अध्याय
10 : सूत्र 1
अद्वय
की स्वीकृति
यदि
बौद्धिक और एंद्रिक
आत्माओं को एक
ही
आलिंगन में
आबद्ध रखा जाए,
तो
उन्हें पृथक
होने से बचाया
जा सकता है।
जब
कोई अपनी
प्राणवायु को
अपनी ही
एकाग्रता
द्वारा
नमनीयता
की चरम सीमा
तक पहुंचा दे,
तो
वह व्यक्ति शिशुवत
कोमल हो जाता
है।
जब
वह कल्पना के
अतिशय
रहस्यमय
दृश्यों
को
झाड़-पोंछ कर
साफ कर लेता
है,
तो वह
निर्विकार हो
जाता है।
अद्वैत
की हम बात
सुनते हैं: एक
ही है सत्य।
लेकिन फिर भी, अद्वैत
की भी जो बात
करते हैं, वे
भी शरीर और
आत्मा को दो
हिस्सों में
बांट कर चलते
हैं। जो
अद्वैत का
विचार रखते
हैं, वे भी
अपने शरीर और
अपनी आत्मा के
बीच पृथकता मानते
हैं। और जब
शरीर और आत्मा
में भेद होगा,
तो जगत और
परमात्मा में
भेद अनिवार्य
हो जाता है।
भेद की जरा सी
स्वीकृति द्वैत
को निर्मित कर
देती है।
इसलिए
एक बहुत
विरोधाभासी
स्थिति लोगों
की है। अद्वैत
को मानने वाला
भी अपने जीवन
में द्वैत को
ही मान कर
चलता है।
लाओत्से
इसमें अद्वैत
की आधारशिला
निर्मित कर
रहा है।
लाओत्से कहता
है कि जगत और
परमात्मा एक
नहीं हो सकते, जब
तक शरीर और
आत्मा के बीच
एक गहरा
आलिंगन न हो।
जब तक कि शरीर
और आत्मा के
बीच ऐक्य का
अनुभव न हो, तब तक
पदार्थ और
चेतना के बीच
भी एकता
निर्मित नहीं
हो सकती है।
तथाकथित
धार्मिक आदमी
को बहुत
कठिनाई मालूम पड़ेगी।
लेकिन
व्यक्ति अगर
अपने ही भीतर
विभाजित है, तो
अस्तित्व को
अविभाज्य
नहीं मान
सकेगा। अपने
भीतर जो
अविभाजित है,
वही जगत को
अविभाजित जान
सकेगा।
क्योंकि जगत फैला
हुआ शरीर है
और चेतना
विराट
परमात्मा है।
अगर मेरी
चेतना मेरे
शरीर से भिन्न
है, तो फिर
परमात्मा की
चेतना भी जगत
के शरीर से
भिन्न ही
होगी।
लाओत्से कहता
है, यदि
शरीर और आत्मा
को एक रखा जा
सके, तो ही
अद्वैत की
संभावना है, तो ही
अद्वैत का फूल
खिल सकता है।
लेकिन
यह शरीर और
आत्मा अलग
कैसे हो जाते
हैं,
इसे हम समझ
लें, तो
शायद एक रखने
की बात भी समझ
में आ जाए।
बच्चा जब पैदा
होता है, तो
उसे कोई भेद
का पता नहीं
होता। शरीर और
चेतना में कोई
भी रेखा भी
भेद की नहीं
होती। शरीर और
चेतना एक ही
अस्तित्व की
तरह बड़े होते
हैं। लेकिन
जीवन की
जरूरतें--सभ्यता,
संस्कृति, सुरक्षा--शरीर
और चेतना में
भेद को
निर्मित करना
शुरू कर देती
हैं। बच्चे को
अगर भूख लगी
है, तो भी
हमें उसे
सिखाना पड़ता
है कि जब भूख
लगी हो तभी
भोजन मिले, यह जरूरी
नहीं है; भूख
को रोकना भी
आवश्यक है। यह
जीवन की
अनिवार्य
व्यवस्था है।
जब नींद आ जाए
तभी सोना भी
मिल जाए, यह
आवश्यक नहीं;
और जब प्यास
लगे तभी पानी
भी मिल जाए, यह भी जरूरी
नहीं। तो
नियंत्रण
रखना भी सीखना
पड़ता है। और
जैसे ही बच्चे
को नियंत्रण
की क्षमता आती
है, वैसे
ही उसे यह भी
बोध हो जाता
है कि मैं अलग
हूं और शरीर
अलग है।
क्योंकि शरीर
को भूख लगती है
और मैं भूख को
रोक लेता हूं।
शरीर को नींद
आती है और मैं
नींद को रोक
लेता हूं। मैं
रोक सकता हूं
जिसे, उससे
अलग हो जाता
हूं।
तो
जैसे-जैसे
बच्चे में
नियंत्रण, कंट्रोल
विकसित होता
है, वैसे-वैसे
उसकी चेतना और
शरीर में एक
दरार पड़नी
शुरू हो जाती
है। वह दरार
रोज-रोज बड़ी
होती चली जाती
है। वह दरार
जितनी बड़ी हो
जाती है, उतना
ही अस्तित्व
के साथ एक
होना मुश्किल
हो जाता है।
क्योंकि जो
अपने शरीर के
साथ भी एक
होना जिसे
मुश्किल हो
गया है, उसे
विराट जगत के
शरीर के साथ
एक होना बहुत
मुश्किल हो
जाएगा।
यह
गहरा द्वैत
जीवन की
अनिवार्यता
में से पैदा
होता है।
जरूरी है, लेकिन
सत्य नहीं है।
उपयोगी है, लेकिन तथ्य
नहीं है। और
जो भी उपयोगी
होता है, जरूरी
नहीं कि सत्य
हो। और कभी
ऐसा भी होता
है कि असत्य
भी बहुत
उपयोगी होते
हैं। यह एक
उपयोगी असत्य
है। और इसे
विकसित करना
ही पड़ता है। लेकिन
अगर इससे ही
हमारा चित्त
सदा के लिए
बंध जाए और हम
इससे छूट न
सकें, तो
यह उपयोगी असत्य
आत्मघाती हो
जाता है।
नियंत्रण
सिखाना ही
पड़ेगा। संयम
सिखाना ही पड़ेगा।
जरूरतें खड़ी
होंगी और मांग
को रोकने की क्षमता
भी जुटानी ही
पड़ेगी।
धीरे-धीरे
जिसमें
जरूरतें पैदा
होती हैं, वह
अलग मालूम
होने लगता है;
और जो
जरूरतों पर
नियंत्रण
करता है, वह
अलग मालूम होने
लगता है।
बुद्धि अलग और
वासना अलग
मालूम होने
लगती है।
बुद्धि और
वासना जैसे ही
अलग मालूम
होने लगती हैं,
हमारे भीतर
ही दो हिस्से
हो गए। फिर हम
पूरी जिंदगी
इन दो हिस्सों
के संघर्ष में
ही परेशान होते
हैं। सारी
जिंदगी एक
अंतर्द्वंद्व
बन जाती है।
पूरे समय वासना
अपनी मांग
करती है और
बुद्धि अपना
नियंत्रण स्थापित
करना चाहती
है। धीरे-धीरे
हमारे भीतर सब
तरफ से विभाजन
हो जाता है।
मनोविद
कहते हैं कि
हमारा जो नीचे
का हिस्सा है
शरीर का, नाभि
से नीचे का
हिस्सा, उसे
हम नीचा
हिस्सा मानना
शुरू कर देते
हैं। केवल
नीचे होने के
कारण नहीं, निम्न होने
के कारण भी।
ऊपर के हिस्से
के साथ हम
अपना आत्मसात
करते हैं और
शरीर के नीचे
के हिस्से को
हम अलग तोड़ कर
रख देते हैं।
कमर के नीचे
का शरीर आपको
ऐसा मालूम
पड़ता है आपका
नहीं है। कमर
के ऊपर का
शरीर ही बस
आपका है।
क्योंकि कमर
के नीचे का
हिस्सा
धीरे-धीरे
वासना से जुड़
जाता है। और
कमर के ऊपर का
हिस्सा
धीरे-धीरे
बुद्धि से जुड़
जाता है। और
अंततः तो
बुद्धि सिर
में केंद्रित
हो जाती है।
इसलिए आप अपने
चेहरे से ही
अपने को पहचानते
हैं। बाकी
सारे शरीर को
तो हम छिपाए
रखते हैं।
उसके छिपाने
का कारण सिर्फ
ठंड और गर्मी
और शीत से
बचाव ही नहीं
है। उसके छिपाने
का बुनियादी
कारण है कि
हमारी
आइडेंटिटी, हम अपना
तादात्म्य
केवल चेहरे से
करना चाहते हैं,
बाकी शरीर
से नहीं।
क्योंकि
बुद्धि हमारी
प्रतीत होती
है कि हमारी
खोपड़ी में
निर्भर है। और
इसलिए चेहरा
काफी है।
यह
बहुत मजे की
बात है कि अगर
आपका चेहरा
काट कर रख
दिया जाए, तो
आप पहचाने जा
सकते हैं।
लेकिन आपका
पूरा शरीर अगर
रखा हो सिर्फ
चेहरा न हो, तो आप खुद भी
न पहचान
सकेंगे कि यह
शरीर आपका है।
दूसरे तो
पहचान ही नहीं
सकेंगे, आप
भी नहीं पहचान
सकेंगे।
हमारी पहचान
बुद्धि से जुड़
गई और हमने
पूरे शरीर को वासनाग्रस्त
मान कर अलग
छोड़ रखा है।
इसके गहरे
परिणाम हुए हैं।
उन गहरे
परिणामों पर
हम बात
करेंगे।
लाओत्से
इस पहले सूत्र
में कह रहा है
कि यदि बौद्धिक
और एंद्रिक
आत्माओं को एक
ही आलिंगन में
आबद्ध रखा जाए, तो
उन्हें पृथक
होने से बचाया
जा सकता है।
अगर
मेरी बुद्धि
और मेरी
इंद्रियां एक
गहरे आलिंगन
में आबद्ध
रहें, तो मेरे
भीतर द्वंद्व
को और द्वैत
को पैदा होने
से रोका जा
सकता है। और
अगर ये आबद्ध
न रहें, अगर
मैं बुद्धि को
और वासना को
अपने भीतर अलग
तोड़ लूं और
दोनों के बीच
सब सेतु नष्ट
कर दूं, तो
फिर मेरे भीतर
खंडित होने की
स्थिति को नहीं
रोका जा सकता।
जिसे
मनोवैज्ञानिक
स्कीजोफ्रेनिक
कहते हैं, खंडित
व्यक्ति कहते
हैं, वह हम
सभी थोड़े-बहुत
हैं। जब कोई
ज्यादा खंडित
हो जाता है, तो पागल हो
जाता है। हम
किसी तरह से
अपने को मैनेज
कर लेते हैं, हम किसी तरह
से अपने को
चला लेते हैं
और पागल नहीं
हो जाते।
लेकिन हमारे
भीतर पागलपन
की क्षमता
प्रतिपल
घटती-बढ़ती
रहती है। हम
अपने ही भीतर
एक गहरे संघर्ष
में हैं, आलिंगन
में नहीं। एक
तालमेल नहीं
है भीतर, एक
संगीत नहीं है,
एक
लयबद्धता
नहीं है भीतर।
भीतर एक
संघर्ष, एक
द्वंद्व, एक
विरोध, एक
शत्रुता है।
प्रत्येक चीज
के साथ संघर्ष
है।
अभी
पश्चिम में एक
नया आंदोलन
चलता
है--विशेषकर
अमरीका
में--संवेदनशीलता
को बढ़ाने का।
क्योंकि
अमरीका को
अनुभव होना
शुरू हुआ है
कि आदमी की
संवेदनशीलता
समाप्त हो गई
है,
सेंसिटिविटी
समाप्त हो गई
है। हम छूते
हैं, लेकिन
छूना हमारा
बिलकुल
मुर्दा है। हम
देखते हैं, लेकिन आंखें
हमारी पथराई
हुई हैं। हम
सुनते हैं, लेकिन कानों
पर आवाज ही
पड़ती है, हृदय
तक कोई संवेदन
नहीं
पहुंचता। हम
प्रेम भी करते
हैं, हम
प्रेम की बात
भी करते हैं, लेकिन प्रेम
हमारा बिलकुल
निष्प्राण
है। हमारे
प्रेम के हृदय
में कोई धड़कन
नहीं है।
हमारा प्रेम
बिलकुल कागजी
है। हम सब कुछ
करते हैं, लेकिन
ऐसा मालूम
होता है कि
हमारे किसी भी
करने में कोई
संवेदना नहीं
रह गई है। संवेदनाशून्य,
जड़, यंत्रवत
हम उठते हैं, बैठते हैं, चलते हैं, सब हम कर
लेते हैं। संवेदना
वापस लाई जानी
जरूरी है। तो मनसविद कह
रहे हैं कि
अगर हम आदमी
की संवेदना
वापस न ला सके,
तो हम आदमी
को पृथ्वी पर
इस सदी के आगे
बचा नहीं
सकेंगे। अभी
तक व्यक्ति
पागल होते रहे
थे; अब
समूहगत रूप से
लोग पागल हो
जाएंगे।
संवेदना वापस लौटानी
पड़ेगी। लेकिन
संवेदना वापस
कैसे लौटे? और संवेदना
खो क्यों गई
है?
