सहजै रहिबा—प्रवचन—तीसरा
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सूत्र:
हबकि
न बोलिबा, ठबकि
न चालिबा, धीरै
धरिबा पांव।
गरब न
करिबा, सहजै
रहिबा, भणत
गोरष राव।।
स्वामी
बनषडि जाऊं तो
पुध्या
व्यापै नग्री
जाऊं त माया।
भरि—भरि
षाऊं त बिद
बियापै, क्यों
सीझति जल
व्यंद की काया।।
धाये
न षाइबा, भूखे
न मरिबा, अहनिसि
लेबा ब्रह्म—अननि
का भेवं।
हठ न
करिबा, पड्या
न रहिबा, यूं
बोल्या
गोरषदेव।।
अति
अहार यंद्री
बल करै, नासै
ग्यान मैथुन
चित धरै।
व्यापै
न्यंद्रा
झंपै काल, ताकै
हिरदै सदा
जंजाल।।
दूधाधारी
परिघरि चित्त।
नागा लकड़ी
चाहै नित्त।
मरौ
वे जोगी मरौ
मरौ मरण है
मीठा।
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी मरि गोरष
दीठा।।
मनुष्य
जीता है
अहंकार में।
अहंकार आवरण
है,
आत्मा नहीं।
अहंकार
तुम्हारा
यथार्थ नहीं,
तुम्हारा
अभिनय है।
अहंकार
तुम्हारा
सत्य नहीं, तुम्हारी मान्यता
है। जैसे
रामलीला में
कोई राम बने
तो राम नहीं
हो जाता, ऐसे
ही तुम कुछ बन
गये हो जो तुम
नहीं हो। एक
बड़ी रामलीला
चल रही है।
जन्मे
थे,
कोई नाम
लेकर न आये थे;
फिर एक नाम
मिल गया
तुम्हें, फिर
वही नाम बन गए
तुम। जन्मे थे
तो कुछ ज्ञान
लेकर न आये थे;
फिर सिखाया
गया, पढ़ाया
गया, विद्यालय
गये, विद्यापीठ
गए। फिर बहुत
से विचार
तुम्हारे
मस्तिष्क में
डाले गए। तुम
ज्ञान में
ढाले गये। फिर
तुम सोचने लगे—यह
मेरा ज्ञान है।
इसमें
तुम्हारा कुछ
भी नहीं; सब
उधार है, सब
बासा है। न
नाम तुम्हारा,
न ज्ञान
तुम्हारा, न
तुम जो सोचते
हो अपनी
प्रतिमा वह ही
तुम्हारी; वह
भी दूसरों ने
बना दी। किसी
ने कहा सुंदर
हो बहुत, तुम
मान बैठे। और
किसी ने कहा
अद्वितीय हो
बहुत, तो
मान बैठे।
किसी ने
प्रशंसा की है
तो उसे संजोकर
रख लिया है।
किसी ने निंदा
की है तो चोट
खायी है।
दूसरों
के मंतव्य से
तुम्हारा
व्यक्तित्व
बना है। यह
दूसरों के हाथ
का निर्माण है।
यह दूसरों ने
तूलिका लेकर
तुम पर रंग कर
दिये हैं। और
इसी को तुमने
अपना होना मान
लिया, तो तुम
कभी स्वयं को
जान न पाओगे।
गोरख
कहते हैं मरी
वे जोगी मरौ।
यह जो
तुम्हारा
झूठा रूप है, इसे
तो मर जाने दो,
तो सच्चे
रूप का अनुभव
हो। यह जो
तुम्हारा
आवरण है, इसे
तुम गिर जाने
दो। ये वस्त्र
तो भस्मीभूत
हो जायें तो
अच्छा, ताकि
तुम्हारा
सत्य नग्न, अपने स्वभाव
में प्रगट हो
सके। अहंकार न
जाये तो आत्मा
का कोई अनुभव
नहीं होता। और
जिसे आत्मा का
भी अनुभव न हो,
उसे
परमात्मा की
तो सुध कैसे
आयेगी?
आत्मा
बूंद है, परमात्मा
सागर है। बूंद
को पहचानो तो
सागर की पहचान
भी होने लगे, क्योंकि
बूंद में सागर
छिपा है। और
सागर सिवाय
बूंदों के जोड़
के और क्या है?
तुम
एक किरण हो, परमात्मा
एक सूरज। और
सूरज किरणों
के जोड़ के
अतिरिक्त कुछ
भी नहीं।
परमात्मा हम
सब का जोड़ है।
परमात्मा हम
सबकी समग्रता
है। ईश्वर को
खोजने निकल
पड़ते हो और
अहंकार तोड़ा नहीं।
अभी एक किरण
भी पहचान में
नहीं आयी और
सूरज की तलाश
पर चले!
भटकोगे बहुत...।
तुम ही अभी
झूठे हो, तुम
जो खोज लोगे
वह भी झूठा
होगा। झूठ
सत्य तक नहीं
पहुंच सकता, झूठ और बड़े
झूठ तक ही
पहुंचता
रहेगा।
अहंकार
झूठ है, नाटक
है। इस नाटक
के चलते तुम
जो भी करोगे, भ्रांति की
बात होगी। करो
व्रत तप, नियम,
उपवास; छोड़ो
घर—द्वार, जाओ
जंगल। कुछ भी
न होगा। इन
सबसे
तुम्हारा
अहंकार नये—नये
आभूषण उपलब्ध
कर लेगा। और
सज जायेगा, और संवर
जायेगा।
मरोगे नहीं
तुम, तुम्हारा
अहंकार और
जीवन पा
जायेगा, और
पोषित हो
जायेगा। और
अहंकार जब तक
न मरे तब तक
आत्मा का कोई
अनुभव नहीं।
आत्मा के
अनुभव के लिए
अहंकार
गंवाना होता
है।
मरौ वे
जोगी मरौ मरौ
मरन है मीठा।
गोरख
कहते हैं : बड़ा
मीठा है यह
मरण जो मैं
तुम्हें समझा
रहा हूं। ऐसे
जो मर जाता है, उसके
जीवन में बस
मिठास ही
मिठास रह जाती
है। सत्य बड़ा
मीठा है, अनुभव
हो तो। अमृत
का स्वाद है।
फैल जाता है
तन—प्राण पर, भरपूर तुम
हो जाते हो।
तुम्हारे ऊपर
से बहने लगता
है। जिन्हें
मिलता है सत्य,
वे खुद तो
तृप्त हो ही
जाते हैं; उनके
पास भी जो, उनकी
छाया में भी
बैठ जाता है, उसे भी
तृप्ति की
बूंदें पड़ने
लगती हैं, बूंदाबांदी
होने लगती है।
मगर मरना पड़े,
यह शर्त है।
झूठ
मरे तो सत्य
का जन्म हो।
सत्य भीतर
मौजूद है, मगर
झूठ की दीवाल
के भीतर कैद
है। झूठ की
बदलियों में
सत्य का सूरज
छिप गया है।
मिट नहीं गया,
कौन झूठ
सत्य को मिटा
सकेगा? खो
भी नहीं गया
है, लेकिन
विस्मरण हो
गया है। जैसे
चेहरे पर किसी
ने घूंघट डाल
दिया, कोई
चेहरा मिट
नहीं गया
लेकिन घूंघट
के कारण अब
दिखाई नहीं
पड़ता।
हमने
अपने अहंकार
के घूंघट में
ही अपनी आत्मा
को छिपा लिया
है। लोग सोचते
हैं परमात्मा
पर परदा है, गलत
सोचते हैं; परदा
तुम्हारी आंख
पर है। परदा
तुम पर है, परमात्मा
तो बिलकुल
बेपर्दा है।
परमात्मा तो
नग्न खड़ा है
चारों तरफ, पर तुम्हारे
पास
देखनेवाली आंख
चाहिए।
आज
के सूत्र, यह
मीठा मरण कैसे
घट जाये, इसकी
क्या
प्रक्रिया
होगी, इसकी
क्या सार—साधना
है—उस संबंध
के सूत्र हैं।
कैसे हम मरें?
कैसा मरण है
गोरख का? तिस
मरणी मरौ...।
मरते तो सभी
हैं। मगर मरने—मरने
में भेद है।
तुम भी मरोगे,
बुद्ध भी
मरे; लेकिन
तुम्हारे
मरने में और
बुद्ध के मरने
में भेद है।
तुम सिर्फ देह
से मरोगे और
अपने अहंकार
को, अपने
झूठ को बचाकर
ले जाओगे—अपने
मन में संजोए
मंजूषा की तरह।
तुम्हारा
अहंकार नये
गर्भ में
प्रवेश कर जायेगा।
तुम तो मरोगे,
मन न मरेगा।
और जब तक मन न
मरा तब तक कुछ
बदलता नहीं।
आवरण बदलते
हैं, घर
बदलते हैं, यात्रा वही
है पुरानी
कोल्ह के बैल
की जैसी
वर्तुलाकार
घूमती रहती है।
बहुत बार तुम
मरे हो, और
बहुत बार तुम
फिर जन्म गए
हो। इधर मरे
नहीं कि उधर
जन्म हुआ नहीं।
अहंकार
तुम्हारे
सारे रोगों को
अपने भीतर छिपाए
नये गर्भ में
प्रवेश कर
जाता है, फिर
नयी देह रख
लेता है।
लेकिन
वासनाएं
पुरानी हैं, रोग पुराने
हैं, दुख
पुराने हैं, राहें
पुरानी हैं।
फिर चल पड़े।
फिर थकोगे, फिर गिरोगे,
फिर मरोगे,
ऐसा बहुत
बार हो चुका।
बुद्ध भी मरते
हैं, गोरख
भी मरते हैं, लेकिन उनके
मरने में और
तुम्हारे
मरने में भेद
है। तुम्हारा
अहंकार नहीं
मरता, केवल
देह छूट जाती
है; वे
अपने अहंकार
को गला देते
हैं, जला
देते हैं।
इसके पहले कि
देह छूटे वे
अपने अहंकार
से छूट जाते
हैं। और जो
मरने के पहले
मर गया, उसे
महाजीवन
अनुभव हो जाता
है। फिर उसे
दोबारा आने की
जरूरत नहीं रह
जाती।
क्योंकि
दोबारा जो
लाता था सूत्र,
वही मर गया।
आत्मा
का न कोई जन्म
है,
न कोई
मृत्यु है।
अहंकार
जन्मता है, अहंकार ही
मरता है। और
जो अहंकार से
छूट गया, वह
शाश्वत है; फिर नहीं
मरना है, फिर
नहीं जन्म है।
फिर एक जीवन
है—नित्य, समयातीत।
फिर तुम आकाश
जैसे बड़े हो।
वही तुम्हारा
स्वरूप है।
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी गोरष मरि
दीठा।
इसलिए
कहते हैं, यह
मत सोचना कि
मैं साधारण
मरने की बात
कह रहा हूं।
साधारण तो सभी
मरते हैं, पशु—पक्षी
मरते हैं, पौधे
मरते हैं, पहाड़
मरते हैं। उस
मरने की बात
गोरख नहीं कर
रहे हैं, एक
विशिष्ट मरण
की बात कर रहे
हैं—समाधि में
मरो, ध्यान
में मरो।
अहंकार जाये
और तुम ध्यान
में डूब जाओ।
और अहंकार जब
तक है तब तक
कोई ध्यान में
डूब नहीं सकता।
अहंकार
के जीने का
सूत्र क्या है? अगर
समझ में आ
जाये तो मरने
की कला भी समझ
में आ जायेगी।
अहंकार जीता
है अति से।
अति अहंकार का
प्राण है।
शायद तुमने
ऐसा कभी सोचा
न हो, विचारा
न हो, जागकर
देखा न हो कि
अति में ही
अहंकार का वास
है। और, और,
और.. यह
अहंकार के
जीने का ढंग
है। दस हजार
रुपये हैं तो
लाख हो जायें,
लाख हैं तो
दस लाख हो
जायें। और, और, और...
ऐसी
विक्षिप्तता
में अहंकार
जीता है। अति
में अहंकार
जीता है। फिर
अति किसी चीज
की हो, धन
की हो कि
ज्ञान की; पद
की हो कि
त्याग की; मगर
और...।
जिसने
तीस दिन का
उपवास कर लिया
वह सोचता है अगली
बार चालीस दिन
का उपवास करूं।
जिसने चालीस
दिन का कर
लिया वह सोचता
है पचास दिन
का करूं। फर्क
कहौ है? जिसके
पास चालीस लाख
रुपये हैं वह
सोचता है पचास
लाख हो जायें।
फर्क कहां है?
जो कहता है
कि मैंने तीन
बार भोजन की
जगह दो बार
शुरू कर दिया,
वह सोचता है
कब एक बार
शुरू करूं? जो एक ही बार
करता है वह
सोचता है एक
बार भी कैसे
छूट जाये?
एक
युवक को मेरे
पास लाया गया।
वह चाहता था
सिर्फ पानी पर
कैसे जीऊं? और
कुछ नहीं लेना
चाहता, क्योंकि
और सब लेना तो
भोग है। सिर्फ
पानी पर कैसे
जीऊं? सूख
गया था। भारत
आया इसी तलाश
में था अमरीका
से कि कोई पानी
से जीने का
सूत्र चता दे।
मैंने कहा, अगर मैं
तुझे पानी से
जीने का सूत्र
बता दूं तो तू
तृप्त हो
जायेगा? आंख
बंद कर और सोच।
विचारशील
युवक था, आंख
बंद करे कोई
आधा घंटा बैठा
रहा। फिर उसने
कहा कि नहीं, फिर मैं
पूछूंगा कि
हवा से कोई
कैसे जीए। 'सिर्फ हवा
पर, क्योंकि
पानी की भी
झंझट क्यों?
