दिनांक:
5अक्टूबर, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सूत्र:
मन
मैं रहिणा, भेद
न कहिणा, बोलिबा
अमृत—बाणी।
आगिला
अगनी होइबा
अवधू तौ आपण
होइबा पाणी।।
गोरष कहै
सुणहुरे अवधू
जग में ऐसै
रहणा।
आषैं
देषिबा काणैं
सुणिबा, मुष
थैं कछू न
कहणा।।
नाथ कहै
तुम आपा राषौ
हठ करि बाद न
करणी।
यहु जग
है कांटे की
बाड़ी देषि
देषि पग धरणी।।
आसण दिढ अहार
दिढ जे
न्यद्रा दिढ
होई।
गोरष कहै सुणौं
रे पूता मरै न
का होई।।
षांयें भी
मरिये
अणषायें भी
मरिये।
गोरष कहै
पूतसंजमि ही
तारिये।।
मधि
निरंतर कीजै
वास।
रूपोश
हकीकत है जब
तक,
अफसाने बंद
नहीं होंगे
इसरारे—हरम
आबाद रहें जब
तक,
अफसाने बंद
नहीं होंगे।
ऐ अहले—खिरद!
मुख्तार हो
तुम,
तामीर करो
जिंदा लेकिन
खुद
रक्स करेंगी
दीवारें, दीवाने
बंद नहीं
होंगे।
यह
लाला—ओ—गुल, माहो—अंजुम
मुंह नोच न
लें वाइज तेरा
मैखाने
बंद नहीं होते, मैखाने
बंद नहीं
होंगे।
खुद
शमए—यकीं बन
जायेंगे, हंस—हंसकर
जल जाने के
लिए
औहाम
के
जुल्मतखानों
में,
परवाने बंद
नहीं होंगे।
यह तजो—मलामत
कुछ भी नहीं
जुज हफें
मुहब्बत कुछ
भी नहीं
दुनिया
है 'रविश' और
दुनिया के
अफसाने बंद
नहीं होंगे।
परमात्मा
जब तक छिपा है, तब
तक उसे
उघाड़नेवाले
लोग पैदा होते
रहेंगे।
रूपोश
हकीकत है जब
तक,
अफसाने बंद
नहीं होंगे।
जब
तक उस प्यारे
के चेहरे पर
पर्दा है, तब
तक राम की
चर्चा चलेगी,
तब तक
प्रार्थना के
गीत जगेगे।
रूपोश
हकीकत है जब
तक,
अफसाने बंद
नहीं होंगे
इसरारे—हरम
आबाद रहें जब
तक,
अफसाने बंद
नहीं होंगे।
यह
जो परमात्मा
की खोज की कथा
है,
यह जारी
रहेगी, जब
तक परमात्मा
खोज न लिया
जाये। लेकिन
परमात्मा की
खोज तो व्यक्तिगत
होती है; कोई
एक खोज पाता
है। जो खोज
लेता है, उसकी
खोज समाप्त हो
जाती है।
लेकिन और हैं
अनेक— अनेक, जो अंधेरे
में भटकते हैं,
उनकी खोज तो
जारी रहेगी।
धर्म
तब तक रहेगा
पृथ्वी पर, जब
तक एक भी आदमी
सोया हुआ है, जब तक सभी
नहीं जाग गये।
जब तक सभी के
दीये नहीं जल
गये।
ऐं
अहले—खिरद!
मुख्तार हो
तुम,
तामीर करो
जिंदा लेकिन
हे
बुद्धिमान
लोगो, हे
पंडितो! ऐ
अहले खिरद!
जिनका भरोसा
बुद्धि पर है,
तर्क पर है...
ऐ अहले—खिरद!
मुख्तार हो
तुम,
तामीर करो
जिंदा लेकिन
बनाते
रहो तुम
शास्त्रों की
दीवालें, खड़े
करते रहो
शब्दों के
कारागृह, ढालते
रहो
सिद्धातों की
जंजीरें।
ऐ अहले—खिरद!
मुख्तार हो
तुम,
तामीर करो
जिंदा लेकिन
खुद
रक्स करेंगी
दीवारें, दीवाने
बंद नहीं
होंगे।
लेकिन
जिन्हें
प्रभु की
पुकार सुनाई
पड़ गयी वे तो
दीवालों के
भीतर भी नाचने
लगेंगे। उनके साथ
तो कारागृह की
दीवारें भी
नाचने लगेंगी।
और कितने ही
तुम सिद्धात
बनाओ, इस
पृथ्वी से तुम
प्रेमी
पागलों को
मिटा न सकोगे।
क्योंकि कोई
सिद्धात
तृप्ति देता
नहीं।
सिद्धात ऊपर—ऊपर
रह जाता है, प्राण उससे
भीगते नहीं।
सिद्धात सिर
में गूंजता रह
जाता है, आत्मा
उससे अछूती रह
जाती है।
ऐ अहले—खिरद!
मुख्तार हो
तुम,
तामीर करो
जिंदा लेकिन
खुद
रक्स करेंगी
दीवारें, दीवाने
बंद नहीं
होंगे।
कितने
सिद्धातों के
जेल खड़े कर
दिये गये हैं—हिंदू
मुसलमान, ईसाई,
पारसी, जैन,
बौद्ध, सिक्स।
ये सब कारागृह
हैं। मंदिरों
के नाम पर
जंजीरें
ढालने के
कारखाने बने
हैं।
मस्जिदों में
तुम्हारी
गुलामी ढाली
जा रही है। पर
फिर भी प्रभु
के प्यारे इन
सारी जंजीरों
के बीच भी नाच
उठते हैं।
उनके साथ
जंजीरें भी
पायल की झनकार
बन जाती हैं।
नाच आये तो
जंजीर भी पायल
बन जाती है, नाच न आता हो
तो पायल भी
जंजीर है। नाच
आये तो
कारागृह भी
नृत्यशाला है,
नाच न आता
हो तो
नृत्यशाला
में बैठकर भी
क्या करोगे? पीना आता हो
तो तुम जो पी
लो वही मधु है;
और पीना न
आता हो तो
अमृत की धार
भी बरसती रहे
तो तुम्हारे
किस काम की?
यह
लाला— ओ—गुल, माहो—
अंजुम मुंह
नोच न लें
वाइज तेरा!
ये
फूल,
लाला— ओ—गुल,
ये माहो—
अंजुम, ये
सूरज, ये
चांद—तारे.. हे
तथाकथित
बुद्धिमान, कहीं तेरा
मुंह न नोच
लें। ३ पंडित,
कहीं तुझे
भूमि की धूल न
चटा दें।
क्योंकि तू जो
भी कर रहा है
वह सौंदर्य के
विपरीत है। तू
जो भी कर रहा
है वह चांद—तारों
के महोत्सव के
विपरीत है।
पंडितों
ने बड़ी उदास
धारणाएं
मनुष्य को दी
हैं। उन उदास
धारणाओं में
फूल नहीं ??, उन
उदास धारणाओं
में कब्रों की
दुर्गंध आती है।
उन उदास
धारणाओं में
चांद—तारे
नहीं चमकते, उन उदास
धारणाओं में
गहन अंधकार है।
इसलिए
सारी मनुष्य—जाति
धार्मिक
मालूम होती है, फिर
भी धर्म कहां?
धर्म होता
तो उत्सव होता।
तो लोगों के
चेहरों पर फूल
खिलते, कि
उनकी आंखों
में चांद—तारे
होते, कि
उनके हृदय में
वीणा बजती, कि उनके
जीवन में एक
नृत्य होता।
कहां है नृत्य,
कहां हैं
चमकती हुई आंखें?
कहां हैं
नाचते हुए लोग?
कहां हैं रस—
भरी आत्माएं?
और कहते हैं
परमात्मा रस
है, रसों
वै सः!
परमात्मा रस
है, मगर
तुम्हारे
महात्मा बड़े
विरस हैं।
परमात्मा से
तुम्हें
जिन्होंने
तोड़ दिया है, वे तुम्हारे
महात्मा हैं।
अस्तित्व के
बीच और
तुम्हारे बीच
जो दीवाल बनकर
खड़े हो गये
हैं, चीन
की दीवाल बनकर
खड़े हो गये
हैं, वे
तुम्हारे
तथाकथित
पंडित—पुरोहित
हैं। और जब तक
कोई व्यक्ति
पंडित—पुरोहितों
से मुक्त नहीं
होता तब तक
बुद्धि
से मुक्त नहीं
हो पाता। और
अभागा है वह
आदमी जो
बुद्धि में ही
जी लेता है और
बुद्धि में ही
मर जाता है।
उसे पता ही
नहीं चलता
जीवन का राज।
उसे जीवन के
रहस्यों का
कोई बोध नहीं
होता।
यह
लाला—ओ—गुल, माहो
अंजुम मुंह
नोच न लें
वाइज तेरा
मैखाने
बंद नहीं होते, मैखाने
बंद नहीं
होंगे।
यद्यपि
तुम करते रही
गुहार, तुम
मचाते रहो
पुकार, लेकिन
कहीं न कहीं
कोई मैखाना
पैदा हो जाता
है। जहां कोई
गोरख पैदा हुआ,
वहां मैखाना
पैदा हुआ।
जहां कोई कबीर
उठा वहा
मैखाना उठा।
जहां कोई जीसस
चला वहां
मधुशाला चली।
बुद्ध जहां
बैठे, वहीं
महोत्सव होगा।
मैखाने
बंद नहीं होते, मैखाने
बंद नहीं
होंगे।
यद्यपि
जहां—जहां
मैखाने बनते
हैं,
जल्दी ही
वहां
मधुशालाएं तो
समाप्त हो
जाती हैं, वही
मंदिर और
मस्जिद खड़े हो
जाते हैं।
बुद्ध के पास
तो एक मधुर रस
बरस रहा है, लेकिन फिर
आते हैं बौद्ध
पंडित और उनकी
जमात, मधुशाला
जल्दी ही एक
उदास मंदिर बन
जाती है।
नृत्य जल्दी
ही क्रिया—कांड
हो जाते हैं।
हृदय से उठे
हुए उच्छवास
जल्दी ही
औपचारिक प्रार्थनाएं
बन जाते हैं।
जहा जीवंत
सत्य का
आविर्भाव
होता था, वहा
अब सत्य के
संबंध में
चर्चा होती है।
ऐसा
ही जीसस के
साथ होता, ऐसा
ही कृष्ण के
साथ होता, ऐसा
ही सभी
सदगुरुओं के
साथ हुआ है।
कृष्ण के
मंदिर तक में
अब बांसुरी
कहां बजती है?
कृष्ण के
मंदिर तक में
अब ढोलक पर
थाप कहां पड़ती
है? कुछ
अजीब—सा जाल
है आदमी का, आदमी
मुक्तिदाताओं
से भी अपनी
अमुक्ति खोज लेता
है। मगर
सौभाग्य है एक
कि हमारे सारे
आयोजन के बावजूद,
हमारी सारी
व्यवस्था, बंदोबस्त
के बावजूद, कोई—न—कोई
खिल उठता है, कहीं कोई
कमल खिल जाता
है, कहीं
कोई सुवास
उड़ने लगती है
आकाश की तरफ, कहीं पूजा
के स्वर फिर
सुनाई पड़ते
हैं, कहीं
फिर जीवन अपनी
मस्ती में आ
जाता है!
मैखाने
बंद नहीं होते, मैखाने
बंद नहीं
होंगे।
खुद
शमए—यकीं बन
जायेंगे, हंस—हंसकर
जल जाने के
लिए
औहाम
के
जुल्मतखानों
में,
परवाने बंद
नहीं होंगे।
अच्छा
है कि परवाने
अंधविश्वासों
के अंधेरे में
बंद नहीं होते; वे
तो जल जाने के
लिए आतुर होते
हैं। और अगर
शमाएं न मिलें
तो वे खुद ही
शमाएं बन जाते
हैं। परवाने
ही शमाएं बन
जायेंगे अगर
शमाएं न मिलें।
लेकिन परवाने
अंधविश्वास
के अंधेरों
में बंद नहीं
होते।
यह
पृथ्वी अंधविश्वास
के अंधेरे से
भरी है। और
अंधविश्वास
इतना प्राचीन
है कि ऐसा
लगता है कि
अंधविश्वास
ही जीवन है।
ईश्वर को तुम
मानते हो तो
अंधविश्वासी
हो। ईश्वर को
जानना होगा, मानने
से कुछ काम
नहीं चलेगा।
मानना बड़ी
सस्ती बात है।
मानना बिलकुल
ही दो कौड़ी की
बात है। जो
मानता है वह
अधार्मिक है।
जानना होगा, जानने से कम
में काम नहीं
होगा। लेकिन
जानने की
हिम्मत
जुटानी पड़ती
है। जानने के
लिए तो परवाने
को शमा बन
जाना होता है।
और जानने के
लिए तो अपने
प्राणों की
आहुति देनी
होती है।
जानने के लिए
तो दाव पर
लगाना होता है
जीवन को।
धर्म
कोई कुतूहल
नहीं है, धर्म
कोई खाज की
खुजलाहट नहीं
है—धर्म है
प्राणों की
बाजी। इसलिए
थोड़े—से साहसी
लोग ही
धार्मिक हो
पाते हैं।
धर्म भयभीतों
के लिए नहीं
है, कायरों
के लिए नहीं
है। कायर तो
भगोड़े हो जाते
हैं। धर्म तो
उनके लिए है, जो जीवन के
युद्ध में, जीवन की चुनौती
को, उसकी
समग्रता में
स्वीकार करते
हैं। जो जीवन
को जीते हैं, पूर्णता से
जीते हैं। जो
भागते नहीं।
जो डरे हुए
नहीं हैं। जो
कंपे हुए नहीं
हैं। जो पैर
जमाकर जीवन
में संघर्ष
लेते हैं। उसी
संघर्ष से
आत्मा का जन्म
होता है।
उन्हीं
चुनौतियों
में आत्मा
पकती है, सबल
होती है।
गोरख
के सूत्र
तुम्हारे
जीवन को
मधुशाला बना दे
सकते हैं।
गोरख के सूत्र
तुम्हें
परवाना बना
सकते हैं—और
ऐसा परवाना कि
अगर शमा न
मिले तो तुम
खुद शमा बन
जाओ। ये सूत्र
अदभुत हैं। एक—एक
सूत्र में खूब
डूबना, पीना।
एक—एक सूत्र
को प्याली में
भर लेना हृदय
की।
मन मैं
रहिणा भेद न
कहिणा बोलिबा
अमृत— बाणी
आगिला
मानी होड़बा
अवधू तौ आपण
होइबा पली
मन मैं
रहिणा।
अभी
तुम बाहर रह
रहे हो। अभी
तुम्हें भीतर
रहने की कला
नहीं आती। इसी
से दुखी हो।
जो बाहर है वह
दुखी, जो भीतर
है वह सुखी।
जो बाहर है वह
नर्क में है, जो भीतर है
वह स्वर्ग में
है। बाहर रहने
का अर्थ होता
है. वासनाओं
में रहना। धन
मिले, पद
मिले, प्रतिष्ठा
मिले, सम्मान
मिले, समादर
मिले। बाहर
रहने का अर्थ
होता है, कुछ
मिले, तो
सुख हो। भीतर
रहने का अर्थ
होता है जिससे
सुख हो सकता है,
वह तो मिला
ही हुआ है।
इस
भेद को खूब
बारीकी से याद
रख लेना। बाहर
रहने का अर्थ
होता है कुछ
मिले तो सुख
होगा; सुख
सशर्त है। एक
शर्त है। कोई
कहता है दस
लाख रुपये
मेरे पास हों
तो मैं सुखी
होऊंगा। ये
उसने शर्त लगा
दी सुख पर। अब
दस लाख जब तक
नहीं मिलेंगे,
वह दुखी
रहेगा। और उसे
एक और अचंभा
उस दिन होगा
जब दस लाख
मिलेंगे। जब
तक दस लाख
नहीं मिले
दुखी हो गया, क्योंकि
शर्त लगा दी
सुख पर। जिसने
भी शर्त लगायी,
वह चूका; क्योंकि सुख
बेशर्त मिला
हुआ है। सुख
हमारा स्वभाव
है। सुख हम
लेकर आये हैं।
सुख हमारे
भीतर बसा है।
और तुम बाहर
खोजने चल पड़े।
और तुमने सुख
पर शर्तें लगा
दीं। बाहर
खोजना है तो
शर्त लगानी
पड़ती है, नहीं
तो खोजोगे
क्या? खोज
का अर्थ होता
है : शर्त पूरी
करने का उपाय।
किसी ने कहा
कि जब तक
प्रधानमंत्री
न हो जाऊंगा, सुखी न
होऊंगा; उसने
एक शर्त लगा
दी। अब साठ
करोड़ का देश
हो तो प्रधानमंत्री
होना लंबी
यात्रा है।
जिंदा—जिंदा
पहुंच पाओगे,
इसकी
संभावना कम है।
तो पूरी
जिंदगी तो दुख
में बीतेगी।
क्योंकि जब तक
शर्त पूरी
नहीं होती, सुखी कैसे
हो जाऊं? और
जो आदमी पूरी
जिंदगी दुख
में जीया है
वह जब प्रधानमंत्री
हो जायेगा तो
और चकित होगा
कि पूरी
जिंदगी दुख
में रहने के
कारण दुख आदत
हो गयी। इसलिए
प्रधानमंत्री
होने से ही
कोई दुख की आदत
इतनी जल्दी
छूट नहीं
जायेगी।
तुम
जानते हो, आदतें
बड़ी मुश्किल
से छूटती हैं।
अब अगर जिस
आदमी ने साठ
साल तक दुख की
आदत का अभ्यास
किया है—सतत, अहर्निश, सुबह और शाम,
जागते और
सोते एक ही
सपना देखा है
कि कैसे प्रधानमंत्री
हो जाऊं—वह
साठ साल बाद
जब
प्रधानमंत्री
हो जाये—अगर
हो जाये, संभावना
बहुत कम है, अधिक लोग तो
मर जायेंगे, प्रधानमंत्री
नहीं हो
पायेंगे—लेकिन
कभी किसी
बिल्ली के
भाग्य से
छींका टूट जाये,
जैसे
इंदिरा का
छींका टूट गया
मोरारजी के
भाग्य से, टूट
जाये तो भी
सुखी नहीं हो
सकेगा
व्यक्ति।
क्योंकि अब
साठ साल का
निरंतर
अभ्यास कहां
छोड़ोगे? वे
जो दुख की
आदतें बन गयी
हैं, वह जो
चित्त दुख में
रहने का आदी
हो गया है, उसे
कैसे छोड़ोगे?
