दिनांक 17 जनवरी, 1977;
श्री ओशो
आश्रम,
कोरेगांव
पार्क,
पूना।
सूत्र:
क्यात्मनो
दर्शन तस्य
यदृष्टमवलंबते।
धीरास्तं
तं न पश्यति
पश्यंत्यात्मानमव्ययम्।।216।।
क्य
निरोधो
विमूढ़स्य यो
निर्बंध
करोति वै।
स्वारामस्यैव
धीरस्य
सर्वदाऽसावकृत्रिम:।।217।।
भावस्य
भावक:
कश्चिन्न
किचिद्भावकोऽपर:।
उभयाभावक:
कश्चिदेवमेव
निराकुल:।।218।।
शुद्धमद्वयमात्मान
भावयति
कुबुद्धय:।
न
तु जानन्ति
समोहाद्यावज्जीवमनिर्वृता।।219।।
मुमुक्षोर्बुद्धिरालबमतरेण
न विद्यते।
क्यात्मनोदर्शनतस्ययद्दृष्टमवलबते।
धीरास्ततनपश्यंतिपश्यंत्यात्मानमव्ययम्।।
'उसको
आत्मा का दर्शन
कहा है, जो दृश्य
का अवलंबन करता
है? धीर पुरुष
दृश्य को नहीं
देखते हैं और
अविनाशी आत्मा
को देखते है।'
इस एक सूत्र में
पूरब के समस्त
दर्शन का सार है।
दर्शन शब्द का
भी यही अर्थ
है। यह सूत्र दर्शन
की व्याख्या है।
दर्शन
का अर्थ सोच—विचार
नहीं होता।
दर्शन का वैसा
अर्थ नहीं है, जैसा
फिलासफी का।
दर्शन का अर्थ
है : उसे देख
लेना जो सब
देख रहा है।
दृश्य को
देखना दर्शन
नहीं है, द्रष्टा
को देख लेना
दर्शन है।
मनुष्य को
हम दो विभागों
में बाट सकते
हैं। एक तो वे, जो दृश्य
में उलझे हैं।
कहो उन्हें, अधार्मिक।
फिर चाहे वे
परमात्मा की
मूर्ति सामने
रख कर उस
मूर्ति में ही
क्यों न मोहित
हो रहे हों, दृश्य में
ही उलझे हैं।
चाहे आकाश में
परमात्मा की
धारणा कर
रसलीन हो रहे
हों तो भी
दृश्य में ही
उलझे हैं।
परमात्मा भी
उनके लिए एक
दृश्य मात्र
है।
दूसरा वर्ग
है, जो
द्रष्टा की
खोज करता है।
मैं तुम्हें
देख रहा हूं
तुम दृश्य हो।
जो मेरे भीतर
से तुम्हें
देख रहा है, द्रष्टा है।
तुम मुझे देख
रहे हो, मैं
तुम्हारे लिए
दृश्य हूं। जो
तुम्हारे
भीतर छिपा
मुझे देख रहा
है, आंख की
खिड़कियों से,
कान की
खिड़कियों से
जो मुझे सुन
रहा है, देख
रहा है, वह
कौन है? उसकी
तलाश में जो
निकल जाता है
वही धार्मिक
है।
परमात्मा
को अगर दृश्य
की भांति सोचा
तो तुम मंदिर—मस्जिद
बनाओगे, गुरुद्वारे
बनाओगे, पूजा
करोगे, प्रार्थना
करोगे, लेकिन
वास्तविक
धर्म से
तुम्हारा
संबंध न हो पाएगा।
वास्तविक
धर्म की तो
शुरुआत ही तब
होती है जब तुम
द्रष्टा की
खोज में निकल
पड़े; तुम
पूछने लगे
मौलिक प्रश्न
कि मैं कौन
हूं! यह जानने
वाला कौन है? जानना है
जानने वाले को।
देखना है
देखने वाले को।
पकड़ना है इस
मूल को, इस
स्रोत को।
इसके पकड़ते ही
सब पकड़ में आ
जाता है।
उपनिषद
कहते हैं, जिसने जानने
वाले को जान
लिया उसने सब
जान लिया।
महावीर कहते
हैं, एक को
जान लेने से
सब जान लिया
जाता है। और
वह एक
प्रत्येक के
भीतर बैठा है।
परमात्मा
को दृश्य की
तरह सोचना बंद
करो।
परमात्मा को
द्रष्टा की
तरह देखना
शुरू करो।
इसीलिए तो
कहते हैं, आत्मा ही
परमात्मा है।
पहचान ली तो
परमात्मा हो
गई, न
पहचानी तो
आत्मा बनी रही।
अगर तुम अपने
ही भीतर गहरे
उतर जाओ और
अपनी ही गहराई
का आखिरी केंद्र
छू लो तो कहीं
खोजने नहीं
जाना। तुम
मंदिर हो।
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर
विराजमान है।
लेकिन
यात्रा की
दिशा बदलनी
पड़ेगी। दृश्य
है बाहर, द्रष्टा
है भीतर।
दृश्य है पर, द्रष्टा है
स्व। दृश्य को
देखना हो तो आंख
खोल कर देखना
पड़ता है।
द्रष्टा को
देखना हो तो आंख
बंद कर लेनी
पड़ती है।
दृश्य को
देखना हो तो
विचार की
तरंगें
सहयोगी होती
हैं। और
द्रष्टा को
देखना हो तो
निर्विचार, अकंप दशा
चाहिए। दृश्य
को देखना हो
तो मन उपाय है,
और द्रष्टा
को देखना हो
तो ध्यान।
ध्यान का
अर्थ है, मन
से मुक्ति। मन
का अर्थ है, ध्यान से
मुक्ति।
जिसने ध्यान
खोया वह मन
बना और जिसने
मन खोया वह
ध्यान बना।
जरा सी ही बात
है. बाहर न देख
कर भीतर देखना।
सूफी फकीर
औरत हुई
राबिया।
अनूठी औरत हुई
राबिया। जमीन
पर बहुत कम
वैसी औरतें
हुई हैं। बैठी
है अपनी झोपड़ी
में, सुबह का
ध्यान कर रही
है। उसके घर
एक मुसलमान
फकीर ठहरा हुआ
था, हसन।
वह भी बड़ा
प्रसिद्ध
फकीर था।
तुम्हें फर्क
समझ में आ
जाएगा, जो
फर्क मैं समझा
रहा हूं। सुबह
हुआ था, सूरज
निकला था, पक्षी
गीत गाने लगे।
सुंदर सुबह थी।
आकाश में
शुभ्र बदलिया
तैरती थीं।
ठंडी हवा चलती
थी। हसन बाहर
आया, उसने
देखा यह
सौंदर्य।
उसने जोर से
पुकारा, राबिया,
तू भीतर
क्या करती? अरे बाहर आ!
परमात्मा ने
बड़ी सुंदर
सुबह को जन्म
दिया है।
पक्षियों के
प्यारे गीत
हैं, सूरज
का सुंदर जाल
है, ठंडी
हवा है। तू
बाहर आ, भीतर
क्या करती है?
और राबिया
खिलखिला कर
हंसी। और कहा, हसन, बाहर
कब तक रहोगे? तुम ही भीतर
आ जाओ।
क्योंकि बाहर
परमात्मा की
बनी हुई सुबह
को तुम देख
रहे, भीतर
मैं स्वयं उसे
देख रही जिसने
सुबह बनाई।
सुबह सुंदर है,
लेकिन सुबह
के मालिक के
मुकाबले क्या?
सूरज सुंदर
है, रोशन
है, लेकिन
जिसके हाथ के
इशारे से
रोशनी सूरज
में पैदा हुई
उसके मुकाबले
क्या! और
पक्षियों के
गीत बड़े
प्यारे हैं, लेकिन मैं
उस मालिक का
गीत सुन रही
हूं जिसने सारे
गीत रचे; जो
सभी पक्षियों
के कंठों से
गुनगुनाया है।
हसन, तुम्हीं
भीतर आ जाओ।
हसन तो चौंक
कर रह गया।
हसन ने न सोचा
था कि बात ऐसा
मोड़ ले लेगी।
लेकिन राबिया
ने ठीक कहा।
ये हसन और
राबिया, ये
आदमियत के दो
प्रतीक हैं।
हसन बाहर की
तरफ खोज रहा
है, राबिया
भीतर की तरफ
खोज रही है।
हसन दृश्य में
खोज रहा है।
दृश्य भी
सुंदर है; नहीं
कि दृश्य
सुंदर नहीं है।
पर दृश्य का
सौंदर्य ऐसे
ही है जैसे
चांद को किसी
ने झील में
झलकते देखा हो।
छाया है झील
में तो।
प्रतिबिंब है
झील में तो।
वास्तविक
चांद झील में
नहीं है।
जिसने चांद
को देख लिया।
वह झील में
देखने वाले को
कहेगा पागल, तूकहां उलझा
है दृश्य में!
मूल को खोज।
यह तो छाया है।
यह तो
प्रतिबिंब है।
जो हम बाहर
देखते हैं वह
हमारा ही
प्रतिबिंब है।
संसार दर्पण
से ज्यादा
नहीं है। जब
तुम्हारा मन
रस से भरा
होता है तो
बाहर भी रस
दिखाई पड़ता है।
जब तुम गीत से
भरे होते हो
तो बाहर भी
गीत सुनाई
पड़ते हैं। जब
तुम आनंदित
होते हो तो
लगता है, सारा
जगत महोत्सव
है। जब तुम दुखी
हो जाते हो, सारा जगत
दुखी हो जाता
है। जब तुम
पीड़ा से भर
जाते हो तो
फूल दिखाई
नहीं पड़ते, कांटे ही
काटे हाथ आते
हैं।
जो
तुम्हारे
भीतर हो रहा
है वही बाहर झलकता
है। तुम बाहर
की व्याख्या
तो भीतर से ही
करोगे न! व्याख्या
तो भीतर से
आएगी।
व्याख्या तो
द्रष्टा से
आएगी। दृश्य
में तुम्हें
जो दिखाई पड़
रहा है वह भी
द्रष्टा की ही
छाया है।
एक कवि इस
बगीचे में आ
जाए और एक
संगीतज्ञ इस बगीचे
में आ जाए और एक
चित्रकार इस
बगीचे में आ
जाए और
दुकानदार इस बगीचे
में आ जाए और
एक लकड़हारा इस
बगीचे में आ जाए; सभी एक ही
बगीचे में दिखाई
पड़ते हैं
लेकिन एक ही
बगीचे में
होंगे नहीं।
लकड़हारा
सोचता होगा
कौन—कौन से
वृक्ष काट
डाले जाएं।
कौन सी लकड़ी
बिक सकेगी।
कौन सी लकड़ी
फर्नीचर बन
सकेगी, कौन
सी लकड़ी जलाऊ
हो सकेगी।
शायद
दुकानदार को
वृक्ष दिखाई
ही न पड़े। या
इतना ही दिखाई
पड़े कि इनके
फल बिक जाएं
तो कितने दाम
हाथ आ सकेंगे।
दुकानदार
रुपये ही
गिनते रहे।
कवि को कुछ
और दिखाई
पड़ेगा। फूल
दिखाई पड़ेंगे, फूलों में
छाई हुई आभा
दिखाई पड़ेगी।
कवि के भीतर, जैसे बाहर
फूल खिले हैं
वैसे भीतर गीत
फूटने लगेंगे।
चित्रकार को
रंगों का
दर्शन होगा।
उसे ऐसे रंग
दिखाई पड़ेंगे
जो तुम्हें
साधारणत:
दिखाई नहीं
पड़ते। तुम तो
जब देखते हो, तो सभी
वृक्ष हरे
मालूम होते
हैं।
चित्रकार जब
देखता है तो
एक—एक वृक्ष
अलग—अलग ढंग
से हरा मालूम
होता है। हरे
में भी कितने
भेद हैं। हरे
में भी कितने
हरेपन छिपे
हैं। हरे में
भी कितने ढंग
हैं। सब हरा
हरा नहीं है, हरे और हरे
में बड़ा फर्क
है। वह तो
चित्रकार को
दिखाई पड़ेगा।
जो
तुम्हारे
भीतर है उसकी
छाया तुम्हें
बाहर दिखाई
पड़ती है। और
अगर कोई एक
संत आ जाए, राबिया आ
जाए उस बगीचे
में तो फूल के
सौंदर्य को
देख कर उसकी आंखें
बंद हो जाएंगी।
फूल का
सौंदर्य उसकी आंखों
को झपका देगा,
क्योंकि
फूल के
सौंदर्य से
उसे परमात्मा
के सौंदर्य की
याद आ जाएगी।
बाहर का
सौंदर्य उसे
भीतर फेंक
देगा। वह आंख
बंद कर लेगी।
बाहर का फूल
तो भूल जाएगा,
निमित्त हो
गया, भीतर
का फूल दिखाई
पड़ने लगेगा।
बाहर के गीत
सुन कर राबिया
किसी
अंतर्यात्रा
पर निकल जाएगी।
बाहर का गीत
तो बहुत दूर
रह जाएगा।
दृश्य, हर
दृश्य
द्रष्टा की
खबर लाएगा—लाता
ही है, हम
अंधे हैं।
भीतर की तरफ
अंधे हैं
इसलिए हम
वस्तुओं में उलझे
रह जाते हैं।
पहला सूत्र
आज का है :
क्यात्मनो
दर्शन तस्य
यद्दृष्टमवलंबते।
उसको आत्मा
का दर्शन कहां, कैसे— असंभव
है—जो दृश्य
का अवलंबन
करता है। जो
दृश्य के पीछे
भागा चल रहा
है, वह
अपने से दूर
निकलता जाएगा।
बचकानापन है।
कुर्सी पर बैठ
कर लोग बड़े हो
जाते हैं।
राष्ट्रपति
के पद पर बैठ
कर जैसे—जैसे
दृश्य के पीछे
भागेगा वैसे—वैसे
अपने केंद्र
से स्मृत हो
जाएगा। दृश्य
तो आदमी
राष्ट्रपति
मालूम होने
लगता है, पद
से उतरते ही
खो जाता है।
फिर कोई फिकर
मिलेगा नहीं,
क्योंकि
दृश्य तो मृग—मरीचिका
है। वह जो झील
में दिखाई
पड़ता १ नहीं
लेता, कोई
जयरामजी करने
नहीं आता।
चांद, तुम
अगर डुबकी लगा
लिए झील में
चांद को पकड़ने
को तो क्या
तुम पा। इसीलिए
तो जो आदमी पद
पर पहुंच जाता
है, पद से
हटता नहीं।
लाख वह जो
प्रतिबिंब
बनता था वह भी
खंड—खंड होकर
पूरी झील पर
बिखर जाएगा।
पूरी झील पर
चांदी फैल
जाएगी, लेकिन
तुम पकड़ न
पाओगे। तुम
पगला जाओगे।
ऐसे ही तो
सारा जगत पागल
है। दिखाई
पड़ता है दूर
क्षितिज पर
सौंदर्य, दौड़ते
हो तुम; जब
तक मुट्ठी में
आता है, तब
तक सब बिखर
जाता है।
सुंदर से
सुंदर स्त्री
तुम्हारे
मुट्ठी में आते
ही कुरूप हो
जाती है।
सुंदर से
सुंदर पुरुष
तुम्हारे हाथ
में आते ही
कुरूप हो जाता
है। इसलिए तो
अपनी स्त्री
किसको सुंदर
दिखाई पड़ती है?
