अध्याय—7
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।। 18।।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।। 19।।
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।। 18।।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।। 19।।
यद्यपि
ये सब ही उदार
हैं अर्थात श्रद्धासहित
मेरे भजन के
लिए समय लगाने
वाले होने से
उत्तम हैं, परंतु
ज्ञानी तो
साक्षात मेरा
स्वरूप ही है,
ऐसा मेरा मत
है, क्योंकि
वह स्थिर
बुद्धि
ज्ञानी भक्त
अति उत्तम
गति-स्वरूप
मेरे में ही
अच्छी प्रकार
स्थित है। और
जो बहुत जन्मों
के अंत के
जन्म में
तत्वज्ञान को
प्राप्त हुआ
ज्ञानी, सब
कुछ वासुदेव
ही है, इस
प्रकार मेरे
को भजता है, वह महात्मा
अति दुर्लभ
है।
प्रभु
को जो जानता
है,
वह उस जानने
में ही उसके
साथ एक हो
जाता है। सब दूरी
अज्ञान की
दूरी है। सब
फासले अज्ञान
के फासले हैं।
परमात्मा को
दूर से जानने
का कोई भी
उपाय नहीं है,
परमात्मा
होकर ही जाना
जा सकता है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं,
जो मुझे जान
लेता है, वह
ज्ञानी, वासुदेव
ही हो गया, वह
भगवान ही हो
गया, वह
कृष्ण ही हो
गया, वह
मैं ही हो
गया।
लेकिन
कैसा ज्ञानी
कृष्ण को
जानता है? दो
बातें कही
हैं। कहा है, युक्त आत्मा,
जिसकी
आत्मा युक्त
हो गई, इंटिग्रेटेड
हो गई।
हम
सबकी आत्मा
खंड-खंड है, अयुक्त
है, टुकड़े-टुकड़े
है। हम एक
आदमी नहीं हैं;
बहुत आदमी
हैं एक साथ।
नाम हमारा एक
है, इससे
भ्रम पैदा
होता है। एक
नाम के लेबिल
के पीछे बहुत
निवासी हैं।
क्षण-क्षण में
हमारे भीतर
बदलते रहते
हैं लोग। हम
एक भीड़ हैं, एक
समूह--प्रत्येक
आदमी--क्योंकि
बहुत खंड हैं
हमारे। खंड ही
हैं, ऐसा
नहीं, विपरीत
खंड भी हमारे
भीतर हैं। जो
हम एक हाथ से
करते हैं, उसे
ही दूसरे हाथ
से मिटा देते
हैं।
एक
क्षण हम प्रेम
से भर जाते हैं, दूसरे
क्षण घृणा से
भर जाते हैं।
वह जो प्रेम में
मंदिर बनाया
था, घृणा
में मिट्टी
में मिल जाता
है। एक क्षण
क्रोध में
जलते हैं, और
फिर क्षमा से
भर जाते हैं।
वह जो आग जलाई
थी अपने ही
प्राणों की, उसे अपने ही
प्राणों के
पानी से
बुझाते हैं। क्षण-क्षण
हमारे भीतर
बदलता रहता है
सब कुछ। हम एक
प्रवाह हैं।
युक्त
पुरुष इससे
विपरीत होता
है। युक्त पुरुष
का अर्थ है, वह
जो भीतर एक ही
है। कहीं से चखो उसे, स्वाद उसका
एक। कहीं से बजाओ उसे, आवाज उसकी
एक। कहीं से
खोजो उसे, वही
मिलेगा। किसी
द्वार से, किसी
दरवाजे से, किसी स्थिति
में, वही
मिलेगा।
यहां
जरा-सी धूप
बदल जाती है
और छाया हो
जाती है, तो हम
बदल जाते हैं।
यहां जरा-सा
अंतर पड़ता है परिस्थिति
में, और
हमारे भीतर का
आदमी दूसरा हो
जाता है। खीसे
में पैसे हों
थोड़े, तो
हृदय की धड़कन
और कुछ होती
है। खीसे में
पैसे थोड़े कम
हो जाएं, हृदय
की धड़कन और
कुछ हो जाती
है। हम हैं, ऐसा कहना ही
शायद ठीक नहीं
है।
गुरजिएफ
के पास कोई
जाता था और
कहता था कि
मुझे आत्मा को
खोजना है, तो
गुरजिएफ
पूछता था, आत्मा
तुम्हारे पास
है? बड़ा
अजीब सवाल
पूछता था।
पूछता था, डू
यू एक्झिस्ट--तुम
हो भी? कोई
भी कहेगा कि मैं
हूं, नहीं
तो आता कौन!
गुरजिएफ कहता,
जो घर से
निकला था, वही
पहुंचा है
मेरे पास कि
रास्ते में
बदल गया?
अनेकों
को उसकी बात
समझ में न आती
थी। जो भी बात
समझने योग्य
है,
वह बहुत कम
लोगों की समझ
में आती है।
जो नहीं समझने
योग्य है, वह
सबकी समझ में
आ जाती है। सिर्फ
नासमझी ही
सबकी समझ में
आती है।
तो
गुरजिएफ कहता
था,
पहले तुम
सोचकर खोजकर
आओ कि तुम हो
भी! अन्यथा मैं
मेहनत करूं और
तुम बदल जाओ!
ऐसे कैनवास पर
चित्र बनाने
का तो कोई
मतलब नहीं है,
कि हम चित्र
बना न पाएं और
कैनवास बदल
जाए! ऐसे पत्थर
में तो मूर्ति
तोड़ने का कोई
प्रयोजन नहीं
है, कि हम
पत्थर में
मूर्ति तोड़ भी
न पाएं कि
पत्थर बदल
जाए।
आदमी
के साथ
करीब-करीब
मेहनत ऐसी ही
खराब होती है।
जो आदमी के
साथ मेहनत
करते हैं, वे
जानते हैं कि
किस बुरी तरह
खराब होती है।
सुबह जिसके
साथ मेहनत की
थी, वह
सांझ मिलता
नहीं खोजे
से कि कहां
गया। चेहरे
हैं।
लेकिन
एक मजे की बात
है कि हमारे
पास एक चेहरा हो, तो
भी ठीक। झूठा
ही सही; एक
हो, तो भी
ठीक। झूठे
चेहरे हैं, वे भी बहुत
हैं। और कितनी
कुशलता से हम
उन्हें बदलते
हैं कि हमें
कभी पता नहीं
चलता कि हमने चेहरा
बदल लिया। क्षणभर
में बदल जाता
है।
सुना
है मैंने कि
फकीर नसरुद्दीन
के गांव में
उस देश का
सम्राट आने
वाला था। तो गांव
में कोई इतना
बुद्धिमान
आदमी नहीं था, जितना
कि नसरुद्दीन।
तो लोगों ने
कहा कि
तुम्हीं गांव
की तरफ से उनसे
मिल लेना, क्योंकि
दरबारी
शिष्टता, सदाचार
का हमें कुछ
पता नहीं। नसरुद्दीन
ने कहा, मुझे
ही कहां पता
है!
अधिकारियों
ने कहा, घबड़ाओ मत, हम
राजा को
प्रश्न भी
समझा देंगे कि
वह तुमसे क्या
पूछे और
तुम्हें जवाब
भी समझा देते
हैं कि तुम
क्या जवाब दो;
फिर कोई
दिक्कत न
रहेगी। नसरुद्दीन
ने कहा कि
बिलकुल ठीक
है।
सब बना
हुआ खेल था।
राजा को समझा
दिया गया था
कि गरीब गांव
है,
बेपढ़े-लिखे लोग
हैं। एक नसरुद्दीन
भर है, जो
थोड़ा-सा
लिख-पढ़ लेता
है। तो यही
सवाल पूछना, क्योंकि इसी
के जवाब उसने
तैयार कर रखे
हैं। और कोई
सवाल मत
पूछना।
लेकिन
बड़ी गड़बड़ हो
गई। सम्राट ने
पूछा...नसरुद्दीन
को सिखाया था
कि तेरी उम्र
कितनी है? नसरुद्दीन की जितनी
उम्र थी, साठ
वर्ष, उसने
तय कर रखा था।
सम्राट को
पूछना था कि
तू कितने दिन
से धर्म के
अध्ययन और
साधना में लगा
है? तो
पंद्रह वर्ष,
उसने याद कर
रखा था। लेकिन
सब गड़बड़ हो
गया।
सम्राट
ने पूछा, तेरी
उम्र कितनी है?
नसरुद्दीन ने कहा, पंद्रह
वर्ष। थोड़ा
सम्राट हैरान
हुआ। साठ साल
का बूढ़ा था, लेकिन
पंद्रह वर्ष
कह रहा था।
फिर उसने पूछा
कि और तुम
धर्म की साधना
में कितने दिन
से लगे हो? नसरुद्दीन ने कहा, साठ
वर्ष। सम्राट
ने कहा कि तुम
पागल तो नहीं हो?
नसरुद्दीन ने कहा, वही
मैं सोच रहा
हूं कि आप
पागल तो नहीं
हैं! क्योंकि
मुझे जिस क्रम
में समझाया
गया था, मालूम
होता है कि
तुम्हें किसी
और क्रम में
समझाया गया
है। तुम भी
रटे-रटाए
सवाल पूछ रहे
हो, मैं भी
रटे-रटाए
जवाब दे रहा
हूं। बीच का
आदमी गड़बड़ कर
गया।
बड़ी
मुश्किल हो
गई। पूरा गांव
इकट्ठा था।
दरबारी
इकट्ठे थे। अब
क्या हो? नसरुद्दीन ने कहा, ऐसा
करें, तुम
यह राजा होने
का जरा नकाब
उतार लो, और
मैं
बुद्धिमान
होने का नकाब
उतार लूं। फिर
हम दोनों
बैठकर दिल
खोलकर बात
करें, तो
कुछ मजा आए।
यह चेहरा तुम
जरा अलग कर दो
सम्राट होने
का, और मैं
भी चेहरा अलग
कर दूं
बुद्धिमान
होने का। इसी में
सब गड़बड़ हो
गई। ये चेहरे
दिक्कत दे रहे
हैं।
पता
नहीं, वह
सम्राट समझा
या नहीं। नसरुद्दीन
तो मजाक कर
रहा था। वह सच
में ही
बुद्धिमान लोगों
में से एक था। नसरुद्दीन
ने कहा कि
अच्छा न हो कि
हम आदमी आदमी
की तरह बैठकर
बात कर लें! ये
चेहरे अलग कर
दें। सम्राट
को बड़ा कठिन
पड़ा होगा।
सम्राट जैसा
चेहरा उतारना
बड़ा मुश्किल
होता है।
सम्राट का
चेहरा उतारना तो
दूर है, भिखारी
को भी अपना
चेहरा उतारना
मुश्किल होता
है; फिक्स्ड हो जाता है
सब; बंध
जाता है।
अमेरिका
में एक बहुत
बड़ा अरबपति
था,
रथचाइल्ड।
एक दिन एक
भिखारी भीतर
घुस गया उसके
मकान के और
जोर-शोर से
शोरगुल करने
लगा कि मुझे
कुछ मिलना ही
चाहिए। बिना
लिए मैं जाऊंगा
नहीं। जितना दरबानों
ने अलग करने
की कोशिश की, उतनी उछलकूद
मचा दी। आवाज
उसकी इतनी थी
कि रथचाइल्ड
के कमरे तक
पहुंच गई। वह निकलकर
बाहर आया।
उसने उसे पांच
डालर भेंट किए
और कहा कि सुन,
अगर तूने
शोरगुल न
मचाया होता, तो मैं तुझे
बीस डालर देने
वाला था।
मालूम
है उस भिखमंगे
ने क्या कहा? उसने
कहा, महानुभाव,
अपनी सलाह
अपने पास
रखिए। आप
बैंकर हो, मैं
आपको बैंकिंग
की सलाह नहीं
देता। मैं जन्मजात
भिखारी हूं, कृपा करके
भिक्षा के
संबंध में
मुझे कोई सलाह
मत दीजिए।
रथचाइल्ड
ने अपनी
आत्मकथा में
लिखवाया है कि
उस दिन मैंने
पहली दफा देखा
कि भिखारी का
भी अपना चेहरा
है। वह कहता
है,
जन्मजात
भिखारी हूं!
