दिनांक
19 अगस्त, 1971;
प्रथम
पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर
हाल, बम्बई।
मंगल—भाव—न्त
अरिहता
मंगल।
सिद्धा
मंगल।
साहू
मंगल।
केवलिपन्नत्तो
धम्मो मंगल।।
अरिहता
लोगुत्तमा।
सिद्धा
लोद्यमा।
साहू
लोद्यमा।
केवलिपन्नत्तो
धम्मो
लोद्यमो।।
अरिहंत
मंगल हैं।
सिद्ध मंगल
हैं। साधु
मंगल हैं।
केवलीप्ररूपित
अर्थात
आत्मज्ञकथित
धर्म मंगल है।
अरिहंत
लोकोत्तम
हैं। सिद्ध लोकोत्तम
हैं। साधु
लोकोत्तम
हैं।
केवलीप्ररूपित
अर्थात
आत्मशकथित
धर्म
लोकोत्तम है।
महावीर
ने कहा है —
जिसे पाना हो
उसे देखना
शुरू करना
चाहिए।
क्योंकि हम
उसे ही पा
सकते हैं जिसे
हम देखने में
समर्थ हो जाएं।
जिसे हमने
देखा नहीं, उसे
पाने का भी
कोई उपाय नहीं।
जिसे खोजना हो,
उसकी भावना
करनी प्रारंभ
कर लेनी चाहिए।
क्योंकि इस
जगत में हमें
वही मिलता है,
जो मिलने के
भी पहले, जिसके
लिए हम अपने
हृदय में जगह
बना लेते हैं।
अतिथि घर आता
हो तो हम
इंतजाम कर
लेते हैं उसके
स्वागत का।
अरिहंत को
निर्मित करना
हो स्वयं में,
सिद्ध को
पाना हो कभी, किसी क्षण
स्वयं भी
केवली बन जाना
हो तो उसे देखना,
उसकी भावना
करनी, उसकी
आकांक्षा और
अभीप्सा की
तरफ चरण उठाने
शुरू करने
जरूरी हैं।
महावीर
से ढाई हजार
साल पहले चीन
में एक कहावत
प्रचलित थी।
और वह कहावत
थी — लाओत्से
के द्वारा कही
गयी और बाद
में संग्रहीत
की गयी चिंतन
की धारा का
पूरा का पूरा
सार — वह कहावत
थी — 'द सुपीरियर
फिजिशियन
क्योर्स द
इलनेस बिफोर
इट इज
मैनिफैस्टेड'
— जो
श्रेष्ठ
चिकित्सक है
वह बीमारी के
प्रगट होने के
पहले ही उसे
ठीक कर देता
है। 'द
इनफीरियर
फिजिशियन
ओनली केयर्स
फार द इलनेस
व्हिच ही वाज
नाट एबल टु
प्रिवेंट' — और, जो
साधारण
चिकित्सक है
वह केवल
बीमारी को दूर
करने में थोड़ी
बहुत सहायता पहुंचाता
है, जिसे
वह रोकने में
समर्थ नहीं था।
हैरान
होगे जानकर आप
यह बात कि
महावीर से ढाई
हजार साल पहले, आज
से पांच हजार
साल पहले चीन
में चिकित्सक
को बीमारी के
ठीक करने के
लिए कोई
पुरस्कार
नहीं दिया
जाता था।
उल्टा ही
रिवाज था, या
हम समझें कि
हम जो कर रहे हैं
वह उल्टा है।
चिकित्सक को
पैसे दिये
जाते थे इसलिए
कि वह किसी को
बीमार न पड़ने
दे। और अगर
कभी कोई बीमार
पड़ जाता तो
चिकित्सक को उल्टे
उसे पैसे
चुकाने पड़ते
थे। तो हर
व्यक्ति
नियमित अपने
चिकित्सक को
पैसे देता था
ताकि वह बीमार
न पड़े। और
बीमार पड़ जाए
तो चिकित्सक
को उसे ठीक भी
करना पड़ता और
पैसे भी देने
पड़ते। जब तक
वह ठीक न हो
जाता, तब
तक बीमार को
फीस मिलती
चिकित्सक के
द्वारा। यह जो
चिकित्सा की
पद्धति चीन
में थी उसका
नाम है —
ऐसुपंक्चर।
इस चिकित्सा
की पद्धति को
नया
वैज्ञानिक
समर्थन मिलना
शुरू हुआ है।
रूस
में वे इस पर
बड़े प्रयोग कर
रहे हैं और
उनकी दृष्टि
है कि इस सदी
के पूरे होते—होते
रूस में
चिकित्सक को
बीमार को
बीमार न पड़ने
देने की
तनख्वाह देनी
शुरू कर दी
जाएगी। और जब
भी कोई बीमार
पड़ेगा तो
चिकित्सक
जिम्मेवार और
अपराधी होगा। ऐसुपंक्चर
मानता है कि
शरीर में खून
ही नहीं बहता, विद्युत
ही नहीं बहती —
एक और तीसरा
प्रवाह है, प्राण है —
ऊर्जा का, एलन
वाइटल का — वह
प्रवाह भी
शरीर में बहता
है। सात सौ
स्थानों पर
शरीर के अलग—अलग
वह प्रवाह है,
चमड़ी को
स्पर्श करता
है। इसलिए
ऐसुपंक्चर
में चमड़ी पर
जहां—जहां
प्रवाह
अव्यवस्थित
हो गया है, वहीं
सुई चोभकर
प्रवाह को
संतुलित करने
की कोशिश की
जाती है।
बीमारी के आने
के छह महीने
पहले उस
प्रवाह में
असंतुलन शुरू
हो जाता है।
यह जानकर आपको
हैरानी होगी
कि नाड़ी की
जानकारी भी
वस्तुत: खून
के प्रवाह की
जानकारी नहीं
है। नाड़ी के
द्वारा भी उसी
जीवन—प्रवाह
को समझने की
कोशिश की जाती
रही है। और छह
महीने पहले
नाड़ी अस्त—व्यस्त
होनी शुरू हो
जाती है —
बीमारी के आने
के छह महीने
पहले।
हमारे
भीतर जो प्राण—शरीर
है उसमें पहले
बीज रूप में
चीजें पैदा होती
हैं और फिर
वृक्ष रूप में
हमारे भौतिक
शरीर तक फैल
जाती हैं।
चाहे शुभ को
जन्म देना हो, चाहे
अशुभ को। चाहे
स्वास्थ्य को
जन्म देना हो,
चाहे
बीमारी को।
सबसे पहले
प्राण शरीर
में बीज
आरोपित करने
होते हैं। यह
जो मंगल की
स्तुति है कि
अरिहंत मंगल
हैं, यह
प्राण—शरीर
में बीज डालने
का उपाय है।
क्योंकि जो
मंगल है उसकी
कामना
स्वाभाविक हो
जाती है। हम
वही चाहते हैं
जो मंगल है।
जो अमंगल है
वह हम नहीं
चाहते। इसमें
चाह की तो बात
ही नहीं की
गयी है, सिर्फ
मंगल का भाव
है।
अरिहंत
मंगल हैं, सिद्ध
मंगल हैं, साहू
मंगल हैं।
केवलीपन्नत्तो
धम्मो मंगल —
वह जिन्होंने
स्वयं को जाना
और पाया, उनके
द्वारा
विरूपित धर्म
मंगल है —
सिर्फ मंगल का
भाव।
यह
जानकर हैरानी
होगी कि मन का
नियम है, जो भी
मंगल है, ऐसा
भाव गहन हो
जाए तो उसकी
आकांक्षा
शुरू हो जाती
है। आकांक्षा
को पैदा नहीं
करना पड़ता।
मंगल की धारणा
को पैदा करना
पड़ता है।
आकांक्षा
मंगल की धारणा
के पीछे छाया की
भांति चली आती
है।
धारणा
पतंजलि योग के
आठ अंगों में
कीमती अंग है
जहां से
अंतर्यात्रा
शुरू होती है—
धारणा, ध्यान,
समाधि—
छठवां सूत्र
है धारणा, सातवां
ध्यान, आठवां
समाधि। यह जो
मंगल की धारणा
है, यह
पतंजलि योग—सूत्र
का छठवां
सूत्र है, और
महावीर के योग—सूत्र
का पहला।
क्योंकि
महावीर का
मानना यह है
कि धारणा से सब
शुरू हो जाता
है। धारणा
जैसे ही हमारे
भीतर गहन होती
है, हमारी
चेतना
रूपांतरित
होती है। न
केवल हमारी, हमारे पड़ोस
में जो बैठा
है उसकी भी।
यह जानकर आपको
आश्रचर्य
होगा कि आप
अपनी ही
धारणाओं से
प्रभावित
नहीं होते, आपके निकट
जो धारणाओं के
प्रवाह बहते
हैं उनसे भी
प्रभावित
होते हैं।
इसलिए महावीर
ने कहा है —
अज्ञानी से
दूर रहना मंगल
है, ज्ञानी
के निकट रहना
मंगल है।
चेतना जिसकी
रुग्ण है उससे
दूर रहना मंगल
है। चेतना
जिसकी स्वस्थ
है उसके निकट,
सान्निध्य
में रहना मंगल
है। सत्संग का
इतना ही अर्थ
है कि जहां
शुभ धारणाएं
हों, उस
मित्थू में, उस वातावरण
में रहना मंगल
है।
रूस
के एक विचारक, जो
ऐक्युपंक्चंर
पर काम कर रहे
हैं — डा. सिरोव,
उन्होंने
यांत्रिक
आविष्कार
किये हैं जिनसे
पड़ोसी की
धारणा आपको कब
प्रभावित
करती है और
कैसे
प्रभावित
करती है, उसकी
जांच की जा
सकती है। आप
पूरे समय पड़ोस
की धारणाओं से
इम्पोज किये जा
रहे हैं। आपको
पता ही नहीं
है कि आपको जो
क्रोध आया है,
जरूरी नहीं
है कि आपका ही
हो। वह आपके
पड़ोसी का भी
हो सकता है।
भीड़ में बहुत
मौकों पर आपको
खयाल नहीं है—
भीड़ में एक
आदमी जम्हाई
लेता है और दस
आदमी, उसी
क्षण, अलग—अलग
कोनों में
बैठे हुए
जम्हाई लेने
शुरू कर देते
हैं। सिरोव का
कहना है कि वह
धारणा एक के
मन में जो पैदा
हुई उसके
वर्तुल आसपास
चले गये और
दूसरों को भी
उसने पकड़ लिया।
अब इसके लिए
उसने यंत्र
निर्मित किये
हैं, जो बताते
हैं कि धारणा
आपको कब पकड़ती
है और कब आप में
प्रवेश कर
जाती है। अपनी
धारणा से तो
व्यक्ति का
प्राण—शरीर
प्रभावित
होता ही है, दूसरे की
धारणा से भी
प्रभावित
होता है। कुछ
घटनाएं इस
संबंध में
आपको कहूं तो
बहुत आसान
होगा।
191० में
जर्मनी की एक
ट्रेन में एक
पन्द्रह—सोलह
वर्ष का युवक
बैंच के नीचे
छिपा पड़ा है।
उसके पास
टिकिट नहीं है।
वह घर से भाग
खड़ा हुआ है।
उसके पास पैसा
भी नहीं है।
फिर तो बाद
में वह बहुत
प्रसिद्ध
आदमी हुआ और हिटलर
ने उसके सिर
पर दो लाख
मार्क की
घोषणा की कि
जो उसका सिर
काट लाये। वह
तो फिर बहुत बड़ा
आदमी हुआ और
उसके बड़े
अदभुत परिणाम
हुए, और
स्टेलिन और
आइंस्टीन और
गांधी सब उससे
मिलकर आनंदित
और प्रभावित
हुए। उस आदमी
का बाद में
नाम हुआ — बुल्फ
मैसिंग। उस
दिन तो उसे
कोई नहीं
जानता था, 191०
में।
बुक
मैसिंग ने अभी
अपनी आत्मकथा
लिखी है जो रूस
में प्रकाशित
हुई है और बड़ा
समर्थन मिला
है। अपनी
आत्मकथा उसने
लिखी है — 'अबाउट
माईसेल्फ'।
उसमें उसने
लिखा है कि उस
दिन मेरी
जिंदगी बदल गई।
उस ट्रेन में
नीचे फर्श पर
छिपा हुआ पड़ा
था बिना टिकिट
के कारण।
मैसिंग ने
लिखा है कि वे
शब्द मुझे कभी
नहीं भूलते —
टिकिट चेकर का
कमरे में
प्रवेश, उसके
जूतों की आवाज
और मेरी श्वास
का ठहर जाना
और मेरी
घबराहट और
पसीने का छूट
जाना, ठंडी
सुबह, और
फिर उसका मेरे
पास आकर पूछना
— यंगमैन, यौर
टिकिट?
