दिनांक, 7
अक्टूबर,
1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सूत्र:
जोगी
होइ परनिद्या झषै।
मदमास अरु
भागि जो भषै।
इकोतर
सै पुरिषा
नरकहि जाई।
सति सति भाषत
श्री
गोरषराई।।
एकाएकी
सिध नांउं, दोइ
रमति ते
साधवा।
चारि
पंच कुटंब
नांउं, दस
बीस ते
लसकरा।।
महमां
धरि महमां कूं
मेटै, सति
का सबद
बिचारी।
नांन्हां
होय जिनि
सतगुर षोज्या, तिन
सिर की पोट
उतारी।।
जे आसा
ते आपदा, जे
संसा ते सोग।
गुरमुषि
बिना न भाजसी
(गोरष ) ये दून्यों
बड़ रोग।।
जपतप
जोगी संजम
सार। बाले
कंद्रप कीया
छार।
येहा
जोगी जग मैं
जोय। द्या पेट
भरै सब कोय।।
कैसे
बोलौ पंडिता, देव
कौंने ठाईं।
निज तत
निहारती
अम्हें तुम्हें
नहीं।।
पषाणची
देवली पषांण
चा देव, पषांण
पूजला कैसे
फीटिला सनेह।
सरजीव
तोडिला
निरजीव पूजिला, पाप
ची करणी कैसे
रूर तिरीला।।
तीरथि
तीरथि सनान
करीला, बाहर
धोये कैसे
भीतरि
भेदीला।
आदिनाथ
नाती
मच्छींद्रनाथ
शा,
निज तात
निहारै गोरष
अवधूता।।
एक अदद
उधड़ी — सी
जिंदगी
टांकते
— न — टाकते
आगे
यों चल देने
में क्या तुक?
रोना
ही रोना
आपा
खोना
रोना—कलपना
अकारथ
है
घुटे—घुटे
जीना
केवल
विष पीना
भटकना
अकारथ
है सार्थकता
कुछ तो
संजोये है—
चिरि—चुरमुन
की
—चुक—चुक—चिक
चुक—चुक
आगे
यों चल देने
में क्या तुक?
क्षण
दो —या —चार
जिसको
जीना कहते
—जानना
नहीं
गुनाह
और
पक्तिकाएं
गीत
किसी की
मन में
बांचना
नहीं
गुनाह
तेरी
मन — भाषा में
ही गाते
— भानु —
कात — रंजक —
अंजुम
—पिक —
शुक।
आगे
यों चल देने में
क्या तुक?
घेरे
में जीवन
आंखों
पर पट्टियां
—यातना
निरंतरता
लीक —
लीक गाड़ी
चाबुक
— दर — चाबुक
— भागना
निरंतरता
मशीनी
करिश्मे —
कट —
चिट — चिट — पट
कुछ
रुक
आगे
यों चल देने
में क्या तुक?
एक अदद
उधड़ी — सी
जिंदगी
टाकते
— न — टाकते
आगे
यों चल देने
में क्या तुक?
मनुष्य
चलता ही चला
जाता है—बिना
सोचे, क्यों, बिना सोचे, कहां से; बिना
सोचे, किस
ओर? यह भी
नहीं सोचता कि
मैं कौन हूं
और भागा जाता है।
ऐसी भाग—दौड़
का क्या
परिणाम होगा?
क्या हाथ
लगेगा? आगे
यों चल देने
में क्या तुक?
थोड़ा
रुको। एक बार
पुनर्विचार
करो। मैं कौन
हूं इस प्रश्न
को जगने दो।
क्योंकि इसी
प्रश्न के गहन
उतर जाने पर, तुम्हारे
प्राण—प्राण
में इसी
प्रश्न के तीर
के चुभ जाने
पर, जीवन
का रहस्य अपना
परदा उठाता
है।
लेकिन
धर्म के नाम
पर जो लोग
मंदिरों, मस्जिदों,
देवालयों
में बैठ गये
हैं, वे भी
रुके नहीं हैं,
वे भी चल
रहे हैं। उनकी
दौड जारी है।
तुम धन पाना
चाहते हो, वे
स्वर्ग पाना
चाहते हैं।
तुम पद पाना
चाहते हो, वे
परमात्मा
पाना चाहते
हैं। लेकिन
चाह जहां है, वहां
विक्षिप्तता
है। और जहां
चाह है, वहा
प्रतिस्पर्धा
है। और जहा
चाह है वहा
प्रतियोगिता
है, पूरा
बाजार है। जहा
चाह है वहां
भय है—कहीं मैं
हार न जाऊं, कहीं दूसरा
मुझसे पहले
जीत न जाये!
जहा चाह है वहां
निंदा है, विरोध
है। जहा चाह
है वहां
संघर्षण है, वहां तनाव
है। चाह के
जाते ही जीवन
में एक अपूर्व
विश्राम आ
जाता है। चाह
के जाते ही
पतझड़ के दिन
गये, वसंत
आया।
धार्मिक
कौन है? वह
नहीं, जिसने
चाह बदल ली; बल्कि वह
जिसने चाह समझ
ली। चाह
दौड़ाती है, बेतुक
दौड़ाती है, व्यर्थ
दौड़ाती है, निरर्थक
दौड़ाती है, दौड़ने के
लिए दौड़ाती
है। फिर दौड़ना
आदत हो जाती
है, आदमी
दौड़ा ही चला
जाता है। जब
तक कब्र में न
गिर जाये, दौड़
जारी रहती है।
पहुंचता कहीं
नहीं। सारी दौड़
के बाद हम
केवल कब्र में
पहुंच जाते
हैं। हाथ कुछ
भी नहीं लगता,
शायद कुछ
लेकर आये थे, वह भी गंवा
बैठते हैं।
लेकिन दौड़ ने
इस बुरी तरह
पकड़ा है मन को
कि अगर हम कभी
दौड़ की
व्यर्थता से
जागते भी हैं
तो नयी दौड़
शुरू कर देते
हैं। जंजीरों
में हम ऐसे
बंध गये हैं
कि कभी अगर
जंजीरों की
पीड़ा सालती है
तो हम नयी
जंजीरें ढाल
लेते हैं। यह
भी हो सकता है
कि लोहे की
जंजीरों की जगह
तुम सोने की
जंजीरें ढाल
लो। और यह भी
हो सकता है कि
सोने की
जंजीरों पर
हीरे—जवाहरात
जड़ लो, मगर
जंजीरें
जंजीरें हैं।
यहां
सांसारिक तो
बंधा ही हुआ
है,
यहां
तथाकथित
आध्यात्मिक
लोग भी बंधे
हुए हैं।
मुक्त तो वही
है जिसकी कोई
चाह नहीं; जो
परमात्मा को
भी चाहता नहीं;
जो स्वर्ग
भी चाहता नहीं;
जिसने चाह
की व्यर्थता
समझ ली कि चाह
भटकाती है, दौड़ाती है, जिसने चाह
की
ज्वरग्रस्तता
समझ ली; जिसने
चाह की
विक्षिप्तता
समझ ली, जिसने
चाह को भर आंख
देख लिया और
चाह को गिर जाने
दिया और नयी
चाह नहीं
उठाई। जो ऐसा
चाह—शून्य हो
जाता है उसे
परमात्मा
मिलता है। उसे
मिला ही हुआ
है। इधर गयी
चाह, उधर
आंख खुली। इधर
मिटी चाह, उधर
परमात्मा
अवतरित हुआ।
छिपा ही था, बाट जोहता
था कि चाह हट
जाये तो
आमना—सामना हो
जाये।
तुम्हीं थोड़े
ही उसके
दरस—परस को
लालायित हो, वह भी
तुम्हारे
दरस—परस को
लालायित है।
लेकिन बीच में
खड़ी है चाह की
एक दीवाल।
चाह
का क्या अर्थ
होता है? चाह
का अर्थ होता
है : जैसा मैं
हूं वैसा नहीं,
मुझे कुछ और
होना है। चाह
का अर्थ होता
है : जहां मैं
हूं यहां नहीं,
मुझे कहीं
और होना है।
चाह का अर्थ
है : आज? आज
सुख नहीं है, सुख कल
होगा। चाह
कहती है : चलो, दौड़ो, पहुंचो।
चाह
छोड़ने का अर्थ
होता है : मैं
जहां हूं संतुष्ट
हूं जैसा हूं
आनंदित हूं
इससे अन्यथा
होने की कोई
आकांक्षा
नहीं है।
सब
आकांक्षाएं
अन्यथा होने
की
आकांक्षाएं हैं।
इसलिए सब
आकांक्षाएं
तुम्हें
तुम्हारे केंद्र
से स्तुत कर
देती हैं।
जैसे ही
आकांक्षा गयी, तुम
अपने केंद्र
पर विराजमान
हो गये।
केंद्र पर
विराजमान होते
ही पाया जाता
है कि भक्त ही
भगवान है।
आज
के सूत्र :
जोगी
होड़ परनिद्या
झषै। मदमास अl भागि
जो भषै।
इकोतर
सै पुरिषा
नरकहि जाई।
सति सति भाषत
श्री
गोरषराई।।
जोगी
होड़
परनिद्यां
झषै!
कहते
हैं,
योगी होकर
पर की निंदा
करोगे तो योग
खो गया।
यहां
कुछ बातें समझ
लेना जरूरी
हैं। पहली बात, निंदा
और आलोचना का
भेद समझ लेना
जरूरी है। क्योंकि
आलोचना तो
गोरख भी कर
रहे हैं। ये
भी आलोचना के
सूत्र हैं। यह
कहना कि...
जोगी
होड़
परनिद्यां
झषै। मदमास अl भागि
जो भषै
...
कि योगी
होकर जो पराये
की निंदा
करेगा, मद्य—मांस
खायेगा, भांग
पीयेगा, ऐसे
लोग हजारों की
तादाद में हैं,
नरक में
पड़ते हैं।
झकोतर
सै पुरिषा
नरकहि जाई।
ऐसे
लोग अनंत
संख्या में
हैं,
नरक में पड़
जाते हैं।
गोरख कहते हैं
: मैं तुमसे
सच—सच कह रहा
हूं सुन लो।
आलोचना
तो इसमें भी
है,
निंदा
इसमें नहीं
है। आलोचना और
निंदा का भेद
जरा बारीक है
और समझ में न
आये तो भूल हो
सकती है।
आलोचना तो
बुद्ध ने भी
की, महावीर
ने भी की।
आलोचना तो
क्राइस्ट ने
भी की, मुहम्मद
ने भी की। ऐसा
कोई सदगुरु
नहीं हुआ पृथ्वी
पर जिसने
आलोचना न की
हो। भेद क्या
है?
आलोचना
और निंदा का
भेद सूक्ष्म
है। कभी—कभी निंदा
आलोचना जैसी
मालूम हो सकती
है और कभी—कभी
आलोचना निंदा
जैसी मालूम हो
सकती है। बहुत
करीब
नाता—रिश्ता
है। उनका
रूप—रंग एक
जैसा है, मगर
उनकी आत्मा
बड़ी भिन्न है।
आलोचना होती
है करुणा से, निंदा होती
है घृणा से।
आलोचना होती
है जगाने के
लिए निंदा
होती है मिटाने
के लिए।
आलोचना का
लक्ष्य होता
है सत्य का आविष्कार,
निंदा का
लक्ष्य होता
है दूसरे के
अहंकार को गिराना,
धूल— धूसरित
करना, पैरों
में दबा देना।
निंदा का
लक्ष्य होता
है दूसरे की
आत्मा को कैसे
चोट पहुंचाना,
कैसे घाव
करना? आलोचना
का लक्ष्य
होता है, सत्य
को कैसे खोजें?
धूल में पड़ा
हीरा है, इसे
कैसे धो लें, शुद्ध कर
लें?
आलोचना
अत्यंत
मैत्रीपूर्ण
है,
चाहे कितनी
ही कठोर क्यों
न हो, फिर
भी उसमें
मैत्री है और
निंदा चाहे
कितनी ही मधुर
क्यों न हो, मीठी क्यों
न हो, उसमें
जहर है। शायद
जहर ही शक्कर
में लपेटकर दिया
जा रहा है।
निंदा
उठती है
अहंकार— भाव
से—मैं तुम से
बड़ा,
तुम्हें
छोटा करके
दिखाऊंगा।
आलोचना का संबंध
अहंकार से
नहीं है।
आलोचना का
संबंध मैं—तू
से नहीं है।
आलोचना
इस बात का
अन्वेषण है कि
सत्य क्या है, सत्य
कैसा है? आलोचना
बहुत कठोर हो
सकती है, क्योंकि
कभी—कभी असत्य
को काटने के
लिए कृपाण का
उपयोग करना
होता है।
असत्य की
चट्टानें हैं
तो सत्य के
हथौड़े और
छैनियां
बनानी पड़ती
हैं।
आखिर
गोरख हथौड़ी और
छैनी की चोट
कर रहे हैं। फिर
गोरख के पीछे
आनेवाले कबीर
और भी धार
रखते हैं, तलवार
पर और धार आ
जाती है! कबीर
की चोट ऐसी है
कि टुकड़े—टुकड़े
कर जाये; लेकिन
तुम्हें नहीं
टुकड़े—टुकड़े
कर जाये, तुम्हारे
असत्य को। जब
तुम चोर पर
हमला कर दो तो
निंदा है और
जब तुम चोरी
पर हमला करो
तो आलोचना। जब
तुम पापी को
घृणा करने लगो
तो निंदा और
जब तुम पाप को
घृणा करो तो
आलोचना।
निंदा
तो योगी नहीं
कर सकता।
निंदा का तो
रस ही अत्यंत
मूर्च्छित
व्यक्ति में
होता है।
निंदा का
मनोविज्ञान
क्या है? दुनिया
के अधिकतम लोग
निंदा में पड़े
होते हैं; मनोविज्ञान
क्या है? मनोविज्ञान
बहुत सीधा—साफ
है। प्रत्येक
व्यक्ति
चाहता है कि मेरे
अहंकार की
प्रतिष्ठा हो,
कि मैं सबसे
बड़ा! इसको
सिद्ध करना
बहुत कठिन है।
मैं सबसे बड़ा,
यह बात
सिद्ध करनी
बहुत कठिन है,
क्योंकि और
भी सभी लोग
इसी को सिद्ध
करने में लगे
हैं। और वे
लोग एक ही बात
को सिद्ध करना
चाहते हैं कि
मैं सबसे बड़ा।
कितने लोग बड़े
हो सकते हैं? इतना घमासान
चलेगा, इसमें
जीत करीब—करीब
असंभव है, कौन
जीत सकेगा? एक—एक आदमी
अरबों
आदमियों के
खिलाफ लड़ेगा,
हार
निश्चित है।
यहां सभी हार
जायेंगे।
यहां कोई ऊपर
चढ़ नहीं सकता।
तो फिर एक
सुगम उपाय खोजता
है मन। मन
कहता है. मैं
सबसे बड़ा हूं
यह तो सिद्ध
करना कठिन है;
लेकिन कोई
मुझसे बड़ा
नहीं है, यह
सिद्ध करना
आसान है।
खयाल
रखना, किसी
चीज की
विधायकता को
सिद्ध करना
सदा कठिन होता
है, नकारात्मक
वक्तव्य सदा
आसान होता है।
जैसे अगर
सिद्ध करना
चाहो कि ईश्वर
है तो बहुत
कठिन बात है।
जीवन को
तपश्चर्या
में अग्नि से
गुजारना होगा,
तब भी कब हो
पायेगी यह
सिद्धि, कुछ
पता नहीं—इस
जन्म में, जन्मों—जन्मों
में। लेकिन
ईश्वर नहीं है,
यह सिद्ध
करना हो तो
अभी हो सकता
है। इसमें कुछ
अड़चन नहीं है,
जरा—सी
तर्क—कुशलता
चाहिए, बस।
नास्तिक होना
कोई बड़ी
कुशलता की, बुद्धिमानी
की बात नहीं
है; बुद्ध
से बुद्ध आदमी
नास्तिक हो
सकता है।
तुर्गनेव
की प्रसिद्ध
कथा है :
महामूर्ख। एक
गांव में एक महामूर्ख
था। वह बहुत
परेशान था, क्योंकि
वह कुछ भी
कहता लोग हंस
देते; लोग
उसको
महामूर्ख मान
ही लिये थे।
वह कभी ठीक भी
बात कहता तो
भी लोग हंस
देते। वह
सिकुड़ा—सिकुड़ा
जीता था, बोलता
तक नहीं था। न
बोले तो लोग
हंसते थे, बोले
तो लोग हंसते
थे। कुछ करे
तो लोग हंसते
थे, न करे
तो लोग हंसते
थे। उस गाव
में एक फकीर
आया। उस
महामूर्ख ने
रात उस फकीर
के चरण पकड़े
और कहा कि
मुझे कुछ
आशीर्वाद दो,
मेरी
जिंदगी क्या
ऐसे ही बीत
जायेगी
सिकुड़े—सिकुड़े?
