भरे पेट और
खाली मन का
राज—ताओ—(प्रवचन—दसवां)
अध्याय
3 : सूत्र 2
इसलिए
संत और
प्रबुद्ध
अपनी
शासन
व्यवस्था में
उनके
उदरों को
भरते हैं, किंतु
उनके
मनों को शून्य
करते हैं।
वे
उनकी
हड्डियों को दृढ़तर
बनाते हैं, परंतु
उनकी
इच्छा-शक्ति
को निर्बल
करते हैं।
लाओत्से
की सभी बातें
उलटी हैं।
उलटी हमें
दिखाई पड़ती
हैं। और कारण
ऐसा नहीं है
कि लाओत्से की
बात उलटी है, कारण
ऐसा है कि हम
सब उलटे खड़े
हैं।
लाओत्से
का एक शिष्य च्वांगत्से
मरने के करीब
था। अंतिम
क्षणों में
उसके मित्रों
ने पूछा, तुम्हारी
कोई इच्छा है?
तो उसने कहा,
एक ही इच्छा
है मेरी कि इस
पृथ्वी पर मैं
पैरों के बल
खड़ा था, उस
परलोक में मैं
सिर के बल खड़ा
होना चाहता हूं।
शिष्य बहुत
परेशान हुए।
और उन्होंने
कहा, हमारी
कुछ समझ में
नहीं आता।
क्या आप परलोक
में उलटे खड़े
होना चाहते
हैं? तो च्वांगत्से
ने कहा, जिसे
तुम सीधा खड़ा
होना कहते हो,
उसे इतना
उलटा पाया कि
आने वाले जीवन
में उलटा खड़े
होकर प्रयोग
करना चाहता
हूं, शायद
वही सीधा हो।
लाओत्से
की यह बात कि
जो जानते हैं, जो
जागे हुए हैं,
वे अपनी
शासन-व्यवस्था
में लोगों के
पेटों को तो
भरते हैं, उदर
को तो भरते
हैं, उनकी
भूख को तो
पूरा करते हैं,
लेकिन उनके
मन को शून्य
करते हैं।
उनकी शरीर की
तो सारी
जरूरतें पूरी
हों, इसका
ध्यान रखते
हैं; लेकिन
उनका मन
महत्वाकांक्षी
न बने, इस
दिशा में
प्रयास करते
हैं।
साधारणतः
हम शरीर कितना
ही कटे, कट
जाए; गले, गल जाए; शरीर
को कुर्बान
करना पड़े, हो
जाए; लेकिन
मन की
आकांक्षा
पूरी हो, मन
की वासनाएं
पूरी हों। और
मन की वासनाओं
की वेदी पर हम
शरीर को चढ़ाने
को सदा तत्पर
हैं, चढ़ाते हैं। हमारा
पूरा जीवन मन
की वासनाओं को
पूरा करने में
शरीर की हत्या
है। और
साधारणतः इसे
ही हम
बुद्धिमानी
कहेंगे।
लेकिन
लाओत्से कहता
है कि पेट तो
लोगों के भरे
हुए हों, लेकिन
मन खाली।
मन के
खाली होने का
क्या अर्थ है? और
पेट के भरे
होने का क्या
अर्थ है? लोग
शरीर से तो
स्वस्थ हों, शरीर तो
उनका भरा-पूरा
हो, शरीर
तो उनका
बलशाली हो, लेकिन मन
उनका बिलकुल
कोरा, खाली,
शून्य, एम्पटी
हो। और परम
स्वास्थ्य की
अवस्था वही है,
जब शरीर भरा
होता और मन
खाली होता।
लेकिन
हम सब मन को
बहुत भर लेते
हैं। हमारी पूरी
जिंदगी मन को
भरने की कोशिश
है। विचारों
से,
वासनाओं से,
महत्वाकांक्षाओं
से मन को हम
भरते चले जाते
हैं।
धीरे-धीरे
शरीर तो हमारा
बहुत छोटा रह
जाता है, मन
बहुत बड़ा हो
जाता है। शरीर
तो सिर्फ घसिटता
है मन के
पीछे।
लाओत्से
कहता है, मन तो
हो खाली!
लाओत्से ने
जगह-जगह जो
उदाहरण लिए
हैं, वे
ऐसे हैं।
लाओत्से कहता
है कि जैसे
बर्तन होता
खाली। किस चीज
को आप बर्तन
कहते हैं? लाओत्से
बार-बार पूछता
है, किस
चीज को बर्तन
कहते हैं? बर्तन
की दीवार को
या उसके भीतर
के खालीपन को?
आमतौर
से हम बर्तन
की दीवार को
बर्तन कहते
हैं। लाओत्से
कहता है, दीवार
तो बिलकुल
बेकार है। वह
जो भीतर खाली
जगह है, वही
काम में आती
है। भरे हुए
बर्तन को तो
कोई न खरीदेगा।
मकान
आप दीवार को
कहते हैं कि
दीवार के भीतर
जो खाली जगह
है उसको? हम
आमतौर से मकान
दीवारों को
कहते हैं। और
जब हम मकान
बनाने की
सोचते हैं, तो दीवारें
बनाने की
सोचते हैं।
लाओत्से कहता
है, बड़ी
उलटी
तुम्हारी समझ
है। मकान तो
वह है, जो
दीवारों के
भीतर खाली जगह
है। क्योंकि
कोई आदमी
दीवारों में
नहीं रहता, खाली जगह
में रहता है।
और यह खाली
जगह अगर भरी हो,
तो मकान
बेकार है।
तो
शरीर तो सिर्फ
दीवार है। वह
तो मजबूत होनी
चाहिए। वह
भीतर जो मन है, वही
महल है, वह
खाली होना
चाहिए। और उस
महल के भीतर
भी जो मनुष्य
की चेतना है, आत्मा है, वह निवासी
है। अगर मन
खाली हो, तो
ही वह निवासी
ठीक से रह पाए,
तो ही स्पेस
और जगह होती
है। मन अगर
बहुत भर जाता
है, तो
अक्सर हालत
ऐसी होती है
कि मकान तो
आपके पास है, लेकिन इतना कबाड़ से
भरा है कि आप
मकान के बाहर
ही सोते हैं, बाहर ही
रहते हैं।
क्योंकि भीतर
जगह नहीं है।
अगर हम
एक ऐसे आदमी
की कल्पना
करें, जिसके
पास बड़ा महल
है, लेकिन
सामान इतना है
कि भीतर जाने
का उपाय नहीं
है, तो
बाहर बरामदे
में ही निवास
करता है। हम
सब वैसे ही
आदमी हैं। मन
तो इतना भरा
है कि वहां आत्मा
के रहने की
जगह नहीं हो
सकती, बाहर
ही भटकना पड़ता
है। जब भी
भीतर जाएंगे,
तो आत्मा
नहीं मिलेगी,
मन ही
मिलेगा। कोई
विचार, कोई
वृत्ति, कोई
वासना
मिलेगी।
क्योंकि इतना
भरा है सब। घर
के भीतर जाते
हैं, तो
फर्नीचर तो
मिलता है, मालिक
नहीं मिलता।
लाओत्से
कहता है, जो
ज्ञानी हैं, वे कहते हैं,
शरीर तो
भरा-पूरा हो, पुष्ट हो, मन खाली हो।
मन ऐसा हो, जैसे
है ही नहीं।
और लाओत्से
कहता है, मन
के खाली होने
का अर्थ है, अ-मन हो, नो
माइंड हो, जैसे
है ही नहीं।
जैसे मन की
कोई बात ही
नहीं है भीतर।
उस खाली मन
में ही जीवन
की परम कला का
आविर्भाव
होता है और
जीवन के परम
दर्शन होने शुरू
होते हैं।
"वे
उनकी
हड्डियों को दृढ़तर
बनाते हैं, परंतु उनकी
इच्छा-शक्ति
को निर्बल
करते हैं।'
हड्डियों
को मजबूत
बनाते हैं, लेकिन
उनके विल को, उनके संकल्प
को कमजोर करते
हैं, क्षीण
करते हैं। हम
सब तो संकल्प
को मजबूत करते
हैं। हम तो
किसी व्यक्ति
से कहते हैं
कि क्या
तुममें कोई विल-पावर
ही नहीं? तुममें
कोई संकल्प की
शक्ति नहीं? अगर संकल्प
की शक्ति नहीं,
तो तुम बिना
रीढ़ के आदमी
हो! तुम आदमी
ही नहीं! और
लाओत्से कहता
है, ज्ञानी
संकल्प की
शक्ति को
क्षीण करते
हैं। अजीब बात
है। हम तो
एक-एक बच्चे
को सिखा रहे
हैं कि विल
बढ़नी चाहिए।
इस सदी के जो
बहुत
बुद्धिमान
लोग हैं, उन
सभी का खयाल
है कि आदमी
में संकल्प
बढ़ना चाहिए।
नीत्शे
ने बहुत अदभुत
किताब लिखी
है: विल टु पावर!