ऐसा थोड़े ही
है कि उतार कर
रख दिया, अब
तो दुख
तुम्हारी
हड्डी—मांस—मज्जा
हो गया। ऐसा
थोड़े ही है कि
कपड़े जैसा है
कि उतार कर रख
दिया और दूसरे
कपड़े पहन लिए।
अब तो दुख
तुम्हारी
चमड़ी हो गया
है। अब तो दुख
उतारना बड़ा
मुश्किल हो
जायेगा। तो
नये दुख के
आयोजन मन कर
लेगा।
दस
लाख जब तक
नहीं मिले हैं
तब तक दस लाख
मिल जाएं, इसके
लिए दुखी हो।
जैसे ही दस
लाख मिलेंगे
तुम पाओगे, मन कहता है
दस लाख से
क्या होगा, कम—सें—कम
करोड़ तो चाहिए
ही। इसलिए कोई
वासना पूरी
नहीं होती, क्योंकि जब
तक पूरे होने
का समय आता है
तब तक दुख की
आदत हो जाती
है। तुम नया
प्रक्षेपण कर
लेते हो। तुम
दुख के लिए
नयी शर्त बना
लेते हो। तुम
शर्त को आगे
हटा देते हो।
तुम कहते हो
एक करोड़ होगा
तब सुखी हो
पाऊंगा। और
तुम सब जानते
हो, इसके
लिए कोई
प्रधानमंत्री
होने की जरूरत
नहीं है। तुम
सब जानते हो, सोचते थे यह
कार मिल जाये,
यह मकान मिल
जाये, यह
दुकान मिल जाये—मिल
गयी; सुखी
कहौ हो? सोचते
थे यह स्त्री
मिल जाये, मिल
गयी; यह
पुरुष मिल
जाये, मिल
गया—सुखी कहा
हो? सुख
कहां है?
शायद
तुम्हें याद
ही न आया हो कि
जिस दिन तुम्हें
जो चीज मिल
जाती है, उसी
दिन व्यर्थ हो
जाती है। उसी
दिन तुम दूसरी
योजना बनाने
लगते हो। मन
नये सपने
देखने लगता है—और
आगे कैसे
पहुंच जाऊं!
तुमने नयी
शर्त लगा दी।
शर्त को तुमने
आगे हटा दिया।
शर्त को तुम
जीवन— भर आगे
हटाते जाओगे
और तुम दुखी
रहोगे।
सुख
होता है
बेशर्त, उसकी
कोई शर्त नहीं
है। और जिसको
यह समझ में आ
गया है कि सुख
बेशर्त है, वह तत्कण
भीतर मुड़ जाता
है। बाहर तो
हम चलते ही
इसलिए हैं कि
शर्तें पूरी करनी
हैं। शर्तें
बाहर ही पूरी
हो सकती हैं, भीतर शर्तें
पूरी कैसे
करोगे? भीतर
तो न तो धन
पैदा कर सकते
हो, न पद
पैदा कर सकते
हो। आंख बंद
किये—किये
बैठे—बैठे
प्रधानमंत्री
नहीं हो जाओगे;
न ही आंख
बंद किये बैठे—बैठे
कोहिनूर
हीरों का ढेर
तुम्हारे
सामने लग
जायेगा; न
ही आंख बंद
किये बैठे—बैठे
जगत में
तुम्हारी
ख्याति हो
जायेगी। नहीं,
भीतर तो कोई
शर्त पूरी
नहीं हो सकती
है। भीतर तो
वही जायेगा
जिसने शर्त की
मूढ़ता देख ली
है; जिसने
देखा कि सब
शर्तें पूरी
हो जायें तो
भी कुछ पूरा
नहीं होता।
जिसे यह सत्य
दिखाई पड़ गया,
वही भीतर
जाता है।
और
जो भीतर गया, उसने
सुख पाया; क्योंकि
भीतर सुख
मौजूद है। सुख
तुम्हारा
स्वभाव है।
मन मैं
रहिणा.!
मन
में रहने का
अर्थ होता है, भीतर
रहना। वहां
रहना जहा तुम
हो। वहां से
हटना मत। वहा
से हटे कि
भटके। हटाता
कौन है? वासना
हटा लेती है, इच्छा हटा
लेती है, आकांक्षा
हटा लेती है।
आकांक्षा
कहती है. यहां
बैठे—बैठे
क्या कर रहे
हो भीतर? उठो,
चलो, बहुत
कुछ करना है
दुनिया में।
बड़ी यात्राएं
करनी हैं, पूरी
करो। ऐसे तो
जिंदगी गंवा
दोगे।
हम
सब चल पड़ते
हैं। और सारी
दुनिया चल रही
है,
इसलिए लगता
है कि चलना ही
ठीक मालूम
होता है। ठीक
है चलना ही, क्योंकि सभी
चल रहे हैं।
मनुष्य तो
अनुकरण करता
है। बाप चल
रहा है, भाई
चल रहे हैं, मित्र चल
रहे हैं, पड़ोस
के लोग चल रहे
हैं, सब चल
रहे हैं बाहर—तुम
भी भागे। तुम
भी छिटके भीतर
से। तुमने भी
मन का व्यापार
शुरू किया।
तुमने कहा यह
हो जाये, वह
हो जाये। मेरे
पास जब इतना
सब होगा, तब
सुखी होऊंगा।
और
मैं तुमसे
कहना चाहता
हूं और सदा से
बुद्धपुरुषों
ने यही कहा है
कि अगर तुम
सुखी होना चाहते
हो तो कहीं भी
जाने की जरूरत
नहीं है। लाओत्सु
का वचन है :
अपना कमरा भी
छोड़ने की जरूरत
नहीं है।
क्योंकि सुख
तुम्हारी
संपदा है। यह
धर्म का
आधारभूत सत्य
है. कि सुख
कमाना नहीं
होता, सुख मिला
हुआ है। सुख
प्रसाद है; परमात्मा ने
दिया ही हुआ
है। मगर तुम
उस प्रसाद को
देखो कब? तुम
तो पीठ किये
हो प्रसाद की
तरफ। तुम तो
भागे जाते हो
बाहर। तुम तो
रुकते ही नहीं
हो क्षण— भर को।
तुम्हारी दौड़
तो अहर्निश चल
रही है। दिन—
भर सोचते हो, सोचने में
दौड़ते हो। रात—
भर सपने देखते
हो, सपनों
में दौड़ते हो।
दौड़ते ही चले
जाते हो।
रुकोगे कब? ठहरोगे कब? जिस दिन ठहर
जाओगे, जिस
दिन रुक जाओगे,
उसी दिन
अचानक
चौंकोगे, विश्वास
भी न आयेगा, अवाक रह
जाओगे, ठगे—कि
मैं क्यों
इतना व्यर्थ
दौड़ा! जिसे
मैं खोजता था,
वह मेरे
भीतर मौजूद है।
मन मैं
रहिणा भेद न
कहिणा..!
और
यह जो मन के
भीतर तुम्हें
अनुभव में आये, इसे
किसी से कहना
मत। क्यों? इस भेद को
क्यों न कहना?
क्योंकि यह
भेद ऐसा है कि
तुम जिससे
कहोगे वही
हंसेगा। और हो
सकता है अभी
तुम में इतनी
सामर्थ्य न हो
कि तुम दूसरों
की हंसी झेल
सको। क्योंकि
यह भेद तुम
जिससे कहोगे,
वही
तुम्हें पागल
समझेगा। और हो
सकता है अभी
तुम कच्चे—कच्चे
होओ, अभी
नये—नये भीतर
की यात्रा पर
चले, कहीं
लोगों का
हंसना
तुम्हें
छिटका न दे।
कहीं ऐसा न हो
कि लोग
तुम्हें पागल
कहने लगें, तुम्हें भी
शक हो जाये कि
कौन जाने!
आदमी
लोगों के
मंतव्यों से
जीते हैं। जो
लोग कहते हैं
वही तुम मान
लेते हो। और
तुम मान्यता
पाओगे कहां से? तुम्हारे
पास अभी इतनी
तो क्षमता
नहीं है, इतना
तो बोध नहीं
है कि तुम
अपनी मान्यता
अपने भीतर से
पा सको। तुम
अपनी मान्यता
बाहर से पाते
हो। इसलिए तो
तुम इतने
उत्सुक होते
हो कि कोई प्रशंसा
करे और इतने
डरे होते हो
कि कहीं निंदा
न हो जाये।
दुनिया में
तुम्हें इतने
लोग जो नैतिक
मालूम पड़ते
हैं, इसका
कारण इनका
नैतिक होना
नहीं है; इसका
कुल कारण इतना
है, ये डरे
हुए हैं कि
लोग क्या
कहेंगे? ये
भयभीत लोग हैं;
इनकी नीति
में भय है।
अगर इनको
पक्का भरोसा आ
जाये कि हम
पकड़े नहीं जायेंगे,
कि पकड़ने का
कोई उपाय ही
नहीं है हमें,
तो ये सारे
लोग अनीति में
उतर जायेंगे।
इसलिए
अक्सर ऐसा
होता है, जो
लोग सत्ता में
पहुंच जाते
हैं, वे
अनैतिक हो
जाते हैं।
लार्ड ऐक्टन
का प्रसिद्ध
वचन है : पावर
करप्ट्स एंड
करप्ट्स
एकोज्यूटली।
सत्ता लोगों
को भ्रष्ट कर
देती है; और
अंशत: नहीं, पूर्णत:
भ्रष्ट कर
देती है, समग्रत:
भ्रष्ट कर
देती है।
क्यों? मैं
ऐक्टन की बात
से सहमत भी
हूं और नहीं
भी। सहमत
इसलिए हूं कि
तथ्य तो यही
है कि सत्ता
लोगों को
भ्रष्ट करती
दिखाई पड़ती है।
अच्छे— भले
लोग सत्ता में
पहुंचते ही
भ्रष्ट हो
जाते हैं।
सीधे—सादे लोग,
जिन्हें
तुमने कभी
सोचा भी न था
कि सत्ता में
पहुंचकर
भ्रष्ट हो
जायेंगे, सत्ता
में जाते से
एकदम से उनके
भीतर फन उग आते
हैं, जहर
की ग्रंथियां
निकल आती हैं।
क्या हो जाता
है सत्ता में
पहुंचने से
लोगों को? तो
ऐक्टन की बात
तथ्यगत तो
मालूम पड़ती है
कि सत्ता
लोगों को
भ्रष्ट करती
है, क्योंकि
यह रोज दिखाई
पड़ता है।
गांधी
बाबा के चेलो
को देखा, तीस
साल से इस देश
में क्या कर
रहे हैं? अच्छे
लोग थे। बुरे
लोग थे, ऐसा
नहीं कह सकते।
जब तक सत्ता
में नहीं थे
तब तक कोई सोच
भी नहीं सकता
था कि बुरे
लोग साबित
होंगे। न शराब
पीते थे, न
मांस खाते थे,
खादी पहनते
थे, हाथ से
बुनाई करते थे,
चर्खा
चलाते थे।
सिगरेट नहीं,
पान नहीं, तंबाकू नहीं;
व्रत—उपवास—नियम
करते थे, देश
की सेवा करते
थे। अच्छे लोग
थे—सेवक थे।
फिर क्या हुआ,
सत्ता में
जाते से कैसे
यह शकल बदल
गयी?
तो
ऐक्टन की बात
ठीक तो लगती
है,
फिर भी मैं
कहता हूं
उसमें एक भूल
है; और भूल
यह है कि
सत्ता लोगों
को विकृत नहीं
करती, सत्ता
केवल लोगों के
असली चेहरे
उघाड़ देती है।
सत्ता विकृत
नहीं करती, सत्ता केवल
नग्न कर देती
है। सत्ता के
पहले आदमी
वस्त्रों में
छिपा होता है,
क्योंकि
सत्ता के पहले
तुम्हें पकड़े
जाने का डर
होता है। तुम्हारे
पास ताकत
कितनी है? सामर्थ्य
कितनी है? सत्ता
में पहुंचकर
तुम्हारे हाथ
में सामर्थ्य
आ जाती है।
फिर तुम जो
चाहो कर सकते
हो, कौन
तुम्हें पकको?
