दिनांक:
6 अक्टूबर, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
कोरेगांव
पार्क,
पूना।
प्रश्न
सार:
1—आपने
गोरखनाथ जी को
भारत के चार
शीर्षस्थ प्रज्ञा—पुरुषों
में रखा
है।मगर
आश्चर्य है कि
ऐसे चोटी के
महापुरुष के
जन्म—स्थान और
समय का भी पता
नहीं है! ऐसा
क्यों?
2—मैं
सांसारिक
अर्थों में सब
भांति से सुखी
हूं लेकिन फिर
भी सुखी नहीं
हूं। मेरे दुख
का कारण भी
समझ में आता
नहीं। आप
मार्गदर्शन
दें।
3—जीवन
इतना प्यारा
क्यों है? हरेक
वस्तु, व्यक्ति,
सृष्टि, व्यक्त—अव्यक्त
भी! रंग, नाद,
गति, रुचि,
कलह भी!
भगवान, इसका
स्मरण करने से
भी हृदय भर
आता है, आंसू
बहते हैं, सांस
खिंच जाती है।
बात बंद हो
जाती है। रुदन
होता है। कुछ
बता नहीं सकती
भगवन! आंख बंद
होती है और
बैठ जाती हूं।
4—जीवन
के सुख—दुखों
को हम कैसे
समभाव से
स्वीकार करें?
5—मैं
आपका
आशीर्वाद चाहता
हू। लेकिन
आशीर्वाद से क्या
चाहता हूंयह जरा
भी स्पष्ट नहीं।
उसे भी आप ही स्पष्ट
करें। मेरी ओर
से इतना भर निश्चित
है कि आपका
आशीर्वाद चाहता
हू।
पहला
प्रश्न:
आपने
गोरखनाथ जी को
भारत के चार
शीर्षस्थ प्रज्ञा—
पुरुषों में
रखा है। मगर
आश्चर्य है कि
ऐसे चोटी के
महापुरुष के
जन्म— स्थान
और समय का भी
पता नहीं है।
ऐसा क्यों?
आनंद
मैत्रेय, इस
संबंध में
पश्चिम और
पूर्व की
दृष्टियां भिन्न
हैं। पश्चिम
सोचता है
इतिहास की
भाषा में, पूरब
सोचता है
पुराण की भाषा
में। इतिहास
तथ्यों का
होता है, पुराण
सत्यों का।
तथ्य एक विशेष
स्थान में घटता
है और विशेष
समय में तथ्य
की सीमा होती
है। तथ्य
सामयिक होता
है, समय की
घटना। सत्य
शाश्वत है।
उसकी
अभिव्यक्ति
भी समय में
होती है, तो
भी वह समय में
सीमित नहीं
है।
इसलिए
पूर्व में
हमने जरा भी
चिंता नहीं
की। न राम का
ठीक—ठीक
इतिहास पता है, न
कृष्ण का। जो
हमारे हाथ में
है, कहानियां
हैं। पश्चिम
की नजर से
देखो तो बस
कहानियां
मात्र हैं, कपोल—कल्पनाएं
हैं। क्योंकि
जब तक ठोस
प्रमाण न हों,
पश्चिम
किसी बात को
इतिहास
स्वीकार नहीं
करता। जैनों
के चौबीस
तीर्थंकर
कपोल—कल्पनाएं
मालूम होते
हैं; कोई
प्रमाण नहीं।
बुद्ध भी
ठीक—ठीक किस
तिथि—तारीख को
पैदा हुए, पक्का
करना मुश्किल
है।
हमने
चिंता ही नहीं
ली इस बात की।
इससे अंतर भी
क्या पडता है? बुद्ध
'अ' नाम
के गांव में
पैदा हों कि 'ब' नाम के
गांव में पैदा
हों, इससे
अंतर क्या
पड़ता है? और
बुद्ध इस सन
में पैदा हों
या उस सन में, क्या भेद
पड़ेगा? हमने
बुद्धत्व को
समझने की
चेष्टा की है।
बुद्ध के
व्यक्तित्व
से क्या
लेना—देना है?
उनकी देह तो
क्षण— भंगुर
है, आज है
और कल नहीं हो
जाएगी। उनका
संदेश शाश्वत
है। और वह
संदेश एक
बुद्ध का ही
नहीं, वह
संदेश समस्त
बुद्धों का
है।
इसलिए
यह भी ध्यान
रखना कि जब
हमने बुद्ध की
प्रतिमा
बनायी तो हमने
इसकी बहुत
फिक्र नहीं की
कि बुद्ध ऐसे
ही लगते हैं
या नहीं। हमने
बुद्ध की
प्रतिमा गौतम
बुद्ध को
देखकर नहीं
बनायी है, हमने
बुद्ध की
प्रतिमा
बनायी समस्त
बुद्धों के
सार—निचोड़ की
तरह। बुद्ध
कैसे बैठते
हैं, कैसे
उठते हैं—सारे
बुद्धों का जो
सार—संचय है, वह हमने
बुद्ध की
प्रतिमा में
ढाला है।
बुद्ध की
प्रतिमा
समस्त बुद्धों
का प्रतीक है।
इसलिए
तुम चकित
होओगे, जैन—मंदिर
में जाना कभी,
चौबीस
तीर्थंकरों
की प्रतिमाएं
देखकर तुम हैरान
होओगे, वे
बिलकुल एक
जैसी मालूम
होती हैं। अब
ये चौबीस
व्यक्ति एक
जैसे नहीं हो
सकते। दुनिया
में दो
व्यक्ति भी एक
जैसे नहीं
होते, तो
चौबीस
व्यक्ति तो एक
जैसे कैसे हो
सकते हैं? जुड़वां
बच्चे भी
बिलकुल एक
जैसे नहीं
होते, तो
ये चौबीस
व्यक्ति समय
की बड़ी लंबी
यात्रा में, बड़े दूर—दूर,
जिनके बीच
हजारों साल का
फासला है, कैसे
एक जैसे हो
सकते हैं?
ये
एक जैसे नहीं
थे। लेकिन
इनके भीतर कुछ
था जो एक जैसा
था। वही ध्यान, वही
समाधि, वही
रसधार..। उस
भीतर के
एक—जैसे—पन के
कारण हमने
बाहर की
प्रतिमा पर
ध्यान नहीं
दिया। हमने भीतर
की अनुभूति को
स्मरण रखा।
बाहर की
प्रतिमा उस
भीतर की
अनुभूति की
दिशा—सूचक
मात्र है। ये
जैन
तीर्थंकरों
की मूर्तियां
तथ्यगत नहीं
हैं, सत्यगत
हैं।
तथ्य
तो बाहरी होता
है। जैसे
तुमने एक
गुलाब का फूल
देखा, यह तथ्य
है। तुमने दो
गुलाब के फूल
देखे, यह
तथ्य है। और
तुमने हजारों
गुलाब के
फूलों का इत्र
निचोड़ लिया, यह सत्य है।
इसका किसी एक
फूल से कुछ
लेना—देना
नहीं है, यह
सार है।
इसलिए
इस देश की
चिंता बड़ी
भिन्न है।
इसने फिक्र
नहीं की कि
गोरख कहां
पैदा हुए।
अलग—अलग दावेदार
हैं। कोई कहता
है पंजाब, कोई
कहता है बंगाल,
और सबसे बड़ा
दावा नेपाल का
है। क्योंकि
नेपाली कहते
हैं कि गोरख
जिस गांव में
पैदा हुए उसका
नाम है
गोरखाली।
इसलिए नेपालियों
की एक जाति है
गुरखा। वह
गोरख के नाम
से है। मगर
गोरख की भाषा
संकेत देती है
कि जैसे वे
बंगाल में
पैदा हुए हों
हसिबा खेलिबा
करिबा
ध्यानं। उनका
व्यक्तित्व
बहुआयामी मालूम
होता है। मेरे
देखे वे बंगाल
से लेकर काश्मीर
तक, नेपाल
से लेकर
कन्याकुमारी
तक परिव्राजक
रहे होंगे।
बहुत जगह ठहरे
होंगे, बहुत
लोगों से
मिले—जुले
होंगे बहुत
जगह उनके प्रेमी
पैदा हुए
होंगे। बहुत
जगह लोगों को
ऐसा लगा होगा
कि वे हमारे
हैं। इतना
प्यारा व्यक्ति
किसको अपना
नहीं लगता!
जिनको अपना
लगा होगा, उन्होंने
अपनी
कहानियां गढ़
ली होंगी।
कहानियां
प्रीतिकर
हैं।
कहानियां
सत्यों के संबंध
में कुछ नहीं
कहती; लेकिन
गोरख और लोगों
के बीच जो भाव
घटा होगा, उसके
संबंध में कुछ
कहती हैं।
गोरख बंगाल
गये तो बंगाली
हो गये होंगे।
ऐसे डूब गये
होंगे बंगाल
की जीवन— धारा
में कि लोगों
को लगे होंगे
कि बंगाली
हैं।
इधर
मेरे पास लोग
आ जाते हैं।
अगर मैं जीसस
पर बोलता हूं
तो ईसाई मुझसे
आकर कहते हैं, क्या
आप ईसाई हैं? अगर मैं
बुद्ध पर
बोलता हूं तो
बौद्धों ने
मुझे कहा है
कि क्या आप
बुद्ध के
अनुयायी हैं?
जब मैं नानक
पर बोला तो
सिक्खों ने
मुझे आकर कहा
कि जो हमने
कभी नहीं सोचा
था, वह
अर्थ आपने
प्रगट कर दिया,
आप ही सच्चे
सिक्ख हैं!
मैं जिस पर
बोलता हूं उसके
साथ तल्लीन हो
जाता हूं उसे
बोलने देता हूं
अपने से। तो
सिक्खों को लग
सकता है कि
सिक्ख हूं और
बौद्धों को कि
बुद्ध हूं
ईसाईयों को कि
ईसाई हूं।
ऐसा
ही लगा होगा।
जहां गये
होंगे, जहां
ठहरे होंगे, जहां उनके
पैर पड़े होंगे,
वहीं के
लोगों को लगा
होगा—अपने
हैं। यह उनके प्रेम
के कारण लगा
होगा। और
इसलिए बात और
भी मुश्किल हो
गयी तय करनी
कि वे कहां
पैदा हुए, कब
पैदा हुए। फिर
ऐसे व्यक्ति न
तो अपने जन्म की
चर्चा करते
हैं, न
अपने घर—द्वार
की चर्चा करते
हैं। ऐसे
व्यक्तियों
का क्या घर, क्या द्वार?
यह सारा
आकाश उनका घर
है! यह सारी
पृथ्वी उनकी है।
मैं
कल ही मेरे
खिलाफ किसी
हिंदू
संन्यासी का लिखा
हुआ एक पत्र
करंट में छपा
है,
वह देख रहा
था। उसने
सरकार से
प्रार्थना की
है कि मैं
देशद्रोही
हूं मुझ पर अदालत
में मुकदमा
चलाया जाना
चाहिये। उसकी
बात ठीक है।
सरकार को उसकी
बात पर ध्यान
देना चाहिये।
मुझे
देशद्रोही
कहा जा सकता
है, क्योंकि
देशों में
मेरा कोई
भरोसा नहीं। न
मुझे कोई देश
है, न कोई
परदेश है, मुझे
यह सारी
पृथ्वी अपनी
मालूम होती
है।
जिस
संन्यासी ने
यह कहा है...
हिंदू
मतांधता.. उसे
अड़चन होती
होगी कि मैं
अपने को हिंदू
घोषित क्यों
नहीं करता।
मैं नहीं हूं!
मैं किसी सीमा
में बंधा नहीं
हूं। मस्जिद
भी मेरी है और
मंदिर भी मेरा
है और गिरजा
भी और
गुरुद्वारा
भी। और
राष्ट्रों
में मेरा
भरोसा नहीं
है। मैं तो
मानता हूं कि
राष्ट्रों के
कारण ही
मनुष्य—जाति
पीड़ित है।
राष्ट्र मिट
जाने चाहिए।
हो चुके बहुत
राष्ट्रगान, उड़
चुके बहुत
झंडे, हो
चुकीं बहुत
मूढ़ताएं
पृथ्वी पर, अब तो
मनुष्य की
एकता स्वीकार
करो। अब तो एक
पृथ्वी और एक
मनुष्य.। ये
राष्ट्रीय
सरकारें जानी
चाहिये। और जब
तक ये न
जायेंगी तब तक
मनुष्य की
समस्याएं हल न
हो सकेंगी, क्योंकि
मनुष्य की
समस्याएं अब
राष्ट्रों से
बड़ी समस्याएं
हैं।
जैसे
आज भारत गरीब
है। भारत अपनी
ही चेष्टा से
इस गरीबी के
बाहर नहीं
निकल सकेगा, कोई
उपाय नहीं है।
भारत गरीबी के
बाहर निकल सकता
है, अगर
सारी मनुष्यता
का सहयोग
मिले।
क्योंकि अब
मनुष्यता के
पास इस तरह के
तकनीक, इस
तरह का
विज्ञान
मौजूद है कि
इस देश की
गरीबी मिट
जाये। लेकिन
अगर तुम अकड़े
रहे कि हम अपनी
गरीबी खुद ही
मिटायेगे, तो
तुम ही तो इस
गरीबी को
बनानेवाले हो,
तुम
मिटाओगे कैसे?
तुम्हारी
बुद्धि इसके
भीतर आधार है,
तुम इसे
मिटाओगे कैसे?