मैं कोई छोटा
साधारण भिखारी
नहीं हूं ऐसा
ऐरा-गैरा, कि
अभी-अभी सीख
गया हूं।
जन्मजात हूं।
और तुम बड़े
बैंकर हो, मैं
तुम्हें सलाह
नहीं देता
बैंकिंग के
बाबत। कृपा
करके तुम भी
मुझे भीख
मांगने के
बाबत सलाह मत
दो। मैं अपनी
कला अच्छी तरह
जानता हूं।
रथचाइल्ड
ने लिखा है
अपनी आत्मकथा
में कि उस दिन
मैंने उस
भिखारी को गौर
से देखा और
मैंने पाया कि
सम्राटों के
ही चेहरे नहीं
होते; भिखारियों
के भी अपने
चेहरे हैं।
लेकिन
भिखारी भी एक
ही चेहरा लेकर
नहीं चलता। जब
वह अपनी पत्नी
के पास
पहुंचता है, तो
चेहरा बदलता
है। जब अपने
बेटे के पास
जाता है, तो
चेहरा बदल
लेता है। जब
पैसे वाले के
पास से निकलता
है, तो
चेहरा और होता
है। जब गरीब
के पास से
निकलता है, तो चेहरा और
होता है।
जिससे मिल
सकता है, उसके
पास चेहरा और
होता है।
जिससे नहीं
मिल सकता है, उसके पास
चेहरा और होता
है। उसके पास
भी एक फ्लेक्सिबल,
एक लोचपूर्ण
व्यक्तित्व
है, जिसमें
वह चेहरे अपने
बदलता रहता
है।
ये
चेहरे हमें
बदलने इसलिए
पड़ते हैं, क्योंकि
हमारे भीतर
अपना कोई
चेहरा नहीं है,
कोई
ओरिजिनल फेस
नहीं है।
कृष्ण
कहते हैं, युक्त
आत्मा, स्थिर
बुद्धि हुई
जिसकी, ऐसा
व्यक्ति ही
मुझे जान पाता
है।
परमात्मा
के पास झूठे
चेहरे लेकर
नहीं जाया जा
सकता। हां, कोई
चाहे तो बिना
चेहरे के भला
पहुंच जाए; लेकिन झूठे
चेहरों के साथ
नहीं जा सकता।
पर बिना चेहरे
के वही जा
सकता है, जिसके
पास भीतर एक
युक्त आत्मा
हो। तब शरीर
के चेहरों की
जरूरत नहीं रह
जाती।
लेकिन
बड़े मजे की
बात है कि हम
सब झूठे चेहरे
लगाकर जीते हैं।
हमें अच्छी
तरह पता है कि
हम झूठे चेहरे
लगाकर जिंदगी
में जीते हैं।
और हमारे पास
कई चेहरे हैं, हमारे
पास एक
व्यक्तित्व
नहीं, एक
आत्मा नहीं।
महावीर
ने कहा है, मल्टी-साइकिक,
बहुचित्तवान है आदमी।
बहुत चित्त
हैं उसके
भीतर। यह
मल्टी-साइकिक
शब्द तो अभी
जुंग ने
विकसित किया,
लेकिन
महावीर ने
पच्चीस सौ साल
पहले जो शब्द
उपयोग किया है,
वह ठीक यही
है। वह शब्द
है, बहुचित्तवान। बहुत
चित्त वाला है
आदमी।
कृष्ण
भी वही कह रहे
हैं कि जब वह
एक चित्त वाला
हो जाए, तभी
मुझ तक आ सकता
है; उसके
पहले मुझे न
जान पाएगा।
हम
दूसरे को तो
धोखा देते हैं, लेकिन
बड़ा मजा तो यह
है कि हमें
कभी यह खयाल
नहीं आता है
कि दूसरे भी
ऐसे ही चेहरे
लगाकर हमें
धोखे दे रहे
हैं। और हम
चेहरों के एक
बाजार में हैं,
जहां आदमी
को खोजना बहुत
मुश्किल है।
जब हम हाथ
बढ़ाते हैं, तो हमारा एक
चेहरा हाथ
बढ़ाता है; दूसरी
तरफ से भी जो
हाथ आता है, वह भी एक
चेहरे का हाथ
है। सिर्फ इमेजेज,
प्रतिमाएं
मिलती हैं; आदमी नहीं
मिलते।
मुलाकात
अभिनय में
होती है; मुलाकात
प्राणों की
नहीं होती।
बातचीत दो यंत्रों
में होती
है--सधे-सधाए,
रटे-रटाए
जवाब-सवालों
में। भीतर की
आत्मा का सहज
आविर्भाव नहीं
होता। लेकिन
हम खुद अपने
को धोखा
देते-देते
इतने धोखे में
डूब गए होते
हैं कि यह
खयाल ही नहीं
होता कि दूसरे
लोग भी ऐसा ही
धोखा दे रहे
हैं।
सुना
है मैंने कि
एक गांव में
बड़ी बेकारी के
दिन थे। अकाल
पड़ा था और लोग
बहुत मुश्किल
में थे। एक
सर्कस गुजर
रहा था गांव
से। स्कूल का
एक मास्टर
नौकरी से अलग
कर दिया गया
था। उसने
सर्कस वालों
से प्रार्थना
की कि कोई काम
मुझे दे दो।
सर्कस के
लोगों ने कहा
कि सर्कस का
तुम्हें कोई
अनुभव नहीं
है। उसने कहा, बहुत
अनुभव है।
स्कूल सिवाय
सर्कस के और
कुछ भी नहीं
है। मुझे जगह
दे दो। कोई और
जगह तो न थी, लेकिन एक
जगह सर्कस
वालों ने खोज
ली, उसे
जगह दे दी गई।
और काम यह था
कि उसके शरीर
पर शेर की खाल
चढ़ा दी, पूरे
शरीर पर; और
उसे एक शेर का
काम करना था।
एक रस्सी पर
उसे चलना था
शेर की तरह।
चल
जाता, कोई
कठिनाई न आती।
लेकिन जब वह
पहले ही दिन
बीच रस्सी पर
था, तभी
उसे दिखाई पड़ा
कि उसके स्कूल
के दस-पंद्रह
लड़के सर्कस
देखने आए हैं
और उसे गौर से
देख रहे हैं।
नर्वस हो गया।
मास्टर लड़कों
को देखकर एकदम
नर्वस हो जाते
हैं। घबड़ा गया
और गिर पड़ा। गिर
पड़ा नीचे, जहां
कि चार-आठ
दूसरे शेर
गुर्रा रहे थे,
और चिल्ला
रहे थे, और
गरज रहे थे, और घूम रहे
थे नीचे के कठघरे
में। जब शेरों
के बीच में
घुसा, गिरा,
तो घबड़ा
गया। भूल गया
कि मैं शेर
हूं। याद आया कि
मास्टर हूं।
दोनों हाथ
ऊंचे उठाकर
चिल्लाया कि
मरा, अब
बचना मुश्किल
है!
जनता
उसके उस
चमत्कार से
उतनी चमत्कृत
नहीं हुई थी, रस्सी
पर चलने से, जितनी इससे
चमत्कृत हुई
कि शेर आदमी
की तरह बोल
रहा है दोनों
हाथ उठाकर!
बाकी
एक शेर, जो
पास ही गुर्रा
रहा था, उसने
धीरे से कहा
कि मास्टर, घबड़ा मत। तू
क्या सोचता है,
तू ही अकेला
बेकार है गांव
में? घबड़ा
मत। तू अकेला
ही थोड़े बेकार
है गांव में, और लोग भी
बेकार हैं। वे
जो चार शेर
नीचे घूम रहे
थे, वे भी
आदमी ही थे!
हम
सबकी हालत
वैसी ही है।
आप ही झूठा
चेहरा लगाकर
घूम रहे हैं, ऐसा
नहीं है। आप
जिससे बात कर
रहे हैं, वह
भी घूम रहा
है। आप जिससे
मिल रहे हैं, वह भी घूम
रहा है। आप
जिससे डर रहे
हैं, वह भी
घूम रहा है।
आप जिसको डरा
रहे हैं, वह
भी घूम रहा
है।
आप ही
अकेले नहीं
हैं,
यह पूरा का
पूरा समाज, चेहरों का
समाज है। इतने
चेहरों की
जरूरत इसलिए
पड़ती है कि
हमें अपने पर
कोई भरोसा
नहीं। हम भीतर
हैं ही नहीं।
अगर हम इन
चेहरों को छोड़
दें, तो हम
पैर भी न उठा
सकेंगे, एक
शब्द न निकाल
सकेंगे।
क्योंकि भीतर
कोई है तो नहीं
मजबूती से खड़ा
हुआ, कोई क्रिस्टलाइज्ड
बीइंग, कोई
युक्त आत्मा
तो भीतर नहीं
है। तो हमें
सब पहले से
तैयारी करनी
पड़ती है।
हमें
सब पहले से
तैयारी करनी
पड़ती है। नाटक
में ही
रिहर्सल नहीं
होता, हमारी
पूरी जिंदगी
रिहर्सल है।
पति घर लौटता
है, तो
तैयार करके
लौटता है कि
पत्नी क्या
पूछेगी और वह
क्या जवाब
देगा। पत्नी
भी तैयार रखती
है कि पति
क्या जवाब
देगा और किस
तरह से उसके
जवाबों को
गड़बड़ करेगी।
सब तैयार है।
और रोज यह हो रहा
है, और रोज
यह होगा।
जिंदगी
में भी
रिहर्सल! पहले
से तैयार करना
पड़ता है कि
मैं क्या जवाब
दूंगा। क्या
पूछा जाएगा, फिर
मैं क्या
कहूंगा। फिर
क्या बचाव
निकालूंगा।
देर तो हो गई
है रात घर
लौटने में। अब
क्या-क्या
मुसीबत आने
वाली है, वह
सब जाहिर है।
वह सब तैयार
है।
भीतर
हमारे पास कोई
ऐसी चेतना
नहीं है क्या, जो
स्पांटेनियस,
सहज हो सके!
जब सवाल उठे, तब जवाब दे
सके! और जब
मुसीबत आए, तब हमारे
भीतर से उत्तर
आ सके! और जब
घटना घटे, तब
हमारे भीतर से
कर्म पैदा हो
सके! और जब
जैसी जरूरत हो,
हमारे
प्राण वैसा कर
सकें!
लेकिन
हमें भरोसा
नहीं है कि
भीतर कोई है।
हमें तैयारी
करनी पड़ती है; चित्त
में ही तैयारी
करनी पड़ती है।
कृष्ण
कहते हैं, युक्त
आत्मा, थिर
हो गई जिसकी
चेतना, जिसकी
लौ चेतना की
ठहर गई, वही
केवल मुझे
उपलब्ध हो
पाता है। जो
एक हो गया
भीतर, जो यूनि-साइकिक
हो गया, मल्टी-साइकिक
नहीं रहा; बहुचित्त न रहे, एक
चेतना का जन्म
हो गया; एक
विराट चेतना
ने उसे सब ओर
से घेर
लिया--वैसा व्यक्ति
मेरे पास आ
पाता है। और
वैसे व्यक्ति को
कृष्ण ने कहा
है ज्ञानी। और
वैसे व्यक्ति
को कहा है कि
ऐसा
व्यक्तित्व
पाने में
अनेक-अनेक
जन्म लग जाते
हैं अर्जुन!
न
मालूम कितने
जन्मों की
यात्रा के बाद
आदमी को यह अनुभव
उपलब्ध हो
पाता है कि
मैं कब तक
धोखा देता
रहूंगा? मैं आथेंटिक, प्रामाणिक
कब बनूंगा?
मैं वही कब
घोषणा कर
दूंगा जगत के
सामने, जो
मैं हूं? कब
तक मैं छिपाऊंगा?
