अध्याय
3 : सूत्र 1
निष्क्रिय
कर्म
यदि
योग्यता को
पद-मर्यादा न
मिले, तो न
तो विग्रह हो
और न
संघर्ष। यदि
दुर्लभ
पदार्थों को
महत्व नहीं
दिया जाए,
तो
लोग
दस्यु-वृत्ति
से भी मुक्त
रहें।
यदि
उसकी ओर, जो
स्पृहणीय है,
उनका ध्यान
आकर्षित
न
किया जाए, तो
उनके हृदय
अनुद्विग्न
रहें।
मनुष्य
की चिंता क्या
है?
मनुष्य की
पीड़ा क्या है?
मनुष्य का
संताप क्या है?
एक
मनुष्य
चिंतित हो, थोड़े
से लोग परेशान
हों, तो
समझा जा सकता
है, उनकी
भूल होगी।
लेकिन होता
उलटा है। कभी कोई
एक मनुष्य
निश्चिंत
होता है, कभी
कोई एक मनुष्य
स्वस्थ होता
है; बाकी
सारे लोग
अस्वस्थ, अशांत
और पीड़ित होते
हैं।
बीमारी
नियम मालूम पड़ती
है; स्वास्थ्य
अपवाद मालूम
पड़ता है।
अज्ञान जीवन
की आत्मा
मालूम पड़ती है;
ज्ञान कोई
आकस्मिक घटना,
कोई
सांयोगिक
घटना मालूम पड़ती
है। ऐसा लगता
है कि मनुष्य
होना ही बीमार
होना है, चिंतित,
परेशान
होना है। कभी
कोई, न
मालूम कैसे, हमारे बीच
निश्चिंतता
को उपलब्ध हो
जाता है। या
तो प्रकृति की
कोई भूल-चूक
है, या
परमात्मा का
कोई वरदान है।
लेकिन नियम
यही मालूम
पड़ता है जो हम
हैं: रुग्ण, पीड़ित, परेशान।
लाओत्से
का यह सूत्र
बड़ा अदभुत है।
लाओत्से यह
कहता है कि
इतने अधिक
लोगों की
परेशानी का कारण
निश्चित ही
मनुष्य के मन
की बनावट, मनुष्य
की संस्कृति
के आधार, हमारे
सभ्यता के
सोचने के ढंग,
हमारे समाज
का ढांचा है।
हम प्रत्येक
व्यक्ति को इस
भांति खड़ा करते
हैं कि बीमार
होना
अनिवार्य है।
पश्चिम
में नवीनतम
खोजें यह कहती
हैं कि प्रत्येक
व्यक्ति
जीनियस की तरह
पैदा होता है, प्रतिभाशाली
पैदा होता है,
लेकिन हम सब
मिल कर ऐसी
व्यवस्था
करते हैं कि उसकी
प्रतिभा को हम
सब तरह से
कुंठित और
नष्ट कर देते
हैं।
स्वामी
राम ने
संस्मरण लिखा
है कि वे जब
जापान गए, तो
उन्होंने
वहां देवदार
के आकाश को
छूने वाले
वृक्षों को
एक-एक बालिश्त
का देखा, एक-एक
बित्ते
का देखा। वह
बहुत हैरान
हुए। वृक्ष
छोटे पौधे
नहीं थे, सौ-सौ,
डेढ़-डेढ़ सौ वर्ष
पुराने थे।
लेकिन उनकी
ऊंचाई एक बालिश्त
थी।
तो उन्होंने
मालियों से
पूछा कि इसका
राज क्या है?
तो
मालियों ने
गमले उलटा कर
बताया। नीचे
से गमले टूटे
हुए थे। और
नियमित रूप से
वृक्षों की जड़ें
काट दी जाती
थीं। नीचे
जड़ें नहीं बढ़
पाती थीं, ऊपर
वृक्ष नहीं बढ़
पाता था।
वृक्ष पुराना
होता जाता, बूढ़ा हो
जाता, लेकिन
बालिश्त से
ऊपर न उठ
पाता।
क्योंकि उठने
के लिए जड़ों
का नीचे जाना
जरूरी है, जमीन
में प्रवेश
करना जरूरी
है। वृक्ष
उतना ही ऊपर
जाता है, जितना
नीचे उसकी
जड़ें चली जाती
हैं। अब अगर
माली यह तय कर
ले कि जड़ों को
नीचे पहुंचने
ही नहीं देना
है, काटते
चले जाना है, तो वृक्ष
बूढ़ा होता
जाएगा, लेकिन
बड़ा नहीं
होगा।
मनुष्य
को बड़ा करने
की हमारी जो
व्यवस्था है, वह
जड़ों को काटने
वाली है।
इसलिए जितने
लोग हमें
दिखाई पड़ते
हैं जमीन पर, वे बालिश्त
भर ऊंचे उठ
पाए। वे लोग
आकाश को भी छू
सकते थे। जहर
हम जड़ों में
डाल देते हैं।
लेकिन
इतने जमानों
से जहर डाला
जा रहा है कि
कभी स्मरण
नहीं आता। फिर
हर पीढ़ी
डाल जाती है।
आपके बुजुर्ग
आपकी जड़ों में
जहर डाल जाते
हैं। और जो
आपके बुजुर्गों
ने आपके साथ
किया था, वह आप
अपने बच्चों
के साथ कर
देते हैं।
स्वभावतः, हर
पिता अपने
बेटे के साथ
वही दुहराता
है, जो उसके
बाप ने उसके
साथ किया था।
एक वीसियस
सर्किल है, फिर एक
दुष्चक्र की
भांति बात दुहरती
चली जाती है।
इस जहर
के लिए ही
लाओत्से ने
कुछ बातें कही
हैं।
इन
बातों को
समझने के लिए
सबसे पहले यह
समझ लेना होगा
कि मनुष्य के
मन में जो जहर
सबसे ज्यादा
डाला गया है, वह
महत्वाकांक्षा
का, एंबीशन का है।
हमारी सारी
समाज की
व्यवस्था
महत्वाकांक्षा
पर खड़ी है।
छोटे से बच्चे
को भी हम महत्वाकांक्षी
बनाते हैं।
उसे एक दौड़
में लगाते हैं,
एक ऐसी दौड़
में, जहां
उसे हर स्थिति
में प्रथम आने
के लिए उद्विग्न
किया जाता है।
चाहे वह पढ़ता
हो स्कूल में,
चाहे खेलता
हो, चाहे
आचरण सीखता हो,
चाहे
वस्त्र पहनता
हो, वह जो
भी कर रहा है
या जो भी हम
उससे करवाना
चाहते हैं, उसके करवाने
का एक ही
सूत्र है कि
हम उसे महत्वाकांक्षा
में जकड़ दें, हम उसे
प्रतिस्पर्धा
में और काम्पिटीशन
में बांध दें।
महत्वाकांक्षा
का अर्थ है, हम
उसके अहंकार
को दूसरे
लोगों के
अहंकार की प्रतियोगिता
में खड़ा कर
दें। हम उससे
कहें कि दूसरे
बच्चे आगे न
निकल जाएं!
तेरा पीछे रह
जाना, तेरे
अहंकार के लिए
फिर कोई
गुंजाइश न
रहेगी। तो
कहीं भी तू हो,
तुझे प्रथम
होने की कोशिश
में लगे रहना
है।
यह
प्रथम होने की
कोशिश हमारा
जहर है।
वस्त्र पहनते
हों तो, व्यवहार
करते हों तो, शिक्षित
होते हों तो, धन कमाते
हों तो--कुछ भी
करते
हों--पूजा और
प्रार्थना
करते हों तो, त्याग और तप
करते हों तो, निरंतर यह
खयाल रखना है
कि मैं
किन्हीं और की
तुलना में
सोचा जा रहा
हूं। सदा मुझे
यह देखना है
कि दूसरों को
देखते हुए मैं
कहां खड़ा हूं?
पंक्ति में
मेरा स्थान
क्या है? मैं
पीछे तो नहीं
हूं?
अगर
मैं पीछे खड़ा
हूं,
तो पीड़ा
फलित होगी।
अगर मेरे पीछे
लोग खड़े हैं, तो मैं
प्रफुल्लित
हूं। जो
प्रफुल्लित
होते हैं, वे
भी तभी
प्रफुल्लित
होते हैं, जब
वे दूसरों को
पीछे करने का
दुख दे पाते
हैं। अन्यथा
उनकी
प्रफुल्लता
नहीं है। और
पृथ्वी इतनी
बड़ी है कि कोई
कभी बिलकुल
आगे नहीं हो पाता।
और जीवन इतना
जटिल है कि
इसमें प्रथम
होने का कोई
उपाय नहीं है।
जटिलता अनेकमुखी
है।
एक
आदमी धन बहुत
कमा लेता है, तब
वह पाता है कि
स्वास्थ्य
में कोई उससे
आगे खड़ा है।
सड़क पर भीख
मांग रहा है
आदमी, कपड़े
फटे हुए हैं, लेकिन शरीर
उसका बेहतर
है। एक आदमी
स्वास्थ्य
बहुत कमा लेता
है, तो
पाता है, सौंदर्य
में कोई दूसरा
आगे खड़ा है।
एक आदमी धन
कमा लेता है, तो पाता है, बुद्धिमानी
में कोई आगे
है। और एक
आदमी बहुत बड़ा
बुद्धिमान हो
जाता है, तो
पाता है कि
खाने को रोटी
भी नहीं है, किसी ने
बहुत बड़ा महल
बना लिया है।
जीवन
है बहुमुखी, मल्टी
डायमेंशनल; और हर दिशा
में मुझे
प्रथम होना
है। आदमी अगर पागल
न हो जाए--और
कोई उपाय नहीं
है। जो पागल
नहीं हो पाते,
वे चमत्कार
हैं। यह पूरा
का पूरा ढांचा
पागल करने
वाला है। जहां
भी हम खड़े हैं,
वहीं पीड़ा
होगी--आगे
किसी को हम
पाएंगे कि कोई
आगे खड़ा है।
महत्वाकांक्षा
का अर्थ है, कभी
यह मत सोचना
कि तुम कौन हो,
सदा यह
सोचना कि तुम
दूसरे की
तुलना में कौन
हो। सीधे कभी
स्वयं को मत
देखना, सदा
तुलना में, कंपेरिजन
में देखना।
कभी यह मत
देखना कि तुम
कहां खड़े हो; वहां सुख है
या नहीं, इसे
मत देखना। तुम
सदा यह देखना
कि तुम दूसरे लोगों
के मुकाबले
कहां खड़े हो!
दूसरे लोग
तुमसे ज्यादा
सुख में तो
नहीं खड़े हैं!
यह भी फिक्र मत
करना कि तुम
दुख में खड़े
हो; सदा यह
देखना कि
दूसरे लोग अगर
तुमसे ज्यादा
दुख में खड़े
हों, तो
कोई हर्जा
नहीं, तुम
प्रसन्न हो
सकते हो।
सुना
है मैंने, गांव
में एक पूर आ
गया, बाढ़ आ
गई। और एक
बूढ़े किसान से
उसका पड़ोसी कह
रहा है। वह
बूढ़ा किसान
बहुत चिंतित
और परेशान बैठा
है। उसके सब
खेत डूब गए, उसके
गाय-भैंस खो
गए, उसकी
बकरियां नदी
में बह गईं।
और पड़ोसी उससे,
बूढ़े से कह
रहा है कि
बाबा, बहुत
चिंतित मालूम
पड़ते हो; तुम्हारी
सारी बकरियां
नदी में बह
गईं। वह बूढ़ा
पूछता है, गांव
में किसी और
की तो नहीं
बचीं? वह
कहता है, किसी
की भी नहीं
बचीं। वह बूढ़ा
पूछता है, तुम्हारी
भी बह गईं? वह
युवक कहता है,
हमारी भी बह
गईं। तो बूढ़ा
कहता है, फिर
जितना मैं
चिंतित हो रहा
हूं, उतना
चिंतित होने
का कारण नहीं
है। यह सवाल
नहीं है बड़ा
कि मेरी बह
गईं, अगर
सबकी बह गई
हैं, तो
फिर इतना
चिंतित होने
का कोई कारण
नहीं है।
सुख हो
या दुख, विचार
सदा करना है
कि हम कहां
खड़े हैं? पंक्ति
में कहां खड़े
हैं? पंक्तिबद्ध
चिंतन है
हमारा। मुक्त
व्यक्ति की
तरह हम क्या
हैं, यह
नहीं। पंक्ति
में, कतार
में हम कहां
खड़े हैं? क्यू
में हमारी जगह
कहां है? और
क्यू ऐसा है
कि गोल है, वर्तुल
है, सरकुलर है। उसमें
हम आगे बढ़ते
चले जाते हैं।
कई दफा हमें
लगता है, एक
को पार किया, दो को पार
किया, तीन
को पार किया।
आशा बड़ी बंधती
है कि तीन को
पार कर लिया
तो जल्दी ही
प्रथम हो जाएंगे,
लेकिन हर
बार पार करके
पाते हैं कि
आगे अभी लोग
मौजूद हैं।
क्यू
गोल है। वह
सीधी रेखा में
नहीं है कि
कोई उसमें आगे
पहुंच जाए। और
अक्सर तो ऐसा
होता है कि
बहुत दौड़-दौड़
कर आगे
पहुंचने वाला
अचानक पाता है
कि वह बहुत
पीछे पहुंच
गया। अगर कोई
गोल घेरे में
खड़े हुए क्यू
में बहुत आगे
पहुंचने की
कोशिश करेगा, तो
किसी दिन
पाएगा, जिन्हें
वह छोड़ गया था
पीछे, वे
अचानक आगे आ
गए हैं।
इसलिए
सफलता के शिखर
पर पहुंचे लोग
अक्सर विपन्न
हो जाते हैं।
सफलता के शिखर
पर पहुंच गए लोग
अक्सर फ्रस्ट्रेटेड
हो जाते हैं।
वह फ्रस्ट्रेशन
क्या है? वह
विपन्नता
क्या है? वह
विपन्नता यह
है कि आखिर
में वे पाते
हैं कि शिखर
पर नहीं
पहुंचे; जिन्हें
पीछे छोड़ गए
थे, वे आगे
खड़े हैं। क्यू
जो है, गोलाकार
है।
इसलिए
लाओत्से का यह
सूत्र इस
संदर्भ में
समझें।
लाओत्से
कहता है, 'यदि
योग्यता की
पद-मर्यादा न
बढ़े, तो न
विग्रह हो, न संघर्ष।'
लाओत्से
कहता है, योग्यता
को पद क्यों बनाएं हम? योग्यता को
स्वभाव क्यों
न मानें!
इस
फर्क को समझ
लें,
इस फर्क पर
बड़ी बातें
निर्भर
होंगी।
योग्यता को हम
स्वभाव क्यों
न मानें!
योग्यता को हम
पद क्यों बनाएं?
एक आदमी
गणित में कुशल
है, यह
कुशलता उसका
स्वभाव है। और
एक आदमी संगीत
में कुशल है, यह कुशलता
उसका स्वभाव
है। और एक
आदमी गणित में
कमजोर है, यह
कमजोरी उसका
स्वभाव है। जो
गणित में कुशल
है, उसकी
कोई खूबी नहीं,
क्योंकि
गणित की
कुशलता उसे
प्रकृति से
मिलती है। और
जो गणित में
कुशल नहीं है,
उसका कोई
दुर्गुण नहीं,
क्योंकि
गणित की यह
अकुशलता उसे
उसी तरह प्रकृति
से मिलती है
जैसे कुशलता
वाले को
कुशलता मिलती
है।
झेन
फकीर रिंझाई
एक व्यक्ति को
बता रहा है झोपड़े
के बाहर, कि
देखते हो आकाश
को छूने वाले
बड़े-बड़े वृक्ष?
और देखते हो
छोटी-छोटी झाड़ियां?
और फिर
रिंझाई कहता
है कि मुझे
वर्षों हो गए
इन वृक्षों के
पास रहते, कभी
मैंने
झाड़ियों को यह
सोचते नहीं
देखा कि बड़े
वृक्ष बड़े
क्यों हैं। और
न कभी मैंने
बड़े वृक्षों
को अकड़ते देखा
कि ये झाड़ियां
छोटी हैं और
हम बड़े हैं।
तो
आदमी पूछता है, इसका
राज क्या है?
तो
रिंझाई कहता
है,
इसका राज
सिर्फ इतना है
कि झाड़ियां
प्रकृति से झाड़ियां
हैं, वृक्ष
प्रकृति से वृक्ष
हैं। बड़े होने
में कोई पद
नहीं, छोटे
होने में कोई पदहीनता
नहीं। जो
प्रकृति
वृक्षों को
बड़ा बनाती है,
वही
प्रकृति घास
के पौधे को
छोटा बनाती
है। और जरूरी
नहीं है कि जो
ऊंचा है, वह
हर स्थिति में
ऊंचा हो। जब
तूफान आते हैं,
तो बड़े
वृक्ष नीचे
गिर जाते हैं
और छोटे पौधे
बच जाते हैं।
नेपोलियन
की ऊंचाई छोटी
थी,
बहुत लंबा
नहीं था। और
अक्सर ऐसा हो
जाता है कि
बहुत छोटी
ऊंचाई के लोग
बड़े पदों पर
पहुंचने की
कोशिश करते
हैं। अपनी
लाइब्रेरी
में एक दिन
किताब निकाल
रहा था, लेकिन
अलमारी ऊंची
थी। और हाथ
उसका पहुंचता
नहीं था। तो
उसके साथ जो
उसका पहरेदार
था, वह तो
कोई सात फीट
ऊंचा आदमी था,
उसने कहा कि
महानुभाव, अगर
कुछ अनुचित न
हो और मैं
आपके आगे बढ़
कर निकालने की
आज्ञा पाऊं,
तो मुझे
आज्ञा दें। नो
वन इज़
हायर दैन मी
इन योर
आर्मी--मुझसे
ऊंचा
तुम्हारी
सेना में कोई
भी नहीं है।
नेपोलियन ने
बहुत क्रोध से
देखा और कहा
कि नॉट हायर बट
लांगर--ऊंचा
मत कहो, सिर्फ
लंबा। तुमसे
लंबा फौज में
कोई भी नहीं है,
ऊंचे तो
बहुत हैं।
ऊंचा तो मैं
ही हूं।
नेपोलियन
को चोट लगनी
स्वाभाविक
है। कहे हायर!