तुम्हें
अपने
द्वार—दरवाजे
खोलने होंगे।
तुम्हें अपना
मस्तिष्क
थोड़ा
विस्तीर्ण
करना होगा।
तुम्हें
मनुष्यता का
सहयोग लेना
होगा।
और
ऐसा नहीं है
कि तुम्हारे
पास कुछ भी
देने को नहीं
है। तुम्हारे
पास कुछ देने
को है दुनिया
को। तुम
दुनिया को
ध्यान दे सकते
हो। अगर
अमरीका को
ध्यान खोजना
है तो अपने
बलबूते नहीं
खोज सकेगा
अमरीका। उसे
भारत की तरफ
नजर उठानी
पड़ेगी। मगर वे
समझदार लोग
हैं;
ध्यान
सीखने पूरब
चले आते हैं।
कोई अड़चन नहीं
है उन्हें, कोई बाधा
नहीं है।
बुद्धिमानी
का लक्षण यही
है कि जो जहा
से मिल सकता
हो ले लिया
जाये। यह सारी
पृथ्वी हमारी
है। इसको
खंडों में
बांटकर हमने
उपद्रव खड़ा कर
लिया है। आज
मनुष्य के पास
ऐसे साधन
मौजूद हैं कि
अगर राष्ट्र
मिट जायें, तो
सारी
समस्यायें
मिट जायें।
सारी मनुष्यता
इकट्ठी होकर
अगर उपाय करे
तो कोई भी समस्या
पृथ्वी पर
बचने का कोई
भी कारण नहीं
है।
मगर
पुरानी आदतें
हैं। हमारा
राष्ट्र—सारे
जहां से अच्छा
हिंदोस्तां
हमारा…..! और
इसी तरह की
मूढ़ताएं और
राष्ट्रों
में भी हैं।
उनको भी यही
खयाल है।
इन्हीं
अहंकारों के कारण
संघर्ष है।
फिर संघर्ष और
राष्ट्रों की
सीमाओं के
कारण मनुष्य
की सारी शक्ति
युद्धों में
लग जाती है।
तुम्हें
जानकर यह
हैरानी होगी
कि अब हमारे
पास इतना
युद्ध का
सामान इकट्ठा
हो गया है
सारी दुनिया
में,
रूस और
अमरीका में
विशेषकर, कि
एक—एक आदमी को
एक—एक हजार
बार मारा जा
सकता है!
हमारे पास एक
हजार
पृथ्वियों को
नष्ट करने का
साधन उपस्थित
हो गया है; एक
ही पृथ्वी है हालांकि।
अंबार लगे जा
रहे हैं
अस्त्र—शस्त्रों
के! और किसी भी
दिन किसी एक
पागल
राजनीतिज्ञ
की धुन और यह
सारी पृथ्वी
धूल का एक ढेर,
राख का एक
ढेर रह
जायेगी।
और
राजनीतिज्ञों
से पागलपन की
अपेक्षा की जा
सकती है। और
किससे करोगे? एक
राजनीतिज्ञ
के पागल होने
से इस सारी
दुनिया में
ऐसा भयंकर
उत्पात हो
जायेगा कि
तुम्हें सोचने—समझने
का मौका भी
नहीं मिलेगा।
पांच—सात मिनट
लगेंगे सारी
दुनिया को राख
हो जाने में।
खबर भी नहीं
पहुंच पायेगी
और मौत आ
जायेगी। जहां
इतना भयंकर
हिंसा का
आयोजन हो गया
हो, अब
पुराने
राष्ट्रों की
धारणाएं काम
नहीं दे सकतीं।
अब खतरा है।
इन्हीं
राष्ट्रों के
कारण ये
अस्त्र—शस्त्र
इकट्ठे हो रहे
हैं—अपनी रक्षा
करनी है..।
कहीं दूसरा
आगे न बढ़ जाये,
उससे हमें
आगे रहना है।
मनुष्य—जाति
की अस्सी
प्रतिशत
क्षमता युद्ध
में चली जाती
है। यही अस्सी
प्रतिशत क्षमता
अगर खेतों में
लगे,
बगीचों में
लगे, कारखानों
में लगे, यह
पृथ्वी
स्वर्ग हो
जाये! जो सपना
तुम्हारे ऋषि—महर्षि
देखते थे आकाश
में स्वर्ग का,
वह अब
पृथ्वी पर बन
सकता है, कोई
रुकावट नहीं।
लेकिन पुरानी
आदतें...। यह हमारा
देश, वह
उनका देश।
हमें भी लड़ना
है, उन्हें
भी लड़ना है।
गरीब से गरीब
देश भी अणुबम
बनाने की
चेष्टा में
संलग्न हैं।
भूखे मर रहे
हैं, मगर
अणुबम बनाना
है! भारत जैसे
देश के पीछे
भी वही भाव है
गहरे में।
भूखे मर जायें,
मगर अपनी
शान रखनी है!
मैं
तो राष्ट्रों में
मानता नहीं।
अगर मेरी सुनी
जाये तो मैं
तो कहूंगा कि
भारत को पहला
देश होना
चाहिए जो राष्ट्रीयता
छोड़ दे। यह
अच्छा होगा कि
कृष्ण, बुद्ध,
पतंजलि और
गोरख का देश
राष्ट्रीयता
छोड़ दे और कह
दे कि हम
अंतर्राष्ट्रीय
भूमि हैं।
भारत को तो
संयुक्त
राष्ट्र संघ
की भूमि बन
जानी चाहिए।
कह देना चाहिए,
यह पहला
राष्ट्र है जो
हम संयुक्त
राष्ट्र संघ
को सौंपते
हैं—सम्हालो!
कोई तो शुरुआत
करे...। और यह
शुरुआत हो
जाये तो
युद्धों की
कोई जरूरत
नहीं है। ये
युद्ध जारी
रहेंगे, जब
तक सीमाएं
रहेंगी। ये
सीमाएं जानी
चाहिये।
तो
ठीक ही कहते हो, कह
सकते हो मुझे
देशद्रोही—इन
अर्थों में कि
मैं
मानव—द्रोही
नहीं हूं।
लेकिन
तुम्हारे सब देश—प्रेमी
मानव—द्रोही
हैं।
देश—प्रेम का
अर्थ ही होता
है
मानव—द्रोह।
देश—प्रेम का
अर्थ होता है
खंडों में
बांटो। तुमने
देखा न, जो
आदमी प्रदेश
को प्रेम करता
है वह देश का
दुश्मन हो
जाता है। और
जो जिले को
प्रेम करता है
वह प्रदेश का
भी दुश्मन हो
जाता है। मैं दुश्मन
नहीं हूं देश
का, क्योंकि
मेरी धारणा
अंतर्राष्ट्रीय
है। यह सारी
पृथ्वी एक है।
मैं बड़े के
लिये छोटे को
विसर्जित कर
देना चाहता
हूं।
और
इन छोटे—छोटे
घेरों ने, बागुडों
ने मनुष्य को
बहुत परेशान
किया है। तीन
हजार साल में
पांच हजार
युद्ध लड़े गये
हैं। और पहले
तो ठीक था कि
तीर—कमान से
चल रहे थे
युद्ध, चलते
रहते, कोई
हर्जा नहीं
था। थोड़े—बहुत
लोग मरते थे
तो कोई अड़चन
नहीं हो जाती
थी। अब युद्ध
समग्र युद्ध
है। अब यह
पूरी मनुष्य—जाति
की आत्महत्या
है। अब सब जगह
हिरोशिमा बन
सकता है—किसी
भी दिन, किसी
भी क्षण..। इस
युद्ध की
विभीषिका को
समझो और इसमें
जितनी ऊर्जा
जा रही है, वह
सोचो। यही
ऊर्जा सारी
पृथ्वी को
हरियाली से भर
सकती है, वैभव
से भर सकती
है। मनुष्य
पहली दफा
आनंदमग्न हो
नाच सकता है, प्रभु के
गीत गा सकता
है, ध्यान
की तलाश कर
सकता है।
लेकिन
यह नहीं होगा।
ये तुम्हारे
तथाकथित देशप्रेमी, ये
राष्ट्रवादी........।
राष्ट्रवाद
महापाप है। इस
राष्ट्रवाद
के कारण ही
दुनिया में
सारे उपद्रव
होते रहे। मैं
राष्ट्रवादी
नहीं हूं। मैं
तो सारी
सीमाएं तोड़
देना चाहता
हूं। इस
पृथ्वी पर जिन
लोगों ने भी
परमात्मा की
छोटी—सी झलक
पाई है उनकी
कोई सीमाएं
नहीं हैं। वे
किसी देश, किसी
जाति, किसी
वर्ग, किसी
संप्रदाय, किसी
वर्ण के नहीं
होते। वे सब
के हैं, सब
उनके हैं।
फिर
इस तरह के
व्यक्ति, गोरख
जैसे व्यक्ति,
इस बात की
चिंता ही नहीं
लेते कि कब हम
पैदा हुए, इसकी
बात करें, किस
घर में पैदा
हुए, इसकी
बात करें, किस
गांव में पैदा
हुए, इसकी
बात करें। ये
व्यर्थ की
बातें हैं, क्योंकि
गोरख जानते
है—न हम कभी
पैदा हुए और न हम
कभी मरेंगे।
ये तो
देहवादियो की
बातें हैं। ये
तो जिनका शरीर
से मोह और
तादात्म्य है,
उनकी बातें
हैं। गोरख
जैसे व्यक्ति
तो उसे जान
लिये हैं जो न
कभी पैदा होता
है, न मरता
है; न मर
सकता है, न
पैदा हो सकता
है। अजन्मे को,
अनादि को, अनंत को जान
लेने के बाद
कौन जन्म की
बात करे? किसकी
बात करनी है?
इसलिए
इस तरह के लोग
बात नहीं
करते।
स्वभावत: उनके
पीछे बहुत—सी
कथाएं तो छूट
जाती हैं, लेकिन
सुनिश्चित
तथ्य नहीं छूट
जाते। और ऐसे लोग
इतने विराट
हृदय होते हैं
कि किन्हीं भी
तरह के
विशेषणों को
अंगीकार नहीं
करते। क्योंकि
विशेषण तो
अज्ञान का ही
सूचक है। जो
कहता है मैं
हिंदू हूं मुसलमान
हूं ईसाई
हूं—यह
अज्ञानी का
लक्षण है। जहां
प्रकाश जला
वहां विशेषण
गये; विशेषण
तो अंधेरे में
ही जीते हैं।
वहां तो विशेषणशून्य
अनिर्वचनीय
का आविर्भाव
हो जाता है।
इस कारण नहीं
कुछ पक्का पता
चलता, कहां
पैदा हुए कब
पैदा हुए।
लेकिन
कुछ लोग इस
खोजबीन में
लगे रहते हैं।
कुछ लोग अपनी
जिंदगी इसी
में लगाते हैं।
इसी तरह के
लोग
विश्वविद्यालयों
में शोध करते
हैं,
बड़े
शोधकर्ता हो
जाते हैं।
उन्हें
उपाधियां मिलती
हैं—पी एच. डी.
और डी लिट और
डी फिल। और
उनका बड़ा
सम्मान होता
है। उनका काम
क्या है? उनका
काम यह है कि
वे तय करते
हैं कि
गोरखनाथ कब
पैदा हुए थे।
कोई कहता है दसवीं
सदी के अंत
में, कोई
कहता है
म्यारहवीं
सदी के
प्रारंभ में।
इस पर बड़ा
विवाद चलता
है। बड़े—बड़े
विश्वविद्यालयों
के ज्ञानी सिर
गपा कर खोज
में लगे रहते
हैं
शास्त्रों की,
प्रमाणों
की, इसकी, उसकी। उनकी
पूरी जिंदगी इसी
में जाती है।
इससे बड़ा
अज्ञान और
क्या होगा?
गोरख
कब पैदा हुए, इसे
जानकर करोगे
क्या? इसे
जान भी लिया
तो पाओगे क्या?
गोरख न भी
पैदा हुए हों,
यह भी सिद्ध
हो जाये, तो
भी क्या फायदा
है? हुए
हों, न हुए
हों, अर्थहीन
है। गोरख ने
क्या जीया
उसका स्वाद लो।
इसलिए
तुम्हारे
विश्वविद्यालय
ऐसी व्यर्थता
के कामों में
संलग्न हैं कि
बड़ा आश्चर्य
होता है कि इन्हें
विश्वविद्यालय
कहो या न कहो।
इनका काम ही...
तुम्हारे
विश्वविद्यालयों
में चलने वाली
जितनी शोध है, सब
कूड़ा—करकट है।
मैं
एक जगह बोल
रहा था। एक
बहुत बड़े
शोधकर्ता, बड़े
पंडित खड़े हुए
और उन्होंने
मुझसे पूछा कि
आप सिर्फ मेरे
एक प्रश्न का
जबाव दे दें
कि बुद्ध और महावीर
में उम्र में
कौन बड़ा था।
दोनों समसामयिक
थे। क्योंकि
मैं इसी पर
तीस साल से
शोध कर रहा
हूं।
मैंने
उनकी तरफ बड़े
दया— भाव से
देखा। मैंने कहा, तुम्हारे
तीस साल गये।
अब बुद्ध उम्र
में बड़े थे कि
छोटे थे, इससे
क्या सार? नहीं
उन्होंने कहा
कि इतिहास को
जानकारी होनी
चाहिए। मैंने
कहा, तुमने
पक्का भी कर
दिया कि बुद्ध
बड़े थे या महावीर
बड़े थे, तुम्हें
क्या मिलेगा?
और इतिहास
जो पढ़ेंगे
उन्हें क्या
मिलेगा? और
तीस साल तुमने
अपनी जिंदगी
के गंवा दिये!