आपको
भी याद
होगा--अगर
आपको बचपन की
कोई स्मृति है
तो आपको याद
होगा--अगर बगीचे
में फूल खिल
गया है, तो
जैसा बचपन में
वह आपको दिखाई
पड़ा था खिलता हुआ,
वैसा अब भी
फूल खिलता है
लेकिन आपको
दिखाई नहीं
पड़ता। सूरज
बचपन में भी
उगता था, वही
सूरज अब भी
उगता है; लेकिन
अब सूरज के
उगने से हृदय
में कोई नृत्य
पैदा नहीं
होता। चांद अब
भी निकलता है,
अब भी आप
आंख उठा कर
कभी चांद को
देख लेते हैं,
लेकिन चांद
आपको स्पर्श
नहीं करता।
क्या हो गया
है?
लाओत्से
जो कह रहा है, आलिंगन
टूट गया है। बुद्धि
और एंद्रिक
तल दो हो गए
हैं।
इंद्रियों
में संवेदना
होती है, बुद्धि
संवेदना को
अनुभव करती
है। अगर दोनों
टूट जाएं, तो
संवेदना होनी
बंद हो जाती
है।
इंद्रियां जड़
हो जाती हैं
और बुद्धि तक
कोई खबर नहीं
पहुंचती। और
जीवन का काव्य
और जीवन का
संगीत और जीवन
का रस, सभी
कुछ सूख जाता
है।
बच्चे
एक स्वर्ग में
रहते हुए
मालूम पड़ते
हैं,
इसी जमीन पर,
जहां हम
हैं। लेकिन
उनके स्वर्ग
में रहने का कोई
और कारण नहीं
है, सिर्फ
इतना ही कारण
है कि अभी
उनकी
इंद्रिय-आत्मा
और उनकी
बुद्धि-आत्मा
में फासला
नहीं पड़ा है।
अभी जब वे
भोजन करते हैं,
तो शरीर ही
भोजन नहीं
करता, उनकी
पूरी आत्मा भी
उस भोजन से
आनंदित होती
है। अभी जब वे
नाचते हैं, तो सिर्फ
शरीर ही नहीं
नाचता, उनकी
आत्मा भी
नाचती है। अभी
जब वे दौड़ते
हैं, तो
उनका शरीर ही
नहीं दौड़ता,
उनकी आत्मा
भी दौड़ती है।
अभी वे
संयुक्त हैं। अभी
उनके भीतर भेद
पड़ना
शुरू नहीं
हुआ। अभी वे
अद्वैत में
हैं। अभी वे
दो नहीं हुए, अभी एक हैं।
इसलिए
बच्चा जिन
आनंद को अनुभव
कर पाता है, उनको
हम अनुभव नहीं
कर पाते। और
बच्चा जिस प्रेम
को अनुभव कर
पाता है, उस
प्रेम को हम
अनुभव नहीं कर
पाते। होना तो
उलटा चाहिए कि
हम ज्यादा
अनुभव कर सकें,
क्योंकि
हमारी अनुभव
की क्षमता और
हमारे अनुभव
का संग्रह बड़ा
है। लेकिन हम
अनुभव नहीं कर
पाते, क्योंकि
अनुभव करने की
जो प्रक्रिया
है, वही
हमारी टूट गई
है। संवेदना
तो होती है
शरीर पर। जब मैं
आपके हाथ को
छूता हूं, तो
मेरा हाथ ही
आपके हाथ को
छूता है। अगर
मेरा हाथ ही
जड़ है...।
महात्मा
गांधी के तीन
गुरुओं में से
एक का नाम है
हेनरी थारो।
हेनरी थारो
के संबंध में
कहा जाता है
कि लोग जब
उसका हाथ छूते
थे,
तो उन्हें
लगता था कि
जैसे वे किसी
मुर्दा आदमी
का हाथ छू रहे
हैं। मित्रों
ने उल्लेख
किया है अपने
संस्मरणों
में कि हेनरी थारो के
हाथ को अगर
आंख बंद करके
छुओ, तो
कहना मुश्किल
है कि तुम
लकड़ी का हाथ
छू रहे हो कि
असली हाथ छू
रहे हो। हेनरी
थारो को
शायद ज्यादा
हो गया होगा
यह हाथ संवेदनशून्य,
लेकिन
हमारा भी ऐसा
ही है।
हाथ
में संवेदना
हो,
हाथ जीवंत
हो और हाथ का
रोआं-रोआं और
हाथ का अणु-अणु
और हाथ का
कोष्ठ-कोष्ठ
बिजली से भर
जाए छूते समय,
तो ही
बुद्धि ग्रहण
कर सकती है इस
स्पर्श के आनंद
को। अगर हाथ
ही मुर्दा पड़ा
रहे, तो
बुद्धि तक कोई
खबर ही नहीं
पहुंचती। और
बुद्धि तक खबर
न पहुंचे, तो
बुद्धि के पास
सीधा कोई उपाय
नहीं है। इंद्रियां
बुद्धि के
द्वार हैं और
शरीर आत्मा का
साधन है, शरीर
आत्मा का
फैलाव है
स्थूल जगत
में। और अगर
हम शरीर से
दुश्मनी कर
लें, तो हम
जगत से अपना
संबंध तोड़
लेते हैं। जिस
मात्रा में
हमारा अपने
शरीर से संबंध
टूटता है, उसी
मात्रा में
हमारा
अस्तित्व से
संबंध टूट जाता
है। फिर हम
जीते हैं, लेकिन
हमारे और
अस्तित्व के
बीच एक फासला
बना रहता है।
हम कहीं भी
चले जाएं, हम
अस्तित्व से
दूर ही बने
रहते हैं। हम
प्रेम भी करें,
तो फासला
होता है। हम
करुणा भी करें,
तो फासला
होता है। हम
मित्रता भी बनाएं, तो
एक फासला होता
है, जिसके
आर-पार हम खड़े
रहते हैं और
आर-पार पहुंचना
बहुत मुश्किल
है।
लाओत्से
कहता है, यह
द्वैत हमारे
भीतर पैदा
होता है हमारी
बुद्धि और
हमारी
इंद्रियों के
बीच फासले के
निर्माण से।
लेकिन
यह फासला
उपयोगी है। एक
समय निर्मित
होना चाहिए।
और एक समय यह
फासला टूट भी
जाना चाहिए।
इसे एक सीढ़ी
की तरह उपयोग
करना उचित है।
इसलिए जीसस ने
कहा है कि वे ही
मेरे स्वर्ग
के राज्य में
प्रवेश कर
सकेंगे, जो
बच्चों की
भांति हो
जाएंगे। पुनः
बच्चों की
भांति। पुनः
उतने
संवेदनशील, जितने बच्चे
हैं। एक-एक
अनुभव जिनके
लिए प्राणों तक
उतर जाए, ऐसे
जो हो जाएंगे,
वे ही मेरे
प्रभु के
राज्य में
प्रवेश कर
सकेंगे।
बच्चे
के पास एक
अद्वैत है, लेकिन
अज्ञान से
भरा। ज्ञानी
के पास यही
अद्वैत पुनः
चाहिए, ज्ञान
से भरा! बच्चे
में एक
निर्दोषिता
है, एक
इनोसेंस है, लेकिन
अज्ञानपूर्ण,
इग्नोरेंट इनोसेंस।
ज्ञानी में
यही
निर्दोषिता
पुनः चाहिए, लेकिन
प्रज्ञापूर्ण।
जानता हुआ, जागा हुआ
निर्दोष भाव
पुनः स्थापित
होना चाहिए।
बच्चे
का अद्वैत
टूटेगा, क्योंकि
वह बच्चे की
उपलब्धि नहीं
है। परिस्थिति
और संघर्ष
उसके अद्वैत
को तोड़ देंगे।
लेकिन आवश्यक
नहीं है कि
अद्वैत टूटा
हुआ ही
व्यक्ति मर
जाए। मरने के
पहले यह अद्वैत
पुनः स्थापित
हो सकता है।
और जब यह पुनः
स्थापित होता
है, तो
पहले वाले
अद्वैत से
ज्यादा
समृद्ध होता है।
क्योंकि
अनुभव इसमें
हजार गरिमाएं
जोड़ जाता है।
क्या किया जा
सके कि हमारे
भीतर एक
अद्वैत आबद्ध
हो जाए? हम
कैसे भीतर एक
हो जाएं? लाओत्से
की
साधना-पद्धति
में भीतर होने
के बड़े सुगम
उपाय हैं। एक
उपाय की हम
पहले बात करें
और फिर उसकी
गहरी साधना पर
चर्चा।
लाओत्से
मानता था, तुम
जो भी करो--उठो
या बैठो, भोजन
करो या सोओ--जो
भी करो, उसमें
पूरे संयुक्त
और एक और लीन
हो जाओ। अगर रास्ते
पर चल रहे हो, तो चलना ही
बन जाओ। इतना
भी फासला मत
रखो कि मैं चल
रहा हूं।
साक्षी की जिस
साधना की हम
चर्चा करते
रहे हैं, लाओत्से
कहता है, साक्षी
भी अद्वैत पर
नहीं ले जा
सकेगा। एक सीमा
पर साक्षी को
भी छोड़ देना
जरूरी है।
कृष्णमूर्ति
अवेयरनेस की,
जागरूकता
की बात करते
हैं। वह भी
अद्वैत पर नहीं
ले जा सकेगी।
एक जगह जाकर
उसे भी छोड़
देना जरूरी
है। लाओत्से
कहता है, न
जागरूकता, न
साक्षी, वरन
एकता, लीनता।
तुम जो कर रहे
हो, वही हो
जाओ। चल रहे
हो, तो
चलने की
क्रिया ही हो
जाओ; चलने
वाला न बचे।
और भोजन कर
रहे हो, तो
भोजन करना ही
हो जाओ; भोजन
करने वाला न
बचे। और अगर
देख रहे हो, तो आंख ही बन
जाओ; देखने
वाला न बचे।
और अगर सुन
रहे हो, तो
कान ही बन
जाओ। जो भी कर
रहे हो, उसमें
इतनी समग्रता
से एक हो जाओ
कि भीतर कोई फासला
न रहे। भीतर
कोई भी फासला
न रहे। और अगर
भीतर का फासला
क्रियाओं में
टूटता चला जाए,
तो बुद्धि
और वासना के
बीच, इंद्रिय
और विवेक के
बीच, आत्मा
और शरीर के
बीच सेतु
निर्मित हो
जाता है। वे
दोनों आलिंगन
में आबद्ध हो
जाते हैं।
इस
आलिंगन को ही
तंत्र ने
आंतरिक मैथुन
कहा है, जब
भीतर की चेतना
भीतर की वासना
से एक हो जाती है।
बुद्धि कहा है
तंत्र ने
पुरुष को और
शरीर की
प्रकृति को
स्त्री कहा
है। और जब
भीतर की स्त्री
भीतर के पुरुष
से एक हो जाती
है, आलिंगन
में बद्ध हो
जाती है, तो
परम समाधि
फलित होती है।
उसी
आलिंगन की बात
लाओत्से कर
रहा है। जो भी
किया जाए, उस
करने में मेरे
भीतर दो मौजूद
न हों। क्षुद्र
से क्षुद्र
काम भी मुझे
पूरा ही डुबा
ले। क्षुद्र
से क्षुद्र
क्रिया में भी
