अध्याय 1 : सूत्र 3
इसलिए
यदि जीवन के
रहस्य की अतुल
गहराइयों
को
मापना हो तो
निष्काम जीवन
ही
उपयोगी है।
कामयुक्त मन
को
इसकी
बाह्य परिधि
ही दिखती है।
जिस
पथ पर विचरण
किया जा सके, वह
पथ नहीं; जिस
सत्य की निर्वचना
हो सके, वह
सत्य नहीं।
अनाम
है अस्तित्व
का जन्मदाता
और नाम है
वस्तुओं की
जननी।
ऐसे दो
सूत्रों के
बाद लाओत्से
का तीसरा सूत्र
है: देयरफोर, इसलिए।
तो सबसे पहले
तो इस इसलिए
को समझ लेना जरूरी
है, फिर हम
सूत्र को समझ
पाएंगे।
आश्चर्यजनक
लगता है एकदम
से, क्योंकि
पहली दो बातों
से तीसरे
सूत्र का ऐसा
कोई संबंध
नहीं है, जिसे
देयरफोर
से जोड़ा जा
सके।
सत्य
नहीं कहा जा
सकता। ऐसा
मार्ग नहीं, जिस
पर चला जा
सके।
अनाम है अस्तित्व, वस्तुओं का जगत नाम का जगत है। इसलिए, जो चित्त काम से जड़ा है, वह जीवन की अतल गहराइयों को, जीवन के रहस्य को नहीं जान पाएगा; जान पाएगा केवल जीवन की बाह्य परिधि को।
अनाम है अस्तित्व, वस्तुओं का जगत नाम का जगत है। इसलिए, जो चित्त काम से जड़ा है, वह जीवन की अतल गहराइयों को, जीवन के रहस्य को नहीं जान पाएगा; जान पाएगा केवल जीवन की बाह्य परिधि को।
देयरफोर, इसलिए
तो तभी जोड़ा
जाता है, जब
नीचे आने वाली
बात ऊपर गई
बातों से
निर्गमित
होती हो, निकलती
हो, निःसृत
होती हो। पहली
दो बातों से
ही तीसरी बात
निकलती हो, तभी उसे
इसलिए से जोड़ा
जा सकता है।
लेकिन काम से
भरे हुए मन का
शब्द से भरे
हुए मन से
क्या संबंध है?
ऐसा पथ जिस
पर चला न जा
सके, ऐसे
पथ का
कामवासना से
भरे हुए मन से
क्या संबंध है?
ऐसे
अस्तित्व को
जिसे कोई नाम
न दिया जा सके,
उसका
कामवासना से
भरे हुए चित्त
से क्या संबंध
है?
प्रकट
दिखाई नहीं पड़ता, अप्रकट
है। इसलिए
लाओत्से के इस
इसलिए शब्द को,
इस देयरफोर
को समझने में
बड़ी कठिनाई
पड़ती रही है।
पहले संबंध को
थोड़ा देख लें।
असल
में,
जो वासना से
भरा है, वही
कहीं पहुंचना
चाहता है।
कहीं पहुंचने
की इच्छा ही
वासना है। मैं
जो हूं, अगर
मैं वही होने
से राजी हूं, तो मेरे लिए
सब पथ बेकार
हुए, मेरे
लिए कोई मार्ग
न रहा। जब
मुझे कहीं
जाना ही नहीं
है, जब
मुझे कहीं
पहुंचना ही
नहीं है, तब
मेरे लिए किसी
भी मार्ग का
कोई भी
प्रयोजन न
रहा। मुझे
कहीं पहुंचना
है, मुझे
कहीं जाना है,
मुझे कुछ
होना है, मुझे
कुछ पाना है, तो फिर
रास्ते
अनिवार्य हो
जाते हैं।
यात्रा ही न करनी
हो, तो
पथों का क्या
प्रयोजन है? लेकिन
यात्रा करनी
हो, तो पथ
का प्रयोजन
है। हम जितने
पथों का
निर्माण करते
हैं, वे
सभी वासना के
पथ हैं। कोई
भी मार्ग बिना
कामना के
निर्मित नहीं
होता। यद्यपि
कामना का मार्ग
से कोई संबंध
नहीं है, कामना
का संबंध है
मंजिल से। पर
कोई भी मंजिल बिना
मार्ग के नहीं
पहुंची जा
सकती। और कोई
भी वासना बिना
मार्ग के पूरी
नहीं की जा
सकती। और कोई
भी इच्छा को
पूरा करना हो
तो साधन जरूरी
हैं।
वासना
तो कहीं
पहुंचने की
आकांक्षा है।
कोई दूर का
तारा वासना से
भरे चित्त में
चमकता रहता है
और कहता है: यहां
आ जाओ तो
शांति मिलेगी, यहां
आ जाओ तो सुख
मिलेगा, यहां
आ जाओ तो आनंद
पाओगे। जहां
तुम खड़े हो, वहां आनंद
नहीं है। यहां,
जहां यह
वासना चमकाती
है किसी तारे
को, वहां
आनंद है। और
हममें और उस
तारे में बड़ा
फासला है। उसे
जोड़ने के
लिए रास्ता
बनाना पड़ता
है। फिर वह
रास्ता चाहे
हम धन से बनाएं,
वह रास्ता
चाहे हम धर्म
से बनाएं,
वह रास्ता
चाहे हम बाहर
यात्रा करें,
वह रास्ता
चाहे हम भीतर
जाएं, उस
रास्ते से
चाहे हम जगत
की कोई वस्तु
पाना चाहें और
चाहे मोक्ष और
चाहे
परमात्मा का
द्वार खोलना
चाहें! लेकिन
अगर हमारी
मंजिल कहीं
दूर है, तो
बीच में हमें
और उस मंजिल
को जोड़ने
के लिए मार्ग
अनिवार्य हो
जाता है।
और
लाओत्से कहता
है,
जिस मार्ग
पर चला जा सके,
वह असली
मार्ग नहीं
है। पर वासना
से भरा हुआ चित्त
तो मार्गों पर
चलेगा ही।
इसका अर्थ यह
हुआ कि वासना
से भरा हुआ
चित्त जिन
मार्गों पर भी
चलता है, वे
कोई भी असली
मार्ग नहीं
हैं। चलना ही
गलत मार्ग पर
होता है; चलना
होता ही नहीं
असली मार्ग
पर। असल में, कहीं भी
जाने की
आकांक्षा गलत
जाने की
आकांक्षा
है--कहीं भी; बेशर्त। ऐसा
नहीं कि धन
पाने की आकांक्षा
गलत है; और
ऐसा भी नहीं
कि सारे जगत
को जीत लेने
की आकांक्षा
गलत है। नहीं,
मोक्ष को
पाने की
आकांक्षा भी
इतनी ही गलत
है। असल में, जहां पाने
का सवाल है, वहीं चित्त
तनाव से भर
जाता है और
अशांत हो जाता
है।
कामवासना
से भरा हुआ
चित्त जहां है, वहां
कभी नहीं होता;
और जहां
नहीं है, सदा
वहीं डोलता
रहता है। यह
बड़ी असंभव
स्थिति है।
मैं जहां होता
हूं, वहां
नहीं होता; और जहां
नहीं होता हूं,
वहां सदा
डोलता रहता
हूं।
स्वभावतः
परिणाम में
संताप, एंग्विश
पैदा होता है,
खिंचाव
पैदा होता है।
क्योंकि मैं
जहां हूं, वहीं
हो सकता हूं
आराम से। जहां
मैं नहीं हूं,
वहां आराम
से नहीं हो
सकता। पर जहां
मैं हूं, वहीं
होने के लिए
जरूरी है कि
मेरे जाने का
मन ही न हो
कहीं; चित्त
कोई यात्रा ही
न करता हो।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
देयरफोर। इसलिए वह
कहता है कि
काम से भरा
हुआ चित्त, इच्छा से
भरा हुआ चित्त
जीवन की अतल
गहराई के
द्वार नहीं
खोल पाता है; केवल परिधि
से, बाह्य
परिधि से
परिचित हो
पाता है।
रहस्य अनजाने
रह जाते हैं।
महल अपरिचित
रह जाता है।
महल के बाहर
की दीवार को
ही जीवन समझ
कर वासना से भरा
हुआ चित्त
जीता है।
जीएगा
ही। क्योंकि
महल है यहां
और अभी; और
वासना से भरा
चित्त सदा
होता है कहीं
और कभी। वह
कभी भी हियर
एंड नाउ, अभी और यहीं
नहीं होता।
कहीं और, स्वप्न
में! और ऐसा
नहीं है कि वह
जब वहां पहुंच
जाएगा तो कोई
स्थिति
परिवर्तित
होगी। आज जिस
जगह मैं खड़ा
हूं, वहां
सोचता हूं
कहीं और होने
के लिए; और
जब वहां पहुंच
जाऊंगा, तो यही मन
मेरे साथ फिर
खड़ा हो जाएगा
और कहीं और
जाने की
आकांक्षाओं
के बीज पुनः
निर्मित कर लेगा।
ऐसे हम दौड़ते
ही रहते हैं।
और यह बहुत मजेदार
दौड़ है।
क्योंकि जिस
जगह के लिए हम
दौड़ते हैं, वहां पहुंच
कर हम पुनः
फिर किसी और
जगह के लिए दौड़ने
लगते हैं।
असल
में,
जिसे हमने
पाने के पहले
मंजिल समझा, पाने के बाद
वह फिर पड़ाव
हो जाता है।
पाने के पहले
लगता है, वहां
पहुंच कर सब
मिल जाएगा।
पहुंच कर लगता
है कि यह तो
केवल शुरुआत
है, और आगे
जाना होगा। और
हर बिंदु पर
ठहराव के ऐसा
ही लगता है, और आगे जाना
होगा। इसलिए
हम कहीं भी
शांति से नहीं
हो पाते हैं एक
क्षण को भी।
लाओत्से
ने जान कर इन
सूत्रों के
पीछे देयरफोर
का उपयोग किया
है,
जैसे कोई
गणित या तर्क
में करता है।
और जो निष्पत्ति
ली है, वह
यह है: आलवेज स्ट्रिप्ड
ऑफ पैशन
वी मस्ट
बी फाउंड--वासना
से उघड़े
हुए, वासना
से उखड़े
हुए। जैसे
वासना की
पर्तों को कोई
छील दे अपने
ऊपर से। जैसे
कोई प्याज को
छील डाले और
सारी पर्तों
को अलग फेंक
दे; और
फेंकता जाए, जब तक एक भी
पर्त बचे।
लेकिन प्याज
को छीलते-छीलते
आखिर में हाथ
कुछ भी नहीं
लगता है। पर्त
को निकालते
हैं, एक
दूसरी पर्त
हाथ आती है; उसे निकालते
हैं, तीसरी
पर्त हाथ आती
है। उखाड़ते
चले जाते हैं;
आखिर में तो
शून्य ही बच
रहता है।
अगर आप
अपनी सारी
इच्छाओं को
हटा दें, तो
क्या आपको
खयाल है कि आप
बचेंगे? क्या
आप अपनी
इच्छाओं के
जोड़ से ज्यादा
कुछ हैं? अगर
आपकी सारी
इच्छाएं खींच
डाली जाएं
प्याज की
पर्तों की
भांति, तो
आप एक शून्य
के अतिरिक्त
और क्या होंगे?