कब तक मैं
प्रवंचना
दूंगा? और
मैं किसको
धोखा दे रहा
हूं? सब
धोखा अपने को
ही धोखा देना
है; सब वंचनाएं
आत्मवंचनाएं
हैं।
लेकिन
अनंत जन्मों
के बाद भी याद
आ जाए, तो
जल्दी याद आ
गई। अनंत
जन्मों के बाद
भी आ जाए, तो
जल्दी आ गई
याद। क्योंकि
अनंत जन्म हम
सबके हो चुके
हैं। वह याद
अब तक आई नहीं
है। कहीं से कोई
पीका
नहीं फूटता
भीतर से, कि
वह हमें कहे
कि उतार फेंको
इस सब धोखेधड़ी
को, जिसे
तुमने जिंदगी
बना रखा है।
उतार दो इन
नकली चेहरों
को; अलग कर
दो इनको, जो
तुमने पहन रखे
हैं। हटा दो
यह सब जाल
अपने आस-पास
से, जो
बेईमानी का
है। बेईमानी
का, जिसमें
कि हम दूसरों
को धोखा दिए
जा रहे हैं वह
होने का, जो
हम नहीं हैं।
दूसरे भी हमें
दिए चले जा
रहे हैं।
धार्मिक
आदमी वह है, जो
एक छलांग
लगाकर इस सब
उपद्रव के
बाहर हो जाता
है और जिंदगी
जैसी है, उसकी
सहज स्वीकृति
की घोषणा कर
देता है। उस
स्वीकृति के
साथ ही भीतर
आत्मा युक्त
हो जाती है।
जिस व्यक्ति
ने भी अपने होने
को अंगीकार कर
लिया, जैसा
है स्वीकार कर
लिया; जैसा
है, बुरा-भला,
स्वीकार कर
लिया।
इसका
यह मतलब नहीं
है कि बुरा
आदमी अपने को
स्वीकार कर
लेगा, तो बुरा
ही रह जाएगा।
यह बड़ी अदभुत
घटना घटती है।
जैसे ही कोई
व्यक्ति, जैसा
है, अपने
को स्वीकार कर
लेता है, तत्क्षण
उसके जीवन में
वह क्रांति
घटित हो जाती
है, जिसमें
सब बुराइयां
जल जाती हैं।
बुराइयां
बचती हैं
चेहरों की आड़
में,
नग्नता में
कोई बुराई
नहीं बच सकती।
जब कोई आदमी
प्रकट अपने को,
सहज जैसा है,
जाहिर कर
देता है सब भय
छोड़कर...।
क्योंकि सब भय
ही तो है कि हम
चेहरे लगाए
फिरते हैं। डर
ही तो है कि
कोई क्या कहेगा,
तो हम लगाए
फिरते हैं।
संन्यासी
मैं उसी को
कहता हूं, जो
इस बात की
घोषणा कर दे
जीवन के प्रति
कि अब मैं
धोखा नहीं
दूंगा अपने
चेहरे से; मास्क,
कोई मुखौटा
नहीं
लगाऊंगा।
जैसा हूं, हूं;
उसकी खबर कर
दूंगा। मैं
जैसा हूं, वैसा
होने की
तैयारी करता
हूं। ऐसा
व्यक्ति एक
दिन युक्त
आत्मा को
उपलब्ध हो
जाता है।
युक्त
आत्मा
परमात्मा के
साथ एक हो
जाती है। यह
दूसरी बात
इसमें समझने
जैसी है। जो
अपने साथ एक
हुआ,
वह सर्व के
साथ एक हो
जाता है।
जिसने इस भीतर
के एक के साथ
एकता बांधी, उसकी बाहर
की, विराट
यह जो ऊर्जा
का विस्तार है,
इससे भी
एकता सध जाती
है। जो अपने
भीतर टूटा है,
वही
परमात्मा से
टूटा रहता है।
इसलिए
भक्त भगवान को
जब जानता है, तो
भक्त नहीं
रहता, भगवान
ही हो जाता
है। कोई संधि
नहीं बचती बीच
में, जरा-सा
कोई सेतु नहीं
बचता। सब टूट जाता
है। कोई फासला
नहीं रह जाता।
फासला है भी
नहीं। हमने
फासला बनाया
है, इसलिए
दिखाई पड़ता
है। झूठा
फासला है।
हमारा बनाया
हुआ फासला है।
कृष्ण
कहते हैं, वह
वासुदेव ही हो
जाता है।
बड़े
हिम्मत के लोग
थे। आदमी को
भगवान बनाने
की इतनी सहज
बात! आदमी
प्रभु को भजे
और प्रभु ही
हो जाए! जो
जानते थे, वही
कह सकते हैं
ऐसा। हमारा मन
मानने को राजी
नहीं होता।
नहीं होता
इसीलिए कि
हमने सिवाय अपनी
क्षुद्रता के
और कुछ भी
नहीं देखा है।
हमारे भीतर वह
जो विराट का
बीज छिपा है, वह छिपा ही
पड़ा है। तो जब
भी हम सोचते
हैं कि आदमी, और भगवान हो
जाएगा, तो
हमें भरोसा
नहीं आता।
क्योंकि हम
अपने भीतर जिस
आदमी को जानते
हैं, वह
शैतान तो हो
सकता है, भगवान
नहीं हो सकता।
हम
अपने को अच्छी
तरह जानते
हैं। हमें
पक्की तरह पता
है कि अगर कोई
कहे कि आदमी
शैतान है, तो
हमारी समझ में
आता है। लेकिन
कोई कहे, आदमी
भगवान है, तो
समझ में
बिलकुल नहीं
आता। क्योंकि
हमारे पास जो
नापने का
आयोजन है, वह
अपने से ही तो
नापने का
आयोजन है। हम
अपने से ही तो
नाप सकते हैं।
और हम जब अपनी
तरफ देखते हैं,
तो सिवाय
शैतान के कुछ
भी नहीं पाते।
लेकिन
मैं आपसे कहता
हूं--और सारे
धर्मों का यही
कहना है--कि वह
जो आपको अपने
भीतर
शैतानियत दिखाई
पड़ती है, वह आप
नहीं हैं। वह
शैतानियत
केवल इसीलिए
है कि जो आप
हैं, उसका
आपको पता नहीं
है। जिस क्षण
आपको अपने असली
होने का पता
चलेगा, उसी
दिन आप पाएंगे
कि शैतानियत
कहां खो गई! कभी
थी भी या नहीं,
या कि मैंने
कोई सपना देखा
था!
बुद्ध
को जब ज्ञान
हुआ है, और
कोई उनसे
पूछता है कि
अब आप क्या
कहते हैं कि
इतने दिनों तक
आप अज्ञान में
कैसे भटके? तो बुद्ध
कहते हैं, आज
तय करना मुझे
मुश्किल है कि
वह जो अनंत
जन्मों का
भटकाव था, वह
असली में घटा
या मैंने कोई
लंबा सपना
देखा! कोई लंबा
सपना! क्योंकि
आज मैं तय ही
नहीं कर पाता
कि वह घट सकता
है। वह असलियत
में घट कैसे
सकता है? क्योंकि
आज मैंने जिसे
अपने भीतर
जाना है, उसे
देखकर अब मैं
मान नहीं सकता
कि वह कभी भी घट
सकता है।
जैसे
ही हम उस भीतर
के विराट को
जानते हैं, वैसे
ही सब क्षुद्रताएं
उसमें खोकर
ऐसे ही शुद्ध
हो जाती हैं, जैसे कितनी
ही गंदी नदी
सागर में आकर
गिर जाए और
शुद्ध हो जाए।
सागर
चीख-पुकार
नहीं करता कि
गंदी नदी
मुझमें मत डालो,
गंदा हो जाऊंगा।
और सागर में
गिरते ही
गंदगी कहां खो
जाती, नदी
कहां खो जाती,
कुछ पता
नहीं चलता।
विराट ऊर्जा में
जब भी हमारे
क्षुद्र मन की
बीमारियां
गिरती हैं, तो ऐसे ही खो
जाती हैं, जैसे
सागर में नदियां
खो जाती हैं।
बड़ी
शक्ति छोटी
शक्ति को
पवित्र करने
की सामर्थ्य
रखती है।
लेकिन हमें
बड़े का कोई
पता ही नहीं
है। हम तो
छोटे में ही
जीते हैं। हम
बड़ी छोटी
पूंजी से काम चलाते
हैं। सच बात
यह है कि
जितनी जीवन
ऊर्जा से शरीर
चलता है, हम
उतने को ही
अपनी आत्मा
समझते हैं। और
शरीर को चलाने
के लिए तो
जीवन ऊर्जा का
अत्यल्प, छोटा-सा
अंश काफी है।
शरीर को चलाने
के लिए तो सुई
काफी है, तलवार
की कोई जरूरत
नहीं पड़ती। और
शरीर जितनी जीवन
ऊर्जा से चलता
है, उसके
साथ ही हम
तादात्म्य कर
लेते हैं कि
यह मेरी आत्मा
है। फिर शैतान
पैदा हो जाता
है।
क्षुद्र
के साथ संबंध
शैतान को पैदा
कर देता है; विराट
के साथ संबंध
भगवान को पैदा
कर देता है।
संबंध पर
निर्भर करता
है कि आप कौन
हैं। अगर आपने
क्षुद्र से
संबंध बांधा,
तो शैतान।
अगर विराट से
संबंध बांधा,
तो भगवान।
आप वही हो
जाते हैं, जिससे
आप संबंध बांधते
हैं; वही
हो जाते हैं, जिसके साथ
जुड़ जाते हैं।
कृष्ण
कहते हैं, जो
मुझे जान लेता
है, वह
वासुदेव ही हो
जाता है। वह
मैं ही बन
जाता है। जो
ब्रह्म को जान
लेता है, वह
ब्रह्म ही हो
जाता है।
यह
जानना भी बहुत
अदभुत है, जिसमें
जानने से आदमी
एक हो जाता है
उससे, जो
ज्ञेय है।
हमने
बहुत चीजें
जानी हैं।
आपने गणित
जाना है, लेकिन
आप गणित नहीं
हो गए। आपने
भूगोल पढ़ी है,
लेकिन आप
भूगोल नहीं हो
गए। आप हिमालय
को देखकर जान
आएंगे, लेकिन
हिमालय नहीं
हो जाएंगे।
अगर कोई आकर
कहे कि मैंने
हिमालय को
देखा और मैं
हिमालय हो गया,
तो आप उसे
पागलखाने में
बंद कर देंगे।
हम
जिंदगी में जो
भी जानते हैं, उसमें
जानना दूर
रहता है; हम
कभी जानने
वाली चीज के
साथ एक नहीं
हो पाते।
इसलिए हमें
कृष्ण के इस
वचन को समझने
में बड़ी
कठिनाई
पड़ेगी।
क्योंकि
हमारे अनुभव
में यह कहीं
भी नहीं आता
कि जो भी हम
जानें, उसके
साथ एक हो
जाएं। हमारा
सब जानना, द्वैत
का जानना है।
हम दूर ही खड़े
रहते हैं।
इसलिए
अगर कृष्ण से
पूछें, तो
कृष्ण कहेंगे,
जिसे तुम
जानना कह रहे
हो, वह
जानना नहीं है,
केवल परिचय
है। वह नोइंग
नहीं है, सिर्फ
एक्वेनटेंस
है। हमारा सब
जानना, मात्र
परिचय है--
ऊपरी, बाहरी।
जैसे
किसी के घर के
बाहर से हम
उसका घर घूमकर
देख आएं और
सोचें कि हमने
उसके घर को
जान लिया। और
उसके भीतर
हमारा कोई
प्रवेश नहीं
हुआ। जैसे हम
सागर के
किनारे खड़े
होकर सोचें कि
हमने सागर को
जान लिया। और
सागर के भीतर
हमारा कोई
प्रवेश नहीं
हुआ। यह जानना
जानना नहीं है, यह
एक्वेनटेंस
है, सिर्फ
परिचय मात्र
है--थोथा, ऊपरी,
बाह्य।
ज्ञान
हमारी जिंदगी
में कोई है
नहीं । और अगर आपकी
जिंदगी में
कोई ज्ञान है, तो
आप कृष्ण की
बात समझ
पाएंगे। तो
मैं दोत्तीन
आपसे बात कहूं,
शायद किसी
की जिंदगी में
वैसा ज्ञान हो,
तो उसकी
उसको झलक मिल
सकती है।
वानगाग, एक
बहुत बड़ा
चित्रकार, आरलीज में एक खेत
में खड़े होकर
चित्र बना रहा
है। कैनवास पर
अपना ब्रुश
लेकर काम में
लगा है। दोपहर
है, सूरज
ऊपर सिर पर जल
रहा है। वह
भरी दोपहर का
चित्र बना रहा
है। उसकी
जिंदगी में एक
लालसा थी कि
मैं सूर्य के
जितने चित्र
बना सकूं, बनाऊं।
उसने जितने
सूर्य के
चित्र बनाए, किसी और
आदमी ने नहीं
बनाए।
कोई
किसान गुजरता
है और वानगाग
से पूछता है, तुम
कौन हो? वानगाग कहता है, मैं?