सदा दूसरे
की स्त्री
सुंदर दिखाई
पड़ती है।
इसीलिए तो
अपना घर किसको
महल मालूम
पड़ता है? सदा
दूसरे का घर
महल मालूम
पड़ता है। जो
नहीं है
मुट्ठी में
वही सुंदर
लगता है; मुट्ठी
में आते ही सब
बिखर जाता है।
छायाएं हैं
इस जगत में।
प्रतिबिंब
हैं इस जगत
में। दूर से
बड़े लुभावने।
दूर के ढोल
बड़े सुहावने।
पास आते—आते
सब खो जाता है।
सत्य की
परिभाषा है :
जो पास आने पर
और सत्य हो जाए।
असत्य की
परिभाषा है :
जो दूर से
सत्य मालूम
पड़े, पास आने
पर खो जाए।
महापुरुष की
परिभाषा है :
जिसके पास आओ
तो और बड़ा
होने लगे।
महापुरुष के
नाम से जो
धोखा देता है
उसके पास आओगे,
छोटा होने
लगेगा। जैसे—जैसे
पास आओगे वैसे—वैसे
छोटा हो जाएगा।
जब बिलकुल पास
जाओगे, तुम्हारे
ही कद का हो
जाएगा। शायद
तुमसे भी छोटे
कद का साबित
हो। दूर से
दिखाई पड़ता है
बड़ा।
इसीलिए तो
राजनेता किसी
को बहुत पास
नहीं आने देते।
कहते हैं
अडोल्फ हिटलर
ने किसी से
कभी मैत्री
नहीं बनाई। एक
भी आदमी ऐसा न
था जो उसके
कंधे पर हाथ
रख कर मित्र
की तरह
व्यवहार कर
सके। अडोल्फ
हिटलर ने कभी
किसी स्त्री
को इस तरह से
प्रेम नहीं
किया कि वह
करीब आ जाए।
अडोल्फ हिटलर
के कमरे में
कभी कोई नहीं
सोया। कोई
स्त्री भी
नहीं सोई।
कारण? अडोल्फ
हिटलर
बरदाश्त नहीं
करता था किसी
का पास आना।
उसका बड़प्पन
दूर के ढोल का
सुहावनापन था।
वह बड़ा था दूर
होकर; पास
आकर छोटा हो
जाता। जानता
था। सभी
राजनेता
जानते हैं।
तुम जब
राजपदों की
आकांक्षा
करते हो तो
तुम क्या
आकांक्षा कर
रहे हो? तुम
यही आकांक्षा
कर रहे हो, तुम
तो छोटे हो, कुर्सियों
पर खड़े होकर
बड़े हो जाओगे।
तुम बचकाने हो।
कभी—कभी छोटे
बच्चे करते
हैं। बाप के
पास मूढ़े पर
खड़े हो जाते
हैं और कहते
हैं, देखो
पिताजी, तुमसे
बड़ा हो गया।
राजनीति बस
इसी तरह का
का
बचकाना है।
कुर्सी पर
बैठकर लोग
बड़े हो जाते
है। राष्ट्रपति
के पद पर बैठ
कर
आदमी राष्ट्रपति
मालूम होने
लगता है। पद
से उतरते ही
खो जाते है।
फिर कोई फिर्क
नहीं करता कोई
जयरामजी नहीं
करता।
इसलिए तो
आदमी पर पहूंच
कर जाता है,
पद से हटता
नहीं। लाख
सरकाओ, लाख
उपाय करो, वह
टस से मस नहीं।
वह चाहता उसी
पद पर रहते—रहते
मर जाए। अब पद
से नीचे न
उतरे।
क्योंकि वह
जानता है, वह
जो बड़प्पन
अनुभव हो रहा
है वह झूठ है।
वह पद के कारण
है; वह
कुर्सी से
मिला है। अपना
नहीं है, आत्मगौरव
नहीं है, पदगौरव
है।
जिस
व्यक्ति को
आत्मा का थोड़ा
रस आने लगता
है वह पदों
में उत्सुक न
रह जाएगा।
फिर पद का एक
फायदा है कि
तुम जैसे ही
पद पर होते हो, दूसरे पास
नहीं आ सकते।
यही धन का भी
फायदा है।
जितनी बड़ी धन
की ढेरी पर
तुम खडे होते
हो, लोग
उतने दूर छूट
जाते हैं। कोई
पास नहीं आ
सकता।
ये छोटे
आदमियों की
दौड़े हैं। हीन
ग्रंथियों से
पीड़ित
आदमियों की
दौड़े हैं।
लेकिन अधिक
लोग इसमें
व्यस्त होते
हैं।
दृश्य की
तलाश में
आत्मा का
दर्शन कहा? अष्टावक्र
कहते हैं, दृश्य
का जो अवलंबन
करता है वह
कभी अपने को न
पा सकेगा। और
जिसने अपने को
न पाया वह सब
भी पा ले तो उस
पाने का सार
क्या है? जीसस
ने कहा है, तुम
सारी दुनिया
भी पा लो और
स्वयं को खो
दो, यह कोई
सौदा हुआ? इसको
जीत समझते हो?
यह तो महा
हार हो गई।
इससे बड़ी और
पराजय क्या
होगी? अपने
को गंवा दिया,
सब कमा लिया।
कमाने
योग्य तो एक
ही बात है : वह, जो तुम्हारे
भीतर छिपा
बैठा है। वही
है परम धन, वही
है परम पद।
उसे नहीं पाया
तो समझना, तुम
भिखमंगे रहे
और भिखमंगे
मरे। फिर तुम
कितनी ही बड़ी
कुर्सियों पर
चढ़ जाओ; तुम
कितनी ही
सीढ़ियां चढ़
जाओ, और
तुम कितने ही
धन के ढेर लगा
लो, और तुम
सारी पृथ्वी
के मालिक हो
जाओ, अगर
तुम अपने
मालिक नहीं हो
तो तुम दीन हो,
तुम दरिद्र
हो। और अगर
तुम अपने
मालिक हो और
तुम्हारे पास
कुछ भी न हो तो
भी तुम्हारी
समृद्धि
अपूर्व है; तुम सम्राट
हो।
स्वामी राम
अपने को
बादशाह कहते
थे। था तो
नहीं उनके पास
कुछ भी। बोलते
थे तो भी वे
अपने को राम
बादशाह ही
कहते थे। कि
आज सुबह राम
बादशाह घूमने
गया तो वृक्ष
झुक—झुक कर
सलाम बजाने
लगे। आज रात
राम बादशाह जा
रहा था तो
चांद—तारे
परिक्रमा
करने लगे।
इस देश में
तो ऐसी बात
चलती है। इस
देश में कोई
इसमें अड़चन
नहीं लेता; हम इसके आदी
हैं। लेकिन जब
वे अमरीका गए
तो लोगों को
यह बात न जंची।
लोगों ने कहा,
आप कह क्या
रहे हैं? क्योंकि
अमरीका में तो
यह पागलपन का
लक्षण हो जाए।
चांद—तारे और
आपका चक्कर
लगाने लगे? और वृक्ष
झुक—झुक कर
सलाम बजाने
लगे? होश
में हैं? और
आप अपने को
राम बादशाह
कहते हैं, और
दो लंगोटी
आपके पास हैं।
और राम
बादशाह ने कहा, इसीलिए तो
कहता हूं कि
मैं बादशाह
हूं क्योंकि
मेरे पास ऐसा
कुछ भी नहीं
है, जो
छीना जा सके।
और मेरे पास
ऐसा कुछ भी नहीं
है जो मौत
मेरे हाथों से
छुडा लेगी।
मेरी मालकियत
ऐसी है कि मौत
भी हार जाएगी।
और मेरी
मालकियत ऐसी
है कि कोई छीन
न सकेगा।
इसलिए तो
बादशाह कहता
हूं अपने को।
मेरी हंसी
देखो, मेरी
आंखों में झांको।
मेरी बादशाहत
भीतरी है।
मेरी बादशाहत
वही है जिसकों
जीसस ने
किंगडम ऑफ गॉड
: प्रभु का
राज्य कहा है।
मेरी आंखों
में आंखें
डालों और देखो,
मेरी
बादशाहत भीतर
है। मैंने
अपने को पा
लिया है इसलिए
कहता हूं कि मैं
बादशाह हूं।
और तुम सब
गरीब हो, दीन—दरिद्र
हो। होंगे
करोड़ों रुपये
तुम्हारे पास,
धन—वैभव
होगा, फिर
भी मैं तुमसे
कहता हूं तुम
दीन—दरिद्र हो।
इन्हीं
अमीरों के लिए, जिनके पास
बाहर का सब
कुछ है और
भीतर का कुछ
नहीं है, जीसस
का प्रसिद्ध
वचन है : सुई के
छेद से भी ऊंट निकल
सकता है लेकिन
ऐ अमीर लोगो!
तुम प्रभु के
राज्य में
प्रवेश न पा
सकोगे।
सुई के छेद
से ऊंट भी
निकल सकता है—यह
असंभव है। सुई
के छेद से
कैसे ऊंट
निकलेगा? लेकिन
जीसस कहते हैं,
यह असंभव भी
शायद किसी
तरकीब से संभव
हो जाए। सुई
के छेद से भी
ऊंट निकल जाए,
लेकिन ऐ
अमीर लोगो!
तुम प्रभु के
राज्य में प्रवेश
न पा सकोगे।
कारण? कारण
कि तुम अमीर
ही नहीं हो।
कारण कि तुम
तो अत्यंत दीन
हो, अत्यंत
दरिद्र हो।
तुम्हारे
भीतर तो कुछ
भी नहीं, खालीपन,
सूखा—सूखा
मरुस्थल। एक
भी मरूद्यान
नहीं
तुम्हारे
भीतर। तुम
भीतर तो कोरे—कोरे।
तुमने तो भीतर
की संपदा जगाई
ही नहीं।
दृश्य के
पीछे जो भागता
रहेगा, दृश्य
तो मिलेंगे ही
नहीं और
द्रष्टा खो
जाएगा। यह दौड़
बड़ी महंगी है।
और अधिकतर लोग
इसी दौड़ में
हैं। बहुत बार
अनुभव में भी
आता है कि
जिसकी तलाश करते
थे, जब
मिलता है तो
कुछ भी मिलता
नहीं। लेकिन
फिर मून के
जाल बड़े गहरे
हैं। मन कहता
है : शायद इस
बार चूक गए, अगली बार हो
जाए। फिर
वासनाएं आ
जाती हैं, फिर
नये प्रलोभन आ
जाते हैं।
फिर आ गए
राजाधिराज
चाबुक घुमाते
सफेद घोड़े
दौड़ाते, सूरज
का मुकुट
झिलमिलाते
फिर बच्चे
फूल बीनने लगे
क्या मैं
कभी जाड़े की
सुगंध से छूती
नहीं?
