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बुधवार, 17 सितंबर 2014

ताओ उपनिषाद-प्रवचन--008

स्वामित्व और श्रेय की आकांक्षा से मुक्त कर्म–प्रवचन—आठवां


 अध्याय 2: सूत्र 4

सभी बातें अपने आप घटित होती हैं,
परंतु वे उनसे विमुख नहीं होते;
उन्हें वे जीवन प्रदान करते हैं,
किंतु अधिकृत नहीं करते।
वे इन समस्त प्रक्रियाओं से गुजरते हैं,
परंतु इनके स्वामी नहीं बनते;
कर्तव्य निभाते हैं, पर श्रेय नहीं लेते।
चूंकि वे श्रेय का दावा नहीं करते,
इसलिए उन्हें श्रेय से वंचित नहीं किया जा सकता।

सलिए ज्ञानी निष्क्रिय भाव से अपने कार्यों की व्यवस्था तथा निःशब्द द्वारा अपने सिद्धांतों का संप्रेषण करते हैं। इसके बाद के सूत्र में लाओत्से कहता है, "सभी बातें अपने आप घटित होती हैं।'
ताओ के आधारभूत सिद्धांतों में एक यह है: सभी बातें अपने आप घटित होती हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे घटित करने के लिए हमारी जरूरत होती हो; हमारे बिना ही सब कुछ घटित होता है। नींद आती है, भूख लगती है, जन्म होता है, मृत्यु होती है, वह सब अपने आप घटित होता है।

लेकिन जो अपने आप घटित होता है, उसे भी हम मान कर चलते हैं कि हम घटित करते हैं। लाओत्से की दृष्टि में सबसे बड़ी भ्रांति मनुष्य की यही है कि जो घटित होता है, उसका वह कर्ता बन जाता है। जो घटित होता है, उसका कर्ता बन जाना ही बड़े से बड़ा अज्ञान है।
लाओत्से यह भी नहीं कहता कि तुम चोरी छोड़ दो; लाओत्से यह भी नहीं कहता कि तुम बेईमानी छोड़ दो। लाओत्से कहता है, न तो तुम कुछ कर सकते हो और न तुम कुछ छोड़ सकते हो। क्योंकि छोड़ने की बात तो तभी हो सकती है, जब हम कुछ करते हैं। यदि मैंने कुछ किया है, तो मैं कुछ छोड़ भी सकता हूं। यदि मैं करता ही नहीं हूं, तो छोड़ने का कोई उपाय भी नहीं है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लेना जरूरी है। क्योंकि त्यागवादी सारी धारणाएं लाओत्से के इस सिद्धांत के विपरीत खड़ी हैं। त्यागवादी मानता है कि मैं छोड़ सकता हूं। लाओत्से कहता है, तुम जब कर ही नहीं सकते, तो तुम छोड़ कैसे सकोगे? लाओत्से कहता है, कर्म में न तो करने की संभावना है, न छोड़ने की। हां, तुम कर्ता बन सकते हो। बस, इतनी स्वतंत्रता है तुम्हें! और तुम कर्ता न बनो, इसकी स्वतंत्रता है तुम्हें। जो घटित हो रहा है, वह घटित होता चला जाएगा।
लाओत्से के समय से प्रचलित चीन में एक मजाक है। एक युवा अपनी प्रेयसी के साथ समुद्र के तट पर गया है। चांदनी रात है। और समुद्र में जोर से लहलहा कर लहरें आ रही हैं तट की तरफ। वह युवक आकाश की तरफ मुंह उठा कर सागर से कहता है, हे सागर! लहरा, जोर से लहरा! अपनी पूरी शक्ति से लहरों को उठा!
इतनी सुंदर रात और लहरें तो उठ ही रही हैं, लहरें उठ कर तट की तरफ आ ही रही हैं। उसकी प्रेयसी कहती है, आश्चर्य, तुम्हारी इतनी सामर्थ्य! मुझे कभी पता न था कि सागर तुम्हारी मानता है। वह प्रेयसी कहती है, तुम्हारी इतनी सामर्थ्य! मुझे कभी पता ही नहीं था कि सागर तुम्हारी इतनी मानता है। तुमने कहा, लहरें उठो, और लहरें उठने लगीं! और तुमने कहा, लहरें आओ तट की तरफ, और लहरें तट की तरफ आने लगीं!
लाओत्से के समय से वह मजाक प्रचलित है। और लाओत्से कहा करता था, जिंदगी में सब ऐसा ही है। लहरें उठ ही रही हैं, तट के किनारे खड़े होकर हम कहते हैं, लहरें उठो! और अपने मन में यह भ्रांति पाल लेते हैं कि लहरें हमने उठा दी हैं।
लाओत्से कहता है, न तो तुम कर्ता बन सकते हो, न तुम त्यागी बन सकते हो। तुम सिर्फ इतने ही सत्य से अगर परिचित हो जाओ कि वस्तुएं अपने से घटित होती हैं, किसी की भी उनके घटित होने के लिए आवश्यकता नहीं है। वस्तुओं का स्वभाव घटित होना है, ऐसी प्रतीति हो जाए। तो लाओत्से कहता है, ज्ञानी उसे कहता हूं मैं, सभी बातें अपने आप घटित होती हैं, ऐसा जो जानता है। परंतु वे उनसे विमुख नहीं होते। क्योंकि जब अपने से ही घटित होती हैं, तो ज्ञानी उनसे विमुख नहीं होते। विमुख होने का सवाल तो तभी है, त्याग करने का सवाल तो तभी है, वैराग्य का सवाल तो तभी है, जब मैं उन्हें घटित कर रहा हूं।
समझें। भूख लगती है, तो अज्ञानी ज्यादा खा लेता है। सोचता है, मैं खा रहा हूं। ज्यादा तो वह भी नहीं खा सकता।
नसरुद्दीन के जीवन में उल्लेख है कि अपने एक शिष्य के साथ वह यात्रा पर है, तीर्थ-यात्रा पर। वह रोज देखता है कि शिष्य जब भोजन करता है, तो भोजन करने के बाद अपने शरीर को हिलाता है, हिला कर फिर भोजन करता है। वह रोज देखता है यह, महीनों हो गए। एक दिन उसने कहा कि देख, यह मामला क्या है? तू भोजन करता है, फिर हिलता है, फिर भोजन करता है, फिर हिलता है। उस युवक ने कहा कि आपको शायद पता नहीं कि जरा हिल कर मैं फिर शरीर के भीतर जगह बना लेता हूं, फिर थोड़ा भोजन कर लेता हूं। नसरुद्दीन ने उसे बहुत जोर से चांटा मारा और कहा, बेईमान, यह सोच कर मन को कितनी पीड़ा होती है कि कितना भोजन जो मैं कर सकता था, नहीं कर पाया! तूने पहले क्यों न बताया? यह तो मुझे भी शक था कि जितना भोजन मैं करता हूं, वह भोजन करने की सीमा नहीं है। यह तो मुझे भी शक था कि जितना मैं भोजन करता हूं, वह भोजन करने की सीमा नहीं है। और यह मुझे भी पता है कि भोजन की आखिरी सीमा पेट का फट जाना है। पूरा भोजन किया जाए तो पेट फट जाए, वहां तक।
अज्ञानी सोचता है, मैं भोजन कर रहा हूं। एक दूसरा अज्ञानी है, जो सोच सकता है कि मैं उपवास कर रहा हूं। लाओत्से दोनों को अज्ञानी कहेगा। क्योंकि दोनों ही अपने को कर्ता मानते हैं। एक करने में, एक छोड़ने में। लाओत्से कहेगा, ज्ञानी तो वह है, जो विमुख नहीं होता। जो भोजन को, मैं करता हूं, ऐसा नहीं मानता। भूख करती है। देखता रहता है। भूख लगती है, भोजन कर लेता है; नहीं लगती है, नहीं करता है। भूख नहीं लगती है, तो उपवासा रह जाता है; भूख लगती है, तो भोजन कर लेता है। न तो भूख से हटता है, न भूख को आग्रहपूर्वक भरता है। भूख के साथ कोई छेड़खानी नहीं करता। भूख की प्रक्रिया का साक्षी-भाव से व्यवहार करता है।
ताकुआन नाम के फकीर के पास कोई गया है। और पूछता है ताकुआन से कि तुम्हारी साधना क्या है?
तो ताकुआन कहता है, मेरी और कोई साधना नहीं है। मेरे गुरु ने तो इतना ही कहा है कि जब नींद आए, तब सो जाना; और जब भूख लगे, तब भोजन कर लेना। तो जब मुझे नींद लगती है, मैं सो जाता हूं। और जब नींद टूटती है, तब उठ आता हूं। जब भूख लगती है, तब भोजन ले लेता हूं; जब नहीं लगती है, तब नहीं लेता हूं। जब बोलने जैसा होता है, तो बोल देता हूं; और जब मौन रहने जैसा होता है, तो मौन रह जाता हूं।
तो वह आदमी कहता है, यह भी कोई साधना है! यह कोई साधना है?
