दिनांक
21 अगस्त; 1971
प्रथम
पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर हाल बम्बई।
धम्म-सूत्र
धम्मो
मंगलमुक्किट्ठं,
अहिंसा
संजमो तवो।
देवा
वि तं नमंसन्ति,
जस्स धम्मे सया
मणो ।।
धर्म
सर्वश्रेष्ठ
मंगल है।
(कौन-सा धर्म?) अहिंसा,
संयम और तपरूप
धर्म। जिस
मनुष्य का मन
उक्त धर्म में
सदा संलग्न
रहता है, उसे
देवता भी
नमस्कार करते
हैं।
धर्म
सर्वश्रेष्ठ
मंगल है -- तो
अमंगल क्या है, दुख
क्या है, मनुष्य
की पीड़ा और
संताप क्या है?
उसे न समझें
तो "धर्म मंगल
है, शुभ है,
आनंद है'-- इसे भी
समझना आसान न
होगा। महावीर
कहते हैं--
धर्म सर्वश्रेष्ठ
मंगल है। जीवन
में जो भी
आनंद की संभावना
है, वह
धर्म के द्वार
से ही प्रवेश
करती है। जीवन
में जो भी
स्वतंत्रता
उपलब्ध होती
है वह धर्म के
आकाश में ही
उपलब्ध होती
है।
जीवन में जो भी सौंदर्य के फूल खिलते हैं वे धर्म की जड़ों से ही पोषित होते हैं। और जीवन में जो भी दुख है वह किसी न किसी रूप में धर्म से च्युत हो जाने में, या अधर्म में संलग्न हो जाने में है। महावीर की दृष्टि में धर्म का अर्थ है-- जो मैं हूं, उस होने में ही जीना है। जो मैं हूं, उससे जरा भी, इंच-भर भी च्युत न होना है।
जीवन में जो भी सौंदर्य के फूल खिलते हैं वे धर्म की जड़ों से ही पोषित होते हैं। और जीवन में जो भी दुख है वह किसी न किसी रूप में धर्म से च्युत हो जाने में, या अधर्म में संलग्न हो जाने में है। महावीर की दृष्टि में धर्म का अर्थ है-- जो मैं हूं, उस होने में ही जीना है। जो मैं हूं, उससे जरा भी, इंच-भर भी च्युत न होना है।
जो
मेरा होना है, जो
मेरा
अस्तित्व है
उससे जहां मैं
बाहर जाता हूं,
सीमा का
उल्लंघन करता
हूं। जहां मैं
विजातीय से
संबंधित होता
हूं, जहां
मैं उससे
संबंधित होता
हूं जो मैं
नहीं हूं, वहीं
दुख का
प्रारंभ हो
जाता है। और
दुख का प्रारंभ
इसलिए हो जाता
है कि जो मैं
नहीं हूं, उसे
मैं कितना ही
चाहूं, वह
मेरा नहीं हो
सकता। जो मैं
नहीं हूं, उसे
मैं कितना ही
बचाना चाहूं,
उसे मैं बचा
नहीं सकता। वह
खोयेगा
ही। जो मैं
नहीं हूं, उस
पर मैं कितना
ही श्रम और
मेहनत करूं, अंततः मैं
पाऊंगा वह
मेरा नहीं
सिद्ध हुआ।
श्रम हाथ
लगेगा, चिंता
हाथ लगेगी, जीवन का
अपव्यय होगा
और अंत में
मैं पाऊंगा कि
मैं खाली का
खाली रह गया
हूं। मैं केवल
उसे ही पा
सकता हूं जिसे
मैंने किसी
गहरे अर्थ में
सदा से पाया
ही हुआ है।
मैं केवल उसका
ही मालिक हो
सकता हूं
जिसका मैं
जानूं न जानूं,
अभी भी
मालिक हूं।
मृत्यु जिसे
मुझसे नहीं
छीन सकेगी, वही केवल
मेरा है। देह
मेरी गिर
जाएगी तो भी जो
नहीं गिरेगा,
वही केवल
मेरा है।
रुग्ण हो
जाएगा सब कुछ,
दीन हो
जाएगा सब कुछ,
नष्ट हो
जाएगा सब कुछ--
फिर भी जो
नहीं म्लान होगा,
वही मेरा
है। गहन
अंधकार छा जाए,
अमावस आ जाए
जीवन में
चारों तरफ--
फिर भी जो
अंधेरा नहीं
होगा वही मेरा
प्रकाश है।
लेकिन
हम सब, जो मैं
नहीं हूं, वहां
खोजते हैं
स्वयं को।
वहीं से
विफलता, वहीं
से फ्रसटरेशन,
वहीं से
विषाद जन्मता
है। जो भी हम
चाहते हैं, वह स्वयं को
छोड़कर सब हम
चाहते हैं।
हैरानी की बा
त है, इस
जगत में बहुत
कम लोग हैं जो
स्वयं को
चाहते हैं।
शायद आपने इस
भांति नहीं
सोचा होगा कि
आपने स्वयं को
कभी नहीं चाहा,
सदा किसी और
को चाहा।
वह और, कोई
व्यक्ति भी हो
सकता है; वस्तु
भी हो सकती है,
कोई पद भी
हो सकता है, कोई स्थिति
भी हो सकती है;
लेकिन सदा
कोई और है, अन्य
है-- दि अदर।
स्वयं को
हममें से कोई
भी कभी नहीं
चाहता। और
केवल एक ही
संभावना है
जगत में कि हम
स्वयं को पा
सकते हैं, और
कुछ पा नहीं
सकते। सिर्फ
दौड़ सकते हैं।
जिसे हम पा
नहीं सकते और
केवल दौड़ सकते
हैं,
उससे
दुख आएगा।
उससे डिसइल्युजनमेंट
होगा, कहीं न
कहीं भ्रम
टूटेगा और ताश
के पत्तों का घर
गिर जाएगा। और
कहीं न कहीं
नाव डूबेगी,
क्योंकि वह
कागज की थी।
और कहीं न
कहीं हमारे स्वप्न
बिखरेंगे
और आंसू बन
जाएंगे।
क्योंकि वे
स्वप्न थे।
सत्य
केवल एक है, और
वह यह कि मैं
स्वयं के
अतिरिक्त इस
जगत में और
कुछ भी नहीं
पा सकता हूं।
हां, पाने
की कोशिश कर
सकता हूं।
पाने का श्रम
कर सकता हूं, पाने की आशा
बांध सकता हूं,
पाने के
स्वप्न देख
सकता हूं। और
कभी-कभी ऐसा भी
अपने को भरमा
सकता हूं कि
पाने के
बिलकुल करीब
पहुंच गया
हूं। लेकिन
कभी पहुंचता
नहीं, कभी
पहुंच नहीं
सकता हूं।
अधर्म
का अर्थ है, स्वयं
को छोड़कर और
कुछ भी पाने
का प्रयास।
अधर्म का अर्थ
है, स्वयं
को छोड़कर "पर'
पर दृष्टि।
और हम सब "दि
अदर ओरिएंटेड'
हैं। हमारी
दृष्टि सदा
दूसरे पर लगी
है। और कभी
अगर हम अपनी
शक्ल भी देखते
हैं तो वह भी
दूसरे के लिए।
अगर आइने
के सामने खड़े
होकर भी अपने
को देखते हैं
तो वह किसी के
लिए-- कोई जो
हमें देखेगा--
उसके लिए हम
तैयारी करते
हैं। स्वयं को
हम सीधा कभी
नहीं चाहते। और
धर्म तो स्वयं
को सीधे चाहने
से उत्पन्न होता
है। क्योंकि
धर्म का अर्थ
है स्वभाव -- दि
अल्टीमेट
नेचर। वह जो
अंततः, अंततोगत्वा
मेरा, मेरा
होना है, जो
मैं हूं।
सार्त्र
ने बहुत कीमती
सूत्र कहा है।
कहा है-- दि अदर इज हैल। वह
जो दूसरा है, वही
नरक है हमारा।
सार्त्र ने
किसी और अर्थ
में कहा है।
लेकिन महावीर
भी किसी और
अर्थ में राजी
हैं। वे भी
कहते हैं कि
दि अदर इज
हैल, बट दि इंफेसिस इज नाट आन
दि अदर ऐज
हैल, बट आन वनसेल्फ ऐज दि
हैवन। दूसरा
नरक है, यह
महावीर नहीं
कहते हैं
क्योंकि इतना
कहने में भी
दूसरे को
चाहने की
आकांक्षा और
दूसरे से मिली
विफलता छिपी
है। महावीर
कहते हैं--
"स्वयं होना
मोक्ष है।
धर्म है मंगल'।
सार्त्र
के इस वचन को
थोड़ा समझ लें।
सार्त्र का
जोर है यह
कहने में कि दूसरा
नर्क है।
लेकिन दूसरा
नर्क क्यों
मालूम पड़ता है, यह
शायद सार्त्र
ने नहीं सोचा।
दूसरा नर्क इसीलिए
मालूम पड़ता है
कि हमने दूसरे
को स्वर्ग मानकर
खोज की। हम
दूसरे के पीछे
गये, जैसे
वहां स्वर्ग
है। वह चाहे
पत्नी हो, चाहे
पति, चाहे
बेटा हो, चाहे
बेटी। चाहे
मित्र, चाहे
धन, चाहे
यश। वह कुछ भी
हो दूसरा, जो
मुझसे अन्य
है। सार्त्र
को कहने में
आता है कि
दूसरा नर्क है
क्योंकि
दूसरे में
स्वर्ग खोजने
की कोशिश की
गई है।अगर
स्वर्ग नहीं
मिलता तो नरक
मालूम पड़ता
है। महावीर
नहीं कहते कि
दूसरा नरक है।
महावीर कहते
हैं-- "धम्मो मंगलमुक्किट्ठं'--
धर्म मंगल
है। अधर्म
अमंगल है, ऐसा
भी नहीं कहते।
कि यह "दूसरा'
नरक है, ऐसा
भी नहीं कहते
हैं। स्वयं का
होना मुक्ति है,
मोक्ष है, मंगल है, श्रेयस
है।
इसमें
फर्क है।
इसमें फर्क
यही है कि
दूसरे नरक हैं
यह जानना
दूसरे में
स्वर्ग को
मानने से दिखाई
पड़ता है। अगर
मैंने दूसरे
से कभी सुख
नहीं चाहा तो
मुझे दूसरे से
कभी दुख नहीं
मिल सकता। हमा
री अपेक्षाएं
ही दुख बनती
हैं -- ऐक्सपेक्टेशन्स
डिसइल्यूजन्ड।
अपेक्षाओं का
भ्रम जब टूटता
है तो विपरीत
हाथ लगता है।
दूसरा नरक
नहीं है। अगर
महावीर को ठीक
समझें तो सार्त्र
से कहना पड़ेगा
कि दूसरा नरक
नहीं है। लेकिन
तुमने चूंकि
दूसरे को
स्वर्ग माना
इसलिए दूसरा
नरक हो जाता
है। लेकिन तुम
स्वयं स्वर्ग
हो।
और
स्वयं को
स्वर्ग मानने
की जरूरत नहीं
है। स्वयं का
स्वर्ग होना
स्वभाव है। दूसरे
को स्वर्ग
मानना पड़ता है
और इसलिए फिर
दूसरे को नरक
जानना पड़ता
है। वह हमारे
ही भाव हैं।
जैसे कोई रेत
से तेल
निकालने में
लग गया हो, तो
उसमें रेत का
तो कोई कसूर
नहीं है। और
जैसे कोई
दीवार को
दरवाजा मानकर