मेरी लीनता
परिपूर्ण हो
जाए। मैं पीछे
न बचूं। मेरा बचना
ही द्वंद्व
है। मेरा पूरी
तरह एक हो
जाना ही
निर्द्वंद्व हो
जाना है। तो
आलिंगन फलित
होगा।
लेकिन
यह प्रक्रिया
तो पूरे जीवन
पर फैलानी
पड़े। और अभी फैलानी
कठिन है, क्योंकि
अभी हमारे
भीतर कुछ
शारीरिक व्यवस्थागत
अनिवार्य
फासले हो गए
हैं। और जब तक
वे फासले न
टूट जाएं, तब
तक इस लीनता
की साधना को
साधना
मुश्किल है।
उन फासलों
को हम समझ
लें। वे फासले
यांत्रिक हो
गए हैं, मैकेनिकल
हो गए हैं। और
जब तक हम
यांत्रिक व्यवस्था
को ही न तोड़
डालें, और
नया न कर लें, तब तक केवल
लीनता के
प्रयोग से कुछ
भी न होगा। बल्कि
यह भी हो सकता
है कि जब आप
कोई काम करें,
तो आपका यह
लीनता का खयाल
कि मैं पूरी
तरह लीन होकर
ही काम करूंगा,
द्वैत का
कारण बन जाए।
यह लीनता का
खयाल ही आपको
लीन न होने
दे। भोजन करते
वक्त अगर आप
यह खयाल रख कर
भोजन करें कि
मैं भोजन में
पूरा डूबा रहूं,
तो आप डूबे
नहीं रह
सकेंगे।
क्योंकि यह
खयाल आपको
बाहर ही किए
रहेगा। हमारे
भीतर यंत्रगत
भूलें हो गई
हैं। और यंत्रगत
भूलों को समझ
लेना जरूरी
है।
अगर आप
एक छोटे बच्चे
को अपने झूले
पर सोता हुआ
देखें, तो जो
एक बात खयाल
में आपको नहीं
आती होगी, आनी
चाहिए, वह
यह होगी कि
बच्चे का पेट
आप ऊपर-नीचे
होते देखेंगे,
छाती नहीं।
बच्चा श्वास
ले रहा है, तो
उसका पेट
ऊपर-नीचे हो
रहा है। लेकिन
छाती उसकी
बिलकुल
विश्राम में
पड़ी है। हम, हम उलटी ही
श्वास ले रहे
हैं। हम जब
श्वास लेते
हैं, तो
छाती ऊपर-नीचे
होती है।
लाओत्से
का कथन है--और
बहुत कीमती, और
अब विज्ञान भी
लाओत्से से
सहमत है--कि
जैसे ही
व्यक्ति के
भीतर एंद्रिक
और बुद्धिगत
चेतनाओं में
फासला पड़ता है,
वैसे ही
श्वास नाभि से
न आकर सीने से
आनी शुरू हो
जाती है। यह
फासला जितना
बड़ा होता है, श्वास उतने
ही ऊपर से आकर
लौट जाती है।
तो जिस दिन
बच्चे की
श्वास पेट से
हट कर और सीने
से चलने लगती
है, जान
लेना कि बच्चे
के भीतर एंद्रिक
आत्मा में और
बुद्धिगत
आत्मा में
फासला पड़ गया।
बड़ी उम्र में
भी, आप भी
जब रात सो
जाते हैं, तब
आपके पेट से
ही श्वास चलने
लगती है, सीना
शांत हो जाता
है। क्योंकि
नींद में आप
अपने फासलों
को बचा नहीं
सकते। बेहोशी
में फासले खो
जाते हैं और
श्वास की
स्वाभाविक
प्रक्रिया
शुरू हो जाती
है।
श्वास
का जो
प्राथमिक
स्रोत है, जापानी
भाषा में उसके
लिए एक शब्द
है। हमारी भाषा
में कोई शब्द
नहीं है। वह
शब्द है उनका: तांदेन, दकमद। नाभि से दो
इंच नीचे, ठीक
श्वास चलती हो
तो नाभि से दो
इंच नीचे, जिसे
जापानी तांदेन
कहते हैं, उस
बिंदु से
श्वास का
संबंध होता
है। और जितना
तनावग्रस्त
व्यक्ति होगा,
तांदेन से श्वास का
बिंदु उतना ही
दूर हटता जाता
है।
तो
जितने ऊपर से
आप श्वास लेते
हैं,
उतने ही
तनाव से भरे
होंगे। और
जितने नीचे से
श्वास लेते
हैं, उतने
ही विश्राम को
उपलब्ध
होंगे। और अगर
तांदेन
से श्वास चलती
हो, तो
आपके जीवन में
तनाव बिलकुल
नहीं होगा।
बच्चे के जीवन
में तनाव न
होने का जो व्यवस्थागत
कारण है, वह
तांदेन
से श्वास का
चलना है। जब
आप भी कभी
विश्राम में
होते हैं, तो
अचानक खयाल
करना, आपकी
श्वास तांदेन
से चलती होगी।
और जब आप तनाव
से भरे हों, बहुत मन
उदास, चिंतित,
परेशान हो,
व्यथित हो,
बेचैनी में
हो, तब आप
खयाल करना, तो श्वास
बहुत ऊपर से
आकर लौट
जाएगी। यह
श्वास का ऊपर
से आकर लौट
जाना इस बात
का सूचक है कि
आप अपनी मूल
प्रकृति से
बहुत दूर हो
गए हैं।
लेकिन
कुछ कारण हैं
जिनकी वजह से
हम लोगों को
शिक्षा देते
हैं कि पेट से
श्वास मत
लेना। एक तो
एक पागलपन का
खयाल सारी
दुनिया में
फैल गया है और
वह यह है कि
छाती फूली हुई
होनी चाहिए, छाती
बड़ी होनी
चाहिए। तो
छाती जितनी
बड़ी करनी हो, उतनी श्वास
छाती में भरनी
चाहिए, नीचे
नहीं; और
छाती से ही
वापस लौटा
देनी चाहिए।
तो छाती को
बड़ा करने का
पागलपन
व्यक्ति के
भीतर एक भयंकर
उत्पात को
निर्मित कर
देता है।
अगर
आपने कभी
जापानी या
चीनी फकीरों
की तस्वीरें
देखी हैं, या
लाओत्से की
तस्वीर अगर
आपने कभी देखी
है, तो
आपको थोड़ी
हैरानी होगी।
चीन और जापान
में तो बुद्ध
की भी जो तस्वीरें
और मूर्तियां
बनाई हैं, वे
भी देख कर
हमें हैरानी
होगी।
क्योंकि हमने जो
बुद्ध की
मूर्तियां
बनाई हैं, उनसे
उनका मेल नहीं
है। हमारी जो
बुद्ध की मूर्तियां
हैं, उनमें
पेट बहुत छोटा
है, पीठ से
लगा हुआ है; और छाती बड़ी
है। और जापान
और चीन में
बुद्ध की भी जो
मूर्तियां
हैं, उनमें
पेट बड़ा है, ठीक बच्चे
जैसा है।
बच्चे की छाती
तो विश्राम में
होती है; पेट
थोड़ा सा बड़ा
होगा, क्योंकि
श्वास पेट पर
आएगी-जाएगी।
तो
छाती को बड़ा
करने का खयाल
भीतर एक
खतरनाक स्थिति
को पैदा करता
है। और वह
खतरनाक
स्थिति है: एंद्रिक
और बौद्धिक...।
तीन केंद्र
ताओ मानता है:
एक तांदेन--नाभि
केंद्र, दूसरा
हृदय केंद्र
और तीसरा
बुद्धि का
मस्तिष्क
केंद्र। नाभि
केंद्र
अस्तित्व का
सबसे गहरा
केंद्र है।
फिर उसके बाद
उससे कम गहरा
केंद्र हृदय
का है। और
सबसे कम गहरा
केंद्र बुद्धि
का है।
इसलिए
बुद्धिवादी
अस्तित्व से
सबसे ज्यादा
दूर होता है।
उससे तो निकट
वे लोग भी
होते हैं, जो
हृदयवादी
हैं। तथाकथित
ज्ञानियों से
भक्त भी कहीं
ज्यादा
अस्तित्व के
निकट होते
हैं। जिसने
केवल बुद्धि
को ही सब कुछ
जाना है, वह
आदमी सतह पर
जीता है।
हिसाब उसका
पूरा होता है;
गणित उसका
साफ होता है; तर्क उसके
स्पष्ट होते
हैं। लेकिन
कभी भी गहराई
में वह नहीं
उतरता; क्योंकि
गहराई में सदा
खतरा है।
क्योंकि तर्क
भी खो जाते
हैं, हिसाब
भी खो जाता
है। वह सतह पर
जीता है, जहां
सब साफ-सुथरा
है। हृदय में
उतरे कि तर्क और
गणित और सब
साफ-सुथरी
दुनिया खो
जाती है।
इसलिए
बुद्धिवादी
हृदय की बात
से भयभीत होता
है। क्योंकि
हृदय के साथ
ही अराजकता, अतक्र्य, राग का जन्म
हो सकता है।
प्रेम पैदा हो
सकता है।
भक्ति आ सकती
है। कुछ हो
सकता है, जिसके
लिए तर्क देना
मुश्किल पड़े।
इसलिए बुद्धिवादी
बुद्धि से
जीता है। और
बुद्धि से नीचे
प्रवेश नहीं
करता।
जितना
बुद्धिवादी
आदमी होगा, श्वास
उतनी ऊपर से
चलेगी। श्वास
की ऊंचाई और नीचाई
को जान कर
आदमी का टाइप
जाना जा सकता
है। जितना हृदयवादी
व्यक्ति होगा,
श्वास उतनी
गहरी चलेगी।
लेकिन
लाओत्से कहता
है,
हृदय भी
आखिरी गहराई
नहीं है। और
गहरे उतरना
जरूरी है। और
उसको वह तांदेन
कहता है। नाभि
से श्वास चलनी
चाहिए। नाभि
से जिसकी
श्वास चल रही
है, वह
अस्तित्व के
साथ वैसा ही
जुड़ गया है, जैसे छोटे
बच्चे जुड़े
होते हैं।
"जब
कोई अपनी
प्राणवायु को
अपनी ही
एकाग्रता के
द्वारा नमनीयता
की चरम सीमा
तक पहुंचा दे,
तो वह
व्यक्ति शिशुवत
कोमल हो जाता
है।'
अपनी
श्वास को नमनीयता
की चरम सीमा
तक पहुंचा दे! नमनीयता
का अर्थ है, तनावशून्य तरलता को
पहुंचा दे।
अगर आप तनावमुक्त
हों, शून्य
हों, तो
श्वास आपकी
अनिवार्य रूप
से नाभि
केंद्र पर
पहुंच जाएगी।
कभी शिथिल
होकर, शांत
होकर, कुर्सी
पर बैठ कर
देखें, आपको
फौरन पता
चलेगा: श्वास
नाभि से चलने
लगी। लेकिन
ढीला छोड़ें
अपने को।
लेकिन
ढीला हम छोड़ते
नहीं हैं।
क्या इसका कारण
केवल इतना ही
होगा कि हम
सीने को बड़ा
करना चाहते
हैं?
