साथ शाश्वत का
कोई संबंध
नहीं है।
शरीर
की भी छोड़े, मन
का गीत भी
नहीं
गुनगुनाता।
क्योंकि देख
लिया कि मन भी
क्षण— क्षण
बदल रहा है।
एक क्षण ठहरता
नहीं। जो
ठहरता ही नहीं
वह सुख को
कैसे उपलब्ध
होगा? बिना
ठहराव के सुख
कैसे संभव है?
जो रुकता ही
नहीं, जो
भागा ही चला
जाता है, वह
कैसे
विश्रांति
पाएगा? भागना
जिसका
गुणधर्म है।
मन का गुणधर्म
भागना है। मन
ठहरा कि मरा।
जब तक भागता
है तभी तक
जीता है। मन
तो साइकिल
जैसा है—बाइसिकल।
पैडल मारते
रहे, चलती
रहती है। पैडल
रुके, कि
गिरे। मन
दौड़ता रहे तो
चलता रहता है।
रुके कि गिरा।
जो रुकने से
मिट जाता है
वहा विश्राम
कैसे होगा? वहा विराम
कैसे होगा?
स्वच्छंद
का अर्थ है : अब
मन का छंद भी
अपना छंद नहीं।
अब तो हम उस
छंद को गाते, जो
हमारे
आत्यंतिक
स्वभाव से उठ
रहा है। वही
है अनाहत नाद,
ओंकार। नाम
उसे कुछ भी दो।
बुद्ध उसे
निर्वाण कहते
हैं, महावीर
उसे
कैवल्यदशा
कहते हैं।
अष्टावक्र का
शब्द है, स्वच्छंदता।
और बड़ा प्यारा
शब्द है।
निर्वासनो
निरालंब:
स्वच्छंदो...।
स्वच्छंद
को जो उपलब्ध
हो गया।
मुक्तबंधन:।
वही, केवल
वही बंधन से
मुक्त है।
इस
बात को भी
खयाल में लेना।
बंधनमुक्ति
कोई
नकारात्मक
बात नहीं है, विधायक
बात है। स्वयं
के छंद को जो
उपलब्ध हो गया
वही बंधनमुक्त
है।
बंधनमुक्ति
जंजीरों का
टूटना नहीं है
मात्र।
क्योंकि ऐसा
भी हो सकता है
कि तुम किसी
व्यक्ति को
कारागृह से
खींच कर बाहर
ले आओ; जबरदस्ती
खींच कर बाहर
ले आओ; वह
आना भी न चाहे
और खींच कर
बाहर ले आओ; उसकी
जंजीरें तोड़
दो; उसे
धक्के देकर
कारागृह के
बाहर कर दो; लेकिन क्या
तुम सोचते हो,
इससे वह
स्वतंत्रता
को उपलब्ध हो
गया, मुक्त
हो गया?
जो
आना भी न
चाहता था, जो
जंजीरें
तोड़ना भी न
चाहता था, जिसे
कारागृह के
बाहर लाने में
भी धक्के देने
पड़े। यह तो
करागृह के
बाहर लाना न
हुआ। क्योंकि
जहां धक्के
देकर लाना पड़े
उसी का नाम तो
कारागृह है।
यह तो बड़ा
कारागृह आ गया।
इसमें धक्के
देकर ले आए।
पहले धक्के
देकर छोटे
कारागृह में
लाए थे, अब
धक्के देकर
जरा बड़े
कारागृह में
ले आए।
दीवालें जरा
दूर हैं, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? लेकिन
जहां धक्के
देकर लाना
पड़ता है वहीं
तो कारागृह है।
जबरदस्ती में
बंधन है।
अब
तुम देखते हो, कोई
आदमी
जबरदस्ती
उपवास कर रहा
है इससे थोड़े ही
स्वच्छंदता
मिलेगी। और
जितना ही
तडूफता है भूख
से उतनी ही
जबरदस्ती
करता है; क्योंकि
सोचता है, लड़
रहा हूं धक्के
दे रहा हूं
आत्मज्ञान की
यात्रा कर रहा
हूं। कोई आदमी
काटी पर लेटा
है, कोई
कोड़े मार रहा
है शरीर को।
कोई रात सोता
नहीं, जागा
है, खड़ा है।
धूप—ताप में
खड़ा है। सता
रहा है।
अनाचार कर रहा
है। स्वयं को
पीड़ा दे रहा
है, इस आशा
में कि इसी
तरह तो मुक्ति
होगी।
नहीं, अष्टावक्र
कहते हैं, यह
मुक्त होने का
उपाय नहीं। यह
तो मुक्ति
बंधन से भी
बदतर हो जाएगी।
जबरदस्ती
कहीं मुक्ति
हुई?
तो
मुक्ति
नकारात्मक
नहीं है।
मुक्ति बंधन
के टूटने में
ही नहीं है।
मुक्ति
स्वातंप्य की
उपलब्धि में
है,
स्वच्छंदता
की उपलब्धि
में है। जो
स्वच्छंद को
उपलब्ध हो
जाता है उसके
बंधन ऐसे ही
गिर जाते हैं,
जैसे कभी थे
ही नहीं।
ठीक
से समझें तो
इसका अर्थ
होता है कि हम
बंधे हैं
क्योंकि हमें
अपनी आंतरिक
स्वतंत्रता
का कोई पता
नहीं। आंतरिक
स्वतंत्रता
का पता चल जाए
बंधन गिर जाते
हैं। बांधा
हमें किसी और
ने नहीं है
इसलिए लड़ने का
कोई सवाल नहीं
है। बंधे हैं
हम क्योंकि
हमने स्वयं को
जाना नहीं।
हमने अपने को
ही बांधा है।
किसी ने हमें
बांधा नहीं है।
यह हमारी
धारणा है।
तुमने
कभी देखा किसी
सम्मोहनविद
को किसी व्यक्ति
को सम्मोहित
करते? सम्मोहनविद
जब किसी
व्यक्ति को
सम्मोहित कर देता
है तो उससे
जैसा कह देता
है, सम्मोहित
व्यक्ति वैसा
ही मान लेता
है। अगर पुरुष
को कहे कि तू
स्त्री हो गया,
अब तू चल
मंच पर, तो
वह स्त्री की
तरह चलता है।
कठिन है
स्त्री की तरह
चलना। पुरुष
स्त्री की तरह
चले, बहुत
कठिन है।
क्योंकि
स्त्री की तरह
चलने के लिए
भीतर पूरे
शरीर की रचना
भिन्न होनी
चाहिए। गर्भाशय
होना चाहिए तो
ही स्त्री की
तरह कोई चल
सकता है। नहीं
तो बहुत
मुश्किल है।
बड़े अभ्यास की
जरूरत है।
लेकिन
यह आदमी तो
कभी अभ्यास
किया भी नहीं।
अचानक इसको
सम्मोहित
करके कह दिया
कि तू स्त्री
है,
चल। और वह
स्त्री की तरह
चलता है। क्या
हो गया? —एक
मान्यता।
तुम
चकित होओगे, आधुनिक
मनस्विद
सम्मोहन पर
बड़ी खोजें कर
रहे हैं। अगर
सम्मोहित
व्यक्ति के
हाथ में
साधारण सा कंकड़
उठा कर रख
दिया जाए का
कंकड़, और
कह दिया जाए
अंगारा है तो
हाथ में फफोला
आ जाता है।
अंगारा तो रखा
नहीं, फफोला
आता कैसे?
इसी
सूत्र के आधार
पर लंका में बौद्ध
भिक्षु अंगार
पर चलते हैं।
इससे उलटा
सूत्र। अगर
तुमने मान रखा
है कि अंगार
नहीं जलाएगा, तो
नहीं जला
सकेगा।
तुम्हारी
मान्यता चीन
की दीवाल बन
जाती है।
तुमने अगर मान
लिया है कि
कंकड़ भी
अंगारा है तो
कंकड़ से भी
फफोला आ जाता
है। तुम्हारी
मान्यता!
सूफियों
में कहानी है
कि बगदाद के
बाहर खलीफा
उमर शिकार को
गया था। और
उसने एक बड़े
अंधड़ की तरह
एक काली छाया
को आते देखा।
तो उसने रोका।
उसने कहा, रुक!
