दिनांक
12 जनवरी, 1977;
श्री
ओशो आश्रम,
कोरगांवपार्क, पूना।
प्रश्नसार:
पहला
प्रश्न :
आप
कहते हैं कि
समझ पैदा हो
जाए तो कुछ भी करने
की जरूरत नहीं
है। आप जिस
समझ की तरफ
इशारा करते
हैं, क्या वह
बुद्धि की समझ
से भिन्न है? असली समझ पर
कुछ प्रकाश
डालने की
अनुकंपा करें।
बुद्धि
की समझ तो समझ
ही नहीं।
बुद्धि की समझ
तो समझ का
धोखा है।
बुद्धि की समझ
तो
तरकीब
है अपने को
नासमझ रखने की।
बुद्धि का
अर्थ होता है.
जो तुम जानते
हो उस सबका
संग्रह। जाने
हुए के माध्यम
से अगर सुना
तो तुम सुनोगे
ही नहीं। जाने
हुए के माध्यम
से सुना तो
तुम ऐसे ही
सूरज की तरफ देखे
रहे हो, जैसे
कोई आंख बंद
करके देखे।
जो
तुम जाने हुए
बैठे हो—तुम्हारा
पक्षपात, तुम्हारी
धारणाएं, तुम्हारे
सिद्धांत, तुम्हारा
शास्त्र, तुम्हारे
संप्रदाय— अगर
तुमने उनके
माध्यम से
सुना तो तुम
सुनोगे कैसे?
तुम्हारे
कान तो बहरे
हैं। शब्द तो
भरे पड़े हैं।
कुछ का कुछ
सुन लोगे। वही
सुन लोगे जो
सुनना चाहते
हो।
बुद्धि
का अर्थ है.
तुम्हारा
अतीत— अब तक तुमने
जो जाना, समझा,
गुना है।
समझ
का अतीत से
कोई संबंध
नहीं। समझ तो
उसे पैदा होती
है जो अतीत को सरका
कर रख देता है
नीचे; और सीधा
वर्तमान के
क्षण 'को
देखता है—
अतीत के
माध्यम से
नहीं, सीधा—सीधा,
प्रत्यक्ष,
परोक्ष
नहीं। बीच में
कोई माध्यम
नहीं होता।
तुम
अगर हिंदू हो
और मुझे सुनते
वक्त हिंदू
बने रहे तो
तुम जो सुनोगे
वह बुद्धि से
सुना।
मुसलमान बने
रहे तो जो
सुना, बुद्धि
से सुना। गीता
भीतर गूंजती
रही, कुरान
भीतर
गुनगुनाते
रहे और सुना, तो बुद्धि
से सुना। गीता
बंद हो गई, कुरान
बंद, हो
गया, हिंदू—मुसलमान
चले गए, तुम
खाली हो गए
निर्मल दर्पण
की भांति, जिस
पर कोई रेखा
नहीं विचार की,
अतीत की कोई
राख नहीं; तुमने
सीधा मेरी तरफ
देखा खुली आंखों
से, कोई
पर्दा नहीं, और सुना तो
एक समझ पैदा
होगी।
उस
समझ का नाम ही
प्रज्ञा, विवेक।
वही समझ
रूपांतरण
लाती है।
बुद्धि से
सुना तो सहमत
हो जाओगे, असहमत
हो जाओगे।
बुद्धि को हटा
कर सुना, रूपांतरित
हो जाओगे; सहमति—असहमति
का सवाल ही
नहीं।
सत्य
के साथ कोई
सहमत होता, असहमत
होता? सत्य
के साथ बोलो
कैसे सहमत
होओगे? सत्य
के साथ सहमत
होने का तो यह
अर्थ होगा कि
तुम पहले से
ही जानते थे।
सुना, राजी
हो गए। तुमने
कहा, ठीक; यही तो सच है।
यह तो
प्रत्यभिज्ञा
हुई। यह तो
तुम मानते थे
पहले से, जानते
थे पहले से।
गुलाब का फूल
देखा, तुमने
कहा गुलाब का
फूल है। जानते
तो तुम पहले
से थे ही; नहीं
तो गुलाब का
फूल कैसे
पहचानते?
सत्य
को तुम जानते
हो?
जानते होते
तो सहमत हो
सकते थे।
जानते होते और
कोई गेंदे के
फूल को गुलाब
कहता तो असहमत
हो सकते थे।
जानते तो नहीं
हो। जानते
नहीं हो
इसीलिए तो खोज
रहे हो। इस
सत्य को समझो
कि जानते नहीं
हो। तुमने अभी
गुलाब का फूल
देखा नहीं।
इसलिए कैसे तो
सहमति भरो, कैसे असहमति
भरी? न तो
सिर हिलाओ सहमति
में, न
असहमति में।
सिर ही मत
हिलाओ। बिना
हिले सुनो।
और
जल्दी क्या है? इतनी
जल्दी हमें
रहती है कि हम
जल्दी से पकड़
लें—क्या ठीक,
क्या गलत।
उसी जल्दी के
कारण चूके चले
जाते हैं।
निष्कर्ष की
जल्दी मत करो।
सत्य के साथ
ऐसा अधैर्य का
व्यवहार मत
करो। सुन लो।
जल्दी नहीं है
सहमत—असहमत
होने की।
और
जब मैं कहता
हूं सुन लो, तो
तुम यह
भ्रांति मत
लेना कि मैं
तुमसे कह रहा
हूं मुझसे
राजी हो जाओ।
बहुतों को यह
डर रहता है कि
अगर सुना और
अपनी बुद्धि
एक तरफ रख दी
तो फिर तो
रत्यी हो
जाएंगे।
बुद्धि एक तरफ
रख दी तो राजी
होओगे कैसे? बुद्धि ही
राजी होती, न—रार्जी
होती। बुद्धि
एक तरफ रख दी
तो सिर्फ सुना।
पक्षियों
की सुबह की
गुनगुनाहट है—तुम
राजी होते? सहमत
होते? असहमत
होते? निर्झर
की झरझर है, कि हवा के
झोंके का गुजर
जाना है
वृक्षों की
शाखाओं से—तुम
राजी होते? न राजी होते?
सहमत—असहमति
का सवाल नहीं।
तुम सुन लेते।
आकाश में बादल
घुमड़ते, तुम
सुन लेते। ऐसे
ही सुनो सत्य
को, क्योंकि
सत्य आकाश में
घुमड़ते
बादलों जैसा है।
ऐसे ही सुनो
सत्य को, क्योंकि
सत्य
जलप्रपातों
के नाद जैसा
है। ऐसे ही
सुनो सत्य को
क्योंकि सत्य
मनुष्यों की
भाषा जैसा
नहीं, पक्षियों
के कलरव जैसा
है।
संगीत
है सत्य; शब्द
नहीं।
निःशब्द
है सत्य; सिद्धात
नहीं।
शून्य
है सत्य; शास्त्र
नहीं।
इसलिए
सुनने की बड़ी
अनूठी कला
सीखनी जरूरी
है। जो ठीक से
सुनना सीख गया
उसमें समझ
पैदा होती।
तुम ठीक से तो
सुनते ही नहीं।
मुल्ला
नसरुद्दीन से
एक दिन पूछा
कि तू पागल की
तरह बचाए चला
जाता है।
रद्दी—खद्दी
चीजें भी
फेंकता नहीं।
कूड़ा—कर्कट भी
इकट्ठा कर
लेता है।
सालों के
अखबारों के
अंबार लगाए
बैठा है। कुछ
कभी तेरे घर
से बाहर जाता
ही नहीं। यह
तूने बचाने का
पागलपन कहां
से सीखा? उसने
कहा, एक
बुजुर्ग की
शिक्षा से।
मैं थोड़ा
चौंका।
क्योंकि
मुल्ला
नसरुद्दीन
ऐसा आदमी नहीं
कि किसी से
कुछ सीख ले।
तो मैंने कहा,
मुझे पूरे
ब्योरे से कह,
विस्तार से
कह। किस
बुजुर्ग की
शिक्षा से?
उसने
कहा,
मैं नदी के
किनारे बैठा
था। एक
बुजुर्ग पानी
में गिर गए और
जोर— जोर से
चिल्लाने लगे,
'बचाओ! बचाओ!'
उसी दिन से
मैंने बचाना
शुरू कर दिया।
तुम वही सुन
लोगे जो सुनना
चाहते हो।
कवि
जी को आई
जम्हाई
बोले, हे
मां!
सुन
कर कविपत्नी
भभकी
बोली, होकर
तीन बच्चों के
बाप
नाम
रट रहे हेमा
का?
सत्यानाश
हो सिनेमा का
हम
जो सुनना
चाहते हैं, सुन
लेते हैं। वही
थोड़े ही सुनते
हैं जो कहा
जाता है।
हमारा सुनना
शुद्ध नहीं है,
विकृत है।
बुद्धि
से सुना गया, सुना
ही नहीं गया।
सुनने का धोखा
हुआ, आभास
हुआ। लगता था,
सुना।
तुम्हारे
विचार बीच में
आ गए।
तुम्हारी
बुद्धि ने आकर
सब रूपांतरित कर
दिया; अपना
रंग उंडेल
दिया। काले को
पीला कर दिया,
पीले को
काला कर दिया।
फिर तुम तक जो
पहुंचा, वह
वही नहीं था
जो दिया गया
था। वह बिलकुल
ही विनष्ट
होकर पहुंचा,
विकृत होकर
पहुंचा।
इसलिए
पहली बात :
बुद्धि की समझ
कोई समझ नहीं
है। एक और समझ
है,
वही समझ
रूपांतरण
लाती है। उसको
कहो ध्यान की
समझ। बुद्धि
की नहीं, विचार
की नहीं, निर्विचार
की समझ। तर्क
की नहीं, शांत
भाव की; विवाद
की नहीं, संवाद
की।
तुम
मुझे सुनो
बुद्धि से तो
सतत विवाद
चलता है। ठीक
कह रहे, गलत
कह रहे, अपने
शास्त्र के
अनुसार कह रहे
कि विपरीत कह
रहे, मैं
राजी होऊं कि
न राजी होऊं, अब तक मेरी
मान्यताओं के
तराजू पर बात
तुलती है या नहीं
तुलती है, ऐसी
सतत भीतर तौल
चल रही है।
यह
विवाद है। तुम
राजी भी हो
जाओ तो भी दो
कौड़ी का है
तुम्हारा
राजी होना।
क्योंकि
विवाद से कहीं
कोई सहमति आयी? विवाद
की सहमति दो
कौड़ी की है; उसका कोई
मूल्य नहीं। —संवाद!
संवाद का अर्थ
है, जब मैं
कह रहा हूं तब
तुम मेरे साथ
लीन हो गए।
तुमने दूर खड़े
रह कर न सुना, तुम मेरे
पास आ गए। तुम
मेरे हृदय के
पास धड़के।
तुम मेरे हृदय
की तरह धड्के।
तुमने अपने
हिसाब—किताब
को एक तरफ हटा
दिया और तुमने
कहा, थोड़ी
देर झरोखे को
खाली रखेंगे।
थोड़ी देर
दर्पण बनेंगे।
दर्पण
बन कर जो
सुनता है वही
सुनता है। और
दर्पण बन कर
जो सुनता है
उसमें समझ
अनायास पैदा
होती है।
दर्पण बन कर
जो सुनता है
वही शिष्य है; वही
सीखने में
समर्थ है। जो
दर्पण बन कर
सुनता है वह
ज्ञान के आधार
से नहीं सुनता।
वह तो इस परम
भाव से सुनता
है कि मुझे
कुछ भी पता
नहीं। मैं
अज्ञानी हूं।
मुझे क, ख, ग भी पता
नहीं है।
इसलिए क्या
विवाद?
पंडित
तो कभी सुनता
ही नहीं।
पंडित का तो
अपना ही
शोरगुल इतना
है कि सुनेगा
कैसे? मीन—मेख
निकालता, आलोचना
में लीन रहता
भीतर। अगर
राजी भी होता
है तो मजबूरी
में राजी होता
है। और जब
राजी भी होता
है तो वह अपने
से ही राजी होता
है। जो सुना
गया उससे राजी
नहीं होता।
अगर
मैंने कुछ बात
कही,
जो कुरान से
मेल खाती थी, मुसलमान
राजी हो गया।
वह मुझसे थोड़े
ही राजी हुआ!