बंधी ही
रहूंगी
गरमाहट की
इच्छा से?
हर बार हर
साल धूप की
भाप बर मोम—सी
घुलूंगी?
खोदूंगी
स्पर्श—निरपेक्ष
स्व?
इस असहायता
से मुक्त हो
जाऊं,
विदेह हो
आऊं
फिर आ गए
राजाधिराज
चाबुक घुमाते
सफेद घोड़े
दौड़ाते, सूरज
का मुकुट
झिलमिलाते?
वासना पीछा नही
छोड़ती। कई बार
लगता है, कई
बार गहन
अभीप्सा उठती
है, कब
मुक्त हो जाऊं?
कब छूटे यह
जाल? कब छूटे
यह जंजाल? कब
होगी मुक्ति?
कब होगा
खुला आकाश? जहां कोई
मांग परिधि न
बनेगी, और
जहां कोई
वासना दूषित न
करेगी, जहां
चैतन्य का
दीया निर्धूम
जलेगा, जहां
भिखमंगापन
जरा भी न होगा,
जहां अपने
में तृप्ति
परिपूर्ण होगी
और उससे बाहर
जाने की कोई
कल्पना भी न
उठेगी, जहां
स्वप्न
थरथराएंगे
नहीं, जहां
अकंप होगी
चैतन्य की
शिखा—कब आएगा वैसा
क्षण? ऐसा
बहुत बार बोध
भी आता, लेकिन
फिर आ जाते
वासना के घोड़े
दौड़ाते। फिर आ
गए राजाधिराज
चाबुक घुमाते?
फिर पकड़
लेता मन। फिर
कोई कहता है, एक बार और।
थोड़ा और दौड़
लो। टालस्टाय
की बड़ी
प्रसिद्ध
कहानी है :
कितनी जमीन एक
आदमी को जरूरी
है? एक
संन्यासी, एक
घुमक्कड़, एक
साधारण सुखी
परिवार में
ठहरा। साधारण
सुखी परिवार,
खाता—पीता,
मस्त था।
सीधे—सादे लोग
थे। लेकिन इस
घुमक्कड़ ने
रात को कहा, तुम क्या कर
रहे हो यहां? तुम जिंदगी
भर इसी छोटी
सी जमीन में
खेती—बाड़ी
करते रहोगे, कभी अमीर न
हो पाओगे।
यह आदमी, जिसके घर यह
घुमक्कड़
मेहमान था, गरीब था ही
नहीं, क्योंकि
इसे कभी अमीर
होने का खयाल
ही न उठा था।
उस रात गरीब
हो गया। उस
घुमक्कड़ ने
कहा, इसमें
ही पड़े रहोगे,
कभी अमीर न
हो पाओगे।
अमीरी का खयाल
उठा कि गरीब
हो गया। रात
सो न सका। रोज
निश्चित सोता
था, उस रात
बड़ी उधेडबुन
रही। सुबह उठ
कर घुमक्कड़ से
पूछा कि तुम
तो सारी जमीन
पर घूमते हो, कोई ऐसी जगह
है जहां मैं
अमीर हो जाऊं?
उसने कहा, ऐसी जगह है
साइबेरिया
में। वहा अजीब
लोग हैं, अभी
भी जंगली।
उनको अभी भी
कुछ अक्ल नहीं
है। वहां तुम
चले जाओ। इतनी
जमीन बेच दो यहां।
इतने पैसे में
तो वहा तुम
जितनी जमीन
चाहो, ले
लो।
फिर तो क्या
था, वासना
जाग गई। उस
आदमी ने जमीन—मकान
सब बेच दिया। बच्चे—पत्नी
बहुत रोए।
उसने कहा, तुम
घबड़ाओ मत, जल्दी
ही हम अमीर हो जायेगा।
अमीर वे थे
ही। क्योंकि
कभी गरीबीका
खयाल ही न उठा
था। मस्त थे, बड़ी बुरी
तरह से गरीब
हो गये।
वह सब बेच—बाच
कर पहुंचा दूर
साइबेरिया
में। वहां
जाकर पता चला
कि घुमक्कड़ ने
ठीक कहा था।
अजीब लोग थे।
घुमक्कड़ ने
कहा था, तुम
बस किसी भी
कबीले के
प्रमुख को
प्रसन्न कर
लेना। और
प्रसन्न वे
छोटी—छोटी
बातों से हो
जाते हैं।
हुक्का ले
जाना, तमाखू
ले जाना, शराब
ले जाना, बस
भेंटकर देना।
वह खुश हो जाए
तो तुम कहना, थोड़ी जमीन
चाहिए। उसने
खुश कर लिया
एक प्रमुख को।
प्रमुख ने कहा,
तो ले लो जितनी
जमीन.. .कितनी
चाहिए? तो
वह कुछ सोच न
पाया। तो उसने
कहा, ऐसा करो,
प्रमुख ने कहा,
कल सुबह सूरज
उगते तुम निकल
पड़ना। और जितनी
जमीन तुम घेर
लो सांझ सूरज
डूबने तक, सब
तुम्हारी।
जितने का
चक्कर लगा लो।
वह आदमी तो
दीवाना हो गया
कि इतनी जमीन, जितने का
दिन भर में
मैं चक्कर लगा
लूं? फिर
रात भर सो न
सका। रात भर
चक्कर लगाता
रहा। रात भर
सपने में
दौड़ता रहा, दौड़ता रहा।
सुबह उठा तो
बड़ा थका—मादा
था। नींद ही न
हुई थी और रात
भर दौड़ा था।
एक दुखस्वप्न
था। लेकिन
उसने कहा, कोई
हर्जा नहीं।
उसने सुबह
नाश्ता भी न
किया, क्योंकि
पेट भारी होगा
तो शायद
ज्यादा चक्कर
न लगा पाए।
सिर्फ उसने
पानी की एक
थर्मस लटका ली।
और वह तो
भागा। इतनी
तेजी से भागा, जीवन में
कभी भागा नहीं
था। एकदम तीर
की तरह भागा।
एक क्षण खोना
खतरनाक था।
उसने तय कर
रखा था मन में
कि ठीक बारह
बजते—बजते जब
सूरज सिर पर
होगा तो लौटना
शुरू कर दूंगा,
क्योंकि
फिर लौटना भी
है। लेकिन जब
सूरज सिर पर
था तो मन
मोहने लगा कि
थोड़ा और। कई
मील चल चुका
था। इतना
विराट घेर
लिया था और
इतनी सुंदर
जमीन थी। जब
सूरज सिर पर
आया तो उसने
कहा, थोड़ा
और घेर लूं।
जरा जोर से
दौड़ना पड़ेगा,
और क्या! एक
दिन की ही बात
है, और दौड़
लूंगा।
उसने रुक कर
पानी भी न
पीया, क्योंकि
प्यास तो लगी
थी लेकिन रुक
कर पानी पीए
उतना समय खो
जाए। उतनी देर
में तो एकड—दो
एकड़े घेर ले।
सूरज ढलने लगा
लेकिन मन
लोटने का —न हो।
सोचा उसने, जीवन दाँव
पर लगा लूं।
एक ही दिन की
तो बात है।
फिर लौटा; अब बड़ी
मुश्किल हो गई।
अब वह भाग रहा
है, भाग
रहा है, दिन
भर का थका—मादा।
सूरज ढलने—ढलने
को होने लगा; वह भाग रहा
है, वह भाग
रहा फिर तो
क्या था, है।
सारा गांव खड़ा
है देखने के
लिए। और लोग
उसे उत्साहित
कर रहे कि दौड़,
क्योंकि
सूरज डूब रहा
है। अगर सूरज
डूबते तक न
लौटा तो सब गया।
डूबते तक लौट
आना चाहिए। यह
शर्त थी। उसने
सारा जीवन दांव
पर लगा दिया।
अब तो बहुत ही
करीब रह गया
है और सूरज
बिलकुल
क्षितिज छू रहा
है। उसने सारी
शक्ति आखिरी
बार इकट्ठी की;
बची भी नहीं
थी शक्ति, सब
दांव पर लगा
दी। भागा।
लेकिन जो रेखा
खींची गई थी
उस पर पहुंचते—पहुंचते
गिर पड़ा। सूरज
ढल ही रहा था।
पहुंच गया ठीक
वक्त पर, लेकिन
गिरते ही मर
गया।
और गांव भर
के लोग खूब
हंसे। और
उन्होंने
उसकी कब्र बना
दी और कब्र पर
लिख दिया. एक
आदमी को कितनी
जमीन चाहिए।
छह फीट! छह फीट
कब बनी। मीलों
घेर ली थी, वह सब
व्यर्थ चली गई।
यह टाल्सटाय
की बड़ी
प्रसिद्ध
कहानी है : 'हाउ
मच लैंड डज ए
मैन रिक्यायर।’
कितनी जमीन?
छह फीट काफी
हो जाती है।
वासना बढ़ती
चली जाती।
वासना कोई छोर
नहीं मानती।
तुम दौड़ते ही
चले जाते।
मेरे एक
मित्र हैं, मुझसे
उन्होंने कहा
कि आप कहते
हैं कि आदमी
को अंतिम समय
में प्रभु में
ध्यान लगा
देना चाहिए।
तो उनकी उम्र
है कोई साठ
साल। तो मैंने
कहा, अब
अंतिम समय तो
आ ही गया। अब
और क्या राह
देख रहे? उन्होंने
कहा, बस
ऐसा करें, पांच
साल का मुझे
और वक्त दें।
मैंने कहा, तुम्हारी
मर्जी।
क्योंकि वक्त
तुम्हारा, उम्र
तुम्हारी, ध्यान
तुम्हारा; मेरी
तो कुछ इसमें
जबरदस्ती चल
नहीं सकती।
तुम्हारी
मौज। लेकिन
पांच साल का
पक्का है कि
बचोगे? वे
हंसने लगे।
कहने लगे कि
आप भी कैसी
बात करते हैं।
अरे आपके
आशीर्वाद से
बचेंगे।
क्यों नहीं
बचेंगे! मैंने
कहा, मेरे
आशीर्वाद से
तुम्हारा
क्या लेना—देना!
न मेरे
आशीर्वाद से
तुम पैदा हुए
न मेरे
आशीर्वाद से
तुम जी रहे हो,
न मेरे
आशीर्वाद से
बचोगे। इन
धोखों में मत
पड़ो।
वे जरा दुखी
भी हो गए।
कहने लगे, ऐसी बात तो
नहीं कहनी
चाहिए। आप तो
कम से कम
आशीर्वाद दें।
मैंने कहा कि
मुझे
आशीर्वाद
देने में कुछ
खर्च नहीं
लगता। इसीलिए
तो साधु—महात्मा
आशीर्वाद
देते हैं। कुछ
हर्जा ही नहीं
है। आशीर्वाद
देने में मेरा
क्या बिगड़ता
है? आशीर्वाद
लो। लेकिन
पांच साल में
पक्का है, अगर
बच गए तो फिर? उन्होंने
कहा, फिर
तो संन्यास ले
लेना है। सब
बंद कर दूंगा।
हो गया!
पांच साल भी
पूरे हो गए।
जब मैं दुबारा—उनके
घर मैं मेहमान
हुआ तो वे बड़े
बेचैन थे। वे
अकेले में
मेरे पास न
बैठें,
इधर उधर
घूमें। मैंने
कहा कि घूमने
से क्या होगा? पाँच साल
पूरे हो गये।
कहां, आप
कहते तो ठीक
है। पाँच साल
का और वक्त
दे दें। तो
मैंने उन्हें
टाल्सटाय की
यह कहानी
सुनाई : 'हाउ
मच लैंड डज ए
मैन
रिक्यायंर।’ तो तुम कहे
थे पैंसठ साल,
अब बदलते हो?
