13
जनवरी, 1977
श्री
ओशो आश्रम,
कोरेगांवपार्क, पूना।
सारसूत्र:
असमाधेरविक्षेपान्न
मुमुक्षुर्न
चेतर:।
निश्चित्यकल्पितपश्यन्ब्रह्मैवास्तेमहाशय।।2०4।।
यस्यांत:
स्यादहंकारो
न करोति करोति
सः।
निरहंकारधीरेण
न किचिद्धि
कृतं कृतम्।।2०5।।
नोद्विग्न
न च
संतुष्टमकर्तृस्पदवर्जितम्।
निराश
गतसंदेह
चित्तं मुक्तस्य
सजते।।2०6।।
निर्ध्यातुं
चेष्टितुं
वापि
यच्चित्तं न प्रवर्तते।
निर्निमित्तमिद
किंतु
निर्ध्यायति
विचेष्टते।।2०7।।
तत्व
यथार्थमाकर्ण्य
मंद:
प्राम्मोति
मूढ़ताम्।
अथवाऽऽयाति
संकोचममूढ़:
कोउपि
मूढ़वत्।।2०8।।
एकाग्रता
निरोधो वा
मूढैरभ्यस्यते
भृशम्।
धीरा:कृत्यंनपश्यन्तिसुप्तवत्स्वपदेस्थिता:।।2०9।।
असमाधेरविक्षेपान्नमुमुक्षुर्नचेतर:।
निश्चित्यकल्पितंपश्यन्ब्रह्मैवास्तेमहाशय।।
पहला
सूत्र :
'महाशय पुरुष
विक्षेपरहित
और
समाधिरहिते
होने कै कारण
न मुमुक्षु है,
न गैर—मुमुक्षु
है; वह
संसार को
कल्पित देख ब्रह्मवत
रहता है।'
अत्यंत
क्रांतिकारी
सूत्र है।
साधारण
जन परमात्मा
के संबंध में
कुछ पूछते हैं
तो मात्र
कुतूहल होता
है। कुतूहल से
कोई कभी सत्य
तक पहुंचता
नहीं। कुतूहल
तो बड़ी ऊपर—ऊपर
की बात है; बचकाना
है। जैसे छोटे
बच्चे पूछते
हैं। जो सामने
आ गया उसी के
संबंध में
प्रश्न पूछ
लेते हैं।
उत्तर मिले तो
ठीक, न
मिले तो ठीक।
क्षण भर बाद
प्रश्न भी भूल
जाता है, उत्तर
भी भूल जाता
है। हवा की
तरंग थी, आई
और गई। उत्तर
दिया तो ठीक, न दिया तो भी
कोई चित नहीं।
उत्तर की कोई
गहरी चाह न थी।
ऐसे ही प्रश्न
उठ गया था।
प्रश्न उठाना
मन का स्वभाव
है।
कुतूहल
से कोई कभी
सत्य तक नहीं
पहुंचता।
कुतूहल
से गहरी जाती
है जिज्ञासा।
जिज्ञासा
खोजी बनाती है।
जिज्ञासा का
अर्थ है, खोज
कर रहूंगा।
प्रश्न
मूल्यवान है।
और जब तक इस
प्रश्न का
उत्तर न मिले
तब तक जीवन में
अर्थ न होगा।
सुकरात
ने कहा है, अपरीक्षित
जीवन जीने
योग्य नहीं है।
जिस जीवन का
ठीक से
परीक्षण न
किया हो और
जिस जीवन का
अर्थबोध न हो,
उसे भी क्या
जीना! फिर
आदमी और पशु
के जीवन में भेद
क्या? ठीक
विषण, ठीक
अर्थबोध, ठीक
प्रयोजन का
पता चल जाए कि
क्यों हूं तभी
जीने का कुछ
सार है।
कुतूहल
ऊपर—ऊपर है।
जिज्ञासा
गहरे जाती है, लेकिन
फिर भी पूरे
प्राणों तक
नहीं जाती।
अगर जीवन दांव
पर लगाना हो
तो जिज्ञासु
दांव पर नहीं
लगाता। उससे
भी गहरी जाती
है मुमुक्षा।
मुमुक्षा
का अर्थ होता
है. प्रश्न का
उत्तर जीवन से
भी ज्यादा
मूल्यवान है।
जिज्ञासा
का अर्थ होता
है : जीवन को
जीने के लिए
प्रश्न का
उत्तर जरूरी
है,
लेकिन जीवन
से ज्यादा
मूल्यवान
नहीं। अगर कोई
कहे कि जीवन
को देकर उत्तर
मिल सकता है
तो क्या सार
रहा? जीने
के लिए ही
उत्तर चाहिए
था। अगर जीवन
ही गंवा कर
उत्तर मिले, उस उत्तर का
क्या करेंगे?
मुमुक्षा
का अर्थ होता
है : मोक्ष की
आकांक्षा, परम
स्वातंत्र्य
की प्रबल
अभीप्सा। अब
अगर जीवन भी
दांव पर लग
जाए तो कुछ
हर्ज नहीं।
इतना
महत्वपूर्ण
है प्रश्न का
उत्तर कि जीवन
भी गंवाया जा
सकता है; जीवन
को भी दांव पर
लगाया जा सकता
है। मुमुक्षा
और गहरे जाती
है। लेकिन यह
सूत्र कहता
है.. .ऐसा सूत्र
दूसरे किसी
शास्त्र में
उपलब्ध नहीं
है। इसलिए मैं
कहता हूं
सूत्र बड़ा क्रांतिकारी
है।
अष्टावक्र के
सूत्र कुछ ऐसे
हैं कि किसी
शास्त्रकार
ने कभी इतने
गहरे जाने का
साहस नहीं किया।
अष्टावक्र
कहते हैं, 'महाशय
पुरुष
विक्षेपरहित
और समाधिरहित
होने के है और
न गैर— है।’
कारण
न मुमुक्षु
मुमुक्षु
लेकिन
एक ऐसी भी दशा
है,
जहां
मुमुक्षा भी
नहीं ले जाती।
वहां जाने के
लिए मुमुक्षा
भी छोड़ देनी
पड़ती है। तो
समझें।
मुमुक्षा
का अर्थ होता
है : स्वतंत्र
होने की आकांक्षा, मोक्ष
की आकांक्षा।
लेकिन मोक्ष
व्य स्वभाव
ऐसा है कि कोई
भी आकाक्षॉ हो
तो मोक्ष संभव
न हो पाएगा।
मोक्ष की
आकांक्षा भी
बाधा बन जाएगी।
आकांक्षा
मात्र बंधन बन
जाती। धन की
आकांक्षा तो
बंधन बनती ही
है, प्रेम
की आकांक्षा
तो बंधन बनती
ही है, लेकिन
मोक्ष की आकांक्षा,
परमात्मा
को पाने की आकांक्षा
भी अंतिम बंधन
है; आखिरी
बंधन है। बड़ा
स्वर्णनिर्मित
है बंधन; हीरे—जवाहरातों
जड़ा है।
धन्यभागी हैं
वे जिनके
हाथों में
मोक्ष का बंधन
पड़ा हो, लेकिन
है तो बंधन ही।
यह खयाल कि
मैं मुक्त हो
जाऊं, बेचैनी
पैदा करेगा।
और यह खयाल कि
मैं मुक्त हो
जाऊं, वर्तमान
से अन्यथा ले
जाएगा, भविष्य
में ले जाएगा।
यह तो वासना
का फैलाव हो
गया। नई वासना
है, पर है
वासना। सुंदर
वासना है, पर
है वासना।
और
बीमारी कितनी
ही बहुमूल्य
हो,
हीरे—जवाहरातों
जड़ी हो, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? चाहे
चिकित्सा—शास्त्री
कहते हों कि
बीमारी
साधारण बीमारी
नहीं है
राजरोग है, सिर्फ
राजाओं—महाराजाओं
को होता है तो
भी क्या फर्क
पड़ता है? राजरोग
भी रोग ही है।
मोक्ष
की वासना भी
वासना है। इसे
समझने की थोड़ी
चेष्टा करें।
आदमी बंधा
क्यों है? बंधन
कहां है? बंधन
इस बात में है
कि हम जो हैं, उससे हम
राजी नहीं, कुछ और होना
है। तो जो हैं
उसमें हमारी
तृप्ति नहीं।
जहां हम हैं, जैसे हम हैं,
वहां हमारा
उत्सव नहीं।
कहीं और होंगे
तो नाचेंगे।
यहां आंगन
टेढ़ा है। आज
तो नहीं नाच
सकते। आज तो
सुविधा नहीं
है, कल
नाचेंगे, परसों
नाचेंगे। कल
आता नहीं। कल
ही नहीं आता
तो परसों तो
आएगा कैसे? रोज जब भी
समय मिलता है
वह आज होता है।
और जो भी पास आ
जाता है वही आंगन
टेढ़ा हो जाता
है।
हमारे
जीवन की धारा
भविष्योमुख
है। कल स्वर्ग
में,
मोक्ष में,
कहीं और सुख
है; यहां
तो दुख है।
वासना का अर्थ
है : यहां दुख, सुख कहीं और।
सुख सपने में,
यथार्थ में
दुख। तो हम
सपने को उतार
लाने की
चेष्टा करते
हैं। स्वर्ग
को उतारना है
पृथ्वी पर या
अपने को ले जाना
है स्वर्ग में
लेकिन उन आज
और अभी और
यहीं तो
महोत्सव नहीं
रच सकता। आज
तो बांसुरी
नहीं बजेगी।
और जिसकी
बांसुरी आज
नहीं बज रही
वही बंधन में
है। उसकी
बांसुरी कभी
नही बजेगी। या
तो आज, या
कभी नहीं। या
तो अभी, या
कभी नहीं।
बंधन
का अर्थ है, हम
भविष्य से
बंधे हैं।
बंधन का अर्थ
है, भविष्य
की वासना की
डोर हमें
खींचे लिए
जाती है और हम
आज मुक्त नहीं
हो पाते।
भविष्य हमें
बांधे है।
वर्तमान
मुक्त करता है।
वर्तमान
मुक्ति है।
मोक्ष अभी है
और संसार कल
है।
तुमने
अक्सर उलटी
बात सुनी है।
तुमने सुना है, संसार
यहां है और
मोक्ष वहां है।
मैं तुमसे
कहना चाहता
हूं मोक्ष
यहां है, संसार
वहा है। अभी
जो मौजूद है
यही मुक्ति है।
अगर तुम इस
क्षण में लीन
हो जाओ, तल्लीन
हो जाओ, डुबकी
लगा लो, तुम
मुक्त हो गए।
तुम अगर कल की
डोर में बंधे
खिंचते रहो तो
तुम्हारे पैर
में जंजीरें
पड़ी रहेंगी।
तुम कभी नाच न
पाओगे।
तुम्हारे
जीवन में कभी
आभार का, आशीष
का क्षण न आ
पाएगा।
अष्टावक्र
कहते हैं, इसका
अर्थ हुआ कि
मुमुक्षा भी
बंधन है।
मोक्ष की
आकांक्षा भी
तो कल में ले
जाती है।
मोक्ष तो कभी
होगा, मरने
के बाद होगा, मृत्यु के
बाद होता है।
अगर जीवन में
भी होगा तो आज
तो नहीं होना
है। बड़ी साधना
करनी होगी, बड़े हिमालय
के उत्तुंग
शिखर चढ़ने
होंगे। गहन
अभ्यास, महायोग,
तप, जप, ध्यान, फिर
कहीं अंतिम फल
की भांति आएगा
मोक्ष।
प्रतीक्षा
करनी होगी।
धीरज रखना
होगा। श्रम
करना होगा।
मोक्ष फल की
तरह आएगा।
मोक्ष
फल नहीं है, मोक्ष
तुम्हारा
स्वभाव है।
इसलिए मोक्ष
कल नहीं है, मोक्ष अभी
है, यहीं
है। तो
मुमुक्षा
बाधा बनेगी।
जो मुमुक्षा
से भरा है वह
कुतूहल से तो
बेहतर है, जिज्ञासा
से भी बेहतर
है, लेकिन
उससे भी ऊपर
एक दशा है।
मुमुक्षु के
पार, वीत—मुमुक्षा
की भी एक दशा
है; जहां
अब यह भी
आकांक्षा न
रही कि मोक्ष
हो, स्वतंत्रता
हो; जहां
सारी
आकांक्षाएं
आमूल गिर गईं।
संसार की तो
मल रही ही
नहीं, परमात्मा
की भी मांग न
रही; मांग
ही न रही।
उस
घड़ी तुम्हारे
भीतर जो घटता
है वही मोक्ष
है। उस घड़ी
तुम जिसे
