(ओशो
द्वारा
श्रीमद्भगवद्गीता
के अध्याय आठ
‘अक्षर—ब्रह्म—योग’ एंव अध्याय
नौ ‘राजविद्या—राजगुह्म—योग’ पर
दिए गए चौबीस
अमृत
प्रवचनों का
अपूर्व
संकलन।)
कृष्ण
ने यह गीता
कही—इसलिए
नहीं कि कह कर
सत्य को कहा
जा सकता है।
कृष्ण से बेहतर
यह कौन जानेगा
कि सत्य को
कहा नहीं जा
सकता है। फिर
भी कहा;
करूणा से कहा।
सभी बुद्धपुरूषों
ने इसलिए नहींबोला
है कि बोल कर
तुम्हें
समझाया जा
सकता है। बल्कि
इसलिए बोला है
कि बोलकर
ही तुम्हें
प्रतिबिंब
दिखाया जा
सकता है।
प्रतिबिंब
ही सही—चाँद
की थोड़ी खबर
तो ले आयेगा।
शायद प्रति
बिंब से प्रेम
पेदा हो
जाए। और तुम
असली की तलाश करनेलगो, असलीकी
खोज करने लगो, असली की
पूछताछ शुरू
कर दो।
ओशो
श्रीमद्भगवद्गीता
(अथ अष्टमोऽध्यायः)
अर्जुन
उवाच
किं
तद्ब्रह्म
किमध्यात्मं
किं कर्म
पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं
प्रोक्तमधिदैवं
किमुच्यते।।
1।।
अधियज्ञः
कथं कोऽत्र
देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले च
कथं ज्ञेयोऽसि
नियतात्मभिः।।
2।।
श्रीभगवानुवाच
अक्षरं
ब्रह्म परमं
स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः।।
3।।
अर्जुन
बोला, हे
पुरुषोत्तम, जिसका आपने
वर्णन किया, वह ब्रह्म
क्या है, और
अध्यात्म
क्या है तथा
कर्म क्या है,
और अधिभूत
नाम से क्या
कहा गया है
तथा अधिदैव नाम
से क्या कहा
जाता है?
और
हे मधुसूदन, यहां
अधियज्ञ कौन
है, और वह
इस शरीर में
कैसे है, और
युक्त चित्त
वाले पुरुषों
द्वारा अंत
समय में आप
किस प्रकार
जानने में आते
हो?
श्रीकृष्ण
भगवान बोले, हे
अर्जुन, परम
अक्षर अर्थात
जिसका कभी नाश
नहीं हो, ऐसा
सच्चिदानंदघन
परमात्मा तो
ब्रह्म है और
अपना स्वरूप
अर्थात
स्वभाव
अध्यात्म नाम
से कहा जाता
है तथा भूतों
के भाव को
उत्पन्न करने
वाला जो
विसर्ग अर्थात
त्याग है, वह
कर्म नाम से
कहा गया है।
अर्जुन
के प्रश्नों
का कोई अंत
नहीं है। किसी
के भी
प्रश्नों का
कोई अंत नहीं
है। जैसे
वृक्षों में
पत्ते लगते
हैं,
ऐसे मनुष्य
के मन में
प्रश्न लगते
हैं। और जैसे
झरने नीचे की
तरफ बहते हैं,
ऐसा मनुष्य
का मन
प्रश्नों के गङ्ढों को
खोजता है।
कृष्ण
जैसा व्यक्ति
भी मौजूद हो, तो
भी प्रश्न
उठते ही चले
जाते हैं। और
शायद उन्हीं
प्रश्नों के
कारण अर्जुन
कृष्ण को भी देख
पाने में
समर्थ नहीं
है। और शायद
उन्हीं प्रश्नों
के कारण
अर्जुन कृष्ण
के उत्तर को
भी नहीं सुन
पाता है।
जिस मन
में बहुत
प्रश्न भरे
हों,
वह उत्तर को
नहीं समझ पाता
है। क्योंकि
वस्तुतः जब
उत्तर दिए
जाते हैं, तब
वह उत्तर को
नहीं सुनता; अपने
प्रश्नों को
ही, अपने
प्रश्नों को
ही भीतर गुंजाता
चला जाता है।
कृष्ण
कहते हैं जरूर; अर्जुन
तक पहुंच नहीं
पाता है।
दुविधा है; लेकिन ऐसी
ही स्थिति है।
जब तक प्रश्न
होते हैं मन
में, तब तक
उत्तर समझ में
नहीं आता। और
जब प्रश्न गिर
जाते हैं, तो
उत्तर समझ में
आता है। और
प्रश्न से भरा
हुआ मन हो, तो
कृष्ण भी
सामने खड़े हों,
साक्षात
उत्तर ही
सामने खड़ा हो,
तो भी समझ
के बाहर है।
और मन से
प्रश्न गिर
जाएं, तो
पत्थर भी पड़ा
हो सामने, तो
भी उत्तर बन
जाता है।
निष्प्रश्न मन
में उत्तर का
आगमन होता है।
प्रश्न भरे चित्त
में उत्तर को
आने की जगह भी
नहीं होती। इतनी
भीड़ होती है
अपनी ही कि
उत्तर के लिए
प्रवेश का
मार्ग भी नहीं
मिलता है।
अर्जुन
पूछे चला जाता
है। ऐसा भी
नहीं है कि समझने
की कोशिश न
करता हो; पूरी
कोशिश करता
है। लेकिन
बहुत बार
समझने की कोशिश
ही समझने में
बाधा बन जाती
है। जब भी मन कोशिश
करता है, तो
तनावग्रस्त
हो जाता है, खिंच जाता
है। उस खिंची
हुई, तनी
हुई हालत में
कुछ भी समझ
नहीं आता है।
समझने
की कोशिश भी
जहां नहीं है, सिर्फ
पी लेने का
भाव है; पूछने
का भी जहां
खयाल नहीं है,
जो मिल जाए,
उसे
प्राणों में
संजो लेने की
आकांक्षा है;
खींच लेने
की भी आतुरता
नहीं है कि
यही मैं खींच
लूं, जान
लूं, पा
लूं, द्वार
खोलकर प्रतीक्षा
करने की जहां
हिम्मत है, वहां उत्तर
चुपचाप, बिना
पदचाप किए
भीतर चला आता
है।
और
बड़े-बड़े
प्रश्न पूछने
से उत्तर मिल
जाएगा, ऐसा
भी नहीं है।
मन बड़े-बड़े
प्रश्न खड़े कर
देता है।
लेकिन जब तक
मन प्रश्न खड़े
करता रहता है,
तब तक छोटा
भी उत्तर नहीं
मिलता, क्योंकि
मन ही बाधा
है।
अर्जुन
प्रश्नों की
एक कतार खड़ी
करता है। इसके
पहले कृष्ण
उत्तर देते
रहे हैं।
पिछले सात अध्यायों
में उन्होंने
बहुत उत्तर
दिए हैं। वह
घूम-घूमकर
नए-नए
प्रश्नों के
नाम से फिर
पुरानी-पुरानी
बातें खड़ी कर
लेता है। वह
फिर पूछता है।
और एक बात भी
नहीं पूछता, यह
भी थोड़ी समझ
लेने जैसी बात
है।
वह
पूछता है, हे
पुरुषोत्तम, ब्रह्म क्या
है?
प्रश्न
का अंत नहीं
होता, यद्यपि
समस्त
प्रश्नों का
अंत ब्रह्म के
प्रश्न के साथ
हो जाता है।
उसके बाद
प्रश्न बचते नहीं।
ब्रह्म के बाद
भी कोई प्रश्न
शेष रह जाएगा?
ब्रह्म तो
दि अल्टिमेट
क्वेश्चन
है, आखिरी
सवाल है। इसके
बाद पूछने को
क्या बचता होगा?
लेकिन पूरी
कतार है।
अर्जुन
पूछता है, ब्रह्म
क्या है? अध्यात्म
क्या है? कर्म
क्या है? अधिभूत
क्या है? अधिदैव
क्या है? यहां
अधियज्ञ कौन
है? इस
शरीर में वह
कैसे है? और
युक्त चित्त
वाले पुरुषों
द्वारा अंत
समय में आप
किस प्रकार जानने
में आ जाते हो?
ऐसा भी
नहीं लगता कि
किसी भी एक
प्रश्न में उसकी
बहुत
उत्सुकता
होगी! वह इतनी
त्वरा से, इतनी
तीव्रता से
सवाल पूछ रहा
है कि लगता है,
सवाल पूछने
के लिए ही
सवाल पूछे जा
रहे हैं। अन्यथा
ब्रह्म के बाद
कोई सवाल नहीं
है। और ब्रह्म
के बाद जो
सवाल पूछता है,
वह कहता है,
ब्रह्म में
उसकी बहुत
उत्सुकता और
जिज्ञासा नहीं
है। अन्यथा एक
सवाल काफी है
कि ब्रह्म क्या
है? दूसरा
सवाल उठाने की
अब कोई और
जरूरत नहीं
है। इस एक का
ही जवाब सबका
जवाब बन
जाएगा। एक को
ही जानने से
तो सब जान
लिया जाता है।
लेकिन जो सबको
जानने की
विक्षिप्तता
से भरे होते
हैं, वे एक
को भी जानने
से वंचित रह
जाते हैं।
ब्रह्म
के बाद भी
अर्जुन के लिए
सवाल हैं। इससे
एक बात साफ है
कि कोई भी
जवाब मिल जाए, अर्जुन
के सवाल हल
होने वाले
दिखाई नहीं
पड़ते हैं। जो
ब्रह्म के बाद
भी सवाल पूछ
सकता है, वह
हर सवाल के
बाद, हर
जवाब के बाद, नए सवाल खड़े
करता चला
जाएगा।
असल
में हमारा मन
जब भी एक जवाब
पाता है, तो उस
जवाब का एक ही
उपयोग करना
जानता है, उससे
दस सवाल बनाना
जानता है।
पूरे
मनुष्य जाति
के मन का
इतिहास नए-नए
प्रश्नों का
इतिहास है। एक
भी उत्तर आदमी
खोज नहीं
पाता। हालांकि
हर दिए गए
उत्तर के साथ
दस नए सवाल खड़े
हो जाते हैं।
अगर हम
पीछे लौटें, तो
आदमी के उत्तर
जितने आज हैं,
उतने ही सदा
थे। कृष्ण के
समय में भी
उत्तर वही था;
बुद्ध के
समय में भी
उत्तर वही था;
आज भी उत्तर
वही है। लेकिन
सवाल आज
ज्यादा हैं।
अगर कोई
प्रगति हुई है,
तो वह एक कि
हमने और
ज्यादा सवाल
पैदा कर लिए हैं;
जवाब नहीं।
और ज्यादा
सवालों की भीड़
में जो हाथ
में जवाब थे, वे भी छूट गए
हैं और खोते
चले जाते हैं।
यह बात
उलटी मालूम
पड़ेगी कि जहां
बहुत सवाल होते
हैं,
वहां जवाब
कम हो जाते
हैं; और
जहां सवाल
बिलकुल नहीं
होते, वहीं
जवाब, उत्तर,
दि आंसर, एक ही उत्तर
सारी
ग्रंथियों को,
सारी
उलझनों को तोड़
जाता है।
बादरायण
का
ब्रह्म-सूत्र
एक छोटे-से
सूत्र से शुरू
होता है। और
एक छोटे-से
सवाल का ही
जवाब पूरे
बादरायण के
ब्रह्म-सूत्र
में है।
छोटे-से दो
शब्दों से
शुरू होता है
ब्रह्म-सूत्र, अथातो
ब्रह्म
जिज्ञासा--यहां
से ब्रह्म की
जिज्ञासा
शुरू होती है।
पर यह आखिरी
सवाल है; अब
इसके आगे सवाल
नहीं हो सकते।
हेंस दि इंक्वायरी
आफ दि ब्रह्म;
यहां से
शुरू होती है
ब्रह्म की
जिज्ञासा। बस,
अब कोई सवाल
नहीं उठ सकते;
आखिरी सवाल
पूछ लिया गया।
अर्जुन
भी पूछता है, ब्रह्म
क्या है? लेकिन
क्षणभर
रुकता नहीं, जरा-सा
अंतराल नहीं
है। पूछता है,
अध्यात्म
क्या है? अगर
कृष्ण ने
लौटकर पूछा
होता कि
अर्जुन, अपने
सवाल को फिर
दोहरा, तो
जैसे मुझे
उसका कागज हाथ
में रखना पड़ा,
ऐसा उसे भी
रखना पड़ता।
बहुत संभावना
तो यही है कि
वह दुबारा
अपना सवाल
वैसा का वैसा
न दोहरा पाता।
और यह भी
संभावना बहुत
है कि उसमें
ब्रह्म और
अध्यात्म चूक
सकते थे, भूल
जा सकते थे।
ऐसा
मेरा रोज का
अनुभव है। आता
है कोई, कहता
है, ईश्वर
के संबंध में
कुछ कहें। अगर
मैं दो क्षण
उसकी बात को
टाल-मटोल कर
जाता हूं, पूछता
हूं, कब आए?