नहीं, वे
कहने लगे
बदलता नहीं
हूं। अपनी बात
पर रहूंगा
लेकिन कई काम
उलझे पड़े हैं,
धंधे अधूरे
पड़े हैं, बच्चे
युनिवर्सिटी
में हैं, आते
हैं, उलझनें
हैं, सब
इनको निपटा
लूं।
पांच साल
में मैंने कहा, उलझनें निपट
जाएंगी? क्योंकि
उलझनें किसी
की कभी नहीं
निपटीं। पांच
साल तो क्या, पचास साल और
जीयो तो भी
नहीं निपटेगी।
क्योंकि पांच
साल में
उलझनें
निपटाओगे तो
जरूर, लेकिन
उलझनें खड़ी भी
तो करोगे।
उन्होंने
कहा कि नहीं, इस बार
बिलकुल पक्का
कहता हूं। कहो
तो लिख कर दे
दूं। मैंने
कहा, आप
लिख कर ही दे
दो। तो डरने
लगे। कहा, नहीं
आप भी क्या
बात करते हैं।
बात कह दी, लिखना
क्या? मैंने
कहा, तुम
लिख ही दो।
शायद पांच साल
बाद तुम फिर
बदल जाओ। लिख
कर उन्होंने
मुझे दिया। जब
पांच साल फिर
निकल गए तो
मैंने उन्हें
तार किया कि
पांच साल पूरे
हो गए। वे आए
और कहने लगे, क्षमा करें।
यह मुझसे न हो
सकेगा। और अब
आपसे दुबारा
पांच साल
मांगूं इसकी
भी हिम्मत
नहीं पड़ती।
लेकिन यह
मुझसे हो न
सकेगा।
मैंने कहा, मरोगे या
नहीं मरोगे? मरते वक्त
क्या करोगे? मौत द्वार
पर खड़ी हो
जाएगी.. .मुझे
तो तुम कहते
हो कि नहीं हो
सकेगा; मौत
से क्या कहोगे?
वे कहने लगे,
कौन आज मरा
जाता हूं। जब
आएगी मौत तब
देख लेंगे।
ऐसे आदमी
सरकाता चलता।
ऐसे आदमी
हटाता चलता।
जीवन ऐसे
रत्ती—रत्ती
हाथ से रिक्त
होता जाता। एक—एक
बूंद टपकती है
इस गागर से और
गागर खाली होती
जा रही है। और तुम
कहते हो कल, और तुम कहते
हो परसों।
दृश्य के पीछे
दौड़ते रही, कभी कोई सुख
संभव नहीं है।
जागते में
जागता भागता
हूं
अंधेरी
गुफा में
खोजता हुआ
दरार
चौड़ाने को
झांकने को
पार
जागने को
यह तुम
जिसको जागरण
कहते हो यह
जागरण नहीं है।
जागते में
जागता भागता
हूं
अंधेरी
गुफा में
खोजता हुआ
दरार
चौड़ाने को
झांकने को
पार
जागने को
तुम अभी
जागे कहा? अभी तो
अंधेरी गुफा
में दौड़ रहे।
अभी तो तुम
दरार ही श्वोज
रहे हो कि
कहीं से दरार
मिल जाए, थोड़ी
रोशनी मिल जाए
थोड़ा सुख मिल
जाए। अभी तो
तुम चेष्टा कर
रहे हो कि
थोड़ा कहीं से
द्वार मिल जाए
तो जाग जाऊं।
यह
तुम्हारा
जागरण
वास्तविक
जागरण नहीं है।
जागता तो वही
है जो भीतर की
तरफ चलता है।
बाहर की तरफ
चलने वाला
आदमी तो सोता
ही चला जाता
है। दरार
गिलेगी नहीं, दरार होगी
तो भी खो
जाएगी। और यह
अंधेरी गुफा
और की हो
जाएगी। ऐसे तो
कभी सूरज मिला
ही नहीं। बाहर
चल कर तो आदमी
अंधेरे और अंधेरे
में चला गया
है। बाहर
अंधेरा है, भीतर रोशनी
है। भीतर है
ज्योतिपुंज।
भीतर अहर्निश
जल रहा है
दीया। और तुम
कहा भटक रहे?
जो देखा, सपना था
अनदेखा
अपना था
जो—जो तुमने
देखा है, सब
सपना है।
दृश्यमात्र
सपना है। यही
तो पूरब की अपूर्व
धारणा है माया
की। माया का
अर्थ है :
जो देखा, सपना था
अनदेखा
अपना था
बस एक चीज
अनदेखी है, वह तुम
स्वयं हो।
उसको तुमने
कभी नहीं देखा।
और तो तुमने
सब देख डाला, सारा संसार
देख डाला।
दूसरे तो
तुमने खूब देख
लिए।।gk चीज
अनदेखी रह गई
है : तुम्हारा
स्वयं का स्वरूप।
अष्टावक्र
कहते हैं
धीरास्तं
तं न पश्यति
पश्यंत्यात्मानमकम्।
'धीरपुरुष
दृश्य को नहीं
देखते हैं, अविनाशी
आत्मा को
देखते हैं।’
और जिसने इस
अविनाशी, अव्ड्ग
आत्मा को देख
लिया उसने
दृश्यों का
दृश्य देख
लिया। जो पाने
योग्य था, पा
लिया। जो सार
था, उसके
हाथ आ गया; जो
;'।सार था, उसने छोड़
दिया।
तुम्हारे
भीतर अमृत
विराजमान है।
जिसके लिए तुम
तरस रहे हो वह
तुम्हारे 'भीतर
छिपा पड़ा है।
जिस धन को तुम
खोजने निकले
हो उस धन का
अंबार तुम्हारे
भीतर लगा है।
संपत्ति भीतर
है, बाहर
तो विपत्ति है।
संपदा भीतर है,
बाहर तो
विपदा है।
उलझन बढ़ती है,
घटती नहीं।
समस्याएं
गहरी होती हैं,
हल नहीं
होतीं।
समाधि और
समाधान तो
भीतर हैं।
बाहर तो सिर्फ
समस्याओं का
जाल फैलता गला
जाता है। एक
समस्या में से
दस समस्याओं
के अंकुर निकल
आते हैं। एक
उलझन को
सुलझाने चलो, दस उलझनें
खड़ी हो जाती है।
फिर इनको ही
सुलझाते—
सुलझाते जीवन
बीतता। एक दिन
मौत, द्वार
पर खड़ी आ जाती।
और तब एक क्षण
का भी समय
नहीं मिलता 1
तुम फिर लाख
सिर पटको कि
थोड़ा और, समय
मुझे मिल जाए,
जरा सा भी
समय मिल जाए
चौबीस घंटे का
समय मिल: जाए
जरा ध्यान कर
लूं सदा टालता
रहा, लेकिन
फिर एक क्षण भी
नहीं मिलता।
और आश्चर्य
की बात तो यही
है कि इतनी
अपूर्व राशि
को तुम लिए
चलते हो।
बुद्ध कहते
हैं, कृष्ण
कहते हैं, क्राइस्ट
कहते हैं, नानक—कबीर—दादू
कहते हैं; सारे
जगत के
रहस्यमय
पुरुष, सारे
जगत के संत एक
ही बात कहते
हैं कि तुम्हारे
भीतर अपरंपार
संपदा पड़ी है।
प्रभु का
राज्य
तुम्हारे
भीतर है, फिर
भी तुम सुनते
नहीं। और बाहर
तुम देखते हो
अनेकों को
तडूफते। सारा
संसार तड़फता।
जिनके पास
बहुत है वे भी
वैसे ही उदास;
फिर भी तुम
जागते नहीं।
निरपवाद
रूप से अगर
कोई बात कही
जा सकती है तो एक
है—जिन्होंने
बाहर खोजा, कभी नहीं
पाया। एक भी
अपवाद नहीं
हुआ इसका। आज
तक मनुष्य—जाति
में एक आदमी
ने ऐसा नहीं
कहा कि मैंने
बाहर खोजा और
पा लिया। और
अब तक जिसने
भी पाया उसने
भीतर खोज कर
पाया। वह भी
निरपवाद।
जिसने भी कहा,
मुझे मिला,
उसने कहा
भीतर मिला।
ये सत्य के
दो पहलू हैं; एक ही सत्य
के। बाहर कभी
किसी को नहीं
मिला। अनंत—अनंत
लोगों ने खोजा।
और जिन थोड़े
से लोगों को
मिला उन्हें
भीतर खोज कर
मिला। और क्या
प्रमाण चाहते
हो? धर्म
निरपवाद
विज्ञान है—इस
अर्थ में। एक
भी बार इसमें
चूक नहीं हुई।
फिर भी हम
बाहर भागते
हैं। फिर भी
हम भीतर नहीं
जाते।
हम वे लोग
हैं जो घोल
दें खुशबू हवा
में
जो काल के निष्ठूर
हृदय पर
उंगलियों
से लिख दें
अमिट लेख
हम वे लोग
हैं जो मौत की
ठंडी
उंगलियों में
भर दें
जिंदगी के गीत
हम हवाओं
में तैरते
इस पार से उस
पार तक
अनिर्बंध
हम वे लोग
हैं जिन्हें
छांट दो तो
अमरबेल—सा
उग आएं
जिन्हें
बांध दो तो
गंध—सा बस
जाएं
जिन्हें
जला दो तो
आकाश में छा
जाएं
हम
तुम्हारी
आत्माओं की
प्रज्वलित
शिखाएं
तुम्हारी
आवाज के आधार
का मूलतत्व
तुम्हारी
मुट्ठियों
में रची—बसी
आस्थाएं
हम वे लोग
हैं जो हवा
में भर जाते
हैं
अवाम में छा
जाते हैं
होठों पर भा
जाते हैं
चेहरों पर आ
जाते हैं
हम वे लोग
हैं जो घोल
दें खुशबू हवा
में
जो काल के
निष्ठुर हृदय
पर
उंगलियों
से लिख दें
अमिट लेख
शाश्वत
तुम्हारे
भीतर पड़ा है।
तुम अमरबेल हो।
कितने बार
जन्मे; कितने
बार मरे, फिर
भी मिटे नहीं।
मिटना
तुम्हारा
स्वभाव नहीं।
अव्व! तुम कभी
व्यतीत नहीं
होते।
तुम्हारा कभी
व्गड् नहीं
होता। अमृत!
तुम कितने ही
भागते रहे हो
जन्मों—जन्मों
में, फिर
भी तुम्हारी
संपदा
अक्षुण्ण
तुम्हारे भीतर
पड़ी है। जिस
दिन जागोगे
उसी दिन
स्वामी हो
जाओगे। जागते
ही स्वामी और
सम्राट हो
जाओगे। घोषणा
भर करनी है।
अष्टावक्र
की महिमा यही
है कि वे
तुमसे यही कह
रहे हैं कि कुछ
करना नहीं है, सिर्फ जरा आंख
का कोण बदलना
है। देखना है
और घोषणा करनी
है। तुम्हारे
भीतर से
सिंहनाद हो
जाएगा।
ड्गजो
हठपूर्वक
चित्त का
निरोध करता है
उस अज्ञानी को
कहां चित्त का
निरोध है?
स्वयं में रमण
करनेवाले
धीरपुरुष के
लिए यह चित्त
का निरोध
स्वाभाविक है
द्धि यह सूत्र
अत्यंत
आधारभूत है।
ध्यानपूर्वक
समझना।
क्य निरोधी
विमूढ़स्य यो
निर्बंध
करोति वै।
स्वारामस्यैव
धीरस्य
सर्वदाऽसावकृत्रिम:।।
जो
हठपूर्वक
चित्त का
निरोध करता है, जो जबरदस्ती
चित्त का
निरोध करता है,
उस अज्ञानी
का चित्त कभी
भी निरोध को
उपलब्ध नहीं
होता।
समझो।
हठपूर्वक अगर
तुम चित्त का
निरोध करोगे
तो निरोध
करेगा कौन? वही चित्त।
मन ही तो मन से
लड़ता, और
चित्त ही तो
चित्त का
निरोध करता।
चित्त के ही
द्वारा तो तुम
चित्त से
लडोगे।
तुम वेश्या के
घर जा रहे, तुम जबरदस्ती
अपने को मंदिर
ले जाते। यह कौन
है जो
जबरदस्ती
तुम्हें
मंदिर ले जा
रहा है? यह
भी मन है।
वेश्या के घर जो
जा रहा था वह
भी मन था। मन
भीड़ है बहुत सी
वासनाओं की।
मन कोई एक
नहीं है, मन
अनेक है। उसी
मन में यह भी
वासना है कि
वेश्या के घर
जाऊं, उसी
मन में यह भी
वासना है कि
मंदिर जाऊं।
तुम जब मंदिर
जाते हो तो
तुम सोचते हो
मन को जीता।
नहीं, यह
भी मन का ही। एक
अंग है। तुम
जब वेश्या के
घर जाते हो तो सोचते
हो मन से हार
गए। नहीं, यह
भी मन की जीत
है। मंदिर
जाना भी मन की
जीत है। दोनों
में तुम्हारी
हार है।
तुम जो भी
करोगे—कृत्य
मात्र मन से
होता है।
सिर्फ अगर
तुम्हें अपने
में जाना
एक ही उपाय
है. कृत्य का
अभाव। करो मत।
करना न हो। न
वेश्या की तरफ
जाना हो और न
मंदिर जाना हो; जाना ही न हो
तो मन हार
जाता है। मन
को कृत्य चाहिए।
कृत्य मन का
भोजन है। कुछ
करने को हो तो
मन जीता है।
फिल्मी गीत
गाओ, मन को कोई
अड़चन नहीं। वह
कहता है, चलो
यही कर लेंगे।
लेकिन कुछ कर
लेंगे। तुम
बैठ कर 'राम—राम—राम—राम'
जपो, चलेगा।
गाली बको कि
भजन, मन
दोनों से अपने
को भर लेगा।
मेरे पास
लोग आते हैं।
वे कहते हैं, आप कहते हैं,
बस चुपचाप
बैठ जाओ। कुछ
आलंबन तो दें।
कुछ सहारा तो
चाहिए। ऐसे
कैसे चुप बैठ
जाओ? माला
फेरे कि राम—राम
जपें।
गुरुमंत्र दे
दें। कान फूंक
दें, वे कहते
हैं। कुछ लोग
मुझसे
संन्यास लेते
हैं। वे
संन्यास के
बाद कहते हैं,
और
गुरुमंत्र? सहारा तो
चाहिए।
जब तक सहारा
है तब तक मन
रहेगा। सहारा
मन को ही
चाहिए। आत्मा
को किसी सहारे
की जरूरत नहीं
है। मन लंगड़ा
है; इसको
बैसाखिया
चाहिए। तुम
बैसाखी किस
रंग की चुनते
हो इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। मन को
कुछ उपद्रव
चाहिए, व्यस्तता
चाहिए, आक्युपेशन
चाहिए। किसी
बात में उलझा
रहे। माला ही
फेरता रहे तो
भी चलेगा।
रुपयों की
गिनती करता
रहे तो भी
चलेगा। काम से
घिरा रहे तो
भी चलेगा।
रामनाम की
चदरिया ओढ़ ले,
राम—राम बैठ
कर गुनगुनाता
रहे तो भी
चलेगा। लेकिन
कुछ काम चाहिए।
कुछ कृत्य
चाहिए। कोई भी
कृत्य दे दो, हर कृत्य की
नाव पर मन
यात्रा करेगा
और संसार में
प्रवेश कर
जाएगा।
कृत्य की
नाव मत दो; बस, मन
गया। बैठे रहो।
मन बहुत मांग
करेगा, बहुत
छीना—झपटी
करेगा। सदा
तुमने दिया है,
आज अचानक न
दोगे तो मन
एकदम से नहीं
चुप हो जाएगा।
लेकिन तुम
बैठे रहो। तुम
कहो कि अब तय
ही कर लिया।
अब कृत्य नहीं
करेंगे। कुछ
भी नहीं
करेंगे। एक
घड़ी बैठे ही
रहेंगे, लेटे
ही रहेंगे, खाली रहेंगे।
सो मत जाना, क्योंकि मन
वही सुझाव
देगा। वह कहता
है तो फिर
क्या पड़े खाली—खाली?
