अध्याय
–7
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परंतप।। 27।।
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः।। 28।।
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परंतप।। 27।।
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः।। 28।।
हे भरतवंशी
अर्जुन, संसार
में इच्छा और
द्वेष से
उत्पन्न हुए
सुख-दुख आदि
द्वंद्व रूप
मोह से
संपूर्ण
प्राणी अति
अज्ञानता को
प्राप्त हो
रहे हैं।
परंतु निष्काम
भाव से
श्रेष्ठ
कर्मों का
आचरण करने वाले
जिन पुरुषों
का पाप नष्ट
हो हे गया है, वे रागद्वेषादि
द्वंद्व रूप
मोह से मुक्त
हुए और दृढ़
निश्चय वाले
पुरुष मेरे को
सब प्रकार से
भजते हैं।
प्रभु
का स्मरण भी
उन्हीं के मन
में बीज बनता
है, जो
इच्छाओं, द्वेषों
और रागों के
घास-पात से
मुक्त हो गए हैं।
जैसे कोई माली
नई जमीन को
तैयार करे, तो बीज नहीं
बो देता है
सीधे ही।
घास-पात को, व्यर्थ की
जड़ों को उखाड़कर
फेंकता है, भूमि को
तैयार करता है,
फिर बीज
डालता है।
इच्छा
और द्वेष से
भरा हुआ चित्त
इतनी घास-पात
से भरा होता
है, इतनी
व्यर्थ की
जड़ों से भरा
होता है कि
उसमें प्रार्थना
का बीज पनप
सके, इसकी
कोई संभावना
नहीं है।
यह मन
की, अपने ही
हाथ से अपने को
विषाक्त करने
की जो दौड़ है, यह जब तक
समाप्त न हो
जाए, तब तक
प्रभु का भजन
असंभव है।
सुना
है मैंने, एक चर्च में
एक फकीर बोलने
आया था। कोई
एक हजार लोग
उसे सुनने को
इकट्ठे थे।
उसने उन एक
हजार लोगों से
पूछा कि मैं
तुमसे पूछना
चाहूंगा, तुममें
से कोई ऐसा है जिसने
घृणा के ऊपर
विजय पा ली हो?
क्योंकि
जिसने अभी
घृणा पर विजय
नहीं पाई, वह
प्रार्थना
करने में
समर्थ न हो
सकेगा। इसके
पहले कि मैं
तुम्हें
प्रार्थना के
लिए कहूं, मैं
यह जान लूं कि
तुममें से कोई
ऐसा है, जिसने
घृणा पर विजय
पा ली हो!
हजार
लोगों में से
कोई उठता हुआ
नहीं मालूम
पड़ा, लेकिन
फिर एक आदमी
उठा। एक सौ
चार वर्ष का
एक बूढ़ा आदमी
खड़ा हुआ।
उस
पादरी ने कहा, खुश हूं, प्रसन्न
हूं, आनंदित
हूं, क्योंकि
हजार में भी
एक आदमी ऐसा
मिल जाए, जिसने
घृणा पर विजय
पा ली है, तो
थोड़ा नहीं। और
अगर एक आदमी
भी इस चर्च
में ऐसा है, जिसने घृणा
पर विजय पा ली
है, तो हम
प्रभु को इस
चर्च में
उतारने में
सफल हो जाएंगे।
तुम्हारी
अकेले की
प्रार्थना
पर्याप्त
होगी, इन
सबके जीवन में
भी प्रकाश
डालने के लिए।
मैं तुमसे
प्रार्थना
करूंगा, उस
फकीर ने कहा
कि तुम इन
लोगों को भी
बताओ कि तुमने
अपनी घृणा पर
विजय कैसे
प्राप्त की?
और उस
बूढ़े आदमी ने
कहा, बड़ी
सरलता से।
क्योंकि वे सब
दुष्ट, जिन्होंने
मुझे सताया था,
और वे सब मूढ़,
जिन्होंने
मुझे परेशान
किया था और
जिनसे मुझे
घृणा थी, वे
सब मर चुके
हैं। अब कोई
बचा ही नहीं, जिसे मैं
घृणा करूं। आप
ही बताइए मैं
किसको घृणा
करूं?
एक सौ
चार वर्ष उसकी
उम्र है; करीब-करीब
वे सारे लोग
मर चुके हैं, जिनसे
जिंदगी में
कोई कलह, कोई
संघर्ष था।
कहने लगा, अब
कोई घृणा की
जरूरत ही न
रही। ऐसे तो
सभी के जीवन
से राग-द्वेष
चला जाता है; सभी के जीवन
से। शरीर
शिथिल होने
लगता है, कामवासना
शिथिल हो जाती
है। जिंदगी की
दौड़ उतरकर
मौत के करीब
पहुंचने लगती
है, तो
बहुत-से वेग
अपने आप शिथिल
हो जाते हैं।
प्रतिस्पर्धा,
जैसे-जैसे
आदमी मौत के
करीब पहुंचता
है, कम
होने लगती है।
लेकिन इस
भांति भी अगर
कोई सोचता हो
कि प्रार्थना
में सफल हो
जाएगा, तो
संभव नहीं है।
ऊर्जा
हो पूरी, शक्ति
हो पूरी, अवसर
पूरा का पूरा
ऐसा हो, जहां
कि द्वेष
जन्मता हो और
द्वेष न जन्मे;
जहां घृणा
पैदा होती हो
और घृणा पैदा
न हो; जहां
राग का जन्म
होता है और
राग न जन्मता
हो; जहां
सारी
प्रतिकूल
परिस्थिति हो
और मन, जीवन
की जो सहज
पाशविक वृत्तियां
हैं, उनकी
तरफ न दौड़ता
हो, तो ही
जीवन में
प्रार्थना का
बीज अंकुरित
हो पाता है।
लेकिन
हम सारे ऐसे
लोग हैं कि हम
चाहते तो हैं कि
जीवन में
प्रार्थना
खिल जाए, और
प्रभु का मिलन
हो जाए, और
आनंद घटित हो।
और हम उन
पर्वत शिखरों
को देखने में
समर्थ हो जाएं,
जिन पर
प्रकाश कभी
क्षीण नहीं
होता; और
हम उन
गहराइयों को
जान लें अनुभव
की, जहां
अमृत निवास
करता है; उन
मंदिरों में
प्रवेश कर
जाएं, जहां
परम प्रभु
विराजमान
है--ऐसी हम
आकांक्षा करते
हैं। लेकिन
चौबीस घंटे
घृणा के बीज
को पानी देते
हैं, द्वेष
को सम्हालते
हैं, शत्रुता
को पालते हैं।
और सब तरह से
जमीन जिस तरह
खराब की जा
सकती है, वह
सब करते हैं।
और फिर हम
सोचते हों कि
कभी भगवत-भजन
का फूल खिल
सके, तो वह
संभव नहीं है।
कृष्ण
कहते हैं, जो नासमझ
हैं, जो अज्ञानीजन
हैं, वे
इच्छा और
द्वेष में ही
अपने जीवन को
समाप्त कर
देते हैं।
उनके पास न तो
शक्ति बचती है,
न समय बचता
है, न
चेतना बचती है
कि मेरी ओर
प्रवाहित हो
सके। लेकिन जो
ज्ञानीजन
हैं...।
और
ज्ञानी कौन है? ज्ञानी वही
है, जो
अपने जीवन को
निरंतर आनंद
की दिशा में
प्रवाहित
करने में
समर्थ है।
और
अज्ञानी वही
है, जो अपने
ही हाथों नर्क
की यात्रा
करता है। जो
अपने साथ अपना
नर्क लेकर
चलता है। कहीं
भी पहुंच जाए,
तो वह नर्क
को निर्मित कर
लेगा। उसके
पास बिल्ट-इन-प्रोग्रेम
है। उसके पास
हमेशा तैयार
है फार्मूला
नर्क बनाने
का। वह कहीं
भी पहुंच जाए,
ज्यादा देर
न लगेगी, वह
नर्क निर्मित
कर लेगा।
अज्ञानी
वही है, जो
अपने चारों
तरफ नर्क की
समस्त
संभावनाओं को
लेकर चलता है।
और ज्ञानी वही