और लोग सोचते
हैं कि तुम एक
बहुत
महत्वपूर्ण
कार्य में लगे
हो।
कभी—कभी
तथाकथित
ज्ञान के नाम
पर ऐसी
मूढ़ताएं चलती
हैं कि अगर
तुम गौर न करो
तो तुम्हें
खयाल ही न
आयेगा। बुद्ध
के अंतरतम में
उतरो, महावीर
के अंतरतम में
उतरों, तो
तुम पाओगे
वहां दो व्यक्ति
भी नहीं
हैं—एक ही है।
वहां एक ही
निरभ्र आकाश
है, एक ही
शून्य संगीत
है, एक ही
आनंद—उत्सव
है।
झेन
फकीर ठीक कहते
हैं कि बुद्ध
हुए ही कहां। बुद्ध
को माननेवाले
लोग हैं, कहते
हैं बुद्ध हुए
ही कहां, कभी
नहीं हुए, सब
व्यर्थ की
बातें हैं।
रोज बुद्ध की
पूजा करते हैं
और कहते हैं, बुद्ध कभी
हुए नहीं, सब
झूठी बातें
हैं। क्या
प्रयोजन होगा
झेन फकीरों का?
वे यही कह
रहे हैं कि
कहो हुए, तो
बस चले कुछ
लोग खोजने कि
कब हुए, किस
तारीख में
हुए। इसी में
वे समय गंवा
देंगे। इसलिए
हम कहते हैं, हुए ही नहीं,
झंझट छोड़ो।
लेकिन बुद्ध
के भीतर जो
घटा है वह
जरूर घटा है।
किसके भीतर
घटा है यह बात
महत्वपूर्ण
नहीं है। उनका
नाम गौतम था
कि कुछ और था, उनके पिता
यह थे कि वह
थे—इस सब से
कोई प्रयोजन नहीं
है।
बुद्ध
के भीतर कुछ
घटा है। वृक्ष
के तले बैठे हैं
एक सुबह। वे
जैसे सांझ
बैठे थे वैसे
ही नहीं उठे, कुछ
नया आदमी उठा।
वही असली जन्म
है, उसको
ही जन्म कहो।
और उसका तिथि,
दिवस, माह
से, वर्ष
से कोई संबंध
नहीं है। एक
क्षण ऐसा आया
जब विचार शात
हो गये, शून्य
हो गये। चेतना
शुद्ध दर्पण
बनी। ऐसे ही तुम्हारी
चेतना बने, इसकी
प्रक्रिया
में समय लगाओ।
अच्छा यही है
कि तुम ही
बुद्ध हो जाओ।
अच्छा यही है
कि तुम्हारे
भीतर गोरख का
नाद गंजे।
बजाय तुम गोरख
के इतिवृत्त
में जाओ, अच्छा
हो गोरख के
अंतस में जाओ।
इसलिए
इस देश ने ठीक
ही किया कि
व्यर्थ बातों का
विचार नहीं
किया, व्यर्थ
बातों को बीच
में लाये ही
नहीं। जो सार—सार
है उतना कहा।
क्योंकि आदमी
ऐसा उपद्रवी
है, ऐसा
अज्ञानी है कि
जरा—सा असार
हाथ में लग
जाये तो उसे
तो सम्हाल कर
रख लेता है, और सार को
भूल जाता है।
इसलिए असार की
हमने बात नहीं
की है, सार
ही सार की बात
की है, कि
तुम कुछ भी
पकड़ोगे तो सार
ही पकड़ में
आयेगा। तुम्हें
असार मिले ही
न, इसलिए
हमने सारा
असार मिटा
दिया है, पोंछ
डाला है।
हमने
जो प्यारी
कथाएं गढ़ी हैं, वे
जरूरी नहीं है
कि हुई हों।
होने की जरूरत
भी नहीं है; वे प्रतीक
हैं। और
प्रतीक
काव्यात्मक
होते हैं।
इतिहास से
उनका संबंध
नहीं होता, अंतरात्मा
से उनका संबंध
होता है। जैसे
हमने कहा कि
बुद्ध को जब
ज्ञान हुआ तो
बेमौसम फूल
खिल गये। अब
यह कोई इतिहास
नहीं है, बेमौसम
फूल नहीं
खिलते कभी।
हमने लिखा है
कि जब बुद्ध
जंगल से
निकलते थे, अगर किसी
सूखे वृक्ष के
नीचे बैठ जाते
तो उसमें हर
पत्ते आ जाते।
ऐसा कहीं नहीं
होता है। बुद्ध
के ध्यान को, बुद्ध की
समाधि को
देखकर वृक्ष
में हरे पत्ते
आ जाएं, यह
इतिहास नहीं
है। मगर जहां
बुद्ध के चरण
पड़ते हैं, वहां
हरियाली
फैलती है, इतना
सूचक है। वहां
जीवन हरा होता
है। वहां जीवन
में नयी उमंग
आती है, नया
प्रसाद बरसता
है। बुद्ध एक
वर्षा हैं अमृत
की, इस बात
को कहने का यह
काव्यात्मक
ढंग हुआ, इससे
ज्यादा नहीं।
जीसस
को सूली लगी
और सूली के
बाद वे
पुनरुज्जीवित
हुए। अब यह
पुनरुज्जीवित
होना कोई
ऐतिहासिक
घटना नहीं है, यह
पुनरुज्जीवित
होना एक गहन
प्रतीक है, काव्य है।
इतना ही कहा
जा रहा है कि
जीसस जैसे व्यक्ति
की मृत्यु हो
ही नहीं सकती।
मृत्यु तो
अज्ञानियों
की होती है।
जिन्होंने
मान रखा है कि
हम देह हैं, वे मरते
हैं।
जिन्होंने
जान लिया कि
हम देह के
भीतर अदेही
हैं, वे
कैसे मर सकते
हैं?
उनकी
तो सूली से भी
नये जीवन का
ही प्रारंभ होता
है। उनकी तो
सूली भी
सिंहासन है।
उनकी मृत्यु
नहीं होती। वे
तो जीते अमृत
में हैं, मरते
अमृत में हैं।
उनका अमृत
जारी रहता है,
अमृत की
धारा बहती
रहती है... देह
में तो देह
में, देह
में नहीं तो
देह के बाहर।
लेकिन
लोग इनको
ऐतिहासिक
तथ्य सिद्ध
करने की कोशिश
में लग जाते
हैं। और तब
अड़चन हो जाती
है। मैंने
तुमसे कुछ ही
दिन पहले कहा
कि महावीर को
काटा सर्प ने
तो दूध निकला।
अब ऐसे जैन हैं
जो यह सिद्ध
करने की कोशिश
करते हैं कि
यह ऐतिहासिक
तथ्य है कि
दूध निकला। वे
खुद भी नासमझी
करते हैं और
दूसरों को भी
नासमझी करने
का आवाहन देते
हैं। इतना ही
जाहिर है कि
दूध प्रतीक है
प्रेम का। जब
मां के पेट
में बच्चा आता
है तो उसके
प्रेम के
आविर्भाव में
उस बच्चे के
पोषण के लिए
मां के स्तन
दूध से भर जाते
हैं। मां बहने
लगती है बच्चे
के लिए दूध की धारा
में। मां के
दूध में बच्चे
को जीवन मिलने
लगता है।
प्रेम
जीवनदायी है!
बस इतना ही
प्रतीक है इस
कथा में कि
सांप ने भी
काटा महावीर
को तो भी
महावीर के
हृदय में
करुणा ही है, प्रेम
ही है। इसको
कैसे कहें
कविता में!
इसको कविता
में ऐसे कहा
कि काटा तो
महावीर की देह
से खून नहीं
निकला, दूध
निकला।
निकलना था खून,
निकला दूध।
यह तो कविता
है। प्यारी
कविता है, अगर
कविता की तरह
समझो। मगर अगर
जिद मानकर बैठ
जाओ कि यह कोई
वैज्ञानिक
वक्तव्य है तो
तुमने मूढ़ता
कर ली।
हमने
उन सारे
अपूर्व
पुरुषों के
पास कहानियां
गढ़ी हैं। वे
सब कहानियां
बड़ी प्रीतिकर
हैं। उन
कहानियों को
तुम इशारे
समझना।
सही—गलत का संबंध
ही नहीं है।
उनसे कुछ
इंगित...। और
इंगित पकड़ में
आ जाये, कहानियां
पीछे छूट
जायेंगी। तुम
एक यात्रा पर
संलग्न हो
जाओगे।
फिक्र
छोड़ो इसकी कि
गोरख कहां
पैदा हुए, कब
पैदा हुए। यह
काम पंडितों
पर छोड़ दो।
आखिर उनको
बेचारों को भी
कुछ काम चाहिए
न! यह शोधकर्ताओं
पर छोड़ दो, नहीं
तो कौन उनको
पी एच. डी.
देगा। गोरख ने
बड़ी कृपा की, लिखकर नहीं
गये। लिख जाते
तो न मालूम
कितने लोगों
की डाक्टरेट
रह जाती! यह भी
उनकी अनुकंपा है,
कुछ खबर
नहीं दे गये, कहां पैदा
हुए। न मालूम
कितने लोग
संलग्न हैं, इसी काम में
संलग्न हैं।
मूढ़ों को कुछ
तो चाहिए
संलग्न होने
के लिए!
समझदार इन
बातों में न
उलझें। गोरख
का संदेश
पहचानो। गोरख
के सूत्रों को
हृदय में
उतरने दो। हुए
हों गोरख तो ठीक,
न हुए हों
तो चलेगा, सूत्र
महत्वपूर्ण
हैं। गोरख के
होने न होने से
सूत्रों की
महत्ता में
कोई भेद नहीं
पड़ता।
क्या
तुम सोचते हो
कृष्ण हुए हों
तो गीता
ज्यादा
मूल्यवान हो
जायेगी और
कृष्ण न हुए
हों तो गीता
का मूल्य खो
जायेगा? क्या
पागलपन की बात
करते हो? आइंस्टीन
हुए हों तो
सापेक्षवाद
का सिद्धात ज्यादा
मूल्यवान हो
जायेगा? आइंस्टीन
के होने से
सापेक्षवाद
के सिद्धात में
कुछ बल मिलता
है? कोई बल
नहीं मिलता।
आइंस्टीन हुए
हों कि न हुए
हों, सापेक्षवाद
का सिद्धात
अपने—आप में
सबल है। उसकी
भित्ति उसमें
ही है। किसने
उसे जन्म दिया,
यह बात गौण
है।
तुम्हें
पता है किसने
पहली दफा आग
जलाई? वैज्ञानिक
कहते हैं कि
दुनिया का
सबसे बड़ा आविष्कार
है आग का; किसने
सबसे पहले
जलाई, हमें
कुछ पता नहीं।
हो गये होंगे
कोई कम—से—कम पचास
हजार साल या
उससे भी
ज्यादा, जब
किसी आदमी ने
आग जलाई होगी।
उसका नाम तो
किसी को भी
पता नहीं है।
लेकिन उसके
नाम के न होने
से क्या तुम
आग पर रोटी
नहीं सेंक
लेते हो?
क्या जब सर्दी
लगती है तो आग
के पास बैठकर
ताप नहीं लेते
हो? उससे
क्या
लेना—देना है
कि अ था, कि
ब था, कि स
था, काला
था कि गोरा था,
हिंदुस्तान
में घटी बात
कि अफ्रीका
में घटी बात? कहां सबसे
पहले आग जली, किसने जलाई,
क्या भेद
पड़ता है? हम
जानते हैं कि
आग बहुमूल्य
है अपने—आप
में।
ऐसी
ही साधना की
प्रक्रियाएं
हैं—आग हैं, जलती
आग; अगर
हिम्मत हो, छलांग लगा
लो।
मरौ वे
जोगी मरौ मरौ
मरण है मीठा।
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी मरि गोरष
दीठा।।
उसी
आग में तुम भी
कूद जाओ, जिसमें
गोरख कूद गये।
उसी
निर्विचार की
अग्नि में तुम
भी भस्मीभूत
हो जाओ। और
तुम्हारी
भस्मियों से
उठेगा एक नया
रूप, एक
नया आलोक, एक
नया जीवन, जो
शाश्वत है।
दूसरा
प्रश्न:
मैं
सांसारिक
अर्थों में सब
भांति सुखी
हूं लेकिन फिर
भी सुखी नहीं
हूं मेरे दुख
का कारण भी
समझ में आता
नहीं आप
मार्गदर्शन
दें।
सांसारिक
अर्थों में जो
सब भांति सुखी
होता है उसे
ही पहली बार
पता चलता है
कि सुख में
कुछ सार नहीं
है। दुखी को
तो पता ही
नहीं चलता है।
दुखी तो इसी
आशा में जीता
है कि
सांसारिक सुख मिल
जायेंगे तो सब
ठीक हो
जायेगा। दुखी
आदमी की आशा
में बड़ी
जीवंतता होती
है। दुखी आदमी
की आंखों में
आशा की ज्योति
होती है। सिर्फ
सुखी आदमी की
आंखों से आशा
की ज्योति खो
जाती है।
इसलिए मैं
निरंतर कहता
हूं कि सिर्फ
सुखी आदमी, तथाकथित
सांसारिक
अर्थों में
सुखी आदमी ही,
धार्मिक
यात्रा पर
निकल सकता है।
जब
तुम्हारे पास
सब तथाकथित
सुख हैं और
फिर भी सुख
नहीं है, तब एक
बात साफ हो गई
कि इस संसार
में सुख नहीं
हो सकता। बाहर
से जो तुम इकट्ठा
कर सकते थे, कर लिया, तुम
अब एक स्थिति
में हो जहां
सारे भ्रम टूट
गये, जहां
सारी
मृगमरीचिकाओं
के सपने उखड़
गये, तुमने
घूंघट उठाकर
देख लिया, भीतर
कुछ भी नहीं
है, भीतर
कोई भी नहीं
है, भीतर
रिक्तता है।
अड़चन जरूर
होती है।
जब
कोई सांसारिक
अर्थों में सब
भांति सुखी होता
है तो उसको
अड़चन होती है
कि फिर मामला
क्या है? अब
मुझे चाहिए, ऐसा तो कुछ
भी नहीं; सब
मेरे पास
है—धन है, पद
है, प्रतिष्ठा
है, परिवार
है, सब
भांति सुखी
मुझे होना
चाहिए। यही तो
मैं मांगता
था। इन्हीं के
न होने के
कारण अब तक
दुखी था, अब
दुखी क्यों
हूं? अब तो
मुझे दुखी
नहीं होना
चाहिए।
तुम्हारी
भ्रांति
टूटी। तुम जिन
कारणों से सोचते
थे कि दुखी हो, वे
असली कारण
नहीं थे। तुम
जो सोचते थे
कि इतनी—इतनी
चीजें मेरे
पास हो
जायेंगी तो
मैं सुखी हो
जाऊंगा, अब
तुम्हें पता
चला कि वे सब
चीजें हैँ और
सुख नहीं आया।
तो तुम्हारे
सुख के संबंध
का सारा
विश्लेषण गलत
था; कुछ और
चाहिए था
जिससे सुख
मिलता है। कुछ
भीतर जगना
चाहिए, उससे
सुख मिलता है।
सुख
बाहर की किसी
शर्त के पूरे
होने से नहीं
मिलता। सुख
आत्म—जागृति
की छाया है।
सुख तो परमात्मा
को मिलने से
ही मिलता है।
और परमात्मा तुम्हारे
भीतर छिपा
बैठा है, मगर
तुम बाहर दौड़े
चले जाते हो।
तुमने पीठ कर रखी
है, उसकी
तरफ। तुम
परमात्मा को
भी खोजने जाते
हो तो बाहर
जाते हो—काशी,
काबा, कैलाश।
तुम परमात्मा
को भी खोजते
हो मंदिर—मस्जिद,
गुरुद्वारा..।
तुम आंख बंद
कब करोगे? तुम
अपने भीतर कब
झांकोगे? तुम
खोजनेवाले
में कब खोजोगे?
