अध्याय-7
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं
कृत्स्नस्य
जगतः प्रभवः
प्रलयस्तथा।।
6।।
मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति
धनंजय।
मयि
सर्वमिदं प्रोतं
सूत्रे मणिगणा
इव।। 7।।
और
हे अर्जुन, तू
ऐसा समझ कि
संपूर्ण भूत
इन दोनों प्रकृतियों
से ही
उत्पत्ति
वाले हैं और
मैं संपूर्ण
जगत का
उत्पत्ति तथा प्रलयरूप
हूं, अर्थात
संपूर्ण जगत
का मूल कारण
हूं।
हे
धनंजय, मेरे
सिवाय किंचितमात्र
भी दूसरी
वस्तु नहीं
है। यह
संपूर्ण जगत
सूत्र में
सूत्र के मणियों
के सदृश मेरे
में गुंथा
हुआ है।
जगत
प्रकट है, ऐसे
ही जैसे माला
के मनके प्रकट
होते हैं। परमात्मा
अप्रकट है, वैसे ही
जैसे मनकों
में पिरोया
हुआ धागा अप्रकट
होता है। पर
जो अप्रकट है,
उसी पर
प्रकट सम्हला
हुआ है। जो
नहीं दिखाई
पड़ता उसी पर, जो दिखाई
पड़ता है, आधारित
है।
जीवन
के आधारों में
सदा ही अदृश्य
छिपा होता है।
वृक्ष दिखाई
पड़ता है, जड़ें
दिखाई नहीं
पड़ती हैं। फूल
दिखाई पड़ते हैं,
पत्ते
दिखाई पड़ते
हैं, जड़ें
पृथ्वी के
गर्भ में छिपी
रहती
हैं--अंधकार
में, अदृश्य
में। पर उन
अदृश्य में
छिपी जड़ों पर
ही प्रकट
वृक्ष की जीवन
की सारी लीला
निर्भर है।
यदि हम
ऊपर से ही
देखें, तो
शायद समझें कि
फूलों में
प्राण होंगे;
तो शायद हम
समझें कि
पत्तों में
प्राण होंगे;
तो शायद हम
समझें कि
वृक्ष की
शाखाओं में
प्राण होंगे।
ऊपर से जो
देखेगा, उसे
ऐसा ही दिखाई
पड़ेगा। लेकिन
प्राण तो उन
जड़ों में हैं,
जो नीचे
अंधकार में, अदृश्य में
छिपी और दबी
हैं।
इसलिए
कोई पत्तों को
तोड़ डाले, फूलों
को तोड़ डाले, शाखाओं को
काट
डाले--वृक्ष
का अंत नहीं
होता। फिर नए
अंकुर फूट
जाते हैं, फिर
नए पत्ते आ
जाते हैं, फिर
नए फूल खिल
जाते हैं।
लेकिन कोई
जड़ों को काट
डाले, तो
वृक्ष का अंत
हो जाता है।
फिर पुराने
फूल भी मौजूद
हों, तो थोड? ही देर में
कुम्हला जाते
हैं और पुराने
पत्ते भी थोड़ी
ही देर में पतझड़
को उपलब्ध हो
जाते हैं।
जीवन
का विराट रूप
भी ऐसा ही है।
जो दिखाई पड़ता
है,
जिसने भूल
से यह समझ
लिया कि वही
प्राण है, वह
अधार्मिक
जीवन में डूब
जाता है। जो
दिखाई पड़ता है,
उसके भीतर
जिसने जड़ों को
खोजा, अदृश्य
को खोजा, मनकों
के भीतर धागे
को खोजा, वह
जीवन में धर्म
की यात्रा पर
निकल जाता है।
अदृश्य
की खोज धर्म
है और दृश्य
में उलझ जाना संसार
है। जो दिखाई
पड़ता है, उसको
सब कुछ मान
लेना संसार
है। और जो
नहीं दिखाई
पड़ता है, उसे
दिखाई पड़ने
वाले का भी
मूल आधार
जानना धर्म
है।
कृष्ण
इसमें दोत्तीन
बातें कहते
हैं। एक तो वे
अपने अदृश्य
रूप की बात
करते हैं। वे
कहते हैं, छिपा
हुआ हूं मैं, दि हिडेन,
गुप्त हूं
मैं, प्रकट
नहीं हूं। और
जो प्रकट है, वह केवल
प्रकृति है।
और वह जो
प्रकट है, वह
जो मैंने अष्टधा,
आठ तरह की
प्रकृति की
बात कही, उसका
ही खेल है। वह
सब मेरा बनाया
हुआ खेल है। वे
सब मनके मैंने
निर्मित किए
हैं, मैं
तो धागा ही
हूं।
अदृश्य
है परमात्मा, इस
सत्य के ऊपर
इस सूत्र में
जोर दिया है।
हम सब निरंतर
पूछते हैं, कहां है
परमात्मा? कैसा
है परमात्मा?
जब भी हम
ऐसे सवाल
उठाते हैं, तो हम गलत
सवाल उठाते
हैं। और जो भी
इन गलत सवालों
के जवाब देता
है, वे
जवाब सवालों
से भी ज्यादा
गलत होते हैं।
ये जो हमने
सारी
प्रतिमाएं
खड़ी कर रखी
हैं परमात्मा
की, ये
हमारे
प्रश्नों के
जवाब हैं, जो
हमने पूछे हैं,
कहां है! तो
हमने
प्रतिमाएं
बना ली हैं
बताने को, कि
यह रहा।
लेकिन
ध्यान रखना, जो
मूर्ति में
उलझा, वह
इस अदृश्य की
खोज पर न निकल
पाएगा। हां, अगर मूर्ति
सिर्फ द्वार
बनती हो
अमूर्त का, अगर वृक्ष
केवल जड़ों की
सूचना बनता हो,
और मनके अगर
धागे की खबर
लाते हों, तब
तो ठीक है।
अन्यथा मनकों
में जो उलझा, वह धागे से
वंचित रह
जाएगा।
और मजे
की बात यह है
कि हर मनके
में धागा
मौजूद है। हर
मूर्ति में भी
अमूर्त मौजूद
है। हर पत्थर
में भी अमूर्त
मौजूद है। वह
जो दिखाई पड़
रहा है, सब
जगह न दिखाई
पड़ने वाला
मौजूद है।
लेकिन वह न
दिखाई पड़ने
वाला उसी को
स्मरण में
आएगा, जो
दिखाई पड़ने
वाले से थोड़ा
भीतर प्रवेश
करे।
दिखाई
पड़ने वाला मैं
नहीं हूं,
कृष्ण
कहते हैं, जो
दिखाई पड़ता है
वह प्रकृति
है।
दिखाई
पड़ता है, इससे
क्या अर्थ है?
दिखाई पड़ने
से अर्थ है, इंद्रियों
की पकड़ में
आता है जो।
चाहे आंख से दिखाई
पड़े, चाहे
कान से सुनाई
पड़े, चाहे
हाथ से स्पर्श
हो जाए। जो भी
इंद्रियों की
पकड़ में आता
है, वह, वह
प्रकृति है।
और जो
इंद्रियों के
पार रह जाता
है, वह
परमात्मा है।
मनके वही हैं,
जो
इंद्रियों की
पकड़ में आ
जाते हैं; और
धागा वही है, जो
इंद्रियों की
पकड़ के बाहर
छूट जाता है।
क्या
जीवन में हमने
कोई ऐसी चीज
जानी है, जो
इंद्रियों की
पकड़ के बाहर
हो? कोई
ऐसा स्वाद
जाना है, जो
जीभ से न लिया
गया हो? अगर
नहीं जाना, तो परमात्मा
की हमें कोई
खबर नहीं है।
कोई ऐसा दृश्य
देखा है, जो
आंख से न देखा
गया हो? अगर
नहीं देखा, तो हमें उन जड़ों
की कोई खबर
नहीं है, जिनकी
कृष्ण बात
करते हैं।
क्या कोई ऐसी
ध्वनि सुनी है,
जो कानों से
न सुनी गई हो? ऐसी ध्वनि, जिसे बहरा
भी सुन सके!
अगर नहीं सुनी
है ऐसी कोई
ध्वनि, तो
हमें धागे की
कोई भी खबर
नहीं है; हम
मनकों से ही
खेल रहे हैं।
और जब
तक कोई आदमी
मनकों से
खेलता है, तब
तक बचकाना है,
जुवेनाइल है। और जैसे
ही उसे मनकों
के भीतर छिपे
हुए धागे के
रहस्य का पता
चल जाता है, उसी दिन
प्रौढ़ होता
है।
सिर्फ
धार्मिक
व्यक्ति ही मैच्योर
होता है, प्रौढ़
होता है।
अधार्मिक
व्यक्ति बचकाने
ही रह जाते
हैं। इसलिए
जिस समाज में
जितना ज्यादा
अधर्म होगा, उतना
बचकानापन और चाइल्डिशनेस
बढ़ जाएगी।
आज अगर
अमेरिका में जुवेनाइल
बच्चे पागल की
तरह व्यवहार
कर रहे हैं, तो
उसके लिए
जिम्मेवार
बच्चे नहीं
हैं। अगर आज
अमेरिका के
बच्चे हिप्पी,
और बीटल, और सब तरह की नासमझियों
को उपलब्ध हो
रहे हैं, तो
उसके लिए
बच्चे
जिम्मेवार
नहीं हैं।
उसके लिए वे
मां-बाप
जिम्मेवार
हैं, जिन्होंने
प्रौढ़ होने का
रास्ता ही तोड़
दिया है।
क्योंकि
प्रौढ़ होने का
एक ही रास्ता
है, मैच्योरिटी का इस जगत
में, वह
धर्म है। एक
बार धर्म हट
जाए, तो
बूढ़े भी बचकाने
होंगे। और एक
बार जीवन में
धर्म प्रवेश
कर जाए, तो
बच्चे में भी
उतनी ही
प्रज्ञा
उत्पन्न होती
है, जितनी
वृद्धतम
व्यक्ति को हो
सके।
लाओत्से
के संबंध में
कहा जाता है
कि वह बूढ़ा ही
पैदा हुआ। बड़ी
अजीब-सी बात
है। कोई आदमी
बूढ़ा कैसे
पैदा होगा!
लेकिन अजीब न
लगेगी, अगर
दूसरे छोर से
सोचें। कई लोग
बच्चे ही मर जाते
हैं न! अगर कोई
आदमी बच्चा ही
मर जाता है, तो किसी
आदमी के बूढ़े
पैदा होने में
अड़चन क्या है?
अनेक
लोग जब अपनी
कब्र में जाते
हैं,
तब अगर गौर
से देखें, तो
उनके हाथ में घुनघुने
होते हैं, और
कुछ भी नहीं।
जिन चीजों से
हम भी खेल रहे
हैं, वे घुनघुनों
से ज्यादा
नहीं हैं।
बच्चों के घुनघुने
जरा ज्यादा
रंगीन होते
हैं, हमारे
जरा कम रंगीन,
पर उससे हम
प्रौढ़ नहीं हो
जाते हैं। और
बच्चों के घुनघुने
सुबह आते हैं
और सांझ टूट
जाते हैं। और
हमारे घुनघुने
जिंदगीभर
चलते हैं, ज्यादा
मजबूत होते
हैं। इससे कोई
भेद नहीं पड़ता
है। लेकिन
खेलते हम घुनघुनों
से रहते हैं।
अधिक लोग मरते
वक्त वहीं
होते हैं, जहां
पैदा होते
वक्त खटोले
में थे। कब्र
और खटोले में
कोई विकास
नहीं होता।
लाओत्से
की बात मजाक
की तो है, लेकिन
अर्थपूर्ण
है। वह यही
कहने को यह
कहानी गढ़ी
गई है कि अधिक
लोग कब्र में
जाते वक्त घुनघुने
हाथ में रखते
हैं और मुंह
में उनके दूध
की चूसनी
होती है।
इसलिए उलटी
बात लाओत्से
के लिए कही गई
कि वह जन्म से
ही बूढ़ा पैदा
हुआ। और जब
लोग लाओत्से
से पूछते कि
तुम्हारे
जन्म से बूढ़े
होने का क्या
मतलब है? तो
लाओत्से कहता
कि जन्म से ही
मुझे, जो
दिखाई पड़ता है,
उसमें कोई
रस नहीं है; जो नहीं
दिखाई पड़ता, उसी में
मेरा रस है।
तो
कृष्ण कहते
हैं,
मैं छिपा
हूं।
धर्म
जो है, वह
साइंस आफ दि हिडेन, छिपे
हुए का
विज्ञान है।
विज्ञान जो है,
वह प्रकट
जगत की खोज
है।
लेकिन
जो भी प्रकट
है,
वह ऊपर है, सतह पर है; और जो
अप्रकट है, वह गहरा है। खजाने तो
छिपाकर ही रखे
जाते हैं। आप
भी अपनी तिजोड़ी
कहां रखते हैं?
