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गुरुवार, 25 सितंबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--020

धन्य हैं वे जो अंतिम होने को राजी हैं—(प्रवचन—बीसवां)


अध्याय 7 : सूत्र 12

सर्व-मंगल हेतु जीना

1. स्वर्ग और पृथ्वी दोनों ही नित्य हैं।
इनकी नित्यता का कारण है
कि ये स्वार्थ-सिद्धि के निमित्त नहीं जीते;
इसलिए इनका सातत्य संभव होता है।

2. इसलिए तत्वविद (संत) अपने व्यक्तित्व
को पीछे रखते हैं;
फिर भी वे सबसे आगे पाए जाते हैं।
वे निज की सत्ता की उपेक्षा करते हैं,
फिर भी उनकी सत्ता सुरक्षित रहती है।
चूंकि उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता,
इसलिए उनके लक्ष्यों की पूर्ति होती है।

जीवन दो प्रकार का हो सकता है। एक, इस भांति जीना, जैसे मैं ही सारे जगत का केंद्र हूं। इस भांति, जैसे सारा जगत मेरे निमित्त ही बनाया गया है। इस भांति कि जैसे मैं परमात्मा हूं और सारा जगत मेरा सेवक है। एक जीने का ढंग यह है। एक जीने का ढंग इससे बिलकुल विपरीत है। ऐसे जीना, जैसे मैं कभी भी जगत का केंद्र नहीं हूं, जगत की परिधि हूं। ऐसे जीना, जैसे जगत परमात्मा है और मैं केवल उसका एक सेवक हूं।

ये दो ढंग के जीवन ही अधार्मिक और धार्मिक आदमी का फर्क हैं। अधार्मिक आदमी स्वयं को परमात्मा मान कर जीता है, सारे जगत को सेवक। और जैसे सारा जगत उसके लिए ही बनाया गया है, उसके शोषण के लिए ही। और धार्मिक आदमी इससे प्रतिकूल जीता है; जैसे वह है ही नहीं। जगत है, वह नहीं है।
इन दोनों तरह के जीवन का अलग-अलग परिणाम होगा।
लाओत्से कहता है, स्वर्ग और पृथ्वी दोनों ही नित्य हैं, शाश्वत। बहुत लंबी उनकी आयु है। क्या है कारण उनके इतने लंबे होने का? उनके नित्य होने का क्या कारण है? क्योंकि वे स्वयं के लिए नहीं जीते हैं!
जो जितना ही स्वयं के लिए जीएगा; उतना ही उसका जीवन तनावग्रस्त, चिंता से भरा हुआ, बेचैन और परेशानी का जीवन हो जाएगा। जो जितना ही अपने लिए जीएगा, उतनी ही परेशानी में जीएगा, उतनी ही जल्दी उसका जीवन क्षीण हो जाता है। चिंता जीवन को क्षीण कर जाती है। जो जितना ही अपने लिए कम जीएगा, उतना ही मुक्त, उतना ही निर्भार, उतना ही तनाव से शून्य, उतना ही विश्राम को उपलब्ध जीएगा
कुछ बातें हम समझें तो खयाल में आ सके।
मां के पेट में बच्चा होता है, तो नौ महीने तक सोया रहता है। पैदा होता है, तो फिर तेईस घंटे सोता है; एक घंटा जागता है। फिर बाईस घंटे सोता है; दो घंटे जागता है। फिर बीस घंटे सोता है। फिर धीरे-धीरे उसकी नींद कम होती जाती है और जागरण बड़ा होता जाता है। मध्य वय में आठ घंटे सोता है। फिर छह घंटे सोता है, फिर चार घंटे। फिर बुढ़ापे में दो घंटे की ही नींद रह जाती है। शायद आपने कभी न सोचा होगा कि बच्चे को सोने की ज्यादा जरूरत क्यों है? और बूढ़े को नींद की जरूरत क्यों कम हो जाती है?
जब जीवन निर्माण करता है, तो स्वयं का बिलकुल ही स्मरण नहीं चाहिए। स्वयं का स्मरण जीवन के विकास में बाधा बनता है। बच्चा निर्मित हो रहा है, तो उसे चौबीस घंटे सुलाए रखती है प्रकृति; ताकि बच्चे को मेरे होने का खयाल न आ पाए, वह ईगो-कांशसनेस न आ पाए। जैसे ही बच्चे को खयाल आया कि मैं हूं, वैसे ही उसके विकास में बाधा पड़नी शुरू हो जाती है। वह मैं जो है, वह जीवन के ऊपर बोझ बन जाता है। जैसे-जैसे मैं बड़ा होगा, वैसे-वैसे नींद कम होती जाएगी। और बुढ़ापे में नींद बिलकुल ही विदा हो जाएगी; क्योंकि फिर मृत्यु करीब आ रही है। अब जीवन को निर्मित होने की कोई जरूरत नहीं है, अब जीवन विसर्जित होने के करीब है। अब बूढ़ा आदमी पूरे समय जाग सकता है। अब जागने की कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन बच्चा नहीं जाग सकता।
चिकित्सक कहेंगे कि अगर कोई आदमी बीमार है और साथ ही उसकी नींद भी खो जाए, तो उसकी बीमारी को ठीक करना मुश्किल हो जाता है। इसलिए पहली फिक्र चिकित्सक करेगा कि बीमारी की हम पहले चिंता न करेंगे, पहले उसकी नींद की चिंता करेंगे। पहले उसे नींद आ जाए, तो बीमारी को दूर करना बहुत कठिन नहीं होगा। क्यों? क्योंकि नींद में वह मैं को भूल जाएगा और जितनी देर मैं को भूल जाए, उतनी ही देर के लिए जीवन निर्भार हो जाता है। और उसी बीच जीवन की सारी क्रियाएं अपना पूरा काम कर पाती हैं। अगर बीमार आदमी न सो सके, तो बीमारी से भी ज्यादा खतरनाक उसका जागना हो जाएगा। क्योंकि चिंता चौबीस घंटे उसके सिर पर बनी रहेगी।
आप रात आठ घंटा सोने के बाद सुबह ताजा अनुभव करते हैं अपने को, प्रसन्न अनुभव करते हैं। उसका कोई और कारण नहीं है। क्योंकि छह घंटे के लिए अहंकार से छुटकारा हुआ था। अगर मनुष्य-जाति हजारों-हजारों साल से शराब में, बेहोशी की और मादक द्रव्यों में रस लेती रही है, तो उसका एक ही कारण है। क्योंकि आदमी इतना चिंता और इतने अहंकार से भरा हुआ है कि उसका जीना मुश्किल हो जाता है, अगर वह अपने को न भूल पाए। इस पृथ्वी से शराब अलग न हो सकेगी, जब तक पूरी पृथ्वी ध्यान में डूबने को तैयार न हो। तब तक शराब को दूर करने का कोई भी उपाय नहीं है। क्योंकि दो ही उपाय हैं अहंकार से मुक्त होने के: या तो आप इतने ध्यान में उतर जाएं, जैसा लाओत्से कहता है कि आप अपने लिए जीना ही बंद कर दें; और या दूसरा उपाय यह है कि जबरदस्ती केमिकल ड्रग से अपने को बेहोश कर लें। मैं मिटेगा नहीं शराब से, लेकिन भूल जाएगा। और जितनी देर भूल जाएगा, उतनी देर अच्छा लगेगा। लेकिन जब होश आएगा वापस, तो वही मैं दुगुनी ताकत इकट्ठी करके खड़ा हो जाएगा। इतनी देर दबा रहा; उसका भी बदला, उसका भी रिवेंज लेगा।
जैसे-जैसे मनुष्य का अहंकार बढ़ा है, वैसे-वैसे दुनिया में बेहोश होने की व्यवस्था में बढ़ती करनी पड़ी है। जितना सभ्य मुल्क, उतनी ज्यादा शराब! और अब हमें और नई चीजें खोजनी पड़ी हैं। मारिजुआना है, मेस्कलीन है, एल एस डी है। आदमी किसी तरह अपने को भूल पाए।
आखिर आदमी अपने को याद इतना रख कर क्यों परेशानी में पड़ता है?