जानते हो वही
परमात्मा है।
उस घड़ी
तुम्हारे
भीतर जो
प्रकाश फैलता
है—क्योंकि अब
उस प्रकाश को
बाधा
डालनेवाली
कोई दीवाल न
रही—वही
प्रकाश
तुम्हारा
स्वभाव है। तो
मुमुक्षा के
भी ऊपर जाना
है।
'महाशय पुरुष...।’
महाशय
का अर्थ होता
है,
जिसका आशय
विराट हो गया,
महा—आशय।
जिसका आशय
आकाश जैसा हो
गया, जिसके
आशय पर कोई
सीमा न रही।
हम
तो साधारणत:
किसी को भी
महाशय कहते
हैं।
शिष्टाचार तो
ठीक है, लेकिन
महाशय तो कभी
किसी बुद्ध को,
अष्टावक्र
को, क्राइस्ट
को, कृण को,
लाओत्सु को
ही कहा जा
सकता है। सभी
को महाशय नहीं
कहा जा सकता।
कहते हैं, शिष्टाचार
है—इस आशा में
कि शायद जो आज
महाशय नहीं है,
कल हो जाएगा।
यह हमारी
शुभाकांक्षा
है, लेकिन
सत्य नहीं है।
महाशय
का अर्थ होता
है : जिसके ऊपर
आकांक्षा की
कोई सीमा न
रही।
आकांक्षा से
मुक्त जिसका
आकाश हो गया
वही महाशय है।
जिसको अब आकांक्षा
का क्षितिज
बांधता नहीं।
जिस पर अब कोई
सीमा ही नहीं
है,
असीम है।
जिसके भीतर की
चैतन्य—दशा अब
किसी चीज की
प्रतीक्षा
नहीं कर रही
है।
क्योंकि
जिसकी तुम
प्रतीक्षा कर
रहे हो उसी से
अटके हो। जिसकी
तुम
प्रतीक्षा कर
रहे हो उसी पर
तुम्हारा सुख—दुख
निर्भर है।
जिसकी तुम
प्रतीक्षा कर
रहे हो, मिलेगा
तो प्रसन्न हो
जाओगे, नहीं
मिलेगा तो
विषाद से भर
जाओगे। पर—निर्भरता
जारी रहेगी।
मोक्ष का अर्थ
है, अब मैं
पर—निर्भर
नहीं। अब मैं
अपने में पूरा
हूं समग्र हूं।
अब किसी भी
बात की जरूरत
नहीं है। जो
होना था, जो
चाहिए था, है;
सदा से है।
ऐसी महाशय की
दशा।
'महाशय पुरुष
विक्षेपरहित..।’
फिर
विक्षेप का
कोई कारण ही
नहीं है।
विक्षेप तो
पड़ता ही इसलिए
है कि हमारी
कोई आकांक्षा
है। तुम्हें
धन चाहिए तो
विक्षेप
पड़ेगा, क्योंकि
और लोगों को
भी धन चाहिए।
संघर्ष होगा,
प्रतिस्पर्धा
होगी, दुश्मनी
होगी, प्रतियोगिता
होगी। पक्का
नहीं है कि
तुम पा पाओगे।
क्योंकि और भी
प्रतियोगी
हैं, बलशाली
प्रतियोगी
हैं। यह कोई
सहज होने वाला
नहीं है।
तुम्हें पद
चाहिए तो भी
उपद्रव होगा,
विक्षेप
खड़े होंगे।
हजार बाधाएं आ
जाएंगी।
तुम्हें
अगर मोक्ष
चाहिए तो भी
तुम पाओगे कि
हजार बाधाएं
हैं। शरीर
बाधाएं खड़ी
करता है, मन
बाधाएं खड़ी
करता है।
वासनाएं
उत्तुंग हो
जाती हैं, कामनाएं
दौड़ती हैं।
हजार—हजार
विक्षेप खड़े
हो जाते हैं।
बांधो, सम्हालो,
गांठ बंधती
नहीं, खुल—खुल
जाती है। इधर
से सम्हालो, उधर से बिखर
जाता। एक तरफ
से बसा पाते
हो कि दूसरी
तरफ से उजड़
जाता है। ऐसे
उधेड़बुन में
जीवन बीतता।
जब
तक तुम्हारे
मन में
आकांक्षा है
तब तक विक्षेप
भी रहेगा।
विक्षेप तो
ऐसा ही है
जैसे कि
आकांक्षा की
आधी चलती हो
तो शांत झील
पर लहरें उठती
हैं। वे लहरें
विक्षेप हैं।
जब तुम्हारे
चित्त पर
आकांक्षा की
आधी चलती है
तो लहरें उठती
हैं। लहरों से
मत लड़ो। लहरों
से लड़ कर कुछ
सार न होगा।
यहीं फर्क है
अष्टावक्र और
पतंजलि का।
पंतजलि
कहते हैं, 'चित्तवृत्तिनिरोध।’
चित्त की
वृत्तियों का
निरोध करने से
योग हो जाता
है। यही उनकी
समाधि की
परिभाषा है—वृत्तियों
का निरोध।
वृत्ति का
मतलब हुआ.
तरंग, लहर।
अष्टावक्र
कहते हैं, वृत्तियों
का कैसे निरोध
करोगे? आधी
चल रही है, अंधड़
उठा है, तूफान,
बवंडर है।
तुम छोटी—छोटी
ऊर्मियों को
शांत कैसे
करोगे? एक—एक
लहर को शांत
करते रहोगे, अनंत काल तक
भी न हो पाएगा।
आधी चल ही रही
है, वह नई
लहरें पैदा कर
रही है।
अष्टावक्र
कहते हैं, लहरों
को शांत करने
की फिकर छोड़ो,
आधी से ही
छुटकारा पा लो।
और आधी तुम ही
पैदा कर रहे
हो, यह मजा
है। आकांक्षा
की आधी, वासना
की आधी, कामना
की आधी। कामना
की आधी चल रही
है तो लहरें
उठती हैं। अब
तुम लहरों को
शात करने में
लगे हो। मूल
को शांत कर दो,
तरंगें
अपने से शात
हो जाएंगी।
तुम वासना छोड़
दो।
यह
तो तुमसे औरों
ने भी कहा है, वासना
छोड़ दो। लेकिन
अष्टावक्र का
वक्तव्य
परिपूर्ण है।
और कहते हैं
वासना छोड़ दो,
वे कहते हैं
संसार की
वासना छोड़ दो,
प्रभु की
वासना करो। तो
आधी का नाम
बदल देते हैं।
सांसारिक आधी
न रही, असांसारिक
आधी हो गई। धन
की आधी न रही, ध्यान की
आधी हो गई; पर
आधी चलेगी।
लेबल बदला, नाम बदला, रंग बदला, लेकिन मूल
वही का वही
रहा। पहले तुम
मांगते थे इस
संसार में पद मिल
जाए अब परमपद
मागते हो। मगर
मांग जारी है।
और तुम
भिखमंगे के
भिखमंगे हो।
अष्टावक्र
कहते हैं छोड़
ही दो। संसार
और मोक्ष, ऐसा
भेद मत करो।
आकांक्षा
आकांक्षा है;
किसकी है, इससे भेद
नहीं पड़ता। धन
मांगते, पद
मांगते, ध्यान
मांगते, कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। मांगते
हो, भिखमंगे
हो। मांगो मत।
मांग ही छोड़
दो।
और
मांग छोड़ते ही
एक अपूर्व
घटना घटती है; क्योंकि
जो तुम्हारी
ऊर्जा मांग
में नियोजित
थी, हजारों
मांगों में
उलझी थी वह
मुक्त हो जाती
है। वही ऊर्जा
मुक्त होकर
नाचती है। वही
नृत्य
महोत्सव है।
वही नृत्य है
परमानंद, सच्चिदानंद।
कुछ
ऊर्जा धन पाने
में लगी है, कुछ
पद पाने में
लगी है, कुछ
मंदिर में
जाती है, कुछ
दूकान पर जाती
है। कुछ बचता
है थोड़ा—बहुत
तो ध्यान में
लगाते हो, गीता—
कुरान पढ़ते हो,
पूजा—प्रार्थना
करते हो; ऐसी
जगह—जगह उलझी
है तुम्हारी
ऊर्जा।
अष्टावक्र
कहते हैं, महाशय
हो जाओ, सब
जगह से छोड़ दो।
आकांक्षा का
स्वभाव समझ लो।
आकांक्षा का
स्वभाव ही
तरंगें उठा
रहा है।
कभी
तुमने खयाल
किया? एक घड़ी
को बैठ जाओ, कुछ भी न
चाहते हो, उस
क्षण कोई तरंग
उठ सकती है? कुछ भी न
चाहते हो, कोई
मांग न बचे तो
लहर कैसे
उठेगी? तुम
कहते हो हम
ध्यान करने
बैठते हैं
लेकिन विचार
चलते रहते हैं।
उसका कारण यही
है कि तुम
ध्यान करने तो
बैठे हो लेकिन
तुम आकांक्षा
का स्वरूप
नहीं समझे हो।
हो सकता है
तुम ध्यान
करने इसीलिए
बैठे होओ कि
कुछ
आकांक्षाएं
पूरी करनी हैं,
शायद ध्यान
से पूरी हो
जाएं।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे पूछते
हैं, अगर
ध्यान करेंगे
तो सुख—संपत्ति
मिलेगी? सुख—संपत्ति
मिलेगी, अगर
ध्यान करेंगे?
अब यह आदमी
ध्यान कैसे
करेगा? यह
तो सुख—संपत्ति
चाहने के लिए
ही ध्यान करना
चाहता है। अब
जब यह ध्यान
करने बैठे और
सुख—संपत्ति
के विचार उठने
लगें तो
आश्चर्य क्या
है? फिर यह
कहेगा कि
ध्यान नहीं
होता क्योंकि
विचार चलते
हैं। जब ध्यान
करने बैठता है
तो विचार चलते
हैं, तो
सोचता है
विचार नहीं
चलने चाहिए, तो विचारों
को रोकता है।
और ध्यान करने
बैठा ही
आकांक्षा से
है। क्षुद्र
आशय—सुख—संपत्ति!
कोई
कहता है ध्यान
करेंगे तो स्वास्थ्य
मिलेगा? कोई
कहता है ध्यान
करेंगे तो
सफलता हाथ
लगेगी? अभी
तो विफलता ही
विफलता लगती
है। ध्यान से
जीवन का ढंग
बदल जाएगा? सफलता हाथ
लगेगी?
अब
यह जो आदमी
सफलता की आकांक्षा
से बैठा पालथी
मार कर, आंख
बंद करके, इसके
भीतर सफलता की
तरंगें तो चल
ही रही हैं।
उलझा रहता था
बाजार में तो
शायद इतना पता
भी न चलता था।
अब खाली बैठ
गया है
सिद्धासन लगा
कर, अब कोई
काम भी न रहा, तरंगें और
शुद्ध होकर
चलेंगी। उलझन
भी न रही कोई।
मगर आधी तो बह
रही है। अंधड़
तो जारी है।
अष्टावक्र
कहते हैं, आकांक्षा
की आधी
तुम्हें अंधा
बनाए हुए है।
आकांक्षा की
आधी ने
तुम्हें सीमा
दे दी है। तुम
वही हो गए हो, जो तुमने
आकांक्षा पाल
ली है। अगर
तुम वस्तुओं
को संग्रह
करने में लगे
हो तो अंतत:
तुम पाओगे, तुम वस्तुओं
जैसे ही गए—बीते
हो गए हो।
किसी कचरेघर
में फेंक देने
योग्य हो गए।
अगर तुमने धन
चाहा तो तुम
एक दिन पाओगे,
कि तुम भी
धन के ठीकरे
हो गए। जो तुम
चाहोगे वैसे
ही हो जाओगे।
क्योंकि चाह
तुम्हारी
सीमा बनती है।
और चाह का रंग—रंगत
तुम पर चढ
जाती है। तुम
वैसे ही हो
जाते हो।
तुमने
कभी देखा—कंजूस
आदमी की आंखें
देखीं? उनमें
वैसी ही गंदी
घिनौनी छाया
दिखाई पड़ने
लगती है जैसे
घिसे—पिटे
सिक्कों पर
होती है।
तुमने कंजूस,
कृपण आदमी
का चेहरा देखा?
