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सोमवार, 15 सितंबर 2014

ताओ उपनिषाद-प्रवचन--004

अज्ञान और ज्ञान के पार--वह रहस्य भरा ताओ—चौथा प्रवचन

अध्याय 1 : सूत्र 4

इन दोनों पक्षों में यह एक ही है; किंतु ज्यों-ज्यों इसकी प्रगति होती है, लोग इसे भिन्न-भिन्न नामों से संबोधित करते हैं। इन नामों के समूह को ही हम रहस्य कहते हैं। जहां रहस्य की सघनता सर्वोपरि हो, वहीं उस सूक्ष्म और चमत्कारी का प्रवेश-द्वार है।

दो के भीतर एक का ही निवास है। जहां-जहां दो दिखाई पड़ता है बुद्धि को, वहां-वहां अस्तित्व तो एक ही है। ऐसा कहें, बुद्धि का देखने का ढंग चीजों को दो में तोड़ लेने का है। जैसे ही बुद्धि किसी चीज को देखने जाती है, वैसे ही दो में तोड़े बिना नहीं रह सकती।

उसके कुछ कारण हैं। बुद्धि असंगत को अस्वीकार करती है। बुद्धि विपरीत को साथ नहीं रख पाती; बुद्धि विरोधी को तोड़ देती है। जैसे, बुद्धि देखने जाएगी जीवन को, तो मृत्यु को जीवन के भीतर देखना बुद्धि के लिए असंभव है। क्योंकि मृत्यु बिलकुल ही उलटी मालूम पड़ती है। जीवन के तर्क के साथ उसकी कोई संगति नहीं है। ऐसा लगता है कि मृत्यु जीवन का अंत है। ऐसा लगता है, मृत्यु जीवन की शत्रु है। ऐसा लगता है, मृत्यु जीवन के बाहर, जीवन पर आक्रमण है।
लेकिन वस्तुतः ऐसा नहीं है; मृत्यु जीवन के बाहर घटने वाली घटना नहीं। मृत्यु जीवन के भीतर ही घटती है, मृत्यु जीवन का ही हिस्सा है, मृत्यु जीवन की ही पूर्णता है। मृत्यु और जीवन ऐसे ही हैं, जैसे बाहर आने वाली श्वास और भीतर जाने वाली श्वास एक ही हैं। जो श्वास भीतर जाती है, वही बाहर जाती है। जन्म में जो श्वास भीतर आती है, मृत्यु में वही श्वास बाहर जाती है। अस्तित्व में मृत्यु और जीवन एक ही हैं। लेकिन बुद्धि जब सोचने चलती है, तो बुद्धि असंगत को स्वीकार नहीं कर पाती; संगत को स्वीकार कर पाती है। संगत की दृष्टि से जीवन अलग हो जाता है और मृत्यु अलग हो जाती है।
लेकिन अस्तित्व असंगत को भी स्वीकार करता है, विपरीत को, विरोधी को भी स्वीकार करता है। अस्तित्व को बाधा नहीं पड़ती फूल और कांटे को एक ही शाखा पर लगा देने में। अस्तित्व को कोई अड़चन नहीं है अंधेरे और प्रकाश को एक ही साथ चलाए रखने में। सच तो यह है कि अंधेरा प्रकाश का ही धीमा रूप है, और प्रकाश अंधकार की ही कम सघन स्थिति है। अगर हम प्रकाश को मिटा दें जगत से बिलकुल, तो तत्काल बुद्धि कहेगी, अंधेरा ही अंधेरा बच रहेगा। लेकिन अगर हम सच में ही जगत से प्रकाश को बिलकुल मिटा दें, तो अंधेरा भी नहीं बच रहेगा।
और सरलता से समझें तो खयाल में आ जाए। अगर हम जगत से गर्मी को बिलकुल मिटा दें, तो बुद्धि कहेगी, ठंड ही ठंड बच रहेगी। लेकिन जिसे हम शीत कहते हैं, ठंड कहते हैं, वह गर्मी का रूप है। अगर हम गर्मी को पूरा मिटा दें जगत से, तो शीत बिलकुल मिट जाएगी; वह कहीं भी नहीं बच रहेगी। अगर हम मृत्यु को बिलकुल मिटा सकें जगत से, तो जीवन समाप्त हो जाएगा। अस्तित्व विपरीत के साथ है। बुद्धि विपरीत को बाहर कर देती है। बुद्धि बहुत छोटी चीज है; अस्तित्व बहुत बड़ा। बुद्धि की समझ के बाहर पड़ता है यह कि विपरीत भी एक हो, कि जीवन और मृत्यु एक हो, कि प्रेम और घृणा एक हो, कि अंधेरा और प्रकाश एक हो, कि नर्क और स्वर्ग एक हो। यह बुद्धि की समझ के बाहर है कि दुख और सुख एक ही चीज के दो नाम हैं। यह बुद्धि कैसे समझ पाए!
बुद्धि कहती है, सुख अलग है, दुख अलग है; सुख को पाना है, दुख से बचना है; दुख को नहीं आने देना है, सुख को निमंत्रण देना है। लेकिन अस्तित्व कहता है, जिसने बुलाया सुख को, उसने दुख को भी निमंत्रण दे दिया है। और जिसने बचना चाहा दुख से, उसे सुख को भी छोड़ना पड़ा है। अस्तित्व में विपरीत एक है।
और लाओत्से कहता है, अंडर दीज टू आसपेक्ट्स, इट इज़ रियली दि सेम। वह जो नाम के भीतर है और वह जो अनाम के भीतर है, इन दो पहलुओं में वह एक ही है।
इतनी तीव्रता से लाओत्से ने कहा कि वह जो पथ है, विचरण उस पर नहीं किया जा सकता; और वह जो सत्य है, उसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता। और अब लाओत्से कहता है, वह जो नाम के अंतर्गत है वह, और वह जो अनाम के अंतर्गत है वह, वे दोनों एक ही हैं--रियली दि सेम। यथार्थ में, वस्तुतः वे दोनों एक ही हैं।
यह भी हमारी बुद्धि का ही द्वैत है कि हम कहें, यह अनाम का जगत है और यह नाम का, कि हम कहें कि यह वस्तुओं का जगत है और वह अस्तित्व का, कि हम कहें कि यह व्यक्तियों का जगत है और वह अव्यक्ति का, कि हम कहें कि यह आकार का जगत है और वह निराकार का।
लाओत्से कहता है, नहीं, वस्तुतः उन दोनों के भीतर भी वह एक ही है। जिसे हम नाम देते हैं, उसके भीतर भी अनाम बैठा है; और जिसे हम अनाम कहते हैं, उसे भी हमने नाम तो दे ही दिया है। इससे क्या भेद पड़ता है कि हम उसे अनाम कहते हैं? वी हैव नेम्ड इट! अनाम रख लिया है उसका नाम हमने।
यह थोड़ा कठिन मालूम पड़ेगा, क्योंकि लाओत्से ने बहुत जोर दिया है शुरू में कि दोनों बिलकुल अलग हैं। नाम मत देना उसे; नाम दिया कि वह सत्य न रह जाएगा। बोलना मत उसे; बोले कि वह विकृत हो जाएगा। चलना मत उस पथ पर, क्योंकि वह अविकारी पथ चला नहीं जा सकता। और अब लाओत्से घड़ी भर बाद यह कहता है कि उन दोनों के भीतर वस्तुतः एक ही है। कठिन पड़ेगी बात समझनी। लेकिन यह और भी गहरी बात है; जो लाओत्से ने पहले कहा, उससे भी गहरा है यह। नाम के भीतर भी वही है, आकार के भीतर भी वही है।
मैं अपने मकान की खिड़की से झांक कर देखता हूं, तो आकाश मुझे आकार में दिखाई पड़ता है। पर जिस आकाश को मैं खिड़की के भीतर से देखता हूं आकार में बंधा हुआ, जब बाहर जाऊंगा खिड़की-द्वार के, तो वही निराकार दिखाई पड़ेगा। उस समय मैं क्या कहूंगा, खिड़की से जो आकाश दिखा था, वह दूसरा था?
निश्चित ही, भेद तो है। क्योंकि खिड़की से जब दिखा था, तो आकार के चौखटे में जड़ा हुआ दिखा था। और अब जब देखता हूं, तो कोई भी चौखटा, कोई भी आकार नहीं है। निश्चित ही, भेद तो है। लेकिन गहरे में भेद कहां है? खिड़की से इसे ही देखा था, जो निराकार है। और अगर भूल थी तो आकाश की न थी, खिड़की की थी। और खिड़की आकाश को आकार कैसे दे सकेगी? खिड़की जैसी छोटी चीज अगर आकाश जैसे विराट तत्व को आकार देने में समर्थ हो जाए, तो आकाश से ज्यादा शक्तिशाली हो जाती है।
तो जिसे बुद्धि ने नाम देकर जाना है, वह भी वही है, जिसे बुद्धिमानों ने बुद्धि के पार जाकर अनाम जाना है।
और लाओत्से कहता है, चल कर वहां तक न पहुंच सकोगे, रुक कर पहुंचोगे। हालांकि रुक कर आदमी वहीं पहुंचता है, जहां चलता हुआ दौड़ता रहता है। उन दोनों में भेद नहीं है, उन दोनों में अंतर नहीं है।
द्वैत को बड़ी गहरी चोट इस छोटे से वचन में लाओत्से ने की है--आखिरी चोट; जिसमें विपरीत को समाहित करने की कोशिश की है। और इसे एकबारगी बहुत साफ खयाल में आ जाना चाहिए कि सारे द्वैत बुद्धि-निर्मित हैं। अस्तित्व उनसे अपरिचित है। अस्तित्व ने द्वैत को कभी जाना नहीं, डुआलिज्म को कभी जाना नहीं। विपरीत से विपरीत चीज अस्तित्व में जुड़ी और संयुक्त है। जुड़ी और संयुक्त ही नहीं, एक ही है। जुड़ी और संयुक्त भी हमें कहना पड़ती है, क्योंकि हमारा मन दो में तोड़ कर ही देखता है।
एक सिक्के में हम दो पहलू देखते हैं। और साफ ही दो पहलू होते हैं। फिर भी क्या हम कह सकते हैं कि एक पहलू को दूसरे से अलग किया जा सकेगा? क्या हम सिक्के के एक पहलू को बचा कर दूसरे को फेंक सकते हैं? हम कुछ भी करें, सिक्के में दो पहलू ही रहेंगे, और हम एक को न बचा सकेंगे और एक को हम न हटा सकेंगे। जिसे हम दूसरा पहलू कहते हैं, वह वही सिक्का है। फिर भी मजे की बात है कि हम एक छोटे से सिक्के के दोनों पहलू भी एक साथ देख नहीं सकते। सिक्का बड़ी चीज नहीं है, उसे हम हाथ पर रख कर देख लें। पर जब भी हम सिक्के को देखते हैं, हमारी आंखें एक ही पहलू को देख पाती हैं। दूसरा पहलू तो सिर्फ कल्पना में होता है कि होगा। उलटा कर जब देखते हैं, तब दूसरा देखते हैं, तब पहला छिप जाता है। कौन कहेगा...।
बर्कले पश्चिम में एक विचारक हुआ और कीमती विचारक हुआ। वह कहा करता था कि जब आप कमरे के बाहर जाते हैं, तो कमरे की चीजें शून्य में विलीन हो जाती हैं। आप जब कमरे के भीतर आते हैं, तब वे फिर पुनः प्रकट हो जाती हैं। लेकिन जब कमरे में कोई नहीं रहता, तो कमरे में कोई वस्तु नहीं रह जाती। और बर्कले कहता था कि अगर कोई इससे विपरीत सिद्ध कर दे, तो मैं तैयार हूं। पर विपरीत सिद्ध करना असंभव है। क्योंकि सिद्ध करने के लिए कमरे के भीतर रहना पड़ेगा। और बर्कले कहता ही इतना था कि जब तक कोई कमरे के भीतर है, वस्तुएं होती हैं। जब कमरे के भीतर कोई देखने वाला नहीं होता, तो वस्तुएं तिरोहित हो जाती हैं। क्योंकि वह कहता था, बिना देखने वाले के दृश्य बचेगा कैसे? बिना द्रष्टा के दृश्य बचेगा कैसे? अगर आप एक छेद करके दीवार से झांकें, तो द्रष्टा मौजूद हो जाता है, वस्तुएं प्रकट हो जाती हैं।