कैसे हैं? वह फिर घंटेभर
बैठकर बात
करता है, दुबारा
नहीं पूछता उस
ईश्वर के
संबंध में, जिसे पूछते
हुए वह आया था!
ऐसे
सवाल भी हम
कहां से पूछते
होंगे? ये
हमारे हृदय के
किसी गहरे तल
से आते हैं या
हमारी बुद्धि
की पर्त पर
धूल की तरह
जमे हुए होते
हैं? ये
हमारे
प्राणों की
किसी गहरी खाई
से जन्मते हैं
या बस हमारी
बुद्धि की
खुजलाहट हैं?
अगर यह
बुद्धि की
खुजलाहट है, तो खाज को खुजला
लेने से जैसा
रस आता है, वैसा
रस तो आएगा, लेकिन
बीमारी घटेगी
नहीं, बढ़ेगी।
अर्जुन
की बीमारी
घटती हुई
मालूम नहीं
पड़ती। वह
पूछता ही चला
जाता है। वह
यह भी फिक्र
नहीं करता कि
जो मैं पूछ
रहा हूं, वह
बहुत बार पहले
भी पूछ चुका
हूं। वह यह भी
फिक्र नहीं
करता कि मैं
केवल नए
शब्दों में
पुरानी ही
जिज्ञासाओं
को पुनः-पुनः
खड़ा कर रहा
हूं। वह इसकी
भी चिंता नहीं
करता कि कृष्ण
उत्तर देते जा
रहे हैं, लेकिन
मैं उत्तर
नहीं सुन रहा
हूं।
शायद
वह इस खयाल
में है कि कोई
ऐसा सवाल पूछ
ले कि कृष्ण
अटक जाएं!
शायद वह इस
प्रतीक्षा
में है कि कोई
तो वह सवाल
होगा, जहां
कृष्ण भी कह
देंगे कि कुछ
सूझता नहीं
अर्जुन, कुछ
समझ नहीं
पड़ता। इस
प्रतीक्षा
में उसका गहरा
मन है। उसका
अनकांशस
माइंड, उसका
अचेतन मन इस
प्रतीक्षा
में है कि
कहीं वह जगह आ
जाए, या तो
कृष्ण कह दें
कि मुझे नहीं
मालूम; या
कृष्ण ऊब जाएं,
थक जाएं और
कहें कि जो
तुझे करना हो
कर; मुझसे
इसका कुछ
लेना-देना
नहीं है! तो
अर्जुन जो
करना चाहता है,
उसे कर ले।
लेकिन
कृष्ण जैसे
लोग थकते
नहीं। यद्यपि
यह बिलकुल
चमत्कार है।
अर्जुन जैसे
थकाने वाले लोग
हों,
तो कृष्ण
जैसे व्यक्ति
को भी थक ही
जाना चाहिए।
लेकिन कृष्ण
जैसे व्यक्ति
थकते नहीं
हैं। और क्यों
नहीं थकते हैं?
न थकने
का कुछ राज है,
वह मैं आपसे
कहूं, फिर
हम कृष्ण के
उत्तर पर
चलें।
न थकने
का एक राज तो
यह है कि
कृष्ण यह
भलीभांति
जानते हैं कि
अर्जुन, तुझे
तेरे
प्रश्नों से
कोई भी संबंध
नहीं है। और
अगर अर्जुन इस
दौड़ में लगा
है कि हम
प्रश्न खड़े
करते चले
जाएंगे, ताकि
किसी जगह
तुम्हें हम
अटका लें कि
अब उत्तर नहीं
है। कृष्ण भी
उसके साथ-साथ
एक कदम आगे
चलते चले जाते
हैं कि हम
तुझे उत्तर
दिए चले
जाएंगे। कभी
तो वह क्षण आएगा
कि तेरे
प्रश्न चुक
जाएंगे और
उत्तर तेरे
जीवन में
क्रांति बन
जाएगा।
कृष्ण
को भलीभांति
पता है, अर्जुन
को प्रश्नों
से प्रयोजन
ज्यादा नहीं
है, अन्यथा
वे कहते कि यह
तो तू पूछ
चुका। कृष्ण जानते
हैं कि अर्जुन
का सवाल सवाल
नहीं है, अर्जुन
की बीमारी है।
उसे जवाब नहीं
चाहिए, उसे
रूपांतरण
चाहिए, उसे
ट्रांसफार्मेशन
चाहिए; उसका
आमूल जीवन
बदले, ऐसी
घड़ी चाहिए।
लेकिन उस
स्थिति तक
लाने के लिए
भी उसे
फुसलाना
पड़ेगा, उसे
राजी करना
पड़ेगा; अर्जुन
की ही भाषा
में बोलना
पड़ेगा।
सुना
है मैंने कि
एक गांव में
पहली ही बार
कुछ लोग एक
घोड़े को
खरीदकर ले आए
थे। उस देश
में घोड़ा नहीं
होता था और उस
गांव के लोगों
ने घोड़ा देखा
भी नहीं था।
जो लोग ले आए
थे परदेश से, वे
घोड़े के शरीर
से, उसकी
दौड़ से, उसकी
गति से
प्रभावित
होकर ले आए
थे। लेकिन उन्हें
घोड़े के संबंध
में कुछ भी
पता नहीं था।
एक बात पक्की
थी, उन्हें
घोड़े की भाषा
बिलकुल पता
नहीं थी। बहुत
मुश्किल में
पड़ गए। घोड़े
को उन्होंने
चलते देखा था
हवा की रफ्तार
से। गांव में
लाकर
उन्होंने
पाया कि चार
आदमी आगे से खींचें और
चार आदमी पीछे
से धकाएं,
तब कहीं वह
मुश्किल से
कुछ-कुछ चलता
है। बड़ी मुश्किल
में पड़ गए कि
अगर घोड़े को
चलाने के लिए आठ
आदमियों की
जरूरत पड़े, तो यह घोड़ा
है किसलिए!
बहुत
उन्होंने कहा
कि हमने देखा
था तुझे हवा
से बातें
करते! घोड़ा
खड़ा सुनता रहा,
वैसे ही
जैसे अर्जुन
सुनता रहा
होगा।
कृष्ण
की भाषा और
है। एंड देअर
इज़ सच ए
बिग गैप आफ लैंग्वेज, ऐसा
बड़ा अंतराल है
कि घोड़ा भी
आदमी की भाषा
समझ ले, कृष्ण
की भाषा समझना
अर्जुन को
मुश्किल है। घोड़े
और आदमी के
बीच इतना
अंतराल नहीं
है। कुछ लोग
तो कहते हैं, उतना ही
अंतराल है, जितना गधे
और घोड़े के
बीच होता है।
मगर उनकी बात
सही न भी हो, फिर भी आदमी
और घोड़े के
बीच बहुत
अंतराल नहीं है।
कृष्ण और
अर्जुन के बीच
अंतराल
ज्यादा है।
पर
मुश्किल में
तो पड़ ही गए, अंतराल
कम हो तो भी।
और घोड़ा रोज
सूखने लगा और
दुबला होने
लगा, क्योंकि
उन्होंने
पूछा ही नहीं
था कि उसे भोजन
भी देना है! अब
चलना रोज-रोज
मुश्किल होता
चला गया। चार
की जगह आठ और
आठ की जगह दस
और दस की जगह
बारह, रोज-रोज
आदमी बढ़ाने
पड़ते जब उस
घोड़े को चलाना
पड़ता। पूरा
गांव दिक्कत
में पड़ गया। लोगों
ने कहा, तुम
यह क्या ले आए
हो? ऐसा
वक्त आ जाएगा
जल्दी कि पूरे
गांव को इसे चलाना
पड़ेगा! लेकिन
फिर चलाने से
फायदा क्या है?
ठीक था; एक
दिन तमाशा हो
गया; लोगों
ने चलाकर भी
देख लिया, फिर
क्या करेंगे?
गांव
में एक अजनबी
उस रात रुका
था,
उसने भी
देखा यह खेल
कि पूरा गांव
धक्का देता है,
घोड़े को
चलाता है, घोड़ा
चलता नहीं।
उसने कहा कि पागलो, क्या
तुम्हें घोड़े
की भाषा
बिलकुल भी पता
नहीं? उन्होंने
कहा, हम
इसी मुश्किल
में पड़े हैं।
वह आदमी सिर्फ
घोड़े के सामने
घास का एक
छोटा-सा पूला
लेकर चलने लगा।
और घोड़ा इतना
कमजोर था, तो
भी तेजी से
उसने गति पकड़
ली। वह आदमी
दौड़ने लगा, तो घोड़ा
दौड़ने लगा।
घास का एक
छोटा-सा पूला
हाथ में लेकर!
घोड़े को घास
का पूला समझ
में आया।
कृष्ण
जैसे लोग भी
हजार तरह की
कोशिश करते
हैं अर्जुन
जैसे
व्यक्तियों
के सामने, जो
उनकी समझ में
आ जाए, उसे
रखने की। लेकिन
अर्जुन
होशियार घोड़ा
है, जल्दी
उलझाव में
नहीं आता। वह
कहता है, होगा।
यह ठीक है।
लेकिन अभी कुछ
और सवाल बाकी हैं,
अभी उनका
जवाब चाहिए।
वह असल में
ध्यान नहीं देता
कि कृष्ण उसके
सामने क्या रख
रहे हैं।
शायद
वह अपने को
बचाने के लिए
ही यह कर रहा
है। कहीं कृष्ण
की बात सुनाई
न पड़ जाए, इसलिए
वह जल्दी सवाल
पूछता है। वह
इतने जल्दी सवाल
पूछता है, जितने
जल्दी कृष्ण
जवाब भी नहीं
दे पाते। इधर कृष्ण
का जवाब
समाप्त नहीं
होता और
अर्जुन के सवाल
खड़े हो जाते
हैं। यह
बिलकुल असंभव
है।
अगर
मैं आपसे कुछ
बोलूं, बोल
भी न पाऊं
और आपका सवाल
खड़ा हो जाए, तो इसका
मतलब सिर्फ एक
हुआ कि जब मैं
बोल रहा था, तब आप सवाल
तैयार कर रहे
थे।
और ऐसा
भी नहीं लगता
कि वे सवाल, कृष्ण
जो बोलते हैं
उससे पैदा
होते हों। वे
सवाल अर्जुन
के अपने ही
हैं; कृष्ण
का बोलना इररेलेवेंट
है, असंगत
है। कृष्ण के
बोलने को कहीं
सुना ही नहीं
जा रहा है।
लेकिन
फिर भी कृष्ण
जैसे व्यक्ति
उत्तर देते हैं, इस
आशा में कि
शायद किसी
क्षण में थका
हुआ अर्जुन का
मन नए प्रश्न
न खोज पाए, नए
सवाल न उठा
पाए और शायद
एक किरण भी
प्रकाश की
उसके भीतर
पहुंच जाए।
उत्तर का एक
छोटा-सा स्वाद
भी उसे आ जाए, तो वह फिर
घोड़े की तरह
घास के पीछे
चल सकता है। इस
आशा में पूरी
गीता कही गई
है। और कृष्ण
जैसा उत्तर
देने वाला
आदमी बहुत
मुश्किल से
होता है; बहुत
मुश्किल से
होता है।
बुद्ध
बहुत-से
प्रश्नों के
लिए इनकार कर
देते थे। वे
कहते थे, ये
सवाल पूछो ही
मत। मैं इनके
जवाब दूंगा ही
नहीं।
क्योंकि वे
कहते थे, ये
सवाल
तुम्हारे
सवाल ही नहीं
हैं; ये
तुम्हारे
प्राणों से
कहीं पूछे ही
नहीं जा रहे
हैं। तुम वही
पूछो, जो
सच में तुम
जानना चाहते
हो। मत पूछो
वह, जो तुम
जानना नहीं
चाहते हो।
अब एक
आदमी बुद्ध के
पास आता है, वह
पूछता है कि
मृत्यु क्या
है? बुद्ध
कहते हैं, तू
मृत्यु को
जानना चाहता
है? वह
आदमी कहता है,
जानना
इसलिए चाहता
हूं, क्योंकि
बचना चाहता
हूं। और जानने
का कोई प्रयोजन
नहीं है। अगर
यह मृत्यु कुछ
है, तो मैं
जान लूं, ताकि
बच जाऊं। पर
बुद्ध कहते
हैं, जानना
हो तो मृत्यु
में प्रवेश
करना पड़ेगा, उसके
अतिरिक्त
जानने का कोई
उपाय नहीं है।
तो तू छोड़; यह
सवाल तू छोड़।
तू कुछ और
सवाल पूछ, जो
तू जानना
चाहता हो
प्रवेश करके।
वह
आदमी जरा
मुश्किल में
पड़ गया है।
सोच-समझकर वह
कहता है कि
ठीक,
तो कुछ
ध्यान के
संबंध में
मुझे कह दें।
यह
मजबूरी में
पूछ रहा है।
अब फंस ही गए
हैं। अब बुद्ध
कहते हैं, मृत्यु
के बाबत
बताऊंगा नहीं,
क्योंकि तू
मृत्यु में
घुसने को राजी
नहीं। छोड़।
कुछ और पूछ
ले। अब वह यह
भी नहीं कह
सकता, इतनी
भी ईमानदारी
नहीं है कि अब
मैं नहीं पूछना
चाहता, बात
खतम हो गई; मैं
नहीं पूछूंगा।
यह भी नहीं
है। इतनी आनेस्टी
भी, इतना
भी
व्यक्तित्व
का बल नहीं है
कि कह दे कि नहीं।
अब
बुद्ध कहते
हैं,
अब मिल ही
गए, तो पूछ
ही लो। तो वह
पूछता है, ध्यान
क्या है? बुद्ध
कहते हैं, तू
ध्यान किसलिए
चाहता है? वह
आदमी कहता है
कि मैं आपसे
पूछने आया हूं,
कि आप मुझसे
पूछे चले जाते
हैं! मैंने
मृत्यु पूछा,
तो आप पूछने
लगे कि किसलिए?