नीत्शे का
खयाल है कि
आदमी के पूरे
जीवन का एक ही
लक्ष्य है कि
शक्ति का
संकल्प।
शक्ति कैसे
मिले, इसका
संकल्प। और जो
आदमी जितना संकल्पवान
है, उतना
महान है। कारलाइल
या इमर्सन, ये सारे के
सारे पश्चिम
के विचारक
संकल्प पर जोर
देते हैं कि
संकल्प मजबूत
हो। तुम्हारी
इच्छा-शक्ति
ऐसी होनी
चाहिए कि अटल
पत्थर की दीवार;
कि जगत हिल
जाए, लेकिन
तुम न हिलो।
टूट जाओ, मिट
जाओ, झुको
मत।
लाओत्से
कहता है कि
हड्डियां हों
मजबूत, संकल्प-शक्ति
बिलकुल क्षीण
हो, हो ही
नहीं। क्यों?
क्योंकि
मनुष्य के
सामने दो
चीजों के बीच
चुनाव है: या
तो संकल्प या
समर्पण। जो
संकल्प करेगा,
उसका
अहंकार मजबूत
होगा। जो
समर्पण करेगा,
उसका
अहंकार गलेगा
और मिटेगा। जो
संकल्प के
रास्ते से
चलेगा, वह
अपने पर
पहुंचेगा। और
जो समर्पण के
रास्ते से
चलेगा, वह
परमात्मा पर
पहुंचता है।
परमात्मा तक
पहुंचना हो, तो छोड़ देना
पड़ेगा अपने
को। और स्वयं
के मैं को
मजबूत करना हो,
तो फिर पकड़
लेना पड़ेगा
अपने को।
तो
शरीर चाहे मिट
जाए,
हड्डियां
चाहे टूट जाएं,
संकल्प न
टूटे। ऐसी हम
सब की
व्यवस्था है।
इसको हम सीधी
व्यवस्था
कहते हैं।
क्योंकि हम
कहते हैं, कैसे
कमजोर आदमी हो?
लड़ नहीं
सकते, जूझ
नहीं सकते, शक्ति नहीं
तुममें कोई।
और लाओत्से
कहता है, यह
शक्ति होनी ही
नहीं चाहिए।
नहीं, ऐसा
नहीं कि तुम
टूट जाओ लेकिन
झुको मत; लाओत्से
कहता है, तुम
ऐसे होओ कि
तुम्हें पता
ही न चले कि
तुम कब झुक
गए। हवा को
पता भी न चले
कि तुमने रेसिस्ट
किया, कि
तुमने थोड़ा भी
प्रतिरोध
किया। हवा आए
कि तुम पहले
ही झुक जाओ, जैसे घास के
छोटे-छोटे
तिनके झुक
जाते हैं। अड़ियल
वृक्ष अकड़ कर
खड़े रह जाते
हैं, तूफान
से टक्कर लेते
हैं; छोटे
पौधे झुक जाते
हैं। और बड़ा
मजा यह है कि छोटे
पौधे तूफान को
जीत लेते हैं
और बड़े पौधे तूफान
से मर जाते
हैं।
लाओत्से
कहता है, अगर
तुम लड़ोगे,
तो हारोगे।
क्योंकि
जिससे तुम लड़
रहे हो, तुम्हें
पता नहीं, वह
कौन है। एक-एक
व्यक्ति जब भी
लड़ रहा है, तो
अनंत शक्ति से
लड़ रहा है।
हमारे चारों
ओर जो अनंत
निवास कर रहा
है, हम
उससे ही लड़
रहे हैं।
लाओत्से कहता
है, लड़ो मत, लड़ो ही मत। लड़ने
का सवाल ही न
उठे, तुम
अपने को इतना
अलग ही मत
मानो कि
तुम्हें लड़ना
भी है। तुम
गिर जाओ। तुम
तूफान के साथ
ही हो जाओ। कोआपरेट
विद इट, उसका
सहयोग करो।
तूफान पता ही
नहीं चलेगा कि
तुम्हारे पास
से कैसे गुजर
गया। और तूफान
के गुजर जाने
के बाद तुम
पाओगे कि
तुम्हें
तूफान ने छुआ
भी नहीं। और
तुम पाओगे, तुम्हारी
शक्ति का इंच
भर भी नष्ट
नहीं हुआ। क्योंकि
तुम लड़े ही
नहीं। और
हारने का कोई
सवाल नहीं है,
क्योंकि
जिसका तूफान
है, उसी के
तुम हो।
वह जो
लड़ने आया था, तुम्हें
लगा था कि
लड़ने आया है।
वह लड़ने आया नहीं
था। तुम्हारे
संकल्प की वजह
से तुम्हें लगा
था कि लड़ने
आया है। तुम
लड़ने को
उत्सुक थे, इसलिए तुमने
उसे शत्रु की
तरह व्याख्या
कर ली। अन्यथा
कोई व्याख्या
की जरूरत न
थी।
इसे
थोड़ा समझें।
सच में कोई
शत्रु होता है? या
हम व्याख्या
करते हैं कि
वह शत्रु है।
और व्याख्या
हम क्यों करते
हैं? हम
व्याख्या
इसलिए करते
हैं कि हम
लड़ना चाहते हैं।
अगर मैं लड़ना
ही नहीं चाहता,
तो एक बात
निश्चित है कि
मैं शत्रु की
व्याख्या
नहीं करूंगा
कि कोई शत्रु
है। लड़ना
चाहता हूं, तो शत्रु को
निर्मित
करूंगा। सब
शत्रुता संकल्प
से निर्मित
होती है। सब
संघर्ष
संकल्प से निर्मित
होता है।
लाओत्से
कहता है, तुम
तो ऐसे हो जाओ,
जैसे हो ही
नहीं। जैसे
तलवार हवा से
निकल जाती है।
हवा कहीं कटती
नहीं, क्योंकि
हवा रेसिस्ट
नहीं करती।
पानी से तलवार
गुजार देते हो,
पानी कटता
नहीं। तलवार
काट भी नहीं
पाती कि पानी
जुड़ जाता है।
क्योंकि पानी रेसिस्ट
नहीं करता, वह प्रतिरोध
नहीं करता।
तुम भी लड़ो
मत। लाओत्से
कहता है, तुम
भी हवा-पानी
जैसे हो जाओ।
काटने वाली
शक्ति को गुजर
जाने दो। तुम
अगर न लड़ोगे,
तुम उसके
गुजरते ही
पाओगे कि जुड़
गए हो। तुम टूटे
ही नहीं, तुम
खंडित ही नहीं
हुए। अगर तुम
लड़े, तो
तुम टूट
जाओगे।
संकल्प
को हम जैसा
आदर देते हैं, लाओत्से
ठीक उससे
विपरीत उसकी
व्याख्या करता
है। हम आदर
देंगे, क्योंकि
हमारा सारा
जीवन का ढांचा
अहंकार पर
निर्मित है, महत्वाकांक्षा
पर खड़ा है।
दौड़ना है, कहीं
पहुंचना है, कुछ पाना
है। धन, यश,
पद, मर्यादा,
कुछ उपलब्ध
करना है।
किन्हीं से
कुछ छीनना है;
किन्हीं को,
कुछ हमसे न
छीन लें, इस
से रोकना है।
जीवन हमारा एक
संघर्ष है।
हमारे देखने
का ढंग संघर्ष
का ढंग है, झुकना
नहीं है। झुके,
तो भारी
ग्लानि होगी।
लाओत्से
कहता है, यह
जीवन के सोचने
का ढंग बीमारी
में ले जाता है,
रुग्णता
में ले जाता
है। तुम ऐसे
हो जाओ, जैसे
हो ही नहीं।
यह जो न
होने जैसा
होना है, वहां
संकल्प न
होगा। जापान
में जूडो या
जुजुत्सु
की पूरी कला
लाओत्से के
इसी सूत्र पर
खड़ी है। उसे
थोड़ा समझ लेना
उपयोगी है।
उससे समझ में
आ जाएगा कि
लाओत्से क्या
कहता है।
अगर
मैं आपको
घूंसा मारूं, तो
जो स्वाभाविक
प्रतिक्रिया
मालूम होती है,
वह यह है कि
आप मेरे घूंसे
का विरोध
करें। विरोध
दो तरह का
होगा। अगर
आपको मौका
मिला, तो
आप मेरे घूंसे
को रोकेंगे या
घूंसे के जवाब
में घूंसा
उठाएंगे। अगर
मौका न मिला, फिर भी
घूंसा जब आपके
शरीर पर पड़ेगा,
तो आपके
शरीर के
रग-रेशे से
प्रतिरोध
उठेगा। आपकी
मांस-पेशियां,
आपके
स्नायु, सब
सख्त होकर
घूंसे को
रोकेंगे कि
भीतर तक चोट न
पहुंच जाए।
आपकी
हड्डियां कड़ी
हो जाएंगी।
आपका शरीर
भिंच जाएगा, खिंच जाएगा,
ताकि सख्ती
से आप दीवार
बना लें और
घूंसे की चोट