मैं सूर्य
हूं। वह सूर्य
बना रहा है।
किसान अपना
सिर पीटकर चला
जाता है।
सोचता है कि
दिमाग खराब
होगा। और ऐसा
किसान ही
सोचता है, ऐसा
नहीं। सालभर
तक वानगाग
सूर्य के
चित्र बनाता
रहा। और फिर
उसे पागलखाने
में लोगों ने
रख दिया।
क्योंकि वह
सूर्य के साथ
आत्मसात हो गया।
लोग उसकी
चिकित्सा में
लग गए। मित्र
चिंतित हो गए।
एक साल उसे
पागलखाने में
रखा कि उसका इलाज
करें।
काश, उसके
मित्रों को
कृष्ण की इस
बात का पता
होता या वानगाग
को पता होता, तो यह
दुर्घटना बच
सकती थी।
निश्चित ही, पागल हो गया;
कहता है, मैं सूर्य
हूं! लेकिन
अगर सालभर
वानगाग
की तरह किसी
ने सूर्य को
देखा हो, जाना
हो, पहचाना
हो, सूर्य
की किरणों में
उतरा हो, सूर्य
की किरणों में
नाचा हो, सूर्य
की किरणों को पीया हो, तो कुछ
आश्चर्य नहीं
है कि इतना
तादात्म्य बन जाए
कि वानगाग
को लगे कि मैं
सूर्य हूं।
अगर
आपने कभी किसी
को प्रेम किया
है,
तो
किन्हीं-किन्हीं
क्षणों में
आपको लगता है कि
आप वही हो गए, जिसे आपने
प्रेम किया
है। और अगर
आपको ऐसा नहीं
लगा, तो
आपने कभी
प्रेम नहीं
किया है।
किन्हीं क्षणों
में आपको लगता
है कि आप वही
हो गए, जिसे
आपने प्रेम
किया है। और
अगर ऐसा न लगा
हो, तो आप
प्रेम के नाम
पर परिचय को
ही जान रहे
हैं। अभी
प्रेम की नोइंग,
प्रेम का
ज्ञान अभी
घटित नहीं हो
पाया।
यह जो
हमारी जानने
की दुनिया है, वहां
परिचय ही
जानना समझा
जाता है।
कृष्ण तो उस
बात को उठा
रहे हैं, जहां
होना ही ज्ञान
है; टु बी इज़ टु नो।
उसके
अतिरिक्त कोई
ज्ञान नहीं
है।
मैं एक
कहानी निरंतर
कहता रहा हूं।
मैं कहता रहा
हूं कि जापान
का एक
चित्रकार बांसों
का एक झुरमुट
बना रहा है, वंशीवट
बना रहा है; एक झेन
फकीर। लेकिन
उसका गुरु
कभी-कभी पास
से निकलता है
और कहता है कि
क्या बेकार!
और वह बेचारा
अपने बनाए हुए
चित्रों को
फेंक देता है।
फिर एक दिन वह
गुरु के पास जाता
है कि मैं
कितना ही
सुंदर बनाता
हूं, लेकिन
तुम हो कि कह
ही देते हो कि
बेकार! और मुझे
फाड़ना
पड़ता है। मैं
क्या करूं?
उसके
गुरु ने कहा, पहले
तू बांस हो जा,
तब तू बांस
का चित्र बना
पाएगा। उसने
कहा कि यह
कैसे हो सकता
है कि मैं
बांस हो जाऊं?
उसके गुरु
ने कहा, तू
जा। आदमी की
दुनिया को छोड़
दे; बांसों की दुनिया
में चला जा।
उन्हीं के पास
बैठना, उन्हीं
के पास सोना; उनसे बात
करना चीत करना,
उन्हें
प्रेम करना; उनको
आत्मसात करना,
इंबाइब करना, उनको
पी जाना, उनको
खून और हृदय में
घुल जाने
देना। उसने
कहा कि मैं तो
बातचीत
करूंगा, लेकिन
बांस? उसने
कहा, तू
फिक्र तो मत
कर। आदमी भर
बोले, वृक्ष
तो बोलने को
सदा तैयार
हैं। लेकिन
इतने सज्जन
हैं कि अपनी
तरफ से मौन
नहीं तोड?ते। तू जा।
गया।
एक वर्ष बीता।
दो वर्ष बीते।
तीन वर्ष बीते।
गुरु ने खबर
भेजी कि जाकर
देखो, उसका
क्या हुआ? ऐसा
लगता है कि वह
बांस हो गया
होगा। आश्रम
के अंतेवासी
खोज करने गए। बांसों की
एक झुरमुट में
वह खड़ा था। हवाएं
बहती थीं।
बांस डोलते
थे। वह भी
डोलता था। इतना
सरल उसका
चेहरा हो गया
था, जैसे
बांस ही हो।
उसके डोलने
में वही लोच
थी, जो बांसों
में है। जैसे
हवा का तेज
झोंका आता और
बांस झुक जाते,
ऐसे ही वह
भी झुक जाता।
कोई रेसिस्टेंस,
कोई विरोध,
कोई अकड़, जो आदमी की
जिंदगी का
हिस्सा है, नहीं रह गई
थी। बांस जमीन
पर गिर जाते, जोर की आंधी
आती, तो वह
भी जमीन पर
गिर जाता।
आकाश से बादल बरसते और
बांस आनंदित
होकर पानी को
लेते, तो
वह भी आनंदित
होकर पानी को
लेता।
लोगों
ने उसे पकड़ा
और कहा, वापस
चलो। गुरु ने
स्मरण किया
है। अब तुम वह
बांस के चित्र
कब बनाओगे?
उसने
कहा,
लेकिन अब
चित्र बनाने
की जरूरत भी न
रही। अब तो
मैं खुद ही
बांस हो गया
हूं। फिर उसे
लाए और गुरु
ने उससे कहा
कि अब तू आंख
बंद करके भी
लकीर खींच, तो बांस बन
जाएंगे। उसने
आंख बंद करके
लकीरें खींचीं
और बांस बनते
चले गए। और
गुरु ने कहा
कि अब आंख खोल
और देख। तूने
पहले जो बनाए
थे, बड़ी
मेहनत थी
उनमें, लेकिन
झूठे थे वे, क्योंकि
तेरा कोई
जानना नहीं
था। अब तुझसे
बांस ऐसे बन
गए हैं, जैसे
बांस की जड़ से
बांस निकलते
हैं, ऐसे
ही अब तुझसे
बांस निकल रहे
हैं।
एक
ज्ञान है, जहां
हम एक होकर ही
जान पाते हैं।
यह
मैंने आपको
उदाहरण के लिए
कहा। यह
उदाहरण भी
बिलकुल सही
नहीं है।
क्योंकि
जिसकी बात कृष्ण
कर रहे हैं, उसके
लिए कोई
उदाहरण काम
नहीं देगा। वह
अपना उदाहरण
खुद ही है। और
कोई चीज का
उदाहरण काम नहीं
करेगा। लेकिन
यह खयाल में
अगर आपको आ
जाए कि एक ऐसा
जानना भी है, जहां होना
और जानना एक
हो जाते हैं, तो ही आप ब्रह्मतत्व
को समझने में
समर्थ हो
पाएंगे।
कृष्ण
कहते हैं, फिर
वह ज्ञानी, वह मुझे भजने
वाला, वह
युक्त चित्त
हुआ, वह
स्थिर बुद्धि
हुआ भक्त, वासुदेव
हो जाता है।
वह भक्त नहीं
रहता, भगवान
हो जाता है।
और एक
क्षण को भी
आपको अपने
भगवान होने का
स्मरण आ जाए, तो
आपकी सारी
जिंदगी, अनंत
जिंदगियां
स्वप्नवत हो
जाएंगी।
इसे आप व्यवस्था
भी दे सकते
हैं। अभी आप
जिस जिंदगी में
जीते हैं, अगर
उसे आप
स्वप्नवत
मानकर जीने
लगें, तो
दूसरे छोर से
यात्रा हो
सकती है। या
तो परमात्मा
के साथ एक
होने के अनुभव
की यात्रा पर निकलें, तो यह
जिंदगी
स्वप्नवत हो
जाएगी। या इस
जिंदगी को
स्वप्नवत
मानकर जीना
शुरू कर दें, तो आप अचानक
पाएंगे कि आप
परमात्मा के
साथ एक हो गए
हैं।
लेकिन
इसे आप सिर्फ
बुद्धि से
समझने चलेंगे, तो
समझ तो जाएंगे,
लेकिन वह
समझ नासमझी से
ज्यादा न
होगी। समझ तो
जाएंगे, लेकिन
एक न हो
पाएंगे। और जब
तक एक न हो
जाएं, तब
तक मत मानना
कि वह समझ है।
मैंने
पहले दिन आपको
श्वेतकेतु की
कथा कही, कि
पिता ने कहा
कि तू उसको
जानकर लौट, जिसे जानने
से सब जान
लिया जाता है।
श्वेतकेतु
वापस चला गया।
वर्षों के बाद
वह जानकर
लौटा। अब वह
बिलकुल दूसरा
आदमी होकर आ
रहा था। पिता ने
अपने झोपड़े
की खिड़की से झांककर
देखा, श्वेतकेतु
चला आ रहा है।
पिता
ने अपनी पत्नी
को कहा, उस
बेटे की मां
को कहा
श्वेतकेतु की,
कि अब मैं
भाग जाता हूं
पीछे के
दरवाजे से, क्योंकि
श्वेतकेतु
ब्रह्म को
जानकर लौट रहा
है। पत्नी ने
कहा कि तुम
क्यों भागते
हो? तुम्हीं
ने तो उसे
भेजा था जानने
को कि उसे जानकर
आ, जिसे
जान लेने से
सब जान लिया
जाता है। अब
वह आ रहा है।
पहली
बार जब आया था, तो
अकड़ से भरा
था।
शास्त्रों का
दंभ था। अस्मिता
थी, अहंकार
था। अकड़ रही
होगी। नशा है
शास्त्रों का
भी। जानकारी
का भी नशा है।
और जब नशा पकड़
जाता है, तो
बड़ी दिक्कतें
देता है। देख
लिया था दूर
से, अकड़कर आ रहा है।
अब तो
वह ऐसे आ रहा
था,
जैसे हवा का
एक झोंका हो।
चुपचाप आ जाए
घर के भीतर और
किसी को पता न
चले। पैरों के
पदचाप भी न हों,
ऐसा चला आता
था। जैसे एक
छोटा-सा सफेद
बादल का टुकड़ा
हो, तैर
जाए चुपचाप, किसी को पता
न चले। या
जैसे कि कभी
आकाश में कोई
चील पर तौलकर
पड़ी रह जाती
है; हिलती
भी नहीं, उड़ती
है, उड़ती
नहीं, पंख
नहीं हिलाती;
तिर जाती है।
ऐसा चला आता
था, शांत।
उसके पैरों
में चाप नहीं
रह गई, क्योंकि
जब अहंकार
नहीं रह जाता,
तो पैर चाप
खो देते हैं।
पिता
ने कहा कि मैं
भाग जाता हूं
पीछे के दरवाजे
से,
तू तेरे
बेटे को
सम्हाल। तो
उसने कहा कि
आप क्यों भाग
जाते हैं? आपने
ही तो भेजा
था। उसके पिता
ने कहा--अदभुत
लोग थे, इसलिए
कहता
हूं--उसके
पिता ने कहा
कि नहीं, अब
मुझे पीछे से
चले जाना
चाहिए।
क्योंकि मैंने
अभी ब्रह्म को
नहीं जाना, और
श्वेतकेतु को
आकर मेरे पैर
पड़ने पड़ें, तो यह उचित न
होगा। मैं भाग
जाऊं पीछे के
दरवाजे से, तू सम्हाल।
अब तो मैं जब
तक न जान लूं, तब तक
श्वेतकेतु के
सामने आना
उचित नहीं है,
क्योंकि वह
बेटा होने की
वजह से पैर
में झुकेगा।
अब तो वह
ब्रह्म हो गया,
क्योंकि
ब्रह्म को
जानकर लौट रहा
है।
पिता
भाग गया। जब
तक मैं न जान
लूं,
तब तक अब
बेटे के सामने
खड़े होने का
कोई मुंह भी
तो नहीं रहा।
ऐसे
पिता थे, तो
दूसरे ही ढंग
के बेटे भी
दुनिया में
पैदा होते थे।
आज सभी पिता
शिकायत कर रहे
हैं बेटों की,
बिना इस बात
की फिक्र किए
कि पिता कैसे
हैं। यह खयाल
पिता को, कि
उसे पैर में
झुकना पड़ेगा,
अब तो वह
ब्रह्म होकर
लौट रहा है, अनुचित हो
जाएगा। या तो
मैं उसके पैर
पडूं, तो
वह पड़ने न
देगा; और
या वह मेरे
पैर पड़े, जो
कि उचित नहीं
है। अब मैं
भाग जाऊं। अब
तो मैं तभी
उसके सामने
आऊं, जब
मैं भी जान
लूं।
वह जो
ज्ञान की किरण
है,
जब उतरती है,
तो भीतर
ज्ञानी नहीं
बचता, ज्ञान
ही बचता है।
वह जब
परमात्मा का
साक्षात्कार
होता है, तो
साक्षात्कार
करने वाला
नहीं बचता, परमात्मा ही
बचता है। मिट
जाता है वह, जो खोजने
निकला था। वही
बचता है, जिसे
खोजा है।
लेकिन
शास्त्र, जानकारी,
परिचय, इनसे
कुछ भी नहीं
मिटता; बल्कि
आप और घने हो
जाते हैं, और
मजबूत हो जाते
हैं।
सुना
है मैंने कि
एक रात एक घर
में कुछ मित्र
बैठकर शराब
पीते रहे। और
कुछ शराब फर्श
पर पड़ी छूट
गई। रात एक
चूहा बाहर आया; शराब
की सुगंध उसको
पकड़ी।
थोड़ा उसने
शराब को चखकर
देखा। फिर रस
आया। फिर और
चखा। थोड़ी देर
में नशे से भर
गया। दोनों पिछले
पैरों पर खड़ा
हो गया और
चिल्लाकर
उसने कहा कि
लाओ उस बिल्ली
की बच्ची को, कहां है?