बर्कले जो कह रहा था, वह यह कह रहा था कि द्रष्टा और दृश्य में गहरा संबंध है। निश्चित ही, यह बात तो सही नहीं है बर्कले की कि जब कोई देखने वाला नहीं होता, तो वस्तुएं नहीं रह जाती हैं। लेकिन यह बात जरूर सच है कि जब देखने वाला नहीं होता, तो वस्तुएं वैसी ही नहीं रह जातीं, जैसा देखने वाले के होने पर होती हैं।
जैसे, अब तो फिजिक्स भी इसे स्वीकार करती है कि जब आप कमरे के बाहर चले जाते हैं, तो कमरे की वस्तुएं रंग खो देती हैं, कमरे की वस्तुओं में कोई रंग नहीं रह जाता। रह ही नहीं सकता। जब आप कमरे के बाहर होते हैं और कमरा सब तरफ से बंद होता है और कोई देखने वाला नहीं होता, तो कमरे की वस्तुएं बेरंग, कलरलेस हो जाती हैं। निश्चित ही, अगर वस्तुएं रंगहीन हो जाती हैं, तो आपके कमरे में जो पेंटिंग टंगी है, वह क्या होती होगी? कम से कम पेंटिंग नहीं होती होगी।
रंगहीन इसलिए हो जाती हैं कि फिजिक्स कहती है कि रंग आंख के जोड़ से निर्मित होता है। अगर मैं देख रहा हूं कि आप सफेद कपड़े पहने हुए बैठे हैं, तो आपके सफेद कपड़े आपके सफेद कपड़ों पर ही निर्भर नहीं हैं; मेरी आंख उनको सफेद देखती है। अगर कोई आंख न हो इस कमरे में, तो कपड़े सफेद नहीं रह जाएंगे। रंग जो है, वह आंख से जुड़ा हुआ है। और जरूरी नहीं है कि आकार भी वैसा ही रह जाए, जैसा हम देखते हैं, क्योंकि आकार भी हमारी आंख से जुड़ा है। अगर वस्तु रह भी जाती होगी कमरे के भीतर, जब हम बाहर हो जाते हैं, तो ठीक वैसी ही नहीं रह जाती है, जैसी हम थे तब थी। और जैसी रह जाती है, उसे हम कभी न जान पाएंगे। क्योंकि जब भी हम आएंगे, तब वह वैसी न रह जाएगी।
इसलिए इमेनुअल कांट, एक जर्मन चिंतक, कहा करता था कि वस्तु जैसी अपने आप में है--थिंग इन इटसेल्फ--उसे कभी नहीं जाना जा सकता। जब भी हम जानेंगे, तो हम उसे ऐसा जानेंगे, जैसा हम जान सकते हैं।
असल में, जो भी हम जानते हैं, वह हमारे जान सकने की क्षमता से निर्भर होता है, निर्मित होता है। जरूरी नहीं है कि हम इतने लोग इस कमरे में बैठे हुए हैं, इसमें एक मकड़ी भी चलती होगी, एक छिपकली भी दीवार पर सरकती होगी, एक मक्खी भी गुजरती होगी, एक कीड़ा भी सरकता होगा; वे सभी इस कमरे को एक जैसा नहीं देखेंगे। हो सकता है, कुछ चीजें छिपकली को दिखाई पड़ती हों, जो हमें कभी भी दिखाई न पड़ेंगी। और हो सकता है, मकड़ी कुछ चीजों को अनुभव करती हो, जिसका अनुभव हमें कभी न होगा। और हो सकता है, जमीन पर सरकने वाला कीड़ा कुछ ऐसी ध्वनियां सुनता हो, जो हमें बिलकुल सुनाई नहीं पड़ रही हैं। और यह तो बिलकुल ही निश्चित है कि जो हम देख रहे हैं, जान रहे हैं, सुन रहे हैं, उनसे ये कोई भी प्राणी परिचित न हो पाते होंगे।
जो भी हम देखते हैं, उसमें देखने वाला जुड़ जाता है। बुद्धि जैसे ही कुछ देखती है, बुद्धि अपना पैटर्न, अपना ढांचा दे देती है। बुद्धि का सबसे गहरा जो ढांचा है, वह द्वैत का है। वह चीजों को दो हिस्सों में तोड़ देती है सबसे पहले। विपरीत को अलग कर देती है, कंट्राडिक्टरी को अलग कर देती है।
और प्रत्येक चीज कंट्राडिक्टरी से निर्मित है। मैं कहता हूं कि मैं क्रोध नहीं करता, सिर्फ क्षमा करता हूं। लेकिन बिना क्रोध के कोई क्षमा नहीं होती। या हो सकती है? अगर आप क्रोधित नहीं हुए हैं, तो क्षमा कर सकेंगे? क्षमा करने के लिए पहले क्रोधित हो जाना बिलकुल जरूरी है। क्षमा क्रोध के पीछे ही आती है; क्रोध का ही हिस्सा होकर आती है। क्रोध के बिना क्षमा संभव नहीं है। पर हम क्रोध और क्षमा को अलग करके देखते हैं। हम कहते हैं, फलां आदमी क्रोधी है और फलां आदमी क्षमावान है। और हम कभी ऐसा नहीं देख पाएंगे कि क्रोध ही क्षमा है।
बुद्धि तोड़ती है। जीवन के सब तलों पर बुद्धि तोड़ती चली जाती है।
लाओत्से कहता है कि बुद्धि के ये सारे के सारे खंडों के भीतर वह एक ही छिपा है। हम उसे कितना ही तोड़ें, हम उसे तोड़ नहीं पाते हैं। वह एक ही बना रहता है। हम कितनी ही सीमाएं बनाएं, वह असीम असीम ही बना रहता है। हम नाम दें या न दें, वह एक ही है।
तो पहली तो बात लाओत्से कहता है कि इस समस्त द्वैत के भीतर, इन सब दो के भीतर उस एक का ही वास है।
बैठे हैं इस कमरे के भीतर; हमने दीवारें बना ली हैं; तो हमने कमरे के आकाश को अलग तोड़ लिया है बाहर के आकाश से। लेकिन कभी आपने सोचा है कि आकाश को आप तोड़ कैसे सकेंगे? तलवार आकाश को काट नहीं सकती। दीवार आकाश को काट नहीं सकती, क्योंकि दीवार को ही आकाश में ही होना पड़ता है। और आकाश दीवार के पोर-पोर में समाया हुआ है। तो जो बाहर का आकाश है और जो भीतर का आकाश है, वह जो हमारा विभाजन है, वह विभाजन वस्तुतः कहीं नहीं है। पर हमारे काम चलाने के लिए पर्याप्त है। बाहर के आकाश में सोना मुश्किल हो जाएगा; दीवार के भीतर के आकाश में हम सुविधा से सो जाते हैं। निश्चित ही, भेद तो है। बाहर के आकाश में पानी बरस रहा है; भीतर के आकाश में हम पानी से निश्चिंत बैठे हैं।
पर फिर भी हमने आकाश को दो हिस्सों में बांटा नहीं है। हम कभी बांट नहीं पाएंगे। आकाश अखंड है, एक है। भीतर और बाहर हमारे कामचलाऊ फर्क हैं। जो भीतर है, वही बाहर है। जो बाहर है, वही भीतर है। भीतर और बाहर शब्द भी हमारे बुद्धि के द्वैत से निर्मित होते हैं। अन्यथा न कुछ भीतर है, न कुछ बाहर है। एक ही है। उसे हम कभी भीतर कहते हैं, उसे हम कभी बाहर कहते हैं।
लाओत्से, बुद्धि का जो द्वैत है वह अत्यंत ऊपरी है, यह कह रहा है। भीतर, अंतर-सत्ता में, अस्तित्व की गहराई में, एक का ही वास है। जैसे कोई वृक्ष निकलता है जमीन से, तो पहले एक ही होता है। फिर शीघ्र ही उसमें शाखाएं टूटने लगती हैं। और फिर शाखाएं टूटती चली जाती हैं। इसलिए लाओत्से कहता है, जैसे ही प्रगति होती है, जैसे ही विकास होता है, वैसे ही अनेक पैदा हो जाता है। अनंत नाम आ जाते हैं।
हिंदुओं ने जीवन को एक वृक्ष के रूप में कोई पांच हजार साल पहले से सोचा है। और मोक्ष को एक उलटे वृक्ष के रूप में सोचा है। संसार ऐसा वृक्ष है, जो एक से पैदा होता और अनेक हो जाता है। एक वृक्ष की शाखा उठनी शुरू होती है, पींड़ उसे हम कहते हैं, और फिर अनेक शाखाएं हो जाती हैं। और फिर प्रत्येक शाखा अनेक शाखा बन जाती है। और फिर प्रत्येक अनेक शाखा भी अनेक पत्तों में फैल जाती है। मोक्ष इससे उलटा वृक्ष है, जिसमें अनेक शाखाओं से हम कम शाखाओं की तरफ आते हैं। फिर कम शाखाओं से और कम शाखाओं की तरफ आते हैं। फिर और कम शाखाओं से एक की तरफ आते हैं। और फिर एक से हम उस बीज में चले जाते हैं, जिससे सब निर्मित होता है और विकसित होता है।
लाओत्से कह रहा है, जैसे ही डेवलपमेंट होता है, जैसे ही अनफोल्डमेंट होता है, जैसे ही चीजें खुलती हैं, वैसे ही अनेक हो जाती हैं। एक बीज तो एक होता है, वृक्ष अनेक-अनेक शाखाओं में बंट जाता है। और फिर अनेक शाखाओं पर अनेक-अनेक बीज लग जाते हैं--एक ही बीज से। ठीक वैसे ही अस्तित्व तो एक है, अनाम, फिर नाम की बहुत शाखाएं उसमें निकलती हैं। सत्य तो एक है, निःशब्द, फिर शब्द की बहुत शाखाएं उसमें निकलती हैं, बहुत पत्ते लगते हैं।
पर लाओत्से कहता है, फिर भी वह जो एक में है, वही अनेक में भी है। और वह जो बीज में है, वही पत्ते में भी है। दूसरा हो कैसे सकता है? दूसरे के होने का कोई उपाय नहीं है। दूसरा है ही नहीं।
इस वचन के दूसरे हिस्से में: ज्यों-ज्यों प्रगति होती है, लोग इसे भिन्न-भिन्न नामों से संबोधित करते हैं।
वह भिन्न-भिन्न नहीं हो जाता, लोग इसे भिन्न-भिन्न नामों से संबोधित करते हैं। मैंने कहा कि वृक्ष बीज में एक होता है, शाखाओं में अनेक हो जाता है। लेकिन वह भी, हम जो बाहर खड़े हैं, उनको दिखाई पड़ता है। अगर वृक्ष कह सके, तो वृक्ष कहेगा, मैं एक हूं। वृक्ष को अपना पत्ता भी और अपनी जड़ भी जुड़ी हुई मालूम पड़ेगी। भीतर तो एक ही प्रवाह है, एक ही रस की धार बहती है।
आपको अपने पैर का अंगूठा और आपका सिर, आपकी आंख और आपके हाथ की अंगुलियां भीतर से अलग-अलग मालूम होती हैं? आंख बंद करके देखेंगे, तो भीतर एक का ही सतत प्रवाह हो जाता है। उस प्रवाह में ही ये सारे के सारे रूप तिरोहित हो जाते हैं।
बाहर से कोई आपको देखेगा, तो आपकी आंख अलग है, अंगुली अलग है। निश्चित ही, अंगुली तोड़ने से आंख नहीं फूटेगी। और निश्चित ही, आंख फूट जाने से अंगुली नहीं टूट जाएगी। बाहर से सब अनेक ही मालूम पड़ता है। लेकिन भीतर? मैंने कहा कि अंगुली तोड़ने से आंख नहीं फूटेगी, यह भी बाहर से। भीतर तो अंगुली का टूटना भी आंख को कमजोर कर जाता है। भीतर तो आंख का भी फूटना अंगुली को भी अंधा कर जाता है। भीतर तो एक ही है प्रवाह। भीतर तो जरा भी भेद नहीं है।
