दिनांक 16 जनवरी, 1977;
श्री ओशो
आश्रम,
कोरेगांव
पार्क,
पूना।
प्रश्नसार:
पहला
प्रश्न :
चार—पांच
वर्षों से
आपको सुन रहा
हूं। कभी—कभी
संन्यास लेने
की इच्छा
प्रगाढ़ हो
जाती है, इसलिए इस
बार आपके पास
संन्यास लेने
के लिए आया
हूं। लेकिन जब
से घर से
निकला हूं तब
से शरीर में
कंपन और मन
में कुछ
घबड़ाहट का
अनुभव हो रहा
है। और मन
संन्यास के
लिए राजी नहीं
मालूम होता।
यह क्या है और
अब क्या करूं?
मन कैसे
राजी होगा
संन्यास के
लिए? संन्यास
तो मन की
मृत्यु है।
संन्यास तो मन
का आत्मघात है।
तो मन तो
बेचैन हो, यह
स्वाभाविक है।
मन तो डरे, कंपे,
यह
स्वाभाविक है।
मन तो हजार
बाधाएं खड़ी
करे, यह
स्वाभाविक है।
मन चुपचाप
राजी हो जाए
तो चमत्कार है।
मन तो छोटी—मोटी
बातों में भी
राजी नहीं
होता, दुविधा—द्वंद्व
खड़ा करता है।
छोटी—मोटी
बातों में, जहां कुछ भी
दांव पर नहीं
है—यह कपड़ा
पहनूं या यह
पहनम मन वहां
भी
द्वंद्वग्रस्त
हो जाता है।
यह करूं या वह
करूं, वहां
मन डांवाडोल
होने लगता है।
मन का
स्वभाव
दुविधा है। मन
की प्रक्रिया
दुई को पैदा
करना है, द्वैत
को पैदा करना
है। जहां मन
है वहां
द्वंद्व है।
मन गया, निर्द्वंद्व
हुए। मन गया
तब स्वच्छंद
हुए।
संन्यास तो
पूरा प्रयोग
ही है मन को
धीरे— धीरे
मिटा देने का, पोंछ डालने
का, अ—मनी
दशा में
प्रवेश करने
का। तो मन
डरता है, कंपता
है। मन अपना
काम कर रहा है।
पूछते हो, ' अब मैं क्या
करूं?'
मन की तो
बहुत मान कर
चले, पहुंचे
कहा? मन की
ही मान कर तो
यह दुर्गति
हुई। ये
जन्मों—जन्मों
के फेरे, यह
चक्र जीवन—मरण
का, यह फिर—फिर
आना और फिर—फिर
जाना, यह
झूले से लेकर
मरघट तक की
अंतहीन दौड़, अर्थहीन दौड़,
यह सब तो
बहुत हुआ। मन
को ही मान कर
हुआ। अब कब तक
मन की मानते
रहोगे? कभी
तो जागो। कभी
तो मन से कहो
कि ठीक, तू
अपनी कहता, कह; मैं
अपनी करूंगा।
अब तो अपनी
करो। अब तो
थोड़ा मन के
पार से कुछ
होने दो। थोड़े
मन के ऊपर उठो।
नहीं तो जीवन
ऐसे ही बीत
जाएगा। हाथ
खाली के खाली
रह जाएंगे।
स्वप्न झरे
फूल से मीत
चुभे शूल से
लुट गए
सिंगार सभी
बाग के बबूल से
और हम खड़े—खड़े
बहार देखते
रहे
कारवां
गुजर गया
गुबार देखते
रहे
नींद भी
खुली न थी कि
हाय धूप ढल गई
पाव जब तलक
उठे कि जिंदगी
फिसल गई
पात—पात झर
गए कि शाख—शाख
जल गई
चाह तो निकल
सकी न पर उमर
निकल गई
गीत अश्क बन
गए छंद हो दफन
गए
साथ के सभी
दिए धुआं—धुआं
पहन गए
और हम झुके—झुके
मोड़ पर रुके—रुके
उम्र के
चढ़ाव का उतार
देखते रहे
कारवां
गुजर गया
गुबार देखते
रहे
जल्दी ही
वक्त आ जाएगा।
कारवां तो
गुजर ही गया
है, गुजर ही
रहा है, गुबार
ही हाथ रह
जाएगी। कारवा
गुजर गया
गुबार देखते
रहे। इसके
पहले कि हाथ
में सिर्फ
गुबार रह जाए,
गुजरे हुए
कारवां की धूल
रह जाए, जागो।
और जागने का
एक ही अर्थ
होता है : मन की
न मानो। मन से
लड़ने की भी
जरूरत नहीं है, यह भी खयाल
रखना। मैं
तुमसे कह नहीं
रहा कि मन से
लड़ो। मैं तो
कह रहा हूं
सिर्फ मन की न
मानो। फर्क है
दोनों बातों
में; बड़ा
गहरा फर्क है।
चूके अगर फर्क
को समझने में
तो भूल हो
जाएगी। लड़े मन
से तो मन से
बाहर कभी भी न
जा सकोगे।
मानो मन की, या लड़ो मन से,
हर हालत में
मन के भीतर
रहोगे।
क्योंकि
जिससे हम लड़ते
हैं उससे दूर
नहीं जा सकते।
मित्र से भी
पास होते हैं
हम शत्रु के।
मित्र को तो
भूल भी जाएं, शत्रु भूलता
नहीं। और
जिससे तुम
लड़ोगे, और
जिसकी छाती पर
बैठ जाओगे, छोड़ कर
हटोगे कैसे
फिर? हटे
तो डर लगेगा, दुश्मन
मुक्त हुआ, फिर पछाड़ न
दे।
तो जिसने
दबाया, जो
लड़ा, वह
हारा।
लड़ने की
नहीं कह रहा
हूं। लड़ने की
कोई जरूरत भी
नहीं है।
मालिक अपने
गुलाम से लड़ता
थोड़े ही! कह
देता, 'नहीं
मानते'; बात
खतम हो गई। अब
मालिक
कुश्तमकुश्ती
करे गुलाम से,
तो गए! तो
तुम मालिक ही
न रहे। लड़ने
में ही तुमने
जाहिर कर दिया
कि तुम मालिक
नहीं हो।
मालिक सुन
लेता गुलाम की।
कह देता, ठीक,
तूने
सहायता दी, सुझाव दिया,
धन्यवाद।
करता अपनी।
तो मन से लड़ना
भी मत। नहीं
तो शुरू से ही
संन्यास
विकृत हो
जाएगा। मन से
लड़ कर लिया तो
चूक गए, ले
ही न पाए। आए—आए
करीब—करीब, चूक गए।
किनारे—किनारे
आते थे कि फिर
किनारा छूट
गया। तीर लगते—लगते
ही लग नहीं
पाया; ठीक
जगह पहुंच
नहीं पाया।
न तो मन की
मानो, न तो
मन से हारी और न
मन के ऊपर
जीतने की कोई
चेष्टा करो।
मालिक तुम हो।
इसकी घोषणा
करनी है। लड़
कर सिद्ध थोड़े
ही करना है!
लड़ने में तो
तुम जाहिर कर
रहे हो कि तुम
मालिक नहीं हो,
तुम्हें शक
है; लड़ कर
सिद्ध करना
पड़ेगा। मालिक
तुम हो।
स्वभाव से तुम
मालिक हो। मन
से कह दो, ठीक,
पुराना चाकर
है तू तेरी
बात सुन लेते
हैं। तेरी अब
तक सुनी भी, सार कुछ
पाया नहीं। अब
अपनी करेंगे
बिना लड़े, बिना
झगड़े।
उतर जाओ
संन्यास में।
सरक जाओ। अगर
न लड़े तो मन
ऐसे विदा हो
जाता है जैसे
था ही नहीं।
चार—पाच
वर्षों से सोच
रहे हो! और
कहते हो, कभी—कभी
संन्यास लेने
की इच्छा बड़ी
प्रगाढ़ भी हो
जाती है। तो
जब इच्छा
प्रगाढ़ भी हो
जाती है तब भी
चूक— चूक जाते
हो? तो जरा
उनकी सोचो, जिनकी इच्छा
प्रगाढ़ भी
नहीं है। अब
और क्या करोगे?
अब और इससे
ज्यादा क्या
होगा? इच्छा
प्रगाढ़ हो गई,
अब इससे
ज्यादा और
क्या होगा? अगर इच्छा
के प्रगाढ़
होने पर भी मन
जीत—जीत जाता
है तब तो
तुम्हारी
मुक्ति की कोई
संभावना नहीं।
अब और ज्यादा
क्या होगा?
और अब तो
यहां आ भी गए
हो यह निर्णय
करके कि संन्यास
ले लेना है।
अब कहते हो कि
यहां आ भी गया
हूं इस बार तो
संन्यास लेने; पर जब से घर
से निकला हूं
शरीर कंपता है
और मन में कुछ
घबड़ाहट अनुभव
होती है।
स्वाभाविक।
बिलकुल
स्वाभाविक।
ऐसा न होता तो
कुछ गलत होता।
इससे चिंता मत
बनाओ। शरीर
कंपता है, अनजानी बात
होने जा रही
है। पता नहीं
क्या होगा फिर?
परिचित—प्रियजन
कैसे लेंगे? वही गांव, वे ही लोग!
स्वीकार
करेंगे, अस्वीकार
करेंगे? लोग
हंसेंगे कि
पागल समझेंगे?
लोग विरोध
करेंगे, अपमान
करेंगे? पत्नी
कैसे लेगी? बच्चे कैसे
लेंगे? सारी
चिंताएं उठती
हैं।
नये पर जाते
समय चिंताएं
स्वाभाविक
हैं। पुराना
तो परिचित है, उस पर तुम
सदा चले हो।
उस पर तो तुम
रेलगाड़ी के
डब्बे की तरह
पटरी पर दौड़ते
रहे हो यहां
से वहां। आज
तुम लीक से
उतर कर चल रहे,
लकीर की
फकीरी छोड़ रहे।
चिंता उठती है।
राजपथ से हट
कर पगडंडी पर
जा रहे। राजपथ
पर भीड़, है।
आगे भी, पीछे
भी लोग हैं, किनारे—बगल
में भी लोग
हैं। सब तरफ
भीड़ जा रही है;
वहा भरोसा
है। इतने लोग
गलत थोड़े ही
जा रहे होंगे।
और मजा यह है
कि सभी यही
सोच रहे हैं
कि इतने लोग
गलत थोड़े ही
जा रहे होंगे।
तुमृ जिनकी
वजह से जा रहे
हो वे
तुम्हारी वजह से
जा रहे हैं।
तुम बगल, वाले
की वजह से चल
रहे हो, बगल
वाला
तुम्हारी वजह
से चल रहा है।
भीड़ एक—दूसरे
को थामे है, और चलती
जाती है। जो पीछे
हैं वे सोचते
हैं, आगे
वाले जानते
होंगे। जो आगे
हैं वे सोचते
हैं, इतने
लोग पीछे आ
रहे हैं, न
जानते होते तो
आते क्यों? नेता सोचता
है अनुयायी
जानते होंगे;
नहीं तो
क्यों आते? अनुयायी
सोचते हैं कि
नेता जानता
होगा, नहीं
तो आगे क्यों
चलता?
ऐसे एक—दूसरे
पर निर्भर भीड़
सरकती जा रही
है। कहां जा
रही है? क्यों
जा रही है? कुछ
भी पता नहीं
है।
आज तुम अगर
संन्यास लेते
हो तो उतरे
भीड़ से। भीड़
छोड़ी। भेड़
होना छोड़ा।
चले पगडंडी पर।
अब न कोई आगे
है, अब न कोई
पीछे। अब तुम
अकेले हो।
अकेले में भय
लगता। रात
होगी, अंधेरी
होगी, भटकोगे,
क्या होगा?
पहुंचोगे, क्या पक्का?
इससे कंपन
होता। कंपन
स्वाभाविक है।
कंपन इस बात
का लक्षण है
कि जीवन में
पहली बार नई
दिशा में कदम
उठाया है तो
कदम थर्राता
है। और मन
कहता है, यह
तो कभी किया न
था। यह क्या
कर रहे हो?
मन की...