सो ही जाओ।
कम से कम इतना
ही करो।
सोना भी कृत्य
है। सोना भी क्रिया
है। तो अगर कुछ
नहीं कर रहे हो
तो मन कहता है, अब ऐसे बैठे—बैठे
क्या फायदा? चलो झपकी ले
लो। इतना तो
करो। झपकी ले
लोगे तो मन
सपना देखने
लगेगा। फिर
काम शुरू हो
गया। मन को
काम चाहिए।
तुमने
कहानियां
सुनी होंगी, बच्चों की
किताबों में
लिखी हैं कि
किसी आदमी ने
एक भूत को
प्रसन्न कर
लिया। उस भूत
ने कहा कि
प्रसन्न तो हो
गया तुम पर, अब तुम जो
कहोगे करूंगा,
लेकिन एक
खराबी है मेरी
कि मैं बिना
काम के नहीं
रह सकता।
मुझे
काम देते रहना।
अगर एक क्षण
भी काम नहीं
हुआ तो मैं
मुश्किल में
पड़ जाता
हूं। फिर
मैं तुम्हारी
गर्दन दबा
दूंगा। मुझे
तो काम चाहिए
ही। वह आदमी
बोला, अरे यही
तो.... इससे
अच्छा क्या
होगा? नौकर—चाकर
रखते हैं, उलटी
झंझट है। उनके
पीछे लगे रहो
तो भी काम
नहीं करते। तू
तो बड़ा भला है,
यही तो
चाहिए।
उस आदमी को पता
नहीं था कि वह किस
झंझट में पड़ रहा
है। भूत को घर जाकर..
.उसके जिंदगी
में कई काम थे
जो हो नहीं
रहे थे। उसने
भूत से कहा, चल एक— महल
बना दे। सोचा
कि चलो दो—चार
साल तो निपटे।
वह घड़ी भर
बाहर गया, भितर
आया, उसने
कहा महल बन
गया। महल खड़ा
था। भूत का
काम था।’एक
सुंदर स्त्री
ले आ। वह बाहर
गया और ले आया।
तब तो वह आदमी
घबड़ाया। तिजोड़ी
भर दे। उसने
कहा, भर दी।
थोड़ी देर
में, मिनट दो
मिनट में सब
काम चुक गए।
तब वह आदमी
अपनी गन्ःrन
के लिए घबड़ाया
कि मुश्किल हो
गई। अब उसे
कुछ सूझे नहीं
कि क्या करना।
वह बोला कि
ठहर, मैं
अभी आता हूं।
वह आदमी भागा
घर के बाहर।
एक फकीर
गांव के बाहर
था, उसके पास
गया और कहा कि
एक झंझट में
पड़ गया हूं, एक भूत को
जगा लिया। अब
मेरी गर्दन
मुश्किल में
है। अब मुझे
कुछ सूझता नही,
क्योंकि जो—जो
मैं सोचता था,
वह क्षण में
कर लाता है।
अगर ऐसे ही
रहा तो जीना मुश्किल
है।
फकीर ने कहा, तू एक काम कर,
यह नसैनी
पड़ी है, ले
जा। भूत से
कहना, इस तू
चढ़—उतर। उसने
कहा, इससे
क्या होगा? उसने कहा, इसमें होगा
क्या? कुछ करने
की जरूरत ही
नहीं। जब तेरे
पास कोई दूसरा
काम हो, बता
देना, नहीं
तो कहना चढ़—उतर।
वह आदमी बोला,
बात तो ठीक
है लेकिन आप
कैसे समझे? उसने कहा, यहीं तो मन
की सारी
प्रक्रिया है।
यह मन के भूत
को समझ कर ही
मैं समझ गया। फकीर
ने कहा, मन
के भूत को समझ
कर...।
अब एक आदमी
बैठा माला जप
रहा है; वह
क्या कर रहा
है? सीडी
चढ़—उतर रहा
है। एक आदमी
राम—राम जप
रहा है, वह
सीढी चढ़—उतर
रहा है।
लगा दी सीडी
उसने जाकर।
भूत से उसने
कहा, तू चढ़—उतर। जब चढ़
जाए तो उतर, जब उतर जाए
तो चढ़। तब से
भूत चढ़—उतर
रहा है, आदमी
निश्चित है।
मन काम चाहता
है। मन भूत है।
जब भी मन खाली
होता है तभी
मुश्किल खड़ी हो
जाती है; तत्क्षण
मन कहता है, कुछ करो।
छुट्टी के दिन
भी छुट्टी
कहां? तुमने
देखा, छूट्टी
के दिन और
झंझट हो जाती
है। रोज का
काम होता नहीं,
दफ्तर गए
नहीं, दुकान
गए नहीं, अब
छुट्टी है, अब क्या
करना? तो
कोई अपनी कार
खोल कर बैठ
जाता है, उसी
की सफाई करने
लगता है। लगा
ली नसैनी! कोई
रेडियो खोल कर
बैठ जाता है, उसी को
सुधारने लगता
है। वह सुधरा
ही हुआ था।
कुछ न कुछ करो।
या चले, पिकनिक
को चले। सौ—पचास
मील कार दौड़ाई,
पहुंचे, भागे,
फिर वापस
लौटे।
कहते हैं कि
लोग छुट्टी के
दिन इतने थक
जाते है जितने
काम के दिन
नहीं थकते।
खाली बैठ नहीं
सकते। छुट्टी
का मतलब है
खाली बैठो, लेकिन खाली
बैठना संभव
कहीं है? खाली
बैठना तो केवल
ध्यानी को
संभव है। और
जिसको ध्यान
आता है वह तो
काम करते भी खाली
होता है; इस
बात को समझ
लेना। और
जिसको ध्यान
नहीं आता वह
खाली बैठा भी
सीढ़ियां चढ़ता—उतरता
है। और जिसको
ध्यान आता है
वह काम करते
हुए भी खाली
होता है।
खाली होना
चैतन्य का
स्वभाव है। मन
को सहारा
चाहिए।
'जो
हठपूर्वक
चित्त का
निरोध करता है
उस अज्ञानी को
चित्त का
निरोध कहा?' हठ कौन
करेगा? आग्रह
कौन करेगा? जबरदस्ती
कौन करेगा? हिंसा कौन
करेगा अपने ही
ऊपर? ये
उपवास करने
वाले, जप—तप
करने वाले, शीर्षासन
करने वाले, धूनी लगाए
बैठे हुए लोग—यह
कौन कर रहा है
सब? यह मन
ही कर रहा है।
अष्टावक्र
के आधार!
भूत इस
सूत्र को खयाल
में लेना :
क्य निरोधो
विमूढ़स्य यो
निर्बध करोति
वै।
कितना ही
करो, कुछ भी
करो, मूड
व्यक्ति
चित्त के
निरोध को
उपलब्ध नहीं होता।
इसलिए नहीं कि
वह चित्त का
निरोध नहीं
करता, चित्त
का निरोध करता
है इसीलिए
मुक्त नहीं होता।
फिर मुक्ति का
उपाय क्या है?
'स्वयं
में रमण
करनेवाले
धीरपुरुष के
लिए यह चित्त
का निरोध
स्वाभाविक है।
चित्त का
निरोध करना
नहीं होता।
आत्मरमण, आत्मरस
में विभोरता—चित्त
निरुद्ध हो
जाता है।
चित्त का
निरोध सहज हो
जाता है; अपने
से हो जाता है।
चित्त का
निरोध परिणाम
है।
तुमने भी
खयाल किया
होगा, जब भी
तुम आनंदित
होते हो— क्षण
भर को ही सही—उसी
क्षण चित्त का
निरोध हो जाता
है। रात देखा,
आकाश में
निकला चांद और
क्षण भर को
तुम आनंदित हो
गए। उस क्षण
में चित्त
निरुद्ध हो
जाता है।
विचार बंद हो
जाते हैं।
आनंद में कहां
विचार को
सुविधा? जहां
आनंद है वहां
विचार कैसे बचेगा?
विचार तो
दुख में ही
होता है।
संगीत सुन
रहे थे, डोल
गए मस्त हो गए,
एक भीतरी
शराब पैदा हो
गई; तब
कहां मन? तब
क्षण भर को मन
अपने आप
अवरुद्ध हो
गया।
इधर तुम
मुझे सुन रहे
हो.. .मुझसे
अनेक लोग आते
हैं, मैं उनसे
पूछता हूं कि
कौन सा ध्यान
सबसे ज्यादा
ठीक लगता है? वे कहते हैं,
सुबह आपका
बोलना। मैं
कहता, बोलना!