और अगर हम शरीरशास्त्री से पूछें, तो वह भी यही कहता है। बहुत अनूठी बात शरीरशास्त्री कहता है। नवीन से नवीन खोजें कुछ बड़े पुराने रहस्यों को पुनर्स्थापित करती हैं। शरीरशास्त्री कहता है कि आंख जिन सेल्स से बनी है, उन्हीं सेल्स से पैर का अंगूठा भी बना है। उनमें जरा भी भेद नहीं है। अगर भेद है कुछ, तो वह सिर्फ उन सेल्स ने स्पेशियलाइजेशन कर लिया है। सारे शरीर के कोश एक जैसे हैं। लेकिन शरीर के कुछ कोशों ने विशेषज्ञता प्राप्त कर ली है देखने के लिए। और कुछ कोशों ने विशेषज्ञता प्राप्त कर ली है सुनने के लिए। और कुछ कोशों ने विशेषज्ञता प्राप्त कर ली है स्पर्श करने के लिए। लेकिन वे सब कोश एक जैसे हैं। उन कोशों के जीवनत्तत्व में कोई भी भेद नहीं है। रंच मात्र भी फर्क नहीं है। आंख की जो इतनी सूक्ष्म पुतली है, वह भी आपकी चमड़ी ही है। वह भी चमड़ी ही है, जो बहुत सूक्ष्मतम रूप में देखने का काम उसने शुरू कर दिया है। और वैज्ञानिक कहते हैं कि हाथ की चमड़ी भी देखने में उतनी ही समर्थ है। अगर उसका भी प्रशिक्षण हो सके, तो वह भी देख सकती है। क्योंकि दोनों को निर्मित करने वाला जो कोश है, वह एक जैसा है। उसमें कोई फर्क नहीं है।
जब बच्चा मां के पेट में आता है, तो न तो आंख होती है, न कान होते हैं, न नाक होती है, न हाथ, न पैर होते हैं। जब पहले दिन बीजारोपण होता है, तो कुछ भी नहीं होता। सिर्फ सेल होता है खाली। फिर उसी सेल से सेल पैदा होते हैं। और वे सारे सेल जिस सेल से पैदा होते हैं, उससे भिन्न नहीं हो सकते, वही होते हैं। फिर धीरे-धीरे कुछ सेल आंख का काम शुरू कर देते हैं, कुछ सेल कान का काम शुरू कर देते हैं, कुछ सेल हृदय बन जाते हैं। एक ही तरह के सेल फैलते चले जाते हैं। और शरीर में सारा का सारा भेद निर्मित हो जाता है।
बीज एक होता है, शाखाएं अलग-अलग मालूम पड़ने लगती हैं। रस-धार एक होती है, जीवन-धार एक होती है, पर प्रत्येक चीज अलग दिखाई पड़ने लगती है--अनफोल्डमेंट पर, जब चीजें खुलती हैं। मां के पेट में जो सेल पहले दिन निर्मित हुआ है, वह बंद है। वह अभी खुलेगा, उघड़ेगा, अपने पर्दे तोड़ेगा, फैलेगा। फैलेगा तो बहुत जरूरतें होंगी। प्रत्येक जरूरत के अनुसार बहुत से हिस्से उसके अलग-अलग काम करना शुरू कर देंगे। और जब ये सब अलग-अलग काम करना शुरू कर देंगे, तो इनके अलग-अलग नाम होंगे।
इसे हम एक उदाहरण समझ सकते हैं। हिंदू सदा कहते रहे हैं कि यह जगत भी इसी तरह एक छोटे से अंडे से निर्मित होता है, जैसे व्यक्ति। और इस जगत का भी सब कुछ जीवन-धार एक ही है। फिर सब चीजें अलग होती हैं; जैसे खुलती जाती हैं, फैलती चली जाती हैं। और लाओत्से भी वही कह रहा है। वह कह रहा है, लोग भिन्न-भिन्न नामों से पुकारने लगते हैं। उपनिषदों ने कहा है, सत्य तो एक है, पर जानने वाले उसे अनेक तरह से जानते हैं। रहस्य तो एक है, लेकिन बुद्धिमानों ने उसे अलग-अलग नामों से पुकारा है। नाम ही अलग-अलग हो पाते हैं। पर नाम के कारण हमारे मन में ऐसी भ्रांति बननी शुरू होती है कि चीजें अलग-अलग हैं। तब गलती हो जाती है, तब भ्रांति हो जाती है। वह भ्रांति टूट जाए, तो अद्वैत का स्मरण हमें हो सकता है।
और लाओत्से कहता है कि जिसे ऐसे अद्वैत का स्मरण हो, वही...। लोग जिसे भिन्न-भिन्न नामों से स्मरण करते हैं, और फिर भी जो एक है। इन नामों के समूह को ही हम रहस्य कहते हैं--दि मिस्ट्री!
रहस्य क्या है इस जगत का?
विज्ञान रहस्य को स्वीकार नहीं करता, धर्म रहस्य को स्वीकार करता है। वही फर्क है विज्ञान और धर्म में। विज्ञान मानता है, जगत में कोई भी रहस्य नहीं है। और जितना हम जान लेंगे, उतना ही रहस्य कम हो जाएगा। अर्थात रहस्य अज्ञान का नाम है। विज्ञान के हिसाब से रहस्य का अर्थ है अज्ञान। जिसे हम नहीं जानते, वह रहस्य मालूम पड़ता है। जान लेंगे, रहस्य समाप्त हो जाएगा। और जानने के लिए विज्ञान क्या करता है? अगर ठीक से समझें, तो लाओत्से जो कह रहा है, ठीक उससे विपरीत करता है। विज्ञान करता क्या है? विज्ञान चीजों को नाम देते चला जाता है। और जिस चीज को विज्ञान नाम देने में समर्थ हो जाता है, समझता है कि हमने जान लिया। नाम की परिभाषा तय कर देता है और जानता है कि हमने जान लिया।
विज्ञान इसीलिए रोज स्पेशलाइज्ड होता चला जाता है। एक युग था कि विज्ञान एक था। फिर उसके विभाजन होने शुरू हो गए। फिर विज्ञान की जो शाखाएं थीं, उनकी भी प्रशाखाएं होनी शुरू हो गईं। और अब प्रशाखाओं की भी प्रशाखाएं होनी शुरू हो गईं।
एक वक्त था कि सारी दुनिया में सारा ज्ञान फिलासफी के अंतर्गत आ जाता था। इसलिए आज भी हम अपनी पुरानी यूनिवर्सिटीज में पी एच.डी. की डिग्री दिए चले जाते हैं--उसको भी, जिसका फिलासफी से कोई संबंध नहीं है। अब एक आदमी केमिस्ट्री में रिसर्च करता है, उसे हम पी एच.डी. की डिग्री देते हैं। वह एक हजार साल पुरानी आदत है। उसको डाक्टर ऑफ फिलासफी कहते हैं। फिलासफी से उसका कोई लेना-देना नहीं है अब। लेकिन एक हजार साल पहले केमिस्ट्री फिलासफी का एक हिस्सा थी।
अरस्तू ने एक किताब लिखी है आज से दो हजार साल पहले। तो उसकी किताब के एक-एक अध्याय का जो नाम था, आज एक-एक विज्ञान का नाम है। और बहुत मजेदार मजाक की घटना घटी है। उसने फिजिक्स का जो चैप्टर लिखा था, उसके बाद का जो चैप्टर था, वह धर्म का था। और इसलिए पश्चिम में यूनान धर्म को मेटाफिजिक्स कहने लगा। मेटाफिजिक्स का इतना ही मतलब होता है, फिजिक्स के बाद वाला चैप्टर। फिजिक्स के आगे जो अध्याय आता है, उसका नाम मेटाफिजिक्स था। आज भी आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी पर जो पुरानी तख्ती लगी है फिजिक्स के डिपार्टमेंट पर, वह लगी है: डिपार्टमेंट ऑफ नेचुरल फिलासफी। हजार साल पहले फिजिक्स नेचुरल फिलासफी थी। फिर विभाजन हुआ। और विज्ञान तो विभाजित होगा। क्योंकि जितना ज्यादा हमें जानना हो, जितना व्यवस्थित जानना हो, उतना संकीर्ण करना पड़ेगा खोज को, उतना नैरो डाउन करना पड़ेगा। जितना ज्यादा जानना हो किसी चीज के संबंध में, उतनी कम चीज जानने के लिए चुननी पड़ेगी। इसलिए विज्ञान की परिभाषा है, ज्यादा से ज्यादा जानने की कोशिश कम से कम के संबंध में।
तो जब हम कम करेंगे तो चीजें टूटती चली जाएंगी। अब तो फिजिक्स भी अकेली नहीं है। अब तो फिजिक्स को भी हमें हिस्सों में तोड़ देना पड़ा। अब तो केमिस्ट्री भी एक विज्ञान नहीं है। अब तो आर्गेनिक केमिस्ट्री अलग होगी, इन-आर्गेनिक अलग होगी। और रोज टूटते जाएंगे हिस्से। विज्ञान धीरे-धीरे पत्तों पर पहुंच जाता है, और रहस्य से दूर होता चला जाता है।
लाओत्से कहता है, नाम और अनाम के, दोनों के बीच में जो एक होना है, उसी का नाम मिस्ट्री है, उसी का नाम रहस्य है।
असल में, जो अद्वैत की तरफ जाएगा, वह रहस्य की तरफ जाएगा। और जो अनेक की तरफ जाएगा, वह रहस्य की तरफ नहीं जाएगा। इसलिए विज्ञान धीरे-धीरे रहस्य को तोड़ता चला जाता है। वह सोचता है, कोई रहस्य नहीं है, सब रहस्य हम जान लेंगे। और फिर भी रहस्य अपनी जगह ही खड़ा रहेगा। विज्ञान का जानने का ढंग ऐसा है कि वह रहस्य से वंचित हो जाएगा। और इसलिए विज्ञान जितना विकसित हुआ, आदमी का रहस्य-भाव उतना कम हुआ। धर्म को जो नुकसान पहुंचे हैं, उनमें गहरे से गहरा नुकसान है रहस्य-भाव के कम होने से। कोई रहस्य नहीं मालूम पड़ता। सब चीजें ज्ञात हैं।
एक फूल आप देखते हैं। कोई कहता है, सुंदर है। आप कहते हैं, बेकार की बात कर रहे हो। इसमें कौन सा सौंदर्य है? फलां-फलां रंग हैं, फलां-फलां तत्वों से मिल कर बना है। जाएं और वैज्ञानिक से विश्लेषण करवा लें, वह सब निकाल कर बता देगा कि क्या-क्या है। और सौंदर्य इसमें कहीं भी नहीं है।
जैसे ही हम चीजों के सारे तथ्यों को जान लेते हैं और नाम दे देते हैं, वैसे ही वह जो सबके भीतर छिपा हुआ अद्वैत था, वह लुप्त हो जाता है, वह खो जाता है। उसके खोने के साथ ही रहस्य विसर्जित हो जाता है।
लाओत्से कहता है, अनेक जिसे हमने नाम दिए हैं, फिर भी जो एक है, उसे ही हम रहस्य कहते हैं। अनेक होकर भी जो एक ही बना रहता है, उसे ही हम रहस्य कहते हैं। भिन्न-भिन्न दिखाई पड़ कर भी जो अभिन्न ही बना रहता है, उसे ही हम रहस्य कहते हैं। द्वैत में बंटा हुआ दिखाई पड़ता है, फिर भी बंटता नहीं, अनबंटा है, अनडिवाइडेड है, उसे ही हम रहस्य कहते हैं। रहस्य का मतलब समझ लें। रहस्य का मतलब होता है, जिसे हम जान भी लेते हैं और फिर भी नहीं जान पाते। धर्म की भाषा में रहस्य का अर्थ होता है, जिसे हम जान भी लेते हैं और फिर भी नहीं जान पाते। जिसे हम पहचान भी लेते हैं और फिर भी जो अनपहचाना रह जाता है।
इसे उदाहरण से समझें तो शायद खयाल में आ जाए। आप किसी व्यक्ति को प्रेम करते हैं और पचास साल उसके साथ रहे हैं। क्या आप उसे जान पाए? परिचित तो भलीभांति हो गए होंगे। पचास साल में अगर परिचित नहीं हो पाए तो फिर कब परिचित हो पाएंगे? परिचित भलीभांति हो गए हैं, सब कुछ जानते हुए मालूम पड़ते हैं। और फिर भी क्या आप साहस से कह सकेंगे कि आप उसे जान पाए? उसका कोना-कोना जान लिया, उसकी एक-एक बात जान ली, उसकी सब आदतों का आपको पता है। फिर भी आप क्या कह सकते हैं कि वह प्रेडिक्टेबल है? कल सुबह क्या करेगा, यह आप बता सकते हैं?