चूहा!
लेकिन शराब!
कई दिन से दिल
में रहा होगा
कि एक दफा
बिल्ली की
बच्ची को मजा
दिखाया जाए। आज
मौका आ गया।
आज चूहे ने
अपने को समझा
होगा कि न
मालूम वह क्या
है! वह नशा है।
मैंने
सुना है कि ख्रुश्चेव
को किसी ने
कुछ कोई कीमती
कपड़ा
भेंट किया था; जब
प्रधान
मंत्री था ख्रुश्चेव।
उसने मास्को
में बड़े-बड़े दर्जियों
को बुला भेजा।
उन्होंने कहा
कि नहीं, पूरा
सूट न बन
सकेगा। या तो
पैंट बनवा लो,
या कोट बनवा
लो, लेकिन
पूरा सूट नहीं
बनता। पर
जिसने भेजा था,
सोच-समझकर
भेजा था। ख्रुश्चेव
ने उसे
सम्हालकर रख
लिया। कीमती कपड़ा था, सूट बने तो
ही मतलब का था,
नहीं तो बेजोड़
हो जाए।
फिर ख्रुश्चेव
इंगलैंड
घूमने आया था, तो
कपड़ा साथ
ले आया। और
लंदन के एक
दर्जी को उसने
बुलाकर कहा कि
तुम कपड़ा
बनवा दो। उसने
कहा कि तैयार
हो जाएगा आठ
दिन बाद पूरा
सूट। ख्रुश्चेव
ने कहा, लेकिन
आश्चर्य! मास्को
में कोई भी
दर्जी पूरा
सूट बनाने को
तैयार न हुआ।
कहते थे, या
तो पैंट बनेगा
या कोट। तुम
कैसे बना सकोगे?
उस दर्जी ने
कहा, मास्को में आप
जितने बड़े
आदमी हैं, उतने
बड़े आदमी आप
लंदन में नहीं
हैं। साइज! मास्को
में आपकी साइज
बहुत ज्यादा
है। उधर पैंट
भी बन जाता, तो बहुत
मुश्किल है।
यहां तो बन
जाएगा। और आप चाहो,
तो एकाध-दो
और आपके
मित्रों का भी
बनवा दूं।
वह जो
हमारे भीतर
नशा है, बहुत
तरह का है। पद
का भी होता है,
ज्ञान का भी
होता है, त्याग
का भी होता
है। सब शराब
बन जाती है, भीतर आदमी अकड़कर खड़ा
हो जाता है।
वह अकड़ अगर है,
तो
परमात्मा से
मिलन न होगा।
और परमात्मा
से मिलन हुआ, तो वह अकड़ तो
बह जाती है।
उस अकड़ की जगह,
परमात्मा
ही शेष रह
जाता है।
लहरें खो जाती
हैं और सागर
ही बचता है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, पिछले
श्लोक में
कृष्ण चार
प्रकार के
भक्तों की बात
कहते हैं। अर्थार्थी--सांसारिक
पदार्थों के
लिए भजने
वाला।
आर्त--संकट
निवारण के लिए
भजने
वाला।
जिज्ञासु और
ज्ञानी भक्त।
इनके अर्थ संक्षिप्त
में कहें। और
पहले दो लोगों
को भक्त कैसे
कहा, इस पर
भी कुछ कहें।
कृष्ण
चार विभाजन
करते हैं
भक्तों के।
अर्थार्थी--जो
अर्थ के लिए, सांसारिक
वस्तुओं के
लिए
प्रार्थना
में रत होते
हैं। अधिक
लोग। अधिक लोग
लोभ से, कुछ
पाने के लिए
प्रार्थना
में रत होते
हैं।
फिर
आर्त--दुख से, पीड़ा
से, भय से, कठिनाइयों
से परेशान
होकर अधिक लोग
परमात्मा की
प्रार्थना
में रत होते
हैं।
तीसरे
जिज्ञासु--जो
जानना चाहते
हैं;
कुतूहल है
जिन्हें; उत्सुकता
है, क्यूरिआसिटी है। जैसे कि
दार्शनिक, सारी
दुनिया के
दार्शनिक, पता
लगाना चाहते
हैं कि क्या
है? अल्टिमेट काज क्या है
दुनिया का? यह दुनिया
कहां से आई, कहां जा रही
है? क्यों
चल रही है, क्यों
नहीं चल रही
है? प्रश्न
जिनके मन में
भारी हैं, लेकिन
जिज्ञासा
मात्र है।
स्वयं को
बदलने का सवाल
नहीं है। जानने
भर का सवाल
है।
और
चौथे
ज्ञानी--जो
सिर्फ जानने
के लिए नहीं, बल्कि
होने के लिए
आतुर हैं।
परमात्मा को
जानने की
जिनकी
उत्सुकता
सिर्फ कुतूहल
नहीं है। ऐसा
कुतूहल नहीं,
जैसा
बच्चों में
होता है, कि
दरवाजा लगा है,
तो उसे
खोलकर देख लें
कि उस तरफ
क्या है! कोई
और प्रयोजन
नहीं है। बस, दरवाजा लगा
है, तो मन
होता है कि
खोलकर देख लें
कि उस तरफ
क्या है! कीड़ा
चला जा रहा है,
तो टांग तोड़कर
भीतर देख लें
कि कौन-सी चीज
चला रही है!
बच्चों जैसा
कुतूहल, तो
जिज्ञासु है।
लेकिन
ज्ञानी का
अर्थ है, जो
सिर्फ मात्र
कुतूहल से
नहीं, बल्कि
जीवन को आमूल
रूपांतरित
करने की
प्रेरणा से भरा
है। जिसके लिए
जानना कुतूहल
नहीं है, जीवन-मरण
का सवाल है। न
तो धन के लिए, न किसी दुख
के कारण, न
किसी कुतूहल
से, बल्कि
जीवन के सत्य
को जानने की
जिसके प्राणों
की आंतरिक
पुकार है, प्यास
है। जिसके
बिना नहीं जी
सकेगा। जान
लेगा, तो
ही जी सकेगा।
ऐसे चार भक्त
कृष्ण ने कहे।
मन में
सवाल उठ सकता
है कि पहले दो
तरह के या पहले
तीन तरह के
लोगों को
क्यों भक्त
कहा! भक्त तो
आखिरी ही होना
चाहिए, चौथा
ही।
नहीं; तीनों
को भी भक्त
सिर्फ शब्द के
कारण कहा। वे भी
भक्ति करते
हैं। भक्त
नहीं हैं, यह
तो कृष्ण
जाहिर करते
हैं, लेकिन
वे भी भक्ति
करते हैं।
महावीर
ने भी इसी तरह
ध्यान करने
वालों के चार
वर्ग किए।
उनमें जो आदमी
आर्त ध्यान कर
रहा है...। जब आप
क्रोध में
होते हैं, तब
आपका ध्यान
एकाग्र हो
जाता है। उसको
भी कहा, वह
भी ध्यानी है,
आर्तध्यानी। क्योंकि
क्रोध में मन
एकाग्र हो
जाता है। लोभ
में मन एकाग्र
हो जाता है।
कामवासना में
मन एकाग्र हो
जाता है। तो
उसको कहा, वह
भी ध्यानी है;
कामवासना
का ध्यान कर
रहा है। लेकिन
अंतिम ध्यान,
शुक्ल
ध्यान ही असली
ध्यान है; जब
कि बिना
प्रयोजन के, बिना कारण
के, बिना कुछ
पाने की
आकांक्षा के,
कोई ध्यान
करता है।
इसलिए
कृष्ण ने चार
भक्तों की बात
कही।
याद
मुझे आता है, एक
गांव में बड़ी
तकलीफ है। भूख
है, बीमारी
है, परेशानी
है। लोगों के
पास दवा नहीं,
खाना नहीं,
कपड़े नहीं।
गांव के चर्च
का जो पादरी
है, उसने
कभी परमात्मा
से कोई ऐसी
प्रार्थना
नहीं की, जिसमें
कुछ मांगा हो।
वह सत्तर साल
का बूढ़ा है। गांवभर की
तकलीफ; और
चर्च में बड़ी
भीड़ होती है।
फटे-चीथड़े
पहनकर, भूखे
बच्चे और भूखे
बूढ़े इकट्ठे
होते हैं। और वे
रोते हैं।
उनके आंसू
देखकर एक रात
वह रातभर नहीं
सोया। और उसने
परमात्मा से
प्रार्थना की,
मैंने कभी
तुझसे कुछ
मांगा नहीं।
एक बात मांगता
हूं, वह भी
अपने लिए नहीं;
मेरे गांव
के लोगों की
हालत सुधार
दे।
स्वभावतः, चूंकि
उसने कभी कुछ
नहीं मांगा था,
इसलिए उसकी
प्रार्थना
में बड़ा बल
था। और स्वभावतः,
क्योंकि
उसने अपने लिए
प्रार्थना
नहीं की थी, इसलिए भी
बड़ा बल था।
कहानी
कहती है कि
परमात्मा ने
उसकी
प्रार्थना
सुन ली। और
सुबह जब नगर
के लोग उठे, तो
चमत्कृत रह
गए। जहां झोपड़े
थे, वहां
महल हो गए।
जहां
बीमारियां
थीं, वहां
स्वास्थ्य आ
गया। वृक्ष
फलों से लद
गए। फसलें खड़ी
हो गईं। सारा
गांव धनधान्य
से परिपूर्ण
हो गया।
यह तो
चमत्कार हुआ; पूरे
गांव ने देखा।
इससे भी बड़ा
चमत्कार पादरी
ने देखा, कि
चर्च में सदा
भीड़ होती थी, वह बिलकुल
बंद हो गई; कोई
चर्च में नहीं
आता। पादरी दिनभर
बैठा रहता है
बाहर, कोई
चर्च में नहीं
आता। कभी कोई
नमस्कार नहीं करता।
कभी कोई
निमंत्रण नहीं
भेजता।
प्रार्थना के
लिए कोई आता
नहीं। चर्च
गिरने लगा। ईंटें
खिसकने लगीं।
पलस्तर टूटने
लगा। एक साल, दो साल; लोग
गांव के भूल
गए कि चर्च भी
है।
दो साल
बाद उस बूढ़े
फकीर ने एक
रात फिर
परमात्मा से
प्रार्थना की
कि हे प्रभु, एक
प्रार्थना और
पूरी कर दे।
परमात्मा ने
कहा कि अब
तेरी क्या कमी
रह गई! और तूने
जो चाहा था, सब कर दिया।
उसने कहा, अब
एक ही
प्रार्थना और
है कि मेरे
गांव के लोगों
को वैसा ही
बना दे, जैसे
वे पहले थे।
उन्होंने कहा,
तू यह क्या
कह रहा है!