क्यों? वे
कहते, बोलते—बोलते
चित्त
निरुद्ध हो
जाता है। आपको
सुनते—सुनते।
आप बोलते उधर,
इधर हम
सुनते; मन
ठहर जाता।
ठीक कहते
हैं। अगर
शांति से सुना, अगर मुझसे
विवाद न रखा, संवाद किया,
मेरे साथ
चले, मेरे
हाथ में हाथ
ले लिया, बाधा
न डाली, सहयोग
किया, जिस
दिशा में ले
चला उस दिशा
में चलने लगे,
बहने लगे—चित्त
निरुद्ध हो
जाता है। एक
क्षण को जब
सुनना प्रगाढ़
होता है, तब
कहां चित्त? कहां मन? सब
खो गया। उस
क्षण तुम
आत्मा में
होते हो।
इसलिए
महावीर ने तो यहां
तक कहा है कि
अगर कोई सम्यक
श्रवण को जान
ले, ठीक—ठीक
श्रावक हो जाए
तो वहीं से
मोक्ष का
द्वार खुल
जाता है।
महावीर ने कहा
है, चार
तीर्थ हैं :
श्रावक, श्राविका,
साधु, साध्वी;
जिनसे आदमी
मोक्ष जाता है।
लेकिन तुम
खयाल रखना, साधुओं ने बड़े
उलटे अर्थ किए
हैं इसके।
अब महावीर
कहते हैं, चार तीर्थ
हैं। तीर्थ का
अर्थ होता है,
जिस घाट से
उतरा जा सकता
है। लेकिन
साधुओं से
पूछो, साधु
यह नहीं कहते
कि श्रावक
मोक्ष जा सकता
है। वे तो
कहते हैं, साधु
हुए बिना कैसे
जाओगे? और
महावीर ने चार
तीर्थों का
निर्माण किया।
और श्रावक को
साधु नमस्कार
नहीं करता है,
क्योंकि
श्रावक को
कैसे नमस्कार
करे? साधु
श्रावक का
नमस्कार लेता
है और
आशीर्वाद देता
है। लेकिन
नमस्कार नहीं
करता। साधु
अपने को ऊपर
मानता है।
असलियत
उल्टी है।
मेरे देखे— और
अगर कहीं
तुम्हें
महावीर मिल
जाएं तो उनसे
भी पूछ लेना, वे भी तुमसे
यही कहेंगे—साधु
दोयम है, नंबर
दो है; श्रावक
शाम है। असल
में अगर
श्रावक पूरी
तरह से सुनने
में समर्थ हो
गया तो साधु
होने की जरूरत
ही नहीं, श्रवण
काफी है। अगर
श्रवण पूरा न
हो पाया तो
फिर साधना की
जरूरत है; इस
बात को खयाल
में लेना।
साधु यानी
साधना। कुछ
करना पड़ेगा, सुनने से
नहीं हो सका।
इतनी बुद्धि न
थी कि सुनने
मात्र से हो
जाता। सुनने
के लिए प्रगाढ़
प्रतिभा
चाहिए। जिनका
सुनने से ही
नहीं हो पाता
उनको फिर कुछ कृत्य
करना पड़ता है।
उपवास करो, जप करो, तप
करो, कुछ
करो। जो कमी
रह गई है बुद्धि
की, वह
कृत्य से पूरी
करो। साधु
नंबर दो है।
परम अवस्था तो
सुन कर ही
पैदा हो जाती
है। ही, जिसकी
न हो पाए उसको
फिर साधना भी
करनी होती है।
महावीर उस
पर भी दया
करते हैं
जिसको सुन कर
न हो पाए। तो
वे कहते हैं, तु कुछ कर।
खयाल करना, अगर प्रगाढ़
प्रतिभा हो, बुद्धि
निखार में हो,
मलिन न हो, धूल—धवांस
से भरी न हो, होशपूर्वक
हो तो केवल
सुन कर ही
मोक्ष मिल जाता
है। तुमने किसी
सदगुरु को सुन
लिया, हृदय
भर कर सुन
लिया, सब
तरह से अपने
को हटा कर सुन
लिया, उस
सुनने के क्षण
में ही मुक्त
हो गए तुम।
कुछ और करना न
पड़ेगा। ही, अगर सुन न
पाए, सुनने
तो गए लेकिन
बुद्धि में
तुम्हारा जो
कूड़ा—कचरा है
वह भरा रहा; उसकी वजह से
सुन न पाए तो
फिर कुछ करना
पड़ेगा।
श्रावक प्रथम,
साधु दोयम।
होना भी ऐसा
ही चाहिए। अगर
तीस
विद्यार्थियों
की कक्षा में
शिक्षक बोलता
है तो तुम
सबसे ज्यादा
प्रतिभाशाली
किसे कहते हो? जो सुन कर ही
समझ गया। जो
सुन कर नहीं
समझा, फिर
उसको तख्ते पर
लिख—लिख कर, कर—कर के
समझाना पड़ता
है। जो उससे
भी नहीं समझा
उसको घर पर
टभूटर भी लगाना
पड़ता है। जो
उससे भी नहीं
समझा वह
परीक्षा में
उत्तर चोरी करके
ले जाता है।
मगर प्रतिभा न
हो तो कुछ भी
काम नहीं आता।
सब गड़बड़ हो
जाता है।
मैं
विश्वविद्यालय
में शिक्षक था; एक परीक्षा
चल रही थी, मैं
निरीक्षक था।
तो मैंने देखा,
सब तो लिख
रहे हैं, एक
विद्यार्थी
बैठा है, बड़ा
बेचैन है, कुछ
नहीं लिख रहा।
तो मैं उसके
पास गया, मैं
चिंतित हो गया।
मैंने पूछा कि
क्या बात है, कुछ समझ में
नहीं आता? उत्तर
पकड़ में नहीं
आ रहे? प्रश्न
समझ में नहीं
आ रहे? क्या
अड़चन है? तू
पसीना—पसीना
हुआ जा रहा है,
कुछ लिख भी
नहीं रहा।
उसने कहा, अब
आपसे क्या
छिपाना! उत्तर
तो मैं रखे
हूं मगर किस
खीसे में किस
प्रश्न का
उत्तर है यह
भूल गया।
दोनों खीसे
में रखे हैं
उत्तर।
प्रतिभा न हो
तो खीसे में
उत्तर हों तो
भी क्या काम
आता है!
रूस में
उन्होंने बड़ा
ठीक किया है, चोरी का
उपाय खतम कर
दिया है।
विद्यार्थी
किताबें ला
सकते हैं।
चोरी का कोई
उपाय न रहा।
विद्यार्थी परीक्षा
में अपनी सारी
किताबें ला
सकते हैं। या
बीच परीक्षा
में उठ कर
कालेज की
लायब्रेरी
में जा सकते
हैं और अपना
उत्तर खोज
सकते हैं।
चोरी का कोई
उपाय नहीं रहा।
और बड़ी
हैरानी की बात
है, फिर भी
बुद्धिमान
बुद्धिमान
सिद्ध होते
हैं, मूढ़
मूढ़ सिद्ध
होते हैं।
क्योंकि
उत्तर भी तो
खोजना पड़ेगा।
किताबें ले
आकर क्या
करोगे? लायब्रेरी
में भी जाओगे
तो आखिर किताब
तो खोजनी
पड़ेगी, उसमें
से उत्तर तो
निकालना पड़ेगा।
प्रश्न तो
समझना पड़ेगा
कम से कम पहले,
फिर उसका
ठीक— ठीक
उत्तर खोजना
होगा। चोरी का
उपाय भी खतम
कर दिया
उन्होंने और
फर्क कुछ भी
नहीं पड़ा है।
अब भी पता चल
जाता है कौन
प्रथम कोटि का,
कौन
द्वितीय कोटि
का, कौन
तृतीय कोटि का।
आज नहीं कल
सारी दुनिया
में यही होगा।
किताबें लाने
की आज्ञा दे
देनी चाहिए, कोई अड़चन
नहीं है। आखिर
वह अपनी
बुद्धि से ही
खोजेगा न
उत्तर! उससे
ही पता चल
जाएगा कि कैसा
उत्तर उसने
खोजा है। उसकी
बुद्धि का ही
पता लगाना है।
जो सुन कर ही
समझ ले...।
बुद्ध कहते थे, कुछ घोड़े
होते हैं, जिनको
मारो तब चलते
हैं। कुछ घोड़े
होते हैं
जिनको कोड़ा
फटकासे, चलते
हैं। कुछ घोड़े
होते हैं जो
कोड़ा हाथ में
देख लेते हैं
तो चलते हैं; फटकारने की
जरूरत नहीं
होती। और कुछ
घोड़े होते हैं
कुलीन, वस्तुत:
जिनको हम घोड़े
कहें, वे
कोड़े की छाया
देख कर भी
काफी अपमानित
हो जाते हैं।
कोड़ा तो दूर, कोड़े की
छाया काफी
होती है।
इशारा बहुत
होता है।
एक आदमी
बुद्ध के पास
आया, उसने बुद्ध
के चरण छुए और
बुद्ध से उसने
कहा, शब्द
मेंमुझे न
कहें। शब्द
मैं बहुत सुन
चुका। और चुप
रह कर भी मुझे
मत कहें, क्योंकि
चुप को मैं
समझ पाऊं ऐसी
मेरी अभी सामर्थ्य
नहीं। अब तुम
कहोगे, बड़ी
उलझन में डाल
दिया होगा
बुद्ध को।
शब्द में मत
कहें, क्योंकि
शब्द मैं बहुत
सुन चुका, कुछ
पकड़ में आता
नहीं। और चुप
रह कर भी न
कहें, क्केंकि
चुप मैं समझ
पाऊं ऐसी मेरी
सामर्थ्य कहां?
बुद्ध
मुस्कुराए।
बुद्ध ने आंखें
बंद कर लीं।
वह आदमी भी आंख
बंद करके बैठा
रहा। घड़ी आधा—घड़ी
बीती, वह
आदमी उठा, उसने
बुद्ध के चुरण
छुए और कहा, धन्यवाद।
आपने मार्ग
दिखा दिया। वह
आदमी चला गया।
बुद्ध के
पास जो शिष्य
बैठे थे वे तो
बड़े हैरान हुए, यह हुआ क्या?
इन दोनों के
बीच घटा क्या?
चालीस साल
से साथ रहने
वाला आनंद भी
बैठा था, उसने
कहा, यह तो
हद हो गई।
चालीस साल से
मैं आपके साथ
हूं न तो सुन
कर समझ आया कि
आप जो कहते
हैं वह क्या
कह रहे हैं; और आपको चुप
भी बैठे देखता
हूं तो भी समझ
में नहीं आता।
और इस आदमी को
क्या हुआ? यह
धन्यवाद देकर
चला गया।
तो बुद्ध ने
कहा, घोड़े कुछ
होते हैं, मारो
तो मुश्किल से
चलते हैं। कुछ
होते हें, कोड़ा
फटकासे, चल
जाते हैं। कुछ
होते हैं, कोड़ा
देख कर ही चल
जाते हैं और
कुछ होते हैं
जो कोड़े की
छाया से ही चल
जाते हैं। यह
आखिरी किस्म
का घोड़ा है।
कोड़े की छाया
काफी है। यह
चल पड़ा। इसकी
यात्रा शुरू
हो गई। यह
पहुंच कर
रहेगा आनंद।
महावीर
कहते हैं, अगर सम्यक
श्रवण हो तो
बस काफी है।
कृत्य की तो
जरूरत तब पड़ती
है जब श्रवण
से न हो सके।
तो फिर कोड़े
मारने पड़ते
हैं। उपवास से
मारो, आग
जला कर मारो, ठंड में, धूप
में खड़े होकर
मारो, काटो
पर लेट कर
मारो। कैसे
मारते हो यह
अलग बात, लेकिन
फिर कोड़े
मारने पड़ते
हैं।
महावीर तो
कहते हैं, साधु जा
सकता है।
अष्टावक्र और
भी ज्यादा
शुद्ध हैं। वे
तो कहते हैं, साधु जा ही
नहीं सकता।
तुम इसे समझना।
इसीलिए तो मैं
कहता हूं
अष्टावक्र
जैसा क्रांतिकारी
द्रष्टा नहीं
हुआ।
अष्टावक्र कह
रहे हैं?
क्य निरोधो
विमूढ्स्य यो
निर्बंध
करोति वै।
कितना ही
करो निरोध, निरोध से
निरोध नहीं
होता। कितना
ही साधो, साधने
से कुछ नहीं
सधता। चेष्टा
से कुछ हाथ
नहीं आता।
'स्वयं
में रमण
करनेवाले
धीरपुरुष के
लिए यह चित्त
कानिरोध
स्वाभाविक है।’
यह तो उसी को
होता है जो
केवल समझ, इशारे से
रूपांतरित हो
जाता है—बोधमात्र
से; प्रज्ञामात्र
से; और अपने
में रमण करने
लगता है।
तो बैठ जाओ
कभी—कभी; निरोध
की कोई जरूरत
नहीं है। मन
आएगा, मन
पुराने जाल
फैलाएगा। फिर
आ गए
राजाधिराज
चाबुक घुमाते?