क्या मैं
महामूर्ख की
तरह ही मरूंगा,
कोई उपाय
नहीं है कि
थोड़ी बुद्धि
मुझमें आ जाये?
उस
फकीर ने कहा
उपाय है, यह ले
सूत्र, तू
निंदा शुरू कर
दे। उसने कहा :
निंदा से क्या
होगा? फकीर
ने कहा. सात
दिन तू कर और
फिर मेरे पास
आना। उस
महामूर्ख ने
पूछा. करना
क्या है निंदा
में? उस
फकीर ने कहा.
कोई कुछ भी कहे,
तू
नकारात्मक
वक्तव्य
देना। जैसे
कोई कहे कि देखो,
कितना
सुंदर सूरज
निकल रहा है!
तू कहना इसमें
क्या सुंदर है?
सिद्ध करो,
सुंदर कहां
है, क्या
सुंदर है? रोज
निकलता है, अरबों—खरबों
सालों से निकल
रहा है। आग का
गोला है, सुंदर
क्या है? कोई
कहे कि देखो, जीसस के वचन
कितने प्यारे
हैं! तू
तत्क्षण टूट
पड़ना कि क्या
है इसमें
प्यारा, कौन—सी
बात खूबी की
है, कौन—सी
बात नयी है? सदा से तो
यही कहा गया
है, सब
पिटा—पिटाया
है, सब
बासा है, सब
उधार है। तू
नकार ही करना।
कोई सुंदर
स्त्री को
देखकर कहे
कितनी सुंदर
स्त्री है! तू
कहना इसमें है
क्या? जरा
नाक लंबी हो
गयी तो हो
क्या गया, कि
रंग जरा सफेद
हुआ तो हो
क्या गया? सफेद
तो कोढ़ी भी
होते हैं।
सुंदर कहां है,
सिद्ध करो।
तू हर—एक से
प्रमाण
मांगना और
खयाल रखना यह
कि हमेशा नकार
में रहना; उनको
विधेय में डाल
देना, तू
नकार में
रहना।
सात
दिन बाद आ
जाना। सात दिन
बाद तो जब आया
महामूर्ख तो
अकेला नहीं
आया,
उसके कई
शिष्य हो गये
थे। वह
आगे—आगे आ रहा
था। फूल—मालाएं
उसके गले में
डली थीं।
बैड—बाजे बज
रहे थे। उसने
फकीर से कहा
कि तरकीब काम
कर गयी! गांव
में एकदम
सन्नाटा खिंच
गया है, जहां
निकल जाता हूं
लोग सिर नीचा
कर लेते हैं।
लोगों में खबर
पहुंच गयी है
कि मैं
महामेधावी
हूं। मेरे
सामने कोई जीत
नहीं सकता। अब
आगे क्या करना
है?
उसने
कहा : अब आगे तो
कुछ करना ही
मत,
बस तू इसी
पर रुके रहना।
अगर तेरे को
मेधा बचानी है,
कभी विधेय
में मत पड़ना।
ईश्वर की कोई
कहे तो तत्क्षण,
तत्क्षण
नास्तिकता
प्रकट करना।
जो भी कहा जाये,
तू हमेशा
नकारात्मक
वक्तव्य देना,
तुझे कोई न
हरा सकेगा; क्योंकि
नकारात्मक
वक्तव्य को
असिद्ध करना बहुत
कठिन है।
विधायक
वक्तव्य को
सिद्ध करना बहुत
कठिन है।
ईश्वर
को स्वीकार
करने के लिए
बड़ी
बुद्धिमत्ता
चाहिए, बड़ी
सूक्ष्म
संवेदना
चाहिए। हृदय
का अत्यंत जागरूक
रूप चाहिए।
चैतन्य की
निखरी हुई दशा
चाहिए। भीतर
थोड़ी रोशनी
चाहिए। लेकिन
ईश्वर को
इंकार करने के
लिए कुछ भी
नहीं चाहिए।
कोई अनिवार्यता
नहीं है ईश्वर
को इंकार करने
के लिए। इसलिए
लोग दुनिया
में निंदा
करते हैं।
निंदा
का
मनोविज्ञान
सस्ता
मनोविज्ञान
है,
सुगम उपाय
है। इससे
तुम्हारी
प्रतिभा
सिद्ध होगी।
और उसमें कुछ
खर्च पड़ता ही
नहीं। हल्दी लगे
न फिटकरी रंग
चोखा हो जाये।
इसमें कुछ खर्च
होता ही नहीं।
इसे सीखने
कहीं जाने की
जरूरत नहीं।
इसके लिए कोई
सत्संग करना
आवश्यक नहीं।
इसलिए हर आदमी
निंदा में
कुशल है।
तुम
चारों तरफ
लोगों को
पाओगे
निंदा—रस
लेते। पता
नहीं
जिन्होंने
रसों की गणना
की है उन्होंने
निंदा—रस
क्यों छोड़
दिया? क्योंकि
और सब रस तो
कोई कभी—कभार
लेता है, निंदा—रस
तो लोग रोज
लेते हैं, सुबह
से सांझ तक।
तुम अखबार पढ़ते
हो इसलिए कि
कुछ निंदा
रस—मिल जाये।
जरा किसी की
निंदा हो रही
हो तुम एकदम
चौकन्ने होकर सुनने
लगते हो। तुम
कैसे
ध्यानस्थ हो
जाते हो अगर
कोई आकर बताये
कि पड़ोसी की
स्त्री किसी
के साथ भाग
गयी! तुम भूल
जाते हो सब
संसार की बातें,
उस क्षण
ध्यान ऐसा
लगता है। तुम खोद—खोद
कर पूछने लगते
हो कि 'कुछ
और तो कहो, कुछ
आगे तो बताओ।
विस्तार में
चलो जरा, ऐसे
संक्षिप्त न
होओ। कहा भागे
जा रहे हो, पूरी
बात कह कर
जाओ। बैठो चाय
पी लो। ' पलक—पांवड़े
बिछा देते हो।
जहा
तुम्हें लगता
है कि कुछ
निंदा हो रही
है,
वहीं
तुम्हें रस
आता है। रस
आता है, क्योंकि
दूसरा आदमी
छोटा किया जा
रहा है और उसके
छोटे होने में
एक भीतरी
प्रतीति होती
है कि मैं बड़ा
हूं। इसलिए
अगर कोई
भिखारी
रास्ते पर
केले के छिलके
पर फिसल कर
गिर पड़े तो
तुम्हें उतना
रस नहीं आता
है, जितना
रस कोई सम्राट
केले के छिलके
पर फिसल कर
गिर पड़े तो
आये। दिल खुश
हो
जायेगा—जिसको
मुल्ला नसरुद्दीन
कहता है दिल
का
गार्डन—गार्डन
हो जाना—बाग—बाग
हो जाने का
उसने अनुवाद
किया है। जब
पहली दफा उसने
मुझसे कहा, मैं भी
चौंका और
मैंने उससे
पूछा कि यह
दिल का गार्डन—गार्डन
हो जाना क्या
है। उसने कहा :
अरे, बाग—बाग
हो जाना! यह
उसका
अंग्रेजी
अनुवाद है।
कोई
बादशाह
फिसलकर गिर
पड़े,
कैसा चित्त
प्रसन्न होता
है! इसलिए जब
तुम्हें खबर
मिल जाती है
कि कोई
प्रधानमंत्री,
कोई
राष्ट्रपति
किसी गलत काम
को करते हुए
पकड़ लिया गया
है, तो
कैसा निंदा का
रस फैलता है!
क्या प्रयोजन
है, किसको
लेना—देना
होना चाहिए? कोई
प्रधानमंत्री
अगर किसी
स्त्री के
प्रेम में पड़
गया है, बस...।
जैसे कि कोई
बडी अनूठी बात
हो गयी है!
कितना रस
फैलता है, कितने
लोग उत्सुक हो
जाते हैं! यह
सिर्फ एक बात
बताई जा रही
है इसके भीतर,
सिर्फ एक
बात की सूचना
हो रही है कि
तुम प्रतीक्षा
ही कर रहे थे
कि जरा फंसो, कि जरा कहीं
गिरो, कि
जरा पैर फिसले
तुम्हारा
किसी केले के
छिलके पर, तुम
चारोखाने
चित्त हो जाओ।
यह दिल में
तुम्हारे
आकांक्षा ही
थी।
इसीलिए
जो व्यक्ति भी
चार—पांच साल
सत्ता में रह
जाता है, जनता
उसी को सत्ता
से उतारने को
उत्सुक हो
जाती है, आतुर
हो जाती है।
बहुत हो गया, यह गिरना ही
चाहिए आदमी।
छोटी—छोटी
बातें फिर खूब
बड़ी—बड़ी करके
फैलायी जाती
हैं। और लोग
उनको स्वीकार
करने को राजी
होते हैं।
तुमने
मजा देखा, अगर
तुम किसी की
प्रशंसा करो
कोई सुनने को
राजी नहीं है,
न कोई
स्वीकार करने को
राजी है। अगर
तुम कहो कि
फलां व्यक्ति
देखो, कैसा
महात्मा हो
गया! वह कहेगा
अरे, सब
देख लिये
महात्मा! कहीं
कोई महात्मा न
होता है न हुआ
है; सब
धोखाधड़ी है।
कुछ चालबाजी
होगी, जरा
रुको, थोड़ा
ठहरो, जब
पकड़ा जायेगा
तब पता चलेगा।
हमने कई को
गिरते देख
लिया है।
लेकिन
अगर कोई तुमसे
कहे कि फलां
आदमी चोरी कर
रहा है, फलां
आदमी बेईमान
है, फलां
आदमी ने
रिश्वत खायी
है, तो तुम
कभी इंकार
नहीं करते कि
नहीं—नहीं, ऐसा कैसे हो
सकता है? तुम
तो तत्क्षण
स्वीकार कर
लेते हो जैसे
तुम पहले से
माने ही बैठे
थे। हमने यह
मान ही रखा है कि
हमारे
अतिरिक्त और
सब लोग बुरे
हैं; किन्हीं
का पता चल गया
है, किन्हीं
का पता नहीं
चला है, कभी
चल जायेगा, मगर हमारे
सिवाय सारे
लोग बुरे हैं।
यह तो हमारी
स्वीकृत
मान्यता है।
इस स्वीकृत
मान्यता को जो
भी सहारा दे
देता है हम
तत्क्षण
अंगीकार कर
लेते हैं।
हालत
हमारी ऐसी है
कि अगर कोई
तुमसे कहे कि
फलां आदमी देखो, कितनी
प्यारी
बांसुरी बजा
रहा है! तुम
कहोगे : वह
क्या खाक
बांसुरी
बजायेगा, चोर,
लंपट, लुच्चा!
जैसे कि
लुच्चा और
लंपट और चोर
होने से
बांसुरी
बजाने में कोई
बाधा पड़ती हो!
लेकिन तुमने
तत्क्षण
निंदा कर दी, कि वह क्या
खाक बांसुरी
बजायेगा, उसकी
बांसुरी में
क्या रखा है? हम उसे
भलीभांति
जानते हैं। हम
उसके बाप—दादों
को भी जानते
हैं, वह
क्या बांसुरी
बजायेगा?
लेकिन
इससे उल्टी
बात तुम्हें
कभी सुनने में
न आयेगी—कि
कोई कहे कि
देखो, वह आदमी
चोर है, बेईमान
है, लंपट
है; और तुम
कहो कि नहीं, यह कैसे हो
सकता है, क्योंकि
वह इतनी
प्यारी
बांसुरी
बजाता है! नहीं—नहीं,
यह नहीं हो
सकता। इतनी
प्यारी
बांसुरी
बजाने वाला
आदमी चोर होगा,
लंपट होगा,
यह कैसे हो
सकता है?
ऐसा
तुम कभी न
कहोगे। यह
तुम्हारे
अहंकार के विपरीत
है। जो
तुम्हारे
अहंकार को
भरता है वह है
निंदा। इसलिए
प्रशंसा तो
लोग बड़े बेमन
से करते
हैं—बड़े बेमन
से,
मजबूरी में
करते हैं। कुछ
लेना हो
प्रशंसा कर के
तो करते हैं।
इसलिए ऊपर—ऊपर
प्रशंसा कर
देते हैं, पीछे
बदला लेते
हैं।
अदालत
में मुकदमा
था। एक नेताजी
ने अदालत में एक
आदमी पर
मानहानि का
मुकदमा चलाया
था। क्योंकि
होटल में जहा
कि पचास—साठ
लोग मौजूद थे, उस
आदमी ने
नेताजी को
उल्ल का पट्टा
कह दिया। स्वभावत:
नेताजी
क्रुद्ध हो
गये। उल्लू का
पट्ठा! इसको
मजा चखा कर
रहेंगे।
मुल्ला
नसरुद्दीन
नेताजी के बगल
में ही खड़ा था, जब
उल्लू का
पट्टा उन्हें
कहा गया। तो
उन्होंने
उससे कहा कि
मुल्ला, गवाही
देनी होगी, तुम्हारे
सामने कहा था।
उसने कहा तो
बिलकुल गवाही
दूंगा, प्रत्यक्ष
गवाह मैं हूं।
मेरे सामने
ग्रंथि दी गयी
है, मैं
तुम्हारे बगल
में खड़ा था।
अदालत
में गवाहियां
हुईं। मुल्ला
नसरुद्दीन से
पूछा
मजिस्ट्रेट
ने कि वहा
पचास लोग थे, और
जिस आदमी पर
दोष लगाया गया
है गाली देने
का, वह
आदमी कहता है
कि मैंने किसी
का नाम लेकर
नहीं कहा; हा,
मैंने
उल्लू का
पट्टा शब्द
उपयोग किया
था। मगर वहां
पचास—साठ लोग
थे, नेताजी
को मैंने लक्ष्य
कर के यह नहीं
कहा है।
तुम्हारे पास
क्या सबूत है
नसरुद्दीन कि
इसने नेताजी
को ही लक्ष्य
कर के कहा?
