अध्याय 1 : सूत्र 2
वह
अनाम ही
पृथ्वी और
स्वर्ग का जनक
है।
वह
नामधारी ही
सभी पदार्थों
की जननी है।
अस्तित्व
है अनाम।
नाम
देते ही वस्तु
का जन्म होता
है।
जब तक
नाम नहीं दिया, तब
तक प्रत्येक
वस्तु असीम
अस्तित्व का
अंग होती है।
जैसे ही नाम
दिया, टूट
जाती है, अलग
और पृथक हो
जाती है। नाम
पृथकता की
सीमा-रेखा है।
नाम का अर्थ
है पृथक करना।
जब तक नाम नहीं
दिया, तब
तक सब एक है।
जैसे ही नाम
दिया, चीजें
टूट जाती हैं
और अलग हो
जाती हैं।
लाओत्से
कहता है, वह
अनाम स्वर्ग
और नर्क का
जन्मदाता है,
मूल स्रोत
है। और यह नाम,
या नामी
समस्त
वस्तुओं की
जननी है।
पहली
बात तो यह समझ
लेनी चाहिए कि
यदि मनुष्य पृथ्वी
पर न हो, तो
चीजों में कोई
भी फर्क न
होगा। गुलाब
के फूल में और
गुलाब के
कांटे में भेद
न होगा। भेद है
भी नहीं।
गुलाब का
कांटा गुलाब
के फूल से ऐसा
जुड़ा है, जैसा
आपके हृदय से
आपकी आंखें
जुड़ी हैं।
जमीन में और
आसमान में भी
कोई भेद न
होगा। वह जगह
बतानी कठिन है,
जहां जमीन
समाप्त होती
है और आसमान
शुरू होता है।
वे संयुक्त
हैं, एक ही
चीज के दो छोर
हैं। यह
समुद्र कहां
शुरू होता है
और जमीन कहां
शुरू होती है,
बताना
मुश्किल
है--आदमी न हो
तो। तो समुद्र
के भीतर जमीन
का फैलाव है
और समुद्र का
फैलाव जमीन के
भीतर है।
इसीलिए तो
कहीं भी खोदते
हैं कुआं तो
पानी निकल आता
है। सागर में
भी गहरे उतरें
तो जमीन मिल
जाएगी। सागर
में पानी थोड़ा
ज्यादा और
मिट्टी थोड़ी
कम है; और मिट्टी
में थोड़ा पानी
कम और मिट्टी
ज्यादा है। बाकी
बिना मिट्टी
के पानी नहीं
हो सकता; और
बिना पानी के
मिट्टी नहीं
हो सकती है।
आदमी
को हम अलग कर
दें तो चीजों
में कोई भेद
नहीं है, सब
चीजें जुड़ी
हुई और एक
हैं। आदमी के
आते ही चीजें
अलग-अलग हो
जाती हैं।
होती नहीं, आदमी को
अलग-अलग दिखाई
पड़ने लगती
हैं। अगर मैं
आपको देखता
हूं, तो
आपके हाथ मुझे
अलग मालूम
पड़ते हैं, आपकी
आंख मुझे अलग
मालूम पड़ती
हैं, आपके
कान अलग मालूम
पड़ते हैं, आपके
पैर अलग मालूम
पड़ते हैं।
लेकिन आपके
भीतर, आपके
अस्तित्व में
कहीं भी तो
कोई भेद नहीं
है। आंख और
कान और हाथ और
पैर, सब
संयुक्त हैं,
एक ही चीज
का फैलाव हैं।
हाथ के भीतर
बहने वाली
ऊर्जा और
शक्ति आंख के
भीतर देखने
वाली ऊर्जा और
शक्ति से अलग
नहीं है। हाथ
ही आंख से
देखता है; आंख
ही हाथ से
छूती है। आपके
भीतर, आपके
अस्तित्व में
जरा भी फासला
नहीं है। लेकिन
बाहर से देखने
पर, नाम
दिए जाने पर, फासला शुरू
हो जाता है।
कहा आंख, और
आंख कान से
अलग हो गई।
कहा हाथ, और
हाथ पैर से
अलग हो गए।
दिया नाम, कि
हमने सीमा
खींची और
चीजों को पृथक
किया।
लाओत्से
कहता है, वह
अनाम--दि नेमलेस--जब
तक हम उसे नाम
न दें, तब
तक वह समस्त
अस्तित्व का
स्रोत है। और
अस्तित्व को
दो नाम दिए
हैं लाओत्से
ने: स्वर्ग का
और नर्क का, स्वर्ग का
और पृथ्वी का।
मनुष्य
के अनुभव में, प्रतीति
में सुख और
दुख दो
अनुभूतियां
हैं--गहरी से
गहरी।
अस्तित्व का
जो अनुभव है, अगर हम नाम
को छोड़ दें, तो या तो सुख
की भांति होता
है या दुख की
भांति होता
है। और सुख और
दुख भी दो
चीजें नहीं
हैं। अगर हम
नाम बिलकुल छोड़
दें, तो
सुख दुख का
हिस्सा मालूम
होगा और दुख
सुख का हिस्सा
मालूम होगा।
लेकिन हम हर
चीज को नाम देकर
चलते हैं।
मेरे भीतर सुख
की प्रतीति हो
रही हो, अगर
मैं यह न कहूं
कि यह सुख है, तो हर सुख की
प्रतीति की
अपनी पीड़ा
होती है। यह
थोड़ा कठिन
होगा समझना।
हर सुख की
प्रतीति की
अपनी पीड़ा
होती है।
प्रेम की भी
अपनी पीड़ा है।
सुख का भी
अपना दंश है, सुख की भी
अपनी चुभन है,
सुख का भी
अपना कांटा
है--अगर नाम न
दें। अगर नाम
दे दें, तो
हम सुख को अलग
कर लेते हैं, दुख को अलग
कर देते हैं।
फिर सुख में
जो दुख होता
है, उसे
भुला देते
हैं--मान कर कि
वह सुख का
हिस्सा नहीं
है। और दुख
में जो सुख
होता है, उसे
भुला देते
हैं--मान कर कि
वह दुख का
हिस्सा नहीं
है। क्योंकि
हमारे शब्द
में दुख में
सुख कहीं भी नहीं
समाता; और
हमारे शब्द
सुख में दुख
कहीं भी नहीं
समाता।
आज ही
मैं किसी से
बात करता था
कि यदि हम
अनुभव में
उतरें, तो
प्रेम और घृणा
में अंतर करना
बहुत मुश्किल है।
शब्द में तो
साफ अंतर है।
इससे बड़ा अंतर
और क्या होगा?
कहां प्रेम,
कहां घृणा!
और जो लोग
प्रेम की
परिभाषाएं
करेंगे, वे
कहेंगे, प्रेम
वहीं है जहां
घृणा नहीं है,
और घृणा
वहीं है जहां
प्रेम नहीं
है। लेकिन जीवंत
अनुभव में
प्रवेश करें,
तो घृणा
प्रेम में बदल
जाती है, प्रेम
घृणा में बदल
जाता है। असल
में, ऐसा
कोई भी प्रेम
नहीं है, जिसे
हमने जाना है,
जिसमें घृणा
का हिस्सा
मौजूद न रहता
हो। इसलिए
जिसे भी हम
प्रेम करते
हैं, उसे
हम घृणा भी
करते हैं।
लेकिन शब्द
में कठिनाई
है। शब्द में,
प्रेम में
सिर्फ प्रेम
आता है, घृणा
छूट जाती है।
अगर अनुभव में
उतरें, भीतर
झांक कर देखें,
तो जिसे हम
प्रेम करते
हैं, उसे
हम घृणा भी करते
हैं। अनुभव
में, शब्द
में नहीं। और
जिसे हम घृणा
करते हैं, उसे
हम घृणा
इसीलिए कर
पाते हैं कि
हम उसे प्रेम
करते हैं; अन्यथा
घृणा करना
संभव न होगा।
शत्रु से भी
एक तरह की
मित्रता होती
है; शत्रु
से भी एक तरह
का लगाव होता
है। मित्र से भी
एक तरह का
अलगाव होता है
और एक तरह की
शत्रुता होती
है।
शब्द
की अड़चन है।
शब्द हमारे
ठोस हैं और
अपने से
विपरीत को
भीतर नहीं
लेते।
अस्तित्व
बहुत तरल और लिक्विड
है;
अपने से
विपरीत को सदा
भीतर लेता है।
हमारे जन्म
में मृत्यु
नहीं समाती; लेकिन
अस्तित्व में
जन्म के साथ
मृत्यु जुड़ी है,
समाई हुई
है। हमारी
बीमारी में
स्वास्थ्य के लिए
कोई जगह नहीं
है। लेकिन
अस्तित्व में
सिर्फ स्वस्थ
आदमी ही बीमार
हो सकता है।
अगर आप स्वस्थ
नहीं हैं, तो
बीमार न हो
सकेंगे। मरा
हुआ आदमी
बीमार नहीं
होता। बीमार
होने के लिए
जिंदा होना
जरूरी है, बीमार
होने के लिए
स्वस्थ होना
जरूरी है।
स्वास्थ्य के
साथ ही बीमारी
घटित हो सकती
है। और अगर
आपको पता चलता
है कि मैं
बीमार हूं, तो इसीलिए
पता चलता है
कि आप स्वस्थ
हैं। अन्यथा
बीमारी का पता
किसको चलेगा?
पता कैसे
चलेगा? मैं
यह कह रहा हूं
कि जहां
अस्तित्व है,
वहां हमारे
विपरीत भेद
गिर जाते हैं
और एक का ही
विस्तार हो
जाता है। जहां
हमने नाम दिया,
वहीं चीजें
टूट कर दो
हिस्सों में
बंट जाती हैं;
एक डिकॉटॉमी,
एक द्वैत
निर्मित हो
जाता
है--तत्काल।
यहां दिया नाम,
वहां
अस्तित्व
खंड-खंड हो
गया। नाम देना
खंड-खंड करने
की प्रक्रिया
है। और नाम
छोड़ देना अखंड
को जानने का
मार्ग है।
पर हम
बिना नाम दिए
क्षण भर को
नहीं रहते।
बिना नाम दिए
बड़ी बेचैनी
होगी। हम
देखते हैं, शायद
देखते के साथ
ही नाम दे
देते हैं।
सुनते हैं, सुनते के
साथ ही नाम दे
देते हैं। एक
फूल दिखा, कि
मन देखने के
साथ ही साथ
नाम देता है--गुलाब
है, सुंदर
है, कि
असुंदर है, कि पहले
जाना हुआ है, कि नहीं
जाना हुआ है, अपरिचित है,
कि परिचित
है। तत्काल
गुलाब का फूल
तो छूट जाता
है और शब्दों
का एक जाल
हमारे चित्त
के ऊपर निर्मित
हो जाता है।
फिर हम उस
शब्द के जाल
में अस्तित्व
को जब देखते
हैं, तो
अस्तित्व
टूटा हुआ
मालूम पड़ता
है।
लाओत्से
कह रहा है कि
अनाम तो
अस्तित्व का
जनक है, सारे
अस्तित्व का
स्रोत है; और
नाम सारी
वस्तुओं की
जननी है।
तो हम
परमात्मा को
कोई नाम न दे
सकेंगे; क्योंकि
नाम देते ही
परमात्मा
वस्तु हो जाएगा।
जिस चीज को भी
हम नाम देंगे,
वह वस्तु हो
जाएगी। आत्मा
को भी नाम
देंगे तो वह
वस्तु हो
जाएगी। और अगर
हम पत्थर को
भी नाम न दें
तो वह आत्मा
हो जाएगा। अगर
हम नाम देने
से बच जाएं और
हमारा मन नाम
निर्मित न करे,
और हम बिना
शब्द और बिना
नाम के किसी
पत्थर को भी
देख लें, तो
पत्थर में
परमात्मा
प्रकट हो जाएगा।
और हम किसी
प्रेम से धड़कते
हुए हृदय को
भी नाम देकर
देखें--मेरा
बेटा, मेरी
मां, मेरी
पत्नी--कि
हृदय जो धड़कता
हुआ था जीवन
से, वह भी
पत्थर का एक
टुकड़ा हो
जाएगा। दिया
नाम, कि
चेतना वस्तु
बन जाती है।
छोड़ा नाम, कि
वस्तुएं
चैतन्य हो
जाती हैं।
तो
लाओत्से दो हिस्से
करता
है--अस्तित्व।
अस्तित्व को
समझाने के लिए
उसने बांटा: हेवन एंड
अर्थ, पृथ्वी
और स्वर्ग।
पृथ्वी से
अर्थ है
लाओत्से का
पदार्थ का, मैटर का। और
स्वर्ग से
अर्थ है
लाओत्से का
अनुभव का, अनुभूति
का, चैतन्य
का, चेतना
का। तो समस्त
पदार्थ और
समस्त चेतना
का जनक है
अनाम। स्वर्ग
है एक अनुभव, पृथ्वी है
एक स्थिति।
पृथ्वी से
प्रयोजन है लाओत्से
का--जिन दिनों
लाओत्से ने ये
शब्द उपयोग
किए चीन में, पृथ्वी से
वही अर्थ था
जो हम पदार्थ
से लेते हैं
और स्वर्ग से
वही अर्थ था
जो हम चैतन्य
से लेते हैं।
क्योंकि
स्वर्ग की
प्रतीति और
अनुभव चेतना
को होगी।
पदार्थ से
अर्थ है जड़ता
का और स्वर्ग
से अर्थ है
चेतना का।
समस्त चैतन्य
और समस्त
पदार्थ का मूल
स्रोत है
अनाम। और
समस्त
वस्तुओं की
जननी है नाम
देने की
प्रक्रिया।
हम
वस्तुओं के
जगत में रहते
हैं। न तो हम
पदार्थ के जगत
में रहते हैं
और न हम
स्वर्ग के, चेतना
के जगत में
रहते हैं। हम
वस्तुओं के
जगत में रहते
हैं। इसे ठीक
से, अपने
आस-पास थोड़ी
नजर फेंक कर
देखेंगे, तो
समझ में आ
सकेगा। हम
वस्तुओं के
जगत में रहते
हैं--वी लिव
इन थिंग्स।
ऐसा नहीं कि
आपके घर में
फर्नीचर है, इसलिए आप
वस्तुओं में
रहते हैं; मकान
है, इसलिए
वस्तुओं में
रहते हैं; धन
है, इसलिए
वस्तुओं में
रहते हैं।
नहीं; फर्नीचर,
मकान और धन
और दरवाजे और
दीवारें, ये
तो वस्तुएं
हैं ही। लेकिन
इन दीवार-दरवाजों,
इस फर्नीचर
और वस्तुओं के
बीच में जो