पर ताकुआन कहता है, पता नहीं यह साधना है या नहीं। क्योंकि मेरे गुरु ने कहा कि साध सकते हो तुम, यही अज्ञान है। साध सकते हो तुम, यही अज्ञान है। तो मैं कुछ साध नहीं रहा हूं। अब तो जो होता है, उसे देखता रहता हूं। पता नहीं, यह साधना है या नहीं! इतना तुमसे कहता हूं कि जब से ऐसा स्वीकार किया है नींद को, भूख को, उठने को, सोने को, जागने को, तब से मैं परम आनंद में हूं, तब से दुख मेरे ऊपर नहीं आया है। क्योंकि मैंने सभी स्वीकार कर लिया है। अगर दुख भी आया है, तो अब मैं उसे दुख करके नहीं पाता हूं, क्योंकि स्वीकार कर लिया है। सोचता हूं कि घट रहा है ऐसा।
ध्यान रहे, दुख भी तभी दुख मालूम पड़ता है, जब हम अस्वीकार करते हैं। दुख का जो दंश है, वह दुख में नहीं, हमारी अस्वीकृति में है। दुख में पीड़ा नहीं है, पीड़ा हमारे अस्वीकार में है कि ऐसा नहीं होना चाहिए था, और हुआ, इसलिए पीड़ा है। अगर मैं ऐसा जानूं कि जो हुआ, वैसा ही होता, वैसा ही होना चाहिए था, वही हो सकता था, तो दुख का कोई दंश, दुख की कोई पीड़ा नहीं रह जाती। सुख के छिन जाने में कोई पीड़ा नहीं है। सुख नहीं छिनना चाहिए था, मैं बचा लेता, बचा न पाया, उसमें पीड़ा है। अगर मैं जानूं कि सुख आया और गया; जो आता है, वह चला जाता है; अगर मेरे मन में यह खयाल न हो कि मैं बचा सकता था, तो पीड़ा का फिर कोई सवाल नहीं है।
तो ताकुआन कहता है, मुझे पता नहीं कि साधना क्या है। इतना मैं जानता हूं कि जब से मैंने ऐसा जाना और जीया है, तब से मैंने दुख को नहीं जाना।
लाओत्से कहता है, वे विमुख नहीं होते हैं। वे जानते हैं कि चीजें अपने आप घटित होती हैं।
इस बात को समझने के लिए महावीर को थोड़ा सा समझना बहुत उपयोगी होगा।
महावीर का एक सूत्र इसके बहुत करीब है। और कीमती सूत्र है। महावीर जहां-जहां धर्म शब्द का प्रयोग करते हैं, जहां-जहां, वहां उनका अर्थ धर्म से कभी भी मजहब या रिलीजन नहीं होता। महावीर का धर्म से अर्थ होता है, वस्तुओं का स्वभाव। महावीर का सूत्र है धर्म के लिए: वत्थू सहाओ धम्म। जो वस्तु का स्वभाव है, वही धर्म है। आग जलाती है, यह उसका स्वभाव है। पानी गङ्ढे की तरफ जाता है, यह उसका स्वभाव है। बच्चा जवान होता है, यह उसका स्वभाव है। सुख आता है, जाता है, यह उसका स्वभाव है। कोई चीज ठहरती नहीं जगत में, यह जगत का स्वभाव है। आदमी जन्मता है और मरता है, यह नियति है, यह स्वभाव है। महावीर कहते हैं, यह सब स्वभाव है। इसे अगर तुम ठीक से जान लेते हो कि यह स्वभाव है, तो तुम मुक्त हो--इसी क्षण।
स्वभाव के विपरीत लड़ कर ही हम परेशान हैं। हम सब लड़ रहे हैं, स्वभाव से लड़ रहे हैं। शरीर बूढ़ा होगा, हम लड़ेंगे; शरीर रुग्ण होगा, हम लड़ेंगे। वह सब स्वभाव है। इस जगत में जो भी होता है, वह सब स्वाभाविक है।
लाओत्से कहता है, सभी बातें अपने आप घटित होती हैं, परंतु वे जो ज्ञानी हैं उनसे विमुख नहीं होते। विमुख होने का कोई कारण नहीं है। विमुख होने में तो फिर वही बात मन में आ जाएगी कि मैं विमुख हो सकता हूं।
नहीं, लाओत्से तो कहता है, ज्ञानीजन मुक्त होने की भी चेष्टा नहीं करते। ज्ञानीजन चेष्टा ही नहीं करते। क्योंकि सब चेष्टाएं बांध लेने वाली सिद्ध होती हैं। ज्ञानीजन कामना नहीं करते कि ऐसा हो। क्योंकि जो भी ऐसी कामना करेगा कि ऐसा हो, वह दुख में पड़ेगा। क्योंकि यह जगत किसी की कामनाओं को मान कर नहीं चलता, यह जगत अपने नियम से चलता है। कभी आपकी कामना उसके अनुकूल पड़ जाती है, तो आपको भ्रम होता है कि सागर की लहरें आपकी मान कर उठ रही हैं। और कभी जब सागर की लहरें नहीं उठ रही होती हैं, और आप पुरानी कविता दोहराए चले जाते हैं कि उठो लहरो, चलो लहरो। वे नहीं चलतीं, तो आप दुखी होते हैं। सागर न तो आपकी मान कर चलता है, न आपकी सुन कर रुकता है। यह संयोग की बात है कि आपकी कामना कभी सागर की लहरों से मेल खा जाती और कभी मेल नहीं खाती।
कभी आप जीतते चले जाते हो, तो आप सोचते हो, मैं जीत रहा हूं। और कभी आप हारते चले जाते हो, तो आप सोचते हो, मैं हार रहा हूं। लेकिन सच्चाई कुल इतनी है कि वस्तुओं का स्वभाव ऐसा है कि कभी संयोग होता है कि आपको जीतने का भ्रम पैदा होता है; और कभी संयोग होता है कि आपको हारने का भ्रम पैदा होता है। कभी आप जो भी पांसा फेंकते हो, वही ठीक पड़ जाता है; और कभी आप जो भी पांसा फेंकते हो, कोई भी ठीक नहीं पड़ता है। कुल सवाल इतना ही है कि वस्तुओं के स्वभाव के अनुकूल हो गया, तो ठीक पड़ जाता है; प्रतिकूल हो गया, तो ठीक नहीं पड़ता है।
सुना है मैंने कि एक व्यक्ति वर्षों से बाजार में नुकसान खा रहा है। वह जो भी ढंग से सौदा करता, नुकसान पाता है। अरबपति था। करोड़ों रुपए उसने नुकसान में गंवाए। उसके सब मित्र उसके नुकसान होने की इस नियमितता से परिचित हो गए थे। इसलिए जो भी वह करता था, उसके मित्र उससे उलटा कर लेते थे, और सदा फायदे में रहते थे। यह बात इतनी जाहिर हो गई थी कि पूरा मार्केट उसको देख कर चलता था कि वह क्या कर रहा है। वह जो कर रहा है, वह भर भूल कर नहीं करना।
वर्षों के बाद एक दिन अचानक मामला उलटा हो गया। उसने कुछ किया। उसके मित्र नियमित अनुसार, जैसा सदा करते थे, उससे उलटा किए। और सब हारे। उसने पूरे मार्केट पर कब्जा कर लिया। मित्र उसके पास गए और कहा, चमत्कार कर दिया, बात क्या है? ऐसा कभी नहीं हुआ!
उस आदमी ने कहा कि मैं वर्षों से हार रहा हूं। आज अपने वर्षों का हिसाब-किताब देख रहा था, तब मुझे खयाल आया कि अब जो मेरा सिद्धांत कह रहा है, करो, वह न करूं इस बार। जिस सिद्धांत से मैं चलता हूं। तो इस बार मैं अपने खिलाफ चला हूं। जैसा तुम मेरे खिलाफ सदा चलते रहे हो, इस बार मैं अपने खिलाफ चला हूं। मेरा सिद्धांत तो कह रहा था कि खरीद करो, मैंने बेचा।
उसको बेचते देख कर सारे लोगों ने खरीद की, क्योंकि वह जो करे, उससे उलटा करने में सदा फायदा था। उस आदमी ने कहा कि मुझे पहली दफे खयाल आया कि मैं चीजों के स्वभाव के बिलकुल प्रतिकूल ही चलता रहा हूं सदा से, अपनी जिद्द ठोकता रहा हूं। मुझे पता नहीं कि सही क्या है। लेकिन एक बात पक्की थी कि मैं गलत होऊंगा--इतने पांच-दस साल का जो अनुभव है। इसलिए अपने से उलटा चल कर देखा। आज मैं कह सकता हूं, उस आदमी ने कहा कि मैं हार रहा था, यह कहना भी गलत है; मैं जीत रहा था, यह कहना भी गलत है। वस्तुओं के स्वभाव के अनुकूल जब आदमी पड़ जाता है, तो जीत जाता है। प्रतिकूल जब पड़ जाता है, तो हार जाता है।
और इस सत्य को अगर कोई ठीक से देख ले, तो लाओत्से कहता है, वह विमुख नहीं होता। वह जिंदगी में खड़ा रहता है। जैसी है जिंदगी, वैसे ही खड़ा रहता है। वह भाग कर भी कहीं नहीं जाता, क्योंकि वह यह नहीं मानता कि जिंदगी से भागना संभव है। और अगर भागना आ जाए, तो रुकता भी नहीं है।
इसको समझ लेना आप, नहीं तो गलती होगी। नहीं तो गलती होगी। अगर भागना घटित हो जाए, तो वह रुकता भी नहीं है, वह भागने के भी साथ हो जाता है। अपनी तरफ से वह कुछ नहीं करता है, जो घटित होता है उसमें बहता है। ऐसा समझें कि वह तैरता नहीं है, बहता है। वह हाथ-पैर नहीं मारता नदी की धारा में, वह नदी की धारा में अपने को छोड़ देता है। और धारा से कहता है, जहां ले चलो, वही मेरी मंजिल है। निश्चित ही, ऐसी स्थिति में रहने वाले व्यक्ति के जीवन में जो घटित होगा, वह अभूतपूर्व होगा। उस अभूतपूर्व का ब्यौरा दिया है उसने।
"उन्हें वे जीवन प्रदान करते हैं, किंतु अधिकृत नहीं करते।'
ज्ञानी जिस चीज के संपर्क में आता है, उसी को जीवन प्रदान करता है। किंतु अधिकृत नहीं करता, उसका मालिक नहीं बनता है। जीवन देता है, सब दे देता है जो उसके पास देने को है, लेकिन फिर भी अधिकार स्थापित नहीं करता। क्योंकि लाओत्से कहता है, जिस पर तुमने अधिकार स्थापित किया, उसे तुमने बगावत के लिए भड़काया; जिस पर तुमने मालकियत कायम की, उसको तुमने दुश्मन बनाया; जिसकी तुमने स्वतंत्रता छीनी, उसे तुमने स्वच्छंद होने के लिए उकसाया।
अधिकृत नहीं करता ज्ञानी। जो भी है, दे देता है, लेकिन देने के साथ लेने की कोई शर्त नहीं बनाता। अगर प्रेम देता है, तो नहीं कहता कि प्रेम वापस लौटाओ। लौट आता है, तो स्वीकार कर लेता है; नहीं लौट आता, तो स्वीकार कर लेता है। लौट आने पर भिन्नता नहीं है; नहीं लौट आए, तो भेद नहीं है। कोई अधिकार स्थापित नहीं करता।
सब अधिकार वापसी की मांग करते हैं। अधिकार का अर्थ ही क्या होता है? अधिकार का अर्थ यह होता है, कुछ मैंने किया है, अब मैं अधिकारी हुआ वापस कुछ पाने का; प्रत्युत्तर पाने का मैं अधिकारी हुआ। अगर नहीं मिलेगा, तो दुख पाऊंगा। और मजे की बात है कि जिस-जिस बात का हम अधिकार कर लेते हैं। मिले तो सुख नहीं मिलता, न मिले तो दुख मिलता है। अगर मैंने समझा कि किसी को मैंने प्रेम दिया है, तो जब मैं मुसीबत में होऊंगा तो मुझे उसकी सहायता मिलेगी। मिले तो मेरे मन में धन्यवाद नहीं उठेगा। क्योंकि अधिकार जब है, तो यह तो होना ही चाहिए, वही हो रहा है। धन्यवाद का कोई सवाल नहीं है। जो होना चाहिए, वही हो रहा है। मुझे कोई सुख भी नहीं मिलेगा, क्योंकि जब टेकेन फार ग्रांटेड, कोई चीज स्वीकृत ही है, तो उससे कभी सुख नहीं मिलता।