यह
तुम्हारे
भीतर जो चेतना
है, जरा
इससे संबंध
बनाओ, जरा
इसमें जड़ें
फैलाओ। जरा
इससे परिचय
बनाओ। बस इसके
परिचय से ही
सुख पैदा होता
है।
संसार
में न तो सुख
है,
न हो सकता
है; न कभी
हुआ है, न
कभी होगा। सुख
तो केवल तब
होता है जब
हमारा अंतरतम
में छिपे
मालिक से मिलन
होता है।
जब
तुम्हीं
अनजान बनकर रह
गए,
विश्व
की पहचान लेकर
क्या करूं?
जब न
तुमसे स्नेह
के दो कण मिले,
व्यथा
कहने के लिए
दो क्षण मिले;
जब
तुम्हीं ने की
सतत अवहेलना,
विश्व
का सम्मान
लेकर क्या
करूं?
जब
तुम्हीं
अनजान बनकर रह
गए,
विश्व
की पहचान लेकर
क्या करूं?
एक आशा, एक
ही अरमान था,
बस
तुम्हीं पर
हृदय को
अभिमान था,
पर न
जब तुम ही
हमें अपना सके,
व्यर्थ
यह अभिमान
लेकर क्या
करूं?
जब
तुम्हीं
अनजान बनकर रह
गए,
विश्व
की पहचान लेकर
क्या करूं?
दूं
तुम्हें कैसे
जलन अपनी दिखा?
दूं
तुम्हें अपनी
लगन कैसे दिखा?
जो
स्वरित होकर न
कुछ भी कह
सकें,
मैं
भला वे गान
लेकर क्या
करूं?
जब
तुम्हीं
अनजान बनकर रह
गए,
विश्व
की पहचान लेकर
क्या करूं?
शलभ का
था प्रश्न
दीपक से यही,
मीन ने
यह बात जीवन
से कही;
हों
विलग तुम से न
जो फिर भी
मिटे;
मैं
भला वे प्राण
लेकर क्या
करूं?
जब
तुम्हीं
अनजान बनकर रह
गए,
विश्व
की पहचान लेकर
क्या करूं?
अर्चना
निष्प्राण की
कब तक करूं,
कामना
वरदान की कब
तक करूं,
जो बना
युग—युग
पहेली—सा रहे,
मौन वह
भगवान लेकर
क्या करूं?
जब
तुम्हीं
अनजान बनकर
रहे गए,
विश्व
की पहचान लेकर
क्या करूं?
परमात्मा
से पहचान हो, उससे
थोड़ा नाता बने,
नेह—नाता
बने, उससे
थोड़े प्रेम का
सूत्र जुड़े।
कच्चा धागा ही
सही उसके
प्रेम का—और
सुख की अनंत
वर्षा हो जाती
है। सारा संसार
पाकर जो नहीं
मिलता, वह
समाधि का एक
क्षण पाकर मिल
जाता है।
संपदा
भीतर है।
संपदा तुम
लेकर आये हो।
सुख तुम्हारा
स्वभाव है।
सुख को अर्जित
नहीं करना है।
और सुख के लिए
कोई शर्त पूरी
नहीं करनी है; सुख
बेशर्त है, क्योंकि सुख
स्वभाव है।
दुखी होना
विभाव है, सुखी
होना सहज घटना
है।
जैसे
आग गरम है, यह
उसका स्वभाव
है—ऐसे मनुष्य
आनंदित हो, यह उसका
स्वभाव है।
आनंदित
मनुष्य को
देखकर यह मत
सोचना कि कुछ
विशिष्टता हो
गयी। आनंदित मनुष्य
सामान्य
मनुष्य है, सरल मनुष्य
है। दुखी
मनुष्य को
देखकर समझना
कि कुछ गड़बड़
है, कुछ
विशिष्टता
है। दुखी आदमी
असाधारण आदमी
है, क्योंकि
जो नहीं होना
चाहिए वह उसने
करके दिखा
दिया। सुखी
आदमी तो वही
कर रहा है जो
होना चाहिए।
जैसे कोयल
कूके, गीत
गाये; इसको
तुम कुछ
विशिष्टता तो
नहीं कहते। हा,
कोयल एक दिन
कौवे की तरह
कांव—कांव
करने लगे तो
अड़चन होगी।
मनुष्य
का सुख एकदम
सहज बात है।
जैसे वृक्ष हरे
होते हैं और
फूलों में गंध
होती है और
पक्षी पंख
फैलाकर आकाश
में उड़ते हैं, ऐसा
ही सुख मनुष्य
का स्वभाव है।
इस स्वभाव को
हमने
सच्चिदानंद
कहा है। इसके
तीन लक्षण
हैं—सत, चित,
आनंद। सत का
अर्थ होता है.
जो है और कभी
मिटेगा नहीं,
जो शाश्वत
है। चित का
अर्थ होता है.
चैतन्य, जागरण,
ध्यान, समाधि।
और आनंद
पराकाष्ठा
है। जो है और
ध्यानमग्न है,
उसमें आनंद
की सुवास उठती
है।
सत
बनो,
ताकि चित बन
सको। और जिस
दिन तुम चित
बने, उसी
दिन आनंद की सुवास
उठेगी। सत्य
के वृक्ष पर
चित के फूल
लगते हैं, आनंद
की सुगंध
बिखरती है।
क्या
तुम्हारे पास है,
क्या
तुम्हारे पास
नहीं है—इससे
सुख का कोई लेना—देना
नहीं है। क्या
तुम हो, इससे
सुख का संबंध
है। वस्तुएं
कितनी ही इकट्ठी
कर लो, उनसे
शायद
तुम्हारी
चिंताएं बढ़ जाएं,
परेशानियां
बढ़ जाएं, मगर
सुख न बढ़ेगा।
उनसे दुख बढ़
सकता है जरूर,
मगर सुख के
बढ़ने का कोई
संबंध नहीं
है।
और
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
तुम चीजें छोड़
दो,
कि घर से
भाग जाओ, कि
बाजार का
त्याग कर दो।
नहीं, मेरी
बात गलत मत
समझ लेना। जो
है ठीक है; न
छोड़कर भागने से
कुछ होनेवाला
है, न
पकड़ने से कुछ
होनेवाला है।
तुम जहा हो
वहीं रहो, मगर
तलाश भीतर
शुरू करो।
बहुत हो चुकी
बाहर की खोज, अब भीतर
जाओ। अब उससे
पहचान हो, जिससे
पहचान हो जाती
है तो सब मिल
जाता है, सब
आकांक्षाएं
तत्क्षण पूरी
हो जाती हैं।
तीसरा
प्रश्न:
जीवन
इतना प्यारा
क्यों है? हरेक
वस्तु
व्यक्ति
सृष्टि
व्यक्त—
अव्यक्त भी।
रंग नाद गति
रुचि कलह भी!
भगवान इसका
स्मरण करने से
भी हृदय भर
आता है आंसू
बहते हैं सांस
खिंच जाती है?
बात बंद हो
जाती है रुदन
होता है कुछ
बता नहीं सकती
भगवन! आंख बंद
होती है और
बैठ जाती हूं।
आनंद
भारती! जीवन
प्यारा ही हो
सकता है, क्योंकि
जीवन
परमात्मा है!
जीवन उस परम
प्यारे की
अभिव्यक्ति
है। वही तो
प्रगट हुआ है
अनंत— अनंत
रूपों में।
तुमने मंदिर
बनाकर उसे
झुठला दिया, क्योंकि
उसका मंदिर तो
सब तरफ है।
जहां झुक गए
वहीं उसका
मंदिर। जहां
आंख खोली वहीं
उसकी छवि।
जहां सुनने को
राजी हुए वहीं
उसका नाद। जो
देखो, जो
सुनो, जो
चखो, सब
वही है।
इसलिए
तो उपनिषद कह
सके. अन्न
ब्रह्म। ऐसा
वक्तव्य
दुनिया के
किसी शास्त्र
में नहीं है।
और जब पहली
दफा उपनिषदों
के अनुवाद
किये गये और जब
अंग्रेजी में
लिखा गया फुड
इज गॉड, लोग
बड़े हैरान
हुए— भोजन और
भगवान! अब
अनुवाद भी
क्या करो? थोडे
चौंके कि यह
किस तरह का
वक्तव्य है!
समझे भी नहीं।
सीधा—सीधा
शाब्दिक
अनुवाद कर
दिया—फुड इज
गॉड, अन्न
ब्रह्म। चूक
हो गयी। इतने
महत वचनों के
सीधे—सीधे
अनुवाद नहीं
होते। इतने
महत वचनों के
तो केवल परोक्ष
अनुवाद होते
हैं। ऐसे
वचनों को
समझाया जा
सकता है, सीधा—सीधा
अनुवादित
नहीं किया जा
सकता। यह तो बड़ा
महत्वपूर्ण
वचन है।
उपनिषद
यह कह रहे हैं
कि स्वाद भी
लोगे तो उसी का, और
तो कोई है
नहीं।
लेनेवाला भी
वही है; वह
जो भीतर बैठा
स्वाद ले रहा
है वह भी वही
है; और
जिसका स्वाद
ले रहा है वह
भी वही है।
तुमने तोड़ा एक
वृक्ष से
नासपाती का फल;
नासपाती
में भी वही है,
तुम में भी
वही है, तुम
दोनों भिन्न
नहीं हो। वह
एक ढंग था
उसके प्रगट
होने का, तुम
दूसरे ढंग हो
उसके प्रगट
होने के।
परमात्मा
अनंत रूपों
में
अभिव्यंजित
हुआ है। ये
सारे गीत उसके
हैं, गायक
एक है। प्यारा
तो होगा ही
जगत और जीवन।
लेकिन
मैं समझता हूं
आनंद भारती की
क्या अड़चन है।
हमें सदियों
से सिखाया गया
है कि जीवन
पाप है। हमें
समझाया गया है
कि जीवन तो
हमारे पिछले
जन्मों के
पापों का फल
है,
प्यारा
कैसे हो सकता
है? जिन्होंने
भी जीवन को
पाप कहा है, उन्होंने
परमात्मा को
पाप कह दिया!
नहीं समझे वे
उपनिषदों के
वचन।
जिन्होंने
जीवन को पापों
का फल कह दिया,
उन्होंने
परमात्मा के
प्रसाद का
तिरस्कार कर
दिया।
इसलिए
जो मेरे पास
आये हैं, जो
मेरे पास
धीरे— धीरे
ध्यान की
सीढ़ियां उतर
रहे हैं, उन्हें
तो आज नहीं कल
यह अड़चन आयेगी,
जैसा आनंद
भारती को आ
गयी। एक दिन
ऐसा होगा अचानक
सुबह जागकर
तुम पाओगे कि
सारा जगत
अपूर्व रूप से
प्रीतिकर है,
सारा जीवन
उसके नाद से
भरा है। उसी
की वीणा बज रही
है। वही गाता
है पक्षियों
में। वही बहता
है सर—सरिताओं
में। वही सागर
में उतुंग
लहरें उठाता
है। वही चांद—तारों
में झांकता
है। जुगनू से
लेकर सूर्यों
तक उसी का
प्रकाश है।
पापियों में
भी वही बैठा
है, उतना
ही जितना
पुण्यात्माओं
में, रत्तीभर
कम नहीं।
रावण
में तुम सोचते
हो राम कम हैं? उतने
ही राम रावण
में हैं जितने
राम में, जरा
भी भेद— भाव
नहीं है; भेद—
भाव हो ही
नहीं सकता। यह
दूसरी बात है
कि रामलीला के
लिए दो
हिस्सों में
बंटना जरूरी
है। तुम सोचते
हो कि रावण के
बिना रामलीला
हो सकेगी? कैसे
होगी; सहारा
ही गिर
जायेगा। रावण
के बिना राम
हो सकेंगे, तुम सोचते
हो? असंभव
है। जरा लिखकर
देखो कोई कथा
राम की; रावण
को छोड़ दो, सिर्फ
राम ही राम की
कथा लिखो। तुम
खुद ही पाओगे,
बिलकुल
बेस्वाद हो
गयी। कुछ रस न
रहा, कुछ
अर्थ न रहा।
खड़े हैं
धनुषबाण लिए,
खुद भी थक
जायेंगे, तुम
भी थक जाओगे।
बैठी हैं सीता
मइया और बैठे हैं
रामचंद्र जी।
न कोई चोरी ले
जाता, न
कोई घटना
घटती।
जरा
एक—आध दफे
किसी गांव में
रामलीला तो
करके देखो
बिना रावण के।
पहले दिन लोग
आयेंगे, फिर
दूसरे दिन लोग
आना बंद हो
जायेंगे कि
सार ही क्या
है? सजा है
दरबार, बैठे
हैं रामचंद्र
जी। लोग ही
पूछने लगेंगे
खड़े होकर कि
अब रामलीला कब
शुरू होगी, यह क्या हो
रहा है?