है, जो
अपने चारों
तरफ स्वर्ग की
समस्त
संभावनाओं को
लेकर चलता है।
स्वर्ग की बड़ी
से बड़ी संभावना
प्रभु का
स्मरण है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, वह
ज्ञानी जिसने
अपने मन को
निष्काम कर
डाला, पवित्र
कर डाला, जिसके
जीवन में
पुण्य की गंध
पैदा हुई, जिसने
व्यर्थ के
घास-पात को उखाड़कर
फेंक दिया, राग-द्वेष
में जो अब
जीता नहीं, जो अब
भगवत-भजन की
दिशा में
निरंतर चल रहा
है; उठता
है, बैठता
है, चलता
है, डोलता
है, कुछ भी
करता है, प्रत्येक
कृत्य जिसका
प्रभु के लिए
समर्पित है और
प्रत्येक क्षण,
वैसा
व्यक्ति मुझे
उपलब्ध होता
है।
दो
बातें
स्मरणीय हैं।
अभी इस
घटना का उपयोग
करूं। अभी
वर्षा पड़ रही है।
हमारी दृष्टि
पर सब निर्भर
है। अगर हम
सोचते हैं कि
बहुत बड़ा दुख
हमारे ऊपर गिर
रहा है, तो
हमारी दृष्टि शत्रुता
की हो जाती
है। अगर हम
सोचते हैं कि
प्रभु की
अनुकंपा बरस
रही है, तो
हमारी दृष्टि
मित्रता की हो
जाती है। और
तब यह पड़ती
हुई बूंद, पानी
की बूंद नहीं
रह जाएगी, यह
पड़ती बूंद
भगवत चेतना की
बूंद हो जाती
है।
हम
कैसे लेते हैं
जीवन को, इस
पर सब निर्भर
करता है। हमें
पता ही नहीं
है कि काश, हमें
जिंदगी को
जीने का खयाल
होता, तो
हम जब आकाश से
बादल बरसते
हों और पानी
नीचे गिर रहा
हो, तो हम
नाच भी सकते
हैं खुशी में।
मोर नाचते हैं,
और कभी आदमी
भी नाचता था, लेकिन अब
आदमी सिर्फ
बचता है। सूरज
निकला हो, तो
उसकी रोशनी
में हम सिर्फ
धूप भी अनुभव
कर सकते हैं, और जीवन भी।
अंधेरा घिरा
हो, तो हम
आने वाली सुबह
की यात्रा भी
देख सकते हैं
उसमें, और
सिर्फ मृत्यु
का अंधकार भी।
हमारे
ऊपर निर्भर
करता है कि हम
जीवन को कैसे देखते
हैं। वर्षा रुकेगी
नहीं आपके
देखने से।
पानी बंद नहीं
होगा, बादल
आपकी फिक्र न
करेंगे।
लेकिन आपके
दृष्टिकोण का
अंतर, आपके
एटिटयूड
का जरा सा बदल
जाना, और
सब बदल जाता
है।
सुना
है मैंने कि केलिफोर्निया
के एक मोटेल
में एक यात्री
मेहमान है।
सुबह सूरज
निकल रहा है
और पक्षी गीत
गा रहे हैं।
तो मोटेल
के मैनेजर ने
उस यात्री को
कहा कि आप
कृपा करके
बाहर आएं।
सूरज निकला है, पक्षी गीत
गा रहे हैं, आकाश बहुत
सुंदर है। उस
आदमी ने कहा, वह तो ठीक
है। बट फर्स्ट
लेट मी नो हाउ
मच इट विल
कास्ट--पहले
मुझे बता दो
कि कीमत क्या
चुकानी पड़ेगी!
हम जिस
दुनिया में
जीते हैं, वह बाजार की
दुनिया है।
वहां हर चीज
को हम मूल्य
से आंकते
हैं। अगर किसी
दिन ऐसा हो
जाए कि वर्षा
मुश्किल हो
जाए, तो
निश्चित ही हम
पैसे चुकाकर
शावर के
नीचे खड़े
होंगे। और जिन
मुल्कों में
सूरज नहीं
निकलता, जब
सूरज निकल आता
है, तो
छुट्टी हो
जाती है।
अंग्रेजी में संडे के
दिन छुट्टी का
कारण है, क्योंकि
वह सन-डे है, वह सूरज का
दिन है। आकाश
घिरा रहता है
बादलों से; सूरज का कोई
दर्शन नहीं
होता। जब सूरज
निकल आए, तो
आनंद से
प्रफुल्लित
होकर लोग सूरज
की धूप लेने
के लिए लेट
जाते हैं।
जो
न्यून हो जाए, और जिसके
लिए हमें पैसा
देना पड़े, फिर
हमें लगता है,
उसमें कुछ
आनंद है।
लेकिन जो हमें
मुफ्त में मिल
जाए, अगर
परमात्मा भी
मुफ्त हम पर
बरसता हो, तो
हम
द्वार-दरवाजे
बंद करके भीतर
हो जाएंगे।
(वर्षा
शुरू हो गई है
और भगवान श्री
अपना बोलना
जारी रखते
हैं।)
मैं
कहता हूं, इधर थोड़ी
देर हम
बैठेंगे ही।
मुझे लगता है,
कोई इनमें
से जाने वाला
नहीं है। जो
जाने वाले थे,
वे आए ही
नहीं हैं।
वर्षा भी रुकेगी
नहीं। वर्षा
भी आपसे डरेगी
नहीं। वर्षा
भी जारी
रहेगी। बादल
अपने आनंद में
मग्न रहेंगे।
अब इतनी देर घंटेभर
हमें यहां
रहना है। आपकी
दृष्टि पर
निर्भर करेगा।
मैं
चाहूंगा कि
थोड़ा-सा खयाल
करें कि
प्रत्येक
बूंद
परमात्मा का
आशीष है। और
यहां से जाते
वक्त आपका
शरीर ही नहीं गीला
होगा, आपकी
आत्मा भी भीग
गई होगी। और
वह आत्मा का
भीग जाना ही
प्रभु का भजन
है। उसके भजन
किन्हीं मंदिरों
के कोने में
बैठकर नहीं
किए जाते हैं;
उसके भजन
जीवन के हर
कोने में और
जीवन की हर
दिशा में और
हर आयाम में
किए जाते हैं।
कृष्ण
कहते हैं, जिनके मन
में काम-द्वेष
नहीं है, जो
किसी के लिए
घृणा से नहीं
भरे हैं, वे
सरलता से ही
मेरे भजन में
लीन हो पाते
हैं। और उन
ज्ञानियों को
मैं उपलब्ध
होता हूं।
(वर्षा
जारी है और
भगवान श्री
अपना बोलना
जारी रखते
हैं।)
इधर घंटेभर
अज्ञानी मत
बनें। घंटेभर
के लिए कम से
कम ज्ञानी बन
जाएं। और एक
क्षण के लिए
भी कोई ज्ञान
का आनंद ले ले, तो दुबारा
अज्ञानी होने
की उसकी
तैयारी न होगी।
वह हर जगह
प्रभु के
स्मरण को खोज
पाएगा।
बूंद
आपके ऊपर गिर
रही है, वह सिर्फ
पानी नहीं है,
वह
परमात्मा भी
है। क्योंकि
परमात्मा के
सिवाय इस जगत
में कुछ भी
नहीं है। जब
बूंद आपके सिर
पर गिरे और
आपकी आंखों से
नीचे उतरे, तो जानना कि
परमात्मा
अपनी पूरी
शीतलता को लेकर
आपके ऊपर गिरा
है और नीचे
उतरा है। और
आप पाएंगे कि
यहां
बैठे-बैठे इस
वर्षा के क्षण
में भी एक
प्रार्थना की
गहराई आपके
हृदय तक पहुंच
गई है। और वह
गहराई काम की
हो जाएगी। ये
कपड़े तो सूख
जाएंगे, उस
गहराई का
सूखना
मुश्किल है।
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य
यतन्ति
ये।
ते
ब्रह्म तद्विदुः
कृत्स्नमध्यात्मं
कर्म चाखिलम्।।
29।।
और
जो मेरे शरण
होकर जरा और
मरण से छूटने
के लिए यत्न
करते हैं, वे पुरुष उस
ब्रह्म को तथा
संपूर्ण
अध्यात्म को
और संपूर्ण
कर्म को जानते
हैं।
जो
मेरी शरण
होकर!