आपने जो
चाहा है, वही
तो आप हैं; उसका
ही जोड़! अगर
आपकी सारी चाह
झड़ जाए, तो
आप क्या होंगे,
कभी सोचा
है! एक निपट
शून्य; ना-कुछ।
लेकिन
उसी शून्य से, उसी
ना-कुछ से
जीवन का द्वार
खुलता है।
असल
में,
सभी द्वार
शून्य से
खुलते हैं। आप
एक मकान बनाते
हैं, आप
उसमें एक
दरवाजा बनाते
हैं। आपने
खयाल रखा कि
दरवाजा क्या
है? दरवाजा
सिर्फ एक
शून्य है।
जहां आपने
दीवार नहीं
बनाई है, वह
दरवाजा है।
ठीक से समझें,
तो दरवाजे
का अर्थ होता
है, जहां
कुछ भी नहीं
है। दीवार से
भीतर प्रवेश
नहीं होगा।
प्रवेश तो दरवाजे
से होगा।
दरवाजे का
मतलब क्या
होता है? दरवाजे
का मतलब जहां
शून्य है।
जहां कुछ भी
नहीं है, वहां
से आप प्रवेश
करते हैं। और
जहां कुछ है, वहां से आप
प्रवेश नहीं
करते। अब यह
बहुत मजे की
बात है, मकान
में प्रवेश
मकान से कभी
नहीं होता। उस
जगह से होता
है, जहां
शून्य होता है,
जहां कुछ भी
नहीं होता, मकान नहीं
होता। दरवाजे
का मतलब है, मकान का न
होना। दरवाजे
को छोड़ कर
मकान होता है।
तो जब
तक हमारे भीतर
ऐसा शून्य
हमें न मिल
जाए,
जहां कुछ भी
नहीं है, तब
तक हम उस जीवन
के परम रहस्य
में प्रवेश न
कर पाएंगे। वह
महल हमसे अपरिचित
और अनजाना ही
रह जाएगा।
तो
लाओत्से कहता
है,
उखाड़ डालो
सारी पर्तें
कामना की। एक
भी पर्त कामना
की न रह जाए।
हम भी
कभी-कभी कामना
की पर्तें तो उखाड़ते
हैं। लेकिन हम
एक उखाड़ते
हैं तभी, जब हम
उससे बड़ी
निर्मित कर
लेते हैं। हम
भी वासनाओं को
छोड़ते हैं। पर
हम एक वासना
को तभी छोड़ते
हैं, जब
उससे बड़ी
वासना को रिप्लेस,
उसको उसकी
जगह परिपूरक
कर लेते हैं।
असल में, हम
छोड़ते तभी हैं
किसी वासना को,
जब उससे बड़ी
वासना पर
हमारा पैर पड़
जाता है। छोटे
मकान हम छोड़
देते हैं बड़े
मकानों के लिए,
छोटे पद हम
छोड़ देते हैं
बड़े पदों के
लिए। हम भी
छोड़ते हैं। पर
सदा और बड़ा
परकोटा
निर्मित हो
जाए, तब हम
कोई छोटी
दीवार छोड़ते
हैं।
और
कभी-कभी ऐसा
भी होता है कि
हम जीवन की
पूरी वासना का
ढांचा भी
छोड़ते हैं। एक
आदमी धन खोजता
था,
पद खोजता था,
यश खोजता
था। सब बंद कर
देता है; पदों
से नीचे उतर
जाता है, धन
का त्याग कर
देता है, वस्त्र
छोड़ नग्न हो
जाता है। और
कहता है, मैं
अब प्रभु को
खोजने जाता
हूं। सब छोड़
देता है।
लेकिन तब एक
और विराट
वासना के पीछे
सारा ढांचा
तोड़ देता है।
अब कोई भी
उससे न कह
सकेगा कि वह
धन खोज रहा
है। कोई भी न
कह सकेगा, पद
खोज रहा है।
कोई भी न कह
सकेगा कि वह
प्रतिष्ठा
खोज रहा है।
लेकिन
अगर ईश्वर
शब्द में हम
गौर करें, तो
हमें सब मिल
जाएगा। ईश्वर
शब्द बनता है
ऐश्वर्य से।
परम ऐश्वर्य
का नाम ईश्वर
है। अब वह उस
ऐश्वर्य को
खोज रहा है, जिसका कभी
अंत नहीं होता।
अब वह उस धन की
तलाश में है, जिसे चोर
चुरा नहीं
सकते। अब वह
उस संपदा की खोज
कर रहा है, जिसे
मृत्यु छीन
नहीं सकती। पर
सब खोज वही
है। अब वह उस
पद को खोज रहा
है, जिस पद
से वापस उतरना
नहीं होता। अब
वह उस प्रतिष्ठा
को खोज रहा है,
जिसका कोई
अंत नहीं है।
लेकिन खोज
जारी है। नाम
उसने अपनी खोज
का ईश्वर रखा
है।
ध्यान
रहे,
ईश्वर को
कोई भी वासना
का विषय, आब्जेक्ट नहीं बना
सकता है। और
बनाएगा तो
वहां ईश्वर को
न पाएगा, अपनी
ही पुरानी
वासनाओं को नए
रूप में
स्थापित
पाएगा। मोक्ष
को कोई वासना
का विषय नहीं
बना सकता है, आब्जेक्ट नहीं बना
सकता। और अगर
बनाएगा तो
मोक्ष केवल एक
नया
कारागृह--सुंदर,
स्वर्ण से
निर्मित, फूलों
से सजा, पर
एक नया
कारागृह ही
सिद्ध होगा।
असल में, वासना
हमें कभी भी
कारागृह के
बाहर नहीं ले
जा सकती। जहां
तक चाह है, वहां
तक बंधन है।
लाओत्से
कहता है, उखाड़ डालो, हटा डालो,
एक-एक पर्त
को तोड़ दो
कामवासना की।
क्यों? क्योंकि
तभी जीवन में
जो छिपा हुआ
अतल रहस्य है,
उस अतल
रहस्य की
गहराइयों को
मापना हो, तो
इसके लिए
निष्काम हो
जाना ही
उपयोगी है। निष्काम
का अर्थ है, समस्त
कामनाओं से
शून्य।
शांति
की कामना मन
में रह जाती है, ध्यान
की कामना मन
में रह जाती
है, समाधि
की कामना मन
में रह जाती
है। और मन
बहुत चालाक
है। मन कहता
है, कोई
हर्ज नहीं, अब तुम्हें
पद नहीं चाहिए,
ध्यान तो
चाहिए; अब
तुम्हें धन
नहीं चाहिए, शांति तो
चाहिए। और मन
जीता है न धन
में, न
ध्यान में, न शांति में,
न स्वर्ग
में। मन जीता
है चाह में, चाहने में, वह डिजायरिंग
में। इसलिए मन
कहता है, कोई
भी विषय काम
दे देगा, कोई
हर्ज नहीं। पर
कुछ तो चाहिए।
निष्काम का अर्थ
है, कुछ भी
नहीं चाहिए।
और ध्यान रहे,
मन की
चालाकी बहुत
गहरी है। यहां
तक वह चालाकी
कर सकता है कि
कहे कि कुछ भी
नहीं चाहिए, यही मेरी
चाह है।
निष्काम होना
है, यही
मेरी कामना
है। लेकिन मन
फिर पीछे खड़ा
ही रहेगा।
रवींद्रनाथ
ने गीतांजलि
में कहीं एक
पंक्ति में
प्रभु से गाया
है,
प्रभु से
प्रार्थना की
है: तुझसे कुछ
और नहीं चाहता,
इतनी ही चाह
है कि मेरे मन
में कोई चाह न
रह जाए!
पर कोई
फर्क नहीं
पड़ता, कोई भी
फर्क नहीं
पड़ता है। और
अगर कोई गहराई
से देखे, तो
जो मांगता है
कि मुझे दस
हजार रुपए मिल
जाएं, जो
मांगता है कि
मुझे एक बड़ा
मकान मिल जाए,
उसकी चाह
इतनी बड़ी नहीं,
जितनी
रवींद्रनाथ
की है। वह
बेचारा बहुत
दीन है। वह
मांग ही क्या
रहा है? उसकी
मांग का मूल्य
ही क्या है? रवींद्रनाथ
कहते हैं, कुछ
और नहीं चाहिए
सिवाय इसके कि
अचाह मिल जाए,
चाह के बाहर
हो जाऊं। पर
यह चाह
है--अंतिम, आखिरी,
अति
सूक्ष्म।
और
लाओत्से कहता
है,
निष्काम! उखाड़ डालो,
आखिरी दम तक
उखाड़ डालो।
लाओत्से
के पास कोई
मिलने आया है, एक
युवक। और
लाओत्से से
कहता है, मुझे
शांति चाहिए।
लाओत्से कहता
है, कभी न
मिलेगी। वह
युवक कहता है,
ऐसी मुझमें
आपको क्या
कठिनाई मालूम
पड़ती है? ऐसा
मैंने क्या
पाप किया है
कि मुझे शांति
कभी न मिलेगी?
लाओत्से
कहता है, जब
तक तू चाहेगा
शांति को, तब
तक नहीं
मिलेगी। हमने
भी चाह कर
देखा बहुत दिन
तक। और आखिर
में पाया कि
शांति की चाह
जितनी बड़ी
अशांति बन
जाती है, उतनी
जगत में कोई
अशांति नहीं
है। इस शांति
को चाहना छोड़
कर आ।
एक और
घटना मुझे याद
आती है। लिंची
के पास कोई एक
साधक आया है
और लिंची से
कहता है, सब
मैंने छोड़
दिया। लिंची
कहता है, कृपा
कर, इसे भी
छोड़ कर आ! वह
युवक कहता है,
लेकिन
मैंने सब ही
छोड़ दिया।
लिंची कहता है,
इतना भी
बचाने की कोई
जरूरत नहीं।
इतना
सूक्ष्म है
निष्काम का
भाव!
वह
युवक कह रहा
है कि मैं सब
छोड़ दिया।
लिंची कहता है, इसे
भी छोड़ आ।
इतने से को
क्यों बचा रहा
है? नहीं, वह कहता है, मेरे पास
कुछ बचा ही
नहीं है।
लिंची कहता है,
इसे भी मत
बचा।
वासना, कामना,
चाह, बहुत
घूम-घूम कर
अनेक-अनेक
द्वारों से
हमें पकड़ती
है।
निष्काम
होने का अर्थ
है: मैं जैसा
हूं,
वैसा राजी
हूं। अशांत
हूं तो अशांत;
बेचैन हूं तो
बेचैन; बंधन
में हूं तो
बंधन में; दुखी
हूं तो दुखी।
मैं जैसा हूं,
टोटल एक्सेप्टबिलिटी,
इसकी समग्र
स्वीकृति।
नहीं, मुझे
इंच भर भी
अन्यथा होने
का सवाल नहीं
है। जो हूं, हूं।
तो फिर
कोई गति नहीं, फिर
कोई मोटिवेशन
नहीं। फिर कोई
यात्रा कैसे
शुरू होगी? फिर मन कैसे
कहेगा, वहां
चलो, वह पा
लो। मैं जो
हूं, हूं।
ताओ का
सार अंश तथाता
है--स्वीकृति।
जहां समग्र
स्वीकृति है, वहां
निष्कामता
है। और जहां
जरा सी भी
अस्वीकृति है,
वहीं चाह का
जन्म है। जरा
सी अस्वीकृति,
और पैदा हुई
चाह, और
काम आया, वासना
ने पकड़ा, दौड़
शुरू हुई। खयाल
किया आपने, अस्वीकृति
से चाह का
जन्म होता है।
हम सब चाहों
में जीए हैं, जीते हैं।
अपनी एक-एक
चाह को खोज कर
देखेंगे, तो
फौरन पता चल
जाएगा कि किस
अस्वीकृति से
यह चाह पैदा
हुई, कौन
सी चीज थी जो
आपने चाही ऐसी
न हो, अन्य
हो, अन्यथा
हो, भिन्न
हो, और चाह
का जन्म हुआ।
नसरुद्दीन के
जीवन में पढ़ा
है मैंने। एक
दिन गांव से
कोई की अरथी
गुजर रही है, कोई
मर गया है।
मुल्ला का घर
पड़ा है बीच
में, नसरुद्दीन का। बड़ा
आदमी मरा है
गांव का।
करीब-करीब
गांव के सभी
प्रतिष्ठित
लोग अरथी में
सम्मिलित हुए
हैं। नसरुद्दीन
का घर बीच में
पड़ा देख कर सम्मानवश
अनेक लोगों ने
नसरुद्दीन
के झोपड़े
की तरफ हाथ
उठा कर सलाम
किया है, नमस्कार
किया है।
नसरुद्दीन की
पत्नी बाहर
खड़ी है। वह
दौड़ कर आकर
मुल्ला को
कहती है कि
मुल्ला, नगर
में कोई
प्रतिष्ठित
जन गुजर गया
है, बहुत
लोग अरथी में
जा रहे हैं; तुम्हारी तरफ
देख कर, तुम्हारे
झोपड़े की
तरफ देख कर
अनेक लोग
नमस्कार कर
रहे हैं।
नसरुद्दीन ने
कहा,
हो सकता है,
आवाज मुझे
सुनाई पड़ती थी;
लेकिन उस
समय मैं दूसरी
करवट लिए हुए
लेटा था। और
तुझे तो पता
ही है कि वह जो
आदमी मर गया
है, उसकी
सदा से गलत
आदत है। घड़ी
भर बाद भी मर सकता
था, तब तक
हम करवट उस
तरफ किए होते।
नसरुद्दीन तो
व्यंग्य कर
रहा है आदमी
पर। लेकिन वह
कहता है कि उस
वक्त हम दूसरी
तरफ करवट किए
हुए थे। नमस्कार
लेने को करवट
बदलने का भी
कोई सवाल नहीं
था!