द्वार पर
नहीं रखते
हैं। न ही सड़क
पर रख देते हैं।
न घर की दीवाल
पर रखते हैं।
न घर की फेंसिंग
के पास रखते
हैं। तिजोड़ी
आप वहीं रखते
हैं, जो घर
का अंतरतम
स्थान है।
जीवन
की भी सारी
संपदा अंतरतम
स्थानों में
छुपी होती है।
जितनी बड़ी चीज
खोदनी हो, उतने
गहरे उतरना
पड़ता है।
अगर
परमात्मा को
खोजना हो, तो
बहुत गहरे
उतरना पड़ेगा।
और गहरे उतरने
का एक ही अर्थ
है कि
इंद्रियां जब
तक हमें पकड़े
हैं, तब तक
हम गहरे नहीं
जा सकते।
इंद्रियों
की पकड़ की
हालत वैसी है, जैसे
कोई आदमी किसी
नदी के किनारे
को पकड़े
हो और कहता हो,
मुझे नदी की
गहराई की खोज
करनी है। और
किनारे को जोर
से पकड़े
हो, और
कहता हो कि
कहीं मैं डूब
न जाऊं, इसलिए
किनारा नहीं
छोडूंगा।
यद्यपि मुझे
उन हीरों की
खोज करनी है, जो मैंने
सुने हैं कि
नदी के अंतर्गर्भ
में हैं, नदी
की गहराई में
पड़े हैं। मुझे
वे हीरे खोजने
हैं, लेकिन
किनारा मैं न
छोडूंगा।
क्योंकि
किनारा छोड़
दूं, तो
कहीं मैं डूब
न जाऊं! लेकिन
किनारा छोड़ना
ही पड़ेगा।
कबीर
ने मजाक की है
हम सबके बाबत।
और कहा है, मैं
बौरी खोजन
गई, रही
किनारे बैठ।
गई तो खोजने, गई खोजने
हीरों को, लेकिन
पागल ऐसी कि
किनारे पर बैठ
रही।
कोई
पूछ सकता है
कि कबीर ने
स्त्रीलिंग
शब्द का क्यों
प्रयोग किया? मैं
बौरी खोजन
गई, रही
किनारे बैठ।
क्यों न कहा
कि मैं बौरा खोजन गया, रहा किनारे
बैठ! कोई अड़चन
न थी। मैं
पागल खोजने
गया और किनारे
बैठ गया। कहते
हैं, मैं
पागल खोजने गई
और किनारे बैठ
रही।
कबीर
जानते हैं कि
परमात्मा के
सिवाय पुरुष कोई
भी नहीं है।
क्योंकि
पुरुष का
ठीक-ठीक अर्थ
यही है गहरे
में कि जो
मालिक है। तो
मालिक तो कभी
खोजने नहीं
जाता; भिखारी
खोजने जाते
हैं। अगर
मालिक ही होते,
तो खोजने
क्यों जाते? मालिक नहीं
हैं, इसलिए
खोजने गए।
इसलिए
कबीर
स्त्रीलिंग
शब्द का
प्रयोग करते हैं।
वे कहते हैं, मैं
बौरी खोजन
गई। मालिक तो
एक ही है, वह
परमात्मा। पर
पागल की तरह
किनारे पर बैठ
रही।
किनारे
पर जो बैठ रहेगा, वह
पागल ही है।
क्योंकि
किनारे पर
बैठे आदमी को
हाथ में क्या
लग सकता है
ज्यादा से
ज्यादा! हां, कभी-कभी नदी
की छाती पर
सफेद झाग
हीरों का धोखा
देती है।
समुद्र के तट
पर टकराकर
पत्थरों से, पानी झाग
बना लेता है।
सूरज की
किरणें कभी
झाग से गुजरती
हैं, तो
रंग-बिरंगा हो
जाता है। दूर
से कभी बहुत
प्यारा भी
लगता है। पास
जाकर
हाथ-मुट्ठी
में लो, तो
सिवाय पानी के
कुछ भी हाथ
नहीं आता।
नदी के
तट पर तो झाग
ही हाथ लग
सकती है, फोम।
हां, हीरों
का धोखा हो
सकता है। नदी
में गहरे
उतरें, तो
ही हीरे हाथ
लग सकते हैं।
तो
कृष्ण कहते
हैं,
इंद्रियों
के पार जो है, वह मैं हूं।
और इंद्रियों
से जो पकड़ में
आता है, वह
जगत है, जो
मैंने तुझसे
कहा आठ प्रकार
का।
एक और
बात कृष्ण
अर्जुन से कह
रहे हैं। यह
बात बहुत
सोचने जैसी
है। इसलिए भी
सोचने जैसी है
कि भारतीय
प्रज्ञा ने ही
इस बात की जगत
में उदघोषणा
की है। कहते
हैं,
मैंने ही
बनाई है यह
प्रकृति।
मैंने ही रचा
है यह सब। यह
मुझसे ही स्रष्ट
हुआ, और
मुझमें ही
प्रलय को
उपलब्ध हो
जाएगा।
परमात्मा
की स्रष्टा की
तरह धारणा तो
जगत में सब
जगह पैदा हुई, दि
क्रिएटर। बट
दि डिस्ट्रायर,
विनाश करने
वाले की तरह
की धारणा भारत
की अपनी अनूठी
खोज है।
सारी
दुनिया में
परमात्मा को
कहा जाता है, स्रष्टा,
बनाने
वाला। लेकिन
इतने
हिम्मतवर
धार्मिक लोग
पृथ्वी पर
कहीं न हुए कि
बनाने वाले के
भीतर जो छिपा
हुआ तर्क है, उसकी
आत्यंतिक बात
को भी स्वीकार
कर लेते; क्योंकि
जो बनाएगा, वही मिटाएगा
भी। जो
स्रष्टा होगा,
वही विनाश
भी कर सकेगा।
और जिससे जगत
पैदा होगा, उसी में लीन
भी होगा। और
जो जन्मदाता
है, वही मृत्युदाता
भी होगा।
दूसरी
बात
अप्रीतिकर है, इसलिए
दुनिया में
कहीं भी खयाल
में नहीं आई।
पहली बात बड़ी
प्रीतिकर है
कि हे, तू
पिता है, तू
गोद है। लेकिन
तू कब्र भी है,
इसे कहने की
हिम्मत! तूने
जन्म दिया, तूने बनाया,
तू दयालु
है। लेकिन तू मिटाएगा
भी, तू तोड़कर
खंड-खंड करके
विनष्ट भी कर
देगा! और फिर
भी कहने की
हिम्मत की कि
तू दयालु है, बड़ी मुश्किल
है। बनाने
वाला दयालु है,
लेकिन
मिटाने वाला?
मिटाने
वाले से हमें
डर लगता है।
जन्म दिया
तूने, बड़ी
कृपा की।
लेकिन मृत्यु!
तो
सारी दुनिया
में मृत्यु के
लिए लोगों ने
दूसरा तत्व
खोजा-- डेविल, शैतान,
इबलीस, अलग-अलग
नाम दिए।
परमात्मा से
विपरीत एक और
शक्ति की
कल्पना की, जो मिटाएगी।
यह सिर्फ इस
देश में एक
ठीक, संगत
विचार की
व्यवस्था हुई,
और वह यह कि
जो बनाएगा, वही मिटाएगा।
लेकिन
हमारी धारणा
यह है कि
बनाना भी उसकी
कृपा है और
मिटाना भी
उसकी कृपा है।
और जो बनाने में
ही कृपा देखता
है,
वह धार्मिक
नहीं है। जो
मिटाने में भी
कृपा देख पाता
है, वही
धार्मिक है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं कि सृजन
भी मेरा, विनाश
भी मेरा; निर्मित
भी हुआ सब
मुझसे और
प्रलय को भी
उपलब्ध होगा
मुझमें। सब
मुझमें ही आता
है और मुझमें
ही खो जाता
है।
इसमें
बड़ा
वैज्ञानिक
दृष्टिकोण
है। जीवन की सारी
गति
वर्तुलाकार
है। और चीजें
जहां से शुरू
होती हैं, वहीं
समाप्त होती
हैं। जैसे कि
एक हम वर्तुल बनाएं, एक
सर्किल बनाएं,
तो जहां से
हम बनाना शुरू
करें, वहीं
फिर दूसरी
रेखा आकर
जोड़ें, तब
वर्तुल पूरा
बने।
सारा
जीवन
वर्तुलाकार
है। बचपन में
जहां से हम
यात्रा करते
हैं,
जवानी के
बाद उसी
दुनिया में
वापस सीढ़ियां
उतरते हैं। और
जन्म जिस
बिंदु पर घटित
होता है, उसी
बिंदु पर
मृत्यु भी
घटित होती है।
वर्तुल पूरा
हो गया। और
मृत्यु जन्म
से विपरीत
नहीं है, बल्कि
जन्म के साथ
ही जुड़ा हुआ
दूसरा कदम है।
और विनाश, सिर्फ
विश्राम है।
इसे समझ लेना
जरूरी है।
इस
मुल्क में ही
विनाश को
विश्राम
समझने की
सामर्थ्य
पैदा हुई। विनाश
विश्राम है।
सृष्टि तो
श्रम है, और
प्रलय? प्रलय
विश्राम है।
इसलिए सृष्टि
को हमने कहा, ब्रह्मा का
दिन। और प्रलय
को हमने कहा, ब्रह्मा की
रात्रि। श्रम
हो गया। सुबह
हम उठे। दौड़े,
जीए, हारे,
जीते, अज्ञानी-ज्ञानी
बने, समझ-नासमझ
झेली। और फिर
सांझ आई। और
अंधेरा उतरा।
और सो गए। और
फिर वापस वहीं
खो गए, जहां
से सुबह उठे
थे।
दिन है
श्रम, रात्रि
है विश्राम।
जीवन है श्रम,
मृत्यु है
विश्राम।
सृजन है श्रम,
विनाश है
विश्राम।
विनाश को हमने
कभी शत्रु की
तरह नहीं देखा,
मृत्यु को
हमने कभी
शत्रु की तरह
नहीं देखा।
और
ध्यान रहे, जिसने
भी मृत्यु को
शत्रु की तरह
देखा, उसका
जीवन नष्ट हो
जाएगा। यह बड़ी
उलटी दिखाई पड़ेगी
बात। पर ऐसा
ही है।
जिसने
भी मृत्यु को
शत्रु की तरह
देखा, वह जी न
पाएगा; वह जिंदगीभर
मृत्यु से
डरेगा और
बचेगा। जीना
असंभव है। लेकिन
जिसने मृत्यु
को भी मित्र
माना, वही
जी पाएगा।
क्योंकि जिसे
मृत्यु भी दुख
नहीं दे पाती,
उसे जीवन
कैसे दुख
देगा! और जिसे
मृत्यु भी मित्र
है, उसे
जीवन तो महामित्र
हो जाएगा। और
जिसे जीवन से
विपरीत नहीं
दिखाई पड़ती
मृत्यु, बल्कि
जीवन की ही
पूर्णता
दिखाई पड़ती
है--जैसे कि
वृक्षों पर फल
पक जाते हैं, ऐसे ही जीवन
पर मृत्यु
पकती है--जिसे
मृत्यु जीवन
की ही
परिपूर्णता
दिखाई पड़ती है
और प्रलय भी
सृजन का अंतिम
चरण मालूम
होता है, उसका
जीवन आह्लाद
से भर जाए, तो
कोई आश्चर्य
नहीं है। और
आह्लाद से न
भरे जीवन, तो
धर्म का हमें
कोई भी पता
नहीं है।
इसलिए
कृष्ण जब कहते
हैं,
मैं ही हूं
सृजन और मैं
ही विनाश। इस
तरह की हिम्मत
की घोषणा कहीं
भी नहीं की गई
है। अगर कहीं घोषणाएं
भी की गई हैं, तो कहा गया
है कि मैं हूं
स्रष्टा, और
वह जो शैतान
है, वह है
दुष्ट। वह कर
रहा है विनाश।
तू उससे सावधान
रहना।
लेकिन
अमृत भी मैं
और जहर भी मैं; इन
दोनों की एक
साथ स्वीकृति
बड़ी अदभुत है।
और सचाई है
उसमें।
क्योंकि जीवन
के समस्त
द्वंद्व
संयुक्त होते
हैं, अलग-अलग
नहीं होते।
अंधेरा और
प्रकाश
संयुक्त हैं।
और अगर कोई
परमात्मा
कहता हो, प्रकाश
हूं मैं और
अंधेरा कोई और,
तो वह
परमात्मा भी
बेईमान है।
अंधेरा कौन
होगा और? और
अगर परमात्मा
प्रकाश है और
अंधेरा कोई और,
तो इस जगत
में
शक्ति-विभाजन
हो जाएगा। रात
किसी और की, और दिन किसी
और का।
सुना
है मैंने कि
एक आदमी मर
रहा है, एक
ईसाई मर रहा
है। पादरी उसे
आखिरी
पश्चात्ताप करवाने
और प्रार्थना
करवाने आया
है। पादरी उससे
कहता है, बोल
कि शैतान, अब
मुझे तुझसे
कोई वास्ता
नहीं; अब
मैं परमात्मा
की शरण जाता
हूं। हे दुष्ट
शैतान, अब
तुझसे मेरा
कोई संबंध
नहीं; अब
मैं प्रभु की
शरण जाता हूं।
लेकिन
वह आदमी सुनता
है और आंख बंद
कर लेता है और
कुछ बोलता
नहीं। पादरी
और जोर से
कहता है कि शायद
मृत्यु
ज्यादा निकट
है और उसे
सुनाई नहीं पड़
रहा है। वह
फिर भी सुन
लेता है, फिर
आंख बंद कर
लेता है।
पादरी और जोर
से कहता है
उसे हिलाकर।
वह कहता है, हिलाओ मत।
मैं अच्छी तरह
सुन रहा हूं।
तो पादरी
पूछता है कि
तू बोलता
क्यों नहीं!