ध्यान रखना, मन बड़ा
रूढ़िवादी है :
आर्थोडाक्स।
वह वही करना
चाहता है, जो
कल भी किया था,
परसों भी
किया था, पहले
भी किया था।
मन तो यंत्र
है। तुम यंत्र
से नया काम
करने को कहो
तो यंत्र कहेगा,
यह क्या
कहते हो? मन
तो कुशल है
उसी को करने
में, जो
सदा करता रहा
है। उसकी लकीर
बन गई। उसी
लकीर पर चलता रहता
है। जरा तुम
लकीर से हटे
तो मन कहता है,
इसमें मैं
कुशल नहीं हूं।
यह मैंने कभी
किया नहीं है,
अभ्यास
नहीं है। यह
तुम क्या करते
हो? और अब
इतनी उम्र तो
गुजर गई, थोड़े
दिन और गुजार
लो पुराने में
ही रह कर, निश्चितता
से। कहां
असुरक्षा में
जाते हो? इसलिए
मन भी डरता है।
मगर न सुनो
तन की, न
सुनो मन की।
क्योंकि न तुम
तन हो और न तुम
मन हो। तुम
चैतन्य हो।
तुम साक्षी हो।
यह जिसको पता
चल रहा है कि
शरीर कंप रहा
है, वही हो
तुम। शरीर का
कंपन नहीं, जिसको बोध
हो रहा है कि
शरीर कंप रहा
है, उस बोध
में ही
तुम्हारा
होना है। जिसे
पता चल रहा है
कि मन चिंतित
हो रहा है, दुविधा
में पड़ रहा है :
करूं न करूं?
मन नहीं हो
तुम। जो इन
सबके पीछे खड़ा
देख रहा है।
तन का कंपना, मन की
दुविधा, इन
दोनों का जहां
अंकन हो रहा
है, उस
साक्षीभाव
में तुम्हारा
होना है। और
साक्षी बन गए,
संन्यासी
बन गए।
संन्यासी
बन कर करोगे
क्या? साक्षी
ही तो बनोगे।
संन्यास का
अर्थ ही इतना
है कि अब हम
तोड़ते नाता तन
से, मन से।
जोड़ते नाता
उससे, जो
दोनों के पार
है। डरो मत।
हिम्मत करो।
जिन्होंने
हिम्मत की
उन्होंने
पाया है। जो
डरे रहे वे
किनारे पर ही
अटके रहे। वे
कभी गहरे सागर
में न उतरे।
और अगर
मोतियों से
वंचित रह गए
तो कोई और
जिम्मेवार
नहीं।
दूसरा
प्रश्न :
किसी ने
माला जपी किसी
ने जाम लिया
सहारा जो
मिला जिसको
उसी को थाम
लिया
और अजब हाल
था हरसूं नकाब
उठने पर
किसी ने दिल
को किसी ने
जिगर को थाम
लिया
भगवान, कृपा कर इस
पर कुछ प्रकाश
डालें।
सत्य
कैसा है, इसकी
कोई कल्पना
नहीं हो सकती।
सत्य कैसा है,
अनुभव के
पूर्व इसकी
कोई धारणा
नहीं हो सकती।
सत्य कैसा है?
किसी शब्द
में कभी समाया
नहीं और किसी
चित्र में कभी
आका नहीं गया।
सत्य कैसा है?
अपरिभाष्य
है, अनिर्वचनीय
है।
इसलिए जब
सत्य पर पर्दा
उठता है तो
हिंदू भी रोका, मुसलमान भी
रोका। कोई
हृदय थाम लेगा,
कोई जिगर
थाम लेगा। जब
सत्य पर पर्दा
उठेगा तो
जिन्होंने भी
मान्यताएं कर
रखी थीं, वे
सब चौंक कर
अवाक खड़े रह
जाएंगे।
क्योंकि वे
सभी पाएंगे कि
सत्य उनकी
किसी की भी
मान्यता जैसा
नहीं है।
जिन्होंने
सोचा था
त्रिमुखी है,
त्रिमूर्ति
है, वे भी
खड़े रह जाएंगे।
जिन्होंने
कोई और रंग—ढंग
सोचे थे, वे
भी खड़े रह
जाएंगे।
क्योंकि सत्य
जैसा है वैसा
कभी कहा ही
नहीं गया, कहा
नहीं जा सकता।
सत्य जैसा है
वैसा किसी भी
शास्त्र में
लिखा नहीं है;
लिखा नहीं
जा सकता।
सत्य जैसा
है वैसा तो
जाना ही जाता
है बस। गूंगे
का गुड़ है। जो
जान लेता है
वह ग्ते की
तरह रह जाता
है। कहने की
कोशिश भी करता
है लेकिन फिर
भी कह नहीं
पाता। और जो—जो
कहता है वह
सभी कहने के
कारण असत्य हो
जाता है। सत्य
को कहा नहीं
कि असत्य हुआ
नहीं। सत्य
इतना विराट है, किन्हीं
मुट्ठियों
में नहीं
बांधा जा सकता।
और हमारी
धारणाएं
मुट्ठियां
हैं। और हमारे
शब्दजाल, सिद्धांत,
शास्त्र
मुट्ठियां
हैं।
तो हिंदू
मुसलमान, ईसाई,
जैन, बौद्ध,
ईश्वर को 'मानने वाले,
ईश्वर को न
मानने वाले, सभी जिगर
थाम कर रह
जाएंगे, जब
पर्दा उठेगा।
तब ,पता
चलेगा कि अरे,
हम जो मानते
रहे, वैसा
तो कुछ भी
नहीं है। और
जैसा है वैसा
तो हमारे
स्वप्न में भी
कभी नहीं उतरा
था। जैसा है
इसका तो हमें
कभी भी अनुमान
भी न हुआ था।
और तब वे
रोके भी।
क्योंकि अब
उन्हें पता
चलेगा कि
हमारी मान्यताओं
ने हमें
भटकाया, पहुंचाया
नहीं।
संप्रदायों
ने भटकाया है
तुम्हें सत्य
से; पहुंचाया
नहीं। लेकिन
पता तो तभी
चलेगा जब सत्य
पर से पर्दा उठे।
इसके पहले तो
तुम एक नींद
में हो, एक
बेहोशी में
.चले जा रहे हो।
इसके पहले तो
तुम जो मानते
हो, लगता
है ठीक है। जब
सत्य से
तुम्हारी
मान्यता की
टकराहट होगी
और तुम्हारी
मान्यता कांच
के टुक्कों की
तरह चूर—चूर
हो जाएगी, तब
तुम रोओगे कि
कितने—कितने
जन्मों तक
मान्यताएं
बांध कर रखीं,
संजो कर
रखीं। कितनी
पूजा, कितनी
अर्चना की, कितनी
मालाएं जपीं,
सब व्यर्थ
गईं। कितने
चिल्लाए 'राम—राम,
'कितना नहीं
पुकारा ' अल्लाह—अल्लाह!'
और अब जो
सामने खड़ा है,
न अल्लाह है
न राम।
महात्मा
गांधी के
आश्रम में वे
भजन गाते थे : अल्लाह—ईश्वर
तेरा नाम। न
उसका अल्लाह
नाम है और न
ईश्वर उसका
नाम है। उसका
कोई नाम नहीं।
जब पर्दा
उठेगा तब तुम
देखोगे, अनाम
खड़ा है। न
अल्लाह जैसा,
न ईश्वर
जैसा। न अरबी
में लिखा है
उसका नाम, न
संस्कृत में,
अनाम है। न
शंकराचार्य
की मान्यता
जैसा है, न
पोप की
मान्यता जैसा।
किसी की
मान्यता जैसा
नहीं है। आंख
पर जब तक
पर्दा पड़ा है
तब तक माने
रहो, जो
मानना है।
पर्दा उठते से
ही सारी
मान्यताएं
टूट जाएंगी।
सत्य जब नग्न
प्रकट होता है
तो तुम्हारी
सारी धारणाओं
को बिखेर जाता
है।
ऐसा ही समझो..
.तुमने जो
कहानी सुनी है, पांच अंधे
एक हाथी को
देखने गए थे।
हाथी को छुआ
भी; अंधे
थे, देख तो
सकते न थे, छू—छू
कर पहचाना।
जिसने पैर छुआ,
उसने कहा कि
अरे, खंभे
की तरह मालूम
होता है। उसने
एक धारणा बनाई—अंधे
की धारणा खंभे
की तरह मालूम
होता। जिसने
कान छुआ उसने
कहा, खंभें
की तरह मालूम
होता। उसने भी
एक धारणा बनाई।
ऐसे वे सभी
धारणाएं बना
कर लौट आए। और
उनमें बड़ा
विवाद हुआ। वे
पांचों अंधे
बड़े दार्शनिक
थे। सभी
दार्शनिक
अंधे हैं।
उन्होंने बड़ा
विवाद किया,
अपनी—अपनी
धारणा के लिए
बड़े तर्क
जुटाए। और
बेचारे गलत भी
न कहते थे, क्योंकि
जैसा अंधा जान
सकता था वैसा
उन्होंने
जाना था.। और
एक—दूसरे पर
खूब'' हंसे
भी। उन्होंने
कहा, यह भी
हद मजाक हो गई।
मैं खुद देख
कर आ रहा हूं। छुआ,
सब तरह
टटोला, खंभे
की तरह है। तू
पागल हो गया
है? तू
कहता है सूप
की तरह है? जिसने
सूप की तरह
अनुभव किया था
वह भी हंसा।
उसने कहा, तुम्हारा
दिमाग फिर गया
है या मजाक कर
रहे हो?
और उनमें
गलत कोई भी न
था और सब गलत
थे। और उनमें
सही कोई भी न
था और सब सही
थे। यही तो
मुश्किल है।
सही थे थोड़े—
थोड़े।
ध्यान रखना, असत्य से भी
ज्यादा
खतरनाक होता
है थोड़ा सा सच।
थोड़ा सच बड़ा
खतरनाक होता
है; असत्य
से ज्यादा
खतरनाक होता
है। क्योंकि
असत्य पर तो
तुम्हें
भरोसा भी नहीं
आता। तुम खुद
भी भीतर जानते
हो कि है नहीं
ठीक। लेकिन
थोड़े सच पर
तुम्हें
भरोसा होता है।
भरोसे की वजह
से तुम जोर से
पकड़ते हो, तुम
लड़ने को तैयार
होते हो।
अब कोई इन
पांचों की आंख
खोल दे। कोई
डाक्टर मोदी
इनका आपरेशन
कर दे, और ये
पांचों आंख
खोल कर हाथी
को देखें तो
क्या होगा? पांचों अपने
जिगर को थाम
लेंगे। वे
कहेंगे, क्षमा
करो भाई। बड़ी
भूल हो गई। जो
जाना था वैसा
नहीं है। जो
जाना था वह
अंश था। और अब
जो पूरा जान
रहे हैं उसमें
अंश तो है, लेकिन
पूरा अंश जैसा
नहीं है।
इसलिए
जितनों ने भी
मान कर रखा है
उनकी मान्यता
में एक छवि का
प्रतिफलन हुआ
है, छाया पड़ी
है, प्रतिध्वनि
हुई है। लेकिन
जब तुम मूल
ध्वनि सुनोगे
तब तुम पाओगे,
तुमने जो
जाना था वह
कहीं थोड़े से
अंश की तरह
मौजूद है—पर
अंश की तरह।
और तुम्हारा
दावा था कि
यही सत्य है, यही पूरा
सत्य है। वहीं
भूल हो गई।
'किसी ने
माला जपी किसी
ने जाम लिया
सहारा जो
मिला जिसको
उसी को थाम
लिया
और अजब हाल
था हरसूं नकाब
उठने पर
किसी ने दिल
को, किसी ने
जिगर को थाम
लिया'
अंधेरे में
तुमने जो पकड़
लिया—किसी ने
माला और किसी
ने जाम; और
किसी ने राम
और किसी ने
रहीम; और
किसी ने कुरान
और किसी ने
पुराण। तुमने
जो पकड़ लिया
है अंधेरे में,
जब रोशनी
होगी तो तुम
बड़े तड़फोगे,
बड़े रोओगे।
और तब तुम्हें
बड़ी बेचैनी भी
होगी।
इसलिए मैं तुमसे
कहता हूं कोई
धारणा न पकड़ना।
कोई धारणा ही
न पकड़ना।
क्योंकि अगर
धारणा पकड़ ली
तो पर्दा उठने
में कठिनाई हो
जाएगी।
धारणाएं
पर्दे को उठने
नहीं देतीं, क्योंकि
तुम्हारा
न्यस्त
स्वार्थ हो
जाता है।
तुमने जो
मान्यता मान
रखी है जन्मों
से, उसको
छोड़ने में बड़ी
कठिनाई होती
है। इसका अर्थ
हुआ कि अब तक
तुम मूढ़ थे? यह मानने का
मन नहीं होता।
अहंकार इसके
विपरीत खड़ा
होता। मैं और
मूढ़? असंभव।
इससे बेहतर है
अंधा होना।
आदमी अंधा
होने में बुरा
नहीं मानता।
एक आदमी अंधा
है तो उसे हम
कहते हैं, सूरदास।
और कोई मूर्ख,
कोई फू, उसको
तो हम कोई
सुंदर नाम
नहीं देते।
अंधे को
सूरदास कहते
हैं। मूढ़ को? मूढ़ के लिए
हमने कोई
सुंदर नाम
नहीं चुना।
मूढ़ के लिए तो
सिर्फ गाली है।
ये अहंकार के
हिसाब हैं।
आदमी अंधा
होना पसंद
करेगा बजाय
गलत होने के।
इसको खयाल
रखना। आंख न
खोलेगा।
क्योंकि आंख
खोलने से कहीं
ऐसा न हो, जो
दिखाई पड़े वह
मेरे अब तक के
दर्शनशास्त्र
को गलत कर जाए।
तो फिर मैं छू
सिद्ध हो
जाऊंगा। इससे
तो सूरदास
होना अच्छा है।
कम से कम लोग
सूरदासजी तो
कहते हैं।
तुममें से
अधिक ने आंखें
बंद कर रखी
हैं, मींच रखी
हैं। खोलने से
डरते हो।
शुतुरमुर्गी
न्याय!