लोग रहते हैं,
वे भी
करीब-करीब
वस्तुएं हो
जाते हैं।
मैं
किसी को प्रेम
करता हूं, तो
चाहता हूं कि
कल भी मेरा
प्रेम कायम
रहे; तो
चाहता हूं कि
जिसने मुझे आज
प्रेम दिया, वह कल भी
मुझे प्रेम
दे। अब कल का
भरोसा सिर्फ वस्तु
का किया जा
सकता है, व्यक्ति
का नहीं किया
जा सकता। कल
का भरोसा वस्तु
का किया जा
सकता है। कुर्सी
मैंने जहां
रखी थी अपने
कमरे में, कल
भी वहीं मिल
सकती है।
प्रेडिक्टेबल
है, उसकी
भविष्यवाणी
हो सकती है।
और रिलायबल
है, उस पर
निर्भर रहा जा
सकता है।
क्योंकि
मुर्दा कुर्सी
की अपनी कोई
चेतना, अपनी
कोई
स्वतंत्रता
नहीं है।
लेकिन जिसे मैंने
आज प्रेम किया,
कल भी उसका
प्रेम मुझे
ऐसा ही
मिलेगा--अगर
व्यक्ति
जीवंत है और
चेतना है, तो
पक्का नहीं
हुआ जा सकता।
हो भी सकता है,
न भी हो।
लेकिन मैं
चाहता हूं कि
नहीं, कल
भी यही हो जो
आज हुआ था। तो
फिर मुझे
कोशिश करनी
पड़ेगी कि यह
व्यक्ति को
मिटा कर मैं
वस्तु बना
लूं। तो फिर रिलायबल
हो जाएगा।
तो फिर
मैं अपने
प्रेमी को पति
बना लूं या
प्रेयसी को
पत्नी बना
लूं। कानून का, समाज
का सहारा ले
लूं। और कल
सुबह जब मैं
प्रेम की मांग
करूं, तो
वह पत्नी या
वह पति इनकार
न कर पाएगा।
क्योंकि वादे
तय हो गए हैं, समझौता हो
गया है; सब
सुनिश्चित हो
गया है। अब
मुझे इनकार
करना मुझे
धोखा देना है;
वह कर्तव्य
से च्युत होना
है। तो जिसे
मैंने कल के
प्रेम में
बांधा, उसे
मैंने वस्तु
बनाया। और अगर
उसने जरा सी
भी चेतना
दिखाई और
व्यक्तित्व
दिखाया, तो
अड़चन होगी, तो संघर्ष
होगा, तो
कलह होगी।
इसलिए
हमारे सारे
संबंध कलह बन
जाते हैं।
क्योंकि हम
व्यक्तियों
से वस्तुओं
जैसी अपेक्षा
करते हैं।
बहुत कोशिश करके
भी कोई
व्यक्ति
वस्तु नहीं हो
पाता, बहुत
कोशिश करके भी
नहीं हो पाता।
हां, कोशिश
करता है, उससे
जड़ होता चला
जाता है। फिर
भी नहीं हो
पाता; थोड़ी
चेतना भीतर
जगती रहती है,
वह उपद्रव
करती रहती है।
फिर सारा जीवन
उस चेतना को
दबाने और उस
पदार्थ को
लादने की
चेष्टा बनती
है।
और जिस
व्यक्ति को भी
मैंने दबा कर
वस्तु बना दिया, या
किसी ने दबा
कर मुझे वस्तु
बना दिया, तो
एक दूसरी
दुर्घटना
घटती है, कि
अगर सच में ही
कोई बिलकुल
वस्तु बन जाए,
तो उससे
प्रेम करने का
अर्थ ही खो
जाता है। कुर्सी
से प्रेम करने
का कोई अर्थ
तो नहीं है। आनंद
तो यही था कि
वहां चैतन्य
था। अब यह
मनुष्य का डाइलेमा
है, यह
मनुष्य का
द्वंद्व है, कि वह चाहता
है व्यक्ति से
ऐसा प्रेम, जैसा
वस्तुओं से ही
मिल सकता है।
और वस्तुओं से
प्रेम नहीं
चाहता, क्योंकि
वस्तुओं के
प्रेम का क्या
मतलब है? एक
ऐसी ही असंभव
संभावना
हमारे मन में
दौड़ती रहती है
कि व्यक्ति से
ऐसा प्रेम
मिले, जैसा
वस्तु से
मिलता है। यह
असंभव है। अगर
वह व्यक्ति
व्यक्ति रहे,
तो प्रेम
असंभव हो
जाएगा; और
अगर वह
व्यक्ति
वस्तु बन जाए,
तो हमारा रस
खो जाएगा।
दोनों ही
स्थितियों में
सिवा फ्रस्ट्रेशन
और विषाद के
कुछ हाथ न
लगेगा।
और हम
सब एक-दूसरे
को वस्तु
बनाने में लगे
रहते हैं। हम
जिसको परिवार
कहते हैं, समाज
कहते हैं, वह
व्यक्तियों
का समूह कम, वस्तुओं का
संग्रह
ज्यादा है। यह
जो हमारी
स्थिति है, इसके पीछे
अगर हम खोजने
जाएं, तो
लाओत्से जो
कहता है, वही
घटना मिलेगी।
असल में, जहां
है नाम, वहां
व्यक्ति
विलीन हो
जाएगा, चेतना
खो जाएगी और
वस्तु रह
जाएगी। अगर
मैंने किसी से
इतना भी कहा
कि मैं
तुम्हारा
प्रेमी हूं, तो मैं
वस्तु बन गया।
मैंने नाम दे
दिया एक जीवंत
घटना को, जो
अभी बढ़ती और
बड़ी होती, फैलती
और नई होती।
और पता नहीं, कैसी होती!
कल क्या होता,
नहीं कहा जा
सकता था।
मैंने दिया
नाम, अब
मैंने सीमा
बांधी। अब मैं
कल रोकूंगा, उससे अन्यथा
न होने दूंगा
जो मैंने नाम
दिया है।
कल
सुबह जब मेरे
ऊपर क्रोध
आएगा, तो मैं
कहूंगा, मैं
प्रेमी हूं, मुझे क्रोध
नहीं करना
चाहिए। तो मैं
क्रोध को दबाऊंगा।
और जब क्रोध
आया हो और
क्रोध दबाया
गया हो, तो
जो प्रेम किया
जाएगा, वह
झूठा और थोथा
हो जाएगा। और
जो प्रेमी
क्रोध करने
में समर्थ
नहीं है, वह
प्रेम करने
में असमर्थ हो
जाएगा।
क्योंकि
जिसको मैं
इतना अपना
नहीं मान सकता
कि उस पर
क्रोध कर सकूं,
उसको इतना
भी कभी अपना न
मान पाऊंगा कि
उसे प्रेम कर
सकूं।
लेकिन
मैंने कहा, मैं
प्रेमी हूं!
तो कल जो सुबह
क्रोध आएगा, उसका क्या
होगा अब? उस
वक्त मुझे
धोखा देना
पड़ेगा। या तो
मैं क्रोध को
पी जाऊं, दबा
जाऊं, छिपा
जाऊं, और
ऊपर प्रेम को दिखलाए
चला जाऊं। वह
प्रेम झूठा
होगा, क्रोध
असली होगा।
असली भीतर दबेगा,
नकली ऊपर
इकट्ठा होता
चला जाएगा। तब
फिर मैं एक
झूठी वस्तु हो
जाऊंगा, एक व्यक्ति
नहीं। और यह
जो भीतर दबा
हुआ क्रोध है,
यह बदला
लेगा। यह रोज-रोज
धक्के देगा, यह रोज-रोज
टूट कर बाहर
आना चाहेगा।
और तब स्वभावतः,
जिसे प्रेम
किया है, उससे
ही घृणा
निर्मित
होगी। और जिसे
चाहा है, उससे
ही बचने की
चेष्टा चलने
लगेगी।
पर नाम
देकर भूल हुई
है। लाओत्से
कहता है, नाम
देकर भूल हो
गई है। जब
मैंने किसी से
कहा कि मैं
तुम्हारा
प्रेमी हूं, तब मैंने
ठीक से समझ
लिया था कि
प्रेमी होने का
क्या अर्थ
होता है? मैंने
एक क्षण की
अनुभूति को
स्थिर नाम दे
दिया। अगर
मैंने भीतर
झांक कर देखा
होता, तो
शायद मैं ऐसा
नाम न देता।
शायद चुप रह
जाना उचित
होता। शायद
बोल कर भूल हो
गई।
अमरीका
का एक प्रेसिडेंट, कुलीज, कम
बोलता था, अत्यधिक
कम। दुनिया
में कोई
राजनीतिज्ञ
इतना कम बोलने
वाला नहीं हुआ
है। कोई मरने
के वर्ष भर
पहले किसी
मित्र ने उससे
पूछा कि कुलीज,
इतना कम
बोलते हो, इतना
कम बोले हो
जिंदगी भर, कारण क्या
है? तो कुलीज
ने कहा, जो
नहीं बोला है,
उसके लिए
दंड कभी नहीं
मिलता; जो
नहीं बोला है,
उसके लिए
कभी पछताना
नहीं पड़ता है।
जो बोला है, उसके लिए
बहुत पछताना
पड़ा है। यह तो
मुझे ज्यादा
अनुभव न था, कुलीज ने कहा, अगर
दुबारा मुझे
मौका मिले तो
मैं बिलकुल
चुप रह जाने
वाला हूं। यह
तो अनुभव न था
ज्यादा, अनुभव
से धीरे-धीरे
सीखा। लेकिन
अब मैं कह सकता
हूं कि जो
बोला, उसके
लिए दंड पाया
सदा; जो
नहीं बोला, उसके लिए
कोई पीड़ा मुझे
नहीं झेलनी
पड़ी।
शायद
आप सोचते
होंगे, किसी
को गाली दे दी
होगी, उससे
दंड पाया।
नहीं, गाली
से तो दंड मिल
ही जाता है; टू ऑबियस,
साफ ही है।
नहीं, जब
किसी से कहा
कि मैं
तुम्हें
प्रेम करता
हूं, उसके
भी दंड भोगने
पड़ते हैं।
असल
में,
शब्द दिया,
नाम दिया कि
दंड होगा।
क्योंकि हमने
वस्तु बनाई, जहां कि
वस्तु नहीं थी,
जहां कि तरल
व्यक्तित्व
था। जहां कि
तरल प्रवाह था,
वहां हमने
ठोक कर नदी की
बीच धार में
दीवार खड़ी
करने की कोशिश
की। अब तकलीफ
होगी, अब
पीड़ा होगी।
जीवन प्रवाह
की तरह बहना
चाहेगा; और
हमारे ठोके गए
नाम के तख्ते
अड़चन
डालेंगे। और
जीवन बड़ा है; कोई तख्ता
नाम का ठोका
हुआ टिकेगा
नहीं, बहा
कर ले जाएगा।
लेकिन तब पीछे
पीड़ा का दंश और
पश्चात्ताप
और विषाद छूट
जाता है।
लाओत्से
कहता है, नाम
ही मत देना।
नाम दिया कि
वस्तुएं पैदा
हो जाती हैं।
एक
क्षण को सोचें
कि अगर अचानक
ऐसी घटना घट
जाए कि हम
यहां इतने लोग
बैठे हैं और
हम सब भाषा भूल
जाएं--एक घंटे
भर के लिए! तो
जमीन-आसमान
में कोई फर्क
होगा? तो
अंधेरे और
प्रकाश में
कोई फर्क होगा?
तो आप में
और पड़ोसी में
कोई फर्क होगा?
तो हिंदू और
मुसलमान
भिन्न होंगे?
तो स्त्री
और पुरुष में
फासला होगा? अगर एक घंटे
को हम सारी
भाषा भूल जाएं,
तो सारे
फासले भी
तत्काल, घंटे
भर के लिए, गिर
जाएंगे। एक
अनूठा ही जगत
होगा--विस्तार
से भरा हुआ।
जहां कोई सीमा
न होगी। जहां
चीजें फैलती
तो होंगी, लेकिन
रुकती न
होंगी। तब
आपको ऐसा न
लगेगा कि कोई
आपके पड़ोस में
बैठा है।
क्योंकि ऐसा
लगने के लिए
भाषा जरूरी
है। तब कोई
पड़ोसी है, ऐसा
भी न लगेगा।
क्योंकि ऐसा
लगने के लिए
भाषा जरूरी
है। तब कोई
मित्र है, ऐसा
भी नहीं लगेगा;
कोई शत्रु
है, ऐसा भी
नहीं लगेगा।
तब तो एक
विराट
अस्तित्व रह
जाएगा।
उस
अस्तित्व में
दो
प्रतीतियां--प्रतीतियां, नाम
नहीं--उस
अस्तित्व में
दो
प्रतीतियां
रहेंगी, जिनको
लाओत्से कहता
है: हेवन
एंड अर्थ, स्वर्ग
और पृथ्वी। या
ज्यादा आज की
भाषा में होगा
कहना ठीक:
पदार्थ और
चैतन्य। दो
विस्तार रह जाएंगे--पदार्थ
का और चैतन्य
का। यह
प्रतीति होगी,
यह भी नाम
नहीं होगा। यह
प्रतीति
होगी। शेष सारे
नाम वस्तुओं
के हैं। वस्तु
पदार्थ भी हो
सकती है, वस्तु
व्यक्ति भी हो
सकता है। अगर
हम व्यक्ति को
नाम देंगे, तो वह भी वस्तु
हो जाता है।
अगर हम पदार्थ
को नाम देंगे,
तो वह भी
वस्तु हो जाता
है। अगर मैंने
कहा यह कुर्सी,
तो वह भी
वस्तु हो गई।
और मैंने कहा
पत्नी, पति,
बेटा, वे
भी वस्तु हो
गए। बेटे को
भी पजेस
किया जा सकता
है, कुर्सी
को भी पजेस
किया जा सकता
है। बेटे की
भी मालकियत हो
सकती है, कुर्सी
की भी मालकियत
हो सकती है।
लेकिन
जीवन की कोई
मालकियत नहीं
हो सकती। और न
पदार्थ की कोई
मालकियत हो
सकती है।
क्योंकि आपको
पता नहीं कि
जब आप नहीं थे, तब
भी यह कुर्सी
थी; और आप
जब नहीं होंगे,
तब भी यह
होगी। और आप
जिसको कह रहे
हैं मेरा बेटा,
कल उसकी
श्वास बंद हो
जाएगी, तो
आप उसको मरघट
में जाकर जला
आएंगे। और जब
उसकी श्वास
बंद हो रही
होगी, तब
आप आकाश से यह
न कह सकेंगे
कि मेरा बेटा,
मेरी बिना
आज्ञा के उसकी
श्वास कैसे
बंद हो रही है?
तब आप अपने
बेटे से यह न
कह सकेंगे कि
तू बड़ा अनुशासनहीन
है, उच्छृंखल
है, मुझसे
पूछा भी नहीं
और तूने श्वास
बंद कर ली। मरते
वक्त मुझसे तो
पूछ लेना था।
मैं तेरा बाप
हूं! मैंने
तुझे जन्म
दिया है!