निकलने की कोशिश
करने लगे तो
दीवार का तो
कोई दोष नहीं
है। और अगर
दीवार दरवाजा
सिद्ध न हो और
सिर टूट जाए
और लहूलुहान
हो जाए तो
क्या आप नाराज
होंगे? और
कहेंगे कि
दीवार दुष्ट
है? सार्त्र
वही कह रहा
है। वह कह रहा
है, दूसरा
नरक है। इसमें
दूसरे का कंडेम्नेशन
है, इसमें
दूसरे की
निंदा है और
दूसरे पर
क्रोध छिपा
है।
महावीर
यह नहीं कहते।
महावीर का
वक्तव्य बहुत पाजिटिव
है। महावीर
कहते हैं--
धर्म मंगल है, स्वभाव
मंगल है, स्वयं
का होना मोक्ष
है और स्वयं
को मानने की जरूरत
नहीं है कि
मोक्ष है।
ध्यान रहे, मानना हमें
वही पड़ता है, जहां नहीं
होता। समझना
हमें वहीं
पड़ता है, जहां
नहीं होता।
कल्पनाएं
हमें वहीं
करनी होती हैं
जहां कि सत्य
कुछ और है।
स्वयं को सत्य
या स्वयं को
धर्म या स्वयं
को आनंद मानने
की जरूरत नहीं
है। स्वयं का
होना आनंद है।
लेकिन हम जो दूसरे
पर दृष्टि
बांधे जीते
हैं, उन्हें
पता भी कैसे
चले कि स्वयं
कहां है? हमें
वही पता चलता
है जहां हमारा
ध्यान होता
है। ध्यान की
धारा, ध्यान
का फोकस, ध्यान
की रोशनी जहां
पड़ती है वही
प्रगट हो जा ता
है। दूसरे पर
हम दौड़ते हैं,
दूसरे पर
ध्यान की
रोशनी पड़ती है;
नरक प्रगट
होता है।स्वयं
पर ध्यान की
रोशनी पड़े तो
स्वर्ग प्रगट
होता है।
दूसरे में
मानना पड़ता है
और इसलिए एक
दिन भ्रम
टूटता है-- टूटता
ही है। कोई
कितनी देर
भ्रम को खींच
सकता है, यह
उसकी अपने
भ्रम को
खींचने की
क्षमता पर निर्भर
है।
बुद्धिमान है,
क्षण-भर में
टूट जाता है।
बुद्धिहीन है,
देर लगा
देता है। और
एक से छूटता
है भ्रम हमारा
तो तत्काल हम
दूसरे की तलाश
में लग जाते
हैं।
लेकिन
यह खयाल ही
नहीं आता कि
एक "दूसरे' से
टूटा हुआ भ्रम
का यह अर्थ
नहीं है कि
दूसरे "दूसरे'
से मिल
जाएगा
स्वर्ग।
जन्मों-जन्मों
तक यही पुनरुक्ति
होती है।
स्वयं में है
मोक्ष, यह
तब दिखाई पड़ना
शुरू होता है
जब ध्यान की
धारा दूसरे से
हट जाती है और
स्वयं पर लौट
आती है। "धर्म
मंगल है'-- यह
जानना हो तो
जहां- जहां
अमंगल दिखाई
पड़े वहां से
विपरीत ध्यान
को ले जाना।
दि अपोजिट
इज दि डायरेक्शन,
वह जो
विपरीत है। धन
में अगर न
दिखाई पड़े, मित्र में
अगर न दिखाई
पड़े, पति-पत्नी
में यदि न
दिखाई पड़े, बाहर अगर
दिखाई न पड़े, दूसरे में
अगर दिखाई न
पड़े तो सबसटीटयूट
खोजने मत लग
जाना। कि इस
पत्नी में
नहीं मिलता है
तो दूसरी
पत्नी में मिल
सकेगा। इस
मकान में नहीं
बनता स्वर्ग,
तो दूसरे
मकान में बन
सकेगा। इस
वस्त्र में नहीं
मिलता तो
दूसरे वस्त्र
में मिल सकेगा।
इस पद पर नहीं
मिलता तो थोड़ा
और दो सीढ़ियां
चढ़कर मिल
सकेगा। ये सबसटीटयूट
हैं।
यह एक
कागज की नाव
डूबती नहीं है
कि हम दूसरे कागज
की नाव पर सवा
र होने की
तैयारी करने
लगते हैं, बिना
यह सोचे हुए
कि जो भ्रम का
खंडन हुआ है
वह इस नाव से
नहीं हुआ, वह
कागज की नाव से
हुआ है। वह इस
पत्नी से नहीं
हुआ, वह
पत्नी-मात्र
से हो गया है।
वह इस पुरुष
से नहीं हुआ, वह
पुरुष-मात्र
से हो गया है।
वह इस "पर' से
नहीं हुआ, वह
"पर-मात्र' से
हो गया है।
महावीर की
घोषणा कि धर्म
मंगल है, कोई
हाइपोथिटिकल,
कोई प िरकल्पनात्मक
सिद्धांत
नहीं है, और
न ही यह घोषणा
कोई फिलासफिक,
कोई
दार्शनिक
वक्तव्य है।
महावीर कोई
दार्शनिक
नहीं हैं।
पश्चिम के
अर्थ में-- जिस
अर्थ में हीगल
या कांट या बट्रैंड
रसैल
दार्शनिक हैं,
उस अर्थे
में महावीर
दार्शनिक
नहीं हैं। महा
वीर का यह
वक्तव्य
सिर्फ एक
अनुभव, एक
तथ्य की सूचना
है। ऐसा
महावीर सोचते
नहीं कि धर्म
मंगल है, ऐसा
महावीर जानते
हैं कि धर्म
मंगल है। इसलिए
यह वक्तव्य
बिना कारण के
दिये गये वक्तव्य
हैं।
और जब
पहली बार पूरब
के मनुष्यों
के विचार पश्चिम
में अनूदित
हुए तो उन्हें
बहुत हैरानी
हुई क्योंकि
पश्चिम के
सोचने का जो ढंग
था-- अरस्तू से
लेकर आज तक--
अभी भी वही
है। वह यह है
कि तुम जो
कहते हो, उसका
कारण भी तो
बताओ। इस
वक्तव्य में
कहा है कि
"धम्मो मंगल मुक्किट्ठम'--
धर्म मंगल
है। अगर
पश्चिम में
किसी
दार्शनिक ने
यह कहा होता
तो दूसरा
वक्तव्य
होता-- क्यों, व्हाय? लेकिन
महावीर का
दूसरा
वक्तव्य व्हाय
नहीं है, व्हाट
है। महावीर
कहते हैं, धर्म
मंगल है।
(कौन-सा धर्म?) "अहिंसा संजमो तवो।'
वे यह नहीं
कहते, क्यों?
अगर पश्चिम
में अरस्तू
ऐसा कहता तो
अरस्तू तत्काल
बताता कि
क्यों मैं
कहता हूं कि
धर्म मंगल है।
महावीर कहते
हैं कि मैं
कहता हूं, धर्म
मंगल है। कौन-
सा धर्म? यह
अहिंसा, संयम
और तप वाला
धर्म मंगल है।
कोई कारण नहीं
दिया जा रहा
है, कोई
कारण नहीं बता
या जा रहा है।
कोई प्रमाण नहीं
दिया जा रहा
है। अनुभूति
के लिए कोई
प्रमाण नहीं
होता, सिद्धांतों
के लिए प्रमाण
होते हैं।
सिद्धांतों
के लिए तर्क
होते हैं, अनुभूति
स्वयं ही अपना
तर्क है।
अनुभूति को जानना
हो कि वह सही
है या गलत, तो
अनुभूति में
उतरना पड़ता
है। सिद्धांत
को जानना हो
कि सही है या
गलत, तो
सिद्धांत के सिलौसिज्म
में, सिद्धांत
की जो तर्कसरणी
है, उसमें
उतरना पड़ता
है। और हो
सकता है, तर्कसरणी बिलकुल सही
हो और
सिद्धांत
बिलकुल गलत
हो। और हो
सकता है, प्रमाण
बिलकुल ठीक
मालूम पड़े, और जिसके
लिए दिये गये
हैं, वह
बिलकुल ठीक न
हो। गलत बातों
के लिए भी ठीक
प्रमाण दिये
जा सकते हैं।
सच तो यह है कि
गलत बातों के
लिए ही हमें
ठीक प्रमाण
खोजने पड़ते
हैं। क्योंकि
गलत बातें
अपने पैर से
खड़ी नहीं हो
सकतीं। उनके
लिए ठीक
प्रमाणों की
सहायता की
जरूरत पड़ती
है।
महावीर
जैसे लोग
प्रमाण नहीं
देते, सिर्फ
वक्तव्य देते
हैं। वे कहते
हैं-- ऐसा है। उनके
वक्तव्य वैसे
ही वक्तव्य
हैं जैसे कि
किसी
आइंस्टीन के
या किसी और
वैज्ञानिक
के। आइंस्टीन
से अगर हम
पूछें कि पानी
हाइड्रोजन और
आक्सीजन से
क्यों मिलकर
बना है, तो
आइंस्टीन
कहेगा, क्यों
का कोई सवाल
नहीं है-- बना
है। इट इज
सो। यह हम
नहीं जानते कि
क्यों बना है।
हम इतना ही कह
सकते हैं कि
ऐसा है। और
जिस भांति
आइंस्टीन कह
सकता है कि
पानी का अर्थ
है, एच टू ओ--
हाइड्रोजन के
दो अणु और
आक्सीजन का एक
अणु, इनका
जोड़ पानी है।
वैसे महावीर
कहते हैं कि
धर्म-- अहिंसा,
संयम, तप--
इनका जोड़ है।
यह "अहिंसा संजमो तवो',
यह वैसा ही
सूत्र है जैसे
एच-टू-ओ। यह
ठीक वैसा ही
वक्तव्य है, वैज्ञानिक
का। विज्ञान
दूसरे के, पर
के संबंध में
वक्तव्य देता
है,धर्म
स्वयं के
संबंध में
वक्तव्य देता
है। इसलिए अगर
वैज्ञानिक के
वक्तव्य को
जांचना हो तो
तर्क से नहीं
जांचा जा सकता,
उसकी
प्रयोगशाला
में जाना
पड़ेगा।
स्वभावतः उसकी
प्रयोगशाला
बाहर है
क्योंकि उसके
वक्तव्य पर के
संबंध में
हैं। और अगर
महावीर जैसे
व्यक्ति का
वक्तव्य जांचना
हो तो भी
प्रयोगशाला
में जाना पड़े।
निश्चित ही
महावीर की
प्रयोगशाला
बाहर नहीं है,
वह
प्रत्येक
व्यक्ति के
अपने भीतर है।
लेकिन थोड़ा
बहुत हम जानते
हैं कि महावीर
जो कहते होंगे,
ठीक कहते
होंगे। हमें
यह तो पता
नहीं है कि
धर्म मंगल है,
लेकिन हमें
यह भलीभांति
पता है कि
अधर्म अमंगल
है-- कम-से-कम
इतना हमें पता
है। यह भी कुछ
कम पता नहीं
है। और अगर
बुद्धिमान
आदमी हो तो
इतने ज्ञान से
परमज्ञान
तक पहुंच सकता
है। हमें यह
तो पता नहीं
है कि धर्म
मंगल है, लेकिन
हमें यह पूरी
तरह पता है कि
अधर्म अमंगल
है। क्योंकि
अधर्म हमने
किया है। अधर्म
को हम जानते
हैं।
इसे
थोड़ा सोचें।
क्या आपको पता
है,
जब भी आपके
जीवन में कोई
दुख आता है तो
दूसरे के
द्वारा आता है?