शुतुरमुर्ग
दुश्मन को देख
कर रेत में
अपने मुंह को
छिपा लेता है।
और जब रेत में
उसका मुंह छिप
जाता, आंख
बंद हो जाती
तो वह शांत
खड़ा हो जाता
है। जब दुश्मन
दिखाई नहीं
पड़ता तो
शुतुरमुर्ग
का तर्क है कि
होगा नहीं, इसलिए दिखाई
नहीं पड़ता।
यही तो बहुत
लोगों का तर्क
है। वे कहते
हैं, ईश्वर
अगर है तो
दिखाई क्यों
नहीं पड़ता? जब दिखाई
नहीं पड़ता तो
नहीं है। जो
दिखाई पड़ता है,
वही है। और
जो दिखाई नहीं
पड़ता वह नहीं
है। यही तो
शुतुरमुर्ग
का तर्क है।
शुतुरमुर्ग
बड़ा नास्तिक
मालूम होता है।
सिर छिपा कर
खड़ा हो जाता
है रेत में।
दुश्मन सामने
खड़ा है लेकिन
अब उसे दिखाई
नहीं पड़ता। डर
खतम हो गया।
जब दुश्मन
दिखाई नहीं
पड़ता तो नहीं
होगा। जो
दिखाई नहीं
पड़ता वह हो
कैसे सकता है?
और इस भांति
शुतुरमुर्ग
दुश्मन के हाथ
में पड़ जाता
है। आंख खुली
रहती तो बचाव
भी हो सकता था।
भाग भी सकता
था, लड़ भी
सकता था, छिप
भी सकता था।
कुछ किया जा
सकता था। आंख
बंद करके रेत
में सिर गड़ा
कर खड़े हो गए, अब तो कुछ भी
नहीं किया जा
सकता। अब तो
दुश्मन के हाथ
में पूरी तरह
पड़ गए। अब तो
कमजोर दुश्मन
भी हरा देगा।
अब तो छोटा—मोटा
दुश्मन भी
नष्ट कर देगा।
आंख खोलो। और आंख
खोलनी हो तो
धारणाओं में
अपना रस मत
लगाओ।
धारणाओं से मत
चिपटी। हिंदू
मुसलमान, ईसाई
मत बनो। ईश्वर
को मानने वाले,
ईश्वर को न
मानने वाले मत
बनी। सत्य ऐसा
है, सत्य
वैसा है ऐसी
बकवास में मत
पड़ो। इतना ही
कहो कि मुझे
कुछ पता नहीं।
मैं अज्ञानी
हूं और चित्त
मेरा हजार—हजार
विचारों से
भरा है। तो
इतना ही करो
कि मैं चित्त
का उपाय करलूं
कि विचार शांत
हो जाएं, निर्विचार
हो जाऊं। तो
शायद मेरी आंखों
पर विचारों का
धुआं न होगा
तो मैं देख
सकूं, जो
है। उसे वैसा
ही देख सकूं
जैसा है। जस
का तस, जैसे
का तैसा देख
सकूं। अभी तो
विचार बीच—बीच
में आकर सब
गड़बड़ कर जाते
हैं। विचार का
ही तो पर्दा
है। और कौन सा
पर्दा है आंख
पर?
इस बात को
दोहरा दूं।
पर्दा
परमात्मा पर
नहीं पड़ा है, और न सत्य पर
पड़ा है।
परमात्मा
नग्न खड़ा है।
परमात्मा
दिगंबर है।
पर्दा
तुम्हारी आंख
पर पड़ा है। आंख
पर पर्दा है, परमात्मा पर
पर्दा नहीं है।
इसीलिए तो ऐसा
होता है, एक
की आंख का
पर्दा हटता है
तो सबको थोड़े
ही परमात्मा दिखाई
पड़ता है। अगर
परमात्मा पर
पर्दा होता तो
उठा दिया एक ने
पर्दा, सबको
दिखाई पड़ जाता।
बुद्ध आए
उठा दिया
पर्दा; तो
बुद्धओं को भी
दिखाई पड़ गया।
पर्दा अगर
परमात्मा पर
होता तो एक के
उठाने से सबके
लिए उठ जाता।
सीधी बात है।
लेकिन पर्दा
हरेक की आंख
पर पड़ा है।
इसलिए बुद्ध
जब पर्दा
उठाते हैं तो
उनकी ही आंख
खुलती है, किसी
और की नहीं
खुलती। मैं
पर्दा
उठाऊंगा मेरी आंख
खुलती है, तुम्हारी
नहीं खुलती।
तुम पर्दा
उठाओगे, तुम्हारी
आंख खुलेगी
किसी और की
नहीं खुलेगी। आंख
पर पर्दा है।
और पर्दा किस
बात का है? पर्दे
का तानाबाना
किससे बना है?
धारणाएं
पक्षपात, शास्त्र,
सिद्धांत, जो तुमने
मान रखी हैं
बातें, उनसे
पर्दा बना है।
पर्दा
तुम्हारी
मान्यता से
बुना गया है।
रंग—बिरंगी
मान्यताएं तुमने
इकट्ठी कर लीं
बिना जाने।
सोवियत रूस
में कोई
आस्तिक नहीं, क्योंकि
सरकार
नास्तिक है।
स्कूल, कालेज,
विश्वविद्यालय
नास्तिकता
पढ़ाते हैं।
नास्तिक होने
में लाभ है।
आस्तिक होने
में नुकसान ही
नुकसान है रूस
में। आस्तिक
हुए कि कहीं न
कहीं जेल में
पड़े १ आस्तिक
हुए कि झंझट
में पड़े।
नास्तिक होने
में लाभ ही
लाभ है।
जैसे यहां
भारत में
आस्तिक होने
में लाभ ही लाभ
है, नास्तिक
होने में हानि
ही हानि है, ऐसी ही हालत
वहा है। कुछ
फर्क नहीं है।
यहां बैठे हैं
दुकान पर माला
लिए, लाभ
ही लाभ है।
जेब काट लो
ग्राहक की, उसको पता ही
नहीं चलता। वह
माला देखता
रहता है। वह
कहता है, ऐसा
भला आदमी! तो
मुंह में राम—राम,
बगल में
छुरी चलती। और
राम—राम से
छुरी पर खूब
धार रख जाती।
ऐसी चलती कि
पता भी नहीं
चलता। जिसकी
गर्दन कट जाती
है वह भी राम—राम
सुनता रहता।
उसको पता ही
नहीं चलता। वह
राम—राम जो है,
अनेस्थेसिया
का काम करता
है। गर्दन काट
दो, पता ही
नहीं चलता।
यहां तो
आस्तिक होने
में लाभ है।
यहां नास्तिक
होने में हानि
ही हानि है, इसलिए लोग
आस्तिक हैं।
यह धंधा है।
यह सीधे लाभ
की बात है।
रूस में लोग
नास्तिक हैं।
तुम पक्का
समझना, अगर
तुम रूस में
होते, तुम
नास्तिक होते।
तुम आस्तिक
नहीं हो सकते
थे। क्योंकि
जिस बात में
लाभ है यहां, वही तुम हो।
वहां जिस बात
में लाभ होता
वही तुम होते।
रूस बड़ा
आस्तिक देश था
उन्नीस सौ
सत्रह के पहले।
जमीन पर थोड़े
से आस्तिक
देशों में एक
आस्तिक देश था।
लोग बड़े
धार्मिक थे।
पंडा, पुजारी,
पुरोहित, चर्च...।
अचानक उन्नीस
सौ सत्रह में
क्रांति हुई
और पांच—सात
साल के भीतर
सारा मुल्क
बदल गया। छोटे
बच्चे से लेकर
के तक सब
नास्तिक हो गए।
यह भी खूब हुआ!
जैसे यह भी
सरकार के हाथ
में है। यह भी
जिसके हाथ में
ताकत है वह
तुम्हारी धारणा
बदल देता है।
ये धारणाएं
दो कौड़ी की
हैं। ये
तुम्हारे
अनुभव पर
निर्भर नहीं
हैं। इनके
पीछे चालबाजी
है। दूसरों की
चालबाजी, तुम्हारी
चालबाजी।
इनके पीछे
चालाकी है।
इनके पीछे कोई
अनुभव नहीं है।
धारणाएं
छोड़ो। मैं
तुमसे न
नास्तिक बनने
को कहता, न
आस्तिक। मैं
कहता हूं
धारणाएं छोड़ो।
यह तानाबाना
धारणाओं का
अलग करो। खुली
आंख! कहो कि
मुझे पता नहीं।
घबड़ाते क्यों
हो? यह बात
कहने में बड़ा
डर लगता है
आदमी को कि
मुझे पता नहीं।
इस बात से
बचने के लिए
वह कुछ भी
मानने को तैयार
है।
किसी से
पूछो, ईश्वर
है? तुम शायद
ही ऐसा
हिम्मतवर
आदमी पाओ, जो
कहे कि नहीं, मैं अज्ञानी
हूं मुझे कुछ
पता नहीं। मैं
इसी आदमी को
धार्मिक कहता
हूं। यह
ईमानदार है।
दूसरे
तुम्हें
मिलेंगे। कोई
कहेगा कि ही, मुझे पता है
ईश्वर है।
पूछो, कैसे
पता है? तो
वह कहता है, मेरे पिताजी
ने कहा है।
पिताजी का पता
लगाओ, उनके
पिताजी कह गए
हैं। ऐसे तुम
पता लगाते जाओ,
तुम बड़े
हैरान होओगे।
तुम कभी उस
आदमी को न खोज
पाओगे जिसने
कहा है, जिसको
अनुभव हुआ है।
सुनी बात है।
इसलिए तो
शास्त्रों को
हिंदुओं ने
अच्छे नाम दिए
हैं।
शास्त्रों के
दो नाम हैं :
श्रुति, स्मृति।
श्रुति का
अर्थ है सुना
गया।
तुम्हारे सब
शास्त्र या तो
श्रुति हैं—सुने
गए। किसी ने
कहा, तुमने
सुना। या
स्मृति—याद
किए गए, कंठस्थ
कर लिए। बैठगए
तोता बन कर।
श्रुति—स्मृति
बड़े अच्छे
शब्द हैं।
यही
तुम्हारी सब
धारणाएं हैं—
श्रुतियां और
स्मृतियां।
छोड़ो दोनों। न
तो कोई श्रुति
से सत्य को
पाता है, न
कोई स्मृति से
सत्य को पाता
है। छोड़ो
दोनों। उनके
दोनों के
छोड़ते ही
पर्दा गिर
जाता है। सत्य
सामने खड़ा है।
सत्य सदा
सामने खड़ा है।
सत्य तुम्हें
घेरे हुए खड़ा
है। सत्य इन
वृक्षों में,
सत्य इन
हवाओं में, सत्य इन
मनुष्यों में,
पशु—
पक्षियों में
खड़ा है।
परमात्मा हजार—हजार
रूपों में
प्रकट हो रहा है।
और तुम बैठे
अपनी सड़ी—गली
किताब खोले।
तुम बैठे अपना
कुरान—बाइबिल
लिए। तुम
उसमें देख रहे
हो कि सत्य
कहां है। और
सत्य यहां
सूरज की
किरणों में
नाच रहा। और
सत्य
तुम्हारे
द्वार पर
हवाओं में
दस्तक दे रहा।
और सत्य हजार—हजार
रूपों बांध कर
मदमस्त है।
सत्य चारों
तरफ खड़ा है; आंख पर
पर्दा है।
पर्दा शब्दों,
सिद्धांतों,
शास्त्रों
का है; श्रुति—स्मृति
का है। हटा दो।
कह दो, मैं
नहीं जानता।
जिस दिन तुम
यह कहने में
समर्थ हो
जाओगे... ध्यान
रखना, बड़े
साहस की बात
है। थोड़े ही
लोग समर्थ हो
पाते हैं जो कहते
हैं, मैं
नहीं जानता।
जिस दिन तुम
यह कहने में
समर्थ हो
पाओगे कि मैं
नहीं जानता, तुम तैयार
हुए जानने के
लिए। पहला कदम
उठाया। तुमने
कम से कम
व्यर्थ को तो
छोड़ा। अंधेपन
में जो
मान्यताएं
मानी थीं, वे
तो छोड़ी।
तो कम से कम
ऐसे अंधे तो
बनो, जो कहता
है कि मैंने
हाथ तो फेरा
लेकिन क्या था,
मैं ठीक से
नहीं जानता।
खंभे जैसा
मालूम पड़ता था।
लेकिन अंधे के
मालूम पड़ने का
क्या भरोसा!