मैं राह पर चलता हूं और मेरी पत्नी मुझे, मेरा रूमाल गिर जाए, उठा कर दे दे, तो कोई सुख का सवाल नहीं है। लेकिन अजनबी स्त्री उठा कर दे दे, तो सुखद है। उसे धन्यवाद भी मैं दूंगा। उससे कोई अपेक्षा न थी। मेरी मां रात भर बैठ कर मेरा सिर दबाती रहे, तो कोई सवाल नहीं है। लेकिन कोई और स्त्री सिर दबा दे घड़ी भर, तो शायद जीवन भर उसे मैं न भूलूं। जहां अधिकार है, वहां चीजें जैसी होनी चाहिए, उसकी अपेक्षा है। अगर हों, तो कोई सुख नहीं मिलता; अगर न हों, तो बड़ा दुख मिलता है।
अब यह बड़े मजे की बात है कि अधिकार सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं लाता। सुख तो लाता ही नहीं, क्योंकि सुख स्वीकार कर लिया गया है कि होना ही चाहिए। नहीं हो, तो दुख आता है।
लाओत्से कहता है कि ज्ञानी जीवन प्रदान करते हैं, अधिकृत नहीं करते।
असल में, ज्ञानी सुख का राज जानता है, रहस्य जानता है। जो हम करते हैं, उससे उलटी है उसकी स्थिति। चूंकि वह अधिकार नहीं करता, इसलिए अगर कोई कर जाता है, तो सुख पाता है; अगर कोई नहीं कर जाता, तो दुख का कोई कारण नहीं है, क्योंकि अपेक्षा कोई थी ही नहीं कि कोई करे।
ध्यान रखें, हमसे ठीक उसकी उलटी स्थिति है। अगर कोई उसे खाने के लिए पूछ लेता है, तो वह परम सौभाग्यशाली अनुभव करता है, अनुगृहीत होता है, ग्रेटिटयूड मानता है। क्योंकि यह उसने कभी सोचा ही नहीं था कि कोई दो रोटी के लिए पूछेगा। अनुगृहीत होता है कि परम कृपा है कि किसी ने दो रोटी के लिए पूछा। कोई न पूछे, तो वह दुखी नहीं होता। क्योंकि उसने कभी अपेक्षा न की थी कि कोई पूछेगा। अपेक्षा के पीछे दुख है; अधिकार के पीछे दुख है। मालकियत के पीछे सिवाय नर्क के और कुछ भी नहीं है।
इसलिए जहां-जहां मालकियत है, वहां-वहां नर्क है। वह मालकियत किसी भी शक्ल में हो--वह पति की पत्नी पर हो, पत्नी की पति पर हो, मित्र की मित्र पर हो, बाप की बेटे पर हो, गुरु की शिष्य पर हो--वह मालकियत कहीं भी हो, किसी भी शक्ल और किसी भी रूप में हो, जहां मालकियत है उसी की आड़ में नर्क पनपता है। और जहां मालकियत नहीं है, उसी खुले आकाश में स्वर्ग का जन्म होता है।
तो जहां-जहां आपको नर्क दिखाई पड़े, वहां-वहां तत्काल समझ लेना कि मालकियत खड़ी होगी। उसके बिना नर्क कभी नहीं होता है। जहां-जहां दुख हो, वहां जान लेना कि यह मालकियत दुख दे रही है।
लेकिन हम बहुत अजीब हैं। हम कभी ऐसा अनुभव नहीं करते कि हमारी मालकियत की वजह से दुख आता है। हम समझते हैं, दूसरे की गलतियों की वजह से दुख आता है। और इसलिए इससे उलटा भी हम कभी नहीं समझ पाते कि हमारी गैर-मालकियत की वजह से सुख आता है। वह भी हम नहीं समझ पाते।
लेकिन जहां भी सुख है, वहां गैर-मालकियत है, वहां अधिकार का भाव नहीं है। और जहां भी दुख है, वहां अधिकार का भाव है। और ज्ञानी तो वही है; अगर इतना भी ज्ञान में ज्ञान नहीं है कि वह नर्क से अपने को ऊपर उठा सके, तो ज्ञान का कोई मूल्य ही नहीं है।
लाओत्से कहता है, "वे जीवन प्रदान करते हैं।'
वे जीवन भी दे देते हैं। प्रेम ही नहीं, सब कुछ, जो दे सकते हैं, दे देते हैं। लेकिन लौट कर कोई मांग नहीं करते।
"वे इन समस्त प्रक्रियाओं से गुजरते हैं, परंतु इनके स्वामी नहीं बनते।'
वे जीवन के सब रूपों से गुजरते हैं, सब प्रक्रियाओं से, एवरी प्रोसेस। वे बचपन में बच्चे होते हैं, जवानी में जवान होते हैं, बुढ़ापे में बूढ़े हो जाते हैं। जवानी से गुजरते वक्त वे जवानी के मालिक नहीं बनते। मालिक जो बनेगा जवानी का, बुढ़ापा आने पर रोएगा, पछताएगा, चिल्लाएगा; मालकियत छिनी। वे जवानी से गुजरते हैं ज्ञानी, लेकिन मालकियत नहीं करते। इसलिए जब बुढ़ापा आता है, तो वे उसका भी स्वागत करते हैं। वे जीवन से गुजरते हैं, लेकिन जीवन के मालिक नहीं बनते। इसलिए जब मौत आती है, तो उन्हें दरवाजे पर आलिंगन फैलाए हुए पाती है। वे जीवन की कोई मालकियत नहीं करते, इसलिए मृत्यु उनसे कुछ छीन नहीं सकती।
ध्यान रहे, छीना तभी जा सकता है, जब आप में स्वामित्व का भाव जग जाए। आपकी चोरी तब की जा सकती है, जब स्वामित्व का भाव जग जाए। आपको लूटा तब जा सकता है, जब आप में स्वामित्व का भाव जग जाए। आपको धोखा तब दिया जा सकता है, जब आप में स्वामित्व का भाव जग जाए।
ज्ञानी को धोखा नहीं दिया जा सकता। ज्ञानी से कुछ छीना नहीं जा सकता। ज्ञानी से कुछ चुराया नहीं जा सकता। ज्ञानी का कुछ मिटाया नहीं जा सकता। क्योंकि उस सबका जो मूल सूत्र है, वह कभी उस मूल सूत्र को ही नहीं जमने देता है। वह मालिक ही नहीं बनता है।
इसे थोड़ा समझें कि मालकियत हमारे कष्टों का आधार है। और हमें पता ही नहीं चलता। हम इतने चुपचाप मालिक बन जाते हैं जिसका कोई हिसाब नहीं है। नहीं, हम ऐसी चीजों के मालिक तो बन ही जाते हैं, जिन पर हमें मालकियत की सुविधा दिखाई पड़ती है; जहां कोई सुविधा नहीं होती, वहां भी हम मालकियत का भाव पैदा कर लेते हैं। जहां कोई उपाय नहीं होता, वहां भी हम मालकियत का भाव पैदा कर लेते हैं। हमें जरा सा मौका भर मिल जाए कहीं बैठने का कि हम मालिक हो जाते हैं। कई बार तो ऐसी जगह हम मालिक हो जाते हैं, जहां कि कल्पना भी नहीं हो सकती थी मालिक होने की। पूरी जिंदगी हमारी ऐसी मालकियतों से भरी है। अगर आप मेरे पास दो क्षण आए हों और मैंने आपको प्रेम से बिठाया है, तो आपको पता हो या न हो, आप मुझ पर भी मालकियत करना शुरू कर देंगे।
मुझे लोग पत्र लिखते हैं। नियमानुसार मैं उनके पहले पत्र का उत्तर देता हूं। फिर मेरा पत्र पहुंचा कि दूसरा पत्र तत्काल, तीसरा पत्र तत्काल! जब तक मेरी सुविधा होती है, मैं उन्हें उत्तर देता हूं। लेकिन तब शीघ्र ही मैं पाता हूं कि अब उन्हें लिखने को कुछ भी नहीं है, सिर्फ मेरा पत्र पाने को वे कुछ भी लिखे जा रहे हैं। तब मैं रुकता हूं। मैं दो-चार पत्रों का उत्तर नहीं देता कि उनका गाली-गलौज से भरा हुआ पत्र आ जाता है। तब मैं थोड़ा हैरान होता हूं। सोचता हूं कि क्या, हुआ क्या होगा!
मैंने दो पत्रों का उत्तर दिया, मालकियत उन्होंने स्थापित कर ली कि उनके पत्र के उत्तर मिलते हैं। अब अगर मैं नहीं दे रहा हूं पत्र का उत्तर, आठ दिन देरी कर दी है, नहीं दिया, तो उनका उत्तर आ जाता है, जिसमें क्रोध साफ जाहिर होता है कि आपने अभी तक उत्तर क्यों नहीं दिया? वे दुख पा रहे होंगे, इसलिए क्रोध है। वे पीड़ा पा रहे होंगे, इसलिए क्रोध है। लेकिन आपको हक है पत्र लिखने का, लेकिन आपने पत्र लिखा, इससे अनिवार्यता हो गई कि मैं उत्तर दूं? मैं आपको पत्र लिखूं, यह मेरा हक है कि मैं पत्र लिखूं। लेकिन उत्तर आना ही चाहिए, यह तो कोई अनिवार्यता नहीं है। अगर लिखने को मैं स्वतंत्र हूं, तो न लिखने को भी आप स्वतंत्र हैं। नहीं, पर मन ऐसी सूक्ष्म जगह पर भी इंतजाम कर लेता है मालकियत का। और फिर बहुत दुख पाता है।
लाओत्से कहता है, वे इन समस्त प्रक्रियाओं से गुजरते हैं।
जिसे हम जीवन कहें, वह प्रक्रियाओं का एक लंबा फैलाव है। प्रतिपल कोई प्रक्रिया चल रही है--चाहे प्रेम की, चाहे घृणा की, चाहे धन की, चाहे मित्रता की--कोई न कोई प्रक्रिया प्रतिपल चल रही है। श्वास चल रही है, नींद आ रही है, भोजन कर रहे हैं, आ रहे हैं, जा रहे हैं। लेकिन इस सारी प्रक्रियाओं के जाल में ज्ञानी इनका स्वामी नहीं बनता है। इसलिए उसे कभी कोई च्युत नहीं कर सकता; उसके स्वामित्व से कभी कोई उसे नीचे नहीं उतार सकता।
लाओत्से कहता है, "वे कर्तव्य निभाते हैं, पर श्रेय नहीं लेते।'
जो करने योग्य मालूम होता है, वह कर देते हैं; लेकिन कभी श्रेय नहीं लेते। वे कभी यह नहीं कहते कि तुम मानो कि हमने ऐसा किया, कि स्वीकार करो कि हमने ऐसा किया था।
नसरुद्दीन एक नदी में नहा रहा है। गहरी नदी है। उसे अंदाज नहीं, आगे बढ़ गया और डूबने की हालत हो गई। एक आदमी ने उसे निकाल कर बचाया। फिर वह आदमी जहां भी मिल जाता उसे--रास्ते में, बाजार में, मस्जिद में--वह कहता, याद है, मैंने ही तुम्हें बचाया था! नसरुद्दीन परेशान आ गया। कोई मौका न चूके वह आदमी। जहां भी मिल जाए, वह कहे, नसरुद्दीन याद है, मैंने तुम्हें नदी में डूबते से बचाया था।
एक दिन नसरुद्दीन ने उसका हाथ पकड़ा और उसे कहा कि याद है, जल्दी मेरे साथ आओ। उसने कहा, कहां ले जाते हो? उसने कहा, जल्दी तुम मेरे साथ आओ। नदी के किनारे खड़े होकर नसरुद्दीन कूद पड़ा। जितने गहरे पानी में उसने बचाया था, उसमें खड़े होकर कहा कि मेरे भाई, अब तू जा, बचाना मत। वह बहुत मंहगा पड़ गया था। तू जा! अब हम बच सकेंगे तो बच जाएंगे, मरेंगे तो मर जाएंगे। बाकी तू मत बचाना। तू देख ले कि अब हम बिलकुल उतने ही पानी में आ गए हैं न, जितने पानी से तूने निकाला था! अब तू जा।
हम जो भी थोड़ा सा कर लेते हैं, तो उसका ढिंढोरा पीटते फिरते हैं। वह ढिंढोरा पीटना ही बताता है कि वह हमारे लिए कर्तव्य नहीं था; वह सौदा था। उस करने में हमने कोई आनंद नहीं पाया था। उसमें भी हमने कोई बार्गेन किया था। उसमें भी हमने कोई सौदा किया था; उसमें भी हम...हम उसमें भी अर्थशास्त्र के बाहर नहीं थे।
लाओत्से कह रहा है, कर्तव्य तो वे निभाते हैं, पर श्रेय नहीं लेते। काम पूरा हो जाता है कि चुपचाप हट जाते हैं। बात निपट जाती है, तो चुपचाप विदा हो जाते हैं। इतनी देर भी नहीं रुकते कि आप उन्हें धन्यवाद दे दें। इतनी देर भी नहीं रुकते कि आप उन्हें धन्यवाद दे दें। और अक्सर ऐसा होता है कि ज्ञानी जो करता है, वह इतनी शांति से करता है कि आपको पता ही नहीं चलता कि उसने किया; और अक्सर कोई और ही उसका श्रेय लेता है। अक्सर कोई और ही उसका श्रेय लेता है। वह इतना चुपचाप करके कोने में सरक जाता है! श्रेय लेने वाला कब बीच में आकर सामने खड़ा हो जाता है!