दूसरे के
द्वारा आता हो
या न आता हो, आपके लिए
सदा दूसरे के
द्वारा आता
मालूम पड़ता है।
क्या आपके
जीवन में जब
कोई चिंता आती
है तो कभी आपने
खयाल किया है
कि चिंता भीतर
से नहीं, बाहर
से आती मालूम
पड़ती है। क्या
कभी आप भीतर से
चिंतित हुए
हैं? सदा
बाहर से
चिंतित हुए
हैं। सदा
चिंता का के*नदर
कुछ और रहा है,
आपको
छोड़कर। वह धन
हो, वह
बीमार मित्र
हो, वह डूबती
हुई दुकान हो,
वह खोता हुआ
चुनाव हो, वह
कुछ भी हो, दूसरा
है-- सदा दूसरा
है। कुछ और, आपको छोड़कर
आपके दुख का
कारण बनता है।
लेकिन
एक भ्रांति
हमारे मन में
है जो टूट
जानी जरूरी
है। कभी-कभी
ऐसा लगता है
कि दूसरा सुख
का भी कारण
बनता है। उसी
से सब उपद्रव
जारी रहता है।
ऐसा तो लगता
है कि दूसरा
दुख का कारण
बनता है, लेकिन
ऐसा भी लगता
है कि दूसरा
सुख का कारण
बनता है।
चिंता तो
दूसरे से आती
है, दुख भी
दूसरे से आता
है, लेकिन
सुख भी दूसरे
से आता हुआ
मालूम पड़ता
है। ध्यान
रखें, वह
जो दूसरे से
दुख आता है वह
इसीलिए आता है
कि आप इस
भ्रांति में
जीते है कि
दूसरे से सुख
आ सकता है। ये संयुक्त
बातें हैं। और
अगर आप आधे पर
ही समझते रहे
कि दूसरे से
दुख आता है और
यह मानते चले
गए कि दूसरे
से सुख आता है
तो दूसरे से
दुख आता चला
जाएगा। दूसरे
से दुख आता ही
इसलिए है कि
दूसरे से हमने
एक भ्रांति का
संबंध बना रखा
है कि सुख आ
सकता है। आता
कभी नहीं। आ
सकता है, इसकी
संभावना
हमारे आ सपास
खड़ी रहती है।
आ सकता है, इसकी
संभावना
हमारे आसपास
खड़ी रहती है।
आ सकता है, सदा
भविष्य में
होता है। इसे
भी थोड़ा खोजें
तो आपके अनुभव
के कारण मिल
जाएंगे।
कभी
किसी क्षण में
आपने जाना कि
दूसरे से सुख
आ रहा है -- सदा
ऐसा लगता है, आएगा।
आता कभी नहीं।
जिस मकान को
आप सोचते हैं,
मिल जाने से
सुख आएगा, वह
जब तक नहीं
मिला है तब तक
"आएगा' है।
वह जिस दिन
मिल जाएगा उसी
दिन आप पाएंगे
कि उस मकान की
अपनी चिंताएं
हैं, अपने
दुख हैं, वे
आ गए। और सुख
अभी नहीं आया।
और थोड़े दिन
में आप पाएंगे
कि आप भूल ही
गए यह बात कि
इस मकान से
कितना सुख
सोचा था कि
आएगा, वह
बिलकुल नहीं
आया।
लेकिन
मन बहुत चालाक
है,
वह लौटकर
नहीं देखता।
वह रिट्रोस्पेक्टिवली
कभी नहीं
सोचता कि
जिन-जिन चीजों
से हमने सोचा
था कि सुख आएगा,
उनमें से
कुछ आ गयी, लेकिन
सुख नहीं आया।
इस लिए, अगर
किसी दिन
पृथ्वी पर ऐसा
हो सका कि आप
जो-जो सुख
चाहते हैं, आपको तत्काल
मिल जाएं तो
पृथ्वी जितनी
दुखी हो जाएगी,
उतनी उसके
पहले कभी नहीं
थी। इसलिए जिस
मुल्क में
जितने सुख की
सुविधा बढ़ती
जाती है उसमें
उतना दुख बढ़ता
जाता है। गरीब
मुल्क कम दुखी
होते हैं, अमीर
मुल्क ज्यादा
दुखी होते
हैं। गरीब
आदमी कम दुखी
होता है, जब
मैं यह कहता
हूं तो आपको
थोड़ी हैरानी
होगी क्योंकि
हम सब मानते
हैं कि गरीब
बहुत दुखी होता
है। पर मैं
आपसे कहता हूं,
गरीब कम
दुखी होता है।
क्योंकि अभी
उसकी आशाओं का
पूरा का पूरा
जाल जीवित है।
अभी वह आशाओं
में जी सकता है।अभी वह
सपने देख सकता
है। अभी
कल्पना नष्ट
नहीं हुई है, अभी कल्पना
उसे संभाले
रखती है।
लेकिन जब उसे सब
मिल जाए, जो-जो
उसने चाहा था,
तो सब आशाओं
के सेतु टूट
गए। भविष्य
नष्ट हुआ।
और
वर्तमान में
सदा दुख है, दूसरे
के साथ। दूसरे
के साथ सिर्फ
भविष्य में
सुख होता है।
तो अगर सारा
भविष्य नष्ट
हो जाए, जो-जो
भविष्य में
मिलना चाहिए
वह आपको अभी
मिल जाए, इसी
क्षण, तो आ
प सिवाय
आत्महत्या
करने के और
कुछ भी नहीं
कर सकेंगे।
इसलिए जितना
सुख बढ़ता है
उतनी आत्महत्याएं
बढ़ती हैं। जितना
सुख बढ़ता है
उतनी
विक्षिप्तता
बढ़ती है। जितना
सुख बढ़ता है --
बड़ी उल्टी बात
है क्योंकि सब
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
साधन बढ़
जाएंगे तो आदमी
बहुत सुखी हो जाएगा।लेकिन
अनुभव नहीं
कहता। आज
अमेरिका
जितना दुखी है,
उतना कोई भी
देश दुखी नहीं
है। और महावीर
अपने घर में
जितने दुखी हो
गए, महावीर
के घर के
सामने जो रोज
भीख मांगकर
चला जाता
भिखारी होगा ,
वह भी उतना
दुखी नहीं था।
महावीर का दुख
पैदा हुआ है
इस बात से कि
जो भी उस युग
में मिल सकता
था, वह
मिला हुआ था।
महावीर के लिए
कोई भविष्य न
बचा, नोफयूचर। और जब
भविष्य न बचे
तो सपने कहां
खड़े करिएगा? जब भविष्य न
बचे तो कागज
की नाव किस
सागर में चलाइएगा?
भविष्य के
सागर में ही
चलती है कागज
की नाव। अगर
भविष्य न बचे
तो किस भूमि
पर ताशों का
भवन बनाइएगा?
अगर ताशों
का भवन बनाना
हो तो भविष्य
की नींव चाहिए।
तो महावीर का
जो त्याग है, वह त्याग
असल में
भविष्य की समाप्ति
से पैदा होता
है। नोफयूचर,
कोई भविष्य
नहीं है, तो
महावीर अब
कहां जाए, किस
पद पर चढ़ें
जहां सुख
मिलेगा? किस
स्त्री को
खोजें जहां
सुख मिलेगा? किस धन की
राशि पर खड़े
हो जाएं जहां
सुख होगा? वह
सब है।
महावीर
के फ्रस्टेशन
को,
महावीर के
विषाद को हम
सोच सकते हैं।
और हम उन नासमझों
की बात भी सोच
सकते हैं जो
महावीर के
पीछे दूर तक
गांव के बाहर
गए और समझाते
रहे कि इतना
सुख छोड़कर
कहां जा रहे
हो? ये वे
लोग थे जिनका
भविष्य है। वे
कह रहे थे कि
पागल हो गए हो!
जिस महल के
लिए हम दीवाने
हैं और सोचते
हैं, किसी
दिन मिल जाएगा
तो मोक्ष मिल
जाएगा -- उसे छोड़कर
जा रहे हो!
दिमाग तो खराब
नहीं हो गया
है! सभी सयाने
लोगों ने
महावीर को
समझाया, मत
जाओ छोड़कर।
लेकिन महावीर
और उनके बीच
भाषा का संबंध
टूट गया। वे
दोनों एक ही
भाषा अब नहीं
बोल सकते हैं,
क्योंकि
उनका भविष्य
अभी बाकी है
और महावीर का
कोई भविष्य न
रहा।
हमें
भी अनुभव है, लेकिन
हम पीछे लौटकर
नहीं देखते
हैं। हम आगे ही
देखे चले जाते
हैं। जो आदमी
आगे ही देखे
चला जाता है, वह कभी
धार्मिक नहीं
हो सकेगा।
क्योंकि अनुभव
से वह कभी ला भ
नहीं ले
सकेगा। भविष्य
में कोई अनुभव
नहीं है, अनुभव
तो अतीत में
है। जो आदमी
पीछे लौट कर
देखेगा --
लेकिन पीछे
लौटकर देखने
में भी हम यह
भूल जाते हैं
कि हमने पीछे
जब हम खड़े थे
उस स्थानों पर,
तब क्या
सोचा था? वह
भी हम भूल
जाते हैं।
आदमी
की स्मृति भी
बहुत अदभुत
है। आपको खयाल
ही नहीं रहता
कि जो कपड़ा
आज आप पहने
हुए हैं, कल वह कपड़ा आपके
पास नहीं था
और रात आपकी
नींद खराब हो
गयी -- किसी और
के पास था, या
किसी दुकान पर
था या किसी
शो-विंडो में
था और आप
रातभर नहीं सो
सके थे। और
न-मालूम कितनी
गुदगुदी
मालूम पड़ी थी
भीतर कि कल जब
यह कपड़ा
आपके शरीर पर
होगा तो
न-मालूम
दुनिया में
कौन-सी क्रांति
घटित हो
जाएगी! और
कौन-सा स्वर्ग
उतर आएगा। आप
भूल ही गये
हैं बिलकुल।
अब वह कपड़ा
आपके शरीर पर
है। कोई
स्वर्ग नहीं
उतरा है, कोई
क्रांति घटित
नहीं हुई। आप
उतने के उतने
दुखी हैं। हां,
अब दूसरे
दुकान की
शो-विंडो में
आपका सुख लटका
हुआ है।अभी
भी वहीं हैं।
कहीं किसी
दूसरी दुकान
की शो-विंडो
अब आपकी नींद
खराब कर रही
है।
पीछे
लौटकर अगर
देखें तो आप
पाएंगे, जिन-जिन
सुखों को सोचा
था, सुख
सिद्ध होंगे--
वे सभी दुख
सिद्ध हो गये।
आप एक भी ऐसा
सुख न बता
सकेंगे जो
आपने सोचा था
कि सुख सिद्ध
होगा और सुख
सिद्ध हुआ हो।
फिर भी आश्चर्य
कि आदमी फिर
भी वही
पुनरुक्त
किये चला जाता
है। और कल के
लिए फिर
योजनाएं
बनाता है। कल
की बीती सब
योजनाएं गिर
गयीं, लेकिन
कल के लिए फिर
वही योजनाएं
बनाता है। अगर
महावीर ऐसे
व्यक्तियों
को मूढ़
कहें तो तथ्य
की ही बात
कहते हैं। हम मूढ़ हैं! मूढ़ता और
क्या होगी? कि मैं जिस गङ्ढे में
कल गिरा था, आज फिर उसी गङ्ढे की
तलाश करता हूं
किसी दूसरे
रास्ते पर। और
ऐसा नहीं कि
कल ही गिरा था,
रोज-रोज
गिरा हूं। फिर
भी वही!
सुना
है मैंने कि
मुल्ला नसरुद्दीन
एक रात ज्यादा
शराब पीकर घर
लौटा । टटोलता
था रास्ता घर
का,
मिलता नहीं
था। एक भले
आदमी ने, देखकर
कि बेचारा राह
नहीं खोज पा
रहा है, हाथ
पकड़ा। पूछा कि
इसी मकान में
रहते हो?
मुल्ला
ने कहा-- हां।
"किस मंजिल पर
रहते हो?'
उसने
कहा-- दूसरी
मंजिल पर।
उस भले
आदमी ने
बामुश्किल
करीब-करीब
बेहोश आदमी को
किसी तरह
सीढ़ियों से
घसीटते-
घसीटते दूसरी
मंजिल तक
लाया। फिर यह
सोचकर कि कहीं
मुल्ला की
पत्नी का
सामना न करना
पड़े,
नहीं तो वह
सोचे कि तुम
भी संगी-साथी
हो, कहीं
उपद्रव न हो, पूछा -- यही
तेरा दरवाजा
है?
मुल्ला
ने कहा -- हां।
उसने
दरवाजे के
भीतर धक्का
दिया और
सीढ़ियों से
नीचे उतर गया।
नीचे जाकर बहुत
हैरान हुआ कि
ठीक वैसा ही
आदमी, थोड़ी और
बुरी हालत में,
फिर दरवाजा
टटोलता है।
ठीक वैसा ही
आदमी! थोड़ा
चकित हुआ।
अपनी ही आंखों
पर हाथ फेरा
कि मैं तो कोई
नशा नहीं किये
हूं। थोड़ी
बुरी हालत में
ठीक वैसा ही
आदमी। फिर से
टटोल रहा है
तो जाकर पूछा
कि भाई तुम भी
ज्यादा पी गये
हो?
उस
आदमी ने कहा--
हां।
"इसी
मकान में रहते
हो?' उसने
कहा-- हां।
"किस मंजिल पर
रहते हो?'
उसने
कहा-- दूसरी
मंजिल पर।
(हैरानी!)
पूछा--
जाना चाहते हो? बामुश्किल,
इस बार और
कठिनाई हुई
क्योंकि वह
आदमी और भी
लस्त-पस्त था।
उसे ऊपर जाकर,
पहुंचाकर पूछा-- इसी
दरवाजे में
रहते हो? उसने
कहा-- हां।
वह
आदमी बहुत
हैरान हुआ कि
क्या नशेड़ियों
के साथ
थोड़ी-सी देर
में मैं भी
नशे में हूं? फिर
धक्का दिया और
नीचे उतरकर
आया। देखा कि
तीसरा आदमी और
भी थोड़ी बुरी
हालत में है।
सड़क के किनारे
पड़ा रास्ता
खोज रहा है।
लेकिन ठीक
वैसा ही। उसे
डर भी लगा कि
भाग जाना
चाहिए। यह झंझट
की बात मालूम
पड़ती है। यह
कब तक चलेगा? यह आदमी वही
मालूम पड़ता
है। वही कपड़े
हैं, ढंग
वही है। थोड़ा
और परेशान
पूछा कि भाई
इसी मकान में
रहते हो? उसने
कहा-- हां।
"किस
मंजिल पर?'
"दूसरी
मंजिल पर।'
"ऊपर
जाना चाहते हो?'
उसने
कहा-- हां।
उसने
कहा-- बड़ी
मुसीबत है। अब
इसको और
पहुंचा दें।
ले जाकर दरवा
जे पर धक्का
दिया। भागकर
नीचे आया कि
चौथा न मिल
जाए,
लेकिन चौथा
आदमी नीचे
मौजूद था। अब
उसमें हिलने-चलने
की गति भी
नहीं थी।
लेकिन जैसे ही
उसे पास आकर
देखा, वह
आदमी
चिल्लाया कि
"मुझे बचाओ।
यह आदमी मुझे
मार डालेगा ।'
"मैं
तुझे मार
डालने की
कोशिश नहीं कर
रहा हूं । तू
है कौन?'
उसने
कहा-- तू मुझे
बार-बार जाकर लिफट के
दरवाजे से
धक्का देकर
नीचे पटक रहा
है।
उस
आदमी ने पूछा--
"भले आदमी! तीन
बार पटक चुका, तुमने
कहा क्यों
नहीं?'
उसने
सोचा कि शायद
अब की बार न
पटके यह
सोचकर। नसरुद्दीन
ने कहा-- कौन
जाने, अब की
बार न पटके!