लेकिन
मरते वक्त न
बेटा पूछ
सकेगा, न बाप
की आज्ञा की
जरूरत पड़ेगी।
अस्तित्व किसी
की मालकियत
नहीं मानता।
जन्म के समय
भी आपको भ्रम
ही हुआ है कि
आपने जन्म
दिया है।
अस्तित्व
किसी की मालकियत
नहीं मानता, न वस्तुएं
किसी की
मालकियत
मानती हैं।
लेकिन नाम के
साथ मालकियत
पैदा होती है;
और नाम के
साथ वस्तु
बनती है।
वस्तु का
दूसरा छोर है
मालकियत।
जहां भी
मालकियत है, वहां वस्तु
होगी। वह
व्यक्ति की है
कि पदार्थ की
है, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। जहां
किसी ने कहा, मेरा! वहां
मालकियत खड़ी
हो जाएगी; वहीं
चीजें
अस्तित्व को
खो देंगी और
वस्तुएं बन
जाएंगी। हम
रहते हैं
वस्तुओं से
घिरे हुए। इन
सारी वस्तुओं
का जन्मदाता,
लाओत्से
कहता है, नाम
देने की
प्रक्रिया
है--दि नेमिंग!
यह जो हम नाम
दिए चले जाते
हैं, यही।
मैं
सदा लाओत्से
के संबंध में
कहता रहा हूं।
एक मित्र के
साथ लाओत्से
सुबह घूमने
निकलता है।
वर्षों से
साथी है।
मित्र जानता
है कि लाओत्से
सदा चुप रहता
है। तो मित्र
के घर कोई
मेहमान आया है
और वह उसको भी
घुमाने ले आया
है। रास्ते
में उस मेहमान
ने बड़ी
परेशानी
अनुभव की है।
वह बहुत रेस्टलेस
हो गया है।
क्योंकि न
लाओत्से
बोलता है, न
उसका मेजबान
बोलता है। वह
मित्र बहुत
परेशान हो
गया। आखिर
उसके वश के
बाहर हो गया, तो उसने कहा
कि सुबह बहुत
सुंदर है, देखते
हैं! लेकिन न
मित्र ने देखा
न जवाब दिया, न लाओत्से
ने देखा न
जवाब दिया। तब
और बेचैनी उसकी
बढ़ गई। इससे
तो चुप ही
रहता तो अच्छा
था।
लौट
आए। लौटने के
बाद लाओत्से
ने मित्र के
कान में कहा
कि अपने साथी
को दुबारा मत
लाना, बहुत
बातूनी मालूम
पड़ता है--टू मच टाकेटिव।
मित्र भी थोड़ा
दंग हुआ, क्योंकि
इतनी ज्यादा
बात तो नहीं
की थी। कोई डेढ़
घंटे की अवधि
में एक ही तो
बात बोला था
वह कि सुबह
बड़ी सुंदर है।
सांझ
को मित्र आया
और लाओत्से से
कहा,
क्षमा करना,
उसे तो रोक
दिया। लेकिन
मैं भी बेचैन
रहा हूं। ऐसी
ज्यादा बात तो
नहीं की थी।
इतना ही कहा
था कि सुबह बड़ी
सुंदर है।
लाओत्से ने
कहा, दिया
नाम कि चीजें
नष्ट हो जाती
हैं। सुबह बड़ी
सुंदर थी, जब
तक वह
तुम्हारा
साथी नहीं
बोला था।
कठिन
पड़ेगा समझना।
लाओत्से कहता
है,
सुबह बड़ी
सुंदर थी, जब
तक तुम्हारा
साथी नहीं
बोला था। तब
तक उस सौंदर्य
में कोई सीमा
न थी। तब तक वह
सौंदर्य कहीं
समाप्त होता
हुआ मालूम
नहीं पड़ता था।
तब तक उस
सौंदर्य का
कोई अंत न था।
लेकिन जैसे ही
तुम्हारे
मित्र ने कहा,
बड़ी सुंदर
है सुबह, सब
सिकुड़ कर छोटा
हो गया।
तुम्हारे
मित्र के शब्दों
ने सब पर सीमा
बांध दी।
तुम्हारा
मित्र सब पर
हावी हो गया।
और जब इतना सौंदर्य
था, तो
बोलना सिर्फ
कुरूपता थी।
जहां इतना
सौंदर्य था, वहां बोलना
सिर्फ विघ्न
था। तो मैं
तुमसे कहता
हूं कि
तुम्हारे
मित्र को
सौंदर्य का
कोई पता नहीं।
उसने तो सिर्फ
बात चलाई थी, उसे कुछ पता
नहीं है
सौंदर्य का।
क्योंकि सौंदर्य
का पता होता
तो बोलता हुआ
आदमी चुप हो
जाता है। चुप
आदमी कैसे बोल
सकता था? सौंदर्य
का इम्पैक्ट
है। जब चारों
ओर से सौंदर्य
घेर लेता है, तो प्राण
चुप हो जाते
हैं। हृदय धड़कता
भी है, तो
पता नहीं चलता
कि धड़कता
है। सब
निस्पंद हो
जाता है। पर
हम चुप थे और
तुम्हारा
मित्र बोल
पड़ा। उसे
सौंदर्य का
कोई पता न था, उसे सुबह का
भी कोई पता न
था। वह सिर्फ
खूंटी खोज रहा
था, बातचीत,
चर्चा
चलाने को।
हम सब
खोजते हैं।
कोई भी मिलता
है,
आप मौसम की
चर्चा शुरू कर
देते हैं, कुछ
भी बात शुरू
कर देते हैं।
वह सिर्फ
बहाना होता
है। असल में, चुप रहना
इतना कठिन है
कि हम किसी भी
बहाने से
बोलना शुरू कर
देते हैं।
अब
दुबारा जब आप
किसी से
बातचीत शुरू
करें, तो खयाल
रखना, आपको
फौरन पता चल
जाएगा कि ये
सिर्फ बहाने
हैं। न सुबह
से मतलब, न
सूरज से मतलब,
न बादलों से
मतलब, न
वर्षा से मतलब,
कोई मतलब
नहीं है। पर
कहीं से बात
शुरू होनी चाहिए,
क्योंकि दो
आदमी चुप रहने
की कला ही भूल
गए हैं, कि
दो आदमी साथ
हों तो चुप रह
सकें।
फ्रायड
ने अपने जीवन
भर के अनुभवों
के बाद लिखा
है कि पहले तो
मैं सोचता था
कि हम बात
करते हैं कुछ
कहने के लिए, लेकिन
अब मेरा अनुभव
यह है कि हम
बात करते हैं कुछ
छिपाने के लिए।
कुछ चीजें हैं,
जो चुप रहने
में उघड़
जाएंगी, उनको
हम बातचीत
करके छिपा
लेते हैं।
एक
आदमी के पास
घंटे भर मौन
से बैठ जाइए
तो उस आदमी को
जितना आप जान
पाएंगे, उतना
आप वर्ष भर
उससे बात करते
रहिए तो न जान
पाएंगे। बात
जो है, वह
आदमी अपने को
छिपाने के लिए
अपने चारों
तरफ एक जाल
खड़ा कर रहा
है। उसकी
आंखों को फिर
आप न देख
पाएंगे, उसके
शब्दों में
अटक जाएंगे।
उसके उठने को
न देख पाएंगे;
उसके बैठने
को न देख
पाएंगे; उसके
गेस्चर्स
आपके खयाल में
न आएंगे। उसके
शब्द ही शब्द
आपके आस-पास
रह जाएंगे।
कभी
आपने खयाल
किया है, जब आप
पीछे किसी
आदमी को याद
करते हैं, तो
सिवाय शब्दों
के आपको कुछ
और याद आता है?
याद आता है,
उस आदमी ने
कैसे आपको
देखा था? याद
आता है, उसने
कैसे आपके हाथ
का स्पर्श
किया था? याद
आता है, उसके
शरीर की गंध
कैसी थी? याद
आता है, उसकी
आंखों का ढंग
कैसा था? याद
आता है, वह
कमरे में कैसा
प्रवेश हुआ था?
याद आता है,
वह कैसा
बैठा था, उठा
था?
कुछ भी
याद नहीं आता
है। इतना ही
याद आता है कि उसने
क्या कहा था।
आदमी न हुआ वह, ग्रामोफोन
हुआ। आपने
उसके बाबत जो
स्मृति बनाई
है, वह
सिर्फ शब्दों
की है। उसके
पूरे
अस्तित्व का
आपको कोई भी
पता नहीं है।
कितनी हैरानी
की बात है! अगर
आप अपनी मां
की शक्ल भी
आंख बंद करके
गौर से देखना
चाहें, तो
आप पक्का पता
न लगा पाएंगे
कि मां की
शक्ल कैसी है।
आप
शायद एकदम से
मेरी बात को
इनकार करेंगे
कि ऐसा कैसे
हो सकता है? आप
घर जाकर करना।
आंख बंद कर
लेना और देखना
कि मां की
शक्ल कैसी है?
और आप
पाएंगे कि जब
तक गौर नहीं
किया था, तब
तक तो कुछ-कुछ
पता था कि ऐसी
है। और जब आप
गौर करेंगे, तो बहुत
धुंधला हो
जाएगा, सब
रूप-रेखा खो
जाएगी, मां
की शक्ल भी आप
न पकड़ पाएंगे।
क्योंकि किस बेटे
ने मां को
देखा है?
और अगर
याद भी आएगी, तो
किसी
फोटोग्राफ के
कारण याद आएगी,
मां की वजह
से नहीं आएगी।
कोई चित्र की
वजह से याद आ
सकती है। आपके
घर में कोई
चित्र लटका है,
वह याद आ
जाएगा। लेकिन
फर्क समझना
आप। मां मौजूद
थी, वह याद
नहीं आती है।
उसके खून से
बड़े हुए हैं, उसकी गोदी
में उठे हैं, उसके साथ दौड़े
हैं, बैठे
हैं, बात
की है, सब
किया है, वह
याद नहीं आती।
एक तस्वीर जो
घर में लटकी
है, वह याद
आती है!
तस्वीर एक
वस्तु है, मां
एक व्यक्ति
है। लेकिन
व्यक्ति याद
नहीं आता और
तस्वीर याद
आती है। क्या,
कारण क्या
होगा?
असल
में,
हम जीवित के
संपर्क से
बचते रहते हैं
खुद भी; और
दूसरा भी
हमारे जीवित
को न जान ले, उसको भी
बचाते रहते
हैं। यह सारी
जिंदगी एक बचाव
है। और भाषा
बड़ी कुशलता से
बचाने का
इंतजाम कर
देती है।
एक फ्रेंच
वैज्ञानिक
बारह वर्षों
तक साइबेरिया
में एस्कीमोज
के बीच में
रहा। बारह
वर्ष लंबा
वक्त है। और एस्कीमो इस
पृथ्वी पर उन
थोड़ी सी कौमों
में से एक हैं, जो
भाषा के कारण
अभी भी पागल
नहीं हुए हैं।
एस्कीमो
दिन में
दस-पांच शब्द
बोले तो काफी
है। अगर एस्कीमो
को भूख लगी है,
तो वह इतना
नहीं कहता कि
मुझे भूख लगी
है, वह
इतना ही कहता
है--भूख! और
कहने पर जोर
कम होता है, उसका हाथ
कहता है भूख, उसकी आंख
कहती है भूख, उसका पूरा
शरीर कहता है
भूख!
बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया। उस
वैज्ञानिक के
संस्मरण मैं
पढ़ता था। उसने
लिखा है कि
मेरे पहले छह
महीने तो ऐसे
थे,
जैसे मैं
नर्क में पड़
गया। क्योंकि
वे बोलते ही
नहीं हैं। और
मैं बोलने को
उबलता था।
लेकिन किससे
बोलूं? तो
उसने लिखा है
कि मैं अकेले
में जाकर अपने
से ही जोर से
बोल लेता था।
आप सब
भी अपने से
अकेले में
बोलते हैं।
रास्ते पर
चलते हुए
लोगों को देखो, करीब-करीब
सब अपने से
बातचीत करते
चले जा रहे हैं।
कभी-कभी तो
बातचीत गर्मा-गर्मी
की भी हो जाती है--अकेले
में ही।
हाथ-पैर तक
हिल जाते हैं;
सिर झटका दे
देता है, इशारे
हो जाते हैं।
और हर आदमी
अपने से भीतर
बात करने में
लगा है। बाहर
आप बात कर रहे
हैं; भीतर
आप बात कर रहे
हैं; एक
क्षण का अवकाश
नहीं कि नाम
से आप हट जाएं,
शब्द से आप
हट जाएं और
अस्तित्व में
आपकी गति हो
जाए।
लेकिन
छह महीने
तकलीफ तो बहुत
थी उस
वैज्ञानिक को, छह
महीने के बाद
उसे बड़े अनूठे
अनुभव होने
शुरू हुए।
पहली दफे
जिंदगी में
शब्दहीन गैप,
शब्दहीन
अंतराल आने
लगे। और तब
उसे पता चला
कि एस्कीमो
किसी और ही
दुनिया में रह
रहे हैं।
लाओत्से
जिस दुनिया की
बात कर रहा है, जिन
लोगों की बात
कर रहा है, जिन
संभावनाओं की
बात कर रहा है,
वह शब्दहीन
अनुभूति की
संभावना की
बात है। शब्द
के साथ
वस्तुओं का
जगत आ जाता
है। शब्द के हटते
ही वस्तुओं का
जगत हट जाता
है, अस्तित्व
मात्र ही रह
जाता है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, अनाम
की इस मौन
अनुभूति को
स्वर्ग और
पृथ्वी या चेतना
व पदार्थ, ऐसा
द्वैतमूलक
नाम क्यों
दिया गया है? अद्वैत की
अभिव्यक्ति
क्यों नहीं की
गई है?
अभिव्यक्ति
द्वैत की ही
हो सकती है; अद्वैत
अनभिव्यक्त
रह जाता है।
तो जो अधिकतम किया
जा सकता है, वह दो--बोलने
में। निकटतम
जो सत्य के है,
वह
दो--बोलने
में। बोलने के
बाहर तो एक ही
रह जाता है।
लेकिन भाषा
किसी भी चीज
को दो में
तोड़े बिना
नहीं बोल सकती
है।
लाओत्से
बोल रहा है, लिख
रहा है, तो
जो न्यूनतम
भूल हो सकती
है, वह कर
रहा है। इससे
ज्यादा ठीक
बात नहीं हो
सकती। और अगर
हमें इसे भी
इनकार करना हो,
तो भी शब्द
का ही उपयोग
करेंगे। तो हम
कहेंगे अद्वैत,
दो नहीं।
लेकिन फिर भी
हमें दो का तो
उपयोग करना ही
पड़ेगा। नहीं
कहने के लिए
भी कहना पड़ेगा,
दो नहीं। वह
दो तो हमारा
पीछा करेगा
ही। जब तक हम
बोलने की
चेष्टा
करेंगे, दो
हमारा पीछा
करेगा ही।
बोलना छोड़ें,
तो एक रह
जाता है।
हम कह
सकते हैं कि
हम एक ही
क्यों न बोलें?