ध्यान
पूछता हूं, तो आप पूछते
हैं, किसलिए?
बुद्ध कहते
हैं, जब तक
मैं यह न जान
लूं कि सच में
तू जानना चाहता
है, तब तक
मैं उतर नहीं
देता हूं।
शायद--क्योंकि
बुद्ध की
करुणा में
कृष्ण की करुणा
से रत्तीभर भी
भेद तो नहीं
है--लेकिन
शायद कृष्ण और
अर्जुन की
बातचीत का
अनुभव बुद्ध
के लिए काफी
महंगा पड़ा है।
उस अनुभव के
कारण शायद अब वे
राजी नहीं हैं
कि इतनी लंबी
गीता चले; वही
सवाल आदमी
बार-बार पूछता
रहे।
साक्रेटीज के
पास अगर कोई
पूछने जाता था, तो
फिर दुबारा
पूछने नहीं
जाता था।
क्यों? क्योंकि
साक्रेटीज
उत्तर तो देता
ही नहीं था।
आप पूछकर अगर
फंस बैठे, तो
आपसे इतने
प्रश्न पूछता
था कि दुबारा
आप कभी उस
रास्ते नहीं
निकलते, जहां
साक्रेटीज
रहता है। साक्रेटीज
को एथेंस के
लोगों ने जहर
दिया, उसमें
सबसे बड़ा कारण
यही था कि साक्रेटीज
ने एथेंस के
हर आदमी को
अज्ञानी
सिद्ध कर दिया
था, प्रश्न
पूछ-पूछकर।
अगर आप
पूछते कि
ईश्वर है? तो
साक्रेटीज
पहले पूछता, ईश्वर से
आपका क्या
अर्थ है? अब
आप फंसे। आप
कहेंगे, अर्थ
ही मालूम होता,
तो हम पूछते
ही क्यों? साक्रेटीज कहता है, जिस
शब्द का अर्थ
ही नहीं मालूम,
उसका तुम
प्रश्न कैसे
बनाओगे?
एथेंस
के एक-एक आदमी
को उसने उलझन
में डाल दिया
था। आखिर
एथेंस गुस्से
में आ गया। उस
नगर ने कहा कि
यह आदमी इस
तरह का है कि
जवाब तो देता
नहीं, और उलटे
हम सबको
अज्ञानी
सिद्ध कर दिया
है।
छोटी-मोटी
बातों पर
अज्ञान सिद्ध
हो जाता है।
कोई पूछता
नहीं, इसीलिए
आपका ज्ञान
चलता है।
इसलिए छोटे
बच्चे बहुत
परेशान करने
वाले मालूम
पड़ते हैं। इसलिए
नहीं कि वे
आपसे कुछ भी
अनर्गल पूछते
हैं। असल में
वे ऐसे सवाल
पूछते हैं कि
पूछते से ही आपके
जवाब डगमगा
जाते हैं। कोई
पूछता नहीं है,
इसलिए चलता
है।
संत
अगस्तीन कहता
था कि कई सवाल
ऐसे हैं कि जब तक
तुम नहीं
पूछते, तब तक
मुझे जवाब
मालूम होते
हैं। तुमने
पूछा कि जवाब
गया! वह कहता
था, मुझे
अच्छी तरह पता
है कि व्हाट इज़
टाइम--समय
क्या है, मैं
जानता हूं। बट
दि मोमेंट यू आस्क मी; पूछा नहीं
तुमने कि सब
गड़बड़ हुआ!
आप भी
जानते हैं कि
समय क्या है।
लेकिन आपको पता
होना चाहिए, आइंस्टीन
भी उत्तर नहीं
दे सकता कि
व्हाट इज़
टाइम? समय
क्या है? और
आप सब जानते
हैं कि समय
क्या है। हम
सबको पता है।
समय से ट्रेन
पर पहुंचते
हैं, समय
से घर आते हैं,
दफ्तर जाते
हैं। कौन ऐसा
आदमी होगा
जिसको पता
नहीं कि समय
क्या है! लेकिन
आइंस्टीन भी
जवाब नहीं दे
सकता कि समय क्या
है। पूछ लो, तो मुश्किल
खड़ी हो जाती
है।
अज्ञान
छिपा-छिपा
चलता है, जब तक
कोई पूछता
नहीं। पूछना
कोई शुरू कर
दे, अज्ञान
के अतिरिक्त
हाथ में कुछ
नहीं रह जाता।
सुकरात
ने लोगों को
पूछकर दिक्कत
में डाल दिया।
जवाब तो दिए
नहीं। शायद
सुकरात बुद्ध
से भी ज्यादा
अनुभवी हो
चुका था। उसने
सोचा कि इसके
पहले कि तुम
पूछो, बेहतर
है कि हम ही
पूछ लें!
लेकिन
कृष्ण इस
लिहाज से
अदभुत हैं।
शायद गैर-अनुभव
के कारण ही, क्योंकि
वे ज्यादा
प्राचीन हैं!
वे उत्तर दिए
चले जाते हैं।
वे अर्जुन को टोकते
भी नहीं कि तू
क्या पूछ रहा
है? क्यों
पूछ रहा है? और इसका
जवाब मैं दे
चुका हूं।
नहीं, वे
फिर से उत्तर
देने को राजी
हो जाते हैं।
कृष्ण ने जो
उत्तर दिया है,
वह हम
समझें।
अर्जुन
का पहला
प्रश्न है, ब्रह्म
क्या है? कृष्ण
ने कहा, जिसका
कभी नाश न हो।
फिर तो
साफ हो गई बात
कि इस जगत में
ब्रह्म कहीं
भी नहीं है।
यहां तो जो भी
है,
सभी का नाश
है। आपने कोई
ऐसी चीज देखी
है, जिसका
कभी नाश न हो? कभी कोई ऐसी
चीज सुनी है, जिसका कभी
नाश न हो? कभी
कोई ऐसा अनुभव
हुआ है, जिसका
कभी नाश न हो?
यहां
तो जो भी है, सभी
नाशवान है।
यहां तो होने
की शर्त ही
विनाश है।
होने की एक ही
शर्त है, न
होने की
तैयारी। जन्म
होने के साथ
मृत्यु के साथ
समझौता करना
पड़ता है। जन्म
के साथ ही दस्तखत
कर देने होते
हैं मौत के
सामने कि मरने
को तैयार हूं।
यहां
तो कुछ पाया
कि खोने के
अतिरिक्त और
अब कुछ होने
वाला नहीं है।
यहां तो कोई
मिला, तो
बिछुड़ना
होगा। यहां
गले मिलने का
इंतजाम, सिर्फ
गले को अलग कर
लेने के लिए
है। यहां सभी कुछ
नाशवान है।
यहां जो बनता
हुआ दिखाई पड़
रहा है, एक
तरफ से देखो
तो मालूम होता
है बन रहा है, दूसरी तरफ
से देखो तो
मालूम होता है
कि बिगड़ रहा है।
एक
धर्मगुरु के
एक छोटे लड़के
ने उससे पूछा
है एक दिन कि
यह आदमी कैसे
बना?
और यह आदमी
जब मिटता है, तो क्या हो
जाता है? तो
उस धर्मगुरु
ने कहा, डस्ट
अनटु
डस्ट; मिट्टी
में मिट्टी
मिल जाती है।
मिट्टी से ही आदमी
बनता है, मिट्टी
में ही आदमी
गिर जाता है।
दूसरे
ही दिन सुबह
वह धर्मगुरु
अपने तख्त पर
बैठकर अपनी
किताब पढ़ता
है। उसका छोटा
बेटा आया, तख्त
के नीचे घुस
गया, और
उसने वहां से
चिल्लाया कि
पिताजी, जरा
नीचे आइए। ऐसा
लगता है कि या
तो कोई बन रहा है,
या तो कोई
मिट रहा है! एक
मिट्टी का ढेर
लगा हुआ है।
तख्त के नीचे धूल
इकट्ठी हो गई
है। बेटे ने
कहा कि या तो
कोई बन रहा है,
या कोई मिट
रहा है; जल्दी
नीचे आइए!
धूल के
ढेर को, अगर
आदमी सिर्फ
धूल है, तो
दोनों तरह से
देखा जा सकता
है--या तो कोई
बन रहा है, या
कोई मिट रहा
है। असल में
जब भी कोई बन
रहा है, तभी
कोई मिट भी
रहा है। और
कहीं दूर नहीं,
वहीं। जहां
बनना चल रहा
है, वहीं
मिटना चल रहा
है।
यहां
तो सभी कुछ
विनाश है।
यहां ठहराव
नहीं है। यहां
तो सभी कुछ
नदी की धार की
तरह बह रहा
है। छू भी
नहीं पाते
किनारा कि छूट
जाता है। मिलन
हो भी नहीं
पाता कि विदा
की घड़ी आ जाती
है।
और
कृष्ण कहते
हैं,
वह जिसका
विनाश नहीं है,
वह है
ब्रह्म।
अर्जुन
शायद ही समझ
पाए। असल में
अर्जुन तो मान
ही यह रहा है
कि मैं इन
लोगों को अगर मारूं जो
सामने खड़े हैं, तो
विनाश के लिए
मैं
जिम्मेवार हो जाऊंगा।
लेकिन कृष्ण
यह कह रहे हैं
कि यहां तो जो
है, वह सभी
विनाशवान है।
और अगर तू
अविनाश में
ठहरना चाहता
है कि तुझसे
विनाश न हो, तो तुझे
ब्रह्म में
ठहरना पड़ेगा।
लेकिन
वह ब्रह्म
कहां है? वह
कहीं दिखाई
नहीं पड़ता; क्योंकि आंख
जिसे देख सकती
है, वह
नष्ट होगा। वह
कहीं सुनाई
नहीं पड़ता; क्योंकि कान
जिसे सुन सकते
हैं, वह खो
जाएगा। उसका
कहीं स्पर्श
नहीं होता; क्योंकि हाथ
जिसे छू सकते
हैं, वह
नष्ट होगा ही।
इंद्रियां
जिसे जान सकती
हैं, वह
विनाश का
क्षेत्र है।
असल
में
इंद्रियां
जान ही उसे
सकती हैं, जो
बन रहा है या
मिट रहा है।
उसे नहीं, जो
है, दैट
व्हिच इज़;
उसे नहीं, जो है। अगर
उस है को
जानना है, तो
उसे जानने का
उपाय
इंद्रियां
नहीं हैं। स्वयं
के अंतस में
उस जगह को खोज
लेना है, जहां
इंद्रियों की
कोई गति नहीं
होती है। लेकिन
वह कहां है?
भीतर
भी अगर हम
देखने जाएं, तो
भी तो वह नहीं
मिलता। भीतर
देखने जाएं, तो मन दिखाई
पड़ता है, वह
भी विनाशवान
है।
सुबह
मेरे पास कोई
आता है और
कहता है, अपरिसीम
आनंद में हूं।
और उसकी बात
मैं सुनता हूं
और उसकी आंखों
में झांकता
हूं और सोचता
हूं, कितनी
देर लगेगी कि
यह आकर मुझे
कहेगा, वह
उदासी फिर आ
गई! ज्यादा
देर नहीं
लगेगी। भीतर भी
मन में जो
बनता है, वह
भी बिगड़ता
रहता है। और
हम मन के
अतिरिक्त कुछ
जानते नहीं।
कृष्ण
कहते हैं--और
बड़ी छोटी
परिभाषा, इससे
छोटी और क्या
परिभाषा
होगी--कि वह, जिसका नाश
नहीं होता है,
वह ब्रह्म
है।
क्या
है वह जिसका
नाश नहीं होता
है?