नहीं, इतना
ही नहीं है।
कारण और भी
गहरे हैं।
सबसे बड़ा कारण,
जो आपको खयाल
में भी नहीं
होगा, लेकिन
आप समझेंगे तो
शीघ्र खयाल
में आ जाएगा।
बच्चे
को अपने शरीर
का बोध सबसे
पहले कब होता है?
फ्रायड
की खोजें बहुत
मूल्यवान हैं
इस संबंध में।
फ्रायड कहता
है,
बच्चे को
अपने शरीर का
सबसे पहले बोध
तभी होता है, जब वह अपनी
काम-इंद्रिय
को स्पर्श
करता है। तभी
मां-बाप उसको
रोकते हैं कि
ठहरो, मत
करो, मत
छुओ। अगर
बच्चा अपनी
नाक छूता है, अपनी आंख
छूता है, अपना
हाथ हिलाता है,
तो मां बहुत
प्रसन्न होती
है। पैर
हिलाता है, तो मां बहुत
आनंदित होती
है। लेकिन
बच्चा अगर अपनी
जननेंद्रिय
छूता है, तो
मां बेचैन और
परेशान हो
जाती है।
बच्चे को पहली
दफे पता चलता
है कि शरीर
में कोई
हिस्सा भी है
जो छूने योग्य
नहीं है, और
शरीर में कोई
हिस्सा है जो
खतरनाक है, और शरीर में
कोई हिस्सा है
जो अपराध है।
यह मां और बाप
की आंखों को
देख कर बच्चे
को पता चलता है।
यह अपराध मां
और बाप को
अपने मां-बाप
से पता चला
था। यह अपराध परंपरागत
है। अपराध
कहीं है नहीं।
लेकिन बच्चे
के शरीर में
एक भेद शुरू
हो गया। और
बच्चे को यह
बात धीरे-धीरे
मां-बाप के
इशारे बता
देंगे, उनकी
निंदा, उनकी
आलोचना, उनका
क्रोध बता
देगा कि शरीर
में कोई
हिस्सा ऐसा भी
है जो अपना
नहीं है।
इसलिए आप बूढ़े
भी हो जाएंगे,
तो भी आपकी
जननेंद्रिय
आपके शरीर का
हिस्सा नहीं
बन पाती। बन
नहीं सकती।
उसके साथ एक
फासला बना ही
रहेगा।
और
जननेंद्रिय
के साथ फासला
पैदा होते ही
जननेंद्रिय
से नीचे का जो
हिस्सा है, वह
वर्जित हो
गया।
जननेंद्रिय
के ऊपर का
हिस्सा
स्वीकृत हो
गया और नीचे
का हिस्सा
अस्वीकृत हो
गया। जैसे ही
हमारे भीतर यह
भेद घटित होता
है, वैसे
ही श्वास ऊपर
से चलने
लगेगी। उसके
कारण हैं।
क्योंकि तांदेन
का जो बिंदु
है, अगर उस
तक श्वास जाए,
तो
जननेंद्रिय
पर उसका असर
पड़ता है।
इसलिए जैसे ही
हमको यह खयाल
आ गया कि
जननेंद्रिय
हमारा हिस्सा नहीं
है, तो
हमारा तांदेन
सिकुड़ जाता है,
सप्रेस्ड
हो जाता है।
और हम डरे हुए
जीने लगते हैं
कि कहीं
जननेंद्रिय
तक श्वास न
चली जाए!
क्या
आपको पता है
कि रात सोते
समय हर पुरुष
को कम से कम
बारह से अठारह
बार
जननेंद्रिय पर
इरेक्शन होता
है--नींद में।
फ्रायड का
खयाल था कि यह
इसलिए होता है
कि लोगों की
कामवासना अतृप्त
रह जाती है, तो
जब वे
कामवासना के
स्वप्न देखते
हैं तो जननेंद्रिय
अकड़ जाती है।
लेकिन अभी
जितनी खोज गहरी
गई है, तो
पता चलना शुरू
हुआ कि
लाओत्से
ज्यादा ठीक कहता
था।
लाओत्से
का कहना यह है
कि नींद में
जननेंद्रिय
पर,
तांदेन पर श्वास की
चोट पड़ती है, इसलिए
जननेंद्रिय
खड़ी हो जाती
है। जरूरी नहीं
है कि कोई
कामवासना से
संबंधित
स्वप्न भीतर चल
रहा हो। चल
रहा हो, तो
खड़ी हो जाएगी;
नहीं चल रहा
हो, तो भी
खड़ी हो सकती
है। और बारह
से अठारह बार
प्रत्येक
पुरुष की
सामान्यतया
होगी। उसका
कारण कुल इतना
है कि श्वास
की जो चोट...नींद
में श्वास
पूरी चलेगी, पूरी चलने
से तांदेन
पर चोट पड़ती
है। तांदेन
का बिंदु और
वीर्य-ऊर्जा
का बिंदु निकट
हैं, सीमांत
पर हैं। श्वास
की चोट ही
वीर्य को सक्रिय
करती है।
इसीलिए संभोग
के समय में आप
छाती से श्वास
नहीं ले सकते।
संभोग के क्षण
में आपको पेट
से ही श्वास
लेनी पड़ती है।
इसलिए श्वास
तेजी से चलने
लगती है और
श्वास जोर से
भीतर धक्के
मारने लगती
है।
अगर आप
श्वास को शांत
रख सकें, तो
वीर्य-स्खलन
रुक जाएगा।
इसलिए तंत्र
में प्रयोग
हैं कि श्वास
को शांत रखा
जा सके, तो
बिना
वीर्य-स्खलन
के संभोग किया
जा सकता है।
और संभोग को
घंटों लंबा भी
किया जा सकता
है। लेकिन
श्वास फिर तांदेन
तक नहीं
पहुंचनी
चाहिए।
तो
जैसे ही बच्चे
को यह खयाल
में आ जाता है
कि जननेंद्रिय
अस्वीकार
करनी है, निंदित
है, पाप है,
वैसे ही
उसकी श्वास
ऊपर से चलने
लगती है। क्योंकि
तांदेन
पर चोट
पहुंचते ही
बच्चे की
जननेंद्रिय
पर संवेदना
होती है; और
वह संवेदना
सुखद है। वह
संवेदना सुखद
है; उस
सुखद संवेदना
के कारण वह
जननेंद्रिय
के प्रति आतुर
और उत्सुक
होता है।
लेकिन मां-बाप
की आंखें और
समाज की आंखें
बहुत दुखद
हैं। और तब एक
फासला उसके
भीतर पैदा
होना शुरू
होता है।
अंततः तो सुख
भी पाप हो
जाता है। और
सुख लेते वक्त
हम सब अपने को
अपराधी अनुभव
करते हैं।
यह बड़े
मजे की बात है
कि जब भी आप
अपने को सुखी
पाएंगे, तो
भीतर अपराध का
भाव पाएंगे।
इसलिए कुछ लोग
तो दुखी होने
में बड़ा गौरव
मानने लगते
हैं, क्योंकि
वे अपराधी
नहीं हैं।
सुखी आदमी को
थोड़ा सा अपराध
मालूम पड़ता है,
क्योंकि
उसके पहले सुख
के अनुभव के
साथ अपराध का
भाव जुड़ गया।
और इसलिए हम
जीते हैं, लेकिन
बंटे हुए जीते
हैं।
अगर तांदेन
तक श्वास न
पहुंचे, तो
नपुंसकता तक
भी फलित हो
सकती है। ताओ
को मानने वाले
चिकित्सकों
का खयाल है कि
अनेक पुरुषों
की नपुंसकता
केवल श्वास के
तांदेन
तक न पहुंचने
से पैदा होती
है। इसलिए
बहुत मजे की
बात आपसे कहूं,
अक्सर
पहलवान
नपुंसक हो
जाते हैं।
उसका कारण है।
क्योंकि
पहलवान छाती
से श्वास लेता
है; और
इतनी श्वास
छाती से लेता
है और पेट को
भीतर ले जाता
है कि तांदेन
तक श्वास के
पहुंचने की
संभावना ही
बंद हो जाती
है। इसलिए
पहलवान दिखता
तो बहुत विराइल
है, दिखता
तो बहुत पुरुष
है, लेकिन
पुरुषत्व
बहुत कम हो
जाता है।
पुरुषत्व के और
उसके बीच
श्वास का
संबंध टूट
जाता है।
श्वास
अगर तांदेन
से चले, तो वह
तभी चल सकती
है, जब
आपने अपनी
कामवासना को
भी स्वीकार
किया हो। अगर
अस्वीकार
किया है, तो
श्वास तांदेन
से नहीं चल
सकेगी। असल
में, जब तक
आपने अपनी
पूरी वासना को
भी समग्रीभूत
अंगीकार न कर
लिया हो, शिशुवत
स्वीकार न कर
लिया हो, तब
तक आपके भीतर
अद्वैत
निर्मित नहीं
हो सकता है।
और यह बहुत
आनंद की अदभुत
बात है कि
जैसे ही कोई
व्यक्ति अपनी
वासना को उसकी
समग्रता में
स्वीकार कर
लेता है, वैसे
ही वासना से
मुक्त हो जाता
है। द्वंद्व में
वासना बढ़ती है,
घटती नहीं। तड़पती है, तृप्त भी
नहीं होती।
संतप्त होती
है, संतुष्ट
कभी नहीं।
पीड़ा बन जाती
है, नर्क
बन जाती है, लेकिन उससे
छुटकारा कभी
नहीं हो पाता।
और तर्क हमसे
कहेगा कि जिस
चीज में हम
इतने उलझ गए
हैं, उससे
और दूर हटते
चले जाएं।
जितने दूर हम
हटते हैं, उतना
फासला भीतर
बड़ा होता चला
जाता है।
लाओत्से
कहता है कि
आलिंगनबद्ध
हो जाओ, अपनी एंद्रिकता
को समग्र रूप
से स्वीकार कर
लो। स्वीकार
करते ही तुम
उसके मालिक हो
जाओगे।
स्वीकार करते
ही द्वंद्व
मिट जाएगा। और
स्वीकार करते
ही निष्पत्ति,
निष्कर्ष
हाथ में आ
जाता है। जो
बुद्धि अपनी
वासना को पूरे