लेकिन
हमें खयाल
नहीं है। जब
आप बोलते हैं
एक,
तब तत्काल
दो का खयाल
पैदा हो जाता
है। ऐसा आदमी
खोजना
मुश्किल है, जो बोले एक
और दो का खयाल
पैदा न करवा
दे। और जो बोले
एक, उसको
भी दो का खयाल
तत्काल पैदा
हो जाता है।
असल में, एक
का कोई अर्थ
ही नहीं होता,
अगर दो न
होते हों। एक
सिर्फ दो तक
पहुंचने की सीढ़ी
का काम करता
है, और कुछ
भी नहीं।
लाओत्से
दो शब्दों का
प्रयोग कर रहा
है इसीलिए कि
शब्द में
अधिकतम जो कहा
जा सकता है, वह
दो। अनेक को
घटा-घटा कर दो
तक लाया जा
सकता है। फिर
उसके पार तो
निःशब्द का
जगत है। उसके
पार तो इतना
भी नहीं कहा जा
सकता जितना
लाओत्से कह
रहा है। यह भी
नहीं कहा जा
सकता कि वह एक
अनाम है। उस
एक के लिए अभिव्यक्ति
नहीं दी जा
सकती है। जो
भी हम कहेंगे,
कहते ही दो
बन जाता है।
यह
करीब-करीब ऐसा
है जैसे हम
पानी में एक
लकड़ी को डालें, डालते
ही वह तिरछी
हो जाती है।
होती नहीं, दिखाई पड़ती
है। हो जाती
तो इतना
उपद्रव न था, तो वह भी
सत्य हो जाता
कि लकड़ी तिरछी
हो गई। होती
नहीं, दिखाई
पड़ती है। बाहर
निकालते हैं,
फिर एक हो
जाती है। हो
नहीं जाती, वह एक थी ही।
फिर पानी में
डालते हैं, वह फिर
तिरछी हो जाती
है। और जिस
आदमी ने हजार दफे
पानी में डाल
कर देख ली है, वह जब एक
हजार एकवीं
बार फिर पानी
में डालता है,
तो वह यह
आशा न रखे कि
मैं इतना
अनुभवी हो गया,
अब मुझे
तिरछी न दिखाई
पड़ेगी। तिरछी
तो दिखाई पड़ेगी
ही, अनुभव
केवल इतना ही
फायदा देगा कि
वह आदमी मानेगा
नहीं कि तिरछी
है। दिखाई तो
तिरछी ही पड़ेगी।
जैसे
पानी में
डालते ही
रेडिएशन का
नियम बदल जाता
है,
किरणों की
गति बदल जाती
है, इसलिए
लकड़ी तिरछी
दिखाई पड़ने
लगती है, वैसे
ही भाषा में
सत्य को डालते
ही रेडिएशन बदल
जाता है; और
एक बताने वाला
शब्द भी डालिए
भाषा में, तत्काल
तिरछा होकर दो
की सूचना देने
लगता है।
लाओत्से
को भी पता है
कि जो मैं कह
रहा हूं, वह
द्वैत है।
लेकिन कोई
उपाय नहीं है।
लाओत्से भी
कहेगा, तो
द्वैत का ही
उपयोग करना
पड़ेगा। इतनी
कठिनाई है कि
अगर लाओत्से
चुप भी रहे और
चुप रह कर भी
कहना चाहे, तो भी द्वैत
हो जाएगा।
अभिव्यक्ति
की चेष्टा द्वैत
बना देगी।
समझें!
बहुत मौके पर
ऐसा हुआ है।
शेख
फरीद के पास
कोई गया है और
उससे पूछता है
कि मुझे कुछ
कहो! लेकिन
वही कहना जो
सत्य है, जरा
सा भी असत्य न
हो। मुझे तो
तुम उसी सत्य
को बताना, संतों
ने जिसकी तरफ
इशारा किया है
और कहा है कि
बताया नहीं जा
सकता। तुम
मुझे वही सत्य
बता दो, जो
निःशब्द है।
फरीद ने क्या
कहा? फरीद
ने कहा, जरूर
बताऊंगा, तुम
अपने प्रश्न
को इस भांति
बना कर लाओ कि
शब्द उसमें न
हों। तुम
निःशब्द में
पूछोगे, मैं
निःशब्द में
उत्तर दे
दूंगा। लेकिन
तुम मेरे साथ ज्यादती
मत करो कि तुम
शब्द में पूछो
और मैं निःशब्द
में उत्तर
दूं। तुम जाओ,
तुम
निःशब्द बना
लाओ अपने
प्रश्न को।
मैं वादा करता
हूं कि
निःशब्द में
उत्तर दूंगा।
वह
आदमी चला गया।
कठिनाई तो थी।
बहुत सोचा उसने, वर्षों।
कभी-कभी फरीद
उसके गांव से
निकलता था, तो उसके
दरवाजे
खटखटाता था कि
क्यों भाई, क्या हुआ
तुम्हारे
सवाल का? बना
पाए अब तक कि
नहीं बना पाए?
वह आदमी
कहता, बहुत
कोशिश करता
हूं, लेकिन
प्रश्न बनता
नहीं बिना
शब्द के। और
कोशिश करो, फरीद कहता
था। जब
तुम्हारी
कोशिश पूरी हो
जाए और तुम
बना लो
निःशब्द
प्रश्न, तो
आ जाना मेरे
पास! मैंने
उत्तर तैयार
रखा है।
वह
आदमी भी मर
गया,
फरीद भी मर
गया। न वह
आदमी कभी फरीद
के पास गया; न कभी वह
फरीद का उत्तर
किसी को सुनने
मिला। मरते
वक्त किसी ने
फरीद से पूछा
कि वह तैयार
उत्तर आपके
पास है; वह
आदमी तो आता
ही नहीं, हम
सब सुनने को
उत्सुक हैं।
वह आप हमें
बता जाएं!
फरीद चुप बैठा
रहा।
उन्होंने कहा,
बता दें!
फरीद चुप बैठा
रहा।
उन्होंने कहा,
बता दें, आपकी आखिरी
घड़ी है, कहीं
उत्तर आपके
साथ न चला
जाए। फरीद ने
कहा कि मैं
बता रहा हूं; मैं मौन हूं,
यही मेरा
उत्तर है।
लेकिन अगर मैं
इतना भी कहूं
कि मैं मौन से
बता रहा हूं, तो उससे
द्वैत पैदा
होता है।
क्योंकि उसका
मतलब होता है,
मौन से
बताया जा सकता
है, बिना
मौन के नहीं
बताया जा
सकता। डुआलिटी
खड़ी हो जाती
है, डिस्टिंकशन पैदा हो
जाता है, भेद
निर्मित हो
जाता है। इसलिए
तुम मुझसे यह
मत कहलवाओ
कि मैं मौन से
बता रहा हूं; मैं मौन हूं
और तुम समझ लो,
शब्द मत
उठाओ।
पर
अकेले मौन से
कैसे समझा जा
सकता है?
लाओत्से
ने यह अकेली
एक ही किताब
लिखी है। और यह
उसने लिखी
जिंदगी के
आखिरी हिस्से
में। उसने कोई
किताब कभी
नहीं लिखी। और
जिंदगी भर लोग
उसके पीछे पड़े
थे। साधारण से
आदमी से लेकर
सम्राटों तक
ने उससे
प्रार्थना की
थी कि लाओत्से, अपने
अनुभव को लिख
जाओ। लाओत्से
हंसता और टाल देता।
और लाओत्से
कहता, कौन
कब लिख पाया
है? मुझे
उस नासमझी में
मत डालें।
पहले भी लोगों
ने कोशिश की
है। जो जानते हैं,
वे उनकी
कोशिश पर
हंसते हैं; क्योंकि वे
असफल हुए हैं।
और जो नहीं
जानते, वे
उनकी असफलता
को सत्य समझ
कर पकड़ लेते
हैं। मुझसे यह
भूल मत
करवाएं। जो
जानते हैं, वे मुझ पर
हंसेंगे कि
देखो, लाओत्से
भी वही कर रहा
है। जो नहीं
कहा जा सकता, उसे कह रहा
है; जो
नहीं लिखा जा
सकता, उसको
लिख रहा है।
नहीं, मैं
यह न करूंगा।
लाओत्से
जिंदगी भर
टालता रहा, टालता
रहा। मौत करीब
आने लगी; तो
मित्रों का
दबाव और
शिष्यों का
आग्रह भारी पड़ने
लगा। लाओत्से
के पास सच में
संपदा तो बहुत
थी। बहुत कम
लोगों के पास
इतनी संपदा
रही है, बहुत
कम लोगों ने
इतना गहरा
जाना और देखा
है। तो
स्वाभाविक था,
आस-पास के
लोगों का
आग्रह भी उचित
और ठीक ही था कि
लाओत्से लिख
जाओ, लिख
जाओ।
जब
आग्रह बहुत बढ़
गया और मौत
आती दिखाई न
पड़ी,
और लाओत्से
मुश्किल में
पड़ गया, तो
एक रात निकल
भागा। निकल
भागा उन लोगों
की वजह से, जो
पीछे पड़े थे
कि लिखो! बोलो!
कहो! सुबह
शिष्यों ने देखा
कि लाओत्से की
कुटिया खाली
है। पक्षी उड़ गया,
पिंजड़ा खाली पड़ा
है। वे बड़ी
मुश्किल में
पड़ गए। सम्राट
को खबर की गई
और लाओत्से को
देश की सीमा
पर पकड़ा गया।
सम्राट ने
अधिकारी भेजे
और लाओत्से को
रुकवाया,
चुंगी पर देश
की, जहां
चीन समाप्त
होता था। और
लाओत्से से
कहा कि सम्राट
ने कहा है कि
चुंगी दिए
बिना जा न सकोगे
बाहर। तो
लाओत्से ने
कहा कि मैं
कुछ ले ही नहीं
जा रहा हूं
जिस पर चुंगी
देनी पड़े! मैं
कोई कर चुकाऊं?
मैं कुछ ले
नहीं जा रहा
हूं! सम्राट
ने खबर भिजवाई
कि तुमसे
ज्यादा
संपत्ति इस
मुल्क के बाहर
कभी कोई आदमी
लेकर नहीं
भागा है। रुको
चुंगी नाके पर
और जो भी
तुमने जाना है,
लिख जाओ!
यह
किताब उस
चुंगी नाके पर
लिखी गई थी।
वह लिख जाओ, तो
मुल्क के बाहर
निकल सकोगे, अन्यथा
मुल्क के बाहर
नहीं निकल
सकोगे। मजबूरी
में, पुलिस
के पहरे में, यह किताब
लिखी गई थी।
लाओत्से ने
कहा, ठीक
है, मुझे
जाना ही है
बाहर, तो
मैं कुछ लिखे
जाता हूं।
यह ताओ
तेह किंग
अनूठी किताब
है। इस तरह
कभी नहीं लिखी
गई कोई किताब।
भाग रहा था
लाओत्से इसी
किताब को
लिखने से बचने
के लिए।
निश्चित कठोरता, लगती
है, सम्राट
ने की; लेकिन
दया भी लगती
है। यह किताब
न होती! और लाओत्से
जैसे और लोग
भी हुए हैं, जो नहीं लिख
गए हैं। लेकिन
जो नहीं लिख
जाते हैं, उससे
भी तो क्या
फायदा होता है?
जो लिख जाते
हैं, उससे
भी क्या फायदा
होता है? जो
नहीं लिख जाते,
उन पर कम से
कम विवाद नहीं
होता। जो लिख
जाते हैं, उन
पर विवाद होता
है। जो लिख
जाते हैं, उनके
एक-एक शब्द का
हम विचार करते
हैं कि क्या मतलब
है! और मतलब
शब्द के बाहर
है। कभी अगर
मनुष्य-जाति
का अंतिम
लेखा-जोखा
होगा, तो
कहना मुश्किल
है कि जो लिख
गए हैं वे
बुद्धिमान
समझे जाएंगे
कि जो नहीं
लिख गए हैं वे
बुद्धिमान
समझे जाएंगे।
वैसे दो में से
कुछ भी चुनो, द्वैत का ही
चुनाव है। कोई
लिखने के
खिलाफ चुप
रहने को चुन
लेता है; कोई
चुप रहने के
खिलाफ लिखने
को चुन लेता
है। बाकी
द्वैत से बचने
का उपाय नहीं
है।
तो
लाओत्से जब
शब्द का उपयोग
करेगा, तो
द्वैत आ जाएगा।
इसलिए उसने
जान कर कहा कि
वह अनाम
पृथ्वी और
स्वर्ग का जनक
है और वह
नामधारी
वस्तुओं का मूल
स्रोत है।
द्वैत
निश्चित आ
जाता है शब्द
के साथ। लेकिन
इसी आशा में
लाओत्से जैसे
लोग शब्द का
उपयोग करते
हैं कि शायद
शब्द के सहारे
निःशब्द की ओर
धक्का दिया जा
सके। यह संभव
है। क्योंकि
द्वैत केवल
दिखाई पड़ता है, है
नहीं; इसलिए
यह संभव है।
द्वैत केवल
दिखाई पड़ता है,
है नहीं।
अगर होता, तब
तो कोई
संभावना न थी।
समझें
कि हम यहां एक
वीणा के तार
को मैं छेड़
देता हूं और
छोड़ देता हूं।
ध्वनि होती है
पैदा इस भवन
में,
गूंजती है आवाज, फिर
धीरे-धीरे
आवाज शून्य
में खोने लगती
है। क्या आप
बता सकते हैं,
आवाज कब खो
जाएगी और कब
शून्य शुरू
होगा? क्या
आप कोई सीमा
खींच सकेंगे,
जब आप कह
सकें, इस
समय तक वीणा
का स्वर
गूंजता था और
इसके आगे गूंजना
बंद हो गया? क्या आप
स्पष्ट रूप से
ध्वनि में और
निर्ध्वनि
में कोई सीमा
खींच सकेंगे?