ज्ञानी अक्सर ही चुपचाप, करते वक्त सामने होता है, श्रेय लेते वक्त पीछे हट जाता है। क्यों? क्योंकि ज्ञानी का मानना यह है कि कर्तव्य में ही इतना आनंद है; कर्तव्य अपने में पूरा आनंद है। श्रेय तो वे लेना चाहते हैं, जिन्हें कर्तव्य में आनंद नहीं मिलता।
एक मां अपने बेटे को बड़ा कर रही है। अगर उसे बड़ा करने में आनंद है, तब वह कहती हुई नहीं फिरेगी कि मैंने बेटे को बड़ा किया है। और अगर कभी वह कहती हुई फिरती है कि मैंने बड़ा किया और नौ महीने पेट में रखा और इतना श्रम उठाया, तो जानना चाहिए कि वह मां के आनंद से वंचित रह गई। उसने नर्स का काम किया होगा; वह मां नहीं हो पाई। क्योंकि मां होना तो इतना आनंदपूर्ण था कि सचाई तो यह है कि अगर सच में मां होने का उसे पूरा आनंद आ गया होता, तो अब इस बेटे से कुछ और लेने का सवाल नहीं उठता। जितना आनंद मिल गया है, वह उसके कर्तव्य से बहुत ज्यादा है।
तो अक्सर ऐसा होगा कि ज्ञानी आपको धन्यवाद दे देगा कि आपने अवसर दिया कि उसे थोड़ा सा आनंद मिल सका। आपसे धन्यवाद की अपेक्षा नहीं करेगा।
"चूंकि वे श्रेय का दावा नहीं करते, इसलिए उन्हें श्रेय से वंचित नहीं किया जा सकता।'
लाओत्से आखिरी वचन कहता है कि चूंकि वे श्रेय का दावा नहीं करते, इसलिए उन्हें श्रेय से वंचित नहीं किया जा सकता। वंचित तो उसी को किया जा सकता है, जो दावेदार है। दावे का खंडन हो सकता है। लेकिन जिसने दावा ही नहीं किया, उसका खंडन कैसे होगा? जिसने कहा ही नहीं कि मैंने कुछ किया है, कैसे आप उससे कहिएगा कि तुमने नहीं किया है। जिसने कभी घोषणा ही नहीं की, उसके इनकार करने का सवाल नहीं उठता है।
तो लाओत्से कहता है, जो अपने श्रेय का दावा नहीं करते, उन्हें कभी श्रेय से वंचित नहीं किया जा सकता। वंचित उन्हीं को किया जा सकता है, जो दावा करते हैं। और मजा यह है कि दावा वे ही करते हैं, जो पहले से ही वंचित हैं, जिन्हें कुछ मिला ही नहीं। दावे की इच्छा ही इसलिए पैदा होती है कि कोई आनंद कृत्य में तो उपलब्ध नहीं हुआ, अब श्रेय पाने में उपलब्ध हो जाए। और दावे की इच्छा इसलिए भी पैदा होती है कि वस्तुतः अगर आपने कर्तव्य न किया हो, तो दावे की इच्छा पैदा होती है। क्योंकि कर्तव्य अपने आप में इतना टोटल, इतना संपूर्ण है कि उसके ऊपर कोई दावे का सवाल नहीं उठता। लेकिन जिसने पूरा नहीं किया, उसके भीतर पश्चात्ताप, रिपेंटेंस, उसके पीछे कुछ ग्लानि सरकती रहती है कि मैं नहीं कर पाया। वह यह नहीं कर पाया, इस कीड़े को दबाने के लिए, मैंने किया, इसकी उदघोषणा करता है।
जो मां अपने बेटे के लिए कुछ न कर पाई हो, वह घोषणा करेगी कि उसने क्या-क्या किया। और जो मां अपने बेटे के लिए बहुत कुछ कर पाई हो, वह सदा कहेगी कि वह क्या-क्या नहीं कर पाई। उसको सदा खलेगा वही जो वह नहीं कर पाई, जो कि किया जाना था, नहीं कर पाई। और जब कोई मां इस बात की याद करती है कि वह अपने बेटे के लिए क्या-क्या नहीं कर पाई, तो वह खबर देती है कि वह मां है। और जब कोई मां इस बात की खबर देती है कि उसने अपने बेटे के लिए क्या-क्या किया, तो वह खबर देती है कि वह मां नहीं है।
जीवन में दावा सिर्फ ग्लानि से पैदा होता है।
मनोवैज्ञानिक भी अब इस सत्य से स्वीकृति देते हैं। विशेषकर एडलर, इस युग के तीन बड़े मनोवैज्ञानिकों में एक, वह लाओत्से की इस बात को बहुत गहनता से स्वीकार करता है। एडलर कहता है कि जो आदमी दावा करता है, वह दावा इसीलिए करता है कि उसे भीतर अनुभव होता है कि वह दावे के योग्य नहीं है। और जो आदमी हीन होता है, वह महत्वाकांक्षी हो जाता है। और जो आदमी भीतर भयभीत होता है, वह बाहर से बहादुरी के आवरण बना लेता है। और जो आदमी भीतर निर्बल होता है, वह सबलता की घोषणाएं करता फिरता है। जो आदमी भीतर अज्ञानी होता है, वह बाहर ज्ञान की पर्तों को निर्मित कर लेता है। एडलर कहता है, जो आदमी भीतर होता है, उससे उलटी घोषणा करता है। ठीक उससे उलटी घोषणा करता है! क्योंकि वह जो भीतर है, वह कष्ट देता है। वह अपने ही भीतर को अपनी ही उलटी घोषणा से पोंछना, मिटाना, समाप्त करना चाहता है।
इसमें बहुत दूर तक सचाई है। इसमें बहुत दूर तक सचाई है। जो लोग हीन-ग्रंथि से पीड़ित होते हैं, इनफीरियारिटी कांप्लेक्स से पीड़ित होते हैं, वे ऐसी कोशिश में लग जाते हैं कि दुनिया को दिखा दें कि वे कुछ हैं। जब तक वे दुनिया को न दिखा पाएं कि वे कुछ हैं, तब तक वे अपनी ही हीनता की ग्रंथि के बाहर नहीं हो पाते। जिस दिन दुनिया मान लेती है कि हां, तुम कुछ हो, उस दिन उनको भी मानने में सुविधा हो जाती है कि मैं कुछ हूं। हालांकि वह जो भीतर ना-कुछपन है, वह तो मौजूद ही रहेगा। वह ऐसे मिटने वाला नहीं है। लेकिन फिर भी धोखा, सेल्फ-डिसेप्शन, आत्मवंचना हो जाती है।
लाओत्से की यह बात कि वे श्रेय का दावा नहीं करते...।
असल में, जो असली दावेदार हैं, वे कभी दावा नहीं करते। इसे ऐसा समझें। जो असली दावेदार हैं, वे कभी दावा नहीं करते। उनका दावा इतना प्रामाणिक है कि उसके करने की कोई जरूरत नहीं है। उनका दावा इतना आधारभूत है कि स्वयं परमात्मा भी उसे इनकार नहीं कर पाएगा। इसलिए किसी आदमी को मनवाने की कोई भी जरूरत नहीं है।
जीसस को सूली लगी। तो जीसस के शिष्यों को खयाल था कि सूली पर जीसस को मारा नहीं जा सकेगा। क्योंकि वे चमत्कार दिखला देंगे, वे मिरेकल कर देंगे, सूली बेकार जाएगी और जीसस को मारा नहीं जा सकेगा। जीसस के शिष्यों को यह खयाल था। क्योंकि ईश्वर का बेटा अगर ऐसे मौके को भी चूक जाएगा और दावा नहीं करेगा--यह तो मौका था, दुश्मन खुद मौका दे रहा था।
और दुश्मन का भी कहना यह था कि अगर तुम सचमुच ईश्वर के बेटे हो, तो सूली पर तय हो जाएगा। अगर ईश्वर अपने बेटे की भी रक्षा नहीं कर सकता, तो फिर और किसकी रक्षा करेगा? और अगर ईश्वर के बेटे को भी साधारण आदमी फांसी पर लटका देते हैं और ईश्वर कुछ नहीं कर पाता, बेटा कुछ नहीं कर पाता, तो सब दावे बेकार हैं। जीसस के दुश्मन भी जीसस को सूली पर ले गए थे इस खयाल से कि अगर वह सच में ईश्वर का बेटा है, तो दावा हो जाएगा। वह जाहिर हो जाएगी बात, हम सूली न दे पाएंगे।
जीसस के शिष्यों को भी यही खयाल था कि सूली पर सब निर्णय हो जाएगा--डिसीसिव, आखिरी बात का फैसला हो जाएगा। चमत्कार देखना चाहते हो? दिख जाएगा!
लेकिन जीसस चुपचाप मर गए; एक साधारण आदमी की तरह मर गए। जब जीसस के हाथ में खीलियां ठोंकी जा रही हैं, तब शिष्य भी उत्सुकता से देख रहे हैं, कि अब चमत्कार होता है! अब चमत्कार होता है! दुश्मन भी आतुरता से देख रहे हैं कि शायद चमत्कार होगा! शायद! पता नहीं, यह आदमी हो ही ईश्वर का बेटा! लेकिन दुश्मन भी निराश हुए, मित्र भी निराश हुए। जीसस ऐसे मर गए, जैसे कोई भी अ, , स मर जाता। भारी सदमा लगा।
शत्रुओं को तो सदमा का कोई कारण नहीं था। उन्होंने कहा कि ठीक है, हम तो पहले ही कहते थे कि यह आदमी झूठ बोल रहा है। यह सरासर झूठी बात है कि ईश्वर का बेटा है। यह बढ़ई का लड़का है। यह कोई ईश्वर वगैरह का बेटा नहीं है। आखिर मर गया! सिद्ध हो गई बात! शिष्यों को भारी सदमा लगा। लगना ही था। अपेक्षा थी, वह टूट गई। डिसइल्यूजनमेंट हो गया। एक भ्रम खंडित हो गया।
दो हजार साल तक जीसस को प्रेम करने वाले लोग इस पर विचार करते रहे हैं कि बात क्या हुई! जीसस को सिद्ध करना चाहिए था। अगर लाओत्से को वे समझ सकें, तो बात समझ में आ जाएगी, अन्यथा जीसस को कभी नहीं समझा जा सकेगा।
जीसस सच में ही इतना बेटा हैं ईश्वर के, दावा इतना प्रामाणिक है, कि उसे करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर जीसस ने कोई चमत्कार दिखाया होता, तो मेरी दृष्टि में तो वे ना-कुछ हो जाते। उसका मतलब ही यह होता कि वे आदमियों के सामने सिद्ध करने को बहुत आतुर हैं। उनका ऐसा चुपचाप निरीह आदमी की तरह मर जाना इस बात की घोषणा है कि वह आदमी साधारण न था। साधारण आदमी भी थोड़े हाथ-पैर मारता। साधारण आदमी भी थोड़े हाथ-पैर मारता।
नहीं, उन्होंने कुछ किया ही नहीं, हाथ-पैर मारने की बात अलग। वह सूली काफी वजनी थी। तो जो उसे ढो रहे थे, उनसे ढोते नहीं बनती थी। तो जीसस ने कहा, मेरे कंधे पर रख दो, मैं अभी जवान हूं। जो मजदूर ढो रहे थे, वे बूढ़े थे। तो जीसस अपनी सूली को लेकर पहाड़ पर चढ़े। सूली पर चढ़ गए सरलता से, और मर गए चुपचाप!