कहां है? कौन है? दोत्तीन बातें समझ
में खयाल में
ले लेनी जरूरी
हैं।
एक तो, जहां
भी आप विनाश
देखें, वहां
एक बात गौर से
देखना, सिर्फ
रूप विनष्ट
होता है, रूपायित
नहीं। आकार
विनष्ट होता
है, लेकिन
जो आकार के
भीतर था, वह
नहीं। दि
कंटेनर तो
नष्ट हो जाता
है, बट दि कंटेंट, वह नष्ट
नहीं होता।
पानी को भाप
बना दो, तो
पानी तो
विनष्ट हो गया;
लेकिन क्या
सच ही पानी
विनष्ट हो गया?
तो फिर भाप
में कौन है? भाप को ठंडा
कर लो, भाप
विनष्ट हो गई;
लेकिन क्या
सच में ही
विनष्ट हो गई?
क्योंकि अब
जो पानी है, उसमें कौन
है? नहीं; विनाश सिर्फ
रूप होता है, आकार होता
है; रूपायित,
रूप से जो
घिरा है, वह
नहीं।
लेकिन
हमें रूप ही
दिखाई पड़ता है, क्योंकि
इंद्रियां
रूप को ही देख
सकती हैं। वह
जो रूप में
घिरा है, वह
नहीं। जब आप
जल को देखते
हैं, तो आप
उसको कभी नहीं
देख पाते, जो
जल के भीतर
छिपा है।
सिर्फ रूप!
फिर गर्मी दे
दी, रूप
बदल गया। भाप
बन गई। भाप को
भी जब आप
देखते हैं, तब फिर एक
रूप, एक
फार्म, एक
आकार! फिर भी
वह नहीं दिखाई
पड़ता, जो
भीतर छिपा है।
वह जो भीतर
छिपा है, वह
तो विनष्ट
नहीं होता।
विज्ञान
कहता है, कोई
भी चीज विनष्ट
नहीं होती। यह
बहुत मजे की बात
है। विज्ञान
की तीन सौ
वर्षों की खोज
कहती हैं कि
कोई भी चीज
विनष्ट नहीं
होती। और
कृष्ण कहते
हैं, अर्जुन,
जो विनष्ट
नहीं होता, वही ब्रह्म
है। क्या
विज्ञान को
कहीं से कोई गंध
मिलनी शुरू हो
गई ब्रह्म की?
क्या कहीं
से कोई झलक
विज्ञान को
पकड़ में आनी शुरू
हुई उसकी, जो
विनष्ट नहीं
होता?
झलक
नहीं मिली, लेकिन
अनुमान मिला
है। नाट ए
ग्लिम्प्स, बट जस्ट
एन इनफरेंस।
एक अनुमान
विज्ञान के
हाथ में आ गया
है। उसको एक
बात खयाल में
आ गई है कि
सिर्फ रूप ही
बदलता है।
ध्यान
रहे,
विज्ञान को
अभी उसका कोई
पता नहीं चला
जो नहीं बदलता
है, लेकिन
एक बात पता चल
गई कि सिर्फ
रूप ही बदलता
है। लेकिन रूप
के पीछे कुछ
है जरूर, जो
नहीं बदलता
है। उसका कोई
पता नहीं है।
इसलिए
विज्ञान की
खोज निगेटिव
है, नकारात्मक
है। उसे एक
बात पता चल गई
कि जो बदलता
है, वह रूप
है।
लेकिन
रूप के भीतर
कुछ न बदलने
वाला भी सदा
मौजूद है, अन्यथा
रूप भी बदलेगा
कैसे? किस
पर बदलेगा? बदलाहट के
लिए भी एक न
बदलने वाला
आधार चाहिए।
परिवर्तन के
लिए भी एक
शाश्वत तत्व
चाहिए। और दो
परिवर्तन के
बीच में जोड़ने
के लिए भी कोई
अपरिवर्तित
कड़ी चाहिए।
क्या
आपने कभी खयाल
किया कि जब
पानी भाप बनता
है,
तो जरूर बीच
में एक क्षण
होता होगा, एक गैप, इंटरवल,
जब पानी भी
नहीं होता और
भाप भी नहीं
होती। लेकिन
अभी विज्ञान
को उस गैप का, उस अंतराल
का कोई पता
नहीं है।
विज्ञान कहता
है, पानी
हम जानते हैं;
गर्म करते
हैं; फिर
एक क्षण आता
है कि भाप को
हम जानते हैं।
लेकिन
पानी और भाप
के बीच में
कोई एक क्षण
जरूरी है; क्योंकि
जब तक पानी
पानी है, तो
पानी है; और
जब वह भाप हो
गया, तो
भाप हो गया।
लेकिन कोई एक
क्षण चाहिए, जब पानी के
भीतर की जो
वस्तु है, जो
कंटेंट
है, जो
आत्मा है, वह
पानी भी न हो।
क्योंकि अगर
वह पानी होगी,
तो भाप न हो
सकेगी। और भाप
भी न हो, क्योंकि
अगर वह भाप हो
चुकी होगी, तो पानी न
होगी। एक क्षण
के लिए
न्यूट्रल...
जैसे
कोई आदमी गाड़ी
के गेयर
बदलता है, तो
अगर पहले गेयर
से दूसरे गेयर
में गाड़ी
डालता है, तो
चाहे कितनी ही
त्वरा से डाले,
कितनी ही
तेजी से डाले,
चाहे
आटोमैटिक ही
क्यों न हो गेयर,
आदमी को
डालना भी न
पड़े, पर
बीच में एक
न्यूट्रल, एक
तटस्थ क्षण है,
जब गेयर
ऐसी जगह से
गुजरता है, जहां वह
पहले गेयर
में नहीं होता
और दूसरे में
पहुंचा नहीं
होता। यह
जरूरी क्षण है,
यह कड़ी है।
लेकिन
इस कड़ी का
विज्ञान को
अनुमान भर
होता है। और
वही कड़ी ब्रह्म
है। लेकिन
इंद्रियों के
द्वारा
अनुमान भी हो
जाए तो बहुत
है।
कृष्ण
कहते हैं, वह
जो नहीं नाश
को उपलब्ध
होता है, वही
ब्रह्म है।
कहां
है वह ब्रह्म? अगर
आप रूप को
देखते रहेंगे,
तो वह
ब्रह्म कभी भी
दिखाई नहीं
पड़ेगा। लेकिन अरूप
को कैसे देखें?
कहां देखें?
पानी
दिखता है, भाप
दिखती है, बीच
का वह अरूप तो
दिखाई नहीं
पड़ता। अगर उसे
देखना हो, तो
सबसे पहले
व्यक्ति को
स्वयं में ही
उस अरूप को
देखना पड़ता
है।
जब
आपका एक विचार
जाता है और
दूसरा आता है, तो
दोनों
विचारों के
बीच में भी
फिर वही कड़ी होती
है, जब कोई
विचार नहीं
होता। विचार
एक रूप है, दूसरा
विचार दूसरा
रूप है--थाट
फार्म
है--विचार की
अपनी
आकृतियां
हैं।
यह
जानकर आप
हैरान होंगे
कि विचार भी
आकृतिहीन
नहीं हैं। जब
आप क्रोध में
होते हैं, तब
आपके चित्त की
आकृति भिन्न
होती है। जब
आप प्रेम में
होते हैं, तब
आपके चित्त की
आकृति भिन्न
होती है।
कभी
आपने खयाल
किया, जब आप
कंजूसी से भरे
होते हैं, तो
सिर्फ कंजूसी
नहीं होती, भीतर भी कोई
चीज सिकुड़
जाती है। जब
आप किसी को प्रेम
से कुछ देते
हैं, तो
सिर्फ देना
बाहर ही नहीं
घटता, भीतर
भी कुछ फैल
जाता है। आकार
है। जब हम
कहते हैं
कंजूस, तो
उस शब्द में
भी सिकुड़ने
का भाव है; कोई
चीज सिकुड़ गई
है। जब हम
कहते हैं दानी,
देने वाला,
प्रेमी, बांटने
वाला, तो
कोई चीज बंटती
है और फैल
जाती है।
प्रत्येक
विचार का आकार
है। और आपके
भीतर प्रतिपल
आकार बदलते
रहते हैं।
आपके चेहरे पर
भी आकार छप
जाते हैं। जो
आदमी निरंतर क्रोध
करता है, वह जब
नहीं भी क्रोध
करता है, तब
भी लगता है, क्रोध में
है। वह निरंतर
क्रोध की जो
आकृति है, उसके
चेहरे पर
स्थायी हो
जाती है और
फिर चेहरा
उसको छोड़ता
नहीं।
क्योंकि
चेहरे को पता
है कि कभी भी
अभी थोड़ी देर
में फिर जरूरत
पड़ेगी। वह पकड़े
रखता है, जस्ट टु
बी इफिशिएंट,
कुशल होने
की दृष्टि से।
अब ठीक है, जब
बार-बार जरूरत
पड़ती है, तो
उसको हटाने की
आवश्यकता भी
क्या है! जब तक हटाएंगे, तब तक पुनः
आवश्यकता आ
जाएगी। तो
रहने दो। तो फिक्स्ड
इमेज बैठ जाती
है चेहरे पर, सभी लोगों
के। और
कभी-कभी तो
ऐसा हो जाता
है कि पीछा ही
नहीं छोड़ता।
हजरत
मूसा के संबंध
में सुना है।
हजरत मूसा दुनिया
के उन थोड़े-से
लोगों में एक
हैं,
कृष्ण या
बुद्ध या
महावीर जैसे।
एक सम्राट ने अपने
चित्रकार को
कहा कि तू जा
और हजरत मूसा
का एक चित्र
बना ला। हजरत
मूसा जिंदा
थे। वह चित्रकार
गया और चित्र
बना लाया।
सम्राट
ने चित्र देखा
और उसने कहा
कि जो कुछ हजरत
मूसा के संबंध
में मैंने
सुना है उसमें
और इस चित्र
में बहुत फर्क
मालूम पड़ता
है। यह चित्र
देखकर मालूम
पड़ता है कि
किसी बहुत
दुष्ट, हिंसक,
क्रोधी
आदमी का चित्र
है। इसमें
हजरत मूसा की खबर
नहीं मिलती।
उस चित्रकार
ने कहा कि
आश्चर्य! आपने
कभी हजरत मूसा
को देखा? उस
सम्राट ने कहा,
मैंने देखा
नहीं है, सुना
है उनके बाबत;
और उनसे
मेरा लगाव भी
बन गया।
इसीलिए तो
चित्र बनाने
तुझे भेजा। तो
उसने कहा कि
मैं देखकर आ रहा
हूं। महीनों
बैठकर इस
चित्र को
मैंने बनाया
है। इसमें रत्तीभर
भूल नहीं है।
और हजरत मूसा
से पूछकर आया
हूं कि चित्र
ठीक बन गया
जनाब!
उन्होंने कहा कि
बिलकुल ठीक
है। तब आया
हूं।
सम्राट
ने कहा, लेकिन
कहीं न कहीं
कुछ न कुछ भूल
है। और मालूम होता
है कि हजरत
मूसा या तो दयावश
तुझसे कह दिए
कि ठीक है, या
उन्होंने
अपनी शक्ल कभी
आईने में न
देखी होगी। और
कोई कारण नहीं
हो सकता।
लेकिन सम्राट
की यह जिद्द,
जिसने देखा
न हो मूसा को, हैरानी की
थी। चित्रकार
ने कहा, फिर
चलिए।
और
हजरत मूसा के
पास चित्रकार
और सम्राट
पहुंचे।
सम्राट भी
थोड़ा हैरान
हुआ चेहरे को
देखकर।
चित्रकार ही
ठीक मालूम पड़ता
है। बाजी हार
गया मालूम हुआ
उसे। फिर भी पूरी
बाजी हार जाने
के बाद सम्राट
ने मूसा से कहा
कि एक सवाल
मैं पूछने आया
हूं। एक बाजी
हार गया इस
चित्रकार के
साथ। पूछना
मुझे यही है कि
जो कुछ मैंने
आपके संबंध
में सुना है, उसे
सुनकर मैंने
आपकी एक आकृति
बनाई थी, लेकिन
इस आकृति में
वह बात नहीं
है।
हजरत
मूसा ने कहा, यह
आकृति मेरी
पुरानी है और
पीछा नहीं
छोड़ती। आज से
बीस साल पहले
मैं ऐसा ही
हुआ करता था।
जो कुछ इस
चित्र में है,
वही हुआ
करता था। ऐसा
ही क्रोधी, ऐसा ही
दुष्ट, ऐसा
ही हिंसा से
भरा हुआ। अब
सब बदल गया, लेकिन चेहरे
पर पुराने
चिह्न रह गए
हैं।
चिह्न
छूट जाते हैं।
विचार भी
आकृति रखता है, भाव
भी आकृति रखता
है। इन
आकृतियों के
बीच में अगर
आप देख पाएं, तो अरूप का
दर्शन होता
है। दो विचार
के बीच में
खड़े हो जाएं, दो विचार के
बीच में झांक
लें, दो
विचार के बीच
में जो खाली जगह
छूटे, स्पेस
बने, उसमें
डूब जाएं और
आपको अरूप का
दर्शन हो जाए।
भीतर अगर हो
जाए, तो
फिर आप बाहर
भी दो आकारों
के बीच में
कूद सकते हैं
और निराकार को
जान सकते हैं।
कृष्ण
कहते हैं, वही
है ब्रह्म, जिसका कभी
नाश नहीं
होता। रूप का
नाश है, अरूप
का नाश नहीं, अरूप है
ब्रह्म। ऐसा
सच्चिदानंद, विनाश जिसका
नहीं होता, वही ब्रह्म
है।
निश्चित
ही,
बार-बार
कृष्ण जैसे
लोग कहते हैं
कि वह ब्रह्म
सच्चिदानंद
है, परमानंद
है, अंतिम
आनंद है। यह
क्यों
दोहराते हैं!