या कि आप
पाएंगे कि
ध्वनि
निर्ध्वनि
में खोती चली
जाती है; शब्द
शून्य बनता
चला जाता है।
अगर एक वीणा
के छेड़े
गए तार के साथ
आप अपने मन के
तार को बिठा
कर बैठ जाएं
और जैसे-जैसे
तार की छेड़ी
हुई ध्वनि
शून्य में
गिरने लगे, आप भी उसके
साथ उतने ही
मौन में गिरने
लगें, तो
थोड़ी ही देर
में आप पाएंगे
कि ध्वनि के
सहारे आप
निर्ध्वनि
में पहुंच गए
हैं, शब्द
के सहारे आप
निःशब्द में
पहुंच गए हैं।
इस आशा
में ही
लाओत्से या
बुद्ध या
महावीर या कृष्ण
या क्राइस्ट
बोलते हैं। इस
आशा में ही कि
शायद उनके
शब्द के सहारे
से आपको वे
धीरे से निःशब्द
में ले जा
सकें। एक उपाय
की भांति।
बुद्ध
निरंतर कहते
थे कि मैं जो
भी बोलता हूं, वह
उसे कहने के
लिए नहीं जो
है, तुम्हें
वहां तक
पहुंचाने के
लिए। उसे कहने
के लिए नहीं
जो है, क्योंकि
वह तो नहीं
कहा जा सकता।
लेकिन तुम्हें
वहां तक
पहुंचाया जा
सकता है, जहां
वह है। शायद
मेरे शब्दों
की आवाज सुन
कर तुम उस तरफ
की यात्रा पर
निकल जाओ। उस
आयाम में, उस
दिशा में
तुम्हारा
मुंह फिर जाए,
तो शायद
किसी दिन तुम
उस महागङ्ढ
में, उस
एबिस में गिर
जाओ, उस
अतल में गिर
जाओ, जहां
उस परम का
साक्षात्कार
है।
लेकिन
द्वैत तो सभी
की भाषा में आ
जाएगा। बुद्ध
संसार और
निर्वाण की
बात करते हैं, द्वैत
हो गया।
महावीर
पदार्थ और
आत्मा की बात करते
हैं, द्वैत
हो गया। यह तो
खैर, लेकिन
महावीर तो
कहते हैं कि
ठीक है, द्वैत
को मैं मान कर
चलता हूं।
शंकर तो द्वैत
को मान कर
नहीं चलते; लेकिन माया
और ब्रह्म की
बात किए बिना
काम नहीं चलता
है। शंकर तो
कहते हैं, दो
नहीं हैं, फिर
भी माया की
बात और ब्रह्म
की बात तो
करनी ही पड़ती
है। क्योंकि
अगर दो नहीं
हैं, तो
शंकर लोगों से
क्या कह रहे
हैं फिर? किस
चीज से छूटना
है, अगर दो
नहीं हैं? किस
चीज से मुक्त
होना है, अगर
दो नहीं हैं? अगर ब्रह्म
ही है, तो
हम सब ब्रह्म
हैं ही। अब
जाना कहां? अब पहुंचना
कहां है? अब
करना क्या है?
तो शंकर को
भी कहीं से तो छुड़ाना
पड़ता है। कुछ
है जो छोड़ने
जैसा
है--अज्ञान है,
माया है, अविद्या है।
फिर दो खड़े हो
जाते हैं।
शंकर बड़ी
मुश्किल में
पड़े रहे, क्या
करें?
महावीर
ने इसलिए
सुस्पष्ट कहा
कि दो हैं, मान
कर चलें।
क्योंकि जब दो
मिट जाएंगे, तब तुम खुद
ही जान लोगे
कि एक है; उसकी
चर्चा हम न
करें। हम दो
की ही चर्चा
करें, हम
दो की ही
चर्चा में से
वहां ले चलें,
जहां दोनों
गिर जाते हैं।
शंकर ने कहा, हम उसकी ही
चर्चा करेंगे,
जो एक है।
लेकिन कठिनाई
में पड़ गए और
दो की चर्चा
करनी पड़ी।
जिन्होंने दो
की चर्चा की
है, उनको
भी एक का
इशारा करना
पड़ा है।
बुद्ध
इतना कहते
हैं--संसार छोड़ो, निर्वाण
पाओ। और आखिरी
वचन में कहते
हैं, संसार
और निर्वाण एक
ही है। बहुत
चौंका गए। बुद्ध
का यह वचन दो
हजार साल तक
बेचैनी का
कारण रहा है
बौद्ध भिक्षु
और साधक के
लिए। संसार ही
निर्वाण है!
इससे ज्यादा,
इससे
ज्यादा कठिन
बात और क्या
होगी? अगर
संसार ही
निर्वाण है, तो फिर जाना
कहां है? फिर
छोड़ना क्या है?
फिर पाना
क्या है? तो
कुछ तो बुद्ध
के पंथ हैं जो
इनकार करते
हैं कि यह वचन
बुद्ध का न
होगा।
क्योंकि
बुद्ध तो कहते
हैं, छोड़ो संसार और
पाओ निर्वाण।
यह दोनों को
एक वह कैसे कहेंगे?
इनकार ही
करते हैं कि
यह वचन बुद्ध
का नहीं होगा।
लेकिन
जो जानते हैं, वे
कहते हैं, यही
वचन बुद्ध का
है; बाकी
और छोड़े भी जा
सकते हैं। जब
बुद्ध ने जाना
होगा, तब
संसार और
निर्वाण में
कोई भी फर्क
नहीं रह जाता
है। तब शरीर
और आत्मा में
भेद नहीं। तब
माया और
ब्रह्म एक
हैं। और तब
बंधन और
स्वतंत्रता
एक ही चीज के
दो रूप
हैं--बंधन और
स्वतंत्रता!
पर यह अनुभव; अभिव्यक्ति
तो तत्काल दो
बन जाएगी।
अभिव्यक्ति
देने के लिए
लाओत्से कहता
है: पृथ्वी और
स्वर्ग, पदार्थ
और चेतना।
प्रश्न:
भगवान
श्री, कल
कहा गया है कि
जिसे नाम दिया
जा सके, वह
सनातन व
अविकारी सत्य
न होगा। लेकिन
परम सत्य को
दिए गए नाम
कामचलाऊ हैं
और नाम-सुमिरण
की साधना से
भी लोग अनाम
को उपलब्ध हुए
हैं। कृपया
समझाएं कि
विकारी नाम से
यात्रा
प्रारंभ करके
अविकारी अनाम
को उपलब्ध
क्यों नहीं किया
जा सकता?
लाओत्से
छलांग को पसंद
करता है, सीढ़ियों
को नहीं। ऐसे
तो सीढ़ी भी
छोटी छलांग है।
जब आप सीढ़ी भी चढ़ते हैं, तब भी सीढ़ी
क्या चढ़ते
हैं, छोटी-छोटी
छलांग लेते
हैं। बीस
हिस्सों में बांट
देते हैं। कोई
आदमी बीस
हिस्सों की
सीढ़ी को
इकट्ठी छलांग
लेता है, एक
छलांग में ही
बीस सीढ़ियों वाले
हिस्से को कूद
जाता है। अगर
हम कहना चाहें
तो यह भी कह
सकते हैं कि
वह आदमी बड़ी
सीढ़ी बनाता
है। छलांग न
कहना चाहें तो
कोई अड़चन नहीं
है, हम कह
सकते हैं कि
वह आदमी बीस
सीढ़ी की एक ही
सीढ़ी बनाता
है। एक आदमी
उसी हिस्से को
बीस टुकड़ों
में तोड़ कर
सीढ़ी पर चढ़ता
है। हम ऐसा भी
कह सकते हैं
कि वह आदमी
बीस छलांग लेता
है। आदमी-आदमी
पर निर्भर है;
साहस-साहस
पर निर्भर है।
लाओत्से
छलांगवादी
है। वह कहता
है कि जिसे
छोड़ना ही है, उसे
पकड़ना ही
क्यों! विकारी
से निर्विकारी
तक जाना
है--छोड़ कर ही
जाया जा सकता
है। छोड़ दो और
पहुंच जाओ।
जो सीढ़ीवादी
हैं,
जो ग्रेजुएल
प्रोग्रेस की
धारणा रखते
हैं, जैसा
कि आमतौर से
नाम-स्मरण
वाले साधक और
संत हुए हैं।
जैसे मीरा है
या चैतन्य हैं,
ये भी वहीं
पहुंच जाते
हैं जहां
लाओत्से पहुंचता
है। लेकिन वे
कहते हैं, छोड़ना
है जरूर, लेकिन
धीरे-धीरे
छोड़ना है।
एक-एक सीढ़ी
छोड़ते
चलेंगे।
तो अब
जैसे नानक हुए
हैं। वे सब
सीढ़ी...। तो
नानक कहते हैं, पहले
जाप शुरू करो,
नाम-स्मरण
शुरू करो। और
कहे चले जाते
हैं कि उसका
कोई नाम नहीं
है; उसका
कोई नाम नहीं
है। वह जो अलख
निरंजन है, उसका कोई
नाम नहीं है; वह जो अकाल
है, वह समय
के बाहर है।
पर नाम-स्मरण
करो। पहले ओंठ
से नाम-स्मरण
करो--यह पहली
सीढ़ी। फिर ओंठ
को बंद कर लो, फिर कंठ से
नाम-स्मरण
करो--यह दूसरी
सीढ़ी। फिर कंठ
से भी छोड़ दो, फिर हृदय से
स्मरण करो--यह
तीसरी सीढ़ी।
फिर हृदय से
भी छोड़ दो, फिर
अजपा जाप हो
जाए। तुम मत
करो, जाप
को होने दो।
तुम मत करो।
और ऐसा हो
जाता है। ओंठ
से; फिर
कंठ से; फिर
कंठ से भी
नहीं, फिर
सिर्फ हृदय से;
और जब हृदय
से होने लगता
है, तो छोड़
दो--फिर पूरे
शरीर के
रोएं-रोएं में,
पूरे
अस्तित्व में
नाम गूंजने
लगता है। पर
यह भी मंजिल
नहीं है, अभी
सीढ़ी ही चल
रहे हैं। फिर
इसको भी छोड़
दो। फिर अजपा;
अब जाप ही
नहीं। पर यह
चार सीढ़ियों
में छोड़ा गया।
अजपा आएगा, अनाम आएगा, लेकिन चार
सीढ़ियों में
छोड़ा गया।
लाओत्से
कहता है, जिसे
छोड़ना ही है, उसे इतने
धीरे-धीरे
क्या छोड़ना? लाओत्से
कहता है कि
अगर छोड़ते हो
इतने धीरे-धीरे,
तो इसका
मतलब है, छोड़ने
का तुम्हारा
मन नहीं है। पकड़े रखना
चाहते हो, इसलिए
पोस्टपोन
करते हो। कहते
हो कि जरा अभी
ओंठ से कर लें,
फिर ओंठ का
छोड़ देंगे।
फिर कंठ से कर
लेंगे, फिर
कंठ से छोड़
देंगे। जब
अजपा में ही
जाना है, तो
लाओत्से कहता
है, अभी और
यहीं! समय को
खोने की जरूरत
क्या है? छोड़
दो। छलांग, जंप।
लेकिन
जरूरी नहीं है
कि लाओत्से
जैसा कहता है, वैसा
सभी को सुगम
हो। कभी-कभी
तो छुड़ाने
के लिए
धीरे-धीरे ही छुड़ाना
पड़ता है। लोग
हैं, टाइप
हैं, बड़े
भिन्न-भिन्न
तरह के लोग
हैं।
अगर
किसी को हम
कहें कि छलांग
के सिवा कोई
रास्ता ही
नहीं है, सीढ़ियों
से उतरने का
उपाय ही नहीं
है, तो
इसका मतलब यह
नहीं कि वह
छलांग
लगाएगा। अगर
वह छलांग
लगाने वाला
नहीं है, तो
सीढ़ियां
भी नहीं
उतरेगा, बस
इतना ही होगा।
वह बैठ कर ही
रह जाएगा। वह
कहेगा, यह
बात ही अपने
काम की नहीं
है। पर उसके
लिए भी परमात्मा
तक पहुंचने का
मार्ग तो होना
ही चाहिए। उसे
कोई कहता है, सीढ़ियों से
आ जाओ।
लाओत्से
जो कह रहा है, वह
उसके अपने
टाइप की बात
कह रहा है।
इसे सदा ध्यान
में रखना, नहीं
तो मेरी बात
में आपको
निरंतर
कठिनाई होगी।
मेरा अपना, खुद का, निजी
जो स्वभाव है,
वह ऐसा है
कि जब मैं
लाओत्से पर बोल
रहा हूं, तो
मैं लाओत्से
होकर ही बोल
रहा हूं। फिर
मैं भूल जाऊंगा
कि कोई चैतन्य
कभी हुए, कि
कोई मीरा कभी
हुई, कि
कोई कृष्ण ने
कभी कोई गीता
कही। वह मेरे
नहीं बीच में
आएगी। वह बात
खतम हो गई।
तो
अच्छा होगा कि
जब लाओत्से पर
बोल रहा हूं, तो
दूसरे सवाल
बीच में मत
उठाएंगे।
उससे समझने
में फायदा
नहीं होगा, नुकसान ही
पड़ेगा। जब
कृष्ण पर
बोलता हूं, तब पूछ लेना;
तब लाओत्से
को बीच में मत
लाना।
क्योंकि जब कृष्ण
पर बोलता हूं,
तो कृष्ण ही
होकर बोलना
है। फिर बीच
में दूसरे को
लाना नहीं है।
और मेरा अपना
कोई लगाव नहीं
है; इसीलिए
मैं किसी के
भी साथ पूरा
हो सकता हूं।
मेरा अपना कोई
लगाव नहीं है।
अगर मेरा अपना
कोई लगाव हो, तो मैं किसी
के साथ पूरा
नहीं हो सकता।
अगर मेरा लगाव
हो कि
नाम-स्मरण से
ही पहुंचा जा
सकता है, तो
फिर लाओत्से
को मैं आपको न
समझा पाऊंगा।
अन्याय हो
जाएगा।
नहीं! मैं
कहता हूं, लाओत्से
बिलकुल ही ठीक
कहता है, एकदम
ठीक कहता है।
और फिर भी जब
मैं चैतन्य पर
बोलूंगा, तो
कहूंगा कि
चैतन्य
बिलकुल ठीक
कहते हैं। सीढ़ियों
से भी पहुंचा
जा सकता है।
लेकिन अभी उसे
मत उठाएं।
क्योंकि उसे
उठाने से
लाओत्से को समझने
में कोई
सुगमता न
होगी। उसे भूल
जाएं, उसे
बिलकुल ही भूल
जाएं।
लाओत्से को
समझने बैठे
हैं तो छलांग
की बात ही
पूरी समझ लें।
नहीं
तो हमारा मन
ऐसा करता है, जब
मैं छलांग की
बात समझाने
बैठता हूं तब
आप सीढ़ियों की
बात उठाते हैं
और जब मैं
सीढ़ियों की
बात समझाने
बैठता हूं तब
आप छलांग की
बात उठाते
हैं। आप चूकते
हैं। बेईमानी
है वह मन की।
क्योंकि जब
मैं कहता हूं,
कीर्तन करो,
तब आप कहते
हैं कीर्तन से
क्या होगा? और जब मैं
कहता हूं, सब
फेंक दो, नाम
वगैरह जला दो,
तब आप कहते
हैं कि यह आप
तो कह रहे थे
कि कीर्तन से
होगा। न आपने
वह किया, न
आप यह करेंगे।
आप अपना बचाव
खोजते चले
जाएंगे।
आप से
जो बन पड़े, वह
कर लो। लेकिन
इतना तो कर ही
लो कम से कम कि
जो मैं समझा
रहा हूं, उसे
पूरा का पूरा,
प्रामाणिक
समझ लो। उसमें
दूसरे को डालो
ही मत। वह सब फारेन है।
जैसे लाओत्से
के बीच में
नाम की बात ही
मत लाना।
संकीर्तन, कीर्तन
का सवाल ही मत
उठाना। वह
बिलकुल कचरा
है। लाओत्से
की व्यवस्था
में उसका कोई
भी उपयोग नहीं
है। वह वैसा
ही है, जैसे
कि एक बैलगाड़ी
के चाक को उठा
कर और कार में
लगाने की
कोशिश में कोई
लग जाए। ऐसा
नहीं कि बैलगाड़ी
नहीं चलती है;
बैलगाड़ी बराबर चलती
है। उलटा भी
नहीं होगा।
कार के चक्के
को भी बैलगाड़ी
में लगाने मत
चले जाना। ऐसा
नहीं कि वह
नहीं चलता है;
वह भी चलता
है। एक सिस्टम
अपने भीतर
गतिमान होती
है, अपने
बाहर व्यर्थ
हो जाती है।
लाओत्से
के लिए सब
बेमानी है। और
लाओत्से ठीक कहता
है,
गलत नहीं
कहता। असल में,
ठीक इतनी
बड़ी बात है, सत्य इतना
बड़ा है कि वह
अपने से
विपरीत
सत्यों को समा
लेता है। सत्य
इतना बड़ा है
कि वह अपने से
विपरीत को भी
मेहमान बना
लेता है।
असत्य बहुत
छोटा होता है;
वह अपने से
विपरीत को
मेहमान नहीं
बना सकता। सत्य
के भवन में, जैसा कि
जीसस ने कहा
है कि मेरे
प्रभु के मकान
में बहुत कक्ष
हैं--देयर आर
मेनी मैन्शंस
इन माई
लार्ड्स
हाउस। बहुत
कक्ष हैं मेरे
प्रभु के मकान
में। और एक-एक
कक्ष इतना बड़ा
है कि एक
कृष्ण के लिए,
एक बुद्ध के
लिए, एक
महावीर के लिए,
एक लाओत्से
के लिए, और
इस तरह के
हजार लोग हों,
तो उनके लिए
एक कक्ष काफी
है एक-एक के
लिए। और वे
सभी कक्ष
प्रभु के मंदिर
के कक्ष हैं।
लेकिन
जब मैं
तुम्हें
लाओत्से के
कक्ष का दरवाजा
बताऊं, तब
तुम यह मत
कहना कि यह
दरवाजा तो लाल
रंग का है; कल
जो कक्ष का
आपने दरवाजा
दिखाया था, कृष्ण का, वह तो पीले
रंग का था। आप
तो कहते थे कि
पीले रंग के
दरवाजे से
प्रवेश होगा।
अब आप कहते हैं,
लाल रंग के
दरवाजे से
प्रवेश होगा!