वह कुरान से
राजी था, कुरान
से राजी रहा।
वह मुसलमान था,
मुसलमान
रहा। इतना ही
उसने मान लिया
कि यह आदमी भी
कुरान की ही
बात कहता है।
तो ठीक है, कुरान
ठीक है, यह
इसलिए आदमी भी
ठीक है।
जो
मुझे सुनेगा
उसकी
प्रक्रिया
बिलकुल उलटी होगी।.
वह मुझे
सुनेगा।
सुनते वक्त
विचार नहीं
करेगा। सुनते
वक्त तो सिर्फ
पीएगा, आत्मसात
करेगा। और यह
मजा है
आत्मसात करने
का कि जब कोई
सत्य आत्मसात
हो जाता है, अगर ठीक
होता है तो
मांस—मज्जा बन
जाता है।
तुम्हें सहमत
नहीं होना
पड़ता, तुम्हारे
प्राणों का
प्राण हो जाता
है। तुम्हें
राजी नहीं
होना होता, तुम्हारी
श्वास—श्वास
में बस जाता
है।
और
अगर सत्य नहीं
होता तो यह
चमत्कार है..
.सत्य की
यहखूबी है. अगर
सत्य हो और
तुम सुन लो तो
तुम्हारे
प्राणों में
बस जाता है।
अगर सत्य न हो
और तुम मौन और
ध्यान से सुन
रहे हो, तुमसे
अपने आप बाहर
निकल जाता है।
असत्य पचता
नहीं। अगर
शांत कोई
सुनता हो तो
शांति में
असत्य पचता
नहीं। शांति
असत्य को छोड़
देती है।
असहमत होती है
ऐसा नहीं—इस
बात को खयाल
में ले लेना—शांति
असहमत—सहमत
होना जानती ही
नहीं। शांति
के साथ सत्य
का मेल जुड़
जाता है, गठबंधन
हो जाता, भांवर
पड़ जाती है।
और अशांति के
साथ असत्य की
भांवर पड़ जाती
है।
अशांति
के साथ सत्य
की भांवर पड़नी
कठिन है और
शांति के साथ
असत्य की भांवर
पड्नी असंभव
है। इसलिए
असली सवाल है : शांति
से सुनो। जो
सत्य होगा
उससे भांवर पड़
जाएगी। जो
असत्य होगा
उससे छुटकारा
हो गया।
तुम्हें ऐसा
सोचना भी न
पड़ेगा, क्या
ठीक है, क्या
गलत है। जो
ठीक—ठीक है वह
तुम्हारे प्राणों
में निनाद बन
जाएगा।
और
ध्यान रखना, जब
सत्य
तुम्हारे
भीतर गूंजता
है तो वह मेरा
नहीं होता।
अगर तुम उसे
गंजने दो, तुम्हारा
हो गया। सत्य
किसी का थोड़े
ही होता है।
जिसके भीतर
गूंजा उसी का
हो जाता है।
असत्य
व्यक्तियों
के होते हैं; सत्य थोड़े
ही किसी का
होता है! सत्य
पर किसी की
बपौती नहीं।
सत्य का कोई
दावेदार नहीं।
असत्य
अलग—अलग होते
हैं।
तुम्हारा
असत्य
तुम्हारा, मेरा
असत्य मेरा।
असत्य निजी
होते हैं। झूठ
हरेक का अलग
होता है।
इसलिए सब
संप्रदाय झूठ।
धर्म का कोई
संप्रदाय
नहीं, क्योंकि
सत्य का कोई
संप्रदाय
नहीं हो सकता।
सत्य तो एक है,
अनिर्वचनीय
है। सत्य तो
किसी का भी नहीं—हिंदू
का नहीं, मुसलमान
का नहीं, सिक्ख
का नहीं, पारसी
का नहीं। सत्य
तो पुरुष का
नहीं, स्त्री
का नहीं। सत्य
तो वेद का
नहीं, कुरान
का नहीं। सत्य
तो बस सत्य का
है।
तुम
जब शांत हो तब
तुम भी सत्य
के हो गए। उस
घड़ी में भांवर
पड़ जाती। उस भांवर
में ही क्रांति
है। सम्यक
श्रवण, शांतिपूर्वक
सुनना; और
निष्कर्ष की
जल्दी नहीं—तो
तुम्हारे
भीतर वह समझ
पैदा होगी
जिसकी मैं बात
करता हूं।
तुम्हारी
बुद्धि के
निखार में कुछ
सार नहीं है।
तुम्हारा
तर्क कितना ही
पैना हो जाए, तुम
कितनी ही धार
रख लो, इससे
कुछ भी न होगा।
विवाद करने
में कुशल हो
जाओगे, थोड़ा
पांडित्य का
प्रदर्शन
करने की
क्षमता आ जाएगी,
किसी से
झगड़ोगे, लड़ोगे
तो दबा दोगे, किसी को चुप
करने की कला आ
जाएगी, लेकिन
कुछ मिलेगा
नहीं।
मिलता
तो उसे है, जो
चुप होकर पीता
है।
दूसरा
प्रश्न :
आपको
पाने के बाद
मुझमें बहुत
कुछ रूपातरण
हुआ; और ऐसा
भी लगता है कि
कुछ भी नहीं
हुआ है। इस
विरोधाभास को
स्पष्ट करने
की कृपा करें।
स्वाभाविक
है। ऐसा 'ही
होगा। ऐसा ही
प्रत्येक को
लगेगा।
क्योंकि जिस
रूपांतरण की
हम चेष्टा कर
रहे हैं, इस
रूपांतरण में
कुछ अनूठी बात
है, जो समझ
लेना। यहां
तुम्हें वही
बनाने का उपाय
किया जा रहा है
जो तुम हो।
यहां तुम्हें
अन्यथा बनाने
की चेष्टा
नहीं चल रही
है। तुम्हें
तुम्हारे
स्वाभाविक
रूप में ले
जाने का उपाय
हो रहा है।
तुम्हें वही
देना है जो
तुम्हारे पास
है।
तो
जब मिलेगा तो
एक तरफ से तो
लगेगा कि
अपूर्व मिलन
हो गया, क्रांति
घटी। अहोभाव!
और दूसरी तरफ
यह भी लगेगा
कि जो मिला वह
कुछ नया तो
नहीं है। वह
तो कुछ पहचाना
लगता है। वह
तो कुछ अपना
ही लगता है।
वह तो जैसे था
ही अपने भीतर,
और याद न
रही थी।
बुद्ध
को जब ज्ञान
हुआ और
देवताओं ने
उनसे पूछा कि
क्या मिला? तो
कथा कहती है, बुद्ध हंसे
और उन्होंने
कहा, मिला
कुछ भी नहीं।
जो मिला ही
हुआ था उसका
पता चला। जो
प्राप्त ही था
लेकिन भूल
बैठे थे।
जैसे
कभी आदमी
चश्मा लगाए और
अपने चश्मे को
खोजने लगता है।
और चश्मे से
ही खोज रहा है।
आंख पर चश्मा
लगाए है और
खोज रहा कि
चश्मा कहां गया
है। विस्मरण!
याददाश्त खो
गई है। सत्य
नहीं खोया है
सिर्फ याद खो
गई है। तो जब
याद जागेगी तो
ऐसा भी लगेगा
कि कुछ मिला, अपूर्व
मिला; क्योंकि
इसके पहले याद
तो नहीं थी।
तो भिखारी बने
फिर रहे थे।
सम्राट थे और
अपने को
भिखारी समझा
था। और ऐसा भी
लगेगा कि कुछ
भी तो नहीं
मिला। सम्राट
तो थे ही। इसी
की याद आ गई।
विरोधाभास
नहीं है। अगर
तुम्हें ऐसा
लगे कि कुछ
एकदम नवीन
मिला है तो
समझना कि कुछ
झूठ मिल गया।
ऐसा लगे कि
कुछ नवीन मिला
है जो अति
प्राचीन भी है, तो
ही समझना कि
सच मिला। अगर
ऐसा लगे कि
सनातन और चिर
नूतन; सदा
से है और अभी—अभी
ताजा घटा है, ऐसी दोनों
बातें एक साथ
जब लगें तभी
समझना कि सत्य
के पास आए।
सत्य के द्वार
में प्रवेश
मिला है।
तुम्हें
अन्यथा बनाने
की चेष्टा
बहुत की गई है।
कोई नहीं
चाहता कि तुम
वही हो जाओ, जो
तुम हो। कोई
चाहता है तुम
कृष्ण बन जाओ,
कोई चाहता
है तुम
क्राइस्ट बन
जाओ, कोई
चाहता है
महावीर बनो, कोई चाहता
है बुद्ध बनो।
लेकिन तुमने
खयाल किया? कभी दुबारा
कोई आदमी
बुद्ध बन सका?
एक बार एक
आदमी बुद्ध
बना, बस।
एक बार एक
आदमी कृष्ण
बना, बस।
अनंत काल बीत
गया, दुबारा
कोई कृष्ण
नहीं बना।
इससे
तुम्हें कुछ
समझ नहीं आती? इससे
कुछ बोध नहीं
होता? कि
तुम लाख उपाय
करो कृष्ण
बनने के—रासलीला
में बनना हो, बात अलग; असली
कृष्ण न बन
सकोगे। लाख
उपाय करो राम
बनने के, रखो
धनुषबाण, चले
जंगल की तरफ, ले लो सीता
को भी साथ और
लक्ष्मण को भी;
रामलीला
होगी, असली
राम न बन
सकोगे।
असली
तो तुम एक ही
चीज बन सकते
हो,
जो अभी तक
तुम बने नहीं।
और कोई नहीं
बना है। असली
तो तुम एक ही
चीज बन सकते
हो जो
तुम्हारे भीतर
पड़ी है; जो
तुम्हारी
नियति है; जो
तुम्हारा
अंतरतम भाग्य
है; जो
तुम्हारे बीज
की तरह छिपा
है और वृक्ष
की तरह खिलने
को आतुर है।
और तुम्हें
कुछ भी पता
नहीं कि वह
क्या है।
क्योंकि जब तक
तुम बन न जाओ, कैसे पता हो?
तुमने
जिनकी खबरें
सुनी हैं
उनमें से कोई
भी तुम बनने
वाले नहीं हो।
बुद्ध, बुद्ध
बने। बुद्ध को
भी तो राम का
पता था। राम
नहीं बने
बुद्ध। बुद्ध
को कृष्ण का
पता था, कृष्ण
नहीं बने
बुद्ध। बुद्ध,
बुद्ध बने।
तुम, तुम
बनोगे। तुम
तुम ही बन
सकते हो, बस।
और कुछ बनने
की कोशिश की, झूठ हो
जाएगा, विकृति
हो जाएगी।
आरोपण हो
जाएगा। पाखंड
बनेगा फिर।
परमात्मा तो
दूर, और
दूर हो जाएगा।
तुम पाखंडी हो
जाओगे।
मेरी
सारी चेष्टा
एक है :
तुम्हें इस
बात की याद दिलानी, कि
तुम तुम ही बन
सकते हो।
तो
मैं यहां
तुम्हें कुछ
अन्यथा बनाने
की कोशिश या
उपाय नहीं कर
रहा हूं। मेरी
कोई चेष्टा ही
नहीं कि
तुम्हें कुछ
और बना दूं।
मेरी सिर्फ
इतनी ही
चेष्टा है कि
तुम्हें इतना
याद दिला दूं
कि तुम कुछ और
बनने की
चेष्टा में मत
उलझ जाना, अन्यथा
चूक जाओगे।
समय खोएगा।
शक्ति व्यय
होगी। और
तुम्हारा
जीवन संकट और
दुख और
दारिद्रय से
भरा रह जाएगा।
तुम्हारे
भीतर एक फूल
छिपा है। और
कोई भी नहीं
जानता कि वह
फूल कैसा होगा।
जब खिलेगा तभी
जाना जा सकता
है। जब तक
बुद्ध न हुए
थे,
किसी को पता
न था कि यह
गौतम
सिद्धार्थ
कैसा फूल
बनेगा। हो, कृष्ण का
फूल पता था, राम का फूल
पता था। लेकिन
बुद्ध का फूल
तो तब तक हुआ न
था। अब हमें
पता है। लेकिन
तुम्हारा फूल
अभी भी पता
नहीं है।
तुम्हारे
भीतर कैसा कमल
खिलेगा, कितनी
पंखुड़ियां
होंगी उसकी, कैसा रंग
होगा, कैसी
सुगंध होगी।
नहीं, कोई
भी नहीं जानता।
तुम्हारा
भविष्य गहन
अंधेरे में
पड़ा है।
तुम्हारा
भविष्य बीज
में छिपा है।
बीज टूटे, बीज
की तंद्रा
मिटे, बीज
जागे, अंकुरित
हो, खिले, तो तुम भी
जानोगे और जगत
भी जानेगा।
उसी जानने में
जानना हो सकता
है। उसके पहले
जानने का कोई
उपाय नहीं।
इसलिए
मैं तुमसे यह
भी नहीं कह
सकता कि तुम
क्या बन जाओगे।
भविष्यवाणी
नहीं हो सकती।
और यही आदमी
की महिमा है
कि उसके संबंध
में कोई
भविष्यवाणी
नहीं हो सकती।
आदमी कोई मशीन
थोड़े ही है कि
भविष्यवाणी
हो सके। मशीन
की
भविष्यवाणी
होती है। सब
तय है। मशीन
मुर्दा है।
आदमी परम
स्वातंन्त्र
है;
स्वच्छंदता
है।
और
एक आदमी बस
अपने जैसा
अकेला है, अद्वितीय
है। दूसरा उस
जैसा न कभी
हुआ, न कभी
होगा, न हो
सकता है। इस
महिमा पर
ध्यान दो। इस
महिमा के लिए
धन्यभागी
समझो।
परमात्मा ने
तुम जैसा कभी
कोई नहीं
बनाया।
परमात्मा
दोहराता नहीं।
तुम अनूठी
कृति हो।
लेकिन
जब तुम्हारे
भीतर फूल
खिलना शुरू
होगा तो यह
विरोधाभास
तुम्हें
मालूम होगा।
तुम्हें यह
लगेगा.. .पूछा
है : 'आपको पाने
के बाद मुझमें
बहुत—बहुत
रूपांतरण हुआ।
और ऐसा भी
लगता है कि
कुछ भी नहीं
हुआ।’
बिलकुल
ठीक हो रहा है; तभी
ऐसा लग रहा है।
रूपांतरण भी
होगा। महाक्रांति
भी घटित होगी।
तुम बिलकुल
नये हो जाओगे।
और उस नये
होने में ही
अचानक तुम
पाओगे, ' अरे!