लेकिन
दूसरा पटकता
हो तो हम इतना
हंस रहे हैं।
हम अपने को ही
पटकते चले
जाते हैं। वही
का वही आदमी, दूसरी
बार और थोड़ी
बुरी हालत
होती है। और
कुछ नहीं होता
है। जिंदगीभर
ऐसा चलता है।
आखिर में दुख
के घाव के
अतिरिक्त
हमारी कोई
उपलब्धि नहीं
होती। ये घाव
ही घाव रह
जाते हैं, पीड़ा
ही पीड़ा रह
जाती है।
इतना
हम जानते हैं, कि
अधर्म अमंगल
है। और अधर्म
से मतलब समझ
लेना -- अधर्म
से मतलब है, दूसरे में सुख
को खोजने की
आकांक्षा। वह
दुख है, वह
अमंगल है, और
कोई अमंगल
नहीं है। जब
भी दुख आपको
मिले तो जानना
कि आपने दूसरे
से कहीं सुख
पाना चाहा। अगर
मैं अपने शरीर
से भी सुख
पाना चाहता
हूं तो भी मैं
दूसरे से सुख
पाना चाहता
हूं। मुझे दुख
मिलेगा। कल
बीमारी आएगी,
कल शरीर
रुग्ण होगा, कल बूढ़ा
होगा, परसों
मरेगा। अगर
मैंने इस शरीर
से -- जो इतना निकट
मालूम होता है,
फिर भी
पराया है --
महावीर से अगर
हम पूछने जाएं
तो वे कहेंगे
कि जिससे भी
दुख मिल सकता
है, जानना
कि वह और है।
इसे क्राइटेरियन,
उसे मापदंड
समझ लेना कि
जिससे भी दुख
मिल सके, जानना
कि वह और है, वह तुम नहीं
हो। तो
जहां-जहां
दुख
मिले, वहां-वहां
जानना कि "मैं'
नहीं हूं।
सुख
अपरिचित है
क्योंकि
हमारा सारा
परिचय "पर' से
है, "दूसरे'
से है। सुख
सिर्फ कल्पना
में है, दुख
अनुभव है।
लेकिन दुख, जो कि अनुभव
है, उसे हम भुलाये
चले जाते हैं।
और सुख जो कि
कल्पना में है,
उसके लिए हम
दौड़ते चले
जाते हैं।
महावीर का यह
सूत्र इस पूरी
बात को बदल
देना चाहता
है। वे कहते
हैं-- धम्मो
मंगल मुक्किट्ठं।धर्म
मंगल है। आनंद
की तलाश
स्वभाव में
है। कभी-कभी
अगर आपके जीवन
में आनंद की
कोई किरण
छोटी-मोटी उतरी
होगी, तो
वह तभी उतरती
है जब आप
अनजाने- जाने
किसी भांति एक
क्षण को स्वयं
के संबंध में
पहुंच जाते
हैं -- कभी भी।
लेकिन हम ऐसे
भ्रांत हैं कि
वहां भी हम
दूसरे को ही
कारण समझते
हैं।
सागर
के तट पर बैठे
हैं। सांझ हो
गयी है, सूर्यास्त
होता है। ढलते
सूरज में सागर
की लहरों की आवाजों
में एकांत में
अकेले तट पर
बैठे हैं। एक
क्षण को लगता
है जैसे सुख
की कोई किरण
कहीं उतरी। तो
मन होता है कि
शायद इस सागर,
इस डूबते
सूरज में सुख
है। कल फिर
आकर बैठेंगे।
फिर उतनी नहीं
उतरेगी।
परसों फिर आकर
बैठेंगे। अगर
रोज आकर बैठते
रहे तो सागर
का शोरगुल
सुनायी पड़ना
बंद हो जाएगा।
सूरज का डूबना
दिखायी न
पड़ेगा।
वह जो
पहले दिन
अनुभव हमें
आया था वह
सागर और सूरज
की वजह से
नहीं था। वह
तो केवल एक
अजनबी स्थिति
में आप पराये
से ठीक से
संबंधित न हो
सके और थोड़ी
देर को अपने
से संबंधित हो
गये। इसे थोड़ा
ठीक से समझ
लें। इसीलिए
परिवर्तन
अच्छा लगता है
एक क्षण को।
क्योंकि
परिवर्तन का, एक
संक्रमण का
क्षण, जो ट्रांजिशन
का क्षण है, उस क्षण में
आप दूसरे से
संबंधित होने
के पहले और
पिछले से
टूटने के पहले
बीच में थोड़े
से अंतराल में
अपने से
गुजरते हैं।
एक मकान को
बदलकर दूसरे
मकान में जा
रहे हैं। इस
मकान को बदलने
में और दूसरे
मकान में एडजेस्ट
होने के बीच
एक क्षण को
अव्यवस्थित
हो जाएंगे। न
यह मकान होगा,
न वह मकान
होगा। और बीच
में क्षण भर
को उस मकान में
पहुंच जाएंगे
जो आपके भीतर
है।
वह क्षणभर
को उस बीच जो
थोड़ी-सी सुख
की झलक मिलेगी
-- वह शायद आप
सोचेंगे, इस
नये मकान में
आने से मिली
है, इस
पहाड़ पर आने
से मिली है, इस एकांत
में आने से
मिली है, इस
संगीत की कड़ी
को सुनने से
मिली है, इस
नाटक को देखने
से मिली है।
आप भ्रांति
में हैं। अगर
इस नाटक को
देखने से वह
मिला है तो फिर
रोज इस नाटक
को देखें, जल्दी
ही पता चल
जाएगा। कल
नहीं मिलेगा,
क्योंकि कल
आप एडजेस्ट
हो चुके होंगे,
ना टक
परिचित हो
चुका होगा।
परसों नाटक
तकलीफ देने
लगेगा। और
दो-चार दिन
देखते गये तो
ऐसा लगेगा, अपने साथ
हिंसा कर रहे
हैं। एक पत्नी
को बदलकर
दूसरी पत्नी
के साथ जो क्षणभर
को सुख दिखायी
पड़ रहा है, वह
सिर्फ बदलाहट
का है। और
बदलाहट में भी
सिर्फ इसलिए
कि दो चीजों
के बीच में क्षणभर
को आपको अपने
भीतर से
गुजरना पड़ता
है। बस, और
कोई कारण नहीं
है।
अनिवार्य
है,
जब मैं एक
से टूटूं
और दूसरे से जुडूं तो
एक क्षण को
मैं कहां
रहूंगा? दूटने
और जुड़ने
के बीच में जो
गैप है, जो
अंतराल है, उसमें मैं
अपने में
रहूंगा। वही
अपने में रहने
का क्षण प्रितफलित
होगा और लगेगा
कि दूसरे में
सुख मिला। सभी
बदलाहट अच्छी
लगती है। बस
बदलाहट, चेंज
का जो सुख है, वह अपने से क्षणभर को
अचानक गुजर
जाने का क्षण
है। इसलिए
आदमी शहर से
जंगल भागता
है। जंगल का
आदमी शहर आता
है। भारत का आदमी
यूरोप जाता है,
यूरोप का
आदमी भारत आता
है। दोनों को
वही क्षण
परिवर्तन का भारतीय
को हैरानी
होती है, पश्चिमी
को देखकर अपने
बीच में कि
इधर आये हो सुख
की तलाश में!
इधर हम जैसा
सुख पा रहे
हैं, हम ही
जानते हैं।
पाश्चात्य को,
भा रतीय
को वहां देखकर
हैरानी होती
है कि तुम
यहां आये हो,
सुख की
तलाश में!
यहां जो सुख
मिल रहा है, उससे
हम किस तरह
बचें, हम
इसकी चेष्टा
में लगे हैं।
पर कारण हैं, दोनों को क्षणभर
को सुख
मिलता है।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
नयी कोई भी चीज
से व्यवस्थित
होने में थोड़ा
अंतराल पड़ता
है। एक रिदम
है हमारे जीवन
की।
गोकलिन ने
एक किताब लिखी
है,
"दि काज्ँमिक
क्लाक'। लिखा है कि
सा रा
अस्तित्व एक
घड़ी की तरह
चलता है।
अदभुत किताब
है, वैज्ञानिक
आधारों पर। और
मनुष्य का
व्यक्तित्व
भी एक घड़ी की
तरह चलता है।
जब भी कोई
परिवर्तन
होता है तो
घड़ी डगमगा जाती
है। अगर आप
पूरब से
पश्चिम की तरफ
यात्रा कर रहे
हैं तो आपके
व्यक्तित्व
की पूरी घड़ी गड़बड़ा
जाती है।
क्योंकि सब
बदलता है।
सूरज का उगने का
समय बदल जाता
है, सूरज
के डूबने का
समय बदल जाता
है। वह इतनी
तेजी से बदलता
है कि आपके
शरीर को पता
ही नहीं चलता।
इसलिए भीतर एक
अराजकता का
क्षण उपस्थित
हो जाता है।
सभी बदलाहटें
आपके भीतर एक
ऐसी स्थिति ला
देती हैं कि
आपको अनिवार्यरूपेण
कुछ देर को
अपने भीतर से
गुजरना पड़ता
है। उसका ही रिफलेक्शन,
उसका ही
प्रतिबिंब
आपको सुख
मालूम पड़ता
है। और जब क्षणभर
को अनजाने
गुजरकर भी सुख
मालूम पड़ता है,
तो जो सदा
अपने भीतर
जीने लगता है --
अगर महावीर कहते
हैं, वे
मंगल को, परम
मंगल को, आनंद
को उपलब्ध हो
जाते हैं-- तो
हम नाप सकते
हैं, हम
अनुमान कर
सकते हैं।
यह
हमारा अनुभव
अगर प्रगाढ़
होता चला जाए
कि जिसे हमने
जीवन समझा है
वह दुख है, जिस
चीज के पीछे
हम दौड़ रहे
हैं वह सिर्फ
नरक में उतार
जाती है। अगर
यह हमें
स्पष्ट हो जाए
तो हमें महा
वीर की वाणी
का आधा हिस्सा
हमारे अनुभव
से स्पष्ट हो
जाएगा। और
ध्यान रहे, कोई भी सत्य
आधा सत्य नहीं
होता -- कोई भी
सत्य -- आधा
सत्य नहीं
होता। सत्य तो
पूरा ही सत्य
होता है। अगर
उसमें आधा भी
सत्य दिखाई पड़
जाए, तो
शेष आधा आज
नहीं कल दिखाई
पड़ जाएगा। और
अनुभव में आ
जाएगा।
आधा
सत्य हमारे
पास है कि
"दूसरा' दुख
है। कामना दुख
है, वासना
दुख है।
क्योंकि
कामना और
वासना सदा दूसरे
की तरफ दौड़ने
वाले चित्त का
नाम है। वासना
का अर्थ है
दूसरे की तरफ
दौड़ती हुई
चेतन धारा।
वासना का अर्थ
है, भविष्य
की ओर उन्मुख
जीवन की नौका।
अगर "दूसरा' दुख है, तो
दूसरे की तरफ
ले जानेवाला
जो सेतु है वह
नरक का सेतु
है। उसको
"वासना', महावीर
कहते हैं।
उसको बुद्ध
"तृष्णा' कहते
हैं। उसे हम
कोई भी नाम
दें। दूसरे को
चाहने की जो
हमारे भीतर
दौड़ है, हमारी
ऊर्जा का जो
वर्तन है
दूसरे की तरफ,
उसका नाम
वासना है, वह
दुख है।
और
मंगल, जो आनंद,
जो धर्म है,
जो स्वभाव
है, निश्चित
ही वह उस क्षण
में मिलेगा जब
हमारी वासना
कहीं भी न दौड़
रही होगी। वासना
का न दौड़ना
आत्मा का हो
जाना है।
वासना का
दौड़ना आत्मा
का खो जाना
है। आत्मा उस
शक्ति का नाम
है जो नहीं
दौड़ रही है, अपने में
खड़ी है। वासना
उस आत्मा का
नाम है जो दौड़
रही है अपने
से बाहर, किसी
और के लिए।
इसलिए इसी
सूत्र के
दूसरे हिस्से
में महावीर
कहते हैं--कौन-सा
धर्म? अहिंसा,
संयम और तप।
यह अहिंसा, संयम और तप
दौड़ती हुई
ऊर्जा को
ठहराने की
विधियों के
नाम हैं। वह
जो वासना
दौड़ती है
दूसरे की तरफ,
वह कैसे रुक
जाए, न
दौड़े दूसरे की
तरफ? और जब
रुक जाएगी, न दौड़ेगी
दूसरे की
तरफ--तो स्वयं
में रमेगी,
स्वयं में ठहरेगी, स्थिर होगी।
जैसे कोई
ज्योति हवा के
कंप में कंपे
न, वैसी।
उसका उपाय
महावीर कहते
हैं।
तो
धर्म स्वभाव
है,
एक अर्थ।
धर्म विधि है,
स्वभाव तक
पहुंचने की, दूसरा अर्थ।
तो धर्म के दो
रूप हैं--धर्म
का आत्यंतिक
जो रूप है वह
है स्वभाव, स्वधर्म। और
धर्म तक, इस
स्वभाव तक--क्योंकि
हम इस स्वभाव
से भटक गये
हैं, अन्यथा
कहने की कोई
जरूरत न थी।
स्वस्थ व्यक्ति
तो नहीं पूछता
चिकित्सक को