मैं खलीफा उमर
हूं। और बगदाद
में प्रवेश के
पहले मेरी
आज्ञा चाहिए।
तू है कौन? उसने
कहा, क्षमा
करें मैं
मृत्यु हूं।
और पाच हजार
लोगों को मरना
है बगदाद में।
और मृत्यु
किसी की आज्ञा
नहीं मानती।
खलीफा आप
होंगे। क्षमा
करें। पांच
हजार लोग मरने
को हैं, इतना
आपको कह देती
हूं।
महाप्लेग
फैली। और कहते
हैं,
पचास हजार
लोग मरे।
खलीफा बहुत
नाराज हुआ। वह
बाहर राह
देखता रहा। जब
प्लेग खतम
होने लगी और
गांव से
बीमारी
समाप्त होने
लगी तो वह बाहर
आकर खड़ा रहा।
फिर अंधड़ की
तरह निकली मौत
और उसने पूछा,
रुक। आज्ञा
न मान, ठीक;
लेकिन मौत
होकर झूठ
बोलना कब से
सीखा? तूने
कहा, पांच
हजार मारने
हैं, पचास
हजार मर गए।
उसने कहा, क्षमा
करें, मैंने
पांच हजार ही
मारे। बाकी
पैंतालीस
हजार अपने ही
भय से मर गए।
मैंने उनको
ख्युा ही नहीं
है।
आदमी
की हजार
बीमारियों
में नौ सौ
निन्यानबे अपनी
ही पैदा की
होती हैं। मान
लेता है। मान
लेता है तो
घटना घट जाती
है। तुम्हारी
मान्यता छोटी—मोटी
बात नहीं है।
नागार्जुन एक
बौद्ध भिक्षु
हुआ। एक युवक
ने आकर
नागार्जुन को
कहा कि मुझे
भी मुक्ति का
कुछ स्वाद दें।
तो नागार्जुन
ने कहा, इसके
पहले कि
मुक्ति का
स्वाद ले सको,
एक सत्य को
जानना पड़ेगा
कि बंधन तुमने
पैदा किए हैं।
उसने कहा, मैं
और अपने बंधन
करूंगा पैदा?
आप भी क्या
बात कर रहे
हैं! कोई अपने
बंधन अपने हाथ
से पैदा करता?
यह बात
तर्कयुक्त
नहीं है। बंधन
कौन डालना
चाहता है? सब
मुक्ति चाहते
हैं।
नागार्जुन
ने कहा, तू
भूल यह बात।
मेरे देखे
मुक्ति शायद
ही कोई चाहता
है। लोग बंधन
ही चाहते हैं।
लोग बंधनों से
प्रेम करते
हैं। पर वह
युवक न माना
तो नागार्जुन
ने कहा, फिर
तू एक काम कर, यह सामने
गुफा है, तू
इसमें भीतर
चला जा। और
तीन दिन अब न
तो पानी, न
भूख; बस
तीन दिन तू एक
ही बात का
विचार करता रह
कि तू आदमी
नहीं है, भैंस
है। उसने कहा,
इससे क्या
होगा? तीन
दिन बाद
नागार्जुन ने
कहा, हम
देखेंगे। अगर
तीन दिन तू
टिक गया तो
बात हो जाएगी।
युवक
जिद्दी था।
युवक था। चला
गया गुफा में।
लग गया रटन
में। न दिन
देखा, न रात; न भूख देखी, न प्यास।
बाहर आया नहीं।
आंख नहीं खोली।
दोहराता रहा
कि मैं भैंस
हूं मैं भैंस
हूं..। पहले तो
पागलपन लगा।
घटे—दो घंटे
तो बिलकुल
व्यर्थ की
बकवास लगी।
लेकिन धीरे—
धीरे हैरान
होना शुरू हुआ।
भैंस भीतर से
प्रकट होने
लगी। भाव आने
लगा। आंख खोल
कर देखी तो
आदमी जैसा
आदमी है,। आंख
बंद करे तो
कुछ—कुछ भैंस
की धारणा।
स्थूल देह..
.वजन होने लगा।
तीन
दिन पूरे होते—होते..
.तीसरे दिन
सुबह जब
नागार्जुन ने
उसके पास जाकर
द्वार पर खड़े
होकर कहा कि
बाहर आ, तो
उसने निकलने
की कोशिश की
और उसने कहा, क्षमा करें,
सींग के
कारण निकल
नहीं सकता हूं।
सींग अटकते
हैं।
नागार्जुन
ने जोर से उसे
चांटा मारा और
कहा,
आंख खोल।
कैसे सींग? आंख खोली
तिलमिला कर—न
कोई सींग हैं,
न कोई बात
है, लेकिन क्षणभर
पहले निकल
नहीं पा रहा
था।
नागार्जुन ने
कहा, मान्यता...।
यह सम्मोहन का
एक प्रयोग था।
हम अपने बंधन
स्वयं माने
बैठे हैं।
मुक्तबंधन
का अर्थ होता
है : हमने
स्वयं के छंद
को अनुभव किया।
हमने
स्वतंत्रता
का स्वाद और
रस लिया। रस
लेते ही फिर
हम बंधन अपने
निर्मित नहीं
करते। कोई और
तुम्हारा
कारागृह नहीं
बना रहा है, तुम
ही अपने
कारागृह के
निर्माता हो।
तुम्हीं कैदी
हो, तुम्हीं
जेलर।
तुम्हीं पड़े
हो सीखचों के
भीतर और सीखचे
तुमने ही डाले
हैं।
हथकड़ियां, बेड़ियां
जरूर
तुम्हारे
पैरों पर हैं
लेकिन किसी और
के द्वारा
निर्मित नहीं
हैं : उन
हथकड़ियों—बेड़ियों
पर तुम्हारे
ही हस्ताक्षर
हैं।
एक
बड़ी प्रसिद्ध
सूफी कथा है।
एक बहुत बड़ा
लोहार था। बडा
प्रसिद्ध
लोहार था। वह
जो भी बनाता
था,
सारे संसार
में उसकी बनाई
गई चीजों की
ख्याति थी। वह
जो भी बनाता
था उस पर अपने
हस्ताक्षर कर
देता था। फिर
एक बार उसकी
राजधानी पर
हमला हुआ। वह
पकड़ लिया गया।
गांव के सभी
प्रमुख
प्रतिष्ठित
लोग पकड़ लिए गए,
उनमें वह भी
पकड़ लिया गया।
उसके हाथों में
जंजीरें डाल दी
गईं, पैर
में बेड़ियां
डाल दी गईं और
पहाड़ी खंदकों
में उसे
फिंकवा दिया
गया और
प्रतिष्ठित
नागरिकों के
साथ।
और
सब तो बडे रो रहे
थे और घबडा रहे
थे लेकिन वह निश्चित
था। उस नगर के
वजीर ने उससे कहा
कि भाई, हम सब घबडा
रहे हैं कि अब क्या
होगा, लेकिन
तू निश्चित है?
उसने कहा, मैं लोहार
हूं। जीवन भर
हथकड़ियां
मैंने डालीं;
तोड़ भी सकता
हूं। ये
हथकड़ियां
मुझे कुछ रोक
न पाएंगी। आप
घबडाएं मत।
अगर मैंने
अपनी
हथकड़ियां तोड़
लीं तो
तुम्हारी भी
तोड़ दूंगा। एक
दफा इनको हमें
फेंक कर चले
जाने दें।
वजीर
भी हिम्मत से
भर गया, राजा
भी हिम्मत से
भर गया। जब
दुश्मन
उन्हें खंदकों—
में फेंक कर
लौट गए तो
वजीर ने कहा, अब क्या
विचार है? लेकिन
अचानक लोहार
उदास हो गया
और रोने लगा।
उसने कहा, क्या
मामला है? तू
अब तक तो
हिम्मत बांधे
था, अब
क्या हुआ? उसने
कहा, अब
मुश्किल है।
मैंने हथकड़ी
गौर से देखी, इस पर तो
मेरे
हस्ताक्षर
हैं। यह तो
मेरी ही बनाई
हुई है। यह
नहीं टूट सकती।
यह असंभव है।
मैंने कमजोर
चीज कभी बनाई
ही नहीं। मैं
हमेशा मजबूत
से मजबूत चीज
ही बनाता रहा
हूं। वही मेरी
ख्याति है। यह
किसी और की
बनाई होती तो
मैंने तोड़ दी
होती। अब यह
टूटनेवाली
नहीं। क्षमा
करें। इस पर
मेरे
हस्ताक्षर
हैं।
मैं
तुमसे कहता
हूं तुम्हारी
हर हथकड़ी पर
तुम्हारे
हस्ताक्षर
हैं। कोई और
तो डालेगा भी
कैसे? और मैं
तुमसे यह कहना
चाहता हूं कि
रोने की कोई
जरूरत नहीं है।
कितनी ही
मजबूत हो, तुम्हारी
ही बनाई हुई
है। और
बनानेवाले से
बनाई गई चीज
कभी भी बड़ी
नहीं होती। हो
नहीं सकती।
कितना
ही बड़ा चित्र
कोई बनाए
चित्रकार, लेकिन
चित्रकार
चित्र से बड़ा
रहता है। और
कितना ही बड़ा
शीत कोई गाए
गीतकार, लेकिन
गायक गीत से
बड़ा रहता है।
और कितना ही
मधुर कोई नाचे
नर्तक, लेकिन
नर्तक नृत्य
से बड़ा रहता
है। इसीलिए तो
परमात्मा
संसार से बड़ा
है। और इसीलिए
तो आत्मा शरीर
से बड़ी है।
चिंता
न लेना। यह
बात,
कि जीवन के
सारे बंधन
हमारे ही बनाए
हुए हैं, घबड़ाने
वाली नहीं है,
मुक्तिदायी
है। हम तोड़
सकते हैं।
और
मजा तो यह है
कि बंधन
काल्पनिक हैं।
वस्तुत: नहीं
हैं,
स्वभवत हैं,
सम्मोहन के
हैं।
निर्वासनो
निरालंब:
स्वच्छंदो
मुक्तबंधन:।
क्षिप्त:
संसारवातेन चेष्टते
शुष्कपर्णवत्।।
'वासनामुक्त,
वासनाशन्य,
स्वतंत्र, निरालंब, स्वयं के
छंद को उपलब्ध
बंधनरहित जो
पुरुष है' —फिर
अनुवाद में
थोड़ी भूल है— 'प्रारब्धरूपी
हवा से
प्रेरित होकर
शुष्क पत्ते
की भांति
व्यवहार करता
है।’
मूल
है ससारवातेन—ससार
की हवा से—प्रारब्ध
का कोई सवाल
नहीं है।
भाग्य का कोई
सवाल नहीं है।
संसार की गति
है,
उस संसार की
गति में सूखे
पत्ते की तरह..