दावा इतना गहन रहा होगा, ईश्वर की सन्निधि इतनी निकट रही होगी कि उसे सिद्ध करना व्यर्थ था। अगर जीसस ने कोशिश करके उसे सिद्ध किया होता, तो वे साफ सबूत दे देते कि वे दावेदार पक्के नहीं थे। असल में जो दावेदार है, वह दावा करता ही नहीं। मगर ईसाइयत न समझा पाई अब तक इस बात को। क्योंकि लाओत्से का तो ईसाइयत को कोई खयाल नहीं। और सच यह है कि जो भी जीसस को समझना चाहते हैं, वे बिना लाओत्से को समझे नहीं समझ सकते हैं। क्योंकि यहूदी धर्म के पास जीसस को समझाने का कोई सूत्र नहीं है। और जीसस के पहले उनके मुल्क में जो लोग भी पैदा हुए, उनमें से किसी से भी जीसस का कोई तालमेल नहीं है। जीसस बिलकुल फारेन एलीमेंट थे, एकदम विजातीय तत्व हैं।
असल में, जीसस को जो भी खबरें मिलीं, वे भारत, चीन और इजिप्त से मिलीं। उनका जो शिक्षण हुआ, वह इन तीन मुल्कों में हुआ। और वह जो भी सारभूत पूरब में था, जो भी निचोड़ था पूरब के सारे प्राणों का, वह जीसस के पास था। इसलिए जो जानते हैं, वे तो, जीसस ने चमत्कार नहीं दिखलाया, इसी को चमत्कार मानते हैं। यह बड़ा चमत्कार है, यह बड़ा मिरेकल है। छोटा-मोटा आदमी भी कुछ न कुछ दिखलाने की कोशिश करता। कुछ भी कोशिश नहीं की। बात इतनी सिद्ध थी कि उसका दावा क्या करना था? किसके सामने दावा करना था? अगर ईश्वर के सामने ही दावा साफ है, तो आदमियों के सामने दावा करने की जरूरत कहां है! आदमियों के सामने तो सिद्ध करने वही जाता है, जो ईश्वर के सामने सिद्ध नहीं है।
"चूंकि वे श्रेय का दावा नहीं करते, इसलिए उन्हें श्रेय से वंचित नहीं किया जा सकता।'
इसलिए मैं कहता हूं कि चूंकि जीसस ने दावा नहीं किया, इसलिए उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता। वे ईश्वर के बेटे सिद्ध हो गए--उस, उस गैर-चमत्कार में, जब उन्होंने कोई चमत्कार नहीं किया। नहीं तो आदमी का मन कुछ करके दिखाने का होता है। और जहां इतना तनाव रहा होगा, सूली पर लटकाए गए, एक लाख आदमी इकट्ठे थे उस पहाड़ी पर, लोग प्रतीक्षारत थे, कुछ दिखला दो! मित्र भी यही चाहते थे, शत्रु भी यही चाहते थे, कुछ हो जाए! वे सब खाली हाथ लौटे। जीसस चुपचाप मर गए!
और यह वही आदमी है, जिसने मुर्दों को छुआ और वे जिंदा हो गए। और यह वही आदमी है, जिसने बीमारों को छुआ और उनकी बीमारियां विलीन हो गईं। और यह वही आदमी है कि सूखे वृक्ष के नीचे बैठ गया, तो उस पर पत्ते आ गए। और यह वही आदमी है, जो कि सागर तूफान कर रहा हो, तो इसके इशारे से शांत हो गया।
लेकिन यह मरते वक्त गैर-दावे में मर गया! हैरान हुए शत्रु भी कि यह आदमी कुछ तो जानता ही था। नहीं रहा हो ईश्वर का बेटा, तो भी कुछ तो जानता ही था। क्योंकि ये मरीजों को ठीक होते देखा है, मुर्दों को भी उठते देखा है। शत्रु भी इतने खयाल में नहीं थे कि कुछ भी न होगा। कुछ तो होगा ही। सूली टूट पड़ती, खीले ठोंके जाते और न ठुंकते; आर-पार हो जाते और खून न बहता! कुछ तो हो ही सकता था! और ये कोई बहुत बड़ी बातें न थीं! इसके लिए ईश्वर का बेटा होने की जरूरत नहीं है। एक साधारण सा योगी भी, हाथ में ठोंकी जाए खीली तो खून को गिरने से रोक सकता है। साधारण योगी, जिसको थोड़ा सा प्राणायाम का गहन अभ्यास है, वह खून की गति को रोक सकता है। इसमें कोई बड़ी अड़चन न थी। कुछ भी न हुआ! बड़ी क्लाइमेक्स पर लोग थे एक्सपेक्टेशन के कि कुछ होगा। कुछ भी न हुआ उस पहाड़ पर।
यह आदमी अदभुत रहा होगा! इसका ऐसा चुपचाप मर जाना एक मिरेकल है, एक चमत्कार है। पर लाओत्से को समझेंगे, तो यह बात समझ में आएगी। और बहुत से वचन हैं जीसस के, जो लाओत्से को बिना समझे समझ में नहीं आएंगे।
जीसस कहते हैं, धन्य हैं वे लोग, जिनके पास कुछ भी नहीं, क्योंकि वे स्वर्ग के राज्य के मालिक होंगे।
लाओत्से को समझे बिना समझना मुश्किल है।
जीसस कहते हैं, धन्य हैं वे लोग, जो विनम्र हैं। जिन्होंने कोई दावा नहीं किया, जो विनम्र हैं, जिन्होंने कोई दावा नहीं किया, वे ही प्रभु के राज्य के हकदार हैं। धन्य हैं वे, जो आत्मा से दरिद्र हैं, क्योंकि परमात्मा की सारी समृद्धि उनकी है।
ये वचन सिवाय लाओत्से के कहीं से आने वाले नहीं हैं। यहूदी परंपरा में इन वचनों की कोई जगह नहीं है। क्योंकि यहूदी परंपरा कहती है कि जो तुम्हारी एक आंख फोड़े, तुम उसकी दोनों फोड़ देना। और अगर किसी ने किसी की एक आंख फोड़ी है, तो परमात्मा उसको सजा देगा और उसकी दूसरी आंख फोड़ देगा। वहां इस लड़के का अचानक पैदा होना और इस लड़के का यह कहना, जीसस का यह कहना कि जो तुम्हारा कोट छीने, उसे कमीज भी दे देना; पता नहीं, संकोचवश कमीज वह न छीन पाया हो; और जो तुमसे कहे कि दो मील तक मेरा बोझ ढोओ, तुम तीन मील तक ढो देना, क्योंकि हो सकता है संकोच में हो और आगे के लिए न कह पाया हो। यह जो हवा है, यह जो दृष्टि है, यह लाओत्सियन है।
श्रेय मत लेना, और तब तुमसे कभी श्रेय छीना न जा सकेगा। और तुमने मांगा श्रेय, और उसी वक्त छीनने वाले लोग मौजूद हो जाएंगे। इधर तुमने दावा किया, उधर खंडन करने वाले लोग इकट्ठे हो जाएंगे। क्योंकि लाओत्से कहता है, विपरीत तत्काल पैदा होता है। अगर तुमने चाही प्रशंसा, तो निंदा मिलेगी। अगर तुमने चाहा आदर, तो अनादर सुनिश्चित है। तुमने खोजा सिंहासन, तो आज नहीं कल तुम धूल में गिरोगे। लाओत्से कहता है, वहां बैठो, जहां से नीचे कोई और गिरने की जगह ही नहीं। फिर तुम्हें कोई न गिरा सकेगा। फिर तुम सिंहासन पर हो।
लाओत्से कहता है, सिंहासन पर वही है, जिसे हटाया न जा सके। और कौन सिंहासन पर है? तुम उस जगह बैठो, जहां से और नीची कोई जगह नहीं है। फिर तुम्हें कोई न उठा सकेगा। फिर तुम सिंहासन पर हो, क्योंकि तुम्हें हटाने का कोई सवाल नहीं उठता।
लाओत्से ने ज्ञान का भी कभी दावा नहीं किया। अगर लाओत्से के पास कोई जाता और पूछता कि मैंने सुना है, आप ज्ञानी हो। तो लाओत्से कहता है, जरूर तुमने कुछ गलत सुना है। मेरी मानो, दूसरों ने जो कहा, उन्हें इतना पता न होगा, जितना मेरे बाबत मुझे पता है। मैं बड़ा अज्ञानी हूं।
जो नहीं जानते थे, वे मान कर लौट आते कि नाहक परेशान हुए। जो जानते थे, वे लाओत्से का पैर पकड़ लेते कि अब हम न जाएंगे, क्योंकि हमें पता है कि जो ज्ञानी है, वही अज्ञान का ऐसा स्वीकार कर सकता है, अन्यथा नहीं। अज्ञानी तो सदा ज्ञान का दावा करते मिलते हैं। अज्ञानी ही ज्ञान का दावा करता मिलता है। सिर्फ ज्ञानी ही हो सकता है, जो कह दे कि मुझे कुछ पता नहीं है, तुम कहीं और खोजो। तुम्हें कुछ गलत लोगों ने खबर दे दी है।
संत फ्रांसिस का एक संप्रदाय है। और संत फ्रांसिस एक विनम्र लोगों में एक था, ईसाइयत में जो पैदा हुए। तो जो फ्रांसिसवादी फकीर होते हैं...। संत फ्रांसिस तो अदभुत रूप से विनम्र था। उसकी विनम्रता का तो कोई हिसाब नहीं है। पर अनुयायी और वादी तो विनम्र होना बड़ा मुश्किल है। तो एक जगह ईसाइयों के सभी संप्रदाय के लोगों का एक सम्मेलन हो रहा है। तो वहां एक फ्रांसिस का अनुयायी फकीर कहता है कि हम कैथलिकों जैसे परंपरा के धनी नहीं हैं, यह सच है; और हम ट्रैपिस्ट--एक संप्रदाय है ईसाइयों का--उसके जैसे बुद्धिसंपन्न नहीं हैं, यह भी सच है; और हम क्वेकर--ईसाइयों का दूसरा संप्रदाय--उसके जैसे प्रार्थना में कुशल नहीं हैं, यह भी सच है; बट इन ह्युमिलिटी वी आर एट दि टॉप! वह कहता है, पर विनम्रता में हम तो सबसे ऊपर हैं।
सब गड़बड़ हो गया। इन ह्युमिलिटी वी आर एट दि टॉप! ह्युमिलिटी का मतलब ही क्या होता है? विनम्रता में तो हम सर्वश्रेष्ठ हैं, सर्वोपरि हैं! उसमें हमारा कोई मुकाबला नहीं! हम फ्रांसिस के अनुयायी हैं।
विनम्रता में सर्वोपरि! विनम्रता का मतलब ही यह होता है कि किसी के ऊपर न होने का भाव--किसी के ऊपर। सबसे पीछे होने का भाव!
जीसस ने कहा है, धन्य हैं वे, जो अंतिम खड़े हैं, क्योंकि मेरे स्वर्ग के राज्य में वे ही प्रथम होंगे।
मगर यह सारी की सारी धारा, यह हवा लाओत्सियन है। श्रेय का दावा मत करना।
मगर अज्ञान में तो दावा होगा ही। यहां तक हो सकता है, जैसा इस फ्रांसिसियन फकीर के साथ हुआ कि इन ह्युमिलिटी वी आर एट दि टॉप। ऐसा भी हो सकता है कि हम श्रेय का दावा बिलकुल नहीं करते। लेकिन तब दावा हो गया। और चित्त की सूक्ष्म जटिलताओं में यही सबसे बड़ा खेल है कि चित्त यह भी कह सकता है कि हम श्रेय का दावा नहीं करते। तब दावा हो गया। और चित्त यह भी कह सकता है कि चूंकि ज्ञानी कहते हैं कि हम अज्ञानी हैं, इसलिए हम भी कहते हैं कि हम अज्ञानी हैं। लेकिन तब कोई बात हाथ न आई। फिर तो हम घूम कर वही करने लगे। और मन घूम कर वही कर लेता है।
लाओत्से की दृष्टि, जीवन का जो जटिलता का चक्र है, उसको ही छिन्न-भिन्न कर देने की है। वह जटिलता का चक्र क्या है? वह चक्र यह है कि जिस बात की हम कोशिश करते हैं, उसी को हम चूक जाते हैं। करीब-करीब ऐसा ही है, जैसे कोई नींद लाने की कोशिश करे और चूक जाए, कोशिश से नींद न आए। और कोई कोशिश न करे और नींद आ जाए!