नहीं, वह अनप्रेडिक्टेबल एलीमेंट मौजूद है। और ऐसा नहीं कि पचास साल कम हैं, पांच सौ साल में भी वह मौजूद ही रहेगा। वही रहस्य है, दि अनप्रेडिक्टेबल! वह जिसकी हम कोई घोषणा न कर पाएंगे, जिसकी हम कोई भविष्यवाणी न कर पाएंगे! जिसको हम जान कर भी न कह पाएंगे कि हमने जान लिया।
और किसी किनारे से देखें।
संत अगस्तीन से कोई पूछता है कि समय क्या है? व्हाट इज़ टाइम? तो अगस्तीन कहता है, जब तक मुझसे कोई नहीं पूछता, मैं भलीभांति जानता हूं; और जब कोई पूछता है, तभी गड़बड़ हो जाती है।
आप भी जानते हैं कि समय क्या है; भलीभांति जानते हैं। समय से उठते हैं। अगर न जानते, तो समय से उठते कैसे? न जानते, तो समय से घर कैसे पहुंचते? न जानते, तो कैसे तय करते कि समय हो गया? जानते जरूर हैं समय को। लेकिन अगस्तीन ने ठीक कहा है कि जब तक मुझसे कोई नहीं पूछता, तब तक मैं बिलकुल जानता हूं कि व्हाट इज़ टाइम, और तुमने पूछा कि सब खो जाता है। कोई पूछे ले कि क्या है समय? तो आज तक जगत का बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी उत्तर नहीं दे पाया है। और ऐसे बुद्धिहीन से बुद्धिहीन आदमी समय का उपयोग कर रहा है। ऐसे मूढ़ से मूढ़ आदमी समय में जी रहा है। और बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी इशारा नहीं कर सकता कि यह है समय।
छोड़ें, समय थोड़ी जटिल बात है; जीवन तो इतनी जटिल नहीं। हम सब जी रहे हैं। हम काफी जी लिए हैं। जो जानते हैं, वे कहते हैं, हजारों-हजारों जन्म जी लिए हैं। छोड़ें उन्हें; इतना ही मान लें कि हम एक जन्म जी लिए हैं। पचास साल, चालीस साल, बीस साल, साठ साल जी लिए हैं। जीवन को जाना है। लेकिन अगर कोई पूछे कि जीवन क्या है? तो बस चूक जाता है हाथ। क्या हो जाता है? जीवन क्या है, जब जी लिए हैं, तो बताना चाहिए।
लाओत्से कहता है, इसे हम रहस्य कहते हैं। जान भी लेते हैं, फिर भी अनजाना रह जाता है। सब जान लेते हैं, फिर भी पाते हैं कि सब अनजाना रह गया। अस्तित्व चारों तरफ मौजूद है। भीतर-बाहर वही है। रोएं-रोएं में, श्वास-श्वास में वही व्याप्त है। फिर भी अनजाना है। क्या जाना हमने?
ये लहरें समुद्र की लाखों साल से आकर इस तट पर टकरा कर गिर रही होंगी। तट, अभी तक ये लहरें जान न पाई होंगी कि क्या है? और न यह तट जान पाया होगा कि ये लहरें क्या हैं? लेकिन आप कहेंगे, लहरों की छोड़िए। लेकिन अगर आप भी लाख वर्ष तक इस तट से इसी तरह टकराते रहें, तो भी इतना ही जान पाएंगे जितना लहरें जान पाई हैं। क्या हम जान पाते हैं? एक ऊपरी परिचय, एक एक्वेनटेंस हो जाता है। और उस ऊपरी परिचय को हम कहने लगते हैं ज्ञान। इस ऊपरी परिचय को ज्ञान कहने से बड़ी भ्रांति पैदा होती है; तब हम रहस्य से वंचित रह जाते हैं। लाओत्से कहता है, इस ऊपरी परिचय को ज्ञान मत समझना, जानना कि बस ऊपरी पहचान है। तब तुम्हें प्रतिपल रहस्य चारों तरफ उपस्थित दिखाई पड़ेगा। रहस्य है ही। कितना ही जान लें हम, उसका कोई अंत नहीं होता।
और अब, अब जब कि विज्ञान थोड़ा गहन और गंभीर हुआ है और उसका बचपना टूटा है, क्योंकि विज्ञान को अभी पैदा हुए ज्यादा दिन नहीं हुए। धर्म को, अंदाजन बीस हजार साल के तो चिह्न मौजूद हैं धर्म को पैदा हुए। तो धर्म ने अगर आज से पांच हजार साल पहले भी यह बात कही है कि जीवन रहस्य है, तब भी वह पंद्रह हजार साल पुरानी घटना थी, अनुभव था। विज्ञान को तो पैदा हुए तीन सौ साल हुए हैं। बिलकुल बचपना है। यह बात पक्की है कि जिस दिन विज्ञान भी पंद्रह हजार साल की उम्र का होगा, तब वह इतने ही जोर से घोषणा करके कहेगा कि जीवन रहस्य है।
पंद्रह हजार साल तो दूर है; अभी आइंस्टीन मौजूद था। तो हमने विज्ञान की जो बड़ी से बड़ी प्रतिभा पैदा की है, वह उस आदमी में थी। लेकिन मरते वक्त वह आदमी कह कर गया है कि मैं सोचता था अपनी युवा अवस्था में कि सत्य को जाना जा सकेगा, अब मैं ऐसा नहीं सोचता हूं। अब मैं सोचता हूं कि सत्य अज्ञेय है और अज्ञेय ही रहेगा। हम बहुत कुछ जान लेंगे, यह पक्का है। फिर भी जानने को उतना ही शेष रहेगा, जितना हमारे जानने के पहले शेष था। हमारे जानने से कुछ अंतर न पड़ेगा। वह ऐसा ही होगा, जैसे हम एक चुल्लू भर पानी समुद्र से भर लाए। शायद चुल्लू भर पानी समुद्र से भरने में समुद्र थोड़ा कम भी होता होगा, लेकिन वह जो अज्ञात का चारों तरफ विस्तार है, अज्ञेय का, अननोएबल का, वह हमारे कितने ही जान लेने से चुल्लू भर भी कम नहीं होता।
धर्म इसे रहस्य कहता है, वह सदा शेष ही रह जाता है--अनजाना, अपरिचित। उतना का उतना मौजूद रह जाता है। रहस्य का अर्थ है...।
तीन चीजें समझ लें। अज्ञान; अज्ञान रहस्य नहीं है। विज्ञान समझता है कि अज्ञान की वजह से ही यह रहस्य मालूम होता है। वह विज्ञान की भूल है। अज्ञान रहस्य नहीं है; क्योंकि अज्ञान में हमें कुछ पता ही नहीं है। रहस्य का तो पता होगा ही कैसे! कुछ भी पता नहीं है। ज्ञान भी रहस्य नहीं है; क्योंकि ज्ञान में हमें कुछ पता है। रहस्य ज्ञान से ऊपर की घटना है। अज्ञान के ऊपर ज्ञान घटता है; ज्ञान के ऊपर रहस्य घटता है। जो अज्ञान से जानने में जाएगा, वह ज्ञानी हो जाएगा। और जो ज्ञान से भी और ऊपर जानने में जाएगा, वह रहस्यवादी, मिस्टिक हो जाएगा।
तीन सीढ़ियां समझ लें। एक अज्ञान की सीढ़ी है। अगर आप अज्ञान से बढ़ेंगे, तो दूसरी सीढ़ी ज्ञान की है। न जानने से जानने की दुनिया शुरू होती है। लेकिन अगर आप न जानने में रुक गए, तो अज्ञानी रह जाएंगे; और अगर आप जानने में रुक गए, तो ज्ञानी रह जाएंगे; अगर आप जानने के भी ऊपर उठे, तो रहस्य की दुनिया शुरू होती है। और तब उस अवस्था में ज्ञान होते हुए भी अज्ञान का पूर्ण बोध होता है। ज्ञान और अज्ञान रहस्य में एक ही हो जाते हैं। जैसा लाओत्से कह रहा है कि वे दोनों पहलुओं के भीतर एक ही है। रहस्य का अनुभव उसे होता है, जिसे अज्ञान में भी और ज्ञान में भी एक के ही दर्शन होने लगते हैं। और जिसे लगता है कि अज्ञानी और ज्ञानी में बहुत फासला नहीं है। अज्ञानी को भ्रम है कि मुझे पता नहीं। ज्ञानी को भ्रम है कि मुझे पता है। रहस्यवादी को पता है कि पता होने की कोई संभावना नहीं है।
नहीं, रहस्यवादी यह नहीं कहता है कि जानो मत। वह कहता है, जानो, खूब जानो; लेकिन इतना गहरा जानो कि तुम जानने के भी पार निकल जाओ। वह जानना तुम्हारा बंधन और तुम्हारी सीमा न बन जाए। अज्ञान से तो ऊपर उठ गए हो, ज्ञान के भी ऊपर उठ जाओ।
ईशावास्य के ऋषि ने कहा है, अज्ञानी तो भटक ही जाते हैं अंधकार में, लेकिन उन ज्ञानियों का क्या कहें जो महा अंधकार में भटक जाते हैं!