वह आएगा।
तुम देखते
रहना। लड़ना मत,
लड़ने में
निरोध है।
हटाना मत, हटाने
में निरोध है।
विरोध मत करना,
विरोध ही तो
निरोध है। तुम
देखना।
घुमाने दो
चाबुक। आने दो
मन को, लाने
दो सब जाल।
फैलाने दो
पुरानी सब
व्यवस्थाएं, करने दो
अपना इंतजाम।
तुम शांत बैठे
रहना। तुम
सिर्फ साक्षी
रहना। तुम
कहना, हम
देखेंगे। बस
देखेंगे और
कुछ न करेंगे।
तू खड़ी कर
अप्सराएं
सुंदर, हम
देखेंगे। तू
फैला लोभ—काम
के जाल, हम
देखेंगे। हम
कुछ करेंगे
नहीं। हम अडिग
देखते रहेंगे।
हम नजर पैनी
रखेंगे। हम
नजर साफ
रखेंगे। न तो
तेरे साथ
चलेंगे, न
तुझसे लड़ेंगे।
ऐसी दशा में
धीरे— धीरे मन
अपने आप हार
जाता है, अपने
आप सो जाता है,
अपने आप खो
जाता है। और
ऐसी ही साक्षी
दशा में
तुम्हारा
स्वयं में
पदार्पण होता
है, आत्मरमण
शुरू होता है।
स्वारामस्यैव
धीरस्य
सर्वदाऽसावकृत्रिम:।
और तब एक
निरोध पैदा
होता है जो
अकृत्रिम है, जो
स्वाभाविक है,
जो सहज है; जो तुम्हारी
छाया की तरह
तुम्हारे
पीछे आता।
ऐसा समझो, निरोध
करनेवाला
निषेधात्मक
है, वह
लड़ता है।
स्वभाव का
अर्थ है, बिना
लड़े अपने भीतर
के सुख में
डूब जाना। वह
सुख ऐसा
प्रीतिकर है
कि उस सुख को
जान लेने के
बाद मन का कोई
प्रलोभन काम
नहीं करता। अब
जिसके हाथ में
हीरे—जवाहरात
आ गए वह कंकड़—पत्थर
के लोभ में
थोड़े ही पड़ेगा।
और जिसने अमृत
चख लिया, अब
वह विष के
धोखे में थोड़े
ही आएगा। और
जिसने परम
सौंदर्य जान
लिया, अब
वह हड्डी, मांस,
मज्जा के
सौंदर्य में
थोड़े ही
उलझेगा। और जो
अपने परम पद
पर विराजमान
हो गया, अब
तुम्हारी
छोटी—मोटी
कुर्सियों के
लिए थोड़े ही
लड़ेगा। और
जिसने
राज्यों का
राज्य पा लिया,
साम्राज्य पा
लिया स्वयं का,
अब वह
तुम्हारे
पदों के लिए
थोड़े ही
आकांक्षा करेगा,
तुम्हारे
धन की थोड़े ही
चाह करेगा।
बात खतम हो गई।
निरोध होगा, लेकिन सहज, अकृत्रिम।
'कोई भाव
को माननेवाला
है और कोई कुछ
भी नहीं है
ऐसा मानने
वाला है; वैसे
ही कोई दोनों
को नहीं
माननेवाला है।
और वही
स्वस्थचित्त
है।'
भावस्य
भावक:
कश्चित्र
किंचिद्भावकोऽपर:।
उभयाभावक:
कश्चिदेवमेव
निराकुल:।।
कोई है, जो
कहता है, ईश्वर
है। कोई है, जो कहता है, ईश्वर नहीं
है।
अष्टावक्र
कहते हैं, दोनों
अज्ञानी हैं।
क्योंकि जो है,
न तो 'है'
में समाता
है, और न 'नहीं है' में
समाता है; न
भाव में न
अभाव में; न
ऐसा कहने में
न वैसा कहने
में; न
स्वीकार में न
अस्वीकार में।
जो है वह इतना
विराट है कि
सिर्फ शून्य
में समाता है,
सिर्फ मौन
में समाता है।
बोले कि चूके।
कहा कि गया।
सत्य
अभिव्यक्त
किया कि विकृत
हुआ। लाओत्सु
ने कहा है, सत्य
को कहा कि फिर
सत्य न रहा।
कहते ही असत्य
हो गया।
तुमने कहा
हा,' तुमने
कहा ना, विभाजन
शुरू हो गया।
नहीं ही नहीं
नो; न
आस्तिकता न
नास्तिकता।
ऐसा भी कोई है,
अष्टावक्र
कहते हैं, जो
न हां में
पड़ता, न ना
में पड़ता, दोनों
के पार खड़ा है,
वही
स्वस्थचित्त
है।
ही कहा, चल
पड़े। उपद्रव
शुरू हुआ।
तुमने कहा, ईश्वर है तो
अब तुम लड़ने
लगे उससे, जो
कहता है ईश्वर
नहीं है। लड़ाई
शुरू हो गई।
और तुमने कहा,
ईश्वर है तो
तुमने मन का
एक वक्तव्य
दिया।
क्योंकि ही और
ना मन की
घोषणाएं हैं।
और इससे विवाद
पैदा होगा।
सिद्धात, संप्रदाय,
शास्त्र
पैदा :होगा।
उलझन शुरू हुई।
तुम्हें तर्क
जुटाने
पड़ेंगे कि
ईश्वर है। और
अब तक कोई
तर्क नहीं
जुटा पाया; एक बात
ध्यान रखना। न
तो ईश्वरवादी
तर्क जुटा पाए
कि ईश्वर है, और न
अनीश्वरवादी
तर्क जुटा पाए
कि ईश्वर नहीं
है। कोई सिद्ध
नहीं कर पाया।
न नास्तिक
सिद्ध कर पाया
न आस्तिक।
एक गांव में
ऐसा हुआ कि एक
महाआस्तिक
में और एक
महानास्तिक
में विवाद हो
गया। आस्तिक
और नास्तिक
दोनों महान थे
और बड़े प्रकांड
विवादी थे।
सारा गांव
विवाद देखने
इकट्ठा हुआ और
सारा गांव खुश
भी था कि किसी
तरह निपटारा
हो जाए।
क्योंकि उन
दोनों की वजह
से गांव भी
परेशान था।
दोनों के बीच
जो कशमकश थी
उसमें गांव के
लोग भी पिसे
जाते थे, क्योंकि
इधर खींचे
जाते, उधर
खींचे जाते।
आस्तिक अपनी
तरफ खींच लेता
तो नास्तिक
अपनी तरफ
खींचने की
कोशिश करता।
ऐसे गांव में
दलबदली होती
रहती। और गांव
में बड़ा विवाद
था और झगड़ा—फसाद
था।
गांव पूरा
खुश हुआ, उसने
कहा, ये
दोनों निपट
लें। कुछ भी
तय हो जाए तो
हमारी झंझट
मिटे। तुम
सोचो न! अगर
मुसलमान और
हिंदुओं के
पंडित—पुरोहित
निपट लें तो
तुम्हारी तो
झंझट मिटे। यह
मंदिर—मस्जिद
का झगड़ा तो
मिटे। एक बार
सारे
धर्मगुरु
इकट्ठे हो
जाएं और फैसला
कर लें, विवाद
कर लें, जो
जीत जाए सो
ठीक; तो
बाकी दुनिया
भर की परेशानी
तो कटे।
तो गांव के
लोग बड़े खुश
थे, वे सब
इकट्ठे हुए।
मगर खुशी
ज्यादा देर न
टिकी। सुबह
होते—होते सब
गड़बड़ हो गई।
गड़बड़ यह हुई, आस्तिक ने
ऐसे तर्क दिए
कि नास्तिक
राजी हो गया
और नास्तिक ने
ऐसे तर्क दिए
कि आस्तिक
राजी हो गया।
फिर वही झंझट!
आस्तिक
नास्तिक हो
गया, नास्तिक
आस्तिक हो गया,
मगर झंझट
जारी रही।
गांव ने सिर
पीट लिया।
उसने कहा, यह
इसका कोई हल
नहीं है। इतनी
बड़ी बदलाहट हो
गई कि नास्तिक
आस्तिक हो गया,
आस्तिक
नास्तिक हो
गया, मगर गांव'
की मुसीबत
वही की वही
रही।
आज तक
दुनिया में न
तो कोई ईश्वर
को सिद्ध कर पाया
है और न
असिद्ध कर
पाया है। जो
लड़ते हैं, मूढ़ हैं।
आस्तिक भी और
नास्तिक भी, दोनों
मंदबुद्धि
हैं।
अष्टावक्र
कहते हैं, 'वैसे
ही कोई दोनों
को नहीं मानने
वाला है। वही
स्वस्थचित्त
है।’
जो कहता है, इन झंझटों
में मुझे कुछ
रस नहीं है।
ही और ना में
मेरा कोई
विवाद नहीं।
पक्ष और
विपक्ष में
मैं पड़ता नहीं।
मैं अपने में
रमा हूं और
मेरा रस वहा
बह रहा है; बस
काफी है। मैं
अपने में डूबा
हूं और मस्त
हूं अपनी
मस्ती में।
मेरा गीत मुझे
मिल गया। मेरा
नृत्य मुझे
मिल गया। मेरी
रसधार बह पड़ी।
अब कौन पड़ता
है इस फिजूल
की बकवास में
कि ईश्वर है
या नहीं! यह
नासमझ तय करते
रहें।
'दुर्बुद्धि
पुरुष शुद्ध
अद्वैत आत्मा
की भावना करते
हैं लेकिन
मोहवश उसे
नहीं जानते हैं,
इसलिए जीवन
भर सुखरहित
हैं।’
शुद्धमद्वयमात्मानं
भावयति
कुबुद्धय:।
न तु
जानन्ति
सम्मोहाद्यावज्जीवमनिर्वृता:।।
'दुर्बुद्धि
पुरुष शुद्ध
अद्वैत आत्मा
की भावना करते
हैं लेकिन
मोहवश उसे
नहीं जानते, और जीवन भर
सुखरहित रहते
हैं।’
बुद्धि की
तीन
संभावनाएं
हैं : बुद्धि, अबुद्धि, कुबुद्धि।
जो अबुद्धि
में है वह बड़े
खतरे में नहीं
है। उसकी
बुद्धि सोई
हुई है, जगाई
जा सकती है।
जो अज्ञानी है
वह खतरे में
नहीं है। कम
से कम विनम्र
होगा कि फ्रे
पता नहीं है।
खोज करेगा।
कुबुद्धि
कौन है? कुबुद्धि
वह है, जिसे
पता नहीं है
और जो मानता
है कि मुझे
पता है। पंडित
कुबुद्धि है।
शास्त्र का
जानने वाला, सूचनाओं को
इकट्ठा कर
लेने वाला
कुबुद्धि है।
अबुद्धि इतनी
बुरी बात नहीं
है। अबुद्धि
से बुद्धि तक
जाने में अड़ न
न नहीं है।
कुबुद्धि बड़ी
अड़चन में है।
वह अबुद्धि
में है अभी, और सोचता है कि
बुद्धि में
पहुंच गया—यह
उसकी
कुबुद्धि है।
अज्ञानी है और
मान लेता है
कि ज्ञली हो
गया हूं।
बीमार है और
सोचता है कि
स्वस्थ हूं
इसलिए औषधि भी
नही लेता। और
चिकित्सक के
पास भी नहीं
जाता। जाए
क्यों? किसलिए
जाए? इसलिए
सबसे ज्यादा
खतरनाक
स्थिति
कुबुद्धि की
है। और तुम
ध्यान रखना, अधिक लोग
कुबुद्धि की
स्थिति में
हैं। इसलिए
परमात्मा से
मिलन नहीं हो
पाता, सत्य
की खोज नहीं
हो पाती।
पहले तो
कुबुद्धि को
लौटना पड़ता है
अबुद्धि में।
अबुद्धि से
रास्ता जाता
है। इसलिए
मेरी चेष्टा
यहां है कि
तुम्हें जो भी
आता है वह
विस्मरण हो
जाए। तुमने जो—जो
पाठ सीख लिए
हैं वे भूल
जाएं।
तुम्हारा
ज्ञान का चोगा
उतर जाए।
तुम्हारी यह
ज्ञान की झूठी
पर्त टूट जाए।
तुम्हें
स्मरण आ जाए
कि तुम्हें
पता नहीं है।
फिर यात्रा
शुरू होती है; फिर तुम साफ
हुए; फिर
तुम बच्चे की
भांति हो।
कुछ बुरा
नहीं है
अबुद्धि में।
अबुद्धि का
इतना ही मतलब
है कि मुझे
पता नहीं और
मैं तैयार हूं
यात्रा पर
जाने को।
कुबुद्धि का
अर्थ है कि
पता तो नहीं
है, भीतर तो
मालूम है पता
नहीं है, क्योंकि
खुद को कैसे
धोखा दोगे? लेकिन ऊपर
से अहंकार
स्वीकार नहीं
करने देता कि
मुझे पता नहीं
है। अहंकार
कहता है, पता
है। मुझे और
पता न हो? यह
हो कैसे सकता
है? अगर
मुझे पता नहीं
तो फिर किसी
को पता नहीं।
इस
कुबुद्धि की
स्थिति को
उतारना। इस
कुबुद्धि को
हटाना।
घबड़ाहट लगेगी।
क्योंकि
कुबुद्धि को
हटाओगे तो
अबुद्धि मालूम
पड़ेगी, मगर
अबुद्धि में
कुछ भी बुरा
नहीं है।
अबुद्धि में
तो तुम सिर्फ
अबोध अवस्था
में आ गए, जो
कि स्वाभाविक
है। अबोध से
बोध की तरफ
जाना बिलकुल
सुगम है, एक
ही छलांग में
हो सकता है।
लेकिन कुबोध
से तो बोध की
तरफ जाने का
कोई उपाय ही
नहीं। रास्ता
जाता ही नहीं।
वहां से कोई
मार्ग ही नहीं
है।
'दुर्बुद्धिपुरुषशुद्ध
अद्वैत आत्मा की
भावना करते
हैं' —कल्पना
करते हैं, विचार
करते हैं, चिंतन—मनन
करते हैं, चर्चा
करते हैं— 'लेकिन
मोहवश उसे
जानते नहीं।’
वह जो मोह
है अहंकार का,
अपना, मेरे
का वह छोड़ने
नहीं देता।
मोह का अर्थ
होता है :
ममत्व, मेरा,
मैं। वह जो
मैं के आस—पास
परिधि खिंची
है, वही
मोह।
’मोह के
कारण उसे
जानते नहीं और
जीवन भर
सुखरहित रहते
हैं।’
दुख को बहुत
सहेज कर रखना
पड़ा हमें
सुख तो किसी
कपूर की
टिकिया सा उड़
गया
अब सबसे
पूछता हूं
बताओ तो कौन
था
वह बदनसीब
शख्स जो मेरी
जगह जीया!