लाओत्से कहता है, श्रेय का दावा किया, तो वंचित हो जाओगे। दावा न किया, तो श्रेय मिला ही हुआ है। मालकियत जमानी चाही, तो गुलामी में पड़ जाओगे। अन्यथा मालकियत को छीनता कौन है! अगर मांगा, तो दुख पाओगे। क्योंकि मांगने से जगत में कुछ भी नहीं मिलता। नहीं मांगा, तो सब मिला ही हुआ है।
उलटे दिखाई पड़ने वाले ये सूत्र उलटे नहीं हैं। मगर हम उलटे हैं, इसलिए हमें उलटे दिखाई पड़ सकते हैं, हम उलटे हैं। हमें जो भी दिखाई पड़ता है, वह उलटा दिखाई पड़ सकता है। लाओत्से हमें उलटा दिखाई पड़ेगा कि सिर के बल खड़ा है यह आदमी। श्रेय पाना हो, तो सीधा सूत्र है कि श्रेय पाने की कोशिश करो। यश पाना हो, यश पाने की चेष्टा करो। सुख पाना हो, सुख पाने की चेष्टा करो। सीधा सूत्र है। हम जो सब अपने पैर पर खड़े हैं, लाओत्से हमें सिर पर खड़ा हुआ, शीर्षासन करता हुआ मालूम पड़ेगा! कि यह क्या बातें कर रहे हो कि सुख पाना है, तो सुख पाने की चेष्टा मत करो, तो फिर सुख कैसे मिलेगा? हमें तो चेष्टा कर-करके भी नहीं मिल रहा है। तुम कहते हो, चेष्टा मत करो। तब तो गए। तब तो बिलकुल ही नहीं मिलेगा।
ध्यान रखें, हमारे मन का तर्क हमें कहां भटकाता है? वह कहता है, इतनी चेष्टा करके जब नहीं मिल रहा, तो बिना चेष्टा किए कैसे मिलेगा? लेकिन लाओत्से कहेगा कि चेष्टा कर रहे हो इतनी, इसीलिए नहीं मिल रहा। एक बार बिना चेष्टा किए हुए भी देखो!
फिर चेष्टा करके देख चुके हो। जन्मों-जन्मों तक चेष्टा करके आदमी देख चुका है। कुछ मिलता नहीं। फिर भी हमारी चेष्टा जारी रहती है। क्योंकि मन कहता है कि और थोड़ी चेष्टा की कमी रह गई होगी, इसलिए नहीं मिल रहा। और थोड़ी चेष्टा! और थोड़ी चेष्टा! यह मन का तर्क कभी थकता ही नहीं। और युक्तिपूर्ण लगता है कि ठीक है, अगर अभी तक नहीं पहुंच पाए पहाड़ पर, तो थोड़ा और श्रम करना पड़ेगा।
लेकिन लाओत्से कहता है कि तुम्हारी चेष्टा ही तुम्हें रोक रही है। तुम छोड़ दो चेष्टा।
क्या कारण होगा ऐसा? ऐसा लाओत्से क्यों कह पाता है?
ऐसा इसलिए कहता है कि जीवन में जो भी पाने योग्य है, वह हमें सदा से ही मिला हुआ है। चेष्टा की वजह से हम इतने व्यस्त और परेशान हैं कि हम उसे देख नहीं पाते। कई बार, जो हमारे पास हो चीज, अगर आप बहुत जल्दी में उसे खोजने लग जाएं और बहुत बेचैन हो जाएं, तो खो जाती है। जो बिलकुल मिली हुई थी, वह खो जाती है। बहुत बार ऐसा होता है कि आप किसी का नाम याद कर रहे हैं और कहते हैं, जबान पर रखा है। मगर इतनी जल्दी है याद करने की, वह आदमी सामने खड़ा है। वह पूछता है, पहचाना कि नहीं! अब बड़ी बेचैनी है। जानते हैं कि पहचानते हैं, सो यह भी नहीं कह सकते कि नहीं। सब जाना हुआ आदमी है, चेहरा पहचाना है, नाम भी पता है। पर इतनी जल्दी है अब लाने की उस नाम को कि लगता है जबान पर रखा है, और फिर भी नहीं आता है।
वह आदमी चला गया है। आप अपने अखबार पढ़ने में लग गए हैं, कि चाय पीने में लग गए हैं, और अचानक वह नाम आपकी जबान पर आ गया है। जब कोशिश कर रहे थे, तब वह खो गया था; और जब बिलकुल कोशिश नहीं कर रहे हैं, वह आ गया है।
इस सदी के जो बड़े से बड़े वैज्ञानिक आविष्कार हुए हैं, उन सभी आविष्कारकों का यह अनुभव है कि जिसे वे खोज रहे थे, उसे वे तब तक न खोज पाए, जब तक खोजने का मन रहा। बड़े से बड़े आविष्कार इस सदी के जो हैं, जिन बड़े-बड़े आविष्कारों पर नोबल पुरस्कार मिले हैं, उन अधिकतम पुरस्कृत लोगों का यह अनुभव है कि जो हमने जाना, वह कोशिश से नहीं जान पाए। किसी क्षण में जब कोई कोशिश न थी, कोई चीज भीतर से उठी और जवाब आ गया।
मैडम क्यूरी ने तो रात सोते वक्त अपने गणितों के उत्तर लिखे। दिन भर थक गई है, परेशान हो गई है, नहीं उत्तर आते हैं। सो गई है। रात नींद में उत्तर आ गया है। उठ कर उत्तर लिख लिया है। सुबह पाया कि उत्तर सही है। और उत्तर बिना प्रोसेस के आया है, क्योंकि रात सिर्फ उत्तर लिखा है। फिर प्रोसेस में कभी तो दिनों लग गए पूरी करने में। उत्तर तो मिल गया है।
यह उत्तर कहां से आया?
जो मनुष्य के अंतरतम को जानते हैं, वे कहते हैं, जो भी जाना जा सकता है, वह मनुष्य जाने ही हुआ है। जो भी इस जगत में कभी भी जाना जाएगा, उसे आप इस क्षण भी जान रहे हैं। सिर्फ आपको पता नहीं है। मनुष्य की अंतस चेतना में वह सब छिपा है, जो कभी भी प्रकट होगा। वृक्ष में जो पत्ते हजार साल बाद प्रकट होंगे, वे भी बीज में छिपे थे। अन्यथा वे प्रकट नहीं हो सकते हैं। हजार साल बाद आदमी जो जानेगा, आदमी आज भी जानता है। पर जानता नहीं कि जानता है। बाहर खोज-बीन में उलझा हुआ है।
जितने भी आविष्कार के क्षण हैं, वे रिलैक्स्ड, विश्राम के क्षण हैं। न्यूटन बैठा है वृक्ष के तले और सेव गिर गया। विश्राम का क्षण था; कोई प्रयोगशाला नहीं थी वह।
एक मजाक मैंने सुना है। एक वैज्ञानिक अपने विद्यार्थियों को प्रयोगशाला में समझा रहा है कि बुद्धि पर जोर डालो, थोड़ी शर्म खाओ। पता नहीं तुम्हें कि न्यूटन वृक्ष के नीचे बैठा था, और फल गिरा और उसने कितना बड़ा आविष्कार कर लिया! और तुम इतनी मेहनत करके भी कुछ नहीं कर पा रहे हो। एक युवक खड़े होकर कहता है कि हमें भी वृक्ष के नीचे बैठने दो, तो शायद फल गिरे और कोई आविष्कार हो जाए! लेकिन इस प्रयोगशाला के तनाव में न्यूटन भी कुछ न कर पाता। यह खोजने की इतनी जो चेष्टा है, इतना जो तनाव और टेंशन है, शायद न्यूटन भी कुछ न कर पाता। न्यूटन भी सोच नहीं रहा था उस वक्त; बिना सोचे बैठा था।
इस जगत में जो बड़े से बड़ी खोजें घटित होती हैं, वे उन क्षणों में होती हैं, जब मन होता है विश्राम में और निर्विचार।
लाओत्से का आधारभूत दर्शन: मनुष्य चेष्टा न करे, प्रयास न करे, कर्ता न बने, दावेदार न हो, तो उसे वह सब संपदा मिल जाएगी, जिसकी तलाश है। तलाश से नहीं मिलेगी।
यह किसी दिन जब आपको खयाल में आ जाएगा। और जरूरी नहीं है कि जब मैं समझा रहा हूं, तब खयाल में आ जाए। हो सकता है, किसी वृक्ष के नीचे जब आप बैठे हों, कोई फल गिरे और लाओत्से समझ में आ जाए। क्योंकि जब मैं समझा रहा हूं, तब आप समझने को आतुर होते हैं, उत्सुक होते हैं। तब आप समझने के लिए तने होते हैं, तब समझने की चेष्टा चल रही होती है। वही चेष्टा बहुत बार बाधा बन जाती है। निश्चेष्ट जब आप पड़े हों।
अभी स्कैंडिनेविया, स्वीडन, स्विटजरलैंड एक नई शिक्षा की पद्धति पर काम चल रहा है। वह पद्धति को मैं लाओत्सियन कहूंगा। वह पद्धति बहुत नई है। वह पद्धति यह है कि बच्चों को सिखाओ मत, बच्चों को सीखने पर जोर मत डालो
अभी कक्षा है, तो बच्चे तने हुए बैठे रहते हैं। अगर कोई बच्चा दोनों पैर टेबल पर फैला कर और सिर टिका कर बैठ जाए, तो शिक्षक कहता है, अशिष्टता है। यह तुम क्या कर रहे हो? सम्हल कर बैठो, सीधे बैठो, रीढ़ तनी हुई रखो।
लेकिन अभी मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि इससे हम बहुत ज्यादा नहीं सिखा पा रहे हैं। तो नया प्रयोग चल रहा है। कक्षा में इस तरह की व्यवस्था है कि बच्चे बिलकुल विश्राम में बैठ सकें; कोई नियम का आग्रह नहीं है कि वे कैसे बैठें। जो उनका शरीर रुचिकर मानता हो, वैसे बैठ जाएं। जिसको लेटना हो, वह लेट जाए; जिसको बैठना है, बैठ जाए; जिसको खड़ा होना है, खड़ा हो जाए; जिसको फर्श पर पैर पसार लेने हैं, वह फर्श पर पैर पसार ले। शिक्षक जब बोले, तो बच्चे आंख बंद रखें। उलटा है बिलकुल। शिक्षक जब बोले, बच्चे आंख बंद रखें। बच्चे समझने की कोशिश न करें, केवल सुनें। समझने की कोशिश ही न करें कि शिक्षक क्या कह रहा है; केवल सुनें। शिक्षक को ही न सुनें अकेला; बाहर झींगुर की आवाज आ रही है और मेंढक वर्षा में बोल रहे हों, उनको भी सुनें। हवा का सर्राटा आ रहा है, हवा की आवाज हो रही है, उसको भी सुनें। खुद के हृदय की धड़कन मालूम पड़ रही है, उसको भी सुनें। सुनें! रिलैक्स्ड, विश्राम में पड़े हुए सुनते रहें।
और बड़ी हैरानी की बात हुई है कि जो कोर्स दो साल में हो सकता है, वह तीन महीने में हो जाता है। जो शिक्षण पुरानी व्यवस्था और पद्धति से दो साल लेता है, वह तीन महीने लेता है इस पद्धति से। और उस पुराने शिक्षण में दो साल में बच्चे के बहुत से मानसिक तंतु टूट जाते हैं।