उसमें वैसा
ही चिकनापन
दिखाई पड़ने
लगता है घिनौना
जैसा सिक्कों
पर होता है।
घिसते हैं एक
हाथ, दूसरे
हाथ, उधार
चलते रहते हैं,
वैसा ही
घिनौनापन
उसके चेहरे पर
आ जाता है।
तुम
जो चाहोगे, तुम्हारी
जो चाह होगी
वही तुम्हारी
मृर्ति बन
जाएगी। कामी
की आंख देखी? उसका चेहरा
देखा? उसके
चेहरे पर
कामवासना
प्रगाढ़ होकर
मौजूद हो जाती
है। उसके मन
की भी पूछने
की जरूरत नहीं,
उसका चेहरा
ही बता देगा।
क्योंकि
चित्त पूरा का
पूरा चेहरे पर
उंडला आता है।
चेहरा तो
दर्पण है। जो
आकांक्षा
भीतर चलती है,
चेहरे पर
उसके चिह्न बन
जाते हैं, मिटते
नहीं।
बड़ी
पुरानी सूफी
कथा है। एक
सम्राट ने—जो
मूसा का भक्त
था— अपने
चित्रकार को
कहा,
राज्य के
बड़े से बड़े
चित्रकार को,
कि मूसा की
एक तस्वीर बना
दो मेरे दरबार
में लगाने को।
वह चित्रकार
गया। मूसा
जीवित थे। वह
मूसा के पास
रहा, महीनों
में तस्वीर
पूरी की, फिर
वह आया। और वह
तस्वीर दरबार
में लगी तो
राजा नाखुश हुआ।
उसने कहा, यह
तस्वीर मूसा
की नहीं मालूम
पड़ती। चेहरे
पर तो ऐसे
लगता है, जैसे
कोई हत्यारा
हो। चेहरे पर
तो ऐसे लगता
है जैसे कोई
कामी हो।
चेहरे पर शांति
की, ध्यान
की, समाधि
की झलक नहीं
है। कुछ भूल
हो गई।
चित्रकार
ने कहा, मैंने
कुछ भूल नहीं
की है। जैसा
चेहरा था वैसा
ही अंकित कर
दिया है।
सम्राट मूसा
को मिलने गया
और उसने मूसा
को कहा कि
मुझे बड़ी
बेचैनी होती
है उस चित्र
को देख कर। वह
आपका चित्र
नहीं मालूम
पड़ता। उस पर
तो ऐसा लगता
है, जैसे
किसी हत्यारे
की छाया हो। आंख
में जैसे किसी
गहन वासना का
रोग हो। चेहरे
पर आपकी परम
आभा और दीप्ति
नहीं है।
मूसा
हंसने लगे। और
मूसा ने कहा, चित्रकार
ठीक है। वह
मेरे पहले दिनों
की कथा है। वे
चिह्न गहरे पड़
गए हैं, मिटते
नहीं। मैं बदल
गया लेकिन
चेहरे पर जो
चिह्न पड़ गए
हैं वे मिटते
नहीं। वह मेरे
आधे जीवन की
कहानी है। अब
मैं ध्यान भी
करता हूं अब
मैं शांत भी
हूं अब कोई
वासना भी नहीं
रही है, अब
कोई संघर्ष भी
नहीं है, हिंसा,
क्रोध भी
नहीं है लेकिन
वह सब था।
चित्रकार ने
ठीक पकड़ा।
उसने चमड़ी के
भीतर पकड़ लिया।
मैं भी जानता
हूं। जब मैं
गौर से आईने
में अपने को
देखता हूं गौर
से देखता हूं
तो मुझे भी
दिखाई पड़ती
हैं वे छायाएं,
जो कभी थीं;
जिनके
चिह्न पड़े रह
गए हैं। सांप
निकल गया है
लेकिन राहे पर
लकीर पड़ी रह गई
है। रस्सी जल
गई है, ऐंठ
रह गई है।
तुम
जो हो—तुम्हारी
वासना की छाप, वही
हो तुम।
महाशय
का अर्थ है, जिसने
अंतिम वासना
भी छोड़ दी।
मोक्ष को पाने
की वासना भी
छोड़ दी। ऐसा
व्यक्ति
विक्षेपरहित।
और अनूठी बात
सुनते हो?
अष्टावक्र
कहते हैं, 'और
समाधिरहित।’
जब
विक्षेप ही न
रहा तो समाधि
की क्या जरूरत? समाधि
तो ऐसी है
जैसे औषधि।
रोग है तो
औषधि की जरूरत
है। रोग ही न
रहा तो औषधि
की क्या जरूरत?
समाधि का
अर्थ होता है
समाधान।
समस्या है तो
समाधान चाहिए।
समस्या ही न
रही तो समाधान
की क्या
जरूरत! तो यह
बड़ा अनूठा
सूत्र है—
असमाधेरविक्षेपान्न
मुमुसुर्न
चेतर:।
न
तो मुमुक्षा
है,
न न—मुमुक्षा
है। न समाधि
है, न
विक्षेप।
'ऐसा जो
महाशय है वह
संसार को
कल्पित देख कर
ब्रह्मवत
रहता है।’
इसे
भी खयाल रखना।
अष्टावक्र
कहते हैं, एक
ही बात घटती
है उस व्यक्ति
को, इस
महाशय की
अवस्था में—संसार
स्वम्यवत हो
जाता है। नहीं
कि मिट जाता
है; खयाल
रखना, मिट
नहीं जाता।
अनेकों को
भाति है कि
ज्ञानी के लिए
संसार मिट
जाता है। मिट
नहीं जाता, स्वप्नवत
हो जाता है।
होता है, लेकिन
एक बात
निश्चित हो
जाती है
ज्ञानी के
भीतर कि आभास
मात्र है।
तुमने
देखा? एक सीधी
लक्खी को पानी
में डाल दो, तिरछी दिखाई
पड़ने लगती है।
तुम जानते हो
सीधी है। खींच
कर निकालो, सीधी है।
फिर पानी में
डालो, अब
तुम भलीभांति
जानते हो कि
पानी में जाकर
तिरछी होती
नहीं, सिर्फ
दिखाई पड़ती है;
फिर भी
तिरछी ही
दिखाई पड़ती है।
पानी में हाथ
डाल कर लक्खी
को छूकर देख
लो, सीधी
की सीधी है; मगर दिखाई
तिरछी पड़ती है।
अब तुम जानते
हो कि लकड़ी
सीधी है, तिरछी
नहीं, सिर्फ
आभास होता है।
किरण के
नियमों के
कारण, प्रकाश
के नियमों के
कारण तिरछी
दिखाई पड़ती' है। हवा के
माध्यम और
पानी के
माध्यम में
फर्क है, इसलिए
तिरछी दिखाई
पड़ती है।
ज्ञानी
को संसार मिट
नहीं जाता, स्वभवत
हो जाता है।
निश्चित्य
कल्पित...।
एक
ही बात
निश्चित हो
जाती है कि
कल्पना मात्र
है।
पश्यन्
ब्रह्मैवास्ते
महाशय:।
और
ऐसा देख कर...।
पश्यन्
ब्रह्मैव
आस्ते।
और
ऐसा देख कर
महाशय, ज्ञानी
ब्रह्म में
ठहर जाता।
अपने
ब्रह्मस्वरूप
में लीन हो
जाता।
पश्यन्
ब्रह्मैवास्ते।
डुबकी
लगा लेता है।
ठहर जाता।
केंद्र पर आ
जाता। कल्पना
है संसार, ऐसा
जान कर अब
कल्पना के
पीछे दौड़ता
नहीं।
राम
की कथा में
तुमने देखा? स्वर्णमृग
के पीछे दौड़
गए। कथा मधुर
है। कोई भी
जानता है कि
मृग सोने के
होते नहीं।
कल्पना ही
होगी। धोखा ही
होगा। सपना ही
होगा।
भ्रांति ही
होगी। फिर भी
राम
स्वर्णमृग को
खोजने चले गए।
ऐसे गए स्वर्णमृग
को खोजने, जो
नहीं था उसे
खोजने गए, सीता
को गंवा बैठे।’
यह
कथा मधुर है, अर्थपूर्ण
है। ऐसे ही
प्रत्येक
व्यक्ति के
भीतर का राम
स्वर्णमृगों
को खोजने चला
गया है। और
ऐसे ही
प्रत्येक
व्यक्ति के
भीतर के राम ने
अपनी सीता को
गंवा दिया, अपने स्वभाव
को गंवा दिया।
जो अपना था वह
गंवा दिया।
उसके पीछे चले
गए हैं, जो
नहीं है; जो
सिर्फ दिखाई
पड़ता है। जिस
दिन तुम्हें
दिखाई पड़
जाएगा कि
स्वर्णमृग
वास्तविक
नहीं है, धोखा
है, भ्रमजाल
है, उसी
क्षण तुम लौट
आओगे। उसी
क्षण अपने में
ठहर जाओगे।
पश्यन्
ब्रह्मैव
आस्ते।
उसी
क्षण तुम अपने
में खड़े हो
जाओगे। थिर!
स्वस्थ। अब
तुम कहीं नहीं
जाते। अब तुम
जानते हो। ऐसा
नहीं है कि
स्वर्णमृग अब
दिखाई न
पड़ेंगे; अब भी
दिखाई पड़ेंगे।
सुबह की धूप
में उनका
स्वर्ण
चमकेगा। उनका
बुलावा अब भी
आता रहेगा
लेकिन अब तुम
जानते हो, एक
बात निश्चित
हो गई कि
संसार कल्पना
मात्र है। जब
भी किसी नये
सांचे में हम
अपने को ढाल रहे
हैं
सोना—मढ़े
दांत के नीचे
जैसे कीड़े चाल
रहे हैं
गंगा—जमनी
चमक दांत की
सिरज रही
उन्मुक्त
ठहाका
ईर्ष्या
की चंचल आंखों
में काजल—सा
है चिह्न धुआं
का
विज्ञापन
परिचय के
सिगरेटों के
दौर उछाल रहे हैं
ये सारे
संदर्भ स्वयं
में अर्थहीन
हो गए जतन के
जैसे
रत्नजडी
तलवारें
शयनकक्ष में
राजभवन के
हीन
ग्रंथियों के
विषरस को कंचन
के घट पाल रहे
हैं
अपने को
अभिव्यक्त न
कर पाने का
दर्द और बढ़
जाता
जब
कोई मुसकान
व्यथा की सोने
का पानी चढ़
जाता
राजा
के लक्षण हों
जिसमें, हम
ऐसे कंगाल रहे
हैं
राजा
के लक्षण हों
जिसमें, हम ऐसे
कंगाल रहे हैं
लक्षण
तो राजा के
हैं,
भीख मांग
रहे हैं।
भिक्षापात्र
हाथ में लिए
खडे हैं
सम्राट। राम
सोने के मृगों
में भटक गए
हैं और गंवा
रहे हैं अपनी
सीता को, अपनी
आत्मा को।
इतना
ही ज्ञानी को
हो जाता है।
बस इतनी ही
घटना घटती है—छोटी
कहो,
बड़ी कहो, इतनी ही
घटना घटती है
कि वासना
मात्र, कामना
मात्र मेरी ही
कल्पना का जाल
है, ऐसा
निश्चय हो
जाता है। ऐसा
निश्चय होते
ही अब न कोई
समाधि की
जरूरत है, न
कोई मुमुक्षा
की जरूरत है, न कोई चित्त
की तरंगों को
शांत करने की।
अब
चित्तवृत्ति—निरोध
नहीं करना है।
हो गया निरोध
अपने से। मूल
को हटा दिया।
आधी आंधी को
हटा दिया।
और
ख्याल रखना,
आंधी दिखाई
नहीं पड़ती, तरंगें
दिखाई पड़ती
है। जो दिखाई
पड़ता है उससे
लड़ने का मन
होता है। जो
दिखाई नहीं
पड़ता उसकी तो
याद ही नहीं
आती। इसलिए
अष्टावक्र
पतंजलि से
गहरे जाते है।
पतंजलि की बात
सीधी—साफ है।
लहरें दिखाई
पड़ रही है।
चित की,
इनको शांत
करो। यम से
नियम से, आसन
से, धारणा
से, ध्यान
से, समाधि
से इन्हें
शांत करो।
इनके शांत हो
जाने से कुछ
होगा। योग का
मार्ग है
चित्त के साथ
संघर्ष का।
पतंजलि
पूरे होते हैं
समाधि पर; और
अष्टावक्र की
यात्रा ही शुरू
होती है समाधि
को छोड़ने से।
जहां अंत आता
है पतंजलि का
वहीं प्रारंभ
है अष्टावक्र