मैसिंग
के पास तो
टिकिट थी नहीं।
लेकिन अचानक
पास में पड़ा
हुआ एक कागज
का टुकड़ा—
अखबार की रही
का टुकड़ा
मैसिंग ने हाथ
में उठा लिया।
आंख बंद की और
संकल्प किया
कि यह टिकिट
है,
और उसे
उठाकर टिकिट
चैकर को दे
दिया। और मन
में सोचा कि
हे परमात्मा,
उसे टिकिट
दिखाई पड़ जाए।
टिकिट चेकर ने
उस कागज को
पंक्रर किया,
टिकिट
वापिस लौटायी
और कहा — व्हेन
यू हैव गाट दि
टिकिट, व्हाई
यू आर लाइंग
अंडर दि सीट? पागल हो! जब
टिकिट
तुम्हारे पास
है तो नीचे क्यों
पड़े हो? मैसिंग
को खुद भी
भरोसा नहीं
आया। लेकिन इस
घटना ने उसकी
पूरी जिंदगी
बदल दी। इस
घटना के बाद
पिछली आधी सदी
में पचास
वर्षों में
जमीन पर सबसे
महत्वपूर्ण
आदमी था जिसे
धारणा के
संबंध में
सवाधिक अनुभव
थे।
मैसिंग
की परीक्षा
दुनिया में
बड़े—बड़े लोगों
ने ली। 194० में
एक नाटक के
मंच पर जहां
वह अपना
प्रयोग दिखला
रहा था— लोगों
में विचार
संक्रमित
करने का —
अचानक पुलिस
ने आकर मंच का
परदा गिरा
दिया और लोगों
से कहा कि यह
कार्यक्रम
समाप्त हो गया।
क्योंकि
मैसिंग
गिरफ्तार कर
लिया गया।
मैसिंग को
तत्काल बंद
गाड़ी में डाल
कर क्रेमलिन
ले जाया गया
और स्टेलिन के
सामने मौजूद
किया गया।
स्टेलिन ने
कहा — मैं मान
नहीं सकता कि
कोई किसी
दूसरे की धारणा
को सिर्फ
आतरिक धारणा
से प्रभावित
कर सके।
क्योंकि अगर ऐसा
हो सकता है तो
फिर आदमी
सिर्फ पदार्थ
नहीं रह जाता।
तो मैं
तुम्हें
इसलिए पकड़कर
बुलाया हूं कि
तुम मेरे
सामने सिद्ध
करो।
मैसिंग
ने कहा — आप
जैसा भी चाहें।
स्टेलिन ने
कहा कि कल दो
बजे तक तुम
यहां बंद रहो।
दो बजे आदमी
तुम्हें ले
जाएंगे
मास्को के बड़े
बैंक में। तुम
क्लर्क को एक
लाख रुपया
सिर्फ धारणा
के द्वारा
निकलवाकर ले
आओ।
पूरा
बैंक
मिलिट्री से
घेरा गया। दो
आदमी
पिस्तौलें
लिये हुए
मैसिंग के
पीछे, ठीक दो
बजे उसे बैंक
में ले जाया
गया। उसे कुछ
पता नहीं था
कि किस काउंटर
पर उसे ले जाया
जाएगा। जाकर
ट्रेजरर के
सामने उसे खड़ा
कर दिया गया।
उसने एक कोरा
कागज उन दो
आदमियों के
सामने निकाला।
कोरे कागज को
दो क्षण देखा।
ट्रेजरर को
दिया, और
एक लाख रूबल।
ट्रेजरर ने कई
बार उस कागज
को देखा, चश्मा
लगाया, वापस
गौर से देखा
और फिर एक लाख
रुपया, एक
लाख रूबल
निकालकर
मैसिंग को दे
दिये। मैसिंग
ने बैग में वे
पैसे अंदर रखे।
स्टेलिन को
जाकर रुपये
दिये।
स्टेलिन को
बहुत हैरानी
हुई! वापस
मैसिंग लौटा।
जाकर क्लर्क
के हाथ में वह
रुपये वापस
दिये और कहा —
मेरा कागज
वापस लौटा दो।
जब क्लर्क ने
वापस कागज
देखा तो वह
खाली था। उसे
हार्ट अटैक का
दौरा पड़ गया
और वह वहीं
नीचे गिर पड़ा।
वह बेहोश हो
गया। उसकी समझ
के बाहर हो
गयी बात कि
क्या हुआ।
लेकिन
स्टेलिन इतने
से राजी न हुआ।
कोई जालसाजी
हो सकती है।
कोई क्लर्क और
उसके बीच
तालमेल हो
सकता है। तो
क्रेमलिन के
एक कमरे में
उसे बंद किया
गया। हजारों
सैनिकों का
पहरा लगाया
गया और कहा कि
ठीक बारह बजकर
पांच मिनिट पर
वह सैनिकों के
पहरे के बाहर
हो जाए। वह
ठीक बारह बजकर
पांच मिनिट पर
बाहर हो गया।
सैनिक अपनी
जगह खड़े रहे, वह
किसी को दिखाई
नहीं पड़ा। वह
स्टेलिन के
सामने जाकर
मौजूद हो गया।
इस
पर भी स्टेलिन
को भरोसा नहीं
आया। और भरोसा
आने जैसा नहीं
था,
क्योंकि
स्टेलिन की
पूरी फिलासफी,
पूरा चिंतन,
पूरे
कमुनिज़म की
धारणा, सब
बिखरती है।
यही एक आदमी
कोई धोखा— धड़ी
कर दे और सारा
का सारा
मार्क्स
चिंतन का आधार
गिर जाए।
लेकिन
स्टेलिन
प्रभावित
जरूर इतना हुआ
कि उसने तीसरे
प्रयोग के लिए
और प्रार्थना
की।
उसकी
दृष्टि में जो
सर्वाधिक
कठिन बात हो
सकती थी, वह यह
थी — उसने कहा
कि कल रात
बारह बजे मेरे
कमरे में तुम
मौजूद हो जाओ,
बिना किसी
अनुमति पत्र
के। यह
सवांधिक कठिन
बात थी।
क्योंकि
स्टेलिन
जितने गहन
पहरे में रहता
था उतना
पृथ्वी पर
दूसरा कोई
आदमी कभी नहीं
रहा। पता भी
नहीं होता था
कि स्टेलिन
किस कमरे में है
क्रेमलिन के।
रोज कमरा बदल
दिया जाता था
ताकि कोई खतरा
न हो, कोई
बम न फेंका जा
सके, कोई
हमला न किया
जा सके।
सिपाहियों की
पहली कतार
जानती थी कि
पांच नंबर
कमरे में है, दूसरी कतार
जानती थी कि
छह नंबर कमरे
में है, तीसरी
कतार जानती थी
कि आठ नंबर
कमरे में है।
अपने ही
सिपाहियों से
भी बचने की
जरूरत थी स्टेलिन
को। कोई पता
नहीं होता था
कि स्टेलिन
किस कमरे में
है। स्टेलिन
की खुद पत्नी
भी स्टेलिन के
कमरे का पता
नहीं रख सकती
थी। क्रेमलिन
के सारे कमरे,
जिनमें
स्टेलिन अलग—अलग
होता था, करीब—करीब
एक जैसे थे, जिनमें वह
कहीं भी किसी
भी क्षण हट
सकता था। सारा
इंतजाम हर
कमरे में था।
ठीक
रात बारह बजे
पहरेदार पहरा
देते रहे और
मैसिंग जाकर
स्टेलिन की
मेज के सामने
जाकर खड़ा हो
गया,
स्टेलिन भी
कैप गया। और
स्टेलिन ने
कहा— तुमने यह
किया कैसे? यह असंभव है!
मैसिंग
ने कहा — मैं
नहीं जानता।
मैंने कुछ
ज्यादा नहीं
किया मैंने
सिर्फ एक ही
काम किया कि
मैं दरवाजे पर
आया और मैंने
कहा कि आई एम
बैरिया।
बैरिया रूसी पूलिस
का,
सबसे बड़ा
आदमी था, स्टेलिन
के बाद नंबर
दो की ताकत का
आदमी था। बस
मैंने सिर्फ इतना
ही भाव किया
कि मैं बैरिया
हूं और
तुम्हारे
सैनिक मुझे
सलाम बजाने
लगे और मैं
भीतर आ गया।
स्टेलिन
ने सिर्फ
मैसिंग को
आज्ञा दी कि
वह रूस में
घूम सकता है, और
प्रामाणिक है।
194० के बाद रूस
में इस तरह के
लोगों की
हत्या नहीं की
जा सकी तो वह
सिर्फ मैसिंग
के कारण। 194० तक
रूस में कई
लोग मार डाले
गये थे
जिन्होंने इस
तरह के दावे
किये थे।
कार्ल आटोविस
नाम के एक
आदमी की 1937 में
रूस में हत्या
की गई, स्टेलिन
की आज्ञा से।
क्योंकि वह भी
जो करता था वह
ऐसा था कि
उससे कमुनिज़म
की जो
मैटिरियलिस्ट—
भौतिकवादी
धारणा है, वह
बिखर जाती है।
अगर
धारणा इतनी
महत्वपूर्ण
हो सकती है तो
स्टेलिन ने
आशा दी अपने
वैज्ञानिकों
को कि मैसिंग
की बात को
पूरा समझने की
कोशिश करो, क्योंकि
इसका युद्ध
में भी उपयोग
हो सकता है।
और जो आदमी
मैसिंग का
अध्ययन करता
रहा, उस
आदमी ने, नामोव
ने कहा है कि
जो अल्टीमेट
वैपन है युद्ध
का, आखिरी
जो अस्त्र
सिद्ध होगा, वह यह
मैसिंग के
अध्ययन से
निकलेगा।
क्योंकि जिस
राष्ट्र के
हाथ में धारणा
को प्रभावित
करने के मौलिक
सूत्र आ
जाएंगे, उस
राष्ट्र को
अणु की शक्ति
से हराया नहीं
जा सकता। सच
तो यह है कि
जिनके हाथ में
अणुबम हों
उनको भी धारणा
से प्रभावित
किया जा सकता
है कि वह अपने
ऊपर ही फेंक
दें। एक हवाई
जहाज बम
फेंकने जा रहा
हो उसके पायलट
को प्रभावित
किया जा सकता
है कि वापस
लौट जाए, अपनी
ही राजधानी पर
गिरा दे।
नामोव
ने कहा है कि
दि अल्टीमेट
वैपन इन वार इज
गोइंग टु बी
साइकिक पावर।
यह धारणा की
जो शक्ति है, यह
आखिरी अस्त्र।ग्नद्ध
हणो। इस पर
रोज काम बढ़ता
चला जाता है।
स्टेलिन जैसे
लोगों की
उत्सुकता तो
निश्रित ही
विनाश की तरफ
होगी। महावीर ?ंाए रो
लोगों की
उत्सुकता
निर्माण और
सृजन की ओर है।
इसलिए मंगल की
धारणा, महावीर
ने कहा है —
भूलकर भी स्वप्र
में भी कोई
भरी धारणा मत
करना, क्योंकि
वह परिणाम ला
सकती है।
आप
राह से गुजर
रहे हैं, आप
सोचते हैं, मैंने कुछ
किया भी नहीं।
एक मन में
खयाल भर आ गया
कि इस आदमी की
हत्या कर 'या।
आपने कुछ किया
नहीं। कि इस
दुकान से फलां
चीज चुरा लूं
आप चोरी करने
नहीं भी गये।
लेकिन क्या आप
निश्रित हो
सकते पृ!' कि
राह पर किसी
चोर ने आपकी
धारणा न पकड़
ली होगी?