एक बार
गांव के लोगों
ने सोचा, नसरुद्दीन बहुत
मुश्किल में
है। कुछ पैसे
इकट्ठे किए और
नसरुद्दीन
को देने आए।
वह सीधा, चित्त
लेटा हुआ था, खुले आकाश
के नीचे, वृक्ष
के पास। लोगों
ने कहा कि हम
कुछ पैसे भेंट
करने आए हैं, नसरुद्दीन! सुना कि तुम
बहुत तकलीफ
में हो। नसरुद्दीन
ने कहा, तुम
थोड़ी देर से
आना, क्योंकि
खीसा मेरा
नीचे दबा है।
जब मैं उलटा
लेट जाऊं, तब
तुम आकर रख
जाना।
नसरुद्दीन ने
आदमी पर गहरे
व्यंग्य किए
हैं। वह कीमती
आदमी था।
पर अगर
हम निष्काम
भाव की गहराई
में जाएं, तो
हमें पता
चलेगा कि जहां
हैं, जैसे
हैं, स्वीकृत
है; उसमें
इंच भर
यहां-वहां
होने की कोई
कामना नहीं
है। न हो वैसी
कामना, तो
लाओत्से कहता
है, जीवन
के रहस्य को, अतल
गहराइयों को
स्पर्श किया
जा सकता है।
और गहराइयों
में ही जीवन
है। सतह पर तो
केवल परिधि है;
सतह पर तो
बाह्य रेखा
मात्र है।
जैसे मैं आपके
शरीर को
स्पर्श करके
लौट आऊं और
कहूं कि मैंने
आपको स्पर्श
किया। यद्यपि हम
ऐसा ही कहते
हैं। अगर मैं
आपके शरीर को
स्पर्श करके
लौट आऊं, तो
मैं यही कहता
हूं कि मैंने
आपको स्पर्श
किया। यद्यपि
केवल बाह्य
रूप-रेखा को, आकृति को
छूकर आ गया
हूं, आपको
नहीं स्पर्श
किया है। आपके
शरीर की जो बाह्य
रूप-रेखा है, आकृति है, वह आप नहीं
हैं। वह रूप-रेखा
तो केवल आप और
जगत के बीच एक
सीमा है। आप
तो गहन गहरे
में, भीतर
हैं। वह सब तो
आपके लिए
बाह्य आयोजन
है, जिसके
भीतर आप हो
सके हैं। वह
आपका सिर्फ घर
है, भवन है,
वस्त्र है।
पर
दूसरे को हम
वस्त्रों से
देखते हों और
रूप-रेखा छूते
हों,
वह तो
क्षम्य है। हम
अपने को भी
बाहर से ही
देखते हैं और
अपने को भी हम शरीर
से ही छूते और
स्पर्श करते
हैं।
पूरे
जीवन को हम
बाहर से ही छू
पाते हैं।
लाओत्से कहता
है,
कामयुक्त
मन के कारण।
इसे
थोड़ा समझ लेना
जरूरी है।
कामयुक्त मन
गहरे क्यों
नहीं जा सकता? तीन
सूत्र हैं।
एक, कामयुक्त
मन एक जगह एक
क्षण से
ज्यादा ठहर
नहीं सकता, इसलिए खुदाई
नहीं कर सकता।
कामयुक्त मन
भागा हुआ मन
है। एक क्षण
भी एक जगह रुक
नहीं सकता। तो
गहरे उतरने के
लिए तो खुदाई
की जरूरत
पड़ेगी। और अगर
आप हाथ में एक
कुदाली लेकर
और दौड़ते हुए
खोदते चले
जाते हों, तो
कुआं आप न खोद
पाएंगे।
थोड़े-बहुत कंकड़-पत्थर
जगह-जगह के उखाड़
देंगे, रास्ते
को खराब कर
देंगे या जमीन
को व्यर्थ के गङ्ढों से
भर देंगे, लेकिन
कुआं आप न खोद
पाएंगे। कुआं
खोदने के लिए
एक जगह, एक
जगह चोट, एक
जगह श्रम, प्रतीक्षा--कामयुक्त
मन वह नहीं कर
पाता। कामयुक्त
मन सदा भागा
हुआ है। कहना
चाहिए, एक
कदम आपसे सदा
आगे है। आप
जहां होते हैं,
वहां से
थोड़ा आगे ही
भागा हुआ होता
है। जैसे छाया
आपके पीछे
चलती है, ऐसे
काम आपके आगे
चलता है। जहां
आप हैं, वह
आगे के दर्शन
दिलाने लगता
है।
तो एक
तो कामयुक्त
मन क्षण भर भी
ठहरता नहीं; ठहराए
बिना कोई
गहराई नहीं
है।
दूसरा, कामयुक्त
मन कभी भी
वर्तमान में
नहीं होता, कभी भी। और
जीवन वर्तमान
में है।
कामयुक्त मन होता
है सदा भविष्य
में। जीवन को
छूना है तो इसी
क्षण छूना
पड़ेगा। और
कामयुक्त मन
कहता है, किसी
और क्षण में
सब कुछ छिपा
है। कल जहां
मैं पहुंचूंगा,
वहां सब
आनंद के द्वार
खुलेंगे। कल
जहां मैं पहुंचूंगा,
वहां खजाने
गड़े हैं। आज? आज तो कुछ भी
नहीं है।
कामयुक्त मन
वर्तमान के
प्रति अत्यंत
उदास और
भविष्य के
प्रति अति आतुर
मन है। और
जीवन का रहस्य
तो है वर्तमान
में।
असल
में,
अस्तित्व
में सिर्फ
वर्तमान है; न तो अतीत है
कुछ और न
भविष्य है
कुछ। अस्तित्व
सदा वर्तमान
है। अस्तित्व
सदा है। अतीत
और भविष्य
कामयुक्त मन
की विडंबनाएं
हैं। मन अतीत
को सम्हाल कर
रखता है, क्योंकि
अतीत के ही
सहारे भविष्य
की यात्रा की
जा सकती है।
इसलिए जिसे हम
भविष्य कहते
हैं, वह
हमारे अतीत का
ही
पुनरावर्तन
है; अतीत
का ही
प्रतिफलन, उसका
ही रिफ्लेक्शन
है, या
कहें उसका ही प्रोजेक्शन
है। जो-जो
हमने अतीत में
पाया है, उसे
ही हम फिर-फिर
करके भविष्य
में पाना
चाहते हैं, थोड़े
हेर-फेर से।
तो हम अपने
अतीत को
सम्हाल कर
रखते हैं, ताकि
हम अपने
भविष्य को निर्मित
कर सकें।
लेकिन
अतीत केवल
स्मृति है, अस्तित्व
नहीं। और
भविष्य केवल
कल्पना है, अस्तित्व
नहीं। भविष्य
केवल स्वप्न
है, जो अभी
घटा नहीं; और
अतीत वह
स्वप्न है, जो घट गया।
और जो है सदा, वह न तो अतीत
है और न
भविष्य है। वह
वर्तमान है।
शायद उसे
वर्तमान कहना
भी एकदम ठीक
नहीं है। ठीक
इसलिए नहीं है
कि वर्तमान हम
कहते उसे हैं,
जो अतीत और
भविष्य के बीच
में होता है।
लेकिन अगर
अतीत भी झूठ
है और भविष्य
भी झूठ है, तो
उन दोनों के
बीच में कोई
सत्य नहीं हो
सकता। दो
झूठों के बीच
में सत्य के
अस्तित्व का
कोई उपाय नहीं
है।
इसलिए
अगर और ठीक से
हम कहें, तो
वर्तमान भी
नहीं है, अस्तित्व
इटरनिटी
है, शाश्वतता
है, सनातनता
है। न वहां
कभी कुछ मिटता
है और न कभी वहां
कुछ होता है, वहां सब है।
सारी स्थिति
है की है। और
इस है में जो
प्रवेश करे, इस इज़नेस
में, वह
जीवन की अतल
गहराइयों को
छू पाएगा।
कामयुक्त
मन तो दौड़ता
रहेगा परिधि
पर। अतीत से
लेगा रस, भविष्य
में फैलाएगा
स्वप्न; अतीत
में डालेगा
जड़ें, भविष्य
में फैलाएगा
शाखाएं--उन
फूलों के लिए
जो कभी आएं।
और अस्तित्व?
अस्तित्व
अभी बीता जा
रहा है। वह
अभी है। इसी क्षण
है, यहीं
है।
तीसरी
बात,
जीवन है
निकटतम।
निकटतम कहना
भी ठीक नहीं, क्योंकि हम
स्वयं जीवन
हैं। निकटतम
भी हो, तो
भी हमसे थोड़ा
दूर हो गया।
जीवन हम स्वयं
हैं। और
कामयुक्त मन
सदा दूर की
तलाश है, दि
फार अवे।
कामयुक्त मन
सदा दूर की
तलाश है। और
जीवन है
निकटतम, निकटतम
से भी निकट।
और कामयुक्त
मन है दूर से
भी दूर। इन
दोनों का कहीं
मिलन नहीं होता।
जीवन का और मन
का कहीं भी
मिलन नहीं
होता।
किप्लिंग ने
कहीं गीत गाया
है कि पूरब और
पश्चिम कहीं नहीं
मिलते।
वे
शायद कहीं मिल
भी सकते हों, लेकिन
मन और जीवन
कहीं नहीं
मिलते।
हैरानी की लगेगी
बात कि मन और
जीवन कहीं
नहीं मिलते।
इसलिए जो मन
से भरा है, वह
जीवन से रिक्त
हो जाता है।
और जो मन से
खाली होता है,
वह जीवन से
भर जाता है।
लेकिन
कठिनाई मालूम
पड़ेगी, क्योंकि
हम तो मन से ही
भरे हैं। तो
हमें जीवन का
कोई पता चला
या नहीं चला? नहीं, हमें
जीवन का कोई
पता नहीं चला
है। हमने मन
को ही जीवन
समझा है। और
मन को जीवन
समझ लेना ऐसे
ही है, जैसे
कंकड़-पत्थरों
को कोई हीरा
समझ ले। या
वृक्ष से गिरते
हुए सूखे
पत्तों को कोई
फूल समझ ले और
कभी आंख उठा
कर ही न देखे
कि ऊपर फूल भी
खिलते हैं। सूखे
पत्ते जो
वृक्ष से गिर
जाते हैं, वर्जित,
फेंक दिए
जाते हैं, निष्कासित,
उनको बीनता
रहे और समझे
कि फूल हैं, उनके ढेर
लगा ले और तिजोरियां
भर ले। मन
केवल राख है
अतीत की। जैसे
रास्ते से कोई
राहगीर गुजरे
तो कपड़ों पर
धूल जम जाए, ऐसा
अस्तित्व से
गुजर कर जो
राख हम पर
इकट्ठी हो
जाती है
मार्गों की, उसका संग्रह
है मन। उसी
संग्रह से हम
भविष्य के
संबंध में सोचते
चले जाते हैं।
लाओत्से
उसकी जड़ को
काट डालना
चाहता है।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
काम से
मुक्त।
क्योंकि काम
जहां नहीं है,
वहां मन ठहर
नहीं सकता।
काम जड़ है।
अगर बुद्ध से
जाकर पूछेंगे,
तो बुद्ध
कहेंगे, तृष्णा!
बस तृष्णा न
हो तो सब मिल
जाएगा
तुम्हें। ठीक
शब्द है तृष्णा।
जिसको
लाओत्से कह
रहा है डिजायरिंग,
कामना, पैशन, वासना,
उसे बुद्ध
कह रहे हैं
तृष्णा।
महावीर उसे
कहते हैं
प्रमाद।
अलग-अलग शब्द
लोगों ने
उपयोग किए
हैं। पर एक, मन को काटने
की जो जड़ है, वह एक ही है।
जिसने
कुछ चाहा, वह
मन के बाहर न
हो सकेगा।
जिसने कुछ भी
न चाहा, वह
इसी क्षण मन
के बाहर है, इसी क्षण!
उसे कल तक
रुकने की
जरूरत नहीं
है। अगर इसी
क्षण बैठ कर
आप इतना साहस
जुटा पाएं कि अब
मैं नहीं कुछ
चाह रहा हूं, तो इसी क्षण
आप
जन्मों-जन्मों
की अंधी
स्थिति के
बाहर हो सकते
हैं। इसी
क्षण!
