अध्याय
2 : सूत्र 3
इसलिए
ज्ञानी
निष्क्रिय
भाव से अपने
कार्यों
की
व्यवस्था
करते हैं तथा
निःशब्द
द्वारा अपने
सिद्धांतों
का संप्रेषण
करते हैं।
अस्तित्व
द्वंद्व है।
जो भी किया
जाए,
उसके साथ ही
उससे विपरीत
भी होना शुरू
हो जाता है।
लाओत्से
ने पहले दो
सूत्रों में
अस्तित्व की इस
द्वंद्वात्मकता
की बात की है।
और अब तीसरे
सूत्र में
लाओत्से कहता
है,
"इसलिए--देयरफोर
दि सेज मैनेजेज
अफेयर्स विदाउट
एक्शन--इसलिए
ज्ञानी
निष्क्रिय
भाव से अपने कार्यों
की व्यवस्था
करता है।'
इसे
समझना, थोड़े
गहरे में जाना
पड़े। अगर
ज्ञानी किसी
से कहे कि मैं
तुम्हें
प्रेम करता
हूं, तो वह
साथ ही घृणा
को जन्म दे
रहा है। अगर
ज्ञानी कहे कि
मैं लोगों के
हित के लिए
काम करता हूं,
तो वह अहित
को जन्म दे
रहा है। अगर
ज्ञानी कहे कि
मैं तुम्हें
जो देता हूं, यह सत्य है, तो वह असत्य
को जन्म दे
रहा है।
लाओत्से ने पहले
कहा कि
प्रत्येक चीज
द्वंद्व से
भरी है। यहां
हम कुछ भी
करेंगे, तो
उससे विपरीत
तत्काल हो
जाता है।
विपरीत बचेगा
नहीं। विपरीत
से बचने का
उपाय नहीं है।
हमने कुछ किया
कि हम विपरीत
के जन्मदाता
हो जाते हैं।
हमने किसी की
रक्षा की, तो
हम किसी को
नुकसान
पहुंचा देते
हैं। और हमने
किसी को बचाया,
तो हम किसी
को मिटाने का
कारण बन जाते
हैं।
यदि
द्वंद्व जीवन
का सार है, तो
हम जो भी
करेंगे, उससे
विपरीत भी
तत्काल हो
जाएगा। चाहे
हमें ज्ञात हो,
चाहे हमें
ज्ञात न हो; चाहे हम
पहचान पाएं, चाहे हम न
पहचान पाएं; चाहे किसी
को ज्ञात हो
और चाहे किसी
को ज्ञात न हो;
लेकिन ऐसा
नहीं हो सकता,
यह असंभव है
कि हम एक को
पैदा करें और
उससे उलटा
पैदा न हो
जाए।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
ज्ञानी
बिना सक्रिय
हुए व्यवस्था
करते हैं। बिना
सक्रिय हुए
व्यवस्था
करते हैं। अगर
वे चाहते हैं
कि आपका मंगल
हो, तो
आपके मंगल के
लिए सक्रिय
नहीं होते।
अगर वे मंगल
के लिए सक्रिय
होंगे, तो
आपका अमंगल भी
हो जाएगा।
यह
बहुत कठिन बात
है। जटिल भी
और गहन भी।
क्योंकि
साधारणतः हम
सोचते हैं कि
अगर किसी का
मंगल करना हो, तो
मंगल करना
पड़ेगा। अगर
किसी की सेवा
करनी है, तो
सेवा करनी
पड़ेगी। और
किसी को
सहायता पहुंचानी
है, तो
सहायता पहुंचानी
पड़ेगी। लेकिन
लाओत्से जिस
सूत्र को समझा
रहा है, वह
यह है कि तुम
जब सेवा करोगे,
तभी तुम उसे
गुलाम बनाने
का यंत्र भी
पैदा कर दोगे।
जब तुम किसी
को प्रेम
करोगे, तो
तुम घृणा का
भी आयोजन
निर्मित कर
दोगे। क्योंकि
प्रकट होते ही
प्रेम घृणा को
जन्म देता है;
सक्रिय
होते ही सेवा
शत्रुता बन
जाती है।
तो
ज्ञानी क्या
करेगा? क्या
ज्ञानी प्रेम
नहीं करेगा? क्या ज्ञानी
मंगल के लिए
कामना नहीं
करेगा? क्या
ज्ञानी सेवा के
लिए आतुर नहीं
होगा?
अगर वह
ज्ञानी है, तो
लाओत्से कहता
है, ही मैनेजेज
अफेयर्स विदाउट
एक्शन, वह
बिना सक्रिय
हुए व्यवस्था
करेगा। वह अगर
प्रेम भी
करेगा, तो
प्रेम को
सक्रियता
नहीं देगा।
उसका प्रेम कभी
भी किसी
क्रिया में
प्रकट नहीं
होगा। क्रिया
तो दूर, वह
अपने प्रेम को
शब्द भी नहीं
देगा। वह यह
भी नहीं कहेगा
कि मैं प्रेम
करता हूं।
इसलिए नहीं
कहेगा कि जो
कहता है, मैं
प्रेम करता
हूं, यह
कहने से ही इस
शब्द के
आस-पास घृणा
की रेखा खिंच
जाती है।
जब मैं
किसी से कहता
हूं,
मैं प्रेम
करता हूं, तो
एक तो यह बात
साफ हुई कि पहले
मैं प्रेम
नहीं करता था,
अब करता
हूं। और जब
मैं कहता हूं,
मैं प्रेम
करता हूं, तो
इसकी शर्तें
होंगी कि किस
स्थिति में
मैं करूंगा और
किस स्थिति
में नहीं
करूंगा। या कि
यह बेशर्त
होगा? कहा
हुआ कोई भी
शब्द बेशर्त,
अनकंडीशनल
नहीं हो सकता।
फिर जब मैं
कहता हूं, मैं
प्रेम करता
हूं, तो
मानता हूं कि
कल नहीं करता
था, मानना
पड़ेगा कि कल
भी हो सकता है
न करूं। इस प्रेम
के छोटे से
द्वीप के
आस-पास बड़ा
सागर अप्रेम
का होगा। असल
में, उस
सागर से अलग
दिखलाने के
लिए ही तो मैं
घोषणा करता
हूं कि मैं
प्रेम करता
हूं। वह जो
अंधेरा घिरा
है चारों तरफ,
उसमें इस
दीए को जलाता
हूं। उस
अंधेरे के
विपरीत ही यह
दीया जला रहा
हूं। और दीया
जला कर मैं अंधेरे
को और प्रकट
कर रहा हूं, स्पष्ट कर
रहा हूं; अंधेरे
को भी मजबूत
कर रहा हूं।
लाओत्से
कहता है, ज्ञानी
अगर प्रेम
करेगा, तो
सक्रिय नहीं
होगा। इतना भी
सक्रिय नहीं
होगा कि वह
कहे कि मैं
प्रेम करता
हूं। उसका
प्रेम अकर्ममय
होगा, इनएक्टिव होगा। उसका
प्रेम उसकी
घोषणा नहीं, उसका
अस्तित्व
होगा। उसका
प्रेम उसका
वक्तव्य नहीं,
उसकी आत्मा
होगी। वह
प्रेम ही
होगा। और
इसलिए, मैं
प्रेम करता
हूं, यह
कहना उसके लिए
उचित नहीं
होगा। जो घृणा
है, वह कह
सकता है, मैं
प्रेम करता
हूं। लेकिन जो
प्रेम ही है, वह कैसे
कहेगा कि मैं
प्रेम करता
हूं? और
प्रेम करता
हूं, यह तो
कहेगा ही नहीं,
प्रेम करने
के लिए जो
आयोजना करनी
पड़ती है, जो
कर्म करना
पड़ता है, वह
भी वह करने
नहीं जाएगा।
उसका प्रेम एक
मौन
अभिव्यक्ति
होगी, एक
शून्य
अभिव्यक्ति
होगी। उसका
प्रेम एक मौजूदगी
होगी--अघोषित!
एक प्रेजेंस
होगी, एक
उपस्थिति
होगी--अप्रचारित,
निःशब्द, निष्क्रिय।
और बड़े
आश्चर्य की
बात तो यही है
कि ऐसा जो
प्रेम है, वह
अपने से
विपरीत को
पैदा नहीं
करता, घृणा
को पैदा नहीं
करता।
क्योंकि जो
सक्रिय नहीं
हुआ, वह
द्वंद्व के
जगत में नहीं
आया। ऐसा
प्रेम सिर्फ
प्रेम ही होता
है। और ऐसा
प्रेम कभी
समाप्त नहीं
होता; क्योंकि
जो शुरू ही
नहीं हुआ समय
की धारा में, वह समय की
धारा में
समाप्त भी
नहीं होगा।
पर ऐसे
प्रेम को
पहचानना अति
कठिन है।
क्योंकि हम
शब्दों को
पहचानते हैं।
हम कर्मों को
पहचानते हैं।
कोई व्यक्ति
कहे कि मैं
प्रेम करता
हूं,
तो समझ में
आता। कोई ऐसा
कर्म करे
प्रेम करने जैसा,
तो समझ में
आता। अगर
निष्क्रिय
प्रेम हो, अनभिव्यक्त
प्रेम हो, अघोषित
प्रेम हो, तो
हमारे खयाल
में ही नहीं
आता। हम
समझेंगे, नहीं
है। इसलिए
बहुत बार ऐसा
हुआ कि इस
पृथ्वी पर
ठीक-ठीक
प्रेमी नहीं
पहचाने जा
सके।
जीसस
एक गांव से
गुजर रहे हैं।
और एक वृक्ष
के तले
विश्राम किया
है। वह वृक्ष
उस जमाने की
बड़ी वेश्या मेग्दालीन
का वृक्ष है, उसका
बगीचा है।
उसने अपनी खिड़की
से झांक कर
जीसस को देखा,
जब वह जाने
के करीब थे
विश्राम
करके। उसने
बहुत लोग देखे
थे, इतना
सुंदर
व्यक्ति नहीं
देखा था। एक
सौंदर्य है जो
शरीर का है, और जो थोड़े
ही परिचय से
विलीन हो जाता
है। और एक
सौंदर्य है जो
आत्मा का है, जो परिचय की
गहराई से गहन
होता जाता है।
एक सौंदर्य है
जो आकृति का
है। और एक सौंदर्य
है जो
अस्तित्व का
है। उसने बहुत
सुंदर लोग
देखे थे। मेग्दालीन
सुंदरतम
स्त्रियों
में एक थी।
सम्राट उसके द्वार
पर दस्तक देते
थे। सम्राटों
को भी सदा द्वार
खुला हुआ नहीं
मिलता था।
जीसस को देख
वह मोहित हो
गई। वह निकली
अपने भवन के
बाहर, जाते
हुए युवक को
रोका और जीसस
से कहा, भीतर
आएं, मेहमान
बनें मेरे।
जीसस
ने कहा, अब तो
मेरा विश्राम
पूरा हो चुका।
कभी फिर तुम्हारे
राह पर थक जाऊंगा,
तो अब वृक्ष
के नीचे
विश्राम न
करके भीतर आ जाऊंगा।
पर अब तो मेरे
जाने का समय
हुआ।
मेग्दालीन के
लिए यह भारी
अपमान था। वह
सोच भी नहीं
सकती थी कि एक
भिखारी जैसा
युवक हतप्रभ न
हो जाएगा उसे
देख कर! बड़े
सम्राट उसे
देख कर होश खो
देते थे। और
जीसस ने अपना
झोला उठा लिया, वे
चलने को तत्पर
हो गए। मेग्दालीन
ने कहा, युवक,
यह
अपमानजनक है!
यह पहला मौका
है कि मैंने
किसी को
निमंत्रण
दिया है। क्या
तुम इतना भी
प्रेम मेरे
प्रति प्रकट न
करोगे कि दो
क्षण मेरे घर
में रुक जाओ?
जीसस
ने कहा, जो
तुम्हारे पास
प्रेम प्रकट
करने आते हैं,
फिर से
सोचना, उन्होंने
तुम्हें कभी
प्रेम किया है?
जिन्होंने
प्रकट किया है,
उन्होंने कभी
प्रेम किया है?
मैं ही हूं
अकेला जो
प्रेम कर सकता
हूं। लेकिन
अभी तो मेरे
जाने का समय
हुआ।
मेग्दालीन
नहीं समझ पाई
होगी जीसस का
यह कहना कि
मैं ही हूं
अकेला जो
प्रेम कर सकता
हूं,
लेकिन अभी
तो मेरे जाने
का समय हुआ। सैकड़ों
वर्ष तक जीसस
के इस वक्तव्य
पर विचार होता
रहा है कि
जीसस का क्या
मतलब था कि
मैं ही हूं
अकेला जो
प्रेम कर सकता
हूं। अगर ऐसा
था, तो
प्रेम प्रकट
करना था। यह
वक्तव्य भी
बिलकुल इम्पर्सनल
है, अवैयक्तिक
है। जीसस ने
यह नहीं कहा
कि मेग्दालीन,
मैं तुझे
प्रेम करता
हूं। जीसस ने
कहा, मैं
ही हूं अकेला
जो प्रेम कर
सकता हूं। यह
किसी व्यक्ति
के प्रति कही
गई बात नहीं
थी। सूचक थी।
और अगर प्रेम
था, तो
थोड़ा सा कृत्य
करके दिखाना
था! इतना ही
कृत्य करते कि
उसके घर के
भीतर चले
जाते। यह कैसा
प्रेम था?