वह
कहने लगा कि
मरते वक्त
किसी को भी
नाराज करना
ठीक नहीं। पता
नहीं, किसकी
शरण जाऊं!
आखिरी वक्त
में किसी की
झंझट में मैं
नहीं पड़ना
चाहता। पता
नहीं, सच
में किसकी शरण
जाऊं! इसलिए
मुझे चुपचाप
मर जाने दो।
जिसकी शरण
पहुंच जाऊंगा,
उससे ही कह
दूंगा। अगर
शैतान के पास
पहुंच गया, तो कह दूंगा
कि हे ईश्वर, तुझसे मेरा
कोई वास्ता
नहीं।
क्योंकि
जिसके साथ
रहना है, उसी
के साथ दोस्ती
बतानी उचित
है। और अभी
मुझे कुछ पता
नहीं।
डिवाइडेड, अगर
हम जगत को दो सत्ताओं
में तोड़ दें, तो हमारी
निष्ठा भी
विभाजित होती
है। और
विभाजित
निष्ठा कभी भी
निष्ठा नहीं
है। अविभाजित
निष्ठा ही
निष्ठा है, अनडिवाइडेड।
अगर
पश्चिम में
धर्म इस बुरी
तरह नष्ट हुआ, तो
उसके नष्ट
होने का अकेला
कारण नास्तिक
नहीं है; उसका
बहुत गहरा
कारण पश्चिम
में धर्म का
विभाजित
निष्ठा का
नियम है।
दो के
प्रति निष्ठा
खतरनाक है; दो
नावों पर
यात्रा है।
जीवन की कोई
यात्रा दो
नावों पर नहीं
हो सकती। और
जीवन के सभी
द्वंद्व
संयुक्त हैं।
यहां जीवन और
मृत्यु एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। और
अंधेरा और
प्रकाश भी एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
यहां, जिसे
हम विरोध कहते
हैं, वह
विरोध भी
विरोध नहीं है,
केवल दूसरा
अंग है।
इसलिए
कृष्ण बड़ी
सरलता से कह
पाते हैं कि
मैं ही हूं
सृजन, मैं ही
प्रलय। सब
मुझसे ही पैदा
होता और मुझमें
ही लीन हो
जाता है।
यहां
हमने
परमात्मा को
अविभाजित, अनडिवाइडेड जाना है। और
ध्यान रहे, अगर हम
परमात्मा को
अविभाजित न जानें,
तो हमारे
भीतर
अविभाजित
श्रद्धा होने
की कोई संभावना
नहीं है। और
हमने एक बार
जगत को दो हिस्सों
में तोड़ा कि
हमारे भीतर का
हृदय भी दो हिस्सों
में टूट
जाएगा।
इसलिए
पश्चिम में आज
जो
मनोवैज्ञानिकों
के सामने सबसे
बड़ी बीमारी है, वह
है, स्प्लिट पर्सनैलिटी,
व्यक्तित्व
का टूटा हुआ
होना, विखंडित
होना। लेकिन
पश्चिम के
मनोवैज्ञानिक
को भी कोई
खयाल नहीं है
कि मनुष्य का
मन दो में
क्यों टूट
गया। और यह
पश्चिम में ही
विखंडित, स्प्लिट पर्सनैलिटी
क्यों पैदा
हुई? उसका
कारण उसके
खयाल में नहीं
है।
उसका
कारण है कि
निष्ठा जब दो
में टूट जाए, और
निष्ठा जब
विभाजित हो, तो भीतर
हृदय भी दो
में टूट जाता
है और विभाजित
हो जाता है।
जब निष्ठा एक
में हो और
अविभाज्य हो,
तो
निष्ठावान
हृदय भी
अविभाजित हो
जाता है और एक
हो जाता है।
एक परमात्मा,
तो भीतर एक
आत्मा का जन्म
होता है। और
अगर दो शक्तियां
हमने स्वीकार
कीं, तो
भीतर भी चित्त
डांवाडोल, और
दो में टूट
जाता है। और
आज तो हालत
ऐसी है कि स्वीकृत
हो गया है
पश्चिम में कि
हर आदमी खंड-खंड
होगा।
एक
आदमी तो एक
मनोवैज्ञानिक
के पास गया और
उसने कहा कि
कोई तरकीब करो
कि मेरी
पर्सनैलिटी
को स्प्लिट
कर दो, मेरे
व्यक्तित्व
को दो हिस्सों
में तोड़ दो। मनोवैज्ञानिक
हैरान हुआ।
उसने कहा, तुम
पागल तो नहीं
हो? क्योंकि
हमारे पास तो
जो लोग आते
हैं, वे
इसलिए आते हैं
कि हम उनके
व्यक्तित्व
को इकट्ठा
कैसे कर दें!
तुम्हारा
दिमाग ठीक तो
है न! तुम यह
क्या कह रहे
हो कि तुम्हारे
व्यक्तित्व
को दो हिस्सों
में तोड़ दें! तुम्हारा
प्रयोजन क्या
है?
उस
आदमी ने कहा, मैं
बहुत अकेलापन
अनुभव करता
हूं। दो हो जाऊंगा,
तो कम से कम
कोई साथ तो
होगा! आई फील
टू मच लोनली,
बहुत अकेला
लगता हूं। तो
मुझे दो
हिस्सों में तोड़
दो। तो कम से
कम मेरा एक
हिस्सा तो
मेरे साथ हो
सकेगा!
पश्चिम
में दोनों
घटनाएं घटी
हैं। आदमी
बिलकुल अकेला
है,
और टूट गया
है। और इस
टूटने की जड़
उस विचार में है,
जिसमें
हमने जगत को
ही दो हिस्सों
में तोड़ दिया।
कृष्ण
कहते हैं, दोनों
ही मैं हूं।
बुरा भी मैं
हूं, भला
भी मैं हूं।
अपने
को भला कहने
की बात तो बड़ी
आसान है। अपने
को महात्मा कहने
की बात तो बड़ी
आसान है।
लेकिन अपने को
दुरात्मा
कहने की
हिम्मत बड़ी
है।
कृष्ण
कहते हैं, दोनों
ही मैं हूं।
वह जो तुम्हें
अच्छा लगता है,
वह भी मैं
हूं। वह जो
तुम्हें बुरा
लगता है, वह
भी मैं हूं।
दोनों ही मैं
हूं।
जिसको
यह समग्र
स्वीकृति, यह
टोटल
एक्सेप्टेबिलिटी
समझ में आ जाए,
वही कृष्ण
के तत्व-दर्शन
को ठीक से समझ
पाएगा।
इसलिए
कृष्ण के साथ
बहुत अन्याय
भी हुआ है। क्योंकि
कृष्ण का
व्यक्तित्व
समाहित, समग्र
को इकट्ठा लिए
हुए है। तो
किसी को शक होता
है कि कृष्ण
दोनों काम
कैसे कर पाते
हैं!
इनकंसिस्टेंट
मालूम पड़ते हैं,
असंगत
मालूम पड़ते
हैं। एक तरफ
परमात्मा की
बात करते हैं,
दूसरी तरफ
युद्ध में
उतार देते
हैं। परमात्मवादी
को तो पैसिफिस्ट
होना चाहिए, उसको तो
शांतिवादी
होना चाहिए।
अशांति तो दुष्टों
का काम है, युद्ध
तो दुष्टों का
काम है!
कृष्ण
कैसे आदमी
हैं! एक तरफ
परमात्मा की
बात,
और दूसरी
तरफ अर्जुन को
युद्ध में
जाने की प्रेरणा।
ये दुनिया के
जितने
शांतिवादी
हैं, उनको
बड़ी बेचैनी
होगी। वे तो
कहेंगे, कृष्ण
जो हैं, ठीक
आदमी नहीं
हैं। कृष्ण को
तो मौका चूकना
नहीं था।
अर्जुन भाग
रहा था, शांतिवादी
बन रहा था।
फौरन रास्ता
बनाना था कि
भाग जा।
आगे-आगे दौड़ना
था। लोगों से
कहना था, हटो!
अर्जुन को
निकल जाने दो,
यह
शांतिवादी हो
गया है।
कृष्ण
बेबूझ हैं।
क्योंकि
कृष्ण कहते
हैं,
दोनों ही
मैं हूं, युद्ध
भी मैं और
शांति भी मैं।
दोनों ही मैं
हूं, अंधेरा
भी मैं, प्रकाश
भी मैं। और जब
दोनों की तरह
तू मुझे देख
पाएगा, तभी
तू मुझे देख
पाएगा। अगर तू
बांटकर
देखेगा, आधे
को देखेगा, चुनकर
देखेगा, तो
तू मुझे कभी
नहीं देख
पाएगा।
परमात्मा
में चुनाव
नहीं किया जा
सकता। यू कैन
नाट चूज।
और अगर आपने
चुनाव किया, तो
वह परमात्मा
आपके घर का होममेड
परमात्मा
होगा, घर
का बनाया हुआ।
वह परमात्मा
असली नहीं
होगा।
परमात्मा
तो जैसा है, उसके
लिए वैसे ही
होने के लिए
राजी होना
पड़ेगा। अगर वह
प्रलय है तो
सही। अगर वह
मृत्यु है तो सही।
राजी हैं। अगर
आपने कहा कि
नहीं, हम
तो जरा
परमात्मा के
चेहरे पर
रंग-रोगन करेंगे।
हम तो जरा
शक्ल को सुंदर
बनाएंगे।
मेकअप में
हर्ज भी क्या
है? हम
थोड़ा इसकी
शक्ल को ठीक
कर लें। अगर
आपने ऐसा किया,
तो जो आपके
हाथ में लगेगा,
वह आपके हाथ
का बनाया हुआ
परमात्मा
होगा। उससे
परमात्मा का
कोई भी संबंध नहीं
है।
धार्मिक
आदमी
दुस्साहसी
है। दुस्साहस
उसका यह है कि
जैसा है, ऐज इट इज़, वह उसे
स्वीकार करता
है। वह कहता
है, यह भी
तेरा और यह भी
तेरा। जन्म भी
तेरा और मृत्यु
भी तेरी।
दोनों के लिए
मैं राजी हूं।
इसलिए
कृष्ण अर्जुन
को कहते हैं, प्रलय
भी मैं, सृजन
भी मैं। दोनों
ही मैं हूं।
विरोधों
को आत्मसात
करने की यह
घोषणा वेदांत का
सार है।
अविरोध पैदा
होता है फिर।
और जब जीवन की
दृष्टि
अविरोध की
होती है, तो
आपके भीतर
अविरोधी हृदय
का जन्म होता
है। जो आपके
परमात्मा का
रूप होगा, वही
आपके हृदय का
रूप बन जाएगा।
आपका हृदय ढलता
है उसी रूप
में, जिस
रूप में आप
परमात्मा को
स्वीकार करते
हैं। तोड़कर
नहीं, जोड़कर,
इकट्ठा, सबको
लिए हुए।
और जब
सुबह आपके पैर
में कांटा गड़े, तो
यह मत सोचना
कि शैतान ने गड़ाया। तब
उसको भी सोचना
कि परमात्मा
ने गड़ाया;
और
परमात्मा ने
आपको इस योग्य
समझा कि कांटा
गड़ाया, उसके लिए भी
धन्यवाद दे
देना।
और जिस
दिन फूल के
लिए ही नहीं, कांटे
के लिए भी
परमात्मा को
कोई धन्यवाद
दे पाता है, उस दिन उसे
मंदिरों में
जाने की जरूरत
नहीं रह जाती।
वह जहां है, वहीं मंदिर
आ जाता है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, एक
छोटा-सा
प्रश्न है।
यदि सत्य
अद्वैत है, तो अपरा और
परा को भिन्न
कहने का क्या
अर्थ है? और
क्या अपरा और
परा आपस में
परिवर्तनशील
हैं?
सत्य
एक है, लेकिन
जिन्हें पूरा
सत्य दिखाई
पड़ता है उन्हें।
जिन्हें नहीं
दिखाई पड़ता, उनके लिए एक
नहीं है।
उन्हें जो
दिखाई पड़ता है,
अंधों को जो
दिखाई पड़ता है,
उसका नाम, अपरा। हम जो
नहीं जानते, हमें जो
दिखाई पड़ता है,
आधा-आधा।
वृक्ष और जड़
तो एक हैं। आप
कहीं वह रेखा
न खींच पाएंगे,
जहां आप
कहें कि यहां
से जड़ शुरू
होती है, और
यहां से वृक्ष
शुरू होता है।
कोई डिसकंटिन्यूटी
नहीं है।
दोनों के बीच
सातत्य कहीं
भी नहीं
टूटता। कहां
जड़ें समाप्त
होती हैं और
कहां वृक्ष
शुरू होता है?