जीवन
की
अभिव्यक्ति
द्वंद्व में
है। जीवन द्वंद्वात्मक
है,
डायलेक्टिकल
है। इसलिए
यहां प्रकाश
है और अंधेरा
है, जन्म
है और मृत्यु
है, अच्छा
है और बुरा है,
सफेद है और
काला है, सुंदर
है और कुरूप
है, राम है
और रावण है।
जो जानते हैं
वे कहेंगे :
दोनों में
उसका ही खेल
है। और जो ऐसा
जान ले, फिर
उसे अड़चन नहीं
रह जाती; फिर
जीवन बड़ा
प्यारा
लगेगा। फिर तो
जीवन में तुम्हें
सब जगह
सौंदर्य का
अनुभव होगा, क्योंकि
उसकी छाप
पाओगे।
जगह—जगह उसकी
पगध्वनि
सुनाई
पड़ेगी।
दिल है
फिरदौस की
बहारों में
फिक्र—ए—तूबा
के शाख—सारो
में
हाय
मदहोश रात का
अफसूं
मैं
जमीं पर हूं
रूह तारों में
जरा
समझ आयेगी तो
तुम जमीन पर न
रह जाओगे; जमीन
पर भी रहोगे
और तुम्हारी
रूह तारों में
होगी। तुम
फैलने लगोगे।
तुम्हारी
आत्मा विराट
होने लगेगी।
तुममें कमल
खिलने
लगेंगे।
तेरे
गीतों की लै
अरे तोबा!
यह तरब, यह
निशात और यह
लोच।
क्यों
न दुनिया पिघल
के बह जाये
इक जरा
तू ही अपने
दिल में सोच।
ऐ कि
तू रागिनी में
है मदहोश
ऐ कि
तू गुम है
मस्त तानों म
थम, कि
गीत अपने
बाजुओं पे
मुझे
लिये
जाता है
आसमानों में!
जरा
तुम खुलों।
जरा तुम जागकर
देखो। जरा
अपने तथाकथित
साधु
संन्यासियों
से दी गयी
शिक्षा को हटाकर
रखो एक
किनारे। फिर
से आंख खोलो।
फिर से पहचान
लो प्रकृति
की। और तुम
चकित हो
जाओगे।
ऐ कि
तू रागिनी में
है मदहोश
ऐ कि
तू गुम है
मस्त तानों
में थम,
कि गीत
अपने बाजुओं
पे मुझे
लिये
जाता है
आसमानों में!
तुम्हें
सब तरफ से
उसका गीत घेर
लेगा, कि तुम
उड़ने लगोगे
आसमानों में,
कि तुम डरने
लगोगे, कि
तुम घबड़ा
जाओगे कि यह
क्या हुआ जाता
है! इतना
सौंदर्य है!
और इतना
अनायास बरस
उठे, जैसे
बूंद में आ
जाये सागर!
आनंद
भारती ठीक ही
पूछती है।
मस्त हो रही
है,
आनंद—मग्न
हो रही है।
इतनी मस्त हो
रही है कि पहले
आगे बैठती थी,
अब उसको
पीछे बिठाना
पड़ता है।
क्योंकि आगे
बैठे —बैठे वह
मस्त होने
लगती थी, इसलिए
दूसरों को
बाधा शुरू हो
जाती थी।
हंसने लगती, बेवजह! वजह
से हंसो तो
ठीक है। कि
मैंने कोई
कहानी कही, कि कोई
चुटकुला कहा
कि तुम हंसों
तो ठीक। मगर आनंद
भारती इतनी
देर रुकती ही
न कि मैं
चुटकुला कहूं
पहले ही हंस
देती। मानकर
ही चलती कि कहूंगा
ही, कहता
ही होऊंगा, अब क्या
रुकना! तो
बेचारी को
पीछे बैठना पड़
रहा है। एक
मस्ती आ रही
है, एक
आनंद— भाव आ रहा
है। आसमानों
में उड़ी जा
रही है।
तो
लगेगा, जीवन
इतना प्यारा
क्यों है? उत्तर
मैं क्या दूं?
जीवन
प्यारा है।
कुछ और किया
नहीं जा सकता।
जीवन सदा से
प्यारा है।
सिर्फ
तुम्हारी
आंखों पर परदे
थे; परदे
खिसकने शुरू
हो गये।
तुम्हारी आंख
पर सिद्धांतों
का जाल था, जाल
टूटना शुरू हो
गया, जाली
टूटनी शुरू हो
गयी।
और
मेरा काम यहां
क्या
है—तुम्हारी
आंख की धूल
थोड़ी साफ करूं; तुम्हारी
आंख से थोड़ी
धूल पोछं ताकि
आंख दर्पण बन
जाये और चीजों
का प्रतिबिंब
वैसा बनने लगे
जैसी चीजें
हैं।
तुम्हारे
नाम जैसी, छलकते
जाम जैसी,
मुहब्बत
सी नशीली, शरद
की चांदनी
है।।
हृदय
को मोहती है, प्रणय
संगीत जैसी,
नयन को
सोहती है, सपन
के मीत जैसी,
तुम्हारे
रूप जैसी, वसंती
धूप जैसी,
मधुस्मृति
सी रसीली, शरद
की चांदनी
है।।
चांदनी
खिल रही है, तुम्हारे
हास जैसी,
उमंगें
भर रही है, मिलन
की आस जैसी,
प्रणय
की बांह जैसी, अलक
की छाह जैसी,
प्रिये!
तुम सी लजीली, शरद
की चांदनी
है।।
हुई है
क्या न जाने, अनोखी
बात जैसी,
भरे
पुलकन बदन में, प्रथम
मधुरात जैसी,
हंसी
दिल खोल पूनम, गया
अब हार संयम,
वचन से
भी हठीली, शरद
की चांदनी
है।।
तुम्हारे
नाम जैसी, छलकते
जाम जैसी,
मुहब्बत
सी नशीली, शरद
की चांदनी
है।।
अस्तित्व
तो बड़े ही
प्रीतिकर
सौंदर्य से
भरा है। यहां
तो चांदनी ही
चांदनी है।
यहां तो चांद
ही चांद है।
यहां सब शीतल
है,
सिर्फ तुम
उत्तप्त न रह
जाओ।
तुम्हारा ताप
जरा कम हो।
ध्यान
और क्या है? तुम्हारे
ताप को कम
करने की
प्रक्रिया है,
तुम्हारा
तापमान थोड़ा
नीचे गिराने
का उपाय है।
लोग बड़े
उत्तप्त हैं।
लोग बड़े
ज्वरग्रस्त हैं।
लोग
विक्षिप्त
हैं।
हजार—हजार
वासनाओं ने
उन्हें
उत्तप्त किया
है। उनके
चित्त में बड़ी
आपाधापी है; शांति का
क्षण ही नहीं
आता, विश्राम
की घड़ी ही
नहीं आती।
रुके पांव तो
मिले गांव!
मगर पैर रुकते
नहीं और गांव
मिलता नहीं।
रुको तो मंजिल
अभी है, यहीं
है। मगर तुम
हो कि दौड़े
चले जाते हो, तुम हो कि
भागे चले जाते
हो। तुम सोचते
हो कि जितनी
तेजी से
दौडूंगा, उतनी
जल्दी
पहुंचूंगा।
तुम जितनी
तेजी से
दौड़ोगे, उतनी
दूर निकल
जाओगे।
क्योंकि
मंजिल वहां है
जहां तुम हो, मंजिल कहीं
और नहीं है।
परमात्मा
यहां है, यही
मेरी उदघोषणा
है। परमात्मा
अभी है, यही
मेरी देशना
है। अभी और
यहीं! कल पर मत
टालना। और तब
अचानक
तुम्हारी आंख
से परदा उठ
जाएगा। कल का
परदा तुम्हारी
आंख पर पड़ा
है। तुम कहते
हो कल होगा, कल होगा। और
इस जिंदगी के
कल चुक जाते
हैं तो तुम
कहते हो अगली
जिंदगी में
होगा, फिर
कल! और अगर
अगली
जिंदगियों के
कल भी चुक जाते
हैं तो तुम
कहते हो परलोक
में होगा। और
आगे का कल, मगर
तुम कल पर
टाले जाते हो।
तुमने कल पर
परमात्मा को
टालकर
परमात्मा को
झूठा कर दिया।
परमात्मा
अभी है, यहीं,
इसी क्षण; तुम्हारी
आंख से जरा
घूंघट सरके।
हटाओ बुर्के,
हटाओ ये
घूंघट! और
घूंघट हैं
क्या? व्यर्थ
के विचार, जो
सदियों—सदियों
में तुम्हारे
सिर पर थोप दिये
गये हैं।
तुम्हारी
खोपड़ी में
शास्त्र भरे
पड़े हैं, इसलिए
सत्य प्रगट
नहीं हो पाता।
गोरख, देखते
हो, बार—बार
कहते हैं : हे
पंडित, पढ़
कर तो खूब देख
लिया, अब
रह कर देख! हम
रहता का साथी,
कि हम तो
उनके
संगी—साथी हैं
जो रह रहे
हैं।
जीयो
परमात्मा को, प्रार्थनाएं
बहुत हो
चुकीं।
परमात्मा को
खाओ, परमात्मा
को पीयो, परमात्मा
को ओढो, परमात्मा
को पहनो, परमात्मा
में जागो, परमात्मा
में सीओ—जीयो
परमात्मा को!
हो चुकीं प्रार्थनाएं
बहुत, पूजाएं
बहुत; अर्चन,
यज्ञ, हवन
बहुत हो चुके;
उनसे कुछ भी
नहीं हुआ।
जीयो। अन्न
ब्रह्म! स्वाद
लो। भोजन भी
करो तो याद
रखना—वही है!
किसी से बात
करो तो याद
रखना—वही है!
धीरे— धीरे
पहचान सघन
होगी। धीरे—
धीरे प्राण
उसके सौंदर्य
से अभिभूत
होंगे। वह
प्यारा दिखाई
पड़ेगा।
वेणी
में तारक — फूल
गूंथ,
निशि
ने मेरा
शृंगार किया;
राका —
शशि ने बन शीश
फूल,
छवि का
मोहक संसार
दिया;
उषा
उनकी पद—लाली
से,
हंस
मेरी मांग
संवार गई!
मैं तो
उन पर बलिहार
गई!
बिन
मांगे
प्यार—दुलार
दिया,
सम्मान
और सत्कार
दिया;
रह गई
मुक्ति
करबद्ध खड़ी,
मैंने
बंधन स्वीकार
किया;
वे
हार—हार कर
जीत गए,
मैं
जीत—जीतकर हार
गई!
मैं तो
उन पर बलिहार
गई!
उनकी
छाया में पली' सदा,
उनके
पीछे ही चली
सदा;
उनके
ही जीवन—मंदिर
में,
मैं
मोम—दीप—सी
जली सदा;
मैं
उनको पा जग
भूल गई,
अपने
को स्वयं
बिसार गई!
मैं तो
उन पर बलिहार
गई!
कब
चाहा
प्यार—दुलार
मिले, फूलों
का मृदु गलहार
मिले; पूजा—
अर्चन ही
ध्येय रहा, बस पूजा का
अधिकार मिले;
उनके श्री
चरणों पर
हंसकर, मैं
तन—मन सब—कुछ
वार गई मैं तो
उन पर बलिहार
गई।
कहा
खोजने जा रहे
हो?
बलिहार होना
है तो इसी
क्षण हो जाओ, क्योंकि वह मौजूद
है।
उनके
श्री चरणों पर
हंसकर,
मैं
तन—मन सब—कुछ
वार गई
मैं तो
उन पर बलिहार
गई!
मैं
उनको पा जग
भूल गई
अपने
को स्वयं
बिसार गई!
मैं तो
उन पर बलिहार
गई!
वे
हार—हारकर जीत
गए
मैं
जीत—जीतकर हार
गई!
मैं तो
उन पर बलिहार
गई!
उषा
उनकी पद—लाली
से
हंस
मेरी मांग
संवार गई!
मैं तो
उन पर बलिहार
गई!
परमात्मा
कोई व्यक्ति
नहीं है जिससे
तुम्हारा कभी
मिलन होगा।
परमात्मा इसी
अस्तित्व का
दूसरा नाम है।
मिलन हो रहा
है,
लेकिन
तुम्हारी
भ्रांत धारणा
कि परमात्मा कोई
व्यक्ति है, कि मिलेगा
कहीं राम के
रूप में, कि
मिलेगा कहीं
कृष्ण के रूप
में, कि
क्राइस्ट के
रूप में, कि
बुद्ध के रूप
में, कि
महावीर के रूप
में। इसी से
तुम भटके हो, इसीलिए
मिलना नहीं हो
पा रहा है।
तुम्हारी धारणा
अड़चन बन रही
है।
परमात्मा
सामने खड़ा है, लेकिन
तुम कहते हो
जब तक
धनुष—बाण हाथ
न लोगे... तब लगि
झुके न माथ।
माथा हमारा
झुकनेवाला
नहीं। पहले
धनुष—बाण लो
हाथ।
तुम्हारी
शर्तें हैं।
तुम्हारे
छोटे—छोटे लोगों
की शर्तें तो
ठीक हैं; यह
तुलसीदास का
वचन है।
तुलसीदास
को ले गये कुछ
मित्र कृष्ण
के मंदिर में।
सब तो झुके, तुलसीदास
न झुके।
उन्होंने कहा
मेरा माथा नहीं
झुकेगा! मैं
तो बस एक को ही
जानता
हूं—धनुष—बाण
हाथ में जो लेता
है। अब उधर
कृष्ण खड़े हैं
बांसुरी
बजाते, मोर—मुकुट
बांधे। कृष्ण
नहीं जंचते
तुलसीदास को।
कैसा
संकीर्ण
चित्त है
हमारे
तथाकथित
महात्माओं का
भी!
रामचंद्रजी
को बांसुरी न
बजाने दोगे? धनुष—बाण
ही लिये रहें
चौबीस घंटे? आदमियों को
भी छुट्टी
मिलती है।
ओवरटाइम भी
कभी खतम हो
जाता है।
लेकिन वे कहते
हैं जब तक धनुष—बाण
हाथ न लोगे, मैं नहीं
झूकूंगा। मैं
तो सिर्फ एक
के सामने झुकता
हूं—धनुष—बाण
वाले के।
यह
जरा खयाल करना, यह
आदमी झुकना
जानता ही
नहीं। यह तो
कह रहा है कि
झुकूंगा भी तब
जब मेरी शर्त
पूरी हो। यह
झुकना भी
सशर्त है। इस
झुकने में भी
अहंकार है। यह
कहता है, मेरी
शर्त पूरी करो
तो मैं झुकूं।
यह सौदा है साफ।
अगर झुकवाना
हो मुझे, अगर
रस हो तुम्हें
कि मैं झुकूं
तो मेरी शर्त पूरी
करो। मैं तो
अपनी धारणा के
सामने झुकूंगा।
यह अहंकार है।
तुम कैसे हो, मुझे कुछ
लेना—देना
नहीं है। अभी
तुम बांसुरी
बजा रहे हो, यह
मोर—मुकुट
बांधे खड़े हो,
खड़े रहो। यह
मेरी मान्यता
नहीं, मैं
तो अपनी
मान्यता के
सामने
झुकूंगा। ले
लो धनुष—बाण
हाथ, तो
मैं झुक जाऊं।
यही
अड़चन है। अब
ये बेचारे
वृक्ष कैसे
धनुष—बाण हाथ
लें?
यह सूरज
कैसे धनुष—बाण
हाथ ले? ये
चांद—तारे
कैसे धनुष—बाण
हाथ लें? कठिनाई
है। और
परमात्मा खड़ा
है सूरज की
तरह द्वार पर
आकर, मगर
तुम न झुकोगे।
बाबा
तुलसीदास
नहीं झुके तो
तुम कैसे
झुकोगे!
धनुष—बाण लो
हाथ, फिर
झुकूंगा।
अस्तित्व
धनुष—बाण हाथ
नहीं ले सकता
और न बांसुरी
हाथ ले सकता
है। अस्तित्व
कोई व्यक्ति
थोड़े ही है।
लेकिन हमने
व्यक्ति की धारणा
बना रखी है कि
परमात्मा कोई
व्यक्ति है। बस
भटकते रहो।
तुम्हें कभी
परमात्मा
नहीं मिलेगा।
और अगर कभी
मिल जाये
धनुष—बाण हाथ
लिये, तो समझ
रखना कि यह
तुम्हारे मन
की भ्रांति है,
तुम्हारी
कल्पना का जाल
है, यह
तुम्हारा
सपना। यह
तुमने इतने
दिन तक सपना
देखा है कि अब
तुम खुली आंख
भी देखने लगे
हो। यह
दिवास्वप्न
है। यह एक
विभ्रांति
है।
यह
कोई परमात्मा
नहीं है जो
तुम्हारे
भीतर आंख जब
तुम बंद करते
हो,
धनुष—बाण
लेकर खड़ा हो
जाता है, कि
बांसुरी
बजाता है, कि
सूली पर लटका
हुआ जीसस..। यह
तो तुम्हारी
मान्यता है।
और तुमने इस
मान्यता को
बचपन से इतना
दोहराया है, इतना
दोहराया है, इतना
दोहराया है कि
दोहरा—दोहरा
कर तुमने अपने
को
आत्म—सम्मोहित
कर लिया है।
अब तुम्हें दिखाई
पड़ रहा है। यह
तुम कोई भी
चीज इस तरह
देख सकते हो।
जरा दोहराये
चले जाओ, दोहराये
चले जाओ, जिद
किये चले जाओ,
कोई भी चीज
तुम्हें ऐसी
ही दिखाई पड़नी
शुरू हो
जायेगी। तुम
थोड़े प्रयोग
करके देखो।
नागार्जुन
के पास एक
युवक गया। और
उसने कहा कि
मुझे
परमात्मा का
अनुभव होना
शुरू हो गया
है। उनकी छवि
सामने खड़ी हो
जाती है। आंख
बंद करता हूं
मंद—मंद स्मित
परमात्मा
सामने खड़े, बड़ा
रस आता है।
नागार्जुन ने
कहा : तुम एक
काम करो।
नागार्जुन एक
फक्कड़ साधु था,
अदभुत साधु
था; जैसा
गोरख, ऐसा
ही आदमी। उसने
कहा, तू एक
काम कर, फिर
पीछे बात
करेंगे इस
अनुभव की। तू
सामने यह जो
छोटी—सी गुफा
है इसके भीतर
बैठ जा, और तीन
दिन तक यही
सोच कि मैं
आदमी नहीं हूं
भैंस हूं।
उसने
कहा : क्या
मामला, क्यों
सोचूं? नागार्जुन
ने कहा कि अगर
मुझसे कुछ
संबंध रखना है
और कुछ समझना
है तो यह करना
पड़ेगा, एक
छोटा—सा
प्रयोग है, इसके बाद
फिर रहस्य
खोलूंगा। तीन
दिन वह आदमी बैठा
रहा; जिद्दी
आदमी था। जो
भगवान की छवि
तक को खींच
लाया था, भैंस
में क्या रखा
है? लग गया
जोर से, तीन
दिन न सोया, न खाया, न
पीया!
भूखा—प्यासा,
थका—मादा
रटता ही रहा
एक बात कि मैं
भैंस हूं। एक
दिन, दो
दिन, दूसरे
दिन वहां से, भीतर से
भैंस की आवाज
सुनाई पड़ने
लगी। बाहर में
गुफा से लोग
झांककर देखने
लगे कि मामला
क्या है पू था तो
आदमी ही, मगर
भैंस की आवाज
निकलने लगी, रंभाने लगा।
तीसरे दिन जब
आवाज बहुत हो
गयी और
नागार्जुन को
बहुत
विम्न—बाधा
पड़ने लगी उसकी
आवाज से, तो
नागार्जुन
उठा अपनी गुफा
से, गया और
कहा कि मित्र
अब बाहर आ
जाओ। वह बाहर आने
की कोशिश किया,
लेकिन बाहर
निकल न पाये।
नागार्जुन
ने पूछा, बात
क्या है? उसने
कहा, निकलूं
कैसे, मेरे
सींग.. दरवाजा
छोटा है।
नागार्जुन ने
उसे हिलाया और
कहा : आंख खोल
नासमझ! यह
मैंने तुझसे इसलिए
करने को कहा
कि मैं समझ
गया तुझे
देखकर कि तू
जिसको
परमात्मा समझ
रहा है यह
तेरा
आत्म—सम्मोहन
है। अब देख
तूने अपने को
भैंस समझ
लिया। तीन दिन
में भैंस हो गया।
हुआ कुछ भी
नहीं है, तू
वैसा ही का
वैसा आदमी है;
दरवाजा
वही। जैसा तू
भीतर आया था
वैसा ही का वैसा
है। निकल
बाहर!
आंख
खोली, थोड़ा
चौंका। धक्का
मारा उसको तो
बाहर निकल आया।
लेकिन अभी
उसके सीग
अटकने लगे थे!
तुमने
देखा होगा अगर
किसी
सम्मोहित
करने वाले को
कभी मंच पर, किसी
जादूगर को, तो वह
सम्मोहित कर
देता है लोगों
को। सिर्फ उनको
भाव बिठा देता
है मन में। बस
जो भाव बिठा
देता है, वही
वे करने लगते
हैं, वैसा
ही व्यवहार
करने लगते
हैं।
जिसको
तुमने धर्म के
नाम से जाना
है वह आत्म—सम्मोहन
से ज्यादा
नहीं है।
वास्तविक
धर्म समस्त
सम्मोहन से
मुक्त होने का
नाम है। और तब
परमात्मा
व्यक्ति नहीं
है,
तब
परमात्मा
समष्टि है। तब
परमात्मा इस
सारे
अस्तित्व का
जोड़ मात्र है।
और तब अदभुत
रसधार बहती
है। क्योंकि
जहां जाओ उसी
से मिलना हो
जाता. है। फिर
जगत, फिर
जीवन बहुत
प्यारा है! और
जब जीवन ऐसा
प्यारा है तभी
समझना कि धर्म
का तुम्हारे
जीवन में
आविर्भाव हुआ,
सूत्रपात
हुआ, धर्म
की पहली बूंद
पड़ी।
आनंद
भारती! शुभ हो
रहा है। इसको
चिंता मत बनाना, संदेह
मत करना, प्रश्न
मत
उठाना—इसमें
डूबना, और
गहरे डूबना!
परमात्मा
सौंदर्य है, परम सौंदर्य
है। जहां
सौंदर्य
दिखाई पड़े, समझना उसी
की पदचाप
सुनाई पड़ी।
परमात्मा संगीत
है, परम
संगीत है।
जहां नाद का
अनुभव हो, जानना
वही
गुनगुनाया।
परमात्मा
प्रकाश है, फिर चाहे
दीये का हो और
चाहे
चांद—तारों
का। जहां
प्रकाश दिखाई
पड़े उसी को
पहचानना।
परमात्मा
चैतन्य है, फिर चाहे
तुम्हारे
भीतर हो, चाहे
तुम्हारे
बच्चे के, चाहे
तुम्हारे
पड़ोसी के।
परमात्मा
जीवन है, फिर
तुम्हारा
जीवन हो कि
पक्षी का, कि
पशु का, कि
पौधे का।
परमात्मा
को उसकी अनंत
भाव— भंगिमाओं
में पहचानो।
कितना विराट
मंदिर उसने दिया
है,
जिसका
चंदोवा आकाश
है! कितना
विराट मंदिर
उसने दिया है,
जहां रोज
रात दीवाली
है! कितने
दीये जलाता
है! वैज्ञानिक
गिनती नहीं कर
पाये हैं अभी
तक। तुम खाली
आंख से जो
गिनती कर सकते
हो तारों की
वह तीन हजार
से ज्यादा
नहीं होती।
वैज्ञानिक जो
गिनती करते
हैं, वे थक
गये गिनती
करते—करते।
चार अरब तारों
की गिनती हो
चुकी। मगर यह
सिर्फ शुरुआत
है। अभी तारे
और हैं, अभी
और हैं। जितना
वैज्ञानिक
गिनती करते
जाते हैं, लगता
है और आगे, और
आगे..! कोई अंत
नहीं मालूम
होता। रोज रात
दीवाली होती
है और कैसे
अंधे लोग हैं,
कोई देखता
ही नहीं
दीवाली को!
रोज सुबह उसकी
होली होती है,
कितनी
गुलाल उड़ती है,
कितने फूल
खिलते हैं, कितनी सुगंध
छूटती है, कितना
इत्र बिखेरा
जाता है; मगर
लोग अंधे हैं।
रोज सुबह उसकी
शहनाई बजती है
कितने—कितने
कंठों से! मगर
लोग बहरे हैं।
जीसस
ने बार—बार
कहा है. अगर
आंख हों तो
देख लो, अगर
कान हों तो
सुन लो। क्या
तुम सोचते हो
जीसस बहरों और
अंधों के किसी
आश्रम में बोल
रहे थे? जीसस
तुम्हीं जैसे
लोगों से बोल
रहे थे, जिनकी
आंख भी थी, कान
भी थे; लेकिन
न तो आंखें
देखती हैं और
न कान सुनते हैं।
आंखें बड़ी
सीमित हो गयी
हैं, बड़ा
क्षुद्र
देखती हैं।
कान भी बहुत
सीमित हो गये
हैं, बड़ा
क्षुद्र
सुनते हैं।
मैं
तुम्हें
सिखाता हूं
संवेदनशीलता।
तुम्हारी
प्रत्येक
इंद्रिय गहन
रूप से
संवेदनशील हो
जाये।
तुम्हारी
प्रत्येक
इंद्रिय अपनी परिपूर्णता
से संवेदनशील हो
जाये।
तुम्हारी
प्रत्येक
इंद्रिय ऐसी
जल उठे जैसे
मशाल जले
दोनों ओर से
एक साथ। और तब
सारे अनुभव
उसके ही अनुभव
हैं।
जीवन
निश्चित ही
प्यारा है!
चौथा
प्रश्न:
जीवन
के सुख— दुखों
को हम कैसे
समभाव से
स्वीकार करें?