कि मैं स्वस्थ
हूं या नहीं।
अगर स्वस्थ
व्यक्ति भी
पूछता है कि
मैं स्वस्थ
हूं या नहीं, तो वह बीमार
हो चुका है।
असल में, बीमारी
न आ जाए तो
स्वास्थ्य का
खयाल ही नहीं आता।
लाओत्से
के पास कंफयूशियस
गया था और
उसने कहा कि
धर्म को लाने
का कोई उपाय
करें। तो कंफयूशियस
से लाओत्से ने
कहा कि धर्म
को लाने का
उपाय तभी करना
होता है जब
अधर्म आ चुका
होता है। तुम
कृपा करके
अधर्म को
छोड़ने का उपाय
करो,
धर्म आ
जाएगा। तुम
धर्म को लाने
का उपाय मत करो।
इसलिए
स्वास्थ्य को
लाने का कोई
उपाय नहीं किया
जा सकता है, सिर्फकेवल बीमारियों
को छोड़ने का
उपाय किया जा
सकता है। जब
बीमारियां
छूट जाती हैं
तो जो शेष रह
जाता है--दि रिमेनिंग।
तो
धर्म का आखिरी
सूत्र तो यही
है,
परम सूत्र
तो यही है कि
स्वभाव।
लेकिन वह
स्वभाव तो चूक
गया है। वह तो
हमने खो दिया
है। तो हमारे
लिए धर्म का
दूसरा अर्थ महावीर
कहते हैं--जो
प्रयोगात्मक
है, प्रक्रिया
का है, साधन
का है--पहली
परिभाषा
साध्य की, अंत
की, दूसरी
परिभाषा साधन
की, मीन्स की। तो
महावीर कहते
हैं--कौन-सा
धर्म?" अहिंसा,
संजमो,
तवो'। इतना छोटा
सूत्र शायद ही
जगत में किसी
और ने कहा हो
जिसमें सारा
धर्म आ जाए।
अहिंसा, संयम,
तप--इन तीन
की पहले हम
व्यवस्था समझ
लें, फिर
तीन के भीतर
हमें प्रवेश
करना पड़ेगा।
अहिंसा
धर्म की आत्मा
है,
कहें के*नदर
है धर्म का, सेंटर है।
तप धर्म की
परिधि है, सरकम्फेरेंस है। और संयम
के*नदर और
परिधि को जोड़ने
वाला बीच का
सेतु है। ऐसा
समझ लें, अहिंसा
आत्मा है, तप
शरीर है और
संयम प्राण
है। वह दोनों
को जोड़ता है--
श्वास है।
श्वास टूट जाए
तो शरीर भी
होगा, आत्मा
भी होगी, लेकिन
आप न होंगे।
संयम टूट जाए,
तो तप भी हो
सकता है, अहिंसा
भी हो सकती
है--लेकिन
धर्म नहीं हो
सकता। वह
व्यक्तित्व
बिखर जाएगा।
श्वास की तरह
संयम है। इसे
थोड़ा सोचना
पड़ेगा। इसकी
पहले हम व्यवस्था
को समझ लें, फिर एक-एक की
गहराई में
उतरना आ सान
होगा।
अहिंसा
आत्मा है
महावीर की
दृष्टि से।
अगर महावीर से
हम पूछें कि
एक ही शब्द
में कह दें कि
धर्म क्या है? तो
वे कहेंगे
अहिंसा। कहा
है उन्होंने--
अहिंसा परम
धर्म है।अहिंसा
पर क्यों महा
वीर इतना जोर
देते हैं? किसी
ने नहीं कहा, ऐसा अहिंसा
को। कोई कहेगा,
परमात्मा; कोई कहेगा, आत्मा। कोई
कहेगा, सेवा;
कोई कहेगा,
ध्यान। कोई
कहेगा, समाधि;
कोई कहेगा,
योग। कोई
कहेगा, प्रार्थना;
कोई कहेगा,
पूजा।
महावीर से अगर
हम पूछें, उनके
अंतरतम में एक
ही शब्द बसता
है और वह है अहिंसा।
क्यों? तो
जिसको महावीर
के माननेवाले
अहिंसा कहते
हैं, अगर
इतनी ही अहिंसा
है तो महावीर
गलती में हैं।
तब बहुत क्षुद्र
बात कही जा
रही है।
महावीर को माननेवाला
अहिंसा से
जैसा मतलब
समझता है, उससे
ज्यादा
बचकाना, चाइल्डिश कोई मतलब
नहीं हो सकता।
उससे वह मतलब
समझता है--
दूसरे को दुख
मत दो। महावीर
का यह अर्थ
नहीं है।
क्योंकि धर्म
की परिभाषा
में दूसरा आये,
यह महावीर
बरदाश्त न
करेंगे। इसे
थोड़ा समझें।
धर्म
की परिभाषा
स्वभाव है, और
धर्म की
परिभाषा
दूसरे से करनी
पड़े कि दूसरे
को दुख मत दो, यही धर्म
है। तो यह
धर्म भी दूसरे
पर ही निर्भर
और दूसरे पर
ही केंनदरित
हो गया है।
महावीर यह भी
न कहेंगे कि
दूसरे को सुख
दो, यही
धर्म है।
क्योंकि फिर
वह दूसरा तो
खड़ा ही रहा।
महावीर कहते
हैं-- धर्म तो
वहां है, जहां
दूसरा है ही नहीं।इसलिए
दूसरे की
व्याख्या से
नहीं बनेगा।
दूसरे को दुख
मत दो-- यह
महावीर की
परिभाषा
इसलिए भी नहीं
हो सकती, क्योंकि
महावीर मानते
नहीं कि तुम
दूसरे को दुख
दे सकते हो, जब तक दूसरा
लेना न चाहे।
इसे थोड़ा
समझना। यह भ्रांति
है कि मैं
दूसरे को दुख
दे सकता हूं और
यह भ्रांति
इसी पर खड़ी है
कि मैं दूसरे
से दुख पा
सकता हूं, मैं
दूसरे से सुख
पा सकता हूं, मैं दूसरे
को सुख दे
सकता हूं। ये
सब भ्रांतियां
एक ही आधार पर
खड़ी हैं। अगर
आप दूसरे को
दुख दे सकते
हैं तो क्या आ
प सोचते हैं, आप महावीर
को दुख दे
सकते हैं? और
अगर
आप
महावीर को दुख
दे सकते हैं
तो फिर बात
खत्म हो गयी।
नहीं, आप
महावीर को दुख
नहीं दे सकते।
क्योंकि महावीर
दुख लेने को
तैयार ही नहीं
हैं। आप उसी
को दुख दे
सकते हैं जो
दुख लेने को
तैयार है। और
आप हैरान
होंगे कि हम
इतने उत्सुक
हैं दुख लेने
को, जिसका
कोई हिसाब
नहीं। आतुर
हैं, प्रार्थना
कर रहे हैं कि
कोई दुख दे।
दिखाई नहीं
पड़ता दिखाई
नहीं पड़ता।
लेकिन खोजें
अपने को। अगर
एक आदमी आपकी
चौबीस घंटे प्रशंसा
करे, तो
आपको सुख न
मिलेगा, और
एक गाली दे दे
तो जन्म भर के
लिए दुख मिल
जाएगा। एक
आदमी आपकी
वर्षो सेवा
करे, आपको
सुख न मिलेगा,
और एक दिन
आपके खिलाफ एक
शब्द बोल दे
और आपको इतना
दुख मिल जाएगा
कि वह सब सुख
व्यर्थ हो गया।
इससे क्या
सिद्ध होता है?
इससे
यह सिद्ध होता
है कि आप सुख
लेने को इतने
आतुर नहीं
दिखाई पड़ते
हैं जितना दुख
लेने को आतुर
दिखाई पड़ते
हैं। यानी
आपकी
उत्सुकता
जितनी दुख लेने
में है उतनी
ही सुख लेने
में नहीं है।
अगर मुझे किसी
ने उन्नीस बार
नमस्कार किया
और एक बार
नमस्कार नहीं
किया, तो
उन्नीस बार नमस्कार
से मैंने
जितना सुख
नहीं लिया है,
एक बार
नमस्कार न
करने से उतना
दुख ले लूंगा।
आश्चर्य है!
मुझे कहना
चाहिए था, कोई
बात नहीं है, हिसाब अभी
भी बहुत बड़ा
है। कम से कम
बीस बार न करे
तब बराबर
होगा। मगर वह
नहीं होता है।
तब भी बराबर
होगा, तब
भी दुख लेने
का कोई कारण
नहीं है, मामला
तब तराजू में
तुल जाएगा।
लेकिन नहीं, जरा सी बात
दुख दे जाती
है।
हम
इतने सैंसिटिव
हैं दुख के
लिए,
उसका कारण
क्या है? उसका
कारण यही है
कि हम दूसरे
से सुख चाहते
हैं इतना
ज्यादा कि वही
चाह, उससे
हमें दुख
मिलने का
द्वार बन जाती
है, और तब दूसरे
से सुख तो
मिलता नहीं--
मिल नहीं
सकता। फिर दुख
मिल सकता है, उसको हम
लेते चले जाते
हैं। महावीर
नहीं कह सकते
कि अहिंसा का
अर्थ है दूसरे
को दुख न
देना। दूसरे
को कौन दुख दे
सकता है, अगर
दूसरा लेना न
चाहे। और जो
लेना चाहता है
उसको कोई भी न
दे तो वह ले
लेगा। यह भी
मैं आपसे कह
देना चाहता
हूं। कोई वह
आपके लिए रुका
नहीं रहेगा कि
आपने नहीं
दिया तो दुख
कैसे लें। लोग
आसमान से दुख
ले रहे हैं।
जिन्हें दुख
लेना है, वे
बड़े इन्वेन्टिव
हैं । वे इस-इस
ढंग से दुख
लेते हैं, इतना
आविष्कार
करते हैं कि
जिसका हिसाब
नहीं है। वे आपके
उठने से दुख
ले लेंगे, आपके
बैठने से दुख
ले लेंगे, आपके
चलने से दुख
ले लेंगे, किसी
चीज से दुख ले
लेंगे। अगर आप
बोलेंगे तो दुख
ले लेंगे, अगर
आप चुप
बैठेंगे तो
दुख ले लेंगे
कि आप चुप क्यों
बैठे हैं, इसका
क्या मतलब?
एक
महिला मुझसे
पूछती थी कि
मैं क्या करूं, मेरे
पति के लिए।
अगर बोलती हूं
तो कोई विवाद,
उपद्रव खड़ा
होता है। अगर
नहीं बोलती
हूं तो वे
पूछते हैं, क्या बात है?
न बोलने से
विवाद खड़ा
होता है। अगर
न बोलूं तो वे
समझते हैं कि
नाराज हूं।
अगर बोलूं तो
नाराजगी थोड़ी
देर में आने
ही वाली है, वह कुछ न कुछ
निकल आएगा। तो
मैं क्या करूं?
बोलूं कि न
बोलूं? अब
मैं उसको क्या
सलाह दूं?
जितने
दुख आपको मिल
रहे हैं उसमें
से निन्यानबे
प्रतिशत आपके
आविष्कार
हैं।
निन्यानबे
प्रतिशत! जरा
खोजें कि किस-किस
तरह आप
आविष्कार
करते हैं, दुख
का। कौन-कौन
सी तरकीबें
आपने बिठा रखी
हैं! असल में
बिना दुखी हुए
आप रह नहीं
सकते। क्योंकि
दो ही उपाय
हैं, या तो
आदमी सुखी हो
तो रह सकता है,
या दुखी हो
तो रह सकता
है। अगर दोनों
न रह जाएं तो
जी नहीं सकता।
दुख भी जीने
के लिए काफी
बहाना है।
दुखी लोग
देखते हैं आप,
कितने रस से
जीते हैं? इसको
जरा देखना पड़ेगा।
दुखी लोग
कितने रस से
जीते हैं? वह
अपने दुख की
कथा कितने रस
से कहते हैं? दुखी आदमी
की कथा सुनें,
कैसा रस
लेता है। और
कथा को कैसा मैग्निफाई
करता है, उसको
कितना बड़ा
करता है। सुई
लग जाए तो
तलवार से कम
नहीं लगती है
उसे।
कभी
आपने खयाल
किया है कि आप
किसी डाक्टर
के पास जाएं
और वह आ पसे कह
दे कि नहीं, आप
बिलकुल बीमार
नहीं हैं, तो
कैसा दुख होता
है! वह डाक्टर
ठीक नहीं मालूम
पड़ता । किसी
और बड़े एक्सपर्ट
को खोजना पड़ता
है, इससे
काम नहीं
चलेगा। यह कोई
डाक्टर है! आप
जैसे बड़े आदमी,
और आपको कोई
बीमारी ही
नहीं है। या
कोई छोटी-
मोटी बीमारी
बता दे, कि
कह दे, गर्म
पानी पी लेना
और ठीक हो
जाओगे। तो भी
मन को तृप्ति
नहीं िमलती।
इसलिए
डाक्टरों को,
बेचारों को
अपनी दवाइयों
के नाम लैटिन
में रखने पड़ते
हैं, चाहे
उसका मतलब
होता हो
अजवाइन का सत।
लेकिन लैटिन
में जब नाम
होता है, तब
मरीज अकड़ कर
घर लौटता है, प्रिसिकरप्शन लेकरकि
ये कुछ काम
हुआ! जिएंगे
कैसे, अगर
दुख न हो तो जिएंगे
कैसे! या तो
आनंद होतो
जीने की वजह
होती है। आनंद
न हो तो दुख तो
हो ही!