मास्को
में एक हवा
पिछले दो साल
में प्रचलित हुई
है कि कोई भी
आदमी अपनी
गर्दन
खुजलाने के पहले
चारों तरफ देख
लेता है। क्योंकि
यह प्रयोग चल
रहा है दो साल
से। मानेन नाम
का वैज्ञानिक
सड्कों पर
प्रयोग कर रहा
है। वह आपके
पीछे आकर
कहेगा, 'आपकी गर्दन
पर कीड़ा चढ़
रहा है' — मन
में अपने — 'गर्दन
खुजला रही है,
खुजलाओ
जल्दी' और
लोग खुजलाने
लगते हैं। अब
तो यह 'खबर
इतनी फैल गयी
है क्योंकि
उसने हजासें
लोगों पर
प्रयोग किया
है — राह के
चौरस्तों पर
खड़े होकर, होटल
में बैठकर, ट्रेन, में
चढ़कर। और
मानेन इतना
सफल हुआ है कि
नाइनटी एट
परसेंट, अट्ठान्नबे
प्रतिशत सही
होता है।
जिसके पीछे
खड़े होकर, वह
भावना करता है
कि गर्दन
खुजला रही है,
कीड़ा चढ़ रहा
है, जल्दी
खुजलाओ। वह
जल्दी
खुजलाता है।
अब तो लोगों
को पता चल गया
है। सच में ''भी कीड़ा चढ़ा
हो तो लोग
पहले देख लेते
हैं कि वह
मानेन नाम का
आदमी आसपास तो
नहीं है! जब से
मानेन का
प्रयोग सफल
हुआ है तब से
मस्तिष्क के
बाबत एक नयी
जानकारी मिली
है। और वह यह
कि मस्तिष्क
सामने से
जितनी शक्ति रखता
है, उससे
चौगुनी शक्ति
मस्तिष्क के
पीछे के
हिस्से में है।
तो
पीछे से
व्यक्ति को
जल्दी
प्रभावित
किया जा सकता
है। सामने
सिर्फ एक
हिस्सा है, चार
गुना पीछे है।
और जो लोग, जैसे
कि मैसिंग, या कल मैंने
आपको कहा
नेल्या नाम की
महिला, जो
वस्तुओं को
सरका सकती है —
इनके
मस्तिष्क के
अध्ययन से पता
चलता है कि
इनका
मस्तिष्क
पीछे पचास
गुनी शक्ति से
भरा हुआ है —
सामने एक तो
पीछे पचास।
योग की निरंतर
धारणा रही है
कि मनुष्य 'हा असली
मस्तिष्क
छिपा हुआ पीछे
पड़ा है। और जब
तक वह सक्रिय
नहीं होता तब
तक मनुष्य अपनी
पूर्ण गरिमा
को उपलब्ध
नहीं होगा।
यह
भी हैरानी की
बात है कि अगर
आप कोई बुरा
विचार करते
हैं,
तो प्रकृति
का अदभुत नियम
है कि आप
मस्तिष्क के
अगले हिस्से से
करते हैं।
मस्तिष्क का
प्रत्येक
हिस्सा अलग—अलग
काम करता है।
अगर आपको
हत्या करनी है
तो उसका विचार
आपके मस्तिष्क।
के ऊपरी, सामने
के हिस्से में
चलता है। और
अगर आपको किसी
की सहायता
करनी है तो
पीछे, अंतिम
हिस्से में
चलता है।
प्रकृति
ने इंतजाम
किया हुआ है
कि शुभ की ओर आपको
ज्यादा शक्ति
दी हुई है, अशुभ
की ओर कम
शक्ति दी हुई
है। लेकिन शुभ
जगत में दिखाई
नहीं पड़ता और
अशुभ जगत में
बहुत दिखाई पड़ता
है। हम शुभ की
कामना ही नहीं
करते। या अगर
हम कामना भी
करते है, तो
हम तत्काल
विपरीत कामना
करके उसे काट
देते हैं।
जैसे एक मां
अपने बच्चे के
जीने की कितनी
कामना करती है—
बड़ा हो जीये।
लेकिन किसी
क्षण क्रोध
में कह देती
है : तू तो होते
से ही मर जाता
तो बेहतर था।
उसे पता नहीं
है कि चार दफा
उसने कामना की
हो शुभ की और
यह एक दफा
अशुभ की, तो
भी विषाक्त हो
जाता है सब, कट जाती है
कामना।
महावीर
अपने साधुओं
को कहते थे कि
मंगल की कामना
में डूबे रहो
चौबीस घंटे —
उठते, बैठते, श्वास लेते,
छोड़ते।
स्वभावत: मंगल
की कामना शिखर
से शुरू करनी
चाहिए इसलिए
वे कहते हैं— 'अरिहंत मंगल
हैं'। वे
जिनके आंतरिक
समस्त रोग
समाप्त हो गये,
वे मंगल हैं।
सिद्ध मंगल
हैं, साधु
मंगल हैं, और
जाना
जिन्होंने —
जैन परंपरा
केवली उन्हें
कहती है जो
जानने की दिशा
में उस जगह
पहुंच गये
जहां
जाननेवाला भी
नहीं रह जाता,
जानी
जानेवाली
वस्तु भी नहीं
रह जाती, सिर्फ
जानना रह जाता
है, सिर्फ
केवल ज्ञान
मात्र रह जाता
है— औनली
नोइंग। केवली,
जैन परंपरा
उसे कहती है
जो केवल ज्ञान
को उपलब्ध हो
गया। मात्र ज्ञान
रह गया है
जहां। जहां
कोई
जाननेवाला न
बचा, जहां
मैं का कोई
भाव न बचा, जहां
कोई ज्ञेय न
बचा, जहां
कोई तू न बचा।
जहां सिर्फ
जानने की
शुद्ध क्षमता,
प्योर
कैपेसिटी टु
नो।
इसे
ऐसा समझें कि
हम एक कमरे
में दीया जलाए।
दीये की बाती
है,
तेल है, दीया
है। फिर कमरे
में दीये का
प्रकाश है और
उस प्रकाश से
प्रकाशित
होती चीजें
हैं— कुर्सी
है, फनीर्चर
है, दीवार
है, आप हैं।
अगर हम ऐसी
कल्पना कर
सकें कि कमरा
शून्य हो गया—
न दीवार है, न फनीर्चर
है, कुछ भी
नहीं है। दीये
में तेल भी न
रहा, दीये
की देह भी न
रही — सिर्फ
ज्योति रह गयी,
प्रकाश
मात्र रह गया,
न कोई दीया
बचा और न
प्रकाशित
वस्तुएं बची—
मात्र प्रकाश
रह गया। आलोक,
स्रोतरहित,
कोई तेल
नहीं, कोई
बाती नहीं। और
ऐसा आलोक जो
किसी पर नहीं
पड़ रहा है, शून्य
में फैल रहा
है। ऐसी धारणा
है जैन चिंतन
की केवली के
संबंध में। जो
परम ज्ञान को
उपलब्ध होता
है वहां ज्ञान
अकारण हो जाता
है, कोई
सोर्स नहीं
होता।
क्योंकि बात
बहुत कीमती है।
जैन परंपरा
कहती है कि
जिस चीज का भी
सोर्स होता है
वह कभी न कभी
चुक जाती है।
चुक ही जाएगी।
कितना ही बड़ा
स्रोत क्यों न
हो। सूर्य भी
चुक जाएगा एक
दिन — बड़ा है
स्रोत, अरबों
वर्षों से
रोशनी दे रहा
है।
वैज्ञानिक
कहते हैं — अभी
और अन्दाजन
चार हजार, पांच
हजार साल
रोशनी देगा, लेकिन चुक
जाएगा। कितना
ही बड़ा स्रोत
हो, स्रोत
की सीमा है —
चुक जाएगा।
महावीर
कहते हैं—यह
जो चेतना है, यह
अनंत है, यह
कभी चुक नहीं
सकती। यह
स्रोतरहित है
इसमें जो
प्रकाश है वह
किसी मार्ग से
नहीं आता, वह
बस 'है ' — इट
जस्ट इज। कहीं
से आता नहीं, अन्यथा एक
दिन चुक जाएगा।
कितना ही बड़ा
हो, चुक
जाएगा।
महासागर भी
चम्मचों से
उलीचकर चुकाए
जा सकते हैं—कितना
ही लंबा समय
लगे। महासागर
भी चम्मचों से
उलीचकर चुकाए
जा सकते हैं।
एक चम्मच थोड़ा
तो कम कर ही
जाती है। फिर
और ज्यादा कम
होता जाएगा।
महावीर कहते
हैं — यह जो
चेतना है, यह
स्रोतरहित है।
इसलिए महावीर
ने ईश्वर को
मानने से
इनकार कर दिया।
क्योंकि अगर
ईश्वर को
मानें तो
ईश्वर स्रोत हो
जाता है। और
हम सब उसी के
स्रोत से जलने
वाले दीये हो
जाते हैं तो
हम चुक जाएंगे।
सच
यह है कि
महावीर से
ज्यादा
प्रतिष्ठा
आत्मा को इस
पृथ्वी पर और
किसी व्यक्ति
ने कभी नहीं
दी है। इतनी
प्रतिष्ठा कि
उन्होंने कहा
कि परमात्मा
अलग नहीं, आत्मा
ही परमात्मा
है। इसका
स्रोत अलग
नहीं है, यह
ज्योति ही
स्वयं स्रोत
है। यह जो
भीतर जलने
वाला जीवन है,
यह कहीं सै
शक्ति नहीं
पाता यह स्वयं
ही शक्तिवान
है। यह किसी
के द्वारा
निर्मित नहीं
है, नहीं
तो किसी के
द्वारा नष्ट
हो जाएगा। यह
किसी पर
निर्भर नहीं
है, नहीं
तो मोहताज
रहेगा। यह
किसी से कुछ
भी नहीं पाता,
यह स्वयं
में समर्थ और
सिद्ध है। जिस
दिन ज्ञान इस
सीमा पर
पहुंचता है, जहां हम
स्रोतरहित
प्रकाश को
उपलब्ध होते
हैं, सोर्सलेस
— उसी दिन हम
मूल को उपलब्ध
होते हैं। जैन
परंपरा ऐसे
व्यक्ति को
केवली कहती है।
वह व्यक्ति
कहीं भी पैदा
हो — वे
क्राइस्ट हो
सकते हैं, वे
बुद्ध हो सकते
हैं, वे
कृष्ण हो सकते
हैं, वे
लाओत्से हो
सकते हैं।
इसलिए इस
सूत्र में यह
नहीं कहा गया —
महावीर मंगल,
कृष्ण मंगल —
ऐसा नहीं कहा।
'जैन धर्म
मंगल है ', ऐसा
नहीं कहा। 'हिन्दू धर्म
मंगल है', ऐसा
नहीं कहा। 'केवली
पन्नत्तो
धम्मो मंगल' — वे जो केवल—ज्ञान
को उपलब्ध हो
गये, उनके
द्वारा जो भी
प्ररूपित
धर्म है, वह
मंगल है। वह
कहीं भी हो, जिन्होंने
भी शुद्ध ज्ञान
को पा लिया, उन्होंने जो
कहा है, वह
मंगल है।
यह
मंगल की धारणा
गहन प्राणों
के अतल में
बैठ जाए तो
अमंगल की
संभावना कम
होती चली जाती
है। जैसी जो
भावना करता है, धीरे—
धीरे वैसा ही
हो जाता है।
जैसा हम सोचते
हैं, वैसे
ही हम हो जाते
हैं। जो हम
मांगते हैं, वह मिल जाता
है।
लेकिन
हम सदा गलत
मांगते हैं, वही
हमारा
दुर्भाग्य है।
हम उसी की तरफ आंख
उठाकर देखते
हैं जो हम
होना चाहते
हैं। अगर आप
एक राजनैतिक
नेता के आसपास
भीड़ लगाकर इकट्ठे
हो जाते हैं, तो यह भीड़
सिर्फ इसकी ही
सूचना नहीं है
कि राजनैतिक
नेता आया है।
गहन रूप से इस
बात की सूचना
है कि आप कहीं
राजनैतिक पद
पर होना चाहते
हैं। हम उसी
को आदर देते
हैं जो हम
होना चाहते
हैं, जो
हमारे भविष्य
का माडल मालूम
पड़ता है।
जिसमें हमें
दिखाई पड़ता है
कि काश, मैं
हो जाऊं। हम
उसी के आसपास
इकट्ठे हो
जाते हैं। अगर
सिने—अभिनेता
के पास भीड़
इकट्ठी हो
जाती है तो वह
आपकी भीतरी
आकांक्षा की
खबर देती है—
आप भी वही हो
जाना चाहते
हैं।
अगर
महावीर ने कहा
है कि कहो — 'अरिहता
मंगल, सिद्धा
मंगल, साहू
मंगल' तो
वे यह कह रहे
हैं कि यह तुम
कह ही तब
पाओगे जब तुम
अरिहंत होना
चाहोगे। या
तुम जब यह
कहना शुरू
करोगे, तो
तुम्हारे
अरिहंत होने
की यात्रा
शुरू हो जाएगी।
और बड़ी से बड़ी
यात्रा बड़े
छोटे से कदम
से शुरू होती
है। और पहले
कदम से कुछ भी
पता नहीं चलता।
धारणा पहला
कदम है।
कभी
आपने सोचा कि
आप क्या होना
चाहते हैं? नहीं
भी सोचा होगा
सचेतन रूप से
तो भी अचेतन में
चलता है कि आप
क्या होना
चाहते हैं। जो
आप होना चाहते
हैं उसी के
प्रति आपके मन
में आदर पैदा
होता है। न
केवल आदर, जो
आप होना चाहते
हैं उसी के
संबंध में
आपके मन में
चिंतन के
वर्तुल चलते
हैं, वही
आपके स्वप्नों
में उतर आता
है; वही
आपकी सांसों
में समा जाता
है; वही
आपके खून में
प्रवेश कर
जाता है। और
जब मैं कहता
हूं — खून में
प्रवेश कर
जाता है, तो
मैं कोई
साहित्यिक
बात नहीं कह
रहा हूं — मैं
मेडिकल, मैं
बिलकुल
शारीरिक तथ्य
की बात कह रहा
हूं।
इधर
प्रयोग किये
गये हैं और
चकित करने
वाले सूचन
मिले हैं।
आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी
में डिलावार
प्रयोगशाला
में विचार का
खून पर क्या
प्रभाव पड़ता
है — दूसरे की
धारणा का भी, आपकी
धारणा तो छोड़
दें, आपकी
धारणा का तो
पडेगा ही —दूसरे
की धारणा का
भी, अप्रगट
धारणा का भी
आपके खून पर
क्या प्रभाव पड़ता
है? अगर आप
ऐसे व्यक्ति
के पास जाते
हैं जिसके हृदय
से बहती करुणा
और मंगल की
भावना है, जो
आपके लिए शुभ
के अतिरिक्त
और कुछ नहीं
सोच पाता — तो
डिलावार
लेबोरेटरी के
प्रयोगों का
दस वर्षों का
निष्कर्ष यह
है कि आपके
खून में—ऐसे
व्यक्ति के
पास जाते ही, जो आपके
प्रति मंगल की
भावना रखता है—सफेद
कण, पंद्रह
सौ की तादाद
में तत्काल बढ़
जाते हैं, इमीजियेटली।
दरवाजे के
बाहर आपके खून
की परीक्षा की
जाए और फिर आप
भीतर आ जाएं
और मंगल की
कामना से भरे
हुए व्यक्ति
के पास बैठ
जाएं और फिर
आपके खून की
परीक्षा की
जाए, आपके
खून में सफेद,
व्हाइट बल्ड
सैल्स — सफेद
जो कोश हैं
खून के — वे
पंद्रह सौ बढ़
जाते हैं। जो
व्यक्ति आपके
प्रति
दुर्भाव रखता
है उसके पास
जाकर सोलह सौ
कम हो जाते
हैं— तत्काल, इमीजियेटली।
और
मेडिकल साइंस
कहती है कि
आपके
स्वास्थ्य की
रक्षा का मूल
आधार सफेद
कणों की
अधिकता है। वे
जितने ज्यादा
आपके शरीर में
होते हैं उतना
आपका
स्वास्थ्य
सुरक्षित है।
वे आपके
पहरेदार हैं।
आपने देखा
होगा, खयाल
नहीं किया
होगा, चोट
लग जाती है तो
चोट लगकर जो
आपको मवाद पड़
जाती है वह
मवाद सिर्फ
रक्षक है, आपके
शरीर के खून
के सफेद कण।
वे भागकर फौरन
एक पर्त
पहरेदारी की
खड़ी कर देते
हैं। जिसको आप
मवाद समझते
हैं वह मवाद
नहीं है, वे
आपके दुश्मन
नहीं हैं, वे
खून के सफेद
कण हैं जो
तत्काल दौडकर
घाव को चारों
तरफ से घेर
लेते हैं, जैसे
कि पूलिस ने
पहरा लगा दिया
हो। क्योंकि
उनके पर्त को
पार करके कोई
भी कीटाणु
शरीर में
प्रवेश नहीं
कर सकता है।
वे रक्षक हैं।
डिलावार
प्रयोगशाला
में किये गये
प्रयोगों ने
चकित कर दिया
है
वैज्ञानिकों
को कि क्या
शुभ की भावना
से भरे
व्यक्ति का
इतना परिणाम
हो सकता है कि
दूसरे के खून
का अनुपात बदल
जाए! आयतन बदल
जाए! खून की
गति बदल जाए!