तुम
पकड़नेवाले हो,
पकको
तुम्हें कौन?
तुम्हारे
हाथ में सारी
ताकत है। और
जिसके हाथ में
लाठी है, उसकी
भैंस है। सत्ता
की लाठी
तुम्हें
आश्वस्त कर
देती है कि अब दिल
खोलकर करो, जो तुम सदा
करना चाहते थे
और नहीं कर
पाये, क्योंकि
सत्ता नहीं थी
करने की। पकड़े
जाते।
सत्ता
किसी को विकृत
नहीं करती; मेरे
देखे तो सत्ता
में जाने को
उत्सुक वे ही लोग
होते हैं जो
विकृत हैं।
लेकिन अपनी विकृति
को खुलकर
खेलने का मौका
नहीं है। हाथ
कमजोर हैं।
दिल में तो
पूरी भरी है
आग, मगर
डरते हैं कि
अभी प्रगट
करेंगे तो जो
थोड़ा—बहुत
सम्मान है वह
भी छिन जायेगा।
सत्ता में
पहुंचकर कौन
सम्मान
छीनेगा? सत्ता
में पहुंचकर
जो करेंगे वही
ठीक होगा।
शक्तिशाली जो
करता है वही
ठीक है।
शक्तिशाली पर
कोई नियम लागू
नहीं होते, शक्तिशाली
नियमों के ऊपर
होता है। और
सब पर नियम
लागू होते हैं।
इसलिए सत्ता
भ्रष्ट करती
मालूम होती है,
सत्ता
भ्रष्ट करती
नहीं। सत्ता
केवल उघाड़कर
रख देती है।
सत्ता
तुम्हारी
नग्न तस्वीर
जाहिर कर देती
है, तुम
कैसे हो, तुम
कौन हो, तुम
क्या हो g:
हम
लोगों से
प्रशंसा
चाहते हैं तो
हम नैतिक होते
हैं। हम लोगों
की निंदा से
डरते हैं तो
हम इस तरह चलते
हैं सोच—समझकर
कि निंदा न हो।
कदम फूंक—फूंक
कर रखते हैं।
इसलिए जब भीतर
की अनुभूति
तुम्हें होने
लगे और बेशर्त
सुख मिलने लगे
और तुम्हारे
भीतर एक झरना
फूटे रस का, किसी
से कहना मत, गोरख कहते
हैं। गोरख पते
की बात कह रहे
हैं, भेद
खोलना मत। यह
नयी—नयी कोंपल
निकल रही है, लोग इस पर
टूट पड़ेंगे, इसे तोड़
देंगे। और लोग
इसको तोड़ने
में उत्सुक
हैं, क्योंकि
यह कोंपल उनके
भीतर नहीं
निकली और 'तुमने
कैसे हिम्मत
की?' 'हम सब
दुखी हैं और
तुम सुखी हो
गये!' ईर्ष्या
जगेगी, भयंकर
ईर्ष्या
जगेगी! उनकी
ईर्ष्या शायद
तुम न सह पाओ, अभी तुम नये—नये
हो इस
अंतर्यात्रा
पर।
भेद न
कहिणा..!
इसलिए
जब भीतर कुछ
रस उमगने लगे, फूल
खिलने लगे, बताना ही मत
किसी को, चुपचाप
सम्हाल कर रख
लेना। अपने
गुरु से कह
देना, अपने
गुरु. भाइयों
से कह देना, जो समझ सकें
उन से कह देना।
लेकिन उसकी
घोषणा लोगों
में मत करना।
नाचने मत लगना
रास्तों पर जब
तुम्हारे
भीतर नाच आये,
नहीं तो
पुलिस पकड़कर
ले जायेगी। घर
के लोग ही
मनोचिकित्सक
के पास लेकर
पहुंच
जायेंगे; इंजेक्यान
दिलवाने
लगेंगे कि
इनको कुछ गड़बड़
हो गयी। बिजली
के शाक
दिलवाने
लगेंगे कि
इनको कुछ गड़बड़
हो गयी है।
कहीं कोई आदमी
सड़क पर नाचता
है!
बर्ट्रेंड
रसेल पहली बार
एक आदिवासी
समाज में गया।
पूरे चांद की
रात. और जब
आदिवासी नाचने
लगे और ढोल
बजे और मंजीरे
बजे तो रसेल
के मन में उठा
कि सभ्य आदमी
ने कितना खो
दिया है! सभ्यता
के नाम पर
हमारे पास है
क्या? न ढोल
बजते हैं, न
मंजीरा बजता
है, न कोई
नाचने की
क्षमता रह गयी
है; पैर ही
नाचना भूल गये
हैं। रसेल ने
लिखा है कि उस
रात पूरे चांद
के नीचे, वृक्षों
के नीचे नाचते
हुए नंगे
आदिवासियों को
देखकर मेरे मन
में यह सवाल
उठा कि हमने
पाया क्या है
प्रगति के नाम
पर? और
उसने यह भी
लिखा कि अगर
लंदन में
लौटकर मैं ट्रेफिलगर
क्मायर में
खड़े होकर
नाचने लग तो तल्लण
पकड़ लिया
जाऊंगा। लोग
समझेंगे पागल
हो गये।
लोग
दुख को तो
समझते हैं
स्वास्थ्य और
आनंद को समझते
हैं
विक्षिप्तता।
हालतें इतनी
बिगड़ गयी
हैं
कि इस दुनिया
में केवल पागल
ही हंसते हैं, बाकी
समझदारों को
तो हंसने की
फुर्सत कहां
है?
समझदारों के
हृदय तो सूख
गये हैं।
समझदार रुपये
गिनने में
उलझे हैं।
समझदार
महत्वाकांक्षा
की सीढ़ियां चढ़
रहे हैं।
समझदार तो
कहते हैं
दिल्ली चलो।
फुर्सत कहौ है
हंसने की, दो
गीत गाने की, इकतारा
बजाने की, तारों
के नीचे
वृक्षों की
छाया में
नाचने की, सूरज
को देखने की, फूलों से
बात करने की, वृक्षों को
गले भेंटने की,
फुर्सत
किसे है? ये
तो आखिर की
बातें हैं, जब सब पूरा
हो जायेगा—धन
होगा, पद
होगा, प्रतिष्ठा
होगी, तब
बैठ लेंगे
वृक्षों के
नीचे। लेकिन
यह दिन कभी
आता नहीं, न
कभी आया है, न कभी आयेगा।
ऐसे जिंदगी
तुम गुजार
देते हो रोते—रोते,
झींकते—झीकते।
ऐसे ही आते हो
ऐसे ही चले
जाते हो—खाली
हाथ आये, खाली
हाथ गये।
तो
अगर तुम्हें
कभी भीतर का
रस जन्मने लगे
और भीतर स्वाद
आने लगे.. और
देर नहीं लगती
आने में, जरा
भीतर मुड़ो कि
वह सब मौजूद
है। सरोवर की
तरफ पीठ किये
खड़े हो, इसलिए
प्यासे हो।
बदलो रुख, संसार
की तरफ पीठ
करो और अपनी
तरफ मुंह करो।
और तुम चकित
हो जाओगे कि
क्यों तुम
प्यासे थे
इतने दिन तक!
तुम रोओगे
इसलिए कि
कितना गंवाया
और हसोगे
इसलिए कि यह
भी खूब रही, जो अपने पास
था उसकी तलाश
कर रहे थे! जो
मिला ही था
उसे खोजने
निकले थे, और
नहीं मिलता था
तो तड़प रहे थे,
परेशान हो
रहे थे। और
मिल सकता नहीं
था, क्योंकि
जो भीतर होगा
बाहर नहीं
मिलेगा। जो
जहां है वहीं
मिलेगा।
मगर
कह मत देना, क्योंकि
उस घड़ी में
एकदम उदघोषणा
करने की भावना
उठती है, स्वाभाविक
भावना उठती है—कि
जायें औरों को
भी कह दें, जो
भटक रहे हैं
अंधेरे में।
मगर वे
भटकनेवाले
इतनी आसानी से
राजी नहीं हो
जायेंगे।
उनके अहंकार
उनकी भटकन का
अंग बन गये
हैं। तुम अगर
जाकर उनसे
कहोगे कि भटको
मत, व्यर्थ
भटक रहे हो; देखो मुझे
मिल गया; देखो
मेरी तरफ, मेरी
आंखों में
झाको! वे
हंसेंगे, वे
कहेंगे एक
आदमी और गया
काम से। तुम
पागल हो गये।
पश्चिम
के बहुत बड़े
मनोवैज्ञानिक
आर. डी. लैग ने
एक नयी
अवधारणा दी है।
लैग ने सिद्ध
करने की कोशिश
की है कि
पश्चिम के
पागलखानों
में ऐसे बहुत
से लोग हैं जो
अगर अतीत में
कभी पूरब के
देशों में
पैदा हुए होते
तो परमहंस
समझे जाते; जिनको
लोग मस्त फकीर
समझते; जिनकी
लोग पूजा करते।
और जब आर. डी.
लैंग जैसा
विचारशील
मनोवैज्ञानिक
कुछ कहता है तो
उसमें अर्थ
होता है।
जीवनभर
पागलों का
अध्ययन करके
उसने ये वक्तव्य
दिये हैं कि
बहुत से ऐसे
लोग बंद हैं, जो अगर पूरब
में होते तो
रामकृष्ण
होते। और तुम
पक्का समझो
अगर रामकृष्ण
पश्चिम में होते
तो किसी
अस्पताल में
रखे जाते, हिस्टीरिया
के मरीज समझे
जाते। वह तो
संयोग था कि
वे भारत में
पैदा हुए और
संयोग था कि
समय अच्छा था
जब पैदा हुए।
अगर अब पैदा
होते कलकत्ते
में तो
दक्षिणेश्वर
के मंदिर में
नहीं होते, बड़े बाजार
के अस्पताल
में होते। और
लाख चिल्लाते,
कौन सुनता?
लाख
चिल्लाते कि
मुझे ज्ञान हो
गया है; लोग
कहते शांत रहो,
सभी पागलों
को हो जाता है।
लाख कहते कि
मुझे काली
मइया के दर्शन
हो रहे हैं; लोग कहते
शांत रहो, तुम्हें
भ्रांतियां
हो रही हैं।
मनोवैज्ञानिक
तो अभी भी
कहते हैं कि
रामकृष्ण को
मिरगी की
बीमारी थी, हिस्टीरिया
था। यह जो बेहोश
होकर गिर जाते
थे, यह कोई
समाधि
इत्यादि नहीं
है।
मनोवैज्ञानिक
तो यह भी कहते
हैं कि जीसस
भी विक्षिप्त
थे। क्योंकि
विक्षिप्त
आदमी ही आकाश
से बातें करते
हैं, कोई
समझदार आदमी
आकाश से बातें
करते हैं? जीसस
झुक जाते, घुटने
टेक देते, आकश
से बोलते—और
ऐसे बोलते
जैसे आकाश में
कोई हो।
पुकारते अपने
पिता को कि—अब्बा!
पागल हो गये
हो, कौन
अब्बा है वहां
आकाश में? मनोवैज्ञानिक
कहेंगे
हेत्थूसिनेशन्स,
विभ्रम हो
रहा है। यह
आदमी स्थ्या
हो गया, इसको
इन्तुलिन के
इंजेक्यान दो,
कि बिजली के
शाक दो। इसको
होश में लाओ, इसको रास्ते
पर लाओ।
वह
तो अच्छा हुआ
कि बुद्ध, महावीर,
कृष्ण और
क्राइस्ट
पहले ही निपट
लिये।
मुसीबतें तो
अब हैं; मुसीबतें
बढ़ गयी हैं।
ठीक कहते हैं
गोरख, साधक
के लिए बिलकुल
ठीक इशारा दे
रहे हैं।
मन मैं
रहिणा भेद न
कहिणा.!
किसी
से कहना ही मत
कि भीतर क्या
हो रहा है! चुपचुप, मन
ही मन में रस
लेना; डूबते
जाना। ही, कभी
कोई मिल जाये
भीतर का
यात्री, उससे
गुफ्तगू कर
लेना। सत्संग
का यही अर्थ
है जहां चार
दीवाने बैठ जाते
हैं, एक—दूसरे
की कह लेते
हैं, सुन
लेते हैं।
जहां समझ सकते
हों लोग वहा
कह देना, बाकियों
से तो छिपाये
रखना। यह भेद
की बात सभी से
कह देने की
नहीं है।
भेद न
कहिणा बोलिबा
अमृत— वाणी।
और
तुम्हारे
भीतर जो हुआ
है उसकी तो
कोई खबर मत
देना, लेकिन
तुम्हारे
वचनों में
उसका अमृत झरे।
उसकी तो कुछ
बात मत कहना
कि मेरे भीतर
अमृत का स्रोत
मिल गया है
मुझे, कि
परमात्मा मिल
गया है मुझे, कि आत्मा
मिल गयी मुझे।
मत कहना!
जल्दी मत करना।
यह तो अंतिम
घड़ी में इसकी
उदघोषणा करनी
चाहिए, जब
दुनिया— भर भी
तुम्हारे
विपरीत हो
जाये तो भी
तुम्हें
रत्ती— भर भेद
न पड़े। तुम
अकेले भी रह
जाओ तो
तुम्हें
संदेह पैदा न हो।
अकेले होने
में संदेह
पैदा होना
शुरू हो जाता
है। नये—नये
यात्री को तो
हो जाता है।
क्योंकि हम
इसी तरह सोचते
हैं कि जहा
अधिक लोग जा
रहे हैं वहीं
सत्य होगा, नहीं तो
इतने लोग
क्यों जाते? इसलिए तो
दुनिया भर के
धर्म अपनी भीड़
बढ़ाने की
कोशिश करते
हैं। क्योंकि
जितनी बड़ी भीड़
हो उतना ही
भरोसा आता है
कि जरूर हमारे
पास सत्य होगा।
ईसाई
अगर कहते हैं
कि हमारे पास
सत्य है, तो
कारण क्या? कारण यह है
कि हमारे पास
करीब—करीब
दुनिया की एक
तिहाई संख्या
ईसाई है। जैन
अगर दावा करें
तो क्या दावा
करें? मुश्किल
से तीस लाख
जैन हैं। ईसाई
हैं एक अरब।
तीस लाख जैन!
महावीर को हुए
पच्चीस सौ साल
हो गये। अगर
तीस दंपतियों
को भी
उन्होंने
प्रभावित किया
था तो अब तक
तीस लाख बच्चे
उनके पैदा हो
जाते। बच्चे
इस जोर से
बढ़ते हैं—और
भारत में! तीस
दंपति होते तो
पर्याप्त था,
क्योंकि
अगर बारह—बारह
भी एक—एक दंपति
पैदा करता, फिर
प्रत्येक
बारह—बारह में
से बारह—बारह
पैदा करते, तो पच्चीस
सौ साल में
संख्या तीस
लाख से ऊपर हो
जाती, तुम
हिसाब लगा
लेना। तीस लाख
आदमी! साफ है
कि सत्य हो
नहीं सकता।
नहीं तो इतने
से लोग
प्रभावित हुए!