असल
में जहां-जहां
रूप है, वहां-वहां
मृत्यु होगी।
क्योंकि एक
रूप दूसरे रूप
में बदलेगा।
और जहां-जहां
रूप है, वहां
विनाश होगा।
विनाश होगा, तो पीड़ा
होगी, बीमारी
होगी, संताप
होगा, चिंता
होगी। हम एक
रूप को पकड़
लेंगे, फिर
दूसरा रूप
आएगा। हम बचपन
को पकड़ लेंगे,
फिर जवानी
आने लगेगी, तो बचपन का
रूप नष्ट
होगा। फिर
बच्चे को पीड़ा
होगी। वह
तकलीफ में
पड़ेगा।
पश्चिम
के
मनोवैज्ञानिक
अनुभव कर रहे
हैं कि वह जो एडॉलसेंस
है,
वह जो एक
उम्र है दस
साल से चौदह
साल के बीच की,
वह बड़ी पीड़ा
की है।
क्योंकि
बच्चा छोड़
नहीं पाता
अपने पुराने
फार्म को, अपनी
पुरानी आकृति
को, और नई
आकृति उसमें
बनने लगती है।
तो वह काम
बच्चों जैसे
भी करता है और
अकड़ बड़ों जैसी
भी दिखाता है।
यह बड़े लोगों
को भी, मां-बाप
को भी समझ में
नहीं आती है।
दोनों बातें
एक साथ करने
लगता है।
पुराना रूप भी
उससे छोड़ा
नहीं जाता, तो अपनी मां
की साड़ी
का पुछल्ला पकड़कर भी
घूमना चाहता
है; और मां
अगर जरा डांट
दे, तो वह
पूरा सिर ऊंचा
उठाकर खड़ा हो
जाता है, तो
बाप की ऊंचाई
का हो जाता
है। और मां के
सामने घूरकर
देख ले, तो
मां भी घबड़ा
जाती है। और
ये दोनों
उसमें होते
हैं।
इसलिए एडॉलसेंस
जो है, वह बड़ी
पीड़ा का वक्त
है। पुराना
रूप छूटता नहीं,
नया रूप
असर्ट करता है,
तोड़ता है। जैसे
बीज टूटता हो,
तो पीड़ा तो
होगी। फिर एक
आदमी
बामुश्किल
इसमें प्रवेश
कर जाता है।
काफी वक्त
लगता है। किसी
तरह प्रवेश कर
जाता है। फिर
जवानी के साथ
ठहर जाता है।
तो थोड़े ही
दिनों में बुढ़ापा
धक्के देने
लगता है। तो
बड़ी मुश्किल
होती है; फिर
बड़ी मुश्किल
होती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
से किसी ने
पूछा है; एक
दिन शराबघर से
लौटता है, एक
मित्र ने उससे
कहा कि नसरुद्दीन,
बुढ़ापे के
लक्षण शुरू हो
गए। तुम्हारे
बाल सफेद पड़ने
लगे। नसरुद्दीन
ने कहा, फिक्र
छोड़ो
बालों की। बाल
हो जाएं सफेद,
दिल तो अभी
भी काला है।
बाल जब
सफेद हो जाते
हैं,
तब भी जवानी
पीछा तो नहीं
छोड़ती; वह
असर्ट करती
है। तब फिर
रूप का संघर्ष
शुरू हो जाता
है। किसी तरह
बामुश्किल
जिंदगी के साथ
ठहर नहीं पाते
कि मौत दरवाजे
पर दस्तक दे
देती है कि
चलो, वक्त
हो गया। इधर
अभी हम आ भी
नहीं पाए थे, उधर जाने का
वक्त हो गया।
ठहर भी नहीं
पाए थे कि
तंबू उखाड़ो।
अभी बल्लियां
गाड़ ही
रहे थे, अभी
खूंटियां
लगाई ही थीं, अभी तंबू
पूरा फैल भी
नहीं पाया था।
किसका
तंबू कब पूरा
फैल पाता है!
खूंटियां गड़ी
रह जाती हैं, उखड़ने
का वक्त आ
जाता है। इधर
हम तैयारी कर
रहे थे कि और
खूंटियां
कैसे गाड़ें,
कि खबर आती
है, उखाड़ो,
वक्त जाने
का हो गया।
तंबू समेटो!
एक रूप
बन नहीं पाता
कि दूसरा रूप
भीतर से आकर खबर
देता है कि
चलने की
तैयारी है।
इसलिए रूप के
साथ कभी भी
आनंद नहीं हो
सकता। आकार के
साथ कभी आनंद
नहीं हो सकता।
दुख ही होगा, संताप
ही होगा, एंग्विश
ही होगी, नर्क
ही होगा।
इसलिए
कृष्ण जैसे
लोग बार-बार
दोहराते हैं
कि वह जो अरूप
है,
वह जो
शाश्वत है, वह जो नहीं
विनष्ट होता
है, वह परम
आनंद भी है।
और
अपना स्वरूप
अर्थात
स्वभाव
अध्यात्म है।
बड़ी
कीमत का सूत्र
कहा है। यह एक
सूत्र भी गीता
को गीता बना
देने के लिए
काफी है। बाकी
सब फेंक दिया
जाए,
तो चलेगा।
स्वभाव
अध्यात्म
है--काफी है।
लाओत्से
ने अपनी जिंदगीभर
इस सूत्र के
अतिरिक्त
किसी सूत्र की
व्याख्या
नहीं
की--स्वभाव
अध्यात्म है।
नहीं, लेकिन
गीता पढ़ने
वाले को भी इस
सूत्र पर
ज्यादा ध्यान
नहीं जाता कि
स्वभाव
अध्यात्म है।
क्या मतलब है?
स्वभाव
अध्यात्म है
का अर्थ है कि
अपने भीतर उसकी
तलाश कर लेनी
है,
जो सदा से
है और मेरा
बनाया हुआ
नहीं है। स्वभाव
अध्यात्म है,
इसका अर्थ
है, मुझे
उसे खोज लेना
है, जिसके
द्वारा मेरा
सब कुछ बना है
और जो स्वयं अनबना
है, अनक्रिएटेड है।
लेकिन
हम सब तो इतने
कृत्रिम हैं
कि उस स्वभाव
का पता लगाना
बहुत मुश्किल
होगा। हम तो
कृत्रिम होने
की एक इतनी
बड़ी भीड़ हैं
कि हम कौन हैं, हमें
इसका ही पता
नहीं है।
स्वभाव
अध्यात्म है।
मैं
कौन हूं, यह
मुझे पता
नहीं! ऐसा
नहीं कि मुझे
पता नहीं कि
मैं कौन हूं।
कौन हूं, बहुत
कुछ मुझे पता
है, लेकिन
वह कोई भी
स्वभाव नहीं
है। वह सब
सीखा हुआ है, कल्टिवेटेड है। जरा कुछ
दो-चार जगह से
खोज करें, तो
शायद खयाल में
आ जाए।
मैं एक
भाषा बोल रहा
हूं। अगर मैं
इस भाषा बोलने
वाले लोगों के
घर में पैदा न
होता, मैं
दूसरी भाषा
बोलता, तीसरी
बोलता। जमीन
पर कोई तीन सौ
भाषाएं हैं।
किसी भी घर
में पैदा हो
सकता था तीन
सौ भाषाओं के,
तो वही भाषा
बोलता।
भाषा
स्वभाव नहीं
है,
ट्रेनिंग
है, सिखाई
गई है। इसलिए
इस भ्रम में
कोई न रहे कि अगर
आपको न सिखाया
जाए, तो भी
आप कोई तो
भाषा
बोलेंगे।
नहीं, कोई
भाषा न
बोलेंगे। अगर
आपको जंगल में
छोड़ दिया जाए
पैदा होते ही
से और भेड़िए
आपको पाल लें,
तो आप कोई
भी भाषा नहीं
बोलेंगे।
और ऐसा
नहीं कि यह
मैं कल्पना से
कह रहा हूं। ऐसी
घटनाएं घटी
हैं बहुत, जब
भेड़िए
बच्चों को
उठाकर ले गए
और उन्होंने
उनको बड़ा कर
लिया। वे बच्चे
कोई भी भाषा
नहीं बोल
सकते। हां भेड़ियों
की गुर्राहट
कर सकते हैं; उतनी भाषा
बोल सकते हैं।
क्यों? क्योंकि
भाषा सीखनी
पड़ती है।
लेकिन
भाषा के पीछे
छिपा हुआ एक
तत्व और है, वह
है मौन। मौन
सीखना नहीं
पड़ता। इसलिए
भाषा कृत्रिम
है; मौन
स्वभाव है।
यह मैं
उदाहरण के लिए
कह रहा हूं।
इस तरह एक-एक
चीज की पर्त
भीतर है। एक
चीज सीखी हुई
है--कई चीजें
सीखी हुई हैं
ऊपर--भीतर
कहीं खोजने पर
वह जगह मिल
जाएगी, जो
स्वभाव है।
मौन
स्वभाव है।
इसलिए मौन
साधना बन गया।
क्योंकि वह
स्वभाव में ले
जाने का मार्ग
है,
हो सकता है।
लेकिन अगर आप
चुप बैठकर
भीतर भी बोलते
चले जाएं, जैसा
कि हम करते
हैं। और आमतौर
से जब कोई
नहीं होता, तब हम जितने
जोर से बोलते
हैं, उतना
जब कोई होता
है, तो
नहीं बोलते।
क्योंकि
दूसरे का भी
थोड़ा तो लिहाज
रखना ही पड़ता
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन अपने
कमरे में जोर
से किसी से विवाद
कर रहा है।
बाहर से उसका
एक मित्र निकल
रहा है। उसने
खिड़की से झांककर
देखा। विवाद
काफी रोचक है
और तेजी पर आ
गया है, और
मारपीट होगी,
ऐसे आसार
हैं। मारपीट
छोड़कर तो कोई
नहीं जा सकता
कहीं, हालांकि
वह मित्र
मस्जिद जा रहा
था। तो उसने सोचा,
जाने भी दो
आज। आकर दरवाजा
खटखटाया।
अंदर जाकर
देखा तो
मुल्ला अकेला
है! बड़ी
निराशा हुई।
जैसी कि सभी
को होती है।
अगर दो आदमी
लड़ रहे हों और
फिर लड़ाई न हो
और दोनों
अचानक
अहिंसात्मक
हो जाएं, तो
देखा है, भीड़
जो खड़ी हो गई
थी, वह
कैसी उदास
लौटती है!
बेकार!
उसने
कहा,
क्या मामला
है? अकेले! नसरुद्दीन
ने कहा, बिलकुल
अकेला। उसने
कहा, तुम
अभी विवाद कर
रहे थे किसी
से? उसने
कहा, किसी
से कर नहीं
रहा था। आज
कोई बकवासी
आया ही नहीं, तो फिर चैन
नहीं पड़ी। तो
मैं खुद ही कर
रहा था। उस
आदमी ने कहा
कि अकेले? अकेले
कर रहे थे! समझ
में आता है कि
आदमी अकेले
में कभी-कभी
बातचीत करता
है। लेकिन वह
भी चुपचाप
करता है, क्योंकि
जब दूसरा है
ही नहीं सुनने
वाला, तो
जोर से बोलने
की जरूरत क्या
है! भीतर ही
करो, जैसा
सब करते हैं!
नसरुद्दीन ने
कहा कि उसमें
बहुत मजा नहीं
आता,
क्योंकि
अपने को पता
ही नहीं चलता,
क्या कह रहे
हैं। सुनना भी
जरूरी है। और
इधर कुछ दिन
से मैं जरा कम
सुनने लगा
हूं। उम्र है।
तो जब तक जोर से
न बोलूं, सुनाई
नहीं पड़ता।
तो उस
आदमी ने कहा, यह
भी मान लो कि
तुम बहरे हो
गए हो और जोर
से सुनने के
लिए बोल रहे
हो, लेकिन
इसमें विवाद
की कहां
गुंजाइश है, क्योंकि दूसरा
तो मौजूद ही
नहीं है!