सच तो यह है कि विश्वविद्यालय से निकलने के बाद शायद ही कोई हो जो पढ़ता-लिखता हो। वह इतना ऊब गया होता है, इस बुरी तरह थक गया होता है कि जीवन भर का काम निपट गया होता है। जब कि असलियत यह है कि विश्वविद्यालय सिर्फ पढ़ने की क्षमता देता है, अभी पढ़ना शुरू होना चाहिए। सिर्फ समझने की क्षमता देता है, समझना शुरू होना चाहिए। तो हम समझते हैं, अंत आ गया। आ ही जाएगा, क्योंकि हम इतना थका डालते हैं, इतना तनाव दे देते हैं; सीखने जैसा तो कुछ बहुत नहीं हो पाता, लेकिन सीखने की चेष्टा बहुत चलती है।
इस नई पद्धति में, इसको वे कहते हैं, सब्लिमिनल जो कांशसनेस है, जो हमारी इस ऊपर की चेतना के नीचे दबी हुई जो चैतन्य की धारा है, उस धारा को सीधी शिक्षा। बीच में आपको हम नहीं लेते। आपको तनाव करने की जरूरत नहीं, आप पड़े रहो।
रूस हिप्नोपेडिया पर बहुत से प्रयोग कर रहा है--रात्रि-शिक्षण पर--कि विद्यार्थी सो रहा है, उसके कान के पास छोटा सा यंत्र लगा है। वह यंत्र, जब उसकी गहरी नींद शुरू हो जाएगी घंटे भर के बाद, तब वह यंत्र बोलना शुरू कर देगा। और दो घंटे रात में शिक्षा होगी। समझो कि बारह से दो के बीच। दो बजे वह यंत्र घंटी बजाएगा। विद्यार्थी उठेगा और उसे जो भी याद आता हो, इस दो घंटे में जो नींद में उसने सीखा, उसे नोट कर लेगा, फिर सो जाएगा। फिर सुबह चार से छह, उसको दो घंटे फिर पुनरुक्ति होगी।
और बड़ी हैरानी की बात है कि जो महीनों श्रम करके हम नहीं समझा सकते, वह सात दिन की हिप्नोपेडिया से, सम्मोहनशिक्षा से पूरा हो जाता है। क्योंकि उस वक्त कोई चेष्टा नहीं, कोई तनाव नहीं, बच्चा नींद में तैर रहा है। कोई बात सीधी चली जाती है, हृदय तक पहुंच जाती है। फिर वह उसे कभी नहीं भूलता है। बुद्धि कोई श्रम नहीं करती है।
यह सब लाओत्सियन है। अगर इसको हम ठीक से समझें, तो जो मैं परसों आप से कह रहा था कि लाओत्से दुनिया के कोने-कोने में बहुत तरह से हमला कर रहा है। अनेकों को पता भी नहीं है कि यह दृष्टि लाओत्सियन है। क्योंकि लाओत्से कहता है, सीखोगे तो क्या खाक सीख पाओगे! सीखो मत। सीखने की चेष्टा बाधा है। तुम तो सिर्फ गुजर जाओ शांति से; जो सीखने योग्य है, वह सीख जाओगे। तुम मौन गुजर जाओ; तुम सिर्फ ग्राहक भर रहो, तुम सिर्फ रिसेप्टिव गुजर जाओ। तुम चेष्टा मत करो। चेष्टा बंद कर देती है, रिसेप्टिविटी को कम कर देती है। बंद हो जाता है, क्लोज्ड हो जाता है।
अनेक आयामों में जो उसने कहा है, वह यही है कि आदमी कुछ करता है, यह भ्रांति है; चीजें घटित होती हैं। आदमी न करे, तो बहुत कुछ जान पाएगा। क्योंकि करने का जो तनाव है, वह उसकी जानने की क्षमता को क्षीण कर देता है। आदमी जो-जो मांगता है, वह उसे कभी नहीं मिलता। भिखारियों को कभी कुछ नहीं मिलता; सम्राटों को सब कुछ मिल जाता है। जो नहीं मांगता, सब कुछ उसका है।
अधिकार नहीं करता ज्ञानी, स्वामित्व निर्मित नहीं करता। करता है, जो करने योग्य जीवन में घटित होता है। श्रेय नहीं लेता, और सारा श्रेय उसका है।

प्रश्न:

भगवान श्री, लाओत्से के ऐसे जीवन-दर्शन में साधना का क्या स्थान होगा? और जो केवल बहने पर निर्भर होता है, तैरने पर नहीं, वह अपने लक्ष्य तक कैसे पहुंच सकता है? क्या लक्ष्य तक पहुंचने के लिए भी यत्न की आवश्यकता नहीं है? लाओत्से का कुछ न करना, निष्क्रिय होना भी एक प्रकार का लक्ष्य जान पड़ता है। अबोध, अनजान धाराओं पर अपने आपको छोड़ देना ज्ञान है, ज्ञानी का लक्षण है? अथवा अज्ञान और अज्ञानी का?

लाओत्से साधना में भरोसा नहीं करता। चूंकि लाओत्से कहता है, जो भी साध कर मिलेगा, वह स्वभाव न होगा। इसे थोड़ा समझ लें। जो भी साध कर मिलेगा, वह स्वभाव न होगा। जिसे साधना पड़ेगा, वह आदत ही होगी। स्वभाव तो वही है, जो बिना साधे मिला है। जो है ही, वही स्वभाव है। जिसे निर्मित करना पड़े, वह स्वभाव नहीं, वह आदत ही होगी।
एक आदमी सिगरेट पीने की आदत बना सकता है; एक आदमी प्रार्थना करने की आदत बना सकता है। जहां तक आदत का संबंध है, दोनों आदतें हैं। सब आदतें स्वभाव के ऊपर आच्छादित हो जाती हैं, जैसे जल के ऊपर पत्ते छा जाएं। स्वभाव नीचे दब जाता है।
लाओत्से कहता है, साधना नहीं है कुछ। जो मिला ही हुआ है, जो पाया ही हुआ है, जो तुम हो, उसी को जानना है। इसलिए कोई नई आदत मत बनाओ। लाओत्से योग, साधना, किसी के पक्ष में नहीं है। लाओत्से कहता है, कोई आदत ही मत बनाओ। तुम तो निपट उसे जान लो, जो तुम जन्म के पहले थे और मृत्यु के बाद भी रहोगे। तुम तो उसे खोज लो, जो गहरे में अभी भी मौजूद है। फिर तुम जो भी साधोगे, वह परिधि पर होगा। कोई साधना केंद्र पर नहीं हो सकती। साधेगा जो आदमी, वह परिधि पर साधेगा। तुम जो रंग-रोगन करोगे, वह शरीर पर होगा। बहुत से बहुत जो तुम मेहनत उठाओगे, वह मन पर होगी। लेकिन स्वभाव शरीर और मन दोनों के पार है। उस स्वभाव को जानने के लिए तुम्हें कुछ भी करने की जरूरत नहीं है।
लेकिन ध्यान रहे, कुछ भी न करना बहुत बड़ा करना है। कुछ भी न करना छोटी बात नहीं है। इसलिए जब हम सुनते हैं, कुछ भी न करना, तो हमारे मन में होता है कि हम तो कुछ कर ही नहीं रहे हैं, तो बिलकुल ठीक है। तो लाओत्से यही कह रहा है, जैसे हम हैं, कुछ भी नहीं कर रहे हैं।
लाओत्से आपके लिए नहीं कह रहा है। आप तो बहुत कुछ कर रहे हैं। आप अगर परमात्मा को नहीं साध रहे हैं, तो आप संसार को साध रहे हैं। साधना आपकी जारी है। अगर आप परमात्मा को खोजने नहीं जा रहे हैं, तो खोने जा रहे हैं, लेकिन पूरी ताकत लगा रहे हैं।
तो आप यह मत सोचना कि आप कुछ नहीं कर रहे हैं, यही लाओत्से कह रहा है। आपका कुछ न करना कुछ न करना नहीं है। आपका कुछ न करना संसार की दिशा में सब कुछ करना है, सिर्फ परमात्मा की दिशा में कुछ न करना है।
तो एक आप हैं। आपके भी खिलाफ है लाओत्से। वह कह रहा है कि नहीं। एक आप में से कोई संसारी कभी-कभी छोड़ कर संसार, परमात्मा को साधने लग जाता है। लेकिन उसकी मेथोडोलाजी वही होती है, उसकी विधि वही होती है। जिस ढंग से वह धन कमाता था, वैसे ही वह धर्म कमाता है। और जिस ढंग से वह शरीर पर मेहनत और तनाव डाल कर इस जगत में कुछ पाना चाहता था, वैसे ही वह उस जगत में पाने की कोशिश में लग जाता है। लाओत्से कहता है, वह भी गलत है और आप भी गलत हो। क्योंकि जिसे पाना है, अगर वह भविष्य में मिलने वाली चीज हो, तब तो कुछ करना पड़ेगा। लेकिन वह मिली ही हुई है। उसको सिर्फ अनकवर करना है, डिस्कवर करना है, उसे उघाड़ना है। और सब साधना उसे ढांकेगी, उघाड़ेगी नहीं। सब साधना उसे ढांकेगी, उघाड़ेगी नहीं।
तो आप पूछ सकते हैं कि फिर जो साधना के पंथ हैं, वे क्या करते हैं? क्या वे गलत हैं?
लाओत्से के हिसाब से बिलकुल गलत हैं। लाओत्से के हिसाब से बिलकुल गलत हैं। क्योंकि लाओत्से कहता है, कुछ मत साधो, सब छोड़ दो, और तुम जान लोगे। लेकिन आपके हिसाब से वे पंथ बड़े सही हैं। क्योंकि आप सिर्फ करने की भाषा ही समझ सकते हैं। न करने की भाषा का मतलब ही आप नहीं समझ सकते।
लाओत्से जो कह रहा है, कभी करोड़ में एक आदमी ठीक से समझ पाता है--न करना। और जो न करना समझ लेता है, वह उसी क्षण मुक्त हो गया। उसके लिए दूसरे क्षण भी रुकने की जरूरत नहीं। लेकिन बाकी लोग नहीं समझ पाते हैं। बाकी लोग नहीं समझ पाते, उनके लिए क्या करना है? या तो लाओत्से अपनी बात कहे चला जाए, बाकी लोग जो करते हैं, वह करते चले जाएं।
नहीं, बाकी जो लोग नहीं समझ पाते हैं, करना ही समझ पाते हैं, उनसे कुछ करवाना पड़ता है। और उनसे इतना करवाना पड़ता है कि वे कर-करके थक जाएं और छोड़ दें। लेकिन घटना तभी घटती है, जब वे छोड़ते हैं। ध्यान रखें, घटना लाओत्से के पहले घटने वाली नहीं है। उनको कर-करके थकाना होता है। उनसे इतना करवाना होता है कि वे इतने तनाव में आ जाएं कि और तनाव का उपाय न रह जाए और तनाव छूट जाए।
तनाव के नियम हैं। या तो आप तनाव को छोड़ दें इसी वक्त--समझपूर्वक। एक तो रास्ता है, समझपूर्वक तनाव का छोड़ देना। मेरी यह मुट्ठी बंधी है। एक रास्ता तो यह है कि आपने मुझसे कहा कि बंधा होना मुट्ठी का स्वभाव नहीं है, इसलिए तुम थक जाओगे। आपने मुझसे कहा, बंधा होना मुट्ठी का स्वभाव नहीं है, इसलिए तुम नाहक थक जाओगे। क्योंकि बांधने में तुम्हें शक्ति लगानी पड़ रही है और व्यर्थ तुम कष्ट पा रहे हो। तो मैं आपसे पूछूं कि मुट्ठी को कैसे खोलूं? क्या उपाय करूं? क्या साधना करूं कि मुट्ठी खोलूं? तो आप कहेंगे, फिर समझे नहीं। क्योंकि साधना करनी पड़ेगी मुट्ठी खोलने के लिए! मुट्ठी बांधने के लिए श्रम करना पड़ रहा है। समझ आ गई, तो मुट्ठी खुल जानी चाहिए। पूछना ही नहीं चाहिए।
लेकिन आप पूछते हैं, क्या करें? क्या दूसरी मुट्ठी बांधें? कि सिर के बल खड़े हों? क्या करें?