यह
दुनिया भीड़ से
जीती है।
बर्नार्ड शा
से एक आदमी कह
रहा था, एक
ईसाई कह रहा
था कि इतने
लोग मानते हैं
तो सत्य होगा
ही। बर्नार्ड
शा ने कहा, क्षमा
करें, इतने
लोग मानते हैं
इसलिए सत्य
नहीं हो सकता।
सत्य तो कभी—कभार
होता है। एक—
आध के जीवन
में प्रगट
होता है, बाकी
लोग तो असत्य
में जीते हैं,
क्योंकि
असत्य में बड़ी
सांत्वना है,
असत्य में
बड़ी सुविधा है,
असत्य में चांदर
ओढ़कर सो जाने
का उपाय है।
असत्य निद्रा
है। अधिक लोग
सोये हुए हैं।
सत्य तो
जाग्रत को
मिलता है।
तो
जब तक ऐसी
स्थिति न आ
जाये
तुम्हारे
भीतर, इतनी
दृढ़ता न हो
जाये कि सारी
दुनिया भी कहे
कि तुम पागल
हो तो भी
तुम्हें
संदेह पैदा न
हो, तब तक
चुप रहना, तब
तक गुपचुप
रहना। तब तक
पकने देना। तब
तक प्रौढ़ता को
जमने देना। तब
तक दृढ़ता को
पैदा होने
देना। तब तक
पकड़ने देना
जड़ों को—गहरे,
और गहरे
तुम्हारी
चेतना में।
फैलने देना
वृक्ष को इस
ज्ञान के। ही,
एक दिन जब
वृक्ष इतना
मजबूत हो
जायेगा कि उसे
बागुडू की कोई
जरूरत न रह
जायेगी, तब
उदघोषणा अपने
से हो जायेगी,
फिर करने की
जरूरत नहीं
पड़ती। अभी तो
तुम छोटी—छोटी
बात से चिंतित
हो जाओगे।
सोचो, तुमने
किसी से कहा
कि मुझे ध्यान
लग रहा है और उसने
कहा, 'होश
की बातें कर
रहे हो? ध्यान
होता ही नहीं;
ये तो सब
भ्रांतियां
हैं मन की। ' और तुम्हें
संदेह पैदा हो
जायेगा। तुम
रात चिंतित हो
जाओगे कि
ध्यान होता है
कि नहीं।
ध्यान करने
बैठोगे तो यह
संदेह
तुम्हें घेर लेगा
कि होता भी है
कि नहीं, तुम
व्यर्थ ही समय
खराब कर रहे
हो? और अगर
बहुत लोग
कहनेवाले मिल
जायें तो बड़ी
मुश्किल हो
जाती है।
तुम्हारा
चित्त अभी
बाहर से बहुत
आदोलित होता
है,
इसलिए चुप
रहना। लेकिन
तुम्हारी
वाणी में अमृत
बहने लगे।
अमृत की बात
मत करना, लेकिन
तुम्हारी
वाणी में
मिठास आने लगे।
तुम्हारी
वाणी में
स्वाद बहने
लगे। कहना मत
सीधा—सीधा कि
क्या मुझे मिल
गया है, लेकिन
तुम्हारे
उठने में, बैठने
में, तुम्हारे
चलने में भेद
तो पड़ने लगेगा,
क्राति तो
होने लगेगी।
तुम बोलोगे, तब तुम्हारे
बोलने में एक
मिठास होगी, जो कभी भी
नहीं थी।
तुम्हारे
बोलने में एक
गीत होगा, एक
छंद होगा, जो
कभी भी न था।
वही छंद उन
लोगों को
तुम्हारे पास
लाने लगेगा, जो छंद की
तलाश में हैं।
वही छंद लोगों
को आकर्षित
करने लगेगा।
वे तुमसे
पूछने लगेंगे,
तुम्हें
क्या हो गया? जब कोई
तुम्हारे
बहुत निकट आकर
मुमुक्षा करे तो
उससे कह देना,
अन्यथा भेद
को छिपाकर
रखना।
मन मैं
रहिणा भेद न
कहिणा बोलिबा
अमृत— बाणी
आगिला
अगनी होइबा
अवधू..! और अगर
सामनेवाला आदमी
आग हो उठे, आगबबूला
हो उठे, क्रोध
से उन्मत्त हो
उठे, पागल
हो उठे, तो
आपण होइबा
पाणी, तो
तुम बिलकुल
पानी हो जाना।
जब सामने कोई
प्रज्वलित हो
जाये क्रोध से
तो तुम पानी
हो जाना, तुम
उस पर पानी की तरह
बरस जाना। यह
तुम्हारी
जीवनचर्या हो।
ऐसा तुम्हारा
व्यक्तित्व
हो। ऐसी
तुम्हारी
अभिव्यक्ति
हो। इससे ही
पता चलना शुरू
होगा धीरे—
धीरे उनको, जो तलाश कर
रहे हैं। उनको
सुराग मिलेगा।
इसकी घोषणा
नहीं करनी
पड़ती, डुंडी
नहीं पीटनी
पड़ती। ऐसे ही
ऐसे धीरे—
धीरे तुम्हारी
सुवास उन
नासापुटों
में पहुंच
जायेगी जो उत्सुक
हैं, जो
खोजी हैं।
तुम्हारी यह
जो बीन भीतर
बजेगी, यह
धीरे— धीरे
तुम्हारे
व्यक्तित्व
को रूपांतरित
करेगी; और
जिनको खोज है,
जिनको
प्यास है, उनके
भीतर की वीणा
भी तुम्हारी
टंकार से गजने
लगेगी। वे लोग
आने लगेंगे, वे लोग दूर—दूर
से भी आने
लगेंगे।
क्योंकि यहा
कौन है जो
अमृत की तलाश
नहीं करना
चाहता है!
यहां कौन है
जो आनंद की
खोज में नहीं
है? गलत
दिशाओं में
खोज रहे हैं
लोग, लेकिन
खोज तो लोग
आनंद ही रहे
हैं। और जब भी
उन्हें कोई
ऐसा व्यक्ति
मिल जायेगा जो
आनंदित है, तो उसका
प्रभाव
अपरिहार्य है।
रहीम
ने कहा है :
दोनों
रहिमन एक से, जौ
लौं बोलत
नाहिं
जान
परत है काक
पिक,
रितु वसंत
के माहि।
कौआ
और कोयल एक—से
लगते हैं जब
तक बोलें न; लेकिन
जब वसंत आ
जाता है तब
भेद खुल जाता
है। जब वसंत आ
जाता है तब
भेद खुल जाता
है। कौआ भी
काला है, कोयल
भी काली है, ऊपर—ऊपर से
कुछ भेद मालूम
पड़ता नहीं।
तुम
जब बोलो, तुम
जब व्यवहार
करो, जब
तुम किसी का
हाथ हाथ में
लो, जब तुम
किसी को गले
लगाओ, तब
भेद पता चलेगा।
जान परत है
काक पिक, रितु
वसंत के माहि।
तुम्हारा
प्रेम, तुम्हारा
माधुर्य, तुम्हारा
प्रसाद वसंत
बन जाये, उसी
वक्त भेद पता
चलेगा।
आगिला
मानी होइबा
अवधू तौ आपण
होइबा पाणी।
और
यह समझ लेना, यह
बहुत हैरानी
की बात है, मगर
समझ लेनी
चाहिए।
एक
महिला मुझे
मिलने आयी। एक
बहुत बडे
समृद्ध
परिवार की
महिला है, सुशिक्षित।
उसने मुझे कहा,
ध्यान
सीखने आयी हूं
लेकिन इसके
पहले कि ध्यान
सीखूं एक बात
पूछनी है।
ध्यान सीखने
से मेरे
दापत्य में, मेरे
पारिवारिक
जीवन में कोई
अड़चन तो न
आयेगी?
इसके
पहले कि मैं
बोलूं उसने
स्वयं ही कहा, यह
तो मैं जानती
हूं अड़चन
क्यों आयेगी,
ध्यान तो
अच्छी चीज है;
ध्यान से
क्यों अड़चन आयेगी?
लेकिन मैं
पूछ रही हूं
क्योंकि मेरे
पति ने मुझसे
कहा है कि
ध्यान सीखने
के पहले यह
पूछ लेना।
मैंने
उस महिला को
कहा कि फिर
बेहतर हो तू
ध्यान मत सोख, अड़चन
तो आयेगी।
और
बड़े आश्चर्य
की बात तो यह
है कि अगर तुम
कुछ बुरे काम
सीखो तो कुछ
ज्यादा अड़चन
नहीं आती।
जैसे पत्नी या
पति शराब पीने
लगे तो थोडी
ही अड़चन आयेगी।
जुआ खेलने लगे
तो थोड़ी ही
अड़चन आयेगी।
और सच तो यह है, यह
भी हो सकता है
कि अड़चन
बिलकुल न आये।
और यह भी हो
सकता है कि
जहां पहले
अड़चन थी वह अड़चन
भी चली जाये, सुविधा हो
जाये।
तुम
चौंकोगे थोड़ा, क्योंकि
तुम्हें मन के
गहरे रहस्यों
का बोध नहीं
है। पत्नियों
को बड़ा मजा
आता है पतियों
को सुधारने
में। अगर पति
बिलकुल ठीक—ठीक
हो, पत्नी
को रस ही नहीं
रह जाता। अगर
पति शराब पीता
है, सिगरेट
पीता है, तो
पत्नी ऊपर
हावी हो जाती
है। पत्नी
पवित्र हो
जाती है।
क्योंकि अभी
भारत की
स्त्रियों ने
इतनी हिम्मत
नहीं जुड़ाई है
कि शराब पीये
और सिगरेट
पीये। तो खुद
तो पी नहीं
सकतीं, उसकी
हिम्मत नहीं
है; सदियों
ने तोड़ दी है
हिम्मत।
कल्पना में भी
नहीं आता कि
हम शराब पीये,
सिगरेट
पीये, यह
तो हो ही नहीं
सकता। तो फिर
एक सुविधा मिल
जाती है, पति
की निंदा करने
की सुविधा मिल
जाती है। और
पति पर कब्जा
रखने की
सुविधा मिल
जाती है। पति
घर में आता है
तो वैसे ही
डरा हुआ आता
है, क्योंकि
सिगरेट पीता
है। अगर पति
एकदम से
सिगरेट पीना
बंद कर दे और
शराब पीना बंद
कर दे तो जो
पत्नी बीस साल
से मालिक बनी
बैठी थी, उसकी
सारी मालकियत
गिर जायेगी।
उसे जो रस था
वह रस खो
जायेगा।
बुराई से लोग
इतने परेशान
नहीं होते, क्योंकि जो
आदमी बुरा कर
रहा है वह दीन
हो जाता है, और दूसरे के
अहंकार को
भरने का कारण
हो जाता है।
हम
सभी चाहते हैं
: और लोग हमसे
दीन हों, हमसे
हीन हों। यह
हमारी अंतरआकांक्षा
है। इसके दो
उपाय हैं : एक
तो कि हम
श्रेष्ठ हो
जायें तो वे
दीन हो जायें;
और दूसरा यह
है कि वे दीन
हो जायें तो
हम जैसे हैं
वैसे ही रहे, लेकिन हम
श्रेष्ठ हो
गये। अक्सर
ऐसा हो जाता
है, तुम्हारे
तथाकथित साधु—संत
सिर्फ इसीलिए
त्याग और तपश्चर्या,
व्रत और
उपवास कर पाते
हैं कि इससे
ज्यादा सुविधापूर्ण
अहंकार को
भरने का और
कोई उपाय नहीं
है। इन छोटी—छोटी
चीजों को
छोड्कर वे
सिंहासनों पर
विराजमान हो
जाते हैं—क्योंकि
वे सिगरेट
नहीं पीते, क्योंकि वे
पान नहीं खाते,
क्योंकि वे
तंबाकू नहीं
खाते, क्योंकि
वे रात में
पानी नहीं
पीते, क्योंकि
वे पानी छानकर
पीते हैं, क्योंकि
वे यह नहीं
खाते वह नहीं
खाते। इन
क्षुद्र
बातों के आधार
पर अहंकार को
बड़ी प्रतिष्ठा
मिल जाती है।
इतना सस्ता
अहंकार मिलता
हो और पुजता
हो तो कौन
छोड़े! अहंकार
के लिए तो
आदमी क्या
नहीं करने को
राजी हो जाता
है! ये तो बड़े
सस्ते त्याग
हैं, इनमें
रखा ही क्या
है? अगर
परिवार में
कोई व्यक्ति
कुछ
हीनतापूर्ण काम
कर रहा है, तो
दूसरे उसके
ऊपर हावी रहने
के लिए सुविधा
पाते हैं।
मैंने
उस महिला को
कहा कि यह मैं
नहीं कह सकता कि
ध्यान करने से
अड़चन न आयेगी; ध्यान
करने से बड़ी
अड़चन आयेगी, क्योंकि घर
की पूरी
राजनीति बदल
जायेगी। घर की
राजनीति में
बड़ा उलट—फेर
हो जायेगा। तू
अगर ध्यान
करेगी तो
अड़चनें शुरू
होंगी। तू शात
होगी, पति
आगबबूला
होंगे और तू
शांत ही रहेगी।
तो तू सोचती
है पति के
अहंकार को
कितनी चोट पहुंचेगी?
इसलिए तू
सोचकर आ, तू
जा फिर सोचकर
आ। फर्क तो
पड़नेवाले हैं।
और मैं अनुभव
करता हूं रोज
फर्क होते हैं।
एक
महिला ने कोई
तीन वर्ष से
ध्यान किया है, अड़चन
शुरू हो गयी, क्योंकि अब
उसे कामवासना
में कोई रस
नहीं है। और
पति एकदम
विक्षिप्त
हुए जा रहे
हैं। पति एकदम
पागल हुए जा
रहे हैं।
मैंने
उस महिला को
कहा भी कि तू
अभिनय कर कम—सें—कम, रोज—रोज
झगड़ा करने से
क्या फायदा है?