नसरुद्दीन
ने कहा. मैं
मानता हूं वहा
पचास—साठ लोग
थे,
लेकिन उन्न
का पट्टा वहा
सिवाय नेताजी
के और कोई था
ही नहीं।
अब
क्या करोगे? अपना
गवाह भी यह कह
रहा है। तुम
चाहते हो जो
सत्ता में है,
शक्ति में
है, पद में
है, जिनके
पास धन है, वह
चारों खाने
गिरे; इससे
तुम्हारे दिल
को बड़ी राहत
होगी। दुनिया में
जब कभी किसी
का पतन होता
है, लोगों
के चित्त को
बड़ी राहत
मिलती है, बड़ा
हलकापन आ जाता
है। लोग
प्रतीक्षा
करते हैं इसकी
कि किसी का
चरित्र
भ्रष्ट हो
जाये। इस पर
बहुत दारमदार
है उनकी।
चरित्र तो
बनाना
मुश्किल है।
अपने जीवन को
तो गरिमा देना
मुश्किल है, महिमा देना
मुश्किल है; मगर किसी की
महिमा छिन
जाये तो उसको
बढ़ा—चढ़ा कर
चर्चा करना तो
आसान है।
जितनी उसकी
तुम चर्चा
करते हो बुराई
की, उतने
ही तुम भीतर
अच्छे होते
जाते हो। यह
निंदा का
मनोविज्ञान
है। यह अहंकार
की छाया है और
अहंकार का
पोषण भी।
मगर
इसका अर्थ यह
नहीं है कि
मैं तुमसे कह
रहा हूं तुम
अंधे की तरह
जीना; या गोरख
तुमसे कह रहे
हैं कि तुम
अंधे की तरह जीना।
जहा तुम गलत
देखो वहां चुप
रह जाना, यह
मैं नहीं कह
रहा हूं न
गोरख कह रहे हैं।
क्योंकि अगर
गोरख यह कहते
तो जो
उन्होंने कहा,
यह भी नहीं
कह सकते थे।
इस बात को
खयाल में ले लेना,
यह भी तो
गलत देखा न! यह
देखा कि योगी
और निंदा कर
रहे हैं, कि
योगी और
मद्य—मांस और
भांग पी रहे
हैं। तो कहा
कि नर्क में
पड़ोगे। इसको
तुम निंदा मत
समझना। इसमें निंदा
कुछ भी नहीं
है; इसमें
सहज करुणा है,
इसमें सहज
सदभाव है।
उन्हें नीचे
दिखाने का प्रयोजन
नहीं है। सच
में तो उन्हें
ऊपर उठाने की
आकांक्षा है,
उन्हें
जगाने की
आकांक्षा है।
कभी—कभी
जगाने वाला भी
दुश्मन मालूम
पड़ता है। कभी—कभी
तो ऐसा हो
जाता है, तुम
किसी से कह
देते हो कि
भाई सुबह मुझे
उठा देना, ट्रेन
पकड़नी है चार
बजे की, और
तुम तो तीन
बजे उठते ही
हो
ब्रह्ममुहूर्त
में, मुझे
उठा देना। वह
आदमी तुम्हें
तीन बजे उठाने
आया, तुम
मन ही मन में
गाली देते
हो—उस आदमी को
जिसको तुमने
ही कहा है कि
तीन बजे उठा
देना! —कि यह बदतमीज
आ गया, कि
इस हरामजादे
को आज ही सूझा,
कि हमने कह
दिया था, गलती
हो गयी, मगर
कोई गलती को
मान कर करने
की जरूरत ही
थोड़ी थी।... कि
यह दुष्ट कहां
टले। और अगर
वह तुम्हें खींच
कर भी उठाने
लगे, झगड़ा
भी हो सकता
है।
जर्मनी
का प्रसिद्ध
विचारक हुआ
इमेन्यूल कांट।
उसने एक नौकर
रख छोड़ा था।
उसको सुबह
उठने में बड़ी
अड़चन होती थी।
नौकर का कुल
काम इतना था
कि चाहे
मारपीट हो
जाये, मगर उठा
दे। तो मारपीट
होती थी, यह
इसके लिए नौकर
ही रखा हुआ
था। कई नौकर
छोड्कर चले
जाते थे कि यह
क्या मामला है?
पर वह कहता
है कि तुम्हें
रखा ही इसलिए
है। तुम फिक्र
ही मत करना, मैं तुमसे
यह तो नहीं
कहता कि मैं
मारूं तो तुम
मत मारना।
भिन्न—भिन्न
तरह के लोग
हैं! अभी तो
पश्चिम में इस
तरह के
विद्युत—कंबल
बन गये हैं
जिनमें तुम
अलार्म भर दो, घड़ी
भी लगी रहती
है, और
सुबह ठीक पांच
बजे बिजली का
शॉक.। जो नहीं
उठ सकते उनके
लिए इंतजाम
करना पड़ेगा।
लगा एक शॉक और
छलांग लगाकर
तुम बाहर हुए!
क्योंकि
साधारण अलार्म
काम नहीं करते,
लोग उनको
बंद कर देते
हैं। घड़ी पटक
देते हैं। खुद
की घड़ी! फिर
बाद में
पछताते हैं कि
फूट गयी है, पचास रुपये
का नुकसान हो
गया। खुद ने
ही अलार्म भरा,
खुद ही घड़ी
पटक देते हैं।
उनके लिए
इंतजाम करने
पड़े हैं।
जगानेवाला
प्रीतिकर
नहीं लगता, क्योंकि
उस समय तुम
मधुर निद्रा
में खोये हो, हो सकता है
कोई मीठा सपना
देख रहे हो।
हो सकता है
बिलकुल
अभी—अभी बस
क्लियोपेत्रा
से मिलन ही
होनेवाला था,
कि
हेमामालिनी
बस चली ही आ
रही थी। बस
आलिंगन होने
के ही करीब था
और यह दुष्ट आ
गया, या यह
अलार्म बज
गया। ऐसी घड़ी
को कोई
बर्दाश्त
करेगा?
इसलिए
बुद्धों को हम
बड़ी मुश्किल
से स्वीकार कर
पाते हैं; करते—करते
ही स्वीकार कर
पाते हैं।
तुम्हारे स्वप्न
तोड़ देने वाले
लोग कैसे
तुम्हें प्रीतिकर
लगेंगे? तुम
नाराज होते
हो। इससे यह
मत समझना कि
योगी आलोचना न
करेगा, और
कौन करेगा? वही हकदार
है। लेकिन
निंदा नहीं
करेगा। उसकी आंखों
में तुम्हारा
अपमान नहीं
होगा। उसकी वाणी
कठोर हो सकती
है। उसकी वाणी
बहुत पैनी हो सकती
है। उसके शब्द
धारवाले हो
सकते हैं। होने
ही चाहिए।
कबीर
ने तो कहा है.
कबिरा खड़ा
बजार में लिए
लुकाठी हाथ।
लह हाथ में
लिए खड़े हैं, बाजार
में। जो घर
बारे आपना, चलै हमारे
साथ! हो
तैयारी तो घर
में आग लगा दो,
चलो हमारे
साथ। और लट्ठ
लिए खड़े हैं...
लिए लुकाठी
हाथ! फिर पीछे
लौटकर भी नहीं
देखने देंगे,
नहीं तो सिर
खोल देंगे।
योगी
कठोर हो सकता
है। लेकिन
कठोर होता है
तुम्हारे
दुर्गुण पर, तुम
पर नहीं। तुम
पर तो उसकी
बड़ी अनुकंपा
है, बड़ा
प्रेम है।
इसलिए कभी—कभी
अड़चन हो सकती
है। कभी—कभी
तुम्हें
भ्रांति हो
सकती है। पर
साफ—साफ भेद
समझ लेना।
जोगी होड़ पर
निद्यां झषै!
योगी होकर और
दूसरे की
निंदा करोगे?
मदमास
अरु भांग जो
भषै
और
अभी भी तुमसे
मांस नहीं
छूटा, मदिरा
नहीं छूटी? और अभी भी
तुम भांग और
गाजा जैसे
मादक पदार्थों
में डूबते हो!
एक
बात खयाल रखना
: जो जागे हैं
वे तुम्हारे
शराब या
मांस—मदिरा के
विपरीत
किन्हीं और
कारणों से
हैं। तुम भी
इनके विपरीत
होते हो, लेकिन
तुम्हारे
कारण भिन्न
हैं। तुम कहते
हो मदिरा मत
पीना, क्योंकि
व्यर्थ पैसे
की हानि होती
है, स्वास्थ्य
खराब होता है।
पत्नी—बच्चे
भूखे मरेंगे,
इसलिए मत
पीना। ये कोई
कारण ज्यादा
देर तक साथ
देनेवाले
नहीं हैं।
समझो
कि तुम्हारे
पास काफी
सुविधा है और
तुम्हारे
मास—मदिरा
पीने से, खाने
से, बच्चे—पत्नी
भूखे नहीं मर
जायेंगे। तो
फिर क्या अड़चन
है? तो यह
शिक्षा
गरीबों के लिए
होगी। अमीरों
के लिए? नहीं,
उनके लिए
कोई अड़चन नहीं
होनी चाहिए।
तो यह तो बड़ी
सशर्त शिक्षा
हो गयी। यह
शिक्षा कहती
है कि शरीर
खराब हो
जायेगा, लेकिन
शरीर तो खराब
हो ही जाता
है।
दिन—दों—दिन
पहले कि
दिन—दो—दिन
बाद, इसका
क्या मूल्य है?
सत्तर साल
में मरे कि
अस्सी साल में
मरे.....? अच्छा
तो यही है कि
सत्तर साल में
मर गये, दस
साल के लिए
दूसरे को जगह
खाली कर गये।
दुनिया में जगह
वैसे ही कम
है। भीड़ बढ़ती
जाती है, हाथ
हिलाने कि जगह
नहीं रह गयी
है। तुम जितनी
जल्दी विदा हो
जाओ उतना
अच्छा है। तो
दस साल ज्यादा
जी गए, इससे
कुछ दुनिया का
हित नहीं है, न
मनुष्य—जाति
का कोई कल्याण
है। फिर दस
साल पहले मरे
कि दस साल बाद
मरे, फर्क
क्या पड़ता है?
दस साल और
रह जाते, कुछ
लोगों को और
चूसते, कुछ
और धन इकट्ठा
करते, तिजोड़ी
में कुछ और
भरते। लोग
तुमसे और
परेशान होते,
और क्या
होता? और
तुम्हारी
जिंदगी थी ही
क्या? कोई
तुक तो था
नहीं, कोई
संगति थी नहीं,
कोई संगीत
था नहीं। लंबा
जीकर भी क्या
करोगे?
ये
तर्क कोई काम
नहीं आनेवाले
हैं। और फिर
ये तर्क सही भी
नहीं हैं।
क्योंकि शराब
पीनेवाले भी
लंबे जीते
देखे जाते
हैं। शराबी
जल्दी नहीं
मरते। अगर
जल्दी मरना और
देर से मरना
यही
प्रामाणिक हो
तो बड़ी अड़चन
हो जायेगी।
शंकराचार्य
तैंतीस साल
में मर गये; इसका
क्या यह अर्थ
होगा कि धर्म
से सावधान? विवेकानंद
चौंतीस साल
में मर गये।
इसका क्या अर्थ
होगा? इसका
अर्थ यह होगा
कि भाई बचना!
धर्म इत्यादि में
मत लगना, देखी
विवेकानंद की
क्या गति हुई?
देखा
शंकराचार्य
बेचारे, अभी
होते—होते
जवान विदा हो
गये! इस तरह
कुछ उम्रें
नहीं बांटी
जाती हैं।
मोरारजी
देसाई को अभी
किसी ने पूछा
बी. बी. सी. के
इंटरव्यू में
कि आप चर्चिल
के संबंध में
क्या कहते हैं, क्योंकि
वह तो खूब
पीता
था—सिगरेट भी,
शराब भी, मांस भी।
ब्रह्ममुहूर्त
में कभी उठता
ही नहीं था, नौ और दस बजे
के पहले नहीं
उठता था, लेकिन
जीया तो खूब!
तो मोरारजी
देसाई ने कहा
कि वह अपवाद
है। और मोरारजी
देसाई सोचते
हैं कि वह जो
लंबा जी रहे
हैं वह
जीवन—जल पीने
की वजह से। और
चर्चिल अपवाद
है!
मैंने
सुना, मुल्ला
नसरुद्दीन
अस्सी वर्ष का
हो गया था, लेकिन
अभी भी तैराकी
में प्रथम आता
था। तो पत्रकार
उसके घर गये।
जन्मदिन उसका
मनाया जा रहा
था अस्सीवां।
उन्होंने
पूछा कि अस्सी
वर्ष के तुम
हो गये हो, तुम्हारा
राज क्या है? तुम कैसे अब
तक प्रथम
तैराक... जवान
भी तुमसे हार
जाते हैं! तो
उसने कहा :
चूंकि मैंने
कभी शराब नहीं
पी, मांस
नहीं खाया, स्त्रियों
के पीछे नहीं
भागा— भटका। मैं
किसी व्यसन
में रहा ही
नहीं। इस
कारण।
चमत्कृत
हुए लोग, जो
पूछने आये थे।
लेकिन तभी
मुल्ला ने
कहा. लेकिन इस
पर बहुत विचार
में मत पड़ो, मैं कुछ भी
नहीं हूं।
मेरे पिता सौ
साल के हो गये
हैं, मगर
घुड़सवारी में
उनका कोई
मुकाबला नहीं
है। मैं भी
घुड़सवारी में
उनका मुकाबला
नहीं कर पाता;
जवान से
जवान नहीं कर
पाते। और वे
शराब भी पीते
हैं। क्षमा
करना, मुल्ला
ने कहा, वे
शराब भी पीते
हैं, मांस
भी खाते हैं।
तो
पत्रकारों ने
कहा : हम
तुम्हारे
पिताजी को मिलना
चाहते हैं। यह
तो बड़ी हैरानी
की बात है कि
शराब भी पीते
हैं,
मांस भी खाते
हैं, सौ
साल के हुए और
घुड़सवारी में
कोई मुकाबला
नहीं कर सकता।
तुम्हारा
परिवार तो बड़ा
अदभुत मालूम
होता है।
पिताजी कहां
हैं, उनके
हम दर्शन करना
चाहते हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा : यह नहीं
हो सकेगा, क्योंकि
पिताजी गये
हैं मेरे दादा
की बारात में।
दादा
की बारात?
तो
मुल्ला ने कहा
: ही,
मजबूरी थी।
तुम्हारे
दादाजी विवाह
कर रहे हैं? उन
लोगों ने
पूछा।
मुल्ला
ने कहा : कर
नहीं रहे हैं, करना
पड़ रहा है; स्त्री
गर्भवती हो
गयी।
'दादा जी की
उम्र कितनी है?'
'एक सौ बीस
साल। '
क्या
हिसाब लगाओगे, कैसे
हिसाब लगाओगे?