हृदय की गति
बदल जाए!
रक्तचाप बदल
जाए! यह संभव
है?
अब तो इनकार
करना कठिन है।
डा.
जगदीशचन्द्र
बसु के बाद
दूसरा एक बड़ा
नाम एक अमरीकन
का है, क्लीब
बैक्स्टर का।
जगदीशचन्द्र
ने तो कह। था
कि पौधों में
प्राण हैं।
बैक्स्टर ने
सिद्ध किया है
— सिद्ध हो गया
है कि पौधों
में भावना भी
है। और पौधे
अपने मित्रों
को पहचानते
हैं और
शत्रुओं को भी।
पौधा अपने
मालिक को भी
पहचानता है और
अपने माली को
भी। और अगर
मालिक मर जाता
है तो पौधे की
प्राण— धारा
क्षीण हो जाती
है, वह
बीमार हो जाता
है। पौधों की
स्मृति को भी
बैक्सर ने
सिद्ध किया है
कि उनकी भी
मैमोरी है। और
आप जब अपने
गुलाब के पौधे
के पास जाकर
प्रेम से खड़े
हो जाते हैं
तब वह कल फिर
आपकी उसी समय
प्रतीक्षा
करता है। वह
याद रखता है
कि आज आप नहीं
आये। या जब आप
पौधे के पास
प्रेम से भरकर
खड़े हो जाते
हैं, फिर
अचानक एक फूल
तोड़ लेते हैं
तो पौधे को
बडी हैरानी
होती है, बड़ा
कंफ्यूजन
होता है। इस
सबकी
प्राणधाराओं
को रिकार्ड
करने वाले
यंत्र तैयार
किये हैं
बैक्स्टर ने
कि पौधा एकदम
कंफ्यूज्ड हो
जाता है, उसकी
समझ में नहीं
आता कि जो
आदमी इतने
प्रेम से खड़ा
था, उसने
फूल कैसे तोड़
लिया। वह ऐसे
ही कंफ्यूज्ड
हो जाता है
जैसे कोई
बच्चा आपके
पास खड़ा हो, प्रेम करते—करते
एकदम गर्दन
तोड़ लें कि
चेहरा बहुत
अच्छा लगता है।
पौधे की समझ
में बिलकुल
नहीं आता कि
यह हो क्या
गया! उसके
भीतर बड़ा
कंफ्यूजन
पैदा होता है।
बैक्स्टर
कहता है — हमने
हजारों पौधों
को कंफ्यूज
किया, उनको हम
बड़ी परेशानी
में डाले हुए
हैं। वे समझ
ही नहीं पाते
कि यह हो क्या
रहा है! जिसको
मित्र की तरह
अनुभव कर रहे
थे वह एकदम
शत्रु की तरह
हो जाता है।
बैक्सर का यह
भी कहना है कि
जिन पौधों को
हम प्रेम करते
हैं वे हमारी
तरफ बड़ी
पाजिटिव
भावनाएं
छोड़ते हैं।
और
बैक्सर ने
सुझाव दिया है
अमरीकन
मेडिकल एसोसिएशन
को कि शीघ्र
ही हम विशेष
तरह के मरीजों
को विशेष
पौधों के पास ले
जाकर ठीक करने
में समर्थ हो
जाएंगे— अगर
उन पौधों को
हमने इतना
प्राणवान कर
दिया —प्रेम
से,
भाव से, संगीत
से, प्रार्थना
से, ध्यान
से। उनको इतना
प्राण—शक्ति
से भर दिया है
तो उनके पास
विशेष तरह के मरीज
ले जाने से फायदा
होगा। फिर हर
पौधे में अपनी—अपनी
प्राण—ऊर्जा
की विशेषताएं
हैं। जैसे रेड
रोज़, लाल
जो गुलाब है, वह क्रोधी
लोगों के लिए
बड़े फायदे का
है। हो सकता
है पंडित
नेहरू को
इसीलिए उससे
प्रेम रहा हो।
क्रोध के लिए
रेड रोज़ बहुत
फायदे का है
बैक्सटर के
हिसाब से। वह
क्रोध को कम
करता है, वह
अक्रोध की
धारणा को अपने
चारों तरफ
फैलाता है।
उसका भी अपना
आभामंडल है।
पौधों
के पास भी
हृदय है। माना
कि वे
अशिक्षित हैं, लेकिन
उनके पास हृदय
है। आदमी बहुत
शिक्षित होता
चला जाता है
लेकिन हृदय
खोता चला जाता
है।
यह
धारणा, हृदय
को जन्माने का
आधार बन सकती
है — मंगल की
धारणा, निशित
ही मंगल की
धारणा। हम
इतने कमजोर
हैं और अमंगल
हमें इतना सहज
है कि हम
अरिहंत पर भी
मंगल की धारणा
कर पाएं तो चमत्कार
है। हम यह भी
कह पाएं कि
अरिहंत मंगल
हैं तो भी मिरेकल
है। पत्थर
मंगल है, इसके
लिए तो कठिनाई
पड़ेगी। दुश्मन
मंगल है, इसके
लिए तो बहुत
कठिनाई पड़ेगी।
शत्रु मंगल है,
इसके लिए तो
बहुत कठिनाई
पड़ेगी।
महावीर आपको
भलीभांति
जानते हैं। जो
श्रेष्ठतम है,
उस पर भी
आपको कठिनाई
पड़ेगी, मंगल
की धारणा करने
में। उससे
शुरू करते हैं
— अरिहंत, सिद्ध,
साधु और
जिन्होंने
जाना उनके द्वारा
प्ररूपित
धर्म।
'
धर्म' का
जैन परंपरा
में वैसा अर्थ
नहीं है जैसा
अंग्रेजी के 'रिलीजन' का
है या उर्दू
के 'मज़हब' का है। और
वैसा अर्थ भी
नहीं है
जैसा
हिन्दू 'धर्म'
का। जैन
परंपरा में
धम्म का जो
अर्थ है वह
समझ लेना
चाहिए — वह
बहुत खूबी का
है, विशिष्ट
है और जैन दृष्टि
को एक नये
आयाम में
फैलाता है।
मजहब का अर्थ
तो होता है —
क्रीड, एक
मत, एक पंथ।
अंग्रेजी के
रिलीजन शब्द
का अर्थ होता
है करीब—करीब
वही जो योग का
अर्थ होता है।
वह जिस सूत्र
से बना है
रिलीगेयर, उसका
अर्थ होता है
जोड़ना, आदमी
को परमात्मा
से जोड़ना। योग
का भी वही
अर्थ होता है,
आदमी को
परमात्मा से
जोड़ना।
लेकिन
जैन चिंतन
परमात्मा के
लिए जगह ही
नहीं रखता।
इसलिए आप यह
जानकर हैरान
होंगे कि जैन
योग का अच्छा
अर्थ नहीं
मानते। जैन
कहते हैं —
केवली अयोगी
होता है—
अयोगी, योगी
नहीं। इसलिए
महावीर को कुछ
नासमझ, कुछ
भूल से भरे
लोग महायोगी
कहते हैं, वे
गलत कहते हैं।
जैन परंपरा के
शब्द का
उन्हें पता
नहीं। महावीर
कहते हैं—
जुड़ना नहीं है
किसी से, जो
गलत है उससे
टूटना है, अलग
होना है। अयोग—
संसार से अयोग,
तो स्वरूप
उपलब्ध हो
जाता है। योग
कहता है — परमात्मा
से मिलन, तो
स्वरूप
उपलब्ध होता
है। महावीर
कहते हैं —
स्वरूप
उपलब्ध ही है।
जो हमें पाना
है, वह
हमें मिला ही हुआ
है। सिर्फ हम
गलत चीजों से
चिपके खड़े हैं,
इसलिए
दिखाई नहीं पड़
रहा है। गलत
को छोड़ दें, अयुक्त हो
जाएं अलग हो
जाएं। इसलिए
जैन परंपरा
में अयोग का
वही मूल्य है
जो हिन्दू
परंपरा में
योग का है।
धर्म का बड़ा
अनूठा अर्थ
जैनों का है। महावीर
कहते हैं कि
वस्तु का जो
स्वभाव है वही
धर्म है, नेचर।
धर्म का
महावीर का वही
अर्थ है जो
लाओत्से के ताओ
का।
वस्तु
का जो स्वभाव
है,
जो उसकी
स्वयं की अपनी
परिणति है—
अगर कोई
व्यक्ति बिना
किसी से
प्रभावित हुए
सहज वरण—चरण कर
पाए तो धर्म
को उपलब्ध हो
जाता है — अगर
कोई व्यक्ति
बिना
प्रभावित हुए।
इसलिए प्रभाव
को महावीर
अच्छी बात
नहीं मानते।
किसी से भी
प्रभावित
होना बंधना है।
सब इंप्रेशंस
बांधने वाले
हैं।
पूर्णतया
अप्रभावित हो
जाना निज हो
जाना है, स्वयं
हो जाना है।
इस निजता को, इस स्वयं
होने को वे
धर्म कहते हैं।
केवली
प्ररूपित
धर्म का अर्थ
होता है, जब
कोई व्यक्ति
केवल ज्ञान
पात्र रह जाता
है, चेतना
मात्र रह जाता
है। तब वह
जैसे जीता है
वही धर्म है।
उसका जीवन, उसका उठना, उसका बैठना,
उसका हलन—चलन,
उसका सोना—
वह जो भी करता
है— उसकी आंख
की पलक का
उठना और हिलना,
उसकी समस्त
अस्तित्व में
प्रकट होती
हुई जो भी
किरणें हैं—
वही धर्म है।
जैसे
अग्नि अपने
शुद्ध रूप में
जलती हो तो
धुआं पैदा
नहीं होता। आप
कहेंगे —
अग्नि तो जहां
भी जलती है, वहां
धुआं पैदा होता
है। और तर्क
की किताब में
लिखा हुआ है—
जहां—जहां धुआं,
वहां—वहां
अग्नि। इसलिए
जहां धुआं
दिखे, मान
लेना कि अग्नि
है। लेकिन धुआं
अग्नि से पैदा
नहीं होता, केवल ईंधन
के गीलेपन से
पैदा होता है।
अग्नि से
उसका कोई लेना—देना
नहीं है। 'तार
ईधन बिलकुल
गीला न हो तो धुआं
पैदा नहीं
होता। धुआं अग्नि
का स्वभाव
नहीं है, ईधन
का प्रभाव है—
जब ईधन गीला
होता है तब
पैदा होता है।
तो कहना चाहिए
— वह पानी से
पैदा होता है,
वह अग्नि
से पैदा नहीं
होता— धुआं।
अगर बिलकुल
राखा ईधन है, जिसमें पानी
जरा भी नहीं
है तो धुआं
पैदा नहीं
होगा। और अगर
पैदा होता है
तो जानना कि
थोड़ा—बहुत ईधन
गीला [रे। अग्नि
जब अपने शुद्ध
रूप में होती
है, जब
उसमें कोई
दूसरा
विजातीय, फारिन
एलीमेंट नहीं
होता— तब
उसमें कोई धुआं
नहीं ओता।
महावीर
कहते हैं— तब अग्नि
अपने धर्म में
है,
जब कोई धुआं
नहीं है। जब
चेतना बिलकुल
शुद्ध होती है
और पदार्थ का
कोई प्रभाव
नहीं होता, शरीर का पता
भी नहीं होता—जब
चेतना इतनी
शुद्ध होती है
कि शरीर का
पता भी नहीं