लाओत्से कहता है, यह प्रकृति इतनी शाश्वत है इसीलिए कि इसे पता ही नहीं है कि मैं हूं। यह आकाश इतना नित्य है इसीलिए कि यह अपने लिए नहीं है, दूसरों के लिए है।
हम सब अपने लिए हैं। और जो आदमी जितना ज्यादा अपने लिए है, उतना परेशान होगा, विक्षिप्त हो जाएगा, पागल हो जाएगा। जितना हमारा बड़ा घेरा होता है जीने का, उतनी ही विक्षिप्तता कम हो जाती है। जो जितने ज्यादा लोगों के लिए जी सकता है, उतना ही हलका हो जाता है। उसमें पंख लग जाते हैं, वह आकाश में उड़ सकता है। और अगर कोई व्यक्ति अपने मैं को बिलकुल ही भूल जाए, तो उसके जीवन पर किसी तरह के ग्रेविटेशन का, किसी तरह की कशिश का कोई प्रभाव नहीं रह जाता। उसकी जमीन में कोई जड़ें नहीं रह जातीं; वह आकाश में उड़ सकता है मुक्त होकर। पूरब ने इसी तरह के व्यक्तियों को मुक्त व्यक्ति कहा है, जिनका जीवन मैं-केंद्रित, ईगो-सेंट्रिक नहीं है।
यह मैंने आपसे कहा कि नींद आपको हलका कर जाती है इसीलिए कि उतनी देर के लिए आप अपने मैं को भूल जाते हैं। मैंने आपसे कहा कि बुढ़ापे में नींद की जरूरत कम हो जाती है, क्योंकि मैं इतना सघन हो जाता है कि नींद को आने भी नहीं देता। वह इतना भारग्रस्त हो जाता है मन कि नींद के लिए जो शिथिलता और रिलैक्सेशन चाहिए, वह असंभव हो जाता है।
लेकिन एक और तरह के आदमी के बाबत हम जानते हैं, जिसकी नींद की भीतरी जरूरत समाप्त हो जाती है। कृष्ण ने गीता में कहा है कि वैसा जागा हुआ पुरुष नींद में भी जागता है। बुद्ध ने भी कहा है कि अब मैं सोता हूं जरूर, लेकिन वह नींद मेरे शरीर की ही नींद है, मेरी नहीं। महावीर ने कहा है, जब तक नींद जारी रहे, तब तक जानना कि तुम्हारे भीतर आत्मा का अनुभव शुरू नहीं हुआ है।
एक और जागरण भी है, जब कि भीतर किसी नींद की कोई जरूरत नहीं रह जाती, क्योंकि कोई अहंकार नहीं रह जाता, जिसे उतारने के लिए नींद की, बेहोशी की आवश्यकता हो। कोई भीतर अहंकार नहीं रह जाता, तो कोई तनाव नहीं रह जाता। तनाव नहीं रह जाता, तो नींद की कोई जरूरत नहीं रह जाती। शरीर थकेगा, सो लेगा; लेकिन भीतर चेतना जागती ही रहेगी। भीतर चेतना देखती रहेगी कि अब नींद आई; और अब नींद शरीर पर छा गई; और अब नींद समाप्त हो गई; और शरीर नींद के बाहर हो गया। भीतर कोई सतत जाग कर इसे भी देखता रहेगा।
कभी आपने सोचा न होगा, कभी आपने अपनी नींद को आते हुए देखा है या कभी जाते हुए देखा है? अगर देखा हो, तो आप एक धार्मिक आदमी हैं। और अगर न देखा हो, तो आप एक धार्मिक आदमी नहीं हैं। आप कितने मंदिर जाते हैं, इससे कोई संबंध नहीं है। और कितनी गीता और कुरान पढ़ते हैं, इससे भी कोई संबंध नहीं है। जांच की विधि और है। और वह यह है कि क्या आपने अपनी नींद को आते देखा है? क्योंकि नींद को आते वही देख सकता है, जो भीतर नींद के आने पर भी जागा रहे। अन्यथा कैसे देख सकेगा? नींद आएगी, आप सो चुके होंगे। नींद जाएगी, तब आप जागेंगे। इसलिए आपने अपनी नींद को कभी नहीं देखा है। जब नींद आ गई होती है, तब आप मौजूद नहीं रह जाते। देखेगा कौन? और जब नींद जाती है, तब आप सोए होते हैं। देखेगा कौन? नींद और आपका मिलन कभी नहीं होता। उसका अर्थ यह हुआ कि आप ही नींद बन जाते हैं। जब नींद आती है, तो आप इतने बेहोश हो जाते हैं कि भीतर का कोई कोना अलग खड़े होकर देख नहीं सकता कि नींद आ रही है।
और जिस व्यक्ति ने अपने भीतर आती नींद नहीं देखी, वह व्यक्ति अपने भीतर आते क्रोध को भी नहीं देख पाएगा। क्योंकि क्रोध के पहले भी निद्रा की स्थिति शरीर में फैल जाती है। वह जरूर देख पाएगा पीछे, बाद में, जब क्रोध जा चुका होगा, या क्रोध अपना काम कर चुका होगा। तब वह पछताएगा और कहेगा, बुरा हुआ, क्रोध नहीं करना था। लेकिन जब क्रोध आएगा, उस पहले चरण में वह नहीं देख पाएगा। और जो व्यक्ति क्रोध को पहले चरण में देख ले, वह क्रोध से मुक्त हो जाता है। कामवासना, सेक्स भीतर उठेगा, तो पहले चरण में नहीं दिखाई पड़ेगा। जो व्यक्ति पहले चरण में देख ले, वह वासना से मुक्त हो जाता है। क्योंकि जीवन की सारी व्यवस्था, जैसे जीवन में हम हैं, वह मूर्च्छा से चलती है। और हमारी मूर्च्छा का जो केंद्र है, ओरिजिनल सोर्स है, वह हमारा अहंकार है।
लाओत्से कहता है, यह नित्य है प्रकृति, क्योंकि यह अपने लिए नहीं जीती।
अपने लिए वही नहीं जीएगा, जिसको अपना खयाल ही नहीं है। हम सब अपने लिए ही जीते हैं। उपनिषद में एक बहुत अदभुत वचन है कि पति पत्नी को प्रेम नहीं करता; पत्नी के द्वारा अपने को ही प्रेम करता है। बाप बेटे को प्रेम नहीं करता; बेटे के द्वारा अपने को ही प्रेम करता है। मां बेटे को प्रेम नहीं करती; बेटे के द्वारा अपने को ही प्रेम करती है। उपनिषद का यह वचन कहता है कि हम जब कहते भी हैं कि हम दूसरे को प्रेम करते हैं, तब भी हम केवल उसके माध्यम से अपने को ही प्रेम करते हैं। हम अगर कहते भी हैं कि हम दूसरे के लिए जीते हैं, तो भी वह हमारा कहना वास्तविक नहीं है, उसमें भ्रांति है। क्योंकि जिसके लिए हम कहते हैं कि तुम्हारे लिए जीते हैं, कल हम उसी की हत्या करने को भी तैयार हो सकते हैं।
अगर मैं कहता हूं कि मैं अपने बेटे के लिए जीता हूं; और बेटा कल अगर मुझे नाराज कर दे और मेरी इच्छाओं के प्रतिकूल चला जाए, तो मैं उसी बेटे के लिए सब तरह की बाधाएं, उसके जीवन में सब तरह की मुसीबतें खड़ी कर सकता हूं। और मैं कहता था, मैं उसी के लिए जीता हूं! जब तक वह मेरा बेटा था, मेरे अनुकूल चलता था, मेरी छाया था, मेरे अहंकार की तृप्ति करता था, मेरे ही अहंकार का विस्तार और एक्सटेंशन था, तब तक मैं उसके लिए कहता था कि मैं जीता हूं। मैं उस पत्नी को कह सकता हूं कि तेरे लिए जीता हूं, जो मेरी तृप्ति का साधन हो, मेरी वासनाओं की पूर्ति बने, जो मेरे लिए चारों तरफ छाया बन कर जीए। उससे मैं कह सकता हूं कि मैं तेरे लिए जीता हूं। लेकिन इससे कोई भ्रांति पैदा न हो। यह मैं तभी तक जीता हूं, जब तक उसकी उपयोगिता है। जिस दिन मेरे लिए उपयोगिता नहीं, मेरे अहंकार के लिए वह व्यर्थ है, उसे मैं वैसे ही उठा कर फेंक दूंगा, जैसे घर में काम आ गई चीज को हम व्यर्थ समझ कर वापस बाहर फेंक देते हैं। वह सब कचरा होकर बाहर फिंक जाता है।
हम लेकिन दावा करते हैं कि हम दूसरे के लिए जीते हैं। दूसरे के लिए हम तब तक नहीं जी सकते, जब तक हमारा अहंकार भीतर शेष है। तब तक हम कितना ही कहें, हम अपने लिए ही जीएंगे।
एक आदमी कहता है कि मैं देश के लिए जीता हूं और देश के लिए मरता हूं। वह भी कोई आदमी देश के लिए न जीता और न देश के लिए मरता है। मेरे देश के लिए मरता है और उस मरने में भी मेरे अहंकार की तृप्ति है। अगर मैं हिंदू हूं, तो मैं हिंदू जाति के लिए मर सकता हूं। लेकिन मैं आखिरी क्षण में, मरने फांसी की सजा पर खड़ा हूं, और फांसी के तख्ते पर चढ़ गया हूं, और मुझे कोई आकर बता दे कि तुम भ्रांति में रहे कि तुम हिंदू हो, थे तो तुम मुसलमान ही, लेकिन तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें हिंदू के घर में केवल बड़ा किया था! उसी क्षण मुझे पता चलेगा कि सब फांसी व्यर्थ हो गई, उसी क्षण मेरा सारा का सारा रूप बदल जाएगा। मैं हिंदू के लिए नहीं मर रहा था। मैं हिंदू था, मेरा अहंकार हिंदू था और हिंदू के लिए मरने में भी मेरे अहंकार की तृप्ति थी, तो मर रहा था। आज तृप्ति नहीं है, तो बात समाप्त हो जाएगी। आज मैं पछताऊंगा कि यह मैंने क्या पागलपन किया है!
जब तक अहंकार है, तब तक हम जो भी करेंगे, अहंकार ही उनका मालिक रहेगा। इसे ठीक से समझ लेना जरूरी है। क्योंकि हम बहुत से काम करते हैं यह सोच कर कि इससे अहंकार का कोई संबंध नहीं है। लेकिन हम जो भी करेंगे, जब तक भीतर अहंकार है, वह उससे ही संबंधित होगा। हम विनम्रता भी आरोपित कर सकते हैं अपने ऊपर; वह भी हमारे अहंकार का ही आभूषण बन कर समाप्त हो जाएगी। मैं आपके चरणों में भी गिर सकता हूं, धूल हो सकता हूं चरणों की, लेकिन फिर भी मेरा अहंकार घोषणा करता रहेगा कि मुझसे ज्यादा विनम्र और कोई भी नहीं है। मैं चरणों की धूल हूं! वह मेरा मैं इस विनम्रता का भी शोषण करेगा और इस विनम्रता से भी मजबूत होगा। अहंकार त्याग भी कर सकता है, सब छोड़ सकता है, लेकिन स्वयं बच जाता है। उसका कोई अंत नहीं होता।
तो जब लाओत्से जैसा व्यक्ति कहता है कि तभी शाश्वत और नित्य जीवन उपलब्ध होगा, जब दूसरों के लिए जीना शुरू हो...। लेकिन दूसरों के लिए मैं तभी जी सकता हूं, जब मेरा भीतर मैं न रह जाए, या मेरा मैं ही दूसरों के भीतर मुझे दिखाई पड़ने लगे। ये दोनों एक ही बात हैं। मेरा मैं ही मुझे सबके भीतर दिखाई पड़ने लगे, तो भी एक ही घटना घट जाती है। या मेरे भीतर मैं शून्य हो जाए, तो भी वही घटना घट जाती है।
दूसरे के लिए मैं तभी जी सकता हूं--यह वाक्य मेरा पैराडाक्सिकल मालूम पड़ेगा, लेकिन इसे जोर से मैं दोहराना चाहता हूं--दूसरे के लिए मैं तभी जी सकता हूं, जब दूसरा मेरे लिए दूसरा न रह जाए। जब तक दूसरा मेरे लिए दूसरा है, तब तक मैं दूसरे के लिए नहीं जी सकता। तब तक मैं अपने लिए ही जीए चला जाऊंगा। अगर मुझे इतनी भी प्रतीति होती है कि दूसरा दूसरा है, तो वह प्रतीति मेरे अहंकार की प्रतीति है। अन्यथा मैं कैसे जानूंगा कि दूसरा दूसरा है! दूसरा मुझे दूसरा मालूम न पड़े, तो ही मैं दूसरे के लिए जी सकता हूं।
इसे हम ऐसा भी कह सकते हैं कि मैं इतना फैल जाऊं कि सभी मुझे मेरे ही रूप मालूम पड़ने लगें। तो मैं जी सकता हूं। और ऐसा जीवन निश्चिंत जीवन है। और ऐसा जीवन निर्भार जीवन है। और ऐसा जीवन परम स्वातंत्र्य का जीवन है। और ऐसे जीवन के साथ ही शाश्वत के साथ संबंध जुड़ने शुरू होते हैं। अन्यथा हमारे जो संबंध हैं, वे सामयिक के साथ हैं, शाश्वत के साथ नहीं। हमारे जो संबंध हैं, वे क्षणभंगुर के साथ हैं। क्योंकि अहंकार से ज्यादा क्षणभंगुर और कोई चीज नहीं है। तो अहंकार केवल क्षणभंगुर से ही संबंधित हो सकता है।