ऐसी
मन की
आकांक्षा है, ऐसी
अहंकार की दौड़
है—और। फिर
किस दिशा में
तुम दौड़ते हो,
इससे भेद
नहीं पड़ता।
अहंकार अति
में जीता है।
धन हो तो अति
हो, त्याग
हो तो अति हो, भोग हो तो
अति हो, योग
हो तो अति हो।
मध्य में खड़े
हो जाओ और
अहंकार मर
जाता है।
इसलिए बुद्ध
ने अपने मार्ग
को ही मक्षिम
निकाय कहा—बीच
का मार्ग, ठीक
मध्य में।
एक
युवक, राजकुमार
श्रोण, बुद्ध
के पास
दीक्षित हुआ।
राजधानी
भरोसा न कर
सकी। किसी ने
कभी कल्पना
में भी नहीं
सोचा था कि श्रोण
और भिक्षु हो
जायेगा! बुद्ध
के भिक्षु भी भरोसा
न कर सके, आंखें
फाड़े रह गए—जब
श्रोण आया और
बुद्ध के
चरणों में
गिरा और उसने
कहा. मुझे
दीक्षा दें, मुझे भिक्षु
बनायें।
सम्राट
था श्रोण, और
ख्यातिनाम
सम्राट था।
उसकी ख्याति
भोगी की तरह
थी। उसके
राजमहल में
सबसे सुंदर
स्त्रियां
थीं उस जमाने
की। उसके महल
में
श्रेष्ठतम
शराब सारी
दुनिया के कोनों—कोनों
से आकर इकट्ठी
थी। रात— भर
राग—रंग चलता
था, दिन— भर
सोता था। ऐसे
भोग में डूबा
था कि उसे कभी
संन्यास की भी
कल्पना उठेगी,
यह सोचा
नहीं था किसी
ने। सीढ़ियों
पर भी चढ़ता था
तो सीढ़ियों के
पास चढ़ने के
लिए सहारे के
लिए उसने
रेलिंग नहीं
लगायी थी; नग्न
स्त्रियां
खड़ी होती थीं,
जिनके कंधे
पर हाथ रखकर
वह सीढ़ियां
चढ़ता था। उसका
घर, उसने
स्वर्ग जैसा बनाया
था। स्वर्ग के
देवता भी
ईर्ष्या करें,
ऐसा उसका
महल था।
बुद्ध
के भिक्षुओं
ने बुद्ध से
पूछा. हमें
भरोसा नहीं
आता कि श्रोण, और
संन्यस्त हो
रहा है! बुद्ध
ने कहा :
तुम्हें भरोसा
आये न आये, लेकिन
मैं जानता था
यह संन्यस्त
होगा। सच पूछो
तो मैं इसी के
लिए आज राजधानी
आया था।
क्योंकि जो एक
अति पर जाता
है, वह
दूसरी अति पर
भी जायेगा।
भोग की एक अति
है, इसने
पूरी कर डाली;
अब और आगे
वहा रास्ता
नहीं है, तो
अहंकार को
तृप्ति का
उपाय नहीं है।
जो हो सकता है
इस जगत में, सब इसके पास
है। अब अहंकार
को आगे दीवाल
आ गयी, अब
आगे अहंकार
कहां जाये? अहंकार
मांगता है और,
अब और है
नहीं, तो
अहंकार लौट
पड़ा, विपरीत
यात्रा पर लौट
पड़ा। जैसे घड़ी
का पेंडुलम
दायें चला
जाता है आखिरी
छोर तक, फिर
लौट पडता है
बायें की तरफ,
फिर बायें
में चला जाता
है एक छोर तक, फिर लौट
पड़ता है दायें
की तरफ। जब
घड़ी का
पेंडुलम
बायें तरफ जा
रहा है तब तुम
ख्याल रखना, वह दायें
तरफ जाने के
लिए गति
इकट्ठा कर रहा
है; और जब
दायें तरफ जा
रहा है, तब
बायें जाने के
लिए गति
इकट्ठा कर रहा
है। जिनके पास
देखने की
सूक्ष्म
दृष्टि है वे
देख पायेंगे।
जो अति भोग
में जायेगा वह
एक न एक दिन अति
योग में चला
जायेगा।
बुद्ध
ने कहा: तुम
थोड़े दिन
प्रतीक्षा
करो,
तुम देखोगे
जो मैं कहता
हूं उसका सत्य।
और लोगों ने
देखा। दूसरे
भिक्षु तो ठीक
पटे हुए
रास्ते पर
चलते हैं, लेकिन
श्रोण कीटों
और झाड़ियों
में चलता है।
उसके पैर लहू—लुहान
हो गये। दूसरे
भिक्षु तो धूप
होती तो
वृक्षों की
छाया में
बैठते, श्रोण
धूप में ही
खड़ा रहता।
दूसरे भिक्षु
तो वस्त्र पहनते,
उसने सिर्फ
लंगोटी लगा
रखी थी। और
ऐसा लगता जैसे
लंगोटी भी छोड़
देने की आतुरता
है। और एक दिन
उसने लंगोटी
भी छोड़ दी।
दूसरे भिक्षु
तो दिन में एक
बार भोजन करते,
श्रोण दो
दिन में एक
बार भोजन करता।
दूसरे भिक्षु
तो बैठकर भोजन
करते, श्रोण
खड़े—खड़े ही
भोजन करता।
दूसरे भिक्षु
तो पात्र रखते,
श्रोण
पात्र भी नहीं
रखता था, हाथ
में ही.
करपात्री था,
हाथ में ही
भोजन लेता था।
सूख गया। उसकी
बड़ी सुंदर देह
थी। दूर—दूर
से लोग उसकी
देह को देखने
आते थे। उसका
चेहरा बड़ा
लावण्यपूर्ण
था, अति
सुंदर था।
भिक्षु हो
जाने के तीन
महीने बाद उसे
कोई देखता तो
याद भी नहीं
कर सकता था कि
यही सम्राट श्रोण
है। पैरों में
छाले पड़ गये
थे, शरीर
काला पड़ गया
था, सूख कर
हड्डी—हड्डी
हो गया था, लेकिन
वह और कसे
जाता था।
बुद्ध
ने कहा. देखते
हो भिक्षुओ, मैंने
कहा था, जो
एक अति पर
जाता है वह
दूसरी अति पर
चला जा सकता
है! मध्य में
रुकना कठिन है,
क्योंकि
मध्य में
अहंकार की
मृत्यु है।
फिर
तो श्रोण ने
भोजन भी बंद
कर दिया। फिर
तो उसने पानी
लेना भी बंद
कर दिया। अति, और
अति पर जाने
लगी। फिर तो
ऐसा लगा कि अब
वह दों—चार
दिन का मेहमान
है और मर
जायेगा। तो
बुद्ध उसके
द्वार पर गए, जिस वृक्ष
के नीचे झोपड़ा
बना दिया था
उसके विश्राम
के लिए। वह
पड़ा था। बुद्ध
ने उससे कहा.
श्रोण, मैं
तुझसे एक बात
पूछने आया हूं।
मैंने सुना है
कि जब तू
सम्राट था तो
तुझे वीणा
बजाने की बड़ी
आतुरता रहती
थी। तू वीणा
बजाने में बड़ा
कुशल भी था।
तेरा बड़ा रस
था वीणा में।
मैं तुझसे एक
प्रश्न पूछने
आया हूं—जब
वीणा के तार
बहुत ढीले हों
तो संगीत पैदा
होता है या
नहीं?
श्रोण
ने कहा : आप भी
कैसी बात करते
हैं,
आप जानते
हैं भलीभांति,
तार बहुत
ढीले हों तो
संगीत कैसे
पैदा हो, वह
टंकार ही पैदा
नहीं हो सकती!
बुद्ध
ने कहा : फिर
मैं यह पूछता
हूं कि तार
अगर बहुत कसे
हों तो संगीत
पैदा होता है
या नहीं?
श्रोण
ने कहा : बहुत
कसे हों तो
छूते ही तार
टूट जायेंगे, संगीत
पैदा नहीं
होगा, सिर्फ
तारों के
टूटने की आवाज
आयेगी। साज के
टूटने की आवाज
आयेगी, संगीत
कैसे पैदा
होगा?
तो
बुद्ध ने कहा :
मैं तुझे याद
दिलाने आया
हूं। जैसे
तुझे वीणा का
अनुभव है, वैसे
ही मुझे जीवन—
वीणा का अनुभव
है। मैं तुझसे
कहता हूं जीवन
के तार भी बहुत
कसे हों तो
संगीत पैदा
नहीं होता, और जीवन के
तार बहुत ढीले
हों तो भी
संगीत पैदा
नहीं होता।
तार मध्य में
होने चाहिए
श्रोण; न
बहुत कसे, न
बहुत ढीले।
संगीतज्ञ की
बड़ी से बड़ी
कुशलता इसी
में है कि वह
तारों को ठीक
मध्य में ले
आये, उसी
को साज का
बिठाना कहते
हैं।
इसलिए
तुम देखते हो, शास्त्रीय
संगीत कहीं
होता है तो
आधा घंटा, घंटा
तो साज ही
बिठाने में लग
जाता है। साज
बिठाना बड़ी
कला की बात है।
क्योंकि
तारों को उस
मध्य में ले
आना, जहां
न तो वे कहे जा
सकते हैं कि
ढीले हैं और न
कसे हैं, बड़ी
कुशलता, बड़ी
परख चाहिए।
संगीत का कोई
जौहरी हो तो
ही बिठा पाता
है।
ऐसी
ही जीवन—वीणा
है—बुद्ध ने
कहा—श्रोण, इसलिए
अब तू जाग, बहुत
हो गया। मैं
प्रतीक्षा
करता रहा कि
तुझे कर लेने
दूं अति। पहले
तेरे तार बहुत
ढीले थे, अब
तूने बहुत कस
लिये हैं। न
तब संगीत पैदा
हुआ, न अब
संगीत पैदा हो
रहा है। कहां
है तेरे पास
समाधि? यह
तू क्या कर
रहा है? पहले
ठूंस—ठूंस
खाता था, अब
उपवासा मर रहा
है। पहले कभी
तू नंगे पैर
नहीं चला था; तू चलता था
तो रास्ते पर
मखमल बिछाई
जाती थी। और
अब तू रास्ता
ठीक हो उस पर
नहीं चलता; झाड़ियों में,
काटों में,
ऊबड़—खाबड़
रास्तों में
चलता है। पहले
शायद शराब के
अतिरिक्त
तूने पानी कभी
पीया नहीं था;
अब तू पानी
भी पीने में
डरता है! अब तू
पानी भी नहीं
पीना चाहता।
पहले तेरे घर
मासाहार के
अनूठे— अनूठे
भोजन तैयार
किये जाते थे;
अब तू रूखी
रोटी भी खाने
को राजी नहीं
है। देख, एक
अति से तू दूसरी
अति पर चला
गया। उसमें भी
विसंगीत था, इसमें भी
विसंगीत है।
मैं तुझे
पुकारता हूं
कि अब समय आ
गया है कि तू मध्य
में आ जा।
श्रोण
की आंखों से आंसू
बहने लगे। उसे
बोध हुआ, उसे
बात दिखाई पड़
गयी।
आज
के सूत्र वीणा
के तारों को
मध्य में ले
आने के सूत्र
हैं। और जैसे
ही कोई मध्य
में आया कि
अहंकार मर जाता
है,
अहंकार जी
नहीं सकता।
अहंकार तो रोग
है, तुम
रुग्ण चित्त
होओ तो ही जी
सकता है।
तुम्हारे
रुग्ण होने
में ही अहंकार
का जीवन है।
और तुम्हारे
रुग्ण होने की
कला है अति।
मैं
अपने
संन्यासियों
को भी कहता
हूं कि मैं जीवन
की वीणा का
पाठ तुम्हें
दे रहा हूं—मध्य।
संसार में ऐसे
रहो जैसे
संसार में
नहीं हो। न तो
संसार तुम पर
हावी हो जाये, और
न ही जरूरत है
संसार छोड्कर
भाग जाने की।
न तो भोगी बनो
न योगी; तुम
मध्य में ठहर
जाओ। न तो धन
के पीछे दौड़ो,
न धन छोड़कर
भागो, तुम
बीच में रुक
जाओ, ठीक
मध्य में, जहां
अति होती ही
नहीं। वहीं
तुम पाओगे—बज
उठा संगीत!
वीणा सप्राण
हो उठी। गजने
लगा अनाहत
नाद...!
हबकि न
बोलिबा ठबकि न
चालिबा धीरै
धरिबा पाँव।
हबकि न
बोलिबा.......।
जिन्होंने
इस सूत्र पर
टीका लिखी है, टिप्पणियां
लिखी हैं, उन
सबने इसका
अर्थ किया है :
बिना सोचे—विचारे
नहीं बोलना।
वह अर्थ मुझे
ठीक मालूम
नहीं होता।
भाषा की
दृष्टि से ठीक
है। फट से
नहीं बोल देना
चाहिए कोई कुछ
कहे एकदम जवाब
नहीं दे देना
चाहिए सोच—विचारकर
जवाब देना
चाहिए। ऐसा
भाषागत अर्थ
तो ठीक है, लेकिन
साधनागत अर्थ
ठीक नहीं है।
सोच —विचार के
उत्तर देने का
अर्थ तो यही
हुआ कि उत्तर
सहज नहीं होगा,
सोचा—विचारा
होगा। और आगे
सूत्र में
गोरख कहते हैं
:
गरब न
करिबा सहजै
रहिबा भणत
गोरष रावं।
फिर
सहज रहने से
इसका संबंध
नहीं जुड़ेगा।
फिर तो रहनी
बड़ी असहज हो
गयी। फिर तो
तुमने जो उत्तर
दिया वह सोचा—विचारा
था,
संयोजित था,
सहज नहीं था।
सहज
उत्तर, सहज
बोलना, कुछ
और ही बात है।
सोच—विचार से
उसका संबंध
नहीं है। तुम
जब भी सोचोगे—विचारोगे,
तुम्हारा
उत्तर असहज हो
जायेगा। किसी
ने कुछ पूछा, उत्तर देने
के पहले तुमने
सब जांच—परख
की कि क्या
कहूं क्या न
कहूं किस बात
का प्रभाव
अच्छा पड़ेगा
किसका बुरा
पड़ेगा, किससे
लाभ होगा
किससे हानि
होगी—तुमने यह
सब सोच—विचार
कर, गणित
बिठा कर कहा
तो तुम्हारे
वक्तव्य में
सहजता नहीं रह
जायेगी।
तुम्हारा
वक्तव्य झूठा
हो जायेगा।
सहज वक्तव्य
तो निर्विचार
से आयेगा।
हबकि न
बोलिबा…….।
लोग
कहते हैं, इसका
अर्थ है : सोच—विचार
से बोलना। और
मैं कहता हूं
इसका अर्थ है :
निर्विचार से
बोलना, जागरूकता
से बोलना। फट
से बोलने का
मतलब है
मूर्च्छा।
होश रहे भीतर,
होश का दीया
जलता रहे, ध्यान
जागा रहे। सोच—विचारकर
बोलना नहीं, निर्विचार
से बोलना।
दो
शब्दों का
ख्याल कर लेना—'अविचार'
से बोलना और
'निर्विचार'
से बोलना।
अविचार से
बोलने का मतलब
है : बोल दिये
जो आया मुंह
में, फिर
पीछे पछताने
लगे।
मैं
एक रात एक
मित्र के घर
में मेहमान था।
उस घर में
महात्मा
गांधी के एक
पुराने शिष्य आनदस्वामी
भी मेहमान थे।
रात एक ही
कमरे में हम
दोनों थे, सारे
घर के लोग भी
इकट्ठे हो गये,
कुछ बात
होने लगी।
आनंदस्वामी
से मैंने कहा :
आप महात्मा
गांधी से कैसे
प्रभावित हुए?