.हवा में जैसे
सूखा पत्ता
पूरब—पश्चिम
जाता, ऊपर—नीचे
गिरता; ऐसे
ही पूर्ण
ज्ञानी पुरुष
बहुत से
व्यवहारों
में संलग्न
होता मालूम
पड़ता है, लेकिन
तुम यह नहीं कह
सकते कि वह
करता है।
जब
सूखा पत्ता
पूरब की तरफ
जाता है तो
तुम यह थोड़े
ही कहोगे कि
सूखा पत्ता
पूरब की तरफ
जा रहा है।
सूखा पत्ता तो
कहीं नहीं जा
रहा है, हवा
पूरब की तरफ
जा रही है।
हवा दिखाई नही
पड़ती, सूखा
पता दिखाई
पड़ता है।
लेकिन सूखा
पत्ता तो कहीं
नहीं जा रहा
है। हवा न चले,
सूखा पत्ता
गिर जाएगा।
ज्ञानी अपने
को छोड़ देता
अस्तित्व के
सागर में जहां
ले जाए। उसकी
अपनी कोई निजी
आकांक्षा
नहीं है।
और
इस सूत्र में
समाधि का सारा
सार है। चलो, उठो,
बैठो—संसारवातेन।
तुम अपनी
आकांक्षा से
नहीं। जो होता
हो, जैसा
होता हो, वैसा
होने दो।
दुकान करते हो,
दुकान करते
रहो। युद्ध के
मैदान में खड़े
हो तो युद्ध
के मैदान में
जूझते रही।
जैसे हो, जहां
हो, छोड़ दो
अपने को वहीं।
वहीं समर्पित
हो जाओ। बहने
दो संसार की
हवाएं; तुम
सूखे पत्ते हो
जाओ।
क्षिप्त:
संसारवातेन
चेष्टते
शुष्कपर्णवत्।
बस, फिर
सब अपने से हो
जाएगा। फिर
कुछ और करने
को नहीं है।
तुम सूखे
पत्ते क्या
हुए, तुम्हारे
जीवन में सारे
अमृत की वर्षा
हो जाएगी।
जहां
अपनी कोई आकांक्षा
नहीं रहती वहां
कोई दुःख नहीं
रह जाता। वहाँ
कोई पराजय
नहीं, विषाद नही।
वहां कोई मान
नहीं, सम्मान
नहीं, अपमान
नहीं। वहाँ कोई
हार नहीं, जीत
नहीं। क्षण—
क्षण वहां
परमात्मा
बरसता है। उस
परमात्मा का
नाम ही स्वयं
का छंद है। वह
तुम्हारा ही
गीत है जो तुम
भूल बैठे।
गुनगुनाओगे, फिर याद आ
जाएगा।
असंसारस्य
तु क्यापि न
हषों न
विषादता।
और
जो सूखे पते
की भांति हो
गया,
ऐसे जिसके
भीतर संसार न
रहा—
असंसारस्य।
स
शीतलमना
नित्यं विदेह
इव सजते।
'संसारमुक्त
पुरुष को न तो
कभी हर्ष है
और न विषाद।
वह शातमना सदा
विदेह की
भांति शोभता
है।’
अनुवाद
में कुछ खो
जाता लगता है।
असंसारस्य—
अनुवाद में
कहा है संसार—
मुक्त पुरुष
को।
असंसारस्य का
अर्थ होता है, जिसके
भीतर संसार न
रहा; या
जिसके लिए
संसार न रहा।
संसार
का अर्थ ही
क्या है? ये
वृक्ष, ये
चांद—तारे, ये थोड़े ही
संसार हैं!
संसार का अर्थ
है, भीतर
बसी वासनाएं,
कामनाएं, इच्छाएं—उनका
जाल। कुछ पाने
की इच्छा
संसार है। कुछ
होने की इच्छा
संसार है।
महत्वाकांक्षा
संसार है।
असंसारस्य—जिसके
भीतर संसार न
रहा,
जिसमें
संसार न रहा; या जो संसार
में रह कर भी
अब संसार का
नहीं है। ऐसे
व्यक्ति को
कहा हर्ष, कहां
विषाद!
स
शीतलमना
नित्यं विदेह
इव राजते।
ऐसे
पुरुष का मन
हो गया शीतल—शीतलमना।
इसे
भी समझना। जब
तक जीवन में
हर्ष और विषाद
है तब तक तुम
शीतल न हो
सकोगे।
क्योंकि हर्ष
और विषाद, सुख
और दुख, सफलता—असफलता
ज्वर लाते हैं,
उत्तेजना
लाते हैं, उद्वेग
लाते हैं। जब
तुम दुखी होते
हो तब तो
बीमार होते ही
हो, जब तुम
सुखी होते हो
तब भी बीमार
होते हो। सुख
भी बीमारी है,
क्योंकि
उत्तेजक है।
सुख में शांति
कहां? तुमने
एक बात तो जान
ली है कि दुख
में शांति कहा?
दूसरी बात
जाननी है कि
सुख में भी
शांति कहां? सुख में भी
उत्तेजना हो
जाती है।
चित्त में खलल
हो जाती है।
तुमने
देखा न? आदमी
दुख में तो बच
जाता है, कभी—कभी
सुख में मर
जाता है।
मैंने
सुना, एक आदमी
को दस लाख
रुपये मिल गए
लाटरी में।
खबर आई तो
पत्नी घबड़ा गई।
पत्नी ने कहा,
पति आते ही
होंगे.. .दस लाख!
दस रुपये का
नोट भी कभी
इकट्ठा इनके
हाथ में नहीं
पड़ा। दस लाख!
सह न सकेंगे
इस सुख को।
बहुत डर गई।
ईसाई थी। पास
में ही पादरी
था, भागी
गई। कहा कि आप
कुछ उपाय करिए।
पति आएं, इसके
पहले कुछ उपाय
करिए। दस लाख!
अचानक! हृदय
की गति बंद हो
जाएगी। मेरे
पति को बचाइए।
पुरोहित
ने कहा, घबड़ाओ
मत। पादरी ने
कहा, मैं
आता हूं। सब
सम्हाल लेंगे।
पादरी आकर बैठ
गया। आया पति
घर, तो
पादरी ने
हिसाब से बात
की। उसने कहा
कि सुनो, तुम्हें
लाटरी मिली, एक लाख
रुपया जीते...
धीरे— धीरे
उसने सोचा, ऐसा हिसाब
करके धीरे—
धीरे कहेंगे।
लाख सह लेगा
तो फिर लाख और
बताएंगे; फिर
लाख सह लेगा
तो फिर लाख और
बताएंगे। वह
आदमी बड़ा
प्रसन्न हो
गया। उसने कहा
कि अगर लाख
रुपये मुझे
मिले तो पचास
हजार चर्च को
दान करता हूं।
कहते
हैं,
पादरी वहीं
गिर पड़ा, हार्ट
फेल हो गया।
पचास हजार...!