होता है। तब
महावीर कहते
हैं कि, जानना
कि चेतना अपने
धर्म में है।
इसलिए महावीर
कहते हैं—प्रत्येक
का अपना धर्म
है —अग्नि का
अपना है; जल' का अपना है; पदार्थ का
अपना है; चेतना
का अपना है।
शुद्ध हो जाना
अपने धर्म में—
आनन्द है; अशुद्ध
रहना अपने
धर्म में दुःख
है। तो धर्म
का यहां अर्थ
है, स्वभाव।
अपने स्वभाव
में चले जाना
धार्मिक हो
जाना है, और
अपने स्वभाव
के बाहर भटकते
रहना
अधार्मिक बने
रहना है।
लोक
में इन चारों
को उत्तम भी
इस सूत्र में
कहा है।
अरिहंत उत्तम
हैं लोक में, सिद्ध
उत्तम हैं लोक
में, साधु
उत्तम है लोक
में, केवली
प्ररूपित
धर्म उत्तम है
लोक में। मंगल
कह देने के
बाद उत्तम
कहने की क्या
जरूरत है? कारण
है हमारे भीतर।
ये सारे सूत्र
हमारे मनस के
ऊपर आधारित
हैं। यह हमारे
मन की
गहराइयों के
अध्ययन पर
आधारित है।
मंगल कहने के
बाद भी हम
इतने नासमझ
हैं कि जो उत्तम
नहीं है उसे
भी हम मंगलरूप
मान सकते हैं।
हमारी
वासनाएं ऐसी
हैं कि जो
निकृष्ट है
लोक में उसी
की तरफ बहती
हैं। ऐसा भी
कह सकते हैं
कि वासना का
अर्थ ही यही
होता है— नीचे
की तरफ बहाव।
जो निकृष्ट है
उसी की तरफ।
रामकृष्ण
कहा करते थे
कि चील आकाश
में भी उड़े तो
तुम यह मत
समझना कि उसका
ध्यान आकाश
में होता है।
वह आकाश में
उड़ती है, लेकिन
उसकी नजर नीचे,
कहीं कूड़े—कबाड़
पर, किसी
कचरेघर पर पड़े
हुए मांस पर, किसी सड़ी
मछली पर, उस
पर लगी रहती
है। उड़ती आकाश
में है और
उसकी दृष्टि
तो नीचे कहीं
किसी मांस के
टुकडे पर लगी
रहती है। तो
रामकृष्ण
कहते थे— भूल
में मत पड़
जाना कि चील
आकाश में उड़
रही है इसलिए
आकाश में
ध्यान होगा।
ध्यान तो उसका
नीचे लगा रहता
है। इसलिए
दूसरे सूत्र
में महावीर का
यह जो मंगल
सूत्र है, यह
तत्काल जोड़ता
है— 'अरिहंत
लोद्यमा!' अरिहंत
उत्तम हैं। यह
सिर्फ इशारे
के लिए है। 'सिद्ध उत्तम
हैं, साधु
उत्तम हैं। 'उत्तम का
अर्थ है कि
शिखर हैं जीवन
के— श्रेष्ठ
हैं, पाने
योग्य हैं, चाहने योग्य
हैं, होने
योग्य हैं।
किसी
ने पूछा है
श्वीत्सर को—
क्या है पाने
योग्य? क्या
है आनंद? तो
श्वीत्सर ने
कहा— 'टु बी
मोर एंड मोर, टु बी डीप
एंड डीप, टु
बी इन एंड इन, एंड
कास्टेंटली
टर्निंग इन टु
समथिंग मोर एंड
मोर। 'कुछ
ज्यादा में
रूपांतरित
होते रहना, कुछ श्रेष्ठ
में बदलते
रहना, कुछ
गहरे और गहरे
जाते रहना, कुछ ज्यादा
और ज्यादा
होते रहना।
लेकिन
हम ज्यादा तभी
हो सकते हैं
जब ज्यादा की, श्रेष्ठ
की, उत्तम
की धारणा
हमारे निकट हो।
शिखर दिखाई
पड़ता हो तो
यात्रा भी हो
सकती है। शिखर
ही न दिखाई
पड़ता हो तो
यात्रा का कोई
सवाल नहीं।
भौतिकवाद
कहता है— कोई
आत्मा नहीं है।
शिखर को तोड़
देता है। और
जब कोई आत्मा
नहीं है, ऐसा
कोई मान लेता
है— तो आत्मा
को पाना है, इसका तो कोई
सवाल ही नहीं
रह जाता।
फ्रायड
यदि कह देता
है कि आदमी
वासना के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है— तो आदमी तो
वासना है ही —
वह तत्काल मान
लेता है। फिर
वह कहता है जब
वासना के
अतिरिक्त कुछ
है ही नहीं तब
बात खत्म हो
गयी,
बात समाप्त
हो गयी।
एक
व्यक्ति कह
रहा था किसी
को कि मैं
बहुत परेशान
था,
क्योंकि
मेरी
काशियेंस
मुझे बहुत
पीड़ा देती थी,
मेरा
अंतःकरण बहुत
पीड़ा देता था—
झूठ बोलूं तो,
चोरी करूं
तो, किसी
सी की तरफ
देखूं तो— बड़ी
पीड़ा होती थी।
तो फिर मैं
मनोचिकित्सक
के पास गया।
और मैंने इलाज
करवाया और दो
साल में मैं
बिलकुल ठीक हो
गया।
तो
उसके मित्र ने
पूछा— क्या अब
चोरी का भाव
नहीं उठता? सी
को देखकर
वासना नहीं
जगती? सुंदर
को देखकर पाने
का भाव पैदा
नहीं होता?
उसने
कहा — नहीं—नहीं, तुम
मुझे गलत समझे।
दो साल में
मनोचिकित्सक
ने मुझे मेरी
काशियेंस से
छुटकारा दिला
दिया। अब पीड़ा
नहीं होती, अब चिंता
नहीं होती, अब अपराध
अनुभव नहीं
करता हूं।
पिछले
पचास सालों
में पश्रिम का
मनोचिकित्सक
लोगों को
अपराध से
मुक्त नहीं
करवा रहा है, अपराध
के भाव से
मुक्त करवा रहा
है। वह कह रहा
है— यह तो
स्वाभाविक है,
यह तो
बिलकुल
स्वाभाविक है,
यह तो होगा
ही। अगर आज पश्चिम
में जीवन ऐसे
नीचे तल पर
सरक रहा है— चल
रहा है कहना
ठीक नहीं, सरक
रहा है, जैसे
सांप सरकता है—
तो उसका बड़े
से बड़ा जिम्मा
पश्चिम के
मनोवैज्ञानिकों
को है क्योंकि
वह निकृष्ट को
कहता है कि
यही स्वभाव है।
और कठिनाई यह
है कि निकृष्ट
को स्वभाव मान
लेना हमें
आसान है, क्योंकि
हम परिचित हैं,
और वह दलील
ठीक लगती है।
जब
महावीर कहते
हैं,
'अरिहता
लोगुत्तमा', तो समझ में
नहीं पड़ता कि
ऐसे लोग होते
हैं। अरिहंत
को हम जानते
नहीं, सिद्ध
को हम जानते
नहीं। कौन हैं
ये? हमारे
भीतर तो हमने
सिद्ध जैसा
कभी कोई क्षण
अनुभव नहीं
किया; अरिहंत
जैसी हमने कभी
कोई लहर नहीं
जानी; साधु
जैसा हमने कभी
कोई भाव नहीं
जाना; केवली—प्ररूपित
धर्म में
हमने. कभी
प्रवेश नहीं किया।
क्या हवा की
बातें है?
तो
अगर हम मान भी
लें तो मजबूरी
में मानते हैं
और उस मजबूरी
का नाम हमने
धर्म रखा हुआ
है। किसी घर
में पैदा हो
गये,
जैन, मजबूरी
है, आपका
कोई कृत्य
नहीं है।
पर्युषण है तो
मजबूरी है। तो
आप जाते हैं
मंदिर में, नमस्कार
करते हैं।
साधु को
नमस्कार करते
हैं, उपवास
कर लेते है, व्रत कर
लेते हैं—
मजबूरी है।
किसी का कसूर
नहीं, आप
पैदा हो गये
जैन घर में।
इसमें किसी का
कोई हाथ तो है
नहीं। खोपड़ी
में बचपन से
सुनाया जा रहा
है वह भर गया है,
उसको निपटा
लेते हैं।
बाकी कहीं
स्फुरणा नहीं
है उसमें।
कहीं कोई ऐसा
सहज भाव नहीं
है।
क्या
आपने खयाल
किया है मंदिर
जाते वक्त
आपके पैर और
सिनेमागृह
में जाते वक्त
आपके पैरों की
गति में बुनियादी
भेद होता है—
गुणात्मक, क्यालिटेटिव।
मंदिर जैसे आप
घसीटे जाते
हैं, सिनेमागृह
जैसे आप जाते
हैं। मंदिर
जैसे एक
मजबूरी है, एक काम है।
प्रफुल्लता
नहीं है चरण
में, नृत्य
नहीं है चरण
में जाते समय।
किसी तरह पूरा
कर देना है —
लेकिन
निकृष्ट जीवन
है, पूरा —
नहीं, कर
देना है।
सुना
है मैंने
मुल्ला
नसरुद्दीन
जिस दिन मरा, उस
दिन पुरोहित
उसे परमाआ की
प्रार्थना
कराने आये और
कहा कि
मुल्ला!
पश्रात्ताप
करो, रिपेन्ट।
पश्रात्ताप
करो उन पापों
का, जो
तुमने किये
हैं। मुल्ला
ने आंख खोली
और कहा कि मैं
दूसरा ही
पश्रात्ताप
कर रहा हूं।
जो पाप मैं
नहीं कर पाया,
उनका
पक्षात्ताप
कर रहा हूं।
अब मर रहा हूं
और कुछ पाप
करने का मेरा
मन था, वे
नहीं कर पाया।
वह
पुरोहित फिर
भी नहीं समझ
पाया, क्योंकि
पुरोहितों से
कम समझदार
आदमी आज जमीन
पर दूसरे नहीं
हैं। उसने कहा—
मुल्ला, यह
क्या तुम कहते
हो? अगर
तुम्हें
दुबारा जन्म
मिले तो क्या
तुम वही पाप
करोगे? वैसा
ही जियोगे, जैसा अभी
जिये? मुल्ला
ने कहा कि
नहीं, बहुत
फर्क करूंगा।
मैंने इस
जिंदगी में
पाप बड़ी देर
से शुरू किये,
अगली
जिंदगी में
जरा जल्दी
शुरू कर दूंगा।
यह
मुल्ला हम सब
मनुष्यों के
बाबत खबर दे
रहा है। यह
व्यंग्य है, यह
आदमी पूरा
व्यंग्य है हम
सब पर। यह
हमारी मनोदशा
है। मरते वक्त
हमें भी
पश्रात्ताप
होगा।
पश्रात्ताप
होगा उन औरतों
का जो नहीं
मिलीं।
पक्षात्ताप
होगा उस धन का
जो नहीं पाया।
पश्रात्ताप
होगा उन पदों
का जो चूक गये।
पक्षात्ताप
होगा उस सबका
जो निकृष्ट था,
जो पाने
योग्य ही नहीं
था। लेकिन
क्या मरते
वक्त
पश्रात्ताप
होगा कि अरिहंत
न मिले? सिद्ध
न मिले? केवली—प्ररूपित
धर्म में
प्रवेश न मिला?