शराब पीने
वाले खूब जीते
हैं। तुम इस
तरह के तर्क
देकर किसी को
शराब पीने से
उसे नहीं बचा
सकते। ये तर्क
थोथे हैं। इन
तर्कों में
कोई बल नहीं
है।
इसलिए
ये तर्क चलते
रहते हैं और
लोग शराब पीते
रहते हैं, सिगरेट
पीते रहते हैं,
मांस खाते
रहते हैं। सब
चलता रहता है।
ये तर्क भी
चलते रहते हैं
और बाकी सब भौ
चलता रहता है।
इन तर्कों में
और उनके
जीवन—व्यवहार
में कोई संबंध
कभी निर्मित
नहीं होता।
जब
बुद्धपुरुष
कहते हैं, गोरख
जैसे पुरुष
कहते हैं कि
मत पीयो शराब,
तो उनके
कारण बहुत
अन्य हैं।
इसलिए नहीं कि
तुम ज्यादा जी
लोगे, ज्यादा
जी कर भी क्या
करोगे? जीने
में मूल्य ही
क्या है? इसलिए
भी नहीं कि
स्वास्थ्य
अच्छा रहेगा।
स्वास्थ्य का
कोई
आध्यात्मिक
मूल्य थोड़े ही
है। रुग्ण
व्यक्ति भी
परमात्मा को
पा सकता है, और स्वस्थ
व्यक्ति हो
सकता है इसलिए
परमात्मा को न
पा सके कि
स्वास्थ्य के
कारण संसार में
उलझा रहता है,
कि अभी तो
मैं स्वस्थ
हूं। कर लेंगे
राम का स्मरण
अंत में, अभी
तो भोग लें।
चार दिन की
जिंदगी है, अभी तो मजा
कर लें।
नहीं, ये
थोथे सिद्धात
किसी सहारे के
नहीं हैं। फिर
गोरख जैसे
व्यक्ति
क्यों कहते
हैं? उनके
कहने का कारण
बड़ा अनूठा है।
तुम चकित होओगे
जानकर।
मैं
भी चाहता हूं
तुम शराब से
मुक्त हो जाओ, लेकिन
मेरा कारण वही
नहीं है जो
मोरारजी देसाई
का है। मैं भी
चाहता हूं कि
तुम शराब से
मुक्त हो जाओ
क्योंकि एक और
बड़ी शराब है।
अगर तुम इसी
में उलझे रहे
तो उस बड़ी
शराब को तुम
कभी न पी पाओगे।
मैं तुम्हें
असली मधुशाला
में ले चलना
चाहता हूं
इसलिए झूठी मधुशाला
से छुड़ाना
चाहता हूं।
परमात्मा
शराब है और
ऐसी शराब कि
जिसने पी ली, सदा
के लिए पी ली; और ऐसी
बेहोशी कि आयी
तो आयी; और
ऐसी बेखुदी कि
फिर कभी टूटती
नहीं। यह तो तुम
जो बाजार से
खरीदकर पी
लेते हो, यह
तो सांझ पी
लोगे, सुबह
टूट जायेगी।
फिर वही के
वही, बेचैनी,
फिर वही
तनाव, फिर
वही चिंताएं।
थोड़ी देर को
भुला सकते हो
शराब में
डुबाकर, मगर
मिटा न सकोगे।
एक ऐसी भी
शराब है जहा
चिंताएं मिट
जाती हैं। मैं
तुम्हें वही
शराब देना चाहता
हूं। ध्यान
शराब है, प्रार्थना
शराब है। और
जब कोई मंदिर
जीवित होता है
तो मधुशाला ही
उसका ढंग होता
है।
मैं
भी तुम्हें
चाहता हूं कि
शराब न पीयो, लेकिन
मेरा कारण बड़ा
उल्टा है; इसलिए
चाहता हूं कि
छोटी—छोटी
शराब में उलझे
रहे तो बड़ी
शराब कब
पीयोगे, असली
शराब कब
पीयोगे? ये
सड़क के किनारे
गंदे डबरे
पानी के जो
भरे हैं, इन्हीं
से जल पीते
रहे तो
मानसरोवर की
यात्रा करनी
है या नहीं
करनी है? उस
स्वच्छ, स्फटिक
जैसे स्वच्छ
जल को कंठ के
भीतर उतारना है
या नहीं
उतारना है?
मैं
तुम्हें शराब
छोड़ने को
इसलिए नहीं
कहता कि मैं
कोई नीतिवादी
हूं कि शराब
पीने से कोई बहुत
बड़ा पाप हुआ
जा रहा है।
क्या खाक पाप
होगा? शराब तो
शुद्ध
शाकाहार
है—अगर का
निचुड़ा हुआ रस
है। क्या पाप
होनेवाला है?
अंगूर खाने
से नहीं होता,
शराब पीने
से कैसे हो
जायेगा? शराब
पीने से तुम
नर्क में नहीं
पड़ जाओगे। लेकिन
हां, शराब
पीने से
तुम्हें
स्वर्ग की
शराब नहीं मिल
पायेगी, उससे
तुम वंचित रह
जाओगे।
मैं
चाहता हूं कि
तुम्हारे हाथ
से कंकड़—पत्थर
छूट जायें, क्योंकि
हीरों की खदान
मौजूद है। तुम
क्यों कंकड़—पत्थर
से अपनी झोली
भरते हो? मोरारजी
देसाई और मेरे
वक्तव्य में
जमीन— आसमान
का भेद है।
उनकी दुश्मनी
है तुम्हारे
कंकड़—पत्थरों
से। वे कहते
हैं छोड़ो
कंकड़—पत्थर, कंकड़—पत्थर
बुरे हैं। मैं
कहता हूं
कंकड़—पत्थर से
मेरी कोई
दुश्मनी नहीं;
मगर
हीरे—जवाहरात
हैं।
तुम्हारी
झोली कंकड़—पत्थर
से भरी रही तो
हीरे—जवाहरात
ऐसे ही पड़े रह
जायेंगे, जिनको
पा लेने का
तुम्हें हक था;
जो तुम्हें
पाने ही चाहिए
थे; जिनको
बिना पाये
तुम्हारी
नियति कभी
पूर्ण नहीं
होगी।
भेद
खयाल कर लेना, भेद
बहुत
बुनियादी है।
मैं भी तुमसे
कहता हूं मांस
छोड़ो, लेकिन
इसलिए नहीं कि
मांस खाओगे तो
नर्क जाओगे; इसलिए नहीं
कि मांस खाओगे
तो हिंसा हो
जायेगी। इन सब
छोटी बातों से
मुझे कोई
प्रयोजन नहीं
है। क्योंकि
अगर मांस
खानेवाले
सारे लोग नर्क
जाते हैं तो
जीसस नर्क में
होंगे, रामकृष्ण
परमहंस भी
नर्क में
होंगे, क्योंकि
बंगाली का
बिना मछली के
चलेगा? मछली—
भात के बिना
चल ही नहीं
सकता।
रामकृष्ण परमहंस
मछली तो खाते
ही रहे, नरक
में होंगै!
ये
छोटी—छोटी
बातें हैं।
इनका कोई
मूल्य नहीं
है। मगर इतना
जरूर इनसे
सिद्ध होता है
कि रामकृष्ण परमहंस
की संवेदना
जितनी गहन हो
सकती थी उतनी न
हो पायी होगी।
थोड़ा—सा पर्दा
रह गया। हृदय
जितना
प्रेमपूर्ण
होना चाहिए था, न
हो पाया होगा।
थोड़ी कालिख रह
गयी। नर्क में
पड़ गये, ऐसा
नहीं है मगर
एक और सौंदर्य
का अनुभव हो
सकता था जिससे
वंचित रह गये।
जीसस
नर्क जायेंगे, ऐसा
नहीं, लेकिन
जीवन के समझने
में थोड़ी—सी
चूक रह गयी, एक कांटा रह
गया। वह कांटा
भी निकल सकता
था, निकल
ही जाना चाहिए
था। और मुझे
लगता है कि जीसस
अगर थोड़े
ज्यादा दिन जिंदा
रह गये होते...
जवान मर गये, मार डाले
गये... तो शायद
कांटा निकल
जाता। अभी उम्र
कम थी। और
सारे लोग
मांसाहारी थे,
जिनके बीच
वे पैदा हुए
थे। थोड़ी उम्र
पकती, थोड़ा
बोध गहन होता,
थोड़ा
परमात्मा का
साक्षात्कार
और— और सघन होता
तो निश्चित ही
मांसाहार छूट
जाता। क्योंकि
अंतिम अवस्था
में जिसे सब
तरफ परमात्मा
दिखाई पड़ने
लगा, वह
अपने भोजन के
लिए किसी के
जीवन की हत्या
करेगा, यह
सोचना असंभव
है।
तो
मैं इसलिए
नहीं कहता कि
मांसाहार पाप
है,
कि इस पाप
के परिणाम में
तुम्हें नरक
भुगतना होगा
बल्कि इसलिए
कहता हूं कि
मांसाहार तुम्हारी
संवेदनशीलता
को कम करता
है। तुम्हारी
संवेदनशीलता
की सूक्ष्मता
छिन जाती है।
तुम्हारे
भीतर से जितना
शुद्ध संगीत
पैदा हो सकता
है, नहीं
हो सकेगा।
तुमने अपनी
वीणा में बड़े
मोटे और
खुरदरे तार
लगा लिये हैं।
संगीत तो होगा,
गीत भी पैदा
होगा, लेकिन
मोटे और खुरदरे
और सस्ते तार
लगा लिये हैं
जब कि महीन, अभिजात, सूक्ष्म
तार उपलब्ध
थे। तुमने
अपनी वीणा के
साथ
दुर्व्यवहार
कर लिया है।
नहीं कि तुम
नर्क में
पड़ोगे, क्योंकि
तुमने वीणा
में खुरदरे
तार लगा लिये हैं।
और
यह ध्यान रखना
कि जब तुम
मांसाहार
करते हो तो
तुमने किसी को
मारा, इस
भ्रांति में
मत पड़ना, क्योंकि
मर तो कोई
सकता नहीं।
इसलिए पाप यह
नहीं है कि
तुमने किसी को
मार डाला।
मृत्यु तो यहां
होती ही नहीं।
मारने का तो
कोई उपाय ही
नहीं है।
सिर्फ तुमने
देह छीन ली एक
आत्मा की; वह
आत्मा नयी देह
ले लेगी। सवाल
हत्या का नहीं
है, सवाल
इसका है कि
तुम देह छीन
सके। सवाल
तुम्हारा है।
वह आत्मा तो
नयी देह ले
लेगी, नया
गर्भ ले लेगी।
कोई मरता नहीं
है। कृष्ण कहते
हैं. न हन्यते
हन्यमाने
शरीरे। नहीं
शरीर के मरने
से उसकी
मृत्यु होती
है। मगर सवाल
तुम्हारा है।
तुमने
संवेदनशून्यता
दिखलायी। तुम्हारे
भीतर
हार्दिकता
नहीं है। तुम
थोड़े पथरीले
हो, तुम
कोमल नहीं हो।
और तुम कोमल
नहीं हो तो
तुम्हारे
भीतर का कमल
नहीं खिलेगा,
या अधखिला
रहेगा। या
एक—आध पंखुड़ी
अनखिली रह जायेगी।
परमचित्त
की अवस्था में
मांसाहार
असंभव है। और
जो परमचित्त
की अवस्था
चाहते हैं, उन्हें
यह बोध रखना
चाहिए।
तो
ठीक कहते हैं
गोरख
जोगी
होड़
परनिद्यां
झष्रै मदमास
अरु भाती जो भषै।
इकोतर
सै पुरिषा
नरकहि जाई?।
ऐसे मैंने
हजारों लोगों
को नरक जाते
देखा है।
सति
सति भाषत श्री
गोरष राई।
मैं
सच—सच कह रहा
हूं किसी की
निंदा नहीं कर
रहा हूं। जो
तथ्य है उतना
ही निवेदन कर
रहा हूं। और
जो सच को सुन
लेगा उसकी
जिंदगी में
क्रांति शुरू
हो जाती है।
अब
रहीम मुसकिल
पड़ी,
गाढ़े दोऊ
काम सांचे से
तो जग नहीं, झूठे मिलै न
राम।
जिसने
सच को सुना, सच
को समझा, उसके
जीवन में
क्रांति का
क्षण आ गया।
उसे एक बात
दिखाई पड़ने
लगेगी कि अगर
सच की मानकर
चलूं तो राम
मिल सकते हैं,
लेकिन जग
अपने—आप खो
जायेगा।
छोड़ना नहीं
पड़ता जग, अपने—आप
खो जाता है।
झूठ से तो राम
नहीं मिलता, सच से जग
नहीं मिलता।
जिसको यह बात
दिखाई पड़ गयी,
उसे स्पष्ट
चुनाव करना ही
होता है। उसी
चुनाव को मैं
संन्यास कहता
हूं। वह
निर्णायक
घटना है।
एकाएकी
सिध नांउं दोड़
रमति ते
साधवा।
चारि
पंच कुटंब
नांउं दस बीस
ते लसकरा।।
सिद्ध
तो जानता है
कि मैं अकेला
हूं। और भीड़ में
भी हो तो भी
अकेला होता
है। इसे तुम
ऐसा समझो कि
तुम अगर जंगल
में भी बैठ
जाओ तो तुम
अकेले नहीं
होते। तुमने
देखा कि लोग
जाते हैं, कहां
जा रहे
हैं—पहाड़ जा
रहे हैं—मगर
ले चले अपना
ट्रांजिस्टर—रेडिओ
साथ। रख लिये
बहुत से अखबार,
पत्रिकाएं
खरीद कर। ले
चले
पत्नी—बच्चों
को, मित्रों
को साथ—कि
अकेले क्या
जाना! जा रहे
हैं पहाड़, ले
चले भीड़— भाड़, पूरा बाजार
ले चले। और
अगर कभी ये अकेले
भी रह जायें
जाकर पहाड़ पर
तो भी अकेले नहीं
होते, बैठे
अकेले दिखाई
पड़ते हैं, मगर
भीतर इनके
मित्रों की
स्मृतियों, पत्नी, पति,
बच्चे, परिवार,
धन, दौलत,
दुकान, बाजार,
सब घूमता
रहता है।
तुम
अकेले भी होते
हो तो भीड़ में
होते हो। सिद्ध
वही है, जो
जहा भी हो अकेला
हो; भीड़
में हो तो भी
अकेला हो।
क्योंकि
सिद्ध का अर्थ
है. जिसने
अपने भीतर का
स्वभाव
पहचाना। अकेले
हम आये, अकेले
हम जायेंगे, अकेले हम
हैं। क्योंकि
जैसे हम आये
हैं, वैसे
ही हम हैं, और
वैसे ही हम
जायेंगे।
हमारा
अकेलापन
शाश्वत है। और
हमने जो खेल
रचा लिये हैं
पति—पत्नी के,
हमने
भावरें डाल ली
हैं, हमने
परिवार बसा
लिये हैं, वे
सब भुलावे हैं,
वे खेल हैं।
खा—गुड्डियों
के खेल से
ज्यादा मूल्य
उनका नहीं है।
खेलो जरूर, मैं नहीं
कहता कि खेलना
बंद कर दो, मगर
स्मरण रखो कि
खेल खेल है।
एकाएकी
सिध नांउं!