कभी देखे नहीं,
सुने नहीं।
सुख
भी गहरी
उत्तेजना
लाता है। सुख
का भी ज्वर है।
दुख का तो
ज्वर है ही; और
दुख को तो हम
झेल भी लेते
हैं, क्योंकि
दुख के हम आदी
हो गए हैं। और
सुख को तो हम
झेल भी नहीं
पाते, क्योंकि
सुख का हमें
कोई अभ्यास ही
नहीं है।
मिलता ही कहां
सुख कि अभ्यास
हो जाए?
तो
न तो आदमी दुख
को झेल पाता, न
सुख को झेल
पाता है। और
दोनों ही
स्थिति में
आदमी का चित्त
उत्तेजना से
भर जाता है।
उत्तेजना
यानी गर्मी।
शीतलता खो
जाती है। और
शीतलता में
शांति है।
असंसारस्य
तु क्यापि न
हषों न
विषादता।
स
शीतलमना
नित्यं विदेह
इव सजते।।
और
जो शीतलमन हो
गया,
अब जहां सुख—दुख
नहीं आते, अब
जहां सुख और
दुख के पक्षी
बसेरा नहीं
करते, ऐसा
जो अपनी
स्वच्छंदता
में शीतल हो गया
है, जिसके
भीतर बाहर से
अब कोई
उत्तेजना
नहीं आती, हार
और जीत की कोई
खबरें अब अर्थ
नहीं रखतीं; सम्मान कोई
करे और अपमान
कोई करे, भीतर
कुछ अंतर नहीं
पड़ता। भीतर
एकरसता बनी
रहती है। ऐसा
जो शीतलमन हो
गया है, वह
व्यक्ति
शांतमना सदा
विदेह की
भांति शोभता
है। वह तो
राजसिंहासन
पर बैठ गया।
नित्यं
विदेह इव सजते।
वह
तो देह नहीं
रहा अब, विदेह
हो गया।
क्योंकि सुख
और दुख से जो
प्रभावित
नहीं होता है
वह देह के पार
हो गया। सुख
और दुख से देह
ही प्रभावित
होती है। ये
सब देहे के ही
गुणधर्म हैं :
सुख और दुख से
आदोलित हो
जाना। विदेह
हो गया। देह
के पार हो गया,
अतिक्रमण
हो गया।
कुत्रापि
न
जिहासाऽस्ति
नाशो वापि न
कुत्रचित्।
आत्मारामस्य
धीरस्य
शीतलाच्छतरात्मन:।।
'आत्मा में
रमण करने वाले
और शीतल तथा
शुद्ध चित्तवाले
धीरपुरुष की न
कहीं त्याग की
इच्छा है और न
कहीं पाने की
इच्छा है।’
अब
न कुछ पकड़ना
है,
न कुछ छोड़ना
है। अब तो उसे
जान लिया जो
है। पकड़ना—छोड़ना
तो तभी तक है
जब तक'हमें
अपना पता नहीं।
अपना पता हो
गया तो क्या
पकड़ना है? क्या
छोड़ना है? क्योंकि
पकड़ने से अब
कुछ बढ़ेगा
नहीं और छोड़ने
से अब कुछ
घटेगा नहीं।
अब जिसे अपना
पता हो गया
उसे तो सब मिल
गया। अब सब
पकड़ना—छोड़ना
व्यर्थ है।
अब
तो ऐसा ही है, जैसे
सारे जगत का
साम्राज्य
मिल गया, वह
कंकड़—पत्थर
बीनता फिरे।
जो सारे
साम्राज्य का
मालिक हो गया,
विराट के
सिंहासन पर
बैठ गया, अब
वह चुनाव में
खड़ा हो जाए, कि
म्युनिसपल
में मेंबर
बनना है!
बेमानी बातें
हैं। अब उसका
कुछ अर्थ न
रहा।
जिसे
अंतर की
प्रतिष्ठा
मिल गई अब वह
किसी और की
प्रतिष्ठा
चाहे, यह बात
ही खतम हो गई।
सच तो यह है, दूसरे के
द्वारा दी गई
प्रतिष्ठा
कोई प्रतिष्ठा
थोड़े ही है।
क्योंकि
दूसरे के हाथ
में है। जब
चाहे तब खींच
लेगा। दूसरे
के द्वारा
मिली
प्रतिष्ठा तो
एक तरह की
गुलामी है।
अगर तुमने
मुझे
प्रतिष्ठा दी
तो मैं
तुम्हारा
गुलाम हुआ।
क्योंकि तुम
किसी दिन खींच
लोगे तो मैं
क्या करूंगा?
तुम्हारी
दी थी, तुम्हारा
दान था, मैं
तो भिखारी था।
तुम्हारा दिल
बदल गया, तुम्हारा
मन बदल गया, हवा बदल गई, मौसम बदल
गया। तुम और
ढंग से सोचने
लगे। दूसरे के
द्वारा दी गई
प्रतिष्ठा तो
भीख है।
स्वच्छंद
में जो जीता
है उसकी एक और
ही प्रतिष्ठा
है। वह एक और
ही सिंहासन है।
वह अपना ही
सिंहासन है।
उसे कोई छीन
नहीं सकता।
उसे कोई चोर
चुरा नहीं
सकता, डाकू
लूट नहीं सकते,
आग जला नहीं
सकती। मृत्यु
भी उसे नहीं
छीन सकती, औरों
की तो बात ही
क्या!
और
ऐसा व्यक्ति
आत्मा में रमण
करने वाला हो
जाता है।
स्वच्छंद
आत्मा में रमण
करने वाला—
आत्मारामस्य।
हम
सब दूसरे में
रमण कर रहे
हैं। कोई धन
में रमण कर
रहा है। सोचता
है और लाख, दस
लाख, और
करोड़ हो जाएं।
उसका रमण धन
में चल रहा है।
कोई पद में
रमण कर रहा है :
इससे बड़ी
कुर्सी, उससे
बड़ी कुर्सी, कुर्सियों
पर कुर्सियां
चढ़ता चला जाता
है।
अलग—अलग
तरह के लोग
हैं,
लेकिन एक
बात में समान
हैं कि रमण
अपने से बाहर
हो रहा है—पर—संभोग।
यह संसारी का
लक्षण है। स्व—संभोग,
आत्मरति, आत्मा में
रमण, यह
धार्मिक का
लक्षण है।
धार्मिक वही
है, जिसे
यह कला आ गई कि
अपना रस अपने
भीतर है; और
जो अपने ही रस
को चूसने लगा।
अब
यह बड़े मजे की
बात है कि जब
हम दूसरे का
रस भी चूसते
हैं,
तब भी
वस्तुत: हम
दूसरे का रस
नहीं चूसते, तब भी रस तो
अपना ही होता
है।
जैसे
कुत्ता सूखी
हड्डी चूसता
है और बड़ा
प्रसन्न होता
है। तुम हड्डी
छुडाओ, छोड़ेगा
नहीं।
हालांकि
हड्डी में कुछ
भी नहीं है, रस तो है
नहीं। हड्डी
में रस कहां? लेकिन
कुत्ते को कुछ
मिलता जरूर है।
मिलता यह है
कि सूखी हड्डी
उसके मुंह में
घाव बना देती
है। खुद का ही
खून बहने लगता
है। खुद के ही
खून का स्वाद
आने लगता है।
वही खुद का
खून कंठ में
उतरने लगता है,
कुत्ता
सोचता है रस
हड्डी से आ
रहा है। सब रस
तुमने जो अब
तक. जाने हैं, तुमसे ही आए।
और हड्डी के
कारण नाहक
तुमने घाव
बनाए। हड्डी छोड़
दो, घाव से
छुटकारा हो
जाएगा। रस तो
तुम्हारा है।
रस बाहर से
आता ही नहीं।
एक
अमीर आदमी
अपनी तिजोड़ी
में सोने की
ईटं रखे था।
रोज खोल कर
देख लेता था।
अंबार लगा रखा
था सोने की
ईंटों का। फिर
बंद कर देता
था। बड़ा
प्रसन्न था।
उसका बेटा यह
देखता था।
सारा घर
परेशान था।
लोग जरूरत की
चीजें भी पा
नहीं सकते थे
और वह ईटं
जमाए बैठा था।
घर के लोग ही
दरिद्रता में
जी रहे थे।
आखिर
बेटे ने धीरे—
धीरे करके एक—एक
ईंट खिसकानी
शुरू कर दी और
ईंट की जगह
पीतल की ईटं
रखता गया—सोने
की ईंट की जगह।
बाप की
प्रसन्नता
जारी रही।
धीरे— धीरे सब
ईटं नदारद हो
गईं। लेकिन
बाप रोज खोल
लेता तिजोड़ी, देखता
ईटें रखी हैं,
प्रसन्न
होकर ताला बंद
कर देता। जिस
दिन मर रहा था,
उस दिन बेटे
ने। हहा, एक
बात आपसे कहनी
है। यह मजा आप
भीतर ही भीतर
का ले रहे हैं।
ईटं वहा हैं
नहीं, क्योंकि
ईटं तो हम खिसका
चुके हैं बहुत
पहले। तत्क्षण