भीतर न पहुंच
पाए।
जूडो की
कला इससे
बिलकुल उलटी
है। और जूडो
की कला से बड़ी
कोई कला नहीं
है युद्ध के
मामले में। और
जूडो का
थोड़ा सा
जानकार भी
आपके बड़े से
बड़े पहलवान को
क्षण भर में
चित्त कर
देगा। और
चित्त कर देगा
इस तरकीब से
कि लड़ेगा
नहीं। जूडो
की कला यह
कहती है कि जब
तुम्हें कोई
घूंसा मारे, तो
तुम घूंसे को
पी जाओ। कोआपरेट
विद इट। तुम
उससे लड?ो
मत। जब तुम पर
कोई घूंसा
मारे, तो
तुम ऐसे हो
जाओ, जैसे
कि तुम एक
तकिए जैसे हो।
घूंसा तुम पर
लग गया और तुम
पी गए।
फर्क
समझ लें, घूंसे
के विरोध में
प्रतिरोध और
घूंसे को पी जाने
का। घूंसा
आपके ऊपर मारा
गया है, आप
सहयोग करो और
घूंसे को पी
जाओ। उससे
कहीं भी लड़ो
मत, किसी
तल पर भी।
और जूडो
कहता है, घूंसे
मारने वाले का
हाथ टूट
जाएगा। घूंसे
मारने वाले का
हाथ टूट
जाएगा।
क्योंकि
घूंसा मारने
वाला बहुत
शक्ति और बहुत
संकल्प से मार
रहा है। और
अगर आपने
बिलकुल जगह दे
दी, तो
उसकी हालत ठीक
वैसी हो जाएगी,
जैसे एक
रस्सी को पकड़
कर आप खींच
रहे हैं और मैं
खींच रहा हूं,
और मैंने
रस्सी छोड़ दी;
मैंने
खींचा ही नहीं,
मैंने
प्रतिरोध न
किया; मैंने
कहा, आप
खींचते हो, ले जाओ। तो
आप गिर पड़ोगे।
जूडो की
कला कहती है, मारो
मत। जब कोई
मारे, तो
उसके सहयोगी
हो जाओ, उसको
दुश्मन मत
मानो। मानो कि
जैसे वह अपने
ही शरीर का एक
हिस्सा है। और
तब थोड़ी ही
देर में मारने
वाला थक जाएगा
और परेशान हो
जाएगा। उसकी
शक्ति क्षीण
होगी। क्योंकि
हर घूंसे में
शक्ति बाहर
फेंकी जा रही
है। और आपकी
शक्ति क्षीण
नहीं होगी।
बल्कि जूडो
कहता है कि
उसके घूंसे से
जो शक्ति निकल
रही है, वह
भी आप पी
जाओगे, वह
भी आपको मिल
जाएगी। पांच
मिनट के भीतर जूडो का
ठीक से जानने
वाला आदमी
किसी भी तरह
के आदमी को
परास्त कर
देता है।
परास्त करना
नहीं पड़ता, वह परास्त
हो जाता है।
एक
बहुत
प्रसिद्ध कथा
है जूडो
की। एक बहुत
बड़ा तलवारबाज
है,
एक बड़ा सोर्ड्समैन
है। वह इतना
बड़ा तलवारबाज
है कि जापान
में उसका कोई
मुकाबला नहीं
है। एक रात वह
अपने घर लौटा
है, दो बजे
हैं। जब वह
अपने बिस्तर
पर लेटने लगा,
तो उसने
देखा, एक
बड़ा चूहा
निकला है
दीवार से। उसे
बड़ा क्रोध
आया। उसने
चूहे को
डराने-धमकाने
की कोशिश की अपने
बिस्तर पर से
ही, लेकिन
चूहा अपनी जगह
पर बैठा रहा।
उसे बड़ी
हैरानी हुई।
वह बड़े-बड़े
लोगों को धमका
दे, तो भाग
खड़े होते हैं!
चूहा! उसको
क्रोध इतना आ
गया कि उसके
पास में ही
उसकी सीखने की
लकड़ी की तलवार
पड़ी थी, उसने
उठा कर जोर से
चूहे पर हमला
किया। हमला उसने
इतने क्रोध
में किया, चूहा
जरा इंच भर
सरक गया और
उसकी तलवार
जमीन पर पड़ी
और
टुकड़े-टुकड़े
हो गई, और
चूहा अपनी जगह
बैठा रहा। तब
जरा उसे
घबराहट पैदा
हो गई। चूहा
कोई साधारण
नहीं मालूम
होता। उसके
वार को चूक
जाना, उसका
वार चूक जाए, इसकी कल्पना
भी नहीं थी।
वह
अपनी असली
तलवार लेकर आ
गया। लेकिन जब
चूहे को मारने
के लिए कोई असली
तलवार लेकर
आता है, तो
उसकी हार
निश्चित है।
असली तलवार
लेकर आ गया जब
वह, तभी
हार निश्चित
हो गई। चूहे
को मारने के
लिए असली
तलवार एक
योद्धा को
लानी पड़े!
चूहे से डर तो
गया वह बहुत।
और चूहा
असाधारण है।
हाथ उसका
कंपने लगा। और
उसे लगा कि
अगर असली
तलवार टूट गई,
तो फिर इस
अपमान को
सुधारने का
कोई उपाय न रह
जाएगा। उसने
बहुत सम्हल कर
मारा। और जो
जानते हैं, वे कहते हैं,
जितना
सम्हल कर आप
निशाना
लगाएंगे, उतना
ही चूक जाएगा।
क्योंकि सम्हलने
का मतलब है कि
भीतर डर है, भीतर घबड़ाहट
है, कंपन
है। अगर भीतर
कोई डर नहीं, घबड़ाहट नहीं, तो
आदमी सम्हल कर
काम नहीं
करता। काम
करता है और हो
जाता है। उसने
तलवार मारी
उसे। जिंदगी में
उसने बहुत बार
तलवार उठाई और
चलाई और वह कभी
चूका नहीं था।
एक क्षण उसका
हाथ बीच में
कंपा और जब
तलवार नीचे
पड़ी, तो
टुकड़े-टुकड़े
हो गई। चूहा
जरा सा हट गया
था।
उस तलवारबाज
की समझ के
बाहर हो गई
बात। उसने होश
खो दिया। कहानी
कहती है कि
उसने गांव में
खबर की कि
किसी के पास
कोई जानदार
बिल्ली हो, तो
ले आओ। और
दूसरे दिन
गांव में जो
बड़े से बड़ा धनपति
था, उसने
अपनी बिल्ली
भेजी। वह कई
चूहों को मार
चुकी थी।
लेकिन तलवारबाज
डरा हुआ था।
और जिस धनपति
ने अपनी
बिल्ली भेजी
थी, वह भी
डरा हुआ था।
क्योंकि जब तलवारबाज
की तलवार टूट
गई हो, तो
बिल्ली कहां
तक सफल होगी, यह भय है। और
बिल्ली को भी
खबर मिल गई
थी। और तलवारबाज
बहुत बड़ा था।
बिल्ली ने
बहुत चूहे
मारे थे, लेकिन
इस चूहे से
आतंकित हो गई
थी। रात भर सो
न पाई। सुबह
जब चली, तो
पूरी तैयारी
से चली।
रास्ते में
पच्चीस योजनाएं
बनाईं।
कभी-कभी उसके
मन को भी हुआ, मैं यह क्या
कर रही हूं!
चूहे तो मुझे
देखते ही भाग
जाते हैं। मैं
योजना कर रही
हूं! लेकिन योजना
कर लेनी उचित
थी। चूहा
असाधारण
मालूम होता
था।
बिल्ली
दरवाजे पर आई।
एक क्षण उसने
भीतर देखा, चूहे
को देख कर कंप
गई। चूहा बैठा
था। तलवार टुकड़े-टुकड़े
पड़ोस में पड़ी
थी। इसके पहले
कि बिल्ली आगे
बढ़े, चूहा
आगे बढ़ा।
बिल्ली ने
बहुत चूहे
देखे थे। लेकिन
कोई चूहा
बिल्ली को देख
कर आगे बढ़ेगा!
बिल्ली एकदम
बाहर हो गई।
तलवारबाज की
हिम्मत
बिलकुल टूट गई
कि अब क्या
होगा! सम्राट
को खबर की गई
कि आपके
राजमहल की
बिल्ली भेज दी
जाए,
अब कोई और
उपाय नहीं है।
सम्राट के पास
जो बिल्ली थी,
वह निश्चित
ही देश की
श्रेष्ठतम, कुशल बिल्ली
थी। लेकिन वही
हुआ जो होना
था। सम्राट की
बिल्ली ने
चलते वक्त
सम्राट से कहा,
आपको शर्म
आनी चाहिए, ऐसे
छोटे-मोटे
चूहों को
मारने को मुझे
भेजते हैं।
मैं कोई
साधारण
बिल्ली नहीं
हूं!