जो
एकाकीपन को अनुभव
करता है वह
सिद्ध है, उसका
नाम सिद्ध है।
जो साथ भी रहे
तो भी अकेला ही
होता है, उसका
नाम सिद्ध है।
दोड़
रमति ते
साधवा।
जिनको
दो की जरूरत
पड़ती है, जो
अकेले नहीं हो
सकते, जो
मैं और तू के
बिना नहीं हो
सकते—उनको कहा
कि साधु समझ
लेना। उनको भी
साधु कहा।
इतना भी क्या
कम है कि दो से
ही राजी हैं; मन तो अनेक
से भी राजी
नहीं होता। जो
एक पर पहुंच
गया और अपने
होने से राजी
है, वह
सिद्ध। अब
उसको कुछ पाने
को न बचा।
उसकी कोई
निर्भरता न
रही। उसकी कोई
परतंत्रता न
रही। जो अभी
कहता है
कम—से—कम एक और
चाहिए—फिर वह
एक पत्नी हो, पति हो, मित्र
हो, गुरु
हो, शिष्य
हो, एक
चाहिए—वह एक
चाहे
परमात्मा ही
क्यों न हो, जब तक भक्त
कहता है भगवान
चाहिए, तब
तक साधु से
ऊपर नहीं उठ
पाता। अभी
द्वैत कायम
है। तुम द्वैत
को नयी—नयी
दिशाओं में
कायम कर सकते
हो—पति—पत्नी
का द्वैत, शिष्य—गुरु
का द्वैत, भक्त—
भगवान का
द्वैत, मगर
द्वैत कायम
है। सिद्ध तो
तुम तभी होओगे
जब अद्वैत हो
जाये। तो अभी
तुम साधु हो।
इतना भी क्या
कम है कि तुम
दो से राजी हो
यहां तो लोग
हैं जो अनेक
से राजी नहीं
हैं।
अलबर्ट
कामू का एक
पात्र कहता है
कि मुझे अगर दुनिया
की सारी
स्त्रियां भी
मिल जायें तो
भी मैं तृप्त
नहीं हो सकता।
क्योंकि मैं
रास्ते पर
गुजरता हूं जो
स्त्री मुझे दिखती
है,
लगता है इसी
को पा लूं। और
यह जो कामू का
पात्र कह रहा
है, करीब—करीब
प्रत्येक
मनुष्य के मन
की दशा है। कितने
से तुम तृप्त
हो जाओगे? अगर
तुम्हारे
सामने
परमात्मा खड़ा
हो जाये और
कहे कि मांग
लो, तो
कितने से तुम
तृप्त हो
जाओगे? तो
तुम बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाओगे कि
कितना मांगें!
दस लाख की
सोचोगे तो मन
कहेगा दस करोड़
मांग लो, जब
मौका ही मिला
है। दस करोड़
की सोचोगे तो
दस करोड़ भी
छोटे लगेंगे;
लगेगा दस
अरब मांग लूं
कि शंख, महाशंख।
और तब तुम्हें
बेचैनी होगी
कि और
संख्याएं क्यों
न लीं, महाशंख
के आगे। दस
महाशंख ही
मांग कर रह
जाऊंगा, आगे
पता नहीं और
कितनी
संख्याएं हों!
तुम्हें कितना
ही मिल जाये, तुम तृप्त न
हो सकोगे।
इसलिए
कहते हैं गोरख
कि वह भी साधु
है जो दो से राजी
हो गया; वह भी
काफी कम से
राजी हो गया।
करीब आ गया एक
के। अब एक ही
बचा है छोड़ने
को, अब एक
से ही मुक्त
होना है।
चारि
पंच कुटुंब
नांउं
और
जो चार—पांच
से कम में
राजी नहीं
होता वह गृहस्थ
है। वह परिवार
में जी रहा
है। गृहस्थ का
अर्थ समझ लेना, घर
में रहनेवाले
को गृहस्थ
नहीं कहते
हैं—जिसके लिए
अनेक की जरूरत
है उसको
गृहस्थ कहते
हैं; जिसका
चित्त अभी दो
से भी राजी
नहीं हो सकता।
मेरे
एक मित्र पहाड़
जाते थे
गर्मियां
बिताने। कोई
दस साल पहले
की बात है।
मुझसे कहा कि
आप भी चलें।
पति—पत्नी
दोनों जाते
थे। मैंने कहा
कि आप
पति—पत्नी के
बीच मुझे
क्यों ले जाते
हैं,
आप दोनों ही
जायें।
उन्होंने कहा
कि इसीलिए आपको
ले चलना चाहते
हैं, कि हम
दोनों ही रह
जाते हैं तो
कुछ सूझता ही
नहीं कि अब
क्या करें।
कोई तीसरा हो
तो थोड़ा मन लगा
रहता है। अगर
हम दोनों को
ही जाना है तब
तो हम जायेंगे
ही नहीं। दो
से काम नहीं चलता,
कम—सें—कम
तीन तो चाहिए
ही।
तुम
खयाल करना, पहले
लोग अकेले
होते हैं, बेचैन
होते हैं, विवाह
कर लेते हैं; फिर विवाहित
होकर बेचैन
होने लगते हैं
तो बच्चे पैदा
कर लेते हैं।
बढ़ती जाती है
संख्या...। और
इसका कोई अंत
नहीं है। फिर
इतने से काम
नहीं चलता तो
जाकर रोटरी
क्लब के सदस्य
हो जाते हैं।
इतने से भी काम
नहीं चलता तो
जनता पार्टी
में सम्मिलित
हो गये। कुछ न
कुछ भीड़— भाड़, उपद्रव,.।
दस बीस
ते लसकरा
और
जो लोग दस—बीस
से भी राजी
नहीं होते हैं, फौज—फाटा
चाहिए
जिन्हें, लश्कर
चाहिए पूरा, ये संसारी
हैं।
सिद्ध
वह है जो अपने
होने से राजी
है। संसारी वह
है जिसको हजारों
की भीड़ भी
तृप्त नहीं
करती, जो
हमेशा भीड़ की
तलाश कर रहा
है। चले.. कुंभ
का मेला जा
रहे हैं
देखने। क्या
करोगे कुंभ के
मेले में? धक्का—मुक्का
खाने हैं? जहां
जितनी भीड़ हो
वहां और भीड़
बढ़ जाती है।
क्योंकि कई
लोगों को भीड़
का रस है।
कहीं भीड़ खड़ी
है, तुम
लाख काम
छोड्कर भीड़
में खड़े हो
जाते हो। तुम
भूल ही जाते
हो असली काम, किसके लिये
निकले थे। हो
सकता है पत्नी
बीमार पड़ी हो
और तुम जा रहे
थे डाक्टर को
बुलाने, मगर
भीड़ इतनी थी
कि दिल हुआ कि
जरा देख लें
कि मामला क्या
है। खड़े हो
गये भीड़ में, रसमग्न हो
गये।
भीड़
की एक अपनी
चुंबकीय
शक्ति है, जो
कुछ लोगों को
खींचती है।
जितनी बड़ी भीड़
हो, उतने
जल्दी वे
उत्सुक हो
जाते हैं, आतुर
हो जाते हैं।
यह चित्त की
सबसे पतित
अवस्था है
भीड़। और जो
भीड़ की मानकर
चलता है वह
इसलिए भीड़ की
मानकर चलता है,
क्योंकि
भीड़ के साथ
रहना है तो
भीड़ को मानना
पड़ेगा।
संन्यास
भीड़ से मुक्त
होने का उपाय
है। भीड़ के
मनोविज्ञान
को तिलांजलि
देना है। भीड़
कहती है.
हमारे जैसे
रहो अगर, हमारे
बीच रहना है।
हम जैसे कपड़े
पहनें, ऐसे
कपड़े पहनो। हम
जैसे बाल
कटाएँ, ऐसे
बाल कटाओ। हम
जैसे उठे—बैठें,
ऐसे
उठो—बैठो। तो
हमारे सदस्य
हो सकते हो।
तो हमारे साथ
हो सकते हो।
भीड़
कहती है कि
तुमने अगर
अपना
व्यक्तित्व
दिखलाने की
कोशिश की तो
हम से नहीं
बनेगा। इसलिए
हर भीड़ चेष्टा
करती है कि
तुम्हारे
व्यक्तित्व
को छीन ले, तुम्हें
पोंछ दे, तुम्हें
एक नंबर बना
दे, एक
आंकड़ा, मनुष्य
नहीं। इसलिए
कोई भीड़
बर्दाश्त
नहीं करती कि
तुम जरा भिन्न
हो जाओ।
छोटी—छोटी
बातें
बर्दाश्त
नहीं करती।
एक
सज्जन मेरे
पास आये कि जब
से मेरा बेटा
आपको सुनने
आने लगा है
उसने बाल बढ़ा
लिये हैं। तो मैंने
कहा,
बाल बढ़ा
लेने से
तुम्हारा
क्या बिगड़ रहा
है? नहीं, उन्होंने
कहा, बिगड़
तो कुछ नहीं
रहा है, लेकिन
हमारे घर में
ऐसा कभी कोई
बाल बढ़ाता नहीं
रहा। तो मैंने
कहा, उनकी
गलती थी, अब
छोड़ो उनको, नहीं बढ़ाते
रहे। इसमें
हर्ज क्या है? पैसे बच रहे
हैं कुछ। क्या
परेशानी हो
रही है, लड़के
ने बाल बड़े कर
लिये हैं? परेशानी
हो रही है; उत्तर
कुछ नहीं दे
पाते कि
परेशानी क्या
हो रही है, लेकिन
परेशानी हो
रही है।
क्योंकि वह
कुछ अनूठा हुआ
जा रहा है, हमसे
कुछ भिन्न हुआ
जा रहा है।
ऐसा हमारे घर
में कभी हुआ
नहीं। ढंग से
बाल काटे, जैसे
कटने चाहिए।
कौन
तय करे कि
कैसे कटने
चाहिए, कौन
है मालिक इस
बात को तय
करने वाला? मैंने उनसे
कहा : कृष्ण
भगवान को
पूजते हो?
उन्होंने
कहा. जरूर
पूजते हैं। 'मानते
हो?'
'मानते हैं। '
'उनके बाल? तुम्हारे घर
में पैदा हो
जायें, तुम
कहोगे हिप्पी
है। और अगर
मोरमुकुट
बांध लें, फिर?
तुम्हारे
बेटे की जरा
सोचो, बाल—वाल
बढ़ा कर, पीत
वस्त्र पहन कर
रेशमी, आभूषण
इत्यादि पहन
कर, बांसुरी
लेकर, पांव
पर पांव टेक
कर और खड़ा हो
जाये
मोरमुकुट बांधकर,
फिर क्या
करोगे? पूजा
करोगे कि नहीं?
कि दूसरे
अर्थ में पूजा
करोगे?'
जरा—सा
भेद भीड़
बर्दाश्त
नहीं करती।
क्योंकि भीड़
चाहती है कि
तुम अनुगत हो
जाओ। और नहीं, तो
तुम गांव में
जानते हो लोग
क्या करते हैं?
भीड़ त्याग
कर देती है
तुम्हारा—रोटी—पानी
बंद, चिलम—तमाखू
बंद! और जिस
आदमी की गांव
में चिलम—तमाखू
बंद हो गयी, कोई
चिलम—तमाखू
नहीं पिलाता,
रोटी—पानी
के लिए नहीं
बुलाता, वह
आदमी मरा, उसका
जीना मुश्किल
हो गया।
शहरों
ने मनुष्य को
एक तरह की
स्वतंत्रता
दी है, जो
गांवों में
कभी नहीं थी, और कभी हो
नहीं सकती थी।
गांव बहुत
गुलाम थे। दुनिया
से गांव मिटने
लगे तो दुनिया
में स्वतंत्रता
बढ़ी है, क्योंकि
गांव में बड़ी
संघातक बात
थी। सबसे बड़ा
गांव का खतरा यह
था कि गांव
तुम्हें
तिलांजलि भी
दे सकता था
किसी भी मौके
पर। जरा—सी
बात पर, और
तुम्हें
तिलांजलि
दे—दे, तुम्हारी
जिंदगी दूभर
हो जाये।
किसके साथ उठो,
किसके साथ
बैठो, किससे
बात करो? हुक्का—पानी
बंद।
तुम्हारा
जीना असंभव।
तुमसे कोई
बोलेगा नहीं,
बात नहीं
करेगा। गांव
इतना छोटा है
कि कोई बात
करे तो उसका
भी हुक्का—पानी
बंद हो जाये।
लोग तुमसे
बचकर निकल जायेंगे।
लोग
गांव की बड़ी
प्रशंसा करते
हैं बिना
समझे—बूझे।
गांव बड़े
परतंत्र थे, गांव
बिलकुल
कारागृह थे।
अब भी गांव
कारागृह है।
अभी भी गांव
में कोई
स्वतंत्रता
नहीं है। गांव
में
स्वतंत्रता
हो नहीं सकती,
स्वतंत्रता
बड़े नगर में
ही संभव है, जहां लोग
इतने हों कि
हुक्का—पानी
बंद न किया जा
सके। कोई कर
भी दे तो
दूसरे लोग
उपलब्ध होंगे,
जिनके साथ
तुम बैठ सकोगे,
बोल सकोगे।
गांव इतने
छोटे होते हैं
कि आसानी से
नियंत्रण रखा
जा सकता है।
इसलिए
भारत जैसे देश
में अछूतों को
तब तक मिटाना
असंभव है, जब
तक गांव
रहेंगे। और
मजा ऐसा है कि
महात्मा गांधी
से लेकर उनके
पीछे
चलनेवाले
सारे लोग सोचते
हैं कि गांव
ही रहने चाहिए
और साथ में वे चाहते
हैं अछूत भी
मिट जायें।
अछूत मिट नहीं
सकते गांव में;
गांव में
असंभव है अछूत
का मिटना। कोई
उपाय नहीं है।
वह पानी भी
नहीं पी सकता
गांव के कुएं
से, गांव
के मंदिर में
जा भी नहीं
सकता। शहर में
मिट जाता है, शहर में कौन
पता चला सकता
है कि अछूत
मंदिर में आ
गया है। कोई
अछूत के ऊपर
चेहरे पर सील
तो नहीं लगी
है।
दुनिया
में जो काम
बुद्ध—महावीर
नहीं कर पाये, वह
छोटी—छोटी
चीजों ने कर
दिया; जैसे
रेलगाड़ी।
बुद्ध—महावीर
नहीं कर पाये
यह काम, जो
रेलगाड़ी ने कर
दिया। अछूत
तुम्हारे बगल
में बैठा है
मस्त। तुम कुछ
कर नहीं सकते।
उसने भी टिकट
ली है। अब करो
तो करो क्या? और पक्का
पता भी तो
नहीं चलता कि
वह अछूत है।
और हो सकता है
तुमसे भी ज्यादा
ढंग से कपड़े
पहने हो, कि
तुम बीड़ी पी
रहे हो, वह
सिगरेट पी रहा
है। क्या
करोगे? अब
ट्रेन में भूख
भी लगेगी तो
तुम खाना
खाओगे, अछूत
बगल में बैठा
है, वह और
सरक कर बैठ
जायेगा, वह
और धक्के
मारेगा। तुम
कुछ कर नहीं
सकते।
मैं
तुमसे कहता
हूं कि जो
बुद्ध—महावीर
नहीं कर पाये...