उसने
कहा कि मैं तो
सोचता था कि
वे चर्च में
परमात्मा की प्रार्थना
के लिए आते
हैं,
वह मेरा गलत
खयाल सिद्ध
हुआ। कोई अर्थ
के कारण आता
था। कोई दुख
के कारण आता
था। कोई लोभ
के कारण, कोई
भय के कारण।
अब उनका लोभ
भी पूरा हो
गया; उनके
भय भी दूर हो
गए; उनके
दुख भी दूर हो
गए। तब मैंने
यह न सोचा था कि
परमात्मा को
वे इतनी सरलता
से भूल
जाएंगे।
तो तीन
तरह के लोग
हैं। अर्थार्थी
को अर्थ मिल
जाए,
धन मिल जाए,
भूल जाएगा।
दुखी को, कातर
को, आर्त
को, दुख
दूर हो जाए, भूल जाएगा।
जिज्ञासु को
उसके प्रश्न
का उत्तर मिल
जाए, समाप्त
हो जाएगा।
असली भक्त तो
चौथा ही है।
कुछ भी मिल
जाए, वह
तृप्त नहीं
होगा। जब तक
कि वह स्वयं
परमात्मा ही न
हो जाए, इसके
पहले कोई
तृप्ति नहीं
है।
लेकिन
उन तीन को
भक्त केवल
शब्द की वजह
से कहा। और
उनकी गिनती
करा देनी उचित
है,
क्योंकि
वही तीन तरह
के भक्त हैं
जमीन पर; चौथी
तरह का तो
कभी-कभी, शायद
ही कभी, चौथी
तरह का आदमी
पैदा होता है।
अगर चौथे की
ही बात करनी
हो, तो
बिलकुल बेकार
हो जाए, क्योंकि
असली भीड़ तो
इन तीन की है।
ये नियम हैं; वह चौथा तो
अपवाद है।
इसलिए गिनती
कर लेनी उचित
समझी कि इनकी
गिनती कर ली
जाए। यद्यपि
पीछे कह दिया
जाएगा कि ये
तीनों सिर्फ
धोखे के भक्त
हैं; दिखाई
ही पड़ते हैं, हैं नहीं।
और कई
बार बिलकुल
उलटी घटना
घटती है। वह
चौथा जो है, शायद
दिखाई न पड़े, और हो। और ये
तीन दिखाई
पड़ें, और
हों न।
क्योंकि वह
चौथा क्यों
दिखाई पड?ेगा! वह
कोई सड़क पर
खड़े होकर
चिल्ला नहीं
देगा। वह किसी
मंदिर में हाथ
जोड़कर
खड़ा होगा, जरूरी
नहीं है। हो
भी सकता है, न भी खड़ा हो।
क्योंकि उसके
तो प्राणों
में रम जाएगी
बात; उसके
श्वास-श्वास
में समा जाएगी
बात।
एक
मुसलमान फकीर
हुआ है। सत्तर
साल तक मस्जिद
जाता रहा। एक
दिन न चूका।
बीमार हो, परेशान
हो, बरसा
होती हो, धूप
जलती हो, पांच
नमाज पूरी
मस्जिद में
करता रहा। एक
दिन अचानक
सुबह की नमाज
में नहीं आया;
मस्जिद के
लोगों ने समझा
कि शायद मर
गया। इसके
सिवाय कोई
सोचने का कारण
ही न था।
क्योंकि किसी
भी हालत में
वह आया था। इन
पचास वर्षों
में जितने लोग
उसे जानते थे,
वह नियमित
आया था। गांव
में कुछ भी
हुआ हो, वह
पांच बार
मस्जिद में
आया था; आज
नहीं आया।
सारी
मस्जिद नमाज
के बाद भागी
हुई फकीर के
घर पहुंची। वह
अपने दरवाजे
पर बैठकर खंजड़ी
बजा रहा था!
उन्होंने कहा
कि क्या दिमाग
खराब हो गया
या मरते वक्त
नास्तिक हो
गए! क्या कर रहे
हो यह? नमाज
चूक गए! सत्तर
साल का बंधा
हुआ क्रम तोड़
दिया? आज
मस्जिद क्यों
न आए?
उस
फकीर ने कहा
कि जब तक नमाज
करनी न आती थी, तब
तक मस्जिद में
आता था। अब
नमाज करनी आ
गई। अब यहीं
बैठे हो गई।
अब कहीं जाने
की कोई जरूरत नहीं।
सच तो यह है, उस फकीर ने
कहा कि अब
करने की भी
कोई जरूरत नहीं
है, क्योंकि
अब करने वाला
भी कहां बचा; नमाज ही
बची। भीतर
प्रार्थना ही
रह गई है; अब
प्रार्थना
करने वाला भी
नहीं है।
तो
बहुत संभावना
तो यह है कि वे
तीन ही तरह के
भक्त आपको
दिखाई पड़ेंगे; चौथा
तो शायद दिखाई
नहीं पड़ेगा।
लेकिन वह चौथा
ही है। वे तीन
तो सिर्फ नाम
मात्र को, फार
नेम्स
सेक, भक्त
हैं। कृष्ण ने
उनको गिना
दिया कि कहीं
वे नाराज न हो
जाएं! क्योंकि
बड़ी भीड़
उन्हीं की है।
वह एक तो
अपवाद है; उसे
पीछे से गिना
दिया है।
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः।
तं
तं नियमास्थाय
प्रकृत्या नियताः स्वया।। 20।।
और
हे अर्जुन, जो
विषयासक्त
पुरुष हैं, वे तो अपने
स्वभाव से प्रेरे
हुए तथा उन-उन
भोगों की
कामना द्वारा
ज्ञान से
भ्रष्ट हुए, उस-उस नियम
को धारण करके
अन्य देवताओं
को भजते हैं
अर्थात पूजते
हैं।
यह
भी कहा कृष्ण
ने कि वे जो
कामासक्त हैं, विषयासक्त
हैं, भोगों
की
आकांक्षाओं
से भरे हैं, भोग से
सम्मोहित हैं,
वे ज्ञान से
च्युत होकर
मेरा स्मरण
नहीं करते, अन्य-अन्य
देवताओं का
स्मरण करते
हैं।
इसमें
दो बातें हैं।
एक तो
यह कि जो
व्यक्ति भी
कामासक्त हुआ, विषयासक्त
हुआ, वह
ज्ञान से
च्युत होता
है। वह जो
भीतर ज्ञान की
धारा है, जैसे
ही जरा-सा भी
विषय की तरफ
मन दौड़ा
कि वह धारा
पतित होती है,
स्खलित
होती है। एक
क्षण को भी मन
किसी विषय के
प्रति
प्रेरित हुआ,
कि इसे पा
लूं, यह
मेरा हो जाए, इसे भोग लूं;
जैसे ही भोग
का कोई खयाल
आया कि वह
भीतर की जो चेतन-धारा
है, वह जो
करंट है चेतना
की, वह
तत्काल
डांवाडोल
होकर अधोगति
की यात्रा
करने लगती है।
हर विषयासक्ति
चेतना की धारा
को पतित करती
है।
एक बात
तो यह इसमें
खयाल ले लेने
जैसी है।
जरा-सा, जरा-सा
भी खयाल!
रास्ते पर
गुजरते हैं, और दुकान पर
दिख गई कोई
चीज, और
खयाल आया--मिल
जाए, मेरी
हो जाए, मैं
मालिक हो
जाऊं। जरा-सी
झलक, एक
जरा-सी किरण
वासना की, और
आप जरा रुककर
खड़े होकर वहीं
देखना कि आपके
भीतर अज्ञान
घना हो गया और
ज्ञान फीका हो
गया। इसे आप
अनुभव करेंगे,
तो खयाल में
आएगा। जरा-सी
वासना, और
आप अचानक
पाएंगे कि
मूर्च्छा घिर
गई, बेहोशी
आ गई, अज्ञान
भर गया, और
ज्ञान क्षणभर
को जैसे
बिलकुल खो
गया।
लेकिन
हम तो चौबीस
घंटे विषय की
कामना से भरे हुए
हैं। शायद
इसीलिए हमें
पता भी नहीं
चलता कि हमारी
ज्ञानधारा
पतित होती है।
क्योंकि पतित
होने का पता
तो उन्हें चले, जो
ज्ञानधारा
में थोड़े-बहुत
कभी भी होते
हों, तो
पतित होने का
पता चले।
जिनके पास धन
है, उन्हें
दिवालिया
होने का पता
चलता है।
भिखारियों को
तो दिवालिया
होने का पता
नहीं चलता। जो
कभी थोड़ा ऊपर
जीते हैं, उन्हें
नीचे आने का
पता चलता है।
लेकिन जो नीचे
ही जीते हैं, घाटियों को
जिन्होंने
अपनी जिंदगी
बना लिया, शिखरों
की तरफ जो कभी
उठकर भी नहीं
देखते, उनको
तो फिर पतन का
भी पता नहीं
चलता। अंधेरा ही
जिनका घर है, उन्हें कैसे
पता चलेगा कि
उजेला थोड़ा
फीका हो गया, कि दीए की लौ
थोड़ी कम हो
गई।
लेकिन
अगर फिर भी
थोड़ा स्मरणपूर्वक
खोज करें, तो
जब भी मन को
कोई वासना
तीव्रता से पकड़े, तब
आप जरा अपने भीतर
देखना कि आपके
ज्ञान की जो
क्वालिटी है,
आपके ज्ञान
का जो गुण है, क्या वह
बदला? क्या
वह निम्न हुआ?
क्या वह
नीचे गिरा?
इसलिए
हर वासना, चाहे
तृप्त ही
क्यों न हो
जाए, एक
सूक्ष्म
विषाद में छोड़
जाती है।
क्योंकि वह
आपको पतित कर
जाती है। हर
वासना, चाहे
मिल ही क्यों
न जाए, मिल
जाते ही आपके
मुंह में एक
कड़वा स्वाद
छूट जाता है।
वह कड़वा स्वाद
इस बात का
होता है कि भीतर
आपकी
चेतना-धारा
पतित हुई।
आपने जो पाया,
वह तो
ना-कुछ; लेकिन
जो गंवाया, वह बहुत कुछ;
एट ए वेरी
ग्रेट कास्ट।
वह जो कृष्ण
कह रहे हैं, वह यह कह रहे
हैं कि तुम
पाओगे क्या?
एक
आदमी सड़क पर
चला जा रहा है, और
देखता है कि
एक अच्छा कपड़ा
पहने हुए कोई
गुजरा; वे
कपड़े मुझे
चाहिए! कपड़े
की मांग, बड़ी
छोटी-सी मांग
है। लेकिन उसे
पता नहीं कि इस
मांग ने उसकी
चेतना को
कितना नीचे
गिरा दिया, तत्काल!
जैसे टेंपरेचर
नीचे गिर गया
हो थर्मामीटर
में; उसके
भीतर ज्ञान की
धारा नीचे गिर
गई।
इसलिए
वासना से भरे
हुए व्यक्ति
अक्सर छोटे बच्चों, नासमझों जैसा
व्यवहार करने
लगते हैं। कभी
आपने खयाल किया
कि जब आप
वासना में
होते हैं, तो
आप जो व्यवहार
करते हैं, वह
करीब-करीब स्टुपिडिटी
का होता है; करीब-करीब मूढ़ता का
होता है!