इसमें भाषा ही
की भर भूल
नहीं थी, भूल
भारी थी।
नेपोलियन ने फौरन
सुधार कर दिया
कि कहो लांगर,
कहो लंबा।
ऊंचा
और लंबे में
क्या फर्क
किया
नेपोलियन ने? लंबा
तो सिर्फ
प्राकृतिक
घटना है। ऊंचे
के साथ
पद-मर्यादा
है। ऊंचे के
साथ वैल्युएशन
है। लंबे के
साथ कोई मूल्य
नहीं है। तुम
लंबे हो सकते
हो; लंबाई
के साथ कोई
मूल्य नहीं है।
लंबाई स्वभाव
है। ठीक है कि
तुम सात फीट
लंबे हो, दूसरा
पांच फीट लंबा
है; इसमें
कोई खास गुण
की बात नहीं
है। लेकिन
ऊंचाई! ऊंचाई
में हमने गुण
जोड़ा है, वैल्युएशन जोड़ा है।
लाओत्से
कहता है, यदि
योग्यता के
साथ
पद-मर्यादा न
जुड़े, तो न
तो जगत में
विग्रह हो और
न संघर्ष।
काश, हम
चीजों को ऐसा
देखना शुरू
करें कि
प्रत्येक अपने
स्वभाव के
अनुकूल वर्तन
करता है, और
जैसा उसका
स्वभाव है, उसके लिए वह
जिम्मेवार
नहीं। हम कभी
अंधे आदमी को
जिम्मेवार
नहीं ठहराते
कि तुम अंधे
होने के लिए
जिम्मेवार
हो। एक आदमी
जन्म से अंधा
है, हम कभी
ठहराते नहीं
कि तुम
जिम्मेवार
हो। वरन हम
दया करते हैं।
अभी
मेरे पास एक
युवक कोई दो
साल पहले
मिलने आया--डेढ़
साल,
दो साल हुआ।
श्रीनगर में
महावीर के ऊपर
शिविर था। जब
हम सब चले आए, तब उस युवक
को पता चला
होगा, अंधा
था। तो वह
वहां से
जबलपुर मेरे
पास आया उतनी
यात्रा करके।
तो मैं
उससे पूछा कि
तू अंधा है, तुझे
बड़ी तकलीफ हुई
होगी, इतनी
दूर की यात्रा
तूने की है!
उसने
कहा कि नहीं, अंधा
होने से मुझे
बड़ी सुविधा है;
सभी मुझे
सहायता कर
देते हैं। कोई
मेरा हाथ पकड़
लेता है, कोई
मुझे टिकट दे
देता है, कोई
मुझे रिक्शे
में बिठा देता
है। अब यहां
भी रिक्शा
वाला मुझे
मुफ्त ले आया
है और वह बाहर
राह देख रहा
है कि मैं आप से
मिल कर जाऊं, तो वह मुझे
स्टेशन वापस
छोड़ देगा।
अंधे होने से
मुझे बड़ी
सुविधा है।
आंख होतीं, तो इतनी
सुविधा मुझे
नहीं हो सकती
थी।
अंधे
पर हम दया कर
देते हैं।
क्योंकि हम
मानते हैं, उसका
कसूर क्या!
लेकिन बुद्धि
मंद हो किसी
की तो हम दया
नहीं करते। हम
कहते हैं, मूर्ख
हो! कभी हम
नहीं पूछते कि
इसमें उसका कसूर
क्या? एक
आदमी मूढ़
है, तो
कसूर क्या? अपराध क्या?
नहीं, उस
पर हमें दया
नहीं उठती। वह
जगत में
निंदित होगा,
पीड़ित होगा,
परेशान
होगा। जगह-जगह
ठुकराया
जाएगा, पीछे
किया जाएगा।
कोई उस पर दया
नहीं करेगा। क्यों?
क्योंकि
बुद्धि को
हमने
महत्वाकांक्षा
का सूत्र बना
लिया। बिना
बुद्धि के
महत्वाकांक्षा
में गति नहीं
है। इसलिए
बुद्धि का जो
माप है, आई.क्यू. जो है, बुद्धि
का जो अंक है, वह बड़ा
महत्वपूर्ण
हो गया।
उसमें
भी बात क्या
है?
एक आदमी
आइंस्टीन की
तरह पैदा होता
है, इसमें
आइंस्टीन की
गुणवत्ता
क्या है? लाओत्से
यह कहता है, इसमें
आइंस्टीन का
हाथ क्या है? और एक आदमी
एक महामूढ़
की तरह पैदा
होता है, इसमें
उसका कसूर
क्या है?
लाओत्से
यह कह रहा है
कि प्रकृति
इसे ऐसा बनाती
है और उसे
वैसा बनाती
है। हम चूंकि
इस प्रकृति को
स्वीकार नहीं
कर पाते और एक
के साथ
पद-मर्यादा
जोड़ देते हैं
और दूसरे के
साथ पदहीनता
जोड़ देते हैं, तो
हम विग्रह और
कलह और संघर्ष
को जन्म देते
हैं। इसका
अर्थ यह हुआ
कि हम कभी यह
नहीं देख पाते
कि प्राकृतिक
क्या है, स्वाभाविक
क्या है। हम
अपनी
आकांक्षाओं
को प्रकृति पर
थोप कर विचार
करते हैं।
लाओत्से
है प्रकृतिवादी, वह
है स्वभाववादी।
ताओ का अर्थ
होता है, स्वभाव।
वह कहता है, हम ऐसे हैं।
और ऐसा अपने
को ही नहीं
कहता, वह
दूसरे को भी
कहता है कि
दूसरा ऐसा है।
पर हम कहेंगे,
ऐसी बात को
मानने का तो
अर्थ यह होगा
कि जगत में
फिर चोर हैं, बेईमान हैं,
बुरे लोग
हैं; अगर
हम ऐसा मानें
कि सब प्रकृति
है और स्वभाव है,
तो प्रकृति
ने एक को चोर
बनाया, तो
फिर हम क्या
करें? प्रकृति
ने एक को
बेईमान बनाया,
तो फिर हम
क्या करें? बेईमान को
स्वीकार करें
और बेईमानी
चलने दें?
लाओत्से
के साथ
नीतिवादी का
यही संघर्ष
है। नीतिवादी
कहेगा, यह
सूत्र खतरनाक
है। समझ लें, इतने दूर तक
भी मान लें कि
एक आदमी मूढ़
है और एक आदमी
बुद्धिमान है,
तो ठीक है, चलो प्रकृति
है। लेकिन एक
आदमी बेईमान
है, एक
आदमी चोर है, एक आदमी
हत्यारा है, तो हम क्या
करें? स्वीकार
कर लें? समझ
लें कि
प्रकृति ने
ऐसा बनाया?
लाओत्से
से अगर पूछें, तो
लाओत्से
कहेगा कि
तुमने
स्वीकार नहीं
किया, तुमने
कितने
हत्यारों को
गैर-हत्यारा
बना पाए? तुमने
स्वीकार नहीं
किया, तुमने
कितने बेईमानों
को ईमानदार
बनाया? तुमने
स्वीकार नहीं
किया, तुमने
दंड दिए, तुमने
अपराधी करार
दिया, तुमने
फांसियां
लगाईं, तुमने कोड़े
मारे, तुमने
जेलों में बंद
किया, तुमने
जीवन भर की सजाएं
दीं। तुम
कितने लोगों
को बदल पाए?
लाओत्से
कहता है, सचाई
तो यह है कि
तुम जिसे दंड
देते हो, तुम
उसे उसकी
बेईमानी में
और थिर कर
देते हो। और
तुम जिसे सजा
देते हो, उसे
तुम उसके
अपराध से कभी
मुक्त नहीं
करते, तुम
उसे और
निष्णात
अपराधी बना
देते हो। और
जो व्यक्ति एक
बार कारागृह
में होकर आता
है, वह
व्यक्ति
धीरे-धीरे
कारागृह का
पंछी हो जाता
है। क्योंकि
कारागृह में
उसे सत्संग
मिलता है।
कारागृह से वह
बहुत कुछ सीख
कर वापस लौटता
है। कारागृह
से वह वैसे ही
वापस नहीं
लौटता जैसा
गया था।
कारागृह में
उसे गुरु मिल
जाते हैं, और
बड़े जानकार
मिल जाते हैं,
अनुभवी मिल
जाते हैं।
और एक
बार तुम्हारा
निर्णय कि
फलां व्यक्ति
अपराधी है और
चोर है, उसके
ऊपर सील-मुहर
लग जाती है।
उसको ईमानदार
होने का अब
उपाय नहीं रह
जाता। अब वह
ईमानदार होना
भी चाहे, तो
कोई स्वीकार
करने को तैयार
नहीं है।
लाओत्से
कहता है कि
तुम एक बेईमान
को ईमानदार नहीं
बना पाए।
इंग्लैंड
में कोड़े
की सजाएं
थीं चोरों के
लिए। डेढ़
सौ साल पहले
बंद की गईं।
क्योंकि सड़क
के चौराहे पर
खड़े करके कोड़े
मारते थे नग्न, ताकि
सैकड़ों
लोग देख लें।
देख लें और
प्रभावित हों
और दूसरे लोग
चोरी न करें।
लेकिन डेढ़
सौ साल पहले
ऐसा हुआ कि
भीड़ खड़ी थी, और दो आदमी
उस भीड़ में
जेब काट रहे
थे। और एक
आदमी को नग्न
करके बीच में कोड़े मारे
जा रहे थे।
भीड़ तो देखने
में संलग्न
थी। किसी को
खयाल न था कि
कोई जेब काट
लेगा। वहां अनेक
लोगों की जेबें
कट गईं।
तो
इंग्लैंड की
पार्लियामेंट
में विचार चला
कि यह तो
हैरानी की बात
है। हम सोचते
हैं कि कोड़े
मारे जाएं सड़क
पर कि लोग
चोरी न करें।
हैरानी मालूम
होती है, जहां कोड़े मारे
जा रहे थे, वहां
लोगों की जेबें
कट गईं!
क्योंकि लोग
इतने तल्लीन
थे देखने में कोड़े, और
किसी को खयाल
न था कि यहां
चोरी हो
जाएगी।
आदमी
को हम इतनी सजाएं
देकर भी जरा
नहीं बदल पाए।
आदमी रोज-रोज
और बुरा होता चला
गया है। जितने
कानून बढ़ते
हैं,
लाओत्से के
हिसाब से, उतने
अपराधी बढ़
जाते हैं। हर
नया कानून नए
अपराधी पैदा
करने का सूत्र
बनता है। हर
दंड नए जुर्म
पैदा कर जाता
है।
तो
लाओत्से कहता
है,
तुम भला
कहते हो कि
क्या होगा
दुनिया का, अगर तुम न
बदलोगे तो!
हालांकि तुम
बदल किसी को
भी नहीं पाए।
दुनिया की
इतनी अदालतें
और इतने
कारागृह और
इतनी
दंड-संहिताएं,
कोई किसी को
नहीं बदल पाए।
पर ऐसा
मालूम होता है
कि कुछ लोगों
का निहित स्वार्थ
है। एक चोर पर
मैंने सुना है
कि तीसरी बार
सजा हो रही
है। और यह
आखिरी है, क्योंकि
अब उसे आजीवन
कारावास मिल
रहा है। और
मजिस्ट्रेट
उससे आखिरी
वक्त पूछता है
कि तू पैदा
हुआ, तूने
मनुष्यता के
साथ कौन सा सदव्यवहार
किया?
उस चोर
ने कहा, आपको
पता नहीं, न
मालूम कितने
मजिस्ट्रेट, न मालूम
कितने पुलिस
वाले, न
मालूम कितने डिटेक्टिव
मेरी वजह से एंप्लायड
हैं! मेरे
कारण चौबीस
घंटे काम में
लगे हुए हैं।
मेरे बिना न
मालूम कितने
लोग बिलकुल
बेकार हो जाएंगे।
तुम सड़क पर
भीख मांगते
नजर आओगे! तुम
मेरी वजह से
काम पर हो।
यह
मजाक ही नहीं
है। यह सचाई
है और गहरी
सचाई है। अगर
जमीन पर एक
चोर न हो, तो
मजिस्ट्रेट
कैसे होगा? यह इतना बड़ा
इंतजाम
प्रतिष्ठा का,
कानून का, वकीलों का, यह सब का सब
चोरों पर, बेईमानों
पर, बदमाशों
पर निर्भर है।
और अगर कभी
कोई बहुत गहरे
में देख पाए, तो उसे
दिखाई पड़ेगा
कि यह सारा का
सारा व्यवस्थापक
वर्ग जो है, लाओत्से की
बात सुन कर
राजी नहीं
होगा। कहेगा,
इसका मतलब
है कि चोर को
स्वीकार कर लो
कि चोर चोर
है। कुछ मत
करो। तो फिर
ये जो करने
वाले हैं, इनका
क्या होगा?
और
बहुत मजे की
बात है कि ऐसा
अनुभव है
मनोवैज्ञानिकों
का,
ऐसा निरंतर
शोध है, कि
आमतौर से
कानून को
व्यवस्था
देने वाले वे
ही लोग होते
हैं कि अगर
कानून न हो तो
वे कानून को
तोड़ने वाले
होंगे। असल
में, चोर
को डंडा मारने
में चोर को ही
मजा आता है।
सुना
है मैंने कि नसरुद्दीन
एक दुकान पर
काम कर रहा
है। लेकिन
ग्राहकों से
उसका अच्छा
व्यवहार नहीं
है। तो उसे
निकाल दिया
गया है। जिस
दुकान के
मालिक ने उसे
निकाल दिया है
कह कर कि
तुम्हारा
ग्राहकों से
व्यवहार
अच्छा नहीं।
ध्यान रखो, कानून,
नियम यही है
दुकान के
चलाने का कि
ग्राहक सदा ठीक--दि
कस्टमर इज़
ऑलवेज
राइट। तो यहां
यह नहीं चल
सकता कि तुम
नौकर होकर
दुकान के और
तुम अपने को
ठीक करने की
सिद्ध करो
कोशिश और
ग्राहक को गलत
करने की।
पंद्रह
दिन बाद उसने
देखा कि नसरुद्दीन
पुलिस का
सिपाही हो गया
है,
चौरस्ते पर खड़ा है।
उसने कहा, नसरुद्दीन,
क्या
सिपाही की
नौकरी पर चले
गए? नसरुद्दीन ने कहा, हां,
मैंने फिर
बहुत सोचा।
दिस इज़ दि ओनली जॉब,
व्हेयर
कस्टमर इज़
आलवेज रांग; जहां ग्राहक
सदा गलत होता
है। और धंधा
अपने को नहीं
जमेगा।
लाओत्से
की बात कठिन
मालूम पड़ेगी।
कानून की जो
नियामक
शक्तियां हैं, उनको
ही नहीं, साधु-संन्यासियों
को भी बहुत
अप्रीतिकर
लगेगा।
क्योंकि साधु
अपनी साधुता
को स्वभाव नहीं
मानता, अपना
अर्जित गुण
मानता है।
साधु कहता है,
मैं साधु
हूं बड़ी
चेष्टा से, बड़ी मुश्किल
से; बहुत आर्डुअस
था मार्ग, बड़ी
तपश्चर्या की
है, तब मैं
साधु हूं। और
तुम साधु नहीं
हो, क्योंकि
तुमने कुछ
नहीं किया।
लाओत्से
की साधुता परम
है। वह कहता
है कि अगर मैं
साधु हूं, तो
इसमें मेरा
कोई गुण नहीं।
इस परम साधुता
को समझें।
लाओत्से कहता
है, अगर
मैं साधु हूं,
तो इसमें
मेरा कोई गुण
नहीं। इसमें
सम्मान की कोई
बात नहीं। अगर
तुम साधु नहीं
हो, तो
इसमें कोई
अपमान नहीं।
तुम्हारा न
साधु होना
स्वाभाविक है,
मेरा साधु
होना
स्वाभाविक
है। और जहां
स्वभाव आ जाता
है, वहां
हम क्या
करेंगे? तो
तुम मुझसे
नीचे नहीं, मैं तुमसे
ऊपर नहीं।
लेकिन
हमारे साधु का
तो सारा
इंतजाम ऊपर
होने में है।
वह अगर हमसे
ऊपर नहीं है, तो
उसका सब बेकार
है। और ध्यान
रहे, अगर
हम साधु को
ऊपर बिठाना
बंद कर दें, तो हमारे सौ
में से
निन्यानबे
साधु तत्काल
विदा हो जाएं।
उनको रुकाए
रखने का कुल
एक ही आधार और
कारण है: उनकी
साधुता उनकी
महत्वाकांक्षा
के लिए, उनके
अहंकार और
अस्मिता के
लिए भोजन है।
साधु होने में
भी बड़ा मजा
है। और जब
समाज बहुत
असाधु हो, तब
तो साधु होने
में बड़ा ही रस
है। क्योंकि
आप अपनी
अस्मिता को, अपने अहंकार
को जितना
पुष्ट कर पाते
हैं, और
किसी तरह न कर
पाएंगे।
लाओत्से
से साधु भी
राजी न होगा।
इसलिए लाओत्से
ने जब ये
बातें कहीं, तो
चीन में बड़ी
क्रांतिकारी
बातें थीं।
अभी भी
क्रांतिकारी
हैं ढाई हजार
साल बाद! और
शायद अभी ढाई
हजार साल और
बीत जाएं, तब
भी
क्रांतिकारी
रहेंगी।
क्योंकि लाओत्से
से और बड़ी
क्रांति क्या
होगी? लाओत्से
कहता है कि
मैं जो हूं, ऐसे ही जैसे
कि नीम में
कड़वा पत्ता
लगता है, इसमें
नीम का क्या
कसूर? और
आम में मीठा
फल लगता है, इसमें आम का
क्या गुण? नीम
क्यों कर पीछे
और नीचे हो और
आम क्यों कर ऊपर
बैठ जाए? भला
आपके लिए
उपयोगी हो, तो भी। आपकी
उपयोगिता
ऊंचाई-नीचाई
का कोई आधार
नहीं है। साधु
का, न्यायविद का, नीतिशास्त्री का जो विरोध
होगा, वह
समझ लेना
चाहिए। वह
विरोध यह होगा
कि समाज तो
पतित हो
जाएगा। लेकिन
कोई भी यह
नहीं देखता कि
समाज इससे
ज्यादा पतित
और क्या होगा?