मैं अंधा हूं।
स्वीकार कर लो
कि मैं
अज्ञानी हूं
और ज्ञान की
पहली किरण
उतरेगी।
सिर्फ उनके ही
जीवन में
ज्ञान की किरण
उतरती है, जो
इतने विनम्र हैं;
जो कह देते
हैं कि मुझे
पता नहीं।
परमात्मा
उन्हीं के
हृदय को
खटखटाता है।
पंडितों पर
यह किरण कभी
नहीं उतरती।
पापियों पर
उतर जाए, पंडितों
पर नहीं उतरती।
पंडित होनो इस
जगत में सबसे
बड़ा पाप है।
तीसरा
प्रश्न :
मैं
तुम्हारी
रहमत का
उम्मीदवार
आया हूं
मुंह ढांपे
कफन से
शर्मसार आया
हूं
आने न दिया
बारे—गुनाह ने
पैदल
ताबूत में
कंधे पर सवार
आया हूं
ऐसी ही
हालत है।
परमात्मा के
सामने कौन सा
मुंह लेकर खड़े
होओगे? दिखाने
के लिए कौन सा
चेहरा है
तुम्हारे पास?
तुम्हारे
सब चेहरे तो
मुखौटे हैं।
ये तो छोड़
देने होंगे।
तुम्हारे पास
क्या है
परमात्मा को
अर्पण करने को?
जिसको तुम
जीवन कहते हो
वह तो बड़ा
बेसार मालूम
पड़ता।
तुम्हारे पास
फूल कहां हैं
जो तुम चढ़ाओगे?
वृक्षों के
फूलों को चढ़ा
कर तुम सोचते
हो, तुमने
पूजा कर ली? पूजा हो रही
थी, उसमें
तुमने बाधा
डाल दी। वृक्ष
के ऊपर फूल
पूजा में लीन
थे। परमात्मा
के चरणों में
चढ़े थे जीवंत
रूप से, सुगंधित
हो रहे थे, हवाओं
में नाच रहे
थे। बिखेर रहे
थे अपनी सुवास।
तुम तोड़ कर
उनको मार डाले।
गंध बिखर गई, फूल के
प्राण खो गए।
इस मुर्दाफूल
को तुम जाकर
चढ़ा आए परमात्मा
के चरणों मे।
तुम्हारे परमात्मा
मिट्टी—पत्थर
के हैं, मुर्दा;
और जहां तुम
जीवन देखते हो
उसको भी तत्क्षण
मुर्दा कर
देते हो।
फूल चढ़ाना
अपने चैतन्य
का, सहस्रार
का। तुम्हारा
कमल जब खिले
भीतर, खिले
उसकी हजारों
पंखुड़ियां, तब चढ़ाना।
बुद्ध ने ऐसा
कमल चढ़ाया, अष्टावक्र
ने ऐसा कमल
चढ़ाया, कबीर—नानक
ने ऐसा कमल
चढ़ाया। जिस
दिन ऐसा कमल
चढ़ाओगे उस दिन
चढ़ाया। और उसे
तोड़ कर नहीं
चढ़ाना पड़ेगा।
तुम चढ़ जाओगे।
तुम प्रभु के
हो जाओगे। तुम
प्रभुमय हो
जाओगे।
अभी तो हालत
बुरी है। अभी
तो बड़ी लज्जा
की स्थिति है।
ठीक है यह पद
किसी कवि का
'मैं
तुम्हारी
रहमत का
उम्मीदवार
आया हूं।'
अभी तो
परमात्मा से
तुम सिर्फ
करुणा मांग
सकते हो, दया।
अभी तो तुम
भिखारी की तरह
आ सकते हो। और
ध्यान रखना, मैं तुमसे
कहता हूं कि
परमात्मा के
द्वार पर जो
भिखारी की तरह
जाएगा वह कभी
जा ही नहीं
पाता। सम्राट
की तरह जाना
होता है। जो
मांगने गया है
वह परमात्मा
तक पहुंचता ही
नहीं। जो
परमात्मा को
देने गया है
वही पहुंचता
है।
कुछ लेकर
जाओ। कुछ पैदा
करके जाओ। कुछ
सृजन हो
तुम्हारे
जीवन में। कुछ
फूल खिले। कुछ
सुगंध बिखरे।
कुछ होकर जाओ।
उत्सव, संगीत,
नृत्य, समाधि,
प्रेम, ध्यान,
कुछ लेकर
जाओ। खाली हाथ
परमात्मा के
दरबार में मत
पहुंच जाना।
झोली लेकर तो
मत जाओ भिखारी
की। यह झोली
ही तो
तुम्हारी
वासना है। प
इस झोली के
कारण ही तो
तुम भटके हो
जन्मों—जन्मों।
मांग रहे, मांग
रहे, मांग
रहे। कुछ
मिलता भी नहीं,
मांगे चले
जाते।
अभ्यस्त हो गए
हो भीख के।
'मैं
तुम्हारी
रहमत का
उम्मीदवार
आया हूं। '
नहीं, परमात्मा
के द्वार पर
करुणा मांगने
मत जाना; दया
के पात्र होकर
मत जाना। मगर
ऐसा ही आदमी
जाता है।
'मुंह
ढांपे कफन से 'शर्मसार आया
हूं। '
और अपना
मुंह ढ़ाके
हूं कफन से।
शर्म और लज्जा
में दबा हुआ
आया हूं। 'आने
न दिया बारे—गुनाह
ने पैदल। '
और इतने
गुनाह किए हैं
कि पैदल आने
की हिम्मत न
जुटा सका। और
इतने गुनाह
किए कि उनका
बोझ इतना है
मेरे सिर पर
कि पैदल आता
भी तो कैसे
आता? गठरी
गुनाहों की
बड़ी है, बोझिल
है।
'ताबूत
में कंधे पर
सवार आया हूं
इसलिए
ताबूत में, अरथी में, दूसरों के
कंधे पर सवार
होकर आ गया
हूं।
यही
तुम्हारी
जिंदगी की कथा
है। तुम यहां
चल थोड़े ही
रहे हो, ताबूत
में जी रहे हो।
तुम यहां अपने
पैरों से थोड़े
ही चल रहे हो, दूसरों के
कंधों पर सवार
हो। और जरा
अपने चेहरे को
गौर से देखना
आईने में, तुम
पाओगे कफन
तुमने डाल रखा
है चेहरे पर।
मुर्दगी है।
मौत का चिह्न
है तुम्हारे
चेहरे पर।
जीवन का
अभिसार नहीं,
जीवन का
आनंद—उल्लास
नहीं, मौत
की मातमी छाया
है; मौत का
अंधेरापन है।
तुम कर क्या
रहे हो यहां
सिवाय मरने के? रोज—रोज मर
रहे हो, इसी
को जीवन कहते
हो। जबसे पैदा
हुए एक ही काम
कर रहे हो :
मरने का। रोज—रोज
मर रहे हो, प्रतिपल
मर रहे हो, और
इसको जीना
कहते हो। इससे
ज्यादा और
जीने से दूर
क्या होगा? यह जीने के बिलकुल
विपरीत है।
नाचे? गुनगुनाए? गीत प्रकट
हुआ? प्रसन्न
हुए?
नहीं, अभी
जीवन से
अभिसार नहीं
हुआ। अभी जीवन
से संबंध ही
नहीं जुड़ा।
अभी जीवन से
संभोग नहीं
हुआ। बस, ऐसे
ही धक्के—मुक्के
खा रहे हो।
ठीक है। ऐसी
स्थिति है
आदमी की। होनी
नहीं चाहिए।
बदली जा सकती
है।
बदलने के
लिए कुछ करना
पड़े। और बदलने
के लिए सिर्फ
प्रार्थना
.करने से कुछ
भी न होगा।
क्योंकि
प्रार्थना
में फिर वही
मांग, फिर
वही
भिखमंगापन।
बदलने के लिए
तुम्हें अपने
जीवन की आमूल—दृष्टि
बदलनी होगी।
परमात्मा
के सहारे जीने
की फिकर मत
करो, अपने को
रूपांतरित
करो, अपने
को अपने हाथ
में लो। और
तुम यह कर
सकते हो। कोई
कारण नहीं है,
कोई बाधा
नहीं है। जो
नर्क की
यात्रा कर
सकता है वह
स्वर्ग की यात्रा
क्यों नहीं कर
सकता? जो
पाप निर्मित
कर सकता है वह
पुण्य को जन्म
क्यों नहीं दे
सकता? क्योंकि
वही ऊर्जा पाप
बनती है और
वही ऊर्जा
पुण्य बनती है।
जिस ऊर्जा के
दुरुपयोग से
तुम आज अपना
चेहरा प्रकट
करने में डर
रहे हो उसी
ऊर्जा का
सदुपयोग, सृजनात्मक
उपयोग— और
तुम्हारे
चेहरे पर एक
आभा आ जाएगी।
एक सूरज प्रकट
होगा। एक चांद
खिलेगा, एक
चांदनी
बिखरेगी।
ऊर्जा वही
है। जरा भी
फर्क नहीं
करना है।
क्रोध करुणा
बन जाता है, जरा समझदारी
और जागरूकता
की जरूरत है।
काम राम बन
जाता है, जरा
सी समझ की
जरूरत है। और
संभोग समाधि
बन जाती है।
जीवन को
अपने हाथ में
लो। कहीं ऐसा
न हो कि
प्रार्थना भी
तुम्हारा
बचने का ही
उपाय हो। कर
ली प्रार्थना, कह दिया
प्रभु, बदली;
फिर नहीं
बदला तो अब हम
क्या करें? तुमने प्रभु
पर जिम्मा छोड़
दिया। तुमने
कहा बदलो, अब
नहीं बदलते तो
तुम्हीं
जिम्मेवार हो।
अब तुमने अपना
दायित्व भी
हटा लिया। अब
तुम अपराधी भी
अनुभव न करोगे
अपने को। तुम
कहोगे, अब
मैं क्या करूं?