का।
अष्टावक्र
आखिरी
वक्तव्य हैं।
इससे ऊपर कोई
वक्तव्य कभी
दिया नहीं गया।
यह इस जगत की
पाठशाला में
आखिरी पाठ है।
और जो
अष्टावक्र को
समझ ले, उसे
फिर कुछ समझने
को शेष नहीं
रह जाता। उसने
सब समझ लिया।
और जो
अष्टावक्र को
समझ कर अनुभव
भी कर ले, धन्यभागी
है। वह तो फिर
ब्रह्म में रम
गया।
जब
तक तुम आशय
में बंधे हो
तब तक
तुम्हारी सीमा
है। जिस दिन
तुम आशय से
मुक्त हुए उसी
दिन सीमा से मुक्त
हुए। सीमा
तुम्हारी
धारणा में है।
तुमने खींच
रखी है। यह जो
लक्ष्मण रेखा
तुमने खींच
रखी है, किसी
और ने नहीं
खींची है, तुम्हीं
ने खींच रखी
है। और अब तुम
निकल नहीं
पाते। अब तुम
कहते हो, लक्ष्मण
रेखा के बाहर
कैसे जाएं? डर लगता है।
घबड़ाहट होती
है।
गुरजिएफ
ने लिखा है कि
वह अपने
युवावस्था के
दिनों में
मध्य एशिया के
बहुत से देशों
में यात्रा
करता रहा सत्य
की खोज में।
कुर्दिस्तान
में उसने एक
अनूठी बात
देखी। पहाड़ी
इलाका है।
स्त्रियों को, पुरुषों
को बड़ी मेहनत
करनी पड़ती है,
तब कहीं दो
जून रोटी जुटा
पाते हैं। तो
बच्चों को घर
छोड़ जाते हैं।
जंगल—पहाड़ में
लकड़ी काटने जाते
हैं, काम
करने जाते हैं।
तो उन्होंने
एक तरकीब
निकाल रखी है।
वे बच्चों के
चारों तरफ चॉक
की मिट्टी से
एक लकीर खींच
देते हैं, गोल
घेरा बना देते
हैं। और बच्चे
को कह देते
हैं, बाहर
तू निकल न
सकेगा, चाहे
कुछ भी कर।
छोटे
बचपन से यह
बात कही जाती
है। धीरे—
धीरे बच्चा
इसका अभ्यस्त
हो जाता है।
बस लकीर खींच
दो कि वह उसके
भीतर बैठा
रहता है। जब
गुरजिएफ ने यह
देखा तो वह
बड़ा हैरान हुआ
कि दुनिया में
यह कहीं नहीं
होता, लेकिन
कुर्दिस्तान
में होता है।
और मां—बाप
बड़े निश्चित
जंगल चले जाते
हैं अपना काम
करने दिन भर।
बच्चा रोए, गाए कुछ भी
करे, लेकिन
लकीर के बाहर
नहीं निकलता।
और
बच्चे की तो
बात छोड़ दो, जो
कि इसी का
अभ्यास बचपन
से किया जाता
है; अगर
किसी बड़े आदमी
के आस—पास भी
तुम लकीर खींच
दो और कह दो, तुम बाहर न
जा सकोगे, तो
वह भी एकदम
खड़ा रह जाता
है। वह चेष्टा
भी करता है तो
ऐसा
लगता है, कोई
अदृष्य
दिवाल उसे धक्के
दे रही है।
कहीं
कोई दीवाल
नहीं है, धारणा
की दीवाल है।
वह निकलने
नहीं देती।
कभी— कभी कोई चेष्टा
भी करता है।
तो धक्का
खाकर गिर
पड़ता है। और
धक्का खाने
को कुछ नहीं
है। अपना ही
भाव—कि निकलना
हो ही नहीं
सकता।
यह
तुम चकित
होओगे जान कर, लेकिन
सम्मोहन के ये
सामान्य नियम
हैं। और इसी
तरह तुम्हारा
जीवन भी न
मालूम कितनी लकीरों
से ग्रसित है।
वे लकीरें
तुमने खींची
हैं—तुम्हारे
मां—बाप ने, समाज ने, व्यवस्था
ने। मगर वे
लकीरें सब
झूठी हैं। पर
एक बार खींच
दी तो बस, खिंच
गई।
किसी
ने लकीर खींच
दी कि तुम
हिंदू हो। अब
तुम हिंदू हो
गए। अब तुम
हिंदू से इधर—उधर
हिल न पाओगे।
दीवाल खड़ी है।
निकलने की
कोशिश की तो
चोट खाकर
गिरोगे। किसी
ने लकीर खींच
दी कि तुम
मुसलमान हो, तुम
मुसलमान हो गए।
किसी ने लकीर
खींच दी कि
जैन हो तो जैन
हो गए। ये सब
लकीरें हैं।
और इन सबके
कारण तुम
क्षुद्र आशय
हो गए हो।
तुम्हारा
महाशय रूप खो
गया। लोग जो
कह देते हैं
वही तुम हो गए
हो।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, अगर
किसी बच्चे को
घर में भी कहा
जाए कि तू गधा है;
स्कूल में भी
कहा जाए कि तू
गधा है, वह
गधा हो जाता
है। जब इतने
लोग कहते हैं
तो ठीक ही
कहते होंगे।
धारणा मजबूत
हो जाती है।
धारणा एक बार
गहरी बैठ जाए
तो उखाड़ना
बहुत मुश्किल
हो जाता है।
तुम
जरा जांचना; कितनी—कितनी
धारणाओं से
तुम भरे हो।
और इन धारणाओं
को तुमने ही
सम्हाल रखा है।
अब कोई पकड़े
भी नहीं है।
तुम्हारे मां—बाप
भी तुम्हारे
पास नहीं
होंगे। समाज
भी अब तुम्हें
कोई रोज
तुम्हारे आस—पास
लकीरें नहीं
खींच रहा है।
खींच चुका; बात आई—गई हो
गई। लेकिन अब
तुम जीए चले
जा रहे हो। अब
तुम अपनी ही
लकीरों में
बंद हो। और तब
तुम्हारे
जीवन में वह
महाक्रांति
नहीं घट पाती
तो आश्चर्य
नहीं।
फूल
डाली से गुंथा
ही झर गया
घूम
आई गंध पर
संसार में
फूल
तो बंधा है; गंध
मुक्त है।
फूल
डाली से गुंथा
ही झर गया
घूम
आई गंध पर
संसार में
गंध
जैसे बनो।
महाशय बनो।
फूल
जैसे मत रही, सीमित
मत रहो।
था
गगन में चांद, लेकिन
चादनी
व्योम
से लाई उसे भू
पर उतार
बांस
की जड़ बांसुरी
को एक स्वर
कर
गया गुंजित
जगत के आरपार
और
मिट्टी के
दीये को एक लौ
दे
गई चिर ज्योति
चिर अधियार
में
घूम
आई गंध पर
संसार में
फूल
डाली से गुंथा
ही झर गया
बद्ध
सीमा में
समुंदर था मगर
मेघ
बन उसने क्या
जा आसमान
तृप्ति
बंधी एक जल—कण
में रही
विष
अमृत का दे गई
पर प्यासदान
कूल
जो लिपटा हुआ
था धूल से
संग
लहर के तैर
आया धार में
घूम
आई गंध पर
संसार में
फूल
डाली से गुंथा
ही झर गया
तुम
पर निर्भर है।
फूल बने—बने
ही गिर जाओगे, सूख
जाओगे या असीम
बनोगे—महाशय!
गंध की तरह
मुक्त! कि घूम
आओ सारे संसार
में।
गंध
बन जाओ तो मैं
कहता हूं
संन्यासी हो
गए। फूल रह
जाओ तो गृहस्थ।
फूल यानी सीमा
है,
घर है। फूल
यानी परिभाषा
है, बंधन
है, दीवाल
है। संन्यास
यानी गंध जैसे
मुक्त। सब
दिशाएं खुल
गईं। सारी
हवाएं
तुम्हारी
हुईं। सारा
आकाश
तुम्हारा हुआ!
'जिसके
अंतःकरण में
अहंकार है, वह जब कर्म
नहीं करता है
तो भी करता है।
और अहंकाररहित
धीरपुरुष जब
कर्म करता है
तो भी नहीं करता
है।’
यस्यांतः
स्यादहंकारो
न करोति करोति
सः।
निरहकारधीरेण
न किचिद्धि
कृतं कृतम्।।
अहंकार
है तो तुम कुछ
न करो तो भी
कर्म हो रहा है।
क्योंकि
अहंकार का
अर्थ ही यह
भाव है कि मैं
कर्ता हूं। और
अगर अहंकार
गिर गया तो
तुम लाख कर्म
करो तो भी कुछ
नहीं हो रहा
है। क्योंकि
अहंकार के
गिरने का अर्थ
है कि
परमात्मा
कर्ता है, मैं
नहीं।
इस
बात को खयाल
में लेना। ऊपर—ऊपर
से भागने से
कुछ भी नहीं
होता।
मुझे
एक गांव में
जाना पड़ा।
गांव में एक
बाबाजी आए हुए
थे। लोगों ने
कहा कि देखिए, बाबाजी
कुछ भी नहीं
करते, बस
दिन पर बैठे
रहते हैं।
मैंने भी देखा,
बैठे थे भभूत
इत्यादि लगाए
हुए, बड़े—बड़े
टीका लगाए हुए,
धूनी रमाए
हुए। तो मैंने
कहा, भभूत
तो लगाते
होंगे, टीका
इत्यादि तो
लगाते होंगे,
तुम कहते, बाबाजी कुछ
भी नहीं करते?
कुछ तो करते
ही होंगे। कुछ
न करना तो
असंभव है।
पालथी मार कर
बैठे हैं, यह
भी कर्म हो
गया। जंगल भाग
कर जाओ तो
भागना कृत्य
हो गया।
उपवास
करो तो कृत्य
हो गया। रात
सोओ मत, जागते
रहो तो कृत्य
हो गया। जीने
का नाम कृत्य
है। जब तक जी
रहे हो, कुछ
तो करोगे।
और
मैंने कहा, यह
भभूत इत्यादि
किसलिए रमाए
बैठे हैं? ये
तुम्हारी राह
देख रहे हैं।
ये उनकी राह
देख रहे हैं
कि जो भभूत की
पूजा करते हैं
वे आते होंगे।
चरण छुएंगे, पैसे
चढ़ाएंगे। ये
तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रहे हैं। और
कोई आ जाएगा
धनीमानी तो
गांजा— भांग
का भी इंतजाम
करेगा।
वे
आदमी चौंक गए, जो
मुझसे कह रहे
थे। कहने लगे,
आपको कैसे
पता चला कि बाबाजी
गांजा पीते
हैं? पीते
तो हैं.।
मैंने कहा, करेंगे क्या
यहां बैठे—बैठे?
यह धूनी
रमाए बैठे हैं,
करेंगे
क्या? किसलिए
रमाए बैठे
हैं! कुछ तो कर
ही रहे हैं।
तुम कहते, बाबाजी
कुछ भी नहीं
करते।
जब
तक जीवन है तब
तक कृत्य है
एक बात तो
खयाल में ले
लेना। कर्म से
भागने का तो
कोई उपाय नहीं।
जो भी करोगे
वही कर्म होगा।
इसलिए कर्म से
तो भागने की
चेष्टा करना
ही मत। उसमें
तो धोखा बढ़ेगा।
असली काम
दूसरा है :
अहंकार से
मुक्त होना।
कर्ता के भाव
को गिराना।
कर्म को
गिराने से कुछ
अर्थ नहीं है, कर्ता
को जाने दो; फिर जो
परमात्मा तुमसे
करवाएगा, करवा
लेगा। नहीं
करवाएगा, नहीं
करवाएगा।
खाली बिठाना
होगा, खाली
बिठा देगा।
चलाना होगा, चलाता रहेगा।
लेकिन तुम न
अपने हाथ से
चलोगे, न
अपने हाथ से
बैठोगे।
इसको
ही तो
अष्टावक्र ने
कहा,
सूखे पत्ते
की भांति।
हवाएं जहां ले
जाएं, सूखा
पत्ता चला
जाता है। वह
नहीं कहता है
कि मुझे पूरब
जाना है, यह
क्या
अत्याचार हो
रहा है कि तुम
मुझे पश्चिम
लिए जा रहे हो?