अगर हम
दो प्रेमियों
को आपस में
बातचीत करते देखें, जो
वासनातुर
हैं, तो
उनकी बातचीत
हमें कैसी
मालूम पड़ेगी!
उनका एक-दूसरे
से व्यवहार
देखें, तो
वह कैसा मालूम
पड़ेगा! स्टुपिड,
एकदम
मूर्खतापूर्ण।
लेकिन उन्हें
नहीं मालूम पड़
रहा है। वे तो
बड़े स्वर्ग
में जी रहे
हैं! वे भी अगर
लौटकर देखें,
तो उन्हें
भी मूढ़ता
दिखाई पड़ेगी।
असल में जैसे
ही हम कामातुर
और वासना से
भरते हैं, किसी
भी विषय की
आसक्ति से, वैसे ही
हमारे भीतर की
चेतना-धारा
नीचे गिर जाती
है।
सुना
है मैंने, एक
फकीर, नाम
था उसका फरीद,
शेख फरीद।
कोई लोग उसके
पास आते। समझो,
कोई आदमी
उससे मिलने
आया। वह आकर
बैठा नहीं कि
फरीद जाएगा
उसके पास, उसका
सिर हिला देगा
जोर से। कई
दफे तो लोग
घबड़ा जाते। और
वह आदमी कहता
कि आप यह क्या
कर रहे हैं? तो फरीद
हंसने लगता।
कभी बैठा रहता
पास में, डंडा
उठाकर उसके
पेट में इशारा
कर देता। वह
आदमी चौंक
जाता। वह कहता,
आप यह क्या
कर रहे हैं! वह
हंसने लगता।
बहुत
बार लोगों ने
पूछा कि आप यह
करते क्या हो? तो
फरीद बोला कि
एक दफा मैं
यात्रा पर गया
था। बहुत-से
खच्चर साथ थे।
बड़ा सामान था।
बहुत बड़ा
कारवां था। वह
जो खच्चरों
का मालिक था, बड़ा होशियार
था। जब कभी
कोई खच्चर अड़
जाता और बढ़ने
से इनकार कर
देता...।
और
खच्चर अड़ जाए, तो
बढ़ाना बहुत
मुश्किल है।
बढ़ता रहे, उसकी
कृपा। अड़ जाए,
तो फिर
बढ़ाना बहुत
मुश्किल।
क्योंकि न
उन्हें
बेइज्जती का
कोई डर, क्योंकि
वे खच्चर हैं।
उन्हें कोई
अड़चन नहीं है।
उन्हें आप
गालियां दो, उन्हें कोई
मतलब नहीं।
फरीद
ने कहा, लेकिन
वह बड़ा कुशल
मालिक था। कभी
कोई खच्चर अड़
जाए, तो एक
सेकेंड न लगता
था चलाने में।
तो मैंने उससे
पूछा कि तेरी
तरकीब क्या है?
तो उसने
मुझे बताया कि
वह थोड़ी-सी
मिट्टी उठाकर
खच्चर के मुंह
में डाल देता
है। खच्चर उस
मिट्टी को थूक
देता है और चल
पड़ता है! तो
फरीद ने पूछा,
मैं समझा
नहीं कि
मिट्टी उसके
मुंह में
डालने और
खच्चर के चलने
का संबंध क्या
है?
तो उस
आदमी ने कहा
कि मैं ज्यादा
तो नहीं जानता, मैं
इतना ही समझता
हूं कि मुंह
में मिट्टी
डालने से उसके
भीतर की जो विचारों
की धारा है, वह टूट जाती
है; वह जो
अंडर करंट है!
खच्चर सोच रहा
है, खड़े
रहेंगे! अब
मुंह में
मिट्टी डाल
दी। इतनी बुद्धि
तो नहीं है कि
इन दोनों को
फिर से जोड़ सके।
मुंह में
मिट्टी डाल दी,
तो वे भूल
गए जाने-आने
की बात। मुंह
की मिट्टी साफ
करने में लग
गए, तब तक
उसने हांक
दिया; वह
चल पड़ा। उसने
कहा, जहां
तक मैं समझता
हूं...। ज्यादा
मैं नहीं जानता,
क्योंकि
खच्चर के भीतर
क्या होता है,
पता नहीं।
अनुमान मेरा
यह है कि उसकी
विचारधारा
खंडित हो जाती
है, गड़बड़
हो जाती है।
बस, उसी
में वह चक्कर
में आ जाता है;
चल पड़ता है।
बाकी यह दवा
मेरी कारगर
है।
लोग
कहते, आपने
हमें खच्चर
समझा है क्या?
फरीद कहता
कि बिलकुल
खच्चर समझा
है। अभी तुझे मैंने
देखा। तू भीतर
आया, तब
मैंने देखा कि
तेरे भीतर
क्या चल रहा
था।
कठिन
नहीं है देखना
कि दूसरे के
भीतर क्या चल रहा
है। शिष्टतावश
अनेक लोग, जो
जानते भी हैं
कि दूसरे के
भीतर क्या चल
रहा है, कहते
नहीं हैं।
लेकिन दूसरे
के भीतर क्या
चल रहा है, यह
जानना बड़ी ही
सरल बात है।
जब आप भीतर
आते हैं, तो
आपके भीतर
क्या चल रहा
है, उसके
साथ आपके
चारों तरफ रंग,
और आपके
चारों तरफ गंध,
और आपके
चारों तरफ
विचार का एक वातावरण
भीतर प्रवेश
करता है।
तो
फरीद कहता, जैसे
ही मैं देखता
हूं, इसके
भीतर कोई
वासना चल रही
है, उचककर मैं उसकी
गर्दन को जोर
से हिला देता
हूं। वही खच्चर
वाला काम कि
शायद करंट...! और
अक्सर मेरा अनुभव
है कि करंट
टूट जाती है।
वह चौंककर
पूछता है, क्या
कर रहे हैं? कम से कम
वहां से चौंक
जाता है; दूसरी
यात्रा पर ले
जाया जा सकता
है।
बहुत-से
धर्म की जो
विधियां हैं, वे
सारी विधियां
ऐसी हैं कि
किसी तरह आपकी
जो वासना की
तरफ दौड़ती हुई
स्थाई हो गई
धारा है, वह
तोड़ी जा सके।
आप
मंदिर जाते
हैं। आपने
घंटा लटका हुआ
देखा है मंदिर
के सामने। कभी
खयाल नहीं
किया होगा कि
घंटा किसके
लिए बजाया
जाता है। आप
सोचते होंगे, भगवान
के लिए; तो
आप गलती में
हैं। वह आपके
खच्चर के लिए
है। वह जो घंटनाद
है, भगवान
से उसका कोई
लेना-देना
नहीं है। वह
आपकी खोपड़ी
में जो चल रहा
है, जोर का
घंटा बजेगा, मिट्टी थूककर
आप मंदिर के
भीतर चले
जाएंगे।
वह
अंतर-धारा जो
चल रही है, वह
एक झटके में
टूट जाए।
टूटती है, अगर
समझ हो, तो
बराबर टूट
जाती है।
कहते
हैं,
मंदिर
स्नान करके
चले जाओ; ऐसे
ही मत चले
जाना। वह
अंतर-धारा
तोड़ने के लिए
जो भी हो सकता
है, कोशिश
की जाती है।
बाहर ही जूते
निकाल दो; वह
अंतर-धारा
तोड़ने के लिए।
आपके जितने
एसोसिएशन हैं,
वह तोड़ने की
कोशिश की जाती
है। जाकर
मंदिर में लेट
जाओ चरणों में
परमात्मा के
साष्टांग, सब
अंग जमीन को
छूने लगें; सिर जमीन पर
पटक दो। वह जो
अकड़ा हुआ सिर
है, चौबीस
घंटे अकड़ा
रहता है।
शायद...। वही
खच्चर वाला
काम किया जा
रहा है। आपके
भीतर वह जो
अंडर करंट है,
शायद...।
लेकिन
कई बड़े कुशल
खच्चर हैं; उन
खच्चरों
का मुझे पता
नहीं। कितना
ही घंटा बजाओ,
उनके भीतर
कुछ भी नहीं
बजता। कुछ
बजता ही नहीं!
लेकिन
मनुष्य को
सहायता
पहुंचाने के
लिए जिनकी
आतुरता रही है, उन्होंने
बहुत-सी
व्यवस्थाएं
हैं।
कृष्ण
कह रहे हैं, एक
बात तो यह कि
च्युत हो जाता
है वासना की
धारा में दौड़ता
हुआ चित्त
ज्ञान से।
ज्ञान
स्वभाव है।
इसे
ऐसा समझें, तो
ठीक होगा, हम
आमतौर से कहते
हैं कि वासना
को छोड़ दो, तो
ज्ञान मिल
जाएगा। कहना
चाहिए, वासना
को पकड़ा है, इसलिए ज्ञान
खो गया है।
ज्यादा एक्जेक्ट
और सही जो
कहना होगा। यह
कहना उतना ठीक
नहीं है कि
वासना को छोड़
दो, तो
ज्ञान मिल
जाएगा। इसमें
ऐसा लगता है
कि वासना
हमारा स्वभाव
है, छोड़ेंगे,
तो ज्ञान, कोई उपलब्धि
हो जाएगी।
असलियत उलटी
है। ज्ञान
हमारा स्वभाव
है, वासना
को पकड़कर
हमने उसे खोया
है। वासना हट
जाए, वह
हमें फिर मिल
जाएगा।
और
इसीलिए वासना
कभी तृप्त
नहीं होगी, क्योंकि
वासना हमारा
स्वभाव नहीं
है, हमारा
पतन है। हम
कितने ही
दौड़ते रहें, पतन से हम
कभी राजी न हो
पाएंगे, तृप्त
न हो पाएंगे।
पतन विषाद ही
बनेगा, पतन
हमें पीड़ा ही
देगा, संताप
ही देगा, नर्क
ही देगा। और
एक न एक दिन
नर्क की पीड़ा
से हमें लौट
आना पड़ेगा। और
उस शिखर की
तरफ देखना पड़ेगा,
जो हमारे
प्राणों का
आंतरिक शिखर
है, कैलाश।
कैलाश
हिमालय में
नहीं है। जाते
हैं लोग; सोचते
हैं, वहां
होगा। कैलाश
हृदय के उस शिखर
का नाम है, ज्ञान
के उस शिखर का
नाम है, जहां
से कभी भगवान
च्युत नहीं
होता। आपके
भीतर का भगवान
भी कभी च्युत
नहीं होता
जहां से।
जिस
दिन उस शिखर
पर हम पहुंच
जाते हैं भीतर
के--सब
घाटियों को
छोड़कर, घाटियों
की वासनाओं को
छोड़कर--उस दिन
ऐसा नहीं होता
कि हमें कुछ
नया मिल जाता
है। ऐसा ही
होता है कि जो
हमारा सदा था,
उसका
आविष्कार, उसका
उदघाटन हो
जाता है। हम
जानते हैं, हम कौन थे।
और हम जानते
हैं कि हम किस
तरह च्युत
होते रहे, किस
तरह भटकते
रहे। किस कीमत
पर हमने अपने
को गंवाया और
क्षुद्र
चीजों को
इकट्ठा किया। कंकड़-पत्थर
बीने और
आत्मा बेची।
तो एक
बात तो कृष्ण
यह कहते हैं।
दूसरी बात यह कहते
हैं कि वे जो
और अर्थार्थी, और
आर्त, और
जिज्ञासु, उस
तरह के जो लोग
हैं, वे
मेरी नहीं, और देवताओं
की पूजा में
संलग्न होते
हैं। क्यों?
ठीक
परमात्मा की
प्रार्थना
में वे लोग
संलग्न नहीं
होते, क्योंकि
परमात्मा की
प्रार्थना की
शर्त ही वे
लोग पूरी नहीं
करते। शर्त ही
यह है कि सब
वासनाएं
छोड़कर आओ।
ब्रह्म को
पाने की शर्त
तो यही है कि
सब वासनाएं
छोड़कर आओ, तब
प्रार्थना
पूरी होगी। वे
वहां कैसे
जाएंगे?