रूप से
स्वीकार कर
लेती है, वह
बुद्धि अपनी
वासना के पार
निकल जाती है।
लेकिन यह पार
निकलना
संघर्ष से
संभव नहीं
होता, द्वंद्व
से भी संभव
नहीं होता। यह
निर्द्वंद्व
स्वीकार-भाव
से संभव होता
है।
प्राणवायु को नमनीयता
की चरम सीमा
तक पहुंचाना
पहला प्रयोग
है। ताओ की
साधना में जो
उतरते हैं, उनका पहला
काम यह है कि
वे श्वास को
फेफड़ों से लेना
बंद कर दें, नाभि से
लेना शुरू
करें। इसका
अर्थ हुआ कि
जब आपकी श्वास
भीतर जाए, तो
पेट ऊपर उठे; और जब श्वास
नीचे गिरे, तो पेट नीचे
गिरे। और सीना
शिथिल रहे, शांत रहे।
शायद
पुरुष राजी भी
हो जाएं, क्योंकि
सभी पुरुषों
को पहलवान
होने का पागलपन
नहीं है।
स्त्रियां और
भी मुश्किल से
राजी हो सकती
हैं। क्योंकि
स्त्रियों को
उससे भी बड़ा
पागलपन सवार
हुआ है। और वह
है स्तन को सुदृढ़,
सुडौल और
बड़े बनाने का।
तो स्त्रियां
कभी नाभि से
श्वास लेने को
तैयार नहीं
होतीं।
इसलिए ताओइस्ट
फकीर तो मिल
जाएंगे, स्त्रियां
मिलना बहुत
मुश्किल हैं।
ताओ को मानने
वाले पुरुष
मिल जाएंगे, उसकी साधना
से उतर कर
जिन्होंने
परम आनंद को उपलब्ध
किया है, ऐसे
पुरुष मिल
जाएंगे, लेकिन
स्त्रियां
खोजनी
मुश्किल हैं।
और उसका कुल
एक कारण है कि
स्त्री को एक
रोग की तरह एक
बात पकड़ गई है
कि स्तन बड़े
होने चाहिए।
प्राकृतिक
जरा भी नहीं
है। और सच तो
यह है कि जितना
गोल और जितना
सुडौल स्तन हो,
बच्चे को
दूध पीने में
उतनी ही
कठिनाई होती
है। इसलिए यह बायोलॉजिकल
नहीं है।
क्योंकि
जितना सुडौल
स्तन हो, बच्चा
जब दूध पीता
है, तो
उसकी नाक स्तन
से भिड़
जाती है और सफोकेशन,
और उसे घबड़ाहट
शुरू होती है।
मनसविद
कहते हैं कि
स्त्रियों के
सुडौल स्तन
देख कर पुरुषों
को भी घबड़ाहट
शुरू होती है, उसका
मौलिक कारण
बचपन में हुआ
अनुभव है सफोकेशन
का। अगर आपके
सामने एकदम
स्त्री के
सुडौल स्तन आ
जाएं, तो
आपकी श्वास गड़बड़ा
जाती है। इतनी
घबड़ाहट
का कोई कारण
नहीं मालूम
होता। लेकिन
अगर सुडौल
स्तन पर बच्चा
दूध पीए, तो
उसकी
नाक--स्वभावतः
गोल स्तन हो
तो उसकी नाक
में अड़ जाएगा
और घबड़ाहट
उसे होगी। और
वह घबड़ाहट
गहरी बैठ जाती
है। लेकिन
स्त्रियों को
स्तन बड़े
दिखाने का
मनोवैज्ञानिक
बहुत कारण
खोजते हैं।
कारण जो भी
हों, लेकिन
उसका व्यापक
और गहरा
परिणाम जो हुआ
है, वह यह
हुआ है कि कोई
स्त्री नाभि
से श्वास लेने
को तैयार नहीं
है। और अगर
नाभि से श्वास
न ली जा सके, तो बच्चों
जैसी सरलता
असंभव है। वह
उस श्वास के
साथ ही बच्चे
जैसी नमनीयता
और तरलता पैदा
होती है।
तो
पहला कि आपकी
श्वास नाभि से
चलने लगे।
चलें, उठें,
बैठें,
खयाल रखें
कि नाभि से
श्वास चल रही
है। तो ताओ की
साधना के तीन
हिस्से हैं
प्राण-साधना
के। पहला, श्वास
नाभि से चले।
और आप एक तीन
सप्ताह का
प्रयोग करके
भी दंग रह
जाएंगे कि अगर
श्वास नाभि से
चले, तो
आपके न मालूम
कितने क्रोध
विलीन हो गए; और आपकी न
मालूम कितनीर्
ईष्या खो गई; और आपके न
मालूम कितने
तनाव अब नहीं
हैं; और
आपकी नींद
गहरी हो गई; और आपका
व्यक्तित्व
संतुलित होने
लगा। श्वास
साधारण बात
नहीं है, सारे
प्राण की
व्यवस्था
उससे जुड़ी है।
तो जैसी श्वास
होगी, वैसी
ही आपके
प्राणों में
व्यवस्था या
अव्यवस्था
पैदा होती है।
आप क्रोध के
समय में लयबद्ध
श्वास नहीं ले
सकते। और अगर
लयबद्ध श्वास
लें, तो
क्रोध नहीं कर
सकते। श्वास
का उखड़ जाना
जरूरी है क्रोध
के क्षण में।
तो ही शरीर
उत्तप्त हो
पाता है, तो
ही शरीर की
ग्रंथियां
जहर छोड़ पाती
हैं।
तो
पहला सूत्र है, श्वास
को धीरे-धीरे
नाभि पर ले
आना। सीने का
काम ही न रह
जाए।
दूसरा
ताओ
प्राण-साधना
का हिस्सा है
कि सदा श्वास
बाहर जाए, उस
पर ध्यान देना;
भीतर आती
श्वास पर
बिलकुल ध्यान
नहीं देना। और
जब श्वास बाहर
जाए, तो
जितने जोर से
श्वास को उलीचा
जा सके, उलीच
देना; और
भीतर कभी
श्वास अपनी
तरफ से नहीं
लेना। जितनी
आए आ जाने
देना। आने की
प्रक्रिया
परमात्मा पर
छोड़ देनी; और
भेजने की
प्रक्रिया
जितनी हमसे
उलीचते बन सके,
उलीच देना।
इसके अदभुत
परिणाम होते
हैं।
हम सभी
लोग श्वास
लेने में तो
बहुत
उत्सुकता दिखाते
हैं,
छोड़ने में
नहीं। अगर आप
ध्यान करेंगे,
तो हमारी एम्फेसिस
सदा छोड़ने पर
कभी नहीं होती,
सदा लेने पर
होती है। और
यह सिर्फ
श्वास का ही सवाल
नहीं है; हमारा
पूरा जीवन ही
लेने पर
निर्भर होता
है, देने
पर कभी निर्भर
नहीं होता। जो
व्यक्ति श्वास
को छोड़ने पर
जोर देगा और
लेने पर नहीं,
उसके पूरे
व्यक्तित्व
में दान और
देना अपने आप
गहन हो जाएगा
और लेना कम हो
जाएगा।
एक
आदमी की हम
श्वास की जांच
करके कह सकते
हैं कि यह
आदमी लेने में
रस लेता होगा
कि देने में। अनिवार्यरूपेण!
श्वास को आप
धोखा नहीं दे
सकते। कंजूस
आदमी कभी भी
श्वास छोड़ने
में सुख अनुभव
नहीं करता। सिर्फ
लेने में! मनसविद
कहते हैं कि
कंजूस
व्यक्ति
सिर्फ धन को
ही नहीं रोकता, सब
कुछ रोकने
लगता है।
कंजूस कांस्टीपेशन
में जीता है, सब तरह के कांस्टीपेशन
में। सभी
चीजों को रोक
लेता है। सौ
में से नब्बे मौकों पर
कब्जियत आपके
चित्त की
कंजूसी का
परिणाम होती
है। सभी चीजों
को रोकने का
मन होता है, तो मल तक को
रोक लेता है।
श्वास को भी
रोक लेता है।
देते में डरता
है। बस लेने
भर को आतुर
होता है।
लेकिन
जीवन का नियम
है: जितना
ज्यादा देंगे, उतना
मिलता है। अगर
आपने श्वास
छोड़ने में कंजूसी
दिखाई, तो
आप पा नहीं
सकेंगे।
क्योंकि
पाएंगे कहां से?
सिर्फ गंदी
श्वास भीतर
इकट्ठी हो
जाएगी। सिर्फ
कार्बन डाय
आक्साइड भीतर
इकट्ठा हो
जाएगी। कोई छह
हजार छिद्र
हैं आपके श्वास
के यंत्र में।
हम ज्यादा से
ज्यादा डेढ़
हजार, दो
हजार छिद्रों
तक श्वास लेते
हैं। चार हजार
छिद्र सदा ही
कार्बन डाय
आक्साइड से
भरे रहते हैं।
हम उन्हें कभी
खाली ही नहीं
करते हैं। हम
गंदगी को अपने
भीतर इकट्ठा
कर लेते हैं।
और हम ऊपर ही
ऊपर जीते रहते
हैं। और भीतर
गंदगी की
पर्तें
इकट्ठी होती
चली जाती हैं।
ताओ का
मानना है कि
श्वास को उलीचें
और लेने की आप
फिक्र न करें।
क्योंकि लेना
तो अपने आप हो
जाएगा, उलीचना
भर काफी है।
और जितनी आप
श्वास को उलीच
देंगे, उतनी
ताजी श्वास
भीतर चली
आएगी। और यह
उलीचने पर जोर
देने का कारण
है, क्योंकि
इस जोर की
बदलाहट से, इस उलीचने
की तरफ जोर
बढ़ने से आपके
पूरे जीवन में
देने की
संभावना बढ़ने
लगेगी। हमारा
सारा क्रोध
इसीलिए है कि
हम देना नहीं
चाहते, लेना
चाहते हैं।
हमारी सारी
घृणा इसीलिए
है कि हम देना
नहीं चाहते, लेना चाहते
हैं। हमारीर्
ईष्या इसीलिए
है कि हम देना
नहीं चाहते, लेना चाहते
हैं। हमारे
जीवन का सारा
उलझाव क्या है?