आप कहते हैं, समझ में आ गया। यद्यपि आपकी समझ में नहीं आया है। अगर समझ में आ गया, तो मुट्ठी खुल जानी चाहिए। वही सबूत होगा कि समझ में आ गया। आपको कहना नहीं पड़ेगा कि समझ में आ गया। क्योंकि बांधने के लिए मेहनत करनी पड़ती है, खोलने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता। सिर्फ बांधना जो हम कर रहे थे, वह भर न करें, मुट्ठी खुल जाती है।
खुली मुट्ठी के लिए आपको कुछ नहीं करना पड़ता, यह आपने कभी खयाल किया? खुली मुट्ठी स्वभाव है। इसलिए खुली मुट्ठी पर कोई श्रम नहीं होता, भार नहीं पड़ता, तकलीफ नहीं होती। आपको कुछ नहीं करना पड़ता, मुट्ठी खुली रहती है। बांधने में कुछ करना पड़ता है।
मोक्ष मनुष्य का स्वभाव है; संसार मनुष्य का विभाव है।
संसार बंधी हुई मुट्ठी जैसा है; मोक्ष खुली हुई मुट्ठी जैसा है।
लाओत्से कहता है, तुम पूछते हो कि खोलने के लिए क्या करें! बांधने के लिए कोई पूछता है क्या करें, तो समझ में आता है। खोलने के लिए कुछ नहीं करना है, सिर्फ खोल दो। जस्ट ओपन इट।
हमको बहुत कठिनाई लगती है कि सिर्फ खोल कैसे दो! असल कारण यह है कि हम खोलना नहीं चाहते। खयाल है कि मुट्ठी में कोहनूर बंधा है। और लाओत्से कहता है, बस खोल दो। तो वह कोहनूर गिर जाएगा। वह हम छिपाए रखते हैं। वह हम लाओत्से को भी नहीं बताते कि हमारी मुट्ठी में कोहनूर बंधा है। उससे हम पूछते हैं, कैसे खोलें? खोलना बहुत कठिन है, कुछ अभ्यास बताएं! अभ्यास वगैरह तरकीब है पोस्टपोनमेंट की कि तुम जब तक अभ्यास बताओ, तब तक हम वह कोहनूर को तो पकड़े रहें। पहले ठीक से खोलना आ जाए तब खोलेंगे।
लाओत्से को भी हम नहीं बताते कि हमारी मुट्ठी में कोहनूर है। और लाओत्से बड़ा हैरान होता है कि खोलने के लिए तो कुछ भी नहीं करना पड़ता मित्र, खोल दो! पर उसे पता नहीं कि खोलने के लिए कुछ करना पड़ेगा। क्योंकि यह आदमी मुट्ठी के भीतर कुछ बांधने के खयाल में है। हम ऐसे ही तनाव से थोड़े ही भरे हैं, हम सब बड़े मतलब से तनाव से भरे हैं। हम सोचते हैं, तनाव छोड़ दें, तो वे सब कोहनूर छूट जाएंगे।
जहां-जहां तनाव की मुट्ठी है, वहां-वहां कुछ-कुछ हमने पकड़ा है। मालकियत छोड़ दो। तो हमारी सारी मालकियत का ही तो सारा खेल है! फिर कल बेटा सुबह उठ कर जाने लगा तो? कल पत्नी ने कहा कि अच्छा नमस्कार, फिर? सारा मालकियत का तो खेल है, वह कल सुबह बिखर जाएगा। हम कहते हैं, बात बिलकुल समझ में आ गई, लेकिन यह तनाव को छोड़ें कैसे? कोई विधि बताओ!
यह विधि हम पूछते हैं पोस्टपोनमेंट के लिए, स्थगन के लिए। तुम्हारी विधि बताओ, हम साधेंगे, कोशिश करेंगे, फिर देखेंगे। जब खुलेगी, तो खोल लेंगे। अभी तो खुलती नहीं है।
लाओत्से की समझ में बिलकुल नहीं पड़ता कि तुम बात कैसी कर रहे हो! मुट्ठी खोलने के लिए कुछ करना पड़ेगा? कोई मंत्रत्तंत्र? कुछ नहीं करना पड़ेगा। स्वभाव तुम्हारा जो है, उसके लिए कुछ नहीं करना पड़ेगा। तुम बस खोल दो। तुम्हें करना पड़ रहा है बांधने के लिए।
अब एक और मजे की बात है। अगर आप नहीं खोलते हैं इस भांति, तो फिर एक दूसरा उपाय है, जो दूसरे हैं। दो ही मार्ग हैं जगत में: करके न करने में पहुंचो, या न करने में सीधे उतर जाओ। छलांग ले लो, या सीढ़ियां चढ़ जाओ।
अगर आप राजी नहीं होते अभी मुट्ठी खोल देने को, तो फिर आपके लिए रास्ते खोजने पड़ते हैं। तो फिर आपसे कहा जाता है, जोर से मुट्ठी को बांधो। इतना बांधो, बांधते चले जाओ, जितनी ताकत हो उतना बांधो!
क्या आपको पता है कि एक सीमा आ जाएगी आपके बांधने की, उसके आगे आप मुट्ठी न बांध सकेंगे! और अचानक आप पाएंगे कि मुट्ठी खुल रही है और कोहनूर गिर रहा है। लेकिन तब आप बांध भी न पाएंगे, क्योंकि सारी तो शक्ति लगा चुके, अब शक्ति बची नहीं है बांधने को।
तो जो मेथड के मार्ग हैं, विधि के मार्ग हैं, वे कहते हैं, बांधो। वे आपको जान कर कहते हैं। आपकी नासमझी इतनी प्रकट है कि आपको जान कर कहते हैं। आपको भलीभांति पहचानते हैं कि आपसे खुलेगी नहीं। आपसे तो खुलेगी तब, जब बंध न सकेगी। इस बात को ठीक से समझ लें। जब आपसे बंधेगी ही नहीं, जब आप अचानक पाएंगे कि सारी कोशिश कर रहे हैं भीतर, लेकिन ताकत साथ नहीं देती है, अब बंधती ही नहीं है, अब खुली जा रही है। जब आपसे बंधेगी ही नहीं, तब खुलेगी।
तो फिर आपको बंधवाने का उपाय करना पड़ता है। सारी विधियां आपकी मुट्ठी को उस सीमा तक ले जाने की हैं, टेंशन टु दि क्लाइमेक्स, आखिरी शिखर तक तनाव, कि उसके बाद बिखराव आ जाता है। सब झटक कर गिर जाता है। अचानक आप पाते हैं कि हाथ खुला है और कोहनूर वगैरह है नहीं। कोहनूर था नहीं कभी। पर खोल कर तक नहीं देखा कि कहीं गिर न जाए। कोहनूर मुट्ठी में है या नहीं, इसको कभी खोल कर भी नहीं देखा। क्योंकि कहीं खोल कर देखें, गिर जाए या पड़ोसी देख ले! तो बांधे चले जाते हैं, बांधे चले जाते हैं। जिस दिन खुलती है मुट्ठी, उस दिन पता चलता है, कोहनूर तो नहीं है। इतनी मेहनत व्यर्थ चली जाती है।
विधि कहती है, बांधो। अविधि का मार्ग, लाओत्से का, कहता है, खोले बिना पाओगे नहीं। तो तुम चाहे अभी खोल लो। लाओत्से कहता है, अभी ही खोल लो। लाओत्से को पता है कि हाथ में कोई कोहनूर नहीं है। पर आपको पता नहीं है। इसलिए हमें अड़चन होती है। दूसरे मार्ग भी यही करवाते हैं, जो लाओत्से करवा रहा है। लेकिन आपको समझ कर चलते हैं। लाओत्से वही कह रहा है, जो वह खुद को समझ कर कह रहा है। अक्सर वह आपके सिर पर से निकल जाएगा।
दूसरे मार्ग आपको समझ कर चलते हैं। वे कहते हैं, ठीक है, आपसे नहीं होगा छोड़ना तो बांधो। हम कुछ विधियां बताते हैं। इनको पकड़ो जोर से। इन पर मेहनत करो। मेहनत करो इतनी कि एक क्षण आ जाए--हालांकि वे यह आपसे नहीं कहेंगे, वे कहेंगे, मेहनत करते जाओ, करते जाओ। एक क्षण आ ही जाएगा, जब सब मेहनत चुक जाएगी, आप असहाय होकर छोड़ दोगे। वे कहते हैं, तैरो जोर से। अब कब तक तैरोगे? यह सागर का कोई किनारा नहीं है, जहां लग जाओगे तैर कर।
लाओत्से कहता है, मत मेहनत उठाओ, क्योंकि कोई किनारा होता, तो तैर कर पहुंच भी जाते। कोई किनारा है नहीं। मत मेहनत उठाओ, बह जाओ। लाओत्से कहता है, कोई मंजिल नहीं है; यह सागर ही मंजिल है। कहीं कोई मंजिल नहीं है, जिस में तुम तैर कर पहुंच जाओगे। यह सागर ही मंजिल है, इसमें ही निमज्जित हो जाना है। इसी में एक हो जाना है। तैरोगे तो लड़ते रहोगे। लड़ते रहोगे तो एक कैसे होओगे? सागर से अलग बने रहोगे।
तैरने वाला सागर से एक कभी नहीं होता। वह लड़ रहा है। तैरने का मतलब है फाइट। वह है लड़ाई। वह यह है कि हम सागर को डुबाने न देंगे, सागर को हम मिटाने न देंगे; हम बचेंगे। सागर की लहरों से हम टक्कर लेंगे। हम किनारा खोजेंगे, हम मंजिल पर जाएंगे। हम हमारी दिशा है; वहां हमें पहुंचना है। लक्ष्य है, जिसे हमें पाना है।
बहने वाला कहता है कि नहीं। लाओत्से कहता है, न कोई मंजिल है सिवाय इस सागर के; न कोई किनारा है सिवाय इस मझधार के; न कहीं पहुंचना है सिवाय वहीं जहां तुम हो। इसलिए छोड़ दो, तैरो मत। बह जाओ, बहना ही मंजिल है। तुम इसी वक्त पा लोगे, अगर तुमने छोड़ दिया तैरना। तो तुम सागर से एक हो जाओगे। दुश्मनी टूट जाएगी, मित्रता सिद्ध हो जाएगी।
लेकिन हम कहते हैं, ऐसा कैसे छोड़ दें? कोई किनारा है। उसे अगर हम ऐसा बहने लगे, तो पता नहीं, उस जगह पहुंच पाएं, न पहुंच पाएं, जहां पहुंचना था। तो हम तो तैरेंगे। तो वे विधियां जो हैं, वे कहती हैं, तैरो! फिर जोर से तैरो। वह रही मंजिल सामने, तैरो। जितनी ताकत लगाओ, तैरो। जन्म-जन्म तैरो। एक दिन तैरत्तैर कर इतने थक जाओगे--सागर तो नहीं थकेगा, आप थक जाओगे--एक घड़ी आएगी, हाथ-पैर निढाल हो जाएंगे। एक घड़ी आएगी, सांसें जवाब दे देंगी। फेफड़े कहने लगेंगे, बहुत हो गया, न कोई किनारा मिलता, न कोई पार मिलता, न कोई मंजिल है। जहां जाते हैं, यही सागर है। तैरत्तैर कर जहां पहुंचते हैं, यही सागर है। किनारा दिखता है दूर से; पास जाते हैं, लहरें ही मिलती हैं। मंजिल दिखती है दूर से; पास पहुंचते हैं, पता चलता है, सागर है। जन्म-जन्म तैर कर पाते हैं, सागर है, सागर है, सागर है, और कुछ भी नहीं! थक गए अब, छोड़ते हैं।
उस छोड़ने में वही घटना घट जाती है, जो लाओत्से आप से कई जन्मों पहले कहा था कि छोड़ दो। और जिस दिन आप छोड़ोगे, उस दिन आपके मन को होगा कि बड़ी भूल की कि लाओत्से की पहले न मान ली। लेकिन शायद, आप जैसे आदमी थे, पहले माना नहीं जा सकता था। आप जैसे आदमी थे, होशियार, पहले नहीं माना जा सकता था। होशियार आदमी तो जब तक पूरी होशियारी न कर ले, तब तक नहीं मानता है। हां, जब होशियारी थक जाती है, टूट जाती है, बिखर जाती है, तब। पर किसी भी स्थिति में घटना तो तभी घटती है, जो लाओत्से कहता है, तभी! आप थक कर वहां पहुंचोगे कि समझ कर?
समझ कर जो काम अभी हो सकता है, थक कर वह जन्मों में होता है। बस, एक टाइम गैप का फर्क पड़ता है। और कोई फर्क नहीं पड़ता है।

प्रश्न:

कृष्णमूर्ति यही कहते हैं?

नकी अलग चर्चा करनी पड़ेगी। जल्दी ही उन पर चर्चा रखेंगे तो खयाल में आएगा।
आज इतना ही।


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