यह तो मैं सदा
से था। यह
खजाना मेरा ही
है।’ यह
सितार
तुम्हारे
भीतर ही पड़ा
था, तुमने
इसके तार न
छेड़े थे। मैं
तुम्हें तार
छेड़ना सिखा
रहा हूं। जब
तुम तार
छेड़ोगे तो तुम
पाओगे कि कुछ
नया घट रहा है
संगीत। लेकिन
तुम यह भी तो
पाओगे कि यह
सितार मेरे भीतर
ही पड़ा था। यह
संगीत मेरे
भीतर सोया था।
छेड़ने की बात
थी, जाग
सकता था।
और
शायद किन्हीं
अनजाने
क्षणों में, धुंधले—धुंधले
तुमने यह
संगीत कभी
सुना भी हो।
क्योंकि कभी—कभी
अंधेरे में भी,
अनजाने भी
तुम इन तारों
से टकरा गए हो
और संगीत हुआ
है। कभी बिना
चेष्टा के भी,
अनायास ही
तुम्हारे हाथ
इन तारों पर
घूम गए हैं।
हवा का एक
झोंका आया है और
तार कंप गए
हैं और
तुम्हारे
भीतर संगीत की
गज हुई है।
अब
तुम अचानक जब
तार बजेंगे तब
तुम पहचान
पाओगे, जन्मों—जन्मों
में बहुत बार
कभी—कभी सपने
में, कभी—कभी
प्रेम के किसी
क्षण में, कभी
सूरज को उगते
देख कर, कभी
रात चांद को
देखकर, कभी
किसी की आंखों
में झांककर, कभी मंदिर
के घंटनाद में,
कभी पूजा का
थाल सजाए.. .ऐसा
कुछ संगीत, नहीं इतना
पूरा, लेकिन
कुछ ऐसा—ऐसा
सुना था। सब
यादें ताजी हो
जाएंगी। सब
स्मृतियां
संगृहीत हो
जाएंगी।
अचानक
तुम पाओगे कि
नहीं, नया कुछ
भी नहीं हुआ
है। जो सदा से
हो रहा था, धीमे—
धीमे होता था।
सचेष्ट नहीं
था मैं।
जाग्रत नहीं
था मैं। जैसे
नींद में किसी
ने संगीत सुना
हो, कोई
सोया हो और
कोई उस कमरे
में गीत गा
रहा हो या तार
बजा रहा हो, नींद में
भनक पड़ती हो, कान में
आवाज आती हो।
कुछ साफ न
होता हो। फिर
तुम जाग कर
सुनो और पहचान
लो कि ठीक, यही
मैंने सुना था,
नींद में
सुना था। तब
पहचान न थी, अब पहचान
पूरी हो गई।
ऐसा
ही होगा। जब
तुम्हारे
भीतर की
स्मृति
जागेगी, सुगंध
बिखरेगी, तुम्हारे
नासापुट
तुम्हारी ही
सुवास से भरेंगे
तो तुम
निश्चित
पहचानोगे, नया
भी हुआ है और
पुरातन से
पुरातन। नित
नूतन और सनातन।
शाश्वत घटा है
क्षण में।
विरोधाभास
जरा भी नहीं
है।
तीसरा
प्रश्न :
एक
ओर आप कहते
हैं कि वासना
स्वभाव से दुष्पूर
है। वह सदा
अतृप्त की
अतृप्त बनी
रहती है। और
दूसरी ओर आप
यह भी कहते
हैं कि यदि
संसार में रस
बाकी रह गया
हो तो उसे पूरा
भोग लेना भी
अपेक्षित है।
इस विरोधाभास
को दूर करने
की अनुकंपा
करें।
विरोधाभास
दिखाई पड़ते
हैं,
क्योंकि
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता।
विरोधाभास
मालूम पड़ते
हैं, क्योंकि
तुम्हारी आंख
खुली हुई नहीं
है। अंधेरे
में टटोलते हो,
इसलिए
विरोधाभास
दिखाई पड़ते
हैं। अन्यथा
कोई
विरोधाभास
नहीं है। समझो।
निश्चित
ही वासना
दुष्पूर है; ऐसा
बुद्ध का वचन
है। ऐसा समस्त
बुद्धों का
वचन है। वासना
दुष्पूर है,
इसका अर्थ
होता, वासना
को भरा नहीं
जा सकता। तुम
लाख उपाय करो।
दस
रुपये हैं तो
बीस रुपये
चाहिए। दस
हजार हैं तो
बीस हजार
चाहिए। और दस
लाख हैं तो
बीस लाख चाहिए।
जो अंतर है दस
और बीस का; कायम
रहता है।
वासना दूष्पूर
है, इसका
अर्थ हुआ कि
तुम्हारी
अतृप्ति का जो
अनुपात है, सदा कायम
रहता है।
उसमें कोई
फर्क नहीं
पड़ता। तुम
कितना कमा
लोगे इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
तुम्हारी
वासना उतनी ही
आगे बढ़ जाएगी।
वासना
क्षितिज की
भांति है।
दिखाई पड़ता है
यह दस मील, बारह
मील दूर मिलता
हुआ पृथ्वी से।
भागो, लगता
है घड़ी में, दो घड़ी में
पहुंच जाएंगे।
भागते रहो
जन्मों—जन्मों
तक, कभी न
पहुंचोगे।
तुम जितने
भागे उतना ही
क्षितिज आगे
हट गया।
तुम्हारे और
क्षितिज के
बीच का फासला
सदा वही का
वही।
वासना
दुष्पूर है
इसका अर्थ, कि
वासना को भरने
का कोई उपाय
नहीं।
यह
सत्य है। अब
तुम्हें
विरोधाभास
लगता है
क्योंकि दूसरी
बात मैं कहता
हूं कि जब तक
रस बाकी रह
गया हो तब तक
कठिनाई है। रस
को पूरा ही कर
लेना। मैं
तुमसे कहता
हूं वासना
दुष्पूर है; मैंने
तुमसे यह नहीं
कहा कि रस
समाप्त नहीं
होगा। रस विरस
हो जाएगा।
वासना तो दुष्पूर
है। तुम्हारा
रस सूख जाएगा।
सच
तो यह है, वासना
दुष्पूर है
ऐसा जान कर ही
रस विरस हो
जाएगा।
विरोधाभास
नहीं है। जिस
दिन तुम
जानोगे कि
वासना भर ही
नहीं सकती।
दौड़—दौड़ थकोगे,
दौड़—दौड़
गिरोगे। सब
उपाय कर लोगे,
वासना भरती
नहीं। कोई
उपाय नहीं
दिखाई पड़ता।
असंभव है। हो
ही नहीं सकता।
तो धीरे— धीरे
तुम पाओगे कि
जो हो ही नहीं
सकता, जो
कभी हुआ ही
नहीं है, उसमें
रस
विक्षिप्तता
है।
जैसे
कोई आदमी दो
और दो को तीन
करना चाहता हो
और कहता हो, मुझे
बड़ा रस है, मैं
दो और दो को
तीन करना
चाहता हूं। तो
हम कहेंगे, करो। दो और
दो तीन होंगे
नहीं। तुम करो।
दो और दो तीन
होंगे नहीं
तुम्हारे
करने से, एक
दिन तुम ही
जागोगे और
तुम्हारा रस
ही मूढ़तापूर्ण
सिद्ध हो
जाएगा। और तुम
ही कहोगे कि
यह होनेवाला
नहीं, क्योंकि
यह हो ही नहीं
सकता। मेरे रस
में ही मूढ़ता
है। तुम्हारा
रस ही खंडित
हो जाएगा।
जब
तुम्हारा रस
खंडित होगा, तब
भी तुम यह मत
सोचना कि दो
और दो तीन हो
जाएंगे। तब भी
दो और दो तीन
नहीं होते
लेकिन अब
तुम्हारा रस न
रहा। रस का
अर्थ ही है कि
तुम्हें आशा
है कि शायद कोई
विधि होगी, कोई तरकीब
होगी, कोई
जादू होगा, कोई चमत्कार
होगा जिससे दो
और दो तीन हो
सकेंगे।
दूसरों को पता
न होगा।
सिकंदर हार
गया माना, नेपोलियन
हार गया माना,
लेकिन मैं
भी हारूंगा यह
क्या पक्का है?
शायद कोई
तरकीब रह गई
हो, जो
उन्होंने काम
में न लाई हो।
सच है कि
बुद्ध हार गए
और महावीर हार
गए, लेकिन
यह कहां पक्का
पता है कि
उन्होंने सभी
उपाय कर लिए
थे और सभी
विधियां खोज
ली थीं? अगर
एक हजार
विधियां खोजी
हों और एक भी
बाकी रह गई हो,
कौन जाने उस
एक से ही
द्वार खुलता
हो! उस एक में ही
कुंजी छिपी हो।
रस
का अर्थ है, आशा
बाकी है। रस
का अर्थ है, शायद हो जाए।
कभी नहीं हुआ
सच है, लेकिन
कभी नहीं होगा
यह क्या जरूरी
है? जो कल
तक नहीं हुई
थीं चीजें, आज हो रही
हैं। जो कभी
नहीं हुई थीं
वह कभी हो
सकती हैं।
अतीत में नहीं
हुईं, भविष्य
में नहीं
होंगी ऐसा
क्या पक्का है?
आदमी और भी
महत्वपूर्ण
विधियां खोज
ले सकता है।
नये तकनीक, नये कौशल, नये उपाय, या नई
तालियां गढ़ ले
या ताले को
तोड्ने का उपाय
कर ले।
आशा!
रस का अर्थ है, आशा।
रस का अर्थ है,
अभी मैं थका
नहीं। अभी मैं
थोड़ी और
चेष्टा
करूंगा। अभी
लगता है कि
कहीं से कोई न
कोई मार्ग मिल
जाएगा। वासना
दुष्पूर है,
यह तो पक्का।
और रस भी विरस
हो जाता है यह
भी पक्का।
लेकिन रस विरस
तभी होता है
जब तुम रस में
पूरे जाओ; नहीं
तो विरस नहीं
होता। जैसे
बीच से कोई
भाग आए, अधूरा
भाग आए, जंगल
में बैठ जाए
तो मुश्किल
खड़ी होगी। बार—बार
मन में होगा, शायद एक बार
और चुनाव लड़
लेता। कौन
जाने जीत
जाता!