बाप दुखी हो
गया, छाती
पीटने लगा।
जिंदगी गुजर
गई मजे में, अब यह मरते
वक्त दुखी हो
गया।
सोने
की ईंट में
थोड़े ही सुख
है,
तुम्हारी
मान्यता, कि
सोने की ईंट
है, बहुमूल्य
है, अपनी
है, मैं
मालिक, अपने
पास है, इसमें
सुख है। सुख
तो तुम्हारा
भीतर है, हड्डी
तुम कोई भी
चुन लो।
धार्मिक
व्यक्ति वही
है जिसने
हड्डी छोड़ दी, क्योंकि
हड्डी के कारण
घाव बनते हैं।
और जिसने कहा,
जब सुख भीतर
ही है तो सीधा—सीधा
ही क्यों न ले
लें? बैठेंगे
आंख बंद करके,
डूबेंगे।
नाचेंगे भीतर।
बजाएंगे वीणा
भीतर की।
गुनगुनाएंगे
भीतर। डुबकी
लेंगे प्रेम
में। डूबेंगे
भीतर रस में।
इतना
ही फर्क है
संसारी और
असंसारी में।
संसारी सोचता
है,
बाहर कहीं
है। जब तुम
किसी सुंदर
स्त्री को देख
कर प्रसन्न होते
हो तब भी
प्रसन्नता
तुम्हारे
भीतर से ही आती
है। और जब तुम,
लोग
तुम्हें फूलमालाएं
पहनाते हैं तब
तुम प्रसन्न
होते हो, तब
भी प्रसन्नता
तुम्हारे
भीतर से ही
आती है। और जब
कोई तुम्हें
किसी भी तरह
का सुख देता
है, तब जरा
गौर से देखना,
सुख वहां से
आता है कि
कहीं भीतर से
ही झरता? बाहर
तो निमित्त
हैं, स्रोत
भीतर है। बाहर
तो बहाने हैं,
मूल स्रोत
भीतर है।
बहानों
से मुक्त होकर
जो व्यक्ति रस
लेने लगता है
उसको
अष्टावक्र
कहते हैं, ' आत्मारामस्य'। आत्मा में
ही अब अपना रस
लेने लगा। अब
इसके ऊपर कोई
बंधन न रहा।
अब दुनिया में
कोई इसे दुखी
नहीं कर सकता।
और अब इसकी
सारी
भ्रांतियां
टूट गईं। इसने
मूल स्रोत को
पा लिया।
यह
स्रोत भीतर है।
हम जरा चक्कर
लगा कर पाते
हैं। और चक्कर
लगाने के कारण
बहुत सी
उलझनें खड़ी कर
लेते हैं। कभी—कभी
तो ऐसा हो
जाता है कि
जिन
निमित्तों के
कारण हम इस
सुख को पाना
चाहता हैं, वे
निमित्त ही
इतने बड़े बाधा
बन जाते हैं
कि हम इस तक
पहुंच ही नहीं
पाते।
प्रकृत्या
शन्यचित्तस्य
कुर्वतोऽस्य
यदृच्छया।
प्राकृतस्येव
धीरस्य न मानो
नावमानता।।
'स्वाभाविक
रूप से जो
शून्यचित्त
है और सहज रूप
से कर्म करता
है, उस
धीरपुरुष के
सामान्य जन की
तरह न मान है
और न अपमान है।’
'स्वाभाविक
रूप से जो
शून्यचित्त है...।’
क्या
अर्थ हुआ, स्वाभाविक
रूप से
शन्यचित्त? चेष्टा से
नहीं, प्रयास
से नहीं, अभ्यास
से नहीं, यत्न
से नहीं; स्वभावत:,
समझ से, बोध
से, जागरूकता
से जिसने इस
सत्य को समझा
कि सुख मेरे
भीतर है। इसे
तुम देखो। इसे
तुम पहचानो।
इसे तुम जगह—जगह
जाचो, परखों।
इसके लिए
कसौटी सजग रखो।
देखा
तुमने? रात
पूर्णिमा का
चांद है, तुम
बैठे हो, बड़ा
सुख मिल रहा
है। तुम जरा आंख
बंद करके खयाल
करो, चांद
निमित्त है या
चांद से सुख आ
रहा?
क्योंकि
तुम्हारे
पड़ोस में ही
दूसरा आदमी भी
बैठा है और
उसको चांद से
बिलकुल सुख नहीं
मिल रहा। उसकी
पत्नी मर गई
है,
वह रो रहा
है। चांद को
देख कर उसे
क्रोध आ रहा
है, सुख
नहीं आ रहा।
चांद पर उसे
नाराजगी आ रही
है। वह कह रहा
है कि आज ही
पूर्णिमा
होनी थी? यह
भी कोई बात
हुई? इधर
मेरी पत्नी
मरी और आज ही
तुम्हें।' पूरा
होना था? और
आज ही रात ऐसी
चांदनी से भरनी
थी? यह
व्यंग हो रहा
है मेरे !ऊ?पर,
यह मजाक हो
रहा है मेरे
ऊपर। यह कोई
वक्त था? चार
दिन रुक जाते
तो कुछ? हर्ज
था?
जिसकी
प्रेमसी मिल
गई है, उसको
अमावस की रात
में भी
पूर्णिमा
मालूम पड़ती है
और जिसकी
प्रेयसी खो गई
है, पूर्णिमा
की रात भी
अमावस हो जाती
है। कहते हैं
भूखा आदमी अगर
देखता हो आकाश
में तो चांद
भी रोटी जैसा
लगता है, जैसे
रोटी तैर रही
है।
जर्मनी
के एक बहुत
बड़े कवि
हेनरिक हेन ने
लिखा है कि वह
तीन दिन के
लिए ज़ंगल में खो
गया एक बार।
इतना भूखा, इतना
भूखा, कि जब
पूर्णिमा का
चांद निकला तो
उसे लगा कि
रोटी तैर रही
है। वह बड़ा
हैरान हुआ।
उसने कविताएं
पहले बहुत
लिखी थीं, कभी
भी नहीं सोचा
था कि चाद में
और रोटी दिखाई
पड़ेगी। हमेशा
किसी सुंदरी
का मुख दिखाई
पड़ता था। आज
एकदम रोटी
दिखाई पड़ने
लगी। उसने
बहुत चेष्टा
भी की कि
सुंदरी का मुख
देखे, लेकिन
जब पेट भूखा
हो, तीन
दिन से भूखा
हो, पांव
में छाले पड़े
हों और जान
जोखिम में हो,
कहां की
सुंदर स्त्री!
ये सब तो सुख—
सुविधा की
बातें हैं।
चांद दिखता है
कि रोटी तैर
रही है। आकाश
में रोटी तैर
रही है।
तुम्हें बाहर
से जो मिलता
है वह भीतर का
ही प्रक्षेपण
है। रस भीतर
है। जीवन का
सारा सार भीतर
है।
'स्वाभाविक
रूप से जो
शून्यचित्त
है—प्रकृत्यो
शून्यचित्तस्य।’
और
जबरदस्ती
चेष्टा मत
करना।
जबरदस्ती की
चेष्टा काम
नहीं आती। तुम
जबरदस्ती
अपने को बिठाल
लो पद्यमासन
लगा कर, आंख
बंद करके, पत्थर
की तरह मूर्ति
बन कर बैठ जाओ,
इससे कुछ भी
न होगा। तुम
भीतर उबलते
रहोगे, आग
जलती रहेगी।
भागदौड़ जारी
रहेगी। वासना
का तूफान
उठेगा, अंधड़
उठेंगे। कुछ
भी बदलेगा
नहीं।
प्रकृत्या—तुम्हें
धीरे— धीरे
समझ पूर्वक, चेष्टा
से नहीं, जबरदस्ती
आरोपण से नहीं।
कबीर कहते हैं,
साधो सहज
समाधि भली।
सहजता से।
समझो जीवन को।
देखो। जहां—जहां
सुख मिलता हो
वहां—वहां आंख
बंद करके गौर
से देखो— भीतर
से आ रहा, बाहर
से? तुम
सदा पाओगे, भीतर से आ
रहा है। और
जहां—जहां
जीवन में दुख
मिलता हो वहां
भी गौर से देखना;
तुम सदा
पाओगे, दुख
का अर्थ ही
इतना होता है,
भीतर से
संबंध छूट गया।
सुख
का इतना ही
अर्थ होता है, भीतर
से संबंध जुड़
गया। किस
बहाने जुड़ता
है यह बात
महत्वपूर्ण
नहीं है। भीतर
से जब भी
संबंध जुड़
जाता है, सुख
मिलता है। और
भीतर से जब भी
संबंध छूट
जाता है, दुख
मिलता है।
किसी
ने गाली दे दी, दुख
मिलता है।
लेकिन तुम
समझना, गाली
केवल इतना ही
करती है कि
तुम भूल जाते
हो अपने को।
तुम्हारा
भीतर से संबंध
छूट जाता है।
गाली तुम्हें
इतनाउत्तेजित
कर देती है कि
तुम्हें याद
ही नहीं रह
जाती कि तुम
कौन हो। एक
क्षण में तुम
बावले हो
जाते!