समाज पतित
है; हो
जाएगा नहीं।
और जब समाज
पतित है, तो
नीतिशास्त्री
कहता है कि
अगर हम
लाओत्से जैसे
लोगों की बात मान
लें, तो और
बिगड़ जाएगी
हालत।
लेकिन
लाओत्से का
कहना यह है कि
तुम्हीं ने बिगाड़ी है
यह हालत। चोर
को तुम निंदित
करके सुधार तो
नहीं पाते हो, निंदित
करके उसके
बदलने की जो
संभावना है, उसका द्वार
बंद कर देते
हो। असल में, जैसे ही हम
तय कर लेते
हैं निंदा और
प्रशंसा, वैसे
ही हम सीमाएं
बांधना शुरू
कर देते हैं।
और जैसे ही हम
निंदा और
प्रशंसा के
घेरे बनाने लगते
हैं और
किन्हीं को
बुरा और
किन्हीं को अच्छा
कहने लगते हैं,
तो जिस व्यक्ति
को हम बुरा
कहते हैं, धीरे-धीरे
हम उसे बुरा
होने को मजबूर
करते हैं; और
जिस व्यक्ति
को हम अच्छा
कहते हैं, धीरे-धीरे
हम उसे उसकी
अच्छाई में भी
पाखंड निर्मित
करवा देते
हैं।
क्यों? क्योंकि
जिसे हम अच्छा
कहते हैं, उसे
हम बुरे होने
की सुविधा
नहीं छोड़ते। और
कोई आदमी इतना
अच्छा नहीं है
कि उसमें
बुराई हो ही
नहीं। और कोई
आदमी इतना
बुरा नहीं है
कि उसमें
अच्छाई हो ही
नहीं। लेकिन
हम चीजों को दो
टुकड़ों
में तोड़ देते
हैं। हम कहते
हैं, यह
आदमी अच्छा है,
इसमें
बुराई है ही
नहीं। और जब
उसकी जिंदगी
के भीतर की
बुराई का कोई
हिस्सा प्रकट
होना शुरू
होगा, तो
उस आदमी को
धोखा देना
पड़ेगा। वह छिपाएगा,
दबाएगा। जो उसके
भीतर है, उसे
प्रकट नहीं
करेगा; और
जो उसके भीतर
नहीं है, उसे
प्रकट करेगा।
हमारी यह
चेष्टा, अच्छाई
की प्रशंसा की
चेष्टा, अच्छाई
को पाखंड और
हिपोक्रेसी
बना देती है। इसलिए
जिसे हम अच्छा
आदमी कहते हैं,
उसमें
निन्यानबे
प्रतिशत
पाखंडी होते
हैं। लेकिन एक
बार हमने
अच्छाई का
लेबल उन पर
लगा दिया है, तो वे अपने
लेबल की रक्षा
के लिए जीवन
भर कोशिश करते
हैं।
जिसको
हम बुरा कह
देते हैं, उसको
हम अच्छे होने
का द्वार बंद
कर देते हैं।
क्योंकि जब हम
उसे इतना बुरा
कह चुके होते
हैं, वह
इतनी बार सुन
चुका होता है
कि बुरा है, तो
धीरे-धीरे
अच्छे होने की
जो आकांक्षा
है, जो
संभावना है, जो एडवेंचर
है, वह
उसके प्रति
असमर्थ अपने
को पाने लगता
है। वह सोचता
है, यह
होने वाला
नहीं है; मैं
बुरा हूं, निंदित
हूं, यह
मुझसे होने
वाला नहीं है।
तब धीरे-धीरे
मैं बुरे में
ही कैसे कुशल
हो जाऊं, यही
उसकी
जीवन-यात्रा
बन जाती है।
लाओत्से
कहता है, बुरे
को बुरा मत
कहो, भले
को भला मत कहो;
लेबलिंग मत करो; पद
मत बनाओ। इतना
ही जानो कि सब
अपने स्वभाव से
जीते हैं।
इसका
क्या अर्थ
होगा? इसका
अर्थ होगा कि
समाज में कोई कैटेगरी
नहीं है, समाज
में कोई हायरेरकी
नहीं है, समाज
में कोई ऊंचा
और नीचा नहीं
है। क्या इसका
मतलब कम्युनिज्म
होगा? यह
थोड़ा सोचने
जैसा है।
लाओत्से जिस
मनुष्य की
व्यवस्था की
बात कर रहा है,
अगर वैसी
स्वीकृत हो, तो सभी मनुष्य
असमान होंगे
और फिर भी सभी
अपने स्वभाव में
होंगे। इसलिए
कोई असमानता
का बोध नहीं
होगा।
लाओत्से
यह कह रहा है
कि एक आदमी धन
कमा सकता है, तो
कमाएगा।
और एक आदमी
गंवा सकता है,
तो गंवाएगा।
और एक आदमी
भीख मांग सकता
है, तो भीख मांगेगा।
लेकिन भीख
मांगने वाला
महल बनाने
वाले से नीचा
नहीं होगा, क्योंकि महल
बनाने को हम
कोई
पद-मर्यादा
नहीं देते। हम
कहते हैं, यह
उस आदमी का
स्वभाव है कि
वह बिना महल
बनाए नहीं रह
सकता, तो
वह बनाता है।
यह इस आदमी का
स्वभाव है कि
इसके हाथ में
पैसा हो तो
बिना लुटाए
नहीं रह सकता।
यह इसका स्वभाव
है। हम कोई
पद-मर्यादा
नहीं बनाते, हम स्वभाव
को स्वीकार
करते हैं। और
हम हर तरह के
स्वभाव को
स्वीकार करते
हैं। असल में,
साधुता का
जो परम लक्षण
है, वह सब
तरह की
स्वीकृति, हर
तरह के स्वभाव
की स्वीकृति
है।
और अगर
ऐसी संभावना
हो सके कि हम
सब तरह के स्वभाव
को स्वीकार
करें, तो
लाओत्से कहता
है, फिर
कोई विग्रह
नहीं है, फिर
कोई संताप
नहीं, कोई
चिंता नहीं, कोई पीड़ा
नहीं, कोई
कलह नहीं है।
एक
मित्र से कल
ही मैं बात कर
रहा था। पत्नी
और उनके बीच
कलह है।
स्वभावतः, उनको
ऐसा ही खयाल
था, जैसा
सभी को खयाल
होता है। सभी
को यह खयाल
होता है कि
अगर यह स्त्री
न होती, कोई
दूसरी स्त्री
होती, तो
कलह न होती।
दूसरी स्त्री
का कोई अनुभव
नहीं है। वह
दूसरी स्त्री
काल्पनिक है।
वह कहीं भी
नहीं है।
स्त्री को भी
यही खयाल होता
है कि इस आदमी
के साथ जुड़
गया, यह
भूल हो गई।
कोई दूसरा
पुरुष होता, तो यह
उपद्रव जीवन
में न होता।
तो दूसरा कौन
सा पुरुष? वह
काल्पनिक है।
वह कहीं है
नहीं। लेकिन
सभी पुरुषों
का हमें अनुभव
नहीं हो सकता,
सभी
स्त्रियों का
अनुभव नहीं हो
सकता; इसलिए
भ्रम बना रहता
है।
नहीं, उन
मित्र से
मैंने कहा कि
यह सवाल इस
स्त्री और उस
स्त्री का नहीं
है; स्त्री
और पुरुष के
स्वभाव का है।
उस स्वभाव में
कलह है।
स्त्री और
पुरुष के बीच
हमने जो व्यवस्था
की, उस
व्यवस्था का
है। उस
व्यवस्था में
कलह है। जहां
भी मालकियत
होगी, वहां
कलह होगी। और
जहां भी हम
संबंधों को
निश्चित
करेंगे सदा के
लिए, वहां
कलह होगी। क्योंकि
चित्त बहुत
अनिश्चित है
और संबंध बहुत
निश्चित हो
जाते हैं।
आज मैं
किसी से कहता
हूं कि तुमसे
सुंदर कोई भी
नहीं है। कल
सुबह कहूंगा, यह
जरूरी कहां है?
कल सुबह ऐसा
मुझे लगेगा, यह भी जरूरी
कहां है? और
इसका यह अर्थ
नहीं है कि
मैंने जो आज
कहा कि तुमसे
सुंदर कोई भी
नहीं, यह
झूठ था। इसका
यह अर्थ नहीं,
बिलकुल सच
था। यह मेरे
क्षण का सत्य
था, इस
क्षण मुझे ऐसा
ही लगता था।
लेकिन यह क्षण
मेरे सारे
भविष्य को
बांधने वाला
नहीं हो सकता।
कल सुबह मुझे
लगेगा कि नहीं,
वह भूल थी।
वह भी सत्य
होगा उस क्षण
का। और तब मैं
क्या करूंगा?
या तो इस
पुराने सत्य
का धोखा दूंगा,
पाखंड खड़ा
करूंगा। और
पाखंड खड़ा
करूंगा, तो
कलह होगी। मैं
खुद ही अपनी
आंखों में
नीचे गिरता
मालूम पडूंगा
कि कल मैंने
क्या कहा और आज
मैं क्या करता
हूं!
जहां
हम संबंध थिर
करेंगे, वहां
अथिर मन कष्ट
लाएगा। जहां
मांग होगी, वहां संघर्ष
होगा। जहां
ऊंचा-नीचा
होगा कोई, वहां
जो ऊंचा है, वह ऊंचे
रहने की अपनी
पूरी चेष्टा
करेगा, इसलिए
संघर्ष में
रहेगा; जो
नीचा है, वह
ऊपर आने की
चेष्टा करेगा,
इसलिए
संघर्ष में
रहेगा। हमारी
सारी की सारी चिंतना
जो है, वह
कलह की है।
कलह-शून्य तो
तब हो सकता है
मनुष्य, जब
वह चीजों के
स्वभाव को
स्वीकार करता
हो।
अब
जैसे चीजों का
स्वभाव क्या
है?
चीजों
का स्वभाव यह
है कि अगर मैं
किसी व्यक्ति
को प्रेम
करूंगा, उस
व्यक्ति से
सुख पाऊंगा, तो उस
व्यक्ति से
दुख भी
पाऊंगा। जिस
व्यक्ति से
सुख पाएंगे, उससे दुख भी
पाना पड़ेगा।
सुख हमें
मिलता ही उससे
है, जिससे
दुख मिल सकता
है। सुख का
दरवाजा हम
खोलते नहीं कि
साथ ही दुख का
दरवाजा भी खुल
जाता है। वे
एक ही दरवाजे
से दोनों आते
हैं। मैं जब
सुख ही चाहता
हूं और दुख
नहीं लेना
चाहता, तो
मैं चीजों का
स्वभाव
अंगीकार नहीं
कर रहा। मैं कह
रहा हूं, सुख
तो ठीक, दुख
मैं नहीं
लूंगा।
अब जिस
व्यक्ति को
मैं प्रेम
करता हूं, उस
व्यक्ति पर
मैं क्रोध भी
करूंगा। जो
व्यक्ति मुझ
पर प्रेम करता
है, वह मुझ
पर क्रोध भी
करेगा। लेकिन
हम सोचते हैं
कि जिस पर हम
प्रेम करते
हैं, उस पर
कभी क्रोध
नहीं करना है।
प्रेम जहां
होगा, वहां
क्रोध पैदा
होगा; जहां
राग होगा, वहां
क्रोध होने ही
वाला है। और
अगर क्रोध न होगा,
तो प्रेम की
क्वालिटी
बिलकुल और हो
जाएगी, उसका
गुणत्तत्व
बदल जाएगा। वह
फिर प्रेम
नहीं, करुणा
हो जाएगा।
लेकिन करुणा
से तृप्ति न
मिलेगी आपको,
क्योंकि
करुणा बिलकुल
शांत प्रेम है,
अनाग्रह से भरा हुआ
प्रेम है।
आपको तृप्ति
तो तब मिलती
है, जब कि पैसोनेट, सक्रिय, आक्रामक
प्रेम आपकी
तरफ आता है।
तभी आपको लगता
है, जब कोई
आपको जीतने
आता है।
अब यह
बड़े मजे की
बात है, जब
कोई आपको
जीतने आता है,
तो आपको बड़ा
सुख मालूम
पड़ता है।
लेकिन जब कोई
आपको जीत लेता
है, तो बड़ा
दुख मालूम
पड़ता है। जब
कोई जीतने आता
है, तो
इसलिए सुख
मालूम पड़ता है
कि मैं जीतने
योग्य हूं; नहीं तो कोई
जीतने क्यों
आएगा! और जब
कोई जीत लेता
है, तब
पीड़ा शुरू
होती है कि
मैं किसी का
गुलाम हो गया।
और दोनों
बातें
संयुक्त हैं।
अगर हम
स्वभाव को
देखें, तो यह
कलह न हो, यह
विग्रह न हो।
लाओत्से
कहता है, न
विग्रह और न
संघर्ष।
संघर्ष
क्या है? संघर्ष
पूरे क्षण यही
है, संघर्ष
पूरे क्षण यही
है कि मैं
अपने स्वभाव के
अन्यथा होने
की कोशिश में
लगा हूं। जो
मैं नहीं हो
सकता, उसकी
कोशिश चल रही
है। और दूसरे
के साथ भी यही
कोशिश चल रही है
कि जो वह नहीं
हो सकता, वह
उसको बना कर
रहना है।
एक
स्त्री को मैं
प्रेम करूं।
तो उस प्रेम
को मैं कर ही
तब सकता हूं, जब
स्त्री मुझे
प्रीतिकर है।
इसीलिए कर
सकता हूं।
लेकिन वह
स्त्री खुश
होगी कि मैं
उसे प्रेम कर रहा
हूं। लेकिन वह
नहीं जानती कि
मैं स्त्री को
प्रेम कर रहा
हूं, कोई
दूसरी स्त्री
को भी कर सकता
हूं। मेरे लिए
स्त्री में
अभी रस है, तो
ही मैं उसे
प्रेम कर रहा
हूं। मैं कल
दूसरी स्त्री
को भी प्रेम
कर सकता हूं।
वह खुश होगी, क्योंकि
मैंने उसे
प्रेम किया।
लेकिन कल पीड़ा
शुरू होगी, क्योंकि मैं
किसी दूसरी
स्त्री को
प्रेम कर सकता
हूं।
इसलिए
हर स्त्री
जिससे आप
प्रेम करेंगे, प्रेम
के बाद तत्काल
आपके पहरे पर
हो जाएगी कि
आप किसी और की
तरफ प्रेम में
तो नहीं झुक
रहे हैं।
क्योंकि उसे
पता तो चल गया
कि आपका मन
स्त्री के
प्रति प्रेम
से भरा हुआ
है। और मन कोई
व्यक्तियों को
नहीं जानता, मन तो केवल
शक्तियों को
जानता है। मन
अ नाम के पुरुष
को, ब नाम
की स्त्री को
नहीं जानता; मन तो
स्त्री और
पुरुष को
जानता है।
अब वह
स्त्री कोशिश
करेगी कि आपके
मन में स्त्री
का प्रेम न रह
जाए। लेकिन
जिस दिन
स्त्री का
प्रेम चला
जाएगा, उसी
दिन यह स्त्री
भी मन से चली
जाएगी। अब संघर्ष
भयंकर है। अब
इसकी चेष्टा
यह होगी कि
स्त्री से तो
प्रेम रहे, लेकिन मेरे
भीतर जो
स्त्री है, उसी से रह
जाए। अब एक
संघर्ष है, जो इम्पासिबल
है, जो
असंभव है, जो
हो नहीं सकता,
जो कभी पूरा
नहीं हो सकता,
जिसमें
सिवाय विषाद
के और कुछ हाथ
नहीं लगेगा।
सब तरफ
ऐसा होता है।
सब तरफ ऐसा
होता है।
वोल्तेयर ने
लिखा है कि एक
वक्त था कि
रास्ते से मैं
गुजरता था तो
सोचता था कि
कोई मुझे
नमस्कार करे। पर
लोग नहीं करते
थे। लोग जानते
ही नहीं थे। तो
बड़ी पीड़ा होती
थी। बड़ी मेहनत
करके वोल्तेयर
उस जगह पहुंचा, जहां
कि गांव से
निकलना
मुश्किल हो
गया। तो वोल्तेयर
ने लिखा है कि
दुष्टों ने
नींद हराम कर
दी है। अकेला
घूमने नहीं
निकल सकता हूं;
कोई न कोई
मिल जाएगा, नमस्कार
करके, साथ
होकर बात करने
लगता है।
तो वोल्तेयर
ने अपनी डायरी
में लिखा है
कि अब मुझे
खयाल आता है
कि यह उपद्रव
मैंने ही मोल
लिया है। ये
तो बेचारे
पहले नमस्कार
करते ही नहीं
थे। मैं निकल
जाता था, तब
इसकी पीड़ा
होती थी कि
कोई नमस्कार
करने वाला
नहीं! और अब
बाजार इकट्ठा
हो जाता है
जहां निकलता
हूं, तो
पीड़ा होती है
कि ये दुष्ट
पीछा कर रहे
हैं।
आदमी
का मन! जिन
बीमारियों को
हम निमंत्रण
देते हैं, जब
वे आ जाती हैं,
तब परेशान
होते हैं।
पहले आदमी
चाहता है कि
यश मिल जाए।
और यश मिलते
ही आइसोलेशन
चाहता है।
पहले चाहता है,
यश मिल जाए।
यश का मतलब है,
भीड़ मिल
जाए। भीड़
मिलते ही भीड़ से
घबराहट होती
है। हिटलर
पूरी कोशिश
करता है कि
भीड़ मिल जाए।
जब भीड़ मिल
जाती है, तो
फिर भीड़ से
बचने की कोशिश
करनी पड़ती है।
बड़े मजे की
बात है, जिन्हें
भीड़ नहीं मिली,
वे परेशान
हैं; जिन्हें
भीड़ मिल गई, वे परेशान
हैं।
लाओत्से
कहता है, स्वभाव
को हम स्वीकार
नहीं करते, इससे कठिनाई
है। और यह
नहीं देखते कि
हर चीज के साथ
बहुत सी चीजें
और जुड़ी हुई
हैं। वे साथ ही
चली आती हैं।
उनको बचाया
नहीं जा सकता।
कोई मुझे
अपमान न करे, हम चाहते
हैं। और सब
हमें सम्मान
करें, यह
भी हम चाहते
हैं। और जहां
सम्मान आया, वहां अपमान
अनिवार्य है,
इस स्वभाव
को हम नहीं
देख पाते। यह
स्वभाव हमें
दिखाई पड़
जाए...। तो
लाओत्से कहता
है, अपमान
नहीं चाहते, तो सम्मान
भी मत चाहो।
सम्मान चाहते
हो, तो
अपमान के लिए
भी राजी रहो।
फिर कोई
कठिनाई नहीं
है, फिर
कोई विग्रह
नहीं है। फिर
भीतर कोई कांफ्लिक्ट
नहीं है, फिर
भीतर कोई
संघर्ष नहीं
है।
और जब
एक-एक व्यक्ति
के भीतर
संघर्ष होता
है,
तो पूरे
समाज में
संघर्ष होगा
ही। जब एक-एक
व्यक्ति
चौबीस घंटे
लड़ाई में लगा
हुआ है...। जिसे हम
जीवन कहते हैं,
उसे जीवन
कहा नहीं जा
सकता।
क्योंकि हम
चौबीस घंटे कर
क्या रहे हैं?
न मालूम कितनी
तरह की
लड़ाइयां लड़
रहे हैं!
बाजार में आर्थिक
लड़ाई लड़ रहे
हैं। घर पर
पारिवारिक
लड़ाई लड़ रहे
हैं। मित्रों
में लड़ाई चल
रही है, पालिटिक्स चल रही है।
अगर एक आदमी
की हम सुबह से
लेकर रात तक, सो जाने तक
की पूरी चर्या
देखें, तो
सिवाय मोर्चे
बदलने के और
क्या है? इधर
मोर्चा बदलता
है, उधर
मोर्चा। इधर
आकर एक दूसरे
फ्रंट पर लग
जाता है। इधर
से किसी तरह
छूटता है, तो
एक दूसरी लड़ाई
पर लग जाता
है। लड़ाइयां
बदलने में
थोड़ी राहत जो
मिल जाती है, वह मिल जाती
होगी। बाकी
लड़ाई चल रही
है। कहीं कोई
उपाय नहीं है
जहां लड़ाई के
बाहर हो सके।
रात सो जाता
है, तो भी
सपने लड़ाई के
हैं! वही
संघर्ष सपनों
में लौट आता
है।
संघर्ष
से भरी हुई यह
चित्त की दशा
क्यों है? क्यों
है? कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि हम आदमी
की जड़ें ही
विषाक्त कर
रहे हैं जिससे
यह होगा ही? यही है। हम
जड़ें विषाक्त
कर रहे हैं।
और हमारी जड़ें
विषाक्त करने
का जो
योजनाबद्ध
कार्य है, वह
इतना पुराना
है कि हमारे
कलेक्टिव
माइंड, हमारे
पूरे समूह मन
का हिस्सा हो
गया है। हम और
किसी तरह अब
जी नहीं सकते,
ऐसा मालूम
पड़ता है। यह
हमारा जाल है।
और अगर चौबीस
घंटे आपको
शांति मिल जाए
और कोई संघर्ष
का मौका न मिले,
तो आप इतने
बेचैन हो
जाएंगे, जितने
आप संघर्ष से
कभी न हुए थे।
आपको लगता है,
लोग कहते
हैं कि शांति
चाहिए।
क्योंकि
उन्हें पता
नहीं कि शांति
क्या है। अगर
उन्हें सच में
ही शांति दे
दी जाए, तो
वे चौबीस घंटे
में कहेंगे कि
क्षमा करिए, यह शांति
नहीं चाहिए; इससे तो
अशांति बेहतर
थी। क्योंकि
शांति के क्षण
में आपका
अहंकार नहीं
बच सकेगा।
अहंकार
बचता है कलह
में,
संघर्ष में,
जीत में, हार में।
हार भी बेहतर
है; उसमें
भी अहंकार तो
बना ही रहता
है। ना-कुछ से हार
बेहतर है; उसमें
अहंकार तो बना
ही रहता है।
लेकिन अगर पूरी
शांति हो, तो
आपका अहंकार
नहीं बचेगा, आप नहीं
बचोगे। पूरी
शांति में
शांति ही बचेगी;
आप नहीं
बचोगे। वह
बहुत घबड़ाने
वाली होगी!
उससे आप निकल
कर बाहर आ
जाओगे। आप कहोगे,
ऐसी शांति
नहीं चाहिए; इससे तो
नर्क बेहतर
है। कुछ कर तो
रहे थे! कुछ हो
तो रहा था!
होता या न
होता, होता
हुआ मालूम
होता था।
व्यस्त थे, लगे थे। और
मन में एक
खयाल था कि
बड़े भारी काम
में लगे हैं।
जितना
बड़ा संघर्ष
होता है, उतना
लगता है कि
बड़े भारी काम
में लगे हैं।
इसलिए लोग
छोटे-मोटे
संघर्ष छोड़ कर
बड़े संघर्ष खोज
लेते हैं; छोटी-मोटी
मुसीबतें छोड़
कर बड़ी मुसीबतें
खोज लेते हैं।
अपने घर की
काफी नहीं पड़तीं,
तो पास-पड़ोस
की खोज लेते
हैं। समाज की,
देश की, राष्ट्र
की, मनुष्यता
की बड़ी तकलीफें
खोज लेते हैं।
छोटी तकलीफें
उनके काम की
नहीं हैं।
एक
युवक अभी मेरे
पास आया था।
वह अमरीकन शांतिवादियों
के दल का
सदस्य है। और
भारत में उनके
चार सौ लोग
शांति की
कोशिश करते
हैं। वह यहां
आकर संन्यास
लिया, तो मैं
उससे पूछा कि
तू कहीं अपनी
अशांति से बचने
के लिए तो
दूसरों की
शांति के लिए
कोशिश नहीं कर
रहा है?
वह
बहुत चौंका!
उसने कहा, क्या
आप कहते हैं? बात तो यही
है। पर आपको
पता कैसे चला?
घर में इतनी
अशांति है, पिता से
बनती नहीं, मां से बनती
नहीं, भाई
से बनती नहीं।
और हालात ऐसे
हो गए थे कि अगर
मैं रुक जाऊं
घर में, तो
खून-खराबा
हो जाएगा। या
तो मैं मार डालूं
पिता को, या
पिता मुझे मार
डालें। इसलिए
घर से भागना
जरूरी था। यह
जब मैंने सुना
कि भारत में
शांति की
जरूरत है, तो
मैं यहां आ
गया। यहां मैं
शांति की
उसमें लगा हुआ
हूं।
जितने
समाज-सेवक हैं, समाज-सुधारक
हैं, नेता
हैं, उनको
छोटी अशांति
काफी नहीं
पड़ती। थोड़ा
बड़ा विस्तार
चाहिए, फैलाव
चाहिए; और
मसले ऐसे
चाहिए, जो
कभी हल न होते
हों। हल हो
जाने वाले मसलों
पर आप ज्यादा
देर नहीं जी
सकते। हल हो
जाएंगे, फिर
नया मसला
खोजो। तो
स्थायी मसले
चाहिए, जो
कभी हल नहीं
होते। पर ये
हम सारे लोग, जिन्हें
शांति के कोई
सूत्र का ही
पता नहीं है, जिनका सारा
बनाव अशांति
का है, जो
उठेंगे, बैठेंगे,
चलेंगे, बोलेंगे,
तो सबसे
अशांति खड़ी
करेंगे। जो
अगर चुप भी रह
जाएं...।
नसरुद्दीन
अपनी पत्नी से
बात कर रहा
है। पत्नी आधा
घंटे बोल चुकी
है। नसरुद्दीन
कहता है, देवी,
तुझे आधा
घंटा हो गया
और मैं
हां-हूं भी
नहीं कर पा
रहा हूं।
उसकी
पत्नी कहती है, तुम
चुप रहो, लेकिन
तुम्हारे चुप
बैठने का ढंग
इतना खतरनाक
है, सो एग्रेसिव!
तुम चुप बैठे
जरूर हो, लेकिन
तुम इस ढंग से
बैठे हो कि आई
कैन नॉट स्टैंड
इट!
आदमी
शांत भी इस
ढंग से बैठ
सकता है कि
आक्रामक लगे।
आपके चुप होने
का ढंग भी ऐसा
हो सकता है कि
उससे गाली
देना भी बेहतर
हो। हमारे
होने की
व्यवस्था कलह
की है। उसमें
अगर हम चुप भी
बैठते हैं...।
अब एक आदमी
कहता है, मैं
तो चुप ही
रहता हूं, मैं
तो कुछ बोल ही
नहीं रहा हूं।
लेकिन उनका न बोलना
भी काम करता
है। आप अक्सर
नहीं तभी बोलते
हैं, जब
आपको बोलने से
भी ज्यादा
खतरनाक बात
कहनी होती है।
तब आप चुप रह
जाते हैं। क्योंकि
जितने वजन के
शब्द चाहिए, वे नहीं
मिलते। गाली
देनी है कोई
वजनी, वह
नहीं मिलती
है। चुप रह
जाते हैं। ऐसा
लेकिन क्यों
है?
लाओत्से
के हिसाब से
ऐसा इसलिए है
कि हमने स्वभाव
को स्वीकृति
नहीं दी। और
हमने स्वभाव
के साथ एक खिलवाड़
किया है। और
वह खिलवाड़
है पद-मर्यादा
का। हम कहते
हैं,
फलां नीचा
है, फलां
ऊंचा है। यूटिलिटी
की वजह से।
जिस चीज की
हमें
उपयोगिता
ज्यादा मालूम
पड़ती है, हम
उसे ऊंचा कहने
लगते हैं।
लेकिन जब
उपयोगिता
बदलती है, तो
आपको पता है, ऊंचे-नीचे
की व्यवस्था
बदलती है।
एक
जमाना था, पुरोहित
सबसे ऊंचा था,
प्रीस्ट।
क्यों? उसकी
यूटिलिटी
थी। उसकी
उपयोगिता थी।
आकाश में बादल
गरजते और
बिजली चमकती,
तो कोई भी
कुछ नहीं
जानता था। वह
पुरोहित ही जानता
था कि इंद्र
देवता नाराज
हैं। अब इंद्र
देवता को कैसे
प्रसन्न किया
जाए, इसका
सूत्र भी उसे
ही पता था।
मंत्र उसके
पास था। तो राजा
भी उसके पैर
में बैठता था
जाकर। और
इसलिए
पुरोहित ने
हजारों-हजारों
साल तक, वह
जो जानता है, उसे और लोग न
जान लें, इसकी
भरसक चेष्टा
की। क्योंकि
उसकी मोनोपॉली
उस जानकारी पर
ही थी। कुछ
बातें थीं, जो वह जानता
था और कोई
नहीं जानता
था। सम्राट भी
उसके पास
पूछने आते।
उनको भी उसके
पैर छूने
पड़ते। तो
दुनिया में
पुरोहित सबसे
ऊपर था।
लेकिन
आज! आज वह सबसे
ऊपर नहीं है।
बीस वर्षों में
वैज्ञानिक उस
जगह बैठ जाएगा, जहां
दो हजार साल
पहले पुरोहित
था। आज एक
वैज्ञानिक की
इतनी कीमत है,
जिसका कोई
हिसाब नहीं।
क्योंकि एक
वैज्ञानिक पर
सब कुछ निर्भर
करता है, सारा
भाग्य। एक
आदमी जर्मनी
से चोरी चला
जाए, तो
पूरा भाग्य
बदल जाता है।
एक आदमी रूस
से खिसक जाए, तो पूरी
किस्मत
डांवाडोल हो
जाती है। आज
अगर अमरीका
इतना संपन्न
और व्यवस्थित
दिख रहा है, तो उसका
कारण है। सारी
दुनिया के, सारे इतिहास
के नब्बे
प्रतिशत
वैज्ञानिक आज
अमरीका में
हैं। इसलिए आप
कुछ कर नहीं
सकते। और एक
इंतजाम है कि
वैज्ञानिक
कहीं भी पैदा
हो, खिंचा
हुआ, जैसे
पानी सागर में
चला आता है
नदियों का, ऐसा
वैज्ञानिक
अमरीका खिंच
जाता है। कहीं
भी पैदा हो, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। पूरा
इंतजाम है। वह
कहीं भी पैदा
हो, वह
खिंचता हुआ
चला जाएगा।
इंग्लैंड
में अभी एक
बड़ी
कांफ्रेंस
चिंतकों की
हुई और
उन्होंने कहा
कि हमें किसी
तरह अपने
विचारक को
अमरीका जाने
से रोकना
चाहिए। नहीं हम
मर जाएंगे।
लेकिन
आप रोक नहीं
सकते। आप कैसे
रोकेंगे? न आप
लेबोरेटरी दे
सकते हैं उतनी
बड़ी, न आप
उतनी तनख्वाह
दे सकते हैं, न आप उतना
इंतजाम दे
सकते हैं, न
उतनी
स्वतंत्रता
दे सकते हैं, न उतनी
सुविधा दे
सकते हैं। आप
रोक भी लेंगे,
तो कुछ मतलब
का नहीं होने
वाला वह आदमी।
वह अमरीका ही
चला जाएगा।
जो लोग
जानते हैं, वे
अगर आंख खोल
कर देख लें कि
वैज्ञानिक इस
वक्त कहां
इकट्ठा हो रहा
है, उसी
मुल्क का
भविष्य है।
बाकी मुल्क तो
डूब जाएंगे।
क्योंकि आज
ताकत उसके हाथ
में है।
और आज
अमरीका में
दिखता भला हो
कि
राजनीतिज्ञ के
हाथ में ताकत
है। ज्यादा
देर नहीं
रहेगी। पीछे
से ताकत हट गई
है। पीछे से
ताकत किसी और
के हाथ में
चली गई है।
उसके इशारे पर
सब कुछ हो रहा
है।
राजनीतिज्ञ
लाख कहते रहें
कि चांद पर
पहुंचने का
क्या फायदा है? लोग
भूखे मर रहे
हैं!
वैज्ञानिक को
चांद पर जाना
है, वह जा
रहा है। और
राजनीतिज्ञ
को उसकी
व्यवस्था
जुटानी पड़ रही
है। वह कितना
ही कहता रहे
कि क्या फायदा
है चांद पर
जाने से! उसको
समझ में भी
नहीं आता
फायदा। उसकी
बुद्धि भी
इतनी नहीं है
कि समझ में आ
जाए। लेकिन
उसका कोई
मूल्य भी नहीं
है।
आज अगर
अमरीका के
पांच बड़े
वैज्ञानिक
इनकार कर दें
कि हम हट जाते
हैं,
तो अमरीका
अभी रूस के
पैरों पर पड़
जाएगा। पांच
आदमियों के
हाथ में इतनी
ताकत है! सारी
मिलिट्री खड़ी
रह जाएगी, सब
खड़ा रह जाएगा।
पांच आदमी कह
दें कि बस ठीक
है।
यूटिलिटी
बदल गई।
पुरोहित नहीं
है अब ऊपर, अब
वैज्ञानिक है
ऊपर। बीच में
क्षत्रिय ऊपर
था। तलवार
मजबूत थी।
उसके हाथ में
ताकत थी। वह ऊपर
था। जहां उपयोगिता
बदलती है, ऊपर-नीचे
की सारी
व्यवस्था बदल
जाती है। आज
बुद्धि की
कीमत है, क्योंकि
बुद्धि से आप
ऊपर चढ़ सकते
हैं। लेकिन कल
अगर ऐसी
व्यवस्था हो
गई दुनिया
में--और हो जाएगी--कि
लोगों को काम
करने की जरूरत
न रह जाए, मशीनें
काम कर दें, ऊपर चढ़ने
का कोई उपाय न
रह जाए, तो
आप हैरान
होंगे, जो
बांसुरी बजा
सकते हैं, मछली
मार सकते हैं,
ताश खेल
सकते हैं, वे
अचानक टॉप पर
आ गए। क्योंकि
वह...आप एकदम
खड़े रह गए! आप
बड़ा बाजार
चलाते थे और
बड़ी दुकान करते
थे, आपको
कोई नहीं पूछ
रहा है। लोग
उसको पूछ रहे
हैं, जो
ताश खेल सकता
है। क्योंकि
वह फुर्सत का
आदमी कीमती हो
जाएगा बीस-पच्चीस
साल में।
अमरीका में तो
वह हालत आ
जाएगी कि जो
आदमी फुर्सत
में आनंदित हो
सकता है, वह
ऊंचाई पर आ
जाएगा।
क्योंकि काम
करने वाले की
कीमत उसी दिन
खत्म हो जाएगी,
जिस दिन काम
करना मशीन के
हाथ में चला
जाएगा।
अब एक बड़ा
वैज्ञानिक है, बड़े
गणित कर रहा
है। लेकिन एक
कंप्यूटर से
बड़े गणित नहीं
कर सकेगा
जल्दी ही। वह
छह महीने लगाएगा,
कंप्यूटर
सेकेंड में कर
देगा। उसकी
कीमत खतम हो
जाएगी। एक
वैज्ञानिक के
पीछे कौन
पड़ेगा? एक
कंप्यूटर घर
में खरीद कर
रख लेगा, अपना
काम कर लेगा।
उसकी कोई
स्थिति नहीं
रह जाएगी।
तत्काल पूरी
स्थिति बदल
जाएगी। दूसरे
लोग टॉप पर आ
जाएंगे, और
ही तरह के
लोग। मनोरंजन
करने वाले!