अगर
कोई जोर से
आपको पकड़ ले, तो
आप मुश्किल
में पड़
जाएंगे। ऐसे
आप जानते हैं
कि जड़ें अलग
और वृक्ष अलग।
वृक्ष ऊपर और
जड़ें भीतर।
लेकिन अगर कोई
जिद्द
करे और कहे कि
ठीक-ठीक बताइए,
कहां से
होती है जड़
शुरू? और
कहां से होता
है वृक्ष शुरू?
तो आप बहुत
मुश्किल में
पड़ जाएंगे।
ऐसी कोई जगह
आप न खोज
पाएंगे।
वृक्ष और जड़
एक है।
लेकिन
जिस आदमी ने
सिर्फ वृक्ष
देखा और जड़ें
नहीं देखीं, उससे
कहना पड़ेगा कि
यह जो तुझे
दिखाई पड़ रहा
है, यह
ऊपर-ऊपर है।
एक और भी है जो
नीचे है, जो
सबको सम्हाले
हुए है, वह
जड़ है।
न
दिखाई पड़ने
वाले आदमी से
कहना पड़ता है
कि जो तुझे
दिखाई पड़ रहा
है,
वह अपरा है,
वह नीचे का
जगत है, स्थूल
जगत है, इंद्रियों
का जगत है। और
एक जगत है परा
का, जो
तुझे दिखाई
नहीं पड़ रहा
है। हम तुझे
उस तरफ ले
चलते हैं। लेकिन
जिस दिन दिखाई
पड़ेगा, उस
दिन दोनों जगत
एक हो जाएंगे।
उस दिन दोनों के
बीच एक
सातत्य।
फिर जो
फर्क है, वह
ऐसा ही है
जैसे वृक्ष के
ऊपर होने का
और जड़ों के
नीचे होने का
है। फिर भी
फर्क तो है।
फर्क तो है।
अगर जड़ें उखाड़कर
फेंक दें, तो
वृक्ष न
बचेगा। वृक्ष उखाड़कर
फेंक दें, तो
जड़ें बचेंगी,
और जड़ों से
फिर वृक्ष
पैदा हो
जाएगा।
फर्क
नहीं है
सातत्य में, लेकिन
फर्क मूल
शक्ति में है।
जड़ें ज्यादा
शक्तिशाली
हैं; उनके
पास जीवन की
केंद्रीय
ऊर्जा है।
वृक्ष केवल
फैलाव है। अगर
ठीक से समझें,
तो जड़ें
एसेंशियल हैं,
और वृक्ष
नान-एसेंशियल
है। क्योंकि
जड़ों का होना
वृक्ष के बिना
भी हो सकता है,
लेकिन
वृक्ष का होना
जड़ों के बिना
नहीं हो सकता।
फिर भी दोनों
एक हैं। वह जो
आखिरी पत्ता
है वृक्ष का, वह भी जड़ का
ही फैला हुआ
हाथ है। वह भी
जड़ ही है फैल
गई आकाश तक।
नहीं
जानते हैं जो, अज्ञान
में हैं जो, जिन्हें
परमात्मा की
समग्रता का
कोई भी पता नहीं,
कृष्ण उनके
लिए विभाजन कर
रहे हैं। सब
विभाजन बच्चों
के लिए किए
जाते हैं।
सत्य तो
अविभाज्य है।
लेकिन
अविभाज्य
सत्य की कोई
शिक्षा नहीं
दी जा सकती।
शिक्षा देने
के लिए विभाजन
करना पड़ता है।
कहीं से तो
शुरू करना
पड़ेगा, वन हैज टु बिगिन
समव्हेअर।
और जहां से भी
शुरू करेगा, वहीं से
विभाजन करना
पड़ेगा।
कहां
से शुरू करें? तो
ऊपर से ही
शुरू करना
उचित है, क्योंकि
अर्जुन को पता
है ऊपर का। वह
समझेगा कि
पृथ्वी क्या
है, वह
समझेगा कि जल
क्या है, वह
समझेगा कि
अग्नि क्या
है। फिर
धीरे-धीरे
उसकी समझ बढ़ेगी।
जैसे-जैसे समझ
बढ़ेगी, भीतर की बात
कृष्ण उससे
कहेंगे।
कहेंगे, बुद्धि
क्या है, विचार
क्या है, मन
क्या है।
कहेंगे, अहंकार
क्या है। और
जब उसे अहंकार
की सूझ खयाल
में आ जाएगी, तब कहेंगे, इसके पार, बियांड दिस, परा
का लोक है।
इसके पार मैं
हूं, इसके
पार भागवत
चैतन्य है।
लेकिन
उस मैं तक
लाने के लिए
यह
मिट्टी-पदार्थ
से लेकर, पृथ्वी
से लेकर आठ
तत्वों की
यात्रा कृष्ण
को करवानी
पड़ेगी। और
भलीभांति
जानते हुए कि
सब जुड़ा है, सब इकट्ठा
है।
सब
इकट्ठा है।
कहीं कुछ टूट
नहीं गया है।
सब संयुक्त
है। निम्नतम, बाह्यतम वस्तु भी
अंतरतम से
जुड़ी है।
निम्नतम
श्रेष्ठतम का
ही नीचे का
फैलाव है। सब
संयुक्त है। अस्तित्व
संयुक्त है।
लेकिन
जिन्हें कुछ
भी पता नहीं
है, उनसे
करनी है बात।
और जिन्हें
पता है, उनसे
बात करने का
कोई अर्थ नहीं
है।
तो एक
बात ध्यान में
रख लेंगे और
वह यह कि दो
ज्ञानी अगर
मिलें, तो
बातचीत का कोई
उपाय नहीं है।
दो अज्ञानी मिलें,
तो बातचीत
बहुत होगी, हो बिलकुल न
पाएगी। दो
ज्ञानी मिलें,
बातचीत
बिलकुल न होगी,
फिर भी हो
जाएगी। दो
अज्ञानी
मिलें, बातचीत
बहुत चलेगी, भारी चलेगी,
हो न पाएगी
बिलकुल। फिर
बातचीत कहां
हो पाती है?
एक
ज्ञानी और एक
अज्ञानी के
बीच बातचीत हो
पाती है।
लेकिन समझौते
करने पड़ते हैं, कंप्रोमाइज करनी पड?ती
है। ज्ञानी को
ही करनी पड़ती
है, क्योंकि
अज्ञानी तो
क्या करेगा, अज्ञानी
कैसे करेगा? ज्ञानी को
ही करनी पड़ती
है। उसे ही
अज्ञानी की
भाषा में बोलना
शुरू करना
पड़ता है। इस
आशा में कि
धीरे-धीरे, क्रमशः, एक-एक
कदम वह राजी
कर लेगा, और
उस जगत तक ले
जाएगा, जहां
शब्द के बिना
कहने की
संभावना है।
उस परा तक
इशारा कर
पाएगा।
इसलिए
सारी चर्चा, जब
भी होती
है--चाहे
कृष्ण और
अर्जुन के बीच,
और चाहे
बुद्ध और आनंद
के बीच, और
चाहे महावीर
और गौतम के
बीच, और
चाहे जीसस और ल्यूक के
बीच--सारी
चर्चा एक
ज्ञानी और एक
अज्ञानी के
बीच है।
और
ध्यान रहे, अज्ञानी
बिलकुल
समझौता नहीं
करता। कोई
उपाय भी नहीं
है। वह समझौता
करेगा किस बात
के लिए! अज्ञानी
तो डटकर अपने
अज्ञान में
खड़ा रहता है।
वह तो कहता है,
यही ठीक है।
समझौता करना
पड़ता है
ज्ञानी को। वह
नीचे उतरता है;
अज्ञानी की
जगह आता है।
उसका हाथ पकड़ता
है। यात्रा पर
निकलता है।
हाथ पकड़ता
है, तो
अज्ञानी की
भाषा का उसे
उपयोग करना
पड़ता है।
सब
विभाजन
अज्ञानी की
भाषा है।
ज्ञानी की भाषा
में तो कोई
विभाजन नहीं
है,
अद्वय है, एक है।
लेकिन उस एक
को कहने का
कोई उपाय नहीं;
मौन रह जाना
ही काफी है।
अगर
कृष्ण ज्ञानी
की भाषा का
उपयोग करते, तो
चुप रह जाते।
फिर गीता पैदा
नहीं होती। तो
अर्जुन की
बुद्धि से चल
रहे हैं।
इसलिए बहुत स्थूल
से शुरू किया,
पृथ्वी; स्थूलतम। फिर
सूक्ष्म के
पास आए, अहंकार।
और
अर्जुन का
अहंकार भारी
रहा होगा।
क्षत्रिय था।
क्षत्रिय तो
जीता ही
अहंकार पर है।
उसकी तो सारी
चमक और रौनक
अहंकार की है।
उसकी तो सारी
धार अहंकार की
है। अगर एकदम
से कह देते कि
अहंकार, तो
शायद वह नाराज
ही होता, समझ
न पाता। एकदम
से कह देते कि
यह अहंकार सब
प्रकृति है; कुछ भी नहीं,
सब बेकार
है। तो अर्जुन
और कृष्ण के
बीच संवाद की
संभावना
टूटती, और
कुछ न होता।
क्रमशः!
और
अहंकार तलाश
में रहता है
इस बात की कि
मुझे चोट
पहुंचा दो।
खोज में रहता
है। बहुत
सेंसिटिव है।
छुई-मुई। जरा-सा
इशारा लगा दो, जरा-सा,
जरा तिरछी
आंख से देख दो,
तो वह
दिक्कत में पड़
जाता है। और
दिक्कत में इसलिए
पड़ जाता है कि
उसके पास
वस्तुतः कोई
आधार तो हैं
नहीं, हवाई
किला है। ताश
का घर है।
जरा-सी फूंक, और सब गिर
जाएगा।
सुना
है मैंने, एक
फकीर ठहरा था
एक महानगरी के
बाहर। अमावस
की रात।
महानगरी में
विद्युत के
दीए पूरे नगर
में जल रहे थे,
जैसे
दीवाली हो।
फकीर लेटा था
अंधेरे में एक
वृक्ष के तले।
एक जुगनू उड़ती
हुई आकर फकीर
के पास बैठ
गई। बैठकर
उसने पंख बंद
कर लिए। उसकी
चमकती हुई
रोशनी बंद हो
गई। तभी अचानक
बिजली के
कारखाने में
कुछ गड़बड़ हुई
होगी, और
सारे नगर की
बिजली चली गई।
उस
जुगनू ने फकीर
से कहा, एक्सक्यूज मी फार मेंशनिंग--
कहने के लिए
क्षमा करें।
बट डू यू सी इन
व्हाट शेप दिस
ग्रेट सिटी
विल बी, इफ आई एम गान समव्हेयर एल्स--अगर
मैं कहीं और
चली जाऊं, तो
इस बड़े नगर का
क्या होगा, देखते हैं!
कहने के लिए
क्षमा करें।
क्योंकि जुगनू
ने सोचा कि
चूंकि मैंने
पंख बंद किए
और मेरी चमक
बंद हुई, सारा
नगर अंधकार
में डूब गया!
फकीर
मन ही मन में
हंसा, ऊपर
नहीं, क्योंकि
ऊपर हंसे, तो
जुगनू से फिर
बातचीत नहीं
हो सकती। उसने
कहा कि तेरी
सूचना के लिए
धन्यवाद। मैं
तो सदा से ही
ऐसा जानता था।
तेरी बड़ी कृपा
है कि तू इस
नगर को छोड़कर
नहीं जाती।
नगर की तो बात
दूर, अगर
तू इस विश्व
को छोड़कर चली
जाए, तो
आकाश में जो
तारे टिमटिमा
रहे हैं, ये
भी एकदम बंद
हो जाएं। ये
भी एकदम बंद
हो जाएं और
बुझ जाएं।
जुगनू पास सरक
आई और उसने
कहा, आदमी
तुम काम के
मालूम पड़ते
हो। कुछ और
बातें करें।
कहते
हैं,
सुबह तक
जुगनू फकीर हो
गई। मगर फकीर
को जुगनू होने
से शुरू करना
पड़ा। रातभर
चली बात; सुबह
तक जुगनू फकीर
हो गई।
ऐसा ही
होने वाला है
इस कथा में
भी। यह अर्जुन
बेचारा बचेगा
नहीं। यह कृष्ण
हो जाने वाला
है। लेकिन अभी
लंबी है दूरी।
अभी वह सुबह
है दूर। अभी
तो जुगनू की
भाषा में कृष्ण
को बोलना है।
उसके सिवाय
कोई उपाय नहीं
है।
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि
शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु
शब्दः खे पौरुषं
नृषु।। 8।।
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां
च तेजश्चास्मि
विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु
तपश्चास्मि
तपस्विषु।।
9।।
हे
अर्जुन, जल
में मैं रस
हूं; चंद्रमा
और सूर्य में
प्रकाश हूं; संपूर्ण
वेदों में
ओंकार हूं तथा
आकाश में शब्द
और पुरुषों
में पुरुषत्व
हूं। तथा
पृथ्वी में
पवित्र गंध और
अग्नि में तेज
हूं, और संपूर्ण
भूतों में
उनका जीवन हूं
अर्थात जिससे वे
जीते हैं, वह
मैं हूं, और
तपस्वियों
में तप हूं।
उस
अदृश्य की ओर
इशारा कृष्ण
ने शुरू किया।
दृश्य को
बताया, और
कहा, उस
दृश्य में मैं
कौन हूं।
इशारा किया
दृश्य की तरफ,
और फिर भी
इशारा किया
अदृश्य की
तरफ। कहा, जल
में मैं रस।
जल में
रस! रस को थोड़ा
समझना पड़े।
रस
बहुत अदभुत
शब्द है, और
बहुत सूक्ष्म
और बहुत
अदृश्य।
दिखाई जो पड़ता
है--कोई पेय आप
पीते हैं, अमृत
भी पीएं--तो
जो दिखाई पड़ता
है, जब आप
पीते हैं, तो
जो अनुभव में
आता है, क्या
वह वही है, जो
दिखाई पड़ता था?