कहानियां
हैं,
गौरी अठारह
दफे हारा, उन्नीसवीं
बार जीत गया।
और कैसे जीता
पता है? भाग
गया था। छिपा
था एक जंगल
में एक खोह
में, गुफा
में। और बैठा
था थका हुआ, घबड़ाया हुआ
कि अब क्या
होगा? सब
हार गया। और
एक मकड़ी को
जाला बुनते देखा।
मकड़ी जाला
बुनती रही, सत्रह बार
गिरी और
अठारहवीं बार
जाला पूरा हो गया।
गौरी
उठ कर खड़ा हो
गया। उसने कहा, जो
मकड़ी के लिए
हो सकता है, मुझे क्यों
नहीं हो सकता?
एक बार और
कोशिश कर लूं।
और गौरी कोशिश
किया और जीत
गया।
तुम
अगर अधूरे भाग
गए तो कोई न
कोई मकड़ी को
गिरते देख कर, जाला
बुनते देख कर
तुम लौट आओगे।
कौन जाने!
उपाय पूरा
नहीं हो पाया
था इसलिए हार
गया। जाऊं, उपाय पूरा
कर लूं।
और
तुम न भी लौटे
तो भी: मन
तुम्हारा
लौटता रहेगा।
तुम चाहे बैठे
रहो गुफा में, मन
तुम्हारा
बाजारों में
भरमेगा, धन—तिजोडियों
की चिंता करेगा,
स्त्रियों—पुरुषों
के सपने
देखेगा, पद—प्रतिष्ठा
के रस में
तल्लीन होगा।
गुफा में
बैठने से क्या
फर्क होता है?
मन को गुफा
में बिठा देना
इतना आसान
थोड़े ही है!
शरीर को बिठा
देना आसान है।
जंजीरें डाल
दो, कहीं
भी बैठ जाएगा।
मैंने
सुना है, एक
ईसाई फकीर के दर्शन
करने लोग आते
थे बड़े दूर—दूर
से। वह मिस्र
के पास एक
रेगिस्तान
में, एक
गुफा में रहता
था। हजारों
मील से लोग
उसके दर्शन
करने आते थे।
लोग बड़े चकित
होते थे उसकी
तपश्चर्या, उसका त्याग
देख कर। एक
दिन एक फकीर
भी उसके दर्शन
को आया था, वह
देख कर हंसने
लगा। उसने
पूछा, मैं
समझा नहीं। आप
हंस क्यों रहे
हैं? उस
फकीर ने कहा
कि मैं यह देख
कर हंस रहा
हूं कि तुमने
अपने हाथ में
जंजीरें और
पैरों में बेड़ियां
क्यों डाल रखी
हैं?
वह
जो फकीर था
गुफा में रहने
वाला, उसने
अपने पैरों
में जंजीरें
डाल रखी थीं
और गुफा के
साथ जोड़ रखी थीं
जंजीरें; और
हाथ में
जंजीरें थीं।
मैं इसलिए हंस
रहा हूं कि
तुमने ये
जंजीरें क्यों
डाल रखी हैं? उस फकीर ने
कहा, इसलिए
कि कभी—कभी मन
में कमजोरी के
क्षण आते हैं
और भाग जाने
का मन होता है।
संसार में लौट
जाने की इच्छा
प्रबल हो जाती
है। तब ये
जंजीरें रोक
लेती हैं 1
थोड़ी देर ही
रुकती है वह
कमजोरी; फिर
अपने को
सम्हाल लेता
हूं। उतनी देर
के लिए
जंजीरें काम
दे जाती हैं
क्योंकि
जंजीरें
खोलना आसान
नहीं। ये
मैंने सदा के
लिए बंद करवा
दी हैं। तो
कमजोरी के
क्षण में
सहारा मिल
जाता है।
लेकिन
यह भी कोई बात
हुई?
जंजीरों के सहारे
अगर रुके रहे
गुफा में...। और
ऐसा नहीं है
कि सभी
संन्यासी इस
तरह की स्थूल
जंजीरें
बांधते हैं, सूक्ष्म
जंजीरें हैं।
कोई जैन मुनि
हो गया; अब
बीस साल
प्रतिष्ठा
तीस साल
प्रतिष्ठा, सम्मान, चरणस्पर्श,
लोगों का
मान, पूजा,
आदर...। अब आज
अचानक अगर
लौटना चाहे तो
यह सारा पूजा—आदर
जो तीस साल
मिला है, यह
जंजीर बन जाता
है। आज हिम्मत
नहीं होती कि
लौट कर जाऊं
संसार में, लोग क्या
कहेंगे? अहंकार
बाधा बन जाता
है। यह बड़ी
सूक्ष्म
जंजीर है।
इसलिए
तो त्यागी को
आदर दिया जाता
है। यह संसारी
की तरकीब है
उसको गुफा में
रखने की। भाग
न सको। बच एक
दफा आ गए गुफा
में,
निकलने न
देंगे। ऐसी
सूक्ष्म
जंजीरें हैं।
इतना शोरगुल
मचाएंगे, इतना
बैंडबाजा
बजाएंगे, शोभा
यात्रा
निकालेंगे, लाखों खर्च
करेंगे। लगा
दी उन्होंने
मुहर। अब
तुम्हें
भागने न देंगे।
क्योंकि
ध्यान रखना, जितना
सम्मान दिया
इतना ही अपमान
होगा।
सम्मान
की तुलना में
ही अपमान होता
है। इसलिए जैन
मुनि भागना
बहुत मुश्किल
पाता है।
हिंदू
संन्यासी
इतना मुश्किल
नहीं पाता, क्योंकि
इतना सम्मान
कभी किसी ने
दिया भी नहीं।
तो उसी मात्रा
में अपमान है।
मेरे
संन्यासी को
तो कोई दिक्कत
नहीं। वह किसी
भी दिन
संन्यास छोड़
दे। क्योंकि
किसी ने कोई
सम्मान दिया
नहीं था; अपमान
कोई देगा नहीं।
अपमान का कोई
कारण नहीं है।
अपमान उसी
मात्रा में
मिलता है जिस
मात्रा में
सम्मान ले
लिया। सम्मान
जंजीर बन जाता
है।
अगर
तुम सच में
समझदार हो तो
कभी अपने
ध्यान, अपने संन्यास
के लिए किसी
तरह का सम्मान
मत लेना।
क्योंकि जो
सम्मान दे रहा
है वह
तुम्हारा जेलर
बन जाएगा।
उससे कह देना,
सम्मान
नहीं। क्षमा
करो। धन्यवाद।
क्योंकि कल
अगर मैं लौटना
चाहूं तो मैं
कोई जंजीरें
नहीं रखना
चाहता अपने
ऊपर। मैं जैसा
मुक्त
संन्यास में
आया था उतना
ही मुक्त रहना
चाहता हूं अगर
संन्यास के बाहर
मुझे जाना हो।
तो
कुछ तो गुफाओं
में स्थूल
जंजीरें बांध
लेते हैं, कुछ
सूक्ष्म
जंजीरें; मगर
जंजीरें हैं।
और ये जंजीरें
रोके रखती हैं।
यह कोई रुकना
हुआ? जंजीरों
से रुके, यह
कोई रुकना हुआ?
आनंद
से रुको, जंजीरों
से नहीं।
अहोभाव से
रुको, अपमान
के भय से नहीं।
सम्मान की
आकांक्षा से
नहीं, समाधि
के रस से।
लेकिन
यह तभी संभव
होगा जब संसार
का रस चुक गया
हो। इसलिए
मेरा जोर है
कि कच्चे मत
भागना। अधूरे—अधूरे
मत भागना। बीच
से मत उठ आना
महफिल से।
महफिल पूरी हो
जाने दो। यह
गीत पूरा सुन
ही लो। इसमें
कुछ सार नहीं
है। घबड़ाना
कुछ है भी
नहीं। यह नाच
पूरा हो ही
जाने दो। कहीं
ऐसा न हो कि घर
जाकर सोचने
लगो कि पता
नहीं...। यह
कहानी पूरी हो
जाने दो।
अंतिम परदा
गिर जाने दो।
कहीं ऐसा न हो
कि बीच से
उठजाओ और फिर
मन पछताए। और
मन सोचे कि
पता नहीं, असली
दृश्य देखने
को रह ही गए
हों। अभी तो
कहानी शुरू ही
हुई थी। पता
नहीं अंत में
क्या आता है।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि जीवन को
जीयो। भरपूर
जीयो। डर कुछ
भी नहीं है, क्योंकि
वासना दुष्पूर
है। तुम मेरा
मतलब समझो।
मैं तुमसे यह
कह रहा हूं कि
चूंकि वासना दुष्पूर
है, तुम
लाख जीयो, आज
नहीं कल तुम
संन्यासी
बनोगे।
संन्यास से
बचने का उपाय
नहीं है।
संन्यास
संसार के
अनुभव का नाम
है।
जिसने
संसार का ठीक
अनुभव ले लिया
वह करेगा क्या
और?
संन्यास
संसार के
अनुभव की
निष्पत्ति है,
सार है। मैं
संन्यास को
संसार का
विरोधी नहीं
मानता हूं। यह
उसी जीवन की
सारी अनूभूति
का सार—निचोड़
है। जीकर देखा
कि वहा कुछ भी
नहीं है। जीकर
देखा कि वासना
भरती नहीं है।
जीकर देखा कि
वासना भूखा का
भूखा रखती है,
तृप्त नहीं
होने देती।
जीकर देखा कि
दुख ही दुख है;
नर्क ही
नर्क है। इसी
अनुभव से आदमी
ऊपर उठता और
इसी अनुभव से
जीवेषणा
विसर्जित हो
जाती; जीने
की आकांक्षा
चली जाती।
जीने
की आकांक्षा
के चले जाने
का नाम ही
मुमुक्षा है :
मोक्ष की
आकांक्षा।
मोक्ष का क्या
अर्थ होता है? अब
और नहीं जीना
चाहता। बहुत
जी लिया। नहीं,
अब और नहीं
जीना चाहता।
देख लिया सब, जो देखने को
था। सब नाटक
पूरे हुए। सब
कथाएं पूरी पढ़
लीं। जीवन का
पाठ अपने
अंतिम
निष्कर्ष पर आ
गया।
संन्यास
संसार के
प्रगाढ़ अनुभव
का नाम है।
इसलिए
कहता हूं कि
अनुभव से
कच्चे मत
भागना। संसार
से कच्चे भागे
तो संन्यास भी
कच्चा रह जाएगा।
और कच्चा
संन्यास दो
कौड़ी का है।
यह संसार की
आग में
तुम्हारा घड़ा
पके। तुम पक
कर बाहर आओ।
पूछते
हो,
'वासना
स्वभाव से
दुष्पूर है,
ऐसा आप कहते
हैं। और फिर
यह भी कहते
हैं कि रस को
पूरा भोग लो, इनमें
विरोधाभास
दिखाई पड़ता है।’
दिखाई
पड़ता है, क्योंकि
तुम्हें दिखाई
नहीं पड़ता। ये
दोनों एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
वासना दुष्पूर
है, इसीलिए
रस से मुक्त
हुआ जा सकता
है।
और
जब रस से
मुक्त हुआ जा
सकता है और
वासना भरती ही
नहीं तो जल्दी
क्या है? घबड़ाहट
क्या है? इतना
अधैर्य क्या
है? इस
संसार में
कितने ही गहरे
जाओ, कुछ
हाथ न लगेगा।
इसलिए मैं
कहता हूं दिल
भर कर जाओ।
वे
जो तुमसे कहते
हैं कि मत जाओ, संसार
में जाने में
खतरा है, मुझे
लगता है, उन्हें
अभी पक्का पता
नहीं। उन्हें
एक डर है कि
कहीं ऐसा न हो
कि तुम भरम जाओ।
उन्हें भय है।
उन्हें लगता
है, कहीं
ऐसा न हो कि
तुम्हारी
वासना तृप्त
ही न हो जाए; कहीं फिर
तुम मोक्ष की
आकांक्षा ही न
करो। उन्हें
डर है कि कहीं
यह क्षितिज
मिल ही न जाए।
मिल गया तो
फिर तुम न
लौटोगे।
उनका
भय तुम समझते
हो? उनका भय
उनका अज्ञान
है। मैं तुमसे
कहता हूं जाओ।
जहां जाना हो
जाओ। भोगो।
भटकी। लौट
आओगे। भटकने
में कंजूसी मत
करो। तो जब
तुम लौटोगे, पूरे लौटोगे।
फिर तुम पीछे
लौट कर भी न
देखोगे। फिर
संसार ऐसे गिर
जाता है, जैसे
सांप अपने
पुराने वेश को
छोड़ देता है; अपनी पुरानी
चमड़ी को छोड़
देता है। सरक
जाता। बाहर
निकल जाता।
पीछे लौट कर
भी नहीं देखता।
ठीक
ऐसा ही जब
संन्यास सहज
घटता है तब
उसकी अपूर्व
महिमा है।
चौथा
प्रश्न :
किसी
व्यक्ति—विशेष
के प्रति
समर्पण करना
क्या निजी
अस्तित्व और
स्वतंत्रता
को खो देना
नहीं है? व्यक्तित्व
की पूजा न कर
व्यक्ति की
पूजा करना
कहां तक उचित
है?