लेकिन
यह भी उसने
अपनी रक्षा के
लिए कहा था। खबरें
पहुंच गई थीं
कि चूहा आगे
बढ़ा,
कि बिल्ली
वापस लौट गई, कि तलवार
टूट गई, कि
योद्धा हार गया
है, कि
चूहे का आतंक
पूरे गांव पर
छाया हुआ है, चूहा साधारण
नहीं है।
लेकिन बचाव के
लिए उसने राजा
से कहा कि इस
साधारण से
चूहे के लिए
मुझे भेजते
हैं! सम्राट
ने कहा, चूहा
साधारण नहीं
है। और आतंकित
मैं भी हूं कि
तू लौट तो न
आएगी!
जो
होना था, वही
हुआ। बिल्ली
गई। उसने जोर
से झपट्टा
मारा। लेकिन
चूक गई। दीवार
से उसका मुंह
टकराया, लहूलुहान
होकर वापस लौट
गई। चूहा अपनी
जगह था।
गांव
में एक फकीर
के पास और एक
बिल्ली थी। इस
सम्राट की
बिल्ली ने ही
कहा कि अब और
कुछ रास्ता
नहीं है, सिर्फ
उस फकीर के
पास एक बिल्ली
है जो हम सब की
गुरु है और
जिससे हमने
कला सीखी है।
शायद उसे कुछ
पता हो। वह
मास्टर कैट
थी। उस बिल्ली
को बुलाया
गया। सारे
गांव की बिल्लियां
इकट्ठी हो
गईं। कोई पांच
सौ बिल्लियों
ने भीड़ लगा ली
मकान के
आस-पास, क्योंकि
यह चमत्कार का
मामला था। और
अगर फकीर की
बिल्ली हारती
है, तो फिर
बिल्ली सदा के
लिए चूहों से
हार जाएगी।
चूहा
अपनी जगह बैठा
था। फकीर की
बिल्ली जब भीतर
जाने लगी, तो
सभी
बिल्लियों ने
सलाह दी कि
देखो ऐसा करना,
कि देखो ऐसा
करना, कुछ
ऐसा कर लेना!
उस फकीर की
बिल्ली ने कहा,
नासमझो,
अगर योजना बनाओगी
चूहे को पकड़ने
की, तो
चूहे को कभी न
पकड़ पाओगी।
क्योंकि जिस
बिल्ली ने
योजना बनाई, वह हार गई।
योजना बनाने
का मतलब ही यह
है कि चूहे से
डर गए तुम।
चूहा ही है न!
पकड़ लेंगे।
कोई पकड़ने
में कला की
जरूरत नहीं है,
बिल्ली
होना ही हमारी
कला है। हम
पकड़ लेंगे। योजना
मैं नहीं बनाऊंगी।
योद्धा
ने भी कहा कि
थोड़ा सोच लो, क्योंकि
यह आखिरी
मामला है। अगर
तू भी लौट गई, तो मुझे घर
छोड़ कर भाग
जाना पड़ेगा।
क्योंकि भीतर
इस कमरे के
मैं अब नहीं
जा सकता हूं।
वह चूहे को
देखना भी ठीक
नहीं है अब।
वह वहीं बैठा
है अपनी जगह
पर। उस बिल्ली
ने कहा, ये
भी कोई बातें
हैं! सब शांत
रहें।
वह
बिल्ली भीतर
गई और चूहे को
पकड़ कर बाहर आ
गई।
बिल्लियों की
भीड़ लग गई। उन
सब ने पूछा कि
चूहे को तुमने
पकड़ा कैसे? क्या
है तरकीब? उस
बिल्ली ने कहा,
मेरा
बिल्ली होना
काफी है। मैं
बिल्ली हूं और
यह चूहा है।
और चूहे सदा
से कोआपरेट
करते रहे, सदा
से सहयोग करते
रहे।
बिल्लियां
सदा से पकड़ती
रहीं। यह हम
दोनों का
स्वभाव है कि
मैं बिल्ली
हूं और यह
चूहा है। यह
पकड़ा जाएगा और
मैं पकड़ लूंगी।
तुमने योजना
बनाई, इसी
से भूल हो गई।
तुम बुद्धि को
बीच में लाए, इसी से
परेशान हुए।
झेन
फकीर इस कहानी
को सैकड़ों
साल से कहते
रहे हैं। यह
बिल्ली गरीब
फकीर की
बिल्ली थी।
सम्राट की
बिल्ली के
बराबर इसके
पास शरीर भी न
था,
ताकत भी न
थी। इसके हाथ
में तलवार भी
न थी। यह साधारण
बिल्ली थी। पर
उस बिल्ली ने
कहा कि मेरा
स्वभाव, यह
चूहे का
स्वभाव, इसमें
कोई अनहोना
नहीं हुआ है।
जुजुत्सु या जूडो
सिखाने वाले
लोग कहते हैं
कि प्रकृति का
एक नियम और एक
स्वभाव है।
अगर कोई घूंसा
आपकी तरफ मारा
जाए,
अगर आप
प्रतिरोध
करें, तो
दोनों
शक्तियां लड़ती
हैं और दोनों
शक्तियों में
संघर्ष होता
है। दोनों
शक्तियां
क्षीण होती
हैं। अगर आप
प्रतिरोध न
करें, तो
एक ही तरफ से
शक्ति आती है,
दूसरी तरफ
खाली गङ्ढा
बन जाता है।
शक्ति
आत्मसात हो
जाती है।
दूसरा
व्यक्ति
परेशान हो
जाता है। वह
योजना करके हमला
करता है। और
आप अनायोजित,
बिना किसी
प्लानिंग के
चुपचाप हमले
को पी जाते
हैं। अगर ऐसा
शून्य भीतर बन
जाए कि किसी
हमले का कोई
प्रतिरोध न
हो--क्योंकि
भीतर कोई
प्रतिरोध
करने वाला
संकल्प ही न
रहा--तो उस
शून्य में जगत
की महानतम
शक्ति का
आविर्भाव
होता है।
लाओत्से
कहता है, संकल्प
क्षीण हो।
उसका अर्थ है
कि संकल्प शून्य
हो। भीतर शून्यवत
हो जाओ; कुछ
होने की कोशिश
मत करो। उस
बिल्ली ने कहा
कि तुम सब
बिल्लियां
बिल्ली होने
की कोशिश कर
रही हो!
बिल्ली होने
की कोई कोशिश
करनी पड़ती है?
तुम बिल्ली
हो। तुम्हारी
कोशिश ही
तुम्हें तकलीफ
में डाल रही
है। तुम हमला
बनाने की
योजना में पड़ी
हो।
जूडो का
शिक्षक
सिखाता है कि
हमला मत करना, सिर्फ
हमले की
प्रतीक्षा
करना। और जब
हमला आए, तो
तुम एक ही बात
का ध्यान रखना
कि तुम उसे
आत्मसात कर
जाओ।
और अगर
कोई गाली दे
और आप गाली को
आत्मसात कर जाएं, तो
जिसने गाली दी
है, वह
कमजोर हो जाता
है। करें और
देखें! और
जिसने गाली
चुपचाप पी ली
है--पी ली, दबाई
नहीं--दबाना
नहीं है, पी
ली, जैसे
कोई ने प्रेम
का उपहार दिया,
ऐसा पी ली
है, आत्मसात
कर ली, समा
ली अपने में, एब्जार्ब कर ली, गङ्ढा
बन गया। तो
गाली देने में
जितनी शक्ति
उस व्यक्ति की
व्यय हुई, उतनी
शक्ति इस
व्यक्ति को
मिल गई।
और जब
गाली देने
वाला पाता है
कि विरोध में
गाली नहीं उठी, तो
इतना परेशान
हो जाता है, जिसका कोई
हिसाब नहीं।
जब आप विरोध
में गाली दे
देते हैं, तो
परेशान नहीं
होता।
क्योंकि ठीक
है, अपेक्षा
यही थी कि आप
गाली देंगे
उत्तर में। लेकिन
जब आप गाली
नहीं देते हैं,
तब परेशान
हो जाता है।
और दुगुने वजन
की गाली खोज
कर लाता है, और जोर से
हमला करता है।
लेकिन अगर
आपको कला है
पीने की, तो
आप उसके हमले
को पीते चले
जाते हैं और
उसे निर्बल
करते चले जाते
हैं। वह अपनी
ही निर्बलता
से गिरता है।
जूडो
कहता है कि
दुश्मन अपनी
ही निर्बलता
से गिर जाता
है,
तुम्हें
गिराने की कोई
जरूरत ही नहीं
है।
लाओत्से
के इन्हीं
सूत्रों से जूडो का
विकास हुआ। और
लाओत्से के
इन्हीं
सूत्रों से और
बुद्ध के
विचार के
सम्मिलन से
झेन का जन्म
हुआ। बुद्ध का
विचार भारत से
चीन पहुंचा। और
चीन में
लाओत्से के
विचार की पर्त
वातावरण में
थी। इन दोनों
के संगम से एक
बहुत ही नई
तरह की चीज
दुनिया में
पैदा
हुई--झेन।
बुद्ध ने भी
कहा था--बहुत
और अर्थों में, किसी
और तल पर--कि
मैं अपने भीतर
के शत्रुओं से
लड़-लड़ कर हार
गया और न जीत
पाया; और
जब मैंने भीतर
के शत्रुओं से
लड़ना ही बंद कर
दिया और जीतने
का खयाल ही
छोड़ दिया, तो
मैंने पाया कि
मैं जीता ही
हुआ हूं। और
जब लाओत्से के
इन सूत्रों से
बुद्ध के इन
विचारों का
तालमेल बना, तो एक
बिलकुल ही नया
विज्ञान पैदा
हुआ। वह विज्ञान
है बिना लड़े
जीतने का। वह
विज्ञान है:
लड़ना ही नहीं
और जीत जाना!