नसरुद्दीन ने
कहा कि मुझे
दोनों रोल अदा
करने पड़ रहे
हैं। इधर से
भी बोल रहा
हूं,
उधर से भी
बोल रहा हूं।
फिर भी
उस आदमी ने
कहा कि होगा, दोनों
तरफ से बोलो, फिर भी इतनी
तेजी की क्या
जरूरत है? तुमको
पता ही है कि
तुम्हीं
दोनों तरफ हो!
नसरुद्दीन ने
कहा कि मैं
किसी बकवासी
की बातें कभी
नहीं सुन
पाता। और जब
उस तरफ से मैं
बकवास करता
हूं,
तो इस तरफ
से क्रोध आ
जाता है। और
जब इस तरफ से बकवास
करता हूं, तो
उस तरफ से
क्रोध आ जाता
है!
सभी
लोग यही कर
रहे हैं।
अकेले में भी, वह
जो मौन लेकर
बैठा हुआ है, वह भीतर
इतनी बकवास और
इतने विवाद
में पड़ा हुआ है,
जिसका
हिसाब नहीं।
मौन का
अर्थ? मौन का
अर्थ यह नहीं
कि होंठ बंद
हो गए। मौन का अर्थ
है, भीतर
भाषा बंद हो
गई, भाषा
गिर गई। जैसे
कोई भाषा ही
पता नहीं है।
और अगर आदमी
स्वस्थ हो, तो जब अकेला
हो, उसे
भाषा पता नहीं
होनी चाहिए।
क्योंकि भाषा
दूसरे के साथ कम्युनिकेट
करने का साधन
है, अकेले
में भाषा के
जानने की
जरूरत नहीं
है। अगर वह
भाषा गिर जाए,
तो जो मौन
भीतर बनेगा, वह स्वभाव
है, वह
किसी ने
सिखाया नहीं
है।
मैं
किसी भी भाषा
वाले घर में
पैदा हो जाऊं, हिंदी
बोलूं कि
मराठी कि
गुजराती, कुछ
भी बोलूं, लेकिन
जिस दिन मैं
मौन में जाऊंगा,
उस दिन मेरा
मौन न गुजराती
होगा, न
हिंदी होगा, न मराठी
होगा। सिर्फ
मौन होगा; वह
स्वभाव है।
हम
इतने लोग यहां
बैठे हैं। अगर
हम शब्दों में
जीएं, तो
हम सब अलग-अलग
हैं। और अगर
हम मौन में जीएं,
तो हम सब एक
हैं। अगर इतने
बैठे हुए लोग
यहां मौन हो
जाएं क्षणभर
को, तो
यहां इतने लोग
नहीं, एक
ही व्यक्ति रह
जाएगा। एक ही! बिकाज लैंग्वेज
इज़ दि
डिवीजन। भाषा तोड़ती है।
मौन तो जोड़
देगा। हम एक
ही हो जाएंगे।
और ऐसा
ही नहीं कि हम
व्यक्तियों
से एक हो जाएंगे।
भाषा के कारण
हम मकान से एक
नहीं हो सकते।
भाषा के कारण
हम वृक्ष से
एक नहीं हो
सकते। भाषा के
कारण हम चांदत्तारों
से एक नहीं हो
सकते। लेकिन
मौन में तो हम
उनसे भी एक हो
जाएंगे। आखिर
मौन में क्या
बाधा है कि
मैं चांद से
बोल लूं! मौन
में क्या बाधा
है कि चांद से
हो जाए
बातचीत--बातचीत
मुझे कहनी पड़
रही है--कि
चांद से हो
जाए संवाद, मौन
में! भाषा में
तो नहीं हो
सकता; मौन
में हो सकता
है।
इसलिए
जो लोग गहरे
मौन में गए, जैसे
महावीर।
इसलिए महावीर
का जो
सर्वाधिक प्रख्यात
नाम बन गया, वह बन गया
मुनि, महामुनि।
मौन में गए।
इसलिए आज भी
महावीर का
संन्यासी जो
है, मुनि
कहा जाता है, हालांकि मौन
में बिलकुल
नहीं है।
महा
मौन में चले
गए। और इसीलिए
महावीर कह सके
कि वनस्पति को
भी चोट मत
पहुंचाना।
रास्ते पर चलते
वक्त कीड़ी
भी न दब जाए, इसका
खयाल रखना। यह
महावीर को पता
कैसे चला कि कीड़ी की
इतनी चिंता
करनी चाहिए!
जो भी
आदमी मौन में
जाएगा, उसके
संबंध चींटी
से भी उसी तरह
जुड़ जाते हैं,
वृक्ष से भी
उसी तरह जुड़
जाते हैं, पत्थर
से भी उसी तरह
जुड़ जाते हैं,
जैसे
आदमियों से
जुड़ते हैं। अब
उसके लिए जीवन
सर्वव्यापी
हो गया। अब
सबमें एक का
ही विस्तार हो
गया। अब यह
चींटी नहीं है,
जो दब जाएगी,
जीवन है। और
यह वृक्ष नहीं
है, जो कट
जाएगा, जीवन
है। अब जहां
भी कुछ घटता
है, वह
जीवन पर घटता
है। और मौन
में होकर
जिसने इस विराट
जीवन को अनुभव
किया, जब
भी कहीं कुछ
कटता है, तो
मैं ही कटता
हूं फिर, फिर
कोई दूसरा
नहीं कटता है।
कृष्ण
कहते हैं, स्वभाव
अध्यात्म है।
एक
उदाहरण से
मैंने कहा, भाषा
न हो, तो
मौन स्वभाव हो
जाएगा। एकाध
और खयाल ले
लें, तो यह
बात साफ, शायद--शायद--साफ
हो जाए।
कभी
आपने आंख बंद
करके यह खयाल
किया कि मेरे
शरीर की आकृति
को छोड़ दूं, तो
मेरी आकृति
क्या है? कभी
आपने खयाल
किया कि आंख
बंद करके बैठ
गए हों, और
सोचा हो कि
शरीर का खयाल
छोड़ दूं कि
शरीर की आकृति
क्या है, मेरी
आकृति क्या है?
इस शरीर के
भीतर जो मेरा
होना है, उसकी
आकृति, उसका
आकार, उसका
रूप क्या है?
नहीं, हम
शरीर के ही
रूप को अपना
रूप समझते
हैं। हालांकि
शरीर रोज अपना
रूप बदल रहा
है, फिर भी
हमें खयाल
नहीं आता। अगर
आपके सामने तस्वीर
रख दी जाए
आपकी ही, एक
दिन के जीवन
की, जब आप
एक दिन के हुए
थे उस दिन की, आप पहचान
नहीं सकेंगे
कि आपकी
तस्वीर है।
हालांकि उस
दिन आपने माना
होगा कि यह
मेरा रूप है।
आज जो आपकी
तस्वीर है, आप बीस साल
बाद नहीं
पहचान पाएंगे
कि यह मेरी
तस्वीर है। यह
मैं हूं!
लेकिन आज आप
कह रहे हैं, मैं हूं।
बीस साल बाद
दूसरी तस्वीर
को कहेंगे कि
मैं हूं। यह
तस्वीरों की
शृंखला, इसे
आप कहते हैं, मैं हूं!
झेन
फकीर कहते हैं, फाइंड
आउट योर
ओरिजिनल फेस,
अपना असली
चेहरा खोजो।
वे कहते हैं, इस चेहरे को भूलो, जो
तुमने आईने
में देखा।
जिस
चेहरे को
देखने के लिए
भी आईने की
जरूरत पड़ती है, वह
चेहरा अपना
नहीं हो सकता।
कम से कम अपना
चेहरा तो बिना
आईने के दिखाई
पड़ जाना
चाहिए। अपना!
उसे भी देखने
के लिए आईना
चाहिए? वह
भी उधार; वह
भी वापस रिफ्लेक्टेड;
आईना जो
कहेगा!
और
ध्यान रखें, कोई
आईना सच नहीं
कह सकता। कोई
आईना सच नहीं
कह सकता। आईना
अपनी भाषा में
कुछ कहेगा; आईने के ढंग
से कहेगा। तो
आपने आईने
देखे होंगे, जिनमें आप
लंबे हो गए
हैं, मोटे
हो गए हैं, दुबले
हो गए हैं, चेहरा
कुरूप हो गया
है। वे आईने
अपनी-अपनी
भाषा में बोल
रहे हैं। एक
हमने कामन
आईना बना रखा
है, सबको
धोखा देने के
लिए। उसके
सामने हम खड़े
हो जाते हैं; समझ लेते
हैं, यही
मेरा चेहरा है;
यही।
नहीं, भीतर
कभी चुप और
मौन होकर आंख
बंद करके शरीर
को कहें कि
ठीक, तेरी
यह आकृति है, मान गए।
मेरी आकृति
क्या है? जिसके
ऊपर यह शरीर
की सारी
आकृतियां
बदलती रहती
हैं, उसकी
आकृति क्या है?
अगर आप
उसकी आकृति को
खोजने उतरें, तो
धीरे-धीरे सब
आकृतियां खो
जाएंगी और
निराकार में
आप खड़े हो
जाएंगे। उस
निराकार में
स्वभाव है।
शरीर
की आकृतियों
में सब
कृत्रिमता
है। यह मां-बाप
से दी गई
आकृति है
आपको। आपको
शायद पता न हो, लेकिन
जरूर अच्छा
होगा जान
लेना। अभी तो
जमीन पर एक ही
शक्ल के दो
आदमी नहीं
होते। ठीक जुड़वां
बच्चों में भी
थोड़ा-सा फर्क
होता है। एक
अंडे से पैदा
हुए दो बच्चों
में भी
थोड़ा-सा फर्क
होता है।
लेकिन
वैज्ञानिक
कहते हैं कि अब
हम डुप्लीकेट
कापी तैयार कर
सकते हैं। अब
हर आदमी की
नकल तैयार की
जा सकती है; क्योंकि
फार्मूला
खयाल में आ
गया है।
फार्मूला
बहुत कठिन
नहीं था; खयाल
में नहीं था।
जिन
अणुओं से
बच्चे का
निर्माण होता
है मां के पेट
में,
ठीक उन
अणुओं को दो
हिस्सों में
काटा जा सकता
है, पहले
ही अंडे में।
और एक अंडे के
दो अंडे बनाए जा
सकते हैं अब।
तब उन दोनों
में से बिलकुल
एक-सी आकृति
के दो आदमी
पैदा होंगे, बिलकुल
एक-सी।
यह तो
वैज्ञानिकों
की जरूरत है
फिलहाल अभी। क्योंकि
वे कहते यह
हैं कि हर एक
आदमी को आने
वाले पचास
सालों में--कम
से कम उन
लोगों को, जिनकी
लोगों को
ज्यादा जरूरत
होगी--उसकी एक
कापी हम, डुप्लीकेट कापी, जैसे
ही वह मां के
पेट में
पहुंचेगा
पहले दिन, उसी
क्षण निकालकर,
आधे हिस्से
को काटकर, अलग
तैयार कर
लेंगे मशीन
में। उधर मां
के पेट में जो
बच्चा बड़ा
होगा, ठीक
ऐसा ही बच्चा
मशीन में बड़ा
होता जाएगा।
इस बच्चे को
बड़ा करके, फ्रीज
करके रख दिया
जाएगा। यह
करीब-करीब
मुर्दा ही
रहेगा।
इसे
इसलिए रख दिया
जाएगा कि आने
वाली दुनिया में
दुर्घटनाएं
रोज बढ़ती चली
जाएंगी
जैसे-जैसे
विज्ञान विकसित
होगा; और
लोगों को रोज
ही स्पेयर
पार्ट्स
की जरूरत पड़ती
रहेगी, तो
उसकी खोज नहीं
करनी पड़ेगी।
यह उनकी
डिपाजिट जो
कापी है, इसमें
से कभी भी एक
आदमी का हाथ
टूट गया, तो
उसका हाथ
काटकर इसमें
लगा दिया
जाएगा। वह बिलकुल
फिट हो जाएगा,
क्योंकि वह
इसका ही हाथ
है। गर्दन भी
कट गई, तो
उसकी गर्दन इस
पर बिठाई जा
सकेगी। एक
जैसे दस-बारह
आदमी भी तैयार
किए जा सकते
हैं, कापी
की जा सकती है,
कोई हर्जा
नहीं।
लेकिन
फिर भी फर्क
कायम रहेंगे।
क्योंकि शरीर
एक जैसे हो
सकते हैं। वह
जो भीतर है, वह
बहुत यूनीक है,
वह बहुत बेजोड़
है। इसलिए अगर
दो कापी भी
विज्ञान बना
लेता है, तो
शरीर बिलकुल
एक जैसे होंगे,
लेकिन
व्यक्ति
बिलकुल
अलग-अलग
होंगे।
वह कौन
है भीतर, जो
अलग है शरीर
से? और दो
शरीर भी एक
जैसे हो जाएं,
तो भी भीतर
अलग होता है!