फिर
दुबारा कभी
जीसस उस वृक्ष
के नीचे भी
नहीं रुके और
दुबारा कभी मेग्दालीन
के घर में भी
नहीं गए।
दुबारा उस
रास्ते से गुजरने
का मौका ही न
आया। वह जीसस
का जो वक्तव्य
था कि मैं ही
हूं अकेला जो
प्रेम कर सकता
हूं,
वह न तो
क्रिया बना और
न व्यक्ति के
प्रति घोषणा
बना। पर उसका
अर्थ क्या था?
लाओत्से
को समझेंगे तो
खयाल में
आएगा। फिर भी, लाओत्से
शायद इतना भी
न कहता कि मैं
ही हूं अकेला
जो प्रेम कर
सकता हूं।
लाओत्से इतना
भी न कहता।
क्योंकि इतना
भी बहुत हो
गया। इतने में
भी रूप मिल
गया, आकृति
बन गई। इतने
में भी व्यक्त
हो गई बात और समय
की धारा में
प्रवेश कर गई।
लाओत्से
चुपचाप ही चल
देता; लाओत्से
उत्तर भी न
देता।
क्योंकि
लाओत्से कहता
है कि जैसे ही
हम कुछ प्रकट
करते हैं, उससे
विपरीत
निर्मित हो
जाता है, तत्क्षण!
जैसे मैं
बोलता हूं और
पर्वत से प्रतिध्वनि
गूंज जाती है,
ऐसे ही।
यहां प्रेम, वहां घृणा
संगृहीत होने
लगती है! यहां
दया, वहां
कठोरता की पर्तें
जमने लगती
हैं! यहां
अहिंसा, वहां
हिंसा निवास
बनाने लगती
है! हम जो भी
करते हैं, उससे
विपरीत से
नहीं बच सकते
हैं।
इसलिए
एक बहुत अनूठी
घटना घटती है
कि जिसे भी हम
प्रेम करते
हैं,
उसी से हम
पीड़ा पाते
हैं। जो भी
किसी को प्रेम
करेगा, वह
उसी से पीड़ा
पाएगा जिससे
प्रेम करेगा।
प्रेम से पीड़ा
नहीं मिलनी चाहिए।
लेकिन प्रेम
प्रकट होकर
तत्काल अप्रेम
को पैदा कर
देता है।
अप्रेम से
पीड़ा मिलती है।
लाओत्से
कहता है, जो
ज्ञानी हैं, जो जानते
हैं, जिन्हें
इस राज का पता
है कि
अस्तित्व में
किसी भी चीज
को बनाओ, विपरीत
बन जाता है--इससे
बचने का कोई
उपाय नहीं है,
इससे
अन्यथा हो ही
नहीं सकता, यही नियम
है--वे क्या
करेंगे?
वे
व्यवस्था तो
करते हैं, लेकिन
बिना क्रिया
के व्यवस्था
करते हैं।
"दि
सेज कनवेज
हिज डॉक्ट्रिन
विदाउट वर्ड्स।'
और वह
ज्ञानी जो है, बिना
शब्द के अपना
सिद्धांत
समझाता है।
बिना कर्म के
अपने
व्यक्तित्व
को प्रकट करता
है, बिना
शब्द के अपनी
दृष्टि को, अपने दर्शन
को।
सोचना
पड़ेगा।
क्योंकि ऐसा
एक भी ज्ञानी
नहीं हुआ, जिसने
शब्द का उपयोग
न किया हो। और
लाओत्से कहता
है, ज्ञानी
कभी भी शब्द
से अपने दर्शन
को अभिव्यक्त
नहीं करता। तो
इसके दो मतलब
हो सकते हैं।
एक
मतलब तो यह कि
जो भी बोले
हैं,
वे कोई भी
ज्ञानी नहीं
थे। और जो
ज्ञानी थे, उनका हमें
कोई पता नहीं।
फिर लाओत्से,
बुद्ध और
जीसस और
महावीर और
कृष्ण और
क्राइस्ट, वे
भी ज्ञानियों
की पंक्ति में
सम्मिलित न हो
सकेंगे।
दूसरा अर्थ यह
हो सकता है--और
वही अर्थ
है--कि बुद्ध
ने जो भी बोला
है, उस
बोलने में
उनका दर्शन
नहीं है; जो
भी बोला है, उसमें उनकी
सार बात नहीं
है। बोलने से
तो केवल
उन्होंने
लोगों को
बुलाया है
निकट। जो निकट
आ गए हैं, उनसे
बिना बोले कहा
है। बोलना तो
एक डिवाइस थी,
एक उपाय था,
सत्य को
बताने का नहीं,
वे जो बोलने
के सिवाय कुछ
भी नहीं समझ
सकते हैं, उन्हें
पास बुलाने
का।
इसे
थोड़ा ठीक से
समझ लें।
बोलने से तो
सत्य को बोला
नहीं जा सकता।
बोलते ही सत्य
असत्य को जन्म
देता है। और
बोलते ही
सिद्धांत
विवाद बन जाता
है। इसलिए सब
सिद्धांत वाद
बन जाते हैं, बोलते
ही। वाद बनते
ही विपरीत वाद
निर्मित होता
है। संघर्ष और
कलह और
संप्रदाय और
मत, सारा
उपद्रव का
जन्म होता है।
क्या सत्य के
बोलने से ऐसा
होगा कि सत्य
बोला जाए तो
विवाद पैदा हो?
सत्य के
बोलने से तो
विवाद पैदा
नहीं होगा। लेकिन
सत्य बोला ही
नहीं जाता, और न कभी
बोला गया है।
जो भी बोला
गया है, वह
केवल, जो
शब्द को ही
समझ सकते हैं,
उनको
बुलाने का
उपाय है। एक
बार वे पास आ
जाएं, एक
बार वे निकट
मौजूद हो जाएं,
तो उनसे मौन
में भी बात की
जा सकती है।
यह
सिर्फ
प्रलोभन है, बोलना
सिर्फ
प्रलोभन है।
जैसे हम छोटे
बच्चों को
शक्कर की
गोलियां दे
देते हैं
स्कूल बुलाने
के लिए, खेल-खिलौने
रख देते हैं
स्कूल बुलाने
के लिए। फिर
धीरे-धीरे
खेल-खिलौने कम
होते जाते
हैं। नर्सरी
में तो हमें
खेल-खिलौने ही
रखने पड़ते हैं;
पढ़ाई-लिखाई
का कोई सवाल
नहीं। कहते
उसे स्कूल हैं,
बाकी
पढ़ाई-लिखाई का
कोई वास्ता
नहीं है। फिर
धीरे-धीरे
खिलौने विदा
होने लगेंगे।
फिर भी बच्चों
की किताबों में
हमें बड़ी
रंगीन
तस्वीरें
रखनी पड़ती
हैं। जब बच्चे
पहली दफे
किताब लेते
हैं, तो
किताब के लिए
रंगीन तस्वीर
नहीं देखते, रंगीन
तस्वीर के लिए
किताब पढ़ते
हैं। फिर रंगीन
तस्वीरें
समाप्त होने
लगती हैं। फिर
धीरे-धीरे तस्वीरें
विदा हो जाती
हैं।
ठीक
ऐसे ही बुद्ध
या लाओत्से जब
बोलते हैं, तो
बोलते हैं
उनके लिए, जो
सिर्फ बोलने
को ही समझ
सकेंगे। लोग
जब पास आ जाते
हैं, निकट
आ जाते हैं, पास बैठने
की क्षमता पा
जाते हैं, सत्संग
का रस और स्वाद
मिलने लगता है,
तब बुद्ध और
लाओत्से जैसे
लोग मौन होने
लगते हैं। और
जो वाणी के
लोभ में आया
था, वह
किसी दिन मौन
का संदेश पाकर
लौटता है।
ज्ञानियों
ने कभी भी कुछ
कहा नहीं है।
बहुत कुछ कहा
है,
यह जानते
हुए कहता हूं।
ज्ञानी सुबह
से सांझ तक
समझाते रहे
हैं लोगों को,
फिर भी सत्य
उन्होंने
नहीं कहा है।
सत्य तो उन्होंने
तब दिया है, जब सुनने
वाला मौन में
लेने को राजी
हो गया। जब
उसकी
ग्राहकता आ गई,
जब वह
रिसेप्टिव
हुआ, और जब
उसकी तैयारी
हो गई, तब
उन्होंने उसे
मौन में कुछ
कहा है। कहने
की घटना सदा
मौन में घटी
है।
लेकिन
हम जो संग्रह
करते हैं, वह
तो बोला हुआ
है। हम जो
संग्रह करते
हैं, वह
बोला हुआ है।
इसलिए
शास्त्र में
वह छूट जाता
है, जो
सत्य है।
क्योंकि सत्य
कभी शब्द में
कहा नहीं गया
था। जो कहा
गया था, वह
केवल प्रलोभन
था। वह ऐसा ही
है कि हम कभी
भविष्य के लिए
किसी स्कूल को
बचाना चाहें,
उसकी
स्मृति को
बचाना चाहें,
स्कूल में
रखे हुए
खेल-खिलौने
इकट्ठे कर
लें। और बाद
में, हजारों
वर्ष बाद, हम
कहें कि यही
था स्कूल में
जो पढ़ाया
जाता था।
ये
खेल-खिलौने
नहीं पढ़ाए
जाते थे। यह
तो सिर्फ
प्रलोभन था।
जो पढ़ाया
जाता था, वह यह
खेल-खिलौनों में
नहीं है। यह
तो सिर्फ
बच्चों को
बुलाने के लिए
निमंत्रण था।
बुद्ध
ने जो कहा है, कृष्ण
ने जो कहा है, लाओत्से ने
जो कहा है, महावीर
ने जो कहा है, उस कहे हुए
को हम संगृहीत
कर लेते हैं।
लेकिन जो नहीं
कहा है, उसको
तो संग्रह
करने का कोई
उपाय नहीं है।
और जो नहीं कहा
है, या
नहीं कह कर ही
जो कहा है, चुप
रह कर जो
बताया है, मौजूद
होकर, किसी
के पास होकर
जो बताया है, सन्निधि में
जो, उपस्थिति
में जिसकी
प्रतीति हुई
है, जो एक
से दूसरे में
प्रवेश कर गया
है एक जीवंत धारा
की तरह, उसका
तो संग्रह
नहीं हो पाता।
इसलिए
हजारों वर्षों
तक ऋषियों ने
कोशिश की कि
ग्रंथ लिखे न
जाएं। हजारों
वर्षों तक इस
बात की
आग्रहपूर्ण
चेष्टा रही कि
कुछ भी लिखा न
जाए। क्योंकि
लिखे हुए में
वह तो छूट
जाएगा जिसे
कहने के लिए
यह सब कहा था, यद्यपि
इसमें वह कहा
नहीं जा सका
है। वे खाली, रिक्त स्थान
तो छूट ही जाएंगे।
और वही थे
असली। इसलिए सैकड़ों
वर्षों तक, बल्कि
हजारों
वर्षों तक...।
वेद लिखे गए
कोई पांच हजार
वर्ष पहले।
लेकिन लिखे
जाने के पहले
कम से कम
नब्बे हजार
वर्ष तक वे
अस्तित्व में
थे--कम से कम!
लिखे तो गए
हैं पांच ही
हजार वर्ष पहले,
लेकिन कम से
कम नब्बे
हजार--कम से कम
कह रहा हूं, इससे ज्यादा
की संभावना है,
यह न्यूनतम
बता रहा हूं
आपको--कम से कम
नब्बे हजार
वर्ष तक वे
अस्तित्व में
थे। और जो वेद
जैसे विचार को
जन्म दे सकते
थे, वे
लिखने की कला
न खोज पाते
हों, यह
नासमझी की बात
है। जो वेद
जैसे विचार को
जन्म दे सकते
हों, वे
भाषा न बना
पाते हों, लिपि
न बना पाते
हों, यह
पागलपन की बात
है।
नब्बे
हजार वर्ष तक
वेद क्यों
नहीं लिखे गए?