पहली
बात : तुम वही
खो सकते हो, जो
तुम्हारे पास
हो। उसे तो
तुम कैसे
खोओगे जो
तुम्हारे पास
नहीं है? इसे
समझना।
अक्सर
ऐसा हो जाता
है। कहावत है
कि नंगा नहाता
नहीं क्योंकि
वह कहता है, नहाऊंगा
तो निचोडूगा
कहां? निचोड़ने
को कुछ है ही
नहीं।
भिखमंगा रात
भर जागता रहता
है कि कहीं
चोरी न हो जाए।
चोरी हो जाए
ऐसा कुछ है ही
नहीं।
तुम
पूछते हो 'किसी
व्यक्ति—विशेष
के प्रति
समर्पण करना
क्या निजी
अस्तित्व और
स्वतंत्रता
को खो देना
नहीं है?'
अगर
है
स्वतंत्रता
तो,
तो कोई
जरूरत ही नहीं
है किसी के
प्रति समर्पण
करने की।
प्रयोजन क्या
है? तुम
स्वतंत्रता
को उपलब्ध हो
गए हो, निजी
अस्तित्व
तुम्हारा हो
गया है, उसी
का नाम तो
आत्मा है। अब
तुम्हें
समर्पण की
जरूरत क्या है?
लेकिन
अक्सर ऐसा
होता है, न तो
स्वतंत्रता
है, न कोई
निजी
अस्तित्व है
और घबड़ा रहे
हैं कि कहीं
समर्पण करने
से खो न जाए।
नंगा नहाए तो
डर रहा है कि
निचोडूगा
कहां? कपड़े
सुखाऊंगा
कहां?
पहले
तो तुम यही
सोच लो ठीक से
कि तुम्हारे
पास
स्वतंत्रता
है?
तुम्हारे
पास तुम्हारा
अस्तित्व है?
तुमने
आत्मा का
अनुभव किया है?
—तुमने उस
स्वच्छंदता
को जाना है, जिसकी
अष्टावक्र
बात कर रहे
हैं? अगर
जान लिया तो
अब समर्पण
करने की जरूरत
क्या है? किसको
समर्पण करना
है? किसके
लिए करना है? समर्पण आदमी
इसी
स्वतंत्रता
की खोज में
करता है।
और
अगर तुम्हारे
पास यह
स्वतंत्रता
नहीं है तो
समर्पण
सहयोगी है।
फिर समर्पण
में तुम वही
खोओगे जो
तुम्हारे पास
है— अहंकार है
तुम्हारे पास; आत्मा
तुम्हारे पास अभी
है नहीं। और
समर्पण में
आत्मा नहीं
खोती, अहंकार
ही खोता है।
और
अहंकार ही
तरकीबें
निकालता है
बचने की। वह
कहता अरे, यह
क्या करते हो,
समर्पण कर
रहे? इसमें
तो निजता खो
जाएगी। यह
निजता नाम है
अहंकार का।
इसे साफ समझ
लेना। अगर
तुमने अपने को
जान लिया, अब
कोई जरूरत ही
नहीं है। तुम
यह प्रश्न ही
न पूछते। अगर
तुम्हें अपनी
स्वतंत्रता
मिल गई है, तुम
अपनी
स्वतंत्रता
के मालिक हो
गए हो, यह
संपदा तुमने
पा ली, तो
यह प्रश्न तुम
किस लिए करते?
मैं
तो नहीं करता
यह प्रश्न।
मैं तो किसी
के पास नहीं
जाता कहने कि
समर्पण करने
से मेरी
स्वतंत्रता
खो जाएगी।
समर्पण करना
ही किसलिए? कोई
प्रयोजन नहीं
रहा है।
तुम
पूछते हो। साफ
है,
तुम्हें
स्वतंत्रता
की कोई सुगंध
नहीं मिली है
अब तक, सिर्फ
शब्द तुमने
सीख लिया है।
शब्द सीखने
में क्या धरा
है? तुम्हें
आत्मा का कुछ
भी पता नहीं
है। जिन मित्र
ने पूछा है, नये हैं।
नाम है उनका 'दौलतराम
खोजी।’ अभी
खोज रहे हो।
अभी मिला नहीं
है। और
दौलतराम भीं
नहीं हो। दौलत
और राम.. .जरा भी
नहीं; खोजी
हो, इतना
सच है। अभी
दौलत है नहीं।
और राम के
बिना दौलत
होती कहां? अभी तुम्हें
भीतर के राम
का पता नहीं
है।
लेकिन
डर है कि कहीं
समर्पण किया
तो खो न जाए।
क्या खो जाएगा? दौलत
है नहीं
दौलतराम!
सिर्फ अहंकार
का धुआं है।
खो जाने दो।
इसके खोने से
लाभ होगा। यह
खो जाए तो
तुम्हारे
भीतर, इस
धुएं के भीतर
छिपी जो दौलत
पड़ी है उसके
दर्शन होने
लगेंगे।
समर्पण
तुम्हें
स्वतंत्रता
देगा अहंकार
से।
स्वतंत्रता
का क्या अर्थ
होता है? हम
किसी दूसरे से
थोड़े ही बंधे
हैं; अपनी
ही अस्मिता से
बंधे हैं।
अपने ही
अहंकार से
बंधे हैं।
किसी और ने
हमें थोड़े ही
बांधा है।
अपना ही दंभ
हमें बाधें
हुए है।
समर्पण का
अर्थ है, दंभ
किसी के चरणों
में रख दो, जहां
प्रेम जागा हो।
किसी के पास
अगर परमात्मा
की थोड़ी सी
झलक मिली हो
तो फ्लो मत
मौका। रख दो
वहीं चरणों
में। यह बहाना
अच्छा है। इस
आदमी के बहाने
अपना अहंकार
रख दो। इस
अहंकार के रखते
ही तुम्हारे
भीतर जो छिपा
है वह प्रकट
हो जाएगा। यह
आवरण उतार
दिया। तुम
नग्न हो जाओगे।
उस नग्नता में
तुम्हें अपनी
आत्मा की पहली
झलक मिलेगी।
और
उस आत्मा का
ही स्वभाव
स्वतंत्रता
है। अहंकार का
स्वभाव
स्वतंत्रता
नहीं है।
इसलिए समर्पण
में तो आदमी
आत्मवान बनता
है,
स्वतंत्र
बनता है।
समर्पण से
किसी की
स्वतंत्रता
थोड़े ही खोती
है। —एक बात।
दूसरी
बात : जो
स्वतंत्रता
समर्पण से खो
जाए वह दो
कौड़ी की है।
वह बचाने
योग्य, ही
नहीं है। जो
स्वतंत्रता
समर्पण करने
पर भी बचे वही
बचाने योग्य
है। इस बात को
समझना।
स्वतंत्रता
कोई ऐसी कमजोर, लचर
चीज थोड़े ही
है कि तुमने
समर्पण किया,
किसी के पैर
छू लिए और गई!
इतनी सस्ती
चीज को बचा कर
भी क्या करोगे?
जो पैर छूने
से चली जाए, जो कहीं सिर
झुकाने से चली
जाए, इसको
बचा कर भी
क्या करोगे? इसमें कुछ
मूल्य भी नहीं
है। यह बड़ी
कमजोर है, नपुंसक
है।
स्वतंत्रता
तो ऐसी अदभुत
घटना है कि
तुम सारे संसार
के चरण ख्युाए
तो भी न जाएगी।
तुम कंकड़—पत्थरों
के चरण ख्य?उाए,
झाड़—झाड़, पत्थर—पत्थर
सिर झुकाओ तो
भी न जाएगी।
जा ही नहीं
सकती।
स्वतंत्रता
यानी स्वभाव।
जा कैसे सकता
है? अपना
है जो, उसे
खोओगे कैसे? सिर झुक
जाएगा, तुम
झुक जाओगे और
तुम पाओगे, तुम्हारे
भीतर
स्वतंत्रता
प्रगाढ़ होकर
जल रही है
दीये की भांति।
अकंप उसकी ली
है। अकंप उसका
प्रकाश है।
जितने झुकोगे
उतना पाओगे, तुम अचानक
पाओगे कि
विनम्रता से
स्वतंत्रता का
विरोध नहीं है।
स्वतंत्रता
विनम्रता में
पलती है, पुसती
है, बड़ी
होती है, फलती
है। विनम्रता
स्वतंत्रता
के लिए खाद है।
समर्पण
तो द्वार है
स्वतंत्रता
का।
लेकिन
मैं तुम्हारा
मतलब समझता
हूं।
तुम्हारी
तकलीफ मेरे
खयाल में है।
तकलीफ है
अहंकार की।
अपने को कुछ
मान बैठे हो, तो
कैसे किसी के
चरणों में
झुका दें? तुम्हें
परमात्मा भी
मिल जाए तो भी
तुम बचाओगे।
बचाने
की बहुत
तरकीबें हैं।
पहले तो तुम
यह मानने को
राजी न होंगे
कि यह परमात्मा
है। परमात्मा
कहीं ऐसे
मिलता है? वे
पहले जमाने की
बातें गईं जब
परमात्मा
जमीन पर
आयाकरता था।
अब थोड़े ही
आता है। तुम
कुछ न कुछ
परमात्मा में
भूल— चूक खोज
लोगे, जिससे
समर्पण करने
से बच सको।
तुमने राम में
भी भूल—चूक
खोज ली थी, तुमने
कृष्ण में भी
खोज ली थी, तुमने
बुद्ध में भी
खोज ली थी।
तुम कुछ न कुछ
खोज ही लोगे।
तुम अपने को
बचा लोगे।
अपने
को बचाए—बचाए
तुम जन्मों—जन्मों
से चले आ रहे
हो। यह गांठ
जिसे तुम बचा
रहे हो, तुम्हारा
रोग है। यह
गांठ छोड़ो। यह
कैंसर की गाठ
है। इसी से तो
तुम
व्याधिग्रस्त
हो।
समर्पण
का कोई और
अर्थ नहीं है।
समर्पण तो एक
बहाना है।
किसी के बहाने
तुमने अपनी
गांठ उतार कर
रख दी। खुद तो
उतारने में
तुमसे नहीं
बनता। खुद तो
उतारते नहीं
बनता। आदत
पुरानी हो गई
इसको ढोने की।
किसी के बहाने, किसी
के सहारे उतार
कर रख देते हो।
जैसे ही उतार
कर रखोगे, तुम
पाओगे, अरे!
बड़ा पागलपन था।
तुम व्यर्थ ही
इसे ढो रहे थे।
तुम चाहते तो
बिना समर्पण
के भी उतार कर
रख सकते थे।
लेकिन यह
तुम्हें
समर्पण के बाद
ही पता चलेगा।
समर्पण
तो बहाना है।
गुरु तो बहाना
है। ऐसा कुछ
है नहीं कि
बिना गुरु के
तुम उतार नहीं
सकते। चाहो तो
तुम बिना गुरु
के भी उतार
सकते हो, लेकिन
संभावना कम है।
तुम तो गुरु
से भी बचने की
कोशिश कर रहे
हो। तो अकेले
में तो तुम बच
ही जाओगे।
अकेले में तुम
भूल ही जाओगे
उतारने की बात।
यह
तो ऐसा ही है, तुम्हें
सुबह पांच बजे
उठना है, ट्रेन
पकड़नी है, तो
दो उपाय हैं.