कौन से ज्ञानी होंगे जो महा अंधकार में भटक जाते हैं? हमने तो यही सुना है कि ज्ञानी नहीं भटकते, अज्ञानी भटकते हैं। यह ईशावास्य का ऋषि क्या कह रहा है? जरूर इसे वही बात पता है जो लाओत्से को पता है। यह कह रहा है कि अज्ञानी तो भटकते हैं इस कारण कि उन्हें पता नहीं है। और ज्ञानी इसलिए भटक जाते हैं कि वे सोचते हैं कि उन्हें पता है। और ध्यान रहे, ऋषि कहता है, अज्ञानी तो अंधकार में भटकते हैं, ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं। उसकी विनम्रता भी खो जाती है, और अहंकार सघन हो जाता है।
रहस्य, ज्ञान और अज्ञान, दोनों का अतिक्रमण है। रहस्य इस बात की खबर है कि नहीं, जानो बहुत, जान नहीं पाओगे। जानने की कोशिश करो बहुत, कोशिश असफल होगी। दौड़ो, खोजो, आविष्कार करो, लेकिन आखिर में एक ही बात आविष्कार कर पाओगे कि जीवन अतल रहस्य है, उसका तल नहीं खोजा जा सकता है।
लाओत्से कहता है, इसे हम रहस्य कहते हैं। दोनों के भीतर यथार्थ में एक है, इसे हम रहस्य कहते हैं। जन्म और मृत्यु में एक है, अंधेरे और प्रकाश में एक है, इसे हम रहस्य कहते हैं।
और इसके बाद की पंक्ति उसकी बहुत अदभुत है।
"इन नामों के समूह को ही हम रहस्य कहते हैं। और जहां रहस्य की सघनता सर्वोपरि है, वहीं उस सूक्ष्म और चमत्कारी का प्रवेश-द्वार है।'
जहां रहस्य की सघनता सर्वोपरि है! रहस्य की सघनता! क्या अर्थ होगा रहस्य की सघनता का? पीछे लौट कर चलना पड़े।
अज्ञानी को पता होता है कि मुझे पता नहीं है। अहंकार सूक्ष्म होता है, निर्बल होता है। होता है, क्योंकि इतना तो उसे भी खयाल है कि मुझे पता नहीं है। ज्ञानी को पता होता है कि मुझे पता है। मैं और मजबूत हो गया होता है, सघन हो गया होता है।
अज्ञानी के मन में थोड़ा-बहुत रहस्य का भाव भी होता है अज्ञान के कारण। उसे बहुत वंडर्स दिखाई पड़ते हैं, चारों तरफ विचित्रताएं दिखाई पड़ती हैं, क्योंकि वह कुछ नहीं समझ पाता। आकाश में बिजली चमकती है, तो वह सोचता है, शायद इंद्र नाराज हैं। वर्षा होती है, तो सोचता है, शायद देवता प्रसन्न हैं। फसल आती है, तो सोचता है, पुण्य का फल है। फसल नहीं आती, भूकंप आ जाता है, तो सोचता है, पापों का परिणाम है। वह अपने कुछ हिसाब लगाए चला जाता है। पर रहस्य होता है, अज्ञान-निर्भर होता है। मैं होता है कम सघन, रहस्य की प्रतीति थोड़ी होती है। लेकिन रहस्य को भी अज्ञान शीघ्रता से कुछ न कुछ व्याख्याओं में परिवर्तित कर लेता है। बिजली इंद्र बन जाती है, वर्षा पाप-पुण्य का फल बन जाती है। सुख-दुख न्याय, कर्म के सिद्धांत बन जाते हैं। कुछ न कुछ व्याख्या निर्मित कर लेता है अज्ञानी भी। जिस मात्रा में व्याख्या कर लेता है, उसी मात्रा में अहंकार मजबूत हो जाता है।
ज्ञानी जानता है तथ्यों को। जितना जानता है, उतना मजबूती से मैं मजबूत होता है। और जितनी मजबूती से मैं मजबूत होता है, उतना ही रहस्य का भाव विरल हो जाता है। सघन नहीं, विरल हो जाता है। रहस्य के भाव की सघनता विलीन हो जाती है।
तीसरे चरण में, जहां ज्ञानी न ज्ञानी रह जाता न अज्ञानी, जानता है और फिर भी जानता है कि नहीं जानता हूं, वहां मैं बिलकुल खो जाता है। और जहां खोता है मैं, वहां रहस्य सघन होता है। ये दो चीजें हैं: मैं और रहस्य। अगर मैं बहुत सघन होगा, तो रहस्य विरल होगा। अगर मैं विरल होगा, तो रहस्य सघन होगा। अगर मैं पूरी तरह से मजबूत हो जाए, तो रहस्य बिलकुल समाप्त हो जाएगा। और अगर मैं बिलकुल शून्य हो जाए, तो रहस्य परिपूर्ण रूप से सघन और तीव्र हो जाएगा। मैं के केंद्र की ही मात्रा पर तय करेगा कि रहस्य कितना सघन है। इसलिए समस्त रहस्यवादी कहते हैं, मैं को विसर्जित करो; मैं को खो दो; तब तुम्हें जीवन का रहस्य पता चलेगा।
यह मैं क्यों बाधा देता है? यह मैं अंधा कर देता है, रहस्य को नहीं देखने देता। रहस्य का मतलब ही यह है कि मेरा कोई वश न चलेगा, मैं जान न पाऊंगा। मेरी कोई सामर्थ्य नहीं है, मैं असहाय हूं। तभी रहस्य का बोध होगा।
इसलिए छोटे बच्चे जितने रहस्य से घिरे रहते हैं, बूढ़े नहीं घिरे रहते। छोटे बच्चे रहस्य के जगत में जीते हैं। क्यों? अभी मैं उतना सघन नहीं है। अभी तितली उड़ती है, तो ऐसा लगता है कि परम स्वप्न पूरा हुआ। अभी फूल खिलता है, तो ऐसा लगता है कि अनंत के द्वार खुले। अभी सूरज निकलता है, तो ऐसा लगता है कि बस परम प्रकाश का दर्शन हुआ। अभी सागर की लहर टकराती है, तो हृदय में आनंद की पुलक नाच जाती है। अभी राह के किनारे पड़े हुए कंकड़-पत्थर रंगीन भी बच्चा उठा लाता है, तो उनमें हीरे और मोती उसे दिखाई पड़ते हैं। अभी मैं बहुत सघन नहीं है। अभी चारों तरफ रहस्य का दर्शन होता है।
तो बच्चे का तो पूरा समय एक काव्य में बीतता है, एक कविता में। इसलिए छोटे बच्चे सपने में और जागने में फर्क नहीं कर पाते। छोटा बच्चा सुबह उठ कर रात सपने में खो गई गुड़िया के लिए सुबह रो सकता है, चिल्ला सकता है कि गुड़िया टूट गई, गई कहां! और हम उसे कितना ही समझाएं कि वह सपना था, हम न समझा पाते हैं। उसका कारण है कि अभी सपने में और जागने में कोई बहुत स्पष्ट भेद-रेखा नहीं है। अभी वह दिन में भी सपने देखता है। अभी रात और दिन में बहुत फासला नहीं है, पलक खुलने और बंद होने का ही फासला है। भीतर अभी बहुत तरल है। अभी रहस्य का भाव बहुत मजबूत है।
फिर जैसे-जैसे मैं मजबूत होगा, वैसे-वैसे रहस्य विलीन होता जाएगा। जितना बच्चा शिक्षित होगा, सर्टिफिकेट लाएगा, जितना बड़ा होगा, जितना अपने पैरों पर खड़ा होगा, जितनी-जितनी योग्यता अर्जित करेगा, उतना मैं धीरे-धीरे साफ होगा, निखरेगा, उतना रहस्य गिरता चला जाएगा।
लेकिन बच्चे का जो रहस्य है, वह अज्ञान से संबंधित रहस्य है। संत का जो रहस्य है, वह ज्ञान के बाद का रहस्य है। ज्ञान के पहले भी एक रहस्य है, वह अज्ञान का है। ज्ञान के बाद भी एक रहस्य है, वह अज्ञान का नहीं है।
यही फर्क है कवि में और ऋषि में। कवि भी रहस्य में जीता है, लेकिन अज्ञान से भरे। और ऋषि भी काव्य में जीता है, लेकिन ज्ञान के पार जो काव्य है। ऋषि का अर्थ कवि ही होता है। लेकिन ऐसा कवि, जिसके पास आंखें हैं, जिसने देखा। ऋषि भी काव्य में ही जीता है। उसके लिए भी जगत प्रोज नहीं, पोएट्री है। उसके लिए जगत गद्य नहीं है, रूखा-सूखा नहीं है। उसके लिए जगत पद्यमय है, गीत में बंधा है, छंद से आविष्ट है, नृत्य से, गीत से आच्छादित है। लेकिन ऋषि, ज्ञान के बाद जो रहस्य आता है, उसका कवि है। और कवि, ज्ञान के पहले जो रहस्य होता है अज्ञान का, उसका ऋषि है। इतना ही उन दोनों में फर्क है।
इसलिए हम उपनिषद के ऋषियों को मात्र कवि नहीं कह सकते। यद्यपि उन जैसा काव्य कम ही पैदा हुआ है। और हम अपने श्रेष्ठतम कवि को भी ऋषि नहीं कह सकते, क्योंकि उसका काव्य केवल अज्ञान का काव्य है। हमारा कवि असल में ऐसा बच्चा है, जो बच्चा ही रह गया। जिसका शरीर तो बढ़ता चला गया, लेकिन जिसके भीतर के सपने और बाहर की दुनिया में भेद-रेखा निर्मित न हुई। बाल-सुलभ है! इसलिए कवि अगर बच्चों जैसे काम करते दिखाई पड़ जाएं, तो बहुत हैरानी की बात नहीं। इसलिए कवियों का व्यवहार अप्रौढ़, इम्मैच्योर मालूम पड़ता है। और कई बार हम समझ नहीं पाते। और इसलिए कवियों का बहुत सा व्यवहार अनैतिक मालूम पड़ता है।
अब पिकासो एक स्त्री को प्रेम करता है। करता है, करता है, बिलकुल पागल है। ऐसा प्रेम कम ही लोग करते हैं, जैसा पिकासो कर सकता है। लेकिन बस एक दिन प्रेम उजड़ गया। और वह दूसरी स्त्री को वैसा ही प्रेम करने लगा, जैसा इसको करता था। चारों तरफ की दुनिया को यह अनैतिक लगेगा। लेकिन कुल मामला इतना है कि पिकासो बिलकुल बाल-सुलभ है।
जैसे एक बच्चा एक गुड़िया को प्रेम कर रहा था; कर रहा था, तो छाती से लगाए फिर रहा था। फिर एक दिन ऊब गया, तो उसने उसे टिका कर एक कोने में रख दिया। अब वह लौट कर भी नहीं देखता। बच्चे को हम अनैतिक न कहेंगे, क्योंकि हम मान कर चलते हैं, वह बच्चा है। पिकासो को हम अनैतिक कहेंगे कि कैसा प्रेम है? यह धोखा है। यद्यपि पिकासो धोखा नहीं दिया। जब उसने प्रेम किया है, तो उतना ही किया है, जैसे बच्चा गुड़िया को छाती से लगा कर चलता था, रात छोड़ता नहीं था। इतना ही प्रेम किया है, सघन प्रेम किया है। लेकिन जब चला गया तो चला गया। वह बच्चे जैसा हट गया। अब वह किसी दूसरे को कर रहा है। अनैतिक लगेगा।
केवल सच पूछा जाए, तो कवि, चित्रकार, संगीतज्ञ उनके भीतर जो अनैतिकता हमें दिखाई पड़ती है, उसका मूल कारण कुल इतना ही होता है कि उनका शरीर तो प्रौढ़ हो गया होता है, लेकिन उनका बचपन गया नहीं होता है। भीतर गहरे में वे बच्चे जैसे रह जाते हैं। इसीलिए वे काव्य लिख पाते हैं। लेकिन इसीलिए वे जीवन में उपद्रव हो जाते हैं। इसीलिए वे सुंदर चित्र बना पाते हैं, लेकिन जीवन उनका कुरूप हो जाता है। इसीलिए वे गीत अच्छा गा पाते हैं, लेकिन जीवन के संबंध में उन जैसा अनगढ़ कोई भी नहीं होता।
ऋषि बहुत और बात है। वह फिर से पाया गया बचपन है, चाइल्डहुड रिगेन्ड। बचपन नहीं है वह। वह समस्त प्रौढ़ता और समस्त ज्ञान के बाद पाई गई फिर से सरलता है, फिर से इनोसेंस है, फिर से वही निर्दोष भाव है।
इसलिए संत में भी बच्चों जैसे भाव दिखाई पड़ सकते हैं, लेकिन संत में कवि जैसी अनैतिकता नहीं दिखाई पड़ सकती। संत में बच्चे जैसी सरलता और निर्दोषता दिखाई पड़ेगी, लेकिन कवि जैसी उच्छृंखलता नहीं दिखाई पड़ सकती। उसकी निर्दोषता में भी, उसकी परम स्वतंत्रता में भी एक व्यवस्था और एक नियम और एक अनुशासन होगा। उसकी स्वच्छंदता में भी एक आत्मानुशासन होगा। उसके सारे बच्चे जैसे व्यवहार के भीतर भी परम अनुभव की धारा होगी। और फिर भी वह ज्ञान और अनुभव के बाहर गया, फिर भी वह ज्ञान से भी ऊपर उठा है।
लाओत्से कहता है, रहस्य कहते हैं हम इसे। और इस रहस्य से, इस रहस्य की अगर सघनता बढ़ जाए, तो वह जीवन का जो सूक्ष्म राज है, वह जो चमत्कारपूर्ण जीवन का द्वार है, वह खुलता है।
सघन होगा तब, जब अहंकार होगा विरल। यह प्रपोर्सनेट होगा सदा। इसे हम ऐसा मान सकते हैं, सौ प्रतिशत अहंकार, तो शून्य प्रतिशत रहस्य का भाव। नब्बे प्रतिशत अहंकार, तो दस प्रतिशत रहस्य का भाव। दस प्रतिशत अहंकार, तो नब्बे प्रतिशत रहस्य का भाव। शून्य प्रतिशत अहंकार, तो सौ प्रतिशत रहस्य का भाव। यह बिलकुल यह शक्ति एक ही है। जो अहंकार में पड़ती है, वह वही शक्ति है, जो रहस्य में पड़ेगी। इसलिए अहंकार जितना मुक्त होगा, उस शक्ति को छोड़ेगा, उतना वह शक्ति रहस्य में प्रवेश कर जाएगी।
जीवन-ऊर्जा की दो वैकल्पिक दिशाएं हैं: अस्मिता और रहस्य। मैं और तू। वह तू जो है परमात्मा, वह रहस्य है। इधर मैं मजबूत होता है, तो तू क्षीण होता चला जाता है।
हमारी सदी ने अकारण ही ईश्वर को इनकार नहीं किया है। हमारी सदी पृथ्वी पर सबसे ज्यादा अहंकारी सदी है। और मजा यह है कि अहंकार ज्ञान का है। होगा ही; ज्ञान का ही अहंकार होता है। हमारी सदी सबसे ज्यादा ज्ञानपूर्ण सदी है। यह उलटी बात लगेगी, लेकिन अगर आपने मेरी पिछली पूरी बात ठीक से खयाल में ली है, तो समझ में आ जाएगी।
हमारी सदी मनुष्य-जाति के ज्ञात इतिहास में सर्वाधिक ज्ञानपूर्ण है। और परिणामतः सर्वाधिक अहंकारी है। और अंततः सर्वाधिक रहस्य से वंचित है। जितना हम ज्ञानपूर्ण होते चले जाएंगे, जितनी हमारी लाइब्रेरीज बड़ी होती चली जाएंगी, हमारी यूनिवर्सिटीज ज्ञान की थाती बनती चली जाएंगी, हमारे बच्चे ज्ञान के जानकार होते चले जाएंगे, उतना रहस्य तिरोहित होता चला जाएगा। और ऐसी घड़ी आ सकती है--और वही आदमी की आखिरी सुसाइडल घड़ी होती है--जब कोई सभ्यता इतनी ज्ञानी हो जाती है कि उसको रहस्य का कोई बोध न रह जाए, तो सिवाय मरने के फिर कोई उपाय नहीं रह जाता। क्योंकि जीया जाता है रहस्य से, अहंकार से नहीं। हम भी, जो अहंकारी हैं, वे भी रहस्य से ही जीते हैं। पूर्ण अहंकार के साथ जीना असंभव है; सिर्फ मृत्यु ही संभव है, आत्मघात ही संभव है। अगर सब हमने जान लिया, ऐसा खयाल आ जाए, तो मरने के सिवाय और कुछ जानने को शेष नहीं रह जाएगा।
इसलिए जितना हम पीछे लौटते हैं, उतना हम आदमी को जीवन के प्रति ज्यादा रसमय पाते हैं। आत्महत्या उतनी कम होती है, जितना हम पीछे लौटते हैं। यह बड़े मजे की बात है, अज्ञानी सभ्यताएं आत्महत्याएं नहीं करती हैं। क्योंकि आत्महत्या होने के लिए जितना सघन अहंकार चाहिए, वह उनके पास नहीं होता। मरने के लिए बहुत प्रगाढ़ मैं चाहिए; इतना मजबूत मैं चाहिए कि जीवन के समस्त रहस्य को इनकार करके हत्या में उतर जाए। स्वयं को समाप्त करने के लिए बड़ी मजबूत अस्मिता चाहिए। स्वयं की गरदन काटने के लिए बहुत सघन अहंकार चाहिए। इसलिए जितनी पुरानी सभ्यता, अज्ञानी, आदि, आदिम, उतनी आत्महत्या नहीं। आदिवासी आत्महत्या को जानते ही नहीं। अपरिचित हैं, और सोच ही नहीं पाते। ऐसी बहुत सी भाषाएं हैं आज भी पृथ्वी पर, जिनमें आत्महत्या के लिए कोई शब्द नहीं है। क्योंकि उन्होंने कभी सोचा ही नहीं कि कोई अपने को किसलिए मारेगा!