बहुत कोशिश की
बुद्ध—महावीर
ने कि अछूत
मिट जायें; नहीं
मिट सके... वह
रेलगाड़ी ने कर
दिया। गरीब रेलगाड़ी
काम करके दिखा
गयी। क्रांति
ला दी उसने।
जो काम मंदिर
नहीं कर सके, होटलों ने
कर दिया। जो
काम तीर्थ नहीं
कर सकते, सिनेमागृहों
ने कर दिया।
जीवन के बड़े
अपने ढंग हैं
चलने के।
शहर
मनुष्य को एक
तरह की
स्वतंत्रता
लाये; गाव में
तो बड़ी अड़चन
है। गांव में
तुम्हारा इंच—इंच
व्यवहार, तुम्हारा
इंच—इंच
चरित्र सबको
पता होता है।
छोटी जगह है, उठो, बैठो,
क्या कर रहे
हो, सब
सबको पता है।
प्रत्येक
जानता है, तुम्हारी
नस—नस से
वाकिफ है; जैसे
तुम उनकी
नस—नस से
वाकिफ हो। शहर
में बड़ी
सुविधा है।
तुम किसी
स्त्री के
प्रेम में पड़
गये, वह
रहती है दूसरे
छोर पर शहर के,
तुम्हारे
मुहल्लेवालों
को पता ही
नहीं चलेगा कि
तुम किसी
स्त्री के
प्रेम में पड़
गये। वे यही
समझते हों कि
रोज सत्संग करने
जाते हैं, कि
भगत जी हैं
बहुत, सुबह—सुबह
मंदिर के लिए
निकल जाते
हैं। गांव में
यह संभव नहीं
था। गांव में
स्वतंत्रता
संभव नहीं थी,
गांव
परतंत्र था; भीड़ मालिक
थी।
व्यक्ति
का जन्म हुआ
शहरों में; गांवों
में व्यक्ति
होता ही नहीं
था, सिर्फ
भीड़ होती थी।
भीड़ से जो
उठता है उसी
के भीतर आत्मा
का जन्म शुरू
होता है। भीड़
में आत्मा
पैदा नहीं
होती।
इसलिए
मैं कहता हूं
जो हिंदू है
वह आत्मवान नहीं
है। जो
मुसलमान है वह
आत्मवान नहीं
है। वह भीड़ का
हिस्सा है; भीड़
की राजनीति से
दबा है।
व्यक्ति बनो।
मुक्त हो जाओ
कारागृहों
से। सारे
विशेषण छोड़
दो। और तुम
पाओगे, तुम्हारे
भीतर आत्मा
जगमगाने लगी।
तुम अकेले
होने लगे।
अकेले
होने में
कठिनाई तो है
ही। लेकिन
कठिनाइयों से
जो गुजरता है, वह
निखरता भी है।
महमां
धरि महमां कूं
मेट्रै सति का
सबद विचारी।
नांन्हां
होय जिनि
सतगुर षोज्या
तिन सिर की पोट
उतारी।।
प्यारा
वचन है। गोरख
कहते हैं :
महिमा
तुम्हारी तभी
है जब तुम
अपनी महिमा को
बिलकुल मिटा
दो। महमां धरि
महमां कूं
मेटै!
तुम्हारे
जीवन में
महिमा तभी
आयेगी जब तुम
अपने अहंकार
को बिलकुल
पोंछ कर मिटा
दोगे, जब मैं—
भाव बिलकुल खो
जायेगा। मैं—
भाव कब खोयेगा
g: जब तू की
जरूरत न रह
जाएगी। जब तक
तू की जरूरत है,
मैं भी
रहेगा। मैं और
तू साथ—साथ
होते हैं।
तुम
यह जानकर चकित
होओगे कि
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
पहले बच्चे को
तू का पता
चलता है, फिर
मैं का पता
चलता है। पहले
बच्चा अपने को
कैसे देखे? उसे कुछ
अपना पता नहीं
होता। पहले
उसे मां का पता
चलता है।
देखता है मां
कभी करीब आती
है, दूर
जाती है।
पड़ा—पड़ा देखता
रहता है झूले
में कि जब भूख
लगती है, रोता
हूं तो मां
करीब आती है; जब निश्चित
हो जाता हूं
मां दूर चली
जाती है।
धीरे— धीरे
उसे साफ होने
लगता है कि
मां मुझसे अलग
है। मां वह
है। जैसे—जैसे
मां उसे स्पष्ट
होने लगती है
भिन्न, वैसे—वैसे
उसे यह धीरे—
धीरे एक छाया
की तरह यह भी
स्पष्ट होने
लगता है कि
मैं भी भिन्न
हूं। तू का
भाव पहले पैदा
होता है, फिर
मैं का भाव
पैदा होता है।
और इसी तरह
मिटता भी है; पहले तू का
भाव मिटता है,
फिर मैं का
भाव मिटता है।
जो लोग मैं का
भाव पहले
मिटाना चाहते
हैं, उनका
कभी नहीं
मिटता। इसलिए
अहंकार को
सीधे मिटाने
मत जाओ। तू की
निर्भरता छोड़
दो। ऐसे हो जाओ
कि तुम्हें
किसी की जैसे
जरूरत नहीं है;
जैसे अकेले
काफी
हों—पर्याप्त,
तृप्त, परितुष्ट!
बस धीरे— धीरे
तू गया, उसी
के पीछे—पीछे
मैं चला
जायेगा।
मैं
और तू एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं—एक
तरफ मैं लिखा
है,
एक तरफ तू।
तू को छोड़ना
आसान है, क्योंकि
तू तू है, अलग
है; मैं को
छोड़ना कठिन
है। और जो तू
को छोड़ देता
है, उसका
मैं अपने— आप
छूट जाता है।
महमां
धरि महमां कूं
मेटै!
और
तब तुम्हारे
जीवन में
महिमा आती है।
यह अपूर्व वचन
है। जिसने
अपने अहंकार
को,
अपने मैं—
भाव को, मैं
ऊंचा हूं मैं
बड़ा हूं मैं
विशिष्ट हूं
मैं खास हूं
मैं असाधारण
हूं अद्वितीय
हूं—ऐसी महिमा
के भाव को
मिटा डाला, पोंछ डाला, उसके भीतर
महिमा प्रगट
होती है। वह
अद्वितीय हो
जाता है। तुम
सिर्फ मानते
हो अद्वितीय;
हो नहीं। वह
निश्चित हो
जाता है।
गोरख
कहते हैं.
सत्य की इस
बात को जरा
विचार करना।
नांन्हां
होय जिनि
सतगुर
षोज्या।
और
जो इस तरह से
मैं से शून्य
हो जाता है, नान्हा
हो जाता है, छोटे बच्चे
की तरह सरल हो
जाता है, जिसमें
अभी मैं— भाव
पैदा नहीं हुआ,
सतगुरु उसे
खोजते स्वयं आ
जाते हैं।
नांन्हां
होय जिनि
सतगुर षोज्या
तिन
सिर की पोट
उतारी।
और
स्वभावत: छोटे
बच्चे के सिर
पर पोटली रखी
हो तो किसका
मन न हो जाये
कि उतार लो।
तुम जब नन्हें
होकर, छोटे
होकर, बालक
होकर गुरु के
सामने मौजूद
होते हो तो ही तुम्हारी
पोटली उतारी
जा सकती है।
तो ही तुम पर
करुणा की
वर्षा हो सकती
है। और पोटली
उतर जाये, तुम्हारा
बोझ उतर
जाये—विचारों
का, वासनाओं
का—तो जड़ कट
गयी।
पात—पात
को सीचिबो, बरी—बरी
को लौन
रहिमन
ऐसी बुद्धि को, कहो
बरैगो कौन।
तुमने
देखा, गांव
में
स्त्रियां
बरी डालती हैं
तो एक—एक बरी
पर थोड़े ही
नोन डालना
पड़ता है, नमक
डालना पड़ता
है। बरी बनाने
की दाल में ही
नमक मिलाना
पड़ता है। माली
बगीचे में
पानी सींचता
है तो एक—एक
पत्ते पर थोडे
ही सींचता है,
जड़ में
डालता है।
पात—पात
को सींचिबो!
बिलकुल
पागलपन होगा
अगर कोई माली
पत्ते—पत्ते
को सींचे।
बरी—बरी
को लौन!
और
एक—एक बरी पर
अलग— अलग नोन
डाले कोई तो
पागलपन होगा।
रहिमन
ऐसी बुद्धि को, कहो
बरैगो कौन।
इसको
तो कोई
बुद्धिमानी
का लक्षण न
कहेगा। माली
जड़ को पानी दे
देता है। बरी
बनाने वाली
स्त्री दाल
में ही नमक
मिला देती है।
मूल को पकड़
लो। मूल है
अहंकार
तुम्हारी
सारी भ्रांतियों
का। अहंकार को
काट दो।
गोरख
का एक और वचन
है
नाथ
कहै तुम सुनहु
रे अवधू दिख
करि राषहु
चीया।
काम
क्रोध अहंकार निबारौ
तो दिसंतर
कीया
मत
जाओ
तीर्थयात्रा
पर। कहीं जाने
की कोई जरूरत
नहीं है। सब
दिशाएं, सब
दिशातर हो गये,
सब तीर्थ हो
गये—एक काम कर
लो.
काम
क्रोध अहंकार
निबारौ
और
अहंकार मूल
है। और अहंकार
में ही फिर
सारे पत्ते
लगते हैं—काम
के,
क्रोध के, लोभ के।
सारे पत्ते
फिर अहंकार
में लगते हैं।
अहंकार मूल
है। यह एक बात
निबर जाये, यह एक बात
विदा हो
जाये—मैं
की—बस जीवन
में क्रांति
का क्षण आ
गया।
महाक्रांति
घट गयी। तुम अंधेरे
से प्रकाश में
प्रवेश कर
गये।
जे आसा
ते आपदा के
संसा ते समो
और
जो आशाएं रख
कर जी रहा है, वासनाएं
रख कर जी रहा
है, वह
हमेशा आपदाओं
में घिरा
रहेगा। जितनी
तुम्हारी
आकांक्षा है
उतना ही
तुम्हारा
विषाद है, क्योंकि
इस जगत में
कोई आकांक्षा
पूरी नहीं होती।
आकांक्षा
पूरी हो ही
नहीं सकती।
आकांक्षा का
स्वभाव पूरा
होना नहीं है।
आकांक्षा दुष्पूर
है। ऐसा बुद्ध
ने कहा कि
तृष्णा दुष्पूर
है। यह भर
नहीं सकती।
एक
आदमी एक सूफी
फकीर के पास
आया। और उसने
कहा कि मेरी
तृष्णा की
पूर्ति कैसे
हो?
उस फकीर ने
कहा : तू मेरे
साथ आ। मैं
कुएं पर जा रहा
हूं पानी भरने,
लगे हाथ
तुझे उपदेश भी
हो जायेगा।
जहां तक बन पड़ेगा,
कहने की
जरूरत न आयेगी,
तू देखकर ही
समझ लेगा।
जिज्ञासु
थोड़ा चकित हुआ
कि यह किस तरह
का उपदेश है
जो कुएं पर
दिया जायेगा!
और यह आदमी
कुछ होश में
है कि नहीं? फकीर
था भी फक्कड़।
बड़ा मस्त!
उसकी आंखें
ऐसी थीं जैसे
अभी—अभी शराब
पीया हो, लाल
हो रही थीं।
किसी मस्ती
में था। चलता
था ऐसा जैसे
पैर डोलते; जैसे कोई
मदमस्त शराबी
चलता हो!
जिज्ञासु थोड़ा
डरने भी लगा, कुएं का
मामला, धक्का
दे—दे, कुछ
कर दे या खुद
कूद जाये और
हम फंसें! मगर
फिर भी
उत्सुकता थी
कि क्या उत्तर
देता है, चले
चलें, जरा
दूर खड़े
रहेंगे, देख
लेंगे। और जो
देखा तो और
हैरान हुआ कि
यह बिलकुल
पागल है।
उसने
एक बाल्टी
कुएं में डाली
जिसमें पेंदी
थी ही नहीं।
खूब बाल्टी को
खंखोड़े कुएं
के भीतर, खूब
आवाज करे, पानी
में डुबाये।
डूबने में तो
देरी ही न लगे,
क्योंकि
उसमें पेंदी
तो थी ही
नहीं। फिर
खींचे, लेकिन
हाथ कुछ न
आये। बाल्टी
उपर आ जाये खाली,
फिर डाले।
दो—तीन दफा तो
उस आदमी ने
देखा, उसने
कहा : भाई, तुम
होश में हो? हम तुम से
शिक्षा लेने
आये थे; ऐसा
मालूम पड़ता है,
तुम्हें
खुद ही शिक्षा
की जरूरत है।
तुम यह क्या
कर रहे, पागल
हो तुम! यह
बाल्टी कभी
भरेगी?
उस
फकीर ने कहा.
कुछ समझ में
आया?
यह बाल्टी
मैं तेरे लिये
इस कुएं में
डाल रहा हूं।
तृष्णा की
बाल्टी में
कोई पेंदी
नहीं है, तू
भरता रहे
जिंदगी भर, भरेगी नहीं।
कभी किसी की
नहीं भरी।
पेंदी ही नहीं
है; मैं भी
क्या करूं, तू भी क्या
करे? इसलिए
विषाद होता
है। फिर जब
बाल्टी... तुम
इतनी मेहनत से
जाओगे, कुएं
पर पहुंचे, बामुश्किल
तो कुएं पर
पहुंच पाये, क्योंकि वहा
कतार लगी थी, भीड़— भाड़ थी।
बामुश्किल तो
किसी तरह
तुम्हें मौका
मिला है कि
बाल्टी डालो।
बाल्टी डालो,
भर भी गयी।
क्योंकि जब
तुम नीचे कुएं
में झांककर
देखोगे तो
बाल्टी को भरा
पाओगे, पानी
में डूबी हुई
पाओगे। चित्त
उत्कुल्ल हुआ,
खींचने
लगे। बड़े
उत्साह से
खींची, और
हाथ में जब
आयी—खाली की
खाली!
तुमने
कितनी
वासनाएं कीं!
कितनी बार लगा
कि अब तृप्ति
मिली, मगर
मिली कभी? कितनी
बार लगा कि
दूर बाल्टी
भरी है, कुएं
के भीतर, जब
तक हाथ में
आयी, खाली
हो गयी।
बार—बार ऐसा
हुआ, फिर
भी तुम जागे
नहीं, फिर
भी तुम चौंके
नहीं! जे आसा
ते आपदा जे
संसा ते सहो
जो
इस तरह आशा
में जीता है, वह
विपत्तियों
में पड़ता
रहेगा। जे
संसा ते समो!
और
जो शंकालु है, जो
जीवन में अभी
तक श्रद्धा के
सूत्र को नहीं
पकड़ पाया है, उसके जीवन
में दुख ही
दुख रहेगा।
संदेह
कभी भी सुख
पैदा नहीं कर
सकता, क्योंकि
संदेह दुविधा
है, डावाडोलपन
है, चित्त
का खंड—खंड
होना है।
श्रद्धा में
चित्त इकट्ठा
हो जाता है, एकजुट हो
जाता है, अखंड
हो जाता है।
और अखंड चित्त
का ही स्वभाव
आनंद है।
गुरमुषि
बिना न भाजसी
गोरष ये
दून्यों बड़े
रोग।
यह
दोहरे किस्म
का जो रोग
है—आशा का और
संशय का—यह
हटेगा नहीं, जब
तक कोई सदगुरु
चौंकाये
न, जगाये
न।
गुरुमुषि
बिना न भाजसी
यह
भागेगा नहीं।
यह तो कोई
सदगुरु अपने
प्रकाश से
तुम्हें
आमंत्रित कर
ले,
अपने
आभामंडल में
तुम्हें
सम्मिलित कर
ले, अपने
भीतर तुम्हें
देखने का मौका
दे दे। और तुम
वहां देखो
जलता हुआ
प्रकाश और
आनंद की होती
वर्षा और अमृत
का स्वाद, तो
तुम्हें सब
समझ में आ
जाये कि यह
कैसे घटा—श्रद्धा
से घटा। यह
कैसे घटा—यह
वासना—शून्य
होने से घटा।
जैसे
मैंने कहा कि
मैं और तू एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं, वैसे
ही वासना और
संदेह एक
सिक्के के दो
पहलू हैं, वैसे
ही श्रद्धा और
आनंद एक
सिक्के के दो
पहलू हैं। ये
चीजें साथ—साथ
चलती हैं। मगर
कैसे जानोगे
कि श्रद्धा और
आनंद एक
सिक्के के दो
पहलू हैं? किसी
में घटी हो
घटना, उसी
के पास बैठकर
जान सकोगे।
जपतप
जोगी संजम सार
बाले कंद्रप
कीया छार
येहा
जोगी जग मैं
जोय द्या पेट
भरै सब कोय।।
यह
सारे जप—तप का, सारे
संयम का सार
है—सत्संग।
इसके बिना कुछ
भी नहीं हो
सकता। इसके
बिना तुम जो
भी करोगे वह अंधे
आदमी का
टटोलना है। वह
अंधा आदमी
जैसे तीर चला
रहा हो। न उसे
तीर दिखाई पड़
रहा है, न
उसे लक्ष्य
दिखाई पड़ रहा
है। अंधेरे
में चलाये गये
तीर कहीं लगते
हैं? और लग
भी जायें तो
उनका कोई
मूल्य नहीं
है।
जपतप
जोगी संजम
सार!