मार्क ट्वेन ने
कहा है, और
अनुभवी था
आदमी और मन के
गहरे में
उतरने की क्षमता
और दृष्टि थी।
उसने कहा है, तुम चाहे
मेरी प्रशंसा
करो, या
चाहे मेरा
अपमान करो, लेकिन तटस्थ
मत रहना। उससे
बहुत पीड़ा
होती है। तुम
चाहो तो गाली
ही दे देना, उससे भी तुम
मुझे मानते हो
कि मैं कुछ
हूं। लेकिन
तुम मुझे बिना
देखे ही निकल
जाओ, तुम न
मुझे गाली दो,
न तुम मेरा
सम्मान करो, तब तुम मुझे
ऐसी चोट
पहुंचाते हो
संघातक कि मैं
उसका बदला
लेकर रहूंगा।
उपेक्षा का
बदला लोग जितना
लेते हैं उतना
दुख का नहीं
लेते। आपने भी
अपने पर खयाल
करेंगे तो
आपको पता चल
जाएगा कि आपको
सबसे ज्यादा
पीड़ा वह आदमी
पहुंचाता है जो
आपकी उपेक्षा
करता है, इनडिफरैंट है। इसलिए
अगर महा वीर
या जीसस जैसे
लोगों को हमने
बहुत सताया तो
उसका एक कारण
उनका इनडिफरैंस
था, बहुत
गहरा कारण। वे
इनडिफरैंट
थे। आप उनको
पत्थर भी मार
गये तो वे ऐसे
खड़े रहे कि चलो
कोई बात नहीं।
तो उससे बहुत
दुख होता है, उससे बहुत
पीड़ा होती है।
नीत्से
ने;
जो कि
मनुष्य के
इतिहास में
बहुत थोड़े-से
लोग आदमी के
भीतर जितनी
गहराई में
उतरते हैं, वैसा आदमी; नीत्से ने
कहा है कि
जीसस, मैं
तुमसे कहता
हूं कि अगर
कोई तुम्हारे
गाल पर एक
चांटा मारे तो
तुम दूसरा गाल
उसके सामने मत
करना, उससे
उसको बहुत चोट
लगेगी। जब कोई
आदमी तुम्हारे
गाल पर एक
चांटा मा रे, जीसस, तो
मैं तुमसे
कहता हूं कि
तुम दूसरा गाल
उसके सामने मत
करना। तुम उसे
एक करारा
चांटा देना।
उससे उसे
इज्जत मिलेगी।
जब तुम दूसरा
गाल उसके
सामने कर दोगे,
वह कीड़ा- मकोड़ा
जैसा हो
जाएगा। इतना
अपमान मत
करना। इसे हम
न सह सकेंगे।
इसीलिए
तुम्हें सूली
पर लटकाया
गया।
यह कभी
हम सोच नहीं
सकते, लेकिन
है यह सच। और
सच ऐसे स्टरेंज
होते हैं कि
हम कल्पना भी
न कर पाएं, इतने
विचित्र होते
हैं। अगर कोई
आपकी उपेक्षा
करे तो वह
शत्रु से भी
ज्यादा शत्रु
मालूम पड़ता
है। क्योंकि
शत्रु आपकी
उपेक्षा नहीं
करता। वह आपको
काफी मान्यता
देता है।
हम दुख
के लिए भी
उत्सुक हैं--
कम से कम दुख
तो दो, अगर सुख
न दे सको। कुछ
तो दो, दुख
भी दोगे तो
चलेगा, लेकिन
दो। इसलिए हम
आतुर हैं
चारों तरफ, और
संवेदनशील
हैं। हम अपनी
सारी इंन्दिरयों
को चारों तरफ
सजग रखते हैं,
एक ही काम
के लिए कि
कहीं से दुख आ
रहा हो तो चूक
न जाएं। तो उसे
जल्दी से ले
लें। कहीं कोई
और न ले ले; कहीं
चूक न जाएं; कहीं अवसर न
खो जाए। यह
दुख हमारे
रहने की वजह है,
जीने की वजह
है।
तो
महावीर की
अहिंसा का यह
अर्थ नहीं है
कि दूसरे को
दुख मत देना, क्योंकि
महावीर तो
कहते ही यह
हैं कि दूसरे
को न कोई दुख
दे सकता है और
न कोई सुख दे
सकता है।
महावीर की
अहिंसा का यह
भी अर्थ नहीं
है कि दूसरे
को मारना मत, मार मत
डालना।
क्योंकि
महावीर
भलीभांति जानते
हैं कि इस जगत
में कौन किसको
मार सकता है, मार डाल
सकता है।
महावीर से
ज्यादा बेहतर
और कौन जानता
होगा यह कि
मृत्यु असंभव
है। मरता नहीं
कुछ। तो
महावीर का यह
मतलब तो कतई
नहीं हो सकता
कि मारना मत, मार मत
डालना किसी
को। क्योंकि
महावीर तो भलीभांति
जानते हैं। और
अगर इतना भी
नहीं जानते तो
महावीर के महावीर
होने का कोई
अर्थ नहीं रह
जाता।
लेकिन
महावीर के
पीछे चलने
वाले बहुत
साधारण....साधारण
परिभाषाओं का
ढेर इकट्ठा कर
दिये हैं।
कहते हैं, अहिंसा
का अर्थ यह है
कि मुंह पर
पट्टी बांध लेना।
कि अहिंसा का
अर्थ यह है कि
संभलकर चलना कि
कोई कीड़ा न मर
जाए, कि
रात पानी मत
पी लेना, कि
कहीं कोई
हिंसा न हो
जाए। यह सब
ठीक है। मुंह
पर पट्टी
बांधना कोई
हर्जा नहीं है,
पानी छानकर
पी लेना बहुत
अच्छा है। पैर
संभालकर रखना,
यह भी बहुत
अच्छा है, लेकिन
इस भ्रम में
नहीं कि आप
किसी को मार
सकते थे। इस
भ्रम में
नहीं। मत देना
किसी को दुख, बहुत अच्छा
है। लेकिन इस
भ्रम में नहीं
कि आप किसी को
दुख दे सकते
थे।
मेरे
फर्क को आप
समझ लेना। मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि आप
जाना और मारना
और काटना; क्योंकि
मार तो कोई
सकते ही नहीं
हैं यह मैं नहीं
कह रहा हूं!
महावीर की
अहिंसा का
अर्थ ऐसा नहीं
है। महावीर की
अहिंसा का
अर्थ ठीक वैसा
है जैसे बुद्ध
के तथाता का।
इसे थोड़ा समझ
लें। महावीर
की अहिंसा का अर्थ
वैसा ही है
जैसे बुद्ध के
तथाता का।
तथाता का अर्थ
होता है टोटल
एक्सेप्टेबिलिटी,
जो जैसा है
वैसा ही हमें
स्वीकार है।
हम कुछ हेर-फेर
न करेंगे।
अब एक
चींटी चल रही
है रास्ते पर, हम
कौन हैं जो
उसके रास्ते
में किसी तरह
का हेर-फेर
करने जाएं? अगर मेरा
पैर भी पड़ जाए
तो मैं उसके
मार्ग पर हेर-फेर
करने का कारण
और निमित्त तो
बन जाता है।
और मार्ग बहुत
है। वह चींटी
अभी जाती थी।
अपने बच्चों
के लिए शायद भोजनजूटाने
जा रही थी। पता
नहीं उसकी
अपनी योजनाओ
का जगत हे।
मैं उसके बीच
में न आ जाऊं।
ऐसा नहीं है
कि न आने से
मैं बच जाऊंगा।
फिर भी आ सकता
हूं। लेकिन महवीर
कहते है मैं
उसकी तरफ से
बीच में न
आऊं। किताबें
हटा सकती है।
रेडियो बंद कर
सकती है। और
पति बेचारा
इसलिए रेडियो
खोले है, अखबार
आड़ा किये
हुए है कि
कृपा करके
तुम्हारी
उपस्थिति अनुभव
न हो। हम सब इस
चेष्टा में
लगे हैं कि
मेरी
उपस्थिति
दूसरे को
अनुभव हो और
दूसरे की उपस्तरफ
से बीच में न
आऊं। जरूरी
नहीं है कि
मैं ही चींटी
पर पैर रखूं, तब वह मरे।
चींटी खुद
मेरे पैर के
नीचे आकर मर सकती
है। वह चींटी
जाने, वह
उसकी योजना
जाने। महावीर
जानते हैं कि
यह जीवन के पथ
पर प्रत्येक
अपनी योजना में
संलग्न है। वह
योजना छोटी
नहीं है। वह
योजना बड़ी है,
जन्मों-
जन्मों की है।
वह कर्मो
का बड़ा
विस्तार है
उसका। उसका
अपने कमो* की, फलों की
लंबी यात्रा
है। मैं किसी
की यात्रा पर
किसी भी कारण
से बाधा न
बनूं। मैं चुपचाप
अपनी पगडंडी
पर चलता रहूं।
मेरे कारण निमित्त
के लिए भी
किसी के मार्ग
पर कोई
व्यवधान खड़ा न
हो। मैं ऐसा
हो जाऊं, जैसे
हूं ही नहीं।
अहिंसा
का महावीर का
अर्थ है कि
मैं ऐसा हो जाऊं, जैसे
मैं हूं ही
नहीं। यह
चींटी यहां से
ऐसे ही गुजर
जाती है जैसे
कि मैं इस रास्ते
पर चला ही
नहीं था, और
ये पक्षी इन
वृक्षों पर
ऐसे ही बैठे
रहते हैं जैसे
कि मैं इन
वृक्षों के
नीचे बैठा ही
नहीं था। ये
लोग, इस
गांव के, ऐसे
ही जीते रहते
जैसे मैं इस
गांव से गुजरा
ही नहीं था ।
जैसे मैं नहीं
हूं। महावीर
का गहनतम
जो अहिंसा का
अर्थ है, वह
है एब्सेंस,
जैसे मैं
नहीं हूं।
मेरी प्रजेंस
कहीं अनुभव न
हो, मेरी
उपस्थिति
कहीं प्रगाढ़
न हो जाए, मेरा
होना कहीं
किसी के होने
में जरा-सा भी
अड़चन, व्यवधान
न बने। मैं
ऐसे हो जाऊं
जैसे नहीं हूं।
मैं जीते जी
मर जाऊं मैं
जीते जी मर
जाऊं।
हमारी
सबकी चेष्टा
क्या है? अब
इसे थोड़ा
समझें तो हमें
खयाल में आ
सानी से आ
जाएगा, पर
बहुत से आयाम
से समझना
पड़ेगा। हम
सबकी चेष्टा
क्या है कि
हमारी
उपस्थिति
अनुभव हो, दूसरा
जाने कि मैं
हूं, मौजूद
हूं। हमारे
सारे उपाय हैं
कि हमारी उपस्थिति
प्रतीत हो।
इसलिए
राजनीति इतनी
प्रभावी हो
जाती है।
क्योंकि
राजनीतिक ढंग
से आपकी
उपस्थिति जितनी
प्रतीत हो
सकती है और
किसी ढंग से
नहीं हो सकती
है। इसलिए
राजनीति पूरे
जीवन पर छा
जाती है। अगर
हम राजनीति का
ठीक-ठीक अर्थ
करें तो उसका
अर्थ है, इस
बात की चेष्टा
कि मेरी
उपस्थिति
अनुभव हो। मैं
कुछ हूं, मैं
नाकुछ नहीं
हूं। लोग
जानें, मैं
चुभूं, मेरे कांटे
जगह-जगह अनुभव
हों, लोग
ऐसे न गुजर
जाएं कि जैसे
मैं नहीं था।
और महावीर
कहते हैं कि
मैं ऐसे गुजर
जाऊं कि पता चले
कि मैं नहीं
था, था ही नहीं।
अब अगर
हम इसे ठीक से
समझें--
उपस्थिति
अनुभव करवाने
की कोशिश का
नाम हिंसा है, वायलेंस है। और जब भी
हम किसी को
कोशिश करवाते
हैं अनुभव
करवाने की कि
मैं हूं, तभी
हिंसा होती
है। चाहे पति
अपनी पत्नी को
बतला रहा हो
कि समझ ले कि
मैं हूं, चाहे
पत्नी समझा
रही हो कि
क्या तुम समझ
रहे हो कि
कमरे में
अखबार पढ़ रहे
हो तो तुम
अकेले हो! मैं
यहां हूं।
पत्नी अखबार
की दुश्मन हो
सकती है क्योंकि
अखबार आड़
बन सकता है, उसकी
अनुपस्थिति
हो जाती है।
अखबार को फाड़कर
फेंक सकती है।
किताबें हटा
सकती है।
रेडियो बंद कर
सकती है। और
पति बेचारा
इसलिए रेडियो
खोले है, अखबार
आड़ा किये
हुए है कि
कृपा करके
तुम्हारी
उपस्थिति
अनुभव न हो।
हम सब इस
चेष्टा में
लगे हैं कि
मेरी
उपस्थिति
दूसरे को
अनुभव हो और
दूसरे की
उपस्थिति
मुझे अनुभव न
हो। यही हिंसा
है। और यह एक
ही िसक्के
के दो पहलू
हैं। जब मैं
चाहूंगा कि
मेरी उपस्थिति
आपको पता चले,
तो मैं यह
भी चाहूंगा कि
आपकी
उपस्थिति
मुझे पता न
चले क्योंकि
दोनों एक साथ
नहीं हो सकते।
मेरी
उपस्थिति
आपको पता चले,
वह तभी पता
चल सकती है जब
आपकी
उपस्थिति को
मैं ऐसेमिटा
दूं, जैसे
है ही नहीं।
हम सबकी कोशिश
यह है कि दूसरे
की उपस्थिति
मिट जाए और
हमारी
उपस्थिति सघन,
कंडेंस्ड हो जाए। यही
हिंसा है।
अहिंसा
इसके विपरीत
है। दूसरा
उपस्थित हो और
इतनी तरह
उपस्थित हो कि
मेरी
उपस्थिति से
उसकी उपस्थिति
में कोई बाधा
न पड़े। मैं
ऐसे गुजर जाऊं
भीड़ से कि
किसी को पता
भी न चले कि
मैं था। अहिंसा
का गहन अर्थ
यही है --
अनुपस्थित
व्यक्तित्व।
इसे हम ऐसा कह
सकते हैं और
महावीर ने ऐसा
कहा है --
अहंकार हिंसा
है और निरहंकारिता
अहिंसा है।
मतलब वही है --
वह दूसरे को
अपनी उपस्थिति
प्रतीत
करवाने की जो
चेष्टा है।
कितनी कोशिश
में हम लगे
हैं,
शायद सारी
कोशिश यही है --
ढंग कोई भी
हों। चाहे हम
हीरे का हार
पहनकर खड़े हो
गये हों और
चाहे हमने
लाखों के
वस्त्र डाल
रखे हों और
चाहे हम नग्न खड़े
हो गये हों --
कोशिश यही है,
क्या, कि
दूसरा अनुभव
करे कि मैं
हूं। मैं चैन
से न बैठने
दूंगा।
तुम्हें
मानना ही
पड़ेगा कि मैं
हूं।
छोटे-छोटे
बच्चे भी इस
हिंसा में
निष्णात होना
शुरू हो जाते
हैं। कभी आपने
खयाल किया
होगा कि
छोटे-छोटे
बच्चे भी अगर
घर में मेहमान
हों तो ज्यादा
गड़बड़ शुरू कर
देते हैं। घर
में कोई न हो
तो अपने बैठे
रहते हैं, क्यों?