पर हमारे लिए स्थिति बिलकुल बदल गई है।
अलबर्ट कामू ने अपनी एक किताब का प्रारंभ किया है और कहा है, दि ओनली फिलासॉफिकल प्राब्लम इज़ सुसाइड--एकमात्र दार्शनिक समस्या है और वह है आत्मघात।
कोई आदमी एक दर्शन-ग्रंथ की शुरुआत ऐसी करेगा! और अलबर्ट कामू समझदार लोगों में एक था आज के युग के। नहीं, ईश्वर की चर्चा नहीं की है कामू ने अपनी किताब में, कि दर्शन की समस्या ईश्वर है। चर्चा की है कि दर्शन की एकमात्र समस्या आत्मघात है, कि आदमी जीए तो क्यों जीए?
ठीक है उसका पूछना। अगर रहस्य न हो, तो जीने का कारण क्या है? खाना खाने के लिए जीए? मकान में रहने के लिए जीए? बच्चे पैदा करने के लिए जीए? फिर बच्चे किसलिए जीएं? वे और बच्चे पैदा करने के लिए जीएं? इस सबका क्या प्रयोजन है? मकान बनाए, रास्ते बनाए, हवाई जहाज बनाए--पर जीए क्यों?
अगर आप कहें, प्रेम के लिए! तो आप रहस्य की दुनिया में उतरे। कामू कहेगा, प्रेम कहां है? सब जगह खोजा, सिवाय कामवासना के कुछ नहीं पाया। प्रेम तो रहस्य है, कामवासना तथ्य है। पकड़ने जाएंगे, तो कामवासना पकड़ में आएगी, प्रेम पकड़ में नहीं आएगा। कोई कहे, आनंद के लिए! आनंद तो रहस्य है; तथ्य तो तथाकथित सुख-दुख है। और सब सुख के पीछे दुख छिपा है। तो कामू कहेगा, किसलिए जीना है? और ठीक है, एक सुख एक बार देख लिया।
नसरुद्दीन एक होटल में बैठा हुआ है। और कोई आदमी उससे आकर पूछता है...कोई आदमी बैठ कर बातचीत करने लगा है, गांव के समाचार पूछता है। अजनबी है, परदेशी है। नसरुद्दीन उससे कहता है कि आप ताश तो नहीं खेलते हैं? अन्यथा हम ताश खेलें। वह आदमी कहता है, एक बार खेल कर देखा, फिर बेकार पाया। नसरुद्दीन कहता है, आप शतरंज में तो शौक नहीं रखते हैं? अन्यथा मैं शतरंज बुला लूं। वह आदमी कहता है, एक दफा शतरंज भी खेली थी। नहीं, कुछ सार न पाया। नसरुद्दीन कहता है, फिर आपके लिए मैं क्या इंतजाम करूं? संगीत सुनना पसंद करेंगे? तो मैं कुछ वाद्य बजाऊं। वह आदमी कहता है, एक दफा सुना था, सार नहीं पाया। तो नसरुद्दीन कहता है, मछली मारने के शौकीन हैं? तो चलें हम, मौसम अच्छा है, बाहर मछलियां मारें। तो वह आदमी कहता है, मैं तो न जा सकूंगा, मेरा लड़का है उसे ले जाएं।
नसरुद्दीन उससे कहता है, माफ करें, मैं सोचता हूं, आपका एकमात्र लड़का! नसरुद्दीन उससे कहता है, मैं सोचता हूं, आपका एकमात्र लड़का होगा यह। क्योंकि एक दफा देखा होगा आपने प्रेम, काम, फिर दुबारा तो...आई प्रिज्यूम योर ओनली सन, नसरुद्दीन कहता है। क्योंकि एक दफा ताश खेल कर देखा, बेकार पाया। एक दफा शतरंज खेल कर देखी, बेकार पाई। एक दफा मछली मार कर देखी, बेकार पाई। तो आई प्रिज्यूम योर ओनली सन!
जीवन में कोई तथ्य ऐसा नहीं है, जो दुबारा देखने योग्य है। और अगर दुबारा देखने योग्य है, तो वह तथ्य नहीं होगा, उसमें कुछ रहस्य होगा, जो अनजाना रह गया, जिसको फिर जानना पड़ेगा, फिर जानना पड़ेगा। फिर भी अनजाना रह जाएगा, तो फिर जानना पड़ेगा। जिस चीज को हम पूरा जान लें, उसे दुबारा जानने का कोई भी सवाल नहीं है। क्या सवाल है? नहीं जान पाते हैं पूरा, इसलिए दुबारा जानते हैं, तिबारा जानते हैं, हजार बार जानते हैं, और फिर भी एक हजार एक बार जानने की कामना जगती है। क्योंकि वह अनजाना, अपरिचित रहस्य पीछे शेष रह गया।
तो कामू ठीक कहता है, अगर कोई रहस्य नहीं है, तो आत्महत्या एकमात्र दार्शनिक समस्या है। हमारा युग सर्वाधिक ज्ञानपूर्ण, सर्वाधिक आत्महत्याएं करने वाला, सर्वाधिक अहंकार से भरा। इसलिए हम कहते हैं, कोई ईश्वर नहीं है, कोई धर्म नहीं है, कोई रहस्य नहीं है।
और लाओत्से कहता है, जो विरल करेगा अस्मिता को, सघन करेगा रहस्य को, उसके लिए जीवन के सूक्ष्म और चमत्कारी...।
ये सूक्ष्म और चमत्कारी, दो शब्द खयाल में ले लेने चाहिए। एक, सूक्ष्म से हम जो मतलब लेते हैं साधारणतः, वह लाओत्से जैसे लोग नहीं लेते। सूक्ष्म से हमारा मतलब होता है कम स्थूल। हम कहते हैं, दीवार स्थूल है, वायु सूक्ष्म है। लेकिन वायु भी स्थूल है, सूक्ष्म नहीं; कम स्थूल है। जो भेद है वायु में और दीवार में, वह बहुत ज्यादा नहीं है। वह कोई गुणात्मक भेद नहीं है, वह मात्रा का ही भेद है। क्वांटिटी का भेद है, क्वालिटी का भेद नहीं है।
और वायु की भी दीवार बनाई जा सकती है। और वायु से भी आपको इतने जोर से गिराया जा सकता है, जितना आपकी दीवार से आप टकरा कर कभी न गिरें। और दीवार से आप बच भी जाएं, अगर वायु की सघन दीवार खड़ी की जाए, तो आप उससे बच न पाएं। दीवार में ही वजन नहीं है, वायु में भी वजन है, बहुत ज्यादा वजन है। वह तो आपको पता नहीं चलता, क्योंकि आपके चारों तरफ शरीर पर वायु का एक सा वजन पड़ता है। इसलिए वायु अपने वजन को काट देती है। नहीं तो हजारों पौंड का वजन आपके ऊपर है। आप मर जाएं दब कर इसी वक्त, अगर एक तरफ से वायु अलग हो जाए। जब जोर की हवा चलती है, तो आप शायद आगे को गिर पड़ने को होते हैं। तो आप सोचते होंगे, पीछे की हवा धक्का दे रही है इसलिए, तो आप गलत सोचते हैं। पीछे की हवा आपको धक्का देकर नहीं गिरा रही है। पीछे की हवा के धक्के के कारण आपके आगे की हवा धक रही है, वहां खाली जगह पैदा हो रही है, वह खाली जगह में आप गिरेंगे
वायु का तो अपना बहुत स्थूल रूप है। हम किन चीजों को सूक्ष्म कहते हैं? हमारा सब सूक्ष्म स्थूल का ही एक रूप होता है। लाओत्से जैसे लोग जब सूक्ष्म का उपयोग करते हैं, दि सटल, तो उनका मतलब होता है वह, जो इंद्रियों की किसी भी भांति पकड़ में नहीं आता। सूक्ष्म का अर्थ समझ लेना आप। वायु हमारी आंख को नहीं दिखाई पड़ती, लेकिन हाथ को तो दिखाई पड़ती है। इंद्रियों की पकड़ में आती है, सूक्ष्म नहीं है। सूक्ष्म का अर्थ है, जो इंद्रियों की पकड़ के बाहर है।
आपने कोई ऐसी चीज जानी है जो इंद्रियों की पकड़ के बाहर है? जो भी जाना है, सब इंद्रियों की पकड़ से जाना है। देखा तो आंख से, सुना तो कान से, सूंघा तो नाक से, छुआ तो हाथ से। आपके अनुभव में सूक्ष्म का कोई भी अनुभव नहीं है। इसे हम ऐसी व्याख्या कर लें: जो इंद्रियों से जाना जाता है, वह स्थूल; और जो इंद्रियों से नहीं जाना जाता और फिर भी जाना जाता है, वह सूक्ष्म। तब आपको खयाल में आएगा। नहीं तो हम जो फर्क करते हैं, वह इंद्रियों में फर्क कर लेते हैं।
एक आवाज जोर से आ रही है, तो हम कहते हैं स्थूल। और बहुत बारीक और धीमी आ रही है, तो हम कहते हैं सूक्ष्म। इनमें कोई फर्क नहीं है। ये एक ही आवाज की तारतम्यताएं हैं। और दोनों को कान पकड़ लेता है। और कान अगर न भी पकड़ सके, रेडियो पकड़ ले, तो भी सूक्ष्म नहीं है, वह स्थूल है। उसका मतलब यह हुआ कि थोड़ा बड़ा कान पकड़ लेता है। छोटा कान नहीं पकड़ता, थोड़ा बड़ा कान पकड़ लेता है।
अभी यहां से चित्र गुजर रहे हैं। टेलीविजन पकड़ लेता है; हम, हमारी आंख नहीं पकड़ पाती। लेकिन वह भी सूक्ष्म नहीं है। क्योंकि टेलीविजन तो बहुत स्थूल चीज है। हमसे जरा आंख उसकी तेज है। रेडियो का कान हमसे ज्यादा तेज है। मात्रा का फर्क है।