उद्विग्न, विक्षिप्त।
टूट गया संबंध
भीतर से।
मित्र
आ गया बहुत
दिन का बिछुड़ा, वर्षों
की याद! हाथ
में हाथ ले
लिया, गले
से गले लग गए।
एक क्षण को
भीतर से संबंध
जुड़ गया। इस
मधुर क्षण में,
इस मित्र की
मौजूदगी में
तुम अपने से
जुड़ गए। एक
क्षण को भूल
गईं चिंताएं,
दिन के भार,
दिन के बोझ
खो गए। एक
क्षण को तुम
अपने में डूब
गए। यह मित्र
केवल बहाना है।
यह केवल
निमित्त हो
गया।
जिस
घड़ी में भी
तुम अपने से
जुड़ जाते, सुख
बरस जाता। जिस
घड़ी तुम अपने
से टूट जाते, दुख बरस
जाता।
इस
सत्य को धीरे—धीरे
पहचानने लगता
है जब कोई, तो
धीरे— धीरे
निमित्त को
त्यागने लगता
है। फिर बैठ
जाता है अकेला।
इसी का नाम
ध्यान है। फिर
वह यह फिकर
नहीं करता कि
मित्र आए तब
सुखी होंगे।
ऐसे रोज मित्र
आते नहीं। और
रोज आने लगें
तो सुख भी न
आएगा; वे
कभी—कभी आते
हैं तो ही आता
है। ऐसे घर
में ही ठहर
जाएं तो फिर
बिलकुल न आएगा।
फिर
ऐसा व्यक्ति
इसकी चिंता
नहीं करता कि
चांद जब निकलेगा
तब सुखी होंगे; कि
जब बसंत आएगा
और फूल
खिलेंगे तब
सुखी होंगे।
ऐसी भी क्या
कंजूसी? जब
सुख भीतर ही
है तो धीरे—
धीरे बिना
निमित्त के
व्यक्ति अपने
को अपने से
जोड्ने लगता
है। इसी का
नाम ध्यान।
ऐसे बैठ जाता
है शांत, अपने
से जोड़ लेता
है—बिना
निमित्त के।
निमित्तशून्यता
में अपने से
जोड़ लेता।
और
जब कभी एक बार
भी बिना
निमित्त के
तुम अपने से
जुड़ जाते हो, तो
घटना घट गई।
कुंजी मिल गई।
अब तुम जानते
हो, अब
किसी पर
निर्भर रहने
की जरूरत नहीं
है। जब चाहो
तब ताला
खुलेगा। जब
चाहो तब भीतर
का द्वार
उपलब्ध है।
बीच बाजार में
तुम आंख बंद
करके खड़े हो
सकते हो और
डूब जा सकते
हो अपने में।
फिर
धीरे— धीरे आंख
बंद करने की
भी जरूरत नहीं
रह जाती, क्योंकि
वह भी निमित्त
ही है। फिर आंख
खुली रखे तुम
अपने में डूब
जाते हो। फिर
तुम काम करते—
करते भी डूब
जाते हो। फिर
ऐसा भी नहीं है
कि पदासन में
ही बैठना पड़े,
कि पूजागृह
में बैठना पड़े,
कि मंदिर—मस्जिद
में बैठना पड़े।
फिर तुम बाजार
में, खेत
में, खलिहान
में काम करते—करते
भी अपने में
डूब जाते हो।
धीरे—धीरे
यह तुम्हारा
इतना सहज भाव
हो जाता कि
इसमें बाहर
आना,
भीतर आना
जरा भी अड़चन
नहीं देता। एक
घड़ी ऐसी आती
कि तुम अपने
भीतर के स्रोत
में डूबे ही
रहते हो। करते
रहते हो काम, चलता रहता
है बाजार, दुकान
भी चलती है, ग्राहक से
बात भी चलती, खेत—खलिहान
भी चलता, गड्डा
भी खोदते जमीन
में, बीज
भी बोते, फसल
भी काटते, बात
भी करते, चीत
भी सुनते, सब
चलता रहता है
और तुम अपने
में डूबे खड़े
रहते हो। ऐसे
रसलीन जो हो
गया वही सिद्ध—पुरुष
है।
'स्वाभाविक
रूप से जो
शून्यचित्त
है औबसहज रूप
से कर्म करता
है, उस
धीरपुरुष के सामान्य
जन की तरह न
मान है न अपमान।'
कृतं
देहेन
कर्मेदं न
माया
शुद्धरूपिणा।
इति
चिंतानुरोधी 'य: कुर्वन्नति
न।।
'यह कर्म
शरीर से किया
गया है, शुद्धस्वरूप
द्वारा नहीं,
ऐसी चितना
का जो अनुगमन
करता है, वह
कर्म करता हुआ
भी नहीं करता
है।’
और
अब तो जब तुम
अपने स्वरूप
में डूब जाते
हो तो तुम्हें
पता चलता है, जो
हो रहा है, या
तो शरीर का है
या मन का है; या शरीर और
मन के बाहर
फैली प्रकृति
का है। मेरा
किया हुआ कुछ
भी नहीं। मैं
अकर्ता हूं।
मैं केवल
साक्षी मात्र
हूं। ऐसी
चितना की धारा
तुम्हारे
भीतर बह जाती।
ऐसा सूत्र, ऐसी
चिंतामणि
तुम्हारे हाथ
लग जाती।
जब
तुम देखते हो
कि भूख लगी तो
शरीर में घटना
घटती है और
तुम देखनेवाले
ही बने रहते
हो। तुम्हारी
सुखधार में
जरा भी भेद
नहीं पड़ता।
इसका यह अर्थ
नहीं कि तुम
भूखे मरते
रहते हो। तुम
उठते हो, तुम
शरीर को कुछ
भोजन का
इंतजाम करते
हो। प्यास
लगती है तो
शरीर को पानी
देते हो। यह
तुम्हारा
मंदिर है।
इसमें
तुम्हारे
देवता बसे हैं।
तुम इसकी
चिंता लेते, फिकर लेते, लेकिन अब तुम
तादात्मय
नहीं करते। अब
तुम ऐसा नहीं
कहते कि मुझे
भूख लगी है।
अब तुम कहते
हो, शरीर
को भूख लगी है।
अब तुम चिंता
करते हो लेकिन
चिंता का रूप
बदल गया। अब
शरीर तृप्त हो
जाता है, तो
तुम कहते हो
शरीर तृप्त
हुआ। शरीर को प्यास
लगी, पानी
दिया। शरीर को
नींद आ गई, शरीर
को विश्राम
दिया। लेकिन
तुम अलिप्त, अलग—अलग, दूर—दूर,
पार—पार
रहते।
तुम
फिकर कर लेते
हो,
जैसे कोई
अपने घर की
फिकर करता है।
जिस घर में
तुम रहते हो, स्वच्छ भी
करते हो, कभी
रंग—रोगन भी
करते हो, दीवाली
पर सफेदा भी पुतवाते
हो, कपड़े
भी धुलवाते हो,
परदे भी साफ
करते हो, फर्नीचर
भी बदल लेते
हो; यह सब..