आज आप
देखते हैं कि
फिल्म एक्टर
अचानक ऊंचाई
पर पहुंच गया, जो
कभी नहीं था।
दुनिया में
अभिनय करने
वाला आदमी सदा
था, लेकिन
ऊंचाई पर कभी
नहीं था।
अप्रतिष्ठित
था, प्रतिष्ठा
भी नहीं थी
उसकी। वह कोई
बहुत आदरणीय
काम भी न था।
लोग उसको
अनादरणीय काम
समझते थे।
लेकिन अचानक
सारी दुनिया
में फिल्म
अभिनेता, फिल्म
कलाकार ऊपर
पहुंच रहा है।
रोज पहुंचता जाएगा।
और उसका
भविष्य आगे और
है। क्योंकि
वह मनोरंजन का
काम कर रहा
है। और जैसे-जैसे
लोग खाली होते
जाएंगे, वैसे-वैसे
उनके मनोरंजन
की जरूरत
पड़ेगी। जैसे-जैसे
लोग खाली
होंगे, फुर्सत
में होंगे, कोई काम न
होगा, तो
उनको इंगेज
रखने के लिए
जरूरत पड़ेगी
कि कोई नाच कर
उनको, कोई
गीत गाकर, कोई
कथा, कोई
नाटक, कोई
व्यवस्था
जिससे कि वह
उनका खाली समय
भरा रहे। वह
ऊपर होता चला
जाएगा।
दुनिया ने कभी
भी अभिनेता को
ऐसी जगह न दी
थी, जैसी
बीसवीं सदी ने
दी है आकर। और
वह बढ़ती जाएगी।
नेता बहुत
जल्दी पीछे पड़
जाएगा। अभी भी
पीछे पड़ गया
है। पर क्यों?
यह सब यूटिलिटी
की वजह से है।
और नहीं तो
हंसी-मजाक की
बात थी। एक
आदमी अगर
चेहरा बना
लेता था और
थोड़ा नाच-कूद
लेता था, तो
लोग समझते थे,
ठीक है।
गांव में
एकाध-दो आदमी
हर गांव में
ऐसे होते थे।
लेकिन कोई
नहीं सोचता था
कि यह आदमी चार्ली
चैपलिन
हो जाएगा कि
गांधी जी भी
मिलने के लिए
उत्सुक हों। चार्ली चैपलिन हो
जाएगा यह
आदमी! गांव
में हंसी-मजाक
करता था, ठीक
था गांव में।
बेकार आदमी हर
गांव में होते
थे, जो इस
तरह के कुछ
काम करते थे।
और गांव उनको
कभी-कभी, बेमौके-मौके
उनकी तलाश भी
कर लेता था।
शादी-विवाह
होती, कुछ
होता, गांव
में जलसा होता,
वे आदमी कुछ
लोगों को मजा
देते थे। बाकी
वे प्रतिष्ठित
न थे, वह
काम कोई अच्छा
काम न था।
लेकिन इतने
जोर से वह
प्रतिष्ठित
हो जाएगा?
लोगों
के काम का
मूल्य गिर
जाएगा, मनोरंजन
का मूल्य
बढ़ेगा, तो
प्रतिष्ठा
बदल जाएगी।
कौन ऊपर होगा,
कौन नीचे
होगा, यह
सिर्फ
उपयोगिता से होता
रहता है।
लेकिन स्वभाव
से कोई ऊंचा
और नीचा नहीं
है।
लाओत्से
कहता है, स्वभाव
से तुम जैसे
हो, वैसे
हो। और यदि हम
इसको स्वीकार
कर लें, तो
फिर कोई
विग्रह नहीं
है, फिर
कोई कलह नहीं
है, फिर
कोई संघर्ष
नहीं है--भीतर
भी और बाहर
भी।
'यदि
दुर्लभ
पदार्थों को
महत्व न दिया
जाए, तो
लोग
दस्यु-वृत्ति
से भी मुक्त
रहें।'
हम
निरंतर निंदा
करते हैं, लेकिन
हम कभी सोचते
नहीं। चोर की
निंदा करते हैं,
डाकू की
निंदा करते
हैं, बेईमान
की निंदा करते
हैं, धोखेबाज
की निंदा करते
हैं, पर
कभी सोचते
नहीं कि वह
धोखेबाज, वह
चोर, वह
बेईमान किस
चीज को पाने
के लिए लगा है?
और हम, जिस
चीज को पाने
के लिए वह लगा
है, उसका
तो हम मूल्य बढ़ाए चले
जाते हैं और
इसकी निंदा
करते चले जाते
हैं। बहुत
अजीब खेल है!
और बहुत
जालसाजी है
खेल में।
हम एक
तरफ आदर दिए
चले लाते हैं
कोहनूर को और
दूसरी तरफ
कोहनूर को
पाने वाले की
जो कोशिश चल
रही है, उसको
हम कहते हैं
कि ठीक नहीं
है। और कोहनूर
एक है। और
तीन-चार अरब
आदमी हैं। और
सभी कोहनूर चाहते
हैं। अब एक ही
है कोहनूर, सभी को मिल
सकता नहीं।
इसलिए
नीति-नियम से
कोहनूर को
खोजना संभव
नहीं है। और
फिर रोज दिखाई
पड़ता है कि जो
नीति-नियम की
सब व्यवस्था
छोड़ कर घुस
पड़ता है, वह
कोहनूर पा
लेता है। जब
रोज दिखाई पड़
रहा हो, तो
जो लोग क्यू
बनाए हुए खड़े
हैं, कब तक
खड़े रहेंगे?
और जो
खड़े रहते हैं
क्यू बनाए, पाने
वाला उनसे
कहता है, तुम
बुद्धू हो!
तुमसे कहा
किसने कि तुम
क्यू बनाए खड़े
रहो? यह तो
हमारी तरकीब
है, जिनको
क्यू तोड़ कर
आगे पहुंचना
है, बाकी
लोगों को क्यू
में लगा देते
हैं। उनको हम
समझा देते हैं
कि तुम क्यू
मत तोड़ना, इससे
बहुत पाप होता
है।
सुना
है मैंने, एक
अदालत में एक
चोर से
मजिस्ट्रेट
ने पूछा है कि
तुम्हें शर्म
न आई इतने
ईमानदार और
भले आदमी को
धोखा देते! उस
आदमी ने कहा
कि महाशय, बेईमान
को तो धोखा
दिया ही नहीं
जा सकता। ईमानदारी
तो आधार है।
ईमानदार को ही
धोखा दिया जा सकता
है। बेईमान को
तो धोखा दिया
नहीं जा सकता।
तो उस आदमी ने
कहा, हम भी
यही चाहते हैं
कि प्रचार
जारी रहे कि
ईमानदार होना
अच्छा है, अन्यथा
हम धोखा न दे
पाएं।
ईमानदारी
जारी रहे, तो
बेईमानी काम
कर पाए। नहीं
तो बेईमानी
काम न कर पाए।
मैक्यावेली
या चाणक्य, जो
कि लाओत्से से
ठीक उलटे लोग
हैं। अगर
लाओत्से का
विपरीत छोर
खोजना हो, तो
मैक्यावेली
और चाणक्य ऐसे
लोग हैं।
मैक्यावेली
कहता है कि
लोगों को
समझाओ कि भले
रहो, क्योंकि
तुम्हारी
बुराई तभी सफल
हो सकती है कि
लोग भले रहें।
लोगों को
समझाओ कि
सादगी से जीओ।
लोगों को
समझाओ कि सरल
रहो। लोगों को
कहो कि धोखा
मत देना। तो
तुम्हारा
धोखा सफल हो
सकता है।
मैक्यावेली
ने लिखा है
अपनी किताब
प्रिंस में, राजाओं
को जो उसने
सलाह दी है
उसमें उसने
लिखा है कि राजा
ऐसा होना
चाहिए, जो
नीति की बातें
लोगों को
समझाए, लेकिन
नीति से कभी
जीए नहीं।
क्योंकि अगर
खुद ही तुम
नीति से जीने
लगे, तो
तुम बुद्धू
हो! फिर तो
फायदा क्या है
समझाने का? लेकिन
समझाते रहना
कि लोग नीति
से रहें, तब
तुम्हारी
अनीति सफल हो
सकेगी। और अगर
तुम ही जीने
लगे, तो
कोई और दूसरा
तुम पर सफल हो
जाएगा। इसलिए
इस तरह का
धोखा जारी
रखना कि नीति
अच्छी है। और इस
तरह का अपना
चेहरा भी बनाए
रखना कि तुम
बड़े नैतिक हो।
लेकिन भूल कर
भी इस जाल में
खुद मत पड़
जाना, इससे
बाहर खड़े रहना
और सदा
होशियार रहना
कि जगत में
सफल तो अनीति
होती है।
लेकिन अनीति
की सफलता का
आधार नीति का
प्रचार है।
नहीं तो अनीति
सफल नहीं हो सकती।
इसलिए
मैक्यावेली
कहता है कि
खूब नीति का
प्रचार करो।
बच्चों को
स्कूल में, कालेज
में शिक्षा दो
कि नैतिक रहो।
लेकिन खुद इस
भूल में मत पड़
जाना। इससे
बचे रहना।
चेहरा बनाए
रखना, तो
तुम्हारी
सफलता की कोई
सीमा न रहेगी।
यह
लाओत्से से
ठीक उलटा आदमी
है। बहुत
बुद्धिमान
आदमी है। और
एक लिहाज से, मैं
मानता हूं कि
आदमी की शक्ल
को ठीक-ठीक
पेश कर रहा है,
जैसा आदमी
है।
मैक्यावेली
आदमी को गहरे
में पहचानता
है। और आदमी
के संबंध में
वह जो कह रहा
है, वह
बहुत दूर तक
सच है।
निन्यानबे
मौके पर बिलकुल
ही सच है। और
वह कहता है, मैं उनको
सलाह नहीं दे
रहा हूं, जो
अपवाद हैं।
मैं तो उनको
सलाह दे रहा
हूं, जो
नियम हैं।
जैसा नियम है,
वह मैं सलाह
दे रहा हूं।
एक ओर
हम दुर्लभ
पदार्थों के
लिए मोह बढ़ाए
चले जाते हैं।
अब कोहनूर
पत्थर ही है।
और अगर कोई... हम
ऐसे समाज की
कल्पना कर
सकते हैं, एक
ऐसे आदिवासी
समाज की
कल्पना कर
सकते हैं, जहां
कोहनूर सड़क पर
पड़ा रहे और
बच्चे खेलें
और फेंकते
रहें और कोई
उसको उठाए न।
क्योंकि कोहनूर
में कोई इंट्रिंजिक
वैल्यू
नहीं है, कोई
भीतरी मूल्य
नहीं है।
कोहनूर में जो
मूल्य है, वह
दिया हुआ
मूल्य है, आरोपित
मूल्य है।
कोहनूर के
भीतर कोई
मूल्य नहीं
है। क्योंकि न
उसको खा सकते
हैं, न
उसको पी सकते
हैं, वह
किसी काम पड़
नहीं सकता। वह
बिलकुल बेकाम
है। लेकिन
उसकी सिर्फ एक
ही खूबी है कि
वह रेयर
है, ज्यादा
नहीं है।
अकेला है।
बहुत थोड़ा है।
न्यून है। अगर
न्यून चीज को
हम ऊपर से
मूल्य दे दें,
तो दुनिया
उसके लिए पागल
हो जाएगी। अब
यह हालत हो
सकती है कि एक
आदमी अपना
जीवन गंवा दे
कोहनूर को
पाने में और
कोहनूर किसी काम
में न आए।
लेकिन दुर्लभ
पदार्थ को दी
गई प्रतिष्ठा,
समाज में
चोरी, बेईमानी
और
प्रतियोगिता
और संघर्ष
पैदा करती है।
हमारा सब...।
सोना
है। उसमें कोई
इंट्रिंजिक
मूल्य नहीं
है। कोई भीतरी
कीमत नहीं है
उसमें।
क्योंकि जीवन
को पूरा करने
वाली कोई कीमत
नहीं है। अगर
एक जानवर के
सामने आप एक
रोटी का टुकड़ा
रख दें और एक
सोने की डली
रख दें, वह
रोटी का टुकड़ा
खाकर अपने
रास्ते पर हो
जाएगा। रोटी
के टुकड़े में इंट्रिंजिक
वैल्यू
है, भीतरी
मूल्य है।
सोने के टुकड़े
में कोई मूल्य
नहीं है। और
जानवर इतना
नासमझ नहीं कि
वह सोने की
डली मुंह में
ले ले और रोटी
छोड़ जाए। पर
अगर आदमी के सामने
यह विकल्प हो,
तो हम रोटी
छोड़ देंगे और
सोने की डली
चुन लेंगे।
और मजा
यह है कि सोने
की डली आदमी
को छोड़ कर जमीन
पर कोई चुनने
को राजी नहीं
होगा।
क्योंकि सोने
की डली में
कोई भीतरी
मूल्य नहीं
है। उसकी कोई
भीतरी
उपयोगिता
नहीं है। उसकी
उपयोगिता दी
गई है। हमने
दी है। हमने
माना है। माना
हुआ मूल्य है।
हमने माना है
कि मूल्यवान
है,
इसलिए
मूल्यवान है।
अगर हम तय कर
लें कि मूल्यवान
नहीं है, तो
मूल्यवान
नहीं रह जाए।
सारी
दुनिया में
पच्चीसों तरह
की मूल्य की
व्यवस्थाएं
हैं। अलग-अलग
चीजें मूल्य
रखती हैं, जो
आपके खयाल में
न आएं कि यह
कैसे, इसमें
क्या मूल्य हो
सकता है!
अब एक अफ्रीकन
औरत है। तो
उसको पूरे हाथ
पर चूड़ियां
पहननी हैं
हड्डी की। वह
आपकी स्त्री
के हाथ को देख
कर मानती है
कि नंगा है
हाथ। जैसे
आपकी स्त्री
पश्चिम की आज
कोई लड़की को
देख कर मानती
है कि यह क्या
बात है, न नाक
में कुछ, न
कान में कुछ, बिलकुल
नंगापन मालूम
पड़ता है, खाली
मालूम पड़ता
है। दिया हुआ
मूल्य है। और
अजीब-अजीब दिए
हुए मूल्य
हैं।
अगर
कोई समाज मान
लेता है कि
स्त्रियों के
बड़े बाल सुंदर
हैं,
तो बड़े बाल
सुंदर हो जाते
हैं। कोई समाज
मान लेता है
कि छोटे बाल
सुंदर हैं, छोटे बाल
सुंदर हो जाते
हैं। कोई समाज
मान लेता है
कि सिर घुटा
हुआ सुंदर है,
तो ऐसी
स्त्रियां
हैं जमीन पर
अभी भी, जहां
घुटा हुआ सिर
सुंदर है।
आपको भले ही
कितनी घबड़ाहट
हो, लेकिन
जहां है सुंदर,
वहां सुंदर
है अभी भी। आज
भी सैकड़ों
कबीले
स्त्रियों के
सिर घोंट देते
हैं। क्योंकि
वे कहते हैं
कि जब तक बाल न कटें, तब
तक चेहरे का
सच-सच सौंदर्य
पता नहीं
चलता। बाल
धोखा देते
हैं। असली
सुंदर स्त्री
बाल घुट कर
सुंदर होगी।
जो नकली है, वह उखड़
जाएगा, उसका
साफ पता चल
जाएगा कि गड़बड़
है।
आप
मतलब समझ रहे
हैं?
उनके जांचने
का ढंग, वे
कहते हैं, असली
सुंदर स्त्री
बाल घुटे
पर भी सुंदर
होगी। वह तो
स्त्री का
सौंदर्य हुआ।
और बाल की
बनावट से जो
सौंदर्य दिख
रहा है, उसमें
धोखा है। तो
जो स्त्री बाल
घुटा कर, बिलकुल
सिर घुटे
हुए स्थिति
में सुंदर होती
है, वे
कहते हैं, वही
सुंदर है।
धोखा बिलकुल
नहीं है।
दिए
हुए मूल्य
हैं। हमें
कठिनाई लगती
है कि सिर
घुटा कैसे
सुंदर होगा? हमें
कठिनाई लगती
है, क्योंकि
हमारा एक
मूल्य है, वह
हमने बांध कर
रखा हुआ है।
अफ्रीका
में एक कबीला
है,
जो अपने ओंठ
को खींच-खींच
कर बड़ा करता
है। लकड़ी के
टुकड़े ओंठ और
दांतों के बीच
में फंसा कर
ओंठ को लटकाने
की कोशिश की
जाती है।
जितना ओंठ लटक
जाता है, उतना
सुंदर हो जाता
है! तो जो
स्त्रियां
लटके हुए ओंठ
से पैदा होती
हैं अफ्रीका
में उनका बड़ा
मूल्य है।
जन्मजात
सौंदर्य है!
बाकी को कोशिश
करके वैसा
करना पड़ता है।
हमारे मुल्क
में अगर कोई लटका
हुआ ओंठ पैदा
हो जाए, तो
कुरूपता है।
कुरूपता
क्या है और
सौंदर्य क्या
है?
हमारा दिया
हुआ मूल्य है।
किस चीज को हम
मूल्य दे रहे
हैं? हम एक
पत्थर को
मूल्य देते
हैं, वह
पत्थर
मूल्यवान हो
जाता है। धातु
को मूल्य देते
हैं, धातु
मूल्यवान हो
जाती है।
निश्चित ही
लेकिन हम
उन्हीं चीजों
को मूल्य देते
हैं, जो
न्यून हैं।
क्योंकि
न्यून नहीं
हैं, तो हम
कितना ही
मूल्य दें, अगर सभी को
उपलब्ध हो
सकती हैं तो
मूल्यवान नहीं
हो पाएंगी।
न्यूनता
मूल्य बनती
है।
लाओत्से
कहता है, 'यदि
दुर्लभ
पदार्थों को
महत्व न दिया
जाए, तो
लोग
दस्यु-वृत्ति
से मुक्त
रहें।'
फिर
कोई चोर न हो, बेईमान
न हो। ध्यान
रहे, जिंदगी
चलाने के लिए
बेईमानी
जरूरी नहीं, लेकिन ऊंचा
उठने के लिए
बेईमानी
जरूरी है। मात्र
जिंदगी चलाने
के लिए
ईमानदारी
पर्याप्त है।
और अगर सभी
लोग मात्र
जीने के लिए
श्रम कर रहे
हों, तो
बेईमानी की
जरूरत ही न
पड़े। लेकिन
अगर मात्र
जीने के ऊपर
जाना है, रोटी
नहीं, कोहनूर
भी पाना है, तो फिर
ईमानदारी
काफी नहीं है।
ईमानदारी से कोहनूर
नहीं पाया जा
सकेगा, बेईमान
होना पड़ेगा।
अब यह
मजे की बात है
कि जितनी
न्यून चीज
होगी, उसे
पाने के लिए
उतना ही
ज्यादा
बेईमान होना पड़ेगा--जितनी
कम! जैसे यहां
है, अगर
सभी लोगों को
अपनी-अपनी जगह
बैठना है, तो
कोई झगड़े की
जरूरत नहीं
है। लेकिन अगर
यह मेरी
कुर्सी पर ही
सभी को बैठना
है, तो
कलह-उपद्रव हो
जाएगा। और
उसमें यह आशा
रखना कि
सीधा-सादा
आदमी आकर यहां
बैठ जाएगा, गलती खयाल
है, बिलकुल
गलती खयाल है।
वह तो जो इस
संघर्ष में ज्यादा
उपद्रव मचाएगा,
वह प्रवेश
कर जाएगा।
अगर हम
यह तय कर लें
कि इसी छोटी
सी कुर्सी पर
सभी को होना
जीवन का
लक्ष्य है, तो
फिर इस कमरे
में कलह और
संघर्ष और
बेईमानी के
सिवाय कुछ भी
नहीं होगा। जो
यहां बैठा
होगा, वह
भी बैठ नहीं
पाएगा, क्योंकि
दस-पच्चीस
उसके पांव
खींचते
रहेंगे। कोई
उसे धक्का
देता रहेगा।
वह भी बैठ
नहीं पाएगा
यहां, बैठा
हुआ मालूम भर
होगा। उसको भी
लगेगा कि कब गए,
कब गए, कुछ
पता नहीं है।
और जिन
रास्तों से वह
आया है, उन्हीं
रास्तों से
दूसरे लोग भी
आ रहे होंगे!
लाओत्से, बहुत
गहरी दृष्टि
है उसकी, वह
कहता है, दुर्लभ
पदार्थों को
महत्व न दिया
जाए। दुर्लभ
पदार्थों में
से अर्थ है, जो भी न्यून
है, उसे
महत्व न दिया
जाए, तो
लोग बेईमान न
हों, चोर न
हों। चोरों को
दंड देने से
चोरी नहीं रुकेगी,
और दस्युओं
को मार डालने
से दस्यु नहीं
मरेंगे, और
बेईमानों को
नर्क में
डालने का डर
देने से बेईमानी
बंद न होगी।
वह कहता है, न्यून
पदार्थों को
मूल्य न दिया
जाए, दुनिया
से बेईमानी
समाप्त हो
जाएगी।
जरा
सोचें। आपने
कभी भी, जब भी
बेईमानी की है,
चोरी की है,
करना चाही
है, सोची
है, तब
आपने महज जीने
के लिए नहीं।
जीने से कुछ
ज्यादा! भला
आप कहते हों, अपने मन को
समझाते हो कि
वह जीवन के
लिए अनिवार्य
है, लेकिन
जीने से कुछ
ज्यादा! एक
अच्छी कमीज
मिल जाए, उसके
लिए की होगी।
तन ढंकने के
लिए बेईमानी
आवश्यक नहीं
है। और जो
आदमी तन ढंकने
के लिए ही
राजी है, वह
बेईमानी नहीं
करेगा। और
वैसा आदमी
किसी दिन अगर
तन उघाड़ा
भी हो, तो
उसके लिए भी
राजी हो जाएगा,
लेकिन
बेईमानी के
लिए राजी नहीं
होगा। लेकिन अगर
तन ढंकना
पर्याप्त
नहीं है, किस
कपड़े से ढंकना,
वह जरूरी है,
तो फिर
अकेली ईमानदारी
काफी सिद्ध
नहीं होगी।
लाओत्से
के इस सूत्र
का अर्थ यह है
कि जीवन, मात्र
जीवन के लिए
बेईमानी
आवश्यक नहीं
है। मान्यता
है, जरूरी
नहीं है।
लेकिन जीवन
में जो हम
न्यून चीजों
को मूल्य देते
हैं, उससे
सारी बेईमानी
का जाल फैलता
है।
इसलिए
ध्यान रखें, जितना
पिछड़ा हुआ
समाज जिसे हम
कहते हैं, वह
उतना कम
बेईमान होता
है। उसका और
कोई कारण नहीं
है। उसका कुल
कारण इतना है
कि जिन चीजों को
वह समाज मूल्य
देता है, वे
सर्वसुलभ
हैं। एक
आदिवासी
समुदाय है।
खाना है, एक
लंगोटी है, नमक चाहिए, केरोसिन आयल
चाहिए, वह
सभी को मिल
जाता है। कभी
इतना फर्क
पड़ता है, किसी
के घर में दो
लालटेन जल
जाती हैं, किसी
के घर में एक
लालटेन जलती
है। लेकिन
जिसके घर में
एक लालटेन
जलती है, वह
भी कोई इससे
परेशान नहीं
है। क्योंकि
एक लालटेन से
उतना ही काम
हो जाता है, जितना दो से
होता होगा।
इससे बड़ी कोई
आकांक्षा
नहीं है। कुछ
ऐसा नहीं है, जिसे पाने
के लिए स्वयं
को बेचना
जरूरी हो।
ध्यान
रहे,
न्यून
चीजों को पाने
के लिए स्वयं
को बेचना पड़ता
है। श्रम से
नहीं मिलेंगी
वे। कोई नहीं
सोच सकता कि
मैं रोज आठ
घंटे
ईमानदारी से
श्रम करूं, तो किसी दिन
मेरी पत्नी के
गले में
कोहनूर का
हीरा होगा। यह
बुद्ध भी नहीं
सोच सकते, महावीर
भी नहीं सोच
सकते, कोई
नहीं सोच
सकता। दुनिया
का भले से भला
आदमी भी यह
दावा नहीं कर
सकता कि सादगी
और सरलता से जीवन
चलाते हुए
किसी दिन
कोहनूर हीरा
मेरी पत्नी के
गले में पहुंच
जाएगा। यह
उपाय ही नहीं है
कोई कोहनूर के
गले में
पहुंचने का।
कोहनूर तो
उसके गले में
पहुंचेगा, जो
लाखों गलों को
काटने को
तैयार हो।
क्योंकि एक
हीरा और चार
अरब लोगों के
मन में
आकांक्षा जग
आई हो, तो
यह सरल नहीं
हो सकती बात।
लेकिन
हम न्यून
चीजों को ही
मूल्य देते
हैं। हमारा
सारा मूल्य का
जो ढंग है, वह
न्यून को है।
जितनी कम है
कोई चीज, उतनी
कीमती है।
हालांकि इसका
कोई संबंध
नहीं है। हालत
तो उलटी होनी
चाहिए।
सुना
है मैंने कि
अब्राहम
लिंकन ने एक
रात एक स्वप्न
देखा। स्वप्न
देखा कि बड़ी
भीड़ है और लिंकन
उस भीड़ से
गुजर रहा है।
और अनेक लोग
कानाफूसी कर
रहे हैं कि
इसकी शक्ल तो
बड़ी साधारण है, इसको
अमरीका का प्रेसीडेंट
बनाने की क्या
जरूरत थी!
शक्ल में तो
कुछ खास बात
नहीं, बहुत
साधारण है।
बेचैनी होती
है लिंकन को।
कुछ सूझता
नहीं कि क्या
करे, क्या
न करे! लोग
खुसर-फुसर कर
रहे हैं।
आस-पास ही बात
चल रही है और
उसे सुनाई पड़
रही है--सपने
में। उसे
सुनाई पड़ रही
है कि लोग कह
रहे हैं:
कितनी साधारण
शक्ल का आदमी!
और इसको
अमरीका का प्रेसीडेंट
बनाने की क्या
जरूरत है! कोई
और खूबसूरत
आदमी नहीं मिल
सका? थोड़ा
शक्ल पर तो
खयाल करना था।
वह बड़ा बेचैन
है। घबड़ाहट
में उसकी नींद
खुल जाती है। वह
रात भर सो
नहीं पाता।
सुबह वह अपनी
डायरी में
लिखता है सपना
और अपना उत्तर,
जो वह सपने
में नहीं दे
पाया। वह
उत्तर में लिखता
है कि मैं
मानता हूं कि
मुझे चुनने का
कुछ कारण है।
क्योंकि
परमात्मा
विशेष शक्लें
बहुत कम पैदा
करता है; लगता
है, पसंद
नहीं करता।
साधारण
शक्लें बहुत
तादाद में
पैदा करता है;
लगता है, पसंद करता
है। डायरी में
लिखता है कि
परमात्मा
साधारण
शक्लों के लोग
इतने ज्यादा
पैदा करता है
कि मालूम होता
है कि उसकी
पसंदगी
साधारण शक्ल
की है।
असाधारण शक्ल
तो, मालूम
होता है, भूल-चूक
से पैदा होती
है। नहीं तो
बहुत ज्यादा
पैदा कर सकता
है।
यह तो
मजाक में
लिंकन ने
लिखा। लेकिन
जो भी बड़ी
मात्रा में
पैदा हो रहा
है,
वही जीवन का
आधार होना
चाहिए। लेकिन
हम आधार उलटा
बनाते हैं।
जैसे नाक-नक्श
सब के पास हैं,
उनकी कोई
कीमत नहीं।
नाक-नक्श ऐसा
हो, जो
सबके पास नहीं,
वह कीमती हो
जाएगा। फिर हम
कलह को पैदा
करते हैं। फिर
हम संघर्ष को
पैदा करते
हैं। फिर हम
असाधारण की
दौड़ शुरू होती
है, जिसमें
हम सब पागल हो
जाते हैं। और
उस दौड़ का कोई
अंत नहीं है।
एक चीज में
नहीं, सभी
चीजों में।
'यदि
उसकी ओर, जो
स्पृहणीय है,
उनका ध्यान
आकृष्ट न किया
जाए, तो
उनके हृदय
अनुद्विग्न
रहें।'
अगर
लोगों के हृदय
को हम उसके
प्रति
आकर्षित न
करें, जो
स्पृहा के
योग्य है, जो
पाने के लिए
तृष्णा को
जगाता है, उसकी
ओर आकर्षित न
करें, तो
लोगों के हृदय
अनुद्विग्न
रहें; उनके
हृदय में
अशांति के
तूफान न उठें;
उनके हृदय
शांत, मौन
रहें।
लेकिन
हम प्रत्येक
को कहते हैं
कि पाओ उसे, वह
जो गौरीशंकर
के शिखर पर
है। जमीन पर, समतल भूमि
पर कहीं कुछ
पाने योग्य
है! पाओ उसे, जिसे कभी
कोई हिलेरी
या तेनसिंग
पाता है। पहुंचो
वहां, गाड़ो झंडा गौरीशंकर
पर। तभी कुछ
तुम्हारे
जीवन का उपयोग
और अर्थ है।
अन्यथा बेकार
तुम जीए।
पर बड़ी
हैरानी की बात
है,
गौरीशंकर पर झंडा गाड़
कर कौन सी
सार्थकता
जीवन में आ
जाती है? और
कल जब सभी लोग गौरीशंकर
पर उतर सकेंगे
हवाई जहाज से,
तब आप मत
सोचना कि आपके
झंडा गाड़ने
का कोई मूल्य
होगा। न्यून
का मूल्य है; न गौरीशंकर
का कोई मूल्य
है, न झंडा गाड़ने का
कोई मूल्य है।
जिस दिन सारे
लोग गौरीशंकर
पर उतर सकेंगे,
उस दिन...।
अभी
चांद पर कोई
आदमी उतर जाता
है,
आर्मस्ट्रांग,
तो सारी
दुनिया के
अखबार चर्चा
में संलग्न हो
जाते हैं। एक
क्षण में आदमी
वहां पहुंच
जाता है, जहां
सीधे रास्ते
से कोई
प्रतिष्ठा
पाने की कोशिश
करे, तो
पचास-साठ वर्ष
लगते हैं।
अखबार के पहले
सुर्खी तक
पहुंचने के
लिए सीधी
मेहनत कोई
करता रहे--सीधी
वह भी काफी टेढ़ी
है--तो
पचास-साठ साल
लगते हैं। फिर
भी सुनिश्चित
नहीं है।
लेकिन एक आदमी
चांद पर उतर
जाता है, तो
क्षण भर में
ऐतिहासिक
पुरुष हो जाता
है।
लेकिन
आप यह मत
सोचना कि जिस
दिन आप चांद
पर उतरेंगे, उस
दिन आप भी
ऐतिहासिक
पुरुष हो
जाएंगे। नहीं होंगे।
क्योंकि आप
उसी दिन
उतरेंगे, जिस
दिन यात्री
उतरने
लगेंगे।
जापान की एक
कंपनी तो
उन्नीस सौ
पचहत्तर के
टिकट बेच रही
है। उन्नीस सौ
पचहत्तर, एक
जनवरी, उसका
दावा है कि वह
चांद पर
यात्रियों
को...तो एडवांस
बुकिंग उसका
उन्होंने
शुरू किया हुआ
है। लोग ले
रहे हैं। मगर
वे इस खयाल
में न रहें कि
वे आर्मस्ट्रांग
हो जाएंगे।
क्योंकि
मूल्य न चांद
का है, न
चांद पर उतरने
का है, मूल्य
तो न्यून का
है। आर्मस्ट्रांग
पहली दफे उतर
रहा है, बस
इतना मूल्य
है। और तो कोई
मूल्य नहीं
है।
सब तरफ
हम,
जो बहुत कम
है, उसको
कीमत देते
हैं। उसको
कीमत देकर हम
संघर्ष को
जन्माते हैं।
सारे लोग उसे
पाने में लग जाते
हैं, पाने
की दौड़ में
उद्विग्न हो
जाते हैं। जो
पा लेते हैं, वे पाकर
पाते हैं कि
कुछ नहीं
पाया।
क्योंकि चांद
पर खड़े हो
जाएंगे, तो
क्या पाएंगे?
कोई जमीन से
बहुत भिन्न न
पाएंगे। खड़े
ही हो जाएंगे,
क्या
पाएंगे? मिल
क्या जाएगा? कौन सी
आंतरिक
उपलब्धि होगी?
कोई
उपलब्धि नहीं
हो जाएगी। जो
नहीं पहुंच पाएंगे, उनके
जीवन नष्ट हो
जाएंगे। उनकी
उद्विग्नता
उनको खा जाएगी
कि जब तक चांद
पर न पहुंचे, तब तक सब
बेकार है।
अपनी जिंदगी
किसी काम की नहीं।
यों ही अकारण,
अकारथ पैदा
हुए और मरे।
चांद पर तो
पहुंचे ही नहीं।
बचपन से पहला
बीज हमारे मन
में जो डाला जाता
है, वह
चांद पर
पहुंचने वाला
बीज है।
और
कठिनाई यह है
कि वहां पहुंच
जाओ,
तो कुछ नहीं
मिलता; और
न पहुंच पाओ, तो परेशानी
भारी झेलनी
पड़ती है। जो
पहुंचते हैं,
वे भी बड़े
संघर्ष और
कठिनाई से
पहुंचते हैं।
जो नहीं पहुंच
पाते, वे
भी भारी
संघर्ष करते
हुए जीते और
मरते हैं।
पहुंच कर कुछ
मिलता नहीं, लेकिन
पहुंचने की
कोशिश में
बहुत कुछ खो
जाता है। खो
जाता है जीवन
का अवसर, जिसमें
आनंद की किरण
फूट सकती थी।
लाओत्से
का यह सारा
आग्रह इसलिए
है--सिर्फ निगेटिव
नहीं है, यह
सिर्फ इसलिए
नहीं है कि आप
अनुद्विग्न
कैसे न हों, ऐसा नहीं है
मतलब--मतलब
ऐसा है कि अगर
आप उद्विग्न न
हों, तो वह
जो
अनुद्विग्न
स्थिति आपकी
होगी, वह
एक पाजिटिव,
एक विधायक
आनंद का द्वार
खोलेगी। इस
दौड़ में पड़ा
हुआ, न्यून
को पाने की
दौड़ में, स्पर्धा
में, स्पृहा
में पड़ा हुआ
व्यक्ति उसे
पाने से चूक ही
जाता है, जो
सभी को मिल
सकता था।
शायद
हम परमात्मा
को इसीलिए
नहीं खोजते, क्योंकि
संत कहते हैं,
वह सब जगह
है। वह
स्पृहणीय
नहीं रह जाता।
क्योंकि वे
कहते हैं, वह
रत्ती-रत्ती,
कण-कण में
छिपा है। वे
कहते हैं, वह
चारों तरफ वही
है।
बेकार
है,
अगर चारों
तरफ है तो।
अगर कहीं एक
जगह हो, जहां
कोई एक पहुंच
सके, तो
अभी सारी
मनुष्यता
दौड़ने लग जाए
कि ठीक है, हम
ईश्वर को पाकर
रहेंगे!
तो संत
अपने हाथ से
ही उसको लोगों
की स्पृहा के
बाहर कर देते
हैं। कहते हैं, सब
जगह है।
वही-वही है, जहां देखो
वही है, जहां
पाओ वही है।
वे कहते हैं, न पाओ, तो
भी वही मौजूद
है। तुम जानो
तो, न जानो
तो, वह
तुम्हें घेरे
हुए है, जैसे
मछली को सागर
घेरे है। तो
फिर मन हमारा
होता है कि
ऐसी बेकार चीज
को पाने से
क्या होगा! यानी
ऐसी बेकार चीज
पाने योग्य ही
नहीं रह गई, जो सब तरफ है,
हर कहीं है,
पाओ तो, न
पाओ तो, मिली
हुई है। सोओ
तो, जागो तो, खोते
ही नहीं। भागो,
कहीं भी जाओ,
वह
तुम्हारे साथ
है।
तो हम
कहते हैं, ठीक
है, अब जो
साथ ही है तो
रहो। हम न
खोजेंगे।
हम तो
उसे खोजने
जाएंगे, जो सब
जगह नहीं है।
जो कहीं-कहीं
है, मुश्किल
से है, और
कभी किसी को
मिलती है। और
जिसको मिलती
है, धन्यभाग उसके, इतिहास
में नाम अमर
हो जाता है।
इस भगवान को पाकर
क्या करेंगे?