पति की मांग
है, पूरी
कर दे—अभिनय
की तरह। उसने
कहा, ठीक
है। ध्यानी
व्यक्ति
अभिनय कर सकता
है, बड़ी
सरलता से।
ध्यानी ही
अभिनय कर सकता
है! भीतर दूर, बाहर से एक
खेल कर दे।
मगर जब बाहर
से पत्नी खेल
कर रही हो तो
भी पति को
अड़चन है। पति
मेरे पास आये।
उन्होंने कहा
कि यह आपने और
एक नयी शिक्षा
दे दी उसको।
अब हम और
बुद्ध मालूम
पड़ते हैं। वह
खेल कर रही है।
और जब कोई
दूसरा सामने
खेल कर रहा हो
और हमें साफ
पता है कि उसे
कोई रस नहीं
है, रस
दिखला रही है,
तो हमें और
ग्लानि होती
है। आपने
हमारा सारा
जीवन बर्बाद
कर दिया। तो
मैंने उस
महिला को कहा,
तू फिर से
पूछकर आ, समझकर
आ। फर्क तो
होंगे। ध्यान
तेरी
ऊंचाइयां
बढ़ायेगा, गहराइयां
बढ़ायेगा।
निश्चित ही घर
की सारी
व्यवस्था बदल
जायेगी।
क्योंकि जो कल
तुझसे ऊंचे थे,
नीचे पड़ने
लगेंगे। जो कल
तुझसे गहरे थे,
उथले पड़ने
लगेंगे। उन सब
के अहंकार को
चोट लगेगी। वे
बदला लेंगे।
पांच
साल हो गये, वह
महिला नहीं
लौटी।
खयाल
रखना, जैसे ही
तुम्हारे
जीवन में थोड़ी
अंतरज्योति जगेगी,
अंतर
पड़ेंगे; मत
कहो तो भी
अंतर पड़ेंगे।
भेद को छिपाये
रखो तो भी
अंतर पड़ेंगे।
तुम वैसा ही
तो व्यवहार
नहीं कर सकते
जैसा कल तक
करते थे। वसंत
आ गया, अब
तो कौए और
कोयल का भेद
साफ हो जायेगा।
कौए नाराज
होंगे। कौए
कोयलों पर बड़े
नाराज हैं।
स्वभावत:, कोयल
कूकती है, सारे
लोग गदगद हो जाते
हैं। कौआ भी
बेचारा बड़ी
चेष्टा करता
है कि कोई तो ताली
बजाए। लोग
ताली बजाते
हैं—उड़ाने के
लिए कि जाओ, भागो, कि
अब दुबारा इधर
न आना।
एक
कौआ उड़ा जा
रहा था। कोयल
ने पूछा कि
चाचा कहां
जाते हो? उसने
कहा, मैं
पूरब जा रहा
हूं। इधर नहीं
रहना अब। इधर
के लोग गलत हैं।
कोई मेरे गीत
का, गान का
स्वागत नहीं
करता है। मैं
पूरब जा रहा
हूं। मैंने
सुना है पूरब
के लोग बड़े
भले हैं।
कोयल
ने कहा कि मैं
एक बात आप को
कह दूं कि तुम
चाहे पूरब जाओ
चाहे पश्चिम, चाहे
तुम कहीं जाओ;
जब तक
तुम्हारा कंठ
ऐसा है जैसा
है, तब तक
तुम सभी जगह परेशानी
पाओगे। कंठ को
बदल लो। पूरब—पश्चिम
जाने से कुछ
भी नहीं होगा।
पूरब के लोग
भी ऐसे हैं।
एक
सूफी कहानी है।
एक आदमी एक
नगर के द्वार
पर बैठा है, का
आदमी। एक सवार
रुका, घुड़सवार,
और उसने
पूछा, इस
नगर के लोग
कैसे हैं? उस
के ने पूछा, क्या कारण
है तुम्हारे
पूछने का, किसलिए
पूछते हो? उस
घुड़सवार ने
कहा कि मैं
जिस नगर से आ
रहा हूं उस
नगर के लोग
बड़े अभद्र हैं,
मैं उनसे
बेचैन हो गया,
परेशान हो
गया, छोड़
दिया मैंने वह
नगर। अब मैं
नये नगर में
निवास का
इंतजाम करना
चाहता हूं। तो
मैं तुमसे
पूछता हूं इस
नगर के लोग
कैसे हैं?
उस
के ने कहा, भइया,
तुम आगे बढ़ो,
इस नगर के
लोग और भी
लुच्चे हैं, और भी बुरे, और भी अभद्र।
यहां तो तुम
मुसीबत में पड़
जाओगे, तुम
कहीं और खोजो।
वह
घुड़सवार आगे
बढ़ गया। उसके
पीछे ही एक
दूसरी
बैलगाड़ी आकर
रुकी और एक
आदमी ने
झांककर देखा
और कहा कि
बाबा, इस गांव के
लोग कैसे हैं?
मैं नया
निवास खोज रहा
हूं।
उस
बूढ़े ने फिर
पूछा कि तुम
जिस गांव को
छोड़ आये हो उस
गांव के लोग
कैसे थे?
उस
आदमी की आंखों
में आंसू आ
गये। उसने कहा, मैं
छोड़ना नहीं
चाहता था
मजबूरी में
छोड़ना पड़ा। उस
गांव के लोग
बड़े प्यारे थे।
अब कहीं भी
रहूं लेकिन उस
गांव के लोगों
की याद मुझे
सताती रहेगी।
मजबूरी थी, आर्थिक रूप
से परेशान हो
गया। छोड़ा है
इसीलिए कि कुछ
कमा लूं कहीं
और अपने भाग्य
को आजमा लूं।
और आकांक्षा
एक ही है कि जब
भी भाग्य साथ
दे देगा, वापिस
लौट जाऊंगा।
बजा तो उसी
गांव में, अंततः
तो उसी गांव
में मरना
चाहूंगा। अगर
जी न सका तो कम—से—कम
मरना तो उसी
गांव में
चाहूंगा।
उस
के ने कहा, तुम्हारा
स्वागत है, तुम इस गांव
के लोगों को
उस गांव से भी
ज्यादा
प्यारे पाओगे।
अंदर आ जाओ।
एक
आदमी जो बैठा
ये सारी बातें
सुन रहा था, पहले
घुड़सवार की भी
बात सुनी थी, इस के का
उत्तर सुना था,
इस
बैलगाड़ीवाले
आदमी की भी
बात सुनी, इस
बूढ़े का उत्तर
सुना। उस आदमी
ने कहा, तुमने
मुझे हैरानी
में डाल दिया।
एक आदमी को
कहा कि इस
गांव में बड़े
क्ले और लफंगे
हैं, तुम
हट जाओ; और
दूसरे को कहा
इस गांव के
बड़े प्यारे
लोग हैं, तुम्हें
कहीं जाने की
जरूरत नहीं, स्वागत
तुम्हारा! वह
का कहने लगा, आदमी वैसे
ही होते हैं
जैसे तुम होते
हो। आदमी सब
जगह एक जैसे
हैं। असली
सवाल
तुम्हारा है।
खयाल रखना!
आगिला
ध्यानी होइबा
अवधू तौ आपण
होइबा पाणी।
दूसरा
आग हो जाये तो
तुम पानी हो
जाना, आग बुझ
जायेगी। और जो
व्यक्ति
ध्यान के जगत
में उतरता है,
अंतर्यात्रा
पर जाता है, उसे रोज—रोज
ऐसे लोग मिल
जायेंगे जो आग
हो जायेंगे।
तुम चकित
होओगे जानकर
यह बात, फ्रेडरिक
नीत्से, जर्मनी
के बड़े विचारक
ने जीसस के
खिलाफ बहुत—सी
बातें लिखीं,
उनमें एक
बात यह भी
लिखी, जो
कि शायद तुमने
कभी सोची भी न
हो, कोई
शायद ही सोचे।
जीसस का वचन
है : 'जो
तुम्हारे एक
गाल पर चाटा
मारे, उसके
सामने दूसरा
गाल भी कर
देना। जो
तुम्हारा कोट
छीन ले, उसे
कमीज भी दे
देना। और जो
तुमसे कहे कि
चलो एक मील
मेरा बोझ ढोते
हुए तो उसके
साथ दो मील
चले जाना। ' यह बड़ा
प्यारा वचन है।
जीसस अपनी
भाषा में कह
रहे हैं.
आगिला अगनी होइबा
अवधू तौ आपण
होइबा पाणी।
तो तुम पानी
हो जाना दूसरा
आग हो तो। एक
गाल पर चांटा
मारे तो दूसरा
कर देना।
जीसस
ने कभी कल्पना
में भी न सोचा
होगा कि कोई इसका
भी खंडन करेगा।
नीत्से ने और
बातों के खंडन
में इसका भी
खंडन किया है।
नीत्से ने कहा
है,
यह
अपमानजनक
व्यवहार है।
अगर मैं किसी
के गाल पर
चांटा मारूं
और वह दूसरा
गाल मेरे सामने
कर दे, तो
वह मुझे कीड़ा—मकोड़ा
समझ रहा है!
उसने मुझे
आदमी होने का
भी समादर नहीं
दिया।
थोड़ा
सोचना! नीत्से
कहता है, जब
मैं किसी के
गाल पर चाटा
मारूं और वह
अगर सच में
मेरा सम्मान
करता है तो
उसे भी मुझे
चांटा मारना
चाहिए। तो हम
समान हुए। और
जीसस तो बड़ी
अहंकार की बात
सिखा रहे हैं।
वे कह रहे हैं,
वह क्या है,
दो कौड़ी का
आदमी! चलो, मार
लिया मार लिया।
जैसे कहते हैं
न कि हाथी
चलता जाता है,
कुत्ते
भौंकते रहते
हैं। मगर हाथी
का चलते जाना,
कुत्तों का
भौंकना सिर्फ
यही कह रहा है
कि हाथी कहता
है भौंकते रहो,
तुम्हारे
भौंकने में
मूल्य क्या है?
तुम हो किस
मूली की जड़!
भौंकते रहो, व्यर्थ
शोरगुल मचाते
रहो; मेरा
क्या बनता—बिगड़ता
है, मैं
हाथी हूं! मगर
यह तो बड़े
अहंकार की बात
है, नीत्से
कहता है।
नीत्से ने कहा
है कि यह तो
बड़ी अहंकार की
बात है, कि
मैं बड़ा
पवित्र आत्मा
हूं। तुमने
चांटा मारा, लो दूसरा
गाल भी।
तो
तुम यह मत
सोचना कि जब
कोई दूसरा आग
हो जाये तो
तुम पानी हो
जाओ तो इससे
वह शात हो
जायेगा।
जरूरी नहीं है।
हो सकता है वह
और आग हो उठे।
तब तुम्हें और
पानी होना
पड़ेगा। कोई
नहीं जानता कि
वह कैसा
व्यवहार
करेगा। इस
भ्रांति में
मत रहना। बहुत—से
लोग इस
भ्रांति में
रहते हैं कि
जब हम पानी हो
जायेंगे तो
दूसरा भी पानी—पानी
हो जायेगा। वह
तुम्हारी
भ्रांति है, तुम
समझे ही नहीं
फिर सूत्र को।
जरूरी नहीं है
कि दूसरा पानी
हो जाये; दूसरे
की आग और
प्रज्वलित हो
सकती है कि
अच्छा, तो
तुमने अपने को
कोई महात्मा
समझा है! कि
मैंने चांटा
मारा और तुम
दूसरा गाल कर
रहे हो!
और
तुमने अगर
इसीलिए दूसरा
गाल किया है
कि इससे दूसरा
आदमी विनम्र
हो जायेगा, तो
तुमने भी गलत
कारण से किया
है। तुम भी
समझे नहीं राज।
यह तो फिर
दूसरे को
हराने की ही
तरकीब हुई। यह
तो फिर चांटा
ही मारना हुआ।
यह बड़ा
सूक्ष्म
चांटा हो गया।
यह परोक्ष
चांटा हो गया।
मगर तुमने
चांटा तो मार
दिया दूसरे के
चेहरे पर कि
देख, तू है
कुत्ता और हम
हैं हाथी; भौंक,
हमारा क्या
बिगड़ता है! यह
दूसरा रहा गाल,
इस पर भी
मार ले और हो
जा नीचा!
मैंने
सुना है, एक
ईसाई फकीर को
एक आदमी ने
चांटा मारा।
फकीर ऐसे ही
रहा होगा जैसे
फकीर होते हैं।
उसने दूसरा
गाल कर दिया, नियम के
अनुसार। उस
आदमी ने दूसरे
पर भी चांटा
मारा—और करारा
मार दिया!
उसने कहा यह
भी अच्छा मौका
मिला कि अगर
बुद्ध दूसरा
गाल दे रहा है
तो इसको भी
क्यों छोड़ना!
उसने और करारा
मारा। लेकिन
जैसे ही उसने
करारा मारा, वह बहुत
चौंका। दूसरे
गाल के दिखाने
से नहीं चौंका
था इतना, जितना
चौंका, क्योंकि
तब वह फकीर
एकदम झपट्टा
मार कर उसकी छाती
पर चढ़ बैठा और
लगा मारने। उस
आदमी ने कहा, अरे भाई, तुम
फकीर हो, ईसाई
फकीर, और
तुम यह क्या
कर रहे हो? फकीर
ने कहा कि
तीसरा तो कोई
गाल है नहीं, अब मैं तुझे
मजा चखाऊंगा।
जीसस के नियम
का पालन हो
चुका, अब हम
से मुकाबला है।
फकीर
तो मस्तंड था!
उसने बड़ी
धुनाई कर दी।
उसने कहा कि
जीसस ने कहा
दूसरा गाल; दूसरा
गाल खत्म, अब
तो हम
स्वतंत्र हैं।
तुम
दूसरे को
हराने के लिए
अगर दूसरा गाल
कर रहे हो तो
इसी फकीर की
हालत में हो; जल्दी
ही तुम उछल
पड़ोगे।
जिस
दिन जीसस ने
यह कहा था कि
जो तुम्हारा
अपमान करे, निंदा
करे, उसे
क्षमा कर देना—एक
शिष्य ने पूछा,
कितनी बार? सोच लो, जो
शिष्य रहा
होगा उसका
मतलब साफ है।...
कितनी बार? वह यह कह रहा
है कि आप सीमा
बनाओ, उसके
बाद फिर हम
मुख्तयार
होंगे खुद।
जीसस ने कहा :
सात बार। उस
आदमी ने कहा, ठीक है। मगर
जिस ढंग से
उसने कहा ठीक
है, उसका
मतलब था कि
आठवीं बार देख
लेंगे। और ऐसा
भी होता है न, कि सौ सुनार
की एक लुहार
की। एक में ही
ठिकाने लगा
देंगे, तुम
घबड़ाओ न। सात
दफे टुच—पुच
जो वह करता है
सुनार की तरह
खटर—खटर—खटर...।
एक ही.. लुहार
का जो हथौड़ा
पड़ेगा, छठी
का दूध याद आ
जायेगा!
तो
जीसस ने कहा
कि नहीं, सात
बार नहीं, सतत्तर
बार! लेकिन
क्या होगा, सतत्तर बार
से भी क्या
होगा? अगर
वृत्ति वैसी
है तो
अहुतरवें
बार...। नहीं
सात सौ सात
बार से भी कुछ
न होगा। इसलिए
तो दुनिया— भर
के इतने अच्छे
नियम बनते हैं
लेकिन कोई
परिणाम नहीं
होता, क्योंकि
हर नियम की
सीमा आ जाती
है। हर नियम
की मर्यादा है।
इसीलिए तो
नियम को
मर्यादा कहते
हैं। मर्यादा
का मतलब होता
है उसकी सीमा
है। कोई नियम
असीम नहीं हो
सकता, आत्मा
ही असीम हो
सकती है।
इसलिए यह नियम
नहीं है। इसको
तुम आत्मभाव
की तरह समझना।
मन मैं
रहिणा भेद न
कहिणा बोलिबा
अमृत— बाणी
आगिला
अगनी होइबा
अवधू तौ आपण
होइबा पाणी।।
यह
तुम्हारे
अंतर का भाव
होना चाहिए, किसी
नियम का
अनुसरण नहीं।
यह भाव
तुम्हारे
प्रेम से जगना
चाहिए, तुम्हारी
बुद्धि से
नहीं, तुम्हारे
गणित से नहीं।
यह तुम्हारी
सहज दशा होनी
चाहिए। यह तो
तभी होती है
जब तुम अपने
आत्मभाव में
परिपूर्ण लीन
हो जाते हो।
और
खयाल रखना, एक
अपूर्व
क्राति घटती
है. जब तुम—
अपने आत्मभाव
में पूर्ण लीन
हो जाते हो, तभी तुम्हें
पता चलेगा कि
आत्मा नहीं है,
परमात्मा
है। तुम्हारी
अपनी आत्मा से
जितनी दूरी है
उसके कारण ही
परमात्मा अलग
मालूम पड़ रहा
है। जिस दिन
तुम्हारी
आत्मा से दूरी
समाप्त हो गयी,
परमात्मा
की भी दूरी
समाप्त हो गयी।
फिर आत्मा ही
परमात्मा है।
फिर तुम एकल
हुए। फिर तुम
अद्वैत हुए।
रहिमन
प्रीति
सराहिये, मिले
होत रंग दून।
ज्यों
जरदी हरदी तजै, तजै
सफेदी चून।।
ऐसे
एक हो जाओ........