इस
छोटे-से शब्द
शरण में, धर्म
का समस्त सार
समाया हुआ है।
यह शरण इस पूरब
में खोजी गई
समस्त साधनाओं
की आधारभूत
बात है।
जो
मेरी शरण
होकर!
शरण
होने का अर्थ
है, जो अपने
को इतना असहाय
पाता है, इतना
हेल्पलेस।
और जो पाता है,
मेरे किए
कुछ भी न हो
सकेगा। और जो
पाता है, मेरे
किए कभी कुछ
हुआ नहीं। और
जो पाता है कि
मैं हूं न
होने के बराबर,
नहीं ही
हूं। जो पाता
है, मैं कुछ
भी नहीं हूं।
न श्वास मेरे
कारण चलती है,
न खून मेरे
कारण बहता है;
न बादल मेरे
कारण इकट्ठे
होते हैं, न
वर्षा मेरी
वजह से होती
है। अज्ञात, अनंत शक्ति
सब किए चली
जाती है। मैं
व्यर्थ अपने
को बीच में
क्यों लिए
फिरूं! मैं
अपने को छोड़
दूं; मैं
बह जाऊं। इस
अनंत के साथ
संघर्ष छोड़
दूं; इस
अनंत के साथ
सहयोगी हो
जाऊं; इस
अनंत के चरणों
में अपने को
डाल दूं और कह
दूं, जो
तेरी मर्जी।
एक बार
भी अगर कोई
पूर्ण हृदय से
कह पाए, जो
तेरी मर्जी, उसके जीवन
से दुख विदा
हो जाता है।
मेरी मर्जी
दुख है; उसकी
मर्जी कभी भी
दुख नहीं है।
ऐसा
नहीं कि फिर
पैर में कांटे
न गड़ेंगे, और ऐसा भी
नहीं कि फिर
कोई बीमारी न
आएगी, और
ऐसा भी नहीं
कि फिर मृत्यु
न आएगी। लेकिन
मजे की बात यह
है कि कांटे
तो फिर भी पैर
में गड़ेंगे,
लेकिन
कांटे नहीं
मालूम
पड़ेंगे।
बीमारी तो फिर
भी आएगी, लेकिन
आप अछूते रह
जाएंगे। मौत
तो फिर भी
घटेगी, लेकिन
आप नहीं मर
सकेंगे।
घटनाएं बाहर
रह जाएंगी, आप पार हो
जाएंगे।
असल
में मैं के
अतिरिक्त इस
जगत में और
कोई दुख नहीं
है, और कोई
पीड़ा नहीं है।
और हम इतने
मैं से भरे हैं
कि अगर
परमात्मा
हमारे भीतर
प्रवेश भी
करना चाहे, तो जगह न मिल
सकेगी।
रोएं-रोएं से
मैं बोल रहा
है। वह मैं ही
हमें समर्पित
नहीं होने
देता। वह मैं
ही हमें कहीं शरण,
सिर नहीं
रखने देता। वह
मैं कहता है
कि तुम, और
सिर झुकाओगे?
वह मैं कहता
है, सारी
दुनिया से हम
ही सिर झुकवा
लेंगे।
मैं
नेपोलियन बोनापार्ट
के बचपन की
कुछ किताबें
देखता था।
नेपोलियन बोनापार्ट
जब पढ़ता था, तो अपनी एक
स्कूल की
एक्सरसाइज
कापी में, एक
छोटी-सी कापी
में उसने एक
वाक्य लिखा
है। भूगोल के
बाबत जानकारी
ले रहा था। किसलिए?
भूगोल के
बाबत जानकारी
ले रहा था कि
सारी दुनिया जीतनी है, तो भूगोल तो
जानना ही
पड़ेगा। बचपन
से ही
नेपोलियन के
दिमाग में
सारी दुनिया
को जीतने का
खयाल था, तो
भूगोल की
जानकारी
जरूरी थी। एक
बड़ी मजेदार घटना
घटी। और इस
जिंदगी में
बड़ी मजेदार
घटनाएं घटती
ही हैं।
जिंदगी बड़ी
गहरी मजाक है।
सेंट हेलेना का
छोटा-सा द्वीप
है, बहुत
छोटा। तो
नक्शे पर
नेपोलियन बोनापार्ट
ने उसके चारों
तरफ एक गोल
लकीर खींच दी
और लिख दिया, यह इतनी
छोटी जगह है
कि इसे जीतने
की कोई जरूरत
नहीं। और मजे
की बात यह है
कि नेपोलियन
जब हारा, तो
सेंट हेलेना
के द्वीप में
ही बंद किया
गया, कैदी
किया गया। जिस
जगह को उसने
जीतने के लिए छोड़
रखा था कि
बेकार है; एक
छोटा-सा द्वीप
है, जिस पर
कुछ नहीं, घास
ही उगती है।
इसको नहीं
जीतने की कोई
जरूरत है।
सारी
दुनिया जीतनी
चाही थी उसने!