वही
देता सुख, वही
देता दुख; देनेवाला
मालिक एक है।
सब उससे आता
है। समभाव से
स्वीकार कर लो
तो यह सत्य
तुम्हें
दिखाई पड़ जाये
कि सब उससे
आता है। उसके
सिवाय कोई है
ही नहीं।
फिर
दुख की भी
अपनी महिमा
है। दुख
व्यर्थ नहीं
है। दुख
मांजता है; दुख
निखारता है; दुख जगाता
है, दुख
गहराई देता
है। दुख ही
तुम्हें इस
योग्य बनाता
है कि सुख हो
सके। इसलिए
दुख को भी
शत्रु मत मान
लेना। जिसने
दुख को शत्रु
मान लिया वह
सुख से भी
वंचित रह
जायेगा। दुख
को उसकी सीढ़ी मानना,
उसके मंदिर
की सीढ़ी! ही, चढ़ने में
कठिनाई होती
है, माना; थकान भी आती
है, श्वास
भी चढ़ जाती, पसीना भी
आता है, माना।
मगर उसके
मंदिर की सीढ़ी
है; उसका
मंदिर बहुत
ऊंचा है। बहुत
सीढ़ियां हैं उसके
मंदिर की।
उसका मंदिर
गौरीशंकर का
शिखर है! चढ़ने
में कठिनाई है,
जरूर है, मगर जितनी
कठिनाई चढने
में है, उतना
ही पहुंचने का
आनंद है। और
उसके मंदिर तक
पहुंचने के
लिए कोई
हेलिकाप्टर नहीं
है। और अच्छा
है कि कोई
हेलिकाप्टर
नहीं है, नहीं
तो तुम उसके
मंदिर में भी
चढ़कर पहुंच
जाते और
तुम्हें कुछ
आनंद का अनुभव
भी न होता।
तुमने
इस बात को
खयाल किया है, जिस
चीज को पाने
में जितना
कष्ट उठाना
पड़ता है, उसको
पाकर उतना ही
आनंद अनुभव
होता है—कष्ट
के अनुपात में
ही! जो चीज
तुम्हें
मुफ्त मिल
जाये, उसके
लिए तो
धन्यवाद देने
तक का मन नहीं
होता।
यही
तो हुआ है।
तुम्हें जीवन
मिला मुफ्त, जरा
सोचो, तुमने
धन्यवाद दिया
किसी को?
परमात्मा को
धन्यवाद दिया
जीवन देने के
लिए? मुफ्त
मिल गया, क्या
देना धन्यवाद,
किसको देना धन्यवाद?
सिकंदर
से एक ज्ञानी
ने कहा कि
तूने इतना बड़ा
साम्राज्य
बना लिया, इसका
कुछ सार नहीं
है, मैं
इसे दो कौड़ी
का समझता हूं।
सिकंदर बहुत
नाराज हो गया।
उसने उस फकीर
को कहा : इसका
तुम्हें
ठीक—ठीक उत्तर
देना होगा, अन्यथा गला
कटवा दूंगा।
तुमने मेरा
अपमान किया
है। मेरे
जीवन— भर का
श्रम और तुम
कहते हो कुछ भी
नहीं, दो
कौड़ी!
उस
फकीर ने कहा :
तो फिर ऐसा
समझो कि एक
रेगिस्तान
में तुम भटक
गए हो। प्यास
लगी जोर की, तुम
मरे जा रहे
हो। मैं मौजूद
हूं मेरे पास
मटकी है, पानी
भरा हुआ है
स्वच्छ।
लेकिन मैं
कहता हूं कि
एक गिलास पानी
दूंगा, लेकिन
कीमत लूंगा।
अगर मैं आधा
साम्राज्य तुमसे
मांगूं तुम दे
सकोगे?
सिकंदर
ने कहा कि अगर
मैं मर रहा
हूं और रेगिस्तान
में हूं और
प्यास लगी है
तो आधा क्या
मैं पूरा दे
दूंगा। तो उस
फकीर ने कहा, बात
खतम हो गयी, एक गिलास
कीमत... एक
गिलास पानी
कीमत है
तुम्हारे
साम्राज्य
की। और तुम
कहते हो, दो
कौड़ी! दो कौड़ी
भी नहीं है, क्योंकि
पानी तो मुफ्त
मिलता है।
जीवन
बचाने के लिए
सिकंदर अपना
पूरा साम्राज्य
देने को राजी
है;
लेकिन
तुमने जीवन
पाया है, इसके
लिए तुमने
धन्यवाद दिया?
जिसके लिए
तुम पूरा
साम्राज्य दे
सकते हो सारी
पृथ्वी का, वह तुम्हें
मुफ्त मिला
है—और तुमने
धन्यवाद भी
नहीं दिया है,
तुमने
कृतशता भी
स्वीकार नहीं
की!
तुम्हें
कितना मिला है, जरा
सोचो!
तुम्हारे
हृदय में
प्रेम की
संभावना है, तुमने
धन्यवाद दिया?
तुम्हारे
कंठ में से
गीत पैदा हो
सकते हैं, तुमने
धन्यवाद दिया?
तुम्हारी
आंखें खुलती
हैं और तुम
जगत के अपूर्व
सौंदर्य को
देख सकते हो, तुमने
धन्यवाद दिया?
जरा किसी
अंधे आदमी से
पूछो कि अगर
तुझे आंखें
मिल जायें तो
तू क्या देने
को तैयार है? वह कहेगा, मैं अपना सब
कुछ देने को
तैयार हूं
आंखें मिल जायें,
बस आंखें
मिल जायें।
मैं क्या है
जो बचाऊं, सब
दे दूंगा।
लेकिन
तुमने आंख के
पाने में कोई
गौरव अनुभव किया
है?
मनुष्य
को जो मुफ्त
में मिल जाता
है उसका कोई मूल्य
नहीं होता।
परमात्मा ने
बहुत दिया है
तुम्हें, जो
अमूल्य है, मगर तुम उसे
निर्मूल्य
समझ रहे हो।
लेकिन एक बात
मूल्य से ही, चुकाने से
ही मिलती
है—पहाड़ चढ़ना
पड़ता है परमात्मा
का। तुम्हें
पहाड़ चढ़ना ही
होगा। पहाड़ के
चढ़ने में दुख
भी होंगे, मगर
अगर तुम मंदिर
की तरफ जा रहे
हो तो फिर दुख दुख
मालूम नहीं
होते।
मैंने
सुना है, एक
संन्यासी
हिमालय
तीर्थयात्रा
को गया था! थका—मादा,
पसीने—पसीने!
सांस चढ़ आयी
है। चढ़ाव भारी
है। उसके
समाने ही एक
पहाड़ी लड़की, होगी कोई
नौ—दस साल की, अपने छोटे
भाई को कंधे
पर रखे हुए चढ़
रही है। पसीने
से लथपथ है, थकी—मांदी।
संन्यासी जब
पहुंचा उस
लड़की के पास
तो उसने कहा.
बेटी—सहानुभूति
के स्वर में, प्रेम के
भाव में—कि
मैं भी बहुत
थक गया हूं भी
बहुत थक गयी
होगी। कितना
बोझ लेकर चल
रही है!
उस
लड़की ने क्रोध
से उस
संन्यासी की
तरफ देखा और
कहा : स्वामी
जी,
बोझ आप लिये
हुए हैं; यह
मेरा छोटा भाई
है, बोझ
नहीं।
जहां
प्रेम है, वहां
बोझ नहीं है।
हालांकि छोटे
भाई को भी तराजू
पर रखो तो बोझ
निकलेगा, मगर
प्रेम के
तराजू पर बोझ
समाप्त हो
गया। प्रेम का
जादू देखते हो,
गुरुत्वाकर्षण
के नियम को
खतम कर दिया
प्रेम के जादू
ने! स्वामी जी
भी अपनी पोटली
लिये चढ़ रहे
हैं। उस पोटली
में भी वजन
है। तराजू पर
रखोगे तो शायद
छोटे भाई में
वजन ज्यादा
निकले, लेकिन
प्रेम के
तराजू पर छोटे
भाई में कोई
वजन नहीं है।
लड़की नाराज हो
गयी। इस बात
से नाराज हो
गयी कि तुमने
मेरे भाई को
वजन कहा! वजन
आप लिये हैं, यह मेरा
छोटा भाई है!
तुम
अगर परमात्मा
के मंदिर की
सीढ़ियां चढ़ते
वक्त पाओ कि
कठिनाई हो रही
है,
क्या तुम
कहोगे यह
कठिनाई है? प्यारे के
मंदिर की तरफ
जाते हो तो
फिर कोई कठिनाई
नहीं है।
जीवन
अगर सत्य की
खोज है तो फिर
सुख और दुख
दोनों समान
रूप से
स्वीकार हो
जाते हैं, फिर
कोई अड़चन नहीं
रह जाती।
धूप—छांह
है प्यार
तुम्हारा,
कभी
हंसाए, कभी
रुलाए, हाथ
न आए!
कभी
कभी नंदन—कुसुमों
से
भर
जाती है मेरी
झोली,
कभी
राह की धूल
निगोड़ी
कर
जाती है क्रूर
ठिठोली;
इसीलिए
तो बिलख
—बिलखकर कहती
हूं मैं
बैरी है
या मीत हमारा,
गले
लगाए, या
ठुकराए, बाज
न आए!
धूप—छाह
है प्यार
तुम्हारा,
कभी
हंसाए, कभी
रुलाए, हाथ
न आए!
मुखरित
हो जाता अपने
में
कभी—कभी
तो सूनापन भी,
और कभी
तो भरे जगत
में
पास न
रहता अपना मन
भी;
इसीलिए
तो
सिसक—सिसककर
कहती हूं मैं
मौज
कहूं या इसे
किनारा
कभी
डुबाए, पार
लगाए, आस
जगाए!
धूप—छाह
है प्यार
तुम्हारा
कभी
हंसाए, कभी
रुलाए, हाथ
न आए!
कभी
कल्पना के
धागों में
बंध
जाते हैं क्षण
अनजाने
कभी
नयन के
यमुना—जल में
बह
जाते हैं
घर—पहचाने
इसीलिए
तो तड़प—तड़पकर
कहती हूं मैं
है
कैसा अनमोल
सहारा
दीप
बुझाए, स्वप्न
सजाए, नींद
न आए!
धूप—छाह
है प्यार
तुम्हारा
कभी
हंसाए, कभी
रुलाए, हाथ
न आए!
सब
उसका है, धूप
भी उसकी, छाव
भी उसकी। दुख
भी उसका, सुख
भी उसका। जीवन
भी उसका दिया
हुआ, मृत्यु
भी उसकी दी
हुई। जब सब
उसका है तो
अनायास समभाव
सध जाता है।
इस भेद को
समझना।
हो
सकता है
पूछनेवाले ने
सोचा हो कि
मैं कोई प्रक्रिया
समझाऊंगा कि
ऐसे समभाव
साधो। अगर तुम
समभाव साधोगे
किसी
प्रक्रिया से
तो ऊपर—ऊपर
रहेगा। साधा
हुआ कभी भीतर
नहीं जाता, साधा
हुआ ऊपर रह
जाता है। बस
तुम्हारे
वस्त्र रंग
जायेंगे, तुम
अनरंगे रह
जाआगे। साधा
हुआ पर्त पर
होता है—बाहरी
पर्त
पर—अंतस्तल
नहीं छू पाता
उससे। अंतस्तल
तो तभी छूता
है जब तुम
समझो। साधना
की बात नहीं
है, समझने
की बात है। बस
समझो कि सब
उसका है।
साधना
क्या है? साधने
का तो मतलब है
कि दुख आये, अकड़कर खड़े
रहे कि नहीं
प्रभावित
होंगे! गुजर जायेंगे
अप्रभावित, आंदोलित
नहीं गौ। यह
तो अकड़ ले
आयेगा, यह
साधना नहीं
होगी। इससे
अहंकार और
मजबूत हो
जायेगा। इससे
तुम पिघलोगे
नहीं, इससे
तो तुम और जम
जाओगे, और
पत्थर हो
जाओगे। इसलिए
तो तुम्हारे
तथाकथित
साधु—संन्यासी
पथरीले हो
जाते हैं।
उनके जीवन में
जरा भी
आर्द्रता
नहीं रह जाती।
उनके जीवन में
जरा भी
सौंदर्य नहीं
रह जाता। उनके
जीवन में
संगीत की
संभावना ही
नष्ट हो जाती
है। और चले
हैं परमसंगीत
को खोजने! और
चले हैं अनंत
सौंदर्य को
खोजने! और उनके
जीवन में तुम
कोई काव्य न
पाओगे; रूखा—सूखा
हो जाता है
उनका जीवन।
क्यों? साधने
के कारण।
जबर्दस्ती कर
रहे हैं अपने
साथ। साधना है,
कष्ट साधना
है। तो क्या
करें, काटे
की सेज बना
लेंगे, उस
पर लेट
जायेंगे।
क्योंकि कष्ट
को साधना है।
समभाव रखना है,
काटे की सेज
हो तो भी वैसे
ही सोयेंगे
जैसे कि सुंदरतम
पलंग पर सोते
हैं।
मगर
जो आदमी काटो
की सेज पर
सोता है, उसकी
देह
संवेदनशीलता
खो देती है, उसकी देह जड़
हो जाती है, उसकी देह
मुर्दा हो
जाती है। उसकी
देह में जीवन
समाप्त हो जाता
है; जीवन
भीतर सरक जाता
है। उपवास करो
कि हम तो भूख
साधेंगे, कि
भूख आयेगी तो
भी हम समभाव
रखेंगे। तो
साध ले सकते
हो, मगर यह
साधना सच्ची न
हुई। सच्ची
साधना समझ का
प्रतिफल
है—समझ के ही
पीछे आती है
छाया की भांति।
तो
मैं तो तुमसे
कहता हूं इतना
ही समझो :
धूप—छाह
है प्यार
तुम्हारा
कभी
हंसाए, कभी
रुलाए, हाथ
न आए!
बैरी
है या मीत
हमारा
गले
लगाए, या
ठुकराए, बाज
न आए!
मौज
कहूं या इसे
किनारा
कभी
डुबाए, पार
लगाए, आस
जगाए!
है
कैसा अनमोल
सहारा
दीप
बुझाए, स्वप्न
सजाए, नींद
न आए!
धूप—छाह
है प्यार
तुम्हारा
कभी
हंसाए, कभी
रुलाए, हाथ
न आए!