.लेकिन इससे
तुम यह
भ्रांति नहीं
लेते कि मैं
मकान हूं। तुम
मकान के मालिक
ही रहते हो; निवास करते
हो। तुम कभी
इसके साथ इतने
ज्यादा
संयुक्त नहीं
हो जाते कि
मकान गिर जाए
तो तुम समझो
कि मैं मर गया;
कि छप्पर
गिर जाए तो
तुम समझो कि
अपने प्राण गए;
कि मकान में
आग लग जाए तो
तुम चिल्लाओ
कि मैं जला।
ऐसी
ही घटना घटती
है ज्ञानी की।
जैसे—जैसे
भीतर का रस
स्पष्ट होता, भीतर
का साक्षी
जागता, वैसे
देह तुम्हारा
गृह रह जाती।
अगर
ठीक से समझो
तो गृहस्थ का
यही अर्थ है :
जिसने देह को
अपना होना समझ
लिया, वह
गृहस्थ। और
जिसने देह को
देह समझा और
अपने को पृथक
समझा, वही
संन्यस्त।
'यह कर्म
शरीर से किया
गया, मुझ
शुद्धस्वरूप
द्वारा नहीं,
ऐसी चितना
का जो अनुगमन
करता, वह
कर्म करता हुआ
भी नहीं करता
है।’
और
यह महाघोष—कि
फिर उस
व्यक्ति के
कोई कर्म नहीं
हैं। उसे कोई
कर्म छूता
नहीं। वह
अकर्ता हो गया।
करते हुए
अकर्ता हो गया।
'जीवन्मुक्त
उस सामान्य जन
की ही तरह
कर्म करता है,
जो कहता कुछ
है और करता
कुछ और है' —इस
सूत्र को
समझना— 'तो
भी वह मूढ़
नहीं होता है।
और वह सुखी श्रीमान
संसार में रह
कर भी
शोभायमान
होता है।’
अतद्वादीव
कुरुते न
भवेदपि बालिश:।
जीवन्मुक्त:
सुखी
श्रीमान्
संसरन्नपि
शोभते।।
यह
सूत्र थोड़ा
जटिल है; फिर
से सुनें।
'जीवनमुक्त
उस सामान्य जन
की तरह ही
कर्म करता है,
जो कहता कुछ
है और करता
कुछ और है...।’
सामान्य
आदमी का क्या
लक्षण है? हम
कहते हैं, बेईमान
है; कहता
कुछ, करता
कुछ।
अष्टावक्र
कहते हैं, यही
हालत मुक्त
पुरुष की भी
है—कहता कुछ, करता कुछ।
मगर एक बड़ा
फर्क है; और
फर्क बड़ा
बुनियादी है।
अज्ञानी
कहता कुछ, करता
कुछ। अज्ञानी
जो करता, वही
उसकी सचाई है,
जो कहता वह झूठ।
फर्क समझ लेना।
अज्ञानी जो
कहता, वह
झूठ। वह धोखा
दे रहा है।
कहने में
मामला उसका सच
नहीं है, वह
झूठ बोल रहा
है। जो करता
है, वही
उसकी सचाई है।
तुम उसके कर्म
से ही उसे
पहचानना।
ज्ञानी
के मामले में
सिक्का
बिलकुल उलटा
है। ज्ञानी जो
कहता, बिलकुल
सच; जो
करता, वह
झूठ। फर्क
खयाल में आया?
ज्ञानी जो
कहता, बिलकुल
सच कहता। कहने
में जरा भी
भूल—चूक नहीं
होती उसकी।
लेकिन वह जो
करता है, उस
पर तुम ज्यादा
जोर मत देना।
क्योंकि भूख
लगेगी तो वह
भी भोजन करेगा।
आग लगेगी मकान
में तो वह भी
निकल कर बाहर
आएगा।
वह
भी कुछ कहेगा
और करेगा कुछ।
पूछने जाओगे
तो वह कहेगा
कि मैं कहां
जल सकता? 'नैनं
छिंदन्ति
शस्त्राणि
नैनं दहति
पावकः।’ कहां
आग जला सकती
और कहां
शस्त्र मुझे
छेद सकते!
लेकिन मकान
में आग लगेगी
तो तुम उसे
भागते बाहर
देखोगे। इससे
तुम यह मत
सोचना कि यह
आदमी बेईमान
है। वह जो
कहता है, सच
कहता है। उसके
करने पर ध्यान
मत देना, उसके
कहने पर ध्यान
देना। यह सच
है, वह जो
कह रहा है कि
कहा मुझे कौन
जला सकता? उसे
कोई जलाता भी
नहीं। देह
जलेगी, वह
नहीं जलेगा।
लेकिन देह में
जब तक तुम हो, देह
तुम्हारा
मंदिर है; तुम्हारे
देवता का आवास,
उसकी चिंता
लेना।
अज्ञानी
की हालत भी
ऐसी ही लगती
है कि कुछ कहता, कुछ
करता। लेकिन
उसके करने पर
ध्यान देना।
वह जो करता है
वही उसकी सचाई
है, वह कहे
कुछ भी। उसके
करने में तुम
सत्य को पाओगे,
ज्ञानी के ज्ञान
में तुम सत्य
को पाओगे।
ज्ञानी ज्ञान
में जीता, कर्म
में नहीं।
अज्ञानी कर्म
में जीता, ज्ञान
में नहीं।
'जो धीरपुरुष
अनेक प्रकार
के विचारों से
थक कर शांति
को उपलब्ध
होता है, वह
न कल्पना करता
है, न
जानता है, न
सुनता है, न
देखता है।’
नानाविचारसुश्रातो
धीरो
विश्रातिमागत:।
न
कल्पते न
जानाति न
श्रृणोति न
पश्यति।।
'जो धीरपुरुष
अनेक प्रकार
के विचारों से
थक कर शांति
को उपलब्ध होता
है...।’
और
जल्दी मत करना।
जल्दबाजी
खतरनाक है, महंगी
है। अधैर्य मत
करना। अगर अभी
विचारों में
रस हो तो
विचार खूब कर
लेना, थक
जाना। अगर
संसार में रस
हो तो जल्दी
नहीं है कुछ।
परमात्मा
प्रतीक्षा कर
सकता है अनंत
काल तक। घबड़ाओ
मत। जल्दी मत
करना। संसार
में रस हो तो
थका लेना रस
को। अगर बिना
थके संसार से
आ गए भाग कर और
छिप गए संन्यास
में तो मन
दौड़ता रहेगा।
शांति न
मिलेगी।
अगर
विचारों में
मन अभी लगा था
और मन
डांवाडोल
होता था, और
तुम किसी तरह
बांध कर ले आए
जबरदस्ती तो
भाग— भाग
जाएगा। सपने
उठेंगे।
कल्पना— जाल
उठेगा। मेह
फिर पैदा
होंगे। नये—नये
ढंगों से
पुरानी
विकृतियां
फिर वापस आएंगी;
पीछे के
दरवाजों से आ
जाएंगी, बाहर
के दरवाजे बंद
कर आओगे तो।
इससे कुछ लाभ
न होगा।
अष्टावक्र
कहते हैं, जीवन
को ठीक—ठीक
जान लो। थक
जाओ। जहां—जहां
रस हो, वहां—वहां
थक जाओ। जाओ।
गहनता से जाओ।
भय की कोई
जरूरत नहीं है।
खोना कुछ संभव
नहीं। तुम कुछ
खो सकते नहीं।
जो तुम्हारा
है, सदा
तुम्हारा है।
तुम कितने ही
गहन संसार में
उतर जाओ, तुम्हारी
आत्मा अलिप्त
रहेगी। जाओ।
खोज लो अंधेरी
रात को। इसमें
रस है, इसे
पूरा कर लो।
इसे विरस हो
जाने दो।
तुम्हारे ओंठ
ही तुमसे कह
दें, तुम्हारी
जीभ तुमसे कह
दे कि बस, अब
तिक्त हो गया
स्वाद। किसी
और की सुन कर
मत भाग खड़े
होना।
कोई
बुद्धपुरुष
मिल जाए और कह
दे कि संसार
सब असार है... और
जब बुद्धपुरुष
कहते हैं तो
उनकी बात में
बल तो होता ही
है। उनकी बात
में चमत्कार
तो होता ही है।
उनकी बात के
पीछे उनके
प्राण तो होते
ही हैं। उनकी
बात के पीछे
उनकी पूरी
ऊर्जा होती है, जीवन
का अनुभव होता
है। तो जब कोई
बुद्धपुरुष
कुछ कहता है
तो उसके वचन
तीर की तरह
चले जाते हैं।
मगर इससे काम
न होगा। तुम
किसी बुद्धपुरुष
की मान कर
पीछे मत चले
जाना, नहीं
तो तुम भटकोगे,
पछताओगे।
फिर—फिर
लौटोगे। इस
संसार की
प्रक्रिया को
ठीक से थका ही
डालो। जहां
तुम्हारा रस
हो वहा चले ही
जाओ। उसे भोग
ही लो।