लेकिन कभी-कभी
जिंदगी बड़े
मजाक करती है।
सारी दुनिया
तो हार गया, आखिर में
सेंट हेलेना
का द्वीप ही
बचा। और उस पर
ही कैदी होकर
नेपोलियन
आखिरी वक्त
में था। शायद
उसे खयाल भी न
आया होगा कि
कभी मैंने
भूगोल की
किताब पर
निशान लगाया
था कि सेंट हेलेना
बिलकुल बेकार
है। आखिर में
वहीं शरण
मिली। जो
बिलकुल बेकार
मालूम पड़ा था,
वही शरण
बना। सारी
जमीन छिन गई
हाथ से, वह
सेंट हेलेना
का द्वीप ही
छोटा-सा, कुल
जमा शरण थी।
जिंदगी
में ऐसा रोज
होता है। जिस
परमात्मा को हम
सदा छोड़े रहते
हैं कि पाने
योग्य नहीं है, और जिस
परमात्मा को
हम सदा बाहर
रखते हैं जिंदगी
के, वही
परमात्मा अंत
में पता चलता
है कि शरण
होने योग्य
था--वही
परमात्मा।
(पानी
की बूंदें
पड़ने लगी हैं,
कुछ लोगों
ने छाता खोल
लिए हैं। और
भगवान श्री
अपना कहना
जारी रखते
हैं।)
एक काम
कुछ भी करें, या तो छाता
खोले ही रखें,
नहीं तो
बादल आपसे
मजाक जारी
रखेंगे; आप
खोले ही रखें।
और या फिर बंद
ही कर लें। या
तो बादलों से कह
दें कि अब तुम
बेफिक्र रहो,
हम अब खोलने
वाले नहीं। और
या फिर उनसे
कह दें कि अब
तुम बेफिक्र
रहो, हम अब
खोले ही
रखेंगे। दो
में से कुछ एक
कर लें; दोनों
न करते रहें, अन्यथा
बेकार समय
जाया होगा।
और जब
भीग ही रहे
हैं, तो पूरे
ही भीग जाएं; इतनी कंजूसी
भी क्या! कितना
बचाएंगे!
कितना
बचाएंगे
छाता-वाता लगाकर;
कुछ बचेगा?
सिर्फ वहम
है आदमी का कि
हम बचा लेंगे!
क्या, बचा
क्या पाएंगे?
भीग जाएंगे
पूरी तरह, भीग
ही जाएंगे न!
हो क्या जाएगा?
तो भीग
जाएं। छाते
बंद करके नीचे
रख दें। इसमें
न भीगने का
मजा ले पाएंगे,
न सूखने का मजा
ले पाएंगे।
दोनों तरफ से
जाएंगे, न
दीन के न
दुनिया के, न घर के न घाट
के हो जाएंगे।
शरण
बड़ा अदभुत
शब्द है। शरण
का अर्थ है कि
मैं कहता हूं
अब मैं नहीं
हूं, तू ही है।
और अब तू जो
करेगा, जो
करवाएगा, उससे
मैं राजी हूं,
स्वीकार
करता हूं।
मेरी
एक्सेप्टेबिलिटी
है।
जीसस
मर रहे हैं, आखिरी क्षण
में सूली पर
लटके हैं। एक
क्षण को उनके
मन में, ऐसे
ही आ गया होगा
भाव, जैसे
आपके मन में
छाता खोलने का
आता है, आ
गया एकदम एक
क्षण को भाव, कि मैं
परमात्मा के
लिए जिंदगीभर
जीया और आखिर
मुझे सूली लग
रही है! एक
क्षण को कहीं
बुद्धि ने
सवाल उठा दिया
होगा। और एक
क्षण को जीसस
ने आकाश की
तरफ देखकर कहा
कि यह तू क्या
करवा रहा है? छोटी-सी
शिकायत थी, बहुत बड़ी
नहीं, कि
यह तू क्या
करवा रहा है?
लेकिन
तत्काल फिर
खयाल आया कि
यह तो शिकायत
हो गई, यह तो
सलाह हो गई
परमात्मा को।
यह तो मैं
सलाह देने लगा
कि तू क्या
करवा रहा है!
इसका अर्थ तो
यह हुआ कि
मेरी इच्छा
कुछ और थी, जो
होना चाहिए, और तू कुछ और
करवा रहा है।
यह तो मेरी
इच्छा खड़ी हो
गई!
उनकी
आंख से दो
आंसू के बूंद
टपक पड़े। और
उन दो बूंदों
ने उन्हें
वहां पहुंचा
दिया, जिसको
कृष्ण शरण कह
रहे हैं। दो
बूंद उनकी
आंखों में आ
गए। और
उन्होंने जोर
से कहा कि
नहीं, नहीं,
मुझे क्षमा
कर; दाय
विल बी
डन--तेरी ही
इच्छा पूरी
हो। मैं कौन हूं!
मुझे माफ कर
दे। मुझसे भूल
हो गई। मुझसे
गलती हो गई।
यह मैंने क्या
कहा तुझसे कि
यह तू क्या
करवा रहा है!
इतनी-सी
शिकायत जीसस
के लिए बाधा
थी। तो मैं
निरंतर कहता
हूं कि इस
आखिरी क्षण तक
भी जीसस
क्राइस्ट
नहीं थे। इस
आखिरी क्षण तक
वे जीसस ही
थे। लेकिन यह
आखिरी
वक्तव्य, एक
सेकेंड में सब
दुनिया बदल
गई। वह आंख से
दो आंसू का
गिर जाना और
जीसस का कहना,
दाय विल बी
डन, तेरी
मर्जी पूरी
हो। और फिर प्रसन्न
हो जाना और उस
सूली पर ऐसे
झूल जाना, जैसे
वह झूला हो।
वह जीसस, क्राइस्ट
हो गए उसी
क्षण। उसी
क्षण वे
मनुष्य न रहे,
परमात्मा
हो गए।
जिस
क्षण कोई
व्यक्ति अपने
को परमात्मा
की शरण में
छोड़ देता है, उसी क्षण
परमात्मा के
साथ एक हो
जाता है।
अब यह
जिंदगी का पैराडाक्स
है कि जब तक हम
अपने को बचाते
हैं, अपने को
खोते हैं; और
जिस दिन अपने
को खो देते
हैं, उस
दिन हम अपने
को बचा लेते
हैं। और जब तक
हम अपने को
बचाएंगे, कुछ
हमारे हाथ में
आएगा नहीं; खाली होगी
मुट्ठी। और
जिस दिन हम
खोल देंगे, उस दिन यह
सारी संपदा, यह सारा जगत,
यह सब कुछ, यह सब कुछ
हमारा है।
लेकिन जब तक
मैं है भीतर, तब तक यह सब
हमारा नहीं हो
सकता है। यह
मैं ही हमारा
दुश्मन है, लेकिन मैं
हमें मित्र
मालूम पड़ता
है।
एक
बहुत अदभुत
आदमी हुआ है, इकहार्ट।
उसने मजाक में
एक दिन
परमात्मा से सुबह
प्रार्थना की
है। लेकिन उसकी
प्रार्थना
कीमती है और
मन में रख
लेने जैसी है।
इकहार्ट ने एक
दिन सुबह
प्रार्थना की
परमात्मा से
कि हे प्रभु, मेरे
दुश्मनों से
तो मैं निपट
लूंगा, मेरे
मित्रों से तू
निपट ले। मेरे
दुश्मनों से
मैं निपट
लूंगा। उनकी
तू फिक्र छोड़।
मैं काफी हूं।
लेकिन मेरे
मित्रों से तू
निपट ले; उनसे
मैं बिलकुल
नहीं निपट
पाता।
इकहार्ट
का शिष्य साथ
में था। उसने
यह प्रार्थना
सुनी। वह बड़ा
हैरान हुआ।
हैरान इसलिए
हुआ कि सवाल
तो दुश्मनों
से ही होता है
निपटने का; मित्रों से
तो कोई सवाल
नहीं होता! और
यह इकहार्ट
क्या पागलपन
की बात कह रहा
है। कहीं गलती
तो नहीं हो गई
शब्दों की
जमावट में!