चलो
इस रहस्य के
जगत में। जो
हाथ की पकड़
में नहीं आता, उसकी
खोज करें। जो
किसी पकड़ में
नहीं आता, उसे
खोजने चलें।
फिर खोजेंगे
कैसे, जो
पकड़ में नहीं
आता? परमात्मा
तो तुम्हारी
पकड़ में नहीं
आता, लेकिन
तुम उसकी पकड़
में आ जा सकते
हो। उसे खोजोगे
तो तुम उसकी
पकड़ में आ
जाओगे, तुम
उसकी गिरफ्त
में आ जाओगे।
और वहीं है
मिलन।
आखिरी
प्रश्न :
मैं
आपका
आशीर्वाद
चाहता हूं।
लेकिन आशीर्वाद
से क्या चाहता
हूं वह जरा भी
स्पष्ट नहीं है
उसे भी आप ही
स्पष्ट करें
मेरी ओर से
इतना भर
निश्चित है कि
आपका
आशीर्वाद
चाहता हूं
यह
सुंदर है, यह
बात सुंदर है।
तुम तो जो भी
आशीर्वाद
चाहोगे उसमें
गलती हो
जायेगी; तुम्हारी
कोई मांग
समाविष्ट हो
जायेगी। तुम्हारी
कोई वासना
पीछे के द्वार
से आ जायेगी।
तुम्हारी
कामना ही होगी
तुम्हारी
मांग में।
तुम्हारा
मांगा गया
आशीर्वाद तो
गलत हो
जायेगा।
आशीर्वाद
मांगना हो तो
ऐसे ही मांगना
चाहिए कि मुझे
पता नहीं कि
मैं क्या
चाहता हूं बस
आशीर्वाद
चाहता हूं। और
तब जो तुम सोच
भी नहीं सकते
वह मिल सकता
है। जिसे तुम
कल्पना में भी
नहीं विचार
सकते थे, वह
मिल सकता है।
और वह
तुम्हारी
कल्पना में अभी
है भी नहीं, जो तुम्हें
मिलना चाहिए,
जिसके
मिलने से तुम
तृप्त हो
जाओगे। हो भी
कैसे कल्पना
में? तुम्हारा
अनुभव ही नहीं
है उस किरण
का। वह बूंद
ही तुम्हारे
कंठ नहीं
उतरी।
इसलिए
तुम्हारा
प्रश्न
प्यारा है।
तुम्हारा प्रश्न
अर्थपूर्ण
है। अच्छा
किया, तुमने
आशीर्वाद के
साथ कोई शर्त
न लगायी। लोग शर्त
लगा देते हैं।
लोग शर्त के
बिना आशीर्वाद
मांगते ही
नहीं।
कोई
चुनाव लड़ता है
तो मेरे पास आ
जाता है कि आशीर्वाद
दें। मैं उसको
कहता हूं तुम
मुझको भी फसाओगे।
तुम तो नरक
जाओगे पक्का, तुम
मुझे भी ले
जाओगे। मैं तो
एक ही
आशीर्वाद दे
सकता हूं कि
भगवान करे, तुम चुनाव
में न जीतो!
क्योंकि जीते
कि गये। हारे
तो कुछ
संभावना शेष
रहती है कि
तुम्हारे जीवन
में कुछ हो
जायेगा। जीते
कि गये। जो
जीता वह तो
ऐसे अहंकार से
भर जाता है कि
फिर उसके जीवन
में कुछ नहीं
हो सकता। जीत
का जहर जो
पीने लगा, वह
धीरे— धीरे और
जहर मांगता है,
और जहर
मांगता है। वह
नशा शराब जैसा
है, शराब
से ज्यादा
घातक।
क्योंकि शराब
का नशा तो सांझ
पीयो सुबह उतर
जाता है; पद—लिप्सा
का नशा जो पी
लेते हैं, फिर
उतरता ही नहीं,
चढ़ता ही चला
जाता है। एक
पद मिले तो और
आगे का पद है, वह मिलना
चाहिए। वह
मिले तो और
आगे का पद है, वह मिलना
चाहिए। और अगर
कुछ आगे मिलने
को न बचे तो जो
मिल गया है, वह अब छिनना
नहीं चाहिए।
वह तो पागलपन
समाप्त ही
नहीं होता है।
मेरे
पास लोग आ
जाते हैं, वे
कहते हैं कि
पत्नी बीमार
है, आशीर्वाद
दे दें, कि
बच्चे की
नौकरी नहीं लग
रही, आशीर्वाद
दे दें। तुम
आशीर्वाद को
भी किन छोटे—मोटे
कामों में
लगाने चले हो!
नौकरी नहीं मिल
रही तो नौकरी
खोजने के ढंग
हैं। पत्नी
बीमार है तो
चिकित्सा के
उपाय हैं।
इसके लिए
आशीर्वाद को
बीच में लाने
की क्या जरूरत
है? और
आशीर्वादों
से अगर
नौकरियां
मिलती होतीं और
आशीर्वादों
से अगर
पत्नियां ठीक
होती होतीं तो
यह देश तो कभी
बीमार हो ही
नहीं सकता था;
यह तो कभी
गरीब हो ही
नहीं सकता था।
यहां इतने आशीर्वाद
देनेवाले
हैं—संत—महंत,
साधु—संन्यासी,
महात्मा!
यहां कमी क्या
है आशीर्वाद
देनेवालों की?
यहां तो
आशीर्वाद ही
आशीर्वाद दिए
जा रहे हैं। न
तो
आशीर्वादों
से पेट भरता
है किसी का, न नौकरी
मिलती है; मगर
एक खतरा हो
जाता है, आशीर्वाद
मांगनेवाला
आदमी और उपाय
छोड़ देता है; वह सोचता है
आशीर्वाद मिल
गया, सब
ठीक है। अब
क्या करना है
चिकित्सक के
पास जाकर? और
अगर एक
आशीर्वाद
नहीं फलता तो
वह यह नहीं सोचता
कि मैंने कुछ
गलती की थी, वह यही
सोचता है कि
हमने गलत आदमी
से आशीर्वाद
माग लिया, अब
किसी ठीक से
मांगेंगे। बस
ऐसे ही जिंदगी
बीतती है। ऐसे
ही इस देश की
जिंदगी बीतती
रही है। यह
देश दरिद्र होता
गया, दीन
होता गया, दास
हो गया, इसके
पीछे बड़े से
बड़े कारणों
में एक कारण
यह आशीर्वाद
मांगने की
वृत्ति है।
आशीर्वाद
से इस जगत का
कोई संबंध
नहीं जुड़ता; आशीर्वाद
दूसरे ही लोक
की बात है।
बेशर्त ही मांगो
तो ही कुछ हो
सकता है।
आशीर्वाद से
कुछ होता है
जरूर—धन पैदा
नहीं होता, ध्यान पैदा
होता है। शरीर
की बीमारी
नहीं मिट सकती
आशीर्वाद से,
अन्यथा
चिकित्सा—शास्त्रों
की जरूरत ही न
रह जाये। हा, आत्मा की
बीमारी मिट
सकती है। मगर
आत्मा की बीमारी
का तो तुम्हें
पता ही नहीं
है! तुम्हें आत्मा
का ही पता
नहीं है।
ध्यान बरस
सकता है
आशीर्वाद से;
लेकिन
तुम्हारे
भीतर तो मांग
धन की है, ध्यान
की नहीं। तुम
तो ध्यान भी
करते हो तो इस आशा
में कि शायद
इससे धन मिले।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं
महर्षि महेश
योगी तो कहते
हैं कि जो
ध्यान करेगा
उसे उस जगत
में तो बहुत
मिलेगा ही
मिलेगा, इस
जगत में भी
मिलेगा।
सांसारिक लाभ
भी होगा। आप
क्या कहते हैं?
ध्यान
से अगर
सांसारिक लाभ
होता तो यह
देश तो शिखर
पर होता वैभव
के। इस देश ने
जितना ध्यान किया
है,
किसी और ने
किया है? बुद्ध
ने ध्यान किया,
समाधि को
उपलब्ध हुए।
कहानी कहती है
कि फूल बरसे; नोट बरसे, ऐसा मैंने
सुना नहीं।
फिर से लिखो
कहानी, ताकि
महर्षि महेश
योगी के साथ संबंध
बन सके। फिर
से लिखो
कहानी।
महावीर समाधि
को उपलब्ध हुए,
केवल ज्ञान
उत्पन्न हुआ,
तो आकाश से
फूल बरसते हैं,
देवता मधुर
नाद करते हैं।
पागल रहे
होंगे देवता,
फूल बरसाने
से क्या होगा,
अरे हीरे—जवाहरात
बरसाते! कुछ
देना था तो
कुछ मतलब की
बात देते, बेचारे
महावीर वैसे
ही नंगे खड़े
थे। इनको कुछ देना
था; कम से
कम कपड़े—लत्ते
गिराते।
भूखे—उपवासे
रहते थे, कुछ
धनधान्य दे
देते। फूल
गिरा रहे, भूखे
आदमी का मजाक
कर रहे! नंगे
खड़े आदमी पर
शहनाई बजा
रहे! वह तो
महावीर भले
आदमी थे, नहीं
तो शहनाई तोड़
देते और
देवी—देवताओं
की मारपीट कर
देते, कि
मजाक कर रहे
हो? महर्षि
योगी का
उन्हें कुछ
पता नहीं था
कि आगे जाकर
हालतें कैसी
हो जानेवाली
हैं।
लेकिन
मैं महर्षि
महेश योगी का
कारण समझता हूं।
अमरीका में
अगर प्रचार
करना हो, अमरीका
की उत्सुकता
धन में है, ध्यान
में नहीं है।
महर्षि महेश
योगी कुशल विक्रेता
हैं; जो
तुम्हारी
मर्जी वही
देने को राजी
हैं। ग्राहक
जो मांगे वही
देना पड़ता है।
दुकानदार इसकी
फिक्र नहीं
करता कि
ग्राहक की
क्या जरूरत है;
जो मांगे, गलत मांगे
तो गलत भी
देता है; जैसा
कहे वैसा ही
राजी हो जाता
है। कुशल
दुकानदार
मानते हैं कि
ग्राहक हमेशा
ठीक है। वह जो
कहे ठीक है, जैसा कहे
ठीक है।
अमरीका
में बेचना है
ध्यान—और यह
बिक्री चल रही
है वहां—बेचना
है ध्यान।
अमरीका कहता
है कि स्वास्थ्य
चाहिए, तो
स्वास्थ्य
मिलेगा, धन
चाहिए तो धन मिलेगा,
व्यवसाय
में कुशलता
चाहिए तो
व्यवसाय में
कुशलता
मिलेगी।
इस
तरह की किसी
मूढ़तापूर्ण
बात को मैं
समर्थन नहीं
दे सकता हूं।
अगर ध्यान से
यह होता होता तो
इस देश में ये
सब बरस गये
होते
सोने—चांदी कभी
के। तुम जो वे
कहानियां भी
सुनते हो कि
यह देश कभी
सोने की चिड़िया
था,
वह भी कहानी
है। यह सोने
की चिड़िया था,
अगर तुम इस
देश के
राजाओं—महराजाओं
के संबंध में
विचार करो, तो वह तो अभी
भी है। इस देश
के आम आदमी को
सोचो तो यह
हमेशा से दीन
और भिखारी है।
यह कोई आज ही दीन
और भिखारी
नहीं हो गया
है। और
राजा—महाराजाओं
की बात सोचो
तो वे अब भी
धनी हैं। बदल
गये हैं ढंग।
अब उद्योगपति
होगा; राजा—महाराजा
अब नहीं रहे।
कोई और
होगा—उनको अगर
तुम देखो तो
अब भी सोने की
चिड़िया है।
सोने
की चिड़िया यह
देश कभी नहीं
रहा। हां, इस
देश में कुछ
लोगों के पास
सोना रहा है।
और उनके पास
सोना रहा ही
इस कारण है कि
और सारे लोगों
का सोना छिन
गया है।
ध्यान
से धन नहीं
मिलता, ध्यान
से कुछ और
मिलता है, जो
परम धन है।
ध्यान से कुछ
मिलता है, जो
इस लोक का
नहीं है, परलोक
का है। ध्यान
से परलोक इस
लोक में उतरता
है।
तुमने
ठीक किया, आशीर्वाद
मांगा; और
क्या मांगना
है, इसे अनकहा
छोड़ दिया। एक
ही बात मांगने
जैसी है—
इस जग
का कण—कण बदले
पर
प्रिय
मंदिर की राह
न बदले
पूजा
का उत्साह न
बदले
अंकित
हुई यहीं पर
मेरे
अंतर
के भावों की
भाषा
इसे
स्वाति—सा समझ, तृषा
को
तुष्टि
समझता चातक
प्यासा
जीवन
का कण —कण बदले
पर
दृग का
पुण्य प्रवाह
न बदले
प्रिय
मंदिर की राह
न बदले
यह
अर्चन के फूल, सुकोमल
अक्षत, शुचि
वंदन अभिनंदन
श्वासों
की रोली आंसू
की
अंजलि, प्राणों
का आमंत्रण
मंदिर
का कण—कण बदले
पर
मेरे
प्रभु की चाह
न बदले
प्रिय
मंदिर की राह
न बदले
वहां पहुंचने
से प्रिय
मुझको
प्रतिदिन
चलने की
तैयारी
और
मधुर आशा
आयेगी
एक
दिवस मेरी भी
बारी
मधुर
मिलन का कण —कण
बदले
किंतु
विरह की आह न
बदले
प्रिय
मंदिर की राह
न बदले
एक
ही मांगो
आशीर्वाद, कि
परमात्मा में
लौ जगे, जगी
रहे। एक ही
मांगो
आशीर्वाद, हम
उसे कैसे जान
लें जो सब का
आधार है, सब
का स्रोत है।
इस जग
का कण—कण बदले
पर
प्रिय
मंदिर की राह
न बदले
पूजा
का उत्साह न
बदले!
आज
इतना ही
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