या तो तुम
अपने पर भरोसा
करो कि उठ
आऊंगा पांच
बजे, या
अलार्म घड़ी भर
कर रख दो। उठ
सकते हो खुद
भी। थोड़ा
संकल्प का बल
चाहिए। अगर
तुममें थोड़ी
हिम्मत हो तो
तुम अपने को
रात कह कर सो
जा सकते हो कि
पांच बजे से
एक मिनट भी
ज्यादा नहीं सोना
है दौलतराम!
ऐसा अगर जोर
से कह दिया, और तुमने
गौर से सुन
लिया और धारण
कर ली इस बात को,
तो पांच बजे
से रत्ती भर
भी आगे नहीं
सो सकोगे।
पांच बजे ठीक आंख
खुल जाएगी।
अगर
अपनी ही बात
मान सकते हो, तब
तो बहुत ही
अच्छा। अगर
दौलतराम पर
भरोसा न हो, और डर हो कि
जब कह रहे हैं
तभी जान रहे
हैं कि यह कुछ
होने वाला
थोड़े ही है! कह
रहे हैं कि
दौलतराम, पांच
बजे सुबह उठ
आना। लेकिन
कहते वक्त भी
जान रहे हैं
कि यह कहीं होनेवाला
थोड़े ही! ऐसे
तो कई दफे कह
चुके। कभी हुआ?
विवेकानंद
अमरीका में एक
जगह बोलते थे।
तो उन्होंने
बाइबिल का
उल्लेख किया, जिसमें
जीसस ने कहा
है, अगर
श्रद्धा हो तो
पहाड़ भी हट
जाएं। अगर
श्रद्धा से कह
दो, 'हट जाओ
पहाड़ो' तो
पहाड़ भी हट
जाएं।
एक
की औरत सामने
ही बैठी थी, वह
भागी। वह अपने
घर भागी। उसके
पीछे एक छोटी
पहाड़ी थी, जिससे
वह बहुत
परेशान थी।
उसने कहा अरे,
इतनी सरल
तरकीब! और
मुझे अब तक
पता नहीं थी।
और बाइबिल
मेरे घर में
पड़ी है। ईसाई
थी। और उसने
कहा, मैं
तो ईसाई हूं
और मुझमें
श्रद्धा भी है
ईसा पर। जाकर
अभी निपटा
देती हूं इस पहाड़ी
को। खिड़की खोल
कर उसने आखिरी
बार देख ली
पहाड़ी कि एक
बार और देख
लूं। फिर तो
यह चली जाएगी।
खिड़की बंद
करके उसने कहा,
हट जा
पहाड़ी!
श्रद्धा से
कहती हूं। ऐसा
तीन बार
दोहराया। फिर
खिड़की खोल कर
देखी, हंसने
लगी। कहा, मुझे
पता ही था, ऐसे
कहीं हटती है!
पता ही था, ऐसे
कहीं हटती है।
यह कोई मजाक
है कि कह दो, पहाड़ी हट
जाए।
मगर
अगर पता ही था
तो नहीं हटती।
भीतर तुम पहले
से ही जान रहे
हो कि नहीं
होनें वाला, नहीं
होनेवाला। यह
अपने से नहीं
हो सकता है।
तो फिर नहीं
होगा। तो फिर
अलार्म घड़ी भर
कर रख दो। या
किसी पड़ोसी को
कह दो कि पांच
बजे उठा देना।
कोई उपाय करो।
गुरु
के पास समर्पण
का केवल इतना
ही अर्थ है कि
तुमसे नहीं
होता तो
अलार्म भर दो।
गुरु तो
अलार्म है।
जगा देगा।
तुमसे नहीं
बनता तो वह
तुम्हें जगा
देगा।
एमेन्युएल
कांट हुआ
जर्मनी का
बहुत बड़ा विचारक; वह
अकेला रहा
जिंदगी भर, शादी नहीं
की। लेकिन एक
नौकर को अपने
पास रखता था।
वह धीरे—धीरे नौकर
उसका मालिक हो
गया। क्योंकि
नौकर पर
निर्भर रहना
पड़ता। और
एमेन्युएल
कांट बिलकुल
पागल था समय
के पीछे। मिनट—मिनट,
सेकेंड—सेकेंड
का हिसाब रखता
था। अगर ग्यारह
बजे खाना खाना
है तो म्यारह
ही बजे खाना
खाना। दो मिनट
देर हो गई तो
मुश्किल। रात
दस बजे सोना
है तो दस बजे
सो जाना है।
कभी—कभी तो
ऐसा हुआ कि
कोई मिलने आया
था, वह बात
ही कर रहा है
और वह उचक कर
अपना कंबल ओढ़
कर सो गया।
क्योंकि दस बज
गया। घड़ी में
देखा। वह इतना
भी नहीं कह
सकता कि अब
मेरे सोने का
वक्त हो गया, क्योंकि
इसमें भी तो
समय लग जाएगा।
वह सो ही गया।
नौकर आकर
कहेगा, अब
आप जाइए।
मालिक सो गए।
और
सुबह तीन बजे
उठता था। और
तीन बजे उठने
में उसे बड़ी
अड़चन थी। मगर
जिद्दी था।
उठता भी था और
अड़चन भी थी।
अड़चन इतनी थी
कि नौकर से
मार—पीट हो
जाती थी। नौकर
उठाता था; और
मार—पीट हो
जाती। तो नौकर
टिकते नहीं थे।
क्योंकि नौकर
कहते यह भी
अजीब बात है।
आप कहते हैं
कि तीन बजे
उठाना। हम
उठाते हैं, आप गाली
बकते हो।
मारने को खड़े
हो जाते हो।
मगर वह कहता
कि यही तो
तुम्हारा काम
है। तुम चाहो
मुझे मारो, तुम चाहो
मुझे गाली दो,
मगर उठाना।
छोड़ना मत.
चाहे कुछ भी
हो जाए।
तो
एक ही नौकर
टिकता था उसके
पास। वह उसका
मालिक हो गया
था। वह तो
उसकी पिटाई भी
कर देता था।
गुरु
तो केवल एक
उपाय है। कभी
जरूरत होगी तो
वह तुम्हारी
पिटाई भी करेगा।
कभी खींचेगा
भी नींद से।
समर्पण
का इतना ही
अर्थ है कि
तुम गुरु से
कहते हो कि
मुझे पक्का
पता है कि मैं
तीन बजे उठ न
सकूंगा। और
मुझे यह भी
पता है कि तीन
बजे मैं करवट
लेकर सो
जाऊंगा। मुझे
यह भी पता है
कि तुम भी
उठाओगे तो मैं
नाराज होऊंगा।
फिर भी तुम
कृपा करना और
उठाना।
समर्पण
का और क्या
अर्थ है? समर्पण
का इतना सा
सीधा सा अर्थ
है कि मैं
तुम्हारे चरणों
में निवेदन
करता हूं कि
मुझसे तो उठना
हो नहीं सकता।
और यह भी मुझे
पक्का है कि
तुम भी मुझे
उठाओगे तो मैं
बाधा डालूंगा।
यह भी मैं
नहीं कहता कि
मैं बाधा नहीं
डालूंगा। मैं
सहयोगी
होऊंगा यह भी
पक्का नहीं है।
मगर
प्रार्थना है
मेरी : तुम
मेरी बाधाओं
पर ध्यान मत
देना। मेरी
नासमझियों का
हिसाब मत रखना।
मैं गाली—गलौज
भी बक दूं कभी,
क्षमा कर
देना। यह मैं
तुमसे
प्रार्थना कर
रहा हूं लेकिन
मुझे उठाना।
मुझे उठना है।
और तुम्हारे
सहारे के बिना
न उठ सकूंगा।
समर्पण
का इतना ही
अर्थ है कि
तुम अपना
अहंकार किसी
के चरणों में
रख देते हो और
उससे निवेदन
कर देते हो कि
वह तुम्हें
खींच ले, उठा
ले, जगा ले।
तुम्हारी
नींद गहरी है;
जन्मों—जन्मों
की।
अगर
तुम स्वयं उठ सको, बड़ा
शुभ। कोई
जरूरत नहीं।
किसी गुरु को
कष्ट देने की
कोई जरूरत
नहीं। कोई
गुरु उत्सुक
नहीं है।
क्यों_कि
किसी को भी
तीन बजे उठाना
कोई सस्ता
मामला नहीं है,
उपद्रव का
मामला है। कोई
धन्यवाद थोड़े
ही देता है!
फिर
तुम पूछ रहे
हो,
'व्यक्तित्व
की पूजा न कर
व्यक्ति की
पूजा कहा तक
उचित है?'
समर्पण
और व्यक्ति की
पूजा का कोई
संबंध नहीं है।
जिसके प्रति
तुमने समर्पण
कर दिया उसके
साथ तुम एक हो गए।
पूजा कैसी? कौन
आराध्य और कौन
आराधक? गुरु
और शिष्य के
बीच पूजा का
भाव ही नहीं
है। शिष्य ने
तो गुरु के
साथ अपने को
छोड़ दिया। यह
तो गुरु के
साथ एक हो गया।
इसमें पूजा
इत्यादि कुछ
भी नहीं है।
अगर पूजा कायम
रह गई तो
समझना कि
समर्पण पूरा नहीं
है।
समर्पण
का तो अर्थ ही
यह होता है कि
मैंने जोड़ दी
अपनी नाव
तुम्हारी नाव
से। मैं अपने
को पोंछ लेता
हूं तुम मेरे
मालिक हुए। अब
तुम ही हो, मैं
नहीं हूं। अब
पूजा किसकी, कैसी? यह
कोई व्यक्ति—पूजा
नहीं है।
और
इसमें एक बात
और समझ लेने
की जरूरत है।
पूछा है, 'व्यक्तित्व
की पूजा न कर
व्यक्ति की
पूजा कहां तक
उचित है?'
आदमी
बहुत बेईमान
है। आदमी की
बेईमानी ऐसी
है कि वह
तरकीबें
खोजता है। अगर
तुम उससे कहो, आदमी
को प्रेम करो;
तो वह कहता
है, आदमियत
को प्रेम करें
तो कैसा? अब
आदमियत को
खोजोगे कहां?
जब भी प्रेम
करने जाओगे, आदमी मिलेगा;
आदमियत कभी
भी न मिलेगी।
अब तुम कहो, हम तो
आदमियत को
प्रेम करेंगे।
तो आदमियत
कहां..
.मनुष्यता को
कहां पाओगे?
मनुष्यता
तो एक शब्द
मात्र है, कोरा
शब्द। ठोस तो
आदमी है। मगर
तरकीब काम कर
जाएगी। तुम
आदमियों को तो
घृणा करोगे और
मनुष्यता की
पूजा करोगे।
ऐसा भी हो
सकता है कि
मनुष्यता के
प्रेम के पीछे
मनुष्यों की
हत्या करनी
पड़े तो कर दो।
ऐसा ही तो कर
रहे हैं लोग।
ईश्वर के भक्त
हिंदू
मुसलमान को
मार डालते हैं,
मुसलमान
हिंदुओं को
मार डालते हैं।
वे कहते हैं
ईश्वर की सेवा
कर रहे हैं।
ईश्वर कोरा
शब्द है। और
जो ठोस है उसे
तुम विनाश कर
रहे हो। और
शाब्दिक
प्रत्य मात्र
के लिए, धारणा
मात्र के लिए।
आदमी बहुत
बेईमान है।
अब
तुम कहते हो, व्यक्ति
की प्लान करके
व्यक्तित्व
की पूजा करें।
व्यक्तित्व
का मतलब क्या होता
है? कहा पाओगे
व्यक्तित्व को?
व्यक्ति से अलग
कही व्यक्तित्व
होता?
तुम
कहते हो, नर्तक
की हम फिकर
नहीं करते; हम तो नृत्य
की पूजा
करेंगे।
लेकिन नर्तक
के बिना नृत्य
कहीं होता? और जब भी तुम
नृत्य की पूजा
करने जाओगे तो
तुम नर्तक को
पाओगे। भाव—भंगिमाएं
नर्तन की, नर्तक
की भाव—
भंगिमाएं हैं।
व्यक्तित्व
की पूजा का
क्या अर्थ
होता है? लेकिन
मैं तुमसे कह
नहीं रहा कि
तुम व्यक्ति की
पूजा करो। मैं
तुमसे इतना ही
कह रहा हूं
शब्दों से बचो,
ठोस को
ग्रहण करो।
ठोस है
वास्तविक, यथार्थ।
शाब्दिक जाल
में मत पड़ो।
अगर
बुद्ध
तुम्हें मिल
जाएं तो तुम
यह मत कहना कि
हम तो
बुद्धत्व की पूजा
करेंगे।
बुद्धत्व को कहां
पाओगे? जब भी
पाओगे बुद्ध
को पाओगे। और
बुद्धत्व अगर
कहीं मिलेगा
तो बुद्ध की
छाया की तरह
मिलेगा। तुम
कहते हो हम
छाया की पूजा
करेंगे; मूल
की पूजा न
करेंगे। तुम
कहते हो हम तो
जिनत्व की
पूजा करेंगे,
महावीर से
हमें क्या
लेना—देना!