इसलिए जो चीज भी इंद्रियों की पकड़ में आती है--या एक नई बात और उसमें जोड़ दूं, जो पुराने ऋषियों ने नहीं जोड़ी है, क्योंकि उनको पता नहीं था--जो बात इंद्रियों की पकड़ में आती है वह, और या इंद्रियों के द्वारा बनाए गए किसी भी यंत्र की पकड़ में आती है वह, वह सब स्थूल है। क्योंकि इंद्रियों से जो यंत्र बनते हैं, वे सूक्ष्म को नहीं पकड़ पाएंगे। इंद्रियों के बनाए हुए यंत्र इंद्रियों के एक्सटेनशंस हैं, और कुछ नहीं। हमारी दूरबीन क्या है? हमारी आंख का फैलाव है। हमारा राडार क्या है? हमारी आंख का फैलाव है। हमारी बंदूक क्या है? हाथ से पत्थर फेंक कर मार सकते थे, उसका बढ़ाव है। हम अपनी इंद्रियों को बढ़ाने में लगे हैं। हमारा छुरा, हमारी तलवार क्या है? हमारे नाखून हैं बढ़े हुए। जंगली जानवर नाखून से आदमी की छाती फाड़ता है, हम एक लोहे का पंजा बना कर छाती फाड़ देते हैं। हमारी सब इंद्रियों के बढ़ाव जो हैं, एक्सटेनशंस जो हैं, उनकी पकड़ में जो आ जाए, वह भी स्थूल है।
सूक्ष्म वह है, जो इंद्रियों की पकड़ में ही न आए, और फिर भी पकड़ में आए। ध्यान रखें, अगर पकड़ में ही न आए, तब तो आपको उसका पता ही न चले। इसलिए दूसरी बात भी खयाल रख लें। पकड़ में तो आए जरूर, लेकिन किसी इंद्रिय के द्वारा पकड़ में न आए। इमीजिएट हो, कोई मीडिएटर बीच में न हो। कोई मध्यस्थ इंद्रिय का बीच में न हो। मैं आपको देख लूं बिना आंख के, मैं आपको सुन लूं बिना कान के, मैं आपको छू लूं बिना हाथ के, तो सूक्ष्म--तो सूक्ष्म। न हाथ है बीच में, न कोई यंत्र है बीच में; कोई है ही नहीं बीच में। बीच में कोई नहीं है, सीधी मेरी चेतना अनुभव को उपलब्ध हो, तो वह अनुभव सूक्ष्म है।
लाओत्से कहता है, जिस व्यक्ति का रहस्य-बोध सघन हो जाता है, वह सूक्ष्म का द्वार खोल लेता है।
रहस्य-बोध के सघन होने से, अहंकार के गिरते ही, हमें इंद्रियों की जरूरत नहीं रह जाती। यह बहुत मजे की बात है। अहंकार के गिरते ही हमें इंद्रियों की जरूरत नहीं रह जाती। असल में, अहंकार ही है जो इंद्रियों के द्वारा काम करता है। अगर अहंकार गिर जाए, इंद्रियों की कोई जरूरत नहीं रह जाती। और बिना इंद्रियों के, नॉन-सेंसरी अनुभव शुरू हो जाते हैं। और जब बिना इंद्रियों के कोई अनुभव होते हैं, तो उनका नाम सूक्ष्म है।
ऐसे अनुभव कभी-कभी आपको भी झलक जाते हैं। कभी-कभी किसी क्षण में, किसी अवसर पर, किसी स्थिति में आपका अहंकार विरल होता है, तो ऐसे अनुभव आपको झलक जाते हैं--अनायास। पर अहंकार सघन हो जाता है पुनः, अनुभव खो जाता है। और फिर आप कितना ही समझने की कोशिश करें, आप उसको न समझ पाएंगे। अहंकार उसे न समझ पाएगा। आपने ऐसी आवाजें सुनी हैं, जिनको आपने बाद में स्वयं झुठलाया और कहा कि नहीं, मैंने नहीं सुना होगा। क्योंकि मैं कैसे सुन सकता था? वहां कोई मौजूद ही न था! आपने ऐसे क्षणों में कभी कुछ ऐसे रूप देखे हैं, जिनको आपने ही बाद में इनकार किया और कहा कि मैं कैसे देख सकता था? वहां तो कोई भी मौजूद न था! आप ऐसी संभावनाओं के निकट आ गए हैं बहुत बार--अनायास--जिनको बाद में आप खुद भी विश्वास नहीं कर पाते हैं। क्योंकि आपका अहंकार जब सघन होता है, वह कहता है, यह हो कैसे सकता है? बिना इंद्रियों के हो कैसे सकता है?
एक मेरे मित्र; उनके पिता गुजर गए हैं। पर जिस दिन उनके पिता गुजरे, मित्र कवि हैं, सांझ को वे कोई सांझ की छह बजे की बस से दूसरे गांव गए हैं। पिता ठीक थे, भले थे, कोई बात न थी। दूसरे गांव वे जा रहे थे एक कवि सम्मेलन में भाग लेने। तो रास्ते में बस में बैठे हुए वे अपने काव्य के जगत में, अपनी कविता के बनाने में डूबे रहे।
अब जब कोई काव्य में डूबता है, तो अहंकार विरल हो जाता है। क्योंकि वह बच्चा हो जाता है, वह फिर पुरानी दुनिया में रिग्रेस कर जाता है। तितलियों में उड़ता है, फूलों में हंसता है, पक्षियों से बोलता है। वह नीचे उतर जाता है। झरने बात करने लगते हैं, वृक्ष चर्चा उठाने लगते हैं, आकाश के बादलों में संदेश होने लगते हैं। वह अहंकार विरल हो जाता है।
तो वे अपने काव्य में डूबे हुए जाते थे। अचानक नौ बजे रात उन्हें बस में ही बैठे-बैठे एकदम उदासी पकड़ गई। उनकी समझ के बाहर था। एकदम प्रफुल्लित थे, प्रसन्न थे, गीत उतरते थे। क्या हुआ? एकदम चारों तरफ जैसे उदासी आ गई। जैसे कोई काला बादल आकर ऊपर बैठ जाए। कोई कारण न था, अकारण था। इसलिए और बेचैनी हुई। काव्य की धारा टूट गई और मन बड़ी गहन चिंता में और विषाद में डूब गया। वे तीन घंटे, बारह बजे जब दूसरे गांव पहुंचे, तब तक वैसी हालत रही। जाकर सो गए, लेकिन नींद न आए।
रात के दो बजे किसी ने द्वार पर दस्तक दी और आवाज आई, मुन्ना! बहुत हैरान हुए, क्योंकि मुन्ना उनके पिता ही कहते हैं उन्हें। दरवाजा खोला बाहर जाकर। भरोसा तो नहीं आया। पिता के होने का कोई सवाल नहीं। दूसरा कोई जीवित आदमी मुन्ना अब उनसे कहता नहीं है। दरवाजा खोल कर देखा, हवा सांय-सांय करके भीतर भर गई। रात अंधेरी है, कहीं कोई आदमी नहीं है। जिस होटल में ठहरे हैं, सब सो गया है, सब सन्नाटा है। नीचे सड़क खाली है। दूसरी मंजिल पर हैं। कोई आकस्मिक आ नहीं सकता है। फिर द्वार बंद करके सोचा, मन का कोई भ्रम होगा।
फिर सो गए हैं। पर फिर पांच-सात मिनट ही बीते हैं कि फिर वही दस्तक, और फिर आवाज इतनी साफ, और अब दुबारा थी तो वे खुद भी सजग थे। स्वरलहरी इतनी परिचित कि पिता के सिवाय किसी की आवाज नहीं। फिर द्वार खोला है, लेकिन फिर वहां कोई नहीं है। हवा सांय-सांय करके फिर भीतर भर आती है। सो न सके। बेचैनी उठी। तीन बजे रात, जाकर नीचे घर फोन लगाया। पता चला कि पिता चल बसे। ठीक दो बजे रात उनकी सांस टूटी और ठीक दो बजे रात पहली दस्तक और मुन्ना की आवाज! पर वे अपने को झुठलाते रहे। वे अब भी झुठलाते हैं। वे कहते हैं, पता नहीं, कोई भ्रम ही होगा। अब भी--बुद्धिमान आदमी हैं, सोच-विचार करते हैं--अब भी वे कहते हैं, हुआ है, लेकिन अब भी मैं नहीं मानता कि पिता होंगे। कोई भूल हो गई। या तो मेरे मन का ही कोई खेल होगा, कोई संयोग, कोई कोइंसीडेंस, कि दो बजे वे मरे हैं और दो बजे मुझे कुछ खयाल आ गया होगा।
ऐसे हम सब के जीवन में कभी-कभी सूक्ष्म झांकता है। हम खुद झुठलाए चले जाते हैं। लेकिन अगर रहस्य का बोध सघन हो जाए, तो सूक्ष्म झांकता नहीं, हम ही सूक्ष्म में कूद जाते हैं। फिर हम सूक्ष्म में जीते हैं। फिर यह चौबीस घंटे चारों तरफ होने लगता है, यह चारों तरफ होने लगता है।
लाओत्से कहता है, सूक्ष्म का द्वार खुल जाता है और चमत्कारी का। दि मिरैकुलस का! वह जो वंडरफुल है उसका! वह जो विस्मयजनक है उसका!
चमत्कार क्या है, इसे भी थोड़ा सा समझ लेना जरूरी है। जगत में हम साधारणतः जिसे चमत्कार कहते हैं, उसमें भी कुछ बात है, इसीलिए चमत्कार कहते हैं। यद्यपि हमें पता नहीं कि क्या बात है।
कब कहते हैं आप चमत्कार? एक आदमी मर गया; और जीसस उसके सिर पर हाथ रख देते हैं और वह आदमी जिंदा हो जाता है। तो हम कहते हैं, चमत्कार हुआ! मरा हुआ आदमी जिंदा हो गया। क्यों कहते हैं चमत्कार? एक आदमी बीमार है और किसी के चरणों में सिर रख देता है और स्वस्थ हो जाता है। हम कहते हैं, चमत्कार हुआ। क्यों हुआ चमत्कार? बुद्ध किसी वृक्ष के पास से गुजरते हैं। और वृक्ष सूखा है और उसमें नए अंकुर आ जाते हैं। तो हम कहते हैं, चमत्कार हुआ। लेकिन क्यों कहते हैं चमत्कार हुआ? कारण क्या है चमत्कार कहने का?
एक ही कारण साधारणतः जो हमारे खयाल में है, वह यह है कि जहां भी कार्य-कारण के बाहर कोई घटना घटती है, वहां चमत्कार है। ऐसे तो हर वृक्ष में नए अंकुर आते हैं, लेकिन वक्त से आते हैं, नियम से आते हैं। कारण होता है तो आते हैं। अब सूखा वृक्ष। वर्षों से जिस पर पत्ते नहीं, कोई कारण नहीं आने का। बुद्ध के निकलने से आते हैं। और बुद्ध का निकलना वृक्ष में अंकुर आने का कारण नहीं है। असंबंधित है, कोई संबंध नहीं है। बुद्ध के निकलने से वृक्ष में पत्ते आने का क्या संबंध है?