कहना चाहता हो
कि मेरे
मित्रों से
मैं निपट
लूंगा, दुश्मनों
से तू निपट
ले। कहीं भूल
तो नहीं हो गई!
इकहार्ट
जैसे ही
प्रार्थना के
बाहर हुआ, मित्र ने
हाथ पकड़ा और
कहा कि मालूम
होता है, तुम
कुछ भूल कर
गए। यह तुमने
क्या कहा!
मित्रों से
निपटने की कोई
जरूरत ही नहीं
है। और तुमने
परमात्मा से
कहा कि शत्रुओं
से तो मैं
निपट लूंगा, मेरे
मित्रों से तू
निपट ले।
इकहार्ट
ने कहा कि मैं
तुझसे कहता
हूं कि जिन-जिन
को हमने मित्र
समझा है, वे
ही हमारे
शत्रु हैं, और उनसे
निपटना बड़ा मुश्किल
है। और उनमें
सबसे बड़ा
मित्र है मैं,
ईगो। यह
बहुत मित्र
मालूम पड़ता
है। हम इसी को तो
जिंदगीभर
बचाते हैं।
यही है जहर, क्योंकि यही
मैं शरण न
जाने देगा।
यही मैं सिर न
झुकाने देगा।
यही मैं छोड़ने
न देगा आपको
कि आप लेट गो
में पड़ जाएं।
कह दें कि
ठीक।
कभी
देखें। कभी
देखें, जमीन
पर ही लेट
जाएं। किसी
मंदिर में
जाने की उतनी
जरूरत नहीं
है। जमीन पर
ही लेट जाएं
चारों हाथ-पैर
छोड़कर, और
कह दें
परमात्मा से
कि अब घंटेभर
तू ही है, मैं
नहीं। और पड़े
रहें घंटेभर।
अपनी तरफ से
कोई बाधा न
दें। सिर्फ
पड़े रहें, जैसे
कि मुर्दा पड़ा
हो या कोई
छोटा बच्चा
अपनी मां की
गोद में सिर रखकर
सो गया हो।
करते रहें, करते रहें।
एक पंद्रह-बीस
दिन के भीतर
आपको शरण का
क्या अर्थ है,
वह पता
चलेगा। यह
शब्द नहीं है,
यह अनुभव
है।
जमीन
पर पड़ जाएं; अपने कमरे
को भी बंद कर
लें, जमीन
पर पड़ जाएं
चारों हाथ-पैर
छोड़कर। सिर रख
लें जमीन पर, पड़ जाएं, और
कह दें, प्रभु,
घंटेभर के लिए तू है,
अब मैं नहीं
हूं। पड़े
रहें। विचार
चलते रहेंगे,
भाव चलते
रहेंगे।
दो-चार-आठ दिन
में विचार, भाव विलीन
हो जाएंगे।
पंद्रह दिन
में आपको लगेगा
कि वह जमीन, जिस पर आप
पड़े हैं, और
आप अलग नहीं हैं;
एक हो गए; किसी गहरी
इकाई में जुड़
गए। एक महीना
पूरा होते-होते
आपको पता
चलेगा कि शरण
का क्या अर्थ
है। आपके भीतर
प्रभु की
किरणें सब तरफ
से प्रवेश
करने लगेंगी।
क्योंकि शरण
का अर्थ है, ओपनिंग।
इंडोनेशिया
में एक आंदोलन
चलता है, कीमती
आंदोलन है। इस
जमीन पर जो
दो-चार कीमती
बातें आज चल
रही हैं, उनमें
इंडोनेशिया
में मोहम्मद सुबुद के
द्वारा चलता
हुआ एक
छोटा-सा ध्यान
का आंदोलन भी
है। उस आंदोलन
का नाम है सुबुद।
उस आंदोलन की
प्रक्रिया
में कोई और
विशेषता नहीं
है, बस, इतनी
ही प्रक्रिया
है कि वे
व्यक्ति को
राजी करते हैं
कि तू अपने को
छोड़ दे
परमात्मा के
हाथों में। इसको
वे कहते हैं, ओपनिंग।
इसको कृष्ण
कहते हैं, सरेंडरिंग। इसको वे
कहते हैं, खुले
अपने सब
दरवाजे छोड़
दें।
परमात्मा से
कोई बचाव तो
नहीं करना है,
इसलिए
खिड़की-दरवाजे
सब खुले छोड़
दें। और ऐसा पड़
जाएं, जैसे
परमात्मा है
और हम उसकी
गोद में पड़े
हैं।
और एक
तीन सप्ताह
में परिणाम
गहरे होने
लगते हैं।
जैसे ही आप
अपने को खुला
छोड़ते हैं...। रेसिस्टेंस
छोड़ने में
थोड़ा वक्त
लगता है।
दो-चार दिन तो
आप कहेंगे, लेकिन छोड़ न
पाएंगे।
धीरे-धीरे
धीरे-धीरे छोड़
पाएंगे। जिस
दिन भी छोड़ना
हो जाएगा, उसी
दिन आप पाएंगे,
आपके भीतर
कोई विराट
ऊर्जा प्रवेश
कर रही है। आपकी
मांसपेशियों
में कोई और नई
चीज बहने लगी।
आपकी
हड्डियों के
आस-पास किसी
नई चीज ने प्रवाह
लिया। आपके
हृदय की धड़कनों
के पास कोई नई
शक्ति आ गई।
आपके खून में
कुछ और भी बह
रहा है। आपकी
श्वासों में
कोई और भी तिर
रहा है। और आप
एक तीन महीने
के अनुभव में
पाएंगे कि आप
नहीं बचे, परमात्मा
ही बचा है।
फिर तो यह भी
कहने की जरूरत
न रहेगी कि
मैं शरण आता
हूं। क्योंकि
फिर इतना भी
आप न बचेंगे
कि कह सकें कि
मैं शरण आता हूं।
बुद्ध
के पास एक
युवक आया।
उसने सुन रखा
था कि बुद्ध
लोगों से कहते
हैं, अप्प दीपो भव!
अपने प्रकाश
स्वयं बनो; बी ए लाइट अनटु
योरसेल्फ।
फिर जब वह
युवक बुद्ध के
पास आया, तो
उसे बड़ी
बेचैनी हुई।
वहां उसने
देखा कि लोग
कह रहे हैं, बुद्धं शरणं गच्छामि, बुद्ध की
शरण जाते हैं।
उस युवक को तो
बड़ी परेशानी
हुई। वह तो
सुनकर आया था
कि बुद्ध कहते
थे कि अपने
दीए स्वयं
बनो। तो यह तो
बात बड़ी उलटी
मालूम पड़ती है,
बुद्ध की
शरण जाओ! अपने
दीपक बनना है,
तो किसी की
शरण मत जाओ, यही उसने
मतलब लिया था।
स्वभावतः, हमारा
अहंकार इसी
तरह के मतलब
लेता है। वह
मतलब की बातें
पकड़ लेता है।
वह कहता है, किसी की शरण
मत जाओ। तो वह
कहता है, ठीक,
यही तो हम
कहते हैं, किसी
की शरण जाने
की कोई जरूरत
नहीं है।
उस
युवक ने देखा
कि यह क्या हो
रहा है!