जब
विचार स्वयं
थक जाते हैं
और मन स्वयं
ही थक कर
क्षीण होने
लगता है तभी...।
'जो धीर
पुरुष अनेक
प्रकारों के
विचारों से थक
कर' — थक कर, खयाल रखना— 'शांति को
उपलब्ध होता
है, वह न
कल्पना करता
है, न
जानता है, न
सुनता है, न
देखता है।’
फिर
कोई अड़चन नहीं
रह जाती। जो
थक कर आया है
वह बैठते ही
शांत हो जाता
है। जिसका रस
अभी कहीं अटका
रह गया है वह
शात नहीं हो
पाता। वह
मंदिर में भी
चला जाएगा तो
दुकान की
सोचेगा। वह
प्रार्थना भी
करेगा, पूजा
भी करेगा तो
दूसरे
विचारों की
तरंगें आती
रहेंगी। ऊपर—ऊपर
होगी
प्रार्थना, भीतर—भीतर
होगी वासना।
ऊपर—ऊपर होगा
राम, भीतर—
भीतर होगा काम।
उससे कुछ लाभ
न होगा, क्योंकि
जो भीतर है
वही सच है। जो
ऊपर है वह
किसी मूल्य का
नहीं। दो कौड़ी
उसका मूल्य है।
तुम कितना ही
राम—राम
दोहराओ इससे
कुछ भी नहीं
होता।
तुम्हारे
दोहराने का
सवाल नहीं है,
तुम्हारे
अनुभव का; अनुभवसिक्त
हो जाने का।
नानाविचारसुश्रांतो
धीरो
विश्रातिमागत:।
तभी
मिलती है
विश्रांति, विराम,
जब नाना
विचारों में
दौड़ कर थक गए
तुम। जीवन का
अनुभव लेकर
लौट आए घर।
बाजार, दुकान,
व्यर्थ।
सबको खोज डाला,
कहीं पाया
नहीं। सब तरह
से हार कर
लौटे। हारे को
हरिनाम! और तब
हरि का जो नाम
उठता है, जो
हरिकीर्तन
उठता है, उसकी
सुगंध और, उसकी
सुवास और।
जब
तक हार न गए हो, आधी
यात्रा से मत
लौट आना। नहीं
तो मन तो
यात्रा करता
ही रहेगा। इस
जीवन में बड़े
से बड़े संकटों
में एक संकट
है, अपरिपक
अवस्था में
ध्यान, समाधि,
धर्म में
उत्सुक हो
जाना। ऐस?, जैसे
कच्चा फल कोई
तोड़ ले। पका
नहीं था अभी।
जब पक जाता है
फल तो अपने से
गिरता है।
उसमें एक
सौंदर्य है, एक लालित्य
है, एक
प्रसाद है। न
तो वृक्ष को
पता चलता है
कि कब फल गिर
गया। न फल को
पता चलता है
कि कब गिर गया।
न कोई चोट फल को
लगती, न
वृक्ष को लगती।
चुपचाप अलग हो
जाता है। बिना—किसी
संघर्ष के अलग
हो जाता है।
सहज, प्रकृत्या—चुपचाप
अलग हो जाता
है।
पको!
पक कर ही गिरी।
और
इसीलिए मेरा जोर
इस बात पर है
कि संसार से
भागो ही मत।
क्योंकि
भागने में बडा
आकर्षण है।
क्योंकि
संसार में दुख
है यह सच है।
संसार में सुख
भी है यह भी सच
है। दुख देख
कर तुम भाग
जाओगे, लेकिन
जब कुटी में
बैठोगे जाकर
जंगल की तो
सुख याद आएगा।
बड़ी
पुरानी कथा है
: ईश्वर ने
आदमी को बनाया।
आदमी अकेला था।
उसने
प्रार्थना की
कि मैं अकेला
हूं मन नहीं लगता, तो
ईश्वर ने
स्त्री को
बनाया। सब काम
पूरा हो चुका
था, ईश्वर
सारी बनावट
पूरी कर चुका
था। सामान बचा
नहीं था बनाने
को तो उसने कई—कई
जगह से सामान
लिया। थोड़ी
चांदनी चांद
से ले ली, थोड़ी
रोशनी सूरज से
ले ली, थोड़े
रंग मोर से ले
लिए, थोड़ी
तेजी सिंह से
ले ली। ऐसा सामान
चारों तरफ से,
सब तरफ से
इकट्ठा करके
उसने स्त्री
बनाई, क्योंकि
सब काम पूरा
हो चुका था।
वह आदमी बना
चुका था, तब
आखिर में ये
सज्जन आए कहने
लगे, अकेले
में मन नहीं
लगता।
तो
स्त्री बना दी
उसने लेकिन
स्त्री
उपद्रव थी।
क्योंकि कभी—कभीं
वह गीत गाती
तो कोयल जैसा!
और कभी—कभी
सिंहनी जैसी
दहाड़ती भी।
कभी—कभी चांद
जैसी शीतल, और
कभी—कभी सूरज
जैसी उत्तप्त
हो जाती। जब
क्रोध में
होती तो सूरज
हो जाती, जब
प्रेम में
होती तो
चांदनी हो
जाती। तीन दिन
में आदमी थक
गया। उसने कहा,
यह तो
मुसीबत है।
इससे तो अकेले
बेहतर थे। तीन
दिन स्त्री के
साथ रह कर पता
चला कि एकांत
में बड़ा मजा
है। एकांत का मजा
बिना स्त्री
के चलता ही
नहीं पता।
ब्रह्मचर्य
का आनंद
गृहस्थ हुए
बिना पता चलता
ही नहीं।
वह
भागा, वापस
गया। उसने
ईश्वर से कहा,
कि क्षमा
करें, भूल
हो गई। मैंने
जो मागा, वह
गलती हो गई।
आप यह स्त्री
वापस ले लें, मुझे नहीं
चाहिए। यह तो
बड़ा उपद्रव है।
और यह तो मुझे
पागल कर
छोड़ेगी। और यह
भरोसे योग्य
नहीं है। कभी
गाती और कभी
क्रोधित हो
जाती। और कब
कैसे बदल जाती
यह कुछ समझ
में नहीं आता।
यह अतर्क्य है।
यह आप ही
सम्हाले।
ईश्वर
ने कहा, जैसी
मर्जी।
तीन
दिन छोड़ गया
ईश्वर के पास
स्त्री को। घर
जाकर लेटा, बिस्तर
पर पड़ा याद
आने लगी। उसके
मधुर गीत।
उसका गले में
हाथ डाल कर
झूलना! उसकी
सुंदर आंखें!
तीन दिन बाद
भागा पहुंचा।
उसने कहा कि
क्षमा करें, वह स्त्री
मुझे वापस दे
दें। सुंदर थी
1 गीत गाती थी।
घर में थोड़ी
गुनगुन थी। सब
उदास हो गया।
अब जंगल से
लौटता हूं
हारा— थका, लकड़ी
काट कर, जानवर
मार कर, कोई
स्वागत करने
को नहीं। घर
थी तो चाय—कॉफी
तैयार रखती थी।
द्वार पर खड़ी
मिलती थी।
प्रतीक्षा
करती थी। नहीं,
बड़ी उदासी
लगती है।
क्षमा करें, भूल हो गई।
मुझे वापस दे
दें। ईश्वर ने
कहा, जैसी
तुम्हारी
मर्जी।
तीन
दिन में फिर
हालत खराब हो
गई। तीन दिन
बाद वह फिर आ
गया। ईश्वर ने
कहा,
अब बकवास
बंद। तुम न
स्त्री के
बिना रह सकते
हो, न
स्त्री के साथ
रह सकते हो।
तो अब जैसे भी
हो, गुजारो।
तब
से आदमी जैसे
भी हो वैसे
गुजार रहा है!
तुम
अगर बाजार में
हो तो आश्रम
बड़ा प्रीतिकर
लगेगा। अगर
तुम आश्रम में
हो तो बाजार
की याद आने
लगेगी। अगर
तुम बंबई में
हो तो कश्मीर, अगर
कश्मीर में हो
तो बंबई।
संसार
में सुख और
दुख मिश्रित
हैं। वहां
चांद भी है और
सूरज भी। और
मोर भी नाचते
हैं और सिंह
भी दहाड़ते हैं।
तो जब तुम
मौजूद होते हो
संसार में तो
सब उसका दुख
दिखाई पड़ता है; वह
उभर कर आ जाता
है। जब तुम
दूर हट जाते
हो तो सब याद
आती हैं सुख
की बातें।
इसलिए
मैं कहता हूं
मेरे
संन्यासी को, भागना
मत। वहीं रहना।
पकना। भागना
मत, पकना।
पक कर गिरना।
थक जाने देना।
अपने से होने
देना। तुम
जल्दी मत करना।
जो
सहज हो जाए
वही सुंदर है।
साधो
सहज समाधि भली।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें