दिनांक
15 जनवरी, 1977;
श्री
ओशो आश्रम,
कोरेगांवपार्क, पूना।
सारसूत्र:
अप्रयत्नात्
प्रयत्नाद्वा
मूनको
नाप्पोति
निर्वृतिम्।
तत्वनिश्चयमात्रेण
प्राज्ञो
भवति निर्वृत।।21०।।
शुद्धं
बुद्धं
प्रियं पूर्णं
निष्प्रपंचं
निरामयम्।
आत्मानं
तं न जानन्ति
तत्राभ्यासपरा
जना:।।211।।
नान्नोति
कर्मणा मोक्ष
विमूढ़ोऽभ्यासरूपिणा।
धन्यो
विज्ञानमात्रेण
मुक्तस्तिष्ठत्यविक्रिय:।।212।।
मूढ़ो
नाप्नेति
तद्ब्रह्म
यतो
भवितुमिच्छति।
अनिच्छन्नपि
धीरो हि
परब्रह्मस्वरूपभाक्।।213।।
निराधारा
ग्रहव्यग्रा
मूढा:
संसारपोषका:।
एतस्यानर्थमूलस्य
मूलच्छेद:
कृतो बुधै:।।214।।
न
शांतिं लभते
मूढ़ो यत:
शमितुमिच्छति।
धीरस्तत्वं
विनिश्चित्य
सर्वदा
शांतमानस:।।215।।
पहला
सूत्र:
अप्रयत्नात्
प्रयत्नाद्वा
फो नाप्नोति
निर्वृतिम्।
तत्वनिश्चयमात्रेण
प्राज्ञो
भवति निर्वृत।।
अष्टावक्र
ने कहा, 'अज्ञानी
पुरुष
प्रयत्न अथवा
अप्रयत्न से
सुख को
प्राप्त नहीं
होता है। और ज्ञानी
पुरुष केवल
तत्व को
निश्चयपूर्वक
जान कर सुखी
हो जाता है।’ महत्वपूर्ण
सूत्र है। और
प्रत्येक
साधक को गहराई
से समझ लेना
जरूरी है।
प्राथमिक है।
यहां भूल हुई
तो फिर आगे
भूल होती चली
जाती है। यहां
भूल न हुई तो
आधा काम ठीक
हो गया। ठीक
प्रारंभ
यात्रा का आधा
हो जाना है।
यह
सूत्र
बुनियाद का है।
अज्ञानी
पुरुष बड़े
प्रयत्न करता
है सुख को पाने
के,
पाता हैं
दुख। प्रयत्न
करता है सुख
के, पाता
है दुख। सफल
होता जरूर है,
सुख को पाने
में नहीं, दुख
को पाने में
सफल हो जाता
है। कौन नहीं
जाना चाहता
स्वर्ग? पहुंच
सभी नर्क जाते
हैं। चेष्टा
सभी स्वर्ग की
तरफ करते हैं,
अंत में जो
फल हाथ में
आते हैं वे
नर्क के हैं।
इन
फलों से तुम
परिचित हो। ये
फूल ही तो
तुम्हारे
जीवन का सार
है। यही फल तो
तुम्हारा
विषाद है।
चाहा था अमृत
और विष मिला।
चाहा था प्रेम
और घृणा मिली।
सपने देखे थे
सफलता के और
केवल विषाद ही
विषाद प्राणों
में भरा रह
गया है। जीवन
के अंत होते—होते, जीवन
के पूरे होते—होते
ऐसा प्रतीत होने
लगता है कि जैसे
सारी प्रकृति
तुम्हारे
विरोध में काम
कर रही है।
तुम जीत न
सकोगे।
तुम्हारी हार
सुनिश्चित है।
सुख
कौन नहीं
चाहता? और
सुख मिलता
किसको है? यह
बहुत
आश्चर्यजनक
है। सभी सुख
चाहते हों और
कोई भी सुख
उपलब्ध न कर पाता
हो तो सोचना
पड़ेगा, कहीं
कोई बड़ी गहरी
भूल हो रही है।
कुछ ऐसी गहरी
भूल हो रही है,
बुनियादी
भूल हो रही है;
एक से नहीं
हो रही है, सभी
से हो रही है।
वह भूल यही है
कि सुख को
जिसने सोचा कि
पा लूंगा, इस
सोचने में ही
चूक हो गई।
सुख
हमारा स्वभाव
है। उसे हम
लेकर ही पैदा
हुए हैं। सुख
के बिना हम
पैदा ही नहीं
हुए हैं।
हमारे जन्म के
पूर्व से भी
सुख की धारा
हमारे भीतर बह
रही है।
स्वभाव का
अर्थ है ' जो
हमारा है ही।
जैसे
आग जलाती, यह
उसका स्वभाव,
ऐसे सुखी
होना चैतन्य
का स्वभाव।
सच्चिदानंद
हमारे भीतर
बसा है। भूल
यही हो रही है
कि हम सोचते
हैं, उसे
पा लेंगे बाहर।
जो भीतर है
उसे हम बाहर
खोजते हैं। जो
मिला ही हुआ
है उसे हम
सोचते हैं, उपाय करके
पा लेंगे।
उपाय से ही सब
नष्ट हो जाता
है। उपाय में
हम इतने उलझ
जाते हैं कि
जो है उसके दर्शन
बंद हो जाते
हैं।
ऐसा
ही समझो कि
तुम्हारे
सामने ही धन
पड़ा हो और
तुम्हारी आंखें
दूर आकाश में
चाद—तारों में
धन को खोज रही
हैं। धन सामने
पड़ा है लेकिन आंख
तो सामने नहीं
पड़ती। आंख तो
दूर जा रही है।
आंख तो दूर का
उपाय कर रही
है। तुम दूर
की यात्रा पर
निकले हो और
जिसे तुम खोज
रहे हो वह पास
है। तुम जिसे
प्रयत्न से
खोज रहे हो वह
स्वभाव से सिद्ध
है। सुख किसी
को मिलता नहीं।
जो प्रयत्न
छोड़ देता है, जो
दौड़ना छोड़
देता है, जो
आंख बंद करके
बैठ जाता है, जो थोड़ी देर
अपने भीतर
रमता है, आत्माराम
बनता है; जो
कहता है जरा
भीतर तो देख
लूं जिसे मैं बाहर
खोजने चला हूं।
कहीं ऐसा तो
नहीं है कि वह
बाहर हो ही न, और मैं
खोजूं और
खोजूं थकूं और
हारू।
तर्क
ऐसा है जीवन
का कि जब तुम
खोजते हो बाहर, और
नहीं मिलता तो
और जोर से
खोजते हो।
स्वभावत: मन
में विचार
उठते हैं कि
शायद मैं पूरे
भाव से नहीं
खोज रहा हूं
पूरे हृदय से
नहीं खोज रहा,
पूरी ऊर्जा
संलग्न नहीं
हो रही है।
दौड़ तो रहा
हूं लेकिन
जितना दौड़ना
चाहिए उतना
नहीं दौड़ रहा
हूं। और बढ़ाओ
दौड़ को, और
तेज करो।
यह
तर्क
स्वाभाविक है।
अगर दौड़ने से
नहीं मिल रहा
है तो दौड़ में
कहीं कोई कमी
होगी। या कि
दूसरे लोग
ज्यादा बाधा
डाल रहे हैं; इसलिए
हटाओ बाधाओं
को। नष्ट कर
दो दूसरों को।
जूझ जाओ
संघर्ष में।
मिटाना पड़े तो
मिटा दो
दूसरों को, लेकिन अपने
सुख को खोज लो।
तो एक गलाघोंट
प्रतियोगिता
शुरू होती है।
दूसरे भी उसी
नाव में सवार
हैं, जिसमें
तुम सवार हो।
उन्हें भी
नहीं मिल रहा।
वे भी बड़े
नाराज हैं। वे
भी सोचते हैं
कि तुम शायद
बाधा डाल रहे
हो। शायद तुम
बीच—बीच में आ
जाते हो। वे
तुम्हें
मिटाने में
तत्पर हो जाते
हैं। इसीलिए
जीवन में इतना
संघर्ष है, इतना
द्वंद्व है, इतनी हिंसा
है।
और
जब तक तुम
भीतर के सुख
को न पहचानोगे
तब तक अहिंसक
न हो सकोगे।
कैसे होओगे
अहिंसक? पानी
छान कर पी
लेने से कोई
अहिंसक होता?
पानी छान कर
पी लोगे लेकिन
बाजार में
दूसरों का खून
बिना छांने पी
जाओगे। रात
भोजन न करोगे
इससे कोई
अहिंसक होता?
ये छोटी—छोटी
तरकीबें हैं।
किसको धोखा दे
रहे हो तुम?
समझना
होगा कि हिंसा
क्यों है?
हिंसा
इसलिए है कि
मुझे सुख नहीं
मिल रहा और मुझे
आभास होता है
कि तुम बाधा
डाल रहे हो।
पड़ोसी बाधा
डाल रहा है।
और बहुत
प्रतियोगी
हैं। सभी
दिल्ली जा रहे
हैं। और मैं
दिल्ली नहीं
पहुंच पा रहा
हूं। भीड़ बहुत
है। और आगे
लोग,
पीछे लोग, चारों तरफ
लोग। और इतना
घमासान मचा है
कि जब तक नहीं
उठाऊंगा तलवार
हाथ में, रास्ता
साफ होने वाला
नहीं है। और
लगता है कि
शायद दूसरे
पहुंच गए हैं।
तो संघर्ष
पैदा होता है,
हिंसा पैदा
होती है।
हिंसा
का मूल है कि जीवन
में सुख नहीं
मिल रहा है
इसलिए हिंसा
पैदा होती है।
सिर्फ सुखी
आदमी हिंसक
नहीं होता।
क्यों होगा? कोई
कारण न रहा।
जो चाहिए था
मिल गया, फिर
हिंसा कैसी!
हिंसा
दुखी आदमी का
लक्षण है।
इसलिए
तुम हिंसा को
छोड़ कर सुखी न
हो सकोगे। तुम
सुखी हो जाओ
तो हिंसा छूट
जाएगी। यह
मौलिक दृष्टि
है— आधारभूत।
तुम सुखी हो
जाओ तो संघर्ष
छूट गया। अब
संघर्ष क्या
करना है! सुख
तुम्हारे
भीतर लहरें ले
रहा है—सुख का
सरोवर। किसी
से झगड़ा नहीं
है,
इसे तुम
लेकर ही आए हो।
इसे कोई छीनना
चाहे, छीन
नहीं सकता।
कोई मिटाना
चाहे, मिटा
नहीं सकता।
इसका दूसरे से
कुछ लेना—
देना ही नहीं
है।
तो
दूसरा
अर्थहीन हो
गया। अब तुम
जब चाहो तब आंख
बंद करो, डुबकी
लगा लो। जब
चाहो तब तार
छेड़ दो और
संगीत उठे। जब
चाहो तब
क्षीरसागर
में शय्या पर
विश्राम करो।
विष्णु बनो।
और
भीतर
तुम्हारे है।
कहीं जाना
नहीं है। इंच
भर यात्रा
नहीं करनी है।
यात्रा के
कारण खो रहे
हो। दौड़ रहे
हो इसलिए खो
रहे हो। पाना
हो तो दौड़ना
छोड़ना होगा।
जो दौड़ना छोड़
देता है उसी
को हम
संन्यासी कहते
हैं। जो कहता
है दूर नहीं
है,
पास है। जो
कहता है, इतना
निकट है कि
हाथ भी बढ़ाना
नहीं पड़ता।
हाथ में ही
रखा है। आंख
ही खोलने की
बात है। जरा
सी होश की
चिनगारी बस
काफी है।
अष्टावक्र
कहते हैं, 'अज्ञानी
पुरुष
प्रयत्न या
अप्रयत्न से
सुख को
प्राप्त नहीं
होता।’
पहले
तो प्रयत्न से
सुख को प्राप्त
नहीं होता।
बहुत दौड़— धूप करता
है। जब प्रयत्न
से सुख नहीं
मिलता तो
अज्ञानी सोचता
है,
दौड़— धूप
बहुत कर ली, मिलता ही
नहीं; तो
अब अप्रयत्न
भी करके देख
लें; क्योंकि
ज्ञानी कहते
हैं, अप्रयत्न
से मिलता है।
अज्ञानी
फिर भूल कर
जाता।
अज्ञानी
ज्ञानी की
भाषा समझने
में भूल कर
जाता है।
क्योंकि
अज्ञानी की
भूल उसकी
दृष्टि में है।
तुम उसे सत्य
दे दो, वह उसके
हाथ में
पहुंचते ही
असत्य हो जाता
है। तुम उसे
सोना दे दो, उसने छुआ कि
मिट्टी हुआ।
अज्ञानी
की मौलिक
दृष्टि ऐसी
भ्रांत है, ऐसी
विकृत हैं—पहले
वह दौड़ता है, भाग दौड़
करता है, उससे
नहीं मिलता तो
वह पूछने लगता
है, खोजने
लगता है, ज्ञानियों
के पास जाता
है, बुद्धपूरुषों
की शरण बैठता
है कि कैसे पा
लूं? वहां
उसे सुनाई
पड़ता है कि
प्रयत्न से तो
मिलता ही नहीं
कभी; अप्रयत्न
से मिलता है।
अज्ञानी
अप्रयत्न का
कैसा अनुवाद
करता है वह समझो।
अप्रयत्न का
अज्ञानी के
लिए अनुवाद
होता है आलस्य।
वह कहता है, तो
कुछ नहीं करना?
वह करने की
भाषा जानता है,
दौड़ने की
भाषा जानता है।
तो वह कहता है,
कुछ नहीं
करना? कुछ
नहीं करने से
मिलता है? चलो
यह तो अच्छा
हुआ। तो चादर
ओढ़ कर सो जाता
है।
ध्यान
रखना, न तो
दौड़ने से
मिलता है न
सोने से मिलता
है; बिना
दौड़े और जागे
रहने से मिलता
है। ये दोनों
बातें खयाल
में ले लेना।
दौड़ने में
जागना बिलकुल
आसान है; क्योंकि
दौड़ रहे हो, सोओगे कैसे?
और सो गए तो
दौड़ना छूट
जाता है। वह
भी आसान है।
सो गए तो
दौड़ोगे कैसे?
अज्ञानी दो
रास्ते जानता
है : या तो
दौड़ता है या
सो जाता है।
दिन भर दौड़ता
है, रात भर
सो जाता है।
सुबह उठ कर
फिर दौड़ने
लगता है, फिर
रात सो जाता
है।
ज्ञानी
जब कहता है
अप्रयत्न, तो
वह यह नहीं कह
रहा है कि तुम
सो जाओ। वह
आलस्य की बात
नहीं कह रहा
है।
अष्टावक्र ने
ज्ञानी के लिए
बड़ा अनूठा
शब्द चुना है :
आलस्यशिरोमणि।
ज्ञानी को
अष्टावक्र कहते
हैं आलस्य
शिरोमणि, वह
आलसियों में
शिरोमणि है।
लेकिन आलस्य
का अर्थ समझ
लेना; इसलिए
शिरोमणि शब्द
जोड़ा है। वह
कोई साधारण
आलसी नहीं है,
तुम जैसा
आलसी नहीं है,
बड़ा
विशिष्ट आलसी
है। दौड़ता
नहीं, सोता
भी नहीं।
दौड़ना और सोना
तो जुड़े हैं।
वे एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। जो
दौड़ेगा वह
सोला; जो
सोला वह
दौड़ेगा।
क्योंकि सोकर
फिर शक्ति
इकट्ठी होगी,
करोगे क्या?
और दौड़ कर
शक्ति चुक
जाएगी तो
सोओगे नहीं तो
शक्ति पाओगे
कहां?
तो
जागना, दौड़ना,
सोना जुड़े
हैं। इसलिए
तुमने देखा? जो आदमी दिन
में ठीक—ठीक
मेहनत करता है
वह रात बड़ी
गहरी नींद
सोता है। होना
तो नहीं चाहिए
ऐसा। तर्क के
विपरीत है यह
बात। गणित के
अनुकूल नहीं
है। गणित तो
यह होना चाहिए
कि जिस आदमी
ने दिन भर तकिए—गद्दों
पर आराम का
अभ्यास किया
उसको रात गहरी
नींद आनी
चाहिए। दिन भर
अभ्यास किया
बेचारे ने, उसको फल
मिलना चाहिए।
लेकिन जो दिन
भर विश्राम
करता है, रात
सो ही नहीं
पाता।
आखिर
धनी
व्यक्तियों
की नींद क्यों
खो जाती है? अगर
तर्क से जीवन
चलता होता तो
धनी आदमी को
ही नींद आनी
चाहिए; गरीब
को तो आनी ही
नहीं चाहिए।
लेकिन जैसे—जैसे
कोई धनी होता
है वैसे कुछ
चीजें खोती
हैं, उनमें
से एक नींद
अनिवार्य रूप
से खो जाती है।
उसकी कोई
जरूरत नहीं रह
जाती। नींद तो
श्रम का
हिस्सा है।
दौड़ो, भागो
तो नींद। अगर
अमरीका सबसे
ज्यादा
अनिद्रा से
पीड़ित है तो
कुछ आश्चर्य
नहीं। और अगर
अमरीका में
सबसे ज्यादा
ट्रेक्येलाइजर
बिकता है तो
भी कुछ
आश्चर्य नहीं।
आलस्य
अनिवार्य है
श्रम के साथ।
आलस्य श्रम से
विपरीत नहीं
है,
श्रम का
परिपूरक है।
तो
जब ज्ञानी
कहता है
अप्रयत्न, नो
एफ्र्ट, तो
अज्ञानी क्या
समझता है? अज्ञानी
समझता है, बिलकुल
ठीक, तो
दौड़ने से नहीं
मिलता। और
बुद्ध कहते
हैं,
महावीर
कहते हैं, अष्टावक्र
कहते हैं, बैठ
जाओ, दौड़
छोड़ो। दौड़ ब्रेड
देता है। वह
तो खुद ही थक
गया। दौड़
छोड़ने को तो
राजी ही है।
वह चादर ओढ़ कर
सो जाता है।
फिर भी नहीं
मिलता।
न
तो अज्ञानी को
प्रयत्न से
मिलता, न
अप्रयत्न से
मिलता।
अज्ञानी को
मिलता ही नहीं,
क्योंकि
अज्ञानी के
देखने का ढंग
भ्रांत है। तो
अज्ञानी
ज्ञानी के पास
आकर भी गलत
व्याख्याएं
कर लेता है।
कुछ का कुछ
समझ लेता है।
कहो कुछ, पकड़
कुछ लेता है।
मेरे
पास पत्र आ
जाते हैं। एक
पत्र मेरे पास
आया। पत्र
लिखने वाले ने
पूछा है कि
अष्टावक्र तो कहते
हैं,
कुछ भी न
करो और आप
इतना ध्यान
करवा रहे हैं।
जब कुछ नहीं
करना है तो यह
ध्यान, नाचना—कूदना,
इसकी क्या
जरूरत है?
अब
यह आदमी क्या
कह रहा है? यह
आदमी यह कह
रहा है, जब
अप्रयत्न से
मिलता है तो
चादर दे दो, हम ओढ़ कर सो
जाएं। जब
अष्टावक्र
कहते हैं, आलस्य
शिरोमणि हो
जाओ तो अब
जरूरत क्या है?
ध्यान करने
का श्रम कौन
उठाए?
फिर
तुम भूल कर
लिए। पहले
प्रयत्न की
भूल की, अब
अप्रयत्न की
भूल की।
ज्ञानी की
भाषा को बहुत
होश पूर्वक सुनना
उसका अनुवाद
मत होने देना।
तुम अनुवाद मत
करना अपनी
भाषा में। तुम
अपने को तो
किनारे रख
देना। तुम तो
ज्ञानी की
भाषा सुनना
वैसी ही, जैसी
वह कह रहा है—बडी
समझ पूर्वक, बड़ी
ईमानदारी से।
एक
बात का समरण
रखना, अपने को
मत मिलाना।
अपनी भाषा में
अनुवाद किया
कि तुम चूक
जाओगे। फिर
तुम जो भी
नतीजे लोगे वे
नतीजे
तुम्हारे हैं,
वे ज्ञानी
ने नहीं कहे।
इसलिए
अष्टावक्र
कहते हैं, अज्ञानी
पुरुष
प्रयत्न और
अप्रयत्न दोनों
से ही सुख को
नहीं पाता है।
प्रयत्न में
दौड़— धूप रहती
है इसलिए चूक
जाता है, अप्रयत्न
में आलस्य हो
जाता है, गहन
तंद्रा छा
जाती है इसलिए
चूक जाता है।
दोनों के मध्य
में है मार्ग।
आसान
है मैंने कहा, दौड़ने
में जागना। और
आसान है मैंने
कहा, सोने
में न दौड़ना। दोनों
के मध्य मार्ग
है। ऐसे जागे
रहो जैसा
दौड़ने वाला
जागता है और
ऐसे विश्राम
में रहो जैसे
सोने वाला
रहता है, तो
तुमने ज्ञानी
की भाषा समझी।
जागे रहो ऐसा,
जैसा
संसारी—कितनी
भागदौड़ में
लगा है! और
इतने विश्राम
में, इतने
गहन विश्राम
में, जैसा
सोया हुआ आदमी।
चैतन्य जागा
रहे, शरीर
सो जाए। मन सो
जाए, चैतन्य
जागा रहे।
चेतना की लौ
जरा भी मद्धिम
न हो।
इसलिए
पतंजलि ने
समाधि को
सुषुप्ति
जैसा कहा है—नींद
जैसा। लेकिन
ध्यान रखना, नींद
नहीं कहा है, नींद जैसा।
थोड़ा सा फर्क
है:। नींद
जैसा कहा है, क्योंकि
नींद जैसा ही
गहरा विश्राम
है समाधि में;
लेकिन
बिलकुल नींद
नहीं कहा है।
जागने की किरण
मौजूद है।
इसलिए
कृष्ण गीता
में कहते हैं,
'या निशा
सर्व भूतानां
तस्यां
जागर्ति
संयमी।’
जो
सबके लिए नींद
है वहां भी
संयमी जागा
हुआ। जहां सब
भूत सो गए, जहां
सब सो जाते
हैं वहा भी
संयमी की चेतना
दीये की तरह
जलती रहती है।
सब तरफ अंधेरा,
सब तरफ
निद्रा, सब
तरफ विश्राम,
लेकिन
अंतरतम में, गहन
प्रकोष्ठ में,
गहरे भीतर
के मंदिर में
दीया जलता
रहता। दीया
क्षण भर को भी
नहीं बुझता।
तो
दौड़ो, नहीं
पाओगे। सो जाओ,
नहीं पाओगे।
दौड़ने से
जागरण को बचा
लो, सोने से
विश्राम को
बचा लो। जागरण
और विश्राम को
जोड़ दो तो
समाधि बनती है।
बुद्ध
ने इसीलिए कहा
है,
मध्य मार्ग
है—मज्झिम
निकाय। बीच से
चलो। न बाएं
डोलो, न
दाएं डोलो। न
इस अति पर जाओ,
न उस अति पर
जाओ। अतियों
में संसार है,
मध्य में
निर्वाण है।
अप्रयत्नात्
प्रयत्नाद्वा
मूढ़ो
नाम्मोति
निर्वृतिम्।
अभागा
है मूढ़। मूढ़
शब्द को भी
समझ लेना। मूढ़
का अर्थ
बुद्धिहीन
नहीं होता, मूढ़
का अर्थ. सोया—सोया
आदमी, तंद्रा
में डूबा आदमी,
मूर्च्छित
आदमी। मूढ़
बुद्धिमान हो
सकता है।
इसलिए तुम ऐसा
मत सोचना कि
छू सदा बुद्ध
होता है। मूढ़
बड़ा पंडित हो
सकता है।
अक्सर तो मूढ़
ही पंडित होते
हैं। शास्त्र
का बड़ा ज्ञान
हो सकता है
मूढ़ को। शब्द
का बाहुल्य हो
सकता है।
सिद्धांतों
का बड़ा
तर्कजाल हो
सकता है। तर्क—प्रवीण
हो सकता है, कुशल हो
सकता है विवाद
में; लेकिन
फिर भी फू, मूढ़
है।
मूढ़
का अर्थ यहां
खयाल ले लेना।
मूढ़ का अर्थ
मनोवैज्ञानिक
अर्थों में
नहीं है।
जिसको
मनोवैज्ञानिक
इंबेसाइल
कहते हैं, वह
मतलब नहीं है
छू से। यहां
मूड का बड़ा
आध्यात्मिक
अर्थ है। मूढ़
का
आध्यात्मिक
अर्थ है : ऐसा
आदमी, जो
जागा हुआ लगता
है लेकिन जागा
हुआ है नहीं।
आभास देता है
कि जानता है, और जानता
नहीं।
भ्रांति खुद
को भी पैदा कर
ली है, दूसरों
को भी पैदा
करवा दी है कि
मैं जानता हूं
और जानता नहीं।
छू
का अर्थ है, अहंकारी।
अहंकार की
शराब पीए बैठा
है। मूढ़ का
अर्थ है, सोया—सोया;
तद्रिल।
चलता है लेकिन
होशपूर्वक
नहीं। बोलता
है लेकिन
होशपूर्वक
नहीं। सुनता
है लेकिन होश
पूर्वक नहीं।
पढ़ता है लेकिन
होशपूर्वक
नहीं।
तुमने
कभी खयाल किया? तुम
कुछ पढ़ रहे हो;
पूरा पेज पढ़
गए तब अचानक
खयाल आता है
कि अरे! पढ़ तो
गए, लेकिन
एक शब्द भी
पकड़ में नहीं
आया। पढ़ा तुमने
जरूर, आंख
शब्दों पर
चलती थी। एक—एक
शब्द पढ़ लिया।
विराम, पूर्णविराम,
सब पढ़ लिए।
कुछ शब्द छूटा
नहीं। लेकिन
पेज के अंत पर
आकर अचानक
तुम्हें खयाल आया,
अरे! पढ़ तो
लिया लेकिन
याद कुछ भी
नहीं आता।
क्या
हुआ?
इस घड़ी तुम
मूढ़ थे। मूढ़ता
का अर्थ समझा
रहा हूं। इस
घड़ी तुमने
मूढ़ता को
ग्रहण कर लिया
था। तुम होश
में नहीं थे।
तुम बेहोश थे।
पढ़ भी गए आंख
ने भी काम
किया, बुद्धि
ने भी काम
किया, लेकिन
आत्मा के तल
पर गहरी
मूर्च्छा थी।
लगा, कोई
देखने वाला
होता तो देखता
कि बड़े
तल्लीनता से
पढ़ रहे हो।
लेकिन तुम
जानते हो कि
तल्लीनता तो
दूर, जरा
सा हाथ नहीं
लगा है। सब
ऐसे बह गया।
फिर से पढ़ोगे,
तब शायद
थोड़ा—बहुत हाथ
लगे।
तुमने
कभी खयाल किया? चौबीस
घंटे गुजर
जाते हैं—सुबह
होती, सांझ
होती, यूं
ही उम्र तमाम
होती। तुम कभी
ऐसा पाते हो
कि कभी थोड़ी—बहुत
देर के .लिए
जागते हो कि
नहीं? ऐसे सोए—सोए
ही चलते रहते
हो। बोल भी
देते हो, झगड़
भी लेते हो, प्रेम भी कर
लेते हो, शादी—विवाह
भी कर लेते हो,
धन भी कमा
लेते हो। ऐसे
सब चलता जाता
है। लेकिन कभी
तुमने होश से
सोचा, यही
तुम करना
चाहते थे? यही
करने को तुम
आए थे? यही
था प्रयोजन? यही थी
तुम्हारी
नियति?
तो
तुम कंधे
बिचकाओगे।
तुम कहोगे, कुछ
पक्का पता
नहीं कि
इसीलिए आए थे।
किसलिए आए थे?
कहां जाना
था? कहां
नहीं जाना था?
धन कमाना था
कि नहीं कमाना
था? क्या
कमाना था इसका
भी कुछ पता
नहीं है। क्या
गंवाना था
इसका भी कुछ
पता नहीं है।
क्या गंवा
दिया, क्यों
गंवा दिया, क्यों कमा
लिया, इसका
भी कुछ हिसाब—किताब
नहीं है। चल
पड़े धक्के में।
भीड़ जा रही थी,
तुम भी चल
पड़े।
तुमने
कभी देखा? भीड़
एक तरफ भागी
जा रही हो तो
तुम हजार काम
छोड़ कर भीड़ के
साथ जाने लगते
हो। अगर
हिंदुओं की
भीड़ मस्जिद पर
हमला कर रही
हो तो तुम भी
चल पड़ते हो।
तुम हजार काम
छोड़ देते हो।
तुम्हें कुछ
खयाल ही नहीं
रहता। जाकर
मंदिर को तोड़
देते हो या
मस्जिद को जला
देते हो। और
पीछे अगर कोई
तुमसे पूछे कि
क्या अकेले
तुम ऐसा कर
सकते थे? तो
तुम कहोगे, अकेला तो
मैं नहीं कर
सकता था। वह
तो भीड़ कर रही
थी इसलिए मैं
कर गुजरा। वह
तो भीड़ ने
करवा लिया। तो
तुम होश में
हो या बेहोश
हो?
कोई
आदमी गाली दे
देता है, और
तुम उबल गए; और तुम कुछ
कर गुजरे।
पीछे अदालत
में लोग कहते
हैं, हत्यारे
भी कहते हैं
कि हमने किया
नहीं, हो
गया। तुमने
किया नहीं और
हो गया? तो
किसने किया? तो हत्यारे
कहते हैं, हमारे
बावजूद हो गया।
होश न रहा।
बेहोशी में हो
गया। क्रोध आ
गया। नशा छा
गया क्रोध का और
घटना घट गई।
करना भी नहीं
चाहते थे। उठा
लिया पत्थर और
इस आदमी के
सिर पर मार
दिया। सोचा भी
नहीं कि यह मर
जाएगा।
इसने
जो गाली दी है
वह क्या इतनी
मूल्यवान है कि
इसका जीवन ले
लो?
यह हिसाब—किताब
ही न लगाया।
असल में यह
खयाल ही न था
कि यह मर
जाएगा। न
मारने के लिए
पत्थर उठाया
था। बस, हो
गया। जब' मर
गया तब तुम
घबडाए कि यह
क्या हो गया? यह मैंने
क्या कर लिया?
जब हाथ पर
खून दिखाई पड़ा।
सौ
में से
निन्यानबे
हत्याएं
बेहोशी में
होती हैं। हत्यारा
वस्तुत:
जिम्मेवार
नहीं होता। और
अगर तुम अपने
भीतर गौर से
देखोगे तो
तुम्हारे
भीतर भी यह
हत्यारा बैठा
हुआ है और कभी
भी प्रकट हो
सकता है। तुम
यह भरोसा मत
करना कि तुमने
अभी तक हत्या
नहीं की है तो
कल नहीं करोगे।
तुम भी कर
सकते हो।
बेहोश आदमी का
क्या भरोसा!
कुछ भी कर
सकता है।
न
तुमने प्रेम
होश में किया
है,
न घृणा होश
में की है। न
मित्र होश में
बनाए न शत्रु
होश में बनाए।
ऐसी बेहोश
अवस्था का नाम
छूता है।
महावीर ने इस
अवस्था को
प्रमाद कहा है,
बुद्ध ने
मूर्च्छा कहा
है, अष्टावक्र
मूढ़ता कहते
हैं।
छू
जरूरी रूप से
अज्ञानी नहीं
है। अज्ञानी
से मेरा मतलब, पंडित
हो सकता है
मूढ़, बड़ा
ज्ञानी हो
सकता है, बड़ा
जानकार हो
सकता है, बड़ी
सूचनाओं का
धनी हो सकता
है, लेकिन
फिर भी
मूर्च्छित है।
तत्वनिश्चयमात्रेण
प्राज्ञो
भवति निर्वृत।
'और ज्ञानी
पुरुष केवल
तत्व को
निश्चयपूर्वक
जान कर सुखी
हो जाता है।’ कुछ करता
नहीं। न तो
प्रयत्न करता
है, और न
अप्रयत्न
करता है; करता
ही नहीं। इतना
जान कर कि सुख
मेरा स्वभाव
है, बस
इतना
निश्चयपूर्वक
जान कर, ऐसी
जानने की एक
किरण मात्र—
तत्वनिश्चयमात्रेण
बस इतनी सी
बात, और
ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाता है।
रिंझाई
के संबंध में
उल्लेख है—एक
जापानी झेन
फकीर के—वह एक
मंदिर के पास
से गुजरता था
और मंदिर में बौद्धों
का एक सूत्र
पढ़ा जा रहा था।
ऐसे मंदिर के
द्वार से
गुजरते हुए, सुबह
का समय है, अभी
पक्षी
गुनगुना रहे,
सूरज निकला
है, सब तरफ
शांति और सब
तरफ सौंदर्य
दिख रहा है।
उस मठ के भीतर
होती हुई
मंत्रों की
गज! उसे एक मंत्र
सुनाई पड़ गया—ऐसे
ही निकलते।
सुनने भी नहीं
आया था, कहीं
और जा रहा था, सुबह घूमने
निकला होगा।
मंत्र था, जिसका
अर्थ था कि 'जिसे तुम
बाहर खोज रहे
हो वह भीतर है।’
साधारण
सी बात।
ज्ञानी सदा से
कहते रहे हैं, प्रभु
का राज्य
तुम्हारे
भीतर है, आनंद
तुम्हारे
भीतर है, आत्मा
तुम्हारे
भीतर है। ऐसा
ही सूत्र, कि
जिसे तुम बाहर
खोज रहे हो वह
तुम्हारे
भीतर है।
कुछ
झटका लगा।
जैसे किसी ने
नींद में
चौंका दिया।
ठिठक कर खड़ा
हो गया। जिसे
तुम बाहर खोज
रहे हो, तुम्हारे
भीतर है? बात
तीर की तरह
चुभ गई। बात
गहरी उतर गई।
बात इतनी गहरी
उतर गई कि रिंझाई
रूपांतरित हो
गया। कहते हैं,
रिंझाई
ज्ञान को
उपलब्ध हो गया।
समाधि उपलब्ध
हो गई।
खोजने
भी न गया था।
समाधि की कोई
चेष्टा भी
नहीं थी। सत्य
की कोई
जिज्ञासा भी
नहीं थी।
मंदिर से ऐसे
ही अनायास गुजरता
था। और ये
शब्द कोई ऐसे
विशिष्ट नहीं
हैं। हर मंदिर
में ऐसे सूत्र
दोहराए जा रहे
हैं। और तुम
चकित होओगे
जान कर, जो
पुजारी
दोहराता था वह
वर्षों से
दोहरा रहा था;
उसे कुछ भी
न हुआ। वह
पुजारी
ज्ञानी था
लेकिन मूढ़ था।
वह दोहराता
रहा; तोते
की तरह
दोहराता रहा।
जैसे तोता राम—राम,
राम—राम
रटता रहे। तुम
जो सिखा दो
वही रटता रहे। इससे
तुम यह मत
सोचना कि तोता
मोक्ष चला
जाएगा
क्योंकि राम—राम
रट रहा है, प्रभुनाम
स्मरण कर रहा
है।
यह
भी हो सकता है—उस
दिन हुआ तो
नहीं, लेकिन
यह हो सकता है—कि
मंदिर में कोई
पुजारी न रहा
हो, ग्रामोफोन
रिकॉर्ड लगा
हो, और
ग्रामोफोन
रिकॉर्ड
दोहरा रहा हो
कि जिसे तुम
बाहर खोजते हो
वह तुम्हारे
भीतर है।
ग्रामोफोन
रिकॉर्ड को
सुन कर भी कोई
ज्ञान को
उपलब्ध हो
सकता है। तुम
पर निर्भर है।
तुम कितनी
प्रज्ञा से
सुनते हो। तुम
कितने होश से
सुनते हो।
उस
सुबह की घड़ी
में,
सूरज की उन
किरणों में, जागरण के उस
क्षण में
अनायास यह
व्यक्ति जागा हुआ
होगा; होश
से भरा हुआ
होगा। एक छोटी
सी बात
क्रांति बन गई।
रिंझाई
महाज्ञानी हो
गया। वह घर
लौटा नहीं। वह
मंदिर में
जाकर दीक्षित
होकर
संन्यस्त हो गया।
पुजारी ने
पूछा भी, कि
क्या हुआ है? उसने कहा, बात दिखाई
पड़ गई। जिसे
मैं बाहर
खोजता हूं वह
भीतर है।
निश्चयमात्रेण!
पुजारी
कहने लगा, मैं
जीवन भर से पढ़
रहा हूं मुझे
नहीं हुआ और
तुम्हें कैसे
हो गया? उसने
कहा, यह
मैं नहीं
जानता। तुम
किस ढंग से पढ़
रहे हो तुम
जानो। लेकिन
यह मैंने सुना,
मेरी आंख
बंद हुई और
मैंने देखा कि
ऐसा है। भीतर
सुख का सागर
लहरें ले रहा
है। मैंने कभी
देखा नहीं था।
दिखाई पड़ गया।
सूत्र बहाना
बन गया। सूत्र
के बहाने बात
हो गई।
रिंझाई
जब ज्ञान को
उपलब्ध हो गया
और रिंझाई का
जब खुद बड़ा
विस्तार हुआ
और हजारों
उसके संन्यासी
हुए तो उसके
मठ में वह
सूत्र रोज पढ़ा
जाता था, लेकिन
फिर ऐसी घटना
न घटी। और
रिंझाई बड़ा
हैरान होता कि
इसी सूत्र को
पढ़ कर.. .पढ़ कर भी
नहीं, सुन
कर मैं ज्ञान
को उपलब्ध हुआ,
लोग क्यों
चूके जाते हैं?
तुम्हारे
ऊपर निर्भर है, कैसे
तुम सुनते हो।
अगर तुम शांत,
जाग्रत, होश
1?:? भरे सुन
रहे हो तो इसी
क्षण घटना घट
सकती है। फिर
न ध्यान करना
है, न तप, न जप। फिर
कुछ भी नहीं
करना है। फिर
तो न करना भी
नहीं करना है।
फिर तो न
प्रयत्न और न
अप्रयत्न। जो
है उसका बोध
पर्याप्त है।
तत्वनिश्चयमात्रेण।
वह
जो तत्वत: है, वह
जो सत्य है, उसका निश्चय
मात्र बैठ जाए
प्राणों में,
हो गई
क्रांति, हो
गया मूल
रूपातरण।
प्राज्ञो
भवति निर्वृत।
'निश्चय
मात्र हो जाने
से जो
प्रज्ञावान
है...।’
मूढ़
के विपरीत
प्रज्ञा। मूढ़
के ठीक विपरीत।
मूढ़ सोया हुआ; प्रज्ञावान
जागा हुआ।
'केवल तत्व
को
निश्चयपूर्वक
जान कर सुखी हो
जाता है।’
पाना
नहीं है सुख, सिर्फ
जानना है।
खोजना नहीं है,
पहचानना है।
कहीं जाना
नहीं है, अपने
घर आना है।
बहुत दूरतुम
निकल गए हो
अपने से, यही
तुम्हारी
अड़चन है।
जन्मों—जन्मों
यात्रा करके
तुम बहुत दूर
निकल गए हो।
लौटो! वापस आओ!
और
यह मत पूछना
कि कैसे लौटें।
क्योंकि
तुम्हें
सिर्फ खयाल है
कि तुम दूर निकल
गए हो। दूर
निकल कैसे
सकते हो? ऐसे
ही जैसे तुम
अपने घर में
बैठे हो और एक
कल्पना उठी कि
कलकत्ते चले
जाएं। चले गए
कल्पना में।
मगर जा थोड़े
ही रहे हो, वस्तुत:
थोड़े ही पहुंच
गए हो; सिर्फ
कल्पना उठी।
हो सकता है, कलकत्ते में
कलकत्ते के
किसी चौरस्ते
पर खड़े—स्वप्न
में, कल्पना
में। अब अगर
मैं तुमसे
कहूं कि लौट
आओ घर अपने तो
क्या तुम
मुझसे पूछोगे
कि कैसे लौटें?
कौन सी
ट्रेन पकड़े? कौन सा हवाई जहाज
पकड़े? क्योंकि
कलकत्ते के
चौरस्ते पर
खड़े हैं।
लौटना, तो
कुछ उपाय तो
करना होगा।
नहीं, तुम
यह सुन कर कि 'लौट आओ, लौट
आओ घर अपने' —लौट आए, अगर
तुमने सुन
लिया। तुम यह
न पूछोगे, कैसे?
क्योंकि गए
तुम कभी भी न
थे। जाने का
सिर्फ आभास है।
भ्रांति है
संसार। माया
है संसार।
आभास है कि
तुम संसार में
हो। तुम हो तो
बाहर ही। तुम
लाख उपाय करो
तो भी संसार
में हो नहीं
सकते।’इस
संसार में
अभ्यास—परायण
पुरुष उस
आत्मा को नहीं
जानते हैं, जो शुद्ध—
बुद्ध, प्रिय,
पूर्ण
प्रपंचरहित
और दुखरहित है।’
शुद्धं
बुद्धं
प्रियं पूर्ण
निष्प्रपंच
निरामयम्।
आत्मानं
तं न जानन्ति
तत्राभ्यासपरा
जना:।।
बड़ी
अदभुतबात
कहतेहैं
अष्टावक्र।
कि जो
अभ्यासमेंपडगएहैं, जो
अभ्यास में
उलझ गए हैं, वे कभी भी उस
शुद्ध—बुद्ध
आनंदमयी
आत्मा को नहीं
जान पाते।
बड़ी
आश्चर्य की
बात। क्योंकि
लोग तो पूछते
हैं,
क्या
अभ्यास करें
ताकि
आत्मज्ञान हो
जाए? और
अष्टावक्र
कहते हैं :
आत्मानं
तं न जानन्ति
तत्राभ्यासपरा
जना:।
जो
व्यक्ति
अभ्यास में
डूब गए हैं वे
कभी आत्मा को
नहीं जान पाते।
समझना।
अभ्यास का
अर्थ ही होता
है कुछ, जो
तुम नहीं हो, होने की
चेष्टा।
जोजुम हो उसकी
होने की
चेष्टा तो
नहीं करनी होती
न! जो तुम हो वह
तो तुम हो ही।
अभ्यास तो ऊपर
से कुछ ओढ़ने
का नाम है।
अभ्यास का तो
अर्थ ही है
विकृति।
अभ्यास का तो
अर्थ ही है
झूठ, धोखा,
प्रपंच, पाखंड।
अभ्यास का तो
अर्थ ही यह है
कि तुम कुछ
आयोजन से, चेष्टा
से अपने ऊपर
आरोपित कर रहे
हो। जो है वह
तो है; उसके
अभ्यास की कोई
जरूरत नहीं।
गुलाब
का फूल अभ्यास
तो नहीं करता गुलाब
का फूल होने के
लिए। न चमेली, न
चंपा, न
जूही, कोई
भी तो अभ्यास
नहीं करता।
कोयल कोयल है,
कौवा कौवा
है। कौवा
अभ्यास थोड़े
ही करता कौवा
होने के लिए।
कोयल अभ्यास
तो नहीं करती
कोयल होने के
लिए। जो है, जैसा है, उसके
लिए तो कोई
अभ्यास नहीं
करना पड़ता।
लेकिन अगर कोई
कौवा पागल हो
जाए.. .होते
नहीं कौवे
पागल; पागलपन
सिर्फ
आदमियों में
होता है।
पागलपन की
घटना मनुष्य
को छोड़ कर
कहीं और घटती
ही नहीं। अगर
कोई कौवा पागल
हो जाए और
कोयल होने की
चेष्टा करने
लगे तो उपद्रव,
अभ्यास
करना होगा। तो
फिर शीर्षासन
लगाना होगा, योगाभ्यास
करना होगा, आसन—व्यायाम
साधने होंगे।
कौवा कोयल
होना चाहता है।
और यह सब
अभ्यास ऊपर ही
ऊपर रहेगा, क्योंकि
स्वभाव को कोई
अभ्यास कभी
बदल नहीं सकता।
समय पड़ने पर
कौवा प्रकट हो
जाएगा।
अभ्यास कर ले,
चला जाए
किसी संगीत—विद्यालय
में, और
वहां धीरे—
धीरे अभ्यास
करके अपने कंठ
को भी साध ले, कोकिल कंठी
हो जाए, लेकिन
किसी मौके पर,
जहां
अभ्यास को
साधने का खयाल
न रहेगा—किसी
मौके पर बात
गड़बड़ हो जाएगी।
ऐसा
है कालिदास के
जीवन में
उल्लेख कि वे
जिस राजा भोज
के दरबार में
थे,.
एक
महापंडित आया।
उस महापंडित
को तीस भाषाएं
आती थीं। और
उसने सम्राट
भोज के
दरबारियों को
चुनौती दी कि
अगर कोई मेरी
मातृभाषा
पहचान ले तो
मैं एक लक्ष
स्वर्ण
मुद्राएं
भेंट करूंगा।
और अगर कोई
पहचानने में
भूल हुई तो एक
लक्ष स्वर्णमुद्राएं
उस व्यक्ति को
मुझे भेंट
करनी पड़ेगी।
सम्राट
भोज को यह
चुनौती बड़ी
अखरी। क्या
मेरे दरबार
में ऐसा कोई
भी आदमी नहीं, जो
इसकी
मातृभाषा
पहचान ले? चुनौती
स्वीकार कर ली
गई। एक के बाद
एक दरबारी
हारते गए। और
भोज बड़ा दुखी
होने लगा।
अंतत: उसने
कालिदास
से कहा
कि कुछ करो।
कालिदास ने
कहा कि मुझे
जरा निरीक्षण
करने दो। आदमी
गहन अभ्यासी
है। जो भाषा
बोलता है, ऐसी
लगती है कि
इसकी
मातृभाषा है।
वही भूलें
करता है, जो
सिर्फ
मातृभाषा
बोलनेवाले
लोग करते हैं।
उसी ढंग से
बोलता है, उसी
लहजे में
बोलता है, जो
मातृभाषा वाले
बोलते हैं। और
सभी भाषाएं!
बड़ा मुश्किल
है। लेकिन जरा
मुझे देखने दो।
ऐसा
दो—चार दिन
कालिदास उसका
निरीक्षण
करते रहे।
पांचवें दिन
सीढ़ियों से
उतरता था
राजमहल की फिर
एक लक्ष
मुद्राएं जीत
कर और कालिदास
ने उसे धक्का
दे दिया।
राजमहल की
सीढ़ियां...
धक्का खाया, सीढियों
से लौटता हुआ
नीचे जा
पहुंचा। खड़ा
होकर
चिल्लाया, नाराज
हो गया।
कालिदास ने
कहा, क्षमा
करें, और
कोई और उपाय न
था। यही आपकी
मातृभाषा है।
उस
क्षण भूल गया।
उस क्षण कौवा
प्रकट हो गया।
अब जब कोई
गाली देता है
तो थोड़े ही
किसी दूसरे की
भाषा में गाली
देता है। गाली
देने का मजा
ही नहीं दूसरे
की भाषा में।
मेरे
एक मित्र एक
अमरीकन युवती
से विवाह कर
लिए। वे मुझसे
कहने लगे, दो
बातों में बड़ी
अड़चन होती है।
झगड़ो, तब
गड़बड़ होती है;
तब मजा नहीं
आता। तब तो
दिल होता है
कि अपनी
मातृभाषा में
ही...। मगर वह
मजा नहीं आता।
और या प्रेम
की कुछ गहराइयों
में उतरो, तब
फिर अड़चन हो
जाती। जब कोई
प्रेम की
गहराई हो तब
कोई चाहता है
उसी भाषा में
बोलो, जो
तुम्हारी
श्वास—श्वास
में रम गई है।
या जब क्रोध
की गहराई हो
तब भी। प्रेम
में और युद्ध
में मातृभाषा।
बीच में कोई
भी भाषा चल
सकती है।
कालिदास
ने कहा, और
कोई उपाय न था,
क्षमा करें।
धक्का देना
पड़ा। आप को
चोट लग गई हो
तो माफ करें, लेकिन यही
आपकी
मातृभाषा है।
और वही
मातृभाषा थी।
अभ्यास
से हम स्वभाव
के ऊपर आरोपण
करते हैं।
अष्टावक्र
कह रहे हैं, स्वभाव
में डूब जाना
ही सुख है।
इसलिए सुख का
तो कोई अभ्यास
नहीं हो सकता।
तुम जो भी
अभ्यास करोगे
उससे दुख ही
पाओगे।
अभ्यास मात्र
दुख लाता है, क्योंकि
अभ्यास मात्र
पाखंड लाता है।
इसलिए बड़ा
अदभुत सूत्र
है
आत्मानं
तं न जानन्ति।
उन
अभागों के लिए
क्या कहें! वे
कभी आत्मा को
नहीं जान पाते।
तत्राभ्यासपरा
जना:।
जिनके
जीवन में.
अभ्यास की
बीमारी पकड़ गई।
जो अभ्यास के
रोग से पीड़ित
हो गए हैं; जो
सदा—सदा
अभ्यास ही
करते रहते हैं,
वे झूठे ही
होते चले जाते
हैं। मुखौटे
ही रह जाते
हैं उनके पास।
प्रत्यग्चित
भौहों के आगे
समझौते, केवल
समझौते
भीतर
चुभन सुई की, बाहर
संधिपत्र
पर पढ़ती
मुसकानें
जिस
पर मेरे
हस्ताक्षर
हैं
कैसे
हैं,
ईश्वर ही
जाने
आधी
से आतंकित
चेहरे
गर्दखोर
रंगीन मुखौटे
जी
होता आकाश—कुसुम
को
एक
बार बाहों में
भर लें
जी
होता एकांत
क्षणों में
अपने
को संबोधित कर
लें
लेकिन
भीड़—भरी गलियां
हैं
कागज
के फूलों के
न्यौते
झेल
रहा हूं
शोभायात्रा
में
चलते
हाथी का जीवन
जिसके
माथे मोती की
झालर
लेकिन
अंकुश का शासन
अधजल
घट—से छलक रहे
हैं
पीठ
चढ़े जो सजे
कठौते
समझौते, केवल
समझौते
प्रत्यग्चित
भौहों के आगे
समझौते, केवल
समझौते
अभ्यास
तुम्हें झूठ
कर जाता है।
अभ्यास
समझौता है पर
से;
स्व के
विपरीत।
अभ्यास का
अर्थ है, भीतर अगर
आंसू है तो ओठों
पर मुसकान।
अभ्यास का अर्थ
है, भीतर कुछ,
बाहर कुछ।
धीरे—धीरे
भीतर और बाहर दो
अलग दुनिया हो
जाती है।
मनोवैज्ञानिक
इसी को स्क्वीजोफ़ेनिया
कहते हैं।
आदमी दो हो
गया— भीतर कुछ, बाहर
कुछ। दोनों के
बीच ऐसी खाई
हो गई कि पुल
भी नहीं बन सकता;
सेतु भी
नहीं बन सकता।
अपने से ही
संबंध छूट
जाता है।
क्योंकि धीरे—
धीरे तुम अपना
मौलिक चेहरा
तो भूल जाते
हो, मुखौटे
को ही अपना
चेहरा समझ
लेते हो। हाथी
के दांत
दिखाने के और,
खाने के और 1 तुम्हारे
जीवन में ऐसी
अड़चन हो जाती।
तुम
स्वाभाविक न
रहे, बस
वहीं सुख छिन
जाता। सुख है
स्वभाव की
सुगंध।
ये
वृक्ष सुखी
हैं। क्योंकि
गुलाब का फूल
कमल होने की
चेष्टा नहीं
कर रहा।
क्योंकि चंपा
चंपा है, चमेली
चमेली है। कोई
किसी के साथ
प्रतिस्पर्धा
में नहीं है।
कोई कुछ और
होने का उपाय
नहीं कर रहा
है। आदमी पागल
है। स्वस्थ
आदमी खोजना ही
कठिन है।
स्वस्थ का
अर्थ भी समझ
लेना। स्वस्थ
शब्द बड़ा
कीमती है।
इसका मतलब है,
स्वयं में
स्थित। वही
स्वस्थ है जो
स्वयं में
स्थित है। जो
स्वभाव में है
वही स्वस्थ है।
स्वस्थ आदमी
खोजना
मुश्किल है।
घाव पर घाव, समझौते पर
समझौते, मुखौटों
पर मुखौटे।
तुमने
कभी गौर किया
कि तुम कितने
मुखौटे ओढ़े हुए
हो! पत्नी के
सामने एक
मुखौटा ओढ़
लेते, बेटे के
सामने एक, नौकर
के सामने और, मालिक के
सामने और—दिन
भर बदलते रहते।
ऐसे हजारों
चेहरे हैं
तुम्हारे।
अभ्यास ऐसा हो
गया है बदलने
का कि तुम्हें
पता भी नहीं
चलता कैसे बदल
लेते। चुपचाप
बदल लेते।?
पति—पत्नी
लड़ रहे हैं, कोई
मेहमान ने
द्वार पर
दस्तक दे दी—मुखौटे
बदल गए।
मेहमान को पता
ही न चलेगा।
शायद ईर्ष्या
से भर जाए कि
कितना एक—दूसरे
को प्रेम करते
हैं। मैं कुछ
चूक रहा हूं।
मेरे जीवन में
ऐसी बात नहीं।
मेरी पत्नी
क्यों नहीं
ऐसा प्रेम
करती जैसा यह
पत्नी कर रही
है? उसे
पता नहीं कि
घड़ी भर पहले, क्षण भर
पहले क्या हो
रहा था। उसने
जब दस्तक दी
थी उसके पहले
क्या हो रहा
था उसे पता
नहीं।
दूसरों
को हंसते देख
कर हरेक को
ऐसा लगता है कि
शायद मुझसे
ज्यादा दुखी
आदमी दुनिया
में कोई नहीं।
क्योंकि
तुम्हें अपने
भीतर की
असलियत पता है, दूसरों
को तो सिर्फ
तुम्हारा
मुखौटा पता है।
तुम सबको धोखा
दे लो, अपने
को कैसे धोखा
दे पाओगे? कितना
ही दो, लाख
करो उपाय, तुम्हारी
असलियत बीच—बीच
में उभरती
रहेगी और
बताती रहेगी
कि तुम झूठ हो।
और
जब तक तुम .झूठ
हो तब तक तुम
दुखी हो। सच
होते ही आदमी
सुखी होता है, प्रामाणिक
होते ही सुखी
होता है।
'इस संसार
में अभ्यास—परायण
पुरुष उस
आत्मा को नहीं
जानते हैं, जो शुद्ध है,
जो बुद्ध है,
जो प्रिय है,
जो पूर्ण है,
जो
प्रपंचरहित
है और जो
दुखरहित है।’
जिसे
तुम लेकर आए
हो,
जिस संपदा
को तुम अपने
भीतर लिए बैठे
हो उस तिजोड़ी
को तुमने खोला
ही नहीं।
तुमने तिजोड़ी
के ऊपर और न
मालूम क्या—क्या
रंग—रोगन चढ़ा
दिया। तुमने
तिजोड़ी खोली
ही नहीं 1
तुम्हारे रंग—रोगन
के कारण यह भी
हो सकता है कि
अब ताली भी न
लगे। तुमने
इतना रंग—रोगन
कर दिया हो कि
ताली का छेद
भी बंद हो गया
हो। और तुम
जिसे खोज रहे
हो वह
तुम्हारे
भीतर बंद है।
तुम उसे लेकर
आए हो।
यह
विरोधाभास
लगेगा, लेकिन
इसे याद रखना।
इस पृथ्वी पर
तुम उसी को
खोजने के लिए
भेजे गए हो, जो तुम्हें
मिला ही हुआ
है। इस पृथ्वी
पर तुम उससे
ही परिचित
होने आए हो, जो तुम हो।
कुछ और होना
नहीं है। जो
तुम हो उससे
ही पहचान
बढ़ानी है; उसके
ही आंख में आंख
डालनी है; उसका
ही हाथ में
हाथ लेना है; उसका ही
आलिंगन करना
है।
और
तब तुम पाओगे, तुम
कभी अशुद्ध
हुए ही नहीं।
तुम शुद्ध हो।
और तुम कभी
बुद्ध से क्षण
भर नीचे नहीं
उतरे।
तुम्हारे
भीतर की आत्मा
परम बुद्ध की
स्थिति में है;
परम ज्ञानी
की स्थिति में
है। वहा रसधार
बह रही। वहां
अमृत बरस रहा।
वहां प्रकाश
ही प्रकाश है;
अंधकार
वहां प्रवेश
ही नहीं कर
पाया। वहां
अंधकार
प्रवेश कर भी
नहीं सकता। तुम
महाचैतन्य के
स्रोत हो।
तुम्हारे
भीतर प्रभु
विराजमान है—शुद्ध,
बुद्ध, प्रिय,
पूर्ण, प्रपंचरहित
और दुखरहित।
'अज्ञानी
पुरुष
अभ्यासरूपी
कर्म से मोक्ष
को नहीं
प्राप्त होता
है।
क्रियारहित
ज्ञानी पुरुष
केवल ज्ञान के
द्वारा मुक्त
हुआ स्थित
रहता है।’
मोक्ष
कोई लक्ष्य
नहीं है, कोई
गंतव्य नहीं
है। मोक्ष आगे
नहीं है, तुम्हारे
पीछे है।
मोक्ष को हाथ
फैला कर नहीं
खोजना है, मोक्ष
को आंख भीतर
डाल कर खोज
लेना है।
मोक्ष तुम्हारी
गहराई में पड़ा
हुआ हीरा है।
घूमो तट—तट, बीनोशंख—सीपी,
हीरा न मिलेगा।
हीरा तो
लगाओगे डुबकी,
जाओगे गहरे
अपने में, स्व
के सागर में, तो पाओगे।
'अज्ञानी
पुरुष अभ्यास रूपी
कर्म से मोक्ष
को नहीं
प्राप्त
होता...।’
नाभोति
कर्मणा मोक्ष
विमूढ़ोऽभ्यासरूपिणा।
कितना
ही करो अभ्यास—जपो, तपो,
उपवास करो;
कितना ही
करो अभ्यास—छोड़ो
संसार, त्याग
करो, भाग
जाओ हिमालय; कितना ही
करो अभ्यास, मोक्ष न
पाओगे।
क्योंकि
तुम्हारी
मौलिक दृष्टि
तो अभी खुली नहीं
कि मोक्ष मेरा
स्वभाव है।
फिर कहां जाना
हिमालय? जो
यहां नहीं हो
सकता, हिमालय
पर भी नहीं
होगा। और जो
यहां हो सकता
है, उसके
लिए हिमालय
जाने की क्या
जरूरत है?
धन
ने तुम्हें नहीं
रोका है। धन
क्या रोकेगा? चांदी
के ठीकरे क्या
रोक सकते हैं?
न मकान ने
तुम्हें रोका
है, न
दुकान ने
तुम्हें रोका
है, न
बच्चे, न
पत्नी, न
पति ने
तुम्हें रोका
है। कोई दूसरा
तुम्हें कैसे
रोक सकता है? तुम रुके हो
अपनी छूता से।
मूढ़ता तोड़ो।
और कहीं मत
जाओ, और कुछ
मत छोड़ो, सिर्फ
मूढ़ता तोड़ो।
और
जिस दिन मूढ़ता
टूटेगी और तुम
अपने भीतर देखोगे
परमात्मा को विराजमान, परात्परब्रह्म
को विराजमान,
उस दिन तुम
पाओगे पत्नी
में भी वही
विराजमान है।
तुम्हारे
बेटे में भी
वही विराजमान
है। उस दिन
पत्नी पत्नी न
रहेगी, यह
सच है। पत्नी
भी परमात्मा
हो जाएगी। उस
दिन बेटा, बेटा
न रहेगा; वह
भी परमात्मा
हो जाएगा। उस
दिन यह सारा
जगत वही हो
जाता है जो
तुम हो।
तुम्हारे रंग
में रंग जाता
है। और उस दिन
जो उत्सव होता
है, जो रास
रचता है, उस
दिन जो आनंद
मंगल के गीत
गाए जाते हैं,
वही मोक्ष
है।
मोक्ष
का अर्थ है.
स्वयं की
पहचान।
नाम्मोति
कर्मणा मोक्ष
विमूढूाएऽभ्यासस्वइपणा।
धन्यो
विज्ञानमात्रेण
मुक्तस्तिष्ठत्य
विक्रिय।।
अष्टावक्र
कहते हैं, धन्य
हैं वे लोग—
धन्यो
विज्ञानमात्रेण—जो
केवल बोध
मात्र से, चैतन्य
मात्र से
मोक्ष को
उपलब्ध हो
जाते हैं। जरा
भी क्रिया
नहीं करते।
क्रिया करने
की बात ही
नहीं है।
क्रिया
से तो वही
मिलता है जो
बाहर है।
अक्रिया से
वही मिलता है
जो भीतर है।
अक्रिया
आलस्य का नाम
नहीं है, याद
रखना।
अक्रिया से
मतलब
अकर्मण्यता
मत समझ लेना।
अक्रिया का
अर्थ है, क्रिया
की शांत दशा।
अक्रिया का
अर्थ है, क्रिया
की
अनुद्विग्न
दशा। अक्रिया
का अर्थु है, जैसे झील
शांत है और
लहर नहीं उठती।
झील है, लहर
नहीं उठती।
क्रिया में जो
ऊर्जा लगती है,
शक्ति लगती
है वह तो है, लेकिन झील
की तरह भरी, भरपूर, लेकिन
तरंग नहीं
उठती। वासना
की तरंग नहीं
है और वासना की
दौड़ नहीं है।
उस भरी हुई
ऊर्जा में
तुम्हें पहली
बार दर्शन
होते हैं।
धन्यों
विज्ञानमात्रेण।
उस
घड़ी को कहो
धन्यता, जब
तुम्हें
बोधमात्र से
परमात्मा से
मिलन हो जाता
है।
मुक्तस्तिष्ठत्य
विक्रियं:।
और
मुक्त.. .मोक्ष
को खोजने से
थोड़े ही कोई
मुक्त होता है।
मुक्त यह जान
लेता है कि
मैं मुक्त हूं।
उसकी उदघोषणा
हो जाती है।
उपनिषद
कहते हैं, ' अहं
ब्रह्मास्मि'
: मैं
ब्रह्म हूं।
मंसूर ने कहा
है, अनलहक?
मैं सत्य
हूं। यह कुछ
पाने की बात
थोड़े ही है।
यह सत्य तो
मंसूर था ही; आज पहचाना।
यह उपनिषद के
ऋषि ने कहा, ' अहं ब्रह्मास्मि'
—ऐसा थोड़े
ही है कि आज हो
गए ब्रह्म। जो
नहीं थे तो
कैसे हो जाते?
जो तुम नहीं
हो, कभी न
हो सकोगे। जो
तुम हो वही हो
सकोगे। वही हो
सकता है। इससे
अन्यथा कुछ
होता ही नहीं।
अगर
तुम देखते हो
कि एक दिन बीज
फूटा, वृक्ष
बना, आम के
फल लगे, तो
इसका केवल इतना
ही अर्थ है कि
आम बीज में
छिपा ही था; और कुछ अर्थ
नहीं है। जो
प्रकट हुआ वह
मौजूद था। ऐसा
नहीं है कि
कोई भी बीज बो
दो और आम हो
जाएगा। आम के
ही बीज बोने
पड़ेंगे। आम ही
बोओगे तो आम
मिलेगा।
अगर
एक दिन उपनिषद
के ऋषि को पता
चला,
' अहं
ब्रह्मास्मि.
मैं ब्रह्म हूं
' और एक दिन
गौतम
सिद्धार्थ को
पता चला कि
मैं बुद्ध हूं;
और एक दिन
वर्धमान
महावीर को पता
चला कि मैं जिन
हूं तो जो आज
पता चला है, आज जो फल लगे
हैं, वे
सदा से मौजूद
थे। पहचान हुई।
बीज में छिपे
थे, प्रकट
हुए। गहरे
अंधेरे में
हीरा पड़ा था, प्रकाश 'में
लाए। बस, इतनी
ही बात है।
धन्यो
विज्ञानमात्रेण।
'अज्ञानी
जैसे ब्रह्म
होने की इच्छा
करता है, वैसे
ही ब्रह्म
नहीं हो पाता
है।’ इस
बात की इच्छा
करना कि मैं
ब्रह्म हो
जाऊं, इस
बात की खबर है
कि तुम्हें
अभी भी अपने
ब्रह्म होने
का पता नहीं
चला। इच्छा ही
सबूत है।
जैसे
कोई पुरुष
इच्छा करे कि
मैं पुरुष हो
जाऊं, तो तुम
क्या कहोगे? तुम कहोगे, तू पागल है।
तू पुरुष है।
इसकी इच्छा
क्या करनी! वह
कहे कि मुझे
कुछ रास्ता
बताओ कि मैं
कैसे पुरुष हो
जाऊं? तो
तुम क्या
करोगे ज्यादा
से ज्यादा? आईना दिखा
सकते हो कि
देख आईना।
सदगुरु
इतना ही करता
है,
एक आईना
सामने रख देता
है।
पुरानी
कथा है. एक
सिंहनी छलांग
लगाती थी। और
छलांग के बीच
में ही उसको
बच्चा हो गया।
वह तो छलांग
लगा कर चली भी
गई एक टीले से
दूसरे टीले पर; बच्चा
नीचे गिर गया।
नीचे भेड़ों की
एक कतार
गुजरती थी। वह
बच्चा भेड़ों
में मिल गया।
भेड़ों ने उसे
पाला, पोसा,
बड़ा हुआ।
सिंह था तो
सिंह ही हुआ, लेकिन
अभ्यासवश
अपने को भेड़
मानने लगा।
अभ्यास तो भेड़
का हुआ। भेड़ों
के साथ था।
भेड़ों के बीच
ही पाया पहले
दिन से ही।
अन्यथा तो कोई
सवाल ही न था।
भेड़ों का ही
मिमियाना देख
कर खुद भी
मिमियाना सीख
गया। भेड़ों
जैसा ही घसर—पसर
चलने लगा भीड़
में।
और
सिंह तो अकेला
चलता है।’सिंहों
के नहीं लेहड़े।’
कोई सिंहों
की भीड़ थोड़े
होती है।
भेड़ों की भीड़
होती है। भीड़
में तो वही
चलते हैं, जो
डरपोक हैं।
भीड़ में चलते
ही इसलिए हैं
कि कायर हैं।
डर लगता है, अगर मैं
हिंदुओं की
भीड़ से निकला
तो क्या होगा;
मुसलमानों
की भीड़ से
निकला तो क्या
होगा? रहे
आओ भीड़ में।
कम से कम इतने
लोग तो साथ
हैं। बीस करोड़
हिंदू साथ हैं।
हिम्मत रहती
है।
संन्यासी
वही है, जो
भीड़ के बाहर
निकलता है।
संन्यासी
सिंह है।’सिंहों
के नहीं लेहड़े।’
इसलिए
संन्यासी की
कोई जात नहीं
होती। कबीर ने
कहा है, संतों
की जात मत
पूछना। जात
होती ही नहीं
संत की कोई।
जात तो कायरों
की होती। संत
की क्या जात?
भेड़ों
में गिरा, भेड़ों
में बड़ा हुआ।
भेड़ों की भाषा
सीख ली। भेड़ों
की भाषा यानी
भय। जरा सी
घबड़ाहट हो जाए,
भेड़ें कैप
जाएं तो वह भी
कंपे। फिर एक
दिन ऐसा हुआ
कि एक सिंह ने
भेड़ों पर हमला
किया। वह सिंह
तो देख कर
चकित हो गया।
वह तो हमला ही
भूल गया, उसने
जब भेड़ों के
बीच में एक
दूसरे सिंह को
भागते देखा।
और भेड़ें उसके
साथ घसर—पसर
जा रही हैं।
वह सिंह तो
भूल ही गया
भेड़ों को।
उसको तो यह
समझ में ही
नहीं आया कि
यह चमत्कार
क्या हो रहा
है!
वह
तो भागा। उसने
भेड़ों की तो
फिकर छोड़ दी।
बामुश्किल
पकड पाया इस
सिंह को। पकड़ा, तो
सिंह
मिमियाया, रोने
लगा, गिड़गिड़ाने
लगा। कहने लगा,
छोड़ दो मुझे।
मुझे जाने दो।
मेरे सब संगी—साथी
जा रहे हैं।
उसने कहा, नालायक,
सुन! ये
तेरे संगी—साथी
नहीं हैं।
तेरा दिमाग
फिर गया? तू
पागल हो गया? पर वह तो
सुने ही नहीं।
तो भी उस के
सिंह ने उसे
घसीटा, जबरदस्ती
उसे ले गया
नदी के किनारे।
दोनों
ने नदी में झांका।
और उस के सिंह
ने कहा कि देख
दर्पण में।
देख नदी में।
अपना चेहरा
देख,
मेरा चेहरा
देख। पहचान!
फिर कुछ करना
न पड़ा। बड़े
डरते— डरते.. .वह
मजबूरी थी। अब
यह मानता ही
नहीं का सिंह।
और ज्यादा
झंझट करनी भी
ठीक नहीं।
उसने देखा।
देखा, पाया,
हम दोनों तो
एक जैसे हैं.।
तो मैं भेड़
नहीं हूं? एक
क्षण में
गर्जना हो गई।
एक क्षण में
ऐसी गर्जना
उठी उसके भीतर
से, जीवन
भर की दबी हुई
सिंह की
गर्जना—सिंहनाद!
पहाड़ कंप गए।
का सिंह भी
कैप गया। उसने
कहा, अरे!
इतने जोर से
दहाड़ता है? उसने कहा कि
जन्म से दहाड़ा
ही नहीं। कैसे
अभ्यास में पड़
गया! बड़ी कृपा
तुम्हारी, जो
मुझे जगा दिया।
सदगुरु
का इतना ही
अर्थ है कि
तुम्हें पकड़
ले भेड़ों के
झुंड से। तुम
बहुत नाराज
होओगे। तुम
गिड़गिड़ाओगे।
तुम कहोगे, यह
क्या करते
महाराज? छोड़ो
मुझे, जाने
दो। मैं हिंदू
हूं मैं
मुसलमान हूं।
मैं ईसाई हूं
मुझे चर्च
जाना है—रविवार
का दिन! आप
कहां ले जाते
हो? मुझे
जाने दो।
मगर
एक बार तुम
सदगुरु के
चक्कर में पड़
गए तो वह
तुम्हें बिना
नदी में झुकाए
छोड़ेगा नहीं।
और एक बार
तुमने देख
लिया कि जो
बुद्ध में है, जो
महावीर में है,
जो सदगुरु
में है, जो
अष्टावक्र
में है, कृष्ण
में है, मोहम्मद
में है, जीसस—जरथुस्त्र
में है, वही
तुममें है—गर्जना
निकल जाएगी. ' अहं
ब्रह्मास्मि।’
मैं ब्रह्म
हूं। गज
उठेंगे पहाड़।
कैप जाएंगे
पहाड़।
तुम
भेड़ नहीं हो।
भीड़ में हो
इसलिए भेड़
मालूम पड़ रहे
हो। भीड़ से
उठो। भीड़ से
जगो। भीड़ ने
तुम्हें खूब
अभ्यास करवा
दिया है।
स्वभावत: भीड़
वही अभ्यास
करवा सकती है, जो
जानती है।
भेड़ों का कसूर
भी क्या? भेड़ों
ने कुछ जान कर
तो कुछ किया
नहीं। जो
जानती थीं वही
सिंह के शावक
को भी समझा
दिया, करवा
दिया।
जो
तुम्हरे मां—बाप
जानते थे वही
तुम्हें सिखा
दिया। न वे
जानते थे, न
तुम जान पा
रहे हो। जो
उनके मां—बाप
जानते थे, उन्हें
सिखा गए थे कि
पढ़ते रहना
तोते की तरह
राम—राम। तो
वे भी पढ़ते
रहे। वे
तुम्हें सिखा
गए हैं कि देख,
कभी राम—राम
मत चूकना; जरूर
पढ़ लेना। रोज
सुबह उठ कर पढ़
लेना; कि
सूरज को
नमस्कार कर
लेना; कि
कुंभ मेला भरे
तो हो आना। तो
करोड़ भेड़ें
इकट्ठी...। भीड़
वही तो सिखा
सकती है, जो
जानती है। भीड़
का कसूर भी
क्या?
'अज्ञानी
जैसे ब्रह्म
होने की इच्छा
करता है वैसे
ही ब्रह्म
नहीं हो पाता।’
इस
बात को समझो।
यह भी अज्ञान
है कि मैं
इच्छा करूं कि
मुझे ब्रह्म
होना है, कि
मुझे मुक्त
होना है। इस
इच्छा में ही
एक बात
सम्मिलित है
कि तुम सोचते
हो, तुम
मुक्त नहीं हो।
थोड़ा
सोचो। वह सिंह
जो भेड़ों में
खो गया था, पूछने
लगता उस के
सिंह से कि
मुझे भी सिंह
होना है, रास्ता
बताओ। और वह
बता देता उसको
रास्ता कि देख
बेटा, सिर
के बल खड़ा हुआ
कर, शीर्षासन
किया कर, इससे
धीरे— धीरे
सिंह हो जाएगा।
या रोज बैठ कर
अभ्यास किया
कर, सोचा
कर कि मैं
सिंह हूं मैं
सिंह हूं। ऐसे
धीरे—धीरे
सोचने से, अभ्यास
करने से, चिंतन—मनन—निदिध्यासन
से हो जाएगा।
तो
बात चूक जाती।
वह सिंह अगर
बैठ—बैठ कर
अभ्यास करता
रहता, आसन—
व्यायाम
इत्यादि करता,
और बार—बार
सोचता और
शास्त्र पढ़ता
और दोहराता कि
मैं सिंह हूं
और हिम्मत
बांधता, तो
झूठ अभ्यास
होता। सिंह
होने की जरूरत
नहीं है,
सिंह
होने का बोध
जगना चाहिए।
अभ्यास नहीं, बोध।
धन्यो
विज्ञानमात्रेण।
धन्य
हैं वे, जो
सुन कर जाग
जाते हैं।
जिन्होंने
देखा चेहरा
अपना दर्पण
में और पहचाना।
मूढ़ो
नाम्पोति
तद्ब्रह्म
यतो
भवितुमिच्छति।
यह
होने की
आकांक्षा ही
फिर न होने
देगी। तुम जो
हो—होना नहीं
है,
सिर्फ
जागना है।
इसलिए
धार्मिक
व्यक्ति मैं
उसको नहीं
कहता, जो
धार्मिक होना
चाहता है।
पाखंडी हो
जाएगा।
धार्मिक
व्यक्ति मैं
उसको कहता हूं
जो उसे देख
लेता है, जो
है। जो होना
चाहता है, यह
बात ही गलत है।
बिकमिंग, भवितुमिच्छति,
कुछ होना, यह
धार्मिक
आदमी का लक्षण
नहीं है; बीइंग,
जो है, उसे
जान लेना।
होने की दौड़
संसार है और
जो है, उसके
प्रति जागना
धर्म है।
मूढ़ो
नाभोति
तद्ब्रह्म
यतो
भवितुमिच्छति।
अनिच्छन्नपि
धीमे हि
परब्रह्मस्वरूपभाक्।।
'और धीर
पुरुष नहीं
चाहता हुआ भी
निश्चित ही परब्रह्मस्वरूप
को भजने वाला
होता है।’
और
धीर पुरुष, बोध
को उपलब्ध
व्यक्ति, जिसका
सिंहनाद हो
गया, जिसने
अपने
वास्तविक
चेहरे को
पहचान लिया, वह न चाहता
हुआ भी...।
का
सिंह जब उस
युवा सिंह को
नदी के तट पर
ले गया तो उस
युवा सिंह के
मन में सिंह
होने की कोई आकांक्षा
भी न थी, कोई
इच्छा भी न थी।
वह तो बचना
चाहता था। वह
कहता था, बाबा
मुझे छोड़ो।
मुझे क्यों
पकड़े हो? मैं
भेड़ हूं। और
मैं भेड़ रहना
चाहता हूं। और
मैं बड़े मजे
में हूं। और
मेरी कोई
आकाड़ा इससे
अन्यथा होने
की नहीं है।
मेरा संसार
बड़े सुख से चल
रहा है। आप यह
क्या कर रहे
हैं? मुझे
कहां 'घसीटे
ले जा रहे हो? मुझे मेरे
परिवार में
जाने दो।
उसकी
कोई इच्छा न
थी। वह कुछ
होना भी न 'चाहता
था। लेकिन जब
अपने
वास्तविक
चेहरे को देखा
झील के दर्पण
में, या
नदी के पानी
में तो क्या
करोगे? जब
दिखाई पड़
जाएगा सत्य तो
कैसे बचोगे? तो उदघोषणा
हो गई— ' अहं
ब्रह्मास्मि।’
अनिच्छन्नपि
धीरो हि
परब्रह्मस्वरूपभाक्।
न
चाहते हुए भी।
जो जाग्रत, थोड़ा
सा भी जाग्रत
है, जरा सी
भी किरण जागने
की जिसके भीतर
उतरी है वह
निश्चय ही
परब्रह्मस्वरूप
का भजने वाला
हो जाता है।
फिर
स्वरूपभाक्
शब्द को समझना
चाहिए।
परब्रह्मस्वरूप
को भजने वाला।
भजन शब्द बड़ा
अनूठा है। भजन
का अर्थ होता
है, अविच्छिन्न
जो बहे।
अविच्छिन्न
जो बहे, अखंड
जो बहे।
तुम
कभी—कभी सुनते
हो;
धार्मिक
पगले कभी—कभी
इकट्ठे हो
जाते हैं, वे
कहते हैं, अखंड
भजन, अखंड
कीर्तन। और
चौबीस घंटे
मोहल्ले भर को
परेशान कर
देते हैं, माइक
इत्यादि लगा
लेते हैं। न
किसी को सोने
देते, न
खुद सोते। यह
नहीं है अखंड।
अखंड
भजन किया नहीं
जा सकता।
क्योंकि तुम
जो भी करोगे
वह तो खंडित
ही होगा। कोई
भी क्रिया
अखंड नहीं हो
सकती; विश्राम
तो करना ही
होगा।
अभी
मैं बोल रहा
हूं। तो हर दो
शब्दों के बीच
में खाली जगह
है—खंडन हो
गया। तुमने
कहा,
'राम—राम—राम',
तो हर राम
के बीच में
खाली जगह
खंडित हो गई।
जब दो राम के
बीच में खाली
जगह न रह जाए
तब भजन। यह तो
बड़ा मुश्किल
मामला है। फिर
तो एक राम
दूसरे राम पर
चढ़ जाएंगे। यह
तो मालगाड़ी के
डब्बे जैसा
एक्सिडेंट हो
गया। यह तो
तुम भूल भी न
सकोगे, अगर
तुम भूलना भी
चाहो तो।
कितने ही जोर
से, कितनी
ही त्वरा से
बोलो 'राम—राम—राम—राम—राम'। इतने जोर
से जैसा
वाल्मीकि ने
बोला कि राम—राम
मरा—मरा हो
गया। इतने जोर
से बोले कि
मालगाड़ी के
डब्बे सब एक—दूसरे
पर चढ़ गए और
अस्तव्यस्त
हो गया मामला;
सीधा—उलटा
हो गया।
लेकिन
फिर भी कितने
ही जोर से
बोलो, दो राम
के बीच में
जगह खाली
रहेगी। अखंड
तो भजन किया
हुआ हो ही
नहीं सकता।
इसलिए
स्वरूपभाक्
शब्द का अर्थ
समझ लेना।
परमात्मा
का भजन तो
अखंड तभी हो
सकता है, जब
तुम्हें यह
याद आ जाए कि
मैं परमात्मा
हूं। बस, फिर
अखंड हो गया।
फिर सतत हो
गया। फिर
जागते—उठते—
बैठते—सोते भी
तुम जानते हो
कि मैं
परमात्मा हूं।
जब
उस सिंह को
दिखाई पड़ गया
कि मैं सिंह
हूं तो अब इसे
दोहराना थोड़े
ही पड़ेगा कि
चौबीस घंटे वह
दोहराएगा कि
मैं सिंह हूं।
बात हो गई।
खतम हो गई बात।
उदघोषणा हो गई।
अब दोहराने की
कोई जरूरत ही
नहीं। उसका
व्यवहार सिंह
का होगा। वही
है
स्वरूपभाक्।
उठेगा—चलेगा
सिंह की तरह, बैठेगा
सिंह की तरह, सोला सिंह
की तरह, देखेगा
सिंह की तरह।
यह सब होगा
अखंड भजन।
श्वास लेगा
सिंह की तरह।
जो कुछ करेगा,
सिंह की तरह
करेगा। उसका
व्यवहार होगा
उसका भजन।
वास्तविक
धार्मिक
व्यक्ति
शब्दों से
नहीं होता, उसकी
जीवन— धारा से।
उसकी जीवन—
धारा में एक
सातत्य है, एक
अनिर्वचनीय शांति
है, आनंद
की एक धारा है,
प्रभु की
मौजूदगी है।
वह बोले तो
प्रभु की बात
बोलता; न
बोले तो उसके
मौन में भी
प्रभु मौजूद
होता। तुम उसे
जागते भी
पाओगे तो
प्रभु को
पाओगे। तुम
उसे सोते भी
पाओगे तो भी
प्रभु को
पाओगे।
बुद्ध
सोते हुए भी
तो बुद्ध ही
हैं। उनके
सोने में भी
बुद्धत्व
होगा। आनंद
बुद्ध के पास
वर्षों रहा, चालीस
साल रहा। वह
उनका निकट
सहचर था, छाया
की तरह लगा
रहा। रात जिस कमरे
में बुद्ध सोते,
आनंद वहीं सोता
उन की चिंता मे—कभी
जरूरत पड़ जाए।
वह बड़ा हैरान
हुआ। दो—चार
वर्ष निरंतर
देखने के बाद
कभी—कभी..