मुझे पूरब
जाना है। सूखा
पत्ता कहता ही
नहीं कि मुझे
कहां जाना है।
पूरब तो पूरब,
पश्चिम तो
पश्चिम। ले
जाओ तो ठीक, न लें जाओ तो
ठीक। छोड़ दो
राह पर तो
वहीं घर। उठा
लो आकाश में
तो
गौरवान्वित
नहीं होता, गिरा दो
कूड़े—कर्कट
में तो
अपमानित नहीं
होता।
सूखे
पत्ते की
भांति जो हो
गया वही
ज्ञानी है। और
इस दशा को ही
निर—अहंकार
कहा है।
यस्यांत:
स्यादहंकारो
न करोति करोति
सः।
'जिसके
अंतःकरण में
अहंकार है, वह जब कर्म
नहीं करता तो
भी करता है।’ तुम अगर
खाली बैठोगे
अहंकार से भरे
हुए तो तुम्हारे
मन में यह भाव
उठेगा कि देखो,
कुछ भी नहीं
कर रहे हैं।
तुम्हारे मन
में यह भाव
उठेगा कि देखो,
सारी
दुनिया मरी जा
रही है आपा—
धापी में; हमको
देखो कैसे
शांत बैठे
हैं! ध्यान कर
रहे हैं। जब
कि सारी
दुनिया धन के
पीछे मरी जा
रही है, हम
ध्यान कर रहे
हैं; हमको
देखो! यह नया
कर्ता का भाव
पैदा हुआ।
अष्टावक्र
छ, अगर अहंकार
है तो कर्म है।
कर्ता है तो
कर्म है। और
अगर
अहंकाररहित
धीरपुरुष बन
गए तुम, तो
फिर कर्म भी
हो तो भी कर्म
नहीं।
निरहंकारधीरेण
न किचिद्धि
कृतं कृतम्।
फिर
तुम करते रहो
तो भी कर्म
नहीं होता।
मूल
ध्यान रखना :
कर्म को अकर्म
में नहीं बदलना
है,
कर्ता को
अकर्ता में
बदलना है।
कर्म
को अकर्म में
बदलने के कारण
इस देश में बड़ी
छूता पैदा हुई।
जमाने भर के
काहिल, सुस्त,
अपंग
महात्मा हो गए।
जिनके जीवन
में कोई ऊर्जा
न थी और जिनके
जीवन में कोई
मेधा न थी ऐसे
व्यर्थ के लोग
परमहंस मालूम
होने लगे। इस
देश में बड़ी
दुर्घटना घटी
है।
प्रतिभाहीन, सृजनशून्य,
जड़बुद्धि
लोग समादर को
उपलब्ध हो गए।
क्योंकि कर्म
छोड़ दिया। और
कर्म छोड़ने से
यह पूरा देश
दीन और दरिद्र
हो गया। और
कर्म छोड़ने से
इस देश की
सारी महिमा खो
गई।
तुम
अगर गरीब हो, भूखे
हो, बीमार
हो, परेशान
हो, सारी
दुनिया में
दीन—हीन हो तो
तुम्हीं
जिम्मेदार हो,
कोई और नहीं।
तुम्हारे
महात्मा
जिम्मेवार
हैं और तुम्हारे
तथाकथित
पंडित
जिम्मेवार
हैं, पुरोहित
जिम्मेवार
हैं, जिन्होंने
गलत व्याख्या
दी। और
जिन्होंने
समझाया कि
कर्म छोड़ दो।
जिन्होंने
कहा, संन्यास
अकर्म का नाम
है।
संन्यास
अकर्म का नाम
नहीं है। सुनो
अष्टावक्र को।
काश,
तुमने
अष्टावक्र को
सुना होता तो
इस देश की कथा
दूसरी होती।
करो; सिर्फ
अहंकार न भरे
बस, मैं—
भाव न रहे।
परमात्मा को
करने दो
तुम्हारे
भीतर से। तुम
बांस की
पोंगरी हो जाओ।
गाने दो उसे गीत।
गुनगुनाने दो।
जो वह गुनगुनाना
चाहे, गुनगुनाने
दो। छोड़ दो उसे
पूरा स्वतत्र।
कहो कि मैं
राजी हूं। तू
जो गुनगुनाए,
गुनगुनाऊंगा।
तुझे जो
करवाना हो, करूंगा।
जीवन कर्म है,
ऊर्जा है।
इसलिए अकर्म
तो ठीक नहीं।
अकर्म तो
आत्मघात है।
ही, अकर्ता
बन जाओ तो
तुम्हारे
कर्म में
परमात्मा की
महिमा
प्रवाहित
होने लगती है।
तुम्हारा
कर्म भी
दैदीप्यमान
हो जाता है।
तुम्हारे
कर्म में एक
ओज, एक
दूसरे ही आयाम
की झलक आ जाती
है। तुम्हारे
छोटे से कर्म
के आंगन में
परमात्मा का
आकाश झांकने
लगता है।
ऐसा
व्यक्ति सारी
स्थितियों
में परमात्मा
को देखने लगता
है। सारे
कृत्यों में
उसकी ही छाया
पाने लगता है।
और जो भी करता
है,
अनुभव करता
है, उसी के
लिए समर्पित
है।
यह
कलियों की
आनाकानी
यह
अलियों की छीनाजोरी
यह
बादल की
बूंदाबांदी
यह
बिजली की
चोराचोरी
यह
काजल का
जादूटोना
यह
पायल का
सादीगोना
यह
कोयल की
कानाफूसी
यह
मैना की
सीनाजोरी
हर
क्रीड़ा तेरी
क्रीड़ा है
हर
पीड़ा तेरी
पीड़ा है
मैं
कोई खेलूं खेल
दांव
तेरे ही साथ
लगाता हूं
हर
दर्पण तेरा ही
दर्पण है
मैं
कोई खेलूं खेल
दांव
तेरे ही साथ
लगाता हूं
हर
दर्पण तेरा ही
दर्पण है
फिर
सारा रहस्य, सारी
लीला
परमात्मा की
है। फिर न
भागना है, न
कुछ वर्जना है,
न कुछ
त्यागना है।
त्यागना है एक
बात; उसे
तो हम त्यागते
नहीं। हम सब
त्यागने को
तैयार हैं। धन
छोड़ने को
तैयार हैं, पद छोड़ने को
तैयार हैं, पत्नी—बच्चे
छोड़ने को
तैयार हैं। एक
चीज छोड़ने को
तैयार नहीं—मैं
को छोड़ने को
तैयार नहीं।
इसलिए
तुम बड़े चकित
होओगे आदमी ने
धन छोड़ दिया, पद
छोड़ दिया, मकान
छोड़ दिया, घर—गृहस्थी
छोड़ दी, वस्त्र
छोड़ दिए, नग्न
खड़ा हो गया।
और देखो भीतर—दहकता
अंगारा
अहंकार का। वह
नहीं छूटा जो
छूटना था।
तुम्हारे
संन्यासी में
जैसा अहंकार
प्रकट होता है
वैसा किसी में
प्रकट नहीं
होता। अगर
तुम्हें असली
शुद्ध
अहंकारी
देखने हों तो
साधु—संन्यासी,
मुनि—महाराजों
में देखना।
संसार में तो
तुम्हें
अशुद्ध
अहंकारी
मिलेंगे।
मिलावट है संसार
में बहुत।
शुद्ध
अहंकारी
तुम्हें
मंदिरों में,
पूजागृहों
में मिलेंगे।
वहां मिलावट
भी नहीं है।
वहां बिलकुल
शुद्ध अहंकार
है, जहर ही
जहर है।
छोड़ना
है अहंकार, लोग
छोड़ते हैं
कर्म। कर्म
छोड़ना आसान है।
कौन नहीं
छोड़ना चाहता?
सचाई तो यह
है, कर्म
से तो सभी
भागना चाहते
हैं। कौन नहीं
चाहता कि
छुटकारा मिले
कर्म से? कर्ता
को कोई नहीं
छोड़ना चाहता।
जिसको कोई
नहीं छोड़ना
चाहता उसी को
छोड़ने में
गौरव है।
और
आदमी ऐसा है
कि हर जगह से
अहंकार को
बनाने के
बहाने खोज
लेता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन को
लाटरी में
पहला इनाम मिल
गया। स्वयं तो
पढ़ा—लिखा है
नहीं। तो जो
स्वयं पढ़े—लिखे
नहीं होते
उनको अपने
बेटे—बच्चों
को पढ़ाने की
बड़ी धुन होती
है। उनके
बहाने ही कम
से कम पढ़े—लिखो
के मां—बाप हो
जाएं। लाटरी
में पैसा हाथ
लग गया तो
उसको एकदम धुन
सवार हुई कि सुपुत्र
को खूब पढ़ाना
है। किसी ने
सलाह दी कि जब
पढ़ा ही रहे हो
तो विदेशी
भाषाएं पढ़ाओ।
तो मुल्ला ने
कहा,
यह बिलकुल
ठीक सुझाव है।
अत: विदेशी
भाषा सिखाने
वाले
विश्वविद्यालय
में पहुंचा।
उपकुलपति से
बोला, मैं
अपने पुत्र को
विदेशी भाषा
सिखाना चाहता हूं।
खर्च की फिकर
न करें। जो
खर्च होगा, दूंगा।
उपकुलपति ने
पूछा, महानुभाव,
कौन सी
विदेशी भाषा
सिखाना चाहते
हैं—फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश,
इटालियन? मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा, इस सब
विस्तार में मत
पड़ो। इनमें जो
भी सबसे
ज्यादा
विदेशी हो वही
सिखाना चाहता
हूं। मेरा
बेटा ऐसी—वैसी
विदेशी भाषा
नहीं सीखेगा,
सबसे
ज्यादा विदेशी...!
अब
सबसे ज्यादा
विदेशी क्या
होता है? लेकिन
अहंकार
रास्ते खोजता
है। अहंकार को
हर जगह प्रथम
होना चाहिए।
तो एक बड़ी मजे
की घटना घटती
है, आदमी
विनम्रता तक
में अहंकार
खोज लेता है।
वह कहता है, मुझसे
विनम्र कोई भी
नहीं। मुझसे
विनम्र कोई भी
नहीं! तो यहां भी
अहंकार मजे ले
रहा है। यहां
भी
प्रतिस्पर्धा
जारी है।
बस, तुम
एक बात छोड़ दो
तो संन्यास घट
गया। तुम यह
मैं— भाव छोड़
दो। और मजा तो
यह है, इसको
छोड़ कर कुछ
छूटेगा नहीं,
इसको छोड़ कर
तुम बहुत कुछ
पाओगे। इसको
पकड़ने के कारण
सब छूटा हुआ
है। इसको
पक्कने के
कारण तुम दीन—दरिद्र
बने हो। इसको
पकड़ने के कारण
तुम्हें सीमा
मिल गई है।
इसेको छोड़ते
ही फूल मुक्त
हो जाएगा, गंध
हवाओं में
उड़ेगी। इसको
छोड़ते ही बूंद
सागर बनेगी।
इसको छोड़ते ही
तुम परमात्मा
के आवास हो
जाओगे।
तीसरा
सूत्र—पुन:
अत्यंत
क्रांतिकारी।
'मुक्त पुरुष
का उद्वेगरहित,
संतोषरहित,
कर्तृत्वरहित,
स्पंदरहित,
आशारहित और
संदेहरहित
चित्त ही
शोभायमान है।’
नोद्विग्नं
न च
संतुष्टमकर्तृस्पदवर्जितम्।
निराश
गतसंदेहं चित
मुक्तस्य
राजते।।
एक—एक
शब्द को समझने
की चेष्टा
करें।
'मुक्त पुरुष
का
उद्वेगरहित..।’
यह
तो समझ में
आता है। यह तो
और शास्त्र भी
कहते हैं कि
मुक्त पुरुष में
कोई उद्वेग न
होगा, परम
शांति होगी।
लेकिन तब्धण
अष्टावक्र
कहते हैं :
संतोषरहित।
हम तो आमतौर
से सोचते हैं
कि जो शांत है
वह संतुष्ट
होगा। हमारा
तो संतोष का
अर्थ ही होता
है, शांत
व्यक्ति को हम
कहते हैं, बड़ा
संतुष्ट, बड़ा
शात, बड़ा
सुखी। संतोषी
सदा सुखी।
अष्टावक्र
कुछ गहरी बात
कह रहे हैं।
अष्टावक्र
कहते हैं, संतोष
भी उद्वेग की
छाया है। जो
उद्विग्न
होता है वह
कभी—कभी
संतुष्ट भी
होता है।’ लेकिन
जिसका उद्वेग
ही चला गया, अब कैसा
संतोष! जहां
असंतोष न रहा
वहां कैसा संतोष!
जब असंतोष ही
न रहा तो
संतोष भी गया।
तुम
जरा ऐसा समझो; जो
आदमी सदा से
स्वस्थ रहा है,
जो कभी
बीमार नहीं
हुआ, उसे
स्वस्थ होने
का पता भी
नहीं चलता। चल
भी नहीं सकता।
पता चलने के
लिए बीमारी
जरूरी है।
बीमारी खटके,
बीमारी दुख
दे तो
स्वास्थ्य का
पता चलता है।
अगर बीमारी हो
ही न तो
स्वास्थ्य
कैसा। जिस दिन
बीमारी गई उसी
दिन
स्वास्थ्य भी
गया।
स्वास्थ्य और
बीमारी साथ—साथ;
एक ही
सिक्के के दो
पहलू। असंतोष—
संतोष साथ—साथ।
अशांति—शांति
साथ—साथ। सुख—दुख
साथ—साथ; एकही
सिक्के के दो
पहलू।
इसलिए
पहली बात जब
वे कहते हैं
उद्वेगरहित, तो
उन्होंने बड़ी
महत्वपूर्ण
बात कह दी।
आगे के लिए अब
वे साफ करते
हैं, संतोषरहित।
क्योंकि कहीं
भूल न हो जाए।
कहीं तुम यह न
समझ लो कि
उद्वेगरहित
आदमी का अर्थ
होता है
संतोषी।
संतोष वहां
कहां? संतोष
तो असंतुष्ट
आदमी की
लक्षणा है।
जब
कोई आदमी मेरे
पास आकर कहता
है कि मैं तो
बिलकुल
संतुष्ट हूं
तभी मुझे लगता
है यह आदमी
असंतुष्ट
होना चाहिए।
नहीं तो यह
संतोष की बात
ही क्यों कर
रहा है? खोज—बीन
करता हूं तो
फौरन पता चल
जाता है, है
तो असंतुष्ट,
अपने को मना—बुझा
कर संतुष्ट कर
लिया है। ठोंक—पीट
कर, जमा—जमू
कर बैठ गए हैं।
है तो असंतोष
गहरा, लेकिन
अब करें क्या?