आग्रह
था कि न लिखे
जाएं, न लिखे
जाएं। एक
व्यक्ति
दूसरे
व्यक्ति को सीधा
ही संक्रमित
करता रहे, डायरेक्ट
ट्रांसफर
हो। क्योंकि
वह व्यक्ति
शब्द भी दे
सकेगा और वह
शून्य
मौजूदगी भी दे
सकेगा! किताब
फिर शून्य
मौजूदगी नहीं
दे सकेगी।
किताब तो जड़
हो जाएगी। और
किताब उनके भी
हाथ लग जाएगी,
जो कुछ भी
नहीं जानते
हैं। किताब को
बचाना मुश्किल
है। किताब
अज्ञानी के
हाथ में भी लग
सकती है। और
किताब
अज्ञानी के
हाथ में लग
जाए तो
अज्ञानी को
इतनी जल्दी
ज्ञानी होने
का भ्रम पैदा
होता है जिसका
कोई हिसाब
नहीं। अज्ञानी
होना बुरा
नहीं है, अज्ञान
में ज्ञानी का
भ्रम पैदा हो
जाना बहुत खतरनाक
है। क्योंकि
फिर ज्ञान के
द्वार ही बंद
हो गए।
हजारों-हजारों
साल तक, सदियों
तक आग्रह किया
गया कि कुछ
लिखा न जाए।
जो जानता हो, वह उसे दे दे
जो जानने के
योग्य हो गया
हो। जब तक
जानने के
योग्य न हो, तब तक शब्द
का उपयोग करे;
और जब जानने
के योग्य हो
जाए, तो
निःशब्द
संभाषण करे, मौन में कह
दे। और जब तक
कोई मौन को
समझने के योग्य
न हो जाए, तब
तक जाहिर उसके
सामने रखा जाए
कि अभी उसे
कुछ भी नहीं
कहा गया है।
अभी सिर्फ
बाहरी बातें
की गई हैं।
अभी असली बात
नहीं कही गई।
तब तक उसे
रोका जाए, ताकि
उसे ज्ञानी
होने का भ्रम
न पैदा हो
जाए।
जिस
दिन से
किताबें लिखी
गईं,
उस दिन से
ज्ञानी कम और
ज्ञान ज्यादा
मालूम होने
लगा। फिर जिस
दिन से
किताबें छापी
गईं, उस
दिन से तो बात
ही सब समाप्त
हो गई।
क्योंकि लिखी
हुई किताब भी
बहुत सीमित
लोगों तक
पहुंच सकती थी;
छपी हुई
किताब का तो
कोई पहुंचने
की बाधा न रही।
और जो भी
महत्वपूर्ण
था, वह
क्रमशः--क्योंकि
वह तो व्यक्ति
के द्वारा सीधा
ही संक्रमण हो
सकता था--वह
खोता चला गया।
लाओत्से
जिन दिनों की
बात कर रहा है, वह
उन दिनों की
बात है, जब
ज्ञानी अपने
दर्शन को
निःशब्द में
समझाते थे।
इसे और दोत्तीन
तरह से भी देख
लेना जरूरी
है।
जितने
पीछे हम लौट
जाएंगे, उतना
ही साधना
पांडित्य
नहीं है।
जितने पीछे हम
लौटेंगे, साधना
पांडित्य
नहीं है।
साधना मौन
होने का अभ्यास
है। और
पांडित्य तो
शब्द से भरने
का अभ्यास है।
बुद्ध
ने घर छोड़ा।
तो वे गए; जो भी
जानता था, उसके
पास गए। और
उससे कहा कि
मैं परम सत्य
की खोज में
आया हूं, तुम्हें
परम सत्य हो
पता तो मुझे
कहो। तो अदभुत
लोग थे!
जिन्हें नहीं
पता था, उन्होंने
कहा, परम
सत्य का हमें
पता नहीं; हम
तो शास्त्र
सत्य को जानते
हैं। तो वह हम
तुमसे कह सकते
हैं। तो बुद्ध
ने कहा, शास्त्र
सत्य मुझे
नहीं जानना, मुझे तो
सत्य ही जानना
है। तो
उन्होंने कहा,
तुम और किसी
के पास जाओ।
फिर
बुद्ध उनके पास
गए,
जिन्होंने
उन्हें साधना
कराई। एक
व्यक्ति के
पास बुद्ध तीन
वर्ष तक साधना
करते थे।
जो-जो उसने
कहा, वह
उन्होंने
पूरा किया। जब
सब पूरा कर
डाला, तब
बुद्ध ने कहा
कि अब कुछ और
भी करने को
बचा है? या
मेरे करने में
कोई भूल-चूक
रही है? उस
गुरु ने कहा, नहीं, तुम्हारे
करने में कोई
भूल-चूक नहीं
रही; तुमने
पूरी निष्ठा
से पूरा कर
दिया है। तो
बुद्ध ने कहा,
लेकिन मुझे
परम सत्य का
अभी तक कोई
पता नहीं चला।
तो उस व्यक्ति
ने कहा, जितना
मैं जानता था,
उतना मैंने
तुम्हें करवा
दिया। परम
सत्य का मुझे
भी कोई पता
नहीं है। अब
तुम कहीं और
जाओ; तुम
किसी और को
खोजो।
बुद्ध
छह वर्ष तक
ऐसे चक्कर
काटते फिरे।
जिसके पास जो
सीखने मिला, उन्होंने
सीखा। जब तक
नहीं सीखा, तब तक सवाल
भी नहीं पूछा।
यह बड़े मजे की
बात है। तीन
साल एक आदमी
के पास समाप्त
किए हैं। जब उस
आदमी ने कहा, अब मुझे
सिखाने को कुछ
भी नहीं है; तब बुद्ध ने
कहा, लेकिन
परम सत्य मुझे
अभी नहीं
मिला। तीन साल
पहले पूछना था
यह बात कि परम
सत्य
तुम्हारे पास
है? तीन
साल खराब करके
यह पूछने की
क्या जरूरत है?
असली
सवाल यह नहीं
है कि परम
सत्य किसी के
पास है। असली
सवाल यह है कि
तुम पहले अपने
को योग्य
बनाते हो या
नहीं। इसलिए
तीन साल बाद
पूछा।
क्योंकि यह
योग्यता भी तो
आनी चाहिए कि
मैं पूछ सकूं।
जब गुरु ही
कहने लगा कि
अब मेरे पास सिखाने
को कुछ भी
नहीं, तब
बुद्ध ने कहा,
लेकिन परम
सत्य मुझे
नहीं मिला। और
तुमने जो सिखाया,
वह मैंने
पूरा किया।
अगर उसमें कोई
कमी रही हो तो
मुझे बताओ।
मैं उसे पूरा
करने को तैयार
हूं। पर उसने
कहा कि नहीं, तुम पूरा कर
चुके हो। और
अब बताने को
मेरे पास कुछ
भी नहीं।
जितना मैं
जानता था, वह
मैंने तुमसे
कह दिया। उसके
आगे तुम कहीं
और खोजो।
बुद्ध
सारे गुरुओं
के पास भटक
लिए,
सारे
शास्त्रियों
के पास भटक
लिए, नहीं
मिला। फिर वे
अकेली अपनी
यात्रा पर चले
गए। लेकिन
अपनी अकेली
यात्रा पर
जाने के पहले
उन्होंने सब
द्वार-दरवाजे
खटखटा लिए।
ध्यान रहे, अकेले की
यात्रा भी वही
कर सकता है, जिसने
बहुतों के साथ
चल कर देख
लिया हो।
अकेले की
यात्रा पर भी
वही जा सकता
है, जो
बहुत सी
यात्राओं पर
बहुतों के साथ
जा चुका हो।
हमारे चारों
तरफ न मालूम
कितना-कितना
जानने वाले
लोग हैं।
जितना वे
जानते हैं, उतने दूर तक
तो उनके साथ
चल लेना उचित
है। उसके पहले
अकेले होने की
जिद्द भी
खतरनाक है और
नुकसानदायक
है। यह अनुभव
भी आवश्यक है--अकेले
हो जाने के
लिए।
तो
बुद्ध ने
एक-एक को
खोजा। जो जहां
तक ले जा सकता
था,
वहां तक ले
गया। उसको
धन्यवाद दिया
कि उसने इतनी
कृपा की, और
विदा हुए। जब
उन्हें परम
सत्य का अनुभव
हुआ, तब
उन्होंने कहा
कि मैं सोचता
था कि शायद
जिनके पास मैं
गया हूं, वे
मुझसे कुछ
छिपा तो नहीं
रहे हैं।
लेकिन अब मैं
कह सकता हूं, उन्होंने
कुछ भी न
छिपाया था।
असल में, परम
सत्य बात ऐसी
थी कि उसे कोई
दूसरा नहीं दे
सकता था। उसे
कोई दूसरा
नहीं दे सकता
था। और मैं
दूसरे से ले
भी नहीं सकता
था, क्योंकि
मेरे मौन की
भी वैसी
क्षमता न थी।
मैं शब्द से
ही पूछता था, शब्द से ही
वे बताते थे।
जब कोई परम
मौन में उतरने
लगे, तभी
तो परम मौन
में उसे कहा
भी जा सकता
है।
लाओत्से
कहता है, ज्ञानी
न तो कर्म
करते हैं।
लेकिन इसका यह
अर्थ नहीं कि
वे व्यवस्था
नहीं करते। इस
भूल में न पड़
जाना। अकर्म
का अर्थ
निष्क्रिय नहीं
है। अकर्म का
अर्थ
अकर्मण्यता
नहीं है। इसका
यह मतलब नहीं
है कि ज्ञानी
पड़े रहते हैं
और कुछ नहीं
करते। इसका
मतलब बहुत और
है। इसका मतलब
यह है कि
ज्ञानी न करने
से कर्म की
व्यवस्था
करते हैं।
एक
पिता है। अगर
पिता सच में
आदृत है, और
आदृत है तो ही
पिता है, अन्यथा
पिता होने में
क्या है! कोई मेकेनिकल,
कोई
यांत्रिक
अर्थ में तो
कोई पिता का
कोई अर्थ नहीं
होता। अगर सच
में पिता है, तो उसके
कमरे के भीतर
आते ही बेटा
व्यवस्थित होकर
बैठ जाता है।
नहीं, उसे
आते ही से
डंडा नहीं
बजाना पड़ता कि
सब ठीक-ठाक
बैठ जाओ, मैं
पिता भीतर आ
गया हूं। उसे
व्यवस्था
नहीं करनी
पड़ती। वह आया
और व्यवस्था
हो जाती है।
उसकी
मौजूदगी। उसे पता
भी नहीं चलता
कि उसके आने
से व्यवस्था
हो गई है।
उसका आना और
व्यवस्था हो
जाना, एक
साथ घटित होता
है।
अगर
पिता थोड़ा
कमजोर है, तो
उसे आंख से
थोड़ा इशारा
करना पड़ता है।
लेकिन वह भी
बड़ा
शक्तिशाली
पिता है जो
आंख के इशारे
से व्यवस्था
करवा लेता है।
उतने
शक्तिशाली
पिता भी खोजने
आज मुश्किल
हैं। हालांकि
कमजोर है, क्योंकि
मौजूदगी काम
नहीं करती, उसको आंख से
कुछ कर्म करना
पड़ता है। उसे
कुछ दबाव, कुछ
इशारा, उसे
कुछ करना पड़ता
है। उसे सक्रिय
होना पड़ता है।
उससे
भी कमजोर पिता
है जो शब्द
बोल कर कहता
है,
शांत हो जाओ,
व्यवस्था
से बैठो।
हालांकि वह भी
काफी शक्तिशाली
पिता है। उतना
शक्तिशाली
पिता भी आज
नहीं पाया
जाता कि वह
कहे और कोई
मान ले!
संभावना तो यह
है कि वह कहे
तो और न कोई
माने!
नसरुद्दीन से
कोई उसका
मित्र पूछ रहा
है कि
तुम्हारे सात बेटे
हैं,
परेशान कर
डालते होंगे?
नसरुद्दीन ने कहा, कभी
नहीं, मुझे
मेरे बेटों ने
कभी कोई तकलीफ
न दी। हां, एक
दफे भर मुझे
घूंसा तानना
पड़ा था इन
सेल्फ डिफेंस,
अपनी
आत्मरक्षा के
लिए। बस, बाकी
और कभी नहीं।
बाकी तो मैं
ऐसी चाल ही
नहीं चलता
जिसमें कि
झंझट आए।
बाप कह
रहा है! कि मैं
ऐसी चाल ही
नहीं चलता जिसमें
झंझट आए। जहां
बेटे होते हैं, वहां
से बच कर निकल
जाता हूं।
सिर्फ एक बार
आत्मरक्षा के
निमित्त मुझे
घूंसा बांधना
पड़ा था। बस और
कभी मुझे
उन्होंने कोई
तकलीफ नहीं दी।
और भी
कमजोर बाप है, तो
एक ही बात को
पचास दफे
कहेगा। कोई
परिणाम न पाएगा
तो भी इक्यावनवीं
दफे कहने तो
तैयार है।
ठीक
वैसी ही
स्थिति
ज्ञानी की है।
ज्ञानी अकर्म
से व्यवस्था
करता है। उसकी
मौजूदगी
व्यवस्था
देती है। कर्म
से व्यवस्था
नहीं करता। कर्म
सब्स्टीटयूट
है। ज्ञान न
हो,
तो फिर कर्म
से व्यवस्था
करनी पड़ती है।
इसलिए
आपको एक और
राज खयाल में
आ जाए। आप
जितने अतीत
में उतरेंगे, ज्ञानी
को आप उतना ही
अकर्मी
पाएंगे। वह
अपनी कुटी में
बैठा है, या
अपने जंगल में
बैठा है।
यद्यपि उसकी
मौजूदगी
व्यवस्था
देती थी। और
वह जंगल की
कुटी में बैठा
रहता और
सम्राट को कुछ
पूछना होता तो
जंगल भागा हुआ
आता। उसके
चरणों में आकर
बैठता।
ज्ञानी राज्य
में रहे, इसके
लिए सम्राट
कोशिश करते।
वह राज्य में
बना रहे, बस!
वह मौजूद रहे!
फिर
जैसे-जैसे
इतिहास में हम
आगे हटें, वैसे
हमें पता
चलेगा कि
ज्ञानी कर्म
में उतर रहा
है। बुद्ध और
महावीर भी
हमें बहुत कर्मठ
नहीं मालूम
पड़ते। लेकिन
अगर आज बुद्ध
और महावीर हों,
तो हम उनसे
कहेंगे, कुछ
समाज-सेवा
करिए, कुछ
अस्पताल चलाइए,
कोई स्कूल
खोलिए, कोई
ग्रामदान
करवाइए। कुछ
तो करिए!
गरीबी हटाओ
आंदोलन चलाइए,
कुछ करिए।
बैठे-ठाले आपका
क्या फायदा है?