अगर पा
भी लिया, तो
बुद्ध कहेंगे,
इसमें क्या
किया? वह
मिला ही हुआ
था। अगर पा भी
लिया, तो
महावीर
कहेंगे, इसमें
क्या हुआ? वह
तो स्वभाव था।
अगर पा भी
लिया, तो
लाओत्से
कहेंगे, कुछ
अखबार में नाम
छपवाने
की जरूरत नहीं
है। हजारों को
मिल चुका है, हजारों को
मिलता रहेगा।
कुछ गौरव मत
करो। कुछ
दीवाने मत हो
जाओ। कुछ झंडा
गाड़ने का
कारण नहीं है।
यह मिलता ही
रहा है। और
जिनको नहीं
मिला है, उनके
पास भी है, पता
भर नहीं है
उनको। पता चल
जाएगा, उनको
भी मिल जाएगा।
तो ऐसी
चीज स्पृहा
नहीं बनती।
परमात्मा अगर
हमारी खोज
नहीं बनता, तो
उसका कारण है
कि वह हमारी
स्पृहा नहीं
बनता है।
हमारे मन में
कहीं ऐसी
उद्विग्नता
पैदा नहीं
होती उसके
पाने के लिए
कि दूसरे से
छीन कर पा
लेंगे। एक और
खराबी है, कि
मजा तो तभी है
किसी चीज को
पाने का कि
दूसरे से छीन
कर पा लें।
नहीं तो कोई
मजा नहीं है।
अब परमात्मा
ऐसी चीज है कि
आप कितना ही
पा लो, किसी
का कुछ नहीं छिनेगा।
ऐसा नहीं है
कि आप पा लोगे
तो मुझे पाने
में कुछ
दिक्कत पड़ेगी,
कि आपने पा
लिया, तो
अब मैं कैसे पाऊं? कि
जब आप ही पा
चुके, तो
अब बात खतम हो
गई।
नहीं, आप
कितना ही पा
लो, मुझे
पाने के लिए
उतना ही खुला
रहेगा। आपका
कोई कब्जा, मुझसे छीनने
वाला नहीं है।
आपका पा लेना,
कुछ मेरे
अधिकार पर चोट
नहीं है। आप
कितना ही पाओ,
इससे मेरे
पाने में फर्क
नहीं पड़ता।
संत कहते हैं,
अनंत है वह।
कोई कितना ही
पा ले, वह
सदा उतना ही
शेष है।
और भी
प्राण निकल
जाते हैं कि
बेकार ही है, कोई
स्पर्धा ही
नहीं है। किसी
से छीनने का
कोई मजा नहीं
है।
छीनने
का सुख है! जब
हमें छीनने
में सुख आता
है,
तो ध्यान
रखना, वस्तु
में सुख नहीं
होता, छीनने
में सुख होता
है। दूसरे को
दुख देने में
सुख होता है।
अचानक
ऐसा हो कि
कोहनूर घर-घर
में बरस जाए, सड़क-सड़क
पर गिर जाए, जहां भी निकलें,
पैर में वही
पड़े! तो जो
महारानी उसको
पहने हुए है, जल्दी निकाल
कर फेंक दे, क्योंकि
बेकार है।
क्योंकि भिखमंगे
पैरों में डाल
रहे हैं उसको,
उसका कोई
मतलब न रहा।
जिस पर कोहनूर
है, वह
उसको छिपा दे
फौरन कि किसी
को पता न चल
जाए कि मैंने
गले में पहना
था। क्योंकि
वह गले में पहनने
का सुख ही यह
था कि छीना
था। लाखों गले
देख कर पीड़ित
हो जाएं कि
नहीं है उनके
पास, और है
किसी के पास, वही उसका
सुख है।
स्पृहा
हम जगाते हैं।
और स्पृहा
जगाई जा सकती है
न्यून के लिए।
इस
संबंध में एक
बात समझ लेनी
जरूरी है कि
जैसा मैंने
कहा कि
लाओत्से से पहले
सूत्र में नीतिशास्त्री
और
साधु-महात्मा, न्यायविद विरोध
करेंगे। ऐसा
इस दूसरे
सूत्र में इकोनॉमिस्ट,
अर्थशास्त्री
विरोध
करेंगे। अगर
ठीक से हम समझें,
तो
अर्थशास्त्री
कहते हैं कि इकोनॉमिक्स
का अर्थ ही यह
है कि वह न्यून
के लिए संघर्ष
है; वह जो
कम है, उसके
लिए संघर्ष
है। असल में, वह उसी चीज
की इकोनॉमिक
वैल्यू
है, जो
न्यून है।
इसलिए
हवा का कोई
मूल्य नहीं
है। गांव में
पानी का कोई
मूल्य नहीं
है। थोड़े ही
जमाने पहले जमीन
का कोई मूल्य
नहीं था। थोड़े
ही जमाने बाद हवा
का मूल्य हो
जाएगा।
क्योंकि हवा
कम पड़ती जाती
है। उसमें
आक्सीजन
क्षीण होती
चली जाती है।
लोग बढ़ते चले
जाते हैं।
इतनी भीड़ बढ़ती
जाती है कि कल
पचास साल बाद
जिनकी क्षमता
होगी, वे ही
अपनी-अपनी
आक्सीजन का
बक्सा अपने
साथ लटका कर घूमेंगे।
जो गरीब होंगे,
वे देखेंगे
कि ठीक है, जो
मिल जाए हवा
में इधर-उधर, उससे काम चलाएंगे।
भीख मांगने की
हालत हो
जाएगी।
कोई
आश्चर्य नहीं
है कि पचास
साल बाद कोई
आदमी आपके
दरवाजे पर आकर
कहे कि थोड़ी
आक्सीजन मिल जाए!
बस जरा सी
अपनी आक्सीजन
के डिब्बे पर
मुझे भी मुंह
रख लेने दें, बहुत
तड़प रहा
हूं। क्योंकि
न्यूयार्क की
हवा में इतनी
आक्सीजन कम है
अभी भी कि
वैज्ञानिक
कहते हैं, हम
चकित हैं कि
आदमी जिंदा
कैसे है! और
विषाक्त गैसेस
की इतनी
मात्रा हो गई
है कि डर है कि
यह मात्रा में
ज्यादा देर
जीया नहीं जा
सकेगा।
तो कल
हवा की कीमत
हो जाएगी।
पानी की कभी
कीमत न थी।
अभी एक पचास
साल पहले गांव
में दूध की
कोई कीमत न
थी। न्यून
होती है चीज
और कीमत हो
जाती है। सारा
अर्थशास्त्र
न्यून पर खड़ा
होता है। अगर ठीक
समझें, तो वैल्यू का
मतलब ही होता
है, वह जो
न्यून है, उसकी
कीमत। कीमत का
मतलब, कितनी
न्यून है!
जितनी न्यून
हो जाएगी, उतनी
कीमत बढ़
जाएगी। जितनी
ज्यादा हो
जाएगी, उतनी
कीमत कम हो
जाएगी। इसलिए
उन्नीस सौ तीस
में अमरीका को
अपनी लाखों
गठरियां कपड़े
की समुद्र में
फेंक देनी
पड़ीं।
क्योंकि कपड़ा
हो गया ज्यादा
और बाजार में
कीमत इतनी गिर
जाएगी कि मर
जाएंगे। तो
उसको सागर में
फेंक दिया, ताकि बाजार
में कपड़ा
अधिक न हो
जाए। अधिक हो
जाए, तो
कीमत खतम हो
जाए। बाजार
में कीमत बनी
रहे, तो
कपड़े को सागर
में डुबा
दिया। और जमीन
पर लाखों लोग
नंगे हैं।
लेकिन इकोनॉमिक्स
की धुरी नहीं
चलती, वह
टूट जाए फौरन।
लाओत्से
का बस चले, तो
दुनिया में
कोई इकोनॉमिक्स
न हो। लाओत्से
का बस चले, तो
दुनिया में
अर्थशास्त्र
नहीं होगा।
क्योंकि
लाओत्से यह
कहता है, न्यून
को कीमत ही
क्यों देते हो?
जो ज्यादा
है, उस पर
ध्यान दो। जो
पर्याप्त है,
उस पर ध्यान
दो। जो सबको
मिल सकती है, उसको आदरणीय
बनाओ। जो कम
को मिल सकती
है, उसकी
बात छोड़ दो।
कोई कोहनूर
लटकाए फिरे, तो लटकाए
फिरने दो। खबर
कर दो कि यह
आदमी पागल हो
गया है। यह
देखते हो, कितना
बड़ा पत्थर
लगाए हुए है
गले में!
स्कूल-स्कूल,
घर-घर में
बच्चों को
समझा दो कि यह
आदमी पत्थर लटकाता
है, इसका
दिमाग खराब
है। तो हम इस
जगत को
अनुद्विग्न, मनुष्य के
चित्त को
अशांति के पार
एक शांति के
अलग जगत में
ले जा सकते
हैं।
लाओत्से
ने कहा है कि
मैंने सुना है
कि मेरे बाप-दादों
के जमाने में
नदी के उस पार
हमें रात में
कुत्तों की
आवाज सुनाई
पड़ती थी। उस
तरफ कोई गांव
है। कभी-कभी
खुला आकाश
होता, तो उस
गांव के
मकानों में
जलते हुए
चूल्हों का
धुआं भी दिखाई
पड़ता था।
लेकिन सुना है
मैंने कि कोई
कभी नदी के
पार जाकर उस
गांव को देखने
नहीं गया कि
वहां रहता कौन
है। लोग इतने
शांत थे कि
व्यर्थ की अशांतियां
नहीं लेते थे।
अब इससे क्या
मतलब है, कोई
रहता होगा!
कुत्तों की
आवाज सुनाई
पड़ती थी रात, तो मालूम
होता था, कोई
रहता होगा।
कभी-कभी धुआं
दिखाई पड़ता था
मकानों का
उठता आकाश में,
तो लगता था,
कोई रहता
होगा। लेकिन
कोई नदी पार
करके जाने के
लिए फिक्र में
नहीं पड़ा कि
जाकर देख आए, कौन रहता
है।
और
हमें चैन न
मिलेगी, जब तक
हम सारे
ग्रह-उपग्रह
पर न पहुंच
जाएं कि कौन
रहता है; कि
कोई नहीं रहता,
तो भी पता
लगा लें कि
कोई रहता तो
नहीं है!
गहरे
में यह सारी
की सारी
अनुद्विग्न
या उद्विग्न
स्थितियों पर
निर्भर बात
है। उद्विग्न जो
है,
वह भागा हुआ
रहेगा, कोई
भी बहाने से
भागा हुआ
रहेगा। जो
अनुद्विग्न
है, वह किसी
भी बहाने से
बैठा हुआ
रहेगा। किसी
भी बहाने से
शांत रहेगा, थिर रहेगा।
उसमें व्यर्थ
के बवाल नहीं
उठेंगे, और
व्यर्थ के
भंवर नहीं
उठेंगे, और
व्यर्थ के तूफानों
को वह आकर्षित
नहीं करेगा, और व्यर्थ
की
जिज्ञासाओं
में नहीं
जाएगा।
सारा
शिक्षा का
आधार लाओत्से
के हिसाब से
और होना
चाहिए:
स्पृहा-मुक्त!
नॉन-एंबीशस!
महत्वाकांक्षा
नहीं। किसी से
गणित बन जाती
है,
तो ठीक है।
और नहीं बन
जाती है, तो
भी ठीक है।
उतना ही ठीक
है। जिससे
गणित नहीं बन
जाती, उससे
क्या बन सकता
है, इसकी
फिक्र करो, बजाय यह
फिक्र करने के
कि उससे गणित
बने ही। उसको
नष्ट मत करो।
उससे क्या बन
सकता है, इसकी
फिक्र करो।
कुछ जरूर बन
सकता होगा।
कुछ तो बन ही
सकता होगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दुकान पर
काम कर रहा
है। लेकिन
झपकी लग-लग जाती
है उसको। सब काउंटरों
पर बिठा कर
परेशान हो गया
मालिक उसे। वह
जहां भी बैठता
है,
वहीं सो
जाता है। आखिर
मालिक ने कहा
कि मुल्ला, क्या करें
हम? तुम्हें
कहां बिठाएं?
तुम्हीं
कुछ सुझाव दो।
उसने
कहा कि वह जो
पाजामा का
काउंटर है, वहां
मुझे बिठा
दें। और एक
तख्ती मेरे
गले पर लगा
दें कि हमारे
पाजामे इतने
सुखद हैं कि
बेचने वाला भी
सो जाता है।
अनिद्रा का
उपाय है हमारा
पाजामा! और तो
अब मैं क्या
सलाह दे सकता
हूं, मुल्ला
ने कहा।
मुल्ला
ने कहा कि मैं
क्या करूं? सवाल
नींद नहीं है,
सवाल यह है
कि जागने
योग्य कोई
उत्तेजना
नहीं है।
आप ऐसे
ही थोड़े जागे
हुए हैं।
अकारण थोड़े ही
जागे हुए हैं।
और रात अकारण, ऐसा
तो नहीं है कि
अकारण नहीं सो
पाते हैं। वह नसरुद्दीन
कह रहा है, असली
बात यह है कि
सड़क पर कौन
गुजर रहा है, देखने की
कोई उत्तेजना
नहीं है। कौन
भीतर गया, कौन
बाहर गया, इसकी
उत्तेजना
नहीं है।
वह कहा
करता था कि एक
आदमी ने मेरे
खीसे में हाथ
डाल दिया, तो
भी मैंने हाथ
बढ़ा कर नहीं
देखा कि यह
क्या कर रहा
है। क्योंकि
मैंने कहा कि
अगर खीसे में
कुछ होगा, तो
पहले ही कोई
निकाल चुका
होगा। मैंने
कहा कि इतनी
देर तक कहां
बचेगा! अगर
खीसे में कुछ
होगा, तो
अब तक कहां
बचेगा! कोई
निकाल ही चुका
होगा।
रात एक
चोर उसके घर
में घुस गया।
उसकी पत्नी ने
उसे उठाया है
कि उठो, घर
में चोर है! तो
मुल्ला ने कहा,
उसको गलती
अपनी खुद ही
खोजने दो। हम
क्यों साथ दें?
उसकी गलती
वह खुद ही खोज
ले।
एक बार
और उसके घर
में चोर घुसा
है,
तो वह
आलमारी में
छिप गया। चोर
सब मकान खोज
डाले, कुछ
न मिला। मकान
का मालिक भी
नहीं मिला।
दरवाजा भी
अंदर से बंद
है, मालिक
तो कम से कम
होना ही
चाहिए। जब कुछ
भी न मिला, तो
वह मालिक में
उत्सुक हो गया
कि इस आदमी को
भी तो देखो, इस मकान में
रहता है, कुछ
भी नहीं है।
तो सब जगह
खोजा तो एक
आलमारी का
दरवाजा खोला,
तो वह पीठ
किए हुए, दीवार
की तरफ मुंह
किए हुए खड़ा
था। उन्होंने
कहा, अरे!
तुम यहां क्या
कर रहे हो? तो
उसने कहा, मैं
सिर्फ शर्म के
मारे छिपा हूं
कि तुम क्या कहोगे
कि घर में कुछ
भी नहीं है!
नसरुद्दीन ने
कहा कि मुझे
इसलिए नींद आ
जाती है कि
जगाने का कोई
कारण नहीं
मालूम पड़ता।
मैं किसलिए
जगा रहूं? और
अगर आपको रात
नींद नहीं आती,
तो उसका
कारण यह है कि
रात भी आपको
कारण बने रहते
हैं, जो
जगाए रखते
हैं। कैसे सो
जाएं! रास्ता
दिखाई ही पड़ता
रहता है।
रास्ते पर
चलते लोग
दिखाई ही पड़ते
रहते हैं।
दूकान पर आते
ग्राहक दिखाई
ही पड़ते रहते
हैं। दिन में
दी गई गालियां,
की गई
बातचीत सुनाई
ही पड़ती रहती
है। वह जारी ही
रहती है
उत्तेजना, इसलिए
नहीं सो पाते।
और मुल्ला ने
कहा कि मैं क्या
कर सकता हूं!