नहीं, हो
सकता है
नमोकार आपके
आसपास पढ़ा जा
रहा होगा, लेकिन
आपके भीतर
उसका कोई
प्रवेश नहीं
हो पाएगा।
क्योंकि
जिन्होंने
जीवनभर उसके
प्रवेश की तैयारी
नहीं की, वे
अगर सोचते हों
कि क्षणभर में
उसका प्रवेश हो
जाएगा तो वे
नासमझ हैं।
जिन्होंने
जीवनभर उस
मेहमान के आने
के लिए इंतजाम
नहीं किया, वे सोचते
हैं— अचानक वह
मेहमान भीतर आ
जाएगा तो वे गलती
पर हैं। वे
दुराशाएं कर
रहे हैं, वे
हताश होंगे।
लेकिन
जो व्यक्ति
निरंतर, 'अरिहंत
मंगल हैं, लोक
में उत्तम हैं,
श्रेष्ठ
हैं', वही
जीवन में पाने
का, ऐसा
सूत्र खयाल
में रखता है—
और कभी—कभी न
भी समझ में
आता हो फिर भी
रिचुअल
रिपीटीशन
करता है; न
भी समझ में
आता हो, न
भी खयाल में
आता हो, ऐसे
ही दोहराये
चला जाता है; तो भी तो स्व
बनते हैं। ऐसे
भी दोहराये
चला जाता है
तो भी चित्त
पर निशान बनते
हैं। वे निशान
किसी भी— क्षण,
किसी
प्रकाश के
क्षण में
सक्रिय हो
सकते हैं।
जिसने निरंतर
कहा है कि
अरिहंत लोक
में उत्तम हैं,
उसने अपने
भीतर एक धारा
प्रवाहित की
है— कितनी ही
क्षीण। लेकिन
अब वह अरिहंत
होने के
विपरीत जाने
लगेगा तो उसके
भीतर कोई उससे
कहेगा कि तुम
जो कर रहे हो
वह उत्तम नहीं
है, वह लोक
में श्रेष्ठ
नहीं है।
जिसने
कहा है, 'सिद्ध
लोक में
श्रेष्ठ हैं',
जब वह अपने
को खोने जा
रहा होगा तब
कोई उसके भीतर
स्वर कहेगा कि
सिद्ध तो अपने
को पाते हैं, तुम अपने को
खोते हो, बेचते
हो। जिसने कहा
है, 'साधु
लोकोत्तम हैं',
उसको किसी
क्षण असाधु
होते वक्त यह
स्मरण
रोकनेवाला बन
सकता है।
जानकर, समझकर
किया गया, तब
तो
परिणामदायी
है ही। न
जानकर, न
समझकर किया
हुआ भी
परिणामदायी
हो जाता है।
क्योंकि
रिचुअल
रिपीटीशन भी,
सिर्फ
पुनरुक्ति भी,
हमारे
चित्त में
रेखाएं छोड़
जाती है— मृत, लेकिन फिर
भी छोड़ जाती
है। और किसी
भी क्षण वे
सक्रिय हो
सकती है। यह
नियमित पाठ के
लिए है, यह
नियमित भाव के
लिए है, यह
नियमित धारणा
के लिए है।
इसमें
अंतिम बात
थोड़ा और ठीक
से समझ लें।
महावीर ने जिस
परंपरा और जिस
स्कूल, जिस
धारा का उपयोग
किया है उसमें
श्रेष्ठतम पर
मनुष्य की ही
शुद्ध आला को
रखा है।
मनुष्य की ही
शुद्ध आत्मा
परमात्मा
मानी है।
इसलिए महावीर के
हिसाब से इस
जगत में जितने
लोग हैं उतने
भगवान हो सकते
हैं। जितने
लोग हैं— लोग
ही नहीं, जितनी
चेतनाएं हैं
वे सभी भगवान
हो सकती हैं।
महावीर की
दृष्टि में
भगवान का एक
होने का जो खयाल
है वह नहीं है।
अगर ठीक से
समझें तो दुनिया
के सारे
धर्मों में
भगवान की जो
धारणा है वह
अरिस्टोक्रेटिक
है, एक की
है। सिर्फ
महावीर के
धर्म में वह
डेमोक्रेटिक
है, सब की
है।
प्रत्येक
व्यक्ति
स्वभाव से
भगवान है। वह
जाने न जाने; वह
पाये न पाये; वह जन्म—जन्म
भटके; अनंत
जन्म भटके; फिर भी इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता, वह
भगवान है। और
किसी न किसी
दिन वह जो
उसमें छिपा है,
प्रकट होगा।
और किसी न
किसी दिन जो
बीज है वह
वृक्ष होगा।
जो संभावना है
वह सत्य बनेगा।
महावीर
अनंत
भगवत्ताओं
में मानते हैं—
अनंत
भगवत्ताओं
में,
इनफिनिट
डिवाइन है। एक—एक
आदमी डिवाइन
है। और जिस
दिन सारा जगत
अरिहंत तक
पहुंच जाए, उस दिन जगत
में अनंत
भगवान होंगे।
महावीर
का अर्थ 'भगवान'
से है—
जिसने अपने
स्वभाव को पा
लिया। स्वभाव
भगवान है।
भगवान की यह
बहुत अनूठी
धारणा है। जगत
को बनानेवाले
का सवाल नहीं
है भगवान से, जगत को
चलानेवाले का
सवाल नहीं है
भगवान से।
महावीर कहते
हैं— कोई
बनानेवाला
नहीं है, क्योंकि
महावीर कहते
हैं— बनाने की
धारणा ही
बचकानी है। और
बचकानी इसलिए
है कि उससे
कुछ हल नहीं
होता है। हम
कहते हैं जगत
को भगवान ने
बनाया। फिर
सवाल खड़ा हो
जाता है कि भगवान
को किसने
बनाया? सवाल
वहीं का वहीं
बना रहता है।
एक कदम और हट
जाता है। जो
कहता है ' भगवान
ने जगत को
बनाया', वह
कहता है, भगवान
को किसी ने
नहीं बनाया।
महावीर कहते
है— जब भगवान
को किसी ने
नहीं बनाया, ऐसा मानना
ही पड़ता है कि
कुछ है जो
अनबना है, अनक्रियेटेड
है, तो इस
सारे जगत को ही
अनक्रियेटेड
मानने में कौन
सी अड़चन है? अड़चन तो एक
ही थी मन को कि
बिना बनाये
कोई चीज कैसे
बनेगी?
इसलिए
यह समझ लेने
जैसा है कि
महावीर के पास
नास्तिक के
लिए जो उत्तर
है वह तथाकथित
ईश्वरवादी के
पास नहीं है।
क्योंकि
नास्तिक
ईश्वरवादी से
यही कहता है कि
तुम्हारे
भगवान ने
क्यों बनाया? बड़ी
कठिनाई खड़ी
होती है। और
बड़ी कठिनाई यह
खड़ी होती है
कि ईश्वरवादी
को मानना पड़ता
है कि उसमें
वासना उठी जगत
को बनाने की।
जब भगवान तक
में वासना
उठती है तो
आदमी को वासना
से मुक्त करने
का फिर कोई
उपाय नहीं है।
भगवान ने चाहा,
ही
डिज़ायर्ड। जब
भगवान भी
चाहता है, और
भगवान भी बिना
चाह के शांत
नहीं रह सकता,
तो फिर आदमी
को अचाह में
कैसे ले जाओगे?
क्या भगवान
परेशान— था, जगत नहीं था,
तो? कोई
पीड़ा होती थी?
वैसी ही
जैसे एक
चित्रकार को
चित्र न बने, तो होती है? एक कवि को
कविता
निर्मित न हो
पाये, तो
होती है? क्या
ऐसा ही परेशान
और चिंतित
होता था? क्या
उसमें भी
चिंता और तनाव
घर करते हैं? ईश्वरवादी
दिक्कत में
रहा है। उसको
स्वीकार करना
पड़ता है कि
भगवान ने चाहा।
और
तब बहुत
बेहूदी बातें
उसको स्वीकार
करनी पड़ती हैं।
उसे स्वीकार
करना पड़ता है—ब्रह्मा
ने सी को जन्म
दिया और फिर
उसी को चाहा।
क्योंकि उसे
ब्रह्मा और
चाह में कोई
तालमेल बिठाना
पड़ेगा। तो एक
बहुत एब्सर्ड
घटना घटी। और
वह यह कि
ब्रह्मा ने
जिसे पैदा
किया वह तो उसका
पिता हो गया।
फिर उसने अपनी
बेटी को चाहा।
फिर वह संभोग
के लिए आतुर
हो गया, और
फिर वह अपनी
बेटी के पीछे
भागने लगा।
फिर बेटी उससे
बचने के लिए
गाय बन गयी, तो वह बैल हो
गया। फिर बेटी
उससे बचने के
लिए कुछ और हो
गयी, तो वह
कुछ और हो गया।
वह बेटी जो—जो
होती चली गयी,
वह ब्रह्मा
फिर वही—वही
जीव का नर
होता चला गया।
तो अगर
ब्रह्मा भी
ऐसा चाह में
भाग रहा हो, तो आप जब
सिनेमागृह
जाते हैं तो
बिलकुल
ब्रह्मस्वरूप
हैं। बिलकुल
ठीक चले जा
रहे हैं। आपको
कोई अड़चन नहीं
होनी चाहिए।
आप उचित ही कर
रहे हैं। वह
सी फिल्म
अभिनेत्री हो
गयी तो आप
फिल्म—दर्शक
हो गये— आप चले
जा रहे हैं।
तब फिर सारा
जगत वासना का
फैलाव हो जाता
है।
महावीर
ने इसे जड़ से
काट दिया।
महावीर ने कहा
कि नहीं, अगर
भगवत्ता की
तरफ ले जाना
है लोगों को
तो भगवान को
शून्य करो।
बड़ी अजीब बात
है। अगर लोगों
को भगवान
बनाना है तो
यह भगवान की धारणा
को अलग करो।
बहुत अजीब, क्योंकि
महावीर ने कहा—
भगवान में ही
चाह को रख
दोगे पहले, डिजायर को
रख दोगे पहले—
क्योंकि उसके
बिना तो जगत
का निर्माण न
होगा। तो फिर
आदमी से चाह
को शून्य करने
का कारण क्या
बचेगा? तो
महावीर ने कहा—
जगत अनिर्मित
है, अनक्रियेटेड
है। किसी ने
बनाया नहीं है—
'है'।
और विज्ञान के
लिए भी यही
लाजिकल, तर्कयुक्त
मालूम पड़ता है।
क्योंकि इस
जगत में कोई
चीज बनायी हुई
नहीं मालूम
पड़ती— है ही।
और न इस जगत
में कोई चीज
नष्ट होती
मालूम पड़ती है,
न कोई चीज
निर्मित होती
मालूम पड़ती है—
सिर्फ
रूपांतरित
होती मालूम
पडती है।
इसलिए
महावीर ने जो
परिभाषा की है
पदार्थ की, वह
इस जगत में की
गयी सर्वाधिक
वैज्ञानिक
परिभाषा है।
अदभुत शब्द
महावीर ने
खोजा है—
पुदगल — मैटर
के लिए। और
ऐसा शब्द जगत
की किसी भाषा
में नहीं है।
पदार्थ के लिए
महावीर ने
पदार्थ नहीं
कहा, नया
शब्द गढ़ा—
पुदगल। गुलाल
का अर्थ है — जो
बनता और मिटता
रहता है और
फिर भी है। जो
प्रतिपल बन
रहा है और मिट
रहा है, और
है। जैसे नदी
प्रतिपल भागी
जा रही है, चली
जा रही है, हुई
जा रही है और
फिर भी है।
ओझा एंड इज़, बह रही है और
है। महावीर ने
कहा कि जो चीज
बन रही है, मिट
रही है, न
बनकर सृजन
होता है उसका,
न मिटकर
समाप्त होती
है— बिकमिंग।
गुलाल का अर्थ
है—बिकमिंग।
नैवर बीइंग
एंड आलवेज
बिकमिंग। कभी 'है' की
स्थिति में भी
नहीं आती पूरी,
कि ठहर जाए।
बस होती रहती
है। तो महावीर
ने कहा—पुदगल
वह है जो
प्रतिपल जन्म
रहा, प्रतिपल
मर रहा, फिर
भी कभी
निर्मित नहीं
होता, फिर
भी कभी समाप्त
नहीं होता, चलता रहता
है — गत्यात्मक।
पदार्थ—डैड
कंसेप्ट है।
अंग्रेजी का
मैटर भी डैड
वर्ड है, मरा
हुआ शब्द है।
अपेजी के मैटर
का कुल मतलब
होता है जो
नापा जा सके।
वह मेजर से
बना हुआ शब्द
है। संस्कृत
या हिन्दी के
पदार्थ का
अर्थ होता है—जो
अर्थवान है, अस्तित्ववान
है, 'है'।
पुदगल का अर्थ
होता है— जो हो
रहा है, इन
द प्रोसेस।
प्रोसेस का
नाम पुदगल है,
क्रिया का
नाम पुदगल है।
जैसे आप चल
रहे हैं। एक
कदम उठाया, दूसरा रखा।