असहाय हैं।
जो कर सकते थे,
करके देख
लिया; उससे
कुछ होता नहीं।
उछल—कूद बहुत
कर ली, अंगूरों
तक पहुंच नहीं
पाए। अब कहते
हैं, खट्टे
हैं। अब कहते
हैं, हम तो
संतुष्ट हैं।
हमें
धन ज्यादा
नहीं चाहिए।
ऐसा नहीं कि
नहीं चाहिए, अगर
आज पड़ा मिल
जाए राह के
किनारे तो उठा
लेंगे। कहते
हैं, हमें
कोई पद नहीं
चाहिए, लेकिन
अगर आज छींका
टूटे बिल्ली
के भाग्य से और
कोई पद सिर पर
आ बैठे तो मगन
हो जाएंगे।
प्रतीक्षा ही
कर रहे थे। वह
संतोष
इत्यादि सब
समाप्त हो
जाएगा। अगर
कुछ मिल जाए
तो अभी तैयार
हैं। लेकिन सब
चेष्टा करके
देख ली, मिलता
नहीं। अब
अहंकार को
बचाने का एक
ही उपाय है
संतोष।
इसे
थोड़ा समझना।
संतोष कहीं
तुम्हारे
अहंकार को
बचाने के लिए उपाय
न हो। अक्सर
तो होता है।
क्योंकि
दौड़ते हैं और
हर बार हारते
हैं। तो हर
बार पीड़ा होती
है और अहंकार
टूटता है, बिखरता
है। अब दौड़ना
ही छोड़ दिया।
अब कहने लगे, हमें दौड़
में रस ही
नहीं है। हम
तो संतोषी
आदमी। हमें
क्या दौड़ में
लेना—देना! यह
तो पागलों का
काम है कि
दौड़ते रहो।
यह
तरकीब न हो।
यह कहीं उपाय
न हो। यह आडू न
हो। जानते तो
हैं कि
दौड़ेंगे तो
गिरेंगे।
जानते हैं, कि
दौड़ेंगे तो
जीत न सकेंगे।
तो अब दौड़ते
ही नहीं।
लेकिन मन को
समझाने के लिए
कोई उपाय तो
चाहिए।
दूसरों को
समझाने के लिए
कोई उपाय तो
चाहिए—कोई
रैशनलाइजेशन,
कोई तर्क।
अब उन्होंने
तर्क खोज लिया
है कि हमें रस
ही नहीं है।
तुम
अपने
संन्यासियों
में,
मुनियों
में, साधु—महाराजों
में
निन्यानबे
प्रतिशत ऐसे
लोग देखोगे जो
हारे हुए लोग
हैं। जो जीवन
में जीत नहीं
सकते थे; जिनके
पास प्रतिभा
जीतने योग्य
थी भी नहीं।
वे बैठ गए। वे
कहते हैं, अंगूर
खट्टेहैं। अब
वे दूसरों को
समझा रहे हैं।
जो दौड़ रहे
हैं उनको समझा
रहे हैं कि
दौड़ो मत।
इसमें कुछ सार
नहीं है, सब
असार है।
दौड़ना वे खुद
भी चाहते हैं,
मगर जानते
हैं कि अपनी
सामर्थ्य
नहीं, अपनी
सीमा नहीं।
इसलिए अब
निंदा करो।
संसार
की जो निंदा
कर रहा हो, खूब
गौर से देखना,
कहीं न कहीं
उसका संसार
में रस अटका
होगा। नहीं तो
निंदा भी
क्यों करेगा?
मैं तो
तुमसे कहता
हूं कि जाओ
संसार में, दिल खोल कर
जाओ। जूझ लो।
देख ही लो, अगर
कुछ हो देखने
को। पा ही लो
अगर कुछ पाने
को हो। ऐसे
अधूरे मत लौट
आना।
अधूरे
लौटने का
आकर्षण है।
बीच में रुक
जाने का
आकर्षण है। जब
देखो कि हारने
लगे,
और लोग
जीतने लगे, जब देखो कि
दूसरे
पहुंचने लगे,
तब बहुत मन
होता है ऐसा
कि अब यही कह
दो कि दौड़ ही
बेकार है। कम
से कम कुछ तो
बचाव हो जाएगा,
सुरक्षा हो
जाएगी, निंदा
कर दो संसार
की।
इसलिए
अष्टावक्र
कहते हैं, ऐसा
पुरुष
उद्वेगरहित
है और
संतोषरहित।
तत्क्षण जोड़ दिया
उन्होंने एक
शब्द, जो
बड़ा बहुमूल्य
है। ऐसे
व्यक्ति को
तुम यह मत सोच
लेना कि उसने
संतोष कर लिया
है। नहीं, उसने
जान ही लिया
कि संतोष भी
व्यर्थ है, असंतोष भी
व्यर्थ है।
उसने बीमारी
तो फेंकी ही
फेंकी, साथ—साथ
औषधि और
डाक्टर का
प्रिस्किप्शन
भी फेंक दिया
है। अब उसको
रखने की कोई
जरूरत नहीं है।
ऐसा व्यक्ति
निरुद्विग्न
है। अब उसके
भीतर कोई
उद्वेग नहीं
है। अब कोई द्वंद्व
नहीं उठता। शांति—अशांति,
सुख—दुख, सफलता—असफलता,
धर्म—अधर्म,
संसार—मोक्ष,
ऐसे कोई
द्वंद्व नहीं
उठते। सारे
द्वंद्वों के
बाहर। ऐसा
व्यक्ति परम
आनंद में लीन
है।
'कर्तृत्वरहित...।’
और
ऐसा व्यक्ति
अब नहीं देखता
कि मेरा कोई
कर्तत्व है, कि
मुझे कुछ करना
है। जो
अस्तित्व करा
लेता, हवा
का झोंका जहां
ले जाता सूखे
पत्ते को, चला
जाता। अब वह
कर्तव्य की
भाषा में नहीं
बोलता। अब वह
यह नहीं कहता,
यह मेरा
कर्तत्व है।
मुझे करना है।
मुझे करना ही
होगा। मैं
नहीं करूंगा
तो कौन करेगा?
मैं नहीं
करूंगा तो
संसार का क्या
होगा? इस
तरह की भाषा
नहीं बोलता।
वह कहता है, मैं नहीं
करूंगा, कोई
और करेगा।
क्योंकि
जिसको करवाना
है, इस
विराट का जो
लीलाधर है, इस विराट के
पीछे छिपी हुई
जो ऊर्जा
शक्ति है, वह
मुझसे नहीं तो
किसी और से
करा लेगी।
यही
तो कृष्ण ने
अर्जुन से कहा, तू
मत भाग
क्योंकि अगर
उसे मारना ही
है... और तू जान
कि जिनको तू
यहां खड़े
देखता है
युद्ध में, वे मर ही
चुके हैं। तू
सिर्फ
निमित्त
मात्र है। तू
नहीं मारेगा,
कोई और
मारेगा। यह
धनुष गांडीव
का अगर तेरे
कंधे न चढ़ेगा,
किसी और के
कंधे चढ़ेगा।
तेरे भागने से
कुछ भी न होगा।
जो होना है, होकर रहेगा।
जो होना है
वही होगा।
इसलिए तू भाग,
न भाग, कुछ
अंतर नहीं
पड़ता। नाहक
भागने में
तेरा अहंकर
निर्मित होगा।
तू परमात्मा
को समर्पित न
हो सका। तूने
सब न छोड़ दिया।
तूने यह न कह
दिया कि जो
करवाओ, करूंगा।
तूने अपने को
बचा लिया।
तेरा कर्तापन
छोड़ दे।
'संतोषरहित,
कर्तृत्वरहित,
स्पदरहित..।’
स्पंद
उठते ही हैं
वासना के कारण, आकांक्षा
के कारण। नये—नये
स्पंद उठते
हैं।
तुमने
देखा, अगर कभी
जीवन में
स्पंद नहीं
उठते तो तुम
धीरे— धीरे
मुर्दा होने
लगते हो।
तुम्हें नये
स्पंद चाहिए।
एक धंधा किया,
अब ठीक है।
अब कोई नया
धंधा चाहिए
ताकि फिर से
स्पंदन उठे, फिर से जीवन—
धार बहे। एक
दिशा में
सफलता पा ली, अब दूसरी
दिशा में भी
सफलता चाहिए।
धन कमा लिया, अब राजनीति
में भी पद
चाहिए।
राजनीति कमा
ली, अब
ध्यान भी करना
है।
नये—नये
स्पंदन उठते
हैं। वासना
नये—नये अंकुर
फोड़ती है।
वासना
तुम्हें कभी
ठहरने नहीं
देती। इधर एक
से चुके नहीं
कि दूसरी
यात्रा शुरू।
एक यात्रा
पूरी भी नहीं
होती कि दूसरे
का आयोजन
तैयार हो जाता
है।
महाशय
व्यक्ति स्पंदनरहित
होता है। उसके
जीवन में अब
कोई स्पंदना
नहीं है, कोई
उत्तेजना
नहीं है। अब
कुछ पाने को
नहीं है, कुछ
जाने को नहीं
है, कहीं
पहुंचने को
नहीं है।
पहुंच गया!
जहां है वहीं
उसकी मंजिल है।
इस
सत्य की
उदघोषणा अगर
तुम्हें समझ
में आ जाए तो
तुम इसी क्षण
नाच उठोगे। तुम
जहां हो, ठीक
ऐसे ही
परिपूर्ण हो।
सब स्पंदन मन
के धोखे हैं।
और स्पंदनों
के कारण तुम
वह नहीं देख
पाते, जो
तुम हो। जरा
गौर से देखो।
और जरा
समझपूर्वक
अपने भीतर
उतरो। क्या
कमी है? नाचना
है, आनंदित
होना है? कुछ
भी तो कमी
नहीं है।
परमात्मा बरस
रहा है। इस
घड़ी जितना बरस
रहा है, इससे
ज्यादा कभी भी
नहीं बरसेगा।
इतना ही बरसता
रहो है सदा से,
इतना ही सदा
बरसेगा।
इसलिए कल की
प्रतीक्षा मत
करो।
'आशारहित..।’
सुनते
हैं?
अष्टावक्र
कहते हैं, ऐसा
व्यक्ति
आशारहित है।
वह कोई आशाएं
नहीं बांधता।
जब आकांक्षा
ही न रही तो
आशा कैसी!
निराश
गतसंदेहम्..।
संदेहरहित
है। अब उसको
कोई संदेह
नहीं है कि
क्या सच है और
क्या झूठ है।
एक बात साफ हो
गई है, देखने
वाला सच है और
जो भी दिखाई
पड़ रहा है, सब
झूठ है। बस
इतना ही सत्य
है। इतना ही
सारे
शास्त्रों का
सार है : जो भी
दिखाई पड़ रहा
है, झूठ है;
और जो देख
रहा है, सच
है।
अभी
हमारी हालत
उलटी है। जो
दिखाई पड़ता है
वह सच मालूम
पड़ता है और जो
देख रहा है
उसका तो हमें
पता ही नहीं।
झूठ ही समझो।
लोग पूछते हैं, आत्मा
कहां है? जो
पूछ रहा है वह
आत्मा है। लोग
पूछते हैं, आत्मा का
दर्शन कैसे हो?
आत्मा का
कहीं दर्शन हो
सकता है? जो
दर्शन करेगा
वही आत्मा है।
आत्मा कभी
दृश्य नहीं हो
सकती। संसार
पर तो भरोसा
है, अपने
पर कोई भरोसा
नहीं है। जो
दिखाई पड़ रहा
है उसके पीछे
तो दौड़ रहे
हैं और जो देख
रहा है उसको
ख्युा भी नहीं;
उसके हाथ
में हाथ डाल
कर कभी दो
क्षण को शांत
बैठे नहीं।
इतना
ही सारे
शास्त्रों का
सार है : जो
दिखाई पड़ता है, कल्पनावत
है; और जो
देख रहा है, वही सत्य है।
रात
तुम सपना
देखते हो।
सपने में सपना
भी सच मालूम
होता है, क्योंकि
तुम्हारी आदत
खराब हो गई है।
तुम्हें जो
दिखाई पड़ता है
वही सच मालूम
होता है।
तुमने अभ्यास
कर लिया है।
जो दिखाई पड़त'
है वही सच
मालूम होता है।
तुमने इस पर
कभी विचार
किया, कि
सपनातक सच
मालूम होता
है! मूढ़ता की
और कोई सीमा
होगी? पागलपन
और क्या होगा?