जब पीते हैं,
तो जो अनुभव
में आता है, वह तो दिखाई
बिलकुल न पड़ता
था। जो दिखाई
पड़ता था, वह
तो कुछ और
दिखाई पड़ता
था। और जो फिर
अनुभव में आता
है पीने पर, वह कुछ और ही
है। वह जो
अनुभव में आता
है पीने पर, वह है रस। वह
रस आंतरिक
अनुभूति है।
ऐसा ही
नहीं; जहां
भी...। आपका प्रेमी
आपके पास है, आप हाथ में
हाथ लेकर बैठ
गए हैं। हाथ
तो प्रेमी का
हाथ में है, लेकिन भीतर
जो एक स्वाद
उत्पन्न होता
है प्रियजन के
पास होने का, वह रस है। वह
अगर हम
वैज्ञानिक के
पास दोनों के
हाथ
लेबोरेटरी
में पहुंचा
दें और कहें
कि काट-पीटकर
पता लगाओ कि
इनको कैसा रस
उपलब्ध हुआ!
क्योंकि ये
दोनों कह रहे थे
कि जन्म-जन्म
तक हम ऐसे ही
हाथ में हाथ
लिए बैठे रहें,
कि चांदत्तारे
बुझ जाएं और
हमारे हाथ अलग
न हों! ये कुछ
ऐसी बातें
सुनी हैं इनकी
हमने। जरा
कृपा करके इन
दोनों के हाथ
का पता तो
लगाओ खोजबीन
कर कि इसमें रस
कहां है?
खून
मिलेगा बहता
हुआ। पानी
मिलेगा बहता
हुआ। हड्डी, मांस,
मज्जा, सब
मिल जाएगी। रस
नहीं मिलेगा।
रस अदृश्य है।
उन्हें जरूर
मिल रहा था।
उन्हें जरूर
मिल रहा था।
भ्रांत हो, सपना हो, उन्हें
जरूर मिल रहा
था। प्रत्येक
वस्तु के भीतर
जो आंतरिक
अनुभव में
उतरता है स्वाद,
उसका नाम रस
है।
तो
कृष्ण कहते
हैं,
समस्त जलीय
द्रव्यों में,
समस्त पेय
पदार्थों में,
वह जो तुम
पीते हो, वह
मैं नहीं हूं;
वह जो तुम
पीकर अनुभव
करते हो, वह
मैं हूं। रस
हूं मैं।
रस
अदृश्य है।
सभी रस अदृश्य
हैं। फूल है
खिला गुलाब
का। गए आप
उसके पास। कहा, बहुत
सुंदर है।
लेकिन कोई पकड़
ले आपको, मिल
जाए कोई
तार्किक, और
पूछे, कहां
है सौंदर्य? जरा मुझे भी
दिखाओ। तो आप
पड़ेंगे
कठिनाई में। कितना
ही बताएंगे,
नहीं बता
पाएंगे। और
जितना बताएंगे,
उतना ही
पाएंगे कि
बताने में
असमर्थ हैं।
और आप
हारेंगे।
आपकी हार
निश्चित है।
वह तार्किक
जीतेगा। उसकी
जीत निश्चित
है। क्योंकि
उसने दृश्य को
पकड़ा, और
आपने अदृश्य
की घोषणा की
है, जिसको
आप न बता
पाएंगे।
सौंदर्य
बताया नहीं जा
सकता। असल में
फूल में नहीं
है सौंदर्य, फूल
के अनुभव में
आपके भीतर जो
बोध पैदा होता
है, उस रस
में है। इसलिए
फूल को तोड़कर
अगर आप पता
लगाने चलेंगे,
तो हां, केमिकल्स मिलेंगे, रस न
मिलेगा।
रासायनिक मिल
जाएंगी
वस्तुएं, रस
न मिलेगा। रंग
मिल जाएंगे; सब कुछ मिल
जाएगा। फूल की
पूरी एनालिसिस
हो जाएगी, पूरा
विश्लेषण। और
वैज्ञानिक
एक-एक शीशी
में अलग निकालकर
रख देगा कि
यह-यह, लेबल
लगाकर। लेकिन
कोई ऐसी शीशी
न होगी, जिसमें
वह एक लेबल
लगाए कि यह
रहा सौंदर्य।
सौंदर्य के
लेबल वाली
शीशी खाली रह
जाएगी। वह कहेगा,
कोई
सौंदर्य नहीं
है।
असल
में फूल में
कोई सौंदर्य
नहीं था।
सौंदर्य तो
आपको जो रस
उपलब्ध हुआ
फूल को देखकर, उसमें
आया। वह आपका
आंतरिक रस है।
लेकिन मजे की
बात है, फूल
को भी तोड़कर
देख लो, तो
भी रस न
मिलेगा; आपको
तोड़कर
देख लें, तो
भी रस न
मिलेगा। फिर
रस कहां था? वह अदृश्य
है। वह धागे
की तरह भीतर
मनकों के छिपा
है। मनके पकड़
में आ जाएंगे
और धागे का
आपको कोई पता
न चलेगा।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं,
पेय
पदार्थों में
मैं रस, जल
में मैं रस।
लेकिन उदाहरण
लेते हैं जल
का। वह अर्जुन
को समझ में
आएगा, और
रस की तरफ
इशारा हो
सकेगा।
जीवन
में जो भी
हमारे गहरे
अनुभव हैं, रस
के अनुभव हैं।
चाहे हो
सौंदर्य, चाहे
हो प्रेम, चाहे
हो संगीत, जो
भी हमारे
अनुभव हैं, वे रस के
अनुभव हैं।
अनुभव रस रूप
है। या ऐसा कहें
कि समस्त
अनुभवों का जो
निचोड़ है,
उसे हमने रस
कहा है।
रस की
धारणा भारत
में अनूठी है।
रस की धारणा ही
अनूठी है।
दुनिया में
कोई भी रस के
करीब इतना
नहीं पहुंचा।
सौंदर्य की
उन्होंने
व्याख्याएं कीं; लेकिन
उनकी
व्याख्याएं
बड़ी ऊपरी हैं।
पश्चिम ने
सौंदर्य का
बड़ा शास्त्र,
एस्थेटिक्स पैदा किया।
लेकिन उनकी
सौंदर्य की
परिभाषा बड़ी
ऊपरी है।
सौंदर्य
रस है। प्रेम
रस है। आनंद
रस है। और उपनिषद
ने तो घोषणा
की कि ब्रह्म
रस है। ब्रह्म
रस है!
वह
कृष्ण वही
घोषणा कर रहे
हैं। जलों में
मैं रस! फिर वे
एक-एक उदाहरण
लेते चलते
हैं। कहते हैं, पृथ्वी
में मैं गंध, पवित्र गंध।
यह भी
थोड़ा कठिन
होगा। रस से
कम कठिन नहीं
होगा।
क्योंकि
पवित्र कृष्ण
न लगाते तो
आसानी पड़ जाती।
लेकिन गंध में
पवित्र लगाने
का क्या प्रयोजन? सुगंध
काफी न था
कहना? कहते
हैं, पृथ्वी
में पवित्र
सुगंध। सुगंध
काफी मालूम पड़ता
है। लेकिन
कृष्ण जैसे
लोग तो बहुत टेलीग्रैफिक
होते हैं। अगर
एक भी शब्द
जरूरी न होता,
तो वे उपयोग
करते न। लेकिन
इससे बड़ी उलझन
खड़ी हो गई है।
कहा, पवित्र
सुगंध, तो
इसका यह अर्थ
हुआ कि
अपवित्र सुगंध
भी होती है।
और कहा, पवित्र
सुगंध, तो
इसका अर्थ हुआ
कि पवित्र
दुर्गंध, अपवित्र
दुर्गंध, इनकी
संभावना है
क्या?
इनकी
संभावना है।
इसलिए जानकर
लगाया, पवित्र
सुगंध। सभी सुगंधें
पवित्र नहीं
होतीं। उस
सुगंध को
पवित्र कहा है
कृष्ण ने, जिसकी
भनक पड़ते ही
जीवन की ऊर्जा
ऊपर की तरफ
प्रवाहित
होती है।
ऐसी सुगंधें
भी हैं, जिनकी
भनक पड़ते ही
जीवन की ऊर्जा
नीचे की तरफ प्रवाहित
होती है। जगत
के कोने-कोने
में अनुभवी
वेश्याओं से
पूछें आप। या
पेरिस के
बाजार में, जहां
दुनियाभर की
अपवित्र सुगंधें
पैदा की जाती
हैं, परफ्यूम। और सब तरह
की जांच-परख
की जाती है कि
कौन-सी परफ्यूम
आदमी में
सेक्सुअलिटी
ज्यादा पैदा
करेगी। सुगंध
है वह। लेकिन
आपके भीतर
कामवासना को
जगाने में
कौन-सी सुगंध
काम करेगी, उसके एक्सपर्ट
हैं, उसके
विशेषज्ञ
हैं। वे खबर
लाते हैं कि
कौन-सी सुगंध
वेश्या के
द्वार पर हो, तो ग्राहक
के आने में
सुविधा
बनेगी। कौन-सी
सुगंध स्त्री
के कपड़ों पर
हो, तो
स्त्री गौण हो
जाएगी और
पुरुष का मन
सुगंध की वजह
से आंदोलित
होगा।
अपवित्र
सुगंधें
हैं। जो सुगंध
जीवन ऊर्जा को
नीचे की ओर ले
जाती है, कामवासनाओं के मार्गों
की ओर ले जाती
है, वह
अपवित्र है।
फिर
पवित्र सुगंध
कौन-सी है? अभी
तक किसी बाजार
में तो कहीं
पैदा होती
दिखाई नहीं
पड़ती। कभी-कभी
पवित्र सुगंध
की घटना घटती
है, वह मैं
आपसे कहूं, तब आपको यह
सूत्र समझ में
आएगा। अन्यथा
यह समझ में
नहीं आएगा। और
गीता पर
हजारों
टीकाएं लोगों
ने लिखी हैं।
लेकिन पवित्र
सुगंध के बाबत
कुछ ध्यान
नहीं दिया है।
कभी आती है
वह।
महावीर
के संबंध में
कहा जाता है
कि महावीर जहां
खड़े हो जाएं, वहां
एक सुगंध
व्याप्त हो
जाएगी।
चलेंगे तो, उठेंगे तो, चारों तरफ
की हवाओं में
एक सुगंध
चलेगी। महावीर
का शरीर भी
पृथ्वी का ही
बना हुआ है, जैसा हमारा
बना हुआ है।
महावीर के
शरीर से जो सुगंध
उठती है, उस
सुगंध का नाम
है--पृथ्वी
में मैं सुगंध
हूं।
जरूरी
नहीं है कि
महावीर आपके
पास से निकलें, तो
आपको सुगंध का
पता चले।
क्योंकि जो
दुर्गंध के
आदी हैं, उन्हें
सुगंध का पता
चलना मुश्किल
होता है। और
जो अपवित्र
सुगंध के आदी
हैं, उनके
पास से पवित्र
सुगंध गुजर
जाएगी, स्पर्श
भी न होगा।
क्योंकि खुले
द्वार भी चाहिए।
लेकिन जिनके
द्वार खुले
हैं, और
जिनका हृदय
संवेदनशील है,
वे महावीर
की सुगंध को
पकड़ पाएंगे।
तो
महावीर जैसे
शरीर से जब
सुगंध उठती है, उस
सुगंध का नाम
है, पृथ्वी
में पवित्र
सुगंध। मैं
पृथ्वी में पवित्र
सुगंध हूं
अर्जुन।
कभी
आपने खयाल
किया कि
पृथ्वी में
दुर्गंध-सुगंध
सबकी अनंत
संभावना है।
एक ही बगीचा
है आपके घर
में छोटा-सा।
एक छोटा-सा
किचन गार्डन
है। उसमें आप
नीम का झाड़
लगा देते हैं।
और हवाओं में
चारों तरफ कड़वाहट
फैलनी शुरू हो
जाती है। वह
नीम उस जमीन
से ही रस लेती
है। उसी के
बगल में आप
गुलाब का एक
पौधा लगा देते
हैं। वह गुलाब
का पौधा भी
उसी जमीन से
रस लेता है।
लेकिन गुलाब
के फूल में
सुगंध कोई और, और
नीम के पत्तों
में और नीम की बौरियों
में सुगंध कुछ
और। बात क्या
है?