लेकिन
जरा गौर करना, कहीं
अहंकार
तुम्हें धोखा
तो नहीं दे
रहा है? अहंकार
तर्क तो नहीं
खोज रहा है? अहंकार यह
तो नहीं कर
रहा है इंतजाम,
कि देखो
पूजा से बचा
दिया, समर्पण
से बचा दिया, विनम्र होने
से बचा दिया।
अब तुम खोजते
रहो बुद्धत्व
को, जिनत्व
को। कहीं
मिलेगा नहीं,
तो झुकने का
कोई सवाल ही न
आएगा।
अब
यह बड़े मजे की
बात है, जीवन
के सामान्य तल
पर तुम ऐसा
नहीं करते। जब
तुम किसी
स्त्री के
प्रेम में
पड़ते हो तो
तुम
स्त्रीत्व को
प्रेम नहीं
करते, तुम
स्त्री के प्रेम
में पड़ते हो।
तब तुम यह
धोखा नहीं करते।
तुम यह नहीं कहते
कि हम तो स्त्रीत्व
को प्रेम
करेंगे; स्त्री
को क्या करना!
कहते हो? तब
तुम यह नहीं
कहते। तब तो
तुम स्त्री के
प्रेम में
पड़ते हो। तब
तुम नहीं शब्द
की बात करते, तब तुम सत्य
को पकड़ते हो।
जहां
तुम पकड़ना
चाहते हो वहां
तुम सत्य को
पकड़ते हो; जहां
तुम नहीं
पकड़ना चाहते,
जहां तुम
बचना चाहते हो,
वहां तुम
शब्दों के जाल
फैलाते हो। जब
प्रेम करोगे
तो स्त्री को
प्रेम करना
होगा, स्त्रीत्व
को प्रेम नहीं
किया जाता। जब
प्रेम करना
होगा तो गुरु
को प्रेम करना
होगा, गुरुत्व
को प्रेम नहीं
किया जाता। और
जब करना होगा
समर्पण तो
बुद्ध को करना
होगा, बुद्धत्व
को समर्पण
नहीं किया
जाता।
ये
शब्द—जाल हैं।
और अहंकार बड़ा
कुशल है इन
जालों में
अपने को छिपा
लेने के लिए।
तुम इस अहंकार
से सावधान
रहना।
टूटा
सिलसिला
फुनगी
पर फूल खिला
झरा
तो गहरा
अपना
ही मूल मिला
वह
जो फुनगी पर
फूल खिला है, अगर
गिर जाए, झर
जाए तो अपनी
ही जड़ें पा
लेगा। तुम अगर
झुक जाओ तो
अपना ही मूल
पा लोगे।
टूटा
सिलसिला
फुनगी
पर फूल खिला
झरा
तो गहरा
अपना
ही मूल मिला
झुको, समर्पण
करो तो तुम
स्वयं को ही
पा लोगे।
माध्यम होगा
कोई, पाओगे
तुम अपने को
हीं—किसी के
द्वार से।
गुरु द्वार है।
गुरुद्वारा।
उसके द्वार से
तुम अपने पर
ही लौट आओगे।
पांचवां
प्रश्न :
मैं
किसी को
पुकारता हूं
जिसे जानता
नहीं मैं हूं
किसी के प्यार
में, जिसे
पहचानता नहीं
यह क्या, इंतजार
के बाद भी आता
है इंतजार या
समझूं कि मैं
ही तुझे
पुकारता नहीं?
सत्य की
खोज या सत्य
का प्रेम या
सत्य की जिज्ञासा
उसकी ही खोज
है,
जिसे हम
जानते नहीं।
उसकी ही पुकार
है, जिसे
हम पहचानते
नहीं।
जिसे
तुम पहचानते
हो वह तो झूठा
हो गया। जिसे
तुम जानते हो
उससे तो कुछ
भी न पाया।
उसे तो जान भी
लिया और क्या
पाया? अनजान
की तलाश है।
अपरिचित की
खोज है।
अज्ञात की
यात्रा है।
ऐसा
ही है। स्मरण
रखना, रोज—रोज
जो जान लो उसे
छोड़ देना है, ताकि यात्रा
दूषित न हो
पाए और यात्रा
शुद्ध रूप से
अनजान, अपरिचित,
अज्ञात की
बनी रहे। जो
जान लो उसे
झाडू देना। वह
कचरा हो गया।
ज्ञात को
इकट्ठा मत
करना। ज्ञात
से ही तो
बुद्धि बनती
है। ज्ञात को
इकट्ठा ही मत
करना। ज्ञात
की धूल इकट्ठी
मत होने देना,
ताकि
तुम्हारा
चित्त का
दर्पण अज्ञात
को झलकाता रहे;
अज्ञात को
पुकारता रहे।
अज्ञात का
आवाहन और चुनौती
आती रहे।
ठीक
ऐसा ही है। और
यह भी खयाल
रखना, यह जो
परमात्मा की
खोज है यह
शुरू तो होती
है, पूरी
कभी नहीं होती।
पूरी हो भी
नहीं सकती, क्योंकि
परमात्मा
अनंत है। इसे
तुम पूरा कैसे
करोगे? इसे
चुकाओगे कैसे?
इसे तौलते
रहो, तौलते
रहो, तौल न
पाओगे। अमाप
है।
इसलिए
रोज—रोज लगेगा
पास आए पास आए; और
फिर भी तुम
पाओगे, दूर
के दूर रहे।
रोज—रोज लगेगा
मंजिल यह आयी,
यह आयी, और
फिर भी लगेगा
इंतजार जारी
है। मगर
इंतजार में
बड़ा मजा है।
मिलने से भी
ज्यादा मजा है।
यह
जो सतत खोज है
और सतत कशिश
और खिंचाव है, और
यह सतत पुकार
है, इसका
मजा तो देखो।
इसका रस तो
अनुभव करो।
अगर परमात्मा
मिल जाए तो
फिर क्या
करोगे? बुलाता
रहे, दौड़ाता
रहे, छिपता
रहे। यह छिया—छी
चलती रहे।
इंतजार जारी
रहे।
लेकिन
हम बड़े सीमित
हैं। हम कहते
हैं,
अब जल्दी
मिल जाओ।
इंतजार नहीं
चाहिए। हमें
पता नहीं हम
क्या मांग रहे
हैं। अगर
यात्रा पूर्ण
हो जाए तो फिर
मृत्यु के अतिरिक्त
कुछ बचता नहीं।
पूर्णता तो
मृत्यु है।
इसलिए यात्रा
अपूर्ण रहेगी।
क्योंकि
मृत्यु है ही
नहीं जगत में।
अस्तित्व
मृत्युविहीन
है। यह यात्रा
शाश्वत है।
परमात्मा
मंजिल नहीं है, यात्रा
है। इस तरह
सोचना शुरू करो।
उसे तुम मंजिल
की तरह सोचो
ही मत; अन्यथा
भ्रांति खड़ी
होती है।
यात्रा की तरह
सोचो। और तब
एक नया.. .नया ही
रूप प्रकट
होता है। तब
कल नहीं है रस;
आज है, अभी
है, यहीं
है। तब ऐसा
नहीं है कि
किसी दिन
पहुंचेंगे और
फिर मजा
करेंगे, परमात्मा
में डूबेंगे
और रस लेंगे।
प्रतिपल
मार्ग पर, राह
पर, पक्षियों
के गीत में, हवा के
झोंकों में, चांद—तारों
में, राह
की धूल में—स्ब
जगह परमात्मा
लिप्त है। सब
जगह मौजूद है।
यात्रा है
परमात्मा, मंजिल
नहीं।
इंतजार
बड़ा मधुर है।
और यह इंतजार
अनंत है।
हमारा मन तो
मांगता है, जल्दी
हो जाए। हमारा
मन बड़ा अधीर
है।
इतना
मत दूर रहो
गंध कहीं खो
जाए
आने
दो आंच रोशनी
न मंद हो जाए
देखा
तुमकी मैंने
कितने जन्मों
के बाद
चंपे
की बदली—सी
धूप—छांह
आसपास
घूम—सी
गई दुनिया यह
भी न रहा याद
बह
गया है वक्त
लिए सारे मेरे
पलाश
ले
लो ये शब्द, गीत
भी न कहीं सो
जाए
आने
दो आंच रोशनी
न मंद हो जाए
उत्सव
से तन पर सजा
ललचाती
महराबें
खींच
ली मिठास पर
क्यों शीशे की
दीवारें
टकरा
कर डूब गईं
इच्छाओं की
नावें
लौट—लौट
आई हैं मेरी
सब झनकारें
नेह
फूल नाजुक न
खिलना बंद हो
जाए
आने
दो आंच रोशनी
न मंद हो जाए
क्या
कुछ कमी थी
मेरे भरपूर
दान में?