इतना कर
सकता था कि
तुमसे कह तो
दिया कि बदली।
और इम अपने
पुराने ढर्रे
को जारी रखे
हो। और तुम
बदलना जरा भी
नहीं चाहते।
तुम्हारी
प्रार्थनाएं
अक्सर
तुम्हारी बदलाहट
की आकांक्षा
की सूचक नहीं
होतीं।
तुम्हारी
प्रार्थनाएं
केवल इस बात
की सूचक होती
हैं कि हम तो
यह करने को
तैयार नहीं
हैं, अब तुझे
करना हो तो
देखें कैसे
करता! दिखा दे
चमत्कार। तुम
चमत्कार के
आकांक्षी हो।
ऐसे चमत्कार
होते नहीं, हुए नहीं
कभी; होंगे
भी नहीं।
तुम्हें परम
स्वतंत्रता
मिली है।
तुम्हें अपने
जीवन का गीत
गुनगुनाने की
पूरी आजादी
मिली है।
यही शब्द
गालियां बन
जाते हैं और
यही शब्द मधुर
गीत। तुमने
खयाल किया? वर्णमाला
वही की वही है।
गाली दो कि
गीत बना लो, वर्णमाला
वही की वही है।
पूजा करो कि
पाप कर लो, वर्णमाला
वही की वही है।
संभोग में उतर
जाओ कि समाधि
में उठ जाओ, वर्णमाला
वही की वही है।
सिर्फ संयोजन
बदलता है, सिर्फ
आयोजन बदलता
है, सिर्फ
व्यवस्था
बदलती है।
संन्यास
व्यवस्था को
बदलने का
प्रयोग है।
संसारी की
तरह रह कर देख
लिया, अब
थोड़े
संन्यासी की
तरह रह कर
देखो। बदलो
आयोजन को। और
मैं तुमसे यह
कहता हूं कि
तुम्हारे पास
जो भी है
उसमें गलत कुछ
भी नहीं है; भला तुमने
गलत उपयोग
किया हो। जो
भी तुम्हारे
पास है, गलत
कुछ भी नहीं
है; सिर्फ
व्यवस्थित
करना है।
ऐसा ही समझो
कि एक
हारमोनियम
रखा है और एक
आदमी जो संगीत
नहीं जानता, हारमोनियम
बजा रहा है।
अंगुलियां भी
ठीक हैं, हारमोनियम
भी ठीक है, हारमोनियम
की चाबियों पर
अंगुलियां
चलाना भी ठीक
है, स्वर
भी पैदा हो
रहे हैं, लेकिन
मोहल्ले—पड़ोस
के लोग पुलिस
में रिपोर्ट
कर देंगे कि
यह आदमी पागल
किए दे रहा है।
मैंने सुना
है, मुल्ला
नसरुद्दीन एक
रात ऐसा ही
हारमोनियम बजा
रहा था। आखिर
पड़ोसी के
बरदाश्त के
बाहर है।. गया
तो पड़ोसी ने
खिड़की खोली और
उसने कहा कि
नसरुद्दीन, अब बंद करो
नहीं तो मैं
पागल हो
जाऊंगा।
मुल्ला ने कहा,
भाई, अब
व्यर्थ है
बकवास करना।
घंटा भर हुआ
मुझे बंद किए।
पागल तुम हो
चुके!
हारमानियम
ठीक, अंगुलियां
स्वस्थ, बजाने
वाला ठीक, सब
ठीक है, जरा
सीख चाहिए।
जरा स्वरों का
बोध, ज्ञान
चाहिए। जरा
स्वरों में
मेल बिठाने की
कला चाहिए।
वही
हारमोनियम, वही
अंगुलियां, वही आदमी, और पागल भी
सुन कर स्वस्थ
हो सकते हैं।
संगीत पर
प्रयोग चल रहे
हैं पश्चिम में।
और इस बात के
आसार हैं कि
आने वाली सदी
में संगीत
पागलों के
इलाज का
अनिवार्य
उपाय हो जाएगा।
क्योंकि
संगीत को सुन
कर तुम्हारे
भीतर के स्वर
भी शांत हो
जाते हैं।
उनमें भी
तालमेल हो
जाता है। बाहर
के संगीत की
छाया
तुम्हारे
भीतर भी पड़ने
लगती है। बड़े
प्रयोग चल रहे
हैं। संगीत
मनुष्य के
स्वास्थ्य का
उपाय हो सकता
है।
विक्षिप्त जो
हो गया है, उसे वापिस
स्वस्थ करने
में खींच ला
सकता है। और
अगर नहीं
जानते तो वही
स्वर उन्माद
पैदा कर सकते
हैं। बस इतना
ही फर्क है।
संसारी और
संन्यासी में
इतना ही फर्क
है। जीवन की
वीणा को जिसने
बजाना सीख
लिया उसे मैं
संन्यासी
कहता हूं। और
जो संन्यासी
है, जीवन की
वीणा को बजाने
में कुशल हो
गया— ध्यान
करो, उसे
परमात्मा के
पास नहीं जाना
पड़ेगा, परमात्मा
उसके पास आता
है। ताबूत में
चढ़ कर तो जाने
की बात छोड़ो, जाना ही
नहीं पड़ेगा।
परमात्मा खुद
उसकी तरफ बहता
है। आना ही
पड़ता
परमात्मा को।
जब तुमने पूरी
की पूरी
व्यवस्था
जुटा दी, जैसा
होना चाहिए
वैसे तुम हो
गए ध्यान की
सुरभि फैलने
लगी, तुम्हारे
रोएं—रोएं में
संगीत आपूरित
हो गया, तुममें
एक बाढ़ आ गई
आनंद की, उल्लास
की, तो
परमात्मा
रुकेगा कैसे?
जब फूल
खिलता है तो
भौरे चले आते
हैं। जब तुम
खिलोगे, परमात्मा
चला आएगा।
तुम्हें जाने
की भी जरूरत
नहीं है। और
जिस दिन
परमात्मा
तुम्हें
चुनता है..
.तुम्हारे
चुनने से कुछ
भी नहीं होता।
तुम तो चुनते
रहते हो।
तुम्हारे
चुनने से कुछ
भी नहीं होता,
जिस दिन
परमात्मा
तुम्हें
चुनता है उस
दिन, बस उस
दिन क्रांति
घटती है। उस
दिन तुम्हारा
साधारण सा
लोहा उसके
पारस—स्पर्श
से स्वर्ण हो
जाता है।
तुम कुछ ऐसा
करो कि वह चला
आए; उसे आना
ही पड़े; वह
रुक़ ना सके।
तुम्हारा
बुलावा
शब्दों में न
हो, तुम्हारा
बुलावा
अस्तित्व में
हो जाए।
मेरा जीवन बिखर
गया है
तुम चुन लो, कंचन बन जाऊं
तुम पारस
मैं अयस अपावन
तुम अमृत
मैं विष की
बेली
तृप्ति
तुम्हारा
चरणन चेरी
तृष्णा
मेरी निपट
सहेली
तन—मन भूखा
जीवन भूखा
सारा खेत
पड़ा है सूखा
तुम बरसो
घनश्याम तनिक
तो
मैं आषाढ़
सावन बन जाऊं
मेरा जीवन
बिखर गया है
यश की बनी
अनुचरी
प्रतिभा
बिकी अर्थ
के हाथ भावना
काम—क्रोध
का द्वारपाल
मन
लालच के घर
रहन कामना
अपना ज्ञान
न जग का परिचय
बिना मंच का
सारा अभिनय
सूत्रधार
तुम बनो अगर
तो
मैं अदृश्य
दर्शन बन जाऊं
मेरा जीवन
बिखर गया है
तुम चुन लो, कंचन बन
जाऊं
बिन धागे की
सुई जिंदगी
सिए न कुछ बस
चुभ—चुभ जाए
कटी पतंग
समान सृष्टि
यह
ललचाए पर
हाथ न आए
रीती झोली
जर्जर कथा
अटपट मौसम
दुस्तर पंथा
तुम यदि साथ
रहो तो फिर
मैं
मुक्तक
रामायण बन
जाऊं
मेरा जीवन
बिखर गया है
तुम चुन लो, कंचन बन
जाऊं
बुदबुद तक
मिट कर हिलोर
इक
उठ गया सागर
अकूल में
पर मैं ऐसा
मिटा कि अब तक
फूल न बना न
मिला धूल में
कब तक और
सहूं यह पीड़ा
अब तो खतम
करो प्रभु
क्रीड़ा
इतनी दो न
थकान कि जब
तुम
आओ, मैं
झा खोल न पाऊं
मेरा जीवन
बिखर गया है
तुम चुन लो, कंचन बन
जाऊं
प्रभु
चुनता है, योग्यता
अर्जित करो।
प्रभु चुनता
है, संगीत
को जन्माओं।
प्रभु चुनता
है, तुम
समाधिस्थ बनो।
प्रार्थना
छोड़ो। मांगना
छोड़ों। योग्य
बनो। पात्र
बनो। तुम जिस
दिन पात्र बन
जाओगे, अमृत
बरसेगा। और
अपात्र रह कर
तुम कितनी ही
प्रार्थना
करते रहो, अमृत
बरसने वाला
नहीं।
क्योंकि
अपात्र में
अमृत भी पड़ जाए
तो जहर हो
जाता है।
चौथा
प्रश्न :
मुझे मेरे
घर—गांव के
लोग पागल कहते
हैं तब से, जब से मैंने ध्यान
करना शुरू किया।
और मैं कभी—कभी
द्वंद्व में पड
जाता हू बहुत
असमंजस में; क्योंकि लोगों
की बात पर
चलने से मेरी
शांति भंग हो
जाती है।
प्रभु, मेरा
पथ—प्रदर्शन
कर मेरा जीवन
सफल करें।
पूछा
है स्वामी
अरविंद योगी
ने।
अब तो और
मुश्किल होगी।
अब तुम
संन्यासी भी
हो गए। लोग
पागल कहते हैं
इससे
तुम्हारे मन
में चोट क्यों
लगती है? तुम्हारी
भी धारणा
लोगों के ही
जैसी है।
तुम्हें भी
लगता है कि
पागल होना कुछ
गलत है। लोग
जब कहते हैं, पागल हो गए
तो तुम्हारी
शांति भंग
होती है।
तुम्हारे मन
में चिंता
जागती है।
तुम्हारे
मूल्य में और
लोगों के
मूल्य में फर्क
नहीं है।
मैं तुमसे
कहता हूं धन्य
भागी हो कि
तुम पागल हो।
जब लोग पागल
कहें तो
उन्हें
धन्यवाद देना, उनका
अनुग्रह
मानना। तुम
धन्यभागी हो
कि तुम पागल
हो, क्योंकि
तुम परमात्मा
के लिए पागल
हुए हो। वे भी
पागल हैं।
उनका पागलपन
पद के लिए है, धन के लिए है।
उनका पागलपन
सामान्य
व्यर्थ की
चीजों के लिए है।
तुम सार्थक के
लिए पागल हुए
हो।
तुम घबड़ाओ
मत। और तुम
इससे परेशान
भी मत होओ। और
अगर तुम्हारी
शांति खंडित
हो जाती है तो
इसका इतना ही
अर्थ हुआ कि
शांति अभी
बहुत गहरी
नहीं, छिछली
है। किसी के
पागल कहने से
तुम्हारी
शांति खंडित हो
जाए? तो
इसका अर्थ हुआ,
शांति बड़ी
ऊपर—ऊपर है।
और शांत
बनी, कि सारा
जगत तुम्हें
पागल कहे तो
भी तुम्हारे भीतर
लहर पैदा न हो।
ऐसे पागल बनो
कि कोई
तुम्हारी
शांति खंडित न
कर पाए, कोई
तुम्हारी
मुसकान न छीन
सके। सारी
दुनिया भी
विपरीत खड़ी हो
जाए तो भी
तुम्हारा
आनंद अखंडित
हो और
तुम्हारी
धारा, अंतर्धारा
निर्बाध बहे।
ऐसे पागल बनो।
अपने गांव
के लोगों से
कहना, आपकी