अहंकार करीब-करीब ऐसा है। अगर हम बुद्ध के प्रतीक को लें, तो समझ में आ सके। क्योंकि बुद्ध ने अहंकार और आत्मा का एक ही अर्थ किया है। बुद्ध कहते थे, आत्मा या अहंकार ऐसा है जैसे सांझ हम दीया जलाते हैं और सुबह हम दीया बुझाते हैं, तो हम यही समझते हैं कि जो दीया हमने सांझ जलाया था, वही सुबह हमने बुझाया। वह गलत है। क्योंकि दीए की ज्योति तो प्रतिपल बुझती जाती है और नई होती चली जाती है। हम देख नहीं पाते गैप। एक ज्योति धुआं होकर आकाश में चली जाती है; उसकी जगह दूसरी ज्योति स्थापित हो जाती है। दोनों के बीच का जो अंतराल है, वह इतनी तीव्रता से भरता है कि हमारी आंखें उसे पकड़ नहीं पातीं। अगर हम किसी तरह स्लो मोशन कर सकें, ज्योति को धीमे चला सकें या हमारी आंख की गति को बढ़ा सकें, तो हम बराबर देख सकेंगे कि एक ज्योति बुझ गई और दूसरी ज्योति आ गई, दूसरी बुझ गई और तीसरी आ गई। रात भर ज्योतियों की एक सीरीज, एक शृंखला जलती-बुझती है। जो ज्योति हमने सांझ को जलाई, वह सुबह हम नहीं बुझाते। सुबह हम उसी शृंखला में एक ज्योति को बुझाते हैं, जो सांझ बिलकुल नहीं थी।
बुद्ध कहते थे, अहंकार एक सीरीज है। एक वस्तु नहीं है, एक शृंखला है। लेकिन इतनी तीव्रता से शृंखला चलती है कि हमें लगता है कि मैं एक अहंकार हूं। जोर से। कभी आपने फिल्म में अगर पीछे प्रोजेक्टर धीमा चल रहा हो और फिल्म धीमी चलने लगी हो, तो आपको खयाल में आया होगा, स्लो मोशन हो जाता है। एक आदमी अगर फिल्म की तस्वीर पर अपने हाथ को नीचे से ऊपर तक उठाता है, तो इतना हाथ उठाने के लिए हजार तस्वीरों की जरूरत पड़ती है। हजार पोजीशंस में तस्वीरें उठानी पड़ती हैं। थोड़ी नीचे, फिर थोड़ी ऊपर, फिर थोड़ी ऊपर। और वे हजार तस्वीरें एक तेजी से घूमती हैं इसलिए हाथ आपको ऊपर उठता हुआ मालूम पड़ता है।
अभी भी मोशन पिक्चर हम नहीं लेते। अभी भी पिक्चर तो हम सब लेते हैं, वह स्टेटिक है। अभी भी जो चित्र हम लेते हैं फिल्म में, वह कोई मूवी नहीं है। अभी भी सब चित्र थिर हैं, ठहरे हुए हैं। लेकिन ठहरे हुए चित्रों को हम इतनी तेजी से घुमाते हैं, एक-दूसरे के ऊपर इतने जोर से प्रोजेक्ट करते हैं, बीच की खाली जगह हम को दिखाई नहीं पड़ती, हाथ हमें उठता हुआ मालूम पड़ता है।
इसलिए आपने अगर फिल्म की टुकड़न देखी हो, तो आप हैरान हुए होंगे--एक से चित्र हजारों मालूम पड़ते हैं। जरा-जरा सा फर्क होता है। अगर हम एक आदमी को सीढ़ी से उतरते वक्त उसका पूरा मोशन का पिक्चर ले लें, जैसा कि अगर आप में से किसी ने पिकासो के चित्र देखें हों--जैसे सीढ़ी से उतरते हुए एक आदमी का चित्र है पिकासो का--तो आप पहचान भी नहीं पाएंगे कि आदमी कहां है। हजारों पैर सीढ़ी से उतर रहे हैं, हजारों हाथ सीढ़ी से उतर रहे हैं, हजारों सिर। वे सब मिश्रित हो गए हैं। अगर हम इतनी तेजी से देख सकें, तो आदमी हम को नहीं दिखाई पड़ेगा, सिर्फ मूवमेंट्स दिखाई पड़ेंगे। अगर मेरा हाथ नीचे से ऊपर तक उठता है, अगर आप पूरी गति को देख सकें, तो आपको हाथ तो दिखाई ही नहीं पड़ेगा, अनेक आकृतियां नीचे से ऊपर तक दिखाई पड़ेंगी, जिनमें कुछ भी तय करना मुश्किल हो जाएगा। हम बीच के अंतराल को नहीं देख पाते, इसलिए हाथ दिखाई पड़ता है।
अहंकार तीव्रता से घूमती हुई फिल्म है। और प्रतिपल अहंकार पैदा होता है, जैसे प्रतिपल दीए की ज्योति पैदा होती है। इसलिए आपके पास एक ही अहंकार नहीं होता, चौबीस घंटे में हजार दफे बदल गया होता है। और उसके हजार रूप होते हैं। अगर आप थोड़ा खयाल करें और अपने माइंड के प्रोजेक्टर को थोड़ा स्लो मूवमेंट दें, थोड़ी धीमी गति दें, तो आप पहचान पाएंगे।
आप कमरे में बैठे हैं; आपका मालिक कमरे के भीतर आता है। तब जरा खयाल करें, आपके अहंकार की क्या वही स्थिति है, जैसा सुबह जब नौकर आपके कमरे में आया था! जब नौकर आपके कमरे में आता है, तब आपके अहंकार की स्थिति और होती है। सच तो यह है कि नौकर दिखाई ही नहीं पड़ता कि कमरे में कब आया और गया। नया हो तो दिखाई भला पड़ जाए; अगर पुराना नौकर है और एडजस्टमेंट हो गया है, तो नौकर का पता ही नहीं चलता, कमरे में कब आया और कब गया। और एक लिहाज से अच्छा है, क्योंकि नौकर का बार-बार आना पता चले तो तकलीफदेह होगा। नौकर आता है, बुहारी लगाता है, चला जाता है, आपको पता ही नहीं चलता। आप जैसे कुर्सी पर बैठे थे, वैसे ही बैठे रहते हैं। आपके गेस्चर में, आपकी मुद्रा में कोई फर्क नहीं पड़ता। नौकर न आता तो जैसे आप होते, वैसे ही आप हैं।
लेकिन आपका मालिक भीतर आ जाता है, सब कुछ बदल जाता है। आप वही आदमी नहीं होते। उठ कर खड़े हो जाते हैं, स्वागत की तैयारी करते हैं। मुद्रा बदल जाती है; उदास थे, तो हंसने लगते हैं।
आपका अहंकार दूसरा रूप लेता है मालिक के साथ। नौकर के साथ दूसरा रूप लेता है। मित्र के साथ तीसरा रूप लेता है। शत्रु के साथ चौथा रूप लेता है। अजनबी के साथ और रूप लेता है। चौबीस घंटे आपके अहंकार को बदलना पड़ रहा है। लेकिन वह इतनी तेजी से बदल रहा है कि आपको भी कभी खयाल नहीं आता कि बदलाहट इतनी तीव्रता से हो रही है। क्षण भर में बदल जाता है।
अहंकार कोई वस्तु नहीं है। अहंकार प्रतिपल संबंधों के बीच पैदा होने वाली एक घटना है--ईवेंट, नॉट ए थिंग। अहंकार एक घटना है, वस्तु नहीं। और इसलिए अगर आपको जंगल में अकेला छोड़ दिया जाए, तो आपके पास वही अहंकार नहीं रह जाता जो शहर में था। क्योंकि उस अहंकार को पैदा करने वाली स्थिति नहीं रह जाती। अगर आपको जंगल में बिलकुल अकेला छोड़ दिया जाए, तो आप वही आदमी नहीं रह जाते जो आप बस्ती में थे। क्योंकि बस्ती में जो स्थिति थी, जो अहंकार पैदा होता था, वह जंगल में पैदा नहीं हो सकता।
इसलिए अनेक लोगों को जंगल में जाकर लगता है, बड़ी राहत मिलती है, शांति मिलती है। वह शांति जंगल की नहीं है। वह आपके भीतर अहंकार पैदा होने की जगह वहां नहीं है इसलिए है। जंगल शांति नहीं देता। जो आदमी अहंकार से बचने की व्यवस्था बंबई में कर ले सकता है, वह बंबई की चौपाटी पर भी अहंकार के बाहर हो जाएगा। लेकिन आपको जंगल जाना पड़ता है या हिमालय जाना पड़ता है, क्योंकि वहां आप इस सारी व्यवस्था से टूट जाते हैं। यह जो तेल आपको मिलता था अहंकार को, वहां नहीं मिलता।
लेकिन कितनी देर नहीं मिलेगा? आप पुराने आदी हैं। अहंकार की आदत है। आप नए अहंकार पैदा कर लेंगे। जेलखाने में जो कैदी बहुत दिन तक रह जाते हैं, वे अपने से ही बातचीत शुरू कर देते हैं। वे अपने को ही दो हिस्सों में बांट लेते हैं। ऐसे कैदियों के बाबत खबर है कि जो छिपकलियों से बात करने लगते हैं, मकड़ियों से बात करने लगते हैं। उनका नाम भी रख लेते हैं। उनकी तरफ से जवाब भी देते हैं।
आपको हंसी आएगी। लेकिन आपको पता नहीं, आप भी यही करेंगे। क्योंकि अकेले में अहंकार को बचाना मुश्किल हो जाएगा। एक मकड़ी की भी सहायता ली जा सकती है। महल की ही सहायता से अहंकार खड़ा होता हो, ऐसा नहीं; लंगोटी का तेल भी अहंकार की ज्योति को जला सकता है। जरूरत पड़ जाए, तो लंगोटी से भी काम ले लेगा। और मेरी लंगोटी में उतना ही मजा आ जाएगा, जितना मेरे साम्राज्य में आता था; कोई अंतर नहीं पड़ेगा। क्वालिटेटिव कोई अंतर नहीं पड़ेगा; क्वांटिटेटिव अंतर तो पड़ता है। लेकिन गुणात्मक कोई अंतर नहीं पड़ेगा।
सुना है मैंने कि अकबर यमुना के दर्शन के लिए आया था। यमुना के तट पर जो आदमी उसे दर्शन कराने ले गया था, वह उस तट का बड़ा पुजारी, पुरोहित था। निश्चित ही, गांव के लोगों में सभी को प्रतिस्पर्धा थी कि कौन अकबर को यमुना के तीर्थ का दर्शन कराए। जो भी कराएगा, न मालूम अकबर कितना पुरस्कार उसे देगा! जो आदमी चुना गया, वह धन्यभागी था। और सारे लोगर् ईष्या से भर गए थे। भारी भीड़ इकट्ठी हो गई थी।
अकबर जब दर्शन कर चुका और सारी बात समझ चुका, तो उसने सड़क पर पड़ी हुई एक फूटी कौड़ी उठा कर पुरस्कार दिया उस ब्राह्मण को, जिसने यह सब दर्शन कराया था। उस ब्राह्मण ने सिर से लगाया, मुट्ठी बंद कर ली। कोई देख नहीं पाया। अकबर ने जाना कि फूटी कौड़ी है और उस ब्राह्मण ने जाना कि फूटी कौड़ी है। उसने मुट्ठी बंद कर ली, सिर झुका कर नमस्कार किया, धन्यवाद दिया, आशीर्वाद दिया।
सारे गांव में मुसीबत हो गई कि पता नहीं, अकबर क्या भेंट कर गया है। जरूर कोई बहुत बड़ी चीज भेंट कर गया है। और जो भी उस ब्राह्मण से पूछने लगा, उसने कहा कि अकबर ऐसी चीज भेंट कर गया है कि जन्मों-जन्मों तक मेरे घर के लोग खर्च करें, तो भी खर्च न कर पाएंगे।
फूटी कौड़ी को खर्च किया भी नहीं जा सकता। खबर उड़ते-उड़ते अकबर के महल तक पहुंच गई। और अकबर से जाकर लोगों ने कहा कि आपने क्या भेंट दी है? दरबारी भीर् ईष्या से भर गए। क्योंकि ब्राह्मण कहता है कि जन्मों-जन्मों तक अब कोई जरूरत ही नहीं है; यह खर्च हो ही नहीं सकती। जो अकबर दे गया है, वह ऐसी चीज दे गया है, जो खर्च हो नहीं सकती।
अकबर भी बेचैन हुआ। क्योंकि वह तो जानता था कि फूटी कौड़ी उठा कर दी है। उसको भी शक पकड़ने लगा कि कुछ गड़बड़ तो नहीं है। उस फूटी कौड़ी में कुछ छिपा तो नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैंने सड़क से उठा कर दे दी; उसके भीतर कुछ हो! बेचैनी अकबर को भी सताने लगी। एक दिन उसकी रात की नींद भी खराब हो गई। क्योंकि सभी दरबारी एक ही बात में उत्सुक थे कि उस आदमी को दिया क्या है? उसकी पत्नियां भी आतुर हो गईं कि ऐसी चीज हमें भी तुमने कभी नहीं दी है। उस ब्राह्मण को तुमने दिया क्या है?