कि देने की
हमें जरा भी
इच्छा नहीं है
और लेना हम
बहुत चाहते
हैं। जो दे
नहीं सकता, उसे कुछ भी
नहीं मिलेगा।
और जो दे सकता
है, उसे
हजार गुना सदा
मिल जाता है।
और जो हम देते हैं,
अगर हम लोहा
देते हैं, तो
सोना मिल जाता
है। कार्बन डाय
आक्साइड
उलीचिए और
प्राणवायु
भीतर भर जाती
है, आक्सीजन
भीतर भर जाती
है। यही पूरे
जीवन का सूत्र
है।
तो
लाओत्से का
दूसरा सूत्र
है: सदा श्वास
को फेंकिए; लेने
को भूल ही
जाइए। लेने का
आपको काम ही
नहीं करना है,
वह तो
प्रकृति
स्वयं कर लेती
है। आप सिर्फ
उलीच दें, फेंक
दें, हटा
दें। खाली जगह
छोड़ दें, वह
भर जाएगी। और
अगर आपका जोर
छोड़ने पर हो
और लेने पर
बिलकुल न हो, तो चित्त
एकदम नमनीय हो
जाएगा।
क्योंकि लेने में
तनाव होता है,
जबर्दस्ती
होती है।
छोड़ने में तो
सिर्फ हलकापन
आता है। छोड़ने
में सिर्फ
निर्भार होते
हैं। भरना तो
एक भार है।
छोड़ना
निर्भार होना
है। छोड़ना तो
वजन कम कर
देता है।
तो
दूसरा सूत्र
है: छोड़ें, श्वास
को लें मत।
और
तीसरा सूत्र
है लाओत्से
का--केंद्र
नाभि हो जाए, छोड़ने
पर जोर हो जाए
और तीसरा--यह
जो श्वास का
आना-जाना है, इससे अपने
को पृथक न
समझें। जब
श्वास बाहर
जाए, तो
समझें कि मैं
बाहर चला गया;
और जब श्वास
भीतर आए, तो
समझें कि मैं
भीतर आ गया।
प्राण के साथ
एक हो जाएं।
हम
क्या करते हैं? हम
कहते हैं, श्वास
मुझमें आई, श्वास मुझसे
बाहर गई।
लाओत्से कहता
है इससे बिलकुल
उलटी बात। वह
कहता है, श्वास
के साथ मैं
बाहर गया, श्वास
के साथ मैं
भीतर आया। मैं
ही बाहर हूं, मैं ही भीतर
हूं। श्वास के
साथ इस शरीर
में भीतर आता
हूं, श्वास
के साथ इस
शरीर के बाहर
विराट शरीर
में जाता हूं।
चलते, उठते,
बैठते, अगर
यह खयाल रख
सकें कि श्वास
के साथ मैं
बाहर गया और
श्वास के साथ
मैं भीतर आया।
इसका जप
निर्मित हो
जाए। यह धीरे-धीरे-धीरे-धीरे-धीरे
जप की भांति
आपके भीतर गूंजने
लगे कि श्वास
में बाहर गया,
श्वास में
भीतर आया। तो
श्वास की यह
सतत क्रिया
अगर जप बन जाए
बाहर और भीतर
आने की, तो
अद्वैत फलित
होता है, तो
अद्वैत का
अनुभव होता
है।
और अगर
ये तीन बातें
ध्यानपूर्वक
हो जाएं, तो
लाओत्से कहता
है, "जब कोई
अपनी
प्राणवायु को
अपनी ही
एकाग्रता के
द्वारा नमनीयता
की चरम सीमा
तक पहुंचा
देता है, तो
वह शिशुवत
कोमल हो जाता
है।'
तो फिर
बच्चे की
भांति कोमल हो
जाता है। यह
कोमलता जितनी
ज्यादा हो, उतना
ज्यादा जीवन।
यह कोमलता
जितनी कम हो, उतनी ज्यादा
मृत्यु। सख्त
हो जाना ही
मौत का दरवाजा
और कोमल बने
रहना ही जीवन
का द्वार है। तो
कोमल, जैसे
कि नया-नया
उगा हुआ अंकुर
होता है।
दिखता है
कमजोर, लेकिन
वही उसकी
शक्ति है। बूढ़ा
दिखता हो भला
ताकतवर, लेकिन
बच्चे से
ज्यादा
ताकतवर नहीं
है। क्योंकि
मौत करीब आती
चली जा रही
है। जितना
सख्त होता चला
जाता है, उतना
मृत्यु के
करीब पहुंचता
चला जाता है।
बच्चा बिलकुल
कमजोर दिखता
है, लेकिन
अपनी कमजोरी
में भी महा
शक्तिशाली है,
क्योंकि
जीवन अभी
उसमें फैलेगा
और बड़ा होगा।
नमनीयता!
लेकिन यह
श्वास पर
प्रयोग के
बिना संभव
नहीं है। और
श्वास पर अगर
यह संभव हो
जाए,
तो फिर जीवन
के सभी पहलुओं
पर संभव हो
जाती है। और
हमारी श्वास
हमारे
व्यक्तित्व
को सब तरफ से
प्रभावित
करती है। आपकी
श्वास आपका
पूरा दर्पण
है। आप श्वास
के साथ क्या
कर रहे हैं, उससे पता चल
जाएगा कि आप
अपने साथ क्या
कर रहे हैं।
आप कैसी श्वास
लेते हैं, पता
चल जाएगा, आप
कैसे व्यक्ति
हैं।
लाओत्से
के पास कोई
आता था साधना
के लिए, तो
लाओत्से कहता
था कि एक
सप्ताह मेरे
पास रुक जाओ, जरा मैं देख
तो लूं कि तुम
कैसी श्वास
लेते हो, कैसी
श्वास छोड़ते
हो। खोजी आया
हो, अगर
ज्ञानी हो, तो हैरान
होगा कि हम
ब्रह्मज्ञान
लेने आए, सत्य
का पता लगाने
आए और यह आदमी
कह रहा है कैसी
श्वास लेते हो,
कैसी छोड़ते
हो। सात दिन
लाओत्से
देखेगा उस आदमी
को अनेक हालतों
में--सोते में,
जगते में, काम करते, चलते वक्त, क्रोध में, प्रेम
में--और
देखेगा, उसकी
श्वास की
व्यवस्था
क्या है। और
जब तक वह श्वास
की व्यवस्था न
समझ ले, तब
तक साधना का
कोई सूत्र न
देगा। श्वास
के साथ ही
साधना पूरी की
पूरी
व्यवस्थित की
जा सकती है।
तो ये
तीन सूत्र
खयाल रखें।
आपने सुना
होगा जापानी
शब्द हाराकिरी।
हाराकिरी
का हम अनुवाद
करते हैं
आत्मघात, स्युसाइड। लेकिन
जापानी शब्द
का अर्थ और
ज्यादा है। हारा
का अर्थ होता
है केंद्र, परम
केंद्र--जहां
से जीवन पैदा
होता है। उसी
केंद्र में
छुरा मार कर
अगर कोई मरता
है, तो
उसको हाराकिरी
कहते हैं।
इसलिए हर कोई हाराकिरी
नहीं कर सकता।
आप चाहें कि हाराकिरी
कर लें, तो
आप नहीं कर
सकते। हाराकिरी
करने के लिए
हारा को
पहचानना
जरूरी है कि
वह केंद्र
कहां है।
अभी
मैंने आपसे
कहा तांदेन, नाभि
से दो इंच
नीचे, अगर
आप श्वास को
नाभि से लेते
रहें, तो
धीरे-धीरे
आपको नाभि से
दो इंच नीचे
एक जगह पर
स्मरण होने
लगेगा केंद्र
का। वही
केंद्र जब
इतना स्पष्ट
हो जाता है कि
आपको लगता है
पूरा शरीर परिधि
है और वही
केंद्र है, पूरा शरीर
एक वर्तुल है
और वही केंद्र
है, जिस
दिन आप
सोते-जागते, उठते-बैठते
सतत उस केंद्र
के स्मरण से
भरे रहते हैं
और दीए की एक
ज्योति की तरह
वह केंद्र
आपके भीतर
जलने लगता है,
तब उसका नाम
हारा है। और
जिस व्यक्ति
का वह केंद्र
दीए की ज्योति
की तरह जलने
लगता है भीतर,
उसकी फिर
कोई मृत्यु
नहीं है।
तो हाराकिरी
का मतलब होता
है,
शरीर को
केंद्र से तोड़
देना। तो वह
ज्योति परम
ज्योति में
विलीन हो
जाएगी।
यह जो
हारा है, यह जो
केंद्र है, यह आपकी
बुद्धि में
नहीं है। यह
आपके हृदय में
भी नहीं है।
यह आपकी नाभि
के पास है। और
इसीलिए मां से
बच्चे की
खोपड़ी नहीं
जुड़ी रहती
उसके पेट में
और न हृदय
जुड़ा रहता है;
उसकी नाभि
जुड़ी रहती है।
नाभि से बच्चा
जुड़ा रहता है।
लेकिन यह चमत्कार
की बात है कि
बच्चा न तो
श्वास लेता
मां के पेट
में, न
उसके हृदय में
धड़कन होती, सिर्फ नाभि
से मां से
जुड़ा रहता है
और जीवित रहता
है। इसका अर्थ
साफ है कि न तो
हृदय अनिवार्य
है जीवन के
लिए और न
बुद्धि
अनिवार्य है
जीवन के लिए।
हृदय की धड़कन
के बिना भी
बच्चा जीवित
रहता है और
श्वास के बिना
चले भी जीवित रहता
है, लेकिन
नाभि के बिना
जीवित नहीं रह
सकता। इसलिए
मां से बच्चे
के अलग होते
ही पहला काम
हम नाभि से
संबंध तोड़ने
का करते हैं।
क्योंकि जब तक
नाभि से संबंध
न टूट जाए, बच्चा
अपनी श्वास
नहीं ले
सकेगा।
व्यक्तित्व नहीं
पैदा होगा
उसका, अलग
खड़ा नहीं
होगा। वह मां
से जुड़ा है, मां से
संबंध तोड़ना
पड़ेगा। जब हम
मां से संबंध
तोड़ देंगे, तब उसके
शरीर को पहली
दफे जरूरत
पैदा होगी कि वह
श्वास ले, हृदय
धड़के, खून
बहे। बच्चा
अपने पैरों पर
जीवन को चलना
शुरू करे।
ठीक
इसे ऐसा समझें
कि मां से
नाभि से हमारा
जो धागा जुड़ा
है,
यह एक धागा
है; और ठीक
नाभि से दूसरा
धागा हमारा
परमात्मा से जुड़ा
है, अस्तित्व
से जुड़ा है।
वह जिस जगह से
हमारा धागा
जुड़ा है, नाभि
के दूसरे छोर
को हम समझें, दूसरे पहलू
को, जहां
से हम
अस्तित्व से
जुड़े हैं, उसका
नाम हारा है।
और ताओ कहता
है कि उस हारा
को जो पा लेता
है, उस
केंद्र को जो
पा लेता है, वह सरल हो
जाता है। फूल
की तरह, आकाश
के तारों की
तरह, बच्चों
की तरह, पशुओं
की आंखों की
तरह तरल और
सरल हो जाता
है।
यह
तरलता और
सरलता अगर
पानी हो, तो
तीसरे सूत्र
में लाओत्से
कहता है, "जब
वह कल्पना के
अतिशय
रहस्यमय
दृश्यों को झाड़-पोंछ
कर साफ कर
लेता है, तो
निर्विकार हो
जाता है।'
श्वास
नमनीय हो जाए, केंद्र
पर आ जाए और
कल्पना का
सारा जाल तोड़
कर फेंक दिया
जाए!