और मजा
यह है कि आप
पीले रंग के
दरवाजे से भी
प्रवेश नहीं
किए थे और अब
आप पीले रंग
के दरवाजे की आड़ लेकर
लाल रंग के
दरवाजे से भी
प्रवेश नहीं
करेंगे।
कहीं
से भी प्रवेश
कर जाएं!
छलांग बने
लगाते, छलांग
लगा जाएं।
जिनका चित्त
युवा है और
साहस से भरा
है, वे
छलांग लगा
जाएं। जो डरे
हुए हैं, भयभीत
हैं, छलांग
लगाने में पता
नहीं हाथ-पैर
न टूट जाएं, वे भी कम से
कम सीढ़ियां
तो उतरें। वे
वहीं पहुंच
जाएंगे थोड़ी
देर-अबेर।
लेकिन बैठे न
रह जाएं। क्योंकि
बैठने वाला
कभी नहीं
पहुंचेगा। और
यह भी मैं
नहीं कहता कि
हर कोई छलांग
लगा जाए। क्योंकि
जिसका मन
लगाने का न हो,
वह न ही
लगाए।
क्योंकि
जरूरी नहीं है
कि छलांग से
पहुंचे ही, हाथ-पैर भी
तोड़ ले सकता
है। यह जरूरी
नहीं है कि
छलांग लगाने
में कोई गौरव
है। लगती हो
तो लगाएं, न
लगती हो तो
सीढ़ियों से
उतर आएं।
लेकिन
जिससे छलांग
लगती हो वह
सीढ़ियों से
उतर कर समय
क्यों जाया
करे?
और ध्यान
रहे, जो
छलांग लगा
सकता है, वह
सीढ़ियों पर
गिर भी सकता
है। सीढ़ियां
बहुत छोटी
पड़ेंगी उसके
लिए। वह गिर
सकता है, हाथ-पैर
तोड़ सकता है।
जैसा सीढ़ियों
से उतरने वाला
छलांग में
हाथ-पैर तोड़
सकता है, वैसा
छलांग लगाने
वाला सीढ़ियों
में हाथ-पैर तोड़
सकता है।
नहीं, निश्चित
कर लें। अपने
को समझ लें।
मैं तो न मालूम
कितने
मार्गों की
बात किए चला जाऊंगा।
आपको जो
दरवाजा अपने
जैसा लगे, आप
उसमें प्रवेश
कर जाना। आप
इसकी फिक्र मत
करना कि आगे
के दरवाजे को
और समझ लें।
आपको जो भी
समझने जैसा
लगे, वहां
से चुपचाप
प्रवेश कर
जाना।
और
आखिर में
मंदिर के बीच
में पहुंच कर
आप पाएंगे कि
और दरवाजों
से प्रवेश किए
लोग भी वहीं
पहुंचे हैं।
किस दरवाजे से
पहुंचे हैं आप, यह
मंदिर के अंतर्गृह
में पहुंचने
पर कोई नहीं
पूछता--कि आप
किस दरवाजे से
आए? बाएं
से आए कि दाएं
से आए? छलांग
लगा कर चढ़े थे सीढ़ियां, कि सीढ़ियां
आसानी से चढ़े
थे? मंदिर
के भीतर पहुंच
कर, प्रभु
की प्रतिमा के
निकट पहुंच कर
कोई आप से हिसाब
नहीं पूछेगा
कि आप धीमे आए,
तेजी से आए?
एक-एक सीढ़ी
चढ़े, दो-दो सीढ़ियां
छलांग लगाईं?
कूद कर आ गए?
क्या किया,
कोई नहीं
पूछेगा। न आप
ही याद रखेंगे
कि आप कैसे
आए। मंजिल पर
पहुंच गया
यात्री
तत्काल भूल जाता
है मार्ग को।
मार्ग तभी तक
याद रहता है जब
तक मंजिल नहीं
है।
ये
सवाल न उठाएं; इससे
लाओत्से को समझने
में कठिनाई
पड़ेगी। और
इससे चैतन्य
या मीरा को
समझने में कोई
सुविधा न
होगी।
लाओत्से को
समझने चले हैं
तो पूरा का
पूरा आत्मसात
हो जाएं, उसकी
बात समझें। वह
बिलकुल ठीक कह
रहा है। कुछ
लोग उसके ही
रास्ते से
पहुंचे हैं, कुछ लोग उसी
के रास्ते से
पहुंच सकते
हैं। आप में
से भी कुछ
होंगे, जो
उसी के रास्ते
से पहुंच सकते
हैं। पूरी तरह
समझ लें। शायद
आप ही वही
हों। तो वह रस
आपके मन में
बैठ जाए तो
रास्ता बन
जाए।
लेकिन
हमारा मन सदा
ऐसा होता है।
पहले मैं लोगों
को शांत बैठ
कर ध्यान करवा
रहा था। तो वे
मुझसे आकर
कहते थे कि इसमें
तो कुछ होता
नहीं, बैठे
रहते हैं। वही
लोग, ठीक
वही लोग, जब
मैं तेजी से
ध्यान करवाने
लगा, आकर
मुझसे कहने
लगे कि इससे
तो वह शांत
बैठने वाला
बहुत अच्छा
था। उन्होंने
ही मुझसे कहा
था कि इससे
कुछ नहीं होता,
शांत बैठे
समय खराब हो
जाता है। अब
वे मुझसे कहते
हैं कि वह
बहुत अच्छा था,
उसमें तो
शांत बैठ कर
बड़ा आनंद आता
था। उस वक्त
उन्होंने
मुझसे उलटा
कहा था।
नहीं, आनंद
नहीं; अब
इससे बचना है।
तब वे उससे बच
रहे थे, कि
इससे कुछ नहीं
होता। अब वे
पीछे लौट कर
कहते हैं कि
उससे कुछ होता
था। अब इससे
बचना है।
अगर
बचते चले जाना
है,
तब तो कोई
अड़चन नहीं है।
अन्यथा जब एक
बात को समझने बैठें, तो
शेष सब बातों
को भूल जाएं।
तब पूरे उसमें
लीन हों, डूबें।
शायद वह
रास्ता आपके
लिए रास्ता बन
जाए।
और कुछ
पूछना हो तो
पूछ लें, सूत्र
फिर कल लेंगे।
प्रश्न:
जिस
निर्विचार
स्थिति का
आपने वर्णन
किया है
जिसमें
कांशसनेस, चेतना
का अस्तित्व
निष्क्रिय तो
होना ही चाहिए।
तो अगर कांशस
माइंड पूर्ण
निर्विचार व
निष्क्रिय हो
जाए तो इसमें
और जड़
अस्तित्व में
क्या फर्क
होगा? जब
कुछ भी करना
नहीं, सिर्फ
निपट होना ही
लक्ष्य हो, तो ऐसी
स्थिति में और
मृत शांति में
कोई फर्क नहीं
होता? हमारे
लिए चेतना के
अस्तित्व का
क्या प्रयोजन
हो सकता है? लकड़ी की
कुर्सी का
अस्तित्व और
निर्विचार-निष्क्रिय
मानवीय
अस्तित्व में
क्या फर्क है,
कृपया
समझाएं।
न तो
आपने कभी लकड़ी
की कुर्सी
होकर देखा, और
न कभी
निर्विचार
मनुष्य होकर
देखा। दोनों
में से कोई भी
आपने नहीं
देखा है।
लेकिन सोचते
हैं हम कि
दोनों में
फर्क होना
चाहिए; या
सोचते हैं कि
शायद दोनों
में कोई फर्क
न होगा। लकड़ी
की कुर्सी
कैसा अनुभव
करती है, इसका
आपको कोई भी
पता नहीं है।
अनुभव करती भी
है, नहीं
करती, इसका
भी कोई पता
नहीं है। निर्विचार
मनुष्य कैसा
अनुभव करता है,
इसका भी कोई
पता नहीं है।
लेकिन प्रश्न
मन में उठता
है। प्रश्न
बिलकुल
स्वाभाविक
है। हमारे सभी
प्रश्न ऐसे
हैं। हमारे
सभी प्रश्न
ऐसे हैं कि जो
हमारे अनुभव
के बाहर होता
है, उसके
संबंध में हम
प्रश्न
निर्मित कर
लेते हैं।
उनका कोई भी
उत्तर
परिणामकारी
नहीं होगा।
सिर्फ अनुभव
ही
परिणामकारी
हो सकता है।
तो
पहले तो हम
थोड़ा अनुभव को
समझें, फिर
उत्तर को भी
देख लें।
जब
व्यक्ति के
सारे विचार
शांत हो जाते
हैं,
तो
कांशसनेस तो
रहती है, सेल्फ
कांशसनेस
नहीं रहती।
चेतना तो रहती
है, लेकिन स्वचेतना
नहीं रहती।
लेकिन हमें
बड़ी कठिनाई
होगी, क्योंकि
हमने सिवाय
सेल्फ
कांशसनेस के
और कोई
कांशसनेस कभी
जानी नहीं है।
जब हम कहते
हैं, चेतन
हूं मैं, तो
उसका मतलब
होता है, मैं
हूं। हमारे
चेतन होने का
एक ही मतलब
होता है, अपने
होने का हमें
पता है कि मैं
हूं। हालांकि बिलकुल
पता नहीं है
कि कौन हूं? क्या हूं? कुछ पता
नहीं, बस
मैं हूं।
यह जो
हमारी स्वचेतना
है,
सेल्फ
कांशसनेस है,
यह रोग है, बीमारी है।
इसी स्वचेतना
के संघट का
नाम अहंकार है,
ईगो है। इस स्वचेतना
को बढ़ाने के
लिए हम हजार
तरह के उपाय
करते हैं। जब
आप बहुत अच्छे
कपड़े पहन कर
निकले हैं, जैसे किसी
और के पास
नहीं हैं, तो
होता क्या है?
यह स्वचेतना
मजबूत होती
है। साधारण
कपड़ों में
सेल्फ कांशस
होना मुश्किल
हो जाता है।
असाधारण
कपड़ों में आप
सेल्फ कांशस
हो जाते हैं।
अगर आप रथ पर
बैठ कर चल रहे
हैं और बाकी
लोग जमीन पर
चल रहे हैं, तो आप सेल्फ कांशस हो
जाते हैं। आप
हाथी पर बैठे
हैं, बाकी
लोग जमीन पर
हैं, तो आप
सेल्फ कांशस
हो जाते हैं।
आप कुछ हैं।
यह जो होने का
सघन भाव है, यह तो रोग है,
बीमारी है।
यही चिंता है,
यही तनाव है,
यही अशांति
है।
जिस
व्यक्ति के
विचार शून्य
हो जाएंगे, वह
कांशस तो
होगा, सेल्फ
कांशस
नहीं होगा।
चैतन्य तो वह
पूरा होगा, चेतना तो
उसके
रोएं-रोएं में
होगी, चेतना
तो उसके चारों
ओर प्रवाहित
होगी; लेकिन
चेतना के बीच
में कोई मैं
नाम का केंद्र
नहीं होगा--सेंटरलेस!