वह ब्राह्मण निश्चित ही कुशल आदमी था। आखिर अकबर को उस ब्राह्मण को बुलाना पड़ा।
वह ब्राह्मण बड़े आनंद से आया। उसने कहा कि धन्य मेरे भाग्य, ऐसी चीज आपने दे दी है कि कभी खर्च होना असंभव है। जन्मों-जन्मों तक हम खर्च करें, तो भी खर्च नहीं होगी। अकबर ने कहा कि मेरे साथ जरा अकेले में चल, भीतर चल! अकबर ने पूछा, बात क्या है? उसने कहा, बात कुछ भी नहीं है। आपकी बड़ी अनुकंपा है! अकबर कोशिश करने लगा तरकीब से निकालने की; लेकिन उस ब्राह्मण से निकालना मुश्किल था जो आधी कौड़ी पर इतना उपद्रव मचा दिया था। वह कहता कि आपकी अनुकंपा है, धन्य हमारे भाग्य! सम्राट बहुत हुए होंगे, लेकिन ऐसा दान कभी किसी ने नहीं दिया है। और ब्राह्मण भी बहुत हुए दान लेने वाले, लेकिन जो मेरे हाथ में आया है, वह कभी किसी ब्राह्मण के हाथ में नहीं आया होगा। यह तो घटना ऐतिहासिक है।
आखिर अकबर ने कहा, हाथ जोड़ता हूं तेरे, अब तू सच-सच बता दे, बात क्या है? तुझे मिला क्या है? मैंने तुझे फूटी कौड़ी दी थी! उस ब्राह्मण ने कहा, अगर अहंकार कुशल हो, तो फूटी कौड़ी पर भी साम्राज्य खड़े कर सकता है। हमने फूटी कौड़ी पर ही साम्राज्य खड़ा कर लिया। तुम्हारे मन में तकर् ईष्या पैदा हो गई कि पता नहीं, क्या मिल गया है! और तुम भलीभांति जानते हो कि फूटी कौड़ी ही थी।
अहंकार कुशल है। हो ऐसा नहीं; है ही। और अहंकार फूटी कौड़ी पर भी साम्राज्य खड़े कर लेता है। हम सबके पास अहंकार के नाम पर कुछ भी नहीं है; फूटी कौड़ी भी शायद नहीं है। पर साम्राज्य हम खड़ा कर लेते हैं।
अगर हम हट जाएं अपने रिलेशनशिप्स के जगत से, वह जो हमारे अंतर्संबंधों का जगत है, तो दो-चार दिन के लिए खालीपन रहेगा। पहाड़ पर यही होता है; एकांत में यही होता है। लेकिन दो-चार दिन के बाद ही हमारा मन नए इंतजाम कर लेगा, नए संबंध बना लेगा, नया तेल जुटा लेगा, बाती फिर जलने लगेगी।
लेकिन एक बात ध्यान रख लेनी जरूरी है कि अहंकार हमें चौबीस घंटे पैदा करना पड़ता है। वह कोई ऐसी चीज नहीं है, जो है। वह करीब-करीब ऐसा है, जैसे कोई आदमी साइकिल चलाता है। पैडल मारता रहे, तो साइकिल चलती है; पैडल बंद कर दे, साइकिल बंद हो जाती है। कोई इस भ्रम में न रहे कि पैडल बंद रहेंगे और साइकिल चलती रहेगी। थोड़ी देर चल भी सकती है पुराने मोमेंटम से। या उतार हो, तो थोड़ी-बहुत देर चल सकती है। लेकिन चल नहीं पाएगी, गिर ही जाएगी।
अहंकार भी ठीक चौबीस घंटे चलाइए, तो चलता है। मिटाने की कोई भी जरूरत नहीं है अहंकार को, सिर्फ चलाना बंद कर देना पर्याप्त है। लेकिन आमतौर से लोग पूछते हैं, अहंकार को कैसे मिटाएं? अगर आपने कैसे मिटाया, तो आप मिटाने के लिए पैडल चलाने लगते हैं। उससे मिटता नहीं। अगर आपने मिटाने का पूछा, तो आप समझे ही नहीं। लेकिन शिक्षक समझाए जाते हैं लोगों को कि अहंकार को मिटाओ, क्योंकि लाओत्से जैसे लोगों को पढ़ लेते हैं। पढ़ लेना बहुत आसान है; उन्हें समझना बहुत मुश्किल है। पढ़ लेते हैं, तो एक ही खयाल आता है कि अहंकार को कैसे मिटाएं! क्योंकि लाओत्से कहता है, अहंकार मिट जाए तो जीवन शाश्वत हो जाए, अमृत को उपलब्ध हो जाए। हमारे मन में भी लोभ पकड़ता है--लोभ, ज्ञान नहीं--लोभ पकड़ता है कि हम भी अमृत को कैसे उपलब्ध हो जाएं! कैसे वह जीवन हमें मिल जाए, जहां कोई मृत्यु नहीं है, कोई अंधकार नहीं है! कैसे हम शाश्वत चेतना को पा जाएं! लोभ हमारे मन को पकड़ता है--ग्रीड! और वह लोभ हमसे कहता है कि लाओत्से कहता है, अहंकार न रहे तो। तो वह लोभ हमसे कहता है, अहंकार कैसे मिट जाए!
फिर हम मिटाने की कोशिश में लग जाते हैं। कोई घर छोड़ता है, कोई पत्नी को छोड़ता है, कोई धन छोड़ता है, कोई वस्त्र छोड़ता है, कोई गांव छोड़ कर भागता है। फिर हम छोड़ कर भागने में लगते हैं कि शायद यह छोड़ने से मिट जाए। छोड़ने की भ्रांति इसलिए पैदा होती है कि लगता है, जिससे हमारा अहंकार बड़ा हो रहा है, उसे छोड़ दें। महल है आपके पास, तो लगता है महल की वजह से मेरा अहंकार बड़ा है। और जब मैं झोपड़ी वाले के सामने से निकलता हूं, तो मेरा अहंकार मजबूत होता है, क्योंकि मेरे पास महल है।
इसलिए अहंकार कम करने वाले जो नासमझ हैं--मैं दोहराता हूं, अहंकार कम करने वाले जो नासमझ हैं--वे कहेंगे कि महल छोड़ दो, तो अहंकार छूट जाएगा।
लेकिन आपको पता नहीं कि महल को छोड़ कर जब कोई झोपड़ी के सामने से निकलता है, तब उसके पास महल वाले अहंकार से भी बड़ा अहंकार होता है। तब वह झोपड़ी में रहने वाले को ऐसा देखता है, जैसे पापी! सड़ेगा नर्क में! झोपड़ी भी नहीं छोड़ पा रहा और मैं महल छोड़ चुका हूं! वह महल छोड़ कर चला हुआ आदमी नया तेल जुटा लेता है। वह उस तेल से फिर अपनी बाती को जगा लेता है। अंतर नहीं पड़ता।
महल से किसी का अहंकार नहीं है। हां, अहंकार से महल खड़े होते हैं। लेकिन महलों से कोई अहंकार खड़ा नहीं होता। अहंकार किसी भी चीज का सहारा लेकर खड़ा हो जाता है। इसलिए असली सवाल यह है कि अहंकार प्रतिपल जो पैदा होता है, वह कैसे पैदा न हो। कोई अहंकार की संपदा नहीं है, जिसे नष्ट करना है। अहंकार प्रतिपल पैदा होता है। उसमें हम रोज तेल डालते हैं, पानी सींचते हैं, उसकी जड़ों को गहरा करते हैं। उसमें रोज पत्ते आते चले जाते हैं। वह हमारी रोज की मेहनत है।
इसलिए नींद में हम सो जाते हैं, तो सुबह हलकापन लगता है। क्योंकि रात भर कम से कम हम अहंकार को पोषित नहीं कर पाते। पैडल छूट जाते हैं रात भर के लिए; सुबह हम हलके उठते हैं। सुबह आदमी अलग होता है। इसलिए सुबह आदमी की शक्ल अलग मालूम पड़ती है। अगर आदमी से कोई भले काम की आशा हो, तो सुबह ही उससे प्रार्थना कर लेनी चाहिए। दोपहर तक तो सब गड़बड़ हो गया होता है।
इसलिए भिखारी सुबह भीख मांगने आते हैं, शाम को नहीं आते। वे जानते हैं आपको भलीभांति कि सुबह शायद नींद आई हो आदमी को अच्छी तो थोड़ा अपने को भूल जाए, तो दो पैसे इससे छूट सकें। सांझ को कोई आशा नहीं है आपसे; क्योंकि सांझ तक, दिन भर आपने इतना पैडल मारे हैं कि अहंकार काफी मजबूत होगा।
रात्रि अक्सर आदमी लड़ते-लड़ते सोते हैं, चाहे वे अपनी पत्नियों से लड़ रहे हों या चाहे किसी और से लड़ रहे हों। अक्सर रात सोते-सोते जो आखिरी घटना है, वह लड़ाई है, वह किसी तरह का वैमनस्य है। क्योंकि दिन भर अहंकार मजबूत होता है; बहुत धुआं इकट्ठा हो जाता है उसके आस-पास। अगर यह बहुत ज्यादा हो जाए, तो रात नींद भी नहीं आ सकती; क्योंकि इसका तनाव रात भर पकड़े रहेगा। इसका तनाव भीतर प्रवेश कर जाएगा। स्नायु शिथिल नहीं हो पाएंगे, उनमें खून दौड़ता ही रहेगा। जैसे-जैसे आदमी सभ्य होता है, उतना-उतना अहंकार और उतनी-उतनी ही निद्रा क्षीण होती चली जाती है।
अहंकार वस्तु नहीं है। लाओत्से के हिसाब से अहंकार एक घटना है। और घटना भी कहना ठीक नहीं, ज्यादा ठीक होगा: ए सीरीज ऑफ ईवेंट्स, घटनाओं का एक क्रम। कहीं से भी क्रम तोड़ दिया जाए, तो घटना अभी टूट सकती है। सच बात यह है कि हम उसे नई गति और नई शक्ति न दें।
हम उसे शक्ति और गति देते कैसे हैं? हमारी व्यवस्था क्या है?
हमारी व्यवस्था यह है कि हम चौबीस घंटे इसी कोशिश में रहते हैं, कैसे अहंकार को ज्यादा तेल मिल जाए। तेल देने के कई रास्ते हैं। जो बड़े से बड़ा रास्ता है, वह यह है कि लोगों का ध्यान मेरी तरफ आकर्षित हो। अहंकार के लिए जो बड़े से बड़ा तेल है, वह है लोगों का ध्यान मेरी तरफ आकर्षित हो, लोग मेरी तरफ देखें। इसलिए राजनीति इतनी प्रभावी हो जाती है। और दुनिया इतनी धीरे-धीरे राजनैतिक होती चली जाती है। उसका कारण है कि राजनीति जितने जोर से चित्त को लोगों को आकर्षित करवा लेती है, उतनी और कोई चीज आकर्षित नहीं करवा पाती।
ढेर लोग अदालतों में बयान दिए हैं कि उन्होंने सिर्फ इसलिए हत्या की कि अखबारों में पहले नंबर पर उनका नाम छप जाए बड़े हेडिंग में। और कोई आकर्षण न था। कोई आदमी हत्या कर सकता है इसलिए कि अखबार में सुर्खी उसके नाम की हो! अखबार में चित्र तो एक दफा छप जाए उसका! सारी दुनिया उसे देख ले!