लेकिन
धोखा होगा। और
धोखा इसलिए
नहीं होता कि बाहर
होना असंभव
है। धोखा
इसलिए होता है
कि आप पूरे मन
के राज को
नहीं समझ पाते
हैं। मेरी बात
सुनेंगे तो
आपके मन में
होगा, अगर हो
सकते हैं बाहर
तो क्यों न हो
जाएं? अभी
हो जाएं। हो
जाना चाहिए।
अगर
आपने हो जाने
की चाह
निर्मित की और
आपने इसलिए
आंख बंद की कि
अच्छा है, मुक्त
हो जाएं झंझट
से, शांत
हो जाएंगे, परम आनंद
बरस पड़ेगा, यह तृष्णा
को तोड़ ही दें,
तो द्वार
खुल जाएंगे
जीवन के रहस्य
के, अगर
आपने इसको भी
चाह का रूप
दिया, तो
आप फिर छटक गए,
फिर भटक गए।
एक
सूफी फकीर हुआ
है,
बायजीद।
बायजीद जब
पहली दफा अपने
गुरु के पास गया,
तो उसे बड़ी
नींद की आदत
थी। गुरु
समझाता रहता,
बायजीद सो
जाता। गुरु
बायजीद को
बाहर पहरे पर बिठालता,
बायजीद सो
जाता। गुरु ने
बहुत बार कहा
कि देख, तू
सोने से ही
चूक जाएगा। पर
बायजीद कहता
कि मैं इतना
तो जागता रहता
हूं; ऐसा
तो नहीं कि
सोया ही रहता
हूं। बहुत
जागता भी हूं,
थोड़ा सोता
भी हूं। पर
उसके गुरु ने
कहा, तुझे
पता नहीं है
कि कभी ऐसा
होता है कि
चौबीस घंटे
जागे हो और एक
क्षण को सो गए
हो और सब खो जाता
है।
बायजीद
ने उस रात एक
सपना देखा कि
वह मर गया है
और स्वर्ग के
द्वार पर
पहुंच गया है।
द्वार बंद हैं
और द्वार पर
एक तख्ती लगी
है कि जो भी
द्वार पर आए
और प्रवेश का
इच्छुक हो, वह
चुपचाप बैठ
जाए। एक हजार
वर्ष में एक
बार द्वार
खुलता है, एक
क्षण को। सजग
हो बैठा रहे, जब द्वार
खुले, भीतर
प्रवेश कर
जाए। बायजीद
बड़ा घबड़ाया, एक हजार साल
में एक बार
खुलेगा एक
क्षण को! और झपकी
तो, एक
हजार साल का
मामला है, लगती
ही रहेगी। बड़ी
साहस करके, बड़ी हिम्मत
जुटा कर, बड़ी
ताकत लगा कर, आंखों को
खोल कर
बैठा-बैठा-बैठा,
फिर झपकी लग
गई। जब झपकी
खुली तो देखा
कि द्वार बंद
हो रहा था।
घबड़ाया, भागा,
लेकिन
द्वार बंद हो
चुका था। फिर
बैठा, फिर
एक हजार साल
बीते। फिर एक
दिन झपकी लगी
थी, आवाज
आई कि द्वार
खुला जैसे।
लेकिन मन ने
कहा, यह सब
सपना है; ऐसे
द्वार नहीं
खुला करते।
अभी हजार साल
भी कहां पूरे
हुए! फिर भी
घबड़ा कर उठा, लेकिन देखा
कि द्वार बंद
हो रहा है।
नींद खुल गई।
सपने थे।
गुरु
के पास, आधी
रात थी, उसी
वक्त गया। और
कहा, अब
पलक न झपकाऊंगा,
मुझे माफ कर
दें। गुरु ने
कहा, हुआ
क्या? अपना
सपना कहा।
गुरु ने कहा, तूने ठीक से
नहीं देखा।
दरवाजे के इस
तरफ तख्ती लगी
थी कि हजार
साल में एक
बार द्वार खुलेगा,
एक क्षण को
खुला रहेगा और
फिर बंद हो
जाता है। जब
द्वार बंद हो
रहा था, तूने
दूसरी तरफ लगी
हुई तख्ती
देखी कि नहीं?
बायजीद ने
कहा, दूसरी
तरफ की तख्ती
देखने का मौका
नहीं मिला। द्वार
करीब-करीब बंद
ही हो रहा था
तभी, तभी
दो दफा...।
बायजीद
के गुरु ने
कहा,
अब दुबारा
कभी सपना आए
तो दूसरी तरफ
की तख्ती भी एक
दफा देख लेना।
उस पर यह भी
लिखा है कि यह
द्वार तभी
खुलता है, जब
तुम सोते हो।
जब हम
मूर्च्छित
होते हैं, तभी
द्वार खुलता
है। ऐसा द्वार
के खुलने की
क्या शर्त हो
सकती है?
असल
बात यह है, अगर
और गहरे में
जाएं--बायजीद
के गुरु ने
उससे नहीं
कहा--अगर और
गहरे में जाएं,
तो जब द्वार
खुलता है, तभी
हम मूर्च्छित
हो जाते हैं।
वह हमारे मन
का कारण है।
ऐसा नहीं कि
जब हम
मूर्च्छित
होते हैं, तब
द्वार खुलता
है। लेकिन जब
द्वार खुलता
है, तभी हम
मूर्च्छित हो
जाते हैं।
क्योंकि अगर वह
द्वार एक दफा
हमें खुला दिख
जाए, तो
फिर मन के
बचने का कोई
उपाय नहीं है।
इसलिए मन अपनी
पूरी सुरक्षा
करता है; वह
अपने को बचाने
के पूरे
इंतजाम करता
है। सब तरह के
इंतजाम करता
है।
अभी
परसों एक युवक
मेरे पास आए।
और उन्होंने कहा
कि ध्यान में
तो...। अभी दो
महीने पहले आए
थे,
तो बड़े
बेचैन थे। मन
शांत कैसे हो?
अशांति
बहुत है; बेचैनी,
घबड़ाहट बहुत है। मन
शांत होना
शुरू हुआ, घबड़ाहट
कम होनी शुरू
हुई। तो अभी
वे एक नई घबड़ाहट
लेकर आए थे, वे यह कह रहे
थे कि मन तो
शांत हो रहा
है, घबड़ाहट भी कम हो रही
है, लेकिन
अब एक नया डर
लगता है कि और
भीतर प्रवेश
करना या नहीं?
क्या
डर है?
कहीं
ऐसा तो न होगा
कि जीवन की
वासनाओं में
रुचि कम हो
जाए?
कहीं ऐसा तो
न होगा कि
जीवन की जो
चारों तरफ दौड़
है, उसमें
रुचि कम हो
जाए? ऐसा
तो न होगा कि
मेरी
महत्वाकांक्षा
मर जाए? नहीं
तो फिर विकास
कैसे करूंगा?
ठीक कह
रहे हैं, मन
ऐसी ही बातें
खोज कर लाता
है। तभी द्वार
खुलता है, तभी
मन ऐसी बातें
खोज लाता है।
ऐसा तो न होगा
कि मेरा सब
बना-बनाया जो
व्यवस्था है,
वह बिगड़ जाए?
मन तत्काल
कोई खबर भीतर
से खोज लाता
है।
अभी एक
सज्जन ने मुझे
लिखा कि ध्यान
बहुत गहरा जा
रहा है, लेकिन
अब मैं कर
नहीं पाता हूं,
क्योंकि
मुझे ऐसा डर
लगता है कि
कहीं ध्यान में
मैं मर न जाऊं!
ऐसी घबड़ाहट
होती है कि
ध्यान में मैं
मर न जाऊं! अगर
ध्यान में मर
गया, तो
फिर क्या होगा?
आप
जिम्मेवार
होंगे?
मैंने
कहा,
तुम्हारा
क्या खयाल है,
बिना ध्यान
के मरोगे ही नहीं?
अगर
तुम्हारा यह
पक्का हो कि
तुम बिना
ध्यान के
मरोगे ही नहीं,
तो ध्यान
में मरोगे तो
जिम्मा मैं ले
सकता हूं।
लेकिन अगर तुम
बिना ध्यान के
भी मर सकते हो,
तो ध्यान का
जिम्मा मुझ पर
क्यों डालते
हो?
लोग
मुझे लिखते
हैं,
हम पागल तो
न हो जाएंगे? ध्यान गहरा
होता है तो हम
पागल तो न हो
जाएंगे?
मन
फौरन ही
इंतजाम करता
है। जैसे ही
आप उस जगह पहुंचेंगे
जहां द्वार
खुलता हो, मन
कहेगा कि नहीं,
अब आगे मत
बढ़ना; बस
अब लौट चलो।
अब कोई भी
बहाना
खोजेगा।
मैं
लोगों को
समझाता रहा
हूं कि वस्त्र
बदलने से कुछ
भी न होगा, नाम
बदलने से कुछ
न होगा, संन्यास
लेने से कुछ न
होगा। तो वे
लोग मेरे पास
आते थे और
कहते थे कि
कुछ तो बाहर
का सहारा दें!
अगर बाहर कोई
भी सहारा नहीं,
तो हम भीतर
कैसे जाएं? तो आप तो ऐसी
बात करते हैं
कि हम भीतर जा
ही न सकेंगे।
माला नहीं, कपड़े नहीं, पूजा नहीं, मूर्ति नहीं,
मंदिर नहीं,
उपवास नहीं,
कुछ भी नहीं,
तो हम भीतर
कैसे जाएं? कुछ बाहर का
सहारा दें।
मैंने कहा, ठीक, बाहर
का सहारा देता
हूं। अब वे ही
लोग मेरे पास
आते हैं, वे
कहते हैं, कपड़े
बदलने से क्या
होगा? माला
पहनने से क्या
होगा? पूजा,
प्रार्थना,
कीर्तन से
क्या होगा? ये तो सब
बाहर की चीजें
हैं।
मैं
बड़ी हैरानी
में पड़ता हूं
कभी कि आदमी
का मन कैसा है? और
यह एक ही आदमी
दोनों बातें
कह जाता है और
फिर भी नहीं
देख पाता कि
यह मेरा मन
दोनों बातें कहता
है। जब भीतर
जाने का उपाय
बनता है तब वह
मन कहता है, बिना सहारे
के भीतर कैसे
जाओगे? जब
बाहर का सहारा
दो तो वह मन
कहता है, बाहर
के सहारे से
क्या होगा? जाना तो
भीतर है! और
अदभुत तो बात
यह है कि हमारी
बुद्धिहीनता
इतनी गहरी है
कि हम अपने मन
की इन मूढ़तापूर्ण
बातों को
बिलकुल भी
नहीं समझ
पाते। हर बार
मन इंतजाम
जुटा देता है
कि सो जाओ।
बहुत क्षुद्र
बहाने जुटा
देता है कि सो
जाओ।
एक
मित्र अभी आए
और मुझसे कहने
लगे कि आपने
ही तो सदा कहा
है कि किसी को
दुख नहीं देना
चाहिए। तो अगर
मैं कपड़े
संन्यासी के पहनूं तो
मेरी पत्नी को
दुख होता है।
तो
मैंने उनसे
पूछा कि तुमने
मेरी यह बात
कब सुनी थी? कहा,
दस साल हो
गए। दस साल
में तुमने
पत्नी को दुख
कोई दिया कि
नहीं? अगर
न दिया हो, तुम्हें
मैं संन्यासी
मानता हूं।
तुम जाओ। तुम्हें
कपड़े बदलने की
जरूरत नहीं
है। उन्होंने
कहा, नहीं,
दुख तो
दिया। तो
मैंने कहा, सिर्फ यह कपड़ा
पहनते वक्त अब
दुख न दोगे।
और सारे दुख
देते वक्त तुम
मेरे पास न आए
कि आपने कहा
था कि पत्नी
को कोई दुख न
देना, किसी
को दुख न
देना। और सब
दुख तुमने मजे
से दिए।
पर
आदमी की मूढ़ता
अदभुत है। वह
कहेगा, यह
कपड़े बदलने से
पत्नी को दुख
हो जाएगा। और
आपने ही तो
कहा था कि
किसी को दुख
मत देना। अगर
तुमने दुख
देने बंद कर दिए
हैं, तो
बिलकुल ठीक है,
मत दो दुख।
नहीं, वह
कहते हैं, दुख
देना तो कुछ
बंद नहीं किए,
मैं तो वैसे
ही का वैसा
हूं। और सब तो
चलता ही है।
हैरानी
जो है, वह यह है
कि हम अपने मन
को कभी जरा
दूर से खड़े होकर
नहीं देख पाते
कि वह कब हमें
सोने की सलाह
देता है। और
सलाह वह ऐसी
देता है कि
लगेगा कि
बिलकुल ठीक
है। बात तो
बिलकुल ठीक
है। मगर यह
पत्नी सिर्फ
बहाना है। यह
मन है असली
चीज। यह मन
पत्नी का बहाना
ले रहा है। यह
बगल की, पड़ोस
की स्त्री को
देखते वक्त
इसने कभी
बहाना नहीं
लिया था कि
पत्नी को दुख
होगा। इसने
कहा, कैसी
पत्नी! कैसा
क्या! ये सब तो,
ये सब तो
कामचलाऊ
नाते-रिश्ते
हैं। संसार
में कौन किसका
है? तब कभी
खयाल में नहीं
आता है।
लेकिन
मन,
जब भी मन के
पार जाने का
कोई कदम उठाने
को हम होंगे, तभी सोने की
सलाह देता है।
वह द्वार
खुलता है स्वर्ग
का, ऐसा
नहीं कि जब आप
सोते हैं; वह
जब खुलने को
होता है, तभी
मन कहता है, सो जाओ! हजार
बहाने जुटा
लेता है कि
कितनी देर से
जग रहे हो! थक
गए हो, अब
सो जाना
चाहिए।
लाओत्से
कह रहा है, कामना
ही मन है। और
निष्काम हुए
बिना जीवन की गहराई
में उतरने का
कोई भी उपाय
नहीं है।
प्रश्न:
भगवान श्री, कृपया
यह बतलाएं कि
क्या लाओत्से
के ये सारे उपदेश
पराजित जीवन
के हारे हुए
व्यक्ति के
उपदेश नहीं
हैं? क्या
इन उपदेशों के
मूल में एक
प्रकार की
निषेधात्मक
अभिवृत्ति या पलायनवादिता
नहीं है? तथाता
या स्वीकृति
की इस नीति से
शोषण के तंत्र
को
प्रोत्साहन
नहीं मिलेगा?