कोई उत्तेजना
नहीं, जो
मुझे जगाए।
नींद आ ही
जाती है।
यह जो
लाओत्से कह
रहा है जिस
अनुद्विग्न
चित्त की बात, बिलकुल
दूसरा ही आदमी
है वह जो
अनुद्विग्न
है। कुछ पाने
की दौड़ नहीं है।
जो मिला है, काफी है। जो
मिला है, काफी
से ज्यादा है।
जो मिला है, वह धन्य है
उसे पाकर। जो
मिला है, वह
कृतार्थ है।
जो मिला है, वह अनुगृहीत
है। जो मिला
है, वह
बहुत है, जरूरत
से ज्यादा है।
जो नहीं मिला
है, वह
उसके मन की
दौड़ नहीं। जो
नहीं मिला है,
वह उसकी
स्पृहा नहीं,
वह उसकी
मांग नहीं, वह उसकी
अपेक्षा
नहीं। जो नहीं
मिला है, वह
नहीं मिला है।
उसकी बात ही
नहीं है। वह
उसके चित्त का
हिस्सा ही
नहीं है।
लेकिन
हमारे चित्त
का ढंग और है।
जो मिला है, उसके
प्रति हम अंधे
हैं। और जो
नहीं मिला है,
उसके प्रति
बहुत सजग हैं।
जो मिला है, उसे हम भूल
जाते हैं। जो
नहीं मिला है,
उसे हम याद
रखते हैं। अगर
मेरे पास आप
सात दिन रहे, और सात दिन
मैं कितना ही
आपको दूं और
एक दिन तेज
आंख से देख
दूं; सात
दिन जो दिया, वह भूल
जाएगा; वह
जो तेज आंख है,
फिर जिंदगी
भर न भूलेगी।
कोई व्यक्ति
आपको कितना ही
प्रेम दे
वर्षों तक और
एक दिन चूक
जाए, वे
वर्ष बेकार हो
गए। जो नहीं
मिला उस दिन, वह भारी
कीमती हो गया।
जो नहीं मिलता,
जो नहीं है,
हम उसी को
ही पकड़ पाते
हैं। हमारी
सारी की सारी अटेंशन, सारा ध्यान
अभाव पर लगा हुआ
है।
मेरे
दो हाथ हैं, दो
पैर हैं, इन
पर मेरा ध्यान
नहीं है। एक
अंगुली मेरी
टूट जाए, बस
मेरी जिंदगी
बेकार हुई।
हालांकि उसके
होने से, जब
तक वह थी, मुझे
कोई मतलब न
था। मैंने
उसका कोई
उपयोग न किया
था। अंगुली थी
मेरे पास, तब
मैंने कभी
भगवान को
धन्यवाद न
दिया था कि यह
अंगुली आपने
दी है। कोई
प्रयोजन न था।
जब तक थी, तब
तक पता ही न
चला। जब न रही,
टूट गई, तब
से मुझे पता
चला। और तब से
दुखी हूं, और
तब से परेशान
हूं, और तब
से निंदा कर
रहा हूं। तब
से भगवान से
विवाद चल रहा
है कि मेरी
अंगुली तोड़ कर
बहुत अन्याय
हो गया। देकर
कभी कोई
धन्यता न हुई
थी; लेकर
बड़ा अन्याय हो
गया है।
और थी, तब
मैंने उससे
कुछ किया न
था। उस अंगुली
से मैंने कोई
चित्र न बनाए
थे। न कोई
वीणा पर संगीत
छेड़ा था।
न उस अंगुली
से किसी गिरते
को सहारा दिया
था। उस अंगुली
से मैंने कुछ
भी न किया था।
वह थी या न थी, बराबर थी।
मुझे पता ही न
था उसके होने
का। वह तो जिस
दिन नहीं रही,
उस दिन
मैंने जाना कि
बड़ा अभाव हो
गया। और मजे की
बात है, जिस
अंगुली से
मैंने कभी कुछ
न किया था, उसके
न होने से मैं
परेशान क्यों
हूं? क्योंकि
कुछ भी तो खतम
नहीं हो रहा, कुछ भी तो
बंद नहीं हो
रहा, कुछ
तो छिन नहीं
रहा है। लेकिन
हमारे मन का
ढंग यह है: जो
नहीं है, वह
हमें दिखाई
पड़ता है बहुत
भारी होकर; और जो है, वह
हमें दिखाई
नहीं पड़ता।
लाओत्से
कहता है, स्पृहा
से मुक्त अगर
हम चित्त
निर्मित करें;
यदि उसकी ओर,
जो
स्पृहणीय है,
उनका ध्यान
आकृष्ट न किया
जाए, तो
उनके हृदय
अनुद्विग्न
रहें।
हम
आकृष्ट कर रहे
हैं। पुराने
जमाने में
सारी दुनिया
में जिनके पास
धन होता, समाज
का आग्रह होता
था, धन का
प्रदर्शन न
करें। धन होना
काफी है। कृपा
करके उसका
प्रदर्शन न
करें, उसे
दिखाते न फिरें,
उसे उछालते
न फिरें।
क्योंकि उसका उछालना,
उसका
दिखाना न
मालूम कितने
लोगों के
उद्विग्न
होने का कारण
हो जाए। इसलिए
धनी आदमी का
एक ही सबूत था,
वह जो आदमी
धन को उछालता
नहीं फिरता था,
वह सबूत था
कि वह आदमी
धनी है। गरीब
ही धन को उछालते
थे। जिनके पास
कुछ नहीं था, वे कुछ
दिखाना चाहते
थे कि उनके पास
कुछ है। जिनके
पास सब था, वे
ऐसे चुप होते
थे, जैसे
नहीं है।
एक
सूफी कहानी
मैंने सुनी
है। सम्राटों
की एक परंपरा
में एक बेटा
भिखारी है। कई
पीढ़ियों से भीख
मांगी जा रही
है। लेकिन
परंपरा
सम्राटों की
है। घर में
कथा है कि कभी
बाप-दादे किसी
पीढ़ी में
बड़े सम्राट थे, बड़े
खजाने थे
उनके पास। पर
यह कुछ पता
नहीं चलता कि
वे खजाने
कहां खो गए।
कभी वे हारे, इसका पता
नहीं चलता।
कभी लूटे गए, इसका पता
नहीं चलता।
फिर यह
भिखमंगापन
कैसे आया? हुआ
क्या? कुछ
पता नहीं
चलता।
पीढ़ियों तक
पता नहीं चला।
फिर एक पीढ़ी
में एक दिन
अचानक एक फकीर
घर पर आया और
उसने उस घर के
जवान लड़के को
कहा कि अब तुम
वह आदमी हो, जिसको खजानों
की खबर दी जा
सकती है। वी
आर दि गार्जियंस!
उस
युवक ने कहा, तुम
कौन से गार्जियंस
हो, हमें
कुछ पता नहीं।
हमारे
पास तुम्हारे
बाप-दादे छोड़
गए हैं। हमारे
पास,
मतलब हमारे
गुरु के पास, उनके गुरु
के पास, फकीरों के पास छोड़
गए हैं कि जब
हमारे घर में
ऐसा आदमी पैदा
हो, जो धन
को प्रदर्शन
करने में
उत्सुक न हो, तब यह खजाना
वापस सौंप
देना। तो तुम
वह आदमी हो।
मैं तुम्हें
खजाना सौंपने
आया हूं।
उस
युवक ने कहा, लेकिन
मुझे कुछ
सोचने का मौका
दें।
उस
फकीर ने कहा
कि बिलकुल ठीक, तुम्हीं
वह आदमी हो, जिसकी तलाश
थी।
धन के खजाने की
कोई खबर देता, तो
आप बैठे रहते?
आप खड़े हो
गए होते--कहां
है? भीख
मांग रहा था
परिवार। उस
युवक ने कहा, सोचने का
मौका दें।
जिम्मेवारी
भारी है। और गरीबी
में जीना उतना
जटिल नहीं, धन पास हो और
बिना
प्रदर्शन किए
रह जाना बहुत
मुश्किल है।
थोड़ा सोचने का
मौका दें। ऐसी
जल्दी भी क्या
है? इतने
दिन से आप
सम्हाल ही रहे
हैं, और
थोड़े दिन सम्हालें।
उस फकीर ने
कहा, उठो!
क्योंकि हम भी
कब तक
सम्हालते
रहें? और
तुम्हीं वह
आदमी हो, क्योंकि
लक्षण पूरे हो
गए। क्योंकि
हमारे पास जो
दस्तावेज है
उसमें कहा गया
है कि जब भी
कोई परिवार का
हमारा आदमी कहे,
सोचने का
मौका दो, उसे
तुम दे आना।
हम हर पीढ़ी
में आते रहे।
लेकिन जिससे
भी हमने पूछा,
वह उठ कर
खड़ा हो गया।
वह धन
उसे सौंप दिया
गया। सारे
गांव में, आस-पास,
दूर-दूर तक खबर
पहुंच गई कि
धन वापस मिल
गया है। लेकिन
भीख मांगनी तो
जारी रही।
सम्राट ने
बुलाया उस युवक
को और कहा कि
पागल तो नहीं
हो? या तो
अफवाह है यह!
हमने सुना है
कि तुम्हें पुश्तैनी
धन वापस मिल
गया है। खजाना
सौंप दिया गया
है। फिर यह
भीख क्यों
मांग रहे हो? उस युवक ने
कहा कि पहले
तो भीख मांगना
एक मजबूरी थी,
अब एक
कर्तव्य है। नाउ इट इज़
ए डयूटी।
क्योंकि इसी
शर्त पर वह धन
मुझे सौंपा
गया है कि
उसका
प्रदर्शन न
हो। और आज मैं
घर बैठ जाऊं
और भीख मांगने
न जाऊं, तो
इससे बड़ा
प्रदर्शन और
क्या होगा? उसने कहा कि
यानी मामला ही
खतम हो गया, और प्रदर्शन
और ज्यादा
क्या हो सकता
है? लोग
अगर मुझे घर
में बैठा देख
लें कि आज भीख
मांगने नहीं
गया--क्योंकि
रोज जो मिलता
है, उसी से
तो काम चलता
है--तो
प्रदर्शन तो
हो जाएगा।
धन जब
प्रदर्शन
बनता है, तो
स्पृहा पैदा
होती है।
लेकिन धन तो
हम कमाते ही
इसलिए हैं कि
प्रदर्शन कर
सकें। अगर
प्रदर्शन ही न
करना हो, तो
कमाने की
जरूरत क्या है?
जो वस्त्र
पहनने ही न
हों, उनको
बनवाने की
क्या जरूरत है?
और जिन
मकानों में
रहना ही न हो, उनको खड़ा
क्या करना है?
जिसका कभी
प्रदर्शन ही न
करना हो, उसको
रखने का भी
क्या उपयोग है?
हम कहेंगे
ऐसा।
लेकिन
लाओत्से कहता
है कि अगर हम
लोगों के ध्यान
आकर्षित न
करें, तो लोग
परम शांति में
जी सकते हैं।
और ये जो एक्झिबीशनिस्ट,
प्रदर्शनकारी
हैं, रुग्ण
हैं। क्योंकि
जो तुम्हारे
पास है, उसे
भोगना तो
स्वस्थ है, उसे दिखाना
रुग्ण है। इसे
थोड़ा समझ लें।
जो मेरे पास
है, उसे
अनुग्रहपूर्वक
भोगना तो
स्वस्थ है; लेकिन उसे
दिखाए फिरना
रुग्ण है, बीमार
है। असल में, दिखाता वही
फिरता है, जो
भोग नहीं
पाता। जो भोग
लेता है, उसे
दिखाने की
जरूरत नहीं रह
जाती। जिस चीज
को आप भोग
सकते हैं, उसे
आप दिखाते
नहीं फिरते।
जिसको आप भोग
नहीं सकते, उसे आप
दिखाते फिरते
हैं। सभी तलों
पर एक्झिबीशन
जो है...।
मनोविज्ञान
में एक्झिबीशनिस्ट
एक खास तरह के
लोगों को कहा
जाता है। ऐसे
लोग,
जो कहीं भी,
मौके-बेमौके
अपनी
जननेंद्रियों
को दूसरों को
दिखा दें, उनको
एक्झिबीशनिस्ट
कहते हैं वे।
बड़ा वर्ग है दुनिया
में एक्झिबीशनिस्ट
का। व्यवस्था
से भी चलता है
वह वर्ग, अव्यवस्था
से भी चलता
है। व्यवस्था
से चलता है, तब तो हम
एतराज नहीं
उठाते, क्योंकि
वह व्यवस्था
के भीतर चलता
है। जब अव्यवस्था
से कोई करता
है, तब हम
एतराज उठाते
हैं। पर बड़ी
हैरानी
मनोवैज्ञानिकों
को थी कि इससे
क्या प्रयोजन
है कि एक आदमी
अचानक, आप
सड़क से चले जा
रहे हैं, और
आदमी नंगा खड़ा
होकर आपको
अपनी नग्नता
दिखा दे! इससे
क्या मिलेगा?
पर
जैसे-जैसे
इसकी खोज चलती
है,
वैसे-वैसे
पता चलता है
कि वही आदमी
इस तरह के प्रदर्शन
में संलग्न
होता है, जिसने
कभी यौन का
कोई सुख नहीं
पाया। जिसने
यौन को कभी
भोगा नहीं, वह एक्झिबीशनिस्ट
हो जाता है।
अब वह दिखाने
का ही सुख ले
रहा है, हालांकि
दिखाने से कोई
सुख मिलने का
प्रयोजन नहीं
है। कोई अर्थ
नहीं है। आप
अपने शरीर को
नग्न किसी को
दिखा दें, इससे
कोई मतलब नहीं
है। न आपको
कुछ मिलता, न दूसरे को
कुछ मिलता। न
कोई प्रयोजन
हल होता है।
लेकिन इस
दिखाने वाले
का कोई न कोई
प्रयोजन हल
होता है।
और आप
हैरान होंगे
जान कर कि एक्झिबीशनिस्ट
ने क्या-क्या
तरकीबें
निकाली हैं!
यूनान में पुरुषों
ने बहुत चुस्त
कपड़े निकाले
थे कि उनकी
जननेंद्रिय
अलग दिखाई
पड़ती रहे।
उतने ही से
तृप्ति नहीं
मिली एक्झिबीशनिस्ट
को,
तो
उन्होंने
चमड़े की
जननेंद्रियां
बनवा ली थीं, जिनको कि वे
कपड़ों के अंदर
पहने रखते थे।
वे दिखाई
पड़ें।
हमें
आज हैरानी
मालूम होगी।
लेकिन
स्त्रियां
सारी दुनिया
में यही, अपने
स्तनों के साथ
यही कर रही हैं।
लेकिन वह
हमारी
व्यवस्था में
है, इसलिए
हमको दिखाई
नहीं पड़ता।
ऐसा ही यूनान
में दो हजार
साल पहले किसी
को दिखाई नहीं
पड़ता था। अब
हमको समझ में
आता है, क्या
पागलपन की बात
थी! अभी जब
एथेंस के
म्यूजियम में
रखी हैं चमड़े
की
जननेंद्रियां,
तो लोग चकित
होते हैं कि कैसे
पागल थे! इसकी
क्या जरूरत थी?
लेकिन दो
हजार साल
बाद--शायद दो
हजार साल भी
ज्यादा देर है,
और
जल्दी--स्त्रियां
भी अपने
स्तनों को
दिखाने का
जो-जो इंतजाम
सारी दुनिया
में किए हुए
हैं, वह भी एक्झिबीशन
में, म्यूजियम
में रखा होगा।
और आने वाली
भविष्य की
स्त्रियां
हैरान होंगी
कि स्तनों को
इतना दिखाने
की क्या जरूरत
थी? क्या
प्रयोजन था?
कोई भी
प्रयोजन नहीं
है। लेकिन
कहीं कोई बात
है,
कहीं कुछ
मामला है। और
वह मामला यह
है कि जिस चीज
को हम भोगने
में असमर्थ
होते चले जाते
हैं, उसको
हम प्रदर्शन
करने लगते
हैं। जिस चीज
को हम भोग
लेते हैं, उसको
हम प्रदर्शन
नहीं करते। जो
आदमी बहुत मजे
से, आनंद
से खाना खा
लेता है और
पचा लेता है, वह चर्चा
नहीं करता
फिरता कि उसके
घर में आज क्या
बना। वह पार्टियां
नहीं देता कि
लोग देखें।
नसरुद्दीन एक
दफा सम्राट के
घर निमंत्रित
हुआ है। सम्राट
का नियम है कि
वह हर वर्ष
अपने जन्मदिन
पर देश के सभी
खास-खास लोगों
को बुलाता है।
नसरुद्दीन
भी बुलाया गया, पहली
दफा। कोई पांच
सौ मेहमान
हैं। थालियां
सजती जाती हैं,
लेकिन खाना
कुछ शुरू नहीं
होता। थालियां
लगती चली जाती
हैं एक से एक
सुंदर। और ऐसी
प्रचलित बात
है कि वह सम्राट
हर बार नई से
नई चीजें बनवाता
है। सुगंध से
भर गया है
हॉल। भोजन आते
जा रहे हैं, लगते जा रहे
हैं। नसरुद्दीन
बड़ा बेचैन है।
उसकी भूख काबू
के बाहर होती
चली जा रही
है। आखिर वह
चिल्लाया कि भाइयो, यह
हो क्या रहा
है? भोजन
देखने के लिए
है या करने के
लिए?
उसके
पड़ोस के लोगों
ने कहा कि
ठहरो, तुम
अशिष्टता कर
रहे हो। इससे
पता चलता है
कि तुम किसी
भूखे घर से
आते हो। सब लग
जाने दो, शांति
से देखो, दूसरी
बातें करो।
इसकी तरफ तो
देखो ही मत।
खाने के वक्त
भी पूरा मत खा
लेना, छोड़
देना। नहीं तो
लोग समझेंगे,
तुम गरीब
आदमी हो, तुम्हारे
पास खाने को
नहीं है।
नसरुद्दीन ने
कहा,
यह बताना
बेहतर है कि
मेरे पास भोजन
है या यह बताना
कि मेरे पास
भूख है!
भोजन
तो वह आदमी
बताता है, जिसके
पास भूख नहीं
रह जाती। जब
भूख नहीं रह जाती,
तब भोजन
दिखाना पड़ता
है। जब तक भूख
है, तब तक
भोजन दिखाया
नहीं जाता, किया जाता
है। तो जो हम
प्रदर्शन
करते हैं, वह
सब
उन्हीं-उन्हीं
चीजों का
प्रदर्शन है,
जिन्हें हम
बिलकुल नहीं
भोग पाते।
रुग्ण चित्त
का लक्षण है।
लाओत्से
कहता है, ध्यान
आकृष्ट न किया
जाए लोगों का
उस तरफ, जो
न्यून है, जो
व्यर्थ है, जिसका कोई
आंतरिक मूल्य नहीं,
तो लोग
उद्विग्न न
हों, अनुद्विग्न
रहें।
और लोग
अनुद्विग्न
रह जाएं, तो
उनके जीवन में
दूसरी ही
यात्रा शुरू
हो जाती है।
उद्विग्नता
ले जाती है
संसार में, अनुद्विग्नता
ले जाती है
परमात्मा
में। उद्विग्नता
बनती है
यात्रा संसार
की, संताप
की; अनुद्विग्नता
बनती है
यात्रा
मुक्ति की, मोक्ष की, सत्य की।
दूसरे
सूत्र पर कल
बात करेंगे।
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