जमीन
एक,
सूरज एक, हवाएं एक, मालिक
बगीचे का
एक, माली
एक, पानी
एक, पृथ्वी
एक। गुलाब का
बीज कुछ और
चुनाव करता है;
नीम का बीज
कुछ और चुनाव
करता है। नीम
का बीज उसी
पृथ्वी में से
कड़वाहट
को इकट्ठा कर
लेता है।
गुलाब का बीज
उसी पृथ्वी
में से कुछ और
इकट्ठा करता
है।
शरीर
हमारा भी वही, महावीर
का भी वही, कृष्ण
का भी वही, क्राइस्ट
का भी वही।
लेकिन जरूरी
नहीं है कि हम
सबके शरीर से
जो गंध निकले,
वह एक हो।
इस
संबंध में और
भी कुछ बातें
आपसे कहूं। जिन
लोगों ने
कामवासना के
संबंध में
गहरी खोजबीन
की है, वे कहते
हैं कि जब
संभोग के क्षण
में स्त्री-पुरुष
अति आकुल हो
जाते हैं, तो
दोनों के शरीर
से विशेष
दुर्गंध
निकलनी शुरू
हो जाती है।
आपके अनुभव
में भी आती
है। तीव्र
कामवासना के
क्षण में शरीर
से दुर्गंध
निकलनी शुरू
हो जाती है।
क्या
हुआ?
शरीर वही
है। लेकिन
कामवासना में
आप और नीचे उतरे,
नीम की तरफ
गए। आपके शरीर
का चुनाव बदल
गया। उसकी अलग
ग्रंथियां
काम करने लगीं,
और आपके
शरीर से
दुर्गंध
फैलने लगी।
अगर
कामवासना में
शरीर से
दुर्गंध निकल
सकती है--इसके
लिए
फिजियोलाजिस्ट
राजी हैं; इसके
लिए शरीरशास्त्री
सहमत हो गए
हैं कि
कामवासना में
शरीर से दुर्गंध
निकलती है--तो
दूसरी बात के
लिए राजी होने
में बहुत देर
नहीं है कि
ध्यान की
गहराइयों में
शरीर से एक
तरह की सुगंध
निकलती है।
क्योंकि तब
ऊर्जा ऊपर की
तरफ जाती है
और शरीर की
दूसरी
ग्रंथियां
काम करती हैं,
जो बिलकुल
ही कामवासना
से दूसरे छोर
पर हैं।
तो
महावीर जैसे
व्यक्ति का जब
पूरा जीवन का
फूल खिलता है
ध्यान का, तो
आस-पास एक
सुगंध फैलनी
शुरू हो जाती
है। यद्यपि
उन्हीं को पता
चलेगा, जो
सौभाग्यशाली
हैं।
अगर
आपको महावीर
के शरीर से
सुगंध का पता
चले,
तो किसी और
को मत बताना, नहीं तो वह
कहेगा कि हमें
नहीं पता
चलता। गलत कहते
हो। किसी भ्रम
में पड़ गए हो।
कोई इलूजन में
आ गए हो। धोखा
खा गए हो।
लेकिन
एकाध आदमी को
ही पता चलता
हो,
ऐसा नहीं
है। महावीर के
पास लाखों
लोगों को पता
चलता है।
महावीर के
निकट जो लोग
रहते थे, वे
कहते थे कि हम
अगर दूर भी
हों, अंधेरे
में भी बैठे
हों, और
महावीर एक
विशेष सीमा के
भीतर आ जाएं, तो हम कह
सकते हैं कि
वे सीमा के
भीतर आ गए।
उनकी सुगंध
उनके पहले ही
चली आती है। सैकड़ों
बार लोगों ने
प्रयोग करके
देखे।
जब
कृष्ण कहते
हैं,
पृथ्वी में
मैं पवित्र
सुगंध, तो
सिर्फ सुगंध
नहीं कहते, नहीं तो
गुलाब के फूल
की सुगंध काम
कर जाती। पवित्र
सुगंध फूल में
पैदा नहीं
होती। पवित्र सुगंध
तो मनुष्य नाम
के फूल में
पैदा होती है कभी-कभी।
वही हूं मैं
अर्जुन। बहुत रेयर फिनामिनन
है। मुश्किल
से कभी घटता
है। लेकिन
घटता है। और
एक शरीर में
घट सकता है, तो सब शरीर
में घटने की
खबर लाता है।
तो
कहते हैं, पृथ्वी
में मैं
पवित्र
सुगंध। चंद्रत्ताराओं
में, सूरज
में, ग्रहों
में--आभा, प्रकाश।
इसे भी
थोड़ा खयाल में
ले लें।
क्योंकि आप
कहेंगे, प्रकाश
तो बड़ी दृश्य
बात है।
नहीं। प्रकाश
बहुत अदृश्य
घटना है। आप
कहेंगे, सरासर
कैसी बात मैं
कह रहा हूं!
आपने देखा है
प्रकाश। अभी
देख रहे हैं।
सुबह सूरज
निकलता है, आप प्रकाश
देखते हैं।
आपसे
प्रार्थना
करता हूं, पुनर्विचार
करना। आपने
प्रकाश अभी तक
नहीं देखा है;
केवल
प्रकाशित
चीजें देखी
हैं। प्रकाश
आपने कभी नहीं
देखा। प्रकाश
को देखना असंभव
है। प्रकाश
अदृश्य चीज
है।
जब आप
कहते हैं, प्रकाश
है, तो
उसका कुल मतलब
इतना होता है
कि चीजें
दिखाई पड़ रही
हैं। और कोई
मतलब नहीं
होता। और जब
चीजें नहीं
दिखाई पड़तीं,
आप कहते हैं,
अंधेरा है।
आपको बल्ब
दिखाई पड़ रहा
है। बल्ब एक
चीज है। मैं
दिखाई पड़ रहा
हूं। यह टेबल,
कुर्सी, तख्त
दिखाई पड़ रहा
है; ये सब
चीजें हैं।
आपको प्रकाश
नहीं दिखाई पड़
रहा है; केवल
प्रकाशित
चीजें दिखाई
पड़ रही हैं।
प्रकाश जिनके
ऊपर आकर लौट
रहा है, वे
लोग दिखाई पड़
रहे हैं।
प्रकाश आपको
दिखाई नहीं पड़
रहा है।
प्रकाश आज तक
किसी मनुष्य
को साधारणतः
दिखाई नहीं
पड़ा है, जिस
तरह हम सोचते
हैं। प्रकाश
अदृश्य चीज
है।
तो
कृष्ण कहते
हैं,
सूर्यों, ताराओं, चंद्रों
में मैं
प्रकाश। सूरज
नहीं, चांद
नहीं, तारा
नहीं; जो
तुम्हें
दिखाई पड़ता है,
वह नहीं।
मैं वह प्रकाश
हूं, जिसके
कारण तुम्हें
दिखाई पड़ता है,
लेकिन जो
तुम्हें कभी
दिखाई नहीं
पड़ता। प्रकाश
अदृश्य
उपस्थिति है।
सिर्फ
प्रेजेंस है। कभी
दिखाई नहीं
पड़ता।
आप
सोचते होंगे, अंधे
को नहीं दिखाई
पड़ता। मैं कह
रहा हूं, आंख
वालों को भी
प्रकाश नहीं
दिखाई पड़ता।
अंधे और आंख
वालों में
फर्क यह नहीं
है कि एक को
प्रकाश दिखाई
पड़ता, और
एक को प्रकाश
नहीं दिखाई
पड़ता। फर्क
इतना है, एक
को प्रकाशित
चीजें दिखाई
पड़ती हैं, एक
को प्रकाशित
चीजें नहीं
दिखाई पड़तीं।
प्रकाश तो
दोनों को नहीं
दिखाई पड़ता
है।
प्रकाश
तो उसे दिखाई
पड़ता है, जो इन
आंखों को छोड़कर
भीतर की और भी
अंतरतम की
आंखें हैं, उनको खोलता
है, उसे
प्रकाश दिखाई
पड़ता है। फिर चांदत्तारे
नहीं दिखाई
पड़ते। यह भी
बड़े मजे की
बात है।
जब तक चांदत्तारे
दिखाई पड़ते
हैं,
तब तक
प्रकाश दिखाई
नहीं पड़ता; और जिस दिन
प्रकाश दिखाई
पड़ता है, उस
दिन चांदत्तारे
दिखाई नहीं
पड़ते। उस दिन
यह सारा जगत
प्रकाश ही रह
जाता है। फिर
कोई प्रकाशित
वस्तु नहीं रह
जाती; कोई आब्जेक्ट
नहीं रह जाता।
सिर्फ प्रकाश
का सागर, सिर्फ
अनंत प्रकाश।
न कोई सूर्य
जिससे निकलता
है, न कोई
और विषय जिस
पर पड़ता है, सिर्फ
प्रकाश ही
प्रकाश रह
जाता है।
इसलिए कृष्ण
कहते हैं, चांदत्ताराओं में, सूर्यों
में अर्जुन, तू मुझे
प्रकाश जान। चांदत्तारे
तुझे दिखाई
पड़ते हैं, मैं
तुझे दिखाई
नहीं पड़ता।
तपस्वियों
में तेज।
सोचने
जैसा है, तपस्वियों में तेज!
तपस्वी तो
दिखाई पड़ते
हैं सभी को।
और तपस्वी को
देखना बहुत
कठिन नहीं है।
बड़ी छोटी
परीक्षाएं
हैं, उससे
पता चल जाता
है। आदमी
उपवास कर रहा
है; कि एक
टांग पर खड़ा
है; कि
कांटे बिछाए
है; कि
शरीर को सता
रहा है, धूप
में खड़ा है; कि पानी में
गला रहा है
शरीर को।
तपस्वी दिखाई
पड़ जाता है।
लेकिन कृष्ण
कहते हैं, मैं
तपस्वी नहीं
हूं; तपस्वियों में तेज!
यह तेज
क्या है? आमतौर
से हम सबने
अपनी-अपनी
घरेलू
व्याख्याएं
कर रखी हैं।
तेज से हम
क्या मतलब
समझते हैं? हम समझते
हैं कि चेहरे
पर कुछ रौनक
दिखाई पड़े, तो तेज हो
गया। कि
स्वास्थ्य
दिखाई पड़े, तो तेज हो
गया। कि आदमी
शक्तिशाली
दिखाई पड़े, तो तेज हो
गया।
जो
आपको दिखाई
पड़े,
वह तो तेज
होगा ही नहीं।
क्योंकि
कृष्ण बात कर
रहे हैं
अदृश्य की। तपस्वियों
में तेज! इसकी
खोज की विधि
है।
अगर
किसी तपस्वी
में तेज देखना
हो,
तो तपस्वी
पर ध्यान करना
पड़ता है।
महावीर बैठे
हैं आपके
सामने, आप
भी उनके सामने
बैठ गए हैं और
महावीर को
देखें। कि
बुद्ध बैठे
हैं। देखें, और देखते
चले जाएं
अपलक। एक ऐसी
घड़ी आएगी कि महावीर
खो जाएंगे, सिर्फ
तेज-पुंज रह
जाएगा। तभी आप
समझना। अन्यथा
नहीं। महावीर
बचेंगे ही
नहीं। कोई
रूपरेखा न
बचेगी। कोई
शरीर, देह
न दिखाई
पड़ेगी। आदमी
खो जाएगा
बिलकुल, सिर्फ
तेज-पुंज रह
जाएगा, सिर्फ
आभा।
और ऐसी
आभा,
जिसमें
स्रोत नहीं
होता। दीए में
आभा होती है, तो दीए में
स्रोत होता
है। उसके
चारों तरफ आभा
होती है, एक
सेंटर होता
है। तेज अगर
महावीर में
दिखाई पड़ेगा,
तो उसमें
कोई न दीया
होगा, न
तेल होगा, न
बाती होगी, न कोई स्रोत
होगा। सिर्फ केंद्ररहित
परिधि होगी।
इसलिए
हम महावीर, बुद्ध,
कृष्ण और
क्राइस्ट और
नानक और कबीर
के आस-पास सिर
के वह जो गोल
घेरा बनाते
हैं, वह
कोई कैमरे की
पकड़ में आने
वाली चीज नहीं
है।
और बड़े
मजे की बात
है। हम जो भी
करते हैं, वह
गलत ही करते
हैं। असल में
हम इतने गलत हैं
कि हमसे ठीक
कुछ हो नहीं
सकता। अगर वह
गोल घेरा
बनाना हो, तो
कृपा करके
भीतर महावीर
को खड़ा मत करो,
सिर्फ गोल
घेरा रहने दो।
क्योंकि
दोनों घटनाएं
एक साथ कभी
नहीं घटीं।
जिनको महावीर
दिखाई पड़े, उनको वह आभा
नहीं दिखाई
पड़ी। और जिनको
आभा दिखाई पड़ी,
उनको
महावीर दिखाई
नहीं पड़े। ये
दोनों एक साथ
नहीं घटतीं।
यह असंभव है।
ये कभी घटती
ही नहीं।
क्योंकि वह
आभा दिखाई ही
तब पड़ती है, जब आकार खो
जाता है।
तो तपस्वियों
में मैं तेज!