क्योंकि
पूरा जीवन
उन्होंने
गांधी के लिए
ही समर्पित कर
दिया। तो
उन्होंने कहा
कि पहला
प्रभाव गांधी
का मेरे ऊपर
तब पड़ा जब
गांधी
अफ्रीका से
भारत आये।
उन्होंने
अहमदाबाद में
एक वक्तव्य
दिया, मैं
अखबार में
रिपोर्टिंग
का काम करता
था; पत्रकार
था। उन्होंने
जो वक्तव्य
दिया उसमें
उन्होंने अंग्रेजों
के लिए कुछ
अपशब्द बोले।
मैंने वे
अपशब्द निकाल
दिये वक्तव्य
में से और जो
रिपोर्ट दी
अखबारों में,
उसमें उन
अपशब्दों को
बिलकुल नहीं
रखा। दूसरे
दिन गाधी ने
मुझे बुलाया,
मेरी पीठ
ठोंकी और कहा :
तुमने ठीक
किया।
रिपोर्टिंग
ऐसी ही होनी
चाहिए। तुमने
वे अपशब्द
निकाल दिये, बहुत अच्छा
किया।
गांधी
का इस भांति
मेरी पीठ
ठोकना—आनंदस्वामी
ने मुझे कहा—बस
मुझे जीत लिया।
मैंने
उनसे कहा कि
यह तो बात बड़ी
उल्टी हो गयी।
फिर तुमने कभी
दूसरा प्रयोग
भी करके देखा
या नहीं कि
गांधी ने
अपशब्द न बोले
हों और किसी वक्तव्य
में तुम जोड़
देते, फिर भी
वे तुम्हारी
पीठ ठोंकते तो
कुछ बात थी।
इसका तो अर्थ
इतना ही हुआ कि
गांधी हबक कर
बोल गये।
हबकि
न बोलिबा...।
बोल गये जोश
में,
उत्साह में,
उमंग में।
बोलने की धारा
में बोल गये।
फिर पीछे
पछताये होंगे।
लौटकर सोचा
होगा कि वे
अपशब्द जो
मैंने बोल दिये,
गालियां जो
दे दीं, देनी
नहीं थीं; क्योंकि
वे महात्मा के
योग्य नहीं
हैं गालियां।
पछताये होंगे।
फिर तुमने वे
अपशब्द निकाल
दिये तुमने
गांधी के
अहंकार की
रक्षा कर ली, तो तुम्हारी
पीठ ठोंकी।
तुम्हारे
अहंकार कौ इस
तरह रस मिला
कि मेरी पीठ
ठोंकी गयी कि
मैं कोई
पत्रकार हूं
बड़ा पत्रकार
हूं! यद्यपि
तुमने जो
वक्तव्य छापा
था वह झूठा था।
और गांधी अगर
सत्य के
प्रेमी थे तो
उन्हें तुमसे
कहना चाहिए था
कि वक्तव्य
वैसा ही छापो
जैसा दिया गया
था। जब दिया
ही गया था तो
छापने में
क्यों भेद किया
जाये? तो
गांधी
सत्यवादी
नहीं थे।
गांधी की सत्य
की बात व्यर्थ
हो गयी; उन्होंने
झूठ को
प्रश्रय दिया।
जो बोला नहीं
था वह छापा
गया; जो
बोला था वह
नहीं छापा गया।
यह झूठ को
प्रश्रय देना
हुआ। तुमने
उनके अहंकार
की रक्षा की, उन्होंने
तुम्हारे
अहंकार को
फुसलावा दिया,
इस तरह तुम
एक—दूसरे से
प्रभावित हो
गये।
मैंने
आनंदस्वामी
को कहा कि अगर
मेरे वक्तव्य
में गाली हो
तो छपनी ही
चाहिए, क्योंकि
जब मैंने कही
है तो कही है, और अगर नहीं
कहनी थी, ऐसा
पीछे पता चलता
है तो उसका
अर्थ हुआ कि
कहते समय मैं
होश में नहीं
था, मैं
बेहोश था।
भाषा
का भी मद होता
है। कई बार
तुम बोलने में
ऐसी बात बोल
जाते हो जो तुम
बोलना नहीं
चाहते थे। मगर
चाहते थे कि
नहीं, यह सवाल
नहीं है; बोली
तुमने तो कहीं
तुम्हारे
अचेतन चित्त
में पड़ी तो थी।
तुमने
वह वक्तव्य
छाप कर
आनदस्वामी—मैंने
उनसे कहा—एक
झूठ को
प्रश्रय दिया।
अब सदियों तक
यह बात कही
जायेगी कि
गांधी ने कभी
गाली नहीं दी; तुम
उसके लिए
जिम्मेवार
होओगे।
तुम्हें
लिखना था वही
जो लिखा गया
था, जो कहा
गया था—जैसा, वैसा का
वैसा। अगर
गाधी को बदलना
है तो पीछे
सुधार करने का
उपाय नहीं
होना चाहिए।
फिर विवेक से
बोलना चाहिए,
फिर होश से
बोलना चाहिए।
गांधी अविचार
से बोल गये, पीछे
समझदारी आयी।
सोचा होगा कि
क्या बोल गया।
लौटकर देखा
होगा, लगा
होगा इसका
परिणाम बुरा
होगा। किसी
तरह यह बात
लौट जाये तो
अच्छा।
ऐसा
रोज होता है।
राजनीतिक
नेता एक बात
बोल जाते हैं
और फिर दूसरे
दिन उसका खंडन
करते है—कि
नहीं, मैं
बोला ही नहीं,
या मेरा यह
अर्थ नहीं था,
या मेरे
अर्थ को तोड़ा—मरोड़ा
गया है, या
मेरे वक्तव्य को
ऐसा—वैसा किया
गया है। फिर
मुकर जाते हैं।
रोज यह होता
है, तुम
रोज अखबारों
में देखते हो।
यह
आश्चर्यजनक
मामला है।
पीछे खयाल आता
है, क्योंकि
पीछे जब हिसाब
लगाने बैठते
हैं गणित बिठाते
हैं, तब
पता चलता है
कि यह न कहा
होता तो अच्छा
था, इसके
कहने के ये—ये
परिणाम होंगे।
कहते वक्त तो
इतनी जल्दी थी
कि फुर्सत
नहीं मिली कि
क्या परिणाम
होंगे, क्या
परिणाम नहीं
होगे। कहते
वक्त तो त्वरा
में कह गये, फिर पीछे
बैठे शांति से,
सोचा—विचारा,
परिणाम का
हिसाब लगाया।
दूर, क्या—क्या
इसके अर्थ
लिये जायेंगे,
कितने मत
देनेवाले
प्रभावित
होंगे, कितने
विपरीत
प्रभावित हो
जायेंगे, इससे
राजनीति के
दाव में क्या
परिणाम हो
जायेगा; चल
तो गये चाल, इसका पूरे
शतरंज के खेल
पर क्या अंतिम
अर्थ होगा—यह
जब बैठकर
सोचते—विचारते
हैं तो फिर
बदलने का मन
उठता है, तो
बदल लेते हैं।
मगर यह बदलाहट
सिर्फ एक बात
की खबर देती
है—अविचार से
बोला गया।
मैंने
सुना है, इंग्लैण्ड
के एक मेडिकल
कालेज में एक
विद्यार्थी
की मुखाग्र
परीक्षा हो
रही है। और सब
विषयों में
उत्तीर्ण हो
गया, अब यह
मुखाग्र
परीक्षा
आखिरी
परीक्षा है।
इसमें
उत्तीर्ण हो
जाये तो उसे
इंग्लैण्ड की चिकित्सा
की सबसे बड़ी
उपाधि मिल
जाये। तीन
डाक्टर उसकी
परीक्षा ले
रहे हैं।
उन्होंने
उससे कहा कि
इस—इस तरह का
मरीज है, इस—इस
तरह की बीमारी
है, ये—ये
दवा देनी है, कितनी
मात्रा में
दोगे? उसने
जल्दी से
मात्रा बताई।
वे तीनों
डाक्टर हंसे।
उन्होंने कहा
कि ठीक है, तुम
जाओ। परीक्षा
पूरी हो गयी।
वह निकल ही
रहा था दरवाजे
से तब उसे
ख्याल आया कि
इतनी मात्रा
तो जान ही ले
लेगी, यह
जहर है! लौटा, और उसने कहा
कि क्षमा करें,
जितनी
मैंने बताई
उससे आधी
दूंगा! पर
डाक्टरों ने
कहा कि मरीज अब
मर चुका, अब
लौटकर किससे
कह रहे हो? बात
गयी सो गयी।
यह परीक्षा ही
थोड़े है। अगर
मरीज होता और
तुमने यह दवा
दे दी होती तो
मरीज तो मर ही
चुका होता, लौटकर किससे
क्षमा मांगते?
अब अगले
वर्ष आना, और
तैयारी करो।
इस तरह लौटकर
वक्तव्य बदले
नहीं जा सकते
और बदले जायें
तो झूठे हो
जाते हैं, मरीज
तो मर ही
जायेगा।
अविचार
से मत बोलना—ऐसा
अर्थ करो तो
उसका अर्थ यह
नहीं हुआ कि
विचारपूर्वक
बोलना। उसका
अर्थ मेरे
हिसाब में
होता है—निर्विचार।
क्योंकि जहां
विचार हैं, वहां
तो गलती हो
जायेगी। जहा
निर्विचार है,
चित्त
बिलकुल शात, दर्पण की
भांति है, मौन
है, शून्य
है, जहां
ध्यान जगा है—वहां
कभी भूल नहीं
होती। वहा
लौटकर पीछे
देखने की
जरूरत नहीं
पड़ती। वहां
कभी पछतावा
नहीं होता।
इसलिए
मैं इसका अर्थ
करता हूं :
ध्यानपूर्वक
बोलना। जिसको
बुद्ध ने
सम्यक स्मृति
कहा है। जागे
हुए बोलना।
होश से बोलना।
सोच—विचार कर
नहीं, क्योंकि
सोच—विचार का
तो मौका हो या
न हो, समय
हो या न हो।
जिंदगी में
समय कहां है? बहुत बार
तुम अच्छी बात
कहना चाहते हो,
नहीं कह
पाते, बाद
में याद आती
है।
पश्चिम
का एक बड़ा
विचारक, विक्टर
ह्यूगो, एक
बैठक से आ रहा
था। तीन—चार
और साहित्यिक
साथ थे। कुछ
बात चली। एक
साहित्यकार
ने कुछ कहा—इतना
प्यारा वचन था
कि विक्टर
लुगो के मुंह
से निकल गया
कि काश, यह
मैंने कहा
होता! तीसरे
साहित्यकार
ने कहा. खुगो, मत घबड़ाओ।
तुम कहोगे, तुम किसी न
किसी दिन कहोगे।
आज नहीं कल
कहोगे।
निकलेगा यह
तुम्हारे
मुंह से, घबड़ाओ
मत। किसी और
परिस्थिति
में तुम कहोगे,
मगर कहोगे
जरूर। तुम
छोड़ोगे नहीं।
मगर
बात तो गयी सो
गयी। तुम्हें
भी लगता है
बहुत बार कि
यह बात मैंने कही
होती, जैसे
किसी ने मेरे
शब्द छीन लिए,
कि मेरे ओंठ
पर आयी बात
छीन ली। और
कभी तुम्हें
लगता है कि
काश मैं यह एक
शब्द बचा गया
होता तो कितनी
झंझट बच जाती!
क्योंकि कभी—कभी
छोटा—सा शब्द
पूरे जीवन को
रूपांतरण दे
सकता है।
तुम्हारी दी
गयी छोटी—सी
गाली
तुम्हारे
पूरे जीवन को
बदल दे, और
तुम्हारे
मुंह से गिरा
हुआ एक मधुर वचन
तुम्हारे
पूरे जीवन को
नया कर दे,' कुछ
कहा नहीं जा
सकता। छोटी—सी
बात!
अमरीका
की एक बहुत
बड़ी
अभिनेत्री
ग्रेटागार्बो
बड़ी गरीब
स्त्री थी
अपने बचपन में।
और एक नाईबाड़े
में लोगों की
दाढ़ी पर साबुन
लगाने का काम
करती थी। उसने
कभी सोचा ही
नहीं था कि
इतनी बड़ी अभिनेत्री, विश्वप्रसिद्ध
अभिनेत्री हो
जायेगी। उस
नाईबाड़े में
एक फिल्म—डायरेक्टर
एक दिन बाल
बनवाने आया और
उसने उसकी
दाढ़ी पर साबुन
लगाया। जब वह
साबुन लगा रही
थी, फिल्म
निर्देशक था,
उसके मुंह
से उसके चेहरे
को दर्पण में
देखकर बस एक
शब्द निकल गया
कि सुंदर...
सुंदर चेहरा
है! और उतना ही
वचन
ग्रेटागार्बो
की जिंदगी में
क्राति बन गया।
दो—दो पैसे
में दाढ़ी पर
साबुन
लगानेवाली
स्त्री करोड़ों
डालरों की
मालिक होकर
मरी, उतना—सा
वचन। सोचकर
कहा भी नहीं
गया था, सहज
निकल गया था।
पर
ग्रेटागार्बो
को याद आ गयी
अपने सौंदर्य
की। उसने पहली
बार दर्पण में
अपने को गौर
से देखा।
दर्पण के
सामने तो रोज
खड़ी रहती थी, मगर लोगों
की दाढी पर
साबुन लगाती
रहती थी, कभी
खयाल किया ही
नहीं था। कभी
सोचा भी नहीं
था कि मैं
सुंदर हूं या
सुंदर हो सकती
हूं। उस गरीब
की इतनी
क्षमता भी न
थी इतना विचार
करने की।
ग्रेटागार्बो
ने पूछा. सच, आप
कहते हैं मैं
सुंदर हूं? उस फिल्म
निर्देशक ने
कहा कि सुंदर
ही नहीं, सुंदरतम
स्त्रियों
में एक। और
यदि तुम चाहो
तो मैं प्रमाण
जुटा दूंगा, क्योंकि मैं
एक फिल्म—निर्देशक
हूं मैं एक
फिल्म बनाने
आया हूं। मैं
तुम्हें
फिल्म में ले
सकता हूं
तुम्हारे पास
चेहरा है जो
फोटोजैनिक है,
जो चित्र
में इतना
सुंदर होकर
प्रगट होगा!
मैं जिंदगी—
भर चित्रों से
ही काम करता
रहा हूं।
इसलिए
कई बार ऐसा हो
जाता है कि
कोई व्यक्ति, फिल्म
अभिनेता, अभिनेत्री,
तुम सीधे
मिलो तो चाहे
इतना सुंदर न
मालूम पड़े, उसके पास
फोटोजैनिक
चेहरा होता है।
फोटो में
सुंदर आता है,
चाहे सामने
देखने से
सुंदर आये या
न आये, ये
दोनों अलग
बातें हैं। कई
बार बहुत
सुंदर लोग, सामने देखने
पर सुंदर
मालूम होते
हैं, लेकिन
चित्र में
उतने सुंदर
नहीं रह जाते।
ग्रेटागार्बो
उठ गयी आकाश
पर। एक छोटी—सी
घटना, एक
अनायास निकला
हुआ शब्द पूरे
जीवन को बदल
गया; अन्यथा
पूरे जीवन
शायद लोगों की
दाढ़ी पर साबुन
लगाते—लगाते
मर जाती। एक
छोटा—सा शब्द
इतनी तरंगें
पैदा कर सकता
है! मित्र बना
सकता है, शत्रु
बना सकता है, जीवन को
सौंदर्य दे
सकता है, कुरूपता
दे सकता है।
हबकि न
बोलिबा........।
पर
मैं अर्थ करता
हूं—यह नहीं
कि
विचारपूर्वक
बोलना। विचार
में तो गणित
है,
चालाकी है,
होशियारी
है, राजनीति
है। मैं कहता
हूं :
निर्विचार, शात, मौन
भाव से बोलना।
उठने देना मौन
में अंतरतम को।
और तब तुम जो
बोलोगे वह
सम्यक होगा, क्योंकि शांति
से जन्मेगा।
सम्यकवाणी और
तुम थिर हो
जाओगे।
अन्यथा
अहंकार
तुम्हें इस
अति से उस अति
पर ले जायेगा।
हबकि न
बोलिबा ठबकि न
चालिबा.......