हजारों भिक्षु, और वे बुद्ध
के चरणों में
सिर रखते हैं,
और कहते हैं,
बुद्धं शरणं गच्छामि, बुद्ध की
शरण जाता हूं।
उस युवक ने
बुद्ध के पास
आकर कहा, माफ
करिए! आप तो
कहते हैं, अप्प दीपो भव; अपने प्रकाश
स्वयं बनो; खुद खोजो
सत्य को। और
ये लोग क्या
कर रहे हैं! ये
कहते हैं, बुद्धं शरणं गच्छामि;
हम बुद्ध की
शरण जाते हैं!
तो
बुद्ध ने कहा, तू पहले शरण
जा, तभी तो
तू हो पाएगा।
अभी तू है ही
नहीं। अभी
जिसे तूने समझा
है मैं, वही
तो तेरे होने
में बाधा है।
उस मैं को हम
तोड़ दें। हां,
उस दिन मैं
तुझे मना कर
दूंगा कि अब
शरण मत जा, जिस
दिन तेरे भीतर
कोई शरण जाने
को न बचे। उस दिन
मैं कहूंगा, अब शरण जाने
की कोई जरूरत
नहीं है। लेकिन
जब तक तेरे
भीतर कोई शरण
जाने के लिए
बचा है, तब
तक तू शरण जा।
इन दोनों
बातों में
बुद्ध ने कहा,
कोई विरोध
नहीं है।
कृष्ण
ने कहा है, शरण। कृष्ण
की पूरी गीता
का सार है, शरणागति।
महावीर
ने ठीक उलटी
बात कही है।
महावीर ने कहा
है, अशरण; किसी
की शरण मत
जाना। शब्द
बिलकुल उलटे
मालूम पड़ते
हैं। लेकिन
महावीर कहते
हैं, अशरण
तभी पूरा होगा,
जब मैं न
बचे। लेकिन
मैं अगर भीतर
है, तो
अशरण कभी पूरा
नहीं हो सकता।
तो
कृष्ण भी यही
कहते हैं, शरणागति से मैं मिट
जाएगा। और तब
तो शरण जाने
को कोई नहीं
बचता। किसकी
जाओगे? कौन
जाएगा? दोनों
खो जाते हैं।
बूंद सागर में
गिर जाती है
और एक हो जाती
है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, जो शरण
चला जाता है, वह सब कुछ पा
लेता है।
साधिभूताधिदैवं
मां साधियज्ञं
च ये विदुः।
प्रयाणकालेऽपि
च मां ते विदुर्युक्तचेतसः।।
30।।
और
जो पुरुष
अधिभूत और
अधिदैव के
सहित तथा अधियज्ञ
के सहित सब का आत्मरूप
मेरे को जानते
हैं, वे युक्तचित्त
वाले पुरुष
अंतकाल में भी
मुझको ही
जानते हैं
अर्थात
प्राप्त होते
हैं।
छोटा-सा
सूत्र; आखिरी
और बहुत
कीमती।
कृष्ण
कहते हैं, जो सब भूतों
में मुझे ही
जानते हैं, वे अंधकार
में भी मुझे
ही जानते हैं।
हम
सबने सुना है
कि परमात्मा
प्रकाश-स्वरूप
है। हम सबने
सुना है कि
परमात्मा
जीवन-स्वरूप है।
हम सबने सुना
है कि
परमात्मा
आनंद-स्वरूप है।
कृष्ण यहां
कहते हैं, लेकिन जो
मुझे सबमें
देख लेता है, वह अंधकार
में भी मुझे
ही देखता है।
वह दुख में भी
मुझे ही देखता
है, वह
मृत्यु में भी
मुझे देखता
है।
और
ध्यान रहे, जब तक
मृत्यु में भी
परमात्मा न
दिखे, तब
तक अमृत
उपलब्ध नहीं
होता है। और
ध्यान रहे, जब तक दुख
में भी
परमात्मा न
दिखे, तब
तक आनंद
उपलब्ध नहीं
होता है। और
ध्यान रहे, जब तक अंधकार
भी प्रकाश न
हो जाए, तब
तक परमात्मा
उपलब्ध नहीं
होता है।
यह तो
हम नासमझों
की मांग है कि
हे प्रभु, हमें अंधकार
से प्रकाश की
तरफ ले चल। यह
तो हम नासमझों
की मांग है।
क्योंकि हम
जिंदगी को दो
हिस्सों में तोड़कर
देखते हैं। हम
कहते हैं, हे
प्रभु, हमें
मृत्यु से
अमृत की ओर ले
चल। हम कहते
हैं, हे
प्रभु, हमें
भय से अभय की
ओर ले चल। दुख
से सुख की ओर
ले चल, आनंद
की ओर ले चल।
ये तो हमारी
प्रार्थनाएं
हैं, उनकी
प्रार्थनाएं,
जिन्हें
कुछ भी पता
नहीं है, जो
जिंदगी को दो टुकड़ों
में तोड़ लेते
हैं।
कृष्ण
का वचन बड़ा
अदभुत है। हम
सबने सुना है
ऋषि का वचन, अंधकार से
प्रकाश की ओर
ले चल। और
कृष्ण कहते हैं,
जो सब भूतों
में मुझे
देखते हैं, वे अंधकार
में भी मुझे
ही देखते हैं।
अगर
ठीक
प्रार्थना हो, तो वह ऐसी
होगी कि हे
प्रभु, अंधकार
में भी मुझे
तू दिखाई पड़े।
दुख में भी तू
मुझे दिखाई पड़े।
मृत्यु में भी
तू मुझे दिखाई
पड़े। अमृत की मेरी
चाह नहीं
मृत्यु में भी
तू मुझे दिखाई
पड़े। आनंद की
मेरी चाह नहीं;
दुख में भी
तू ही मुझे
मिले। प्रकाश
की मेरी मांग
नहीं; अंधकार
भी मेरे लिए
प्रकाश हो।
यह
मांग पहली
मांग से
ज्यादा गहरी
है; और कृष्ण
जो कहते हैं, उसके अनुकूल
है। क्योंकि
जगत में तत्व
एक है, दो
नहीं। और जिसे
हम अंधकार
कहते हैं, वह
केवल प्रकाश
का एक रूप है।
और जिसे हम
मृत्यु कहते
हैं, वह
अमृत का एक
रूपांतरण है।
और जिसे हम
दुख कहते हैं,
जिसे हम दुख
जानते हैं, जिसे हम
पीड़ा कहते हैं,
संताप कहते
हैं, वे भी
आनंद की
यात्रा के पड़ाव
हैं। लेकिन यह
हमें तब दिखाई
पड़े, जब हम
पूरे जीवन को कांप्रिहेंसिवली,
इकट्ठा देख
सकें।
हम तो
खंड-खंड करके
जीवन को देखते
हैं। हमारी बुद्धि
हर चीज को
खंड-खंड कर
देती है।
बुद्धि का एक
ही काम है, चीजों को
तोड़ना। जोड़ना
बुद्धि नहीं
जानती।
बुद्धि के पास
जोड़ने का
कोई भी उपाय
नहीं है।
आज से
एक हजार साल
पहले सेलवीसियस
नाम का एक
ईसाई, कैथोलिक
फकीर
हिंदुस्तान
आया। सेलवीसियस
बहुत अदभुत
आदमियों में
से एक था। और
बाद में वह
कैथोलिक चर्च
का पोप बना, हिंदुस्तान
से लौटने के
बाद। और जितने
पोप बने हैं, उनमें सेलवीसियस
का मुकाबला
नहीं है। सेलवीसियस
ने
हिंदुस्तान
के बहुत-से
राज समझने की
कोशिश की और
हिंदुस्तान
की धार्मिक
साधना में
गहरा उतरा।
हिंदुस्तान
के फकीरों
ने उसे
बहुत-सी चीजें
भेंट दीं कि
तुम ले जाओ।
एक
फकीर ने उसे
एक चीज भेंट
दी, एक तांबे
का बना हुआ
आदमी का सिर
भेंट दिया। वह
सिर बहुत
अदभुत था। एक
बड़ी से बड़ी
रहस्य और मिस्ट्री
उस सिर के साथ
जुड़ी है। उस
सिर से कोई भी
जवाब हां और न
में लिया जा
सकता था। उससे
कुछ भी पूछें,
वह हां या न
में जवाब दे
देता था। वह
था तो सिर्फ
तांबे का सिर,
आदमी की एक
खोपड़ी पर चढ़ाया
हुआ। वह अदभुत
था। सेलवीसियस
ने हजारों तरह
के सवाल पूछे
और सदा सही
जवाब पाए।
पूछा कि यह
आदमी मर जाएगा
कल कि बचेगा? उसने कहा, हां, मर
जाएगा, तो
मरा। उसने कहा
कि नहीं, तो
नहीं मरा। न
मालूम
क्या-क्या
पूछा और सही पाया।
सेलवीसियस
बड़ी मुश्किल
में पड़ गया।
उस फकीर ने
कहा था, लेकिन
एक खयाल रखना,
बुद्धि की
मानकर कभी इस
सिर को खोलकर
मत देखना कि
इसके भीतर
क्या है।
लेकिन
जैसे-जैसे सेलवीसियस
को उत्तर
मिलने लगे, वैसे-वैसे
उसका मन बेचैन
होने लगा।
उसकी रात की
नींद खो गई।
उसको दिनभर
चैन न पड़े। कब
इसको खोलकर
देख लें, तोड़कर, इसके
भीतर क्या है!