लोगों के देखने में ऐसा क्या रस होता होगा? जब हजार आंखें आपको देखती हैं, तो आपके अहंकार को बड़ा तेल मिलता है। दूसरों का ध्यान आपके अहंकार का तेल बनता है। बहुत सटल, बहुत सूक्ष्म मादकता है दूसरों की आंखों में। वे अगर आपको देखते हैं, तो उससे आपके अहंकार को रस उपलब्ध होता है, गति उपलब्ध होती है।
अगर अहंकार को विसर्जित करना है, तो दूसरा उपाय है: दूसरे पर ध्यान दें। इसलिए जब भी आप कभी दूसरे पर ध्यान देते हैं, तो आपको बहुत हलकापन लगता है। जिसको हम प्रेम कहते हैं, वह कुछ और नहीं है, वह दूसरे पर ध्यान देना है। जब आप किसी के प्रेम में होते हैं, तो मन बहुत हलका मालूम पड़ता है। जिसको आप प्रेम करते हैं, वह आपके पास होता है, तो आप बिलकुल निर्भार हो गए होते हैं। पंख लग जाते हैं, आकाश में उड़ जाएं, फैल जाएं। क्यों? क्योंकि जिसे आप प्रेम करते हैं, उसको आप ध्यान देते हैं। स्थिति बदल जाती है। आप ध्यान देते हैं। एक नए तरह की केयरिंग, एक दूसरे की तरफ ध्यान देने की चिंता पैदा होती है।
मां जब अपने बेटे पर ध्यान दे रही होती है, तब अपने को बिलकुल भूल गई होती है। क्योंकि ध्यान जो है, वह वन वे ट्रैफिक है। या तो आप अपने पर ध्यान दे सकते हैं, या दूसरे पर ध्यान दे सकते हैं। जब आप दूसरे पर देते हैं, तो आप भूल गए होते हैं। जब अपने पर दे रहे होते हैं, तो दूसरा भूल गया होता है।
और हम सब इस कोशिश में रहते हैं कि लोग हम पर ध्यान दें। हम हजार तरह के उपाय करते हैं इस बात के लिए कि लोग ध्यान दें। कोई आदमी सम्राट होना चाहता है इसलिए कि लोग ध्यान दें। कोई आदमी राष्ट्रपति होना चाहता है इसलिए कि लोग ध्यान दें। अगर ये उपाय उपलब्ध न हों, तो आदमी बुरा भी हो जाता है। अगर भला मार्ग न मिले, तो आदमी बुरा भी हो जाता है। हत्यारा हो जाता है, गुंडा हो जाता है कि लोग ध्यान दें। स्कूल में विद्यार्थी शैतानी करने लगते हैं कि लोग ध्यान दें; मिसचीवियस हो जाते हैं कि लोग ध्यान दें।
इसलिए शिक्षकों के हाथ की एक पुरानी तरकीब है कि जो विद्यार्थी ज्यादा से ज्यादा उपद्रव कर रहा हो, उसे अगर कैप्टन बना दिया जाए, तो उपद्रव करना बंद कर देता है। कोई और कारण नहीं है; क्योंकि जिस वजह से वह उपद्रव कर रहा था, वह कैप्टन बनाने से पूरी हो जाती है। वह ध्यान आकर्षित कर रहा था। वह कह रहा था, मैं भी यहां हूं। मैं ऐसा निगलेक्टेड नहीं जी सकता हूं। इस कमरे में मेरी प्रतीति सबको एहसास होनी चाहिए कि मैं यहां हूं। मेरा होना सबको पता होना चाहिए। वह ठीक मार्ग भी चुन सकता है, अगर मार्ग उपलब्ध हों। अगर मार्ग उपलब्ध न हों, तो वह गलत मार्ग भी चुन सकता है।
अमरीका में आज हिप्पी हैं, बीटल और पच्चीस तरह के नए उपद्रव हैं। उन उपद्रवों का सबसे महत्वपूर्ण कारण यही है कि अमरीका में जो हायरेरकी खड़ी हो गई है पद की, धन की, व्यवस्था की, नए युवकों को कोई भी आशा नहीं है कि वे इस हायरेरकी पर चढ़ सकेंगे। नए युवक को कोई भरोसा नहीं बैठता कि वह निक्सन की जगह पहुंच पाएगा, या फोर्ड हो सकेगा, या मार्गन, या राकफेलर हो सकेगा। कोई फिक्र नहीं। लेकिन वह सड़क पर उलटे-सीधे कपड़े पहन कर तो खड़ा हो ही सकता है। बिना स्नान किए गंदगी में जी तो सकता है। और तब निक्सन को भी उस पर ध्यान देना पड़ता है। तब मजबूरी हो जाती है, उस पर ध्यान देना ही पड़ेगा। लेकिन वह जो भी कर रहा है, वह केवल ध्यान आकर्षित करने की व्यवस्था और कोशिश है। अहंकार ध्यान मांगता है। ठीक न मिले, गलत ढंग से मांगता है।
लेकिन इतना समझ लेना जरूरी है कि जब भी आप ध्यान मांगते हैं, तब आप अपने अहंकार को पैडल दे रहे हैं। यह आपको स्मरण रख लेना जरूरी है, जब भी आप ध्यान मांगते हैं! आप घर के भीतर प्रवेश किए हैं और आपके बेटे ने उठ कर नमस्कार नहीं किया। आपके मन में जो पीड़ा होती है, वह पीड़ा इसलिए नहीं है कि बेटा असंस्कृत हो गया है, अशिष्ट हो गया है। यह सब रेशनलाइजेशन है। पीड़ा यह है कि बेटा भी ध्यान नहीं दे रहा है, अब कौन ध्यान देगा! सारा जगत गिरता हुआ मालूम पड़ता है; क्योंकि बेटा तक ध्यान नहीं दे रहा है!
हिंदुस्तान में माता-पिता बड़े तृप्त रहे हैं सदा। क्योंकि उन्होंने बड़ा अच्छा इंतजाम कर लिया था। बेटा उठ कर सुबह से ही उनके पैर पड़ लेता था। दिन भर के लिए उनके हृदय की शांति हो जाती थी। अच्छा था। टेक्निकल था। व्यवस्था में आ जाता था, रूटीन हो जाती थी। न बेटे को उससे कोई तकलीफ होती थी, न कोई करना पड़ता था खास; लेकिन पिता दिन भर के लिए शांत हो जाता था।
पश्चिम के पिता को कुछ न कुछ रास्ता खोजना पड़ेगा। क्योंकि पश्चिम में आदर प्रकट करने के लिए कोई ठीक इंतजाम नहीं किया उन्होंने। और आदर की मांग तो है ही। और आदर प्रकट करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। तो अड़चन होती है। आदर की मांग तो है ही। बाप चाहता है, जब वह घर में प्रविष्ट हो, तो बेटा उसे स्वीकार करे कि बाप घर में आ रहा है, घर का मालिक भीतर आ रहा है। मां भी यही चाहती है। बेटा भी यही चाहता है। सब यही चाहते हैं। छोटे से छोटे एक बच्चे का भी अहंकार यही चाहता है।
सुना है मैंने कि नसरुद्दीन छोटा है और एक रास्ते पर बैठ कर सिगरेट पी रहा है। एक बूढ़ी औरत, भली, भद्र औरत रुकी और उसने नसरुद्दीन से कहा कि बेटे, तुम्हारी मां को पता है कि तुम सिगरेट पीते हो? नसरुद्दीन ने सिगरेट के धुएं का एक छल्ला छोड़ते हुए कहा, और तुम्हारे पति को पता है कि तुम सड़क पर रुक कर अजनबी आदमियों से बातचीत करती हो? अजनबी आदमी, स्ट्रेंज मैन! तुम्हारे पति को पता है कि एकांत में, निर्जन स्थान में, सड़क पर अजनबी आदमी से रुक कर बातचीत करती हो?
छोटे से छोटे बच्चे में भी आकांक्षा है कि सब उसकी तरफ देखें। इसलिए माताएं सदा परेशान रहती हैं कि घर में मेहमान नहीं होते, तो बच्चे बड़े शांत रहते हैं; लेकिन घर में कोई मेहमान प्रवेश किया कि बच्चों ने उपद्रव शुरू किया। वह क्या वजह होगी? क्योंकि घर में मेहमान न हों तब बच्चे ऊधम करें, तो मां को भी चिंता नहीं है। लेकिन घर में कोई न हो, तो बच्चे शांत अपने काम में लगे रहते हैं। घर में कोई आए कि बच्चे गड़बड़ शुरू कर देते हैं।
असल में, घर में किसी के आते ही से बच्चे भी कहते हैं, हम पर भी ध्यान दो, हम भी यहां हैं। मैं भी यहां हूं, इसकी घोषणा बच्चे कैसे करें? वे चीजें पटक कर कर देते हैं। शोरगुल कर देते हैं, रोने लगते हैं, खाने की मांग करने लगते हैं। अभी घड़ी भर पहले उनकी मां कह रही थी कि कुछ खा लो; वे कहते थे, कोई जरूरत नहीं है। और अभी बस एक आदमी घर में प्रवेश किया, और उन्हें भूख लग आई। वह भूख नहीं लगी है। उनका अहंकार अभी से पैडलिंग सीख रहा है। वे कोशिश में लगे हैं कि कोई देख ले कि हम यहां हैं। मैं यहां हूं।
बच्चे से लेकर बूढ़े तक यही बचपना है। इसका स्मरण रखें, तो लाओत्से का सूत्र खयाल में आ सके। दूसरे से ध्यान न मांगें। जो दूसरे से ध्यान मांगेगा, वह क्षणिक अहंकार को पैदा कर लेगा। लेकिन उसका क्षणभंगुर ही जीवन है। वह शाश्वत की निधि उसकी कभी भी अपनी न हो सकेगी।
दूसरे पर ध्यान दें। जब लाओत्से कहता है कि सर्वमंगल के हेतु जीएं, लिविंग फॉर अदर्स, जब लाओत्से कहता है, तो उसका मतलब यह है कि ध्यान दूसरे पर दें। और जैसे ही आप दूसरे पर ध्यान देते हैं, आपकी जिंदगी में क्रांति शुरू हो जाती है। क्योंकि तब आप हंस सकते हैं, दूसरे की नासमझियां आपको दिखाई पड़नी शुरू हो जाती हैं। क्योंकि आपके ध्यान देते ही से आप देखते हैं, उसका अहंकार कैसा प्रज्वलित होकर जलने लगा। यही कल तक आपके साथ हो रहा था। लेकिन अब आप दया कर सकते हैं।
दूसरे पर ध्यान देते ही आपको पता चलता है कि जितना ही आप गहरा ध्यान देते हैं दूसरे पर, उतने ही आप मिट गए होते हैं। और जब भीतर बिलकुल शून्य होता है--जैसे ही ध्यान दूसरे पर गया, भीतर शून्य हो जाता है--तब आपके जीवन में पहली दफा पता चलता है कि गैरत्तनाव की स्थिति क्या है।
फ्रायड से किसी ने पूछा, जब वह काफी बूढ़ा हो गया, उससे किसी ने पूछा कि तुम इतने लोगों की मानसिक बीमारियों का अध्ययन करते हो, सुबह से सांझ तक इतने पागलों से तुम्हारा वास्ता पड़ता है, तुम्हारा दिमाग खराब नहीं हो गया?