पैर
पटक—पटक कर मत
चलो। शोरगुल
मत करो जिंदगी
में। ऐसे गुजर
जाओ कि किसी
को पता न चले।
अनुपस्थित
रहो।
परमात्मा के
होने का ढंग
यही है।
परमात्मा है, चारों
तरफ उपस्थित
है, लेकिन
पता नहीं चलता।
उसकी कला क्या
है? ठबकि न
चालिबा.. पैर
पटक—पटक कर
नहीं चलता। आंखों
में उंगली डाल—डाल
कर तुम्हें
दिखाता नहीं
कि देखो मुझे।
परमात्मा
उपस्थित है—अनुपस्थित
होकर। है
मौजूद; दिखाई
उनको ही पड़ता
है जो खुद भी
अनुपस्थित हो
जाते हैं, जो
खुद भी बिलकुल
शून्य हो जाते
हैं। बस उनकी
ही आंखों में
उसकी छवि बन
पाती है।
ठबकि न
चालिबा.......।
लोग
कितने अकड़ कर
चल रहे हैं!
अकड़े जा रहे
हैं। व्यर्थ
ही अकड़े जा
रहे हैं।
तुमने
खयाल किया? रास्ते
पर तुम अकेले
चलते हो तुम
एक ढंग से चलते
हो। अगर
रास्ता
सुनसान पड़ा हो,
कोई भी न हो,
सुबह तुम
घूमने निकले
हो, तुम एक
ढंग से चलते
हो। तुम्हारे
चलने में ठबक
नहीं होती।
लेकिन फिर
अचानक दो आदमी
रास्ते पर
निकल आयें, तुम्हारी
चाल बदल जाती है।
तुम कल चलकर
देखना, तुम्हारी
चाल बदल जाती
है। दो आदमी
रास्ते पर आ
गये, तुम्हारी
चाल बदल गयी।
अब
तुम और ढंग से
चलते हो। और
अगर दो सुंदर
स्त्रियां
निकल आयें
रास्ते पर तो
तुम्हारी चाल
और भी बदल गयी।
तुम जल्दी से
अपनी धूल—
धवांस झाडू कर
मूंछ पर ताव
इत्यादि देने
लगोगे, टाई
वगैरह ठीक कर
लोगे, टोपी
तिरछी कर लोगे।
तुम एकदम ठबक
कर चलने लगोगे।
मूंछें नहीं
भी हैं तो भी
लोग ताव तो
देते ही हैं।
मूंछ होना
जरूरी नहीं है
ताव देने के
लिए। ताव बात
ही अलग है; किसी
भी ढंग से
दिया जा सकता
है, कोई
मूंछ पर देता
है, कोई
टाई पर दे
देता है। मगर
ताव हो।
लोग
ऐसे चल रहे
हैं कि सारी
दुनिया
उन्हें देख ले, कि
सबकी आंखें उन
पर अटक जायें।
ठबक
का अर्थ होता
है : मैं सबकी आंखों
का केंद्र बन
जाऊं। क्यों? क्योंकि
अहंकार लोगों
का ध्यान
मागता है। और
जितना ध्यान
लोगों का मिल
जाये अहंकार
को, उतना ही
पोषण पाता है।
तुम्हें
जितने लोग
रास्ते पर
नमस्कार करें,
जितने लोग
स्वीकार करें
कि ही आप कुछ
हैं, उतना
ही तुम्हारे
अहंकार को बल
मिलता है। तुम
एक दिन रास्ते
से गुजरो, कोई
देखे भी नहीं,
कोई
नमस्कार भी न
करे पूरा गांव
तय कर ले कि तुम्हारे
साथ ऐसा
व्यवहार करेगा,
कि मानकर
चले कि जैसे
तुम हो ही
नहीं—तुम बहुत
दुखी हो जाओगे।
तुम बहुत हारे—थके
लौटोगे। तुम
कहोगे, बात
क्या हो गयी? तुम्हारी
ठबक का कोई
परिणाम ही न
हो।
तुम
देखते हो, छोटे
बच्चे रोज यह
प्रयोग करते
हैं। बड़ों में
भी कोई बहुत
भेद नहीं है।
छोटे से लेकर
बड़ों तक बच्चे
ही बच्चे हैं!
तुम्हें अगर
बड़ी उम्र के
बच्चे देखने
हों, कभी—कभी
दिल्ली चले
जाया करो—पैंसठ,
सत्तर, पचहत्तर,
अस्सी, तिरासी
साल के बच्चे!
कोई
प्रधानमंत्री
हैं, कोई
गृहमंत्री
हैं, कोई
रक्षामंत्री
हैं, और
पड़े हैं एक—दूसरे
के पीछे, छोटे
बच्चों की
तरह! जैसे
छोटे बच्चे
कचरे के पूरे
के पास लड़ रहे
हैं कि कौन
पूरे पर खड़ा
हो जाये। और
एक खड़ा हो
जाये तो दूसरे
धक्के दे रहे
हैं और बडी
ठेलमठेल मची
है। और हर एक
अपनी मूंछ पर
ताव दे रहा है।
और हर एक कह
रहा है कि एक—एक
को पछाड़कर
रहूंगा, कि
यह देखो इसको
पछाड़ा, कि
देखो इसको
चारोखाने चित
कर दिया!
छोटी
उम्र से लेकर
बड़ी उम्र तक
लोग बच्चे ही
हैं। जब तक
तुम ध्यान
आकर्षित करते
हो,
जब तक तुम
कहते हो मेरी
तरफ देखो, तब
तक तुम बच्चे
हो, बचकाने
हो।
तुम्हें
रोज अनुभव
होता होगा
बच्चों का।
तुम्हारे घर
में बच्चे हैं, मेहमान
आते हैं, तुम
बच्चों से
कहते हो
मेहमान आ रहे
हैं शांत रहना;
बस, फिर
बच्चे शांत
नहीं रह सकते।
वैसे चाहे
शांत बैठे
रहें, अपने
कोने में बैठे
खे—गुड़ियों से
खेलते रहें, लेकिन जैसे
ही मेहमान आते
हैं कि बच्चे
आकर बीच में
खड़े हो जाते
हैं। उलटे—सीधे
सवाल पूछने
लगते हैं... आइसक्रीम
चाहिए, भूख
लगी है। तुम
हैरान होते हो
कि यह बच्चा
अभी तक शांत
बैठा था, इसे
हो क्या गया!
यह बच्चा
राजनीतिज्ञ
हो गया। यह यह
कह रहा है कि
ये मेहमान
मुझे देखे
बिना चले
जायें? दिखाकर
रहूंगा, बताकर
रहूंगा कि मैं
भी कोई हूं! इस
घर में मेरी
चलती है, चलाकर
बता दूंगा।
तुम स्वात में
बच्चे को कुछ
कह दो, वह
मान लेता है; चार के
सामने कहो, मानने को
राजी नहीं
होता, इनकार
करने की जिद्द
करने लगता है।
इसलिए बाजार
ले जाओ बच्चे
को अपने साथ, घर बिलकुल
सदव्यवहार
करता है, बीच
बाजार में
जाकर फजीहत
करवा दें—यह
भी खरीदूंगा,
वह भी
खरीदूंगा। और
तुम्हारी
फजीहत क्या है?
फजीहत यही
है कि अब चार
आदमियों के
सामने तुम भी
यह नहीं कह
सकते कि नहीं
खरीद सकूंगा,
पैसा नहीं
है पास, जेब
गरम नहीं है, भई मत सता
मुझे। वह भी
यह मौका देख
रहा है कि अब
देखें...।
छोटे
बच्चे
तुम्हारी ही
वृत्तियों को प्रगट
करते हैं
सरलता से। फिर
बड़े होकर तुम
उन्हीं
वृत्तियों को थोड़ी
जटिलता से
प्रगट करते हो, थोड़ी
होशियारी से
प्रगट करते हो;
मगर भेद
नहीं पड़ता।
तुम प्रौढ़
होते ही नहीं।
अहंकार कभी
प्रौढ होता ही
नहीं, अहंकार
सदा बचकाना
होता है।
ठबकि न
चालिबा..........
बच्चे
देखते न, पैर
पटकते हैं, शोरगुल
मचाते हैं, सामान पटक
देते हैं!
स्त्रियां
देखते घर में?
जरा—सी बात
हो जाये कि
प्लेटें गिर
जाती हैं, बर्तन
गिरने लगते
हैं, पूरे
घर में शोरगुल
मचने लगता है।
ठबकि न चालिबा……..
वह
स्त्री बता
रही है कि
दिखा दूंगी।
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी उसके
पीछे भाग रही
थी,
लेकर बेलन।
मुल्ला
घबड़ाया और एक
बिस्तर के
नीचे घुस गया।
पत्नी मोटी है,
बिस्तर के
नीचे जा नहीं
सकती। मुल्ला
अकड़कर नीचे
बैठ गया
बिस्तर के।
तभी किसी ने
द्वार पर
दस्तक दी, कुछ
मेहमान आ गये।
पत्नी ने
जल्दी से बेलन
छिपाया और
मुल्ला से कहा.
बाहर निकल आओ,
मेहमान आ
गये हैं, जल्दी
बाहर निकल आओ।
मुल्ला ने कहा
: आ जायें
मेहमान, आज
दिखाकर
रहूंगा इस घर
में किसकी
चलती है। मुझे
जहा बैठना है
वहां बैठूंगा।
पत्नी
बोली : अरे, जोर
से नहीं। मगर
मुल्ला ने
कहा. किसी से
डरते हैं क्या?
घर का कौन
मालिक है? आज
यह सिद्ध हो
जायेगा, तू
कि मैं।
पत्नी
बोली : बिलकुल
शांत, बाहर
निकल आओ! मगर
मुल्ला इस
वक्त अकड़ खा
गया। उसने कहा
: मांग माफी, रगड़ नाक।
नाक
रगडनी पड़ी।
मेहमान द्वार
पर खड़े हैं और
मुल्ला
बिस्तर के
नीचे बैठा है, अब
यह कुछ अच्छा
लगेगा? और
कुछ बोलने लगे
बिस्तर के
नीचे से बैठा
हुआ, कुछ
कहने लगे... नाक
रगडवा ली!
ठबकि न
चालिबा.........!
गोरख
कहते हैं.
ध्यान से बोलो, शून्य
होकर चलो; जैसे
हो ही नहीं
ऐसे चलो। किसी
को पता न चले।
बैंड—बाजे
बजाते मत चलो।
नगाड़े मत पीटो।
. …….. धीरै
धरिबा पांव।
इतने
आहिस्ता पैर
रखो कि पैर की
आवाज न हो। इस
जगत से आओ और
गुजर जाओ, जैसे
हवा का झोंका
आता और गुजर
जाता है। किसी
को कानों—कान
खबर न पता चले,
कब आये कब
चले गये। एक
मौन, शून्य
स्वर की भांति
गुजर जाओ। और
तुम जान लोगे
परमात्मा को।
और तुम पहचान
लोगे
परमात्मा को।
जो
जगत को
दिखलाने में
ही उत्सुक हो
जाते हैं, वे
अभिनेता हो
जाते हैं।
अधिकतर तुम
सड्कों पर
अभिनेताओं को
पाओगे। लोग घर
से बाहर
निकलने के
पहले कितनी
देर तैयारी
करते हैं!
स्त्रियां तो
घंटों खड़ी
रहती हैं
दर्पण के
सामने, दर्पण
भी थक गये हैं!
पति बैठा
हार्न बजा रहा
है सड़क पर और
पत्नी अभी
दर्पण के
सामने सोच ही
रही है कि यह
साड़ी पहनूं कि
यह साड़ी पहनूं?
मैं
एक घर में
मेहमान था।
पति मुझे लेकर
सभा में जा
रहे थे, बजा
रहे हैं हार्न,
समय हुआ जा
रहा है। और
पत्नी क्रोध
से खिड़की से
झांककर बोली.
हजार दफे कह
दिया कि एक
मिनिट में आती
हूं! (अगर
हजार दफे कहना
हो... तो हजार
दफे तो कहने
में ही घंटों
लग जायेंगे। )
मगर हार्न बजा—बजा
कर जान छीने
डाल रहे हो।
आखिर साड़ी
पहनूं कि नहीं?
शाम
जब हम वापिस
लौटे तो मैंने
उससे पूछा कि
सच,
साड़ी तो
पहननी ही
पड़ेगी, मगर
इतनी देर क्यों
लगी? तो
उसने कहा :
कैसे न लगे, आइए आपको
दिखलाऊं, तीन
सौ साड़ियां
हैं! आखिर
सोचना पड़ता है,
विचारना
पड़ता है, कौन—सी
पहनूं यह
पहनूं कि यह
पहपूं कुछ गुण
इसके भी हैं, कुछ गुण
उसके भी हैं।
तो झंझट होती
है। कभी—कभी
तो एक पहनकर
फिर बदलनी
पड़ती है। तो
देर लग जाती
है।
लोग
अभिनेता हैं।
इसलिए
तुम्हें
दूसरों की
स्त्रियां
जितनी सुंदर
मालूम पड़ती
हैं,
अपनी
पत्नियां
नहीं मालूम
पड़ती।
क्योंकि अपनी
पत्नियों को
तुम उनके
स्वाभाविक
रूप में देखते
हो, दूसरों
की पत्नियों
को तुम मंच पर
देखते हो—सजी—सवरी,
रंग—रोगन.।
मुल्ला
नसरुद्दीन तो
कहता है कि
संतति—नियमन
के लिए किसी
उपाय की जरुरत
नहीं, सिर्फ
पत्नी रंग—रोगन
न करे, बस
पर्याप्त है।
कोई और
आवश्यकता
नहीं है। इतना
ही चित्त को
उदास कर देने
के लिए काफी
है, सहज
स्वाभाविक
रहे, बस...।
हबकि न
बोलिबा ठबकि न
चालिबा धीरै
धरिबा पाँव।
जगत
को एक मंच मत
समझो और यहां
अभिनय करने
में ही लीन मत
रहो! कुछ सत्य
भी है भीतर—अभिनय
के पार। उस
सत्य को तुम
तभी जान पाओगे, उसकी
तरफ तुम तभी
मुड़ पाओगे, जब तुम्हारे
मन में दूसरे
तुम्हें
ध्यान देते
हैं, तुम
पर ध्यान देते
हैं या नहीं, इसकी कोई
चिंता न रह
जायेगी।
क्योंकि जब
तुम चाहते हो
दूसरे तुम पर
ध्यान दें तो
तुम्हें
दूसरों पर
ध्यान देना
पडता है। यह
पारस्परिक
लेन—देन है।
तो अपने पर
ध्यान कब दोगे?