बड़ी कृपा है, मुझे याद
दिलाते हैं।
अभी हूं तो
नहीं, होने
के मार्ग पर
हूं। धीरे—
धीरे हो
जाऊंगा। सब
मिल कर
आशीर्वाद दो
कि हो जाऊं।
चल पड़ा हूं
तुम सबके
आशीर्वाद साथ
रहे तो मंजिल
पूरी हो जाएगी।
और तुम चकित
होओगे, अगर
तुम अशांत न
होओ, व्यग्र
न होओ, उद्विग्न
न होओ तो गांव
के लोग जो
तुम्हें पागल
कहते हैं, वही
तुम्हें
पूजेंगे भी।
उन्होंने सदा
पागलों को
पूजा।
पहले पागल
कहते हैं, पत्थर मारते
हैं, नाराज
होते हैं। अगर
तुम उतने में
ही डगमगा गए
तो फिर बात
खतम हो गई।
तुम अगर डटे
ही रहे, तुम
अपना गीत
गुनगुनाए ही
गए, उनके
पत्थर भी बरसते
रहें, उनके
अपमान भी
बरसते रहें, और तुम फूल
बरसाए ही गए
तो आज नहीं कल
उनको भी लगने
लगता है। आखिर
उनके भीतर भी
प्राण हैं, उनके भीतर
भी चैतन्य
सोया है।
कितनी देर ऐसा
करेंगे? उनको
भी लगने लगता
है कि कहीं हम
कुछ भूल तो नहीं
कर रहे? यह
पागल कोई
साधारण पागल
नहीं मालूम
होता।
तुम्हारी
प्रतिभा, तुम्हारी
आभा, तुम्हारा
वातावरण धीरे—
धीरे उन्हें
छुएगा। तुम
संक्रामक बन
जाओगे 1 उनमें
से कुछ छुपे
अंधेरे इधर—उधर
आकर तुम्हारे
पास बैठने
लगेंगे।
उनमें से कुछ,
जब कोई न
होगा, तुम्हारे
पैर छूने
लगेंगे। फिर
धीरे— धीरे
उनकी भी
हिम्मत बढ़ेगी,
फिर
तुम्हारे पास
पागलों का एक
समूह
इकट्ठा
होने लगेगा।
वे जो
तुम्हारे
विरोध में थे, अब धीरे—धीरे
तुम्हारी
उपेक्षा करने
लगेंगे। वे जो
तुम्हारी
उपेक्षा करते
थे, अब
धीरे— धीरे
तुममें
उत्सुक होने
लगेंगे। वे जो
तुममें
उत्सुक थे, धीरे— धीरे
तुम्हारी
पूजा में
संलग्न होने
लगेंगे।
ऐसा ही सदा
हुआ है। तुम
घबड़ाओ मत।
और अगर तुम
मुझसे पूछते
हो तो गाव
वालों का ऐसा
कहना
तुम्हारे लिए
एक अवसर है।
वे तुम्हारे
लिए एक मौका
जुटा रहे हैं, एक कसौटी
खड़ी कर रहे
हैं, जिस
पर तुम अगर
खरे उतरे तो
तुम धन्यभागी
हो जाओगे।
रोम—रोम में
खिले चमेली
सांस—सांस
में महके बेला
पोर—पोर से
झरे मालती
अंग—अंग
जुड़े जूही का
मेला
पग—पग लहरे
मान सरोवर
डगर—डगर
छाया कदंब की
तुमने क्या
कर दिया? उमर
का
खंडहर
राजभवन लगता
है
जाने क्या
हो गया कि हर
दम
बिना दीये
के रहे उजाला
चमके टाट
बिछावन जैसे
तारों वाला
नील दुशाला
हस्तामलक
हुए सुख सारे
दुख के ऐसे
ढहे कगारे
व्यंग—वचन
लगता था कल तक
वह अब
अभिनंदन लगता
है
तुम ऐसे
जीयो कि
तुम्हारे पोर—पोर
से महके बेला।
सांस—सांस में
खिले चमेली।
अंग—अंग में
जूही का मेला।
तुम ऐसे जीयो।
तुम फिकर छोड़ो
वे क्या कहते
हैं। वे
तुम्हारे हित
में ही कहते
हैं। अनजाने
तुम्हारे हित
का ही आयोजन
कर रहे हैं।
तुम उनकी
परीक्षा में
खरे उतरी। अगर
उतर सके तो
किसी दिन तुम
कहोगे :
जाने क्या
हो गया कि हर
दम
बिना दीये
के रहे उजाला!
पत्थर फूल
बन जाते हैं
अगर तुम सच में
पागल हो गए हो।
सच में पागल
हो जाओ। कदम
पहले उठा लिए
हैं, अब लौट मत
पड़ना। कायर
होते हैं, लौट
जाते हैं; साहसी
डटे रहते हैं।
और संन्यास
से बड़ा साहस
संसार में
दूसरा नहीं है।
क्योंकि भीड़
सांसारिकों
की है। उसमें
संन्यासी हो
जाना अचानक
भीड़ से अलग हो जाना
है। भीड़ राजी
नहीं होती
किसी के अलग
होने से। भीड़
चाहती है तुम
वैसा ही वर्तन
करो जैसा वे करते
हैं। वैसे ही
कपड़े पहनो, वैसे ही उठो—बैठो,
वैसे ही चलो,
वही रीति—रिवाज।
भीड़ बरदाश्त
नहीं करती कि
तुम उनसे अन्य
हो जाओ।
क्योंकि अन्य
होने का यह
अर्थ होता है :
तो तुम भीड़ को
गलत कह रहे हो?
अन्य होने
का यह मतलब
होता है. तो हम
सब गलत हैं, तुम सही हो?
जब जीसस को
लोगों ने देखा
तो सवाल उठा
कि अगर जीसस
सही हैं तो
हमारा क्या? हम सच गलत? तो जीसस को
उन्होंने
सूली दे दी—मजबूरी
में; अपने
को बचाने में।
कोई जीसस को
सूली देने में
उनका रस न था।
रस इस बात में
था कि अगर
जीसस सही हैं
तो हम सब गलत
होते हैं। और
यह जरा महंगा
सौदा है कि हम
सब गलत हों।
इतनी बड़ी भीड़!
यह जरा
लोकतंत्र के
विपरीत है। तो
जीसस को सूली
दे दो, झंझट
मिटाओ। इस
आदमी की
मौजूदगी
उपद्रव लाती
है।
मगर जीसस
सूली पर भी
खरे उतरे।
जीसस ने सूली
पर से भी
प्रभु से कहा, हे प्रभु!
इन्हें क्षमा
कर देना
क्योंकि ये जानते
नहीं कि ये
क्या कर रहे
हैं। और जब
लोगों ने सूली
पर से ये वचन
सुने तब उन्हें
याद आई कि हम
चूक गए। हमने
उसे मार डाला
जो हमें
जिलाने आया था।
फिर पूजा, फिर
अर्चना के दीप
जले। आज जमीन
पर जीसस को
पूजने वालों
की संख्या सबसे
बड़ी है। कारण?
पश्चात्ताप!
महावीर को' पूजने वालों
की संख्या
बहुत बड़ी नहीं
है, क्योंकि
महावीर के साथ
हमने कोई बहुत
दुराचार किया
नहीं, पश्चात्ताप
का कारण नहीं
है। इसे तुम
समझना। महावीर
को हमने कोई
सूली नहीं दी।
तो जब सूली
नहीं दी तो
पश्चात्ताप
क्या खाक करें।
जीसस को सूली
लगी। तो
जिन्होंने
सूली दी, अपराध
का भाव गहरा
हो गया। अपराध
इतना गहरा हो
गया कि कुछ
करना ही होगा।
अपराध से बचने
के लिए अब
उन्होंने
पूजा की, चर्च
खड़े किए। जीसस
की पूजा सबसे
बड़ी पूजा है
जगत में, क्योंकि
जीसस के साथ
सबसे बड़ा
दुर्व्यवहार
हुआ।
ठीक है, हम
महावीर को भी पूज
लेते हैं, राम
और कृष्ण को
भी पूज लेते हैं
लेकिन जीसस
जैसी पूजा
हमारी नहीं है;
हो नहीं
सकती। हमने
इतना
दुर्व्यवहार
ही कभी नहीं
किया। जीसस की
ईसाइयत
दुनिया में
जीतती चली गई
उसका कुल कारण
क्रास पर लगी सूली
है। अपराध इतना
घना हो गया लोगों
के चित्त में कि
अब कुछ करना ही
पड़ेगा इसके
विपरीत, ताकि
अपराध के भाव
से छुटकारा हो
जाए।
पश्चात्ताप
करना होगा।
घबड़ाओ मत।
लोग पत्थर
मारे अहोभाव
से स्वीकार कर
लेना। वही
प्रार्थना मन
में रखना कि
ये जानते नहीं, क्या कर रहे
हैं। या शायद
परमात्मा
इनके माध्यम
से मेरे लिए
कसौटियां
जुटा रहा है।
तुम पूरे
पागल हो जाओ।
तुम इतने पागल
हो जाओ कि कौन
क्या कहता है, इससे
तुम्हारे मन
में कोई क्षोभ
और कोई अशांति
पैदा न हो।
ऐसे मतवाले ही
प्रभु की
मधुशालामें
प्रवेश करते
हैं।
पांचवां
प्रश्न :
शास्त्रों और
संतों का कहना
है कि
परस्त्रीगमन
करने से साधक
का पतन होता
है और साधना
में उसकी गति
नहीं होती। इस
मूलभूत विषय
पर प्रकाश
डालने की
अनुकंपा करें।
पूछा है फिर
दौलतराम खोजी
ने। वे बड़ी
गहरी बात खोज
कर लाते हैं!
खोजी हैं! इसको
मूलभूत विषय
बता रहे हैं!
अब इससे
ज्यादा कूड़ा—कर्कट
का और कोई
विषय नहीं।
जिस शास्त्र
में लिखा हो
वह भी किसी
बड़े ज्ञानी ने
न लिखा होगा, किसी टुटपुंजे
ने लिखा होगा।
ज्ञानी, और
इसका हिसाब
रखे कि कौन
किसकी स्त्री
के साथ गमन कर
रहा है! तो ये ज्ञानी
न हुए, पुलिस
के दरोगा!
और तुम कहते
हो, संतों का
कहना है? संत
ऐसी बात बोलें
तो सिर्फ इससे
इतना ही पता चलता
है, अभी
संतत्व का
जन्म नहीं हुआ।
अभी दूर है; अभी बहुत
दूर है मंजिल।
पहली तो बात
यह कि
परस्त्री कौन? तुमने सात
चक्कर लगा लिए,
बस स्त्री
तुम्हारी हो
गई? इतना
सस्ता मामला!
मगर इस देश
में इस तरह की
मूढ़ता रही है।
स्त्री को
स्त्री—धन
कहते हैं; उस
पर मालकियत कर
लेते हैं। कौन
किसका है यहां?
कौन अपना, कौन पराया? ज्ञानी तो
यही कहते हैं,
न कोई अपना
न कोई पराया।
संत तो यही
कहते हैं, अपना—पराया
छोड़ो।
तो जिन्होंने
यह कहा होगा
वे संत के वेश
में कोई और
रहे होंगे—पंडित, पुजारी, राजनीतिज्ञ,
समाज के
कर्ता—धर्ता;
लेकिन संत
नहीं। संत तो
यही कहते हैं
कि अपनी
स्त्री भी
अपनी नहीं है,
पराई की तो
बात ही छोड़ो।
यह तो तुमने
खूब होशियारी
की बात बताई :
कि परस्त्री—गमन
से साधक का
पतन होता है।
और अपनी
स्त्री के गमन
से नहीं होता?
और अपना कौन
है? जिसको
कुछ मूढ़ जनों
ने खड़े होकर
और ताली बजा कर
और तुम्हें
चक्कर लगवा
दिए वह अपना
है?