और अंत में,
क्या इन
उपदेशों को
केवल कोरी
सैद्धांतिक
आदर्शवादिता
नहीं कह सकते?
ये
व्यावहारिक
नहीं हैं, और
न इनमें काम
से मुक्त होने
का या अमूर्च्छित
होने का उपाय
बताया गया है।
लाओत्से
उपाय में
विश्वास नहीं
करता। क्योंकि
लाओत्से कहता
है,
उपाय तो
वासना के ही
होते हैं।
निर्वासना का
कोई उपाय नहीं
होता। उपाय का
मतलब होता है,
साधन। उपाय
का मतलब होता
है, मार्ग।
उपाय का मतलब
होता है, कहीं
पहुंचने के
लिए की गई कोई
क्रिया।
मार्ग का मतलब
होता है, किसी
मंजिल को जोड़ने
वाली
व्यवस्था, कोई
सेतु, साधन।
लाओत्से
कहता है, वासना
के लिए उपाय
की जरूरत है, मार्ग की
जरूरत है, दौड़ने
की जरूरत है, श्रम की
जरूरत है, प्रयत्न
की जरूरत है।
निर्वासना के
लिए तो समझ, अंडरस्टैंडिंग
काफी है।
निर्वासना के
लिए समझ काफी
है, कोई
उपाय आवश्यक
नहीं
हैं--लाओत्से
के लिए। और जो
भी समझ पाए
पूरी बात को, उसके लिए भी
कोई उपाय
आवश्यक नहीं
हैं। सब उपाय नासमझों
के लिए दिए गए
खिलौने हैं, धीरे-धीरे
छीनने की
व्यवस्था है।
इकट्ठा वे न छोड़
सकेंगे, इसलिए
धीरे-धीरे छुड़ाने
का आयोजन है।
लाओत्से
तो कहता है कि
अंडरस्टैंडिंग, समझ,
प्रज्ञा!
अगर खयाल में
आ जाए मन का यह
जाल, तो आप
इसी क्षण बाहर
हो जाएंगे
खयाल में आने
से ही, कोई
और उपाय की
जरूरत नहीं
है। मुझे यह
समझ में आ जाए
कि यह जहर है, तो यह
प्याला मेरे
हाथ से छूट
जाएगा। इस
प्याले को छुड़ाने
के लिए मुझे
कोई कसरत करने
की जरूरत नहीं
है। मुझे समझ
में आ जाए, आग
जलाती है, तो
यह हाथ आग की
तरफ जाने से
रुक जाएगा।
इसे रोकने के
लिए मुझे
दो-चार पहलवान
लगाने की
जरूरत नहीं
है।
उपाय
तो तब करने
पड़ते हैं जब
समझ न हो, समझ
हो तो उपाय की
जरूरत नहीं
है। इसलिए दो
मार्ग हैं। एक
मार्ग है उपाय
का, नासमझी
का। नासमझ
आदमी कहता है,
समझ तो मेरे
पास नहीं है, कोई उपाय
बता दो, जिससे
मैं समझ की
कमी पूरी कर
लूं। कोई
तरकीब, कोई
टेक्नीक, कोई
मेथड।
नासमझी उपाय
मांगती है, बिना उपाय
के नहीं जी
सकती।
समझदारी के
लिए किसी उपाय
की जरूरत नहीं
है। बात समझ
में आ गई और बात
समाप्त हो गई।
समझ लेना ही
काफी है। उसका
कारण है।
क्योंकि
लाओत्से जैसे
लोगों का खयाल
है कि हम
वस्तुतः बंधे
हुए नहीं हैं,
हमें बंधे
होने का सिर्फ
खयाल है। हम
बीमार नहीं
हैं, केवल
अज्ञानी हैं।
दो
बातें हैं। एक
आदमी बीमार है, सच
में बीमार है।
वास्तविक
बीमारी उसके
छाती को पकड़े
हुए है। तब तो
दवा की जरूरत
पड़ेगी ही, उपाय
आवश्यक होगा।
लेकिन एक आदमी
है, जो
बीमार बिलकुल
नहीं है, सिर्फ
वहम है उसे कि
मैं बीमार
हूं। तब दवा
देना मंहगा और
खतरनाक भी हो
सकता है।
क्योंकि दवा
तब नई बीमारी
बन सकती है।
इस आदमी को तो
सिर्फ समझ
चाहिए कि वह
बीमार नहीं
है। और अगर
इसे दवा भी
देनी पड़े कभी,
तो शक्कर की
गालियां ही
देनी पड़ेंगी,
पानी ही
पिलाना
पड़ेगा। वह
सिर्फ धोखा ही
होने वाला है
दवा का। वह
दवा होने वाली
नहीं है।
लाओत्से
का खयाल है--और
ठीक खयाल
है--कि जीवन की जो
कठिनाई है, वह
अज्ञान की
कठिनाई है। वह
वास्तविक
कठिनाई नहीं
है। हम सच में
ही परमात्मा
से दूर नहीं
हो गए हैं, सिर्फ
हमें खयाल है।
हम सच में ही
अपने जीवन के
महल के बाहर
चले नहीं गए
हैं, चले
जाने का हमें
सिर्फ खयाल
है। हमने जीवन
की संपदा को
खोया नहीं है,
हम सिर्फ
भूल गए हैं।
अगर यह बात है,
तो लाओत्से
कहता है, उपाय
की क्या जरूरत
है? उपाय
का कोई सवाल
नहीं है। समझ
पर्याप्त
होगी। समझ ही
उपाय है।
बुद्ध
ने कहीं कहा
है,
कि जो नहीं
समझते, उन्हें
मैंने
विधियां दी
हैं। और जो
समझते हैं, उन्हें
मैंने समझ दी
है। जो नहीं
समझते, उन्हें
मैंने उपाय
दिए हैं कि
तुम ऐसा-ऐसा
करो तो हो
जाएगा। जो
समझते हैं, उन्हें
मैंने समझा
दिया है। बात
समाप्त हो गई।
करीब-करीब...जैसा
कि
मनोवैज्ञानिक
की कोच पर सैकड़ों
मरीज रोज आते
हैं,
जिन्हें
बीमारी नहीं
होती। पर इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता, वे
बीमार तो हैं
ही। बीमारी
कोई नहीं है, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। बीमार
तो वे हैं ही। असली
बीमारों से भी
ज्यादा बीमार
हैं! और बीमारी
बिलकुल नहीं
है। सिर्फ वहम
है, सिर्फ
खयाल है कि
बीमारी है।
उनका भी इलाज
करना पड़ता है।
इलाज क्या है?
फ्रायड या
जुंग क्या
करते रहे हैं?
कुछ नहीं, उस मरीज से
वर्षों तक
उसकी बीमारी
को उखाड़
कर बात करते
रहे हैं। इस बातचीत
के दौरान अगर
समझ पैदा हो
जाए, तो वह
आदमी बीमारी
के बाहर हो
जाता है। और
अगर समझ पैदा
न हो, तो वह
आदमी बीमारी
के भीतर रह
जाता है।
जीवन
की समस्या
वास्तविक
बीमारी की
समस्या नहीं
है। जीवन की
समस्या एक
भ्रांत, सूडो बीमारी की
समस्या है।
इसलिए
लाओत्से किसी
उपाय की बात
नहीं करता। वह
कहता है, निरुपाय
हो रहो! बस, यही
उपाय है। जान
लो, समझ लो
और ठहर जाओ, बस यही उपाय
है।
लाओत्से
की बात किसी
हताशा, किसी
पराजय की बात
भी नहीं है।
यह बहुत मजे
की बात है। यह
समझनी चाहिए।
यह सदा मन में
उठती है।
लाओत्से जैसे
व्यक्तियों
की बात सुन कर
ऐसा लगता है, एस्केपिस्ट हैं, पलायनवादी
हैं। कहते हैं,
कुछ चाहो
मत। नहीं
चाहेंगे तो बढ़ेंगे
कैसे? यद्यपि
चाह कर कितने
बढ़ गए हैं, इसका
कोई हिसाब रखा?
चाह कर
कितने बढ़ गए
हैं?
अल्डुअस
हक्सले से कोई
पूछ रहा था कि
आपकी तीन
पीढ़ियां--हक्सले
परिवार की तीन
पीढ़ियां
प्रोग्रेस और
प्रगति के
पक्ष में काम
करती रही हैं, बाप
और परदादा से
लेकर तीन
परिवार
मनुष्य-जाति
की प्रगति हो,
इस का काम
करते रहे
हैं--तो
अल्डुअस से
किसी ने पूछा
है कि आपकी
तीन पीढ़ियों
ने काम किया
है मनुष्य की
प्रगति के
लिए। आपसे हम
लेखा चाहते हैं,
ब्योरा
चाहते हैं इस
बात का कि
क्या आप कह
सकते हैं कि
आदमी आज से
पांच हजार साल
पहले जैसा था,
उससे आज
ज्यादा सुखी
है? ज्यादा
शांत है? ज्यादा
आनंदित है?
अल्डुअस
हक्सले ने कहा, अगर
मेरे परदादा
से पूछा होता,
तो वे
हिम्मत से कह
सकते थे कि
हां, है!