संघर्ष नहीं
और विजय! संकल्प
नहीं और
सफलता!
हम सोच
ही नहीं सकते।
क्योंकि हम तो
सोचते हैं, जहां
भी संकल्प
होगा, वहीं
सफलता है; जहां
संघर्ष होगा,
वहीं विजय
है। जहां
युद्ध होगा, वहीं तो
पुष्पहार पहनाए
जाएंगे जीत
के। लाओत्से
उलटा मालूम
पड़ेगा। वह
कहता है, हड्डियां
तो मजबूत हों,
लेकिन
संकल्प शून्य
हो।
क्यों? हड्डियों
और संकल्प में
क्यों फर्क कर
रहा है?
अगर
आपके ऊपर मैं
हमला करूं, तो
हड्डियां
इतनी मजबूत
होनी चाहिए कि
हमले को पी
सकें।
हड्डियों का
मतलब है, आपके
पास जो भी
पीने की
संरचना है, स्ट्रक्चर
है, वह
इतना मजबूत
होना चाहिए कि
पी जाए। लेकिन
भीतर कोई
प्रतिरोध
करने वाला
अहंकार नहीं होना
चाहिए कि लड़
पड़े।
ध्यान
रहे,
लड़ने के लिए
उतने मजबूत
शरीर की जरूरत
नहीं है, जितना
लड़ाई पीने के
लिए मजबूत
शरीर की जरूरत
है। कमजोर
शरीर वाला भी
लड़ सकता है।
और अक्सर ऐसा
होता है कि
कमजोर हो शरीर
और दिमाग हो
पागल, तो
खूब लड़ सकता
है। कोई शरीर
की कमजोरी से
लड़ने में बाधा
नहीं पड़ती।
शरीर की
कमजोरी लड़ने
में बाधा नहीं
है। बल्कि
सचाई तो यह है
कि कमजोर शरीर
लड़ने को बहुत
आतुर होता है।
सुना
है मैंने कि
हांगकांग में
पहली दफा जो
अमरीकन उतरा, उसने
हांगकांग के
बंदरगाह पर दो
चीनियों को
लड़ते देखा।
लाओत्से की
परंपरा से ही
जुड़ी हुई अनेक
परंपराएं चीन
में विकसित
हुईं। वह दस
मिनट तक खड़ा
होकर देखता
रहा कि वे
बिलकुल एक-दूसरे
के मुंह के
पास मुंह ले
आते हैं, घूंसा
उठाते हैं, एक-दूसरे की
नाक तक घूंसा
ले जाते हैं, बड़ी गालियां
देते हैं, बड़ी
चीख-पुकार
मचाते हैं; लेकिन हमला
नहीं होता। दस
मिनट में वह
थोड़ा हैरान
हुआ कि यह किस
प्रकार की
लड़ाई है! उसने
अपने गाइड को
पूछा कि यह
क्या हो रहा
है? क्योंकि
उसको समझ में
नहीं आया कि
यह लड़ाई हो रही
है। क्योंकि
लड़ाई कैसी? इतने निकट
घूंसे पहुंच
जाते हैं और
वापस लौट जाते
हैं। यह कोई
खेल हो रहा है!
उस गाइड ने
कहा कि यह
चीनी ढंग की
लड़ाई है--ए चाइनीज़
वे ऑफ
फाइटिंग!
उसने
कहा कि लेकिन फाइट तो हो
ही नहीं रही, लड़ाई
तो हो ही नहीं
रही। दस मिनट
से मैं देख रहा
हूं, इतने
निकट दुश्मन
हो और घूंसा
इतने करीब आ
जाता हो, फिर
वापस क्यों
लौट जाता है?
तो उस
गाइड ने कहा
कि ढाई हजार
साल से इस
मुल्क में एक
खयाल है कि जो
पहले हमला करे, वह
कमजोर, वह
हार गया। तो
ये दोनों
प्रतीक्षा कर
रहे हैं। जो
पहले हमला करे,
वह कमजोर, वह हार गया।
उसने काबू
पहले खो दिया।
वह कमजोरी का
लक्षण है। तो
यह सब भीड़ भी
खड़े होकर यह
देख रही है कि
देखें, कौन
हारता है। और
हार का लक्षण
यह हुआ कि
हमला हुआ कि
भीड़ हट जाएगी।
बात खत्म हो
गई। फलां आदमी
हार गया, जिसने
हमला किया
पहले। और ये
दोनों
एक-दूसरे को
उकसा रहे हैं
कि हमला करो।
अब इसमें कौन
हारता है, यह
देखना है। और
हार का बड़ा
अजीब सूत्र
है: वह जो हमला
करेगा, वह
हार गया।
यह
लाओत्से की
धारणा है कि
कमजोर हमला
पहले कर देता
है।
मैंने
कल
मैक्यावेली
का नाम लिया
आपसे। और मैक्यावेली
और लाओत्से
में बड़ी
समानांतर
बातें हैं।
मैक्यावेली
कहता है, सुरक्षा
का सबसे बड़ा
उपाय पहले
हमला कर देना
है--दि बेस्ट
वे टु डिफेंड
इज़ टु अटैक
फर्स्ट। अगर
सुरक्षा
चाहते हो, तो
पहले ही हमला
कर दो।
वह ठीक
कह रहा है। वह
ठीक इसलिए कह
रहा है कि इतनी
देर मत करो, हमला
पहले ही कर
दो। अगर कमजोर
भी पहले हमला
कर दे, मैक्यावेली
के हिसाब से, तो उसके
जीतने की
संभावना बन
जाएगी। वह आगे
हो गया। और
मैक्यावेली
जो संदेश दे रहा
है, वह कमजोरों
के लिए दे रहा
है। असल में, सुरक्षा
कमजोर के लिए
ही खयाल है।
लाओत्से
कहता है कि
हमला आए, तो पी
जाओ। हमला
करने का तो
सवाल ही नहीं;
पहले क्या,
पीछे भी
करने का सवाल
नहीं है। उसे
आत्मलीन कर
लेना है।
ऐसा हो
सके कि शरीर
हो स्वस्थ, मन
हो शून्य, हड्डियां
हों मजबूत, मकान की
दीवारें हो सुदृढ़ और
भीतर मालिक हो
जैसे नहीं है,
तो लाओत्से
कहता है, परफेक्ट मैन, पूर्ण
आदमी का जन्म
होता है, पूर्ण
मनुष्य का
जन्म होता है।
यह
धारणा उलटी
है। हमारे सब
के हिसाब में
यह धारणा उलटी
है। और यह
उलटी इसलिए
दिखाई पड़ती रहेगी
कि हमारे
सोचने के सारे
मापदंड
लाओत्से से
बिलकुल
विपरीत हैं।
हम कहेंगे, यह
कमजोरी है, कायरता है
कि कोई हमला
करे और तुम
जवाब न दो। हम
कहेंगे, यह
कायरता है कि
कोई हमला करे
और तुम जवाब न
दो, जिंदगी
पुकारे
लड़ाई के लिए
और तुम खड़े रह
जाओ, कि
तूफान चुनौती
दें और तुम
लेट जाओ, कि
नदी बहाने लगे
तुम्हें और
तुम बह जाओ और
उलटे न बहो।
नसरुद्दीन को
खबर दी है
उसके घर के
आस-पास के पड़ोसियों
ने कि तू भाग
जल्दी, तेरी
पत्नी नदी में
गिर पड़ी है!
पूर है तेज, वर्षा के
हैं दिन, धार
है कड़ी और डर
है कि पत्नी
शीघ्र ही सागर
में पहुंच
जाएगी। तू
भाग!
नसरुद्दीन
भागा। तट पर
बहुत भीड़
इकट्ठी हो गई।
वह नदी में
कूदा और उलटी
धार की तरफ
तैरने लगा।
उलटी तरफ!
सागर की तरफ
दौड़ रही है
नदी,
वह उलटी तरफ,
नदी के उदगम
की तरफ जोर से
तैरने लगा।
तेज है धार, तैर भी नहीं
पा रहा। लोगों
ने चिल्लाया,
पागल नसरुद्दीन,
कोई नदी में
गिर जाए, तो
उलटी तरफ नहीं
बहता। तेरी
पत्नी नीचे की
तरफ गई होगी!
उन्होंने कहा
कि माफ करो, मेरी पत्नी
को मैं तुमसे
अच्छी तरह
जानता हूं। वह
सदा उलटे काम
करती रही है।
वह कभी नीचे
की तरफ नहीं
बह सकती। उसे
मैं भलीभांति
पहचानता हूं।
तीस साल का
हमारा-उसका
सत्संग है।
अगर तुम यह
कहते हो कि
सभी लोग नदी
में गिर कर
नीचे की तरफ
बहते हैं, तो
मेरी पत्नी
ऊपर की तरफ
बही होगी।
लाओत्से
और हमारे बीच
ऐसे ही उलटे
नाते हैं। इसलिए
लाओत्से को
समझना
मुश्किल हो
जाता है। लाओत्से
को समझना
मुश्किल हो
जाता है, क्योंकि
हमारे तर्क की
व्यवस्था में
और उसकी तर्क
की व्यवस्था
में बड़ा
उलटापन है। हम
कहते हैं
कायरता, और
लाओत्से कहता
है शक्ति। वह
कहता है, जितनी
बड़ी शक्ति है,
उतनी ही लड?ने की
आतुरता कम
होगी। अगर
शक्ति पूर्ण
है, तो
लड़ाई होगी ही
नहीं।
ऐसा
समझें हम, परमात्मा
के द्वार पर
जाकर हम गाली
दे रहे हैं।
कोई उत्तर
नहीं मिलता।
और नास्तिक
हजारों साल से
खंडन करते रहे
हैं। एक भी
बार ऐसा नहीं
हुआ कि
परमात्मा
एकाध बार तो
कह देता कि
मैं हूं। इतने
दिन से लंबा
विवाद चलता
है। एकाध बार तो
उसको इतना तो
खयाल आ जाना
चाहिए था कि
यह बड़ी कायरता
होगी, एक
दफे तो कह दूं
कि मैं हूं।
नहीं, वह
चुप है।
लाओत्से
कहता है, वह
इसलिए चुप है
कि वह परम
शक्ति है।
प्रतिरोध
वहां नहीं है।
अगर नास्तिक
कहता है, तुम
नहीं हो, तो
परमात्मा से
भी
प्रतिध्वनि
आती है कि
नहीं हूं। कोआपरेट
कर जाता है, उसके साथ भी
सहयोग कर देता
है। उससे भी
विरोध नहीं
है। जितनी बड़ी
ऊर्जा, उतना
ही प्रतिरोध
नहीं होता।
सुना
है मैंने, एक
स्कूल में एक
पादरी बच्चों
को बाइबिल का
पाठ सिखा रहा
है। और उनसे
कह रहा है कि
कल मैंने तुम्हें
क्षमा के लिए
सारी बातें समझाई
थीं। अगर कोई
तुम्हें मारे,
तो तुम उसे
क्षमा कर
सकोगे? एक
छोटे से लड़के
को उसने खड़े
करके पूछा कि
तेरा क्या
खयाल है? अगर
कोई लड़का तुझे
घूंसा मार दे,
तो तू उसे
क्षमा कर
सकेगा? उस
लड़के ने कहा, कर तो
सकूंगा, अगर
वह मुझसे बड़ा
हो। उसने कहा,
कर तो
सकूंगा, अगर
वह मुझसे बड़ा
हो। छोटे को
करना जरा
मुश्किल पड़ जाएगा।
असल
में,
हम सब की
मनोदशा ऐसी ही
है। जिसको हम
दबा सकते हैं,
हम दबा देते
हैं। जिसको हम
सता सकते हैं,
उसे हम सता
देते हैं।
जिसको हम चोट
पहुंचा सकते
हैं, उसे
हम चोट पहुंचा
ही देते हैं।
जिसे हम नहीं पहुंचा
सकते, तब
हम बड़े
सिद्धांतों
की बात कर
लेते हैं।
लाओत्से
कह रहा है कि
तुम्हारे
भीतर वह बिंदु
ही न रह जाए, जो
छोटे-बड़े को
सोचता है।
इसके साथ, उसके
साथ, सोचता
है। इस स्थिति
में क्या करूं,
उस स्थिति
में क्या करूं,
सोचता है।
वह बिंदु ही न
रह जाए।
तुम्हारे भीतर
संकल्प ही न
रह जाए।
लाओत्से
को अगर एक
छोटा बच्चा भी
चांटा मार दे, तो
भी जवाब नहीं
देगा। और एक
सम्राट भी
हमला बोल दे, तो भी जवाब
नहीं देगा।
अगर इस
सूत्र को ठीक
से ले लें, तो
साधना का बड़ा
सूत्र है। कभी
छोटा सा
प्रयोग करके
देखें एक सात
दिन के लिए, अप्रतिरोध
का, नान-रेसिस्टेंस
का, कि कुछ
भी होगा, पी
जाएंगे।
प्रयोगात्मक,
एक सात दिन
के लिए, कुछ
भी होगा, पी
जाएंगे।
जिन-जिन चीजों
में कल
प्रतिरोध किया
था, प्रतिरोध
नहीं करेंगे।
या जिन-जिन
चीजों में कल
दबाना पड़ा था,
दबाएंगे
नहीं, पी
जाएंगे। और एक
सात दिन में
आप पाएंगे कि
आप इतनी शक्ति
अर्जित कर
लेते हैं, जिसका
कोई हिसाब
लगाना
मुश्किल है।
आपके पास इतनी
ऊर्जा, इतनी
इनर्जी
इकट्ठी हो
जाती है, जिसका
हिसाब नहीं।
तब मुश्किल हो
जाएगा, उसके
बाद, इस
ऊर्जा को
व्यर्थ डिसिपेट
करना।
हम सब डिसिपेट
कर रहे हैं, फेंक
रहे हैं। सड़क
से गुजर रहे
हैं, एक
छोटा सा बच्चा
सड़क के किनारे
खड़े होकर हंस दे,
और आपमें
प्रतिरोध
शुरू हो गया।
प्रतिरोध शुरू
हो गया।
लाओत्से
पर किसी ने एक
गांव में हमला
कर दिया था।
लाओत्से ने तो
लौट कर भी
नहीं देखा कि
वह आदमी कौन
है। वह चलता
ही गया। उस
आदमी को बड़ी
बेचैनी हुई।
उसने लौट कर
भी नहीं देखा
कि पीछे से
लकड़ी किसने मारी
है। वह आदमी
भागा हुआ आया
और उसने
लाओत्से को
रोका और कहा
कि लौट कर तो
देख लो!
अन्यथा हमारा
मारना बिलकुल
बेकार ही गया।
कुछ तो कहो!
लाओत्से
ने कहा, कभी
भूल-चूक से
अपना ही नाखून
हाथ में लग
जाता है, तो
क्या करते
हैं! कभी राह
चलते अपनी ही
भूल से गिर
पड़ते हैं, घुटने
टूट जाते हैं,
तो क्या
करते हैं!
लाओत्से
ने कहा, एक
बार ऐसा हुआ
कि मैं नाव
में बैठा था
और एक खाली
नाव आकर मेरी
नाव से टकरा
गई, तो
मैंने क्या
किया! लेकिन
अगर उस दूसरी
नाव में कोई
मल्लाह बैठा
होता, तो? तो झगड़ा
हो जाता। तो झगड़ा हो
जाता। खाली
नाव थी, तो
कुछ न किया।
कोई मल्लाह
बैठा होता, तो झगड़ा
हो जाता।
लेकिन उसी दिन
से मैंने समझ
लिया कि जब
खाली नाव को
कुछ नहीं किया,
तो मल्लाह
भी बैठा हो तो
क्या फर्क
पड़ता है? तुमने
अपना काम कर
लिया, तुम
जाओ। मुझे
मेरा काम करने
दो।
वह
आदमी दूसरे
दिन पुनः आया
और उसने कहा, मैं
रात भर सो
नहीं सका। तुम
आदमी कैसे हो?
तुम कुछ तो
करो, तुम
कुछ तो कहो, ताकि मैं
निश्चिंत हो
जाऊं।
स्वभावतः, उसके
मन में बहुत
कुछ कठिनाई
चलती रही
होगी। हम सब
अपेक्षाओं
में चलते हैं।
अगर मैं गाली
देता हूं, तो
मैं मान कर
चलता हूं कि
गाली लौटेगी।
लौट आती है, तो
नियमानुसार
सब हो रहा है।
नहीं लौटती है,
तो बेचैनी
होती है।
बेचैनी उतनी
हो जाती है कि
मैं अगर प्रेम
करता हूं, तो
मान कर चलता
हूं कि प्रेम
लौटेगा; नहीं
लौटता है, तो
जैसी बेचैनी
हो जाती है।
हम सब के
लेन-देन के
सिक्के तय
हैं।
लाओत्से
कहता है, ये
सिक्कों को
बदल डालो।
भीतर हो जाओ शून्यवत; संकल्प को
हटा दो; और
जो होता है, होने दो।
हम
कहेंगे, तब तो
मौत आ जाएगी, बीमारी आ
जाएगी, कोई
लूट ही लेगा।
सब बर्बाद ही
हो जाएगा। हम
हजार दलीलें
खोज लेंगे
जरूर। लेकिन
हमारी दलीलों
का बहुत मूल्य
नहीं है।
क्योंकि जिन
चीजों को
बचाने के लिए
हम दलीलें खोज
रहे हैं, उनमें
से हम कुछ भी
नहीं बचा पाते,
सभी छूट
जाता है। न तो
मौत रुकती, न बीमारी
रुकती, कुछ
रुकता नहीं, सभी नष्ट हो
जाता है। और
उसको बचाने की
चेष्टा में हम
कभी उसे पा ही
नहीं पाते, जो ऐसा था
कुछ कि मिल
जाता, तो
कभी नष्ट नहीं
होता है।
एक बार
सात दिन का
छोटा सा
प्रयोग करके
देखें।
मेरे
लिए तो
संन्यास का
अर्थ यही है, जो
लाओत्से कह
रहा है। यही
अर्थ है
संन्यास का कि
ऐसा व्यक्ति,
जिसने
संकल्प छोड़
दिया, जिसने
समर्पण
स्वीकार कर
लिया, जिसने
इस जगत के साथ
संघर्ष छोड़
दिया और
सहयोगी हो गया।
जो कहता है, मेरी
शत्रुता नहीं;
हवाएं जहां ले
जाएं, मैं
चला जाऊंगा।
जो कहता है, मेरी अपनी
कोई आग्रह की
बात नहीं कि
ऐसा हो; जो
हो जाएगा, वही
मुझे स्वीकार
है। ऐसी कोई
मंजिल नहीं, जहां मुझे
पहुंचना है; जहां पहुंच जाऊंगा, कहूंगा यही
मेरी मंजिल
है। ऐसा
व्यक्ति संन्यासी
है। और ऐसी
संन्यास की
भाव-दशा में
जीवन का जो
परम धन है, उसका
द्वार, उस खजाने का
द्वार खुल
जाता है।
लाओत्से
कहता है, "संत,
जो जानते
हैं, वे
प्रज्ञावान
पुरुष अपने
शासन में...।'
यह भी
शब्द सोचने
जैसा है।
क्योंकि संत
का कोई शासन
नहीं होता।
संत की क्या
गवर्नमेंट
होती? सेजेज इन देयर
गवर्नमेंट!
संत अपने शासन
में! संतों की
तो कोई सरकार
दिखाई पड़ती
नहीं। लेकिन
यह बड़ा पुराना
शब्द है, बड़ा
पुराना शब्द
है। और वक्त
था ऐसा जब कि
संत का ही
शासन था। कोई
गवर्नमेंट
नहीं थी उसकी,
कोई
शासन-व्यवस्था
न थी, कोई
स्ट्रक्चर न
था। लेकिन
शासन उसी का
था।
जैन
परंपरा में
अभी भी, महावीर
का शासन, ऐसा
ही शब्द
प्रयोग किया
जाता है। जो
शासन दे, उसको
शास्ता कहा
जाता है।
इसलिए महावीर
को या बुद्ध
को शास्ता
कहते हैं।
शास्ता, जिसने
शासन दिया। और
वह शास्ता ने
जो कहा, जहां
संगृहीत हो, उसको
शास्त्र कहा
जाता है। शासन
का अर्थ है, ऐसे नियम
जिनसे आदमी चल
सके और पहुंच
सके।
तो
लाओत्से कहता
है,
संत अपने
शासन में, अपनी
सूचनाओं में,
मनुष्य को
चलाने के लिए
जो शास्त्र वे
निर्मित करते
हैं उसमें, आदमी के मन
को तो खाली
करने की कोशिश
करते हैं, शरीर
को भरने की
कोशिश करते
हैं। संकल्प
को तोड़ते हैं,
हड्डियों
को मजबूत कर
देते हैं।
सारे
हठयोग की पूरी
प्रक्रियाएं
हड्डी को मजबूत
करने की
प्रक्रियाएं
हैं। भीतर से
संकल्प को हटा
कर समर्पण
को...। यह खयाल
में आ जाए, तो
व्यक्तित्व
का एक दूसरा
ही रूप है; जैसे
हम हैं, फिर
वैसे नहीं।
देखने का और
ही ढंग, एक
दूसरा
गेस्टाल्ट।
और
जैसा हम देखना
शुरू करते हैं, वैसी
ही चीजें
दिखाई पड़नी
शुरू हो जाती
हैं। अगर आपने
तय कर रखा है, सजग रहना है
हर वक्त, हमला
हो तो हमले से
उत्तर देना है,
हमला न हो
तो पहले से
तैयारी रखनी
है, तो आप
रोज दुश्मन को
खोज लेंगे।
जगत बहुत बड़ा है
और हर आदमी की
जरूरतें पूरी
कर देता है।
अगर आप दुश्मन
को खोजने
निकले हैं, तो आप
दुश्मन को
प्रतिपल खोज
लेंगे।
यह खोज
करीब-करीब
वैसी ही है, जैसे
कभी पैर में
चोट लग जाए, तो फिर दिन
भर पैर में
उसी जगह चोट
लगती मालूम
पड़ती है। और कभी-कभी
हैरानी भी
होती है कि
मामला क्या है?
इतना बड़ा
शरीर है, कहीं
चोट नहीं लगती,
वहीं चोट
लगती है जहां
चोट लगी है!
नहीं, चोट
तो रोज वहां
ही लगती थी, पता नहीं
चलती थी। आज
वहां चोट लगी
है, इसलिए
पता चलती है।
आपका वह
हिस्सा
संवेदनशील है,
सेंसिटिव
है, इसलिए
पता चलता है।
दूसरे हिस्से
पर पता नहीं चल
रहा है। वह
संवेदनशील
नहीं है।
तो हम
जिस-जिस चीज
के लिए
संवेदनशील हो
जाते हैं, वही-वही
हमें पता चलता
है। अगर हम
आक्रमण के प्रति
संवेदनशील
हैं, अगर
हमें लग रहा
है कि सारा
जीवन एक
संघर्ष, युद्ध
है, तो फिर
हम रोज, हर
घड़ी उन लोगों
को खोज लेंगे
जो शत्रु हैं,
उन
स्थितियों को
खोज लेंगे जो
संघर्ष में ले
जाएं।
लाओत्से
दूसरा
गेस्टाल्ट, देखने
का दूसरा ढंग,
दूसरी
सेंसिटिविटी
दे रहा है। वह
दूसरी संवेदनशीलता
दे रहा है। वह
कह रहा है कि
सहयोग को
खोजो। और जो
आदमी उस भाव
से खोजने
निकलेगा, उसे
मित्र मिलने
शुरू हो जाते
हैं। उसकी
संवेदनशीलता
दूसरी हो जाती
है। वह मित्र
को खोजने लगता
है। और हम जो
खोजते हैं, वह हमें मिल
जाता है। या
हम ऐसा कहें
कि जो भी हमें
मिलता है, वह
हमारी ही खोज
है। इस जगत
में हमें वह
नहीं मिलता, जो हमने
नहीं खोजा है।
इसलिए जब भी
आपको कुछ मिले,
तो आप समझ
लेना कि आपकी
अपनी ही खोज
है।
लेकिन
हम ऐसा कभी
नहीं मानते।
अगर दुश्मन
मिलता है, तो
हम सोचते हैं,
हमारी क्या
खोज है? दुश्मन
है, इसलिए
मिल गया! नहीं,
दुश्मन
होने के लिए
आप संवेदनशील हैं,
आप तैयार
हैं। खोज ही
रहे हैं।
सहयोग
की यह
व्यवस्था, कोआपरेशन और कांफ्लिक्ट।
क्रोपाटकिन ने
एक किताब लिखी
है। और क्रोपाटकिन
इस सदी में...कांफ्लिक्ट
की सदी है
हमारी तो, हमारा
तो पूरा युग
संघर्ष का है,
जहां
माक्र्स से
लेकर और माओ
तक सारा विचार
संघर्ष और कलह
का है। वहां
एक आदमी
जरूर--रूस में
ही हुआ वह आदमी
भी क्रोपाटकिन--वह
कोआपरेशन,
सहयोग, संघर्ष
नहीं। और उसने
एक बहुत बड़ी
कीमती बात प्रस्तावित
की, हालांकि
इस सदी में
सुनी नहीं गई।
क्योंकि यह सदी
उसके लिए
संवेदनशील
नहीं है।
डार्विन
ने सिद्ध करने
की कोशिश की कि
यह सारा जगत
जीवन के लिए
संघर्ष है, स्ट्रगल है, स्ट्रगल टु सरवाइव।
अपने-अपने को
बचाने के लिए
हर एक लड़ रहा
है। और उसने
यह भी सिद्ध
किया कि इसमें
वही बच जाता है,
जो फिटेस्ट
है। और फिटेस्ट
का मतलब यह, जो युद्ध
में सर्वाधिक
कुशल है वही
बच जाता है।
डार्विन
से लेकर फिर
इन तीन सौ
सालों में
सारे जगत में
संघर्ष का
विचार
परिपक्व होता
चला गया। और
मजे की बात है
कि इस संघर्ष
के परिपक्व
विचार ने हमें
संघर्ष के लिए
और उन्मुख
बनाया। और जब
इस सिद्धांत
को हमने
स्वीकार कर
लिया कि जीवन
एक संघर्ष है, हर
एक लड़ रहा है
सिर्फ। बाप
बेटे से लड़
रहा है, बेटा
बाप से लड़ रहा
है, पति
पत्नी से लड़
रहा है। सब लड़
रहे हैं। ऐसा
नहीं है कि
नौकर मालिक से
ही लड़ रहा है।
संघर्ष ही चल
रहा है पूरे
समय। यह सारा
जीवन एक
संघर्ष का ही
रूप है। यह
डार्विन से
लेकर माओ तक
सारा खयाल
संघर्ष का है।
कलह, वर्ग-कलह,
फिर कलह
बढ़ती चली जाती
है। तो सभी
तलों में प्रवेश
कर जाती है।
फिर एक-एक
आदमी अकेला है
और सारी
दुनिया से लड़
रहा है।
क्रोपाटकिन ने
कहा कि संघर्ष
आधार नहीं है, सहयोग
आधार है। और
मजे की बात
उसने यह कही
कि संघर्ष भी
करना हो, तो
भी सहयोग
जरूरी है।
जिससे लड़ना है,
उसका भी
सहयोग
चाहिए--लड़ाई
के लिए भी।
अगर वह लड़ने
में भी
असहयोगी हो
जाए, नॉन-कोआपरेटिव
हो जाए और कह
दे कि नहीं
लड़ते, तो
लड़ने का भी
कोई उपाय नहीं
है। यह बहुत
मजे की बात क्रोपाटकिन
ने कही कि
संघर्ष के लिए
सहयोग
अनिवार्य है,
लेकिन
सहयोग के लिए
संघर्ष
अनिवार्य
नहीं है। फाउंडेशनल,
बुनियादी
सहयोग है, क्योंकि
संघर्ष भी
बिना सहयोग के
नहीं हो सकता।
अगर
मैं आपसे लड़ना
भी चाहूं, तो
किसी न किसी
रूप में आपके
सहयोग की
जरूरत है। अगर
आप बिलकुल कोआपरेट
ही न करें, तो
लड़ाई भी नहीं
चल सकती। लड़ाई
भी बड़ा सहयोग
है। और दो
आदमी जब लड़ते
हैं, तो
बहुत-बहुत
ढंगों से
एक-दूसरे का
सहयोग करते
हैं। लेकिन
सहयोग के लिए
किसी संघर्ष
की जरूरत नहीं
है। इसका अर्थ
यह होता है कि
सहयोग ज्यादा
गहरे में है।
और क्रोपाटकिन
ने कहा कि
डार्विन ने
जाकर देख लिया
जंगल में कि
शेर इस जानवर
को खा रहा है, वह
जानवर उस
जानवर को खा
रहा है। लेकिन
क्रोपाटकिन
का कहना है कि
चौबीस घंटे
में अगर एक
बार शेर एक
जानवर पर हमला
करता है, तो
बाकी तेईस
घंटों में
हजारों
जानवरों के साथ
सहयोग कर रहा
है। उसे कभी
डार्विन ने
देखा नहीं।
जंगल के जानवर
चौबीस घंटे लड़
नहीं रहे हैं।
सच बात यह है कि
आदमी से
ज्यादा लड़ने
वाला कोई भी
जानवर जंगल
में नहीं है।
एक
सूफी फकीर हुआ
है,
जलालुद्दीन।
वह अपने ध्यान
में बैठा है।
और उसके एक
शिष्य ने आकर
उससे कहा कि उठिए, उठिए, बड़ी
मुश्किल हो
गई! एक बंदर के
हाथ में तलवार
पड़ गई है; कुछ
न कुछ खतरा
होकर रहेगा।
जलालुद्दीन
ने कहा, बहुत
परेशान मत हो,
आदमी के हाथ
में तो नहीं
पड़ी है न! फिर
कोई फिक्र की
बात नहीं है, फिर कोई
चिंता की बात
नहीं है। आदमी
के हाथ में पड़
गई हो, तो
फिर उठना पड़े।
फिर कुछ
उपद्रव होकर
रहेगा।
जंगल
में इतना
संघर्ष नहीं
है,
जैसा हमें
खयाल है। और
हम सबको खयाल
है कि जंगल एक
संघर्ष है, कांफ्लिक्ट है, हिंसा
है। बड़ा सहयोग
है। लेकिन
आदमी ने जो
जंगल बनाया है,
जिसका नाम
सभ्यता है, समाज है, वह
बिलकुल
संघर्ष है। और
दिखाई बिलकुल
नहीं पड़ता। और
पूरे समय
एक-दूसरे की
दुश्मनी में
सारा का सारा
जाल फैलता चला
जाता है।
क्रोपाटकिन
वही कह रहा है, जो
लाओत्से ने
किसी दूसरे तल
पर, और
गहरे तल पर
कहा था।
लाओत्से कहता
है, सहयोग।
लेकिन सहयोग
वे ही लोग कर
सकते हैं, जिनके
भीतर संकल्प
क्षीण हो। कलह
वे ही लोग कर
सकते हैं, जिनके
भीतर संकल्प
मजबूत हो।
संकल्प जितना
ज्यादा होगा,
कलह उतनी
ज्यादा होगी।
संकल्प कलह का
सूत्र है।
संकल्प क्षीण होगा,
शून्य होगा,
कलह विदा हो
जाएगी। लड़ने
वाला तत्व ही
नहीं रह जाएगा,
जो लड़ सकता
था।
इसे
थोड़ा प्रयोग
करके देखें।
और लाओत्से की
सारी चीजें
प्रयोग करने
जैसी हैं। और
प्रयोग करेंगे, तो
खयाल में
ज्यादा गहरा
आएगा। मुझे
सुन लेंगे, उतने से बात
बहुत साफ नहीं
होगी। मुझे
सुन कर लगेगा
भी कि समझ गए, तो भी समझ
में नहीं
आएगा। यह समझ
ऐसी ही होगी, जैसे अंधेरे
में थोड़ी सी
बिजली कौंध
जाए। एक क्षण
को लगे कि सब
दिखाई पड़ने
लगा, और
फिर क्षण भर
बाद अंधेरा हो
जाए। क्योंकि
आपका जो अपना
तर्क है, वह
तर्क लंबा है।
वह
जन्मों-जन्मों
का है। जन्मों-जन्मों
का जो तर्क है,
वह तो कलह
का है, संघर्ष
का है। इस
संघर्ष के
तर्क की लंबी
यात्रा में
जरा सी बिजली
कौंध जाए कभी
सहयोग की किसी
की बात से, तो
वह कितनी देर टिकेगी? जब तक कि आप
सहयोग के लिए
भी कोई प्रयोग
न करें, जब
तक कि आपके
संघर्ष के
अनुभव के
विपरीत सहयोग
का अनुभव भी
खड़ा न हो जाए।
उसे
थोड़ा प्रयोग
करें। एक सात
दिन का नियम।
किसी भी सूत्र
को समझने के
लिए कम से कम
सात दिन का
नियम ले लें
कि कल सुबह से
सात दिन तक
सहयोग करूंगा, चाहे
कुछ भी हो
जाए।
जहां-जहां
संघर्ष की
स्थिति बनेगी,
वहां-वहां
सहयोग
करूंगा। और इस
सूत्र का राज
खुल जाएगा।
इन सब
सूत्रों का
राज व्याख्या
से नहीं, प्रतीति
से खुलता है।
व्याख्या से
समझ में आ जाए
इतना ही कि
प्रयोग करने
जैसा है, उतना
काफी है।
जिससे लड़े थे,
उससे सहयोग
कर लें। जिससे
लड़े होते, उससे
सहयोग कर लें।
जिस
परिस्थिति
में अकड़ कर खड़े
हो गए होते, उस
परिस्थिति
में लेट जाएं,
बह जाएं। और
देखें, सात
दिन में आप
मिटे या बने? देखें, सात
दिन में आप
कमजोर हुए कि
शक्तिशाली
हुए? देखें,
सात दिन में
आप खो गए कि
बचे? देखें,
सात दिन में
कि आप बीमार हैं
या स्वस्थ?
और एक
बिलकुल ही नए
तरह के
स्वास्थ्य का
गुण अनुभव में
आना शुरू हो
सकता है।
आज
इतना ही। फिर
कल बात
करेंगे।
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