.बुद्ध जैसे
पुरुष के पास
तुम रहो तो
कभी ऐसा भी मन
होता है, रात
जाग कर बुद्ध
का चेहरा
देखूं। तो कभी
वह जाग कर बैठ
जाता, रात
सोए बुद्ध को
देखता। वैसी
अनिर्वचनीय
शांति!
तुम्हें
तो कोई रात
अगर सोते में
भी देखे तो कहा
शांति? अल्लबल्ल
बकोगे, मुंह
बिचकाओगे, करवटें
लोगे, हाथ—पैर
पटकोगे, शोरगुल
मचाओगे, कुछ
न कुछ करोगे।
वह दिन भर की
जो बेचैनी है,
वह दिन भर
की जो आपाधापी
है, वह
एकदम थोडे ही
छोड़ देगी। वह
नींद में भी
साथ रहेगी।
भजन चलेगा।
रात में रुपये
गिनोगे।
निन्यानबे का
चक्कर जारी
रहेगा। फेर
ऐसे थोड़े ही
छूटता है कि
तुमने बस आंख
बंद कर ली और
सो गए तो फेर
छूट गया। फिर
दुकान पर
बैठोगे रात
में। फिर कपड़ा
बेचोगे।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
रात अपनी चादर
फाड़ दिया। और
जब पत्नी ने
कहा कि यह
क्या कर रहे
हो.. .यह क्या कर
रहे हो? तो
उसने कहा, तू
बीच में मत
बोल। अब दुकान
पर भी आना
शुरू कर दिया?
तब उसकी
नींद खुली। वह
किसी ग्राहक
को कपड़ा बेच
रहा था।
दुकान
दिन भर चलती
है,
रात भी
चलेगी। भेड़
अगर दिन में
हो तो रात में
भी भेड़ रहोगे।
संसार का भजन
चलेगा। सिंह
अगर दिन में
हो तो रात भी
सिंह ही रहोगे।
तब सिंहत्व का
भजन चलेगा।
तुम जो हो वह
तुम्हारे
जागने में भी
प्रकट होगा और
नींद में भी।
आनंद
कभी—कभी बैठ
जाता और बुद्ध
को सोया देखता
और परम उल्लास
से भर जाता।
उनकी गहरी
निद्रा! और
फ्रि भी
निद्रा में
ऐसा शांत भाव
कि कहीं भी
मूर्च्छा
नहीं। बुद्ध
जैसे सोते
वैसे ही सोए
रहते रात भर—उसी
करवट। जहां
हाथ रख लेते
वहीं हाथ रहता।
रात भर बदलते
न। जहां पैर
रख लेते वहीं
रखा रहता।
आनंद बहुत
हैरान हुआ कि
क्या रात में
भी खयाल रखते
हैं कि पैर
हिलाना नहीं
है,
हाथ हिलाना
नहीं? दिन
में खैर होश
से बैठते हैं,
रात...?
आखिर
उससे न रहा
गया। उसने कहा, मुझे
पूछना नहीं
चाहिए। पहली
तो बात यह, मुझे
देखना ही नहीं
चाहिए था, यह
तो आपकी निजी
बात है। लेकिन
मुझसे भूल तो
हो गई कि मैं
कई रातें जाग कर
देखता रहा। और
आपके उस सौंदर्य
को देखना रात,
बड़ा अदभुत
था। एक प्रश्न
मन में उठता बार—बार
कि क्या आप रात
भी होश रखते हैं?
तो बुद्ध ने
कहा, सागर
को कहीं से भी
चखो, खारा
पाओगे। बुद्ध
को कहीं से भी
चखो, बुद्धत्व
पाओगे। सोते
में भी
बुद्धत्व कहां
जाएगा? होश
कहां जाएगा? दीया जलता
रहेगा।
यह
हुआ
स्वरूपभाक्।
यह हुआ स्वरूप
का भजन।
बुद्ध
रात सपने में
भी हिंसा नहीं
करेंगे। तुम
दिन में भी
हिंसा करोगे।
तुम रात में
भी हिंसा
करोगे। असल
में दिन में
जो—जो हिंसाएं
बच जाएंगी, न
कर पाओगे, वह
रात में करोगे।
बचा—खुचा रात
निपटाना
पड़ेगा न!
हिसाब—किताब
तो पूरा करना
पड़ता है। खाते—बही
तो सब ठीक
रखने पड़ते हैं।
दिन में किसी
को चांटा मारा,
दिल तो
गर्दन काट
देने का था। चांटा
मारा, क्योंकि
समझौते करने
पड़ते है। ऐसे
गर्दन रोज
काटोगे तो
अपनी भी
ज्यादा देर बचेगी
नहीं। मगर रात
सपने में तो
कोई कानून
नहीं है, कोई
बाधा नहीं है।
रात सपने में
तो गर्दन काट
सकते हो; तो
काट दोगे।
तुम
अपने सपनों को
देखना। वह
तुम्हारे दिन
का ही बचा—खुचा
है। जो दिन
में नहीं कर
पाए वह तुम
रात में करोगे।
बुद्ध को तो
कुछ करने को
बचा नहीं है।
दिन में ही
कुछ नहीं कर
रहे हैं तो
रात में करने
को कुछ बचता
नहीं। दिन में
भी खाली, रात
में भी खाली।
सागर
को कहीं से भी
चखोगे, खारा
ही पाओगे, बुद्ध
कहते हैं।
मुझे कहीं से
चखोगे, बुद्धत्व
ही पाओगे, बुद्ध
कहते हैं।
रात
बुद्ध को सपने
नहीं आते।
सपने तो
उन्हीं को आते
हैं जो वासना
में जीते हैं।
सपने तो
उन्हीं को आते
हैं जो भविष्य
में जीते हैं।
सपने तो
उन्हीं को आते
हैं जो
बिकमिंग—
भवितुमिच्छति।
जो कहते हैं
यह होना है, यह
होना है, ऐसा
होना है, वैसा
होना है; जिनको
होने का
पागलपन सवार
है; जिनको
बुखार सवार है—कुछ
होकर रहना है—दिल्ली
पहुंचना, कि
राष्ट्रपति
होना, कि
प्रधानमंत्री
होना। दिन में
नहीं हो पाते।
दिन में सभी
तो नहीं हो
पाते। अच्छा
ही है। एकाध
ही
प्रधानमंत्री
के होने से
काफी उपद्रव
होता है; सभी
हो जाएं तो
बड़ी मुश्किल
हो जाए। बाकी
नींद में हो
जाते हैं। बड़ी
कृपा है।
दो
आदमी चुनाव
में खड़े हुए
थे। मैंने
मुल्ला से
पूछा, किसको
वोट देने के
इरादे हैं? उसने कहा, बस एक ही
सौभाग्य है कि
दो में से एक
ही जीत सकता
है। और तो सब
दुर्भाग्य ही
है। मगर एक ही
सौभाग्य की
बात है कि दो
में से एक ही जीत
सकता है।
दोनों जीत
जाते तो दोहरी
मुश्किल होती।
दोनों शैतान
हैं। अब कम जो
शैतान है उसको
वोट दे देंगे।
मगर एक अच्छा
लक्षण है
चुनाव का कि
एक ही जीतता
है। अगर दोनों
जीत जाते तो
क्या होता?
बहुत
सपनों में
दिल्ली
पहुंचते हैं।
कुछ जागे—जागे
पहुंच जाते
हैं। जागे—जागे
पहुंचते हैं
वे भी काफी
उपद्रव करते
हैं।
तुम्हारी
राजधानियों
में जितने लोग
हैं,
ये सब
पागलखानों
में होने
चाहिए।
अगर
राजधानियों
के आस—पास
दीवालें खडी
करके
पागलखाने का
तख्ता लगा दिया
जाए,
दुनिया
बेहतर हो।
ये
पागल...! सभी
होना चाहते
हैं लेकिन। तो
जो नहीं हो
पाते वे सपनों
में हो जाते
हैं। तुम
सपनों में वही
हो जाते हो जो
दिन में नहीं हो
पाते। दिन की
बेचैनियां, दिन
के अधूरे
ख्वाब, अधूरी
वासनाएं दमित
कामनाएं सब
सपनों में उभर
आती हैं।
ज्ञानी
को तो कुछ
होना नहीं है।
धन्यभागी है
ज्ञानी। वह तो
जान लिया, जो
है।’जो है'
में इतना
प्रसन्न है।
कुछ और होना
नहीं है, अन्यथा
की कोई माग
नहीं है। जैसा
है तृप्त है, परम तृप्त
है। शुद्ध को
जान लिया, बुद्ध
को जान लिया, प्रिय को
जान लिया, पूर्ण
को जान लिया, अब और होने
को क्या है? उसके सब
सपने खो गए।
उसकी रात
स्वप्नशन्य
है। उसके दिन
कामनाशून्य
हैं। उसके
भीतर एक ही
भजन चलता।
ऐसा
भी नहीं है कि
वह शब्द
दोहराता है।
बुद्धपुरुष
कहीं दोहराते
हैं 'राम—राम राम—राम'?
ये तो तोतों
की बातें हैं।
लेकिन जो
अहर्निश नाद
चल रहा है
भीतर, वह
जो ओंकार चल रहा
है भीतर, वह
दोहराना थोड़े
ही पड़ता है! वह
जो वीणा बज
रही भीतर
प्राणों की; वह जो प्रभु
गीत गा रहा है
भीतर, वह
जो तुम्हारे
प्राणों का
प्राण है वह
तो चलता है, अपने से
चलता है।
इसीलिए
तो उसको हम
ओंकार नाद
कहते हैं, अनाहत
नाद कहते हैं।
वह तुम्हारे
पैदा किए नहीं
पैदा होता, तुम जब कुछ
भी पैदा नहीं
करते, तब
सुनाई पड़ता है।
अहर्निश चल
रहा है।
स्वरूपभाक्!
अनिच्छन्नपि
धीरो हि
परब्रह्मस्वरूपभाक्।
'आधाररहित और
दुराग्रही छू
पुरुष संसार
के पोषण
करनेवाले हैं।
इस अनर्थ के
मूल संसार का
मूलोच्छेद
ज्ञानियों
द्वारा किया
गया है।’
ज्ञानी
वही है जो
स्वरूप को
उपलब्ध हो गया, जिसने
अपने भीतर की
नैसर्गिक
प्रकृति को पा
लिया। जैसे
कोयल
प्राकृतिक है
और गुलाब। और
जैसे कमल
प्राकृतिक है
और यह
पक्षियों की चहचहाहट।
जिस दिन तुम
भी अपने
स्वरूप में हो
जाते हो उस दिन
ज्ञान।
शहरों
के छोड़ कर मुहावरे
आओ
हम जंगल की
भाषाएं बोलें
जिसमें
हैं चिड़ियों
के धारदार गीत
खरगोशों
का भोलापन
कोंपल
की सुर्ख
पसलियों में
दुबका
बैठा फूलों
जैसा कोमल मन
कम
से कम एक बार
और सही
हम
आदिम गंधों के
हो लें
पेड़ों
से पेड़ों का
गहरा भाईचारा
उकडूं
बैठे हुए पहाड़
जेठ
की अगिनगाथा
पर छा जाने
वाला
पोर—पोर
हरियल आषाढ़
बंद
हो गई हैं जो
छंदों की
जंग
लगी खिड़की हम
खोलें
शहरों
के छोड़ कर
मुहावरे
आओ
हम जंगल की
भाषाएं बोलें '
ज्ञानी
अपने स्वभाव
की भाषा बोलता
है। वही उसका
भजन है। वह
फिर जंगल का
हुआ। वह फिर
परमात्मा का
हुआ,
वह फिर
प्रकृति का
हुआ। अब
अभ्यास गया सब।
गए पाखंड, गए
मुखौटे, गए
समझौते। अब
नहीं ओढ़ता ऊपर
की बातें। अब
तो भीतर को
बहने देता।
निराधारा
ग्रहव्यग्रा
फा:
संसारपोषका:।
और
जो दुराग्रही
हैं,
मूढ़ हैं, और जिनके
पास कुछ आधार
भी नहीं, फिर
भी अपनी
मान्यताओं को
पक्के रहते
हैं अहंकार के
कारण।
'आधाररहित और
दुराग्रही
मूढ़ पुरुष
संसार के पोषण
करनेवाले हैं।’
तुमने
कभी खयाल किया, तुम
जिन धारणाओं
को पकड़े हो, सिवाय
अहंकार के और
क्या है? तुम्हें
पता है? तुमने
जाना है? तुमने
अनुभव किया है?
तुमसे कोई
पूछता है, ईश्वर
है? और तुम
धड़ल्ले से कह
देते हो, हां।
तुमने कभी
जाना? तुम्हारा
ईश्वर से कुछ
मिलना हुआ? कभी किसी
सुबह ईश्वर के
हाथ में हाथ
डाल कर बैठे
हो? किन्हीं
आंखों में
ईश्वर दिखाई
पड़ा? कहीं
उसकी छाया भी
तुम्हारे आस—पास
से गुजरी?