तुम्हें
दूसरों पर
ध्यान देना ही
पड़ेगा, अगर
तुम चाहते हो
कि वे तुम पर
ध्यान दें।
तुम अगर चाहते
हो कि लोग
तुमसे पूछें
कि यह जो तुमने
साड़ी पहन रखी
है, कितने
में खरीदी, तो तुम्हें
पहले उनकी
साडी पूछनी
पड़ेगी कि यह साड़ी
कैसे खरीदी, पोत तो बड़ा
सुंदर है, कहौ
से खरीदी? तब
दूसरा तुमसे
पूछेगा।
स्वभावत: यह
जगत लेन—देन
है। दूसरों को
ध्यान दो तो
दूसरा
तुम्हें
ध्यान देगा
उत्तर में।
क्योंकि उसकी
आकांक्षा भी
ध्यान पाने की
है, तुम्हारी
आकांक्षा भी
ध्यान पाने की
है। हम एक—दूसरे
के अहंकार को
सजाते रहते
हैं। फिर अपने
पर ध्यान कब
दोगे? फिर
चूक ही जाओगे
उसको जानने से
हो तुम्हारे भीतर
बैठा था—और
वही परम धन है,
और वही परम
आनंद है। उसी
चैतन्य में
छिपा है
परमात्मा।
उसी चैतन्य का
स्वाद मिल आये
तो शाश्वत
जीवन का स्वाद
मिले।
हबकि
न बोलिबा ठबकि
न चालिबा धीरै
धरिबा पांव अन्य
स्थल पर गोरख
ने कहा है :
भरया
ते थीरं
झलझलति आधा
सिद्धे
सिध मिल्या रे
अवधू बोल्या
अरु लाधा
भरया
ते थीरं...।
जो
भरा हुआ पात्र
होता है जल का, वह
थिर होता है, झल—झलाता
नहीं।
भरया
ते थीरं
झलझलंति आधा
वह
जो आधा भरा
होता है, वही
झलझलाता है।
भरी मटकी आवाज
नहीं करती, आधी मटकी
आवाज करती है।
तुम जितनी
आवाज करते हो,
जितने पैर पटककर
चलते हो, उतनी
ही खबर देते
हो कि थोथे हो।
जितने बैंड—बाजे
बजाकर चलते हो,
जितने झंडे
उठाकर चलते
हो.. झंडा ऊंचा
रहे हमारा...
उतनी ही खबर
देते हो, थोथे
हो, आधे हो!
झलझलति आधा।
जो जानता है, जिसे जीवन
का थोड़ा अनुभव
हुआ है, वह
गंभीर होता है,
गहन होता है;
आवाज नहीं
होती, एक
सन्नाटा होता
है उसके आसपास;
एक नीरव
संगीत होता
है.।
भरया
ते थीर झलझलति
आधा।
सिद्धे
सिध मिल्या रे
अवभू बोल्या
अरु लाधा।
तुम
तो व्यर्थ ही
शोरगुल मचाते
हो। तुम्हारे
बोलने में और
क्या है? तुम्हारे
बोलने में कुछ
भी तो नहीं है,
क्योंकि
तुमने कुछ
जाना नहीं है,
बोलने को
तुम्हारे पास
क्या है? लेकिन
कितना लोग बोल
रहे हैं, कितनी
बकवास चल रही
है! तुम्हारे
कान में दूसरे
लोग कचरा डाल
देते हैं, तुम
दूसरों के कान
में कचरा डाल
देते हो, कचरे
पर कचरा
इकट्ठा होता
जाता है। तुम
जरा गौर करना,
दिन— भर में
तुम जितनी
बातें बोलते
हो उनमें से
नब्बे प्रतिशत
तो बिलकुल
व्यर्थ हैं, न कही होतीं
तो चल जाता।
लेकिन झलझलति
आधा... वह जो आधा—
आधा भरा है, वह झलझलाये
न तो क्या करे?
खूब शोरगुल
मचता है। लोग
बातचीत में
लगे हैं। सारी
पृथ्वी
बातचीत से भरी
है। अकारण, व्यर्थ की
बातचीत!
गोरख
कहते हैं :
सिद्धे सिध
मिल्या। जो
जानते हैं वे
तो उन्हीं से
बोलते हैं
जिनके जानने
की आतुरता
स्पष्ट है।
सिद्ध उनसे
बोलते हैं, जो
संभावी सिद्ध
हैं; हर
किसी से नहीं
बोलते। हर
किसी से बोलने
का कोई
प्रयोजन नहीं
है। सिद्ध तो
उनके ही पास
बैठते हैं
जिनके संभावी
सिद्ध होने की
बात की झलक
मिल रही है।
सदगुरु उनसे
बोलते हैं, जो सद शिष्य
हैं। हर किसी
से नहीं बोलते।
मुझसे
पूछा जाता है
कि यहां सभी
को आगमन पर
सुविधा क्यों
नहीं है? सभी
की यहां कोई
जरूरत नहीं है।
मैं उनसे बोल
रहा हूं जो
संभावी हैं।
मैं उनसे बोल
रहा हूं जो
आतुर हैं, जो
प्यासे हैं।
सिद्धे
सिध मिल्या रे
अवधू बोल्या
अरु लाधा।
तब
बोलने में कुछ
लाभ है। जो हो
गया है सिद्ध, वह
उनसे बोले जो
होने वाले
सिद्ध हैं, तब कुछ लाभ
है, अन्यथा
व्यर्थ की
बकवास है।
गरब न
करिबा सहजै
रहिबा भणत
गोरष रावं।
अहंकार
न करना और सहज
भाव से जीना, ऐसी
छोटी—सी
शिक्षा है, लेकिन बड़ी
से बड़ी शिक्षा
यही है। गोरख
कहते हैं.
इतना ही तुमसे
कहता हूं इतनी
बात तुम समझ
लो, इतनी
बात तुम साध
लो, सब हो
जायेगा।
गरब न
करिबा सहजै
रहिबा..।
सहज
रहना। क्या
अर्थ है सहज
रहने का? हिसाब—किताब
से मत रहना, निर्दोष भाव
से रहना।
वृक्ष सहज हैं,
पशु—पक्षी
सहज हैं, सिर्फ
आदमी असहज है।
असहजता कहौ से
आ रही है? जो
नहीं हूं वैसा
लोगों को
दिखला दूर जो
नहीं हूं वैसा
सिद्ध कर दूं—इससे
असहजता पैदा
होती है। हूं
गरीब, लेकिन
लोगों पर धाक
जमा दूं अमीर
होने की। हूं
अज्ञानी, लेकिन
लोगों को खबर
रहे कि ज्ञानी
हूं। हूं तो
नाकुछ, लेकिन
बहुत कुछ
बतलाने का मोह
है, आग्रह
है। वह अहंकार
तभी तो भर
सकता है। तो
तुम जो नहीं
हो वैसा लोगों
को बतला रहे
हो। भीतर कुछ
बाहर कुछ। इस
धोखे से
असहजता हो गयी
है।
सहज
तुम तभी हो
सकोगे जब तुम
यह अहंकार की
यात्रा छोड़ दो।
तुम कहो, जैसा
हूं हूं—बुरा
तो बुरा, भला
तो भला। जैसा
हूं ऐसा
परमात्मा का
बनाया हुआ हूं।
इसमें अकारण
पर्दे न
डालूंगा, छिपाऊंगा
नहीं। अभी
तुम्हारी
हालत ऐसी है
जैसे घाव है, और उस पर
तुमने गुलाब
का फूल रखकर
छिपा दिया है।
तो तुम असहज
हो गये हो।
घाव तो भीतर
है, गुलाब
का फूल ऊपर
रखा है। भीतर
मवाद पक रही
है। और गुलाब
के फूल के
कारण घाव भर
भी नहीं सकता,
क्योंकि
सूरज की रोशनी
न मिलेगी, ताजी
हवा न मिलेगी।
भीतर
तुम जो हो, वैसा
ही अपने को
उघाड़ दो। तब
तुम सहज हो
जाओगे। भय
छोडो। भय क्या
है? लोग
बुरा ही कहेंगे
न, तो हर्ज
क्या है? लोग
ध्यान नहीं
देंगे, सम्मान
नहीं करेंगे,
तो खो क्या
जायेगा? उनके
सम्मान से
मिलता ही क्या
है?
नाथ
कहै तुम आप? राखौ
हठ करि बाद न
करणां।
अपनी
आत्मा को
सम्हाल लो।
नाथ कहै तुम
आपा राखी!
कहते हैं
गोरखनाथ कि तुम
अपनी आत्मा को
सम्हाल लो; व्यर्थ
के विवाद में
मत पड़ो कि मैं
यह हूं कि मैं
वह हूं।
........हठ
करि बाद न
करणां।
तुम
जो हो सो हो।
ऐसा तुम्हें
परमात्मा ने
बनाया। इस आपे
को सम्हालो।
नाथ
कहै तुम आपा
राखौ हठ करि बाद
न करणां।
यहु जग
है कांटे की
बाड़ी देखि
देखि पग धरणीं।
यहां
बड़ी काटे की
बाडिया लगी
हैं। बड़ी
मनमोहक
बाडिया हैं।
दूर से फूल
मालूम पड़ते
हैं;
जब चुभ
जायेंगे तब
पता चलेगा
काटे थे। दूर
से बड़े मनमोहक
सुहावने ढोल
मालूम होते हैं;
जब पास
पहुंच जाओगे,
फंस जाओगे,
तब अड़चन
होगी। मछली भी
फंस जाती है न,
आटे को
देखकर, आटे
के भीतर छिपा
कांटा तो उसे
भी दिखाई नहीं
पड़ता। दूसरे
तुम्हारी
प्रशंसा करते
हैं, आटा
लगाया
उन्होंने।
उसी प्रशंसा
में कांटा है,
अब तुम फंसे।
इसीलिए
तो खुशामद का
इतना बल है
दुनिया में।
तुम किसी गधे
से गधे को भी
कहो कि आह, कैसी
बुद्धि! कैसे
सुधी हैं आप!
तो गधा भी मान
लेता है। गधा
भी नहीं सोचता
कि मैं और
सुधी और
बुद्धिमान!
क्योंकि
चाहता है
मानना। तुमने
उसके मन की
बात कह दी।
कहावत है न, कि समय पड़ने
पर गधे को भी
बाप कहना पड़ता
है। और गधा
मान लेता है।
और गधा भी जानता
है भीतर से कि
मैं गधा हूं
और इनका बाप
हो नहीं सकता
हूं। मगर
मानने का मन
करता है कि
मान लो, यह
मौका क्यों
छोड़ रहे हो? तुम कौवे को
भी कोयल कहो
तो कौवा भी
इनकार नहीं
करेगा। अगर
तुम बहुत
प्रशंसा करो
और जोश में आ
जाये तो काव—काव
करके सिद्ध कर
देगा कि कौवा है।
लेकिन वह
सोचेगा कैसी
कुहू—कुहू की
पुकार मचा रहा
है!
खुशामद
का इसीलिए तो
इतना प्रभाव
है। खुशामद
तुम किसी की
भी करो, सब
काम के लिए
राजी हो जाते
हैं. हर काम हो
सकता है। तुम
भी खुशामद में
आ जाते हो।
जरा देख—देख
कर चलना! देखि—देखि
पग धरणी, यहु
जग है कॉटे की
बाड़ी। यहां
बहुत कांटे
हैं; फूल
तो ऊपर—ऊपर
हैं, कांटे
भीतर हैं।
पकडने तो
जाओगे फूल, फिर चुभ
जाओगे काटे
में, फिर
निकलना
मुश्किल हो
जायेगा। ऐसे
ही तो लोग पड़
गये हैं लोभ
में, क्रोध
में, अहंकार
में—और असहज
हो गये हैं।
गरब न
करिबा सहजै
रहिबा भणत
गोरष रावं।
और
गरब के बड़े
रास्ते हैं।
ऐसा मत सोचना
कि सम्राट हैं
वे ही अहंकार
से भरे होते
हैं,
भिखमंगों
का भी अहंकार
होता है।
भिखमंगों के
भी अहंकार
होते हैं।
मैंने
सुना है, एक
भिखमंगा
मुल्ला
नसरुद्दीन की
गली में रोज भीख
मांगता था, कुछ दिन तक
दिखाई नहीं
पड़ा। बाजार
में मिला एक
दिन तो मुल्ला
नसरुद्दीन ने
पूछा कि भाई
दिखाई नहीं
पड़ते, पहले
रोज जान खाते
थे!. इतने दिन
तक तुमने जान
खायी, इतने
सालों तक, कि
अब आदत बन गयी
है। कई दफे
खयाल आ जाता
है कि तुम आये
नहीं, बात
क्या है? दरवाजे
पर आकर तुमने
अपना डंडा
नहीं पटका!
तो
उसने कहा कि
वह गली मैंने
अपने दामाद को
दे दी। मुल्ला
ने कहा : मतलब? तो
कहा वह गली
मेरी थी। वहां
कोई पर नहीं
मार सकता
दूसरा भिखारी,
हाथ—पैर तोड़
का। लंगड़ा है,
घसिटता है,
कहता है हाथ—पैर
तोड़ दूंगा, कोई भिखमंगा
वहां पर नहीं
मार सकता। वह
गली मेरी थी, दामाद को दे दी।
लड़की की शादी
हो गयी न!
मुल्ला
सोचता था गली
अपनी है, आज
पता चला कि
गली किसकी थी।
तुम यह मत
सोचना कि सम्राटों
का ही अहंकार
होता है, भिखमंगों
का भी अहंकार
होता है। उनके
भी राज्य होते
हैं, उनकी
भी सीमाएं
होती हैं।
उनके जिले में
घुस जाओ, मुश्किल
में पड़ जाओगे।
वहां मांगो तो
उनको उसका
टैक्स चुकाना
पड़ेगा
तुम्हें। नये
भिखमंगे अगर
मांग लें किसी
पुराने भिखमंगे
की गली में तो
टैक्स चुकाना
पड़ेगा
स्वभावत:, तुम
शायद यही
सोचते होओ, तुम्हें पता
भी न हो कि तुम
किस भिखमंगे
के हो! रास्ते
पर कोई
भिखमंगा हो, जिसने
तुम्हें
खरीदा हुआ है।
उसे हक है, उसके
पास लाइसेंस
है तुमसे
मांगने का। कोई
दूसरा
भिखमंगा
मांगेगा तो
उसे उसका टैक्स
चुकाना पडेगा।
तुम्हें पता
ही नहीं है कि
तुम बिक गये
हो, कि
रास्ते पर कोई
भिखमंगा
तुम्हारा
मालिक है और
हकदार है।
यह
मत सोचता कि
धनी का ही
अहंकार होता
है। यह मत
सोचना कि भोगी
और सांसारिक
का ही अहंकार
होता है।
योगियों का
बड़ा अहंकार
होता है, त्यागियों
का और भी बड़ा
अहंकार होता
है—इतना छोड़
दिया! गर्व से
मत...। पंडितों
का बडा अहंकार
होता है।
गोरख
ने कहा है.