अगर मेरे बाप से
पूछा होता, तो वे थोड़ा
झिझकते। मैं
उत्तर ही नहीं
दे सकता।
नहीं, आदमी
सुखी भी नहीं
हुआ, शांत
भी नहीं हुआ, आनंदित भी
नहीं हुआ। और
प्रगति काफी
हो गई। प्रगति
कम न हुई, प्रगति
काफी हो गई।
लाओत्से
की बात से यह
खयाल उठता है, प्रगति
रुक जाएगी।
लेकिन आदमी
प्रगति के लिए
है क्या? या
कि प्रगति
आदमी के लिए
है? अगर
आदमी सिर्फ
प्रगति के लिए
है, तो फिर
ठीक है, आदमी
की कुर्बानी
हो जाए, कोई
चिंता नहीं।
प्रगति होनी
चाहिए; होकर
रहनी चाहिए।
छोटा मकान बड़ा
हो जाना चाहिए;
आदमी मर जाए,
मर जाए।
रास्ते पर दस
मील प्रति
घंटे की रफ्तार
के वाहन हट
जाने चाहिए, हजार मील की
रफ्तार के
वाहन आ जाने
चाहिए; कोई
फिक्र नहीं कि
रास्ते पर
आदमी बचे कि न
बचे। चांदत्तारों
पर पहुंचना
चाहिए; कोई
फिक्र नहीं, पहुंचने
वाला बचे कि न
बचे। अगर
प्रगति ही लक्ष्य
है, तब तो
लाओत्से की
बात गलत है।
लेकिन अगर
आदमी, उसका
आनंद, उसके
जीवन का रस
लक्ष्य है, तो लाओत्से
की बात सही
है। सच तो यह
है कि कितनी
ही वासना से
दौड़ भला कितनी
ही हो जाए, पहुंचना
नहीं होता है।
ध्यान
रखना, दौड़ लिए,
इसका मतलब
यह नहीं कि
पहुंच गए। दौड़
लेने मात्र से
कोई पहुंच
नहीं जाता।
लेकिन तर्क
ऐसा कहता है
मन का कि नहीं दौड़ेंगे, तो कहीं न
पहुंचेंगे। दौड़ेंगे, तो ही
पहुंचेंगे।
लाओत्से
कहता है, जीवन
की जो परम
संपदा है, वह
ठहरने और खड़े
होने से दिखाई
पड़ती है, दौड़ने
से दिखाई नहीं
पड़ती। और ऐसा
लाओत्से अकेला
नहीं कहता है।
ऐसा बुद्ध भी
कहते हैं, महावीर
भी कहते हैं, पतंजलि भी
कहते हैं। इस
जगत में जिन
लोगों ने जाना,
वे सभी कहते
हैं। अगर ऐसा
है, तो सब
ज्ञानी
पलायनवादी
हैं और सब
अज्ञानी प्रगतिवादी
हैं। एक भी
ज्ञानी
लाओत्से से
भिन्न नहीं
कहेगा।
फिर यह
भी मजे की बात
है कि ये सब
अज्ञानी, जो
प्रगति करते
हैं, घूम
कर आज नहीं कल
किसी न किसी
लाओत्से के
चरण में जाते
हैं कि शांति
चाहिए।
लाओत्से कभी
इन
अज्ञानियों के
चरणों में कभी
नहीं गया कि
शांति चाहिए।
प्रगतिवादी
सदा ही किसी
दिन
पलायनवादी के
चरण में बैठ
जाता है कि
मुझे शांति
दो। वह
पलायनवादी
कभी किसी
प्रगतिवादी
के पास पूछने
नहीं जाता कि
तुम्हें बड़ा
आनंद मिल गया,
थोड़ा आनंद
मुझे भी दो।
निरपवाद रूप
से ऐसा क्यों
होता है? लाओत्से
के पास भी
आंखें हैं, बुद्ध के
पास भी आंखें
हैं। उनको भी
तो दिखाई पड़ेगा
कि
प्रगतिवादी
आगे पहुंचा जा
रहा है, हम
भटक गए। लेकिन
ऐसा कभी नहीं
होता कि बुद्ध
उनके पास आएं
पूछने। वही
प्रगतिवादी
जाता है लौट-लौट
कर पूछने कि
मेरा मन बड़ा
अशांत है, बड़ा
पीड़ित हूं, बड़ा परेशान
हूं।
नहीं, पलायन
से नहीं।
स्थिति कुछ
ऐसी है। शब्द
से कुछ खतरा
नहीं है, लेकिन
शब्द के कनोटेशंस!
घर में आग लगी
है और अगर मैं
घर के बाहर
भागने लगूं और
आप कहें कि
पलायनवादी हो!
भागते हो घर
के बाहर! तो एक
अर्थ में
शाब्दिक तो
ठीक ही है, पलायन
है। छोड़ रहा
हूं घर; जहां
आग लगी है, उससे
हट रहा हूं।
लेकिन आग लगे
घर में रहना
समझदारी नहीं
है। आग लगे घर
में रहना अगर
समझदारी है, तो जब कोई
हार्न बजा रही
हो ट्रक तो
उसके सामने
खड़े रहना
बहादुरी है।
जो हटता है
हार्न सुन कर,
एस्केपिस्ट है। भाग रहे
हो? यह तो
अवसर है
परीक्षा का, कि जब हार्न
बज रहा है
ट्रक का, तब
खड़े रहो वहीं।
हिम्मत खो रहे
हो, साहस
कम कर रहे हो!
नहीं, अगर
हम जीवन की
स्थिति को ठीक
से समझें, तो
लाओत्से जीवन
से नहीं भाग
रहा है; लाओत्से
सिर्फ मूढ़ता
से हट रहा है।
लाओत्से
सिर्फ आग से
हट रहा है, बीमारी
से हट रहा है।
जीवन में तो
गहरे जा रहा है।
और हम जो समझ
रहे हैं कि हम
जीवन में आगे
बढ़ रहे हैं, हम सिर्फ
निपट मूढ़ता
में आगे बढ़ते
चले जाते हैं
और जीवन से
वंचित होते
चले जाते हैं।
अंतिम कसौटी
क्या है? लाओत्से
की शक्ल और
हमारी शक्ल को
मिलाना चाहिए।
लाओत्से मरते
वक्त भी
चिंतित नहीं
है, हम
जीते वक्त भी
चिंतित हैं।
लाओत्से मौत
को भी आलिंगन
करने में
आनंदित है, हम जीवन को
भी कभी आनंद
से आलिंगन
नहीं कर पाए।
लाओत्से
बीमारी में भी
हंसता है, हम
स्वस्थ होकर
भी रोते रहते
हैं। कसौटी
क्या है? लाओत्से
के हाथों में
कांटे भी रख
दो तो अनुगृहीत
हो जाएगा, हमारे
हाथों में कोई
फूल भी रख जाए
तो धन्यवाद का
भाव नहीं
उठता। नहीं, क्या है
मार्ग जिससे
हम पहचानें?
कौन सा
मापदंड है?
लाओत्से
पलायनवादी
नहीं है। और
अगर लाओत्से
पलायनवादी है, तो
सभी को
पलायनवादी
होना चाहिए।
फिर पलायनवाद
धर्म है।
क्योंकि
लाओत्से
व्यर्थ से
पलायन करके
जीवन की
सार्थकता और
सार में
प्रवेश करता
है।
ऐसा
लगता है कि
शायद इसमें
हताशा, निराशा
है। जीवन से
डर गए, भयभीत
हो गए। लड़ने
की सामर्थ्य
नहीं है। शायद
इसलिए हट रहे
हो, कमजोर
हो। कमजोरी का
भी लक्षण
लाओत्से नहीं
देता।
कमजोरी
का जरा लक्षण
नहीं देता।
बुद्ध और लाओत्से
और क्राइस्ट
जैसे लोग
जितनी सबलता
का लक्षण देते
हैं,
उतनी सबलता
का लक्षण कोई
भी नहीं देता।
और जिनको हम
प्रगतिवादी
कहते हैं, वे
धीरे-धीरे सब
नर्वस होते
चले जाते हैं,
सब। सबके
हाथ-पैर कंपने
लगते हैं। और
सबका स्नायु-मंडल
रुग्ण हो जाता
है। और सबकी
छाती पर हजार
तरह के भय
प्रवेश कर
जाते हैं।
आज
अमरीका के
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
मुश्किल से दस
प्रतिशत लोग
हैं जिन्हें
हम मानसिक रूप
से स्वस्थ कह
सकें। तो
नब्बे
प्रतिशत लोग? और
इन दस प्रतिशत
का अगर हिसाब
लगाने जाया
जाए, तो इस
दस प्रतिशत
में गैर पढ़े-लिखे
लोग, ग्रामीण,
जंगल में
रहने वाले लोग,
मजदूर, नीचे
वर्ग के लोग
हैं। जितनी
ऊपर वर्ग की
दुनिया है, जितने जो
लोग प्रगति कर
गए हैं, उतना
ही आंकड़ा
बड़ा होता चला
जाता है। बात
क्या है?
लाओत्से
जैसी गहरी
नींद तो कोई
प्रगतिवादी कभी
नहीं सो सकता, न
लाओत्से जैसा
आनंद से भोजन
कर सकता है, न लाओत्से
जैसे पाचन की
क्षमता है। न
लाओत्से जैसा
स्वास्थ्य है,
न लाओत्से
जैसी
निर्भयता है।
न लाओत्से
जैसा मौन है।
न, यह जो
बहती हुई आनंद
की सतत धारा
है लाओत्से में,
यह निराशा
की खबर नहीं
देती, हताशा
की खबर नहीं
देती। यह आदमी
हारा हुआ नहीं
है। लाओत्से
तो कहता है यह
कि मुझे कभी
कोई हरा नहीं
सका। और कोई
पूछने लगा, क्यों नहीं
हरा सका? तो
लाओत्से ने
कहा, मैंने
कभी किसी को
जीतना ही न
चाहा। हरा तो
तभी सकते हो, जब मैं किसी
को जीतना
चाहूं। मुझे हराओगे तो
तभी, जब
मैं जीतने को निकलूं।
मैं किसी को
जीतने न
निकला।
हमें
लगेगा कि शायद
लाओत्से
इसलिए जीतने
नहीं निकला कि
लड़ने से डरता
है।
और
लाओत्से कहता
है,
जीतने
इसलिए न निकला
कि तुम्हारी दुनिया
में जीतने
योग्य कुछ भी
था नहीं। कुछ
दिखा ही नहीं
कि कुछ जीतने
योग्य है। इन
क्षुद्र
चीजों को, जिनके
लिए तुम जीतने
जाते थे, इनको
मैंने जीतने
योग्य न समझा।
और इन क्षुद्र
चीजों के लिए
हारने के लिए
व्यर्थ का
उपद्रव खड़ा
करना? क्योंकि
जीतने निकले
कि हारोगे।
जीत जाओ, तो
भी कुछ नहीं
मिलता। और
व्यर्थ हार
जाओ, तो
बेचैनी और
परेशानी सिर
पर आ जाती है।
मैं जीतने ही
न गया। इसलिए
नहीं कि हारने
से डरता था, बल्कि इसलिए
कि जीतने
योग्य कुछ था
नहीं।
यह जो
हमें, हमारे
मन में जो
सवाल उठता है,
बिलकुल
स्वाभाविक
है। हमें लगता
है कि यह तो, यह तो एक पेसिमिस्ट,
दुखवादी का
दृष्टिकोण
है। लेकिन दुखवादी
को दुखी होना
चाहिए न! तो
बड़ी उलटी बात
है कि दुखवादी
दुखी नहीं
मालूम पड़ता।
और हम सुखवादी
दुखी मालूम
पड़ते हैं।
सारे
पश्चिम में जब
पहली दफा
बुद्ध के
ग्रंथों का
अनुवाद हुआ, तो
उन्होंने कहा,
यह पेसिमिस्ट
है--पार एक्सीलेंस।
यह तो आखिरी
दम का दुखवादी
है बुद्ध।
क्योंकि कहता
है: जन्म दुख
है, जीवन
दुख है, जरा
दुख है, मरण
दुख है, सब
दुख है। यह तो दुखवादी
है। लेकिन
उनमें से किसी
ने न सोचा कि
इसके चेहरे की
तरफ तो देखो।
यह दुखवादी
है, तुम
सुखवादी हो!