दोनों कभी आप
ऊपर नहीं
उठाते। एक
उठता है तो
दूसरा रख जाता
है। इधर एक
बिखरता है तो
उधर दूसरा
तत्काल
निर्मित हो
जाता है।
प्रोसेस चलती रहती
है। पदार्थ का
एक कदम हमेशा
बन रहा है, और
एक कदम हमेशा
मिट रहा है।
आप
जिस कुर्सी पर
बैठे हैं वह
मिट रही है।
नहीं तो पचास
साल बाद राख
कैसे हो जाएगी।
जिस शरीर में
आप बैठे हैं, वह
मिट रहा है।
लेकिन बन भी
रहा है। चौबीस
घंटे आप उसको
खाना दे रहे
हैं, वायु
दे रहे हैं।
वह निर्मित हो
रहा है।
निर्मित होता
चला जा रहा है
और बिखरता भी
चला जा रहा है।
लाइफ एंड डेथ
बोथ
साइमलटेनियस,
जीवन और मरण
एक साथ दो पैर
की तरह चल रहे
हैं। महावीर
ने कहा— यह जगत
गुलाल है।
इसमें सब
चीजें सदा से
हैं— बन रही
हैं, मिट
रही हैं।
ट्रांसफामेंशन
चलता रहता है।
न कोई चीज कभी
समाप्त होती
है, न कभी
निर्मित होती
है। इसलिए
निर्माता का
कोई सवाल नहीं
है। इसलिए
परमात्मा में
वासना की कोई
जरूरत नहीं है।
सारे
धर्म
परमात्मा को
जगत के पहले
रखते हैं।
महावीर
परमात्मा को
जगत के अंत
में रखते हैं।
इसका फर्क समझ
लें। सारे
धर्म
परमात्मा को
कहते हैं— काज, कारण
है। महावीर
कहते हैं —
इफेक्ट, परिणाम।
महावीर का
अरिहंत अंतिम
मंजिल है।
भगवान तब होता
है व्यक्ति, जब वह सब पा
लिया। पहुंच
गया वहां
जिसके आगे और
कोई यात्रा
नहीं। दूसरे
धर्मों का
भगवान
बिगनिंग में
है, दुनिया
जब शुरू होती
है, वहां।
जहां दुनियां
समाप्त होती
है, महावीर
की भगवत्ता की
धारणा वहां है।
तो वे—सब कहते
हैं कि दुनियां
को बनानेवाला
भगवान है—महावीर
कहते हैं—
दुनिया को पार
कर जानेवाला
भगवान है, वन
हू गोज बियांड।
महावीर प्रथम
नहीं रखते, अंतिम रखते
हैं। काज नहीं
इफेक्ट, कारण
नहीं कार्य।
दुनिया
का भगवान बीज
की तरह है, महावीर
का भगवान फूल
की तरह है। दुनियां
कहती है—
भगवान से सब
पैदा होता है।
महावीर कहते
हैं— जहां
जाकर सब खुल
जाता है और
प्रगट हो जाता
है, खिल
जाता है, वहां।
तो महावीर के
जो अरिहंत की,
सिद्ध की, भगवान की, भगवत्ता की
धारणा है वह
चेतना के पूरे
खिल जाने की, फ्लावरिग की
है, जहां
सब खिल जाता
है। इस खिले
हुए फूल से जो
झरती है सुवास,
इस खिले हुए
फूल से 'केवलिपन्नत्तो
धम्मो ', इसको
उन्होंने कहा।
इस खिले हुए
फूल से जो
झरती है सुवास,
इस खिले हुए
फूल से जो
आनंद प्रगट
होता है, इस
खिले हुए फूल
का जो स्वभाव
है वह केवली
द्वारा
प्ररूपित
धर्म है। और
उसे वे कहते
हैं— वह लोक
में उत्तम है,
वह जो फूल
की तरह अंत
में खिलता है—
क्लाइमेक्स, शिखर।
शास्त्र
में लिखा हुआ
धर्म लोक में
उत्तम है, ऐसा
महावीर नहीं
कहते। नहीं तो
वे कहते— शास्त्र
प्ररूपित
धर्म
लोकोत्तम है।
वेद को
माननेवाला
कहता है, वेद
में जो
प्ररूपित
धर्म है वह
लोक में उत्तम
है। बाईबल को
माननेवाला
कहता है, बाईबल
में जो धर्म
प्ररूपित है
वह उत्तम है।
कुरान को
माननेवाला
कहता है, कुरान
में जो धर्म
प्ररूपित है
वह उत्तम है।
गीता को
माननेवाला
कहता है, गीता
में जो धर्म
की प्रारूपना
हुई है, वह
उत्तम है।
महावीर कहते
हैं—
केवलिपन्नत्तो
धम्मो— नहीं, शास्त्र में
कहा हुआ नहीं —केवल
ज्ञान के क्षण
में जो झरता
है वही, जीवंत।
लिखे हुए का
क्या मूल्य है?
लिखा हुआ
पहले तो बहुत
सिकुड़ जाता है।
शब्द में
बांधना पड़ता
है।
जीवंत
धर्म— अब इसके
बहुत अर्थ
होंगे। लेकिन
केवली
प्ररूपित जो
धर्म है वह
शाख में लिख
लिया गया है।
तो जैन अब उस शास्त्र
को सिर पर
ढोये चले जाते
हैं,
वैसे ही
जैसे कुरान को
कोई ढोता है, गीता को कोई
ढोता है। यह
महावीर के साथ
ज्यादती है।
ज्यादती
इसलिए है कि
महावीर ने कभी
कहा नहीं कि शास्त्र
में प्ररूपित
धर्म। ऐसा भी
नहीं कहा कि
मेरे शास्त्र
में कहा हुआ धर्म।
लेकिन बड़ी
कठिनाई है। और
महावीर ने खुद
कोई शास्त्र
निर्मित नहीं
किया। महावीर
ने कुछ
लिखवाया भी
नहीं। महावीर
के मरने के
सैकड़ों वर्ष
बाद महावीर के
वचन लिखे गये।
महावीर ने
लिखवाया नहीं,
लिखा नहीं।
और
भी कठिन बात
है और वह यह कि
महावीर ने कहा
नहीं। वह जरा
कठिन है। वह
जरा कठिन है
कि महावीर ने
कहा नहीं।
महावीर तो मौन
रहे। महावीर
तो बोले नहीं।
तो महावीर की
जो वाणी है, वह
कही हुई नहीं,
सुनी हुई है।
महावीर का जो
धर्म का
प्ररूपण है वह
मौन, टैलिपैथिक
ट्रांसमिशन
है। और इसलिए
बहुत पुराण
जैसी लगती है
बात, आपसे
कहूं— कथा
जैसी, लेकिन
जल्दी ही सही
वैज्ञानिक
आधार उसको मिलते
चले जाते हैं।
महावीर जब
बोलते, तो
बोलते नहीं थे—
बैठते। उनको..
अंतर आकाश में
जरूर ध्वनि
गूंजती। ओंठ
का भी उपयोग न
करते, कंठ
का भी उपयोग न
करते।
अगर
मैसिंग, एक
साधारण
व्यक्ति, जो
कोई अरिहंत
नहीं है— अगर
एक कागज के
टुकड़े को
सिर्फ
अंतर्वाणी के
द्वारा कह सकता
है — 'यह
टिकिट है' — बोला
तो नहीं, कहा
तो नहीं, लेकिन
टिकिट
कलेक्टर ने तो,
चेकर ने तो
जाना, सुना
कि टिकिट है।
अगर एक कोरे
कागज पर एक
लाख रुपया दिए
जा सकते हैं, तो पढ़ा तो
गया, लिखा
नहीं गया।
ट्रेजरर ने
पढ़ा तो कि लाख
रुपये देने
हैं। तो
महावीर ने
टैलिपैथिक
कम्यूनिकेशन
का गहन प्रयोग
किया। बोले
नहीं, सुने
गये। ही वाज
हर्ड। मौन
बैठे, पास
लोग बैठे
उन्होंने
सुना। और
इसीलिए जो जिस
भाषा में समझ
सकता था उसने
उस भाषा में
सुना। इसमें
भी थोड़ा समझ
लेना जरूरी है।
क्योंकि हम जो
भाषा नहीं
समझते उसमें
कैसे सुनेंगे?
और जानवर भी
इकट्ठे थे, पशु भी
इकट्ठे थे और
पौधे भी खड़े
थे, और कथा
कहती है—
उन्होंने भी
सुना।
तो
अगर बैक्सर
कहता है कि
पौधों के भाव
हैं,
और वे समझते
हैं आपकी
भावनाएं। आप
जब दुखी होते
हैं— पौधों को
प्रेम
करनेवाला
व्यक्ति जब
दुखी होता है
तब वे दुखी हो
जाते हैं। जब
घर में उत्सव
मनाया जाता है
तो वे प्रफुल्लित
हो जाते हैं।
जब उनके पास
खड़े होते हैं
तो आनंद की
धाराएं बहती
हैं। जब घर
में कोई मर
जाता है तब वे
भी मातम मनाते
हैं। इसके जब
अब वैज्ञानिक
प्रमाण हैं तब
क्या बहुत
कठिनाई है कि
महावीर के
हृदय का संदेश
पौधों की
स्मृति तक न
पहुंच जाए!
अभी
सारी दुनिया
में जो प्रयोग
किये जा रहे
हैं,
अनकांशस पर,
अचेतन पर, उनसे सिद्ध
होता है कि हम
अचेतन में कोई
भी भाषा समझ
सकते हैं— कोई
भी भाषा।
जैसे
आपको बेहोश
किया जाए, हिप्नोटाइज
किया जाए गहन।
इतना बेहोश
किया जाए कि
आपको अपना कोई
पता न रह जाए
तो फिर आपसे
किसी भी भाषा
में बोला जाए,
आप समझेंगे।
अभी
एक चेक
वैज्ञानिक डा.
राज डेक इस पर
काम करता है—
भाषा और अचेतन
पर। तो वह एक
महिला पर, जो
चेक भाषा नहीं
जानती, उसको
बेहोश करके
बहुत दिन तक, उससे चेक
भाषा में
बातें करता था,
और वह समझती
थी। जब वह
बेहोश होती है,
उससे वह चेक
भाषा में कहता
है— उठकर वह
पानी का गिलास
ले आओ, तो
वह ले आती है। बड़ी
हैरानी की बात
है। जब वह होश
में आती, तब
उससे कहे तो
वह नहीं सुनती,
समझ में
नहीं आता।
उसने उस महिला
से पूछा कि
बात क्या है? जब तू बेहोश
होती है तब तू
पूरा समझती है,
जब तू होश
में आती है तब
तू कुछ भी
नहीं समझती।
उस
महिला ने कहा—
मुझे भी थोड़ा—
थोड़ा खयाल रहता
है बेहोशी का, कि
मैं समझती थी।
लेकिन जैसे—जैसे
मैं होश में
आती हूं तो
मुझे सुनाई
पड़ता है, चा,
चा, चा, चा और कुछ
समझ में नहीं
आता। तुम जो
बोलते हो, उसमें
चा, चा, चा,
चा मालूम पड़ता
है, और कुछ
नहीं मालूम
पड़ता। लेकिन
बेहोशी में
मुझे भी थोड़ी
स्मृति रहती है
कि तुम जो
बोलते हो, मैं
समझती हूं।
राज
डेक कर कहना
है कि आदमी की
भाषा का
अध्ययन उसके
अचेतन के
अध्ययन से यह
खबर लाता है
कि हम महासागर
में निकले हुए
छोटे—छोटे
द्वीपों की
भांति हैं।
ऊपर से अलग—अलग, नीचे
उतर जाएं तो
जमीन से जुड़े
हुए। ऊपर
हमारी सबकी
भाषाएं अलग—अलग,
जितने गहरे
उतर जाएं उतनी
एक। आदमी की
ही नहीं, और
गहरे उतर जाएं
तो पशु की भी
एक। और गहरे
उतर जाएं तो
पशु की ही
नहीं, पौधों
की भी एक। और
कोई नहीं कह
सकता कि और
गहरे उतर जाएं
तो पत्थर की
भी एक। जितने
हम अपने नीचे
गहरे उतरते
हैं, उतने
हम जुडे हुए
हैं— एक महा
काटिनेंट से,
एक
महाद्वीप से
जीवन के, और
वहां हम समझते
हैं।
तो
महावीर का यह
जो प्रयोग था—
निःशब्द
विचार—संचरण
का,
टैलिपैथी
का, यह आने
वाले बीस
वर्षों में
विज्ञान
कहेगा कि पुराण
कथा नहीं है।
इस पर काम
तेजी से चलता
है और स्पष्ट
होती जाती हैं
बहुत सी अंधेरी
गलियां, बहुत
से गलियारे जो
साफ नहीं थे।
इसका अर्थ यह
हुआ कि अगर
हमें किसी
व्यक्ति को
दूसरी भाषा
सिखानी हो तो
राज डेक कहता
है कि चेतन
रूप से सिखाने
में व्यर्थ
कठिनाई हम उठाते
हैं। इसलिए
राज डेक ने एक
संस्था खोली
है। और एक
दूसरा
वैज्ञानिक है
बलोरिया में डा.