पंथ
बिन चलिबा
मानि बिन
जलिबा अनिल
तृषा जहटिया
ससंवेद
श्री गोरष
कहिया
बूझिल्यौ
पंडित पढिया।
कहा
कि सुन लो ऐं
पढ़नेवाले
पंडितो, ऐ
तोतारटंत
पंडितो!
तुम्हारे पास
है क्या? मगर
अकड़े जा रहे
हो। कुछ कचरा,
कुछ शब्द
उधार बासे!
ससंवेद
श्री गोरख
कहिया...।
गोरख
कहते हैं :
मैंने स्वयं
अनुभव से जाना
है और तब
मैंने पाया है
कि तुम्हारे
पास सिवाय शब्दों
के —और कुछ भी
नहीं है।
........बूझिल्यौ
पंडित पढ़िया
ऐ
पढे—लिखे
पंडितो, ऐ
तथाकथित
पंडितो! मैं
जो कहता हूं
उसे बूझो, थोड़े
होश में आओ।
पंथ बिन भलिबा।
एक ऐसी भी गति
है जो बिना
पंथ के होती
है; जिसमें
मार्ग नहीं
होता और मंजिल
आ जाती है।
पुम्हें उसका
कुछ पता है? पढ़—पढ कर
पंडित हो गये,
तुम्हें उस
राह का पता है
जो होती ही
नहीं और।।जिल
आ जाती है।
पंथ
बिन चलिबा
अगनि बिन
जलिबा.......
—तुम्हें उस
आग का पता है
जिसके बिना
जलने की घटना
घट जाती है।
मैं एक ऐसी आग
जानता हूं के
है नहीं लेकिन
जला जाती है!
मैं एक ऐसी
मृत्यु जानता
हूं जो घटती नहीं
और हो जाती है।
मुझे एक ऐसी
मंजिल का पता
है जिस तक
पहुंचने का
कोई मार्ग नहीं
है। मुझे
तुम्हारे
भीतर जो बैठा
है उसका पता
है; उस तक
पहुंचने का
मार्ग होगा भी
क्या? मार्ग
तो दूर तक
जाने के होते
हैं।
परमात्मा अगर
दूर हो तो। मार्ग
हो सकता है।
परमात्मा तो
तुम हो तो
मार्ग कैसा? तुम तो
परमात्मा हो
ही।
पंथ
बिन चलिबा.......।
इसलिए
अगर तुम रुक
जाओ तो पहुंच
जाओ।
अगनि
बिन जलिबा........।
और
यह अहंकार तो झूठा
है,
इसको जलाने
के लिए कोई
वास्तविक
अग्नि की जरूरत
नहीं है। यह
तो तुम समझ
जाओ तो बस समझ
की अग्नि काफी
है और यह जल
जायेगा।
गोरख
कहते हैं :
सीधी—सी मेरी
शिक्षा है—सहज
की। जैसा कबीर
ने कहा, गोरख
के आधार पर ही
कहा. साधो, सहज
समाधि भली!
स्वामी
बनषडि जाऊं तो
गुध्या
व्यापै नग्री
जाऊं त माया।
वे
कहते हैं. ऐ
स्वामियो, ऐ
भगोड़े
संन्यासियो!
अगर जंगल
जाओगे तो भूख
पकड़ेगी। और
बैठे जंगल में
चौबीस घंटे
भोजन का चिंतन
करोगे, कि
पता नहीं कोई
देगा, लायेगा,
नहीं
लायेगा? और
अगर नगर जाओगे
तो माया
पकड़ेगी, मोह
पकड़ेगा, ममता
पकडेगी, आसक्ति
पकड़ेगी।
देखोगे एक
सुंदर स्त्री
को गुजरते और
मोह पकड़ लेगा।
देखोगे एक
सुंदर भवन और आकांक्षा
जगेगी—काश, मेरा होता!
अगर नगर में
रहोगे तो माया
पकड़ती है। अगर
जंगल चले गये
माया से बचने
को तो भूख
पकड़ती है।
करोगे क्या? तुम बड़ी
मुश्किल में
पड़ोगे।
भरि
भरि षाऊं त
बिद बियापै!
अगर
खूब डट—डट कर
खाओगे, खूब
भर— भर कर
खाओगे तो उस
भरने से, उस
अतिरिक्त
भोजन से सिर्फ
कामवासना
निर्मित होगी।
जरूरत से
ज्यादा तुम खा
लेते हो जो, वही
तुम्हारे
भीतर वासना
बनता है।
क्यों वासना
बनता है? क्योंकि
जो तुमने
जरूरत से
ज्यादा ऊर्जा
अपने भीतर ले
ली है, वह
ऊर्जा तुम
सम्हाल नहीं
सकते, वह
बाहर जानी
चाहिए, वह
अतिरिक्त है,
वह
अनावश्यक है,
वह बोझिल है।
वासना
क्या है? ऊर्जा
के बाहर जाने
का उपाय है।
संभोग क्या है?
ऊर्जा को
बाहर फेंकने
का उपाय है।
जब तुम्हारे
पास जरूरत से
ज्यादा ऊर्जा
होगी जो तुम
सम्हाल न
सकोगे, वह
अपने—आप बहने
लगेगी बाहर की
तरफ। उसे जाना
ही होगा बाहर।
एक पात्र में
उतना ही तो जल
भर सकते हो न
जितना भरा जा
सकता है। अगर
ज्यादा भर
दिया, पात्र
के ऊपर से बह
जायेगा।
वासना
तुम्हारे
पात्र के ऊपर
से बहती हुई
ऊर्जा है, इसलिए
अगर ज्यादा
खाओगे तो
कामवासना
पकड़ेगी। अब
बड़ी मुश्किल
है, अगर कम
खाओगे तो दिन—रात
भोजन ही भोजन
की याद आयेगी।
तो
करो क्या, फिर
मार्ग क्या है?
सहज हो जाओ,
गोरख कहते
हैं। मध्य में
हो जाओ। उतना
खाओ जितना
आवश्यक है। न
तो जंगल जाओ, क्योंकि
वहां भूख
पकड़ेगी; न
शहर में इतने
रम जाओ कि शहर
के अतिरिक्त
तुम्हें कुछ
और बचे ही न, क्योंकि वहा
कामना पकड़ेगी।
फिर ढंग क्या
है? शहर
में ऐसे रहो
जैसे कोई जंगल
में रहे, यह
मध्य हुआ। घर
में ऐसे रहो
जैसे कोई वन
में रहे।
संसार में रहो
लेकिन संसार
को अपने में
मत आने दो। जल
में कमलवत रहो।
क्यों
सीझति जल
व्यंद की काया।
तब
तुम जान पाओगे
कि यह रज—वीर्य
से बनी हुई
देह भी
सिद्धावस्था
को कैसे उपलब्ध
हो जाती है! तब
तुम जान पाओगे।
अगर तुमने इस
तरह के ढंग
चुने कि शहर
से डर गये कि
यहां कामना
पकड़ती है और
जंगल चले गये, तो
वहां भूख
पकड़ेगी। अगर
जंगल से डरे
कि यहा भूख
पकड़ती है, शहर
आ गये... और
जाओगे कहां, शहर या जंगल,
और तो कोई
उपाय नहीं है।
अगर तुम
द्वंद्व में
से एक को
चुनोगे तो तुम
ज्यादा देर
उसमें रह न
पाओगे, क्योंकि
जो विपरीत है
उसकी जरूरत
तुम्हें खींचने
लगेगी, आकर्षित
करने लगेगी।
तो
सम्यक आहार लो—उतना
जितना ध्यान
के लिए
पर्याप्त है; उतना
जितना पूजा और
प्रार्थना के
लिए पर्याप्त
है। सम्यक
आहार लो, देह
को उतना दो
जितना देह की
सहज क्रियाओं
के लिए आवश्यक
है। ज्यादा मत
डालो, अन्यथा
ज्यादा ही
तुम्हें अड़चन
में डालेगा।
अति मत करो।
कुछ
लोग हैं, ठूंस—ठूंसकर
खा रहे हैं।
उनका कुल काम
इतना ही है कि
भोजन, भोजन,
भोजन...
उन्हें कुछ और
सूझता नहीं।
फिर अतिरिक्त
भोजन से
अतिरिक्त
ऊर्जा पैदा होती
है। फिर ऊर्जा
का निष्कासन
जरूरी है, नहीं
तो ऊर्जा
बोझिल कर देगी,
भार हो
जायेगी। फिर
उसके लिए
वासना में जाओ।
फिर वासना में
ऊर्जा बह जाती
है। फिर वासना
में ऐसे डूबते
हैं लोग कि
जितनी हो ऊर्जा,
बहा देते
हैं। फिर खाली
हो जाते हैं, रिक्त हो
जाते हैं। तो
फिर भरो भोजन
से, क्योंकि
अब रिक्त हो
गये। अब
खालीपन अखरता
है। यह तो बड़ी
उपद्रव की बात
हो गयी। एक
अति से दूसरी
अति, दूसरी
से पहली, पहली
से दूसरी, ऐसे
ही डोलते
रहोगे, घड़ी
के पेंडुलम की
भांति! तो
जीवन की घड़ी
चलती रहेगी, आवागमन होता
रहेगा। रुक
जाओ मध्य में।
कभी घड़ी के
पेंडुलम को
बीच में रुका
कर देखा है? जैसे ही
पेंडुलम
रुकता है, घड़ी
रुक जाती है।
आवागमन बंद हो
गया, समय
समाप्त हुआ।
समय समाप्त
हुआ तो संसार
समाप्त हुआ।
धाये न
षाइबा भूखे न
मरिबा अहनिसि
लेबा
ब्रह्म—अननि
का भेवं।
हठ न
करिबा पड्या न
रहिबा
यूं
बोल्या
गोरषदेवं।
सीधे—सादे
सूत्र हैं, पर
ऐसे कि लग
जायें तो तीर
की तरह हृदय
में उतर जायें
और जीवन
रूपांतरित हो जाये।
धाये न
षाइबा...! भर— भर
कर मत खाओ,
टूट
मत पड़ो भोजन
पर!
धाये न
षाइबा.......
धावा
न बोल दो।
भूखे न
मरिबा......
और
भूखे भी न मरो।
अनशन मत करो
और उपवास मत
करो।
अहनिसि
लेबा ब्रह्म—
अननि का भेवं
सम्यक
रूप से जीयो
और ब्रह्म के
रहस्य को दिन—रात
गुनो। यह जो
सारा जगत
रहस्य से भरा
है,
उस परम के
सौंदर्य से
आपूरित है। उस
परम का प्रसाद
सब जगह मौजूद
है। इन धूप की
किरणों में, पत्तों से
झरती हुई धूप
के चित्तों
में, हरे
पत्तों में, फूलों में, पक्षियों
में, लोगों
में, यह जो
विराट जीवन है,
इसके रहस्य
को पीयो, इससे
अपने को भरों।
मन
मेरे, उनकी
बात कहो!
उनकी
छवि की तुलना
में
सब रंग—रूप
हैं फीके
तृप्त
हो गई हूं
उनकी
करुणा
के जल को पीके
उनकी
लहर—लहर पर
तिरकर, उनके
संग बहो!
मन
मेरे, उनकी
बात कहो!
उनकी
तरल—चपल
गतिविधियां,
दुनिया—
भर से न्यारी;
उनकी
मधुर—मधुर
वाणी—
कितनी
है मुझको
प्यारी
उनकी
छाया बनकर, प्रतिपल
उनके पास रही!
मन
मेरे, उनकी
बात कहो!
उनकी
सहज निकटता का
सुख,
जीवन
की थाती है
पर यदि
कोई वेला
प्रिय की—
बिछुड्न
की आती है
तो
भीतर— भीतर
उनसे, दूरी का
ताप सहो!
मन
मेरे, उनकी
बात कहो!
प्रभु
का स्मरण करो।
न तो भोजनभट्ट
हो जाओ, और न
भोजन भट्ट के
विपरीत सदा
अनशन, उपवास
में लग जाओ।
याद करो श्रोण
की कथा फिर—जीवन
की वीणा के
तार न तो बहुत
कसे हों न
बहुत ढीले, तो संगीत
उठता है। वही
संगीत भजन है।
वही संगीत
कीर्तन है।
वही संगीत
स्मरण है।
मन
मेरे, उनकी
बात कहो!
प्रभु का
स्मरण करो।
उसके रहस्य को
गुनो। और उसका
रहस्य भरपूर
है, चारों
तरफ छितरा हुआ
है।
स्वर
विहगिनी!
फैला
मुक्ताभ पंख
प्राणों
में फूंक शंख,
उठती
तुम ऊर्ध्व
वेग
गगन
रगिणी!
मन के
कर क्षितिज
पार
खोल
हृदय—स्वर्ग
द्वार
बरसाती
रस निर्झर
ध्वनि
तरगिनी!
भेद
बुद्धि—सूक्ष्म
व्योम
पीकर
अमृतत्व सोम
गाती
आनंद मत्त,
चिर
असगिनी!
बेध
चंद्र, बेध
सूर्य
घोषित
कर सत्य—तूर्य
हरती
भव दृष्टिभेद
स्वप्न
भगिनी!
तम की
केंचुल उतार
चूम
दीप्त सहस्रार
नाभि
विवर में जगती
चिद
भुजगिनी!
बाहर
भी वही है, भीतर
भी वही है; थोड़े
उसके रहस्य
में डूबो। वही
उठता दिखाई
पड़ेगा
वृक्षों में,
वही चांद—तारों
से झरता हुआ
मालूम पड़ेगा।
वही तुम्हारी
श्वास—श्वास
में आदोलित।
वही तुम्हारी
धड़कन— धड़कन
में छिपा। वही
तुम्हारी
चेतना में
व्याप्त—उसके
रहस्य को पीयो।
जो
व्यक्ति जगत
के सौंदर्य से
जितना भर जाये, उतना
ही परमात्मा
के निकट पहुंच
जाता है। यह
सब सौंदर्य
उसका है।
हठ न
करिबा पड्या न
रहिबा यूं
बोल्या
गोरषदेवं।
और
जिद्द मत करना।
जरूरत से
ज्यादा शरीर
को कसने की
चेष्टा मत करना।
हठ न
करिबा.......।
अतिरिक्त
श्रम मत कर
लेना, अन्यथा
थक जाओगे और
टूट जाओगे।
मगर उल्टी बात
भी न कर लेना।
पड्या
न रहिबा.......