वह
बामुश्किल
हिंदुस्तान
से जा पाया।
रोम पहुंचते
ही उसने पहला
काम यह किया
कि उसको तोड़कर, उसको खोलकर
देख लिया।
उसके भीतर तो
कुछ भी न था।
एक साधारण
खोपड़ी थी। कुछ
भी न मिला।
सेलवीसियस
बहुत दुखी और
परेशान हुआ।
आज भी उस सिर
के टुकड़े, टूटे हुए, वेटिकन के
पोप की
लाइब्रेरी
में नीचे दबे
पड़े हैं; आज
भी। और भी
बहुत-सी चीजें
वेटिकन की
लाइब्रेरी
में दबी पड़ी
हैं, जो
कभी बड़ी काम
की सिद्ध हो
सकती हैं। सेलवीसियस
बहुत रोया, बहुत पछताया,
बहुत जोड़ने
की कोशिश की।
सब जोड़ा-जाड़ा।
लेकिन जवाब
फिर न आया।
बुद्धि
तत्काल चीजों
को तोड़कर
देखना चाहती
है कि भीतर
क्या है।
लेकिन भीतर जो
भी है, वह
सिर्फ जुड़े
हुए में होता
है, टूटे
में नहीं
होता। जिस चीज
को भी हम तोड़
लेते हैं, उसकी
होलनेस, उसकी
पूर्णता नष्ट
हो जाती है।
और जीवन के सब रहस्य
उसकी पूर्णता
में हैं।
इसलिए
विज्ञान कभी
जीवन के परम
रहस्य को उपलब्ध
न हो पाएगा।
क्योंकि
विज्ञान की
पूरी प्रक्रिया
तोड़ने की है, एनालिसिस की है, विश्लेषण
की है। चीजों
को तोड़ते चले
जाओ। इसलिए
एटम तो मिल
गया; आत्मा
नहीं मिलती।
एटम मिल जाएगा;
वह तोड़ने से
मिलता है।
आत्मा नहीं
मिलती; वह जोड़ने से
मिलती है।
विद्युत के कण
मिल जाएंगे, इलेक्ट्रांस मिल जाएंगे,
लेकिन
परमात्मा
नहीं मिलेगा। इलेक्ट्रांस
तोड़ने से
मिलते हैं; परमात्मा जोड़ने से
मिलता है।
कृष्ण
बड़े से बड़े
जोड़ की बात कर
रहे हैं। वे
कह रहे हैं, अंधेरा और
प्रकाश मैं ही
हूं। जीवन और
मृत्यु मैं ही
हूं। सृष्टि
और प्रलय मैं
ही हूं। और जो
सब भूतों में
मुझे देखता है,
वह एक दिन
अंधकार
में--उसमें भी,
जो
अप्रीतिकर
मालूम पड़ता
है--मुझे देख
पाएगा।
और जिस
दिन
अप्रीतिकर
में भी
परमात्मा
दिखाई पड़ता है, उस दिन क्या
अप्रीतिकर
बचता है? मेरा
यह हाथ किसी
को सुंदर
मालूम पड़ सकता
है। इस हाथ को तोड़कर सड़क
पर डाल दें, फिर यह
बिलकुल सुंदर
नहीं मालूम
पड़ेगा; बहुत
कुरूप हो
जाएगा। आपकी
आंख किसी को
सुंदर मालूम
पड़ सकती है; निकालकर
टेबल पर रख
दें, तो
दूसरा आदमी
आंख बंद कर
लेगा कि यह न
करिए।
क्या, बात क्या है?
आंख सुंदर
होती है, जब
शरीर की
पूर्णता में
होती है; अलग
होकर कुरूप हो
जाती है। हाथ
सुंदर होता है,
जब शरीर की
पूर्णता में
होता है; अलग
होकर सिर्फ
गंदगी और
दुर्गंध
फैलाता है।
यह
पूरी जिंदगी, यह पूरा
विराट एक है।
और जब कोई इसे
एक की तरह देख
पाता है, तो
वह परम
सौंदर्य के
अनुभव को
उपलब्ध होता
है। वही परम
सौंदर्य
भागवत
सौंदर्य है।
वही डिवाइन
ब्यूटी है।
लेकिन
हम तो सब टुकड़ों
में देखते हैं; हम पूरे में
तो कुछ नहीं
देख पाते।
वृक्ष को हम
देखते हैं, तो सूरज को
नहीं देख पाते,
हालांकि
सूरज और वृक्ष
जुड़े हुए हैं।
सूरज को देखते
हैं, तो
जमीन को नहीं
देख पाते; हालांकि
जमीन और सूरज
जुड़े हुए हैं।
रात देखते हैं,
तो दिन को
नहीं देख पाते;
हालांकि
दिन और रात एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
प्रकाश देखते
हैं, तो
अंधेरा खो
जाता है।
अंधेरा देखते
हैं, तो
प्रकाश नहीं
होता; हालांकि
दोनों
एक-दूसरे के
पहलू हैं।
आदमी
कितना कमजोर
है, कभी आपने
खयाल किया है!