और
ऐसा नहीं है
कि सपना तुमने
पहली दफे देखा
है इसलिए धोखा
खा गए। जिंदगी
भर से देख रहे
हो। अनेक
जिंदगियों से
देख रहे हो।
रोज सुबह उठ
कर पाते हो, झूठ
था। और फिर
रात, दूसरे
दिन फिर.. .फिर
खो गए। आज भी
सुबह उठ कर
पाया था कि
रात जो देखा, झूठ था।
क्या तुम
पक्का
विश्वास दिला
सकते हो कि
फिर रात आ रही
है, फिर
सपना आएगा, याद रख
सकोगे? इतनी
सी बात याद
नहीं रहती।
इतनी बार
दोहरा कर याद
नहीं रहती।
फिर नींद पकड़ती
है, फिर ?भ्रांति' हो जाती है, फिर भूल हो
जाती है, फिर
सपना सच मालूम
होता है।
इसका
कारण है। इसका
कारण है कि
तुम जो देखते, हो
वही सच मानने
की आदत है।
गुरजिएफ अपने
शिष्यों को
कहता था कि
अगर तुम्हें
सपने को सपने
की तरह देखना
हो तो सपने के
साथ कुछ नहीं
करना है, जागरण
में कुछ करना
पड़ेगा। और वह
एक अभ्यास
करवाता था। वह
अभ्यास बड़ा
कीमती है। वह
कहता था कि
दिन भर—तीन
महीने तक कम
से कम—जो भी
दिखाई पड़े, होश से समझना
कि झूठ है।
जैसे
अभी मैं बोल
रहा हूं यहां।
अब तुम यह सोच
सकते हो कि
कोई नहीं बोल
रहा। यह सब
अपना सपना है।
कठिन होगा। सच
भी नहीं है, मगर
यह तीन महीने
का अभ्यास।
वृक्ष दिखाई
पड़ रहे हैं, तुम खयाल
रखना कि सपना
है, झूठ है।
जो भी दिखाई
पड़ रहा है, झूठ
है।
तीन
महीने तक अगर
तुम जो भी दिन
में देखो, उसे
झूठ मानते रहो
तो तीन महीने
के बाद एक दिन अचानक
रात में तुम
देखोगे कि
सपना दिखाई पड़
रहा है और तुम
जान रहे हो कि
झूठ है।
अभ्यास हो गया।
नई बात का
अभ्यास हो गया।
यही
तो हिंदुओं के
माया के
सिद्धात का
सारा अर्थ है।
गुरजिएफ का जो
प्रयोग है वह
माया का
प्रयोग है।
हिंदुओं का यह
कहना कि संसार
माया है, सिर्फ
इतना ही अर्थ
रखता है कि
तुम अगर जागते
में याद कर लो,
अभ्यास कर
लो तो एक दिन
नींद में भी
पक्का हो जाएगा
कि सपना झूठ
है। और रात
सपने खो जाएं,
दिन में
विचार खो जाएं,
तो धीरे—
धीरे तुम्हें
उसकी याद आने
लगेगी, जो
देख रहा है।
अभी तो हम
इतने ग्रसित
हैं दृश्य के
साथ कि द्रष्टा
की स्मृति
नहीं आती। और
वही मूल सत्य
है; स्रोत
सत्य है। वही
हमारी
वास्तविक
संपदा है।
वहीं छिपा है
महाशय। वहीं
हमारा आकाश
छिपा है।
'आशारहित, संदेहरहित चित्त
ही शोभायमान
है।’
तुम्हारी
आशाएं
तुम्हारे
अतीत का ही
प्रक्षेपण है।
तुमने जो अतीत
में जाना है
उसी को छांट—छांट
कर,
बुरे को काट
कर, भले को
बचा कर, कतरन
जोड़—जोड़ कर
तुम भविष्य की
आकांक्षाएं
बनाते हो। जो—जो
दुखद था वह
छोड़ देना
चाहते हो, जो—जो
सुखद था उसको बढ़ा—बढ़ा
कर भविष्य में
पाना चाहते हो।
भविष्य
तुम्हारे
अतीत की
प्रतिध्वनि
है।
अंजुरी
के फूल झर गए, गंध
है अंगुलियों
में शेष
अतीत
तो गया, जा
चुका, लेकिन
उसकी यादें रह
गई हैं बसी।
अंजुरी
के फूल झर गए, गंध
है अंगुलियों
में शेष
गुजर
रहे लोग भीड़
से अपने में
खोए—खोए
सहमे—से
सोच रहे हम
कहां तलक खुद
को ढोएं
एक
उम्र काटी
हमने स्मृति
के चुनते
अवशेष
रिश्तों
के बीच ही
कहीं कुचल
नहीं जाएं
इसलिए
पूछ
थके हर अपने
से इतने संबंध
किसलिए?
क्यों
यह असुरक्षा
का भय? क्यों
यह संबंधों के
क्लेश?
कुछ
अपने साथ है
बची भोगें
अनुभव की पूंजी
जिस
पर
प्रतिध्वनित
हो रही कोई
अनगंजन गंजी
और
हम भविष्य की
तरफ टकटकी
लगाए अनिमेष
अनुभव
की पूंजी में
से ही हम छांट
रहे हैं। फूल
तो गए, अंगुलियों
में थोड़ी गंध
रह गई, स्मृति
बची रह गई।
स्मृति का ही
फिर से फैलाव
आशा है। अतीत
का ही फिर—फिर
फैलाव आशा है।
अतीत
को भी छोड़
देना है। जो
नहीं है, नहीं
हो जाने दो।
और अतीत की
पुनरुक्ति की
आशा भी मत करो।
जब अतीत और
भविष्य दोनों
न होंगे तभी
तुम वर्तमान
में जागोगे।
वही जागरण
ध्यान का पहला
अनुभव होगा।
वही जागरण
समाधि की पहली
सुगंध होगी।
समाधि
यानी वर्तमान।
मन यानी अतीत
और भविष्य।
मन
वर्तमान में
होता ही नहीं।
वर्तमान में
होगी
तुम्हारी
आत्मा, होगा
तुम्हारा
परमात्मा।
अतीत भी नहीं,
भविष्य भी
नहीं, दोनों
छूट गए। न
स्मृति और न
कल्पना का जाल।
न अतीत के
अनुभवों का
बोझ, न
भविष्य की आशा।
किसी क्षण में
जब तुम ऐसे
वर्तमान में
अडिग खड़े हो
जाते हो, वहीं—ठीक
वहीं सत्य से
मिलन होता।
अस्तित्व से
पहली परख होती।
आलिंगन में
बंधते हो तुम
उसके, जो
है।
'मुक्त पुरुष
का चित्त
ध्यान या कर्म
में प्रवृत्त
नहीं होता है,
लेकिन वह
निमित्त या
हेतु के बिना
ही ध्यान करता
और कर्म करता
है।’
'मुक्त पुरुष
का चित्त
ध्यान या कर्म
में प्रवृत्त
नहीं होता है...।’
अब
एक और अनूठी
बात
अष्टावक्र
कहते हैं, न
तो उसे कर्म
की कोई आकांक्षा
है, न
ध्यान की कोई आकांक्षा
है। आकांक्षा ही
नहीं है। न तो वह
अशांत होना चाहता
है, न वह
शांत होना चाहता
है। वह कुछ
होना ही नहीं
चाहता। वह तो
जो है उसके
साथ राज़ी है।
उसका राजीपन
परिपूर्ण है,
समग्र है।
वह किसी तरह
की वासना से ग्रसित
नहीं है। उसके
भीतर न कोई
निमित्त है, न कोई हेतु
है। जो प्रभु
करवा लेता है,
जब। कभी
कर्म करवा
लेता तो वह
कर्म करता, कभी ध्यान
करवा लेता तो
वह ध्यान करता।
तुम
कभी इस अनुभव
से थोड़ा गुजरो।
एक बार ऐसा कर
लो कि तीन
महीने के लिए
तुम कुछ करोगे
ही नहीं अपनी
तरफ से। जो
प्रभु करवा
लेगा, कर दोगे।
फिर
प्रतीक्षा
करने लगोगे।
कभी मौन ला
देगा तो तुम
मौन बैठ जाओगे।
कभी वाणी मुखर
कर देगा तो
तुम बोलोगे, कभी कोई गीत
आएगा तो गाओगे
और कभी चुप्पी
आ जाएगी तो चुप
रह जाओगे।
शुरू—शुरू
में कठिन होगा
क्योंकि बड़ी
बिबूचन होगी।
कोई बोलने आया
है और प्रभु
तुम्हारे
भीतर बोलता
नहीं तो
तुम्हें
क्षमा मांगनी
होगी। तुम
कहोगे, भीतर
प्रभु अभी
बोलते नहीं।
शुरू—शुरू
अड़चन होगी।
कभी कोई काम
का बड़ा जाल
सिर पर खड़ा
होगा और भीतर
से प्रेरणा न
उठेगी प्रभु
की, तो तुम
नहीं करोगे, चाहे कुछ भी
हो। कुछ भी
खोए, कुछ
भी हानि हो।
और कभी—कभी
व्यर्थ के काम
को प्रभु
करवाना
चाहेगा।
ऊर्जा उठेगी,
बड़ी
प्रेरणा आएगी
कि जाओ, सड़क
साफ कर डालो; तो तुम सड़क
साफ कर डालोगे।
लोग पागल
कहेंगे।
लेकिन अगर तुम
तीन महीने भी
इस प्रक्रिया
से गुजर जाओ
तो तुम्हारे जीवन
में कुंजी हाथ
आ जाएगी।
उसी
कुंजी की तरफ
अष्टावक्र के
सारे सूत्र इशारा
हैं। और एक
बार तुम्हें
आनंद आ जाए.. .और
ऐसा आनंद आएगा, ऐसा
अनिर्वचनीय
आनंद आएगा
जैसा तुमने
कभी जाना नहीं।
फिर तुम लौट न
सकोगे। तीन
महीने तुम करो,
फिर यह कभी
समाप्त होने
वाला नहीं है 1
तीन महीने? के बाद तुम
इसे बदल न
सकोगे।
तुम्हें
स्वाद लग
जाएगा। और यह
स्वाद अनूठा
है।
इसी
को कबीर ने
सहज समाधि कहा
है। उडूं—बैडूं
सो परिक्रमा, खाऊं—पिऊं
सो सेवा। अब
जो प्रभु
करवाता, जैसा
करवाता बस
वैसा; उससे
अन्यथा नहीं।
'मंदमति
यथार्थत्व को
सुन कर मूढ़ता
को ही प्राप्त
होता है, लेकिन
कोई ज्ञानी
मूढ़वत होकर
संकोच या
समाधि को
प्राप्त होता
है।’
निर्ध्यातुं
चेष्टितुं
वापि
यच्चित्तं न प्रवर्तते।
निर्निमित्तमिद
किंतु
निर्ध्यायति
विचेष्टते।।
तत्व
यथार्थमाकर्ण्य
मंद:
प्राप्नोति
मूढ़ताम्।
अथवाऽऽयाति
संकोचममूढ़:
कोउपि मूढ़वत्।।
वह
जो मंदबुद्धि
है,
यथार्थत्व
को सुन कर भी
मूढ़ता को ही
प्राप्त होता
है। और जो
ज्ञानी है, वह मूढ़वत
होकर संकोच या
समाधि को
प्राप्त होता
है।
तुम
पर निर्भर है।
इन सूत्रों
में तो बड़े
रहस्य की
कुंजियां छिपी
हैं लेकिन
क्या तुम
करोगे, तुम
पर निर्भर है।
तुम इनके गलत
अर्थ कर सकते
हो, और बड़ी
आसानी से। और
जितना महान
सूत्र हो।
उतनी ही गलत
अर्थ करने की
संभावना बढ़
जाती है। और
अष्टावक्र का
एक—एक सूत्र
अंगारे की तरह
है। चाहो तो
तुम्हारे
जीवन में
ज्योति हो जाए।
और अगर
मंदबुद्धि से
काम लिया तो
बुरी तरह जलोगे।
अब
जैसे
अष्टावक्र
कहते हैं, परमात्मा
पर छोड़ दो सब।
होने दो, जो
हो। अब अगर
मंदबुद्धि
आदमी हुआ तो
वह सोचेगा, चलो अब चादर
तान कर सोओ।
अब कुछ करने
को क्या है? परमात्मा को
करने दो। जो
करना होगा, करेगा। चादर
तान कर सोओ।
आलसी व्यक्ति,
मंदबुद्धि
व्यक्ति इससे
आलस्य का
सूत्र निकाल
लेगा। अकर्ता
तो नहीं बनेगा,
कर्म छोड़
देगा। वह कहेगा,
अभी अपना
करने जैसा कुछ
है ही नहीं।
अष्टावक्र
कहते हैं, समाधि
के भी पार चला
जाता है महाशय।
छू जो होगा वह
कहेगा, अब
ध्यान करने से
क्या सार! जब
समाधि के पार
ही जाना है तो
क्या सार!
ध्यान के भी
पार चला जाता है?
तो वह कहेगा,
छोड़ो ध्यान।
मूढ़ व्यक्ति
कहेगा कि जब
मुमुक्षा भी
व्यर्थ है तो
क्यों खोजें
सत्य को? क्यों
खोजें आत्मा
को, क्यों
परमात्मा को?