फ्रायड ने कहा, अपने पर ध्यान देने की सुविधा ही न मिली। अपने पर ध्यान दिए बिना पागल होना बहुत मुश्किल है। सुबह से लग जाता हूं दूसरे की चिंता में, रात दूसरे की चिंता करते सो जाता हूं। अपने पर ध्यान देने का अवसर न मिला।
इसलिए बड़े वैज्ञानिक अक्सर शांत हो जाते हैं; क्योंकि सारा ध्यान देते हैं किसी और चीज पर। प्रयोगशाला में किसी परखनली पर, टेस्ट टयूब पर उनका सारा ध्यान लगा रहता है। आइंस्टीन के साथ दिक्कत थी। आइंस्टीन को अपना स्मरण नहीं रह जाता था। तो कभी-कभी वह छह-छह घंटे अपने बाथरूम में टब में बैठा रह जाता था, छह-छह घंटे! पत्नी दस-पच्चीस दफा आकर दस्तक दे जाती। लेकिन उसकी भी हिम्मत न पड़ती जोर से दस्तक देने की कि पता नहीं, वह किस खयाल में खोया हो!
डाक्टर राम मनोहर लोहिया मिलने गए थे। तो उनकी पत्नी ने लोहिया को कहा कि आपको मैं समय तो दे देती हूं; लेकिन इस समय पर मिलना हो सकेगा, नहीं हो सकेगा, यह कुछ नहीं कहा जा सकता। पर लोहिया ने कहा कि मेरे पास ज्यादा समय नहीं है, मैं मुश्किल से घंटे भर का समय निकाल कर आऊंगा। अगर मिलना न हो सका, तो बड़ी अड़चन होगी। उसकी पत्नी ने कहा, हम कोशिश करेंगे; लेकिन आइंस्टीन भरोसे के नहीं हैं।
और वही हुआ। जब लोहिया पहुंचा, तो पत्नी ने कहा, आप बैठें, अब मैं कोशिश करती हूं। दरवाजे पर दस्तक दे रही हूं, वे अपने बाथरूम में चले गए हैं। कब निकलेंगे, कहना मुश्किल है। वे पांच घंटे बाद ही निकले। पूछा लोहिया ने कि इतनी देर आप करते क्या थे? आइंस्टीन ने कहा, एक सवाल में उलझ गया।
तो सवाल पर ध्यान अगर बहुत चला जाए, तो आइंस्टीन भी मिट गए, वह बाथरूम भी मिट गया। वे कहां हैं, यह बात भी समाप्त हो गई। ध्यान किसी भी चीज पर चला जाए, तो यहां भीतर अहंकार तत्काल कट जाता है। इसलिए बड़े वैज्ञानिक अक्सर निरहंकारी हो जाते हैं, बड़े चित्रकार निरहंकारी हो जाते हैं, बड़े नर्तक निरहंकारी हो जाते हैं। और बड़े त्यागी कभी-कभी नहीं हो पाते; क्योंकि त्यागी पूरा ध्यान अपने पर देता है। यह न खाऊं, यह न पीऊं, यह न पहनूं, यह पहनूं, इस जगह सोऊं, उस जगह उठूं! कहने को वह त्यागी होता है; लेकिन टू मच ईगो कांशस पूरे वक्त--मैं यह करूं और न करूं--सारा ध्यान मैं पर होता है।
इसलिए अक्सर यह दुर्घटना घटती है कि त्यागी अहंकार से मुक्त नहीं हो पाते और कभी-कभी साधारण, जिनको हम भोगी कहें, वे अहंकार से मुक्त हो जाते हैं। लेकिन सीक्रेट, राज एक ही है। आपका ध्यान आप पर कम जाए, तो आपके अहंकार को तेल नहीं मिलता। आपका ध्यान आपसे बाहर जाए! कितने अपने ध्यान को आप बाहर पहुंचा सकें, वही आपके निरहंकार होने की यात्रा है।
तो लाओत्से का यह वचन, "स्वर्ग और पृथ्वी दोनों ही नित्य हैं। इनकी नित्यता का कारण है कि ये स्वार्थ-सिद्धि के निमित्त नहीं जीते। इसलिए इनका सातत्य संभव है।'
इसलिए ये सदा रह सकते हैं, इनके मिटने की कोई जरूरत नहीं है। मिटता केवल अहंकार है। इस जगत में मिटने वाली चीज केवल अहंकार है। केवल एक ही चीज है, जो मॉर्टल है। इसे थोड़ा कठिन होगा खयाल में लेना।
इस जगत में न तो पदार्थ मिटता कभी, न आत्मा मिटती कभी, सिर्फ मिटता है अहंकार। शरीर कभी नहीं मिटता। मेरा यह शरीर, मैं नहीं था, तब भी था। इसका एक-एक कण मौजूद था। इसमें कुछ नया नहीं है। इस शरीर में जो कुछ भी है, वह सब मौजूद था। जब मैं नहीं था, तब भी। जब मैं नहीं रहूंगा, तब भी मेरे शरीर का एक कण भी मरेगा नहीं, सब मौजूद रहेगा। शरीर तो शाश्वत है, कुछ मरने वाला नहीं है उसमें।
वैज्ञानिक कहते हैं कि हम एक छोटे से कण को भी नष्ट नहीं कर सकते। कुछ भी नष्ट नहीं किया जा सकता। शरीर में सब कुछ जो है, वह शाश्वत है। जल जल में मिल जाएगा; आग आग में खो जाएगी; आकाश आकाश से एक हो जाएगा। लेकिन सब शाश्वत है। आकार खो जाएगा; लेकिन जो भी उस आकार में छिपा है, वह सब मौजूद रहेगा। मेरी आत्मा भी नहीं मरती। फिर मरता कौन है? मरना घटता तो है! मृत्यु होती तो है!
सिर्फ मेरे शरीर और आत्मा का संबंध टूटता है। और उसी संबंध के बीच में वह जो एक अहंकार है, दोनों के मेल से जो रोज-रोज मैं पैदा कर रहा हूं, वह अहंकार टूटता है। लेकिन अगर मैं जान लूं कि वह अहंकार नहीं है, तो मेरे भीतर मरने वाला फिर कुछ भी नहीं है। और जब तक मैं जानता हूं, मैं अहंकार हूं, तब तक मेरे भीतर अमृत का मुझे कोई भी पता नहीं है। न हो सकता है पता। कोई उपाय भी नहीं है। आइडेंटिफाइड विद दि ईगो, पूरे हम एक हैं मैं के साथ, तो मृत्यु के सिवाय कुछ और होने वाला नहीं है। क्योंकि जिस चीज के साथ हमने अपने को जोड़ा है, वह अकेली चीज इस जगत में मरणधर्मा है।
यह बहुत हैरानी का वक्तव्य मालूम पड़ेगा। इस पूरे जगत में एक ही चीज मरने वाली है, वह अहंकार है। बाकी कोई चीज मरती नहीं। क्योंकि एक ही चीज पैदा होती है, वह अहंकार है। बाकी कोई चीज पैदा होती नहीं। बाकी सब चीजें हैं। सिर्फ अहंकार पैदा होता है, वह बाई-फिनामिना है। जैसे मैं रास्ते पर चलता हूं, सूरज था। मैं जब नहीं चल रहा था रास्ते पर, सूरज था। भरी दोपहर है, सूरज ऊपर है, रास्ता है। मैं अपने घर में बैठा हूं; मैं भी हूं, सूरज भी है। फिर मैं सूरज की रोशनी में आया, तब एक नई चीज पैदा होती है, वह मेरी छाया है। वह नहीं थी। जब मैं घर के भीतर था, वह नहीं थी। जब मैं घर के भीतर था, तब वह सूरज के नीचे भी नहीं थी। वह घर के भीतर भी नहीं थी, सूरज के नीचे भी नहीं थी। मैं सूरज के प्रकाश में आया, तो मेरे और सूरज के संबंध से पैदा हुई एक बाइ-प्रॉडक्ट है। वह मेरे पीछे बन गई छाया है। वह छाया मरणधर्मा है। जैसे ही मैं हट जाऊंगा या सूरज हट जाएगा, वह छाया खो जाएगी। अभी भी वह है नहीं। और अगर मैं समझ लूं कि मैं छाया हूं, तो मैं मुश्किल में पडूंगा; उसी मुश्किल में पडूंगा, जैसा मैंने सुना है कि एक लोमड़ी पड़ गई थी।
सुबह निकली थी। सूरज निकल रहा था। देखी उसने छाया, बड़ी लंबी थी! सोचा, आज भोजन के लिए कम से कम एक ऊंट की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि अपनी छाया को देख कर ही तो पता चलता है कि कितने बड़े हम हैं। और तो कोई उपाय भी नहीं है। लोमड़ी को पता भी कैसे चले कि कितनी बड़ी है। छाया! जब उसने देखा, इतनी बड़ी मेरी छाया है, तो मेरे बड़े होने में संदेह क्या! सोचा, एक ऊंट से कम में आज पेट न भरेगा। खोज पर निकली भोजन की। दोपहर होने आ गई। खोजती रही; ऊंट तो मिला नहीं। मिल भी जाता तो किसी प्रयोजन का न था। भूख बहुत बढ़ गई, भोजन मिला नहीं। दोबारा उसने झांक कर देखा कि छाया की क्या हालत है। सूरज सिर पर आ गया था। छाया सिकुड़ कर बहुत छोटी हो गई थी। उसने सोचा, अब तो, अब तो छोटा-मोटा एक खरगोश भी मिल जाए, तो काम चल सकता है। अब तो छोटे-मोटे खरगोश से भी काम चल सकता है।
छाया से जो जीएगा, वह ऐसी ही मुश्किल में पड़ता है। कभी छाया बहुत बड़ी मालूम पड़ती है, संयोग की बात है। जवानी में सभी को छाया बड़ी मालूम पड़ती है। तब सूरज निकल रहा होता है।
नसरुद्दीन कहता था कि मैं जब जवान था, मैंने तय किया था कि करोड़पति होकर रहूंगा। यह मेरा पक्का संकल्प था। लेकिन जब वह कह रहा था, तब वह एक भिखारी से कह रहा था, मित्र से। दोनों भीख मांगते थे। यह मेरा संकल्प था जवानी में कि करोड़पति होकर ही मरूंगा। उसके मित्र भिखारी ने गौर से देखा। उसने कहा, फिर क्या हुआ तुम्हारे संकल्प का? नसरुद्दीन ने कहा, बाद में मैंने पाया, करोड़पति होने की बजाय संकल्प को बदल लेना ज्यादा आसान है। संकल्प बदल लिया।
बाद में सभी ऐसा पाते हैं। उसका कारण यह नहीं है। छाया छोटी हो गई होती है। खरगोश से भी काम चल जाता है। बूढ़े होते-होते-होते-होते-होते आदमी पाता है कि ठीक है। जवानी में छाया बड़ी मालूम पड़ती है, वह सांयोगिक है। बुढ़ापे में सब सिकुड़ जाता है, छोटा हो जाता है। लेकिन जो जानते हैं, वे जवानी में भी जानते हैं कि छाया छाया है, वह मैं नहीं हूं।
ठीक ऐसी ही एक अंतर-छाया है, जिसका नाम अहंकार है। उसे हम कहें, इनर शैडो। जीवन के संबंधों से एक भीतर भी छाया निर्मित होती है, जो मेरा अहंकार है; जिससे मैं तौलता हूं कि मैं कौन हूं। और वह रोज हमें बदलना पड़ता है; क्योंकि वह भी संयोग पर निर्भर करता है।
एक आदमी सुबह आता है और कहता है कि आप! आप जैसा आदमी जमीन पर कभी पैदा ही नहीं हुआ! एकदम छाया बड़ी हो जाती है भीतर। आखिर खुशामद का सारा रहस्य इसी पर है। और बड़े मजे की बात यह है कि कभी कोई नहीं पहचान पाता कि यह खुशामद है। कभी कोई नहीं पहचान पाता कि यह खुशामद है। यह आदमी खुशामद कर रहा है, कोई नहीं पहचान पाता। नहीं पहचान पाएगा; क्योंकि खुशामद बड़ी सुखद है, छाया को बड़ी करती है। जिसको हम मेहनत से भी बड़ा नहीं कर पाते, खुशामद उसे एकदम फुला देती है।
कहते हैं कि नसरुद्दीन को हिंदुस्तान भेजा गया था; उसके सुलतान ने भेजा था। बड़ी मुश्किल में पड़ गया नसरुद्दीन। हिंदुस्तान आया; सम्राट की तरफ से आया था, सम्राट के दरबार में आया था।
हिंदुस्तान के सम्राट के पास जाकर उसने कहा कि धन्य हैं आप, हे पूर्णमासी के चांद!