सत्संग
से ही एक संयम
का आविर्भाव
होता है जो कि
सब जप और तप का
सार है।
संयम
शब्द को
समझना। संयम
शब्द बड़ा
विकृत हो गया
है लोगों के
हाथों में।
तुम आमतौर से
त्यागी को
संयमी कहते हो, जो
गलत है। न तो
भोगी संयमी है,
न त्यागी
संयमी है; दोनों
असंयमी हैं।
एक भोग की
दिशा में
असंयम कर रहा
है, दूसरा
त्याग की दिशा
में असंयम कर
रहा है। संयमी
तो मध्य में
होता है। संयम
शब्द का ही
अर्थ होता है
मध्य में, संतुलित,
समभाव में।
एक
आदमी बहुत खा
रहा है, यह
असंयमी है; और एक आदमी
बहुत उपवास कर
रहा है, यह
भी असंयमी है।
यह दूसरे छोर
पर असंयमी है।
लेकिन जो
सम्यक आहार
करता है, जितना
जरूरी है उतना
खा लेता है, न कम न
ज्यादा—वह
संयमी है।
संयम
शब्द जीवन के
संगीत का सूचक
है। संयम
संगीत है
जीवन—वीणा का।
तार न तो बहुत
कसे हों और न
तार बहुत ढीले
हों।
ऐसा
जोगी जग मैं
जोय।
ऐसा
ही योगी कहीं
कोई मिले तो
देखने योग्य
है;
जो संयमी
हो। न भोगी न
त्यागी। यही
अड़चन है मेरे
साथ, मेरे
संन्यासियों
के साथ। उनको
मैं त्यागी बनने
को नहीं कह
रहा हूं। और
तुमने सदियों
से यह समझा है
कि त्यागी
संयमी होता
है। इसलिए तुम
सोचते हो कि
मैं अपने
संन्यासियों
को संयम नहीं
सिखा रहा हूं।
मैं उन्हें
संयम ही सिखा
रहा हूं। मैं
उनसे कह रहा
हूं : भोग से
थोड़े हटो, त्याग
की तरफ मत झुक जाना।
भोग है बायें,
त्याग है
दायें; सत्य
है दोनों के
मध्य में, अत्यंत
मध्य
में—मज्जिम
निकाय है। वही
है स्वर्णपथ,
बीच में
रहना। रहना
संसार में, पर ऐसे रहना
जैसे संसार
तुम में
बिलकुल न हो। बैठना
बाजार में और
होना ध्यान
में।
येहा
जोगी जग मैं
जोय।
देखना
हो कभी, देखने
योग्य अगर जगत
में कोई
अपूर्व घटना
है तो ताजमहल नहीं
है, और न
मिस्र के
पिरामिड हैं,
और न चीन की
दीवाल है—अगर
देखने योग्य
कोई जगत में
घटना है तो एक
ऐसा व्यक्ति
जो मध्य में आ
गया है, जो
संयम में है।
क्योंकि वहा
से उठती है एक
सुवास, एक
नाद, जो
तुम्हारी समझ
में आ जाये, जो तुम्हारे
नासापुटों
में आ जाये, कि तुम्हारे
कर्ण को भेद
दे, कि
तुम्हारे
हृदय को छेद
दे—तो तुम
रूपांतरित होने
लगे।
तुम्हारे
जीवन में एक
नयी यात्रा शुरू
हो : तमसो मा
ज्योतिर्गमय।
तुम चल पड़ो
अंधकार से
प्रकाश की ओर।
मृत्योर्मा
अमृतं गमय! तुम
मृत्यु से अमृत
की ओर चल पड़ो।
असतों मा
सदगमय। तुम
असत्य से सत्य
की ओर चल पड़ो।
लेकिन
यह घटना घटेगी
किसी संयमी के
पास।
गुरुमुषि
बिना न भाजसी.......
येहा
जोगी जग मैं
जोय द्या पेट
भरै सब कोय।
और
बाकी जो योग
के नाम से
चलता है सारा
धंधा, गोरखधंधा,
वह तो पेट
भरने की तरकीब
है, उससे
ज्यादा कुछ भी
नहीं। तो तुम
देख सकते हो तुम्हारे
अखंडानंद, पाखंडानंद
इत्यादि, इत्यादि...।
कुल काम इतना
है कि पेट बड़ा
होता जाये!
जितनी बड़ी
तोंद उतना बड़ा
योगी—ऐसी लगती
है परिभाषा।
सब को मात कर
दिया है
गणेशपुरी के
बाबा
मुक्तानंद के
गुरु
नित्यानंद ने।
उनकी तस्वीर
देखी? उनकी
तस्वीर देखना
और फिर पढ़ना
यह गोरख का
वचन :
दूजा
पेट भरै सब
कोय
पेट
तुमने बहुत
देखे होंगे, मगर
नित्यानंद का
कोई मुकाबला
नहीं—पेट ही
पेट है!
तस्वीर देखी
है कि नहीं? नहीं देखी
हो तो जरूर
देखना। लोग बस
भरे जा रहे
हैं। और इनको
तुम संन्यासी
कहते हो, महात्मा
कहते हो!
संयम
एक संगीत है।
संयम एक
अपूर्व कला
है। जबर्दस्ती
का नाम संयम
नहीं है, सहजता
का नाम संयम
है।
कैसे
बोलौ पंडिता
देव कौने ठाईं
निज तत
निहारता
अम्हें
तुम्हें नहीं
ऐ
पंडितो, ऐं
पढ़े—लिखे
लोगो! तुम्हें
मैं कैसे
समझाऊं कि परमात्मा
किस जगह है, क्योंकि
परमात्मा सब
जगह है। वही
है और कुछ भी
नहीं।
ऐ
पंडितो!
तुम्हें मैं
कैसे समझाऊं
कि परमात्मा
कहां है...
परमात्मा
कहां नहीं है?
निज तत
निहारता
अम्हें
तुम्हें
नहीं।
एक
बात तुमसे कह
सकता हूं अगर
तुम अपने को
देखो तो तुम
वहां न मैं पाओगे, न
तू पाओगे। और
जिस घड़ी न मैं
रह जाये, न
तू रह जाये तो
जो रह जायेगा
वही परमात्मा
है। और कहीं
तुम परमात्मा
को न पा
सकोगे।
गोरख
का एक वचन है
दृष्टि
अग्रे दृष्टि
लुकाइबा
सुरति लुकाइबा
कानं।
नासिका
अग्रे पवन
लुकाइबा तब
रहि गया पद
निरबान।।
आंख
में ज्योति को
छिपा लो, देखने
की कला को
छिपा लो। बाहर
मत देखो, बाहर
देखने में उलझ
गये हो।
दृष्टि
अग्रे दृष्टि
लुकाइबा!
छिपा
लो आंख में
देखने की
क्षमता को और
कर लो आंख बंद, ताकि
देखने की सारी
क्षमता भीतर
ही संगृहीत हो
जाये, ताकि
तुम अपने को
देख सको।
सुरति
लुकाइबा
कानं।
और
अब कान से
बाहर मत सुनो।
अब कान को
बाहर से तो
मुक्त कर लो
और भीतर सुनो।
सुरति
लुकाइबा कानं
नासिका
अग्रे पवन
लुकाइबा!
बहुत
ले चुके बाहर
की श्वास; अब
उस घड़ी की
तलाश करो जब
बाहर श्वास
थिर हो जाती
है, शांत
हो जाती है, आती नहीं
जाती नहीं। तब
तुम्हें भीतर
एक नये प्राण
का अनुभव होगा,
एक नयी
श्वास का
अनुभव होगा।
तब रहि
गया पद
निरबान!
फिर
कुछ नहीं बचा, फिर
पद निर्वाण ही
रह गया। वही
अनुभव
परमात्मा का
अनुभव है, वही
अनुभव मोक्ष
का, वही
निर्वाण का।
ये नामों के
भेद हैं।
रहि
गया पद
निरबान!
कैसे
बोलौ पंडिता
देव कौने
ठाईं।
कैसे
बताऊं
तुम्हें
पंडितो, तुम
शास्त्रों
में खोज रहे
हो, पागल
हो गये हो।
तीर्थों में
खोज रहे हो, पागल हो गये
हो।
मूर्तियों
में खोज रहे
हो, पागल
हो गये हो।
परमात्मा ऐसी
जगह नहीं
मिलेगा।
निज तत
निहारता! अपने
को निहारो!
अम्हें
तुम्हें नहीं
जहां न हम
बचेंगे न तुम; न
मैं न तू—वहां
जो शेष रह
जाता है, वही
परमात्मा है।
तब रहि
गया पद निरबान
पषांणची
देवली।
मूर्ति
भी पत्थर की
बना ली है।
पषांण
चा देव।
मंदिर
भी पत्थर का, मूर्ति
भी पत्थर की!
पषांण
पूजिला कैसे
फीटिला सनेह।
और
पत्थर पूज—पूज
कर तुम सोच
रहे हो
तुम्हारे
भीतर प्रेम का
झरना फूट
पड़ेगा?
खूब
सम्हाल कर
रखना इस वचन
को हृदय में!
इस देश में यह
दुर्घटना
इतनी साफ घटी
है कि इसके
लिए प्रमाण
देने की जरूरत
नहीं है। यह
देश इतना पाषाण—हृदय
हो गया, उसका
कुल कारण यह
पत्थरों की
पूजा! पत्थर
को पूजोगे, पत्थर हो
जाओगे। जरा
पूजा
सोच—समझकर
करना। क्योंकि
जिसे तुम
पूजोगे, वही
तुम्हारा
जीवन—लक्ष्य
हो गया। जिसे
तुम पूजोगे, वही
तुम्हारे
लिये
दृष्टांत हो
गया। जिसे तुम
पूजोगे, वैसे
ही तुम होने
लगोगे। जरा
सोच कर पूजना!
पषांणची
देवली पर्षाण
चा देव
पषांण
पूजिला कैसे
फीटिला सनेह।
और
तुम्हारे
भीतर कैसे
प्रार्थना
उठे,
कैसे प्रेम
जगे, कैसे
नेह का दीया
पैदा हो? पत्थर
तुम्हारा
देवता है, पत्थर
के तुम्हारे
मंदिर हैं, तुम भी
पत्थर हो गये
हो! पत्थर
जिसका भगवान
है, वह
भक्त ज्यादा
दिन तक आदमी
नहीं रह सकेगा,
पत्थर हो
जायेगा।
इसलिए
इस देश में
बड़ी चमत्कार
की बात
तुम्हें दिखाई
पड़ेगी। लोग
खूब पूजा कर
रहे हैं, प्रार्थना
कर रहे हैं—और
बिलकुल पत्थर
हैं! न दया है, न करुणा है, न प्रेम है।
बिलकुल दया, करुणा, प्रेम
समाप्त हो गये
हैं। किसी को
कुछ लेना—देना
नहीं है। कोई
मर रहा हो, कोई
जी रहा हो, किसी
को प्रयोजन
नहीं है। और
लोगों ने खूब
सिद्धात खोज
लिये हैं कि
अपने—अपने
कर्मों का फल लोग
भोग रहे हैं, हम क्या
करें? हम
तो अभी मंदिर
पूजा करने जा
रहे हैं! लोग
अपने— अपने
कर्मों का फल
भोग रहे हैं; जिसने जैसा
किया वैसा
भोगेगा।
जिसने जैसा
बोया वैसा
काटेगा। अगर
तुम्हारे घर
में आग लग गयी
है तो तुमने
कभी लगायी
होगी किसी के घर
में आग। अब
भोगो, कौन
बुझाये? तुम
भूखे मर रहे
हो मरो; मारा
होगा किसी को
भूखा पिछले
जन्मों में, तो अब फल भोग
रहे हो।
ये
तरकीबें हैं।
ये
सिद्धांतों
के जाल हैं। और
खयाल रखना, जैसे
मकडिया जाल
फैलाती हैं
मक्खियों को
पकड़ने के लिए,
फिर ऐसा
थोड़ी ही घोषणा
करती हैं
बैठकर अपने जाल
पर कि आओ
मक्खियो और
फंसो, हम
तुम्हें
खायेंगे। फिर
कौन मक्खी
फंसेगी? मकड़ी
जाल फैला देती
है, फिर
मक्खियों को
कहती है, आओ
मक्खियो चाय
पीयो, नाश्ता
करो...। कभी—कभी
आओ, मिलो—जुलो।
सत्संग हो, दो बातें
हों। तब मक्खी
फंसेगी। फंस
गयी कि फंस
गयी।
सिद्धांतों
के बड़े मकड़ी
जैसे जाल
तुम्हारे चारों
तरफ फैले हुए
हैं। तुम
उनमें फंसे
तडुफ रहे हो, मकडिया
तुम्हें चूस
रही हैं। यही
मकडिया तुम्हारे
धर्मगुरु
बनकर बैठ गयी
हैं—पंडित, पुरोहित। ये
तुम्हारे लिए
जीवन—दर्शक हो
गये हैं, जीवन—द्रष्टा
हो गये हैं।
ये तुम्हें
मार्ग चला रहे
हैं, ये
तुम्हें
मार्ग दिखा
रहे
हैं—जिन्हें
कोई मार्ग पता
नहीं है!
जिन्होंने
अभी स्वयं का
कोई अनुभव
नहीं किया है,
वे आत्मा की
बातें कर रहे
हैं, परमात्मा
की बातें कर
रहे हैं। कोरे
शब्द हैं, थोथे
शब्द हैं। उन
शब्दों में
श्वास नहीं है
और न हृदय
धड़कता है।
पषाणची
देवली पषांण
चा देव
पषांण
पूजिला कैसे
फीटिला सनेह।
सरजीव
तोडिला
निरजीव
पूजिला!
तुम
देखते हो न, लोग
फूल तोड़ लेते
हैं, जिंदा
फूल! अभी खिला
था, अभी
हवाओं में
नाचता था। अभी
आकाश में अपनी
सुरभि बिखेरता
था! अभी सूरज
की किरणों से
गुफ्तगू करता
था। अभी कितना
मस्त था, कितना
मदमस्त था।
तोड़ लिया।
निकल पड़ते हैं
सुबह से लोग
फूल तोड़ने।
तोड़ लिया, चले
मंदिर में
चढ़ाने। जिंदा
फूल को मार
डाला, और
चढ़ा दिया
पत्थर पर! जो
चढ़ा था
परमात्मा को,
उसे छीन
लिया
परमात्मा से
और चढ़ा दिया
पत्थर पर!
ठीक
बात कहते हैं :
सरजीव
तोडिला
निरंजीव
पूजिला।
तुम
हो कैसे पागल!