तपश्चर्या
नहीं
उन्होंने
कहा।
महात्माओं के
साथ बड़ी
ज्यादती कर
दी। कहना
चाहिए था, तपस्वियों में तपश्चर्या।
लेकिन कहा, तपस्वियों में तेज।
कितनी ही
तपश्चर्या
करो, अगर
वह अनुभव की
स्थिति नहीं
आती, जहां
कि मैं बिलकुल
खो जाता है और
सिर्फ प्रकाश
का पुंज रह
जाता है। आपसे
मैंने कहा, आप देखो
महावीर को, यह तो आपकी
बात है। आप तो
कभी देखोगे,
बहुत मेहनत
करोगे, तब
दिखाई पड़ेगा।
लेकिन
जहां तक
महावीर का
संबंध है, जिस
दिन से ज्ञान
हुआ, कोई
चालीस साल की
उम्र में, उसके
बाद वे चालीस
साल और जिंदा
थे। फिर चालीस
साल वे जो
जिंदा थे, उसमें
वे शरीर नहीं
थे। उसमें वे
सिर्फ एक प्रकाशपुंज
थे, जो चल
रहा था, डोल
रहा था; आ
रहा था, जा
रहा था; बोल
रहा था, सो
रहा था; उठ
रहा था, बैठ
रहा था। लेकिन
उसमें फिर कोई
शरीर नहीं था।
जिस
दिन बुद्ध मरे, किसी
ने उनसे पूछा
कि मरने के
बाद आप कहां
होंगे? तो
बुद्ध ने कहा
कि चालीस साल
से मैं जहां
था, वहीं।
पर उन्होंने
कहा कि नहीं, हम कैसे
मानें!
क्योंकि शरीर
तो आपका खो
जाएगा। और इस
देह को तो
हमें जला देना
पड़ेगा, गड़ा देना
पड़ेगा। यह तो
मिट्टी हो
जाएगी। तो
बुद्ध ने कहा,
मेरे लिए तो
यह चालीस साल
पहले खो चुकी
है। चालीस साल
से तो मैं
सिर्फ एक
शून्य की
भांति, एक बातीरहित
दीए की भांति,
एक प्रकाश
की भांति जी
रहा हूं। और
अब मेरे मिटने
का कोई उपाय
नहीं, क्योंकि
जो भी मिट
सकता था, वह
मिट चुका है।
और अब तो मौत
आए कि महामृत्यु,
जो है, वह
रहेगा।
तेज
अमृतत्व है; शरीर
मरणधर्मा
है। तपस्वियों
में तेज, उसका
अर्थ है, तपस्वियों में वह, जो
कभी नहीं
मरता। लेकिन
आपने अगर
चेहरे पर रौनक
देखी, वह
तो मर जाएगी
तपस्वी के
साथ। अगर शरीर
में थोड़ी लाली
दिखाई पड़ी है,
तो वह तो
जरा इंजेक्शन
लगाकर खून
बाहर निकाल लो,
तो निकल
जाएगी। उससे
तेज का कोई
संबंध नहीं है।
तेज एक
बहुत आकल्ट, एक
गुप्त रहस्य
है। और उसको
देखने की
विधियां हैं।
और जब तक वह न
दिखाई पड़े, तब तक कोई
तपस्वी नहीं
है। तप कितना
ही करे कोई।
महावीर
के पास भिक्षु
आएंगे, साधक
आएंगे; बुद्ध
के पास आएंगे।
बुद्ध उनको
देखेंगे और कहेंगे
कि तुम
तपश्चर्या कर
रहे हो, वह
ठीक; लेकिन
अभी तपस्वी
नहीं हुए।
क्या मापदंड
है जानने का?
जानने
का एक ही
मापदंड है, बुद्ध
जैसे आदमी, जैसे ही आंख
किसी पर डालते
हैं वे, तत्काल
दिखाई पड़ता है
कि तेज है या
नहीं। वही तेज,
जानने का
माध्यम है। और
कोई जानने का
माध्यम नहीं
है। और कोई
मेजरमेंट का
उपाय भी नहीं
है कि किस
आदमी को ज्ञान
उपलब्ध हो
गया।
बुद्ध
कह देते हैं, फलां
आदमी को ज्ञान
उपलब्ध हो गया;
फलां आदमी
को ज्ञान
उपलब्ध हो
गया। लोग उनसे
आकर पूछते हैं
कि आपने उस
आदमी को
ज्ञान-उपलब्ध
कह दिया! वह तो
अभी छः दिन
पहले आया था।
मैं तो छः साल
से तपश्चर्या
कर रहा हूं।
आपने मेरी अभी
तक घोषणा नहीं
की! तो बुद्ध
कहते हैं, अभी
तुम ठहरो, अभी
तुम
तपश्चर्या ही
कर रहे हो।
अभी तेज पैदा
नहीं हुआ है।
उस तेज
की बात है।
कृष्ण कहते
हैं,
तपस्वियों में तेज।
एक-एक
चीज में वे
अदृश्य का
इशारा करते
हैं। कहते हैं, आकाश
में शब्द।
आकाश
दिखाई पड़ता है, आकाश
में सब चीजें
दिखाई पड़ती
हैं, सिर्फ
एक शब्द दिखाई
नहीं पड़ता।
खयाल किया
आपने! आकाश
दिखाई पड़ता है,
विस्तार, एक्सपैंशन। और आकाश
में सब चीजें
दिखाई पड़ती
हैं, शब्द
दिखाई नहीं
पड़ता। फिर भी
आकाश शब्दों
से भरा हुआ है;
शब्द से भरा
हुआ है। शब्द
की तरंगों से
भरा हुआ है।
अब तो
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
आज नहीं कल, कृष्ण
ने जो गीता
कही है, वह
हम फिर पकड़
लेंगे
यंत्रों के
द्वारा। क्योंकि
अगर वह कभी भी
कही गई है, तो
शब्द कभी मरता
नहीं; वह
मौजूद है। हम
उसको पकड़
लेंगे। जरा
वक्त लगेगा।
अगर
दिल्ली से एक
शब्द बोला
जाता है
रेडियो स्टेशन
पर,
और आठ
सेकेंड या दस
सेकेंड बाद
बंबई में पकड़ा
जा सकता है।
अगर दस सेकेंड
बाद पकड़ा जा
सकता है, तो
दस साल बाद पकड़ने
में कोई
वैज्ञानिक
बाधा नहीं है,
दस करोड़
साल बाद पकड़ने
में कोई
वैज्ञानिक
बाधा नहीं है।
चाहे हम अभी
जल्दी यंत्र
बना पाएं या न
बना पाएं।
दिल्ली में
बोला गया शब्द
या लंदन में
बोला गया शब्द
अगर एक क्षण
के बाद भी
बंबई में पकड़ा
जाता है, तो
उसका मतलब यह
है कि शब्द जब
पैदा होता है,
उसके बाद मर
नहीं जाता; होता है। और जब
वह आपके बंबई
से गुजर गया, तब भी मर
नहीं जाता; तब भी मौजूद
होता है।
सूक्ष्म होता
चला जाता है; सूक्ष्म
होता चला जाता
है; सूक्ष्म
होता चला जाता
है।
यह
सारा
अस्तित्व
शब्दों की
पर्तों से भरा
हुआ है।
अदृश्य
पर्तें हैं।
इस जगत में जो
भी शब्द कभी
बोला गया है, वह
रिकार्डेड
है। वह
रिकार्ड के
बाहर कभी नहीं
जा सकता।
इसलिए
धर्म कहता है, ऐसा
कोई बुरा शब्द
मत बोलना, जो
तुम्हारा
रिकार्ड बन
जाए। क्योंकि
वह अनंत
यात्रा तक
तुम्हारा
रिकार्ड
होगा। उससे बच
नहीं सकते हो
फिर। उससे
बचने का कोई
उपाय नहीं है।
वह आपकी कथा
है। कोई खाता-बही
लिए हुए नहीं
बैठा है
परमात्मा कि
उसमें लिख रहा
है कि फलां
आदमी ने क्या
बोला। यह अस्तित्व
शब्द को विनाश
नहीं करता।
अस्तित्व
शब्द को पी
जाता है और
समाहित कर
लेता है।
कृष्ण
कहते हैं, आकाश
में मैं शब्द।
सर्वाधिक
आकाश में
व्याप्त जो
वस्तु है, वह
शब्द है और
सबसे कम दिखाई
पड़ती है।
इसलिए गलत
बोलने से तो
बेहतर है, चुप
रह जाना, न
बोलना। तो न
बोलना
रिकार्ड में
रहेगा कि यह आदमी
मौन था। जरूरी
नहीं है कि
मौन में जो
आदमी था, वह
अच्छा ही आदमी
रहा हो। लेकिन
इतना तो कम से कम
पक्का है कि
सक्रिय रूप से
बुरा नहीं था।
सुना
है मैंने कि
एक जहाज पर जो
आदमी
पहरेदारी का
काम करता था, नया-नया
आदमी, वह
पहरेदारी कर
रहा था।
पहरेदारी के
बाद दूसरे दिन
उसने देखा, तो कैप्टन
ने जहाज के
उसके रिकार्ड
में लिखा हुआ
है कि यह आदमी
आज शराब पीए
हुए था।
रिकार्ड सारा
खराब हो गया।
आठ दिन
बाद--वह आदमी
चुपचाप
रहा--आठ दिन
बाद कैप्टन
डयूटी पर था, तो
उस आदमी ने
जाकर रिकार्ड
की किताब में
लिखा कि आज
कैप्टन शराब
नहीं पीए हुए
है। आज कैप्टन
शराब नहीं पीए
हुए है! लिखा
तो यही कि
नहीं पीए हुए
है, लेकिन
पता उससे
सिर्फ इतना ही
चलता है कि
बाकी छः दिन
पीए रहा होगा।
आप चुप
हैं,
इससे कुछ
पक्का पता
नहीं चलता कि
आप अच्छे ही आदमी
हैं। छः दिन
पता नहीं क्या
रहे हों! बुरे होने
की वजह से ही
चुप रहे हों।
लेकिन एक बात
तय है कि कम से
कम निष्क्रिय
हैं।
शुभ
शब्दों को
बोलने के लिए
बड़े प्रयास
किए गए हैं।
मुझे अपने
बचपन की एक
स्मृति है, जो
कभी नहीं
भूलती। मेरे
गांव में जिस
आदमी का मुझे
सबसे पहला
स्मरण है, और
शायद मरते
वक्त सबसे
आखिरी स्मरण
रहेगा; उस
आदमी का मुझे
नाम भी पता
नहीं; क्योंकि
बहुत छोटा था,
तभी वह आदमी
मर गया। एक ही
बात स्मरण है
कि वह आदमी
अपने घर से
नदी तक स्नान
करने सुबह
जाता था, तो
घर से नदी तक
का फासला पैदल
चलने में
मुश्किल से
पांच मिनट का
था। लेकिन
उसको नदी तक
पहुंचने में
दो घंटे लगते
थे। नदी में
स्नान करने
में मुश्किल
से, वह जिस
ढंग से स्नान
करता था, पांच
मिनट से
ज्यादा लगने
की कोई जरूरत
न थी। लेकिन
नदी में उसको
स्नान करने
में दो घंटे
लगते थे। घर
लौटने में
पांच मिनट का
फासला था, लेकिन
फिर दो घंटे
लगते थे। असल
में उस आदमी की
जिंदगी सुबह
और शाम नहाने
में जाती थी।
सुबह छः घंटे
नहाने में, और शाम छः
घंटे नहाने
में! मामला
क्या था?
मामला
यह था कि वह
आदमी घर से
निकला कि बस, बच्चों
की और लोगों
की भीड़ उसके
चारों तरफ! और
लोग चिल्ला
रहे हैं, राधेश्याम! राधेश्याम!