रहिमन
प्रीति
सराहिए........
तभी
प्रीति की
सराहना की जा
सकती है कि दो
रंग का एक का
रंग हो जाये।
मिले
होत रंग दून।
वे
जो दो थे अब तक, उनका
रंग एक हो
जाये।
ज्यों
जरदी हरदी तजै......
जैसे
तुमने देखा न
हल्दी और चूना
मिल जाते हैं
तो दोनों अपना
रंग छोड़ देते
हैं
ज्यों
जरदी हरदी तजै......
हल्दी
अपना पीलापन
छोड़ देती है।
तजै
सफेदी चून।
और
चूना अपनी
सफेदी छोड़
देता है, एक
नया रंग पैदा
होता है, लाली
पैदा होती है।
दोनों मिलकर
लाल हो जाते
हैं। ऐसे तुम
और परमात्मा
से जब एक हो
जाओ तो प्रेम
घटा। और यह
घटना कभी भी
घट सकती है, जब तुम
अंतर्मुख
होने लगो।
वहां
परमात्मा
छिपा
तुम्हारी
प्रतीक्षा करता
है।
गोरष
कहैं सुणहुरे
अवश्र जग मैं
ऐसे रहणां
आषैं
देखिबा काणैं
सुणिबा मुष
थैं कछू न
कहणां।
इस
भांति जग में
रहना—जैसे
दर्पण।
दर्पण... तो
छाया बनती है; सुंदर
आदमी का सुंदर
बिंब बनता है,
कुरूप आदमी
का कुरूप बिंब
बनता है। मगर
दर्पण कुछ
कहता नहीं, दर्पण
वक्तव्य नहीं
देता। दर्पण
यह भी नहीं
कहता कि अहा, कितने
सुंदर! दर्पण
यह भी नहीं
कहता कि चलो, चलो, आगे
बढ़ों; कहां
का भयानक
कुरूप आदमी
मुझमें
प्रतिबिंब
बना रहा है, कि मुझे भी
कुरूप किये दे
रहा है! दर्पण
तो साक्षी
रहता है। यह
साक्षी का
सूत्र है।
गोरष कहैं
सुणहुरे अवदृ
जग मैं ऐसे
रहणां
यह जग
में रहने की
कला है—साक्षी—
भाव।
आषैं
देषिबा काणैं
सुणिबा मुष
थैं कछू न
कहणां
देख
लेना, सुन
लेना, गुजर
जाना। यह
सिर्फ नाटक है,
यह पर्दे पर
चलती फिल्म है।
यहां केवल धूप—छाया
का खेल है।
इसमें बहुत मत
उलझ जाना।
मुल्ला
नसरुद्दीन
फिल्म देखने
गया। पहली—पहली
बार फिल्म
देखने गया था।
पहला शो खतम
हो गया, मगर
वह उठा नहीं।
मैनेजर ने आकर
कहा थिएटर के,
कि अब जाओ
मुल्ला, शो
खतम हो गया।
मगर वह उठा
नहीं। उसने
कहा कि पैसे
लो दूसरे शो
के, मगर
दूसरा भी
देखूंगा।
दूसरा भी देख
लिया, फिर
भी हटा नहीं।
जब मैनेजर ने
कहा कि मुल्ला
क्या कर रहे
हो अब, उसने
कहा कि पैसे
ले लो, तीसरा
भी देखूंगा।
उस मैनेजर ने
पूछा, लेकिन
बात क्या है, वही फिल्म
बार—बार देखना?
उसने कहा, कारण
तुम्हें
समझना है, समझ
लो। एक चित्र
आता है जिसमें
कुछ
स्त्रियां
अपने कपड़े
उतारकर तालाब
में उतर रही
हैं। बस
उन्होंने सब
कपड़े उतार
दिये हैं, आखिरी
कपड़ा रह गया
है और तभी एक
रेलगाड़ी गुजर
जाती है।
तालाब के
किनारे से
पटरी है रेल
की, सो
रेलगाडी आ
जाती है।
रेलगाड़ी की आड़
में
स्त्रियां
छिप जाती हैं।
जब तक रेलगाड़ी
निकलती है तब
तक वे पानी
में उतर चुकीं।
तो मैं यह देख
रहा हूं कि
रेलगाड़ी कभी
तो लेट होगी।
मैं जानेवाला
नहीं हूं।
आखिर है तो
हिंदुस्तानी
रेलगाड़ी, कभी
तो लेट होगी।
मैं तो पूरा
ही खेल देखकर
जाऊंगा।
हंसों
मत,
क्योंकि
तुम भी
त्कइल्म जब
देखते हो तो
ऐसे ही
प्रभावित हो
जाते हो। जब
छोटे—छोटे
गावों में
पहली—पहली दफे
फिल्म चलती है
तो लोग पैसे
फेंकने लगते
हैं; जैसा
कि गौवों में
आदत है।
नौटंकी वगैरह
होती है, कोई
नाचा, तो
उन्होंने
पैसे फेंके।
फिल्म पर पैसे
फेंकने लगते
हैं, छोटे—छोटे
गौवों में।
मैंने देखा है
छोटे गौवों
में लोगों को
पैसा फेंकते
फिल्म पर। कोई
नाच रही है
नर्तकी, वे
पैसा फेंकने
लगते हैं। कोई
नर्तकी जब
नाचती है और
उसका घाघरा ऊपर
उठने लगता है
नाच में तो वे
झुक—झुक कर
नीचे देखने
लगते हैं।
वहां कुछ भी
नहीं है, धूप
—छाया का खेल
है। पर लोग, लोग ही जैसे
लोग हैं। यही
उनका जिंदगी
भर का ढंग है।
और
यह छोटों की
बात नहीं।
ईश्वरचंद्र
विद्यासागर
के जीवन में
उल्लेख है, एक
नाटक देखने
गये... बंगाल के
प्रसिद्ध
पंडित, ख्यातिनाम
व्यक्ति, बड़े
सदाचारी... तो
उनको पहली ही
पंक्ति में
बिठाया गया था।
नाटक चला।
नाटक में एक
दुष्ट पात्र
है वह सब तरह
की दुष्टताएं
कर रहा है।
सदाचारी
ईश्वरचंद्र
विद्यासागर
को बड़ा गुस्सा
आ रहा है।
सदाचारियो को
बड़ी जल्दी
गुस्सा आ जाता
है। इतना
क्रोध चढ़ने
लगा उसकी
हरकतों पर, कि जब आखिरी
हरकत उसने की
तो वे
बर्दाश्त न कर
सके।
आखिरी
हरकत यह थी कि
उसने एक
स्त्री को
जंगल में से
गुजरते हुए
पकड़ लिया, खींचकर
उसकी साड़ी
उतारने लगा।
अब
ईश्वरचंद्र
का बस नहीं
रहा।
जैसे
कहानी है न कि
जब द्रौपदी की
साड़ी उतारी
जाने लगी तो
कृष्ण एकदम से
आ गये और बढ़ा
दिया
उन्होंने
द्रौपदी का
पल्ला और पल्ला
बढ़ता ही चला
गया..।
ईश्वरचंद्र
भी कैसे छोड़े!
भूल ही गये कि
नाटक है, निकाल
लिया जूता, चढ़ गये मंच
पर, लगे
पीटने उस आदमी
को। उस आदमी
ने ज्यादा
बुद्धिमत्ता
का लक्षण बताया।
उसने उनका
जूता अपने हाथ
में ले लिया, अपने सिर पर
रख लिया और
कहा कि आपने
जितना सम्मान
मुझे दिया
किसी ने नहीं
दिया। मैं यह
नहीं सोचता था
कि मेरा अभिनय
इतना कुशल है
कि आप जैसा
बुद्धिमान और
धोखा खा जाये!
यह तो सिर्फ
अभिनय है।
पहली तो बात, यह कोई औरत
नहीं है, यह
हमारे मैनेजर
साहब हैं।
धोती पूरी मैं
खुद भी नहीं
खींच सकता था।
आप नाहक मेहनत
किये, जरा
गौर से तो
देखो, मैनेजर
साहब को
पहचानते नहीं
आप? और
जूता आपको
लौटाऊंगा
नहीं, क्योंकि
यह मेरा
पुरस्कार है।
वह
जूता अब भी
रखा है उसके
परिवार में, सम्हाल
कर उन्होंने
एक काच की
मंजूषा में वह
जूता रखा है—इसी
याददाश्त में
कि कभी उनके
घर में एक ऐसा
कलाकर भी हुआ
था, जिसके
अभिनय को
देखकर
ईश्वरचंद्र
विद्यासागर
भी धोखा खा
गये थे।
तो
छोटे—छोटे
आदमियों की
बात छोड़ दो, तुम्हारे
बड़े—बड़े पंडित
भी बहुत भिन्न
नहीं हैं। और
यह तुम्हारे
जीवन— भर की
आदत है। तुम
जल्दी ही
कर्ता हो जाते
हो, साक्षी
नहीं रह पाते।
और साक्षी
होने में सार
है।
गोरष
कहैं सुणहुरे
अवभू जग मैं
ऐसे रहणां।
आषैं
देषिबा काणैं
सुणिबा मुष
थैं कछू न कशग
कर्ता
में ही
तुम्हारा
अहंकार है।
जिस दिन तुम
साक्षी हुए, अहंकार
गया। फिर क्या
अहंकार बचता
है? सिर्फ
देखनेवाले हो,
दर्शक।
दर्पण का क्या
अहंकार? और
जिसका अहंकार
गया, उसका
बोझ गया। जो
निरबोझ हुआ, वही उड़ सकता
है परमात्मा
तक।
भार
झौंकि कै भार
में,
रहिमन उतरे
पार
पै
द्वे मझधार
में,
जिनके सिर
पर भार।
रहीम
ने कहा, भार
को तो भाड़ में
ही झोंक दिया।
भार
झौंकि कै भार
में.....
वह
जो भार था
उसको भाड़ में
झोंक दिया।
रहिमन
उतरे पार।
पै
बूड़े मझधार
में..।
लेकिन
वे बेचारे डूब
गये मझधार में,
जिनके
सिर पर भार।
भार
क्या है? अहंकार
का, कर्ता
का। जैसे ही
तुम साक्षी
हुए, निर्भार
हुए। साक्षी
हुए कि शून्य
हुए। दर्पण तो
सदा शून्य है;
प्रतिबिंब
बनते हैं, मिटते
हैं, दर्पण
का क्या बनता
मिटता है!
दर्पण तो
सिर्फ देखता
है। आषैं
देषिबा काणैं
सुणिबा मुष
थैं कछू न
कहणां।
रहिमन
पैड़ा प्रेम को, निपट
सिलसिली गैल,
बिछलत
पांव
पिपीलिको, लोग
लदावत बैल।
कहते
हैं,
यह जो प्रेम
का पंथ है
परमात्मा की
तरफ जानेवाला...
रहिमन
पैड़ा प्रेम को......
यह
जो प्रेम का
पंथ है
निपट
सिलसिली गैल.....
यह
बड़ी सिलसिली
गैल है।
बिछलत
पांव
पिपीलिको......
यहां
तो चींटी के
भी पैर फिसल
जाते हैं।
उतना भी बोझ
बाधा बन जाता
है।
बिछलत
पाव पिपीलिको, लोग
लदावत बैल।
और
लोग हैं कि
बैलौं को
लादकर चलने की
कोशिश कर रहे
हैं—जहां
चींटियां भी
फिसलकर गिर
जाती हैं; जहां
जरा—सा
सूक्ष्म
अहंकार भी
गिरा देने के
लिए काफी है—चींटी
जैसा अहंकार...!
वहा लोग बैल
लादे हुए चलने
की कोशिश कर
रहे हैं।
अहंकार
जितना बड़ा, उतना
ही तुम्हारे
ऊपर बोझ है।
अहंकार
बिलकुल ही चला
जाये... और कैसे
जाता है? सूत्र
यही है, बुनियादी
सूत्र यही है,
विज्ञान
यही है : कर्ता
मत बनो और
अहंकार विदा हो
जायेगा, साक्षी
रहो।
नाथ
कहै तुम आपा
सकै हठ करि
बाद न करणां।
यहु जग
है कांटे की
बाड़ी देषि
देषि पग धरणां।।
कहते
हैं गोरख, तुम
आपा राषौ!
अहंकार जाने
दो, आत्मा
को बचाओ।
आत्मा और
अहंकार दो अलग—अलग
चीजें हैं।
अहंकार
भ्रांति है
तुम्हारी; तुम्हारी
ही निर्मित
प्रक्रिया है।
और आत्मा
परमात्मा का
प्रसाद है।
आत्मा वह है
जो तुम लेकर
आये हो, अहंकार
वह है जो
तुमने अर्जित
कर लिया।
आत्मा तो
दर्पण जैसी है,
साक्षी
मात्र; अहंकार
कर्ता हो गंया
है, भोक्ता
हो गया है।
नाथ
कहै तुम आपा
सकै!
बस
आत्मा बच जाये, बहुत;
अहंकार को
जाने दो। और
अहंकार जाये
तो ही आत्मा
का पता चले कि
मैं कौन हूं।
अभी तो तुमने
न मालूम क्या—क्या
अपने को समझ
रखा है। कोई
समझता है मैं
डाक्टर हूं
कोई समझता है
मैं इंजीनियर
हूं। कोई
समझता है मैं
यह, कोई
समझता है मैं
वह। आत्मा न
तो डाक्टर है
न तो इंजीनियर
है, आत्मा
तो बस खाली
दर्पण है।
इंजीनियर की
छाप पड़ गयी, तुम
इंजीनियर हो
गये।
इंजीनियरिंग
कालेज में पढ़
आये, तुम
इंजीनियर हो
गये। डाक्टर
हो गये, वकील
हो गये, मजिस्ट्रेट
हो गये, दुकानदार
हो गये, यह
हो गये, वह
हो गये। जो
तुम्हारे
चित्त पर छाप
डाल दी गयी
वही तुम हो
गये। और कभी—कभी
तो भूल से छाप
पड़ जाती है।
कल
मैं एक
व्यक्ति की
जीवन—कथा पढ़
रहा था। जब वह
आक्सफोर्ड
युनिवर्सिटी
में पढ्ने गया, नया—नया,
तो बड़ा
संकोची था, लज्जालु था।
उससे क्लर्क
ने पूछा, क्या
पढ़ना है? तो
उसने कहा
थियोलाजी, धर्मशास्त्र।
लेकिन क्लर्क
ने समझा
जियोलाजी, भूगर्भशास्त्र।
संकोची आदमी
था, क्लर्क
ने जियोलाजी
लिख दिया, उसने
देख भी लिया
कि जियोलाजी,
मगर संकोची
ऐसा था कि
नहीं बोला कुछ,
कहा कि ठीक
है। जियोलाजी
पढ़ा। छह साल
पढ़ कर
जियोलाजी में
गोल्डमेडल
लेकर निकला, तब उसने
जाहिर किया
लोगों को कि
यह बिलकुल ही
दुर्घटना है,
हम
थियोलाजी
पढ्ने आये थे
और दुर्भाग्य
कि जियोलाजिस्ट
हो गये; और
न छोटे—मोटे
जियोलाजिस्ट—गोल्डमेडलिस्ट!