कोई केंद्र
नहीं होगा मैं
नाम का।
पर यह
कठिन होगा
बिना अनुभव के
खयाल में आना।
क्योंकि
हमारा अनुभव
एक ही है, वह
मैं नाम का
केंद्र जो है,
वह घाव की
तरह बीच में फड़कता
रहता है। उसका
ही हमें पता
है। इसलिए
बेहोशी में
अच्छा लगता है;
शराब पीकर
अच्छा लगता
है। क्योंकि
उसमें वह जो
सेल्फ
कांशसनेस है,
वह डूब जाती
है। वह घाव थोड़ी
देर के लिए
भूल जाता है।
रात गहरी नींद
आ जाती है, तो
सुबह अच्छा
लगता है।
क्योंकि उस
रात की गहरी
नींद में वह
जो बीमारी थी,
वह थोड़ी देर
के लिए छूट
जाती है। कहीं
संगीत सुन
लेते हैं घड़ी
भर, भूल
जाते हैं, अच्छा
लगता है। वह
जो मैं नाम की
बीमारी थी, वह थोड़ी देर
के लिए
विसर्जित हो
जाती है।
लेकिन
चैतन्य को
हमने नहीं
जाना है कभी।
हमने सिर्फ इस
कनसनट्रेटेड
ईगो को जाना
है,
इस एकाग्र
हो गए अहंकार
को जाना है।
यह अहंकार
चेतना का रोग
है।
जब
विचार शून्य
होते हैं, शांत
और निर्विचार
होते हैं, तब
चेतना पूरी
होती है, लेकिन
आप नहीं होते,
मैं नहीं
होता हूं।
होता हूं
सिर्फ। अगर हम
इस मैं हूं को
दो हिस्सों
में तोड़ दें, मैं को अलग
कर दें, सिर्फ
हूं बच जाए, तो हूं होता
हूं--एमनेस।
नॉट आई एम, एमनेस।
मैं हूं ऐसा
नहीं; हूं।
इस हूं में
कहीं कोई मैं
का भाव नहीं
होता। और
चूंकि हूं में
मैं का कोई
भाव नहीं होता,
इसलिए तू का
कोई सवाल नहीं
होता। इधर
गिरता है मैं,
उधर तू गिर
जाता है।
इसलिए
जब हम सेल्फ कांशस
होते हैं, तो
व्यक्ति होते
हैं; और जब
हम सिर्फ
कांशसनेस
होते हैं, तो
समष्टि हो
जाते हैं। जब
होता हूं मैं,
तब मैं अलग
और सारा जगत
अलग। मैं एक
द्वीप बन जाता
हूं, एक
आईलैंड, अलग।
और जब सिर्फ
हूं, मैं
खो गया, तो
मैं एक
महाद्वीप हो
जाता हूं। सब चांदत्तारे
मेरे होने के
भीतर घूमने
लगते हैं।
सूरज मेरे
भीतर उगने
लगता है। फूल
मेरे भीतर खिलने
लगते हैं।
मित्र, शत्रु,
वे सब, जो
कल की भाषा
में जो भी थे, वे सब मेरे
भीतर घटित
होने लगते
हैं। मैं फैल जाता
हूं। इसको
पुराना जो ढंग
है कहने का, वह यह है कि
मैं ब्रह्म हो
जाता हूं।
ब्रह्म का
अर्थ, मैं
फैल जाता हूं।
मैं इतना फैल
जाता हूं कि सब
मेरे भीतर आ
जाता है, कुछ
भी मेरे बाहर
नहीं रह जाता।
तो जब
तक स्वचेतना
है,
तब तक सब
बाहर और आप
अलग। और जब
सिर्फ चेतना
रह जाती है, तो सब भीतर, सब भीतर, बाहर
कुछ भी
नहीं--देयर इज़
नो आउटसाइड।
चैतन्य के लिए
कोई बाहर का
हिस्सा नहीं
है, सब
भीतर ही भीतर
है--ओनली इनसाइडनेस।
पर
उसका अनुभव न
हो तो खयाल
में न आए।
कैसे खयाल में
आए?
क्योंकि हम
तो सोच ही
नहीं सकते कि
कोई ऐसी
इनसाइड हो सकती
है, जिसमें
आउटसाइड न हो।
जहां भी
इनसाइड होती
है, आउटसाइड
होती है।
हमारा सारा
अनुभव यह कहता
है कि घर का
भीतर होगा, तो बाहर भी
तो होगा।
क्योंकि हमें
उस घर का तो पता
नहीं है, जो
यह पूरा विराट
एक ही घर है, इसके बाहर
कुछ भी नहीं
है। जब सिर्फ
चेतना रह जाती
है और विचार
खो जाते हैं, तो सब भीतर आ
जाता है।
तब
सवाल है कि
फिर जड़ और
चेतन में वहां
क्या फर्क
होगा? वह
पूछते हैं आप
कि कुर्सी में
और हममें क्या
फर्क होगा?
यह अभी
सवाल उठता है, क्योंकि
अभी आपको
कुर्सी में और
अपने में फर्क
दिखाई पड़ता
है। उस विराट
चैतन्य की
स्थिति में
कुर्सी भी
आपके भीतर
होगी, आपका
हिस्सा होगी।
इतनी ही
चैतन्य होगी,
जितने
चैतन्य आप
हैं। कुर्सी
भी जीवंत होगी;
इतनी ही
जीवंत होगी, जितने जीवंत
आप हैं।
कुर्सी अभी भी
जीवंत है, लेकिन
उसके जीवंत
होने की जो
डायमेंशन है,
वह इतनी
भिन्न है कि
आप उससे
परिचित नहीं
हो सकते। कोई
भी चीज चेतना
के बाहर नहीं
है; सब
चेतना के भीतर
है। और कोई भी
चीज ऐसी नहीं
है, जिसके
बाहर चेतना हो,
सब चीजों के
भीतर चैतन्य
का वास है।
लेकिन बहुत-बहुत
ढंगों से। ढंग
को थोड़ा हम
समझ लें तो हमारे
खयाल में आए।
एक
पत्थर उठा कर
मैं फेंकूं
दीवार के पार, तो
वह दीवार के
पार नहीं जाता,
दीवार के
इसी पार गिर
जाता है।
लेकिन हवा में
से फेंकता हूं,
तो हवा के
पार चला जाता
है। दीवार का
ढंग और है, हवा
का ढंग और है।
दीवार का ढंग
और है, हवा
का ढंग और है।
लेकिन ऐसी
चीजें हैं, जो दीवार के
पार चली जाती
हैं; जैसे
एक्सरे है, वह दीवार के
पार चली जाती
है। उसके लिए
दीवार हवा की
तरह ही
व्यवहार करती
है। एक्सरे के
लिए दीवार
दीवार का
व्यवहार नहीं
करती, हवा
का ही व्यवहार
करती है।
एक्सरे को पता
ही नहीं चलेगा
कि दीवार पड़ी
बीच में, या
हवा पड़ी बीच
में या दीवार
पड़ी, पत्थर
था कि हवा थी, कुछ पता
नहीं चलेगा।
एक्सरे दोनों
को पार कर जाती
है। एक्सरे के
लिए दीवार हवा
जैसी है, पर
पत्थर के लिए
हवा जैसी नहीं
है। पत्थर
कहेगा, दीवार
अलग है, हवा
अलग है।
मैं
आपको यह कह
रहा हूं कि
हमारी जो चेतना
होती है, उसके
ऊपर निर्भर
करता है कि
हमें चीजें
कैसी दिखाई
पड़ती हैं। अगर
हम सेल्फसेंट्रिक
हैं, तो
कुर्सी अलग है,
मैं अलग
हूं। और अगर
सेल्फ टूट गया,
तो जैसे
दीवार और हवा
एक्सरे के लिए
एक ही हो जाती
हैं, ऐसे
ही उस चेतना
के लिए दोनों
एक हो जाते
हैं, कोई
भेद नहीं रह
जाता।
पर
उसका हमें पता
हो तभी। उसका
हमें पता न हो
तो?
तो जब तक
एक्सरे का कोई
पता नहीं था, कोई मानने
को राजी नहीं
हो सकता था कि
आपके पेट की
अंतड़ियों की
तस्वीर बाहर
से ली जा
सकेगी। कोई
कैसे मानने को
राजी होता? यह हो ही
कैसे सकता है?
फोटोग्राफर
कहता कि पागल
हो गए हैं आप!
तस्वीर लेंगे
तो आपकी चमड़ी
की आएगी, आपके
भीतर की
हड्डियों की
कैसे आएगी? वह भी
किरणों का
उपयोग करता है,
लेकिन
साधारण
किरणों का
उपयोग करता
है। पर ऐसी
किरण भी है, जो चमड़ी को
पार करके
हड्डी पर
पहुंच जाती
है। उस किरण
का जब हमें
पता चला, तब
हमने जाना कि
यह हो सकता
है।
असल
में,
चैतन्य के
भी आयाम हैं।
जिस चेतना में
हम जीते हैं, उसका फैलाव
बिलकुल नहीं
है। अपने में सिकुड़े
हुए रहते हैं।
कुर्सी भी अलग
है, पड़ोसी
भी अलग है; सब
चीजें अलग हैं,
हम अलग हैं।
अलगाव हमारी
चेतना का
स्वभाव है, जैसी चेतना
अभी है। और
जैसे ही चेतना
का रूप बदलता
है--विचारों
के हटते ही
गुणात्मक
अंतर होता
है--वैसे ही चीजों
में पृथकत्व
गिर जाता है, बीच के
फासले गिर
जाते हैं।
सारी चीजें एक
मालूम होने
लगती हैं। और
प्रत्येक चीज
नए ढंग से जीवंत
मालूम होने
लगती है।
अल्डुअस
हक्सले ने
पहली दफा जब
एल एस डी लिया
तो--भाग्य की
बात कि आपके सवाल
से मेल खाता
है--वह जहां
बैठा था, सामने
ही एक कुर्सी
रखी थी। और जब
उसने एल एस डी
लिया, तो
थोड़ी देर में
ही वह बहुत
हैरान हो गया!
कुर्सी से
जैसे किरणें
निकलने लगीं!
कुर्सी, जो
साधारण सी, मुर्दा सी
कुर्सी थी, उससे किरणें
निकलने लगीं।
उसमें अनूठे
रंग दिखाई
पड़ने लगे। वह
बहुत हैरान हो
गया। उसने कुर्सी
में ऐसे
सौंदर्य और
ऐसी महिमा का
कभी दर्शन ही
नहीं किया था।
जब उसने अपनी
किताब लिखी, जिसमें उसने
यह वर्णन किया,
तो उसने कहा,
मैं चकित हो
गया! उस दिन
मुझे पहली दफे
पता चला, हक्सले
ने लिखा, कि
कुर्सी ऐसी भी
हो सकती है! पर
वह तो, वह
यह कुर्सी न
थी, वह तो
कोई और ही रूप
था। इतने
सुंदर रंग थे
उसमें, कि
किसी हीरे से
कैसे निकलें!
इतनी जीवंत थी,
कि उस पर
बैठा न जा सके!
इतनी सुंदर थी,
कि मैंने
कोई सूर्य और
चांद और तारे
इतने सुंदर
नहीं देखे!
तब
अल्डुअस
हक्सले ने
लिखा कि उस
दिन मुझे खयाल
में आया...। एल
एस डी से तो
कुछ नहीं हुआ
था,
एल एस डी से
तो थोड़ी सी
चेतना फैलती
है; वह
थोड़ा
कांशसनेस एक्सपैंडिंग
ड्रग है। थोड़ी
सी आपकी चेतना
थोड़ी सी फैल
जाती है, कुछ
क्षणों के
लिए। पर इतने
से फैलाव में
कुर्सी जीवंत
हो गई! तो
अल्डुअस
हक्सले ने
लिखा कि अब
मैं मान सकता
हूं उन लोगों
को, जिन्होंने
पत्थर को देख
कर भगवान जैसा
प्रणाम किया
हो। उनकी
चेतना का कोई
फैलाव और रहा
होगा। तो
अल्डुअस
हक्सले ने
लिखा कि अब
मैं मान सकता
हूं वानगॉग
जैसे
चित्रकार को,
जिसने
कुर्सी का
चित्र बनाया।
क्योंकि
कुर्सी का कोई
चित्र किसलिए
बनाए? आप
सोच सकते हैं
कि पेंट करने बैठें तो
कुर्सी का
चित्र बनाइएगा?
और वानगॉग
जैसा अनूठा
चित्रकार
कुर्सी का चित्र
बनाए, महीनों
मेहनत करे, पागल होगा? कुर्सी भी
कोई बनाने
जैसी चीज है? लेकिन
हक्सले ने कहा
कि तब तक मैं
कभी नहीं समझ
पाया था कि
वानगॉग ने
क्यों कुर्सी
का चित्र
बनाया। तब मैं
समझा कि
वानगॉग ने
किसी और चेतना
के क्षण में इस
कुर्सी को
देखा होगा, जिसको उसने
रंगा है।
पर फिर
भी हमारे रंग
बहुत फीके
हैं। एल एस डी
के बाद जो रंग
दिखाई पड़ते
हैं,
वे रंग हमने
कभी देखे नहीं
हैं। पर एल एस
डी कुछ भी नहीं
करता, आपकी
साधारण चेतना
को थोड़ा सा
फैलाव देता है,
जैसे कि
हमने किसी
गुब्बारे में
थोड़ी हवा और भर
दी और वह बड़ा
हो गया। पर उस
थोड़े से फैलाव
में सब रंग
बदल जाते हैं।
साधारण
किनारे, रास्ते
के किनारे पड़े
हुए कंकड़-पत्थर
हीरे-मोतियों
जैसे चमकने
लगते हैं।
आज अगर
एल एस डी का
इतना प्रभाव
है सारे पश्चिम
पर और सारी
पश्चिम की नई पीढ़ी
दीवानी है, उसका
और कोई कारण
नहीं है। यह
सारा जगत बहुत
रूपवान हो
जाता है। यह
सारा जगत ऐसा सेंसेशन
से भर जाता है,
जैसा हमने
कभी नहीं
जाना। साधारण
सा हाथ
परमात्मा का
हाथ जैसा
मालूम हो सकता
है। साधारण से
कपड़े ऐसी रौनक
और ऐसी महिमा
ले लेते हैं, जैसा कि
कल्पना के
बाहर है। यह
सब...एल एस डी ने
एक नया खयाल
तो खोला। वह
नया खयाल यह
है कि चेतना
अगर जरा सी
फैल जाए, तो
जगत बिलकुल
दूसरा हो जाता
है।
लेकिन
महावीर या
लाओत्से जैसी
चेतना जब पूरी
फैलती होगी, छोटी-मोटी
नहीं, पूरी
तरह ही फैल
जाती
होगी--असल में,
जो-जो रोकने
वाले कारण थे
अहंकार के, वे सब गिर
जाते होंगे, फैलाव पूर्ण
हो जाता
होगा--उस क्षण
कुर्सी में और
आप में क्या
फर्क रहेगा? समझ में
आपके अभी आना
मुश्किल
पड़ेगा, क्योंकि
जिस कुर्सी को
आप जानते हैं,
वह भी असली
कुर्सी नहीं
है; और जिस
आप को आप
जानते हैं, वह भी असली
आप नहीं हैं।
दो नकली चीजों
के बीच आप
हिसाब लगाने
बैठेंगे, कुछ
खयाल में नहीं
आ सकता।
आप
असली हो जाइए, तो
कुर्सी को भी
असली होने का
मौका मिले।
क्योंकि नकली
आदमी असली
कुर्सी को
नहीं देख सकता
है। और तब
आपके लिए नए
द्वार...।
हक्सले ने
अपनी किताब का
नाम रखा है:
न्यू डोर्स
ऑफ परसेप्शन--दर्शन
के नए द्वार; एल एस डी से।
और एल एस डी तो
सिर्फ एक
रासायनिक परिवर्तन
है। छह घंटे, आठ घंटे, बारह
घंटे के लिए
रहेगा, फिर
खो जाएगा; और
वह भी
अत्यल्प।
लेकिन
जिन्हें
परमात्म-अनुभव
हुआ, जिनकी
स्वचेतना
खो गई--चेतना
खो गई नहीं, जिनकी स्वचेतना
खो गई--और जो
चैतन्य हुए, उनके लिए तो
सारे फासले
गिर जाते हैं
और प्रत्येक
जगत का कण-कण...।
अगर
महावीर सम्हल
कर चलते हैं, तो
जैसा जैनी
समझते हैं
वैसा नहीं है
कि चींटी को
बचाने के लिए
चल रहे हैं; कि कहीं कोई
मच्छर न मर
जाए, इसलिए
परेशान हैं।
जो मच्छर आपको
दिखाई पड़ता है,
वह महावीर
को नहीं दिखाई
पड़ता। नहीं तो
वे भी इतनी
फिक्र उसकी
नहीं कर सकते
हैं। जो चींटी
आपको दिखाई
पड़ती है, वह
महावीर को
दिखाई पड़ती हो,
तो इतनी
फिक्र वे भी
नहीं कर सकते
हैं।
असल
में,
चींटी में
पहली बार उस
ब्रह्म के
दर्शन होते हैं,
जो हमको कभी
नहीं होते।
इसलिए महावीर
बचा कर चलते
हैं, ऐसा
नहीं। और कोई
उपाय ही नहीं
है, चलना
ही पड़ेगा ऐसा
बच कर। मच्छर
मच्छर नहीं है,
चींटी
चींटी नहीं है।
उतना ही जीवन
उनमें प्रकट
हो गया, जितना
खुद महावीर के
भीतर प्रकट हो
रहा है। एक और
ही जगत का
द्वार खुलता
है। उस जगत के
द्वार खुलने
पर आप इसी
दुनिया में
नहीं रहते।
इसलिए इस
दुनिया के
सवाल आप मत
पूछिए। इस
दुनिया के सवाल
से उस दुनिया
का कोई तालमेल,
कोई कंसिस्टेंसी,
कोई रेलेवेंस
नहीं है।
हमारे
सवाल
करीब-करीब ऐसे
हैं,
जैसे कि आप
मुझसे पूछें
कि सपने में
मैं सो जाता
हूं, तो जब
मैं सो जाता
हूं तो मेरे
सोए हुए सपने
की हालत में
मेरे कमरे का
और मेरा क्या
संबंध होता है?