अगर आज
बुद्ध को पैदा
होना पड़े, और
लाओत्से को तो
भूल कर पैदा
नहीं होना
चाहिए। अगर
लाओत्से आज
पैदा हो, तो
हम उसको पता
नहीं, पता
नहीं हम उसको
किस काम के
लिए कहें कि
तू यह काम कर!
आज
जिसे हम
महात्मा कहते
हैं,
वह महात्मा
ज्ञानी नहीं
है। उसका महात्मा
होना भी इस
बात पर निर्भर
करता है कि वह
क्या करता है।
उसका महात्मा
होना उसके
शुद्ध
अस्तित्व पर
निर्भर नहीं
करता। उसका
महात्मा होना
उसके बीइंग पर
निर्भर नहीं,
उसके डूइंग
पर निर्भर
है--वह क्या
करता है! सवाल
यह नहीं है कि
व्हाट ही इज़,
सवाल यह है
कि व्हाट ही इज़ डूइंग,
उसने क्या
किया? उसका
ब्योरा क्या
है?
अगर आज
हम पूछें कि
लाओत्से ने
क्या किया? तो
कोई भी ब्योरा
नहीं है। करने
के नाम पर लाओत्से
की जिंदगी
बिलकुल खाली
है। अगर हम
करने से तौलें,
तो हमारे
गांव का जो
छोटा-मोटा
सेवक होता है,
वह भी बहुत
कर रहा है। एक
ग्राम-सेवक भी
ज्यादा कर रहा
है लाओत्से से।
नहीं, लेकिन
पुराने दिनों
ने यह पूछा ही
नहीं कि तुम
करते क्या हो?
पूछा यह कि
तुम हो क्या? और समझ यह थी
कि जब इतनी
बड़ी आत्मिक
सत्ता होती है,
तो उसके
परिणाम में
बहुत कुछ होता
है जो करना नहीं
पड़ता।
लाओत्से अगर
इस गांव में
मौजूद है, तो
उसकी मौजूदगी
काफी है। इस
गांव के लिए
जो भी हो सकता
है, वह
उसकी मौजूदगी
से हो जाएगा।
करने जाना पड़े,
तो लाओत्से
कहता है, बहुत
कमजोर ज्ञानी
है। ज्ञानी की
मौजूदगी सक्रियता
है। उसका होना
काफी है। जैसे
चुंबक मौजूद
हो, तो फिर
उसे कुछ करना
नहीं पड़ता, लोहे के
टुकड़े खिंचे
चले आते हैं।
अगर चुंबक को
एक-एक लोहे के
टुकड़े को
खींचने भी
जाना पड़े, तो
समझना कि
चुंबक नकली
है। चुंबक
नहीं है। चुंबक
का होना जो है,
उसकी जो
शक्ति है, वह
उसके बीइंग
में, वह
उसके होने में
छिपी है। उसके
होने से ही उसका
फील्ड निर्मित
होता है, उसका
क्षेत्र बनता
है। उस
क्षेत्र में
जो भी आता है, वह खिंच आता
है।
बुद्ध
जहां बैठ जाएं, वहां
एक चुंबकीय
क्षेत्र बन
जाता है। उस
बीच घटनाएं
घटनी शुरू हो
जाती हैं।
कहानियां
कहती हैं--आज
कहानियां हो
गई हैं--कि
बुद्ध जिस
गांव में ठहर
जाएं, वहां
चोरी बंद हो
जाती है। नहीं
यह कि बुद्ध
एक-एक चोर को
समझाते हैं। हत्याएं
बंद हो जाती
हैं। नहीं कि
बुद्ध
हत्यारों को जाकर
राजी करते हैं
कि तुम व्रत
लो, अणुव्रत ले लो, कि
अब हत्या नहीं
करोगे। बुद्ध
की मौजूदगी!
और
बुद्ध मानते
हैं कि अगर
मेरी मौजूदगी
काम न कर पाए, तो
मेरे
चिल्लाने से
नहीं काम
होगा। जब
अस्तित्व काम
नहीं कर पाता,
तो वाणी
क्या कर पाएगी?
अगर मेरा
होना ही काम
नहीं कर पाता,
तो मेरा
प्रचार क्या
काम कर पाएगा?
अस्तित्व
तो बड़ी
शक्तिशाली
चीज है। अगर
वह भी बेकार
जा रही है, तो
चिल्लाने से
क्या होगा? अगर बुद्ध चोर
के सामने खड़े
हैं और चोर की
चोरी नहीं गिर
जाती, तो
बुद्ध के
समझाने से
क्या होगा कि
चोरी छोड़ दो।
अगर बुद्ध की
मौजूदगी नहीं
चोरी छुड़वा
पाती, तो
बुद्ध की वाणी
क्या बुद्ध से
बड़ी है?
इसे
थोड़ा ऐसा
देखें। तो
क्या बुद्ध
चोर के हाथ-पैर
दाबें तो
चोर चोरी छोड़
देगा? तो क्या
बुद्ध का
हाथ-पैर दाबना
बुद्ध के होने
से बड़ा है?
नहीं, लाओत्से
जब कह रहा है, तो वह यह कह
रहा है कि
बीइंग से बड़ा
कुछ भी नहीं है।
वह जो
आत्म-स्थिति
है, उससे
बड़ा कुछ भी
नहीं है। कर्म
वगैरह तो सब
परिधि हैं, छोटी-मोटी
बातें हैं। वह
जो आत्मा में
जो सार है, अगर
वही कुछ नहीं
कर पाता, तो
फिर कुछ और
कुछ न कर
पाएगा।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
देयरफोर। वह फिर
कहता है, इसलिए।
क्योंकि एक को
पैदा करो तो
विपरीत पैदा
हो जाता है, इसलिए
ज्ञानी
निष्क्रिय
भाव से अपने
कार्यों की
व्यवस्था और
निःशब्द
द्वारा अपने
दर्शन का संप्रेषण
करते हैं। जो
उन्होंने
जाना है, उसे
मौन से कहते
हैं; और जो
उन्होंने
जीया है, उसे
मौजूदगी से
फैलाते हैं।
यह बड़ी मौन
घटना है। यह
बड़ी सायलेंट,
चुप, शांत
घटना है।
ज्ञानी एक
शून्य की तरह
विचरण करते
हैं, जैसे
नहीं हैं।
बड़ी
मजेदार घटना
है कि लाओत्से
की मरने की
कोई खबर नहीं
मिली है।
लाओत्से कब
मरा,
इसका कोई
उल्लेख नहीं
है। लाओत्से
का क्या हुआ, कहां गया, इसका इतिहास
के पास कोई
लेखा-जोखा
नहीं है। एक
लोक-प्रचलित
बात जरूर चलती
रही है हजारों
साल तक कि
लाओत्से को
जिस आदमी ने
आखिरी बार
देखा, उसने
पूछा कि
लाओत्से, कहां
जा रहे हो? तो
लाओत्से ने
कहा, जहां
से मैं आया था!
तो उस आदमी ने
पूछा, लेकिन
लोग सदा-सदा
चिंता करते
रहेंगे कि तुम
कहां गए? क्या
हुआ?
लाओत्से
ने कहा, जब
मैं पैदा हुआ
तो अज्ञानी
था। तो थोड़ा
शोरगुल मचा था
मेरे पैदा
होने का। थोड़ी
आवाज, घटना
घटी थी मेरे
पैदा होने की।
तब मैं
अज्ञानी था।
अब मैं ज्ञानी
होकर मरूंगा,
तो मेरे
मरने की कोई
भी, कोई भी
आवाज भी पैदा
नहीं होगी।
मेरे मरने की घटना
ही नहीं घटेगी
एक अर्थ में।
घटनाओं के जगत
में मेरा कोई
लेखा-खोजा
नहीं रहेगा।
क्योंकि
ज्ञानी
चुपचाप जीता
है और चुपचाप
विदा हो जाता है।
और ऐसा
ही चुपचाप वह
विदा हो गया।
लोगों ने जाना
भर कि वह था, और
अब नहीं है।
लेकिन उसकी
मृत्यु की कोई
घटना नहीं घटी
है। घटना इस
अर्थ में कि
किसी दूसरे को
भी पता चल गया
हो कि लाओत्से
अब मर गया।
लाओत्से ने जो
यह अंतिम बात
कही है किसी
यात्री से कि
अब मैं ज्ञानी
हूं, अब तो
मेरे मरने की
कोई आवाज, कोई
ध्वनि पैदा
नहीं होगी। अब
तो मैं ऐसे ही
खो जाऊंगा,
जैसे नहीं
था। क्योंकि
सच में मैं
उसी दिन खो गया,
जिस दिन
मैंने जाना।
अब मैं उस दिन
के बाद एक शून्य
हूं। शून्य
चले तो पैरों
की आवाज नहीं
होती और शून्य
चले तो पदचिह्न
नहीं बनते और
न पगध्वनि
होती है। जैसे
पक्षी आकाश
में उड़ते हैं
और पैरों के
कोई चिह्न नहीं
बनते, ऐसे
ही।
यह जो
लाओत्से कहता
है कि ज्ञानी
बिना कुछ किए
व्यवस्था
करते हैं, भाषा
में कठिनाई है
कहने में, इसलिए
उसे कहना पड़ता
है, व्यवस्था
करते हैं।
व्यवस्था भी
करते नहीं, व्यवस्था
होती है। तो
बजाय ऐसा कहने
के कि दि सेज मैनेजेज अफेयर्स विदाउट
एक्शन, उचित
यही है कहने
का, अफेयर्स आर मैनेज्ड
विदाउट
एक्शन।
ज्ञानी
व्यवस्था
करता है, ऐसा
नहीं; ज्ञानी
से बिना
क्रिया के, बिना कर्म
के कार्य
व्यवस्थित
होते हैं। ऐसा
जान कर, चेतन
रूप से उसे
कुछ करना नहीं
पड़ता है। वह
कुछ करता ही
नहीं, क्योंकि
करने का जो
वहम है, वह
अहंकार के साथ
ही गिर जाता
है। जब तक मैं
हूं, तब तक
कर्ता होता है,
तब तक लगता
है, मैं
करता हूं। और
बड़े मजे की
बात है, ऐसी
चीजों को भी
मैं कहता हूं,
मैं करता
हूं, जिनको
मैं बिलकुल
नहीं करता
हूं। जब तक
मेरा मैं है, तब तक मैं सब
चीजों को इस
ढंग से
विवेचना करता हूं
कि लगे कि मैं
उनका कर्ता
हूं। श्वास
लेता हूं तो
मैं लेता हूं,
जीता हूं तो
मैं जीता हूं,
बीमार होता
हूं तो मैं
होता हूं, स्वस्थ
होता हूं तो
मैं होता हूं,
जैसे कि मैं
कर रहा हूं।
जवान होता हूं
तो मैं होता
हूं, बूढ़ा
होता हूं तो
मैं होता हूं,
जैसे मैं
कुछ कर रहा
हूं। अहंकार
हर एक क्रिया
को अपने से
जोड़ लेता है।
ज्ञानी
का तो अहंकार
खो गया, इसलिए
हर क्रिया
परमात्मा से
जुड़ जाती है, ज्ञानी से
हट जाती है।
इसलिए ज्ञानी
कुछ भी नहीं
करता। और जिस
दिन ज्ञानी इस
स्थिति में आ
जाता है कि
कुछ भी नहीं
करता, उस
दिन ज्ञानी
सिर्फ माध्यम
हो जाता है
परमात्मा का।
वह परमात्मा
का एक साधन हो
जाता है। परमात्मा
ही उसे उठाता,
परमात्मा
ही उसे बिठाता,
परमात्मा
ही उसे चलाता,
परमात्मा
ही उससे बोलता,
या परमात्मा
ही उससे चुप
होता है।
इसलिए
उपनिषद के
ऋषियों ने
अपने नाम अपने
वचनों के साथ
नहीं लिखे।
नहीं लिखे
इसलिए कि वे परमात्मा
के वचन हैं।
इसलिए वेद को
हम किसी भी व्यक्ति
से नहीं जोड़
पाए,
वरन हमने
जाना कि वेद
अपौरुषेय हैं,
किसी पुरुष
के द्वारा
निर्मित नहीं
हैं। इससे बड़ी
नासमझी की बात
भी पैदा हुई।
लोग कहने लगे
कि वेद को
स्वयं ईश्वर
ने लिखा है।
सचाई दूसरी
है। सचाई इतनी
है कि
जिन्होंने
वेद को लिखा, उनकी ऐसी
समझ नहीं थी
कि हम लिख रहे
हैं। लिखा तो
आदमी ने ही
है। लेकिन जिस
आदमी ने लिखा
है, उसकी
अस्मिता
बिलकुल खो गई
थी। उसे
बिलकुल कारण न
था कहने का कि
मैं लिख रहा
हूं। उससे कोई
पूछता, तो
वह यही कहता
कि परमात्मा
लिखवा रहा है,
या
परमात्मा लिख
रहा है। लिखे
तो मनुष्यों
ने ही हैं।
लेकिन
जिन्होंने
लिखे थे, उनका
कोई अहंकार
नहीं था।
इसलिए वे कह
सके कि हमारे
नहीं हैं, परमात्मा
ही लिखवा रहा
है, अपौरुषेय
हैं।
इस जगत
में जो भी
श्रेष्ठतम
सत्यों का
किसी भी, किसी
भी ढंग से प्राकटय
हुआ है, वह
सभी अपौरुषेय
है। उसमें
करने वाले को,
मैं कर रहा
हूं, इसका
कोई भी पता
नहीं रहा है।
और जहां इसका
पता रहा है, वहीं सत्य
विकृत हुआ है,
वहीं
सौंदर्य कुरूप
हो गया है, वहीं
प्रेम घृणा बन
गया है।
लाओत्से
कहता है, न तो
वे कर्म से
व्यवस्था
करते हैं और न
शब्द से संदेश
देते हैं। फिर
भी कर्म करते
हैं। लाओत्से
चलता है, उठता
है, सोता
है, बैठता
है। खाना खाता
है। भूख लगती
है, नींद
आती है।
भिक्षा
मांगता है। एक
गांव से दूसरे
गांव जाता है।
कोई समझने आता
है, उसे
समझाता है।
कर्म तो वह
करता है।
लेकिन इन कर्मों
से लाओत्से
ऐसी भ्रांति
में नहीं पड़ता
कि मैं दुनिया
की कोई
व्यवस्था कर
रहा हूं। इसे
और समझ लें।
लाओत्से
इन कर्मों को
ऐसे ही करता
है,
जैसे
लाओत्से से
कोई पूछता है
कि तुम उठते
हो, बैठते
हो, सोते
हो, जागते
हो, चलते
हो, समझाते
हो, कर्म
तो करते ही हो!