तो वे
छोटे-मोटे
अपने
देवी-देवता
निर्मित कर लेते
हैं,
जो उनसे
शर्त नहीं बांधते।
बल्कि शर्त
ऐसी बांधते
हैं, जो
सस्ती होती
हैं; पूरी
कर देते हैं।
कोई देवता
मांगता है कि
नारियल चढ़ा
दो। कोई देवता
मांगता है कि
फूल-पत्ती रख
दो। कोई देवता
मांगता है कि
ऐसा कर दो, बलि
चढ़ा दो, या
यज्ञ कर दो, या हवन कर
दो। सस्ती मांग
वाले भी देवता
हैं। सस्ती
दुकानें भी
हैं।
तो
कृष्ण कहते
हैं,
फिर उस तरह
के लोग मेरी
तरफ नहीं आते,
क्योंकि
मेरी शर्त
उनसे पूरी
नहीं होती। वे
खुद ही अपने
देवता गढ़
लेते हैं।
यह
बहुत मजे की
बात है। हमने
बहुत देवता
हमारे गढ़े
हुए हैं। अपनी
जरूरतों के
अनुसार हमने
उन्हें गढ़ा
है। जिस चीज
की जरूरत होती
है,
हम गढ़
लेते हैं।
सारा
आविष्कार तो
जरूरत से होता
है न! देवताओं
का आविष्कार
भी जरूरत से
होता है।
आवश्यकता कोई
वैज्ञानिक
खोजों की ही
जननी नहीं है, देवताओं
की भी जननी
है। इसलिए तो
इतने देवता! हिंदुस्तान
में तैंतीस करोड़ आदमी
थे, तो
तैंतीस करोड़
देवता। अब
आदमी तो थोड़े
ज्यादा बढ़ गए
हैं, देवता
भी हमें बढ़ाने
चाहिए। नहीं
तो बहुत मुश्किल
पड़ जाएगी; कुछ
लोग बिना
देवताओं के पड़
जाएंगे।
हरेक
अपना देवता
खड़ा कर लेता
है,
जो उसकी
जरूरत है, उसके
मुताबिक। और
फिर उस देवता
से प्रार्थना करने
लगता है।
कृष्ण
कहते हैं, वे
दूसरे
देवताओं के
पास चले जाते
हैं।
परमात्मा
तो एक है और हम
उसे गढ़
नहीं सकते।
मोहम्मद
ने अगर काबा
की तीन सौ
पैंसठ
मूर्तियां हटवाईं, तो
सिर्फ इसलिए
कि वे देवताओं
की मूर्तियां
थीं। मोहम्मद
कोई परमात्मा
की प्रतिमा को
मनुष्य के हृदय
से नहीं हटाना
चाहते थे।
लेकिन बड़ी
गलत-समझी पैदा
हो गई।
मोहम्मद कोई
परमात्मा की
प्रतिमा को
नहीं हटाना
चाहते थे।
परमात्मा की
प्रतिमा
मनुष्य के
हृदय में
स्थापित हो, इसलिए
देवताओं की जो
तथाकथित
प्रतिमाएं
थीं काबा के
मंदिर में--हर
दिन के लिए
अलग देवता था,
तीन सौ
पैंसठ देवता
थे एक-एक दिन
के लिए, हर
दिन अलग देवता
पर पूजा होती
थी--मोहम्मद
ने हटवा दिया,
फिंकवा दिया, कि
हटा दो
इन्हें।
क्योंकि
इन देवताओं की
वजह से जो लोग
आते हैं, वे
कृष्ण के तीन
वर्ग पहले जो
हैं, वही
लोग
होंगे--आर्त, अर्थार्थी,
जिज्ञासु--वही
आएंगे। वह जो
चौथा है, वह
तो उस परम एक
की तरफ ही
जाता है।
लेकिन उस एक की
तरफ जाने की
शर्त पूरी
करनी पड़ती है।
वह शर्त महंगी
है, कठिन
है, दुर्धर्ष
है, दुस्तर
है। क्योंकि
स्वयं को ही
दांव पर लगाना
पड़ता है, नारियल
को नहीं।
हालांकि
आपने कभी खयाल
किया हो या न
किया हो, आदमी
बड़ा होशियार
है। नारियल, आपने कभी
खयाल किया, आदमी की
खोपड़ी की शक्ल
की चीज है।
आंख भी होती है,
नाक भी होती
है, खोपड़ी
भी होती है!
जोर से पटको,
तो खोपड़ी की
तरह फूटता भी
है। आपने कभी
खयाल किया कि
नारियल किन
लोगों ने खोजा?
आदमी की
खोपड़ी की शक्ल
में खोजा गया है।
अपने
को चढ़ाना
पड़ता है
परमात्मा के
दरवाजे पर; अपनी
गर्दन काटनी
पड़ती है।
प्रतीकात्मक
अर्थों में, सिंबालिकली,
अपनी ही
गर्दन काटकर चढ़ानी
पड़ती है। अपने
को नहीं
काटेगा, वह
क्या चढ़ाएगा!
वह क्या
परमात्मा को
पाएगा!
पर
होशियार है
आदमी; उसने
सोचा, गर्दन
वगैरह तो बहुत
महंगी पड़ती
है। पांच आने
में नारियल
मिलता है; बिलकुल
आदमी की खोपड़ी
जैसा लगता है।
आंख भी हैं; सब
हिसाब-किताब
पूरा है। फिर
असली भी
खरीदने की
जरूरत नहीं है,
सड़ा-सड़ाया भी मिल जाता
है।
हर
मंदिर के
सामने दुकान
होती है। और
करीब-करीब
मैंने सुना है
कि मंदिर के पास
जो दुकान होती
है,
जो नारियल
उन्होंने
पहली दफे
खरीदे थे, उनसे
ही काम चलता
चला जाता है।
क्योंकि अंदर
जाकर चढ़ जाते
हैं, पुजारी
रात को बेच
जाता है। सुबह
फिर मंदिर में
चढ़ने
लगते हैं, रात
फिर लौट आते
हैं। इसलिए
दुनियाभर में
नारियल के दाम
बढ़ जाएं, मंदिर
की दुकान वाला
नारियल
पुराने दाम से
भी चलता है; कोई हर्जा
नहीं! उसके
भीतर कुछ बचा
भी है, यह
संदिग्ध है।
सब सड़
चुका होगा कभी
का।
लेकिन
आदमी कितना
कुशल है! उसने
नारियल खोजा; उसने
सिंदूर खोजा।
सिंदूर--खून।
खून अपने प्राणों
का जो लगाए; वह प्रतीक
है कि अपने
खून को जो चढ़ा
दे। तो उसने
देखा, खून
से
मिलती-जुलती
चीज बाजार में
कोई मिलती है?
मिलता है।
सिंदूर मिल
गया। उसने
सिंदूर लगा दिया।
नारियल चढ़ा
दिया।
दो-चार-आठ आने
में निपटाकर
वह अपने घर
वापस आया।
निश्चित, यह
पूजा
परमात्मा तक
नहीं
पहुंचती। यह
पूजा सिर्फ
हमारी
वासनाओं की सेवा
है। और यह
आपको कहूं कि
इसमें कभी-कभी
परिणाम आते
हैं, इसलिए
और कठिनाई है।
ऐसा नहीं है
कि यह चूंकि बिलकुल
थोथी है, इसमें
कभी परिणाम
नहीं आते।
इसमें परिणाम
आते हैं। उसी
से तो झंझट
है। अगर
परिणाम
बिलकुल न आते
होते, तो
आदमी कभी का
ऊब गया होता।
परिणाम आते हैं।
परिणाम
इसलिए आते हैं
कि जब भी आप
किसी देवता की
पूजा शुरू
करते हैं, या
कोई देवता
निर्मित कर
लेते हैं...।
अक्सर देवता
इस तरह
निर्मित होते
हैं, कोई
आदमी मरा, कोई
संत मरा, कोई
फकीर मरा, कोई
महात्मा मरा;
वेदी बन गई;
मूर्ति बन
गई। कुछ
आस-पास
पूजा-प्रार्थना
शुरू हो गई।
देवता
निर्मित हो
गया।
कभी जब
ऐसा कोई देवता
निर्मित हो
जाता है, तो
परिणाम भी आते
हैं। क्योंकि
बहुत-से अच्छे
लोग, जिनकी
आत्माएं
आस-पास भटकने
लगती हैं, अशरीरी
हो जाती हैं, आपके द्वारा
की गई
प्रार्थनाओं
में सहायता पहुंचा
सकते हैं। वह
सहायता उनकी
दया से निकलती
है। लेकिन
आपको मिल जाती
है सहायता, तो आप सोचते
हैं कि देवता
ने सहायता की,
तो
प्रार्थना
करता चला जाऊं,
करता चला
जाऊं।
आपके
हर देवता के
आस-पास ऐसी
आत्माएं
मौजूद हैं, जो
आपको सहायता
कर सकती हैं।
भले लोगों की
आत्माएं हैं।
देखें, एक
आदमी परेशान
आया है, उसकी
लड़की की शादी
नहीं हो रही
है। कोई
मूर्ति
सहायता नहीं
करेगी, कोई
नारियल
सहायता नहीं
करेगा। लेकिन
उस मूर्ति और
उस मंदिर के
वातावरण में
निवास करने वाली
कोई भली आत्मा
सहायता कर
सकती है। और
वह सहायता
आपको मिल जाए,
तो आपका तो
गणित पूरा हो
गया कि मेरी
मांग पूरी हुई,
मेरी
प्रार्थना
पूरी हुई, देवता
सच्चा है। अब
तो इसको कभी
छोड़ना नहीं है।
फिर आप उसको पकड़े चले
जाते हैं।
तो
देवता के पीछे
से घटनाएं
घटती हैं, इसमें
कोई शक नहीं
है। लेकिन उसके
घटने का कारण
बहुत दूसरा
है। वह दया है
किन्हीं शुभ
आत्माओं की।
लेकिन
कृष्ण जिस परम
उपलब्धि की
बात कर रहे हैं, उसके
लिए तो
देवताओं के
पास जाने से
नहीं होगा।
क्योंकि कोई
कितनी ही शुभ
आत्मा क्यों न
हो, किसी
को परमात्मा
नहीं दिला
सकती।
हां, धन
दिला सकती है।
वह कोई बड़ी
कठिन बात नहीं
है। नौकरी
दिला सकती है।
किसी की शादी
करवा सकती है।
किसी की बीमारी
ठीक करवा सकती
है। वह कोई
कठिन बात नहीं
है। जो आदमी
कर सकता है, वही अच्छी
आत्मा भी कर
सकती है, सरलता
से।
लेकिन
परमात्मा से
कोई अच्छी
आत्मा आपको
मिलवा नहीं
सकती। परमात्मा
से मिलने तो
आपको ही जाना
पड़ेगा। और चौथे
तरह के ज्ञानी
होकर जाना
पड़ेगा, तो ही
आप पहुंच
पाएंगे।
वासनाओं
से हटे चित्त, आसक्तियों से टूटे
चित्त, ज्ञान
में थिर हो, समर्पित एकीभाव
से प्रभु की
तरफ भजन करे, दौड़े, गति
करे, तो एक
दिन भक्त
भगवान हो जाता
है।
सब भक्त
भगवान हैं।
उन्हें पता हो, न
पता हो। फर्क
पता होने का
और न पता होने
का है। लेकिन
कोई भक्त
भगवान से
वंचित नहीं
है। प्रत्येक
भक्त भगवान
है।
आज
इतना ही।
लेकिन
उठेंगे नहीं
पांच मिनट। यह
प्रार्थना किसी
आर्त कारण से
नहीं की जा
रही है। ये
संन्यासी
किसी दुख में
नहीं हैं। और
न ये किसी लोभ
और किसी मांग
के लिए
परमात्मा से
प्रार्थना कर
रहे हैं। एक इनका
आनंद का भाव
है उसे
धन्यवाद देने
के लिए। आप भी
उसमें
सम्मिलित हो
जाएं। और
प्रार्थना में
भी जो कंजूसी
करे, उससे
कंजूस आदमी
खोजना बहुत
मुश्किल है।
थोड़ी कंजूसी न
करें।
thank you guruji
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