कोई
संबंध नहीं
होता। कि होता
है कोई संबंध? आप
इस कमरे में
सो सकते हैं
और लंदन में
हो सकते हैं
सपने में।
कमरे के भीतर
बंद सो सकते
हैं और खुले
आकाश के नीचे
हो सकते हैं, चांदत्तारों के नीचे, सपने
में। क्या
संबंध होता है
आपका इस कमरे
से सोते वक्त?
नहीं, जैसे
ही आप सोते
हैं, आप
चेतना के
दूसरे आयाम
में प्रवेश कर
जाते हैं। यह
कमरा जिस आयाम
में था, वहीं
पड़ा रह जाता
है; आप
दूसरी दुनिया
में चले गए।
फिर आपको इस
कमरे के बाहर
जाना हो, तो
दरवाजा नहीं
खोलना पड़ता।
स्वभावतः, आप
पूछेंगे कि
सपने में अगर
बाहर जाना हो,
तो चाबी पास
रखनी चाहिए? कि सपना ठीक
से देखना हो, तो चश्मा
लगाना चाहिए?
नहीं, चश्मे
की कोई जरूरत
न पड़ेगी, आंखें
कितनी ही
कमजोर हों। आप
दूसरे आयाम
में प्रवेश कर
रहे हैं, जहां
इस तरह के
चश्मे की कोई
जरूरत न
पड़ेगी। इस आंख
की भी जरूरत
नहीं पड़ेगी।
इस दरवाजे को
खोलने की भी
जरूरत नहीं, और बाहर हो
जाएंगे।
लेकिन
जिस आदमी ने
सपना न देखा
हो कभी, उससे
आप कहें कि एक
ऐसी भी हालत
होती है कि
बिना दरवाजा
खोले बाहर हो
जाते हैं। वह
कहेगा, माफ
करो, आपका
दिमाग ठीक है?
अगर आप किसी
आदमी से कहें,
जिसने सपना
न देखा हो, कि
एक ऐसी भी
हालत होती है
कि न हवाई
जहाज में बैठो,
न ट्रेन में
सवार हो, न
जहाज में
यात्रा करो, क्षण भर में
यहां से लंदन
पहुंच जाओ, कोई बीच में
वाहन की जरूरत
ही नहीं पड़ती;
दरवाजा खोलो
मत, चाबी
की जरूरत नहीं,
निकल जाओ, पहुंच जाओ।
वह कहेगा, आपका
दिमाग तो ठीक
है न? जिसने
सपना न देखा
हो, वह
आपसे पूछेगा,
तो टकरा न
जाएंगे बंद दरवाजे
से? तो
बिना चाबी के
ताला कैसे
खुलेगा? उसके
सब सवाल संगत
हैं। फिर भी
आप हंसेंगे।
आप कहेंगे, तुझे सपने
का पता नहीं।
वहां ये कोई
सवाल संगत
नहीं हैं।
जैसे
ही विचार गिर
जाते हैं और
निर्विचार
चेतना का जन्म
होता है, आप एक
बिलकुल ही और
लोक में
प्रवेश करते
हैं। उस लोक
में इस जगत की
कोई भी चीज
संगत नहीं है।
कोई भी चीज, कोई भी नियम
संगत नहीं है।
इस जगत में जो
जड़ दिखाई पड़
रहा है, वह
वहां चैतन्य
हो जाएगा। इस
जगत में जो
मृत दिखाई पड़
रहा है, वह
वहां जीवंत हो
जाएगा। इस जगत
में जहां दरवाजे
थे, वहां
दीवारें हो
जाएंगी। इस
जगत में जहां
दीवारें थीं,
वहां
दरवाजे हो
जाएंगे। इस
जगत का कोई भी
प्रश्न संगत
नहीं है।
इसलिए हम
जो-जो प्रश्न
उठाए चले जाते
हैं, उनकी
कोई
अर्थवत्ता
नहीं है।
प्रश्न—
इसीलिए
अर्थपूर्ण हो
सकते हैं कि
हम उस लोक में
कैसे प्रवेश
करें? लेकिन
अगर आप सोचते
हों कि इसी
लोक में बैठे
हुए हम उस लोक
की बातों को प्रश्नों
से समझ लेंगे,
तो आप गलती
में हैं। वह
संभव नहीं हो
सकता है।
आज
इतना ही। और
पूछना है कुछ? अच्छी
बात है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, कल
आपने बताया कि
अगर भगवान मिल
गया तो सहज पता
लग जाएगा कि
यह तो मैंने
देखा है।
दूसरी बात यह
बताई कि कुछ
नहीं है, और
जो है, वही
है। और आज भी
बताया कि
पदार्थ और
चैतन्य दो
नहीं, पर
एक ही है, एकरस
है। तो वह
भगवान जो एकरस
है, वही
स्थिति है कि
समथिंग बियांड?
दोनों
ही बातें हैं।
वह जो एकरस
स्थिति है, वह
तो है ही
भगवान। लेकिन
वह जो एकरस
स्थिति है, वह सदा ही बियांड
और बियांड
फैलती चली
जाती है। वह
कहीं समाप्त
नहीं होती।
समझें
कि मैं एक
सागर में कूद
पड़ा। तो मैं
यह कह सकता
हूं कि मैं
सागर में उतर
गया,
लेकिन फिर
भी यह नहीं कह
सकता कि पूरे
सागर में उतर
गया। इतना ही
कह सकता हूं, एक किनारे
से एक कोना
मैंने स्पर्श
कर लिया। सागर
तो बियांड
है। जहां मैं
खड़ा हूं, वहां
एकाध-दो लहर
मुझे छू जाती
हैं। सागर तो
अनंत है।
तो जब
कोई परमात्मा
को जानता है, तो
ऐसा ही जानता
है कि यही सब, जो है, वही
परमात्मा है।
लेकिन ऐसा भी
जानता है साथ
ही साथ कि
जितना मैं जान
रहा हूं, उतना
ही नहीं, और
भी बियांड,
और भी पार, वह और भी पार
है। और कितना
ही जान ले कोई,
यह बियांडनेस
खतम नहीं होती;
यह बनी ही
रहती है। यही
उसकी मिस्ट्री
है; यही
उसका रहस्य
है। कितना ही
कोई जान ले, कितना ही
दूर यात्रा कर
आए, फिर भी
वह पाता है कि
दूसरे किनारे
का कोई भी पता
नहीं है। जिस
किनारे से हम
उतरे थे, उसका
भर पता है।
कितना ही दूर
कोई चला जाए, दूसरे
किनारे का कोई
पता नहीं है।
और एक
मजे की घटना
घटती है, जो
समझ में न
आएगी। जब वह
लौट कर आता है,
तो पाता है,
जिस किनारे
को छोड़ा था, वह भी अब
वहां नहीं है।
ऐसा नहीं है
कि एक किनारा
फिर बचा रहता
है; वह तो
तभी तक है, जब
तक आप किनारे
पर खड़े हैं।
जब आप कूद गए
सागर में, तो
दूसरे किनारे
का तो कभी पता
नहीं लगता; लौट कर अगर
अपने किनारे
को भी खोजा, कि जहां खड़े
थे वह जगह, अब
वह भी नहीं
है।
जो है, वही
परमात्मा है।
लेकिन जो है, वह सदा ही
पार और पार, पार और पार
फैलता चला
जाता है। हम
जितने भी दूर
जाते हैं, हम
पाते हैं कि
वह और पार
फैला हुआ है, और पार फैला
हुआ है।
और ऐसी
कोई जगह कोई
कभी नहीं
पहुंच पाया, जहां
से उसने कहा
हो, बस
यहां तक है! और
ऐसी जगह कोई
कभी नहीं
पहुंच पाएगा।
वह लॉजिकली
असंभव है।
क्योंकि अगर
कोई आदमी किसी
ऐसी जगह पहुंच
जाए और कहे कि
यह आ गया
आखिरी पड़ाव,
यहां तक ही
परमात्मा है,
तो बड़ा सवाल
यह उठेगा कि
इसके बाद क्या
है? बाद तो
कुछ होना ही
चाहिए। कोई भी
सीमा अकेले नहीं
बनती; सीमा
बनाने के लिए
दूसरे की
जरूरत पड़ती
है। आपके घर
की जो फेंसिंग
है, वह
आपका घर ही
अकेला हो तो
मुश्किल हो
जाए बनाना। वह
तो पड़ोसी के
घर की वजह से
बन पाती है।
अगर पार कुछ
दूसरा न हो, तो सीमा
नहीं बन सकती।
और परमात्मा
अकेला ही है।
यानी जो अकेला
है, उसी को
हम परमात्मा
कह रहे हैं; जो अस्तित्व
है, वही है।
तो
उसको हम कभी
ऐसी जगह न
पहुंच पाएंगे, जहां
हम कह सकें, बस यहीं तक!
क्योंकि यह तो
तभी हो सकता
है, जब
दूसरा कोई
शुरू हो जाए
वहां से। कोई
भी बिगनिंग,
कोई भी
प्रारंभ किसी
चीज का अंत
होता है। और कोई
भी अंत किसी
चीज का
प्रारंभ होता
है। अगर कोई
दूसरी चीज
प्रारंभ हो
रही हो, तो
हम परमात्मा
के अंत को पा
सकते हैं।
लेकिन कहीं
कोई दूसरी चीज
नहीं है जो
प्रारंभ हो
जाए।
वैज्ञानिक
भी बहुत तकलीफ
में पड़े हैं; क्योंकि
उनको भी बड़ी
अड़चन है, यह
विश्व कहीं न
कहीं तो
समाप्त होना
चाहिए। परमात्मा
उनके लिए सवाल
नहीं है अभी।
लेकिन विश्व
तो कहीं न
कहीं समाप्त
होना चाहिए।
यह यूनिवर्स
कहीं तो पूरा
होना चाहिए।
यह कहां पूरा
होगा? और
अगर पूरा हो
जाएगा, तो
फिर क्या होगा?
यह सवाल
तत्काल खड़ा हो
जाता है। जहां
इसकी सीमा
आएगी, वहां...तो
वैज्ञानिक
कहते हैं, दूसरा
यूनिवर्स
शुरू हो
जाएगा। लेकिन
उससे कोई हल
नहीं होता। अब
हम सारे
यूनिवर्स जो शुरू
हो सकते हैं, उनको इकट्ठा
सोचें और फिर
पूछें कि वे
कहां खत्म
होंगे? वे
खत्म नहीं हो
सकते।
सत्य
या सत्ता अनंत
है,
इस अर्थों
में।
इसलिए
परमात्मा जो
है,
वह है। और
साथ ही वह भी
है, जो पार
फैला हुआ है।
वह जो बियांड
एंड बियांड
है, वह
इसके अंतर्गत
स्वीकृत है।
ये दो चीजें
नहीं हैं।
इसलिए
हम कभी ऐसा
नहीं कह सकते
कि यही है
परमात्मा।
इतना ही कह
सकते हैं, यह
भी है
परमात्मा; और
भी पार है, और
भी पार है। जो
हम जानते हैं,
वह भी
परमात्मा है;
जो हम नहीं
जानते हैं, वह भी
परमात्मा है।
जो किसी ने
जाना, वह
भी परमात्मा
है; जो
किसी ने नहीं
जाना, वह
भी परमात्मा
है। और वह भी, जो शायद कोई
कभी नहीं
जानेगा।
अज्ञात ही
नहीं है वह, अज्ञेय भी
है। नॉट ओनली
अननोन, बट अननोएबल आल्सो।
क्योंकि
अननोन हम उसे
कहते हैं, जिसे
कभी नोन बनाया
जा सकेगा। आज अननोन
है, अज्ञात
है, कल
ज्ञात हो
जाएगा।
परमात्मा साथ
ही अननोएबल
भी है, अज्ञेय
भी है। ऐसा भी
है कि कभी
ज्ञात नहीं होगा।
वह जो सदा शेष
रह जाएगा, सदा
शेष रह जाएगा,
वह जो सदा
पीछे मौजूद रह
जाएगा, उसे
भी सम्मिलित
करना पड़ेगा।
तो
कहना पड़ेगा कि
यह तो
परमात्मा है ही, इसके
पार जो है, वह
भी परमात्मा
है। और जो सदा
ही पार रह
जाता है, वह
भी परमात्मा
है।
फिर
कल बात
करेंगे।
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