तो लाओत्से
कहता है, मेरे
कर्म ऐसे ही
हैं, जैसे
सूखा पत्ता
हवा में उड़ता
हो। हवा पूरब
की तरफ ले
जाती है, तो
सूखा पत्ता
पूरब की तरफ
चला जाता है; हवा पश्चिम
की तरफ ले
जाती है, तो
सूखा पत्ता
पश्चिम की तरफ
चला जाता है।
कभी-कभी हवा
आकाश में उठा
देती है बवंडर
पर चढ़ा कर, तो
सूखा पत्ता
आकाश में उड़
जाता है। और
कभी-कभी हवाएं
शांत हो जाती
हैं और पत्ते
को बिलकुल भूल
जाती हैं, और
पत्ता जमीन पर
पड़ जाता है।
मैं एक सूखे
पत्ते की तरह
हवाओं में
डोलता रहता
हूं। हवाओं की
जो मर्जी! जब
वे मुझे आकाश में
उठा देती हैं,
तब मैं अकड़
नहीं जाता कि
देखो, मैं
सिंहासन पर
बैठा हूं। और
जब वे मुझे
जमीन पर गिरा
देती हैं, तो
मैं जार-जार
रोने नहीं
लगता कि देखो,
मैं
अपमानित हुआ,
मेरी
उपेक्षा हुई।
जब वे मुझे
आकाश में उठा
देती हैं हवाएं,
तब मैं उनके
ऊपर तैरने का
आनंद लेता
हूं। और जब वे
मुझे नीचे
गिरा जाती हैं,
तब मैं
विश्राम में
चला जाता हूं,
विश्राम का
आनंद लेता
हूं। जब
पश्चिम की तरफ
ले चलती हैं, तब पश्चिम
की यात्रा! और
जब पूरब की तरफ
ले चलती हैं, तो पूरब की
यात्रा! मेरी
अपनी कोई
यात्रा नहीं।
मुझे कहीं
जाना नहीं।
हवाओं को भी
नाराज करने का
कोई कारण नहीं
पाता हूं।
अपनी कोई
मर्जी होती, तो हवाओं से
भी कहता कि
पूरब मत ले
जाओ, कि
पश्चिम मत ले
जाओ, कि
ऊपर मत उठाओ, कि नीचे मत गिराओ।
अपनी कोई
मर्जी नहीं
है।
लाओत्से
कहता है, जो भी
हो रहा है, वह
मैं नहीं कर
रहा हूं; वह
हो रहा है।
इसलिए जो भी
फल आए, कोई
प्रयोजन नहीं
है। कोई
लाओत्से से
समझता है, समझ
ले; ठीक। न
समझे, ठीक।
लाओत्से किसी
को कनविंस
करने नहीं
निकला हुआ है।
इसको
फर्क समझें।
एक मुसलमान मित्र
दो-चार दिन
पहले मुझे
मिलने आए थे।
वे पूछने लगे
कि हिंदू धर्म
की संख्या
इतनी कम क्यों
है,
अगर इतना
ऊंचा धर्म है
तो? इसलाम
की इतनी
संख्या है, ईसाइयत की
इतनी संख्या
है, बौद्ध
धर्म की इतनी
संख्या है। और
हिंदू धर्म सबसे
पुराना है, आप कहते हैं,
तो उसकी
संख्या सबसे
ज्यादा होनी
चाहिए। तो
मैंने उनसे कहा
कि उसका कारण
है। जिन
ऋषियों ने
हिंदू धर्म के
आधार रखे, वे
कहते थे, हम
कौन हैं किसी
को कनविंस
करने वाले! हम
कौन हैं कि
किसी को समझा
कर बदल दें! हम
कौन हैं कि
किसी को
कनवर्ट करें!
कि उससे कहें
कि तू हिंदू
हो जा! हम ही
नहीं हैं। तो
अगर कोई
पतंजलि के पास
जाए, या
वशिष्ठ के पास
जाए, या
याज्ञवल्क्य
के पास जाए, तो समझा
देंगे; जो
पूछेगा, बता
देंगे। फिर
बात समाप्त हो
गई। लेना-देना
नहीं है। वह
माना कि नहीं,
इसका भी कोई
हिसाब नहीं
रखना है। वह
राजी होकर
मेरे पीछे चला
कि नहीं, इसका
भी कोई हिसाब
नहीं रखना है।
मैं हूं ही नहीं।
मेरे पीछे
चलने का सवाल
क्या है? तुमने
उठाया था सवाल,
अगर मेरे
प्राणों में
जवाब उठा तो
दे दिया, नहीं
उठा तो नहीं
दिया। वह भी
मैंने दिया है,
ऐसा नहीं।
अगर आप
लाओत्से से
सवाल पूछें, तो
जरूरी नहीं है
कि जवाब आए।
लाओत्से
कहेगा, आएगा
जवाब तो दे
दूंगा, और
नहीं आएगा तो
क्षमा मांगता
हूं। कई बार
लाओत्से के
पास लोग कष्ट
में पड़ गए
हैं। कोई बहुत
दूर से यात्रा
करके आया है
और लाओत्से से
सवाल पूछता
है। और
लाओत्से कहता
है, लेकिन
जवाब तो आता
नहीं है
मित्र! वह
आदमी कहता है,
मैं बहुत
दूर से आ रहा
हूं, मीलों
चल कर आ रहा
हूं। लाओत्से
कहता है, तुम
कितने ही
मीलों चल कर
आओ, लेकिन
जो जवाब मेरे
भीतर नहीं आता
उसे मैं कहां
से लाऊं! तुम
रुको। आ जाए, तो मैं
तुम्हें दे
दूं। न आ जाए, तो तुम
क्षमा करना।
कनवर्शन, दूसरे
को बदलने की
भी चेष्टा नहीं
है। जैसे सूरज
निकला, और
किसी फूल को
खिलना हो तो
खिल जाए और न
खिलना हो तो न
खिले। जो फूल
नहीं खिले, वे सूरज के
मत्थे नहीं मढ़
जाएंगे। कल
कोई परमात्मा
सूरज से नहीं
पूछ सकेगा कि
इतने फूल नहीं
खिले, उस
दिन तुम सुबह
निकले थे, उसका
जिम्मा? और
जो फूल खिल गए,
उनका भी
गौरव लेने के
लिए सूरज किसी
दिन परमात्मा
के सामने हाथ
फैला कर खड़ा
नहीं होगा, कि इतने फूल
खिल गए थे जब
मैं निकला था!
सूरज का काम
है निकलना।
फूल को खिलना
हो, खिल
जाए। वह फूल
का काम है।
सूरज निकलता
है और चला
जाता है। ऐसे
लाओत्से जैसे
व्यक्ति आते हैं
और चले जाते
हैं।
व्यवस्था भी
नहीं करते, संदेश भी
नहीं देते।
फिर भी जो
लेने की
तैयारी हो
किसी की, तो
उनसे संदेश
मिल जाता है।
और कोई अपने
को व्यवस्थित
करवाना चाहे,
तो उनकी
मौजूदगी में
व्यवस्थित हो
जाता है। लेकिन
ये सारी
घटनाएं हैपनिंग
हैं। ये सारी
घटनाएं
नियोजित कर्म
नहीं हैं। ये
सहज फलीभूत
होने वाली, सहज घट जाने
वाली घटनाएं
हैं।
यह
हमें खयाल में
आना बहुत कठिन
होता है। क्योंकि
हमने कभी जीवन
में ऐसा कोई
काम नहीं किया, जो
बिना किए किया
हो। और हमने
कभी कोई ऐसी
बात नहीं कही,
जो बिना कहे
कही हो। इसलिए
हमारे आयाम
में, हमारे
अनुभव में यह
बात कहीं नहीं
आती। लेकिन मैं
आपसे कहता हूं,
कुछ प्रयोग
करके देखें।
और आप पाएंगे
कि आपके बात
यह अनुभव में
आनी शुरू हो
गई।
जैसे
आप चाहते हों
कि आपके घर
में शांति हो, तो
व्यवस्था मत
दें, सिर्फ
आप शांत होते
चले जाएं।
मैनेज मत
करें। मैनेज
करने वाले से
कभी कुछ
व्यवस्थित
नहीं होने
वाला है। आप
सिर्फ शांत हो
जाएं। अगर आप
घर में शांति
चाहते हैं, दस सदस्यों
का परिवार है,
आप चाहते
हैं, घर
में शांति हो,
आप सिर्फ
शांत हो जाएं।
और थोड़े ही
दिन में आप पाएंगे
कि घर में
अनूठी शांति उतरनी
शुरू हो गई। न
मालूम अनजाने
रास्तों से, न मालूम
अनजाने
द्वारों और
झरोखों से
शांति घर में
उतरने लगी।
जिनमें आपको
कल सब
अशांति-अशांति
का उपाय दिखता
था, वे भी
शांत होते हुए
मालूम होने
लगे हैं। आप सिर्फ
शांत होते
जाएं, और
साल भर बाद आप
देखेंगे कि घर
चारों तरफ शांत
हो गया। और
आपने कहीं भी
कुछ किया
नहीं। अगर कुछ
किया, तो
अपने भीतर
किया।
असल
में,
शांत
व्यक्ति अपने
चारों तरफ
शांति की
तरंगें पैदा
करने लगता है।
अशांत
व्यक्ति अपने
चारों तरफ
पूरे समय
रेडिएशन कर
रहा है, किरणें
फेंक रहा है
अशांति की। अब
तो वैज्ञानिकों
ने उपाय...। अभी
एक फ्रेंच
वैज्ञानिक ने
एक मशीन बनाई
है, जो
व्यक्ति को
सामने खड़ा
करके बता सकती
है कि इस
व्यक्ति के
आस-पास अशांति
फैलती है या
शांति। उस
व्यक्ति के
शरीर से जो
किरणें
निकलती हैं, वे सामने की
उस मशीन पर
टकराती हैं और
वह मशीन इतनी
खबर देती है
कि किस वेवलेंथ
की किरणें इस
व्यक्ति के
शरीर से रेडिएट
होती हैं। और
हर तरह के
रेडिएशन की
अलग वेवलेंथ
है। और हर वेवलेंथ
का अलग परिणाम
है।
और बड़े
मजे की बात है
कि वह आदमी
वहीं सामने खड़ा
है,
आप उसके कान
में जाकर कह
दें कि
तुम्हें पता है,
तुम्हारी
पत्नी पड़ोसी
के साथ भाग गई!
फौरन उसका रेडिएशन
बदल जाता है।
वह मशीन फौरन
खबर देती है
कि रेडिएशन
बदल गया। अब
यह आदमी आग से
जला जा रहा
है। यह किसी
की हत्या कर
दे, ऐसी
इसकी भीतरी
स्थिति हो गई
है। या आप
उसके कान में
आकर कह दें कि
तुम्हें
लाटरी मिल गई,
कुछ पता है!
उसका सारा
रेडिएशन और हो
जाता है।
पूरे
समय,
हमारा शरीर
जो है, एक
रेडिएटर है।
हम सब
छोटे-छोटे
न्यूक्लियस हैं,
जिनसे
चौबीस घंटे
हजारों तरह की
किरणें बाहर फेंकी
जा रही हैं।
और बड़े मजे की
बात यह है कि जब
हम किरणें
फेंकते हैं और
दूसरे से
प्रतिफलित
होकर लौटती
हैं, तो हम
समझते हैं, वह दूसरा हम
पर क्रोध कर
रहा है। अगर
मैं अपने
चारों तरफ ऐसी
किरणें फेंक
रहा हूं जो
दूसरे से लौट
कर क्रोध बन
जाएंगी, तो
मुझे लगेगा कि
दूसरा आदमी
मुझ पर क्रोध
कर रहा है। जब
कि मैं यह कभी
खयाल न करूंगा
कि मैं जो भी
उपाय कर रहा
हूं अपने
व्यक्तित्व
से, वे ऐसे
हैं कि दूसरे
से लौट कर
किरणें क्रोध
बन जाएंगी।
और हम
सब यही कर रहे
हैं। और एकाध
आदमी नहीं, सब
जब ऐसा कर रहे
हों, तो एक
घर में दस
आदमी हैं, तो
उपद्रव दस
गुना; दस
गुना नहीं, बल्कि गुणनफल
हो जाता है; कुछ हिसाब
ही नहीं रहता
उसका कि कितना
उपद्रव मच
जाता है--एक से
दूसरे, दूसरे
से तीसरे, और
लौट रही हैं, और जा रही
हैं--एक जाल बन
जाता है। उस
जाल में हम जीते
हैं। और फिर
हम मैनेज करते
हैं। और यह परेशान
आदमी, उपद्रव
से भरा आदमी
शांति के लिए
स्थापना करने
के उपाय करता
है। और अशांति
खड़ी कर देता
है।
लाओत्से
कहता है, शांत
हो जाएं, तो
आपके चारों
तरफ शांति
फैलने लगेगी।
फिर भी
जरूरी नहीं
है। क्योंकि
लाओत्से के पास
भी कोई अशांत
रह सकता है।
और बुद्ध के
पास बैठ कर भी
कोई हत्या का
विचार कर सकता
है। बुद्ध का
खुद सौतेला
भाई बुद्ध के
पास वर्षों रह
कर भी बुद्ध
की हत्या के
आयोजन ही करता
रहा। तो उसने
बुद्ध को
मारने के
हजारों उपाय
किए हैं।
बुद्ध नीचे
ध्यान कर रहे
हैं शिलाखंड
पर बैठ कर, वह
ऊपर से पत्थर
सरका देता है।
बड़ी मुश्किल
की बात है!