कुछ
पता नहीं है।
मगर लड़ने—मरने
को तैयार हो
जाओगे।
कोई
कहता है, नहीं
है। उसको भी
कुछ पता नहीं
है। सुनी—सुनी
बातें मत
दोहराओ। गुनो;
अनुभव करो।
आग्रह मत
दोहराओ, निराग्रही
बनो।
आधाररहित
बातें हैं ये।
क्योंकि एक ही
आधार है जीवन
में—अनुभव; और कोई आधार
नहीं। जो
तुमने जाना, बस उतना ही
कहो। जो तुमने
नहीं जाना, कहो मुझे
पता नहीं है।
इतनी तो
ईमानदारी
बरती। कम से
कम इतने बड़े
झूठ तो मत
बोलो। छोटे—मोटे
झूठ बोलो, चलेगा।
छोटे—मोटे
झूठी से कुछ
बड़ा फर्क नहीं
पड़ता। लेकिन
तुम बड़े—बड़े
झूठ बोल रहे
हो।
और
बड़ा मजा यह है, जो
छोटे—छोटे
झूठी को इनकार
करवा रहे हैं,
वे तुम्हें
बड़े—बड़े झूठ
सिखला रहे हैं।
मंदिर का
पुजारी है, पंडित है, ज्ञानी है, मुनि है, साधु
है, वे
कहते हैं, झूठ
छोड़ो; और
तुमसे कहते
हैं, ईश्वर
को मानो।
तुम्हारा
अनुभव नहीं है।
तो तुम कैसे
मानो? तुमने
जाना नहीं है
तो तुम कैसे
मानो? तुम
इतना ही कहो
कि जानूंगा तो
मानूंगा।
पहले कैसे मान
लूं?
यह
नहीं— कह रहा
हूं मैं, कि
तुम कहो कि
मैं नहीं
मानता हूं 1 क्योंकि वह
भी मानना हो
गया। विपरीत
मानना हो गया।
इतना ही कहो
कि मुझे पता
नहीं। खुले
रही। द्वार—दरवाजा
खुला रखो।’नहीं'
में भी
दरवाजा बंद हो
जाता है।
नास्तिक भी
बंद, आस्तिक
भी बंद।
धार्मिक
मैं उसको कहता
हूं जिसका
दरवाजा खुला
है। जो कहता
है,
मेरा कोई
आग्रह नहीं, ईश्वर होगा।
द्वार मैंने
खुले रखे हैं,
तुम आना।
मैं पलक—पांवड़े
बिछाए बैठा
हूं। तुम नहीं
होओगे तो मैं
क्या कर सकता
हूं? द्वार
खुला रहेगा और
तुम नहीं आओगे।
मैं बाधा न
दूंगा। तुम
आओगे
तोस्वागत
करूंगा। तुम
हो तो मैं
राजी हूं तुम्हारे
साथ नाचने को।
तुम नहीं हो
तो मैं क्या
कर सकता हूं? पैदा तो
नहीं कर सकता।
'आधाररहित और
दुराग्रही
मूढ़ पुरुष
संसार के पोषण
करने वाले हैं।
इस अनर्थ के
मूल संसार का
मूलोच्छेद
ज्ञानियों
द्वारा किया
गया है।’
जिन्होंने
जाना है—ज्ञानी—उन्होंने
ही समस्त
निराधार
मान्यताओं, आग्रहों,
पक्षपातों
का मूलोच्छेद
कर दिया है।
ये अनर्थ की
जड़ें हैं।
काश, दुनिया
में लोग अपने
अज्ञान को
स्वीकार करें और
झूठे आग्रह न
करें, तो
खोज फिर शुरू
हो, फिर
झरना बहे, फिर
हम यात्रा
करें, फिर
सत्य की...।
लेकिन
कोई हिंदू बन
कर बैठा है, कोई
मुसलमान बन कर
बैठा है। कोई
कुरान पकड़ कर
बैठा है, कोई
गीता पकड़ कर
बैठा है। न
तुम्हारा
गीता से कुछ
संबंध है, न
कुरान से कुछ
संबंध है। न
तुम कृष्ण को
पहचानते, न
तुम मोहम्मद
को; लेकिन
तलवारें
निकाल लेते हो।
बड़ा
अनर्थ हुआ है।
मंदिर—मस्जिद
के नाम पर
जितने पाप, हुए
हैं, किसी
और चीज के नाम
पर नहीं हुए।
और पंडित—पुरोहितों
ने तुम्हें
जितना लड़वाया
उतना और किसने
लड़वाया? जमीन
खून से भरी।
और मजा यह है
कि भाईचारे की
बातें चलती
हैं। प्रेम के
उपदेश दिए
जाते और प्रेम
के नाम पर
युद्ध पलते।
अष्टावक्र
बड़ी
महत्वपूर्ण
बात कहते हैं—
निराधारा
ग्रहव्यग्रा
मूढ़ो:
संसारपोषका।
एतस्यानर्थ
मूलस्य
मूलच्छेद
कृतो बुधै:।।
वे
जो
बुद्धपुरुष
हैं,
जाग्रत, ज्ञानी,
उन्होंने
इस अनर्थ के
मूल को काटा
है। उन्होंने
कहा है, अनाग्रह;
आग्रह नहीं,
हठ नहीं, पक्षपात
नहीं। खोजी की
दृष्टि, खुला
मन, खुले
द्वार, खुली
खिड़कियां, खुले
वातायन। आने
दो हवाओं को, लाने दो खबर।
आने दो सूरज
की किरणों को,
लाने दो खबर।
परमात्मा है।
तुम जरा द्वार
तो खोलो! तुम
द्वार—दरवाजे
बंद किए भीतर
बैठे हिंदू—मुसलमान
बने, आस्तिक—नास्तिक
बने। दरवाजा
खोलते ही नहीं।
परमात्मा
द्वार पर
दस्तक देता है
तो तुम कहते
हो, होगा
हवा का झोंका।
हवा का झोंका
नहीं है; क्योंकि
सभी झोंके उसी
के हैं।
परमात्मा की
पगध्वनि
सुनाई पड़ती है
तो तुम कहते
हो, होंगे
सूखे पत्ते।
हवा खड़खड़ाती
होगी।
कोई
सूखी पत्तिया
नहीं खड़खड़ा
रही हैं, क्योंकि
सभी पत्ते उसी
के हैं—सूखे
भी और हरे भी।
ये उसके ढंग
हैं आने के।
कभी सूखे
पत्तों की
आवाज में आता,
कभी हवा के
झोंके में आता।
कभी बादल की
तरह घुमड़ता।
कभी वर्षा की
तरह बरसता।
कभी चांद में,
कभी सूरज
में, हजार—हजार
उपाय से आता।
तुम जरा आंख
खोलो।
आग्रह
मत रखो।
सिद्धांतों
की आडू में मत
बैठो।
सिद्धातों को
फेंको। दो
कौड़ी के हैं
सिद्धात।
सत्य को चुनी।
और सत्य को
चुनने का एक
ही उपाय है—
अनुभव। अनुभव
एकमात्र आधार
है,
और कोई आधार
नहीं। तर्क
सिद्ध नहीं कर
सकता, सिर्फ
अनुभव ही
सिद्ध करता है।
अनुभव
स्वयंसिद्ध
है।
'अज्ञानी
जैसे शांत
होने की इच्छा
करता है, वैसे
ही वह शांति
को नहीं
प्राप्त होता
है। लेकिन
धीरपुरुष
तत्व को
निश्चयपूर्वक
जान कर सर्वदा
शांत मन वाला
है।’
न
शांति लभते मूढ़ो
यत:
शमितुमिच्छति।
शांति
की इच्छा से
शांति नहीं
मिलती।
क्योंकि इच्छा
मात्र अशांति
का कारण है।
तो शांति की
इच्छा तो हो
ही नहीं सकती।
यह तो
विरोधाभासी
इच्छा हो गई।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं,
शांत होना
है। मैं उनसे
कहता हूं जब
तक कुछ होना
है, शांत न
हो सकोगे।
होने में ही
तो अशांति है।
जब कुछ होना
है तो कैसे
शांत होओगे? खिंचाव
रहेगा—कुछ
होना है। कल
कुछ होना है, परसों कुछ
होना है, शांति
लानी है। अब
तुम शांति के
नाम पर अशांत
होओगे। तुम
बड़े अदभुत हो।
अभी धन के नाम
पर अशांत थे, बाजार के
नाम पर अशांत
थे किसी तरह
उससे छुटकारा
मिला, अब
तुम शांति के
नाम पर अशांत
होओगे। लेकिन
दौड़ जारी है।
अब शांति पानी
है। पहले धन
पाना था, पद
पाना था, अब
शांति पानी है।
तुम
महत्वाकांक्षा
से कभी छूटोगे
या नहीं?
शांत
होने का अर्थ
है : कुछ नहीं
पाना। शांत हो
गए। जहां पाना
गया वहां
शांति आई। इस
दरवाजे से
पाना गया, उस
दरवाजे से शांति
आई। दोनों साथ—साथ
कभी नहीं होते।
इस सूत्र पर
ध्यान रखना।
इस पर खूब
ध्यान करना, मनन करना।
न
शातिं लभते छो
यत:
शमितुमिच्छति।
मूढ़
व्यक्ति कभी
शांत नहीं हो
पाते, क्योंकि
वे शांति की
कामना करते
हैं।
धीरस्तत्व
विनिश्चित्य
सर्वदा
शांतमानस:।
और
जो ज्ञानी हैं, धीर
हैं, वे
तत्व को
निश्चयपूर्वक
जान कर सर्वदा
शांत मनवाले
हो जाते हैं।
इस
बात को जान
लिया कि मांगने
में अशांति है।
इस बात को जान
लिया, दौड़ने
में अशांति है।
इस बात को जान
लिया, होने
में अशांति है।
फिर अब क्या
बचा करने को? इसके जानने
में ही दौड़
गिर वाई) इस
बोध की
प्रगाढ़ता में
ही होना भस्मीभूत
हो गया। अब
तुम जो हो, परम
तृप्त, शुद्ध,
बुद्ध, पूर्ण,
प्रिय।
बैठे, चलते,
उठते, बैठते,
प्रतिक्षण,
प्रतिपल
तुम जो हो, परम
तृप्त।
ऐसा
घट सकता है
मात्र बोध से।
सुनना इस
महाघोषणा को।
ऐसा घटने के
लिए कुछ भी
करना जरूरी
नहीं है, क्योंकि
ऐसा घटा ही
हुआ है। ऐसा
तुम्हारे
भीतर का
स्वभाव है।
धन्यो
विज्ञानमात्रेण।
धन्यभागी
बनो। इसी क्षण
चाहो.. .एक पल भी
गंवाना
आवश्यक नहीं है।
अगर तुम
पतंजलि को
समझो तो
जन्मों—जन्मों
तक प्रतीक्षा
करनी पड़ेगी।
अभ्यास बड़ा है।
अष्टांगिक
योग। फिर एक—एक
अंग के बड़े
भेद हैं। यम
हैं,
नियम हैं, आसन हैं, प्राणायाम,
प्रत्याहार,
धारणा, ध्यान,
फिर समाधि।
फिर समाधि में
भी सविकल्प
समाधि, निर्विकल्प
समाधि, सबीज
समाधि, निर्बीज
समाधि, तब
कहीं.. .इस जन्म
में तो तुम
सोच लो पक्का
कि होने वाला
नहीं। यम ही न
सधेंगे समाधि—वमाधि
तो बहुत दूर
है। नियम ही न
सधेंगे।
इसीलिए तो
तुम्हारे
तथाकथित योगी
ज्यादा से ज्यादा
आसनों में
अटके रह जाते
हैं। उससे आगे
नहीं जाते।
उससे आगे जाएं
कैसे? आसन
ही नहीं सध
पाते पूरे।
आसन ही इतने
हैं। आसन ही
साधते— साधते
जिंदगी बीत
जाती है।
प्राणायाम
साधते—साधते
जिंदगी बीत
जाती है।
फिर
यम—नियम कुछ
छोटी—मोटी
बातें नहीं
हैं। अहिंसा
साधो, सत्य 'साधो, अपरिग्रह
साधो, अचौर्य
साधो, ब्रह्मचर्य
साधो—गए! कभी
कुछ होने वाला
नहीं है। यह
ब्रह्मचर्य
ही ले डूबेगा।
यह सत्य ही ले
डूबेगा। इससे
पार तुम निकल
ही न पाओगे।
यह फैलाव बड़ा
है।
अष्टावक्र
कहते हैं, इसी
क्षण हो सकता।
एक क्षण भी
प्रतीक्षा
अगर करनी पड़ती
है तो किसी को
दोष मत देना, तुम्हारे
कारण ही करनी
पड़ती है।
जन्मों तक तो
प्रतीक्षा का
सवाल ही नहीं
है; तुम्हें
करना हो तो
तुम्हारी मौज।
हो अभी सकता
है। धन्यो विज्ञानमात्रेण
मुक्तस्तिष्ठत्यविक्रिय।
क्योंकि
मुक्ति में जो
प्रतिष्ठा है, उसके
लिए किसी
क्रिया की कोई
जरूरत नहीं; सिर्फ समझ, सिर्फ बोध, सिर्फ
प्रज्ञान।
इन
सूत्रों पर
खूब मनन करना, सोचना,
उथलना—पुथलना,
चबाना, अना,
पचाना। ये
तुम्हारे
रक्त—मांस—मज्जा
बन जाएं तो
इससे अदभुत
कोई शास्त्र
पृथ्वी पर
दूसरा नहीं है।
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