आपको
हैरानी होती
है कि बच्चा
ऐसे तो शांत
बैठा था, घर
में कोई आ गया
तो वह पच्चीस
सवाल उठाता है,
बार-बार
उठकर आता है, कोई चीज गिराता
है। वह कर
क्या रहा है? वह सिर्फ अटेंशन
प्रवोक
कर रहा है। वह
कह रहा है, हम
भी हैं यहां।
मैं भी हूं।
और आप उससे कह
रहे हैं, शांत
बैठो। आप यह
कोशिश कर रहे
हैं कि तुम
नहीं हो। वह
बूढ़ा भी वही
कर रहा है, बच्चा
भी वही कर रहा
है। आप कहते
हैं, शांत
बैठो। वह बच्चा
भी हैरान होता
है कि जब घर
में कोई नहीं
होता है तो
बाप नहीं कहता
कि शांत बैठो।
अभी कुछ नहीं
कहता, कितने
चिल्लाओ,
घूमो-फिरो, चुप
बैठा रहता है।
घर में कोई
मेहमान आते
हैं तभी यह
कहता है, शांत
बैठो। क्याबात
क्या है? घर
में जब मेहमान
आते हैं तभी
तो वक्त है शांत
न बैठने का ।
दोनों
के बीच जो
संघर्ष है वह
इस बात का है
कि बच्चा
असर्ट करना
चाहता है। वह
भी घोषणा करना
चाहता है कि
मैं भी यहां
हूं। महाशय, यहां
मैं भी हूं।
इसलिए कभी-कभी
बच्चा मेहमानों
के सा मने
ऐसी जिद पकड़
जाता है कि
मां-बाप हैरान
होते हैं कि
ऐसी जिद उसने
कभी नहीं पकड़ी
थी। उनके
सामने वह
दिखाना चाहता
है कि इस घर में
मालिक कौन है,
किसकी चलती
है, आखिर
में कौन
निर्णायक है।
छोटे-छोटे
बच्चे भी पालिटिक्स
भलीभांति
सीखने लगते
हैं। उसका
कारण है कि हमारा
पूरा का पूरा
आयोजन, हमारा
पूरा समाज, हमारी पूरी
संस्कृति
अहंकार की
संस्कृति है,
अधर्म की।
सारी दुनिया
में वही है।
आदमी अब तक
धर्म की
संस्कृति
विकसित ही
नहीं कर पाया।
अब तक हम यह
कोशिश ही
जाहिर न कर
पाये और हम
सुनते नहीं
महावीर वगैरह
की, जो कि
इस तरह की
संस्कृति के
स्रोत बन सकते
थे। वे कहते
हैं कि नहीं, उपस्थिति
तुम्हारी
जितनी पता न
चले, उतना
ही मंगल है।
तुम्हारे लिए
भी, दूसरे
के लिए भी।
तुम ऐसे हो
जाओ जैसे हो
ही नहीं।
महावीर
घर छोड़कर जाना
चाहते थे तो
मां ने कहा-- "मत
जाओ,
मुझे दुख
होगा'।
महावीर नहीं
गये, क्योंकि
इतनी भी जाने
की जिद से
होने का पता चलता
है। आग्रह था
कि नहीं, जाऊंगा।
अगर महावीर की
जगह कोई भी
होता तो उसका
त्याग और जोश
मारता-- क्या
कहते हैं
गुजराती में
आप, जुस्सा।
उसका जोश और
बढ़ता। वह कहता,
कौन मां, कौन पिता? सब संबंध
बेकार हैं। यह
सब संसार है।
जितना समझाते,
उतना वे
शिखर पर चढ़ते।
अधिक
संन्यासी, अधिक
त्यागी आपके
समझाने की वजह
से हो गये
हैं। भूल से
मत समझाना।
कोई कहे "जाते
हैं', कहना,
"नमस्कार'। तो वह आदमी
जाने के पहले
पच्चीस दफे
सोचेगा कि
जाना कि नहीं
जाना। आप घेरा
बांधकर खड़े हो
गये, आपने अटेंशन
देनी शुरू कर
दिया। आपने
कहा कि उनको
जाना महत्वपूर्ण
हो गया। जरूरी
हो गया। अब यह
व्यक्तित्व
की लड़ाई हो
गई। अब सिद्ध
करना पड़ेगा।
इतने त्यागी न
हों दुनिया
में अगर आसपास
के लोग इतना
आग्रह न करें--
तो त्यागी
एकदम कम हो
जाएंगे।
इसमें नब्बे
प्रतिशत तो
बिलकुल ही न
हों और तब
दुनिया का हित
हो। क्योंकि
जो दस प्रतिशत
बचे उनके त्याग
की एक गरिमा
हो। उनका एक
अर्थ हो।
लेकिन आप
रोकते हैं, वही कारण बन
जाता है।
महावीर
रुक गये, मां
भी थोड़ी चकित
हुई होगी, ऐसा
कैसा त्याग!
फिर महावीर ने
दुबारा न कहा
कि एक दफा और
निवेदन करता
हूं कि जाने
दो। बात ही
छोड़ दी। मां
के मरने तक
फिर बोले ही
नहीं। कहा ही
नहीं कुछ। मां
ने भी सोचा
होगा, जरूर
सोचा होगा कि
यह कैसा
त्याग!
क्योंकि त्यागी
तो एकदम जिद
बांधकर खड़ा हो
जाता है। मां
मर गयी। घर
लौटते वक्त
अपने बड़े भाई
को महावीर ने
कहा--
कब्रिस्तान
से लौटते वक्त,
मरघट से, कि अब मैं जा
सकता हूं? क्योंकि
वह मां कहती
थी, उसे
दुख होगा। तो
बात समाप्त हो
गयी, अब वह
है ही नहीं।
भाई ने
कहा,
तू आदमी
कैसा है! इधर
इतना बड़ा दुख
का पहाड़ टूट पड़ा
हमारे ऊपर, कि मां मर गई,
और तू अभी
छोड़कर जाने की
बात करता है!
भूलकर ऐसी बात
मत करना।
महावीर
चुप हो गये।
फिर दो वर्ष
तक भाई भी हैरान
हुआ कि यह
त्याग कैसा!
क्योंकि वे तो
अब चुप ही हो
गये।
उन्होंने फिर
दोबारा बात न
कही। इतनी
उपस्थिति को
हटा लेने का
नाम अहिंसा
है।
दो
वर्ष में घर
के लोगों को
खुद चिंता
होने लगी कि
कहीं हम
ज्यादती तो
नहीं कर रहे
हैं। भाई को
पीड़ा होने लगी, क्योंकि
देखा कि
महावीर घर में
हैं तो, लेकिन
करीब-करीब ऐसे
जैसे न हों-- एक
घोस्ट एग्जिसटेंस
रह गया, शैडो
एग्जिसटेंस।
कमरे से ऐसे
गुजरते हैं कि
पैर की आवाज न
हो। घर में
किसी को कुछ
कहते नहीं कि
किसी को पता चले
कि मैं भी
हूं। कोई सलाह
नहीं देते, कोई उपदेश
नहीं देते।
बैठे देखते
रहते हैं, जो
हो रहा है--हो
रहा है! उसमें
वे उसके
साक्षी हो गये
हैं। कई-कई
दिनों तक घर
के लोगों को
खयाल ही न आता
कि महावीर
कहां हैं। बड़ा
महल था। फिर खोजबीन
करते कि
महावीर कहां
हैं तो पता
चलता। खोजबीन
करने से पता
चलता।
तो भाई
ने और सबने
बैठकर सोचा कि
हम कहीं ज्यादती
तो नहीं कर
रहे हैं, कहीं
हम भूल तो
नहीं कर रहे
हैं। हम सोचते
हैं कि हम
रोकते हैं
इसलिए रुक
जाता है।
लेकिन हमें
ऐसा लगता है
कि इसलिए रुक
जाता है कि
नाहक, इतनी
भी उपस्थिति
हमें क्यों
अनुभव हो, हमें
इतनी भी पीड़ा
क्यों हो कि
हमारी बात तोड़कर
गया है। लेकिन
लगता हमें ऐसा
है कि वह जा
चुका है, अब
वह घर में है
नहीं। उन सबने
मिलकर कहा-- यह
पृथ्वी पर घटी
हुई अकेली
घटना है-- उन
सबने, घर
के लोगों ने
मिलकर कहा कि
आप तो जा ही
चुके हैं, एक
अर्थ में। अब
ऐसा लगता है
कि पार्थिव
देह पड़ी रह गई
है, आप इस
घर में नहीं
हैं। तो हम आपके
मार्ग से हट
जाते हैं
क्योंकि हम
अकारण आपको
रोकने का कारण
न बनें।
महावीर उठे और
चल पड़े।
यह
अहिंसा है।
अहिंसा का
अर्थ है, गहनतम
अनुपस्थिति।
इसलिए मैंने
कहा कि बुद्ध
का जो तथाता
का भाव है, वही
महावीर की
अहिंसा का भाव
है। तथाता का
अर्थ है -- जैसा
है, स्वीकार
है। अहिंसा का
भी यही अर्थ
है कि हम
परिवर्तन के
लिए जरा भी
चेष्टा न
करेंगे। जो हो
रहा है ठीक है,
जो हो जाए
ठीक है। जीवन
रहे तो ठीक है,
मृत्यु आ
जाए तो ठीक
है। हमारी
हिंसा किस बात
से पैदा होती
है? जो हो
रहा है वह
नहीं, जो
हम चाहते हैं
वह हो। तो
हिंसा पैदा
होती है।
हिंसा है क्या?