बुद्ध ध्यान
में बैठे हों,
तो उनके पास
तो जो रेडिएशन
होना चाहिए, वह अपूर्व
शांति का होना
चाहिए। और अगर
बुद्ध के पास
नहीं होगा, तो किसके
पास होगा? पर
वह देवदत्त है,
वह पत्थर
सरका रहा है
नीचे बुद्ध
पर। वे रास्ते
से गुजर रहे
हैं, निरीह
बुद्ध, जो
कि एक फूल को
भी चोट न
पहुंचाना
चाहें, और
देवदत्त एक
पागल हाथी को छुड़वा
देता है। और
वह सौतेला भाई
है, कजिन है। तब तो
सवाल उठता है
कि बात क्या
है? अगर
बुद्ध के पास
शांति की और
आनंद की
किरणें फैलती
हैं, तो
इसको क्या हो
रहा है?
लेकिन
वे भी तभी फैल
सकती हैं, जब
आप ग्राहक हों,
नहीं तो
आपके भीतर
नहीं फैलेंगी।
आप अपने द्वार
बंद रख सकते
हैं। इतनी
स्वतंत्रता
है आपको। आप
अपने भीतर के
जहर में जी
सकते हैं। और
अमृत की भी
वर्षा हो रही
हो, तो
छाता लगा सकते
हैं।
तो जब
यह कहा जा रहा
है तो इस बात
को ध्यान में
रख लेना आप, कि
लाओत्से का जो
ज्ञानी है, वह अपनी तरफ
से तो शांत हो
जाएगा, अपनी
तरफ से शांति
की किरणें फेंकेगा;
फिर जो भी
उस शांति की
किरणों के लिए
ग्राहक हैं, उनमें
व्यवस्था हो
जाएगी; जो
नहीं हैं
ग्राहक, उनमें
व्यवस्था
नहीं होगी।
लेकिन फिर भी
लाओत्से उनकी
अशांति में
भागीदार तो
नहीं ही रह जाएगा।
वह अशांति की
किरणें
फेंकता, तो
उनकी अशांति
को बढ़ाने में
तो भागीदार
होता ही! अब कम
से कम अशांति
उनकी नहीं बढ़ाएगा।
अगर शांति न
भी उनको मिल
सकी, तो भी
अशांति बढ़ाने
में हाथ नहीं बंटाएगा।
और इतना भी कम
नहीं है, इतना
भी बहुत है! और
इसके इकट्ठे
परिणामों का जोड़
तो बहुत
ज्यादा हो
जाता है। उसका
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
अभी हम
अणु का
विस्फोट कर
लिए हैं। तो
हमें पता चला
है कि परमाणु
में,
पदार्थ के
आखिरी कण में
अपरिसीम
शक्ति है। इसकी
हमें कभी
कल्पना भी
नहीं थी। यह
कभी किसी ने
सोचा भी नहीं
था। यह
इमेजिनेशन
में भी कभी नहीं
था कि परमाणु
में इतनी
शक्ति होगी।
क्योंकि सदा
हम सोचते हैं
कि शक्ति बड़े
में होनी चाहिए,
छोटे में
क्या शक्ति होगी?
शक्ति को हम
बड़े से सोचते
हैं। छोटे में
क्या शक्ति
होगी? लेकिन
राज उलटा है।
जितना
सूक्ष्मतम हो,
उतना ही
ज्यादा
शक्तिशाली
होता है।
शक्ति सूक्ष्म
में है, बड़े
में नहीं।
सूक्ष्मतम
में अधिकतम
शक्ति है। और
जो शून्यतम
है, वह
शक्ति का
अपरिसीम
पारावार है।
वहां तो कोई
हिसाब ही नहीं
है। सूक्ष्म
में शक्ति बढ़ती
चली जाती है।
शून्य पूर्ण
शक्ति का हो
जाता है।
अगर
ज्ञानी पूर्ण
शून्य हो जाए, निष्क्रिय;
न कुछ करता,
न कुछ बोलता;
नहीं, उसमें
कोई हलन-चलन
ही नहीं है, कोई कंपन ही
नहीं है; निष्कंप
हो जाए, शून्य
हो जाए, तो
परम शक्ति का
आगार हो जाता
है। वह परम
शक्ति अनेक-अनेक
रूपों में
आयोजन करने
लगती है, अनेक
व्यवस्थाएं
देने लगती है।
अनेक जीवन उसके
निकट बदल जाते
हैं। दूर-दूर
तक, कभी-कभी
लाखों वर्षों
तक उसके
परिणाम होते
हैं।
अब
मैंने आपसे
कहा कि
देवदत्त है
सौतेला भाई। बुद्ध
के पास वर्षों
रह कर भी
हत्या के
विचार बुद्ध
की ही कर रहा
है। लेकिन ऐसे
लोग भी हैं, जो
पच्चीस सौ साल
बाद बुद्ध के
नाम से ही
पुलकित हो
जाते हैं और
उनके भीतर कोई
द्वार खुल जाता
है। और पच्चीस
सौ साल की
सीमा पार करके
बुद्ध की
किरणें उनमें
आज भी प्रवेश
कर जाती हैं।
क्योंकि इस
जगत में कोई
भी रेडिएशन
कभी खोता नहीं
है। इस जगत
में जो भी
किरण है, वह
कभी खोती नहीं
है। इस जगत
में जो भी है, वह नहीं
खोता है।
बुद्ध के हृदय
से जो किरणों का
विकीर्णन हुआ
था, वे आज
भी, आज भी
उसी तरह फैलती
रहती हैं। आज
भी कोई हृदय उनके
लिए खुलता है,
तो तत्काल
उसमें प्रवेश
कर जाती हैं।
बुद्ध
का ही क्यों, जो
भी जानने वाले
कभी हुए हैं, उनका भी! और
जो नहीं जानने
वाले हुए हैं,
उनका भी! जब
आप हत्या का
विचार करते
हैं, तो आप
अकेले नहीं
होते; जगत
के सारे
हत्यारों की
किरणें आपको
उपलब्ध हो
जाती हैं।
ध्यान रहे, न तो इस जगत
में किसी आदमी
ने अकेले
हत्या की है और
न इस जगत में
अकेले किसी
आदमी ने परम
ज्ञान पाया
है। जब कोई
परम ज्ञान
पाने को आतुर
होता है, तो
जगत के सब परम
ज्ञानियों की
शक्ति उसमें
बहने लगती है।
और जब कोई
किसी की हत्या
करने को आतुर
होता है, तो
जगत के सारे हत्यारे--जो
कभी हुए, जो
अभी हैं, या
जो कभी
होंगे--उन सब
का प्रवाह उस
आदमी की तरफ
हो जाता है, वह गङ्ढा
बन जाता है।
इसलिए
हत्यारे
अक्सर कहते
हैं, और
ज्ञानी भी।
हत्यारे
अक्सर कहते
हैं कि यह मैं
कैसे कर पाया?
यह मैं नहीं
कर सकता, यह
मैं सोच ही
नहीं सकता कि
हत्या मैंने
की होगी। यह
मैंने कभी
कल्पना नहीं की
थी कि मैं ऐसा
काम कर
पाऊंगा।
इसमें
थोड़ा सा सत्य
है। क्योंकि
हत्या करने का
विचार तो
हत्यारे ने ही
किया, लेकिन
हत्या करते
वक्त उसको जो
किरणें उपलब्ध
होती हैं, जो
शक्ति उपलब्ध
होती है, उसमें
बहुत
हत्यारों का
हाथ है।
इसलिए
कोई ज्ञानी भी
यह नहीं कहता
कि यह ज्ञान
मुझे मिला।
यद्यपि
चेष्टा उसने
की,
साधना उसने
की, संकल्प
उसने किया, समर्पण उसने
किया। लेकिन
जब ज्ञान
उपलब्ध होता
है, तो जगत
के समस्त
ज्ञानियों की
शक्ति उसके
साथ खड़ी हो
जाती है। इस
जगत में हम
व्यक्ति की
तरह नहीं जीते
हैं। हम एक
बड़े, अनंत
व्यक्तियों
के जाल में एक
बिंदु की तरह
जीते हैं।
इसलिए
लाओत्से कहता
है कि चुप भी
हो जाता है सब, मौन
से भी कह दिया
जाता है, और
निष्क्रियता
से भी
व्यवस्था हो
जाती है। व्यक्ति
जो है, वह
परमाणु है
चेतना का।
जैसे कि साइंस
ने खोज लिया एटम;
वह है
पदार्थ का।
अगर हम
व्यक्ति के
भीतर उतरते
चले जाएं--और
उसी के भीतर
उतरने का नाम
धर्म है। और
ये सारे के
सारे जो सूत्र
हैं लाओत्से के,
ये उसी की
तरफ इशारे हैं
कि हम भीतर
उतरते चले जाएं।
अब जब
हम कहते हैं, कर्म
से क्या
व्यवस्था
करते हो, होने
से ही हो
जाएगी। तो
कर्म तो होता
है बाहर, और
होना होता है
भीतर। बीइंग
तो है भीतर, डूइंग है बाहर। जब
लाओत्से कहता
है कि तुम
शुद्ध हो जाओ
तो चारों तरफ
शुद्धि फैल
जाएगी, तुम
शुद्ध करने की
कोशिश मत करो;
तो वह यह कह
रहा है कि
भीतर जाओ। जब
लाओत्से कहता
है, शब्द
से न कह सकोगे
सत्य को, निःशब्द
से। तो शब्द
तो है बाहर, निःशब्द है
भीतर। तो वह
कहता है, भीतर
जाओ। यह सारा
आयोजन, यह
सारा इशारा
भीतर की तरफ
गति का है।
और जब
कोई भीतर
पहुंचता है, तो
उस परमाणु को
उपलब्ध हो
जाता है, जो
चैतन्य का
परमाणु है, चिन्मय
परमाणु है। दि
एटम ऑफ कांशसनेस!
और उसकी विराट
ऊर्जा है। उस
चैतन्य के
परमाणु को ही
हम परमात्मा
कहें। उसकी
विराट ऊर्जा
है। जैसे ही
हम उस जगह
पहुंचते हैं,
इतनी शक्ति
हो जाती है कि
शक्ति ही काम
करती है। फिर
हमें अलग से
काम नहीं करना
पड़ता। अगर हम
ऐसा कहें तो
अजीब लगेगा:
इस जगत में
शक्तिहीन ही
काम करते हैं;
शक्तिशालियों के तो होने
से ही काम हो
जाता है। इस
जगत में जो नहीं
जानते, वे
ही केवल श्रम
करके कुछ कर
पाते हैं; जो
जानते हैं, वे तो
विश्राम से भी
कर लेते हैं।
जिन्हें पता
है, वे तो
मौन से भी बोल
देते हैं; और
जिन्हें पता
नहीं है, वे
लाख-लाख
शब्दों का
उपयोग करके भी
कुछ भी नहीं
कह पाते हैं।
लाओत्से
का यह सूत्र
बहुत बारीक
है। वह आदमी ही
बारीक था। वह
जो भी कह रहा
है,
ऊपर से
दिखाई पड़ेगा
कि बहुत छोटा
है। अभी एक मित्र
ने मुझे भीतर
जाकर कहा कि
आज का सूत्र
तो बहुत छोटा
है।
छोटा
नहीं है, यह
सूत्र बहुत
बड़ा है। एक ही
पंक्ति में है,
पर इस एक
सूत्र में
करीब-करीब सब
वेद आ जाते हैं,
सब
धर्म-ग्रंथ आ
जाते हैं। जो
भी जानने
वालों ने कहा
है, इसमें
सब समाया हुआ
है--इस छोटे से
सूत्र में! इस
अकेले को बचा
कर पूरी किताब
भी फेंक दी
जाए, तो जो
जानता है, वह
इस छोटी सी
कुंजी से पूरी
किताब फिर से
खोज लेगा।
काफी है। उसे
फिर दोहरा
दूं। फिर आपके
सवाल होंगे।
"देयरफोर दि सेज मैनेजेज
अफेयर्स विदाउट
एक्शन, एंड
कनवेज हिज डॉक्ट्रिन
विदाउट वर्ड्स।
इसलिए ज्ञानी
निष्क्रियता
से व्यवस्था
करता है, और
निःशब्द
द्वारा अपने
दर्शन को संप्रेषित
कर देता है।'
इस
संबंध में कोई
सवाल हों, या
पीछे कोई सवाल
रह गए हों, तो
वे ले लें। और
कल एक बैठक और
बढ़ानी पड़ेगी,
ताकि एक
सूत्र रह गया
है दूसरे
अध्याय का, वह हम कल कर
लेंगे।
प्रश्न:
भगवान
श्री, लाओत्से
के अद्वैत
मूलक दर्शन की
व्याख्या से
पता चलता है
कि वह परम
ज्ञान को
उपलब्ध हो
चुका था। फिर
क्या कारण है
कि संसार के
इने-गिने
लोगों ने ही उसके
जीवन-दर्शन को
अपना
मार्ग-दर्शक
बनाया? क्या
उसकी यह
विफलता ही
उसके
दृष्टिकोण की
कटु आलोचना
नहीं है? और
क्या अरस्तू
का अपनाया
जाना उसके
विज्ञान की
उत्कृष्टता
का प्रमाण
नहीं है? कृपया
इस पर प्रकाश
डालें!