तुम जीवन के
अंत में एक
दिन पूछोगे।
जीवन के अंत
में एक दिन
तुम कहोगे। ये
पंक्तिया
तुम्हारे
जीवन का अंतिम
सार—निचोड़ हो
जाएंगी, अगर
चौंके नहीं, समय पर जागे
नहीं।
दुख को बहुत
सहेज कर रखना
पड़ा हमें
और कुछ है ही
नहीं तो रखोगे
भी क्या सहेज
कर? जो है उसी
को तो रखोगे।
दुख ही दुख है,
उसी को सहेज
कर रखते हो।
किसी ने गाली
दी थी बीस साल
पहले, अभी
भी सहेज कर
रखे हुए हो।
पागलपन की भी
कोई सीमा
होती! गाली भी
कोई सहेज कर
रखने की बात
है? कोई
दुख हो गया था,
भूलते ही
नहीं। घाव को
कुरेदते रहते
हो ताकि घाव
हरा बना रहे।
और कुछ है भी
नहीं, सहेज
कर क्या रखोगे?
कुछ न हो तो
आदमी तिजोड़ी
में कंकड़—पत्थर
ही रख लेता है।
कम से कम
अहसास तो होता
है कि कुछ है।
बजता तो रहता।
आवाज तो होती
रहती। खोल कर
देखता है तो
भरापन तो
मालूम होता।
दुख को बहुत
सहेज कर रखना
पड़ा हमें
सुख तो किसी
कपूर की
टिकिया—सा उड़
गया
सुख तो है ही
इतना
क्षणभंगुर।
झलक दिखती है
और चला जाता है।
कपूर की
टिकिया सा उड़
गया।
अब सबसे
पूछता हूं
बताओ तो कौन
था
वह बदनसीब
शख्स जो मेरी
जगह जीया
जीवन के अंत
में तुम
पूछोगे कि वह
कौन था जो मेरी
जगह जीया? क्योंकि तुम
तो कभी जीए भी
नहीं। तुम तो
कभी वस्तुत:
प्रकट ही न
हुए। तुम तो
धोखे में रहे।
तुम तो जो
नहीं थे वह
तुम मान लिए
और जो तुम थे उसको
छिपा कर रखा।
अब सबसे
पूछता हूं
बताओ तो कौन
था
वह बदनसीब
शख्स जो मेरी
जगह जीया
ऐसा
दुर्भाग्य का
क्षण न आए
इसके लिए अभी
से सजग हो जाओ।
जो—जो झूठ है, काट दो। जो—जो
तुमने नहीं
जाना है, अपने
अनुभव से नहीं
जाना है, उसे
उतार दो। बासे
को, उधार
को हटा दो। जो
किसी और से
आया है और
तुम्हारे
अनुभव से नहीं
जन्मा है, उससे
मोह छोड़ दो।
तुम जैसे हो
वैसे ही अपने
को जानो; चाहे
यह कितना ही
कष्टकर हो। और
चाहे कितने ही
कांटे चुभे, लेकिन सत्य,
प्रामाणिक
ईमानदारी से
तुम जो हो वही
अपने को स्वीकार
कर लो।
अज्ञानी हो
अज्ञानी, क्रोधी
हो क्रोधी, बेईमान हो
बेईमान, झूठे
हो झूठे, चोर
हो चोर—जों हो
उसे स्वीकार
कर लो।
हो तो चोर, और अचौर्य
का व्रत लिए
हो। हो तो
कामी, और
ब्रह्मचर्य
की बातें कार
रहे हो। हो तो
लोभी, और
छोटा—मोटा दान
करके अपने को
धोखा दे रहे
हो।
लाख
तो कमा लेते
हो, दो—चार
हजार दान कर
देते हो और
महादानी और
दानवीर बन
जाते हो। हो
तो अज्ञानी
लेकिन तोते की
तरह किताबें
रट ली हैं और
सोचते हो, ज्ञानी
हो गए। कभी
झुके नहीं
परमात्मा के
चरणों में, झुकना आता
ही नहीं। एक
पुजारी रख
लिया उधार, वह रोज आकर
तुम्हारी तरफ
से परमात्मा
के चरणों में
झुक जाता है।
किसको धोखा दे
रहे हो? यह
धोखा महंगा
पड़ेगा। एक दिन
जब मौत द्वार
पर खड़ी होगी
तब तुम चौंक कर
पूछोगे, वह
कौन था शख्स
जो मेरी जगह
जीया? क्योंकि
तुम तो कभी
जीए नहीं।
मैं तुमसे
कहता हूं अगर
तुम अपने सत्य
की उदघोषणा कर
दों—दुखद हो, कष्टपूर्ण
हो, अपमानजनक
हो, फिर भी
घोषणा कर दो, बदलाहट शुरू
हो जाएगी। जो
चोर यह कहने
की हिम्मत
जुटा ले कि
मैं चोर हूं
ज्यादा देर चोर
न रह सकेगा।
चोर रहने के
लिए अचौर्य का
व्रत लेना
अनिवार्य रूप
से जरूरी है।
इसीलिए तो
अणुव्रत लेते
हैं। चोर हैं,
छटे चोर हैं,
अचौर्य का
व्रत ले लेते
हैं। झूठे हैं,
मंदिर में
कसम खा लेते
हैं समाज के
सामने कि सच
बोलने की कसम
लेता हूं।
इससे झूठ
बोलने में बड़ी
सुविधा हो
जाती है।
क्योंकि जब
लोग जान लेते
हैं कि इस
आदमी ने कसम
खाई, सच
बोलता है तो
लोग मानते हैं
कि सच बोलता
होगा। झूठे को
इस बात की बड़ी
जरूरत है कि
लोग मानें कि
मैं सच बोलता
हूं। इसीलिए
तो झूठ चलता
है। झूठ सच के
सहारे चलता है।
झूठ के अपने
पैर नहीं; सच
के कंधों पर
चढ़ कर चलता है।
अगर तुम्हें
झूठ बोलना हो
तो समाज में
प्रचार करो कि
तुम सच्चे हो।
तो ही तो लोग
धोखे में
पड़ेंगे; नहीं
तो धोखे में
पड़ेगा कौन?
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
गांव के एक
सीधे—सादे
आदमी को धोखा
दे दिया।
मजिस्ट्रेट
को भी बड़ी
हैरानी हुई।
मजिस्ट्रेट
ने उससे कहा, नसरुद्दीन,
तुम्हें और
कोई नहीं मिला
धोखा देने को?
यह बेचारा
इस गांव का
सबसे सी था
सरलचित्त आदमी,
इसको तुम
धोखा देने गए?
नसरुद्दीन
ने कहा, हुजूर
और किसको देता?
यही मेरी
मान सकता था।
और तो गांव
में सब लफंगे
हैं, वे तो
मुझे धोखा दे
जाएं। यही है
एक बेचारा; जिसको मैं
धोखा दे सकता
था। अब और किसको
देता? आप
ही कहिए।
बात तो ठीक
है। बेईमान को
खबर फैलानी
पड़ती है कि
मैं ईमानदार
हूं प्रचार
करना पड़ता है
कि मैं
ईमानदार हूं।
उसकी
ईमानदारी की
हवा जितनी
फैलती है उतनी
ही बेईमानी की
सुविधा हो
जाती है।
तुम्हें पता
चल जाए कि
आदमी बेईमान
है, फिर
बेईमानी करनी
बहुत मुश्किल
हो जाती है; असंभव हो
जाता है।
'मुमुक्षु
पुरुष की
बुद्धि आलंबन
के बिना नहीं
रहती। मुक्त
पुरुष की
बुद्धि सदा
निष्काम और
निरालंब रहती
है।’
मुमुक्षोर्बुद्धिरालंबमंतरेण
न विद्यते।
'मुमुक्षु
की बुद्धि
आलंबन के बिना
नहीं रहती।’
मन बिना
आलंबन के नहीं
रहता। मन को
कोई सहारा
चाहिए। मन
अपने बल खड़ा
नहीं हो सकता।
मन को उधार
शक्ति चाहिए—किसी
और की शक्ति।
मन शोषक है।
इसलिए जब तक
तुम सहारे से
जीयोगे, मन
से जीयोगे।
जिस दिन तुम
बेसहारा
जीयोगे उसी
दिन तुम मन के
बाहर हो जाओगे।
और इस बात को
खयाल में लेना
कि मन इतना
कुशल है, उसने
मंदिर के भी
सहारे बना लिए
हैं। पूजा, पाठ, यज्ञ—हवन,
पंडित, पुरोहित,
शास्त्र।
परमात्मा भी
तुम्हारे लिए
एक आलंबन है।
उसके सहारे भी
तुम मन को ही
चलाते हो। तुम
मन की कामनाओं
के लिए
परमात्मा का
भी सहारा मांगते
हो कि हे
प्रभु! अब इस
नये धंधे में
काम लगा रहे
हैं, खयाल
रखना। शुभ
मुहूर्त में
लगाते हो, ज्योतिषी
से पूछ कर
चलते हो कि
प्रभु किस
क्षण में सबसे
ज्यादा
आशीर्वाद
बरसाएगा, उसी
क्षण शुरू
करें।
मुहूर्त में
करें।
तुम
परमात्मा का
भी सहारा अपने
ही लिए ले रहे
हो। खयाल करो, जब तक तुम
परमात्मा को
सहारा बनाने
की कोशिश कर
रहे हो, तुम
परमात्मा से
दूर रहोगे।
जिस दिन तुमने
सब सहारे छोड़
दिए उस दिन
परमात्मा
तुम्हारा
सहारा है।
बेसहारा जो हो
गया, परमात्मा
उसका सहारा है।
निर्बल के बल
राम। जिसने
सारी बल की
दौड़ छोड़ दी, जिसने
स्वीकार कर
लिया कि मैं
निर्बल हूं
असहाय हूं और
कहीं कोई
सहारा नहीं है।
सब सहारे झूठे
हैं और सब
सहारे मन की
कल्पनाएं हैं।
ऐसी असहाय
अवस्था में जो
खड़ा हो जाता
है उसे इस
अस्तित्व का
सहारा मिल
जाता है।
'मुमुक्षु
पुरुष की बुद्धि
आलंबन के बिना
नहीं रहती।’
मुमुक्षोर्बुद्धिरालंबमंतरेण
न विद्यते।
निरालबैव
निष्कामा
बुद्धिर्मुक्तस्य
सर्वदा।।
'लेकिन
मुक्त पुरुष
की बुद्धि सदा
निष्काम और निरालंब
है।’
मुक्ति का
अर्थ ही है, निरालंब हो
जाना, निराधार
हो जाना।
मुक्ति का
अर्थ ही है, अब मैं कोई
सहारा न
खोजूंगा।
और जैसे ही
सहारे हटने
लगते हैं वैसे
ही मन गिरने
लगता है। इधर
सहारे गए उधर
मन गया। मन
सभी सहारों का
जोड़ है, संचित
रूप है। सारे
सहारे हट जाते
हैं, बस मन
का तंबू गिर
जाता है। मन
के तंबू के
गिर जाने पर
जो शेष रह
जाता है, बिना
किसी सहारे के
जो शेष रह
जाता है, वही
है शाश्वत; वही है अमृत;
वही है
तुम्हारा
सच्चिदानंद।
वही है
तुम्हारे
भीतर छिपा हुआ
परमात्मा, विराट।
परात्पर
ब्रह्म
तुम्हारे
भीतर मौजूद है।
ऐसा समझो कि
तुम्हारा आंगन
है, दीवाल
उठा रखी है।
दीवाल के कारण
आकाश बड़ा छोटा
हो गया आंगन
में। दीवाल
गिरा दो, आकाश
विराट हो जाता
है। सारा आकाश
तुम्हारा हो
जाता है।
मन तो आंगन
है। छोटी—छोटी
दीवालें चुन
ली हैं, उसके
कारण आकाश बड़ा
छोटा हो गया
है। गिरा दो
दीवालें। हटा
दो दीवाले।
तोड़ दो परिधि।
गिरा दो
परिभाषाएं। तत्क्षण
तुम्हारा
आकाश विराट हो
जाता है। तत्क्षण
सारा आकाश
तुम्हारा है।
इस आकाश के
उपलब्ध हो
जाने का नाम
ही मोक्ष है।
ये सारे
सूत्र मुक्ति
के सूत्र हैं।
एक—एक सूत्र
मुक्ति की एक—एक
अपूर्व कुंजी
है। इन पर खूब
ध्यान करना।
इनको बार—बार
सोचना, विचारना,
ध्यान करना।
इन पर बार—बार
मनन करना।
किसी दिन, किसी
क्षण में इनका
प्रकाश
तुम्हारे
भीतर प्रवेश
हो जाएगा। उसी
क्षण खुल जाते
हैं द्वार
अनंत के, अज्ञात
के। उसी क्षण
तुम मेजबान हो
जाते, प्रभु
तुम्हारा
मेहमान हो
जाता है।
बनो आतिथेय।
अतिथि आने को
तैयार है।
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