एक आदमी मर गया है। अगर दवा से ठीक हो जाए, तो हम कहेंगे कि शायद हृदय की गति थोड़ी कम चलती होगी, ठीक चलने लगी है। एक आदमी बीमार है। दवा से ठीक हो जाए, तो हम कहते हैं, कोई चमत्कार नहीं। क्यों? क्योंकि दवा में कारण है और ठीक हो जाना कार्य है। एक कॉजालिटी है। लेकिन एक आदमी के पैर में सिर रख दो और ठीक हो जाओ, तो फिर कोई कॉजालिटी नहीं है। फिर चमत्कार है।
चमत्कार का मतलब है, कार्य-कारण का नियम जहां टूट जाता है; जहां कोई संबंध खोजे नहीं मिलता कि क्या है कारण और क्या है कार्य। अब जीसस किसी के सिर पर हाथ रखें, मुर्दा आदमी जिंदा हो, इसका कोई भी संबंध नहीं है। जीसस के हाथ से क्या संबंध है? लेकिन आदमी जिंदा हो गया है, तो चमत्कार है। साधारणतः हम चमत्कार जिसे कहते हैं, उसके पीछे का राज जो है वह इतना ही है कि वहां कार्य-कारण हमारी समझ में नहीं आते।
लेकिन वहां भी कार्य-कारण हो सकते हैं, होते हैं। वहां भी कार्य-कारण हो सकते हैं, होते हैं। इसलिए जिन्हें हम चमत्कार कहते हैं, आज नहीं कल विज्ञान सिद्ध कर देगा कि वे चमत्कार नहीं हैं। कार्य-कारण का पता लगाने की बात है, बस! पता चल जाएगा, चमत्कार खो जाएगा।
अगर एक आदमी मेरे पैर में आकर सिर रख दे और उसकी बीमारी ठीक हो जाए, तो चमत्कार नहीं है। नहीं है इसलिए...लेकिन दिखाई पड़ेगा। क्योंकि आपको कार्य-कारण का संबंध आप नहीं जोड़ पाते। लेकिन हो सकता है, वह आदमी सच में किसी बीमारी से पीड़ित ही न हो। सिर्फ उसे खयाल हो बीमारी का, सिर्फ एक मानसिक बीमारी से ग्रस्त हो। और अगर बहुत भरोसे से, और बहुत आस्था से मेरे पैर में सिर रख दे आकर, तो उतनी आस्था से वह भरोसा, जो बीमारी को मजबूत किए था, पिघल जाए, टूट जाए। चमत्कार हो जाएगा, लेकिन चमत्कार नहीं हुआ। देयर इज़ नो मिरेकल, क्योंकि कार्य-कारण पूरा काम कर रहा है। उसकी ही अपनी श्रद्धा से बनाई गई बीमारी थी, अपनी ही श्रद्धा से कट गई। मेरे पैर ने कुछ भी नहीं किया है। मेरा पैर कुछ कर भी नहीं सकता। चमत्कार कुछ भी नहीं है। चमत्कार जरा भी नहीं है।
अगर कोई मुर्दा आदमी भी जीवित हो जाए, तब भी चमत्कार नहीं है। और आज नहीं कल हम उसके मुर्दा होने के, जीवित होने का राज खोज सकते हैं कि वह क्यों जीवित हो गया। अगर बीमारी मानसिक होती है, तो क्या आप समझते हैं मौत मानसिक नहीं हो सकती? बिलकुल होती है। मौत मानसिक भी होती है। सभी लोग शारीरिक बीमारियों से नहीं मरते; समझदार लोग अक्सर मानसिक बीमारियों से मरते हैं।
अगर पक्का भरोसा आ जाए कि मैं मर रहा हूं, मैं मर रहा हूं, मैं मर गया, तो आप मर जाएंगे। आपका शरीर-यंत्र पूरी तरह ठीक है, अभी वह चल सकता था। सिर्फ आपकी चेतना भीतर सिकुड़ गई है। जीसस का हाथ उस सिकुड़ी हुई चेतना को फैला सकता है। कोई चमत्कार नहीं है। जीसस के हाथ में इतनी चुंबकीय ताकत है कि आपके भीतर जो दबी चेतना है, वह उठ कर सतह पर आ जाए।
यह जो मैग्नेटिज्म है, यह जो शरीर का जीवंत चुंबकीय तत्व है, यह इसका अपना विज्ञान है, इसके अपने कार्य-कारण हैं। तब यह भी हो सकता है कि पैर में किसी ने सिर रखा हो और उसे कुछ लाभ हो जाए, बिना उसकी आस्था के भी। तब इस व्यक्ति के पैर का जो जीवंत चुंबकीय तत्व है, वह प्रवेश कर सकता है। जैसे बिजली प्रवेश करती है छू देने से, शॉक लग जाता है और आदमी गिर पड़ता है, वैसे ही शरीर की विद्युत-धारा और शरीर का चुंबकीय तत्व भी प्रवेश करता है और दूसरे को छूता है और परिवर्तित करता है। लेकिन तब कार्य-कारण खोज लिए जाते हैं। नहीं, चमत्कार यहां नहीं है। हम चमत्कार सिर्फ इसलिए कहते हैं कि हमें कार्य-कारण का पता नहीं चलता।
लाओत्से जिस चमत्कार की बात कर रहा है, वह बहुत और है। वह चमत्कार उस जगह है, जहां हमारा अहंकार पूरी तरह समाप्त हो जाता है। और जब हमारा अहंकार पूरी तरह समाप्त होता है, तो एक अनूठी घटना घटती है कि हमें कार्य-कारण में जो भेद दिखाई पड़ता था, वह विदा हो जाता है। कार्य ही कारण हो जाता है; कारण ही कार्य हो जाता है। बीज ही वृक्ष हो जाता है; वृक्ष ही बीज हो जाता है। और उस स्थिति में कोई व्यक्ति बीज और वृक्ष को एक ही साथ देख सकता है, साइमलटेनियसली। लेकिन तब वह चमत्कार है।
इसे थोड़ा समझें। यह थोड़ा गहन है।
हम देखते हैं एक दफा बीज को, लेकिन उसी वक्त हम वृक्ष को नहीं देख सकते। वृक्ष को देखने में हमें बीस साल ठहरना पड़ेगा। बीस साल बाद हम वृक्ष को देखेंगे। लेकिन तब बीज न दिखाई पड़ेगा। हम एक बच्चे को देखते हैं पैदा होते हुए, तब हम बूढ़े को नहीं देख सकते। बूढ़े के लिए हमें सत्तर साल रुकना पड़ेगा। लेकिन जब हम बूढ़े को देखेंगे, तब तक बच्चा खो गया होगा। हम दोनों को साथ न देख सकेंगे।
चमत्कार लाओत्से उसे कहता है कि उस रहस्य के जगत में जब गहन होता रहस्य और अहंकार शून्य हो जाता, तो बच्चे में बूढ़ा दिखाई पड़ता है; बूढ़े में बच्चा दिखाई पड़ता है; जन्म में मौत दिखने लगती है; बीज में पूरा वृक्ष दिखाई पड़ता है। जो फूल अभी नहीं खिले, वे खिले हुए दिखाई पड़ते हैं। जो अभी नहीं हुआ, वह होता हुआ मालूम पड़ता है। जो हो चुका, वह मौजूद मालूम पड़ता है। जो होगा, वह भी मौजूद मालूम पड़ता है। अतीत और भविष्य समाप्त हो जाते हैं। एक ही क्षण रह जाता है। सारा अस्तित्व एक क्षण की इटरनिटी में, सनातन में खड़ा हो जाता है।
तो जो कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से कि ये जिन्हें तू सोचता है कि तू मारेगा, मैं इन्हें मरा हुआ देख रहा हूं अर्जुन! ये मर चुके हैं, अर्जुन! ये सिर्फ तुझे खड़े दिखाई दे रहे हैं, क्योंकि तुझे भविष्य दिखाई नहीं देता। यह चमत्कार है।
चमत्कार का अर्थ है, कार्य-कारण जहां भिन्न न रह जाएं। वे भिन्न हैं भी नहीं, हमारे देखने के ढंग में भूल है। हमारा ढंग ऐसा है, जैसे मैं दीवार में एक छोटा सा छेद कर लूं और उस छेद में से इस कमरे में देखूं। आपकी तरफ से देखना शुरू करूं, तो पहले मुझे अ नाम का व्यक्ति दिखाई पड़े। फिर जब मेरी आंख आगे घूमे, तो अ खो जाए और ब दिखाई पड़े। फिर जब मेरी आंख और आगे बढ़े, तो ब भी खो जाए और स दिखाई पड़े। और समझ लें कि अगर मेरी गर्दन को मोड़ने की सुविधा न हो, तो मैं क्या समझूंगा? मैं यहीं समझूंगा कि अ समाप्त हो गया, ब समाप्त हो गया, अब स दिखाई पड़ रहा है। लेकिन आगे जो ड है, वह अभी मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा है।
लेकिन दीवार अचानक खो जाए और मैं पूरे कमरे को एक साथ देख लूं--अ, , , , सब मुझे एक साथ दिखाई पड़ जाएं--वह चमत्कार है। अगर मुझे इस सृष्टि का जन्म होता हुआ और इस सृष्टि की प्रलय होती हुई एक साथ दिखाई पड़ जाए, तो चमत्कार है।
लाओत्से कहता है कि जो इस रहस्य में सघन उतर जाता है, सूक्ष्म के द्वार खुलते हैं उसे, और अंततः चमत्कार का द्वार खुलता है। तब वह विश्व को पैदा होते और समाप्त होते एक साथ देखता है। तब वह परमात्मा को जगत को बनाते और मिटाते एक साथ देखता है।
पर इसे समझना कठिन होगा। और इसे समझा नहीं जा सकता, इसलिए उसका नाम चमत्कार है। हम जिन्हें चमत्कार कहते हैं, उनका चमत्कार से कोई संबंध नहीं है। उनको समझा जा सकता है, उनको खोजा जा सकता है। लेकिन हम भी इसीलिए कहते हैं कि हमें कार्य-कारण का पता नहीं चलता। असली चमत्कार में भी कार्य-कारण का पता नहीं चलता, क्योंकि कारण और कार्य एक साथ उपस्थित हो जाते हैं।
अभी आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक प्रयोगशाला में बहुत हैरानी की आकस्मिक घटना घट गई। उससे इस चमत्कार को समझने में आसानी मिलेगी। कुछ वैज्ञानिक एक कली का चित्र ले रहे थे। और चित्र कली का नहीं आया, फूल का आ गया। जिस फिल्म का उपयोग किया जा रहा था, वह अधिकतम सेंसिटिव जो फिल्म आज संभव है, वह थी। अभी सामने कैमरे के कली ही थी; अंदर जो चित्र आया, वह फूल का आया।
स्वभावतः, लगा कि कोई भूल हो गई। कली अभी भी कली थी, चित्र फूल का आ गया। लेकिन सुरक्षित रखा गया। समझा गया कि कोई भूल-चूक हो सकती है। पहले से कोई एक्सपोजर हो गया हो। कोई किरण प्रवेश कर गई हो, कोई गड़बड़ हो गई हो। कोई केमिकल भूल-चूक हो गई हो, कुछ न कुछ गड़बड़ हो गई है।
उस चित्र को रखा गया सम्हाल कर। और जब कली फूल बनी, तब उसके दूसरे चित्र लिए गए। और बड़ी हैरानी हुई, क्योंकि वह चित्र वही था। जो बाद में चित्र आए वे चित्र वही थे, जो चित्र पहले आ गया था। उस प्रयोग को दुबारा दुहराया नहीं जा सका है अब तक। लेकिन इस बात की संभावना प्रकट हो गई है और जिस वैज्ञानिक के द्वारा यह घटना घटी है, उसको यह आस्था गहन हो गई है कि हम किसी न किसी दिन इतनी सेंसिटिव फिल्म तैयार कर लेंगे कि जब बच्चा पैदा हो, तो हम उसके बुढ़ापे का चित्र ले लें। क्योंकि जो होने वाला है, वह सूक्ष्म के जगत में अभी हो ही गया है। जो कल होने वाला है, उसकी होने की सारी प्रक्रिया सूक्ष्म के जगत में अभी शुरू हो गई है। यह और गहन जगत में हो गई होगी; हम तक खबर पहुंचने में देर लगेगी। हमारी इंद्रियां जब तक पकड़ेंगी, उसमें देर लगेगी। अगर हम बिना इंद्रियों के पकड़ पाएं, तो शायद अभी पकड़ लें।
शायद टाइम का जो गैप है, कली जब फूल बनती है तो कली और फूल के बीच समय का जो फासला है, वह कली और फूल के बीच नहीं, वह हमारी इंद्रियों और फूल के बीच है। अगर हमारी इंद्रियां बीच से हट जाएं, तो हम कली में फूल को देख सकते हैं। और तब चमत्कार घटित होता है। और उस चमत्कार की जो दुनिया है, उस चमत्कार की दुनिया में प्रवेश ही धर्म के विज्ञान का लक्ष्य है।
लाओत्से जो कह रहा है, उसने इस छोटे से वचन में बहुत कुछ कहा है। इस...लेकिन यह सब कोड है। इसको ऐसा सीधा पढ़ जाएंगे, तो कुछ भी इसमें मिलेगा नहीं। इसे खोल-खोल कर, एक-एक शब्द की पर्त उखाड़-उखाड़ कर देखेंगे, तब कहीं लाओत्से की आत्मा से थोड़ा सा स्पर्श होता है।

आज इतना ही रहने दें, कल बात करें।


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