लाओत्से
को बहुत कम
लोग जानते
हैं। जितना
ऊंचा हो शिखर, उतनी
ही कम आंखें
उस तक पहुंच
पाती हैं।
जितनी हो
गहराई, उतने
ही कम
डुबकीखोर उस
गहराई तक
पहुंच पाते हैं।
सागर की लहरें
तो दिखाई पड़ती
हैं, सागर
के मोती दिखाई
नहीं पड़ते
हैं।
लाओत्से
की गहराई सागरों
की गहराई है।
कभी कोई गहरा
डुबकीखोर
वहां तक पहुंच
पाता है। जगत डुबकीखोरों
से नहीं बना
हुआ है। जगत
तो उनसे चलता
है,
जो लहरों पर
तैरने वाली
नाव बना लेते
हैं। आदमी को
उस पार जाना
होता है; आदमी
को सागर की
गहराई में
जाने का प्रयोजन
नहीं होता। तो
जो नाव बनाने
का विज्ञान बता
सकते हैं, वे
प्राथमिक रूप
से
महत्वपूर्ण
हो जाते हैं।
अरस्तू
महत्वपूर्ण
हो गया।
क्योंकि
अरस्तू ने जो
तर्क दिया, वह
संसार के काम
का है। चाहे
दूर जाकर
खतरनाक सिद्ध
हो, लेकिन
पहले कदम में
बहुत
प्रीतिकर है।
चाहे अंतिम फल
जहरीला हो, लेकिन ऊपर
मिठास की पर्त
है। तो अरस्तू
की बात समझ
में आएगी, क्योंकि
अरस्तू शक्ति
कैसे उपलब्ध
हो, इसके
सूत्र दे रहा
है। और
लाओत्से
शांति कैसे मिले,
इसके सूत्र
दे रहा है।
यद्यपि शांति
ही अंतिम रूप
से शक्ति है, और शक्ति
अंतिम रूप से
सिवाय अशांति
के और कुछ भी
नहीं है।
लेकिन
प्राथमिक रूप
से ऐसी बात
नहीं है। अरस्तू
के रास्ते पर
चलिए तो एटम
बम तक पहुंच
जाएंगे। और
लाओत्से के
रास्ते पर
चलिए तो एटम
बम तक नहीं
पहुंचेंगे।
लाओत्से के
रास्ते पर चलिए
तो लाओत्से पर
ही पहुंच
जाएंगे, और
कहीं नहीं। तो
जिन्हें
यात्रा करनी
है, उनके
लिए तो अरस्तू
ही अच्छा
लगेगा।
क्योंकि कहीं-कहीं-कहीं
पहुंचते
रहेंगे, चांद
पर
पहुंचेंगे--दूर!
लाओत्से पर तो
वे ही लोग
यात्रा कर
सकते हैं, जो
यात्रा नहीं
ही करना चाहते
हैं। बस, लाओत्से
पर ही पहुंच
सकते हैं। न
किसी चांद पर,
न किसी तारे
पर, न किसी
अणु बम पर, कहीं
भी नहीं।
फिर
हमारे मन में, सबके
मन में, शक्ति
की आकांक्षा
है, महत्वाकांक्षा
है। धन चाहिए,
शक्ति
चाहिए, पद
चाहिए, यश
चाहिए, अस्मिता
चाहिए, अहंकार
चाहिए।
लाओत्से की हम
सुनेंगे और
भाग खड़े
होंगे।
क्योंकि
हमारा सब कुछ
छीन लेने की बात
है वहां। हमें
लाओत्से देता
तो कुछ भी
नहीं, ले
सब लेता है।
और हम सब भिखमंगे
हैं। हम
भिक्षा
मांगने निकले
हैं। लाओत्से
के पास हम जरा
भी न टिकेंगे।
क्योंकि
हमारे पास और
जो है, भिक्षापात्र है, शायद
वह भी छीन ले!
डायोजनीज के
संबंध में कथा
है कि डायोजनीज
एक लालटेन
लेकर घूमा
करता था, दिन
के उजाले में
भी, एथेंस
की सड़कों पर।
और कोई पूछता,
किसको खोज
रहे हो? तो
वह कहता, एक
ईमानदार आदमी
की तलाश है, ईमानदार
आदमी को खोज
रहा हूं। कई
वर्षों तक ऐसा
चलता रहा; एक
आदमी कई
वर्षों से
देखता था। एक
दिन उसने पूछा
कि वह ईमानदार
आदमी मिला? सफलता मिली?
डायोजनीज ने कहा, काफी
सफलता यही है
कि अपनी
लालटेन बची
हुई है। इसको
भी कई लोग ले
जाने की कोशिश
करते रहे। अपनी
लालटेन बची है,
यही कोई कम
है!
आदमी
लाओत्से के
पास जाएगा तब, जब
खोने की
तैयारी हो।
कितनों की
खोने की तैयारी
है? छीनने
की तैयारी है।
तो छीनने का
जो शास्त्र है,
वह अरस्तू
से विकसित हो
सका। इसलिए तो
पूरब हारा।
पूरब अरस्तू
को पैदा नहीं
कर सका, इसलिए
पूरब हारा, गुलाम रहा, इतनी
परेशानियां
झेली हैं।
क्योंकि पूरब
छीनने का
शास्त्र
विकसित नहीं
कर सका। लेकिन
कोई नहीं कह
सकता कि लंबे
अरसे में फायदे
में कौन
रहेगा। लंबे
अरसे की बात
अलग हो जाती
है। पहले कदम
पर कौन फायदे
में है, इससे
कुछ तय नहीं
होता। दूसरे
कदम पर सब बदल
जाता है। अंत
तक
पहुंचते-पहुंचते
सब बदल सकता है।
और बदल जाएगा।
पूरब
ने बीच में
काफी नुकसान
उठाया, ऐसा
दिखाई पड़ता
है। लेकिन अगर
पूरब हिम्मत
से लाओत्से और
बुद्ध के साथ
खड़ा रहे, तो
पश्चिम को
समझना पड़ेगा
कि उसने
नासमझी की है
खुद। उसने जो
छीना, वे
खिलौने थे।
उनसे कुछ फर्क
नहीं पड़ता था।
और उसने जो
खोया, वह
आत्मा थी। और
पूरब ने जो
खोया, वे
खिलौने थे। और
जो बचाया, वह
आत्मा थी। अगर
पूरब निश्चित
रूप से खड़ा
रहे लाओत्से
के साथ।
लाओत्से
का नाम कम
लोगों तक
पहुंचा, उसका
कारण यही है
कि लाओत्से तक
कोई जाना नहीं
चाहता। मिल
जाए तो हम
उससे बचना
चाहेंगे, कि
अभी नहीं, फिर
कभी; जब
समय आएगा, हम
आपके पास
आएंगे। आप
कहां मिल गए
हैं हमें! अभी
नहीं, अभी
तो हम खोजने
निकले हैं, अभी तो हम
कमाने निकले
हैं। इसलिए, और इसलिए भी
कि लाओत्से जो
कह रहा है...।
दो तरह
की बातें हैं
इस जगत में।
एक तो ऐसी बात है, जो
कि निपट
साधारण
मनुष्य को, जैसा मनुष्य
है, उसकी
ही समझ में आ
जाती है। और
एक ऐसी बात है,
जब तक वह
मनुष्य पूरी
तरह न बदले, तब तक समझ
में ही नहीं
आती। एक तो
ऐसी बात है कि आदमी
जैसा
है--प्रकृति
उसे जैसा पैदा
करती है, एक
जानवर की
तरह--एक तो उस
जानवर की तरह
जो आदमी है, उसकी ही
सीधी समझ में
आ जाता है।
कोई और ट्रेनिंग
की जरूरत नहीं
होती उसको।
उसकी
वृत्तियां ही
समझ लेती हैं
कि ठीक है। और
एक ऐसा ज्ञान
है, जब तक
यह आदमी पूरा
रूपांतरित न
किया जाए, प्रशिक्षित
न किया जाए, तैयार न
किया जाए, तब
तक इसकी समझ
में वह ज्ञान
नहीं आता।
लाओत्से
जो कह रहा है, वह
सीधे-सीधे
आदमी जैसा
पैदा होता है,
उसकी समझ का
नहीं है। उसकी
समझ का नहीं
है। आदमी रूपांतरित
हो, यानी
लाओत्से को
समझने के पहले
भी एक कीमिया
से गुजरना
जरूरी है, तभी
लाओत्से समझ
में आएगा।
अन्यथा वह समझ
में नहीं
आएगा।
समझें
हम,
एक छोटा
बच्चा है। उसे
हम हरे, पीले,
लाल पत्थर
बीनने को कह
दें, वह
बीन लाएगा।
लेकिन हम उससे
कहें कि हीरा
छांट लो इसमें
से, तो जरा
कठिनाई हो
जाएगी। हीरे
की परख के लिए
रुकना पड़ेगा।
और बहुत संभव
यह है कि
बच्चा पत्थर
बचा ले और
हीरा फेंक दे।
क्योंकि हीरा
तो तैयार करना
पड़ता है। हीरा
तो छिपा होता
है। कई बार तो
हीरा पत्थर से
बदतर होता है।
उसकी तो पूरी
तैयारी होती
है, तब वह
प्रकट होता
है। और बच्चा
उसे अभी पहचान
न पाएगा। बच्चे
की भी तैयारी
होती है, तब
परख आएगी।
तो
लाओत्से तो
हीरे की बातें
कर रहा है। तो
पृथ्वी पर जब
भी कोई बच्चे
नहीं रह जाते, कोई
प्रौढ़ होता है,
मैच्योर होता है, तब
लाओत्से को
समझ पाता है।
अरस्तू को
समझने के लिए
तो स्कूल जाने
वाला बच्चा
पर्याप्त है।
उसमें कोई और
विशेष
योग्यता की
जरूरत नहीं
है। अभी भी
मनुष्यता उस
जगह नहीं आई
है, जहां
लाओत्से को
अधिक लोग समझ
सकें--अभी भी।
अभी भी कभी
लाख में एक-दो
आदमी समझ पाते
हैं। ध्यान
रहे, जीवन
में जो भी
महत्वपूर्ण
है, वह
हमेशा एरिस्टोक्रेटिक
है। जो भी
महत्वपूर्ण
है, वह
आभिजात्य है।
वह थोड़े से ही
लोगों की समझ
में आने वाला
है। और ज्ञान
की शर्त है
अपनी, कि
ज्ञान आपके
लिए नीचे नहीं
उतरता, आपको
ही ज्ञान के
लिए ऊपर चढ़ना
पड़ता है।
लाओत्से आपके
लिए नीचे नहीं
उतरेगा; आपको
ही लाओत्से के
लिए ऊपर चढ़ना
पड़ेगा।
तो
ज्ञान एक चढ़ाई
है,
ऊंची चढ़ाई
है। विज्ञान,
आप जहां हैं,
वहीं आपको
उपलब्ध होता
है। ज्ञान, आप आगे बढ़ें,
तो उपलब्ध
होता है। तो
लाओत्से कम
लोगों की समझ
में आया।
लेकिन जिनकी
भी समझ में
आया, वे इस
जगत के
श्रेष्ठतम
फूल थे।
अरस्तू सबके काम
का है, लेकिन
वे लोग इस जगत
के फूल नहीं
हैं।
फिर
जितनी गहन बात
हो,
अपने समय से
उतने ही पहले
हो जाती है।
जैसे लाओत्से
ने जो कहा है, अभी भी शायद
और ढाई हजार
साल लगेगा, तब लाओत्से कंटेंप्रेरी
हो पाएगा। तब
वह समसामयिक
हो पाएगा, आज
से ढाई हजार
साल बाद। तब
लोगों को
लगेगा कि ठीक,
अब हम वहां
खड़े हैं, जहां
से लाओत्से को
हम समझ सकें।
इसे
ऐसा समझें तो
आसानी होगी।
एक आदमी कविता
करता है। अगर
कविता उसकी
सबको समझ में
आ जाती है, अभी
समझ में आ
जाती है, तो
दो दिन से
ज्यादा टिकने
वाली नहीं है।
समझ नहीं आती,
किसी को समझ
आती है, शिखर
पर जो है उसको
समझ आती है, तो यह कविता
हजारों साल
टिक जाएगी। एक
कालिदास
हजारों साल
टिक पाता है।
एक फिल्मी गीत
दो महीने भी
टिक जाए तो
बहुत है।
फिल्मी गीत दो
महीने नहीं
टिकता। सब की
समझ में आता
है; एकदम
से धुन पकड़
लेता है।
मोहल्ले-मोहल्ले,
गांव-गांव,
खेत-खेत, गली-कूचे-कूचे
गाया जाने
लगता है।
बच्चे से लेकर
बूढ़े तक उसको
गुनगुनाने
लगते हैं। हर बाथरूम
उसे सुन लेता
है। फिर अचानक
पाया जाता है
कि वह खो गया।
फिर दुबारा
कभी उसकी कोई
खबर नहीं मिलती।
बात क्या है? सब की समझ
में इतना आ
गया कि सब की
समझ के तल का था।
उसके बचने का कोई
उपाय नहीं है।
लेकिन जब एक
कोई सच में
गीत पैदा होता
है, तो
वर्षों लग
जाते हैं; कभी-कभी
कवि मर जाता
है, तब पता
चलता है।
सोरेन कीर्कगार्ड
ने किताबें
लिखीं। उसकी
जिंदगी में
किसी को पता न
चल सका। एक
किताब
मुश्किल से
छाप पाया, तो
पांच कापी बिकीं।
वह भी अपने मित्रों
ने खरीदीं।
बाप जो पैसा
छोड़ गया था, बैंक में
जमा था, उसी
से अपना
जिंदगी भर
खर्च चलाया।
क्योंकि वह तो
चौबीस घंटे
सोचने, खोजने
में लगा था।
कमाने की
फुर्सत न थी।
बाप जो छोड़
गया था बैंक
में, हर एक
तारीख को
उसमें से कुछ
पैसा निकाल
लाना है, महीना
गुजार कर फिर
पहुंच जाना
है। जिस दिन
आखिरी पैसा
चुका, बैंक
गया, और
बैंक में पता
चला कि पैसा
तो पूरा
समाप्त हो
गया। बैंक के
बाहर ही उसकी
सांस टूट गई, सोरेन कीर्कगार्ड
की। उसने कहा,
अब तो कोई
जीने की कोई
बात ही न रही!