जो राजदूत था, जिस मुल्क से नसरुद्दीन आया था, उसने फौरन अपने सम्राट को खबर की कि यह आदमी आपने कैसा भेजा है? इसने यहां के सम्राट को पूर्णमासी का चांद कहा है। आपकी बेइज्जती हो गई।
जब नसरुद्दीन पहुंचा, तो सम्राट बहुत नाराज था। उसने कहा कि मैंने सुना है, तुमने कहा कि पूर्णमासी का चांद! मुझे छोड़ कर और भी कोई पूर्णमासी का चांद है?
नसरुद्दीन ने कहा, आप? आप दूज के चांद हैं। लेकिन पूर्णमासी के बाद अमावस ही आती है। आपका अभी बहुत विकास संभव है। आप समझे नहीं, नसरुद्दीन ने कहा कि मैंने क्यों पूर्णमासी का चांद कहा। अब मौत करीब है उस आदमी की, मरेगा। आप दूज के चांद हैं!
वह यहां से भी सम्मान लेकर गया, पुरस्कार लेकर गया; उसने वहां भी सम्मान और पुरस्कार लिया। यहां उसने पूर्णिमा का चांद कह कर अहंकार को फुसला दिया; वहां उसने दूज का चांद कह कर अहंकार को फुसला दिया। और आदमी ऐसा कमजोर है कि दूज के चांद से भी फुसल जाता है और पूर्णमासी के चांद से भी फुसल जाता है। हम तैयार ही बैठे हैं कि कोई कहे। साधारण सी स्त्री को कोई कह देता है कि तुझसे सुंदर कोई भी नहीं है! फिर वह आईने में अपनी शक्ल ही नहीं देखती, वह भरोसा ही कर लेती है।
नसरुद्दीन अपनी प्रेयसी के पास बैठा है समुद्र के किनारे। उसकी प्रेयसी कहती है कि समुद्र और तुममें बड़ी समानता है। जब भी मैं समुद्र को देखती हूं, तुम्हारी याद आती है; और जब भी तुमको देखती हूं, समुद्र की याद आती है। नसरुद्दीन फूल गया। नसरुद्दीन ने कहा, निश्चित ही! निश्चित ही समानता इसीलिए मालूम पड़ती होगी, बिकाज दि सी इज़ आल्सो सो वास्ट, सो रॉ, सो वाइल्ड, सो रोमांटिक! जैसा कि मैं हूं, ऐसा ही विस्तार यह सागर का, ऐसा ही जंगली इसका रुख, ऐसी ही कच्ची इसकी आवाजें और ऐसा ही रूमानी है! जरूर इसीलिए तुम्हें मेरी और इसके साथ याद आती होगी।
उसकी प्रेयसी ने कहा, क्षमा करो, यू बोथ मेक मी सिक! और कोई बात नहीं है। तुम दोनों ही को देख कर मुझे मितली आती है, और कुछ नहीं होता। यही समानता है।
किसी से भी कुछ कह दो, वह मानने को राजी है। कैसी-कैसी बातों पर लोग राजी हो गए हैं! स्त्रियां राजी हैं कि उनकी आंखें मछलियों की तरह हैं! किसी की आंखें नहीं हैं मछली की तरह। उनके ओंठ गुलाब की पंखुड़ियों की तरह हैं! किसी के ओंठ गुलाब की पंखुड़ियों की तरह नहीं हैं। उनके शरीर से इत्रों की सुगंध आती है! किसी के शरीर से कभी नहीं आती। मगर सब राजी हैं! कवि राजी हैं कहने को, सुनने वाले राजी हैं, स्वीकार करने वाले राजी हैं। कहानियां पुरानी, पिटी हुई, कविताएं पुरानी, मरी हुई रोज कही जाती हैं और चलती चली जाती हैं। क्यों? वह इनर जो शैडो है, वह जो भीतर की अहंकार की छाया है, वह एकदम तृप्त होती है। कांटे से भी कहो कि तुम फूल हो, वह राजी हो जाता है। वह राजी हो जाता है।
सजग होना पड़े! इस अंतर-छाया के प्रति जागरूक होना पड़े। तो लाओत्से कहता है कि इस अंतर-छाया के प्रति जो जागरूक हो जाए, सातत्य जिस सत्य का है, उससे उसके संबंध हो जाते हैं। जो इस अंतर-छाया से बंधा रह जाए, उसके संबंध, जो क्षणभंगुर है, उससे ही होते हैं। इस सूत्र को दूसरे सूत्र में लाओत्से ने फैलाया है।
"इसलिए तत्वविद अपने व्यक्तित्व को पीछे रखते हैं।'
दोज हू नो, जो जानते हैं, वे अपने व्यक्तित्व को पीछे रखते हैं। जीसस ने कहा है, धन्य हैं वे, जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं! क्यों जीसस का यह वक्तव्य: क्योंकि धन्य हैं वे, जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं? क्योंकि जीसस कहते हैं, तुम्हें पता हो या न पता हो, जो अपने को अंतिम खड़ा कर लेता है, वह प्रथम खड़ा हो गया। क्योंकि इससे बड़ी और कोई गरिमा नहीं है। और इससे बड़ी कोई उपलब्धि नहीं है। जिसने अपनी अंतर-छाया के अहंकार को खो दिया, उसको अब द्वितीय करने का कोई भी उपाय नहीं है। वह प्रथम हो गया। बिना हुए प्रथम हो गया। अब उसे प्रथम खड़े होने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
अगर महावीर और बुद्ध ने सम्राट होने का पद छोड़ा, तो इसलिए नहीं कि सम्राट का पद छोड़ने से कोई अहंकार छूट जाएगा; बल्कि इसलिए कि जिनका अहंकार छूट गया, उन्हें अब सम्राट होने की कोई भी जरूरत नहीं है। अब वे सम्राट हैं। अब वे किस दशा में हैं और कहां हैं, इससे कोई भी भेद नहीं पड़ता। इररेलेवेंट! अब बुद्ध जो हैं, भिक्षा का पात्र लेकर भीख मांग सकते हैं; लेकिन बुद्ध की आंखों में भिखारी खोजे से भी नहीं मिलेगा। कम से कम भिखारी अगर कोई आदमी इस जमीन पर हुआ है, तो वह बुद्ध है। और सबसे ज्यादा भीख उसने मांगी है। हाथ में भिक्षा का पात्र है।
असल में, अब वह इतना निश्चिंत है अपने सम्राट होने के प्रति कि भिखारी का पात्र कोई फर्क नहीं लाता है। खयाल रखना, इतना निश्चिंत है! अपने सम्राट होने की बात इतनी पक्की हो गई है अब कि अब भीख मांगने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। हम अगर डरते हैं भीख मांगने में, तो उसका कारण यह नहीं है कि हम भीख मांगने में डरते हैं। उसका कारण यह है कि हम भीख मांगें, तो हम भिखारी ही हो जाएंगे। भीतर के सम्राट का तो हमें कोई भी पता नहीं है। भीख मांगी कि भिखारी हो गए। जो हम करते हैं, वही हम हो जाते हैं। महावीर और बुद्ध भीख मांग सके शान से सम्राट की। उसका कारण था। इतने आश्वस्त हो गए; जिस दिन अंतिम अपने को खड़ा किया, उसी दिन प्रथम होना स्वभाव हो गया।
लाओत्से कहता है, "इसलिए तत्वविद अपने व्यक्तित्व को पीछे रखते हैं, फिर भी वे सब से आगे पाए जाते हैं।'
पोंछ डालते हैं अपने को, सब तरफ से हटा लेते हैं अपने को; फिर भी अचानक इतिहास पाता है कि वे सबसे आगे खड़े हो गए।
आपको पता है? बुद्ध के समय में जो सम्राट थे बिहार में, उनमें से एकाध का नाम भी आपको पता है? खो गए। राजनीतिज्ञ थे, उनका नाम पता है? किसी को कोई पता नहीं है। और एक भिखारी सामने आकर खड़ा हो गया। बुद्ध के पिता ने बुद्ध को कहा था, तू पागल है। लोग जन्म भर मेहनत करते हैं, जीवन भर, तब भी ऐसे महल उपलब्ध नहीं होते। और यह साम्राज्य इतना बड़ा हमारी पीढ़ियों ने निर्मित किया है! और तू पागल की तरह इसे छोड़ कर जा रहा है। लेकिन बुद्ध के पिता का नाम अगर किसी को याद है, तो सिर्फ इसलिए कि बुद्ध, उनका लड़का, घर छोड़ कर गया था। अन्यथा बुद्ध के पिता का नाम इतिहास में कभी भी स्मरण नहीं हो सकता था। कोई कारण नहीं था। कोई जानता भी नहीं। क्योंकि बुद्ध के पिता जैसे सैकड़ों लोग सिंहासनों पर बैठ चुके और खाली कर चुके हैं। अगर आज बुद्ध के पिता का नाम मालूम है, तो सिर्फ एक वजह से कि एक लड़का भीख मांगने चला गया था।
बुद्ध अपने राज्य को छोड़ कर चले गए; क्योंकि उस राज्य में रोज-रोज लोग आकर हाथ-पैर जोड़ते और कहते कि वापस लौट चलो। पड़ोसी के राज्य में चले गए। सोचा, वहां कोई नहीं सताएगा। लेकिन पड़ोसी सम्राट को पता चला, वह भागा हुआ आया। उसने कहा कि तू नासमझ है। अगर पिता से नाराज है, तो कोई फिक्र नहीं। तू मेरे घर चल। मैं तुझे अपनी लड़की से विवाह कर देता हूं। राज्य तेरा ही होगा; क्योंकि मेरी लड़की ही है सिर्फ। तू फिक्र मत कर। अगर पिता से नाराज है, मेरे घर चल।
बुद्ध ने कहा, मैं नाराज किसी से नहीं हूं। मैं केवल बचता फिर रहा हूं। उधर पिता से बच रहा था, इधर आप पिता की तरह मिल गए। मुझ पर कृपा करो। मुझे अकेला छोड़ दो। क्योंकि तुम जो देना चाहते हो, उसका मेरे लिए अब कोई भी मूल्य नहीं है।
बुद्ध का वचन बहुत कीमती है। बुद्ध ने कहा, जब तक मुझे मेरे भीतर के मूल्य का कोई पता नहीं था, तब तक सब चीजें मूल्यवान मालूम पड़ती थीं। अब जब भीतर का हीरा मिल गया, तो अब बाहर के सब हीरे फीके हो गए हैं।
लाओत्से कहता है, "फिर भी वे सब के आगे पाए जाते हैं।'
इतिहास की इतनी भीड़-भड़क्कम है, सब लोग आगे होने को उत्सुक और आतुर हैं। और अचानक, अचानक राजनीतिज्ञ खो जाते हैं, सम्राट खो जाते हैं, धनपति खो जाते हैं; और न मालूम कैसे लोग, जिन्होंने अपने को पीछे खड़ा कर दिया था, वे आगे खड़े हो जाते हैं!