आदमी पर
निर्भर है।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी उसे
मनोचिकित्सक
के पास ले गई
और उसने कहा, मेरे पति को
हमेशा कुछ न
कुछ भूल आने
की आदत है।
कभी छाता, कभी
फाउंटेन पेन,
कभी जूते..
.बात यहां तक
हो जाती है कि
अगर चश्मा और
रूमाल ये ही
चीजें भूलते
रहें तो भी
ठीक है, कभी—कभी
मुझे तक भूल
आते हैं। साथ
ले जाते हैं
क्लब में और
खुद नदारद हो
जाते हैं, घर
पहुंच जाते
हैं। फिर पीछे
कहते हैं, मुझे
याद ही न रही।
मनोचिकित्सक
ने कहा, घबड़ाओ
मत, इलाज
हो जाएगा। फिर
उसने मुल्ला
की तरफ गौर से
देखा। मुल्ला
को जानता है
भलीभांति।
उसने कहा, लेकिन
एक बात खयाल
रखना कि इलाज
के बाद कहीं प्रवृत्ति
उलट न जाए और
यह कहीं कुछ
का कुछ घर लाना
शुरू न कर दे।
छाता ले आए, किसी दूसरे
के जूते उठा
लाए। पत्नी ने
थोड़ा सोचा, फिर बोली तो
फिर रहने दें,
ऐसे ही ठीक
है। अगर दूसरे
की पत्नी ले
आए! अभी तो भूल
आता है, वहां
तक ठीक है।
मूड
व्यक्ति जो भी
करेगा उसमें
कुछ न कुछ
मूढ़ता रहेगी
ही। इसलिए
बहुत सावधह?ाई
से.. .इसलिए
गुरु का बड़ा
अर्थ है। नहीं
तो तुम्हारी
मूढ़ता से
तुम्हें कौन
बचाए? ये
सारे अनूठे
प्रयोग अगर
किसी गुरु के
सान्निध्य
में किए तो
खतरा नहीं
होगा। कोई नजर
रखेगा, कोई
खयाल रखेगा कि
तुम्हारी
छूता कहीं
विपरीत
परिणाम न लाने
लगे। कोई
तुम्हारे ऊपर
ज्योतिस्तंभ
की तरह खड़ा रहेगा।
कोई दर्पण की
तरह तुम्हारे
चेहरे की सारी
आकृतियों को
प्रकट करता
रहेगा।
एक
दिन मुल्ला
नसरुद्दीन ने
मुझसे पूछा कि
आपकी घड़ी में
कितने बजे हैं? मैंने
कहा, म्यारह।
ग्यारह बजे थे।
उसने बहुत
हैरानी से
मेरी तरफ देखा,
अपने माथे
पर जोर से हाथ
मारा और कहा
कि लगता है
मैं पागल हो जाऊंगा।
मैं भी थोड़ा
हैरान हुआ।
मैंने कहा, इसमें पागल
होने की क्या
बात है? ग्यारह
बजने से तेरे
पागल होने का
क्या संबंध? उसने कहा, है! संबंध
क्यों नहीं है?
आज दिन भर
से पूछ रहा
हूं, न
मालूम कितने
लोगों से पूछ
चुका, सबने
अलग—अलग समय
बतलाया। मैं
पागल हो
जाऊंगा अगर..
.कोई एक समय
बतलाता ही नहीं।
कोई दस बतलाता,
कोई नौ, कोई
आठ, कोई
साढ़े आठ! आखिर
आदमी पागल न
हो जाए तो करे
क्या?
'मंदमति
यथार्थ तत्व
को सुन कर भी
मूढ़ता को ही प्राप्त
होता है।’
इसलिए
अपनी बुद्धि
पर बहुत ध्यान
रखना। अगर जरा
भी अपनी बुद्धि
पर संदेह हो
तो किसी
सदगुरु का साथ
पकड़ लेना। जरा
सा भी अगर
बुद्धि में शक
हो कि अपने
पैर से, अपने
ही हाथ से हम
कुछ गलत कर
लेंगे, तो
बचना।
'और कोई
ज्ञानी मूढ़वत
होकर संकोच या
समाधि को प्राप्त
होता है।’
ऐसी
उलटी दुनिया
है। यहां मूढ़
तत्व की बात
सुन कर भी और
मूढ़ हो जाता है
और यहां
ज्ञानी तो ऐसा
कुशल होता कि
ज्ञान की बात
सुन कर मूढ़वत
हो जाता है।
संसार में ऐसा
व्यवहार करने
लगता जैसे मैं
कुछ जानता ही
नहीं; मूढूवत
हो जाता। और
इस तरह संसार
से अपने बहुत
से व्यर्थ के
संबंध छुड़ा
लेता है।
मूढ़वत हो जाता
है तो लोग
उस्का पीछा ही
छोड़ देते।
मूढ़वत हो जाता
है तो लोग
उसकी चिंता
नहीं करते।
मूढ़वत हो जाता
है तो लोग उसे
उलझनों में
नहीं डालते।
मूढ़वत हो जाता
है तो कोई उसे
किसी काम में
नहीं उलझाता।
कहते
हैं,
महावीर जब
संन्यस्त
होना चाहते थे
तो उन्होंने
आज्ञा मांगी।
लेकिन मां ने
कहा, जब तक
मैं जीवित हूं
संन्यास नहीं।
तो वे रुक गए।
फिर मां चल
बसी। मरघट से
लौटते थे, भाई
से कहा, कि
अब मैं
संन्यास ले
लूं? क्योंकि
मां से वादा
किया था, वह
भी बात हो गई, वह भी चल बसी।
भाई ने कहा, यह कोई वक्त
है? इधर हम
मां के मरने
की पीड़ा से
मरे जा रहे
हैं कि मां चल
बसी और तू छोड़
जाने की बात
करता है? भूल
कर यह बात मत
करना।
तो
वे चुप हो रहे।
लेकिन फिर
उन्होंने
जीवन का एक
ऐसा ढंग अख्तियार
किया कि घर
में किसी को
पता ही नहीं
चलता कि वे
हैं भी कि
नहीं। वे ऐसे
चुप हो गए, ऐसे
संकोच को
उपलब्ध हो गए
कि साल—दो साल
में घर के
लोगों को ऐसा
लगने लगा कि
उनका घर में
रहना—न रहना
बराबर है।
आखिर घर के
लोगों ने ही
कहा कि अब हम
आपको रोकें, यह ठीक नहीं।
आप तो जा ही
चुके। देह
मात्र यहां है,
प्राण—पखेरू
तो जा चुके।
आपकी आत्मा तो
जा चुकी जंगल।
अब हम रोकेंगे
नहीं। घर के
किसी काम में,
घर की किसी
व्यवस्था में
कोई मंतव्य न
देते। धीरे—
धीरे सरक गए; शून्यवत हो
गए। इसका नाम
है संकोच।
'लेकिन कोई
ज्ञानी मूढ़वत
होकर संकोच या
समाधि को
प्राप्त होता
है।’
संकोचममूढ़:
कोऽपि
मूढूवत्।
कोई
धीरे— धीरे
अपने व्यर्थ
के फैलाव को
सिकोड़ लेता है, अपने
व्यर्थ के
व्यापार को
सिकोड़ लेता है।
जैसे मख्युा
अपने जाल को
सिकोड़ लेता है,
जैसे सांझ
सूरज
अपने जाल को
सिकोड़ लेता, ऐसा
कोई ज्ञानी
तत्व की बात
सुन लेता है
तो मूढ़वत हो
जाता है।
संसार से अपने
को ऐसे तोड़
लेता है जैसे
छू हो गया। अब
संसार से कुछ
लेना—देना
नहीं। और
समाधि को
प्राप्त हो
जाता है।
'अज्ञानी
चित्त की
एकाग्रता
अथवा निरोध का
बहुत—बहुत
अभ्यास करता
है, लेकिन
धीरपुरुष सोए
हुए व्यक्ति
की तरह अपने स्वभाव
में स्थित रह
कर कुछ करने
योग्य नहीं देखता
है।’
यह
सूत्र भी खूब
ध्यानपूर्वक
सुनना।
एकाग्रता
निरोधो
वामूढैरभ्यस्यते
भृशम्।
धीरा:
कृत्य न
पश्यति
सुप्तवत्' स्वपदे
स्थिता:।।
अज्ञानी
चित्त तो बड़ी
एकाग्रता और
निरोध का बहुत—बहुत
अभ्यास करता
है। अज्ञानी
को अगर धुन
पकड़ जाती है...
अज्ञानी बड़ा धुनी
होता है, पागल
होता है। धन
की धुन पकड़
जाए तो धन के
पीछे लग जाता
है, ध्यान
की धुन पकड़
जाए तो ध्यान
के पीछे लग
जाता है।
अज्ञानी
जिद्दी होता
है, हठी
होता है।
अज्ञानियों
ने ही तो हठ
योग पैदा किया
है। पागल की
तरह लग जाता
है। फिर सारा
अहंकार उसी
में लगा देता
है।
'अज्ञानी
चित्त की एकाग्रता
अथवा निरोध का
बहुत—बहुत
अभ्यास करता
है, लेकिन
धीरपुरुष सोए
हुए व्यक्ति
की तरह अपने स्वभाव
में स्थित रह
कर कुछ करने
योग्य नहीं देखता।’
सुप्तवत्
स्वपदे...।
ज्ञानी
तो धीरे—धीरे
अपने में
विश्रांति को
पहुंच जाता है।
जैसे नींद में, गहरी
नींद में
तुम्हारा अहंकार
कहा होता है? गहरी नींद
में जब स्वप्न
भी खो जाते
हैं तब तुम्हारे
विचार कहा
होते हैं? गहरी
नींद में, जब
मन में कोई
तरंग नहीं
होती, तुम्हारी
कौन सी सीमा
होती है? गहरी
सुषुप्ति में
तुम महाशय हो
जाते हो। न
तुम पति रह
जाते न पत्नी,
न हिंदू न
मुसलमान, न
ईसाई न बौद्ध,
न स्त्री न
पुरुष, न
बाप न बेटे, न गरीब न
अमीर, न
जवान न बूढ़े, न सुंदर न
कुरूप। गहरी
प्रसुप्ति
में तुम्हारे
सब विशेषण समाप्त
हो जाते हैं।
तुम होते हो
जरूर लेकिन
बड़े विराट हो
जाते हो।
अष्टावक्र
कह रहे हैं कि
ज्ञानी पुरुष
ऐसे जीने लगता
है जैसे प्रतिपल
गहरी
सुषुप्ति में
है। न अहंकार, न
हिंदू न
मुसलमान, न
ईसाई न बौद्ध,
न सुंदर न
कुरूप, न
धनी न गरीब, न नैतिक न
अनैतिक, न
साधु न असाधु—कोई
भी नहीं।
धीरा:
कृत्य न
पश्यति
सुप्तवत्
स्वपदे स्थिता:।
जैसे
गहरी नींद में
कोई अपने
स्वपद में लीन
हो जाता है, ऐसे
ही ज्ञानी
अपने स्वभाव
में लीन हो
जाता है। और
फिर स्वभाव से
जो होता है
सहज, वही
होने देता है।
करने
योग्य... करना
है ऐसी कोई
धुन,
कुछ करना है
ऐसा कोई आग्रह,
कुछ करके
दिखाना कुछ
होना है, ऐसी
कोई हठवादिता
उस में नहीं
रह जाती।
और
ऐसी में तुम
सब जगह
परमात्मा को
पाओगे। अपने
स्वपद को
जिसने पा लिया
५ सब जगह
परमात्मा को
पाया है—फूल—फूल, पत्ती—पत्ती
में, झरने
में, हर आंख
में।
तपसिन
कुटिया बैरन
बगिया
निर्धन
खंडहर धनवान
महल
शौकीन
सड़क गमगीन गली
टेढ़े—मेढ़े
गढ़ गेह सरल
रोते
दर हंसती
दीवारें
नीची
छत ऊंची
मीनारें
मरघट
की की नीरवता
मेलों
की कारी चहल—पहल
हर
देहरी तेरी
देहरी है
हर
खिड़की तेरी
खिड़की है
मैं
किसी भवन को
नमन करूं
तुझको
ही शीश झुकाता
हूं
हर
दर्पण तेरा
दर्पण है
अपने
स्वपद में बैठ
गया जो, वह
परमात्मा में
आ गया। वह घर आ
गया। उसे मिल
गया जो मिला
ही हुआ था।
उसने पा लिया,
जो उसके
भीतर छिपा ही
हुआ था।
सम्राट हो गया।
भिखारीपन गया।
गए भिखमंगेपन
के दिन।
उसकी
गरिमा महान है, उसका
आS:य महान
है। उसकी कोई
सीमा नहीं।
उसका चैतन्य
अमाप है। उसका
जीवन अमृत है।
हर
देहरी तेरी
देहरी है
हर
खिड़की तेरी
खिड़की है
मैं
किसी भवन को
नमन करूं
तुझको
ही शीश झुकाता
हूं
हर
दर्पण तेरा
दर्पण है
आज इतना
ही।
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