शरीर
को भूलकर, इसका
थोड़ा खयाल
करें। इस खयाल
को दो तरह से
कर सकते हैं, और स्वभाव
की थोड़ी-सी
झलक मिल सकती
है, वही
अध्यात्म है। तो
एक छोटा-सा
प्रयोग आपको
कहता हूं।
कभी जब
चित्त बहुत
प्रसन्न हो, कभी
जब चित्त बहुत
प्रसन्न हो, तो
द्वार-दरवाजे
बंद करके अपने
कमरे में लेट
जाएं नग्न
होकर; आंख
बंद कर लें।
और एक मिनट तक
अपने माथे पर
हाथ रखकर
दोनों आंखों
के बीच में एक
मिनट तक रगड़ते
रहें। चित्त
अगर प्रसन्न
हो, तो
माथे पर रगड़ते
ही सारी
प्रसन्नता
माथे पर
इकट्ठी हो
जाएगी।
ध्यान
रहे,
जब आदमी
उदास होता है,
तो अक्सर
माथे पर हाथ
रखता है। माथे
पर हाथ रखने
से उदासी
बिखरती है और
प्रसन्नता
इकट्ठी होती
है। हालांकि
प्रसन्नता
में कोई नहीं
रखता, उसका
खयाल नहीं है।
जब
आदमी उदास
होता है, दुखी
होता है, चिंतित
होता है, तो
माथे पर हाथ
रखता है। उससे
चिंता बिखर
जाती है; उस
जगह जो इकट्ठा
है, वह
बिखर जाता है।
निगेटिव कुछ
होगा, तो
माथे पर हाथ
रखने से बिखर
जाता है। पाजिटिव
कुछ होगा, तो
माथे पर हाथ
रखने से
इकट्ठा हो जाता
है।
इसलिए
मैंने कहा, जब
प्रसन्न क्षण
हो मन का कोई, लेट जाएं, माथे पर एक
क्षण रगड़ लें
जोर से हाथ से,
अपने ही हाथ
से। वह जगह
बीच में जो है,
वह बहुत
कीमती जगह है।
शरीर में शायद
सर्वाधिक
कीमती जगह है।
वहां
अध्यात्म का
सारा राज छिपा
है। थर्ड आई
कोई कहता है
उसे, कोई
शिवनेत्र; उसे
कोई भी कुछ
नाम देता हो, पर वहां राज
छिपा है। उस
पर हाथ रगड़
लें। उस पर हाथ
रगड़ने के
बाद जब आपको
लगे कि
प्रसन्नता
सारे शरीर से
दौड़ने लगी है
उस तरफ, आंख
बंद रखें और
सोचें कि मेरा
सिर कहां है!
खयाल करें आप
आंख बंद करके
कि मेरा सिर
कहां है!
आपको
बराबर पता चल
जाएगा कि सिर
कहां है। सबको
पता है, अपना
सिर कहां है।
फिर एक क्षण
के लिए सोचें
कि मेरा सिर
जो है, वह
छः इंच लंबा
हो गया। आप
कहेंगे, कैसे
सोचेंगे!
यह
बिलकुल सरल है, और
एक दो दिन में
आपको अनुभव
में आ जाएगा
कि माथा छः
इंच लंबा हो
गया। आंख बंद
किए! फिर
वापिस लौट आएं,
नार्मल हो जाएं, अपनी
खोपड़ी के अंदर
वापिस आ जाएं।
फिर छः इंच पीछे
लौटें, फिर
वापस लौटें।
पांच-सात बार
करें।
जब
आपको यह पक्का
हो जाए कि यह
होने लगा, तब
सोचें कि पूरा
शरीर मेरा जो
है, वह
कमरे के बराबर
बड़ा हो गया।
सिर्फ सोचना,
जस्ट ए थाट, एंड
दि थिंग हैपेंस।
क्योंकि जैसे
ही यह तीसरे
नेत्र के पास
शक्ति आती है,
आप जो भी
सोचें, वही
हो जाता है।
इसलिए इस तरफ
शक्ति लाकर
कभी भी कुछ
भूलकर गलत
नहीं सोच लेना,
वह भी हो
जाता है।
इसलिए
इस तीसरे
नेत्र के
संबंध में
बहुत बातें
लोगों को नहीं
कही जाती हैं, क्योंकि
इससे बहुत
संबंधित
द्वार हैं। यह
करीब-करीब
वैसी ही जगह
है, जैसा
पश्चिम का
विज्ञान एटामिक
एनर्जी के पास
जाकर झंझट में
पड़ गया है, वैसा
ही पूरब का
योग इस बिंदु
के पास आकर
झंझट में पड़
गया था। और
पूरब के
मनीषियों ने
खोजा हजारों
वर्षों तक, और फिर छिपाया
इसको।
क्योंकि आम
आदमी के हाथ
में पड़ा, तो
खतरे शुरू हो
गए थे।
अभी
पश्चिम में
वही हालत है।
आइंस्टीन
रोते-रोते मरा
है कि किसी
तरह एटामिक
एनर्जी के
सीक्रेट खो
जाएं, तो
अच्छा है; नहीं
तो आदमी मर
जाएगा।
पूरब
भी एक दफा इस
जगह आ गया था
दूसरे बिंदु
से,
और उसने
सीक्रेट खोज
लिया था, और
उससे बहुत
उपद्रव संभव
हो गए थे, और
शुरू हो गए
थे। तो फिर
उसको भुला
देना पड़ा। पर
यह छोटा-सा
सूत्र मैं
कहता हूं, इससे
कोई बहुत
ज्यादा खतरे
नहीं हो सकते
हैं, क्योंकि
और गहरे सूत्र
हैं, जो
खतरे ला सकते
हैं।
सोचें
एक क्षण को कि
जब आपका सिर
बाहर निकलने, भीतर
आने में समर्थ
हो जाए--और एक
दो-चार दफे में
हो जाता है--तो
सोचें कि मेरा
शरीर पूरे
कमरे में फैल
गया है, इतना
बड़ा हो गया
है। आप फौरन
पाएंगे कि एक
बैलून की तरह,
एक
गुब्बारे की
तरह आप
दीवालों को छू
रहे हैं। तब
आप पूछें कि
मेरी आकृति
क्या है? क्योंकि
यह तो मेरी
आकृति नहीं
है।
शरीर
की जो हमारी
प्रतीति है, वह
केवल आटोहिप्नोटिक
है। बचपन से
हम सोच रहे
हैं, यह
मेरी सीमा है,
यह मेरा
शरीर है; यह
मेरी सीमा है,
यह मेरा
शरीर है। बस।
यह सिर्फ
सम्मोहित है।
इसे छोड़ देना
पड़े। यह
कंडीशंड है, यह सीखी हुई बात
है, इसका
प्रशिक्षण
हुआ है। यह है
नहीं। इस
प्रशिक्षण को
तोड़ दें, जैसे
भाषा को तोड़ा।
यह भी एक भाषा
है आकार की, इसको तोड़
दें, और
निराकार में
आप खड़े हो
जाएंगे। और तब
आप जानेंगे, कृष्ण का
क्या अर्थ है,
स्वभाव
अध्यात्म है।
स्वभाव
का अर्थ है, जो
मैं हूं, बिना
बनाया। बिना
किसी की
सहायता के, बिना आयोजन
के, बिना
चेष्टा के, बिना
प्रयत्न के जो
मैं हूं ही; वह जो मेरा
सारभूत
हिस्सा
है--असृष्ट, अनिर्मित, अनायोजित--वही मैं हूं,
उसको जान
लेना ही
अध्यात्म है।
जो उसे जान ले,
वही ब्रह्म
को भी जान
लेता है।
इसलिए
अध्यात्म ब्रह्म
को जानने का
विज्ञान है।
अपना
स्वरूप
अध्यात्म।
भूतों के
भावों को उत्पन्न
करने वाला
विसर्ग, त्याग,
वह कर्म के
नाम से कहा
गया है।
अर्जुन ने
पूछा है, कर्म
क्या है? कृष्ण
कहते हैं, भूतों
के भाव को
उत्पन्न करने
वाला विसर्ग,
कर्म के नाम
से कहा गया
है। इस संबंध
में दोत्तीन
बातें खयाल
में ले लेने
जैसी हैं।
एक, जो
लोग भी गीता
पर टीकाएं किए
हैं, उन
सबने कर्म से
अर्थ लिया है
वैदिक
कर्मकांड का।
उन सबने अर्थ
लिया है, शास्त्र-विहित
यज्ञ, दान,
होम आदि के
निमित्त जो
द्रव्य आदि का
त्याग है, वह
कर्म कहा गया
है। लेकिन यह थोपा
हुआ अर्थ है।
कृष्ण
जैसे व्यक्ति
सामयिक
भाषाओं में
नहीं बोलते
हैं,
शाश्वत
भाषाओं में
बोलते हैं।
कृष्ण का क्या
अर्थ होगा? भूतों के
भाव को
उत्पन्न करने
वाला, जो
त्याग है, वह
कर्म कहा गया
है।
यह
बहुत कठिन
सूत्र है। अगर
इसकी पहली
व्याख्या--जैसा
कि आमतौर से
की जाती है--की
जाए,
तो एकदम
साधारण सूत्र
है। लेकिन मैं
जो इसमें देखता
हूं, वह
बहुत असाधारण
है। तो उसे
थोड़ा पकड़ने
में दिक्कत
पड़ेगी।
आदमी
का जो स्वभाव
है,
वह उसका
बीइंग है। और
आदमी का जो
स्वभाव नहीं है;
वह उसका
कर्म है, वह
उसका डूइंग
है।
और
हमारे दो
हिस्से हैं, एक
हमारा स्वभाव,
जो मैं हूं;
और एक मेरे
कर्म का जगत, जो मैं करता
हूं। निश्चित
ही, कृष्ण
का यह दूसरा
अर्थ है।
क्योंकि जस्ट
आफ्टर बीइंग
की परिभाषा, कि स्वभाव
अध्यात्म है,
वह कर्म की
परिभाषा करनी
ही उनको चाहिए,
कि फिर कर्म
क्या है!
क्योंकि हम
सारे लोग डूइंग
को ही समझते
हैं, मैं
हूं।
एक
आदमी से पूछें, आप
कौन हैं? वह
कहता है कि
मैं चित्रकार
हूं। असल में
चित्रकार
होना, उसके
होने की खबर
नहीं है; इस
बात की खबर है
कि वह क्या
करता है।
चित्र बनाता
है।
एक
आदमी कहता है
कि मैं
दुकानदार
हूं। दुकानदार
कोई हो सकता
है दुनिया में? दुकानदार
कर्म है, होना
नहीं है। वह
आदमी यह कह
रहा है कि मैं
दुकानदारी
करता हूं।
उसको कहना यह
चाहिए कि मैं
दुकानदारी
करता हूं। पर
वह कहता है, मैं
दुकानदार
हूं।
हम
कर्म के जोड़
को ही अपनी
आत्मा बनाए
हुए बैठे हैं।
इसलिए हर आदमी
अपने कर्म से
ही अपना परिचय
देता है--हर
आदमी! किसी से
भी पूछो, कौन
हो? वह
फौरन बताता है
कि मेरा कर्म
क्या है। पूछा
ही नहीं आपसे
कि आपका कर्म
क्या है।
लेकिन अगर
नहीं पूछा कि
कर्म क्या है,
तो बड़ी
मुश्किल है।
उसका तो हमें
पता ही नहीं कि
मैं कौन हूं।
कर्म का ही
लेखा-जोखा है।
तो हर आदमी
अपना खाता-बही
लिए अपने साथ
चलता है। वह कहता
है,
यह मैं हूं।
कोई आदमी अपनी
तिजोड़ी
ढोता है, वह
कहता है, यह
मैं हूं। कोई
आदमी अपनी पोथियां
लेकर चलता है
कि यह मैं
हूं। कोई आदमी
अपना त्याग
लिए चलता है
कि यह मैं
हूं। देखो, मैंने बारह
साल
तपश्चर्या की;
यह मैं हूं।
कर्म
को ही हम कहते
हैं कि यह मैं
हूं। अगर कर्म
छीन लिया जाए, तो
भी आप होंगे
या नहीं होंगे?
अगर त्यागी
से त्याग छीन
लिया जाए, धनी
से धन छीन
लिया जाए, चित्रकार
से उसकी
चित्रकला छीन
ली जाए, उसके
हाथ काट दिए
जाएं कि वह
चित्र भी न
बना सके, तो
भी चित्रकार,
जो कह रहा
था कि मैं
चित्रकार हूं,
वह होगा कि
नहीं?