तो तुम्हारे
चेहरे पर सुख
की कोई छाप
होनी चाहिए।
तुम्हारे
चेहरे पर सुख
का कोई इशारा
नहीं दिखाई
पड़ता। और यह
आदमी जो कहता
है, जन्म
दुख है, जीवन
दुख है, सब
दुख है, इसके
आनंद का कोई
पारावार नहीं
है। तो जरूर
कहीं कोई भूल
हो रही है।
बुद्ध
कहते हैं कि
जीवन दुख है, इसे
जो जान ले, वही
आनंद को
उपलब्ध होता
है। और जो
समझे कि जीवन
सुख है, वह
सिर्फ दुख को
उपलब्ध होता
है। ठीक है यह
गणित बुद्ध का,
बहुत ही
गहरा है।
बुद्ध या
लाओत्से कहते
हैं कि जो
जीवन को सुख
समझ कर चलेगा,
वह दुख
पाएगा, क्योंकि
जीवन दुख है।
अगर मैं कांटे
को फूल मान कर
चलूंगा, तो
कांटा चुभेगा
और दुख
पाऊंगा।
क्योंकि
कांटा है, फूल
नहीं है।
लेकिन अगर मैं
कांटे को
कांटा ही मान
कर चलूं, तो
फिर कांटा
मुझे दुख नहीं
दे सकता।
कांटा दुख
देने की तरकीब
करता है, फूल
जैसा दिखाई
पड़ता है, तब
दुख दे पाता
है। बुद्ध
कहते हैं, जीवन
दुख है, इसे
जान लो; फिर
तुमसे
तुम्हारे सुख
को कोई न छीन
सकेगा। और
तुमने जीवन को
सुख जाना कि
तुम दुख में
पड़ोगे, क्योंकि
तुमने
भ्रांति का
सिलसिला शुरू
किया।
लाओत्से
दुखवादी
नहीं है।
लाओत्से परम आनंदवादी
है--परम। आनंद
की जितनी
उत्कृष्ट चरमता
हो सकती है, आत्यंतिकता
हो सकती है, लाओत्से
आत्यंतिक आनंदवादी
है।
लाओत्से
का एक शिष्य च्वांगत्से
हुआ। च्वांगत्से
को चीन के
सम्राट ने
निमंत्रण
भेजा कि तुम
आओ और मेरे
बड़े वजीर बन
जाओ। च्वांगत्से
ने खबर भेजी, लेकिन
मैं जितने सुख
में हूं, उसके
ऊपर कोई सुख
नहीं। तो वजीर
बना कर तुम
मुझे नीचे ही
उतार पाओगे।
क्योंकि इसके
आगे तो कोई
आनंद है नहीं।
अब तो कहीं भी
बढ़ना पीछे
हटना है। च्वांगत्से
ने कहा, अब
कहीं भी बढ़ना
पीछे हटना है।
अब तो इंच भर
सरकना, खोना
है। क्योंकि
जहां मैं हूं,
उससे परम
कोई आनंद नहीं
है।
हमको
लगेगा कि वजीर
होने का मौका
मिलता है, पागल
है। खुद
सम्राट
बुलाता है।
नहीं तो एक-एक
वोटर के पास
जाना पड़ता था।
पागल है
बिलकुल, चुपचाप
चले जाना था।
ऐसा मौका नहीं
खोना था। लेकिन
च्वांगत्से
की समझ उसे
कुछ और कहती
है। च्वांगत्से
की समझ यह
कहती है कि
मैं जिस परम
आनंद में हूं,
वहां से जरा
भी हिला, तो
तुम मुझे नीचे
ही उतार लोगे।
इसके आगे और कोई
गति नहीं है।
तुम सम्हालो।
लाओत्से
या च्वांगत्से
या कोई और
तथाता की जब
बात करते हैं, एक्सेप्टबिलिटी की, कि सब
कर लो स्वीकार,
तो इसलिए
नहीं कि किसी
विषाद से, किसी
फ्रस्ट्रेशन
से, किसी
संताप से, इसलिए
नहीं कि जीवन
में संतोष
रखना बड़ी
अच्छी बात है।
इसलिए नहीं।
स्वीकार
का भाव दो
कारणों से हो
सकता है। एक तो
इसलिए आदमी
स्वीकार कर ले
कि अब कोई
उपाय नहीं है, अब
स्वीकार ही कर
लो! इसमें कम
से कम
कंसोलेशन, सांत्वना
रहेगी।
नहीं, लाओत्से
की टोटल एक्सेप्टबिलिटी,
तथाता का यह
अर्थ नहीं है।
लाओत्से कहता
है, जो
आदमी यह कहता
है कि स्वीकार
करने से संतोष
रहेगा, वह
आदमी अभी भी
अस्वीकार कर
रहा है।
इसको
समझ लेना
चाहिए। वह अभी
भी अस्वीकार
कर रहा है।
क्योंकि अगर
अस्वीकार न हो, तो
असंतोष कैसा?
मैं कहता
हूं कि मेरे
पैर में कांटा
गड़ा है, अब स्वीकार
ही कर लूं, तो
कम से कम
संतोष रहेगा
कि ठीक है, गड़
गया। पीड़ा हो
रही है, स्वीकार
कर लूं। लेकिन
इस स्वीकृति
में अस्वीकार
छिपा हुआ है।
सच तो यह है कि
मेरी स्वीकृति
अस्वीकार का
ही एक ढंग है।
पीड़ा तो मुझे
हो रही है, दुख
मुझे हो रहा
है। अब कोई
उपाय नहीं
दिखाई पड़ता, तो मैं आंख
बंद करके कहता
हूं कि ठीक है,
इसमें भी
कोई, परमात्मा
का कोई राज
होगा, कोई
रहस्य होगा।
अभिशाप में भी
वरदान छिपा होगा।
काले बादलों
के भीतर भी
सफेद चमकती
हुई बिजली
छिपी रहती है।
कांटों के
भीतर भी फूल
रहता है। दुख
में भी सुख छिपे
रहते हैं।
लेकिन मेरी
खोज सुख की ही
है, वह
सफेद बिजली की
रेखा के लिए
ही मेरी खोज
है। काले बादल
की मेरी कोई
स्वीकृति
नहीं है। और जब
रात बहुत
अंधेरी हो
जाती है, तो
सुबह करीब
होती है। मगर
मेरी
आकांक्षा सुबह
के लिए ही है।
काली रात को
अपने को
समझाने के लिए
मैं समझा रहा
हूं कि कोई
हर्जा नहीं, रात बहुत
काली हो गई, अब सुबह, भोर
करीब होगी।
लेकिन मेरी
इच्छा भोर के
लिए है। रात
के कालेपन
को, मैं
भोर की इच्छा
को सामने रख
कर, थोड़ा
हलका कर रहा
हूं, संतोष
कर रहा हूं।
लेकिन
लाओत्से इस
तथाता की बात
नहीं करता। लाओत्से
कहता है, इसलिए
नहीं
स्वीकृति कि
संतोष चाहिए;
बल्कि
इसलिए कि
अस्वीकृति मूढ़ता है।
अस्वीकृति से
सिवाय आदमी
अपने को
निरंतर नर्क
में डालने के
और कहीं नहीं
ले जाता है। लाओत्से
का जोर
स्वीकृति पर
कम, अस्वीकृति
की समझ पर
ज्यादा है।
जिस दिन हम अस्वीकृति
को समझ लेंगे
पूरा कि मैं
अपने हाथ से
नर्क पैदा कर
रहा हूं, उस
दिन
अस्वीकृति
विदा हो जाएगी,
और जो शेष
रह जाएगी, वह
स्वीकृति
होगी। इस फर्क
को समझ लें।
एक तो ऐसी
स्वीकृति है,
जो
अस्वीकृति के
खिलाफ हम खड़ी
करते हैं, इंपोज
करते हैं। और
एक ऐसी
स्वीकृति है,
जो
अस्वीकृति के
तिरोहित हो
जाने पर पाई
जाती है। इन
दोनों में बड़ा
फर्क है। जब
अस्वीकृति
भीतर होती है
और स्वीकृति
को हम बाहर से
खड़ा करते हैं,
तो द्वंद्व
निर्मित होता
है। भीतर
अस्वीकार होता
है, बाहर
स्वीकार होता
है।
मित्र
मेरा चल बसा, तो
मैं कहता हूं
कि ठीक है, स्वीकार
ही करना पड़ेगा,
कोई उपाय भी
नहीं है। तो
अपने मन को
मैं समझाता
हूं कि सभी को
जाना पड़ता है,
मृत्यु तो
सभी की होती
है, मृत्यु
तो होगी ही।
कौन इस दुनिया
में सदा रहने
को आया है? यह
सब मैं अपने
को
समझाता-बुझाता
हूं। लेकिन भीतर
टीस गड़ती
रहती है।
मित्र चला गया,
उसका
खालीपन अखरता
रहता है। भीतर
मन कहता है, बुरा हुआ, नहीं होना
था। और बाहर
मन को मैं
समझाता हूं कि
यह तो होता ही
रहता है; यह
तो होता ही
रहा है; इससे
बचा नहीं जा
सकता। ये
दोनों बातें
साथ चलती रहती
हैं। ऊपर की
कोशिश से मैं
मलहम-पट्टी कर
रहा हूं। घाव
भीतर बना ही
रहता है।
लाओत्से
इस तरह की
स्वीकृति
तथाता के लिए
नहीं कह रहा
है। लाओत्से
कह रहा है कि
मैं यह नहीं कहता
कि मैं दुखी
हूं मेरे
मित्र के मर
जाने से, मैं
तो सिर्फ
आश्चर्यचकित
हूं कि इतने
दिन जीए कैसे?
मैं सिर्फ
आश्चर्यचकित
हूं, इतने
दिन जीए कैसे?
जीवन बड़ी
असंभव घटना है;
मौत बड़ी सहज
घटना है। मौत
को आश्चर्य
नहीं कहा जा
सकता, जीवन
आश्चर्य है।
है यह
आश्चर्य।
लाओत्से
कहेगा, इतने
दिन जीए कैसे?
आश्चर्य!
च्वांगत्से का
मैंने नाम
लिया। च्वांगत्से
की पत्नी मर
गई। तो सम्राट
गया सांत्वना
देने, तो वह खंजड़ी बजा
रहा था अपने
द्वार पर बैठ
कर। सुबह
पत्नी को विदा
किया, बारह
बजे खंजड़ी
बजाता था। पैर
फैलाए हुए था,
गीत गाता
था। सम्राट
थोड़ा झिझका।
वह तो तैयार होकर
आया था, जैसा
कि जब भी कोई
किसी के घर मर
जाता है तो
लोग तैयार
होकर आते
हैं--क्या
कहना! क्या
पूछना! सब तैयार
होता है, बिलकुल
रिहर्सल दो
दफे घर में
करके आते हैं।
क्या कहेंगे;
क्या उत्तर
देगा; और
क्या जवाब
होगा। सब
पक्का ही है।
और जो दो-चार
अनुभवी हैं, दो-चार को
विदा कर चुके
हैं, वे तो
बिलकुल पक्के
ही हैं। उनको
तो कोई जरूरत
ही नहीं, उनको
डायलॉग
बिलकुल याद ही
होता है। वह
तैयार करके
सम्राट आया था
कि ऐसा-ऐसा
दुख प्रकट
करेंगे, ऐसा-ऐसा
भाव बताएंगे।
इधर देखा तो
हालत ही उलटी
थी। यहां
पुराने डायलॉग
का उपाय न था।
वे खंजड़ी
बजा रहे थे।
और बड़े आनंदित
थे।
सम्राट
से न रहा गया।
उसने कहा, च्वांगत्से,
दुख न मनाओ,
इतना काफी
है; कम से
कम खंजड़ी
तो मत बजाओ।
बहुत है, इतना
ही बहुत है कि
दुख मत मनाओ।
बाकी खंजड़ी?
च्वांगत्से ने
क्या कहा, पता
है? च्वांगत्से ने कहा, या
तो दुख मनाओ
या खंजड़ी बजाओ। दो
के बीच में
खड़े होने की
कोई जगह नहीं
है। दो के बीच
में खड़े होने
की कोई जगह
नहीं है। और दुखी
मैं क्यों
होऊं? परमात्मा
को धन्यवाद दे
रहा हूं कि
इतने दिन जीवन
था--आश्चर्य!
उसने मेरी
इतनी सेवा
की--आश्चर्य!
उसने मुझे इतना
प्रेम
दिया--आश्चर्य!
और मैं उसे
विदा के क्षण
में अगर खंजड़ी
बजा कर विदा
भी न दे सकूं, तो बहुत
अकृतज्ञ! मैं
उसे विदा दे
रहा हूं। अब वह
दूर, धीरे-धीरे
दूर होती जाती
होगी इस लोक
से। मैं उसे
विदा दे रहा
हूं। मेरी खंजड़ी
की आवाज धीमी
होती जाती
होगी। पर जाते
क्षण में मैं
उसे आनंद से
विदा दे पाऊं।
हम हैं
एक,
साथ रह कर
भी आनंद से
नहीं रह पाते,
हम सुखवादी
हैं! च्वांगत्से
है एक, मृत
पत्नी को खंजड़ी
बजा कर आनंद
की विदा दे
रहा है, वह दुखवादी
है! तब फिर
हमारा दुखवाद-सुखवाद
बड़ा अजीब है।
कौन दुखवादी
है? हम दुखवादी
हैं, चौबीस
घंटे दुख में
रहते हैं। च्वांगत्से
परम
सुखवादियों
में एक है।
लाओत्से
इसलिए नहीं
कहता कि
स्वीकार कर लो, किसी
विवशता से, किसी हेल्पलेसनेस
से। नहीं, किसी
बल से, किसी
शक्ति से, किसी
सामर्थ्य से!
स्वीकार कर
लेना बड़ी
सामर्थ्य है,
बड़ा बल है।
महावीर को कोई
पत्थर मार रहा
है; महावीर
खड़े हैं।
हमारे मन में
होगा, कैसा
कायर आदमी है?