जिस दिन पैसा
खाते में चुक
गया, उस
दिन दरवाजे पर
गिर कर मर
गया। क्योंकि
एक पैसा आने
का तो कहीं से
कोई उपाय न
था। कोई सवाल
ही न था। सौ
साल किसी ने
याद भी न किया
सोरेन कीर्कगार्ड
को। उसकी
किताबों का, उसके नाम का
किसी को पता न
था। इधर पिछले
तीस-चालीस
वर्ष में पुनराविष्कृत
हुआ। और आज
पश्चिम में
जिस आदमी का
सर्वाधिक
प्रभाव समझा
जाए, वह
सोरेन कीर्कगार्ड
है। और अब लोग
कहते हैं कि
अभी सैकड़ों
वर्ष लगेंगे
सोरेन कीर्कगार्ड
को ठीक से
समझने के लिए।
लेकिन उसके
गांव के लोग
हंसे। लोगों
ने मजाक उड़ाई
कि पागल हो, अरे कुछ कमाओ!
चार पैसे कमा
लो!
विनसेंट
वानगॉग ने जो
चित्र बनाए, आज
एक-एक चित्र
की कीमत तीन
लाख, चार
लाख, पांच
लाख रुपए है।
एक-एक चित्र
की! और विनसेंट
वानगॉग एक
चित्र न बेच
सका। किसी
दूकान से दो कप
चाय के लिए थे,
तो उसको एक
पेंटिंग दे
आया कि पैसे
तो नहीं हैं।
कहीं से एक
सिगरेट का
पैकेट लिया था,
उसको एक
पेंटिंग दे
आया कि पैसे
तो नहीं हैं।
मरने के साठ
साल बाद जब उसका
पता चलना शुरू
हुआ, वानगॉग
का, तो
लोगों ने अपने
कबाड़खानों
में खोज कर
उसके चित्र
निकाल लिए।
किसी होटल में
पड़ा था, किसी
दूकान में पड़ा
था, किसी
से रोटी ली थी
उसने और एक
चित्र दे गया
था। जिनके पास
पड़े मिल गए, वे लखपति हो
गए। क्योंकि
एक-एक चित्र
की कीमत पांच-पांच
लाख रुपया हो
गई। आज केवल
दो सौ चित्र हैं
उसके। लोग
छाती पीट-पीट
कर रोए, क्योंकि वह
तो कई को दे
गया था। वह
कोई फेंक चुका
था, कोई
कुछ कर चुका
था। किसी को
पता नहीं था, क्या हुआ।
और विनसेंट
वानगॉग
मनुष्य-जाति के
इतिहास में
पैदा हुए
चित्रकारों
में चरम कोटि
का चित्रकार
है अब। लेकिन
अपने वक्त में,
अभी सिर्फ डेढ़ सौ साल
पहले, सप्ताह
में पूरे सात
दिन रोटी नहीं
खा सका। क्योंकि
उसका भाई उसे
जितना पैसा
देता, वह
इतना होता कि
वह सात दिन
सिर्फ रोटी खा
सके। तो वह
चार दिन रोटी
खा लेता और
तीन दिन के
पैसे बचा कर
रंग खरीद कर
चित्र बना
लेता। बत्तीस
साल की उम्र
में जब बिलकुल
मरणासन्न हो
गया, क्योंकि
चार दिन खाना
खाना और तीन
दिन चित्र बनाना,
यह कैसे
चलता, तो
गोली मार कर
मर गया। और
लिख गया यह कि
अब कोई प्रयोजन
नहीं है, क्योंकि
मैं भाई को
व्यर्थ तकलीफ
दूं! उसको
आखिर रोटी के
लिए पैसे तो
देने ही पड़ते
हैं। और मुझे
जो बनाना था, वह मैंने
बना लिया। एक
चित्र, जिसके
लिए मैं साल
भर से रुका था,
वह आज पूरा
हो गया।
अब ये
जो लोग हैं, ये
किसी और तल पर
जीते हैं। उस
तल पर जब
मनुष्य-जाति
कभी पहुंचती है,
तब उनका
आविष्कार
होता है। मगर विनसेंट
वानगॉग या
सोरेन कीर्कगार्ड,
ये कोई
एवरेस्ट पर
जीने वाले लोग
फिर भी नहीं हैं।
ये फिर भी ऐसे
ही छोटी-मोटी पहाड़ियों
पर जीने वाले
लोग हैं।
लाओत्से तो
जीता है गौरीशंकर
पर। वहां तक
तो कभी-कभी
कोई आदमी
पहुंचता है। और
कभी हम आशा
करें कि कभी
मनुष्य-जाति
का कोई बड़ा
हिस्सा भी उस
जगह निवास
बनाएगा, तो
हजारों-लाखों
साल
प्रतीक्षा
करनी पड़े।
इसलिए
नहीं प्रभाव
हो पाता। पर
पुनः-पुनः ऐसे
लोगों को
फिर-फिर खोजना
पड़ता है। इनका
स्वर कभी खोता
नहीं, बना ही
रहता है, गूंजता
ही रहता है।
और कई दफे तो
ऐसा होता है
कि हम बिलकुल
ही भूल गए
होते हैं। और
जब कभी फिर
कोई वैसी बात
कहता है, तो
हमें लगता है,
बहुत नई बात
कह रहा है।
लाओत्से के
शिष्य च्वांगत्से
ने कहा है, एवरी
डिस्कवरी इज़
जस्ट ए रि-डिस्कवरी,
सब
आविष्कार
सिर्फ पुनर्आविष्कार
है। ऐसी कोई
बात जगत में
नहीं है, जो
नहीं जान ली
गई। लेकिन
जिन्होंने
जानी थी, वे
इतने शिखर पर
थे कि वह कभी
सामान्य न हो
पाई, खो
गई। फिर कभी
कोई दूसरा
आदमी जब उसको
जानता है, तो
फिर ऐसा लगता
है कि नया
आविष्कार हो
गया। यह आदमी
कितनी नई बात
कह रहा है!
लेकिन इस जगत
में कोई चीज
ऐसी नहीं है, जो नहीं जान
ली गई हजारों
बार।
पर
आदमी का
दुर्भाग्य कि
आदमी पहाड़ों
पर नहीं जीता, समतल
भूमि पर जीता
है। शिखरों की
बातें खो जाती
हैं, फिर
भूल जाती हैं।
फिर कभी उनको
जन्माता है कोई।
जब कोई
जन्माता है, तो वे फिर नई
मालूम पड़ती
हैं।
ये जो
लाओत्से के
वक्तव्य हैं, ये
श्रेष्ठतम
वक्तव्यों
में से कुछ
हैं, जो
मनुष्य ने कभी
भी दिए हैं।
बहुत आखिरी जो
कहा जा सकता
है, जिसके
आगे कहने का
कोई उपाय ही
नहीं बचता, उस बाउंड्री
लैंड पर, उस
सीमांत पर लड़खड़ाता
हुआ आदमी है
लाओत्से, जिसके
पार निःशब्द
है। बस आखिरी
सीमा पर वह कुछ
कह रहा है। तो
वहां तक जब
कोई पहुंचता
है, तो समझ
में आता है; नहीं
पहुंचता, तो
नहीं समझ में
आता है। उसमें
लाओत्से का
कसूर नहीं है।
फिर
कुछ बातें हैं, जो
तब तक आपको
पता नहीं
चलेंगी, जब
तक आपके अनुभव
का हिस्सा न
बन जाएं। एक
छोटा बच्चा
है। उससे हम
कुछ ऐसी बातें
करें, जो
उसके अनुभव का
हिस्सा नहीं
हैं। सुन लेगा,
बहरे की तरह;
भूल जाएगा।
वे उसकी
स्मृति में भी
टंकेंगी
नहीं।
क्योंकि
स्मृति में
वही टंक सकता
है, जो
अनुभव से मेल
खा जाए। भूल
जाएगा। हमारा
अनुभव भी तो
कहीं मेल खाना
चाहिए!
अब
लाओत्से जो भी
कहता है, हमारा
अनुभव कहीं भी
मेल नहीं
खाता। बस
लाओत्से की किताब
बची है, यही
क्या कम है!
हमारे अनुभव
में कहीं मेल
नहीं खातीं
ये बातें। अब
लाओत्से कहता
है, बिना
कुछ किए जो
करने में
समर्थ है, वही
ज्ञानी है; बिना बोले
जो कह देता है,
वही
सत्यवक्ता
है। जो
हिलता-डुलता
नहीं, और सब
कर लेता है!
जिसके ओंठ
नहीं खुलते, और संदेश
संवादित हो
जाते हैं!
अब
हमारे अनुभव
में यह कहीं
भी तो नहीं
आता। हम तो
चिल्ला-चिल्ला
कर थक जाते
हैं,
फिर भी
संदेश
संवादित नहीं
होता। तो हम
कैसे मानें कि
बिना बोले
संवादित हो
जाएगा? बोल-बोल
कर संवादित
नहीं होता। वही-वही
बात कहते
जिंदगी बीत
जाती है, और
कोई संवाद
नहीं होता।
इतना इंतजाम
करते हैं, कुछ
इंतजाम नहीं
हो पाता। आखिर
में भिखारी के
भिखारी ही मर
जाते हैं।
इतनी दौड़-धूप
मचाते हैं, इतनी
व्यवस्था, इतना
मैनेजमेंट, और आखिर में
भिखारी के
भिखारी ही मर
जाते हैं। और
लाओत्से कहता
है, मैनेज
ही मत करो, व्यवस्था
करो ही मत, बस
मौजूद हो जाओ,
व्यवस्था
हो जाएगी। हम
कहेंगे, पागल
हो! तुम्हारे
साथ हम पागल
होने को राजी
नहीं हैं।
लाओत्से
के साथ तो
जाने को जो
लोग राजी
होंगे, वे वे
ही हो सकते
हैं, जो
हमारी
तथाकथित
मनुष्यता के
पागलपन से
भलीभांति
परिचित हो गए
हैं; जो
हमारे होने से
इस बुरी तरह
से विषाद से
भर गए हैं; जो
हमारे होने के
ढंग को इतना
व्यर्थ जान गए
हैं; जिन्होंने
देख लिया
भलीभांति कि
जिसको हम समझदारी
कहते हैं, वह
नासमझी है; और
जिन्होंने
देख लिया कि
जिसको हम
बुद्धिमानी
कहते हैं, वह
सिर्फ
बुद्धूपन है;
जिनको यह
साफ-साफ खयाल
में आ गया, वे
ही केवल
लाओत्से के
साथ कदम उठाने
को राजी होंगे।
और
लाओत्से के
साथ कदम उठाना
खतरे में कदम
उठाना है।
क्योंकि
सुरक्षा का तो
कोई आश्वासन
लाओत्से नहीं
देता।
लाओत्से तो
ऐसी खतरनाक
राह बताता है, जहां
आप खो जाएंगे,
बचेंगे
नहीं।
लाओत्से तो
कहता है, खोने
का ही मार्ग
है यह, मिट
जाने की ही
गैल है यह। अब
उसके साथ, उसके
साथ जाने को
वही राजी होगा,
जो यह पक्का
समझ ले कि
पाकर जब कुछ
नहीं पाया, तो खोकर देख
लें! दौड़ कर जब
नहीं पाया, तो अब खड़े
होकर देख लें!
और जब बुद्धिमानी
से नहीं मिला,
तो अब पागल
होकर देख लें!
तो
बहुत कम लोग
उतना साहस कर
पाते हैं।
इसलिए बहुत कम
लोग उस यात्रा
पर जा पाते
हैं।
आज
इतना ही, शेष
कल।
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