कल्पना
के जो हमने
जाल बना रखे
हैं,
न मालूम
कितने-कितने
प्रकार के।
संसार के नाम
पर ही नहीं, धर्म के नाम
पर भी न मालूम
कितने जाल
हमने अपनी
कल्पना के बना
रखे हैं। न
मालूम कितने
ईश्वर, न
मालूम कितने
देव, न
मालूम कितने
स्वर्ग-नर्क
कल्पना से बना
रखे हैं। जाना
हमने नहीं है;
पहचान
हमारी कुछ भी
नहीं है; सिर्फ
अपनी कल्पना
को भर रखा है।
हमारी कल्पना
एक पुस्तकालय
है, जिस
पुस्तकालय
में जमाने भर
की कल्पनाएं
संगृहीत हो गई
हैं।
जन्मों-जन्मों
में न मालूम
कितनी
कल्पनाओं के
जाल हमने
इकट्ठे कर लिए
हैं और उन सब
जालों के बीच
में हम घिरे
जीते हैं।
लेकिन
ये सारे के सारे
जाल बुद्धि
में हैं। और
अगर किसी
व्यक्ति ने
बुद्धि से ही
इन जालों को
तोड़ने की
कोशिश की, तो
वह नहीं तोड़
पाएगा। जरूरी
है कि बुद्धि
से नीचे चला
जाए, गहरा
चला जाए, अस्तित्व
के केंद्र पर
खड़ा हो जाए! और
जैसे ही कोई
व्यक्ति नाभि
के पास आ जाता
है, वैसे
ही सशक्त हो
जाता है कि
कल्पनाओं को
तोड़ कर फेंक
दे। कुछ लोग
बुद्धि से ही
बुद्धि से
लड़ने की कोशिश
में लगे रहते
हैं। बुद्धि
के एक तर्क को
आप दूसरे तर्क
से काट सकते
हैं, लेकिन
ध्यान रखिए, दूसरा तर्क
आपको पकड़
लेगा। बुद्धि
की एक कल्पना
को आप दूसरी
कल्पना से काट
सकते हैं, लेकिन
तब दूसरी
कल्पना आपको
पकड़ लेगी। यह
कठिनाई ऐसी है
कि जिससे आप
काटने चले हैं,
वह बुद्धि
ही कटनी चाहिए,
अन्यथा कुछ
भी नहीं
कटेगा।
तो लोग
काटने में लगे
रहते हैं। एक
धर्म को दूसरे
धर्म से बदल
लेते हैं। एक
गुरु को दूसरे
गुरु से बदल
लेते हैं। एक
सिद्धांत को
दूसरे
सिद्धांत से
बदल लेते हैं।
एक शास्त्र को
दूसरे
शास्त्र से
बदल लेते हैं।
और कुछ लोग तो
इतनी कठिनाई
में पड़ जाते
हैं,
क्योंकि वे
समझते हैं कि
उन्होंने सब
शास्त्र छोड़
दिए; और तब
वे अपना ही
शास्त्र
निर्मित कर
लेते हैं, जो
कि और भी गरीब
होने वाला है।
उससे तो बेहतर
किसी और का भी
बेहतर था।
कृष्णमूर्ति
के साथ और
उनके शिष्यों
के साथ ऐसी
कठिनाई खड़ी
हुई है।
कृष्णमूर्ति
ने कहा, सारी
कल्पनाओं के
जाल तोड़ दो।
अच्छा लगता है,
प्रीतिकर
लगता है--तोड़
दो। लेकिन
आदमी तब अपने
को ही केंद्र
में खड़ा कर
लेता है और
अपनी ही कल्पना
के जाल बुनने
शुरू कर देता
है। जब तक आप
कल्पना के
केंद्र से ही
न हट जाएं, तब
तक आप कल्पना
के जाल बुनते
ही रहेंगे। और
कल्पना इतनी
अदभुत है कि
नकारात्मक
रूप से भी अपने
को भर लेती
है।
कृष्णमूर्ति
कहते हैं कोई गुरु
नहीं है, तो
सुनने वाला
कहता है कि
किसी गुरु को
नहीं मानेंगे;
और
कृष्णमूर्ति
को गुरु मानना
शुरू कर देता
है बहुत गहरे
में। उसका उसे
भी पता नहीं
चलता।
एक
मित्र अभी आए
थे कुछ समय
पहले। और
मुझसे कहने
लगे,
हम किसी
गुरु वगैरह को
नहीं मानते
हैं, क्योंकि
हम
कृष्णमूर्ति
को सुनते हैं।
क्योंकि हम
कृष्णमूर्ति को
सुनते हैं, हम किसी
गुरु वगैरह को
नहीं मानते।
मैंने उनसे
पूछा कि यदि
कृष्णमूर्ति
को सुन कर ही
यह खयाल पैदा
हुआ है, तो
गुरु तो हो
गए। यह खयाल
तुम्हारा
नहीं है। पहले
तुम दूसरों के
खयाल मानते
रहे, अब भी
दूसरे का ही
खयाल मान रहे
हो। कहने लगे
कि नहीं, हम
कृष्णमूर्ति
को गुरु नहीं
मानते। तो
मैंने कहा, फिर अब
सुनने किसलिए
जाते हो? अब
सुनने की क्या
जरूरत रही? कहा
उन्होंने कि
सुनने जाते
हैं समझने के
लिए। तो मैंने
कहा, गुरु
का और मतलब ही
क्या होता है?
कि जिससे हम
समझते हैं। और
गुरु का क्या
मतलब होता है?
कि जिसके
पास हम समझने
जाते हैं।
आदमी
अगर बुद्धि की
ही जगह खड़ा
रहे,
तो बुद्धि
के विपरीत
बातों को भी
बुद्धि से ही पकड़ेगा।
इसमें कोई
अस्वाभाविक
बात नहीं है, स्वाभाविक
है। नहीं, असली
सवाल सिर्फ
बुद्धि से ही
जाल को काटने
का नहीं है, क्योंकि
बुद्धि नए जाल
बना लेगी; बुद्धि
से हट जाने का
है। कैसे एक
छलांग लगे कि
हम बुद्धि से
हट जाएं?
तो इस
बुद्धि से
हटने के दो
प्रयोग किए गए
हैं। एक
प्रयोग है कि
आदमी विचार
छोड़ दे, भाव
में पड़ जाए।
जैसे मीरा है;
तो मीरा
विचार नहीं
करती, भाव
में पड़ गई है।
नाचती है, गाती
है, कीर्तन
करती है।
लेकिन
भाव भी बहुत
गहरे नहीं ले
जाता। बुद्धि
से तो गहरे ले
जाता है, इसलिए
बुद्धि से तो
बेहतर है।
बुद्धि से तो
कुछ भी बेहतर
हो सकता है।
गहरे ले जाता
है। लेकिन
लाओत्से जो कह
रहा है, वह
और गहरे ले
जाता है। वह
कहता है, भाव
भी आखिर बहुत
कुछ बुद्धि के
पास है। हम तो वहां
चलते हैं, जहां
भाव भी नहीं
रह जाता, विचार
भी नहीं रह
जाता। न
बुद्धि और न
हृदय, न
ज्ञान और न
भक्ति। हम
वहां चलते हैं,
जहां चित्त
निर्विकार हो
जाता है, जहां
शुद्ध
अस्तित्व रह
जाता है।
इस
शुद्ध
अस्तित्व के
लिए सारी
कल्पनाओं का कचरा
झाड़-पोंछ कर
अलग कर देना
जरूरी है।
लेकिन
यह कौन करेगा? अगर
बुद्धि से ही
आपने यह काम
लिया, तो
आप गलती में
पड़ जाएंगे।
बुद्धि इसे
झाड़ कर अलग कर
देगी, लेकिन
नए जाल बना कर
खड़े कर देगी।
और ध्यान रहे,
पुराने
जालों से नए
जाल ज्यादा
खतरनाक हैं। क्योंकि
पुरानों को तो
छोड़ने का मन
भी होता है, नए को पकड़ने
का और
सम्हालने का
मन होने लगता
है। पुराने गुरुओं
से नए गुरु
खतरनाक हो
जाते हैं। और
पुराने
शास्त्रों से
नए शास्त्र
खतरनाक हो
जाते हैं।
क्योंकि नए
में नएपन
का भी आग्रह
और मोह है। और
अगर किसी को
यह खयाल आ गया
कि मैं समर्थ
हो गया हूं
सारे जाल को
काटने में, तो यह
अहंकार
बुद्धि के
केंद्र पर खड़ा
होकर सबसे बड़ा
जाल बन जाता
है।
नहीं, इससे
नीचे हटना
पड़ेगा। यह
बहुत मजे की
बात है कि अगर
आप नाभि से
श्वास लेने
लगें, तो
आप अहंकारी
नहीं रह
जाएंगे। आपको
कुछ करना नहीं
पड़ेगा कि
अहंकार छोड़ने
जाएं। नहीं, आप नहीं रह
जाएंगे।
क्योंकि नाभि
पर अहंकार के
टिकने का उपाय
नहीं है।
अहंकार इतना
बड़ा तनाव है
कि नाभि से
श्वास चलती हो,
तो नहीं टिक
सकता। इतना
शांत हो जाता
है भीतर सब।
तो
लाओत्से अपने
शिष्यों की
परीक्षाएं
लिया करता था।
वह उनको सवाल
देता, वे ठीक
जवाब ले आते
और लाओत्से फाड़ कर
फेंक देता।
क्योंकि उनके
पेट पर हाथ रख
कर देखता और
कहता, सवाल
बेकार गया, जवाब गलत
है। एक युवक
आया हुआ था और
उसने लाओत्से
से कहा, तुम
पागल तो नहीं
हो! तुमने जो
समझाया था, ठीक वही-वही
लिख कर लाया
हूं। लाओत्से
ने कहा, वह
तो बिलकुल ठीक
है, लेकिन
जो लिख कर
लाया है, उसकी
श्वास! उसकी
श्वास नाभि से
नहीं चल रही है।
और यह जवाब तो
तभी आ सकता है
भीतर से, जब
श्वास नाभि से
चल रही हो।
तुम मुझे सुन
कर ले लाए हो।
यह बुद्धि से
सुना गया था, बुद्धि से
दे दिया गया
है। तुम्हारे
भीतर इसका कोई
भी अनुभव नहीं
है।
च्वांगत्से जब
उसके पास
पहुंचा, उसका
सबसे बड़ा
शिष्य, तो
लाओत्से ने
उसे सब समझाया
और उसने सब
सुना। और जब
उसकी परीक्षा
का वक्त आया, तो जैसे कि
सभी शिष्य
अपने कागजात
लेकर आते थे
जवाब देने के
लिए, वह
बिना कागजात
खाली हाथ आकर
बैठ गया।
लाओत्से ने
कहा कि आज
तुम्हारी
परीक्षा का
दिन है और मैं
कुछ पूछूंगा;
जवाब लिखने
के लिए कुछ
लाए नहीं? च्वांगत्से ने कहा कि
अगर मैं जवाब
नहीं हूं, तो
मेरे लिखे हुए
जवाबों का
क्या उपयोग
होगा! उसने
अपने कपड़े
उतार दिए और
नग्न होकर
सामने लेट
गया। उसने कहा
कि तुम मेरी
श्वास देख लो।
और
ध्यान रहे, अगर
नाभि से सच्ची
श्वास नहीं
चलने लगी है
और आप सिर्फ
कोशिश करके
चलाते रहे हैं,
तो जब कोई
आपके पेट पर
हाथ रखेगा, फौरन श्वास
सीने से चलने
लगेगी। फौरन!