एक सज्जन
मेरे पास आते
हैं। वे कहते
हैं, बड़ी उलझन
में पड़ गया
हूं इस पत्नी —
से विवाह करके।
मैंने उनसे
कहा कि फिर
छुटकारा कर लो।
जब इतना.. .बार—बार
तुम आते हो और
एक ही झंझट; तुम्हारी
पत्नी भी दुखी,
तुम भी दुखी।
तो उन्होंने
कहा, अब
कैसे छुटकारा
करें? सात
चक्कर पड़ गए।
तो मैंने कहा,
उलटे चक्कर
लगा लो। अब
इससे ज्यादा
और क्या करना
है? खुल
जाएंगे चक्कर।
जैसे बेध गए वैसे
खोल लो। हर
गांठ खुल सकती
है। यह गांठ
भी खुल सकती
है। अगर गांठ
बहुत दुख दे
रही है तो खोल
ही लो। जो चीज
बंध सकती है, खुल सकती है।
जो बाधी है वह
कृत्रिम है।
संत तो
तुमसे कहते
हैं, कोई अपना
नहीं। बस तुम
ही अपने हो।
तो अगर संतों
से तुम पूछो
तो वे कहेंगे,
पर—गमन से
पतन होता है।
स्त्री
इत्यादि का
कोई सवाल नहीं;
पर—गमन, दूसरे
में जाने से, दूसरे के
साथ संबंध
जोड्ने से, दूसरे को
अपना— पराया
मानने से, दूसरे
को
महत्वपूर्ण
मानने से पतन
होता है।
स्व महत्वपूर्ण
है, पर पतन है।
तो स्वात्माराम
बनो। अपनी
आत्मा में लीन
हो जाओ।
संत तो ऐसा
कहेंगे। और
जिन्होंने
परस्त्री
इत्यादि का
हिसाब लगाया
हो वे संत
नहीं हैं। संत
तो इतना ही
कहेंगे, पर—गमन
से पतन होता
है इसलिए स्व—गमन
करो। बाहर
जाने से पतन
होता है, भीतर
आओ। दूसरे के
साथ संबंध
जोड्ने से तुम
अपने से
टूटते हो तो
संबंध मत जोड़ो।
रही सबके बीच,
अकेले रहो,
बिना जुड़े
रहो। रहो भीड़
में लेकिन
एकांत खंडित न
हो पाए। दूसरा
मौजूद हो, दूसरा
पास भी हो तो
भी तुम्हारे
स्व पर उसकी छाया
न पड़ पाए, उसका
रंग न पड़ पाए।
तुम्हारा स्व
मुक्त रहे।
मगर न मालूम
कितने लोग, जिनका
संतत्व से कोई
संबंध नहीं है,
संतों के
नाम से चलते
हैं। छो की
बड़ी भीड़ है।
तो मूढ़ों के
भी महात्मा
होते हैं।
होंगे ही।
जिनकी इतनी
बड़ी भीड़ है
उनके महात्मा
भी होंगे।
उनके महात्मा
भी उन जैसे
होते हैं।
मैंने सुना, एक बार एक
महात्मा मस्त
होकर भजन गाते
हुए एक रास्ते
से गुजर रहे
थे। थोड़ी दूर
चल कर
उन्होंने
देखो, तो
देखा कि पीछे
एक सांड उनके
लगा चला आ रहा
है। शायद उनकी
मस्ती से
प्रभावित हो
गया, या
उनके डोलने से।
महात्मा
घबडाए। मस्ती
ऊपरी—ऊपरी थी,
कोई दिल की
तो बात न थी।
वे तो ऐसे ही
भक्तों की
तलाश में मस्त
हो रहे थे कि
कोई मिल जाए।
मिल गया सांड!
उन्होंने डर
के मारे
रफ्तार बढ़ा दी।
थोड़ी दूर
पहुंचने पर
फिर पलट कर
देखा—अब तो
उनकी मस्ती
वगैरह सब खो
गई—सांड बड़ी
तेजी से पीछे
चला आ रहा है।
अब तो
उन्होंने
भागना शुरू कर
दिया। सांड भी
पीछे भागने
लगा। सांड भी
खूब था, बड़ा
भक्त! शायद
महात्मा की
तलाश में था, कि गुरु की
खोज कर रहा था।
खोजी था।
अब तो
महात्मा बहुत
भयभीत हो गए
और अपनी जान बचाने
के उद्देश्य
से एक ऊंचे
चबूतरे पर चढ़
गए। सांड भी
चढ़ गया। भक्त
जब पीछे लग
जाएं तो ऐसे
आसानी से नहीं
छोड़ देते, आखिर तक
पीछा करते हैं।
घबड़ा कर
महात्मा झाडू
पर चढ़ गए तो
देखा, सांड
नीचे खड़ा होकर
फुफकार रहा है।
अब वे महात्मा
झाडू से उतर न
सकें। थोड़ी
देर में तमाशा
देखने के लिए
खासी भीड़ इकट्ठी
हो गई। बड़ा
शोरगुल मचने
लगा। कई
व्यक्तियों
ने प्रयास भी
किया कि सांड
को किसी तरह
हटा दें, किंतु
सांड वहां से
टस से मस न हो।
अंत में खोज—बीन
कर सांड के
मालिक को
बुलाया गया।
उसने भी सांड
को मनाने की
बहुत कोशिश की, किंतु सांड
अपनी जगह वैसा
का वैसा खड़ा
रहा। महात्मा
अटके झाडू पर,
कंप रहे और
सांड नीचे
फुफकार रहा है।
अब सांड का
मालिक भी
चिंता में पड़
गया कि मामला
क्या है? ऐसा
तो कभी न हुआ
था।
एकाएक उसकी
बुद्धि के
फाटक खुले और
भीड़ को संबोधित
करके वह कहने
लगा, भाइयो!
असल बात यह है
कि यह सांड
बड़ा समझदार जानवर
होता है। इसे
इस बात का पता
लग गया है कि
इन महात्मा के
दिमाग में
भूसा भरा है, और जब तक यह
इस भूसे को खा
न लेगा, यहां
से जाएगा नहीं।
तुम जिनको
महात्मा कहते
हो उनमें से
अधिक के दिमाग
में भूसा भरा
है। और वह
भूसा
तुम्हारे ही
जैसा है।
तुम्हें
जंचता भी बहुत
है। तुम्हारी
जो मान्यताएं
हैं उनको जो
भी स्वीकार कर
ले और उनको जो
सही कहे, उसको
तुम कहते हो
महात्मा।
संत तो विद्रोही
होते हैं। संत
कुछ ऐसे लीक
के अनुयायी
नहीं होते; लकीर के
फकीर नहीं
होते। संत तो
कुछ निश्चित
ही मूलभूत बात
कहते हैं। यह
कोई मूलभूत
बात है?
मैं तुमसे
इतना ही कहना
चाहता हूं : पर—गमन
पतन है।
स्त्री—पुरुष
का कोई सवाल
नहीं है। अपने
से हटना पतन
है। स्व से स्मृत
होना पतन है।
स्व में लीन
होना, स्वात्माराम
होना, स्व
में ऐसे
तल्लीन होना
कि स्व ही सब
संसार हो गया
तुम्हारा; स्व
के बाहर कुछ
भी नहीं। वही
तुम्हारा
संगीत, वही
तुम्हारा सुख।
स्व तुम्हारा
सर्वस्व हो
गया, फिर
कोई पतन नहीं
है।
लेकिन लोग
हिसाब—किताब
में पड़े हैं।
तुम धन के
पागल हो, कोई
महात्मा कहता
है कि धन पाप
है। तुम्हें
जंचता है।
तुम्हारी और
महात्मा की
भाषा एक है।
यद्यपि
विपरीत बात
कहता लगता है,
लेकिन
तुम्हें भी
जंचती है बात
कि पाप है।
जानते तो तुम
भी हो कि धन
इकट्ठा ही पाप
से होगा।
चूसोगे तो ही
इकट्ठा होगा।
इकट्ठा कैसे
होगा? और
धन चिंता लाता
है यह भी
तुम्हें पता
है। और धन की
दौड़ में तुम न
मालूम कितने
अमानवीय हो
जाते हो यह भी
तुम्हें पता
है। और धन
पाकर भी कुछ
मिलता नहीं यह
भी तुम्हें पता
है।
तो जब कोई
महात्मा कहता
है धन व्यर्थ, धन में कुछ
सार नहीं, तुम्हें
भी लगता है कि
बड़ी ठीक बात
कह रहा है। तब
महात्मा
समझाता है कि
अब दान कर दो।
दान महात्मा
को कर दो। धन
में कुछ सार
नहीं है, धन
असार है। और
जब तुम
महात्मा को
दान कर देते
हो तो महात्मा
कहता है, तुम
दानवीर हो, पुण्यात्मा
हो—उसी धन के
कारण, जो
असार है। और
जब तुम दुबारा
आओगे तो
तुम्हें आगे
बैठने का मौका
होगा।
तुम्हें
विशेष मौका
होगा।
मैं एक
महात्मा को
सुनने गया—बचपन
की बात है—तो
वे
ब्रह्मज्ञान
की बातें कर
रहे हैं और
बीच में एक
सेठ आ गए, सेठ
कालूराम, तो
ब्रह्मज्ञान
छोड़ दिया : ' आइए
सेठजी। ' मैं
बड़ा हैरान हुआ
कि ये ब्रह्मज्ञान
में सेठजी
कैसे आ गए? तो
जैसी मेरी आदत
थी, मैं
बीच में खड़ा
हो गया। मैंने
कहा, अब
ब्रह्मज्ञान
छोड़े। पहले यह
सेठजी का क्या
अध्यात्म है?
सेठ शब्द का
अध्यात्म
पहले समझा दें।
उन्होंने
कहा, 'मतलब?'
मैंने कहा, 'मतलब यह कि
आप
ब्रह्मज्ञान
में डूबे थे, सेठजी आए कि
नहीं आए, कि
अमीर आया कि
गरीब आया, यह
हिसाब आपने
क्यों रखा? इतने लोग
आकर बैठे, किसी
को आपने नहीं
कहा कि आकर
बैठ जाओ। एकदम
ब्रह्मज्ञान
रुक गया। और
ब्रह्मज्ञान
में यही आप
समझा रहे थे
कि धन में
क्या रखा है।
अरे, मिट्टी
है। अरे, सोना
मिट्टी है। इन
सेठ के पास
सिवाय उसी
मिट्टी के और
कुछ भी नहीं
है। और वैसी
मिट्टी सभी के
पास है। तो इन
सेठ में आपने
क्या देखा, मुझे साफ—साफ
समझा दें, जिसकी
वजह से बीच
में आप रुके
और कहा, आएं
सेठजी; और
सामने बिठाया।
नाराज हो गए
महात्मा बहुत; बड़े क्रोधित
हो गए। इतने
नाराज हो गए
कि आगबबूला हो
गए। कहा कि
हटाओ इस बच्चे
को यहां से।
तो मैंने कहा,
महाराज, अभी
आप समझा रहे
थे कि क्रोध
पाप है।
धीरे—धीरे
ऐसी हालत हो
गई कि जब भी
गांव में कोई
महात्मा आएं
तो मुझे घर
में लोग बंद
कर दें : 'तुम
जाना ही मत। ' हालत ऐसी हो
गई कि मेरी
नानी, जिनके
पास मैं बचपन
से रहा, वे
तो इतनी
परेशान रहने
लगीं कि जब
मैं बड़ा भी हो
गया और
युनिवर्सिटी
में प्रोफेसर
भी हो गया तब
भी जब मैं घर
जाऊं और जाने
लगै घर से तो
वे कहें, बेटा,
किसी
महात्मा से
झगड़ा—फसाद मत
करना।
क्योंकि अब तू
घर में रहता
भी नहीं। अब
वहां तू क्या
करता है, पता
भी नहीं हमें।
जब मैं गया
आखिरी वक्त, उनकी आखिरी
सांस टूट रही
थी, उनको
मिलने गया तो
उन्होंने जो
आखिरी बात कही,
वह यही कही।
आंख खोल कर
उन्होंने कहा
कि देख, अब
मैं तो चली।
तू एक बात का
वचन दे दे कि
महात्माओं से
मत उलझना।
आखिरी मरते
वक्त! उनको एक
ही फिकर लगी
रही। क्योंकि
बचपन में उनके
पास था तो
उनके पास बड़ी
शिकायतें आती
कि मैंने
महात्मा से
विवाद किया, महात्मा
नाराज हो गए
कि उन्होंने
डंडा उठा लिया,
कि सब सभा
गड़बड़ हो गई।
और इस बच्चे
को घर में रखो।
और मैंने कभी
कोई गलत सवाल
नहीं पूछा।
सीधी बात थी
कि
ब्रह्मज्ञान
में सेठजी
कैसे आते हैं?