इसलिए युग
में जितना
ज्यादा
परिवर्तन की
आकांक्षा
भरती है, युग
उतने ही हिंसक
होते चले जा
ते हैं । आदमी
जितना चाहता
है, ऐसा हो,
उतनी हिंसा
बढ़ जाएगी।
महावीर
की अहिंसा का
अर्थ अगर हम
गहरे में खोलें, गहरे
में उघाड़ें,
उसकी डेप्थ
में, तो उसका
यह अर्थ है कि
जो है उसके
लिए हम राजी
हैं। हिंसा का
कोई सवाल नहीं
है, कोई
बदलाहट नहीं
है, कोई
बदलाहट नहीं
करनी है। आपने
चांटा मार दिया,
ठीक है। हम
राजी हैं, हमें
अब और कुछ भी
नहीं करना है,
बात समाप्त
हो गयी। हमारा
कोई
प्रत्युत्तर
नहीं। इतना भी
नहीं जितना
जीसस का है।
जीसस कहते हैं,
दूसरा गाल
सामने कर दो।
महावीर इतना
भी नहीं कहते
कि जो चांटा
मारे, तुम
दूसरा गाल
उसके सामने
करना, क्योंकि
यह भी एक
उत्तर है। एक "सार्ट आफ
आंसर' है।
है तो उत्तर--
चांटा मारना
भी एक उत्तर
है, दूसरा
गाल कर देना
भी एक उत्तर
है। लेकिन तुम
राजी न रहे, बात जितनी
थी उतने से
तुमने कुछ न
कुछ किया।
महावीर
कहते हैं--
करना ही हिंसा
है,
कर्म ही
हिंसा है।
अकर्म अहिंसा
है। चांटा मार
दिया है, ठीक
है जैसे एक
वृक्ष से सूखा
पत्ता गिर गया
है। ठीक है, आप अपनी राह
चले गये। एक
आदमी ने चांटा
मार दिया, आप
अपनी राह चले
गये। एक आदमी
ने गाली दी, आपने सुनी
और आगे बढ़
गये। क्षमा भी
करने का सवाल
नहीं है
क्योंकि वह भी
कृत्य है। कुछ
करने का सवाल
नहीं है। पानी
में उठी लहर
और अपने-आप बिखर
जाती है। ऐसा
ही चा रों
तरफ लहरें
उठती रहेंगी
कर्म की, बिखरती
रहेंगी। तुम
कुछ मत करना।
तुम चुपचाप
गुजरते जाना।
पानी में लहर
उठती है, मिटानी
तो नहीं पड़ती,
अपने से आप
मिट जाती है।
इस जगत
में जो
तुम्हारे
चारों तरफ हो
रहा है, उसे
होते रहने
देना है, वह
अपने से उठेगा
और गिर जाएगा।
उसके उठने के
नियम
हैं,
उसके गिरने
के नियम हैं, तुम व्यर्थ
बीच में मत
आना। तुम
चुपचाप दूर ही
रह जाना। तुम
तटस्थ ही रह
जाना। तुम ऐसा
ही जानना कि
तुम नहीं थे।
जब कोई चांटा
मारे तब तुम
ऐसे हो जाना कि
तुम नहीं हो, तो उत्तर
कौन देगा। गाल
भी कौन करेगा,
गाली कौन
देगा, क्षमा
कौन करेगा ? तुम ऐसा
जानना कि तुम
नहीं हो।
तुम्हारी एब्सेंस
में, तुम्हारी
अनुपस्थिति
में जो भी
कर्म की धारा उठेगी
वह अपने से
पानी में उसकी
लहर की तरह खो जाएगी।
तुम उसे छूने
भी मत जाना।
हिंसा का अर्थ
है, मैं
चाहता हूं, जगत ऐसा हो।
उमर खैयाम
ने कहा है--
मेरा वश चले
और प्रभु तू
मुझे शक्ति दे
तो तेरी सारी
दुनिया को तोड़कर
दूसरी बना
दूं। अगर आपका
भी वश चले तो
दुनिया को आप
ऐसी ही रहने
देंगे जैसी है? दुनिया!
दुनिया तो
बहुत बड़ी चीज
है, कुछ भी
आप ऐसा न रहने
देंगे, छोटा-
मोटा भी जैसा
है। उमर खैयाम
के इस वक्तव्य
में सारे
मनुष्यों की
कामना तो
प्रगट हुई ही
है, और
हिंसा भी। अगर
महावीर से कहा
जाए, अगर
आपको पूरी
शक्ति दे दी
जाए कि यह
दुनिया कैसी
हो, तो
महावीर
कहेंगे, जैसी
है, वैसी
हो -- एज इट इज।
मैं कुछ भी न
करूंगा।
लाओत्से
ने कहा है--
श्रेष्ठतम
सम्राट वह है
जिसका प्रजा
को पता ही
नहीं चलता
।श्रेष्ठतम सम्राट
वह है जिसका
प्रजा को पता
ही नहीं चलता, वह
है भी या
नहीं। महावीर
की अहिंसा का
अर्थ है कि
ऐसे हो जाओ कि
तुम्हारा पता
ही न चले और हमारी
सारी चेष्टा
ऐसी है कि हम
इस भांति कैसे
हो जाएं कि
कोई न बचे
जिसे हमारा
पता न हो। कोई
न बचे, जिसे
हमारा पता न
हो। सारी अटेंशन
हम पर फोकस हो
जाए। सारी
दुनिया हमें
देखे, हम
हों आंखों के
बीच में, सब
आंखें हम पर
मुड़ जाएं। यही
हिंसा है। और
यही हिंसा है
कि हम पूरे
वक्त चाहते
रहें कि ऐसा हो,
ऐसा न हो।
हम पूरे वक्त
चाह रहे हैं। क्यों
चाह रहे हैं? चाहने का
कारण है। वह
जो धर्म की
व्याख्या में
मैंने आपसे
कहा-- दौड़ रहे
हैं, वह
मकान मिले,
वह धन मिले,
वह पद मिले,
तो हिंसा से
गुजरना
पड़ेगा। वासना
हिंसा के बिना
नहीं हो सकती।
किसी वासना की
दौड़ हिंसा के बिना
नहीं हो सकती।
हम ऐसा समझ
सकते हैं कि
वासना के लिए
जिस ऊर्जा की
जरूरत पड़ती है
वह हिंसा का
रूप ले लेती
है। इस लिए
जितना वासनाग्रस्त
आदमी है उतना वायलेंट, उतना हिंसक
होगा। जितना वासनामुक्त
आदमी उतना
अहिंसक होगा।
इसलिए
जो लोग समझते
हैं कि महावीर
कहते हैं कि
अहिंसा इसलिए
है कि तुम
मोक्ष पा लोगे, वे
गलत समझते
हैं। क्योंकि
अगर मोक्ष
पाने की वासना
है तो आपकी
अहिंसा भी
हिंसक हो
जाएगी। और
बहुत से लोगों
की अहिंसा
हिंसक है।
अहिंसा भी
हिंसक हो सकती
है। आप इतने
जोर से अहिंसा
के पीछे पड़
सकते हैं कि
आपका पड़ना
बिलकुल हिंसक
हो जाए। लेकिन
जो मोक्ष की
वासना से
अहिंसा के
पीछे जाएगा
उसकी अहिंसा
हिंसक हो
जाएगी। इसलिए
तथाकथित
अहिंसक
साधकों को
अहिंसक नहीं
कहा जा सकता।
वे इतने जोर
से लगे हैं
उसके पीछे, पाकर ही
रहेंगे। सब
दांव पर लगा
देंगे, लेकिन
पाकर रहेंगे।
वह जो पाकर
रहने का भाव
है उसमें बहुत
गहरी हिंसा
है।
महावीर
कहते हैं, पाने
को कुछ भी
नहीं है जो
पाने योग्य है
वह पाया ही
हुआ है।बदलने
को कुछ भी
नहीं है
क्योंकि यह
जगत अपने ही
नियम से बदलता
रहता है।
क्रांति करने
का कोई कारण
नहीं, क्रांति
होती ही रहती
है। कोई
क्रांति-व्रांति
करता नहीं, क्रांति
होती रहती है।
लेकिन
क्रांतिकारी
को ऐसा लगता
है, वह
क्रांति कर
रहा है। उसका
लगना वैसा ही
है जैसे सागर
में एक बड़ी
लहर उठे और एक
बहता हुआ तिनका
लहर के मौके
पर पड़ जाए और
ऊपर चढ़ जाए और
ऊपर चढ़कर
वह कहे कि लहर
मैंने ही
उठायी है। बस,
वैसा ही है।
सुना
है मैंने कि
जगन्नाथ का रथ
निकलता था तो एक
बार एक कुत्ता
रथ के आगे हो लिया।बड़े
फूल बरसते
थे,
बड़ी
नमस्कार होती
थी। लोग लोट-लोटकर
जमीन पर
प्रणाम करते थे।और
कुत्ते की अकड़
बढ़ती चली गयी।
उसने कहा, आश्चर्य!
न केवल लोग
नमस्कार कर
रहे हैं, मेरे
पीछे
स्वर्ण-रथ भी
चलाया जा रहा
है। मैं ऐसा
हूं ही, इसमें
कोई कारण भी
नहीं है। हम
सबका चित्त भी
ऐसा ही है।
रूस
में चीजैवस्की
को स्टेलिन
ने कारागृह
में डलवा दिया
और मरवा डा
ला। क्योंकि
उसने यह कहा
कि
क्रांतियां
आदमियों के किये
नहीं होतीं, सूरज
के प्रभाव से
होती हैं। और
उसके कहने का का
रण ज्योतिष का
वैज्ञानिक
अध्ययन था।
उसने हजारों
साल की
क्रांतियों
के सारे
ब्यौरे की जांच
-पड़ताल की और
सूरज के ऊपर
होने वाले
परिवर्तनों
की जांच-पड़ताल
की। उसने कहा--
हर साढ़े
ग्यारह वर्ष
में सूरज पर
इतना बड़ा
परिवर्तन होता
है वैद्युतिक
कि उसके
परिणाम पर
पृथ्वी पर
रूपांतर होते
हैं। और हर
नब्बे वर्ष
में सूरज पर
इतना बड़ा
परिवर्तन
होता है कि
उसके परिणाम
में पृथ्वी पर
क्रांतियां
घटित होती
हैं। उसने सारी
क्रांतियां, सारे उपद्रव,
सारे युद्ध
सूरज पर होने
वाले कास्मिक
परिणामों से
सिद्ध किये।
और
सारी दुनिया
के वैज्ञानिक
मानते हैं कि चीजैवस्की
ठीक कह रहा
था। लेकिन स्टेलिन
कैसे माने।
अगर चीजैवस्की
ठीक कह रहा था
तो १९१७ की
क्रांति सूरज
पर हुई किरणों
के फर्क से हुई
है,
तो फिर
लेनिन और स्टेलिन
और ट्राटस्की
इनका क्या
होगा? चीजैवस्की को मरवा
डालने जैसी
बात थी। लेकिन
स्टेलिन
के मरने के
बाद चीजैवस्की
का फिर रूस
में काम शुरू
हो गया। और रूस
के
ज्योतिष-विज्ञानी
कह रहे हैं कि
वह ठीक कहता
है। पृथ्वी पर
जो भी
रूपांतरण
होते हैं, उनके
कारण कास्मिक
हैं, उनके
का रण जागतिक
हैं। सारे जगत
में जो रूपांतरण
होते हैं, उनके
कारण जागतिक
हैं। आप जानकर
हैरान होंगे
कि एक बहुत
बड़ी प्रयोगशाला
प्राग में, चेक
गवर्नमेंट ने
बनायी है, जो
एसट्ररानामिकल
बर्थ कंट्रोल
पर काम कर रही
है। और उनके
परिणाम ९८ प्रतिशत
सही आये। और
जो आदमी मेहनत
कर रहा है वहां,
उस आदमी का
दावा है कि
आने वाले
पंद्रह वर्षो
में किसी तरह
की गोली, किसी
तरह के और
कृत्रिम साधन
की
बर्थ-कंट्रोल के
लिए जरूरत
नहीं रहेगी, गर्भ-निरोधक
के लिए।
स्त्री जिस
दिन पैदा हुई
है और जिस दिन
उसका स्वयं का
गर्भाधारण
हुआ था, इसकी
तारीखें, और
सूर्य पर और
चांद ता रों
पर होने वाले
परिवर्तनों
के हिसाब से
वह तय कर लेता
है कि यह
स्त्री
किन-किन दिनों
में गर्भधारण
कर सकती है।
वे दिन छोड़
दिये जाएं
संभोग के लिए
तो पूरे जीवनकाल
में कभी
गर्भधारण
नहीं होगा। अंठान्नबे
प्रतिशत दस
हजार
स्त्रियों पर
किये गये प्रयोग
में सफल हुआ
है। वह यह भी
कहता है कि
स्त्री अगर
चाहे कि बच्चा
लड़का पैदा हो
या लड़की तो उसकी
भी तारीखें तय
की जा सकती
हैं। क्योंकि
वह भी कास्मिक
प्रभावों से
होता है, वह
भी आपसे नहीं
हो रहा है।
ज्योतिष के
बड़े जोर से वापस
लौट आने की
संभावना है।
महावीर
कहते हैं--
घटनाएं घट
रहीं हैं, तुम
नाहक उनको
घटाने वाले मत
बनो। तुम यह
मत सोचो कि
मैं यह करके
रहूंगा। तुम
इतना ही करो तो
काफी है कि
तुम न करने
वाले हो जाओ।
अहिंसा
का अर्थ है-- अकर्म।
अहिंसा का
अर्थ है-- मैं
कुछ न बदलूंगा, मैं
कुछ न
चाहूंगा। मैं
अनुपस्थित हो जाऊंगा।
अहिंसा पर
थोड़ी और बात
करनी पड़े, कलबात
करेंगे!
आज
इतना ही।
पर
कोई जाए न, थोड़ा
इस आनंद!
thank you guruji
जवाब देंहटाएं