लौरेंजोव।
उसने एक
इंस्टीट्यूट
खोली है—
लौरेंजोव के
इंस्टीट्यूट
का नाम है—
इंस्टीट्यूट
आफ
सजैस्टोलाजी।
अगर हम उसे
ठीक अनुवाद
करें तो उसका
अर्थ होगा—मंत्र
महाविद्यालय।
सजैस्टोलाजी
का अर्थ होता
है मंत्र। आप
जानते हैं न!
सलाह देने
वालों को हम
मंत्री कहते
हैं। सुझाव
देने वाले को
मंत्री कहते
हैं। मंत्र का
अर्थ है सुझाव,
सजैशन।
लोरंजोव की
इंस्टीट्यूट
सरकार के
द्वारा
स्थापित है और
बलगेरियन
सरकार कम्यूनिष्ट
है। इसमें तीस
मनोवैज्ञानिक
लोरंजोव के
साथ काम कर
रहे हैं।
और
लोरंजोव का
कहना है कि दो
साल का कोर्स
हम बीस दिन
में पूरा करवा
देते हैं, कोई
भी दो साल का
कोर्स। जो
भाषा आप दो
साल में
सीखेंगे चेतन
रूप से, वह
लोरंजोव आपको
सम्मोहित—
रेस्ट हालत
में छोड्कर
बीस दिन में
सिखा देता है।
और एक नयी
शिक्षा की
पद्धति
लौरेंजोव ने
विकसित की है
जो कि जल्दी
सारी दुनिया
को पकड़ लेगी
और वह बिलकुल
उलटी है जो
अभी आप करवा
रहे हैं। और
उसके हिसाब से—
और मैं मानता
हूं कि वह ठीक
है— मेरे
हिसाब से भी, हम जिसको
शिक्षा कह रहे
हैं वह शिक्षा
नहीं है, निपट
नासमझी है।
लोरंजोव
ने जो स्कूल
खोला है उस
स्कूल में बच्चों
के बैठने के
लिए आराम—कुर्सियां
हैं—
कुर्सियां
नहीं, आराम—कुर्सियां
हैं— जैसा कि
हवाईजहाज में
होती हैं, जिन
पर वे आराम से
लेट जाते हैं।
डिफ्यूज कर
दिया जाता है
प्रकाश, जैसा
कि हवाई जहाज
उड़ता है, तब
कर दिया जाता
है— तेज रोशनी
नहीं। और
विशेष संगीत
कमरे में बजता
रहता है। कोई
स्कूल रहा यह!
मामला सब खराब
हो गया। पूरे
वक्त संगीत
बजता रहता है।
और
विद्यार्थियों
से कहा जाता
है कि आंख
चाहे तो आधी
बंद कर लो, चाहे
पूरी बंद कर
लो, और
संगीत पर
ध्यान दो —
संगीत पर। और
शिक्षक पढ़ा
रहा है, उस
पर ध्यान मत
दो। डोंट हवि
एनी अटेंशन टु
द टीचर।
शिक्षक पढ़ा
रहा है, उस
पर भूलकर
ध्यान मत देना,
उसी से गड़बड़
हो जाती है।
तुम तो संगीत
सुनते रहना, तुम शिक्षक
को सुनना ही
मत।
यह
तो उलटा हो
गया। क्योंकि
शिक्षक, यहीं
तो बेचारा परेशान
है कि हमको
सुन' नहीं
रहे हैं तो वह
डंडा बजा रहा
है पूरे वक्त
कि हमें सुनो।
लड़के कहीं
बाहर देख रहे
हैं, कहीं
पक्षियों को
सुन रहे है, कहीं कुछ और
कर रहे हैं, और शिक्षक
कह रहा है, हमें
सुनो। वह तो
सारा, तीन
हजार साल का
शिक्षक और
विद्यार्थी
का झगड़ा है जो
अब अपनी चरम
सीमा पर पहुंच
गया है कि हमें
सुनो। और
लोरंजोव कहता
है कि इसीलिए
तो दो साल लग
जाते हैं सिखाने
में। क्योंकि
जब कोई
व्यक्ति
सचेतन रूप से
सुनता है, तो
उसका ऊपरी मन
सुनता है। तो
वह कहता है, ऊपरी मन को
तो लगा दो
संगीत सुनने
में। तब उसका
भीतरी मन का
द्वार सुनता रहेगा।
और दो साल का
कोर्स वह बीस
दिन में पूरा
कर लेता है
किसी भी भाषा
का। और बीस
दिन में आदमी
उतना कुशल हो
जाता है दूसरी
भाषा बोलने में,
जितना दो
साल में नहीं
हो पाता है।
बात
क्या है? बात
कुल इतनी ही
है कि नीचे
गहरे में
हमारी बडी
क्षमताएं
छिपी हैं। आप
अपने घर से
यहां तक आये
हैं। अगर आप
पैदल चलकर आये
हैं तो क्या
आप बता सकते हैं
कि रास्ते पर
कितने बिजली
के खंभे पड़े
थे? आप
कहेंगे कि मैं
कोई पागल हूं!
मैं उनकी गिनती
नहीं करता।
लेकिन आपको
बेहोश करके
पूछा जाए तो
आप संख्या बता
सकते हैं, ठीक
संख्या। आप जब
चले आ रहे थे
इधर, तब
आपका ऊपरी मन
तो इधर आने
में लगा था।
हार्न बज रहा
था, उसमें
लगा था। कोई
टकरा न जाए
उसमें लगा था।
लेकिन आपके
नीचे का मन सब
कुछ रिकार्ड
कर रहा है, रास्ते
पर पड़े हुए
लैंप पोस्ट भी,
लोग निकले
वह भी हार्न
बजा वह भी, कार
का नंबर दिखाई
पड़ गया वह भी—
वह सब नोट कर
रहा है। वह सब
आपको याद हो
गया है। आपके
चेतन को कोई
पता नहीं है।
कहना चाहिए आपको
कोई पता नहीं।
वह जो पानी के
ऊपर निकला हुआ
द्वीप, आईलैंड
है उसको कुछ
पता नहीं।
लेकिन नीचे जो
जुड़ी हुई भूइम
का विस्तार है,
वहां सब पता
है।
तो
महावीर बोले
नहीं, चुपचाप
बैठे हैं। और
इसीलिए यही
कारण है कि
महावीर का
धर्म बहुत
व्यापक नहीं
हो पाया। बहुत
लोगों तक नहीं
पहुंच पाया।
क्योंकि
महावीर बोलते
तो सबकी समझ
में आता।
महावीर नहीं
बोले तो उनकी
ही समझ में
आया जो उतने
गहरे जाने को
तैयार थे।
इसलिए महावीर
का धर्म बहुत
सिलेक्टिव, बहुत 'चूजन
फ्यू के लिए
है। जो उस जगत
में महावीर के
वक्त
श्रेष्ठतम
लोग थे, वे
ही महावीर को
सुन पाये। वे
श्रेष्ठतम
चाहे पौधों
में हों और
चाहे पशुओं
में और चाहे
आदमियों में।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता।
महावीर को
सुनने के पहले
बड़े
प्रशिक्षण से
गुजरना पड़ता
था। ध्यान की
प्रक्रियाओं
से गुजरना पड़ता
ताकि जब आप
महावीर के
सामने बैठें
तब आपका जो वाचाल
मन है, वह
जो निरंतर
उपद्रव से
ग्रस्त बीमार
मन है वह शांत
हो जाए और
आपकी जो गहन
आत्मा है, वह
महावीर के
सामने आ जाए।
संवाद हो सके
उस आत्मा से।
इसलिए
महावीर की
वाणी को पांच
सौ वर्ष तक
फिर रिकार्ड
नहीं किया गया।
तब तक रिकार्ड
नहीं किया गया, जब
तक ऐसे लोग
मौजूद थे जो
महावीर के
शरीर के गिर
जाने के बाद
भी महावीर से
संदेश लेने
में समर्थ थे।
जब ऐसे लोग भी
समाप्त होने
लगे, तब
घबराहट फैली,
और तब
संग्रहीत
करने की कोशिश
की गयी। इसलिए
जैनों का एक
वर्ग दिगंबर
महावीर की किसी
भी वाणी को
आथेंटिक नहीं
मानता।
उसका
मानना है कि
चूंकि वह उन
लोगों के द्वारा
संग्रहीत की
गयी है जो दुविधा
में पड़ गये थे
और जिन्हें शक
पैदा हो गया
था कि महावीर
से अब संबंध
जोड़ना संभव है
या नहीं, इसलिए
वह प्रामाणिक
नहीं कही जा
सकती। इसलिए
दिगंबर जैनों
के पास महावीर
का कोई शाख
नहीं है— कोई
शास्त्र ही
नहीं है। वे
कहते हैं, सब
खो गया।
श्वेतांबरों
के पास जो
शास्त्र है वह
भी पूर्ण नहीं
है। क्योंकि
जिन्होंने
संग्रहीत
किया उन्होंने
कहा—हम थोड़ी
सी बातें भर
प्रामाणिक
लिख सकते हैं।
बाकी और सब
अंग खो गये
हैं। उनको
जानने वाले अब
कोई भी नहीं
हैं। इसलिए वह
भी अधूरा है।
लेकिन
महावीर की
पूरी वाणी को
कभी भी पुन:
पाया जा सकता
है और उसके
पाने का ढंग
यह नहीं होगा
कि महावीर के
ऊपर जो
किताबें लिखी
रखी हैं उनमें
खोजा जाए।
उसके पुन:
पाने का ढंग
यही होगा कि
वैसा युप, वैसा
स्कूल, वैसे
थोड़े से लोग
जो चेतना की
उस गहराई तक
जा सकें जहां
से महावीर से
आज भी संबंध
जोड़ा जा सकता
है। इसलिए
महावीर ने कहा—
'केवलिपन्नत्तो
धम्म' — शास्त्र
नहीं। वही
धर्म उत्तम है
जो तुम केवली
से संबंधित होकर
जान सको, बीच
में शाख से
संबंधित होकर
नहीं। और
केवली से कभी
भी संबंधित
हुआ जा सकता
है। लेकिन शाख
बाजार में मिल
जाते हैं।
केवली से
संबंधित होना
हो तो बडी
गहरी कीमत
चुकानी पड़ती
है। फिर स्वयं
के भीतर बहुत
कुछ
रूपांतरित
करना पड़ता है।
महावीर कहते
थे— बिना कीमत
चुकाये कुछ भी
नहीं मिलता है।
और जितनी बड़ी
चीज पानी हो, उतनी बड़ी
कीमत चुकानी
चाहिए।
इसलिए
आखिरी बात
जब
वे बार—बार
कहते हैं कि
अरिहंत उत्तम
हैं,
सिद्ध
उत्तम हैं, साधु उत्तम
हैं, केवली—प्ररूपित
धर्म उत्तम है;
तब वे यह भी
कह रहे हैं कि
इतने उत्तम को
पाने के लिए
तैयारी रखना
सब कुछ चुकाने
की। क्योंकि
मूल्य है, मुक्त
नहीं मिल
सकेगा। हम सब
मुक्त लेने के
आदी हैं। हम
कुछ भी चुकाने
को तैयार नहीं
हैं। सड़ी—गली
चीज को खरीदने
के लिए हम सब
कुछ चुकाने को
तैयार हैं।
धर्म मुफ्त
मिलना चाहिए।
असल में इससे
पता चलता है—
हम मुफ्त उसी
चीज को लेने
को तैयार होते
हैं जिसको हम
लेने को
आग्रहशील
नहीं हैं।
जिसको हम कहते
हैं कि मुक्त
देते हैं तो
दे दें वरना
क्षमा करें।
महावीर कहते
हैं—जो इतना
उत्तम है, लोक
में जो
सर्वश्रेष्ठ
है, उसे
चुकाने को सब
कुछ खोना
पड़ेगा, स्वयं
को। और जब भी
कोई स्वयं को
खोने को तैयार
है तो वह केवलीप्ररूपित
धर्म से सीधा,
डायरेक्ट
संबंधित, संयुक्त
हो जाता है।
वही धर्म, जो
जाननेवाले से
सीधा मिलता हो,
बिना
मध्यस्थ के, वही श्रेष्ठ
है।
आज इतना
ही।
बैठेंगे
पांच—सात
मिनिट.........!
THANK YOU GURUJI
जवाब देंहटाएंOsho is the greatest mystic India ever has
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