और वह पत्थर
फेंक रहा है।
नाराज हो रहा
है। चिल्ला
रहा है। दौड़
रहा है। राधेश्याम
का दुश्मन था।
कहता कि कहो, राम! और लोग
चिल्लाते, राधेश्याम! बस, दो
घंटे उसको नदी
तक जाने में
लगते।
तो वह नहा रहा है, और
लोग चिल्ला
रहे हैं। और
वह बीच-बीच
में निकलकर आ
रहा है, आधा
नहाया हुआ। वह
कपड़ा धो
रहा है, और
लोग चिल्ला
रहे हैं। और
भीड़ लगी है, और वह भाग
रहा है! न वह कपड़ा धो
पाता है, न
वह नहा
पाता है। उसकी
मुझे याद है।
मैं भी
उसके पीछे
बहुत बार नदी
तक उसे छोड़ने
गया हूं, और
नदी से उसको
वापस घर तक
लाया हूं।
उसके पीछे
मेरे भी छः
घंटे बहुत दफे
खराब हुए हैं।
लेकिन
धीरे-धीरे
मुझे खयाल आना
शुरू हुआ कि
वह आदमी हाथ
में पत्थर भी
उठाता है, मारने
को दौड़ता
भी है, लेकिन
जब भी राधेश्याम
कहो, तो
उसकी आंखों
में कोई चमक आ
जाती है। तब
मुझे शक पैदा
हुआ।
गांवभर
में खबर थी कि
वह राम का
भक्त है। वह
गया था एक दिन
नदी। मैं अपने
टेंपटेशन को
रोककर--क्योंकि
उस आदमी को
नदी तक
पहुंचाना बड़ा
टेंपटेशन था--किसी
तरह रोककर, वह
नदी गया; मैं
चोरी से उसकी
दीवाल को
छलांग लगाकर
उसके घर में
गया। अपने घर
में वह किसी
को कभी घुसने
नहीं देता था।
कहते हैं, जिस
दिन वह मरा, उसी दिन लोग
उसके घर में घुसे।
वर्षों से
उसके दरवाजे
से किसी ने
भीतर प्रवेश
नहीं किया था।
मैंने
जाकर उसके घर
के भीतर देखा, तो
राधाकृष्ण की
मूर्ति उसके
घर में रखी है,
और फूल चढ़े
हैं! फिर मैं
वहीं बैठा
रहा। उस आदमी
ने आकर दरवाजा
खोला। मुझे
भीतर देखकर तो
एकदम पागल हो
गया। उसने कहा,
भीतर कैसे
आए? क्योंकि
मेरे घर में
कभी मैंने
किसी को प्रवेश
नहीं करने
दिया। मैंने
उससे कहा कि
अब तो मैं
भीतर आ गया।
और अब चाहें
तो बाहर निकाल
दें। लेकिन
राज मेरे हाथ
में आ गया है।
उस
आदमी की आंखों
में आंसू आ
गए। उसने कहा, इस
गांव में इतने
लोग हैं, लेकिन
किसी ने कभी
मेरे हृदय में
भीतर प्रवेश करके
नहीं देखा।
मैं सिर्फ
इसीलिए नाराज
होता हूं कि
लोग राधेश्याम
का नाम ही ले
लें। मेरी
जिंदगी इसी
में बीत रही
है। लेकिन मैं
प्रसन्न हूं।
क्योंकि मैं
जानता हूं कि
शब्द के जगत
में मैंने
बहुत-से राधेश्याम
की ध्वनियों
को संगृहीत
करवा दिया है।
और कोई मुझे चिढ़ाने को
ही नाम लेता
होगा राधेश्याम
का, तो भी
लेता तो राधेश्याम
का ही नाम है।
अभी चिढ़ाता
रहेगा, चिढ़ाता रहेगा, चिढ़ाता
रहेगा; किसी
दिन...। आखिर
तुम भी तो चिढ़ाते-चिढ़ाते
नदी
छोड़कर-छोड़कर
एक दिन मेरे
घर के भीतर आ
गए हो।
वह
आदमी जिस दिन
मरा,
उसी दिन
गांव को पता
चला। लेकिन
उसने मुझसे प्रार्थना
की, और
मेरे पैर पकड़कर
प्रार्थना
की। मैं तो
बहुत छोटा था,
वह तो बूढ़ा
था। उसने पैर पकड़कर प्रार्थना
की कि तुम आ गए,
सो ठीक। जब
भी आना हो, दीवाल
कूदकर आ जाना।
लेकिन किसी को
बताना मत कि
मेरे घर में राधेश्याम
की प्रतिमा
है। नहीं तो
गांव में खबर
हो गई, तो
मुझे कोई चिढ़ाएगा
नहीं। बात ही
समाप्त हो
जाएगी। इस राज
को राज ही
रहने देना, जब तक मैं मर
न जाऊं!
बुद्ध
कहते थे अपने
भिक्षुओं से
कि प्रार्थना
शुरू करना, जगत
के मंगल की
कामना के साथ।
प्रार्थना
पूरी करना, जगत के मंगल
की कामना के
साथ। शायद
प्रार्थना तो
बेकार चली जाए,
लेकिन मंगल
का जो उदघोष
है, वह
रिकार्ड हो
जाएगा।
क्योंकि
प्रार्थना तो बेकार
जा सकती है, उसको तो
करने वाले की
सामर्थ्य
चाहिए, लेकिन
मंगल का उदघोष
तो कोई भी कर
सकता है।
आकाश
में मैं शब्द।
सूक्ष्मतम जो
आकाश में संगृहीत
होता है
रूप--अदृश्य, अरूप
कहना
चाहिए--वह है
शब्द, वह
मैं हूं।
वेदों
में ओंकार।
वेद
में कितना
क्या है! कहा
जाए,
करीब-करीब
सब कुछ है। जो
जगत में धर्म
की दिशा में
जो भी खोजा गया
है, करीब-करीब
सब है। लेकिन
उस सबको छोड़कर
कृष्ण कहते
हैं, वेदों
में ओंकार, सिर्फ ओम।
बस, उतना
हूं मैं। बाकी
मैं नहीं हूं।
बाकी तो सब जगत
है। सिर्फ ओम!
अगर
कृष्ण से पूछा
जाए,
तो वे
कहेंगे, सब
शास्त्र नष्ट
हो जाएं, अकेला
ओम बच जाए, तो
सब शास्त्र बच
गए। और सब
शास्त्र बच
जाएं, अकेला
ओम खो जाए, तो
सब शास्त्र खो
गए।
और बड़े
मजे की बात है, यह
ओम बिलकुल ही
अर्थहीन शब्द
है, मीनिंगलेस।
इसमें कोई
अर्थ नहीं है।
इसमें कोई फिलासफी,
कोई दर्शन
नहीं है। यह
शब्द एक अर्थ
में बिलकुल
एब्सर्ड है; इसमें कुछ
अर्थ नहीं है।
और कृष्ण इतना
मोह दिखलाते
हैं कि वेदों
में ओंकार! बस,
वेद में मैं
ओम हूं! क्यों?
बहुत पूरी
प्रक्रिया
है। थोड़ी-सी
बात आपसे कह दूं।
इस एक
छोटे-से शब्द
में,
ओम में, भारत
ने समस्त
मंत्र-योग की
साधना को बीज
की तरह बंद कर
दिया। जैसे
आइंस्टीन का
रिलेटिविटी
का फार्मूला
है, छोटा-सा,
दोत्तीन शब्द, दोत्तीन अक्षर--पूरा
हो जाता है।
ऐसे भारत ने
जो भी अंतर-जीवन
में अनुभव
किया है, और
जितनी
विधियां
मनुष्य ने
विकसित की हैं
सत्य की तरफ
यात्रा करने
की, वे सब
की सब
बीज-मंत्र की
तरह ओम में रख
दी हैं।
यह ओम अ, उ
और म, इन
तीन मूल
ध्वनियों का
जोड़ है। सारे
शब्दों का
विस्तार ओम का
विस्तार है।
सब वेदों में
ओम। ओम होगा, तो सब वेद
पुनः निर्मित
हो सकते हैं।
सीक्रेट-की
आपके हाथ में
है। ये तीन अ, उ और म, अगर
ये तीन हों, तो जगत के सब
शास्त्र
निर्मित हो सकते
हैं। लेकिन सब
शास्त्र बच
जाएं और कुंजी
खो जाए, तो
सब शास्त्र
बेकार हो
जाएंगे। ताले
रह जाएंगे, चाबी खो गई।
विज्ञान
भैरव में शिव
ने पार्वती को
कहा है कि तू
ज्यादा न पूछ।
ज्यादा में
तुझे अड़चन
होगी। थोड़े
में तुझे कह
दूं। अ उ म--यह
जो ओम है, इसमें
तू अ को भी भूल
जा; इसमें
तू म को भी भूल
जा; वह जो
बीच में बचता
है, ओम के
बीच में; अ
भी छूट जाए, म भी छूट जाए,
वह जो बीच
में बचता है उ,
उस उ में तू
डूब जा। तो
मैं तुझे
उपलब्ध हो जाऊंगा।
यह तो
टेक्नीक की
बात है। अगर
आप उ में डूब
सकें...। आप कभी
जोर से कहें उ, तो
आपको पता
चलेगा कि पूरी
नाभि भीतर
सिकुड़ गई।
जितने जोर से
उ कहेंगे, उतने
ही जोर से
नाभि पर जोर
पड़ेगा। और
नाभि जीवन का
मूल
ऊर्जा-स्रोत
है। उसको ठीक टैप करना
जिसको आ जाए...।
ओम, उसको
ही हैमर, उसको ही चोट
पहुंचाने की
तरकीब है। और
उस पर जो
विधिवत चोट
पहुंचा दे, वह जीवन की
ऊर्जा उठनी
शुरू हो जाती
है। कुंडलिनी
जागने लगती
है। ऊपर की
यात्रा पर
आदमी निकल जाता
है।
सुना
है मैंने कि
एक छोटे-से
गांव में एक
बहुत बड़े
कारखाने में
एक नई मशीन
लगाई गई। महीनेभर
ठीक चली और
फिर अचानक बंद
हो गई। कोई
खराबी भी न
थी। कोशिश
करके हार गए
इंजीनियर उस
कारखाने के, लेकिन
कोई रास्ता न
निकला। फिर तो
बड़े शहर से, राजधानी से
विशेषज्ञ को
बुलाना पड़ा।
हजार रुपया
उसके आने-जाने
का खर्च हुआ।
वह
विशेषज्ञ आया; एक
छोटी-सी हथौड़ी
उसने अपनी
पेटी में से
निकाली और
मशीन को तीन जगह,
ठक ठक
ठक--तीन जगह
उसने किया; मशीन चल
पड़ी।
मालिक
ने कहा कि बड़ी
कृपा आपकी।
आपका बिल क्या
हुआ?
उसने लिखा,
एक हजार
रुपया। मालिक
ने कहा, मजाक
तो नहीं कर
रहे आप? तीन
जगह ठक ठक ठक
करने का एक
हजार रुपया? आइटमवाइज बिल बनाइए।
आपने और तो
कुछ किया भी
नहीं। ठक ठक
ठक! इसमें पहली
ठक का कितना
रुपया, दूसरी
ठक का कितना
रुपया, तीसरी
ठक का कितना
रुपया? आंख
से मैं देख
रहा हूं।
उस
आदमी ने बिल
बनाया। उसने
लिखा कि तीन ठकों का एक
रुपया, टैपिंग--रुपी वन।
एंड नोइंग
व्हेयर टु टैप--रुपीज
नाइन हंड्रेड
नाइनटी
नाइन।
कहां--उसके नौ
सौ निन्यानबे
रुपए; और
जहां तक ठोंक
का सवाल है, एक रुपए से
चल जाएगा। और
उसने नीचे
लिखा कि अगर
आपको ज्यादा
तकलीफ हो रही
हो, तो टैपिंग
का आप छोड़ भी
सकते हैं। वह
एक रुपया न भी
दें। बाकी नोइंग
व्हेयर टु टैप...।
ओम जो
है,
वह सीक्रेट
है समस्त
वेदों का। वह
व्यक्ति के भीतर
जो परमात्मा
की ऊर्जा बीज
में छिपी है, उसको टैप
करने की तरकीब
है; उसको
चोट करने की
तरकीब है।
तो
कृष्ण कहते
हैं,
वेदों में
ओंकार। ऐसा
मैं अदृश्य
हूं। ऐसे दृश्य
में तू मुझ
अदृश्य को
खोज।
आज
इतना ही।
लेकिन
कोई उठेगा
नहीं। थोड़ी टैपिंग!
थोड़ी आपके
भीतर छिपी
ऊर्जा को यह
संकीर्तन करके
थोड़ा चोट पहुंचाएं।
आप से नौ सौ
निन्यानबे
रुपए नहीं लिए
जाएंगे। वे भी
छोड़ दिए जाते
हैं। रुपया तो
छोड़ा ही, नौ
सौ निन्यानबे
भी छोड़ते हैं।
लेकिन आप बैठे
रहें पांच
मिनट।
और
बैठे न रहें; ताली
बजाएं। गाएं। डोलें। आनंदित
हों।
कामवासना से दुर्गंध ही उठेगी ओर वही दुर्गंध ध्यान में शनैः शनैः पवित्र सुगंध में परावर्तित हो जाती हैं यही ही ध्यान की अद्भुत अलकेमी हैं !!!ओं प्यारे ओशो !आपको शत-कोटि-कोटि प्रणाम 🌹🌹🙏🙏🌹🌹
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