अब तो फंस गये
जिंदगी भर को,
अब तो कोई
उपाय न रहा।
और
उसने तब बताया
कि छह साल किस
मुसीबत से गुजरा
हूं मैं ही
जानता हूं।
संकोच ही
संकोच में एक
साल बीत गया, फिर
यह सोचा कि अब
कहना और
बुद्धपन होगा।
एक साल क्यों
गंवाया? फिर
दो साल बीत
गये, फिर
और बुद्धपन
होगा। फिर तो
डिग्री भी एक
मिल गयी, फिर
और मुश्किल हो
गयी। फिर
मैंने सोचा, अब जो होना
था हो गया, भगवान
की यही मर्जी
कि
जियोलाजिस्ट
ही होना है, तो
जियोलाजिस्ट
ही होकर मरना
है। वह जगत का
प्रख्यात
जियोलाजिस्ट
हो गया। गये
थे हरिभजन को
ओटन लगे कपास!
तुम
क्या हो?
उसकी
जब मैं यह बात
पढ़ रहा था तो
मुझे याद आया
अपना संयोग।
मैं जब कालेज
में भर्ती
होने गया तो
मैं कलम भूल
गया ले जाना, तो
मैं वहा खड़ा
था कि किसी से
कलम मिल जाये।
एक युवक वहा
कलम लिये खड़ा
था, फार्म
भर रहा था, लेकिन
बड़े सोच में
पड़ा था। तो
मैं पूछा : भाई,
तू जब तक
सोच, कलम
मुझे दे दे।
मैंने अपना
फार्म भरा।
उसने मेरा
फार्म देखा, उसने कहा कि
ठीक है, उसने
वही फार्म खुद
भी भर दिया।
मैंने पूछा कि
तू मेरा फार्म
देखकर भरा है?
उसने कहा, मैं इसी सोच
में पड़ा था कि
क्या भरना है,
कौन—से विषय
पढ़ना है? आपने
बड़ी कृपा की
कि आ गये, कि
मुझे विषय का
बोध हो गया कि
यही विषय भर
देना है।
चूंकि मैं
फिलासफी भरा
था, उसने
भी फिलासफी भर
दी।
अब
वे फिलासफी के
प्रोफेसर हो
गये हैं। और
कुल मामला
इतना था कि
उनके पास कलम
थी और मेरे
पास कलम नहीं
थी,
इस कारण। अब
उनसे तुम पूछो,
आप कौन हैं?
वे कहते हैं,
हम
प्रोफेसर हैं,
फिलासफी के
प्रोफेसर।
ये
सांयोगिक
बातें हैं। यह
तुम नहीं हो, तुम
तो वह हो जो
तुम मां के
पेट में थे, उसके भी
पहले थे। तुम
तो वह हो जो
तुम अपनी गहरी
से गहरी नींद
में भी होते
हो—न डाक्टर, न इंजीनियर,
न प्रोफेसर।
तुम तो वह हो
जो तुम मौत के
बाद भी होओगे।
तुम आत्मा हो,
वही
तुम्हारा
स्वभाव है, स्वरूप है।
नाथ
कहै तुम आपा
राषौ हठ करि
बाद न करणा।
तुम
अपनी आत्मा
सम्हालो और
व्यर्थ के
विवाद में मत
पड़ना कि आत्मा
है या नहीं है; है
तो कैसी है; लाल है कि
काली कि पीली
कि हरी।
व्यर्थ विवाद
में मत पड़ना, नहीं तो
विवाद में ही
जीवन गंवा
दोगे। आंख
भीतर मोड़ो, जो है उसे
देखो। किससे
पूछना है, कौन
तुम्हें
उत्तर दे सकता
है? उत्तर
तुम्हें अपने
भीतर पाना है।
किताबों में
मत जाओ, सिद्धातों
में मत जाओ और
व्यर्थ के
विवादों में
मत पड़ो।
लोग
घंटों
विवादों में
लगे रहते हैं, जिंदगी
विवादों में
गुजार देते
हैं। कुछ हैं
जो कहते हैं
आत्मा नहीं है,
कि आत्मा मर
जायेगी। वे भी
अभी मरे नहीं
हैं, मगर
कहते हैं
आत्मा मर
जायेगी। कुछ
हैं जो कहते
हैं कि नहीं, आत्मा अमर
है, मर कर
भी रहेगी; आत्मा
शाश्वत है।
अभी ये भी
नहीं मरे, विवाद
चल रहा है! किस
विवाद में पड़े
हो? आत्मा
है तुम्हारे
भीतर, मरेगी
नहीं मरेगी, यह कल की बात
है। अभी जो है
कम—से—कम उससे
पहचान तो करो!
जरा तलाश तो
करो, खोज
तो करो! अगर
नहीं होगी तो
नहीं मिलेगी।
नहीं मिले तो
कह देना कि
नहीं है। मगर
जो भी भीतर
गया है उसमें
से एक ने भी
लौटकर नहीं
कहा है कि
नहीं है।
निरपवाद रूप
से जिन लोगों
ने अंतस में
गमन किया है
उन्होंने कहा
है—है। और जो कहते
हैं नहीं है, वे भीतर गये
ही नहीं हैं।
मार्क्स
कभी ध्यान
नहीं किया, कहता
है आत्मा नहीं
है। यह बात
बड़ी
मूढ़तापूर्ण
है। ध्यान तो
करते! यह तो
ऐसा हुआ कि
कोई आदमी कहे
कि पानी पीने
से प्यास नहीं
बुझती और पानी
उसने कभी पीया
न हो, क्या
उसकी तुम
मानोगे? और
मार्क्स कहता
है कि मैं
वैज्ञानिक
समाजवादी हूं।
क्या खाक
विज्ञान है? विज्ञान की
प्राथमिक
शर्त भी पूरी
नहीं की।
विज्ञान की
पहली शर्त है :
वही कहना जो
प्रयोग से
सिद्ध है।
विज्ञान की और
क्या शर्त
होती है? मार्क्स
कहता है : धर्म
अवैज्ञानिक
है। मगर
प्रयोग की
शर्त तो पूरी
करो। बुद्ध ने
ध्यान किया, महावीर ने
ध्यान किया, जीसस ने
ध्यान किया, लाओत्सु ने
ध्यान किया, गोरख ने
ध्यान किया, जिन्होंने
भी ध्यान किया
उन्होंने कहा—है।
भीतर गये तो
कैसे इंकार
करें? जब
है तो कैसे
इंकार करें? जो आंख
खोलेगा, कैसे
सूरज से इंकार
करेगा? हौ,
आंख जो बंद
किये बैठा है
वह इंकार कर
सकता है। उल्ल
इंकार कर सकते
हैं, वे आंख
बंद किये बैठे
हैं। जब
तुम्हारी
सुबह होती है,
उल्ल की रात
होती है।
इधर
पास में अलमंड
के एक झाडू पर
एक दिन मैंने एक
उल्ल की बात
सुनी। सुबह
सुबह हो रही
है,
सूरज निकल
रहा है। एक
उल्ल आकर बैठा।
पास ही एक
गिलहरी बैठी
सुबह की ताजगी
में तैयार हो
रही है, दिन
की यात्रा
शुरू होने को
है। एक महत
दिन फिर पैदा
हुआ। अभी— अभी
जाग रही है...।
उल्ल ने
गिलहरी से
पूछा कि ३
गिलहरी, रात
होने के करीब
है, इस
वृक्ष पर
विश्राम ठीक
होगा? गिलहरी
ने कहा, क्षमा
करें, रात
नहीं सुबह हो
रही है। उत्त
ने कहा, चुप,
बकवास बंद
कर। मैं जानता
हूं कि रात हो
रही है, अंधेरा
घिर रहा है।
अब गिलहरी
उल्ल से क्या
झंझट करे, और
झंझट करे कि
हमला बोल दे, उल्ल उल्ल
है! तो गिलहरी
ने कहा, आप
ठीक ही कहते
होंगे। जब वह
दूर शाखा पर
हट गयी, उसने
कहा अब मैं
बताती हूं कि
ठीक नहीं कहते,
सिर्फ तुम
उल्ल हो, तुम्हारी
आंख बंद हो
रही है। आंख
बंद होने के
कारण तुम
सोचते हो रात
आ रही है? आंख
खोलो, सूरज
निकल रहा है।
मगर
उल्ल कैसे मान
सकते हैं? उत्त
को रात में
दिन होता है, दिन में रात
होती है।
जो
बाहर जी रहे
हैं,
उन्हें
भीतर आत्मा है
इसकी
स्वीकृति
नहीं हो सकती।
जो भीतर आंख
को मोड़ते हैं,
भीतर आंख को
खोलते हैं, वे ही केवल
कह सकते हैं।
तो तुम वाद—विवाद
में मत पड़ना, व्यर्थ समय
खराब मत करना।
जितना वाद—विवाद
में समय हो
उतना ध्यान
में लगा देना।
यहु जग
है कांटे की
बाड़ी!
यहां
बहुत उलझनें
हैं,
यहां बहुत
काटे हैं। और
वाद—विवाद बड़े
से बड़ा कांटा
है। क्योंकि
वाद—विवाद में
लोग जिंदगी
गंवा देते हैं।
फिर जिद्दें
पैदा हो जाती
हैं, हठ
पैदा हो जाते
हैं।
हठ करि
बाद न करणां!
हठ
पैदा हो जाता
है कि जो
मैंने कहा वह
ठीक होना ही
चाहिए, क्योंकि
अहंकार दाव पर
लग गया। लोगों
के विवाद सत्य
के कारण थोड़े
ही हो रहे हैं,
सत्य से
किसको लेना—देना
है! विवाद
होते हैं
अहंकारों के
कारण। मैं ठीक
कि तुम ठीक, यह असली
सवाल है। ठीक
से किसी को
क्या लेना है?
लेकिन
मैंने जो कहा
वह ठीक होना
ही चाहिए, क्योंकि
मैंने कहा है।
खयाल रखना, विवादी का
वक्तव्य यही
होता है कि जो
मैं कहता हूं
वह ठीक है, क्योंकि
मैं कहता हूं।
यह कोई सत्य
के खोजी की
बात नहीं है।
सत्य का खोजी
यह कहता है—मैं
क्या कहूं
सत्य जहां हो
मैं उसी के
साथ खड़ा होने
को राजी हूं।
दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं। एक, जो
कहते हैं सत्य
को मेरे पीछे
खड़ा होना होगा;
जहां मैं
खड़ा होऊं, वहीं
सत्य को खड़ा
होना होगा; सत्य मेरी
छाया बने। यह
विवादी है। और
जो कहता है
मैं सत्य की
छाया बनूं
जहां सत्य हो
मैं वहीं खड़ा
हो जाऊंगा।
मैं सत्य के
प्रति अनुगत
हूं। मैं सत्य
की छाया बनना
चाहता हूं। यह
खोजी का लक्षण
है।
तो
बहुत पैर देख—देख
कर रखना, यहां
बड़े कीटों की
झाड़ियां हैं।
और सबसे बड़े
काटो की
झाड़ियां
सिद्धातों की
हैं।
सिद्धातों
में लोग उलझ
जाते हैं, ध्यान
भूल जाते हैं।
अक्सर ऐसा हो
जाता है कि
परमात्मा के
पक्ष में
विवाद
करनेवालों को
भी प्रार्थना
करने की फुर्सत
नहीं मिलती।
यह तो बड़ी
व्यर्थ बात हो
गयी। भोजन के
संबंध में
विवाद चलता है,
भोजन कब
पकाओगे? पानी
के संबंध में
विवाद करोगे,
सरोवर कब
खोजोगे?
एक
साधै सब सधै, सब
साधै सब जाय;
रहिमन
मूलहि सीचिबो, फूलहि
फलहि अघाय।
रहीम
ने कहा : एक को
साध लो सब सध
जायेगा; वह एक
तुम्हारे
भीतर मौजूद है—वह
तुम हो। एक
साधै सब सधे, सब साधे सब
जाये। तुम
व्यर्थ के
विवाद में, बड़े—बड़े
सिद्धातों
में, वेद, कुरान, बाइबिल
में, और
इनको सिद्ध
करने में मत
उलझ जाना, अन्यथा
सब गंवा
बैठोगे। एक को
साध लो।
जब
श्वेतकेतु
अपने गुरु के
गृह से वापस
लौटा पिता के
घर तो उद्दालक
ने उससे पूछा
कि बेटा, तू
क्या—क्या पढ़
कर आया है? तो
उसने बताया कि
वेद पढ़े, उपनिषद
पढ़े, ब्राह्मण—ग्रंथ
पढ़े, आरण्यक
पढ़े, पुराण
पढ़े, व्याकरण,
भाषा—जो—जो
उस समय में
उपलब्ध था—सब
पढ़ कर आ गया
हूं। जो भी
गुरु दे सकते
थे, सब
लेकर आ गया
हूं।
पिता
उदास हो गये, कथा
कहती है। श्वेतकेतु
ने पूछा, लेकिन
आप प्रसन्न
नहीं हैं, मैं
सबसे ऊंची
उपाधियां
लेकर आया हूं।
पूर्ण रूप से
सम्मानित
होकर आया हूं।
मेरे
सर्टिफिकेट
देखें।
लेकिन
पिता ने कहा
कि मैं तुझसे
एक बात पूछता हूं.
तुमने वह एक
जाना जिसको
जानने से सब
जान लिया जाता
है?