लाओत्से को हुए कोई ढाई हजार वर्ष हो गए। ढाई हजार वर्ष में कितने लोग आए होंगे! लेकिन लाओत्से के आगे कोई भी आदमी खड़ा नहीं हो सका। और यह आदमी ऐसा था कि बिलकुल पीछे खड़ा हो गया था। इसके पीछे खड़े होने का हिसाब लगाना मुश्किल है।
कहा जाता है कि लाओत्से मरने के पहले चीन को छोड़ दिया; सिर्फ इसीलिए कि कोई उसकी समाधि न बना दे। मरने के पहले चीन छोड़ दिया, क्योंकि मरेगा तो कहीं कोई समाधि बना कर एक पत्थर न खड़ा कर दे। क्योंकि जब मैंने कोई निशान नहीं बनाए, तो मेरे मरने के बाद कोई निशान क्यों हो! लेकिन जो इस तरह अपने को पोंछ कर हट गया, उसे हम पोंछ नहीं पाए। सदियां बीत जाएं, लाओत्से को हम पोंछ नहीं सकते। वह ठीक कहता है कि तत्वविद अपने को पीछे रखते हैं, फिर भी वे सदा आगे पाए जाते हैं।
यह सदा आगे पाए जाने के लिए पीछे मत रख लेना। ऐसा नहीं होता। कि कोई सोचे कि चलो, ठीक है, तरकीब हाथ लगी; पीछे रख लो, आगे हो जाओ। नहीं, जो पीछे हो जाते हैं, वे आगे पाए जाते हैं। लेकिन अगर किसी ने अपने को आगे होने के लिए पीछे रखा, तो वह पीछे ही हो जाता है; आगे होने का कोई उपाय नहीं है।
तो इसमें कॉजल नहीं है, इसमें कोई कार्य-कारण संबंध नहीं है; कांसीक्वेंस है। यह खयाल रखना, नहीं तो भूल होती है। नहीं तो भूल होती है। लोग कहते हैं, अच्छी बात है। उनके मन को तृप्ति मिलती है। अहंकार कहता है, यह तो बहुत बढ़िया बात है। बिना आगे हुए आगे होने की तरकीब हाथ लगती है, तो हम पीछे हुए जाते हैं। लेकिन आगे हो जाएंगे? नहीं, पीछे हो जाता है अगर कोई आगे होने के लिए, तो पीछे होता ही नहीं। पीछे होने का मतलब ही है कि आगे का खयाल ही न रहा।
इसलिए दूसरा जो वाक्य है, इट इज़ नॉट लिंक्ड कॉजली। यह पहले वाक्य के परिणाम की तरह नहीं है कि आग में हाथ डालो तो हाथ जलता है। ऐसा नहीं है। यह कांसीक्वेंस है, यह परिणाम है। इसको गणित की तरह मत सोचना कि पीछे खड़े हो जाएं, तो आगे पाए जाएंगे। कभी न पाए जाएंगे। पीछे खड़ा हो जाए कोई, तो आगे पाया जाता है। लेकिन पीछे खड़े होने का मतलब यह है कि आगे का जिसे खयाल ही छूट गया है। उसे फिर पता ही नहीं चलता कि मैं आगे खड़ा हूं, पीछे खड़ा हूं। मैं कहां हूं, यह उसे पता ही नहीं चलता है।
"वे निज की सत्ता की उपेक्षा करते हैं, फिर भी उनकी सत्ता सुरक्षित रहती है।'
वे अपने को बिलकुल ही उपेक्षित कर देते हैं, भूल ही जाते हैं, अपनी चिंता ही छोड़ देते हैं; फिर भी उनकी सुरक्षा में कोई अंतर नहीं पड़ता। असल में, जैसे ही कोई व्यक्ति अपना बोझ छोड़ देता है, परमात्मा उसका बोझ खींचने को तैयार हो जाता है। जैसे ही कोई व्यक्ति कह देता है कि ठीक है, अब मैं चिंता न करूंगा अपनी, वैसे ही सारा अस्तित्व उसकी चिंता करने लगता है। और जैसे ही कोई आदमी कहता है कि मैं अपनी चिंता, अपनी चिंता...। सारा अस्तित्व उसकी चिंता छोड़ देता है। और वह एलियनेटेड हो जाता है; वह इस पूरे जगत के बीच एक अजनबी हो जाता है, जो नाहक ही अपना बोझ ढोता है।
"चूंकि उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं, इसलिए उनके लक्ष्यों की पूर्ति हो जाती है।'
ये मनुष्य के इतिहास में बोले गए सबसे ज्यादा पैराडाक्सिकल वचन हैं, और सबसे मूल्यवान। इन एक-एक वचन से एक-एक बाइबिल निर्मित हो सकती है। लाओत्से कहता है कि चूंकि उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं, उनके सब स्वार्थ पूरे हो जाते हैं। वह कह यह रहा है कि स्वार्थ, जीवन का जो परम आनंद है, वही जीवन का स्वार्थ है। जो व्यक्ति अहंकार को छोड़ देता है, वह परम आनंद को उपलब्ध हो जाता है। और जो व्यक्ति अहंकार को छोड़ देता है, उसके लिए भय समाप्त हो जाता है। क्योंकि अहंकार के साथ भय है कि मैं मिट न जाऊं, नष्ट न हो जाऊं, हार न जाऊं, असफल न हो जाऊं। ये सब भय समाप्त हो गए। जहां भय नहीं है, वहां सुरक्षा है।
हम तो उलटा करते हैं। जितनी सुरक्षा करते हैं, उतने असुरक्षित हो जाते हैं। और जितने बचना चाहते हैं, उतने भयभीत हो जाते हैं। और जितना सोचते हैं कि अपने को बचा लें, बचा लें, बचा लें, उतना ही पाते हैं कि अपने को खोते चले जा रहे हैं, खोते चले जा रहे हैं।
एक आखिरी बात, फिर हम कल बात करेंगे।
अगर कभी नदी में आपने भंवर पड़ते देखे हों; नदी में कभी-कभी जोर से गोल भंवर पड़ते हैं। अगर भंवर में आप कोई चीज डाल दें, तो शीघ्र ही भंवर उसे घुमा कर नीचे ले जाता है। अगर आपको भंवर में गिरा दिया जाए और अगर आप लाओत्से को नहीं जानते, तो आप बहुत मुश्किल में पड़ेंगे। अगर जानते हैं, तो भंवर से बच सकते हैं।
अगर भंवर में आप गिर जाएं और भंवर ताकतवर हो, तो स्वभावतः आप पहले बचने की कोशिश करेंगे कि भंवर कहीं मुझे स्क्रू डाउन न कर दे। तो आप बचने की पूरी ताकत लगाएंगे। आप जितनी ताकत लगाएंगे, उतनी ही आपकी ताकत टूटेगी। क्योंकि भंवर की विराट ताकत आपकी ताकत के खिलाफ है; वह आपको तोड़ डालेगा। थोड़ी देर में आप थक जाएंगे, मुर्दा हो जाएंगे। तब भंवर आपको नीचे ले जाएगा। फिर बचना बहुत मुश्किल है।
लाओत्से कहता है, अगर कभी भंवर में फंस जाओ, तो पहला काम यह करना, भंवर से लड़ना मत, भंवर के साथ डूबने को राजी हो जाना। तो तुम्हारी ताकत जरा भी नष्ट न होगी। और भंवर शीघ्रता से आदमी को नीचे ले जाता है। भंवर ऊपर बड़ा होता है, नीचे छोटा होता जाता है। स्क्रू की तरह नीचे छोटा होता जाता है। नीचे से बच कर निकलने में जरा भी कठिनाई नहीं है। अपने आप आदमी निकल जाता है। लेकिन ऊपर जो लड़ता है, वह नीचे बचता है, तब तक ताकत नहीं रहती। डूब जाना भंवर के साथ, नीचे निकल आना बाहर। कुछ करना न पड़ेगा।
इसे ऐसा समझें। आपने देखे होंगे जिंदा आदमी पानी में डूबते और मुर्दा आदमियों को तैरते देखा होगा। कभी सोचा कि बात क्या है? मुर्दे तैर जाते हैं, जिंदा डूब जाते हैं। बड़ी पैराडाक्सिकल बात है। आखिर मुर्दे को कौन सी तरकीब पता है जिससे वह पानी पर तैर जाता है। और जिंदा को कौन सी तरकीब पता है कि डूब जाते हैं और मर जाते हैं। जिंदा को एक ही तरकीब पता है कि बचने की बड़ी कोशिश करते हैं। वे बचने की कोशिश में ही थकते हैं, थक कर ही डूबते हैं। सागर नहीं डुबाता, पानी नहीं डुबाता, भंवर नहीं डुबाती। आप थक कर डूब जाते हैं। लेकिन मुर्दा लड़ता ही नहीं। मुर्दा कहता है, ले चलो, जहां ले चलना है। सागर उसे ऊपर उठा देता है। वह लड़ता ही नहीं, तैर जाता है ऊपर!
जो लोग भी तैरना जानते हैं, वे असल में, एक अर्थ में, मुर्दे की कला सीख लेते हैं। और जो होशियार तैराक हैं, वे अपने को मुर्दे की तरह पानी पर छोड़ देते हैं, हाथ-पैर भी नहीं हिलाते, और पानी उन्हें डुबाता नहीं। कोई उनके बीच समझौता नहीं है, पानी और उनके बीच कोई कंप्रोमाइज नहीं है, किसी तरह का कोई षडयंत्र नहीं है। बस एक तरकीब जानने की जरूरत है कि वह मुर्दे की तरह पड़ जाए। मुर्दे की तरह पड़ने का क्या मतलब है? मरने का भय छोड़ दे; या मान ले कि मर गए। तो पानी पर तैर जाता है।
लाओत्से कहते हैं, सुरक्षित हैं वे, जिन्हें सुरक्षा की कोई चिंता न रही। अभय हो गए वे, जिन्होंने भय को अंगीकार कर लिया, भय से जो बचते नहीं। आगे आ गए वे, जो पीछे खड़े होने को राजी हो गए। और जो मिटने को तैयार, मरने को तैयार, अमृत उनकी उपलब्धि है।

अगला सूत्र हम कल लेंगे। कीर्तन में सम्मिलित हों। मुर्दे की तरह! ऐसे बैठे न रहें, मुर्दे की तरह बहें उसमें। अकड़ कर रोके न रहें कीर्तन में अपने को। कीर्तन भी, सम्मिलित हुआ जा सके, तो गहरे निर-अहंकार में ले जाने का कारण बन सकता है।


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