आलस्य
मत कर लेना।
पड़े ही मत
रहना—कि जब
श्रम नहीं
करना, प्रयास
नहीं करना, तो पड़े रहें,
फिर क्या
करना है? दोनों
के मध्य..।
कर्म करना—अकर्म
की भांति।
करना भी और
कर्ता न बनना।
कर्ता वही रहे,
तुम केवल
उपकरण, निमित्त
मात्र... जैसा
कृष्ण ने
अर्जुन को कहा
गीता में कि
तू सिर्फ
निमित्त हो जा।
कर्ता तो
परमात्मा है,
तू उसके हाथ
की प्रत्यंचा
हो जा। तुझसे
तीर चलाये तो
तीर, और
तुझसे मंदिर
की आरती उतारे
तो मंदिर की
आरती। न तो
अति सक्रिय हो
जाना.. जैसा कि
जिन लोगों को कर्मयोग
की धारणा पकड़
जाती है वे
अति सक्रिय हो
जाते हैं। और
न अति निष्किय
हो जाना।
अकर्मयोग भी
है। उन्होंने
भी धारणाएं
बना ली हैं।
उन्हें भी
आधार मिल गये
हैं
शास्त्रों से,
संतों की
वाणी से। अर्थ
उन्होंने
अपने निकाल
लिए हैं। जैसा
कहा बाबा मलूक
ने—
अजगर
करे न चाकरी
पंछी करें न
काम।
दास
मलूका कह गये
सबके दाता राम।।
आलसियो
ने इसमें से
अर्थ निकाल
लिया।
उन्होंने
इसकी अच्छी
सुंदर
व्याख्या कर ली
है। उन्होंने
कहा,
तो ठीक है, तो पड़े रहो
मस्त जैसे
अजगर पड़ा रहता
है। तो कुछ
साधु—संत
सिर्फ पड़े
रहते हैं। वे
सोचते हैं
करना क्या है,
बाबा
मलूकदास कह
गये—सबके दाता
राम! देगा तो
देगा...। रह जाओ
भाग्य के
भरोसे।
यह
पूरा देश
भाग्य के
भरोसे मर गया, इस
पूरे देश पर
आलस्य छा गया
है, यह
पूरा देश
काहिल और
सुस्त हो गया,
और इसने
अपनी काहिली
और सुस्ती को
बड़ा आध्यात्मिक
रंग दे लिया
कि भाग्य में
जो होगा सो
होगा। तो
गरीबी है तो
गरीबी है।
भिखमंगी है तो
भिखमंगी, गुलामी
है तो गुलामी।
भाग्य से सब
कुछ होगा।
उसकी इच्छा जब
होगी तो सब
ठीक हो जायेगा;
हमें तो
घिसटना है।
इस
देश का दुख है
कि हमने यह
सूत्र पक्क
लिया आलस्य का; हम
पड़े रह गये।
पश्चिम की
पीड़ा यह है कि
उन्होंने
सक्रियता पकड़
ली, इतनी
ज्यादा पकड़ ली
कि अब ये रात
सोये कैसे, यह भी भूल
गये। अब बिना
शामक दवा के
सो नहीं सकते।
इतनी सक्रियता
है, इतनी
तरंगें उठ
गयीं, इतना
चित्त चंचल हो
गया है कि रात
बिस्तर पर पड़
जाते हैं, लेकिन
चित्त सोने का
नाम नहीं लेता।
वह सोच—विचार
किये चला जाता
है; गणित
बिठाता है, हिसाब लगाता
है, योजना
बनाता है, कल
की दुकान, कल
का बाजार, कल
की दुनिया, उसकी योजना
में ही लीन रह
जाता है; रात
ऐसे ही बिसर
जाती है।
पश्चिम
पागल हुआ जा
रहा है, अति
सक्रियता के
कारण। और
पूर्व दीन—दरिद्र
हो गया, अति
निष्कियता के
कारण। अगर
गोरख की बात
समझो तो न तो
पागल होने की
जरूरत है और न
दीन—दरिद्र
होने की जरूरत
है।
गोरख
कहते हैं :
हठ न करिबा
पड्या न रहिबा
यूं बोल्या
गोरष देवं।
मैं
तुमसे बीच की
बात कहता हूं :
करो काम, लेकिन
निष्काम भाव
से। कर्म में
उतरो, लेकिन
शांत, मौन...
कि कर्म
तुम्हें
उद्विग्न न कर
जाये। कर्म
में उतरो, मगर
विक्षिप्त मत
हो जाओ।
अति
अहार यंत्री
बल करै नासै
ग्यान मैमुन
चित धरै।
बहुत
भोजन करोगे, इंद्रिया
बल करेंगी।
बोध नष्ट होगा।
नासै
म्यान मैथुन
चित धरै
और
जितना बोध
नष्ट होता है
उतना चित्त
में सिवाय
कामवासना के
कुछ भी नहीं
रह जाता। इस
बात को समझना।
बोध की मात्रा
जितनी बढ़ती है, काम
की मात्रा
उतनी कम होती
जाती है। बोध
की मात्रा
जितनी कम होती
है, काम की
मात्रा उतनी
ज्यादा होती
है। ये दोनों
हमेशा एक—दूसरे
पर प्रभाव
डालते हैं।
तुम
प्रयोग करके
देखना। अगर
तुम ज्यादा
भोजन कर लोगे
तो मूर्च्छा
पकड़ेगी, तत्क्षण
नींद आने
लगेगी। इसलिए
भोजन के बाद
नींद आने लगती
है। किसी रात
बिना भोजन किए
रह जाओ तो रात—
भर नींद न
आयेगी।
क्योंकि भोजन
ही नहीं किया
तो मूर्च्छा
नहीं पकड़ेगी।
इसलिए उपवास
जो करता है
उसे रात नींद
नहीं आती, या
नींद कम हो
जाती है।
बुढ़ापे में
नींद कम हो
जाती है, क्योंकि
भोजन कम हो
जाता है। शरीर
भोजन ज्यादा
नहीं पचा सकता।
उम्र चुकने
लगी तो अब
नींद की भी
कोई जरूरत नहीं
रह जाती। नींद
के साथ
मूर्च्छा
बढ़ती, नींद
में जरूरी है
कि तुम्हारी
देह तुम्हारी आत्मा
से सबल हो
जाये, तो
ही नींद बढ़
सकती है। भोजन
करते हो तो
देह बढ़ती है, आत्मा
निर्बल होती
है। अति भोजन
करते हो तो देह
बहुत बोझिल हो
जाती है, तंद्रा
में पड़ जाना
पड़ता है।
जैसे—जैसे
होश बढ़ेगा
वैसे—वैसे तुम
पाओगे कि
कामवासना कम
होने लगी, क्योंकि
देह का बल
आत्मा पर कम
होने लगा।
इसलिए गोरख या
मैं तुमसे
कामवासना से
लड़ने को नहीं
कहते, कहते
हैं बोध में
जागने को।
ज्यादा
जागरूक बनो।
जो भी करो, जागरूकता
से करो।
कामवासना में
भी उतरों तो
जागरूकता से
उतरो, होशपूर्वक
उतरो। और तुम
चकित हो जाओगे,
जैसे—जैसे
होश बढ़ेगा
वैसे—वैसे
कामवासना
अपने से क्षीण
हो जायेगी। एक
दिन तुम अचानक
पाओगे बिना
दबाये, बिना
लड़े कामवासना
कहां तिरोहित
हो गयी, पता
नहीं चलता—खोजने
जाते हो भीतर,
मिलती नहीं।
सब तरफ भीतर
प्रकाश हो गया
है जागरण का।
कामवासना
और ध्यान का
वैसा ही संबंध
है,
जैसा रोशनी
और अंधेरे का।
रोशनी जल जाये,
अंधेरा
समाप्त।
अंधेरे को
हटाने की
जरूरत नहीं, कौन हटा
पायेगा, कैसे
हटा पायेगा? अंधेरा कोई
हटा सकता है? सिर्फ दीया
जलाना होता है।
इसलिए जो लोग
कामवासना से
लड़ रहे हैं, बड़े
मूढ़तापूर्ण
कृत्य में लगे
हैं। लड़ने से
वासना और
बढ़ेगी, तुम
और ग्रसित हो
जाओगे।
अंधेरे से
लड़कर कोई कभी
जीता नहीं।
तलवार से काटो
तो काम न
आयेगी। डंडे
मारो, कुछ
अर्थ न होगा।
धक्के लगाओ, गांव— भर के
पहलवानों को
इकट्ठा कर लो,
एक छोटी—सी
कोठरी का
अंधेरा बाहर न
निकाल पाओगे।
और एक छोटा—सा
दीया जलाओ और
बस अंधेरा
कहां गया, पता
नहीं चलता।
अंधेरा कुछ है
थोडे ही, अंधेरा
नकार है।
अंधेरा केवल
अभाव है, प्रकाश
की
अनुपस्थिति
है। प्रकाश
उपस्थित हो
गया, बात
हो गयी। न तो
अंधेरा था, न कहीं गया; सिर्फ
प्रकाश नहीं
था, प्रकाश
आ गया।
कामवासना
ध्यान की
अनुपस्थिति
है। ध्यान का
दीया जल जाये, बस
कामवासना गयी।
मुझसे
यहां लोग
पूछते हैं कि
आप लोगों को
ब्रह्मचर्य
की शिक्षा
क्यों नहीं
देते? ब्रह्मचर्य
की शिक्षा दी
ही नहीं जा सकती;
शिक्षा
केवल ध्यान की
दी जा सकती है।
ब्रह्मचर्य
तो परिणाम है।
जैसे—जैसे
ध्यान सघन
होता है, ब्रह्मचर्य
अपने—आप फलित
होगा। सारा
श्रम ध्यान पर
करना है। जो
ब्रह्मचर्य
पर सीधी कोशिश
करेगा, वह
ब्रह्मचर्य
के नाम पर
कामवासना को
दबाकर बैठ
जायेगा। और
ब्रह्मचर्य
तो नहीं होगा,
ऊपर—ऊपर
होगा, भीतर
आत्मा में
वासना के कीड़े—मकोड़े
सरकेंगे।
भीतर वासना के
सांप फन
उठायेंगे।
उसकी जिंदगी
बड़ी असहज हो
जायेगी, उसकी
जिंदगी बड़ी
कठिन हो
जायेगी। उसके
जीवन में
शांति पैदा
नहीं होगी, न समरसता
आयेगी; वह
तो बड़े
द्वंद्व में
घिर जायेगा।
एक सतत कलह
उसके भीतर
चलती रहेगी और
कलह में कैसे
परमात्मा का
अनुभव हो सकता
है? चित्त
निर्द्वंद्व
चाहिए तो ही
परमात्मा की प्रतीति
हो सकती है।
अति
अहार यंत्री
बल करै नासै
ग्यान मैमुन
चित धरै।
व्यापै
न्यंद्रा
झंपै काल...।
नींद
पकड़ लेती है, मौत
पकड लेती है।
.......ताकै
हिरदै सदा
जंजाल।
और
फिर भीतर सदा
जंजाल बना
रहता है, एक
उपद्रव मचा
रहता है। एक
विक्षिप्तता
बढ़ती चली जाती
है। तुम जरा
कभी अपने भीतर
झांककर देखो
कैसे पागल हो!
वहां पागलपन
चल रहा है। इस
पागलपन के
रहते तुम कैसे
जान पाओगे
सत्य को; असंभव
है! यह पागलपन
जाना चाहिए।
और यह पागलपन
एक ही उपाय से
जाता है—हसिबा
खेलिबा धरिबा
ध्यानं। हंसे,
खेले, नाचे,
मस्त हो और ध्यान
धरे। बस यह
चला जाता है।
दूधाधारी
परिघरि चित्त.,.।
कुछ
हैं
जिन्होंने तय
कर लिया है कि
दूध ही लेंगे।
सोचते हैं दूध
शुद्ध आहार है।
मैं
रायपुर में
कुछ दिन
मेहमान था।
वहां एक मठ है—दूधाधारी
मठ। वहां
सिर्फ दूध ही
पीकर रहते हैं
लोग। लोग
सोचते हैं दूध
से सब ठीक हो
जायेगा। पागल
हो गये हो? पहली
तो बात, तुम
जो दूध पी रहे
हो, वह
तुम्हारे
लिये बनाया
नहीं गया है।
गाय का पीयोगे
न, वह
बनाया गया था
बछड़ों के लिए।
उससे सांड
पैदा होते हैं।
दूध शुद्ध
आहार नहीं है।
दूध से
कामवासना
जगेगी। और
कामवासना भी
वैसी जैसी
सांड की होती
है! छोटी—मोटी
नहीं, क्योंकि
वह बनाया सांड
के लिए
परमात्मा ने,
तुम्हारे
लिए बनाया
नहीं है। और
दूध की
प्रकृति में
व्यवस्था है
कि बच्चे को
मिले, जब
तक बच्चा भोजन
न पचाने लगे
तब तक मिले।
कोई पशु एक
उम्र के बाद
दूध नहीं पीता,
सिवाय आदमी
को छोड्कर।
आदमी
अस्वाभाविक
व्यवहार कर
रहा है। तो
चाय इत्यादि
में, काँफी
में थोड़ा—बहुत
डाल लो तो
चलेगा; मगर
दूधाधारी मत
हो जाना।
क्योंकि
जब मैं रायपुर
में था तो
दूधाधारी मठ के
एक महंत मुझे
मिलने आये।
उन्होंने कहा
कि कामवासना
पर कैसे विजय
हो?
मैंने कहा
कि पहले
दूधाहार तो
छोड़ो, यह
मठ छोड़ो। नहीं
तो आदमी तो
आदमी, तुम
साड हो जाओगे!...
और दूध ही दूध
पी रहे हैं।
लोग ले जा रहे
हैं दूध कि
संतजन हैं, इनको दूध ही
दूध.. शुद्ध
आहार! दूध में
क्या शुद्ध है?