लेकिन
तुम्हारे
गणित एक जैसे
हैं।
तुम्हारा
महात्मा और
तुम मौसेरे—चचेरे
भाई हैं।
एक गणित के
अध्यापक नाई
के पास पहुंचे
और पूछा नाई
से, क्या
हमारी हजामत
कर सकते हो? नाई ने कहा, महागज, क्यों
नहीं? दूसरों
की हजामत करना
ही मेरा धंधा
है। करूंगा।
गणित के
शिक्षक ने पूछा,
हजामत का
कितना लेते हो?
नाई ने कहा,
इसकी कुछ न पूछिए
महाराज। जैसा
काम वैसा दाम।
एक रुपये से
लेकर दस रुपये
तक की बनाता
हूं। गणित के
शिक्षक!
उन्होंने कहा,
अच्छा तो एक
रुपये वाली
बनाओ। नाई ने
बाल काटे, हजामत
बना दी एक
रुपये वाली।
और उसने कहा, लीजिए बन गई।
निकालिए
रुपया।
गणित के
शिक्षक ने कहा, एक रुपये
वाली बन गई तो
अब दो रुपये
वाली बनाओ। अब
जरा नाई
घबड़ाया। अब तो
हजामत बन चुकी।
अब वह दो
रुपये वाली कैसे
बनाए? और
गणित के
शिक्षक!
उन्हें तो
गणित का हिसाब।
यह सुन कर जब
नाई घबड़ा गया
तो गणित के
शिक्षक ने कहा,
अरे घबड़ाता
क्यों है, अबे
घबड़ाता क्यों
है? अभी तो
दस रुपये वाली
तक बनवाऊंगा।
आदमी के
गणित होते हैं।
मेरे स्कूल
में जो
ड्राइंग के
शिक्षक थे वे
किसी अपराध
में पकड़ लिए
गए। छह महीने
की सजा हो गई।
जब वे छूटने
को थे तो मैं
भी उनको जेल
के द्वार पर
लेने गया।
प्यारे आदमी
थे और ड्राइंग
में बड़े कुशल
थे। मैंने
उनसे पहली ही
जो बात पूछी
निकलते ही उनके
जेल से कि
कैसा रहा जेल
में? सब ठीक—ठाक
तो रहा? उन्होंने
कहा, और सब
तो ठीक था
लेकिन जेल का
कमरा—नब्बे
डिग्री के
कोने नहीं थे।
नब्बे
डिग्री के
कोने! वे बड़े
पक्के थे उस
मामले में।
कुल बात जो
उनकी खोपड़ी
में आई जेल
में छह महीने
रहने के बाद, वह यह आई कि
जो जेल की
कोठरी के कोने
थे वे नब्बे
डिग्री के
नहीं थे।
ड्राइंग के
शिक्षक। वह
नब्बे डिग्री
का कोना होना
ही चाहिए। वह
उनको बहुत
अखरा। अब मैं
जानता हूं कि
छह महीने उनको—उजुाए
सबसे बड़ा कष्ट
रहा होगा वह
यही रहा कि ये
जो कोने हैं, नब्बे
डिग्री के
नहीं हैं। जैल
की तकलीफ न थी।
जेल तो सह
लिया, मगर
नब्बे डिग्री
के कोने न हों
यह उनको बर्दाश्त
के बाहर रहा
होगा। चौबीस
घंटे यही बात
उनको सताती
रही होगी।
आदमी अपने
ढंग से चलता, अपने ढंग से
सोचता।
साधारण आदमी
की भाषा यही
है। साधारण
आदमी
परस्त्री में
उत्सुक है।
साधारण आदमी
अपनी स्त्री
में तो उत्सुक
है ही नहीं।
अपनी स्त्री
से तो ऊबा हुआ है।
अपनी स्त्री
का तो सोचता
है, किस
तरह इससे
छुटकारा हो।
दूसरे की
स्त्री में रस
है। दूसरे की
स्त्री बड़ी
मनमोहक मालूम
होती है। जो
अपने पास है
वह व्यर्थ
मालूम पड़ता है,
जो दूसरे के
पास है वह
मनमोहक मालूम
पड़ता है।
ऐसी मनोदशा
के
व्यक्तियों
को महात्मा भी
मिल जाते हैं
उनकी मनोदशा
के। वे कहते
हैं परस्त्री
का ध्यान किया
कि पाप हुआ।
वह उनको बात
जंचती है, क्योंकि वे
परस्त्री का
ही ध्यान कर
रहे हैं। इस
महात्मा में
और उनकी भाषा
में कोई भी
भेद नहीं है।
गणित एक है।
अब जो
महात्मा
परस्त्री
इत्यादि की बातें
कर रहा है यह
कोई महात्मा
है? महात्मा
मौलिक बात
कहेगा, आधारभूत
बात कहेगा।
वास्तविक संत
वही कहेगा जो
बहुत सारभूत
है। इतनी बात
जरूर संत
कहेगा : स्व—गमन,
स्व—संभोग,
स्वयं में
डूब जाना, स्व—स्मृति,
स्वास्थ्य
मार्ग है। पर—रुचि,
पर पर
दृष्टि
अस्वास्थ्य
है। क्योंकि
पर में जैसे
ही तुम उत्सुक
हुए कि तुम
अपने केंद्र
से स्मृत होते
हो। तुम्हारा
केंद्र छूटने
लगता है। तुम
अपने से दूर
जाने लगते हो।
आखिरी
प्रश्न :
आपकी बातें
अनेकों' को
अप्रिय क्यों
लगती हैं?
सुनने
वाले पर
निर्भर है।
तुम अगर सच
में ही सत्य
की खोज में
मेरे पास आए
हो तो मेरी
बातें
तुम्हें
प्रिय लगेंगी।
और तुम अगर
अपने
मताग्रहों को
सिद्ध काने आए
हो कि मैं वही
कहूं जो तुम
मानते हो, तो अप्रिय
लगेंगी। तुम
अगर पक्षपात
से भरे आए हो
तो अप्रिय
लगेंगी। तुम
अगर खाली मन
से सुनने आए
हो, सहानुभूति
से, प्रेम
से तो बहुत
प्रिय लगेंगी।
तुम पर
निर्भर है।
तुम्हारे मन
में क्या चल
रहा है इस पर
निर्भर है।
अगर तुम्हारे
मन में कुछ भी
नहीं चल रहा
है, तुम परम
तल्लीनता से
सुन रहे हो तो
ये बातें तुम्हारे
भीतर अमृत घोल
देंगी। और अगर
तुम
उद्विग्नता
से सुन रहे हो,
हिंदू
मुसलमान, ईसाई
होकर सुन रहे
हो कि अरे, यह
बात कह दी!
हमारे
महात्मा के यह
बात कह दी। तो
फिर तुम बेचैन
हो जाओगे, तुम
नाराज हो
जाओगे।
अप्रिय _र
लगेंगी। तुम
पर निर्भर है।
अब जैसे, अभी मैंने
दौलतराम खोजी
की बात कही; तुम सब हंसे,
सिर्फ़
दौलतराम खोजी
को छोड्कर।
मैं उनको
जानता नहीं, लेकिन अब
पहचानने लगा।
क्योंकि इतने
लोगों में
सिर्फ एक आदमी
नहीं हंसता है।
अब दौलतराम
खोजी को
अप्रिय लग
सकती है बात।
क्योंकि नाम
से मोह होगा
कि मेरे खिलाफ
कह दी। मैं
उनके खिलाफ
कुछ भी नहीं
कह रहा हूं।
मैं तुमसे
यह कहता हूं
कि तुम न
दौलतराम हो, न खोजी हो।
नाम से तुम्हारा
क्या लेना—देना!
यह नाम तो सब
दिया हुआ है।
तुम अनाम हो।
अब अगर
दौलतराम खोजी
इस तरह सुनें
कि अनाम हूं
मैं, तो वे भी
हंसेंगे। मगर
वे पकड़ कर सुन
रहे हैं कि
अच्छा, तो
अब मेरे नाम
के खिलाफ फिर
कह दिया कुछ!
तो उनको लग
रहा होगा, जैसे
मैं उनका
दुश्मन हूं।
आखिर उनके नाम
के खिलाफ
क्यों हूं? खिलाफ होने
का मेरा कारण
है; क्योंकि
न तुम्हारे
पास दौलत है न
तुम्हारे पास
राम है।
एक ही तो
दौलत है
दुनिया में :
वह राम है।
राम हो तो
दौलत है। राम
न हो तो कुछ
दौलत नहीं। और
राम मिल जाए
तो फिर खोज
क्या करोगे? फिर खोजी
नहीं हो सकते।
राम जब तक
नहीं मिला तब
तक खोजी हो।
उनका नाम
मुझे प्यारा
लग गया इसलिए
इतनी चर्चा कर
रहा हूं। मगर
वे नाराज हो
सकते हैं, और बात
अप्रिय लग
सकती है। मगर
देखने की बात
है।
अपनी बानी
प्रेम की बानी
घर समझे न गली
समझे
लगे किसी को
मिश्री सी
मीठी कोई नमक
की डली समझे
इसकी अदा पर
मर गई मीरा
मोहे दास कबीर
अंधरे सूर
को आंखें मिल
गईं खाकर इसका
तीर
चोट लगे तो
कली समझे इसे
सूली चढ़े तो
अलि समझे
अपनी बानी
प्रेम की
बानी.........।
बोली यही तो
बोले पपीहा
घुमड़े जब
घनश्याम
जल जाए दीपक
पे पतंगा लेकर
इसी का नाम
पंछी इसे
असली समझे पर
पिंजरा इसे
नकली समझे
अपनी बानी
प्रेम की
बानी.......।
जिसने इसे
ओठों पे
बिठाया वह हो
गया बेदीन
तड़पा उमर भर
ऐसे कि जैसे
तडूपे बिन जल
मीन
बुद्धि इसे
पगली समझे पर
मन रस की बदली
समझे
अपनी बानी
प्रेम की
बानी.......।
मस्ती के बन
की है यह
हिरनिया घूमे
सदा
निर्द्वंद्व
रस्सी से
इसको बाधो न
साधो घर में
करो न बंद
हम जो अरथ
समझे इसका वह
फूंकके बाती
जली समझे
अपनी बानी
प्रेम की
बानी......।
समझो।
हम जो अरथ
समझे इसका वह
फूंकके बाती
जली समझे
जो अपने
अहंकार की
बाती को फूंक
देगा वही समझेगा।
तुमने अगर
अपने अहंकार
से समझना चाहा
तो तुम्हें चोट
लगेगी।
हम जो अरथ
समझे इसका वह
फूंकके बाती
जली समझे
अहंकार को
जब बुझा दोगे
फूंक कर, तब
तुम्हारे
भीतर जो
ज्योति जलेगी
वही इसे समझेगी।
बुद्धि इसे
पगली समझे पर
मन रस की बदली
समझे
बुद्धि से
मत सुनना, हृदय से
सुनना। विचार
और विवाद से
मत सुनना।
तर्क और
सिद्धांत से
मत सुनना, प्रेम
और लगाव से
सुनना।
.. .मन रस की
बदली समझे
पंछी इसे
असली समझे पर
पिंजरा इसे
नकली समझे
अगर तुम
अपने पिंजरे
से बहुत—बहुत
मोहग्रस्त हो, अगर तुमने
अपने कारागृह को
अपना मंदिर
समझा है तो
फिर तुम मुझसे
नाराज हो जाओगे।
तुम्हें बड़ी
चोट लगेगी।
पंछी इसे
असली समझे पर
पिंजरा इसे
नकली समझे
लेकिन अगर
तुमने मेरी
बात सुनी और
पिंजरे से अपना
मोह न बांधा, और अपने
पंछी को
पहचाना जो
पीछे छिपा है,
पिंजरे के
भीतर छिपा है,
तो मेरी
बातें तुम्हारे
लिए फिर से
पंख देने वाली
हो जाएंगी; आकाश बन
जाएंगी।
तुम्हारा
पंछी फिर उड़ सकता
है खुले आकाश
में। तुम पर
निर्भर है।
आज इतना
ही।
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