अपने पत्थरों
को लाकर फूलों
पर चढ़ा देते
तो ठीक था, मगर
फूलों को तो
मत तोड़ो। और
लोग कहते हैं
कि नहीं—नहीं
फूलों को हम
बहुत प्रेम करते
हैं, इसलिए
तोड़ते हैं।
जार्ज
बर्नार्ड शा
को किसी ने एक
फूल तोड़ कर
देना चाहा।
बगीचे में
दोनों घूम रहे
थे। मित्र का
बगीचा था, उसमें
फूल..।
बर्नार्ड शा
को देखा खड़े
फूल के पास
भाव—विभोर, मुग्ध, तोड़ने
लगा।
बर्नार्ड शा
ने कहा, रुको—रुको,
तोड़ना मत।
उसने कहा कि
आपको फूल पसंद
नहीं? बर्नार्ड
शा ने कहा कि
बहुत पसंद है,
बहुत
प्यारा है! तो
उसने कहा, इसीलिए
मैं तोड़ता
हूं। उसने कहा
: यह तो हइ हो गयी!
अगर कोई बच्चा
प्यारा है, उसकी गर्दन
तोड़कर क्या
गुलदस्ता
बनाओगे? अगर
फूल प्यारा है
तो उसे तोड़ोगे
कैसे, उसे
तोड़ कैसे
पाओगे? तुम
कोई बच्चों की
गर्दनें काट
कर गुलदस्ते तो
नहीं सजाते, कि रख दिया
टेबल पर बच्चे
की गर्दन, कि
हमारा बेटा है
देखो, कितना
प्यारा! तो
फूल क्यों
तोड़ते हो?
गोरख
ठीक कह रहे
हैं
सरजीव
तोडिला
निरजीव
पूजिला
मैं
जबलपुर बहुत
वर्षों तक
रहा। मैंने एक
प्यारा बगीचा
लगा रखा था।
उसमें बहुत
फूल खिलते थे।
आने लगे सुबह
से लोग फूल
तोड़ने। तिलक, चंदन—वंदन
लगाये हुए।
राम—राम, राम—राम
जपते हुए। तो
मैंने कहा :
फूल मत तोड़ना।
उन्होंने कहा
: लेकिन हम तो
पूजा के लिए
तोड़ रहे हैं।
पूजा के लिए
तोड़ने में तो
सब हकदार हैं।
मैंने
कहा. और किसी
काम के लिए
तोड़ रहे हो तो
दे भी सकता हूं
मगर पूजा के
लिए तो नहीं
दूंगा।
उन्होंने
कहा. आप बात
कैसी करते
हैं!
मैंने
कहा : कम—से—कम
पूजा के लिए
तो नहीं। क्योंकि
पूजा तो वे कर
रहे हैं, उनकी
पूजा में विध्न
मत डालो।
परमात्मा को
वे चढ़े हैं।
ही, तुम्हें
—किसी स्त्री
से प्रेम हो
गया हो और एक
फूल भेंट करना
हो, भले ले
जाओ। कम—से—कम
जिंदा को तो
चढाओगे।
नहीं—नहीं, उन्होंने
कहा, हम तो
भगवती जी के
मंदिर में
जाते हैं।
मैंने
कहा : जिंदा
भगवती को चढ़ाओ
तो तोड़ सकते हो, मदिर—वदिर
के लिए नहीं।
तो
मैंने एक
तख्ती लगा छोड़ी
थी कि सिर्फ
पूजा के लिए
छोड्कर और
किसी भी काम
के लिए तोड़ना
हो तो तोड़
लेना। मगर
पूजा की बात
बर्दाश्त
नहीं की जा
सकती।
इस
बगीचे में भी
फूल खिलते हैं, वे
अपना खिलकर
वहीं मुर्झा
जाते हैं।
वहीं से चढ़े
हैं परमात्मा
को। उनको
तोड़ना क्या है?
सरजीव
तोड़िला निरजीव
पूजिला
पाप ची
करणी कैसे
दूतर तिरीला
इस
दुस्तर सागर
को कैसे तिर
पाओगे इन थोथी
बातों से? इन
व्यर्थ के
कामों से? इन
मूर्च्छित
कृत्यों से?
तीरथि
तीरथि सनान
करीला,
कितने
तीर्थों का
स्नान कर आये
हो!
बहार
धोये कैसे
भीतर भेदिला!
और
बाहर से धो
लिया शरीर को, इससे
भीतर कैसे
भिदेगा? भीतर
को कब धोओगे? भीतर तो एक
ही तीर्थ पर
धुलता है—कहीं
सत्संग का
तीर्थ मिले।
सत्संग में ही
सरोवर है, जहा
भीतर का स्नान
होता है।
आदिनाथ
नाती
मच्छीद्रनाथ
मूता।
निज
तात निहारै
गोरष अवभूता
बड़ा
अदभुत वचन है।
तुम चकित
होओगे जानकर।
कह रहे हैं.......।
आदिनाथ
भारत के
इतिहास में
अनूठा
पौराणिक नाम
है। पौराणिक
कहता हूं
ऐतिहासिक
नहीं; क्योंकि
इतिहास का कुछ
भी हिसाब नहीं
है। लेकिन
आदिनाथ जैसे
गंगोत्री
हैं। जैन
आदिनाथ को अपना
प्रथम
तीर्थंकर
मानते हैं।
ऋषभदेव, आदिनाथ
दोनों उन्हीं
के नाम हैं।
पहले
तीर्थंकर हैं,
इसलिए
आदिनाथ।
प्रथम जिनसे
हुआ, शुरुआत
जिनसे हुई।
जैन परंपरा
आदिनाथ से पैदा
हुई। ऋग्वेद
में भी आदिनाथ
का, ऋषभदेव
का बड़े सम्मान
से उल्लेख है,
अति सम्मान
से उल्लेख है।
इसलिए हिंदू
परंपरा ने भी
उन्हें पूरा
सम्मान दिया
है। महावीर को
जरा भी सम्मान
नहीं दिया
हिंदू परंपरा
ने। नाम ही
उल्लेख नहीं
किया है। अगर
जैन शास्त्र
और बौद्ध
शास्त्र न हों
तो हिंदू
शास्त्रों से
पता ही नहीं
चल सकता था कि
महावीर कभी
हुए हैं। मगर
आदिनाथ को बड़ा
सम्मान दिया
है। ऐसा
प्रतीत होता
है कि जैन और
हिंदू परंपरा
बाद में अलग
हुई होंगी, आदिनाथ के
समय एक ही रही
होंगी। भेद
नहीं पड़ा होगा
अभी। इसलिए
ऋग्वेद में भी
सम्मानसूचक, अति
सम्मानसूचक
उल्लेख है। और
जैनों के तो
वे प्रथम
तीर्थंकर हैं;
उनके सारे
धर्म का मूल
आधार वहां है।
तांत्रिक
भी मानते हैं
कि आदिनाथ से
ही तंत्र की
शुरुआत हुई।
और सिद्धयोगी
भी मानते हैं
कि आदिनाथ उनके
प्रथम गुरु
हैं। इसलिए
आदिनाथ
उदगम—स्रोत मालूम
होते हैं; जैसे
इस देश की
सारी
परंपराएं इस
एक व्यक्तित्व
से निकली हों।
मगर
गोरख का वचन
बड़ा
चौंकानेवाला
है। गोरख कहते
हैं :
आदिनाथ
नाती!
आदिनाथ
मेरे नाती
हैं।
मच्छीद्रनाथ
पूता!
और
अपने गुरु, उनके
जो गुरु हैं
मच्छिंद्रनाथ,
वे मेरे
पुत्र हैं।
निज
तात निहारै
गोरष अवधूता!
अपने
बेटे—बेटियों
को,
अपने
पुत्रों—नातियों
को देखकर मैं
बड़ा प्रसन्न
हूं।
कबीर
के समय तक आते—
आते इस तरह के
वचन उलटबासी कहे
जाने लगे। मगर
बड़े प्यारे
वचन हैं! जीसस
का भी ऐसा
वक्तव्य है।
जीसस से किसी
ने पूछा : तुम
किस अधिकार से
बोलते हो, आन
व्हाट
अथारिटी? और
जीसस ने कहा
कि किस अधिकार
से? अब्राहम
नहीं हुआ, उसके
भी पहले मैं
हूं! अब्राहम
का वही स्थान
है यहूदी, ईसाई
और इस्लाम
परंपराओं में
जो आदिनाथ का
जैन, हिंदू
और बौद्ध
परंपरा में
है। अब्राहम
आदि—पुरुष हैं
यहूदी परंपरा
के। उन्हीं से
फिर ईसाइयत
निकली, उन्हीं
से फिर इस्लाम
निकला। मगर
जीसस का वक्तव्य
बड़ा अदभुत है!
जीसस कहते हैं
: किस अधिकार से!
मैं अब्राहम
के पहले हूं।
पूछनेवाले
ने कहा : तुम
चौंकाते हो।
तुम होश की
बात कर रहे हो? अब्राहम
को हुए हजारों
साल हो गये!
जीसस
ने कहा : वह
मुझे मालूम है, लेकिन
मैं उनसे पहले
हूं।
क्या
मतलब होगा
जीसस का? जीसस
यह कह रहे हैं
कि वह जो
हमारा
केंद्रों का
केंद्र है, वह जो हमारे
प्राणों का
प्राण है, वह
जब कुछ भी
नहीं हुआ था, तब से है। जब
अस्तित्व भी
शुरू नहीं हुआ
था, जब
अस्तित्व का
सूर्योदय
नहीं हुआ था
तब से है।
और
जब भी कोई उसे
जान लेता है
तो शेष सब
बातें पीछे
हैं। जिसने
अपने स्वरूप
को जान लिया
उसने परमात्मा
को जान लिया, उसने
मूल को जान
लिया
अस्तित्व के।
और मूल तो निश्चित
ही सबसे आगे
है। आदिनाथ
उसके बाद हुए,
अब्राहम
उसके बाद हुए।
गोरख
यही कह रहे
हैं। एक गंभीर
मजाक, एक
प्यारा मजाक!
गोरख यही कह
रहे हैं कि जब
से मैंने अपने
को जाना है, तब से मैंने
यह जाना कि और
सब मेरे पीछे
हुआ है। खयाल
रखना, मेरे
का मतलब गोरख
नहीं है। मेरे
का मतलब वही
है जो कृष्ण
का मतलब है
गीता में :
सर्व धर्मान
परित्यज्य, मामेकं शरणं
व्रज! छोड़ सब
धर्म इत्यादि
अर्जुन, और
मेरी शरण आ।
उस 'मेरी
शरण' से
अर्थ 'कृष्ण
की शरण आ', ऐसा
नहीं है। माम
एकम! मुझ एक! वह 'मुझ एक' कौन
है? कृष्ण
नहीं हैं। वह
एक कृष्ण में
भी प्रगट हुआ
है, अर्जुन
में भी प्रगट
हुआ है। वही
एक सदा से प्रगट
होता रहा है
और सदा प्रगट
होगा। वही
मुझमें प्रगट
हुआ है, वही
तुम में प्रगट
हुआ है। किसी
को पता चल जाये
तो वह बुद्ध
हो जाता है, और किसी को
पता न चले तो
वह सोया रह
जाता है। बस इतना
ही भेद है
बुद्धों में
और अबुद्धों
में, और
कुछ भेद नहीं
है। एक जाग
गया, एक सो
रहा है। मगर
जो सो रहा है
वह भी उतना ही
परमात्मा है
जितना जागा
हुआ, रत्ती—
भर भेद नहीं
है। गुण का
कोई भेद नहीं
है।
इस
अदभुत बात को
यूं प्रगट
करते हैं :
आदिनाथ नाती!
कि क्या कहूं
मैं अपनी बात, कि
जब से अपने को
जाना है, स्वयं
को निहारा है,
क्या हालत
घट गयी है! अब
तो मुझे ऐसा
लगता है कि आदिनाथ
भी मेरे बाद
हुए।
आदिनाथ
नाती
मच्छीद्रनाथ
पूता!
और
शायद आदिनाथ
को तो तुम भूल—
भाल चुके हो, तुम्हें
याद भी न हो।
मगर
मच्छींद्रनाथ,
जो गुरु
हैं—और जो अभी
जिंदा थे—वें
भी मेरे पुत्र
हैं!
निज
तात निहारै
गोरष अवधूता
और
यह सारा
अस्तित्व
मेरी ही संतति
है। ऐसा देख
कर गोरख अवधूत
बड़ा प्रसन्न
हो रहा है।
गोरख का और एक
वचन है, नरेंद्र
ने उस संबंध
में कल ही
पूछा था। वह
वचन भी प्यारा
है!
अवधू ईश्वर
हमरै चेला
भणीजै
मच्छीद्र
बोलिये नाती।
निगुरी
पिरथी परलै
जाती, ताथै हम
उल्टी थापना
थाती।।
हे
अवधूत, शिव
हमारे चेला
हैं, ईश्वर
स्वयं हमारे
चेला हैं। हे
अवधूत, ईश्वर
हमारे चेला
हैं, मच्छींद्रनाथ
नाती हैं, अर्थात
चेले के भी
चेले। हमें
स्वयं गुरु
धारण करने की
आवश्यकता
नहीं थी, क्योंकि
हम साक्षात
परमात्मा
हैं। किंतु इस
डर से कि
हमारा अनुकरण
कर अज्ञानी
लोग बिना गुरु
के ही योगी
होने का दम न
भरने लगें, इसलिए हमने
मच्छींद्रनाथ
को गुरु बना
लिया, जो
वस्तुत: उल्टी
स्थापना करना
है, क्योंकि
खुद
मच्छींद्रनाथ
हमारे शिष्य
हैं।
निगुरी
पिरथी परलै
जाती
कहीं
ऐसा न हो जाये
कि लोग बिना
गुरु को बनाये
ही अपनी घोषणा
करने लगें, कि
हम पहुंच गये।
थोथे लोग कहीं
झूठी घोषणाएं न
करने लगें, इस कारण।
निगुरी
पिरथी परलै
जाती?
कहीं
पूरी पृथ्वी
प्रलय में न
चली जाये।
ताथै
हम उल्टी थापना
थाती
इसलिए
हमने उल्टा
काम शुरू किया, अपने
ही बेटे को
पिता बना लिया;
अपने ही
शिष्य को गुरु
बना लिया, ताकि
अज्ञानी
लोगों के लिए
एक संकेत रहे
कि गुरु के
बिना शान नहीं
है।
मगर
जिसको भी शान
हो जाता है, उसको
यही अनुभव
होता है :
अवधू
ईश्वर हमरै
चेला, भणीजै
मच्छीद्र
बोलिये नाती।
जिसको
ज्ञान होता है, वह
ब्रह्मस्वरूप
हो गया। जिसने
स्वयं को जाना
वह स्वयं
ब्रह्म हो
गया। उसे
जानते ही वही
हो जाता है।
फिर शेष सब
उसके बाद है।
वह समयातीत हो
गया, काल
और क्षेत्र के
बाहर चला गया।
वह प्रथम है, वही अंतिम
है। सबसे पहले
भी वही, सबसे
अंत में भी
वही। असल में
फिर एक ही है, दो नहीं
हैं। फिर कौन
गुरु, कौन
चेला! फिर कौन
भक्त, कौन
भगवान! इतना
भेद भी नहीं
बचता है; नहीं
बचना चाहिए।
इस अभेद में
ही आनंद की
वर्षा है, अमृत
का अनुभव है।
लेकिन
इसके पहले
मिटना पड़े।
तुम जैसे हो, अहंकारग्रस्त,
इस भावदशा
को तो विदा
करना पड़ेगा।
मरौ
हे जोगी मरौ
मरौ मरण है
मीठा।
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी गोरष मरि
दीठा।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें