ताओ
उपनिषाद—(भाग—1)
ओशो
ओशो
द्वारा लाओत्से
के ‘ताओ तेह
किंग’ पर
दिए गए 127
प्रवचनों में
से पहले 22 अमृत
प्रवचनों का
अपूर्व संकलन)
लोओत्से की
किताब जमीन पर
बचने वाली उन
थोड़ी सी किताबों
में से एक है,
जो पूरी तरह
शुद्ध है।
इसमें कुछ
जोड़ा नहीं जा
सकता। न
जोड़ने का
कारण यह है कि
जो लाओत्से
कहता है,
लाओत्से की
हैसियत का व्यक्ति
ही उसमें कुछ
जोड़ सकता है।
किसी को कुछ
जोड़ना हो तो
लाओत्से
होना पड़े। और
लाओत्से
होकर जोड़ने
में फिर कोई
हर्ज नहीं है।
जिन्होंने
जाना है—शब्दों
से नहीं,शास्त्रों
से नहीं,वरन
जीवन से ही, जीकर—लाओत्से
उन थोडे से
लोगों में से
एक है। और
जिन्होंने
केवल जाना ही
नहीं है। वरन
जानने की भी अथक
चेष्टा की है—लाओत्से
उन और भी बहुत
थोड़े से
लोगों में से
एक है।
ओशो
सनातन व अविकारी ताओ—पहला प्रवचन
अध्याय
१ : सूत्र १
परम
ताओ
जिस पथ
पर विचरण किया
जा सके, वह
सनातन और
अविकारी पथ
नहीं है।
जिसके
नाम का सुमिरण
हो,
वह कालजयी
एवं सदा एकरस
रहने वाला नाम
नहीं है।
जिन्होंने
जाना
है--शब्दों से
नहीं, शास्त्रों
से नहीं, वरन
जीवन से ही, जीकर--लाओत्से
उन थोड़े से
लोगों में से
एक है। और
जिन्होंने
केवल जाना ही
नहीं है, वरन
जनाने की भी
अथक चेष्टा की
है--लाओत्से
उन और भी बहुत
थोड़े से लोगों
में से एक है।
लेकिन
जिन्होंने भी
जाना है और
जिन्होंने भी दूसरों
को जनाने की
कोशिश की है, उनका
प्राथमिक
अनुभव यही है
कि जो कहा जा
सकता है, वह
सत्य नहीं है;
जो वाणी का
आकार ले सकता
है, आकार
लेते ही अपनी
निराकार
सत्ता को अनिवार्यतया
खो देता है।
जैसे कोई आकाश
को चित्रित
करे, तो
आकाश कभी भी
चित्रित नहीं
होगा; जो
भी चित्र में
बनेगा, निश्चित
ही वह आकाश
नहीं है। आकाश
तो वह है जो सबको
घेरे हुए है; चित्र तो
किसी को भी
नहीं घेर
पाएगा। चित्र
तो स्वयं ही
आकाश से घिरा
हुआ है।
तो
चित्र में बना
हुआ जैसा आकाश
होगा, ऐसे ही
शब्द में बना
हुआ सत्य
होगा। न तो
चित्र में बने
आकाश में
पक्षी उड़
सकेगा, न
चित्र में बने
आकाश में सूरज
निकलेगा, न
रात तारे
दिखाई
पड़ेंगे।
चित्र का आकाश
तो होगा मृत; कहने को ही
आकाश होगा, नाम ही भर
आकाश होगा।
आकाश के होने
की कोई संभावना
चित्र में
नहीं है।
जो भी
सत्य को कहने
चलेगा, उसे
पहले ही कदम
पर जो बड़ी से
बड़ी कठिनाई
खड़ी हो जाती
है, वह यह
कि शब्द में
डालते ही सत्य
असत्य हो जाता
है। ऐसा हो
जाता है, जैसा
वह नहीं है।
और जो कहना
चाहा था, वह
अनकहा रह जाता
है। और जो
नहीं कहना
चाहा था, वह
मुखर हो जाता
है।
लाओत्से
अपनी पहली
पंक्ति में
इसी बात से
शुरू करता है।
ताओ
बहुत अनूठा
शब्द है। उसके
अर्थ को थोड़ा
खयाल में ले
लें तो आगे
बढ़ने में
आसानी होगी।
ताओ के बहुत
अर्थ हैं। जो
भी चीज जितनी
गहरी होती है
उतनी बहुअर्थी
हो जाती है।
और जब कोई चीज
बहुआयामी, मल्टी
डायमेंशनल
होती है, तब
स्वभावतः
जटिलता और बढ़
जाती है।
ताओ का
एक तो अर्थ है:
पथ,
मार्ग, दि
वे। लेकिन सभी
पथ बंधे हुए
होते हैं। ताओ
ऐसा पथ है
जैसे पक्षी
आकाश में उड़ता
है; उड़ता है तब पथ तो
निर्मित होता
है, लेकिन
बंधा हुआ
निर्मित नहीं
होता है। सभी
पथों पर
चरणचिह्न बन
जाते हैं और
पीछे से आने
वालों के लिए
सुविधा हो
जाती है। ताओ
ऐसा पथ है जैसे
आकाश में
पक्षी उड़ते
हैं, उनके
पदों के कोई
चिह्न नहीं
बनते, और
पीछे से आने
वाले को कोई
भी सुविधा
नहीं होती।
तो अगर
यह खयाल में
रहे कि ऐसा पथ
जो बंधा हुआ नहीं
है,
ऐसा पथ जिस
पर चरणचिह्न
नहीं बनते, ऐसा पथ जिसे
कोई दूसरा
आपके लिए
निर्मित नहीं कर
सकता--आप ही
चलते हैं और
पथ निर्मित
होता है--तो हम
ताओ का अर्थ
पथ भी कर सकते
हैं, दि वे
भी कर सकते
हैं। लेकिन
ऐसा पथ तो
कहीं दिखाई
नहीं पड़ता।
इसलिए ताओ को
पथ कहना उचित
होगा?
लेकिन
यह एक आयाम
ताओ का है। तब
पथ का एक
दूसरा अर्थ
लें: पथ है वह, जिससे
पहुंचा जा सके;
पथ है वह, जो मंजिल से
जोड़ दे। लेकिन
ताओ ऐसा पथ भी
नहीं है। जब
हम एक रास्ते
पर चलते हैं
और मंजिल पर पहुंच
जाते हैं, तो
रास्ता और
मंजिल दोनों
जुड़े हुए होते
हैं। असल में,
मंजिल
रास्ते का
आखिरी छोर
होता है, और
रास्ता मंजिल
की शुरुआत
होती है।
रास्ता और
मंजिल दो
चीजें नहीं
हैं, जुड़े
हुए संयुक्त
हैं। रास्ते
के बिना मंजिल
न हो सकेगी; मंजिल के
बिना रास्ता न
होगा। लेकिन
ताओ एक ऐसा पथ
है, जो
मंजिल से जुड़ा
हुआ नहीं है।
जब कोई रास्ता
मंजिल से जुड़ा
होता है, तो
सभी को उतना
ही रास्ता
चलना पड़ता है,
तभी मंजिल
आती है।
ताओ
ऐसा पथ है कि
जो जहां खड़ा
है,
उसी स्थान
पर, उसी
जगह पर खड़े
हुए मंजिल को
उपलब्ध हो
सकता है।
इसलिए ताओ को
ऐसा पथ भी
नहीं कहा जा
सकता। जहां
खड़े हैं हम, जिस जगह, जिस
स्थान पर, वहीं
से मंजिल मिल
सके; और
ऐसा भी हो
सकता है कि हम
जन्मों-जन्मों
चलें, और
मंजिल न मिल
सके; तो
ताओ जरूर किसी
और तरह का पथ
है। इसलिए एक
तो पथ का अर्थ
है कहीं गहरे
में, लेकिन
बहुत सी
शर्तों के साथ।
दूसरा
ताओ का अर्थ
है: धर्म।
लेकिन धर्म का
अर्थ मजहब
नहीं है, रिलीजन नहीं है।
धर्म का वही
अर्थ है जो पुरातनतम
ऋषियों ने
लिया है। धर्म
का अर्थ होता
है: वह नियम, जो सभी को
धारण किए हुए
है। जीवन जहां
भी है, उसे
धारण करने
वाला जो
आत्यंतिक
नियम, दि अल्टिमेट
लॉ, वह जो
आखिरी कानून
है वह। तो ताओ
धर्म है--मजहब के
अर्थों में
नहीं, इसलाम
और हिंदू और
जैन और बौद्ध
और सिक्ख के अर्थों
में
नहीं--जीवन का
परम नियम।
धर्म है, जीवन
के शाश्वत
नियम के अर्थ
में।
लेकिन
सभी नियम
सीमित होते
हैं। ताओ ऐसा
नियम है जिसकी
कोई सीमा नहीं
है।
असल
में सीमा तो
होती है
मृत्यु की; जीवन
की कोई सीमा
नहीं होती।
मरी हुई
वस्तुएं ही
सीमित होती
हैं; जीवित
वस्तु सीमित
नहीं होती, असीम होती
है। जीवन का
अर्थ ही है:
फैलाव की निरंतर
क्षमता, दि
कैपेसिटी
टु एक्सपैंड।
एक बीज जीवित
है, अगर वह
अंकुर हो सकता
है। एक अंकुर
जीवित है, अगर
वह वृक्ष हो
सकता है। एक
वृक्ष जीवित
है, अगर
उसमें और
अंकुर, और
बीज लग सकते
हैं। जहां
फैलाव की
क्षमता रुक
जाती है वहीं
जीवन रुक जाता
है। बच्चा
इसीलिए
ज्यादा जीवित
है बूढ़े से; अभी फैलाव
की क्षमता है
बहुत।
तो ताओ
कोई सीमित
अर्थों में
नियम नहीं है।
आदमी के बनाए
हुए कानून
जैसा कानून
नहीं है, जिसको
कि डिफाइन
किया जा सके, जिसकी
परिभाषा तय की
जा सके, जिसकी
परिसीमा तय की
जा सके। ताओ
ऐसा नियम है जो
अनंत विस्तार
है, और
अनंत-असीम को
छूने में
समर्थ है।
इसलिए
सिर्फ धर्म कह
देने से काम न
चलेगा।
एक और
शब्द
है--ऋषियों ने
उपयोग
किया--वह शायद
और भी निकट है
ताओ के। वह
शब्द है
ऋत--जिससे ऋतु
बना। वेद ऋत
की चर्चा करते
हैं,
वह ताओ की
चर्चा है। ऋत
का अर्थ होता
है...ऋतुओं
से समझें तो
आसानी हो
जाएगी।
गरमी
आती है, फिर
वर्षा आ जाती
है, फिर
शीत आ जाती है,
फिर गरमी आ
जाती है। एक
वर्तुल है।
वर्तुल घूमता
चला जाता है।
बचपन होता है,
जवानी आती
है, बुढ़ापा आ जाता है, मौत आ जाती
है। एक वर्तुल
है, वह
घूमता चला
जाता है। सुबह
होती है, सांझ
होती है, रात
होती है, फिर
सुबह हो जाती
है। सूरज
निकलता है, डूबता है, फिर उगता
है। एक वर्तुल
है। जीवन की
एक गति है
वर्तुलाकार।
उस गति को
चलाने वाला जो
नियामक तत्व
है, उसका
नाम है ऋत।
ध्यान
रहे,
ऋत में किसी
ईश्वर की
धारणा नहीं
है। ऋत का अर्थ
है नियामक
तत्व; नियामक
व्यक्ति
नहीं। नॉट परसन,
बट
प्रिंसिपल।
कोई व्यक्ति
नहीं जो
नियामक हो, कोई तत्व जो
नियमन किए चला
जाता है। ऐसा
कहना ठीक नहीं
कि नियमन किए
चला जाता है, क्योंकि
इससे व्यक्ति
का भाव पैदा
होता है। नहीं,
जिससे
नियमन होता है,
जिससे नियम
निकलते हैं।
ऐसा नहीं कि
वह नियम देता
है और
व्यवस्था
जुटाता है।
नहीं, बस
उससे नियम
पैदा होते
रहते हैं। जैसे
बीज से अंकुर
निकलता रहता
है, ऐसा ऋत
से ऋतुएं
निकलती रहती
हैं। ताओ का गहनतम
अर्थ वह भी
है।
लेकिन
फिर भी ये कोई
भी शब्द ताओ
को ठीक से प्रकट
नहीं करते
हैं। क्योंकि
जो-जो इनको
अर्थ दिया जा
सकता है, ताओ
उससे फिर भी
बड़ा है। और
कुछ न कुछ
पीछे छूट जाता
है। शब्दों की
जो बड़ी से बड़ी
कठिनाई है, वह यह है कि
सभी शब्द
द्वैत से
निर्मित हैं।
अगर हम कहें
रात, तो
दिन पीछे छूट
जाता है। अगर
हम कहें
प्रकाश, तो
अंधेरा पीछे
छूट जाता है।
अगर हम कहें
जीवन, तो
मौत पीछे छूट
जाती है। हम
कुछ भी कहें, कुछ सदा
पीछे छूट जाता
है। और जीवन
ऐसा
है--संयुक्त, इकट्ठा।
वहां रात और
दिन अलग नहीं
हैं। और वहां
जन्म और
मृत्यु अलग
नहीं हैं। और
वहां बच्चा और
बूढ़ा दो नहीं
हैं। और वहां
सर्दी और गरमी
दो नहीं हैं।
और वहां सुबह
सूरज का उगना
सांझ का डूबना
भी है। जीवन
कुछ ऐसा
है--संयुक्त, इकट्ठा।
लेकिन जब भी
हम शब्द में
बोलते हैं, तो कुछ छूट
जाता है। कहें
दिन, तो
रात छूट जाती
है। और जीवन
में रात भी
है।
तो अगर
हम कहें कोई
भी एक शब्द--यह
है ताओ, यह है
मार्ग, यह
है धर्म, यह
है ऋत--बस
हमारे कहते ही
कुछ पीछे छूट
जाता है। समझ
लें, हम
कहते हैं, नियम।
नियम कहते ही
अराजकता पीछे
छूट जाती है।
लेकिन जीवन
में वह भी है।
नियम कहते ही
वह जो अनार्किक,
वह जो अराजक
तत्व है, वह
पीछे छूट जाता
है।
नीत्शे
ने कहीं लिखा
है कि जिस दिन
अराजकता न होगी
उस दिन नए
तारे कैसे
निर्मित
होंगे? जिस
दिन अराजकता न
होगी उस दिन
नया सृजन कैसे
होगा? क्योंकि
सृष्टि तो
जन्मती है
अराजकता से, केऑस से। आउट ऑफ केऑस इज़
क्रिएशन। अगर केऑस न
होगा, अराजकता
न होगी, तो
सृष्टि का
जन्म न होगा।
और अगर सृष्टि
अकेली हो, तो
फिर समाप्त न
हो सकेगी, क्योंकि
उसे समाप्त
होने के लिए
फिर अराजकता में
डूब जाना पड़े।
जब हम
कहते हैं नियम, प्रिंसिपल,
तब अराजकता
पीछे छूट जाती
है। वह भी
जीवन में है।
उसे छोड़ने का
उपाय जीवन के
पास नहीं है, शब्दों के
पास है। इसलिए
हम कहते हैं
ऋत, तो भी
कुछ पीछे छूट
जाता है; वह
अराजक तत्व
पीछे छूट जाता
है। जो घटता
है और फिर भी
नियम के भीतर
नहीं घटता।
इस जीवन
में सभी कुछ
नियम से नहीं
घटता है; नहीं
तो जीवन दो कौड़ी
का हो जाएगा।
इस जीवन में
कुछ है जो
नियम छोड़ कर
भी घटता है।
सच तो यह है, इस जीवन में
जो भी
महत्वपूर्ण
है, वह
नियम छोड़ कर
घटता है। जो
भी
गैर-महत्वपूर्ण
है, वह
नियम से घटता
है। इस जीवन
में जो भी
गहरी
अनुभूतियां
हैं, वे
किसी नियम से
नहीं आतीं--अकारण,
अनायास, अनायाचित द्वार पर
दस्तक दे देती
हैं।
जिस
दिन किसी के
जीवन में
प्रभु का आना
होता है, उस
दिन वह यह
नहीं कह पाता
कि मैंने
यह-यह किया था,
इसलिए
तुम्हें
पाया। उस दिन
वह यही कह
पाता है कि
कैसी
तुम्हारी दया!
कैसी
तुम्हारी
अनुकंपा!
मैंने कुछ भी
न किया था; या
जो भी किया था,
अब मैं
जानता हूं, उसे तुमसे
पाने से कोई
भी संबंध न था;
यह
तुम्हारा
आगमन कैसा! यह
तुम आ कैसे गए!
न मैंने कभी
तुम्हें
मांगा था, न
मैंने कभी
तुम्हें चाहा
था, न
मैंने
तुम्हें कभी
खोजा था। या
मांगा भी था, तो कुछ गलत
मांगा था; और
खोजा भी था, तो वहां
जहां तुम नहीं
थे; और
चाहा भी था, तो भी माना न
था कि तुम मिल
जाओगे। और यह
तुम्हारा
आगमन! और जब
प्रभु का आगमन
होता है किसी
के जीवन में, तो उसका
किया हुआ कहीं
भी तो कुछ
संबंध नहीं बना
पाता। अनायास!
इस जीवन
में सभी कुछ
नियम होता, तो
हम कह सकते थे,
ताओ का अर्थ
है ऋत। लेकिन
इस जीवन में
वह जो नियम के
बाहर है, वह
रोज घटता है; हर घड़ी-पहर, अनायास भी, अकारण भी, वह मौजूद हो
जाता है। न, उसे भी हम
जीवन और
अस्तित्व के
बाहर न छोड़
पाएंगे।
इसलिए अब हम
ताओ को क्या
कहें?
तो
लाओत्से अपना
पहला सूत्र
कहता है। उस
सूत्र में वह
कहता है, "जिस
पथ पर विचरण
किया जा सके, वह सनातन, अविकारी पथ
नहीं है।'
जिस पथ
पर विचरण किया
जा सके! अब पथ
का अर्थ ही होता
है कि जिस पर
विचरण किया जा
सके। लेकिन लाओत्से
कहता है, जिस
पथ पर विचरण
किया जा सके, वह नहीं; जिस
पर आप चल सकें,
वह नहीं।
फिर अगर जिस
पर हम चल ही न
सकें, उसे
पथ कहने का
क्या प्रयोजन?
हम चल सकें
तो ही पथ है।
लाओत्से
कहता है, "जिस
पथ पर विचरण
किया जा सके, वह सनातन, अविकारी पथ
नहीं है।'
बहुत
सी बातें इस
छोटे से सूत्र
में हैं। एक, जिस
पथ पर चला जा
सके, जिस
पर चलने की
घटना घट सके, उस पर
पहुंचने की
घटना न घटेगी।
क्योंकि जहां हमें
पहुंचना है, वह कहीं दूर
नहीं, यहीं
और अभी है।
अगर मुझे आपके
पास आना हो, तो मैं किसी
रास्ते पर चल
सकता हूं।
लेकिन मुझे
अपने ही पास
आना हो, तो
मैं किस
रास्ते पर चलूंगा?
और जितना
चलूंगा
रास्तों पर, उतना ही भटक जाऊंगा; अपने से दूर,
और दूर होता
चला जाऊंगा।
जो आदमी स्वयं
को खोजने किसी
रास्ते पर
जाएगा, वह
अपने को कभी
भी नहीं पा
सकेगा। कैसे
पा सकेगा? अपने
ही हाथ से, खोज
के ही कारण, वह अपने को
खो देगा।
जिसे
स्वयं को
खोजना है उसे
तो सब रास्ते
छोड़ देने
पड़ेंगे, क्योंकि
स्वयं तक कोई
भी रास्ता
नहीं जाता है।
असल में, स्वयं
तक पहुंचने के
लिए रास्ते की
जरूरत ही नहीं
है। रास्ते की
जरूरत तो
दूसरे तक
पहुंचने के
लिए है। स्वयं
तक तो वह
पहुंच जाता है,
जो सब
रास्तों से
उतर कर खड़ा हो
जाता है। जो
चलता ही नहीं,
वह पहुंच
जाता है।
तो
लाओत्से कहता
है,
जिस पथ पर
चला जा सके, वह सनातन और
अविकारी पथ
नहीं है।
दो
बातें कहता
है। वह सनातन
नहीं है। असल
में,
जिस रास्ते
पर भी हम चल
सकें, वह
हमारा ही
बनाया हुआ
होगा। हमारा
ही बनाया हुआ
होगा, इसलिए
सनातन नहीं
होगा। आदमी का
ही निर्मित
होगा, इसलिए
परमात्मा से
निर्मित नहीं
होगा। और जो पथ
हमने बनाया है,
वह सत्य तक
कैसे ले जाएगा?
क्योंकि
अगर हमें सत्य
के भवन का पता
होता, तो
हम ऐसा रास्ता
भी बना लेते
जो सत्य तक ले
जाए।
ध्यान
रहे,
रास्ता तो
तभी बनाया जा
सकता है, जब
मंजिल पता हो।
मुझे आपका घर
पता हो, तो
मैं वहां तक
रास्ता बना
लूं। लेकिन यह
बड़ी कठिन बात
है। अगर मुझे
आपका घर पता
है, तो मैं
बिना रास्ते
के ही आपके घर
पहुंच गया होऊंगा।
नहीं तो फिर
मुझे आपके घर
का पता कैसे चला
है?
इजिप्त
के पुराने
सूफियों के
सूत्रों का एक
हिस्सा कहता
है कि जब
तुम्हें
परमात्मा
मिलेगा और तुम
उसे पहचानोगे, तब
तुम जरूर
कहोगे कि अरे,
तुम्हें तो
मैं पहले से
ही जानता था!
और अगर तुम
ऐसा न कह
सकोगे, तो
तुम परमात्मा
को पहचान कैसे
सकोगे? रिकग्नीशन
इज़ इम्पासिबल।
रिकग्नीशन का
तो मतलब ही यह
होता है। अगर
परमात्मा
मेरे सामने आए
और मैं खड़े
होकर उससे पूछूं
कि आप कौन हैं?
तब तो मैं
पहचान न
सकूंगा। और
अगर मैं देखते
ही पहचान गया
कि प्रभु आ गए,
तो उसका
अर्थ है कि
मैंने कभी
किसी क्षण में,
किसी कोने
से, किसी
द्वार से जाना
था; आज
पहचाना। यह
रिकग्नीशन
है। हम जाने
को ही पहचान
सकते हैं।
अगर
आपको पता ही
है कि सत्य
कहां है, तो
आपके लिए
रास्ते की
जरूरत कहां
रही? आप
सत्य तक कहीं
पहुंच ही गए
हैं, जान
ही लिया है।
तो जिसे पता
है वह रास्ता
नहीं बनाता।
और जिसे पता
नहीं है वह
रास्ता बनाता
है। और जो
नहीं जानते, उनके बनाए
हुए रास्ते
कैसे पहुंचा
पाएंगे? वे
सनातन पथ नहीं
हो सकते।
सनातन
पथ कौन सा है?
जो
आदमी ने कभी
नहीं बनाया।
जब आदमी नहीं
था,
तब भी था।
और जब आदमी
नहीं होगा, तब भी होगा।
सनातन
पथ कौन सा है?
जिसे
वेद के ऋषि
नहीं बनाते, जिसे
बुद्ध नहीं
बनाते, जिसे
महावीर नहीं
बनाते, मोहम्मद,
कृष्ण और
क्राइस्ट
जिसे नहीं
बनाते।
ज्यादा से
ज्यादा उसके
संबंध में कुछ
खबर देते हैं,
बनाते
नहीं। इसलिए
ऋषि नहीं कहते
कि हम जो कह रहे
हैं, वह
हमारा है।
कहते हैं, ऐसा
पहले भी लोगों
ने कहा है, ऐसा
सदा ही लोगों
ने जाना है।
यह जो हम खबर
ला रहे हैं, यह उस
रास्ते की खबर
है जो सदा से
है। जब हम
नहीं थे, तब
भी था। और जब
कोई नहीं था, तब भी था। जब
यह जमीन बनती
थी और इस पर
कोई जीवन न था,
तब भी था।
और जब यह जमीन
मिटती होगी और
जीवन विसर्जित
होता होगा, तब भी होगा।
आकाश की भांति
वह सदा मौजूद
था।
यह
दूसरी बात है
कि हमारे पंख
इतने मजबूत न
थे कि हम
उसमें कल तक
उड़ सकते; आज उड़
पाते हैं। यह
दूसरी बात है
कि आज भी हम हिम्मत
नहीं जुटा
पाते और अपने
घोंसले के
किनारे पर
बैठे रहते हैं,
परों को
तौलते रहते
हैं, और
सोचते रहते
हैं कि उड़ें
या न उड़ें।
लेकिन वह आकाश
आपके उड़ने
से पैदा नहीं
होगा। वह आपके
पंख भी जब
पैदा न हुए थे,
जब आप अंडे
के भीतर बंद
थे, तब भी
था। और आपके
पास पंख भी
हों, और आप
बैठे रहें और
न उड़ें, तो ऐसा नहीं
कि आकाश नहीं
है। आकाश है।
आकाश आपके
बिना है।
तो
सनातन पथ तो
वह है जो चलने
वाले के बिना
है। अगर चलने
वाले पर कोई पथ
निर्भर है, तो
वह सनातन नहीं
है। और जिस पथ
पर भी चला जा
सकता है वह
विकारग्रस्त
हो जाता है, क्योंकि
चलने वाला
अपनी
बीमारियों को
लेकर चलता है।
इसे भी थोड़ा
समझ लेना
जरूरी है।
जो
बीमारियों के
बाहर हो गया
वह चलता नहीं।
चलने की कोई
जरूरत न रही।
वह पहुंच गया।
जो बीमारियों
से भरा है वह
चलता है। चलता
ही इसलिए है
कि बीमारियां
हैं,
उनसे छूटना
चाहता है।
बीमारियों से
छूटने के लिए
ही चलता है।
जिस रास्ते पर
भी चलता है, वहीं, उसी
रास्ते को
संक्रामक
करता है। जहां
भी खड़ा होता
है, वहीं
अपवित्र हो
जाता है सब।
जहां भी खोजता
है, वहीं
और धुआं पैदा
कर देता है।
जैसे
पानी में कीचड़
उठ गई हो और
कोई पानी में
घुस जाए और
कीचड़ को बिठालने
की कोशिश में
लग जाए, तो
उसकी सारी
कोशिश, जो
कीचड़ उठ गई है,
उसे तो
बैठने ही न
देगी, और
जो बैठी थी, उसे भी उठा
लेती है। वह
जितना डेस्पेरेटली,
जितना पागल
होकर कोशिश
करता है कि
कीचड़ को बिठा
दूं, बिठा
दूं, उतनी
ही कीचड़ और उठ
जाती है, पानी
और गंदा हो
जाता है।
लाओत्से वहां
से निकलता
होगा, तो
वह कहेगा कि
मित्र, तुम
बाहर निकल आओ।
क्योंकि जिसे
तुम शुद्ध करोगे
वह अशुद्ध हो
जाएगा, तुम
ही अशुद्ध हो
इसलिए। तुम
कृपा करके
बाहर निकल आओ।
तुम पानी को
अकेला छोड़ दो।
तुम तट पर बैठ
जाओ। पानी
शुद्ध हो
जाएगा। तुम प्रयास
मत करो।
तुम्हारे सब
प्रयास
खतरनाक हैं।
वह पथ
अविकारी नहीं
हो सकता जिस
पथ पर बीमार लोग
चलें।
और
ध्यान रहे, सिर्फ
बीमार ही चलते
हैं। जो पहुंच
गए, जो
शुद्ध हुए, जिन्होंने
जाना, वे
रुक जाते हैं।
चलने का कोई
सवाल नहीं रह
जाता। असल में,
हम चलते ही
इसलिए हैं कि
कोई वासना
हमें चलाती
है। वासना
अपवित्रता
है। ईश्वर को
पाने की वासना
भी अपवित्रता
है। मोक्ष
पहुंचने की
वासना भी अपनी
दुर्गंध लिए
रहती है। असल
में, जहां
वासना है, वहीं
चित्त कुरूप
हो जाएगा।
जहां वासना है,
वहीं चित्त
तनाव से भर
जाएगा। जहां
वासना है पहुंचने
की, जहां
आकांक्षा है,
वहीं दौड़, वहीं पागलपन
पैदा होगा। और
सब बीमारियां
आ जाएंगी, सब
बीमारियां
इकट्ठी हो
जाएंगी।
लाओत्से
कहता है, जिस
पथ पर विचरण
किया जा सके, वह पथ सनातन
भी नहीं, अविकारी
भी नहीं।
क्या
ऐसा भी कोई पथ
है जिस पर
विचरण न किया
जा सके? क्या
ऐसा भी कोई पथ
है जिस पर चला
नहीं जाता, वरन खड़ा हो
जाया जाता है?
क्या ऐसा भी
कोई पथ है जो
खड़े होने के
लिए है?
कंट्राडिक्टरी
मालूम पड़ेगा, उलटा
मालूम पड़ेगा।
रास्ते चलाने
के लिए होते
हैं, खड़े
होने के लिए
नहीं होते।
लेकिन ताओ उसी
पथ का नाम है
जो चला कर
नहीं
पहुंचाता, रुका
कर पहुंचाता
है। लेकिन
चूंकि रुक कर
लोग पहुंच गए
हैं, इसलिए
उसे पथ कहते
हैं। चूंकि
लोग रुक कर
पहुंच गए हैं,
इसलिए उसे
पथ कहते हैं।
और चूंकि
दौड़-दौड़ कर भी
लोग संसार के
किसी पथ से
कहीं नहीं
पहुंचे हैं, इसलिए उसे
पथ सिर्फ नाम
मात्र को ही
कहा जा सकता
है। वह पथ
नहीं है।
उस
वाक्य का
दूसरा हिस्सा
है,
"जिसके नाम
का सुमिरण
हो, वह
कालजयी एवं
सदा एकरस रहने
वाला नाम नहीं
है।'
दि नेम
व्हिच कैन बी नेम्ड, जिसे
नाम दिया जा
सके, जिसका
सुमिरण
हो सके, जिसे
शब्द दिया जा
सके, वह
असली नाम नहीं
है। वह कालजयी,
समय को जीत
ले, समय के
अतीत हो, समय
जिसे नष्ट न
कर दे, वैसा
वह नाम नहीं
है। इसे थोड़ा
समझें।
सभी
चीजों को हम
नाम दे देते
हैं। सुविधा
होती है नाम
देने से।
व्यवहार-सुलभ
हो जाता है, संबंधित
होना आसान हो
जाता है, विश्लेषण
सुगम बन जाता
है। नाम न दें
तो बड़ी जटिलता,
उलझन हो
जाती है। नाम
दिए बिना इस
जगत में कोई गति
नहीं। पर
ध्यान रहे, जैसे ही हम
नाम दे देते
हैं, वैसे
ही उस वस्तु
को, जिसकी
असीमता थी, हम एक सीमित
दरवाजा बना
देते हैं।
इसे थोड़ा
समझ लें।
वस्तुओं को भी
जब हम नाम
देते हैं, तो
हम सीमा दे
देते हैं।
एक
व्यक्ति आपके
पास बैठा है।
अभी आपको कुछ
पता नहीं, वह
कौन है। पड़ोस
में बैठा है
आपके, शरीर
उसका आपको
स्पर्श करता
है। अभी आपको
कुछ भी पता
नहीं है, वह
कौन है। अभी
उसकी सत्ता
विराट है। फिर
आप पूछते हैं
और वह कहता है
कि मैं
मुसलमान हूं,
कि हिंदू
हूं। सत्ता
सिकुड़ गई।
जो-जो हिंदू
नहीं है--वह
छंट गया, गिर
गया। उतना
सत्ता का
हिस्सा टूट कर
अलग हो गया।
एक सीमित
दायरा बन गया।
वह मुसलमान
है। आप पूछते
हैं, शिया
हैं या सुन्नी
हैं? वह
कहता है, सुन्नी
हूं। और भी
हिस्सा, मुसलमान
का भी, गिर
गया। आप पूछते
चले जाते हैं।
और वह अपनी आखिरी
जगह पर पहुंच
जाएगा
बताते-बताते।
तब वह बिंदु
मात्र रह
जाएगा। वह
यूक्लिड के
बिंदु की भांति
हो जाएगा।
इतना सिकुड़
जाएगा, इतना
छोटा हो जाएगा,
आखिर में तो
वह एक छोटा सा
ईगो, एक
छोटा सा
अहंकार मात्र
रह जाएगा--सब
तरफ से घिरा
हुआ।
लेकिन
तब सुविधा हो
जाएगी हमें।
तब आप अपने शरीर
को सिकोड़ कर
बैठ सकते हैं, या
निकट ले सकते
हैं उसको हृदय
के। तब आप
उससे बात कर
सकते हैं, और
तब आप अपेक्षा
कर सकते हैं
कि उससे क्या
उत्तर
मिलेगा। वह
प्रेडिक्टेबल
हो गया। अब आप
भविष्यवाणी
कर सकते हैं।
इस आदमी के
साथ ज्यादा
देर बैठना
उचित होगा, नहीं होगा, आप तय कर
सकते हैं। इस
आदमी के साथ
अब व्यवहार सुगम
और आसान है।
इस आदमी की जो
रहस्यपूर्ण
सत्ता थी, अब
वह
रहस्यपूर्ण
नहीं रह गई।
अब वह वस्तु
बन गया है।
नाम हम देते
ही इसीलिए हैं
कि हम व्यवहार
में ला सकें।
चीजों के साथ
व्यवहार कर
सकें; चीजों
का हम उपयोग
कर सकें; हमारे
सारे दिए हुए
नाम ऐसे ही
कामचलाऊ, यूटिलिटेरियन हैं। उनकी
उपयोगिता है,
उनका सत्य
नहीं है।
क्या
हम परमात्मा
को,
परम सत्ता
को भी नाम दे
सकते हैं? क्या
हमारा दिया
हुआ नाम
अर्थपूर्ण
होगा?
हम
छोटी सी वस्तु
को भी नाम
देते हैं, तो
उसकी सत्ता को
भी विकृत कर
देते हैं।
हमने दिया नाम
कि सत्ता
विकृत हुई, सीमा बंधी।
हम परमात्मा
को नाम, पहली
तो बात यह है, दे न
सकेंगे।
क्योंकि कहीं
भी उसे हमारी
आंखें देख
नहीं पाती हैं,
कहीं भी
हमारे हाथ उसे
छू नहीं पाते
हैं, कहीं
भी हमारे कान
उसे सुन नहीं
पाते हैं, कहीं
उससे हमारा
मिलन नहीं
होता है। और
फिर भी, जो
जानते हैं, वे कहते हैं,
हमारी आंख
उसी को देखती
है सब जगह; उसी
को सुनते हैं
हमारे कान; जो भी हम
छूते हैं, उसी
को छूते हैं; और जिससे भी
हमारा मिलन
होता है, उसी
से मिलन है।
पर ये वे, जो
जानते हैं। जो
नहीं जानते, उन्हें तो
उसका कहीं
दर्शन नहीं
होता। उसे नाम
कैसे देंगे? और जो जानते
हैं, जिन्हें
उसका ही दर्शन
होता है सब
जगह, वे भी
उसे कैसे नाम
देंगे? क्योंकि
जो चीज कहीं
एक जगह हो, उसे
नाम दिया जा
सकता है।
एक
मित्र को हम
मुसलमान कह
सकते हैं, क्योंकि
वह मस्जिद में
मिलता है, मंदिर
में नहीं
मिलता। वह
आदमी मंदिर
में भी मिल
जाए, वह
आदमी
गुरुद्वारे
में भी मिल
जाए, वह
आदमी चर्च में
भी मिल जाए, वह आदमी एक
दिन तिलक लगाए
हुए और कीर्तन
करता मिल जाए
और एक दिन
नमाज पढ़ता मिल
जाए, तो
फिर मुसलमान
कहना मुश्किल
हो जाएगा। और
तब तो बहुत ही
मुश्किल हो
जाएगा कि जहां
भी आप जाएं, वही आदमी
मिल जाए। तब
तो फिर उसे
मुसलमान न कह सकेंगे।
जो
नहीं जानते
हैं,
वे नाम नहीं
दे सकते, क्योंकि
उन्हें पता ही
नहीं वे किसे
नाम दे रहे
हैं। और जो
जानते हैं, वे भी नाम
नहीं दे सकते,
क्योंकि
उन्हें पता है,
सभी नाम उसी
के हैं, सभी
जगह वही है।
वही है।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
उसे नाम
नहीं दिया जा
सकता। ऐसा कोई
नाम नहीं दिया
जा सकता, जिसका
सुमिरण
हो सके।
और नाम
तो इसीलिए
होते हैं कि
उनका सुमिरण
हो सके। नाम
इसीलिए होते
हैं कि हम
पुकार सकें, बुला
सकें, स्मरण
कर सकें। अगर
ऐसा उसका कोई
नाम है जिसका सुमिरण न
हो सके, तो
उसे नाम कहना
ही व्यर्थ है।
नाम है किसलिए?
एक बाप अपने
बेटे को नाम
देता है कि
बुला सके, पुकार
सके; जरूरत
हो, आवाज
दे सके। नाम
की उपयोगिता
क्या है, कि
पुकारा जा
सके। और
लाओत्से कहता
है कि सुमिरण
हो सके, तो
वह नाम उसका
नाम नहीं है। सुमिरण के
लिए ही तो
लोगों ने नाम
रखा है। कोई
उसे राम कहता
है, कोई
उसे कृष्ण
कहता है, कोई
उसे अल्लाह
कहता है। सुमिरण
के ही लिए तो
नाम रखा है।
इसलिए कि हम, जो नहीं
जानते, उसकी
याद कर सकें, उसे पुकार
सकें।
लेकिन
हमें, जिन्हें
उसका पता ही
नहीं है, हम
उसका नाम कैसे
रख लेंगे? और
जो भी हम नाम
रखेंगे वह
हमारे संबंध
में तो खबर
देगा, उसके
संबंध में कोई
भी खबर नहीं
देगा। जब आप कहते
हैं, हमने
उसका नाम राम
रखा है। तो
उससे खबर
मिलती है कि
आप हिंदू घर
में पैदा हुए
हैं, और
कुछ भी नहीं।
इससे उसका नाम
पता नहीं
चलता। आप कहते
हैं, हम
उसका नाम
अल्लाह मानते
हैं। इससे
इतना ही पता
चलता है कि आप
उस घर में बड़े
हुए हैं जहां
उसका नाम
अल्लाह माना
जाता रहा है।
इससे आपके बाबत
पता चलता है; इससे उसके
संबंध में कुछ
भी पता नहीं
चलता। और इसीलिए
तो अल्लाह को
मानने वाला
राम को मानने
वाले से लड़
सकता है। अगर
अल्लाह वाले
को पता होता
कि यह किसका
नाम है, और
राम वाले को
पता होता कि
यह किसका नाम
है, तो झगड़ा
असंभव था। वह
तो कुछ भी पता
नहीं है। नाम
ही हमारे हाथ
में है। जिसे
हमने नाम दिया
है, उसका
हमें कोई भी
पता नहीं है।
लाओत्से
बड़ी अदभुत
शर्त लगाता
है। वह शर्त
यह लगाता है
कि जिसका
स्मरण किया जा
सके,
वह उसका नाम
नहीं है।
और सभी
नामों का
स्मरण किया जा
सकता है। ऐसा
कोई नाम आपको
पता है जिसका
स्मरण न किया
जा सके? अगर
स्मरण न किया
जा सके, तो
आपको पता भी
कैसे चलेगा?
बोधिधर्म
सम्राट वू के
सामने खड़ा है।
और सम्राट वू
ने उससे पूछा
है,
बोधिधर्म, उस पवित्र
और परम सत्य
के संबंध में
कुछ कहो! बोधिधर्म
ने कहा, कैसा
पवित्र? कुछ
भी पवित्र
नहीं है! नथिंग
इज़ होली!
और कैसा परम
सत्य? देयर
इज़ नथिंग
बट एम्पटीनेस।
शून्य के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है।
स्वभावतः, सम्राट
वू चौंका और
उसने
बोधिधर्म से
कहा, फिर
क्या मैं यह
पूछने की
इजाजत पा सकता
हूं कि मेरे
सामने जो खड़ा
होकर बोल रहा
है, वह कौन
है? तो
बोधिधर्म ने
क्या कहा, पता
है? बोधिधर्म
ने कहा, आई
डू नॉट नो, मैं
नहीं जानता।
यह जो
तुम्हारे
सामने खड़े होकर
बोल रहा है, यह कौन है, यह मैं नहीं
जानता।
वू तो
समझा कि यह
आदमी पागल है।
वू ने कहा, इतना
भी पता नहीं
कि तुम कौन हो?
बोधिधर्म
ने कहा, जब
तक पता था, तब
तक कुछ भी पता
नहीं था। जब
से पता चला है,
तब से यह भी
नहीं कह सकता
कि पता है।
क्योंकि जिसका
पता चल जाए, जिसे हम
पहचान लें, जिसे हम नाम
दे दें, वह
भी कोई नाम है!
लाओत्से
कहता है, जिसका
सुमिरण
किया जा सके, वह उसका नाम
नहीं है। और
जिसका सुमिरण
किया जा सके, वह समय के
पार नहीं ले
जाएगा। समय के
पार वही वस्तु
जा सकती है जो
सदा समय के
पार है ही। कालातीत
वही हो सकता
है जो कालातीत
है ही। समय के
भीतर जो पैदा
होता है, वह
समय के भीतर
नष्ट हो जाता
है। अगर आप कह
सकते हैं कि
मैंने पांच बज
कर पांच मिनट
पर स्मरण किया
प्रभु का, तो
ध्यान रखना, यह स्मरण
समय के पार न
ले जा सकेगा।
जो समय के
भीतर पुकारा
गया था, वह
समय के भीतर
ही गूंज कर
समाप्त हो
जाएगा। और
परमात्मा समय
के बाहर है।
क्यों? क्योंकि
समय के भीतर
सिर्फ
परिवर्तन है।
और परमात्मा
परिवर्तन
नहीं है।
अगर
ठीक से समझें, तो
समय का अर्थ
है परिवर्तन।
कभी आपने खयाल
किया कि आपको
समय का पता
क्यों चलता है?
सच तो यह है
कि आपको समय
का कभी पता
नहीं चलता, सिर्फ
परिवर्तन का
पता चलता है।
इसे ऐसा लें। इस
कमरे में हम
इतने लोग बैठे
हैं। अगर ऐसा
हो जाए कि
वर्ष भर हम
यहां बैठे
रहें और हममें
से कोई भी जरा
भी परिवर्तित
न हो, तो
क्या हमें पता
चलेगा कि वर्ष
बीत गया? कुछ
भी परिवर्तित
न हो, एक
वर्ष के लिए
यह कमरा ठहर
जाए, यह
जैसा है वैसा
ही वर्ष भर के
लिए रह जाए, तो क्या
हमें पता चल
सकेगा कि वर्ष
भर बीत गया? हमें यह भी
पता नहीं
चलेगा कि क्षण
भर भी बीता।
क्योंकि
बीतने का पता
चलता है चीजों
की बदलाहट से।
असल में, बदलाहट
का बोध ही समय
है। इसलिए
जितने जोर से चीजें
बदलती हैं, उतने जोर से
पता चलता है।
आपको दिन का
जितना पता
चलता है, उतना
रात का नहीं
पता चलता।
एक
आदमी साठ साल
जीता है, तो
बीस साल सोता
है। लेकिन बीस
साल का कोई
एकाउंट है? बीस साल का
कुछ पता है? बीस साल साठ
साल में आदमी
सोता है। पर
बीस साल का
कोई हिसाब
नहीं है। बीस
साल का कोई
पता नहीं चलता;
वे नींद में
बीत जाते हैं।
वहां चीजें
कुछ थिर हो
जाती हैं।
उतने जोर से
परिवर्तन
नहीं है, सड़क
उतने जोर से
नहीं चलती, ट्रैफिक
उतनी गति में
नहीं है। सब
चीजें ठहरी
हैं। आप अकेले
रह गए हैं।
अगर एक
व्यक्ति को हम
बेहोश कर दें
और सौ साल बाद
उसे होश में
लाएं, तो उसे
बिलकुल पता
नहीं चलेगा कि
सौ साल बीत गए।
जाग कर वह चौंकेगा।
और अगर वह ऐसी
ही दुनिया
वापस पा सके
जैसा वह सोते
वक्त पाई थी
उसने--वही लोग
उसके पास हों;
वही
घड़ी-कांटा
वहीं हो दीवार
पर लटका हुआ; बच्चा स्कूल
गया था, अभी
न लौटा हो; पत्नी
खाना बनाती थी,
उसके बर्तन
की आवाज किचन
से आती हो; और
वह आदमी जगे--तो
उसे बिलकुल
पता नहीं
चलेगा कि सौ
साल बीत गए।
समय का
बोध परिवर्तन
का बोध है।
चूंकि चीजें भाग
रही हैं, बदल
रही हैं, इसलिए
समय का बोध
होता है।
इसलिए जितने
जोर से चीजें
बदलने लगती
हैं, उतनी
टाइम
कांशसनेस, समय
का बोध बढ़ने
लगता है।
पुरानी
दुनिया में
समय का इतना
बोध नहीं था।
चीजें थिर
थीं।
करीब-करीब वही
थीं। बाप जहां
चीजों को
छोड़ता था, बेटा
वहीं पाता था।
और बेटा फिर चीजों
को वहीं छोड़ता
था जहां उसने
अपने बाप से पाया
था। चीजें थिर
थीं। अब कुछ
भी वैसा नहीं है।
जहां कल था, आज नहीं
होगा; जहां
आज है, कल
नहीं होगा। सब
बदल जाएगा।
इसलिए समय का
भारी बोध।
एक-एक पल समय
का कीमती
मालूम पड़ता
है।
समय
में जो भी
पैदा होगा, वह
परिवर्तित होगा
ही। समय के
भीतर सनातन की
कोई घटना
प्रवेश नहीं
करती। शाश्वत
की कोई किरण
समय के भीतर नहीं
आती। ऐसा ही
समझें कि जैसे
जो नदी में होगा
वह गीला होगा
ही। हां, जिसे
गीला नहीं
होना, उसे
तट पर होना
पड़ेगा। समय की
धारा में जो
होगा वह
परिवर्तित
होगा ही। समय
के बाहर होना
पड़ेगा, तो
अपरिवर्तित
नित्य का जगत
प्रारंभ होता
है।
लाओत्से
कहता है, जो
नाम सुमिरण
किया जा सके...।
सुमिरण तो
समय में होगा।
शब्द का
उच्चारण तो
समय लेगा। एक
पूरा शब्द भी
हम एक क्षण
में नहीं बोल
पाते। एक
हिस्सा बोल
पाते हैं, फिर
दूसरा दूसरा,
तीसरा तीसरा।
जब मैं बोलता
हूं समय, तब
भी समय बह रहा
है--स बोलता
हूं और हिस्से
में, म
बोलता हूं और
हिस्से में, य बोलता हूं
और हिस्से
में।
हेराक्लतु
ने कहा है, यू
कैन नॉट स्टेप
ट्वाइस
इन दि सेम
रिवर--एक ही
नदी में
दुबारा नहीं
उतर सकते हो।
क्योंकि जब
दुबारा उतरने
आओगे तब तक
नदी तो बह गई
होगी।
हेराक्लतु
भी बहुत
कंजूसी से कह
रहा है। सच तो
यह है, वन कैन
नॉट स्टेप
ईवन वंस
इन दि सेम
रिवर।
क्योंकि जब
मेरे पैर का
तलवा पानी की
ऊपर की धार को
छूता है, नदी
भागी जा रही
है। और जब
मेरा तलवा
थोड़ा सा प्रवेश
करता है, तब
नदी भागी जा
रही है। जब
मैं नदी को
स्पर्श करता
हूं, तब
नदी में पानी
और था; और
जब मैं नदी की
तलहटी में
पहुंचता हूं,
तब पानी और
है। एक बार भी
नहीं छू सकता।
और नदी
तो ठीक ही है।
जब नदी को मैं
छू रहा हूं, तो
नदी ही बदल
रही होती तो
भी ठीक था। जो
पैर छू रहा है,
वह भी उतनी
ही तेजी से
बदला जा रहा
है। नहीं, नदी
में दुबारा
उतरना तो
असंभव है; एक
बार भी उतरना
असंभव है।
इसलिए नहीं कि
नदी बदल रही
है, इसलिए
भी कि नदी में
उतरने वाला भी
बदल रहा है।
जब नदी की
पहली सतह पर
मैंने पैर रखा
था, तो
मेरा मन और
था। और जब नदी
की आधी सतह पर
मैं पहुंचा था,
तो मेरा मन
और हो गया। और
जब तलहटी में
मेरा पैर पड़ा,
तब मेरा मन
और था। नहीं, इतना ही
नहीं कि शरीर
बदल रहा है, मेरा मन भी
बदला जा रहा
है।
बुद्ध
कहते थे अनेक
बार;
कोई आता तो
बुद्ध कहते
उससे जाते
वक्त, ध्यान
रखना, तुम
जो आए थे वही
वापस नहीं लौट
रहे हो! अभी
घड़ी भर पहले
वह आदमी आया
था। चौंक जाते
थे लोग और
कहते थे, क्या
कहते हैं आप? बुद्ध कहते
थे, निश्चित
ही! तुमने
सुना, मैंने
कहा, इतने
में भी सब बदल
गया है।
झेन
फकीर बोकोजू
एक पुल पर से
गुजर रहा है।
साथी है एक
साथ में। वह
साथी बोकोजू
से कहता है, देखते
हैं आप, नदी
कितने जोर से
बही जा रही है!
बोकोजू कहता है,
नदी का बहना
तो कोई भी
देखता है
मित्र, जरा
गौर से देख, पुल भी
कितने जोर से
बहा जा रहा
है--दि ब्रिज!
वह
आदमी चौंक कर
चारों तरफ
देखता है, ब्रिज
तो अपनी जगह
खड़ा है। पुल
कहीं बहते हैं?
नदियां बहती हैं।
वह आदमी चौंक
कर बोकोजू की
तरफ देखता है।
बोकोजू कहता
है, और यह
तो अभी मैंने
तुझसे पूरी
बात न कही। और
गौर से देख, पुल पर जो
खड़े हैं, वे
और भी जोर से
बहे जा रहे
हैं।
यहां
जो भी घटित
होता है समय
के भीतर, वह
परिवर्तन है।
यहां जो भी
कहा जाता है, वह मिट
जाएगा। यहां
जो भी लिखा
जाता है, वह
बुझ जाएगा।
यहां सब
हस्ताक्षर
रेत के ऊपर हैं।
रेत पर भी
नहीं, पानी
पर।
तो जो
नाम परमात्मा
का स्मरण किया
जा सके, ओंठों
से, वाणी
से, शब्द
से, समय
में, स्थान
में; नहीं,
वह कालजयी
नाम नहीं है।
वह वह नाम
नहीं है, जो
समय के पार
है। लेकिन उस
नाम को स्मरण
नहीं किया जा
सकता। उसे कोई
जान सकता है, बोल नहीं
सकता। उसे कोई
जी सकता है, पुकार नहीं
सकता। उसमें
कोई हो सकता
है, लेकिन
अपने ओंठों पर,
अपनी जीभ पर
उसे नहीं रख
सकता।
साथ ही
कहता है
लाओत्से, न तो
वह कालजयी है
और न सदा एकरस
रहने वाला है।
एक सा
रहने वाला
नहीं है। और
परमात्मा भी
जो बदल जाए
उसे क्या
परमात्मा
कहना? और
मार्ग भी जो
बदल जाए उसे
क्या मार्ग
कहना? और
सत्य भी जो
बदल जाए उसे
क्या सत्य
कहना? सत्य
से अपेक्षा ही
यही है कि हम
कितने ही भटकें
और कहीं हों, जब भी हम
पहुंचेंगे, वह वही
होगा--एकरस, वैसा ही
होगा--एकरस।
हम कैसे भी
हों, हम
कहीं भी भटकें,
जन्मों और
जन्मों की
यात्रा के बाद
जब हम उस द्वार
पर पहुंचेंगे,
तो वह वही
होगा--एकरस।
एकरसता, एक
सा ही
होना--इसमें दोत्तीन
बातें खयाल
में ले लेने
जैसी हैं। वही
हो सकता है एक
सा जो पूर्ण
हो। जो अपूर्ण
हो वह एक सा
नहीं हो सकता।
क्योंकि
अपूर्णता के
भीतर गहरी
वासना पूर्ण
होने की बनी
रहती है। वही
तो परिवर्तन
करवाती है।
नदी कैसे एक
जगह रुकी रहे?
उसे सागर से
मिलना है।
भागती है।
आदमी कैसे एक
जगह रुका रहे?
उसे न मालूम
कितनी
वासनाएं पूरी
करनी हैं! न
मालूम कितने
सागर! मन कैसे
एक सा बना रहे?
उसे बहुत
दौड़ना है, बहुत
पाना है। एकरस
तो वही हो
सकता है, जिसे
पाने को कुछ
भी नहीं, पहुंचने
को कोई जगह
नहीं। वही जो
पहुंच गया वहां,
हो गया वही
जिसके आगे और
कोई होना नहीं
है; या जो
है सदा से
वही।
ध्यान
रहे,
एकरस का
अर्थ है
पूर्ण। पूर्ण
में दूसरा रस
पैदा नहीं
होता।
नसरुद्दीन के
संबंध में एक
मजाक बहुत
जाहिर है। एक
तारों वाला
वाद्य उठा
लाया था फकीर नसरुद्दीन।
पर उस वाद्य
की गर्दन पर
एक ही जगह
उंगली रख कर, और
रगड़ता
रहता था तारों
को। पत्नी
परेशान हुई।
एक दिन, दो
दिन, चार
दिन, आठ
दिन। उसने कहा,
क्षमा करिए,
यह कौन सा
संगीत आप पैदा
कर रहे हैं? मोहल्ले के
लोग भी बेचैन
और परेशान हो
गए। आधी-आधी
रात और वह एक
ही तूंत्तूं,
एक ही बजती
रहती थी।
आखिर
सारे लोग
इकट्ठे हो गए।
कहा,
नसरुद्दीन,
अब बंद करो!
बहुत देखे
बजाने वाले, तुम भी एक नए
बजाने वाले
मालूम पड़ते
हो! हमने
बड़े-बड़े बजाने
वाले देखे।
आदमी हाथ को
इधर-उधर भी
सरकाता है, कुछ और आवाज
भी निकालता
है। यह क्या तूंत्तूं
तुम एक ही
लगाए रखते हो;
सिर पका जा
रहा है।
मोहल्ला
छोड़ने का
विचार कर रहे
हैं। या तो
तुम छोड़ दो, या हम! मगर
इतना तो बता
दो कि तुम
जैसा
बुद्धिमान
आदमी और यह एक
ही आवाज? ऐसा
तो हमने कोई
संगीतज्ञ
नहीं देखा।
नसरुद्दीन ने
कहा कि वे लोग
अभी ठीक स्थान
खोज रहे हैं, मैं
पहुंच गया
हूं। नीचे-ऊपर
हाथ फिरा कर
ठीक जगह खोज
रहे हैं कि
कहां ठहर
जाएं। हम
पहुंच गए हैं।
हम तो वही बजाएंगे।
मंजिल आ गई।
यह
मजाक था नसरुद्दीन
का। लेकिन उस
आदमी ने बड़े
गहरे और कीमती
मजाक किए हैं।
अगर परमात्मा
कोई स्वर
बजाता होगा, तो
एक ही होगा।
हाथ उसका
इधर-उधर न
सरकता होगा।
वहां कोई धारा
न बहती होगी, वहां कोई
परिवर्तन न
होगा।
लाओत्से
कहता है, एकरस
नहीं है वह, जो हम बोल
सकते हैं; जो
आदमी
उच्चारित कर
सकता है, वह
उसका नाम नहीं
है।
अंतिम
रूप से इस
सूत्र में एक
बात और समझ
लें।
शब्द
हो,
नाम हो, सब
मन से पैदा
होते हैं।
सारी सृष्टि
मन की है। मन
ही निर्मित
करता और बनाता
है। और मन
अज्ञान है। मन
को कुछ भी पता
नहीं। लेकिन
जो मन को पता
नहीं है, मन
उसको भी
निर्मित करता
है। निर्मित
करके एक तृप्ति
हमें मिलती है
कि अब हमें
पता है।
अगर
मैं आपसे कहूं, आपको
ईश्वर का कोई
भी पता नहीं
है, तो बड़ी
बेचैनी पैदा
होती है।
लेकिन मैं
आपसे कहूं कि
अरे आपको
बिलकुल पता है,
आप जो सुबह
राम-राम जपते हैं,
वही तो है
ईश्वर का नाम,
मन को राहत
मिलती है। अगर
मैं आपसे कहूं,
नहीं, कोई
उसका नाम नहीं,
और जो भी
नाम तुमने
लिया है, ध्यान
रखना, उससे
उसका कोई भी
संबंध नहीं है,
तो मन बड?ी बेचैनी
में, वैक्यूम
में, शून्य
में छूट जाता
है। उसे कोई
सहारा नहीं मिलता
खड़े होने को, पकड़ने को। और मन
जल्दी ही
सहारे
खोजेगा।
सहारा मिल जाए,
तो फिर और
आगे खोजने की
कोई जरूरत
नहीं रह जाती।
मन सब्स्टीटयूट
देता है सत्य
के,
सत्य की
परिपूरक
व्यवस्था कर
देता है। कहता
है, यह रहा,
इससे काम चल
जाएगा। और जो
मन पर रुक
जाते हैं, वे
उन पथों पर
रुक जाएंगे जो
आदमी के बनाए
हुए हैं, उन
शास्त्रों पर
रुक जाएंगे जो
आदमी के निर्मित,
और उन नामों
पर रुक जाएंगे
जिनका
परमात्मा से कोई
भी संबंध नहीं
है।
इस
पहले ही छोटे
से परम वचन
में लाओत्से
सारी संभावनाएं
तोड़ देता है।
सहारे, सारे
सहारे, छीन
लेता है। आदमी
का मन जो भी कर
सकता है, उसकी
सारी की सारी
पूर्व-भूमिका
नष्ट कर देता है।
सोचेंगे हम कि
अगर ऐसा ही है,
तो अब
लाओत्से आगे
लिखेगा क्या?
कहेगा क्या?
जो नहीं कहा
जा सकता, उसको
कहेगा? जिस
पथ पर विचरण
नहीं हो सकता,
उसका इशारा
करेगा? जिस
अविकारी को, जिस कालजयी
को इंगित कर
रहा है, शब्दों
में उसे
लाओत्से
बांधेगा कैसे?
लाओत्से
की पूरी
प्रक्रिया
निषेध की
होगी। इसलिए
निषेध के
संबंध में कुछ
बात समझ लें, ताकि
आगे लाओत्से
को समझना आसान
हो जाए।
दो हैं
रास्ते इस जगत
में इशारा
करने के। एक रास्ता
है पाजिटिव, विधायक
इंगित करने
का। आप मुझसे
पूछते हैं, क्या है यह? मैं नाम ले
देता
हूं--दीवार है,
दरवाजा है,
मकान है।
विधायक
अंगुली सीधा
ही इशारा कर
देती है, डायरेक्ट,
यह रहा। आप
पूछते थे, दरवाजा
कहां है? यह
है। आप पूछते
थे, दीया
कहां है? यह
है।
लेकिन
अंगुलियों से
जिस तरफ इशारे
किए जा सकते
हैं,
वे क्षुद्र
ही हो सकती
हैं चीजें।
विराट की तरफ
अंगुलियों से
इशारे नहीं
किए जा सकते।
क्षुद्र की
तरफ इशारा
अंगुली से
किया जा सकता
है--यह। कोई
पूछता है, परमात्मा
कहां है? तो
नहीं कहा जा
सकता, यह
है। परमात्मा
की तरफ इशारे
अंगुलियों से
नहीं करने
पड़ते; सब अंगुलियां
बांध कर, मुट्ठी
बंद करके करने
पड़ते हैं कि
यह है। जब मुट्ठी
बांध कर कोई
कहता है कि यह
है, तो
उसका मतलब है
इशारा कहीं भी
नहीं जा रहा
है--नोव्हेयर
गोइंग।
किसी तरफ है, ऐसा नहीं कह
सकते; क्योंकि
सब तरफ है।
लेकिन
वह आदमी तो
इससे राजी न
होगा। मुट्ठी
बांध कर अगर
मैं कहूं कि
यह है, तो शायद
समझेगा कि
मुट्ठी है। तो
मुझे कहना पड़ेगा,
यह भी नहीं
है, मुट्ठी
भी नहीं है।
और तब निषेध
शुरू होगा। शायद
वह आदमी
पूछेगा, शायद
आप समझे नहीं,
मैं और अपने
सवाल को सरल
कर लूं। पूरब
की तरफ है? तो
मुझे कहना
पड़ेगा, नहीं।
जानते हुए कि
पूरब भी उसी
में है, कहना
पड़ेगा, नहीं।
क्योंकि अगर
मैं कहूं पूरब
की तरफ है, तो
फिर दक्षिण का
क्या होगा? उत्तर का
क्या होगा? पश्चिम का
क्या होगा? और जब हम
कहते हैं, हां,
पूरब की तरफ
है, तो
जाने-अनजाने
हम कह जाते
हैं कि पश्चिम
की तरफ नहीं
है। क्योंकि
दिशाएं तो
सिर्फ सीमित
की सूचना देती
हैं। शेष जो
रह जाता है, उसको इनकार
कर देती हैं।
तो
दूसरा रास्ता
है
निषेध-इंगित
का। उसमें जब कोई
बताने चलता है, तो
वह यह नहीं
कहता, यह
है। वह कहता
है, यह
नहीं है, यह
नहीं है, यह
नहीं है, नेति-नेति।
नॉट दिस, नॉट
दिस, नॉट
दिस, वह कहता
चला जाता है।
बड़े धीरज की
जरूरत है
निषेध के
मार्ग पर।
क्योंकि जो-जो
आप कहेंगे, यह है? वह
कहेगा, नहीं
है। जो-जो आप
कहेंगे, यह
है? वह
कहेगा, नहीं
है। और वह जगह
आ जाएगी, जब
पूछने को कुछ
भी न रहेगा कि
यह है? तब
वह कहेगा, यही
है।
जैसे
आप कमरे में
मुझसे पूछने
चले और आपने
टेबल पकड़ी
और कुर्सी पकड़ी
और दीवार पकड़ी।
और मैं इनकार
करता गया, इनकार
करता गया। और
कमरे की सब
चीजें चुक
गईं। और आपने
मुझे पकड़ा, और मैंने
इनकार किया।
और आपने आपको
पकड़ा, और
मैंने इनकार
किया। और
इनकार करने को
कुछ भी न बचा।
तब लाओत्से
कहेगा, यह
है। लेकिन तब
आपकी कठिनाई
होगी; आप
कहेंगे, अब
तो सब इनकार
कर दिया। अब?
असल
में,
जो इनकार
करके भी इनकार
नहीं किया जा
सकता--वही है।
जिसे हम इनकार
कर दें और
इनकार हो जाए,
उसकी क्या
सत्ता है!
आदमी के हां
कहने पर जिसका
होना निर्भर
है, आदमी
के न कहने पर
जिसका न होना
निर्भर है, उसका भी कोई
मूल्य है? आस्तिक
कहता है, है;
और सोचता है
कि ईश्वर उसके
है कहने से
कुछ बलवान
होता होगा।
नास्तिक कहता
है, नहीं
है; और
सोचता है कि
शायद नहीं
कहने से ईश्वर
कमजोर होता
होगा। और ऐसा
नास्तिक ही
नहीं सोचता; आस्तिक भी
सोचता है कि
किसी ने अगर
कहा, नहीं
है, तो बड़ा
नुकसान
पहुंचाता है।
और ऐसा आस्तिक
ही नहीं सोचता;
नास्तिक भी
सोचता है कि
किसी ने कहा, है, तो
जाओ खंडन करो
कि नहीं है; क्योंकि बड़ा
नुकसान
पहुंचाता है।
आदमी के हां
और न कहने से...।
एक
बहुत पुरानी
तिब्बतन कथा
है कि एक छोटा
सा मच्छर था।
आदमी ने लिखी, इसलिए
छोटा सा लिखा
है। मच्छर
बहुत बड़ा था, मच्छरों में
बड़े से बड़ा
मच्छर था।
कहना चाहिए, मच्छरों में
राजा था, सम्राट
था। कोई मच्छर
गोबर के टीले
पर रहता था, कोई मच्छर
वृक्ष के ऊपर
रहता था, कोई
मच्छर कहीं।
राजा कहां रहे,
बड़ी चिंता
मच्छरों में
फैली। फिर एक
हाथी का कान
खोजा गया। और
मच्छरों ने
कहा कि महल तो
यही है आपके
रहने के
योग्य।
मच्छर
जाकर दरवाजे
पर खड़ा हुआ, हाथी
के कान पर।
महान
विशालकाय
दरवाजा
था--हाथी-द्वार।
मच्छर ने
दरवाजे पर खड़े
होकर कहा कि सुन
ऐ हाथी, मैं
मच्छरों का
राजा, फलां-फलां
मेरा नाम, आज
से तुझ पर
कृपा करता हूं,
और तेरे कान
को अपना
निवास-स्थान
बनाता हूं। जैसा
कि रिवाज था, मच्छर ने
तीन बार घोषणा
की। क्योंकि
यह उचित नहीं
था कि किसी के
भीतर निवास
बनाया जाए और
खबर न की जाए।
हाथी खड़ा
सुनता रहा।
मच्छर ने सोचा,
ठीक है--मौनं
सम्मति लक्षणम्।
वह सम्मति
देता है, मौन
है।
फिर
मच्छर वर्षों
तक रहता था, आता
था, जाता
था। उसके
बच्चे, संतति
और बड़ा
विस्तार हुआ,
बड़ा परिवार
वहां रहने
लगा। फिर भी
जगह बहुत थी।
मेहमान भी आते,
और भी लोग
रुकते। बहुत
काफी था।
फिर और
कोई जगह
सम्राट के लिए
खोज ली गई और
मच्छरों ने
कहा कि अब आप
चलें, हम और
बड़ा महल खोज
लिए हैं। तो
मच्छर ने फिर
दरवाजे पर खड़े
होकर कहा कि ऐ
हाथी सुन, अब
मच्छरों का
सम्राट, फलां-फलां
मेरा नाम है, अब मैं जा
रहा हूं। हमने
तुझ पर कृपा
की। तेरे कान
को महल बनाया।
कोई
आवाज न आई।
मच्छर ने सोचा, क्या
अब भी मौन को
सम्मति का
लक्षण मानना
पड़ेगा? अब
भी? यह जरा
दुखद मालूम
पड़ा कि ठीक है,
जाओ, कुछ
मतलब नहीं। वह
हां भी नहीं
भर रहा है, न
भी नहीं भर
रहा है। उसने
और जोर से
चिल्ला कर कहा,
लेकिन फिर
भी कुछ पता न
चला। उसने और
जोर से चिल्ला
कर कहा। हाथी
को धीमी सी
आवाज सुनाई पड़ी
कि कुछ...। हाथी
ने गौर से
सुना, तो
सुनाई पड़ा कि
एक मच्छर कह
रहा है कि मैं
सम्राट
मच्छरों का, मैं जा रहा
हूं, तुझ
पर मेरी कृपा
थी, इतने
दिन तेरे कान
में निवास
किया। क्या
तुझे मेरी
आवाज सुनाई
नहीं पड़ती है?
हाथी
ने कहा, महानुभाव,
आप कब आए, मुझे पता
नहीं। आप
कितने दिन से
रह रहे हैं, मुझे पता
नहीं। आप आइए,
रहिए, जाइए,
जो आपको
करना हो, करिए।
मुझे कुछ भी
पता नहीं है।
तिब्बतन
फकीर इस कथा
को किसी अर्थ
से कहते हैं।
आदमी आता है।
दर्शन, फिलासफी,
धर्म, मार्ग,
पथ, सत्य,
सिद्धांत, शब्द
निर्मित करता
है।
चिल्ला-चिल्ला
कर कहता है इस
अस्तित्व के
चारों तरफ कि
सुनो, राम
है उसका नाम!
कि सुनो, कृष्ण
है उसका नाम!
आकाश चुप है।
उस अनंत को कहीं
कोई खबर नहीं
मिलती। हाथी
ने तो मच्छर
को आखिरी में
सुन भी लिया, क्योंकि
हाथी और मच्छर
में कितना ही
फर्क हो, कोई
क्वालिटेटिव
फर्क नहीं है।
क्वांटिटी
का फर्क है; मात्रा ही
का फर्क है।
हाथी जरा बड़ा
मच्छर है, मच्छर
जरा छोटा हाथी
है। कोई ऐसा
गुणात्मक भेद
नहीं है कि
दोनों के बीच
चर्चा न हो
सके। हो सकती
है, थोड़ी
कठिनाई
पड़ेगी। मच्छर
को बहुत जोर
से बोलना
पड़ेगा, हाथी
को बहुत गौर
से सुनना
पड़ेगा। लेकिन
घटना घट सकती
है, असंभव
नहीं है।
लेकिन
अस्तित्व और
मनुष्य के मन
के बीच कोई इतना
भी संबंध नहीं
है। न हम आते
हैं,
तब उसे पता
चलता है कि
हमने
बैंड-बाजे बजा
कर घोषणा कर
दी है कि मेरा
जन्म हो रहा
है। न हम मरते
हैं, तब
उसे पता चलता
है। हम आते
हैं और चले
जाते हैं। पानी
पर खींची रेखा
की भांति बनते
हैं और मिट जाते
हैं। लेकिन इस
थोड़ी सी देर
में, जब कि
रेखा बनने और
मिटने के बीच
में थोड़ी देर बचती
है, उतनी
थोड़ी देर में
हम न मालूम
कितने शब्द
निर्मित करते
हैं। उस बीच
हम न मालूम
कितने सिद्धांत
निर्मित करते
हैं। उस बीच
हम न मालूम
कितने
शास्त्र
बनाते हैं, संप्रदाय
बनाते हैं। उस
बीच हम मन का
पूरा जाल फैला
देते हैं।
लाओत्से
उस जाल को
काटेगा।
नेति-नेति
उसके कहने का
ढंग है। असल
में,
जिनको परम
के संबंध में
कुछ कहना हो, परम के
संबंध में कुछ
कहना हो, तो
उन्हें कहना
ही पड़ेगा कि
उस संबंध में
कुछ नहीं कहा
जा सकता। और
फिर कहने की
कोशिश करनी
पड़ेगी। और वह
कोशिश यही
होगी कि यह नहीं
है, यह
नहीं है। वह
पथ, जिस पर
विचरण किया जा
सके, नहीं,
वह नहीं है।
वह शब्द, जिसका
स्मरण किया जा
सके, नहीं,
वह नहीं है।
और आप
भाषा की भूल
में मत पड़
जाना।
क्योंकि जिसका
स्मरण किया जा
सके,
वही है नाम;
और तो कोई
नाम हम बोल
नहीं सकते। और
जिस पर विचरण
किया जा सके, उसी को तो हम
पथ कहते हैं; और किसी पथ
को तो हम
जानते नहीं
हैं। अगर इसको
बिलकुल ठीक, ठीक से रख
दिया जाए, तो
बहुत हैरानी
होगी। वह
हैरानी यह
होगी कि अगर
इसको ऐसा कहा
जाए: जो भी पथ
है, वह पथ
नहीं; जो
भी नाम है, वह
नाम नहीं; तो
आपकी समझ
में...। सीधा
अर्थ इतना ही
है: दैट व्हिच इज़ ए वे इज़
नॉट ए वे एट ऑल,
दैट व्हिच इज़ ए नेम इज़ नॉट ए
नेम एट ऑल!
यही कह
रहा है वह। वह
यही कह रहा है, पहुंचना
हो तो पथ से
बचना, नहीं
तो भटक जाओगे।
और जानना हो
उसे, पुकारना
हो उसे, तो
नाम भर मत
लेना, नहीं
तो चूक जाओगे।
और उसके संबंध
में इंच भर की
चूक अनंत चूक
है। कोई इंच
भर की चूक
छोटी चूक नहीं
है; बड़ी से
बड़ी चूक है, हो गई।
मारपा
के सामने एक
युवक आकर बैठा
है। वह तीन वर्ष
से मारपा के
पास है। और
मारपा से कह
रहा है, रास्ता
बताइए। कुछ
उसका
पता-ठिकाना
बताइए। कुछ
नाम हो तो
बोलिए। और जब
भी वह कहता है
कि कुछ उसका
पता-ठिकाना
बताइए, तभी
अगर मारपा
बोलता भी है, तो एकदम चुप
हो जाता है।
वैसे बोलता
रहता है। और
जब भी वह युवक
कहता है, कुछ
पता-ठिकाना
बताइए, अभी
तो आप बोल ही
रहे हैं, थोड़ा
उसका भी, कि
वह एकदम आंख
बंद करके चुप
हो जाता है।
अगर मारपा का
शिष्य पूछता
है कि कोई तो
रास्ता बताइए,
तो वह चल भी
रहा हो रास्ते
पर तो एकदम
खड़ा हो जाता
है।
तीन
साल में
परेशान हो
गया। उसने कहा
कि हद्द हो
गई। वैसे आप
थोड़ा चलते भी
हैं,
और जब भी
मैं रास्ते की
बात उठाता हूं
कि एकदम ठहर जाते
हैं। वैसे आप
बोलते हैं, कोई एतराज
आपको बोलने
में नहीं है, लेकिन जैसे
ही मैं उसकी
खबर पूछता हूं
कि आप आंख बंद
करके ओंठ सी
लेते हैं। और
मैं उसी के लिए
आया हूं। न तो
आपका बाकी
चलना मुझे कोई
प्रयोजन है, और न आपकी
बाकी बातों से
मुझे कोई मतलब
है। लेकिन
मारपा तो आंख
ही बंद करके
बैठ जाता है
जब ऐसी बात छिड़ती
है।
आखिर
एक दिन उस
युवक ने कहा, अब
मैं जाऊं?
मारपा
ने पूछा, तुम
आए ही कब थे? तीन साल से
तुम दरवाजे के
बाहर ही घूम
रहे हो। आते
कहां भीतर? जाने की
आज्ञा किससे
लेते हो? मैंने
एक क्षण को
नहीं जाना कि
तुम भीतर आए।
कई बार मैं
द्वार खोल कर
खड़ा हो गया।
कई बार रुक गया
कि शायद मैं
चलता हूं, इसलिए
तुम प्रवेश न
कर पाते होओ।
तो मैं खड़ा हो
गया। जब भी
तुमने सवाल
पूछा, मैंने
तुम्हें जवाब
दिया है।
उस
युवक ने कहा, हद्द
हो गई। यही तो
बेचैनी है कि
जब भी मैंने
सवाल पूछा, आप चुप रह गए
हैं। ऐसे आप
बोलते रहते
हैं। यह भी
इल्जाम मुझ पर
आप लगा रहे
हैं? इसीलिए
तो मैं जाता
हूं छोड़ कर
तुम्हें कि जब
भी मैंने पूछा,
आप चुप रह
गए हैं।
मारपा
ने कहा, वही
था जवाब। काश,
तुम भी उस
वक्त चुप रह
जाते! काश, जब
मैं चलते-चलते
ठहर गया था, तुम भी ठहर
जाते! तो मिलन
हो जाता
हमारा।
बताना
है उसके संबंध
में,
तो मौन होना
पड़ता है।
चलाना है उसके
संबंध में
किसी को, तो
खड़े हो जाना
पड़ता है। उलटी
दिखती हैं
बातें, लेकिन
ऐसा ही है।
लाओत्से एक-एक
कदम एक-एक चीज को
गिराता चलेगा।
उस जगह ले
जाएगा आपको, जहां कुछ भी
न बचे गिराने
को। आप भी न
बचें! खालीपन
रह जाए।
और
खालीपन ही
निर्विकार
है। ध्यान
रखें, जहां
कुछ भी आया, वहीं विकार
आ जाता है।
शून्य के
अतिरिक्त और कोई
पवित्रता
नहीं है।
शून्य के
अतिरिक्त और कोई
निर्दोष, इनोसेंट स्थिति नहीं
है। जरा सा
कंपन एक विचार
का, कि नरक
के द्वार खुल
जाते हैं। जरा
सा एक रेखा का
खिंच जाना मन
में, और
संसार
निर्मित हो
जाता है। जरा
सी वासना की
कौंध, और
अनंत जन्मों
का चक्कर शुरू
हो जाता है।
शून्य, बिलकुल
शून्य; नहीं
है कोई आकार
उठता भीतर, नहीं कोई
शब्द, नहीं
कोई नाम, नहीं
कोई मार्ग, नहीं कोई
मंजिल, न
कहीं जाना है,
न कुछ
पहुंचना है, न कुछ पाना
है। ऐसी जब
कोई स्थिति
बनती है, तब
ताओ प्रकट
होता है। तब
मार्ग प्रकट
होता है। तब
वह नाम सुना
जाता है। तब
वह अविकारी और
सनातन नियम
बोध में आता
है। वह नियम, अराजकता
जिसके विपरीत
नहीं है; वह
नियम, जो
अराजकता को भी
अपने गर्भ में
समाए हुए
है।
किसी
को भी पूछना
हो सवाल तो
पूछ लें। और
कोई भी सवाल, क्योंकि
सब सवाल एक से
हैं। कुछ भी
पूछ लें।
एक
मित्र पूछते
हैं कि विचार
चलते हैं और
पीछे ऐसा भी
लगता है कि
थोड़ा
निर्विचार
हुआ और चारों
तरफ विचार
चलते रहते हैं
और केंद्र पर
कहीं कोई
निर्विचार का
भी खयाल होता
है,
और वह
स्थिति जब कि
सब विचार बंद
हो जाते हैं, इन दोनों की
बात पूछते
हैं।
जब
तक विचार चलते
हैं,
तब तक
निर्विचार का
खयाल सिर्फ एक
विचार है। जब
तक विचार चलते
हैं, तब तक
निर्विचार का
खयाल सिर्फ एक
विचार है। वह
भी एक विचार
है कि मैं
निर्विचार
हूं; और
इधर विचार चल
रहे हैं, और
मैं
निर्विचार
हूं। क्योंकि
मैं निर्विचार
हूं, इसकी
स्थिति तो तभी
स्मरण में
आएगी, जब
विचार नहीं चल
रहे होंगे। और
मजे की बात यह है
कि यह जब
स्थिति बनेगी,
तब यह खयाल भी
नहीं रहेगा कि
मैं
निर्विचार
हूं। क्योंकि
निर्विचार
होने का खयाल
एक विचार
मात्र है।
जैसे
एक आदमी जब
पूर्ण स्वस्थ
होता है, तो यह
भी पता नहीं
रहता कि मैं
स्वस्थ हूं।
इस बात का पता
कि मैं स्वस्थ
हूं, बीमारी
की खबर देता
है। इसलिए
अक्सर बीमार
आदमी
स्वास्थ्य की
बात करते हुए
देखे जाते
हैं--स्वस्थ
आदमी नहीं, बीमार आदमी।
बीमारी बनी
रहे किसी कोने
पर, तो
स्वास्थ्य का
बोध बन सकता
है। और कई दफा
स्वास्थ्य का
खयाल एक नई
तरह की बीमारी
ही सिद्ध होती
है। अगर कोई
आदमी
स्वास्थ्य के
प्रति बहुत
सचेतन हो गया,
तो रुग्ण हो
जाता है। यह
रोग है एक।
तो ऐसी
घटना घटती है, जब
कि आप मन से
सोच-सोच कर, सुन-सुन कर, समझ-समझ कर
यह आकांक्षा
मन में बना
लेते हैं कि
निर्विचार हो
जाऊं।
क्योंकि सुना
कि पवित्र है
वही, सुना
कि परम आनंद
है वही, सुना
कि वहीं है
समाधि का सुख,
सुना कि सब
फीका पड़ जाता
है, वहीं
है आनंद, तो
फिर आकांक्षा
बनती है, वासना
बनती है कि
मैं
निर्विचार हो
जाऊं।
अब
ध्यान रखें, निर्विचार
होने को कभी
वासना नहीं
बनाया जा सकता।
पर बनती है।
असल
में मन की
तरकीब ही यही
है कि आप कुछ
भी कहो, वह
उसको वासना
में निर्मित
कर देता है।
वह कहता है, मोक्ष चाहिए?
मोक्ष में
बड़ा आनंद है, मोक्ष चाहिए?
मोक्ष की
कोशिश करो, खोजो, मिल
जाएगा। अब
मोक्ष की खोज
शुरू हो गई।
और जिस मोक्ष
को मन खोजता
है, वह
मोक्ष नहीं
है। असल में, जहां मन
नहीं होता, वहां मोक्ष
है। इसलिए मन
का खोजा हुआ
मोक्ष तो
मोक्ष नहीं हो
सकता। निर्विचार
की बात
सुनते-सुनते
मन में बैठ
जाता है, निर्विचार
होना चाहिए।
ध्यान
रखें, निर्विचार
होना चाहिए, यह एक विचार
है। यह
लाओत्से को
सुन कर आ गया
हो खयाल में, यह मुझे सुन
कर खयाल में आ
जाए, किसी
और को सुन कर
खयाल में आ
जाए, किसी
किताब से पढ़
लें और यह
खयाल में आ
जाए कि
निर्विचार
होना चाहिए।
पर यह आपके
पास क्या
है--निर्विचार
होना? यह
एक विचार है।
सिर्फ
निर्विचार
होना है, इसलिए
विचार नहीं है,
इस भूल में
पड़ने की कोई
जरूरत नहीं
है। दिस इज़
ए मोड ऑफ थॉट, टु बी थॉटलेस।
यह एक प्रकार
हुआ विचार का।
अब अगर
इस विचार पर
आप जिद्द
देकर पड़ जाएं, तो
मन आपको दूसरा
धोखा देगा। वह
कहेगा कि देखो,
भीतर तो
निर्विचार है,
आस-पास
विचार घूम रहे
हैं; आर-पार
चल रहे हैं
विचार, मैं
तो बाहर खड़ा
हुआ हूं।
लेकिन
मैं जो बाहर
खड़ा हुआ हूं, यह
क्या है? इज़ इट
मोर दैन ए थॉट?
यह जो मैं
बाहर खड़ा हूं,
यह क्या है?
यह एक विचार
है।
पर
इससे भी थोड़ा
सुख मिलेगा, थोड़ी
शांति
मिलेगी। वह
शांति नहीं, जो कालजयी
है; वह
शांति नहीं, जिसका कोई
नाम नहीं है।
न, इससे एक
शांति मिलेगी,
जो कि मन को
सदा मिलती है,
जब भी वह
अपनी किसी
वासना को पूरा
कर लेता है। यह
एक वासना थी मन
में कि
निर्विचार हो
जाऊं। अब यह
विचार बीच में
खड़ा हो गया कि
मैं
निर्विचार
हूं। मन को बड़ी
तृप्ति मिलती
है कि देखो, मैं
निर्विचार भी
हो गया।
और मन
बड़ा कुशल है।
एक छोटे से
कोने में एक
विचार को खड़ा
कर देगा कि
मैं
निर्विचार
हूं,
और चारों
तरफ विचार
घूमते रहेंगे।
और चारों तरफ
कहना भी ठीक
नहीं है, क्योंकि
भीतर जहां मैं
कह रहा हूं कि
मैं निर्विचार
हूं, वहां
भी विचार अभी
खड़ा हुआ है।
वहां भी विचार
मौजूद है। हां,
ज्यादा से
ज्यादा यह हो
सकता है कि
वहां जरा एक
थिर विचार खड़ा
है, बाकी
विचार चल रहे
हैं। बाकी
विचार चल रहे
हैं--दूकान है,
बाजार है, काम है, धंधा
है--वे चारों
तरफ चल रहे
हैं। और यह एक
विचार, कि
मैं
निर्विचार
हूं, खड़ा
हो गया है बीच
में।
लेकिन
अगर इसको भी
बहुत गौर से
देखेंगे तो यह
भी पूरा खड़ा
हुआ नहीं
मिलेगा, क्योंकि
कोई विचार
पूरा खड़ा हुआ
नहीं हो सकता।
यह भी दीए की
लौ की भांति
नीचा-ऊंचा
होता रहेगा।
एक क्षण को
लगेगा, हूं;
एक क्षण को
लगेगा, नहीं
हूं। एक क्षण
को लगेगा कि
अरे, ये तो
विचार भीतर
घुस गए! एक
क्षण को लगेगा,
मैं फिर
बाहर हूं। एक
क्षण को लगेगा,
मैं फिर खो
गया। यह बस
ऐसा ही होता
रहेगा। यह, क्योंकि कोई
भी विचार
परिवर्तन के
बाहर नहीं हो
सकता--यह
विचार भी नहीं
कि मैं
निर्विचार
हूं--यह भी
डोलता रहेगा,
फ्लक्चुएटिंग,
नीचा-ऊंचा,
इधर-उधर
पूरे वक्त
होता रहेगा।
क्षण भर को
ऐसा लगेगा कि
हूं, और
लगा नहीं कि
गया।
नहीं, ताओ
ऐसी स्थिति की
बात नहीं है।
ऋत और बात है। नहीं,
विचार तो
हैं ही नहीं
चारों तरफ, यह विचार भी
नहीं है कि
मैं
निर्विचार
हूं। कोई भी
नहीं बचा जो
कह सके, मैं
निर्विचार
हूं। भीतर कोई
है ही नहीं, निपट
सन्नाटा है।
चुप्पी के
सिवाय कुछ भी
नहीं है। यह
जानने वाला भी
नहीं है, खड़े
होकर जो कह दे
कि देखो, मैं
बिलकुल चुप हूं।
इतना भी अगर
मौजूद है, तो
जानना, मन
आखिरी धोखा दे
रहा है--दि
लास्ट
डिसेप्शन! और
इसी धोखे में
आए कि मन फौरन
आपको वापस
पूरे चक्कर
में खड़ा कर
देगा एक
सेकेंड में।
अगर आप इस
खयाल में आ गए
कि अरे, हो
गया
निर्विचार, आप वापस
पहुंच गए गहनतम
नर्क में।
यह एक
विचार
करीब-करीब ऐसे
ही काम करता
है,
जैसा बच्चे लूडो का
खेल खेलते
हैं। चढ़ते
हैं, बड़ी
मुश्किल
लगाते हैं, नसेनियां,
सीढ़ियां,
और फिर एक
सांप के मुंह
पर पड़ते हैं
और सरक कर नीचे
सांप की पूंछ
पर आ जाते
हैं। अगर एक
भी विचार का
खयाल आ गया, मैं
निर्विचार
हूं, यह भी
खयाल आ गया, तो सांप के
मुंह में पड़े
आप। आप नीचे
उतर जाएंगे; वे सब सीढ़ियां
जो चढ़े थे, वे
सब बेकार हो
गई हैं।
इसलिए
बोधिधर्म ने
कहा,
आई डू नॉट
नो, मैं
नहीं जानता।
कौन खड़ा है
आपके सामने, मुझे खुद ही
पता नहीं।
किसी
ने बाद में
बोधिधर्म को
कहा कि वू
बहुत दुखी और
पीड़ित हुआ है।
सम्राट बहुत
अपमानित हुआ
है। आपने इस
तरह के जवाब
दिए! सम्राट
को ऐसे जवाब
नहीं देने थे।
आपने कह दिया
कि मुझे पता
ही नहीं कौन है।
बोधिधर्म
ने कहा कि तुम
सम्राट की बात
कर रहे हो!
सम्राट की वजह
से,
कि यह
बेचारा इतनी
दूर आया, मैंने
इतना भी जवाब
दिया। अन्यथा
इतना जवाब भी
गलत था। वह भी
नहीं है मेरे
भीतर जो कह
सके कि मुझे
पता नहीं कौन
है। यह तो
सिर्फ उसकी
वजह से कि वह
और ही हैरान
हो जाएगा
इसलिए उसको
मैंने कह
दिया। बट डोंट
मिसअंडरस्टैंड
मी, बोधिधर्म
ने कहा, मुझे
गलत मत समझना।
इतना भी मेरे
भीतर नहीं है
कोई जो कहे कि
मुझे पता नहीं
है। यह सिर्फ
सम्राट इतनी
दूर से चल कर
आया था, वर्षों
से प्रतीक्षा
कर रहा था
मेरी। जैसे कोई
बच्चा आ जाए
और हम उसे
खिलौना पकड़ा
दें, ऐसा
मैंने उसे एक
खिलौना दिया
है।
जब तक
विचार चल रहे
हैं चारों तरफ, तब
तक जानना कि
आप भी एक
विचार हो--यू
आर ए थॉट। जब
कुछ भी न रह
जाए, यह
पता करने वाला
भी न रह जाए, कुछ रह ही न
जाए...।
और जरा
भी कठिनाई
नहीं है, जरा
भी कठिनाई
नहीं है। यह
हमें दिक्कत
की बात मालूम
पड़ती है। और
बुद्ध को
समझने में इस
देश में जो
बड़ी से बड़ी
कठिनाई हुई, वह यही थी।
और चीन में
बुद्ध को
समझने में
आसानी पड़ी, उसका कारण
यह लाओत्से था,
और कोई
नहीं। चीन में
बुद्ध समझे जा
सके लाओत्से
की वजह से।
लाओत्से
बुद्ध के पहले
वह सब कह चुका
था। तो जब
बुद्ध की बात
पहुंची चीन
में और बुद्ध
का शब्द लोगों
ने सुना कि
आत्मा भी नहीं
है, तो लोग
समझ पाए।
लाओत्से की एक
भूमिका थी, जो कह रहा था,
कुछ भी नहीं
है।
भारत
में बड़ी
कठिनाई हो गई।
हम यह बात
मानने को
तैयार हैं, विचार
समाप्त हो जाए,
बहुत अच्छा;
लेकिन मैं
तो रहूं।
मोक्ष मिले, बिलकुल ठीक;
लेकिन मैं
रहूं। मुझे तो
बचना ही
चाहिए। तो जब
बुद्ध ने इस
देश में कहा, अनत्ता,
अनात्मा। कहा कि
नहीं, आत्मा
भी नहीं है, क्योंकि यह
भी एक विचार
है।
इसे
समझें थोड़ा।
मैं आत्मा हूं, यह
भी एक विचार
है। और
निश्चित ही वह
जगह है, जहां
यह विचार भी
नहीं होता। और
वहीं आत्मा है।
यह उलटा दिखता
है। यह विचार
भी जहां नहीं
होता कि मैं
आत्मा हूं, वहीं आत्मा
है। लेकिन वह
तो प्रकट हो
जाएगी। आप
काटते चले
जाएं, काटते
चले जाएं, आखिर
में खुद कट
जाएं।
करीब-करीब ऐसा
करना पड़ता है
जैसे दीया
जलता है, आग
जलती है, लौ
जलती है। लौ
पहले तेल को
जलाती रहती
है। फिर तेल
चुक जाता है।
फिर लौ बाती
को जलाने लगती
है। फिर बाती
चुक जाती है।
फिर पता है, लौ का क्या
होता है? लौ
खो जाती है।
लौ पहले तेल
को जला देती
है, फिर
बाती को जला
देती है, फिर
स्वयं को जला
लेती है।
विचार
को छोड़ दें, विचार
काट डालें।
फिर स्वयं को
भी छोड़ दें।
फिर विचारों
को काट डाला, स्वयं को भी
छोड़ दिया, यह
भी छोड़ दें।
तब कुछ नहीं
बचता। एक
निर्विकार
भाव-अवस्था, एक
निर्विकार
अस्तित्व, एक
मौन-शांत
सत्ता, एक्झिस्टेंस
शेष रह जाता
है, जहां
मैं का भंवर
नहीं बनता।
पानी
में भंवर बनते
देखे होंगे।
जोर चक्कर से भंवर
बनता है। और
भंवर की एक
खूबी होती है, आप
कुछ भी डाल दो
तो वह भंवर
उसको फौरन
खींच कर
घुमाने लगता
है। मैं एक
भंवर है।
जिसमें आप कुछ
भी डालें, वह
किसी भी चीज
को पकड़ कर
घुमाने
लगेगा।
इस
निर्विचार, निरहंकार
स्थिति में
कोई भंवर नहीं
रह जाता, कोई
घूमने की
स्थिति नहीं
रह जाती। और
तब, तब ताओ
का अनुभव है, तब धर्म का, या बुद्ध
जिसे धम्म
कहते थे, नियम
का, ऋषि
जिसे ऋत कहते
रहे हैं, महावीर
जिसे कैवल्य
कहते हैं।
कैवल्य का अर्थ
है, कुछ भी
न बचा, केवल
होना ही बचा; कोई उपाधि न
रही, कोई
विशेषण न रहा;
सिर्फ
अस्तित्व रह
गया। मात्र
होना, जस्ट बीइंग! जैसे
कोई एक गहन गङ्ढ
में झांके, या जैसे कोई
खुले आकाश में
झांके--न कोई
बादल, न
कोई तारे, खाली
आकाश रह गया।
ऐसा ही जब
भीतर रह जाता
है, झांकने
वाला भी नहीं
रह जाता, सिर्फ
खालीपन रह
जाता है, तब
पता चलता है
उसका, उस
पथ का, जिस
पर विचरण संभव
नहीं है, उस
पथ का, जो
अविकारी है।
और तब पता
चलता है उस
सत्य का, जिसे
कोई नाम नहीं
दिया जा सकता,
जो कालजयी
है, जो
कालातीत है, जो सदा एकरस
है, जो
केवल स्वयं
है।
जीसस
के एक भक्त ने, तरतूलियन ने...तरतूलियन
से कोई पूछता
है कि जीसस के
संबंध में कुछ
समझाओ, कुछ
हमें उदाहरण
दो जिससे पता
चले कि जीसस
कैसे थे। तो तरतूलियन
कहता है कि मत
मुझसे गलती करवाओ।
जीसस बस
बिलकुल अपने
ही जैसे थे--जस्ट
लाइक हिमसेल्फ।
बस अपने ही
जैसे; और
किसी से कोई
तुलना नहीं हो
सकती।
क्या
होगा वहां? उस
ताओ की दशा
में, उस ऋत
में डूब कर
क्या होगा? कैसे होंगे
हम? क्या
होगा हमारा
रूप? क्या
होगी आकृति? क्या होगा
नाम? कोई
बचेगा जानने
वाला? नहीं
बचेगा? क्या
होगा?
कोई
तुलना नहीं हो
सकती, कुछ कहा
भी नहीं जा
सकता। इशारे
सब नकारात्मक हैं।
इतना कहा जा
सकता है, आप
नहीं होंगे।
आप बिलकुल
नहीं होंगे।
और जो होगा, उसे आपने
अपने भीतर कभी
नहीं जाना है।
इतना कहा जा
सकता है, कोई
विचार न होगा,
यह विचार भी
नहीं कि मैं
निर्विचार
हूं। फिर भी
होगी चेतना, लेकिन ऐसी, जिसे आपने
कभी नहीं जानी
है।
और
उसके पहले मन
सब तरह की वंचनाएं
खड़ी करने में
समर्थ है।
इसलिए सजग
रहना जरूरी
है। मन इतना
कुशल है, इतना
सूक्ष्म रूप
से चालाक और
कुशल है कि सब
धोखे खड़े करने
में समर्थ है।
कामवासना से
भरे चित्त को
ब्रह्मचर्य
का धोखा दे
सकता है।
परिपूर्ण
स्वयं के
प्रति
अज्ञानी को
आत्मज्ञानी
का धोखा दे
सकता है। जिसे
कुछ भी पता नहीं
है, उसे
खयाल दिला
सकता है कि
उसे सब पता
है। जो नहीं
मिला है, उसकी
भी खबर दे सकता
है कि मिल गया
है। इसलिए मन
की डिसेप्टिविटी,
उसकी जो प्रवंचकता
है, उसके
सब रूप ठीक से
समझ लेने
जरूरी हैं।
हुआंग पो
के सामने एक
युवक आया है
और कह रहा है
कि मैं शांत
हो गया हूं। हुआंग पो
पूछता है, फिर
तुम यहां किसलिए
आए हो? अगर
तुम शांत हो
गए हो, तो
तुम यहां किसलिए
आए हो? जाओ!
क्योंकि मैं
तो सिर्फ
अशांत लोगों
का इलाज करता
हूं। युवक न
तो जा सकता है,
क्योंकि
देखता है, हुआंग
पो किसी और ही
ढंग से शांत
मालूम होता
है। कहता है, नहीं, कुछ
दिन तो रुकने
की आज्ञा दें।
हुआंग पो
कहता है, शांत
लोगों के लिए
रुकने की कोई
भी आज्ञा नहीं
है। जरा सोच
कर बाहर से
फिर आओ। अशांत
तो नहीं हो? क्योंकि मैं
नहीं सोचता
हूं, हुआंग पो कहता है, कि तुम दो सौ
मील पैदल चल
कर मुझे बताने
सिर्फ यह आओगे
कि मैं शांत
हूं। दो सौ
मील पैदल चल
कर मुझे यह
बताने आओगे कि
मैं शांत हूं!
और अगर इसके
लिए आए हो, तो
बात खतम हो
गई। धन्यवाद!
परमात्मा करे
कि तुम सच में
ही शांत होओ।
लेकिन एक दफा
बाहर जाकर फिर
सोच आओ।
युवक
बाहर जाता है।
और तभी हुआंग
पो कहता है, अब
बाहर जाने की
कोई जरूरत
नहीं, लौट
आओ। क्योंकि
अगर अभी इतनी
भी अशांति
बाकी है कि
सोचना है कि
शांत हूं या
नहीं, वापस
आ जाओ।
तुम्हारी
झिझक ने सब
कुछ कह दिया है।
तुम सोचने जा
रहे हो बाहर
कि मैं शांत
हूं या नहीं, यह काफी
अशांति है। हुआंग पो
कहता है, रुको!
हुआंग पो
कहता है, व्हेयरएवर देयर इज़ च्वॉइस--जहां
भी चुनाव है, वहीं अशांति
है। अभी तुम
चुनने जा रहे
हो कि शांत हूं
कि अशांत हूं?
तुम
पर्याप्त
अशांत हो।
बैठो! मैं
तुम्हारे काम
पड़ सकता हूं।
लेकिन तभी, जब तुम अपने
मन की धोखे
देने की
कुशलता को समझ
जाओ।
तुम
अशांत हो और
मन तुम्हें
धोखा दे रहा
है कि तुम
शांत हो।
तुम्हें कुछ
पता नहीं है
और तुम कहते
हो,
मुझे मालूम
है कि भीतर
आत्मा है।
तुम्हें कुछ
पता नहीं और
तुम कहते हो, यह सारा
संसार
परमात्मा ने
बनाया है।
तुम्हें कुछ
भी पता नहीं
है और तुम
कहते हो कि
आत्मा अमर है।
मन के इस धोखे
में जो पड़ेगा,
वह फिर उसे
न जान पाएगा
जो जानने जैसा
है। और उसे न
जान पाए, इसलिए
मन ये सारे
धोखे निर्मित
करता है।
तो जब
तक तुम्हें
पता चलता हो
कि विचार चल
रहा है और
मुझे पता चल
रहा है कि
विचार चल रहा
है,
तब तक तुम
जानना कि मन
ने अपने दो
हिस्से किए: एक
हिस्सा विचार
चलाने वाला, और एक
हिस्सा एक
विचार का कि
मैं विचार
नहीं हूं, मैं
निर्विचार
हूं। यह मन का
ही द्वैत है।
सच तो
यह है कि मन के
बाहर द्वैत
होता ही नहीं।
मन के बाहर
अद्वैत हो
जाता है। और
अद्वैत का कोई
बोध नहीं होता, ऐसा
बोध नहीं होता
कि तुम कह सको,
ऐसा है।
ज्यादा से
ज्यादा तुम
इतना ही कह
सकोगे, ऐसा
नहीं है, ऐसा
नहीं है, ऐसा
नहीं है।
आज
इतना, कल
फिर हम बैठें।
और आप सब पूछ
सकते हैं।
❤️🌹Osho🙏🙏
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