जैसे ही आप कांशस
हो जाएंगे, श्वास आपकी
सीने से चलने
लगेगी। वह तो
बच्चे जैसे
सरल ही न हो गए
हों कि कोई
पेट पर हाथ
रखे या कुछ भी
करे, श्वास
वहीं से चलती
ही है। डाक्टर
जब आपका हाथ
अपने हाथ में
लेकर नाड़ी
नापता है, तो
आप कभी यह मत
सोचना कि नाड़ी
उतनी ही होती
है जितनी
डाक्टर को पता
चलती है।
डाक्टर को भी
कम से कम थोड़ा
उसे घटा लेना
चाहिए; उतनी
नहीं होती। वह
डाक्टर के पकड़ने
से बढ़ती है। बढ़ेगी ही, क्योंकि आप
सचेतन हो गए, आप कांशस
हो गए। घबड़ाहट
आ गई। तनाव बढ़
गया। तो
बीमारी जब
डाक्टर जांचता
है तो उसे यह
नहीं समझना
चाहिए बीमारी
इतनी ही होगी,
थोड़ी
ज्यादा मालूम
होती है।
क्योंकि उतनी घबड़ाहट भी
बढ़ गई होती है
भीतर।
च्वांगत्से
लेट गया और
उसने कहा, मेरी
श्वास देख लो।
तो उसका पेट
ऊपर-नीचे गिर रहा
है। वह एक
छोटे बच्चे की
तरह लेटा है।
और लाओत्से
कहता है कि तू
उत्तीर्ण हो
गया है। अब मुझे
कुछ पूछना
नहीं है।
क्योंकि जो जवाब
दे सकता है, अब तेरे
भीतर मौजूद
है।
बुद्धि
से हटाना है
चेतना को और
नाभि की तरफ ले
आना है।
हमारा
सारा संस्कार, हमारी
सारी शिक्षा,
सारा समाज
चेतना को
बुद्धि की तरफ
ले जाने की कोशिश
में लगा रहता
है। उपयोग है
उसका, जैसा
मैंने कहा।
लेकिन एक दिन
हमें उस उपयोग
से वापस लौट
आना जरूरी है।
मूल केंद्र को
खो देना किसी
भी कीमत पर
खतरनाक है। और
किसी भी कीमत
पर मूल केंद्र
को पा लेना
सस्ता है।
तो
लाओत्से के इस
सूत्र को
साधना का
सूत्र समझें।
अपनी श्वास का
ध्यान रखें और
श्वास के रूपांतरण
की कोशिश
करें। श्वास
की बदलाहट
आपकी बदलाहट
हो जाएगी।
श्वास में
क्रांति आपके
स्वयं के
व्यक्तित्व
की क्रांति हो
जाएगी। और जैसे-जैसे
श्वास गहरी
होने लगेगी, आपकी
गहराई बढ़ने
लगेगी, आपका
उथलापन
समाप्त हो
जाएगा। और जिस
दिन श्वास
केंद्र पर
होगी, उस
दिन आप सारे
जगत के साथ एक
अद्वैत के
बिंदु पर मिल
जाएंगे।
अपने
केंद्र पर जो
आ गया, वह जगत
के केंद्र पर
आ जाता है।
स्वयं के केंद्र
पर जो डूब गया,
वह विराट के
केंद्र से एक
हो जाता है।
तो एक परम
आलिंगन
अद्वैत का
फलित होता है।
और जैसे-जैसे
आपकी श्वास
गहरी और
भीतर-भीतर
उतरने लगती है,
वैसे-वैसे
रहस्य के नए
पर्दे और सत्य
के नए द्वार
खुलने शुरू हो
जाते हैं। जो
मनुष्य के
भीतर छिपा है,
वही विराट
में
विस्तीर्ण
होकर फैला हुआ
है। जो अपने
भीतर गहरे उतर
आता है, वह
परम के भीतर
ऊंचा उठ जाता
है।
ईसाई फकीरों ने
कहा है, ऐज एबव, सो
बिलो; जैसा
ऊपर, वैसा
नीचे। भारतीय
संतों ने कहा
है, जो
पिंड में छिपा
है, वही
ब्रह्मांड
में। प्लोटिनस
ने कहा, मैन
इज़ दि
मेजर ऑफ आल थिंग्स;
सभी चीजों
का मापत्तौल,
मापदंड
आदमी है। और
आदमी अगर अपने
भीतर उतर जाए,
तो वह विराट
के भीतर उतर
गया। आदमी एक
छोटा सा विराट
है, मिनिएचर,
छोटा सा
विराट। विराट
में जो भी है, सब उसके
भीतर है। सब!
अपने ही
केंद्र पर
पहुंच जाने से
व्यक्ति
विश्व के
केंद्र को पा
लेता है।
तो
लाओत्से कहता
है,
ये तीन
बातें जो
व्यक्ति पूरी
कर ले प्राण
की साधना
में...।
ध्यान
रहे,
लाओत्से की
प्राण की
साधना भारतीय
प्राणायाम से
भिन्न है।
क्योंकि भारतीय
प्राणायाम
बौद्धिक है।
और भारतीय
प्राणायाम
आयोजित है, चेष्टित है।
और भारतीय
प्राणायाम
में प्राण को
बुद्धि के
द्वारा
व्यवस्था दी
जाती है। और लाओत्से
का प्राणायाम
नैसर्गिक है।
बुद्धि के
द्वारा
व्यवस्था
नहीं देनी है,
वरन बुद्धि
ने जो
व्यवस्था दी
है अब तक, उसको
भी तोड़ डालना
है और
नैसर्गिक
प्राण की गति
को खोज लेना
है। जो सहज
गति है, जो
जन्म से हमारे
साथ थी, उसे
खोज लेना है।
तो भारतीय
प्राणायाम और
लाओत्से की
प्राण-साधना
में बुनियादी
अंतर है। और
लाओत्से की
प्राण-साधना
ज्यादा गहरी
है प्राणायाम
से। क्योंकि
प्राणायाम
फिर आखिर
मनुष्य का
हिसाब है। कि
बाईं नाक को
रोक कर तीन
दफे, फिर
दाईं नाक को
रोक कर तीन
दफे, फिर
इतनी देर भीतर
रोकना, फिर
इतनी देर बाहर
छोड़ना, फिर
इतना रेचक, फिर इतना कुंभक,
यह सबका सब
बुद्धिगत है।
इसके उपयोग
हैं और इसके
फायदे हैं।
लेकिन इसके
उपयोग और फायदे
शरीर तक ही
हैं। और इसके
उपयोग और
फायदे से
व्यक्ति
सुंदरतम
स्वास्थ्य को
उपलब्ध हो सकता
है। और इस
साधना के
द्वारा शक्ति
को भी उपलब्ध
हो सकता है।
लेकिन
लाओत्से की
प्राण-साधना
बिलकुल भिन्न
है। उससे
व्यक्ति
निसर्ग को
उपलब्ध होता
है, प्रकृति
को--जो है
हमारे सब
सोच-विचार के
पहले और जो
बचेगा हमारे
सब सोच-विचार
के खो जाने के
बाद।
इसलिए
प्राण-योग, भारतीय
प्राणायाम
बिना गुरु के
खतरनाक हो सकता
है। क्योंकि
उसमें आयोजना
है, व्यवस्था
है, डिसिप्लिन
है। लाओत्से
की
प्राण-साधना
गुरु के बिना
बड़े मजे से चल
सकती है; कोई
कारण नहीं है।
क्योंकि
लाओत्से की
प्राण-साधना में
सीखना कम है, भूलना
ज्यादा है। हम
जो सीख गए हैं
गलत, उसे
सिर्फ छोड़
देना है। और
जो स्वाभाविक
है, वह
प्रकट हो
जाएगा। कुछ नई
अनुशासन-व्यवस्था
थोपनी
नहीं है; सब
अनुशासन तोड़
देना है और
निसर्ग को
मौका देना है
कि वह जैसा
चलना चाहे
चले।
लेकिन
जैसा मैंने
आपसे कहा, जब
तक आप अपने
शरीर को
स्वीकार नहीं
करते--और शरीर
को स्वीकार
करने का अर्थ
है, जब तक
आप अपने यौन
को स्वीकार
नहीं करते--तब
तक आप कभी भी
शरीर के साथ
संवेदना को
उपलब्ध नहीं
हो सकेंगे। और
जब तक आप अपने
भीतर किसी चीज
की निंदा ही
किए चले जाते
हैं, तो
आलिंगन कैसे
करेंगे? और
जब अपने ही
भीतर आपने
दीवारें बना
रखी हैं, तो
दूसरे से
मिलने की तो
बात ही छोड़
दें, अपने
से ही मिलना
नहीं हो पा
रहा है। और जो
अपने से भी
मिलने में डर
रहा है, वह
परमात्मा से
मिलने में
निर्भय होगा,
इसे मानने
का कोई भी
कारण नहीं है।
स्वीकार
करें जो है
भीतर; उसे
परमात्मा की
देन की तरह
स्वीकार कर
लें। निंदा को
छोड़ दें। कुछ
पाप नहीं है, कुछ अपराध
नहीं है। जो
भीतर है, वह
प्रभु का
हिस्सा है।
उसे स्वीकार
कर लें। और
जैसे ही आपके
भीतर
सर्व-स्वीकृति
आती है, वैसे
ही शरीर के और
आपकी चेतना के
बीच की सब
बाधाएं टूट
जाती हैं और
शरीर और चेतना
एक तरल धारा
हो जाते हैं।
तब शरीर आपका
ही हिस्सा
है--बाहर फैला हुआ।
और आत्मा आपका
ही शरीर
है--भीतर गया
हुआ। तब शरीर
ठोस आत्मा है
और आत्मा तरल
शरीर है। तब
शरीर दृश्य
आत्मा है और
आत्मा अदृश्य
शरीर है। तब
ये एक ही चीज
के दो छोर
हैं। और जिस
दिन ऐसा अनुभव
होता है, उसी
दिन यह सारा
जगत एक हो
जाता है। उस
दिन पत्थर में
और परमात्मा
में फर्क नहीं
रह जाता।
जिन
लोगों ने
परमात्मा की
मूर्तियां
पत्थर से
बनाईं, वे
बड़े होशियार
थे। उन्होंने
एक सूचना दी
है कि जब तक
तुम्हें
पत्थर
परमात्मा न
दिखाई पड़ने
लगे, तब तक
तुमने कुछ भी
नहीं पाया, इसे ठीक से
जानना। पत्थर
की मूर्ति
बनाने का और
कोई प्रयोजन
नहीं है। एक
इंगित कि
पत्थर भी जब
परमात्मा
दिखाई पड़ने
लगे, तभी
तुम जानना कि
तुमने
परमात्मा को
जाना।
लेकिन
जिनको अपना जीवित
शरीर भी
परमात्मा
नहीं दिखाई पड़
रहा,
उन्हें
पत्थर
परमात्मा
दिखाई पड़ेगा,
यह कैसे कहा
जा सकता है? शायद उन्हें
पत्थर इसीलिए
परमात्मा
मालूम पड़ता है
कि पत्थर में
कोई वासना
नहीं, कोई
इंद्रिय
नहीं। पत्थर
बिलकुल मरा
हुआ, मुर्दा
है; इसलिए
उनको पत्थर
में थोड़ा परमात्मा
शायद नजर आ
जाए! लेकिन
परमात्मा अगर
जिंदा उनको
मिल जाए, तो
वे पच्चीस
संदेह
उठाएंगे: अरे,
आप खाना भी
खाते हैं? आपको
भूख भी लगती
है? सर्दी
में आप
ठिठुरते भी
हैं? आपको
भी गर्मी में
पंखे की जरूरत
है?
भगवान
खतम हुआ, परमात्मा
विनष्ट हुआ!
हम अपने घर
लौट आएंगे
आश्वस्त होकर
कि गलती थी
बात। नाहक इस
आदमी के पास
गए थे!
पत्थर
में कोई वासना
नहीं दिखाई
पड़ती, इसलिए
हमको
परमात्मा
दिखाई पड़ता
है। लेकिन जिन्होंने
पत्थर की
मूर्ति बनाई
थी, उनका
कारण दूसरा
था। उनका खयाल
यह था कि जब तुम्हें
पत्थर में भी
दिख जाएगा, तो ऐसी कौन
सी जगह बचेगी
जहां तुम्हें
नहीं दिखाई
पड़ेगा! जीवन
का
सर्व-स्वीकार
धार्मिक
व्यक्ति का पहला
लक्षण है। और
सर्व-स्वीकार
से आती है शांति।
सर्व-स्वीकार
से आता है
विश्राम।
सर्व-स्वीकार
से आती है
बाल-सुलभ
निर्दोषिता।
उसी निर्दोष
आंख के लिए
जगत ब्रह्म हो
जाता है।
आज
इतना ही।
अब
एक पांच मिनट
हम कीर्तन में
बाल-सुलभ हो
जाएं और फिर
विदा हों!
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