वह
होगा ही। हाथ
काट डालो, तूलिका
छीन लो; धन
छीन लो, त्याग
छीन लो, ज्ञान
छीन लो; कोई
फर्क नहीं
पड़ता। मेरा
होना तो होगा
ही। मेरा होना
मेरा करना
नहीं है। मेरा
होना नितांत अकर्म
की अवस्था है,
नान एक्शन
की; जब मैं
कुछ भी नहीं
कर रहा हूं, सिर्फ हूं।
स्वाभाविक
है कि कृष्ण
तत्काल कर्म
की बात कहें।
और अर्जुन ने
भी पूछा है, कर्म
क्या है? उसने
भी नहीं पूछा,
वैदिक
कर्मकांड
क्या है? पूछा
कि कर्म क्या
है? कृष्ण
भी नहीं कहते
कि वैदिक कर्म
क्या है। वे
कहते हैं, कर्म,
भूतों के
भाव को
उत्पन्न करने
वाला जो त्याग
है।
बड़ा ही
महत्वपूर्ण
सूत्र है।
इस जगत
में हमारे मन
में,
जब भी हम
कुछ पाने की
इच्छा से चलते
हैं, जब भी
हम भोगना
चाहते हैं, तब हमें कुछ
त्यागना पड़ता
है। और ध्यान
रहे, जब भी
हम जगत में
कुछ भोगना
चाहते हैं, तो हमें
स्वयं को
त्यागना पड़ता
है, दि वेरी
मोमेंट। अगर
मैं चाहता हूं
कि मैं धनी हो
जाऊं, तो
हर धन की तिजोड़ी
भरने के
साथ-साथ मुझे
अपनी आत्मा को
क्षीण करते
जाना पड़ेगा।
अगर मैं चाहता
हूं कि बड़े यश
के सिंहासनों
पर
प्रतिष्ठित
हो जाऊं, तो
जैसे-जैसे मैं
यश के सिंहासन
की सीढ़ियां
चढूंगा, वैसे-वैसे
मेरा
अस्तित्व, मेरा
बीइंग, मेरी
आत्मा नर्क की
सीढ़ियां
उतरने लगेगी।
इस जगत
में कुछ भी
भोग,
त्याग है
अपना। और
व्यर्थ के लिए
हम सार्थक को
छोड़ते चले
जाते हैं!
तो भोगादि
की इच्छा से, वासना
से, कुछ
पाने की
आकांक्षा से,
जो भी त्याग
किया जाता है,
जो विसर्ग
है...।
यह
विसर्ग शब्द
बहुत अदभुत
है। अपने से बिछुड़
जाने का नाम
विसर्ग है। डिसज्वाइंट
फ्राम वनसेल्फ--स्वयं
से टूट जाना
विसर्ग है।
स्वयं से चूक
जाना, हट जाना
विसर्ग है।
स्वयं से चूक
जाना ही त्याग
है।
यह बड़े
मजे की बात है, जिन्हें
हम त्यागी
कहते हैं, शायद
वे त्यागी
नहीं। हम सब, जिन्हें हम
भोगी समझते
हैं, बड़े
त्यागी हैं, महात्यागी
हैं। क्योंकि
हम क्षुद्र के
लिए विराट को
छोड़कर बैठे
हैं! हम जैसा
त्यागी खोजना
बहुत कठिन है।
एक कौड़ी
हमें मिलती हो,
तो हम आत्मा
को बेचने को
तैयार हैं, कि सम्हालो
यह आत्मा, कौड़ी
हमें दो। हम न
हुए तो चल
जाएगा, कौड़ी न हुई तो
कैसे चलेगा!
मुल्ला
नसरुद्दीन
को कुछ डाकुओं
ने घेर लिया
है एक अंधेरे
रास्ते पर। और
वे कहते हैं
कि क्या इरादा
है?
धन देते हो
अपना कि जान? नसरुद्दीन ने कहा, जान
ले लो। धन तो
मैंने बुढ़ापे
के लिए बचाकर
रखा है! और फिर
जान की कीमत
ही क्या है? मुफ्त मिली
थी, मुफ्त
एक दिन जाएगी।
धन बड़ी
मुश्किल से
कमाया है!
हंसते
हम जरूर हैं, लेकिन
करते हम भी
यही हैं। नसरुद्दीन
इकट्ठा कर रहा
है; हम जरा
फुटकर-फुटकर
करते हैं। वही
आदमी अच्छा है;
इकट्ठा कर
रहा है। वही लाजिकल कनक्लूजन
है हमारी
जिंदगी का, वह जो नसरुद्दीन
कह रहा है कि
ठीक, ले लो
जान। क्योंकि
जान के लिए
किया क्या
हमने कभी कुछ।
मुफ्त मिली, मुफ्त चली
जाएगी। धन? धन के लिए
बहुत मेहनत
करनी पड़ी है।
और फिर, मोरओवर आई एम सेविंग
इट फार दि
ओल्ड
एज--बुढ़ापे के
लिए बचा रहा
हूं। जान का
क्या करेंगे
बुढ़ापे में
अगर धन ही न
हुआ? एक
बार बिना जान
के चल जाए, बिना
धन के नहीं चल
सकता है।
मगर यह
आदमी जो है, यह
हमारी ही
निष्पत्ति है,
हमारी ही
बुद्धि। यही
हम सब कर रहे
हैं। हम जरा
हिम्मतवर कम
हैं, तो
धीरे-धीरे
बेचते हैं, काट-काटकर
बेचते हैं। यह
आदमी हिम्मतवर
है। और मूढ़
हिम्मतवर
ज्यादा होते
हैं। हम सब
बहुत अपने को
बुद्धिमान
समझे हैं, धीरे-धीरे
काट-काटकर
बेचते रहते
हैं।
इसे
कृष्ण कहते
हैं कि स्वयं
से छूट जाना, स्वयं
का त्याग, कर्म
है। यह बड़ी
अदभुत बात है।
यह सूत्र बहुत
कीमती है।
अपने से छूट
जाना, अपने
को छोड़ जाना, अपने होने
को, स्वभाव
को, स्वरूप
को छोड़कर
भागना ऐसी
किसी चीज के
प्रति, जो
न कभी मिल
सकती है, और
मिल भी जाए तो
उसके मिलने से
कुछ नहीं मिलता
है। लेकिन हर
आदमी अपने को
छोड़कर भागता
है।
कर्म
की अगर यह
व्याख्या
खयाल में आ
जाए,
तो
जहां-जहां हम
कर्म में रत
हैं, वहां-वहां
हम अपने को
छोड़कर भागे
हैं। क्या इसका
यह अर्थ है कि
हम कर्म छोड़कर
भाग जाएं?
नहीं, कृष्ण
तो कहते हैं, कर्म छोड़कर
कोई भागेगा भी
तो कहां
भागेगा! क्योंकि
भागना भी कर्म
है, और
छोड़ना भी कर्म
है। एक ही
उपाय है कि
कर्म चलता रहे,
तो भी
प्रतिष्ठा कर्म
में न हो; प्रतिष्ठा
बीइंग में, अस्तित्व
में, आत्मा
में हो।
प्रतिष्ठा!
मैं कितना ही
तेजी से दौडूं,
मेरे भीतर
तो कोई बिंदु
ऐसा ही होना
चाहिए जो बिलकुल
अदौड़ा है,
दौड़ा ही नहीं है।
मैं कितना ही
भोजन करूं, मेरे भीतर
तो कोई होना
चाहिए, जिसने
भोजन कभी किया
ही नहीं।
वह है।
सिर्फ उसका
स्मरण नहीं
है। मैं बाएं
जाऊं कि दाएं, मैं
ऊपर जाऊं कि
नीचे, मेरे
भीतर तो कोई
होना चाहिए जो
सदा थिर है और कहीं
आया नहीं, गया
नहीं। इस
प्रतिष्ठा का
नाम अध्यात्म;
और इस
प्रतिष्ठा से
चूकने का नाम
कर्म है।
यहां
कर्म की एक
आखिरी बात और।
इसका अर्थ यह
हुआ कि कर्म
भी तभी स्वयं
का त्याग बनता
है,
जब उसमें
कर्ता-भाव हो;
मैंने किया,
ऐसा भाव हो।
ज्ञानी भी
करता है, लेकिन
कर्ता का भाव
नहीं होता, इसलिए उसके
कर्म को कृष्ण
कहते हैं, अकर्म
जैसा कर्म है
उसका। अकर्म
ही है! वह करते
हुए भी नहीं
करता है।
और हम
ऐसे लोग हैं
कि हम न भी
करते हों, तो
भी करते रहते
हैं! हममें सब
ऐसे लोग हैं।
हममें से सबको
राष्ट्रपति
के पद पर
बैठने का उपद्रव
नहीं झेलना
पड़ेगा। ऐसे
अभागे हममें
बहुत कम हैं, जिनको ऐसी
दुर्घटना घटे
कि
राष्ट्रपति
हो जाएं।
लेकिन हम सब
बैठते रहते
हैं; वह हम
नहीं छोड़ते
मौका। कुर्सी
पर बैठे हैं, बहुत जल्दी
राष्ट्रपति
का सिंहासन हो
जाता है। मन
ही मन में न
मालूम
कहां-कहां चढ़ते-बैठते
रहते हैं! न
मालूम
क्या-क्या
करते रहते हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने अपनी पत्नी
की हत्या कर
दी थी, तो उस पर
मुकदमा चला।
और
मजिस्ट्रेट
ने पूछा, नसरुद्दीन,
क्या तुम
कुछ भी अपने
पक्ष, अपने
बचाव में कह
सकते हो? तो
नसरुद्दीन
ने कहा, पहली
बात तो यह कि
अगर अपना बचाव
ही कर सकते, तो हत्या
क्यों करते? अगर अपना
बचाव ही कर
सकते, तो
हत्या क्यों
करते? और
फिर दूसरी बात
यह कि इस
स्त्री के साथ
हम तीस साल रहे,
क्या यह भी
काफी नहीं है
कि हमने इसके
पहले इसकी
हत्या कभी
नहीं की! और नसरुद्दीन
ने कहा, अब
सच्ची आखिरी
बात आपको बता
दूं कि तीस
साल तक हत्या
के संबंध में
सोचते रहने की
बजाय मैंने
सोचा, कर
ही देना उचित
है। तीस साल! नसरुद्दीन
ने कहा, सोचिए,
तीस साल! और
मेरा वकील मुझ
से कहता है कि
अब तुझे तीस
साल की सजा होगी
कम से कम। इस
कमबख्त ने अगर
पहले ही बता दिया
होता, तो
हम पहले दिन
इसकी हत्या कर
देते, तो
आज छूट गए
होते! तीस साल!
आज हमें दुख
इस बात का
नहीं है, नसरुद्दीन ने कहा कि
क्यों हत्या
की! आज दुख इस
बात का है कि तीस
साल काहे पिछड़े!
किसलिए? आज छूट गए
होते। आज
मुक्त, बाहर
होते। इस
कमबख्त से
पहले भी पूछा
था, तब
इसने कहा था, फांसी लग
जाएगी नसरुद्दीन!
और अब कहता है,
तीस साल की
सजा होगी!
कर रहे
हैं हम सब।
कितनी हत्याएं
आपने की हैं, हिसाब
है? कितने
साल से, कितने
लोगों की हत्या
कर रहे हैं? बिना किए, किए चले
जाते हैं।
क्योंकि करें,
तब तो एक ही
करने में
मुश्किल
पड़ेगी। इसमें
बड़ी सुविधा
रहती है; ज्यादा
करने की
सुविधा रहती
है।
हम
बिना किए करते
रहते हैं। कुछ
लोग हैं, जो
करते भी हैं
और नहीं करते
हैं। पर तब
उनका कर्म विकर्म,
अकर्म हो
जाता है, विशेष
कर्म हो जाता
है या
कर्म-शून्य हो
जाता है; वे
कर्ता नहीं रह
जाते।
आज
इतना ही। कल
हम दूसरे
सूत्र पर आगे बढ़ेंगे।
सुबह
के लिए एक-दो
सूचनाएं दे
देनी हैं।
सुबह केवल वे
ही लोग आएंगे, जो
सुनने के लिए
नहीं, कुछ
करने के लिए
उत्सुक हों।
वे ही लोग आएंगे
सुबह, जो
ध्यान में
उतरना चाहते
हों। अन्यथा न
आएं। कोई
दर्शक न आए।
और जो
लोग आ जाएं, वे
फिर पूरे साहस
से उस प्रयोग
में उतरें।
क्योंकि सांझ
हम जो बात
करेंगे, वह
बात ही रह
जाएगी, अगर
सुबह हमने
उसका प्रयोग न
किया। और आदमी
इतना बेईमान
है कि डर तो यह
है कि सांझ
जिसे कहा है, उसे वह सुबह
तक कभी का भूल
चुका होगा।
लेकिन फिर भी
एक कोशिश...।
सांझ
जो मैंने कहा
है अभी, कल
सुबह हम
प्रयोग में कर
सकें, तो
शायद कहीं कोई
रेखा हमारे
भीतर छूट जाए।
कहीं कोई
प्रयोग से फूल
खिल जाए। और
चाहे अर्जुन
समझा हो गीता
या न समझा हो, अगर वह फूल
खिल जाए, तो
जिसके भीतर वह
फूल खिल जाता
है, वह तो
समझ ही जाता
है।
आज
के लिए इतना
ही।
thank you guruji
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