पत्थर का
जवाब तो और
बड़े पत्थर से
देना चाहिए।
लेकिन महावीर
खड़े हैं--किसी
कायरता से
नहीं, किसी
परम शक्ति के
कारण। इतनी
विराट शक्ति
है भीतर कि ये
पत्थर लगते
नहीं, ये
पत्थर चोट
नहीं पहुंचा
पाते। ये
पत्थर भीतर
किसी रिएक्शन
को, किसी
प्रतिक्रिया
को जन्म नहीं
दे पाते। ये पत्थर
फेंकने वाला
बचकाना है।
महावीर इस पर
दया से भरे
हैं, पूरी
करुणा से, कि
कैसा पागल है,
व्यर्थ
मेहनत उठा रहा
है।
हम दो
में से एक काम
कर सकते हैं:
या तो पत्थर
का जवाब पत्थर
से दें और या
भाग खड़े हों।
हमें दो के
अतिरिक्त
तीसरा विकल्प
नहीं दिखाई
पड़ता। महावीर
का विकल्प
तीसरा है। न
तो वे भागते
हैं,
न वे पत्थर
का जवाब पत्थर
से देते हैं।
वे पत्थर को
लेते ही नहीं।
पत्थर उनके
भीतर किसी तरह
का कोई
व्यवधान पैदा
नहीं कर पाता।
और इससे वे बड़े
लाभ में रहते
हैं, हानि
में नहीं
रहते। इससे वे
अपनी परम
शांति, अपने
परम आनंद में
प्रतिष्ठित
रहते हैं। वे
उससे इंच भर
यहां-वहां
नहीं होते।
समस्त
धर्म महापराक्रम
से पैदा होता
है,
महापुरुषार्थ से; और
समस्त धर्म
अभय से जन्मता
है, भय से
नहीं। और
समस्त धर्म
आनंद में
प्रतिष्ठा है,
दुख में
नहीं। दुख का
सूत्र है, सुख
की मांग। आनंद
की प्रतिष्ठा
का मार्ग है, दुख की
स्वीकृति।
शेष
कल। कुछ पूछते
हैं?
प्रश्न:
समझ
लेना, यह
किस घटना का
नाम है?
जो भी
जीवन में हो
रहा है, वह दो
ढंग से हो
सकता है: बिना
समझे, समझ
कर। उदाहरण से
समझें तो
आसानी होगी।
आपने
मुझे दी गाली, मुझे
आया क्रोध।
क्या मेरा
क्रोध आपकी
गाली से एकदम
पैदा हो जाता
है या इन
दोनों के बीच
में समझने की
भी कोई घटना
घटती है? क्या
जब आप मुझे
गाली देते हैं,
तो मैं
समझने की
कोशिश करता
हूं कि मेरे
भीतर आपकी
गाली से क्रोध
क्यों पैदा हो
रहा है? क्या
मैं भीतर लौट
कर देखता हूं
कि क्रोध पैदा
होना चाहिए, नहीं होना
चाहिए? क्या
मैं भीतर
देखता हूं कि
क्रोध क्या है?
अगर यह
मैं कुछ भी
नहीं देखता, आपने
गाली दी और
मैंने क्रोध
किया और इन
दोनों के बीच
में मेरी समझ
के लिए कोई
अंतराल न रहा,
कोई जगह न
रही; उधर
गाली, इधर
क्रोध; उधर
दबाई बटन और
मैं भभका; तो
फिर मैं यंत्र
की तरह
व्यवहार कर
रहा हूं। यह
व्यवहार
नासमझी का
व्यवहार है।
अगर
आपने दी गाली, मैंने
समझा कि क्या
उठता है मेरे
भीतर, क्यों
उठता है मेरे
भीतर? गाली
मुझे कहां
छूती है? किस
घाव को स्पर्श
करती है? किस
जगह गड़ती
है? क्यों गड़ती है? गाली में
ऐसा क्या है
जो मुझे इतना
आग से भर जाता
है? गाली
में ऐसा क्या
है जो मुझे
इतना जहरीला
कर देता है? यह सब मैंने
समझा और फिर
देखा इस जहर
को, इस
उठते क्रोध को,
इस आग को
पहचाना कि यह
क्या है, तो
जो मैं करूंगा,
वह समझ
होगी।
और मजे
की बात यह है
कि क्रोध केवल
नासमझी में किया
जा सकता है, समझ
में नहीं किया
जा सकता।
इसलिए अगर
आपने दी गाली
और मैंने की
समझ की फिक्र,
तो क्रोध
असंभव है।
आपने दी गाली
और मैंने समझ
की कोई चिंता
न ली, तो ही
क्रोध संभव
है।
इसलिए
लाओत्से जैसा
आदमी कहेगा, क्रोध
को हटाने की, उपाय की कोई
भी जरूरत नहीं
है। कोई विधि
की जरूरत नहीं
है। कोई मंत्रत्तंत्र
की जरूरत नहीं
है। कोई ताबीज
बांधने की
जरूरत नहीं
है। कोई कसम, कोई
प्रतिज्ञा, कोई व्रत
लेने की जरूरत
नहीं है।
क्रोध को समझ
लो, और
क्रोध असंभव
हो जाएगा।
अभी एक
पश्चिमी
मित्र को मैं
एक ध्यान करवा
रहा हूं। वे
यहां मौजूद
हैं। क्रोध
उनकी पीड़ा है
भारी। किसी पर
निकलता है। तो
उन्हें मैंने
कहा है कि तीन
दिन से वह एक
तकिए को लेकर
उस पर क्रोध
निकालें।
पहले
वे बहुत हैरान
हुए।
उन्होंने कहा, आप
क्या पागलपन
की बात करते
हैं! तकिए पर?
मैंने
कहा,
तुम शुरू
करो। क्योंकि
जब तुम आदमी
पर निकाल सकते
हो, तो
तकिए पर
निकालने में
बहुत ज्यादा
पागलपन नहीं
है। आदमी पर
निकाल सकते हो,
उसमें कभी
पागलपन नहीं
दिखा, तो
तकिए पर
निकालने में
उतना पागलपन
कभी भी नहीं
है। कोशिश
करो।
पहले
दिन कोशिश की।
मुझे आकर खबर
दी कि पहले तो
थोड़ा सा अजीब
लगा कि यह मैं
क्या कर रहा
हूं! लेकिन
पांच-सात मिनट
में गति आ गई
और मैंने तकिए
को ठीक ऐसे
मारना शुरू कर
दिया जैसे वह
जीवित हो। और
न केवल जीवित, बल्कि
थोड़ी ही देर
में, मेरी
जिस व्यक्ति
से सर्वाधिक
शत्रुता रही है,
तकिया उसका
ही रूप हो
गया। मुझे
उसकी याद आ गई,
जो दस साल
पुरानी है।
जिसे मैंने
मारना चाहा था
और नहीं मारा,
उसका चेहरा
तकिए में मुझे
दिखाई पड़ने
लगा। हंसी भी
आई, बेचैनी
भी हुई और रस
भी आया। और
मारा भी।
अब वे
तीन दिन से
तकिए को मार
रहे हैं। आज
सारी रिपोर्ट
दे गए हैं। वह
चकित करने
वाली रिपोर्ट
है। वह पूरी
रिपोर्ट यह है
कि पहले दिन
वे सब चेहरे
आने शुरू हो
गए,
जिनको
मारना चाहा और
नहीं मार पाए।
दूसरे दिन चेहरे
खो गए, शुद्ध
क्रोध रह गया।
निकल रहा है
एक तरफ से, दूसरी
तरफ कोई भी
नहीं है।
शुद्ध क्रोध!
और तब उनको
समझ आया कि ये
तो सिर्फ
बहाने थे लोग,
जिन पर
मैंने
निकाला। यह आग
तो मेरे भीतर
ही है, जो
बहाने खोजती
है। तब एक
अंडरस्टैंडिंग
पैदा हुई, एक
समझ पैदा हुई।
क्रोध को एक
नए रूप में
देखा। आज वह
दूसरे पर
निकलने का
दूसरे पर
जिम्मा न रहा।
आज अपने ही
भीतर कोई आग
है जो निकलना
चाहती है, अपने
पर ही जिम्मा
आ गया; आब्जेक्टिव न रहा, सब्जेक्टिव हो गया।
आपने गाली दी,
इसलिए
क्रोध किया था,
ऐसा नहीं; अब समझ में
आया कि मैं
क्रोध करना
चाहता था और
आपकी गाली की
प्रतीक्षा
थी। और अगर आप
गाली न देते, तो मैं कहीं
और से गाली
खोजता। मैं
उकसाता कि गाली
दो। मैं ऐसी
तरकीब करता, मैं ऐसी बात
करता, मैं
ऐसा काम करता
कि कहीं से
गाली आए।
क्योंकि मेरे
भीतर जो भर
गया था, वह
रिलीज होना
चाहता था। उसे
मुक्त होना जरूरी
था।
दूसरे
दिन उन्हें
दिखाई पड़ा--वे
दिन भर कर रहे हैं; तीन-चार
बार दिन में
कर रहे हैं; घंटे-घंटे
भर तीन-चार
बार--दूसरे
दिन उन्हें दिखाई
पड़ा कि यह
क्रोध किसी पर
नहीं है, यह
क्रोध मेरे
भीतर है। और
आज तीसरा दिन
था उनका। आज
उन्होंने
मुझे आकर कहा
कि हैरान हूं;
जैसे ही यह
दिखाई पड़ा कि
किसी पर नहीं
है, मेरे
ही भीतर है, वैसे ही
जैसे भीतर कोई
चीज विदा हो
गई, सब
शांत हो गया
है। मैं निपट
असमर्थ हो गया
हूं। अगर मुझे
कोई गाली दे
इस वक्त, तो
मैं क्रोध न
कर पाऊंगा। इस
वक्त तो नहीं
ही कर पाऊंगा।
क्योंकि इस
वक्त भीतर से जैसे
कोई बहुत भार
था, वह फिंक
गया है। सब
खाली हो गया
है।
समझ का
अर्थ है, आपके
भीतर जो भी
घटे, वह
आपके जानते, अवेयरनेस
में, आपके
होश में, आपके
चैतन्य में
घटे। जो भी! और
तब बहुत कुछ
घटना बंद हो
जाएगा अपने
आप। और जो बंद
हो जाए, वही
पाप है। और जो
होशपूर्वक भी चलता
रहे, वही
पुण्य है। और
समझ कसौटी है।
समझ के साथ जो चल
पाए, वह
पुण्य है; और
समझ के साथ जो
न चल पाए, वह
पाप है।
नासमझी में ही
जो चल सके, वह
पाप है। और
नासमझी में
जिसे चलाया ही
न जा सके, वह
पुण्य है। तो
यह समझ का
अर्थ इतना ही
हुआ कि मेरे
भीतर जो भी
घटता है, वह
मेरे
ध्यानपूर्वक
घटे, मेरे
गैर-ध्यान में
न घटे।
और सब
गैर-ध्यान में
घटता है। कब
आप क्रोधित हो
जाते हैं, कब
आप प्रेम से
भर जाते हैं, कभी आप सुख
अनुभव करते
हैं, कब
दुख अनुभव
करते हैं, सब
भान के बाहर
है, अनकांशस
है। अचानक
लगता है, सुखी
हूं; अचानक
लगता है, दुखी
हूं। लगता है,
बड़ा विषाद
है। और जब
आपको विषाद
लगता है, तब
आप यह नहीं
सोचते कि यह
मेरे भीतर से
आ रहा है। तब
आस-पास आप
कारण खोजते
हैं: कौन कर
रहा है, विषाद
में मुझे डाल
रहा है? लड़का
डालता है, कि
लड़की, कि
पत्नी, कि
पति, कि
मित्र, कि
धंधा? कौन
है? फौरन आप
खोजने निकल
जाते हैं। और
खोज कर किसी न
किसी को पकड़
लेते हैं।
लेकिन
वे सब एस्केप गोट्स हैं, वे
सब बहाने हैं,
वे सब
खूंटियां
हैं। वे कोई
असली नहीं
हैं। क्योंकि
मजे की बात यह
है कि आपको
बिलकुल अकेले कमरे
में बंद कर
दिया जाए, तब
भी यही सब आप
करेंगे जो आप
किसी के साथ
कर रहे हैं।
यही करेंगे।
आप सोचते हैं,
मित्र मिल
जाता है, इसलिए
बात करते हैं?
अकेले में
छोड़ दिए जाएं,
अकेले में
बात करेंगे।
सपने के मित्र
से बात करेंगे।
आप सोचते हैं,
क्रोध करते
हैं, क्योंकि
कोई गाली देता
है? तो
आपको बंद कमरे
में रख दिया
जाए, पंद्रह
दिन में आप
पाएंगे कि आप सैकड़ों
दफे क्रोधित
हो गए बंद
कमरे में। हो
सकता है, कमीज
जोर से पटकी
हो; हो
सकता है, बर्तन
फेंक दिया हो;
हो सकता है,
स्नान करते
वक्त क्रोध
निकाला हो।
पच्चीस रास्ते
से आप क्रोध
निकाल लेंगे।
यह समझपूर्वक
हो सके, जो भी
भीतर घटता है।
अंतर-जीवन की
कोई भी घटना
मेरे
गैर-ध्यान में
न हो, इसका
नाम समझ है, अंडरस्टैंडिंग
है। और मजे की
बात यह है कि
समझ अगर हो, तो जो गलत है,
वह होना
अपने से बंद
हो जाता है।
समझ न हो, तो
जो सही है, उसे
आप कितना ही
उपाय करें तो
भी आप उसको
शुरू नहीं कर
सकते।
फिर
कल।
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