एक छोटे-से नए
पैसे को हाथ
में लेकर कभी
आपने कोशिश की
कि दोनों पहलू
एक साथ देख
लें? तब
आपको पता
चलेगा, आदमी
कितना कमजोर
है। एक
छोटे-से
सिक्के के एक
पैसे के दोनों
पहलू आप एक
साथ नहीं देख
सकते। जब एक
पहलू दिखाई
पड़ता है, तब
दूसरा खो जाता
है। जब दूसरा
दिखाई पड़ता है,
तो पहला खो
जाता है।
इसलिए
जो बहुत तर्क
में गहरे
उतरते हैं, वे कहते हैं
कि जब किसी ने
आज तक देखे ही
नहीं दो पहलू
एक साथ, तो
यह कहना कहां
तक उचित है कि
पैसे में दो
पहलू होते हैं?
क्या पता, नीचे का
पहलू बचा हो
अब तक न बचा हो!
क्या पक्का है?
अनुमान है
सिर्फ कि नीचे
भी पहलू होगा।
होगा या नहीं
होगा, क्या
पता!
आदमी
की बुद्धि
पूरे को नहीं
देख पाती; दि होल, वह
जो पूर्ण है, नहीं देख
पाती। आदमी की
बुद्धि
खंड-खंड करके
देखती है।
खंड-खंड में
सब सौंदर्य खो
जाता है, खंड-खंड
में सब चेतना
खो जाती है, खंड-खंड में
सब सत्य खो
जाता है।
असत्य के टुकड़े
ही हाथ में
लगते
हैं--असुंदर, कुरूप।
कृष्ण
कहते हैं, जो सब भूतों
में मुझे
देखेगा।
सब
भूतों में
देखना शुरू
करें। वर्षा
में, बादल में,
सूरज में, पानी में, दुख में, सुख
में, मित्र
में, शत्रु
में--देखना
शुरू करें।
शब्द में, मौन
में--एक को ही
देखना शुरू
करें। और तब
एक दिन जरूर
वह घटना घटती
है कि विपरीत
नहीं रह जाता,
द्वैत नहीं
रह जाता, दो
नहीं बचते, एक ही बचता
है।
और जिस
दिन प्राणों
के सामने एक
ही बचता है, उस दिन ऐसी
छलांग लगती है
कि एक नए आयाम
में, एक नए
जगत में
प्रवेश हो
जाता है। फिर
आप वही नहीं
होते, जो
आप कल तक थे।
सब कुछ वही
होता है, फिर
भी सब बदल
जाता है। आप
दूसरे ही आदमी
हो जाते हैं।
आपका नया जन्म,
आप रि-बॉर्न,
पुनर्जन्म
को उपलब्ध हो
जाते हैं। यह
पुनर्जन्म
शरीर का नहीं,
आत्मा का।
यह आत्मा नई
होकर प्रकट
होती है।
यह
कृष्ण ने पूरा
का पूरा
विज्ञान
आत्मा के नए
जन्म को देने
के लिए कहा
है। आखिरी में
शरण को याद
रखना कि
परमात्मा पर
छोड़ देना है
सब।
और
दूसरी बात, अनुकूल में
तो दिखाई ही
पड़ेगा
परमात्मा, प्रतिकूल
में भी
परमात्मा को
देखने की खोज
जारी रखना। जो
खोजता है, वह
पा लेता है।
सिर्फ वे ही
वंचित रह जाते
हैं, जो
कभी खोज पर ही
नहीं निकलते
हैं। और कृष्ण
जो कह रहे हैं,
जितना कहने
से कहा जा
सकता है, उतना
वे कह रहे
हैं। लेकिन
कुछ है, जो
चुप होकर ही
जाना जा सकता
है।
दस दिन
तक निरंतर मैं
आपसे बात कर
रहा था। अब
मैं चाहूंगा
कि दस दिन कम
से कम एक
घंटे--दस दिन
मैंने आपसे
बात की--दस दिन
आप इस गीता
ज्ञान यज्ञ को
और जारी रखना
अपने घर पर।
एक घंटा रोज
अब आप चुप बैठ
जाना। और जो
मैंने आपको
कहकर समझाया
है, और समझ
में न आया
होगा, वह
उस एक घंटे की
चुप्पी में
आपकी समझ में
उतरेगा और
गहरा होगा।
यह
गीता ज्ञान
यज्ञ आज
समाप्त नहीं
होता। आज सिर्फ
गीता ज्ञान
यज्ञ शब्द से
समाप्त होता
है, मौन से
शुरू होता है।
कल से आप दस
दिन कम से कम एक
घंटा मौन में
बिता देना।
सुना
है मैंने, एक अमेरिकन
यात्री एक पहाड़
की यात्रा पर
गया था। बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया। गांव
में कई लोगों
से उसने बात
करने की कोशिश
की, लेकिन
किसी ने कोई
जवाब न दिया।
सांझ को कुछ लोग
एक कुएं की
पाट पर बैठे
थे, तो वह
भी जाकर बैठ
गया। उसने
दो-चार दफे
बात चलाने की
कोशिश की।
लोगों ने देखा,
लेकिन चुप
ही रहे। फिर
उसने पूछा कि
क्या मामला है?
क्या इस
गांव में कोई
कानून है
बोलने के
खिलाफ? बोलते
क्यों नहीं हो?
इज़ देअर एनी
ला अगेंस्ट स्पीकिंग?
फिर भी
थोड़ी देर चुप
रहे लोग। फिर
एक बूढ़े ने उससे
धीरे से उसके
कान में कहा, देअर इज़ नो सच
ला हियर, बट
अप हियर पीपुल
स्पीक ओनली
व्हेन दे फील
दैट बाई स्पीकिंग
दे कैन इम्प्रूव
अपान साइलेंस।
तभी बोलते हैं,
जब उन्हें
लगे कि बोलने
से मौन के ऊपर
कुछ कहा जा
सकता है; अन्यथा
नहीं बोलते।
हमने
कभी खयाल ही
नहीं किया है।
तो यहां तो समाप्त
हो जाएगा। आप
दस दिन मौन
में बैठना एक
घंटा, और उस
घंटे में मैं
फिर आपसे बोल
सकूंगा; लेकिन
वह बोलना बहुत
गहरा हो
जाएगा। और उस
दस दिन के मौन
में आप वह जान
पाएंगे, जो
शायद शब्द से
न जान पाए
हों।
शब्द
से बहुत थोड़ा
कहा जा सकता
है; मौन से
बहुत ज्यादा
कहा जा सकता
है। शब्द से बहुत
कम समझा जा
सकता है; मौन
से बहुत
ज्यादा समझा
जा सकता है।
क्योंकि शब्द
बुद्धि का
उपकरण है; और
बुद्धि तोड़
देती है। और
मौन अखंड है; तोड़ता नहीं, जोड़
देता है।
ये
थोड़ी-सी
बातें। अभी
उठेंगे नहीं।
और आज तो मैं
चाहूंगा
कि--छाते बंद
कर लें--आखिरी
दिन है, हम
सब कीर्तन में
खड़े होकर
सम्मिलित हो जाएं।
हम ताली बजाकर
कीर्तन कर लें
और विदा हो जाएं।
नहीं; कोई भी जाए न!
छाते बंद कर
लें, और
पानी बरस रहा
है तो और भी
आनंद नाचने
में आएगा। दस
दिन आपने
दूसरों को
नाचते देखा।
उससे पता नहीं
चलेगा कि क्या
है नाच। आप नाचें
और देखें।
thank you guruji
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