अभी
कुछ दिन पहले
अखबारों में
खबर थी कि
जापान में दूध
के द्वारा
मांस निर्मित
किया गया है।
क्योंकि दूध
खून का हिस्सा
है,
इसलिए मांस
निर्मित हो
सकता है। सफल
हो गये हैं
वैज्ञानिक
दूध से मांस
निर्मित करने
में। जापान के
बाजारों में
दो—तीन महीनों
के भीतर दूध
से निर्मित
सफेद मांस उपलब्ध
हो जायेगा।
क्योंकि दूध
में वही तत्व
हैं जो मांस
में हैं।
इसीलिए तो दूध
पीने से मांस
बढ़ जाता है, खून बढ़ जाता
है, आदमी
मोटा—तगड़ा हो
जाता है।
तुम
क्या सोचते हो
मां के पेट से
बच्चा जब पैदा
होता है तो
दूध कहा से आ
जाता है? उसका
खून उसके स्तन
की प्रक्रिया
से गुजरकर दूध
बनने लगता है।
इसलिए बच्चे
के लिए खून
मिल रहा है।
और बच्चा और
कुछ पचा नहीं
सकता, इसलिए
अभी ठीक है।
दूध में कुछ
ऐसी पवित्रता
नहीं है जैसा
तुम सोच रहे
हो। उससे
ज्यादा
पवित्रता तो
फलों में है।
उससे ज्यादा
पवित्रता तो
गेहूं चावल, चने में है।
गोरख
कहते हैं :
दूधाधारी
परिघरि
चित्त...।
दूधाधारी मत
बन जाना। नहीं
तो दूधाधारी
का हमेशा यही
ध्यान लगा रहता
है—किसके घर
से दूध मिलेगा, किसके
घर से नहीं
मिलेगा? परिघरि
चित्त! उसका
ध्यान दूसरे
के घर में लगा
रहता है।
किसकी गाय
अच्छी है, किसकी
बुरी...।
एक
दफे मैं एक
संत के साथ
यात्रा कर रहा
था,
वे सिर्फ
सफेद गाय का
ही दूध पीते
हैं! मैंने कहा
: तुम पागल हो
गये हो, तुम
कुछ अकल का तो
उपयोग करो; काली गाय
होने से दूध
थोड़े ही काला
हो जाता है, दूध तो सफेद
ही होता है।
काली गाय से
डर है कि कहीं
कुछ कालिमा न
आ जाये दूध
में! नहीं; उन्होंने
कहा : नहीं, मैं
तो... मेरे गुरु
ने कहा है
सफेद गाय का
दूध। गाय की
चमड़ी सफेद या
काली, इससे
क्या फर्क
पड़ता है दूध
में? तब तो
काली
स्त्रियों का
दूध काला हो
जाये, सफेद
स्त्रियों का
दूध सफेद हो
जाये। दूध तो
सफेद है, मगर
सफेद होने से
कोई चीज शुद्ध
थोड़े ही हो जाती
है।
बगुले
नहीं देखे, खादीधारी
बगुले नहीं
देखे? मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन पहने खादी
का कुर्ता और अचकन
और खादी की
टोपी और
चूड़ीदार
पाजामा; बाजार
में निकला। और
किसी ने कहा
मुल्ला, क्या
झक सफेद!
मुल्ला ने
कहा. धोखे में
मत जाओ, कपड़े
कितने ही सफेद
हों, दिल
तो मेरा अभी
भी काला है।
कपड़ों
के सफेद होने
से न तो दिल
सफेद होता है, न
सफेद दूध पीने
से किसी की
आत्मा शुद्ध
हो जायेगी।
मगर उलझनें
खडी कर लेते
हैं लोग। वे
संत जो मेरे
साथ यात्रा पर
गये, इनके
साथ बड़ी
मुसीबत थी।
पहले वे गाय
देखेंगे
चारों तरफ से
घूमकर कि कहीं
कोई काला
चिट्टा वगैरह
तो नहीं है
गाय पर। जब
गाय बिलकुल
सफेद हो, तब
कोई स्नान करे,
फिर दूध
दुहे, गीले
ही कपड़े पहने
हुए दूध दुहना
चाहिए, ताकि
स्नान की
स्थिति बनी ही
रहे। उनके
पीछे लोगों को
गीले कपड़े
पहने दूध
दुहना पड़े, कंपते जा
रहे हैं।
सर्दी के दिन,
वे कैप रहे
हैं और दूध
दुह रहे हैं...।
और वे दूधाहार
कर रहे हैं और
सोच रहे हैं
कि वे बड़ा
पुण्य कर रहे
हैं!
मैंने
कहा: तुम नर्क
में पड़ोगे, ये
सब शिकायतें
तुम्हारे
खिलाफ की
जायेंगी। ये
जो आदमी ठंड
में सिकुड़ रहे
हैं, किसी
को निमोनिया
हो जाये, किसी
को सर्दी हो
जाये—वह सब
तुम्हारे लिए
किया जा रहा
है। तुम फल
भोगोगे बुरा।
तुम अभी चौंक
जाओ, सावधान
हो जाओ तो
अच्छा।
दूधाधारी
परिघरि चित्त
नागा लकड़ी
चाहै नित्त।
और
वे जो नंगे हो
गये हैं, उनको
रोज लकड़ी
चाहिए जलाने
को। इससे कंबल
क्या बुरा है?
इससे कपड़े
क्या बुरे हैं?
अब नंगे हो
गये तो लकड़ी
जलाओ। यह तो
और बड़ी हिंसा
हो गयी, क्योंकि
लकड़ी जलाओ तो
वृक्ष काटो।
और उनका चित्त
इसी में लगा
रहता है कि
लकड़ी मिलेगी
कि नहीं आज।
उनको चौबीस
घंटे लकड़ी की
धूनी चाहिए
क्योंकि वे
नंगे हो गये
हैं। और आग
जला रहे हैं, और आग में
कितने कीटाणु
मर रहे हैं।
वृक्ष कटे, आग में
कीटाणु मरे...
तुम कपड़े ही
पहने रहते तो
क्या बुरा था?
क्यों
परेशानियां
खड़ी कर रहे हो?
गोरख
कहते हैं. सहज
जीवन चाहिए।
ये अब
असहजताएं हैं।
अब व्यर्थ की
बातों की' चिंता
पकड़ी है कि
लकड़ी मिलेगी
आज कि नहीं
मिलेगी, सफेद
गाय मिलेगी कि
नहीं मिलेगी,
दूध मिलेगा
कि नहीं
मिलेगा, पूरा
मिलेगा कि
नहीं मिलेगा?
जीवन को सरल
बनाओ, जटिल
नहीं। सहज
बनाओ, साधारण
बनाओ। व्यर्थ
की बातों की
चिंताएं अपने
सिर पर मोल मत
लो।
मौनी
करै म्यंत्र
की आस...
और
वह जो मौनी
होता है, वह
चाहता है कोई
उसके साथ चले,
उसको मित्र
की आशा रहती
है। एक मित्र
मुझे मिलने
आये, मौनी
साधु! साथ में
एक को लेकर
आये। वे उसको
इशारा करें, वह मुझे
बतायें।
मैंने कहा.
तुम सीधे
क्यों नहीं
बोलते? उनके
मित्र ने
बताया कि नहीं,
वे मौनी हैं,
वे सीधे
नहीं बोलते।
मैंने कहा. यह
और एक झंझट हो
गयी। अब ये
जहां जायें
तुम्हें जाना
पड़ता होगा।
उन्होंने कहा
: हा, जाना
पड़ता है। फिर
मौनी महाराज
पैसा भी नहीं
छूते, वह पैसा
मुझे रखना
पड़ता है।
रिक्यग़ में
बैठो, टैक्सी
में बैठो, तो
पैसा तो देना
पडेगा; ये
छूते ही नहीं
पैसा।
मगर
पैसा किसका है, मैंने
पूछा।
'पैसा तो
इन्हीं का है।
लोग इनको देते
हैं, रखता
मैं हूं। लोग
इनके पैरों
में चढ़ा देते
हैं, मैं
जल्दी से
इकट्ठा कर
लेता हूं।'
मैंने
कहा : मौनी
महाराज हिसाब
रखते हैं? वह
बोला अब आप से
क्या छिपाना,
वे देखते
रहते हैं, गिनती
करते रहते हैं
कितने नोट आये।
हाथ से इशारा
करके बता देते
हैं कि पांच, सम्हालकर
रखना। क्यों
फिजूल की
बकवास! जब
तुम्हें
गिनती करनी है
तो खुद ही
गिनती करो, खुद ही खीसे
में रखो।
गिनती खुद
करनी और खीसे
में दूसरे के
रखवाना और फिर
चिंता में पड़े
रहना कि कहीं
भाग न जाये, कहीं सुबह
बदल न जाये!
मैंने
उनसे कहा कि
कल आप ध्यान
को आ जाये।
बंबई की घटना
है,
बिडलामातुश्री
में ध्यान का
प्रयोग चलता
था। तो मैंने
कहा, कल
सुबह आप ध्यान
के लिए आ
जायें।
उन्होंने
कहा.. अपने
मित्र से
कहलवाया, इशारे
किये, कि
नहीं आ सकेंगे,
क्योंकि कल
सुबह मैं
मौजूद नहीं
हूं मैं दूसरी
जगह जा रहा
हूं। मेरे
बिना नहीं आ
सकते, क्योंकि
टैक्सी कौन
करेगा, बिठायेगा
कौन, उतारेगा
कौन? वे
बोलते नहीं।
यह तो अपने
हाथ से पंगु
हो गये! ये
परमात्मा ने
तुम्हें पैर
दिये हैं, जबान
दी है; तुमने
उनको इंकार ही
कर दिया! और
उपयोग तो तुम जबान
ही कर रहे हो; यह भी
परमात्मा की
जबान है, इस
आदमी के मुंह
में भी।
तुम्हारी
जबान भी उसी
की है। इतनी
करीब की जबान
को छोड़कर उतनी
दूर की जबान का
उपयोग करने का
अर्थ क्या है?
मगर ऐसे ही
उपद्रवों में,
ऐसे ही
जंजालों में
पड़ गये हैं।
मौनी
करै म्यंत्र
की आस...।
मित्र
की आशा लगी
रहती है।
... बिन
गुर गुदड़ी
नहीं बेसास
यह
सब व्यर्थ की
बकवास चलती
रहती है, क्योंकि
बिना गुरु को
खोजे जीवन का
सार—सूत्र इन
लोगों को नहीं
मिला है। ये
व्यर्थ की
बकवास में पड़
गए हैं
किताबें पढ़ कर,
शास्त्रों
को पढ़ कर।
तासों
ही कछु पाइये, कीजे
जाकी आस।
रीते
सरवर पर गये, कैसे
बुझे प्यास?
रहीम
का वचन प्यारा
है!
तासों
ही कछु पाइये
उससे
ही कुछ मिल
सकता है, जिसके
पास कुछ हो।
रीते
सरवर पर गये, कैसे
बुझे प्यास?
शास्त्रों
में कहीं पानी
है?
शब्द ही
शब्द हैं।
पानी का विचार
है, विवरण
है, मगर
पानी कहां है?
सदगुरु के
पास ही 'गुर'
मिले, सूत्र
मिले, कुंजी
मिले।
गोरख
का वचन है
बास
सहेती सब जग
बास्या स्वाद
सहेता मीठा।
सांच
कहूं तौ सतगुर
मांतैं रूप
सहेत दीठा।।
कहते
हैं गोरख कि
वह तो सारे
जगत में सुगंध
की तरह भरा
हुआ है। उसकी
सुगंध से सारा
जगत सुगंधित
है।
बास
सहेती सब जग
बास्या स्वाद
सहेता मीठा।
और
उसकी मिठास
सारे जगत में
है,
लेकिन कोई
दिखानेवाला
मिले, कैसे
उसे चखें? कोई
बतानेवाला
मिले, कैसे
उसकी सुगंध
हमारे
नासापुटों तक
आ जाये? कैसे
उसका संगीत
हमारे कानों
से संयुक्त हो
जाये?
साच
कहूं तौ सतगुर
मांतैं रूप
सहेता दीठा।
सच्ची
बात इतनी है
कि जब तक कोई
देखनेवाला न मिल
जाये, जिसने
देखा हो, तब
तक तुम्हारा
संबंध
जुडवाया न जा
सकेगा।
बिन
गुर गुदड़ी
नहीं बेसास..
बिना
गुरु के
विश्वास नहीं
आयेगा, श्रद्धा
नहीं आयेगी।
कोई आंखवाला
ही तुम्हारे
भीतर यह आत्म—विश्वास
पैदा कर सकता
है कि ही, परमात्मा
है। क्योंकि
कोई आंखवाला
ही साक्षी हो
सकता है—चश्मदीद
गवाह।
किसी
गुरु को खोजे
बिना कुछ भी
नहीं मिलता।
इसी तरह के
व्यर्थ
झंझटों में
लोग पड़ जाते
हैं। और गुरु
की बात छोटी
है,
छोटा—सा
सूत्र है : सहज
हो रही।
हबकि
न बोलिबा ठबकि
न चालिबा धीरै
धरिबा पांव।
गरब
न करिबा सहजै
रहिबा भणत
गोरष राव।
छोटा—सा
सूत्र है :
अहंकार छोड़ दो, सरलता
से जीयो। अति
न करो, मध्य
में आ जाओ, सहज
भाव...।
सुणि
गुणवता सुणि
बुधिवता अनंत
सिधां की वाणी
सीस
नवावत सतगुर
मिलिया जागत
रैणिं विहाणी।
गोरख ने कहा :
सुनो, जो सुन
सकते होओ, समझ
सकते होओ तो
समझो।
सुणि
गुणवता...।
अगर
थोड़ा गुण हो, थोड़ी
बुद्धि हो तो
सुन लो।
सुणि
बुधिवता..।
अगर
थोड़ा बोध हो
तो पकड़ लो।
अनंत
सिधां की वाणी
और
यह मैं ही
नहीं कहता हूं
अनंत सिद्धों
ने यही कहा है।
सीस
नवावत सतगुर
मिलिया जगत
रैणिं विहाणी
बस
शीश झुकाना आ
जाये तो गुरु
मिल जाये। इधर
झुका शीश कि
उधर मिला गुरु।
गुरु तो सदा
मौजूद है, तुम
झुकों तो गुरु
मिल जाये।
पुरानी
मिस्री कहावत
है कि जब
शिष्य तैयार
होता है, गुरु
प्रगट हो जाता
है। हैनेवर द
डिसाइपल इज
रेडी, द
मास्टर
एपियर्स। (रक
क्षण की भी
देर नहीं होती।
उधर शिष्य
झुका, इधर
गुरु आया।
सीस
नवावत सतगुर
मिलिया जगत
रैणिं विहाणी।
फिर
यह जगत की रात
रात नहीं है, फिर
तो जागते—जागते
बीत जाती है।
इन
छोटे—से
सूत्रों को
समझना, गुनना
और थोड़ा— थोड़ा
जीवन में
साधना, इनका
स्वाद लेना।
रहीम के वचन
से आज की बात
पूरी करता हूं—
रहिमन
नीर पहान, बूडै
पै सीझै नहीं।
तैसे
मूरख जान, बूझै
पै सूझै नहीं।।
जैसे
पत्थर नदी में
पड़ा रहता है, फिर
भी भीगता नहीं।
ऐसे ही नासमझ
सत्संग भी
करते रहें, तो भीगते
नहीं।
रहिमन
नीर पहान, कै
पै सीझै नहीं।
बूड़ा
तो रहता है, डूबा
तो रहता है
पानी में, मगर
सीझता नहीं, भीगता नहीं,
अछूता ही रह
जाता है। पानी
में पड़ा—पड़ा
अछूता रह जाता
है।
तैसे
मूरख जान, बूझै
पै सीझै नहीं।
सत्संग
में बैठकर जो
सुन तो ले, शब्द
तो सुन ले, लेकिन
अनुभव अनुभव न
करे। बूझै पै
सीझै नहीं।
सुन ले, समझ
ले, मगर
जीये न, अनुभव
न करे, उसे
मूरख समझना; वह पत्थर है।
यह
सत्संग है!
भीगों, डूबो,
जीयो…....!
हबकि न
बोलिबा ठबकि न
चालिबा धीरै
धरिबा पाँव।
गरब न
करिबा सहजै
रहिबा भणत
गोरष रावं।
आज
इतना ही
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