श्वेतकेतु
ने कहा. वह एक
कौन है? मैंने
सब जाना। जो
भी उपलब्ध था
गुरु—गृह में,
गुरुकुल
में, मैं
सब जानकर आया
हूं।
पिता
ने कहा. यह कुछ
काम का नहीं
है। तू जा
वापिस, एक को
जानकर आ, तू
अनेक को जानकर
आया है। अनेक
से क्या हणो? एक को जानकर
आ। तू कौन है, यह जानकर आ।
जब तक तूने आत्मा
नहीं जानी, तब तक कुछ भी
नहीं जाना। और
ध्यान रख, मैं
का हो गया हूं।
शायद तू अब एक
को जानकर लौटे,
मुझे पाये न
पाये, मगर
एक बात तुझे
कह जाना चाहता
हूं हमारे घर
में नाममात्र
के ब्राह्मण
नहीं हुए हैं,
हम ब्रह्म
को जानकर अपने
को ब्राह्मण
कहते रहे हैं।
इतना खयाल
रखना। जब तक
ब्रह्म को न
जान ले तब तक
अपने को
ब्राह्मण मत
समझना। हमारे
कुल में
पैदायशी
ब्राह्मण
नहीं हुए हैं,
हमारे कुल
में ब्रह्म को
जानकर ही
ब्राह्मण हुए
हैं। यही मेरे
पिता ने मुझसे
कहा था, यही
मैं तुझसे
कहता हूं। एक
को जानकर आ, तभी तू
ब्राह्मण है।
ब्राह्मण के
घर में जन्म
लेने से कोई
ब्राह्मण नहीं
होता है।
रहिमन
मूलहि
सींचिबो, फूलहि
फलहि अघाय।
पत्ते—पत्ते
मत सींचते
फिरों, मूल
को सींचो। मूल
तुम्हारी
आत्मा है।
वहीं से द्वार
है परमात्मा
का। उस एक मूल
को सींच देने
से खूब पत्तों
से भर जाओगे, खूब शाखाएं—प्रशाखाएं
होंगी। पक्षी
तुम पर बसेरा
करेंगे, नीड़
बनायेंगे, तुम्हारी
छाया में
बैठेंगे। तुम
में फल भी
लगेंगे, भूखे
की प्यास भी
मिटेगी, भूख
भी मिटेगी।
तुम में फूल
भी लगेंगे; लोगों के
सौंदर्य की
क्षुधा भी
तृप्त होगी।
तुम भरे—पूरे
हो जाओगे। मगर
एक को सींचो।
आसण
दिड अहार दिख
जे न्यत्रा
दिख होई।
गोरष
कहै सुणौं रे
पूता मरै न
बूढ़ा होई।।
कैसे
उस एक को
साधोगे, कैसे
उस एक को
जानोगे, कैसे
उस एक को
जानोगे?
आसन
दिड!
बैठना
सीखो। खयाल
रखना, आसन से
अर्थ सिर्फ
शारीरिक आसन
का नहीं है; भीतर ऐसे
बैठ जाओ कि
कोई हलन—चलन न
हो। बाहर का
आसन तो भीतर
के आसन के लिए
सिर्फ एक आयोजन
है। बाहर शरीर
न हिले—डुले, ऐसे बैठ जाओ,
थिर। यह तो
केवल शुरुआत
है, फिर
भीतर मन न
हिले, कोई
कंपन न हो। जब
मन और तन
दोनों नहीं
हिलते, तब
आसन। तब बाहर—
भीतर तुम ठहर
गये, रुक
गये। रुक गये
यानी अब कोई
वासना नहीं है।
रुक गये यानी
अब कोई
आकांक्षा
नहीं है। रुक
गये यानी
चित्त में अब
चंचल लहरें
नहीं उठ रही
हैं। अब चित्त
एक झील हो गया
है।
आसण
दिढ अहार दिड...!
और
उतना ही भोजन
लो जितना
सम्यक है।
व्यर्थ की
चीजें मत खाते
फिरो। व्यर्थ
की चीजें मत
अपने शरीर में
भरते फिरो! जो
जरूरी है, जो
आवश्यक है, वह पूरा कर
लो। और इसमें
दृढ़ता बनाओ।
कुछ
लोग हैं जिनका
कुल जीवन में
काम इतना ही है.
एक तरफ से
डालो भोजन और
दूसरी तरफ से
निकालो भोजन, इतना
ही उनका काम
है। ऐसे—ऐसे
लोग हैं, जैसे
नीरो हुआ
सम्राट, वह
अपने साथ चार
चिकित्सक
रखता था। वह
भोजन करता, उसको भोजन
में बड़ा रस था।
मगर कितना ही
रस हो, कितनी
बार भोजन
करोगे? एक
बार, दो
बार, तीन
बार, चार
बार, पांच
बार, कितनी
बार भोजन
करोगे? मगर
उसका रस ऐसा
था कि उसका
चित्त भरता ही
नहीं था। तो
चिकित्सक
उसको वमन करवा
देते थे। वे
चिकित्सक
उसके साथ रहते
थे; वह
भोजन करता, वे जल्दी से
उसको वमन करने
की दवा देकर
वमन करवा देते,
ताकि वह फिर
भोजन कर सके।
यह जरा
अतिशयोक्ति
मालूम होती है,
मगर मैं ऐसे
लोगों को
जानता हूं जो
वमन करते हैं।
एक
युवती अमरीका
से आयी, वह आज
कोई पंद्रह
साल से नियम
से यह काम कर
रही है खाना
खा लेगी और
वमन कर देगी, ताकि फिर
खाना खा सके।
फिर तो मैं और
दों—चार लोगों
के संपर्क में
आया। मेरे पास
तो सब तरह के
मरीज आते हैं,
जिनका काम
ही यही है। और
जो नहीं भी
ऐसा करते हैं,
वे भी ठूस—ठूस
कर खाते रहते
हैं, जैसे
जिंदगी बस
भोजन है।
जिंदगी कुछ
ज्यादा है।
जिंदगी भजन भी
है! और भोजन को
ही जिसने सब
समझ लिया, वह
बहुत निम्न तल
पर जीता है, जब तक भजन न
जगे। इतना
भोजन करो
जितना भजन के
लिए जरूरी हो।
मगर
तुम अपने साधु—संतों
को देखो, तुम
बड़े हैरान हो
जाओगे। हिंदू
संन्यासियों
को देखो, तुम
बड़े हैरान हो
जाओगे, अगर
उनकी तोंद न
हो तो वे
स्वामी ही
नहीं! कुल काम..
बातें भजन की
कर रहे हैं, मगर कर रहे
होंगे सिर्फ
भोजन। तुम
जाकर देख सकते
हो और जितनी
बड़ी तोंद हो
उतना बड़ा
स्वामी! कुल
काम इतना है—बातें
भजन की करते
रहो और भोजन
करते रहो। तो
भोजन करना है,
भोजन को
चाहना है, इसलिए
भजन की बातें
करते रहो। यह
कैसा संन्यास,
ये कैसे
साधु!
आसण
दिख अहार दिद
वे न्यत्रा
दिड होई।
तो
पहले आसन को
सम्हाल लो, फिर
भोजन को
सम्हाल लो, फिर निद्रा
को सम्हाल लो—बस
ये
तीन बड़ी
महत्वपूर्ण
बातें हैं, जो
तुम सम्हाल
सको तो आत्मा
को जानने के
लिए कोई अड़चन
नहीं रह जाती।
ये तीन बाधाएं
हैं। निद्रा
दृढ़ का क्या
अर्थ होगा? जिसका आसन
सम्हल गया, जो बिलकुल
शांत होकर
बैठने में
कुशल हो गया, जिसके भीतर
विचार की
तरंगें चली
गयीं, जिसका
भोजन सम्हल
गया, जो
देह को इतना
देता है जितना
आवश्यक है, न कम न
ज्यादा। कम भी
मत देना।
इधर
एक तरफ हिंदू
साधु हैं, जिनकी
तोंद ही
प्रमाण है
उनकी साधुता
का, और उधर
फिर जैन साधु
हैं, जिनका
हड्डी—हड्डी
हो जाना ही
प्रमाण है
उनकी साधुता
का। ये दोनों
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। इनमें
कुछ भेद नहीं
है। एक ज्यादा
खा रहा है, एक
कम खा रहा है।
दोनों ही अति
पर चले गये
हैं। होना है
मध्य में, होना
है सम्यक। तो
भोजन सम्हाल
लो। ये दो
चीजें सम्हल
जायें तो फिर
तीसरी चीज सम्हालने
की क्रिया
शुरू होती है।
फिर निद्रा
सम्हाल लो।
निद्रा
सम्हालने का
क्या अर्थ
होगा? यह
सूत्र बड़ा
गहरा है।
निद्रा
सम्हालने का
अर्थ है, जैसे
जागते में
विचार शात हो
गये, ऐसे
ही स्वप्न भी
शात हो जायें
सोते में। हो
जाते हैं।
क्योंकि
स्वप्न भी
विचारों के
कारण उठते हैं।
विचारों का ही
प्रतिफलन हैं
स्वप्न, विचारों
की ही गज—
अनुगूंज हैं।
दिन— भर खूब
सोचते हो तो
रातभर खूब
सपने देखते हो।
जो सोचते हो
उसी के सपने
देखते हो। जो
भोजनभट्ट हैं,
वे रात भी
सपनों में
भोजन करते
रहते हैं, राजमहलों
में उनको
निमंत्रण
मिलता है।
सुस्वाद भोजन
चलते रहते हैं।
जो कामी हैं, वे कामवासना
के स्वप्न
देखते रहते
हैं। जो
धनलोलुप हैं,
वे
धनलोलुपता के
स्वप्न देखते
रहते हैं। जो
पदलोलुप हैं,
वे सपने में
सम्राट हो
जाते हैं।
तुम्हारे
सपने
तुम्हारे
चित्त के ही
विकारों के
प्रतिफलन हैं।
नींद में भी
उनकी गज सुनाई
पड़ती रहती है।
जब तुम शात
होकर बैठना
सीख जाआगे, भोजन
संयत हो
जायेगा... और
भोजन के संयत
होने में खयाल
रखना, जो
भी तुम भीतर
डालते हो... वह
सभी भोजन में
सम्मिलित है।
व्यर्थ की
किताबें न पढ़ो,
क्योंकि वह
भी भोजन है, तुम भीतर
डाल रहे हो।
व्यर्थ की
बातें न सुनो,
क्योंकि वह
भी भोजन है, तुम भीतर
डाल रहे हो।
कोई कहता ही
नहीं किसी से...।
अगर
तुम्हारे घर
में कोई कचरा
फेंक जाये, तुम
फौरन इनकार
करोगे; लेकिन
तुम्हारी खोपड़ी
में आकर कोई
व्यर्थ की
अफवाहें डाल
जाये, तुम
इनकार ही नहीं
करते, तुम
बिलकुल कान
लगाकर सुनते
हो कि ही भाई, और सुनाओ, आगे क्या
हुआ? सोचो
तो तुम, तुम
क्या कचरा मन
में भर रहे हो!
यह सब आहार है।
कान से जाये, आंख से जाये,
मुंह से
जाये, नाक
से जाये, यह
सब आहार है।
ये सब
इंद्रियां
भोजन लेती हैं।
तो
भोजन दृढ़ करने
का अर्थ है :
व्यर्थ को
भीतर मत जाने
दो। व्यर्थ से
सावधान रहो।
वही देखो जो
देखना जरूरी
है। वही सुनो
जो सुनना
जरूरी है! वही
बोलो जो बोलना
जरूरी है। और
तुम्हारे
जीवन में
साधुता अपने—आप
उतरने लगेगी।
और फिर
तुम्हारी
नींद भी सध
जायेगी। फिर
नींद में भी
तुम शात रहोगे।
स्वप्न विदा
हो जायेंगे।
और एक अपूर्व
घटना घटती है।
जिस दिन नींद
में स्वप्न
विदा हो जाते
हैं,
उस दिन तुम
सोते भी हो और
जागे भी रहते
हो।
इसलिए
कृष्ण ने कहा
है कि जब सब सो
जाते हैं तब
भी योगी जागता
है। इसका मतलब
यह नहीं है कि
योगी बैठे हैं
या खडे हैं
कमरे में और
जाग रहे हैं।
इसका अर्थ यह
है कि शरीर सो
जाता है, मगर
भीतर एक
ज्योति जलती
रहती है। एक
होश सधा ही
रहता है।
गोरष
कहै सुणौं रे
पूता!
इसलिए
कहते हैं, अपने
शिष्यों को कि
हे पुत्रो, सुनो।
मरै न
बूढ़ा होई!
ऐसा
अगर हो जाये
तो फिर न तो
तुम जानोगे
कभी कि बुढ़ापा
आया और न तुम
जानोगे कि कभी
मौत आयी। इसका
यह मतलब नहीं
है कि के नहीं
होओगे। शरीर
ही का होगा, मगर
तुम के नहीं
होओगे। शरीर
ही मरेगा, तुम
अमृत हो गये।
गोरख
के लिए दो नाम
प्रचलित हैं।
एक नाम है :
गोरखगोपाल।
वह सदा ताजे
रहे,
युवा रहे।
दूसरी नाम है.
बूढाबालं।
बूढ़े हो गये, लेकिन फिर
भी बालक के
जैसे रहे, उतने
ही ताजे। जैसे
सुबह—सुबह की
ताजी—ताजी ओस,
सुबह—सुबह
खिली हुई फूल
की कली, ऐसे
ही ताजे रहे, उनकी ताजगी
कभी न गयी।
गोरष
कहै सुणौं रे
पूता मरै न
बूढ़ा होई।
षांयें
भी मरिये
अणषांये भी
मरिये
गोरष
कहै पूतसंजमि
ही तारिये।
खाओगे
तो भी मरोगे, नहीं
खाओगे तो भी
मरोगे; मृत्यु
तो होनेवाली
है। सिर्फ एक
की मृत्यु
नहीं होती जो
संयम को उपलब्ध
हो गया है।
संयम के वे
तीन सूत्र
हैं.
आसण
दिढ, अहार दिडु
जे न्यत्रा
दिढ होई
फिर
कोई मृत्यु
नहीं है। फिर
शाश्वत का
अनुभव है।
मधि
निरंतर कीजै
वास !'
इसलिए
हर चीज में
मध्य को खोज
लो,
न ज्यादा
खाओ, न
ज्यादा सोओ। न
कम खाओ, न
कम सोओ। हर
चीज में मध्य
को खोज लो; न
ज्यादा बोलो,
न कम बोलो, मध्य को
खोजते जाओ।
तुमने
देखा न कभी
रस्सी पर नट
चलता है, बस
उसी तरह अपने
को सम्हालते
रहो रस्सी पर,
मध्य में। न
ज्यादा बायें
झुको, न
ज्यादा दायें
झुको; झुके
कि गिरे।
सम्हालते रहो
मध्य में। हर
चीज का मध्य
खोज लो और
तुम्हें जीवन
की समता, सम्यकत्व
उपलब्ध हो जायेगा।
निहचल
मनुवा थिर होड़
सांस!
और
जब ठीक—ठीक
मध्य सध जाता
है तो मन
निश्चल हो
जाता है। इतना
निश्चल कि
श्वास भी चलनी
बंद हो जाती
है। तब समाधि
फलित होती है।
वहां न मन
चंचल होता है, न
श्वास चंचल
होती है। खयाल
रखना, जब
समाधि फले तो
घबड़ा मत जाना।
यहां यह रोज
होता है। जब
किसी
संन्यासी को
पहली समाधि का
अनुभव होता है
तो वह घबड़ा
जाता है।
घबड़ाहट यह
होती है कि
सांस बंद हो
जाती है। उसे
लगता है कि
मरा, मरा।
मगर यह मौत
नहीं है, यह
नये जीवन की
शुरुआत है।
मरौ वे
जोगी मरौ मरौ
मरण है मीठा।
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी गोरष मरि
दीठा।।
यह
उस मृत्यु का
प्रारंभ है, जिसके
बाद परम जीवन
है।
मरो!
ऐसी मरनी मरो
जैसी गोरख मरा।
और मर कर देखा।
और जो देखा, वह
शाश्वत है, अमृत है!
आज
इतना ही
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