या
कुछ तुम्हारी
नजर चूकी
पहचान में
या
सब कुछ लीला
थी तुम्हारे
अनुमान में
या
मैंने भूल की
तुम्हारी
मुस्कान में
खोलो
देहबंध, मन
समाधि—सिंधु
हो जाए
आने
दो आंच रोशनी
न मंद हो जाए
हम
बड़े डरे हैं।
हम बड़े भयभीत
हैं। हम जल्दी
मुट्ठी बांध
लेना चाहते
हैं। हमारा मन
बड़ा आतुर है, अशांत
है—जल्दी हो।
और
कहीं ऐसा न हो
कि हम खोजते
ही रह जाएं, मिलना
ही न हो और यह
जीवन खो जाए।
कहीं ऐसा न हो
कि हम राह की
धूल में ही
दबे रह जाएं
और तेरे द्वार
तक कभी पहुंच
ही न पाएं।
कहीं ऐसा न हो
कि हम भटकते
ही रहें चांद—तारों
में और तेरा
घर ही न मिले।
हमारी
परमात्मा को
देखने की
मौलिक दृष्टि
भ्रांत है।
परमात्मा
कहीं और है
जहां हमें
पहुंचना है, इसमें
ही भूल हो रही
है। परमात्मा
यहां है, अभी
है, यहीं
है; कहीं
और नहीं। यह
हमारा ध्यान— 'कहीं और' हमें
चूका रहा है।
परमात्मा
यहां है, अभी
है, यहीं
है। चारों ओर
घना है। उसी
की रोशनी है।
उसी की छाया
है। उसी के
हरे वृक्ष हैं।
उसी के नदी—झरने
हैं। उसी के
पर्वत—पहाड़
हैं। वही झांक
रहा तुम्हारी आंखों
से। वही बोलता
मुझमें, वही
सुनता तुममें।
कहीं दूर नहीं
है, कहीं
पार नहीं है, कहीं और
नहीं है; यहीं
है, अभी है।
तुम
जागो। डूबो इस
रस में। इस
उत्सव को भोगो।
और प्रतिपल
क्षुद्र में
भी उसे देखो।
भोजन करो तो
याद रखो, अन्न
ब्रह्म। पानी
पीयो, याद
रखो, झरने
सर—सरिताए सब
उसकी हैं। कंठ
में तृप्ति हो,
याद रखो वही
तृप्त हुआ।
गले मिलो प्रिय
जनके, स्मरण
रखो वही
आलिंगन कर रहा।
ऐसे दूर मंजिल
की तरह देखोगे
तो दुखी होओगे,
परेशान
होओगे। और उस
परेशानी में
जो मौजूद है
चारों तरफ, उससे चूकते
चले जाओगे।
फिर
दोहराता हूं—परमात्मा
मंजिल नहीं, मार्ग
है; गंतव्य
नहीं, गति
है; आखिरी
पड़ाव नहीं, सभी पड़ाव उसके
हैं। आखिरी
कोई पड़ाव ही
नहीं है।
यात्रा ही
यात्रा है।
अनंत यात्रा
है।
खुलता
है हरेक रहस्य
का दरवाजा
दूसरे रहस्य में
प्रत्येक
वर्तमान की
इति है अशेष
भविष्य में
और
हर रहस्य का
दरवाजा खोल कर
जब तुम गहरे
उतरोगे, फिर
पाओगे नया एक
दरवाजा। एक
पहाड़ के उतुंग
शिखर को
लांघोगे, सोचोगे
आ गए घर, अब
और चलना नहीं;
पहुंचोगे
शिखर पर, पाओगे
और बड़ा शिखर
प्रतीक्षा कर
रहा है। और
बड़े शिखर की
पुकार आ गई।
और
ऐसा ही सदा
होता रहेगा।
शुभ है।
सौभाग्य है कि
यात्रा थकती
नहीं, चुकती
नहीं, अंत
नहीं आता। यह
खेल शाश्वत है,
अनवरत है।
तूफान
और आधी हमको न
रोक पाए
वो
और थे मुसाफिर
जो पथ से लौट
आए
संकल्प
कर लिया तो
संकल्प बन गए
हम
मरने
के सब इरादे
जीने के काम
आए
कुछ
कल्पनाएं
जोड़ी, कुछ
भावनाएं तोड़ी
दीवानगी
में हमने क्या—क्या
न गुल खिलाए
आबाद
हो गई हैं दुख—दर्द
की सभाएं
एक
साज की बदौलत
सौ तार थरथराए
जाने
कहां बसेंगे, जाने
कहां लुटेंगे
बादल
ने बाग सींचे, बिजली
ने घर जलाए
संतोष
को सफर में
संतोष मिल रहा
है
हम
भी तो हैं
तुम्हारे, कहने
लगे पराए
संतोष
को सफर में
संतोष मिल रहा
है
हम
भी तो हैं
तुम्हारे, कहने
लगे पराए
जिस
दिन तुम
यात्रा को ही
गंतव्य मान
लोगे उस दिन
कोई पराया
नहीं, कोई
अन्य नहीं, सभी अनन्य
हैं। जिस दिन
प्रतिपग
मंजिल मालूम
होने लगेगी उस
दिन धन्यभागी
हुए; उस
दिन प्रभु तुम
पर बरसा; उस
दिन तुमने
पहचाना; उस
दिन
प्रत्यभिज्ञा
हुई।
आखिरी
प्रश्न :
प्यारे
भगवान श्री, हम्मा
को बिना सवाल
किए जो जवाब
दिया, उसे
सुन कर मुझे
कितनी खुशी
हुई यह मैं
शब्दों में
नहीं कह सकती।
आपका
आशीर्वाद बरस
रहा है।
पहली
बात. सवाल हो
तो तुम पूछो
या न पूछो, जवाब
मैं देता हूं।
सवाल न हो तो
तुम कितना ही
पूछो, जवाब
मैं नहीं देता।
सवाल पूछने से
ही जरूरी नहीं
है कि सवाल हो।
कुछ लोगों को
पूछने की
बीमारी है। वे
बिना पूछे रह
नहीं सकते।
जैसे खाज
खुजलाती है, ऐसी उनकी
बीमारी है। वे
पूछते चले
जाते हैं।
उनको इतनी भी
फुरसत नहीं
होती कि वे
सुनें कि उत्तर
क्या दिया। जब
मैं उत्तर दे
रहा होता हूं
तब वे दूसरे
प्रश्न बनाते।
तब वे सोचते
हैं, कल
क्या पूछना है।
वे आगे पूछने
में लग जाते
हैं।
कुछ
हैं,
जिनका धंधा
पूछना है।
उन्हें उत्तर
से कोई
प्रयोजन नहीं
है। उन्हें
प्रश्न पूछना
है। उन्हें
प्रश्न पूछने
में ही सारा
रस है।
कुछ
हैं,
जो उत्तर के
लिए प्यासे हैं
और पूछते नहीं।
उनके लिए भी
मैं उत्तर
देता हूं। सच
तो यह है, वे
ही उत्तर पाने
के लिए ज्यादा
योग्य पात्र हैं।
जो पूछते भी
नहीं और
प्रतीक्षा
करते हैं।
उत्तर की
आकांक्षा है
लेकिन प्रश्न
पूछने की खुजलाहट
नहीं। राह
देखते हैं।
समय होगा जब, ' ऋतु आएगी, ठीक—ठीक घड़ी
होगी तो भरोसा
है उनका कि
मैं उत्तर
दूंगा।
इसलिए
कभी—कभी मैं
उनके भी उत्तर
देता हूं
जिन्होंने नहीं
पूछा। और रोज
ही उन बहुतों
के उत्तर नहीं
देता हूं जो
पूछते चले
जाते हैं।
असली
सवाल पूछना
नहीं है, असली
सवाल उत्तर को
ग्रहण करने की
क्षमता। असली
सवाल उत्तर को
स्वीकार करने
की हिम्मत, साहस।
हम्मा
ने पूछा नहीं
था,
उत्तर
मैंने दिया।
हम्मा को
पूछने का कोई
आग्रह नहीं है।
सुनते हैं।
वर्षों से
सुनते हैं।
चुपचाप सुनते
रहते हैं।
सुनते हैं—कभी
रोते देखता
हूं उनको आसुओ
से भरे, कभी
हंसते देखता
हूं। कभी
प्रफुल्लित, कभी आनंदित।
लेकिन गहरे
सुनते हैं।
ऐसे
जो भी
सुननेवाले
हैं,
उनका कोई भी
प्रश्न होगा,
वे पूछें या
न पूछें, मैं
उत्तर दूंगा।
उनका प्रश्न
हो, बस
इतना काफी है।
ठीक समय पर
उन्हें उनका
उत्तर मिल
जाएगा।
जसु
नें कहा कि
उसे सुन कर यह
बहुत खुश हुई।
जसु जानती है।
हम्मा उसके
पति हैं। जसु
उन्हें
पहचानती है।
वह चौकी होगी, मैंने
जो उत्तर दिया।
क्योंकि उसे
खयाल है कि
हम्मा की
जरूरत क्या है।
हम्मा को निकट
से उसने जाना
है। उनकी छाया
से परिचित है।
उनसे लंबे
जीवन का संबंध
है।
तो
सुन कर चौंकी
होगी जब मैंने
उत्तर दिया, क्योंकि
पूछा नहीं था
और दिया। और
जो उत्तर दिया
वह वही था, जिसकी
उन्हें जरूरत
थी। और यह भी
मैं आपको कहूं—हम्मा
ने तो नहीं
पूछा था, जसु
ने भी नहीं
पूछा था, लेकिन
जसु पूछना
चाहती थी।
कहना चाहती थी
कि मैं हम्मा
को कुछ कहूं।
वह उसके
प्राणों में
था; इसलिए
आनंदित हुई।
निश्चित
ही शब्दों में
कहना मुश्किल
है। उसने कहा, आपका
आशीर्वाद बरस
रहा है।
जब
तुम मेरे
उत्तर को
ग्रहण करने
में समर्थ हो
जाओगे तो तुम
अचानक पाओगे
कि आशीर्वाद
बरसा। मैं
उत्तर नहीं दे
रहा हूं आशीष
ही दे रहा हूं।
जो इन्हें
उत्तर समझते
हैं,
वे चूक गए।
ये कोई
शाब्दिक सिद्धात
और शास्त्र की
बातें नहीं
हैं, जो
यहां हो रही
हैं। यहां कोई
शब्दजाल नहीं
है। यहां
किन्हीं
सिद्धातों की
रचना नहीं की
जा रही है और न
कोई संप्रदाय
गढ़े जा रहे
हैं। यहां कोई
बौद्धिक
उत्तर नहीं
खोजे जा रहे।
अगर
तुमने मेरा
उत्तर ग्रहण
कर लिया, अगर
तुमने हृदय
में उसे जाने
दिया, तीर
की तरह चुभने
दिया तो तुम
अनुभव करोगे
कि आशीर्वाद
की वर्षा हुई।
तुम पर निर्भर
है।
वर्षा
होती है, तुम
उल्टे घड़े की
तरह भी हो
सकते हो। घड़ा
रखा रहे खुले आंगन
में, वर्षा
होती रहे, पानी
न भरेगा। तुम
फूटे घड़े की
भांति भी हो
सकते हो। सीधा
भी रखा रहे, वर्षा भी
होती रहे, पानी
भरता भी रहे, फिर भी बचे न।
तुम
सीधे और बिन
फूटे घड़े की
भांति जब
स्वीकार
करोगे, तुम्हारे
मन और मन के
विचारों के
छिद्र, जब
जो मैं
तुम्हें दे
रहा हूं उसे
बहा न ले जाएंगे,
जब तुम मुझे
निर्विचार
होकर सुनोगे
तो अछिद्र होकर
सुनोगे; उस
समय तुम्हारे
घड़े में कोई
छेद्र—नहीं है।
और जब तुम
मुझे प्रेम, समर्पण से
सुनोगे, श्रद्धा
से सुनोगे तो
तुम्हारा घड़ा
सीधा है। तो
वर्षा भर
जाएगी।
तुम्हें
आशीर्वाद का
अनुभव होगा।
ये
उत्तर नहीं
हैं,
आशीष ही हैं।
ढोलक
उनके रूठी मन
के
रूठे
प्रीतम के ढिग
बेंसे
घन
बरसे
घन
बरसे, भीग धरा
गमके
घन
बरसे
रसधार
गिरे, दिन सरस
फिरे
पपीहा
तरसे न पिया
तरसे
घन
बरसे
घन
बरसे, भीग धरा
गमके
घन
बरसे
और
घन बरस रहा है।
रसधार बह रही
है। तुम्हारे
हाथ में है, कितना
पी लो। तुम
मुझे दोषी न
ठहरा सकोगे। न
पीया तो
तुम्हीं
जिम्मेवार हो।
तुम मुझे
उत्तरदायी न
ठहरा सकोगे।
तुम यह न कह
सकोगे कि घन
नहीं बरसे थे,
कि रसधार
नहीं बही थी।
यह उपाय
तुम्हारे लिए
नहीं है। तुम
यह न कह सकोगे
कि हम बुद्ध
के समय में
नहीं थे और
क्राइस्ट के
समय में नहीं
थे, और
कृष्ण की
बासुरी को
हमने नहीं
सुना, क्या
करें! तुम यह न
कह सकोगे।
बांसुरी बज
रही है। नहीं
सुने तो तुम
ही सिर्फ
जिम्मेवार हो।
सुन लिया तो
निश्चित ही
आशीर्वाद की
वर्षाहो जाएगी।
और आशीर्वाद
मुक्ति है।
आशीष में
निर्वाण है।
प्रार्थना
में शक्ति है
ऐसी
कि
वह निष्फल
नहीं जाती
जो
अगोचर कर
चलाते हैं जगत
को
उन
करों को
प्रार्थना
नीरव चलाती
प्रार्थना
से सुनो।
प्रार्थनापूर्ण
होकर सुनो।
जो
अगोचर कर
चलाते. हैं
जगत को
उन
करों को
प्रार्थना
नीरव चलाती
अगर
तुमने
प्रार्थनापूर्वक
सुन लिया तो
तुम्हारे
प्राणों से जो
भी उठेगा वह
परमात्मा को चलाने
लगता है। वही
तो आशीर्वाद
का अर्थ है।
उसकी तरफ से
आशीर्वाद
बरसने लगते
हैं।
प्रार्थना
में शक्ति है
ऐसी
कि
वह निष्फल
नहीं जाती
जो
अगोचर कर
चलाते हैं जगत
को
उन
करों को
प्रार्थना
नीरव चलाती
कहना
भी नहीं पड़ता।
बिन कहें भी
प्रार्थना
पहुंच जाती।
बस,
हृदय
प्रार्थना
भरा हो, समर्पित
हो, श्रद्धा
से आपूर हो, बाढ़ आई हो
प्रेम की तो
अनंत आशीषों
की वर्षा उपलब्ध
होगी। आशीष तो
बरस ही रहे
हैं; तुम्हारा
हृदय खुला
होगा और तुम उन्हें
पाने में
समर्थ हो
जाओगे।
इसे
याद रखना। यहाँ
कोई बौद्धिक
निर्वचन नहीं
चल रहा है।
यहां तो
अनिर्वचनीय
की बात हो रही
है। उसे पाने
के लिए भाव ही
एकमात्र
पात्रता देता
है,
विचार नहीं।
भाव से समझोगे
तो ही समझोगे।
विचार से समझा
तो चूक
सुनिश्चित है।
आज इतना
ही।
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